बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

कहानी: शकबू की गुस्ताखियाँ : प्रदीप श्रीवास्तव

शकबू की गुस्ताखियां
- प्रदीप श्रीवास्तव



सुबह पढ़ने के लिए पेपर उठाया तो नज़र शहर में एक नए फाइव स्टार होटल के खुलने के विज्ञापन पर ठहर गई। पेपर के पहले पूरे पेज़ पर एक बेहद खूबसूरत युवती की नमस्ते की मुद्रा में बहुत ही प्रभावशाली फोटो थी। और होटल के ग्रुप का नाम छोटा सा एकदम नीचे दिया गया था। पहला पेज़ खोलते ही अंदर पूरे पेज पर होटल के सबसे ऊपरी मंजिल का दृश्य था। पंद्रहवीं मंजिल पर स्वीमिंग पूल का। फ़ोटो ऐसे एंगिल से ली गई थी कि वहां से नीचे अंबेडकर पार्क का विहंगम दृश्य बहुत लुभावना लग रहा था। अंग्रेजी और हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित अखबारों में छपे इस विज्ञापन ने सुबह-सुबह कुछ देर तो एक अजीब सी खुशी, प्रसन्न्ता दी, कि हमारा शहर कहां से कहां पहुंच गया है।
लक्ष्मण का वह शहर लखनऊ जहां आज़ादी के संग्राम में कभी स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। जहां आज मैट्रो ट्रेन चल रही है पहले कभी वहां की सड़कों पर इक्कों-तांगों का राज हुआ करता था। जिसके अवशेष पुराने शहर में आज भी हैं। कुछ पुरानी यादें एकदम ताज़ा होने लगीं। इन ताजा होती यादों में ही अचानक ही मेरा प्यारा मित्र शकीबुल्लाह आ गया। और मन दुखी कर गया। इतना कि आंखें भर आईं। मन ही मन कहा अरे शकबू ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में यह पागलपन करने की ज़रूरत क्या थी? शकबू मैं तुम्हारे उस काम को आज भी पागलपन ही कहूंगा।
शकबू की याद ने मेरी खुशी को एकदम खत्म कर मुझे दुख में डुबो दिया। मेरी हालत महाभारत के युद्ध में घायल पड़े दुर्योधन सी हो गई। जिसे यह वरदान था कि जब उसके सुख-दुख का स्तर एक समय में एक बराबर हो जाएगा तभी उसके प्राण-पखेरू उड़ेंगे। जैसे भीम की गदा से घायल दुर्योधन तड़प रहा था वैसे ही मैं कराह उठा था। शकबू की याद में डूबते-डूबते पेपर पढ़ना भूल गया। पेपर पढ़ना मेरे लिए एक नशे की लत सा है। ऐसी लत जो मरते दम तक नहीं छूटेगी। मगर यह लत इस समय एकदम स्थगित हो गयी थी। हिंदी, अंग्रेजी, दोनों पेपर मैंने सामने पड़ी बेंत की टेबल पर रख दिए। और मकान की दूसरी मंजिल की बॉलकनी में बैठा सामने पार्क में खेलते बच्चों को देखने लगा। जो सामने ही स्थित एक स्कूल के बच्चे हैं। और स्कूल में कंडोलेंस मीटिंग के बाद असमय ही हुई छुट्टी के कारण पार्क में खेल रहे थे।
मेरी नजर इधर-उधर उन पर ठहर रही थी। लेकिन दिलो-दिमाग शकबू में खोया जा रहा था। जीवन के करीब सत्तर साल पूरे करने के बाद भी यदि कोई चीज ऐसी थी जो मुझे दुख पहुंचाती थी तो वह सिर्फ़ शकबू था। वह भी पिछले दो साल से नहीं तो मैंने जीवन में जो चाहा वह पाया। पूरे चालीस साल वकालत करने के बाद पेशे को आखिरी प्रणाम किया था। शकबू ने भी ठीक उसी दिन। अपने जीवन में मैंने शकबू के बाद उसके जैसा ज़िंदादिल आदमी केवल अपने एक चचेरे भाई को पाया था। और ज़िंदादिली भी क्या कि जो भी दिल चाहा वह कर गुजरे। शकबू ने सरसठ-अरसठ की उम्र में बाइस वर्षीया शाहीन को दिल देने का मन किया तो दे दिया। उससे निकाह कर जब घर पहुंचे तो पहली बेगम को पता चला। फिर कोहराम मचना था तो मचा। मगर शकबू जीवन में कब किसी की सुनता था, जो उस दिन सुनता।
सबसे छोटा लड़का जो कि चार साल से तलाकशुदा ज़िंदगी जी रहा था उसने ज़्यादा हंगामा किया तो साफ बोल दिया मेरी ज़िंदगी है। मैं जैसे चाहूंगा जीयूंगा। तुमने मेरी मर्जी के खिलाफ निकाह किया तो मैंने कुछ नहीं कहा था। फिर तुम मेरे मुआमले में क्यों दखल दे रहे हो। अम्मी का तुम्हें ज़्यादा ख्याल है तो चाहो तो उन्हें लेकर दूसरे मकान में रहो। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं चाहूं तो उन्हें तीन सेकेंड में तलाक दे दूं। लेकिन मैंने जैसे आज तक उन्हें पूरी इज्जत, प्यार, दिलोज़ान से लगा कर रखा है, आगे भी रखूंगा।
शाहीन के कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। वह मेरी बेगम हैं, उसे समझाना-बुझाना, बाइज्जत रखना मेरा काम है।लड़का जब बोला कि वह उसकी अम्मी भी हैं और उसे हक़ है बोलने का।तो शकबू भड़क उठा था। आग बबूला हो बोला था। बिलकुल वह तेरी अम्मी हैं, लेकिन उससे पहले मेरी बेगम है। और मैं तेरा अब्बा। और एक सीमा के बाद मेरे जातीय मसले पर तुम भी नहीं बोल सकते। तुम चाहो तो रहो मेरे साथ, ना चाहो तो ना रहो। चाहो तो शाहीन को अपनी दूसरी अम्मी मानो, चाहो तो ना मानो। मगर मेरी ज़िंदगी के इस मुआमले में अब कुछ नहीं बोलना। मैं कतई बर्दाशत नहीं करूंगा।
बात किसी तरह ठंडी पड़ी। शकबू की बेगम ने अपने बेटे को समझाया। चुप कराया। बोलीं हमारे मुकद्दर में यह बदकिस्मती बाकी थी वह भी हो गई। अल्लाहतआला ने जो लिखा है मुकद्दर में, होगा तो वही ना। इनकी आदतें, बातें देखकर मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि जीवन में कभी सौतन का भी मुंह देखूंगी। बुढ़ापे में शौहर तलवार गर्दन पर रख कर अपनी मनमानी पर चुप रहने को मज़बूर कर देगा। मगर अल्लाह की ऐसी मर्जी थी तो यह भी देखा।
यह कहते-कहते शकबू की बेगम रो पड़ी थीं। उनके बेटे तौफ़ीक ने उन्हें समझाया और चुप करा कर अंदर दूसरे कमरे में ले गया। मगर जाने से पहले शकबू अपने अब्बा पर एक साथ कई गोले दाग गया कि आज से आपके और परिवार के बाकी सब लोगों के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं, हमेशा के लिए।
अब हमारे आप के बीच कोई रिलेशन नहीं रहा। और भूल कर भी किसी को मेरी दूसरी अम्मी ना कहिएगा। मुझे जिसने जन्म दिया मेरी बस एक वही अम्मी है।इस पर आग-बबूला शकबू और भड़क उठा था। उसे बेटे की यह बात अपनी नई-नवेली जवान बेगम की तौहीन लगी। और अपनी भी कि बेटे ने नई बेगम के सामने ऐसा कह दिया। उसने थरथराते हुए कहा तुम अपनी हद से बाहर आ रहे हो। तुम्हारे मानने न मानने से कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला। शाहीन तुम्हारी दूसरी अम्मी है। दुनिया यही कहेगी। और मैं चाहूं तो अभी दो निकाह और कर सकता हूं। मुझे अन्य मुसलमानों की तरह चार निकाह करने की बाकायदा इज़ाज़त है। तुम एक से इस तरह खफ़ा हो जब कि चाहूं तो दो बेगम और ला सकता हूं। और वह सब भी तुम्हारी सौतेली अम्मी होंगी। दुनिया यही कहेगी। तुम रोक नहीं पाओगे।
शकबू के यह कहने पर तौफ़ीक और भड़क उठा था। उसने बेलौस होकर कहा आपको शायद मालूम नहीं कि चारों निकाहों के लिए कुछ शर्तें भी हैं। ये नहीं कि जैसी मर्जी हो वैसा कर लो। तलाक की भी अपनी शर्तें हैं। ये नहीं कि बस आ गए मूड में तो तीन सेकेंड में कह दिया तलाक, तलाक, तलाक। जैसा कि अभी आपने धमकी दी।
इस समय आप बिलकुल उन काफिरों की तरह बात कर रहें हैं, जो अपनी हाइपर सेक्सुअल डिजायर पूरी करने के लिए इस्लाम कबूल कर कई औरतों से निकाह कर लेते हैं। जब कि सच में उनका इस्लाम पर कोई ईमान होता ही नहीं। उनका इस्लाम से कोई लेना-देना ही नहीं होता।इसके बाद तौफीक ने अपने अब्बा शकबू को कई ऐसी सख्त बातें कह दीं कि शकबू अपना आपा खो बैठा था। बाप-बेटे में हाथा-पाई की नौबत आ गई थी।
तौफीक की अम्मी इस अप्रत्याशित घटना को बर्दाश्त न कर सकीं। वहीं गश खाकर गिर गईं। यह तमाशा देख कर शाहीन भी घबरा गई थी। उसने अपने शौहर शकबू को शांत कराया। मगर सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि अपनी नई बेगम के सामने शकबू इस तरह बंधा-बंधा सा था कि गश खाकर गिरी अपनी पहली बेगम को उठाना तो छोड़िए उसकी तरफ एक कदम भी बढ़ाया नहीं कि वह कैसी हैं? यह भी देख सके । वही शकबू जो कभी अपनी इसी पहली बेगम पर जान छिड़कता था। उसकी सुंदरता पर फिदा हो उसे शमशीर कहता था। वह जब टोकती ‘‘क्या शमशीर-शमशीर कहते हो। यह भी भला कौन सा नाम हुआ?’’  बेगम चाहती थी कि वह अव्वल तो उसका नाम ले ही ना। अगर ले तो जो उसका वास्तविक नाम है शाजिया, वही ले।
उस रोज इसी शाजिया की तरफ शकबू के कदम बढ़े ही नहीं। जैसे उनमें बेड़ियां जकड़ीं हों। जब कि नई बेगम ने बड़ी दिलेरी दिखाई और अपनी सौतन की मदद के लिए उसकी तरफ बढ़ गई। मगर आग-बबूला तौफ़ीक ने उसे इतना तेज़ डपटा कि वह सहम कर चौंक गई। और पीछे हट कर अपने शौहर के पीछे जा खड़ी हुई। वह कांप रही थी। शकबू भी कांप रहा था। लेकिन वह डर से नहीं। बेटे के व्यवहार से गुस्सा हो कर कांप रहा था। शाजिया अगर बेहोश ना होती तो अब तक वह अपने बेटे पर हाथ उठा देता। तौफीक अम्मी को उठा कर बगल के कमरे में ले गया। इधर शकबू अपनी नई नवेली बेगम को घर की पहली मंजिल पर अपने उस कमरे में ले गया जो पेशे से रिटायरमेंट लेने के बाद उसने अपने लिए स्टडीरूम कम बेडरूम की तरह बनवाया था।
शकबू को उपन्यास पढ़ने का जुनून था। इधर कुछ बरसों से मेरे कहने पर वह हिंदी के नामचीन हिंदी उपन्यासकार नरेंद्र कोहली, मनू शर्मा के उपन्यासों के अलावा अंग्रेजी के हिंदी में उपलब्ध उपन्यासों को पढ़ क्या रहा था बल्कि घोंट कर पी रहा था। इसके पहले वह जासूसी उपन्यासों का दीवाना था। जेम्स हेडली चेईज, अगाथा क्रिस्टी, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा आदि के तो शायद ही कोई उपन्यास छूटे हों। इनके अलावा देवकी नंदन खत्री, इब्ने शफी, कुशवाहा कांत, जयंत कांत, को भी ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ता था। इसके लिए वह नज़ीराबाद में एक स्पोर्ट्स गुड्स की दुकान के सामने पुरानी किताबें बेचने वाले पर डिपेंड था।
जब मैं कहता यार क्या यह सब पढ़ते रहते हो। मुझे तो लगता है तुम टाइम बरबाद करते हो। अरे कोई स्तरीय साहित्य पढ़ो।इस पर शकबू मुझे तरेर कर देखता। फिर कहता। यार लाला तुम और ये बड़े़े-बड़े साहित्यकार इन लेखकों को कुछ मानते ही नहीं। जब कि इनके लिखे में भी दम होता है। ये भी वही सब लिखते हैं जो हमारे बीच घटता है। बस कल्पना कुछ ज़्यादा हो जाती है। पर इसको सस्ता साहित्य कह कर सड़क पर फेंक दिया जाता है। तुम लोग इसको पढ़ने वाले को भी दुत्कारते हो। मगर यार कभी दिल पर हाथ रखकर इन लोगों के दिल का हाल भी जानो। तो शायद जो तुम मुझे मना करते हो वह न करो। खैर छोड़ो तुम नहीं समझोगे। तुम पढ़ो अपना स्तरीय साहित्य। मुझे पढ़ने दो अपना साहित्य।
 मेरा यही प्रिय मित्र शकबू यदि उस कबाड़ी के यहां मेरे लायक कोई किताब पाता तो खरीद कर जरूर मुझे देता। एक बार वह करीब-करीब दुर्लभ सी किताब मध्यकालीन कवि सोमनाथ की सोमनाथ ग्रंथावलीले आया मेरे लिए। तीन खंडों में करीब अठारह सौ पृष्ठों से बड़ी यह किताब आज भी मेरे पास मेरी किताबों की अलमारी में सुरक्षित है।
यह संयोग ही था कि उसकी बेगम शाजिया भी बड़ी पढ़ाकू थीं। उन्हें फैंटेसी या अय्यारी की किताबें पढ़ने का शौक़ था। उन्होंने देवकी नंदन खत्री की चंद्रकांता संतति, भूतनाथ बार-बार पढ़ी। खुद शकबू उन्हें ऐसी किताबें लाकर दिया करता था। उस दिन वही शकबू भूल गया था अपनी शाजिया को। उसकी सौतन तो ले ही आया। जले पर नमक यह कि सौतन को लेकर पहली रात बिताने उसी कमरे, उसी बेड पर गया जो यह मकान बनवाते समय उसने खास अपने लिए, अपनी जरूरतों के हिसाब से बनवाया था। मुझसे कहता था यार लाला एक बात बताऊं, कि ज़िंदगी भर कमाने में ही लगा रहा। ज़िंदगी जी कैसे जाती है, यह जब समझ पाया तो देखा ज़िन्दगी की तो शाम हो चुकी है। यार सोचता हूं कि पता नहीं कब अचानक रात हो जाए। इसीलिए मैं बाक़ी ज़िन्दगी जी लेना चाहता हूं। जितना ज़्यादा से ज़्यादा जी पाऊं उतना। मैं बहुत जल्दी में हूं यार।
यही जल्दी शकबू के लिए बड़ी दर्दनाक साबित हुई। जिस शकबू को मैंने कभी उदास नहीं देखा था। उसी शकबू ने जीवन संध्या में कुछ ही दिनों में ऐसे दुःख झेले कि सारी ज़िंदगी के सुख उसके सामने पसंघा भी नहीं रह गए। उस दिन भी वह उस कमरे में नई बेगम के साथ अपनी ज़िन्दगी  जी रहा था और जो बेगम ज़िन्दगी भर हमशाया बनी रही वह जीवन की जंग लड़ रही थी। लड़के और परिवार के अन्य सदस्यों ने गुस्से में उन्हें बताया ही नहीं कि सदमें के चलते शाजिया को रात ग्यारह बजे जो सिवियर हार्ट अटैक पड़ा तो उन्हें डॉक्टर भी बचा ना पाए। लॉरी हॉस्पिटल में जब उन्होंने तड़के चार बजे आखिरी सांस ली तब शकबू अपनी नई बेगम के साथ सोए हुए थे।
उन्हें पता तब चला जब शाजिया की मिट्टी घर आ गई। लोग इकट्ठा हो गए। रोना-धोना शुरू हो गया। हक्का-बक्का शकबू, शाजिया के चेहरे से चादर हटाते ही खुद को रोक ना पाया और शाजिया के सिर को पकड़ कर फ़फ़क कर रो पड़ा था। उसका पूरा शरीर हिल रहा था। मगर शाजिया अब थी कहां? जो हमेशा की तरह उसका सहारा बनती। उन्हें संभालती। अब तो मिट्टी थी। लड़के, घर के बाकी सदस्यों में गुस्सा इतना था कि किसी ने उन्हें कहने भर को भी सांत्वना देने के लिए एक कदम ना बढ़ाया।
 रो-रो कर बेहाल होते शकबू की हालत जब मुझसे नहीं देखी गई तो मैं अपने इस दोस्त को संभालने आगे बढ़ गया। उन्हें दोनों हाथों से थाम कर उठाया और एक तरफ पड़ी कुर्सी पर बैठाने को चला तो शकबू ने गिजगिजाकर मुझे जकड़ा और फिर फफक कर रो पड़ा। रोते-रोते बोला लाला शाजिया चली गई। यार मैंने ऐसा गुनाह किया है कि परवरदिगार भी मुझे मुआफ नहीं करेगा। मैंने मार डाला। मैंने मार डाला उसे।
अब मैं अल्लाहतआला को क्या मुंह दिखाऊंगा। शाजिया मुझे इतनी बड़ी सजा देगी मैंने सोचा भी नहीं था लाला। यार तुम्हारी बात मान लेता तो मुझसे यह गुनाह ना होता।शकबू का रोना देख कर मैं भी बड़ा भावुक हो रहा था। आंखें बस छलक ही जाने को थीं। ऐसा दोस्त ऐसी दोस्ती जिसे मुझे लगता है आज तक कोई देख ही नहीं पाया है। मैं उसे चुप जरूर करा रहा था। लेकिन खुद को कितनी देर रोक पाऊंगा कुछ समझ नहीं पा रहा था। तभी एक और अप्रिय घटना हो गई। शकबू की नई बेगम शाजिया भी मिट्टी के पास पहुंच गई।
उसका वहां पहुंचना था कि शकबू का लड़का तौफ़ीक चिल्ला पड़ा हाथ ना लगाना मेरी अम्मी को। चली जाओ, जहां थीं उसी कमरे में।तौफ़ीक इतनी तेज़़ चीखा था कि वहां उपस्थित सभी चिहुंक पड़े थे। शकबू एकदम सहम सा गया था। और शाहीन, वह भी नया खून थी, लेकिन थी तो आखिर महिला। तो वह भी एकदम चौंक गई थी। बेहद गोरे उसके चेहरे पर बड़ी-बड़ी उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। दरअसल तब उस घर में सबसे दयनीय स्थिति उसी की थी। अभी इस घर में आए उसे चंद घंटे ही हुए थे। कुछ घंटे पहले ही अपने शौहर की बांहों में सिमटी ज़िंदगी के हसीन सपनों में खोई हुई थी।
दस-बारह घंटे पहले इस घर में पहली बार आने पर जिस तरह उसका इस्तकबाल हुआ था उससे वह यह तो जान गई थी कि हर तरफ से हमला होगा। और सिर्फ़ उसका शौहर ही उसकी ढाल, तलवार सब है। जब तक वह है साथ तब तक तो कोई चिंता नहीं। कुल मिला कर रोज काँटों   भरे रास्ते से गुजरना है। फिर कुछ देर को फूलों का बगीचा मिलेगा। मगर यहां तो कहर ही टूट पड़ा था। ऐसा कहर जिसने यह भी डर पैदा कर दिया था, कि कहीं उसकी तलवार, ढाल ही उसका साथ ना छोड़ दे। जीवन के करीब पचास साल साथ रही पहली बेगम शाजिया के इंतकाल के चलते कहीं भावुकता में वह उसके ही खिलाफ ना खड़ा हो जाए। वह हक्का-बक्का अपनी ओढ़नी से सिर और मुंह ढंके थरथराते क़दमों के साथ पीछे हट गई। तभी शकबू कुछ बोलने को हुआ तो मैंने उसे शांत रहने का इशारा करते हुए कंधे से पकड़ लिया।
इसी बीच शकबू की मंझली लड़की ने आगे बढ़ कर शाहीन को बांह से थामा और कान में कुछ फुसफुसाते हुए उसे ले जाकर ऊपर उसके कमरे में छोड़ आई। शकबू बार-बार फूट पड़ रहा था। उसकी चारों लड़कियां भी जोर-जोर से रो रही थीं। फिर बारह बजते-बजते शाजिया को गुसल कराया गया। नमाज पढ़ाने आए मौलवी को शकबू ने नमाज पढ़ाने की इज़ाजत दी। इसके बाद जनाजा कब्रस्तान के लिए रवाना किया गया।
पचास सालों से हर पल साए की तरह साथ रही शाजिया मेरे प्यारे शकबू को पल में छोड़ कर चली गई। और मुझे भी। शाजिया को मैं भाभी कहता था। मेरी और शकबू की शादी में मात्र तीन हफ्ते का अंतर था। शकबू ने जब पहली बार उनसे मेरा परिचय कराया था। मुझे अपनी बांहों में भर कर कहा था शाजिया ये मेरा बचपन का यार है। हम दोनों चौथी कक्षा से साथ पढ़े हैं। बस ये समझ लो ये मेरा यार ही नहीं मेरा भाई भी है, मेरा साया है। इसकी आवभगत में कभी कोई कोताही ना करना। ध्यान रखना, बड़ा नकचढ़ा है। मुंहफट तो इतना कि अल्लाह बचाएं। मगर दिल का साफ है। इसीलिए मेरी इसकी बचपन से छनती आ रही है और जीवन भर छनेगी।
शाजिया नजरें झुकाए शकबू की बातें सुन रही थीं। शकबू मेरी तारीफ के और कसीदे पढ़े इसकेे पहले ही मैंने शाजिया को हाथ जोड़कर कहा भाभी जी नमस्तेउन्होंने बड़ी मधुरता के साथ बड़े हौले से आदाब किया। और पचास साल तक मैं जब भी अपनी इस भाभी से मिला तो इस भाभी ने ऐसे ही प्यार से हमेशा मेरा स्वागत सत्कार किया। मानो सगी भाभी हों। इन पचास सालों में एक भी ऐसा वाक्या, मुझे याद नहीं पड़ता जब मैंने उनकी नजरों में अपने लिए, एक देवर के लिए भाभी की नजरों में उमड़ता प्यार स्नेह ना देखा हो या कम देखा हो।
अपनी उसी प्यारी भाभी को सुपुर्दे खाक करते वक्त मैंने भी उस दिन उन पर खाक डाली। उस भाभी पर जिसके हाथों ना जाने कितनी बार खाना-पीना। चाय-नाश्ता किया था। उनके हाथ का बना मटन कोरमा मुझे बेहद पसंद था। मेरी इस पसंद को जानने के बाद वह जब मौका मिलता तो बुलातीं और अपने हाथों से परोसतीं। शकबू छेड़ता तो सिवाय मुस्कुरा कर चुप रहने के और कुछ ना करतीं। मगर मेरा शकबू अब अकेला है। मेरे मन में कब्रस्तान से लौटते वक्त यह बात पल भर को आई थी। मगर फिर खुद सोचा कि शकबू अकेला कहां है, शाहीन को कल ही तो नई बेगम बना कर ले आया है। भले अब शाजिया नहीं है और शकबू को रुला रही है।
कब्रस्तान से वापस मैं शकबू के घर तक फिर गया, उसे वहां छोड़ा। सांत्वना दी। तौफीक से विशेष रूप से रिक्वेस्ट की बेटा जो किस्मत में था वह हुआ। सब ऊपर वाले की मर्जी से होता है। इस समय अब्बू, घर को संभालना तुम्हारा फर्ज है। ऐसा कुछ ना करना कि अब्बू को कोई तकलीफ हो।मैं समझा-बुझा कर लौट आया। उस दिन और पूरी रात मेरी आंख नहीं लग पाई। सुगंधा ने कई बार कहा कि कुछ खा-पी लो। आराम कर लो। अब जो होना था वह हो गया। भाई साहब (शकबू) ने इस उम्र में जो किया वह कोई पत्नी बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। पत्नी सुगंधा शकबू को भाई साहब ही बोलती थी। उसके बार-बार कहने के बावजूद मेरे गले के नीचे कुछ उतर नहीं रहा था। अगले दिन सुबह फिर पहुंचा।
नमाज अता की जानी थी। जब यह सब हो रहा था, तो मैंने देखा शकबू पहले दिन की अपेक्षा उस दिन बिलकुल शांत था। चेहरे पर गहन उदासी थी। तौफीक का भी यही हाल था। हर तरफ मातम ही मातम था। शाहीन की झलक काले कपड़ों में मिली थी। फिर वह नहीं दिखी। पत्नी के साथ करीब दो घंटे वहां रहने के बाद मैंने चलते वक्त शकबू से कहा हिम्मत से काम लो। जिसका जितना साथ लिखा होता है वह उतना रहता है। भाभी का जितना साथ लिखा था उतने दिन रहीं। उनके जाने के लिए कहीं से कोई दोषी नहीं है। तुम तो सब बातें जानते ही हो। मैं क्या कहूं।शकबू भरी-भरी आंखें लिए सब सुनता रहा। फिर बोला लाला मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि मैं अकेला हो गया हूं या नहीं।
शाजिया के जाने से या शाहीन के रहते खुद को अकेला किस नजरिए से कहूं।शकबू का असमंजस देख कर मैंने कहा देखो तुम अकेले नहीं हो। भाभी तुम्हें इतना चाहती थीं कि उनकी रूह तो कयामत तक तुम्हें छोड़ ही नहीं पाएगी। वैसे अब शाहीन तो है ही। इसलिए अकेलेपन की बात सोचकर अपना मन दुखी मत करो। तुमने ज़िंदगी को जीने की जो नई पहल शुरू की है। अब उससे पीछे हटना भी चाहो तो हट नहीं सकते हो। शाहीन अब तुम्हारे साथ है। इसलिए अब तुम्हें रुकना नहीं है। बस आगे ही बढ़ते रहना है। भाभी की रूह को इसी में शांति मिलेगी।
मैंने ज़ोर देकर उससे कहा सुनो, तौफीक कुछ कहे भी तो शांत रहना। बोलना मत। नया खून है, आवेश में है। इसलिए तुम धैर्य से काम लेना। जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।तभी शकबू बोला सोच रहा हूं शाहीन को कुछ दिन के लिए घर भेज दूं क्या?’ उसकी बात सुनते ही मैंने कहा नहीं। अब यह सब करने की जरूरत नहीं है।
मैंने सोचा इस समय पूरा घर इससे नाराज है। कोई खाना-पीना भी इसको नहीं पूछेगा। यह अकेला कमरे में पड़ा रहेगा। एक शाहीन ही है जो इसके साथ बनी रहेगी। इसका दुख-दर्द बांटेगी। बल्कि जल्दी ही शाजिया का दर्द खत्म कर देगी। दूसरे उसकी इसमें क्या खता कि शादी के एक दिन बाद ही पति को छोड़ कर मायके चली जाए। फिर उसके घर पर भी उसका कोई स्वागत नहीं होगा। पहाड़ सी मुश्किलें तो उसका वहां भी इंतजार कर रही हैं। सारे घर वालों को दरकिनार कर वह ना जाने क्या हुआ कि दिवानी सी शकबू के साथ आ गई। मेरे मना करने पर शकबू एकटक मुझे देखने लगा।
मैंने कहा देखो, बात को समझने की कोशिश करो। यहां जो हालात हैं उसमें जरूरी यह है कि शाहीन हर समय तुम्हारे साथ रहे। तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? फिर उसके घर वाले भी उससे नाराज हैं। कितना? यह तुम देख ही रहे हो कि क्षण भर को भी एक आदमी नहीं आया। इसलिए जहां तक मैं समझता हूं कि अब के हालात में तुम दोनों का एक रहना बेहद जरूरी है।अंततः शकबू मान गया। उदास मन लिए मैं सुगंधा के साथ घर आ गया। आते वक्त सिर्फ़ तौफीक ही मुझसे दो मिनट मिला था। बाकी घर का कोई सदस्य नहीं मिला। वही घर जहां मेरे पहुंचने पर परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं होता था जो मुझसे ना मिलता। देर तक तरह-तरह की बातें ना करता। मगर बदले हालात में अब किसी को फॉर्मेलिटी के लिए ही सही नमस्कार करना भी गंवारा नहीं था।
शकबू-शाहीन के मसले पर शायद पूरा घर मुझे भी कहीं दोषी मान रहा था। सबको यह गुस्सा था कि शकबू मेरा बचपन का यार था। मुझे सब मालूम था। मैं उसे यह सब करने से रोकता तो क्या वह मानता नहीं। जब कि सच यह था कि जीवन भर कोई भी काम मुझसे सलाह-मसविरा किए बिना ना करने वाले शकबू ने जीवन में पहली बार मुझसे भी सब कुछ छिपाया। शाहीन के साथ उसका कोई रिश्ता बन चुका है इसकी उसने खबर तक नहीं की। जब निकाह करने जा रहा था तब सिर्फ़ फ़ोन कर कहा था लाला बहुत जरूरी काम है। जितना जल्दी हो सके फलां जगह पहुंचो।
मैं घबराया कि यह इतनी अफनाहट में क्यों है? पूछा तो बोला परेशानी की कोई बात नहीं है। तुम तुरंत आओ बस।मैं पहुंचा तो देखा शकबू अपनी कार में एक युवती को लिए बैठा सिगरेट पी रहा है। मेरे पहुंचने पर कार से बाहर आया, सिगरेट की डिब्बी मेरी तरफ बढ़ाई, मैंने भी एक सिगरेट लेकर उसी के लाइटर से जला कर एक कश लिया और पूछा अब बताओ क्या बात है? इतनी आफत कर दी खाना तक नहीं खाने दिया।
इसी बीच मैंने यह भी देखा कि वह एक युवक की तरह मारे जोश के फड़क रहा है। साथ ही ब्रांडेड बेहद महंगी पैंट-शर्ट जूते पहन रखे हैं। राडो की महंगी घड़ी, गले में मोटी सी सोने की चेन। ना जाने कौन सा डियो स्प्रे किया था कि उसकी स्मेल आस-पास निकलने वालों को भी आकर्षित कर रही थी। उसको इस तरह देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्यों कि वह ऐसे ही दिलकश अंदाज में रहता था।
मेरे पूछने पर कहा, ‘देखो लाला तुमने जीवन में कभी मेरी कोई बात नहीं टाली। मेरा पूरा यकीन है कि आज भी नहीं टालोगे। मैं जो करने जा रहा हूं उसमें मेरा कोई साथ नहीं दे रहा है। अब तुम्हीं मेरा साथ दो और जो करने जा रहा हूं वह पूरा कराओ।इस बीच मैंने देखा कि कार में बैठी युवती बार-बार सशंकित नजरों से मुझे एवं आस-पास से गुजरते लोगों को देखती जा रही है।
मैंने शकबू से कहा जब जानते हो मैं टालूंगा नहीं तो इतनी भूमिका क्यों बना रहे हो। सीधे-सीधे बताओ करना क्या है? इन मोहतरमा का अभी तक परिचय नहीं कराया। ये कौन हैं जिन्हें लिए घूम रहे हो?’ शकबू बोला वही तो बताने जा रहा हूं। ये तुम्हारी भाभी हैं। दूसरी भाभी।इस पर मैंने कहा क्या मजाक कर रहे हो। तुम्हारी छोटी लड़की से कम उमर की लग रही है। और तुम उसे मेरी भाभी बता रहे हो।
इस पर शकबू ने एक लंबा कश खींचा सिगरेट का और फिर धुंआ दूसरी तरफ फूंक कर बेहद रोमांटिक अंदाज में बोला। यार ये दिल का मामला है और दिल के मामले में केवल भावनाएं देखी जाती हैं। बाकी कुछ नहीं। उम्र वगरैह कुछ नहीं।फिर शकबू नेेेे बताया कि यह वही शाहीन है जिसके बारे में तुम्हें बताया करता था। तुम यकीन नहीं करते थे। कहते थे मेरे जैसे बुढ्ढ़े से कोई लाैंडिया क्यों इश्क फरमाएगी, लेकिन इश्क नहीं ये मेरी शरीकेहयात बन चुकी है। अब निकाह की रस्म भर पूरी करनी है। वह भी इसकी जिद है इस लिए कर रहा हूं, नहीं तो मैं तो ऐसे ही घर ले जा रहा था।शकबू ने यह बोलकर मुझे सकते में डाल दिया था।
शकबू शाहीन के बारे में पिछले कई महीने से कह रहा था। बड़े चटखारे लेकर बातें करता था। कई बार फुहड़ता की हद तक करता। अश्लीलता की सीमा पार कर देता। तब मैं इसे उसका ठिठोलीपन मानता। कहता अबेे संभल कर रहना इक्कीसवी सदी की कन्याएं हैं। कहीं लेने के देने ना पड़ जाएं।मगर उसका जवाब होता था कि लाला यहां भी बरसों-बरस का तजुर्बा है। एक से एक बेअंदाज छोरियों को भी साधने का ऐसा तजुर्बा है कि इक्कीसवीं क्या बाइसवीं सदी की भी साध लूंगा। इसे जल्दी ही तुम्हारी भाभी ना बनाया तो कहना।तब क्या पता था कि शकबू सच में सब चरितार्थ कर देगा। कुछ ही महीने में।
मैं कुछ और कहूं इसके पहले ही वह मेरे पास शाहीन को लेकर आया। मुझसे परिचय कराते हुए बोला शाहीन ये मेरा बचपन का यार लाला है। इसे मैं तुम्हारे बारे में सब बता चुका हूं। इसके-हमारे बीच कुछ भी राज नहीं है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह तुम्हारा देवर है। ऐसा देवर जो तुम्हारी उतनी ही चिंता सम्मान और रक्षा करेगा जितना कि मैं।शकबू के मुंह से मेरे लिए देवर शब्द सुनकर शाहीन के चेहरे पर एक सुर्खी सी मुझे दिखाई दी थी। एक दबी मुस्कुराहट के साथ उसने नमस्कार किया। मैंने भी नमस्कार किया।
 शकबू द्वारा अचानक ही उसका देवर कहे जाने से मैं स्वयं भी अजीब सी स्थिति में पड़ गया था। कि यह मेरी लड़की सी है। मेरी लड़की से कम उमर होगी इसकी। और मैं इसे भाभी कहूं। लेकिन दूसरी तरफ मेरे बचपन का यार, मेरा हमदम मेरा दोस्त था। जिसने उसके साथ रिश्ते की डोर बांध दी थी। क्योंकि उसे अटूट विश्वास था कि मैं रिश्ते को निभाना जानता हूं। दोस्त के लिए आया था तो दोस्ती निभानी ही थी। फिर अगले कुछ घंटों में निकाह पढ़वा दिया गया।
साथ ही यह भी तय हुआ कि अगले हफ़्ते ही निकाह को रजिस्टर भी कराया जाएगा। इसके बाद समस्या आई कि मेरा यार अपनी दूसरे निकाह की सुहागरात पहली रात कहां मनाए? मैंने सलाह दी किसी होटल में इंतजाम किया जाए। लेकिन कुछ देर सोचने के बाद शकबू ने मना कर दिया। उसकी बातों से इतना ही संकेत मिला कि वह बेमेल निकाह के कारण ऐसा नहीं करना चाहता। फिर मैंने कहा चाहो तो मैं अपने घर में व्यवस्था कर दूं।इस पर वह बोला देखो तुम कह जरूर रहे हो। मैं भाभी को भी अच्छी तरह जानता हूं। व्यवस्था वो भी कर देंगी। लेकिन तुम्हारे बेटों-बहुओं को भी जानता हूं। मैं अपनी खुशी के लिए तुम्हारे परिवार में कोई खटास नहीं पैदा करना चाहता।कोई रास्ता ना देख कर आखिर हमेशा अपने मन की करने वाले शकबू ने एक दम फैसला सुनाते हुए कहा।
यार घर मेरा है। मैं किसी पर डिपेंड नहीं हूं। तौफीक का परिवार है नहीं। शाजिया को भी बताना ही है। इसलिए अपनी नई बेगम को भी अपने ही घर ले जाऊंगा। देखता हूं जिन घर वालों की खुशी के लिए मैंने पूरा जीवन एक कर दिया वह मेरी खुशी के लिए क्या करते हैं।
शकबू का यह फैसला मुझे अटपटा लगा। इस उम्र में पत्नी के रहते इस तरह अचानक दूसरी पत्नी को लेकर पहुंच जाना मुझे स्थिति को विस्फोटक बनाने जैसा लगा। मैं अंदर-अंदर डर गया। शाहीन का भी यही हाल था। अपना संदेह मैंने जाहिर भी किया। कहा दो चार दिन किसी होटल में बिताओ। फिर कहीं अलग मकान लेकर रहो। धीरे-धीरे चीजों को सामने आने दो। एक दम से पहुंचना अच्छा नहीं है।
मगर मेरा दोस्त जिद्दी शकबू नहीं माना। नई बेगम शाहीन का हुस्न उसे अंधा किए जा रहा था। वह उसे लेकर चला गया। आखिर जो आशंका थी वही हुआ। पहली बेगम इस अचानक घटनाक्रम को बर्दाश्त नहीं कर पाई। मौत के मुंह में पहुंच गई। मगर इन सबसे अनजान शकबू रात भर अपनी सुहाग रात में खोए रहे। इस बात से अनजान की सुबह इतनी काली होगी कि उसके सारे जीवन को स्याह बना देगी। मगर शकबू की किस्मत ने उसे थोड़ी राहत दी।
 शाजिया की मृत्यु के बाद घर में जो कोहराम मचा था। वह दो-तीन दिन में रिश्तेदारों-नातेदारों के जाने के बाद गहन सन्नाटे में तब्दील हो गया। हां सारी महिलाओं ने शाहीन पर विष भरे बाण छोड़ने में कोई कोरकसर बाकी नहीं रखी। तौफीक ने सबके जाने के बाद खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया। या बाहर जाता या अपने कमरे बंद रहता। वह अब्बा के साए से भी दूर रहता। शाहीन ने खाना-पीना देने के बहाने संवाद कायम करना चाहा, लेकिन वह आंखों-चेहरे पर क्रोध के भाव लाकर उसे अपने पास फटकने ना देता।
शकबू के गम को शाहीन ने कुछ ही दिनों में अपनी सेवा, हुस्न, प्यार से खत्म सा कर दिया। इसका अंदाजा मुझे शकबू के आने वाले फ़ोन से होता। वह शाजिया की बात तो कहने भर को करता और शाहीन के गुणगान से थकता ही नहीं। मैं मन ही मन कहता वाह रे हुस्न, आंखों पर पल में कैसे पर्दा डाल देता है। शाजिया जो पचास साल साथ रही उसको भुलाने में पचास दिन भी नहीं लगे।
मैं सोचता कि उस दिन शकबू मेरी बात मान जाता। कुछ महीने कहीं और रखता शाहीन को तो आज शाजिया भाभी भी जिंदा होतीं। मगर शकबू ने अपनी जिद में अपने खुशहाल हंसते-खेलते परिवार को खुद ही तबाह कर दिया। इस घटना ने मेरे मन में भी शकबू के लिए कहीं कुछ ऐसा पैदा कर दिया था जो कहीं से अच्छा नहीं था।
वही शकबू जिससे मेरा साथ पांचवी कक्षा में हुआ था। पढ़ने में वह बहुत तेज़़ था। फर्स्ट पोजीशन के लिए हमारे और उसके बीच जबरदस्त कॉम्पटीशन रहता था। दो चार नंबरों से ही दोनों आगे पीछे होते रहते थे। पढ़ाई के लिए तो कभी नहीं लेकिन शैतानियों के कारण शायद ही कोई हफ्ता ऐसा बीतता रहा हो जब हम दोनों को घर और स्कूल में मार ना पड़ती रही हो। हाई-स्कूल में पहुंचते-पहुंचते हमारी शैतानियां उम्र से कहीं आगे की होने लगीं। इंटर में थे तभी पाकिस्तान ने हमला कर दिया। भारत ने लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में उसको तहस-नहस कर दिया।
तब हम दोनों ने ठाना कि हम भी राजनीति करेंगे। नहीं बनना मुझे डॉक्टर-इंजीनियर। शकबू के घर वाले उसे इंजीनियर और मुझे मेरे घर वाले डॉक्टर बनाने पर तुले हुए थे। मगर हम अड़े रहे। नहीं बनना। हम दोनों के बीच राजनीति को लेकर बडी चर्चा होती। शकबू शास्त्री जी की बात दोहरता, कहता कितना दम है इनकी बात में कि अगर लेनिनग्राड की जनता अपने देश के लिए भूखी रह कर लड़ सकती है तो भारत की जनता क्यों नहीं? और भारत की जनता अमेरिका के अपमानित पीएल 470 गेंहूं को खाने के बजाय मरना पसंद करेगी। फिर जय जवान जय किसान का नारा देते हुए कहा कि जमीन का एक टुकड़ा भी खेती से बचा नहीं रहना चाहिए। रेलवे लाइन के किनारे भी जमीन खाली ना रहे। और यही हुआ भी। हर जगह खेती हुई।
          बाद के दिनों में शकबू कहता यार शास्त्री जी ने खाने-पीने के मामले में आत्म निर्भरता की जो राह पकड़ाई उसी का परिणाम है कि आज देश खाने के मामले में आत्मनिर्भर है। लाखों टन अनाज तो लापरवाही में सड़ जाता है।मैं कहता लोग फिर भी भूखे मर रहे हैं।वह कहता यह भ्रष्ट व्यवस्था का कमाल है। अगर शास्त्री जैसा कोई आदमी आज प्रधानमंत्री होता तो एक भी आदमी एक टाइम भूखा सो नहीं सकता था।
उन्नीस सौ पैंसठ की वार के वक्त राजनीतिज्ञ बनने का जो जोश हम दोनों पर सवार हुआ था वह जल्दी ही कमजोर पड़ गया। इंटर के बाद हम दोनों की पढ़ाई उतनी अच्छी नहीं रही पहले जितनी हुआ करती थी। वजह यह रही कि अब हम दोनों बाल सुलभ शैतानियों से आगे बढ़ कर आवारगी-लोफरटी की तरफ क़दम बढ़ा चुके थे।
अब लखनऊ की गलियों, गंज, नदी किनारे घूमना-फिरना हमारी प्राथमिकता में शामिल हो गया था। मैं शुद्ध शाकाहारी परिवार से संबंध रखता था। लहसुन ,प्याज भी घर में वर्जित था। कायस्थ होने के बावजूद इस मामले में इतनी सख्ती थी कि लोगों को अजीब लगता। शकबू को भी। मुझे मांसाहार का स्वाद शकबू के ही जरिए मिला। शकबू के साथ ही पहली बार सिगरेट पीनी शुरू की। चारबाग में आज जहां ए. पी. सेन गर्ल्स कॉलेज है पहले वह जुबली गर्ल्स कॉलेज हुआ करता था। उसी के पीछे रेलवे लाइन है।
लाइन और कॉलेज दोनों के बीच नाले की तरह गहरी जगह थी। जहां घास, झाड़ियों का राज था। तब वहां सन्नाटा हुआ करता था। वहीं हमने और शकबू ने कई रिक्शे वालों के साथ मिलकर गांजा भी खूब पिया। असल में हम दोनों ही आक्रामक स्वभाव के थे। मगर मैं शकबू से उन्नीस पड़ता था। जब फर्स्ट ईयर में था तभी गर्मियों की छुट्टियों में शकबू और मैं अपने-अपने गांव गए थे छुट्टियां बिताने। छुट्टियां बिता कर जब हम दोनों वापस लखनऊ पहुंचे तो अपने साथ गांव के तमाम अनुभव, यादें बटोरे आए थे।
मिलते ही एक दूसरे को अपने-अपने अनुभव बताने लगे। मैंने उसे गांव में अपने बाग में ऑल्हा पाती जैसे खेल के खेलने। तालाब में नहाने। गुड़ बनते हुए देखने, पेड़ पर झूलने, कबड्डी खेलने आदि जैसे अनुभव बताए। गौर से मेरी बातें सुनने के बाद शकबू ने अपनी तमाम बातें बताईं। उसने जमींदोज टर्की के बनने से लेकर उसके लाजवाब स्वाद के बारे में भी खूब मजे से बताया। कि कैसे-कैसे उसके एक चचाजान ने पूरी बतख बनाई थी।
मगर इसके बाद जो बात बतायी वह बड़ी विस्फोटक थी। इतना विस्फोटक कि इसने हम दोनों को नए रास्ते पर ढकेल दिया। ऐसा रास्ता जो किसी लिहाज से सही नहीं कहा जाएगा। ऐसी घटना जिसने हम दोनों को अय्याशी और चोरी के लिए आगे बढ़ा दिया। शकबू ने बताया कि उसका खानदान बहुत बड़ा है। सभी इकट्ठा होते हैं तो संख्या चालीस से ऊपर निकल जाती है।
बहुत बड़ा हवेलीनुमा मकान होने के बावजूद जगह सिकुड़ सी जाती है। इस बार शकबू ने वहां अपने एक रिश्तेदार जोड़े को संयोगवश ही शारीरिक संबंधों को जीते चरम स्थिति में देख लिया था। उस जोड़े की कुछ महीने पहले ही शादी हुई थी। और जब शकबू ने उन्हें एक बार चरम क्षणों को जीते देख लिया तो उसका किशोर मन उसे बार-बार देखने को मचल उठा। जब तक वहां वह रहा हर क्षण इसी फिराक में रहा कि कैसे उन्हें उसी चरम हालत में फिर देखे। उसकी यह कोशिश कई बार सफल रही। शकबू ने इसके बाद शारीरिक संबंधों की जो तस्वीर पेश की उससे मैं रोमांचित हो उठा।
कुछ ही दिन बाद यह तय हुआ कि जैसे भी हो यह अनुभव लेना ही है। जब बात आगे बढ़ी तो पैसा आड़े आ गया। तब हम दोनों ने अपने-अपने घर से पैसों की चोरी की। एक व्यक्ति के माध्यम से टुड़िया गंज पहुंच गए। जिन औरतों से हम मिले वह हमसे उम्र में दुगुनी थीं। मगर उन्हें पैसा और हमें औरत का शरीर चाहिए था तो इन चीजों का कोई मतलब ही नहीं था। पहला अनुभव कुल मिला कर ठीक था। हम दोनों मित्र सफल रहे। यह कहूं कि इस सफलता में उन औरतों का हाथ ज़्यादा था। वह हमें अनाड़ी समझ ऐसा अनुभव देना चाहती थीं कि हम उनके आदी बन कर बार-बार उनके पास पैसा लेकर पहुंचे। और यह हुआ भी। मगर अनुभव मिलते ही शकबू दलाल से बोला हमें इतनी उम्र की नहीं हमें हमारी उम्र की चाहिए।
दलाल को तो मानों मन की मुराद मिल गई। उसने मुर्गा फंसा जान कर फट से दाम दुगने कर दिए। कहा जितनी कम उम्र उतना ज़्यादा पैसा। इस बार इतनी कम उम्र की होगी कि आप दोनों जन्नत का मजा लेंगे। उसने ऐसा भड़काया कि हम दोनों बेताब हो उठे। दुगुना पेमेंट करने के लिए दुगुनी बड़ी चोरी की गई। मगर दलाल ने फिर ठगा। इस बार भी बीस बरस से ज़्यादा की औरतें थीं।
 हम ठगे गए लेकिन कुछ कह नहीं सकते थे। जन्नत का मजा के नाम पर दुगुना पैसा झटक लिया गया। इतना ही नहीं उस दिन की शाम हम दोनों के लिए और खराब बीती। घर के दोनों चोर पकड़े गए। और खूब ठोंके गए। सख्त निगरानी शुरू हो गई। हां इतनी गनीमत जरूर रही कि घर वालों को यह पता नहीं चला कि हम दोनों ने यह पैसा वास्तव में कहां खर्च किया।
बाद के दिनों में जब गांधी जी के बारे में पढ़ा तो मैंने पाया कि शुद्ध वैष्णव परिवार के गांधी जी ने भी किशोरावस्था में मेरी तरह ही एक मुस्लिम दोस्त के साथ ही मांस भक्षण किया था। वेश्या गमन और घर में चोरी भी की। मगर उनमें नैतिक बल था। और गलती का अहसास होने पर उन्होंने पिता को सत्य बताकर माफी मांग ली थी। पिता इस गहरे सदमें को सह नहीं पाए और उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। मगर मुझ में शकबू में इतना नैतिक बल नहीं था कि हम पश्चाताप करते और माफी मांगते।
जब मैंने यह पढ़ा था उस वक्त तक हम दोनों वकालत शुरू कर चुके थे। मैंने शकबू से कहा यार जब-जब यह बात याद आती है तो मन पर बड़ा बोझ सा लगता है। अब तो हम लोग एक लाइन पर आ चुके हैं। मैं सोच रहा हूं कि फादर को बता कर माफी मांग लूँ । रिलैक्स हो जाएंगे।
मेरी बात सुनते ही शकबू भड़क उठा, बोला, ‘अबे लाला तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? देखो ना तुम गांधी हो। ना मैं । ना तुम्हारे बाप गांधी के बाप जैसे बाबा गांधी है, ना मेरे। बताने पर इस उम्र में ऊपर लठ्ठ भले ना चलें। लेकिन जलालत से बच नहीं पाएंगे। और गांधी जी ने माफी जरूर मांग ली थी। लेकिन बड़े होने पर जब ब्रिटेन और अफ्रीका गए तब भी वेश्याओं के पास अपने दोस्त के साथ गए। यह भी ध्यान रख कि मैं किसी भी अन्य के आदर्श पर चलने का कायल नहीं हूं। क्यों कि मेरा विश्वास है कि ऐसा आदमी पिछलग्गू के सिवा और कुछ नहीं बन पाता।ऐसी विकट सोच वाले मेरे मित्र शकबू और मेरी शादी कुछ दिनों के अंतर पर हुई। मेरी पहले।
मेरी शादी पर वह बोला था लाला तू जीवन की सबसे बड़ी पढ़ाई में तो बाजी मार ले गया।जब उसकी शादी हो गई तो बोला लाला प्रोडक्शन चालू करने में बाजी मैं मारूंगा।हम दोनों की खुराफात इस हद तक थी कि हमारी पत्नियां सुनकर दांतों तले ऊंगलियां दबा लेतीं। बोलतीं आप लोगों को शर्म नहीं आती क्या? और हम दोनों का जवाब होता कि हम शर्म से परे वाले मर्द हैं। शादी में जो विशेष गिफ्ट उसने और फिर जवाब में हमने दिया था यह कहते हुए कि इसे सुहागरात की शेज़ पर पत्नी के ही सामने खोलना। इसके लिए बाकायदा हम दोनों ने एक दूसरे से वादा करवाया था। उस बारे में बच्चों के बड़े होने केे बाद भी जब कभी बात उठती तो शाजिया-सुगंधा दोनों ही कहतीं आप लोगों की बेशर्मी तो आज के जवानों की भी नाक काटती है।
शकबू ने शादी के तीन महीने बाद ही हाईकोर्ट में एक बड़ा पेचीदा मुकदमा जीत लिया। हम दोनों जब भी कोर्ट में कोई मुकदमा जीतते थे तो उस दिन होटल में दूसरे को डिनर जरूर देते। उस दिन भी यही हुआ था। डिनर करके बाहर निकले, कार में बैठे। कार शकबू ने स्टार्ट की, बोला लाला शादी के मामले में तो तुम मुझे पीछे छोड़ गए थे। लेकिन मैंने कहा था ना कि प्रोडक्शन के मामले में पिछाड़ दूंगा। शाजिया प्रेग्नेंट हो गई है। खुशखबरी मैं सोच रहा था कि ना दूं। आते-जाते शाजिया का उभरा पेट देख कर तुम खुद मुझसे पूछो। लेकिन यार क्या बताऊं तुमसे कुछ छिपा नहीं पाता।
मैंने उसकी बात सुन कर उसे बधाई दी। फिर कहा शकबू बड़ा अजीब संयोग है। यही मैं सोच रहा था कि जब तुम सुगंधा का चेंज़ बॉडी शेप देखोगे, पूछोगे तब बताऊंगा। तुम्हें सरप्राइज दूंगा।मेरी बात सुनते ही शकबू ने गाड़ी बंद कर दी। मुझे बांहों में भरते हुए बोला क्या बे तू फिर आगे निकल गया। यार बड़ा छुपा रुस्तम है तू।फिर शकबू ने मुझे ढेर सारी बधाई देते हुए कहा। लाला कितने दिन आगे निकल गया है तू।
 मैंने कहा सुगंधा की प्रेग्नेंसी दो महीने की हो गई है।अब तक गाड़ी को स्टार्ट कर आगे बढ़ाते हुए शकबू बोला हूं.... अगर प्रीमैच्योर बेबी हो जाए तभी मैं जीत सकता हूं।इस पर मैंने उसे झिड़कते हुए कहा क्या यार तुम भी बेमतलब की हार-जीत के चक्कर में मां-बच्चे की जान जोखिम में डालने पर तुले हो।अपनी गलती का अहसास होते ही शकबू बोला अरे यार मैं मजाक कर रहा था।मैंने कहा मित्रवर मजाक की सीमा में सब कुछ नहीं आता।
सही कह रहे हो लाला। ऐसे ही मित्रता में धोखेबाजी भी अच्छी नहीं। तुमने भी अच्छा नहीं किया।मैंने उसके साथ धोखा किया यह सुनते ही मैं सकपका गया। क्षण-भर चुप हो उसे देखने के बाद मैंने कहा क्या शकबू मैं तुम्हें धोखा दूंगा। धोखा देना छोड़ो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। अनजाने में कुछ हुआ हो तो नहीं कह सकता। उसे धोखा भी नहीं कह सकते। बताओ तुम मन में क्या छिपाए बैठेे हो?’ शकबू बड़ा गंभीर हो कर बोला लाला तुमको लगता है कि मैं मन में कुछ छिपा कर बैठ सकता हूं। तुमने धोखा यह दिया कि मैंने जो गिफ्ट दिया था यदि तुम उसका सम्मान करते तो प्रोडक्शन में मुझसे आगे कैसे निकलते?’
 उसकी बात समझते ही मैं जोर से हंस पड़ा था। मैंने कहा शकबू तुम भी कमाल करते हो। कहां की बात कहां जोड़ते हो। ऐसे तो तुमने भी धोखा दिया। तुम भी अगर मेरे गिफ्ट का सम्मान करते तो प्रोडक्शन इतनी जल्दी कहां शुरू होता। मैंने कम से कम छः महीने के लिए सामान दिया था। तुमने जो दिया था उसका दुगुना करके।मेरी बात पर शकबू बोला 'लाला तू छोड़ता नहीं है। मजाक में भी नहीं बख्शता।
शकबू की जिंदादिली, उसके खिलवाड़ के किस्से इतने हैं, इस तरह के हैं कि कई किताबें लिखी जा सकती हैं। एक बार लंच टाइम में कोर्ट के बाहर हम दोनों ने चाय पीकर सिगरेट जलाई और पीते हुए चैंबर की ओर चल दिए। तभी पेन, पॉकेट डायरी आदि बेचने वाला एक लड़का सामने आ गया। उसनेे हाथ में प्लास्टिक के रैपर में स्केच पेन का पूरा सेट लिया हुआ था। जिसमें बारह कलर थे। अमूमन हम लोग उससे काला, नीला, लाल डॉट पेन लेते थे। स्केच पेन हमारे मतलब का नहीं था। लेकिन शकबू ने सिगरेट का कश खींचते हुए अचानक ही उस लड़के से स्केच पेन का पूरा पैकेट खरीद लिया।
मेरी समझ में नहीं आया कि ये क्या करेगा। मगर उसके चेहरे पर मैंने शरारत की कुछ रेखाएं पढ़ ली थीं, आखिर बचपन से देख रहा था उसे। लड़के के जाने के बाद मैंने उससे पूछा ये स्केच पेन क्या करोगे? ’उसने रहस्य भरी मुस्कान के साथ एक कश फिर लिया। बोला लाला बॉडी पेंटिंग करूंगा।पेंटिंग के बारे में मुझे ना के बराबर जानकारी थी। कुरेदने पर शकबू बोला किसी के शरीर पर पेंटिंग करूंगा।मैंने पूछा किसकी।तो वह बोला ये हसीन काम किसी हसीना के शरीर पर ही करूंगा।’ ‘हसीना कहां से लाओगे?’ शकबू हंसते हुए बोला लाना कहां है। घर पर ही है। शाजिया हसीन नहीं है क्या?’ मैंने बात खत्म करते हुए कहा तुम्हारी सनक का भी जवाब नहीं। अरे पत्नी है रखैल नहीं।वह बोला लाला तुम भी कमाल करते हो। अकेले दुनिया भर का मजा लेते रहोगे। अरे बीवियों को भी मजा लेने का हक़ है।
अगले दो दिन छुट्टी पड़ गई। इस बीच मैंने एक केस के सिलसिले में रात करीब नौ-दस बजे के बीच फ़ोन किया। शकबू बड़े मजाकिया मूड में लग रहा था। बोला यार लाला बहुत जरूरी काम में लगा हूं। डिस्टर्ब ना करो।इतना कहते ही फ़ोन रख दिया। तब मोबाइल जैसी कोई चीज थी नहीं। लैंडलाइन ही सब कुछ था।
मैंने फिर डायल किया। उसके बोलने पर कहा दो मिनट सुनो, ऐसा क्या जरूरी काम कर रहे हो?’ फिर वह इठलाता हुआ बोला लाला वकालत के पेशे का बोझ उतार रहा हूं। तरोताजा बना रहा हूं खुद को। अपने पेंटिंग हुनर को आजमा  रहा हूं, शाजिया मदद कर रही है। बीच में शैतान क्यों बना हुआ है?’ यह सुनते ही मैं समझ गया कि खुराफाती क्या कर रहा है। मैं कुछ कहूं उसके पहले ही फिर फोन काट दिया। और रिसीवर भी हटा दिया। उसकी हरकत पर मुझे बड़ी खीझ हुई।
दो दिन बाद कोर्ट में मिलते ही मैंने मुद्दा उठाया तो पहले तो वह ठठा कर हंसा। फिर बोला शाम को बताऊंगा।शाम को कोर्ट के बाद हम दोनों एक होटल में बैठे। वहां कोर्ट का एक मुलाजिम भी आने वाला था। कुछ सरकारी कागज की कॉपी लेनी थी उससे। इसके लिए एक बड़ी रकम उसे देनी थी। उसका कहना था कि रकम कई जगह बंटेगी। हम दोनों उस का इंतजार करते हुए चाय पकौड़ी का भी मजा ले रहे थे। इस महीने उम्मीद से कहीं ज़्यादा हम दोनों सफल हो रहे थे। तभी मैंने फिर पूछा कौन सा काम कर रहे थे जो बात नहीं की छुट्टी में।
पेंटिंग की बात उठाई तो उसने जो बताया उससे हंसी रुक ही नहीं रही थी। आश्चर्य अलग हो रहा था कि शकबू और इसकी बीवी वाकई कमाल के हैं। शकबू ने एकदम खुले शब्दों में बताया कि उस दिन सारे स्केच पेन शाजिया के बदन पर खर्च कर दिए। शरीर के अंग-अंग पर उसने पेंटिंग की थी। क्या-क्या डिजाइन बनाई सब बताया। मैं दंग रह गया उसकी इस हरकत से। और आश्चर्य में भी पड़ गया कि शाजिया भी इसके चक्कर में पड़ गई। बाद के दिनों में मालूम हुआ कि शकबू ने उसे मजबूर कर दिया था।
आज जब सुनता हूं दुनिया में बॉडी पेंटिंग के बारे में तो मन ही मन कहता हूं मेरा शकबू तो दशकों पहले यह करता रहा है। वह भी अपनी बीवी के बदन पर। आज लोग नया क्या कर रहे हैं? हमारी शकबू की दोस्ती पर निश्चित ही एक शानदार फ़िल्म बन सकती है। जो सुपरहिट हो सकती। एक बार कार लेने की बात आई। उस समय देश में कार के नाम पर केवल एम्बेसडर, और फिएट ही आती थीं।
 फिर वह दौर शुरू हुआ जब भारत में मारूति कार की शुरुआत हुई। और इसके साथ ही भारत में कारों की दुनिया ही बदल गई। मारूति-800 बाज़ार में आई। हम दोनों मित्रों ने यह कार ली। मगर जो कलर शकबू को चाहिए था वह ऐन टाइम पर नहीं आया। मैंने अपनी कार भी उस दिन नहीं ली। जब आया मनपसंद कलर तो हम दोनों ने एक साथ ली। हालांकि घर के लोगों ने उत्साह के चलते थोड़ा मुंह जरूर फुलाया था।
इस बात का अंदाजा ना जाने कैसे शकबू को हो गया। उसने हमसे कहा लाला तुम्हारे चक्कर में हम गुनाह कर बैठे। इसके लिए तुम्हारे घर वालों से माफी मांगनी पड़ेगी। कल जुमा है, नमाज के समय अल्लाह-त-आला से दुआ करूंगा कि मुझे इस गुनाह के लिए माफ करें। और मेरे यार लाला को इस बात की तौफीक अता फरमाएं कि वह ना कोई गुनाह करे और ना ही मुझसे करवाए।मैं परेशान हो गया कि कौन सा गुनाह हो गया मुझसे। बार-बार पूछने पर भी नहीं बताया। चेहरा ऐसा गंभीर बनाए रहा कि मेरी परेशानी बढ़ती गई। अगले दिन घर पर आया, यह कह कर माफी मांगी कि उसकी वजह से आप लोगों की कार आने की खुशी मनाने का समय आगे खिसक गया। उसने यह कह कर पल भर को मुझे बड़ा भावुक बना दिया।
असल में  शकबू एक ऐसा व्यक्ति था जो ऊपरी तौर पर बड़ा लापरवाह, मस्तमौला दिखता। लेकिन वह वास्तव में था इसका एकदम उलटा। एक अध्ययनशील और हर विषय पर विश्लेषण करने वाला व्यक्ति था। किसी चीज को एकदम स्वीकार करने को वो कतई तैयार नहीं होता था। किसी बहस यहां तक कि कोर्ट में विपक्षी वकील से बहस के दौरान भी कोई बात सामने आ जाती तो वह उसकी तह तक पहुंचने के लिए मुकदमा समाप्त हो जाने के बाद भी लगा रहता।
एक बार फुर्सत के क्षणों में ही मुझसे हल्की-फुल्की बहस चल रही थी। मैंने कह दिया कि देखो इस्लाम तो चौदह सौ साल पहले आया। उसके पहले सारे मुसलमान खासतौर से दक्षिण एशिया के वह सब हिंदू थे। बाद में जो मुसलमान बने उनमें नाम मात्र का प्रतिशत छोड़ दें तो बाकी सब तलवार के जोर पर बने। तू भी अपनी पूर्व की पुश्तों का पता कर हिंदू ना निकले तो कहना।
वह मानने को तैयार ना हुआ। लेकिन तुरंत कोई जवाब उसके पास नहीं था। तो भी वह बोला लाला तेरी बात में दम है। ऐसी बात कही है कि मुझे अब अपनी पुश्तों के बारे में खोजबीन करनी ही पड़ेगी। आखिर पता तो चले कि हमारी जड़ है कहां?’ मैंने समझा कि शकबू ने ऐसे ही कह दिया है। लेकिन मैं गलत था। शकबू जी जान से ढूढ़ने लगा अपनी जड़। इसमें छः साल का समय लगा दिया। मैं बार-बार कहता यार क्यों इस निरर्थक काम में पैसा, समय बरबाद कर रहे हो।इस चक्कर में वह कई बार देश के विभिन्न राज्यों के चक्कर लगा आया था। एक बार तो नोबेल प्राइज विनर राइटर वी.एस. नायपॉल का नाम लेते हुए कहा कि जब वह अपनी जड़ें  ढूढ़ने दूर देश से यहां आ सकते हैं तो मैं कम से कम अपने देश में ही ढूंढ़ रहा हूं।शकबू की छः साल की मेहनत रंग लाई।
उसने खानदान का छः पीढी पहले तक का पूरा इतिहास ढूंढ़ लिया। इस सिजरे के हिसाब से उसकी छहवीं पीढ़ी आज के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की रहने वाली थी। उसका खानदान सामंती खानदान था। छहवीं पीढ़ी के मुखिया ठाकुर बलभद्र सिंह थे। उनसे छोटे पांच और भाई थे। बलभद्र सिंह वहीं एक राजा के यहां फौज में बड़े ओहदे पर थे। बाकी भाइयों के पास दो-दो, चार-चार गांवों की जमींदारी थी।
अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ अठारह सौ सत्तावन की बगावत में राजा ने भी हिस्सा लिया। जब स्वतंत्रता सेनानियों की हार हुई तो अंग्रेजों ने ढूंढ़-ढूंढ़ कर उनका कत्लेआम शुरू किया। राजा और बलभद्र सिंह सहित परिवार के भी अधिकांश लोगों का अंग्रेजों ने कत्ल कर दिया। परिवार के कुछ सदस्य छोटे भाई वीरभद्र के साथ बच निकलने में कामयाब रहे। काफी समय तक वह किसी पर्वतीय क्षेत्र में छिपे रहे। वहीं पास में कटास राज शिव मंदिर है। जो ईसा से करीब तीन सौ वर्ष पूर्व का माना जाता है।
कई बार वीरभद्र इस मंदिर में छिप कर अंग्रेजों से खुद को बचा पाए थे। इस पवित्र मंदिर के सरोवर का जल तब कई दिन उनके परिवार का जीवन बन गया था। कहते हैं यह सरोवर भगवान शिव के आंसू से बना है। माता सती के शरीर त्याग से भगवान शिव के आंखों से दो बूंद आंसू टपके थे। एक बूंद यहां कटास राज में गिरी। दूसरी राजस्थान के पुष्कर में। जो तीर्थराज पुष्कर बना।
 शकबू ने बताया यही वीरभद्र सिंह बचते-बचते परेशान हो गए तो वहां से किसी तरह निकल कर बंगाल पहुंच गए। इस बीच बीतते समय के साथ अंग्रेजों की खोजबीन कम हुई। तो वहीं बंगाल में किसी छोटी-सी स्टेट में नौकरी कर ली। अंग्रेजों की पिट्ठू उस स्टेट में वह अपने को छिपाए रखने में सफल रहे। समय बीतता रहा। हालात फिर बदले, परिवार यहां से फिर भाग कर आज के पाकिस्तान के सिंध प्रांत पहुंच गया। फिर वहीं बस गया। मगर इस परिवार के लिए एक जगह रुकना जैसे अभिशाप बन गया था।
जैसे-जैसे हिंदुस्तान की आजादी करीब आती गई। जिन्ना का दो राष्ट्र का सिद्धांत जोर पकड़ता गया। जल्द ही यह तय हो गया कि विभाजन होकर रहेगा। अब शकबू के परिवार ने फिर निर्णय लिया कि जहां वह है वह हिस्सा पाकिस्तान में जाएगा यह तय है। और हालात जैसे हैं, उससे यह भी तय है कि बड़े पैमाने पर हिंसा होगी तो क्यों ना यह स्थान समय रहते ही छोड़ दिया जाए?
इस मुद्दे पर परिवार दो हिस्सों में बंट गया। एक वो जो हर सूरत में वहां से नहीं हटना चाहता था। जो होगा देखा जाएगा की सोच लिए वहीं रहने को अडिग था। तो दूसरा गुट हर हाल में हटना चाहता था। क्योंकि उसका मानना था कि हिंदू बहुत कम हैं, वह दंगों में मारे जाएंगे। यही गुट अंततः वहां से पानीपत के पास आकर बस गया।
शकबू कहता लाला देश बंट गया। खून से लथपथ आज़़ादी तो बाद में मिली। लेकिन पानीपत में आ बसे हमारे पुरखे उन्नीस सौ चालीस के करीब ही ना जाने किन परिस्थितियों में हिंदू धर्म छोड़ कर मुसलमान बन गए। इस स्थित में परिवार की दो बुजुर्ग महिलाओं ने आत्महत्या कर ली कि वह अपना धर्म नहीं छोड़ेंगी। और कुछ सदस्यों ने परिवार से नाता तोड़ लिया। कहीं और चले गए। कहां गए उनका कुछ पता नहीं कर पाया। और लाला मैं इस्लाम ग्रहण करने वाले गुट का वंशज हूं।
बेहद उदास स्वर में एक दिन शकबू ने कहा था। लाला परिवार के जिस गुट ने जिस वजह से सिंध छोड़ कर पानीपत में शरण ली थी। वही गुट मुसलमान बना, बंट गया। दो सदस्य आत्म हत्या कर लेते हैं। जो गुट सिंध में ही डटा रहा वह आज भी हिंदू है। लाला सच कहूं तो मुझे जब अपने खानदान की कहानी याद आती है ना तो मुंह से यही निकलता है कि इस पृथ्वी पर सियासत से गंदी चीज, घिनौनी चीज कोई नहीं है। हिंदुस्तान के जो टुकड़े हुए, लाखों लोगों के खून से जो यह धरती लाल हुई, इसी सियासत के कारण हुई।
शकबू जब यह कहना शुरू करता तो गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठता था। कहता यह देश कभी न बंटता। लाखों लोग कभी मारे ना जाते। बहू, बेटियों की इज्जत ना लूटी जाती। बच्चों का कत्लेआम ना होता। मगर सियासी खेेल ने यह सब कराया। विश्व युद्ध के बाद तो पस्त हो चुके अंग्रेज ऐसे भी कुछ सालों से ज़्यादा हिंदुस्तान को अपने कब्जे में ना रख पाते। मगर अंग्रेजों की तरह पस्त हो चुके उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके हमारे बहुत से नेताओं में भी धैर्य खत्म हो चुका था। सत्तालोलुपता बढ़ गई थी। यही कारण था कि आनन-फानन में अंग्रेजों की साजिश समझते हुए भी देश का बंटवारा स्वीकार कर लिया गया। कत्लेआम होता है तो होने दो। हमारे सपने पूरे हों बस यही सोचा और करा गया। अहिंसा का ढिंढ़ोरा पीटने वालों को मैं इसके लिए ज़्यादा जिम्मेदार मानता हूं। लाला अगर यह ना हुआ होता तो मेरा खानदान यूं टूट-टूट कर बिखरा ना होता। लोग बेमौत ऐसे ना मरते।
लाला मेरा कलेजा तड़प रहा है पाकिस्तान जाकर उस कटास राज मंदिर के दर्शन को जिसने अंग्रेजों जैसे जालिमों से मेरे परिवार को बचाया। जिसे घिनौनी सियासत ने तबाह किया। मैं वहां जाकर अपने खानदान के बचे हुए लोगों को गले लगाना चाहता हूं कि भाई मैं तुम्हारा खून हूं। उन्हें उनकी हिम्मत की दाद देना चाहता हूं कि पाकिस्तानी सरकार, कट्टरपंथियों के तमाम जुल्मों-सितम के बाद भी तुम अपना अस्तित्व बचाए हुए हो।शकबू एक बार इतना भावुक हुआ कि यह सब बताते-बताते रो पड़ा। बोला यार वहां के जैसे हालात हैं उससे तो नहीं लगता कि अब वो भी अपना अस्तित्व ज़्यादा दिन बचा पाएंगे। कट्टरपंथियों के जुल्म वहां बढ़ते ही जा रहे हैं। मैं सोच रहा हूं कि किसी तरह उनके पास पहुंचूं और उन्हें भारत में आकर बसने के लिए तैयार करूं।
कटासराज मंदिर
सन् 2005 में जब पाकिस्तानी सरकार ने अंतरराष्ट्रीय दबावों, नियमों के चलते कटास राज मंदिर और उसके करीब के मंदिरों के पूरे समूह के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया तो शुभारंभ के लिए भारत से भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बुलाया। शकबू ने उसी समय वहां जाने की सोची। मगर ऐन वक्त पर कागज पत्रों में कोई कमी आ गई। वह नहीं जा पाया। तब उसने हफ्तों चुन-चुन कर ज़िम्मेदार लोगों को एक से एक गंदी-गंदी गालियां दीं।
मगर जिद्दी शकबू तीन महीने बाद कटास राज मंदिर गया। भरसक अपने खानदान को ढूंढ़ा। मगर निराश लौटा। आते समय मंदिर के पवित्र सरोवर का जल ले आया था। मुझे भी दिया था। कहा था लाला जानते हो मुझे इस जल में अपने खानदान के लोगों के अक्स दिखते हैं।यह संयोग देखिए कि बाद में पाकिस्तानी सरकार ने भी आडवाणी को उस पवित्र सरोवर का पवित्र जल भेजा था। शकबू ने बड़ा दुख व्यक्त किया था वहां के अल्पसंख्यकों और उनके पूजा स्थानों की दयनीय हालत पर। उन पर होने वाले बर्बर अत्याचारों पर। इसके लिए वह पूरी तरह से सियासतदानों, मज़हबी धर्मांधों को दोषी ठहराता।
कटासराज मंदिर
मेरा शकबू एक ऐसा इंसान था जो सामने वाले को एक लापरवाह, मस्तमौला मुंह फट इंसान दिखता। लेकिन सच में वह अंदर-अंदर चिंतन मनन मंथन करने वाला व्यक्ति था। वह तमाम मुद्दों पर आए दिन कुछ न कुछ ऐसी बातें कहता जो गहन चिंतन मनन के बाद ही हो सकती थीं। पाकिस्तान से लौटने के महीने भर बाद एक दिन उसने कहा लाला सियासती चालों ने हिंदुस्तान को कितना सिकोड़ दिया है। पाकिस्तान, बंगलादेश बन गए। अंग्रेजों, अन्य बहुतों ने सियासत ने हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन को लड़ा-भिड़ा कर अलग कर रखा है। अगर इन सबको जोड़ दो तो मुझे लगता है विश्व में सब से बड़ी संख्या हिंदुओं की है।
फिर एक दिन बोला कि जो लोग यह कहते, सोचते हैं कि शिक्षा के विस्तार के साथ आतंकवाद समाप्त हो जाएगा वो मूर्ख हैं। सही मायने में जाहिल हैं।फिर तमाम वैश्विक आतंकी घटनाओं का ब्यौरा रख कर बोला इन घटनाओं को अंजाम देने वाले अधिकांश पढे़-लिखे थे। वास्तव में जब तक यह भावना रहेगी दुनिया के किसी भी धर्म में कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है। इसको मानने वाले को ही जीने का हक है। तब तक दुनिया से अशांति, जंग, आतंक खत्म नहीं होगा।मैं कहता इतना सोचते हो तो आगे बढ़कर दुनिया बदल डालने की कोशिश क्यों नहीं करते?’ तो हंस कर कहता। लाला अपनी क्षमता जानता हूं। तथ्य यह है कि मैं चिंतन मनन कर सकता हूं लेकिन जहां तक बदलने का सवाल है, मैं दुनिया तो क्या अपना मोहल्ला, अपना परिवार बदलने की भी क्षमता नहीं रखता।
ऐसा बेबाक शकबू अपनी नई बेगम शाहीन को लाने के कुछ महीनेां बाद ही मुझे टूटता हुआ दिखा। पस्त और हारता दिखा। दो महीना भी पूरा नहीं हुआ था कि एक दिन बोला लाला कुछ समझ नहीं पा रहा हूं कि शाहीन को लाकर गलत किया या कि सही।मैंने कहा ऐसा सोचने की जरूरत क्यों पड़ी? अब तो तौफीक तुमसे और शाहीन से अच्छे से पेश आने लगा है। शाहीन से तो वह इतना घुल-मिल गया है कि लगता ही नहीं कि यह वही व्यक्ति है जो कुछ महीने पहले उस महिला को देखना भी नहीं चाहता था। यह तो तुम बता ही चुके हो।तो शकबू बोला। हां कहा तो था, सही ही कहा था। लेकिन यार मुझे अब जो चीज परेशान कर रही है वह है शाहीन का विहैवियर। जो इन दिनों खुलकर सामने आ गया है।मैंने कहा उसके व्यवहार में ऐसा क्या हो गया कि तुम्हारे जैसा आदमी चार दिन में इतना चिंता में पड़ गया।
शकबू बोला लाला असल में मुझे लगता है इस उम्र में शाहीन को लाकर मैंने गलती कर दी। और शाहीन को कहूंगा कि उसने मेरे जैसे उम्रदराज आदमी से एक जवान की अपेक्षा करके मूर्खता की। तुम जब मना करते थे कि यह कदम ना उठाओ। वह एक युवती है। गर्म खून है। एक दहकती भट्टी है। शांत नहीं कर पाओगे उसकी आग। तो नहीं सुनता था तुम्हारी बात। आंख, नाक, कान, सब तो उसकी बदन की तपिश ने बंद कर दिए थे।
तुम्हारी बात सच निकल रही है। वह तुम्हारे अनुमान से कहीं ज़्यादा धधकती हुई है। इतना ही नहीं अपनी आग शांत करने के लिए एक तरह से मुझसे ज्यादती भी करती है। फिर भी शांत नहीं होती। वह एक जलजले की तरह टूट पड़ती है। मुझे डर लगता है कि कहीें कोई रात! रात ही क्यों कोई भी दिन मेरे साथ किसी हादसे का दिन ना बन जाए। जब टोकता हूं तो बड़ी बेशर्मी से लड़ पड़ती है कि एक जवान लड़की की तरफ कदम बढ़ाते वक्त सोचा नहीं था। मैं जवाब देता हूं तो तुमने क्यों नहीं सोचा एक बूढ़े व्यक्ति की तरफ कदम बढ़ाते हुए। यह सुनते ही और भड़क जाती है। कहती है यह काम तुम्हारा था मेरा नहीं।
अभी दो दिन पहले ही सारी प्रॉपर्टी अपने नाम लिखने को कह दिया। लाला मैं वाकई में उसके सामने पस्त हो जाता हूं। आगे का रास्ता बड़ा बेढब नजर आ रहा है।इसके बाद शकबू जब भी बात करता शाहीन की ही बात करता। निकाह से पहले जहां उसको लेकर तमाम फूहड़ अश्लील बातें करता था। वहीं अब उसके कारण हो रही तकलीफों की बातें करता। और शाजिया को बीच में जरूर लाता। कि वह बेमिसाल थी। वैसी नेक दिल औरत शायद ही कोई हो। ना जाने तब कौन सा शैतान हावी हो गया था मुझ पर कि उसकी कदर ना की। ऐसा जख्म दिया कि मर गई।
कुछ ही दिन बीते होंगे कि शकबू मिलने के लिए घर आया। कुछ ही देर में यह कह कर मेरे होश उड़ा दिए कि तौफीक और शाहीन के बीच संबंध हैं। मैंने चौंक कर कहा शकबू क्या पागलपन है। तुम वाकई सठिया गए हो। यह कहते हुए तुम्हें संकोच नहीं हुआ। अरे कुछ तो शर्म करो। रिश्ते का कुछ तो ख्याल रखो।इस पर वह गंभीर होकर बोला, ‘मैं जानता था कि तुम भी यकीन नहीं करोगे। जब तुम नहीं सुन पा रहे हो तो और कौन है मेरा सुनने वाला? तुम तो शाजिया से भी पहले मेरे सुख-दुख के साथी रहे हो। लेकिन आज तुम भी यकीन नहीं कर पा रहे हो। वाकई अब मैं सचमुच अकेला हो गया हूं इस दुनिया में। अब यह दुनिया मेरे लिए नहीं है। चलता हूं लाला... अब तक जो कहा सुना हो माफ करना।यह कहते-कहते शकबू की आंखें भर आई थीं।
वह कुर्सी से उठने को हुआ तो मैंने उसे फिर बैठा दिया। मैं भी भावुक हो गया था। मेरी भी आंखें नम हो गईं थी। मैंने कहा कैसी बात करते हो शकबू। जीते जी तुम्हें छोड़ने की सोच भी नहीं सकता। दुबारा यह कभी न कहना, सोचना भी नहीं। मगर तुम जो कह रहे हो यह भी तो हो सकता है कि वह तुम्हारा वहम हो।इस पर शकबू ने कई ऐसी बातें बताईं जो उसके शक को पुख्ता कर रही थीं। मगर मैं फिर भी यकीन नहीं कर पा रहा था। शकबू को किसी तरह समझा-बुझा कर घर भेजा कि यकीन करो कि ऐसा कुछ नहीं होगा। इसके दस-बारह दिन बाद ही एक दिन सवेरे-सवेरे शकबू का फ़ोन आया कि तबियत बहुत खराब है। डॉक्टर के यहां चलना है। यहां किससे कहूं कोई सीधे मुंह बात नहीं कर रहा।
मैं ड्राइवर लेकर पहूंचा तो देखा तौफीक था नहीं, शाहीन कुछ काम से कह कर घंटे भर पहले निकल गई थी। वह पी. एच. डी. कर रही थी। अपनी थीसिस पूरी करने में लगी थी। शकबू यही बताता था। उसने रास्ते में यह भी बताया कि शाहीन पिछले दस दिन से उसके साथ कमरे में नहीं सो रही है। साथ ही यह भी जोड़ा कि दिन हो या रात तौफीक, शाहीन की हंसी, ठिठोली यहां तक की छीना-झपटी भी चलती रहती है। लगता है जैसे नवविवाहित जोड़ा है। उसे इस तरह इग्नोर करते हैं जैसे वह वहां है ही नहीं।मैं उसकी बातें सुन-सुन कर परेशान होता रहता कि आखिर अपने मित्र का दुःख दूर कैसे करूं? मगर जैसे शकबू के लिए इतना ही दुख काफी नहीं था।
डॉक्टर ने किडनी, लीवर में गंभीर समस्या बता दी। इतनी गंभीर कि जान को खतरा है। और ट्रीटमेंट पी.जी.आई. में ही संभव है। तौफीक, शाहीन को खबर कर दी थी लेकिन मैं डॉक्टर से शकबू का चेकप करवा कर घर पहुंच गया मगर वह दोनों घंटे भर बाद पहुंचे। मैंने उन दोनों को शकबू की बीमारी के बारे में बताया तो शाहीन बड़ी लापरवाही से बोली थी अरे प्राइवेट डॉक्टर ऐसे ही बढ़ा-चढ़ा कर बोलते हैं। मुझे कोई बड़ी प्रॉब्लम नहीं दिखती।
लेकिन मेरे और शकबू के प्रेशर में उसे पी.जी.आई. में दिखाया गया। शक सही था बीमारी बेहद गंभीर हो चुकी थी। बड़े सोर्स के बाद पांचवें दिन भर्ती किया गया। वहां दो महीने ट्रीटमेंट के बाद शकबू ठीक हुआ था। हॉस्पिटल में मैं उसे देखने रोज जाता था। बिना नागा। लेकिन तौफीक, शाहीन कई बार ऐसा भी हुआ कि पहुंचे ही नहीं। कई बार मेरे बेटे ने परिवार के एक सदस्य के वहां होने की भूमिका पूरी की।
शकबू जब ठीक होकर घर पहुंचा तो बहुत कमजोर था।
अब मुझे शाहीन से कोई उम्मीद नहीं थी। उसका शकबू को लेकर बेरूखापन अब मैं भी साफ देख रहा था। शकबू ने मेरी सलाह पर एक नौकर रख लिया। जो उसकी देखभाल कर सके। देखते-देखते तीन महीने निकल गए, शकबू पूरी तरह ठीक हो गया। मगर फिर भी उसे पूरी देखभाल की जरूरत थी। इस बीच मैंने देखा कि तौफीक और शाहीन को मेरा वहां जाना अच्छा नहीं लग रहा है। उनकी बेरूखी जब ज्यादा हो गई तो मैंने जाना कम कर दिया।
फ़ोन पर शकबू के संपर्क में रहता। उससे यह सब बात नहीं बताई कि वह और दुखी होगा। ना जाने की वजह बताते हुए उसे कुछ ना कुछ बहाना बना देता था।  जल्दी ही शकबू हालात से इतना हार गया कि फोन पर रो देता। मेरा मन उसका रोना सुनकर तड़प उठता। उसके आंसुओें की रोज-रोज एक ही वजह थी शाहीन। शकबू रोज उसकी एक-एक हरकत बताता।
कहता अपनी आंखों से कुकर्म का यह नंगा नाच देखने से अच्छा है कि मैं मर जाऊं। अब बर्दाश्त नहीं होता। दोनों की बेशर्मी इस हद तक बढ़ गई है कि मेरी कोई परवाह ही नहीं। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे मुझे चिढ़ा-चिढ़ा कर, दिखा-दिखा कर सब किया जा रहा है।'
शकबू कहता कि तौफीक तो लगता है जैसे मुझसे बदला ले रहा है।शकबू की तकलीफ से मेरा तन-मन खौल उठता। मन करता जाऊं और सारे फसाद की जड़ उस चुड़ैल को बालों से पकड़ कर खींचते हुए बाहर फेंक दूं। जब बात चलती तो सुगंधा भी उसे कोसती। शकबू शाहीन के बीच मधुर संबंधों की कुल मियाद मात्र दो महीने रही। उसके बाद उनके बीच छत्तीस का आंकड़ा चलता रहा। एक दिन सुबह सुगंधा के साथ बैठा चाय पी रहा था कि तभी शकबू का फोन आया, नंबर उसका था लेकिन बात उसका नौकर दानिश कर रहा था। उसने हांफते हुए कहा साहब जीने से गिर गए हैं। उनकी हालत बहुत गंभीर है।मैंने कहा तुरंत आ रहा हूं।
उसकी आवाज से मैं समझ गया था कि मामला बेहद गंभीर है। पहुंचा तो देखा खून से सने कपड़ों को पहने शकबू बेड पर पड़ा है। डॉक्टर मरहम पट्टी करकेे उन्हें हॉस्पिटल ले जाने को कह रहा था। शकबू होश में था। मुझे देखते ही उसकी आंखों से आंसू झरने लगे। उसने बड़े अस्पष्ट शब्दों में कुछ कहा जिसका आशय समझते ही मेरा खून खौल उठा। मैंने जलती नजर तौफीक और शाहीन पर डाली। लेकिन स्थिति की नजाकत को देखते हुए किसी तरह खुद को रोका क्योंकि तब शकबू को हॉस्पिटल पहुंचाना पहला जरूरी काम था। शकबू को लेकर ट्रामा सेंटर पहुंचे।
मेरा जिंदादिल, मेरे बचपन का यार, दुनिया के बड़े-बड़े लोगों पर जीत हासिल करने वाला अपनी नामुराद औलाद, बेगम के छल-कपट, व्यभिचार के आगे परास्त हो गया। ट्रामा सेंटर से बीस घंटे बाद उसका शरीर उसके घर लाया गया। जो सही मायने में घर कहां मकान रह गया था। घर के नहीं मकान के खूबसूरत लॉन में अपने यार को एक सफेद कफन ओढे़ लेटा देखकर मेरा मन, दिल चीत्कार कर उठा। लाख रोकने के बावजूद आंसू बह चले। मेरा यार कमीनी औलाद के चलते आखिर में मुझसे अपनी बात भी ठीक से कह नहीं पाया था।
मन में आया कि पुलिस को सच बताकर दोनों नामुरादों को उनके किए की सजा दूं। पहुंचा दूँ फांसी के फंदे पर। अपने यार के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए फिर से पहन लूं अपना वह काला लाबादा और जज से कहूं कि यही दोनों हैं मेरे यार के कातिल। मैं हूं चश्मदीद गवाह, ये दफा तीन सौ दो के अपराधी हैं। इन्हें  मौत की सजा दीजिए।
 यह एक रेयर ऑफ रेयरेस्ट केस है। यह लोगों के लिए एक नजीर बनना चाहिए। मगर ठहर गया यह सोचकर कि दुनिया में अपने यार की थुक्का-फजीहत नहीं कराऊंगा। यह कराने से अब मेरा शकबू लौट तो आएगा नहीं। पोस्टमार्टम अलग होगा। यार की मिट्टी नहीं खराब कराऊंगा। दिल पर पत्थर रख कर अपने प्यारे शकबू को सुपुर्दे खाक किया। फिर लौट कर उसके घर की तरफ कभी रुख नहीं किया।
आज होटल का यह विज्ञापन देख कर। उसकी पंद्रहवीं मंजिल के स्विमिंग पूल को देखकर कभी इसी शहर के एक होटल में बिताई एक रात याद आ गई। जब हम दोनों यार अपनी बेगमों के साथ शादी के कुछ महीनें के बाद की एक रात जी रहे थे। शकबू होता तो निश्चित ही यह ऐड देखकर फोन करता कि लाला क्या ख़याल है इस रूफ टॉप स्विमिंग पूल के बारे में। लाला कुछ तो होना ही चाहिए।फिर ठठा कर हंस पड़ता। सुगंधा मेरी आदत को जानते हुए फिर एक कप ऑर्गेनिक टी लिए हुए आई। मगर मन इतना कषैला हो गया था कि मैंने चाय पीने से मना कर दिया। काश शकबू में भी कुछ चीजों को मना करने की आदत होती। 

     प्रदीप श्रीवास्तव 

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