पॉलिटेक्निक वाले फुट ओवर ब्रिज पर
प्रदीप श्रीवास्तव
फुटओवर ब्रिज पर इधर-उधर टहलते हुए रुहाना को आधा घंटा से ज़्यादा
हो चुका था। उसे आते-जाते लोगों में घर जाने की जल्दी साफ दिख रही थी। सात बज गए थे।
अंधेरा गहरा हो चुका था। दिन भर छिटपुट इधर-उधर फैले बादलों ने इस समय इकट्ठा होकर
आसमान को पूरा ही ढंक लिया था। हवा कुछ और तेज़ हो चुकी थी। सवेरे ही रुहाना ने ई-पेपर
में पढ़ा था कि आंधी के साथ तेज़ बारिश हो सकती है, ओले भी पड़ सकते हैं। इससे ठंड एक बार फिर लौट सकती है।
यह न्यूज़ पढ़कर ही उसने रोज की अपेक्षा ज़्यादा भारी कपड़े पहन
रखे थे। वह ठंड से बचाव के प्रति ज़्यादा सतर्क रहती है। क्योंकि उसकी जरा सी लापरवाही
से उसका इस्नोफिलिया एकदम बढ़ जाता है। फिर सर्दी जुखाम से वह हफ्तों परेशान रहती है।
इसीलिए वह इस समय कुछ ज़्यादा ही बेचैन हो रही थी कि कहीं मौसम विभाग की सूचना सही
हो गई तो उसके लिए बड़ी मुश्किल हो सकती है। कपड़े कितने ही पहने हो बारिश, ओले उसके लिए कुछ ज़्यादा ही बड़ी मुसीबत
हैं। परेशान होकर उसने श्वेतांश को फिर फ़ोन किया, लेकिन इस बार उसने फ़ोन रिसीव ही नहीं किया। उसे बड़ी गुस्सा आई।
श्वेतांश की कॉल रिसीव ना करने की आदत को लेकर वह कई बार उससे
लड़ चुकी थी। लेकिन हर बार वह कोई ना कोई बहाना बता कर निकल लेता है। उसने गुस्से में
सोचा कि आज इसे सबक सिखा ही देती हूं। इसे भी यह एहसास होना चाहिए कि कॉल रिसीव ना
होने पर कितनी टेंशन, कितनी इरिटेशन
होती है। उसने एक बार ब्रिज से बाहर ऊपर आसमान में घने बादलों को देखा, अजीब भूरे-भूरे से हो रहे थे। फिर मोबाइल
को ऑफ कर दिया। ऐसा करते वक्त उसने मन ही मन सोचा कि, ‘आज तुम्हारी यह आदत छुड़वाती हूं। तुम यहीं
खड़े-खड़े इंतजार करते रहना। अपने इस प्रिय फुटओवर ब्रिज पर। रात भर मेरा नंबर मिलाते
रहना।’
यह सोचते हुए वह ब्रिज से नीचे उतरने के लिए बढ़ चली। दो-तीन
सीढियाँ ही उतरी होगी कि पीछे से उसके कानों में श्वेतांश का स्वर सुनाई दिया ‘रुहाना रुको।’ वह जब तक रुकी श्वेतांश हंसते हुए एकदम उसके
सामने आ खड़ा हुआ। और बोला, ‘सॉरी जाम
में फंस गया था।’
‘क्या सॉरी, तुम्हारा हमेशा का यही तमाशा है। जब मैं
कॉल नहीं रिसीव कर पाती तब तो दुनिया भर की बातें कह डालते हो।’
‘सुनो-सुनो मेरी
बात तो सुनो, इस बार जब तुमने
कॉल की तो मैं नीचे बाइक खड़ी कर रहा था। सोचा जब पहुंच ही गया हूं तो कॉल रिसीव करके
क्यों बेवजह तुम्हारा बिल बढ़ाउूँ ।’
रुहाना उसके साथ वापस ऊपर चलती हुई बोली, ‘अब क्यों बिल की बात करते हो, इतना सस्ता, इतना ज़्यादा टॉक टाइम मिलता है कि खत्म
ही नहीं होता।’
‘चलो अच्छा ठीक है।
जा कहां रही थी?’
‘घर जा रही थी। घंटे
भर से इंतजार करते-करते थक गई हूं। मौसम अलग खराब हो रहा है। फ़ोन उठाते ही नहीं तो
और क्या करती, कब तक यहां खड़े-खड़े
आते-जाते लोगों की गिनती करती रहती।’
रुहाना ब्रिज के बीचो-बीच पहुंच कर उसकी रेलिंग से टिक कर खड़ी
हो गई। श्वेतांश भी उसके सामने खड़ा हो गया। उसे शांत कराते हुए बोला, ‘तुम्हें कितनी बार सब बता चुका हूं। नौकरी
का हाल तो जानती हो। जब निकल लो तब समझो छुट्टी हुई। सीनियर जब छुट्टी का टाइम होता
है तभी आकर बैठ जाता है। उसके रहते निकल नहीं सकता। बिना किसी गलती के ही चिल्लाता
रहता है। बहाने ढूंढ़-ढूंढ़ कर डांटता रहता है। उसके रहते निकल दूं तो नौकरी ही ले लेगा।
प्राइवेट सेक्टर की तो सारी बातें जानती ही हो,
कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं जो निश्चिंत रहो।’
‘अरे यार मैं केवल
कॉल रिसीव कर सिचुएशन बता देने की बात कर रही हूं, जिससे कोई कंफ्यूजन ना रहे। बेवजह मन परेशान होता है ना। एक
तो मैं यह नहीं समझ पा रही हूं कि तुम हर बृहस्पति को यहां इस ब्रिज पर ही क्यों आते
हो? मिलने के लिए तुम्हें
और कोई जगह नहीं मिलती क्या?’
‘लो पहले ये यह समोसा
खाओ।’ श्वेतांश ने समोसे
का पैकेट उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा तो रुहाना एक समोसा निकालती हुई बोली, ‘अब यहां समोसा खाएंगे और पानी कहां पिएंगे।’
‘नीचे।’
‘अरे यार बड़ा अजीब
लगता है मुझे, यहां खाओ, पानी कहीं और पियो। उसके लिए भी अभी पता
नहीं कितनी देर इंतजार करना पड़ेगा, क्योंकि
घंटे भर से पहले तुम यहां से उतरने वाले नहीं।’
‘चलो आज जल्दी चलूंगा
क्यों परेशान हो रही हो।’
‘जल्दी कहां चल पाओगे।
जब यह बारिश बंद होगी तब चलोगे ना।’ रुहाना
ने सामने की तरफ बाहर देखते हुए कहा। तेज़ हवा के साथ बारिश शुरू हो गई थी। बादल भी
रह-रहकर खूब तेज़ गरज-चमक रहे थे। श्वेतांश ने बाहर देखते हुए कहा ‘ज़्यादा देर बरसने वाला नहीं है। तेज़ हवा
चल रही है, जल्दी ही निकल जाएगा।’
उसका आखिरी शब्द रळहाना नहीं सुन पाई, क्योंकि उसी समय बादल की तेज़ गड़गड़ाहट से
पूरा एरिया थर्रा उठा था। उसने दोनों हाथों से कान बंद कर लिए थे। बिजली की तेज़ चमक
से आंखें पहले ही चुधियां गई थीं। उसे श्वेतांश पर गुस्सा आ गया कि उसी के कारण उसे
इस हाल में यहां रुकना पड़ा। बादलों की गड़गड़ाहट कम ही हुई थी कि हर तरफ से तड़-तड़ की
आवाज सुनाई देने लगी। सड़क पर स्ट्रीट लाइट में वह अच्छे खासे बड़े-बड़े ओले साफ़ देख पा
रही थी।
श्वेतांश ने उन्हें देखकर कहा, ‘बहुत दिनों बाद इतने बड़े-बड़े ओले देख रहा
हूं।’
‘बड़े हों या छोटे
लेकिन आज के बाद मैं इस ब्रिज पर नहीं आऊंगी।’
रुहाना ने यह बात धीमी आवाज़ में कही क्योंकि पानी से बचने के लिए बहुत से लोग ऊपर
आ गए थे। पूरा ब्रिज करीब-करीब भर गया था। उस के स्वर में गुस्से को भांपकर श्वेतांश
ने कहा, ‘बारिश कोई अपने
हाथ में नहीं है, अपने मौसम पर ही
वह बरसेगी। तुम ब्रिज पर गुस्सा क्यों निकाल रही हो। देर से मैं आया, इसमें ब्रिज का क्या लेना-देना।’
‘है ना लेना-देना।
बारिश पता नहीं कब बंद होगी। लोग बढ़ते ही जा रहे हैं। अब यहां खड़ी-खड़ी धक्के खाती रहूं।
समझ में नहीं आता तुम्हें इसके अलावा कोई और जगह क्यों नहीं मिलती। ऐसा क्या है यहां
जो तुम्हें यह अच्छा लगता है।’
‘तुम नहीं समझोगी
यह ब्रिज मेरे लिए क्या है?’
‘पूछ तो रही हूं
इतने दिनों से, जब बताते नहीं तो
क्या जानूंगी। मैं तो सारी बातें बता देती हूं। तुम्हीं पता नहीं क्यों मुझसे ना जाने
कितनी बातें छुपाते रहते हो।’
‘कुछ भी छुपाता नहीं
हूं। बस वह बातें मैं तुमसे नहीं करना चाहता या हर उस व्यक्ति से नहीं करना चाहता जिससे
उस व्यक्ति का कोई मतलब नहीं है। और उन बातों को सुनकर उसका मूड खराब हो जाए।’
‘ओफ़्फो तुम्हारी
बातें कभी-कभी इतनी उलझी हुई होती हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है। यहां हर बृहस्पति
को तुम क्यों बहुत देर तक रहते हो यह ना बताने के लिए इतनी सारी बातें कर रहे हो। सीधी
साफ बातें करना कब सीखोगे।’ इसी बीच
रुहाना को दो-तीन छीकें आ गर्इं। ठंडी हवा ने अपना असर उस पर दिखाना शुरू कर दिया था।
उसने अपना स्टोल सिर, चेहरे पर
कस कर लपेट लिया था। फिर भी उसे ठंड महसूस हो रही थी।
उसकी छीकों ने श्वेतांश को कुछ देर बोलने से रोक दिया। उसने
एक नजर बाहर डालकर कहा, ‘कहो तो
टैक्सी बुला दूं, तुम जल्दी घर चली
जाओ। नहीं तो यह मौसम तुम्हें ज़्यादा नुकसान पहुंचाएगा।’
‘टैक्सी के लिए फालतू
पैसे नहीं हैं मेरे पास। इतना नहीं कमाती की टैक्सी में चलूं।’
‘मैं मजबूरी की बात
कर रहा हूं। ओला या ऊबर में दो-ढाई सौ रुपए में पहुंच जाओगी। तुम्हारी तबीयत बिगड़ी
तो छः-सात सौ तो डॉक्टर की फीस ही हो जाएगी। दवाएं अलग से, हज़ारों रुपए का खर्चा है।’ ‘चलो जो होगा देखा जाएगा।’
‘देखना क्या, मुझे लग रहा है कि यह पानी जल्दी बंद होने
वाला नहीं। आज तुम्हें टैक्सी की सवारी करनी ही पड़ेगी, नहीं तो रात भर इसी ब्रिज पर रहोगी। देख
रही हो यह गुगल बता रहा है कि यहां आज रात का मिनिमम टेम्परेचर नौ सेंटीग्रेड हो जाएगा।
इतनी ठंड के हिसाब से ना मैंने कपड़े पहने हैं ना तुमने।’
‘अच्छा, मैं टैक्सी में चली जाऊं और तुम, तुम क्या करोगे?’
‘करूंगा कुछ, बाइक छोड़ कर तो जा नहीं सकता। और ना ही भीगते
हुए। ठंड जो लगेगी वह तो लगेगी, इतनी तेज़
हवा में बाइक चलाना और मुश्किल है। रास्ते भर पेड़ों की टहनियां, पेड़ टूटे पड़े होंगे। यहीं देखो न, डिवाइडर
पर लगे पेड़ों की कितनी डालियां टूटी पड़ी हुई हैं।’
‘हां, देख रही हूं।’ रळहाना ने बाहर की तरफ देखते हुए कहा। बड़ा
चौराहा और पास ही वेब सिनेमा हाल होने के कारण वहां स्ट्रीट लाइट कुछ ज़्यादा ही तेज़
थी। गनीमत यह थी कि तेज़ हवा में भी लाइट वहां आ रही थी। अमूमन ऐसे में चली ही जाती
है। फुटओवर ब्रिज पर दोनों ओर बाउंड्री से ऊपर तक विज्ञापन की होर्डिंग लगी होने के
कारण ब्रिज पूरी तरह बंद था, जिससे ब्रिज
पर हवा कम लग रही थी।
खड़े-खड़े बात करते हुए रळहाना थक गई तो उसने श्वेतांश से कहा, ‘यहां बैठने के लिए भी कुछ नहीं है।’
‘इतनी जल्दी थक गई।’
श्वेतांश ने उसे छेड़ा तो वह बनावटी गुस्सा दिखाती हुई बोली, ‘अच्छा, तुम्हारे आने के एक घंटा पहले से इंतजार करती यहां खड़ी थी। मेरे
लिए यहां सोफे नहीं पड़े थे कि मैं आराम से बैठी थी, समझे। टाइम से आ जाते तो अब तक घर में होते। यहां ठंड से आंछी, आंछी ना कर रहे होते।’
रळहाना की आंछी करने के ढंग से श्वेतांश को हंसी आ गई।
उसकी हंसी देखकर आखिर में रुहाना भी हंस पड़ी। फिर बोली, ‘अब मुझसे खड़ा नहीं रहा जा रहा है। कुछ बैठने
का जुगाड़ करोगे, कब तक खड़े रहेंगे।‘
‘सही कह रही हो, पानी जल्दी बंद होने के आसार नहीं दिख रहे
हैं। आज मैं भी ज़्यादा थका हुुुआ हूं। एक ही रास्ता है कि जमीन पर ही कुछ बिछा कर
बैठा जाए। मगर क्या बिछाया जाए, कोई पेपर
वगैरह भी तो नहीं है। अपनी-अपनी रुमाल ही बलिदान करनी पड़ेगी या फिर ऐसे ही जमीन पर
बैठना होगा।’
‘चलो करो रुमाल बलिदान।
तुम्हारे इस ब्रिज प्रेम में रुमाल बलिदान होगी वो भी इस तूफानी ठंडी रात में। कभी
नहीं भूलेगी यह रात और ना ही यह ब्रिज और तुम्हारा ब्रिज प्रेम।’
रुहाना ने बैग से रुमाल निकाली तो श्वेतांश ने उसके हाथ से खींचकर
ले लिया फिर उसके हाथ में वापस थमाते हुए कहा,
‘इसे रखो, मेरे पास दो हैं।’
‘दो रुमाल क्या करते
हो?’ ‘एक हेलमेट लगाते
समय सिर पर रखता हूं और दूसरा हाथ चेहरे वगैरह के लिए।’
इतना कहते हुए श्वेतांश ने दोनों रुमाल निकालकर ब्रिज की दीवार
से लगाकर बिछा दिया और एक पर बैठते हुए कहा,
‘देखा तुम्हारे लिए मैंने रुमाल तक बलिदान कर दिया और तुम हो कि मेरे लिए एक घंटा
इंतजार करने में ही परेशान हो गई। ब्रिज को कोस रही हो।’
श्वेतांश के व्यंग्य से रुहाना को हंसी आ गई। बोली, ‘लोग तो अपने पार्टनर के लिए खुद को भी बलिदान
कर देते हैैं। तुम सिर के पसीने, हाथ को
पोंछने से बैक्टीरिया भरे रुमाल को भी नहीं निकाल पा रहे हो और जब देखो तब दस बार डींगे
हांकोगे कि तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं। घर-बाहर सब कुछ छोड़ सकता हूं।’ कहते हुए वह भी उसके बगल में बैठ गई।
उसने देखा बारिश के ना रळकने के कारण कई लोग भीगते या फिर जैसे-तैसे
निकल गए थे। मगर फिर भी दो ढाई दर्जन लोग अब भी थे। और उससे कुछ ही दूरी पर कई महिलाएं, उनके छोटे-बड़े बच्चे भी ज़मीन पर बैठे हुए
थे। उनमें तीन-चार महिलाएं ऐसी थीं जिनकी गोद में बच्चे भी थे। छोटे दुधमुंहे बच्चे।
जो ठंड, भूख से रो रहे थे।
दो-तीन साल और आठ साल के भी बच्चे थे। दिनभर में इन सबने मांगकर जो पैसा पाया था उसी
से खाने का कुछ सामान लिया था। जमीन पर ही पॉलिथीन, पेपर वगैरह बिछा कर खा रहे थे। बच्चों में खाने को लेकर हल्की-फुल्की
छीना-झपटी, रोना-पीटना फिर
उनकी मांओं का डपटना-चिल्लाना भी चल रहा था।
सब अपने में व्यस्त थे। आस-पास खड़े लोगों का उन पर कोई असर नहीं
था। रुहाना की नजर एक ऐसी मां पर बड़ी देर तक टिकी रही जिसकी गोद में मुश्किल से सात-आठ
महीने का एक बेहद कमजोर सा बच्चा था। जिसे उसने स्वेटर वगैरह तो फटे-पुराने पहनाए हुए
थे, मगर नीचे कोई कपड़ा
नहीं था। कमर से नीचे वह पूरा खुला हुआ था। उसकी मां भी रुहाना को बच्ची ही लग रही
थी। उसकी उम्र मुश्किल से पंद्रह-सोलह रही होगी। वह खुद भी बीमार लग रही थी। आंखें
अंदर धंसी हुई थीं। चेहरे पर थकान लाचारी के अलावा कुछ नहीं था।
सामने एक पेपर पर ही कुछ खाना था। जिसे वह खा रही थी। खाना क्या
था उसे रुहाना वहां से नहीं देख पा रही थी। उसकी बगल में एक डेढ़ दो साल का बच्चा बैठा
था, बिल्कुल सटा हुआ।
बीच-बीच में उसे भी खिलाती जा रही थी। और जो बच्चा गोद में था वह मां का दूध पिए जा
रहा था और वह अबोध मां निर्लिप्त भाव से उसे दूध पिला रही थी, कपड़ा हटा हुआ था। बच्चे का मुंह खुला हुआ
था। बहुत से लोग आस-पास ही खड़े हैं, इसका जैसे
उसे कुछ पता ही नहीं था।
रळहाना को उसकी हालत पर बड़ी दया आ रही थी। खासतौर से उस दुधमुंहे
डेढ़ साल के बच्चे पर, जो उस ठंड
में बचने लायक कपड़े तक नहीं पहने था। उसे उसी तरफ देखते पाकर श्वेतांश समझ गया कि वह
क्या देख रही है। उसने उसे टोकते हुए कहा,
‘क्या देख रही हो?’ श्वेतांश
ने अपना चेहरा तभी दूसरी तरफ घुमा लिया था जब उन सब ने खाना शुरू किया था। उसके प्रश्न
पर रुहाना ने भी उसी की तरफ मूंह कर लिया और कहा, ‘इन सब को देख रही हूं। इस ठंड में बेचारों के पास कपड़े तक नहीं
हैं। ठंड से ठिठुर रहे हैं, खाना भी
पता नहीं क्या खा रहे हैं? जो बच्चा
दूध पी रहा है, उस बेचारे को देखो
वह भी आधा नंगा है। नन्हीं सी जान को ठंड लग गई तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।’
‘हां, लेकिन तुम, हम क्या कर सकते हैं। जब उसकी मां को ही
अपने बच्चे का ध्यान नहीं है, बच्चा नंगा
है, उसे ठंड लग रही
है या नहीं, इससे बढ़कर यह कि
जब उसे अपना ही होश नहीं है तो वह बच्चे के बारे में क्या सोचेगी। बेवजह परेशान हो
रही हो।’
‘अरे यार इतना कठोर
ना बनो। सोचो हम लोग इतने कपड़े पहने हुए हैं,
तब भी ठंड से परेशान हैं। मुझे गुस्सा तो इन औरतों के आदमियों पर आ रही है कि इतने
बच्चे पैदा करके सब पता नहीं कहां गायब हैं। इनमें से किसी का भी आदमी इनके साथ दिखाई
नहीं दे रहा है।’
‘इनके आदमी होंगे
तब ना दिखेंगे।’
‘क्या मतलब?’ रुहाना चौंक कर बोली, ‘हां,
इनको शायद पता भी नहीं होगा कि इनके बच्चों के पिता कहां हैं। वह सब भी कहीं मांगते-खाते
घूम रहे होंगे। सुनता तो यहां तक हूं कि कई बच्चों के बारे में तो खुद इन्हें भी मालूम
नहीं होगा कि इनके बच्चों का पिता कौन है? कभी कुछ
पुलिसवाले, तो कभी रात में
घूमते कुछ और कमीने लोग इन्हें शिकार बनाते हैं। कुछ पैसे इनके सामने डाल देते हैं
बस। अब तुम इस छोटे बच्चे वाली मां को ही देखो,
अभी तो बेचारी खुद ही बच्ची है, लेकिन ना
जाने किस मजबूरी में दो-दो बच्चों की मां बनी हुई है। इनके आदमियों की जो तुमने बात
की तो वह सब भी कभी-कभी रात-दिन में आते हैं और बच्चों का बोझ इनमें रोप कर चल देते
हैं। खुद आए, ऐश की, चल दिए और तिल-तिल कर मरने के लिए इन्हें
छोड़ जाते हैं?’
‘इन बेचारी लड़कियों, बच्चों के बारे में इतना सब कुछ तुम कैसे
जानते हो?’
रुहाना के प्रश्न पर श्वेतांश बिल्कुल गम्भीर हो गया। सोचता
रहा कुछ। तो रुहाना ने फिर पूछा, ‘क्या बात
है, तुम क्यों इतना
सीरियस हो गए?’
‘तुम बहुत दिन से
पूछ रही हो ना कि मैं इस ब्रिज पर हर बृहस्पति को क्यों आता हूं, क्यों देर तक रहता हूं, मुझे लगता है यह सब बताने का इससे अच्छा
अवसर दूसरा नहीं मिलेगा। पहले तो सोचा था कि यह बात जीवन में कभी किसी को नहीं बताऊंगा।
लेकिन अभी स्थिति ऐसी बन गई है कि तुम्हें इस बारे में सब बता देना मुझे ठीक लगता है।’
‘लेकिन अभी तो मैंने
यह पूछा कि इन महिलाओं, बच्चों
के बारे में इतना कुछ तुम कैसे जानते हो?’
‘वही बताने जा रहा
हूं कि इनके बारे में कैसे जानता हूं।’
ये तभी जान समझ पाओगी जब यह जानोगी कि यहां मैं क्यों आता हूं।‘
’बड़ी अजीब बात है।
ठीक है बताओ।’
’हुआ यह कि मैं पैसों
की तंगी के चलते पढ़ाई-लिखाई तो ठीक से कर नहीं सका। सच यह भी है कि पढ़ने-लिखने में
मेरा मन भी नहीं लगता था। शुरू से ही नेता बनने का सपना देखता था। सोचता जब अनपढ़, गुंडे, माफिया नेता बन जाते हैं। मंत्री-मुख्यमंत्री, माननीय बन जाते हैं तो वही बना जाए। पढ़ाई-लिखाई
सिवाय समय बरबादी के और कुछ नहीं है। मगर इन माफिया से नेता बने लोगों की तरह मैं नेता
अकूत कमाई के लिए नहीं बनना चाहता था। मैं सपने देखता था कि मैं क्रांति करूंगा। देश
को बदल कर रख दूंगा।
लोकतंत्र खत्म कर दूंगा। क्योंकि मैं यह समझता था बल्कि अब भी
मानता हूं कि लोकतंत्र ने अपने देश को बनाया कम बरबाद ज्यादा किया। यदि बनाया ज्यादा
होता तो हम-तुम यूं दर-दर भटक न रहे होते। ये जो भिखारी हैं ये भिखारी न होते। लोग, बच्चे ऐसे फटेहाल न होते। सड़कों-गलियों-चौराहों
पर एक जून खाने, सिर ढकने के लिए
एक छत को तरस न रहे होते। मैं हर आदमी को शिक्षा-चिकित्सा, रोटी-कपड़ा और मकान सच में हरहाल में देने
का सपना देखता था।
इसके लिए मैं डिक्टेटरशिप, डेमोक्रेसी, आर्मी रूल
के एक मिलेजुले रूप वाली शासन व्यवस्था लागू करने की सोचता था। मगर जब आगे बढ़ा तो ऐसे
मगरमच्छांे के झंुड के झंुड मिले कि मुझे अपना रास्ता बंद मिला। फिर सोचा पढ़-लिख कर
ही कुछ बना जाए। जब-तक यह समझा समय मेरे हाथ से निकल चुका था। पढ़ाई-लिखाई डिस्टर्ब
हो चुकी थी। बस खींचतान के पढ़ रहा था। मन पढ़ने में तब लगना शुरू हुआ जब सब बिखर चुका
था। बेरोजगारी मुझे भी परेशान करने लगी। रोजगार के लिए हाथ-पैर मारने लगा। एक दिन घर
पर था, वहीं पेपर में यहां
नौकरी का विज्ञापन देखा।
पापा से बहुत कहने पर यहां आने-जाने का किराया भर मिला। यहां
आया, पेपर में दिए एड्रेस
पर पहुंचा तो वह फर्जी निकला। मेरी तरह ठगे गए कई और लड़के-लड़कियां वहां मिले। वह सब
कई दिन पहले ही वहां पहुंचे थे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर वह फर्जी कंपनी उन सब से पैसे
हड़प कर भाग चुकी थी। मैं देर से पहुंचा था इसलिए रुपये-पैसे ठगे जाने से बच गया।’
‘थैंक गॉड। फिर क्या
हुआ?’
‘फिर उस फर्जी कंपनी
के ऑफ़िस के गेट से बाहर आया। क्या करूं, किधर जाऊं
कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता रहा। वहीं पर मिला एक और लड़का
भी साथ था। वह बड़ा जुझारू लड़का है। उसी के साथ बैठा जीपीओ के पास चाय पी रहा था।
पहले मैंने सोचा कि घर लौट जाऊं। मगर घर पर क्या जवाब दूंगा
यह सोच कर मैं परेशान हो गया। उससे पूछा तो वह बोला उसके क्षेत्र के विधायक यहीं विधायक
निवास में रहते हैं। वह उन्हीं के यहां रुकेगा। कोशिश करेगा किसी और कंपनी में। उसी
की सलाह पर मैं भी रुक गया। चाय वाले के यहां पेपर में एक और विज्ञापन देखकर उसी लड़के
के साथ वहां चला गया। संयोग देखो कि वह वहां पर सुपरवाइजर हो गया और मैं सिक्योरिटी
गार्ड।
मैंने सोचा चलो कुछ तो बात बने, जब बात स्टार्ट हुई है तो आगे तक भी जाएगी।
दोनों को तुरंत ही काम पर लग जाना पड़ा। मैंने सोचा शाम को उसी के साथ विधायक निवास
पर ही रुक जाऊंगा। एक-दो दिन में फिर देखूंगा कहीं ठौर-ठिकाना। लेकिन शाम को उसने मजबूरी
बता दी कि वह वहां किसी और को लेकर नहीं जा सकता। मैंने कहा किसी तरह एक रात की व्यवस्था
हो जाए, अगले दिन कुछ ना
कुछ इंतजाम कर लूंगा, लेकिन उसने
साफ मना कर दिया।
रात बिताने के चक्कर में भटकते-भटकते यहां पहुंच गया। भूख बड़ी
तेज़ लगी हुई थी। तो यहीं इसी वेब सिनेमा के पास एक ठेले वाला पूड़ी सब्जी बेचता है।
घर वापस जाने के लिए जो किराए का पैसा था उसी से खाना खा लिया। अब बात आई सोने की, कि कहां सोऊँ ? दिनभर इधर-उधर भटकने, ड्यूटी करने से बुरी तरह थक गया था। पैदल
ही इसी पॉलिटेक्निक चौराहे की तरफ चला आ रहा था। यहां गोरखपुर जाने वाली बस दिखी तो
मन में एकदम से आया कि भाड़ में जाए गार्ड की नौकरी। चलता हूं गोरखपुर घर। सच बताउळं
उस समय यदि किराए के पैसे रहे होते तो मैं घर वापस चल देता। तो पैसे की मजबूरी ने मुझे
यहीं रोक दिया। बस चली गई। मैं भटकते-भटकते इस फुट ओवर ब्रिज की बेहद थके कदमों से
सीढ़ियां चढ़ता हुआ ऊपर आ गया। थक कर एकदम चूर हो रहा था।
तो यहीं एक जगह किनारे बैठ गया। जो न्यूज़ पेपर घर से आते समय
बस में लिया था वही बैग से निकाल कर बिछाया और बैग को सिर के नीचे रख कर लेट गया। उसके
पहले घर फ़ोन करके पैरेंट्स को बता दिया था कि नौकरी मिल गई है। यहीं एक दोस्त के साथ
रहने का भी इंतजाम हो गया है। थक कर चूर था ही तो लेटते ही गहरी नींद में सो गया।
दो-तीन घंटे बाद पेशाब लगी तो नींद खुल गई। उठने लगा तो मुझे
लगा कि मेरा सिर तो पथरीली फर्श पर टकरा रहा हैै। एक झटके में दिमाग बैग की तरफ गया।
देखा तो चौंक गया। मैं एकदम पसीने-पसीने हो गया। अब क्या करूं, बड़ी देर तक तो पेशाब लगी है यह भी भूल गया।
इधर-उधर नजर डाली तो मेरे जैसे एक दो और लोग भी सोते मिले। मगर सोते समय तीन-चार भिखारियों
का जो समूह पहले से ही यहां सो रहा था वह नहीं दिखा। मुझे पक्का यकीन हो गया कि वही
सब मेरा बैग ले गए।
वहीं देर तक बैठा मैं सोचता रहा कि अब क्या करूं। जेब में तीस-चालीस
रुपए से ज़्यादा कुछ है नहीं। खाना खाने के बाद यही बचे थे। बैग में एक सेट कपड़ा, तौलिया मेरा जो कुछ था, सब चला गया था। मोबाइल ऑफ करके पैंट की जेब
में रखा था तो वही बच गया था।
‘पहली रात इस ब्रिज
पर बिताई, शायद बृहस्पति का
दिन था इसीलिए यहां आते हो हर बृहस्पति को।’
‘रुहाना सिर्फ़ पहली रात ही यहां नहीं बिताई, आगे और अड़सठ दिनों तक यह ब्रिज मेरा ठिकाना बना रहा है। इस शहर
में मेरा पहला आशियाना यही था।’
‘क्या! दो महिने
और, क्यों, जहां नौकरी कर रहे थे वहां सैलरी नहीं मिल
रही थी क्या?‘
’मिली, पहली सैलरी दो महीने बाद मिली।’
‘क्यों, दो महीने बाद क्यों?’
‘इतना क्यों चौंक
रही हो, यह छोटी-मोटी प्राइवेट
कंपनियां क्या करती हैं तुम्हें मालूम नहीं। तुम भी तो प्राइवेट कंपनी में हो।’
’हां लेकिन मेरे
यहां पहली सैलरी पैंतीस दिन बाद मिल गई थी। उसके बाद अब हर तीन-चार तारीख को मिल जाती
है। मैं पहला एक हफ्ता यहां एक रिश्तेदार के यहां रही। सोचा था कि पहला एक महीना वहीं
गुजारळंगी। उसके बाद किसी गर्ल्स हॉस्टल में रूम लूंगी। लेकिन पहले दिन से ही उनकी
नाक-भौं ऐसी सिकुड़ी रही कि मैंने हफ्ते भर में ही हॉस्टल में रूम ले लिया। लेकिन तुम
दो महीने तक इस ब्रिेज पर कैसे रहे? मैं तो
सोच कर ही परेशान हो रही हूं। यहां रुके हुए दो घंटा ही हुआ है। लेकिन मैं ऊब गई हूं
कि कैसे पानी बंद हो और यहां से निकलूं।’
‘मेरे पास कोई ऑप्शन
ही नहीं था तो क्या करता। दूसरे किसी से कोई हेल्प मैं तभी मांगता हूं जब कोई दूसरा
ऑप्शन नहीं होता।‘
’घर वापस नहीं जाना
चाहते थे तो कम से कम काम भर का पैसा तो मंगा ही सकते थे। सामान चोरी हो गया था, पैसे भी नहीं थे, कैसे क्या करते?’
‘देखो मैं अपने घर
की हालत जानता हूं। यह सब जानने के बाद फादर पैसा जरूर भेजते, लेकिन उन्हें किसी से कर्ज लेना पड़ता। इसलिए
मैंने सोचा जो भी हो पैसा नहीं मांगूंगा।’
‘तो फिर क्या किया? कैसे चलाया खाना-पीना, नहाना-धोना सब कैसे हुआ?’
‘नहाना-धोना तो नीचे
कॉर्नर पर यह जो पब्लिक टॉयलेट है यहां होता था। सोना यहां ब्रिज पर और खाना-पीना ठेलों
पर।’
‘इन सब के लिए पैसे, वह कहां से लाए? तुम्हारे पास तो पैसेे नहीं थे।’
‘हां पहले दिन चालीस-पचास
रुपये बचे थे। वह सुबह पब्लिक टॉयलेट और यहां से ऑफ़िस जाने के लिए किराए में निकल गए।
ऑफ़िस में फिर उसी पहले दिन वाले लड़के से मिला उसे सारी बातें बता कर मदद मांगी, तो उसने कहा घबराओ नहीं कुछ करता हूं। असल
में वह काम कैसे निकाला जाता है यह बहुत अच्छी तरह जानता है। उसने सवेरे का चाय नाश्ता
और बाद में लंच भी कराया। लंच के समय ही उसने बताया कि पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया
है। और ना ही कहीं रुकने का। बहुत सोच-विचार कर मैंने कहा मेरा मोबाइल ही किसी तरह
बिक जाता तो अच्छा था। तो उसी ने कोशिश करके शाम तक मोबाइल चार हज़ार में बिकवा दिया।
ऑफ़िस के ही एक आदमी ने लिया था। लेकिन उसने पूरे पैसे नहीं दिए।
दो हज़ार उसी दिन दिए और दो हज़ार एक हफ्ते बाद।
तो इन्हीं चार हज़ार रुपयों से मैंने दो महीने निकाले।‘
’सिर्फ़ चार हज़ार
में दो महीना।’
‘हां, टॉयलेट वाले से हालात बताकर हेल्प के लिए
कहा तो कुछ ना नुकुर के बाद वह पैसा इकट्ठा लेने को तैयार हो गया। सारी डिटेल्स नोट
करने के बाद माना। इस तरह डेली का बीस रळपया बचा। यहीं पास में एक ठेले पर कभी छोला
चावल तो कभी रोटी सब्जी से काम चलाया। खाना अक्सर एक टाइम ही खाता। दिनभर ऑफ़िस की वर्दी
में रहता। एक सेट जो कपड़ा था वही पहन कर आता-जाता।’
‘घर से कपड़े पार्सल
मंगवा सकते थे। ऑफ़िस के पते पर।’
रुहाना की बात पर श्वेतांश ने एक गहरी सांस ली। फिर कहा, ‘घर पर भी मेरे पास ऐसे कपड़े नहीं बचे थे
जिन्हें मंगा कर मैं यहां काम चला लेता। दो थे वही लेकर आया था। एक चोरी चला गया।
इस टॉयलेट वाले ने बड़ी मदद की। उसी ने दो अंगौछे मंगवाए। उसी
को पहन कर नहाता-धोता, कपड़े धोता-सुखाता।
इसी तरह पूरा दो महीना निकाला। जब दो महीने की सैलरी मिली तो पहला काम इसका पूरा कर्ज
चुकाया। एक सेट कपड़ा खरीदा। और पंद्रह सौ रुपए का एक सस्ता सा मोबाइल लिया। जो मोबाइल
बेचा था उसे ट्यूशन वगैरह के पैसे से आठ-दस महीने में खरीदा पाया था। जब पंद्रह सौ
का मोबाइल ले रहा था तो उस मोबाइल की बड़ी याद आ रही थी।’
‘सच में तुमने बड़े
कष्ट उठाए हैं।’
‘हां, वह दो महीने तो बड़े कष्ट में बीते। इसीलिए
उन दो महीनों में जहां भी मुझे एक पैसे की भी मदद मिली उसे मैं भूल नहीं पाया और सच
यह है कि मैं भूलना भी नहीं चाहता। इस ब्रिज को तो बिल्कुल नहीं। यहां आकर मुझे लगता
है कि जैसे मैं अपने किसी दोस्त के पास आ गया हूं। मैं अपने ही घर के किसी कोने में
हूं। वहां की नौकरी मैंने तीन महीने बाद ही छोड़ दी थी। लेकिन आज भी महीने में दो चार
बार वहां जरूर जाता हूं। वहां अपने साथियों से जरूर मिलता हूं।’
‘वहां छोड़ क्यों
दिया?’
‘असल में गार्ड की
नौकरी मुझे पसंद नहीं थी। मजबूरी में ही कर रहा था। इसलिए जैसे ही इस वाली कंपनी में
किसी तरह मौका मिला तो छोड़ दिया। पैसा भी यहां डेढ़ गुना ज़्यादा था। और सबसे बड़ी बात
यह कि अगर वहां छोड़ता नहीं तो तुम कहां से मिलती।’
श्वेतांश की इस बात पर ýहाना हल्के
से हंस दी, फिर बोली, ‘सही कह रहे हो। पहले जब तुमको वहां बस स्टॉप
पर लोगों को लिफ्ट देते देखती तो मैं तुम्हें कोई मवाली लफंगा समझती। सोचती अजीब मूर्ख
आदमी है। आजकल लोग लिफ्ट मांगने पर भी नहीं देते और यह मूर्ख रोज निश्चित समय पर इधर
से निकलता है, सबको लिफ्ट ऑफर
करता है, लोगों को बैठा कर
ले जाता है। लेकिन जब बहुत दिनों तक रोज ही देखने लगी तो सोचा समाज सेवा का नया-नया
भूत सवार है, कुछ दिन में उतर
जाएगा।
कोइंसिडेंट देखो उस दिन एक तो मुझे देर हो गई, दूसरे जो बस आई वह वहीं खराब हो गई। जितनी
टेंपो और आटो आते सब पर लोग पहले से ठसाठस भरे होते। आते ही सब टूट पड़ते थे। मैं इस
धक्का-मुक्की में बैठ नहीं पा रही थी। देखते-देखते ज़्यादातर लोग चले गए, मैं दो-चार और लोग ही बस स्टॉप पर रह गए।
थोड़ी देर में तुम आ गए।
उस दिन तुम भी पता नहीं क्यों देर से आए? तो मैंने सोचा अगर आज भी ऑफर करता है तो
बैठूंगी। तुमने जैसे ही ऑफर किया वैसे ही मैं सबसे आगे आकर बैठ गई। तुमने रास्ते भर
में सिर्फ़ इतनी ही बात की कि मैं इस रास्ते से होते हुए यहां तक जा रहा हूं। इस बीच
जहां पर कहें वहां छोड़ दूं। उस दिन के बाद मैंने सोचा चलो रोज लिफ्ट लेती हूं। कम से
कम जाने के तो पैसे बच जाएंगे। लेकिन फिर उसी रास्ते पर सुबह भी मिलने लगे तो मैंने
सोचा....।’
श्वेतांश बीच में ही बोला... ‘चलो दोनों तरफ का किराया बचेगा।’
‘क्या करें यार, पैसे तो बचाने ही पड़ेंगे ना। तुम्हारे कारण
किराया तो बच ही जा रहा है ना।’
‘तुम चाहो तो हॉस्टल
का भी खर्चा बच सकता है।’
‘कैसे?’
‘मेरे साथ चल कर
रहो ना, कब तक ऐसे बाहर
मिलते रहेंगे। मैं तो तुम्हारे पैरेंट्स से कब से सीधे बात करने को तैयार हूं। तुम्हीं
पता नहीं क्यों बार-बार मना कर देती हो।’
‘देखो यार समझने
की कोशिश करो। मैं उन लोगों को धीरे-धीरे बताना चाहती हूं। एकदम से बता कर उन्हें कष्ट
नहीं देना चाहती। यार कुछ भी हो मां-बाप हैं। हमें जन्म दिया है, पाला-पोसा है। बड़े कष्टों से मां-बाप बच्चे
पालते हैं। आखिर हमारा भी तो कोई कर्तव्य बनता है।
उस औरत को ही देखो, पिछले दो-ढाई
घंटे में अपने बच्चे को तीसरी बार दूध पिला रही है। एक बच्चे को किनारे एक हाथ से दबाए
हुए है। नींद के मारे आंखें नहीं खुल रही हैं। लेकिन बच्चे को टटोल-टटोल कर मुंह में
निपुल दे रही है। बार-बार दूध पिला रही है।’
‘तुम सही कर रही
हो। मैं तुम्हारी इस बात की प्रशंसा हमेशा करता हूं, क्यों कि मैं भी पैरेंट्स को इग्नोर करने के फेवर में कभी नहीं
रहा। इसीलिए तो बात करने के लिए बार-बार कहता हूं। मैं इसलिए भी हर हाल में तुम्हें
चाहता हूं क्योंकि मैं यह समझता हूं कि हर चीज में हमारी तुम्हारी सोच करीब-करीब एक
जैसी है। तुम्हें फालतू खर्च पसंद नहीं, मुझे भी
नहीं। सरल साधारण जीवन को तुम जीवन की सुंदरता मानती हो। मैं भी खुशहाल जीवन के लिए
इसे ही एक मात्र आधार मानता हूं। मैं जैसा जीवन जीता हूं, उसे तुम प्रमाण के तौर पर ले सकती हो। जानती
हो देखा जाए तो मैं आज भी चौकीदारी ही कर रहा हूं।’
‘मैं समझी नहीं, कैसे?’
‘असल में जिस मकान
में रह रहा हूं वह मेरे ही बॉस के एक बड़े रिश्तेदार का है। बहुत बड़ा मकान है। अभी पूरा
नहीं बन पाया है। धीरे-धीरे काम चलता है। कभी बंद रहता है, उसी में मैं एक कमरे में रहता हूं। किचेन
बाथरूम वगैरह सब बन चुके हैं। उन्हें यूज़ करता हूं। और मकान की रखवाली भी करता हूं।
इससे वह चौकीदार रखने का खर्चा बचा लेते हैं।
जब भी मकान में काम लगता है तो उस समय भी मैं देखता हूं। इससे
उनकी भी बचत हो रही है। जगह बहुत है। कोई रोक-टोक नहीं है। इसीलिए बार-बार कह रहा हूं
कि चलो, हॉस्टल का तुम्हारा
पूरा-पूरा खर्चा बच जाएगा। वैसे भी हम दोनों जिस रिश्ते को जी रहे हैं उसके बाद तो
एक साथ रहना एक औपचारिकता भर है बस। ऐसे में तो मुझे लगता है कि बात करने में देरी
करना सिर्फ़ टाइम वेस्ट करना है।’
‘यार इतना उतावले
क्यों हो रहे हो? मेरे पेरेंट्स किस
बात को किस तरह लेंगे यह मैं तुमसे बेहतर जानती हूं। इसलिए मुझे उन्हें स्टेप बाय स्टेप
समझाने दो। एकदम से कहने पर वो भड़क भी सकते हैं। बात यहां इंटर कास्ट की नहीं इंटर
रीलिजन की है। इसलिए प्लीज थोड़ा समय और दो।’
‘तुम कैसी बात कर
रही हो? मैं कोई प्रेशर
नहीं डाल रहा हूं। सिर्फ़ टाइम की बात कर रहा हूं। एक बात और मेरे दिमाग में आ रही
है कि यदि तुम्हारे पैरेंट्स ने तुम्हारी बात मानने से इनकार कर दिया तब क्या करोगी? उनकी बात मानोगी या अपने मन की करोगी।’
श्वेतांश की इस बात पर रळहाना बड़ी देर तक सोचती रही तो श्वेतांश
ने अपनी बात दोहरा दी। तब रळहाना ने एक गहरी सांस ली और कहा, ‘तब मेरे जीवन का सबसे कठिन समय होगा श्वेतांश।
मैं उनसे माफी मांग लूंगी। कहूंगी क्योंकि आपने हमें इतना बड़ा किया, पाला-पोसा मुझे अपना कॅरियर अपने हिसाब से
चुनने की आजादी दी, मुझे इस लायक बनाया
कि मैं अपना भला-बुरा समझ सकूं। एक इनायत और करिए की मुझे अपने जीवन का सबसे अहम फैसला
लेने की भी आजादी दीजिए। आप इस बात से एकदम निश्चिंत रहिए कि मैं जो भी फैसला लूंगी
सही लूंगी। इस लायक तो आपने बना ही दिया है।’
‘और यदि यह अहम फैसला
लेने की आजादी नहीं दी तब क्या करोगी?’
‘ओफ्फ श्वेतांश मुझे
डराओ नहीं प्लीज, प्लीज।’ यह कहते हुए रुहाना ने उसका हाथ अपने दोनों
हाथों में पकड़ लिया। वह उससे एकदम सटकर बैठी थी।
श्वेतांश ने बहुत स्नेहपूर्वक एक हाथ उसकी पीठ पर रखते हुए कहा, ‘मैं तुम्हें डरा नहीं रहा हूं। मैं तो सिर्फ़
इतना कह रहा हूं कि यह स्थिति आ सकती है, तब क्या
करोगी?’
रुहाना फिर कुछ देर चुप रही। उसके चेहरे पर कुछ सख्त भाव उभर
आए। उसने कहा, ’तब मैं उनसे माफी
मांग लूंगी। कहूंगी आपने अब तक जैसा कहा, जैसा चाहा
मैं वह करती रही और अब जीवन का एक फैसला मैं अपने मन का करूंगी। और मैं यह भी यकीन
दिलाती हूं कि जल्दी ही आप मेरे इस फैसले की तारीफ करेंगे। यह जो कुछ हो रहा है इसे
आप सही मानिए। ऊपर वाले की रजा मानिए क्योंकि होता है वही है जो ऊपर वाला चाहता है।
इतना कहकर मैं अपनी नई दुनिया बनाऊंगी। उसे आबाद करूंगी। मां-बाप की दुनिया से अलग, अपनी एक खूबसूरत दुनिया।’
‘रुहाना मुझे तुम पर पूरा विश्वास है। हम
दोनों की दुनिया निश्चित ही बहुत खुशहाल होगी। मुझे भरोसा अपने मां-बाप पर भी है। वह
लोग बहुत खुले विचारों के हैं। हम दोनों का साथ जरूर देंगे। अपना आशीर्वाद जरूर देंगे।‘
रळहाना इस समय अपना सिर उसी के कंधे पर टिकाए बैठी थी। वहां
उन दोनों के अलावा अन्य जो लोग थे, सब सो रहे
थे। बाकी लोग जा चुके थे। रुहाना ने एक नजर ब्रिज की रेलिंग पर लगे विज्ञापन पट के
टूटे हिस्से से बाहर डाली। पानी बंद हो चुका था। वह सीधी बैठती हुई बोली, ‘श्वेतांश पानी बंद हो चुका है, अब घर चलो, मुझे बहुत नींद लगी है, बहुत थक गई हूं मैं।‘
‘घर’
‘हां... कल शाम को
ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलना। हॉस्टल खाली करना है। सारा सामान साथ लेकर चलना है। हॉस्टल
में तो बेवजह खर्चा हो रहा है। दोनों एक जगह रहेंगे। बेवजह पैसा खर्च करने से क्या
फायदा।’
श्वेतांश ने उसकी बात समझते ही उसे बाहों में भर कर कहा, ‘जरूर, कल शाम को क्यों? आज सुबह
ही पहला काम यही करेंगे। आओ चलें।’
दोनों उठ कर चल दिए। रुहाना की नजर एक बार फिर उस दुध-मुंहे
बच्चे पर चली गई। वह दूध के लिए कुनमुना रहा था। हाथ से मां की छाती टटोल रहा था। और
मां फिर पहले ही की तरह कपड़ा हटा कर निपुल उसके मुंह में दे देती है, और हाथ से उसे अपनी छाती से चिपका लेती है।
एक बेहद दयनीय हालत का कंबल जो वह ओढ़े़े थी उसी से बच्चे को फिर पूरा ढंक लेती है।
उसे ठिठकता देखकर श्वेतांश ने कहा, ‘कैसे बेखबर हैं बाकी दुनिया से यह सब अपनी
दुनिया में। भगवान से प्रार्थना है कि जैसे उसने इस दुनिया में बाकी लोगों के लिए खूबसूरत
चीजें दीं हैं, वैसे ही इन सब की
दुनिया भी बढ़िया बना दे।’
दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे। तभी
श्वेतांश से रुहाना से कहा, ‘अब तो समझ
ही गई होगी कि इस ब्रिज पर मैं क्यों आता हूं। यहीं मेरी नई दुनिया की नींव पड़ी और...।’
‘और ?’
‘और जीवन का हमसफर
भी यहीं मिला। अब तुम ही बताओ इसे कैसे भूल सकता हूं?’
‘सही कह रहे हो, मैं भी तुम्हारे साथ आया करूंगी। यह सिर्फ़ कंक्रीट स्टील का एक फुट ओवर ब्रिज
नहीं है। हम दोनों की ज़िंदगी का एक हिस्सा है। हमारा पॉलिटेक्निक चौराहे वाला फुट ओवर
ब्रिज।’ कह कर रुहाना हंस पड़ी। तब तक श्वेतांश ने बाइक स्टार्ट कर दी थी।
पता-प्रदीप
श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर
एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६,८२९९७५६४७४
कहानी में प्रयोग किये गए पॉलिटेक्निक फुट ओवर ब्रिज के सभी चित्र प्रदीप श्रीवास्तव
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