शनिवार, 25 मई 2019

उन्हें भी संस्पर्श करतीं कहानियां जहाँ अधिकांश हो जाते हैं मौन : डॉ-अमिता दुबे

उन्हें भी संस्पर्श  करतीं  कहानियां जहाँ अधिकांश हो जाते हैं मौन
- डॉ. अमिता दुबे

प्रदीप श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ''मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां'' लम्बी कहानिओं का एक बड़ा संग्रह  है. यह कहानियां सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करते हुए  तत्तजनित विडंबनाओं , विद्रूपताओं  और विभीषिकाओं  का चित्रण करती हैं . यह संग्रह श्री प्रदीप समर्पित करते हैं अपने अनुज सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृति को जो एक मार्ग दुर्घटना में 10 मार्च 2017 को काल-कवलित हो गए. इस समर्पण में भी एक प्रश्न उठाते हैं, अपने अनुज के स्वर्गवास के लिए वे  उत्तरदाई ठहराते हैं- ''मैं दोष उस अस्त-व्यस्त व्यवस्था को दूंगा जो आजादी के बाद इतने वर्षों में बनी और चली आ रही है जिसने असंतुलित विकास, गैर जिम्मेदाराना आचरण की प्रवृति को जन्म दिया , पुष्पित पल्लवित कर ऐसा विराट वृक्ष बना दिया जिसकी छाँव तले लापरवाही, भ्रष्टाचार,अलगाववाद, भूख गरीबी के बढ़ने हेतु आदर्श मार्ग प्रशस्त हुवा. पत्थर संवेदना वाले समाज के सामने मानवता  को प्रतिपल शर्मसार होने के लिए विवश कर दिया. और सत्तर वर्षों में सकुशल चलने लायक सड़कें ,उन पर जिम्मेदारी से चलने का आचरण भी नहीं सिखा पाई जिसके कारण प्रतिदिन ना जाने कितने प्रिय सत्येंद्र असमय ही सिर्फ यादों में ही रह जा रहे हैं.संग्रह  में  'पगडंडी विकास' 'जब वह मिला' 'करोगे कितने और टुकड़े' 'झूमर' 'घुसपैठिए से आखिरी मुलाकात के बाद' 'बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा' 'हनुवा की पत्नी' 'शकबू की गुस्ताखियां' 'शेनेल  लौट  आएगीइसके अतिरिक्त पहली और शीर्षक कहानी है 'मेरी जनहित याचिका'. कुल दस कहानियों में यह  एक सौ बीस पृष्ठों  में   समाहित ऐसी लंबी कहानी है जिसमें लघु उपन्यास के गुण विद्यमान हैं. 
यह कहानी एक परिवार की कहानी ही नहीं एक समाज की कहानी है. घर-घर की कहानी है जहां छोटे-छोटे सुख हैं  तो अनेक उलझने, समस्याएं हैं. स्नेह  है, समर्पण है और इन सबसे बढ़कर भारतीय संस्कृति की झलक है जहाँ  नाते-रिश्तों  को बचाने के लिए त्याग  की  अपनी पृष्ठभूमि है. बुजुर्ग माता-पिता की विवशता  है. प्रदीप जी कहते हैं, ''अम्मा-पापा बहुओं के हाथ-पैर तक जोड़ने लगे कि आखिर क्यों  कलह  कर रही हो? सारी प्रॉपर्टी है तो तुम्हीं लोगों की. हम लोग हैं ही कितने दिनों के मेहमान?'' परिवार के टूटने का दर्द जिसमें माता-पिता की उपस्थिति में ही बिखराव हो गया, प्रदीप श्रीवास्तव की पंक्तियों में देखने को मिलता है, ''फिर वह दिन  आया जब परिवार तीन टुकड़ों में अलग-अलग घरों में रहने लगा. वही परिवार जिसे मोतियों की तरह चुन-चुन कर बनाने में पापा-अम्मा ने अपना जीवन लगा दिया था.' इस  लंबी कहानी के अंत में कहानी का नायक जो विभिन्न व्यवस्थाओं या यह कहें दुर्व्यवस्थाओं के बीच अपनी दुर्बलताओं - सफलताओं के साथ जीते हुए एक किनारे लगने के प्रयास में पुनः मझधार में आ जाता है तब उसकी दोस्त आयशा  कहती है, ''तैयार हो जाओ समीर; संभालो  अपने को. जाने वाले  को तो लाया नहीं जा सकता. जीने  के लिए समय बहुत कम भी है, बहुत ज्यादा भी है. दुनिया बहुत छोटी भी है और बहुत बड़ी भी. यह दोनों हमारे सामने कैसी होंगी यह हम पर डिपेंड करता है.'
लेखक की आशा-निराशा के बीच झूलती  यह पंक्ति  बहुत कुछ कह जाती है, ''सच में आखिरी व्यक्ति तक को न्याय मिले, वह सिर्फ होता हुआ दिखे ही  नहीं ऐसा वास्तव में हो भी.'' यह वास्तव में हो भी  की चिंता कहानीकार प्रदीप श्रीवास्तव की अन्य कहानियों में भी दिखाई देती है. विशेषकर ''पगडंडी विकास'' ''हनुवा  की पत्नी''  ''बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा'' में जहां मानवीय स्वभाव की पड़ताल के साथ-साथ समाज की सूक्ष्म पड़ताल करता हुआ कहानीकार दिखता है. संग्रह की एक और लंबी कहानी है ''शेनेल लौट आएगी'' यह कहानी एक ऐसे पक्ष को रेखांकित करती है जहां सब कुछ है लेकिन ठगा हुआ सा खड़ा एक व्यक्ति हतप्रभ है. ''बीतते  समय ने अंततः पक्का यकीन करा दिया कि छह हज़ार  मील दूर से आकर दो महीने में दस लाख का चूना लगा गई.कितनी अच्छी लाजवाब थी उसकी साजिश कि विदेश में दो महीने खाना-पीना, घूमना, गाइड, सेक्स पार्टनर सब कुछ. जाते-जाते लाखों का सामान ले गई. सिर्फ साड़ी को छोड़कर जिसे गुस्से में मैंने जला दिया. मैं इतना विवश था कि कुछ नहीं कर सकता था. किसको बताता? क्या बताता? शादी का जो वीडियो बनाया था वैसी शादी का कोई कानूनी अर्थ नहीं, कानूनी मदद लूँ तो दुनिया हंसेगी अलग कि आधी उम्र की लड़की को दो महीने साथ रखाऐश करते रहे  तब यह  सब पता करने का होश नहीं था. दोस्तों की सलाह तब याद नहीं आई कि देखना इन धूर्त लड़कियों, इनकी  बातों में उलझ ना जाना.''  वास्तव में अनेक बार हम अपनी भावुकता में ठगे जाते हैं और फिर थोड़े दिन बाद उस निराशा के भाव को त्याग  कर  फिर प्रतीक्षा करते लगते हैं जैसे इस कहानी के नायक ने किया, ''और शेनेल ; यह नहीं कहूंगा कि उसकी याद नहीं आती. आती है, अब भी आती है. और तब उसके लिए कोई अपशब्द नहीं निकलता. बस हंसी आती है. और याद आते हैं साथ बिताए खूबसूरत पल . तब अनायास ही मुंह से निकल जाता है ''शेनेल''...'' 
डॉ-अमिता दुबे 
समग्रत: यह कहानी संग्रह ''मेरी  जनहित एवं अन्य कहानियां''  एक पठनीय  संग्रह है जिसके माध्यम से कहानीकार  प्रदीप श्रीवास्तव  ने समाज के  उन पक्ष , उन  स्थितियों का संस्पर्श करने का प्रयास किया है जहाँ  अधिकांशतः  मौन हो जाया जाता है. सभी कहानियां जहां समाप्त होती हैं  लगता है वहीं से नया संवाद प्रारंभ होता है. यह कहानियों की ताकत है, रचनाकार की सामर्थ्य और अपना दृष्टिकोण है. कहानी की भाषा पात्रानुकूल है , परिस्थिति समय और स्थान के अनुसार भाषा में परिवर्तन दिखाई देता है जो बदलती हुई कहानियों के शिल्प की एक बड़ी विशेषता है. आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह कहानी संग्रह पाठकों आलोचकों के बीच अपना स्थान निर्धारित करेगा  .
कृति : 'मेरी जनहित याचिका एवं अन्य  कहानियां' [कहानी संग्रह]
कृतिकार : प्रदीप श्रीवास्तव
प्रथम संस्करण -2018
मूल्य -३५०/
पृष्ठ संख्या 464
डॉ अमिता दुबे
संपादक
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
 6 महात्मा गांधी मार्ग, हजरतगंज लखनऊ -226001

सोमवार, 13 मई 2019

मन्नू की वह एक रात : प्रदीप श्रीवास्तव:भाग दो

मन्नू की वह एक रात
- प्रदीप श्रीवास्तव

(भाग दो)
जब सोने पहुंची तो नींद नहीं आ रही थी। आती भी कैसे ? वह तो न जाने कब की मेरी सौतन बनी रोज रात भर मुझे डसती आ रही थी। तो आज कैसे आ जाती। तब टी0वी0 में आजकल की तरह चौबीसों घंटे प्रोग्राम नहीं आते थे कि खुद को उसी में खपा देती। और फिर एक बार नजर घूम गई किताबों की ओर। वह निर्जीव किताबें ही उस समय मेरे सुख-दुख का साथी थीं। एक ऐसा कंधा थीं जिस पर अपना सिर रख कर मैं आंसू बहा सकती थी। हां ..... ज़िया । ज़िया को कैसे भूल सकती हूं वह तो मेरा दूसरा कंधा थीं। मगर इन दोनों कंधों में एक फ़र्क था। जहां किताबों का कंधा हर वक़्त मेरे साथ था वहीं ज़िया का कंधा दिन में ही मेरा साथ दे पाता था। वैसे ज़िया का वश चलता तो वो मेरा एक-एक कष्ट खुद पी जातीं। मगर एक जगह पहुंच कर वह भी विवश हो जाती थीं।
                                                           
           खैर उस दिन भी किताबों के ढेर से उठा लाई एक किताब आंसू बहाने के लिए। किताब और लेखक का नाम तो याद नहीं आ रहा। हां इतना याद है कि महाभारत के कुछ पात्रों को आधार बनाकर आज के सन्दर्भों में एक विश्लेषणात्मक उपन्यास जैसा था।
         
          ‘मगर दीदी एक बात बताओ कि जब एक तरफ जीजा से इतना झगड़ा हो जाता था तो तुम किताब पढ़ने में मन कैसे लगा पाती थी।

          ‘बिब्बो जब हर तरफ से मार पड़ती है तो आंखें बरसने के लिए कंधा ढूढ़ती हैं। वह कंधा किसी भी रूप में हो सकता है। किताबों के रूप में भी हो सकता है। मेरी आंखें भी पहले ज़िया को ढ़ूढ़तीं। जब वह न होतीं तो किताबों को कंधा बना लेतीं। उस दिन वह किताब मेरे आंसुओं को पोंछ रही थी। रात तीन बजे तक वह किताब पढ़ती रही। लगा जैसे वह किताब मुझे ही ध्यान में रख कर लिखी गई थी। अम्बिका, अम्बालिका, गांधारी, कुंती, माद्री, सब बच्चों के लिए ही क्या-क्या कर बैठी थीं। नियोग से लेकर और न जाने क्या-क्या। उसी में महिलाओं की आज़ादी उनके अधिकार आदि को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कही गई थीं। गंगा तक के बारे में लिखा था। यहां तक कि तब की महिलाएं और ज़्यादा अधिकार संपन्न थीं। मर्दों से कम न थे उनके अधिकार। सेक्स संबंधों में भी बड़ी खुले विचारों की थीं। जैसे गंगा राजा प्रतीप की सुंदरता पर मोहित हो सीधे उनसे प्रणय निवेदन कर बैठीं।

          ‘ये क्या कह रही हो दीदी। गंगा मइया के बारे में ऐसा लिखा था।

          ‘हां ..... अच्छी तरह याद है मुझे यही लिखा था। और कुंती को ही देखो न। उन्होंने भी तो विवाह से पूर्व ही सूर्य से संबंध बनाए। और कर्ण जैसे पुत्र को जन्म दिया।

          ‘पर दीदी वह सब देवी देवता थे। हम उनकी बराबरी तो नहीं कर सकते न।

          ‘बिब्बो मैं बराबरी की बात नहीं कर रही हूं। मैं सिर्फ़ इतना ही बता रही हूं कि समय चाहे जो भी रहा हो महिलाएं हमेशा दोयम दर्जे की ही रही हैं। फर्क़ सिर्फ़ इतना रहा है कि स्थितियां कभी कम तो कभी ज़्यादा खराब रहीं, हां उस भीड़ में  वही अपना अधिकार पाने में सफल हुई हैं जिन्होंने पुरुषों की बनाई डेहरी में नहीं बल्कि अपनी बनाई डेहरी में अपने को सुरक्षित किया। मेरा मतलब कि अपने बनाए दायरे में रहीं। और उस दिन वह किताब पढ़ते-पढ़ते मेरे भी दिमाग में पहली बार यह बात आई कि आखिर हम भी एक इंसान हैं। हमारा भी कोई वजूद है।

          आखिर हम गुलामों की तरह जीते ही क्यों हैं। सोचते-सोचते बार-बार मेरा निष्कर्ष यही होता कि प्रकृति तो हमें पुरुषों की ही तरह आज़ाद ही पैदा करती है। बंदिशें पुरुष ही लगाते हैं और उन बंदिशों को हम औरतें शर्म-संकोच के नाम पर और कड़ा करते हैं। उस दिन पहली बार मेरे दिमाग में यह बात आई कि मेरी भी जो हालत है उसके लिए एक हद तक मैं खुद ही ज़िम्मेदार हूं। और सच कहूं कि उसी दिन मेरे मन में पहली बार यह बात भी आई कि अब अपने हालात मैं खुद बदलूंगी। अब न जीयुंगी गुलामों की तरह। आखिर मैं भी एक इंसान हूं कोई जानवर नहीं। ऐसी ही तमाम बातें मन में उथल-पुथल मचाए हुए थीं कि न जाने कब नींद आ गई।

          सुबह जब एलार्म की घंटी बजी तब मेरी नींद खुली। ऐसा बरसों बाद हुआ था कि सुबह मेरी नींद एलार्म की घंटी से खुली। नहीं तो रात चाहे जितने बजे सोती सुबह छह बजे मेरी नींद अपने आप खुल जाती थी। खैर जल्दी-जल्दी उठ कर चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब तैयार किया। इनकी ट्रेन शाम को थी। हां कुछ देर के लिए इनको ऑफ़िस जाना था। अचानक मेरे मन में आया चलो इनके साथ ही बंबई घूम आऊं। बरसों से कहीं गई नहीं। मेरी फ़िल्मी हस्तियों को देखने की बड़ी इच्छा थी।

          बरसों की छिपी इच्छा अचानक ही मन में उछल-कूद करने लगी। और फिर मैंने तय कर लिया कि मैं भी शाम को इनके साथ जाऊंगी। लेकिन तभी मन में यह बात आई कि ट्रेन में रिजर्वेशन तो इन्हीं का है। फिर मेरे दिमाग में आया कि बड़े-बड़े लोगों से इनका संपर्क है ही कोई न कोई रास्ता यह निकाल ही लेंगे। यह बात मन में आते ही मैंने रात की सारी बातें भुलाते हुए इनसे कहा मैं भी साथ चलना चाहती हूं। मैं भी इसी बहाने घूम लूंगी बंबई। ऐसे तो कभी मौका मिल नहीं पाता। मेरी बात जब इन्होंने अनसुनी कर दी तो मैंने फिर अपनी बात दोहराई। इस पर यह नाराज हो उठे। बोले,
         
           '‘मैं ऑफ़िस के काम से जा रहा हूं , घूमने नहीं।'

          ‘दो हफ़्ते का वक़्त कम नहीं होता है। एकाध दिन तो निकाल ही सकते हैं घूमने-फिरने के लिए। ऐसा तो नहीं है कि आप लोग दोनों हफ़्ते काम में ही व्यस्त रहेंगे । फिर काम तो शाम तक ही होगा। उसके बाद तो खाली ही रहेंगे।
         
          '‘बोल तो ऐसे रही हो जैसे वहां के सारे प्रोग्राम तुमसे ही बात करके तय किए गए हैं।'

          उनकी बेरुखी बातों ने मेरा मूड और खराब कर दिया। मैंने चिढ़ कर फिर कहा,
           
          ‘ये कोई बात नहीं हुई। ये तो कॉमन सेंस की बातें हैं कि काम कितना भी हो शाम को तो छुट्टी ही रहेगी। और फिर आप लोग ही अक़सर बात करते हैं कि ऐसे ट्रेनिंग  प्रोग्राम खानापूर्ति के सिवा कुछ और नहीं होते हैं।
         
          ‘'हां बाकी काम तो तुम्हारे बाप कर आते हैं। यह सब खानापूर्ति होती है तो इंडिया में सारे बैंक अपने आप ही रन करते। बदतमीजों की तरह कान लगा कर हमारी बातें सुनना फिर ज़रूरत पड़ने पर ताने मारना ये तुम्हारी बेहयाई बेशर्मी की हाइट है।'

          ‘घर में बातें होंगी तो कान में नहीं पड़ेंगी क्या ? और फिर मैंने ऐसा क्या कह दिया जो बेहयाई, बेशर्मी के दायरे में  आ गई। साथ चलने की ही बात कर रही हूं , ऐसा तो नहीं है कि मैं पहली औरत हूं जो पति के साथ घूमने की इच्छा प्रकट कर रही हो।

          '‘जितना घूमना था घूम चुकी अब ज़्यादा बहस करने की ज़रूरत नहीं है।'

          ‘कह तो ऐसे रहे हो मानो सारा जहां ही घुमा दिया हो। मुझे तो याद नहीं आ रहा कि शादी के बाद शुरू में कुछ दिन एक दो जगह ले जाने के सिवा कहीं और ले गए हो। सच तो यह है कि बीवी हो कर मैं तुम्हारे साथ जितना घूमी होऊंगी उससे कहीं सौ गुना ज़्यादा तो आपकी मीनाक्षी मैडम आप के साथ घूम चुकी होंगी। आखिर उनके सामने मेरी क्या हैसियत, जब वो जा रहीं हैं साथ तो मैं कैसे जा सकती हूं।

          मेरा इतना कहना था कि इनके तन-बदन में जैसे आग लग गई। एकदम भड़क कर बोले,

          '’चुप कर हरामजादी, ज़्यादा जुबान चली तो खींच लूंगा बाहर। साली सालों साल हॉस्टल में यारों के साथ घूमी और यहां मेरे साथ घूमी, ड्रामा करती है, अभी और घूमने को भड़क रही है। ताने मारती हो मीनाक्षी के, वह साथ काम करती है, वह साथ नहीं रहेगी तो क्या तुम रहोगी, और फिर जरा उससे अपनी तुलना करके देखो कहीं ठहरती हो उसके सामने।'

          एक गैर औरत के साथ अपनी तुलना से मैं भी आग-बबूला हो उठी। मैं भी भड़क कर बोली,

          ‘होगी वह तुम्हारी नजर में हूर की परी, और काबिले-हिंद। लेकिन मेरी नजर में एक करेक्टरलेस सबसे गंदी औरत है। रही बात काबिलियत की तो अगर आपने मेरी पढ़ाई-लिखाई बंद न की होती तो अब तक मैं भी कहीं प्रोफ़ेसर होती।

          '‘ओह! तो मेरी वजह से तुम प्रोफ़ेसर नहीं बन पाई। इस बात के अलावा और किस-किस बात का फ्रस्ट्रेशन भरा हुआ है।'
         
          ‘यह फ्रस्ट्रेशन-वस्ट्रेशन नहीं है। हमेशा मुझे अपमानित करते रहते हैं। एक बाहर की थर्ड क्लास औरत से मेरी तुलना करते हैं, अपनी बीवी की तुलना एक बाहरी औरत से करते आपको संकोच भी नहीं होता और ऊपर से मुझे ही ऊट-पटांग कहते रहते हैं।

          यह सब कहते वक़्त मेरी आवाज़़ थोड़ी तेज थी। जिसने आग में घी का काम किया। यह एकदम आग-बबूला होकर बोले।

          '‘कमीनी तेरा बहुत दिमाग ख़राब हो। मुझे नसीहत देती है कि मैं क्या-करूं क्या नहीं। तुम क्या हो ये मैं अच्छी तरह जानता हूं। तुम्हारी तुलना किससे करनी चाहिए किससे नहीं यह भी मालूम है। तुम्हारी जाहिलों जैसी हरकत देख कर तो लगता है कि तुम किसी से तुलना के काबिल ही नहीं हो। और एक बात ध्यान रखना कि आज के बाद फिर कभी मुझे नसीहत देने की हिम्मत नहीं करना नहीं तो वह दिन तुम्हारे लिए सबसे बुरा दिन साबित होगा, समझी।'

          हम दोनों का फुल वॉल्यूम में चल रहा वाक्-युद्ध सुन कर चीनू भी सामने आ गया। उसने धीरे-से मुझसे कहा,
         
          ‘'चाची जी चुप हो जाओ न।'

          मैं वास्तव में उसके कहने से पहले ही चुप हो जाने का निर्णय कर चुकी थी। क्यों कि मेरे दिमाग में यह बात थी कि इन्हें अभी ऑफ़िस जाना है, फिर शाम को दो हफ़्तों के लिए बंबई। इसलिए यह वक़्त ऐसी बातों के लिए उचित नहीं है। मैंने यह सब करके गलत किया। यह बात दिमाग में  आते ही मैं एकदम चुप हो गई। यह इसके बाद भी कुछ देर बड़बड़ाते रहे। फिर चले गए।

          और मैं ....... मैं अपनी किस्मत को कोसती हुई बाकी के कामों में लग गई। इनकी जाने की तैयारियों में कोई खामी न रह जाए इसलिए एक बार फिर सब कुछ चेक कर डाला। शेव की किट में कुछ कमी दिखी तो चीनू को भेज कर नया सामान मंगवा कर रख दिया और इंतजार करने लगी कि कब आएंगे। इस बीच मुझे इस बात पर बड़ा पछतावा हो रहा था कि आज ऐसे मौके़ पर ऐसी बातें क्यों की।

          ‘दीदी न जाने तुम किस मिट्टी की बनी हो। इतना कुछ  झेलती रही मगर हम लोगों को कभी कानों-कान ख़बर तक न होने दी। आखिर तुम ऐसा क्यों करती रही ? सबको तुमने गैर समझा था क्या ?’

          ‘बिब्बो बने तो सभी एक ही मिट्टी के हैं। हां हालात सबको अलग-अलग कर देते हैं। उनका नेचर बदल देते हैं। वो कहते हैं न जब चोट लगती है तो दर्द सहने की ताकत भी आ जाती है। जहां तक बात अपने और गैर का है तो मैं पहले की तरह फिर कह रही हूं कि मैं किसी को तकलीफ नहीं देना चाहती थी। इसलिए नहीं बताती थी। अब तुम खुद तय कर लो कि मैं सब को क्या समझती थी, गैर या फिर कुछ ज़्यादा ही अपना।

          ‘पता नहीं ..... मैं इतनी गहराई में सोच-समझ नहीं पाती। मगर ये मीनाक्षी कौन थी। जीजा से उसका क्या रिश्ता था।

          ‘अब क्या बताऊं। इनकी तमाम सहेलियों में से एक यह भी थी। वह उन दिनों जल्दी ही आई थी कहीं बाहर से ट्रांसफर  होकर। कपड़ों की तरह सहेलियां भी इनकी बदलती रहती थीं। उन दिनों मीनाक्षी का इन पर भूत सवार था। उस समय की बातों पर यकीन करें तो इन दोनों के संबंध शरीर की सीमा तक थे। इन्होंने उसको आगे बढाने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी  थी। वो एक डायवोर्सी थी। उसके आदमी ने उसे शादी के कुछ महीनों बाद ही छोड़ दिया था। लखनऊ आने के बाद उसे किराए का मकान दिलाने से लेकर उसके लिए सब कुछ करते रहे। उस दिन भी सुबह तक मैं यही जानती रही कि मीनाक्षी बंबई जा तो रही है लेकिन अलग जाएगी, इनके साथ नहीं। लेकिन शाम को ऐन वक़्त पर यह आए तो कार में उसको इनके साथ देख कर मेरा खून उबल पड़ा। मगर किसी तरह नियंत्रण किए रही। लेकिन जब वह अंदर आकर बैठी और मैंने चाय-नाश्ता रखा तो मुझसे रहा नहीं गया मैंने बीच में पूछ लिया,
         
          ‘आप भी बंबई साथ जा रही हैं क्या ?’ वह बेशर्मी से हंस कर बोली

          '‘हां भाभी जी मैं भी जा रही हूं। पहले तो जाने का मन नहीं था लेकिन फिर सोचा चलो इसी बहाने बंबई भी घूम लूंगी।'

          उसके मुंह से बंबई घूमने की बात सुन कर तन-मन एक बार फिर जल उठा, मगर किसी तरह अपने पर नियंत्रण रख कर बोली,

          ‘लेकिन वहां इतना टाइम मिल जाएगा कि घूमना-फिरना भी हो जाएगा।

           ‘हां क्यों नहीं ...... । ऑफ़िस का जो भी काम होगा शाम तक ख़त्म हो जाएगा। उसके बाद तो टाइम ही टाइम है।'

          वह जब यह बात कह रही थी तो मैंने एक नजर इनकी तरफ़ डाली तो देखा उनकी जलती हुई आंखें मुझे घूर रही हैं। मैं समझ गई कि बात खुल जाने के कारण यह उबल रहे हैं। और अगर मैं ज़्यादा बोली तो यह फट सकते हैं। इतना ही नहीं मैं अपनी भी मनःस्थिति पर गौर कर रही थी कि अगर मैं ऐसे ही मीनाक्षी से बात करती रही तो शायद मैं भी आपा खो बैठूं इसलिए चुप हो गई। अचानक वह बोली,
         
          '‘भाभी जी आपको भी चलना चाहिए था। बार-बार ऐसा मौका़ नहीं मिलता।'

          उसकी बात सुन कर मैं एकदम जल-भुन गई। मन में उसके लिए अनायास ही कई गालियां निकल गईं लेकिन ऊपर से मैं चुप रही। स्थिति का अंदाजा इनको भी था। फिर ट्रेन का टाइम भी हो रहा था सो इन्होंने आदेश जारी किया। बैग, सूटकेस निकालो। मैंने आज्ञाकारी गुलाम की तरह अंदर कमरे से सामान निकाल कर ड्रॉइंगरूम में रखा। तब-तक चीनू भी आ गया नीचे। चीनू और कार के ड्राइवर ने मिल कर सामान गाड़ी में रख दिया। इस बीच देखा उस चुड़ैल का सामान पहले से रखा हुआ है। समझते देर नहीं लगी कि उस चुड़ैल के घर से हो कर आ रहे हैं।

          यह सारी बातें मेरे तन-मन की आग को और भड़का रहे थे। वह चुड़ैल भी नमस्ते करके जा बैठी गाड़ी में। फिर यह उठने को हुए तो चीनू ने पैर छूए, वह ठिठक गए। तभी मैं भी पैर छूने को झुकी तो इन्होंने गुस्से में पैर झटक दिया जो सीधे मेरी आंख के पास लगा। चुड़ैल से मेरा बोलना इनको इस हद तक नागवार गुजरेगा इसका अंदाजा मैं नहीं लगा पाई थी। शहर से कहीं बाहर जाने और आने पर पैर छूना मेरी आदत थी। शायद संस्कार का ही असर था। आंख के पास जूते का अगला हिस्सा लगने के कारण दर्द से मैं एकदम बिलबिला उठी थी, क्योंकि चोट कुछ ज़्यादा लगी थी। और यह मुझ पर बिना एक नजर डाले जाकर कार में ऐसे बैठ गए जैसे कुछ न हुआ हो।

          मगर मैं इसके बावजूद दरवाजे तक गई, कि वह चुड़ैल कुछ ऐसा-वैसा न सोच ले। मगर भूल कर भी इन्होंने एक नजर देखना ठीक न समझा। उस क्षण मैंने अपने को इतना अपमानित महसूस किया कि मन नफरत से भर गया। गाड़ी के चलते ही मैं भी पैर पटकती हुई आकर बैठ गई सोफे पर। कार के चलते वक़्त उस चुड़ैल ने मुझे देख कर हाथ हिलाया था लेकिन मैं नफरत के चलते उसे जवाब न दे सकी। मेरी आंखों में आंसू भर आए थे। मगर मैं उस समय दो वजहों से रोना नहीं चाहती थी। एक तो दिमाग में यह था कि अभी-अभी घर से गए हैं रोना अपशगुन होगा। दूसरा चीनू के सामने मैं आंसू  नहीं गिराना चाहती थी। यह अलग बात थी कि उसने इनको पैर से मारते देख लिया था। छिपाने का कोई औचित्य ही नहीं था क्योंकि चोट अपना गहरा स्याह निशान छोड़ चुकी थी।
         
          मैं सोफ़े पर बैठी थी कि तभी चीनू फ्रि़ज से बर्फ़ निकाल लाया। और एक टुकड़ा स्याह जगह पर लगा दिया। साथ ही चीनू को लेकर एक और बात भी दिमाग के एक कोने में कहीं कुलबुला उठी। वह जिस तरह बर्फ लेकर आया और लगाई जितने अधिकार से और उससे मेरे शरीर में जो एक अनबूझी सी सिहरन दौड़ गई उससे मैं कुछ क्षणों को तो एकदम सोच में पड़ गई। समझ नहीं पा रही थी क्या रिश्ता है। अजीब सी उथल-पुथल मच रही थी मन में। बर्फ़ जब तक वह लगाता रहा मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी लगवाती रही। वह बिना कुछ बोले बर्फ लगा कर चला गया ऊपर। मैं सोफ़े पर ही लेट गई। सोचती रही अपनी ज़िंदगी अपनी किस्मत के बारे में, कि समय से शादी हो जाती, बच्चे हो जाते तो आज वह भी दस-पंद्रह बरस के होते। और जब बच्चे होते तो शायद मेरी हालत यह न होती जो आज है। लेटे-लेटे मुझे न जाने कब नींद आ गई। सो गई मैं गहरी नींद में।
         
          अचानक कान में चाची-चाची की आवाज़़ गूंजी। आंख खुल गई मेरी। देखा सामने चीनू खड़ा था। मेरे जागते ही वह बोला,
         
          '‘उठिए चाची जी नौ बज गए हैं।'

          उसकी बात सुन कर मेरी नजर घड़ी की ओर मुड़ गई। उसमें नौ बजा देख कर मैं हैरत में पड़ गई, शाम के समय मैं कभी सोई नहीं थी। वह भी इतनी गहरी नींद और इतनी देर तक। मैं सोच ही रही थी कि तभी चीनू ने चाय सामने रखते हुए कहा,
         
          '‘चाची चाय पी लीजिए। फिर मैं कोई दवा लेकर आता हूं। आपकी आंख काफी सूज गई है।'

          उसकी बात सुनकर मुझे दर्द और सूजन दोनों का अहसास हुआ। चीनू की आवाज़़ मुझ पर उस समय जैसा प्रभाव छोड़ रही थी उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास न तब शब्द थे और न ही ठीक से आज हैं। मगर इसके बावजूद मैं हतप्रभ थी कि चीनू चाय कैसे बना कर ले आया। जब कि सच यह था कि वह घर पर एक गिलास पानी भी उठ कर नहीं लेता था। तमाम तकलीफों के बावजूद मैं अपनी मनःस्थिति पर हैरान थी।

          चीनू ने भी सामने बैठ कर चाय पी और यह कहते हुए बाहर निकल गया कि मैं दवा लेकर आता हूं नहीं तो दुकानें  बंद हो जाएंगी। मैं बुत बनी देखती -सुनती रही सब होते हुए। गेट के खुलने की आवाज़़ पर मैं उठी और मुंह धोकर शीशे में चेहरा देखा तो मन नफरत से भर उठा। आंख के पास का हिस्सा न सिर्फ़ सूजा था बल्कि आंख लाल भी थी। और फिर एक-एक दृश्य नजरों के सामने आते जा रहे थे। मन में नफरत बढ़ती जा रही थी। वापस सोफे पर आकर बैठी और चाय उठा कर दो तीन बार में पी गई वह करीब-करीब ठंडी हो चुकी थी। करीब आधे-घंटे बाद चीनू एक ट्यूब लेकर लौटा। मैं तब-तक बैठी ही थी। उसने ट्यूब से क्रीम निकाल कर चोट पर लगा दी। और कहा,
                  
          '‘चाची ध्यान रखना आंख के अंदर न लगने पाए।'

          इतना कह कर वह हाथ धोने गया बाथरूम में तो मुझे ध्यान आया कि खाना भी बनाना है। वह न होता तो मैं निश्चित ही कुछ न बनाती, सो जाती ऐसे ही। वह लौटा तो मैंने पूछा,

          ‘चीनू खाना क्या खाओगे?’

          ‘'जी जो मन हो बना लीजिए।'
         
          इसके बाद मैंने उससे कुछ नहीं पूछा और बेमन से पराठा-सब्जी बनाकर उसको खाना दिया तो उसने कहा,

          ‘'चाची जी आप भी खाइए न'
                            
          ‘मैं बाद में खाऊंगी, तुम खा लो।

          '‘ग्यारह बजने वाले हैं, कब खाएंगी।'
         
          मैं कुछ देर चुप रही तो वह फिर बोला,
                    
          ‘'आप खाएंगी तभी मैं खाऊंगा। मैं जानता हूं बाद में आप नहीं खाएंगी।'

          कह कर वह बैठा रहा। खाने को हाथ नहीं लगाया तो मैंने भी अपना खाना निकाल लिया और खाने लगी। इस समय उसकी एक और बात मुझ पर हथौडे़ सी पड़ रही थी, कि अब वह मुझे चाची जी न कह कर बेधड़क सिर्फ़ चाची कहे जा रहा था। दूसरा मैं यह भी अहसास कर रही थी कि चीनू की बातों का मैं न जाने क्यों पहले की तरह कोई मनमाफ़िक जवाब नहीं दे पा रही थी। खैर भूख लगी थी सो खाने से मना भी न कर पाई। इस बीच चीनू खाना खाकर चला गया ऊपर। मैं भी नीचे ही लेट गई । लेकिन जाने से पहले वह यह कहना नहीं भूला कि,

          ‘'चाची दवा एक बार फिर लगा लेना।'’

           मैं लेटे-लेटे कुछ ही देर में ऊबने लगी। घुटन सी होने लगी। तो उठ कर बैठ गई। अब किताबें फिर याद आईं लेकिन सब ऊपर कमरे में रखी थीं। सो मैं ऊपर कमरे में चली गई। मगर वहां पहुंचने पर किताबों को भी छूने का मन नहीं हुआ तो फिर लेट गई बेड पर, इनकी एक-एक बात याद आ रही थी और वह चुड़ैल भी, और अपना तिरस्कार, अपमान, बरसों से झेलती आ रही उपेक्षा, एक-एक दिन की घटनाएं, इनकी गालियां, इनकी मार, और मुझे चिढ़ा-चिढ़ा कर अपमानित करने के लिए पराई औरतों से संबंध रखना, बेहिचक मेरे सामने ही उनसे बतियाना।

          कई बार इनकी हरकतें देख कर ऐसा लगता जैसे यह चाहते हैं कि मैं छोड़ कर चली जाऊं। मगर जब इस बात की हक़ीक़त जानने के लिए मैं मायके जाने की बात करती तो एकदम भड़क उठते। कहीं जाने देने के लिए तैयार भी न होते। ऐसे में मेरे मन में एक बात आती कि इतनी आज्ञाकारी, तनमन हर तरह से सेवा करने वाली दूसरी औरत कहां मिलेगी। या ऐसी आया कहां मिलेगी। कौन होगी जो इतना अपमान सहने के बाद भी जी जान से सेवा करेगी। वह भी बिना एक शब्द बोले।

          ‘तुम विरोध क्यों नहीं करती थी, हमें तो नहीं लगता कि कोई भी औरत इतना सब कुछ सहेगी। चुप रहेगी। मैं होती तुम्हारी जगह तो छोड़ कर चल देती, भले ही कोई साथ-देता या न देता। भले ही कहीं जाकर डूब मरती। मगर इस क़दर तो कम से कम मैं न रह पाती।

          ‘बिब्बो मुझे खुद अब अपने पर आश्चर्य होता है कि कैसे इतनी सहनशीलता मुझ में आ गई थी। ऐसा कौन सा आकर्षण या शक्ति थी इनमें कि अब भी मैं अलग होने की बात सोच नहीं पाती। सिवाय उन कुछ पलों को छोड़ कर जब आवेश में आकर क्षणिक तौर पर ऐसा सोचा हो। जैसे उसी दिन जब सोचते-सोचते दिमाग की नसें फटने लगीं तो बड़ी दृढ़ता के साथ मन में निर्णय लिया कि अब की लौट कर आने दो बंबई से। साफ बोल दूंगी या तो अपनी आदतें बदलो, मुझे पत्नी की तरह रखो नहीं तो बेहतर है कि मुझे अलग कर दो। अब मैं इस तरह तुम्हारे साथ रह नहीं पाऊंगी। और ये मत सोचना कि मैं तुमसे गुजारा भत्ता मांगूंगी, पैसा मांगूंगी। अपना पैसा अपने पास रखो, इतनी पढ़ी-लिखी हूं कि कुछ करके अपना गुजर-बसर कर लूंगी। कौन है ही आगे पीछे।

          यह सोचते-सोचते मुझे हर तरफ से ज़िंदगी में अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह चुड़ैल मुझ पर हंस रही है कि देख तेरा आदमी मेरे तलवे चाट रहा है, छीन लिया मैंने उसे तुझसे, तू मूर्ख है, हारी हुई बेवकूफ औरत है।

          मैं बेड पर एक कोने में बैठी घुटने में सिर दिए यह सोचते-सोचते रोने लगी। भावनाओं में डूबती-उतराती मेरे रोने की आवाज़़ कब तेज होकर ऊपर चीनू तक पहुँचने लगी मैं जान नहीं पाई। पता मुझे तब चला जब वह आकर आगे खड़ा हो गया और चुप कराते हुए बोला,

          '‘चाची बेकार रो रही हो, पापा भी अम्मा को ऐसे ही कह देते हैं, अम्मा भी कह कर चुप हो जाती हैं। ऐसे रोती थोड़े ही हैं।'

          मगर उस दिन मैं इस क़दर आहत थी कि उसकी बात पर ध्यान दिए बिना रोती रही, हिचकती रही। चीनू को कैसे बताती कि तुम्हारी मां और पिता के बीच झगड़ा उस तरह का नहीं है जैसा हमारा है। वह एक पति-पत्नी के बीच की नोक झोंक है, तकरार है जिसमें कहीं गहरे प्यार भी है। जबकि हमारे बीच नफ़रत की आग है। मज़बूरी में जैसे ढो रहे हैं एक दूसरे को और कि अभिशप्त हैं एक छत के नीचे रहने को। फिर अचानक चेहरे पर चीनू के हाथों का गर्म स्पर्श महसूस किया। उसने दोनों हथेलियों के बीच मेरा चेहरा लेकर मुझसे कहा,

          ‘'चाची इतना रोने से क्या फायदा। तबियत खराब हो जाएगी। चाचा जब आएं तो उनसे बात कर लीजिएगा।'

          ऐसी ही न जाने कितनी बातें वह बोलता जा रहा था। और मैं एक बच्ची की तरह उसकी बांहों में ढेर होती जा रही थी। और अंततः बेड पर एक तरफ लेट गई, मगर मैं रोना रोक न पा रही थी। रह-रह कर ज़िंदगी मुझे अपमान तिरस्कार के कांटो से भरी बड़़ी भयावह लग रही थी। उसकी चुभन मेरे आंसू रुकने नहीं दे रहे थे। चीनू भी बेड पर बैठ चुप कराने की कोशिश में लगा था कुछ इस तरह कि चुप कराए बिना हिलेगा नहीं। मेरी पीठ उसकी तरफ थी, वह पीछे से झुका चुप कराने के क्रम में बोले जा रहा था, लेकिन मैं कहां मानने वाली थी। क्योंकि मैं अपने वश में नहीं थी। मैं यह भी भूल चुकी थी कि मेरा आँचल कब का मेरी छाती का साथ छोड़ बेड पर फैला हुआ था। और ब्लाउज का बड़ा गला भी मेरे भारी स्तनों को ढकने में पूरा साथ नहीं दे पा रहा था।। मैं यह भी नहीं सोच पा रही थी कि यह वही चीनू है जो महिलाओं के अंगों को देखने का अवसर ढूढ़ता ही रहता है, और सड़क छाप अश्लील किताबें पढ़ कर अपने शरीर के अंगों से भी खिलवाड़ करता है।

          जवानी की दहलीज के सामने खड़ा एक ऐसा किशोर जो किशोरावस्था को छोड़ युवावस्था की उफनती भावनाओं की दुनिया के करीब खड़ा शख्स है। जो मेरे जिस्म के खुले हिस्से पर नजर डाले होगा। उस दिन की उनकी ठोकर ने मुझे कुछ इस कदर हिला के रख दिया था कि मैं भूल सी गई थी सब कुछ। मैं अपमान की ज्वाला में दहक रही थी। शायद विक्षिप्त सी हो गई थी तिरस्कार को सहते-सहते। और चीनू जैसा शख्स मुझे चुप कराने, मुझे संभालने की कोशिश कर रहा था। उसके हाथ कभी कंधों पर, कभी मेरे गाल, मेरे माथे पर पड़ रहे थे। और उसका स्पर्श मुझे उस वक़्त न जाने क्यों राहत या यह कहें कि शीतलता प्रदान कर रहा था। अपनत्व की शीतलता का अहसास दे रहा था।

          एक बार जब उसका हाथ मेरे आंसुओं को पोछनें लगा तो मैंने उसे पकड़ लिया। उसका हाथ मेरे गाल से चिपका हुआ था और उसके हाथ के ऊपर मेरा हाथ था। जब मैंने उसका हाथ पकड़ लिया तो वह पीछे से घूम कर सामने आ गया। बैठ गया बगल में, उसका समझाना-बुझाना चालू रहा और मेरा बिसुरना बढ़ता रहा, साथ ही चीनू के हाथ और ज़्यादा सुकूनकारी लगने लगे। मैं कहीं गहरे डूबने उतराने लगी, उसका हाथ ही नहीं शरीर का काफी हिस्सा मेरे शरीर को छू रहा था। मैं खुद पर दबाव महसूस कर रही थी। फिर अचानक ही मैं टूट गई, फट पड़ी, मैंने जकड़ लिया उसे अपनी बाहों में। यह तो उसके मन की बात हो गई थी। फिर आवेग, या कहें कि मैं विक्षिप्तता की आग में राख हो गई। और तूफान में बह गई चीनू के साथ। जो अभी यूवा भी न हो पाया था मैं उसके सामने बिखर गई, सब कुछ कर दिया उसके हवाले। उसका तपता तूफानी लावा मेरे अंदर बरसों से जमती आ रही काई की मोटी परत को बहा ले गया। मैं खुद को फूल सा हल्का महसूस करने लगी। विक्षिप्तता मेरी कहीं टुकड़े-टुकड़े हो रही थी। मेरी चेतनता लौटी तो उससे छिपाने के लिए मेरे पास कुछ बचा ही नहीं था। चीनू अपने कपड़े लेकर भाग गया था ऊपर अपने कमरे में। और अब मैं पश्चाताप की बढ़ती जा रही तपन में झुलसने लगी थी।

          ‘तो! क्या तुम उसके साथ हम-बिस्तर हुई थी। बिब्बो का मुंह आश्चर्य और नफरत से खुला ही रहा।

          ‘हुई नहीं थी ...... हो गया था सब कुछ। न जाने ऐसा कौन सा तूफान आ गया था उस वक़्त जिसके झोंके में बह गए थे हम दोनों। हम दोनों नहीं बल्कि सिर्फ मैं। चीनू की नजरें तो स्त्री शरीर की भूखी हर क्षण उसकी तलाश में भटकती ही रहती थीं। उसके लिए तो इससे बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता था।

          ‘मन्नू तुम्हारे लिए भी इससे अच्छा और क्या हो सकता था। मैं तुम्हारी गोलमोल बातों को कुछ देर तो समझ ही नहीं पाई थी। मगर पति से मनमुटाव का तुम ऐसे बदला लोगी, ऐसे धोखा दोगी, उससे नफरत के चलते खुद को एक लड़के को सौंप दोगी। और अय्याशी की ऐसी घुट्टी पिला दोगी जो बरबाद कर देगी उसे। यह सब मेरी कल्पना से भी परे है। मन्नू माफ करना मन्नू तुम्हारा ऐसा गलीच सच सुनने के बाद मेरी जुबान पर तुम्हारे लिए दीदी जैसा पवित्र शब्द नहीं आ पा रहा है। तुम दोपहर से ही अनर्थ-अनर्थ कहती आ रही हो, तब मेरे  दिमाग में यही बात आती रही कि गुस्से या उतावलेपन में हो गया होगा कुछ ऐसा-वैसा। लेकिन तुम्हारा अनर्थ ऐसा होगा कल्पना भी न कर पाई थी। और तुम्हारा यह अनर्थ मेरी नजर में तो इतना बड़ा है कि दुनिया के सारे अनर्थ एक तरफ कर दो तो भी तुम्हारा एक अनर्थ सारे अनर्थों पर भारी पड़ेगा।

          कहते-कहते बिब्बो उठी और एक गिलास पानी लेकर पीने लगी थी। आवेश के कारण वह हांफने लगी थी। मन्नू उसके क्रोध को देख कर विचलित न हुई। शायद वह इस अंजाम के लिए तैयार थी पहले से।

          गुस्से से भुनभुनाती बिब्बो आकर बेड पर फिर बैठती हुई बोली,

          ‘हे! भगवान और क्या-क्या दिन दिखाओगे। अब यही सब सुनना रह गया था। अच्छा होता जो तुम यह सब दिखाने से पहले मुझे उठा लेते।  ....... अब सवेरे तक तो हूं ही यहां ......। सुना डालो और भी जो अनर्थ बाकी रह गया हो। बहन तुम ऐसी होगी परिवार में किसी ने कल्पना भी न की होगी। न जाने हॉस्टल में भी तुमने क्या-क्या गुल खिलाए होंगे, जीजा की हर बात गलत ही हो यह भी तो संभव नहीं। ..... खैर सुनाओ और जो अनर्थ हों आज सब सुना डालो। हां बहन बार-बार मुंह से अब भी इसलिए निकल रहा है कि मैं तो यही मानती हूं कि रक्त संबंध लाठी मारने से भी खत्म नहीं होते। खैर बताओ कुछ और बाकी हो तो।

          बिब्बो का गुस्सा उसका व्यंग्य देख, सुन कर मन्नू ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा,

          ‘तुम्हारे गुस्से ..... तुम्हारी नफरत से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ बिब्बो, तुम्हारी जगह मैं होती तो निश्चित ही मैं भी यही करती। क्योंकि आदमी जैसे वक़्त, जैसे हालात से गुजरता है उसकी प्रतिक्रियाओं पर उनका असर होता है। इसी लिए कहते हैं वक़्त का हर शै गुलाम है।

          ‘इन बड़ी-बड़ी बातों में कुछ नहीं रखा है। मैं तो इतना जानती हूं कि हमने पाप किया है तो हम पापी हैं बस। तुमने तो जो किया है वह इतना बड़ा पाप है जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। मैं यही नहीं समझ पा रही कि इतना कर डालने के बाद तुम कहां से इतनी हिम्मत जुटा पाई कि न सिर्फ़ जीजा का जीवन भर सामना करती रही बल्कि दुनिया के सामने बेधड़क जीती रही। किसी को कानों -कान खबर तक न होने दी। और आज इतना हौसला कर बैठी कि सब कुछ बेहिचक बता भी रही हो। मैं तो दंग रह गई तुम्हारे इस अनर्थ को जान कर।

          ‘बिब्बो दरअसल यह अनर्थ नहीं था।

          ‘क्या .......?’

          ‘हां! यह अनर्थ नहीं था बिब्बो।

          ‘हे! भगवान .......... । तो फिर अनर्थ किसको कहते हैं। अगर यह अनर्थ नहीं था तो फिर क्या था वह भी बता दो।

          ‘बिब्बो मेरी नजर में तो अनर्थ वह था जो इसके बाद हुआ या होता रहा। मेरी नजर में तो यह आगे चल कर जो अनर्थ हुआ उसकी आधारशिला मात्र थी।
         
          ‘अरे! ......... हे भगवान ...... इससे बड़ा भी कोई अनर्थ है क्या ? जो तुमने आगे किया।

          ‘बिब्बो मैं तो सब बताने को तैयार बैठी हूं। ....... हां अगर सुनने को तैयार हो तो।

          ‘सुनने को तो मैं तैयार हूं। यहाँ अपने लड़कों-बच्चों को छोड़ कर इस लिए आई थी कि उन सब की उपेक्षा ने जीना मुहाल कर दिया था। मगर यहां यह सब सुनने को मिलेगा यह तो सपने में भी नहीं सोचा था। मेरा तो यह सोच कर दिमाग फटा जा रहा है कि अम्मा-बाबू की आत्मा पर क्या बीत रही होगी यह सब जान कर कि जिस संतान पर वह सबसे ज़्यादा गर्व करती थीं वह ऐसी है। और इतना क्या अभी तो तुम कह रही हो कि यह अनर्थ था ही नहीं ...... अनर्थ तो कुछ और है जो तुमने आगे किया। मैं तो यही सोच कर पागल हो रही हूं कि आखिर वह अनर्थ क्या होगा जो अभी सुनने को बाकी है।

          ‘बिब्बो जो तुम मेरी जगह होती तो तुम्हें पता चलता कि मेरी गलती कितनी है और कितनी नहीं है। मैं जानती थी कि तुम मुझ से बहुत गुस्सा होगी मगर बात तक करने से मना करने लगोगी, नफ़रत इतनी करोगी कि वापस जाने की तैयारी करोगी इसका अनुमान नहीं था। मैं तो समझ रही थी कि बहन होने के नाते बल्कि उससे पहले एक औरत होने के नाते तुम ही मेरा दर्द समझोगी। मेरा इंसाफ करोगी कि मैं कितनी गलत हूं और अन्य कितना गलत थे। या कि सारी गलती सिर्फ़ मेरी ही थी। मगर बात सुनने को कौन कहे तुम मुझे ही अपमानित करने लगी।

          ‘तुम किस मान-अपमान की बात कर रही हो। जब उस छोकरे के सामने अपनी लाज का तमाशा बनाती रही, अपनी अय्याशी का जश्न मना रही थी उस समय तुम्हारे दिमाग में सम्मान की आग नहीं जली थी। सब इज़्जत लुटाने के बाद आज तुम्हें सम्मान याद आ रहा है। मुझे कह रही हो कि मैं तुम्हें अपमानित कर रही हूं। मगर तुम्हारा कर्म सुन कर तो मैं खुद अपने को अपमानित महसूस कर रही हूं कि मैं तुम्हारी बहन हूं।

          ‘हां बहन हो। ...... मगर अब अपमानित महसूस कर रही हो इस बात पर। मैंने कहा था न कि आदमी की प्रतिक्रिया वक़्त के इशारे पर ही चलती है परिस्थितियों के सामने विवश हो कर उसी के अनुरूप होती है। तुम्हीं ने दिन में कहा था हम सगी बहनें हैं, लाठी मारने से कहीं पानी फटता है क्या ?‘ लेकिन अब देखो परिस्थितियां बदलीं तो तुम्हारी प्रतिक्रिया भी बदल गई। लाठी से पानी फट गया। अब मेरी सुनने को कौन कहे बहन कहना भी तुम्हें गवारा नहीं।

          ‘देखो तुम्हारी बातों से तो मैं जीत नहीं सकती लेकिन मैं इस बात पर अडिग हूं कि मैं सही हूं।

          ‘तो मैंने कब कहा कि तुम गलत हो। मैं तो सिर्फ़ अपनी बात कहना चाह रही थी। तुम्हें बताना चाह रही थी वह सब जिसका बोझ बरसों से ढोते-ढोते मैं थक कर पस्त हुई जा रही हूं। बात ऐसी है कि सबको कह नहीं सकती। संयोग से तुम आ गई तो रोक न पाई खुद को क्योंकि तुम्हें देखकर लगा कि तुम्हारे अलावा और किसी से यह बातें की ही नहीं जा सकतीं।

          यह कहते-कहते मन्नू सिसक उठी। तो बिब्बो कुछ नरम पड़ गई बोली,
         
          ‘मैंने सुनने से कब मना किया। बताओ न जो बताना चाहती हो, वह बात बताओ न जो तुम्हारी नजर में अनर्थ था। दुनिया की नजर में जो अनर्थ है उसे तो तुम अनर्थ मान ही नहीं रही हो। खैर जब चीनू ऊपर भाग गया तब क्या हुआ?’

          बिब्बो को मुद्दे की बात पर आते देख मन्नू ने उसके व्यंग्य का जवाब देने के बजाय खुद भी सीधे मुद्दे पर आकर बोली।

          ‘जब चीनू चला गया ऊपर तो मैं हतप्रभ सी सोचने लगी यह क्या हो गया ? यह बात दिमाग में आते ही मैं पसीने-पसीने हो गई कि अगर इस संबंध से मैं प्रिग्नेंट हो गई तो क्या होगा ? दिमाग में यह बात इसलिए आई क्योंकि तब तक मेरे दिमाग में यह बात कूट-कूट कर भर चुकी थी कि कमी इनमें है इसी लिए मैं मां नहीं बन पा रही हूं। और चीनू का तपता लावा इस सूखे को खत्म कर देगा। इसका मुझे न जाने क्यों यकीन हुआ जा रहा था। ऐसी अनहोनी ऐसी विकट स्थिति में भी मैं बच्चा ही जी रही थी।

          ‘तो इसमें घबराने की क्या बात थी नाम तो जीजा का ही होता।

          ‘दिक़्क़त तो सब से बड़ी यही थी। क्योंकि पिछले छः सात महीनों से हमारे संबंध नहीं हुए थे। और यदि तब मैं प्रिग्नेंट होती तो बात खुल जाती कि अब कहां से हुआ। अब यह ज़रूरी हो गया था कि इनके आते ही मैं इनके साथ तुरंत संबंध बनाऊं। एकाध महीने की भी देरी इनके जैसे तेज-तर्रार आदमी के सामने बातों को खोल कर रख देगी। यह बात दिमाग में आते ही मैं परेशान हो उठी। दिमाग बिल्कुल गडमड हो गया।

          ‘मानती हूं तुम्हारी हिम्मत और दिमाग को। ऐसी परिस्थितियों में भी इतना जोड़-तोड़ तुम्हारी जैसी औरत ही कर सकती है।

          ‘हालात बनने पर बातें दिमाग में आने ही लगती हैं। .... यह कोई आश्चर्य नहीं था। बच्चे की बात हावी होते ही मेरे दिमाग में तरह-तरह की बातें आने लगीं। एक बात और मन को सताने लगी कि यह मनचला टाइप का चीनू कहीं बात फैला न दे। अक्सर ऐसे लड़के अपने दोस्तों के बीच डींगें हांकने लगते हैं और फिर वह क्या कह डालेंगे इसका कोई ठिकाना नहीं होता। इसी उलझन में मैं चीनू के कमरे के पास चुपचाप जाकर आहट लेने लगी। उसने कमरे की लाइट आफ कर रखी थी। नाइट बल्ब भी नहीं जल रहा था। कुछ देर तक जब जरा भी आहट न मिली जुंबिश तक न हुई तो मैं खिड़की के पास जाकर धीरे से बोली चीनू ......। लेकिन कोई उत्तर न मिला। ऐसा कई बार हुआ तो मैंने दरवाजे पर हल्का सा धक्का दिया, वह खुल गया। मैं एक क़दम अंदर जाकर धीरे से फिर बोली चीनू ...... चीनू ? दूसरी बार आवाज़़ थोड़ी तेज थी तब उसने दबी आवाज़़ में कहा  'हूं'’.....?

           ‘नीचे कमरे में आओ कुछ बात करनी है।

        वह कुछ न बोला तो मैंने फिर दोहराया
        
        ‘मुझे कुछ बात करनी है थोड़ी देर को नीचे आ जाओ

        तब वह धीरे से बोला
         
          ' ‘आप चलिए मैं आ रहा हूं।''

          उसका उत्तर सुन कर मैं फिर अपने कमरे में आ गई। आते ही मैंने तेज लाइट ऑफ कर दी और नाइट लैंप ऑन कर दिया और बेड के पास आकर खड़ी हो गई। नजरें मेरी उस कम रोशनी में भी जमीन देख रही थीं। अपने पैरों के करीब ही। तभी चीनू कमरे में दाखिल हुआ। मैं सोच रही थी कि वह डरा सहमा संकोच में कुछ सिकुड़ा सा होगा। लेकिन नहीं ऐसा नहीं था उस पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं था। वह बेड के दूसरे कोने के करीब खड़ा हो गया। हां नजरें उसकी भी नीचे थीं। मैंने उसे बैठने को कहा तो वह वहीं एक क़दम और आगे बढ़ कर बेड पर बैठ गया। उसे बुलाने से पहले मैंने वह बेड-शीट बदल दी थी जिस पर मेरे उसके कुकर्म के धब्बे लगे थे। कुछ देर हम दोनों चुप रहे फिर मैं धीरे से बोली,

          ‘गुस्सा हो तुम।

          '‘नहीं।'

          ‘मैं .... मैं ये कह रही थी कि जो हुआ उसके बारे में कहीं बात नहीं करना।
          ‘'ठीक है।'

          ‘अपने दोस्तों, अपनी मां किसी से भी नहीं ...... ।

          इस बार वह न जाने क्यों कुछ न बोला। मुझे लगा कि उसने सहमति में सिर हिलाया था। मगर कम रोशनी के कारण मैं ठीक से देख नहीं पाई थी तो कंफर्म करने को मैं व्याकुल हो उठी। मैं जाकर उसके करीब बैठ गई। फिर कहा -
         
          ‘चीनू अगर तुमने कहीं कहा तो बात फैलते देर नहीं लगेगी। हम दोनों की बहुत बदनामी होगी। हम दोनों मुंह दिखाने के काबिल न बचेंगे। तुम्हारे मां-बाप, भाई-बहन ...... सोचो सब क्या सोचेंगे। तुम्हारे पापा तो बहुत गुस्से वाले हैं तुम्हें घर से निकाल दिया तो। और मैं ..... मुझे तो तुम्हारे चाचा जिंदा नहीं छोड़ेंगे। ..... या ये समझ लो कि मेरे लिए सिवाय आत्महत्या के और कोई रास्ता नहीं बचेगा। तुम समझदार हो बात की गंभीरता को समझना, तुम्हारी जरा सी बात से मेरी जान चली जाएगी। क्या तुम चाहोगे कि मैं आत्महत्या कर लूं।

          यह कह कर मैं सिसक पड़ी, आंसू बहाने लगी। तो वह बेहिचक एकदम मुझसे सट कर बैठ गया और निसंकोच मेरे आंसू पोछते हुए बोला,

          ‘'आप परेशान मत होइए मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा। मगर मैं नहीं जानता था कि चाचा आपको मारते भी हैं।'

          चीनू की हिम्मत और उसकी बात से कहीं नहीं लग रहा था कि जो पौन घंटे पहले घटा उससे वह जरा भी हैरान परेशान है। मैंने उससे जरा अलग हटते हुए कहा,

           ‘चीनू पति-पत्नी के बीच यह सब होता रहता है। यह कोई असामान्य बात नहीं है। तुम्हारे चाचा बहुत अच्छे हैं। वह मेरा बहुत ख़याल रखते हैं।
           
            '‘तो फिर इस तरह मारते क्यों हैं।'

           ‘मैंने कहा न पति-पत्नी के बीच यह सब चलता रहता है। जब तुम्हारी शादी होगी तब तुम इन सारी बातों को समझोगे और फिर दिन में तुम भी तो बता रहे थे कि तुम्हारे मां-बाप के बीच भी यह सब होता ही रहता है।

          ‘'पता नहीं ...... कई बार पापा ने भी अम्मा को मारा है लेकिन उन्होंने कभी किसी और के सामने नहीं।'

      ‘चलो बंद करो इन सब बातों को, बस तुम किसी से कोई भी बात न कहना ..... नहीं तो मुझे मरा हुआ पाओगे।
         
          '‘मैंने कहा न चाची ...... मैं कहीं भी किसी से कुछ नहीं कहूंगा। मगर चाची एक बात कहूं.......?’'
         
          ‘बोलो
         
          ‘'ये जो मीनाक्षी गई है न चाचा के साथ यह अच्छी नहीं है। चाचा के साथ इसके संबंधों के बारे में पापा को अम्मा से बात करते समय मैंने कई बार सुना है। पापा ने कई बार बताया है कि यह दोनों लोग अक़सर गाड़ी में कहीं चले जाते है घंटों बाद लौटते हैं, ऑफ़िस में तो सब इनके संबंधों को लेकर बहुत मजाक उड़ाते हैं।'

          एक छोकरे के मुंह से अपने पति के लिए ये बातें सुन कर गुस्से से मन भर गया, सुसुप्त पड़ चुकी आग फिर से धधकने को फड़क उठी। और इस बात पर बड़ा क्षोभ हुआ कि वह चुड़ैल मेरे आदमी को अपने कब्जे में करके गुलछर्रे उड़ा रही है। उस कमीनी के ही कारण यह महीनों मेरी तरफ देखना भी पसंद नहीं करते। तमाम कोशिशें भी इनकी भावना को हवा नहीं दे पाती थीं। और आज जो यह समस्या आ खड़ी हुई है कि मैं उनके आते ही संबंध बनाने के लिए सारी जुगत लड़ा रही हूं, एक पत्नी होकर अपने पति से कैसे एक बार संबंध बना लूं इसके लिए मुझे हैरान-परेशान होना पड़ रहा है इन सारी स्थितियों के लिए वह चुड़ैल ही ज़िम्मेदार है। मन हुआ कि वह मिल जाए तो उसकी बोटी-बोटी काट डालूं। मगर विवश थी मैं। किसकी ताक़त पर यह करती इन सब का किसके सहारे विरोध करती और किसका करती। जब मुकाबिल खुद अपना ही पति हो। यह मैं सोच ही रही थी कि चीनू फिर बोला,
.                     
          '‘आप चाचा को मना क्यों नहीं करतीं कि वह उससे बात न किया करें।'

          चीनू की बात सुनकर मुझे लगा कि वह कुछ ज़्यादा ही हमारी ज़िंदगी में ताक-झांक कर रहा है। इसे यहीं लगाम न लगाया तो यह मुसीबत बन जाएगा। वैसे भी उसे देखकर अब न जाने क्यों मेरे मन में गुस्सा भर रही थी। मैंने चैप्टर क्लोज कर उसे उसके कमरे में भेजने की गरज से बड़े रूखे अंदाज में कहा,
    
          ‘चीनू ये सब हम लोगों की पर्सनल बातें हैं हम लोग सॉल्व कर लेंगे। मियां-बीवी के बीच यह सब चलता रहता है। तुम्हें इस बारे में कुछ नहीं सोचना चाहिए। फिर अभी तुम बच्चे हो पढ़ाई-लिखाई में अपना ध्यान लगाओ। अच्छा चलो अब बहुत रात हो गई है जाओ अब जा के सो जाओ।

          इतना कह कर मैं बाथरूम चली गई। सोचा यह जल्दी चला जाएगा। बाथरूम से लौटी तो मैं दंग रह गई। वह अब भी वहीं बेड पर आराम से बैठा था। मैंने फिर कुछ खीझ कर कहा,
                                               
          ’चीनू जाकर सो जाओ, बहुत रात हो गई है। मैं भी सोने जा रही हूं।

          मेरी इस बात का उसने जो जवाब दिया उससे मैं अंदर तक कांप उठी, पूरे शरीर में पसीना सा महसूस होने लगा। मेरी हालत सांप- छछूंदर की हो गई थी।

          ‘उसने ऐसा क्या कह दिया था।

          ‘मेरी बात पर वह बड़े अधिकार से बोला
                                                           
          '‘मैं यहीं आपके साथ सोऊंगा।'

          ‘क्या ?’

          ‘हां ....... उसने यह इतने अधिकार इतना जोर दे कर कहा कि मेरा रोम-रोम कांप उठा। मगर ऊपर से अपने को मज़बूत दिखाने की कोशिश करते हुए कहा,
     
          ‘चीनू तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। तुम मेरे साथ नहीं सो सकते। जाओ अपने कमरे में।

          मेरी बात सुन कर कुछ देर चुप रहा फिर एक झटके में मेरे सामने आकर बोला,
    
          ‘'मैंने कहा न मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा ।'

          ‘हां ...... लेकिन यह नहीं हो सकता कि मेरे साथ सोओ। इसलिए जाओ ऊपर।

          मेरे इतना बोलते ही वह भी अपनी आवाज़ में तेजी लाते हुए बोला,

          ‘'क्यों नहीं हो सकता ?'’

          उसके इस अकड़ भरे प्रश्न से मैं झल्ला उठी, और उसके इरादे भांप गई। मुझे लगा अगर मैं कमजोर पड़ी तो यह सिर पर चढ़ जाएगा। और जब चाहेगा मनमानी करेगा। तो मैंने एक बार फिर हिम्मत कर एकदम उसके करीब जाकर कहा,

          ’तुम पागल हो गए हो क्या ? बच्चे हो बच्चे की तरह रहो। चुपचाप अपने कमरे में जा कर सो जाओ समझे।

          ‘'न मैं पागल हूं, न बच्चा, समझी चाची, आपने मुझे बहुत बड़ा बना दिया है, अब मैं आपके साथ सो सकता हूं। जब आपका मन था तब बड़ा हो गया था, आपका मन भर गया तो मैं बच्चा हो गया। ये नहीं हो सकता चाची। फिर मैं बार-बार कह रहा हूं कि मैं किसी से नहीं कहूंगा, कभी नहीं कहूंगा तब आपको क्यों परेशानी हो रही है बताइए।'

          इतना कहते-कहते उसने आकर धीरे से मेरे दोनों हाथों को पकड़ लिया। पूरे अधिकार के साथ की जा रही उसकी यह हरकतें मेरे होश उड़ाए दे रही थीं। मैं नर्वस हुई जा रही थी। बार-बार किसी से न कहने की बात कह कर वास्तव में वह यही धमकी दे रहा था कि वह जो कर रहा है करने दो नहीं तो भांडाफोड़ देगा। वह मेरे हाथों को पकड़े मेरे इतना करीब खड़ा था कि उसकी गर्म साँसों को मैं महसूस कर रही थी। उसकी लंबाई मुझे अहसास करा रही थी कि वह जो कह रहा है कि वह बच्चा नहीं बड़ा हो गया है वही हक़ीक़त है। और मुझे यह भी अहसास हो गया कि उसे मैं जितना धूर्त मक्कार समझ रही थी वह उससे हज़ार गुना ज़्यादा कमीना, धूर्त है। और इस धूर्त के जाल में स्वयं को ऐसा फंसा चुकी हूं कि निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा है। मैं कुछ निर्णय ले पाती, कुछ करती कि उसके पहले ही वह मेरे हाथ जो पहले से पकड़े हुए था उसे पकड़े-पकड़े बेड की तरफ चल पड़ा मेरे पास सिवाय उसके इशारे को मानने के और कुछ नहीं बचा था।

           मैं विवश उसके साथ बैठ गई बेड पर। इतना बेबस मैं जीवन में उससे पहले कभी नहीं हुई थी। वह धूर्त इतना कमीना और चालाक निकला था। जिस हरामी बाबा से ऐन वक़्त पर आ कर ज़िया ने मेरी इज़्जत बचाई थी आज उसी ज़िया का लड़का मेरी इज़्जत तार-तार करने के लिए मुझे अपने जाल में ऐसा फंसा चुका था कि बचने का कोई रास्ता नहीं था। यहां तक की चाह कर भी ज़िया को भी नहीं कह सकती थी। उसने मुझे बेड पर लिटा दिया और खुद लेट गया।

          हैरान-परेशान मैं एक झटके से उठ कर जाने लगी तो उसने फिर बिजली की तेजी से मेरा हाथ पकड़ लिया। उसकी पकड़ में उसकी जवानी की ताकत साफ अपना अहसास करा रही थी। और साथ ही उसकी मंशा का भी। उसने मुझे खींच लिया, विवश मैं फिर लेट गई। मगर नफ़रत के कारण मैं करवट लेकर दीवार की तरफ मुंह करके लेटी तो कुछ देर बाद वह भी करवट लेकर ठीक मेरे पीछे सट कर लेट गया। तो मैंने खीझ कर कहा,
          
          ‘चीनू ठीक से लेटो, उधर खिसको।

          मगर बजाय खिसकने के उसने बड़ी बेशर्मी से अपना एक हाथ पीछे से मेरे पेट पर रख दिया, मैंने हटाने की कोशिश की तो असफल रही उसके आगे मैं बेबस थी। अंततः मैंने बचने का आखिरी प्रयास किया। उससे कहा,

          ‘तुमने अगर बदतमीजी बंद नहीं की तो मैं अभी आत्महत्या कर लूंगी और सुसाइड नोट में तुम्हारा नाम लिख कर जाऊंगी। सोच लो पुलिस तुम्हें पकड़ कर ले जाएगी और फांसी हो जाएगी तुम्हें।

          '‘ठीक है चाची सुसाइड नोट में जो मन आए लिख देना। उससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। पोस्टमार्टम में सब पता चल जाएगा। पूरी दुनिया जान जाएगी कि जो किया तुमने किया। मैंने कुछ नहीं। अब मर्जी आपकी जो चाहें कर लें।'

          निहायत कमीनेपन से यह जवाब देकर वह बड़ी बेशर्मी के साथ मुझ से कस कर पीछे से चिपक गया। उसकी बातें सुन कर साफ पता चल रहा था कि सड़क छाप किताबें पढ़-पढ़ कर वह एकदम पक्का हो चुका है। उसे मामूली लड़का समझना मूर्खता होगी। अब मुझे सारे रास्ते बंद नजर आ रहे थे। मुझे यकीन हो गया कि मैं सब कुछ खो चुकी हूं , सब हार चुकी हूं अब मेरे पास कुछ नहीं है।

          ‘तो फिर क्या तुमने फिर अपने को सौंप दिया उस सुअर को।

          ‘बिब्बो और कोई रास्ता बचा था क्या मेरे लिए?’

          ‘हे भगवान! क्या यही सब सुनवाने के लिए जिंदा रखा है मुझे। अरे! तुम चाहती तो रास्ता ही रास्ता निकल आता। चाहने पर क्या नहीं हो सकता। अरे! इतनी कमजोर तो उस वक़्त नहीं रही होगी कि एक छोकरे से खुद को न बचा पाती। अरे! एक लात मार कर उस हरामजादे को बेड से कुत्ते की तरह बाहर कर सकती थी।

          ‘बेड से क्या, उस कुत्ते को तो मैं घर से बाहर फेंक सकती थी। लेकिन तब वह चारों तरफ तुरंत बात फैला देता। क्योंकि उस समय वह बहुत आवेश में था। वो इतना कमीना था कि उसमें और नमक-मिर्च लगाता। चलो मैं तो निश्चित ही मरती ऐसी हालत में। लेकिन फिर इनका क्या होता ? समाज में ये कैसे निकलते बाहर। और फिर तुम लोग भी कैसे निकलते दुनिया के सामने। मेरे साथ सबका जीना मुश्किल हो जाता।

          ‘ओह! सबकी इतनी चिंता थी तुम्हें, तो यह सब किया ही क्यों था।

          ‘मैं बार-बार कह रही हूँ कि किया नहीं था हो गया था, परिस्थितियों के हाथों मैं बह गई थी। बह जाने के बाद संभली तो गंभीरता को समझा। हर हालत में एक ही कोशिश की कि बात फैल कर तुम सब तक न पहुंचे। तुम सब उसकी ताप में न झुलसो। तुम जो बार-बार इतना व्यंग्य कर रही हो, मेरी जगह होती तो समझती मैंने जो किया है वो किस हद तक गलत था या सही।
         
          आज तक सब लोग शान से दुनिया के सामने चल रहे हो तो सिर्फ़ इसलिए कि इतने अत्याचार को चीनू के कमीनेपन अन्य कइयों के हरामीपन की आग से मैं अकेले जलती रही। उसकी आग को फैलने से रोकती रही कि वह तुम लोगों तक पहुंच कर तुम सबको न तपाए। और मुझे संतोष है कि मैं इस आग को फैलने से रोकने में कामयाब रही। हां लेकिन अब मुझे लगता है कि मुझे यह सब तुम्हें भी नहीं बताना चाहिए था।

           अम्मा की बात याद आती है कि बने के सब साथी हैं बिगड़े में कोई नहीं। सोचा था कि बहन हो कम से कम तुम तो समझोगी लेकिन मैं हमेशा की तरह किसी को समझने में फिर गलती कर गई। मुझे यह सारी बातें अपने साथ अपनी चिता तक ले जानी चाहिए थीं। इन बातों को बजाए तुम्हें बताने के अपने साथ अपनी चिता में ही जलाना चाहिए था। लेकिन कहा न जैसे उस दिन बह गई परिस्थितियों के हाथों भावना में बह कर, वैसे ही बरसों से इस बोझ को ढोते-ढोते थक कर चूर हो गई थी। सो तुम्हें देख कर पसर गई, बिखर गई कि कुछ राहत मिलेगी लेकिन मेरा दुर्भाग्य कहां मुझे बख्सने वाला था उसने यहां भी आकर डस लिया। तुम ऐसे बोल रही हो जैसे कोई बाहरी हो।

          ‘बात बाहरी की नहीं है। तुम जो बता रही हो, ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ़ तुम्हारे साथ हुआ है। अपने यहां तो औरतों के साथ अत्याचार होते ही रहते हैं। और बच्चे न हों तो कोढ़ में खाज जैसी स्थिति होती है। मेरा तो मानना है सौ में नब्बे औरतें ऐसी होती हैं जिनके जीवन में पति मनचाहा सुख ले लेते हैं, वह इतना ही जो जानते हैं। पत्नी को सुख मिला कि नहीं इससे उनको कोई मतलब नहीं होता। रही बात बच्चों की तो ऐसी न जाने कितनी औरतें हैं जो पति के सुख से, बच्चे के सुख वंचित हैं, लेकिन अगर सब तुम्हारी तरह करने लगतीं तो दुनिया में चरित्र नाम की कोई चीज ही न रहती।

          मुझे तुम पर बार-बार गुस्सा इसलिए आ रहा है क्यों कि तुम्हारी बातों से मैं यह समझ पा रही हूं कि तुम्हें जीजा से रुपया, पैसा, सामान का तो सुख था, शरीर का सुख नहीं था। औरतें ऐसे में बच्चों के साथ अपने को खपा देती हैं लेकिन तुम्हारे बच्चे भी नहीं थे। ऊपर से वह दवा-दारू में तुम्हारा साथ नहीं दे रहे थे, वक़्त निकलते जाने के कारण तुम व्याकुल हुई जा रही थी। ऊपर से अन्य औरतों के साथ जीजा के खुलेआम संबंधों के कारण तुम अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी। भरती जा रही थी। और उस दिन जब वह बंबई उस चुड़ैल के साथ गए तो तुम फट पड़ी।

‘     उस दिन तुम बच्चे को लेकर नहीं अपने शरीर की भूख की गिरफ़्त में ज़्यादा थी। और आग में घी का काम उस चुड़ैल ने किया। प्रतिशोध की आग में जल उठी तुम, तुम्हारे मन में आया कि अगर जीजा औरतें भोग सकते हैं तो तुम आदमी क्यों नहीं। तुम्हारे तन-मन की भूख उस दिन चरम पर पहुंच गई थी और संयोग से चीनू जैसा भरे-पूरे शरीर का जवान लड़का था साथ। घर में कोई नहीं था उसको देख तुम्हारी भूख और भड़क गई। और जब उसने तुम्हें चुप कराने के बहाने खुद तुम्हारे स्पर्श का मजा लेना चाहा तो तुम अपनी वासना नहीं रोक पाई, एक जवान मर्द शरीर का स्पर्श पाते ही वासना फूट पड़ी और बजाय वह कुछ करता तुमने ही सब कुछ कर डाला।

          ‘ये सच नहीं है बिब्बो।

          ‘यही सच है। सच यही है कि तुम वासना की आग में इतनी अंधी हो गई थी कि यह भी भूल गई कि जिस लड़के के साथ तुम वासना का सुख लेने जा रही हो यदि समय पर तुम्हारा सब कुछ सामान्य रहा होता तो जो बच्चा होता वह उसी उम्र का होता। यानी अपने बच्चे की उम्र के लड़के से तुमने अपनी वासना शांत की। यह सोचे बिना कि इसका उसके भविष्य पर क्या असर पड़ेगा।

          तुम वासना की आग में, स्वार्थ में, प्रतिशोध में इतनी अंधी हो गई थी कि एक पराए लड़के के सामने तुम्हें अपना तन, अपनी लाज खोलते उसको अपने निर्वस्त्र तन पर खींचते तुम्हें जरा भी लाज संकोच नहीं आई। और इससे बढ़ कर निर्लज्जता और क्या होगी कि उस छोकरे के साथ बनाए संबंधों की तुलना अपने पति के साथ भोगे क्षणों से कर रही हो कि उसके अंग ने, उसके तपते लावे ने तुम्हारे में जमा ...... हे भगवान! न जाने क्या-क्या बोल रही थी तुम कि वह सब साफ हो गया।

          क्या यह सच नहीं है कि तुमने जीजा से उस बात का बदला लिया जो उन्होंने गुस्से में तुम्हारी तुलना मीनाक्षी से कर डाली और उसे बेहतर कहा था। मगर इससे बड़ी बात यह थी कि तुम्हारी वासना की जो हवस थी वह जीजा से शांत नहीं हो पाती थी उसे तुमने मौका पाते ही एक छोकरे से शांत करने की सोची। बोलो क्या मैं गलत कह रही हूं कि तुम उस दिन प्रतिशोध, अपनी वासना की आग को बुझाने के लिए सब कुछ भुलाकर कर रही थी। और जीजा के व्यवहार को, काम को एक हथियार के तौर इस्तेमाल किया। बोलो क्या यह सच नहीं है। क्या ज़वाब है तुम्हारे पास इन बातों का। इसके बाद भी चाहती हो कि मैं तुम्हारी बातों को सही कहूं, तुम्हारी तारीफ़ करूं। मगर क्यों ? इसमें बनने-बिगड़ने की बात, साथ होने की बात कहां से आती है।

          बिब्बो का धारा-प्रवाह इतना बोल जाना मन्नू को कुछ हैरत में डाल गया। उसकी बातें मन्नू की उम्मीदों से अपेक्षाओं से, कहीं बहुत आगे थीं। उसे कुछ देर तक कोई जवाब नहीं सूझा। चुप रही वह। तो बिब्बो फिर बोली,

          ‘तुम कहती हो कि बहन होकर तुम मेरी बात मेरा दुख सुनने को तैयार नहीं हो। मगर जरा तुम्हीं बताओ कौन बहन अपनी बहन के ऐसे कर्मों। कर्मों नहीं बल्कि कुकर्मों कहो, को सुनना चाहेगी। तुमने जो किया उसका दूसरा उदाहरण ढूढ़े कहीं हो तो बताओ। मैंने तुम्हारी तरह तो बहुत सी किताबें नहीं पढ़ीं लेकिन जितना पढ़ी हूं मुझे कहीं भी ऐसा वाक़या पढ़ने-सुनने को नहीं मिला। और फिर अभी तो तुम बार-बार यही कहे जा रही हो कि अनर्थ तो तुमने आगे किया है। यह जो अभी तक बताया यह तो तुम्हारी नजर में अनर्थ था ही नहीं। तो अब जल्दी से वह अनर्थ बता दो। जरा वह भी सुन लें। देखें इस कलियुग में इस दुनिया में कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे  हैं।

          ‘ताने कस रही हो या सच में ये सब कुछ सुनना चाहती हो ?’ मन्नू बिब्बो की जली-कटी सुन कर आहत हो बोली,

          ‘तुम जो चाहे समझो। मैं तो सुनने को तैयार बैठी हूं। अब तो एकदम लगता है कि सब कुछ बिना सुने यहां से जा भी न पाऊंगी। हां तो बताओ जब जीजा आए तब क्या हुआ।

          ‘हुआ यह कि मैं बराबर यही सोच-सोच कर परेशान थी कि आते ही उन्हें कैसे मनाऊंगी। जाते वक़्त तो इतना गुस्सा हो कर गए थे। आएंगे तब क्या होगा। इनके फ़ोन का इंतजार करती रही कि पहुंच कर यह फ़ोन करेंगे। लेकिन कई दिन तक जब फ़ोन नहीं आया तो खीझकर मैंने ज़िया से कह कर चौहान जी से वहां का फ़ोन नंबर मंगवाया जहां यह रुके थे। तब आज की तरह मोबाइल की सुविधा तो थी नहीं। बड़ी मुश्किल से पांचवें दिन बात हुई। मगर फो़न उठते ही जो पहली आवाज़़ सुनी उससे तनबदन एकदम जल उठा। लेकिन मुझे क्योंकि हर हाल में अपने पर नियंत्रण रखना था, इसी में मेरी भलाई थी सो मैं एकदम शांत रही।

          ‘उसी चुड़ैल ने फ़ोन उठाया था क्या ?’

          ‘हां बिब्बो तुम सही कह रही हो, फ़ोन उसी चुड़ैल ने उठाया था, रात करीब नौ बज रहे थे और वह चुड़ैल उनके कमरे में थी। बड़ा इठला कर बोली थी

          ‘'भाभी जी कैसी हैं आप ?’'
       
        ‘ठीक हूं ....... आप कैसी हैं।
       
          ‘'मैं भी ठीक हूं।'
           
          ‘जरा इनसे बात करा दीजिए .....

          ‘'हां बिल्कुल एक मिनट होल्ड किजिएगा बाथरूम में हैं।'

           यह करीब दो मिनट बाद आए लाइन पर तो मैंने अपनी परंपरा अपनी श्रद्धानुसार चरण-स्पर्श बोला तो बड़े बेमन से बोले,

          '‘खुश रहो।'

          ‘कैसे हैं आप ?’

          ‘'ठीक हूं ...... । मुझे क्या हुआ ... ?’'

          ‘नहीं, कई दिन हो गए थे कोई समाचार नहीं मिला, तो मन लगा हुआ था।

          ‘'खुशी हुई कि तुम्हारा मन मुझ पर लगा रहा। .... वहां किसी चीज की कोई कमी तो नहीं है। उनकी यह बात मरहम सा असर कर गई।'
          मैंने पूछा

          ‘बंबई कैसा लगा आपको।

          ‘'लगना कैसा है। जैसे बाकी शहर हैं, वैसे ही यह शहर भी है। बस कहीं भीड़ ज़्यादा है कहीं कम। यहां भीड़ ज़्यादा है, इतनी है कि दम घुटता है।

          ‘काम के बाद थोड़ा घूम लिया करिए मन लग जाएगा। अपनी मन-पसंद हिरोइनों, हीरो से मिल लीजिए। अच्छा लगेगा।

          ‘पर्दों पर यह सब अच्छे दिखते हैं। कईयों को देखा है यहां इधर-उधर आते-जाते। मुझे तो सब बकवास लगे। पता नहीं लोग क्या देखते हैं इन सबमें कि दीवाने हुए भागते हैं इन सबके पीछे। ..... खैर घर पर चीनू है कि गया।

          ‘अभी है। काफी लंबे-लंबे गैप हैं इसलिए समय ज़्यादा लग रहा है।

          ‘'ठीक है और कोई बात ?’'

          ‘आप कब तक आ रहे हैं ?’

          ‘'क्यों कोई काम रुक रहा है क्या मेरे बगैर।'

          ‘मेरी दुनिया तो आपके रहने पर ही चलती है, एक दो काम की बात कहां?

          '‘ये सब बेकार की बातें हैं, किसी के रहने न रहने से कुछ भी नहीं रुकता और फिर हमारे संबंधों में ऐसी कौन सी गर्मी या मिठास है कि कहीं कुछ फ़र्क पड़ता है।

          ‘ऐसा नहीं है। थोड़ी बहुत तकरार का मतलब यह नहीं कि संबंध में कहीं गर्मी नहीं है। कोई मिठास नहीं है। ज्वालामुखी शांत रहे तो इसके मायने यह नहीं कि उसमें अंदर उथल-पुथल नहीं हो रही है। उसके अंदर दहकता लावा नहीं है। बस उचित माहौल स्थितियों की ज़रूरत होती है। जिसके आते ही रिश्तों में गर्मी दहकने लगती है। सुर्ख तपता लावा रिश्तों की गर्मी को चरम ऊंचाईयों तक पहुंचा देता है। मुझे लगता है हमारे बीच भी ज्वालामुखी अंदर ही अंदर धधक रहा है। उथल-पुथल मचाए हुए है। बस ज़रूरत है हम दोनों को उपयुक्त माहौल पैदा करने की ?’

          ‘'ओह! बड़े दार्शनिक अंदाज में बात कर रही हो। कुछ ख़ास बात हो गई क्या।'

          ‘हां यही मान लीजिए।

          ‘'अच्छा ....... तो जरा हम भी जाने कि ऐसा क्या ख़ास हो गया कि रिश्तों की गर्मी को ज्वालामुखी की गर्मी की तरह चरम तक ले जाना चाहती हो।'

          ‘अभी तो बस इतना जान लीजिए कि आपसे दूरी बड़ी असहनीय है। जब भी बाहर जाते हैं तो मेरे अंदर का ज्वालामुखी धधकने लगता है। उथल-पुथल एकदम से कुलांचें मारने लगती है। जब से गए हैं एक पल को चैन नहीं मिला है। इसीलिए चाहती हूं कि जल्दी से जल्दी आ जाएं।

          ‘'मगर आने से फायदा भी क्या?आते ही मिलते ही फिर सब कुछ ठंडा हो जाएगा।'

          ‘नहीं ..... ठंडा होने की भी एक सीमा होती है न उसके बाद तो बारी लावे के बाहर आने की होती है। बहुत दिन हो गए, अब हमारे रिश्तों के हिमयुग के समाप्त होने का समय आ गया है। गर्मी आने का वक़्त आ गया है। यह गर्मी रिश्तों को जीवंत बनाएगी। बस जल्दी आइए, मुझे पूरा यकीन है अब हम जीवंत युग में प्रवेश करेंगे। सारी बर्फ़ पिघल जाने का वक़्त आ गया है। फिर यह सब है तो हमारे ही हाथ में न। जब चाहें कर सकते हैं।

          '‘आज तुम्हारी बातें समझ में नहीं आ रही हैं। इतनी दार्शनिकता इतनी रूमानियत पहले तो कभी नहीं दिखाई दी। आज क्या हो गया है।'

          ‘हिमयुग के ख़त्म होने का दौर शुरू हो गया है। जीवंत युग के आने की तपिश है जो तुम तक पहुंच रही है।

           ‘'इसीलिए पूछ रहा हूं क्या हो गया है ?’'

          ‘पिछले कुछ बरसों में आपने भी तो नहीं पूछा था इस तरह। इसीलिए निवेदन कर रही हूं कि जितना हो सके उतनी जल्दी आइए। मैं बेसब्री से इंतजार कर रही हूं।

          ‘'पहले ये बताओ सब ठीक-ठाक तो है न। इन बहकी हुई बातों के पीछे क्या छिपा रही हो ?'’

          ‘सब कुछ बिल्कुल ठीक है। और जो ठीक नहीं है अब वह भी ठीक हो जाएगा। मैं उसी तरह जीना चाहती हूं, आपका वैसा ही प्यार चाहती हूं जैसा शादी के बाद कुछ समय तक आप करते रहे थे। फिर न जाने किसकी काली छाया पड़ी कि हम एक घर में रह कर भी एक नहीं हैं। दुनिया के सामने हम मुखौटा लगाए रहते हैं तो दुनिया समझती है कि हम बड़े खुशहाल हैं। मगर अंदर ही अंदर हम दोनों ही कहीं घुल रहे हैं। मैं बस यही ख़त्म करना चाहती हूं, मैं फिर से शुरुआती दिनों की खुशियां पाना चाहती हूं, तुम्हें देना चाहती हूं। घर को स्वर्ग बनाना चाहती हूं।

          '‘ये अचानक इतना बड़ा परिवर्तन कहां से आ गया मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। खैर आऊंगा तब देखूंगा। कुछ समस्या हो तो बोलो।'

          ‘हां एक बड़ी समस्या है।

          ‘'तो वो बताओ न। इतनी लंबी-चौड़ी बातें करने, भूमिका बनाने की क्या ज़रूरत है।'

          ‘मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही है। मैं तुम्हारी बाहों में  खोना चाहती हूं पिघलना चाहती हूं तुम्हारी गर्मी से। यही पहली और आखिरी समस्या है। बोलो दूर करोगे न।

          '‘चलो अच्छा बहुत हो गई बात, आऊंगा तो देखूंगा तुम्हारी समस्या क्या है। अब रखो फ़ोन मुझे कुछ काम करना है।'

          इसके बाद हमारी दो चार बातें और हुईं। लेकिन उन सारी बातों से मुझे पूरी उम्मीद हो गई थी कि आते ही मैं अपनी योजनानुसार बहुत कुछ कर सकुंगी। न जानें क्यों मेरे दिमाग में यह कूट-कूट भर गया था कि मैं कुछ ही हफ़्तों में प्रिग्नेंट हो जाऊंगी। अब एक-एक पल जहां मुझे एक-एक बरस लग रहा था। वहीं मैं हर संभव कोशिश कर रही थी कि गर्भवती हर हाल में हो जाऊं। कोई कसर कहीं बाकी न रह जाए। अब जब क़दम बढ़ा है, उठ ही गए हैं तो क्यों न उसका फायदा उठाया जाए। अपनी सूनी गोद को हरा-भरा किया जाए। फिर इससे किसी को नुकसान तो हो नहीं रहा है। हालांकि अब यह सब मुझे एक पागलपन से अधिक कुछ नहीं लग रहा।

          ‘अच्छा एक बात बताओ वह चुड़ैल उनके ही कमरे में है इसका तुमने जीजा से जरा भी विरोध नहीं किया।

          ‘नहीं ... । जानबूझ कर नहीं किया। जानते-बूझते हुए भी एकदम अनजान बनी रही। उसका नाम तक नहीं लिया। क्योंकि यह जानती थी कि उसका नाम लेते ही इनका मूड खराब हो जाएगा और यह फिर आग-बबूला हो उठेंगे।

          ‘वाकई बड़ी तेज थी तुम्हारी बुद्धि एक-एक पल का हिसाब था दिमाग में। मैं होती तुम्हारी जगह तो शायद पागल हो जाती, कहीं डूब मरती या फांसी लगा लेती।

          ‘पता नहीं कोई और होता तो क्या करता। मगर इतना यकीन से कहती हूं कि मैंने जो किया वह भी उससे इंकार न करता।

          ‘अच्छा ये बताओ फ़ोन पर तो जीजा से यह बातें उनके जाने के सात-आठ दिन बाद हुई लेकिन चीनू से संबंध तो उसी दिन हो गए थे। उसके बाद भी वह घर में था। इस बीच तुम उससे दुबारा भी मिलती रही तुम्हारी बातों से तो यही लगता है।

          ‘बिब्बो बात भूलती तुम भी नहीं हो। मैं तो सोच रही थी कि तुम इनकी बातें सुन कर भूल जाओगी कि इस एक हफ़्ते तक मैंने चीनू से दुबारा संबंध बनाए थे कि नहीं। लेकिन नहीं, तुम भूली नहीं। क्योंकि तुम्हारा दिमाग पूरी तरह केंद्रित है कि चीनू के साथ उस रात जो संबंध बने उसकी परिणति क्या हुई।

          ‘वो बात ही ऐसी है जो भुलाए नहीं भुलाई जा सकती। ऐसी बात है जिसे एक ही झटके में सब जान लेने का मन होता है। तुम्हीं बताओ यह बातें आसानी से भुलाई जा सकने वाली हैं क्या ?’

          ‘शायद तुम ठीक हो बिब्बो। मैं भी जल्दी से जल्दी बता कर राहत की सांस  लेना चाहती हूं। हुआ यह कि उस रात चीनू से संबंध बनाने के बाद मेरे दिमाग में जो चल रहा था वह तो तुम्हें बता ही चुकी हूं। अगले दिन चीनू भी मुझे कुछ अपसेट लग रहा था। दिन में एक-दो बार गया बाहर फिर लौट आया। मैं बराबर उस पर नजर रखे हुए थी, अंदर-अंदर बहुत डर रही थी कि यह कहीं बात किसी और को न बता दे। खाना खाने के लिए दिया तो बोल दिया मन नहीं। तो मैंने भी दुबारा नहीं कहा।

          वैसे मैं स्वयं बहुत अपसेट थी, खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। खाना आदि तो सिर्फ़ इसलिए बनाया कि चीनू को किसी तरह लक्ष्मण रेखा से बाहर न जाने दूं। मन में ऐसा तूफान चल रहा था कि लगता दिमाग की नसें फट जाएंगी। मगर इन सारे झंझावातों के बीच मैंने एक बात का दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जब इतना बड़ा हाहाकारी क़दम उठ ही गया है तो अवसर का उपयोग ज़रूर करूंगी। मां बनने का सपना ज़रूर पूरा करूंगी। और चीनू ने कहीं बात खोली तो आत्महत्या कर लूंगी। मगर यह भी कहीं दिमाग में आता था कि अगर चीनू कहेगा भी तो उसकी बात को लोग उसकी गप्प के सिवा कुछ और न समझेंगे। एक तरफ मैं डरती, तो दूसरी तरफ खुद ही अपने तर्क-वितर्क से अपने ही को ढाढ़स बंधाती, कहती नहीं, कुछ नहीं होगा तू मां ज़रूर बनेगी।

          मां बनने की तेरी मंजिल का माध्यम चीनू बनेगा नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व पर जहां एक तरफ अपने मन को समझाती अरे! हम महाभारत में  नियोग से बच्चे पैदा करने का प्रसंग तो पढ़ते ही हैं। सत्यवती ने अपनी विधवा पुत्र वधुओं अम्बिका-अम्बालिका को व्यास से संभोग करा कर ही मातृत्व प्रदान किया था। अम्बिका ने धृतराष्ट्र, अम्बालिका ने पांडू को जन्म दिया था और इस कलियुग में यदि मैं भी नियोग से मां बन जाऊंगी तो कैसा पहाड़ टूट जाएगा। जब द्वापर युग में नहीं टूटा तो इस युग में कैसे टूटेगा। फिर यह बात तो किसी को पता भी नहीं चलेगी। मैं किसी न किसी तरह चीनू को वश में किए ही रहूंगी।

          इसी उथल-पुथल में दिन बीत गया। रात जैसे-जैसे गहराती गई मेरा दिल तरह-तरह की बातों के बोझ से भारी होता जा रहा था। हां इस दौरान एक बात और हो रही थी। मेरे और चीनू के बीच एक मूकवार्ता भी कहीं परवान चढ़ रही थी। फिर हम अपने-अपने कमरे में आए। खाना-पीना अलग-अलग बेमन से हुआ था।
         
          ‘और इस रात भी पिछली रात को दोहराया तुम दोनों ने।

          बिब्बो के स्वर में घृणा-गुस्सा व्यंग्य सब कुछ दिख रहा था। उसके इस व्यवहार को मन्नू बराबर एक तरफ कर देती और आगे बढ़ जाती। इस बात को भी उसने बारीकी से साइड दिखा दिया। कहा,
                                                 
          ‘देखो बिब्बो मैं यह तो अच्छी तरह जानती हूं कि मैं असंख्य तर्क दूं, सफाई दूं लेकिन तुम्हारे मन को बदल नहीं पाऊंगी। मेरी जो तस्वीर तुमने बना ली है उसमें कोई बदलाव आने वाला नहीं है। मेरी जो तस्वीर तुम्हारे मन पर है रंच मात्र को नहीं बदलेगी।

          ‘तुम हद कर रही हो, अरे! जो तुम बता रही हो उसे सुन कर कौन होगा जो तुम्हारी तारीफ करेगा, तुम्हें सम्मान देगा। हां तुम्हारी हिम्मत की तारीफ ज़रूर कर रही हूँ कि देवी-देवताओं, महाभारत आदि का नाम लेकर अपने काम को अच्छा बनाने में ज़रूर लगी हो। मैंने पूछा कि चीनू के साथ फिर संबंध बनाए। क्या पहल तुम्हीं ने की थी तो साफ-साफ बताने के बजाए तुम महाभारत बता रही हो।

          ‘तो सुनो तो पहले, मैं साफ-साफ ही बता रही हूं कि उस रात भी हमने पिछली रात दोहराई। चीनू तो चला गया था ऊपर। दुनिया भर के उथल-पुथल के बाद मैं रोक न पाई अपने को। मैं चली गई उसके पास।

          ‘और पूरी रात उसके साथ मजा लूटा।

          ‘नहीं, चली आई थी कुछ समय बाद।
         
          ‘वाह .......। एक बात मैं साफ-साफ बताऊं तुम लाख सफाई दो कि तुमने चीनू के साथ बच्चा पाने के लिए संबंध बनाए लेकिन तुम्हारी अब तक की एक-एक बात चीख-चीख कर यही चुगली कर रही है कि तुमने अपनी वासना की हवस शांत करने के लिए उसे सिर्फ़ इस्तेमाल किया और पहली रात जो तुम यह कह रही हो कि दूसरी बार चीनू ने एक तरह से तुम से जबरदस्ती संबंध बनाए, तुम्हारी मर्जी के बिना तुम्हारे साथ तुम्हारे बेड पर लेटा यह भी मेरे गले नहीं उतर रहा है। और तुम बताओ उसके पहले मैं बताए देती हूं और पूरे यकीन के साथ कि मैं एकदम सही कह रही हूं कि चीनू के साथ तुम्हारा यह वासना का खेल जब तक जीजा नहीं आए तब तक चलता रहा ..... । बोलो क्या मैं गलत कह रही हूं।
         
          ‘हां ...... सही कह रही हो तुम, लेकिन मेरी इस बात पर भी ध्यान दो कि मैं बार-बार कह रही हूं कि मेरे इस काम में अंतिम उद्देश्य केवल बच्चा था। तुम यकीन करो इस बात का कि मैं संबंध बनाते समय भी बच्चा ही जी रही होती थी। और यही यकीन करती कि बस अब मैं बीज धारण कर चुकी हूं। तुम चाहो तो इसे एक पंथ दो काज जैसा भी कह सकती हो।

          ‘अब पता नहीं एक पंथ दो काज जैसा होता था या कि एक पंथ और सिर्फ़ एक ही काज यह तो तुम्हीं जानो पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि जो जीजा शादी के बाद कुछ सालों तक तुम्हें जी जान से चाहते थे वह बाद में तुम से इतने दूर क्यों हो गए। हां ....... लेकिन यह पूछना तो बेवकूफी है। इस प्रश्न का महत्व तो जब वह भी होते तभी था। तो तुम अब सिर्फ़ इतना बताओ कि जब वह लौटे तब क्या हुआ।

          ‘बाद के दिनों में जीजा क्यों अलग हो गए अगर तुम यह पूछती तो भी अच्छा था। न जाने तुम्हें अब तक यह यकीन क्यों नहीं हो रहा कि इस समय मैं जो कुछ बता रही हूं सही बता रही हूं। जब मैं जो नहीं बताना चाहिए था वह भी बता रही हूं तो यह बात क्यों नहीं बताऊंगी कि बाद के दिनों में यह क्यों दूर रहने लगे थे। मैं बहुत साफ बता रही हूं कि मेरा जो अनुभव है, मैंने जो जीया उसका निष्कर्ष यही है कि मर्दों को पत्नी चाहे कितनी अच्छी हो कुछ दिन बाद उसमें उनको वो आकर्षण, वो सुख नहीं मिलता जो शुरू में वह भोगते हैं। और फिर अगर बाहर उसके लिए औरतें उपलब्ध हैं तो उसके लिए तो जैसे सारी दुनिया ही उसके हाथ में है। ऐसे में पत्नी उसे दाल में कंकर की तरह नजर आती है।

          मेरे साथ भी यही हुआ था। बाद के दिनों में जैसे-जैसे वह आगे बढ़ते गए प्रभावशाली होते गए इनके शौक भी बदलते गए इनका टेस्ट बदला तो मुझ में उन्हें कोई रुचि नहीं रह गई। घिन आने लगी थी मुझसे, जो बातें कहते, गालियां देते थे, और जिस तरह अपनी लात और छड़ी से मुझे मारते थे, तुम होती मेरी जगह तो एक दिन न बर्दाश्त करती। उनके साथ मैंने जीवन भर जिस तरह निभाया मैं दावे से कहती हूं कि तुम क्या कोई भी औरत उस तरह न निभा पाती उनके साथ। तुम तो कुछ देर पहले कह ही चुकी हो कि तुम बर्दाश्त न करती। जबकि मैंने न सिर्फ़ जीवन भर निभाया बल्कि उन्हें कभी यह अहसास न होने दिया कि मैं उनकी ज़्यादतियों से ऊबकर कई बार यह सोच बैठती हूं कि अलग ही हो जाऊं क्या ?’

          ‘अलग होने की बात मन में आने के बाद भी शायद तुम्हारे पास विकल्प नहीं था इसलिए साथ रही तुम आखिर तक।

          ‘तुम कैसी बात कर रही हो। मैंने कहा न कि गुस्से में कई बार मन में आता था ऐसा लेकिन यह क्षणिक होता था। गुस्सा कम होते ही ऐसी बात पर पक्षताती थी, सच यह है कि मैंने सामान्य स्थितियों में जीवन में कभी भी उनसे अलग होने की बात नहीं सोची। मेरे मन में कभी ख़याल तक न आया। तुम इसका कारण विकल्पहीनता मानती हो तो मैं इसे सच नहीं मानती। मन में यह आता तो निश्चित मानों मैं विकल्प भी तलाश लेती। अगर ऐसा होता मन में तो जब यह अठारह  दिनों बाद लौटे बंबई से तो मैंने जिस उत्साह के साथ इन्हें सिर आंखों पर बिठाया, और कि जब तक आए नहीं तब तक टूट कर करती रही इनका इंतजार यह सब न होता। जबकि यह भी बाद में मालूम हुआ कि जिस बंबई में मैं घूमना चाहती थी अपने पति के साथ उसी बंबई में मेरा पति ऑफ़िस का काम पूरा होने के बाद दो दिन तक उस चुड़ैल के साथ घूमता रहा। लाख असहजतापूर्ण बातों के बावजूद मेरे मन में उनके लिए दुर्भाव या उनसे अलग होने की बात कभी नहीं आई। सिवाय बहुत ज़्यादा मार खाने और अपमान के समय क्षणिक तौर पर।

          ‘हां मगर एक बात तो यह भी है न कि थोड़ी देर पहले तुमने यह भी कहा कि चीनू से बने संबंध की पोल न खुल जाए, इसलिए तुम जीजा से जल्द से जल्द मिलना चाहती थी। तो इंतजार तो इस स्वार्थ के लिए ज़्यादा था न।

          ‘चलो मान लेती हूं तुम्हारी इस बात को कि मैं अपनी गलती छिपाने के लिए कर रही थी उनका इंतजार। अपने स्वार्थ के लिए कर रही थी ?’

          ‘तो अब यह भी बता दो कि जब वह आ गए तब कैसे तुमने उनका सामना किया ? चोरी अपनी कैसे छिपाई ? तब जीजा को कैसे फंसाया अपने जाल में।

          ‘बिब्बो तुम इतनी जली-कटी बात क्यों कर रही हो ? मुझे भला उनको अपने जाल में फंसाने की ज़रूरत क्या थी। आखिर वो मेरे पति थे। मैं तो खुद ही वक़्त के हाथों खेली जा रही थी, वक़्त के जाल में मैं खुद फंसी घुटती जा रही थी।

          ‘ठीक है, जब जीजा आए तब क्या हुआ ?’

          ‘पलक-पांवड़े बिछाए जिसका इंतजार करती रही वह जब आया तो पहले की ही तरह फिर गाली, दुत्कार अपमान मिला।
         
          ‘पहले ही दिन में  ?’

          ‘हां ..... पहले ही दिन में। जब आए तो रात को मैंने सोचा कि लंबे सफर से आए हैं सो उनकी देवता की तरह खातिरदारी की। मगर उनका रूखा व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा। बंबई से फ़ोन पर ठीक से बात शायद उस कमीनी के सामने होने की वजह से कर ली थी। खैर रात मैंने यह सोच कर इनके बदन की खूब मालिश की कि लंबे सफर के कारण बहुत थक गए होंगे इससे इन्हें आराम मिलेगा। फिर बजाय मैं पहले की तरह दूसरे कमरे में जाने के इन्हीं के साथ लेट गई।

          ‘हां ... यह तो ज़रूरी था। अपने कुकर्म छिपाने के लिए तुम्हें आते ही संबंध जो बनाने थे।
         
          बिब्बो की बात मन्नू को फिर गहरे चुभ गई। वह देर तक अपने को जज्ब करती रही फिर बोली,
                                       
           ‘हां ..... लेकिन मेरे पति को मेरे बदन की ज़रूरत तो बरसों से ही नहीं रह गई थी। सो उस दिन कैसे आ जाते मेरे पास। मैंने जब हाथ लगाया उनके बदन को, उनके मन को टटोलने के लिए बंबई की बातें शुरू की बिना उस चुड़ैल का नाम लिए, तो बड़े अनमने ढंग से वह धीरे से बोले-

          '‘सोने दो।'

          मैंने सोचा चलो आराम कर लेने दो दो-चार घंटे। फिर देर रात देखुंगी। मैं जागती रही और यह सोते रहे बेसुध। जैसे-जैसे रात गुजर रही थी मेरी धड़कन बढ़ती जा रही थी। मन अजीब से भय से भयभीत था। चीनू का चेहरा बार-बार भयभीत कर रहा था। इनके सोने के करीब डेढ़ दो घंटे बाद मन में उठते तूफान से विवश होकर मैं धीरे से चीनू के कमरे तक गई।

          ‘क्या ...... जीजा के रहते तुम फिर उस छोकरे से तन की भूख मिटाने पहुंच गई। तुम्हें जीजा का डर बिल्कुल नहीं था क्या?’

          ‘नहीं, तन की भूख मिटाने नहीं गई थी। उसका चेहरा जो बार-बार मुझे डरा रहा था उसे देखने गई थी कि वह क्या कर रहा है ?वहां जाकर राहत मिली कि वह भी घोड़े बेच कर सो रहा था। लाइट जल रही थी, उसके पास ही फुटपाथिया अश्लील किताब पड़ी थी। हां एक बात तो बताया नहीं। पहले दिन उसके साथ जब संबंध बन गए तो उसके बाद वह जो चाहता वह करने लगा था। मेरे सामने ही अश्लील किताबें पढ़ता। मुझ से बेहिचक पैसे भी मांगने लगा था।

          मैंने उसे मन ही मन खूब कोसा और नाइट लैंप आन कर ट्यूब लाइट ऑफ कर दी। चुपचाप नीचे आई तो सन्न रह गई। मेरे झुरझुरी सी छूट गई। पसीना चुहचुहा आया बदन में, गला सूख गया। ऐसे थरथरा रही थी जैसे कोई पुराना जर-जर पुल ट्रेन के गुजरने पर थरथराता है। मुझे ऐसा लगा मानो मेरी चोरी पकड़ी गई। और अब मेरा अंत समय आ गया। यह बेड पर नहीं थे। तभी एक आहट पर पलटी तो देखा यह बाथरूम से चले आ रहे हैं। मेरे जान में जान आ गई, पर सशंकित तब भी थी। यह बेड पर बैठ गए तो मैंने पूछा पानी पिएंगे क्या ?’

          '‘ले आओ।'

          ‘पानी पी कर यह लेट गए। मैंने राहत की सांस ली। फिर डरते-डरते मैं भी इनसे सट कर लेट गई। इनका मन जानने की कोशिश करने लगी, अचानक ही यह बोल पड़े, ''कहां गई थी?'' मैंने कहा चीनू ऊपर कमरे की लाइट जलती छोड़ कर सो गया था। बुझाने गई थी।
         
          '‘इसका इग्ज़ाम कब खतम होगा?’'

          ‘बता रहा था दो पेपर और रह गए हैं। उनकी ऐसी बातों से मेरा मन बढ़ गया। मैंने पहल शुरू की। और बहुत कोशिश की लेकिन व्यर्थ।

          ‘क्यों ऐसा क्या हो गया। मेरे यहां तो ये कहते थे खसम मेहरूआ की कौन लड़ाई, फरीया खोले भीतर आई। फिर ऐसा कौन आदमी होगा कि औरत उसके बदन में ज्वाला भड़काए और वह भड़के ही नहीं।

          ‘पता नहीं पर मेरे साथ यही हुआ। मेरे हाथ, मेरा तन मन सब थक गए लेकिन इनका ज्वालामुखी जो रूठा था मुझ से वह न भड़का। और फिर इन्होंने मेरे हाथ को रोकते हुए कहा 'सोने दो।'’  बस इन दो शब्दों ने मुझे भी ठंडा कर दिया। मेरी मायूसी समुद्र सी गहरी हो गई थी। मुझे रह-रह कर अपनी मौत निकट नजर आ रही थी। ये, चीनू, सारा मुहल्ला, सारी दुनिया सो रही थी पर मैं अकेली पड़ी अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही थी। और उन्हें पोंछने वाला कोई नहीं था। आंसू भी बह-बह कर थक गए तो वह भी सो गए और मैं चुप पड़ी न जाने कब तक और न जाने क्या सोचती रही, फिर आंखें भी न जाने कब धोखा दे बंद हो गईं।
         
          सुबह नींद खुली तो सात बज रहे थे। मैं हड़बड़ा कर उठी, देखा ये फ्रेश होकर पेपर पढ़ रहे थे। जीवन में पहली बार ऐसा हुआ था जब यह मुझ से पहले उठ गए थे। खैर उठी, चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब तैयार किया, यह तैयार होकर चले गए ऑफ़िस। चीनू का पेपर था वह इनसे पहले ही चला गया था। मैं अकेली लड़ती रही अपने से। कोई नहीं था मेरे साथ। दिन में ज़िया आई थी लेकिन कुछ ही देर के लिए, चीनू की चिंता थी। कहीं और भी उसे जाना था सो वह जल्दी चली गई। उस दिन चीनू पेपर ख़तम होने के बहुत देर बाद आया, खाना खाया और घर जाने की बात कह कर चला गया। वह भी बड़ा उखड़ा-उखड़ा लग रहा था। शायद पेपर खराब हुआ होगा। या फिर इनका आना उसे खलल पड़ने जैसा लगा होगा। मैंने उसे एक बार भी रुकने को नहीं कहा। हां जाते-जाते बड़ी ढिठाई के साथ मुझसे सौ रुपए ले गया।

          ‘तुम्हारा गला सूख रहा है।

          बिब्बो ने उठ कर मन्नू को एक गिलास पानी दिया फिर जल्दी से दो कप चाय भी बना लाई और बाथरूम भी हो आई। इस बीच मन्नू शांत हो उसे आते -जाते देखती रही। उसके मन में आया कि जब उसकी सगी बहन यह बात सुन कर आग-बबूला हो रही है तो कोई अन्य तो पूरी बात सुनने से पहले ही न जाने क्या कहता, क्या कर डालता।

          मैं भी कितनी पागल हूं, न जाने किस रौ में आकर बहक गई और बता रही हूं सब कुछ, जो बात अपनी चिता में भस्म कर देने वाली थी वह बता दी। अब बिब्बो न जाने यह अपने ही दिल में इसे दफ़न कर पाएगी कि नहीं। कहीं इसने भी इन बातों के बोझ को न सह कर अपने बेटों, बहुओं, बेटियों को बता दिया तो दुनिया में इसके फैलते देर न लगेगी। वैसे भी यह बचपन से ही बड़ी वाचाल रही है। कुछ छिपा नहीं पाती। घर पहुंचते ही न जाने यह क्या करेगी। हे भगवान! मैं ये कैसा पागलपन कर बैठी। कभी तो मुझे शांति दोगे या अंतिम सांस तक ऐसे ही तड़पाते रहोगे।

          समझ में नहीं आता तुम्हें अपने ही बनाए लोगों को तड़पाने में क्या मिलता है। कहते तो हो कि बिना तुम्हारी इच्छा के कहीं कुछ होता ही नहीं तो हम सब जो करते हैं जब वह सब तुम्हारे ही इशारे पर होता है तो पाप के, पूण्य के भागीदार हम कहां हुए? यह वैसा ही हुआ कि काम तुम्हारे और सजा हम निरीह प्राणियों को, यह तुम्हारी कैसी व्यवस्था है भगवान ? तुम्हें यह अंधेरगर्दी जैसा नहीं लगता क्या?
         
          मन्नू की यह विचार-श्रृंखला बिब्बो ने आकर तोड़ दी। उसे चाय का कप थमाती हुई बोली,

           ‘हम दोनों का यह जो जोश जगा है ऐसा शायद ही किसी का रहा होगा। तुम्हारी बातें ऐसी हैं, इतनी ढेर सारी हैं कि उन्हें एक आध घंटे में समेटा नहीं जा सकता। और मैं तो ठान बैठी हूं कि पूरी बात सुने बिना न सोऊंगी। क्योंकि चाहूंगी भी तो नहीं सो पाऊंगी। नींद ही नहीं आएगी।

          ‘हां .... मैं भी यह तय कर चुकी हूं कि जब इतना बता ही दिया है, बात खुल ही गई है तो सब बता ही दूं। अब परिणाम चाहे कुछ भी हो।

          ‘परिणाम तो जो निकलना था वह निकल ही चुका। अब भी कुछ होने को रह गया है क्या ? यह तो खाली दिल का गुबार निकालने जैसा है। गुबार भी ऐसा है जो यहीं रह जाएगा। कहीं और उसका कण भी न जा पाएगा। सो जितना गुबार भरा है मन में आज वह सब निकाल दो मेरे सामने। अच्छा बताओ इतना बड़ा कांड तुम ने किया, इससे जीजा की नजरों का सामना तुम कैसे करती थी। पहले ही दिन तुम उनके पास गई, उनके पास लेट गई। तुम्हारा मन तुम्हें कचोट नहीं रहा था कि तुम एक ऐसे आदमी को धोखा दे रही हो जो भले ही किसी वजह से तुम से सारे संबंध सामान्य न रख रहा हो लेकिन तुम्हारे ऊपर विश्वास पूरा करता है। अगर विश्वास न करता होता तो पैसे रुपए से लेकर बाक़ी सारी चीजें तुम्हारे हाथों में न दी होतीं। ऐसे में तुमने जरा भी यह नहीं सोचा कि ऐसा आदमी, बुरा मत मानना जो अपंग भी था। उसके साथ तुम कितना अन्याय कर रही हो। आंखें तुम्हारी जरा भी न सकुचाईं उनके सामने जाने से ?’

          ‘सब हुआ था। ऐसी परिस्थितियों में किसी भी इंसान को जो कुछ भी अहसास होता, जो महसूस होता वह सब मुझे भी हुआ था। मगर एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मैं यह बात बिल्कुल नहीं मानती कि मैंने उन्हें धोखा दिया। मैंने धोखा देने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था, चीनू प्रसंग ऐसा प्रसंग था जैसे खाने में भूलवश नमक ज़्यादा पड़ गया हो, जिसे अलग नहीं किया जा सकता। बस उसके तीखेपन को झेलते हुए खाना ही एक रास्ता होता है। या ऐसे समझ लो कि.... खैर छोड़ो किसी भी सफाई का मुझे कोई मतलब नहीं दीख पड़ता। मैं सिर्फ़ इतना ही कहती हूं कि हां गलती मुझ से हो गई, मैंने जानते बूझते हुए या प्रीप्लैंड कुछ नहीं किया। बस हो ही गया हां गलती ऐसी हुई कि बाद में न चाहते हुए दल-दल से न निकल पाई।

          ‘दल-दल से तो विरले ही निकल पाते हैं। पर चीनू नाम का जो तीखा नमक खाया उसका परिणाम क्या हुआ ?’

          ‘बह गया .... सारे परिणाम बह गए।

          ‘मतलब मैं नहीं समझी।

          ‘मतलब कि उनके आने के दो हफ्ते बाद पीरिएड आ गया। सारे सपने खून बन बह गए। हालांकि डेट तो इनके आने के एक हफ़्ते बाद की थी लेकिन एक हफ़्ते देर से आया। यह एक हफ्ते मैं अंदर ही अंदर खुश हो रही थी कि शायद मेरी इच्छा पूरी हो रही है। शायद चीनू के बीज ने मुझे गर्भवती बना दिया है। क्यों कि पीरिएड्स मेरे एकाध बार को छोड़ कर कभी अनियमित नहीं होते थे। मगर बह गई सारी खुशी एक हफ़्ते बाद। मेरे सपने का भगवान ने फिर खून कर दिया। आ ही गया एक हफ़्ते देर से पीरिएड।

          ‘मैं इस बात के लिए तुम्हारी इस हिम्मत के लिए तारीफ़ करती हूं कि तुम किस्मत को बदलने की कोशिश कर रही थी। तुम इतनी हिम्मत वाली थी कि विधि का विधान बदलने उससे टकराने चली थी।
         
          ‘मगर मेरा कहना है कि मैं कुछ नहीं कर रही थी। जो कुछ हुआ, जो कुछ हो रहा है, हम तुम जो यह बातें कर रहे हैं यह सब विधि का ही विधान है। उसने जो तय किया था वही सब हुआ।

          ‘अच्छा! तो विधि ने इसके आगे क्या लिखा था। तुम जिस नमक चीनू की बात कर रही थी उसके नमक का तुमने फिर सहारा नहीं लिया एक और कोशिश के लिए ?’

          ‘तुम घबड़ा क्यों रही हो। मैं सब बता रही हूं, कुछ नहीं छिपाऊंगी। बार-बार कह रही हूं।

          ‘मैं कहां घबड़ा रही हूं, मैं तो सिर्फ़ यही जानना चाहती हूं कि चीनू नामक नमक तुम और कितने दिनों तक खाती रही। और किस-किस तरह से।

          ‘ज़रूर .... नमक जैसे-जैसे खाया सब बताती हूं। चीनू उस दिन जब घर गया तो क़रीब हफ़्ते भर नहीं आया। दो-तीन दिन ज़िया का भी फ़ोन नहीं आया तो मैं चिंता में पड़ गई। क्योंकि मैं समझ रही थी कि बाकी बचे पेपर देने ज़रूर आएगा। और फ़ोन करने से हिचक रही थी कि कहीं उसने ज़िया को बता दिया होगा तो किस मुंह से उनसे बात करूंगी। एक बार मन कहता नहीं बताया होगा। फिर मन कहता क्या पता छोकरा है न जाने क्या कर बैठे। यह उधेड़-बुन बेचैनी जब ज़्यादा बढ़ गई तो मैंने अंततः ज़िया को फ़ोन किया। इसके लिए मुझे बड़ी हिम्मत जुटानी पड़ी थी। ज़िया से बात करते वक़्त मारे घबराहट के मेरे शब्द लड़खड़ा रहे थे। अनुभवी ज़िया ने मेरी घबराहट की थाह लेने की कोशिश में पूछा,

          ‘'क्या हुआ ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न।'
                  
          ‘हां।

          '‘क्या भइया से कुछ बात हो गई है ?’'

          ‘नहीं ज़िया ऐसा कुछ नहीं। बस ऐसे ही न जाने क्यों मन बहुत परेशान हो रहा था। पहले सोचा कि अमीनाबाद चली जाऊं। कुछ खरीदारी भी कर लूंगी और हनुमान जी के दर्शन भी। मगर इस गर्मी में निकलने की हिम्मत नहीं हुई। तुम यहां पास में थी तो चल देती थी तुम्हारे साथ। ...... पर अकेले हिम्मत नहीं जुटा पाती।

          ‘'जब मन हुआ करे तो एक दो-दिन पहले बता दिया करो, मैं आ जाऊंगी।'

          ‘अरे! ज़िया कैसी बात करती हो। इतनी दूर से बार-बार बुलाना अच्छा नहीं लगता।

          '‘मन्नू .... अगर बुरा न मानों तो एक बात कहूं  ........ ।'

          ज़िया की इस बात से मैं सिहर उठी। कांप गई अंदर तक कि चीनू ने सब बता दिया है। उसने मुझे ज़िया के सामने एकदम नंगी कर दिया है। मुझे अपनी नजरों के सामने फांसी का फंदा झूलता नजर आने लगा था। क्योंकि मैं यह ठाने बैठी थी कि अगर चीनू ने किसी को भी बताया तो मैं ज़िंदा नहीं रहूंगी। आत्महत्या कर लूँगी । मैं इस ऊहा-पोह के चलते कुछ क्षण तक कुछ न बोल पाई तो ज़िया फिर बोली,

          '‘हैलो! मन्नू  क्या हुआ ?'’

          ‘अं ..... कुछ नहीं ज़िया।

          '‘मैं ये कह रही थी कि अगर तुम बुरा न मानो तो मैं कुछ कहूं।'

          ‘नहीं ज़िया तुम्हारी बात का क्या बुरा मानना। कहो न क्या कहना चाहती हो।

          '‘असल में मन्नू ये बात मैं कहना तो बहुत समय से चाहती थी। लेकिन कुछ तो संकोच और फिर यह सोच कर कि ऑफ़िसों में आदमियों के साथ तो तमाम बातें होती ही रहती हैं। इन पर ज़्यादा ध्यान देने का कोई मतलब नहीं है। मगर भइया को लेकर कुछ ज़्यादा ही बातें हैं। तुम इन पर थोड़ा ध्यान क्यों नहीं देती। मेरा मतलब है कि मर्दों को बाहर मुंह मारने से रोका तो नहीं जा सकता लेकिन उन्हें एकदम खुला छोड़ना भी समझदारी नहीं है। मीनाक्षी को लेकर न जाने क्या-क्या बातें हो रही हैं। फिर चीनू आया तो वह भी बता रहा था। आखिर बात क्या है कि तुम दोनों के बीच खांई इस कदर गहरी होती जा रही है। मैं तो तुम्हें ही कहूंगी। हालात को काबू में करो नहीं तो मर्दों का कोई ठिकाना नहीं कि कब सौतन लाकर बगल में बैठा दें। कुछ करो तुम।'

          ज़िया की बातों ने मुझे उस समय कितनी बड़ी राहत दी मैं बता नहीं सकती। क्योंकि उनकी बात से यह तो साफ हो गया कि चीनू ने सब बताया था लेकिन उस स्याह रात परिस्थितियों के चलते जो एक अनकहा रिश्ता बन गया था हम दोनों के बीच, जिसकी फांस आज तक मुझे घायल कर रही है और शायद मरने के बाद भी करती रहेगी, उस रिश्ते के बारे में उसने बड़ी बुद्धिमानी से कुछ नहीं बताया था । मन ही मन मैंने भगवान और चीनू दोनों को ही धन्यवाद दिया और तुरंत ज़िया से बोली,
                                     
          ‘ज़िया शादी के बाद इतने बरसों में जो कुछ किया जा सकता है मैंने वह सब कुछ किया। यह सब कुछ करने में भूल गई या यह कहो कि भुला दिया कि एक औरत एक पत्नी के नाते मेरे भी कुछ अधिकार हैं। मेरे भी कुछ सपने हैं। मेरी भी कुछ भावनाएं हैं। ज़िया मैं क्या-क्या बताऊं कि मैंने सारी हदें पार करके सब कुछ किया। इनके मन की बात हो ? यह खुश संतुष्ट रहें हमेशा यही कोशिश करती आ रही हूं। लेकिन न जाने क्यों जितना किया दूरी उतनी ज़्यादा हुई। न जाने कितनी बातें हैं, कितनी ढेर सारी बातें हैं जो मैंने आज तक तुम्हें भी नहीं बताईं । आखिर यह चाहते क्या हैं मैं समझ ही नहीं पा रही। जब-जब सारी जोड़-गांठ करती हूं तो एक ही निष्कर्ष मेरे सामने होता है कि बहुत से मर्दों की आदत होती है कि जब तक चार जगह मुंह नहीं मार लेते उन्हें चैन नहीं पड़ता। पर मेरे यहां तो बात इससे भी आगे है। चार क्या चालीस जगह मुंह मार लेते हैं फिर भी मन है इनका कि भटकता ही रहता है। आखिर तुम्हीं बताओ ज़िया मैं और क्या करूं।

          ‘'आखिर कुछ तो यह बोलते होंगे कि ऐसा क्या है जो यह चाहते हैं और तुम नहीं दे पा रही हो।'

          ‘ज़िया मैंने कहा न यह जो कुछ जैसा चाहते हैं वह सब दिया, यह जैसा चाहते हैं वह सब किया और कि करती ही आ रही हूं। लेकिन बात जहां की तहां रहती है। फिर अब तो ....... । चलो छोड़ो ज़िया जो किस्मत में था हुआ और जो होना है वह होगा। जब बात आएगी सामने वह भी देखेंगे, झेलेंगे। अच्छा यह बताओ चीनू के पेपर का क्या हुआ वह यहां आया नहीं।

          ज़िया बात आगे और न बढ़ा सके इस लिए मैंने चीनू की बात छेड़ दी। लेकिन बिब्बो कहते हैं न कि जब घर की बात घर से बाहर निकल जाती है न तब किसी को चुप नहीं कराया जा सकता। ज़िया चुप नहीं हुई खोद-खोद कर पूछती रही। एक घंटे तक बात की। जबकि अमूमन वह फ़ोन पर ज़्यादा बात करती नहीं थीं। और जब उन्होंने दुखती रग छेड़ दी तो कुछ देर बाद मैं भी बह गई भावना में और बहुत सी ऐसी बातें उस दिन उन्हें बता दीं जो वास्तव में नहीं बतानी चाहिए थीं। मैं यहां तक बता गई कि यह अननैचुरल सेक्स के भी आदी हैं, सेक्स के दौरान पीड़ा देने में इन्हें मजा आता है, सुख मिलता है। जिससे मुझे घृणा है। जिसकी इज़ाज़त भारत का कानून भी नहीं देता। मगर इस बात पर ज़िया की प्रतिक्रिया ने मुझे सकते में डाल दिया वह बोलीं,

           '‘मन्नू क्यों नैचुरल-अननैचूरल के चक्कर में पड़ी हो। अरे! आदमी दो चार मिनट इधर का उधर, उधर का इधर कर देंगे तो उससे औरतों के शरीर पर कोई फ़र्क नहीं पड़ जाता। ऐसी छोटी-छोटी बातों को लेकर बैठोगी तो दूरिया बढ़ेंगी ही। तमाम औरतें इस तरह का भेद करती ही नहीं जो तुम कर रही हो। बेवजह जीवन कठिन किए हुए हो। भूल जाओ यह सब।'

          ज़िया ने जिस तरह से इनकी इस आदत का पक्ष लिया मैं दंग रह गई। मुझे पक्का यकीन हो गया कि ज़िया भी नैचुरल-अननैचुरल के फेर में पड़ने वाली औरत नहीं है। मैं कंफ्यूज हो गई उनकी बातें, उनके तर्क सुन कर। उस दिन मैंने यह भी जाना कि ज़िया खजुराहो की मैथुनी मुर्ति कला की परम प्रशंसक है। इतना ही नहीं प्रसंग आते ही वह वात्स्यायन के कामसूत्र का ब्योरा खोल बैठीं और यह भी बताया कि शादी के बाद जब वह पति के साथ ससुराल से बनारस गईं जहां पर उनके पति की पोस्टिंग थी तो वहां पर सिर्फ़ इस खातिर पति के साथ कई बार शराब पी कि जीवन का मजा लेते समय संकोच-शर्म आड़े न आए। इतना ही नहीं घर वालों को बताया कि वैष्णो देवी जा रहे हैं लेकिन गए खजुराहो, फिर ऐसा कई बार किया कि बताया तीर्थ स्थल लेकिन गए गोवा बीच या हिल स्टेशन।

          ज़िया उस दिन बात करते-करते जिस तरह से पति से अपने रिश्तों को लेकर चटखारे ले-ले कर बतिया रही थीं उसे सुन कर मैं सोच में पड़ गई कि यह वही धीर गंभीर कम बोलने वाली ज़िया है। जो वास्तव में इतनी बोल्ड है। और कहती हैं कि सेक्स संबंध जितना गहरा होगा, जितना खुला होगा, और संकोच रहित होगा भावनात्मक संबंध उतना ही ज़्यादा मज़बूत होगा। और जिन पति-पत्नी के बीच सेक्स संबंध ठंडे होंगे उनके बीच भावनात्मक रिश्ता या लगाव भी कम होगा। उस दिन ज़िया ने यहां तक बताया कि आज जब कि बच्चे उनके हाई स्कूल, इंटर में पहुंच गए हैं और वह प्रौढ़ावस्था जी रही हैं फिर भी दोनों के बीच सेक्स संबंधों में गर्मी बनी हुई है, मकान बनवाते समय कर्ज बहुत हो गया लेकिन उन्होंने सबसे ऊपरी मंजिल पर अपने लिए एक अलग कमरा बनवाया है। और आज भी मियां-बीवी बच्चों से अलग अकेले ही सोते हैं।

           ज़िया की एक-एक बात न सिर्फ़ मेरे दिलो-दिमाग पर हथौड़े की तरह पड़ रही थी बल्कि मुझे पूरी तरह गड्मड् कर दिया था। आखिर उनकी अंतहीन होती जा रही बातों से मैं तंग आ गई तो उसे समाप्त करने के लिए कहा ज़िया बाद में फ़ोन करती हूं लगता है कोई आया है। जाऊं जाकर गेट खोलूं। यह कहने के बाद मैंने फ़ोन रख दिया। मगर ज़िया की बातें दिलो-दिमाग पर छाई रहीं। उमड़-घुमड़ चलती रही। हां एक बात ज़रूर दिमाग में आ रही थी कि ज़िया के पास डिग्रियां भले ही मुझ से बहुत कम हैं। वह केवल हाई स्कूल पास हैं लेकिन जीवन का असली राग, असली सुर वही जानती हैं। और जीवन के सातों सुर बड़ी होशियारी से साध रही हैं। मैं लगी करने विश्लेषण तो पाया कि मैं तो सुर सधता कहां से है? कैसे समझूं सुर, कैसे साधूँ सुर इसका ककहरा ही नहीं जान पाई हूं। जिंदगी के सरगम में सात सुर होते हैं या सैंतालीस मैं तो यह भी न जान समझ पाई हूं अब तक। इस उधेड़-बुन में शाम हो गई। यह आ गए। चाय-नाश्ता हुआ, फिर खाना -पीना हुआ। देर रात बेड पर सोने पहुंच गए।

          आज फिर मैं इन्हीं के साथ सोई। ज़िया की बातें अब ज़्यादा बड़े हथौड़े की तरह ज़्यादा चोट कर रही थीं कि सेक्स जितना खुला, जितना गहरा, जितना तीव्र होगा भावनात्मक रिश्ता उतना ही मज़बूत होगा अंततः इन हथौड़ों की चोट ने इस निष्कर्ष पर पहुंचा दिया कि चलो ज़िया का फार्मूला अपनाएं। आश्चर्यजनक रूप से उस रात भाग्य मुझे अपने साथ खड़ा दिखा। जीवन में उस दिन मैं पहली बार बेहद उन्मुक्त अंदाज में पति के साथ सेक्स के लिए खुद पहल कर रही थी और आश्चर्यजनक रूप से उस पहल का बहुत ही जोशपूर्ण ढंग से उत्तर मिला भले ही थोड़ा देर से।
          मैं चकित थी अपनी किस्मत पर। उस दिन सेक्स का मेरा अनुभव एकदम नया था। बिल्कुल नए रूप में एकदम ताजा। उमंग से भरा, आवेग की सारी सीमाएं तोड़ता हुआ। उस दिन न सिर्फ़ मैं बल्कि उनके लिए भी अचरज भरा अनुभव रहा होगा। क्योंकि जब ज्वार उतरा तो उसके बाद उनका जो व्यवहार था जिस ढंग से उन्होंने मेरे अंगों को कई बार चूमा, दांत गड़ा दिया उससे मुझे पूरा विश्वास हुआ कि आज बात बहुत बदली हुई है। वजह शायद ज़िया की बातें रहीं। उनकी बातों का जो असर हुआ था मुझ पर, जिसके कारण मैंने सेक्स में नई तरह से पहल की थी वह इनके मन की थी। इतने बरसों बाद मैं कुछ हद तक समझ पाई कि वास्तव में यह चाहते क्या हैं। इनका टेस्ट क्या है।

          ‘जो भी हो, मानना पड़ेगा कि तुम और तुम्हारी ज़िया कमाल की हैं। सेक्स-वेक्स की इतनी अहमियत होती है ज़िंदगी में आज तुम्हीं से सुन रही हूं। सेक्स के लिए ऐसी हवस के बारे में पहली बार सुन रही हूं। वो भी अपनी सगी बड़ी बहन से। अरे! मैं भी औरत हूँ । हमारे भी आदमी था। कभी-कभी वह भी आपा खो बैठते थे। बेड पर ऐसे रौंदते थे मानो मैं उनकी पत्नी न हो कर कोई जानवर हूं जिसे जैसे चाहें हलाल करें । लेकिन यह भी तभी होता था जिस दिन यह भांग छक के खाते थे। उस मुई भांग में न जाने ऐसा क्या जहर होता था कि यह आपा खो बैठते थे। इनकी अति तो इतनी होती कि समाज, घर के अन्य सदस्यों की परवाह भी नहीं करते तो मैं जबरदस्ती ठंडा पानी इनके सिर पर डाल देती थी, खटाई भर देती थी मुंह में, मगर ये जो आवेग, नया प्रयोग, जाने क्या-क्या सुना रही हो यह कभी मेरे पल्ले नहीं पड़ा।

          ज्वार-भाटा सब मेरी समझ के परे था, है और रहेगा। बस इतना ही मुझे ठीक लगता है, वही जो मैं जीवन भर करती रही कि औरत आंख बंद किए पड़ी रहे, और पति जल्दी से निपट ले। मगर औरत हवस में पागल हो जाए मेरी नजर में यह कभी यह सही नहीं था। मैंने अपनी लड़कियों को यही समझाया। यही सिखाया। क्योंकि मैं यह निष्कर्ष निकाल रही हूँ कि अगर तुम प्रयोग, ज्वार-भाटा, आवेग जैसी चीजों से अपरिचित रहती या इसे अहमियत न देती, तो निश्चित ही चीनू जैसे छोकरे के सामने तुम न फैलतीं। तुम हिम्मत ही न कर पाती एक छोकरे के सामने फैलने की। वैसे जब जीजा ने सब तुम्हारे मन का कर दिया तो उसके बाद फिर चीनू का क्या हुआ। क्या इसके बाद चीनू से तुम्हें ज़्यादा संतुष्टि महसूस हुई और बाद में भी चीनू से तुम्हारे संबंध कायम रहे।

          ‘देखो बिब्बो बहुत साफ बताऊं। जब सच बता रही हूं तो इस बारे में भी साफ-साफ सुन लो। मैं कुछ भी छिपाने नहीं जा रही बार-बार कह रही हूं। जहां तक चीनू के सामने फैलनें, आवेग, प्रयोग और न जाने क्या-क्या बोल गई तुम इन सबके लिए पहले तो यही कहूंगी कि तुम सिर्फ़ यही जानती हो कि पति देवता है वह जो करे वही सही है। वह पूजनीय है। पत्नी उसकी चरण-वंदना करती रहे। उसकी लाख इच्छाएं हों लेकिन वह उन सबका गला घोंट दे। कभी प्रकट न करे। दीनहीन दासी बनी उसकी ठोकरें खाती रही। मगर मेरी नजर में यह सब गलत है। यदि पति देवता हैं तो मैं मानती हूं कि पत्नी देवी है। जब तक पत्नी देवी नहीं होगी देवता अधूरा रहेगा। और देवी चीनू जैसे छोकरों को सामने फैलती तभी हैं जब देवता देवी को पहनी हुई जूती समझ कर कहीं कोने में डाल देता है। मैं भी चीनू जैसे छोकरे के सामने निश्चित ही इसीलिए फैल गई, क्योंकि मैं एक पहनी जा चुकी हमेशा के लिए कोने में डाली गई जूती थी। फिर भी सच यही है कि फैलने का मुख्य कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ मां बनने की चाहत थी,जुनून था। सेक्स नहीं। मैं कोई कामुक स्त्री नहीं थी।

          ‘मान गई तर्कों से सच अपने पक्ष में किया जा सकता है। सच को भी स्याह बनाया जा सकता है। जैसे कोर्ट में वकील बनाते हैं। और अदालत अंधी हो जाती है। मुझे भी यकीन हो गया है कि चीनू के सामने शरीर डाल देने या यह कहें कि हवस में अंधी हो उसको शिकार बना लेने को भी तुम सही साबित कर दोगी। और मैं भी बिल्कुल साफ कहती हूं कि बच्चा नहीं हवस शांत करने के लिए तुम फैल गई चीनू के सामने। क्योंकि मैं अब तक अच्छी तरह समझ गई हूं कि तुम्हारे शरीर की सेक्स की भूख इतनी बड़ी थी कि जीजा के वश में नहीं था कि वह उसे उस हद तक शांत कर पाते। आखिर उमर के साथ आदमी की ज्वाला की तपिश कम हो ही जाती है।


          ‘बिब्बो मैं क्या कह रही हूं और तुम कह क्या रही हो। एक प्रौढ़ व्यक्ति, एक युवा होते व्यक्ति की ज्वाला में तपिश का फ़र्क तो होगा ही यह स्वाभाविक है, सब जानते हैं।

          ‘हां इसीलिए तो कह रहीं हूं कि जीजा से ज़्यादा तुम्हें चीनू से संतुष्टि मिलती रही, बोलो सच है कि नहीं।

          ‘हां ..... हां ..... चीनू धधकती आग को ठंडा करता था। और ...... । खैर जब तुम यह विचार बना चुकी हो कि मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ हवस की शांति के लिए ही चीनू के सामने फैलती रही तो यही सही। मैं इस पर कोई और सफाई नहीं देना चाहती क्योंकि उनका कोई अर्थ निकलता मुझे नहीं दिखता।

          ‘इतना गुस्सा होने का कोई मतलब नहीं है। बताना तुम्हीं ने शुरू किया। मुझे क्या मालूम था कि ऐसी बातें भी सुनने को मिलेंगी फिर चाहो तो बताओ और चाहो तो न बताओ। अब मेरी तरफ से कोई दबाव नहीं है। हां मन में यह बात ज़रूर उमड़-घुमड़ रही है कि आखिर जीजा इस तरह के व्यवहार वाले थे तो फिर वह बच्चा गोद लेने को तैयार कैसे हो गए। और चीनू कब तक तुम्हारे साथ जुड़ा रहा। चाहो तो बताओ चाहो तो न बाताओ।

          ‘बताऊं क्यों नहीं, जब एक बार शुरू कर दिया है तो पूरा बता कर ही ठहर पाऊंगी। जैसे एक बार चीनू के सामने फैली तो बरसों फैलती ही रही।

          ‘क्या! बरसों।

          ‘हां यह सिलसिला फिर कई बरस चला। शुरू के कुछ महीने तो एक आस रहती थी कि शायद इस बार बीज उगेंगे, कोंपलें फूटेंगी। मगर धीर-धीरे यह आस समाप्त हो गई। हर महीने पीरिएड आकर मुझ को अंदर तक झकझोर देता। मेरे अंदर कुंठा भरती जा रही थी। और तब गांव की पंडिताइन चाची की बात याद आती जो वह अपनी बड़ी बहुरिया जिसके लाख दवादारू के बाद भी कोई बच्चा नहीं हुआ था, कोसती हुई कहती थीं कि ‘'अरे! ठूंठ मां कहूं फल लागत है।'' या फिर ''रेहू मां कितनेऊ नीक बीज डारि देऊ ऊ भसम होइ जाई। अरे! जब बिजवै जरि जाई तो फसल कहां से उगिहे।'

          ऐसी न जाने कितनी जली-कटी बातें वह अपनी बहुरिया को उसके सामने ही कहा करती थीं। मेरा सौभाग्य था कि मेरे सामने मुझे ऐसे कोसने वाला कोई न था। हां पीठ पीछे होने वाली तमाम बातें कानों में पिघला सीसा ज़रूर उडे़लती रहीं। मुझे भी एक समय ऐसा आया जब पूरा यकीन हो गया कि पंडिताइन चाची सही ही कहती थीं। ठूंठ में फल नहीं आते। अब मन में यह आने लगा कि जब ठूंठ हूं, फल आ नहीं सकते तो इस ठूंठ का जो उपयोग हो सकता है वही कर डालो।

           मैं उपयोग में लग गई। मगर उपयोग कैसा हो यह मैनेज न कर पाई। और अंजाम यह हुआ कि एक दिन मैंने चीनू को खुद बुला लिया। पर वह किसी काम में व्यस्त हैं कहकर टाल गया। इससे मैं बड़ी खिन्न हुई। पहली बार की घटना के बाद जब वह घर से गया तो काफी दिन तक न आया। यही कोई डेढ़ महीने तक। इसी बीच उसके इग्ज़ाम खत्म हो गए थे। हमारे इनके बीच संबंधों में थोड़ी नर्मी भी आ गई थी। तीसरे चौथे यह अब मुझे लेकर कहीं न कहीं जाने भी लगे थे। इतने ही दिनों के अंतराल पर उनकी आग धधक उठती और मेरी ज्वाला भी, फिर हम दोनों बिस्तर पर एक दूसरे की ज्वाला शांत करने का प्रयास करते हुए वास्तव में अपनी आग बुझाने का प्रयास करते।

          मैं इस बात से पूर्णतः संतुष्ट रहती थी कि मैं इनकी आग को पूर्णतः ठंडा कर देती हूं। इसका अहसास मुझे इनके वह खर्राटे देते जब यह ज्वाला के शांत होते ही कुछ ही देर में इतनी गहरी नींद सोते की होश न रहता। खर्राटे मुझे हिला कर रख देते। अब बिस्तर पर मैं संकोच की सारी बात भूल गई थी। जो इच्छा होती वही करती। मैं सेक्स को उसकी अंतिम सीमा तक जीने की कोशिश में  लग गई। इस सोच के दिमाग में आते ही, संकोच को जुतिया के अलग करते ही बिस्तर पर मैं इतना अग्रेसिव होने लगी कि यह भी हिल उठे। एक दिन ज्वार के उतरने के बाद जब मैं इन्हीं में समाई गहरी सांसें लेकर अपनी उखड़ी हुई सांसों को सम्हालने की कोशिश कर रही थी तो इन्होंने मेरे एक स्तन को हाथ में दबोचते हुए बड़े दुलार से कहा,

           '‘साली आज कल क्या हो गया है तुझे। एकदम पागल हो जाती हो।'मैं कुछ न बोली बस और कसके चिपक गई इनके साथ। इस पर इन्होंनें  मेरे स्तन बड़ी बेदर्दी से उमेठ दिए। मैं चिहुंक कर थोड़ा अलग हो बोली,

          ’क्या करते हैं। दर्द होता है।

          ’'वही तो जानना चाहता हूं कि तुम्हें अचानक इतना दर्द कहां से होने लगा। इसके पहले इतना जोश तो कभी नहीं दिखा था। माजरा क्या है?'

          मैंने गर्म लोहे पर चोट की। सीधे बेलौस कहा माजरा सिर्फ़ इतना है कि मैं अपने सामने आपको हमेशा खुश, संतुष्टि देखना चाहती हूं, जिससे आप को भटकना न पड़े। मैं मूर्ख थी जो इतने बरसों बाद समझ पाई कि बिस्तर पर आप मुझसे चाहते क्या हैं। और मेरा अनुभव अब यह भी कहता है कि यदि पति-पत्नी बिस्तर पर संतुष्ट हैं तो जीवन के हर क्षेत्र में संतुष्ट  होंगे। दांपत्य जीवन सफल होगा। अब मैं यह भी मानती हूं कि सेक्स गलत नहीं है। इसको मन में दबाए रहना ही गलत है, बस माजरा यही। यह कहते हुए मैंने भी इनका पुरुष अंग पकड़ कर खींच दिया। इनके मुंह से हल्की सिसकारी सी निकल गई। इस पर इन्होंने भी मेरे स्तन और कस कर दबा दिए। बड़े प्यार से शब्दों को चबाते हुए बोले, ''देर से सही, ज्ञान आ तो गया।''

          फिर वह और मैं एक और ज्वार का अहसास कर जुट गए। अपनी सुहागरात की तरह एक यह रात भी मुझे नहीं भूलती। मगर इन दोनों रातों के अविस्मरणीय होने के कारण अलग-अलग हैं। सुहागरात इसलिए नहीं भूलती कि वह पीड़ादायी थी। सपनों के सारे महलों के एक सेकेण्ड में भरभरा कर गिर जाने की रात थी। मगर यह रात रिश्तों में जमी तमाम बर्फ़ के पिघल जाने की रात थी। मगर इसी बीच मुझे नई समस्या ने घेरना शुरू कर दिया। मैंने महसूस किया कि बिस्तर पर अब मैं भोग इनको रही होती हूं लेकिन इस बीच दिमाग में चीनू घुस आ रहा है। उसका खून जो लग चुका था अब वह रंग दिखाने लगा था। अब इनका तुफान मुझे अंदर तक बेध कर शांत न कर पाता था। यह बात बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही थी।

          ‘और बच्चे की चाहत खतम हो गई थी।

          ‘नहीं बच्चे की चाहत की आग भी पूर्ववत् जलती रही थी। मगर अब कोई उम्मीद न बची थी सो निराश हो गई थी। हताशा-निराशा का फ्रस्ट्रेशन दूसरी तरफ से निकलने लगा था।

          इस बीच इग्ज़ाम के समय जाने के करीब ढाई महीने के बाद एक दिन भरी तपती दोपहरी में चीनू आ गया। उसका आना थोड़ा अप्रत्याशित था मेरे लिए। क्योंकि जब वह यहां से गया था और जब ज़िया से बातें करने के बाद मुझे यह यकीन हो गया था कि उसने किसी से कुछ नहीं कहा तो मैंने बात को और पक्का करने के लिए कई बार फ़ोन ऐसे समय पर किया कि वह घर पर हो और फ़ोन वही उठाए। कई बार उसने उठाया, बात भी उससे मैंने की यह शो करते हुए कि जैसे मैं बात करना चाह रही थी ज़िया से लेकिन फ़ोन उसने उठा लिया। मगर उसने एक बार भी ऐसा ज़ाहिर नहीं किया कि वह बात नहीं करना चाहता बल्कि वह बात को लंबा खींचने की पूरी कोशिश करता था।

          धीरे-धीरे बात को रोमांटिक मोड़ देते हुए वह एकदम मेरे साथ बिताए अंतरंग क्षणों की बात छेड़ बैठता था। और सीधे बोल बैठता था आप बहुत सेक्सी हो। इस पर मैंने उसे कई बार मना किया मगर वह बदतमीजों की तरह हंसता रहता। एक बार मैंने खीझ कर उसे झिड़कते हुए कहा,

          ’दोबारा यह बोलने की हिम्मत न करना।

          मगर वह शांत होने के बजाए और भद्दी बातें करने लगा और अगले दिन आने की बात कहने लगा। अब मैं आपा खो बैठी और कहा,
         
          ’अगर तुम सीधे न माने तो मैं आत्महत्या करके तुम्हारा नाम लगा दूंगी।

          इतना कह कर मैंने फ़ोन काट दिया, मगर डर रही थी कि वह अगले दिन आ गया तो क्या करूंगी। मगर वह आया नहीं और न ही फ़ोन किया। मगर जब उस दिन अचानक ही तपती दोपहरी में आ गया तो मेरा दिल धक् से हो गया। वह साइकिल से आया था। पसीने से लथपथ था। पहले जहां वह आने पर पैर छूता था अब तभी छूता जब उसके परिवार का कोई सदस्य साथ होता था । आज भी उसने पैर नहीं छूए सिर्फ़ नमस्ते किया। उसकी आवाज़़ उसके अंदाज में बड़ी ढिठाई थी। मेरे कुछ कहे बिना ही धम्म् से सोफे पर बैठ गया। फिर मुझे जाने क्या हुआ कि यंत्रवत सी अंदर गई और दो पीस मिठाई और पानी लाकर उसके सामने रख दिया।

          उसने बड़े अधिकार से एक पीस मेरी तरफ बढ़ा दिया, मैंने मना किया तो बोला, ''आप नहीं लेंगी तो मैं भी नहीं लूंगा। जिद् के आगे हार कर मैंने ले लिया। फिर मुझे आश्चर्य में डालते हुए अंदर फ्रिज से एक बोतल और एक गिलास लेकर आया। पानी भर के गिलास मुझे पकड़ा दी। मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी देखती रही सब। जो गिलास मैं लाई थी वह उसने खुद ले ली। इसके बाद उसने अपनी शर्ट की दो बटनों को खोल कर कालर पीछे पलट दिया। उस समय सीलिंग फैन पूरी रफ्तार से चल रहा था। मैंने महसूस किया मेरे अंदर भी कुछ चलना शुरू हो गया है। बेचैनी सी होने लगी तो मैं उसे वैसा ही छोड़ कर दूसरे कमरे में आ गई।

          बाहर तेज धूप की तपिश अपने पूरे चरम पर थी। मैं समझ नहीं पा रही थी मैं क्यों बेचैन हो रही हूं। मन में यह भी आया कि कह दूं इससे कि चला जाए यहां से। मगर ज़िया क्या कहेंगीं या सोच कर रुक गए क़दम। गला सूखने लगा तो पानी पीकर आ गई। मगर लगा पानी भी मेरी प्यास नहीं समझ पाया है। मैं कमरे में इधर-उधर चहल क़दमी करने लगी। बार-बार जितना कोशिश करती कि चीनू की तरफ से ध्यान हट जाए लेकिन मन था कि सारी बाड़ें कूद कर चला जाता चीनू के पास। जब मन ज़रूरत से ज़्यादा भटकने लगा तो मैंने तय कर लिया कि आज चीनू को इस तरह डांट कर भगाऊंगी कि जीवन में दुबारा नहीं आएगा।

          ज़िया को बुरा लगता है तो लगता रहे। बहुत होगा वह भी आना बंद कर देंगीं । खत्म हो जाएंगे सारे संबंध। हो जाए मेरी बला से। इसको जो भी बताना है बता दे दुनिया को। यकीन कौन करेगा इसकी बात पर। और कर भी लिया तो दुनिया क्या कर लेगी। दुनिया पहले अपने अंदर झांके। बाहर तो बाहर अंदर बंद कमरों में लोग जाने क्या-क्या कर रहे हैं। यह सोच मैं एक झटके में उठी चीनू को बाहर करने के लिए। कमरे के दरवाजे पर पहुंची तो चीनू से टकराते-टकराते बची। वह अंदर ही आ रहा था। एक झटके से रुक गए हम दोनों। हमारे बीच दूरी सिर्फ़ इतनी थी कि मुश्किल से हम दोनों के बीच से एक चुहिया गुजर पाती।

          मेरे दिल की धड़कन बढ़ कर एकदम आसमान को छूने लगी। उखड़ी हुई सांस या दिल की तेज धड़कनें थरथराहट न सिर्फ़ मैं बल्कि उसका अहसास चीनू भी कर रहा था। साफ़ सुन रहा था वह सारी हलचलें। कुछ क्षणों तक न मैं कुछ बोली न वह। वह एकटक देखता जा रहा था मुझे। मेरा सिर उसकी ठुड्डी तक ही पहुंच रहा था। मैंने नजर उठा कर देखा तो वह बड़ी कामुक नजरों से कभी मेरे चेहरे, तो कभी मेरे वक्ष-स्थल की गहराई में उतर रहा था। हम चूंकि दरवाजे के बीचो-बीच थे इसलिए बगल से न मैं निकल सकती थी न वह। मैं पीछे हटी तो वह और आगे बढ़ आया। फिर उसने अपने दोनों हाथों से बहुत प्यार से मेरी बांहें थाम ली। मैं आज तक वैसी स्थिति का मनोविज्ञान न समझ पाई कि ऐसी कौन सी ऊर्जा तब की स्थिति में सक्रिय हो जाती थी कि मैं विरोध करने का प्रण करके बढ़ती थी, मगर उस छोकरे के सामने पड़ते ही समर्पित हो जाती थी।

          ‘मतलब की उस भरी दोपहरी में तुम दोनों ने फिर अपनी वासना की आग बुझाई। हे! राम .... कैसा अनर्थ करती रही तुम। चलो एक बार गलती हो गई। बार-बार वही काम। यह गलती नहीं यह तो जानकर किया जाने वाला काम है, धृष्टता है। बेहयाई बेशर्मी है। न जाने अम्मा की परवरिश कहां गच्चा खा गई कि तुम ऐसा पतित काम करती रही।

          ‘बिब्बो मां-बाप के संस्कारों, शिक्षा की सीमा वहीं समाप्त हो जाती जब व्यक्ति खुद कुछ सीखने लायक बन स्वतंत्र रूप से सोचने लगता है।
         
          ‘अब पता नहीं। चलो माना कि वो तो एक मनचला था मगर तुम .... । कैसे तुम्हारी हिम्मत पड़ती थी कि भरी दोपहरी में निर्द्वंद्व होकर वासना का खेल-खेल रही थी, जरा भी लिहाज या शर्म संकोच नहीं था।

          ‘जब क़दम एक बार बहक जाते हैं तो बहकते ही रहते हैं। मेरे साथ भी यही हो रहा था।

          ‘फिर इसके बाद क्या हुआ ? तुम दोनों कब तक यह गुल खिलाते रहे।

          ‘फिर यह चलता ही रहा।

          ‘जब इस तरह के घिनौने खेल में तुम लगातार डूबी रही तो बच्चा गोद लेने की बात कब आ गई।

          ‘गोद लेने की बात तो मेरे दिमाग में तभी आ गई थी जब पूरी तरह से यह तय हो गया, मुझे यह विश्वास हो गया कि मैं ठूंठ की ठूंठ ही रहूंगी। तभी मैंने बच्चा गोद लेने की बात सोची। मेरी इस मंशा को जानते ही देवरानियों-नंदों में एक होड़ सी मच गई कि मैं उनके बच्चे को गोद ले लूं। अब मुझे जीवन का एक नया अनुभव मिला। सब अपने-अपने बच्चे को लेकर खड़े हो गए। यहां तक कि किशोरावस्था पार कर चुके भतीजे खुद अपनी पैरवी करते हुए कहते,
         
          ‘'अरे! चाची हमें ले लो हम जैसी सेवा करेंगे वैसी कोई न कर पाएगा।'

          धन कितना ताकतवर होता है यह अब मैं और साफ देख रही थी। जो मांएं बड़ी-बड़ी बातें करती थीं आज वही यह सोच कर कि उनके बच्चे को गोद लेने पर उसे मेरी सारी प्रॉपर्टी मिल जाएगी, टूटी पड़ रही थीं मुझ पर। जो सालों दिखाई नहीं देते थे वह अब आए दिन आकर टिके रहते। इससे मैं और यह दोनों ही आज़िज़ आ गए। ये तो खैर उस समय तक बच्चा गोद लेने के बारे सोच ही नहीं रहे थे इसलिए मुझ पर बेहद गुस्सा होते। मार गाली देते। सारे हालात को देख कर मैंने भी सोच लिया कि जो भी हो जाए इन लोभियों को पास नहीं फटकने दूंगी। फिर एक-एक कर मैंने सबको भगाना शुरू कर दिया। ऐसा किया कि चार-छः महीने में सबने बंद कर दिया। क्योंकि मैंने सबको साफ बता दिया कि लूंगी तो किसी बाहरी को किसी रिश्तेदार को नहीं। इस बीच चीनू में भी कई बदलाव आते जा रहे थे। वह अब हम दोनों का बहुत ख़याल रखने लगा था। उसके व्यवहार से यह भी काफी इंप्रेस हो गए थे।

          ‘तब तो तुम दोनों के संबंध और भी ज़्यादा उन्मुक्त और निर्द्वंद्व हो गए होंगे।

          ‘हां ..... ।

          ‘तो जब वह तुम दोनों का सहारा भी बन रहा था तब तो तुम्हारे लिए यह दोहरा फ़ायदा था कि कोई कभी शक भी न करता, तो फिर दूसरा लड़का क्यों गोद लिया।

          ‘एक तो मैं छोटा बच्चा गोद लेना चाहती थी। दूसरे चीनू से जो रिश्ता बन पड़ा था उसे देखते हुए यह संभव ही न था।

          ‘हां ये तो है। फिर ...... ?’

          ‘फिर इसी ऊहापोह, इनको तैयार करने की धींगामुस्ती में कुछ बरस और निकल गए। फिर एक गर्मी ऐसी आई कि यह भी बिना किसी हील-हुज़्जत के तैयार हो गए। उस साल भी हर गर्मियों कि तरह शहर में जगह-जगह संक्रामक रोग फैला हुआ था। हमारा मुहल्ला भी चपेट में आ गया। एक दिन रात को हम दोनों की ही तबियत एक साथ खाना खाने के बाद खराब हो गई। कालरा ने हम दोनों को कुछ ही घंटों में पस्त कर दिया। ज़िया को फ़ोन करने की सोची तो उनका फ़ोन डेड। फिर इन्होंने ऑफ़िस के कुछ लोगों को फ़ोन करना चाहा तो अपना फ़ोन भी खराब हो गया। फिर रात तीन बजते-बजते तक जब हालत बहुत गंभीर होने लगी तो मैं किसी तरह उठ कर पड़ोसी को बुलाने गई। पड़ोसी ने दरवाजा खोला ही था कि मैं वहीं गश खाकर गिर पड़ी। फिर वह किसी तरह मुझे लेकर घर आए, यहाँ इनकी भी हालत सीरियस देख वह सामने वाले को भी बुला लाये और हमें सिविल इमरजेंसी ले गए। हम दोनों की हालत इतनी बिगड़ गई थी कि हॉस्पिटल में हफ़्ता भर लग गया। इस बीच रिश्तेदारों को फ़ोन किया तो गोद लेने वाले प्रकरण के चलते सब नाराज थे सो सबने फ़ोन पर ही तीमारदारी का फर्ज़ निभा दिया।

          ‘और तुम्हारी ज़िया का क्या हुआ उन्हें अगले दिन तो फ़ोन कर सकती थी और चीनू .... हां चीनू तो बता रही थी बड़ा काम करने लगा था।

          ‘दुर्भाग्य से जिस रात यह सब हुआ उसी रात ज़िया की सास गुजर गई थीं। वह लोग अगले ही दिन सवेरे ही चले गए थे गाजी़पुर और वहां फ़ोन वगैरह कुछ न था। वह सास की तेरहवीं करके पंद्रह दिन बाद आईं। वैसे तो यह वक़्त हम दोनों के लिए बड़ा ही कष्टप्रद रहा। लेकिन एक मायने में यह बहुत अच्छा हुआ था। क्योंकि इस घटना के बाद इन्होंने बच्चे की कमी का अहसास बड़ी गहराई से किया। फिर अवसर देख मैंने एक दिन जैसे ही किसी छोटे अनाथ बच्चे को गोद लेने की बात उठाई यह तुरंत सहमत हो गए। लगा जैसे यह मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। अब सहमति मिलने के बाद अनाथ छोटे बच्चे की तलाश शुरू हुई। इस तलाश ने फिर नई दुनिया के दर्शन कराए। नए अनुभव कराए। लखनऊ जैसे शहर के अनाथालयों और वहां की अंधेरी दुनिया को देख कर लगा कि सारे बच्चों को ही उठा लाऊं और प्यार से पालूं उन्हें। मैंने जैसे बच्चे की कल्पना कर रखी थी वह इन अनाथालयों में मिल भी नहीं रहे थे।

          ‘इन अनाथालयों में तुम्हें ऐसा क्या दिख गया था कि वहां की दुनिया काली दिखने लगी।

          ‘इन अनाथालयों में वहां के कर्मचारी न सिर्फ़ बच्चों का शोषण करते हैं बल्कि खाने-पीने कपड़े शिक्षा आदि के लिए सरकार जो व्यवस्था करती है वह भी चट कर जाते हैं। महिला कर्मचारियों के रहने के बावजूद लड़कियों के यौन शोषण की बातें छन कर आती रहतीं ।
          ‘तो फिर मन मुताबिक बच्चा तुम्हें कहां मिला।

          ‘अनाथालयों के चक्कर काटते समय ही चीनू ने और रास्ते भी तलाशे। उसने पता कर बताया कि कई ऐसे नर्सिंग होम हैं जहां अवैध संतानें जन्मती हैं और कई लोग गैर-कानूनी तरीके से उन्हें गोद ले लेते हैं। लेकिन मैं तीन या चार साल से कम उम्र का बच्चा नहीं चाहती थी। इस दौड़ धूप में चार महीने और निकल गए। हमारी चिंता बढ़ती ही जा रही थी। इस बीच चीनू ने कानपुर में कहीं जुगाड़ किया। एक गरीब परिवार था। मगर उसके पास बच्चे सात थे। चुपचाप बच्चे गोद देने की तैयारी में थे। वह असल में गरीबी से तंग आकर यह कद़म उठा रहे थे।

          मुझे उनका करीब तीन साल का एक बच्चा पसंद आया। आकर इनसे बात की तो यह तैयार न हुए। ये बच्चा गोद लेने के तौर-तरीके का, कानून आदि का पता कर चुके थे। इनके इंकार से मुझे धक्का लगा। फिर अनाथालय से संपर्क साधा और तय हुआ कि जैसे ही मेरा मन चाहा बच्चा आएगा हमें सूचना दे दी जाएगी। इनकी जिद के आगे मेरे सामने इंतजार के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा था। एक-एक दिन एक-एक युग सा बीत रहा था। दो साल से लंबा चला यह इंतजार, इस बीच चीनू यूनिवर्सिटी में पहुंच गया। वहां की नेतागिरी उसे रास आ गई।

          बड़ा दबंग हो गया था वह  बडे़ संपर्क हो गए थे उसके। उसी ने कोशिश जारी रखी मगर ऐन वक़्त पर कानून आड़े आ गया। जितनी उम्र के दंपति को बच्चा गोद दिया जा सकता है कानूनन हम उस उम्र की सीमा से आगे निकल चुके थे। इस अड़चन से हम टूट से गए थे। लेकिन चीनू फिर आगे आया। उसने एक वकील और उस अनाथालय के प्लेसमेंट ऑफ़िसर को सेट कर लिया। बात  बीस हज़ार में तय हुई। मगर यह मैंने इनसे नहीं बताया। मुझे डर था कि यह कहीं इतनी बड़ी घूस देने के नाम पर बिदक न जाएं। उस समय ऐसे काम के लिए यह रकम बड़ी थी। इसलिए रिश्वत का पैसा मैंने अपने पास से छिपा कर दिया। बहुत जोड़-तोड़, महीनों की दौड़ धूप के बाद अंततः मैंने अनिकेत को गोद लिया।

          जिस दिन मैं इसे लेकर आई मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अनाथालय से किसी और के जने बच्चे को लेकर नहीं बल्कि हॉस्पिटल से अपने जने बच्चे को लेकर आई हूं। अनिकेत उस समय करीब-करीब तीन साल का था। गेहुंआ रंग अच्छी सेहत। तीखे नैन-नक्स, बड़े-बड़े बाल कुल मिला कर मेरे सपनों में मेरे मनपसंद बच्चे की जो तस्वीर थी यह करीब-करीब वैसा ही था। खुशी का सही मायने में मैंने अहसास उसी दिन किया। अनिकेत को लेकर घर आते-आते शाम के चार बज चुके थे। उस दिन मैंने इनका एकदम दूसरा बिल्कुल बदला हुआ रूप देखा।

          जब घर पर आई तो चीनू भी साथ था आते समय ढेर सारी मिठाई-फल, खिलौने और इसके कपड़े लेकर आई थी। इन्होंने घर आने तक तो कुछ ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी। लगता ही नहीं था कि इनमें बच्चे को लेकर कोई उत्साह है, खुशी है, उमंग है। घर आने के बाद कुछ देर में चाय-नाश्ता कर चीनू और उसका दोस्त भी चला गया। बच्चा बड़ा गुमशुम था। बड़ी अजीब नजरों से मुझे इनको टुकुर-टुकुर देखता, मैं बड़े प्यार स्नेह से उसे प्यार-दुलार कर अपनी गोद में चिपकाए हुए थी। उसे खिलाने-पिलाने की कोशिश कर रही थी। मैं जल्दी-जल्दी उसे अपने साथ घुला-मिला लेना चाहती थी। उसको मैंने जो नए कपडे़ खरीदे थे आते समय, वह बड़े प्यार-दुलार से पहना दिए। उसको गोद से उतारने का मन नहीं कर रहा था। अंततः सात बज गए तो इन्होंने चाय बनाने को कहा।

          यह अब तक शांत बैठे या तो पत्रिकाएं पलट रहे थे या फिर टीवी पर नजर डाल रहे थे। मैंने बच्चे को इनके पास बैठाते हुए कहा-देखे रहिएगा, मैं चाय बना कर लाती हूँ । इन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बच्चा सहमा-सहमा इनके करीब बैठ गया। मैं चाय लेकर आई तो देखा यह बच्चे को गोद में लेकर पुचकार रहे हैं। इनकी दोनों ही आंखें नम थीं। मैंने चाय एक तरफ रख कर जब इनकी नज़रों में नजर डाली तो इन्होंने अपनी नजरें झुका लीं। आंसू पलकों का बंधन तोड़ बह चले। तब मैंने इन्हें और बच्चे को एक साथ गले लगा लिया। मेरी आंखें और गला भर आई थीं। मैंने फिर इन्हें शांत कराया और कहा शांत हो जाइए अब हमारी भी दुनिया मुस्कुराएगी। ये हमारा नन्हा राज-दुलारा हमारा नाम रोशन करेगा। हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा।

          यह बोले तो कुछ नहीं बस एक बार फिर बच्चे को चूम कर गले लगा लिया। यह चाए पीते रहे।  इस बीच मैं बच्चे के लिए भी दूध बना कर उसकी बोतल में भर कर ले आई थी। इतने बड़े बच्चे का खाने-पीने से लेकर कपड़े खिलौनें तक जो भी सामान हो सकता है हम आते समय ही सब लेकर आए थे। बच्चे को मैंने खूब मन से खिलाया-पिलाया, सजाया। उस दिन मैंने चुनचुन कर इनकी पसंद के खूब व्यंजन बनाए थे। खाने पर ज़िया के परिवार को बुलाया था। वह लोग भी उस दिन पूरा परिवार आए। बच्चे के लिए खुब उपहार ले आए थे।  मगर न जाने चीनू क्यों नहीं आया। हालांकि दिन भर साथ था। उस दिन की खुशी जो थी उसे मैं कभी नहीं भूल सकती।

          ‘बच्चे के असली मां-बाप कौन थे इसका कुछ पता था?’

          ‘बच्चा किसका था। क्या था। कुछ पता नहीं। अनाथालय वालों ने सिर्फ़ इतना बताया था कि कोई गेट पर छोड़ गया था। सच यह है कि मैं जानना भी नहीं चाहती थी। उस रात हम दोनों बड़ी देर तक बच्चे और अपने भविष्य को लेकर बतियाते रहे। बच्चा ग्यारह बजते-बजते सो गया था। बाद में यह भी सो गए। मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी बार-बार बच्चे को चूम लेती। उसे अपने से चिपका लेती। मैं जैसा सोच रही थी उसके विपरीत बच्चा न तो ज़्यादा रोया। न ही परेशान किया। बल्कि पुचकारने पर अब मुस्कुराने भी लगा था। कुछ बातों का जवाब भी देने लगा था। इस बीच एक बात और थी जो मेरे मन में बराबर उमड़ घुमड़ रही थी।

          ‘चीनू की बात ....... ?’ बड़ी देर से चुप बैठी सुन रही बिब्बो ने एकदम से टुपक दिया। उसकी बात सुन कर मन्नू कुछ क्षण चुप रही। अपनी खीझ पर नियंत्रण करने के बाद वह फिर बोली।

          ‘नहीं इस समय चीनू दूर-दूर तक मेरे दिमाग में नहीं था। बस मैं हर पल बच्चे को जी रही थी। वह दृश्य मुझे याद आ रहे थे जब मैं अलग-अलग समय पर तमाम औरतों को अपने-अपने बच्चे को आंचल में छिपा कर, ब्लाउज ऊपर उठाकर, स्तन बच्चे के मुंह में देकर दुध पिलाते देखा था। और साथ ही तब उनके चेहरे उनकी आंखों में वात्सल्य सुख की जो अद्भुत लकीरें उभरती थीं उनकी याद, उनकी तस्वीरें मेरे सामने आ रही थीं।

          मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। यूं कहो कि विचारों का महाविस्फोट हो गया था। इस विस्फोट से मैं कभी घायल होती, तो कभी लगता कि मेरी चेतना अब सही मायने में लौटी है। मैं एक नजर बच्चे पर डालती फिर सोचने लगती कि बच्चा तो ले लिया लेकिन वह सुख कहां से लेकर आऊं जो स्वयं बच्चे को जन्म देने से मिलता है। यह सुख दुनिया में कहां मिलता होगा, कितने का मिलता होगा। कौन देता होगा। मैंने सारे कर्म-कुकर्म कर डाले लेकिन कहीं भी तो नहीं मिला।

          कहां .... कहां से ले आऊं वह सुख जो एक मां नौ महीने बच्चे को अपने पेट में धारण करने, उसे पालने का उठाती है। पेट के अंदर बच्चे के बढ़ने की प्रक्रिया। उसके स्पंदन का सुख, धीरे-धीरे अपने ही भीतर एक और जीव के बढ़ने, परवान चढ़ने का सुख। अपने ही शरीर के हिस्सों पेट, स्तनों के बदलने, नया आकार लेते रहने को देखने का सुख। अपने ही अंदर एक और जीव, अपने ही पति के अंश को अपने ही खून से पालने-पोसने का सुख। फिर छठे-सातवें महीने से ऊपर के बच्चे के मूवमेंट को देखने का सुख।

          उभरे हुए पेट पर, स्तनों पर रात में पति के स्नेह भरे चुम्बनों, उनका पेट पर कान लगा कर बच्चे की मूवमेंट का अहसास करने की कोशिश और पेट में बच्चे के हाथ-पैर जब इधर-उधर घूमते हैं तो पेट पर ऊपर जो उभार दिखता है उसे देखने, पति के साथ या अकेले देखने का सुख। और जो कभी पति की कामेच्छा भड़क उठे तो उसे बच्चे का वास्ता देकर शांत करने और स्वयं में उभर आई कामेच्छा को भी दबाने के अहसास का सुख। फिर प्रसव पीड़ा, बच्चे के शरीर का जुदा होकर उसके धीरे-धीरे बाहर आने का सुख। जन्मते ही उसे सीने से चिपकाने का सुख, फिर स्तनपान कराने का सुख ? कहां से लाऊं यह सारे सुख। इस जीवन में तो अब संभव नहीं   रहा  यह सारे सुख पाना। मैं क्या जानूं कि कैसे बच्चे के आने के साथ ही स्तनों में निर्मल दूध की धारा अवतरित हो जाती है। यह सब सोचते-सोचते मैं बराबर बच्चे को छूती उसे चूम लेती।

          इस बीच उसने पेशाब कर दी। बच्चों के इस तरह के कामों का मुझे बचपन से करने का अनुभव था। तुम सब छोटे थे। मैं सबसे बड़ी। हर साल डेढ़ साल के अंतर पर अम्मा के बच्चे होते थे। साथ में घर का ढेर सारा काम। मैं थी तो मात्र आठ - नौ बरस की लेकिन मुझ से तुम सब की देखभाल का काम लिया जाने लगा था। सोचती हूं कि अगर अम्मा के सभी बच्चे जीवित होते तो हम-सब ग्यारह जने होते।

          तो इस बच्चे के पेशाब करने पर उसके कपड़े चेंज करने में  मुझे कोई असुविधा नहीं हुई। हां जब मैं चेंज करने लगी तो वह कुनमुनाया और जाग गया। मेरी तरफ टुकुर-टुकुर देखने लगा। मैं उसको देख कर एक दम निहाल हो गई। चेंज करा कर मैंने उसे छाती से लगा लिया। मेरी छातियों पर उसके स्पर्श ने मुझे अजीब से अहसास से भर दिया। बच्चे को स्तनपान कराने का सुख लेने की इच्छा इतनी प्रबल हो उठी कि मैं अपने को रोक न सकी। मैंने एक झटके से अपना गाउन सामने से खोलकर स्तन उसके मुंह में दे दिया।

          एक क्षण उसने निपुल मुंह में लिया फिर बाहर कर देखने लगा। मैंने पुचकार कर फिर निपुल उसके मुंह में लगाया तो अबकी लेकर उसने चूसना शुरू कर दिया। उस समय मैंने सुख, संतोष का जो अहसास किया। जो पल मैंने जीए उस सुख को मैं आज तक शब्द न दे पाई। बस अनपढ़ गूंगे की तरह उस सुख का अहसास, उस रस का स्वाद आज तक लेती रहती हूं। मगर कुछ ही क्षण में उसने स्तन फिर छोड़ दिया। लेकिन उत्साह में मैंने दूसरा निपुल उसके मुंह में दे दिया। उसने फिर पूरे जोर से चूसना शुरू किया। फिर अचानक उसके दांतों की चुभन मैंने निपुल पर महसूस की। और साथ ही यह भी अहसास किया कि नाहक ही मैं मासूम को अपने सुख के लिए परेशान कर रही हूं।

          मैं उसकी प्राकृत मां तो हूं नहीं। और जब मां ही नहीं तो दूध कहां से उतरेगा। हां तब मेरे आंसू जरूर धारा-प्रवाह बहने लगे। मैंने धीरे-धीरे थपकी देकर उसे सुला दिया। सोचने लगी सही ही तो कहा गया है कि ठूंठ में कहीं फल आते हैं। और जब फल ही नहीं तो रस कहां से आएगा। और जब रस ही नहीं तो बच्चा क्यों कर पीने लगा। अचानक मुझे अपने स्तनों से नफरत होने लगी। जो उस वक़्त कपड़ों से बाहर तने पड़े हुए थे। जो मुझे मुंह चिढ़ाते हुए से लग रहे थे। मैं सोचने लगी आखिर ये किस काम के। मैं भी कितनी मुर्ख थी जो घमंड करती थी अपने इस अंग पर कि ये बड़े विशाल, सुडौल और बहुत ही कसे हुए हैं।

          तमाम औरतें ऐसे सुन्दर अंग को पाने के लिए तरसती रहती हैं। मगर मैं इनका क्या करूं। ये तो मेरे काम नहीं आ रहे। कहते हैं कि यह पति को दीवाना किए रहते हैं लेकिन यहां तो यह भी नहीं। पति तो न जाने किस-किस के पीछे मुंह मारता रहा है। हां शुरू के एक दो वर्ष वह जरूर इसका दीवाना था। इसको छूने, दबाने, मसलने का अवसर तो हर क्षण तलाशते रहते थे। बिस्तर पर तो आफत ही कर देते थे। न जाने क्या-क्या संज्ञा देते थे। लेकिन जल्दी ही हालात बदल गए। इनके लिए सारा आकर्षण खतम हो गया। लेकिन हां दुनिया के लोगों का नहीं। लोगों की गिद्ध दृष्टि को अंदर तक झांकने की कोशिश को मैं बराबर देखती थी।'

          ‘और चीनू का नाम नहीं लोगी।

          ‘जब तुम उसी के बारे में सुनने को बेताब हो तो मैं कैसे नहीं लूंगी। बल्कि वह तो शुरू में ही बता चुकी हूं कि वह कैसे झांकता रहता था।

          ‘झांकता तो तब था। जब तक तुमने उसे एक सहेली के लड़के की तरह रखा लेकिन जब उसके सामने ही फैल गई तब ?’

          ‘यह भी कोई पूछने की बात है। जो जिस के लिए बेताब हो और वही यदि उसे मिल जाए तो वह निश्चित ही दीवाना हो जाएगा। उसके साथ भी यही हुआ।

          ‘अच्छा जब तुमने बच्चे को गोद ले लिया तो उसके बाद चीनू से किस तरह पेश आई। जबकि तुम्हारे कहे मुताबिक यदि वह जी-जान से न लगता तो तुम्हें बच्चा गोद मिल ही नहीं सकता था।
          ‘हां बिब्बो यह बात एकदम सच है। जिस तरह से तरह-तरह की अड़चनें आईं उससे यह क्या मैं भी खुद त्रस्त हो गई थी। हार मान बैठी थी। इन्होंने तो एक तरह से मुंह ही मोड़ लिया था। मगर वह न सिर्फ़ बराबर लगा रहा बल्कि हमें उत्साहित भी करता रहा। यह उसके प्रयास से ही संभव बन पड़ा।

          ‘तब तो इसके बाद उसकी मनमानी और बढ़ गई होगी। और तुम उसके एहसान के बोझ तले दबी उससे कुछ कह भी नहीं पाती रही होगी। वह जब चाहता रहा होगा अपनी मनमर्जी से तुम से अपनी हवस मिटाने आ जाता रहा होगा।

          ‘बिब्बो तुम्हारी बात कुछ हद तक सही है। पूरी तरह नहीं। वास्तव में बच्चे के आने के बाद एक बड़ा परिवर्तन देखा। यह परिवर्तन एकदम छ़ः-सात महीनों के भीतर ही सतह पर आ गया था। एक तरफ यह थे जिनके व्यवहार को पहले देख कर ऐसा लगता था मानों बच्चों के प्रति इनकी रुचि ही नहीं, वही यह ऐसे बदले कि बिल्कुल बच्चे के ही हो कर रह गए। हालत यह हो गई कि जो व्यक्ति पहले जहां अपने दोस्तों, काम, इधर-उधर समय बिताने में ही मशगूल रहता था जिसे देख कर यह कहना मुश्किल था कि इसकी बीवी होगी, घर होगा वही अब एकदम बदल गया। अब उसकी हर कोशिश इस बात के लिए होती थी कि कैसे सारी दुनिया छोड़ बच्चे को ले लूं। आते ही उसी के साथ लग जाते। उसके लिए इतना सामान लाते, इतना खर्च करते थे कि कई बार मुझे कहना पड़ता 'पैसे बरबाद क्यों कर रहे हैं।'जवाब मिलता 'कमाता किसके लिए हूं।'

           मैं हैरान थी इस बदलाव से। सोचती जो खुद की जनी संतान होती तो यह क्या करते। और खुद अपने पर तरस आता कि मैं अपने को बड़ा काबिल समझने वाली अपने पति के हृदय को ही न समझ पाई। बच्चा-बच्चा करती न जाने क्या-क्या करती रही पर गहराई से यह जानने की कोशिश न की कि आखिर पति का मन क्या है। बच्चा पाने की ललक में पति के लिए मेरी क्या ज़िम्मेदारी है यह भी भूल गई। और अब मेरा निष्कर्ष कई बार यह भी होता है कि शायद यह भूल ही थी जिसके चलते यह मुझ से विमुख हुए थे। इनके विमुख होने का ही परिणाम था कि मैं भटक गई। नहीं! यह बात तुम्हारे शब्दों में कहूं कि, चीनू जैसे छोकरे के सामने फैल गई ।
         
          ‘तुमको मेरी बात बुरी ज़रूर लगी। मगर मुझे नहीं लगता कि मेरी जैसी किसी बहन की अपनी बहन के इस तरह के काम पर इसके अलावा कोई और बात निकलेगी।

          ‘तुम इस बात से क्यों परेशान हो कि मुझे बुरा लगा। यह बात ऐसी है कि बुरा लग जाने पर भी मैं नहीं बोल सकती कि बुरा लगा। इसलिए जो तुम्हारे मन में आए वह कह डालना हिचकना नहीं।

          ‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है क्या बोलूं क्या न बोलूं । अब जैसे मन में यही बात आ रही है कि जीजा में तो यह परिवर्तन आ गया। लेकिन तुम में क्या परिवर्तन आया। अब तो सब तुम्हारे मन का हो गया था। तुम्हारी तो बांछें खिल जानी चाहिए थीं।

          ‘हां ..... पर इस मन का क्या करें। दो-चार दिन तो बांछें खिली रहीं। पर फिर मन में तरह-तरह के प्रश्न उठने लगे। कि इसमें मातृत्व सुख कहां है ? यह मेरा खून कहां है ? दुनिया तो गोद ली हुई संतान ही कहेगी। बड़ा होने पर क्या यह अपने जने हुए बच्चे की तरह हमें अपनाएगा और देवरानी, नंद आदि रिश्तेदारों ने मुंह मोड़ लिया क्या करूं इन सबका। पहले सोचा था कि बच्चे के आने की खुशी में एक फंक्शन करूंगी। उसमें इन सबको खूब उपहार वगैरह देकर, खातिरदारी कर मना लूँगी । पर इन्होंने साफ कहा तमाशा नहीं करना है। और फिर ऐसे प्रश्नों की फेहरिश्त बढ़ती ही गई।

          जैसे कि एक दिन अचानक ही दिमाग में आया कि यह पता नहीं किस कुल खानदान का है। इसकी जाति क्या है। क्योंकि अनाथालय ने सिर्फ़ इतना बताया था कि कोई गेट पर छोड़ गया था। इसके अलावा कोई और जानकारी नहीं दी थी। इन फितूरों ने यह बात दिमाग में घर कर दी कि बच्चा लाख मां-मां चिल्लाए लेकिन मैं मां नहीं सिर्फ़ एक बोझ हूं, एक ठूंठ  हूं। और कोई भी औरत बिना अपनी कोख से बच्चा जने मां नहीं हो सकती। ऐसा करने वाली औरतें न सिर्फ़ अपने आपको धोखा देती हैं। बल्कि जिस बच्चे को गोद लेती हैं उसे भी धोखा देती हैं।

          देखा जाए तो प्रकृति भी यही कहती दिखती है कि जब औरत बच्चे को जन्म देती है तभी उसके स्तनों में दूध उतरता है। गोद लिए हुए बच्चे को कितना ही छाती से चिपकाओ। निपुल उसके मुंह में देकर कितने ही दिनों तक चाहे कितना ही चुसवाओ दूध उतर नहीं सकता है। मैं यह अनुभव की हुई बात कह रही हूं कोई सुनी-सुनाई नहीं। मैंने बच्चे को एक-दो दिन नहीं महीनों अपने स्तन चुसवाए पर वह ठूंठ-ठूंठ ही रहा।

          रस या दूध के नाम पर एक बूंद पानी भी न टपका कि मैं संतोष कर लेती। यह सारी बातें मुझे अंदर ही अंदर इतना आहत करने लगीं कि मैं टूट सी गई। अब हर चीज से खीझ होने लगी। बच्चा भी अब पहले की तरह मुझे खींच नहीं पाता था। कई बार तो मन में यह भी आया कि गोद लेकर मैंने गलती की। यह बात और गाढ़ी हो जाती यदि यह भी ऐसा ही सोचते। लेकिन इन सब के उलट यह तो उसी में खो गए थे। सो मैं भी इन्हीं के साथ नत्थी रहती थी। मेरी पीड़ा यह भी थी कि मैं यह बात किसी से कह नहीं सकती थी।

           अर्थात् परिणाम यह हुआ कि मैं वह औरत हूं जिसे उसके मन का जीवन में कुछ नहीं मिला। उम्र के साथ यह सारी बातें मैं और भी गहराई से सोचने लगी। सिर्फ़ सोचती ही नहीं तरह-तरह के विश्लेषण करती। तरह-तरह की किताबों को पढ़ने का परिणाम यह था कि विश्लेषण भी तरह-तरह से होता। इस विश्लेषण में कहीं फ्रायड, हैवलॉक एलिस घुस आते तो कहीं वात्स्यायन, कहीं कृष्ण का गीता दर्शन तो कहीं सृष्टिकर्ता भगवान और उनकी सत्ता को नकाराने वाले कपिल मुनि का सांख्य दर्शन। कई बार यह भी सोचती कि हैवलॉक एलिस होते तो कहती तुम यौन विज्ञान के बारे में और शोध करो। तुम्हारा यह सिद्धांत गलत है, बेबुनियाद है कि मां स्तनपान कराते समय यौन सुख का भी अहसास करती है, आनंद लेती है।

          सच तो यह है कि स्तनपान के समय मां वात्सल्य सुख, मातृत्व के सुख के सागर में ऐसे डूब जाती है कि बाकी कुछ का उसे पता ही नहीं रहता। वह समाधिस्थ हो जाती है। तुम्हारा शोध कुछ हज़ार पश्चिमी मांओं पर किया निष्कर्ष हो सकता है। वह सब मांओं पर कैसे लागू हो जाएगा, भारतीय मांओं को तुम क्या जानों। इतना ही नहीं सूर, तुलसी, कबीर से लेकर सीमोन यहां तक कि हॉलीवुड की अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर भी आ सामने खड़ी हो जातीं। हां यहां दो नाम और न लूं तो गलत होगा। एक रुबाना दूसरा काकी का। इनके साथ नंदिनी का नाम जुड़ा ही रहता है।

          तमाम बातों विश्लेषणों पर रुबाना की बात हथौड़े की तरह पड़ती। 'ज़िंदगी जीना है तो मस्त होकर जीयो। काटनी है तो बेहतर है कहीं डूब मरो।'वह नैतिकता, नीति नियम आदि को बंधन, बेड़ी कहती थी। और कम से कम जब तक रही उसके साथ उसे अपने सिद्धांत से कभी डिगते नहीं देखा। जो चाहा उसने वही किया। मैं सोच-सोच कर खीझ की हद तक कुछ ही महीनों में पहुंच गई। दूसरी तरफ इनका बदला व्यवहार आग में घी का काम कर रहा था।

          वैसे भी बरसों हमने एक होकर भी अलग-अलग बिताए थे। इधर कुछ महीनों से रिश्ते कुछ सामान्य हुए तो ये बच्चे की ओर मुड़ गए। पहले मन-मुटाव के चलते नहीं मिलते थे महीनों अब इनके बदले मिजाज ने हमारे बीच दूरी बनाई। हां अब यह ज़रूर था कि यह काफी हद तक मुझे शुरुआती दिनों की तरह फिर चाहने लगे थे। और सबसे बड़ी खुशी यह थी कि बच्चे की चाहत कहो या फिर और कोई वजह इन्होंने अब अलग-अलग महिलाओं में मुंह मारना करीब-करीब बंद कर दिया था।

          ‘और तुमने क्या किया था यह तो तुम बता ही नहीं रही हो। जीजा के बारे में बताए जा रही हो।

          ‘जो तुम सुनना चाहती हो वही बताने जा रही हूं। यह सच है कि बच्चे को दिलाने के बाद चीनू मुझ पर कुछ ज़्यादा ही अधिकार के साथ धौंस जमाने लगा था। ऐसे बिहैव करता मानो मैं उसकी प्रेमिका या रखैल हूं। वह हर हफ़्ते हमला करने की कोशिश करता, मैं कई बार बचा लेती खुद को लेकिन कई बार बचने की पूरी ईमानदार कोशिश ही न कर पाती और तब मैं टूट कर बिखर जाती। बिखर कर खतम हो जाने के बाद हर बार यही खिन्नता, ये बात मन में आती अरे! मैं क्या कर रही हूं। बहुत गंदा है, घृणित है यह सब, लेकिन फिर अवसर आते ही बिखर जाती।

          ‘बाप रे बाप ........... । तुम्हारा ये बिखरना और तुम्हारी ये बातें। अरे! इतना घुमाने- फिराने की ज़रूरत क्या है, सीधे-सीधे कहो न कि एक जवान लड़के के साथ अय्याशी कर रही थी। अपने को तबाही के, बरबादी के रास्ते पर ले गई थी। बड़ी किताबें पढ़ने की बात बार-बार कर रही हो मगर उन किताबों में क्या तुमने जो कुछ किया उसका तुम्हें एक भी ऐसा उदाहरण मिला । तुम्हारी तरह हमने किताबें बहुत नहीं बांची पर बुजुर्गों की बातें ज़रूर बहुत सुनी।

          कथा-भागवत होता हो तो वहां ज़रूर जाती। अरे! भगवान से खुद को चाहे जैसे ही जोड़े रहे तो आदमी भटकता नहीं। घर पर जब पुरोहित बाबा आकर बाबा से घंटों पूजा-पाठ पर बहस लड़ाते थे तो भी मैं ध्यान से सुनती थी। तुम्हारी बातें सुन कर तो मुझे उनकी बातें याद आती जा रही हैं। औरतों आदमियों को वो एक ही कमरे में सोने से मना करते थे। उनका कहना था साथ लेटने से वासना की आग भड़कती है।

          माना यह बात बड़ी कट्टर सोच वाली है। मगर मैं उनकी यह बात शादी के बाद भी जीवन भर गांठ की तरह बांधे हूं कि चरित्र पर कभी दाग न लगे इसके लिए काम-वासना पर नियंत्रण ज़रूरी है। आदमी के क़दम इस पर नियंत्रण न करने पर ही भटकते हैं। चरित्र का पतन होता है।

          फिर किसी वेद की बात बताते हुए कहते कि उसमें तो प्रौढ़ावस्था के बाद बल्कि संतानोत्पति के बाद पति को भी पत्नी में मां का रूप देखने का वर्णन है। ऐसा होने से दोनों कामवासना में न डूब कर भगवान के ज़्यादा करीब जाएंगे। चरित्र बढ़िया होगा जीवन में भटकेंगे नहीं। ....... अरे! हां तुम तो बहुत पढ़ी हो। इस बात को ठीक-ठीक बताओ न अगर मालूम हो। इतना तो हमें मालूम है कि ये बात अगर तुम्हें ठीक-ठीक मालूम होगी तो तुम जरूर अपने आप ही तय कर लोगी कि तुम गलत हो और कितनी गलत हो।

          बिब्बो  की बात सुन कर मन्नू को लगा कि उसने ज़रूर बहुत नहीं पढ़ा है लेकिन बिब्बो ने अनुभव से जो ज़िंदगी को जाना समझा है अपने विचारों में वह जितनी स्पष्ट है वह उससे कहीं बहुत पीछे है। वेद वाली बात ने उसे अच्छा-खासा झकझोर दिया था। यह इत्तेफाक ही है कि कुछ महीने पहले ही गुरु जी ने एक दिन मां की अहमियत का वर्णन करते हुए घंटों यही बताया था कि हिंदू संस्कृति में मां से बड़ा कोई नहीं। वेद सहित तमाम पौराणिक ग्रंथों में बहुत से उदाहरण देते हुए मां की ज़िम्मेदारी कैसे निभाई जाए इसके साथ-साथ यह भी बताया था कि गृहस्थ आश्रम सबसे महत्वपूर्ण आश्रम है। और ऋग्वेद की एक ऋचा का उल्लेख किया कि उसमें ऋषि सावित्री सूर्या ....... । हां यही नाम तो बताया था उन्होंने कि यह एक महिला ऋषि थीं। और एक बार एक कन्या के विवाह के समय उसे आशीर्वाद देते हुए इंद्र से यह प्रार्थना की कि, ‘‘दशास्यां पुत्रनाधेहि पतिमेकादशम कृधि’’ ‘हे! इंद्र यह स्त्री दस पुत्रों को जन्म दे और पति इसका ग्यारहवां पुत्र हो।गुरु जी से यह बात सुन कर सभी सकपका गए थे कि यह कैसी उलटबासी है। पति भी पुत्र हो जाए। सभा में खुसुर-फुसुर की आवाजें आने लगी थीं। खुद उस के मन में आया था कि शायद गुरु जी कुछ भूल गए हैं। खुसुर-फुसुर की आवाज़ों से गुरु जी जान गए थे कि लोग उनकी बातों से भ्रमित हो रहे हैं। फिर हंसते हुए कहा था।

          ‘'आप लोगों ने इसके मर्म को समझने की कोशिश नहीं की इसी लिए सब उल्टा-पुल्टा अर्थ लगा कर भ्रमित हो रहे हो। फिर उन्होंने विस्तार से अर्थ बताते हुए कहा था कि सीधा मतलब यह है कि वासना के विलोपन के लिए हमारे पूर्वजों ने यह धारणा प्रस्तुत की थी कि जब पति,पत्नी में मां का रूप एवं पत्नी, पति में पुत्र का रूप या भाव से उसे देखेगी तो दोनों में वासना का भाव उत्पन्न नहीं होगा और वह ईश्वर पर ध्यान दे सकेंगे। क्योंकि वासना के विलोपित होते ही व्यक्ति का चरित्र, उसका मन, ईश्वर के प्रति उसकी भक्ति निर्बाध रूप से आगे बढ़ेगी।'' इसके बाद उस दिन गुरु जी ने इस ऋचा का बार-बार सस्वर पाठ कराकर याद करा दिया था। जिससे लोग इस प्रसंग को भूले नहीं।

          मन्नू ने यह सारी बातें बिब्बो के सामने रख कर नया प्रश्न खड़ा कर दिया कि यहां संतान होने तक तो वासना के तिरोहित होने की बात नहीं है। मेरे तो संतान हुई ही नहीं। तो बिब्बो तपाक से बोली,

          ‘मगर बच्चा गोद लेकर संतान वाली तो हो ही गई थी। और आगे का भविष्य क्या है यह भी जान गई थी। मैं ऐसा नहीं कह रही कि तुम पति को भी संतान भाव में लेती। तुम उनके साथ जितना वासना का खेल-खेल सकती थी खेलती पर उस छोकरे के साथ तो नहीं। जबकि तुम बता रही हो कि बच्चा लेने के बाद तुम्हारा मन सेक्स की तरफ और मुड़ गया क्योंकि जीजा और तुम्हारे बीच कटुता तो खत्म हो गई थी लेकिन अब सेक्स के प्रति वो उतना उतावले नहीं थे जितना कि तुम। दूसरे अब बीच में बच्चा आ गया था और वह उसकी तरफ ज़्यादा खिंच गए थे। अब तुम दोनों के बीच इन वजहों से दूरी बढ़ गई थी। फिर अब तक तुम प्रौढ़ हो चुकी थी। अब तो बार-बार मेरे मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि तुम जितना बता रही हो उसमें कितना सच है और कितना ऐसा है जो छिपा रही हो।

          ‘ये जो मैं बता रही हूं यह सब मेरे पश्चाताप करने के परिणाम का एक हिस्सा है। इसलिए जो भी किया है सब सच बता रही हूं।

          ‘जो बता रही हो यह पश्चाताप का एक हिस्सा है तो पूरा पश्चाताप क्या है।

          ‘जल्दी ही वह भी पता चल जाएगा।

          ‘अब तो मैं सबसे पहले सिर्फ़ यह जानना चाहती हूं कि तुम्हारा यह वासना का खेल उमर के किस दौर तक चला क्योंकि तुम्हारी बातें, बुरा मत मानना तुम्हारी चाल-ढाल देख कर तो मुझे लगता है कि शायद तुम अब भी वासना के शिकंजे से बाहर नहीं आ पाई हो।

          ‘यह क्या कह रही हो तुम! यह सच नहीं है। सेक्स के शिकंजे से मैं चीनू की शादी से दो दिन पहले ही निकल चुकी थी।

          ‘मतलब उसकी शादी के वक़्त तक चला यह सब और तब तक तुम साठ साल की हो गई थी।

          ‘हां ....... ! हं ........ नहीं यही कोई पचास या इक्यावन की।

          ‘हे! भगवान ...... । तो उसकी शादी तक ही क्यों ..... चाहती तो बाद तक चलाती यह खेल, कौन तुम लोगों पर शक कर रहा था। लेकिन हां अब तक तो अनिकेत भी बड़ा हो गया होगा न इस लिए वो बाधा रहा होगा।

          ‘बिब्बो इतना तो जानती ही हो कि करने वाले रास्ता निकाल ही लेते हैं। उनके लिए कोई बाधा नहीं बन सकता। हां .... मैंने खुद यह तय किया कि अब बस। क्योंकि मैं उससे जुड़ी रहती तो उसका वैवाहिक जीवन प्रभावित होता।

          ‘प्रभावित होता ...... ? अरे! बरबाद होता बरबाद। बल्कि मैं तो कहती हूँ कि ज़रूर बरबाद हुआ होगा। और जब वह अपनी शारीरिक भूख, नहीं! इसे उलट कर कहें कि तुम उससे उसके युवा होने से पहले ही से अपनी हवस मिटाती रही उसे अपने शरीर का आदी बना दिया था तो वह अपनी नई-नवेली पत्नी के साथ क्या न्याय कर पाया होगा। शादी की पहली रात का उछाह-जोश उमंग कहां रहा होगा उसमें। उसकी पत्नी के हिस्से का सारा सुख तो तुमने लूट लिया था। उसकी पत्नी तो इस जीवन में वह सुख पा ही नहीं सकती जो चीनू के कुंवारेपन से उसको मिलता। इसलिए यह मत कहो कि बरबाद होता यह कहो कि बरबाद कर दिया।
         
          ‘नहीं यह तुम्हारा निष्कर्ष है। मैं यही कहूंगी कि हां बरबाद होता। और यह मैं नहीं चाहती थी। ...... किसी भी हालत में नहीं कि वह मेरे कारण बरबाद हो।

          ‘तो उसको मना कैसे किया ?चलो तुमने तय कर लिया कि उससे संबंध नहीं रखोगी लेकिन उसने, उसकी तो आदत पड़ चुकी थी तुम्हें भोगने की। उसको कैसे मना किया ? या वो अब तक ऊब गया था तुमसे।

          ‘अब मैं तो यह नहीं जानती कि वो मुझसे ऊब चुका था या नहीं। लेकिन यह सही है कि बाद के वर्षों में अधिकतर पहल मैं ही करती थी। खासतौर से जब वह युनिवर्सिटी में पढ़ा करता था। वहां उसके कई लड़कियों से संबंध हो गए थे। तो नई तितलियों के बीच वह खो सा गया था। जब आता तो उन लड़कियों के बारे में तरह-तरह के किस्से बताता। मुझे उसमें कुछ हक़ीक़त कुछ फसाना लगता। जैसे एक बार बताया कि ..... खैर छोड़ो उसके फ़साने को उधेड़ने से क्या फायदा। मुझे तो सिर्फ़ अपने फसाने को उधेड़ने का हक है। तो जब इन लड़कियों में उलझा तो मेरे पास कम आता। तो मैं ही विवश होकर पहल करती। उसने मेरी इस स्थिति का भी फायदा उठाया।

          एक दिन एक लड़की को लेकर आ धमका कि उसके साथ मस्ती करनी है। और आज उसके पास कोई जगह नहीं। मैं यह जान कर एकदम हड़बड़ा गई। कुछ समय तो समझ ही न पाई कि जवाब क्या दूँ । उसके सामने मुझे अपनी कमजोर हालत का पूरा ध्यान था। सख्ती से पेश आने का प्रश्न ही नहीं था। फिर भी मैंने बंदरघुड़की दी। तो अब तक एक शातिर आदमी बन चुका चीनू धीरे से मुझे अंदर कमरे में लेकर आया। फिर एकदम से मुझे बांहों में लेकर कसकर चूम लिया और बड़े आशिकाना अंदाज में एक-एक शब्द चबाता हुआ बोला,

          ’'डार्लिंग चाहो तो तुम भी साथ आ जाओ। जब मैं तुम्हारी बात मानता हूं तो आज तुम्हें भी मेरी बात माननी पडे़गी। क्योंकि इसके अलावा तुम्हारे पास और कोई रास्ता नहीं है।'' इस दौरान वह नीचे से लेकर ऊपर तक मेरे अंगों को बराबर बेदर्दी से दबा रहा था मसल रहा था। उस लड़की के कारण मैं खुद को और भी ज़्यादा विवश महसूस कर रही थी। मैंने आखिरी चाल के तौर पर कहा अनिकेत स्कूल से आता होगा। तो वह बोला,

          '‘मैं ऊपर कमरे में लेकर जा रहा हूं। अनिकेत को नीचे रोके रहना। और कुछ चाय वगैरह नहीं बनाओगी क्या ?’'

          इतना कह कर उसने किचकिचा कर एक बार फिर मुझे कस कर जकड़ा फिर झटके से छोड़ लड़की का हाथ पकड़ कर तेजी से ऊपर चला गया। मैं हारे हुए जुआरी की तरह देखती रही। और मन में आया कि इसे भस्मासुर बनाया तो मैंने खुद ही न। मैं खीझ कर ड्राइंग रूम में सोफे पर आकर बैठ गई। गुस्से में बुदबुदाई कि नहीं बनाऊंगी चाय-साय। इसी बीच मैंने महसूस किया कि बदन में जगह-जगह दर्द की हल्की लहर सी उठ रही है। चीनू ने जहां-जहां कस कर दबाया वहां मैंने जब नजर डाली तो देखा वह जगहें अच्छी-खासी लाल सी हो रही हैं।

          कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए थे सो अलग। मैंने जल्दी से साड़ी फिर से ठीक की, ब्लाउज पर नजर डाली तो वह सही न था। अंदर हो रहे दर्द के कारण स्तनों पर भी नजर डाली तो कई लाल निशान नजर आए। बड़ी गुस्सा आ रही थी कि तभी ऊपर से लड़की के हंसने-खिलखिलाने की आवाज़़ें आने लगी। मुझे लगा कि यह हम लोगों के समय की कॉलेज गर्ल से ज़्यादा बिंदास है। ख़यालों में पूरी तरह खो भी न पाई थी कि अचानक उसकी बेहद उत्तेजक प्रणयी आहें सुनाई देने लगी। मैं उसकी ढिठाई, बेशर्मी से दंग रह गई। साथ ही डर गई कि कोई आ गया तो। मैं रोक न पाई खुद को और चली गई ऊपर कमरे में उसे ठीक करने।

          ‘उसे ठीक करने या यह भी तो हो सकता है तुम बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी कि जिस कमरे में, जिस बिस्तर पर तुम जिस जवान लड़के के शरीर को भोगती थी आज वहीं पर उसी जवान लड़के को एक दूसरी लड़की भोग रही है । जो तुम्हारी छाती पर मूंग दलने जैसा था। अपने हाथ से तुम्हें सब निकलता दिखा तो तुम न रुक पाई और पहुंच गई अपने राज पर कब्जा करने। क्यों यह बात नहीं थी क्या ?’

          बिब्बो की इस बात से मन्नू तिलमिला उठी लेकिन किसी तरह स्वयं पर नियंत्रण कर बोली चलो जो तुम कहो वही सही। यही मान लेते हैं।

          ‘अच्छा ...... फिर क्या रोक पाई उसे।

          ‘नहीं ...... । कमरे के अंदर नजर पड़ते ही मैं खुद शर्म से गड़ गई। उन दोनों के तन पर एक कपड़ा न था। दोनों दुनिया से एकदम बेपरवाह कमरे के खुले दरवाजे से बेखबर अपनी दुनिया में मस्त थे। संभोगरत थे। लड़की का आक्रामक तेवर देख कर मैं हैरान थी। मैंने भी अपना गुस्सा रोकने का प्रयास नहीं किया। दरवाजे को एक झटके से बंद कर वापस आ गई। जानबूझकर दरवाजा इतनी तेज बंद किया कि वह मेरा विरोध दर्ज कर सकें। मैं नीचे आ गई। करीब आधे घंटे बाद दोनों नीचे आए, मैं बैठी रही सोफे पर, चीनू ने बड़े अधिकार से कहा,

          ‘'चाची चाय बनाई क्या ?’'

          मैंने कोई जवाब नहीं दिया। दूसरी तरफ देखती रही। इस पर वह लड़की बेहद शोख अंदाज में बोली, 

          ‘'ए ..... अभय इतनी गर्मी में चाय कौन पीएगा। चलो चलते हैं।'

          इतना कहने के साथ ही उसने चीनू जिसका स्कूली नाम अभय था के हाथ को पकड़ा और बाहर खींच ले गई। मैं दंग थी उस लड़की की हिम्मत और ढिठाई से। मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं। मुझे लगा यह तो रुबाना की नानी है। दो दशकों में ही जमाना कहां से कहां चला गया। इसी बीच स्कूल से अनिकेत आ गया। मैं उसे खिलाने-पिलाने में व्यस्त हो गई। मगर इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया था। फिर इस उठा-पटक के साथ जीते कुछ और बरस कट गए। इस बीच एक सुकूनकारी बात सिर्फ़ यह रही कि चीनू दुबारा किसी लड़की को लेकर नहीं आया। मगर उस घटना के बाद करीब तीन महीने नहीं आया। मुझे यकीन था कि वह एक दो हफ्ते बाद खुदी आएगा। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। मैं लाख कोशिश करती कि मेरा दिमाग उसकी तरफ न जाए लेकिन जितना कोशिश करती घूम फिर कर दिमाग वहीं टिक जाता।

          ‘फिर तुम उसको बुलाने गई।

          ‘नहीं। घटना के तीन महीने बाद ज़िया अचानक बीमार पड़ गईं । उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। उनके हार्ट में बड़ी समस्याएं आ गई थीं। चालीस दिन भर्ती रहीं। वहीं पर वह फिर मिला। तब बात की। तो वह बोला,

          '‘मैं आपके लिए सब कुछ करता रहता हूं पर उस दिन मेरी फ्रैंड के सामने आपने मेरी बात नहीं मानी, मेरी बेइज़्ज़ती की।'

          तब मैंने उसे समझाया देखो यह गलत है। ऐसी तमाम बातें हुईं उससे फिर वह नार्मल हो गया। हां मां के प्रति उसकी श्रद्धा उसका लगाव देख कर मैं बहुत प्रभावित हुई। जब हालत बहुत सीरियस थी तब मैंने उसे एक कोने में खड़ा रोते देखा था। उसे जाकर चुप कराया था। दरअसल वह अपने पूरे परिवार को बहुत चाहता था। यह कहें कि उसमें होम सिकनेस बहुत थी। हालत यह थी कि पढ़ाई पूरी करने के बाद उसके मामा ने कोशिश करके दिल्ली परिवहन विभाग में उसकी नौकरी लगवा दी। वह गया लेकिन दो महीने बाद ही छोड़ कर चला आया। घर में बड़ी हाय-तौबा मची लेकिन वह गया नहीं। मगर मामा ने फिर मदद की और यहां खुद उसकी थोड़ी बहुत कोशिश और फिर इनकी कोशिश कामयाब हो गई।

          लखनऊ में ही परिवहन विभाग में उसे नई नौकर मिल गई। इस दौरान मैंने देखा कि वह सिर्फ़ शारीरिक भूख मिटाने ही नहीं बल्कि अब एक और रिश्ता कायम कर चुका था मुझसे, भावनात्मक रूप से बड़ा लगाव महसूस करने लगा था। जब घर में उठा-पटक मचती तो वह अब मेरे पास आकर बातें करता। कभी-कभी बच्चों की तरह मेरी गोद में सिर रख कर रो पड़ता था। यूनिवर्सिटी से अलग होने और नौकरी करने के बाद उसके व्यवहार में बड़ा परिवर्तन आ गया था। बड़ा परिपक्व हो गया था। वह अनिकेत की पढ़ाई के लिए बड़ा उत्साहित होकर पूछताछ करता। उसका एडमीशन वगैरह सब वही करवाता। फिर उसकी शादी की बात चली तो बड़ी मुश्किलें आईं सामने। वह शादी के लिए तैयार ही न हो। बात मेरे तक आई। ज़िया ने कहा,

          '’तुम्हीं कुछ समझाओ आखिर मानता क्यों नहीं। अगर कहीं किसी लड़की से कोई चक्कर हो तो वही बताए। जहां कहे वहीं कर देते हैं।'

          मैंने कहा अच्छा समझाऊंगी। फिर एक दिन वह आया। तो मैंने बात चलाई। मगर वह बात टाल गया। उसका उखड़ा मूड देख कर मैंने कुछ नहीं कहा। दो-चार दिन बाद मैंने उसे फ़ोन करके बुलाया कि तुम आओ कुछ बात करनी है। और यह ध्यान रखना कि जल्दबाजी न करना। वक़्त लेकर आना। मुझे उम्मीद नहीं थी लेकिन वह उस दिन तय वक़्त पर आ गया। पहले मैंने समझा कि वह कुछ ही देर को आया होगा। लेकिन आने पर पता चला कि वह तो ऑफ़िस से आधे दिन की छुट्टी ले कर आया है। मैंने कहा आधे दिन की छुट्टी का क्या मतलब है।

          तो वह बोला, 'बस मन हो गया तो ले ली।'

          ‘ये यूनीवर्सिटी में की जाने वाली नेतागिरी नहीं है समझे। नौकरी है, ईमानदारी से करो। किसी तरह मिल गई है तो उसकी अहमियत समझो। बेरोजगारी का दंश बहुत तीखा होता है। देखते नहीं आए दिन बेरोजगारों की आत्महत्याओं की खबरें छपती रहती हैं।

          '‘जानता हूं। पर पता नहीं क्यों नौकरी में मेरा मन नहीं लग रहा। मगर और कोई रास्ता भी नहीं दिखता। मेरे तमाम दोस्त कोई बिज़नेस या ठेकेदारी करके खूब पैसा कमा रहे हैं। मैंने पापा से कहा था कि सिर्फ़ एक बार दे दो पैसा। मुझे ठेकेदारी करने दो मैं साल भर में दो गुना पैसा दे दूंगा। तो बोले नहीं किसी तरह लड़कियों की शादी के लिए पैसा इकट्ठा किया है। वह नहीं दे सकता।'
         
          ‘अपनी जगह वो ठीक हैं। ठेके में ज़रूरी नहीं की पैसा मिल ही जाए। कहीं डूब गया तो लड़की की शादी रुक जाएगी। उसका जीवन बरबाद हो जाएगा। फिर ठेकेदारी में जिस तरह मारकाट होती है वह सब देखते हुए तो यही कहूंगी कि तुम्हारे पापा ने जो निर्णय लिया वह तुम्हारी भलाई के लिए लिया। और बहुत अच्छा किया। फिर उन्होंने चाहे जैसे हो नौकरी भी तो लगवा दी न। अब तो कोई दिक़्कत नहीं। आराम से अपनी जिंदगी ज़ियो। और अब तो तुम्हारी शादी भी करने जा रहे हैं। फिर क्यों तमाशा बना रखा है। क्यों शादी से इंकार कर रहे हो।

          ‘'पता नहीं, मैं खुद ही नहीं समझ पा रहा हूं।

          ‘क्या नहीं समझ पा रहे हो। अरे! अगर किसी और लड़की के साथ कोई चक्कर है, संबंध है, शादी उसी से करना चाहते हो तो बताओ उसी से कर दी जाए। तुम्हारे घर वालों को कोई एतराज नहीं है। तुम साफ-साफ बोलो तो।

          '‘साफ-साफ बोलूं।'

          ‘हां ...... तभी तो पता चलेगा चाहते क्या हो।

          मेरे इतना बोलने के बाद वह काफी भेदभरी निगाहों से मेरी तरफ देखता रहा। ऊपर से नीचे तक ऐसे नजर डाल रहा था मानो मैं उसके सामने निर्वस्त्र ही बैठी हूं। उसकी इस हरकत से मैं अचकचा गई। इसके पहले इस नजर से उसने मुझे कभी नहीं देखा था। जब मैं उसकी नजरों का देर तक सामना न कर सकी तो फिर पूछा,

          ‘ऐसे क्या देख रहे हो, बोलते क्यों नहीं साफ-साफ।

          ‘'ठीक है, सुनिए साफ़ साफ़ ,मैं.. मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ तुमसे शादी करना चाहता हूं।'

           इतना कहते-कहते उसने दोनों हाथों से मेरी दोनों बाहों को कस कर पकड़ लिया। अपना चेहरा एकदम मेरे चेहरे के करीब लाकर मेरी आंखों में एकटक देखने लगा। उसकी आंखों की लाल-लाल नशें साफ दिख रही थीं। आंखों में आंसू दिख रहे थे। उसका शरीर थरथरा रहा था। उसके इस रूप से मैं एकदम कांप ऊठी। सिहर गई। मैंने उससे अपने को अलग करने का प्रयास किया लेकिन टस से मस न हो सकी। उसकी बलिष्ठ भुजाओं में मैं फंस कर रह गई थी। यूं तो पहले भी बार-बार उसकी बलिष्ठ भुजाओं का अहसास मैंने किया था। मगर उस दिन जो ताकत थी वह पहले कभी महसूस नहीं की थी। वह बराबर मेरी आंखों में घूरे जा रहा था। मैं उससे नजर मिलाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। इस बीच कुछ ही क्षणों में उसकी आंखों से आंसू बह चले, और उसकी पकड़ भी ढीली पड़ने लगी। तभी मैंने कहा,

          ‘यह क्या फालतू बात कर रहे हो। मुझ बुढ़िया से शादी करोगे।

          इस पर वह बोला,

          ‘फालतू बात नहीं कर रहा हूं, जो कह रहा हूं सच कह रहा हूं। इतना कह कर उसने अपना सिर मेरी गोद में रख दिया। फिर रो पड़ा। उसके दोनों हाथ अब मेरी कमर के गिर्द लिपटे थे। उसके गर्म आंसू मेरे पेट को गीला किए जा रहे थे। मैं इस अप्रत्याशित घटना से एकदम हतप्रभ थी। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी कि ये क्या हो रहा है। ये नई मुशीबत क्या है ? इस लड़के को क्या हो गया है ? पगला गया है, मुझ से शादी करने के लिए बोल रहा है। काफी सोचती-विचारती रही। वह मेरे पेट को गीला किए जा रहा था।

          कुछ देर में अपने को सम्हालने के बाद मैंने उसके चेहरे को ऊपर उठाया। आंसूओं से तरबतर था चेहरा। मुझे लगा मामला बहुत गंभीर है। इसे गुस्से नहीं प्यार से समझाना होगा। यह भ्रमित है। उसका भ्रम दूर करना ज़रूरी है। नहीं तो यह कुछ गलत क़दम भी उठा सकता है। यह बातें कुछ ही सेकेण्ड  में मेरे दिमाग में कौंध गईं। मैंने उससे बाथरूम में जाकर मुंह धोकर आने को कहा। लेकिन वह नहीं उठा तो मैं खुद जग में पानी ले आई और अपने हाथ से उसका मुंह धोकर तौलिए से पोंछा। फिर चाय, नमकीन, बिस्कुट ले आई। उसे खिला-पिला कर जब कुछ शांत कर पाई तो कहा,
                  
          ‘चीनू तुम पढ़े लिखे समझदार व्यक्ति हो। ऐसी बेसिर पैर की बात कैसे सोच ली।

          मैंने एकदम झूठ बोलते हुए कहा मैं कहां साठ साल की बूढ़ी औरत, ज़िदगी के कुछ ही साल रह गए हैं और तुम्हारे पास तो अभी जीने को पूरा जीवन पड़ा है। अभी तुमने ज़िंदगी जी ही कहां है। अभी तो तुम्हें बहुत दुनिया देखनी है। तुम्हारे लिए एक से बढ़ कर एक पढ़ी-लिखी सुंदर लड़कियों के रिश्ते आ रहे हैं। उनमें से अपनी मन पसंद कोई लड़की चुन लो, उससे शादी करके ज़िंदगी को जियो, ज़िदगी के वास्तविक सुख का आनंद लो। मुझ बुढ़िया के चक्कर में कहां पड़े हो ?’

          '‘क्या आपके मन में मेरे लिए कोई प्यार नहीं है ?’'

          उसकी यह बात सुन कर मैं फिर हड़बड़ा गई। किसी तरह अपने पर काबू पा कर उससे कहा,

          ‘प्यार करती हूं ..... बहुत करती हूं पर वह प्यार नहीं कि तुमसे शादी की सोचूं। यह असंभव है चीनू।
         
          ‘'तो इतने दिनों से जो संबंध हैं हम दोनों के वह बस ऐसे ही हैं।'

          ‘देखो चीनू हम दोनों के बीच जो वास्तविक रिश्ता है वह सिर्फ़ चाची-भतीजे का है। जिस संबंध की तुम बात कर रहे हो वह तो एक विकृति है। गलत है उसमें कोई प्यार नहीं है। वह तो सिर्फ़ दैहिक आकर्षण है। देह की भूख है। परस्पर विपरीत लिंग के देह का आकर्षण। और यह हम दोनों के बीच जो हुआ यह एकदम गलत है।

          समाज को पता चल गया तो लोग हम पर थूकेंगे भी नहीं। हां यह जो गलत हुआ इसके लिए मैं अपने को ज़िम्मेदार मानती हूं। पूरी तरह से मैं ज़िम्मेदार हूं। एक अजीब सी स्थिति में न जाने किस भावना में मैं बह गई उस दिन। और वह पापपूर्ण क़दम उठा बैठी। मैं तुम्हें ज़िम्मेदार कहीं से नहीं मानती। एक किशोर विपरीत लिंग के प्रति जैसे आकर्षित होता तुम भी उन दिनों उसी तरह स्त्री शरीर के दीवाने थे। तुम जो बराबर मेरे शरीर की ताक- झांक करते रहते थे वह मुझ से छिपा नहीं था। मैं तुम्हारी हर हरकत के मर्म को समझती थी।

          कहते हैं औरत बहुत भावुक होती हैं। भावुक क्षणों में वह बड़ी जल्दी बिखर जाती हैं। या वह एक ऐसे पके फल के समान होती है जो मर्द का हल्का शीतल स्पर्श पाते ही उसकी गोद में गिर जाती है। उस दिन मैं भी भावनात्मक स्तर पर इतना टूट चुकी थी कि तुम्हारे जैसे लड़के मतलब की भतीजे के स्पर्श से ही बिखर गई। मेरी जिंदगी का यह सबसे पापपूर्ण कृत्य है जिसकी मुझे जो सजा मिले वह कम है। मेरे तुम्हारे बीच रिश्ता प्रेमी-प्रेमिका का नहीं है, न ही हो सकता है। और पति-पत्नी की बात तो सोची ही नहीं जा सकती। तुम अपने दिलो-दिमाग से यह फितूर निकाल दो और जो लड़की पसंद हो उससे शादी कर के अपना जीवन संवारो।

          मेरे साथ अपना जीवन बरबाद मत करो। रही मेरी बात तो मैं वह महल हूं जिसकी एक-एक ईंट हिल चुकी है। महल कब ढह जाए इसका कोई ठिकाना नहीं है। इसलिए फिर कहती हूं कि हमारा तुम्हारा यह शारीरिक संबंध निकृष्टतम विकृति है। और यह अच्छी तरह जान लो कि विकृति हमेशा घृणापूर्ण होती है, दुखदाई होती है। अपमानपूर्ण होती है। फिर हम दोनों जिस विकृति का शिकार हैं वह तो इतनी खराब है कि जब सेक्स का तुफान गुजर जाता है तो खुद अपनी ही नजर में इतना अपमान घृणा पश्चाताप महसूस होता है कि लगता है कि जमीन फट जाए और उसी में समा जाऊं।

          '‘मुझे आपकी यह सारी बातें बकवास लगती हैं। अरे! जब इतना ही अपमानपूर्ण लगता है तो इतने बरसों से मुझ से बार-बार संबंध क्यों बनाती आ रहीं हैं। माना पहली बार आप भटक गईं। पर दूसरी बार, तीसरी बार, चौथी बार और फिर इतने सालों से बार-बार। ये क्या तमाशा है। चाची जिसे भटकाव या जो तुम बोल रही हो कि पका फल हो टूट कर गिर जाती हो मेरी गोद में सब बकवास है झूठ है।

          भटकाव एक बार होता है। बार-बार नहीं। यह सालों से चला आ रहा हमारा तुम्हारा संबंध भटकाव नहीं है। पूरी तरह सोचा, समझा, जाना, परखा संबंध है। और मैं इस संबंध को जीवन भर बनाए रखना चाहता हूं। क्योंकि इसके अलावा मुझे कुछ और स्वीकार नहीं है। इसलिए अगर तुम्हें यहां डर है तो चलो कहीं और चलें । किसी ऐसे शहर में जहां हम दोनों अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जी सकें। तुम मुझ पर भरोसा रखो चाची, मैं ये नौकरी भी छोड़ दूंगा, किसी दूसरे शहर में कुछ और कर लूंगा। बस तुम मेरे साथ चलो चाची।'

           चीनू ने बड़े सख्त लहजे में कही थीं ये बातें। उसकी आवाज़़ उसके एक-एक शब्द से मैं अंदर तक सिहर जा रही थी। मगर मैंने सोचा कि अगर इस समय दिमाग से काम न लिया तो यह बात बहुत बड़ा बवंडर पैदा कर देगी। सो मैंने संतुलन बनाए रखा। धैर्य नहीं खोया। बड़े प्यार से कहा,

           ‘चीनू मेरी बात को पहले ध्यान से सुनो। स्थिति को ठीक से समझो। इसके बाद कुछ बोलो। ये सब फ़िल्मों में बड़ा आसान लगता है कि चलो भाग चलें। या हीरो पूरी दुनिया को ठेंगे पर रख कर कुछ भी कर डालता है। हक़ीक़त में यह सब नहीं होता। ज़िंदगी बहुत कठोर है। आज तुम सिर्फ इसलिए इतने उतावले हो मेरे साथ शादी करने और जीवन भर साथ रहने के लिए क्यों कि एक खा़स किस्म के शरीर का स्वाद जो तुम्हारे दिलो-दिमाग पर चढ़ गया है उसके तुम दीवाने हो।

          जिस दिन इस स्वाद से जी भर जाएगा तो आज मेरा जो शरीर तुम्हें जान से प्यारा है वही कल एक बदबूदार कचरा नजर आएगा। यह लगाव महज हवस के कारण है। इसलिए जहां एक बार एक छत के नीचे चौबीस घंटे एक साथ निभाए तो जी उकता जाएगा। अलग भागते हमें देर न लगेगी। रही बात कि इतने दिनों से कैसे चला आ रहा है रिश्ता ? तो बात बड़ी साफ है कि अभी हम एक दूसरे की कोई ज़िम्मेदारी नहीं उठाते। एक साथ कुछ ही देर रहते हैं। यह बात तुम भी अच्छी तरह मानोगे कि सेक्स का तुफान गुजरते ही सब लगाव टूटने लगते हैं और घृणा, विशाद से मन भारी होने लगता है।

          '‘मुझे यह सारी दलीलें बिल्कुल समझ में नहीं आतीं। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूं कि मैं सिर्फ तुमसे ही शादी कर सकता हूं। क्योंकि दुनिया में मुझे आज तक केवल तुम्हारे पास आने पर ही सैटिसफैक्शन मिलता है। कहने को यूनिवर्सिटी लाइफ और उसके बाद भी तरह-तरह की करीब एक दर्जन लड़कियों से संबंध बने मगर मुझे हर जगह एक खालीपन-अधूरापन ही मिला। हर लड़की के साथ लगता अरे! यहां यह कमी है। अरे! यह तो मेरे लिए है ही नहीं। कौन है मेरे लिए किसकी बाहों में मुझे संतुष्टि मिलती है। कई बरसों तक मैं समझ ही नहीं पाया। इस प्रश्न पर बड़ी मगजमारी करता रहा। फिर धीरे-धीरे यह महसूस किया कि यह स्थिति उस दिन नहीं होती जिस दिन तुम मेरी बाहों में होती हो। इस बात पर मैंने बहुत गहराई से सोचा, बराबर सोचा, हर बार निष्कर्ष यही निकला कि मुझे कंप्लीट सैटिसफैक्शन तुम्हारे साथ वक़्त बिता कर ही मिलता है।

          तुम जैसी परफेक्ट औरत दुनिया में है ही नहीं। और फिर चाचा पर तरस आता है, वे मुझे मूर्ख नजर आते हैं कि तुम्हारी जैसी परफेक्ट औरत के रहते वह दूसरी औरतों के पीछे भागते हैं। बस इसीलिए मैं आए दिन तुम्हारे पास भाग आता हूं। जब बिस्तर पर तुम्हारे सारे कपड़े सेकेंडों में उतार देने के लिए मैं पागलपन की हद तक तुम्हें झिंझोड़ डालता हूं इसी से तुम अंदाजा लगा सकती हो कि मैं तुमको कितना चाहता हूं। जब मैं तुम्हारे शरीर के साथ एक हो जाता हूं तो अलग होने का मन ही नहीं होता, बस जी करता है कि हमेशा तुमको ऐसे ही अपने से चिपकाए पड़ा रहूं। तुम्हारे शरीर के एक-एक अंग हर पल मेरे दिलो-दिमाग पर छाए रहते हैं। तुम्हारे शरीर की गर्मी से जैसे मैं जिंदा हो जाता हूं। मैंने बहुत सोचा लेकिन मुझे उत्तर यह मिलता है कि दुनिया में तुम्हारे सिवा मेरे लिए कोई और औरत है ही नहीं। इसलिए मैं कह रहा हू चलो मेरे साथ। कहीं बहुत दूर चल कर शादी करके जीवन जीते हैं। वैसे भी चाचा के साथ तो न तुम संतुष्ट हो न वो। तब एक छत के नीचे एक सड़ती हुई जिंदगी जीने का क्या फायदा। चलो-मेरे साथ चलो।'

          ‘चीनू पहले मेरी बात ध्यान सुनो। न मैं इनसे ऊबी हूं न ये मुझ से। पति-पत्नी में झगड़े का मतलब यह नहीं कि रिश्ते सड़ गए। जब रिश्ते सड़ जाते हैं तो एक छत के नीचे वह रह ही नहीं पाते। तुम्हारे मां-बाप के बीच भी झगड़े होते हैं, तुम खुद बता चुके हो। तो क्या उसका मतलब यह है कि वह दोनों अलग हो जाएं।

           मैं बार-बार कह रही हूं कि तुम एक सुंदर लड़की से शादी कर लो। पहली रात तुम उसे पत्नी के रूप में अपनी बांहों में लोगे तो तुम्हारा सारा भ्रम दूर हो जाएगा। अभी तक तुम जिन लड़कियों की बातें कर रहे हो वह केवल वासना की भूख शांत करने का रिश्ता था। वहां भावना नहीं है। इमोशनल अटैचमेंट नहीं है। इसलिए तुम भ्रमित हो। रही बात मेरे लिए कि मेरे साथ संबंध बना कर ही तुम्हें संतुष्टि मिलती है तो यह भी एक भ्रम है। होता यह है कि हम सब कोई चीज पहली बार देखते हैं और यदि वह हमारी नजरों को भा जाता है तो उसका एक स्थाई भाव उसकी एक स्थाई तस्वीर हमारे दिलो-दिमाग पर बैठ जाती है। फिर उसके बाद जब हम कुछ और देखते हैं तो हमें पहले वाली तस्वीर ही बेहतर लगती है। दूसरी सारी तस्वीरों में हम पहली वाली तस्वीर का ही अक्स ढूढ़ने लगते हैं। बस यहीं सारी समस्या खड़ी होती है।

           तुम्हारे साथ वास्तव में यही हुआ है। जब तुम अश्लील किताबों में औरतों के साथ खुले सेक्स संबंधों के बारे में पढ़ते थे उनके चित्र देखते थे तो मन में वही सब करते थे। तुम्हारा मन जैसे-तैसे तुरंत एक संबंध या सेक्स करने के लिए एक औरत पाने के लिए तड़प उठता था। तुम व्याकुल रहते थे एक औरत पाने के लिए। यही वजह थी कि तुम जैसे-तैसे किसी औरत के शरीर को देखने की कोशिश में लगे रहते थे। इस बीच दुर्भाग्य से वह मनहूस काली रात भी आ गई जब तुम्हें वह मिल गया जिसकी तुमने कल्पना तक न की थी। तुम्हें एक भरीपूरी औरत मिल गई जो बिना किसी प्रयास के खुद ही आ कर तुम्हारे आगे लेट गई। पूरी तरह समर्पण कर दिया। सोने पे सुहागा यह कि जिस औरत को तुम छिप-छिप कर झांका करते थे। जिसके एक-एक अंग को अंदर तक नग्न देखने के लिए लालायित रहते थे वह सारे अंग तुम्हारे आगे खुद ही बिना प्रयास के आ गए। उन नग्न अंगों की चमक़,  उनकी गर्मी, स्पर्श एवं घर्षण का अहसास तुम्हारे दिलो-दिमाग पर एक स्थाई भाव बन कर बैठ गया।

          तुमने पहली बार किसी औरत का जो नंगा शरीर देखा उसकी तस्वीर स्थाई भाव के रूप में तुम्हारे रग-रग में बस गई। उसी का परिणाम है कि अब तुम्हें दूसरी हर औरत नकली लगती है। क्योंकि तुम सब में मेरे जैसे ही अंग को ढूंढ़ने लगते हो। इसका समाधान एक ही है कि तुम जल्दी से जल्दी शादी करो। जब पत्नी के रूप में एक नई लड़की अपने प्यार, स्नेह, श्रद्धा, उत्साह के साथ, अपने जवान शरीर की गर्मी के साथ तुम्हें अपने अंगों से लगाएगी तो तुम इस प्रौढ़ औरत के शरीर के प्रभाव से एकदम बाहर निकल जाओगे। एक नई दुनिया में पहुंच जाओगे जहां खुशियां हर तरफ से तुम पर बरस रही होंगी। इसलिए यह बचपना छोड़ो मेरा कहना मानो और शादी कर लो।

          मेरी यह दलील सुन कर चीनू एक बार फिर भड़क गया। बोला,

          '‘शादी-शादी-शादी, दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। तुम असल में मेरी शादी नहीं बल्कि अब मुझ से भी जी भर जाने के कारण पीछा छुड़ाने में लगी हो। अब तुम्हारा मतलब निकल गया है तो मुझ से बचना चाहती हो।'

          उसकी जी भर जाने वाली बात से मुझे भी गुस्सा आ गया। हां .... एक बात बताना भूल गई। उस दिन से पहले उसने मुझे कभी तुम कह कर नहीं संबोधित किया था। मगर उस दिन ऐसे बड़े अधिकार से तुम-तुम कर रहा था मानो मैं उसकी रखैल या बीवी हूं। तो उसकी बातों से गुस्से में आकर मैं भी तेज आवाज़़ में बोल पड़ी पागल हो गए हो तुम! इतनी देर से समझा रही हूं मगर तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है, जो संभव नहीं है वह करने के लिए कह रहे हो ?’

          इसके पहले मैं कभी उससे इतने गुस्से में इतनी तेज आवाज़ में नहीं बोली थी। तो एक बार वह भी सकपका गया। मगर मैंने कहा न अब तक वह भी एक शातिर आदमी बन चुका था। सो कुछ ही क्षण में संभल कर बोला,
          ‘अगर चाची-भतीजे के बीच बरसों से शारीरिक संबंध हो सकते हैं। अगर तुम बेटे के उम्र के लड़के से मस्त हो कर संभोग कर सकती हो। अगर तुम बेटे के उम्र के लड़के से पागलपन की हद तक खेल सकती हो। एक जवान लड़के की मज़बूत बाहों में जी भर कर अपने को खेलती हो। अपने पति की आँखों  में धूल झोंक कर उसी के बिस्तर पर सारे कपड़े उतार कर घंटों सेक्स का नंगा नाच नाच सकती हो तो फिर कहीं और मेरे साथ चल कर शादी क्यों संभव नहीं है। और हां फिर कौन से हम दोनों सगे चाची-भतीजे हैं, मात्र एक दोस्त के अलावा तो कुछ भी नहीं हैं। यहाँ तक कि हमारी जाति भी एक नहीं। तो फिर गलत क्या है। सिवाय इसके कि तुम मुझसे उम्र में बड़ी हो। फिर ऐसी न जाने कितनी खबरें आए दिन छपती हैं कि सगी चाची-भतीजे, मौसी-भांजे, और न जाने कौन-कौन से रिश्ते के लोग शादी कर लेते हैं तो हम क्यों नहीं ?’'

          ‘मगर ये बताओगे कि उन में से कितने रिश्ते सफ़ल हुए हैं। समाज में वह कहां खड़े हुए हैं। सेक्स का बुखार उतरते ही ये सब टूट कर बिखर गए हैं। ऐसा कोई रिश्ता स्थाई रहा हो मुझे तो एक भी नहीं पता। तुम्हें पता हो तो बताओ।

          '‘लेकिन हम लोगों का रिश्ता नहीं टूटेगा।'

          ‘क्यों .... क्या हम दोनों इस दुनिया से अलग हैं।

          '‘शायद इसी लिए तो हम दोनों के रिश्ते इतने बरसों से चले आ रहे हैं।'

          ‘रिश्ते अभी हुए ही कहां हैं ? अभी तक तो बस कुछ समय मिलते हैं अलग हो जाते हैं यह कोई रिश्ता नहीं है।

          '‘तो आखिर तुम कहना क्या चाहती हो। क्या तुम शादी नहीं करोगी।'

          चीनू का यह धमकी भरा लहजा देख कर मैं अंदर ही अंदर थोड़ा डरी लेकिन ऊपर से पूरी सख्ती दिखाती हुई बोली,

          ‘देखो आज तक तुम्हारे मन का सब करती रही।

          ‘'मेरे मन का ? मेरे मन का तुमने क्या किया। अरे! आपको मेरे साथ मजे लेने थे तो सब अपने मन का अपने लिए किया।'

          ‘चलो अच्छा अपने मन का किया मैंने। लेकिन साथ में हुआ तो तुम्हारे मन का भी न। तुम भी मेरे साथ सब कुछ करना चाहते थे। और नजरें बचा-बचा कर मेरे शरीर पर नजरें गड़ाए रहते थे। और जब मेरा शरीर मिल गया तो तुमने कौन सी कोर कसर छोड़ रखी थी, मैंने एक बार गलती की और तुमने उसका बार-बार फायदा उठाया। जब मन हुआ आकर टूट पड़े। मना करने पर मानते नहीं, एक तरह से ब्लैकमेल तक किया।

          ‘'ओह! तुमने गलती सिर्फ़ एक बार की और मैं तुम्हें ब्लैकमेल करता रहा। यह झूठ है। न जाने कितनी बार तुमने खुद फ़ोन करके बुलाया। जब पहली बार मैं यहां से गुस्सा हो कर चला गया था तो तुम्हीं ने घर फ़ोन करके हालचाल लेने के बहाने संकेत दिए कि आ जाओ। कई बार मैं आया ज़रूर लेकिन मेरा मन कुछ करने का नहीं था, मगर तब पहल तुम्हीं करती रही। फिर मर्द तो मर्द ठहरा, कोई औरत उसके सामने बदन दिखाए, उसे उत्तेजित करने की कोशिश करे इस पर यदि वह उसके साथ सेक्स करता है तो इसमें मर्द की कोई गलती नहीं।

          क्योंकि वह आदमी है कोई भगवान नहीं कि उस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। वास्तव में तुमने सही कहा कि मैं तुम्हारे शरीर का आदी हो गया हूं और यह भी सच है कि तुमने मुझे अपने शरीर का आदी बनाया। अपने शरीर की आदत डाल दी है मुझ में। और जब आदत बना दिया और तुम्हारा जी भर गया मेरे साथ सेक्स करते-करते तो अब मुझ से छुटकारे के लिए तड़प रही हो। लेकिन मैं भी बहुत जिद्दी इंसान हूं, जो मन में आता है उसे करके ही दम लेता हूं। अगर तुम मेरे साथ चल नहीं सकती तो न सही, मैं भी कहीं छोड़ कर जाने वाला नहीं। जैसा अब तक चलता रहा है ऐसे ही चलेगा। अब मैं जब चाहूंगा तब तुम्हारे पास आकर तुम्हें रौंदुंगा। तुम कुछ नहीं कर पाओगी। शादी-वादी गई भाड़ में। अब मुझ से इस बारे में कोई बात नहीं करना।'

          इतना कह कर चीनू जाने के लिए ताव में उठ खड़ा हुआ। मुझे हर तरफ अंधेरा-अंधेरा सा दिखने लगा कि यह पागलपन में सब कुछ खोल कर रख देगा। शादी के लिए इंकार करने पर जब हर तरफ से इस पर दबाव पड़ेगा तो यह अपना पागलपन जाहिर कर देगा। मैं कांप गई अंदर तक। मैंने जल्दी से खुद को संभाला। और उठ कर बड़े अपनत्व, बड़े अधिकार से उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया। फिर उसे करीब-करीब पूरी ताकत लगा कर बैठाया।

           हां उसने प्रतिरोध भी कुछ खास नहीं किया, इससे मैं तुरंत समझ गई कि यह भी बात करने और समस्या के हल के लिए तैयार है। उसे बैठा कर मैंने कहा,

          ’पहले तुम शांति से कुछ देर बैठो। दिमाग को ठंडा करो। तब तक मैं चाय बना कर लाती हूं। उसके बाद बात करती हूं। मेरी इन बातों पर वह बोला कुछ नहीं बस मुंह फुलाए बैठा रहा। मैं चाय बना कर ले आई। साथ बैठ कर जब-तक चाय पी तब-तक हम दोनों में कुछ बात नहीं हुई। चाय के बाद मैंने कहा सुनो चीनू एक रास्ता निकालते हैं जिससे सब ठीक हो जाए।

          '‘क्या ?’'

          ‘देखो बात ये है कि अभी तक तुमने केवल मुझ जैसी प्रौढ़ औरत या यूनिवर्सिटी की कुछ स्वच्छंद आचरणवाली लड़कियों के साथ केवल शारीरिक संबंध ही बनाए हैं। इन संबंधों के बीच कहीं भावनात्मक रिश्ते नहीं थे। इसलिए संबंधों में जो गहराई, जो मधुरता चाहिए वह गायब है। इसीलिए मैं कह रही हूं कि अब तुम उससे आगे का भी अनुभव लो। पति-पत्नी के रिश्ते का मजा क्या होता है। अपने परिवार, अपनी गृहस्थी क्या होती है उसको भी ज़ियो। क्योंकि जीवन का यह एक ऐसा हिस्सा है जिसे जिए बिना यह पूरा जीवन ही अधूरा है। यदि जीवन का यह हिस्सा नहीं जीया तो असली जीवन तो जीया ही नहीं, इसलिए पहले तुम जीवन को जीयो। अगर तुम्हें वह जीवन अच्छा लगे तो उसी में आगे बढ़ना। और न लगे तो छोड़ कर आ जाना मेरे पास। तब जैसा कहोगे वैसा करूंगी। मेरी बात पर ध्यान दो और अब तुम्हें बिना किसी हील-हुज़्ज़त के तुरंत शादी कर लेनी चाहिए ?’

          '‘वाह! क्या फार्मूला निकाला है। ले दे कर फिर वही बात। वाकई तुम न सिर्फ़ बेहद चालाक हो बल्कि बहुत बड़ी स्वार्थी भी हो। अपने मन का करने के लिए किसी की भी बलि ले सकती हो।'

          ‘अब इसमें बलि की बात कहां से आ गई।

          '‘इतनी मासूम भी नहीं हो तुम कि जो कह रही हो उसका मतलब उसका परिणाम नहीं जानती। बड़ी चालाकी से मुझे अलग करने का रास्ता बनाया। मैं शादी कर लूं और फंस जाऊं। शादी के बाद पत्नी बच्चे के चक्कर में उलझ कर रह जाऊं। और तुम इतने बरसों मुझ से ऐश करने के बाद ऊब गई तो आराम से छुटकारा पा जाओ। तुमने अपने स्वार्थ के लिए यह जो रास्ता बनाया उसके लिए जरा भी तुम्हारा जमीर नहीं जागा कि इससे एक अनजान, मासूम लड़की की ज़िंदगी बरबाद होगी। ये जानते हुए भी कि शादी के बाद जब मेरा मन उसके साथ नहीं लगेगा। मैं तुम्हारे पास लौटूंगा तो उस लड़की पर क्या गुजरेगी। उसके मां बाप भाई-बहन मेरे परिवार वाले कितने कष्ट में पड़ जाएंगे एक झटके में कितने लोगों की ज़िंदगी बरबाद होगी। अपने मन की करने के लिए अपना स्वार्थ साधने के लिए तुम एक मासूम लड़की की ज़िंदगी में आग लगाने को कितनी आसानी से तैयार हो गई।'

          ‘इसीलिए कहती हूं कि तुम अभी बच्चे हो। तुम्हें ज़िंदगी की हकी़क़त का कोई अंदाजा नहीं है। इसीलिए तुमको मैं स्वार्थी और न जाने क्या-क्या लग रही हूं। मगर मैं जो कह रही हूं अपने अनुभवों अपनी जानकारी के आधार पर कह रही हूं, इस विश्वास के साथ कि इससे तुम्हारा जीवन बरबाद होने से बचेगा। तुम्हारा भविष्य बहुत अच्छा हो जाएगा।

          ‘'अच्छा जरा मैं भी तो जानूं कि तुम्हारा अनुभव कैसे हमारा भविष्य बढ़िया बना रहा है।'

          ‘मेरा अनुभव! मैंने दुनिया जितनी देखी जानी समझी है उसके आधार पर कह रही हूं। एक रास्ता है, जिस पर तुम चलोगे तो तीन ज़िन्दिगियाँ बरबाद होंगी। आग लग जाएगी। सब जलकर भस्म हो जाएगा। पहली तुम्हारी, दूसरी मेरी, तीसरी मेरे पति की। हां, तुम्हारा  परिवार भी नहीं बचेगा। जब दुनिया को यह पता चलेगा कि तुम और मैं ऐसा कर चुके हैं तो तुम्हारे भाई-बहनों से कोई रिश्ता नहीं करेगा।

          मां-बाप इन सारे अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। और तुम जो भी यह कह रहे हो कि मेरे बदन का नशा तुम पर इतना है कि तुम कुछ भी कर सकते हो, तो सुनो जब एक छत के नीचे रहोगे तो यह बेमेल संबंध बिच्छू की तरह तुम्हें डंक मारने लगेगा। तब तुम्हारे लिए कुछ न बचेगा। तब न तुम इधर आ सकोगे न उधर। दुनिया का हर कोना तुम्हें बरबाद, उखड़ा विरान लगेगा। जबकि दूसरे रास्ते पर यदि तुम चलोगे तो न सिर्फ़ तुम्हारी बल्कि बाकी सबकी ज़िन्दिगियाँ भी बढ़िया बनी रहेंगी । अभी तुम यह नहीं जानते की बीवी-बच्चे का सुख क्या होता है। जब बीवी का मधुर स्पर्श, बच्चे की किलकारी तनमन में रस घोलेगी तो तुम्हें यह रिश्ता, मेरा बदन, यह सब याद करके ही घिन आएगी। तुम तड़प उठोगे कि यह सब क्या हो गया था मुझ से।

          '‘हुंअ ........ अ .... । ये सब फालतू बकवास है चाची। वो जमाने लद गए जब लड़कियों के स्पर्श में पवित्रता की ऐसी गर्मी होती थी कि बिगड़ा से बिगड़ा पति भी उसके आगे नजरें झुका लेता था। मैंने खुद अपने ताऊजी को देखा है। घर ही नहीं आस-पास के गांव के लोग भी उनसे थर्राते थे। सबसे दबंग प्रधानों में उनकी गिनती होती थी। लेकिन वही ताऊजी ताईजी के सामने आते ही न जाने क्या होता कि एकदम सीधे रहते । ताई बोल दें कि यह काम होना है तो हिम्मत थी कि वह न कर दें। लेकिन ताईजी भी ताऊ को जुखाम भी हो जाए तो समझो दुनिया एक कर देती थीं। तब उनके स्पर्श के सामने ताऊजी नहीं बोल पाते थे।

          मगर आज की लड़कियों में इतनी गर्मी, समर्पण, पवित्रता कुछ भी नहीं है। शादी के पहले ही दस खसम करके आती हैं। यूनिवर्सिटी में जब मैं था तो खुद कितनी लड़कियों के बारे बता चुका हूं तुम्हें। कोई चार दिन इस लड़के के साथ मौज-मस्ती करती है तो चार दिन उसके साथ। जिसको मैं एक बार यहां लेकर आया था। वह मेरे से पहले और बाद भी न जाने कितने लड़कों के साथ मस्ती करती रही। कुछ तो ऐसी भी रहीं जो एक साथ कई-कई लड़कों के साथ मस्ती करतीं। मैंने खुद ऐसा कई बार किया। और आज भी उस लड़की की बात भूलता नहीं। जब एक लड़के ने उसकी ठुकाई करने के बाद कहा,

          ‘अबे बड़ा दम है तुममें। पांच-पांच को निचोड़ लिया और चेहरे पर शिकन तक नहीं।

          तो वह बोली थी।

          ‘जस्ट फ़न यार, अभी तो तेरे जैसे पांच और फुग्गों को निचोड़ सकती हूं।

          तो ऐसी लड़कियों से उम्मीद करती हो कि वो काया पलट देंगी।'

          ‘तुम सही कह रहे हो, ऐसी लड़कियां कुछ नहीं कर सकती। लेकिन सच तो यह है कि सब ऐसी नहीं होतीं । बीस-पचीस परसेंट ही होती हैं ऐसी। इसलिए ये बात अपने दिमाग से निकाल दो। नहीं तो फिर देहात की कोई लड़की हो उससे शादी करो। पढ़ी-लिखी काम भर की तो वहां भी मिल जाएंगी।

          '‘हं .... अ .... देहात में कौन सी पाक-साफ हैं सब। फ़िल्म, टीवी देखदेख कर वहां तो और भी पगलाई हैं सब।
         
          ताऊजी का लड़का ही न जाने कितनी लड़कियों के साथ ऐश करता रहता है। जब मैं जाता हूं गांव तो कई बार उसने कई लड़कियों से मौज मस्ती करवाई। वो भी ट्यूबवेल पर। एक बार तो नदी में, जिसमें केवल बारिश में ही पानी रहता है। जब जगह नहीं मिली तो उसके पुल के नीचे ही सब कुछ किया। गांव के लेखपाल की लड़की थी। जिसका काफी समय से वह मजा ले रहा था। उस दिन मुझे सामने देख कर उसने पहले नखरे दिखाए, पर कुछ ही देर में मान गई। फिर ऐसे सब कुछ किया उसी पुल के नीचे कि क्या बताऊं।'

          ‘भइया तुम्हारी मानें तो दुनियां में सारी लडकियां एक सी हैं। तब तो कोई लड़का-लड़की शादी ही नहीं कर सकता। क्योंकि यदि सारी लड़कियां ऐसी हैं तो सारे लड़के भी तो ऐसे ही हैं।

          ‘तो गलत क्या कहा मैंने?जो दुनिया मैं देख रहा हूं वही बता रहा हूं। कोई फेंक नहीं रहा हूं।'

          ‘ठीक है तुम जो बता रहे हो वह सच है। लेकिन कुल सच का वह एक पक्ष मात्र है। कुल का कुछ प्रतिशत है बस

          '‘अच्छा ....  ।'

          ‘हां सच का संपूर्ण पक्ष यह है कि यदि पचीस प्रतिशत लड़कियां गलत हैं तो उतने ही लड़के भी। क्योंकि जब लड़के साथ होते हैं तो तभी लड़कियां गलत करती हैं। तुम ये बात दिमाग से निकाल दो कि सब एक सी होती हैं। और फिर तुम्हें तो इस बात पर ज़्यादा ध्यान देना ही नहीं चाहिए। जिस लड़की के साथ इमोशनली जुड़ोगे फिर उसके बाद दिमाग में ये बातें आएंगी नहीं, और फिर मेरे साथ जब संबंध बनाते हो तब तो यह सब नहीं कहते। आखिर तुमसे पहले इनके साथ मेरे संबंध बराबर बने हुए हैं। अब तुम मेरे साथ जीवन भर साथ रहने की बात करते हो। तुम अपने मन का भ्रम दूर करो। किसी की बात में या किसी संकोच में न आओ। अपनी मनपसंद लड़की से शादी कर लो पहले दिन से ही सब ठीक हो जाएगा।

          '‘मनपसंद-मनपसंद बात कर रही हैं। मैं कह रहा हूँ कि मेरे मन की कोई लड़की नहीं है।'
          ‘अरे! कैसी बात कर रहे हो। ऐसी कैसी लड़की चाहते हो कि इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हारे मन की कोई लड़की ही नहीं है।

          '‘मैं ऐसी लड़की से ही शादी कर सकता हूं जो मेरे सामने जब आए तो मुझे ऐसा अहसास हो कि सामने तुम खड़ी हो। क्योंकि तुम्हारी जैसी जो होगी उसी के साथ मैं रह पाऊंगा।'

           ‘अरे! मुझ में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं जो किसी और लड़की में नहीं हैं।

          '‘बात सुर्खाब के पर की नहीं है। बात अपनी-अपनी पसंद की है। मैं हर लड़की को तुम्हारी जैसी देखना चाहता हूं। जिसके तुम्हारे जैसे ही बड़े सुडौल ब्रेस्ट हों। उनका शेप भी तुम्हारे ब्रेस्ट जैसा ही हो। जिसके होठ उठे हुए थोड़ा मोटे हों, आँखें तुम्हारी जैसी हों। जिसकी कमर तुम्हारी जैसी हो। जिसका पेट तुम्हारी तरह हल्का उभरा हो, जिसकी नाभि पानी में पड़ते भंवर की तरह गोल गहरी हो तुम्हारी नाभि की तरह। जिसके हिप तुम्हारी तरह गोल भारी ऊभरे हों। जिसकी वजाइना तुम्हारी तरह पागल कर देने वाली हो। जिसकी जांघें तुम्हारी जांघों की तरह पूरी गोलाई लिए हो, जो सेक्स के समय तुम्हारी तरह पागल बना दे। तुम सेक्स का जो मजा देती हो वो वही दे सकता है जो इसकी एक-एक बारीकी से वाकिफ़ हो। और सच यह है कि मुझे आज तक ऐसी कोई लड़की नहीं मिली। मैं सबमें तुमको तलाशता रहा मगर किसी में तुम आधी भी न मिली। न सही सब कुछ तुम सा लेकिन बहुत कुछ तो हो तुम सा।'

          ‘हे भगवान तुम सेक्स और औरत के शरीर को लेकर इतना गंभीर हो, उसमें इतना गहरे प्रवेश कर चुके हो इसका मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था। खैर तुम जो कह रहे हो सही कह रहे हो। और अब मैं कह रही हूं कि तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा। बस तुम एक काम करो कि जितनी लड़कियों के रिश्ते आए हैं तुम उसमें से जिसमें सबसे ज़्यादा अपने मन की बातें देखो उसी से शादी कर लो। रही बात कि उसे सेक्स की हर बारीकी पता हो तो यह तो शादी के बाद ही पता चलेगा वह भी तब जब तुम उसके मन से संकोच खत्म कर दोगे। और हां  इतने बरसों में सेक्स की हर बारीकी तो तुम मेरे साथ जान ही चुके हो। यदि उसमें कुछ कमी रह जाए तो उसे सिखा देना। औरत सेक्स कैसे करे यह सब तो पति के हाथ में होता है।

          बिब्बो फिर ऐसी ही न जाने कितनी बातें कितने तर्क-वितर्क हम दोनों के बीच होते रहे। कभी बात बनती नजर आती, कभी बिगड़ती। और अंततः उसने मानने के लिए एक शर्त रख दी। जिसे मानने के अलावा और कोई रास्ता उसने नहीं छोड़ा था।

     ‘शर्त क्या थी ?’

          ’उसने बड़ी कड़ाई के साथ अपनी शर्त रखते हुए कहा 'मैं तुम्हारी बात इस शर्त पर मानूंगा कि यदि शादी के बाद मेरे मन की बात नहीं हुई तो मैं तुम्हारे पास आऊंगा। और अब तक जैसे हम संबंध बनाते रहे हैं वैसे ही हमारे संबंध बने रहेंगे।'’

          ‘और दुर्भाग्य से यह खेल शादी के बाद भी चलता रहा ?’

          ‘हां ..... दुर्भाग्य से खेल शादी के बाद भी चलता रहा।

          मैंने बहुत नानुकुर की लेकिन वह टस से मस न हुआ। अंततः मुझे झुकना पड़ा कि शादी के बाद अगर उसके मन का न हुआ तो वह सेक्स संबंधों के लिए मेरे पास आ सकता है।
          ‘बाप रे बाप। हे! भगवान तूने भी क्या दुनिया बनाई। उसकी शादी के बाद भी तुम दोनों का गंदा घिनौना-पापपूर्ण खेल चलता रहा। तुम चाहती तो रोक सकती थी। कुछ देर पहले तो तुमने कहा कि उसकी शादी से दो दिन पहले तुम उसके साथ सेक्स के शिकंजे से निकल आई थी।

‘     ‘हां मैंने सही कहा था, कि मैं उसके साथ सेक्स के शिकंजे से उसकी शादी से दो दिन पहले निकल आई थी। लेकिन वह नहीं निकला था। मैंने हर संभव कोशिश की थी। यहां तक कि जब उस दिन भी जिद कर बैठा तो मैंने कहा, ठीक है तुम जिस ढंग से जितना चाहो वह सब मनमानी कर लो लेकिन शादी के बाद सेक्स की बात नहीं करो तो अच्छा है। लेकिन सब व्यर्थ गया, मेरे भस्मासुर ने न सिर्फ़ उस दिन पूरी मनमानी के साथ मेरे शरीर को रौंदा बल्कि जिस दिन बारात जानी थी उसके एक दिन पहले भी वह सबकी नजर बचा कर, शादी पर होने वाली रस्मों की परवाह न करते हुए आ गया और फिर अपनी मनमानी कर गया। मगर उस समय शादी को ले कर उसमें जो उत्साह था उसे देख कर मुझे यकीन था कि शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा।

          मगर शादी के दस दिन भी न बीते थे कि वह फिर आ धमका, फिर मनमानी करने की कोशिश की तो सख्ती से विरोध किया। पूछा क्या कमी रह गई बीवी में? क्या उसका शरीर मेरे जैसा नहीं है?क्या सेक्स की बारीकियां वह नहीं जानती ? तो वह धूर्तता के साथ बोला,

          '‘तुम विह्सकी हो तो वह रम है, दोनों का अपना-अपना मजा है। कई दिन से रम का मजा लेकर ऊब गया तो सोचा चलो आज विह्सकी का मजा लूं।'
         
          ‘तुम ये गलत कर रहे हो। जब बीवी से तुम्हें पूरा मजा मिल रहा है तो तुमको मेरे पास नहीं आना चाहिए तुमने खुद ही यह शर्त रखी थी। तुम्हारी बातों से साफ है कि तुम जैसी बीवी चाहते थे वह सब तुम्हें मिल गया है।

          '‘नहीं सच यह है कि शर्त पूरी भी हुई है और नहीं भी।'

          ‘इसका क्या मतलब है।

          '‘इसका मतलब यह है कि जैसी बातें हुई थीं कि अंग-अंग उसका तुम्हारे जैसा हो वह तो नहीं है। लेकिन जैसा भी है वह भी मस्त कर देने वाला है। उसकी कोयल जैसी आवाज़़ दीवाना बना देती है। सेक्स के समय उसका परम मासूम अनाड़ीपन बताता है कि वह शादी के समय कुंवारी ही थी।'

          ‘अच्छा! पहले तो बड़ा चिल्ला रहे थे कि आजकल कोई लड़की कुंवारी होती ही नहीं। फिर अनाड़ी होना कुंवारेपन की गांरटी कैसे हो गया।

          मैंने इस क्षण एक और चीज मार्क की, कि चीनू बीवी के लिए कुछ भी निगेटिव सुनना पसंद नहीं कर रहा। मेरी बात पर उसने बड़ी तल्खी से जवाब दिया।

          '‘ठीक है कि उसका अनाड़ीपन उसके कुंवारे होने की गारंटी नहीं है। लेकिन पहली रात में उसका दर्द से बिलबिलाना, वजाइना का इतना संकुचित होना कि इंट्री के लिए ताकत लगाना, और फिर वजाइना का खून से लथपथ हो जाना यह जरूर उसके कुंवारेपन की गारंटी थी।'

          उसकी बात सुनकर मैं हौले से मुस्कुरा पड़ी। बिजली की तरह मेरे दिमाग में अपनी सुहागरात कौंध गई कि मेरा पति भी तो खून से लथपथ वजाइना ढूंढ़ रहा था। शायद मन का सब न मिल पाने पर ही जीवन भर एक तरह की कुंठा से ग्रस्त रहा। मेरी मुस्कुराहट पर चीनू असमंजस में पड़ गया, वह बोला,
                  
          '‘इसमें मुस्कुराने की क्या बात है?'

          ‘नहीं मैं देख रही हूं कि मर्द चाहे जैसा हो मगर औरत को लेकर कुछ मामलों में सब एक जैसे होते हैं। पिछली पीढ़ी भी ऐसी ही थी। जैसे तुम या तुम्हारी पीढ़ी के अन्य हैं। सारे मर्द औरत की खून से लथपथ वज़ाइना में उसकी पवित्रता, उसकी ईमानदारी, नैतिकता, और अपना सारा सुख देखते हैं। और जो योनि क्षतविक्षत रक्त-रक्त न हुई तो वह अपवित्र-कुल्टा और न जाने क्या-क्या हो जाती है। औरत से उसकी पवित्रता, कुंवारेपन का सर्टिफिकेट मांगने वाले पुरुष अपने कुंवारेपन का सर्टिफिकेट भी देने की कब सोचेंगे । जिस पत्नी की खून से लथपथ वज़ाइना में तुमने अपनी खुशी देखी, ढूंढ़ी क्या अपनी उस पत्नी को भी अपने कुंवारेपन का सर्टिफिकेट देकर उसे भी अपने जैसी खुशी देने की सोची।

          ‘'क्या फालतू की बात लेकर बैठी हो। मूड का कचरा करने की ज़रूरत नहीं है। हमेशा ज़िंदगी के जीने की बात करती हो न तो मैं वही जी रहा हूं। तुम भी ज़ियो, चलो मस्ती करो। यह कह कर चीनू ने मुझे दबोच कर चूम लिया। मेरे सारे प्रतिरोधों को दर किनार करते हुए उसने मेरे शरीर को रबर का पुतला समझ जी भर कर रौंदा। मैं विवश सी पड़ी सिसकारियों, घुटी-घुटी चीखों के बीच में उसे परे धकेलने की असफल कोशिश के सिवा और कुछ न कर सकी।

          ‘इसीलिए कहते हैं कि यदि औरत के क़दम एक बार भटक जाएं तो दुनिया उसे फिर नहीं बख्शती, जीवन भर उसके भटके क़दमों को नोचती है। फिर वह कुत्ता तुम्हें कब तक नोचता रहा।

          ‘इसके बाद फिर वह कुछ महीनों तक हर आठ-दस दिन में एक बार ज़रूर रौंदता रहा मुझे।

          ‘और तुम खुद कितनी बार उसे बुलाती थी।

          ‘वह शादी के बाद कुछ महीनों तक तो जल्दी-जल्दी आता रहा लेकिन धीरे-धीरे समयांतराल बढ़ता गया। और शादी के दो साल बाद फिर कभी नहीं आया। इस बीच उसे एक लड़की हो गई थी। वह पूरी तरह उसी में घुल-मिल गया था।

          ‘मतलब शादी के बाद तुमने उसे एक बार भी नहीं
बुलाया ?’
         
          बिब्बो ने मन्नू को बचने का कोई रास्ता नहीं दिया तो वह बोली,

          ‘हां बुलाया जब एक बार कई महीने बीत गए तो मैंने महसूस किया मेरे शरीर में उसको लेकर अजीब सी बेचैनी बढ़ती जा रही है। फिर एक दिन वह अपनी लड़की के मुंडन का निमंत्रण पत्र देने आया। क्योंकि ज़िया पोती का मुंडन एक साल के भीतर ही कर देना चाहती थीं। जब वह घर में दाखिल हुआ तब तक मैं कुछ खास बेचैनी नहीं फील कर रही थी। मगर जब उसे नाश्ता देकर बैठी तो मैं नियंत्रण खोती गई। मैं सोचने लगी कि वह जल्दी चला जाएगा मगर वह आराम से चाय-नाश्ता करता, बतियाता रहा अपनी बिटिया के बारे में, अपनी बीवी में बारे में और अपनी मां के बारे में कि वह कैसे एक खुर्राट सास बन कर उसकी बीवी को प्रताड़ित करती हैं। घर में तानाशाही चला रही हैं।

          मैं उसकी बात से ज़्यादा उसके शरीर पर ध्यान दिए हुए थी या कि मेरा ध्यान उसी ओर बार-बार ही चला जा रहा था। मैंने गौर किया कि इधर बीच वह पहले से ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट हो गया है। मैं जितना कोशिश करती ध्यान उतना ही उधर जाता। मैं ध्यान बंटाने के लिए कभी किचेन में जाती, कभी अंदर कमरे में। अंततः जाने के लिए वह दो घंटे बाद उठ खड़ा हुआ तो मेरी बेचैनी कम न हो कर बढ़ गई। मैं विह्वल हो उठी। मगर सोचा इसे जल्दी से गेट के बाहर छोड़ कर बचा लूं खुद को, खुद से। वह जैसे ही चलने को हुआ कि न जाने किस शक्ति से नियंत्रित सी मैं बोल पड़ी।

          ‘चीनू जरा अंदर कमरे में आओ।

          मेरी आवाज़़ मेरा अंदाज दोनों ही एकदम बदले हुए थे। मैं गई बेडरूम के अंदर। चीनू एकदम से ठिठका, वह मेरी बात, मेरे अंदाज का मर्म एकदम समझ गया था। मगर शायद उस दिन उसका मन नहीं था। कुछ अनमना सा वह बोला,

          ‘'देर हो रही है, कई जगह जाना है।''

          ‘तो मैंने उसे अनसुना कर फिर बुलाया। मेरे बुलावे पर वह अंततः अंदर आ गया। उसका मन नहीं था। फिर भी हमने संभोग किया।'

          ‘ओफ़्फ मैं तुम्हारी यह बात सुनकर फिर चकरा गई हूं। पहले तुमने कहा कि उसकी शादी से दो दिन पहले तुम उससे सेक्स के चंगुल से निकल आई थी, फिर कहा तुम तो निकल आई थी लेकिन वो नहीं निकला था इसलिए तुम शादी के बाद भी सेक्स करती रही। अब तुम बता रही हो कि तुम उसकी शादी के बाद भी खुद बुलाती रही सेक्स के लिए। आखिर तुम्हारी कौन सी बात सही मानूं। मुझे तो लगता है कि या तो तुम पागल हो गई हो या मैं तुम्हारी बातें सुनते-सुनते पगला गई हूं।

          ‘न तुम पगलाई हो न मैं। ठंडे दिमाग से मेरी बातों के मर्म को समझने का प्रयास करो। कोई भी बात चकराने वाली नहीं है।

          ‘मेरी जितनी बुद्धि है उतनी ही बातें समझूंगी न। खैर क्या यह समझूं कि चीनू के साथ किया यह तुम्हारा आखिरी संभोग था। जो तुम्हारी नजर में असली अनर्थ था ?’

          ‘नहीं ...... ।

          ‘नहीं .... ! क्या कहती हो, इसके अलावा भी कुछ अनर्थ है क्या दुनिया में।

          ‘हां बिब्बो ! यह तो दुनिया के अनर्थों की एक छाया है।

          ‘हे! भगवान ..... क्या-क्या करवा रहा है इस दुनिया में। ज़िम्मेदार तुझे ठहराऊं या खुद इंसानों को। यह अनर्थों की छाया है तो बहिनी अब जल्दी से जो तुम्हारी नजरों में अनर्थ है वह भी बता दो। सच बताऊं तुम्हारी बात सुन-सुन कर मेरे कान ही नहीं शरीर का रोम-रोम थक गया है।

          ‘बस दस मिनट और बिब्बो। फिर मैं एकदम से फुर्सत में हो जाऊंगी और तुम भी वास्तविक अनर्थ को जानकर सारी उलझनों से दूर हो जाओगी।

          ‘चलो बढ़िया है दस मिनट और सही।

          ‘तो इस तरह चीनू चैप्टर क्लोज हो गया। साथ ही एक-एक कर मेरी ज़िंदगी के बाकी सारे चैप्टर क्लोज होने लगे। आज जो आखिरी चैप्टर रह गया है कुछ देर में वह भी क्लोज होने जा रहा है। मेरे जीवन ग्रंथ का आज आखिरी पन्ना पूरा हो जाएगा।

           कई घटनापूर्ण पड़ाव और भी आते रहे। बच्चे को जिस उम्मीद के साथ लिया था वह पूरी न हुई। मैं बच्चे से खुद को एक मां की तरह न जोड़ पाई। उसे लिया था तो निभाना है बस यही सोच कर निभाती रही। बस क़िसी से कुछ कह नहीं सकती थी। हां बच्चा यानी अनिकेत ज़रूर मुझे पूरी तरह मानता रहा। यह बतौर पिता उसके साथ जुड़ गए थे। उसके भविष्य को लेकर सदैव चिंतित रहते। कुछ बतियाते रहते। इसका परिणाम यह हुआ कि इंटर करवा कर बैंक क्लर्क का कोई इग्ज़ाम दिलवाया, अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर नौकरी भी लगवा ली। हालांकि तब तक इनको रिटायर हुए दो साल हो गए थे। अनिकेत मात्र अट्ठारह साल सात महीने का ही हुआ था। जल्दी इनको इतनी थी कि नौकरी के बाद शादी के पीछे पड़ गए। तब लोगों ने समझाया कि भइया कानूनन शादी के लायक तो हो जाने दो। मगर यह अपनी कोशिश में लगे रहे। मगर दुर्भाग्य यहां भी साथ चलता रहा।

          अपने ऑफ़िस के ही एक दोस्त की लड़की से शादी तय कर दी। वह पिछड़ी जाति के थे। तुम यह तो जानती ही हो कि इस बात को तो लेकर परिवार में बड़ा नानुकुर हुआ। अंतरजातीय विवाह के लिए इसलिए तैयार हुए क्यों कि सजातीय शादी के लिए कई जगह बातें हुईं और करीब-करीब हर जगह सौतेले लड़के की बात आड़े आती थी। यहां ऐसी कोई बात आडे़ नहीं आई। आनन-फानन में वरीक्षा भी कर ली। सच कहूं तो मुझे लड़की पसंद नहीं थी, न उसके परिवार वाले। न जाने क्यों मेरे मन में यह बात रह-रह कर उठती थी कि यह लड़की, परिवार मेरे घर के लिए अच्छे नहीं हैं। लड़की आते ही चुल्हा अलग जलाने वाली लग रही थी। घर वाले ज़रूरत से ज़्यादा हस्तक्षेप करने वाले दिख रहे थे। मैंने इनसे कहा भी पर यह जिद्दी, दुर्भाग्य भी अपनी जिद्द से बाज न आया। डस ही लिया। वरीक्षा के एक हफ्ते बाद ही अचानक ही यह चल बसे। मैं हर तरह से बरबाद हो गई। मगर दूसरा झटका मुझे तब लगा जब कुछ समय बीत जाने के बाद, क्षोभ के कारण मैंने अनिकेत से इस शादी को इंकार करने के लिए को कहा तो वह यह कहकर अड़ गया कि,

          ‘'पापा की इच्छा थी कि यहीं शादी करूँ, इसलिए मैं दूसरी जगह शादी करने की बात सोच ही नहीं सकता।'

          असल में कहानी का दूसरा पक्ष यह था कि लड़की वालों ने सोचा कि कहीं इस घटना से बात बिगड़ न जाए तो वह बड़ी चालाकी से लड़के के पीछे हो लिए। उसे पटा लिया। लड़की शादी से पहले ही लड़के से मिलने-जुलने लगी थी। दोनों के घूमने-फिरने को लेकर बातें सुनने को मिलने लगीं तो मैंने सोचा शादी मान लेने में ही अच्छा है। क्योंकि हालात से साफ था कि अनिकेत पूरी तरह लड़की वालों की गिरफ़्त में था और कहीं और शादी के लिए तैयार नहीं होगा।

          अंततः मैंने यह शादी मान ली और जैसा यह चाहते थे वैसे ही धूम-धाम से शादी कर दी। मगर एक बात का धक्का ज़रूर लगा। ज़्यादातर नाते रिश्तेदार शादी में आए ही नहीं। कि सौतेला लड़का ऊपर से अन्तरजातीय विवाह। जो लोकल थे वही आए। पड़ोसियों की तरह। यहां तक कि तुम भी न आ पाई क्योंकि तुम्हारे जेठ की लड़की की शादी थी उसी दिन। हालत यह थी कि मैंने किसी तरह व्यवस्था संभाली। हां .... ज़िया के परिवार ने बड़ी मदद की। ज़िया इसलिए कुछ ख़ास न कर पाई क्योंकि उस समय तक वह बहुत बीमार रहा करती थीं।

          ‘और तुम्हारा चीनू?’
          ‘मैं जानती थी तुम यह ज़रूर कहोगी। सच है कि चीनू ने बहुत काम संभाला यदि वह न होता तो मैं बहुत परेशान हो जाती। खैर जैसे-तैसे सब ठीक-ठाक निपट गया। मगर मैं अंदर-अंदर बहुत परेशान थी। हर समय इनकी सूरत जैसे मेरी नजरों के सामने आकर कहती ‘'देखो मेरे बेटे की खुशी में कोई कमी नहीं हो।'इसके चलते मैं अनिकेत के लिए हर संभव कोशिश कर रही थी कि कहीं कोई कमी न रह जाए। दूसरी तरफ बहुरिया जिसे मेरा मन बहू मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था, मुझे उसका चेहरा काटने को दौड़ता था। मगर फिर भी मैं बड़े अनमने,बड़े असमंजस में सब किए जा रही थी।

           बहू ने आते ही तो कोई ऐसा क़दम न उठाया कि मैं एकदम खुश या नाराज होती। पहले दिन उसने कुल मिलाकर ठीक-ठाक व्यवहार किया। ले देके जो एक दो मेहमान रह गए थे उनके सामने इज़्जत रख ली थी। मेहमानों के जाने के बाद वह मुझे कुछ बदली सी लगी। अगले दिन सुबह मैं उठ कर नहा धो कर तैयार हो गई। मगर वह नहीं उठी, मैंने अंततः खुद ही चाय-नाश्ता बना लिया। पहले सोचा मैं अकेले ही कर लूं लेकिन फिर सोचा चलो जाने दो बुला लेते हैं। बुलाने के थोड़ी देर बाद दोनों उतर कर नीचे आए। नाश्ते के लिए कहा। मजे से दोनों ने नाश्ता किया। दोनों के हाव-भाव देख कर लग ही नहीं रहा था कि शादी के मात्र तीन दिन हुए हैं। बहू ने बस एक बार बड़ी स्टाइल से कहा,

          '‘सॉरी मम्मी जी, थोड़ी देर हो गई।'

          मैंने सारी बातें एक तरफ करते हुए कहा कोई बात नहीं। नाश्ते के दौरान बेटा कुछ नहीं बोला। मैंने सोचा कि पूछूं कि ऑफ़िस से कब तक की छुट्टी ली है। पर न जाने क्यों कुछ पूछ न पाई। शादी में उसके ऑफ़िस के लोगों का जैसा व्यवहार दिखा उससे साफ था कि बेटे का ऑफ़िस में भी व्यवहार अच्छा नहीं है। नाश्ता खत्म ही हुआ था कि बेटे के घर वाले दर्जन भर रिश्तेदारों के साथ आ धमके। फिर पूरा दिन निकल गया उन सब की खातिरदारी में। रिश्तेदारों के सामने बहू जिस बेशर्मी से बतिया रही थी। उसका चलना, उठना, बैठना देख कर लग ही नहीं रहा था कि अभी-अभी इसकी शादी हुई है। सब को जिस तरह से घर का कोना-कोना बेहिचक दिखाती रही बिना किसी रस्म-रिवाज़ की परवाह किए वह देख कर मैं कुढ़ती रही अंदर ही अंदर। मन में आता कि यह कल की छोकरी मेरे घर में, मेरी दुनिया में कैसे इस तरह बिना मेरी इज़ाज़त के अपनी मनमर्जी कर सकती है।

          अंदर ही अंदर बरस रही थी मैं पर कुछ कह नहीं पा रही थी। खैर शाम होते-होते सब चले गए। काली रात घिर आई। खाना-पीना खत्म हुआ। ये ज़रूर कहूंगी कि शाम का खाना उसने पूरा बनाया। मुझे कुछ न करने दिया। बड़ी फुर्ती से सब काम किया। खाना भी बहुत अच्छा बनाया था। आंचल को कमर में खोंस कर सामने से भी साड़ी को थोड़ा ऊपर खींच कर उसने उसे कमर में खोंस रखा था। देख कर लग रहा था कि इससे बड़ा कामकाजी कोई होगा ही नहीं। और नई बहुरियों में बेपरवाह भी उससे ज़्यादा न होगी। सिर पर पल्लू का तो पता ही न था। और साड़ी इतनी नीचे जा रही थी कि गोल गहरी नाभि एकदम साफ दिख रही थी। नाभि ही नहीं काफी नीचे तक का हिस्सा उन्मुक्त खिलखिलाता सा नजर आ रहा था।

          बहू कपड़े ठीक कर लो कहने का कई बार मन हुआ पर न जाने मुझ में कौन सी हिचक थी कि मेरी जुबां पर आती हर बात जज़्ब होती जाती। एक शब्द न बोल पाती। मेरे मन में बार-बार एक ही बात आ रही थी कि जैसे मेरी दुनिया मुझ से कोई छीने ले रहा है। हां खाना खत्म होने के बाद मुझे लगा कि यह कुछ देर मेरे पास बतियाए। लेकिन नहीं ... सारा काम बड़ा यंत्रवत सा हो रहा था। खाने के बाद मेरा मन चाय पीने का हो रहा था। मैं असमंजस में थी कि कहूं या न कहूं। यह तो अपने कमरे में जाने की जल्दी में है। अनिकेत जा चुका था। वह जाते-जाते एक क्षण को रुकी और बोली,
         
          '‘मम्मी जी आपको कुछ चाहिए तो नहीं ?'’

          तब मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया

          ‘चाय पीने का मन हो रहा था ..... बना देती तो अच्छा था।वह बोली

          ‘'हां-हां क्यों नहीं मम्मी।'

          फिर वह चाय बनाकर ले आई। और देती हुई बोली

          ‘'मम्मी जी कोई और काम हो तो बताइए।'मैंने कहा नहीं।

          '‘तो मैं जाऊं ?’'

          ‘हां जाओ।

          उसको जीना चढ़कर ऊपर जाने तक मैं देखती रही। मुझे लगा कि इसका व्यवहार तो इस समय बड़ा बदला हुआ है। आश्चर्यजनक ढंग से बदले व्यवहार के पीछे का सच मैं जानने-समझने की कोशिश करने लगी। मन में आया कि दिन में इसके घर वालों ने तो कुछ नसीहत नहीं दी है। कोई साजिश तो नहीं है मेरे खिलाफ। मेरी यह उधेड़-बुन क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती ही जा रही थी। चाय खत्म हो गई लेकिन मेरी उधेड़-बुन बढ़ती गई। मेरे कान ऊपर ही जाकर अटक गए। न मैं उनको हटाने की कोशिश कर रही थी और न वह खुद ही हटने का नाम ले रहे थे।

          यही कोई आधे घंटे के बाद मेरे कान उन दोनों की बातें सुनने लगे। कुछ बात समझ में आती, कुछ न आती। कभी दोनों की खिलखिलाहट सुनाई देती। कभी कुछ और प्यार भरी आवाजें आतीं। समय के साथ-साथ आवाज़़ें सुनाई देनी करीब-करीब बंद हो गईं । अब मेरी धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। मैं बेचैन सी कमरे में टहलने लगी। कुछ देर में ही मुझे ऐसा लगा कि बस अब कुछ ही समय में वह दोनों उतरेंगे और मुझे निकाल बाहर करेंगे घर से।

          मेरा मन उनकी साजिश जानने के लिए व्याकुल हुआ जा रहा था। यह व्याकुलता इतनी बढ़ गई कि न जाने कब मेरे क़दम ऊपर की ओर बढ़ गए। मैं उनके कमरे के बगल वाले कमरे में पहुंच गई कि उनकी बातें सुनकर साजिश का पता कर सकूं। मुझे इस बात का भी अहसास नहीं था कि अगर कमरे से वह बाहर आ गए तो मैं अपनी चोरी को कैसी छिपाऊंगी। हमारे और उन दोनों के कमरे के बीच में सिर्फ़ एक नौ इंच मोटी दीवार थी। जिसमें दरवाजे की ऊंचाई और उसकी दो गुनी चौड़ाई के बराबर खिड़की थी। जिसमें एक जगह इतनी झिरी थी कि वहां आंख गड़ा कर अंदर देखा जा सकता था। इस समय दोनों बहुत ही धीरे-धीरे बात कर रहे थे, जिसे खिड़की से कान लगाने के बाद भी मुझे स्पष्ट सुनना मुश्किल हो रहा था। अस्पष्ट आवाज़़ें, आहटें मेरी व्याकुलता को बढ़ा रहे थे। अंततः मैं न रुक सकी और झिरी से आंख गड़ा दी।'

          ‘क्या नई-नवेली बहू-बेटे के कमरे में झांकने लगी।

          ‘हां ...... ।

          ‘अरे! तुम्हें जरा भी शर्म-संकोच नहीं हुआ कि शादी के तीन दिन भी नहीं बीते हैं और तुम बहू के कमरे में झांक रही हो, वह भी तब जब कि दोनों सोने गए हैं ।

          ‘मैं बार-बार कह रही हूं मैं अपने खिलाफ चल रही साजिश को जानने गई थी।

          ‘ओफ्फ़ ...... तो अंदर तुम्हें कौन सी साजिश दिखाई दी।

          ‘जब मैंने अंदर देखा तो जो कुछ दिखा अंदर उससे मैं एकदम गड्मड् हो गई। सीडी प्लेयर चल रहा था। एक बेहद उत्तेजक ब्लू फ़िल्म चल रही थी। और यह दोनों भी एकदम निर्वस्त्र थे। आपस में प्यार करते अजीब-अजीब सी हरकतें करते जा रहे थे। काफी कुछ वैसा ही कर रहे थे जैसा उस फ़िल्म में चल रहा था। दोनों में कोई संकोच नहीं था। बल्कि अनिकेत से ज़्यादा बहू बेशर्म बनी हुई थी। उसकी आक्रमकता के सामने मुझे अनिकेत कहीं ज़्यादा कमजोर दिखाई पड़ रहा था। दोनों सेक्स के प्रचंड तुफान से गुजर रहे थे। मैं हतप्रभ सी देख रही थी।

          मेरी आँखों में कहीं मेरी अपनी सुहागरात की फ़िल्म तेजी से चल रही थी। और यह भी कि इन कुछ दशकों में क्या इतना कुछ बदल चुका है। एक जमाना था जब मैं सास-ससुर, या गांव से कोई भी आ जाता था तो उसके सामने पूरा तो नहीं लेकिन करीब-करीब घूंघट में ही आती थी। मायके जाती तो भी आंचल संभालने में कोताही न करती। यहां घर पर इन के साथ भी एक सीमा रेखा का पालन करती। पति के लाख उन्मुक्त जीवन की अवधारणाओं के बाद भी बरसों तक उन विशेष परिस्थितियों के अलावा कभी सेक्स के लिए पहल करने की हिम्मत न जुटा पाती थी। केवल बच्चे की चाह में ज़रूर दो-चार बार आगे बढ़ी थी। उनके हज़ार प्रयासों के बाद भी मैं उनसे सेक्स के दौरान उस तरह आक्रामक स्वच्छंद हो सारी सीमाएं नहीं तोड़ पाई थी जिस तरह मेरी बहू तोड़ रही थी।

          ‘मगर तुम्हारी बहू कुछ गलत नहीं कर रही थी। जो कुछ कर रही थी अपने पति के साथ ही कर रही थी। स्वच्छंद तो तुम हुई जो पर पुरुष बल्कि एक छोकरे से हवस मिटाने लगी। पति के सामने सीमा रेखा से बाहर न आने का कोई मतलब है जबकि पर पुरुष से भी संबंध हों । मैं तो समझती हूं कि पति के साथ शरीर की भूख मिटाने में तुम संकोच न करती तो ही अच्छा था। तुम तृप्त रहती तो फैलती ही न पर पुरुष के सामने, पति के साथ जो भी करो वह तो अधिकार है तुम्हारा। तुम्हारी बहू जो कुछ कर रही थी सही कर रही थी, उसे उसका अधिकार था। पति के सामने कैसा संकोच ?’

          ‘अरे! बिब्बो तुम ....... तुम इस मामले में इतना बोल रही हो। मैं तो समझ रही थी कि तुम ...... ?’

          ‘अरे! क्यों नहीं बोल सकती भाई। भले तुम्हारे इतना नहीं पढ़ा तो क्या ? मगर जो समझा गहरे समझा अच्छे से समझा। जब पति अपनी मनमर्जी तरीके से भूख मिटाता है तो हम क्यों नहीं ?’
         
          ‘मुझे तो नहीं लगता कि तुमने कभी पति के सामने खुलकर अपनी भूख जाहिर की हो।

          ‘ऐसा नहीं है। शुरुआती बरसों को छोड़ कर मैंने कई बार अपने मन की भी की। सच बताऊं पहले बच्चे के बाद ऐसी कोई खास भूख नहीं रही थी । साल छः महीने में कभी उभर आती थी। इसके लिए यह कभी झल्लाते भी थे। वैसे तुम बहू के बारे में जो बातें कह रही हो उसमें मुझे कुछ कमी नजर नहीं आ रही है। बल्कि कमी तो तुम्हारी दिख रही है कि तुम नई बहुरिआ के कमरे में छिपकर झांक रही थी। उन दोनों को संभोग करते देखती रही। तुम्हारा यह काम भी उस छोकरे के सामने फैलने से कम अनर्थकारी नहीं था। वैसे कब तक देखती रही उन दोनों को ऐसी अवस्था में। और फिर तुमने क्या किया? क्योंकि अब तक तुम्हारी बातें जानने के बाद मैं नहीं समझती कि तुम बिना कुछ किए रह सकी होगी।

          बिब्बो की बात सुनकर मन्नू ने एक गहरी सांस लेकर छत की ओर देखा। फिर बोली,

          ‘तब तक देखती रही उन दोनों को जब तक उनका मैथुनी खेल पूरा न हुआ।

          ‘फिर उसके बाद ?’

          ‘मैथुनी खेल खेलकर दोनों बुरी तरह थक गए थे। लस्त-पस्त पडे़ थे। एकदम निर्द्वंद्व दीन-दुनिया से बेखबर। बिल्कुल समाधि जैसी हालत में। मुझे रजनीश की संभोग से समाधि की बात याद आ गई। कि पहले वासना से तो मुक्ति पाओ। उसे इतना जानो कि उस बारे में कोई उत्सुकता बाकी ही न बचे। मैं देख रही थी कि कम से कम इस वक़्त बहू-बेटे दोनों ही तृप्त हैं। मन में कहीं खुशी की भी एक लहर उठी कि भले ही मेरा कोखजना नहीं है। गोद लिया है। लेकिन है तो मेरा ही। मुझे मां ही कहता और मानता है। दुनिया के सामने मैं छाती ठोंक कर अपना बेटा-बहू कहने वाली बन गई हूं। हमारी चिता को अग्नि देने वाला तो हो गया, हमारा वारिस तो हो गया। बाप को मुखाग्नि दी, हमें भी देगा।

          यह लहर उठते ही मन में कसक सी उठी। आंखें छल-छला उठीं। आंखें इसलिए छल-छलाईं कि मेरा पति लाख कोशिशों के बावजूद बहू न देख सका। इसलिए छल-छलाईं कि लाख कोशिशों, अपमानों, शोषणों को झेलने के बाद भी अपनी बंजर कोख को उपजाऊ न बना सकी। एक अपनी जनी संतान के लिए तड़पती रहूंगी मरते दम तक। इन कुछ ही क्षणों में मैंने मन और ईर्ष्या की तीव्रता भी देखी। कहां तो एक क्षण में संतोष का अनुभव कर रही थी, कि गोद लिया ही है तो क्या ? है तो अपना बेटा ही, अपनी बहू ही।

          पर जब दोनों को आनंदातिरेक में मद-मस्त पड़े और देर तक देखती रही। खासतौर से बहू को जो पेट के बल पसरी हुई थी ऐसे जैसे तन में जान ही न हो दोनों हाथ बेजान से फैले हुए थे। एक उसके पति की छाती पर पड़ा था जो उसकी बगल में ही लेटा था। मेरी नजर बहू के बदन पर गड़ गई। मैं उसके काफी उभरे हुए नितंब, सुडौल तराशी हुई सी जांघें, गहरा कटाव लिए कमर, भारी स्तन जो दबकर बाहर की तरफ फैले हुए थे, को देखती रही । किसी भी आदमी को धधका देने के लिए एक जबरदस्त शरीर था उसका। घने-काले बड़े-बड़े बाल सिर से बाईं तरफ छितराए हुये थे। ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी में वह उस स्थिति में बला की कामुक लग रही थी।
           मैं सोचने लगी कि शादी की तीसरी रात में यह कितनी संतुष्ट है। और मैं? मैं भी शादी के समय एक उंगली छोड़ दें तो इससे कई गुना ज़्यादा कामुक थी। मेरा बदन इसके बदन से भी ज़्यादा आकर्षक था। मगर मेरे साथ क्या हुआ? एक पीड़ा से भरा अहसास। पति की शक भरी नजर। खुद को क्या चाहिए वह इतना ज़रूर जानते थे। पर मेरी भी कुछ चाहत है, संतुष्टि है, वह कभी न जान पाए। इस बात का जैसे उन्हें पता ही नहीं था। बहू की तरह संतुष्ट होकर दीन-दुनिया से बेखबर होकर, समाधिस्त सी स्थिति में मैं संतुष्ट होकर कभी इस तरह नहीं पसरी थी। कभी अवसर नहीं मिला था।

          ‘चीनू के साथ भी नहीं ?’

          ‘.... नहीं .... । प्रचंडवेग के वक़्त भी दिमाग में कहीं यह हथौड़ा पड़ता रहता था कि गुनाह कर रही हूं। घृणास्पद है।

          ‘पर करती रही।

          ‘हां ..... । क्योंकि शरीर मन की बात नहीं सुनता था।

          ‘वाह रे! तुम्हारा शरीर, सब पर भारी है। तुम्हारे इस अपरबल शरीर ने बहू को और कितनी देर तक झांका उस दिन।

          ‘हुआ यह कि काफी देर दोनों पड़े रहे फिर अचानक ही बहू एकदम उठ बैठी। अपने खूले लंबे बालों को पीछे की तरफ समेटकर जूड़ा बनाया। जब तक मैं समझ पाती तब तक वह बेड से उतर कर खड़ी हो चप्पल पहनने लगी। उसकी फुर्ती बता रही थी कि वह बाथरूम जाने की बड़ी जल्दी में है। अचानक बेटे ने बड़े प्यार से उसका हाथ पकड़ कर हौले से अपनी ओर खींचना चाहा तो बहू ने बड़े प्यार से उसके हाथों को चूम लिया और बड़े प्यार से हाथ छुड़ा कर दरवाजे की तरफ चल दी। तब एक साथ मुझे दो झटके लगे। पहला यह कि यह कमरे से बाहर बाथरूम में जा रही है। जो कमरे के दरवाजे से दस क़दम की दूरी पर है। यह दस क़दम का एरिया खुला आंगन है जिसके ऊपर जाल पड़ा हुआ है। और नीचे भी जाल है। बाथरूम में जाने के लिए जाल के किनारे दो फिट की पक्की जमीन पर से भी यदि निकलो तो भी नीचे खड़ा आदमी आराम से देख सकता है। ऐसे ही ऊपर खड़ा आदमी आराम से देख सकता है। मगर बहू एकदम बेखबर तन पर एक तौलिया तक न डाला और बाथरूम की तरफ चली गई दबे पांव।

           वह शायद इसलिए बेखबर थी कि मैं नीचे सो चुकी हूं। और ऊपर कोई नहीं है। कुछ मिनट बाद वह जिस मस्त चाल से कमर मटकाती गई थी उसी अंदाज में मटकती आ गई। बेड के पास आकर तौलिए से बदन के एक हिस्से को पोंछा । फिर पति के चेहरे पर एक चुंबन देकर बैठ गई उसके बगल में। अब बेटे ने उसे बाँहों में भर कर चूमा फिर धर कर दबा दिया तो वह हल्की सी सिसकारी लेकर बोली ''ओफ़्फ! लगता है।''

          इसके बाद बेटा भी उठकर चल दिया बाथरूम लेकिन उसने जाने से पहले तौलिया लपेट लिया। यह देखकर मैंने मन ही मन कहा  वाह! जिसे लपेटना चाहिए था उसे तो परवाह ही नहीं थी और अभी तक वैसे ही है। बल्कि सीडी प्लेयर में दूसरी सीडी लगा कर आकर फिर बैठ गई। हां उसका जो तौलिया था उसको उसने बेड पर उस जगह बिछा दिया जहां पर कुछ देर पहले उन दोनों के संभोग के परिणाम कुछ धब्बे के रूप में पड़े थे। अब तक मैं निश्चिंत यह सब देखती रही। पर अगले ही कुछ क्षण में मेरी रुह कांप गई मुझे लगा कि मैं रंगे हाथों पकड़ी जाऊंगी। पकडे़ जाने की कल्पना से ही मैं सिहर उठी थी।

          ‘क्यों, पकड़ी क्यों जाती? क्या बहू ने देख लिया था या फिर उसको शक हो गया था।

          ‘नहीं यह दोनों ही नहीं हुआ था। बेटा बाथरूम से निकल कर अचानक जाल के पास खड़ा हो गया, उसका चेहरा मैं जिस कमरे में थी उसी तरफ था। आंगन में जीरो पावर के बल्ब की रोशनी में उसे कमरे के दरवाजे के बगल में लगी खिड़की के धुंधले शीशे से मैं ठीक से देख सकती थी। उसने वहीं पास में दीवार में बनी अलमारियों में रखे कुछ सामानों में न जाने क्या देखना शुरू कर दिया। जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो। वह वहां से हट नहीं रहा था और मैं पसीने-पसीने होती हुई पकड़े जाने पर कैसे अपना बचाव करूंगी यह भी सोचे जा रही थी। जैसे वह अपनी जगह से हिलता तो मुझे लगता कि जैसे बस अब आकर वह पकड़ लेगा। अचानक ही वह मुड़ा, मेरी भी धड़कनें एकदम बढ़ गईं।

          मगर अगले ही पल राहत की सांस मिल गई, वह अपने कमरे में चला गया। मैंने फिर उसके कमरे में नजरें गड़ा दीं। नई फ़िल्म शुरू हो चुकी थी। दोनों फिर एक दूसरे से लिपटते चूमते फ़िल्म की कामुकता के साथ उत्तेजित हुए जा रहे थे। एकदम प्राकृतिक अवस्था में। मैं बार-बार उलझ जाती कि आखिर यह दोनों नाइट बल्ब ऑन कर ट्यूब लाइट क्यों नहीं ऑफ कर देते। काफी देर तक वह सब देख कर न सिर्फ़ मैं ऊब गई थी बल्कि खड़े-खड़े थक भी गई थी। इसलिए मौका देख कर दबे पांव चली आई नीचे। नीचे आकर मेरी नजरों के सामने वही दृश्य बार-बार उमड़-घुमड़ रहे थे।

          अचानक मैंने अहसास किया कि बदन में कहीं कुछ रेंग रहा है। कुछ सरसराहट भी कहीं होने लगी है। शरीर में कहीं से चीनू-चीनू के स्वर उभर रहे हैं। मैं घबरा उठी कि इतने बरसों बाद अब इस उम्र में यह हो रहा है। मैं आतंकित सी हो उठी और पानी पीया। अचानक ऊपर कमरे से मुझे फिर कुछ अजीब सी आहटें मिलने लगीं। यह सब अंदर ही अंदर झिंझोड़े दे रही थीं, मन में आता कि जाकर उन दोनों को डांट कर कहूं कि बस बहुत हुआ शांति से चुपचाप सो जाओ, अब जरा भी जुम्बिश नहीं होनी चाहिए। इसी उधेड़-बुन उठा-पटक में न जाने कब मैंने चीनू को फ़ोन मिला दिया। इसका ख़याल किए बिना कि रात के दो बज रहे हैं।

          ‘क्यों, चीनू को क्यों मिलाया ?’

          ‘सुनो न, बता तो रही हूं। क्यों किया वह तुम अच्छी तरह समझ रही हो ? फिर मुझसे वही बात बार-बार दोहराने के लिए क्यों कह रही हो, तुम्हारी यह जिद नाटक ही लग रही है। जब फ़ोन किया तो जाहिर है वह गहरी नींद में सो रहा था। दूसरी बार रिंग करने के बाद उसने फ़ोन उठाया और अलसाई आवाज़़ में कहा, ''हैलो ...... ।'' तो मैं बोली चीनू सो रहे हो क्या? मेरी आवाज़़ सुन वह एकदम सजग होकर बोला, ''क्या हुआ चाची? सब ठीक तो है न, इतनी रात में फ़ोन क्यों किया?

          ‘हां सब ठीक है, तुमसे बात करने का मन हुआ तो कर दिया।

          '‘लगता है चाची कुछ गड़बड़ है। एक तो इतनी रात को फ़ोन किया फिर इतना धीमे-धीमे बोल रही हो जैसे किसी से छिप कर कोई बात करता है। क्या अनिकेत से कोई झगड़ा हुआ है, जो भी है साफ-साफ बताओ न।'

          ‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है। बस तुम्हारी याद आ रही थी तो मैंने सोचा कि।

          '‘क्या चाची, कमाल करती हो, दो बजे रात को फ़ोन कर के कहती हो बस ऐेसे ही। इसके बाद फिर कुछ देर और बातें हुई जिसे सुनकर वह बोला, ''ठीक है कल बात करेंगे।'' कहते हुए फ़ोन काट दिया, मैं आगे क्या कहने जा रही हूं उसने वह सुना ही नहीं। मैं धीरे-धीरे फ़ोन पर इसलिए बोल रही थी कि कहीं ऊपर वह दोनों मेरी बात सुन न लें। और शायद मेरी आवाज़़ चीनू को ठीक से नहीं मिल रही थी। इसलिए भी वह झल्ला रहा था। फिर मैंने करवट बदली, कभी उठ कर चहलक़दमी करती कभी पानी पीती ऐसा करते कब नींद आई पता नहीं चला।

          जब सोई तो बडे़ अजीब सपने आए। कहीं मैं चीनू के साथ जा रही हूँ तो दुनिया के सारे लोग दौड़ा रहे हैं, तो कहीं हम दोनों कमरें में सो रहे हैं बेखबर, हमारे तन पर एक भी कपड़ा नहीं है, और कमरे की सारी दीवारें अचानक ही गिर गईं । छत हवा में ही लटकी रह गई। पूरी दुनिया हम सबको देखकर हंस रही है और हम दोनों की नींद ही नहीं खुल रही है। अचानक लोग हम पर जूते-चप्पलें  फेंकने लगे। एक जूता मेरे चेहरे पर पड़ा तो मैं हकबका कर उठ बैठी। मेरी नींद खुल गई, देखा बहू हाथ पकड़ कर हिला रही है। मैं अब सच में जाग गई। बहू बोली,

          ‘मम्मी उठिए, नौ बज गए हैं।

          नौ बजने की बात एक चपत की तरह लगी। मैं उठ कर बैठी, न जाने कैसे आज इतनी देर तक सोती रह गई। मेरे दिमाग में आया कि कल मैं पहले उठी थी आज यह उठ गई। सपना अभी तक आंखों के सामने घूम रहा था। जब तक मैं नहा-धोकर आई तब तक बहू चाय नाश्ता लेकर आ गई। मेरे लिए यह आश्चर्य मिश्रित खुशी थी। जिस की उम्मीद नहीं थी वह हो रहा था। एक तो बहू नाश्ता लेकर आई बड़े प्यार से। दूसरा आश्चर्य यह था कि चौथे ही दिन बहू सलवार सूट में भी मेरे सामने। वह भी एकदम चुस्त कि शरीर की सारी रेखाएं साफ थीं। दोनों तरफ कुर्ता इतना कटा था कि सलवार का नेफा भी दिखाई दे रहा था। सलवार इतनी चुस्त और हल्के कपड़े की थी कि अंदर पहनी हुई पैंटी भी झलक रही थी।

          बहू चौथे दिन ही इस रूप में आएगी यह सोचा नहीं था। रात की घटना के कारण मुझे इस वक़्त वही सीन दिख रहे थे। मुझे लग रहा था जैसे वह मेरे सामने बिना कपड़े के ही नंगी ही खड़ी है। अनिकेत आस-पास नहीं दिखा तो मैंने अनमने ही पूछा लिया कहां है वह तो उसने बताया वह ऊपर ही नाश्ता कर रहे हैं। मेरा मन अचानक यह सुन कर कसैला हो गया। मैंने कहा जाओ तुम भी उन्हीं के साथ नाश्ता करो ...... । वह जैसे इसी बात का इंतजार कर रही थी चली गई।

          मैं इस लिए भी उसे नजरों के सामने से हटाना चाह रही थी क्योंकि उसे देख कर मैं रात की घटना में गहरे डूबती जा रही थी। खैर किसी तरह दोपहर हुई। यह दोनों मियां-बीवी कहीं चले गए। मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहने की जहमत उठाई कि मम्मी दरवाज़ा बंद कर लीजिए। अब मैं अकेली, मन और ज़्यादा भटकने लगा। भटकता, भटकना इतना ज़्यादा हुआ और कि रात के दृश्य इतना असर कर गए कि मैंने चीनू को फ़ोन लगाकर फिर बात की देर तक। मुद्दे की बात आते चीनू भड़क कर बोला।

          '‘क्या चाची बहुरिया आ गई घर में, पैर श्मशान की ओर बढ़ चले हैं और तुम्हारी अय्याशी खत्म होने के बजाय बढ रही है, खैर मर्जी तुम्हारी जो मन आए करो लेकिन अब अय्याशी के लिए फ़ोन मत किया करो। तुम्हारे चक्कर में मैं अपना परिवार, अपनी ज़िंदगी बरबाद नहीं करूंगा।'

          चीनू की बातें बदन पर गर्म सलाखों सी चिपक गईं। वह न आता तो भी मुझे न खलता। मगर उसने जो कहा वह बर्छी की तरह चुभ गया। मैंने उसे हमेशा के लिए आने से मना करते हुए फ़ोन का रिसीवर पटक दिया। मगर अब मैं एक नई आदत का शिकार हो गई। रोज मैं जब बहू बेटे कमरे में जाते तो मौका देख कर मैं उनके कमरे में तब तक झांकतीं जब तक की थक न जाती। इसके लिए खिड़की के सुराख को भी बड़ा कर दिया। मेरे दिमाग में यह डर रह ही नहीं गया था कि पकड़ गई तो क्या मुंह दिखाऊंगी। पकड़े जाने पर जवाब क्या दूंगी इसके लिए तरह-तरह के जवाब ज़रूर सोचती रहती।

          ‘हे राम .... राम .. यही सुनने के लिए बाकी रह गया था क्या ? अरे! तुम वही मन्नू हो जो बचपन में बड़ा पूजा-पाठ करती थी। या कि कोई और हो। अभी और न जाने क्या-क्या बताने वाली हो। मुझे तो लगता मैं पागल हो जाऊंगी।

          ‘घबराओ नहीं .... । अब तो चंद बातें ही रह गई हैं। मगर ऐसा करो अब तुम सो जाओ। साढ़े तीन बज गए हैं। दिन में बात करेंगे।


          ‘अब दिन में मुझे कुछ नहीं सुनना है। सवेरे ही मैं घर वापस जाऊंगी। भले लड़का बहुरिया न रखें साथ कोई फ़र्क नहीं, मकान हमारे आदमी का बनाया हुआ है, एक कोठरी अलग कर लूंगी। रह लूंगी अकेली। पर अब कहीं और नहीं जाऊंगी। दुनिया में कैसे-कैसे रंग हैं वह सब तुमसे ही जान गई।

          ‘ठीक है अब सो जाओ तुम। मुझे नींद नहीं आ रही है। मैं अपनी किताबों की दुनिया में जा रही हूं। उस कमरे में वो कई दिनों से मेरा इंतजार कर रही हैं। कई दिन से कुछ पढ़ा नहीं ... ।

          कह कर मन्नू अपने स्टडी रूम में चली गई। उसे जाते हुए बिब्बो पीछे से देखते रही। उसको देखकर उसने मन ही मन कहा,  हूं ..... किताबें ... इन्होंने तुझे भटका दिया बरबाद कर दिया। पर नहीं किताबें तो सिर्फ़ बनाती हैं। किताबों ने तुम्हें नहीं बल्कि सच यह है कि तुमने किताबों को बरबाद किया। वह तो पवित्र होती हैं, तुमने उन्हें अपवित्र कर बदनाम किया। एक से एक अनर्थकारी बातें बता चुकी है और फिर भी कहे जा रही है कि असली अनर्थ अभी बाकी है। असली अनर्थ तो लगता है धरती का सीना चीर कर रख देगा। लेकिन ठीक तो यह भी नहीं होगा कि इतना सुनने के बाद आखिर का असली अनर्थ न जाना जाए। चलो सवेरे जाने से पहले वह भी सुन लूंगीं ।

          ...... पर सवेरे इस तरह जाना ठीक रहेगा क्या लाख खराब हो, अनर्थ किए हों, लेकिन आखिर है तो अपना ही खून, कोई भी तो साथ नहीं है इसके, जिस लड़के के लिए मरती आई वह भी तो नहीं है। पर गोद लिया हुआ है क्या जाने मां-बाप क्या होते हैं। मगर मेरे तो सगे हैं अपनी ही कोख से जन्म दिया है। कौन पूछ रहा है। चली आई अकेली, सोचती रही कि कोई रोकेगा। पर किसी लड़के ने नहीं रोका। यहां तक नहीं कहा कि अम्मा अकेले कैसे जाओगी। रुक जाऊं क्या इसी के पास, यह भी अकेली है, हर तरफ से ठोकर खाई, और मैं भी, दोनों साथ जीते हैं, जब तक चले।

          लेकिन इसके अनर्थ, यह तो काटते हैं। चलो देखेंगे सवेरे। ..... इसी उधेड़ बुन में न जाने कब बिब्बो की आंख लग गई। सवेरे जब नींद खुली तो नौ बज गए थे। उसे याद नहीं कि इसके पहले वह कब नौ बजे सो कर उठी थी। आंखें खुलते ही उसने महसूस किया कि आंखों में बड़ी जलन हो रही है। जोड़-जोड़ दुख रहा है। ऐसा लग रहा था जैसे महीनों से आराम न किया हो। अचानक उसकी नजर बेड से सटा कर रखे गए स्टूल पर गई। जो रात तक नहीं था। उसके के सोने के बाद किसी ने रखा था। जाहिर है मन्नू के सिवा कौन होगा।

          स्टूल पर कई पन्ने रखे थे। उनमें सबसे ऊपर वाले पर नीले रंग से बड़े अक्षरों में लिखा था, ''बिब्बो सबसे पहले इस पन्ने को ध्यान से पढ़ो। धैर्य से पढ़ो, बिना आवाज़़ किए पढ़ो।'' बिब्बों ने पढ़ा। लिखा था, ''बिब्बो मैं मानती हूं कि दुनिया के सबसे घृणित कार्य मैंने किए। मगर शांतिपूर्वक ध्यान से बाद में चिंतन करना कि क्या हर चीज के लिए सिर्फ़ मैं ही ज़िम्मेदार हूं। सारी स्थितियों पर ध्यान देना। मेरे पति उनके काम-धाम, आचरण पर, रुबाना, काकी, वह तांत्रिक, डॉक्टर, ज़िया, चीनू, मेरी गोद ली हुई संतान और बहू पर भी। तुम निष्पक्ष होकर चिंतन करोगी तो शायद मेरे अपराधों की गहराई तुम्हें कुछ कम लगे।

          अब सुनो मेरी नजर में जो वाकई अनर्थ है वह चीनू के साथ का संबंध नहीं है। असली अनर्थ मैं इन दो बातों को मानती हूं, पहली बेटे-बहू को संभोगरत होते हुए काफी समय तक बार-बार देखने को। और कि मैं उनको संभोगरत देख कर इतना उत्तेजित हो जाती कि ख़यालों में चीनू के साथ रात-रात भर संभोगरत रहती, अपने हाथों से अपने पर जाने कितना अत्याचार कर डालती। अगली बात बहुत धैर्य से पढ़ना क्यों कि इस अनर्थ से अप्रत्यक्ष रूप से कहीं तुम भी जुड़ी हो। तुम्हारे पति बहुत अच्छे थे। एक बार वह तब यहां आए थे ऑफ़िस के काम से जब अनिकेत घर छोड़कर जा चुका था।

           ऑफ़िस का काम निपटाकर वह कुछ देर को आए थे, उनकी ट्रेन रात नौ बजे थी। मैंने खाना वगैरह खिला कर उन्हें भेजा था। जिस टेम्पो से वह चारबाग रेलवे स्टेशन जा रहे थे वह अगला पहिया पंचर होने के कारण डिवाइडर से टकराकर पलट गया था। तुम्हारे पति बाल-बाल बच गए थे। हल्की-फुल्की चोटें आई थीं। इन सबके चलते ट्रेन छूट गई, वह वापस आ गए। उनकी हालत देख कर मैं एकदम घबरा गई थी। मरहम-पट्टी वह करवा कर आए थे। मैंने उन्हें एक गिलास गरम दूध पिलाया। फिर बैठे-बैठे ही जीवन की बातें छिड़ गई। जीवन के हसीन पलों की भी बातें हुईं। और फिर हम दोनों बहक कर रात भर संभोगरत रहे।

          पहल मैंने ही की थी। मगर तब की जब उनके हाव-भाव से यह लग गया था कि वह भी कहीं भीतर ही भीतर पिघल रहे हैं। उनकी आंखों में अपने लिए सेक्स साफ-साफ देख रही थी। इसी लिए जरा सी मैंने हवा दी और वह बरस पड़े, टूट पड़े। उनका आवेग देख कर साफ था कि बहुत दिनों से अतृप्त और भुखाए हुए थे। पता नहीं मगर कहना पड़ रहा है कि तुम निश्चत तौर पर उनके लिए बहुत ठंडी औरत साबित हुई होगी। खैर यह मेरी नजर में पहले वाले से बड़ा अनर्थ था। पति की बात जान कर जो गाली देना चाहो मुझे दे सकती हो। मगर अब इस कागज को टुकड़े-टुकडे कर बगल में रखे जग में भरे पानी में डूबो दो। पानी में मैंने गहरी स्याही मिला रखी है। या चाहो तो पहले इन टुकड़ों को टॉयलेट में डाल कर फ्लश चला दो फिर आगे वाले पन्ने पढ़ो। क्योंकि आगे वाले पन्ने तुम्हें हर हाल में संभाल कर रखने हैं।

          ‘चलो उठो अब .......... ।

          आदेश के में रूप में लिखी आखिरी लाइन को पढ़ कर बिब्बो रुक न सकी और टॉयलेट की ओर बढ़ गई। पन्नों को टुकड़े-टुकडे़ कर टॉयलेट में डाल दिया। और फ्लश चला दिया। साथ ही किसी अनिष्ट की आशंका से थरथराती। बुद-बुदाती रही तुम्हें क्या कहूं समझ नहीं पा रही हूं। तुमने अपनी सगी बहन को भी न बख्सा, उसके आदमी को भी कपट लिया। तुम न भी कहती तो भी मैं इन पन्नों को खतम कर ही देती। मैं अपने आदमी को बदनाम नहीं कर सकती। टॉयलेट का दरवाजा बंद करते हुए वह बुदबुदाई चलूँ देखूं बाकी पन्नों में तुमने क्या गुल खिलाया है। सारे पन्ने पढ़ने के बाद भी पता नहीं तयकर पाऊंगी कि नहीं कि तुम्हारा सबसे बड़ा अनर्थ कौन सा है। सारी बात बताने के बाद इतना कहने के लिए तुम्हें मुंह छिपाने की ज़रूरत क्यों पड़ गई।कांपते हाथों से बिब्बो ने अगला पन्ना, पढ़ना शुरू किया मन्नू ने लिखा था।

          ‘बिब्बो बैंक की सारी पास बुकें और संबंधित डिटेल और मकान के पेपर नीचे पीछे वाले कमरे में रखी अलमारी के लॅाकर में हैं।  बैंक में जितने रुपए और अलमारी में जितने गहने हैं, यह सब तुम अपने और मेरे लड़के के बीच बराबर-बराबर बाँट देना। यह पूरा मकान मेरे लड़के को देना। आखिर वह मुझे मां ही तो कहता है न।
         
          इतना पढ़ने के साथ ही बिब्बो भुन-भुनाई आखिर यह करना क्या चाहती है। यह बात सामने आकर क्यों नहीं की। गायब कहाँ हो गई है।'' नीचे बाथरूम से पानी गिरने की आवाज़़ सुन बुद-बुदाई, ''अभी तक बाथरूम में क्या कर रही है?'' बिब्बो ने आगे पढ़ना शुरू किया।

          ‘बिब्बो बेटा पाने की तमाम जिद्दोजहद के पीछे के तमाम कारणों, इच्छाओं के पीछे एक मुख्य कारण यह भी था कि अंतिम समय में मुखाग्नि कौन देगा? तो अब सारी चीजों के प्रति नजरिया बदलने के बाद मैं बड़ी होने के नाते तुम्हें यह आदेश देती हूं, और साथ ही यह आग्रह भी करती हूं , प्रार्थना भी, यह भी कि मरने वाली की अंतिम इच्छा तो अवश्य पूरी की जाती है। हत्यारों की भी। कम से कम मैं हत्यारी तो नहीं हूं। मेरी अंतिम इच्छा यही है कि मुझे मुखाग्नि तुम्हीं दोगी, न तुम्हारे और न ही मेरा बेटा। मुझे पूरा यकीन है कि तुम मेरी अंतिम इच्छा ज़रूर पूरी करोगी। नहीं तो मरने के बाद भी मेरी आत्मा यहीं भटकती रहेगी।

          अगला जो बंद लिफाफा है उसे तुम मत खोलना। वह पुलिस अधिकारी के लिए है। अगले पन्ने में प्रायश्चित के तौर पर मैंने जो सजा खुद के लिए तय की है उस बारे में लिखा है। उसको पढ़ कर चीनू और बेटे को फ़ोन कर देना। और यह पन्ना जब तक तुम पढ़ रही होगी। मुझे मरे हुए घंटो बीत चुके होंगे। तुम गहरी नींद में सो रही थी तब मैंने यह सब लिखा। यह पत्र रख कर नीचे कमरे में अंदर से दरवाजा बंदकर मैं फांसी लगा चुकी होऊंगी। बिब्बो शोर बिल्कुल मत करो बस दोनों को फ़ोन करो...। जाओ।'' पत्र पढ़ कर बिब्बो अबूझ पहेलियों में उलझी हुई सी बदहवास नीचे कमरे में भागी तो वह सचमुच अंदर से बंद था, लाख पीटने पर भी न खुला। अंततः रोते कांपते हाथों से उसने दोनों नंबरो पर फ़ोन किया।


          लड़के और भतीजों ने अपनी पहुंच और मोटी रिश्वत दे दिला कर पंचनामा आदि की ज़रूरी कार्यवायी पूरी कर शाम होते-होते मन्नू की अंतिम यात्रा के लिए चल दिए। सारे रीति-रिवाज परम्पराओं को तोड़ कर बिब्बो भी श्मशान घाट गई। मन्नू का बेटा, उसके बेटे भी थे। वसीयत जान कर वह सब भी दौड़े आए थे। चीनू भी । बेटे की आँखें भरी थीं। चीनू की आंखें सूजी और सुर्ख थीं। चिता पर मन्नू अंतिम यात्रा के लिए तैयार थी। बिब्बो ने महापात्र के मंत्रों के बीच उसे मुखाग्नि दी। बिब्बो मन ही मन बोली, ''मेरे ख़याल से असली अनर्थ तो तुमने यह किया। जिसके लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगी।''
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