█ विजय प्रकाश मिश्रा
विगत दिनों दुनिया में कई ऐसी घटनाएं हुई
हैं जिनमें वैश्वीकरण युग के समापन की ओर बढ़ने के बीज देखे जा सकते हैं। यह बीज कब
अंकुरित होकर पौधे बनेंगे, वृक्ष बनेंगे यह तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है। लेकिन भूमंडलीकरण
ने दुनिया को कहां से कहां पहुंचा दिया है, क्या से क्या बना दिया है,
इसका विश्लेषण करें
तो निष्कर्षतः यह कह सकते हैं कि इससे दुनिया ने पाया बहुत कम है, खोया बहुत ज़्यादा है। असमानता
और बढ़ी है। शायद यही वजह है कि दुनिया में इससे मोहभंग शुरू हो चुका है। इसको नमस्कार
करने की कुनमुनाहट के लक्षण देखे जा सकते हैं। ब्रेक्जिट, पेरिस समझौते से अमरीका का बाहर होना,
कई देशों का द्विपक्षीय
समझौतों की ओर बढ़ना आदि प्रमुख लक्षणों में गिने जा सकते हैं। लेकिन भारत में इससे
मोह भंग होने, इसे नमस्कार करने की कुनमुनाहट के लक्षण राजनीतिक स्तर पर ढूंढ़ पाना फिलहाल नामुमकिन
ही लगता है। जबकि बौद्धिक बहस में देश समाज पर इसके प्रभाव को लेकर जो बातें होती हैं
उसमें यह कहने में किसी को गुरेज नहीं होता कि भूमंडलीकरण से भारतीय समाज को जो लाभ
मिला उस अनुपात में नुकसान बहुत ज़्यादा हुआ है ।
दुनिया में भूमंडलीकरण के चलते शक्तिशाली देश और ज़्यादा शक्तिशाली हुए हैं। कमजोर
ज़्यादा पिछड़ते गए हैं। इसी प्रकार भारत में अमीर और अमीर होता गया है। गरीब और गरीब।
और यह क्षण प्रतिक्षण बढ़ रहा है। भारतीय समाज अपनी जड़ों से दूर हो रहा है, बिखर रहा है। संवेदनहीनता
प्रगाढ़ हो रही है। बाज़ारवाद की आंधी नैतिक मूल्य-मान्यताओं को उड़ाए लिए जा रही है।
परंपराएं, मर्यादाएं ढह रही हैं। समाज का कोई भी वर्ग इससे अछूता नहीं है। परिणाम यह है कि
हर तरफ एक ऐसा तनाव व्याप्त है जो समाज को बेचैन किए रहता है, हर समय अपने शिकंजे में कसे
रहता है। प्रदीप श्रीवास्तव के इस कहानी संग्रह की कहानियों में यह तनाव, समाज में बढ़ती विच्छिन्नता
घर-घर गहराई तक देखी जा सकती है।
संग्रह की प्रतिनिधि कहानी ‘मेरी जनहित याचिका’ इस दृष्टि से एक अद्भुत कहानी
है। संग्रह की यह सबसे लंबी कहानी है। एक ऐसी कहानी जिसमें समाज के निचले वर्ग से लेकर
उच्च वर्ग तक में भूमंडलीकरण ने किस प्रकार घुसपैठ की है, किस प्रकार उन्हें अपने नाखूनों से
घायल कर रहा है, और साथ ही यह भी कि घायल होने वाले को यह पता नहीं हो रहा कि वह घायल होता जा रहा
है। उसके जख्म गहरे होते जा रहे हैं। यह कहानी एक संपन्न पढ़े-लिखे परिवार के बहुत ही
मर्मांतक बिखराव की कहानी है। जो सत्य घटना ही प्रतीत होती है। किसी कानून के दुरूपयोग
से कैसे किसी व्यक्ति, परिवार को नष्ट किया जा सकता है इस बात की यह कहानी एक जबर्दस्त
उदाहरण है। समाज में बड़े पैमाने पर बिखराव, वैमनस्यता पैदा हो रही है। बड़ी संख्या
में निरपराध लोग शिकार हो रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं। इन सारी बातों की यह कहानी जीता-जागता दस्तावेज़
है। कहानी का एक-एक पात्र अपने वर्ग की छोटी से छोटी बात को बड़ी संपूर्णता के साथ सामने
रखता है। वह समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करता है।
कई जगह तो इसके पात्र समय से आगे भी सोचने में नहीं हिचकते। टेक्नोलॉजी में ख़ासतौर
से स्पेस साइंस में हो रही तेज़ी से प्रगति के मद्देनजर कहानी एक सर्वथा नया विचार भी
प्रस्तुत करती है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ से आगे ‘ब्रह्ममांडम् कुटुंबकम्’ का। निम्न वर्ग से लेकर विशेष रूप से उच्च वर्ग में दैहिक, भौतिक सुख, धन पाने की पिपाशा किस कदर
बढ़ गई है, किस तरह यह समाज में नैतिकता, मर्यादा के सारे ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करके एक नया ताना-बाना
बुन रही है, इसका वर्णन बेहद चिंतनीय तथ्यों, बातों को सामने रखता है। जो यह सोचने के लिए विवश कर
देता है कि आखिर हम जा कहां रहे हैं? हमारी पिपाशा की कोई सीमा भी है क्या? विभिन्न विषयों को एक साथ
समेटे यह कहानी बहुत ही रोचक ढंग से सफलतापूर्वक अपनी मंजिल तक पहुंचती है। कहानी का
ताना-बाना बहुत ही सधा हुआ है। पाठक को आखिर तक अपने साथ बांधे रखनें में सक्षम है।
‘पगडंडी विकास’। देश में अब तक हुए विकास
को इस कहानी के माध्यम से प्रदीप श्रीवास्तव ने एकदम नया नाम दिया है ‘पगडंडी विकास’। संग्रह की अपेक्षाकृत छोटी सी यह कहानी
महोबा रेलवे स्टेशन के प्लेटफॅार्म पर दो पात्रों की परस्पर वार्ता के रूप में आकार
लेती है। विकास हुआ, नहीं हुआ, विगत कुछ वर्षों में यह चर्चा का विषय बना हुआ है। इसका बड़ा ही सटीक जवाब यह कहानी
देती है। भारत, चीन, जापान
कुछ समय के अंतराल पर आज़ाद हुए थे। जापान,चीन विकास करके कहां से कहां पहुंच गए हैं। उनके सामने
हम कहां ठहरते हैं ? बड़े हल्के-फुल्के रोचक अंदाज में ऐसे ही बड़े तीखे-तीखे प्रश्न यह कहानी करती है।
भिखारियों के माध्यम से विकास की त्रासदी पूर्ण स्थिति का कड़वा सच सामने रखती है,
कि सात दशक में गरीबी
भुखमरी का अभिशाप यह है कि शव के भी कपड़े चोरी हो रहे हैं।
संवेदनहीनता का और भी ज़्यादा दिल दहलाने वाला दृश्य अगली कहानी में है। जहां परिवार
के एक सदस्य का शव देने के लिए पैसा देने को विवश कर दिया जाता है। जब तक पैसा नहीं
मिल गया तब तक शव को ऐसी जगह छिपा दिया गया कि अनुमान भी लगा पाना मुश्किल था। यह काम
किसी हॉस्पिटल ने नहीं बल्कि एक ऐसे वर्ग द्वारा किया जाता है जिसके बारे में सोचा
भी नहीं जा सकता है। यह पूरी कहानी वास्तव में एक मनोविश्लेषणात्मक कहानी है। जिसमें
किसी बात या घटना के कारण यदि किसी में अचानक वैचारिक परिवर्तन होता है तो वह किस तरह
की मानसिक स्थिति से गुजरता है इसका बहुत ही प्रभावशाली वर्णन है। प्रदीप श्रीवास्तव
के लेखन में एक ख़ास बात यह भी है कि वह मनोविश्लेषण आला दर्जे का करते हैं। इस कहानी
संग्रह से पहले उनका उपन्यास ‘मन्नू की वह एक रात’ मनोविज्ञान की एक उत्कृष्ट
कृति है। जिसके बारे में डॉक्टर शैलेंद्र नाथ मिश्र ने लिखा है कि ‘प्रदीप श्रीवास्तव ने उपन्यास
में चेतन अवचेतन के मनोविज्ञान को एक रात के विज़न से जोड़कर अद्भुत सफलता प्राप्त की
है।’ संग्रह की इस छोटी कहानी के लिए मैं कहना चाहूंगा कि इस विषय
पर कम से कम इस प्रकार की कोई कहानी शायद ही लिखी गई हो।
इसके बाद की कहानी देश के करीब सात दशकों के समय की बातों को समेटे देश में मुख्यतः
सहिष्णुता, असहिष्णुता के विषय को बहुत ही सटीक तथ्यों के साथ सामने रखती है कि किस प्रकार
देश, देशवासियों
के साथ एक के बाद एक निरंतर छल क्षद्म होता आ रहा है। किस प्रकार झूठ से सच को झूठा
बताया जाता आ रहा है। और यह सब किस प्रकार देश के अस्तित्व के लिए खतरा बन रहे हैं।
देश की समरसता, एकता को छलनी कर रहे हैं। स्वयं में यह एक बहुत ही विचारोत्तेजक अद्भुत कहानी है।
बातों को बड़े स्वाभाविक ढंग से सामने रखती है।
अगली कहानी एक महिला के जबरदस्त संघर्ष की है। महिला संघर्ष की ढेरों रेडीमेड कहानियों
से एकदम अलग है । एक स्वाभाविक संघर्ष जो पग-पग पर अपने भाई, पति के छल-क्षद्म से भिड़ती
है। कोर्ट कचहरी की लोलुप आंखों, पंजों से आगे बढ़कर मुकाबला करती है। खुद को बचाती है,
बेटी का भी कॅरियर
संवारती है । कोमल नारी मन की कई अनछूई बातों के साथ ही उसके क्रोध, प्रतिशोध, भावुकता अपने स्वाभिमान के
प्रति अतिशय चैतन्यता सहित कई पक्ष उभरकर सामने आते हैं। संग्रह की अगली कहानी एक ऐसे
विषय को पाठक के सामने रखती है जिसे पढ़ते हुए उसमें बार-बार यह प्रश्न उठ सकता है कि
अपने देश में क्या-क्या हो रहा है? देश देशवासियों के भविष्य, उनकी सुरक्षा के साथ खिलवाड़ क्यों
किया जा रहा है? सत्ता के लोग वोट के लालच में आसन्न खतरे से क्यों आंखें चुरा रहे हैं?
क्यों उसे बढ़ावा दिया जा रहा है? देश में घुसपैठियों की बेतहाशा बढ़ती
आमद को क्यों नहीं रोका जा रहा है? मानवाधिकार के नाम पर देश की जड़ें क्यों खोखली की जा रही हैं?
देश के विभिन्न क्षेत्रों में इनकी टिड्डी दलों की तरह बढ़ती संख्या स्थानीय निवासियों
को ना सिर्फ़ अल्पसंख्यक बना रही है, बल्कि ये घुसपैठिये उनको जबरन खदेड़ रहे हैं। मार रहे
हैं। बहू,बेटियों
को उठा ले जा रहे हैं । उन्हें अपने पूजा-पाठ करने, त्यौहार मनाने से मना कर दे रहे हैं।
चुनाव में अवैध तरीके से वोट बैंक बन उसे जीतने देते हैं जो उनकी राष्ट्रघाती गतिविधियों
से ना सिर्फ़ आंखें मूंदे रहे बल्कि और मददगार साबित हो। खानापूर्ति के लिए आयोग बनते
हैं। वह अपनी रिपोर्ट में बड़़े भयावह तथ्य भी सामने रखते हैं, जिन्हें वोट बैंक के लालच
में धूल खाने के लिए कहीं कोने में डाल दिया जाता है। बड़े कैलकुलेशन के साथ यह बताया
गया है कि देश के कोने-कोने में पहुंच चुके ये घुसपैठिए प्रतिदिन करीब ढाई करोड़ किलोग्राम
अनाज चट कर जाते हैं। दूसरी तरफ आए दिन खबरों में भूख से मरने वाले देशवासियों की खबरें
आ ही जाती हैं। घुसपैठ विषय पर इसे अब तक की सबसे शोधपूर्ण कहानी कहना गलत नहीं होगा।
इस कहानी संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि संग्रहीत हर कहानी का विषय अलग है।
घुसपैठिए के बाद अगली कहानी सीधे गांव की दुनिया लेकर उपस्थित होती है। भूमंडलीकरण
का दुष्प्रभाव सही मायने में भारत के गांवों में ज़्यादा पड़़ा है। इसमें बात केवल लोकल
इज ग्लोबल, ग्लोबल इज लोकल की नहीं है। बल्कि गंवई समाज में एक ऐसी मानसिकता के पनपने,
बढ़ने की है जिसमें
मानवीय भावनाएं, मानवता शहरी समाज से कहीं ज़्यादा विपन्न स्थिति में पहुंच रही हैं ।
गांवों में जो विकास पहुंचा वह अपने साथ गलाकाट प्रतिस्पर्धा नहीं प्रतिद्वंद्विता
लेकर पहुंचा। जिससे ग्राम देवता की आत्मा ही रळष्ट हो गई। कहानी की नायिका एक विलक्षण
स्त्री है। बचपन की कुछ घटनाओं और फिर आगे चलकर प्रतिद्वंद्विता ने उसे उस राह पर ला
खड़ा किया जहां वह आगे बढ़ने के लिए कोई भी रास्ता अपना लेती है। सारे नियम-कानून,
मूल्य-मान्यताएं,
रीति-रिवाज,
वह अपने हिसाब से तय
करती है, आगे
बढ़ती है। अपनी मंजिल मिले इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ अपनाती है। उसकी कोई
सीमा नहीं है। कुछ भी कर सकती है। प्रतिद्वंद्विता में वह इतना आगे निकलती है,
अपने इर्द-गिर्द एक
ऐसा संसार खड़ा कर लेती है कि उसके आसपास के दर्जनों गांवों में कोई उसके सामने खड़ा
होने की स्थिति में नहीं है।
राजनीति में एक नेशनल लेवल के लीडर को
भी छल नीति से अपनी मुट्ठी में कर लेती है। लेकिन है तो आखिर नारी मन। कोमल स्नेहिल
भावनाओं से भरा उसका हृदय मधुर क्षण आते ही हिमकण सा पिघल जाता है। नारी सुलभ उसकी
भावनाएं कल-कल करती सदानीरा नदी सी बह निकलती हैं। अपनी खुशी के वह पल वह अचानक ही
स्वयं में समेट लेती है जिसका उसे बरसों-बरस से इंतजार था। लेकिन प्रतिद्वंद्विता अब
तक उसका स्थाई भाव बन चुका है। उसकी सारी स्थिति को जानकर नायक उसे लेडी डॉन मानने
में कोई संकोच नहीं करता है। गंवई परिवेश की यह बहुत ही खूबसूरत, एक मंझी हुई कहानी है। जो
यह कहने का सुदृढ आधार देती है कि प्रदीप श्रीवास्तव जितना गहरे पैठ कर जिस कुशलता
से शहरी जीवन की कहानियां लिखते हैं उतनी ही कुशलता से गंवई जीवन पर भी लिखते हैं।
अगली कहानी थर्ड जेंडर के जीवन पर केंद्रित
हृदयस्पर्शी अत्यधिक मार्मिक कहानी है। वैसे तो थर्ड जेंडर पर कई उपन्यास, कहानियां आए हैं। प्रदीप
सौरभ का ‘तीसरी
ताली’ इस विषय पर लिखा गया एक शानदार उपन्यास है। मगर प्रदीप श्रीवास्तव
की कहानी इस मामले में अलग इसलिए हो जाती है क्यों कि थर्ड जेंडर की झकझोर देने वाली
समस्याओं के साथ ही उसके परिवार के बाकी सदस्यों की अंतहीन समस्याओं का भी व्यापक उल्लेख
है। कहानी का मुख्य पात्र थर्ड जेंडर कहानी के हिसाब से एनसीआर में किसी इंडियन एमएनसी
में इंजीनियर है। जिसका बचपन से लेकर इंजीनियर बनने तक जिस तरह से शोषण होता है उसे
पढ़ कर रोएं खड़े हो जाते हैं। पात्र इस बात
से बहुत आहत है कि भगवान राम के जमाने त्रेतायुग से थर्ड जेंडर उपेक्षा, शोषण का शिकार बनते आ रहे
हैं।
कहानी संग्रह की नौवीं कहानी बचपन से लेकर जीवन के आखिरी क्षण तक दोस्त बने रहने
वाले दो वकीलों की कहानी है। जो बचपन से ही अजब-गजब खुराफातें करतें हैं। दोनों एक
से बढ़कर एक कारनामें जीवन भर करते हैं। आखिर एक कारनामा एक दोस्त के पारिवारिक जीवन
को नष्ट कर देता है। परिवार बिखर जाता है। दो सदस्य जान से हाथ धो बैठते हैं। इनकी
खुराफातों में देश के महत्वपूर्ण विषय भी उठाए गए हैं।
आखिरी कहानी एक दिलचस्प कहानी है। एक मस्त-मौला
इंसान ज़िंदगी भर मस्ती करना चाहता है। मालगाड़ी के गार्ड का डिब्बा भी उसकी मस्ती का
अड्डा बनता है। वह बेहद तेज़ तर्रार, परिवार से कटा एक दूर देश सेनेगल की बाला के साथ भी मौज-मस्ती
करता है। अपने को बड़ा स्मार्ट समझने वाला यह व्यक्ति उस बाला से मस्ती करते-करते सच
में भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है। लेकिन स्थायित्व की भाग्य रेखा जैसे उसके हाथ में
थी ही नहीं, तो वह फिर से गार्ड के डिब्बे में उस बाला के मोह में फंसा उसकी प्रतीक्षा कर रहा
है। उसके साथ बिताए मधुर पलों को वह भूल नहीं पा रहा है। लेकिन इस मनःस्थिति में भी
उसकी मस्ती चल रही है। बड़े ही अजीबोगरीब ढंग से। एक अद्भुत चरित्र है। इस कहानी का
विषय अपने प्रकार का एकदम नया विषय है।
संग्रह की सभी कहानियों के लिए यह कहना
होगा कि पढ़कर सब की सब सच्ची घटनाएं प्रतीत होती हैं। संभव है कि कहानीकार ने इन घटनाओं
को जाना हो, बारीकी से अध्ययन किया हो। पात्र हमारे आपके बीच से ही कहीं निकल कर गए हैं। भाषा
एकदम सहज सरल है। हर पात्र के अनुरूप है। पूरा संग्रह जबरदस्त सकारात्मक दृष्टिकोण
का परिचायक है। हर पात्र किसी सूरत में किसी से हार मानने वाला नहीं है। संघर्ष उसकी
ताक़त है। सभी कहानियां विभिन्न तरह की सूचनाओं से पूर्ण हैं। बड़ी खोजबीन के साथ लिखी
गई हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि चार सौ चौंसठ पृष्ठों का यह कहानी संग्रह हिंदी कथा
साहित्य के सबसे बड़े संग्रहों में गिने जाने योग्य है।
इसे मैं लेखक का साहस नहीं दुस्साहस ही कहूंगा कि आज जब पतली-पतली छोटी किताबों
का दौर है, ऐसे में धारा के विपरीत उसने इतनी बड़ी किताब पाठकों के सामने रखी। इसका प्रकाशक
वह स्वयं है। इसे भूमंडलीकरण, बाजा़रवाद के परिणाम के रूप में भी देख सकते हैं कि प्रकाशकों
के लिए किताबें सिर्फ़ एक उत्पाद हैं। वो मुनाफा के अलावा कुछ नहीं देखते। वो शतप्रतिशत
मुनाफा जेब में रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं लेखकों से ही पैसा लेकर व्यवसाय करते
हैं। रॉयल्टी के नाम पर उन्हें कुछ किताबें पकड़ा दी जातीं हैं, बस बहुत है। ऐसे में जिन
लेखकों के पास पैसा नहीं है उनकी किताबें कभी सामने नहीं आ पातीं। हां जुनूनी लेखक
लिखने के साथ-साथ प्रकाशन के लिए पैसे की भी व्यवस्था करते हैं । लेकिन यह कब तक चलेगा?
बाज़ारवाद के समापन
तक या फिर सरकार द्वारा उत्कृष्ट साहित्य के विकास, समर्थन के लिये क़दम उठाए जाने तक।
समीक्ष्य पुस्तक -
‘मेरी जनहित याचिका एवं अन्य
कहानियां’
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशक: प्रदीप श्रीवास्तव
ईरु6एम/212, सेक्टर-एम
अलीगंज,लखनऊ -226024
पृष्ठ: 464
मूल्य: रुपये 350
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