बुधवार, 27 मार्च 2019

कहानी : आओ थेरिओं : प्रदीप श्रीवास्तव

आओ थेरियों
प्रदीप श्रीवास्तव
मनू मैं अक्सर खुद से पूछती हूं कि सारे तूफ़ान वाया पश्चिम से ही हमारे यहां क्यों आते हैं, कोई तूफ़ान यहीं से क्यों नहीं उठता। सोचने पर पाती हूं कि गुलामी की जंजीरें जरूर सात दशक पहले ही टूट गईं, लेकिन मैं मानती हूं कि मानसिक गुलामी से मुक्ति सच में अब भी बाकी है। यही कारण है कि जब किसी चीज पर विदेशी ठप्पा लग जाता है तभी हम उसे मानते-समझते हैं। उस पर ध्यान देते हैं। हैशटैग मी-टूका तूफ़ान भी भारत में तब असर दिखा रहा है जब पश्चिम में यह बहुत पहले से ही अपनी चपेट में बड़ों-बड़ों को समेट चुका है। अभी जल्दी ही एक बहुत बड़ा अमरीकी सैन्य अधिकारी इसकी चपेट में आ गया। जब वहां की पहली फाइटर प्लेन पायलट ने एक समिति के सामने अपने यौन शोषण का राज खोल दिया कि शुरुआती दिनों में उस अधिकारी ने बर्बरतापूर्वक उसका शोषण किया था।
अपने यहां की बात करें तो अंग्रेजीदां लोगों या मानसिकता वाले या ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि मैकाले के मानस पुत्रों के बीच भले ही हैशटैग मी-टूस्टॉर्म कहा जा रहा हो, लेकिन सच यह है कि हिंदी जगत या ऐसे कहें कि गैर अंग्रेजीदां जगत में यानी हिन्दुस्तान में तथाकथित स्टॅार्म अभी दरवाजे के आस-पास भी नहीं पहुंचा  है। मैं जितना जानती हूं उसी आधार पर कह रही हूं कि इस तथाकथित स्टॉर्म की गैर अंग्रेजीदां जगत में अभी आहट भी नहीं सुनाई दे रही है। इसकी हवाएं अभी तूफ़ानी रूप लेने लायक ऊर्जा ग्रहण ही नहीं कर पाई हैं। मुझे लगता है कि अंग्रेजीदां जगत में भी यह स्टॉर्म क्षणिक समय के लिए ही है।
मनू मौसम वैज्ञानिकों की तरह मैं भी इस स्टॉर्म की हवाओं का रळख पढ़ने की कोशिश बराबर कर रही हूं। मेरा आकलन यही कहता है कि जब हम मी-टूका भारतीय संस्करण सामने लाएंगे तभी सही मायने में यह अपने देश में प्रचंड तूफ़ान बनेगा। और यह भी साफ कह दूं कि गैर अंग्रेजीदां दुनिया में ही बनेगा। हवाओं का रुख बता रहा है कि जब प्रचंड तूफ़ान बनेगा तो भारत की आधी दुनियाकी दुनिया ही बदल जाएगी। छोटे गांवों तक में आधी दुनियासे मर्दवादी सोच, व्यवस्था, तौर-तरीके दूर भागेंगे। पूरे समाज में एक ऐसे बदलाव का युग शुरू होगा जिसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति का खोया वह युग वापस आएगा, जब शासन-प्रशासन, अध्ययन-अध्यापन से लेकर कला-संस्कृति, घर के आखिरी कोने तक में आधी दुनियाका बराबर का वर्चस्व था।
मनू हवाओं के रुख पर मेरा आकलन यह भी है कि ऐसा प्रचंड तूफ़ान किसी उच्चवर्गीय महिला या उनके साथ जुड़ती, बढ़ती जा रही महिलाओं के प्रयासों से नहीं आएगा। जिनके लिए एक बड़े लेखक ने लिखा है कि, ‘ये खाई-अघाई आउटडेटेड महिलाओं का फ्रस्ट्रेशन है जो बीस-बीस साल बाद आरोप लगाकर एक बार फिर से लाइमलाइट में आने का भोंडा प्रयास कर रही हैं। यह उनका एक भोथरा प्रयास है। जब उनका यौन शोषण हुआ तब क्या पुलिस, न्यायालय, मीडिया नहीं था।
लेकिन मनू मैं एक महिला होने के नाते इन बातों को खारिज करती हूं। मैं लेखक महोदय से कहना चाहती हूं कि उच्चवर्गीय जिन भारतीय महिलाओं ने पश्चिम के मी-टूस्टॉर्म को भारत में खड़ा करने का प्रयास किया है, इनका जब शोषण हुआ था तब यह सब एक स्ट्रगलर थीं। तब यह ना खाई-अघाई की सीमा में थीं। ना तृप्त-अतृप्त की सीमा में थीं। तब यह सिर्फ़ स्ट्रगलर थीं। अपनी-अपनी फ़ील्ड में कॅरियर बनाने के लिए संघर्षरत थीं। जहां उन्हें हर तरफ मर्दवादी सोच वाली भीड़ से सामना करना पड़ रहा था। ए टू ज़ेड हर जगह इसी भीड़ का कब्जा था। पैर रखने के लिए भी इन महिलाओं को संघर्ष करना पड़ रहा था। आज भी स्थिति कोई बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। बस बदलाव की एक हल्की-हल्की बयार चल रही है।
आज अगर निष्पक्ष आंखों से देखें तो इन महिलाओं ने मर्दवादी सोच वालों की मुट्ठी में जकड़ी अपनी दुनिया छीन कर अपने पैर जमाए और अपनी मंजिल पाई। इस दृष्टि से यह सभी महान विजेताएं हैं। इनका जितना मान-सम्मान हो उतना ही कम है। मैं तो कहूंगी कि अभी सवा सौ करोड़ के देश में कुछ महिलाओं ने ही चंद बातें ही दुनिया के सामने साझा करके अपने देश में स्टॉर्मं पैदा करने का प्रयास किया है। और इतने से ही बड़े-बड़े दिग्गज छिपने के लिए अंधेरा ठिकाना ढूंढ़ रहे हैं, लेकिन उन्हें अपना चेहरा छिपाने लायक एक अंधेरा कोना भी नहीं मिल पा रहा है।
मीडिया के दिग्गजों को भी नहीं। मनू ये आज की दुनिया के वो दिग्गज हैं जो दुनिया के हर क्षेत्र के लोगों की बखिया उधेड़ते रहते हैं। सबके स्याह-सफेद को उजागर करते हैं, लेकिन खुद हर तरह के दल-दल में धंसे रहते हैं। इनके स्याह कारनामों को दुनिया के सामने उजाले में लाने का साहस कोई नहीं करता। मीडिया का एक अदना सा संवाददाता भी खाकी से लेकर सफेद वर्दीधारी नेताओं पर भी रौब झाड़ ले जाता है। ये लोकत्रांतिक युग की दुनिया के वास्तविक हिटलर हैं। ऐसे में संपादक की हैसियत कितनी बड़ी होती है, वह कितना ताकतवर बन जाता है मनू यह बताने की जरूरत नहीं है। ऐसे ही कई पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक, कलम के धनी लेखक संपादक की ताकत का तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता।
ऐसी अकूत ताकत किसी को भी आसानी से लंपट बना सकती है। शक्ति के मद में चूर होकर वह कुछ भी कर सकता है। पिछले दिनों तुमने ऐसे ही एक लंपट के बारे में देखा-सुना होगा मीडिया में। पढ़ा भी होगा। यह उस लंपट की अकूत ताकत ही तो थी कि विदेश राज्य मंत्री बन गया, और भी ताकतवर हो गया। सही मायने में सोने पे सुहागा हुआ। मगर इस मी-टूने ऐसे महाशक्तिशाली आदमी को भी तिनके सा उड़ा दिया। दूर देश के दौरे पर से बीच में ही वापस बुला कर इस्तीफा ले लिया गया। क्योंकि शक्तिशाली सरकार इन चंद औरतों के मुंह खोलने से उत्पन्न हुई स्थिति में प्रचंड तूफ़ान की आहट सुन रही है।
जो किसी झोपड़ी से शुरू होने वाला है। जो किसी झोपड़पट्टी में कहीं गोल-गोल घूम रहा है। जो इतना प्रचंड चक्रवाती तूफ़ान बनने की ऊर्जा स्वयं में समेटे हुए है कि उतनी ऊर्जा आज तक इस पृथ्वी पर आए किसी तूफ़ान में नहीं थी। इन चंद औरतों को खाई-अघाई कह कर उनके काम, साहस, प्रभाव को नकारने की साजिश सफल होने वाली नहीं है। ऐसे साजिशकर्ता भी साजिश करने की सजा भुगतने को तैयार रहें। डरें उस दिन से जिस दिन उनके भी स्याह पन्ने कोई महिला दुनिया के सामने पढ़ देगी। तब वह भी खुद को ना तो अपनी लिखी ढेरों किताबों के पीछे छिपा पाएंगे, ना ही जोड़-तोड़ से बनाए अपने किसी किले में।
मनू सच बताऊं जब यह हैशटैग मी-टूपश्चिम से चला तो मैं इसके बारे में जानने के लिए कुछ ज़्यादा उत्सुक नहीं थी। सोचा वहां तो रिच मैन पर ऐसे आरोप लगा कर पैसा वसूलने की एक परंपरा सी चली आ रही है। हालांकि यह आरोप कई बार सही भी निकलते आ रहे हैं। यह मी-टूउसी का नया वर्जन होगा। लेकिन जब इसने जोर पकड़ा तो इसे लेकर मेरी उत्सुकता बढ़ी। मोबाइल पर ही न्यूज पढ़ने-देखने की सुविधा के चलते मैं हर समय लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने की आदी हो गई हूं। ढूंढ़-ढूंढ़ कर मी-टूसे रिलेटेड खबरें पढ़ने-देखने लगी।
हॉस्पिटल में ड्यूटी हॉवर्स में भी मैं यह करती रहती हूं। नर्सिंग स्टाफ की हेड होने के चलते मुझ पर बहुत सी ज़िम्मेदारियां होती हैं। लेकिन मैं अपना काम जूनियर पर डालकर अपने इस एडिक्शन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा समय निकाल ही लेती हूं। जानती हूं कि यह जूनियर का शोषण है। लेकिन जब-तक यह बात मेरे दिमाग में आई तब-तक मैं इसकी आदी हो चुकी थी। मेरा शोषण मेरे सीनियर करते रहे हैं और यह अब भी चल ही रहा है। यही क्रम नीचे तक चलता चला जा रहा है।
मैं भी जाने-अनजाने इसका हिस्सा बन गई हूं। मगर दिमाग में यह बात आने के बाद मैं इससे मुक्ति के प्रयास में हूं। मैं सिर्फ़ इतने ही प्रयास में नहीं हूं मनू, मैंने जब से तनुश्री और फिर बाद में अन्य महिलाओं का साहस देखा, जिनकी हिम्मत, पाप के खिलाफ उठ खड़े होने के जज्बे के कारण एक पूर्व संपादक, लेखक, केंद्रीय मंत्री को रास्ते पर ला खड़ा किया तब से मेरे मन में भी बवंडर उठा हुआ है। तनुश्री के बाद जिस तरह से विनता, प्रिया सहित तमाम महिलाएं उठ खड़ी हुईं उसके बाद से मैं तुम्हें सच बताऊं मैं एक दिन भी चैन से सो नहीं पाई हूं।
मनू मेरे दिमाग में, मन में कुछ झनझनाहट तो तभी हुई थी जब साऊथ इंडियन हीरोइन श्री रेड्डी ने अपने यौन शोषण के खिलाफ सड़क पर टॉपलेस होकर प्रदर्शन किया था। लेकिन देखो तब मैं बेचैन नहीं हुई। यह हमारी गुलाम मानसिकता का कितना बड़ा उदाहरण है कि जब इस पर पश्चिमी टैग हैशटैग मी-टूलग गया तब हमारा मन बेचैन हो उठा। यानी मेरा दिमाग मी-टूकी तरफ गया तो मैं भनभना कर उठ बैठी। सच में मनू उसके बाद से ही मैं ना ठीक से खा पा रही हूं, ना सो पा रही हूं, ना ही ठीक से ड्यूटी दे पा रही हूं।
पहले जहां इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर ही लगी रहती थी। लगता था कि जैसे इसके बिना तो कोई ज़िन्दगी ही नहीं है। लेकिन अब इस आभासी दुनिया में मन नहीं लगता। मेरी नजरों के सामने अब चालीस साल पहले का एक दृश्य बार-बार उपस्थित हो जाता है। वही फूस का छप्पर। डरे सहमे थर-थर कांपते हम पांच छोटे-छोटे बहन-भाई।
गांव के नारकीय दरिंदे प्रधान के हाथ-पैर जोड़-जोड़ कर, पैरों की धूल माथे पर लगा-लगा कर बच्चों के सामने इज्जत तार-तार ना करने की भीख मांगती, गिड़गिड़ाती मां। और अपनी जिद पर अड़ा वह नारकीय कीड़ा प्रधान। हम बच्चे वह हाहाकारी हृदय-विदारक दृश्य देखने को अभिशप्त थे। प्रधान उसके चार और कमीनों ने इतना अत्याचार किया मां पर, कि वह उन हरामियों के जाने के बाद भी बड़ी देर तक बेहोश पड़ी रहीं।
उन कमीनों को शक केवल इतना था कि प्रधानी के चुनाव के समय हमारे मां-बाप ने उसके विरोधी का समर्थन किया था। उन सबके जाने के बाद हम भाई-बहनों ने छप्पर के पिछवाड़े जाकर अपने पिता को खोला। कमीनों ने उनके मुंह में कपड़ा ठूंसकर, हाथ-पैर बांध कर उन्हें घर के पीछे डाल दिया था। हमने मां को ढंका। उनके चेहरे पर पानी की छींटे मार-मार कर उन्हें होश में ले आए।
सवेरा होने पर पिता मां को लेकर गांव से बारह-चौदह कोस दूर पुलिस थाने जाने के लिए निकले, कि दरिंदों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाएं। लेकिन चार-पांच कदम ही बढ़े होंगे कि दो पुलिस वाले साइकिल से आ धमके। गंदी-गंदी गालियां देते हुए पिता को मारने लगे।
गांव के कुछ लोग तमाशाई बनकर तमाशा देखते रहे। हम बच्चे रोते-चीखते चिल्लाते रहे। मां हाथ-पैर जोड़ती-गिड़गिड़ाती रहीं। लेकिन वर्दी वाले गुंडों ने उनके पेट पर ऐसी लात मारी कि पहले से ही घायल मां बेहोश होकर गिर गई। पुलिस वाले खूब मारपीट कर पिता को लेकर चले गए। हम गांव वालों से मदद की भीख मांगते रहे। लेकिन प्रधान के आतंक के चलते कोई आगे नहीं आया।
मां की हालत दो दिन के बाद कुछ संभली। जब उनके होश-ओ-हवास लौटे और पिता के वापस न लौटने की बात हम बच्चों से जानी तो कोई रास्ता ना देख पिता की जान की खातिर फिर उसी प्रधान के दरवाजे पर गईं। रोईं, हाथ-पैर जोड़े। मगर कसाई कुत्ते ने गंदी-गंदी गालियां देकर कहा, ‘मैंने तेरे आदमी को बंद कर रखा है क्या? चोरी-चकारी करेगा तो पुलिस छोड़ेगी क्या? जा, वहीं जाकर पता कर।
मां थाने पहुंची तो पता चला कि पिता को चोरी के आरोप में जेल हो गई है। मां कई दिन दौड़ती-भागती रही। लेकिन कुछ नहीं हुआ। मां, पिता से नहीं मिल पाई। कुछ भी साफ पता नहीं चला कि वो कहां हैं। उल्टे पुलिस वालों की गालियां मिलीं। धमकी मिली कि, ‘जा, घर जा के चुपचाप बैठ नहीं तो तुझे भी वहीं पहुंचा देंगे।कुछ भी पता नहीं चला तो निराश होकर मां लौट आईं। घायल मां, हम बच्चे कई दिन तक भूखे-प्यासे तड़पते गांव वालों से मदद मांगते रहे, लेकिन कोई हमारी तरफ देखता भी नहीं था।
हमें देखकर रास्ता बदल देता था। दरवाजे बंद कर लेता था। हार कर एक दिन मां मुंह अंधेरे ही हम-सब बच्चों को लेकर चुपचाप गांव छोड़कर शहर आ गई। हमारे पास तन पर पड़े फटे-पुराने कपड़ों के सिवा सिर्फ़ कुछ बर्तन थे। पिता के एक अंगौछे में थोड़ा सा सत्तू, कुछ चना और बहुत थोड़ा सा गुड़। हम कई दिन भूखे-प्यासे रहे। स्टेशन पर मांग कर खाया। मगर मां ने हिम्मत नहीं हारी।
जल्दी ही एक घर में साफ-सफाई का काम मिल गया। मगर वहां भी मां के साथ-साथ मेरी दो बड़ी बहनों का भी शोषण हुआ। मां वहां से भी हमें लेकर भागी। फिर वह कई बार बच्चों को लेकर इधर-उधर भागती रही। एक दिन एक मंदिर के बाहर हम भूखे-प्यासे खड़े थे। लोगों से प्रसाद लेकर खा रहे थे। उसी से हम अपनी भूख शांत कर रहे थे। तभी एक सज्जन दंपति की नजर हम पर पड़ी। उन्होंने हमसे बातें कीं।
हमारी हालत जानकर अपने यहां शरण दी। उनकेे बड़े से मकान के अहाते में हमें शरण मिली। हम सब यहां भी बहुत डरे हुए थे कि कहीं यहां भी पहले की तरह शोषण ना हो। डरे-सहमें हम सब वहीं अपनी उम्र के हिसाब से उस व्यवसायी के परिवार के लिए काम करते रहे। हमारी मेहनत से खुश होकर दंपत्ति ने हमारी हर तरह से मदद की, बहनों की शादी करा दी। एक भाई और मैं उस दंपति जिन्हें हम काका-काकी कहते थे, के सहयोग से थोड़ा पढ़े-लिखे। आगे बढ़े। मैं किसी तरह नर्स बन गई।
मनू नर्स बनने तक मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं किस-किस तरह की स्थितियों से गुजरी। जहां मैं नर्सिंग का कोर्स कर रही थी वहां मेरे भोलेपन, मेरी विपन्न स्थिति का एक इंस्ट्रक्टर और एक सीनियर स्टूडेंट ने खूब बेजा फायदा उठाया। खूब शोषण किया।
पहले दोनों ने मेरी मदद की तो मैं उनकी एहसानमंद हो गई। उसके बाद एक दिन इंस्ट्रक्टर फिर हफ्ता भर भी ना बीता होगा कि सीनियर ने मेरा शोषण शुरू कर दिया। दोनों महिला होकर भी एक महिला का शोषण करती रहीं। लेकिन मैं मां अपने भाई की हालत देखकर चाह कर भी विरोध नहीं कर पाई, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानती थी कि विरोध का मतलब है मेरी पढ़ाई बंद।
मैं फिर से भूख, भीख मांगने से बचना चाहती थी, किसी भी हालत में, किसी भी कीमत पर। इंस्ट्रक्टर से तो खैर कुछ महीने बाद ही फुर्सत मिल गई। क्योंकि उसे कोई और अच्छी जॉब मिल गई तो वह छोड़ कर चली गई। लेकिन सीनियर पास आउट होने तक मेरा शोषण करती रही। वह बाद में भी संपर्क रखना चाहती थी लेकिन मैंने दृढ़ता से संपर्क खत्म कर दिया।
मनू यह सब तुम्हें इसलिए बता रही हूं क्योंकि मैं एक बहुत बड़े, बहुत महान काम में तुम्हारी मदद चाहती हूं। तुम्हें भी साथी बनाना चाहती हूं। क्योंकि तुम भी उस पीड़ा से गुजरी हो, जिससे मैं गुजरी हूं। मैं यह काम क्यों कर रही हूं? इसमें तुम्हें क्यों साथ देना चाहिए? इन सब बातों को तुम जान-समझ कर बिना किसी असमंजस के निर्णय ले सको, इसलिए तुम्हें विस्तार से बताना जरूरी है।
मनू एक बात बताऊं कि हम महिलाओं पर अत्याचार कोई आज की बात नहीं है। यह हज़ारों साल से होता आ रहा है। अब तुम सोचोगी कि जब यह हज़ारों साल से होता आ रहा है। इतने सालों में कोई नहीं बंद करा सका। महिलाओं को उनका अधिकार नहीं मिला तो मैं और तुम क्या कर लेंगे। नहीं मनू नहीं, ऐसा नहीं है। हम औरतों ने जब-जब अपने अधिकारों को समझा, संघर्ष किया तो हमें अपने अधिकार मिले भी। हम पर अत्याचार बंद भी हुए। लेकिन हम जब असावधान हुए तो फिर विपन्न हो गए। इसका उदाहरण तुम थेरियों को मान सकती हो। वो जब अपने अधिकारों के लिए सतर्क हुईं तो अपनी दुनिया बदल कर रख दी।
वह भी दो हज़ार साल से भी पहले बुद्ध के समय में। तो मनू जब हज़ारों साल पहले यह हो सकता है तो आज क्यों नहीं? आज तो पहले से बहुत आसान है। तो आओ आज हम सब मिलकर अत्याचारी, मर्दवादी सोच से अपनी दुनिया का उद्धार करें। मुक्त कराएं अपनी दुनिया।
जानती हो मनू मैं पुलिस वालों की मार से तड़पते अपने पिता का आखिरी बार देखा चेहरा आज भी भूलीे नहीं हूं। बहुत सालों बाद जब हम कुछ समझदार हुए, सेल्फ़डिपेंड हुए। हाथों में कुछ पैसे आए तो हम भाई-बहनों ने पिता की खोजबीन फिर शुरू की, थाने से ही। लेकिन वहां से पता चला कि उस समय गांव के इस नाम के किसी व्यक्ति को जेल भेजा ही नहीं गया था। मतलब साफ था कि प्रधान ने पुलिस के माध्यम से अपने पैसों के दम पर मेरे पिता की हत्या करवा दी थी। उन्हें गायब करवा दिया था।
मेरी पीड़ा इतनी ही नहीं है मनू। जब किसी तरह पढ़ाई पूरी कर निकली तो एक कस्बे के छोटे से प्राइवेट हॉस्पिटल में नौकरी मिली। जल्दी ही पता चला कि यहां तो लेडीज स्टॉफ का शोषण एक आम बात है। असल में हॉस्पिटल कुल मिला कर ठीक-ठाक था। मगर उसका संचालक एक झोला छाप डॉक्टर था। जिसके बारे में बाद में पता चला कि वह देह बेचने का भी धंधा वहीं हॉस्पिटल में ही करवाता है। जिन लोगों को वह बतौर कस्टमर लाता था उनके बारे में बताता कि उसे नर्व, मसल्स की कमजोरी की बीमारी है। उसे दूर करने के लिए मसाज थेरेपी के लिए कहता। बोलता इसके लिए आयुर्वेदिक इलाज ज़्यादा बेहतर है। फिर टारगेट की गई नर्स से ही मसाज थेरेपी दिलवाता।
कस्टमर और उसकी मिलीभगत की यह साजिश जब-तक नर्स कुछ समझती थी तब-तक वह उनकी साजिश का शिकार होकर उनके चंगुल में फंस चुकी होती थी। नर्स की सैलरी में ही वह कस्टमर को खुश करता और उससे मिला सारा पैसा अपने पास रखता। नई नर्सों को डराने, उन्हें अपने चंगुल में फंसाए रखने के उद्देश्य से वह बड़ी गहरी चाल चलता था। वहां के थाने के दरोगा से कहता कि आपको नई नर्स का इनॉग्रेशन करना है। इससे दरोगा भी खुश कि बिना पैसे खर्च किए सब मिल रहा है। और वह झोला छाप डॉक्टर नर्स को दरोगा की वर्दी के सहारे डराने में सफल हो जाता।
मेरे साथ भी यही हुआ। मैं जब-तक कुछ समझती तब-तक दरोगा मेरा इनॉग्रेशन कर चुका था। मैं डॉक्टर के पास पहुंची कि मेरा रेप हुआ है, मुझे रिपोर्ट लिखानी है। तो वह ड्रामा करते हुए बोला, ‘ये तो बड़ी मुश्किल हो गई। जिस थाने में रिपोर्ट लिखानी है ये उसी थाने का दरोगा। यह रिपोर्ट तो लिखेगा नहीं, उल्टा किसी फ़र्जी केस में अन्दर कर देगा, साथ में मुझको भी। इसलिए थोड़ा रुको। मैं तुम्हें पुलिस के बड़े अधिकारी के पास लेकर चलूंगा। तुम्हारी शिकायत पर सख्त कार्रवाई करवाऊंगा ।
फिर यही कहते-कहते उसने कई दिन निकाल दिए। मैं बहुत परेशान थी कि यह तो ऐसे ही पूरा केस खत्म कर देगा। तभी एक दिन वहां की एक स्वीपर ने बताया कि सच क्या है। उसे वहां के हर इनॉग्रेशन की जानकारी रहती थी। मेरी सारी बातें भी उसे पता थीं। उसने कहा कि, ‘जो भी थाने पर गया उसे यह उल्टा फंसवा देता है।मेरे सामने अचानक ही पिता का तड़पता चेहरा आ गया।
फिर उसी महिला स्वीपर की सलाह पर मैं वहां से चुपचाप भाग निकली। उसी ने एक मिशनरी हॉस्पिटल का पता दिया था जो वहां से करीब दो सौ किलोमीटर दूर था, वहां गई। उस महिला का आदमी वहां काम करता था। उसे बताया तो उसने मदद की। वहां दैनिक वेतन पर नौकरी मिल गई। काम बहुत था, लेकिन मैं खुश थी। मगर कुछ महीनों बाद ही मैंने वहां के रंग-ढंग में भी वही भांग घुली पाई जो पहली जगह पाई थी। कुछ महीना बीततेे-बीतते मुझे तस्वीर साफ दिखने लगी। ज़्यादातर खेल वहां नाइट ड्यूटी पर खेला जाता था।
मेरी नौकरी जिस सीनियर डॉक्टर के हाथों में थी, उसकी दो चीजें बड़ी फेमस थीं। पहली यह कि वह बहुत जेंटलमैन और हेल्पफुल नेचर के हैं। दूसरी पेशेंट को वो बड़े प्यार से देखते हैं। आधी बीमारी तो वह अपनी बातों से ही खत्म कर देते हैं। ज्वाईनिंग के छः महीने बाद मेरी लगातार तीन महीने तक नाइट ड्यूटी लगाई गई। बताया गया कि दो नर्स मेटरनिटी लीव पर चली गई हैंं, और चार ने अचानक ही नौकरी छोड़ दी है।
मनू इस मिशनरी हॉस्पिटल में सब कुछ इतनी शांति, इतनी चालाकी से होता था कि ऊपर से पूरा एटमॉसफ़ियर बहुत ही अच्छा दिखता था। कोई किसी की तरफ उंगली नहीं उठाता था। ऐसे धूर्ततापूर्ण माहौल में मेरी नाइट ड्यूटी को शुरू हुए हफ्ता भी नहीं हुआ था कि एक दिन उसी जेंटलमैन डॉक्टर और दो नर्सों को बाईचांस मैंने स्टॉफ रूम में रंगे हाथों देख लिया। मैं सॉरी बोलते हुए उल्टे पांव वापस चली आई। जेंटलमैन डॉक्टर रंगा सियार निकला था।
मैं डर गई कि अब क्या करूं, कहां जाऊं, मैं वहां सीनियर नर्स को बुलाने गई थी। एक पेशेंट की तबीयत बिगड़ रही थी। उसका ध्यान आते ही मैं फिर पलटी कि बुला कर ले आऊं जो होगा देखा जाएगा। किसी की ज़िंदगी बचाने से बढ़कर मेरे लिए और कुछ नहीं है। वापस मैं आधे रास्ते पर पहुंची ही थी कि उन्हीं दो में से एक सीनियर नर्स आती हुई दिखी। मैंने उनके पास पहुंच कर पेशेंट की हालत बताई। क्या-क्या देखा इस बारे में कोई बात ही नहीं की।
उन्होंने जल्दी से आकर पेशेंट को देखा। वार्ड ब्वाय को भेज कर डॉक्टर को बुलवाया। जानती हो मनू तब मैं रंगे सियार को देखकर दंग रह गई। और रंगी-पुती उन दोनों सियारिनों को भी। जो कुछ ही मिनट पहले तक किसी मानसिक रोगी की तरह घृणित स्थितियों में पड़े थे। तीनों सेवा की प्रतिमूर्ति लग रहे थे। पेशेंट को देखा, फॉर्मेलिटी पूरी की और चले गए यह जाने बगैर कि पेशेंट की तकलीफ दूर हुई कि नहीं।
सीनियर नर्स ने सुबह जाते-जाते मुझे शिक्षा दी, ‘मेरी प्यारी मित्र, जीवन का आनंद उठाओ। जीसस बहुत दयालु हैं।उसकी बातों का मतलब मैं साफ-साफ समझ गई थी। मैं भी ऐसे चुप हो गई जैसे कि मुझे कुछ मालूम ही नहीं है। मनू जल्दी ही मुझे पता चला कि वह डॉक्टर सीनियर होने के बावजूद जब भी उसका मन उनके तथाकथित सिद्धांत जीवन का आनंद उठाने का होता है तो वह अपनी ड्यूटी नाइट में भी लगा लेता है।
मैं जहां उस रंगे सियार, सियारिनों को देखती या उनकी याद आती तो बहुत परेशान हो जाती थी, कि कहीं यह सब साजिश का शिकार बना कर मुझे भी आनंद ना देने लगें। जैसे पिछले हॉस्पिटल में साजिश रच कर झोला छाप डॉक्टर ने दरोगा से इनॉग्रेशन करा दिया था। यह सोच कर मैं वहां से भी निकलने की सोचने लगी। लेकिन तब मुझे हर तरफ सियार-सियारिन ही दिखाई दिए।
मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था कि मैं कहां जाऊं। आखिर जिसका मुझे डर था वही हुआ। कुछ ही समय बीता होगा कि मैं इन सब के जीवन आनंद के जाल में फंस गई। वह छब्बीस या सत्ताइस दिसंबर की रात थी। कड़ाके की ठंड थी, हर तरफ हड्डी कंपा देने वाली ठंडी हवा थी। कोहरा भी भयानक धुंए की तरह उड़ रहा था। मैं नाइट ड्यूटी पर थी। उस दिन उनके फेंके जाल में फंस गई। मेरा शोषण हो रहा था। वह सब रंगे सियार-सियारिन जीवन का आनंद उठा रहे थे, मैं स्तब्ध थी। उस दिन मैं बहुत रोई कि मेरे जीवन में क्या केवल शोषण ही लिखा है। मेरे ही क्यों मेरे परिवार के भी। पहले मां का, बड़ी बहनों का, फिर मेरा।
मैं बार-बार वह ताकत, वह साधन ढूंढ़ती मनू जिससे इस शोषण का प्रतिकार कर सकूं। रोक सकूं। मगर हर तरफ घुप्प अंधेरा मिलता। कोई एक सेकेंड को भी साथ देने वाला नहीं मिलता। आखिर मैंने तब-तक के लिए खुद को परिस्थितियों के हवाले कर दिया जब-तक कि मेरी और मेरे घर की हालत सुदृढ़ नहीं हो जाती।
मैं सरकारी नौकरी की तलाश में लगी रही और उनके जीवन आनंद के खेल का साधन भी बनी रही। मनू यह मेरी मजबूरी की अति थी कि सिर्फ़ वह सियार-सियारिन ही नहीं उसी की तरह का एक और कमीना तथा तीन कमीनियां भी मेरा शोषण करते रहे। इन सबने मिलकर इतने घने और मजबूत जाल में फंसाया था कि मैं उफ़ भी नहीं कर पा रही थी।
जो ऐसी स्थितियों से नहीं गुजरी हैं, मनू यह सुनकर उनका कलेजा कांप उठेगा कि महीने में दो-तीन दिन ऐसे भी बीतते थे जब मेरा चौबीस घंटे में ही तीन-तीन बार शोषण होता था। लेकिन अंततः मेरी मेहनत, मेरा धैर्य काम आया। सरकारी हॉस्पिटल में नौकरी मिल गई। लेकिन मनू उससे पहले मिशनरी हॉस्पिटल में तीन साल तक जो यातना, जो अपमान बर्दाश्त किया वह आज भी एकदम ताजा है। ऐसे कि जैसे सब अभी-अभी घट रहा है। अपमान की आग मुझे आज भी उतना ही जला रही है, जितना तब जलाती थी। मनू मेरा दुर्भाग्य मेरे साथ यहीं तक नहीं रहा।
जब सरकारी हॉस्पिटल ज्वाइन किया तो बहुत खुश थी। सोचा कष्ट, पीड़ा, अपमान से भरा मेरा काला समय खत्म हुआ। घनी काली रात के बाद मेरे जीवन में चमकीली सुबह हो गई है। मगर जानती हो यह चमकीली सुबह मात्र दो साल ही रही। हॉस्पिटल का नया निदेशक आया और उसके चंगुल में कई फंस गईं। पता नहीं मुझे क्या हुआ था कि मैं भी भूल कर बैठी। कितने-कितने तरह के शोषण के बदतरीन अनुभवों से गुजर चुकी थी फिर भी मुझसे यह मूर्खता हुई। एक जूनियर डॉक्टर के साथ मेरे संबंध बन गए और वह शादी की सीमा तक पहुंचे। उसने मुझे बड़े-बड़े सपने दिखाए। जब मैंने सपने सच करने पर जोर दिया तो वह मुकर गया। सब उसका धोखा था।
उसके बिछाए जाल में मैं फंस गई थी। बात हर तरफ फैल गई। उस जूनियर ने निदेशक के साथ मिलकर ऐसी स्थिति पैदा की कि मैं उसकी भी हवस का शिकार बनती रही। यह सिलसिला दो साल तक चला। जब वह निदेशक सीएमओ हो कर दूसरे शहर चला गया तब मुझे मुक्ति मिली। वैसे ही जैसे पढ़ाई के दौरान इंस्ट्रक्टर से मिली थी। इतिहास ने अपने को दोहराया था। जूनियर डॉक्टर एक दबंग बिल्डर का बेटा था। इन बातों का पूरा खुलासा तब हुआ जब मैं उसके चंगुल में बुरी तरह फंस चुकी थी। विरोध करती तो नौकरी के साथ-साथ जान का खतरा भी था। अंततः जूनियर ने बहुत दिनों तक मेरा शोषण किया।
तुमसे अचानक ही जब महिला हॉस्पिटल में परिचय हुआ तो बड़ा अच्छा लगा। तुम्हारे तेज़-तर्रार व्यवहार से लगा कि तुम्हारा शोषण तो कोई कर ही नहीं सकता। मगर कुछ ही महीनों के बाद जब तुम्हारे साथ हुई एक घटना को लेकर विवाद इतना हुआ कि हॉस्पिटल के निचले स्टाफ ने हड़ताल कर दी, भले ही दबाव में दो घंटे में ही खत्म हो गई। तब मुझे कुछ जानकारी हुई। मैं तुम्हारे पास पहुंची। तुम मेरा जरा सा अपनत्व पाकर बिलख पड़ी। और अपने शोषण की पूरी बात बताई। मनू तुम्हारी बातें सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई थी।
मैं घबरा गई कि तुम्हारी जैसी तेज़-तर्रार महिला के साथ यह हुआ तो मेरी जैसी कहां बचेंगी। तब मैं यह यकीन कर बैठी थी कि कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में जो भी महिलाएं हैं, उन सब का शोषण होता है। निश्चित ही होता है। एक भी नहीं बचतीं। और पनिश भी वही की जाती हैं, जैसे तुम्हारा ही शोषण हुआ और बतौर पनिशमेंट तुम्हारा ही ट्रांसफर भी कर दिया गया, दूर डिस्ट्रिक्ट में। जिससे हम अलग हो गए। संपर्क भी बहुत क्षीण हो गया। लेकिन इस मी-टूहलचल ने मेरे अंदर एक ऐसी ज्वाला प्रज्वलित कर दी है कि अब मैं चुप नहीं बैठ सकती। मैं चाहती हूं कि यह ज्वाला देश के कोने-कोने में, झोपड़ियों में, छप्पर, फुटपाथों में रहने वाली आखिरी औरत तक पहुंचे।
सब एक साथ दुनिया के सामने आएं और अपने साथ हुए शोषण को बताएं। जिसने उनके शरीर, इज़्ज़त मान-सम्मान को, उनकी आत्मा को कुचला है, उनका नाम उजागर करें। एक अकेली करेगी तो कठिनाई में रहेगी। कोई उसकी बात नहीं सुनेगा। हम जैसी, तुम जैसी, छप्पर में जीने वाली मेरी मां और फुटपाथों पर जीने वाली महिलाओं के पास वो ताक़त नहीं है जो तनुश्री दत्ता, प्रिया, श्री रेड्डी, जैसी सक्षम महिलाओं के साथ है। इन सब ने भी मुंह तब खोला जब यह सक्षम बन गईं। इसी से जब यह बोलीं तो पूरा मीडिया इनके साथ खड़ा हो गया, इनकी जबरदस्त ताकत बन गया।
और तुम इस ताक़त का परिणाम देख ही रही हो कि बड़े-बड़े दिग्गजों को अपने काम से हाथ धोना पड़ रहा है। पद से हाथ धोना पड़ रहा है। अपने परिवार, अपने बच्चों के सामने शर्मिंदा होना पड़ रहा है। मुंह छुपाते नहीं बन रहा है। ऐसे ही जब हम कोने, अंधेरे में पड़ी औरतें, छप्परों से निकल कर, फुटपाथों से निकल कर, एक समूह बनाकर जब शोषकों, रंगे सियारों का असली चेहरा दिखाएंगे दुनिया को तो हमारे साथ जबरदस्त ताक़त मीडिया की, सोशल मीडिया की जुड़ जाएगी। एक समूह से यह मत समझ लेना कि हम सब एक जगह इकट्ठा होंगे फिर आगे बढ़ेंगे।
मैं यह जानती समझती हूं कि हम तुम छप्पर में रहने वाली औरतों के लिए यह संभव नहीं है। हम सदियों से इतने शोषित हुए हैं कि मुंह खोलने की बात छोड़ो ऐसी बातें सोचने की भी क्षमता नहीं रह गई है। यह घटना ना होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया जरा सी बात को भी देश ही नहीं दुनिया में हर तरफ पहुंचा देने की क्षमता ना रखतीं तो हम आज भी यह सोच-समझ नहीं सकते थे। मनू मैंने बहुत सोच-समझ कर एक अचूक प्लान बनाया है, और उसके हिसाब से ही आगे बढ़ रही हूं।
प्लान यह है मनू कि सभी शोषित लड़कियां, औरतें अपने शोषण की पूरी बात, करने वाले का पूरा विवरण, समय आदि बताते हुए अपने मोबाइल से ही वीडियो मैसेज रिकॉर्ड करके मेरे पास भेज दें। इसमें छोटी सी छोटी झोपड़पट्टी में भी रहने वाली महिलाओं को भी शामिल करना है। इसके लिए हमें करना यह होगा कि खुद ऐसी महिलाओं के पास जाकर, उन्हें सारी बातें अच्छे से समझा कर उनके शोषण की बात का वीडियो बनाकर लाना होगा।
जानती हो इसके लिए मैं अपनी तीनों बेटियों और दामादों का भी सहयोग ले रही हूं। तुम्हें यह बताते हुए मुझे खुशी हो रही है कि मेरी तीनों बेटियां भी नौकरी करती हैं। तीनों ही मेरी तरह नर्स हैं। तमाम समस्याओं के चलते मैं बच्चों को कोई ऊंची शिक्षा तो नहीं दिला पाई लेकिन इतना जरूर कर दिया है कि वह किसी पर डिपेंड नहीं हैं। पैसों के लिए किसी की मोहताज नहीं हैं।
मैं इस मामले में भी अपने को सौभाग्यशाली मानती हूं कि तीनों दामाद भी बहुत ही ओपन माइंडेड और मॉडर्न विचारों वाले हैं। नौकरी करते हैं। मुझे तीनों बेटियों के लिए लड़का ढूंढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी। उन सब ने नौकरी करते-करते खुद ही अपने मन का वर तलाश लिया और फिर हमने कोर्ट मैरिज करवा कर एक हल्का-फुल्का रिसेप्शन दे दिया था। सभी अपनी दुनिया में खुश रहते हैं।
तुम यह जानकर शायद आश्चर्य करो कि मैंने मन में वी-टूहां मनू, हम अपने मूवमेंट का नाम वी-टूही रखेंगे। क्योंकि मेरा लक्ष्य सबको साथ लेकर चलना है। तुम कुछ और नाम सुझा सकती हो तो बताना। जानती हो वी-टूका विचार आते ही मैंने बहुत सोच-विचार कर सबसे पहले अपने पति से ही बात की। कहा कि मैं ऐसा करना चाहती हूं। आपकी मदद चाहिए और यह मदद सिर्फ़ इतनी ही कि आप मुझे इसे करने से रोकेंगे नहीं। एक बात बताऊं मेरे साथ जो-जो शोषण हुआ वह सब बच्चों के कुछ बड़ा हो जाने के बाद मैंने एक-एक कर सब कुछ बता दिया था।
इससे मैंने कुछ दिन स्वयं को अजीब सी बदली हुई मनः स्थिति में पाया। परिवार में कुछ दिन तक मैं सभी के चेहरे पर जब वो मेरे सामने होते तो अजीब सी रेखाएं, भाव पाती। तब मैंने सोचा कि यह सब बता कर मैंने गलती तो नहीं कर दी। फिर सोचा कि बोझ लेकर चलने से क्या फायदा, क्या मतलब इसका। मेरे पति हैं, अगर मेरे हर सुख-दुख में मेरे साथ नहीं चल सकते तो ठीक है। अलग-अलग रास्ते पर चल पड़ते हैं। मैंने इस बिंदु पर भी बात की तो पाया कि नहीं मैं गलत सोच रही थी। मेरा पति और बहुत से कूप मंडूक सोच वाले पतियों जैसा नहीं है। जिनके लिए स्त्री की तथाकथित पवित्रता ही सब कुछ होती है। सारी अपेक्षाएं सिर्फ़ पत्नी से ही रखते हैं।
ऐसे खुले विचारों वाले अपने प्यारे पति से जब मैंने वी-टूकी बात की तो वह बोले, ‘बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?’ तो मैंने कहा वह सब भी बेहद ओपन माइंडेड हैं। मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूं कि वह अपनी मां के इस क़दम का साथ देंगे। उन्हें गर्व होगा कि उनकी मां ने ऐसा क़दम उठाया है जिसमें पूरी नारी दुनिया की सुरक्षा निहित है। उनका मान-सम्मान निहित है। इसके साथ ही मैंने यह भी बताया कि जब बेटियां नर्सिंग का कोर्स कर रही थीं तभी से मैं उन्हें उन सारी बातों से अवगत कराती आ रही हूं जिससे उनका सामना हो सकता है। जब उन्होंने नौकरी ज्वाइन की तभी मैंने उन्हें बताया था कि उन्हें वहां पर किस-किस तरह की समस्याएं फेस करनी पड़ेंगी। उन्हें कैसे उनका सामना करना है।
इतना सब कुछ करने के बावजूद मनू जानती हो मेरी दूसरी वाली बेटी शोषण का शिकार होते-होते बची थी। वह ठीक वैसी ही स्थिति में फंसने वाली थी जिसमें मैं सरकारी हॉस्पिटल में फंस चुकी थी। उसने मुझे कुछ नहीं बताया था। कुछ दिन उसकी उखड़ी-उखड़ी मनोदशा को देखकर मैं अंदर ही अंदर परेशान हुई कि बात क्या है? अचानक दिमाग में आया कि कहीं यह मेरी जैसी हालत से तो नहीं गुजर रही है। बहुत प्यार से खुलकर बात की तो उसने अपनी समस्या बताई। जिसका मुझे डर था वही होने जा रहा था। अंततः मैंने उसे बचा लिया।
वी-टूके लिए जब पति के साथ बात की तो मैंने बेटी की भी बात बताई। उसके पहले यह बात केवल हमारे और बेटी के बीच ही सीमित थी। यह सुनकर पहले पति आग-बबूला हुए। कहा कि उसी समय क्यों नहीं बताया। मैंने कहा अब जो भी है वह समय तो बीत गया। वी-टूको यदि आगे बढ़ाएं तो उस आदमी को भी सजा दे सकते हैं। और जिन्होंने मेरे साथ गलत किया उनको भी।
जानती हो जिस डॉक्टर ने मेरा शोषण किया था वह बाद में सीएमओ होकर रिटायर हुआ। आजकल वह एक बहुत ही बड़े प्राइवेट संस्थान के एक बहुत बड़े फाइव स्टार हॉस्पिटल का निदेशक बना बैठा है। आज सड़सठ-अड़सठ की उम्र में भी वह बना ठना रहता है। सुना है वहां भी औरतों का शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है।
अपनी लाइजनिंग पावर के बल पर वह वहां के मैनेजमेंट को मेस्मराइज किए हुए है। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि हॉस्पिटल की तरफ से उसे मर्सीडीज़ बेंज  जैसी महंगी कार और शैडो भी मिला हुआ है। और दूसरे का भी बताती हूं, जिसने मुझे शादी का झांसा देकर लूटा था, जिसका बाप बिल्डर है। उसने दो नंबर की अकूत कमाई से बहुत बड़ा हॉस्पिटल बना लिया है।
यह सब जब देखती हूं तो पुरानी तस्वीरें मेरे सामने आ जाती हैं। खून खौल उठता है कि ना जाने कितनी औरतों, लड़कियों की इज्जत लूटने वाले आज यहां तक पहुंच गए हैं। अकूत धन-सम्पत्ति ही नहीं समाज में बड़े मान-सम्मान के साथ रह रहे हैं। क्या इनके कुकर्मों की कोई सजा नहीं है। मनू जानती हो तभी पति ने सलाह दी थी कि एफआईआर कर दो। कोर्ट से सजा दिलाओ।
मैंने कहा कोई फायदा नहीं। पहले तो न जाने कितने सालों तक कोर्ट के चक्कर काटने पड़ेंगे। पेशी पर पेशी होगी। धक्के खाते भटकना पड़ेगा। इसके बाद भी इन गंदे इंसानों को सजा मिलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। कोर्ट में अपने आरोप को मैं कैसे साबित करूंगी। यह हो ही नहीं पाएगा।
दूसरे इससे तो उसके असली चेहरे को उसके घर वाले ही जान पाएंगे। यही बड़ी बात होगी। जबकि वी-टूके जरिए उसको हम पूरी दुनिया में एक्सपोज कर देंगे। वह अपने बीवी-बच्चों, नाती-पोतों सबके सामने जलील होगा। दूसरे वाले के साथ भी यही होगा। मनू पति को कंन्विंस करने में मुझे ज़्यादा वक्त नहीं लगा। उन्होंने वी-टूको आगे बढ़ाने के लिए ना केवल खुशी-खुशी हां कहा, बल्कि यह भी जोड़ा कि, ‘तुम्हारी इस बहादुरी से मैं बहुत खुश हूं। मुझे गर्व है।उन्होंने हर तरह से सपोर्ट करने का वादा किया है। फिर हम दोनों ने अपनी तीनों लड़कियों, दामादों को भी बुला कर बात की। वह सब भी खुशी-खुशी तैयार हो गए।
हम सब ने मिलकर ही यह योजना बनाई कि सभी की बातें वीडियो में रिकॉर्ड की जाएं फिर वह वी-टूनाम से फेसबुक और वेबसाइट बना कर डाला जाए। ट्विटर और व्हाट्सएप पर भी। इन्हें एक ही दिन वायरल किया जाए। हम-सब ने मिलकर अब-तक करीब दो दर्जन महिलाओं के बयान लिए हैं। और इनमें मेरे घर की बाई और तीन अन्य लोगों के बयान भी हैं। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा, सुनकर अचंभेे में पड़ जाओगी कि घरों में काम करने वाली बाईयों का कितना शोषण होता है।
हमने कई झोपड़पट्टियों, ऑफ़िसों में काम करने वाली महिलाओं से भी जी-तोड़ प्रयास करके इतना कर लिया है कि उम्मीद करती हूं कि अगले एक महीने में सौ की संख्या पार कर लूंगी। महिलाओं को ऐसे काम के लिए तैयार करना कितना मुश्किल होता होगा इसका अनुमान तो तुम लगा ही सकती हो। लेकिन मी-टूका असर और साथ ही जब मैं अपना, बेटी का और अन्य कई औरतों का वीडियो दिखाती हूं तब वह बात करने को तैयार हो जाती हैं। फिर कई-कई बार समझाने के बाद अपनी आपबीती रिकॉर्ड करवाती हैं। आखिर तक साथ देने का वादा करती हैं। रिकॉर्डिंग के लिए हमने एक बढ़िया कैमरा भी खरीदा है।
मनू मैं अपने, हम सबके इस अभियान से देश के कोने-कोने तक की महिलाओं को हर हाल में जोड़ना चाहती हूं। इसलिए तुमसे रिक्वेस्ट है कि इससे जुड़ो। अपनी आधी दुनियाकी मदद करो। सदियों से इसके साथ हो रहे शोषण को खत्म करने के अभियान का एक हिस्सा बनो। जैसे मैं, मेरा परिवार मिलकर पीड़ित महिलाओं के बयान ले रहे हैं। वैसे ही तुम भी करो। पहले अपना करो। फिर वही दिखा कर तुम अन्य को आसानी से कन्विंस कर लोगी। प्लीज मनू अपनी सारी गंभीरता, अपनी सारी हिम्मत, साहस बटोर कर आधी दुनियाकी निर्णायक लड़ाई की जीत सुनिश्चित करने में मदद करो, इसका महत्वपूर्ण हिस्सा बनो।
क्योंकि हैशटैग मी-टूरिच वूमेन वर्ल्ड की लड़ाई तक सिमटेगा। यह स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए कि आधी दुनियाकी पूरी लड़ाई तो सड़क, फुटपाथों पर जीवन बिताने वाली महिलाओं तक को शोषण से मुक्ति के बाद ही सही मायने में जीती हुई कही जाएगी। ऐसा मौका बार-बार नहीं आएगा। तुम्हें एक और दिलचस्प बात बताउळं, मेरे हस्बैंड ने कहा कि इसमें शोषित पुरुषों को भी शामिल करो, उनको भी लो। कई पुरुष भी ऐसे हैं जो वर्कप्लेस पर कॅरियर बनाने के चक्कर में महिलाओं द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो रहे हैं।
लेकिन मनू मैं इस लड़ाई में पुरुषों को कतई शामिल नहीं करूंगी। क्योंकि तब यह लड़ाई भटक कर, अर्थहीन हो खत्म हो जाएगी। मनू हमें यह हर हाल में जीतनी है। सोचो मत बस क़दम आगे बढ़ाओ। मुझे कल तक अपना वीडियो मेल कर दो। मेरी प्यारी मनू, मेरा नहीं अपनी आधी दुनियाका साथ दो। जानती हो मनू, हम उस देश की महिलाएं हैं जो अपने शोषण के खिलाफ़ हज़ारों साल से उठ खड़ी होती आ रही हैं।
पश्चिम का यह मी-टूअभियान वास्तव में भारत के थेरिगाथा मूवमेंट का पश्चिमी संस्करण है। जब बुद्ध थे तभी बहुत सी महिलाएं जिसमें सेक्स वर्कर तक थीं, वो बौद्ध भिक्षुणी बन गईं। इनमें से तमाम महिलाओं का शोषण हुआ था। इन लोगों अपने शोषण की गाथा लिखी। जिनसे उनके शोषकों का चेहरा समाज में एक्सपोज़ हो गया। लोग शोषण करने से पहले सोचने को विवश हो गए।
मनू हमारा अभियान अपनी इन्हीं पूर्वजों की अगली कड़ी है। जिसके रास्ते पर चलकर हम कुछ नहीं सभी महिलाओं को यानी आधी दुनियाको सुरक्षित कर सकेंगे। इसीलिए मनू मी-टूनहीं वी-टू। आओ हम सब आगे बढ़ें। आज की थेरिगाथा लिखें।
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पता-प्रदीप श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर एम अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४ 
 मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६,८२९९७५६४७४ 
फोटो : गूगल से साभार pradeepsrivastava.70@gmail.com

सोमवार, 25 मार्च 2019



लेखिका: डॉ. प्रभा दीक्षित
प्रकाशक: सैनबन पब्लिशर्स, ए-78,
नारायणा इंडस्ट्रियल एरिया, फ़ेज़-1, नई दिल्ली-110028
मूल्य: रु. 150



साझी उड़ान- उग्र नारीवाद नहीं
समन्वयकारी सह-अस्तित्व की बात
प्रदीप श्रीवास्तव 

साहित्यकार जो कुछ समाज में देखता, सुनता, समझता, अनुभव करता है उसे जब वह अपनी रचना में उतार देता है तो वह रचना समाज का दर्पण बन जाती है। पाठक के समक्ष वह समाज की यथार्थ तस्वीर उकेर देती है। मगर प्रश्न यह है कि समाज का यह दर्पण या ऐसी रचना पाठक के साथ क्या कोई रिश्ता बना पाती है। दोनों के बीच क्या कोई ऐसा रिश्ता, तादात्म्य बन पाता है जो उन्हें परस्पर जोड़े रहे। एक दूसरे का पूरक बना दे। और यदि दोनों के बीच कोई रिश्ता पनपा ही न हो तो ऐसे साहित्य की प्रासंगिकता क्या है? ऐसा साहित्य समाज का यथार्थ परोसने वाली एक रिपोर्ट भी तो कही जा सकती है। एक रिपोर्ट के साथ कोई रिश्ता बनने का शायद ही कोई आधार होता हो। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि समाज का दर्पण दिखाने वाले साहित्य की भरमार ने पाठकों को साहित्य से विमुखता के रास्ते पर धकेल रखा है। मगर इन्हीं पाठकों को जब ऐसी रचना मिलती है जिसमें उनकी बात होती है, जनमानस की पक्षधरता होती है, रचना लेखक का मात्र अनुभव, उसके द्वारा समाज के यथार्थ का मात्र प्रस्तुतिकरण न होकर उसके अनुभवों के उदात्तीकरण का चरम रूप लिए होती है। तो वह पाठकों को खुद से जोड़ लेती है। ऐसी रचना लेखक को मनुष्यता या मानवता के पैरोकार के रूप में पाठकों के दिलो दिमाग में स्थापित कर देती है।
टॉलस्टॉय का मानना था कि अनुभवों का उदात्तीकरण ही साहित्यकार को जनमानस से जोड़ता है। इन्हीं बातों के आलोक में समीक्ष्य काव्य संग्रह साझी उड़ानकी चर्चा की कोशिश की गई है। कवयित्री डॉ. प्रभा दीक्षित ने संग्रह में विभिन्न विषयों को लेकर अलग-अलग उन्न्यासी (79) कविताएँ रची हैं। जो कविताएँ स्त्री विमर्श पर लिखी हैं उनमें कहीं भी ऐसे भाव नहीं हैं कि पुरुष वर्ग को शत्रु वर्ग की तरह निरुपित किया गया हो। उनके ख़िलाफ़ विद्रोह की बात की गई हो। पुरुष वर्ग को नीचा दिखाने की कोशिश में कल्पना लोक में अतार्किक उड़ानें भरी गई हों। जैसा कि आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर एक ट्रेंड सा चल रहा है कि चाहे उपन्यास हो, कहानी हो, या फिर कविता हर जगह स्त्री मुक्ति के नाम पर बगावत का बिगुल बजाने का भयावह आह्वान होता है। रिश्तों की मर्यादा को तार-तार कर कोई भी हद पार कर जाने, वस्त्रों को बेड़ी मान त्याज्य मानने, विवाह परंपरा को स्त्रियों के लिए बेड़ियाँ मानना आदि को ही स्त्री मुक्ति का प्रतीक मान लिया जाता है। लेकिन प्रभा इस मत से असहमति दर्ज कराती हैं। वह इसे उग्र नारीवाद मानती हैं। वह समन्वयकारी सहअस्तित्व की प्रबल हिमायती हैं और एक सार्थक संतुलित सह संबंध की पैरवी करती हैं। उनकी नज़रों में आदर्श परिवार वह है जिसमें पति-पत्नी बच्चों सबके बीच मधुरता की बयार बह रही हो। पति के हिटलरी रौब की छाया न हो। पत्नी का स्नेहमय उलाहना तो हो लेकिन स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंदता के लिए अटूट ज़िद न हो। एक आदर्श परिवार का वह ख़ूबसूरत चित्र बनाती हैं अपनी कविता खुशनुमा परिवार का चित्रनामक कविता में। वह स्त्री-पुरुष के बीच सहज इंसानी संबंधों की बात करती हैं। संग्रह की पहली कविता साझी उड़ानमें अपना मंतव्य प्रभावशाली ढंग से रखती हुई कहती हैं आओ/हम कदम बा कदम/ साथ-साथ चलते हुए/ भविष्य के साझा संबंधों के निर्माण में/ रेतीले सागर के तट पर/ अपने पद चिह्न अंकित करें। यह चंद लाइनें एक तरह से प्रतीक हैं रचनाकार के विचारों, उसके सिद्धांतों की। अपने आत्मकथ्य में वह साफ कहती हैं मैं स्त्री मुक्ति के प्रश्न को स्त्री-पुरुष के सह व सम अस्तित्व में देखने की पक्षधर हूँ।
संग्रह की कविताएँ हर उस चीज से असंतोष, विरोध, असहमति जताती हैं जो स्त्री समाज को किसी भी स्तर पर दोयम दर्जे का बनाती हैं, उनके शोषण का रास्ता खोलती हैं, उन्हें गुलाम बनाती हैं। कवयित्री को उन स्त्रियों से भी बहुत शिकायत है जो अपने शोषण के ख़िलाफ़ बोलना ही नहीं चाहतीं। शिकायत उन्हें समाज के उस ढांचे से भी है जो पितृसत्तात्मक होने के कारण स्त्री को इस समझ के लायक ही नहीं रहने देता कि वह अपने शोषण, गुलामी की तकलीफ को समझ कर उसका विरोध कर सके। संग्रह की कविताएँ केवल शब्दों की बाज़ीगरी या शब्द शिल्प मात्र नहीं हैं कि कवयित्री को शब्दों की कारीगर कहा जाए। इन रचनाओं में विचारों की अविरल धारा प्रवाहित होती है। अनुभव की गहराई दिखती है। जनसामान्य के हितों के लिए गहरी तड़प नज़र आती है। अर्थात् अनुभव, विचार और संवेदना का मनभावन संगम-सा हैं यह रचनाएँ। यह कविताएँ आज के दौर की कविताओं में अपना अलग स्थान बनाती उन कविताओं के साथ खड़ी हैं जो एक विचार, आत्माभिव्यक्ति, भाव, अर्थ और संवेदना का उत्कृष्ट स्तर रखती हैं। उन कविताओं की भीड़ में नहीं शामिल हैं जो काव्यगत शिल्प की सारी सीमाओं को परे धकेल कोई भी राह पकड़ बढ़ लेती हैं। ऐसी कविताओं में छंद, लय, अलंकार, बिंब, रस गेयता आदि कुछ भी की अपेक्षा करना मूर्खता ही कही जाएगी। गेयता तो खैर कब की काव्य दुनिया को अलविदा कह कर विलुप्त हो चुकी है। अपवाद स्वरूप ही कहीं-कहीं नज़र आ जाती है। मगर मुख्य बात यह है कि गेयता, लय, छंद, बिंब न सही कम से कम विचार से तो समृद्ध हो, अर्थवान हो, संवेदना, भाव को तो अभिव्यक्ति करती हो। पढ़ने का सुख तो देती हो। उसकी कोई अर्थवत्ता तो हो। वह कम से कम साहित्य को समृद्ध बनाने में तो सक्षम हो। प्रभा दीक्षित की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपनी ज़मीन कल्पनालोक में जाकर नहीं तलाशतीं बल्कि समाज में जो कुछ घटा, घट रहा है जो समाज का यथार्थ है उसे ही अपनी ज़मीन बना लेती हैं। और फिर अपने विचारों, भाव, संवेदना के सहारे अपना अस्तित्व बना लेती हैं जिससे वह दिल को छूने में सक्षम हैं। संग्रह की आदिमनारी की भूल, धुंधलाए सपनों का सच, दास्ता के संस्कार, नई सदी के द्वार पर दस्तक, गुजरात के लिए मेरी चीख सुनो, राष्ट्रीय अस्मिता, साम्राज्यवाद के नए सेल्समैन, गूंगी कलम का दर्द, चाची की मौत, गंगा सतलज का नीर, 21वीं सदी का बहाव, आदि बेहद प्रभावशाली रचनाएँ हैं। कुछ रचनाओं के लिए यह कहना गलत न होगा कि वह अतिभावुकता से प्रभावित हैं। उदाहरणार्थ गुजरात पर केंद्रित कविता को ले सकते हैं। जो उस यथार्थ को रेखांकित करती है जो वास्तव में अफवाह, प्रोपोगंडा मात्र है। ऐसे ही धर्म निरपेक्षता, सांप्रदायिकता पर केंद्रित कविताएँ पक्ष विशेष की ओर झुकी लगती हैं। इस बारे में यही कह सकते हैं कि हर व्यक्ति किसी न किसी पक्ष को लेकर ही आगे बढ़ता है। वह जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है उस ओर उसका झुकाव स्वाभाविक है। यहीं पर रचनाकार जितना निष्पक्ष हो पाता है वह उतना ही बड़ा होता है। अपवाद स्वरूप कुछ रचनाओं को छोड़कर संग्रह की शेष रचनाएँ निष्पक्षता का शिखर छू रही हैं।
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पता-प्रदीप श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६