शनिवार, 9 जनवरी 2021

उपन्यास : वह अब भी वहीं है : प्रदीप श्रीवास्तव - pustakbazar.com कनाडा से प्रकाशित

 















                                   
                                         

                                       वह अब भी वहीं है 

                                              ( उपन्यास )
                                           प्रदीप श्रीवास्तव 



         

वह अब भी वहीं है 
(उपन्यास)
लेखक:प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६ एम २१२ सेक्टर एम, 
अलीगंज, लखनऊ- २२६०२४ 
यू.पी.,भारत  
कॉपी राइट:लेखक
प्रथम संस्करण:२०२१  
आवरण चित्र: धीरेन्द्र यादव 'धीर' 
आवरण मॉडल:अधरा शर्मा    
आवरण सज्जा: प्रदीप श्रीवास्तव 
कम्प्यूटर टाइपिंग:धनंजय वार्ष्णेय 
ले-आउट:नवीन मठपाल          




                                                    समर्पण 
                                                   पूज्य पिता 
                                      ब्रह्मलीन प्रेम मोहन श्रीवास्तव
                                                       एवं 
                     प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव,सत्येंद्र श्रीवास्तव 
                                                की स्मृतियों  को 
                                                --------------

पूज्य पिता श्री 
प्रिय प्रमोद 
 प्रिय सत्येंद्र 

                                                 



 भूमिका

 

                                          एक मुट्ठी सपने के लिए


हर उपन्यास, कहानी के पीछे भी एक कहानी होती है. जो उसकी बुनियाद की पहली शिला  होती है. उसी पर पूरी कहानी या उपन्यास अपनी इमारत खड़ी करती है. यह उपन्यास भी कुछ ऐसी ही स्थितियों से गुजरता हुआ अपना पूरा आकार ग्रहण कर सका. जिस व्यक्ति को  केंद्र में रखकर यह अपना स्वरूप ग्रहण करता है, उससे जब मैं पहली बार मिला था, तब दिमाग में रंच-मात्र को भी यह बात नहीं आई थी, कि कभी उसे केंद्र में रख कर उपन्यास क्या कोई लघु-कथा भी लिखूंगा. मगर संयोग ऐसा बना कि अगले दो महीने में उससे तीन बार भेंट हुई. उस समय मैं  एक राजनीतिक पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी का सदस्य और एक प्रदेश की कमेटी में सचिव था. यह राजनीति मुझे एक जगह रुकने नहीं देती थी. इसी क्रम में मैं हर दूसरे तीसरे सप्ताह संत रविदास नगर पहुंचता था. वहां के एक स्थानीय नेता अपने कुछ समर्थकों के साथ आव-भगत में उपस्थित रहते थे. उन्हीं के साथ वह करीब सवा छह फीट ऊँचा युवक आता था. सबके अपने-अपने सरोकार होते हैं, उसके भी थे. अपनी ऊंचाई,अत्यधिक सांवले रंग लेकिन उतने ही तीखे नैन-नक्स के कारण वह भीड़ में भी किसी को भी एक बार आकर्षित कर ही लेता था. उसने तीसरी मुलाकात में मुझसे पहली बार दो मिनट बात की. वह अपने जीवन के एकमात्र सपने को पूरा करने के लिए मुझसे मदद चाहता था.साथ ही विशेष आग्रह यह भी था कि उसका मंतव्य नेता जी को बिलकुल न बताऊँ.
नेताजी जिसे अपना अनुचर मान कर, साथ लिए घूमते थे, वह उन्हें अपने सपने को पूरा करने का एक साधन मान कर, अनुचर होने का रूप धारण किए हुए था. मेरे लिए असमंजस की स्थिति थी, कि कारण चाहे जो भी हो, नेता जी पूरे मन से मेरी आवभगत में लगे रहते हैं. ऐसे में उन्हें अंधेरे में रखकर कैसे उसके लिए कुछ करूं. दूसरी समस्या यह थी, कि उसने जो सहयोग मांगा था, वह कर पाना मेरे लिए संभव नहीं था, तो मैंने असमर्थता प्रकट कर दी. यदि संभव होता तब भी मैं नेताजी के संज्ञान में ही सहयोग करता.
मेरे असमर्थता प्रकट करने के बाद वह नेताजी के साथ आगे की कई मुलाकातों में नहीं दिखा, तो मैंने एक बार जिज्ञासावश नेता जी से पूछ लिया. उन्होंने जो कुछ उसके बारे में बताया उससे मैं हतप्रभ रह गया, कि कोई अपने सपने को पूरा करने के लिए अपने ही मां-बाप, परिवार के सदस्यों की पीठ में छूरा कैसे घोंप सकता है. संवेदना और भावनात्मक लगाव क्या कहने को भी नहीं बचे हैं, क्या समाज इनसे पूर्णतः शून्य हो गया है. नेताजी ने उसके कुकृत्य बताते हुए टिप्पणी की,' वह तन से भी ज्यादा मन से काला है.' यह सुनते ही मैंने उस प्रसंग पर विराम लगा दिया, जिससे कि उस पर और चर्चा न हो. लेकिन आगे मैं जब भी वहां जाता और  नेताजी आते तो मुझे लगता कि,जैसे वह उन्हीं के साथ ही खड़ा है. अजीब मनःस्थिति हो जाती थी. उसके बारे में जानने की प्रबल उत्कंठा पैदा हो जाती. आखिर मैंने नेता जी से पूछना शुरू कर दिया. हर बार वह कुछ ऐसा बताते कि, मैं अचरज में पड़ जाता कि, आखिर वह कैसा मनुष्य है?
समय तेज़ी से बीता, नेता जी ने अपने सरोकारों को साधते हुए बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया, और मुझ में राजनीति को लेकर ऐसी विरक्ति पैदा हुई, कि सक्रिय राजनीति से विदा ले ली. इसी के साथ तमाम लोगों ने भी मुझसे दूरी बना ली. लेकिन नेताजी, कुछ अन्य आज भी मित्रवत समीप बने हुए हैं. वह भावना-शून्य व्यक्ति भी स्मृति पटल से विलुप्त नहीं हुआ, तो नेता जी के मिलते ही अक्सर उसकी चर्चा हो जाती. यह क्रम वर्षों चलता रहा. उसकी तमाम बातों को जानने के बाद, उसके प्रति मेरे विचारों में परिवर्तन होने लगा. मुझे लगा कि वह पूर्णतः संवेदनाहीन,भावनाशून्य नहीं है. उसकी हर चर्चा के बाद, उसे और जानने-समझने की इच्छा प्रबल होती गई. मेरे आग्रह पर नेताजी ने ऐसा संपर्क-सूत्र स्थापित किया कि सीधे उसी से बातचीत का सिलसिला चल निकला.
वह जल्दी ही बहुत खुलकर बात करने लगा. बीच-बीच में यह सिलसिला कई बार भंग भी हुआ. दो-दो ढाई-ढाई साल तक कोई बात नहीं हुई. लंबे अंतराल के बाद जब बात होती तो वह काफी लंबी चलती. ऐसी ही एक बातचीत में इस उपन्यास की नींव की पहली शिला अनायास ही पड़ गई.
वह मुझे अपने सपने को पूरा करने के लिए, जुनून की चरम सीमा से भी आगे निकल जाने वाले लोगों के समूह का सदस्य लगा. साथ ही यह भी पाया कि वह अपने पथ से कई बार भटका भी है. इस भटकाव ने उसे उस स्थान पर ला खड़ा कर दिया है, जहां उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है. अब वह स्वयं से बार-बार पूछ रहा है कि, 'यह सब अब और कितने दिन?'  परिवार और अन्य के साथ किए गए विश्वासघात अन्य अनेक कामों के लिए पश्चाताप की अग्नि में वह जल रहा है. लेकिन आज भी इस अग्नि से भी ज्यादा प्रचंड  है, उसकी अपने सपने को पा लेने के जुनून की अग्नि. जबकि वह बहुत अच्छी तरह जानता है कि अब उसकी  मुट्ठी से समय की रेत करीब-करीब निकल चुकी है. मेरी प्रबल इच्छा है कि उसकी मुट्ठी से समय की रेत का आखिरी कण निकलने से पहले, मैं उस पर केंद्रित इस  उपन्यास के प्रकाशन की सूचना और एक प्रति उसे भेंट कर दूँ, जिससे ख़ुशी के कुछ  पल, उसकी मुट्ठी से गुजर कर, उसे पश्चाताप की अग्नि की तपिस के बीच शीतलता की भी अनुभूति करा दें.और साथ ही मैं नेता जी को धन्यवाद दे सकूँ, कि उनके कारण यह संभव हुआ.

                                                                                           प्रदीप श्रीवास्तव









                                         -- वह अब भी वहीं है-- 

                                            - प्रदीप श्रीवास्तव

                                  
समीना तुमसे बिछुड़े हुए तीन बरस से ज़्यादा होने जा रहा है। मगर ऐसा लग रहा है मानो अभी तुम इस रमानी हाउस के किसी कमरे से जोर-जोर से मुझे पुकारती हुई सामने आ खड़ी होगी और मुझे डपटते हुए कहोगी, 'ओए विलेन-किंग कुछ काम भी करेगा या ऐसे ही मतियाया (आलसियों की तरह) पड़ा रहेगा।' 
तब तुम्हारी यह बात और आवाज़ मुझे बुरी लगती थी। तुम्हारी आवाज़ चीख लगती थी, एक कर्कश चीख। मगर इन बरसों में ऐसा कौन-सा दिन बीता होगा, जब तुम्हारी आवाज़, तुम्हारी वह बात सुनने का मन न हुआ हो और तुम्हारी वह आवाज़ घंटियों सी मधुर न लगी हो।
देखो यह भी कैसा संयोग है कि, बाकी सब कुछ तो याद है, लेकिन मुझे इस सिनेमा नगरी में आए हुए अब कितने बरस पूरे हो गए हैं , इसका ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगा पा रहा हूँ । क्योंकि वह तारीख नहीं याद आ रही जिससे सटीक हिसाब लगा सकूँ। बस इतना याद है कि जब आया था तब अपना देश पड़ोसी पिस्सू जैसे कमीने देश पाकिस्तान को कारगिल युद्ध में जूतों तले कुचल चुका था। 
देश अपने विजय का उत्सव मना रहा था। ट्रेन में विशेषज्ञ बहसबाज़ पिछली सरकारों को कोस रहे थे,गरिया रहे थे कि इन भ्रष्ट निकम्मी सरकारों ने अपनी झोली भरने,सत्ता सुख में देश को भी दांव पर लगाने के बजाय ईमानदारी से देश को सैन्य ताकत बनाया होता, तो दुनिया के फेंके टुकड़ों पर पलने वाला यह पिस्सू परजीवी जैसा देश चौथी बार धोखे से भी हमला करने का दुस्साहस नहीं कर पाता। 
देश के सैकड़ों जांबाज़ सैनिकों की वीरगति से ये बहसबाज़ इतना क्रोध में थे कि खुलेआम गाली देते हुए कह रहे थे कि अहिंसा के धूर्तबाज़ों ने सत्ता की लालच में पहले तो आनन-फानन  में देश के टुकड़े कर के पड़ोस में  कमीना देश बसा दिया,देश न हुआ मानों इनकी संपत्ति थी कि जैसे चाहा वैसे बाँट दिया ,जो टुकड़ा बचा है उसे भी बर्बाद कर रहे हैं । सैनिकों के बजाय इन्हीं सालों को बार्डर पर भेजा जाए,जब इनकी ...पर गोली पड़े तब इन्हें पता चले कि देश क्या होता है।
मूर्खों  ने हर बार युद्ध भूमि में जीती जमीन कमीने दुश्मन को अपने बाप का माल समझ कर उपहार स्वरूप वापस कर दी। १९४७ में देश के खोये हिस्से को सन् १९७१ में देश में वापस मिलाने का सुनहरा अवसर मिला था, मगर मूर्खों ने उसे स्वतंत्र देश ''बांग्ला देश''बना कर सैनिकों का बलिदान धूल में मिला दिया। सालों को शान्ति का नोबेल चाहिये। 
समीना रास्ते-भर होती रही इस बहस को मैं चुपचाप सुनता रहा,इस आशंका से इसमें भाग नहीं लिया, क्योंकि बहस में झगड़ा होने की स्थिति बराबर बनी हुई थी । समीना अलग ही अनुभवों से भरी यह ट्रेन यात्रा पूरी कर, बड़ी ही अजीब स्थिति, और बहुत-बहुत बड़े सपनों  को लिए हुए मैं तब की कालीन नगरी, भदोही के बड़वापुर, गोपीगंज में अपने मां-बाप, भाई-बहन, भाभी, भतीजा-भतीजी सबको छोड़ आया था। छोड़ आया था, उन सबको इस मायानगरी की माया में फंस कर, उलझ कर। अब भी मेरे पल्ले नहीं पड़ती इस माया-नगरी की माया। न जाने इसकी माया में ऐसी कौन-सी ताकत है कि, मैं सैकड़ों किलोमीटर दूर से सम्मोहित सा खिंचा यहां चला आया था। इस सम्मोहन के पाश से मुझे, मेरे परिवार का प्यार-दुलार, मोह कुछ भी नहीं बचा पाया था। मैं एक झटके में सबको राह में पड़े पत्थर को जिस तरह ठोकर मारते हैं,उसी तरह ठोकर मार कर चला आया था। किसी का प्यार क्षण-भर को मुझे नहीं रोक पाया था। हाँ, एक डर भी था। भाभी का डर। जिसके कारण भी मैं वहां रुक नहीं सकता था। यहाँ नहीं तो कहीं और के लिए मुझे निकलना ही था। क्योंकि उनके साथ जो किया था ,उसके बाद तो वहां रुकने का अधिकार मैं खो चुका था।     
जब यहां पहुंचा तो इस कभी न सोने वाली मायावी नगरी की चकाचौंध, तरह-तरह के इसके मायावी रूप, कहीं रूप ऐश्वर्य सौंदर्य के बहते दरिया तो कहीं झोपड़-पट्टी की बज-बजाती दुनिया, कहीं अपराध का भयावह संसार, तो कहीं हाड़-तोड़ मेहनत करते लोगों, और इन सबके बीच रिश्तों, मानवता की सीझती दुनिया, इस मकड़जाल में, मैं ऐसा उलझा कि बार-बार, हर बार कोशिश करके भी, फिर वापस अपने बड़वापुर जाने का मन नहीं बना सका। न मिल सका कभी अपने मां-बाप से, जिन्होंने अपने खून से पाला-पोसा, बड़ा किया था। 
अब मुझे उनके बारे में सिर्फ़ इतना ही पता है कि, घर से बिना बताए भाग आने के कारण मेरे मां-बाप इतना दुखी हुए थे कि, आंसू बहाते-बहाते, दोनों लोग  इस दुनिया से तीन साल में ही कूच कर गए थे। इसके अलावा मुझे अब अपने परिवार के बारे में कुछ नहीं पता। न जाने किस हाल में हैं सारे लोग। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि, सारे लोग हंसी-खुशी हों और मैं उन्हें बिल्कुल भी याद न आऊं, जिससे कि उन सब को कष्ट न हो।
आज इस बड़े से ''रमानी हाउस'' में सुबह से ही पता नहीं अकेलेपन के कारण  या फिर न जाने ऐसा क्या है कि, दिलो-दिमाग पर परिवार, बड़वापुर, गोपीगंज, भदोही जो अब ''संत रविदास'' नगर हो गया है कि वह सड़कें और मेन जी.टी. रोड जो हज़ारों बरस पहले हमारे सनातन पूर्वजों ने ''उत्तरापथ'' नाम से बनवाई थी, एक दम से छाए हुए हैं। और तुम भी। एकदम इस माया-नगरी में बनीं एक से बढ़ कर एक फ़िल्मों की तरह। वह बातें भी, जिन्हें मैं यहीं बनीं घटिया फिल्मों की तरह भूल जाना चाहता हूँ । लग रहा है जैसे इस ''रमानी हाउस'' की हर दिवार पर मेरे अब-तक के जीवन पर बनी तमाम फ़िल्में चल रही हैं। किसी में मेरा बचपन दिखाया जा रहा है, तो किसी में युवावस्था और फिर घर से भागना दिखाया जा रहा है, तो किसी फ़िल्म में पहले छब्बी ,फिर तुम्हारा मिलना, एक होना, फिर बिछुड़ना।
कुछ ऐसी फ़िल्में भी हैं, जिनमें मेरे जीवन का सबसे स्याह पक्ष भी दिखाया जा रहा है, उनमें  तुम भी शामिल हो। जिन्हें देख कर मैं काँप उठता हूँ कि हाय मैंने यह सब भी किया ,जिनमें से कुछ कामों में तो तुम मेरी लीडर बनी हुई हो। मैं आश्चर्य में पड़ जा रहा हूँ कि वैसे कामों में मैं तुम्हारा दुमछल्ला बन तुम्हारे साथ-साथ लगा रहा।   
मगर इन सब में एक फ़िल्म ऐसी चल रही है, जो मेरे जीवन का सबसे दुखद पहलू दिखा रही है। जिसे देखकर बार-बार आंसू निकल रहे हैं। उसमें देख रहा हूं कि, मेरे पिता जी मेरी याद में चल बसे हैं। उनकी अर्थी जाने को तैयार है। मां दहाड़ें मार-मार कर रो रही हैं। तीनों भाई और एक रिश्तेदार भरी आंखें लिए अर्थी उठाते हैं, और ''रामनाम सत्य है..'' कहते हुए श्मशान घाट  की ओर बढ़ जाते हैं। तभी भीड़ में कोई फुस-फुसाया कि, ''कितने अभागे थे। चार-चार बेटों को जन्म दिया, पाला-पोसा, बड़ा किया और एक बेटा न जाने कहां चला गया कि, लौटा ही नहीं। बेचारे साहू महाराज चल बसे उसकी चिंता में। नहीं तो अर्थी के चारों कोनों के लिए चार बेटों के कंधे थे। मगर एक कंधे का पता ही नहीं। जिसको कंधा बनना था वो इनके अर्थी तक पहुँचने का कारण बन गया।'' 
तभी दूसरा आदमी कह रहा है, ''हम तो कहते हैं कि, जो यह बात है कि, 'बड़े भाग्य जो मानुष तन पावा' से ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि, 'बड़े भाग्य जो संतुष्ट जीवन जिया। दुख से न रहा अपना कोई नाता।' लेकिन किस्मत तो किस्मत है,जो कराये वो कम।''  
इस फ़िल्म का अगला दृश्य बार-बार मेरे दिमाग की नसें चिटका दे रहा है। चिता को मुखाग्नि देने का समय है। सबसे छोटे या सबसे बड़े बेटे को ये रस्म पूरी करनी है। बड़े भाई यह रस्म पूरी कर रहे हैं। चिता धू-धू कर जल उठी है, और मैं ऐसे समय में भी अपना सपना पूरा करने के लिए माया-नगरी की सड़कों की खाक छान रहा हूं। ऐसे-ऐसे काम कर रहा हूँ, जिन्हें देख-देख कर पिता की आत्मा मुझे धिक्कार रही है ।  
समीना एक फिल्म में मैं मर गया हूँ । यमदूत मुझे यमलोक ले गए हैं। वहां मेरे जीवन भर का लेखा-जोखा देखा जा रहा है कि, मैंने मृत्युलोक में जीवनभर क्या किया? मेरे पाप-पुण्य की सूची मेरे सामने कर दी गई है। मेरे पुण्य की सूची, पाप की सूची के सामने तिनका-सी दिख रही है। यह पुण्य भी मुझसे अनजाने ही कहीं हो गया होगा। भगवान बड़ा दयालू है। उसी ने कृपा कर मेरे खाते में इसे जोड़ दिया होगा। हम सारे प्राणियों का लेखा-जोखा रखने वाले भगवान चित्रगुप्त कभी भी गलती नहीं करते। उन्होंने मेरे एक-एक पाप-पुण्य का लेखा-जोखा लिखा हुआ है। 
समीना मैं बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहा हूं कि, मेरी यह मनःस्थिति क्यों हो रही है। जानती हो फिल्म में मैं अपने पापों की लिस्ट देख-देख कर कांप रहा हूं । मेरा रोम-रोम कांप रहा है।  मुझे नर्क भोगना बिल्कुल तय दिख रहा है। क्योंकि, मेरे पापों में नंबर एक पर है मां-बाप को धोखा देना,जिससे वो अंतिम सांस तक तड़पते रहे। नंबर दो पर है अपनी भाभी पर गलत नज़र रखना और गलत हरकत करना। 
तब की बहुत सारी बातें मैं भूल गया हूं, लेकिन भाभी के साथ जो पाप किया था वह, और घर में ही इस माया-नगरी में आने के लिए जो चोरी कर-कर के पैसा इकट्ठा करता था वह नहीं भुला हूँ। इन  दोनों ही बातों से मैं शर्म से पानी-पानी हो जा रहा हूं।
समीना जब यह सब किया करता था, तब बड़ा मजा आता था। तब नैतिकता, शर्म-संकोच इन सारी बातों पर मुझे हंसी आती थी। खिल्ली उड़ाता था ऐसी बातों की। लेकिन अब सच यह है कि, यह शर्मिंदगी इस कदर मुझे पस्त कर देती है कि, कई बार जब यहां की अपनी ज़िंदगी से तंग आ जाता हूं और सोचता हूं कि लौट चलूं अपने बड़वापुर जहां बचपन बीता, जहां अपना परिवार, दोस्त-यार आज भी हैं, और पहुंचने पर बांहों में भर लेंगे। लेकिन यह दोनों बातें याद आते ही कदम एकदम बंध जाते हैं। मन में आता है कि मेरे कुकर्म याद आते ही सब दुत्कार देंगे। 
भाभी के साथ जो किया, वह तब की बातें हैं ,जब मैं करीब बाइस-तेइस बरस का हो चुका था और बड़के भइया की शादी को तीन साल हो रहे थे। उनके बाद वाले भाई की शादी देखी जा रही थी। उनके बाद वाले दोनों भाई लेखपाल थे और प्रयागराज जिले में तैनात थे। मैं घर पर ही था। बहुत खींचतान कर किसी तरह पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया था। मैं जिस तरह नकल-सकल करके पढ़ रहा था, उससे पिता जी जानते थे कि, न तो मुझे नौकरी मिलने वाली है ,और न ही मैं कर पाऊँगा, इसलिए सत्रह-अठारह का होते-होते मुझे घर में चल रहे कालीन के धंधे में लगा दिया था। यह धंधा कोई बड़े पैमाने पर तो नहीं था लेकिन फिर भी ठीक-ठाक था। दस लूम थे। भदोही से कच्चा माल और डिजाइन ठेकेदार भिजवा दिया करता था और तैयार कालीन भदोही भेज दी जाती थी। धीरे-धीरे यह धंधा मेरे सहारे कर वह खुद गोपीगंज में किराना की दुकान चलाते रहे। और बड़के भइया बर्तन  के धंधे में लगे रहे।
शादी के बाद जब भाभी ने अपने काम-धाम और काबिलियत से कुछ ही दिन में घर संभाल लिया तो सब खुश थे। अम्मा-बाबू उनके गुणगान करते नहीं थकते। भाभी थीं बहुत समझदार। अम्मा ने जल्दी ही घर की जिम्मेदारी उनके ऊपर डाली और बाबू के साथ दुकान पर ज़्यादा समय तक बैठने लगीं। लेकिन समीना मेरा मन अपने धंधे में नहीं बैठ रहा था। मेरा मन यहां माया-नगरी में तब से बैठा हुआ था, जब मैं करीब अठारह-उन्नीस बरस का हो गया था। और बहुत से लोगों की तरह मेरा मन हीरो बनने का कतई नहीं था। मैं विलेन बनने का सपना पाले हुए था। फ़िल्मी दुनिया का सबसे बड़ा विलेन। सच बताऊं कि, मेरा यह सपना टूट ज़रूर गया है, लेकिन बिखरा अब भी नहीं है। मेरे जीवन का यह एक ऐसा सपना है, बल्कि ये कहें कि यही एक-मात्र ऐसा सपना है, जिसके लिए अब-तक मैं न जाने क्या-क्या कर चुका हूं। और अब भी मौके की तलाश में रहता हूं। हां यह ज़रूर है कि अब पहले जैसा उत्साह, पहले जैसी आग नहीं रही। न ही ताकत। 
तुमको जब मैंने अपने बारे में तमाम बातें बताई थीं, वास्तव में उसमें अधिकांश गलत थीं। यह बात तो बिल्कुल ही गलत थी कि मेरे मां-बाप, भाइयों ने ऐक्टर बनने के मेरे जुनून के कारण गुस्सा होकर मुझे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया था। वास्तव में यह बात मैं सबसे सहानुभूति पाने के लिए कहता था। ताकि कोई तो मुझे आगे बढ़ने में मदद करे।
आज यादों का यह सिलसिला कुछ ऐसा चल पड़ा है कि, लगता है कुछ छूटेगा ही नहीं। भाभी के साथ की गई अभद्रता के लिए  पश्चाताप, आत्मग्लानि  की आग में और न झुलसूं,  इसलिए इससे भागना चाह रहा हूँ , मगर भाग नहीं पा रहा हूं। 
मेरी भाभी असल में बहुत खुशमिजाज, खुले दिमाग वाली साफ ह्रदय  महिला थीं। और मैं उनकी हंसी-मजाक का अर्थ कुछ और ही लगा बैठा था। विलेन बनने के अपने सपने को लेकर मैं उनसे बतियाता था। मगर जल्दी ही उन्होंने यह समझाना शुरू कर दिया कि, 'ये विलेन-ईलेन बनने का पागलपन छोड़ो, काम-धंधा आगे बढ़ाओ। वहां बड़े-बड़े जाकर ठोकरें  खाते हैं। दर-दर भटकते हैं।' 
मैं कहता, 'सब खाते होंगे। मैं नहीं खांऊगा, क्योंकि मैं फ़िल्मों में जितने विलेन देखता हूं, उन सबसे शानदार है मेरा शरीर। मैं छः फिट से ज़्यादा लम्बा हूं।' फिर मैं उन्हें अपने बाइसेप्स दिखता। अपनी ताकत के बारे में बताता।
एक दिन उन्होंने इस पर मुझे चिढ़ा दिया। कहा,  'गलैइचा (कालीन) गाड़ी में रखते समय तो कांख मारते हो, वहां हिरोइनों को उठाकर क्या खाक भागोगे।'
तब उनकी यह ठिठोली मुझे व्यंग्य से ज्यादा अपमान लगी थी। मुझे लगा जैसे उन्होंने मेरी मर्दानगी को चुनौती दी है। मैं एकदम बिलबिला पड़ा और आगा-पीछा सोचे बिना, आगे बढ़ कर एक झटके में उन्हें उठा लिया। अपने चेहरे की ऊंचाई तक। मेरी इस हरकत पर वह एकदम गुस्से में आकर चीख पड़ीं थीं, 'मुझे नीचे उतारो।'
मगर मैंने अपनी ताक़त के गुमान में, आंगन का एक चक्कर लगाकर ही उन्हें नीचे उतारा। उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। वह विसूरते हुई बोलीं, 'आज के बाद मुझे हाथ लगाया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। तुम्हारी भलाई इसी में है कि अब मेरी छाया से भी दूर रहना। मैं ये अपमान कभी नहीं भुलूंगी। मैं नहीं जानती थी कि तुम ऐसी गंदी हरकत मेरे साथ करोगे। अरे! इतना ही जोश है तो चले क्यों नहीं जाते विलेन बनने।' 
समीना झटके से उन्हें ऊपर उठाने, फिर नीचे उतारने में, मेरे हाथ उनके शरीर के उन हिस्सों को भी छू गए थे, जो मुझे किसी भी सूरत में नहीं छूने चाहिए थे। छूने क्या उस ओर मेरी नज़र भी नहीं उठनी चाहिए थी। मैं डर गया कि, शाम को भइया, अम्मा-बाबू सबको पता चलते ही कोहराम मच जाएगा। लेकिन न जाने क्या सोच कर भाभी ने किसी से कुछ नहीं कहा। निश्चित ही वह नहीं चाहती थीं कि घर में टूटन की नींव पड़े। उस दिन बाहर जाने के बाद मैं बहुत देर रात में घर आया। खाना भी बाहर ही खाकर आया। भाभी का बनाया खाना नहीं खाया। उनकी बात मुझे गहरे चुभ गई थी।
अब मैं पहले से ज़्यादा इस माया-नगरी के बारे में सोचने लगा। काम-धाम से मन अब और ज्यादा उचटने लगा था। मगर दूसरी तरफ भाभी कुछ दिन की चुप्पी के बाद फिर बोलने लगीं। जल्दी ही वो फिर पहले की तरह व्यवहार करने लगीं। ऐसे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। ऐसी निर्मल, साफ हृदय थीं भाभी। लेकिन मैं मुर्खाधिराज इससे और गलत-फ़हमी पाल बैठा। मैं उनसे और ज़्यादा खुले मजाक करने, उन्हें छूने पकड़ने लगा। फिर जल्दी ही होली में उनके साथ वो हरकत कर बैठा, जिसकी पश्चाताप की अग्नि में आज भी जल रहा हूं। भाभी की ससुराल में वह चौथी होली थी। परंपरा के अनुसार उन्होंने अपनी पहली होली मायके में मनाई थी। भइया भी गए थे। चौथी होली तक भतीजा करीब डेढ़ साल का हो चुका था। 
भतीजी भाभी के पेट में आ चुकी थी। वह तीन महीने की हो चुकी है, यह सूचना भी पूरे परिवार को हो चुकी थी। हंसी-ठिठोली, रंग-गुलाल दो-तीन दिन पहले से शुरू हो चुका था। तभी मेरे दिमाग में  गंदा विचार आया, और होली के दिन मैंने चोरी से उन्हें भांग खिला दी। जब भांग चढ़ गई और भाभी लगीं बहकने, हंसने तो मैंने उन्हें रंग से सराबोर कर दिया।
सारे भाई-बाबू घर के बाहर चबूतरे पर डटे हुए थे। मैं भी वहां जाता और मौका देखते ही फिर अंदर आ जाता। भाभी को रंग लगाता तो वह हंस-हंस कर दोहरी हो जातीं। जब मुझे लगा कि, वह अब पूरी तरह भांग के नशे में टुन्न हैं, तो फिर उन्हें रंग लगाने के बहाने पीछे से जकड़ कर पकड़ लिया। एक हाथ उनके ब्लाउज के अंदर डाल कर अंग से खिलवाड़ करने लगा। दूसरा हाथ उनके पेट पर खिलवाड़ कर रहा था। कोई देख न ले इसलिए जल्दी ही मैं बाहर चला गया। 
मगर मन न माना तो कुछ ही देर में फिर अंदर आ गया। इस बार वही हरकत फिर दोहरा रहा था कि भाभी बिफर पड़ीं । मगर हंसे तब भी जा रही थीं । मेरी यह गंदी हरकत अचानक ही आ पहुंचीं अम्मा ने देख ली। वह आगबबूला हो उठीं। मुझे गाली देते हुए बाहर भगा दिया। दांत पीसती हुई बोलीं, 'हरिमियऊ बड़का देइखि लेई तो काट डारी तोहका।'
उन्होंने भाभी को भी खूब डांटा-फटकारा। भाभी का नशा उतरने  के बाद उन्होंने उनसे जो भी कहा हो, परिणाम यह हुआ कि, उन्होंने मुझसे बात करनी बंद कर दी। अम्मा भी उसके बाद मुझसे सीधे मुंह बात न करतीं, साथ ही हमेशा यही कोशिश करतीं कि, दुकान की बजाए ज़्यादा वक़्त घर पर ही बिताएं। इससे मेरी बेचैनी और बढ़ गई। फिर मैंने तय कर लिया कि चाहे जैसे हो दो-तीन महीने में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बटोर कर निकल लूंगा विलेन-किंग बनने माया-नगरी के लिए।
अब इस घटना को सोचकर ही मैं कांप उठता हूं कि, मेरे जैसा उजड्ड ,मूर्ख शायद ही कोई होगा कि, गर्भवती भाभी के साथ ऐसी शर्मनाक हरकत करते समय इतना तक न सोचे कि इससे उन्हें और गर्भस्थ शिशु, दोनों को नुकसान पहुँच सकता है। दोनों की जान खतरे में पड़ सकती है। लेकिन अगर मैं इतना अच्छा, विवेकवान होता तो यह घिनौना काम करता ही क्यों ? क्यों तीन महीने में बाप-भाई,अम्मा-भाभी सबके विश्वास का कत्ल करके जितनी रकम,ज़ेवर बटोर सकता था, बटोर कर मुंबई भाग आता विलेन-किंग बनने। इतना पैसा, ज़ेवर इस योजना के साथ ले आया था कि,छह-सात महीने कोई काम न मिले तो भी मुझे भूखा न रहना पड़े। कहां रहूंगा इस बात को लेकर भी बहुत सोचा-विचारा, लेकिन कोई रास्ता न निकला तो यह तय करके आया कि, वहीं चलकर देखूंगा,वहीं कोई रास्ता निकाल लूंगा। पहले बड़वापुर छोड़ कर वहां पहुंचूं तो।
जब चला तो ट्रेन में सारे सफर विशेषज्ञ बहसबाज़ों की तीखी बहसबाज़ी के बीच भी यही सोचता रहा कि कैसे क्या करूंगा? और यदि सफल न हुआ तो क्या करूंगा? घर लौटने पर घर वालों से लेकर परिचित, रिश्तेदार सब ताना मारेंगे। आधे रास्ते पहुंचते-पहुंचते इस उधेड़-बुन का भी हल निकाल लिया कि, जो भी हो सफल हुए बिना लौटूंगा नहीं। न सही विलेन-किंग, कुछ भी ऐसा करूंगा कि, करोड़पति बनकर ही पहुंचूं, जिससे सब मेरे पीछे-पीछे नाचें। 
उस वक़्त मेरे मन में भाभी को लेकर बड़ा गुस्सा था। गुस्सा नहीं बल्कि यह कहूं कि जहर भरा हुआ था। जिससे बार-बार यही सोचता कि, जब करोड़पति बनकर लौटूंगा तो भाभी को अपना पिछलग्गू बना कर ही छोडूंगा। आज सोच कर ही आंखें भर आ रही हैं कि, एक भली महिला के लिए मैं इतना गंदा सोचता था। उस महिला के लिए जिसने मुझे एक अच्छा इंसान, एक अच्छा देवर समझ कर एक भाभी का प्यार-स्नेह दिया था। उन्हें कितना दुख हुआ होगा मेरी नीचतापूर्ण हरकत से, जो मैंने उनके साथ की थी। 
मगर यह सारी बातें पीछे छूट गईं विलेन-किंग बनने के आगे। खैर जब मुंबई रेलवे स्टेशन शिवाजी टर्मिनल पहुंचा तो थकान के मारे पूरा बदन टूट रहा था। रिजर्वेशन के कारण राहत जरूर थी। स्टेशन पर हर तरफ इंसान दिख रहे थे। फिल्मों में इस स्टेशन पर जैसी रेलम-पेल देखा करता था, मुझे साक्षात स्टेशन पर उससे भी कहीं ज़्यादा दिखी, और डरावनी भी।
स्टेशन से बाहर आकर मुझे लगा कि, मेरे सपनों की दुनिया मेरे लिए बहुत से रास्ते खोले हुए होगी, लेकिन यहां तो रास्ते ही रास्ते थे। लोगों, गाड़ियों से भरे रास्ते। मशीनों की तरह दौड़ते-भागते लोगों से भरे रास्ते। किसी भी के लिए पलभर को भी न रुकने वाले लोगों से भरे रास्ते। कुछ पल को मैं हिल गया अंदर तक। लेकिन फिर एक रास्ते पर बढ़ गया। वह सड़क कहां को जाती है यह भी नहीं पता था। बस दिशाहीन सा, हक्का-बक्का सा इधर-उधर देखता बढ़ता जा रहा था। जब पैरों की थकान, पेट की आग ज़्यादा बढ़ी तो मुझे होश आया। मगर कहां जाऊं, कहां ठहरूं कुछ भी पता नहीं था। भूख से परेशान होकर सोचा पहले कुछ खांऊ-पीऊं फिर आगे बढ़ूं।
एक होटल में खाने-पीने के बाद जब जान में जान आई तो मैंने बैग से वह पॉकेट डॉयरी निकाली, जिसमें बड़ी मुश्किल से कई हीरो-हीरोइन, डायरेक्टर्स  के पते और फ़ोन नंबर लिखे थे। कई दोस्तों ने यहां रहने वाले अपने दोस्तों के नंबर दिए थे। दोस्तों वाले नंबरों पर एक नज़र डालने के बाद एक पी.सी.ओ. पर पहुंच कर एक के दोस्त को फोन मिलाया। उससे बड़ी उम्मीद थी कि, वह फ़िल्मों में काम मिलने तक मेरी मदद करेगा। ख़ासकर मेरे रहने की समस्या का समाधान जरूर करेगा। 
भदोही में जिस दोस्त ने नंबर दिया था उसने बड़ी उम्मीद बंधाई थी। मगर सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। डायल करते ही एक्सचेंज़ ने बताया कि नंबर ही गलत है। डायरी में बडे़ ध्यान से देख कर कई बार डायल किया कि, कहीं मैं गलती न करूं। लेकिन हर बार एक ही ज़वाब मिला कि नंबर गलत है। मतलब दोस्त ने फर्जी  नंबर दिया था। उसने डींगे हांकी थी कि, यहां उसका दोस्त है, और कोई फर्जी नंबर दे दिया था। फिर एक-एक करके जितने नंबर थे सब ट्राई किए। सारे या तो गलत निकले या फिर जिनके बताए गए थे, उनके न होकर किसी और के निकले। समीना मैं इससे इतना आहत हुआ कि, जिन-जिन लोगों से नंबर लिए थे उन सबको चुन-चुन कर खूब गाली दी। मां-बहन से लेकर ऐसी कौन-सी गाली थी जो न दी हो। सब दोस्तों ने मेरे साथ मजाक किया था। मेरी भावना, मेरे सपने को मेरा पागलपन समझ कर मेरे साथ खिलवाड़ किया था।
सारे दोस्तों को गाली देता,पी.सी.ओ. से बाहर निकलकर मैं फिर दिशाहीन सा चल दिया एक तरफ। इधर-उधर करीब आधे घंटे तक भटकने के बाद मैं एक बड़ी सी बिल्डिंग के सामने उसकी छाया में बैठ गया। पसीने से तरबतर था। हालांकि अप्रैल के महीने में मैं इससे ज़्यादा तेज़ गर्मी में भी घर पर रुकता नहीं था। जंगीगंज , गोपीगंज से लेकर भदोही तक घूमा करता था। मगर यहां उससे बहुत कम गर्मी के बावजूद पस्त हो गया था। मन में अब यह बात ज़्यादा प्रबल होने लगी थी कि, कहीं पैर फैलाने भर को भी जगह मिल जाए तो दो-चार घंटे सो लूं। साथ ही यह भी दिमाग में चल रहा था कि रात कहां बिताऊंगा। साथ में जो पैसे, गहने घर से चोरी करके लाया था उसकी चिंता अलग सांसत में डाले हुए थी। 
यही कोई डेढ़ घंटा उधेड़-बुन में बीता होगा कि, अचानक दिमाग में एक बात आई और उसके साथ ही उम्मीद की किरणें भी नज़र आने लगीं। मैंने सोचा कि इस माया-नगरी में टैक्सी, आटो-रिक्शा ड्राइवर ज़्यादातर पूर्वांचल के ही हैं। तो अगर आटो-रिक्शा स्टैंड पर चल कर वहीं कहीं रुकूं, और उन सब पर नज़र रखूं,उनमें जो भला मानुष दिखे उससे बातचीत करूं, कहूं कि आफ़त का मारा हूं, गरीब हूं, काम की तलाश में आया हूं, फिलहाल अब सिर छिपाने की जगह का कुछ जुगाड़ करा दो, जिससे काम तलाशने में आसानी हो। आज भी यह  बचकानी बात याद कर हँसी आती है। लेकिन उस समय यही बचकानी बात संयोग से काम आ गई थी। 
यह बात दिमाग में आते ही मैं एकदम से उठ खड़ा हुआ। और आते वक़्त जिस आटो-रिक्शा स्टैंड को छोड़ आया था वहीं पहुंच गया। इधर-उधर टहलता-मंडराता रहा। ऑटो-रिक्शा वालों पर नज़र गड़ाए रहा। मगर न जाने ऐसा क्या भ्रम हुआ कि, मुझे हर ऑटो वाला ही पूर्वांचल का दिखने लगा। मैं ऐसा भ्रमित हुआ कि, कुछ ही देर में कईयों से पूछ लिया कि क्या तुम यू.पी. के पूर्वांचल से हो? बदले में झिड़की और खिल्ली मिली। मैं नर्वस  होने लगा और फिर एक कोने में बैठ गया। थकान से मेरी हिम्मत और टूटी जा रही थी। बैठे-बैठे कोई घंटाभर बीत गया।
मैं क्या करूं, कहां जाऊं, कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। तभी एक ऑटो आकर रुका। उसके ड्राइवर ने उतर कर पीठ सीधी करने की गरज से एक अंगड़ाई सी ली, फिर अपनी सीट को बोनट की तरह आगे की तरफ खोला और पानी की बोतल निकाली। वह बड़ी बोतल किसी कोल्ड ड्रिंक की थी। उसने ढक्कन खोलकर मुंह धोया, फिर कुल्ला कर कुछ पानी पिया,और पीछे की सीट पर आराम से बैठ गया। मैं उसे देखता रहा। यही कोई दस मिनट बीता होगा कि, उसने हैंडिल से लटके एक छोटे से झोले से गुल की छोटी डिब्बी निकाली और हथेली पर थोड़ा सा लेकर गुल करने लगा। यह देख कर अंदर ही अंदर मेरी बांछें खिल गईं। 
यह बात बिलकुल साफ हो गई कि, यह आदमी सिर्फ पूर्वांचल ही का नहीं बल्कि निश्चित ही भदोही, काशी या आस-पास का होगा, क्योंकि गुल करने की लत वाले ज्यादातर इन्हीं जगहों पर ही हैं।
मैं उसे बराबर देखता रहा और अंदर ही अंदर यह भी तय कर लिया कि, यह जैसे ही गुल कर लेगा इससे बात करूंगा और कहूंगा कि मदद करे। यह अपनी ओर का आदमी है, जरूर कुछ करेगा। कोई रास्ता तो दिखाएगा ही। मेरे अंदर एक नया जोश, उत्साह सा पैदा हो गया था। फिर वह जैसे ही गुल कर के सीट पर आराम करने की मुद्रा में बैठा, वैसे ही मैं उसके पास चला गया। मैं अंदर ही अंदर डरा हुआ था कि, वह कहीं चला न जाए। मैंने जैसे ही कुछ बोलना चाहा, उसके पहले ही उसने कहा, 'अभी कहीं नहीं जाना।'
मैंने उसकी बात को अनसुना कर जैसे ही पूछा कि क्या वह काशी या भदोही का रहने वाला है,यह सुनते ही वह तनकर सीधा बैठ गया, और मेरी ओर आंखें तरेर कर एक क्षण में मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर थोड़ा ताव दिखाते हुए बोला, 'क्यों? तुझे क्या? कौन हो तुम?' उसके इस रूखे व्यवहार से मैं हड़बड़ा गया। मगर अपने को पुनः संभालते हुए कहा, 'नहीं ऐसा कुछ नहीं, मैं भदोही से आया हूं। जहां जाना था वहां का पता कहीं खो गया है।' 
हड़बड़ी में मैं एकदम झूठ बोल गया और फंस गया। वह बिदक कर बोला, 'तो मैं क्या करूं? मैं तेरा पता ढूंढू क्या? पता खो गया है तो जहां से आया है, वहीं वापस चला जा।' 
उसके व्यवहार से अंदर ही अंदर गुस्सा तो बहुत आया लेकिन जज्ब कर गया और फिर कहा, 'नहीं, ऐसा नहीं है। आपको गुल करते देखा, तो मुझे लगा कि, आप भी उधर के होंगे .... मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि, वह फिर बीच में ही बोल पड़ा। मगर मैंने भी हिम्मत नहीं हारी और अपनी बात समझा कर ही माना। उससे जान ही लिया कि, वह कहां का है। लेकिन यह बताने से पहले उसने मुझसे मेरा पूरा बहीखाता जान लिया। तब बताया कि, वह भदोही का तो नहीं, हां उसके पास ही के 'सुरियांवा' का रहने वाला है। परिवार अब भी वहीं है। वह पिछले कुछ सालों से यहां है। काम-धंधे की तलाश में आया था और ऑटो चलाने लगा, ठीक-ठाक कमाई हो जाती है।
समीना आज भी मैं मुंबई में अपना वह पहला दिन भूला नहीं हूं। उस ऑटो वाले को भी भुला नहीं पाया हूँ, जिसका नाम बाबूराम मौर्या था। बाद में वह कई  साल मेरा मित्र बना रहा, फिर एक दिन जब अचानक गायब हुआ तो आज-तक उसका कुछ पता नहीं। उस दिन उसने मुझे एक धर्मशाला में ठहरा दिया था। जो भायखला के पास था। जाते समय  एक पता लिखकर दिया और कहा, 'इस होटल का मालिक मुझे जानता है। उसको मेरा नाम बताना, हो सकता है तुम्हारे लिए कुछ कर दे।' जाते-जाते मुझसे चार सौ रुपए भी ले गया। इस तुर्रे के साथ कि, 'इसे भाड़ा मत समझना। तेरे साथ ज़्यादा समय रहा, धंधे का बड़ा खोटी हुआ है। मालिक को दिन भर का कोटा देना होता है।'
बाद के दिनों में यह भी पता चला था कि ऑटो उसी का था। किसी मालिक-वालिक को पैसा नहीं देना था। लेकिन सब से बड़ी बात यह थी कि, उसने मुझे इस माया-नगरी में एक आधार दे दिया था। जहां से मैं अपने सपने को पूरा करने का प्रयास कर सकता था। खैर जब बाबूराम चला गया तो भी मेरे मन में उसके लिए धन्यवाद का कोई भाव नहीं आया था। मेरे मन में एक ही बात थी कि, वह मुझसे ज़्यादा पैसे ले गया। समीना पहले दिन की वह पहली रात भी नहीं भूलती। 

कहने को वह धर्मशाला था, लेकिन वास्तव में वह शराबियों-मवालियों का अड्डा था। मैं जिस कमरे में था उसमें आमने-सामने छह तखत पडे़ थे,सब के सिरहाने एक-एक अलमारी बनी थी। सफाई नाम की कोई चीज नहीं थी। अजीब तरह की गंध हर तरफ से आ रही थी। न जाने कितने बरसों से उसकी रंगाई-पुताई नहीं हुई थी। खैर बहुत थका था, तो पसर गया तखत पर। धर्मशाला का इंचार्ज बाबूराम को जानता था। इससे मुझे सिर्फ़ इतना फायदा हुआ कि, कहां पर सस्ता और अच्छा खाना मिल जाएगा, उसने यह बता दिया। 
मैंने शाम सात बजे तक आराम किया। फिर खाना खाने और आस-पास का मुआयना करने की गरज से बाहर निकल गया। निकलने से पहले मैंने धर्मशाला के बाथरूम में जी भरकर नहाया था और रानी गुल भी किया था। लगा जैसे कई दिन की थकान उतर गई। हां बाथरूम की गंदगी, वहां की अजीब सी बदबू ने परेशान कर दिया था। बाहर निकलने पर एक व्यक्ति ने पानी बर्बाद न करने की नसीहत के साथ-साथ, पानी किस-किस समय आता है यह भी बता दिया।
बाहर निकला तो लगा जैसे शहर में नई रवानी आ गई है। तब की भदोही की माफिक नहीं कि,  अंधेरा होते ही बिजली देवी की आवा-जाही और कटौती शुरू। और घरों में पेट्रोमैक्स , लालटेन, दीयों का टिम-टिमाता प्रकाश, और फिर नौ बजते-बजते सब घरों में सिमट गए। मैंने जब घर छोड़ा था, तब वहां लाइट की ऐसी ही बदतर हालत थी। सुनता हूं अब वहां भी लाइट आती है। हालात बदल गए हैं।
मगर यहां माया-नगरी को दिन भर की दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बाद एक और नई दुनिया की ओर बढ़ते देख रहा था। मैं कुतुहलवश इधर-उधर देखता आगे बढ़ता जा रहा था। मुख्य सड़क पर पहुंचा तो और प्रभावित हुआ। हां यह भी मेरे दिमाग में आया कि, सुबह जिन रास्तों से यहां तक आया, यहां की सड़कें उन रास्तों की तरह  ज़्यादा चौड़ी नहीं  हैं। बाज़ार, मकान, बिल्डिगें भी वहां सी बड़ी, विशाल और तड़क-भड़क वाली नहीं हैं। 
जानती हो समीना, करीब हफ्ते भर बाद मैं यह जान पाया कि, यह तो भायखला स्लम बस्ती है। यहां मैंने अपने बड़वापुर, गोपीगंज या पूरे भदोही की तरह ज्यादातर घरों में नहीं ,बल्कि हर एक घर को फैक्ट्री की तरह पाया। फ़र्क इतना था कि, भायखला में सभी जगह कालीन ही कालीन और उसके लूम नहीं  थे। यहां तो तरह-तरह की चीजों की एक ही कमरे में पूरी की पूरी फैक्ट्री देखकर मैं दंग रह गया। खैर उस रात टहलते-टहलते मैं बहुत दूर निकल गया था। 
जब होश आया तो वापस धर्मशाला आने का रास्ता ही भूल गया। बड़ा पूछते-पाछते किसी तरह जब राह मिली तो एक होटल पर खाना खा के वापस आया। ये नहीं कह सकता कि यह वही होटल था जिसे धर्मशाला वाले ने बताया था। वापस रास्ता ढूढ़ते समय जिसे मैं धर्मशाला कह रहा था, उसे कुछ लोगों ने कहा वो धर्मशाला नहीं। क्या है? यह पूछने पर एक नज़र मुझ पर डालकर आगे बढ़ जाते। मैं अंदर-अंदर बहुत डर गया। जब वापस पहुंचा तो धर्मशाला वाले ने घूर कर देखा। और आने-जाने का टाइम बता दिया। 
कमरे में जब पहुंचा, मतलब अपने तखत  पर तो देखा मेरे वाले के अलावा बाकी सभी पर कोई न कोई तानकर सो रहा है। तखत  पर एक दरी मात्र पड़ी थी। कमरे के बीचो-बीच पुराने जमाने के भारी-भारी दो पंखे चल रहे थे। साथ ही घर्र-घर्र की आवाज़ भी खूब कर रहे थे। तखत पर मैंने अपने बैग से तौलिया निकाल कर डाल दिया था। तकिया नहीं था। मैं कभी बिना तकिए के नहीं सोता था। सबके तखत पर नजर डाली,देखा सब तकिया लगाए थे। मैं फिर गया इंचार्ज के पास, उसने बड़ा भुन-भुना के एक तकिया दिलवाई। उससे आ रही गंध के चलते मैंने बिछाई हुई तौलिया उठाकर, तकिए पर लपेट लिया और लेट गया। 
मगर समीना नींद मुझसे कोसों दूर थी। मैं घूमते हुए पंखों को बल्ब की बेहद धीमी मटमैली पीली रोशनी में देख रहा था। एक आदमी बीच-बीच में हल्के खर्राटे भी ले रहा था। वहां सो रहे सभी ने शराब पी रखी थी। बदबू पूरे कमरे में फैली हुई थी। मगर समीना जानती हो इन सबके बावजूद घूमते हुए पंखों की तरह मेरा दिमाग घर की ओर घूमने लगा। घर याद आने लगा। सबसे ज़्यादा अम्मा-बाबू और फिर बाकी लोग भी, भाभी भी। एक-एक चीज फ़िल्म की तरह चलने लगी।
कि मेरे गायब होने के कारण वहां कोहराम मचा होगा। पुलिस में भी रिपोर्ट लिखाई गई होगी। यह सब सोचते हुए दिमाग में यह भी आया कि, तमाम दोस्तों को मेरी इस योजना के बारे में पता है। उन सब से बात खुल गई होगी। यही सब सोचते-सोचते कब नींद आई पता नहीं। सुबह जब उठा तो देखा सारे तखत खाली हैं। मेरे अलावा सब जहां-जहां जाना था जा चुके थे। मैं घोड़ा बेच कर सोया हुआ था। घर पर भी, जब मैं सो जाता था तो जल्दी उठाए नहीं उठता था। 
लेकिन समीना हालात देखो क्या से क्या हो जाते हैं कि, आज हर सुख-सुविधा से भरपूर इस ''रमानी हाउस'' में मेरी आँखों में नींद नहीं है। करीब चालीस घंटे से जाग रहा हूं, मगर नींद नहीं आ रही है। धर्मशाले में उस दिन घर वालों की याद आने के बावजूद गहरी नींद सो गया था, मगर पिछले चालीस घंटों से घर ,छब्बी ,तुम्हारी,और तमाम बातों की यादें  इतनी ज्यादा तारी हैं कि, नींद नहीं आ रही है। आ रही है तो सिर्फ़ तुम सब की यादें , इस शहर में अब-तक बीते दिनों में घटी घटनाएं।
जैसे उस दिन जब धर्मशाले में उठा था, तो दिन के नौ बज चुके थे। तैयार होकर जब बाहर सड़क पर आया तो तेज भूख लगी हुई थी, तो उसी रात वाले होटल पर जाकर डट कर नाश्ता किया और फिर बसों की जानकारी करके उन जगहों के लिए निकल लिया, जहां जाकर फ़िल्मों में विलेन बनने का अपना सपना पूरा कर सकता था। यही क्रम था रोज का। 
बड़ी दौड़-भाग, बाबूराम की खुशामद करते रहने पर दो महीने बाद, उसके दिए पते पर एक आदमी मिला, जिसने ठीक से बात तक नहीं  की, दुत्कार कर भगा दिया था। वहां से निकलने के बाद पूरा दिन,अब भी अपने लिए पहेली बनी इस माया-नगरी में इधर-उधर भटकता रहा, लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा।
हारा-जुआरी-सा रात दस बजे फिर उसी तखत पर पड़ा था। सस्ती शराब की बदबू से पूरा कमरा गंधा रहा था। उस समय तक मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाता था , इसलिए मेरे लिए बड़ी भयावह थी वह बदबू। और कोई समय होता तो मैं ऐसी जगह एक सेकेण्ड नहीं रुकता। लेकिन जुनून था अपना सपना पूरा करने का तो बराबर उस बदबू को बर्दाश्त करता वहीं रुकता रहा। अगले कई दिनों  तक यही  किस्सा चलता रहा,साथ ही पैसे भी खत्म होते जा रहे थे। मेरे पैसे जिस तेजी से खत्म हो रहे थे,उसी तेज़ी से मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी। 
एक दिन बाबूराम किसी को लेकर फिर आया धर्मशाले पर, तो मैं लपक के उसके पास पहुंचा। सारा किस्सा बताकर हाथ-पैर जोड़ा कि, 'भइया मदद करो, इस बेगानी दुनिया में एक तुम्हीं अपने हो। धर्मशाले का खर्चा बहुत है, कोई कमरा दिलवा दो सस्ता-मद्दा और काम भी, नहीं तो भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।' जानती हो समीना इस पर वह बोला, 'ठीक है, करता हूं कुछ, लेकिन रहने का  जुगाड़  इतनी आसानी से नहीं हो पाएगा। कल सुबह आठ बजे आऊंगा, तैयार रहना।'
सच कहूं समीना तो उस वक़्त मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं था कि, वह कुछ करेगा। मुझे वह उन दलाल ड्राइवरों की तरह लगा जो ग्राहक फंसा कर होटल या धर्मशाला तक पहुंचा कर वहां से कमीशन भी लेते हैं। मगर तब उस पर यकीन करने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता भी नहीं था, सो मैं सुबह सात बजे ही तैयार हो उसका इंतजार करने लगा। मगर वह साढ़े आठ बजे तक भी नहीं आया तो मैंने सोचा धोखेबाज ने धोखा दे दिया, चलूं खुद ही कहीं देखता हूं। मगर कहां? यह प्रश्न मन में आते ही मेरे सामने फिर अंधेरा था। कहाँ जाऊं? किसके पास जाऊं? इस धोखेबाज के अलावा और किसी को जानता भी तो नहीं। एक बार फिर मेरे मन में उन सारे दोस्तों  के लिए खूब गालियां निकलने लगीं, जिन्होंने मेरे साथ मजाक किया था। फर्जी पते, फोन नम्बर दिए थे। मगर अचानक ही बाबूराम ने सामने आकर पूरा दृश्य बदल दिया। 
आते ही बोला, 'घंटे भर से जाम में फंसा था इसीलिए देर हुई, आओ चलो!'
मैंने पूछा, 'कहां?' तो बोला, 'जहां बताऊंगा कुछ समझ पाओगे। जानते हो कुछ यहां के बारे में।' तो मैंने कहा 'नहीं।'
इस पर उसने बिदक कर कहा, 'तो जहां चल रहा हूं वहां चलो। अपने धंधे की खोटी करके आया हूं समझे।'
इसके बाद वह मुझे लेकर मानखुर्द गोवंडी पहुंचा। एक पुरानी सी बिल्डिंग थी। कुछ गोदाम सा लग रहा था। अंदर वह आधे घंटे किसी से बात कर के लौटा और बोला, 'देख तू बड़ा भाग्यशाली है। यहां किसी को इतनी जल्दी नौकरी-वौकरी मिलती नहीं। मगर तू अपनी ओर का आदमी है, तो मैंने पूरा जोर लगा कर तेरे लिए बड़ा रिक्वेस्ट किया, तो सेठ तैयार हुआ। तेरे को यहां जितना माल आता है, उसका हिसाब रखने का है। साथ ही तेरे रहने का भी यहीं इंतजाम है।'
फिर उसने मुझे सेठ से मिलाया था। सारी बातें पक्की हुईं। उसने वापस मुझे एक बस-स्टॉप पर छोड़ा और बोला, 'आज का दिन धर्मशाला में ही काटो। कल अपना सामान वगैरह लेकर सेठ के पास सवेरे पहुंच जाना।' 
इतना कहकर वह चला गया। मैं काफी देर तक बस-स्टॉप पर एकदम गुड़बक की तरह खड़ा रहा। समझ नहीं पा रहा था कि, यह नौकरी करूं या अपना सपना पूरा करने की कोशिश करूं। बाबूराम जाते-जाते दो हज़ार रुपए और ले गया यह कहके कि, 'जिसके कहने से तुझे यह नौकरी मिली है, उसके लिए कुछ खाने-पीने को ले जाना है।' 
समीना मैं अपने को एकदम ठगा हुआ महसूस कर रहा था। आखिर मैंने निर्णय लिया कि चलो यह नौकरी करता हूं। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है । पहले कुछ महीने इस अबूझ पहेली बनी, माया-नगरी को समझ-बूझ लूं, फिर अपने सपने की ओर कदम बढ़ाऊं। नहीं तो रोज कोई न कोई ठगता रहेगा, और मैं एक दिन सड़क पर खड़ा भीख मांग रहा होऊंगा या मुंह लटकाए हारा जुआरी-सा अपने बड़वापुर जाने के लिए किसी ट्रेन पर सवार होने को विवश हो जाऊंगा।
समीना तुम मुझे हमेशा नहीं, बल्कि शुरू के दो-तीन सालों तक आए दिन ऐड़ा-टट्टू कहा करती थी। लेकिन नहीं-नहीं समीना, मैं हर वक़्त हर क्षण अपने सपने को पूरा करने के लिए बेचैन रहता था। अब-तक मैंने जितने काम किए। जितने तरह के काम किए वह सब केवल अपने सपने को पूरा करने के लिए रास्ता बना सकूं, सिर्फ़ इसलिए किए।
बाबूराम द्वारा ठगा जा रहा हूं, यह जानते हुए भी मैं अगले दिन सेठ के पास पहुंचा। क्योंकि मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं था। वहां पहुंचने पर अपने को और ठगा हुआ पाया। जानती हो मुझको जो काम दिया गया था उसमें गोदाम की चौकीदारी भी शामिल थी। बड़ी धूर्तता के साथ यह जिम्मेदारी दी गई थी। गेट से लगा एक कमरा था। जिसमें कभी पुताई नहीं कराई गई थी। स्लेटी रंग की दिवार, धूल-मिट्टी, गंदगी से चिकट काली हो रही थी। छत के बीचो-बीच एक बल्ब लंबे तार के साथ लटका हुआ था।
उससे रोशनी इतनी होती थी कि, बस किसी तरह सब-कुछ दिख जाता था। पीली मटमैली सी रोशनी। बिल्कुल वैसी, जैसी हमारे बड़वापुर में बेहद कम वोल्टेज के कारण होती थी। बात यहीं तक सीमित नहीं थी समीना, बाथरूम जाने के लिए सामने वाले दूसरे गोदाम तक जाना पड़ता था। जो करीब-करीब सौ कदम दूर था। जिसके बरामदे में इसी सेठ के यहां मजदूरी करने वाले कई मजदूर बनाते-खाते, सोते थे। वह सभी उड़ीसा के लोग थे। 
दिनभर अंदर ही अंदर कुढ़ता बाबूराम को गरियाता काम करता रहा। पल भर को चैन नहीं था। मिनी ट्रकों में सामान आ-जा रहा था। सेठ दिनभर लापता था। शाम सात बजे आया, सारा रजिस्टर देखा, और जाते-जाते बोला कि, 'रात में भी कुछ ट्रकें आ सकती हैं।' मतलब की हमारी ड्यूटी चौबीस घंटे की थी। इस तरह सेठ मुझसे चौकीदारी का भी काम बिना कहे ही ले रहा था। जैसे उन मजदूरों से उस गोदाम का। जाते समय सेठ सिर्फ इतना बोला, 'काम अच्छा किया। रात में ध्यान रखना।' यह तारीफ मुझे उसकी एक और धूर्तता ही लगी।  
बड़वापुर में जो धंधे में लगा रहता था, भले ही बेमन से, उसका यहां फायदा जरूर मिला था। सेठ चला गया लेकिन एक बार भी यह नहीं पूछा कि, क्या खाओगे, कहां सोओगे। न खाने को कुछ है, न कोई बिस्तर। मैं दिनभर का थका एकदम परेशान हो गया। मुंह सूख रहा था। पीने को पानी नहीं था और ना ही कोई बर्तन। वहीं पड़ी टुटही कुर्सी पर बैठा सोचता रहा कि क्या करूँ। मगर थोड़ी ही देर में भूख-प्यास ने बेचैन कर दिया तो बाहर सड़क पर आया। मगर दूर-दूर तक खाने-पीने को कुछ भी नहीं था। 
अंततः मैं उन मजदूरों के पास पहुंचा। उनसे पूछा कि,आस-पास कहीं कोई होटल है कि नहीं, खाने-पीने का सामान मिलता है कि नहीं, कहीं खटिया और बिस्तर वगैरह मिलेगा कि नहीं। मगर उन सबने जो बताया उससे मैं बड़ा निराश हो गया। उन-सब ने जो जगह बताई वह काफी दूर थी। दूसरे जाने का कोई साधन नहीं था, तीसरे जाने के बाद रास्ता भूल जाने का डर अलग था। और इन सबसे पहले यह कि, थकान से पस्त मैं कहीं और जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
वह सारे मजदूर उस समय खाना बना रहे थे। उनकी रोटियां देख कर मेरी भूख आपा खो रही थी। मुंह में पानी भर रहा था। जबान अंदर ही अंदर फड़क रही थी। मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा वहीं कुछ देर खड़ा रहा तो उन मजदूरों में से एक, जो करीब पचास के आस-पास रहा होगा, ने पूछा क्या सेठ के यहां काम पर आया हूं। तो मैंने सिलसिलेवार सारी बातें बता दीं । हां खाने और बिस्तर के बारे में बड़ा जोर देकर कहा।
असल में समीना मैं भूख-प्यास से इतना व्याकुल था, कि मैं चाहता था कि वह यह बोल दे कि, आज यहीं हमारे साथ खा लो और बदले में वह मुझसे पैसे ले ले। भूख-प्यास की आग कितनी बड़ी होती है समीना इसका अहसास मुझे उसी क्षण हुआ।
मैं बातों को लंबा खींचता रहा कि, वह मेरे मन की बात बोल दे। लेकिन वह नहीं बोला, तो मैंने आखिरी दांव चलते हुए कहा, 'इधर नया आया हूं, इसलिए अब कहीं नहीं जाऊंगा। रास्ता भूलने का डर है। लगता है आज किस्मत में बिना बिस्तर के भूखे-प्यासे ही सोना लिखा है। चलता हूं।' अनमना-सा मैंने फिर इधर-उधर देखा, इंतजार किया कि, कुछ जवाब मिले, लेकिन निराश हुआ और अंततः चल दिया। मगर प्यास ने ऐसा जोर मारा कि, मानो पांव मेरे स्वतः ही वापस मुड़ गए। फिर अनायास ही मुंह से निकल गया कि, 'क्या थोड़ा पानी पीने को मिल जाएगा?' समीना मेरे इतना कहने के बाद जो प्रतिक्रिया उस मजदूर और अन्य ने दी वह एकदम दूसरी थी। मैं चौंक गया।
वह मजदूर लपक कर एक जग में पानी और गिलास लेकर आया। उसके साथ उसके और भी एक दो साथी लपके थे। बड़े प्यार से उसने पानी दिया, और मैं तीन गिलास पी गया। मगर खाली पेट गले के नीचे पानी भी नहीं उतर रहा था। खैर जब पानी पी लिया तो वह मजदूर बोला, 'हम आपसे पहले ही कहने वाले थे, मगर सोचा हम मजदूरों के साथ पता नहीं आप खाएंगे-पिएंगे भी कि नहीं।'
मैं छूटते ही बोला, 'नहीं ऐसी बात नहीं है, खाने-पीने में क्या। हम सब इंसान ही तो हैं। फिर मैं भी काम ही करने तो आया हूं।' 
इसके बाद फिर और बातें होतीं रहीं। तब-तक खाना बन गया और मैंने उन सब के साथ खाना खाया। इस दौरान कौन कहां का रहने वाला है यह सारी बातें हुईं। मैंने बडे़ संकोच के साथ पैसा देने की बात कही, तो उन सबने मना कर दिया। चलते समय प्लास्टिक की एक बोतल में पानी ले आया। बिस्तर के लिए उन सबने चादर दे दी। मैं जब-तक कमरे पर लौटा तब-तक मेरे शरीर में जान आ चुकी थी। फर्श पर खाली चादर बिछा कर सोना बड़ा अखर रहा था। तो मैं फिर उठ बैठा। इधर-उधर देखता रहा मगर कुछ कबाड़ के अलावा कुछ नहीं था। मैंने तौलिया निकाल लिया था। बैग को तकिए की तरह इस्तेमाल किया और सो गया। समीना थकान और नींद के कारण उस पथरीली जमीन पर पतली-सी वह चादर किसी गुलगुले गद्दे से कम नहीं लगी। लेकिन ठीक से नहीं सो सका। रातभर में तीन ट्रक आए। सामान अनलोड हुआ। सब रजिस्टर पर चढ़ाया तब सोया। समीना माया-नगरी आने के बाद वह एक ऐसी रात थी जिसमें काम, थकान, नींद के आगे एक बार को भी घर की याद नहीं आई।
इसके बाद मैंने न जाने कितनी नौकरियां कीं। अब तो बहुत-सी याद भी नहीं हैं। मगर यह पहली जो है, यह जस की तस याद है। जैसे लोग कहते हैं न कि, पहला प्यार नहीं भूलता ठीक वैसे ही। जैसे मैं छब्बी और तुम्हें एक पल को भी नहीं भूल पाता। क्योंकि छब्बी के बाद तुम ही वह हो जो मेरे दिल में कब उतर गई पता ही नहीं चला। खैर समीना इस नौकरी ने मुझे जहां मुंबई में खड़ा होने, इसे समझने और पैसा कमाने का आधार दिया, वहीं मैं यह भी मानता हूं कि, यह मेरे सपने तक पहुंचने के रास्ते में सबसे बड़ी रोड़ा भी बनी। और वह बाबूराम भी। उसके कारण मैं कुछ ऐसी आदतों का शिकार बना, जिससे अपने सपने के प्रति मेरी निष्ठा,मेरा जूनून कमजोर पड़ता गया ,मैं समय से सही प्रयास कर ही नहीं पाया। उसके कारण मैंने कुछ ऐसे कारनामें किए, जिनके बारे में मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया। बिलकुल तुम्हारी ही तरह अपनी प्यारी छब्बी को भी नहीं। वह कारनामें भी इस समय मेरी आंखों के सामने नाच रहे हैं।


बाबूराम हर पांचवे-छठे दिन वहां आता रहता था। मैंने नौकरी के दूसरे दिन ही सेठ से कुछ पैसे उधार मांगे थे जिससे कि, चारपाई, बिस्तर, खाने-पीने की चीजें इकट्ठा कर सकूं। लेकिन जानती हो समीना उसने बड़ी बेरूखी से मना कर दिया। बल्कि यह कह सकते हैं कि, अपमानित भी किया था। हालांकि मेरे पास उस समय ज़रूरत भर के पैसे थे, लेकिन मैंने सुरक्षा की दृष्टि से मांगे थे, जिससे वक़्त जरूरत पर पैसा कम न हो।
सेठ के इंकार करने पर वही पैसा काम आया। यदि वह पैसे न होते तो मुझे साथ लाए गहनों को बेचना पड़ता। मगर मैंने फिर भी एहतियात बरती और केवल एक मामूली सा गद्दा, तकिया, चारपाई, चादर, मच्छरदानी और जरूरत भर के कुछ बर्तन ले आया। सारी शर्म-शान छोड़कर उन्हीं मजदूरों को साधा, उन्हें पैसा दिया। और दो महीने तक उन्हीं लोगों के साथ खाना-पीना चलता रहा। जब दो महीने के बाद एक महीने की तनख्वाह मिली तब मैंने खाना बनाने आदि का बाकी का इंतजाम किया।
समीना यह सारी वह बातें हैं, जो तुम्हें कभी नहीं बताई थीं। क्योंकि संकोच होता था कि कैसे बताऊँ यह सब, मैं डरता था कि तुम गुस्सा न हो जाओ। पहली करतूत बाबूराम की याद आ रही है। नौकरी करते हुए पूरा एक महीना बीत चुका था। तनख्वाह मिली नहीं थी। एक दिन बाबूराम रात करीब नौ बजे अपना ऑटो लेकर आया। ऑटो की आवाज़ सुनकर बाहर निकला तो देखा बाबूराम ऑटो से एक एयर-बैग निकाल रहा है। 
उसी के पीछे एक मुश्किल से अठ्ठारह-उन्नीस साल की लड़की सलवार सूट पहने खड़ी है। देखने में वह अच्छी-खासी, लंबी-चौड़ी थी। गोदाम के बाहर की धीमी रोशनी में मैं उसे ठीक से देख समझ पाता कि, तब-तक बाबूराम बैग और लड़की को लिए सामने आ खड़ा हुआ और बोला, 'अरे! यार अंदर भी आने दोगे या यहीं खड़ा रखोगे।' 
मैं उसकी इस बात से एकदम अचकचा गया और उन्हें अंदर बुला कर चारपाई पर बैठाया। फिर उत्सुकता भरी नजर से बाबूराम को देखा। उसने मुझे बैठने को कहा तो एक टूटा-फूटा स्टूल जो मैंने रखा था, उस पर बैठ गया। मैं तुरंत यह जान लेना चाहता था कि, आखिर यह महिला कौन है? और बाबूराम इतनी रात गए यहां क्यों ले आया है। मैं कुछ पूछता कि उसके पहले ही बाबूराम बोला, ' विशेश्वर परेशान न हो, तुम्हारी तरह ये भी मेरी दोस्त है। बस रातभर के लिए तुम्हारी मदद चाहिए।'
मैंने क्षणभर में यह सोचते हुए कि, इसने मेरी मदद की है , चलो, जो हो सकेगा करते हैं। उससे तुरंत कहा, 'हां, मेरे लायक जो हो बताइए।' तो वह बोला, 'असल में हम-दोनों यहीं रात-भर रुकना चाहते हैं। मेरे घर पर कुछ दिक्कत है, बहुत लोग हैं।' तो मैंने कहा, 'ठीक है, रातभर की ही तो बात है, रुकिए। बिस्तर जमीन पर लगा लेते।'
घर में उसके किस तरह की दिक्कत है ,मुझे समझते देर नहीं लगी। बड़वापुर में मेरे कुछ दोस्तों को महीने में कई बार यह दिक्कत होती थी। मांगने पर मैं उनकी भी मदद करता था। वह सब मुझको भी अपने खेल में शामिल होने के लिए बुलाते,मैं मना करता तो कहते,'का मरदवा, कइसन मनई हऊए तू ,एइसन बढियाँ-बढियाँ हसीना बोलावत बाटिन और तू भागत हऊए।' मगर मेरी नज़र में यह गलत था, तो मैं दोस्ती निभा कर चल देता था। 
बाबूराम ने भी मेरी हां सुनते ही  कहा, 'मुझे तुम पर पूरा यकीन था यार, कि तुम मना नहीं करोगे। अच्छा इनसे तुम्हारा परिचय करा दूं, ये तराना हैं, इन्हें सब तमन्ना भी कहते हैं।' मैंने नमस्ते में हाथ जोड़ लिए तो उसने भी मुस्कुराते हुए नमस्ते किया।
मैंने देखा कि मैं संकुचा रहा था और वह बेखौफ,बिंदास थी। मैं अब-तक यह सोचकर परेशान होने लगा कि, आखिर ये इसकी दोस्त कैसे हो गई? रातभर दूसरे मर्द के साथ क्या कर रही है? धंधेवाली है तो ये दोस्त क्यों बता रहा है। मुझे लगा फितरती बाबूराम कुछ नया खेल, खेल  रहा है। वह मुझे ज़्यादा कुछ सोचने का मौका दिए बिना तेज़ी से बाहर गया और दो पॉलिथिन लिए हुए  वापस लौट कर बोला, 'विशेश्वर मैं होटल से खाना लेकर आया हूं, आओ खाते हैं।'
यह कहते हुए उसने बिना किसी संकोच के साथ लाई पानी की बोतल से हाथ धोया और बिस्तर पर ही पेपर बिछा कर खाना निकालने लगा।
तराना भी हाथ धोकर उसी के बगल में बैठ गई। मैंने मना कर दिया कि मैं खाना खा चुका हूं। बिल्कुल इच्छा नहीं है। लेकिन उसके बहुत जोर डालने पर  उस रोस्ट्रेट चिकन का एक टुकड़ा लेकर हिलते-डुलते स्टूल पर बैठ कर, माजरा क्या है ? समझने की कोशिश करने लगा। पहले जो टुटही कुर्सी थी, वो कई दिन पहले ही पूरी तरह टूट गई थी ,तो उसे बाहर डाल दिया था। मैं धीरे-धीरे चिकन का टेस्ट ले रहा था,लेकिन बीच-बीच में नजर तराना पर खिंच जाती थी। उसका बेपरवाह अंदाज मुझे परेशान कर रहा था। उसके बहुत ज़्यादा खुले कपड़े, अटपटे ढंग से हटे हुए दुपट्टे, खाने के तरीके से यही लग रहा था कि, वह कोई घरेलू महिला नहीं है। 
अचानक ही बाबूराम ने मुझे चौंका दिया। उसने पैंट में पीछे खोंसी शराब की बोतल निकाल कर शराब गिलास में उड़ेली, मैं संभल भी नहीं  पाया था कि, उसने और चौंका दिया तराना की गिलास में भी डाल कर। फिर मेरे पीछे पड़ गया। मैं बड़ी मुश्किल से उसे मना कर सका।
बाबूराम की इस हरकत से मैं बहुत परेशान हो उठा। गुस्सा भी बहुत आ रही थी। मगर इतने दिनों में यह भी जान गया था कि, बाबूराम केवल दंदफंदी ही नहीं, बेहद खुराफाती भी है और छुटभैए टाइप के जरायम पेशा वालों से भी संपर्क रखता है। उसका मुख्य काम ऑटो चलाना नहीं, दंदफंद है। ऑटो तो एक बहाना है। खैर खाना-पीना खत्म हुआ और जमीन पर बिस्तर भी लग गया। उन दोनों ने जिद करके मुझे चारपाई पर ही सोने को विवश कर दिया था। चारपाई का सारा बिस्तर जमीन पर था। मेरे लिए सिर्फ़ एक तकिया बची थी।
इस बीच मैंने देखा कि शराब का असर दोनों पर हो चुका था। दोनों अब बातें न सिर्फ़ ज़्यादा तेज आवाज़ में कर रहे थे, बल्कि बेवजह हंस भी रहे थे। अचानक बाबूराम उठकर खड़ा हुआ और बड़ी गर्मी है कहते हुए शर्ट, बनियान, पैंट उतार दी। सिर्फ़ एक अंगौछा पूर्वी स्टाइल में लपेट लिया और तराना से बोला, 'तू भी कपड़े उतार दे, गंदे हो जाएंगे तो सवेरे क्या पहनेगी।'
समीना उस दिन बाबूराम से ज़्यादा मुझे वह तराना आश्चर्य में डाल रही थी। अपनी समझ से उसने बड़ी धीमी आवाज़ में एक बेहद अश्लील बात कही और उठकर खड़ी हो गई। उसके कदम लड़खड़ा रहे थे। फिर भी उसने कपड़े उतारने में फुर्ती दिखाई। कुर्ता उतार दिया, सलवार भी उतार दी। बचे रहे कपड़े के नाम पर बस वही दो टुकड़े, जिसके लिए तुम कहती थी कि, 'ये साले तन पर बेड़ी जैसे लगते हैं, कसे रहते हैं तन पर।' और तुम सिर्फ़ कहती ही नहीं थी, बल्कि अधिकांश समय पहनती भी नहीं थी। खैर और विस्फोट होना अभी बाकी था। तराना-बाबूराम की ओछी हरकतें  तेजी से बढ़ रही थीं। अचानक बाबूराम कुछ लड़खड़ायी सी आवाज़ में बोला, 'विशेश्वर थोड़ी देर ऑटो में आराम कर ले। बाहर मौसम बहुत ठंडा है, तेरा पसीना सूख जाएगा, बढ़िया लगेगा।' 
उसकी मंशा समझते मुझे देर नहीं लगी। उसे मन ही मन भद्दी-भद्दी गालियां देता हुआ मैं बिना कुछ बोले बाहर ऑटो में बैठ गया। मेरे जैसे लंबे-चौड़े आदमी को ऑटो में कहा आराम मिलता। सो मैं इधर-उधर टहलता, फिर बैठता। हर बार बाबूराम को गरियाता। उन दोनों की आवाजें  मैं बाहर भी बीच-बीच में  सुन रहा था। तराना की कुछ बातें सुनने के बाद मैंने मन ही मन कहा, देखने से लगता ही नहीं कि, इतनी बेशर्म होगी। बड़वापुर में भी दोस्त न जाने कितनी धंधेवाली लाते थे,लेकिन वो सब तो इसके सामने कुछ हैं ही नहीं। समीना गजब यह कि यह सोचने के बावजूद उसकी आवाज़,बातों से मैं अपने भीतर उत्तेजना भी महसूस कर रहा था, जो बढ़ती ही जा रही थी। 
तराना का वह भरा-पुरा, लंबा-चौड़ा बदन रह-रह कर आंखों के सामने कौंध जा रहा था। यह बेचैनी, गुस्सा, खीझ भरा आधे घंटे का समय बीता होगा कि बाबूराम बाहर आया। मेरे कंधे पर हाथ रख कर उखड़ी-सी आवाज़ में बहकते हुए बोला, 'यार मेरे रहते तेरे को परेशान होने की जरूरत नहीं है। यहां हर चीज को मैं हैंडिल कर लेता हूं। तुझे भी सिखा दूंगा। देख चुटकी बजाते मैंने नौकरी और रहने की जगह दोनों दिला दी न। आज औरत का भी मजा ले। जा अंदर, तराना इंतजार कर रही है तेरा, फिदा है तेरे पर फिदा। छा गया है तू उस पर।'
उसकी आवाज़ इतनी तेज़ थी, कि अंदर तराना ने निश्चित ही सुनी होगी। समीना पहले से मेरे अंदर उत्तेजना की जो आग सुलग रही थी, वह बाबूराम की बातों से एकदम भड़क उठी। मेरी ऊपरी बनावटी ना-नुकुर पर बाबूराम का आग्रह भारी पड़ा। आखिर मैं यही चाह रहा था। किसी औरत को भोगने का यह मेरा पहला अवसर था। सो तराना जैसी मंझी हुई खिलाड़ी के सामने मैं अनाड़ी नजर आया। उसने मेरी खिल्ली भी उड़ाई। बेवजह की मर्दांगी दिखाने से उसे कुछ तकलीफ हुई थी, जिसका उलाहना उसने मुझे सुबह जाते समय दिया। और हर बार की तरह बाबूराम मुझसे फिर कुछ रुपए झटक ले गया। 

समीना मैंने उसी दिन  पहली बार किसी औरत को बिना कपड़े के एकदम बेपरवाह होकर सोते भी देखा था। वह अपना दुपट्टा ही ओढ कर सोई थी ,क्योंकि ओढ़ने के लिए वहां कोई चादर तो थी, दुपट्टा भी इतना अस्त-व्यस्त ढंग से ओढे थी कि, उसका बदन नाम-मात्र को ही ढंका था। इतना ही नहीं कमरे में दो-दो मर्द भी हैं, तराना को इसकी भी तनिक परवाह नहीं थी। मेरा दुर्भाग्य देखो कि उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो सका। 
दोनों बेसुध सो रहे थे और मैं ट्रकों की आवा-जाही के कारण बार-बार उठ रहा था। और जब ट्रक चले जाते तो तराना का खुला बदन न सोने देता। मैं उठ-उठ कर बैठ जाता। घूर-घूर कर देखता उसे। मन करता कि दुपट्टा उसके बदन के जिन चंद हिस्सों को ढंके हुए है वह भी खुल जाएं, दुपट्टा हट जाए।
समीना तुम मेरी इस हरकत को कमीनापन कहती कि, मैंने व्याकुल होकर एक बार उसका दुपट्टा हटा देने की कोशिश भी की थी। मगर वह कुछ ऐसे उसकी कमर के नीचे दबा था कि हटा नहीं सका। ज़्यादा जोर लगाने पर उसके जाग जाने का डर था। जानती हो उस समय मैं बाबूराम से डर रहा था। जबकि वह ताकत में मेरा आधा भी न रहा होगा। 
ऐसी ही ऊंच-नीच घटनाओं के साथ यहां नौकरी करते हुए चार महीने पूरे हो गए और मुझे उस जगह से कहीं और जाने की घंटे भर को भी फुरसत नहीं मिली थी। सेठ ने मेरी जी-तोड़ मेहनत और ईमानदारी का यह ईनाम दिया कि, मुझ पर ढेरों काम का बोझ लाद दिया था। चार महीना पूरा होते ही मैं मचल उठा उस आदमी के पास जाने के लिए, जिसने फ़िल्मों में काम दिलाने के लिए मुझे कुछ महीनों बाद बुलाया था। धर्मशाला में रहते हुए जब भटका करता था तब उससे मुलाक़ात हुई थी।
मैं उस दिन लाख बाधाओं के बावजूद वहां पहुंच ही गया। वह आदमी भी मिला, उसे  देखकर मैं खुशी के मारे फूल के कुप्पा हो गया कि, चलो चार महीने बाद आज फिल्म में काम मिल जाएगा। उसके अर्दली की जी-तोड़ मिन्नतों हाथ-पैर जोड़ने के बाद मैं करीब तीन घंटे बाद उससे मिल पाया। मगर उसने मुझे पल भर में ऐसे दुत्कारा मानों मैं घर में अचानक ही घुस आया गली का कोई आवारा कुत्ता हूं। उसने साफ कहा, 'जा कहीं काम-धंधा कर, फ़िल्मों में काम करेगा। कभी देखा है खुद को आइने में। किसी कोल माइन से निकलकर आया हुआ लगता है।' उसकी यह बात पूरी होने से पहले ही उसके स्टाफ ने मुझे बाहर कर दिया। 
बुझे मन से वापस लौटा तो सेठ की गालियां और नौकरी से निकाल दिए जाने की धमकी सुनी, साथ ही एक दिन की पगार काटने का आदेश भी। उस दिन गुस्सा, क्षोभ के कारण खाना भी नहीं खाया। वह बेचारे मजदूर बुलाने आए थे लेकिन मैंने मना कर दिया था।
समीना इसके बाद मैंने उस सेठ की नौकरी आठ महीने और की। वहां ज़िंदगी के एक से एक अनुभव मिले। और बाबूराम का नित्य नया चेहरा भी देखने को मिला। 
उसकी संगत का नतीजा था कि मैं थोड़ी बहुत शराब भी पीने लगा और औरतों में दिलचस्पी बढ़ती गई। बाबूराम की बदौलत हर हफ्ते कोई न कोई तराना कमरे पर आती। और हम-दोनों उससे जी भर संसर्ग करते। कई बार अगले दिन पछतावा होता, मन में आता ऐसे तो मेरा सपना पूरा होने से रहा।
मगर फिर किसी तराना की बात आते ही सब भूल जाता। इस दौरान जितनी तरानाएं लेकर बाबूराम आया, उनमें कोई भी बीस-पचीस से ज़्यादा की नहीं  थीं। सिर्फ़ एक को छोड़कर जो करीब पैंतालीस-छियालीस की थी। जिसने बातें भी बड़ी अच्छी-अच्छी की थीं । वह इस धंधे में इसलिए थी, क्योंकि उसको और पति को मिलने वाली तन्ख्वाह परिवार के लिए पर्याप्त न थी। बच्चों के अच्छे लालन-पालन,पढ़ाने-लिखाने के लिए पैसों की कमीं आड़े न आये इसलिए महीने में तीन-चार दिन रातें कहीं और किसी के साथ बिताकर ठीक-ठाक कमाई कर लेती थी। उस उमर में भी उसने खुद को बहुत संभालकर रखा था। अपने कस्टमर से ऐसे पेश आती थी कि, वह उससे एक बार फिर मिलने की जरूर सोचता।
समीना फिर वह दिन भी आया, जब मेरा मन सेठ के प्रति घृणा से भर गया, और मैं तन्खवाह मिलते ही रात में ही अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर रफूचक्कर हो लिया। इतनी घृणा इसलिए हुई कि, जिन मजदूरों के साथ मैंने खाया-पिया था, उनमें से एक किसी अनजान-सी बीमारी के कारण देखते-देखते तीन-चार दिन में चल बसा। बाकी मजदूरों के पास उसके संस्कार के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, तो उन लोगों ने सेठ से उधार मांगा, मगर उसने साफ मना कर दिया। ज़्यादा कहने पर फटकार भी दिया।
यह देखकर मैंने अपने पास से जितना हो सका, उतना पैसा उन सबको दिया और संस्कार के कामों में भी मदद की। इससे सेठ खफा हुआ। दो दिन बाद ताना मारते हुए उस दिन की पगार काटने के लिए कह दिया। बस इससे मेरा चित्त उससे एकदम फट गया, और मैं चल दिया उसे छोड़कर।
इधर-उधर भटकता, ठोकरें खाता, अंततः वार्सोवा पहुंचा। यहां आ कर लगा जैसे मुंबई से अलग किसी दूसरे शहर में आ गया हूं। यहां जल्दी ही एक रेस्टोरेंट में काम संभाला मगर कुछ ही दिन में भगा दिया गया। फिर एक ट्रक पर क्लीनरी करने लगा। करीब दो महीने मैं सोने का वक़्त मिलने पर इसी ट्रक पर सोया। जहां ट्रक खड़ी होती वहीं अन्य लोगों के साथ खाना बनाता, खाता। कुछ ही दिन में मेरा शरीर आधा रह गया। तकलीफों से घबराकर यह नौकरी भी छोड़कर निकल लिया। क्योंकि मुझे लगा कि, यह ट्रक तो मुझे मेरे सपने से बहुत दूर लिए जा रहा है । 
इसलिए ऐसी नौकरी खोजने लगा जिससे मुझे मुम्बई से बाहर न जाना पड़े। कई जगह भटकने के बाद एक जगह सिक्योरिटी गार्ड बन गया। चौदह-पंद्रह घंटे की ड्यूटी के बाद उस कोठी के सर्वेंट क्वार्टर में दो और नौकरों के साथ सो जाता। मालिक की नजर में हम गार्डों और नौकरों की अहमियत एक कुत्ते से ज़्यादा नहीं थी। यहां महीना भर भी नहीं बीता था कि सेठ के यहाँ जैसी एक घटना हो गई । एक नौकर दवा न हो पानेे के कारण पीलिया के चलते मर गया। उसका अंतिम संस्कार जिस ढंग से हुआ उससे मेरा मन एकदम रो पड़ा।
उसकी अर्थी उठने वाली थी, मालिक का इंतजार हो रहा था, कि वह बाहर आएं तो लोग उसे ले जाएं। लंबे इंतजार के बाद वह बाहर आये और फिर हम-सब पर जैसे जूता मारते हुए बोले , 'इसे ले जाओ भाई, अभी तक यहां क्यों बने हुए हो।' अर्थी पर एक उड़ती नजर भी नहीं  डाली। फिर कुछ नोट पास खड़े नौकर के हाथ में पकड़ाते हुए बोले, 'जल्दी निपटाना सब, और यहां भी कोई रहना।' वह जिस तेजी से अंदर से आये थे , उसी तेजी से गाड़ी में बैठ कर चले गए। फिर सबने मिलकर, मैं सबसे नया था तो मुझे ड्यूटी पर रहने को कहा और उस अभागे नौकर का शरीर लेकर चले गए अंतिम संस्कार के लिए। 
बाद में पता चला कि, उस अभागे का दुनिया में कोई नहीं था। अपनी बीवी-बच्चे के साथ यहां चार-पांच साल पहले कमाने-खाने आया था। मगर दो साल बाद ही बीवी, उसी के साथी के साथ अपने दोनों बच्चों को लेकर भाग गई। बेचारे ने अपनी विश्वासघाती पत्नी को बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिली। तब से वह हताश-निराश जिंदगी काटते-काटते असमय ही लावारिस सा चल बसा था।
समीना उन नौकरों की विवशता बेचारगी देखकर मैं  खुद को संभाल नहीं  पाया। उन सबके निकलते ही मैं बहुत भावुक हो गया,इतना कि आँखों में आंसू आ गए। तभी मैंने यह तय कर लिया कि, लौट जाऊंगा अपने बड़वापुर। नहीं बनना मुझे विलेन-किंग।
लेकिन जिस तेजी से मन में यह बात उठी उसी तेजी से खत्म भी हो गई यह सोचते ही कि, आखिर किस मुंह से जाऊंगा बड़वापुर। धोखाधड़ी, चोरी, बदतमीजी सब तो करके आया हूं। वह भी अपने ही परिवार से। मुझे अब खुद पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। नफरत हो रही थी।
यहां भी जल्दी ही नौकरी करते हुए तीन महीने बीत गए। मगर मैं यह नहीं जान पाया कि, आखिर सेठ कितने काम करता है, और क्या-क्या करता है। बाकी नौकरों से पूछ-ताछ करता तो सब बड़ा घुमा-फिराकर थोड़ा बहुत बताते और साथ यह जरूर जोड़ते कि, 'भइया क्या करना है अपने को। पगार मिल रही है और सिर छिपाने की जगह भी।' यह सुनने के बाद मेरे पास चुप हो जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता था। तीन महीना पूरा हुए एक हफ्ता भी न बीता था कि, एक दिन सुबह दस बजे साहब बाहर आये और मुझे अपने साथ गाड़ी में बैठाकर चल दिए।
न उन्होंने बताया और न ही मेरी पूछने की हिम्मत हुई कि, कहां चल रहे हैं? उस तरह की लंबी और बड़ी गाड़ी में मैं पहली बार बैठा था। वह ऑडी की एस.यू.वी. थी। तब आज की तरह आम नहीं थी। मैं ड्राइवर की बगल की सीट पर बैठा था। साहब पीछे अपने शैडो के साथ। जब गाड़ी रुकी तो मैंने अपने को उफान मारती विशालकाय लहरों वाले समुद्र के तट पर पाया। वहां तीन गाड़ियां पहले से खड़ी थीं। छह-सात लोग भी आसपास ही खड़े थे। साहब के गाड़ी से उतरते ही सब ने उन्हें घेर लिया और हाथ मिलाया। इनमें से तीन महिलाएं भी थीं। सब अंग्रेज़ी में बतिया रहे थे। जिसका मतलब मैं समझ ले रहा था। वो मेरे ही बारे में बात कर रहे थे।
साहब के कहने पर वह सब बार-बार मुझे ऊपर से नीचे तक देख रहे थे। फिर जल्दी ही गाड़ियों के आसपास तीन-चार फोल्डिंग कुर्सियां ड्राइवरों ने निकाल कर रख दीं। साहब और कई लोग साथ बैठ गए। फिर देखते-देखते कई कैमरे स्टैंड पर लग गए और जो तीन महिलाएं थीं, उन के सामने कई बॉक्स रख दिए गए थे। उन तीन महिलाओं में से दो काफी लम्बी-चौड़ी भारी शरीर की थीं , तीसरी महिला छरहरे बदन की, और सबसे लंबी थी। आदमियों में वहां सबसे लंबा मैं था और महिलाओं में वह, बल्कि कई पुरुष भी उससे छोटे थे। फिर जल्दी ही वह एक गाड़ी की आड़ में चली गई। बाकी दोनों महिलाएं भी गईं। इसी बीच एक आदमी एक एक्स.एल. साइज स्ट्रॉली बैग वहां रख आया। तीनों महिलाओं ने बेहद चुस्त जींस और टी-शर्ट पहन रखी थी। एक की टी-शर्ट स्लीव-लेस थी। जिससे उसके भारी-भरकम शरीर की ही तरह उसके भारी स्तन झांक रहे थे।
समीना यह सब देखकर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा था। सारा ताम-झाम देख कर मैं समझ गया कि साहब फ़िल्म निर्माण से ही जुड़े व्यक्ति हैं । अब  मैं किसी दिन इनसे निवेदन करूंगा कि मुझे कोई छोटा-मोटा ही रोल दे दें  या दिला दें । मैं खुशी के मारे एकदम पगला उठा था कि, जिसे ढूढ़ रहा था वह मिल गया। साथ में कोफ्त यह भी हुई कि, इतने दिनों से साहब के यहां काम कर रहा हूं, और साहब को जान भी नहीं पाया। जबकि आए दिन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग आते रहते हैं । मुझे लगा कि, यही समुद्र तट वह स्थान होगा, जहां से मेरे विलेन-किंग बनने की शुरुआत होगी। 
इसी समय अनायास ही मुझे ना जाने क्यों दादी की अक्सर कही जाने वाली यह कहावत याद आ गई कि, 'कोखी मां बच्चा गऊंवाभर ढिंढोरा।' मैं उस खिली धूप में भी सपने देख रहा था। मन में समुद्र की लहरों की तरह सपने उफान मार रहे थे। मैं मंजिल से अपने को बस उतना ही दूर पा रहा था, जितनी दूर उस समय हम लोगों से समुद्र की लहरें थीं। जो हम-लोगों से मात्र पचास कदम पहले तक आ-आ कर तट को बार-बार गीला कर रही थीं।
तट पर हम लोग जहां थे, वहां से लगभग दो सौ मीटर पहले काफी भीड़ और चहल-पहल थी। साहब ने काम में कहीं कोई बाधा न आए, इसलिए एकदम दूर भीड़ से अलग अपना ताम-झाम फैलाया था। उत्साह और जोश में मैंने अपने साथ आए ड्राइवर से पूछ लिया कि यह जगह कौन सी है। तो उसने मुझ पर ऐसे नज़र डाली मानो मैं कोई अजूबा हूं। बोला, 'अरे! चौपाटी वीच नहीं जानते।'


वह कुछ और बोलता कि, तभी जो व्यक्ति स्ट्रॉली बैग ले गया था, वह लगभग दौड़ता हुआ आया और मुझे साहब के पास बुला ले गया। 
मेरे पहुंचते ही उन्होंने कहा, 'सुनो तुम्हारी कुछ फोटो खींची जाएगी। मगर इन कपड़ों में नहीं, ये तुम्हें तैयार कर देंगे।' 
साहब की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि, पास खड़ा एक आदमी बोला, 'आओ।' मुझे लेकर वह उसी गाड़ी के पीछे पहुंचा जहां वह महिलाएं थीं, स्ट्रॉली बैग था और फोल्डिंग कुर्सियां थीं। जिनमें से एक पर वह छरहरी महिला बैठी थी। मगर मैं उसका एकदम बदला रूप देख कर दंग रह गया। वह एक मछुवारिन की वेश-भूषा में थी। कछाड़ मारकर घुटने से ऊपर धोती पहनी हुई थी। जिस पर नीले, पीले, लाल रंग की प्रिंट थी।
समीना मुझे लगता है कि, तुम सामने होती तो कछाड़ मारने वाली बात बिल्कुल न समझ पाती। क्योंकि तुम तो सहारनपुर की थी, हमारे बड़वापुर में यह शब्द प्रयोग होता है। होता क्या है कि, इसमें औरत किसानी आदि का काम करते समय अपनी धोती का एक सिरा दोनोें पैरों के बीच से खींचकर पीछे कमर में कसकर खोंस लेती हैं। जिससे काम करते समय धोती बाधक नहीं बनती। यहां महाराष्ट्र में कछाड़मार धोती पहनकर एक लोक-नृत्य भी होता है। तो उस ड्रेस में वह छरहरी महिला एकदम अलग ही तरह की दिख रही थी। उसकी पूरी टांगें बेहद खूबसूरत थीं। वैसी सुडौल जांघें उसके पहले मैंने किसी महिला की नहीं देखी थी। उसने जो चोली पहनी थी उसमें बटन या हुक नहीं थे। उसके दोनों सिरों को खींच कर बांधा गया था। उसकी गांठ उसके भारी-भरकम स्तनों की गहराई में धंसे जा रहे थे। हालांकि स्तन का नाम-मात्र का हिस्सा ही ढंका था। तनाव इतना था कि, लगता जैसे चोली फाड़कर बाहर आ जाएंगे। इसी बीच उसका मेकअप कर रही महिला ने उससे कुछ कहा, जिससे वह खिलखिला कर हंसती हुई खड़ी हो गई। हँसी सुनकर मेरी नज़र पल-भर को उसी पर ठहर गई ,उसका जादूई सौंदर्य देखकर मैं एकदम हकबका गया था।
वह अपनी ही जगह पर धीरे से एक चक्कर घूम गई। जितना गजब वह आगे से ढा रही थी, उससे कहीं कम नहीं था पीछे से। धोती इतने नीचे से बांधी गई थी कि, सामने नाभि से एकदम गहरे नीचे तक चली जा रही थी। वहीं पीछे नितंबों का उभार दिख रहा था। नितंबों के बीच गहराई में खोसा गया साड़ी का हिस्सा उसे और भी मादक बना रहा था।
ओफ्फो.... समीना देखो मैं भी कितना मूर्ख हूं कि, दुनिया भर की महाभारत बताए जा रहा हूं लेकिन इस मोटे दिमाग में राजकपूर की ''बॉबी'' पिक्चर नहीं आ रही है। जिसमें मछुवारिन बनी डिंपल कपाड़िया ने ''कोली'' नृत्य किया था ऐसी ही ड्रेस पहनकर। जिसमें डिंपल का खूबसूरत जिस्म देख कर ना जाने लोग कितनी आहें भरते थे। 
सच कहूं तो उस डांस को देखने के लिए मैंने कई बार पैसे खर्च किये थे। उसे तब दोस्तों के साथ वीडियो कैसेट लगाकर देखता था, जब सी.डी., डी.वी.डी. बड़वापुर जैसी जगह के लिए आम नहीं थीं। पिक्चर की डिंपल की  हूबहू कॉपी,  मैं समुद्र तट पर ही साक्षात अपने सामने देख रहा था। मात्र आठ-दस फीट की दूरी से। मैं मुर्खों सा पलक झपकाता उसे देख ही रहा था कि, तभी मेकप करने वाली महिला ने पास खड़े आदमी से अंग्रेज़ी में कुछ कहा, तो उसने मुझे अपने पास बुलाकर कहा, 'सुनो हम तुम्हारी कुछ फोटो अकेले और कुछ इन मैडम के साथ खींचेंगे। ये कपडे़ तुमको पहनने हैं।' 
मैंने देखा मुझे भी मछुवारे जैसे कपड़े पहनने हैं। लुंगी बीच से लांग मार कर पीछे खोंसते हुए। जैसे बॉबी पिक्चर में उनके पिता बने ओम शिवपुरी ने पहना था और बनियान। उस आदमी ने मुझसे पैंट-शर्ट उतारने को कहा, मैं उतारने में संकोच करने लगा, तो मेकप करने वाली औरत अंग्रेजी में कुछ कह कर हंसने लगी। उसके सारे साथी भी।
मैं समझ गया कि, मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है। बड़ी गुस्सा आ रही थी। तभी उसने एक और धमाका किया। हंसती हुई वह हिंदी में बोली , 'अरे! अंदर कच्छी तो पहने है न, फिर क्यों शरम आ रही है, इन्हें तो शरम नहीं आ रही और तू है कि, सिकुड़ा जा रहा है।' उसने मछुवारिन बनी लड़की की ओर ऊँगली से इशारा करते हुए कहा। फिर तुरंत ही आगे बोली ,'चलो जल्दी करो।'
उसका यह बोलना था कि, मेरे पास खड़ा आदमी मुझे बिजली की तेज़ी से तैयार करने लगा। सच बताऊं पैंट उतारते वक्त मुझे वाकई बहुत शर्म आ रही थी। मेकअप का कमाल था कि, मैं भी पूरे मछुवारे के रूप में आ गया। शीशे में अपने को देखकर मैं मेकपमैन के हुनर का कायल हो गया। शीशे में लग ही नहीं रहा था कि, वह मैं हूं। इस बीच उस मछुवारिन बनी महिला की फोटोग्रॉफी शुरू हो गई थी। कई पोज बेहद मादक थे।
कनखियों से मैं उसे बराबर देख रहा था और भीतर ही भीतर कहीं गड़बड़ा भी रहा था। करीब घंटे भर यह फोटोग्रॉफी चली, इसके बाद सब अपनी जगह बैठकर, कोई ड्रिंक पीने लगे। मैंने मन ही मन सोचा कि, अभी घंटाभर भी नहीं हुआ इधर-उधर हिले-डुले और ये सब थक-कर बेहाल हुए जा रहे हैं। बड़वापुर में लोग दिनभर काम कर डालते हैं, लेकिन फिर भी ऐसे बेहाल नहीं दिखते। वह ड्रिंक मेरा मेकअप करने वाले ने मुझे भी दी। जिसका अजीब सा स्वाद था। जो मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। 
दस मिनट भी नहीं हुए थे कि, सब फिर सक्रिय हो गए। इस बार फोटोग्रॉफी पहले अकेले मेरी  हुई। फिर मछुवारिन बनी उस छरहरी महिला के साथ। जिसमें कई पोज बेहद उत्तेजक थे। एक में मैंने उसे दोनों हाथों में ऊपर अपने सीने तक उठा रखा था। जब पोज देता था तो पहले कई बार मुझे, मेरे पोज को ठीक किया जाता था। ऊपर उठाने वाले पोज में, उसे बार-बार उठा-उठा कर मैं ऊबने लगा था। एक पोज में मुझे उसे पीछे से पकड़ना था। जब मुझे  पोज देते समय मुस्कुराने, खिलखिलाने या गंभीर, चिंता मग्न, उदासी भरा चेहरा बनाने को कहा जाता, तो मुझे लगता जैसे मैं बहुत बड़ा विलेन-किंग बन गया हूं। उदासी भरा चेहरा बनाने में मुझे बड़ी मेहनत, बड़ी कोशिश करनी पड़ रही थी,  लेकिन मुस्कुराने, हंसने, खिलखिलाने वाले पोज में नहीं।
वह सब मेरे प्रयास पर गुड, वेरी-गुड बोलते जा रहे थे, जिसे सुनकर मेरा सीना चौड़ा होता जा रहा था। मुझे लग रहा था कि,अब बस कुछ ही समय में मेरा सपना पूरा हो जाएगा। मैं बहुत जल्दी बॉलीवुड का विलेन-किंग बन जाऊँगा। हंसने-खिलखिलाने वाला पोज मैं शायद इसलिए भी आसानी से दे पा रहा था, क्योंकि अंदर ही अंदर तो खुशी के मारे लड्डू फूट ही रहे थे। फूटते लड्डू हंसने-खिलखिलाने में मदद कर रहे थे। यह फोटो-सेशन, समीना यह शब्द मैं बहुत बाद में जान पाया था कि, ऐसी फोटोग्रॉफी को फोटो-सेशन कहा जाता है, और मेरा यह पहला फोटो-सेशन शाम को खत्म हुआ।
उस दिन मैं मारे खुशी के भूख से ज़्यादा खाना ही नहीं खा गया, बल्कि रात में बहुत देर तक सो भी नहीं पाया। जागते हुए एक से एक सपने देख रहा था। तरह-तरह की कल्पनाओं में गोते लगा रहा था। विलेन-किंग बना मैं विशाल बंग्लो, लिमोजिन गाड़ियों, अपने चार्टर प्लेन का मालिक बना, खूबसूरत महिलाओं के साथ ऐश करता हुआ, न जाने क्या-क्या कल्पना कर रहा था।
समीना एक बात मैं आज भी नहीं समझ पाया हूं कि, आखिर इस सेक्स में ऐसा क्या है कि, इससे पीछा ही नहीं छूटता। चाहे जैसे हालात हों , मन अंततः उस ठौर तक पहुँच ही जाता है। न जाने साधू-संयासी इस पर कैसे जीवन भर नियंत्रण किये रहते हैं। उस रात भी मेरा मन अंततः ठहरा सेक्स पर ही। उस छरहरी बाला का नाम तो मैं आज-तक नहीं जान पाया, लेकिन उस दिन और उसके बाद हुए दो और फोटो सेशन को मैं अभी तक नहीं भूल पाया हूँ।
उसी बाला के साथ, उस रात मैं विचारों में खूब गहरे तक डूबता रहा। फोटो-सेशन के समय  उसका बदन मैंने हर जगह छुआ ही था, तो उसकी तपिश मुझे दहकाए जा रही थी। एक पोज में पीछे से पकड़ते समय, एक बार मेरी बीच वाली ऊंगली सीधे उसकी नाभि की गहराई में धंस गई थी, तो वह खिलखिला कर दोहरी हो गई, फिर सीधी होती हुई अपने एक हाथ से मेरे हाथ को पकड़ कर थोड़ा नीचे कर दिया।
मगर तभी हंसने वाली बाकी साथियों में से एक ने अंग्रेजी में कुछ कहा तो वह फिर खिलखिला पड़ी। इसी बीच क्रिएटिव डायरेक्टर भी  हमारे पास आया और मुस्कुराते हुए हमारे पोज़ को सही कर, मेरी उस उंगली को फिर से उसकी नाभि की गहराई में डाल दिया। शायद उसे मेरी गलती से बना वह पोज़ पसंद आ गया था। फटाफट तमाम फोटो खींची गईं थीं उस पोज की।
अगले दिन जब मैं उठा, तो नींद पूरी न हो पाने के कारण आंखें कड़वा रही थीं। मैं अंदर ही अंदर फुटेहरा (मन में लड्डू फूटना) हुआ जा रहा था, कि बॉस आज बुलाएगा, मुझे अच्छे काम के लिए शाबासी देगा और पैसा भी। मगर अंततः मायूसी मिली। साहब करीब दस बजे अपनी गाड़ी में पत्नी के साथ बैठकर चले गए। मैंने उस दिन उन्हें सबसे तगड़ा सैल्यूट मारा था, लेकिन उन्होंने क्षणभर को मेरी तरफ नज़र तक नहीं फेरी। मैं अंदर ही अंदर कटे पेड़ सा ढह गया था। उस दिन साहब रात बारह बजे वापस आये थे।
मैंने दिन में अपने बाकी साथियों और नौकरों से बात कर साहब की कुछ थाह लेने की कोशिश की, तो एक खीझ कर कुछ उखड़ता हुआ सा बोला, 'अगर नौकरी करनी है, तो आंख मूंद कर, जो कहा जाए वो करो। नहीं तो पता भी नहीं चलेगा कि कहां गए। यहां लोग नौकरी करने अपने मन से आते हैं, लेकिन साहब की मरजी के बिना छोड़ भी नहीं सकते। अब आगे कुछ और जानने समझने की कोशिश नहीं करना। कम से कम मुझसे तो बिल्कुल नहीं। नहीं तो खुद तो मरेगा और मुझे भी मरवाएगा।'
गुस्से से भरी उसकी यह बातें सुनकर मैं  एकदम अचंभे में पड़ गया। फिर आगे किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई । हां मन में एक नई उथल-पुथल मच गई कि आखिर यह साहब ऐसा क्या करते हैं,  कि सब इतने दहशत में रहते हैं। जब बाहर जाते हैं , तब एक शैडो तो कार में आगे बैठता और एक एसयूवी गाड़ी में पांच-छह और रहते हैं। यहां तक कि, दोनों गाड़ियों के ड्राइवर भी रिवाल्वर खोंसे रहते हैं। आखिर इनको इतनी सुरक्षा की जरूरत क्यों पड़ती है। बंग्ला भी हर तरफ से सील ही रहता है। 
उस दिन मेरे दिमाग में पहली बार यह सारी बातें आईं। पहली बार मेरा ध्यान गया इन चीजों की तरफ। लेकिन अंदर ही अंदर मैं भी अड़ गया कि, चाहे जो हो, यहां से खाली हाथ नहीं जाऊंगा। मन ही मन साहब को गरियाते हुए कहा, 'साले ने फोकट में मॉडलिंग करवा ली, पैसा तो दूर, कमीने ने प्रसंशा के दो शब्द भी नहीं कहे। इस बार अगर कहा, तो सीधे बात करूंगा, जो होगा देखा जाएगा।'
मगर मेरा यह सारा सोचा-विचारा धरा का धरा रह जाता, जब साहब को देखता। इस बीच मैं हर तरह से यह भी जानने में लगा रहा कि आखिर ये करते क्या हैं ? इसी सब में तीन महीने और बीत गए। दूसरे मैं लाख कोशिश करके भी कुछ नहीं बोल सका। तीसरे महिने बाद मैंने पूरा जोर लगाया और एक दिन काम खत्म होने के बाद जब देखा कि, साहब फ़ोन पर किसी से हंस-हंसकर बात कर रहे हैं , तो मुझे लगा कि उनका मूड सही है,आज बात कर ही लूँ । यह सोच कर मैं उनकी बात खत्म होते ही उनके पास पहुंच गया, हाथ जोड़ कर अपनी बात कह डाली। इस पर भावहीन चेहरे के साथ उन्होंने एक नज़र मेरे चेहरे पर डाली, कुर्सी से उठे और अपने दाएं हाथ से मेरे कंधे पर हौले से दो बार थपथपाया और अपनी गाड़ी में जा कर बैठ गए। मैं मायूस चुपचाप अपने काम में लग गया। सारा ताम-झाम जो फैला हुआ था, वह समेटना भी था।
वापस घर पहुँच कर मैं अंदर ही अंदर खौलता जा रहा था। हज़ार गालियां साहब को देते हुए यह तय कर लिया मौका मिलते ही भाग लूंगा यहां से। देखता हूं लोगों से बजबजाते इस शहर में यह मुझे कहां ढूँढ लेंगे। इसी उधेड़-बुन में मैं उस रात भी ठीक से नहीं सो नहीं पाया। भागने का रास्ता ढूंढ़ता रहा और तनख्वाह मिलने का इंतजार भी। भागने में सबसे बड़ी बाधा साथी नौकर-चाकर ही थे। जहां मैं अपना सामान लेकर निकलता तो धर लिया जाता। लेकिन कहते हैं न कि, भागने वाले को कौन रोक पाया है। यही मेरे दिमाग में चलता रहा कि, एक दिन निकल भागूंगा। मगर नहीं भाग पाया। क्योंकि एक शर्त पर ही वहां से भाग सकता था कि, अपना सारा सामान वहीं छोड़ देता। लेकिन बड़ी कठिनाईयों से मैंने एक-एक चीज जोड़ी थी, इसलिए उन्हें छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। उनमें अब भी वो अधिकाँश जेवर थे, जो मैं घर से उठा लाया था। तब-तक बहुत मजबूर होने पर ही कुछ बेचे थे।
समीना तुम कहती थी ना कि तुमने अनगिनत रूप देखे हैं ज़िदंगी के, इतने कि, तुम उसी में डूब जाती हो। खो जाती हो। समीना तुम से कम ज़िदगी के रूप हमने भी नहीं देखे हैं। हममें तुम में फर्क सिर्फ़ इतना है कि, तुम उसमें डूब जाती थी,खो जाती थी ,और मैं उसका एक-एक अध्याय याद रखता हूं। उसमें डूबकी भी लगाता हूं। तैरता भी हूं। इस डूबने, तैरने में मेरे हाथ काम की कोई चीज लगती थी कि नहीं ,यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। खैर जब मुझे उस महीने तनख्वाह मिली, और सिर्फ़ तनख्वाह मिली, मुझसे जो मॉडलिंग कराई गई उसका पैसा तो देना दूर दो शब्द धन्यवाद भी नहीं कहा गया तो, मैंने भागने का दृढ़ निश्चय कर लिया। दो दिन बाद मेरी नाइट ड्यूटी लगने वाली थी। मैंने तय कर लिया कि, नाइट ड्यूटी के समय ही किसी तरह नौ दो ग्यारह हो लूंगा। अगर पकड़ा गया तो साफ कह दूंगा कि, मुझसे मॉडलिंग कराई है , उसका भी पैसा दो। या फिर फिल्मों में काम दिलाओ। काम दिला दोगे तो भी अपनी ड्यूटी करूंगा। और अगर बच निकला तो कोई बात नहीं। मगर किस्मत में तो कुछ और लिखा था समीना। तो जो मैंने सोचा वैसा कुछ भी नहीं हुआ। अगले ही दिन शाम करीब चार बजे साहब का सबसे बड़ा चमचा, उनका शैडो मेरे पास आया और बोला, 'तुम्हें मेरे साथ लोअर परेल चलना है। साहब ने कहा है।'
कहता हुआ वह पास में खड़ी कई गाड़ियों में से एक में बैठ गया। मैं गाड़ी के पास पहुंचा तो मुझे पीछे बैठने का इशारा मिला। मैं बैठ तो गया लेकिन अंदर ही अंदर डर रहा था। साहब से। खैर वह शैडो मुझे लोअर परेल न ले जाकर उससे कुछ और आगे एक बड़ी सी बिल्डिंग  के सामने रुका। जिस पर एक बोर्ड लगा था, जो काफी पुराना लग रहा था। उस पर लिखा था, जटवानी एसोसिएट्स । बाहर से बिल्डिंग कुछ पुरानी लग रही थी। उसकी हालत बता रही थी कि, बीते कई बरसों से उसकी रंगाई-पुताई कुछ भी नहीं हुई है। वहां सात-आठ मोटर-साइकिलों के अलावा कुछ कारें भी खड़ी थीं। जिसमें दो कारें बेहद शानदार एवं बहुत महंगी लग रही थीं।
बिल्डिंग के अंदर रूप कुछ दूसरा ही था। ऑफ़िस बहुत ही अच्छा था। शैडो ने रिसेप्सनिस्ट से कुछ कहा, तो उसने इंटरकॉम पर कुछ बात कर के विज़िटर्स स्पेस में बैठने को कह दिया।
कुछ देर बाद रिसेप्सनिस्ट ने शैडो को बुलाकर फिर कुछ कहा, उसे सुनने के बाद वह एकदम जल्दी में आ गया और बड़ी फुर्ती से मेरे पास आकर कहा, 'तुम यहीं रुको, मैम अभी बुलाएंगी। मैं जा रहा हूं।' 
मैंने पूछा,'कितनी देर में ?' तो वह बोला, 'मुझेे कुछ नहीं मालूम, यह सब मैम बताएंगी। साहब ने तुरंत बुलाया है।' यह कहते हुए वह चला गया। इधर मैं इंतजार में बैठा-बैठा पस्त हो गया। 
शाम के छह बजने को थे, लेकिन अंदर चैंबर में  मैम कान में न जाने कौन सा तेल डाल कर बैठीं थीं ,कि उन्हें होश ही नहीं था, कि बाहर किसी को बैठा रखा है। एक-एक कर सब चले गए। बाकी बचा था मैं, एक चपरासी और वह रिसेप्सनिस्ट। उन दोनों के चेहरों पर भी थकान साफ नज़र आ रही थी। मुझे वहां दो घंटे में रिसेप्सनिस्ट ने एक कप चाय पिलवाई थी। 
इस बीच मैंने देखा कि, रिसेप्सनिस्ट ने भी अपना बैग वगैरह तैयार किया, वॉश-रूम जा कर अपना मेकप सही किया, फिर चैंबर में जाकर मिनट भर में निकली और बड़ी तेजी से बाहर चली गई। उस समय मैंने उसकी चाल में गजब की फुर्ती देखी। वह पैंतीस-छत्तीस की अच्छी-खासी मोटी सी थी, लेकिन फुर्ती में किसी छरहरी महिला को मात दे रही थी। उसके जाने के बाद मैंने सोचा कि, चलो अब मुझे भी फुरसत मिलेगी। इसकी मैम साहब कितनी देर अकेले रहेंगी। लेकिन मेरा यह सोचना गलत निकला। 
डेढ़ घंटे और बीत गए मैम साहब का चैंबर बंद तो बंद ही रहा। चपरासी जो करीब पचास के आस-पास था, अच्छी-खासी तोंद निकली हुई थी, वह चैंबर की घंटी की तरफ कान लगाए सतर्क बैठा था। इस बीच मैं उससे एक बार पानी मांग कर पी चुका था। मैंने उससे कई बार बात करने की कोशिश की, कि टाइम भी पास होगा और इस रहस्यमयी मैम के बारे में भी कुछ पता चलेगा। मगर तब वह ऐसा नीरस ,अंतर्मुखी निकला था कि, कई बार कोशिश करने पर हूं, हां करके चुप हो जाता था। वैसा  भावहीन चेहरा मैंने अब-तक के जीवन में दूसरा नहीं देखा। इंतजार कुछ इस तरह बढ़ रहा था, जैसे गर्मियों की छुट्टी में लेट भारतीय रेल गाड़ियां, इंतजार करा-करा कर यात्रियों का  तेल निकाल देती हैं, खासतौर से पैसेंजर गाड़ियां। जैसे अंततः इन यात्रियों की किस्मत कुछ संवरती है, और ट्रेन आती है, कुछ वैसे ही मेरी किस्मत ने भी पलटा खाया और इंतजार खत्म हुआ। करीब साढ़े नौ बजे चपरासी को अंदर बुलाया गया। वह मिनट भर में ही बाहर निकला और दरवाजा खोल कर खड़ा हो गया, मैं समझ गया कि मैम साहब बाहर आने वाली हैं, तो मैं भी खड़ा हो गया कि,मैडम जल्दी से जल्दी जो बताना है ,बताएं और मैं यहां से निकलूं। सच कहूं समीना गुस्से में मेरे मुंह से गालियां बहुत निकलती हैं, वह भी बहुत भद्दी-भद्दी। तो उस समय मैं साहब और मैडम दोनों को गालियां बके जा रहा था। जितना वह देर कर रही थीं , मैं अंदर ही अंदर उतनी ही ज़्यादा गालियां उन्हें दे रहा था।
खैर मैम साहब मोबाइल पर बातें करती हुई निकलीं। तब मोबाइल आज की तरह इतने आम नहीं थे कि, एक दिहाड़ी मजदूर के हाथ में भी दिखे। मैडम मेरी कल्पना से परे थीं। उनका कद औसत से काफी ज़्यादा था, करीब पांच फीट दस-ग्यारह इंच के आसपास। रंग हद से ज़्यादा गोरा था। बाल एकदम मर्दों की तरह छोटे-छोटे कटे थे। और सुनहरे कलर से रंगे थे। बड़ी-बड़ी खूबसूरत आंखें थीं। जो हल्की सूजी हुई सी लग रही थीं। कद की तरह उनका वजन भी औसत से कहीं बहुत ज़्यादा लग रहा था। उन्हें ठीक-ठाक मोटी औरत कह सकते थे, मगर थुल-थुल नहीं। 
उन्होंने पीले रंग की बड़ी स्टाइलिश जींस पहन रखी थी। आसमानी रंग की गोल गले की टी-शर्ट। उनके कपड़े इतने टाइट हो रहे थे कि, लग रहा था जैसे अंग उन्हें फाड़कर बाहर आ जाएंगे। मैंने क्षण भर को उनकी गजब की काया को देखा, फिर नजरें नीचे कर हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। मन में यही था कि, जवाब तक नहीं मिलेगा। साहब के व्यवहार ने मेरी यही धारणा बनाई थी, लेकिन उन्होंने अपनी असाधारण काया की तरह फिर चौंकाया और एक नजर मुझ पर डाली, आंखें थोड़ी फैलाईं , होंठ भी चौड़े हुए, सिर को रत्तीभर आगे झुका कर मेरे नमस्कार को स्वीकार किया। वह दरवाजे से बाहर चार कदम आगे आकर रुक गईं । चपरासी फिर अंदर गया, एक ब्रीफकेस और एक बैग लेकर बाहर आया।
मुझे लगा कि इनकी तरह इनके भारी-भरकम बैग को इनकी गाड़ी में रख कर मुझे जाने की फुरसत मिलेगी। मुझे उन्होंने क्यों बुलाया, इसे समझने से ज़्यादा मैं इस उधेड़-बुन में था कि जेब में नाम-मात्र को पैसे हैं। यहां से वापस साहब के पास कैसे पहुंचूंगा ? मगर अगले ही पल मैं गहरे असमंजस में पड़ गया। मैडम बजाय बिल्डिंग से बाहर निकलने के एक गैलरी पार कर बाएं तरफ बनीं सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने लगीं।
मोबाइल पर बातें भी अंग्रेजी में करती जा रहीं थीं। जिनका मैं थोड़ा-बहुत मतलब ही निकाल पा रहा था। बाक़ी मेरे लिए करिया अक्षर भैंस बराबर था। उनके ठीक पीछे ब्रीफकेस लिए उनका चपरासी चल रहा था, और उसके पीछे भारी-भरकम बैग लिए मैं। मैडम एक-एक सीढ़ियां चढ़तीं  बिना रुके तीसरी मंजिल पर पहुंच गईं। मैं उनकी क्षमता देखकर दंग रह गया कि, इतना भारी-भरकम शरीर और यह क्षमता। जबकि मैं काफी हांफने लगा था और तोंदियल चपरासी भी।
सीढ़ियां जहां खत्म हुईं, वहीं बांयीं तरफ बड़ा सा दरवाजा था, जिस पर ताला लटका था और दूसरी तरफ सीढ़ियां ऊपर को चली जा रही थीं। मैडम दरवाजे के पास एक कोने में खड़ी हो गईं। चपरासी ने आगे बढ़ कर चाबी निकाली, लटका हुआ ताला खोला। फिर दूसरी चाबी से इंटर-लॉक खोलकर दरवाजे को अंदर की तरफ ठेल दिया। इसी बीच एक युवक-युवती ऊपर सीढ़ियों से तेजी से उतरे और मैडम को, ‘हाय ज़ूबी’ कहते हुए नीचे उतर गए। मैडम ने बड़ी बेरूखी में जवाब दिया और अंदर चल दीं।
अब-तक मोबाइल पर उनकी बातें बंद हो गई थीं। अंदर लॉबी क्रॉस करके वह ड्रॉइंग रूम में पहुंचीं, जिसकी साज-सज्जा बहुत शानदार थी। कम से कम मेरी नज़र में तो थी ही। काफी बड़ा सोफा पड़ा था जो संभवतः लेदर का था और बहुत महंगा लग रहा था। एक कोने में  जमीन पर ही मोटा गद्दा जैसा पड़ा था, जिस पर तीन-चार लोगों के हिसाब से गाव तकिए आदि रखे थे। सोफे के सामने बड़ी सी शानदार टेबिल थी। जिसके निचले हिस्से में अंग्रेजी की कई पत्रिकाएं पड़ी थीं। जिन्हें मैं जीवन में पहली बार देख रहा था। जिनके कवर पर करीब-करीब निर्वस्त्र औरतोें की फोटो थीं।
हर कोनों पर स्टाइलिश स्टैंडों पर खूबसूरत सजावटी समान रखे थे। कमरे की दीवारें बड़ी ही कारीगरी से बनाई गई थीं। लगता था जैसे वे पत्थर की बनी हैं। उनमें मुर्तियां ऐसे बनी थीं  मानो पत्थर को बड़ी बारीकी से तराश कर बनाया गया है। ऐसी डिजायनर दिवारें मैं पहली बार देख रहा था। मैडम सोफे पर बैठ गईं। चपरासी के साथ मैं ड्रॉइंग-रूम से लगे कमरे तक गया और बैग रखकर उसी के साथ वापस मैडम के पास लौट आया। 
पता नहीं क्यों मैं उस शानदार घर में इतनी ही देर में घुटन सी महसूस करने लगा। मैं तुरंत वहां से निकलना चाहता था। तभी मैडम तोंदियल से बोली, 'सोहन इनको सारी बातें बता दीं कि नहीं।' उसके 'न' में सिर हिलाने पर बोलीं, 'अरे! बात करना कब सीखोगे।' फिर वह मेरी तरफ मुखातिब होकर बोलीं, 'अभी तुम्हें कुछ दिन यहीं काम करना है, यहीं रहना है। मेरा एक आदमी अपने घर गया है, वह जब लौट आएगा तब चले जाना। तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं?' 
मेरे पास ''नहीं'' बोलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। आसमान से गिर कर मैं खजूर में अटक गया था। उनकी जगह कोई सामान्य कद-काठी की महिला होती तो मैं शायद कुछ बोलने की हिम्मत करता, लेकिन उनकी लहीम-सहीम कद काठी और तानाशाह अंदाज के सामने भीतर ही भीतर सहमा सा जा रहा था। दूसरे वह बैठी थीं और मैं खड़ा तो उनके असाधारण शरीर पर मेरी नज़र बहक-बहक जा रही थी। इससे मैं और गडमड हो रहा था।
इसी बीच वह सोहन से मुखातिब हो बोलीं, 'इन्हें सारा काम समझा दो।'
सोहन मुझसे कुछ कहता कि इसी बीच मेरे दिमाग में साहब और यहां से निकल भागने की एक योजना कौंधी, मैं तुरंत बोला, 'मैडम मेरे कपड़े, सामान-वगैरह सब वही हैं। मैं उन्हें जाकर लेता आऊं।' 
मेरे यह कहते ही उन्होंने क्षण-भर को मुझे देखकर कहा, 'सुबह आ जाएंगे। तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है।' 
उनकी इस बात ने मेरी सारी आशाओं को पैदा होते ही खत्म कर दिया।
इस बीच कोई कॉल आ गई और मैडम फ़ोन पर लग गईं। सोहन मुझे लेकर लॉबी में आ गया। मुझे समझाते हुए बोला, 'घबड़ाने की जरूरत नहीं, मैडम बहुत अच्छी हैं। वो काम करने वालों को अपने परिवार के सदस्य की तरह रखती हैं। उन्होंने कह दिया तो सामान सुबह आ जाएगा।' 
मैंने कहा, 'लेकिन मैं इस समय क्या पहनूंगा ?'
‘अगर तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मेरी एक लुंगी साफ रखी है, तुम आज काम चला सकते हो। खाना-पीना तो सब साथ है ही ।'
मतलब साफ था कि, मेरे निकल भागने के सारे रास्ते साहब और इस हिडिम्बा, उन्हें मैं सुंदर हिडिम्बा कहूंगा, ने बंद कर दिए थे। अंदर ही अंदर खीझ कर मैंने पूछा, 'और सोएंगे  कहां?' तो सोहन ने कहा, 'बॉलकनी इतनी बड़ी है कि, उसमें चार लोग सो सकते हैं। वहीं पर सोना।' मैं कुढ़ कर रह गया और कोई रास्ता भी नहीं था। तोंदियल मुझे लेकर बॉलकनी में पहुंचा, बॉलकनी वाकई बड़ी थी। लेकिन इतनी नहीं कि वहां चार लोग सो सकें। मैंने तोंदियल से कहा तो वह बड़ी ठंडी आवाज में बोला, 'ये मुंबई की बॉलकनी है, अपने यूपी की नहीं । मैंने तो कम कहा था, इसमें छह लोग सो सकते हैं।'
इसी के साथ तोंदियल ने क्षण-भर में बता दिया कि, वह यू पी में सोनभद्र के पास एक स्थान दुध्धी का रहने वाला है। सुन्दर हिडिम्बा के यहां आठ साल से काम कर रहा है। 
बॉलकनी के एक तरफ के आधे हिस्से की रेलिंग ऊपर छत तक मिली थी। वहीं लकड़ी की छोटी-छोटी दो अलमारियां थीं। उन्हीं में से एक को खोलकर उसने एक तौलिया, एक लुंगी निकाल कर मुझे पकड़ा दी और खुद के लिए एक पाजामा-कुर्ता निकाल लिया। फिर मुझे बॉलकनी में ही रुकने को कह कर लॉबी से लगे एक टॉयलेट में चला गया। और जब लौटा तो नहा-धोकर, कपड़े चेंज करके आया। आते ही मुझे भी भेज दिया। मैं भी नहा-धोकर आ गया। बड़ी राहत महसूस हो रही थी। दिन भर की उमस भरी चिप-चिपी गर्मी से कुछ राहत मिली तो भूख सताने लगी थी।
बॉलकनी में तोंदियल ने दो दरियाँ  बिछा दी थीं। उन पर साफ़-सुथरा चादर और तकिया भी था। तोंदियल को शांत बैठा देखकर मैंने सोचा इससे पूछूं कि, खाने-पीने का भी कुछ है कि, खाली नहा कर बैठ गया। बड़वापुर में होता, तो ऐसे में बाबू जी बोलते, 'खाय कै ठिकान नाहीं, नहाए तड़कै।' मैंने मुंह खोला ही था कि, अंदर से मैडम ने सोहन तोंदियल को आवाज़ दी। वह आवाज़ सुनते ही बंदरों की तरह फुर्ती से उठकर चला गया, और मैं बंदरों सा मुंह बाए उसे देखता रहा। मगर कुछ ही सेकेण्ड में तोंदियल ने मुझे आवाज़ दी।
मैं पहुंचा तो देखा मैडम भी कपड़े चेंज कर सोफे पर दो-तीन कुशन के सहारे पसरी हुई थीं। गहरे जामुनीं रंग का एक गाउन पहन रखा था। जो सिल्क का था और खूब ढीली-ढीली छोटी-छोटी बाहें थीं। इतनी छोटी कि उसे स्लीव-लेस ही कहना ठीक है।
गाउन उनके घुटनों के कुछ इंच ऊपर तक ही था और बीच से दो-तीन इंच तक अलग हटा हुआ था। वहां से लेकर, नीचे तक उनकी बेहद गोरी, मांसल टांगें चमक सी पैदा कर रही थीं। तोंदियल की तरह मैं भी सिर नीचे किए खड़ा था। मगर लाख कोशिशों के बाद भी मेरी आंखें रह-रह कर उनकी चमक बिखेरती टांगों पर फिसल ही जातीं। मैं अपने को बड़ी सांसत में महसूस कर रहा था। वहां से जल्दी से जल्दी हटने की सोच रहा था कि, कहीं वह मुझे अपने बदन को देखते हुए न देख लें।
समीना अगर तुम सामने होती तो यह सुन कर तुरंत यही कहती कि, 'तुम जैसे मर्द होते ही ऐसे हैं , औरत देखी नहीं कि, लबर-लबर करने लगे।' और तब मैं कहता, 'जरा अपनी भी कहो, औरतें कभी ऐसा नहीं करतीं क्या ? या ये मर्द ही साले उनका बेड़ा गर्क करते हैं।' खैर सुन्दर हिडिम्बा ने मुझे फिर पहले की ही तरह झटका दिया।
अमूमन मुंबई वालों का जैसा व्यवहार होता है, अपने नौकरों के प्रति, उससे एकदम उलट उन्होंने करीब-करीब आत्मीयता दिखाते हुए पूछा कि, 'किचेन में सारा सामान है, तुम लोग खाना बनाना चाहोगे या बाहर से मंगवा दूं।' उनका यह कहना था कि, मैंने सेकेंड भर की भी देरी किए बिना कहा, 'जी मंगवा दीजिए।'
मुझे डर था कि, कहीं तोंदियल यह न कह दे कि बनाएंगे। इसके चक्कर में मुझे भी बेकार जूझना पड़ेगा। सुबह से ऐसे ही काम कर-कर के जान निकल रही है। मेरी बात सुनते ही उन्होंने अपना मोबाइल उठाया और ऑर्डर कर दिया। अमरीकन शैली की अंग्रेजी में कही गई उनकी बातें मेरे पल्ले नहीं पड़ीं। फिर उनका इशारा समझकर हम दोनों बॉलकनी में आ गए। 
यहीं मुझे यह पता चला कि, तोंदियल भी यही चाहता था। और मेरे काम से खुश था। फिर हम-दोनों  लेट कर इधर-उधर की बातें बतियाते रहे। करीब पौन घंटे बाद कॉलबेल बजी। तोंदियल बिना कुछ कहे उठ कर चला गया दरवाजा खोलने। करीब दो मिनट बाद उसने मुझे आवाज़ दी तो मैं भी अंदर पहुंच कर डाइनिंग टेबिल पर खाना लगाने में उसकी मदद करने लगा।
प्लेटों में दो रोस्टेड चिकन, बड़ी प्लेट में ढेर सारा फ्राइड राइस, उसी तरह सीख कबाब देख कर मैंने सोचा तीनों के लिए काफी हैं। मेरा मुंह बार-बार पानी से भर जा रहा था। भूख तो तेज लगी थी ही, ऐसा स्वादिष्ट खाना देख कर पेट एकदम खौलने लगा। मैडम खाना खाने के लिए जल्दी बोलें यही सोचने लगा। मन ही मन उनके गुणगान किए जा रहा था कि, कितनी भली महिला हैं। इस कलियुग में वो भी इस माया-नगरी में ऐसी दूसरी महिला कहां मिलेगी? 
समीना तभी एक और काम हुआ, जिससे मेरा मन बल्लियों उछलने लगा। 
तोंदियल ने एक बहुत ही महंगी शराब की बोतल लाकर टेबिल पर रख दी। साथ में क्रिस्टल ग्लास की गिलास। पानी की बेहद चिल्ड बोतलें। आइस क्यूब्स भी। यानी वह सब-कुछ जो एक शानदार डिनर के लिए हो सकता है। डिनर जब लग गया तो तोंदियल ने मैडम को बुलाया। मेरे मन में लपालप बत्तियां जलने लगीं कि, आज जीवन में इतने शानदार टेबिल, बर्तनों और एक अपनी तरह की बेहद खूबसूरत, बेहद बिंदास महिला के साथ बैठकर खाना खाऊंगा। बिजली की तेजी से एक और बात मन में कौंध कर गुम हो गई कि, साहब के बजाय यह मैडम ही मुझे नौकरी पर रख लें तो अच्छा है।
इस बीच मैडम एक हाथ में ज़ाम लिए, आकर कुर्सी पर बैठ गईं। कुर्सी इस ढंग से तिरछी कर ली कि, वहां से वह टी.वी. भी देख सकें। हाथ में ज़ाम और अच्छी-खासी सुर्ख हो चुकीं उनकी आँखों से साफ़ था कि, वो पिछले आधे-पौन घंटे से पी रही थीं, और अब उनका गाउन, कुछ ज़्यादा ही बेपरवाह हो चुका था।
उनके बैठ जाने पर तोंदियल ने डाइनिंग टेबिल के ठीक ऊपर लगी, फैंसी लाइट को ऑन कर दिया। उसमें कई रंग के कम रोशनी के बल्ब थे, जिनकी लाइट टेबिल पर ही पड़ रही थी। कमरे की बाकी सारी लाइट्स ऑफ कर दीं । हाँ फर्श से थोड़ा ऊपर लगीं, कुछ लाइट्स जल रही थीं। मैंने कैंडिल लाइट डिनर के बारे में सुना था, मगर टेबिल लाइट डिनर देख रहा था, और करने की खुशी भी महसूस करने  वाला था। 
मन व्याकुल हो रहा था कि मैडम शुरू करें, हम-लोगों को भी खाने को कहें। तभी उन्होंने हल्के से ''हूं'' कहा, मैं कुछ समझूं कि इसके पहले ही तोंदियल किचेन से एक बड़ी पॉलिथीन लेकर बॉलकनी की ओर चल दिया। जाते-जाते मुझे भी इशारे से बुला लिया।
मैं पहुंचा तो वह दरी पर बैठ चुका था। मैं भी बैठ गया। तोंदियल ने पॉलिथीन से दो डिब्बे निकाल कर उन्हें खोला, जिसे देखते ही मैं आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरा,कहीं खजूर या किसी पेड़ में अटका नहीं। मेरे चिथड़े बदन की तरह मेरे सारे सपने भी टूट कर इधर-उधर बिखर गए। 
अपनी तरह की खूबसूरत, सेक्सी, बिंदास महिला के साथ टेबिल लाइट डिनर का सपना चूर-चूर हो गया। सामने हमारा खाना रखा था। समीना मैं सपने में भी अन्न का अपमान नहीं करता, क्योंकि दुनियां में सब-कुछ केवल इसी के लिए ही तो होता है। लेकिन उस क्षण मेरा मन उस खाने को देखकर घृणा, क्रोध से उबल पड़ा। मन में आया कि, उसे उठाऊं और अंदर महंगी शराब के नशे में चूर होती जा रहीं सुन्दर हिडिम्बा के चेहरे पर नहीं, उसकी छाती पर खींच कर मारूं। छाती पर इसलिए कि, जिससे वह सब-कुछ आसानी से देख सकें।
चेहरे पर मारूंगा तो वह देखने लायक नहीं रहेंगी। मगर विवश था।
वैसे भी मेरा कोई अधिकार नहीं था कि, मैं उनसे ऐसी उम्मीद करता। हालांकि जो खाना हम-दोनों के लिए आया था, हम जैसा खाते हैं, उससे कई गुना बेहतर था। उसमें रूमाली रोटी, कबाब, साथ में बिरयानी भी थी। और दो-दो पीस मिठाई भी। खाना लगता था कि, सुन्दर हिडिम्बा ने अपनी खुराक के हिसाब से मंगवाया था। समीना और दिनों की बात होती, तो वह  खाना मुझे बहुत बढ़िया लगता। लेकिन उस दिन अंदर-अंदर कुढ़ते हुए खाया। तोंदियल दो बोतल पानी ले आया था, पिया और अपने स्वभाव अनुसार गालियां देता हुआ लेट गया।
सुन्दर हिडिम्बा अंदर खा रही थीं या सो रही थीं , हमें कुछ नहीं पता था। अंदर से टी.वी. की हल्की-हल्की आवाज़ बाहर तक आ रही थी बस। तोंदियल ने अंदर जाने वाले रास्ते का दरवाजा  बंद कर दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि, वह नौकरों के सहारे पूरा घर छोड़े हुए हैं । उन्हें अपनी इज़्जत का भी ख़याल नहीं कि, इस हालत का नौकर फायदा भी उठा सकते हैं। जिस शहर में हमेशा कोई न कोई कांड होता रहता है, वहां ऐसी निश्चिंतता मुझे आश्चर्य में डाल रही थी। 
दिमाग में बड़ी उथल-पुथल मची हुई थी, निकल भागने का विचार फिर दिमाग में उछलने लगा था कि, यह इतना खा-पी रही हैं , लेटते ही कुछ देर में ही सो जाएंगी। तोंदियल भी थका-मांदा है, गहरी नींद ही सोएगा और तब मैं निकल भागूंगा।
समीना इसके बाद करीब घंटा भर बीत गया, लेकिन तोंदियल करवटें बदलता रहा, और मैं शांत उसके सोने का इंतज़ार करता रहा कि तभी, अंदर बड़ी तेज़ एक साथ कई सामानों के गिरने की आवाज़ आई, लगा कि जैसे साथ में कोई बहुत भारी भरकम चीज़ भी गिरी है। तोंदियल मुझसे पहले उठ गया था। नींद से उसकी तरह मेरी भी आंखें  कड़ुवा रहीं थी। उन्हें मिचमिचाते हुए हम-दोनों उठे। तोंदियल अपने को बड़ा जोर देकर खड़ा हुआ और बोला, 'आओ मेरे साथ।'
मैंने पूछा, 'क्या हुआ?' तो वह बोला, 'खुदी देख लेना।'
दरवाजा खोलते ही बेहद ठंड का अहसास हुआ। मतलब सुन्दर हिडिम्बा ने ए.सी. फुल स्विंग पर चला रखा था। अंदर पहुंचा तो देखा वह फर्श पर लगभग एक करवट की स्थिति में गिरी पड़ी थीं। कुछ ही फिट की दूरी पर ढेर सारी उल्टी पड़ी थी। साथ में दो कुर्सियां और कई बर्तन भी इधर-उधर गिरे पड़े थे। मैं  आशा के विपरीत यह सब देख कर हतप्रभ था।
दिमाग में आया कि, इनमें और अपने बड़वापुर के उन उठाइगीर पियक्कड़ों में अंतर क्या है? वो सब भी पीकर इधर-उधर, सड़क, नाली, गली में भहराते (गिरते-पड़ते) रहते हैं। उन्हें अपनी इज़्जत, मान-सम्मान की कोई परवाह नहीं होती और यहां यह। आखिर इनकी पढ़ाई-लिखाई, जीवन स्तर, सभ्यता और उन गंवारों-जाहिलों में कुछ तो अंतर दिखना ही चाहिये ?
जैसे उन सबको शराब पी रही है, वैसे ही इन्हें भी शराब ही पी रही है। 
मैंने तोंदियल से तेज लाइट जलाने को कहा, तो वह फुसफुसाते हुए बोला, ' जरूरत नहीं, चलो उठाओ बेडरूम में ले चलना है।' 
मैं हरकत में आऊं उसके पहले ही वह बेडरूम की तरफ गया, दरवाजा खोलकर वहां का नाइट लैंप ऑन किया, ए.सी. चलाया, फिर लौटा। इस बीच मेरे सामने जमीन पर पड़ी मैडम सुन्दर हिडिम्बा खर्राटे ले रही थीं। धर्म-दुनिया, लाज-शर्म से एकदम बेखबर। कपड़े का कोई ठिकाना नहीं था। वह कहीं थीं, और कपड़ा कहीं जा रहा था। वह करीब-करीब बिना कपड़े के ही पड़ी थीं।
उस बेहद कम रोशनी में भी, उनका बदन मुझे चमकता सा लग रहा था। तोंदियल ने आकर उनके कपड़े ठीक कर धीरे से कहा, 'चलो उठाओ।' साथ ही मेरे पास फुस-फुसाया, 'ज़्यादा चकर-मकर मत देखो। पूरे घर में कैमरे लगे हैं। सब पता रहता है इन्हें। कोई गड़बड़ देख ली  तो समझ लो जिंदा नहीं रहोगे।' 
उसकी बात से मैं क्षण भर को घबरा गया कि, मेरी चोरी सवेरे निश्चित ही इनकी पकड़ में आएगी, और तब  यह मुझे छोड़ेंगी नहीं। क्योंकि जब तोंदियल बेडरूम खोलने, ए.सी., लाइट ऑन करने गया था, तो मैंने उत्तेजना में आकर मैडम की अस्त-व्यस्त स्थिति के साथ कुछ हरकत की थी। जो गंदी थी।  
मैं अंदर ही अंदर सिहर उठा था और यह भी समझ गया था कि, तोंदियल इसी कारण नज़र झुकाए मशीन की तरह सारे काम किए जा रहा है। नहीं तो जिस औरत के नग्न तन के आगे बड़े-बड़े योगी पल में फिसल जाते हैं, यह कहां से आज के युग में हठ योगी बन यहां आ गया है, जितेंद्रिय बन गया है, इसकी सारी इच्छाएं मर गई हैं क्या? इसके सारे अंग शिथिल और निष्क्रिय हो गए हैं क्या? लेकिन नहीं, सच में ऐसा कुछ नहीं था समीना।
केवल डर था, मौत का डर, जिसने उसे हृदयहीन, भावहीन मशीन बना दिया था, निर्जीव मशीन। जिस तन के आगे मैं क्षण भर में बहक गया, तोंदियल न होता तो शायद और बहकता, वहीं अब मैं भी मशीन बन गया था। हां यह जरूर था कि, अंदर-अंदर मेरा और तोंदियल का कोई पुर्जा जरूर बहक रहा था । ऐसा मुझे बीच-बीच में अहसास हुआ। खैर किसी तरह मैडम को बेड पर  लिटाया गया, तोंदियल को उस कम रोशनी में भी मैडम के माथे का गुलमा दिख गया था , तो वहां उसने पेन किलर स्प्रे को स्प्रे कर दिया। एक तौलिया गीला कर उनके मुंह,पैर,कपड़े पर लगी उलटी को बहुत ही सावधानी से बचा-बचा कर पोंछा, फिर चादर ओढा दिया और बाहर आकर दरवाजा बंद कर दिया। मैं अनुचर सा उसके पीछे-पीछे था। उसके काम को देखकर स्पष्ट था कि, वह इन सबके लिए अभ्यस्त था।
डाइनिंग रूम में आते ही उल्टी ने फिर जी खराब कर दिया।। इस बीच तोंदियल एक कीटनाशक स्प्रे लेकर आया, उल्टी और उसके आसपास ढेर सा स्प्रे कर दिया। तोंदियल का ऐसे मशीनी अंदाज में काम करना मुझे परेशान कर रहा था,और डाइनिंग टेबल अलग हैरान किए हुए थी। मैडम पूरी बोतल शराब के साथ-साथ सारा खाना चट कर चुकी थीं। 
सुन्दर  हिडिम्बा मैडम की पहलवानों सी सेहत का राज जान कर मैं तोंदियल के साथ फिर बॉलकनी में अपने बिस्तर पर था। तोंदियल ने दरवाजा बंद कर सुर्ती भी निकाल ली थी। मैंने भी चुटकी भर लेकर होंठ और दांतों  के बीच दबा ली थी। तोंदियल के हाव-भाव बता रहे थे कि, उल्टी ने मेरी तरह उसका भी जी खराब कर दिया था। हम दोनों की नींद उखड़ चुकी थी। करीब एक बजने को था।
बॉलकनी में ऊपर लगे पंखे की हवा राहत दे रही थी। नीचे सड़क पर गाड़ियों, लोगों की आवाज़ अब भी थी। मगर दिन की अपेक्षा न के बराबर थी। हम-दोनों करीब दस-पंद्रह मिनट बतियाते रहे। जिसमें तोंदियल ने बताया कि, सवेरे बाई आएगी वही सारी साफ़-सफाई करेगी। जो आदमी अपने घर गया है, वह और उसकी बीवी, मैडम के विश्वासपात्र हैं। वह उन पर आंख मूंद कर भरोसा करती हैं , और वह दोनों भी इन पर जान छिड़कते हैं। उन दोनों के बाद वह तोंदियल पर यकीन करती हैं। और जब-तक वह वापस नहीं आते, तब-तक उसे ही सब संभालना है। मैं उसका सहयोग करूंगा। मैडम सप्ताहांत की पहली रात, ऐसे ही गले तक नहीं बल्कि मुंह तक खाती-पीती हैं, और अक्सर यही किस्सा दोहराती हैं।
समीना मैं उससे जितनी बातें कर रहा था, मेरा अंदर-अंदर सहमना भी उतना ही बढ़ रहा था, कि सवेरे जब मैडम कैमरे में मेरी ओछी हरकत देखेंगी तो जिंदा नहीं छोड़ेंगी। साहब को बुलवाएंगी और वह मुझे कहीं समुद्र में फिंकवा देंगे। जहां शार्क,व्हेल जैसे महाकाय जलीय जीव मुझे सेकेण्ड भर में निगल जाएंगे। या फिर खतरनाक शिकारी मछलियां कुछ ही देर में नोच-नोच कर मुझे चट कर जायेंगी। 
यह सोचते-सोचते घबरा कर मैंने तय कर लिया कि, इसी समय भागूंगा। साहब रख लें मेरा सारा सामान। जिंदा रहा, तो कर लूंगा सारा इंतजाम। मौका बढ़िया है। मैडम टुन्न पड़ी हैं। तोंदियल को बोलता हूं कि, खाना बहुत ज़्यादा हो गया बाहर कुछ दूर टहल कर आता हूं। यह बात दिमाग में आते ही मैंने दो-तीन बार उबकाई आने का नाटक किया। तोंदियल ने पूछा तो मैंने कहा, 'अपच सा हो रहा है, कुछ टहल लूं तो राहत मिल जाएगी।'
इस पर तोंदियल ने जो कहा, उससे मैं, मानो कटे पेड़ सा ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ा। उसने बताया, 'मैडम जब देखती हैं  कि, अब बाहर का कोई काम नहीं है, तो वह दरवाजे का इंटरलॉक लगा कर, चॉबी बेडरूम में कहीं रख देती हैं। डिनर आने के बाद उन्होंने खुद बंद किया है। इसके अलावा इस वक्त जो चौकीदार होगा बाहर, वह पहले मालिक को फ़ोन करके कंफर्म करता है, तभी किसी नौकर को बाहर जाने देता है। इसलिए इस समय बाहर नहीं निकला जा सकता। बॉलकनी में यहीं जितना टहल सकते हो टहल लो।' 
इस बात को सुनकर मैं एकदम खीझ उठा। भीतर ही भीतर सुन्दर हिडिम्बा,और साहब को गाली देता हुआ लेट गया दरी पर। सोचा कि, देखने में इतनी उदार-मना हैं। घर ऐसा बना रखा है कि, जैसे कोई ताला-बंदी ही नहीं है। मगर तैयारी ऐसी शातिराना की बड़े-बड़े फंस जाएं।
नौकरों की ऐसी हालत बना रखी है कि, वो नज़र उठाने में भी कांपते हैं। मुझे भी छांट कर रखा कि, मेरी गर्दन पर साहब की छूरी है। मेरी हैसियत एक मेमने से ज़्यादा नहीं है, इसीलिए इतनी बेधड़क और निश्चिंत हैं  कि, न घर की चिंता, न तन की। सवेरे आने वाली आफत की सोचते-सोचते मैं देर तक नहीं सो सका। जबकि तोंदियल पंद्रह मिनट बाद ही ऊपर से नीचे सड़क पर सुर्ती थूक कर सो गया।
अच्छा यह भी था कि, वह खर्राटे बिल्कुल नहीं लेता था। मैंने भी कुछ देर बाद सुर्ती नीचे थूकी। अनुमान लगाया कि, ऊपर से नीचे करीब पचास फिट की दूरी है। लेकिन जब  बिल्डिंग की बनावट पर ध्यान दिया, तो लगा यह तो ऐसी बनी है कि, ऊपर से नीचे उतरने का कोई जुगाड़ बन ही नहीं सकता। आखिर मैं विवश होकर लेट गया कि, जो होगा देखा जाएगा।
सुबह मेरी नींद तब खुली जब तोंदियल ने उठाया। उसी ने बताया कि, साढ़े सात बज गए हैं। मैं घबरा कर उठा, मेरे सामने साहब और मैडम का चेहरा नाच गया। मैंने पूछा, 'मैडम उठ गईं क्या?'
उसने कहा, 'नहीं, अभी सो रही हैं। दस बजे से पहले नहीं उठेंगी। जिस रात गड़बड़ करती हैं अगले दिन दस बजे से पहले नहीं उठतीं।'
मैं जल्दी से फ्रेश होकर तैयार हो गया। अपने कपड़े पहने और तोंदियल के कपड़ों को धोकर मशीन में ही सुखाकर वापस रख दिया। हालांकि वह नम तब भी थे। तोंदियल यह सब शांति से देखता रहा लेकिन बोला कुछ नहीं। हां इस बीच वह ढेर सारे बिस्कुट, कुछ ब्रेड, ठीक-ठाक मात्रा में नमकीन और चाय ले आया था। बॉलकनी में ही हम-दोनों ने पूरा चट कर दिया। नाश्ता अच्छा-खासा हो गया था। अब कुछ घंटों के लिए फुर्सत थी। मगर मेरा मन, दिमाग फुरसत में नहीं थे। वह घबरा रहे थे। अपनी मौत को और करीब आता देख रहे थे।
यह व्याकुलता, घबराहट, तब एकदम सातवें आसमान पर पहुंच गई, जब करीब तीन घंटे बाद सुन्दर हिडिम्बा मैडम बेडरूम से बाहर आईं और सोफे में धंस गईं। तोंदियल उनके लिए ब्लैक कॉफी बनाने चला गया। उन्होंने मुझे बुलाकर पेपर लाने के लिए कहा। मैंने सोचा मौका बढ़िया है, निकल लूंगा इसी समय। अभी तक इन्होंने मेरी ओछी हरकत देखी नहीं है। मैं कुछ देर खड़ा रहा उनके करीब सिर झुकाए, तो वह बोलीं, 'गए नहीं, क्या हुआ?' 
तो मैंने सहमते हुए कहा, 'वो.... वो दरवाजा।'
'दरवाजा क्या? खुला है।'
सुनकर मैं बोला, 'जी अच्छा।'  और चला गया बाहर। मन में गोली होने यानि भाग लेने की योजना लिए। 
समीना मैडम का उस समय का एकदम बदला रूप भी मेरे दिमाग में धंस चुका था। वह अपने अटैच बाथरूम में नहा-धोकर, ड्रॉअर से बाल सुखाकर निकलीं थीं। उन्होंने ट्राउजर और शर्ट पहन रखी थी। जिसमें ऊपर बटन लगे थे। जो सिर्फ़ दिखाने के थे। अंदर ब्रैल्को हुक्स थे, जिन्हें बस चिपका भर देना था। बेहद हल्के पीले रंग की यह ड्रेस उन पर खूब फब रही थी। अच्छी-खासी चुस्त यह ड्रेस उनके बदन से लगभग चिपकी हुई थी। उस समय उनका चेहरा कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे कोई नई-नवेली दुल्हन रात भर जागी है, सुहागरात का सुख भोग कर आई है। थकान, रात-भर पिया संग जगते रहने के कारण कुछ सूजी आँखें, लोगों से नजरें मिलाने को संकुचाती नहीं,बिंदास आंखें। कभी बड़ा मासूम, तो कभी बड़ा कामुक सा हो रहा था उनका चेहरा।
जानती हो समीना उन पर एक नज़र जो न चाहते हुए भी पड़ गई थी, उसने एकदम से मुझे बड़वापुर भाभी के सामने ले जा कर खड़ा कर दिया था। सुहागरात के बाद अगले दिन भाभी को ऐसे ही रूप में देखा। मगर थोड़ा फर्क था। भाभी के चेहरे पर रतजगे की थकान की गाढ़ी रेखाओं के साथ-साथ शर्म-संकोच, मासूमियत की रेखाएं ज़्यादा गाढ़ी थीं। किसी के सामने आने पर वह शर्म से मानों गड़ी जाती थीं। 
मैं और मेरी बहनों ने जब ज़्यादा छेड़ा तो, उनकी आंखें भर आई थीं। तब अम्मा ने उन्हें अपनी बाहों में भर कर, प्यार से उनके माथे को चूमा, फिर प्यार भरी झिड़की हम सबको देते हुए कहा था, 'अच्छा, अब बहुत हो गया, काहे हमारी प्यारी-दुलारी पतोह का परेशान किए हो तुम सब।' तब बड़की दीदी भी उन्हीं संग हो ली थीं। हम सबने हंसते हुए अम्मा को भी चिढ़ाया था। मगर यहां मैडम के चेहरे पर बिंदासपना और कामुकता ज़्यादा टपक रही थी। जिसे देखकर किसी में भी कामुक विचार उफ़ान मार सकते थे। कम से कम मेरे मन में तो उस समय यही भाव आए ही थे। जब कि गर्दन पर साहब की छूरी बराबर गड़ी ही जा रही थी।
खैर समीना भागने का मेरा प्रयास जारी रहा, नीचे वॉचमैन से मैंने पेपर लेने के साथ ही बाहर दो मिनट के लिए जा कर कुछ सामान लाने की बात कही तो वह पूछताछ पर ऊतर आया। पहले कभी नहीं देखा, किसके यहां आए हो? जैसे प्रश्न दागने लगा तो मैं मन मसोस कर कन्नी काट कर चला आया ऊपर। मैडम के सामने टेबल पर पेपर रखा। वो टी.वी. पर न्यूज़ देखते हुए कॉफी सुड़क रही थीं। कोई बिजनेस चैनल चल रहा था। जो चार-पांच पेपर मैं नीचे से ले आया था, उनमें भी कई बिजनेस के ही लग रहे थे।
मैं फिर बॉलकनी में आया। तोंदियल बाई के साथ-साथ सफाई में लगा हुुआ था। बाई कब आई यह मैं जान नहीं पाया। मगर बेहद मज़बूत शरीर की बहुत फुर्तीली थी। बिजली की तेज़ी से काम निपटा रही थी। दोपहर होते-होते वह काम-धाम निपटा कर, खाना बना के चली गई। शाम को उसे फिर आना था। इस बीच मैडम फ़ोन पर बराबर बतियाती रहीं, फिर करीब तीन बजे तैयार होकर कहीं चली गईं। लेने के लिए एक शानदार गाड़ी आई थी। जिसका ड्राइवर साफ-सुथरी ड्रेस में था। मैडम ने बाहर जाते समय सफेद जींस और आर्मी कलर की टी-शर्ट पहन रखी थी। जाते समय उनका ब्रीफकेस कार में रखने के लिए मैं पीछे-पीछे गया था। उनके बेहद चुस्त कपड़ों से उनके अंदुरूनी उभार साफ-साफ पता चल रहे थे। उन्होंने ऐसे बेतुके ढंग से कपड़े  पहने थे कि, देखने वाले को तुरंत मालूम हो रहा था कि, उन्होंने कोई अंदरूनी कपड़े नहीं पहने हैं।
समीना मैं पूरे विश्वास से कहता हूँ कि, तुम सामने होती तो मेरी यह बात सुनकर यही कहती कि, ' तुम सारे मर्दों का यही हाल है,औरत दिखी नहीं कि, लार टपकाने लगे। आँखों से तो उसके कपड़ों में घुस ही जाते हैं,ख्यालों में बार-बार उसकी इज्जत लूट के ही रहते हैं।' लेकिन नहीं समीना, उस समय मेरी नज़र जरूर पीछे से उनके कसे हुए बड़े नितंबों और आपस में टकराती मोटी जांघों पर थी, लेकिन मैं दिमाग में भागने की एक योजना को अंतिम रूप दे चुका था कि, जब मैडम के न रहने पर निकलूंगा बहाना बनाकर तब वॉचमैन जरूर जाने देगा। आखिर वो किससे पूछने की बात करेगा। मैं अपनी योजना की उधेड़-बुन लिए वापस ऊपर पहुंचा, कुछ देर बाद तोंदियल से कहा कि, 'कल से सिगरेट नहीं पी, सुर्ती भी तुम्हीं से ले कर खा रहा हूं। सोच रहा हूं जाकर ले आऊं।'
मगर तोंदियल ने फिर एक झटके में मेरी योजना पर पानी फेर दिया। उसने कहा, 'मैडम को फ़ोन कर के बता दो। वो वॉचमैन को बोलेंगी तभी जा पाओगे।' 
मैंने खीझकर कहा कि, 'ऐसा तो मैंने कहीं और नहीं देखा।' तो वह बोला, 'यहां नौकरों पर इतनी पाबंदियां, इतने पहरे हैं, तभी तो इस बिल्डिंग में नौकर आज तक कोई कांड नहीं कर पाए। इस छह माले की बिल्डिंग में नीचे चार ऑफ़िस हैं, ऊपर बारह परिवार रहते हैं। सभी बेहद अमीर हैं, और रहस्यमयी भी। कौन क्या काम करता है किसी को पता नहीं। एक से एक महंगी गाड़ियों में बड़े संदिग्ध लोगों का आना-जाना लगा रहता हैं। हां यहां से दो नौकर जरूर रहस्यमय ढंग से गायब हो चुके हैं। कहां गए उनका कुछ पता नहीं चला। उनके परिवार वाले रो-पीट कर रह गए।' 
तोंदियल की इस बात ने मुझे और भयभीत कर दिया। मैं हताश होने लगा, अंदर ही अंदर कुढ़ता, सहमता समय काटने लगा। मुझे लग रहा था कि, मैडम को सब पता चला गया है। वह साहब को बताने गई हैं ,और साहब चुपचाप मरवाकर कहीं फिंकवा देंगे। किसी को कानों-कान खबर तक नहीं होगी। मेरे पीछे तो कोई रोने वाला भी नहीं है। मेरा अंतिम संस्कार तक नहीं होगा। आखिर करेगा भी तो कौन ? इतना बड़ा परिवार होकर भी नहीं है। किसी को पता ही नहीं है, कि मैं कहां हूं। सब तो मुझे न जाने कब का मरा समझ कर त्याग चुके हैं। मेरी कमीनी हरकतों ने मुझे सब की नज़रों से एकदम गिरा ही नहीं दिया, बल्कि उनमें अथाह घृणा ही घृणा भर दी है।
सच समीना मैं वास्तविक जीवन में तो थोड़े ही समय में विलेन-किंग बन ही गया था। जैसे पिक्चरों में विलेन सबकी घृणा का पात्र बनकर आखिर में बे-मौत मारा जाता है, मुझे भी अब अपना वही हश्र सामने नज़र आ रहा था।
तोंदियल के साथ खाना-वाना खाकर ड्रॉइंगरूम में ही हम-दोनों मैडम की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए सोफे पर पसर कर टी.वी. देख रहे थे। मेरा मन मौत की सजा पाए अपराधी सा हो गया था। जिसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। इसका फायदा तोंदियल उठा रहा था। वह अपनी पसंद का चैनल देख रहा था। उस विदेशी चैनल पर एक अंग्रेजी फ़िल्म चल रही थी, उस पर रह-रह कर कामुक दृश्य आते और तोंदियल गौर से देखता। यह तो तय था कि वह केवल फ़िल्म के दृश्य ही देख रहा था, उसके बोल मेरी तरह उसके भी पल्ले नहीं पड़ रहे थे।
हम-दोनों को अंग्रेजी आती ही कितनी थी? उसकी हरकत देख कर मन में खीझ पैदा हो रही थी। सोचा साला बुढ़ाने लगा है, मटके जैसा पेट लिए घूमता है। मगर औरतों का पक्का रसिया है। जैसे दीया बुझने से पहले ज़्यादा भभकता है, वही हाल इसका भी हो रहा है। खीझ जब ज़्यादा बढ़ गई तो मैंने उससे पूछ ही लिया कि, 'पिक्चर का एक भी डॉयलॉग समझ रहे हो क्या?' 
मेरी बात सुन कर वह क्षण भर को पलटा, मुझ पर एक नज़र डाली और फिर देखने लगा टी.वी.। मैं उत्तर की प्रतीक्षा में था। 
तभी वह बोला 'तुम समझ रहे हो क्या?' 
'नहीं मैं तो नहीं समझ रहा। तुम अपनी बताओ।' 
तो वह बोला 'डॉयलाग समझने की जरूरत ही क्या है? जो देखना है, वह दिख रहा है,और अच्छी तरह समझ में भी आ रहा है बस।'
कुछ क्षण चुप रह कर मैंने कहा, 'घर पर होते, तो लोग कहते राम-नाम पर ध्यान देने की उमर हो रही है, ई सब का देख रहे हो।' 
मेरी इस बात पर वह थोड़ा तमक कर बोला, 'अरे! भाई घर पर होता तो यह सब देखता ही काहे। नौकरी के चक्कर में बरसों से इसी शहर में कट रही है ज़िंदगी। कमाई इतनी होती नहीं, कि परिवार साथ रख सकूं। बीवी-बच्चों से बिना मिले ही साल-साल भर बीत जाते हैं। आखिर हम भी इंसान हैं, हमारा भी मन करता है बीवी के साथ समय  बिताने का। मगर पेट की आग, बच्चों की ज़िम्मेदारी के आगे सारी इच्छा मारनी पड़ती है। मन पत्थर का करना पड़ता है।
वहां साला इतना कुछ है ही नहीं कि, घर गृहस्थी चल सके। यहां कमाई न करूं तो बच्चों को पढ़ा नहीं सकता। अरे! अपनी ज़िंदगी में तो कुछ कर नहीं पाया या करने लायक ही नहीं हूं। कम से कम बच्चे तो पढ़ लें, ताकि उन्हें मेरी तरह धक्के न खाना पड़े। यही सोच कर पड़ा हूं यहां। रही बात यह सब देखने की तो भाई मर्द हूं। कौन मर्द होगा जो यह सब नहीं देखता होगा या जिसके मन में औरत पाने की इच्छा न होती होगी। फिर हम जैसे लोग तो उन अभागों में से हैं, जिनकी यह इच्छा मौत तक उनका साथ निभाती है, क्योंकि यह कभी पूरी ही नहीं होती। और जब पूरी नहीं होती तो चाहत बनी ही रहती है।'
समीना मेरा मन उखड़ा हुआ तो था ही ,मैंने उसे और छेड़ते हुए कहा, 
'मगर तुम्हारी यह इच्छा कैसे अधूरी रहेगी भाई। तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं। बिना पास जाए तो बच्चे नहीं हुए।' 
मेरी इस बात पर तोंदियल एकदम बिफर पड़ा। बोला, 'बडे़ नासमझ हो भाई। क्या फालतू बातें करते हो। बीवी के पास मैं ही जाता हूं, बच्चे मैंने ही पैदा किए हैं। किसी और ने नहीं। अरे! मैं तो बात कर रहा था बीवी के साथ निश्चिन्त होकर, बेधड़क होकर समय बिताने की। इन पिक्चरों में , यहां इन शहरों में बड़े-बड़े खाए-पीए, अघाए लोग जिस तरह बे-अंदाज होके साथ मिलते हैं, उस तरह मिलने का मौका हमें कभी नसीब होता है क्या?
जब-तक यहां रहते हैं, तब-तक तो किसी तरह से मिलना छोड़ो सोचने का भी मौका नहीं होता। और घर पर वहां न इतना बड़ा मकान है, और न ही ऐसा माहौल कि, बीवी के साथ अकेले निश्चिंत होकर समय बिता सको। पहुँचो तो बच्चे घेरे रहते हैं। छोटका लड़का जब-तक मैं रहता हूं, तब-तक वह रात में भी चिपका रहता है। फिर होता क्या है कि, सबके सोने का इंतजार करो।
 रात एक-डेढ़ बजे तक तो इस इंतजार में ही नींद खराब होती है। फिर बच्चे को धीरे से अलग करो कि जग न जाए। कहीं कोई बत्ती न जल रही हो, कोई जाग न जाए। किसी तरह की कोई आवाज़ न निकलने पाए। इतनी बातों का बोझ लेकर पांच-छह मिनट घुचुर-पुचुर करके फिर मुंह दाब के सो जाओ। ये मिलना कोई मिलना है।
बीस साल हो रहे हैं शादी के, चार बच्चे हैं, लेकिन आज तक हम-दोनों ने रोशनी में पूरा नहीं देखा है एक दूसरे को। ये नहीं की हम चाहते नहीं। घर का माहौल, हालात सब ऐसे हैं कि घुट-घुट कर कट गई इतनी ज़िंदगी। और अब इस उमर में आने के बाद तो और भी खत्म ही है सब। और तुम बताओ, तुम कितनी बार खुल के मिले हो बीवी से। कल जिस तरह मैडम के कपड़े हटा कर उनको देखा, उससे तो लगता नहीं कि, तुम्हारी हालत कहीं मुझसे अलग है। तुम्हारी नज़रें बताती हैं कि, तुम कहीं मुझसे ज़्यादा बद्द्तर हालत में हो।'
समीना मैडम वाली बात सुनते ही मानो मेरे पूरे शरीर में हज़ार बोल्ट का करंट दौड़ गया हो। मैं हक-बकाया सा बोला, 'क्या अनाप-सनाप बोले जा रहे हो। मैंने क्या देखा मैडम को। ऐसा किया होता तो वह मुझे छोड़तीं सुबह। तुम्हीं ने बताया था, यहां कैमरे लगे हुए हैं।' मैं आवेश में कुछ ज़्यादा तेज़ बोल गया था। मगर तोंदियल एकदम ठंडा रहा और बोला, 'भाव मत खाओ। मैडम अभी तक शायद इसलिए नहीं बोलीं क्योंकि हो सकता है कि, अभी तक उन्होंने कैमरे की रिकॉर्डिंग देखी ही न हो। जब उनको जरूरत महसूस होगी तब देखेंगी। कभी-कभी हफ्तों नहीं देखतीं। भाग्यशाली हो और प्रार्थना करो कि कल की रिकॉर्डिंग वो कभी न देखें। देखो उमर और अनुभव में तुमसे बहुत आगे हूं। मेरी बात पर नाराज होने की बजाए ध्यान दो। समझ के काम करो। नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे। अरे हम भी बीवी-बच्चों से दूर रहते हैं, लेकिन कंट्रोल करना पड़ता है भाई।'
तोंदियल को जब मैंने कई बातें छिपाते हुए बताया कि, अभी तो मैं छड़ा हूं, अविवाहित हूँ तो उसने एक नज़र मुझ पर डाली और टी.वी. देखने लगा। करीब दो मिनट का, एक गरमा-गरम दृश्य जब देख लिया, तब उसने जेब से चुनौटी निकाल कर चुटकी भर तम्बाकू मुंह में दबाई और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला, 'लो खाओ। कल की उल्टी की बदबू दिमाग में ऐसी घुसी है कि, अभी तक गई नहीं। तम्बाकू सूंघ कर दर्जनों बार छींक चुका हूं, तब भी नहीं। ऐसे गाढ़े व़क्त में यह बड़ा काम आती है भाई।' मैंने भी चुटकी भर सुर्ती होटों के पीछे दबाई और तोंदियल को टी.वी. पर अगले गरमा-गर्म दृश्य के लिए इंतजार करता हुआ छोड़ कर बॉलकनी में आ गया।
तोंदियल ने एक तरह से मुझे कपड़े की तरह धोकर, निचोड़कर तार पर लटका दिया था। मैं निचुड़ा हुआ बॉलकनी की रेलिंग पर खड़ा नीचे देखे जा रहा था। सोचा भी नहीं था कि यहां नौकरों को ऐसे कैद कर दिया जाता है। कम से कम इस बिल्डिंग में तो सारे नौकर कैद ही थे। करीब पांच बजे कॉल-बेल बजी। तोंदियल के प्रति मुझमें अब-तक कुछ सम्मान भाव पैदा हो चुका था। उसके उठने से पहले मैंने जाकर दरवाजा खोल दिया। 
सामने साहब का एक ड्राइवर जिसे मैं पहचानता था, और करीब तीस-पैंतीस की उम्र की एक महिला खड़ी थी। मैं ड्राइवर को नमस्कार भर कर पाया था कि, तब-तक पीछे से तोंदियल आया और बोला, 'आओ'  मैंने भी रास्ता दे दिया। ड्राइवर,महिला दोनों अंदर आ गए। महिला के साथ दो एयर बैग थे। उसे देखकर मैं कोई अनुमान नहीं लगा पाया कि वह कौन है। तभी तोंदियल बोला, 'अपना सामान वहीं रख दो छब्बी, जहां पिछली बार रखा था। मैडम ने फोन किया था कि, तुम आ रही हो।'
मैंने अंदर ही अंदर कहा, वाह तोंदियल फ़ोन आया था। और तूने बताया तक नहीं। ''छब्बी'' पहली बार सुन रहा था यह नाम। छब्बी जैसे ही अपना सामान लेकर अंदर गई, वैसे ही ड्राइवर नारायण मुझे नीचे ले गया। वहां साहब ने मेरा सामान भिजवाया था। उन्हें लेकर मैं ऊपर आ गया। नारायण ने बताया कि, ''साहब ने कहा है कि मैडम की सेवा में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।'' मैं चुपचाप सिर हिला कर ऊपर चला आया पिंजरे में। बॉलकनी मेरा ठिकाना थी।
ऊपर पहुंचा तो देखा छब्बी और तोंदियल बड़े याराना माहौल में बतिया रहे हैं। मेरे पहुंचने पर तोंदियल ने मेरा परिचय कराया और कहा, 'यह यहां तब-तक मैडम की सेवा में रहेंगी  जब-तक अपने घर गए नौकर वापस नहीं आ जाते।' अब जाकर यह बात मुझे स्पष्ट हुई थी कि, छब्बी भी हमारी तरह नौकर ही है। उसकी ड्रेस, हाव-भाव से यह अनुमान लगा पाना कठिन था।
मुझे धुंधला ही सही याद आ रहा था कि मैं पहले भी इसे कहीं देख चुका हूँ। मैं समझ रहा था कि, मैडम के ऑफ़िस की कोई कर्मचारी है। छब्बी का पूरा नाम सुतापा सुले था। मराठवाड़ा के ही किसी स्थान की रहने वाली थी। जिस तेजी से उसने नाम बताया था स्थान का, उतनी ही तेजी से मेरे दिमाग से निकल भी गया। समीना यह छब्बी जल्दी ही मेरी सब-कुछ बन गई थी। मगर उस समय दोनों जिस ढंग से बात कर रहे थे, हंसी-ठिठोली कर रहे थे, उससे यह साफ था कि, तोंदियल और उसके बीच गहरी छनती है।
दोनों अंदर बतियाने में लगे रहे मैं बॉलकनी में लटका रहा। कितना समय बीता पता ही नहीं चला। जब तोंदियल की आवाज़ आई तो मैं अंदर गया। दोनों जमीन पर बिछे कॉरपेट पर बैठे थे। तीन कप चाय थी। प्लेट में कई बिस्कुट। मैं समझ गया कि, चाय के लिए बुलाया गया है। शाम के सात बज चुके थे। मैडम का कहीं पता नहीं था। चाय पीने के बाद तोंदियल बोला, 'मैडम खाना खा कर आएंगी। हम-लोगों को अपना बनाना है।' 
तभी छब्बी बीच में टपकी, 'छुट्टी वाले दिन मैडम घर पर खाती ही कहां हैं। वैसे भी उन्हें घर का खाना पसंद नहीं आता।'
'मैडम की बात छोड़ो, ये बताओ बनाओगी क्या?'
इस पर छब्बी ने एक उड़ती सी नज़र मुझ पर डाली, फिर तोंदियल को देखती हुई बोली, 'जब मैडम को नहीं खाना है, तो कुछ हल्का-फुल्का बना लेते हैं।' और उसने क्षण-भर में तय कर दिया कि, सिर्फ़ सब्जी-रोटी बनेगी। सब्जी कौन-सी यह भी पता नहीं चला। मैं कितनी रोटी खाऊंगा यह भी छब्बी ने पूछ लिया।
एक और बात समीना कि, छब्बी के आने से मैं भीतर से न जाने क्यों बड़ा हल्का महसूस कर रहा था, जैसे कोई खुशी मिल गई हो। उसका काम करने का साफ-सुथरा, सलीके भरा अंदाज, फुर्ती, एकदम सीधे-सीधे बेलौस बोलना, मुझे बड़ा प्रभावित कर रहा था। नौ बजे तक हम सबने खा-पीकर साफ-सफाई सब कर दी। छब्बी ने मैडम का बेडरूम भी संवार दिया था। 
खाने के बाद मेरा सोने का मन कर रहा था। दस बज रहे थे। मैडम का कुछ पता नहीं था। मुझे सुबह क्या काम दिया जाएगा, मन में उमड़-घुमड़ रहा यह प्रश्न भी बेचैन किए जा रहा था। तोंदियल बॉलकनी में अपने बिस्तर पर तकिए के सहारे अधलेटा था। मैं भी उसी तरह अपने स्थान पर बैठ गया। कुछ ही देर में छब्बी भी आकर तोंदियल के बिस्तर पर बैठ गई और स्वभाव के मुताबिक पकर-पकर बतियाने लगी। मुझे नींद के कारण उसकी बातों में ज़रा भी रस नहीं मिल रहा था। जब ग्यारह बज गए तो तोंदियल बोला, 'छब्बी अगर तुम जाग रही हो, तो मैं सो जाऊं, सवेरे जल्दी उठना है। मैडम का फ़ोन आए तो बता देना।'
इस पर छब्बी बोली, 'जागेंगे नहीं, तो जाएंगे कहां? तुम सो जाओ। वो बारह-एक के पहले आने वाली नहीं। मुझको देखते ही उनके बदन में दर्द जरूर होगा, फिर वो घंटा भर मालिश जरूर करवाएंगी। तुम्हीं लोग अच्छे हो।'
अब-तक मैं भी छब्बी से काफी खुल चुका था। इस का पूरा श्रेय उसी को था, वह खुद ही जैसे मुझसे घुल-मिल जाने को उतावली लग रही थी। तोंदियल ने इसी समय एक ऐसी बात कही कि, मैंने मन ही मन कहा, 'वाह रे तोंदियल, इस उमर में यह रंग।' छब्बी की मालिश वाली बात पर वह बड़ा आहें भर कर बोला था। 'अरे! परेशान काहे होती हो। मैडम की मालिश से तुमको थकान आ जाए तो बताना ,मैं मालिश करके, तुम्हारी थकान दूर कर दूंगा।'
छब्बी तुनकते हुए बोली 'अच्छा! मेरी मालिश करोगे? मेरी मालिश से तुम थक गए तो तुम्हारी थकान कौन उतारेगा।'
तोंदियल फिर इठलाता हुआ बोला, 'तुम भी क्या बात करती हो, तुम्हारी मालिश करके तो थकान उतर जाएगी। बशर्ते जैसे करती हो, वैसे ही करवाओ तो।'
छब्बी अब और भड़क कर  बोली, 'अच्छा, बड़ा मचल रहा है मेरी मालिश करने को, ठीक है परेशान न हो तू, जिस दिन थकूँगी,उस दिन तेरे से मैं बिलकुल वैसी ही मालिश कराऊंगी जैसी मैडम की करती हूँ, और जो न कर पाया तो मैं तेरी मालिश कर दूंगी।' 
समीना मुझे लगा कि बात बिगड़ गई है, और छब्बी लडे़गी। लेकिन वह अपनी बात पूरी कर खिलखिला पड़ी। मुझे अब साफ हो गया था कि, इन दोनों के बीच बड़ा खुला रिश्ता है। मगर छब्बी की बातों, तरीके ने दिमाग में यह प्रश्न खड़ा कर दिया था कि, यह कहीं से मराठी तो लग ही नहीं रही है, और आखिर यह मैडम की कौन सी खास मालिश करती है ,जो एकदम अलग तरह की है। इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए दिमाग में कुलबुलाहट शुरू हो गई। इसी क्षण कॉल-बेल बजी। छब्बी आगे और पीछे तोंदियल और मैं पहुंचा। एक बड़े रोबीले व्यक्तिव वाला आदमी मैडम को ऊपर तक छोड़ कर चला गया था। वह अंदर, आगे-आगे मस्त चाल से आईं, फिर क्षण भर रुक कर बोलीं 'जाओ तुम लोग सोओ, छब्बी तुम यहां आना।'
उनका आदेश सुनकर हम-लोग अपने बिस्तरों पर पहुंच गए। छब्बी उनके पीछे बेडरूम के अंदर पहुंच गई। कुछ देर बाद छब्बी ने बॉलकनी में खुलने वाला दरवाजा भी आकर बंद कर दिया। दरवाजा बंद होने की आवाज़ सुनकर तोंदियल अस्पष्ट शब्दों में बोला 'लगता है आज मालिश होगी।'
 'मालिश!' मेरे दिमाग में एक बम सा फूटा था। मैडम हल्के-फुलके नशे में थीं यह मैंने उनके अंदर आते ही भांप लिया था। मगर यह सारी बातें नींद के आगे एक किनारे हो गईं, और मैं भी तोंदियल की तरह सो गया। 
समीना अगली सुबह मेरे लिए एक नया अनुभव लेकर आई। पैसा होने पर ज़िंदगी जी कैसे जाती है, उसकी एक झलक मैडम में सुबह देखी। तोंदियल सुबह पांच बजे उठा और मुझे भी उठा दिया। कुछ ही देर में हम तैयार हो गए। छब्बी भी। उसकी आंखें बता रही थीं कि, रात देर से सोई थी,और अधूरी नींद ही जाग गई है। जल्दी-जल्दी ड्रॉइंगरूम साफ किया गया। सोफे को किनारे कर ज़्यादा जगह बनाई गई। 
तोंदियल के साथ लगा मैं सब करता जा रहा था, लेकिन यह सब क्यों किया जा रहा है, यह समझ नहीं पा रहा था। तभी तोंदियल ने रूम फ्रेशनर स्प्रे करने को कहा। खुद बॉलकनी का दरवाजा, खिड़कियां खोल दीं। सारे पर्दे हटा दिए। बाहर से अच्छी-खासी सुबह की नर्म धूप अंदर आने लगी। एक बड़ी खूबसूरत सी मोटी कालीन लाकर तोंदियल ने बिछा दी। उसकी बगल के दोनों तरफ साफ-सुथरी दरी भी। तभी मैंने उत्सुकता से व्याकुल होकर उससे इशारे में पूछा कि यह सब हो क्या रहा है? तो वह बड़े धीरे से बोला कि, 'मैडम यहां योग, प्राणायाम, ध्यान करेंगी। साथ में हम सबको भी करना है, क्योंकि इससे हम-सब ज़्यादा फ्रेश और ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त रहेंगे। इससे बढ़िया काम कर सकेंगे।' यह सुनकर मैं  हक्का-बक्का रह गया।


जीवन में पहली बार सुन रहा था कि, कोई मालकिन जो कि हर तरह का नशा भी करती है, वो योग, प्राणायाम,ध्यान न सिर्फ खुद करती है बल्कि अपने स्टॉफ को भी करवाती है, जिससे कि सब ज़्यादा ताकत, स्फूर्ति के साथ ज़्यादा काम कर सकें। मेरे पास ज़्यादा कुछ सोचने-विचारने के लिए समय नहीं था। अपने कमरे से मैडम एकदम तरोताजा निकली थीं। कहीं थकान नहीं दिख रही थी। उन्होंने नहाते समय जो भी साबुन-शैंपू इस्तेमाल किया था, उसकी खुशबू घर में फैल रही थी। उन्होंने गोल गले की चुस्त टी-शर्ट और बेहद चुस्त ट्रैक शूट वाला ट्राउजर पहन रखा था। बेहद सफेद रंग के यह कपड़े उन पर खूब फब रहे थे। वह आकर शांत भाव से कालीन पर बैठ गईं। फिर चालीस मिनट तक उन्होंने योग, प्राणायाम,ध्यान किया, और हम सब से करवाया। विशेष रूप से सूर्य-नमस्कार आसन। 
तोंदियल, छब्बी यह सब उनके साथ पहले ही से करते आ रहे थे, इसलिए वो दोनों उनके साथ पूरे लय-ताल में करते रहे। मगर मैडम को मुझे एक-एक चीज बतानी पड़ी,लेकिन फिर भी उन्होंने बड़े शांत भाव से बताई, सिखाई और करवाई। सूर्य-नमस्कार आसन के समय उनके बदन का लचीलापन देख कर मैं दंग रह गया।
समीना तुम्हें उस समय की अपनी एक गलती, अपने मन की एक गंदगी भी बताता हूं। जब वह सूर्य-नमस्कार आसन करती हुई ऊपर को हाथ उठातीं, तो ट्राउजर, टी-शर्ट अपनी जगह से बहुत दूर तक खिंच जाते थे,और मैं  बदन के उस ढेर सारे खुल जाने वाले हिस्से पर अपनी चोर नज़र डाल पाने से खुद को रोक नहीं पाता था। मन भटकता हुआ न जाने कहां से कहां चला जाता था। लेकिन यह स्थिति पहली बार कर रहे एक कुपात्र के भटकते मन की थी , आगे के दिनों में मैडम ने मुझे मांज-मांज कर इन सब के लिए सुपात्र बना दिया था। इसके लिए मन के किसी कोने में उनके प्रति आज भी इसके बावजूद सम्मान है कि, आगे उन्होंने मेरे साथ घोर अन्याय किया, मुझसे मेरी छब्बी ,मेरा तोंदियल हमेशा के लिए छीन लिया।  
लेकिन समीना उन्होंने जो किया वह उनके स्वार्थ की दुनिया थी,हमें उनकी नहीं केवल अपनी बात करनी है।
तो आज जब ज़िंदगी अचानक ही तुम्हारी तरह खत्म होने की हालत में पहुँच गई है, तो अपने एक-एक पाप याद आ रहे हैं। पछतावा हो रहा है,आंखें भर जा रही हैं। उस दिन मैं योग वगैरह करके बड़ा तरोताजा महसूस कर रहा था। मैडम ने जल्दी ही ऑफ़िस वाले कपड़े पहने और नाश्ते में एक बड़ा गिलास एप्पल जूस, चार-पांच पीस ब्रेड-बटर लिया। नाश्ते के दौरान कई न्यूज़ पेपर, खासतौर से बिजनेस वाले देखे और साढ़े नौ बजे चल दीं नीचे ऑफ़िस के लिए। मैं और तोंदियल भी उनका सामान लेकर पहुंच गए। फिर रात नौ बजे तक जो काम-धाम चला उससे मैं कई बार खीझ उठा।
मैडम ने खुद करीब दो बजे लंच किया, उनके बाद फिर हम-दोनों कर सके। मैडम ऊपर लंच करके आ गईं, तब हम-दोनों एक-एक कर गए ऊपर लंच करने। मैं उस दिन, दिन-भर के काम-धाम से यह समझ पाया कि, मैडम रियल-स्टेट, विज्ञापन एजेंसी, शेयर मार्केट से जुड़े कामों में लगी हैं। और उस  छह  मंजिला बिल्डिंग में भी वह साहब के साथ बराबर की हिस्सेदार हैं।
उसी दिन मैंने देखा कि अपने लक्ष्य के लिए कैसे जुनूनी होकर कोशिश की जाती है, और लक्ष्य पाने के लिए कैसे अपने को फिट रखा जाता है। मैडम केवल सप्ताह के दो-दिन खूब जम के खाती-पीती थीं। मस्ती करती थीं। सप्ताहांत होने की पहले वाली शाम और रात, अगले दिन पूरी छुट्टी, बाकी दिन यदि रात में दो-तीन पैग शराब को छोड़ दें, तो बड़ा संयम से रहती थीं, कड़ी मेहनत करती थीं।
समीना दो-चार दिन बाद मेरा मन वहां लगने लगा। साहब के यहां की तरह यहां एक खास तरह का भय हावी नहीं रहता था। यहां आए दस दिन बीता होगा कि, जो नौकर अपने घर गया था उसका फ़ोन आया कि, अपने घर की नाजुक हालत के कारण अब वह कभी नहीं आ पाएगा। साथ ही उसने मैडम से यह भी प्रार्थना की, कि उसका जो भी थोड़ा बहुत सामान, कपड़ा-लत्ता है, वह और उसकी पगार पार्सल, मनीऑर्डर से भिजवा देंगी तो बड़ी कृपा होगी।
अगले ही दिन तोंदियल के माध्यम से मैडम ने यह सब करा दिया। पार्सल का खर्चा भी उस नौकर की पगार से नहीं काटा। जबकि पांच अलग-अलग बड़े पैकेटों में पार्सल भिजवाया था। इतना ही नहीं, उसका जो पैसा बन रहा था, उसमें एक महीने की तनख्वाह और बढ़ा कर भेजी। समीना यह सब देख कर मैं एकदम दंग रह गया कि, जिस शहर में मरते हुए को एक गिलास पानी देने के लिए भी नहीं रुकते, क्षणभर को किसी के पास टाइम नहीं कि, धंधे का खोटी होगा। उसी शहर में एक यह भी हैं। मेरे मन में उनके लिए बड़ा सम्मान उभर  आया साथ ही स्वार्थ भी कि, मैडम से कहूंगा कि मुझे कहीं एक्टिंग का एक मौका दिला दें।
समीना नौकर का वापस न आना आगे चल कर मेरे ,छब्बी के लिए बहुत घटनापूर्ण साबित हुआ। मुझे, छब्बी को वहां स्थाई रूप से रुकना पड़ा, क्योंकि छब्बी की तरह मैं भी मैडम की अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा था। इस बीच एक दिन बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। मैडम ने बताया कि, नियमानुसार मेरा पुलिस वेरिफिकेशन कराना है, जिसके लिए होम डिस्ट्रिक का पता चाहिए। मैंने टालने की कोशिश की, तो वह और पीछे पड़ गईं।
अंततः मैंने विलेन-किंग बनने की सारी बात बताते हुए कहा, 'इतने दिन हो गए हैं घर से गायब हुए, मैं किसी भी सूरत में वहां कोई खबर नहीं होने देना चाहता। इसलिए वह ऐसा कुछ ना करें, भले ही मुझे नौकरी से निकाल दें।' साथ में मैंने एक्टिंग का मौका दिलाने की बात भी कह दी। अपना सपना पूरी तरह चूर होता देख मेरा रोंया-रोंया क्रोध से भड़का हुआ था,मेरा शरीर साफ़-साफ़ थरथराता हुआ दिख रहा था। उन्होंने कुछ देर मुझे घूरने के बाद कहा ,'ओ.के. गो।'
इसके बाद मुझसे कई दिन तक कुछ नहीं कहा। मैं बड़े असमंजस में पड़ा रहा कि, वह क्या करेंगी? जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो पांचवें दिन मैंने विनम्रतापूर्वक पूछ ही लिया कि उन्होंने क्या फैसला लिया। इस पर वह अपेक्षा के विपरीत थोड़ा रूखे स्वर में बोलीं 'तुमने कहा घर तक बात नहीं जानी चाहिए तो नहीं जाएगी। परेशान होने की जरूरत नहीं।'
उनकी इस बात से मेरे जान में जान आ गई। मैंने उन्हें कई बार धन्यवाद दिया। फिर एक-एक करके मैडम के यहां आठ महीने गुजर गए। इस बीच मैं मैडम के साथ ध्यान, प्राणायाम, सूर्य-नमस्कार आसन में पारंगत हो गया। इससे कम से कम स्वास्थ्य , इच्छाशक्ति, मनोबल, चुस्ती-फुर्ती में मैं बहुत ही ज़्यादा अच्छा महसूस करता था। छब्बी के साथ अब मेरी नजदीकियां बहुत ज़्यादा बढ़ गई थीं। अब हम एकदम खुल कर हंसी-मजाक करते थे। इतना खुलकर कि, उससे ज्यादा खुलने के लिए एक और सीमा गढ़नी पड़ती। हमारी नजदीकियां अब साथी से आगे निकल कर प्रेम के स्तर तक पहुंच गई थीं। 
यह बात तोंदियल को बहुत अखरती थी, और अपना यह गुबार वह मौका मिलते ही किसी न किसी बहाने मुझे झिड़क कर निकालता। मैडम के सामने मुझे फंसाने, ज़्यादा से ज़्यादा काम मुझ पर लादने की कोशिश करता। इस बीच क्योंकि मैडम का विश्वास मैंने जीत लिया था, सो मेरी भी हिम्मत अब बढ़ चली थी,तो मैंने धीरे-धीरे उसे यह समझा दिया कि, 'छब्बी तेरी जागीर नहीं है। अगर वो मुझे चाहती है, तो मैं इसमें क्या कर सकता हूं? तुम उसे रोक सकते हो तो रोक लो, मैंने तुम्हें मना किया है क्या?' फिर मैंने एक पाशा और फेंका, और यह पाशा इतना सटीक पड़ा कि मैं खुद दंग रह गया।
मैंने कहा, ' देखो तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं, हंसता-खेलता परिवार है। तुम एक भाग्यशाली आदमी हो। मुझे देखो सब कुछ होकर भी कुछ नहीं है। मूर्खता में अपने हाथों अपनी खुशियों में आग लगा ली। आज मर जाऊं तो कोई पूछने वाला नहीं। सरकार लावारिस लाश कहकर कहीं कुछ कर देगी। यह भी तब जब भाग्य कुछ साथ देगा। नहीं तो अंतिम वस्त्र तक नसीब नहीं होगा। कहीं पड़ा, सड़-गल कर खत्म हो जाऊंगा। कोई आंसू बहाने वाला होगा यह छोड़ो, किसी की आंखें भी गीली न होंगी। ऐसे में तुम भी अपनी बसी-बसाई ज़िंदगी में अपने हाथ क्यों आग लगा रहे हो। छब्बी तुम्हारा कोई मेल नहीं है। इसलिए क्यों नाहक अपना जी जलाते हो। हंसी-मजाक तक तो बात समझ में आती है, लेकिन उसे इतनी गंभीरता से लेना तुम्हारे परिवार को नष्ट कर देगा।'
मेरे तर्क काम कर गए और तोंदियल सिमट गया अपने खोल में। अब मैं बिना रुकावट छब्बी के साथ मजे लेने लगा। समीना क्या है कि, जब व्यक्ति को उसका मनचाह नहीं मिलता, उसे लगता है कि यह संभव नहीं है, तो उसका मोह भंग हो जाता है, और वह फिर जिस ओर मुड़ता है, उसी ओर चलता चला जाता है। तो तोंदियल भी जब मुड़ा तो वापस मुड़कर नहीं देखा। वह छब्बी हमारे बीच अब एक मित्र तक ही रह गया। वह भी वैसा मित्र जो एक जगह काम करने के कारण एक दूसरे को जानते हैं। उसकी हंसी-मजाक भी अब पहले जैसी नहीं होती थी। छब्बी तो उससे पहले ही खिंच चुकी थी।
समीना जल्दी ही वह दौर भी शुरू हो गया, जब मैं मौका मिलते ही छब्बी को बांहों में भर लेता। उसे जी भर के प्यार कर लेता। चौबीस घंटे में यह मौका एक बार निश्चित मिलता था। लंच टाइम में। जो मात्र तीस मिनट का ही होता था। उस समय ऐसे कोने में उसे लेकर जरूर पहुंचता था, जहां कैमरे से बच कर छब्बी को पा सकूं। वह भी जैसे इस पल का इंतजार करती थी।
समीना यह सब चल रहा था,और ज़िंदगी रोज नए रंग दिखा रही थी, लेकिन फिर भी मेरा विलेन-किंग बनने का सपना कहीं से टूटा नहीं था। हां समय के किसी छोटे से हिस्से में कभी पलभर को कुहासा सा आ जाता था। मैडम मेरी उम्मीद बनी हुई थीं। मैं कैसे अपनी बात उनके सामने मज़बूती से रख सकूं, इसका एक जरिया छब्बी के रूप में अब मेरे सामने था। मगर उनके सामने अपनी बात रखने से पहले मैं मैडम को अच्छे से समझ लेना चाहता था, उनके विचारों को पढ़ लेना चाहता था। वह भी छब्बी के माध्यम से। क्योंकि छब्बी उनके ज़्यादा करीब थी, और मुंह लगी भी। उनके बेडरूम में भी वह लंबे समय तक उनकी सेवा करती थी। जैसा वह बताती थी, उससे यह भी साफ था कि, वह उनसे हल्का-फुल्का मजाक भी कर लेती थी।
अब क्योंकि वह मेरे बेहद करीब थी, तो मैं बेहिचक उससे मैडम के बारे में पूछताछ करने लगा। खुलकर बात करने का मौका हमें छुट्टियों वाले ही दिन मिलता था। और बॉलकनी हमारा ठिकाना होती थी। तोंदियल से मिन्नत कर मैं उसे अलग कर देता था। वह अंदर टी.वी. देखता या तान के सो जाता। कैमरों के कारण हमारी मन-पसंद जगह बॉलकनी ही थी। शुरू में मैडम की बात बताने से हिचकने वाली छब्बी बाद खुलकर सब बताने लगने लगी। बल्कि तमाम बातें तो खूब चटखारे ले-लेकर बताती। हालत यह हो गई थी कि, बाद के दिनों में मैं पूछूं, उससे पहले वह खुद ही शुरू हो जाती।
उसने साफ बताया कि, मैडम डेली रात में साहब से बात करती हैं। मेरे सामने सारी बातें अंग्रेजी में करती हैं, इसलिए मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ती। हां दो-चार बातें ऐसी हैं, जिसे वह रोज कई बार बोलतीं हैं। जैसे नॉटी ब्वाय, बाओ, ओ.के., कूल, ओह नो, नोनो इन बातों का तात्पर्य मैं निकाल लेता था। 
उसने यह भी बताया कि, मैडम अंदर लगे टी.वी. पर काफी देर तक अलग-अलग न्यूज चैनल देखने की आदी हैं। उन्हें पुराने फ़िल्मी गाने पसंद हैं। जो हल्के वॉल्यूम पर चलता है। मुकेश,किशोर,हेमंत कुमार,मन्ना डे को जरूर सुनती हैं। इसके अलावा हॉलीवुड की ऐक्शन मूवी भी देखती हैं। मगर अजीब आदत यह है कि, इन मूवी को देखते समय वह टी.वी. की आवाज़ बिल्कुल बंद कर देती हैं। इधर हिंदी गाने सुन रही होती हैं, और उधर टी.वी. देख रही होती हैं। छब्बी ने इसे अजब-गजब तमाशा नाम दिया था।
उसने यह भी बताया था कि, मैडम एक बजे से पहले कभी नहीं सोतीं। सोने से ठीक पहले वह मॉनिटर पर पूरे घर को चेक करतीं हैं। सोने के आधे घंटे पहले अपनी पसंदीदा ब्रांड की व्हिस्की के दो पैग लेना उनकी नियमित आदत है। उनकी आदतों में चौंकाने वाला एक तथ्य यह भी था कि वह शराब पीने से पहले पूजा करतीं थीं। बेडरूम में ही बेड के सिरहाने एक बेहद छोटी सी चंदन की लकड़ी की बहुत खूबसूरत नक्काशीदार अलमारी थी। जिस पर चांदी के सिंहासन पर ''मां वैष्णों देवी'' की चांदी में ही मढ़ी हुई एक फोटो रखी थी । जिसके सामने वह आंख मूंद कर ग्यारह बार गायत्री मंत्र का जाप करती थीं।
उन्होंने बातचीत में छब्बी को यह भी बताया था कि, वह जो भी हैं, वह ''मां वैष्णों देवी''  के ही कारण हैं। और गायत्री मन्त्र ऐसा मन्त्र है, जिसके उच्चारण करने से इंसान को स्वस्थ जीवन , समृद्धि दोनों ही मिलते हैं । आदमी रातों-रात शिखर पर पहुँच जाता है। यह मंत्र छब्बी ने उन्हीं से सुन कर याद कर लिया था। अपनी कुछ ही देर की यह पूजा करने के बाद मैडम बेड पर आ जाती थीं, और कभी पंद्रह तो कभी बीस मिनट बाद एक सिगरेट जला कर अपने खूबसूरत होंठों के बीच फंसा कर, गिलास में शराब लेकर उसमें ढेर सारी बर्फ डालतीं थीं ,फिर धीरे-धीरे बड़ी देर में खत्म करती थीं।
 यह सब कभी-कभी डेढ़ बजे तक चलता था। इसके बाद वह सवेरेआठ बजे तक, घोड़े बेच कर सो जाती थीं। मगर समीना इन सबके बीच छब्बी के लिए करीब आधा-पौन घंटा बड़ी मेहनत वाले होते थे। मैडम जोड़ों के दर्द से परेशान रहती थीं। उन्हें औस्टियो आर्थ्राइटिस की समस्या ने छू लिया था। खाने-पीने का परहेज उनके वश का नहीं था। वह कहती थीं कि दवा से ज़्यादा फायदा उन्हें योग-प्राणायाम से मिलता है। उनकी तमाम बातों को बताते हुए छब्बी कहती थी कि जब पैसा होता है तो आदमी ज़िंदगी अज़ब-गज़ब तरीके से जीता है। मैडम यही करती थीं। एक बार वह घूमने इंडोनेशिया और मलेशिया गई थीं ।
मलेशिया में जिस रिजॉर्ट में वह और साहब रुके थे, वहां उन्होंने मजे के लिए ही स्टीम बाथ ली और मसाज भी करवाई थी। लेकिन इससे उन्हें जो आराम मिला, उससे वह बहुत इम्प्रेस हुईं। और फिर जब-तक वहां रहीं, रोज मालिश करवाई। मालिश वाले को पैसा देकर कौन सा तेल है यह भी जान लिया। इंडिया में नहीं मिलेगा यह सोच कर आते समय ले भी आईं, और खत्म होने से पहले मंगाती भी रहतीं। मगर यहां उस तरह से मसाज करवाने की समस्या आ खड़ी हुई। यहां के कई मसाज पार्लरों में उन्होंने वही तेल ले जाकर मसाज कराया। मगर उन्हें यहाँ की मसाज समझ में नहीं आई। उन्हें लगा कि, इतना महंगा तेल भी बरबाद हो जाता है।
समीना मेरे वहां पहुँचने से पहले जब एक बार छब्बी मैडम की सेवा में वहां पहुंची थी, और एक दिन दर्द से परेशान हो कर मैडम ने हाथ-पैर दबवाने शुरू किए तो कुछ राहत मिलने पर उन्होंने कहा, ''तुम मेरी मालिश डेली कर दिया करो। मैं इसके तुम्हें अलग से पैसे दूंगी।'' छब्बी ने कहा, 'मैंने सोचा चलो एक ही नौकरी में दो-दो तन्ख्वाह मिल जाएगी।' 
अगले दिन उन्होंने छब्बी को वह खास तेल दिया, और कई वीडियो दिखाए कि, उस तेल से वहां मालिश कैसे करते हैं। उसमें कई खंड थे, जिसमें किसी में औरत मालिश कर रही थी ,तो किसी में मर्द। और कराने वाले मर्द, औरत बिल्कुल निर्वस्त्र होते थे। अपने सारे कपड़े उतार कर जब वह ऊंची चौकी पर लेटते थे, उस समय  एक पतला सा तौलिया ऊपर डाल दिया जाता था। बहुतों में तो मालिश के दौरान ही वह भी हटा दिया जाता था।
समीना छब्बी ने आगे बताया कि, 'मैं वह सब बहुत ध्यान से देख रही थी। क्योंकि मुझे पगार के बराबर और मिलने वाले पैसे दिख रहे थे। मैं मौका खोना नहीं चाहती थी।' वह चटखारे लेकर कहती, 'मैं मन ही मन यह भी सोच रही थी कि, वाह मैडम विदेश में सारे कपड़े उतार कर स्टीम बाथ,मालिश का मजा लिया। पता नहीं मर्द से करवाती थी या औरत से। चलो कभी तुम्हारा मूड सही रहा या नशे में हुई तो यह भी पूछ लूंगी।' उसने कहा कि,' कई वीडियो देखने के बाद मैंने उत्साह में मैडम से कहा, 'मैडम मैं सब समझ गई हूँ। आराम से यह मालिश कर सकती हूं।'
छब्बी ने उस दिन जोश में आकर मुझे बताया कि, 'नाऊन की बिटिया हूं, मालिश तो हम पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। मगर यह सोच कर मेरे बदन में झुरझुरी सी हो रही थी कि, क्या मैडम ऐसे ही सब-कुछ उतार कर मालिश करवाएँगी। और ये औरतें जिस तरह से नाम-मात्र के दो कपड़े पहन कर करती हैं मालिश, क्या मुझे भी ऐसे दो कपड़े ही पहनने देंगी। इन नाम-मात्र के कपड़ों में तो, मैं क्या जो भी होगी,उसे नंगी ही कहेंगे।
मैं यह सब ज़्यादा नहीं  सोच पाई। मैडम ने बेड पर पहले एक कंबल, उसके ऊपर एक चादर बिछवाई, फिर नाम-मात्र की रोशनी वाली एक फैंसी लाइट जलने दी, और मेरे देखते-देखते कपड़े उतार कर लेट गईं। उन्होंने अपने ऊपर नाम-मात्र का वह तौलिया भी नहीं डाला जैसा वीडिओ में दिखाया गया था। फिर बोलीं, ''देखते हैं छब्बी, तुमने कितना सीख लिया है।'' मैंने कहा आप निश्चिन्त रहिये,मुझे पक्का विश्वाश है कि आप जरूर खुश होंगी।'
समीना किसी को भी ज़िंदगी कब कौन सा रंग दिखा दे, इसका कोई ठिकाना नहीं। छब्बी ने बताया कि, 'मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था। जीवन का यह पहला अनुभव था। नाऊन की बिटिया जरूर थी, लेकिन मां ने इस धंधे से हम-लोगों का पीछा बचपने में ही छुड़ा दिया था।
उन्होंने मालिश के कई तरीके सिखाए भी थे कि, गरू समय (भारी या कठिन समय) में यह गुण काम भी आ सकता है। प्रसव के बाद महिलाओं की, की जाने वाली मालिश खासतौर से बताई थी। ऐसे कई मौकों पर मुझे ले भी गई थीं। कस्बे की कई मध्यम वर्गीय महिलाओं की मालिश मैंने देखी और की भी थी। वो मालिश के समय भी ब्लाउज, पेटीकोट पहने रहती थीं। पेटीकोट को ढीला कर, सिकोड़ कर एकदम बीच में कर दिया जाता था। जिससे की उनकी लाज ढंकी रहे। एक महिला नाऊन के सामने भी यह पर्दा था। मगर यहां तो मैडम ने एक पल गंवाए बिना कपड़े ऐसे उतार दिए, मानों वहां उनके सिवा कोई दूसरा है ही नहीं ।'
मैडम की मालिश का वह पहला अनुभव बता-बता कर छब्बी हंसे भी जा रही थी। समीना वह बड़ी हंसमुख थी, हँसते-हँसते ही बोली, 'उस समय भी मेरी हंसी नहीं रुक पा रही थी।' 
समीना असल में मैडम की मुंह-लगी होने के कारण छब्बी को ज़्यादा डर नहीं था। लेकिन उसके  बार-बार हंसने पर मैडम ने पूछा, ''तुझे इतनी हंसी क्यों आ रही है?'' तो छब्बी ने  कहा, ''जी नहीं, कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ याद आ गया।''
समीना इसके बाद छब्बी ने जो बताया उससे मुझे मैडम पर बड़ा गुस्सा आया।आज भी घृणा होती है। छब्बी भी बताते हुए गंभीर हो गई थी। उसने घृणा भरे स्वर में कहा, 'तेल से बचने के लिए मैं अपना दुपट्टा और कुर्ता भी बराबर समेट रही थी। मेरे हंसने से भीतर ही भीतर नाराज मैडम ने एक झटके में कहा, ''मैं जानती हूँ तुम्हें कुछ भी याद नहीं आया है। मैं ऐसे लेटी हूं इसीलिए तुम्हें हंसी आ रही है, तेल तुम्हारे कपड़े भी खराब कर रहे हैं, तुम  बार-बार डिस्टर्ब हो रही हो , इसीलिए मालिश ठीक से नहीं कर पा रही हो, टाइम अलग वेस्ट हो रहा है। ऐसा करो तुम कपड़े उतार कर, जैसे एक्सपर्ट कर रहे थे, उसी तरह करो।'' इसके साथ ही मैडम ने पैसे का पासा भी फिर फेंका। वह मेरी पैसों की जरूरत की कमजोर नस पकड़ चुकी थीं। कपड़े उतारने की बात पर मैं हाथ जोड़ती हुई बोली, ''नहीं मैडम कर लूंगी आप परेशान न हों।'' लेकिन मैडम ने जिस तरह से कहा कि, ''यहां कौन देख रहा है। क्या इनरवियर नहीं पहन रखे हैं?''
कुछ कड़ी आवाज़, और उनके बात करने के तरीके ने मेरी हालत खराब कर दी। मुझे अपने हाथों से तनख्वाह के बराबर मिलने वाली रकम फिसलती नज़र आने लगी। डर अलग गई कि, कहीं साहब से न कह दें। मैं एक पल में मैडम के हथियार के आगे टूट गई। सो न चाहते हुए भी उतार दिए कपड़े। तन पर छोटे-छोटे दो पुराने कपड़े थे। पैसे की तंगी ऐसे कपड़ों पर ज़्यादा नहीं खर्चने देती। ज़रा सी हँसी के लिए मैडम इस तरह मेरे कपड़े उतरवा कर मुझे अपमानित करेंगी, जीवन भर न भूलने वाली सजा देंगी, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मैं  उफ़ भी नहीं कर सकती थी,आखिर उनके सामने मेरी बिसात ही  क्या थी?
मुझे अपनी हालत गावों-कस्बों में अपमानित होने वाली उन औरतों सी लगी, जिन्हें दबंगों द्वारा अपनी दुश्मनी निकालने ,अपना आतंक कायम करने के लिए निर्वस्त्र करके पूरे गाँव, मोहल्ले में घंटों घुमाया जाता है,और ये असहाय औरतें अपमान के इस जहर से हड्डियां तोड़ देने वाले दर्द को जीवन भर बर्दाश्त करती हैं, तड़पती-कलपती हैं। 
शर्म के मारे बाकी जीवन घर के अँधेरे कोने में आसूं बहाते-बहाते बिताती हैं। घर के लोगों के भी सामने आने के नाम से ही सिहर उठती हैं। कुछ बर्दाश्त नहीं कर पातीं तो फांसी लगा लेती हैं या किसी कुँए में कूद कर मर जाती हैं । लेकिन मैंने मरने की नहीं सोची, क्योंकि मेरे आगे-पीछे तो कोई है ही नहीं जिससे मैं शर्म से जमीन में गड़ती। अपनी ही नज़रों में शर्मिंदगी महसूस कर रही थी तो भीतर-भीतर आंसू बहाती, कुढ़ती, एकदम शांत हो उस अजीब सी भीनी-भीनी खुशबू वाले तेल से, उनकी ठीक उसी तरह, पूरे तन की मालिश की जैसी वीडिओ में देखी थी। करीब चालीस मिनट की मालिश के बाद उन्होंने अलसायी सी आवाज़ में मना कर, जाने को कहा। ऐसा लगा जैसे वह नींद में थीं। मुझे एकदम से अम्मा की याद आ गई। उन्हें आधे सिर के दर्द अर्ध-कपारी की समस्या थी, जो शाम को अक्सर बढ़ जाता था। जब मैं देर तक उनका सिर दबाती, तो आराम मिलने पर वह ऐसे ही सो जाती थीं। मैंने जल्दी से कपड़े पहने और चली आई बेडरूम से बाहर। सोचा जब कहेंगी, तब हटा दूंगी चादर, कंबल।
मैं भारी मन से अपने बिस्तर पर आकर लेट गई। मुझे लगा कि, आज मैं पैसों के लिए बहुत नीचे गिर गई। जिस काम के लिए मन गवाही नहीं दे रहा था वह काम किया। मैडम की निश्चित ही यह एक शातिर चाल ही थी कि, पहले मुझे पैसे के जाल में फंसाया, मैं उनकी  ऐसी मालिश की बात कहीं और न कहूं तो, मुझे भी नंगी कर दिया। फिर यह भी सोचा कि नहीं, मेरी हंसी के कारण यह सब हुआ। मुझे हंसना नहीं चाहिए था। आखिर वह दर्द से परेशान एक महिला हैं। जो दिन-भर जी-तोड़ मेहनत करती हैं। मेरा हंसना एक तरह से उनकी खिल्ली ही उड़ाना था। गलती तो मैंने ही की थी। दिनभर की थकी-हारी मैं यही सब सोचती-सोचती सो गई। 
सुबह टाइम से उठकर काम-धाम में लग गई। करीब साढ़े आठ बजे मैडम तैयार होकर बाहर आईं। उनके चेहरे पर गजब की ताजगी नज़र आ रही थी। मैं करीब पहुंची तो, उन्होंने कहा, '' बड़ी अच्छी मालिश की, बहुत आराम मिला।'' उनकी इस बात से पता नहीं क्यों मुझे बड़ी राहत महसूस हुई। उन्हें नाश्ता, पेपर देकर मैंने बेडरूम में चादर, कंबल हटा दिए।'
समीना, छब्बी मालिश पुराण बताते-बताते कई बार भावुक हो गई थी। उसकी बातों से मैं बहुत आहत हुआ था।
मैंने उसके मुंह पर ही सुन्दर हिडिम्बा को गाली देते हुए कहा, ''उनसे कहो एक बार मुझसे मालिश करा लें। मैं उनका हर तरह का, सारा दर्द हमेशा के लिए ठीक कर दूंगा।''
यह सुनते ही छब्बी मेरे ही ऊपर एकदम से भड़क उठी। तमककर बोली, ''अच्छा! उनकी मालिश करोगे। बहुत लपलपा रही है जबान।'' मैं उसे हक्का-बक्का देखने लगा कि, इसे क्या हो गया है? तभी वह मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ''सुन बड़ा मचल रहा है औरत की मालिश करने को, तो तू सिर्फ़ मेरी मालिश कर। तेरे ये हाथ किसी दूसरी औरत के नंगे बदन को छुएं, यह मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगी। मैं तुझे छोड़ूंगी नहीं यह साफ बता दे रही हूं।''
अपने प्रति उसका यह लगाव,अधिकार देख कर मैं भावुक हो उठा। क्षणभर उसकी आंखों में देखा जो भरी-भरी सी थीं। जिनमें खुद के लिए प्यार ही प्यार और उतना ही अधिकार भी उमड़ता देख रहा था। अचानक मैंने भावावेश में आकर उसे बांहों में जकड़ लिया। हम-दोनों उस क्षण डूब जाना चाहते प्यार के सागर में बिल्कुल गहरे, एकदम तल तक। लेकिन तोंदियल रोड़ा बना हुआ था। हम-दोनों को उस पर बड़ी गुस्सा आ रही थी, लेकिन विवश थे। किच-किचा कर रह गए। लेकिन अब सोचता हूँ कि उस बेचारे की भी क्या गलती थी ,अलग हटने के लिए उसके पास भी जगह ही कहाँ थी। उसके अगले दिन छब्बी ने बताया कि, उस दिन मैडम ने मालिश नहीं करवाई। बस कुछ देर हाथ-पैर दबवाए थे। 
समीना मैडम के यहां फिर ऐसे ही समय तेजी से निकलता जा रहा था और आगे होने वाली वह हाहाकारी घटना भी करीब आती जा रही थी, जो मेरी, छब्बी की दुनिया ही पलट कर रखने वाली थी। जल्दी ही गर्मी की छुट्टियों में मैडम साहब के साथ घूमने स्पेन चली गईं। वहीं उनको यह भी मालूम हुआ कि,दर्द से आराम के लिए जिस मालिश की खोज में वो मलेशिया,इंडोनेशिया,स्पेन घूम रही थीं , उससे हज़ार गुना ज्यादा प्रभावकारी, आयुर्वेदिक मालिश,चिकित्सा तो देश में ही होती है। जो वास्तव में शरीर के रोग को दूर करने की पूर्ण चिकित्सा के लिए ही होती है न कि, काम-वासना के दिवास्वप्न ( फैंटेसी ) में डुबकी लगाने, मजा के लिए। केरल,तमिलनाडु तो इसके लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।
क्षद्म मालिश से अपने को ठगा हुआ महसूस करती सुन्दर हिडिम्बा मैडम स्पेन से आने के कुछ महीने बाद ही केरल गईं। उसके बाद वहीं का तेल मालिश के लिए छब्बी को देतीं  रहीं। समीना सच यह है कि, यह लोग जब घूमने जाते थे, तब भी व्यवसाय का पिंड छोड़ते नहीं थे। जितना घूमने-फिरने में खर्चा होता था, उससे कहीं ज़्यादा कमा भी आते थे। स्पेन जाते समय मैडम ने तोंदियल को भी छुट्टी दे दी थी कि, वह अपने घर हो आए। करीब दो वर्षों से वह घर नहीं गया था। 
समीना इस तरह वहां काम शुरू करने के लगभग नौ-दस महीने बाद जब यह मौका आया तो मैं अंदर ही अंदर खुशी के मारे एकदम फुटेहरा हो गया था, छब्बी भी। जाहिर है सिर्फ़ इसलिए कि, तोंदियल नाम का जो कंकर हमारे उसके बीच में है, वह इतने दिनों तक नहीं रहेगा। मैडम भी नहीं रहेंगी, और हम-दोनों इस पूरे समय इस शानदार घर में खूब ऐश करेंगे। लेकिन मेरी ऐसी सोच पर सुन्दर हिडिम्बा ने ढेरों पानी उड़ेल दिया। मैडम के जाने के एक दिन पहले ही तोंदियल चला गया, और मैडम ने जाते समय किचेन, उससे लगी लॉबी, बॉलकनी में खुलने वाले दरवाजे के अलावा सब बंद कर दिया। हम लॉबी, किचेन ही प्रयोग कर सकते थे।
इसके अलावा यह भी व्यवस्था बनी रही कि, हम उनकी जानकारी, इच्छा के बिना कहीं जा नहीं सकते। मैडम साहब के यहां किसी को यह काम दे गई थीं। वह फ़ोन के जरिए, वॉचमैन के जरिए बराबर हम पर नज़र रखें थीं। खैर सब-कुछ मन का नहीं हुआ लेकिन कुछ ऐसा ज़रूर हुआ कि, हम-दोनों को जीवन में तब कुछ खुशी मिली। हमने ज़्यादा से ज़्यादा उसे समेटने की कोशिश की। इसके बावजूद कि, हर दो-तीन घंटे पर साहब के यहां से फ़ोन आता था कि, क्या कर रहे हो ? कहां हो ? इतना ही नहीं, कोई न कोई आदमी दिन-भर में एक बार ज़रूर आता था। हम-दोनों भी इन आने वालों के सामने एक दूसरे से ऐसे दूरी बनाए रखते मानो हम एक-दूसरे को देखना भी नहीं चाहते। नीचे ऑफिस में मैडम का स्टॉफ रोज की तरह काम करता था। हम-दोनों का दिन में काफी समय नीचे ऑफिस में ही बीतता था। 
जिस दिन मैडम गई थीं, उस दिन मैं, छब्बी रात बारह बजे तक या तो टी.वी. देखते रहे या बॉलकनी में बतियाते रहे। रह-रह कर हम-दोनों बड़े रोमांटिक हो जाते। मगर इस डर से दूर रहे कि, कहीं मैडम यह कहते हुए न आ जाएं कि, जाना कैंसिल हो गया या फ्लाइट कैंसिल हो गई। या फिर ऐसा ही कुछ और। जब हमें यह विश्वास हो गया कि अब ऐसा कुछ नहीं हो सकता, तब हमारी बातें रोमांटिक से ज़्यादा चुहुलबाजी भरी हो गईं । 
मैं रह-रह कर छब्बी को अपनी तरफ खींच लेता, बांहों में कस लेता। जल्दी ही वह भी यही सब करने लगी। उसकी आंखों, बहुत से और व्यवहार से जब काम की मादक खुशबू मेरे नथुनों को मदमस्त करने लगी , तो कैमरों के डर के कारण हम बॉलकनी में ही एक दूसरे से गुंथ गए। बहुत देर तक एक-दूसरे को प्यार करते रहे। 
समीना मैंने छब्बी से पहले बहुत सी औरतों से सम्बन्ध बनाये थे, लेकिन जैसी सुख, संतुष्टि, उस दिन छब्बी के साथ मिली ,वैसी उसके पहले कभी नहीं मिली थी। पहले जिन भी औरतों से सम्बन्ध बने थे , उन सब में जहां सब कुछ मशीनी लगता था। औरतें जहां यह अहसास देती थीं कि, पैसा मिला है, तो काम करना है, वहीं छब्बी में प्यार की ज्वाला की तपिश में तपने के साथ ही, प्यार, मनुहार, लगाव की शीतलता, मन को मदहोश करने वाली छुअन थी। 
बॉलकनी में जब हम-दोनों पहली बार प्यार के शिखर से धरातल पर आए तो, सोचा कहीं दूर किसी बिल्डिंग से हम किसी के द्वारा देखे तो नहीं गए। हमारी बदकिस्मती देखो समीना कि, हमें उस घर में, ढंग का एक कोना भी नहीं मिला था, जहां हम निश्चिन्त होकर मन-भर कर प्यार कर सकते।
मन में ऐसी आशंका के आते ही हम दोनों ने तय किया कि, मैडम नाराज हों या नौकरी से निकाल दें। प्यार हम-दोनों का व्यक्तिगत मामला है, हम चाहे जो करें। हम बालिग हैं । उन्हें अपने काम से मतलब होना चाहिए। अब हम जानवरों की तरह ऐसे खुले में नहीं मिलेंगे। छब्बी ने इसका हल अपनी तरह से यह निकाला कि, बॉलकनी में ही अपना बिस्तर लगाएंगे। और लाइट ऑन रहने पर मैं बॉलकनी में चला जाऊं। फिर वह दिखाने के लिए दरवाजा बंद करेगी फिर दूसरे कोने की फुट लाइट ऑन करेगी। उसके सामने कोई सामान रख देगी। जिससे लाइट और कम हो जाए। फिर मैं भी बॉलकनी से अंदर आ जाऊँगा। हमने खुद को समझाते हुए यह भी बात की, कि मैडम को भी ऐतराज नहीं होगा, क्योंकि यदि होता तो वह ऐसा इंतजाम करतीं की हम मिल ही ना पाते।
यह बात तो वह आसानी से समझ ही रही होंगी कि, जब घर में औरत-मर्द अकेले रहेंगे, सोएंगे तो प्यार भी होगा ही, यह एक स्वाभाविक काम है। हम-दोनों ने अपनी सुविधानुसार अपने लिए जो सही हो सकता था, वैसी ही सारी बातें सोची और कीं। मन में यह बातें आते ही योजना फिर बदल गई, और फिर हमने बिना किसी हिचक,डर के लॉबी में ही लगा लिया अपना बिस्तर। तब हम-दोनों ऐसा महसूस कर रहे थे जैसे कि, किसी कैद से न जाने कितने वर्षों बाद आज़ादी मिली है। उस रात हम-दोनों  बतियाते रहे, करीब दो-ढाई बजे तक। प्यार की दुनिया की दो बार सैर कर लौटे, तो हमें लगा मानो हमसे सुखी इंसान दुनिया में कोई है ही नहीं। छब्बी मेरे सीने में ऐसे दुबक जाती थी, जैसे कोई छोटा बच्चा मां की छाती से चिपका सो रहा होता है।
उस रात अमूमन मस्त दिखने वाली छब्बी ने तमाम ऐसी बातें बताईं जो बरसों से उसकी छाती में समाई हुई थीं। वह बातें बता-बता कर कई बार रोई। उसने बताया कि, ' हम सात भाई-बहन थे। जिनमें से एक बहन एवं एक भाई दवा, खाने-पीने के अभाव में बचपन में चल बसे थे। मां और सारे बच्चों ने बड़े कष्ट उठाए हैं। बाप ने अपनी जिम्मेदारी सिर्फ़ इतनी निभाई कि, साल दर साल एक-एक कर सात बच्चे पैदा कर दिए। उनकी सारी कमाई-धमाई केवल अपने शराब के लिए होती थी। बच्चे भूखे मरें या कुछ भी हो उनसे कोई मतलब नहीं था। यहां तक की पी कर मां-बच्चों सबको पीटते थे।
मां चौका-बर्तन करके जो पैसे कमातीं, दारू के लिए वह उनको भी छीन लेते। यहां तक कि मां को गर्भावस्था में भी मारते-पीटते थे। शराब के चलते वह इतना नीचे गिर चुके थे कि न दिन देखते, न रात, न बच्चे, न मां की गर्भावस्था। बस वासना का भूत सवार होते ही टूट पड़ते थे, जिससे खूब झगड़ा होता। आए दिन पड़ोसी आकर शांत कराते। अक्सर ऐसे में वह पड़ोसियों से भी भिड़ जाते और मार खा कर सो जाते। 
दयनीय हालत के चलते किसी भी भाई-बहन की पढ़ाई-लिखाई भी अच्छे से नहीं हो पाई। सरकारी स्कूलों ,सरकारी मदद से जितना पढ़ा जा सकता था ,सारे बच्चों ने उतनी पढाई पूरी मेहनत ,ईमानदारी से की। लेकिन घर की दयनीय स्थिति के चलते, समझदार होते-होते सभी कमाने-धमाने के लिए विवश हो गए। इसलिए सरकारी बैसाखी पर चल रही सबकी पढाई और कमजोर हो गई। बड़ा भाई जब चौदह-पंद्रह का हुआ तो मां को कुछ राहत मिली। वह धीर-गंभीर ही नहीं, मां, हम-सब को प्यार भी बहुत करता था।' 
समीना, छब्बी बीते दिनों को इतनी गहराई में उतर कर याद करती थी कि, सुनने वाले को खबर भी नहीं हो पाती थी कि, वह भी कब उसके साथ उसी गहराई में उतर गया है। मैं भी उसी की तरह उसी की यादों में खोया उसे सुन रहा था। बड़े क्षोभ के साथ उसने बताया कि, 'एक दिन उसके सामने बाबू मां को गंदी-गंदी गालियां देते हुए मारने लगे, तो उसने मां को बचाने की कोशिश की। इस पर बाबू उसे भी गंदी-गंदी गालियां देने लगे, मां के चरित्र पर लांक्षन लगाते हुए उन्हें रंडी, छिनार जैसी घिनी-घिनी गालियां देना शुरू कर दिया, तो भाई से बर्दाश्त नहीं  हुआ। उसने पास ही पड़े भगोने से बाबू को कस कर पीट दिया। नशे के कारण वह संभल नहीं पाए और गिर गए। बगल में पड़े तखत के किनारे से टकराने के कारण उनका सिर फट गया। खून से चेहरा रंग गया। इस पर मां ने भाई को पीट डाला कि, उसने बाप पर हाथ क्यों उठाया। फिर उनकी मरहम-पट्टी कराई गई।
लेकिन इसी बीच एक तमाशा और हुआ कि, भाई इन सब से गुस्सा होकर घर से भाग गया। हफ्ते भर बाद घर से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर स्थित एक मंदिर के पुजारी उसे लेकर आये । भाई भाग कर उस मंदिर के बरामदे में रुका था। भूख-प्यास थकान से पस्त वह रात भर वहीं लेटा था। सुबह पुजारी जी आये तो देखा कि, लड़का तेज बुखार, भूख-प्यास  से इतना पस्त है कि, उसका चलना-फिरना कठिन है। 
उस पवित्र आत्मा पुजारी ने न सिर्फ़ भाई की सेवा-सुश्रुषा की,बल्कि हफ्ते भर अपने साथ रख कर खूब समझाया-बुझाया। जो हमेशा के लिए घर से भागा था,उसे वापस घर ले आए। और घर पर बाबू को भी ऐसा समझाया कि उन्होंने पैरों में गिरे बेटे को माफ़ कर गले से लगाया ,बाप-बेटे ने खूब आंसू बहाये,आश्चर्य तो यह कि बाबू ने पुजारी जी के सामने ही हाथ जोड़ कर अपनी गलतिओं के लिए मां से क्षमा मांगी।
पुजारी जी को खुद चाय-नाश्ता कराया,और दूर तक उन्हें छोड़ने भी गए। इसके बाद उन्होंने कई महीने तक शराब को हाथ नहीं  लगाया। लेकिन उसके बाद कभी-कभार फिर पीने लगे, तो मां ने कहा, ''चलो पहले की तरह रोज पी कर झगड़ा नहीं कर रहे यही बहुत है।'' मगर मां तमाम समस्याओं के कारण टूटती जा रही थीं। हालांकि इस बीच पुजारी जी के सहयोग से भाई ने मंदिर के प्रांगण में ही फूल-प्रसाद आदि की छोटी सी दुकान खोल ली थी। लेकिन मेरी अभागी, दुखियारी मां को एक के बाद एक मेरी तीनों बहनों ने ऐसी चोट पहुंचाई कि, वह देखते-देखते छह-सात  साल में चल बसीं। 
तीनों बहनें साल भर के अंदर ही कुछ-कुछ महीने के अंतराल पर अपने प्रेमियों के साथ भाग गईं। पुलिस-फाटा सब हुआ। हर बार मां को मुंह की खानी पड़ी। बाबू ठूंठ से सब देखते रहते थे, कुछ भी नहीं करते थे। उनकी हालत देख कर लगता जैसे उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आता, कि उन्हें क्या करना है। शराब ने उन्हें किसी लायक नहीं छोड़ा था। 
इन बहनों के चक्कर में बार-बार थाने के जो चक्कर लगे, उससे एक समस्या और खड़ी हो गई। पुलिस भाई को भी परेशान करने लगी। आए दिन फंसा देने की धमकी। एनकाउंटर की धमकी। पैसा देने के लिए प्रताड़ित करना। इतना ही नहीं मां को लगा कि, पुलिस की नज़र मुझ पर है, तो किसी तरह उन्होंने उनसे पीछा छुड़ाया। भूल गईं अपनी तीनों लड़कियों को । लड़कियों से उनको इतनी घृणा हो गई थी कि, मुझे बात-बात पर गरियाती ही नहीं थीं, बल्कि पीट भी देती थीं। आनन-फानन में बीस की उमर में ही भाई की शादी कर दी। मां का सौभाग्य रहा कि भाई और भाभी ने मां की उम्मीद से कहीं ज़्यादा घर को संभाला।
मगर मां के मन में  लड़कियों के भागने की जो फांस फंसी थी वह नहीं निकली, मुझ पर हर समय उनकी कड़ी नज़र रहती। जल्दी ही जी-तोड़ कोशिश करके उन्होंने मेरी सत्रह की उमर में ही शादी कर दी।
जिससे शादी की, वह उम्र में मुझसे दस साल बड़ा था। इतना ही नहीं उसकी यह दूसरी शादी थी। उसने बताया था कि, उसकी पत्नी का शादी से पहले ही किसी से रिश्ता था, और शादी के बाद वह मौका पाकर प्रेमी संग भाग गई। इन सबके बावजूद मैंने मां के निर्णय का विरोध नहीं किया। अपनी बहनों की तरह मैं उन्हें कोई दुःख नहीं देना चाहती थी। मगर मेरे हर समझौते के बावजूद यह शादी मां ,मेरे पूरे परिवार,मेरे लिए एक बड़ी विपदा के रूप में आई। 
उस आदमी की पत्नी क्यों भागी थी, इसका सही राज मुझे शादी की पहली रात को ही पता चला। वह एक नपुंसक आदमी था। आखिर एक नपुंसक के साथ वह कैसे रहती? सोने पे सुहागा ये, कि अपनी इस कमी को वह अप्राकृतिक यौन संबंधों के जरिए दूर करने का प्रयास करता था। मेरी पहली रात मुझ पर अंगारे बन कर बरसी। हर तरह से डरी सहमी, मैं उस रात उसके अमानवीय कू-कृत्यों का शिकार हुई। उसने जो-जो कर्म मेरे साथ किया, कराया वह ऐसा भयानक नर्क था, जिसे याद कर मैं आज भी सिहर उठती हूं।'
समीना तब छब्बी ने तमाम ऐसी बातें बताईं, जिसे सुनकर मेरा भी मन घृणा से भर उठा था । उसने बताया कि, 'ससुराल वालों के कड़े पहरे के बीच मैं चार दिन वहां रही,चारों दिन तन-मन से विकृत ,बीमार उस आदमी के साथ नरक भोगा। सास बार-बार यही समझाती कि, '' इसी के साथ ज़िंदगी निभाना है, अब कहां जाएगी। मैं दवा करा दूंगी सब ठीक हो जाएगा।'' लेकिन मैं जानती थी, कि यह सब झूठ है, कुछ नहीं होने वाला। मेरी आत्मा तो उस समय और कांप उठी जब उसके छोटे भाई को खुद के पास मंडराते, ऊल-जुलूल हरकतें करते, और सास,नन्द को उसका समर्थन करते देखा। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी,मैंने सोच लिया कि अगर इसने मुझे हाथ लगाया तो आत्महत्या कर इन सबको भी फांसी पर चढ़वा दूंगी,सब लिख कर जाऊँगी।
घर-भर की सह का परिणाम था कि उसने दूसरे दिन शाम को ही मुझे एक कमरे में खींचने की कोशिश की। अंदेशा पहले से था, मैं सतर्क थी, तो उसका हाथ लगते ही न सिर्फ पूरी ताकत से बचाओ-बचाओ चीखने-चिल्लाने लगी, बल्कि उससे पूरी ताकत से भिड़ गई। लेकिन वह ताकतवर था, तो उसने जकड़ लिया मुझे,मगर मेरा चीखना बंद नहीं करा पा रहा था। पूरा घर इकट्ठा हो गया, मेरा मुंह बंद कर-कर के मेरी आवाज़ बंद की गई।
मैं पुलिस में जाने की जिद पर अड़ गई तो उन सब के हाथ-पाँव फूल गए। दो दिन बाद जब भाई विदा कराने पहुंचा तो सब के सब झूठ बोलने लगे कि, हमारे यहाँ साल भर बाद ही विदा करने की परम्परा है। मैं उन सब की साजिश पहले ही जान चुकी थी कि, सालभर में देवर से ही किसी तरह बच्चा पैदा करवा दिया जाएगा तो अपने आप ही बंध जाएगी।
पूरा परिवार भाई पर ऐसा पिल पड़ा कि वह उनकी साजिश को सही समझ कर बिना मुझे लिए ही लौटने को तैयार हो गया। मैंने देखा परिवार के एकदम हावी होने से वह डर भी गया है ,इसलिए अपनी बात कह नहीं पा रहा है। यह देख कर मैंने सोचा कि अगर मैं चुप रही तो यहीं नरक में पड़ी रह जाऊँगी। इनका प्लान तो साल भर का है ,लेकिन यह नर्क मुझे दो-चार दिन में ही मार देगा। मैंने भाई से साथ ले चलने की जिद पकड़ ली, तो पूरा परिवार मुझे खींच कर भीतर ले जाने लगा। सब दांत पीस-पीस कर मुझे एकदम कुचल ही देने पर आमादा थे ,भाई की आँखों में विवशता ,आंसू देख कर मैं यह सोच कर खूब जोर-जोर से चीखने चिल्लाने, मोहल्ले वालों को आवाज देने लगी कि ,जब सब इकट्ठा हो जाएंगे तभी आज इस नर्क से मुक्ति मिलेगी। मेरी कोशिश रंग लाई ,देखते-देखते पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया कि हफ्ता-भर भी नहीं हुआ शादी को और यह चीख-पुकार कैसी? सबके आ जाने से भाई की हिम्मत बढ़ी तो उसने सारी बात कह दी। मोहल्ला लगा थू-थू करने तो मजबूर होकर उन सब ने भाई के साथ जाने दिया। लेकिन मेरा सारा सामान ,गहना यहाँ तक कि पायल ,बिछिया तक उतरवा ली।          
भाई किसी तरह घर ले आया। रास्ते भर अपनी फूटी किस्मत पर मेरी आँखें बरसती रहीं।भाई की भी बार-बार गीली हो रही थीं। वह मुझसे जानना चाहता था कि मैं इतना ज्यादा क्यों झगड़ रही थी। पहले मैं संकोच में टाल रही थी, लेकिन जब ज्यादा पूछा, तो कुछ बातें मैंने  बता दीं,सुन कर वह भी हक्का-बक्का हो गया,गुस्से से कांपने लगा कि कमीनों ने इतना बड़ा धोखा दिया। 
घर पर मां को देखते ही मैं फूट-फूटकर रो पड़ी। भोगे हुए नर्क के बारे में बता दिया। सुनते ही मां पछाड़ खाकर गिर पड़ीं । फिर दो दिन भर्ती रहीं हॉस्पिटल में। उन्होंने मुझे फिर वहां नहीं भेजा, उन सबकी लाख कोशिशों के बाद भी।
इस पर वह सब अपने पैसे, अपनी दबंगई पर उतर आए। बार-बार घर आकर धमकाने लगे। एक बार बात ज़्यादा बढ़ गई। मुहल्ले वाले भी आ गए। पहले तो मां ने, हमने सच  छिपाना चाहा, लेकिन जब मुहल्ले की महिलाओं ने यह कहना शुरू किया कि, ''अरे शादी की है तो भेजती क्यों नहीं? रोज-रोज तमाशा करके मुहल्ले वालों का जीना क्यों मुहाल कर रखा है?'' जब एक तरफ से सब यही चों-चों करने लगीं तो मां ने उन्हें अपने ढंग से समझाने की कोशिश की, लेकिन कोई भी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। इससे ससुराल वालों का मन बढ़ने लगा। बात बिगड़ते देख भाई से न रहा गया उसने सच भाख दिया। फिर तो मुहल्ले वालों ने उल्टा उन सब को घेर लिया। इस पर वह सब दुम दबाकर भाग लिए।
अगले दिन मुहल्ले के एक पड़ोसी आए। उन्होंने हमारे घर के लिए जो कुछ किया उसे हम-सब कभी नहीं भूल सकते। वो किसी बड़े वकील के यहां मुंशीगिरी या टाइपिस्ट का काम करते थे। पहले उन्होंने हम सबसे एक-एक बात पूछी, हमारे संकोच को देखकर कहा, '' कुछ छिपाना नहीं। मैं तुम लोगों से कोई पैसा नहीं चाहता। मदद करना चाहता हूं। तुम्हें हर्जा-खर्चा दिलवा दूंगा। इसके लिए कोई मुकद्दमा वगैरह भी नहीं करूंगा, बस मैं जो कहूं वह करना।'' इसके बाद उन पड़ोसी ने उन लोगों से बात की। धोखा दे कर शादी करने ,अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने, देवर से सम्बन्ध बनाने को विवश करने,दहेज़ के लिए जान से मारने की कोशिश, घर आकर गुंडागर्दी करने, जान से मारने की धमकी देने आदि के आरोप में घर-भर को बंद कराने की धमकी दी। पहले वह सब तन-तनाए, लेकिन भाई, मुहल्ले के कई लोगों के यह कहने पर कि, तुम-सब के खिलाफ अकाट्य प्रमाण हैं, पूरा मुहल्ला गवाही देगा। यह सुनकर उन सब की हालत खराब हो गई, समझौता करने के लिए हाथ-पैर जोड़ने लगे ,तब उनसे सारा सामान वापस लिया गया। पूरा दबाव डालकर उन पड़ोसी ने हर्जा-खर्चा सब मिला कर छह लाख कैश भी लिया। साथ ही मां को सलाह भी दी कि, '' यह पूरा पैसा लड़की के नाम एफ.डी. कर दो और ब्याज लेती रहो। इससे कम से कम लड़की के रोटी-दाल में कुछ तो मदद मिलेगी।'' मां ने उन भले पड़ोसी रघुवर जी को कुछ पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया, '' हमने पड़ोसी  धर्म निभाया है बस।'' मगर उन्हीं में एक पड़ोसी ऐसा भी था, जो एकाध-बार साथ देने की कीमत मेरे तन को भोग के वसूलना चाहता था। हर समय मुझ से अकेले मिलने का मौका तलाशता था।
पहले तो मैं  समझ नहीं पाई, लेकिन जब जल्दी ही गलत ढंग से छूने ,पकड़ने की कोशिश करने लगा तब उसकी मंशा समझी,और फिर समझते ही मैंने उसे धिक्कारते हुए कहा, '' बाप की उमर के हो और मुझ पर ऐसी नज़र रखते हो। आज के बाद मेरे सामने भी न पड़ना, नहीं तो मैं चिल्ला कर पूरा मोहल्ला इक्ट्ठा कर लूंगी।''
मैंने घर में मां-भाई को भी बता दिया। उन लोगों ने भी उन्हें अलग बुला कर खूब टाइट किया। अब तक रोज-रोज, लड़ाई-झगड़े, तमाम दुश्वारियों का सामना करते-करते हम सब निडर हो गए थे। यह भी समझ गए थे कि, इस दुनिया से कैसे पार पाना है। मां ने सीधे कहा, '' दुबारा मेरी लड़की की तरफ आंख भी उठाई तो बलात्कार करने की कोशिश की रिपोर्ट लिखाऊंगी। पुलिस तुम्हारी तो खाल खींचेगी ही, साथ ही तुम्हारी बीवी, बेटियों के भी सारे कपड़े खींच लेगी।'' मां का यह रौद्र रूप देख कर सिर्फ़ वह पड़ोसी ही नहीं, हम भाई-बहन भी सहम गए थे। सच ही है कि, परिस्थितियां आदमी को मोम से चट्टान,चट्टान से मोम भी बना देती हैं। मैं भी मोहल्ले में धीरे-धीरे एक खुर्राट लड़की के रूप में जानी जानी लगी।
मगर यह समाज तो विधवा, परित्यक्ता महिला को लावारिस पेड़ पर लगा एक ऐसा फल मानने लगता है, जिसे जो जब चाहे तोड़ कर खा ले। कुंवारी लड़कियों से भी कहीं ज़्यादा बदतर होती है इनकी हालत। मैं परित्यक्ता ही थी, सब यही मानते थे। और मुंह मारने के लिए न जाने कितने लबर-लबर करते मंडराते रहते थे। हालत यह हो गई कि, बिना जरूरी हुए मैं घर से बाहर न निकलती। कोई आता तो उसके सामने भी नहीं जाती। इस कठिन समय में मां से ज़्यादा मुझे भाभी का सहयोग मिला।'
समीना इसके बाद छब्बी ने और तमाम ऐसी बातें बताईं, जो मेरे जैसे कठोर आदमी को भी भावुक कर दे रही थीं। बरसों उसने कैसे घुट-घुट कर जीवन बिताया, कहां-कहां ठोकरें खायीं, कई बार कैसे खुद फिसलते-फिसलते बची, मां-बाप के गुजरने के बाद कैसे उसकी हालत और भी बदतर हुई,और फिर उसके बाद दिल को एकदम झकझोर देने वाली एक घटना उसके साथ कैसे हुई? उसने बड़ी गहरी सोच में डूबते हुए कहा , ' एक बार घर पर, दूर के रिश्ते का फुफेरा भाई, जो मेरी ही उमर का था, आकर रुका। दो-चार दिन बाद उसने  भाई से कहा कि, '' कब-तक हम-लोग ऐसे छोटे-मोटे काम धंधे में ज़िंदगी खपाते रहेंगे, चलो मुंबई चलते हैं, वहीं कमाते हैं। किस्मत, मेहनत साथ दे गई, तो वहां आदमी बनते देर नहीं लगेगी।'' पहले तो भाई ने मना किया, लेकिन पैसे की चमक के चलते अंततः वह मान गए। हर तरह से जितना हो सकता था, पैसा इकट्ठा कर फुफेरे भाई के साथ वह, भाभी, मुझको लेकर देवी मुम्बाआई की नगरी मुंबई आ गए।
फुफेरे भाई ने कुछ चीजें पहले से ही साध रखी थीं। उसके मुहल्ले का एक आदमी था यहां, उसी के जरिए एक चाल में रहने, फिर काम का भी जुगाड़ हो गया। काम शुरू करने से पहले सब लोग सिद्धि विनायक मंदिर जाकर भगवान गणपति के दर्शन भी कर आए। देवी मुम्बाआई के  मंदिर जा कर वहां भी शीश नवा आये। 
शुरुआत ठीक रही, दोनों को भायखला में एक छोटी सी होजरी कंपनी में काम मिल गया। भाभी और हमने दो बड़े घरों में काम ढूंढ़ लिया। हम चारों की कमाई घर पर होने वाली कमाई से काफी ज़्यादा थी। आगे की योजना यह थी कि चौपाटी बीच पर खाने की चीजों के दो ठेले लगाएंगे। जिनमें एक नॉनवेज का होगा दूसरा वेज का।
नॉनवेज में बोनलेस चिकेन को मासलेदार बेसन में डीप फ्राई कर देशी, तीखी इमली की चटनी में दिया जाएगा। वेज ठेले पर उड़द की दाल के बड़े खट्टी-मीठी दही में दिया जाएगा। बीच पर आने वालों को यह देशी तड़का जरूर भाएगा। यह फुफेरे भाई की योजना थी, जो हम सबको सही लग रही थी। सभी लोग जल्दी-जल्दी से पैसा इकट्ठा करके काम शुरू करने की कोशिश करने लगे। काम भर का पैसा इकट्ठा भी हो रहा था। तीन महीने में ही खूब कंजूसी करके अच्छी-खासी रकम इकट्ठा हो गई थी।
इसी बीच आई एक भयानक विपत्ति ने पलक झपकते ही सब-कुछ एकदम उलट-पुलट कर रख दिया। भाभी के घर से एक मनहूस खबर आई। उनके मां-बाप, भाई-भाभी और बच्चे, एक पूजा स्थल के वार्षिक मेले में गए थे। लौटते समय ड्राइवर को न जाने क्या हुआ कि, एक ट्रक से आमने-सामने की टक्कर हो गई। जिससे मां-बाप की तो मौके पर ही मौत हो गई और बाकी सब बुरी तरह घायल हो गए। 
सूचना मिलते ही भाई-भाभी चले गए। हड़बड़ी, घबराहट, भाभी की अंदर तक बेध देने वाली रुलाई ने हमें कुछ सोचने-समझने का मौका ही नहीं दिया। सूचना मिलते ही सब लोग अपने-अपने काम से दोपहर से पहले ही लौट आए थे। भैया-भाभी के जाने के बाद मैं दिन भर रोती पड़ी रही चाल में। एक साथ इतनी बड़ी मुसीबत से कलेजा फट गया था, मन में यह भी बार-बार आ रहा था कि, भगवान कभी हमारे परिवार की पलभर की खुशी क्यों नहीं देख पाते। कितनी उम्मीदों के साथ पैसा इकट्ठा किया जा रहा था। वह सारे पैसे पल-भर में निकल गए। लेकिन तब भी मुझे अहसास नहीं था कि मुझ पर अभी और जो विपत्तियां आने वाली हैं, यह सब तो उसकी शुरुआत भर है।
उस रात को कुछ भी बनाया-खाया नहीं। फुफेरा भाई जो भाई को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने गया था, वह रात करीब नौ बजे जब लौटा तो किसी ढाबे से खाना भी ले आया था। 
उसी की बहुत जिद पर थोड़ा-सा खा सकी। जमीन पर बिछे बिस्तर पर लेटी थी। ज़िंदगी के एक-एक कठोर पल याद आ रहे थे। मां-बाप, जीवन का सबसे बड़ा धोखा शादी। यह सारी बातें रह-रह कर आंखों में आंसू भर देतीं , जो पलकों की कोरों से धीरे-धीरे ढुलक कर कानों को भी भिगो रहे थे।
फूफेरा भाई खा-पी कर एक कोने में ऐसे सो गया था जैसे घर में कुछ हुआ ही नहीं। मैं ऐसे ही रोते-कलपते बहुत देर रात तक जागती रही। गला सूखता महसूस हुआ तो उठ कर पानी पिया और फिर लेट गई। इसके बाद न जाने कब नींद आ गई। यह नींद तब खुली जब मेरी उजाड़ सी थोड़ी-बहुत बची दुनिया भी लुटने वाली थी,और मैं विवश कुछ नहीं कर सकती थी, सिवाय खुद के लुटने की पीड़ा से आंसू बहाने के।
रात करीब दो बजे मुझे लगा मानो मेरे पेटीकोट का नारा किसी ने खर्र से खींच कर खोल दिया है। नींद में ही मेरा हाथ पेट पर पेटीकोट की तरफ बढ़ा ही था कि, मुझे मानो हज़ार वोल्ट का करंट लगा। मेरे हाथ पेटीकोट को छू ही पाए थे कि, किसी ने बिजली की तेज़ी से उसे मेरे तन से खींच कर अलग कर दिया। मेरे मुंह से उतनी ही तेज़ चीख भी निकली, लेकिन ठीक उसी तेजी से एक सख्त हाथ ने मुंह दबा दिया। इतना कस के दबाया कि, मेरी चीख मुंह में ही घुट कर रह गई। जिस तेज़ी से मुंह पर हाथ पड़ा था, उसी तेज़ी से पूरा मानव शरीर मेरे तन को दबोच चुका था। मैं छटपटा भी नहीं पा रही थी। उस मजबूत इंसान के शिकंजे में मैं पूरी तरह जकड़ चुकी थी। 
मैंने छोटे से बल्ब की टिम-टिमाती रोशनी में उस आदमी को जब पहचाना, तो मेरे होश उड़ गए। मुझे लगा मानों पूरी दुनिया मुझ पर टूट पड़ी है। पूरी दुनिया ही मुझे नोच रही है। विश्वास का ऐसे भी खून होगा, यह मैं कल्पना भी नहीं कर पाई थी। सोते में मेरे तन को उघाड़ कर, उसे मेरा फुफेरा भाई ही दबोचे हुए था।
पीठ में उसने ऐसा छूरा घोपा था कि मैं हतप्रभ थी, विरोध ही भूल गई, एकदम निर्जीव सी उसके नीचे पड़ी रही कुछ क्षण। वह भी पूरा बदन उघाड़े था। मेरे तन पर सिर्फ़ ब्लाउज ही था। तंद्रा वापस आते ही जब मैं फिर तड़पी बिल-बिलाई, तो उसने रसोई वाला चाकू मेरी गर्दन पर रख दिया। और एक-एक शब्द चबाते, राक्षस की तरह आंखें निकालते हुए बोला, ''जरा भी आवाज़ निकाली तो गर्दन रेत दूंगा।'' डर के मारे मुझे पूरी चाल ही घूमती सी लगने लगी।
उसने जानवरों सा मेरे तन को नोंचना-झिंझोड़ना जारी रखा। जरा भी आवाज़ निकलने पर चाकू की नोंक चुभा देता। जानवरों सा जब अपनी हवस शांत करके वह किनारे बैठा तो भी चाकू पकड़े रहा। दर्द, चोटों से परेशान उससे छूटते ही मैं उठी, कुछ ऐसे जैसे बरसों बाद बेड़ियों से मुक्ति मिली हो। बचपन से ही अपने जिस मान-सम्मान,स्वाभिमान की रक्षा के लिए, हर सांस में लड़ती उसे बचाती चली आ रही थी, उसके इस तरह तार-तार होने से बिला-बिला उठी थी।
उठते ही बिजली की फूर्ती से एक झन्नाटेदार थप्पड़ पास ही बैठे विश्वाश के नाम पर घिनौने कलंक फुफेरे भाई को जड़ दिया। उसने ऐसे हमले की शायद कल्पना भी नहीं की थी, असावधान था सो लुढक गया एक तरफ। मैं उसे और पीटने के लिए झपटी बिना यह ध्यान दिए कि, वह अभी भी चाकू पकड़े हुए है। उसने पल-भर में  संभलते हुए उठ कर मुझे दबोच लिया। उसकी जकड़ में मैं फिर विवश हो गई।
उसने खींच-खींच कर कई थप्पड़ मुझे जड़ दिए। वह इतने तेज़ थे कि मैं एकदम पस्त हो गई। न जाने कितने तारे आंखों के सामने नाच गए थे। सिर, पूरा बदन झनझना गया था। वह मुझ पर अपनी पकड़ और मज़बूत करते हुए मेरे शरीर के पीछे पहुंच गया। उसने दाएं हाथ से शिकंजे की तरह गर्दन जकड़ रखी थी। फिर किच-किचाते हुए गंदी-गंदी कई गालियां दीं। यह धमकी भी कि, अगर मैंने अपनी जबान खोली, अपना विरोध बंद न किया तो वह गला काट देगा। लाश किसी गटर में डाल देगा। और भाई को बता देगा कि वह बिना बताए किसी के साथ भाग गई। 
यह सुनने और गर्दन पर उसके हाथों की जकड़ से मेरा दम घुटने लगा था। मैं एकदम टूट गई और हांफते हुए खुद को उसके ही हाथों में एकदम ढीला छोड़ दिया। इसके बाद उसने, मेरा पेटीकोट, साड़ी मुझे दे दी। मैंने रोते हुए उन्हें जितनी जल्दी हो सका पहन लिया। मुझे उस समय बार-बार बाबू याद आ रहे थे। वह लाख नसेड़ी थे लेकिन रिश्तों के बारे में बड़ा मुंहफट कहते थे कि, ''जोड़े-गांठें के रिश्ते में  कोई गर्मीं नहीं होती ,पानी होता है पानी,कब बह जाए कुछ पता नहीं।'' यह बात वह इसी घिनौने आदमी और इसके परिवार को ही लेकर कहते थे, क्योंकि सच यही था कि ये कोई रिश्तेदार नहीं जोड़े-गांठे रिश्तेवाले ही थे,और बाबू इस परिवार को पसंद नहीं करते थे। जैसे ही मैंने कपड़ा पहना उसने मेरा हाथ पकड़ कर बैठा लिया अपने पास। इस बार उसकी पकड़ में सख्ती नहीं एकदम नरमी थी। बल्कि कहीं अपनापन था। मेरे बैठते ही एक गिलास पानी ले आया। मैंने लेने से मना किया तो अपने हाथों से मुझे पानी पिलाया।
फिर लगा मुझे समझाने। बीच-बीच में बड़ा भावुक हो जाता। इससे मेरी हिम्मत थोड़ी बढ़ी, तो मैं फिर उग्र हो उठी, इस पर वह फिर भड़क उठा। उसकी सारी बातों का एक ही लब्बो-लुआब था, कि वह बरसों से उससे प्यार करता आ रहा है। आज भी उसका ऐसा कोई इरादा  नहीं था। सारी गलती मेरी थी। 
उसने कहा कि, रात जब वह पेशाब के लिए उठा तो मेरे बाल बिखरे हुए थे। आंचल पूरी तरह से शरीर से अलग पड़ा था। जिससे ब्लाउज में कसे मेरे अंग, जिसका कुछ हिस्सा खुला भी था, सांस के कारण उनकी हरकत बड़ी मादक हो रही थी। पेट का भी अधिकांश हिस्सा खुला था। साड़ी बांधने वाली जगह से काफी नीचे थी और पैरों का भी यही हाल था। साड़ी घुटनों से ऊपर खिसक चुकी थी, जिससे मेरी सुडौल जांघें बल्ब की धीमी रोशनी में बड़ी उत्तेजक लग रही थीं। यह सब देखकर ही उसका मन बहक गया। प्यार तो वह करता ही था। लेकिन मैं जानती थी, कि उसकी यह सारी बातें बिलकुल झूठी थीं। कपड़ों को लेकर तो एक सेकेण्ड को मैं घर पर भी लापरवाह नहीं होती थी, तो चाल में ऐसी हालत में कैसे हो जाती। उसके इस झूठ पर मैं फिर उससे भिड़ गई, कुछ देर उससे बहस हुई, लेकिन उस समय वह जबरा था, तो मुझे चुप होना पड़ा। 
इतना ही नहीं, उसने उसी समय यह भी कहा कि, वह मुझसे दो-चार दिन में शादी कर लेगा और कहीं दूसरी जगह चलकर रहेगा। मुंबई इतनी बड़ी है, कौन ढूंढ़ पाएगा। और फिर कोई ढूंढ़ेगा भी क्यों? भाई भी कुछ दिन ढूंढ़-ढान कर शांत हो जाएगा। वह सारी योजना ऐसे बताए जा रहा था, मानो चुटकी बजाते सब हो जाएगा।
जब बात करता तो बड़ा शांत लगता। लेकिन इसके बाद वह रात में दो और बार हिंसक जानवर की तरह मुझ  पर टूट पड़ा। मेरा सारा विरोध उसके सामने एकदम बेकार साबित हुआ। मैं रात-भर इस मौके की तलाश में रही कि, यह कमीना एक बार सो जाए, तो जो चाकू मेरी गर्दन पर रखा था, वही इसकी गर्दन के आर-पार कर दूँ। लेकिन हाय रे मेरी फूटी किस्मत,कहने को भी एक मौक़ा नहीं मिला।'
समीना, छब्बी यह सब बताते-बताते इतना गुस्से में आ गई कि,सारे मर्दों को बलात्कारी कहते  हुए बोली, 'रात भर की इस यातना के बाद जब सुबह हुई तो मैं  कुछ हिम्मत जुटा पाई और पुलिस के पास जाने को हुई, तो वह फिर चाकू तान कर बैठा गया। डराया कि, ''ठीक है, मैं तो जेल चला जाऊंगा। तू अपनी सोच, जब पुलिस वाले ही तुझे रौंदने लगेंगे। कौन तेरी पैरवी करेगा, पहले सब खूब रौंदेंगे, फिर थाने में ही तेरी ही साड़ी से फंदे पर लटका देंगे,मर जाओगी तो चुपचाप कहीं लावारिस लाश की तरह फेंक आएंगे। कभी किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। सच तो यह है कि, पुलिस तुझे पागल कह कर, चार लात और मार कर थाने से ही भगा देगी। वो अपना रजिस्टर क्यों खराब करेगी।''
उसने ऐसी-ऐसी बातें बताईं कि, मेरी आत्मा कांप गई। कहा कि, ''पुलिस वाले रात में बहुत मारते हैं। जितने होते हैं, सब रात-भर बारी-बारी से आकर मारते हैं। कहते हैं कि, सबका हाथ रवां होते रहना चाहिए। औरत हो या आदमी नंगा कर के पहले नितंबों, पैर के तलवों पर लाठी बरसाते हैं। औरतों को तो और पीटते हैं, उनके स्तनों पर जूतों, लाठियों से मारते हैं। दो जूतों के बीच रगड़ कर मिर्च लगा देते हैं। बर्फ के टुकड़ों में पिसी मिर्च लगाकर शरीर  के अंदर डाल देते हैं। लाठियां भी घुसेड़ देते हैं। हो सकता है तुझे फांसी के फंदे पर लटकाने के बजाए, धंधे वाली बता कर गिरफ्तार करें। कह देंगे कि, तुम धंधा कर रही थी, दबिश के दौरान तू पकड़ में आ गई और मर्द निकल भागे।''
उसकी इन बातों ने मुझे एकदम तोड़ कर रख दिया। मेरे पास उसके सामने हथियार डालने के सिवा कोई और रास्ता नहीं था। फिर भी मैंने उम्मीद की लौ बुझने नहीं दी। तय किया कि जैसे ही भाई आएगा वैसे ही इससे बदला लूंगी। इस बीच जितना हो सकेगा इससे बचने की  कोशिश करूंगी। न बच पाऊंगी तो, जैसे इतना रौंदा, वैसे कुछ दिन और सही। पुलिस थाने की जो यातना यह बता रहा है, वैसा ही हो तो आश्चर्य नहीं। घर पर थी तो पुलिस थानों की काफी स्थितियों को जान ही चुकी थी।
यह सब सोचकर, मैं थाने तो नहीं गई लेकिन जिद कर पी.सी.ओ. तक गई कि, भाई की ससुराल के पड़ोसी को फ़ोन कर पता लगा सकूँ कि, भाई-भाभी पहुंचे कि नहीं । लेकिन फ़ोन किसी ने उठाया नहीं। घंटी बजती रही। तब मोबाइल नहीं लैंडलाइन फोन का जमाना हुआ करता था।
मुझे उसने कितना मजबूर कर दिया था, यह तुम इसी बात से समझ लो कि मैं लौट आई फिर उसी जानवर के साथ, उसी चाल में, जहां उसने निर्दयतापूर्वक धोखे से रौंद कर मेरा मान-सम्मान लूट लिया था। जो इतना शातिर, इतना चालाक था कि, पी.सी.ओ. से लेकर चाल तक साए की तरह लगा रहा। कभी उसका चेहरा मुझे लकड़बग्घों सा घिनौना, वीभत्स लगता, भयभीत करता, रोंगटे खड़ा कर देता, तो कभी लोमड़ी सा धूर्त। 
इस काली मनहूस घटना के बाद मेरा समय आंसू बहाते, भाई-भाभी, अम्मा को याद करते बीतता। अम्मा की बरसों पहले कही यह बात बार-बार याद आती कि, ''बिटिया औरत जात हो, ई मर्द लोगों का कोई ठिकाना नहीं। मौका पाते ही लूट लेते हैं, तन-मन सब। इसलिए हमेशा सजग रहो, भूल कर भी किसी मर्द के साथ अकेले न रहो।''
मगर मैं क्या कर सकती थी। करम फूटी थी, हालात ऐसे बन गए थे, कि जो मेरा भक्षक था उसी के साथ रहने की मजबूरी भी थी। ऐसे मजबूरी भरे तीन-चार दिन और बीत गए लेकिन भाई का कोई समाचार नहीं  मिला। रोज फ़ोन करती, मगर घंटी बज-बज कर खत्म हो जाती। फिर एक दिन पी.सी.ओ. वाले ने ही बताया कि, ''लगता है फ़ोन खराब है। ये फॉल्स रिंग मालूम पड़ती है।'' अगले दिन उसकी बात पर ''सही'' का ठप्पा लग गया। जब फ़ोन करने पर सिवाय टूं-टूं के और कोई आवाज़ नहीं आई। इसके बाद पी.सी.ओ. जाना भी बंद हो गया। हालांकि मैं रोज सुबह-शाम कोशिश करते रहना चाहती थी। मगर लकड़बग्घे ने मना कर दिया। यह तो जैसे उसकी मनौती पूरी होने वाली बात हो गई थी। 
पहले हफ्ते हम-दोनों अपने-अपने काम पर नहीं गए। इतने दिनों तक मैंने चाय-नाश्ता, खाना-पीना कुछ नहीं बनाया। पब्लिक नल से एक गिलास पानी तक नहीं लाई। सब-कुछ वह लकड़बग्घा ही करता रहा। यहां तक कि, इस बीच बर्तन तक उसी ने साफ किए। लेकिन इस बीच कोई दिन ऐसा नहीं बीता, जिस दिन उसने मुझे दो-तीन बार रौंदा ना हो। एक तरफ रौंदता तो दूसरी तरफ सेवा करके मानों अपने कुकर्मों  पर पानी डालने की कोशिश करता था। या शायद मेरा दिल जीतने की कोशिश करता था।
मगर उसकी इस हरकत से मेरा दिल जरा भी नहीं पसीजता था। क्योंकि मेरी नज़र में वह वहशी, कामुक, घिनौना लकड़बग्घा था। वह इतना चालाक था कि, इतने दिनों में भी, एक भी ऐसा मौक़ा नहीं दिया कि चाकू मेरे हाथ लगता। यहां तक कि सोने से पहले ऐसी हर चीज को छिपा देता था। इतना ढींठ ,घुटा हुआ था कि, जब आठ-दस दिन में सारे पैसे खत्म होने की स्थित आ गई,तब भी वह परेशान नहीं हुआ। 
जब खाना-पीना भी बंद हो जाने की नौबत आ गई,तब एक रात, अपनी हवस मिटाने के बाद अचानक ही , इधर-उधर की बातें करते हुए बोला, ''ऐसा है कि इतने दिनों से बाहर ठेला बेकार खड़ा है। कल से हम-दोनों बीच पर ठेला लगाते हैं, आइटम वही रखेंगे जिनके बारे में भैया से बात हुई थी।'' मैंने कहा, ''मैं नहीं जाऊंगी।'' तो वह जिद पर अड़ गया। असल में वह मुझे किसी भी सूरत में अकेले नहीं छोड़ना चाहता था। उसकी जिद,जबरदस्ती के सामने मैं फिर हार गई।
इस बार कमजोर पड़ने का एक और कारण यह भी था कि, पैसा, राशन खत्म होने से मैं भी आतंकित थी। मैं जिस घर में काम करती थी, लकड़बग्घा वहां किसी भी सूरत में जाने नहीं दे रहा था। इस बीच मैं आते-जाते समय पी.सी.ओ. पर जरूर जाती, लेकिन फ़ोन था कि डेड ही रहा। आखिर दसवें दिन भैया का एक पत्र मिला, जिसे पढ़ कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। पत्र लकड़बग्घे को न मिल कर मुझे मिला था।
भाई ने जल्दी-जल्दी लिखा था कि, ''तुम-दोनों वहां ठेला वगैरह सब बेच कर वापस आ जाओ। तुम्हारी भाभी के परिवार में केवल उनकी भाभी और  एक तीन साल का बच्चा ही बचा है। मां-बाप, उनका भाई और दो बच्चे एक्सीडेंट के चार दिन बाद ही चल बसे। भाभी अब भी गंभीर हैं । तीन महीने से पहले बिस्तर से उठ पाना भी मुश्किल है। बच्चा भी गंभीर है। अब इस हालत में उन्हें छोड़कर आ पाना संभव नहीं है।''
उन्होंने लकड़बग्घे को यह भी लिखा था कि, ''यदि तुम वहीं रुकना चाहते हो तो ठीक है, तब सामान मत बेचना, बस छब्बी को यहां छोड़ जाओ।'' उन्होंने एक फ़ोन नंबर भी दिया था कि, ''पत्र पाते ही इस नंबर पर फ़ोन करो।'' फ़ोन नंबर पा कर मुझे बड़ी राहत मिली कि, चलो अब बात हो जाएगी। भाई को सब बताकर कहूंगी कि, तुम खुद यहां आकर मुझे ले चलो। उससे पहले इस नारकीय कीड़े, लकड़बग्घे को पुलिस के हवाले करके, इसकी हड्डी-पसली तुड़वाओ, जेल पहुंचवाओ। इसने तुम्हारे साथ, तुम्हारी बहन के साथ विश्वासघात किया है। 
मैंने पत्र को छिपा कर रख लिया कि मौका निकाल कर फ़ोन करूंगी। मगर मेरे भाग्य ने मेरा साथ नहीं दिया। मैंने पत्र को अपने ब्लाउज में खोंस लिया था। मेरी मति ही भ्रष्ट हो गई थी कि, दिमाग में यह नहीं आया कि, जब  वह राक्षस किसी भी समय हवस मिटाने लगता है, कपड़े खींच-खींच कर फेंक देता है, तो ब्लाउज में छिपाया यह पत्र उससे कहां छिप पाएगा। उसी रात वह पत्र उसके हाथ लग गया।
उसे पढ़ कर उसने कहा, ''ठीक है कल फ़ोन करेंगे।'' इस पर मैंने पूछा कि, ''तुम मुझे घर छोड़ आओगे?'' तो वह चुप रहा। तो मैंने कहा, ''तुम नहीं चलना चाहते तो मत चलो। मुझे ट्रेन या बस में बैठा दो, मैं पूछते-पाछते  चली जाऊंगी।'' मैंने यह भी झूठ बोला कि, ''घर में तुम्हारी गलती के बारे में कुछ नहीं कहूंगी।'' यह सुनते ही वह एकदम भड़क कर बोला, ''मैंने कोई गलती नहीं की है। मैं कोई अय्याशी नहीं कर रहा हूं। मैं तुझे प्यार करता हूं, और तुझे अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं। मैं किसी से डरता नहीं। मैं तुझे अपनी बीवी बनाकर रहूंगा। एक-दो दिन में ही तेरी मांग भर दूंगा। शादी कर लूंगा, तभी लेकर  चलूंगा। मैंने कोई चोरी नहीं की जो किसी से डरूं।'' 
इसके बाद उसने पत्र अपने पास रख लिया। लाख हाथ जोड़ने पर भी नहीं दिया। उसने अगले दिन शाम को बताया कि, उसने भाई को फ़ोन कर दिया है कि, किराए के लिए पैसे का इंतजाम होते ही छब्बी को लेकर आएगा। वह किसी भी सूरत में मेरी बात कराने को तैयार नहीं हुआ। दो दिन बाद वह मुझे लेकर बाज़ार के लिए निकला। पहले तो बीच पर ठेला लगाने के लिए जो भी जरूरी सामान चाहिए था, वह खरीदा। फिर मेरे लिए एक सेट अच्छा सा कपड़ा खरीदा। साथ ही अपने लिए भी। श्रृंगार का भी पूरा सामान खरीदा तो मैं कांप उठी कि, यह क्या वाकई मुझसे शादी करेगा। 
मैंने रोकने, सच जानने की कोशिश की तो बिगड़ कर बोला, ''देख तू अब-तक अच्छी तरह यह समझ चुकी होगी कि, मैंने जो तय कर लिया है वह करके रहूंगा। तुम ना मानी तो यहीं बीच सड़क पर काट डालूंगा।'' मैंने सोचा घर पहुंच कर इससे कहूंगी कि शादी नहीं करूंगी। तुझे मुझसे अपनी हवस मिटानी थी, वह तू इतने दिनों से मिटा ही रहा है। अब जब-तक भाई के पास नहीं चलेगा, तब-तक कुछ और मनमानी नहीं करने दूंगी। घर पहुंची तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था कि मैंने रास्ते में शादी करने से इंकार करने की हिम्मत कैसे की?
मेरा गला कसकर पकड़ के वह किच-किचाता हुआ बोला, ''देख मुझे ज़्यादा परेशान मतकर, नहीं तो यहीं, अभी जिंदा जला दूंगा।'' उसके खूंखार चेहरे ने मुझे एकदम तोड़ दिया। लेकिन मैं अब कमजोर नहीं दिखना चाहती थी ,इसलिए गुस्से से कांपती हुई उसे अपनी शारीरिक ताकत का अहसास कराने की भी कोशिश की ।आँखों में आंसुओं को नहीं गुस्से को भरने दिया। इससे वह और गुस्साते हुए मेरा मुंह दबा कर कई गालियां देता हुए बोला, ''सुन, शादी आज ही होगी और यहीं होगी। मैंने कुछ लोगों को बुलाया है, वो हमारी शादी में शामिल होंगे।''
इसके घंटे भर बाद ही उसके तीन दोस्त आए। दो महिलाएं भी थीं । उन दोनों ने मुझे फटाफट तैयार कर दिया। वह कमीना भी अपने लाए नए कपड़े पहन कर तैयार था। उन औरतों ने मेरा श्रृंगार कर एक तरफ बैठा दिया। उसके दोस्त ही खाने-पीने का भी सामान लाए थे। सारी तैयारी हो रही थी कि, तभी  एक और दोस्त, पंडित लेकर आ गया। उसी ने चाल में हम-दोनों की गुड्डे-गुड़िये की तरह शादी करवा दी।
उसने सारे दोस्तों को इस तरह समझा-बुझा रखा था कि, किसी ने एक बार भी यह नहीं  पूछा कि, तुम्हारी तो शादी हो रही है, फिर तुम्हारी आंखों से आंसू क्यों झर रहे हैं। कई बार यह सोचा कि, इन सबसे कहूं कि, मुझे इस धोखे से बचा लो। इस दरिंदे से बचा लो। लेकिन सबके सब जिस तरह उसके साथ व्यवहार कर रहे थे, उससे हिम्मत ही नहीं पड़ी। औरतें तो उससे बराबर चुहुलबाजी किए जा रही थीं। गुड्डे-गुड़ियों की सी इस शादी में जब उसने मांग में सिंदूर भरने के लिए हाथ बढ़ाया तो मैं सिहर उठी। चक्कर सा आ गया।
मैं अपनी जगह लुढ़क ही जाती यदि पीछे बैठी महिला ने मुझे संभाल न लिया होता। उसके गिरोह ने हर तरफ से घेर कर शादी की नौटंकी करवाई, फिर उसके अगले भाग की भी तैयारी की। मेरे लिए सुहाग सेज सजा कर चले गए, जो मेरे लिए एक बार फिर अंगारों से भरा बिस्तर ही था। जिस पर उस लकड़बग्घे ने मुझे उस पूरी रात नोच-नोच कर खाया।'
समीना, छब्बी यह बताते-बताते फूट-फूट कर रो पड़ी थी। मैंने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया। ऐसा नहीं था कि इस ढोंग-भरी नकली शादी से उसके दुखों का अंत हो गया था। उसे जीवन साथी मिल गया था। नकली तो आखिर नकली ही होता है। उसने बताया कि, 'उस दरिंदे ने दो-दिन खूब प्यार किया। घर पर ही रहा। उसके बाद तीसरे दिन ही मुझे साथ लेकर चौपाटी बीच पहुँच गया। ठेले पर अपना काम शुरू कर दिया। यह ठेला भैया ने काम शुरू करने की तैयारी की शुरुआत करते हुए बनवाया था। चौपाटी पर वह मुझे पगहा की तरह बांधे रहा, उसका भाग्य बड़ा अच्छा था। शाम होने से पहले ही सारा सामान बिक गया।
मैं भी भीतर-भीतर कुछ राहत सी महसूस कर रही थी। उस रात थक कर चूर होने के कारण हम-दोनों गहरी नींद में सोए थे। वह मेरे साथ पति की ही तरह व्यवहार कर रहा था। लेकिन मैं उसके साथ मज़बूरी में लगी हुई थी। जो मेरे व्यवहार में साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था। काम शुरू किये हफ्ता-भर भी नहीं हुआ था कि, एक दिन अचानक ही वह चाल  छोड़-छाड़ कर धरावी के पास एक खोली में आ गया।
अब चौपाटी बीच के बजाए दूसरी जगह ठेला लगाने लगा। वह बराबर मुझे साथ लिए रहता। इतना प्यार जताता कि, कभी-कभी मेरा मन पिघल जाता। मैं थकने की  बात करती तो कई बार मेरे हाथ-पैर भी दबा देता। तब मैं समझ न पाती कि इसका क्या करूँ। जगह बदलने पर  मैंने पूछा कि, ''यह बात भैया को बताई कि नहीं।'' तो बोला, ''देखो, अभी वो परेशान हैं । यह सब बता कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहता। मैंने उन्हें  बता दिया है, कि हम-दोनों धंधा संभाले हुए हैं, आप परेशान न हों।'' 
मैंने कहा, '' एक बार मेरी बात करा दो।'' तो हमेशा की तरह वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अगले दो-तीन महीने में उसके व्यवहार ने मुझ में अपने लिए अंततः जगह बना ही ली। सोचा यह वाकई सिर्फ़ हवस के लिए ही मेरे पीछे नहीं पड़ा था। सच में प्यार करता है, तभी इतना चाहता है। केवल हवस होती तो अब-तक इसका मन भर गया होता, और यह कहीं और मुंह मार रहा होता।
मन में आया कोई तो सहारा चाहिए ही। कब-तक कटी पतंग की तरह मैं  इधर-उधर भटकती रहूंगी। ऐसे तो ना जाने कहां जाकर गिरूंगी। जबरदस्ती ही सही, अगर यह ईमानदार पति बनने को तैयार है, तो बंध जाती हूं इसी की डोर से। धीरे-धीरे मैं उसके प्रति नम्र होती चली गई और जब चौथे महीने ही पेट में बच्चा आ गया, तो मैं और भी उसकी होकर रह गई। वह बड़े प्यार से मेरी देखभाल कर रहा था। समय से डॉक्टर के यहां, मेरे सारे चेकअप करवा रहा था।'
समीना ऐसा नहीं है कि, अब छब्बी के जीवन में सब अच्छा चलने लगा था। उसने बहुत सुबुकते हुए बताया था कि, जब उसके पेट में बच्चा सात महीने का हो गया था, और वह अपनी खोली में अकेली टी.वी. देख रही थी, तभी एक दिन दोपहर में किसी ने दरवाजा खट-खटाया, छब्बी ने खोला तो सामने अपने भाई को पाकर वह आवाक रह गई। भाई भी उसे शादी-सुदा,माँ बनने की हालत में देख कर हक्का-बक्का हो गया।
मारे खुशी के वह भाई के गले से लगकर फफक-फफक कर रो पड़ी। भाई को अंदर ला कर बैठाया। पहले तो भाई इस बात पर गुस्सा हुआ कि, उसको फ़ोन क्यों नहीं किया? वह कितना इधर-उधर भटकता रहा। उसे कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा। आज भी संयोग से ही एक पुराने साथी ने बताया। फिर छब्बी ने जब रो-रोकर अपनी आप-बीती बताई और यह भी कहा कि, अब जो भी हो, वह इस नियति को स्वीकार कर चुकी है, उसे पति मान चुकी है, उसके बच्चे की मां बनने जा रही है। इसलिए अब तुम भी हमारी इस स्थिति को नियति का खेल समझकर इस रिश्ते को स्वीकार कर लो, तो भाई भड़क उठा।
उसने कहा, '' ऐसे धोखेबाज को मैं एकदम सहन नहीं कर पाउँगा। उसने रिश्ते का खून किया है, कलंकित किया है। मुझसे इतना बड़ा झूठ बोला कि, तुम बिना बताए किसी के साथ भाग गई तो हम एकदम टूट गए कि, तीन बहनें तो पहले ही भाग गईं, रही-सही कसर तूने भी पूरी कर दी। ऐसे दगाबाज को तू भी अपना पति मान बैठी है।''
छब्बी ने भाई के हाथ-पैर जोड़ कर खूब समझाया। रो-रोकर समझाया कि, ''आखिर अब उसे कैसे छोड़ सकती हूं? इस बच्चे का क्या करूं? इसे मार तो नहीं सकती ना। यह न होता तो मैं अब भी तुम्हारे साथ चल देती,मुझे उसके हाथों भरा यह नकली सिंदूर पोंछते एक सेकेण्ड की भी देर न लगती,लेकिन अब तो यह सब सोचने से पहले इस मासूम जान की सोचने पड़ रही है। इसे किसके नाम पर दुनिया में लाऊँगी,आखिर इसकी क्या गलती ? '' 
समीना बच्चे के चलते भाई का दिल अंततः पसीज गया। मगर गुस्सा कम नहीं  हुआ। शाम को भाई का उसके दबंगई से बने पति से खूब झगड़ा हुआ। उसे उसने खूब अपमानित किया, लताड़ा। मगर पति ज्यादा कुछ नहीं बोला, तो मामला ठंडा पड़ गया। लेकिन भाई ने दोनों के लाख कहने के बावजूद चाय-नाश्ता, खाना-पीना कुछ नहीं किया। जाते-जाते यह कह कर गया कि, ''सारे रिश्ते-नाते खत्म। अब तुम-दोनों जीवन में कभी मुंह मत दिखाना। छाया भी नहीं। घर पर यही बताऊंगा कि, तुम-दोनों मिले ही नहीं। मां तीन लड़कियों का भागना बर्दाश्त नहीं  कर पाई और मर गई, अब ऊपर से तेरा यह हाल। 
मैं यह सब अब एकदम बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हूं। सामने रहा तो कुछ अनर्थ हो सकता है। इसलिए अब ये पक्का मान लो कि घर वाले तुम-दोनों के लिए मर गए, और तुम-दोनों घर वालों के लिए।'' लाख मिन्नतों के बाद भी, भाई बार-बार भर आ रही अपनी आंखों को पोंछते-पोंछते चला गया। दोनों ने उसे रोकने की हर कोशिश की लेकिन वह नहीं माना।
समीना, छब्बी ने आगे जो बताया वह और भी ज्यादा पीड़ादायक था। उसने कहा कि, 'इसके बाद घर वालों से कोई संपर्क नहीं हो सका। नकली पति से मुझे तीन साल के अंदर दो बेटे हुए। उसका धंधा भी खूब चल निकला था। जीवन अच्छा बीतने लगा था। लेकिन घर की याद मन को बराबर कचोटती रहती। देखते-देखते दोनों बच्चे चार-पांच साल के हो गए। अब-तक मैं उसे तन-मन से पति मानने लगी थी,जी-जान से चाहने लगी थी। उसे नकली से पूरी तरह असली मान लिया था। 
लेकिन कहते हैं न कि नकली आखिर तक नकली ही रहता है,कभी असली बन ही नहीं सकता,और बनाने की कोशिश की तो बर्बादी ही मिलती है तो मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जीवन में ऐसा भयानक तूफ़ान आया कि पल-भर में सब-कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो गया, तिनका-तिनका बिखर गई मेरी जिंदगी। हुआ यह कि एक दिन अचानक ही वह सारा काम-धंधा बंद कर घर पर ही बैठ गया। बोला, ''यहां से मन ऊब गया है, इस धंधे से भी। कहीं और चलकर कुछ और करते हैं।'' मैंने उसे बहुत समझाया कि, '' इतना अच्छा चलता काम-धंधा बद न करो । ये अच्छा नहीं है।'' लेकिन वह नहीं माना।
धंधा बंद करने के बाद भी दिन-भर गायब रहता। फिर दस-बारह दिन बाद अपने एक मित्र का नाम लेकर बोला कि, ''उसकी बीवी अस्पताल में भर्ती है। आज दिन में उसके पास रुकने वाला कोई नहीं है, तू चली जा।'' उस मित्र का घर के सदस्य की तरह आना-जाना था। पूरे परिवार को मैं अच्छी तरह जानती थी, उनकी समस्यायों को भी, उसकी बीवी की बीमारी को भी। तो मैं बिना ना-नुकुर किए चली गई वहां। दोनों बच्चों को घर पर ही छोड़े गई कि, हॉस्पिटल में कहां ले जाऊँगी। उस समय मुझे कहने भर को भी अहसास नहीं था कि हॉस्पिटल के लिए निकलते ही मेरी बर्बादी का तूफ़ान शुरू हो जाएगा।
जब शाम को लौटी तो घर की हालत देखकर मुझे लगा मानो मुझ पर वज्रपात हो गया है। बिलकुल वैसा ही जैसा लकड़बग्घे द्वारा चाक़ू के दम पर चाल में पहली बार इज्जत लूटने पर हुआ था। जिसे जी-जान से अपना पति मानने लगी थी,जिसके लिए अपने भाई घर को भी छोड़ दिया था, वह मेरे दोनों बच्चों और काफी सारा सामान लेकर गायब था। कागज का एक टुकड़ा यह लिखकर छोड़ गया था कि, ''अब हमारा तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं रहा। मैं अपने बच्चों को, अपने साथ ले जा रहा हूं। मेरे पीछे आने या ढूंढ़ने की हिम्मत नहीं  करना।''
समीना इस तरह उस लकड़बग्घे ने छब्बी की दुनिया न जाने क्या सोच कर एक बार बसाई, फिर अचानक ही उजाड़ दी। उसने रो-रो कर मुझ से कहा,'उस कमीने ने कलेजा चीर देने वाला जैसा दर्द पहली बार धोखे से इज्जत लूट कर दिया था, उससे कहीं ज्यादा तोड़ देने वाला दर्द मुझसे मेरे बच्चे छीन कर,मेरे बसे-बसाये घर को उजाड़ कर दिया।' 
समीना जल्दी ही छब्बी को खोली भी छोड़नी पड़ी। बात फैलते देर नहीं लगी और नोचने वाले पीछे पड़ गए, साथ ही भूखों मरने की भी नौबत आ गई। भाई की तरह उसे भी एक मंदिर में शरण मिली। उसने करीब दो हफ्ते एक मंदिर के बरामदे में गुजारे। वहीं आने वालों से जो प्रसाद मिल जाता उसे खाकर काम चलाया। देखते-देखते एकदम कमजोर हो गई।
एक दिन देर रात खूब तेज आंधी-पानी आई। बरामदे की चौड़ाई कम थी, इसलिए छब्बी बहुत देर तक बुरी तरह भीगती रही। एक झोले में जो दो-चार कपड़े थे, वह सब भी भीग गए। हफ्तों की भूख-कमजोरी, रात-भर भीगे रहने,तेज़ हवा से उसकी तबियत खराब हो गई। बेसुध वहीं ज़मीन पर पड़ी रही। 
सुबह पुजारी आये। उसकी हालत देख कर कुछ और लोगों की मदद उसे चाय-नाश्ता करवाया। उसकी हालत सम्भली तो उन्होंने अपनी पूजा संपन्न कर उससे बातचीत शुरू की। छब्बी ने उन्हें अपनी राम-कहानी बता कर काम दिलाने की विनती की। पुजारी जी को छब्बी की हालत पर बड़ी दया आई। वो उसे अपने घर लेते गए। कहा, '' जब-तक कोई कायदे का काम नहीं दिलवा देता हूँ ,तब-तक तुम यहीं रहो।'' 
घर के एक कोने में सोने की जगह दे दी। छब्बी उनके घर का कामकाज संभालने लगी। पुजारी जी ने उसकी मेहनत, ईमानदारी की कड़ी परीक्षा ली। उसके शत-प्रतिशत सफल होने पर उसे एक बड़े बिजनेसमैन के घर नौकरी दिलवा दी। पुजारी जी भी एक छोटे बिजनेसमैन थे। बड़े साधु स्वभाव के थे। इस दूसरी नौकरी में छब्बी ज़्यादा दिन नहीं रह पाई, क्योंकि मालिक का एक लड़का उसकी इज्जत के लिए बड़ी समस्या बन गया था।
इस तरह छब्बी एक से दूसरे ,दूसरे से तीसरे के यहां होते-होते अंततः साहब के यहां नौकरी पा गई, तब से वहीं थी। वह बताती थी कि, पति की धोखाधड़ी से वह बहुत टूट गई थी। बच्चों की याद आते ही उसका कलेजा फट जाता था। उसने बहुत कोशिश की उस क्रूर धोखेबाज़ पति को ढूंढ़ने की, लेकिन वह नहीं मिला।
घर से भी चिट्ठी-पत्री का कोई रास्ता नहीं था। एक बार साहब ने कोशिश की तो, भाई ने कहा, ''हम उसे नहीं जानते। वह मर गई है हमारे लिए।'' साहब के बहुत जोर देने पर उसने  छब्बी से इतनी ही बात की,  ''भूल कर भी अपना काला मुंह लेकर यहां मत आना। यहां सब यही जानते हैं कि तू वहीं मर-खप गई।'' 
समीना, छब्बी रो-रो कर यही पूछती थी कि, 'बताओ मेरी क्या गलती है? एक दरिंदा चाकू की नोंक पर मुझे लूट लेता है। जबरदस्ती बीवी बना लेता है। बच्चे पैदा कर देता है। फिर धोखे से मेरे कलेजे के टुकड़े बच्चों को लेकर भाग भी जाता है, तो मैं क्या कर सकती थी। उस दरिंदे को कोई कुछ नहीं कहता। मेरी, भाग जाने वाली तीनों बहनों से तुलना कैसे हो सकती है?' 
उस दिन छब्बी का रोना-धोना बहुत देर तक चला। उसे दो बातों का दुःख सबसे ज्यादा था। पहला बच्चों का ,दूसरा भाई का। कि उस भाई ने भी  उसे गलत समझा,जिसने उसके ,पूरे परिवार के लिए वह जिम्मेदारियां निभाईं जो बाप की थीं। वह उसे एक बाप की ही तरह मानता,प्यार करता था। उसका आखिरी बार अत्यधिक दुखी होकर रोते हुए जाना वह भूल नहीं  पा रही थी। 
भाई के लिए उसका कलेजा वैसे ही छलनी होता था,जैसे बच्चों की याद आने पर होता था। समीना उस रात हमने, छब्बी ने एक दूसरे को अपने जीवन के कई कड़ुवे अनुभव बताए। मैंने उसके न जाने कितनी बार आंसू पोंछे। जब बातें खत्म हुईं तो रात भर खूब प्यार किया एक-दूसरे को।
वह मेरे विलेन-किंग बनने के सपने के बारे में जानकर बड़ी खुश हुई थी। बड़ी तारीफ़ की , कि मैं अपना सपना पूरा करने के लिए इतना कुछ कर रहा हूं, ठीक-ठाक पढ़ाई-लिखाई और,अच्छे-खासे खाते-पीते घर का होते हुए भी घरेलू नौकर बनकर यहां रह रहा हूं। लेकिन छूटते ही यह भी कहा कि, 'तुम्हारा यह सपना यहां रहते हुए कभी पूरा नहीं होगा। साहब और यह मैडम अपने नौकरों को, नौकर नहीं, गुलाम बनाकर, मानकर चलते हैं। अच्छा काम करने वाले नौकरों को छोड़ते ही नहीं। जो अच्छा काम नहीं करते ,अपनी ताकत से उसे अच्छा काम करने का ही आदी बना देते हैं। तुम्हारा-हमारा जी-तोड़ मेहनत करना इन दोनों को पसंद है, इसलिए हम चाहें तो भी जल्दी छोड़ेंगे नहीं। 
यह दोनों अपने नौकरों को पर-कटे पक्षी की तरह रखते हैं। उनके सारे सपनों के भी पंख काट देते हैं। तुम अपना ही देख लो, तुमने साहब से ऐक्टिंग करने की बात कर ली, तो तुम्हें यहां फंसा दिया। यहां एक तरह से कैद में ही रहते हैं हम-सब। मुझे तो लगता है कि जिस नौकर को ये लोग कुछ समय कैद में रखना चाहते हैं, उसे यहाँ रख देते हैं। और तब-तक रखते हैं जब-तक कि वह अपने को ही भूल न जाए।'
समीना अगले दिन हम-दोनों यह योजना बनाई कि, यहां रहकर तो कुछ कर नहीं सकते, यहां से निकलना ही होगा। इसके लिए ऐसा कुछ करते हैं कि, ये लोग खुद ही हम-दोनों को निकाल दें। योजना के हिसाब से हमने तय किया कि, हम छिपकर बॉलकनी में नहीं रहेंगे। खुलेआम अंदर ही ऐश करेंगे। जिससे मैडम कैमरों में देखकर गुस्सा होंगी और हम-दोनों को नौकरी से निकाल देंगी। इस तरह हमारा सपना पूरा होने का रास्ता साफ़ हो जाएगा । यह योजना बनते ही हम-दोनों खुल कर घर में ही खूब ऐश करते। हम रोज अपने भविष्य को लेकर बातें करते कि, यहां से निकलते ही कैसे-कैसे क्या-क्या  करना है। 
ऐसे ही एक दिन प्यार के एक दौर से गुजरने के बाद हम टी.वी. देखते हुए बतिया रहे थे। छब्बी अपना सिर मेरी जांघों पर रखे लेटी हुई थी। मेरे हाथ उसके शरीर को कभी सहला, तो कभी हौले-हौले थपकी दे रहे थे। भविष्य के सपने बुनते हुए मैंने कहा, 'छब्बी यहां से निकलने के बाद जब हम-लोग कुछ बन जाएंगे तो इससे भी शानदार अपना एक घर बनाएंगे। फिर शादी करके बच्चे पैदा करेंगे।'
समीना मेरा इतना कहना था कि, छब्बी एक झटके में उठ बैठी। बड़ी तीखी आवाज़ में बोली, 'सुनो, मुझसे दुबारा कभी शादी की बात न करना। अब मैं जीवन में ना कभी शादी करूंगी, ना ही कोई बच्चा पैदा करूंगी। मुझे इन सबसे अब घृणा हो गई है। दम घुटता यह सब सोचकर भी। ऐसे ही जब-तक जिया जा रहा  है, तब-तक जियूंगी, नहीं तो मर जाऊंगी।'
अचानक ही उसके इस बदले व्यवहार,जवाब से मैं आश्चर्य में  पड़ गया। 
मैंने कहा, 'तो मेरे साथ शादी के बिना तुम यह रिश्ता, हमेशा ऐसे ही बनाए रखोगी।' 
'तुम चाहोगे तो रहेगा, नहीं तो नहीं रहेगा।'
उस समय उसके इस तरह बेलौस बोलने से मुझे बड़ा धक्का लग रहा था। 
मैंने कहा, 'लेकिन छब्बी मैं भी तो चाहूंगा कि, मेरी भी बीवी हो, बच्चे हों।' 
इस पर वह एकदम छिटक कर बोली, 'तो कर लो किसी से शादी। तुम्हें अगर यह लगता है कि, शादी के बिना किसी औरत के साथ नहीं रहा जा सकता, उसके साथ सारा जीवन नहीं बिताया जा सकता, तो किसी से भी  बेहिचक शादी लो, भर दो उसकी मांग में ढेर सारा सिंदूर। लेकिन मेरे साथ यह कभी नहीं हो पायेगा समझे। मैं भर पाई शादी से।
क्या मान रखा उन-दोनों कमीनों ने सिंदूर का। सिंदूर को तो उन-दोनों ने अपने नीच कर्मों को पूरा करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया। अरे! जब उस पवित्र चीज का, उस पवित्र रिश्ते का मान रख ही नहीं सकते, तो उसे अपवित्र करने का काम क्यों करते हो ? दूसरी बार धोखा मिलने पर ही मैंने भगवान को साक्षी मान कर कसम खा ली थी कि,अब मैं किसी के कुकर्म का हिस्सा नहीं बनूंगी। सिन्दूर अपने तन को छूने नहीं दूंगी। 
रही बच्चों की बात, तो आदमी साले औरत को ठोंक-ठोंक कर मजा लें। साथ में बच्चा भी चाहें। औरत नौ महीने उसे पेट में अपने खून से पाले, नौ महीने उठना-बैठना, सोना, खाना-पीना सब हराम। हज़ारों तकलीफों को झेलते हुए जान पर खेलकर, अपने कलेजे का टुकड़ा बच्चा पैदा करे। और फिर जब मौका मिले तो साला मर्द औरत को लात मार कर, मां का कलेजा उसका बच्चा लेकर चल दे।' 
समीना यह कहते-कहते छब्बी फूट-फूट कर रो पड़ी। उसे अपने बच्चों की याद आ गई थी।  मैंने उसे बड़ी मुश्किल से चुप कराया। फिर सोचा बात यहीं खत्म करूं। लेकिन उस समय छब्बी जैसे शांत होने को तैयार ही नहीं थी।
तो मैंने उसे समझाते हुए कहा कि, 'छब्बी ऐसा क्यों सोचती हो कि, सारे मर्द एक जैसे होते हैं। मैं तुमसे  बकायदा शादी करूंगा। अपनी पत्नी बनाकर रखूंगा। जब तुम कहोगी तभी बच्चे के बारे में सोचूंगा।' 
यह सुनते ही छब्बी फिर भड़कती हुई बोली, ' पत्नी तो उन-दोनों कमीनों ने भी बनाया था। पत्नी बनाकर छूरा पीठ में नहीं,सीधा छाती में घोंपा। तुम जो कह रहे हो इसकी भी क्या गारंटी। आज तुम ऐसे हो, तो ऐसा कह रहे हो। जब कल को कुछ बन जाओगे, तो तुम्हें भी बदलते समय नहीं लगेगा।'
मैंने उसे समझाते हुए कहा कि, 'छब्बी जब हाथ की सारी ऊंगलियां एक बराबर नहीं हैं, तो सारे आदमी कहां से एक जैसे हो जाएंगे।'
समीना मेरी यह बात मानों तेजाब से भरा बड़ा ड्रम था, और वह जैसे छब्बी पर पूरा का पूरा उलट गया हो। वह एकदम छटपटा कर किच-किचाती हुई उठ खड़ी हुई। सामने खड़ी होकर कांपती हुई कुछ क्षण मुझे देखती रही। फिर बोली, 'तुम भी जिस दिन कुछ बनोगे, उसी दिन तुम्हें भी बदलते देर नहीं लगेगी। मैं उम्र और अनुभव दोनों में तुमसे बड़ी हूं। और मेरा अनुभव गला फाड़-फाड़ कर यही कह रहा है कि, तुममें भी पल भर में रास्ता बदलने के सारे कीटाणु भरे पड़े हैं। और मेरी बात का प्रमाण यह है कि, तुम्हें भी और मर्दों की तरह औरत का चमकता-दमकता खूबसूरत शरीर ही चाहिए।'
फिर उसने बड़े भद्दे ढंग से अपनी छाती, अपनी जांघों के बीच हाथ मारते हुए कहा, 'तुम्हें भी तो यह सब-कुछ सांचे में ढला हुआ ही चाहिए। अभी पूरा एक दिन भी नहीं बीता है, कल तुम ही तो कह रहे थे कि, ''छब्बी तेरा ये-ये, जब मैं खूब पैसा कमाने लगूंगा तो डॉक्टर के यहां चलकर ठीक करा दूँगा। एकदम जवान लड़कियों सी हो जाओगी तुम।'' मेरे पेट पर बच्चे पैदा करने के निशान तुम्हें अखर रहे हैं। तुम्हारे ही हिसाब से बच्चों ने मेरी छातियों की सुंदरता निचोड़ ली है।
अरे! जब अभी कुछ नहीं हो, तब तुम्हारे दिमाग में यह भरा हुआ है, जिस दिन कुछ हो जाओगे, उस दिन मेरा यही शरीर, जिससे आज चिपके हुए हो, तुम्हें इतना बदसूरत, घिनौना, भद्दा लगने लगेगा कि, मेरी छाया से भी घृणा करोगे, पहचानोगे भी नहीं, और मैं फिर फुटपाथ पर भीख मांग रही होऊंगी। बोलो, मैं गलत कह रही हूँ क्या? '
समीना, छब्बी उस समय घृणा की आग में धधकती एक मूर्ति सी लग रही थी। मुझे लगा कि, जैसे उसने मेरी सारी चोरी पकड़ कर दुनिया के सामने मुझे एकदम नंगा कर दिया है। मुझसे कुछ बोला नहीं जा रहा था। उसका मर्दों के प्रति बरसों से भरा गुस्सा एकदम से मुझ पर ही फूट पड़ा था। मेरी गलती थी तो सिर्फ़ यह, कि एक दिन पहले मैंने उसे प्यार करते समय, उसके शरीर के ऊपरी और निचले कुछ हिस्से को फ़िल्मी हिरोइनों की तरह सर्जरी कराके खूबसूरत बनाने की बात कह दी थी। जिसे पहले मैं पत्रिकाओं में पढ़ चुका था। और सच यही था समीना कि मेरे मन में उसके लिए कोई खोट नहीं थी। मैं उसको लेकर भविष्य के जो सपने देख रहा था, उन्हीं में खो कर बस यूं ही कह दिया था। जो उसके मन में मर्दों के लिए भरी घृणा, गुबार को बाहर निकालने, विस्फोट का कारण बन गया।
उसने बड़े तीखे शब्दों में कहा,'मैं बहुत साफ़-साफ़, बहुत अनुभव से कह रही हूँ कि,चाहे मैं होऊँ ,या कोई और औरत ,अगर मर्द उसके ढीले-ढाले अंगों,उसकी किसी भी बदसूरती को भी प्यार नहीं करता है, उसे खाली खूबसूरती ही खूबसूरती चाहिए, तो फिर यह एकदम पक्का है कि, वो उस औरत से प्यार नहीं करता,उससे उसे कोई लगाव नहीं है, वो उसे धोखा दे रहा है। कोई और औरत न होने तक उससे खाली अय्याशी कर रहा है बस। और सुनो बुरा नहीं मानना, तुम मेरे साथ अय्याशी ही कर रहे हो बस। और मैं भी तुम्हारे साथ अपनी कुचली हुई,दम निकलती ज़िंदगी में कुछ सांस भरना चाहती हूँ।
जैसे तुम मर्दों का खाना जब-तक औरत ठोंक-बजा नहीं लेते, तब-तक नहीं पचता,वैसे ही हम औरतों के तन-बदन में भी मर्द के लिए आग लगती है। उसको बुझाने के लिए हमें भी मर्दों के साथ की जरूरत होती है। पहले मैं इसे पाप समझती थी, लेकिन मर्दों ने ऐसे-ऐसे घाव दिए कि, मेरा मन बदल गया। अब मैं यही सोचती हूँ  कि, पाप तो इस ''आग'' को ''पाप'' समझना है। अगर यह मर्दों के लिए पाप नहीं तो हम औरतों के लिए पाप कैसे है? तुम किसी भ्रम  में न रहो, इसलिए ये भी बताये दे रही हूँ कि,मेरा मन कोई तुम्हारी मर्दांगनीं  भोगने से नहीं बदल गया है। यह तो साहब के यहाँ पहुँचने के आठ-नौ महीने बाद ही बदल गया था।'
समीना जैसे तुम कई बार मर्दों को लेकर हत्थे से उखड़ जाती थी ,छब्बी उस समय उससे कहीं हज़ार गुना ज़्यादा उखड़ी हुई बोले ही चली जा रही थी। उसने बिना रुके ही आगे कहा ,'मैं ज़िंदगी भर तन की ''आग'' को ''पाप'' ही समझती रहती,हर तरफ से ठोकर,धोखे की चोट के दर्द से आंसू बहाते-बहाते अब-तक तो मर गई होती। वो तो भला हो साहब के यहाँ मुझसे पहले से काम करने वाली उस बेचारी नशरीन का, जिसने मुझे चोरी-छिपे अपनी ज़िंदगी पर आंसू बहाते देख लिया। और फिर मेरे आंसू पोंछते-पोंछते कुछ ही दिनों में मेरी इकलौती हितैषी बन गई। वह भी बेचारी मेरी ही तरह पति ,परिवार, नकली हितैषियों से धोखा,चोट खाये दर-दर भटकती, आंसू बहाती ,घरों में काम करती-करती साहब के यहाँ पहुँच गई थी। बेचारी अच्छे-खासे खाते-पीते घर की थी, लेकिन दूसरी औरत के चक्कर में पड़े दोगले पति,दोगले हितैषियों के चलते घरों में नौकरानी बनी, अपमान की ज़िंदगी जी रही थी। उसी ने अपनी-मेरी सब सुनने-समझने के बाद एक दिन कहा ,''सुनो, हम-दोनों बेवज़ह ही बीते दिनों को याद कर-कर के आंसू बहा रहे हैं, आँखें खो रहे हैं । जिन मक्कार मर्दों ने हम-दोनों की ज़िंदगी आंसुओं में डुबो दी है, उन  पर तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं । वो तो हमें मरा-खपा समझ कर मस्त होकर ज़िंदगी जी रहें हैं, तो हम-दोनों भी अपनी ज़िंदगी के सारे आंसुओं को सुखा कर सुख से जीते हैं।'' मुझे उसकी बात सही लगी।
तभी हम-दोनों ने अपने सुख के लिए वही रास्ता पकड़ लिया, जिस पर चल कर मक्कार मर्द सुख लूटते हैं। जब साहब की बीवी नहीं होती है तो, वो हमसे सुख लूटने में संकोच नहीं करते, तो हम-दोनों भी अपने हिस्से का पूरा सुख लेने में हिचकते नहीं। इसीलिए हम-दोनों जितना पैसा पाते हैं,जितना आराम से रहते हैं ,उसका आधा भी दूसरे नौकर नहीं पाते।'
समीना मुझे उसकी बात पर भरोसा नहीं हुआ,अचम्भे से उसे देखता रहा तो वह बोली, 'विश्वाश नहीं हो रहा न , मैं जो कह रही हूँ, यही है सच,मान ले। मैं कोई तेरी बीवी नहीं हूँ कि, मुझे तेरा यह डर है कि, दूसरे मर्द के साथ मेरा सम्बन्ध जान कर तू मुझे मारेगा-डाँटेगा ,घर से भगा देगा। बोलता है तो ठीक ,नहीं बोलता तो ठीक,अब इन सारी बातों का मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता,क्योंकि अब हम भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं ,जिस पर तुम लोग।'
समीना छब्बी ने विश्वाश न करने के लिए कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं था, तो मैंने कहा ,' जब तुम ऐसे कह रही हो तो विश्वाश कैसे नहीं होगा। लेकिन ये बताओ जब साहब की पत्नी रहती है ,तब तुम-दोनों क्या करती हो ?'
'अरे ये भी कोई पूछने की बात है? जैसे तुम लोग एक नहीं तो दूसरी ,दूसरी नहीं तो तीसरी करते हो, वैसे ही हम भी करते हैं । वहां इतने शैडो, इतने लोग हैं, देखते नहीं क्या?'
'तुम्हें यह सब अच्छा लगता है ,खुश हो यह सब करके?'
'अजीब बात है, जब तुम-लोग यह सब करके खुश रहते हो, तो हम-लोग क्यों नहीं रह सकते ?' 
 'लेकिन तुम्हारी एक बात समझ में नहीं आ रही कि क्या साहब इतने कमजोर, गए-बीते हैं,उनके पास पैसों,औरतों की इतनी कमी है कि वो नौकरानियों के पीछे पड़े रहते हैं, और उनकी पत्नी को घर में रहते हुए भी कुछ पता नहीं रहता ,या उन्हें इस बात से कोई अंतर ही नहीं पड़ता कि पति की बाँहों में कितनी औरतें पड़ीं हैं, कौन सी औरतें पड़ीं हैं।'
'उनके पास जैसे अथाह पैसा है, वैसे ही अनगिनत एक से बढ़ कर एक ऊँची हस्ती वाली परी सी खूबसूरत औरतें भी हैं। अपने मैडम की हस्ती कम है क्या?कम खूबसूरत हैं क्या? मैं या तुम जानते नहीं क्या कि साहब के साथ कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे मस्ती करती हैं। बात तो सिर्फ मौका दस्तूर मन की होती है बस।
इसीलिए कहती हूं कि जीवन का ककहरा सही-सही पढ़ ,सही-सही अनुभव ले तब कुछ बोल,जैसे उनकी पत्नी अपने अनुभव से जानती हैं कि उन्हें औरतों और साहब के बीच आना है कि नहीं । वो अच्छी तरह समझती हैं कि जब उन्हें अपनी गुरुवाइन ,पूजा-पाठ के चलते पति के लिए समय मिलता ही नहीं तो उसका कुछ तो परिणाम निकलेगा ही। क्योंकि वो सब समझ रही हैं, इसलिए उन्हें इस परिणाम से कोई अंतर पड़ भी नहीं रहा है । दोनों को देख कर लगता ही नहीं कि उनके यहां ऐसा भी कुछ होता है। तो जैसे उन लोगों को कोई अंतर नहीं पड़ता न, वैसे ही मुझे भी अंतर नहीं पड़ता कि मैंने तेरे साथ जीवन का कुछ समय जी लिया या साहब के साथ। मेरे लिए इतना ही मायने रखता है कि कुछ जीवन जिया बस,और इन सब के लिए नशरीन को धन्यवाद जरूर देती हूँ ....                                      
समीना यह सब कहते हुए छब्बी गुस्से से काँप रही थी, वह पूरी तरह अपना आप खो चुकी थी। उसकी हालत को देखते हुए, मैं अपने को जज्ब करता हुआ उठा, और उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया, वह सुबुक-सुबुक कर रो पड़ी। अपने शरीर को मेरी बांहों में एकदम ढीला छोड़ दिया था। उसे लेकर मैं सोफे पर बैठ गया। चुप कराने लगा। उस समय छब्बी की मन की बातों ने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया था। 
उसको लेकर जो सपने मैंने बुने थे, वह एक झटके में उधड़ गए थे। पहले तो उस पर मुझे बड़ी गुस्सा आई थी कि, पतियों के धोखे की आड़ लेकर, चाहे जितने ही मर्दों के साथ सोने को सही बताने पर तुली हुई है ,ऊपर से सारे मर्दों को मक्कार, धोखेबाज, अय्याश भी कहे जा रही है। लेकिन उसकी बातों का मर्म समझते ही, उसके दुख का अहसास करते ही मुझे उस पर बड़ी दया आ गई। 


मैंने सोचा कि इसने जो किया, जो कर रही है, उसके लिए इसे गलत कहना ही गलत है। मैंने उसे चुप कराकर पानी पिलाया, फिर बड़ी देर तक दोनों चुपचाप सोफे पर ही पड़े रहे। नींद आने पर उसे भी अपनी बांहों में समेटे-समेटे मैं सो गया। वह भी बिल्कुल शांत रही और मेरी छाती में मुंह छिपाकर, यूं सो गई मानों कोई नन्हीं-मुन्नी बच्ची हो।
अगले दिन मेरी नींद उसकी आवाज़ पर खुली। वह चाय लिए खड़ी थी, उसका यह रूप देखकर मैं बड़ा अचकचा सा गया। तुरंत उठकर उससे चाय ली , उसके चेहरे को देखने लगा। अपनी तरफ ऐसे देखते पा कर वह एकदम हंस पड़ी और बोली, 'क्या ? ऐसे क्या देख रहे हो, चल चाय पी, रात गई, भूल जा सब। मैं बेवजह ही तेरे पर गुस्सा उतार बैठी। कई दिन से बच्चों की बड़ी याद आ रही थी, बस संभाल नहीं पाई खुद को।' यह कहते-कहते वह अपनी चाय लिए बगल में बैठ कर पीने लगी। उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि, यह वही छब्बी है जो कुछ ही घंटे पहले गुस्से से आग-बबूला हुई सारे मर्दों को धोखेबाज,अय्याश,मक्कार कह कर गरिया रही थी, और फिर एक मर्द की ही गोद में शांति, सुरक्षा का अहसास लिए निश्चिन्त हो कर सो गई थी। और अब मर्द के लिए ही चाय लेकर आई है, उसे सोते से जगा कर उसके साथ ऐसे हंसते हुए चाय पी रही है, मानों कुछ हुआ ही नहीं है। चाय खत्म होने तक मैं कुछ बोला नहीं, वही बीच-बीच में कुछ न कुछ बोलती रही।
मैं नहा-धोकर तैयार हुआ ही था कि, साहब का एक खास आदमी दो बड़े लिफाफे लेकर आ गया। उसे छब्बी को देकर बोला, 'इन्हें संभाल कर रख दो, जब मैडम आएं तो उन्हें दे देना।'मैंने उसे नमस्कार किया तो वह  ख़ास अंदाज में एक आँख कर दबा  बोला, 'तुम सही हो भाई, खूब मजे की ज़िंदगी है तुम्हारी।' मैंने उसके हाथ जोड़ लिए, तो उसने उसे पकड़ते हुए कहा, 'अरे ! मैं मजाक कर रहा था। हम नौकरों की ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी होती है, क्यों छब्बी?' 
छब्बी ने उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा,'नौकर की ज़िंदगी होती है न, साहबों के लिए, मालिकों के लिए, अपने लिए थोड़ी ना।' वह जल्दी में था तो ज़्यादा बातें नहीं हुईं, दो मिनट में ही चला गया।
मैडम तीन हफ्ते बाद जब अपनी विदेश यात्रा पूरी कर वापस आईं, उसके पहले  हम-दोनों ने न सिर्फ़ खूब ऐश की, बल्कि भविष्य के लिए तमाम योजनाएं बनाईं। मगर मैडम के आने के साथ ही उन सारी योजनाओं पर करीब-करीब पानी फिर गया। पहली तो इस योजना पर कि, मैडम कैमरे में तीन हफ्ते की हम-दोनों की ऐश को देखकर नौकरी से निकाल बाहर करेंगी। फिर हम-लोग अपने हिसाब से कुछ और काम करेंगे। लेकिन मैडम ने कभी इस बारे में बात तक नहीं  की। मानो कि, वह इसे हम-दोनों का व्यक्तिगत मामला मानकर बोलना ही नहीं चाहती थीं। हमारा इंतजार बेकार गया कि वो कुछ कहें। 
मैडम विदेश से एकदम बदली-बदली सी लौटी थीं। ना जाने कौन सी एक्सरसाइज, कौन सी दवाई, खाना-पीना खाया-पिया था कि, अपना मोटापा आधा कर लिया था। नई हेयर-स्टाइल और एकदम चमकती-दमकती त्वचा से वह अपनी उम्र को पांच-छह साल पीछे कर चुकी थीं। आते ही वह काम-धाम में ऐसे जुट गईं, कि मानो दुनिया भर का काम उन्हें ही करना है, और समय बहुत कम है।
मैं और छब्बी इंतजार ही करते रह गए कि, वो हमें डांटे-फटकारें, नौकरी से बाहर कर दें। उनके आने के दूसरे ही दिन तोंदियल भी आ गया। अब हम-दोनों कई दिन तक बड़ा अटपटा सा महसूस करते रहे। ज़िंदगी फिर पुराने ढर्रे पर आने लगी। देखते-देखते कई महीने बीत गए लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी मुझे अपने काम के लिए घंटे भर का भी समय नहीं मिला। अंततः छब्बी और मैंने यह योजना बनाई कि, हर हफ्ते छुट्टी वाले दिन वे हमें बाहर घूमने-घामने दो-चार घंटे के लिए जाने दिया करें। 
हमने सोचा इस दो-चार घंटे में हम-लोग फिल्मी दुनिया के लोगों से संपर्क साधेंगे। जिस दिन बात बन जाएगी उसी दिन रफू-चक्कर हो लेंगे। असल में अब मैं छब्बी के बिना वहां से निकलना भी नहीं चाहता था। एक से भले दो की बात मेरे मन में आ गई थी। बड़ी और पहली बात यह थी कि, छब्बी के दिल में मैंने कहीं गहराई में जगह बना ली थी। वह अब मेरे साथ ऐसे पेश आने लगी थी जैसे कोई खुर्राट पत्नी पति के साथ पेश आती है। 
अब तोंदियल जरा भी उसको छू लेने, हंसी-मजाक करने की कोशिश करता तो वह उस पर एकदम भड़क उठती थी। जब वह बार-बार यही करने लगी तो अंततः तोंदियल ने हम-दोनों से किनारा कर लिया। बस काम भर का ही हूं... हां... करता, बोलता था। इस बीच एक और नई बात हुई, कि अब मैडम दिन में कई कामों के लिए मुझे इधर-उधर बाहर भी भेजने लगी थीं। आने-जाने के लिए मोटर-साइकिल देतीं और मोबाइल भी। बराबर संपर्क बनाएं रखती थीं। बाहर निकलने से  मुझे बंद रहने की घुटन से थोड़ी राहत मिलने लगी थी। 
मगर अब एक और तरह की घुटन मैं और छब्बी दोनों महसूस करने लगे थे। वह यह कि हम-दोनों ने पति-पत्नी के रिश्ते तो बना लिए थे, लेकिन पति-पत्नी की तरह रहने की जगह नहीं थी। हमने तय किया कि, मैडम से बात करके कहीं किराए पर जगह लेंगे। दोनों की तनख्वाह से किसी तरह गुजर बसर करने लायक कुछ जगह ली जा सकती है। यह सोच कर हमने एक दिन मैडम के सामने अपनी बात रख दी कि,'हम-दोनों पति-पत्नी बन चुके हैं और अब बाहर कोई जगह किराए पर लेकर रहना चाहते हैं। काम यहां करते रहेंगे।'
हमारे इतना कहते ही मैडम ने एक नज़र हम-दोनों पर डाल कर पूछा, 'तुम-दोनों ने कब, कहां कर ली शादी? बताया ही नहीं?'
मेरे बोलने से पहले ही छब्बी बिना हिचक बोली, 'मैडम जब आप बाहर गई थीं, उसी बीच हम-दोनों ने तय किया कि, हम पति-पत्नी बनेंगे। फिर यहीं भगवान जी को साक्षी मानकर, माथा नवां कर, पति-पत्नी के रिश्ते मेें बंध गए।'
यह सुन कर सुन्दर हिडिम्बा मैडम मुस्कुराईं, गहरी दृष्टि डाल कर बोलीं , 'वेरी नाइस। मगर किसने शादी कराई? तुम्हारी मांग में  न सिंदूर, न बिंदी कौन सी रीति-रिवाज से की शादी।' 
उनके इस प्रश्न से बिना हिचकिचाए छब्बी ने कहा, 'मैडम हमने बस भगवान को साक्षी मान कर अपना रिश्ता बना लिया है, और रही बात सिंदूर, बिंदी की तो मैडम यह सब दिखावे की बातें हैं। हमें दिखावा एकदम समझ में नहीं आता। इसीलिए ऐसी कोई रीति-रस्म हमनें नहीं पूरी की। अब बस आपकी थोड़ी कृपा हो जाए, तो हम-दोनों एक ही छत के नीचे आराम से रहने लगेंगे। बस इतनी मेहरबानी आप कर दें। हम जीवन-भर आपके अहसानमंद रहेंगे।'
इस बीच मैं एकदम चुप खड़ा रहा, क्योंकि मुझे लगा कि, छब्बी सही कोशिश कर रही है। मैडम कुछ देर चुप रहने के बाद बोलीं, 'ठीक है, यहीं-कहीं आसपास कोई जगह ले लो किराए पर। क्योंकि दूर जाओगे तो यहां टाइम से नहीं पहुंच पाओगे। कंवेंस का खर्च अलग बढ़ जाएगा।' 
मैडम की बात, उनकी बेरूखी से हमें बड़ा धक्का लगा। क्योंकि मैडम ने किराए का मकान दिलवाने में कोई मदद करने से यह कहकर मना कर दिया कि इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। यहां तक कि, पैसे के लिए भी कोई मदद देने को तैयार नहीं हुईं। हम महीने भर हाथ-पैर मार-कर थक गए, लेकिन हमारा जो बजट था, उतने में कोई ठिकाना नहीं मिला। हम पहले ही की तरह, सुन्दर हिडिम्बा मैडम के सोने के पिंजरे में इधर-उधर किसी कोने में दुबकते-फिरते रहे। इन सारी समस्याओं से हम इतना व्याकुल हो उठे कि, मन करता ऊपर से ही नीचे कूद जाएँ। छब्बी तो मुझसे भी ज़्यादा परेशान थी।
 एक दिन उसने भड़कते हुए कहा, 'सुनो जब यह रानी साहिबा हम-दोनों के लिए कुछ नहीं कर सकतीं,  तो यहां ना नौकरी करेंगे, ना रहेंगे। अब चाहे जो भी तकलीफ उठानी पड़े हम इस सोने के पिंजरे का मोह छोड़-छाड़ कर चलते हैं कहीं और, जहां कोई काम मिल सके, और कहीं एक कोना आराम से साथ रहने के लिए।'
उसकी बात मुझे सही लगी। मगर मेरे मन के एक कोने में यह घबराहट भी हुई कि, यहां अच्छा खाने-पीने और पैर फैलाने भर की साफ-सुथरी जगह मिल जा रही है। छोड़ने के बाद जाने कहां-कहां ठोकरें खानी पड़े। दर-दर भटकना पड़े। मेरी यह दुविधा छब्बी ने ना जाने कैसे भांप ली। तुरंत बोली, 'क्या सोच रहे हो, डर लग रहा है क्या?' मैंने तुरंत खुद को संभालते हुए कहा, 'नहीं तो, ऐसा क्यों कह रही हो ? मैं तो खुद ही यही चाहता हूं। तुमसे पहले ही कहा था।'
फिर हमने दूसरी योजना बना कर जैसे ही अगले महीने तनख्वाह मिली, उसके अगले ही दिन मैडम से कहा कि, 'हम-दोनों नौकरी छोड़कर कहीं, किसी कस्बे में जाकर कुछ काम-धंधा करेंगे। रहने का कोई ठौर ढूढे़ंगे। क्योंकि मुंबई में सब इतना महंगा है कि, यहां हमारा रहना नहीं हो पायेगा।' 
इस बार मैडम कुछ बहस पर उतर आईं, तो छब्बी भी बिना हिचक बोली, 'मैडम आखिर हम कब-तक ऐसे ही रहेंगे। हम अपना परिवार बसाना चाहते हैं, अपने भविष्य के लिए बच्चे पैदा करना चाहते हैं। इसलिए आपसे यह कह रहे हैं, नहीं तो आप इतने अच्छे से हम-लोगों को रखती हैं, हम क्यों छोड़कर जाने की सोचते। लेकिन सच तो यह भी है ना कि, हम यहां रहकर अपना परिवार, अपने परिवार का सुख तो कभी नहीं पा पाएंगे। इसलिए बस हम पर कृपा करिए।'
समीना सुन्दर हिडिम्बा मैडम बड़ी घाघ थीं। वह मेहनती, जांचें-परखे नौकर इतनी आसानी से नहीं छोड़ना चाहती थीं। तो टालती हुई बोलीं, 'ठीक है, अभी रुको, कल बताऊंगी।'
हम समझ गए कि,अब यह साहब से बात कर प्रेसर बनाएंगी। रोकने का कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगी। मगर हमने भी ठान ली थी कि मानेंगे नहीं। 
समीना एक बात और बताऊँ, छब्बी जब मैडम से बात कर रही थी तो उसकी एक बात मेरे दिमाग में बैठ गई। बाद में मैंने छब्बी से वह बात पूछी कि, 'यह बताओ, तुम तो कहती हो कि शादी, बच्चे कुछ करना ही नहीं है, तो मैडम से झूठ क्यों बोला कि, परिवार बच्चे आदि करने है? ''
इस पर वह तन-तनाती हुई  बोली, 'तो तुम क्या समझते हो कि, वो इतनी आसानी से मान जाएंगी। फिर वो ही हमसे कौन सा सब सच ही बोलती हैं। जो रुकने को बोला है ना, देखना, निश्चित ही साहब का रौब डलवाएंगी और साहब अपनी ताकत दिखाएगा, हड़काएगा।' उसका मूड देखकर मैंने कहा, 'अच्छा छब्बी, हम-लोग सच में शादी करें, मां-बाप बनें तो कितना बढ़िया रहेगा।'
मेरा इतना कहना था कि, छब्बी फिर भड़क उठी। बोली, 'सुन, मुझे जो कहना था वह एक बार कह दिया। दो बार शादी करके, एक बार दो बच्चे पैदा करके मन इतना अघा गया है इन-सब से कि अब  इनके बारे में सोचना भी नहीं चाहती। और सुन तू इस होश में न रहना कि, पहले यहां से चलें, फिर शादी, बच्चे के लिए दबाव डालेंगे। अगर तुम्हारे दिमाग में यह बात है, तो साफ कह रही हूं कि, भूल जाओ। अब भी सोच लो, जिस दिन तुम ने यह बात कही, मैं उसी दिन तुम्हें छोड़ कर कहीं और चल दूंगी।'
समीना उसकी दृढ़ता देखकर मुझे पक्का यकीन हो गया था कि, यह जो कह रही है, वही करेगी। इरादों की पक्की लग रही है। उस समय मैंने यह कह कर बात खत्म की कि, 'मैंने तो ऐसे ही कह दिया। बाकी यह सब तो पहले ही तय है कि, इन झंझटों में हमें नहीं पड़ना है।' 
समीना उस रात मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई। मैं छब्बी को लेकर तरह-तरह के ख़यालों में खोया हुआ था। उस बॉलकनी में लेटा यही सोच रहा था कि, इस समय छब्बी के साथ लेटा होता, तो उससे भविष्य को लेकर और बातें करता। लेकिन सुन्दर हिडिम्बा मैडम जी का जंजाल बनी हुई थीं। उस दिन भी बड़ी देर तक अपनी मालिश करवाने के बाद उसे छोड़ा था। थकी-मांदी वह हमेशा की तरह लॉबी में ही सो गई थी।
इधर तोंदियल भी एक कोने में सो रहा था। हमारे लिए वह भी मैडम से कम बड़ा जी का जंजाल नहीं था। वह नहीं होता तो चाहे जैसे मैं छब्बी को अपने साथ बालकनी में ही रखता। तभी अचानक ही  मेरे दिमाग में यह बात आई कि, छब्बी पिछले कई महीने से मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाए हुए है, लेकिन यह अभी तक प्रिग्नेंट नहीं हुई। कहीं इसने कुछ ऐसी-वैसी व्यवस्था तो नहीं करवा रखी है, ऑपरेशन वगैरह,या कुछ और । लेकिन उसके पेट पर ऑपरेशन के तो कोई निशान हैं नहीं । साहब के यहाँ भी सम्बन्ध बनाती रही है, आखिर मामला क्या है ? मेरे दिमाग में यह बात इसलिए ज़्यादा जोर से उभर आई थी क्योंकि सच यही था कि, मेरे मन में यह बात जमी हुई थी कि, जब जीवन एक ढर्रे पर आ जाएगा, तो छब्बी को किसी भी तरह तैयार करूंगा कि, वह बीती बातों को भूल कर फिर से मां बने । जीवन पुरानी बातों को पकड़ कर बैठने के लिए नहीं है। अतीत में हुई अच्छी-बुरी बातों से सबक लेकर भविष्य की सीढियां बनाने के लिए है। अतीत  की बातें तो भविष्य के लिए नींव का पत्थर होती हैं। इन्हीं मजबूत पत्थरों से भरी नींव पर हम अपने सपनों का महल बनाते हैं। हमें भी यही करना चाहिए। 
मुझ मूर्खाधिराज का भी ध्यान इस ओर बाबू राम के एक बम्पर शराबी और बढ़िया लेखक साथी की बातों से गया था। पता नहीं वह किस सनक के चलते बाबू राम, हम-जैसे लोगों के साथ किसी भी ऊटपटाँग जगह  बैठ कर जमकर मयनोशी करता था, बल्कि शराब चढ़ जाने के बाद ऐसी फूहड़ भद्दी-भद्दी बातें करता था कि हम-लोग भी दांतों तले ऊँगलियाँ दबा लेते थे। 
जब-तक वह शराब के ऊपर होते तब-तक तो अपनी किताबों ,अपने सिद्धांतों की ही बातें करते थे, जिन्हें हम मूर्खों की तरह उन्हें देखते हुए केवल सुनते ही रहते थे , कुछ बोलते , पूछते नहीं थे, क्योंकि वह इतने ऊँचे स्तर की होती थीं कि, हम कुछ समझ ही नहीं  पाते थे। लेकिन जैसे-जैसे शराब उनके ऊपर होने लगती वैसे-वैसे सब कुछ उलटने लगता था।
ऐसे ही अगले दिन सुन्दर हिडिम्बा मैडम ने सेकेंड भर में हम-दोनों की सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया। उलट कर रख दिया सब-कुछ। उन्होंने सवेरे ही कहा कि, 'देखो तुम-दोनों जल्दबाजी में अपने को बर्बाद मत करो। यहां नौकरी और रहने का ठिकाना ढूँढना, लोकल ट्रेन में आराम से बैठने के लिए खाली सीट पाने से ज़्यादा कठिन है। इसलिए मैंने सोचा है कि, तुम-दोनों के लिए यहीं इंतजाम कर दूँ । ऊपर छत पर टीन शेड पड़ा हुआ है, उसे जाकर देख लो, साफ-सफाई कर लो और वहीं रहो। खाने-पीने का भी चाहो तो वहीं इंतजाम कर लो या फिर जैसे चल रहा है, वैसे ही करो।' 
उनकी इस बात ने हमें फिर दो-राहे खड़ा कर दिया। ख़ासतौर पर मुझे, क्योंकि मेरे मन में सोने के पिंजरे से बाहर मिलने वाली कठिन दुनिया की डरावनी तस्वीर बनी हुई थी। मैं भूला नहीं था,ट्रक पर ,गिट्टियों पर बिताई रातें। मैडम के जबरदस्त दबाव के आगे मैं और छब्बी ऊपर छत पर गए। इसके पहले हम कभी ऊपर नहीं गए थे। वहां देखा मकान के एक कोने पर टिन शेड लगा हुआ है। इस बिल्डिंग के तीनों तरफ बिल्डिंगें थीं। वह तीनों इससे ज़्यादा ऊंची थी। कोने में होने के कारण टिन शेड के दो तरफ तो दिवारें थीं, लेकिन दो तरफ दीवारें ना होने के कारण खुला था। टिन शेड बारह फ़ीट से कुछ ज़्यादा चौड़ा और करीब अठारह-उन्नीस फीट लम्बा था। हर तरफ गंदगी, कूड़ा-कबाड़ पड़ा हुआ था। समीना हम-दोनों ने बड़ी देर तक छत और टिन-शेड का मुआयना किया। तीन तरफ ऊंची बिल्डिंगों के कारण वह सुरक्षित था। कुछ देर सोच-विचार कर हमने तय किया कि, यहीं रहते हैं। मगर एक शर्त पर कि, मैडम इसका कोई किराया नहीं लेंगी।
रुकने का फैसला इसलिए लिया क्यों कि इस शहर में इतनी सुरक्षित और इतनी बड़ी जगह ले पाना हमारे वश में नहीं था। बाहर हम खाना-पीना, रहने का ठिकाना आदि के चक्कर में ही इतना उलझ जाते, कि सपनों को सच करने का प्रयास करने का मौका मिलना ही दूभर हो जाता। नौकरी तो हर हाल में कहीं ना कहीं करनी ही थी, तो सोचा करते हैं वहीं। किराए में जो पैसा खर्च होगा, वह हम बचत करते रहेंगे। खाना-पीना मैडम के ही साथ रखेंगे। और हर छुट्टी हम अपने सपने पूरे करने के लिए दौड़-धूप करेंगे। यदि मैडम यह बात मान जाती हैं तो ठीक है, नहीं तो बोल देंगे जय श्री राम।
यह सब सोच समझ कर हमने रुकने की हामी भर दी। लेकिन ऊपर से अनिच्छा दिखाते हुए। पहली बार हम सुन्दर हिडिम्बा मैडम के सामने सफल हुए थे। इसके बाद अगले दो दिन में हमने ऊपर साफ-सफाई करके जगह रहने लायक बना ली। टिन शेड के दो तरफ तिरपाल लगाकर उसे चारों तरफ से ढंक लिया। आने-जाने भर का एक छोटा हिस्सा खुला छोड़ा। बिस्तर जमीन पर ही लगाया।
मैडम से इतनी मदद मिल गई कि, उन्होंने अपने बेड के लिए बहुत महंगे वाले स्प्रिंग के गद्दे मंगवाए थे, पुराने दोनों खाली गद्दे भी नए से ही दिख रहे थे। वह दूसरे कमरे में खाली पड़े थे। छब्बी ने बिना किसी हिचक, वह दोनों गद्दे मैडम से मांग लिए, इस पर वह अपलक ही छब्बी को देखने लगीं, तो उसने हंस कर, 'मैडम जमीन पर कैसे सोएंगे। तखत, चारपाई, बिस्तर कुछ भी तो नहीं है।'
इसके बाद मैडम ने बड़े बेमन से कहा था ,'अच्छा ले लो।' तो समीना इस तरह टिन-शेड, तिरपाल और दो ईंटों की दिवार के सहारे हमने अपना ठिकाना बनाया था। जहां सोने के पिंजरे से बाहर हम खुल-कर सांस ले सकते थे ।
लाइट के नाम पर एक बल्ब जलाने की आज्ञा थी। हमने उस टिन-शेड के बीचो-बीच एक बल्ब तार के सहारे लटकाया था। उस वक्त मौसम बढ़िया था। पंखे की जरूरत एक आध महीने बाद ही पड़ने वाली थी। यह सारी व्यवस्था करने के बाद जिस दिन हम-दोनों पहली रात वहां बिताने पहुंचे, उस दिन अपना खाना भी हम ऊपर ही ले गए। हमने साथ खाया। वह रात हमने वहां ऐसे बिताई मानो शादी के बाद नव-दम्पत्ति ने सुहाग-रात मनाई हो।
मुंबई में मेरी वह पहली ऐसी रात थी, जिसमें मैंने पूरा आराम, पूरी नींद, पूरा चैन महसूस किया था। धीरे-धीरे दो-तीन महीने में हमने उस शेड के नीचे अच्छी-खासी गृहस्थी बना ली थी, और तय योजना के मुताबिक हम-दोनों लाख अड़चनों के बावजूद मुंबई के फ़िल्मी लोगों तक पहुँचने का अवसर जरूर निकाल लेते, उनसे एक्टिंग का एक चांस देने के लिए मिन्नतें करते। मैंने जल्दी ही यह अहसास किया कि, यदि छब्बी ना होती तो ऐक्टिंग के लिए जितने प्रयास मैं कर ले रहा हूँ वह नहीं कर पाता।
वह जिस तरह से मैडम को अपनी बातों, अपनी मेहनत, अपने काम से सम्मोहित किए हुए थी वह सुंदर हिडिम्बा जैसी असाधरण तेज़-तर्रार महिला के सामने सच ही असाधारण काम था। उसके इसी सम्मोहन के चलते मैडम से हम-दोनों कहीं आने-जाने की इतनी छूट, इतना समय ले पाते थे। जल्दी ही हमने कुछ रुपये इकट्ठा किए, कुछ मैडम से लिए और एक पुरानी मोटर-साइकिल खरीद ली। उससे कहीं जाना-आना और आसान हो गया। 
लेकिन समीना कोशिश करते-करते करीब दो साल बीत गए। इन दो सालों में जहां भी आस की किरण नजर आई हम-दोनों वहां गए। मगर हर जगह हताशा, निराशा, दुत्कार, अपमान, उपेक्षा ही हाथ लगी। हर जगह मेरे काले रंग,मेरी लम्बाई की खिल्ली उड़ाई गई,मजाक बनाया गया। किसी जगह किस्मत अच्छी रही तो कहा गया कि कहाँ एक्टिंग के पीछे घूम रहे हो, कुछ काम-धाम देखो। इन अपमानों को झेलता मैं अपना सा मुंह लेकर चला आता। समीना, छब्बी साथ ना होती तो इतनी हताशा में शायद मैं आत्महत्या कर लेता। इतना टूट जाता था इंकार सुन-सुनकर कि, जीने का मन ना करता। मगर छब्बी हर बार हिम्मत देती, हारने न देती, कहती, 'सुन, मेरी आत्मा कहती है कि, एक दिन तू फ़िल्मों में जरूर काम करेगा। तू विलेन-किंग जरूर बनेगा।' ऐसा कहते समय वह अपनी दाहिनी हथेली छाती पर ऐसे ठोंकती जैसे अखाड़े में कोई पहलवान, दूसरे पहलवान को देखकर ताल ठोंकता है। आखिर में वह यह जोड़ना न भूलती, 'देख साढ़े छह फिटा लंबा-चौड़ा फैलाद सा शरीर है, तो मन भी फैलाद सा बना, तभी विलेन-किंग बन पाएगा, नहीं तो कभी कुछ नहीं बन पाएगा। जो है बस यही बना रहेगा हमेशा।'
समीना आज भी जब उसकी बातें याद आतीं हैं, तो मुझमें उठ कर खड़ा होने की उमंग, जोश भर देती हैं। एक बार हम-दोनों को पता चला कि, एक नया-नया फ़िल्म निर्माता फ़िल्म बनाने की तैयारी में है, और हमारे अनुकूल बात यह कि वह फ़िल्म में सारे के सारे नए-नए कलाकार ले रहा है। यह जानकर मैं एकदम उछल पड़ा। मानो मुझे फ़िल्म मिल गई हो। मैंने उस रात छब्बी से अगले दिन निर्माता के ऑफ़िस विले पार्ले वेस्ट जाने की बात कही, तो वह बोली, 'सुन मैं भी चलूंगी। तू बात ठीक से नहीं कर पाता। मेरे रहने पर तो हकलाता रहता है, ना रहने पर तो बोल भी न पाता होगा। ऐसे में तुझे काम क्या खाक मिलेगा।'
उसकी बातें काफी हद तक सही थीं, तो मैं कुछ बोल नहीं सका। सिर्फ़ इतना कहा कि, ' ठीक है चलना। हो सकता है हम-दोनों को एक साथ ही काम मिल जाए।' तो वह बोली, ' ए...सपना इतना बड़ा भी न देख कि यदि टूट जाए तो संभल ही न पाएं और हार्ट फेल हो जाए।'
मैंने कहा, 'तू साथ रहेगी तो मेरा फेल हार्ट भी चल पड़ेगा।'
तो उसने कहा , 'अच्छा अब ज़्यादा तेलबाजी ना कर।' 
उसकी इस बात पर मैंने उसे बाहों में जकड़ कर कहा, 'अरे! जाने-मन तेरे को तेल नहीं लगाऊंगा तो किसे लगाऊंगा। इस दुनिया में जो अपने थे उन सब को तो छोड़ दिया,अब  तेरे सिवा है ही कौन मेरा।'
यह बात कहते-कहते मैं अचानक ही गंभीर हो उठा। तो उसने अपने को मेरी बांहों में एकदम ढीला छोड़ते हुए कहा, 'ए.. तू बात-बात पर इतना कमजोर क्यों पड़ जाता है। ये अच्छी तरह समझ ले कि, यहां कमजोर पड़ने वाले कभी कुछ कर नहीं पाते। बल्कि हमेशा के लिए चुक जाते हैं समझा। और तू तो विलेन-किंग बनने आया है। ख्वाब इतने ऊंचे पाल रखे हैं, और हिम्मत चूजों जैसी।' यह कहते-कहते उसने भी अपनी दोनों बांहों से मुझे भरपूर जकड़ लिया। उस समय हम-दोनों ही बड़े भावुक हो गए थे।
अगले दिन सुन्दर हिडिम्बा आंटी पिछली कई बार की तरह फिर पत्थर बन रास्ते में आ पड़ीं। उन्होंने यह कहते हुए साफ मना कर दिया कि, 'काम बहुत है। आज किसी भी हालत में छुट्टी नहीं मिल सकती। जबकि हम-दोनों ने यह कतई नहीं बताया था कि, फ़िल्म में काम की तलाश में जा रहे हैं। छब्बी ने योजनानुसार यही बताया था कि,लगता है वह पेट से हो गई है। और पता नहीं क्यों तकलीफ ज़्यादा हो रही है। इसलिए डॉक्टर के पास जाना चाहती है। कहीं तकलीफ बढ़ गई तो मुश्किल हो जाएगी। इस पर सुन्दर हिडिम्बा आंटी बुरा, कसैला सा मुंह बना कर बोलीं , 'ऐसा कुछ नहीं है। तकलीफ बढ़ेगी तो देखा जाएगा। मैं हूं, तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं। 'हमने कई बार मिन्नतें कीं, लेकिन सुन्दर हिडिम्बा टस से मस नहीं हुईं, उल्टे बड़ी बेरूखी के साथ हम-दोनों को कई कामों में लगा दिया। हम-दोनों खून का घूंट पी कर रह गए। उस रात सुन्दर हिडिम्बा को हमने खूब कोसा, गरियाया, और साथ ही अगले दिन एक और प्रयास के लिए योजना भी बना ली।
सवेरे मैडम के साथ योग वगैरह करने के बाद छब्बी किचेन में नाश्ता बना रही थी। अचानक कई बर्तन गिरने की आवाज आई तो मैं दौड़ा, वहां गया। जमीन पर कई बर्तन पड़े हुए थे। छब्बी भी जमीन पर गिरी हुई थी। उसे उठाकर मैं बाहर ले आया तो सामने नज़र आईं मैडम। मुझे छब्बी को पकड़े देख कर पूछा, 'क्या हुआ?'
मैंने कहा,'तबियत ठीक नहीं है। चक्कर आ गया तो गिर गई। यह कहते हुए मैंने छब्बी को लॉबी में जमीन पर बैठाया और पानी लेने किचेन में गया। लौटा तो देखा मैडम झुकी हुई छब्बी से कुछ पूछ रही हैं। जब छब्बी ने पानी पी लिया तब उन्होंने कहा कि, 'कुछ खा-पी ले, तो इसे डॉक्टर के यहां दिखा लाओ।' 
मैंने कहा,'जी ठीक है।' 
इसके बाद छब्बी को लेकर मैं  ऊपर अपने आशियाने में आ गया।
मैंने देखा छब्बी की हालत से तोंदियल भी परेशान हो गया था। मैंने सोचा कौन किसके दिल की कब पीर बन जाए कुछ पता नहीं। ऊपर आशियाने में आते ही हमने एक दूसरे को भींच कर पकड़ लिया। हंस पड़े हम। छब्बी की खिल-खिलाहट बंद ही नहीं हो रही थी। हमारी छुट्टी लेने की योजना, ऐक्टिंग दोनों जबरदस्त कामयाब हो गई थीं। 
छब्बी ने महिलाओं की एक ऐसी अंदरूनी समस्या का बहाना किया था कि, मैडम जैसी स्मार्ट महिला भी मान गई। हम-दोनों जल्दी ही तैयार हो कर गोरे गांव के लिए निकल लिए। रास्ते में छब्बी से मैंने कहा, 'एक्टर बनने मैं जा रहा हूं, लेकिन तेरी एक्टिंग तो लाजवाब है। चल वहां दोनों ही काम मांगते है। क्या पता दोनों ही चल निकलें।'
इस पर वह बोली, 'चल-चल, पहले तू विलेन बन फिर मेरे को हिरोइन बनाना।'
रास्ते भर ऐसी ही बातें करते हम विले पार्ले वेस्ट एक अनाम से निर्माता के पास पहुंचे, तो हमारा उत्साह, उसके ऑफ़िस को देख कर काफी हद तक ठंडा पड़ गया। एक्टिंग के लिए लालायित मेरे जैसे कुछ और लड़के-लड़कियां, मर्द-औरतें पहले से पहुंचे हुए थे, उन्हीं से मालूम हुआ कि अंदर ऑडिशन चल रहा है। निर्माता-निर्देशक महोदय एक-एक कर लोगों से मिल रहे हैं। मैं भी अपने नंबर का इंतजार करने लगा। करीब दो घंटे बाद मुझे बुलाया गया। मुझे कुछ क्षण तक वह देखता रहा, फिर बैठने का संकेत कर बातें पूछने लगा। मैंने सीधा सा जवाब दिया कि, 'कई ऐड फ़िल्मों में काम कर चुका हूं। फ़िल्म में काम करना चाहता हूं। एक्टिंग वगैरह का कोई कोर्स नहीं किया है।'
यह सब कहते हुए मेरे दिमाग में साहब के लिए समुद्र तट आदि पर जो काम किया था, वही सब चल रहा था। वह मुझे सीधे-सपाट अंदाज में बात करते देख कर बोला, 'एक्टिंगआती है कि नहीं, इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। एक्टिंग तो मैं अनाड़ी से अनाड़ी व्यक्ति से भी करवा लेता हूं। बस उसमें काम करने की चाहत होनी चाहिए।'
मैंने कहा,'मेरी चाहत में कोई कमी नहीं है। काम के लिए ही तो आया हूं।' उसकी ऐसी ही और बातों से मैं अंदर ही अंदर ऊबने लगा। मगर उसने अपनी बातों से यह विश्वास दिला दिया कि, वह वाकई फ़िल्म निर्माता है, और फ़िल्मों का जानकार भी।
मैंने सोचा कि, यह उम्र में मुझसे छोटा ही होगा लेकिन कितना आगे है। फिर उसने कुछ ही देर में वह कह दिया जिसे सुनकर मैं उछल पड़ा। जिसे सुनने के लिए मैं बरसों से दर-दर की ठोकरें खा रहा था। ना जाने किस-किस की क्या-क्या बातें, गालियां, अपमान सुन-झेल रहा था। जिसके लिए अपना घर-द्वार मां-बाप परिवार सब छोड़ आया था। उसने मुझे अपनी फ़िल्म में विलेन का रोल देने के लिए चुन लिया था। लेकिन मुख्य विलेन के लिए किसी और को चुना था। इससे मैं थोड़ा मायूश हुआ था।    
फिर भी मैंने उसे लाख-लाख धन्यवाद दिया। आभार जताया। मगर इसी वक्त मेरे मन में पैसे की बात भी उठी, कि यह अभी तक पैसे के बारे में तो कुछ बोल ही नहीं रहा है। कहीं साहब की तरह यह भी मुफ्त में ही काम न करा ले। मगर काम मिलने की खुशी में मैं कुछ पूछने  की हिम्मत नहीं कर सका। बात पूरी होने का इशारा मिलते ही एक आदमी मुझे बगल के एक छोटे से केबिन में ले गया। जहां एक महिला ने एक रजिस्टर में मेरा पूरा ब्योरा नोट कर लिया। 
मेरा मोबाइल नंबर भी और कहा कि, 'जल्दी ही फ़िल्म की शूटिंग शुरू होने पर बुलाया जाएगा।' फ़िल्म के नाम आदि के बारे में मैंने कुछ जानना चाहा तो उसने कहा, 'यह सब उसी समय बताया जाएगा।' मन में पैसे को लेकर चल रही उधेड़-बुन पर मैं ज़्यादा देर कंट्रोल नहीं कर पाया और दबे मन से यह बात भी उसके सामने रख दी। यह सुनते ही उसने मेरी तरफ ऐसे देखा मानो मैंने कोई अपराध कर दिया है।
कुछ क्षण देखने के बाद बोली, 'न्यू कमर्स के लिए तो चांस मिल जाना ही बहुत बड़ी रकम मिलने से कम नहीं है। फिर भी पेमेंट तो करेंगे ही। पहले काम तो शुरू होने दीजिए।' उसकी बातों ने मेरे सारे उत्साह पर एक तरह से पानी फेर दिया था। संतोष था तो सिर्फ़ इतना कि चलो शुरुआत तो हुई। कुछ तो काम मिला।
बाहर आकर छब्बी को बताया तो वह भी बहुत खुश हुई। पैसे की बात पर उसने कहा, 'चल कोई बात नहीं, पैर रखने की जगह मिल गई है, तो आगे और फ़िल्मों में भी तुझे काम मिलेगा। तू ऐक्टिंग सीखेगा, वह भी मुफ्त। यदि पैसा मिल गया तो उसे बोनस समझ लेना।' कुल मिलाकर हमने अपने हिसाब से जश्न भी मनाया। होटल में खाना खाया। जब वापस लौटे तो रात हो रही थी। नीचे ऑफ़िस बंद हो चुका था। ऊपर पहुंचे तो मालूम हुआ कि सुन्दर हिडिम्बा मैडम शाम पांच बजे ही कहीं गई हैं।
यह जानकर मन में बड़ी राहत महसूस की, कि चलो अच्छा हुआ नहीं तो सुन्दर हिडिम्बा दवा, डॉक्टर और पर्चा आदि के बारे में पूछतीं तो क्या बताता। तोंदियल ने पूछा, 'क्या हुआ था?' तो उसे बताया कि , 'कुछ खास बात नहीं है। पहले तो हम डर रहे थे, लेकिन डॉक्टर ने कहा कि कोई डरने वाली बात नहीं है। बस कुछ स्टमक डिसऑर्डर सा है, दो-चार दिन में सही हो जाएगा।'
मगर छब्बी ने और आगे की सोचते हुए एकदम से एक नई कहानी गढ़ दी कि, 'आते वक़्त हमारा बैग ना जाने कहां गिर गया? उसी में दवा, पैसे, पर्चा सब था।'
'तो फिर दवा कैसे खाओगी?' 
छब्बी तुरंत बोली, 'एक खुराक चलने से पहले खा ली थी। उससे बड़ा फायदा हुआ है। बाकी कल देखेंगे।' 
मैं समझ गया कि छब्बी ने मैडम से निपटने का पुख्ता इंतजाम कर लिया है। मगर उस दिन इसकी नौबत ही नहीं आई। मैडम खा-पी कर रात में एक बजे आईं और सीधे बेडरूम में जाकर कर सो गईं। उन्होंने अच्छी-खासी ड्रिंक कर रखी थी। उनका इंतजार कर-कर के ऊबे हम सब भी खा-पी कर अपने बिस्तरों पर पहुंच गए।
बहुत दिनों बाद, ये कहें समीना कि, बड़वापुर छोड़ने के बाद वह दूसरी ऐसी रात थी जो मेरी तब-तक की सबसे खूबसूरत रात थी। उस रात छब्बी भी जिस कदर खुशी में पागल होकर प्यार में रात-भर मेरे साथ मिल रही थी , उससे मुझे विश्वाश हो गया कि, यह वाकई मेरे साथ तन से ही नहीं, मन से भी पूरी तरह जुड़ी है। मेरी खुशी से, उसी तरह खुश है जिस तरह मैं स्वयं। 
रात-भर कभी मैं उसे बांहों में भर प्यार करता, कभी वो करती। हंसती खिल-खिलाती। उस दिन मैंने जाना कि, छब्बी तो प्यार का सागर है। जो उस प्यार के सागर के साथ भी खुश ना रह सके, उससे बड़ा अभागा और कोई नहीं हो सकता। रातभर हम नए-नए सपनों में खोते रहे। उस रात एकदम आखिर में, हम-दोनों बमुश्किल दो घंटे ही सो पाए थे। सवेरे मैडम की तीखी डांट मिली। छब्बी ने बैग खोने, तबियत खराब होने की खूबसूरत ऐक्टिंग करके उनके गुस्से को काफी हद तक कम कर दिया था। फिर भी दिन भर बात-बात पर उनकी तीखी झाड़ की खुराक मिलती रही।
निर्माता-निर्देशक के फ़ोन का इंतजार करते-करते दस-बारह दिन बीत गए। कोई फ़ोन नहीं आया, तो एक दिन मैंने खुद किया, तो कहा गया कि दो दिन बाद फ़ोन कीजिए। अब मेरी धड़कनें और बढ़ गईं। छब्बी भी उतावली हो रही थी। बड़ी बेचैनी में कटे दो दिन। तीसरे दिन फिर फ़ोन किया। तो बड़ा रूखा सा जवाब मिला कि, 'कल सुबह दस बजे आ जाइए।' बात पूरी होने के साथ फ़ोन काट दिया लेकिन और बातें जानने के लिए मैंने फिर मिला दिया।  मगर रूखा सा जवाब मिला कि, 'बाकी बातें यहीं आकर करिएगा।' साथ ही फिर फ़ोन कट गया। मन में अजीब सी छटपटाहट बेचैनी लिए हम-दोनों अब इस उलझन में पड़ गए कि कल कैसे निकला जाए? इस बार मैडम को धता बताना संभव नहीं है। कोई रास्ता न सूझते देख हम-दोनों ने तय किया कि, मैडम को साफ बात देंगे कि, हमें फ़िल्म में काम मिल गया है, और हम हर हाल में जाएंगे। जितने दिन हम काम पर नहीं रहेंगे, उतने दिन की हमारी तनख्वाह काट लीजियेगा, और यदि इस पर भी नहीं मानीं तो कह देंगे हम नहीं कर पाएंगे नौकरी, निकाल दे हमें।
छब्बी और मेरा दिमाग इसलिए भी सातवें आसमान पर था, क्योंकि हमारे दिमाग में अब यह बात घर कर गई थी, कि ना कुछ सही, इस फ़िल्म से इतना पैसा तो मिल ही जाएगा कि, गुजर-बसर करने लायक गाड़ी चल ही जाएगी। और अब तो दूसरी फिल्मों के मिलने के भी सारे रास्ते खुल गए हैं।
उस दिन जब छब्बी रात एक बजे मैडम की  मसाज वगैरह करके, सुला के, ऊपर आई तो बोली, 'सुन, बड़ी मगज़मारी, हाथ-पैर जोड़ने के बाद मोटी बोली कि, तू अकेले ही जाएगा। मैं नहीं जाऊँगी। यहां काम कौन करेगा? तेरा काम भी कल मुझे ही करना है।' छब्बी यह भी बोली कि, 'मैडम कह रही थीं कि, ऐसे फ़िल्म निर्माता यहां गली-कूचों में भरे पड़े हैं। ये सब या तो सी ग्रेड एडल्ट मूवी बनाते हैं या धोखे में रख कर पॉर्न मूवी और मार्केट में बेचकर रफूचक्कर हो लेते हैं।'
मैडम की इस बात ने मेरा और छब्बी का मन भीतर ही भीतर बड़ा खट्टा सा कर दिया था। हम-दोनों काफी देर तक इस बारे में बात करते रहे कि,जैसा सुना करते हैं फ़िल्म निर्माताओं, निर्देशकों के ऑफ़िस के बारे में वहां वैसा तो कुछ वाकई नहीं था। फिर सारी बातों को किनारे करते हुए हमने तय किया कि, अब जो होगा देखा जाएगा। बात हो गई है तो, एक बार देख लेने में क्या नुकसान है।
यहां हर आदमी दूसरे का फायदा उठाने में लगा हुआ है, यदि यह भी उठा लेगा तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा। यह मैडम भी तो हमारी मजबूरी का फ़ायदा उठा ही रही हैं। यह जानती हैं कि, हमारे जैसा मेहनती जल्दी कोई दूसरा मिलेगा नहीं, तभी तो थोड़ा नर्म पड़ीं, जाने दे रही हैं। यह उनकी चालाकी नहीं तो और क्या है कि, ऑफ़िस के काम के अलावा घर का भी सारा काम उसी पगार में कराती हैं। अहसान कि रहने, खाने की सुविधा दे रखी है।
अरे! मैडम यह क्यों नहीं बतातीं कि, घर के काम के लिए तीन-तीन स्वभिमानशून्य दास से नौकर रखतीं तो कितना पैसा देतीं। हर महिने कम से कम तीन बार गले तक दारू भर-कर जो उलट-पुलट देती हैं, लुढ़क जातीं हैं, तब डेढ़ कुंतल का तुम्हारा शरीर उठाकर कौन नौकर बेड पर पहुंचाएगा। कौन उल्टी-फुल्टी नर्क साफ करेगा। ऊपर से तुम्हारा आतंक इतना, कि तुम्हें उठाते हुए हमारी आत्मा कांपती है, कि कहीं तुम्हें अगले दिन कैमरे की रिकॉर्डिंग देख कर यह अहसास हो गया कि उठाते समय तुम्हारे शरीर के साथ हमने छेड़-छाड़ की है, तो हमारी बोटी-बोटी कटवा दोगी। और नाम-मात्र के पैसों, एक तरह से मुफ्त में छब्बी से जो स्पेशल मसाज कराती हो वह कौन करेगा। मसाज पार्लर में तो महीने में साठ-सत्तर हजार रुपये का बिल इसी का हो जाएगा। इतनी सारी मुफ्त सेवा लेने के बाद ही अगर कुछ सुविधा दे देती हैं, तो कौन सा अहसान कर देती हैं। बड़ी देर तक हम-दोनों ऐसे ही हिसाब-किताब लगाते रहे, फिर कहीं सोए।
अगले दिन सुबह दस बजे, मैं बिना छब्बी के ही उस फ़िल्म निर्माता के पास पहुंच गया। उस दिन पहले वाले दिन की तरह से लोग नहीं थे। लेकिन फिर भी काफी थे। कई महंगी-महंगी  कारें खड़ी थी। मैंने रिसेप्सन पर बताया कि मुझे प्रोड्युसर साहब से मिलने के लिए बुलाया गया है। तो उसने कहा, 'थोड़ा वेट करना पड़ेगा।' मैं वहीं पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। उसने पहली बार की तरह उस दिन भी मुझे कुछ आश्चर्य से ऊपर से नीचे तक देखा था। उसकी क्या सब की नज़र एक बार मुझ पर जरूर पड़ रही थी। उस वक़्त मुझे अपने बहुत ज़्यादा लंबे-चौडे़ शरीर पर बड़ा गर्व हो रहा था। 
मुझे लग रहा था, जैसे मैं उन लोगों के बीच कोई बेहद खास व्यक्ति हूं। बड़े लंबे इंतजार के बाद प्रोड्यूसर डायरेक्टर मिले। वही रूखा व्यवहार, वही जल्दबाजी। तमाम बातें जल्दी-जल्दी बोल दीं। जिनमें से बहुत सी मेरे पल्ले ही नहीं पड़ीं। केवल इतना ही समझ सका कि, दो दिन बाद वार्सोवा में शूटिंग शुरू होगी, वहीं पहुंचना। और बातों के लिए दूसरे आदमी के पास भेज दिया गया। उसने वार्सोवा के उस जगह का पता दिया जहां पहुंचना था। और कुछ पन्ने दिए कहा, इसे रट डालना। आगे जब-तक कहा न जाए तब-तक दाढ़ी और बाल नहीं कटवाना। मैंने कहा ठीक है। लेकिन तभी मन में आया कि इसने सारी बात कह दी, लेकिन पैसों का तो नाम ही नहीं लिया तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। बड़ी देर से मन ही मन उबल रहा था, तो मैंने सीधे-सीधे पैसे की बात पूछ ली। इस पर उसने कुछ देर घूरने के बाद कहा, ' देखिए ऐसा है कि, अभी हम कन्वेंस और फूडिंग का ही पेमेंट करेंगे। बाक़ी फ़िल्म के रिलीज होने के बाद ही होगा।' मैंने कुल अमाउंट पूछा तो वह बड़ी उपेक्षा के साथ बोला, 'यह फ़िल्म के बिजनेस पर ही डिपेंड करेगा।'  उसकी इस बात ने मुझे और परेशान किया।
मैंने तपाक से पूछ लिया कि, 'यदि फ़िल्म ना चली तो?' यह सुनते ही वह बड़ी रोष-भरी आवाज में बोला,'ये आप कैसे कह सकते हैं कि फ़िल्म नहीं चलेगी।' उसके गुस्से ने मुझे चुप करा दिया। फूडिंग, कंवेंस का भी उसने क्लीयर कर दिया कि, जिस दिन शूटिंग चलेगी उसी दिन मिलेगा। बुझे मन से मैं लौट आया सुन्दर हिडिम्बा के पिंजरे में। मैडम सामने पड़ीं तो उन्हें सब बताना पड़ा। मैंने कई बातें तोड़-मरोड़ कर बताईं या बताई ही नहीं। लेकिन फिर भी उनके ताने व्यंग्य की मार से बच नहीं सका।
रात में छब्बी ने वह कागज देखे जिसमें लिखे डायलॉग मुझे रटने थे। मैंने छब्बी को सारी बातें सच-सच बता दी थीं। उससे वह भी बड़ी निराश हुई थी। मगर आखिर तय यही हुआ कि, अब जो भी है, कदम बढ़ाया है, तो पूरा चला ही जाए। सारे डायलॉग पढ़ने के बाद छब्बी बोली, 'साले ये कौन सी फ़िल्म बना रहे हैं। ऐसे डायलॉग वाली फ़िल्म तो परिवार, बच्चे देख ही नहीं सकते।'
 मैंने कहा, 'हां, मुझे भी लगता है कि, यह कोई एडल्ट फ़िल्म ही है।'
मैंने उस दिन यह भी मार्क किया कि, छब्बी फ़िल्मी दुनिया के बारे में मुझसे कहीं ज़्यादा स्पष्ट समझ रखती है।
दो दिन बाद मैं तय समय से पहले ही वार्सोवा के पते पर पहुंच गया। वह एक बड़ा भारी मकान था। बहुत बड़े सिक्योरिटी पिकेट में गार्ड बैठा मिला। बाउंड्री से लगी कई कारें खड़ी थीं। कुछ कारें अंदर पोर्च में भी खड़ी थीं। आस-पास भी बड़े-बड़े मकान थे। मुझे वहां सन्नाटा सा दिख रहा था। मन में संदेह पैदा हो रहा था कि, यह क्या गोरख-धंधा है। कहा था कि यहां फ़िल्म की शूटिंग होगी, और यहां तो ऐसा कुछ दिख ही नहीं रहा है। धड़कता दिल लिए मैं गार्ड के पास पहुंचा, तो वह मेरी जिराफ सी लंबाई को सिर उठा कर देखने लगा, मैंने उसे बताया कि बात क्या है।
तो वह बोला, 'ओह... अच्छा तो रुकिए दो मिनट।' फिर इंटरकॉम पर बात कर उसने मुझे अंदर भेज दिया। वहां एक बरामदे में बैठने को कहा गया।
वहां पड़ी बहुत कुर्सियों में से एक पर मैं बैठ गया। तभी एक आदमी अंदर से निकला और मुझे देखकर वापस चला गया। उसके दरवाजा खोलने पर अंदर एक बड़ा कमरा दिखा, वह ड्राइंगरूम सा दिख रहा था। मेरे अलावा वहां एक और आदमी भी बैठा था। करीब डेढ़-दो घंटे के भीतर दर्जन भर लोग आ गए। इनमें लड़कियां-औरतें भी थीं। कुछ हाई-फाई दिखने वाले लोग दरवाजा खोल-खोल कर सीधे अंदर ऐसे चले गए, मानो वह उन्हीं का घर हो।
बारह बजते-बजते प्रोड्यूसर-डायरेक्टर दोनों आ धमके। उनके आते ही वहां माहौल में मानों करंट दौड़ गया हो। बरामदे में बैठे लोग खड़े हो गए थे। मैं भी खड़ा हो गया उनके सम्मान में। फिर एक-एक कर बरामदे में बैठे कई लोग अंदर बुला लिए गए। मेरी धड़कनें भी मुंबई की शेयर मार्केट की तरह ऊपर-नीचे होती रहीं। 
समीना अंदर वह मकान नहीं, राजसी ठाठ-बाट वाला एक महल सा था। अपने से पहले गए लोगों में से कईयों को मैंने रिहर्सल करते देखा। मुझे गुस्सा आई कि, सालों ने मुझे बताया नहीं, नहीं तो मैं भी रिहर्सल करता। जल्दी ही मेरे पास एक अजीब चिरकुट सा दिखने वाला आदमी आया और नाम पूछ कर मुझे सीधे सीन समझाने लगा कि, मुझे सीढ़ियों से ऊपर बेडरूम में जाकर वहां सोई घर की मालकिन का रेप करना है। मैं इस घर के मालिक द्वारा अपमानित करके निकाला गया नौकर हूं। जो अपने अपमान का बदला लेने के लिए, मालकिन से रेप कर उसकी हत्या भी कर देता है।
शीन समझाने के बाद उसी बेडरूम में रिहर्सल कराने लगा। समीना रिहर्सल क्या रिहर्सल का मजाक उड़ाया जा रहा था। मैंने सुना था कि, कलाकारों से हफ़्तों, महीनों रिहर्सल कराते हैं, तब कहीं जाकर शूटिंग करते हैं। डायलॉग महीनों रटाते हैं। यहां तो बस मिनट भर में सब कुछ हो रहा है। मन में तरह-तरह की शंका उठ रही थी कि, ये वाकई फ़िल्म-निर्माता हैं या कोई धोखेबाज हैं, जो फ़िल्म के नाम पर कुछ और तमाशा कर रहे हैं। कुछ गलत-सलत करके निकल देंगे और फसेंगे हम।
जिस एक्ट्रेस को मालिक की बीवी का रोल प्ले करना था, वह औसत से कुछ ज्यादा कद की 
अच्छी-खासी हेल्दी,गोरी सी महिला थी। किसी अच्छे पैसे वाले घर की लग रही थी। काफी सुन्दर भी थी। उसे देख कर ही मैं संकोच में सिकुड़ा जा रहा था। जबकि मुझे उसी के साथ रेप, मर्डर की ऐक्टिंग करनी थी। समीना बड़वापुर कस्बे के मेरे जैसे एक फुल अनाड़ी के लिए यह एक बहुत-बहुत बड़ी चुनौती थी। रिहर्सल के दौरान ही मुझे पसीना आ जा रहा था, जब कि उस समय मुझे उसके कपड़े खींचने ,फाड़ने नहीं थे।
कुछ देर की रिहर्सल के बाद शूटिंग शुरू हुई तो यह सब करने में मैं कांप  रहा था। इस पर डायरेक्टर ने मुझे हड़काते हुए बाहर कर देने की धमकी दी। मैं घबड़ा गया कि कितने पापड़ बेलने के बाद तो किसी तरह कहने भर को रोल मिला है। बड़ी कोशिश कर अपने को संभाला। और रिक्वेस्ट की, कि अब गलती नहीं होगी। बार-बार गलती के चलते री-टेक हो रहे थे। एक्ट्रेस भी बार-बार रेप सीन दोहराने के कारण परेशान हो गई थी। 
उसे बार-बार कपड़े पहनने पड़ते,और मैं शीन के हिसाब से उसे खींच-खाँच कर करीब-करीब नग्न करता था, उसके शरीर के तमाम हिस्से को पूरी क्रूरता दिखाते हुए नोचता ,रगड़ता ,मसलता था। लेकिन मेरी अपेक्षा वह महिला हर बार बढियाँ ऐक्टिंग कर रही थी । वह बड़ी अनुभवी,समझदार लग रही थी। आखिर उसने मुझे समझाते हुए कहा,' तुम ऐक्टिंग कर रहे हो ,घबराने की ज़रूरत नहीं है,घबराओगे तो कभी नहीं कर पाओगे।'
उसके समझाने से न जाने क्या जादू हुआ कि अगली बार मैंने बिलकुल ठीक किया,महिला तो पहली बार से ही ठीक कर रही थी। लेकिन री-टेक बोल दिया गया। इसपर महिला ने पहले मुझे, फिर डायरेक्टर को ऐसे देखा जैसे पूछ रही हो ,ये क्या ? इस बार तो दोनों ने ठीक किया था। लेकिन डॉयरेक्टर ने बोला री-टेक तो री-टेक।
फिर यह तमाशा कई बार हुआ तो मुझे लगा कि, जानबूझ कर री-टेक के बहाने महिला का शोषण किया जा रहा है। डायरेक्टर महिला को समझाने के बहाने उसके पूरे शरीर को टटोल रहा है , हर बार उसके  बदन को ज़्यादा से ज्यादा उधड़वा रहा है। मुझ से ऐसी हरकतें करवाई जा रही थीं, कि सच में रेप करने वाले भी न करते होंगे। महिला की हालत पर मुझे दया आ रही थी। निकाले जाने के डर से ज्यादा, मैं उसे तकलीफ से मुक्ति दिलाने की सोच कर इतना बढ़िया अभिनय कर रहा था कि वह वास्तविक से भी ज़्यादा वास्तविक लग रहा था।
आखिर कई और री-टेक के बाद शॉट ओ.के. हुआ। चिरकुट डायरेक्टर ने मुझे शाबासी देते हुए,मेरी पीठ ठोंकी। लेकिन उसके कमीनेपन के कारण मेरे मन में आया कि, इसे उठा कर पूरी ताक़त से सामने दिवार पर दे मारूँ। मुझे महिला की हालत पर बहुत दुख हो रहा था। मेरे राक्षसी जिस्म ने उसे सच में कई जगह चोट पहुंचा दी थी। शॉट ओ.के. होने के बाद वह रो पड़ी थी।
देर रात को सोने के पिंजरे में सुन्दर हिडिम्बा ने खाना खाने के बाद मेरे सपनों के महल की कई ईंटें एक साथ खिसका दीं। उन्होंने सारी बातें जानते ही कहा, 'तुम अपना समय बरबाद कर रहे हो। वो सब तुम्हें ठग रहे हैं। वो कोई फ़िल्म-मेकर नहीं हैं। सी ग्रेड फ़िल्म के नाम पर भी तमाशा कर रहे हैं। ये लोग एक तरह से टू-एक्स मूवी बना कर पैसे कमाते हैं। और तुम जैसे हीरो-हीरोइन बनने के लिए, पागलों की तरह घूम रहे लोगों से, मुफ्त में काम करवा कर रफूचक्कर हो लेते हैं। बाद में इन्हें ढूंढ भी नहीं पाओगे। जितना तुम बता रहे हो। फ़िल्म में तुम्हारा रेप वाला हिस्सा छोड़कर और कुछ नहीं होगा।
पहली बात तो तुम फ़िल्म ही नहीं ढूंढ पाओगे कि कौन सी फ़िल्म है, जिसके लिए तुमने काम किया। नाम तक तुम्हें मालूम नहीं है। क्या करोगे तुम? बेवजह यहां काम छोड़-छोड़ कर हमारा भी समय बर्बाद कर रहे हो। सीधे अपने काम पर ध्यान दो। बहुत हो गया तमाशा।' उनकी यह और अन्य तमाम बातें सुनकर मैं बिल्कुल पस्त हो गया। 
रात को छब्बी ने बात करने की कोशिश की तो मैंने कहा, 'चुपचाप सो जा, काहे को मगज खाती है। ये हिडिम्बा सही कह रही है, मैं  बेवजह समय बरबाद कर रहा हूं। मुझे किसी फ़िल्म में कोई काम-धाम नहीं मिलने वाला। विलेन-किंग बनना मेरी किस्मत में नहीं है। यहां जिनका कोई है, उसी को कुछ मिलता है। कितनी पिक्चरों में देख चुका हूं कि, मेरे से भी ज़्यादा गए-गुजरे ऐक्टिंग कर रहे हैं। अब नहीं बनना मुझे कुछ। जो बन गया बस वही ठीक है। इससे ज़्यादा की मेरी औकात ही नहीं है।' समीना यह कह कर मैं उसकी तरफ पीठ कर करवट लेट गया।
छब्बी कुछ देर तो चुप बैठी रही। फिर बोली,'देख ऐसे हार नहीं मानते। यहां जितने बड़े-बड़े हीरो-हीरोइन हैं, सबने शुरू में ऐसे ही सड़कें घिसीं हैं। मगर कोशिश नहीं छोड़ी । तू इस मोटी के कहे में ना आ। ये तो अपने काम,अपने स्वार्थ में पागल है। उसको हमारे-तुम्हारे जैसा ,देखा जाए मुफ्त का गुलाम कहां मिलेगा। इसीलिए वो चाहती है कि तुम्हें कोई काम मिले ही ना। तू और कुछ करने के बारे में सोचे ही ना। इसीलिए तुझे भड़का रही है। तुझे पागल बना रही है। तू उसकी चाल को समझ, उसमें फंसने के बजाय और ज्यादा ताकत से कोशिश कर।'
समीना उस समय छब्बी की यह बिलकुल सही बातें भी मुझे गुस्सा दिला रही थीं। मैंने गुस्सा होकर कहा, 'अरे तू सो नहीं सकती क्या?, मैंने कह दिया एक बार कि, अब मैं कुछ नहीं करूंगा। जिस लायक हूं, वह बन चुका हूं। साले दोस्तों ने धोखा दिया। चढ़ा दिया झाड़ पे। अबे तू दारा सिंह को देख, उसको देख, इसको देख। ये सब अपनी पर्सनाल्टी ही के कारण फिल्मों में काम किए। इन्हें कौन सी ऐक्टिंग आती थी। तू भी इनसे कम नहीं है। मैं साला चूतिया चढ़ गया झाड़ पर।
सालों ने मुझे यही सब पढ़ा-पढ़ा कर खूब खाया-पिया। मेरे पैसे पर खूब ऐश की। कमीनों के लिए बाबू के कुर्ते, दुकान के गल्ले से भी पैसा मार देता था। सालों ने लंबी-लम्बी हांकी कि, मेरा दोस्त वहां है, उससे मिल लेना। तेरा काम हो जाएगा। कोई बोलता मेरा रिश्तेदार, मेरा ये, मेरा वो। फर्जी फोन नम्बर, ऐड्रेस पकड़ा दिया। मैं साला पागल चला आया यहां ठोकरें खाने। ना घर का रहा ना घाट का। कुत्ता बन गया हूं एकदम। बल्कि कुत्ते से भी बदतर। वो कम से कम शाम को घर तो लौट आता है। अब तुम भी उन्हीं कमीनों की तरह चढ़ाए जा रही हो झाड़ पर। लेकिन अब मैं नहीं चढ़ने वाला। अब साला चोरी-डकैती कर लूंगा। मार डालूंगा दो चार को। मगर ऐक्टिंग का नाम नहीं लूंगा।'
समीना उस समय मैं गुस्से से ज़्यादा अंदर से टूट रहा था, खुद को बड़ा कमजोर महसूस कर रहा था। मगर छब्बी एकदम टीचर की तरह बोली, 'सुन-सुन, मेरी सही-सही सुन, तुझे तेरे दोस्तों ने न चढ़ाया है झाड़ पर, और न तू झाड़ पर चढ़ा है। उन सबने भले ही तुम्हें झाड़ पर चढ़ाने के लिए ही सारी बातें कहीं थीं ,लेकिन सारी बातें हैं बिलकुल सही। हां, अभी तू जो कर रहा है वह जरूर झाड़ पर चढ़ना है। मोटी के कहने पर तू चढ़ा जा रहा है, कि नहीं करनी ऐक्टिंग। 
मोटी तो चाहती ही है कि, हम लोग उसके फेंके कुछ टुकड़ों के लिए पड़े रहे उसके पैरों में। अपना कुछ भी भला ना कर पाएं। तू उसकी साजिश को समझ। उसके बहकावे में न आ। और यह बात ध्यान से सुन कि आज मोटी की बातों के बाद मैंने ये तय कर लिया है कि, अब हमें यहां नहीं रहना है। यहां रहकर हम कुत्ते-कुतिया ही बने रहेंगे। यहां से जल्दी से जल्दी निकलना है। और मैं तुझको बता दूं कि, जब मैं अपने पर आ जाती हूं ना, तो मुझे ये एक मोटी क्या, हज़ार मोटी भी नहीं रोक पाएंगी।'
मैंने खीझ कर उससे कहा, 'चुप कर, ज़्यादा डींगे मत मार। बहुत देखा है तेरा भी नाटक। कितनी बार तो सारा जोर लगा लिया। निकल पाई।'
समीना मेरी इस बात पर छब्बी एकदम चिढ गई। कुछ देर चुप रह कर बोली,  'सही कह रहे हो तुम, मेरी हर कोशिश को मोटी क्षण भर में बर्बाद कर देती है। लेकिन तेरी बात ने मेरा खून खौला दिया है। अब तू भी मेरी बात ध्यान से सुन ले, मेरा भी नाम छब्बी है, आज शुक्रवार का दिन है नोट कर ले। अगले शुक्रवार तक हम इस मोटी के पिंजरे से निकल कर कहीं और होंगे। अगर मैं यह ना कर पाई, तो यहीं फांसी लगाकर मर जाऊँगी। मैं ये बात गणपति बप्पा सिद्धि विनायक भगवान की कसम खाकर कह रही हूं। उनसे मैं प्रार्थना नहीं, उनको ये बता रही हूं कि, अगले शुक्रवार तक हमें यहां से निकाल कर अपने मंदिर में दर्शन देने के लिए बुला लेना, नहीं तो मैं यहीं मर कर तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'
समीना उस समय वो इतने गुस्से में, इतनी दृढ़ता, इतने आत्मविश्वास के साथ बोल रही थी कि, मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि यह जो कह रही है, वह जरूर करेगी। मेरा मन यह सोच कर घबरा गया कि, यदि यह यहां से न निकल सकी तो ये आत्महत्या कर लेगी। फिर इस छलावे से भरी, माया-नगरी में मेरा कौन अपना होगा। एक यही तो है, जो मुझे जी-जान से चाहती है। मेरे हर सुख-दुख की सच्ची साथी बनी हुई है। ये न रही तो मैं भी कितने रह पाऊँगा । 
उस रात हम-दोनों बहुत देर तक जागते रहे। गुस्सा कम होने पर छब्बी से मैंने पूछा, 'यहां से कैसे भागेगी? कोई रास्ता है  क्या? ये जो सारी गृहस्थी जोड़ी है, यहां से कैसे ले जा पाएंगे?' 
छब्बी बोली, 'देख, अगर ये गृहस्थी आड़े आई, तो मैं इसको भी यहीं लात मार कर चल दूंगी। और तू भी इसके मोह में न पड़, समझा।
यहां से निकलकर जो भी करेंगे, इससे अच्छा ही करेंगे और जब अच्छा करेंगे, तो ऐसी एक नहीं चार गृहस्थी बना लेंगे। अरे! अपने साथ कौन सा लड़का-बच्चा हैं जो काम नहीं चलेगा। जरूरत पड़ी तो भूखों रह लेंगे। पानी पी-पी कर कई दिन जिंदा रहे हैं। आदत है इसकी। पानी नहीं मिलेगा, तो बिना उसके भी कई दिन निकाल देंगे। बस तू साथ न छोड़ना। क्योंकि पानी बिना तो मैं रह लूंगी कई दिन, मगर अब तेरे बिना नहीं रह पाऊँगी एक भी दिन। और तुझको ऐसे हार कर बरबाद होते भी नहीं देख पाऊँगी समझे। मर्द है, मर्द की तरह जी। अपना रास्ता अपने हाथ बना। दुनिया में कोई किसी के लिए रास्ता बना के नहीं देता कि, ले भईया मैंने सड़क बना दी, अब तुम चलो।'
समीना, मैंने सोचा यह औरत होकर इतना हिम्मत कर सकती है तो मैं क्यों नहीं? आखिर मैं भी बड़वापुर का मर्द हूं। उस बाप की औलाद हूं, जिसने अपने दम पर अपना सारा व्यवसाय खड़ा किया। पूरा परिवार चलाया। एक समय साइकिल पर बर्तन बेचने का भी काम किया। नाना अचानक मर गए तो चार-पांच साल उनका भी घर संभाला। तीन सालियों की शादी तक की। सालों को काम-धंधे से लगाया।
दुनिया ताना मारती, 'सहुवा तो सारी कमइया ससुरारी में पाथे देता।' उनके चरित्र पर लांक्षन लगाया गया कि सालियों से अवैध संबंध बना रखे हैं। सबको रखैल बनाए है, इसीलिए खर्च करता है सहुवा। मगर बाबू जी पर ऐसे लांक्षनों का भी कोई असर नहीं पड़ा। वह अपनी धुन में लगे रहे। अंततः दुनिया ने सच स्वीकार किया कि, साहू वैसे आदमी नहीं हैं, जैसा उन्हें कहा जा रहा है। उनके साथ अन्याय हो रहा है। और फिर बाबू जी ने अपनी वह जगह, सम्मान पा लिया जिसके वह हकदार थे।
समीना उसकी बातों से मुझे इतनी हिम्मत मिली कि मैंने उसी समय छब्बी की तरह तय किया कि, चाहे जो हो जाए, इसी हफ्ते यह पिंजरा तोड़ कर हर हाल में भागना है। उसी समय हम-दोनों ने एक फुल प्रूफ प्लान बना लिया। तय हुआ कि, जब सुन्दर हिडिम्बा सप्ताहांत घूमने जाएंगी , तो उनके जाने के कुछ देर बाद उन्हें फोन किया जाएगा कि, छब्बी को खून की उल्टी हो रही है। हॉस्पिटल ले जाना जरूरी है, नहीं तो यह मर जाएगी। तब सुन्दर हिडिम्बा गार्ड से कह देंगी कि हमें जाने दें।
सुन्दर हिडिम्बा गार्ड को चेक करने के लिए जरूर कहेंगी। इससे निपटने का भी हमने रास्ता निकाला कि, छब्बी प्याज को थोड़ा उबाल लेगी। जिससे वह थोड़ा पिलपिले से हो जाएँ। फिर उसे मुंह में रख कर थोड़ा और कुचल कर निगल लेगी। इसके बाद पान, कत्था, चूना और थोड़ा सा लाल रंग भी मुंह में डाल लेगी। इससे जो पीक बनेगी वह सब निगल जाएगी। एक-दो पत्ती तम्बाकू भी। इससे उलटी जरूर होगी। तब कत्था,रंग में रंगे प्याज के जो कतरे गले-गले से गिरेंगे, उन्हें देखकर ऐसा लगेगा मानो आतें फट गई हैं । उनके टुकड़े उल्टी के साथ बाहर आ रहे हैं। यह प्लान हम-दोनों को जबरदस्त लगा। सप्ताहांत का इंतजार होने लगा। हम-दोनों को एक-एक दिन काटना भारी लग रहा था।
सप्ताहांत के एक दिन पहले मोटी ने मुझे और तोंदियल को एक काम से नवी मुंबई भेज दिया। उस दिन दोपहर बाद से ही बारिश शुरू हो गई थी। पहले धीरे-धीरे हुई, बीच में कई बार बंद भी हो गई, लेकिन शाम को लौटते समय तेज़ होने लगी। कुछ देर तो इतनी तेज़ हुई कि, लगा जैसे यह बारिश इस नगरी की माया खत्म कर देगी। सब बहा ले जाएगी सागर में। सड़कों पर पानी घुटनों से ऊपर बह रहा था।
अच्छा यह हुआ था कि, मेरी मोटर-साइकिल खराब थी। हम बस से ही गए थे। वापसी में बस एक जगह स्टापेज पर रुकी तो वहीं बंद हो गई। ड्राइवर ने बहुत कोशिश की, लेकिन वह दुबारा स्टार्ट नहीं हुई। मजबूरन सारी सवारियां उस पानी में ही उतरीं और फुटपाथ पर घुटनों तक पानी में अगले साधन की तलाश में आगे बढ़ चलीं।
मैंने और तोंदियल ने भी पैंट जितनी ऊपर खींच कर चढ़ा सकते थे, चढ़ा ली। तोंदियल ने अपनी चप्पल भी हाथ में ले ली। चमड़े की चप्पल वह पानी में नहीं भिगोना चाहता था। लेकिन मैं अपनी सैंडिल पहने रहा। 
मैंने सोचा यार पैरों में कुछ लग गया तो मुसीबत हो जाएगी। सैंडिल खराब होती है, तो हो। तोंदियल और मैं दुकानों के एकदम किनारे-किनारे सट कर चलने लगे। तोंदियल आगे-आगे चल रहा था। हम पचास कदम ही आगे चले होंगे कि तोंदियल एक दुकान के बाहर रखे, एक स्टैंड से चिपक गया। उसके मुंह से ओं-ओं कर घुटी-घुटी आवाजें निकलने लगीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि, वह करेंट की चपेट में आ गया है।
बारिश अब भी हो रही थी। मैं तोंदियल को बचाने के लिए तड़प उठा। लकड़ी, प्लास्टिक, रबर का कुछ भी ऐसा सामान नहीं मिल रहा था, जिससे मैं उसे छुड़ाने की कोशिश करता। दुकान के अंदर से भी लोग उसको बचाने के प्रयास में लग गए। मगर संयोग से उनके पास भी उस बारिश में करंट से बचाने के लिए तत्काल कुछ नहीं मिल पा रहा था।
सब हड़बड़ाए से इधर-उधर करते रहे, बल्कि खुद को सुरक्षित रखने को लेकर ज़्यादा सजग हो गए। मुझे कुछ नहीं सूझा तो व्याकुल होकर उस दुकान से पहले वाली दुकान पर थोड़ा बाहर रखे एक पैक कार्टन को उठाया और पूरी ताकत से तोंदियल पर फेंका, तोंदियल इससे आगे को गिर गया। करेंट की चपेट से वह बाहर आ गया था। मैं जल्दी से उसके पास पहुंचा, उसे देखा तो मेरे होश उड़ गए। लोगों ने मुझे और उसे घेर लिया था। सब हॉस्पिटल ले जाने के लिए बोलने लगे।


लेकिन उस बारिश में नदी बन चुकी सड़क पर कोई साधन नहीं मिल पाया। ना एंबुलेंस ना पुलिस आई। मैंने सुन्दर हिडिम्बा को भी फोन किया तो वह इतना ही बोलीं कि, 'ठीक है, भेजती हूं किसी को।' तभी मन में आया कि, साहब होता तो कहता, 'देख लो, वहां जो हो पाए कर लो। मैं बिजी हूं।''
मैं तोंदियल को हॉस्पिटल ले जाने के लिए तड़प कर रह गया। लेकिन कुछ कर नहीं सका। दुकान के ही एक आदमी ने कुछ ही देर बाद उसकी नब्ज देख कर बता दिया कि, अब मेरा तोंदियल जीवन की सारी मुसीबतों से मुक्ति पा चुका है। दुकान वाले से मैंने तोंदियल के शरीर को ढंकने के लिए कोई चादर मांगी, तो उसने चादर ही की साइज का एक बड़ा सा कपड़ा दिया। उसी से मैंने उसे ढंक दिया। सुन्दर हिडिम्बा को फिर बताया कि, अब तोंदियल नहीं रहा। तो उन्होंने 'हूं' करके फ़ोन रख दिया।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि, उसके घर वालों को कैसे सूचना दूं। उनका कोई नंबर मेरे पास नहीं था। तोंदियल अपने घर के बारे में बड़ा पर्दा रखता था। उसका मोबाइल पानी में भीग कर बेकार हो चुका था। मैं थोड़ी-थोड़ी देर में सुन्दर हिडिम्बा को फोन करता तो, वह कभी बात करतीं, कभी ना करतीं। जब कॉल रिसीव करतीं तो इतना ही बोलतीं, 'लोग पहुंच रहे हैं।'
इंतजार करते-करते आधी रात को एक पुलिस जीप आकर रुकी। उसके पीछे एक लाश वाली गाड़ी भी थी। पुलिस ने आते ही मुझसे पूछताछ की। दुकान के सब लोग जा चुके थे। पुलिस ने जो भी कानूनी नौटंकी पूरी करनी थी, की। पंचनामा भर कर डेड-बॉडी साथ लाई गाड़ी में रखवा कर चल दी। कहां के लिए, ये मुझे नहीं बताया गया। बारिश घंटे भर पहले बंद हो चुकी थी। सड़कों पर पानी भी बहुत हद तक उतर चुका था। डेड-बॉडी जाने के बाद मैंने फिर सुन्दर हिडिम्बा को फा़ेन कर सब बताना चाहा तो वह बीच में ही रोककर बोलीं , 'जानती हूं, तुम घर आ जाओ।' इतना कह कर तुरंत फोन काट दिया।
मैं किसी तरह तीन बजे घर पहुंचा। रास्ते भर मेरी आंखों के सामने प्यारे तोंदयिल के तड़प-तड़प कर मरने का दृश्य बना रहा। मेरी आंखें बार-बार भर आ रही थीं। यह सोच-सोच कर मेरा ह्रदय फटा जा रहा था कि, वह बेचारा मेरी आंखों के सामने देखते-देखते क्षण-भर में मर गया, और मैं कुछ नहीं कर सका। आखिर मेरे इस पहाड़ से शरीर का कोई अर्थ भी है क्या? या ''बड़ा हुआ तो क्या हुआ,जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं,फल लागे अति दूर।।'' क्या कबीर ने मेरे जैसे लोगों के लिए ही ये कहा था। स्कूल में मास्टर जी भी यही कह-कह कर मुझे मेरी लापरवाही,बदतमीजियों के लिए डांटते थे। 
प्यारे तोंदियल को बचाने में भी मुझसे लापरवाही हुई क्या? बेचारे के घर वालों पर क्या बीतेगी। कैसे कटेगी उनकी ज़िंदगी। सुन्दर हिडिम्बा ने पता नहीं उनको बताया कि नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह कि, बेचारे की डेड-बॉडी को भेजा कहां, यह भी नहीं बता रही हैं। घर पहुंचकर मेरे दिमाग में अचानक ही आया कि, बस अब इस पिंजड़े में कुछ घंटे और हैं। तोंदियल तो मुक्ति पा गया सारे ही पिंजड़ों से। अब मैं और छब्बी भी कम से कम सुन्दर हिडिम्बा के पिजड़े से तो निकल ही लें।
मैं जब छब्बी के पास पहुंचा तो देखा वह सो रही थी। पानी ने यहां भी सब अस्त-व्यस्त किया हुआ था। छब्बी को सोता देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसी निष्ठुर, कठोर, स्वार्थी महिला है यह। वह बेचारा कितने दिन तक इसके साथ रहा। एक साथ सालों काम किया। इसने मुझ से पहले उससे कितने करीबी रिश्ते बना रखे थे, इसमें मानवता नाम की चीज ही नहीं है , इसे जरा भी दुख नहीं है। कैसे निश्चिंत हो तान के सो रही है। समीना गुस्से में उसके लिए मेरे मन में कई अपशब्द निकल गए।
दो-तीन बार आवाज़ देने के बाद वह उठ कर बैठ गई। उसने उठते ही पूछा, 'इतनी देर कहां रह गए?' 
इस पर मुझे गुस्सा आ गया कि, इतनी बड़ी घटना हो गई, और यह ऐसे बात कर रही है ,जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मैंने सीधे पूछ लिया, 'क्यों? तेरे को कुछ पता नहीं क्या?'
अब छब्बी कुछ सशंकित होती हुई बोली, 'क्यों क्या हुआ? मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो काम-धाम करके आई और सो गई। आज मोटी से जल्दी छुटकारा मिल गया तो बारह बजे ही ऊपर आ गई थी।'
'मोटी ने तेरे को कुछ भी नहीं बताया?'
'नहीं, बात क्या है, बताओ ना।'
यह सुनकर पहले मैंने मोटी को भद्दी-भद्दी कई गालियां दीं। फिर बेचारे तोंदियल के बारे में सब बताया।
यह सुनकर छब्बी रो पड़ी कि, 'बेचारा जी-तोड़ मेहनत करता था। अपने परिवार के लिए जान दिए रहता था। ये मोटी लाख परेशान करती थी, लेकिन बेचारा कभी पीठ पीछे भी एक शब्द नहीं बोलता था।'
छब्बी रोती जा रही थी, उससे जुड़ी एक-एक बात बोलती जा रही थी। लेकिन मैं चुप, बस सोचता रहा तोंदियल के बारे में। करीब-करीब बीस-बाइस घंटे से जागते और काम करते रहने के कारण थकान से मैं बिल्कुल पस्त हो रहा था। घंटों से भीगे कपड़े पहने रहने के कारण हालत और खराब थी। मैं कपड़े बदल कर लेटने लगा तो, छब्बी चाय और खाना के लिए बोली लेकिन मैंने मना कर दिया।
मगर वह नहीं मानी,चाय और कुछ मठरी ले आई। मैं खाली चाय पी कर लेट गया।
अगले दिन सप्ताहांत था और मोटी की छुट्टी। मगर हमारी नहीं। मैं उनके जल्दी से जल्दी उठने का इंतजार कर रहा था, जिससे उनसे पूछूं कि, डेड-बॉडी कहां भेजी? मैं करीब तीन घंटे आराम कर चुका था। वह दिन हमारी योजनानुसार वहां से भाग निकलने का भी दिन था। मगर मैंने देखा कि छब्बी एक शब्द भी उसके बारे में नहीं बोल रही है। 
मैंने सोचा कि, इस लोक से तोंदियल के चले जाने से इसका इरादा बदल तो नहीं गया है। यह सोचने के बाद भी मैंने उससे कुछ पूछा नहीं। सुन्दर हिडिम्बा नौ बजे सो कर उठीं तो मैंने उनसे बात की। अपने काम के बारे में वह वहीं फ़ोन करके पता कर चुकी थी, जहां मुझे भेजा था। 
उन्होंने मेरे प्रश्न का बड़ा सीधा-सपाट सा उत्तर दिया कि, 'पोस्टमार्टम के बाद कल डेड-बॉडी उसके घर भिजवा दी जाएगी। उसके परिवार को सूचना दे दी गई है।' तुरंत ही मुझे यह भी काम सौंप दिया कि, अगले दिन बेचारे तोंदियल का, मेरे प्यारे तोंदियल का सारा सामान पहली कोरियर से भेज दूं। यह आदेश सुनकर मैंने सोचा जब कल-तक रहूंगा तब भेजूंगा ना।
वैसे भी तू इतनी तनख्वाह उसे या हम सब को देती ही कहां है, कि हम कुछ सामान खरीद सकें।
बेचारा पेट तुम्हारे टुकड़ों पर भर लेता था। सारी जमा-पूंजी घर भेज देता था। अपनी कमाई का अपने पर सिर्फ़ तंबाकू के मद पर ही खर्च करता था। दो सेट कपड़ों के अलावा उसका सामान है भी क्या। साहब के फेंके हुए कपड़ों से ही ज़्यादातर काम चला लिया करता था। बेचारे का कल जाने का मन बिल्कुल नहीं था। मगर तूने उसे जबरदस्ती भेज कर मौत के मुंह में भेज दिया।
मन में आया कि पूछूँ ,हे पत्थर-दिल महिला, कुछ पैसे भी उसके घरवालों के पास भेजोगी  कि नहीं। लेकिन हिम्मत नहीं कर पाया। मगर तभी सुन्दर हिडिम्बा ने खुद ही पार्सल की बात पूरी करके, दो महीने की तनख्वाह भी मनी-आर्डर करने का काम सौंपा ।
यह सुनकर मुझे बड़ी राहत मिली, कि चलो इस पत्थर-दिल ने इतना ध्यान रखा। मैं वहां से हटने ही वाला था कि, बाकी जो काम बताएं हैं वह करूं। सुन्दर हिडिम्बा का प्रोग्राम तय था। और हमारा भी, वह एक घंटे बाद ही निकलने वाली थीं । इसके बाद हम-दोनों भी। मैं सोच रहा था कि बस, अब कुछ ही समय और इस घर में, फिर मैं और छब्बी आजाद होंगे। अपनी दुनिया अपने  हिसाब से बनाएंगे। मगर समीना तभी छब्बी ने वो कर दिया, जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी। 
उसने सीधे-सीधे सुन्दर हिडिम्बा से कह दिया कि, 'भाई से कुछ दिनों से बात हो रही है, वह जिद किए बैठा है कि, हम-दोनों वहीं घर आ जाएँ। वहीं पर कुछ काम-धंधा करके ज़िंदगी  चलाएं। वह अपनी ससुराल में रहेंगे, क्योंकि वहां कोई रहा नहीं। दोनों जगह वह नहीं संभाल पा रहे हैं। इसलिए अब हम वहीं जा कर रहेंगे। हम आज ही जाना चाहते हैं।'
समीना छब्बी की बातों ने मानो सुन्दर हिडिम्बा के करेंट लगा दिया हो। चार बातें सुनाते हुए बोलीं, 'वहां क्या कर लोगों तुम लोग। यहां तुम्हें क्या परेशानी है?' 
छब्बी ने बिना दबे बल्कि उन पर हावी होने की कोशिश करते हुए कहा कि, 'यहाँ हमें कोई परेशानी नहीं है,लेकिन अब हम अपना परिवार बसाना चाहते हैं। लड़के-बच्चे पैदा करना चाहते हैं। हमें भी अपने बुढ़ापे का इंतजाम करना है। हमें और नहीं रहना इस शहर में। अपने घर में जो भी होगा, अच्छा होगा। कम से कम अपने मन से जी तो सकेंगे।'
छब्बी की बात उन्हें मिर्च सी लगी। बिदकती हुई बोलीं, 'बच्चे क्यों नहीं पैदा करती। मैंने रोका है क्या? और ये वहां कौन सी फ़िल्म में काम करेगा?' छब्बी  दबने के मूड में बिलकुल नहीं लग रही थी। तुरंत बोली ,'हम इतने महंगे शहर में बच्चे पैदा नहीं करेंगे। यहां उन्हें क्या खिलाएंगे-पिलाएंगे, क्या पढ़ाएंगे-लिखाएंगे। खुद रहने का ठौर नहीं, उन्हें कहां रखेंगे। वहां इस तरह की कोई  समस्या नहीं होगी। और इसे भी वहां काम-धंधा करना है। विलेन-सिलेन नहीं बनना है। इसने भी हाथ जोड़ लिया है इन-सब बातों से। चाहें तो आप पूछ लें इसी से। आपके सामने ही है।'
अब-तक मैं अपने को संभाल चुका था। मोटी ने जैसे ही मेरी तरफ देखा मैंने भी बेहिचक कह दिया, 'जी हां, यह ठीक कह रही है। इसका भाई बहुत दिनों से  बार-बार कह रहा है। मेरा भी मन इस शहर से बहुत ऊब गया है। हमने तय कर लिया है कि अब वहीं रहेंगे।'
समीना सुन्दर हिडिम्बा ने हम-दोनों को समझाने, हड़काने, लालच, आदि हर तरह से रोकने का जितना प्रयास किया। हम उतना ही ज़्यादा अपनी बात पर अड़ते गए।
अंततः उन्होंने जब यह समझ लिया कि अब हमें किसी तरह रोका नहीं जा सकता तो बोलीं , 'वैसे तो एक महीने की नोटिस पर ही तुम-दोनों जा सकते हो। लेकिन इतना ऊब गए हो तो ठीक है। तीन-चार दिन में कोई आ जाए तो चले जाओ।'
हमने देखा कि उनका मूड अच्छा-खासा खराब हो गया है। उनके जाने के बाद मैंने छब्बी से पूछा, 'अब ये नई कहानी क्या है? मुझे पहले कुछ बताये बिना अचानक सामने खड़ा कर दिया। और वो प्याज, पान, रंग की नौटंकी का क्या हुआ?' 
मेरे इतना कहते ही छब्बी बोली, 'तू अगर मेरी बात मानता चलेगा, तो यहाँ जो कुछ अपना है ,वह सब-कुछ आराम से ले चलेंगे। किसी तरह की चिंता, कोई डर नहीं रहेगा। तुम ये तय मान लो कि अब ये साहब को आगे करेंगी,लेकिन अब मुझे उनकी भी चिंता नहीं ,बहुत देखा है उनको भी।'
समीना वह बहुत मज़बूती से यह सारी बातें कह रही थी। मुझे उसकी बातों पर विश्वाश भी था, लेकिन फिर भी मैंने कहा, 'तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। जब यहां से निकल ही जाएंगे, तब काहे का डर। अब जो इतना बोल दिया है न, तो देखो कब-तक रुकना पड़ता है। ये मोटी साहब से कह कर देखो, क्या गुल खिलाती है। सब किए-कराए पर पानी फेर दिया है तुमने।'
'सुन, मैंने कोई पानी-वानी नहीं फेरा है। हां, जैसा पहले तय था, उस तरह भागते तो जरूर किए-कराए पर ही नहीं, सब-कुछ पर पानी फिर जाता। हम दोनों की फोटो, सारी जन्म-कुंडली इनके पास हैं। हमारे भागते ही पुलिस में रिपोर्ट लिखातीं कि, हम इनके यहां ये लाखों का सामान,रुपया चोरी करके भागे हैं। तब पुलिस पकड़ कर पहले हमें कूँचेगी, फिर चोरी के आरोप में जेल में सड़ा देगी समझे। रही बात साहब की, तो देखते हैं कितना जोर लगाते हैं। आफत कर दूंगी। रोज-रोज की आफ़त से खुद ही भगा देंगे।'
समीना मुझे छब्बी की बात सही लगी। मन में आया कि, सच में अक्लमंदी की बात कर रही है।
तमाम शंकाओं के बीच दो दिन बीत गए, लेकिन कोई नौकर हमारी जगह लेने नहीं आया। अब हमें एक-एक घंटा एक-एक दिन सा बड़ा लग रहा था। उस पर सुन्दर हिडिम्बा ऐसे व्यवहार कर रही थी, जैसे हमने उनसे कुछ कहा ही नहीं है । उनका यह व्यवहार हममें और ज़्यादा खीझ पैदा कर रहा था।
तीसरे दिन मौसम शाम से ही खराब हो रहा था। घनी बदली छायी हुई थी। बीच-बीच में कुछ बूंदें पड़तीं, फिर बंद हो जातीं। बादल कभी हल्के, कभी गहरे हो रहे थे। हवा भी बहुत तेज़ थी। मुझे बड़ी गुस्सा आ रही थी, इस पानी और बादलों पर। इन्हीं के कारण बेचारा तोंदियल। मैं, छब्बी उसके बारे में देर रात तक बतियाते रहे थे। उसकी पत्नी से भी हम-दोनों ने कई बार  बात की थी। 
दिन में उसके घर का नंबर हमें बॉलकनी में ही उसकी पॉकेट डायरी में ही मिल गया था। जिसे मैं उसके सामान के साथ भेज नहीं पाया था। तब मेरी, छब्बी की नजर उस पर नहीं पड़ी थी।
फ़ोन पर उसकी पत्नी बेचारी रो-रो के बेहाल हुई जा रही थी। लेकिन उसने सुन्दर हिडिम्बा के बारे में जो बताया उससे हम-दोनों का गुस्सा उनके लिए कुछ कम हो गया था। उन्होंने डेड-बॉडी के साथ जिस आदमी को भेजा था, उसी के हाथ क्रियाकर्म के अलावा दो महीने की तनख्वाह भी भेज दी थी। इसके अलावा तीसरे ही दिन उसकी पत्नी को फोन करवा कर एकाउंट नंबर लिया, उसमें और पैसे डाल दिए थे। साथ ही यह भी कह दिया था कि, 'जब-तक घर का खर्च चलाने की तुम कुछ व्यवस्था नहीं कर लेती हो, तब-तक मैं काम भर का पैसा भेजती रहूंगी। कोई ज़रूरत होने पर फ़ोन कर लेना।'
सुन्दर हिडिम्बा की इस उदारता ने मेरे, छब्बी दोनों ही के मन में उनके लिए काफी जगह खाली कर दी थी। मगर इसके बावजूद हम-दोनों का निर्णय अडिग था। मेरे प्यारे तोंदियल की फ़ोन डायरी में नंबर तो आठ-दस ही थे। लेकिन बाकी पन्नों पर कई शेरो-शायरी लिखी थीं। प्यार में डूबी कुल मिलाकर बस ठीक ही थीं। पढ़ने में बढ़िया थीं। बाकी मुझे कुछ पता नहीं शायरी के बारे में। ये सब शायद उसने छब्बी को ध्यान में रखकर लिखी थीं।
समीना मैंने ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि, उसी डायरी में छब्बी की एक छोटी सी फोटो भी थी। जिसे उसने बड़ा संभाल कर रख था। छब्बी भी यही मान रही थी। उसी ने मुझे बताया था कि, मेरे वहां पहुंचने से पहले उसने छब्बी से कई बार प्यार का आग्रह किया था। कई बार उसे पकड़ने की कोशिश की थी। 
लेकिन छब्बी ने उससे हर बार यही कहा, 'तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं। तुम्हारे से क्या संबंध रखना। तुम आखिर में अपने परिवार के ही होगे। और तब ना मैं इधर की होऊँगी ना उधर की। ये तो बस काम-चलाऊ वाला ही मामला होगा। एक बार को तुम्हारी बात सही मान भी लूँ कि तुम किसी भी हालत में मेरा साथ नहीं छोड़ोगे, तो भी मैं यही कहूँगी कि ''नहीं'', मैं सपने में भी नहीं सोच सकती कि मेरे कारण तुम्हारी पत्नी का जीवन बर्बाद हो ,वह इस उम्र में अपने पति से हाथ धो बैठें। मैं एक परिवार को बर्बाद करने का पाप अपने सर नहीं लूँगी।'' 
छब्बी ने बताया इसी के बाद उसने पीछे पड़कर उससे उसकी यह फोटो मांग ली थी। फोटो लेकर उसे चूमते हुए बोला था,'' मेरी पत्नी-बच्चों के लिए तुमने मुझे चाहते हुए भी ठुकराया ,तुम वाकई बहुत महान हो छब्बी ,तुम्हारी फोटो मुझे कहीं भी भटकने से रोकती रहेगी ।''    
 मेरे सामने भी तोंदियल ने बहुत कोशिश की थी लेकिन छब्बी ने उसे हाथ नहीं रखने दिया था। छब्बी ने तभी कई ऐसी बातें बताईं जो पहले कभी नहीं बताईं थीं। जिन्हें सुनने के बाद भी तोंदियल की मन में बसी अच्छी तस्वीर को मैंने अच्छा ही बना रहने दिया।
समीना मैंने छब्बी से उन बातों  का मतलब कई बार पूछा तो उसने कुछ खीझकर कहा, ' पता नहीं, तुम मर्दों का कुछ भी पता नहीं, औरतों के बारे में पता नहीं क्या-क्या सोचते हो? क्या करते हो? यहां बीवी-बच्चों से दूर सालों से अकेला रहता चला आ रहा था। उसका भी मन पता नहीं कैसा-कैसा होता रहा होगा....उसके मन की बातें वही जाने। अब वो दुनिया में है ही नहीं तो क्या सोचना इन सबके बारे में । मगर जो लिखा है डायरी में उसे पढ़ कर यही कहूंगी कि मुझे वह इतना चाहता था, इसका मुझे बिलकुल अंदाजा नहीं था।'
मैंने उसे कुछ चिढ़ाने के अंदाज में कहा, 'अंदाज़ा होता, तुम्हें यह बातें पता होतीं, तो निश्चित ही तुम उसके साथ होती। क्योंकि उसकी बातों से तुम जिस तरह भावुक हुई हो, उससे तो यही लगता है कि, वह भी तुम्हारे मन में  गहरे उतर चुका था।'
यह सुनते ही छब्बी बिदकती हुई बोली,'सुन, सच-सच बताऊँ?'
मैंने कहा, 'बता।' तो वह बोली, 'तेरे अलावा मन में कोई उतर ही नहीं पाया। वह इतने दिनों से साथ काम कर रहा था, तो बस ऐसे ही एक लगाव हो गया था। एक हंसी-मजाक का रिश्ता सा बन गया था। आखिर दो लोग एक जगह काम करते हुए, कब-तक चुप रह सकते हैं।' 
मैंने जब देखा कि छब्बी को यह बातें अच्छी नहीं लग रहीं, तो मैंने बातें बदल दीं । मगर तीसरे दिन भी हो रही वह बूँदा-बांदी बंद नहीं हुई थी।
ग्यारह बजे थे कि सुन्दर हिडिम्बा ने एक काम बता कर फिर वहीं जाने को कह दिया जहां तोंदियल के साथ भेजा था। मैंने आना-कानी की। जाना नहीं चाहता था। छब्बी भी नहीं चाहती थी कि मैं जाऊं। तोंदियल की घटना मेरी आंखों के सामने घूम ही रही थी। एक बार फिर वही काम, वही जगह, वही बारिश। कुछ बदला था तो सिर्फ सुन्दर हिडिम्बा के तेवर। वह हमेशा से एक-दम अलग बहुत तीखे थे। अंततः मुझे जाना पड़ा। 
बारिश भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। उस दिन की तरह तेज़ नहीं थी, लेकिन दोपहर बाद से लगातार होने लगी थी। 
मैं किसी तरह काम करके जब लौटा तो रात के नौ बजे चुके थे। बिल्डिंग के सामने एक पुलिस जीप और एंबुलेंस खड़ी थी। इंस्पेक्टर के ही पास सुन्दर हिडिम्बा, साहब के कुछ आदमी खड़े थे। सुन्दर हिडिम्बा के ऊपर साहब का ड्राइवर छाता ताने खड़ा था। मगर साहब कहीं नहीं दिख रहे थे। इससे मुझे राहत मिली, क्योंकि मैं उन्हें देखकर ही घबराता था। 
यह सब देखकर मैं अंदर-अंदर परेशान हुआ कि आखिर मामला क्या है? छब्बी कहां है? वह क्यों नहीं दिख रही है। तमाम आशंकाओं की आंधी लिए मैं सुन्दर हिडिम्बा के करीब गया। उन्होंने मुझे देखते ही बड़े गुस्से में कहा, 'तुमने बड़ी देर कर दी। तुम्हारी गैर-ज़िम्मेदारी, लापरवाही के कारण आज पूरे शेड में करंट आ गया। छब्बी ने भी ध्यान नहीं दिया। लापरवाही की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यह तुम लोग समझते क्यों नहीं?' 
यह सुनकर मैं घबरा उठा, कि आखिर ये कहना क्या चाह रही हैं। छब्बी कहां है? वह क्यों नहीं दिख रही है। आवेश में आकर मैंने कहा,'ऊपर जाकर छब्बी से पूँछता हूँ कैसे क्या हो गया? मैंने तो सब ठीक से लगाया था।'
डर, आवेश, घबराहट में मैं कुछ साफ बोल नहीं पा रहा था। मेरी बात पूरी होने से पहले ही सुन्दर हिडिम्बा के बोलने के बजाय इंस्पेक्टर बोला, 'वो एंबुलेंस में है। तुम्हारी लापरवाही के कारण उसकी डेथ हो गई।' यह सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मैं जहां खड़ा था वहीं बैठ गया। तभी उसने एंबुलेंस वाले को इशारा कर दिया, ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट की और चल दिया। 
मैं जल्दी से उठा कि छब्बी के अंतिम दर्शन करूँ, मैंने रुकने के लिए आवाज भी दी। लेकिन ड्राइवर को नहीं सुनना था तो उसने नहीं सुना। तभी एक कांस्टेबिल ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ''चलो।'' मैं कुछ समझूं तब-तक खींच कर मुझे पुलिस की जीप में बैठा दिया गया। मैंने हक्का-बक्का हो सुन्दर हिडिम्बा को आवाज दी, जहां खड़ी थीं, उधर देखा तो वह अपनी जगह पर नहीं दिखीं। वह इसी बीच अंदर जा चुकी थीं । अब-तक सारा खेल मेरी समझ में आ गया था। यह भी समझ गया था कि, ज़्यादा चूं-चपड़ की तो पुलिस और ज़्यादा लठियाएगी।
मैं रात भर लॉक-अप में बंद रहा। तीन राउंड जमकर पीटा गया। बार-बार एक प्रश्न कि, 'बता साले औरत को करंट लगाकर क्यों मारा?' मैं उनसे क्या कहता कि, सालों छब्बी को नहीं, असली करंट तो तुम सबने मुझ पर छब्बी की हत्या का आरोप लगा कर लगाया है। जो मेरी और मैं जिसका प्राण बन चुके थे, इस अनजान अंतःहीन दुनिया में, उसको मैं कैसे मार सकता हूं। 
मैंने हाथ जोड़-जोड़ कर बताना चाहा लेकिन सुना तब गया, जब तीन बार लाठी मार-मार कर हड्डी-पसली एक कर दी गई। और सुनने के बाद मुझसे कुछ नहीं कहा गया कि अब मेरे साथ क्या होगा। मैं लॉक-अप में घोर असमंजस में सांस लेता दर्द से कराहता पड़ा रहा। पानी तक डर के मारे नहीं मांगा।
प्यास से हलक सूखता रहा लेकिन हिम्मत नहीं कर सका। सुबह होते ही मुझे यह विश्वास हो चला था कि अब मेरी बाकी ज़िंदगी जेल में बीतेगी। अपनी प्यारी छब्बी की हत्या के आरोप  में। मुझे लगा कि अब मैं टूट चुका हूं। अब मेरी मौत करीब है। तोंदियल ने जो बताया था कि कई नौकरों का पता ही नहीं चला कि वो गए कहां? अब उन्हीं में मेरा भी एक नाम जुड़ने जा रहा है। छब्बी और मैंने सुन्दर हिडिम्बा से जो बगावत कर दी थी, उसका परिणाम चंद घंटों में सामने आ गया है। 
वह छब्बी की बहस बर्दाश्त नहीं कर पाईं ,क्योंकि उन्होंने रुकने की जगह,सारा सामान दिया था। उन्हें गुस्सा आई होगी कि खुद जा रही है ,साथ मुझे भी ले जा रही है। ये कहावत चरित्रार्थ कर रही है कि,'' बाण तो बाण गए चार हाँथ पगहो ले गए।'' घर पर बाबू अकसर यह बोलते थे। समीना मैं सोच रहा था कि तोंदियल तो दुर्घटनावश करेंट से मरा। लेकिन छब्बी! मुझे पूरा यकीन था कि, छब्बी को करेंट लगाकर, तड़पा-तड़पा कर मारा गया। और मुझे मारने के लिए पुलिस के हवाले कर दिया गया। पुलिस को अपना गुडवर्क दिखाने के लिए एक माध्यम दे दिया गया।
वह मुझ निर्दोष को मार कर, कोई हथियार साथ में दिखा कर कहेगी कि, फलां माफिया का शॉर्प-शूटर एनकाउंटर में मारा गया। माफियाओं से भरे इस शहर में हर कोई आसानी से पुलिस की इस कहानी पर विश्वास कर लेगा। अंडरवर्ल्ड की दुनिया यहाँ ऐसे ही नहीं फलती-फूलती आ रही है। पुलिस का आधा सच आधा झूठ ही इन्हें खाद-पानी देता आ रहा है। अन्यथा यह पुलिस चाह जाए तो हफ्ते भर में लोगों के नाक में दम किये यह अंडरवर्ल्ड हमेशा के लिए समुद्र में समा जाए। लेकिन पुलिस के आधे सच-आधे झूठ का न डी.एन.ए.बदलने वाला है न हम जैसों की किस्मत। 
समीना इसलिए तब मुझे अपनी मौत एकदम अपने सामने दिख रही थी। मौत के करीब होने का अहसास उस दिन मैं पहली बार कर रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कि मेरी जान हलक में अटकी पड़ी है। ना जाने कितने बरसों बाद मुझे पूरा परिवार, पूरा बड़वापुर, गोपीगंज,जंगीगंज  सब ना सिर्फ़ याद आने लगे। बल्कि बड़वापुर छोड़ने के बाद यह पहला अवसर  था, जब मेरे दिमाग में आया कि, किसी तरह घर संपर्क हो जाए, तो मेरी जान बच जाए। मेरे तीनों भाई जैसे भी होगा मुझे बचा लेंगे, फिर यहां से जितनी जल्दी हो सकेगा बड़वापुर वापस भाग जाऊँगा।
वहां पहुंचने के बाद दुबारा फिर कभी बड़वापुर के बाहर कदम नहीं रखूंगा। मगर कैसे करूं संपर्क? कोई नंबर नहीं था। दिमाग पर पूरा जोर लगाया लेकिन कुछ भी याद नहीं आया। उसके करीब भी नहीं पहुंच पाया। अंततः मैंने हार मान ली। छोड़ दिया अपने को किस्मत के हवाले। एनकाउंटर का इंतजार करने लगा। लेकिन वह भी लंबा खिंचने वाला था, क्योंकि अमूमन एनकाउंटर रात में ही करे जाते हैं। रात होने में काफी समय बाकी था।
समीना मैं इतना परेशान हो गया कि, अपने को मैंने एनकाउंटर से पहले ही मरा हुआ मान लिया था। पिटाई, भूख-प्यास से पस्त मैं लॉक-अप की जमीन पर पस्त पड़ था। बेहोशी की हालत थी। पीने को एक बूंद पानी नहीं। दिन में दोपहर के बाद एक आदमी जो पता नहीं कहां का था, वह मेरे लिए पानी, बड़ा-पाव लेकर आया।
मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। देखते ही मैं खाने पर टूट पड़ा। खा-पीकर लगा कि, जैसे शरीर में प्राण लौट आए। मगर यह भी मन में आया कि, मौत से पहले यह दया की जा रही है कि, भूखों नहीं मारना। गुड-वर्क के लिए गोली से मारना जरूरी है। मैं अपने को फांसी की सजा पाए देश-द्रोही गद्दार अपराधी,हत्त्यारे से भी गया बीता पा रहा था। उन्हें कम से कम उनका अपराध तो बताया जाता है। उनकी अंतिम इच्छा तो पूछी जाती है। जब कि वो देश के साथ गद्दारी किये होते हैं, किसी न किसी की निर्मम हत्या किए हुए होते हैं। भयानक अपराध किए होते हैं।
यहां तो मैंने एक चींटी भी नहीं मारी है। उस आदमी से मैं कुछ पूछना चाहता था। लेकिन वह नाश्ता देकर ऐसा गया जैसे कोई घर का जूठन, हल्का सा दरवाजा खोलकर बाहर कुत्तों के लिए फेंकता है, फिर भड़ से दरवाजा बंद कर अंदर चला जाता है। वैसे ही वह चला गया। थाने के बाकी लोगों को देखकर तो मेरी आंखों के सामने अंधेरा ही छा जाता था तो मैं उनसे बात ही क्या करता। 
थोड़ा सा वह बड़ा पाव खाकर भूख जैसे और ज़ोर मारने लगी थी। मगर लाठियों की चोट, मौत के भय ने भूख-प्यास कुछ देर में फिर खत्म कर दी। लेकिन समीना भूख भी क्या चीज है कि, मौत सामने दिख रही थी, फिर भी थोड़ी देर शांत रहने के बाद उसकी आग पुनः जल उठी, और बहुत तेज़। समीना उस हालत में पता नहीं क्यों मुझे बड़वापुर में बीता जीवन बहुत याद आ रहा था। 
भूख पर ही तब अम्मा  द्वारा कही जाने वाली यह बात याद आई। वह कहती थीं,'' पेट की आग ही के कारण तो है ई दुनिया और दुनिया का सारा मायाजाल, ई आग ना रहे तो काहे कोई कुछ करे। आदमी की लाश पड़ी रहती है, फिर भी ये आग ऐसी है कि ठंडी नहीं रह पाती।''
ऐसा वह अपनी एक मौसी की याद करके कहती थीं। उन्हें वह धिक्कारतीं, क्योंकि मौसा जब मरे,और तीन दिन भी नहीं बीता था कि, उन्होंने भर-पेट खाना खाया। हालांकि आंसू उनके निकलते रहे। तब अम्मा का मौसी को कोसना मुझे सही लगता था। लेकिन लॉक-अप में मुझे अम्मा की बात गलत और मौसी सही नजर आने लगीं। तब मुझे लगा कि, पेट की आग चिता की आग से कहीं ज़्यादा तेज़ है।
मैं इस जुगाड़ में लग गया कि, कोई मिले तो उससे हाथ-पैर जोड़ूं कि भईया भले चार लठ्ठ और मार लो। हज़ार गाली और दे लो, लेकिन खाना खिला दो। भले बाद में गर्दन उतार दो। जैसे कसाई एक दिन बकरे की गर्दन काटता है। मगर पहले तो उसे खिलाता-पिलाता ही है।
मगर किस्मत में ऐसा नहीं लिखा था। कुछ नहीं  हुआ। एक कर्मचारी दिखा, उसी से प्रार्थना की तो बदले में गाली मिली। तब मुझे घर का हर सदस्य और ज्यादा याद आया। जिसे मैं बरसों पहले बस यूं ही हवा में उड़ाता चला आया था, इस नगरी की माया में उलझकर। मैं सोच रहा था कि, पूरा परिवार ही थाने में आ जुटे, लेकिन मेरे करीब मौत आती रही। रात के आठ बज गए। थाने में लोगों का आना-जाना और बढ़ गया।
लॉक-अप दरवाजे से थानेदार और उसके आस-पास बैठे लोगों को आसानी से देखा जा सकता था। मैं बराबर उन पर नजर रखने की कोशिश कर रहा था। सब मुझे एनकाउंटर की तैयारी करते दिख रहे थे। लेकिन रात नौ बजे फिर एक आश्चर्यजनक बात हुई। वही, दिन वाला मनहूस आदमी एक बड़े कागज़ में आलू की सूखी सब्जी, आठ-नौ रोटियां दे गया। खाना उसके हिसाब से ज़्यादा रहा होगा, लेकिन मेरे लिए बस काम भर का था। पानी की एक बोतल भी। जाते-जाते वह भौंक कर गया। उसकी बातों से उस हाल में भी मेरा खून खौल गया। मगर विवश था। इसलिए उसे मन ही मन मां-बहन की ढेरों गालियां देकर ऊपर से शांत रहा। लेकिन खाने पर ऐसे टूट पड़ा कि, मानों मैं उसी मनहूस को अपने दांतों तले कूंच रहा हूं।
दो-तीन रोटी ही खा पाया था कि, मुझे थानेदार के सामने वाली कुर्सी पर, साहब का एक खास आदमी बैठा दिखाई दे गया। शायद उसी ने खाना भिजवाया था। मैं समझ गया कि सब तैयारी हो गई है। आखिरी खाना खिलाया जा रहा है। साहब ने अपना कुत्ता भेजा है कि काम में कहीं कोई खामी ना रह जाए। उस आदमी को मैंने तब देखा था, जब साहब के यहां काम करता था।
वह आदमी पांच मिनट बात करके चला गया। इस दौरान मुंह में जो निवाला था, वह भी खत्म नहीं कर सका। आदमी के जाने के बाद वह खाली कुर्सी ऐसी लग रही थी, जैसे कि मेरी मौत वहां बैठी है, मेरा इंतजार कर रही है। मेरे बाहर निकलते ही मुझे लेकर चल देगी यमराज के पास। मेरी आंखों में आंसू भर आये थे। खाने का अगला निवाला मैं मुंह में नहीं रख पाया। उसे मैंने कागज़ में फिर से लपेट दिया। दो घूंटे पानी मुश्किल से पी पाया।
मैं कोशिश कर रहा था कि,मेरी आँखें एकदम सूख जाएं। एकदम पथरीली हो जाएँ, लेकिन जितना पोंछता वह उतना ही फिर भर आतीं। मुझे मौत के नाम के साथ-साथ इतनी विवशताभरी स्थिति पर रुलाई आ रही थी कि, मेरी सुनने वाला कोई नहीं है। छब्बी जिसे मैं पत्नी ही मानता था। अगर पत्नी ना सही तो कम से कम उसे जीवन साथी मान कर तो चल ही रहा था, वह मर गई। उसे मैं आखिरी बार देख तक नहीं पाया। देखने ही नहीं दिया गया। उसका अंतिम संस्कार कहां होगा? कैसे होगा? कौन करेगा? होगा भी या ऐसे ही कहीं फेंक दिया जाएगा? ये कैसा कानून है?
जिसके पास ताकत है, यह कानून उसी के लिए एक और क्रूर ताकत बन, उसके हर गलत काम को सही करता, उसी का पिछलग्गू बन जाता है। मेरी तरह रोज ना जाने कितने निरीह-निर्दोष लोग ऐसे ही विवशतापूर्ण मौत का शिकार बनते होंगे। वाह रे अपना देश। वाह रे कानून। ऐसे ही जब देखो तब, बड़वापुर में अतिक्रमण के नाम पर बिना सूचना के दुकानें तोड़ दिया करते थे। हद है अपने देश की व्यवस्था।
मास्टर साहब स्कूल में मानवता, ईमानदारी, नैतिकता का बड़ा राग अलापते थे। बड़ा विवेकानंद की शिक्षा देते थे। ये हाल देखते तो शायद वो भी मेरी तरह गरियाते , कोसते, थूकते ऐसी व्यवस्था पर। मैं तो खैर कोस ही रहा था। सिर पीट रहा था अपना, कि मैंने और छब्बी ने साहब और सुन्दर हिडिम्बा की इतनी सेवा की ही क्यों? कितना गलत सोचते थे हम-दोनों कि जी-तोड़ मेहनत करेंगे तो सुन्दर हिडिम्बा खुश होकर हम-लोगों के भविष्य के लिए के कुछ बढ़िया कर देंगी। जब इसने कभी सांस तक नहीं ली हमारे भविष्य के लिए तो हमने खुद कदम बढ़ाए तो इसको यह भी फूटी आंखों नहीं सुहाया। टांग अड़ा दी।
इस बद्दजात को लगा होगा कि हमने उसके सारे राज जान लिए हैं। इसीलिए जिंदा नहीं छोड़ना चाह रही। समीना उस समय यह सारी बातें सोच-सोच कर मुझे गुस्सा आ रही थी। मैंने भगवान से प्रार्थना की, कि हे भगवान किसी तरह एक बार यहां से जिंदा निकाल दो। मैं उस सुन्दर हिडिम्बा की एक बार ऐसी मालिश कर दूं कि, उसका सारा दर्द हमेशा के लिए उसकी जान सहित निकल जाए। फ़िल्म में तो रेप, मर्डर की ऐक्टिंग की थी। इसके साथ सच में कर दूं। फ़िल्म के लिए की गई रिहर्सल यहां काम आ जाएगी।
सुन्दर हिडिम्बा को पता चल जाएगा कि, किसी को परेशान करने,उसकी जान लेने का परिणाम क्या होता है। यह इच्छा पूरी हो जाये तो मुझे ऐसे विवश होकर मरने की कोई परवाह नहीं। तब कम से कम यह संतोष तो रहेगा कि, मैंने किसी को मारा इसलिए मुझे मौत की सजा मिली। तब मुझे अपनी निश्चित मौत की कोई चिंता, कोई दुख नहीं होगा। एक बार भी इस बात को लेकर आँखों में आंसू नहीं आने दूँगा कि, मेरे रहते हुए भी मेरी छब्बी को मार कर लावारिस ही कहीं फिंकवा दिया गया। बस भगवान एक बार यहां से छुड़ा दे। अपने मन की कर लेने भर का समय दे दे बस। लेकिन समीना कई और घंटे निकल गए, मगर कुछ नहीं हुआ। इस बीच और कई लाये गए। जिन्हें इन सरकारी लठैतों ने खूब लठियाया था। कुछ तो घंटे भर में चले गए। जबकि तीन को मेरे पास लॉक-अप  में ही तोड़-कूंच कर तड़पने के लिए डाल दिया। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि, आखिर हो क्या रहा है, और मेरा कब क्या होगा ?
अंतहीन सी प्रतीक्षा करते-करते रात ग्यारह बजे होंगे कि, थाने में फिर महिला-पुरुषों की तेज़ बातें सुनाई देने लगीं। महिला बातों से बड़ी हिम्मती लग रही थी। पुलिस वालों से बराबर बहस किए जा रही थी। उसकी बातों, भाषा से साफ लग रहा था कि वह ठीक-ठाक पढ़ी-लिखी समझदार महिला है। जब वह और अंदर लाई गई तो मुझे दिखाई दी। सलवार-सूट में वह अच्छी-खासी आकर्षक लगभग बत्तीस-चौंतीस की रही होगी। देखने से नौकरी-पेशा लग रही थी। 
अंदर आने के कुछ देर बाद ही एक महिला सिपाही ने उसे दो-तीन थप्पड़ खींचकर मारे। बाल पकड़ कर खींचे। वह महिला फिर भी चुप नहीं हुई। अपनी बात कहती रही। बार-बार फोन पर किसी से बात करने के लिए कह रही थी। मगर वहां किसी की सुनने वाला कौन था? महिला ने एक बार सिपाही के हाथ पकड़ लिए तो वह महिला सिपाही पूरा जोर लगा कर भी नहीं छुड़ा पाई। इस पर उसने महिला को जोर-जोर से बेहद गंदी गालियां देनी शुरू की,साथ ही वहीं खड़े अपने सहकर्मियों की ओर देखा, उसका देखना था कि वह सब उसकी मदद को आ गए।
महिला सिपाही को छुड़ाने की उनकी कोशिशों के चलते महिला का सिर किसी तरह सिपाही की नाक से लग गया। इससे उसकी नाक से हल्का खून आ गया। बस इसके बाद तो महिला कैदी पर जैसे पूरे थाने का क्रोध टूट पड़ा। कैदी महिला को जमीन पर गिरा दिया गया। उसके दोनों पैर ऊपर कर पकड़ लिए गए। फिर उसके पैरों के तलुओं पर लाठियां तड़ातड़ टूटने लगीं।
उसकी चीख भी थाने में ही घुट कर रह जाए, इसके लिए उसके मुंह में उसी का दुपट्टा ठूंस कर बांध दिया गया। उसकी घूं-घूं की आवाज ही सुनाई दे रही थी। मगर वह महिला भी गजब जीवट की और ताकतवर थी। उसके जोर-दार  झटके से एक के हाथ से पैर ना सिर्फ छूट गया, बल्कि उसे चोट भी लगी। अब सब का गुस्सा और बढ़ गया।
समीना फिर मैंने वहां वह देखा, जिसके बारे में पहले सिर्फ सुना करता था कि थाने में पुलिस जब थर्ड डिग्री का प्रयोग कर, स्त्री या पुरुष को जब पीटती है तो चट्टानें भी चीख उठती हैं,उनके भी आंसू निकल आते हैं। कैदी महिला को दो मर्द पुलिस वालों ने एक पिलर से सटाकर पकड़ लिया। एक हाथ एक आदमी और दूसरा हाथ दूसरा आदमी पूरा ज़ोर लगाकर अपनी तरफ खींचे रहा। कैदी का चेहरा पिलर से सटा था, मानों वह पिलर का चुंबन ले रही हो।
महिला सिपाही ने उसकी सलवार खोल कर नीचे गिरा दी। फिर तीसरे सिपाही ने दोनों हाथों से लाठी पकड़ कर उसके नितंबों पर पूरी ताकत से मारनी शुरू कर दी। इतनी तेज़ कि नितंब पर हर लाठी की चोट के गहरे लाल निशान पड़ते जा रहे थे,खून छलछला आ रहा था।
पुलिस की इस थर्ड डिग्री-पिटाई के बारे में मैंने बड़वापुर में भी सुना था, इस तरह मार खाने वाला, इसके बाद महीनों तक ना बैठ सकता है, ना सीधा लेट सकता है, खड़ा भी नहीं रह सकता। केवल मुंह के बल लेट सकता है। 
यहां मैं वही देख रहा था। भली सी लग रही महिला के नितंबों पर लाठियां चट्टाक-चट्टाक पड़ रही थीं। उसकी घूँ-घूँ की आवाज़ आ रही थी।आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे फट कर बाहर आ जाएंगी,उनसे खून सा बरस रहा था। कम से कम बीस लाठियां मारने के बाद जब उन सब ने देखा कि, वहां की पूरी चमड़ी ही उधड़ जाएगी,तो पिलर से अलग कर उसके ऊपरी कपड़े भी उतारे गए, और उसे सीधा कर रबर की एक चप्पल से स्तनों पर पूरी ताकत से चपाक-चपाक पीटा। महिला तड़पती-छटपटाती रही। लेकिन उन दरिदों का गुस्सा इससे भी शांत नहीं हुआ।
महिला सिपाही ने एक कपड़े के टुकड़े में कुछ लगाया और उसे कैदी महिला के शरीर के निचले हिस्से में अंदर कर, छोड़ दिया उसे तड़पने के लिए। वह वहीं फर्श पर ऐसे छटपटाती रही जैसे मुर्गे की गर्दन काट कर फर्श पर डाल दिया गया हो। बड़े जीवट की वह मजबूत महिला भी इस यातना को दस मिनट से ज़्यादा नहीं बर्दाश्त कर पाई। बेहोश हो गई। वहीं फर्श पर बिना कपड़ों के पड़ी रही। उसके नितम्बों के आस-पास की फर्श उसके खून से लाल हो गई थी। महिला पुलिस ने करीब बीस-पच्चीस मिनट के बाद उसके कपड़े उठा कर उसी पर डाल दिए। जिससे उसका शरीर कुछ हद तक ढक गया।
इसी बीच चपरासी बाहर से कुछ ले आया। सब खाने-पीने हंसी-ठिठोली में लग गए। इस ठिठोली में खींचा-तानी, चूमा-चाटी, पकड़ना, दबाना सब चल रहा था। मगर फर्श पर बेहोश, निर्वस्त्र पड़ी उस महिला या मार तोड़ कर डाले गए अन्य निर्दोष लोगों के लिए कोई संवेदना, मानवता वहां कुछ नहीं दिखाई दे रही थी। 
उस महिला की यातना के आगे मैं अपना दर्द भूल गया। सोचा आखिर इस अभागन ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया है ,कि ऐसी दरिंदगी से उसे पीटा। रात तीन बजे होंगे कि, मुझे लॉक-अप से निकाल कर थाने के बरामदे में खड़ा कर दिया गया। दो कांस्टेबिल मेरे पास खड़े थे। मेरी हालत फांसी के फंदे की तरफ बढ़ रहे कैदी सी हो रही थी। मुझे बस कुछ देर में अपने होने वाले एनकाउंटर का दृश्य दिख रहा था। मैं संज्ञा-शून्य सा हो रहा था।
करीब बीस मिनट के बाद थानेदार बाहर निकला और मुझे मां-बहन की गाली देते हुए चीखा, 'भगाओ साले को, दुबारा दिख जाए तो भेजा निकाल देना बाहर। साला नेता बनने चला है। हीरो बनेगा.... फिर कई गालियां। उसके आदेश का तुरंत पालन हुआ। दोनों ने दो-चार घूंसे, थप्पड़, लात और मार कर भगा दिया। थाने से निकलते ही मैं जितनी तेज़ वहां से भाग सकता था भाग लिया। लंगड़ाते हुए ही सही मैं काफी तेज़ चल रहा था। किधर जा रहा हूं यह भी ध्यान नहीं था।
थाने से दूर जा रहा हूं बस यही ध्यान था। इतनी मार के बावजूद मैं मौत के भय से चलता ही जा रहा था, और जब रुका तो सवेरा हो चुका था। एक सड़क किनारे मैं अंततः थक कर, चूर हो बैठ गया। समीना बैठा नहीं, बल्कि ये कहूं कि गिर गया। प्यास से गला सूख रहा था, भूख से आंतें ऐंठ रही थीं। जेब में एक पाई नहीं थी। मार इतनी पड़ी थी कि अगले दो-तीन दिन मजदूरी या कोई भी काम करने लायक नहीं रह गया था। इतना पस्त था कि बैठ भी नहीं पाया और वहीं लेट गया, सड़क पर। रात भर का जागा था फिर भी दर्द के मारे सो नहीं पा रहा था। आँखें बंद किये पड़ा रहा ।
मगर जल्दी ही मेरी आँखें  मंदिर के घंटे की तेज़ आवाज से खुल गईं। धूप की गर्मी भी लग रही थी, सूरज अच्छा-खासा चढ़ चुका था। किरणें सीधे आंखों पर पड़ने से आंखें चुधियां रही थीं। मंदिर की तरफ निगाह डाली, तो वह मुझसे मुश्किल से पचास कदम की दूरी पर था। एक छोटे से मंदिर में पूजा हो रही थी। वहीं से घंटे की आवाज आ रही थी। मुझे लगा कि वहीं चलूं। वहां छाया मिल जाएगी। और साथ ही जीने का कोई रास्ता भी। नहीं तो भगवान के दरवाजे ही जान निकल जाए तो ही अच्छा है।
जमीन पर ही सही, कुछ देर लेट लेने से मुझे थोड़ी राहत मिल गई थी। मैं उठा और किसी तरह मंदिर के गेट पर पहुंच कर, हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। अंदर एक पुजारी आरती कर रहा था। दूसरा पुजारी घंटा बजा रहा था। शंकर भगवान को मैंने भी प्रणाम किया। दस मिनट की आरती पूरी कर दोनों पुजारियों  ने भगवान के चरण रज माथे पर लगाए। प्रसाद वाला डिब्बा उठाया चार क़दम पीछे चल कर मंदिर के बाहर आ गए। 
मैं मंदिर की चार सीढ़ियों के एकदम नीचे सड़क पर था। पुजारी ने मुझे प्रसाद देते हुए, कुतुहल-भरी नज़र से देख कर  पूछा, 'क्या हुआ तुम्हें, क्या बात है?' वह दोनों ही मेरे सूजे हुए चेहरे, जिसमें एक आंख इतनी सूजी थी कि करीब-करीब बंद थी। लाठियों की  मार से सूजे नंगे पैर, जिसमें कई जगह खून लगा था, जो अब तक सूख चुके थे,को बार-बार देख रहे थे।
मैंने हाथ जोड़े-जोड़े ही कहा, '' मैं काम से वार्सोवा जा रहा था। रास्ते में कुछ लोगों ने मुझे मार-पीट कर बेहोश कर दिया। मेरा पैसा, सामान सब-कुछ छीन ले गए। होश आया तो, किसी तरह यहां भगवान की दर पर आ गया, कि भगवान मेरी मदद करेंगे, किसी ना किसी को मेरी मदद को जरूर भेजेंगे।'' इतना कह कर मैं बड़ी याचना भरी दृष्टि से उन्हें देखने लगा। समीना उस हालत में भी मैंने झूठ इसलिए बोला था कि, पुलिस का नाम सुनकर कहीं वह लोग मुझे चोर-उचक्का समझ कर दुत्कार ना दें। मैंने अपनी जान बचाने के लिए झूठ बोला था। दोनों पुजारी मुश्किल से तीस-पैंतीस के ही रहे होंगे।
मेरी बातें सुनने के बाद उनकी आँखों में मेरे लिए दया-भाव उभर आये थे। उन्होंने प्रसाद के डिब्बे से चार लड्डू निकाल कर दिए। कहा,'' लो प्रसाद ग्रहण करो, पानी देता हूं।''  मैंने जल्दी से प्रसाद खाया। उन्होंने मोटरसाइकिल की डिक्की से बोतल निकाल कर पानी पिलाया। बोतल भी मुझे दे दी। वार्सोवा में कहां जा रहे थे? यह पूछने पर मैंने वह पता बताया, जहां मोटी ने एक बार किसी काम से भेजा था। वह वहां से काफी दूर था। थोड़ी देर और पूछताछ करने के बाद उन्होंने मुझे इतने पैसे दिए कि, मैं बस वगैरह से वहां पहुंच जाऊं। दोनों ही पुजारी आपस में भाई थे।
जाते-जाते उन्होंने पता नहीं क्या सोच कर मुझे और पैसे देते हुए कहा,'' पहले आस-पास कहीं मरहम-पट्टी करा लो ,फिर जहां जाना है ,वहां जाओ। अगर स्वयं जाने में असमर्थ हो, तो मरहम पट्टी के लिए हम ले चलें।'' मैं उन्हें और कष्ट नहीं देना चाहता था, इसलिए धन्यवाद देते हुए कहा चला जाऊँगा। उन्होंने जाते-जाते डिक्की से एक एकदम नई तौलिया निकाल कर दी, साथ में चार लड्डू और दे दिये। 
उनके जाने बाद मैं करीब घंटे भर उसी मंदिर की छाया में लेटा रहा। दुबारा दिए लड्डू भी खा लिए। बचा पानी भी पी गया। उस समय मुझे याद आ रही थी, तोंदियल की वह बात जो उसने कही थी कि, ''ज़्यादा चकर-पकर, इधर-उधर देखने की जरूरत नहीं है। नहीं तो साहब कब, कहां फिंकवा देगा किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा। कई नौकर ऐसे ही गायब हुए हैं। जिनका कुछ भी पता नहीं चला।'' उसकी यह बात जितनी याद आती, उतना ही ज़्यादा मुझे डराती।
मैं वहां से किसी तरह वार्सोवा चला आया। दो दिन इधर-उधर फुटपाथ पर बीता। छब्बी की याद कलेजा छील कर रख दे रही थी। घर से निकलते समय मेरी सुरक्षा को लेकर वह बहुत चिंतित थी। चलते समय कहा गया उसका आखिरी वाक्य मेरे कानों में बार-बार गूंज रहा था, '' इस मोटी के मनहूस काम से ज्यादा अपना ध्यान रखना समझे। आज फिर ये काली बारिश हो रही है। मेरा मन बहुत घबरा रहा है,मेरा वश चले तो जाने ही न दूँ।'' 
समीना मुझे लगता जैसे वह अगल-बगल, आगे-पीछे ही कहीं खड़ी है। उसकी बातें जितनी याद आतीं वो मुझे उतना ही ज्यादा उठ खड़ा होने,आगे बढ़ने की ताकत देतीं, प्रेरित करतीं। दो-तीन दिन मैंने लड्डू, और जो पैसे पुजारी जी ने दिए थे, उससे जीने भर का, इधर-उधर का खा कर गुजारे। मैं किराए में पैसा खर्च करने के बजाए ज़्यादा से ज़्यादा पैदल चलकर, उसे खाने के लिए बचाए हुए था।
मगर पैसे थे ही कितने जो ज़्यादा दिन चलते। यह बात मेरे दिमाग में थी। इसलिए मैंने पहले दिन ही से काम-धंधा ढूंढ़ना शुरू कर दिया था। तीसरे दिन जिस होटल के सामने फुटपाथ पर मैंने रात बिताई थी, उसके खुलने पर जैसे ही उसका एक कर्मचारी आया, उससे किसी तरह भी कुछ काम दिला देने की बात की। बर्तन की साफ-सफाई से लेकर, वेटर तक का कुछ भी। वह होटल अच्छा-खासा बड़ा था। जहां ज़्यादातर काम-धाम में लगे रहने वाले तबके के लोग ही आया करते थे। मैंने सोचा वेटर का काम तो मिल ही जाएगा।
मगर जब मालिक आया तो साफ बोला, 'बर्तनों की सफाई, कुछ ऊपर के कामों के अलावा फिलहाल और कोई काम नहीं है। करना चाहो तो अभी से शुरू हो जाओ।' यह मेरे लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसा था, तो मैं तुरंत लग गया। अब-तक मेरे चेहरे, पैरों की सूजन काफी कम हो गई थी। उससे भी मैंने पुलिस की बात छिपाते हुए लुटने-पिटने की ही बात बताई थी। उसने सुनने के बाद कुछ कहा नहीं, बस काम दे दिया। दोपहर को खाना भी दिया ।
रात को जब होटल बंद हुआ तब भी खाना मिल गया। होटल बंद होते समय मैंने एक साथी कर्मचारी से रात काटने के लिए, जगह की बात की तो वह बोला, 'जहां मैं रुकता हूँ ,वहां रुक सकते हो तो चलो मेरे साथ।' मेरे लिए इससे बड़ी मदद और क्या हो सकती थी? मैं तुरंत तैयार हो गया। वह मुझे लेकर एक निर्माणाधीन हीरानंदानी आवासीय एरिया में पहुंचा। वहीं बन रही एक बिल्डिंग के बरामदे में ठहरा। साथ में चार-पांच लेबर टाइप के और लोग भी थे। बिस्तर के नाम पर सीमेंट की बोरियां, कार्टन, गत्ते थे। फर्श पर गिट्टियां पड़ी थीं। उन्हीं पर बितायी रात। चार दिन ऐसे ही चला। पांचवें दिन इससे थोड़ा बेहतर इंतजाम हुआ।
सबसे बड़ी समस्या मेरे सामने कपड़ों की भी थी। कोई कपड़ा मेरे पास नहीं था। उन्हीं साथ काम करने वालों से बात कर दो सेट कपड़ों का इंतजाम किया। उन सबने पहले ब्याज पर पैसा देने को कहा। लेकिन फिर पता नहीं क्या सोचकर खुद ब्याज से मना कर दिया। 
समीना दुनिया में कुछ भी हो जाए, कुछ भी रुक जाए, लेकिन समय किसी के लिए भी पलक झपकने भर को भी नहीं ठहरता। मेरे लिए भी नहीं ठहरा, जल्दी ही यहां काम करते तीन महीना बीत गया। अपनी मेहनत ईमानदारी से मैंने होटल मालिक का विश्वास जीत लिया। मेरे काम से वह मान गए कि, मैं दो लोगों के बराबर अकेले काम करता हूं। धीरे-धीरे मुझसे होटल के सामान मंगाने लगे। घर भेजकर  घर और बाहर के और काम भी कराने लगे। बाहर काम के लिए अपनी मोटरसाइकिल से भेजते।
उनका छह लोगों का परिवार था। वार्सोवा में ही उन्होंने ठीक-ठाक एक मकान बना रखा था। उनकी दो लड़कियां, दोनों लड़के पढ़ने-लिखने में तेज़ थे। पत्नी खाना बनाने और होम डेकोरेशन की एक्स्पर्ट थी। कई फूड फेस्टिवल में वह ईनाम जीत चुकी थीं। मेरे वहां जाने के बाद ''वार्सोवा कोली सी फूड फेस्टिवल'' में उन्होंने फिर हिस्सा लिया। फेस्टिवल में उनकी मदद के लिए मालिक ने मुझे भेज दिया। वहीं फेस्टिवल में मुझे वह आदमी मिला जो पहले साहब के एक दोस्त के यहां काम करता था और साहब के यहाँ अक्सर काम से आता रहता था। वहीं उससे परिचय हुआ था। 
वह एक अच्छा आदमी था। उसने मेरी सारी कहानी, संघर्ष को सुनने के बाद कहा, 'कहाँ  बर्तन, झाड़ू-पोंछा में पड़े हो? मेरे साथ चलो मैं काम दिलाता हूं।' अचानक मैं होटल से काम नहीं छोड़ना चाहता था। मेरे मन में होटल वाले के लिए श्रृद्धा थी। उन्होंने बहुत कठिन समय में मुझे काम दिया था। मेरा जीवन बचा लिया था, नहीं तो मैं मर जाता। उनके पूरे परिवार का नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार था। मैंने सोचा जो भी हो, मैं उस आदमी से पूछ कर ही जाऊंगा।
उन्होंने बात करते ही खुशी-खुशी कहा,'ठीक है जाओ।' चलते वक्त मैंने उन्हें  प्रणाम किया तो वह फिर बोले, 'बात ना बने तो फिर चले आना।' मैंने कहा, 'ठीक है।' 
तो समीना विलेन-किंग बनने के प्रयास में, मैं एक बार फिर पहले जीवन बचाने के लिए संघर्षरत हो गया। इस बार मेरा युद्ध क्षेत्र हीरानंदानी एरिया में '' रमानी हाउस'' बना। जहां दुनिया का वह रंग देखा, जिसे पहले कभी नहीं देखा था। हाँ, सुना जरूर था। '' रमानी हाउस '' को वफादार ऑलराउंडर वर्कर की जरूरत थी। वे नौकरों को अपने सर्वेंट क्वार्टर में ही रखते थे। उस भारी-भरकम बंगलो की रखवाली से लेकर बाकी सारे काम भी करवाते थे। इसके लिए वह तनख्वाह अच्छी देते थे। खाना-पीना और साथ में वर्दी भी। मैं उनके लिए एक ऑलराउंडर वर्कर बन गया।
मैं जब पहुंचा तब सत्तर वर्षीय रमानी साहब डायलिसिस पर जीवन के दिन गिन रहे थे। लड़का परिवार सहित अमरीका में बस गया था। वहीं धंधा जमाए था। जिसने मुझे वहां पहुंचाया वह उनके संपर्क में बीस सालों से था। उसी ने बताया कि, जब वह संपर्क में आया तब-तक रमानी साहब धारावी में चार सिंगिल रूम फैक्ट्री के मालिक बन चुके थे, लड़का बहुत होनहार था। बाप के धंधे को दिन-दूना रात चौगुना बढ़ाए जा रहा था।
धंधे के ही चक्कर में अमरीका जाना शुरू किया। फिर अचानक एक बार बताया कि,वह  वहां की नागरिकता ले चुका है,ज्यादा दिन नहीं बीते कि घर भर को यह बता कर हैरान कर दिया कि उसने वहीं एक अमरीकन लड़की से शादी कर ली है। उसे एक बार भारत भी ले आया,फिर एक बार हमेशा के लिए अमरीका चला गया। 
उसके जाने के बाद ही पता चला कि, वह बाप की खून-पसीना एक कर खड़ी की गईं, चार में से तीन फैक्ट्रियां भी बेच गया। इकलौती बची फैक्ट्री पर बैंक का भारी कर्ज था। बाप के विश्वास का उसने ऐसा खून किया ,जैसा दुश्मन भी नहीं करता। बाप ने किसी तरह जमा-पूंजी सब निकाल कर बैंक को दिया। एक-एक वह पैसा भी चला गया, जो उन्होंने अपनी दोनों लड़कियों की शादी के लिए रखा था।
वह फैक्ट्री तो बचा ले गए, लेकिन खुद को नहीं। बेटे के धोखे को वह नहीं सह पाए। बी.पी., डायबिटीस के भीषण हमले का शिकार हो गए। दवाओं का साइड एफेक्ट किडनी ले डूबी। डायलिसिस से जीवन तो किसी तरह खींच रहे थे, लेकिन धंधा खींचने की ताकत उनमें नहीं रह गई थी।
ऐसे में दोनों लड़कियों ने उनके दिशा-निर्देशन में धंधा संभाल लिया। '' रमानी हाउस '' एक बार फिर से आगे बढ़ चला, और इसी आगे बढ़ते '' रमानी हाउस '' में मेरी समीना, मेरी सैमी, यानी तुम मुझे मिली। छब्बी के बाद तुम ही वह माध्यम बनीं जिसके सहारे मैं एक बार फिर विलेन-किंग बनने का अपना सपना पूरा करने की सोचने लगा। मेरे आने के पांच-छह  महीने बाद तुम आई थी।
पहले मैंने समझा कि तुम काम पर नई-नई रखी गई हो। लेकिन पहले ही दिन से तुम्हारी चाल-ढाल से लगा कि नहीं, तुम यहां की पुरानी वर्कर हो। मेरा अनुमान सही निकला। तुम कई साल पहले से ही रमानी परिवार का मुख्य हिस्सा बनी हुई थी। रमानी साहब के दूसरे मकान में रह रही थी। लड़का उसे भी चोरी से बेच रहा था, लेकिन ऐन टाइम पर रमानी साहब को पता चल जाने से बच गया था। 
उसमें लड़का ही अपनी एक भारतीय महिला मित्र के साथ रहता था। बाद में अमरीकन लड़की के चलते दोनों अलग हो गए थे। लड़के के जाने के बाद तुम उस मकान को संभाले हुई थी। बिजनेस को गति देने के लिए पैसों की जरूरत हुई तो रमानी साहब ने उसे ही बेच दिया था। 
रमानी हॉउस आते ही तुम्हें सारे नौकरों का हेड बना दिया गया। और फिर तुम्हारी चीखती सी आवाज से रमानी हाउस गूंजने लगा। रमानी बहनें जी-तोड़ मेहनत कर के बाप के व्यवसाय को फिर से नई ऊंचाई पर ले जा रही थीं। मगर रमानी साहब लड़के का दिया दंश नहीं झेल पाए, और एक बार डायलिसिस के समय ही चल बसे। बाद में पता यह चला कि गलत ग्रुप का ब्लड चढ़ा दिया गया था। 
रमानी साहब की मौत पर मैंने सोचा था कि, दो-तीन हफ्ते शोक मनाया जाएगा। तेरहवें दिन तेरहवीं होगी। शोक में ''रमानी हाउस'' महिनों डूबा रहेगा। लड़कियां बाप को बहुत चाहती हैं , तो कम से कम महीनों वह हंसना-बोलना भूल जाएंगी। लेकिन मुझे धक्का लगा कि, ऐसा कुछ नहीं हुआ। पहले दिन इलेक्ट्रिक भट्टी में शवदाह। दूसरे दिन हवन हुआ और फिर सब ऐसे खत्म कि, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
लेकिन समीना इस विषय पर मुझे कुछ कहने का कोई हक नहीं है , क्योंकि मैंने अपने परिवार, मां-बाप के लिए क्या किया, यह सोचते ही शर्मिंदगी महसूस होती है,मन धिक्कारता है कि, मैं इस बारे में किस मुंह से बोल सकता हूँ। समीना मैं लाख जाहिल हूं, लेकिन उम्र के साथ मुझे यह महसूस हो रहा था कि मैं ज़्यादा भावुक होता जा रहा हूं। ऐसा सोचने की वजह यह थी कि, रमानी साहब के दाह संस्कार से लौटकर बार-बार मेरी आंखों में आंसू आ जा रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि, इन कुछ ही महीनों में मेरा उनसे कौन सा रिश्ता जुड़ गया था, और फिर अगले ही कुछ महीनों में तुमसे।
रमानी साहब के जाने के बाद जब एक झटके में रमानी बहनें नौकरों की फौज कम करने लगीं, तो मुझे लगा कि, मुझे अब फिर उसी होटल वाले सज्जन पुरुष के पास जाना पड़ेगा।
भले आदमी ने कहा था कि जरूरत पड़े तो फिर आना। लेकिन होना तो कुछ और था तो रमानी बहनों को मैं और तुम ज़्यादा उपयोगी लगे। हम उन्हें ऑल इन वन लगे। इतने बड़े घर के लिए दर्जन भर नौकरों में से हम-दोनों ही रखे गए। 
सबकी छुट्टी के बाद जब हम-दोनों को अगले दिन बुलाया इन बहनों ने, तो तूने चलते वक्त यही कहा था,'चल,अब हम-दोनों का फाइनल हिसाब होने का है।'
मगर हम-दोनों के अनुमान के विपरीत बहनों ने हमें हमारे कामों के बारे में समझाया। हमारे काम और बढ़ गए थे। हमसे सीधे कहा गया कि कर सकते हो तो बोलो। हमारा काम न सिर्फ पूरा रमानी हाउस संभालना था,बल्कि रमानी साहब के बाद उनके खून-पसीने पर आकार लिए उनके राज्य को और मजबूत करने में दोनों बहनों को पूरा सहयोग करना था।
मगर किस्मत में तो उनके अंतःपुर की अजब-गजब दुनिया देखने, तमाम कर्म-कुकर्म का हिस्सा बनने और फिर.... खैर जब काम बता कर दोनों बहनें चली गईं कहीं, तो तूने एक लीडर, एक नेता की तरह कहा, 'सुनो अब यहां हम-दोनों ही बचे हैं। हम-दोनों ही को पूरा काम-धाम देखना है। काम बहुत है। सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलेगी।' 
मैंने कहा, 'हां, काम तो करना है। सांस ले पाएं या ना ले पाएं। नौकरी करनी है, तो करना ही पड़ेगा। नहीं कर पाऊँगा तो छोड़कर चला जाऊँगा।'
मेरे इतना बोलने पर तूने अपना सुर एकदम से बदला और कहा, 'देख, आदमी भला लग रहा है, तो कह रही हूं, यहां नौकरी करने पर मेहनत जरूर है। लेकिन उतना ही आराम भी है। ये परिवार भी कभी हम-लोगों की ही तरह सड़क पर था, लेकिन मेहनत के साथ-साथ इन्हें किस्मत का भी साथ मिल गया तो आज करोड़ों का व्यवसाय कर रहे हैं। फैक्ट्री में बहुत लोग लगे हुए हैं। अब इस घर को बहनों ने जिस तरह से,जिस विश्वाश से हम पर डाल दिया है, उस विश्वास को हमें तोड़ना नहीं चाहिए। अरे जहां भी जाएंगे, काम तो हर जगह करना ही पड़ेगा ना, फिर यहां रहने में क्या खराबी है।'
मैंने कहा, 'हाँ, कोई खराबी नहीं,यहीं करेंगे काम ।' 
असल में समीना तुम्हारी बातों से मुझे सुन्दर हिडिम्बा,उनका सोने का पिंजरा,उसमें से निकलने की कोशिश में जान गंवाने वाली अपनी प्यारी छब्बी और निकलने ही की कोशिश में सुन्दर हिडिम्बा ने पुलिस से मेरी जो निर्मम पिटाई कराई थी, वह याद आ गई थी। उस पिंजरे के लिए छब्बी और मैंने भी वहां रहते हुए ऐसा ही कई बार सोचा था।     
लेकिन तुम्हारी बात को नकारने का मेरे पास कोई कारण नहीं था तो उस दिन हम-दोनों, दिन भर जी-तोड़ काम करते रहे, और बातें भी। अपने-अपने बारे में उस दिन पहली बार कुछ ज्यादा खुल कर बातें कीं। मजे की बात यह थी कि, हम-दोनों बहुत बच के बातें कर रहे थे। यह समझ भी रहे थे कि, हम-दोनों ही एक-दूसरे से झूठ बोल रहे हैं। फिर भी हम एक दूसरे की सुने जा रहे थे। 
समीना आश्चर्य तो यह कि, परस्पर झूठ बोलने के बावजूद हम-दोनों कुछ ही दिनों में पूरी तरह घुल-मिल गए। जब घुल-मिल गए, तब ज़्यादा सच बोलना शुरू किया। झूठ धीरे-धीरे कम होता गया। सच बढ़ता गया और जल्दी हम-दोनों ने मिलकर रमानी हाउस को बहुत कायदे से संभाल लिया ।
रमानी परिवार के साथ तुम क्योंकि कई वर्षों पहले से ही जुड़ी हुई थी, इसलिए तुम परिवार की बहुत विश्वसनीय थी,उनकी करीब-करीब सारी बातें जानती थी। लेकिन तुम्हारी एक आदत तुम्हें अकसर परेशानी में डाल देती थी। वह थी फेंकने की। पहले तुमने बताया कि तुम रमानी साहब के बहुत कहने पर उनके यहां काम करने के लिए रुकी। नहीं तो तुम अपने होम डिस्ट्रिक लौट जाती। 
तुम्हारा शौहर तुम्हें बहुत परेशान करता था, मारता था, इसलिए तुमने  खुद तलाक दे दिया था मतलब ''खुला''। लेकिन बाद में एक दिन बातों ही बातों में बोल गई कि बिना तलाक के ही भाग ली थी। उसके बाद अपने पैरों पर खड़े होने के चक्कर में काम की तलाश में रमानी साहब तक पहुंच गई थी। मगर ऊब गई तो घर जाने की तैयारी करने लगी।
लेकिन जिस ताव के साथ घर छोड़ कर निकली थी, उसका ध्यान आते ही तुमने कदम खींच लिए ,नहीं गई। तुम्हारा गुरूर सामने आ गया। मेरे विलेन-किंग बनने के सपने को जान कर तुमने जो कहा था, वह हू-ब-हू आज भी याद है। बड़े ताव से तुम बोली थी , 'सुन, तू बड़ा एक्टर बनने की बात करता है, तो ढंग से कोशिश कर, जब ये साला डेढ़ फुटिया,घोड़ी सा हिनहिनाने वाला हीरो बन सकता है, तो तू तो दमदार है, लंबा-चौड़ा है। लगा रह ईमानदारी से, कभी तो बन ही जाएगा।' 
जिस समय मुझसे तुम यह बातें कह रही थी, मुझे लगा कि, छब्बी मेरे सामने खड़ी है। मैं बड़े गौर से तुम्हें देख रहा था, तो तुम बोली, 'सुन ऐसे टुकुर-टुकुर खड़ूस की तरह ना देख। एक जवान मर्द जैसे नशीली आँखों से, खा जाने वाली आंखों से सामने खड़ी औरत को देखता है, वैसे ही देख ना। आज से मैं तेरे को एक्टिंग सिखाऊंगी।'
तुम्हारी इस बात पर मैं जोर से हंस कर बोला था , 'तू ऐटिंग न सिखा, सीधे पिक्चर बना। हिरोइन भी तू ही बन। मैं तो विलेन ही बनूंगा। हीरो साले मुझे गधे ही लगते हैं। पूरी पिक्चर में हिरोइन के नखरे उठाते-उठाते, विलेन से लात खाते रहते हैं। आखिर में बस किसी तरह हांफते-हांफते जिता दिए जाते हैं। जब कि विलेन पूरी पिक्चर में छाया रहता है। पूरी पिक्चर में हिरोइन के नखरे नहीं उठाता। बल्कि उसे ही उठाता रहता है। मुझे तो वही अच्छा लगता है। विलेन बन कर पूरी पिक्चर में तेरे को उठाता रहूंगा। अभी खा जाने वाली या नशीली आँखों से तुझे देखने का कोई मतलब है क्या?'
मेरा इतना कहना था कि तुम एकदम भड़क गई। तननाते हुए बोली, 'देखने भर के ही पहाड़ जैसे हो। हम तुम्हारी जगह होते, और कोई औरत ऐसे कहती, तो अब-तक उठा के सर के ऊपर तान देते। अब समझ में आ रहा है कि, इतने दिन यहां पैर रगड़-रगड़ के ऊपर से छह इंच घिस गए, लेकिन कोई पिक्चर क्यों नहीं छू पाए।'
तुम्हारा इस तरह ताना मारना मुझे बहुत बुरा लगा। बड़ी गुस्सा आई। सोचा ये तो ऐसे ताना मार रही जैसे मेरी पत्नी हो। छब्बी तो पत्नी से बढ़ कर थी, मगर उस बेचारी ने कभी भी इस  झूठी ,फेंकू की तरह इतना अपमानित नहीं किया था। कभी ऐसे ताना नहीं मारा था। गुस्सा एकदम मेरे सिर पर सवार हो गया था । पुरबिया स्वभाव एकदम उबाल खा गया। 
मैंने कहा, 'सुन दुबारा ऐसे ताने मत मारना। मैं एड़िया घिस-घिस कर ऊपर से छह इंच छोटा हो गया हूँ तो तू कौन सा इस शहर में लोगों को घिस-घिस कर ऊपर से छह इंच लंबी हो गई है। जा अपने काम से काम रख। फिर कभी मेरे रास्ते में मत आना,समझी।' 
मगर तुम वो कहाँ थी, जो पीछा छोड़ देतीं  हैं। मैं बाहर जाने लगा तो तुम बोली,'अरे मैंने तो मजाक किया था। इतना काहे को लाल-पीला हो रहा है। फिर यहां साथ काम कर रहे हैं, तो सामने तो आना ही पड़ेगा। मुंह फेर कर एक जगह कैसे रहा जा सकता है। ऐसे तो काम नहीं हो पाएगा, और तब ये रमानी बहनें ना, जैसे इन्होंने बाकियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, वैसे ही हम दोनों को भी दिखा देंगी। इसलिए ये बात अच्छी तरह समझ ले कि सामने आना है ,बार-बार आना है।'
लेकिन मैं इतना गुस्से में था कि तुम्हारी किसी भी बात का कोई जवाब नहीं दिया। अपने काम में लग गया। कुछ पैकेट कोरियर करने थे,वही तैयार करने लगा। उस दिन तुमने रात तक कई बार बात करने की कोशिश की, लेकिन मैं नहीं बोला। मुझे तुम्हारी बातें सूई की तरह चुभ रही थीं।
बड़ी देर रात को जब मैं सर्वेंट रूम में आकर, थका-हारा आराम कर रहा था, तो तुम आ गई। तुम्हें देखकर मुझे फिर गुस्सा आ गया। लेकिन तुम खड़ी मुस्कुराती रही। मैं जमीन ही पर अपना बिस्तर लगाए था, क्योंकि जो बेड मिला था उस पर मेरे पैर बाहर निकले रहते थे ,जिससे मैं सो नहीं पाता था। तुम खड़ी मुस्कुरा जरूर रही थी, लेकिन चेहरे पर दिन-भर की जी-तोड़ मेहनत की थकान भी साफ दिख रही थी।
जब मैं बड़ी देर तक कुछ नहीं बोला, तो तुम  बड़े अपनत्व से बोली, 'इतना गुस्सा है, इतनी देर से खड़ी हूं। बैठने को भी नहीं बोल रहा है। काम कर-कर पैर एकदम फटे जा रहे हैं। मैंने तो खाली मजाक किया था। कुछ समझा था तो बोल दिया था। अब गुस्सा थूक भी दे न।'
उस समय तुम्हारी आवाज़ में अपनत्व की वह धार थी कि, मैं खुद को रोक नहीं सका। मगर फिर भी कुछ बोला नहीं। बस उठ कर बैठ गया। तुम्हारे बैठने के लिए आधा बिस्तर खाली कर दिया। तब तुम आकर बगल में बैठ गई। दीवार के सहारे सिर टिका कर। रमानी हाउस में पहुँचने के बाद यह पहला अवसर था काम-धाम के बाद, जब तुम सोने के समय  बेधड़क मेरे कमरे में आकर बैठी थी।
मैंने सोचा, कहीं रमानी बहनों ने देख लिया तो पता नहीं क्या सोचेंगी। कहीं मुझे लफड़ेबाज समझ कर बाहर न भगा दें। मन में थोड़ा भय उत्पन्न हुआ तो मैंने कहा, 'इतनी रात में तुमको मेरे कमरे में नहीं आना चाहिए, ये बहनें देख लेगीं तो तुझे औरत होने के नाते भले ही कुछ ना कहें, लेकिन मुझे निकाल बाहर कर देंगी।'
'चिंता मत कर, इन दोनों की रग-रग से वाकिफ हूँ। इनको हमारे-तुम्हारे जैसे  काम करने वाले ढूंढ़े नहीं मिलेंगे, और ये पिंजरे जैसे कमरे देकर हम-पर कोई अहसान नहीं किया है। काम के साथ-साथ हाउस की रखवाली करने वाला भी तो कोई चाहिए ना। सिक्योरिटी गार्ड रखेंगी तो उसका खर्चा देना पड़ेगा।'
'चलो ठीक है। मगर इस समय क्यों आई हो? आधी रात हो रही है। मुझे नींद आ रही है।'
 इस पर तुमने बहुत इठलाते हुए अंगड़ाई ली,और बड़ी मादक आवाज़ में बोली, 'थकान उतारने आई हूं।' 
तुम्हारी इस बात,अंदाज़ से मैं थोड़ा असमंजस में आ गया। मैंने प्रश्नभरी आँखों से तुम्हें देखते हुए कहा, 'तो अपने कमरे में उतारो, मेरे कमरे में क्यों आई हो?'
'अपने कमरे में केवल अपनी थकान उतार पाती। तेरा गुस्सा नहीं। इसीलिए तेरे कमरे में आ गई। इतना टाइम हो गया। अब गुस्सा थूक दे ना। क्या रखा है इस गुस्से में?'
मैं चुप रहा तो तुम मेरे और करीब आकर बोली, 'देखो, मुझे इतना बुरा मत समझो। मैं थोड़ा तीखा जरूर बोलती हूं, लेकिन कसम से, मेरे मन में कोई बुरा खयाल नहीं होता। पता नहीं क्यों, उस समय क्या हो गया था मुझे कि कह दिया। जब कि मेरी-तेरी हालत में फ़र्क ही क्या? क्या है बताओ? इसीलिए कह रही हूँ कि मजाक को मजाक ही रहने दो ना। ऐसे गुस्सा रहोगे तो मैं रात भर सो नहीं पाऊँगी।'
मुझे लगा कि यह कहते हुए तुम काफी गंभीर हो गई हो। उस समय तुम दिन वाली समीना से एकदम अलग नजर आ रही थी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि, जैसे तुममें मेरी छब्बी उतर आई है। मुझे तुम पर दया आ गई। फिर भी मैं चुप रहा तो तुम बोली, 'इतना ही गुस्सा है, तो ठीक है, चल माफी मांगती हूं तेरे से। अब तो गुस्सा थूक दे।'
अचानक मुझे मजाक सूझा। मैंने सोचा, तुझे थोड़ा परेशान करते हैं। यह सोच कर मैं ना सिर्फ़ चुप रहा, बल्कि मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। इसके बाद तुम चुप बैठी रही। देखती रही मुझे। फिर बिल्कुल थकी-हारी सी उठी, और बहुत ही बोझिल कदमों से बाहर जाने लगी। कनखियों से तुम्हारे चेहरे को देख कर मुझे लगा कि,तुम तो बस रोने ही वाली हो। यह देख कर मैं चुपके से उठा और  तुम जैसे ही दरवाजे के पास पहुंची, वैसे ही तेज़ी से तुम्हें गोद में उठा लिया। जब-तक तुम कुछ समझो तब-तक मैंने तुम्हें सिर से ऊपर तान दिया। तुम एकदम सकपका उठी। कुछ पल तो समझ ही नहीं पाई कि क्या हुआ। जब मैंने आवाज़ में मसखरी, शरारत घोलते हुए कहा, 'देर से ही सही, तेरे को तान दिया ऊपर। अब बोल कहां उतारूं?'
मगर तुम भी कम नहीं थी। तुरंत नहले पर दहला दिया। बोली, 'जब-तक न कहूं, तब-तक ताने रहो, देखती हूं विलेन-राजा में कितना दम है।'
अब मैं मुसीबत में था। तुम्हारा अच्छा-खासा पैंसठ-सत्तर का वजन ज्यादा देर संभालना मेरे लिए मुश्किल था। मगर तुम मेरी उम्मीद से ज़्यादा समझदार निकली, तुरंत ही बोली, 'अरे जल्दी उतार, मेरे को चक्कर आ रहा है।' मैंने तुरंत उतार दिया। कुछ सेकेंड और ना कहती तो भी मैं उतार देता, क्योंकि मैं संभाल नहीं पा रहा था। तुम मुझे मजाक में भी शर्मसार होते नहीं देखना चाहती थी, इसलिए तुरंत नीचे उतारने को कहा।
हम-दोनों आमने-सामने एकदम सटे हुए खड़े थे। मैंने तुम्हें दोनों हाथों से भींच कर अपने से चिपका रखा था। ठीक वैसे ही तुमने मुझे पकड़ा हुआ था। हम-दोनों बहुत खुश थे। लग ही नहीं रहा था कि हम दिन-भर के थके-मांदे हैं। तुम्हारा चेहरा मेरे सीने से लगा हुआ था। तुम चेहरा ऊपर किये बड़े प्यार से मुझे देख रही थी। तुम्हारी आँखों से प्यार बरस रहा था। तुम्हारे होंठ मुझे ऐसे फड़कते हुए से लगे,कि अगर तुम्हारा चेहरा मेरे चेहरे की ऊंचाई तक होता तो तुम्हारे होंठ, मेरे होंठों पर आँखों की ही तरह प्यार बरसा रहे होते। 
अपने लिए तुममें उमड़ते प्यार को देख कर मैंने तुम्हें गोद में उठा लिया,और फिर बड़ी देर तक हम-दोनों का प्यार एक-दूसरे पर बरसता रहा। यह जी भर, बरस कर जब थमा, तब तुम बोली, 'देखो रमानी परिवार मुझे बराबर आगे बढ़ने की सीख देता है। मैं ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं हूं। लेकिन देखकर सीखना खूब जानती हूं। इसीलिए मैंने तुम्हें बताया था कि यह परिवार भी कभी हमारी-तुम्हारी तरह ही पैदल था। इसने मौके़ का फायदा उठाया, मेहनत की, आज अरबपति है।'
'तो क्या हम-दोनों मेहनत नहीं करते, और मौका कहां से ढूंढें ?'
'देख विलेन-किंग मैं यही तो कह रही हूं कि, मेहनत तो सबसे ज़्यादा किसान-मजदूर करते हैं, मगर भूख से मरते भी यही हैं। कोई अरबपति कभी भूख से मरा है क्या? वो  ज़्यादा खा-खाकर मरते हैं।'
'साफ-साफ बताओ ना, क्या कहना चाह रही हो। मैं सीधे तरीके से कही बात ज़्यादा अच्छी तरीके से समझता हूं। घुमा-फिरा कर कही गई बात मेरी समझ में नहीं आती है।'
मैं तुम्हारे चेहरे को पढ़ना, समझना चाह रहा था। कोशिश की तो अचानक ही तुम मुझे बड़ी  रहस्यमयी सी दिखने लगी। हम-दोनों ही एक दूसरे को चुप देख रहे थे, कुछ देर देखने के बाद तुम बोली, 'देखो, मैं तुम्हारी मेहनत, ईमानदारी देखकर कई दिन से कहना चाह रही थी, लेकिन तुम्हारा विलेन-किंग बनने का जो सपना है ना, उसके चलते डर रही थी कि, कहीं तुम बुरा ना मान जाओ।' 
'देखो मुझे नींद आ रही है। जो बताना है, जल्दी-जल्दी बताओ।'
'गुस्सा तो नहीं होगा? ' 
'नहीं होऊंगा, बोल ना।'
'देखो मैं कह रही हूं कि, सबसे पहले तो विलेन-फिलेन बनने का फितूर मन से निकाल। हक़ीक़त को देख, तू लंबा-चौड़ा है तो क्या? तेरे पीछे कोई बड़ा हाथ नहीं है। तूने कहीं ऐक्टिंग सीखी नहीं। तुझे ऐक्टिंग आती नहीं। फिर तुझे कहां से ऐक्टिंग का मौका मिल जाएगा। लेकिन पैसा रहेगा तो एक दिन खुद अपनी पिक्चर बनाकर अपना सपना पूरा कर लेना।
जैसे ये डेढ़ फुटिया पेपर वालों को पैसा दे-दे कर अपने को किंग लिखवाता है, बादशाह लिखवाता है, वैसे ही तू भी लिखवाना,बल्कि तुझे तो ऐसा करने की जरुरत ही नहीं होगी,तू तो बादशाहों जैसा है ही ,पेपर वाले तो तुझे अपने आप ही बादशाहों का बादशाह लिखेंगे।'
समीना तुम्हारी यह बात मुझे बहुत खराब लगी थी, लेकिन अपनी नाराजगी को छिपाते हुए मैंने कहा ,'तुम्हारी बात मेरी एकदम समझ में नहीं आ रही। अरे कहां से मैं इतनी जल्दी ढेरों पैसा कमा लूँगा, कि फिल्म बना कर अपना सपना पूरा करने लगूंगा। यहां खाने-रहने तक का ठिकाना नहीं। बात करोड़ों की पिक्चर बनाने की कर रही हो। तुम्हारी बात सुनकर तो अम्मा की बात याद आ रही है कि, ''घर में नहीं दाना, अम्मा गईं भुनाने।''
'अरे हद कर दी तुमने, मैंने पहले ही कहा कि, रमानी भी पहले हमारी-तुम्हारी ही तरह फुटपथिए ही थे। मगर मौके़ का फायदा उठाया और बढ़ गए आगे। आज अपना जो सपना चाहते हैं,चुटकी बजाते पूरा कर लेते हैं।'
'क्या मौका-मौका लगा रखा है, अरे ऐसा कौन सा मौका था जिसने रमानी को अरबपति बना दिया और हमारे पास ऐसा कौन सा मौका है,जो हमें अरबपति बना देगा ? अकारण ही नींद बर्बाद कर रही हो अपनी भी, हमारी भी। जो  बताना है वो तुरंत सही-सही बताओ। नहीं मुझे सोने दो। समझी।'
'तेरी यही तो मुश्किल है, कि, तेरे में सब्र नहीं है। सुन जल्दी-जल्दी,रमानी जिस सेठ के यहां था, वहीं उसने किसी तरह उनका विश्वास जीता। फिर उन्हीं का....
'ये सब छोड़, खाली ये बता कि, मेरे लिए कौन सा मौका है, जिसे मैं देख नहीं पा रहा और तू देख रही है। मुझे सीधे-सीधे वो बता बस।'
'तो सुन मेरे दिमाग में कल एक बात आई है। अकेले मैं कुछ कर नहीं सकती। मुझे लगा कि तू मिल जाए, तो हम-दोनों भी फुटपथिए से अरबपति बन जाएंगे।'
'ओफ्फो... अरे आगे बढ़, करना क्या है, वह बता जल्दी। एक ही बात बार-बार कहे जा रही है।'
मैंने बहुत खीझ कर कहा, तो तुम सीधे मुद्दे पर आकर बोली, ‘सुनो आज ही दोनों बहनें एक और फैक्ट्री की बात कर रही थीं। जिसमें उन्हें बहुत ढेर सा पुराना प्लास्टिक हर हफ्ते चाहिए। वो क्या कहते हैं कि, जो, अरे सामान बनाने के लिए बार-बार पुराना माल लेते हैं। फिर गला के उसी से नया बनाते हैं।'
'हां तो....उसमें हम लोग क्या कर लेंगे?'
'चाहेंगे तो बहुत कुछ कर लेंगे।'
 'जैसे?'
'जैसे कि, कैसे भी हम-दोनों एक छोटा डाला कहीं से जुगाड़ लेंगे। फिर तू ये जितने कूड़ा इकट्ठा करने वाले हैं, इनमें से तमाम को जोड़ना। तू गाड़ी लेकर इनके ही ठिकाने पर जाकर खाली प्लास्टिक इकट्ठा कर लिया करेगा। फिर सीधे रमानी फैक्ट्री में बेच देगा। और जब पैसा आने लगेगा तो इस काम को और बढ़ाते ही जाएंगे,और बड़ी गाड़ी खरीद लेंगे। 
इन बहनों के हाथ-पांव भी जोड़ने पड़े, तो मैं जोड़कर मना लूंगी कि, हमारा सारा माल वो खरीदें। इससे माल बिकेगा कि नहीं, इसकी चिंता नहीं रहेगी। इन बहनों का जो स्वभाव है न , उसे देखते हुए हमें पूरा विश्वास है कि, हम अपने मकसद में कामयाब होंगे। बस तू मान जा। सारा दारोमदार तेरे ही ऊपर है। तेरी ''हां'' में ही छिपा है सबकुछ।'
'सच में पुलाव तूने बड़ा बढ़िया बनाया है। पता नहीं कितनी बार सुना था लोगों से खयाली पुलाव बनाना। हवाई किले बनाना। आज दोनों ही देख लिया दो मिनट में। जब मैं विलेन बनने की बात करता था घर पर, तो बाबू जी कहते थे, ''ढंग से पढाई कईके, काम-धंधा संभाला ,जेसे कुछ मनई बन जाबा। सोहदन के नाहीं हवाई किला, बनाए-बनाए के जिंदगी बरबाद ना कर।'' तब उनकी बात ठीक से समझ में नहीं आती थी। मगर तूने समझाने को कौन कहे, दो मिनट में बना के दिखा दिया। जा, जा के सो, मुझे भी सोने दे। बेवजह इतनी देर से परेशान करके रख दिया है।'
'सुन-सुन, मैं सच कह रही हूं, बहुत सोच-समझ कर कह रही हूं। खयाली पुलाव नहीं बनाया है।'
'अरे बस कर। ये रमानी बहनें हम-तुम जैसों को घास नहीं डालने वालीं । वो अपने काम का नुकसान कराकर, हमें खुद अपना काम करने के लिए काहे टाइम देंगी। एक बार मान भी लें कि, तुम्हारी बात मानकर काम दे देंगी, तो ये लाखों रुपये की गाड़ी कहा से खरीदेंगे? है कुछ दिमाग में। चली है काम-धंधा करने, रमानी की तरह अरबपति बनने।'
मेरी इस बात पर तुम तमक कर बोली, 'गाड़ी भर का पैसा है मेरे पास, ऐसे ही नहीं बोल रही हूं समझे, और इस काम में गाड़ी के अलावा और कुछ चाहिए नहीं।'
तुम्हारी इस बात ने मुझे एकदम  हैरान कर दिया कि, तुम्हारे पास इतने पैसे कहां से आ गए। मैं कुछ देर तुम्हें देखता रहा, तो तुम आगे बोली, 'देखो ये मत समझना कि मैंने कोई चोरी-वोरी की है। बारह-चौदह साल तो हो ही गए हैं नौकरी करते हुए। खाना-पीना मालिकों से चल जाता है, और कपड़ा भी। सारी पगार तो जमा करती आई हूँ। 
पहले यह सोचकर जमा करती रही कि, जब काम-धाम लायक नहीं रहूंगी, तब इन पैसों से दो-जून की रोटी का इंतजाम कर लूंगी। लेकिन इन बहनों को देख कर सोचा कि, खाली दो जून की रोटी खाकर पेट भर लेना ही तो ज़िंदगी नहीं। ऊपर वाले ने दुनिया में इतना कुछ बनाया है,आखिर किस लिए। खाली पेट भर देना ही, उसने सोचा होता, तो खाली खाना बनाता, बाकी सब कुछ काहे बनाता। यही सोचकर मैंने सोचा कुछ और भी हाथ-पैर मारूं। शायद ऊपर वाला यही चाहता है। तभी तो उसने इन बहनों की बातें समझने, और कुछ आगे करने की सलाहियत हममें दी। तुमको साथ लूं यह भी उसी की मंशा होगी। तभी तो तुम आए मेरे दिमाग में। जितना पैसा है मेरे पास, उतने में नई ना सही, काम लायक पुरानी गाड़ी आसानी से आ जाएगी। इतना मुझे पक्का यकीन है। अब बताओ, मैंने खयाली पुलाव पकाया था या सच में संजीदगी से सोचा समझा, और तुम से बात की। बोलो।'
तुम्हारी बात सुन कर मैंने सोचा जब इसने इतनी तैयारी कर ली है, तो काम शुरू करने में कोई नुक्सान नहीं। ये सही कह रही है, दोनों मिल कर काम कर लेंगे। बिजनेस को लेकर इसकी समझ भी अच्छी है। पूरी तैयारी किए बैठी है। मैं सोच ही रहा था कि, तुम फिर बोली। 'कुछ बोलोगे। मैं तुम्हीं से बात कर रही हूँ, दिवारों से नहीं।'
तुम्हारे हाव-भाव से मुझे विश्वाश हो गया था, कि तुम यह समझ चुकी हो, कि मेरे  पास हाँ कहने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है, तो मैंने कहा ,
'हां, ठीक है। तुमने सोचा तो अच्छा है। लेकिन सब-कुछ इन बहनों की ''हां'' या ''ना'' पर ही निर्भर है।'
'तुम इसकी चिंता मत करो। उनसे मैं ''हां'' करा ही लूंगी। इन दोनों बहनों की बहुत सी चावियां हैं मेरे पास। कौन सा काम कराने के लिए, कौन सी चावी  कहां लगानी है, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं। तुम खाली अपनी बताओ कि, तुम्हारी ''हां'' है कि नहीं, बस।'
'जब तुम इतना कर चुकी हो तो, मुझे ''हां'' करने में कोई मुश्किल नहीं है। काम बढ़िया है। पैसा आएगा तो और आगे बढ़ेंगे। जब कहना तब शुरू कर देंगे।'
मेरे ''हां'' कहने पर तुम बहुत खुश हो गई। मुझे कुछ देर एक-टक देखने के बाद अचानक ही कमरे से बाहर गई और मिनट भर में वापस आकर, अपना हाथ कुर्ते की बगल से सलवार में ले गई, और नेफे से एक छोटी सी बोतल निकाल कर मुझे देती हुई बोली, 'ले, तेरे लिए लाई हूं। मजा कर।' 
मैंने अंग्रेजी शराब की बोतल देख कर कहा, 'तू ये कहां से लाई।'
'ले ना। बोतल पर ना जा। बोतल सस्ती वाली है। लेकिन इसके अंदर माल वही है, जो ये दोनों बहनें गटकती हैं। बहुत महंगी वाली है। पिएगा तो मस्त हो जाएगा।' तुमने बोतल मेरे हाथों में पकड़ाते हुए कहा।
मुझे यह पता था कि, रमानी बहनों के बाद जो बचती है उसे अक्सर तुम गटक लेती हो। मैंने तुम्हें छेड़ते हुए कहा, 'मुझ पर आज इतनी मेहरबानी क्यों? रोज तो पूरी गटक जाती हो । पता तक नहीं चलने देती।'
'मेहरबानी-एहरबानी कुछ नहीं। कभी-कभी थकान के मारे कमर फटने लगती है, तो इन बहनों की बोतलों में से थोड़ा सा ले लेती हूं। आज भी लेने लगी तो सोचा, तेरे से बात करनी है। लेती चलूं तेरे लिए भी। तू भी तो काम करके पस्त हो जाता है। बस यही सोच कर ले आई।'
'अच्छा! चलो बढ़िया किया। आज मैं वाकई रोज से ज़्यादा थका हूं। तेरा भी यही हाल है । इसको पीकर नींद अच्छी आएगी। आ पीते हैं, फिर सोते हैं तानकर। सवेरे जल्दी उठना भी है।'
फिर हम-दोनों पूरी बोतल खत्म कर दी। एक के हिस्से में मुश्किल से दो पैग ही आया। मगर फिर भी बढ़िया लगी। नींद अच्छी आई। रमानी हाउस में आने के बाद वह पहली रात थी जब मैं खूब अच्छी, निश्चिंत नींद सोया। एक और बात यह भी थी, कि छब्बी के जाने के बाद यह पहली रात थी जब मैं छब्बी की याद में उदास होकर नहीं सोया। बल्कि ऐसी रात थी, जब मैं तुमको अपनी बाहों में समेटे सोया तो खुशी से चूर था।
छब्बी को याद कर मन ही मन कहा कि, छब्बी तू परेशान न हो, अब मैं अकेला नहीं हूं। लगता है भगवान ने तुझे समीना के रूप में फिर मेरे पास भेज दिया है। तुम्हारे माथे को चूम कर मैंने मन ही मन कहा था, 'छब्बी-छब्बी मेरी छब्बी।' तब-तक तुम गहरी नींद सोने लगी थी।
रमानी बहनों की नई फैक्ट्री खुलने के कुछ ही दिन बचे थे। इस बीच तुम बराबर सही मौके़ की तलाश में थी कि, अपनी बात रमानी बहनों से कहो। दोनों बहनों की जी-तोड़ सेवा में लगी थी। सेवा से ज़्यादा उसे मशकाबाजी कहना ठीक है। तुम्हारे साथ-साथ मैं भी लगा था।
दोनों बहनों के व्यवहार से हम-दोनों को बहुत उम्मीद हो गई थी। 
फैक्ट्री के उद्घाटन से ठीक दो-दिन पहले, हम-दोनों को बहनों ने बड़ी उलझन में डाल दिया यह कहते हुए कि, 'यहाँ एक पार्टी अरेंज की है, जिसमें खा़स मेहमान आ रहे हैं। सारा अरेंजमेंट एक होटल संभालेगा। लेकिन उस समय किसी तरह की कोई कमी ना रहे। किसी भी गेस्ट को किसी तरह की कोई असुविधा ना हो, इसका ध्यान रखना है। साथ ही कम से कम एक दर्जन गेस्ट ऐसे होंगे जो नाइट में रुकेंगे भी।' 
हम-दोनों ने सोचा यह कौन सा बड़ा काम है, खुशी-खुशी कह दिया जी हम सब देख लेंगे। पूरा विश्वास दिलाकर हम-दोनों अपने कामों में लगे ही थे कि, हमें फिर बुला लिया गया। पहुंचे तो एक बहन ने यह बताया कि, मेहमानों के सामने हमें कौन से कपड़े पहनने हैं। मुझे जो बताया गया वह किसी शैडो की ड्रेस थी। साहब के यहां मैं यह सब देख ही चुका था। तुमको साड़ी ब्लाउज पहनने को कहा। 
जिस ढंग से पहनने को कहा वह किसी बड़े होटल की रिसेप्सनिस्ट ही पहनती हैं। तुमने बड़े संकोच के साथ अपनी समस्या  बताते  हुए कहा भी कि,'मैंने कभी साड़ी नहीं पहनी। इसलिए साड़ी पहन कर जल्दी-जल्दी काम नहीं कर पाऊँगी।' लेकिन तुम्हारी एक ना सुनी गई। पहनना है बस, आदेश दे दिया। तुम्हारे पास मैंने एक साड़ी देखी थी। न चाहते हुए भी अपने धंधे को ध्यान में रख कर हम-दोनों ने बहनों के आदेश को सिर-आंखों पर लिया। हम अपना काम कराने के लिए उन दोनों को खुश देखना चाहते थे। हर हालत में।
उस रात तुम अपनी साड़ी-ब्लाउज लेकर आई। उसे पहन कर जल्दी-जल्दी चलने की कुछ देर कोशिश भी की। लेकिन साड़ी उस तरह नहीं पहन पाई, जिस तरह रिसेप्सनिस्ट पहनती हैं। तुम्हारी बार-बार असफल कोशिश पर मैं एक बार हंस दिया, क्योंकि तुम साड़ी को ठीक से बांध तक नहीं पा रही थी।
मेरे हंसने पर तुम थोड़ा ताव दिखाती हुई बोली, 'ऐ विलेन राजा, तुम्हें जरा सा वो तो है नहीं। बैठे-बैठे हंस रहे हो। ये नहीं कि थोड़ी मदद कर दें। साड़ी पहन कर जिस तरह लफड़-लफड़ हो रहा है मेरा पैर, मुझे तो डर लग रहा है कि, कहीं मेहमानों के ऊपर ही ना गिर पड़ूं,और अगर गिरी तो नौकरी गई समझो। साथ जितना ख्वाब है गाड़ी, पैसा कमाने का ना, उस पर भी पानी फिर जाएगा।'
मैंने तुम्हें छेड़ते हुए कहा, 'तू घबड़ा नहीं। साड़ी में तू रमानी बहनों से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही है। उन्हें ऐसी सेक्सी वर्कर इतने कम पैसों में ढूंढ़े नहीं मिलेगी। तू एक नहीं दस बार उन मेहमानों पर गिर पड़ेगी, तो भी वो तुझे छोड़ेंगी नहीं। एक बार मुझे भले ही निकाल दें, लेकिन तेरे को तो सवाल ही नहीं उठता।'
'हां-हां, काहे नहीं। सवेरे से बनाने के लिए हमीं तो मिले हैं तुम को। कहां वो गोरी चिट्टी बहनें, कहां हम। हमें सेक्सी बता रहे हो। फिल्मों वाली नौटंकी हमसे ना बतियाया करो समझे।'
तुमने एक मीठी सी झिड़की दी तो मैंने कहा, 'मैं सच कह रहा हूं, एक बात और बताऊँ, मैं तो समझ रहा था कि, जिस स्टाइल से साड़ी पहनने को कहा है उन्होंने, उस तरह से तुम भले ही ना पहन पाओ, लेकिन एक औरत होने के नाते साधारण ढंग से तो पहन ही लोगी। साड़ी रखी है तो पहनना भी जानती ही होगी। मुझे क्या मालूम था कि इस मामले में तुम एकदम ''लिख नाम लोढ़ा हो''।'
मेरी आखिरी बात पर तुम अजीब सी नाक-भौं सिकोड़ कर बोली, 'क्...क्या.. काहे के नाम पर, लोढ़ा क्या बोले?'
'कुछ नहीं, तुम्हारी समझ नहीं आएगा। बस इतना समझ लो कि तुम...छोड़ो जाने दो, तुम इतना ही समझो कि साड़ी पहनना इतना आसान है कि, काम भर की तो मैं ही पहना दूँ।'
यह कह कर मैं हंसने लगा तो तुम थोड़ा बिदकती हुई बोली, 'अच्छा! तो विलेन राजा, साड़ी भी पहना लेंगे। चलो आओ। अगर ना पहना पाए तो...
इसके साथ ही तुमने कई बेहद फूहड़ बातें बोलीं ,और अस्त-व्यस्त सी जो साड़ी पहन रखी थी, उसे उतार कर मेरी तरफ फेंकते हुए कहा, 'लो, जानते हो तो पहनाओ,सिखाओ। काहे को मेरी नौकरी खतरे में डाल रहे हो।'
यह कहते हुए तुम थोड़ा गंभीर हो गई। तब मुझे लगा कि अब तुम्हें छेड़ना ठीक नहीं। मगर यह कह कर मूर्खता तो कर ही चुका था कि,काम भर की साड़ी पहना सकता हूं। मैंने सोचा जैसी भी आती है, ना पहनाई तो तुम वाकई नाराज हो जाओगी। यह सोचकर मैं साड़ी लेकर उठा और तुम्हें पकड़ कर कहा, 'चल मेरी हिरोइन तेरे को साड़ी पहनाता हूं। पता नहीं इन रमानी बहनों के हिसाब से पहना भी पाऊँगा कि नहीं।'
मैं तुम्हारी कमर के गिर्द साड़ी लपेट कर पेटीकोट के अंदर खोंसने लगा तो तुम हंसने लगी। मेरा हाथ लगते ही तुम्हें गुदगुदी लगने लगती। तुम्हारी हंसी से मेरे मन में खुराफात सूझी। मैं जानबूझ कर साड़ी ऐसे ढंग से अंदर खोंसता कि तुम्हें  ज़्यादा गुदगुदी लगे। यह सब मैंने तब-तक किया, जब-तक कि तुम हंसते-हंसते दोहरी नहीं हो गई। तुम्हारी आंखों से पानी न आने लगा। 
आखिर मैंने किसी तरह तुम्हें करीब-करीब उसी तरह साड़ी पहना दी, जैसी रिसेप्सनिस्ट पहनती हैं। जैसी रमानी बहनों ने पहनने को कहा था। हालांकि बड़े अस्त-व्यस्त ढंग से ही पहना पाया था। लेकिन तुम्हारे लिए यह आश्चर्य जैसा था कि एक मर्द ने इस ढंग से पहना दी। शीशे में अपने को देखकर तुम खुश होती हुई बोली, 'अरे तूने तो एकदम हिरोइन जैसे पहना दिया। कहां सीखा तूने?'
'सीखा-वीखा किसी से नहीं, बस ऐसे ही कोशिश की और बन गई। पार्टी में तुझे इसी तरह पहननी है। थोड़ा और अच्छे से।'
 'क्या! ऐसे पहननी? ये..ये इतना पेट खुला रहेगा। इतना नीचे तक और ये...ये नाभि-साभि सब दिखती रहेगी? अरे, ये भी कोई पहनावा हुआ भला?'
'सुन तू इतने से मना कर रही है। मैं इन बहनों की बातों को जितना समझ पाया हूं, उस हिसाब से ये और ज्यादा खुली रहेंगी, और तुझे ब्लाउज भी ऐसा पहनने को दिया जाएगा जिससे तेरी छाती भी कम-कम आधी तो खुली ही रहेगी। और बताऊँ पहले से कि ये पार्टी उन लोगों की मस्ती के लिए ही रखी गई है, जो इन बहनों के काम-धाम में आगे काम आने वाले हैं। मुझे तो पक्का यकीन है कि रात में रुकने वाले सब खुला जश्न मनाएंगे।'
'ये खुला जश्न क्या?'
 'यही कि खाएंगे-पीएंगे, नाचेंगे तो है ही। रात भर जम कर अय्याशी भी होगी। समझी।'
'भाड़ में गई ऐसी पार्टी, जश्न। हम उन सबके सामने अपने बदन की नुमाइश करने नहीं जाएंगे। काम इन बहनों का होगा और बदन हम अपना दिखाएं। इनका काम है, ये दोनों ही अपना बदन दिखावें। हमें क्या फायदा? हम क्यों करें ये सब?'
'समीना देखा जाए तो फायदा तो है ही। जब इन बहनों की फैक्ट्री चलेगी, तभी हम को काम मिलेगा। जो तुम्हारा सपना है ना कारोबार करने, इन बहनों की तरह आगे बढ़ने का, तो ये सब इस फैक्ट्री के चलने पर, और इन बहनों का तुम्हारी बात मान लेने पर ही निर्भर है। देखो, बहुत साफ बात है कि जब इनकी गाड़ी बढ़ेगी तो हमारी भी गाड़ी आगे बढ़ेगी। इसलिए मैं तो सब करने को तैयार हूं, क्योंकि मुझे तुम्हारी योजना बहुत सही लग रही है। इससे हम दोनों अपना कारोबार कर सकते हैं। आगे बढ़ सकते हैं। मैं तो भाई पूरी तरह तैयार हूं। तुम अपनी बताओ। ये याद रखना, तुम्हारी ''ना'' का मतलब है सब खत्म। तुम्हारे-मेरे सारे सपने खत्म।''
'समझ रही हूं तुम्हारी बात, मगर ये भी तो समझो हमने कभी ये सब किया ही नहीं। कैसे कर लेंगे।'
'सभी काम कभी न कभी शुरू ही किये जाते हैं। जो काम कर रहें है, यह भी तो पहले कभी नहीं किया था ना। लेकिन जरूरत पड़ी तो कर रहे हैं ना। जैसे विलेन बनने की ठान ली है, कोशिश कर रहा हूँ, मौका मिलते ही बनूँगा। वैसे ही यह सब भी करेंगे। तुम सीधे-सीधे यह समझ लो कि तुम्हारा-हमारा सपना इसी रास्ते से चल कर पूरा होगा।'
मेरी बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद तुम बोली, 'बातें तो तू बड़ी-बड़ी कर लेता है। सुन, मैं भी पीछे हटने वाली नहीं हूं। देखो सपना तो पूरा करना ही है। साड़ी पहनकर थोड़ा सा बदन दिखाकर पूरा होगा, तो यही सही, करेंगे सब।'
'तो ठीक है, आओ अब तान कर सोते हैं। देखते हैं कुछ और नए सपने, फिर उन्हें भी पूरा करने का रास्ता भी ढूंढ़ते हैं।' 
अगले कई दिन जिस तरह की तैयारियां हुईं, उससे साफ हो गया कि पार्टी में आएंगे तो गिने-चुने लोग, लेकिन सब कुछ होगा बहुत हाई-क्लास। इन तैयारियों के लिए जिस तरह हम-दोनों को सोलह-सोलह घंटे काम में लगाया गया, उससे हम-दोनों एकदम पस्त हो गए। हमें क्या-क्या करना है, दोनों बहनें यह भी समझाती चल रही थीं। 
पार्टी से एक दिन पहले हम-दोनों की ड्रेस भी आ गई। दोनों बहनों के कई काम इतने उलझे, इतने रहस्यमयी लग रहे थे, कि उन्हें देखकर मुझे लगता कि यह बहनें तो साहब से भी आगे हैं। तुम जब काम करके थक जाती तो इन बहनों को खूब अंड-बंड कहती। मगर अपने सपने को लेकर एकदम सजग थी, कि जो भी हो पूरा करना ही है। पार्टी वाले दिन तुम ऐसे खुश थी, जैसे कि पार्टी तुम्हारे बिजनेस को ही शुरू करने के लिए हो रही है।
उस दिन दोनों बहनें सुबह पांच बजे ही उठ गईं, और घर पर सारे कामों को करते हुए दस बजे चली गईं। जब चार बजे वापस आईं, तो पता चला कि फैक्ट्री का उद्घाटन शानदार ढंग से हो गया। जिन मेहमानों को आना है वो देर रात आएंगे। उनके ना रहने पर हम-दोनों ने जिस तरह से घर पर सारी तैयारी की, उसे देख कर दोनों बहनें खुश हुईं। मेहमानों के आने के कुछ देर पहले ही हमें अपनी ड्रेस पहन कर तैयार हो जाने को कहा।
तुम जब हल्की दुधिया नीली, प्लेन सिल्क साड़ी पहने, पूरे मेकअप के साथ सामने आई, तो कुछ देर मैं तुम्हें देखता ही रह गया। चौड़ा पीला बार्डर, और उसी से मैच करता सिल्क का ही पीला ब्लाउज पहने तुम वाकई किसी फाइव स्टार होटल की रिसेप्सनिष्ट ही लग रही थी। एकदम नीचे से बांधी गई साड़ी, और गहरे गले, पीठ के ब्लाउज में तुम बहुत खूबसूरत लग रही थी। मैंने मिलते ही तुम्हें छेड़ा।
'अरे, तुम तो एकदम हिरोइन लग रही हो।'
तुम्हारे खुले पेट, छाती की तरफ भी इशारा करके कहा, 'यार तुम बहुत खतरे में हो, सारे मेहमान इसी में उलझ कर रह जाएंगे।'
कई और बातें कहीं, तो तुम अपने हाथों से छाती, पेट को छिपाने की कोशिश करती हुई बोली, 'चुप रह न, सबसे पहले तो तू ही इसी में उलझता जा रहा है। सब काम चौपट कर देगा।'
मैंने उस औरत की भी खूब तारीफ़ की जिसने तुम्हें तैयार किया था। हम-दोनों काम करते रहे और सामने पड़ते ही एक दूसरे को छेड़ते भी रहे। टाइम से करीब डेढ़ दर्जन मेहमान आ गए। सारे मेहमान बड़ी हाई-फाई सोसाइटी के लग रहे थे। उनके आने के पहले चार अजीब से हाव-भाव वाले जेंट्स व लेडी भी आ गई थीं।
सारे मेहमानों के लिए जिस हॉल में सब-कुछ अरेंज किया गया था, दोनों बहनें उन्हें वहीं ले गईं। सभी का बड़े खूबसूरत से बुके देकर स्वागत किया। उनकी सेवा में ऐसी लगीं कि, मानों उनके मेहमान ना हो कर दामाद हों।
खाने-पीने के समय ही हमें बहनों ने दुबारा चौंका दिया। म्यूजिक सिस्टम पर कोई अरेबिक धुन पहले से चल रही थी। मेहमानों के अलावा जो अजीब से हाव-भाव वाले जेंट्स, लेडीस आये थे, वो अचानक ही मेहमानों के बीच से गायब हो गए। फिर अचानक ही कुछ देर में सभी आ गए। सब मेकअप करने गए थे। उन्होंने उस अरेबिक धुन पर थिरकते हुए ही प्रवेश किया।
दोनों महिलाओं ने कमर के नीचे और छाती के महत्वपूर्ण हिस्सों पर कई रंगों की कोई चमकीली चीज लगा रखी थी, या यह कहें कि उन चमकीली चीजों से ही उन हिस्सों को ढंका था, जो लाइट पड़ने पर खूब चमक रही थीं। बाकी अपने पूरे खुले शरीर पर दोनों ने न जाने कौन सा स्प्रे या क्रीम लगा रखी थी कि लाइट में संगमरमर सी दमक रही थीं ।
दोनों आदमियों ने चमकीली काली पैंट और साटन की चमकती महरून शर्ट पहन राखी थी। थिरकते हुए जब दोनों आये तो अपने हाथों में ''सिरेमिक ब्लैक दरबुका'' लिए हुए थे, जिस पर दोनों ''बेली डांस'' के लिए कोई धुन बजा रहे थे। जिसकी टुन्न-टुन्न की आवाज़ माहौल में गूंज रही थी। 
उनके आने के बाद म्यूजिक सिस्टम पर चल रही अरेबिक धुन की आवाज़ बिलकुल धीमी कर दी गई। दोनों महिलायें दरबुका की थाप से अपनी थिरकन की लय मिलाने लगीं। यह सब देख कर मैं समझ पाया कि रमानी बहनों ने अपने स्वार्थ सिद्धी हेतु मेहमानों के लिए नेकेड बेली डांस की व्यवस्था की है। जिसके बारे में पहले सुना भर था। प्रत्यक्ष देखूंगा यह सपने में भी नहीं सोचा था।
दोनों बेली नर्तिकियों के शरीर की थिरकन इतनी तेज़ थी कि बिजली भी शरमा जाए। वे पेट, नितंबों, स्तनों को ऐसे थिरका रही थीं, खासतौर से स्तनों ,नितम्बों के कम्पन्न इतने तेज़ थे कि ,आंखों की पलकें बंद होना ही भूल गईं। दोनों डांस करती-करती मेहमानों के करीब जातीं, कभी उनके ऊपर ही एकदम झुक जातीं, कभी थिरकते स्तन करीब-करीब चेहरे पर लगा देतीं। 
कई मेहमान भी उनके साथ उठ-उठ कर थिरकने लगते। कुछ महिलाएं भी उठ-उठ कर थिरकती रहीं। उन्हें देख कर मेरे मन में आया कि, इन दोनों ने कपड़ों के नाम पर एक सूत भी नहीं पहना है,तन पर मेकअप के सिवा कुछ भी नहीं है। फिर भी इतने लोगों के सामने कितना निसंकोच नृत्य कर रही हैं, इसे इनकी बेशर्मी कहूं ,इनकी कला कहूं,या पैसे के लिए तन बेचना।
फिर सोचा चाहे जो भी हो, ये जो भी कर रही हैं, ये कोई आसान काम नहीं है। इतनी तेज़ वाद्य-यंत्रीय संगीत पर जिस तेज़ी,कुशलता से ये शारीरिक भावभंगिमाएं  प्रस्तुत कर रही हैं ,यह निश्चित ही इनकी शानदार कला है। और शानदार कला की प्रशंसा की ही जानी चाहिए। तुम्हें देखते ही मैंने छेड़ने की गरज़ से तुमसे पूछा कि,'ये दोनों बिना कपड़े उतारे नहीं नाच सकतीं क्या ?'
तो तुम फुसफुसाती हुई बोली,'तू उनके तन पर कपड़े क्यों ढूँढ रहा है,उनका नाच देख बस। कपड़े पहन लेंगी तो तुम सब आँखें फाड़-फाड़ कर जो देख रहे हो वो कहाँ दिखेगा? और वो नहीं दिखेगा तो तुम सब उनका नाच देखोगे क्या? मैं भी सब देख-समझ रही हूँ ,नाच नहीं सब उनका बदन देख रहे हैं बस। बात करता है नाच की।' यह कहते हुए तू एक महिला मेहमान के पास चली गई ,शायद उसने संकेत से बुलाया था। तभी मेरा ध्यान इस ओर भी गया कि सबसे ज्यादा वही तुम्हें बुला रही थी।  
यह सब रात दो बजे तक चला। इसके बाद कुछ मेहमान चले गए। उनके जाने के बाद रमानी हाउस में जो कुछ हुआ, वह हम-दोनों के लिए आश्चर्यजनक था। हर पल हम-दोनों की आंखें आश्चर्य से फैली जा रही थीं। मैं यह भी देख रहा था कि तुझे आश्चर्य तो जरूर हो रहा था ,लेकिन तुम कहीं से अटपटा नहीं महसूस कर रही थी ,न ही तुम्हें बुरा लग रहा था।   
मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ, जब देखा कि तुम भी कुछ नशे में हो। जबकि तुमने पहले कहा था कि पार्टी में हम-दोनों को नशा छूना भी नहीं है। लेकिन तुम ना जाने कब हाथ साफ कर गई, मुझे पता तक नहीं चला। मैंने जब तुमसे कहा तो तुम बहुत इठलाती हुई बोली,'अरे मेरे विलेन-राजा ज़िंदगी का मज़ा ले, ऐसा मज़ा,ऐसा मौक़ा जल्दी-जल्दी नहीं मिलता।'
मेरे कुछ बोलने से पहले ही तुम आगे बढ़ गई। तुम शुरू से ही रमानी बहनों के साथ ज्यादा से ज्यादा चिपक रही थी, फिर एक अधेड़ से मेहमान के साथ लग गई। तभी मैंने साफ़-साफ़ महसूस किया कि तुम मुझसे अलग-थलग रहने की पूरी कोशिश कर रही हो। और तब मेरे दिमाग में यह प्रश्न उठे बिना नहीं रहा कि, तुमने मुझे अलग कर अपने बिजनेस के लिए कोई दूसरा  रास्ता ,दूसरा  साथी ढूँढ लिया है क्या ? दूसरा रास्ता न मिलने तक मुझे बेवकूफ बना कर इस्तेमाल कर रही थी।
मैंने मन ही मन सोचा कि, यदि तुमने मुझे धोखा दिया, तो मैं तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ूंगा, कि बिना मेरे तुम एक कदम भी आगे बढ़ सको। मैं तुम्हें रमानी बहनों की ही तरह बहुत होशियार समझने लगा,जो उस समय अच्छे-खासे नशे में थीं , लेकिन तब भी हर काम पर तगड़ी नजर बनाये हुए थीं।
खाने-पीने के बाद मेहमानों को दो-ढाई बजते-बजते आराम करने, सोने के लिए अलग-अलग कमरों में पहुंचा दिया गया। हर कमरे में एक जोड़ा। एक रमानी बहन भी, एक मेहमान के साथ एक कमरे में बंद हो गई। दूसरी इतनी पस्त थी कि, उसे तुम पकड़ कर उसके कमरे में पहुंचा आई। रमानी बहनों ने बड़ी अजीब सी खुली-खुली ड्रेस पहनी हुई थी। 
जब तुम उन्हें, उनके कमरे तक पहुंचा रही थी, तो उनका छोटा कपड़ा भी, उनके तन पर संभल नहीं रहा था। तुम जिस तरह उन्हें लेकर गई, उसे देख कर मुझे छब्बी की याद आ गई। वह सुन्दर हिडिम्बा को उसी तरह संभालती थी। दोनों बहनों ने मेहमानों के साथ डांस भी किया था।  
जब मैं सारे ताम-झाम समेटवाने लगा, तभी तुम कुछ लहराती हुई सी भागी-भागी मेरे पास आई, और जो अधेड़ सी महिला मेहमान तुम्हें ज्यादा बुला रही थी, उसके बारे में बताते हुए कहा, 'वह तुम्हारे साथ रात बिताना चाहती है।'
मैंने आश्चर्य से तुमको देखते हुए कहा,'तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या? जिसे जानता तक नहीं, उसके साथ मैं सोऊंगा।'
वह मेहमान करीब-करीब सुन्दर हिडिम्बा जैसी ही थी, मगर उसका रंग काफी हद तक मुझसे मेल खा रहा था। 
मैंने मना कर दिया तो तुम पता नहीं क्या भुनभुनाती हुई,लहराती हुई ही चली गई। मगर पांच मिनट भी नहीं बीता कि फिर अफनाई हुई सी लौटी, और रमानी बहन का हवाला देकर बात दोहराई। कहा, 'दोनों बहनें  बहुत जोर देकर कह रही हैं, जाओ। वह एक बहुत बड़ी हस्ती है, अधिकारी है।' 
अब मेरा दिमाग हत्थे से उखड़ गया। मैंने झल्लाते हुए कहा, 'उनके लिए होगी बड़ी हस्ती, अधिकारी। काम उनके करेगी मेरे नहीं। मैं इनका नौकर हूं, दास नहीं। अब समझा मुझे, तुम्हें सूट, साड़ी पहनाने का मतलब क्या है ? अभी मुझे उस औरत के पास भेज रही हैं , मेरे जाते ही तू भी तैयार हो जा, तुझे किसी मर्द के पास यह कह कर भेजेंगी कि, वह आदमी बड़ी हस्ती है, अधिकारी है, वह तुझे बुला रहे हैं, रात भर साथ सोने के लिए।'
'अरे नहीं, ऐसा नहीं करेगी। तू मर्द है इसलिए कह दिया।'
'बड़ी मूर्ख है तू। अरे जब औरत होकर उसने मुझे बुला लिया। तो जो मर्द आए हैं, उनमें से कोई तुझे नहीं बुलाएगा क्या? क्या मैंने देखा नहीं कि, साले किस तरह तेरे को घूर रहे थे, ऊट-पटांग हरकतें कर रहे थे।'
'सब देख-समझ मैं भी रही थी। तू तो खाली इतना ही देख पाया। पूरा तो देख ही नहीं पाया।'
'पूरा नहीं देख पाया! क्यों? कुछ और भी किया क्या?'
'इसीलिए तेरे को लापरवाह कहती हूं। एक नहीं दो ने मुझे कई बार पकड़-पकड़ कर खींचा। बदन को कई जगह मसला, सहलाया। यह सब रमानी बहनें देख भी रही थीं, और मुस्करा भी ।'
'हद हो गई, तूने मना भी नहीं किया।'
'मना क्या करती? जब देख रही हूं कि, सब उनकी आंखों के सामने हो रहा है, वो कुछ कहने के बजाय मुस्करा रही हैं। तो मैं समझ गई कि,उनकी भी यही मंशा है,इसलिए चुप रही।'
'अरे उनकी मंशा थी ना, तेरी तो नहीं, तू तो साफ मना कर सकती थी। उन सालों का हाथ झटक सकती थी।'
'तेरी कमी यही है, कि तू कभी दिमाग से कोई काम करना नहीं जानता। बस दिल की बातें मानता है। मना करने पर ये बहनें तुरंत मुझे और तुझे भी नौकरी से निकाल, धक्के देकर घर से बाहर कर देतीं। इस समय हम यहां नहीं, बाहर कहीं सड़क पर फटे-पुराने कपड़ों में भटक रहे होते। और सुन, मेरी चिंता मत कर। मैं देख चुकी हूँ, सारे मर्द किसी ना किसी औरत के साथ हैं। इसलिए मुझे कोई बुलाने वाला नहीं।'
तुम्हारी इस दलील से मेरा गुस्सा और बढ़ गया , मैंने कहा, 'तू तो बिल्कुल उनकी वकील बनकर, मुझे उस कमीनी औरत के पास भेजने पर तुली हुई है। मैं दूसरी औरत के साथ सोऊंगा, तेरे को बुरा नहीं लगेगा?'
'ओफ्फो! ये बहस करने का टाइम नहीं है। जो करना है जल्दी कर। मैं तेरी ही बात दोहरा रही हूँ, कि इस समय सिर्फ़ इतना समझ कि उसके पास जाएगा तो अपना भी कारोबार चल पड़ेगा। नहीं जाएगा तो सड़क पर इसी समय चलने की तैयारी कर ले। हां, मैं तेरे साथ थी, तेरे ही साथ रहूंगी। कारोबार की ओर ले चलेगा तो वहां भी, सड़क पर ले चलेगा तो वहां भी। मैं उनकी वकील नहीं हूं, इसलिए जिधर ले चलना है, उधर ले चल, मगर जल्दी चल।'
'एक बात बता, यदि तू मेरी जगह होती तो क्या करती? सड़क की ओर चलती या कारोबार की ओर। चल बता, जल्दी बता?'
मैंने सोचा था कि ऐसे तुम उलझ जाओगी,और मुझे उस सांवली हिडिम्बा के पास जाने के लिए नहीं कहोगी। तब मेरे लिए भी मना करना आसान होगा। मगर तुमने जो कहा, उससे मैं सेकेंड भर में चारों खाने चित्त हो गया। मेरे पूछने पर तुमने पल भर को मेरी आंखों में देखा, और पूरी सख्ती से बोली, 'मैं तुझे लेकर कारोबार की ओर जाती, क्योंकि कारोबार ही सही मायने में ज़िंदगी देगा। बाकी बातें तो ढकोसले हैं, जो कीड़े-मकोडों की तरह सड़क पर रेंगने, लोगों की ठोकरें खाने, उनके पैरों तले कुचल कर मरने के लिए धकेल देंगी ।'
तुमने बड़ी चालाकी से मुझे भी समेटते हुए अपनी बात कही, और मुझ पर जाने का पूरा दबाव बना दिया। तुम्हारी बात से मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि, यदि मैं निकाला गया तो तुम बिलकुल भी मेरे पीछे आने वाली नहीं। उस समय ऐसी ही कोई बात कह कर तुरंत पीछे हट जाओगी,मेरा साथ छोड़ दोगी। 
मैं तुम्हारी बात का बहुत कठोर जवाब देने जा रहा था, कि तभी एक रमानी बहन, बहकती चाल में हमारी तरफ आती दिखाई दी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि, मामला गंभीर हो चुका है। वह सांवली हिडिम्बा खा-पीकर एकदम बऊरा चुकी है,अब वह किसी की सुनने वाली नहीं। उसके मन का न हुआ तो वह मदमस्त हथिनी की तरह सब को रौंद डालेगी। तुम्हारा जवाब मुझे मिल ही चुका था। रमानी बहन मुझ तक पहुचनें से सात-आठ क़दम पहले ही रुक कर बोली, 'बासू, सैमी यहां क्यों टाइम पास कर रहे हो। मैंने कहा था गेस्ट को कोई प्रॉब्लम नहीं होनी चाहिए?'
मैं कुछ बोलता कि उसके पहले ही तुमने कह दिया, 'कोई प्रॉब्लम नहीं होगी मैडम। आप जाइए।'
यह सुनते ही वह जैसे झूमती हुई आई थीं , वैसे ही झूमती हुई चली गईं। उनके जाते ही तुम बोली, 'देख, दिमाग से काम ले। जो करना है जल्दी कर। अब टाइम नहीं है। वो औरत एकदम बौखलाई हुई है। और वैसे भी, ऐसा तो है नहीं कि तू किसी औरत के पास पहली बार जा रहा है।'
दिमाग से काम ले, यह कह कर तुमने मुझे एक तरह से आदेश ही दिया था कि, मैं किधर जाऊं। तुमने सिर्फ़ कहा ही नहीं, बल्कि हल्के हाथ से मुझे उधर ही जाने के लिए धकेल भी दिया। कोई रास्ता ना देख मैं उधर ही बढ़ता हुआ बोला, 'ठीक है, दिमाग से ही काम लेता हूं। ऐसी सेवा करूंगा कि जीवन में दुबारा इतनी मस्ती में नहीं आएगी। मर्द की छाया से भी कांपेगी।'
कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि तुम लपक कर मेरे पास आई, कान में  फुसफुसा कर कहा, 'देख कुछ गड़बड़ ना करना। मैं फिर कह रही हूं, कि दिमाग से काम ले, दिमाग से।'
तुम इसके आगे कुछ बोलती कि, मैं फिर पलटा और तुम्हें खा जाने वाली नजरों से देखते हुए कहा, 'दिमाग से ही काम ले रहा हूं, दिखाई नहीं दे रहा। चल जा अपना काम कर, जा भाग यहाँ से।'
गुस्से में तुमको झिड़क कर मैं चला गया। उस समय मेरे दिमाग में यह बात भी आई कि, जो भी हो तुम छब्बी नहीं बन सकती। सारे मेहमान अगले दिन सुबह ही चले गए। मैं भी सुबह ही दो घंटे काम करने के बाद अपने कमरे में आकर लेट गया। मैं अपने को बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। वह महिला एक बड़ी अधिकारी,और उससे भी बड़ी अय्याश औरत थी ,उसे मेरा साथ पसंद आया था, मैं इतना ही जान सका था। 
रमानी बहनें अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई थीं। अपनी सफलता के लिए उन्होंने शराब-शबाब, ड्रग्स, छल-कपट सब प्रयोग किया था। सारे मेहमान किसी न किसी बेहद उत्तेजक ड्रग्स के प्रभाव में थे। खुद दोनों बहनें भी, लेकिन बड़ी चालाकी से उन्होंने खुद कम डोज ली थी। घर के नौकरों का सही परिचय छिपाया था। मैं और तुम मेहमानों के लिए रमानी बहनों के ख़ास सहयोगी थे।
दोपहर करीब दो बजे बजे मैंने खाना खाना चाहा तो खा नहीं पाया। जो ड्रग्स उस महिला ने मुझे सिगरेट में पिलाई थी, उसके चलते मुझे प्यास खूब लग रही थी। लेकिन जब पानी पीना शुरू करूं, तो पी नहीं पाता। भयंकर गर्मीं लग रही थी। सुबह से चार बार नहा चुका था। नहाने के बाद बड़ी राहत मिलती थी। 
उस ड्रग्स से अगले पूरे दिन जहां मेरी हालत पस्त रही, वहीं वह महिला जब उठी तो उसे देख कर नहीं लग रहा था कि, उसकी हालत मेरी तुलना में आधी भी खराब है। मैंने उसके पहले तमाम भूखी-बेशर्म औरतें देखी थीं, लेकिन वह सब उसके सामने कमतर थीं। समीना उसने पूरी बेहयाई से ऐसे-ऐसे काम किये,करवाए कि सोच कर आज भी शर्मिंदगी से भर उठता हूँ। 
मुझे ड्रग्स न दी गई होती, तो मैं शराब के नशे में भी वह सब नहीं कर सकता था। सुबह जब उठा था तो वह पूरी निर्लज्जता के साथ बेड पर चारों खाने चित्त, बेसुध पड़ी थी। उसे उस हालत में देख कर मन में आया कि, सर के ऊपर तक उठा कर पटक दूँ इसी बेड पर, जिस पर इसने मेरे साथ अय्याशी की सारी सीमाएं पागलपन की हद तक पार कीं। 
वह टैटू की भी बड़ी दीवानी थी। शरीर के कई ख़ास-ख़ास हिस्सों पर उर्दू में न जाने क्या-क्या लिखवा रखा था। उसे देख कर मन ही मन कहा, निर्लज जब टैटू बनवाने के लिए न जाने किस-किस के सामने पूरा बदन उघाड़ चुकी है, तो यहाँ जो कुछ किया वह इसके लिए कौन सी बड़ी बात है।                
मैंने करीब तीन बजे जब चौथी बार थोड़ी अजवाइन खाकर, किसी तरह पानी पिया तब  जाकर मुझे कुछ राहत मिली। जब राहत मिली तो तुमको ढूंढ़ा कि बात करूँ,कि जब मैं उस 
सांवली हिडिम्बा के पास चला गया तो आखिर रात भर कहाँ-कहाँ, क्या-क्या हुआ ? लेकिन तभी सोचा कि, अभी तक तू नज़र नहीं आई, कहीं रात-भर उन्हीं स्थितियों से तू भी तो नहीं गुजरी जिससे मैं गुजरा, और अब ड्रग्स वगैरह के चलते किसी कोने में पस्त पड़ी है।  


जब ढूंढ़ा तो तुम किचेन से लगे स्टोर रूम में जमीन पर बेसुध सो रही थी। उसी ख़ास साड़ी में। तुम्हारे सारे कपड़े ऐसे अस्त-व्यस्त हो रहे थे, जैसे तुमने किसी तरह उन्हें खींच-तान कर अपने तन से लपेट लिया हो। तुमने अपनी समझ से सोने के लिए जमीन पर चादर बिछाई थी,लेकिन तुम चादर से अलग जमीन पर थी । 
मैं भी उस औरत के साथ बहुत ऊट-पटांग हालत में पड़ा था। तुम्हारे साथ क्या-क्या हुआ? रात-भर तुमने क्या-क्या किया? तुम्हारी स्थिति मुझे साफ़-साफ़ बता रही थी। मेरे मन में आया कि तुम  बहुत थकी होगी, ना उठाऊँ तुम्हें। मगर रात-भर का काला इतिहास जानने की व्याकुलता में मैंने तुम्हें कई आवाज़ें दीं, लेकिन उठने को कौन कहे, तुम हिली तक नहीं। मुझे कुछ शक हुआ तो तुम्हारे चेहरे के पास बैठ गया। तुम्हारे सिर को हिला-हिला कर दो-तीन बार बुलाया तो तुम बड़ी मुश्किल से उंहू..अ..., करके रह गयी।
मैंने मुंह सूंघा तो मेरा शक सही निकला। उस समय भी शराब और किसी ड्रग्स की तीखी बद्बू आ रही थी। मुझे बड़ी गुस्सा आई। मन में ही कहा, ये तो रमानी बहनों की नानी है। तुम्हारी हालत देखकर मैंने तुम्हारे कपड़े ठीक किये और  चला आया अपने कमरे में।
उस दिन रमानी बहनें शाम को कहीं गईं और देर रात को लौंटी। मैं सारे समय अपने कमरे में पड़ा रहा। बार-बार तुमको देख कर आता कि, तुम्हारा नशा उतरे तो तुमसे बात करूं। लेकिन जब तुम रात ग्यारह बजे तक भी नहीं आई, तो मुझसे नहीं रहा गया।
खीझ कर फिर पहुंचा तो तुम वहाँ के बजाय अपने कमरे में मिली। तखत पर सिर दिवार से टिकाए आँखें बंद किए बैठी थी। चेहरे पर अच्छी-खासी सूजन थी। आंखें कुछ ज़्यादा ही सूजी थीं। तुम्हें देखकर गुस्सा आ रही थी। मेरी आहट पाकर तुमने धीरे से आंखें खोलीं, कुछ देर मुझे देखा, फिर हाथ से इशारा कर बगल में बैठने को कहा। तुम बहुत ही ज़्यादा थकी हुई लग रही थी। मैं  बैठकर कुछ देर तुम्हारे चेहरे को देखता रहा, तो तुम बहुत मुश्किल से बोली, 'क्या देख रहे हो?'
 'कल तूने बहुत ज़्यादा पी थी क्या?'
 'चल जाने दे।'
'बता न, ड्रग्स भी ली थी?'
'छोड़ न, रात गई, बात गई। आगे की देखते हैं।'
तुम्हारी जुबान उस समय भी लड़खड़ा रही थी। आंखों, चेहरे पर आ-जा रहे भावों को देख कर मुझे पक्का विश्वाश हो गया था कि, बीती रात तुम्हारे साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिसे तुम छिपा रही हो। मैंने दोनों हाथों से तुम्हारे चेहरे को पकड़ते हुए कहा, 'देख समीना, मेरी तरफ देख, मेरी आंखों में देखकर बता, कल रात क्या-क्या हुआ ? तूने क्या-क्या किया ? बोल रात-भर तूने क्या किया?'
'अरे बोल तो दिया न, काहे को बार-बार वही बात बोले जा रहा है। कहा न  वो रात बीत गई, दूसरी रात आ गई। अब आज की बात कर, आगे की बात कर,आगे की पूछ न क्या पूछना है?' 
इस बार तुम थोड़ी तेज़ आवाज में, गुस्सा दिखाती हुई बोली थी। इससे मुझे भी गुस्सा आ गया। मैं भी तुम्हारे ही अंदाज में बोला, 'सुन जो पूछ रहा हूं वह बता। रात गई, बात गई कह कर बहुत कुछ छिपा रही है तू, मैं ये नहीं होने दूंगा, समझी। मैं सब जान कर ही तुझे छोड़ूंगा।'
मैं एक हाथ से तुम्हारे जबड़े को पकड़े हुए था। मेरी पकड़ गुस्से में सख्त हो गई थी। इस बार लगा कि तुम मेरे गुस्से से थोड़ा डरी। तुमने मेरी पकड़ से छूटने की कोशिश शुरू कर दी। लेकिन गुस्से में मेरी पकड़ कम नहीं हुई तो तुम घुटी-घुटी सी आवाज में बोली, 'अरे छोड़ ना, तभी तो बोलूंगी।'
 'जल्दी बोल.. टालने की या झूठ बोलने की कोशिश ना करना। बता दे रहा हूं।'
 'मैं झूठ-झाठ काहे को बोलूंगी। बहुत सच सुनना चाहता है न, तो सुन ले, जो तूने किया, वही सब मैंने भी किया।'
'क्या!'
'चाैंकता काहे को है। अरे जब तेरे को दिमाग से काम लेने को बोल कर वहां भेजा, तो मुझे भी तो दिमाग से काम लेना था। नहीं तो काम बिगड़ जाता, और तब तू कहता कि, मैंने तुझे तो  भेज दिया, और खुद.. 
'चुप्प।'
मैंने गुस्से में एक बार फिर तुम्हारा मुंह कस कर दबा दिया। कुछ देर बाद छोड़ते हुए कहा,' साली, तुझ में और इन बहनों में कोई अंतर नहीं है। ये भी बद्जात हैं, तू भी....
मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर सका था, कि तुम बीच में ही बोली,
'हां, मैं भी बद्जात हूं। कुछ देर बद्जात बनकर, अगर मैं गरीबी, गुलामी की ज़िंदगी  से निकलकर,तन कर  खड़ी हो सकती हूं। ऐशो-आराम की ज़िंदगी जी सकती हूं, तो मुझे कोई हिचक नहीं, कोई ऐतराज नहीं बदजात बनने में। और हां, एक बात साफ-साफ बताऊं कि, मैं यह भी नहीं चाहती कि जब हम-दोनों गुलामी से बाहर आएं, तो तुम ये ताना मारो कि, इसके लिए तुमने कुर्बानी दी। मैंने कुछ किया ही नहीं। इसलिए जब मेरे सामने बात आई, तो मैंने सोचा, चलो जो काम करेंगे, दोनों मिलकर करेंगे। बराबर-बराबर करेंगे, और तब मैंने तुम्हारी तरह हिचकिचाहट नहीं दिखाई, कि मुझे धकेला गया तब गई।'
'तो क्या अपने आप ही जाकर खड़ी हो गई उस कमीने के सामने, कि लो मैं आ गई, जो करना हो करो।'
'खुद क्यों चली जाऊँगी। देख गुस्सा थूक, ठंडे दिमाग से काम कर। तू खुद बता चुका है कि, तू कितने सालों से कहां-कहां से भटकता चला आ रहा है। क्या-क्या किया है। कितने-कितने दिनों तक भूखा रहा है। पीने को पानी तक नहीं मिला। मेरा भी यही हाल रहा है। सोच, सोच जरा। हम-दोनों की कितनी उमर हो गई है। अभी हाथ-पैर चल रहे हैं, तो हाड़-तोड़ मेहनत करके पेट भर लेते हैं। कपड़ा पहन लेते हैं। लेकिन जरा सोच, जब ऐसे घिसते-घिसते इतनी उम्र हो जाएगी कि, हाड़-तोड़ मेहनत करने लायक नहीं रहेंगे, तब क्या करेंगे?
तब फिर हमारे सामने एक ही रास्ता बचेगा कि, या तो हम भूखों एड़िया रगड़-रगड़ कर मर जाएं या फिर हाथ में कटोरा लेकर दर-दर भीख मांगें। सड़क किनारे, कहीं कूड़े-कचरे में चिथड़े लपेटे पड़े रहें,और ऐसे ही भूख-प्यास, कपड़े दवा-दारू के लिए एड़िया रगड़-रगड़ कर उम्र पूरी होने से पहले ही मर जाएं। तन को कफ़न तक नसीब नहीं होगा। दफ़न, फूंकने की बात छोड़, कुत्ते ही नोंच-नाच कर खत्म कर देंगे,अब तो यह भी सोचना गलत है। 
क्योंकि लगता है कि जल्दी ही कुत्ते भी ख़त्म हो जाएंगे। नगर-निगम वाले उनकी बधिया कर, नस्ल ही खत्म किये जा रहे हैं। और जरा उस दुर्गति की सोच कि अगर शरीर के अंग बेचने वाले तस्कर उठा ले गए तो शरीर को किस तरह चीर-फाड़ कर एक-एक अंग कहाँ-कहाँ बेच देंगे ये दुनिया कभी नहीं जान पाएगी।
इतने भिखारी अचानक ही गायब हो जाते हैं, तुम्हें क्या लगता है कि उन्हें  कोई घर मिल जाता है,ये तस्कर ही उठा ले जाते हैं। अरे सोच ज़रा ठंडे दिमाग से सोच। फिर कुछ बोल, नहीं तो हमारी भी रूहें भटकती रहेंगी, तड़पती रहेंगी यहीं। क्या यही चाहते हो। हमारे आगे-पीछे तो कोई लड़का-बच्चा हैं नहीं, जो हमारी बुढ़ापे में देखभाल करेंगे। तू मेरी छोड़ अपनी सोच, सोच जरा, अगर तेरे पास पैसे होते, मकान होता, तो क्या अब-तक तू शादी नहीं बनाता। बीवी नहीं लाता। बच्चे नहीं पैदा करता। अब-तक तेरे बच्चे बड़े-बड़े नहीं हो गए होते। तू गाड़ी में रोज अपनी बीवी-बच्चों को लेकर घूमने नहीं जा रहा होता। ई सब इसीलिए नहीं हो पाया ना, कि इतने पैसे पास नहीं थे, और अब भी नहीं हैं।
रही बात मेरी, तो मैं तो शौहर के सहारे थी। उसे ही अपनी दुनिया, अपना सब-कुछ मानती थी। मुझे क्या मालूम था कि, जिसे अपनी दुनिया, अपना रहनुमा मानकर चल रही हूं, निश्चिंत हूं, एक दिन वही दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकेगा। उसने जब मुझे गोस्त की हड्डी की तरह चूस कर फेंक दिया, तब मेरी आंखें खुलीं। ठोकर खा-खाकर मैंने सबक सीख लिया है। इसलिए पैसा इकट्ठा करना शुरू किया। 
मगर यह भी जानती हूं कि, इतने से कुछ नहीं होगा। और यह भी सोचती हूँ  कि, अगर हमारे शौहर या सारे मर्दों को मनपसंद औरत के साथ सुख से जीने का हक़ है, तो हमें भी हक़ है अपने मनपसंद मर्दों के साथ रहने का। वो जब चाहें, जिस भी औरत से ऐश कर सकते हैं, तो हम भी करेंगे। 
कल देखा नहीं मर्दों को ,सबकी बीवियां घर पर थीं ,लेकिन उनसे झूठ-फरेब बोल कर यहां औरतों को गोस्त लगी हड्डी की तरह ऐसे चूस रहे थे, जैसे जीवन में पहली बार औरत मिली हो। मैं तो उस औरत की तारीफ करूंगी जो तुम्हारे साथ थी। इतने मर्दों के होने के बावजूद उसमें कोई हिचक नहीं थी,बल्कि मर्दों से कहीं चार कदम आगे थी। मैं पक्के तौर पर कहती हूँ कि, मर्दों के असली रूप को देखने के बाद ही उसमें यह हिम्मत आई। 
वह अच्छी तरह जानती-समझती होगी कि उसका पति भी ऐसे ही मर्दों की दुनिया से है। मैंने भी बहुत जानी-समझी है यह दुनिया, इसीलिए तुझे पहचानने में देर नहीं लगी। मुझे जब लगा कि, तू सुख लेना ही नहीं, देना भी जानता है, तो मैंने तुझे अपना लिया। तुझे इसलिए भी अपना माना कि, मुझे यह भी यकीन है कि, तेरे साथ कोई कारोबार आराम से बढ़ा लूंगी। बुढ़ापा सड़क किनारे कीड़े-मकोड़े सा नहीं, अपने बढ़िया से घर में तेरे साथ बिताऊँगी। दोनों एक-दूसरे का सहारा बनेंगे।'
'वाह कितना बढ़िया लेक्चर दिया है। मैं तो सोच रहा था कि, अभी पूरी तरह होश में ही नहीं हो,बात क्या बताओगी। मगर तुम्हारी बातों से तो लगता ही नहीं कि तुम शराब,ड्रग्स की खुमारी में हो।'
'क्या बताऊँ रे,मर्दों ने इतने जख्म दिए हैं, कि उनके सामने दुगुने होशोहवाश में रहने की आदत पड़ गई है।'
'पति के अलावा और किन मर्दों ने तुझे जख्म दिए ,बात चली है तो लगे हाथ उन सबके भी नाम बता दे ,क्यों अपने कपार (सिर) पर बोझा लादे हुए है।'
मेरी बात पर तुम कुछ बताने के बजाये उस हालत में भी हँसते-हँसते दोहरी हो गई तो मैंने कहा, 'अरे पागल हो गई है क्या? मैंने कोई चुटकुला सुनाया है क्या, जो हंस रही है।'
'नहीं ,तू कभी-कभी अपने बड़वापुर की बोली बोल देता है तो मज़ा आ जाता है,और ये भी पता चल जाता है कि तू सच में गुस्से में है। क्योंकि गुस्सा होने पर ही तू बड़वापुर की बोली बोलता है।'
'अब जब जान गई है कि मैं सच में गुस्से हूँ, तो चल अब जल्दी-जल्दी उन सब मर्दों के बारे में बता जिन्होंने तुझे जख्म दिए।'
'ज़िद कर रहा है तो बताये दे रही हूँ, हालांकि अब इन बातों का कोई मतलब नहीं है। शौहर के बाद दूसरा जख्म खानदान ही के एक आदमी ने दिया। रिश्ते में चच्चा लगता था, अपने व्यवहार,काम दिलाने के झांसे से उसने मेरा विश्वाश जीत लिया। काम के लिए उसके साथ यहाँ आ गई। यहाँ उसने पहली ही रात मेरे यकीन का खून करते हुए मुझे रात-भर लूटा।और फिर अगले दो हफ्ते तक वो न दिन देखे, न रात, जब मन हो तब मुझे लूटता, कुचलता रहा और मैं अपनी मजबूर रूह को जार-जार आंसू बहाते देखती रही।
एक दिन मुझे भनक लगी कि, वह किसी दल्ले को मुझे बेचने की बात पक्की कर चुका है। यह जानते ही मेरी रूह काँप उठी। उसी रात मुझे किसी तरह मौक़ा मिल गया,और मैं उस जानवर के चंगुल से निकल भागी। फिर एक के बाद एक पांच घरों में काम किया। इनमें से एक कमीना निकला,उसने भी धोखे से मुझे चार-पांच दिन रौंदा।
पहले सोचा पुलिस में रिपोर्ट लिखाऊं,फिर रुक गई कि, इस अनजान शहर में मेरी कौन सुनेगा,पैसे के दम पर मुझे ही फंसवा देगा। इसके बाद भटकते-भटकते यहाँ रमानी साहब के पास पहुँच गई, वो बेचारे मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे। कुछ सालों के बाद एक दिन मुझ से बोले,''समीना अभी तुम्हारी कोई ज्यादा उम्र नहीं हुई है, कब-तक ऐसे अकेली रहोगी,अगर तुम तैयार हो तो किसी भले आदमी के साथ तुम्हारा निकाह करवा दूँ ।''
लेकिन मैं निकाह के नाम से ही सिहर उठती हूँ ,तो मना कर दिया। कहा ,''बाबू जी ,बस अपना प्यार मुझ पर हमेशा बनाये रखिये, मुझे निकाह के नाम से ही नफरत हो गई है।'' मेरे मन की बात जानने के बाद उन्होंने फिर कभी मुझसे निकाह की बात नहीं की। जब-तक रहे तब-तक एक बाप ही की तरह मानते रहे। लोगों से मिले सारे जख्म ऐसे हैं, जिन्होंने मुझे अब इतना मजबूत बना दिया है कि, अब कोई मुझे जख्म देना चाहेगा तो मैं उसका पूरा जीवन जख्मों से भर दूँगी,समझे। मैंने सब बता दिया,अब तो खुश हो?' 
समीना उस समय तुम्हारी बातों ने मेरा गुस्सा बहुत कम कर दिया था, लेकिन खत्म नहीं।  साथ ही इन बातों ने बुढ़ापे, तेज़ी से बढ़ती उम्र को लेकर मुझे डरा दिया था। मगर  यह सोचते ही मेरा पारा चढ़ जाता कि, तुम रात-भर किसी दूसरे मर्द के साथ सोई। जब मैं ज़्यादा बड़बड़ाया,गुस्सा हुआ तो तुम भी गुस्सा हो गई।
बड़ी दबंगई से चार बातें सुनाते हुए बेलौस  बोली, 'सुन, तू तो ऐसे धौंस जमा रहा है, जैसे कि मैं तेरी ब्याहता बीवी हूं, और मुझे दूसरे मर्द की छाया भी नहीं देखनी चाहिए। अरे जैसे तू मुझे चाहता है, वैसे ही मैं तुझे। दोनों मिलकर कारोबार के लिए आगे बढ़ना चाहते हैं। उसी के लिए सारी कोशिश कर रहे हैं। उसी के लिए तू उस औरत के पास गया, तो मैं उस मर्द के पास।
उस औरत के पास जाकर जब तू गलत नहीं है,तू खराब नहीं हुआ, तो मैं उस मर्द के पास जाकर कैसे गलत हो गई? कहाँ से खराब हो गई? मैं तो तेरे पर गुस्सा नहीं हो रही। मुझ पर तो कोई फ़र्क नहीं पड़ गया। तुझे क्यों इतना फ़र्क पड़ गया। अगर फ़र्क पड़ गया है तो सुन, और दो-चार साल काम करने की उम्र निकल गई, तो कुछ भी देखने, फ़र्क करने के लायक ही नहीं रह जाओगे।
बुरा मत मानना, तब सिर्फ़ माथे पर हाथ रखकर, पछताने लायक ही रह जाओगे। इसके बाद जब और वक्त बीत जाएगा तब, तब के लिए कहूँगी कि एड़िया ही रगड़ोगे। पछताने लायक भी नहीं बचोगे। तब मेरी यही बातें याद कर-कर के आंसू बहाओगे। मगर नहीं, तब तो आंखों में आंसू भी नहीं बचेंगे। रही बात मेरी, तो मैं हार मानने वाली नहीं हूं।
तू नहीं, तो ना सही, मैं अकेले ही आगे बढूँगी, क्योंकि मुझे ये गरीबी मंजूर नहीं। एड़िया रगड़-रगड़ कर बुढ़ापा काटने की सोच कर ही मुझे नफरत होती है। तुझे मेरे साथ चलना है तो चल, नहीं चलना है तो न चल। कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर जो करना है वह मुझे अभी का अभी बता दे, इसी समय। मैं उसी हिसाब से अपना काम आगे बढाऊँ।'
तुम अपनी बात पूरी करते-करते बहुत ज्यादा गुस्से में आ गई थी। आंखों से आंसू भी निकल रहे थे। पता नहीं गुस्से के कारण या कि, यह सोचकर कि मैं तुमसे अलग हो जाऊँगा। तुम्हारी सूजी-सूजी आंखों से मोटे-मोटे गिरते आंसू देखकर मुझे तुम पर दया आ गई। साथ ही यह भी सोचा कि तुम सच कह रही हो। कड़वा सच। चाहे बुढ़ापे वाली बात हो, या ब्याहता बीवी की। या यह कि हम-दोनों ने एक ही काम किया, एक ही उद्देश्य के लिए किया, तो फिर एक गलत और दूसरा सही कैसे होगा? मैं यही सब सोचता तुम्हें देखता रहा, क्या कहूं कुछ समझ नहीं पा रहा था, तो तुम अपना धैर्य खो बैठी। 
मेरे हाथ को पकड़ कर, झिंझोड़ती हुई बोली, 'मुझे अभी बताओ, समझे। मेरे पास तुम्हारी तरह टाइम नहीं है। बताओ..... 
तुम मुझे बार-बार झिंझोड़ने लगी तो मैंने तुम्हें  बांहों में भर लिया। मगर बोला कुछ भी नहीं। तो तुम बांहों से छूटने की हल्की-फुल्की कोशिश करती हुई बोली, 'मुझे तुम्हारा जवाब सुनना है, मुझे साफ-साफ बताओ।'
तुम्हारी जिद पर मैंने तुम्हें छोड़ दिया,और तुम्हारे चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ कर एकदम अपने चेहरे के सामने कर लिया, तुम्हारी आंखों में झांकते हुए कहा, 'मैं तेरे साथ-साथ ही चलूंगा। जो तुझे करना है, वही मुझे भी करना है। काहे को परेशान होती है। चल, चल उठ।'
मेरे इतना कहते ही तुमने दोनों हाथों से आंखें पोंछते हुए पूछा, 'कहां?'
'मेरे कमरे में, और कहां?'
इतना कहते हुए मैं तुम्हारा हाथ पकड़े-पकड़े उठा और अपने कमरे में ले आया। तभी तुम  एकदम रुकती हुई बोली, 'सुनो, मैं नहा कर आती हूं। एक तो बदन बहुत टूट रहा है, दूसरे उस हरामी जानवर ने कुत्ते की तरह रात-भर मुझे रगड़ा, नोचा-खसोटा है।'
'ठीक है जा। मुंह में ढेर सा मंजन भी भर कर लेना। नशे में उसे खूब नोचा-खसोटा तो तूने भी होगा ना।' 
तुम्हारी बात सुनते ही मुझे लगा था कि जैसे तुम्हारे बदन से उस हरामी आदमी की ऐसी घिनौनीं बदबू आ रही है, कि नाक ही फट जाएगी। तभी तुमने पलटवार सा करते हुए कहा, 'सुन, तू भी नहा ले। तुम-दोनों ने भी तो चमकाया होगा एक-दूसरे को।' 
तुम्हारी इस औचक बात से मैं झटका खा ठहर सा गया। आखिर मैंने कहा, 'तू जा, मैं पहले ही नहा चुका हूं।'
तभी तुम्हारे चेहरे पर मुझे कुछ शोख भाव सा दिखा, उस शोख भाव के साथ ही तुम बोली, 'अच्छा, तो चल, चल मेरे साथ फिर से नहा। हम-दोनों ने उन सबको खुश किया है। चल, अब खुद भी खुश हो लेते हैं।'
तुम्हारी बातों का मतलब मैं समझ गया था। मैं कुछ बोल पाता, कि तभी तुम मुझे खींचती हुई रमानी बहनों के बड़े से, बहुत से ताम-झाम वाले बाथरूम की ओर लेकर चल दी। उस ताम-झाम को दोनों बहने जकूज़ी बोलती थीं। मैंने मना किया कि दोनों बहनें नाराज़ हो जाएंगी, तो तुम इठलाती हुई बोली, 'दोनों बेसुध पड़ी होंगी। काहे को डरता है।'
उस अय्याशी भरी रात के बाद हम-दोनों ने उस ख़ास वीआईपी बाथरूम में ख़ास साबुन ,शैम्पू से खूब नहाया,और फिर दो-दो  गिलास संतरे का जूस पीकर रात-भर एक दूसरे की बाँहों में समाये, आराम से सोये।    
रमानी बहनें पार्टी में हम-दोनों के काम को लेकर दो दिन बाद बोलीं, 'तुम-दोनों ने बढ़िया काम किया। आगे से तुम-दोनों और भी ज़िम्मेदारियाँ निभाओगे।'
एक अपनी बात पूरी कर ही पाई थी कि तभी दूसरी बोली, 'अब से तुम-लोग हमेशा उसी तरह की ड्रेस पहनोगे जो उस दिन पहनी थी। तुम्हें और ड्रेस मिल जाएंगी।' 
मैं दोनों बहनों की चालाकी पर भीतर-भीतर कुढ़ रहा था। चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था। उनसे यह कहने की सोच रहा था कि, ड्रेस के साथ-साथ पगार में भी कुछ बढ़ोत्तरी करती तो कोई बात है। जितना और जिस तरह का काम करवाया और करवा रही हैं, उस हिसाब से तो पगार कुछ है ही नहीं। बल्कि उस अय्याशी भरी रात के लिए तो चार-छह महीने की पगार अलग से देनी चाहिए, दो सेट कपड़े देकर भरमा रही हैं। बेवकूफ समझ रखा है।
हमारी विवशता का जिस मासूमियत भोलेपन से तुम-दोनों फायदा उठा रही हो,हमारा शोषण कर रही हो ,क्या यह सब हम समझ नहीं रहे हैं। मैं यह सब सोच ही रहा था, मुझ में भीतर ही भीतर बेतहाशा गुस्सा भर गई थी, मैं अपना गुस्सा निकालने के एकदम मुहाने पर पहुंचा ही था कि, तभी तुमने सीधे-सीधे अपनी बात बोल दी। 
साफ-साफ बहुत विनम्रता से कह दिया कि फैक्ट्री में कच्चे माल की सप्लाई का थोड़ा अवसर तुम्हें और मुझे दिया जाए। कैसे हम-दोनों यह काम करेंगे, तुमने पूरी योजना दो मिनट में ही उन्हें बता दी। तुम्हारी बातों ने दो सेकेण्ड में मेरा गुस्सा एकदम दबा दिया। मैं जो कहने वाला था उससे बात निश्चित ही बिगड़ती ,लेकिन खुद को मैंने तुरंत संभाला और लगे हाथ तुम्हारी बातों को और मजबूती से आगे बढ़ाया।

हमारी बातें सुनकर रमानी बहनों ने आश्चर्य से एक दूसरे को देखा। फिर हम-दोनों पर नजर डाली। बड़ी वाली कुछ देर तुमको देखने के बाद बोली, 'तुमने जितनी आसानी से कह दिया, उतनी आसानी से यह सब होता नहीं। ये काम करोगे तो यहां का काम कैसे होगा? कौन करेगा?'
उनकी इस बात से मुझे तुरंत सुन्दर हिडिम्बा की याद आ गई ,मेरा गुस्सा फिर कुलबुलाने लगा ,लेकिन तुमने बजाय हिचकने,बहकने  के पूरे उत्साह के साथ कहा, 'आप लोग निश्चिंत रहिये। हम-दोनों काम आसानी से कर लेंगे।'
'अगर नहीं कर पाए तो ?' 
'पहली बात तो ऐसा नहीं होगा। हम सारा काम संभाल लेंगे, और बदकिस्मती से ऐसा हुआ, तो हम अपना काम बंद कर देंगे। वैसे वह काम भी तो आप ही का है। वो फैक्ट्री का काम है। बाकी यहां का। आप दूसरों को जितना दीजियेगा, हमें उससे चार पैसा कम ही दीजियेगा। हम उसमें भी खुश रहेंगे। बस इतनी कृपा कर दीजिये।'
हम दोनों के बार-बार कहने का असर यह हुआ कि रमानी बहनों ने कहा, 'ठीक है, सोच कर बताएंगे।'
उनका यह कहना ही हमारे लिए बड़ी आशा की बात थी। रमानी बहनें हमारी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा आश्चर्यचकित थीं। उस दिन जब हम-दोनों रमानी बहनों को प्रभावित करने के उद्देश्य से दिन भर जी-तोड़ मेहनत कर, रात को सोने अपने कमरे में पहुंचे तो मैंने तुमसे पूछा, 'तुम्हें क्या लगता है, ये दोनों हमें सप्लाई का काम दे देंगी ?'
'देख मैंने इतने दिन बहुत ऊँच-नीच, नरम-गरम देखा है। इन दोनों को भी बहुत दिनों से देख रही हूं। सही कहूं तो इनसे हमने यह बखूबी सीखा है कि, कैसे अपना काम निकाला जाए। मैंने बात तभी कही, जब मुझे सबसे सही मौका लगा। मैं तुमसे अभी से कह दे रही हूं कि, इन दोनों के पास हमें काम देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।'
'तुम इतने विश्वाश से कैसे कह रही हो? हमारे पास ऐसी कोई ताकत नहीं है जिससे वो हमें काम देने के लिए खुद को मजबूर समझें ,बल्कि वो हमारी मजबूरी अच्छी तरह समझती हैं कि वो हमें कच्चे माल की सप्लाई का काम दें  या न दें ,लेकिन हम उनकी नौकरी करने के लिए विवश हैं।' 
'बात तो तुम सही कह रहे हो, लेकिन हमें इसलिए यकीन है कि, इन दोनों ने जिस तरह से हम-दोनों को पार्टी में इस्तेमाल किया। अपने बाकी कामों में कर रही हैं, उससे उनको यह मालूम है कि, हम उनके बहुत से कामों के राजदार हैं । उनकी हिम्मत नहीं कि, हमें नाराज कर दें, हमारी बात ना मानें।'
'तुम भी क्या फालतू की बातें करती हो। ऐसा कौन सा राज हमने जान लिया है, जो ये हमारी बात मानेंगी, हमसे डरेंगी।'
'फालतू बात नहीं कर रही। मैं तुमसे बहुत पहले से इनको देख, जान रही हूं। मैंने अगर मुंह खोला तो इन बहनों को हथकड़ी लगते देर नहीं लगेगी।'
तुम्हारी इस बात से मैं खीझ उठा। मैंने मन ही मन कहा, ये लंतरानी की नानी कभी-कभी इतनी गप्पें क्यों मारने लगती है। लेकिन मन की इस बात को मन में ही दबाये मैंने तुम से पूछा,'अच्छा, ऐसी कौन सी बात है? हमें भी बताओ ना।'
'वक्त आएगा तो, तुम्हें भी बताऊँगी।'
'हद हो गई, ऐसे तो दुनिया भर की बातें करोगी, ज़िंदगी भर साथ रहने की बात करोगी, और हमीं से सारी बात भी छिपाओगी। ये कौन सी बात हुई।'
मैं थोड़ा झल्ला उठा, तो तुम प्यार दिखाती हुई बोली ,
'अरे शक काहे कर रहा है। कह रही हूं ना, एक नहीं बहुत सी बातें हैं। बताऊँगी धीरे-धीरे सब। मैं तो कहती हूँ कि सबसे बड़ी बात ये है कि,अगर तुम चाहो तो अब इन बहनों को अपने इशारे पर नचाओ। तुम्हारे अकल तो है नहीं। तुम्हें एक-एक बात बतानी पड़ती है।'

तुम्हारी इन बातों से मैं गुस्सा होते हुए बोला,'ऐसा है, तू बिना पिए ही बौरा गई है। वे बहनें मुर्ख हैं कि, मेरे, तुम्हारे इशारे पर नाचेंगीं। हम-दोनों इतने ही शेर-बहादुर होते, तो ये बहनें हमारी नौकरानी होतीं और हम इनके मालिक। अरे काम किस तरह आगे बढ़े ये सोच, यही कोशिश कर। इतना ऊंचा ना उड़ कि नीचे उतर ही न पाए। नीचे देखे भी तो पृथ्वी ही ना नजर आए।'
'बाप रे, तू ना एकदम मगज से खाली आदमी है। तभी जहां का तहां पड़ा है। अरे सिर्फ इतना ही सोच कि, उस दिन पार्टी में उन दोनों ने हम-दोनों को नौकर से ऊपर उठाकर ऑफ़िस का कर्मचारी बनाया, रात-भर मेहमानों को खुश करने के लिए हमीं से उनके बिस्तर तक गरम कराए, क्या इतना बहुत कुछ नहीं है। उस दिन का तुझे और भी बहुत कुछ मालूम है, लेकिन जो मैंने देखा वह तुझे नहीं मालूम है। वो ऐसी बातें हैं कि, तू उसे जान ले और मैं जो कहूँ वो करे, तो रमानी बहनों से एक वही काम नहीं, जो चाहेगा, वो करा लेगा।' 
'पता नहीं तुम कौन सी पहेली बुझा रही हो। रात-भर उस दिन ऐसा क्या हुआ, जो खाली तुम्हें मालूम है, मुझे नहीं। हम जान लेंगे, तो कैसे इन दोनों को नचाएंगे कम से कम यही बताओ।'
'तुम को तो एक-एक चीज अंगुली पकड़ कर बतानी पड़ती है। सुनो तुम तो उस मेहमान के साथ चले गए रात-भर के लिए। सब तो नशे में थे। एक बहन भी नशे में धुत्त पड़ी थी। मगर दूसरी वाली ने बस कहने भर का नशा किया था, ड्रामा ज्यादा कर रही थी। वह एक-एक आदमी पर नजर रखे हुए थी। तुझ पर तो कुछ ज़्यादा ही। तू जब उस अधिकारी के साथ कमरे था, तो वहां जिस तरह वह नजर लगाए हुए थी, उससे एकदम साफ था कि, वह अधिकारी औरत ना होती, तो वह खुद ही तुम्हें अपने कमरे में ले जाती। उस समय तेरे लिए उसका उतावलापन मैं सब देख-समझ रही थी। औरत हूँ ,एक औरत कब क्या चाह रही है,यह मैं तुमसे ज्यादा पढ़ती हूँ, और वह भी जो तुम पढ़ भी नहीं सकते,समझे।'
'ऐसा है तू अपने काम के चक्कर में एकदम पागल हो गई है, समझी।' 
'मैं पगला नहीं गई हूं। यह सच फिर कह रही हूँ कि, एक औरत हूं, और दूसरी औरत जो कुछ कर रही है, उसका मतलब क्या है? वह तुमसे ज़्यादा जानती-समझती हूं। यह भी बता दूं कि, वैसा ही एक मौका जल्दी ही फिर आने वाला है, क्योंकि तू तो कुछ समझ पाता नहीं, इसलिए जैसा कहूं, वैसा करते जाना। मैं तेरे को इस बार किसी बाहरी औरत के नहीं, इसी रमानी बहन के आगे कर दूंगी। एक बार तेरा साथ पा जाएगी, तो काम बनते देर नहीं लगेगी।'
तुम्हारी बातें मुम्बई की मेट्रो की तरह चलती जा रही थीं,और मैं तुम्हें आश्चर्य से देख रहा था। सोच रहा था कि अब-तक यही सुना था कि कोई बीवी, प्रेमिका अपने आदमी या जिसे वह चाहती है उस मर्द को, दूसरी औरत के साथ देखना तक बर्दाश्त नहीं करती और एक ये है जो अपने ही हाथों से, मुझे दूसरी औरत की बाहों में भेज रही है।
उस दिन भी इसी ने जोर डाला था। ये इतना पीछे ना पड़ती, तो भले ही रमानी बहनें आधी रात को सड़क पर निकाल देतीं, लेकिन मैं उस औरत के पास जाता नहीं। अब ये आगे रमानी बहन के ही सामने मुझे खड़ा कर रही है। ये जैसा कहती है क्या वाकई मुझसे वैसा ही प्यार करती है ?
ये कैसी औरत है? बीवी है नहीं। जो हरकतें कर रही है, उसे देखकर तो प्रेमिका भी नहीं कह सकते। होती तो वह नहीं करती जो किया, और आगे जो करने की सोचे बैठी है। ये तो रमानी बहनों की ही तरह मुझे मोहरा बना कर अपना उल्लू सीधा कर रही है। मुझे बिल्कुल कोई औजार समझ कर यूज कर रही है। 
अपना काम निकालने के लिए रमानी बहनों के सामने मन हुआ तो खुद और जरूरत हुई तो मुझे ही लिटाने को तैयार है। वाकई इसके सामने तो मैं बिल्कुल भोंदू ही साबित हो रहा हूं। लेकिन जो भी हो, कारोबार तो मेरे बिना खिसकेगा ही नहीं। ठीक है तू रमानी बहनों की तरह मुझे औजार बना। शुरू कर कारोबार। चाबी तो मेरे ही हाथ में रहेगी। तेरी भी और तेरे धंधे की भी। डाल मुझे रमानी बहनों के सामने।
मैं यह सब फालतू की बातें सोच ही रहा था कि, तुम चहकती हुई बोली, 'ऐ, तू मेरी बात सुन भी रहा है कि सो रहा है, या मुंगेरीलाल के सपने देख रहा है। अब सपने देखना बंद कर। विलेन-किंग नहीं, बिजनेस किंग बन, बिजनेस किंग।'
'सुन रहा हूं... ज़्यादा ना बोला कर समझी। जरा अपना दिमाग ठिकाने रख कर मुझे एक बात बता, दूसरी औरत के साथ मुझे संबंध बनाते देख कर, तेरे को बुरा नहीं लगता क्या?'
'मैंने तुमसे कितनी बार कहा कि, मुझे गरीबी, गुलामी से ज़्यादा और कुछ भी खराब नहीं लगता। समझे। जो कर रही हूं, इन दोनों से छुटकारा पाने के लिए कर रही हूं। जब इनसे छुटकारा मिल जाएगा, तो दूसरी औरत के पास भेजना तो छोड़, तेरे को मैं दूसरी औरत की तरफ देखने भी नहीं दूंगी। समझे।'
'समझ रहा हूं, सब समझ रहा हूं। एक बात बता, जैसे तू बोल रही है, कर रही है, ऐसे तो एक दिन जब धंधा चल निकलेगा, तो तू मुझे भी छोड़ देगी। कोई और ढूंढ़ लेगी। क्योंकि तू तो मुझे काम निकालने के लिए एक औजार की तरह प्रयोग कर रही है। काम निकल जाने पर तो वैसे भी टूल को टूल-बॉक्स में रख कर कोने में रख दिया जाता है।' 
मेरी इस बात पर तुम कुछ देर हंसती हुई मुझे देखती रही, फिर बोली, 'तेरे जैसा कोई दूसरा टूल मिलने वाला नहीं। इसलिए तुझे छोड़कर किसी और का हाथ पकड़ने वाली नहीं।'
इस बारे में हम-दोनों की बातें बार-बार होती रहीं ,अपनी-अपनी कोशिशें भी करते रहे, यह  कोशिशें धीरे-धीरे रंग लाने लगीं। रमानी बहनों से काम मिलते ही तुम्हारी कुल जमा-पूंजी और साथ ही मेरे पास जो कुछ था वह सब मिलाकर काम चलाने भर का एक पुराना हाफ डाला ट्रक भी ले लिया। लेकिन रमानी बहनों ने शुरू से ही खुराफात शुरू कर दी।
पहले महीने में एक रुपया भी पेमेंट नहीं किया। महीने भर किसी तरह हम-दोनों काम चलाते रहे। हमने अपने बहुत ही गाढ़े समय के लिए जो पैसा अलग रखा था, उसे भी लगा दिया। यहाँ तक कि बरसों से तमाम कठिनाइयों के बावजूद जो कुछ गहने मैंने बचा रखे थे,वह भी बेच दिए। हम-दोनों यह न करते तो हमारा काम दो हफ्ते में ही बंद हो जाता।
मगर एक महिने बाद भी जब पैसा नहीं मिला तो मजबूरन हमें रमानी बहनों के हाथ जोड़ने पड़े कि, जैसे भी हो हमें पैसा दें, नहीं तो हमारा काम रुक जाएगा। मगर दोनों टस से मस नहीं हुईं। खाली हमारी पगार हमें दे दी बस। कुछ दिन धंधा उससे आगे खिंचा। लेकिन जब उसके बाद डीजल का भी पैसा नहीं रहा तो हम-दोनों फिर उन मगरूर बहनों के सामने खड़े हुए। 
लेकिन हमें दो-टूक जवाब मिला कि जब मार्केट से पेमेंट उन्हें मिलेगी,तभी वो हमें देंगी। उनके जवाब से हमें दिन में ही तारे नजर आने लगे। हमें कहाँ से पता चलेगा कि उन्हें पेमेंट मिली कि नहीं। मैंने तुम से कहा कि, 'इनकी बातों से तो लगता है कि ये हमेशा एक ही  बात कहेंगी कि पेमेंट नहीं मिली।' 
तुम चुप रही, हम अवाक थे, हम-दोनों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? अगले दिन ट्रक में डीजल भरवाने के लिए भी पैसा नहीं था। चिंता के मारे उस रात हम-दोनों खाना भी नहीं खा सके। हम-दोनों की हालत बड़ी खराब हो गई थी। हमारी सारी पूंजी दांव पर लगी हुई थी। जो देखते-देखते डूबने जा रही थी।
कमरे में हम-दोनों चुपचाप बैठे थे। तुम्हारी आँखों में मैं आंसू और निराशा दोनों देख रहा था। देखते-देखते रमानी बहनों ने हमारे सपनों के सुन्दर महल को ढहा दिया था। महल के खंडहर को हम विवशताभरी नज़रों से देखते रहने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे थे, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। 
इसी बीच मेरे दिमाग में आया कि, ये तो पहले बड़ा कहती थी कि, ये बहनें इसकी बात चाह कर भी टाल नहीं सकतीं। लेकिन इन दोनों ने तो जानबूझ कर पूरी साजिश के तहत बीच मंझधार में लाकर नाव पलट दी है। एक-एक तिनका तक हमसे ले लिया है, कि हमें तिनके का भी सहारा ना मिले।आखिर मैंने तुझ से कहा, 'तू तो कहती थी कि ये दोनों तेरी बात मना नहीं कर सकतीं। लेकिन ये तो सीधे-सीधे धोखा दे रही हैं।'
'हां, समझ रही हूँ, लेकिन मैं भी ऐसे हाथ-पे-हाथ धरे बैठी नहीं रहूंगी। मैं अगर बरबाद होऊँगी तो इन्हें भी नहीं छोड़ूंगी।'
तुम्हारी बात से मैं खीज उठा,लेकिन अपनी खीझ को दबाये हुए कहा, 'हम-लोग कर भी क्या सकते हैं? अब तो इतना पैसा भी नहीं है कि ट्रक हिलाने भर को भी डीजल भरा सकें।'
'तो ठीक है, जब-तक पैसा नहीं देंगी, तब-तक हमारी ट्रक भी नहीं चलेगी। माल नहीं देंगे।'
'तुम भी अजीब बात करती हो, इससे उन पर क्या फ़र्क पड़ेगा। हमारे अलावा कई लोग सप्लाई कर रहे हैं, वो करते रहेंगे। उनकी फैक्ट्री तो चलती ही रहेगी। ये दोनों हमें नौकर ही बना के रखना चाहती हैं। इसीलिए ये साजिश रची। तुमने जो बता दिया था कि, हमारे पास पैसा है, उसे भी बरबाद कर देने के लिए इन दोनों ने साजिश के तहत हमें काम दिया। जिससे हम अपनी गरीबी दूर करने का सपना भी ना देख सकें। इनके फेंके टुकड़ों के लिए इनके बताये कुकर्मों को भी आँख बंद कर करते रहें। इसके अलावा जीवन में कुछ और करने की हम कोशिश भी न कर सकें।'   
'हम सपना भी देखेंगे, उनको पूरा करने की कोशिश भी करेंगे। इनकी साजिश से हम अपनी गरीबी दूर करने की कोशिश बंद नहीं कर देंगे।'
'फिलहाल तो इन्होंने बंद ही करवा दिया है। कल से अपनी ट्रक खड़ी रहेगी, जबकि इनकी फैक्ट्री चलती रहेगी। मगर एक बात बताओ। पहले तो तुम कहती थी कि, इन दोनों की तुम्हें इतनी बातें मालूम हैं, इतने राज मालूम हैं कि ये तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगी।'
'झूठ नहीं कहा था। अभी तक यही नहीं किया।'
'क्यों?'
'क्योंकि मेरे पास उनके सिर्फ़ राज हैं। लेकिन उनके पास पैसा है, ताकत है। देखा नहीं उस दिन कैसे-कैसे लोग आए थे। उनके राज खोलकर मैं उन्हें  सिर्फ़ कुछ देर को बदनाम कर सकती हूं। जिसका उन पर कोई खास फ़र्क पड़ने वाला नहीं। लेकिन वो थोड़ा सा पैसा खर्च करके हमें ही खत्म करा सकती हैं।'
'जब ये सब जानती-समझती हो, तो फिर काहे को इतना आगे बढ़ गई। इससे तुम्हारी-मेरी सारी जमा-पूंजी,मेहनत सब बरबाद हुई कि नहीं। आखिर ये करके क्या मिला तुम्हें? बिना आगे-पीछे सोचे सारी कमाई डुबा दी। मुझे बहुत दुख हो रहा है समीना, बहुत ज़्यादा। गुस्से का तो क्या कहूँ तुमसे,ऐसे में तो तुम पर गुस्सा करना भी मूर्खता ही है। तुमने न मुझको न खुद को, कहीं का नहीं छोड़ा।'  
मेरी बात पूरी होते-होते तुम रोने लगी। मैं चुप कराने लगा तो तुम बच्चों की तरह मेरी गोद में सिर रखकर और भी ज़्यादा बिलख पड़ी। मुझे बड़ा दुख हो रहा था। तन-बदन में रमानी बहनों के लिए क्रोध की ऐसी आग धधक उठी थी कि मन में आया कि जाकर दोनों की गर्दन एक साथ मरोड़ दूँ। लेकिन हम तो इतना विवश थे कि पूरी आज़ादी से अपने मन का सोच भी नहीं सकते थे। 
यहां भी मैं सुन्दर हिडिम्बा के सोने के पिंजरे में बंद होने जैसी विवशता,आत्मविहीन दास होने जैसा महसूस कर रहा था। दोनों में एक बारीक सा फर्क मुझे यह दिख रहा था कि सुन्दर हिडिम्बा का पिंजरा जहां पूरी तरह बंद था,वहीं रमानी बहनों का पिंजरा पूरी तरह खुला था, एकदम ओपन जेल जैसा। 
लेकिन यहां हमारे पंखों को इतना गीला रखा जाता था कि हम उड़ने लायक नहीं होते थे। तो अपने गीले पंखों को ध्यान में रखते हुए मैंने तुम्हें समझाते हुए कहा, 'सुनो जब धंधा बंद ही हो गया है, तो  ट्रक रखने से क्या फायदा? उसे जितनी जल्दी होगा उतनी जल्दी बेच देंगे। पूरा पैसा ना सही, कुछ तो वापस मिल ही जाएगा। उसे खड़ा रख कर उसके टायर गलाने से कोई फायदा नहीं।'
कुछ देर तक मेरी बात सुनने के बाद तुम चुप हुई और आंसू पोंछती हुई बोली ,
'हां, तुम सही कह रहे हो। लेकिन यह बात एक बार इन चुड़ैलों से जरूर कहूँगी। शायद ये सब सुन कर कुछ कर दें।'
'अब मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती। जब उन्होंने यह सब साजिशन किया है तो क्यों कुछ करेंगी। इतना बड़ा धंधा संभालती हैं, ये मामूली सी बात क्या उनकी समझ में नहीं आ रही होगी।' 
'तो सुनो, हम भी इन्हीं की तरह करते हैं। कल जब इनसे ट्रक बेचने के लिए कहेंगे, अगर तब भी ये काम भर का भी पैसा नहीं देंगी, तो उसी समय हम भी कह देंगे कि, 'हमारा हिसाब अभी कर दीजिये। हम काम छोड़ कर जा रहे हैं।' ट्रक बेच कर जो पैसा मिलेगा, उससे कोई छोटा-मोटा अपना काम-धंधा करेंगे।'
'जरूरी है कि उन पैसों से कोई धंधा चल ही जाए। ऐसे तो अपनी हालत हम और खराब करेंगे। खाना-पीने से ज़्यादा सिर छिपाने की समस्या है, उसका क्या करेंगे?'
'तो तुम्हीं बताओ क्या किया जाए?'
'कल एक कोशिश बिना उम्मीद के ही करते हैं।'  
'ठीक है, मैं सवेरे ही कहूंगी कि, हम मजबूरी में ट्रक बेचने जा रहे हैं, अगर आप हमें काम चलाने भर का भी पैसा रोज दे दें तो हम ना बेचें । देखती हूँ  क्या कहती हैं।'
अगले दिन हमारी कोशिश फिर बेकार हुई। बहनों की बातों से हमें और भी पक्का यकीन हो गया कि वो हमें बरबाद करने की ही ठाने हुई हैं। हम-दोनों का हाथ-पैर जोड़ना भी उनके मन को बदल नहीं सका। वो एक पैसा देने को तैयार नहीं हुईं। उल्टे खिल्ली उड़ाई। तब मैं बर्दाश्त नहीं कर सका। बिगड़ गया। 
साफ कह दिया कि, 'आप-दोनों ने हमें बरबाद करने के लिए यह सब किया। आप लोग नहीं चाहती थीं, तो पहले ही मना कर देंती। हमारे पैसे क्यों बरबाद कराए। हम-दोनों अब यहां काम नहीं करेंगे। हमारा हिसाब अभी कर दीजिए। पगार का भी और सारे माल का भी।'
मैं इसके आगे बोल ही नहीं पाया। तुम बीच में ही कूद पड़ी।
मुझे पीछे करती हुई बोली, 'नहीं-नहीं, हम-दोनों जैसे काम करते आए हैं, वैसे ही आगे भी करेंगे। इसकी तबियत कई दिन से खराब चल रही है। इसीलिए चिड़चिड़ा हो गया है। कुछ ज़्यादा नहीं बस रोज इतना पैसा दे दीजिए कि काम चलता रहे बस, और कुछ नहीं कह रहे हम।'
तुम्हारी इस कोशिश पर उन्होंने ना सिर्फ़ हम-दोनों को डांटा, बल्कि पुलिस के हवाले कर देने की धमकी भी लगे हाथ दे दी। तमाम अपमानजनक बातें कहीं वो अलग। हम विवश होकर हाथ मलते रहे। अपनी बेबसी पर कुढ़ते रहे। मैंने कई बार सोचा कि, न जाने कैसे लोग कहते हैं कि, आँख उठा कर देख लेने भर से ही मालिक नौकरों को धक्के मार कर भगा देते हैं ,इसने तो निकालने का नाम तक नहीं लिया। 
रात को जब मैं काम-धाम करके कमरे में पहुंचा तो तुम वहां बैठी मिली। तुम भी दस मिनट पहले ही पहुंची थी। मैंने तुम पर एक नजर डाली और बगल में ही बैठ गया। तुम एकदम शांत ऐसे बैठे थी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने ही पूछा, 'क्या हुआ ? इतना चुप क्यों हो? बेवजह चिंता करने से कुछ मिलने वाला नहीं। मिलेगी तो सिर्फ़ बीमारी और कुछ नहीं, समझी। चल कुछ बोल ना।'
'क्या बोलूं, चुप रहने से कुछ मिलेगा नहीं, तो कुछ जाएगा भी नहीं, समझे।'
'जाएगा कैसे नहीं? अरे जाता है भाई। आदमी चुप है, इसका सीधा मतलब है कि या तो वह चिंता में है या चिंतन में । चिंतन में है तो ठीक है,चिंता में नहीं। घर पर अम्मा जब घरेलू समस्याओं को लेकर चिंता में दिखतीं तो बाबू जी कहते थे कि,''चिंता चिता है। चिता से ज़्यादा तेज है चिंता की आग। चिता मृत शरीर को जलाती है। चिंता तो जिंदा ही जला देती है। इसलिए चिंता मत कर, जो होगा देख जाएगा।''
'सुन अभी बहुत दम है इस शरीर है। चिंता की आग में इतनी गर्मी नहीं, कि मेरा शरीर जला दे। वैसे मैं चिंता नहीं, सोच रही थी कि, तू जब नहीं बोलना होता है, तभी क्यों बोल देता है। अरे उस समय मैं बोल रही थी, मैं कुछ और ढंग से बात कहती। शायद बात कुछ बन जाती। मगर तू बीच में ही कूद पड़ा कच्छा-बनियान पहिन कर। ये भी नहीं देखा कि,पूल में पानी है भी कि नहीं, पानी में कूद रहा है या पत्थर पर। हाथ-पैर टूटेंगे या कि बचेंगे।'
'अरे, तू तो अजीब बात कर रही है। वहां मैं कब-तक ना बोलता। दोनों साली अंड-बंड बोले जा रही थीं। हमारे धंधे में आग लगा कर मजाक उड़ा रही थीं, फिर भी मैं कुछ ना बोलता। अरे मेरे बोलने का ही नतीजा है, कि पैसा भले नहीं दिया लेकिन घर से निकालने की भी हिम्मत नहीं कर पाईं। नहीं अब-तक धक्के मारकर बाहर फिंकवा दिया होता।'
'यही,यही अकल है, जो वो वहां हैं, और हम यहां उनके दिए दड़बे में। तुमको नहीं निकाला लेकिन हमें निकाल दिया है, समझे।'
'क्या! अरे ये क्या कह रही हो। तुम्हें कैसे निकाल दिया ? उन्हें निकालना है तो मुझे निकालें,बात मैंने की थी। तू यहां नौकरी नहीं करेगी, तो मैं भी नहीं करूँगा, दोनों यहां से साथ ही निकलेंगे।'
'पहले पूरी बात सुन लिया कर तब चिल्लाया कर, उन्होंने नौकरी से नहीं, मुझे मेरे कमरे से निकाला है। छोटी वाली ने आज शाम को ही कहा कि, ''ऐसा है तुम बासू के साथ ही रहती हो । उसी के साथ सोती हो, तो दोनों उसी कमरे में रहो। अपना वाला कमरा खाली कर दो। किसी और काम में आएगा।''
मैंने कहा, ''ठीक है।'' सच्ची बताऊँ,  मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। जरा भी दुख नहीं हुआ। मैं जानती थी कि, जिस तरह हमने काम-धंधा शुरू किया, तुम जिस तरह से बहस किये हो तो कुछ ना कुछ तो होगा ही। मगर मुझे घर से निकाल देंगी ये नहीं सोचा था।'
तुम्हारी बात सुन कर मैं दांत पीसते हुए बोला, ''इस छोटकी की तो...।''  मैंने उसे कई भद्दी-भद्दी गालियां दीं, तुमसे कहा कि, ''तूने कहा नहीं कि, तू मेरे कमरे मैं कैसे रहेगी?''
'कहा था। लेकिन वो बोली, ''तुम दोनों एक कपल्स की तरह एक जगह रहते हो, सोते हो, तो एक ही कमरे में रहो। दो जगह रहने कर क्या मतलब? उतने स्पेस का कुछ और यूज होगा।'' मैंने सोचा कहूं कि, एक सर्वेंट रूम का, सर्वेंट रखने के अलावा और क्या यूज होगा। लेकिन चुप रही कि, गुस्से में कहीं हमको यहां से भी ना निकाल दे। मैं समझ ही नहीं पा रही हूँ कि क्या करूं।'
'कोई बात नहीं तू यहीं रह। उन्होंने हमें पति-पत्नी मान लिया है तो अच्छा ही है। लेकिन ये बता, हम-दोनों की सारी बातें उनको कैसे मालूम हो गईं? यहां तो तुम तभी आई या मैं तुम्हारे कमरे में तभी पहुंचा, जब यह दोनों रात में सो जाती थीं। सवेरे इनके उठने से पहले हम-दोनों अपनी-अपनी जगह होते हैं ।'
'क्या बताऊँ। ये छोटकी रमानी हर चीज पर बड़ी नजर रखती है। हम-दोनों को ही नौकरी पर रखने, हमारी ड्रेस बदलने का काम इसी ने किया। नाम भी इसी ने बदला। पार्टी से एक दिन पहले इसने मुझे बुला कर, बदन उघाड़ साड़ी पहनवाई, और  एक नज़र देखने के बाद कहा ,''यू डू नॉट सीन टू बी ए मैड इन ए सारी।''
उसकी अंग्रेजी ठीक से नहीं समझ पाई तो, मैंने कह दिया मैं समझ नहीं पाई तो वह बोली, ''ओह, मतलब कि, तुम साड़ी में नौकरानी लगती ही नहीं।'' उसकी इस बात पर मैं मुस्कुरा कर रह गई। आंचल से अपना नीचे तक खुला पेट छिपाने लगी। तो उसने तुरंत मेरा हाथ पकड़ कर आंचल को पीछे की ओर खुला छोड़ते हुए कहा, ''साड़ी पहनने का एक तरीका होता है। उसे पट्टी की तरह लपेटा नहीं जाता।''
यह कहते हुए उसने सामने से पकड़ कर साड़ी को और नीचे खींच दिया। फिर नाभि पर दो बार पट-पट मारते हुए कहा, ''इसे खुला ही रखना है, समझी। इतने बच्चे पैदा कर दिये, फिर भी खूबसूरत है। छिपाने की जरूरत नहीं। नहीं तो लोग लेबर समझ लेंगे। मेहमानों के सामने रमानी फैमिली की नाक नहीं कटा देना समझी।'' फिर दुनिया-भर की और बकवास की। आगे कहा, ''लेकिन तुम्हारी ड्रेस से तुम्हारा नाम मैच नहीं कर रहा।'' कुछ देर सोच कर बोली ''समीना...समीना नहीं, इस नाम का ‘ना’ हटा दो। समी... हूं...'सैमी' कर दो। अब से हम तुमको हमेशा 'सैमी' कहेंगे।''
मैं भीतर-भीतर गुस्सा होती हुई बोली, 'नाम ना बदलिए। मुझे यही अच्छा लगता है। मुझे अम्मी ने यह नाम दिया था।' तो बोली, ''मैंने नाम नहीं बदला है। समीना में से ''ना'' हटाया है तो स पर ''ऐ'' जोड़ दिया है। तो अब समीना से सैमी हो गया बस। तुम्हारी अम्मी का दिया नाम तो बना ही है।'' मेरी सारी कोशिश बेकार गई। समीना से सैमी बनाकर ही छोड़ा।'
उस समय ऊपर वाले से माफी मांगते हुए मैंने खूब शिकायत की, कि हम गरीबों को इतना बदनसीब क्यों बना देते हो कि, तुम्हारे बंदे ही हम पर ज़ुल्म करते हैं। हमें इतना गुलाम क्यों बना देते हो कि, हम अपने नाम तक की हिफाजत नहीं कर पाते। हमारे अब्बू-अम्मी का दिया नाम भी हमारा नहीं रह पाता। ये अमीरजादे जो कहते हैं, मानना पड़ता है। हमारा तो कोई वजूद ही नहीं है।'
समीना मैंने देखा कि तुम बात करते हुए बहुत टूटती जा रही थी। मैं भी बहुत हताश हो रहा था। हम एक-दूसरे का कंधा बनते जा रहे थे। मैंने देखा तुम उस समय कमरे से निकाले जाने से ज्यादा, नाम बदले जाने से दुखी हो, तो तुम्हें समझाते हुए कहा,'तुमसे तो इतनी बात कहकर नाम बदला। मुझसे तो सीधे कहा, '' विशे.. विशेश्वर तुम्हारा नाम बहुत टिपिकल है। हम इतने दिनों बाद भी ठीक से नहीं ले पा रहे हैं, तो आने वाले गेस्ट कहां से ले पाएंगे। हम सभी अब तुम्हें बासू कहेंगे। ठीक है, जाओ।''
मुझे तो एक शब्द बोलने का भी मौका नहीं दिया। ये रमानी नहीं कमीनी बहनें है। पहले वाले साहब और उनकी सुन्दर हिडिम्बा तो सीधे मारते थे। ये दोनों तो सीधे भी मारती हैं, गुड़ में भी जहर देती हैं। उसी दिन से बासू, सैमी, बासू, सैमी चिल्ला रही हैं। यही हाल रहा तो कुछ दिन में हम-लोग अपना असली नाम ही भूल जाएंगे। यही भूल जाएंगे कि, हम-लोग कौन हैं? कहां के हैं? पता नहीं आगे क्या करेंगी।'
'सुन, ज़्यादा खोपड़ी पर मूतेंगी ना, तो वो हाल कर दूंगी कि ज़िंदगी जेल में ही बीतेगी।'
'चल बस कर, पहले भी तूने बड़ी-बड़ी बातें कही थीं, कि ये दोनों तेरी बात मना ही नहीं कर सकतीं। तूने बड़े राज दबा रखे हैं। जब राज को ऊपर लाने की जरूरत पड़ी तो डर गई, कि ये हो जाएगा, वो जाएगा। अब कौन सा तोप मार दोगी ? बताओगी।'
'देख जब सांस लेना मुश्किल हो जाएगा, पानी नाक से भी ऊपर हो जाएगा तो सीधे थाने पहुंचूंगी। साफ कहूंगी कि ये दोनों अपना काम कराने के लिए गैर मर्दों के सामने मुझे डाल देती हैं। मेरा शोषण कराती हैं। ये भी कहूँगी कि जब मन होता है, तब ये दोनों खुद भी मुझे  शराब पिलाकर, मेरा शारीरिक शोषण करती हैं। तेरा भी नाम लूंगी।'
'क्या..क्या, मैंने कब तेरा शोषण किया? क्या बके जा रही है तू।'
'बीच में कूदेगा तो यही होगा। मैं कहूँगी, कि तेरा भी मेरी तरह शोषण किया जा रहा है। तू मेरी और मैं तेरी गवाही दूंगी। इस तरह इनकी कंपनियों पर ताला ना लटकवा दिया, तो सैमी मेरा...अरे समीना मेरा नाम नहीं। ये सैमी-सैमी कह कर, सही में हमारा वजूद खतम किये दे रही हैं।'
'तो कल सवेरे ही इन दोनों से कहा जाए, कि हमारा सारा पैसा दो, नहीं तो हम सीधे थाने जा रहे हैं, और फिर यहां से निकल कर सीधे थाने पहुंचते हैं। बोल चलेगी कल ?'
'नहीं।'
तुम्हारे नहीं कहते ही मैं गुस्से में बोला, 'चल हट, तुझसे कुछ नहीं होगा। तेरे साथ मैं भी पड़ा रहूंगा। हम-दोनों जिंदगी में जो कर सकते थे, वह कर चुके। अब जो ज़िंदगी बची है, उसमें  ऐसे ही अपना नाम, अस्तित्व खोने, जब-तक शरीर चले तब-तक गुलामी करने, और जब ना चले, तब एड़िया घिस-घिसकर मरना है, समझी। इसलिए अब से यह सब कहना-सुनना बंद। गुलामी जितनी कर सकते हैं, वही करें बस। अब चल उठ , तेरे कमरे का सामान यहां ले आएं। नहीं तो कमीनी बहनें निकाल देंगी।'
यह कहते हुए मैं  खड़ा हो गया। लेकिन तुमने फिर हाथ पकड़ कर बैठा लिया और बोली, ' सुनो, इतनी जल्दी गुस्सा ना हुआ करो। पहले ठंडे दिमाग से बात को समझो। तुम मर्द हो , थाने पर तुम्हें वो खतरा नहीं है,जो औरत के नाते मुझको है। हालाँकि मेरी इज्जत तो यहां भी नहीं बची। औरतों ने ही औरत को लूटवाया। मगर यहां मलाल इसलिए ज़्यादा नहीं है क्योंकि मैं खुद भी उसी रास्ते पर चल कर अपना कुछ भला कर लेना चाहती थी।
लेकिन थाने पर पहले पुलिस वाले जी भर लूटेंगे, फिर बात आगे बढ़ेगी। तब-तक थाने पर ये कमीनी बहनें गड्डी तौल देंगी। सब-कुछ इनके मनमाफिक हो जाएगा। हम कहीं के नहीं रहेंगे । मुझे डर है कि तब मैं तुमको भी खो बैठूंगी। अब तू ही बता मैं गलत हूं कि सही। अगर मैं गलत हूं, तो तू जैसा कहेगा, मैं सब-कुछ आंख मूंदकर वैसा ही करूंगी।'
तुम्हारी बात मुझे सही लगी। थाने में  उस महिला का हाल देख ही चुका था।अचानक ही उसकी याद आ गई, सोचा पता नहीं बेचारी ज़िंदा बची थी या नहीं। खुद पर पड़ी मार भी भूला नहीं था। दिमाग में यह सारी बातें आते ही मैं कुछ बोल नहीं पाया। बात को बदलने के लिए कहा, 'चल अच्छा सामान ले आएं। जैसा कह रही है, वैसा ही कर।'
'सामान सवेरे ले आएंगे, बहुत रात हो गई है। चल सो।'
अगले दिन सवेरे जब मैं पांच बजे सोकर उठा, तो देखा तुम पहले ही अपना सारा सामान ला चुकी थी। 
मैंने तुमसे कहा, 'अरे ये क्या बात हुई, मैंने तो कहा ही था कि साथ ले आएंगे। काहे को अकेले परेशान हुई। कब उठी बताया भी नहीं।'
'सामान है ही कितना, जो बेवजह तेरी नींद खराब करती। चार बजे नींद खुली, सोचा काम-धाम में लगने से पहले सामान ही उठा लाऊँ, नहीं तो फिर दिन-भर फुर्सत नहीं मिलेगी। एक बार तुझे जगाने की सोची, लेकिन बेखबर सोता देखकर सोचा, जाने दो, अकेले ही ले आती हूं। थोड़ी देर पहले ही आकर बैठी हूं। सोचा इन बहनों का मुंह देखने से पहले थोड़ा आराम कर लूं।'
'ठीक है। करती तो तू अपने मन की ही है।'
इस दिन के बाद फिर कभी हम-दोनों के बीच कोई कारोबार करने, रमानी हाऊस को छोड़ने आदि को लेकर कोई बात नहीं हुई। असल में हम-दोनों बरसों से समय की चोट खा-खा कर टूट चुके थे। इसलिए कोई भी बड़ा कदम उठाने से पहले असफलता,मुश्किलों को लेकर भीतर समाये डर को खत्म नहीं कर पाते थे, और इस डर से बच निकलने का कारण ढूंढ लेते थे। 
इसी सोच के चलते अब हम-दोनों रमानी बहनों की और भी ज्यादा सेवा करने लगे थे। उनको कुछ बताए बिना ट्रक भी बेच दिया। उससे जो रकम मिली वह उन लोगों को दे दी, जिनसे माल ले-ले कर रमानी फैक्ट्री में दिया था। इसके बाद भी कुछ बकाया रह गया था। लेनदारों का जब ज़्यादा दबाव पड़ा, तो फिर रमानी बहनों के हाथ जोड़े, कहा पगार से काटती रहना, तब उन्होंने काम भर का पैसा दिया।
ऐसा हम-दोनों ने इसलिए कहा, क्योंकि हम जानते थे, कि अगर यह कहेंगे कि हमारे माल का भुगतान कर दें तो निश्चित ही एक पैसा नहीं देंगी।
हम-दोनों ने कलेजे पर पत्थर रख कर संतोष कर लिया कि, हमारे तब-तक के जीवन की सारी कमाई डूब गई। कहीं गिर गई। हालांकि तुम उस बात को लेकर बहुत दिनों तक रोई थी। तब मैं तुम्हें समझाता था। तुम्हारी हालत देखकर मुझे बहुत कष्ट होता। मैं अपनी पगार से हर बार तुम्हें आधा पैसा देने लगा। आगे  कुछ महीने बाद ही एक ज्वाइंट एकाउंट खुलवा लिया गया। उसी में दोनों आधी से ज़्यादा पगार जमा करने लगे। मैं कहता सैमी, असल में रमानी बहनों द्वारा हमें बासू-सैमी ही कहने के कारण हमें भी इन्हीं नामों की आदत पड़ गई थी। हम आपस में भी इन्हीं नामों से एक-दूसरे को बुलाते थे।

जैसे-जैसे पैसा जमा होने लगा,मेरे दिमाग में योजनाएं फिर कुलबुलाने लगीं। जब पैसा जमा कर मैं कहता, 'सैमी सुन, जब ज़्यादा पैसा जमा हो जाएगा, तो अब की रमानी बहनों को बिना बताए ही कुछ धंधा करूंगा। मैं उस भले मानुष  होटल वाले का जिक्र करते हुए कहता कि, उन्हीं से होटल के धंधे के बारे में पता कर, वही करूंगा।' 
यह सुनते ही तुम कहती 'छोड़ न,अब कुछ काम-धंधा करने की बात न किया कर।'
मैं बात दोहराता तो तुम बिदकती हुई कहती, 'तेरा दिमाग फिरा का फिरा रहेगा। अरे ये पैसे वाले सब एक जैसे होते हैं। वो भी बड़ा कारोबारी है। तू इतना नहीं समझता कि, जब तू उसी के जैसा धंधा करने को कहेगा, तो वो ये नहीं सोचेगा कि, ये तो मेरी ही दुकान बंद कराने आ गया। फिर जैसे इन बहनों ने फंसाकर नचाया ना, वो भी ऐसे ही कहीं फंसा देगा।'
'अरे, मैं उसकी दुकान के पास अपनी दुकान थोड़ी न खोलूंगा। उसे पहले ही बता दूंगा कि, मैं अपना धंधा किसी दूसरे इलाके में खोलूंगा।'
मैं तुमसे जब जोर देकर कहता कि, उसने चलते समय कहा था कि, ''जब कहीं बात ना बनें तो निःसंकोच चले आना।'' इस पर तुम मुंह सिकोड़ कर, 'हूंअअ' कह कर रह जाती। 
मगर अपना धंधा फिर शुरू करने का मुझ पर जुनून सवार हो चुका था। इसके चलते मैं कहने भर को ही कुछ पैसा खर्च करता। बाकी सब जमा कर देता। कपड़े तक न खरीदता, रमानी बहनें जो ड्रेस देतीं उन्हीं से काम चलाता। तुम तो रमानी बहनों से पहले की ही तरह और कपड़े फिर झटकने लगी थी। फिर भी मैं तुम्हारे मन का कुछ भी लेने में संकोच नहीं करता था,क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि, मेरे कारण तुम अपनी इच्छाओं को मारो।
इस बीच देखते-देखते मैं रमानी बहनों का शैडो, ड्राइवर, रमानी हाउस संभालने वाला आदि सब-कुछ बन गया। तुमको भी संभालने वाला,क्योंकि तब-तक तुम भी बड़ी तेज़ी से हर काम के लिए मुझ पर ही निर्भर होती चली जा रही थी। लेकिन इन सब के बीच हम-दोनों इस बात से अनजान थे कि, रमानी बहनें कई नए गुल खिलाने की तैयारी में लगी हैं।  
उनकी नई फैक्ट्री सहित, बाकी फैक्ट्रियां भी धुंआधार चल निकलीं थीं। भाई ने भी अमेरिका से आना-जाना शुरू कर दिया था। उसी के जरिए माल एक्सपोर्ट भी होने लगा था। इसी के साथ हम-दोनों  के काम का बोझ भी बढ़ता जा रहा था। काम के हिसाब से तो नहीं, हां फिर भी, हमारी पगार भी बढ़ रही थी। इतना ही नहीं हम-दोनों मिलकर, किसी न किसी बहाने दोनों से, हर महीने इतना पैसा झटक लेते थे, जो हमारे पगार के बराबर होता था। शुरू में हम डरते थे, लेकिन बाद में रमानी बहनों द्वारा मिले धोखे का बदला लेने के लिए यही करते रहे।
जब भी हम पैसा झटक पाते, तो हमें ऐसा संतोष होता, जैसे हमने रमानी बहनों से अपना कुछ पैसा वापस ले लिया। यह और पगार को मिलाकर जल्दी ही हम-दोनों ने इतना पैसा इकट्ठा कर लिया, जितने की चोट हमें इन बहनों ने दी थी। जिस रोज हम-दोनों ने जोड़-जाड़ कर यह जाना था, उस दिन खुशी के मारे हम-दोनों एकदम पागल हुए जा रहे थे। हम ऐसा महसूस कर रहे थे, जैसे कि हमने अपने काम-धंधे से अपना पहला बहुत बड़ा मुनाफा कमा लिया है।
मैंने तभी गणपति बप्पा सिद्धि विनायक को मन ही मन प्रणाम किया और यह प्रार्थना की कि, हे भगवान! हमें ऐसा मौका दें, कि हम तुम्हारे चरणों में आकर प्रसाद चढ़ा सकें। मैंने यह बात तुमसे कही, तो तुम खुश होकर बोली, 'सच रे तू सही कह रहा है। हमें गणपति बप्पा के पास चलना चाहिए। उन्होंने हमें हमारा पैसा वापस दिया। हमारी हालत कितनी अच्छी हो गई है। ये हीरो-सीरो भी, उनकी कितनी पूजा करते हैं। उनकी मूर्ति घर में स्थापित करते हैं। ये रमानी बहनें तो आए दिन वहां जाती हैं। जब-तब देवी मुम्बा आई के मंदिर भी जाती रहती हैं। देख ना, कैसे दिन-दूना, रात-चौगुना बढ़ी जा रही हैं।'
जब तुम बड़ी खुशी-खुशी अपनी बात कह रही थी, तभी मेरे दिमाग में एक डर भी पैदा हुआ जा रहा था, तुम्हारे चुप होते ही मैंने कहा, 'लेकिन सैमी मेरे मन में वहां जाने को लेकर एक डर, एक संकोच भी पैदा हो रहा है।'
यह सुनते ही तुम आश्चर्य से बोली, 'डर! गणपति बप्पा,देवी मुम्बा आई के मंदिर जाने में कैसा डर, कैसा संकोच, तुम्हें क्या हो गया है ?'
'सैमी, मन में डर यह है कि, हम जिस बात की खुशी पर भगवान के पास जाना चाह रहे हैं कि, हमने अपना ठगा गया पैसा वापस पा लिया है, वह तो हम-दोनों ने भी एक तरह से ठगे ही हैं। ज़्यादातर झूठ बोल कर ही लिए गए हैं। यह गलत है, और भगवान तो गलत काम के लिए सजा ही देते हैं। गलत करने वाले को कभी बर्दाश्त नहीं करते। कहीं वह हम-दोनों को भी, हमारे पाप के लिए सजा ना दे दें । यही डर है मन में।'
मेरे इस असमंजस से तुम खीझती हुई बोली, 'तेरे मगज में भी कब क्या भर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। अरे आदमी तो गलती करता ही रहता है। तभी तो बार-बार भगवान के पास जाकर माफी मांगता रहता है, और भगवान इतने दयालु हैं  कि, उसे माफ करते रहते हैं। उसे गलतियों को समझने, सुधारने के लिए अकल देते रहते हैं । बार-बार उसे ठोकर भी देते रहते हैं कि गलतियों से तौबा कर ले। लेकिन जब वह नहीं मानता, तब भगवान उसे ऐसी ठोकर देते हैं कि फिर वह कभी भी संभल नहीं पाता।
सुन, अपने साथ हो रहे अन्याय को सहना भी उतना ही बड़ा अन्याय करने जैसा पाप होता है। यह तो मैंने महाभारत सीरियल में देखा-सुना था। मैं तो समझती हूं कि, हम-दोनों ने जो भी किया, वह उन दोनों बहनों ने हमारे साथ जो जुल्म किया, उसी का हमने जवाब भर दिया है बस। तेरा तो कुछ समझ में ही नहीं आता कि, कब क्या करेगा, क्या नहीं करेगा। छोड़ जाने दे, ज़्यादा माथा-पच्ची ना कर। जब मन हो तब चले चलना।'
इतना कह कर तुम मटकती हुई चली गई। तुम्हें कुछ काम याद आ गया था। तुम्हारी एक ख़ास आदत थी कि, जब कोई बात तुम्हारे मन की नहीं होती थी, तब तुम अपनी बात कह कर पैर पटकती हुई फट से चल देती थी। उस समय भी तुमने यही किया। ऐसे में तुम्हारे भारी कूल्हे बड़ी तेज़ी से बल खाते थे। जब से तुमने साड़ी बांधनी शुरू की थी, तब से वो मुझे  कुछ ज़्यादा ही बल खाते दीखते थे। 
उस समय भी जब-तक तुम दिखती रही,तब-तक मैं तुम्हें देखता रहा। तुम पर बड़ा प्यार आ रहा था। तुम जब भी तुनक कर सामने से ऐसे जाती थी, तो कितना भी भूला रहूं, मुझे छब्बी की याद आ ही जाती थी। वह भी जब गुस्सा होती थी, तो तुम्हारी ही तरह पैर पटकती हुई जल्दी-जल्दी चलती थी।
छब्बी के साथ ही उसकी कही एक बात भी लगी चली आई ,जिसने मुझे अपने घर बड़वापुर से जोड़ दिया,बड़ी तेज़ याद आ गई वहां की। इतनी कि, जी किया भगवान हनुमान जी की तरह पलक झपकते उड़ कर पहुँच जाऊं वहाँ। बहुत दिन बाद ऐसी याद आई थी। पूरा बड़वापुर, जंगीगंज, गोपीगंज, ज्ञानपुर सब एकदम आंखों के सामने नाचने लगे।
ज्ञानपुर के पुरानी बाज़ार का पोखरा ,उसके बगल में स्थित भगवान हरिहर नाथ मंदिर, वहां स्थापित बाबा भैरवनाथ से लेकर भगवान गणेश तक। कॉलेज में हमको हिंदी साहित्य पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर साहब जब कोर्स के अलावा बात करते तो ज्ञानपुर का इतिहास भी बताते, कहते ''यह बड़ा पवित्र ,प्राचीन स्थान है। यहाँ शिवलिंग की स्थापना तो द्वापर युग में जब धर्मराज युधिष्ठिर आये, तो उन्होंने की थी।'' 
मुझे लगा जैसे गणपति बप्पा ने मुझे वहीं ले जा कर खड़ा कर दिया, कि जहां अपराध किया ,क्षमा-याचना भी वहीं करो। मैं अचानक ही बड़ा भावुक होने लगा। ज्ञानपुर क्या पूरे भदोही की ही पिक्चर आंखों के सामने चलने लगी। ''चकवा महावीर मंदिर'' पर हर साल लगने वाला मेला और वहां अपने साथ घटी एक घटना याद आई। 
हुआ क्या था कि एक बार तमाम दोस्तों के साथ मेला गया था। ''चकवा महावीर यानी'', हनुमान जी के दर्शन किए, प्रसाद चढ़ाया, फिर घंटों मेला घूमने के बाद दोस्तों के साथ ही साइकिल से घर वापस आ रहा था। सात-आठ साइकिलों पर कई दोस्त थे। आपस में तेज़-तेज़ बतियाते मस्ती करते सब चले आ रहे थे। हम-सब आधी सड़क घेरे चल रहे थे। पीछे से आने वाली गाड़ियों को रास्ता नहीं दे रहे थे।
जब वो हॉर्न दे-देकर एकदम सिर पर आ जाते, तभी हम उन्हें रास्ता देते। ऐसे ही एक ट्रक वाला बड़ी देर से रास्ता मांग रहा था, और हम-सब शरारत में किनारे नहीं हट रहे थे, तो उसने अचानक ही ट्रक की गति एक-दम तेज़ कर दी। जब-तक हम कुछ समझते वह चार-पांच साइकिलों में ठोकर मारता हुआ आगे निकल गया। 
सभी सड़क किनारे जिस गढ्ढे में गिरे, उसमें पानी था, जलकुंभियां थीं, जो हम गिरने वालों के लिए स्पंज जैसी बन गईं। हम कीचड़-मिट्टी में नहा तो गए लेकिन चोट किसी को नहीं आई। इतना ही नहीं, ट्रक वाले को भी ना जाने क्या हुआ कि, कुछ ही मीटर आगे जा कर वह भी किनारे गढ्ढे में पलट गया। वहां लोगों का मजमा लग गया। टक्कर मारने वाला ड्राइवर, क्लीनर दोनों ही पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिए गए। आश्चर्य तो यह कि, उन दोनों को भी खरोंच तक नहीं आई थी।
जब-तक मैं घर पहुंचा तब-तक अम्मा का रो-रो कर बुरा हाल हो गया था। उनको सूचना पहले ही मिल चुकी थी। छोटी जगहों में यही होता है,कि कोई घटना हुई नहीं कि आदमी से पहले घटना की सूचना पहुँच जाती है। अगले दिन अम्मा हमें लेकर परिवार सहित बाबा हरिहरनाथ और चकवा महावीर मंदिर प्रसाद चढ़ाने गईं, कि भगवान ने हमारे प्राणों की रक्षा की।
समीना जब आदमी बीते दिनों में खोता है,तो वह किन-किन यादों में खो जाए, क्या-क्या सोचने लगे, इसकी कोई सीमा नहीं होती। मैं भी इन्हीं सारी यादों में खोया सोचने लगा कि, यदि सब ठीक-ठाक रहा तो तुमको लेकर इन जगहों पर एक बार जाऊँगा जरूर। और घर भी। हो सकता है भाई-भाभी सब माफ कर दें, अपना ले हमें।
मैं अपने सपनों की दुनिया में खोया ही था, कि तभी तुम अचानक ही आ धमकी। आते ही मेरे कंधे पर हाथ मारती हुई बोली, 'अरे तू अभी तक यहीं बैठा है, चल काम कर। तू कभी तय नहीं कर पाएगा कि जाना है कि नहीं। मैं ही कभी तेरे को ले चलूंगी।'
'तुम्हारी बात पर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, 'तुझे ताना मारने के अलावा भी कुछ आता है क्या? जब देखो काम-काम, मेरे बिना कोई काम भी नहीं कर सकती ? जब देखो सिर पर सवार हो जाती है। चल बता क्या है?' 
तुमने ने जो-जो काम बताए, उनमें से ज़्यादातर मैं कर ही चुका था। थोड़े बहुत रह गए थे, उन्हीं के लिए तुम अफना रही थी। 
मेरे गुस्सा दिखाने पर तुम बोली, 'चल ज़्यादा भाव मत खा। छोटकी का फ़ोन आ गया है। थोड़ी देर में दोनों आ रही हैं। फ़ोन पर ही चटक रही थीं, कि सारी तैयारियां हो गईं कि नहीं? गेस्ट कुछ ही देर में पहुंच जाएंगे।'
तुम इस बात को मुंह टेढ़ा कर, जुबान ऐंठती हुई बोली थी। तुम रमानी बहनों पर अपना गुस्सा ऐसे ही उतारती थी। असल में उस दिन हर महीने में एक-दो बार होने वाली रमानी बहनों की वह ख़ास पार्टी थी जिसमें मुश्किल से दस-बारह लोग होते थे, और रात भर खाना-पीना, अय्याशी यही सब चलता था। 
दोनों बहनें जिस बेहयाई-बेशर्मी के साथ अपने मेहमानों के साथ ऐश करती थीं, हम भी उसी बेहयाई-बेशर्मी के साथ पार्टी में शामिल होते थे। पार्टी में हर अय्याशी का  हम-दोनों अनिवार्य हिस्सा होते थे। उस रात हम-दोनों कमाई भी खूब करते थे।
पिछली कई बार के तरह तुमने उस दिन फिर कोशिश की, कि रमानी बहनें मुझे अपनी हवस का शिकार जरूर बनाएं। तुम्हारी कोशिश उस दिन भी सफल हुई। उस दिन तुम हमेशा होशियार रहने वाली छोटी बहन को भी ज़्यादा नशा कराने में कामयाब हो गई थी। तुमने  ऐसा किया, कि दोनों बहनें मुझसे हवस मिटा कर बेसुध बिस्तर पर पसर गईं। हम-दोनों अपने उद्देश्य में कामयाब तो हो गए थे, लेकिन पार्टी के अरेंजमेंट से जो अच्छी-खासी कमाई हुई थी, वह सारी की सारी कहीं गिर गई। 
आखिर हम भी तो नशे में ही होते थे। भले ही बाकियों से कम। असल में हम-दोनों दोहरे नशे में होते थे। रईशजादों की चमक-दमक भरी पार्टी का हिस्सा बनने से हम-दोनों एक अलग ही तरह के नशे में चूर होते थे। उस समय हम-दोनों खुद को नौकर नहीं उन रईशजादों ही की तरह होने का अहसास करते थे। 
उस दिन पैसा खोना ही नहीं बल्कि एक और भी कष्टदायी बात हुई थी। पार्टी में रात-भर तुम जिस रईशजादे के साथ थी, उस कमीने जानवर ने तुम्हें बुरी तरह यातना दी थी। तुम्हें दो जगह गहरी चोट आ गई थी, जिससे  दो-तीन दिन चलने में भी परेशानी हुई थी। होंठ, आंख की सूजन खत्म होने में भी तीन-चार दिन लग गए थे। कमीना रात-भर तुमसे यही कहता रहा कि, ''तुम ऐक्ट्रेस बिपाशा से भी ज्यादा सेक्सी और सुन्दर हो,तुम मेरे साथ चलो ,मेरी मिसेज बनकर हाई-फाई लाइफ एन्जॉय करो, अपने इस इन्क्रेडिबल सेक्सी असेट को कैस करो...और सुबह ऐसे देखा जैसे तुमसे कभी मिला ही नहीं ।  
पार्टी के अगले दिन पहले ही की तरह हमने सोचा था कि रमानी बहनें रात मेरे साथ मिलने के बाद, मुझसे थोड़ा संकोच या दबकर रहेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। होशो-हवाश कायम होते ही दोनों पहले ही की तरह पेश आईं। हमें हमारे दासत्व का अहसास कराती हुई ही नजर आईं।
रंच-मात्र को भी यह नहीं लगा कि दोनों उस आदमी के सामने हैं,उससे बात कर रही हैं, जिसके साथ रात में दोनों ने पूरी निर्लज्जता के साथ अपनी हवस मिटाई थी। हम-दोनों का वह उद्देश्य फिर रमानी बहनों की निर्लज्जता में बह गया जिसे ध्यान में रखकर तुम योजना बनाती और पूरी कोशिश करती थी, कि वो दोनों मुझे अपनी हवस का शिकार बनाएं, जिससे बाद में जब वो हम-दोनों के सामने पड़ें तो पानी-पानी हो जाएं। और हम अपना काम निकाल सकें। अपनी योजना के बार-बार असफल होने से हम परेशान हो ही रहे थे, कि बहनों की निर्लज्जता से एक और समस्या आ खड़ी हुई। अब मैं इन बहनों की हवस का शिकार पार्टी वाली रात केअलावा भी महीने में पांच-छह बार होने लगा। 
मगर इन सबके बावजूद भी, हम-दोनों ही आपस में इन बहनों की इस बात के लिए बराबर तारीफ करते, कि दोनों चाहे जो भी हों, सुबह से लेकर आधी रात तक पंद्रह-सोलह घंटे भूतों की तरह काम करती हैं। अपना काम करने में कहने भर को भी लापरवाही, आलस्य नहीं करतीं। उनकी इस खूबी की हम सिर्फ़ बात ही नहीं करते थे, बल्कि उनकी ही तरह काम करने का पूरा प्रयास भी करते थे। मगर हमारी मेहनत का फायदा सीधे हमारी मालकिनों को मिलता, हमें तो पगार के अलावा थोड़ा बहुत और मिल जाता था बस। जो वास्तव में मालकिनों की दया होती थी। 
हां हमारी मेहनत ने इतना जरूर कर दिया था, कि दोनों बहनें रमानी हाऊस की, हम-दोनों के बिना कल्पना भी नहीं कर पाती थीं। और हां, इन सब के साथ ही पैसों पर हमारी हाथ की सफाई भी चलती रही। यह काम हम अपने कामों में शामिल एक और काम की तरह ही करते जा रहे थे।
एक दिन अचानक ही तुमने बताया कि इन बहनों का भाई अमेरिका से अपने परिवार के साथ आ रहा है। उसके स्वागत के लिए अगले ही दिन से तैयारियां शुरू हो गईं। मैं आश्चर्य में था। तुम मुझसे ज़्यादा उस लड़के को जानती थी ,क्योंकि मुझसे पहले से थी वहां। तुमने वह सब देखा था कि कैसे इस लड़के ने धोखे से अपने बाप की पीठ में छूरा भोंक कर उनका व्यवसाय हड़प लिया था।
बेटे से मिले इस आघात से वो ज्यादा दिन अपना जीवन तो नहीं बचा पाए थे, लेकिन अपने बचे-खुचे बिजनेस को इन दोनों बेटियों के सहारे ही दुबारा खड़ा कर दिया था। इन बहनों ने अपने फादर के लिए, अपने लिए जो किया वो बेमिसाल है। मुझे आश्चर्य इस बात का था कि, ये बहनें जो पहले इस भाई को एक सेकेंड भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं, आज उसी भाई के लिए पालक-पांवड़े बिछाए बैठी हैं। 
उसके स्वागत के लिए हम-दोनों को क्या-क्या नसीहतें नहीं दीं गईं। और जब आया तो इन बहनों ने उसे सिर-आंखों पर बैठाया। उसके साथ उसकी अमरीकन पत्नी भी थी। सब पंद्रह दिन रूके रहे। हमने यह समझा कि वह घूमने आया है। लेकिन नहीं वह बिजनेस के लिए आया था। बहनों ने भाई के साथ मिलकर बिजनेस को नए रास्ते पर डाला। भाई के जाने के बाद एक परिवर्तन और हुआ कि, हम-दोनों को बहनें आपसी बातचीत भी अंग्रेजी में ही करने को कहतीं ,बराबर बतातीं,समझाती भी रहतीं। 
अमेरिका वापस जाने के बाद भाई रमानी बहनों की फैक्ट्री का माल और बड़े पैमाने पर मंगाने लगा। मैं और तुम यह नहीं समझ पा रहे थे कि, यह बहनें हम-दोनों के अलावा और पढ़े-लिखे बंदे क्यों नहीं रख रहीं।
भाई देखने, बात करने में रमानी बहनों सा ही चालाक था। जितने दिन रहा, काम में वह भी भूतों सा ही जुटा रहा। उसकी अमरीकन पत्नी को, शुरू में तो हम यही नहीं जान पाए कि ये उसकी कर्मचारी है या दोस्त। बिजनेस पार्टनर है,लाइफ पार्टनर है या क्या है? जब वह दोनों हंसते-बोलते तो लगता जैसे दोनों के बीच बहुत करीबी रिश्ता है। लेकिन काम के समय कभी भाई बॉस लगता तो कभी उसकी पत्नी । जिसका पूरा नाम इमेल्डा ब्राउन रमानी था। भाई उसे इमेल्डा ही पुकारता था।
उसके दो बेटे, एक बेटी थी। तीनों के नाम नील, जय, शुभांसी रमानी था। उसकी पत्नी परियों सी खूबसूरत थी। तीन बच्चों की मां थी, लेकिन देखकर लगता जैसे किसी सीनियर क्लास की स्टूडेंट है। भाई, उसके पूरे परिवार ने भारतीयता से पूरी तरह छुट्टी ले ली थी। खाना-पीना, कपड़ा, रहना-सहना सब कुछ एकदम अमरीकन। उसकी पत्नी को छोटे-छोटे तंग कपड़ों में देखकर मैं बड़ा नर्वस हो जाता था। दैवयोग से उसे कहीं भी ले जाने,ले आने की ड्यूटी हमारी तुम्हारी ही थी।
मुझे बड़ी घबराहट होती थी, कि ये कहीं मेरे किसी काम, मेरी किसी बात का बुरा न मान जाएँ, जिससे मुझे लेने के देने पड़ जाए। घबराहट इसलिए भी ज़्यादा होती थी, क्योंकि उसके खुले बदन को न देखने की मैं लाख कोशिश करता, लेकिन मेरी नजर पड़ ही जाती। फिसल ही जाती। मेरी यह हरकत तुम्हारी पकड़ में आ ही जाती थी। तुम्हारी नजर से मेरी एक भी हरकत नहीं छिप पा रही थी।
रात जब तुम बात करती तो मुझे आगाह जरूर करती। मैं इमेल्डा की तारीफ करता हुआ उसके किसी अंग का जिक्र कर देता तो तुम मुझ पर टूट पड़ती। बड़ा बिदकती हुई कहती, ' सुन, ख्वाब में भी तू उसके पैर की धूल भी नहीं छू सकता। देखने को तो और लोग भी उसे देख ही लेते हैं। वह इतनी नाज़ुक है, कि छूई-मूई(मिमोसा पुडिका) से भी चोट खा जाए, तूने कहीं भूल के भी अपने पत्थर से जिस्म से उसे छू भी लिया, तो वो यूं ही बिखर कर हवा हो जाएगी।
मेरी समझ में नहीं आता कि, तू विलेन-किंग बनने का भूखा है या फिर नई-नई औरतों का । मुझसे मिलने से पहले इतने दिनों तक छब्बी के साथ रहा ,उसके पहले कितनी औरतों को भोगा ,तू खुद ही बताता है कि, तुझे यह भी याद नहीं ,यहां रमानी बहनों जैसी अमीर ,खूबसूरत लड़कियों को इतने दिनों से भोग रहा है ,फिर भी तेरा पेट नहीं भरता औरतों से ,अब भरी दोपहरी हो या रात,सुबह हो या शाम ,घर हो या बाहर हर समय उस अमरीकन को भोगने का दीदा फाड़-फाड़ के सपना देखता रहता है। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मर्दों को औरतें खाली भोगने के लिए ही दिखतीं हैं । भोगते जाते हो,भोगते जाते हो, भोगते ही रहते हो, फिर भी तुम लोगों का पेट नहीं भरता, मन नहीं भरता ,आखिर किस मिट्टी के बने हो तुम लोग।'
तुम्हारी बातें एकदम सही थीं, इसी लिए मुझे कड़वी लगीं। मैंने तुम्हारी सच बातों को मानने के बजाये प्रतिकार करते हुए कहा, 
'उसी मिट्टी के, जिसकी तू बनी है , हाँ  तेरी अक्ल ज्यादा मोटी मिट्टी की बन गई है, इसीलिए मामूली सी बात भी समझ नहीं  पाती।'
'अच्छा! तू बड़ी पतली अकल  का है न ,तो चल समझा वो मामूली सी बात जो मेरी समझ में नहीं आ रही है। आज मैं समझ कर रहूंगी तेरी पतली अक्ल की सारी बातें।'
यह कहते हुए तुम एकदम अड़ कर बैठ गई मेरे सामने । बात टालने की मेरी सारी कोशिश बेकार हो गई तो मैं बोला, बोला क्या उन्हीं प्रोफ़ेसर साहब की बात दोहरा दी। जो उम्र में हम छात्रों  से चार-छह साल ही बड़े थे,और हम-लोगों से क्लास के बाहर दोस्तों की तरह मिलते,बोलते-बतियाते थे। हर तरह की बातें। 
लेकिन छात्रों को हद से बाहर होते देखते ही, उन्हें ठेल कर हद में करने में देर नहीं लगाते थे। उनकी बातों में इतनी ताक़त होती थी कि, तब हम उनसे नज़र मिलाने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे। अक्सर खाना-पीना भी साथ होता। एक बार बाग़ में हम दोस्तों ने हाड़ीं (मटकी) में मुर्गा बनाया। नॉन रोटी ,सलाद,चटनी,पापड़,नीबू होटल से ले आये। सब-कुछ खासतौर से प्रोफ़ेसर साहब के लिए किया गया था। 
उनके लिए अक्सर ऐसी पार्टी हम-लोग  करते रहते थे, जिससे वो एक्जाम में हमारा ध्यान रखें। उस दिन भी एक साथी उनको मोटरसाइकिल पर बैठा कर ले आया। आये तो मोटर-साइकिल से उतरते ही, सांवले बादलों से भरे आसमान की ओर सर ऊपर कर एक नज़र देख कर बोले ,''लगता है इस-बार मानसून समय से बरसना शुरू कर मौसम विभाग की लाज रख लेगा।' उनको लाने वाले साथी ने भी एक नज़र ऊपर देख उनके सुर में सुर मिलाया,''अबकी पक्का समझिये सर।'' 
बैठने का इंतजाम एक बहुत बड़े आम के पेड़ के नीचे किया गया था। वह एक कलमी आम का पेड़ था। बहुत घना,उसके कई मोटे तने मुख्य तने से लगे दूर तक चले गए थे। बाग़ में आम ,अमरुद ,कटहल ,पाकड़ ,जामुन ,शीशम के मिला कर करीब डेढ़ सौ पेड़ थे। छह बीघे से बड़ी उस बाग़ में आम्रपाली प्रजाति के पेड़ ज्यादा थे, जिनमें उस समय भी आम लदे हुए थे। 
दूर एक घने पाकड़ के पेड़ के नीचे पड़ी मड़ई के सामने एक बँसखटी चारपाई पर बाग़ का रखवाला लाठी लिए बैठा था। खाने में एक हिस्सा उसे भी मिलना था। खाना मिट्टी के बर्तन में पकाया और परोसा भी गया। यहाँ तक कि पानी भी कुल्हड़ में पिया गया। पानी भी मटके का था। हमने प्रयोग यह किया था कि एक साथी सुबह ही नया मटका लेकर वहां गया, और बाग़ के ट्यूब-वेल के ताज़े पानी से  मटके को भर कर ज़मीन में गाड़ दिया। 
जब छह घंटे बाद खाने के साथ पानी पीया गया तो उसमें एक ख़ास तरह की भीनी-भीनी सोंधी खुश्बू थी। खाने से लेकर पानी तक में मिट्टी की सोंधी खुश्बू ने प्रोफ़ेसर साहब को अभिभूत कर दिया था। खाने के बाद मुंह में बढियाँ मघई पान दबाते हुए बोले ,''बहुत स्वादिष्ट मुर्गा बनाया तुम लोगों ने,और उससे भी कहीं ज्यादा मन से खिलाया। ऐसे वातावरण में, ऐसे खाने का जैसा सुख महसूस कर रहा हूँ, ऐसा सुख न फाइव स्टार होटल में मिलेगा, न ही घर में।'' 
इतना कह कर कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अचानक ही पूछा ,''अच्छा क्या तुम लोग यह बता सकते हो कि जीवन का तीव्रतम सुख क्या है?'' 
उनके इस प्रश्न से हम सब के सर चकरा गए कि सुख तो सुख होता है ,ये तीव्रतम,मध्यम,न्यूनतम सुख क्या बला है? लेकिन उन्होंने हमारे सर ज्यादा देर नहीं चकराने दिए। स्वयं उत्तर देते हुए कहा ,''देखो जैसे अभी इस स्वादिष्ट खाने से मुझे एक तृप्ति मिली, उससे मैं एक ख़ास तरह के सुख की अनुभूति कर रहा हूँ ,लेकिन इस स्थिति तक पहुँचने में अच्छा-खासा समय व्यतीत हो गया। जब कि काम-क्रीड़ा की चरम परिणति तीव्रतम सुख है। कुछ ही क्षण में मिला वह सुख आदमी को कुछ पल के लिए ही सही समाधि की स्थिति में पहुंचा देता है।
एक बात और कि आदमी की भोजन और काम-वासना की भूख कभी समाप्त नहीं होती। आवश्यकता महसूस होने पर आदमी दोनों को मन भर प्राप्त कर, उस समय तृप्ति महसूस करता है। मगर कुछ समय बाद वह फिर प्रारम्भिक अवस्था में पहुँच जाता है। तो अगले हफ्ते फिर यहीं व्यवस्था करो, उस समय बारिस भी होती रहेगी तो आनंद दुगुना हो जाएगा। इन्हीं पेड़ों से एक तिरपाल बाँध लिया जाएगा ,खूब होती बरखा,इन हरे-भरे विशाल वृक्षों की असंख्य पत्तियों पर गिरती असंख्य बरखा बूँदों से उत्पन्न, अद्भुत प्राकृतिक वाद्य-यंत्रीय संगीत से अभिभूत होते हुए भोजन का आनंद लिया जाएगा। और उस दिन टर्की बनाएंगे। सबलोग मेरी गाड़ी में आओगे। वह दावत मेरी तरफ से है , इसलिए तुम लोग अपनी जेब से एक पैसा नहीं  निकालोगे।' 
प्रोफ़ेसर साहब का अनुमान सही निकला ,टर्की की दावत का मज़ा बारिस में ही लिया गया। लगातार होती रिमझिम बारिश में। तो समझी मेरी छम्मक-छल्लो,पेट भी भरता है, मन भी भरता है, तीव्रतम सुख भी मिलता है, लेकिन बाद में फिर वही हाल, इसलिए कैसे भी हो ,जल्दी जुगाड़ करो न,इमेल्डा चली गई तो..... 
बड़ी देर से मुझे सुन रही तुम बीच में ही झल्लाती हुई बोली ,'बाज आई मैं तुम्हारी भूख से समझे,अब तेरे लिए कोई जुगाड़-वूगाड़ करना मेरे वश का नहीं है। तेरे लिए तो मैं ही परमानेंट जुगाड़ बन गई हूँ ,जितना तीव्रतम सुख लेना है,ले , नहीं मुझे सोने दे।' यह कहते हुए तुम मेरे ही पैरों पर सर रख कर लेट  गई ।
रमानी बहनों का यह पिता-हन्ता भाई जब परिवार सहित वापस चला गया तब भी मैं अक्सर तुमको छेड़ने के लिए इमेल्डा की सुंदरता की बात जरूर करता। समीना सच यह था कि उसकी सुंदरता,परियों सा उसका बदन मेरे ह्रदय में इतना गहरे समा गया था कि मैं उसे भूल नहीं पा रहा था। खाते-पीते,बात करते, सोते-जागते या सहवास करते तुम मेरे साथ होती थी, लेकिन मेरा मन इमेल्डा के पास होता था। 
अंदर ही अंदर मैं उसके लिए छटपटा उठता था। मेरी इस मानसिक स्थिति का प्रभाव मेरे चेहरे,मेरे कामों पर साफ़ दिख रहा था। इतना साफ़ कि तुमने दो-तीन दिन में ही सही-सही पढ़ कर टांट मारते हुए कहा, 'ई गोरकी जब से गई है,तब से तुम का बुझे दीया की बाती नाई करियाये जा रहे हो विलेन राजा। ऊ ख्वाब है ख्वाब,समझे। वो तो कभी ख्वाब में भी नहीं जान पाएगी कि यहां तुम उसके ख्वाब में करियाये जा रहे हो। इसलिए बौराओ नहीं, जो करना है ऊमां ध्यान लगाओ।' इसके साथ ही तुम उसे गोरकी कह-कह कर कई दिन अपशब्द कहती रही थी। तुम्हारी इस हरकत से एक दिन मैं बहुत गुस्सा हो गया,तब तुमने उसका नाम लेना बंद किया।
लेकिन हमारी ज़िंदगी में दुश्वारिओं के आने का रास्ता रामानी बहनें और चौड़ा,और सुगम बनाती जा रही थीं। भाई के जाने के दो महीने बाद ही दोनों बहनें भी उसके पास पंद्रह दिनों  के लिए अमरीका गईं। पूरा रमानी हाऊस हमारे सहारे था। धंधा किसके सहारे थे इसका हमें पता नहीं था। ऑफिस का एक सीनियर बंदा डेली रमानी हाऊस जरूर आता था।
वह बहनों का विश्वासपात्र एवं मुंह-लगा था। जब आता तो पूरे घर को देखता। हमारे भी हाल-चाल लेता और चला जाता। उसके आने का कोई निश्चित टाइम नहीं था। भाई के इंडिया आने की शुरुआत के साथ ही एक काम और हुआ कि, अब हर दूसरे-तीसरे महीने ये बहनें अमरीका जाने लगीं और घर में जो पार्टी हर महीने में दो-तीन बार होती थी वह धीरे-धीरे कम होने लगी। जल्दी ही यह डेढ़-दो महीने के अंतराल पर होने लगी। लेकिन बहनों की निर्लज्जता जरूर बढ़ती जा रही थी। 
अमरीका का चक्कर लगाने के साथ ही यह ज़्यादा तेजी से बढ़ रही थी। इन सारे क्रियाकलापों के साथ सबसे बड़ी बात यह रही कि, देखते-देखते बहनों का कारोबार कुछ ही समय में आठ-दस गुना ज़्यादा बढ़ गया। अचानक ही यह सुनाई देने लगा कि दोनों बहनें भी अमरीका की नागरिकता ले रही हैं। जल्दी ही यह बात सच साबित हो गई।
इस बीच हम-दोनों ने रमानी बहनों के चलते जितनी रकम गंवाई थी,उससे करीब दुगुनी रकम जमा कर ली थी। लेकिन हज़ार इच्छाओं,कोशिशों के बाद भी अपना व्यवसाय शुरू नहीं कर पा रहे थे। 
रमानी बहनें हमारी प्रेरणा बनी हुई थीं। उनसे मिलती प्रेरणा हमें सोते-जागते एक मिनट भी चैन से नहीं बैठने देती थी। मगर सुन्दर हिडिम्बा की तरह ये बहनें भी हमें हर कदम पर सबसे बड़ी बाधा की तरह सामने खड़ी मिलतीं थीं। हमारे कदमों की बेड़ियाँ इन बहनों ने करीब तीन महीनें बाद फिर एक धमाकेदार पार्टी की। इसका आयोजन रमानी बहनों ने अपनी एक पंद्रह दिवसीय अमरीका यात्रा से वापस आने के हफ्ते भर बाद किया था।
इस बार उनकी एक अमरीकन साथी भी थी। बाकी सब यहीं के थे। मगर पहले की पार्टियों की तरह इस बार आधे नहीं बल्कि ज़्यादातर लोग चले गए। अमरीकन लेडी, बहनें, पांच लोग और थे। हम-दोनों सदैव की तरह पार्टी का अनिवार्य हिस्सा थे। इस पार्टी में अमरीकन लेडी ने शराब के साथ ना जाने कौन सी ड्रग्स दी सबको, कि कईयों की जान जाते-जाते बची। खुद उसकी भी तबियत बहुत ज़्यादा खराब हो गई थी।
उस दिन तुमने ना जाने कैसे सबसे आंख बचाकर, खुद नाम-मात्र को ही नशा किया था। तुम्हारा प्लान उस दिन कुछ और ही था। लेकिन सबकी खराब तबियत ने तुम्हारा प्लान फेल कर दिया। मगर तुम्हारी वजह से जान सबकी बच गई। मैंने ड्रग्स नहीं ली थी ,तो सुरक्षित मैं भी था। रमानी बहनों ने उसी समय कान पकड़ लिए कि अब ऐसी पार्टी कभी नहीं होगी। बस पीना है, पीकर सो जाना है।
लेकिन उनके इस फैसले के साथ ही मेरी मुसीबत बढ़ गई। बड़ी वाली आए दिन पीने के बाद सोते समय बुला लेती। कुछ दिन बाद छोटी भी बुलाने लगी। मगर वह डेढ़-दो महीने के अंतराल पर बुलाती थी। इन सबके चलते हमारे तुम्हारे बीच खटास पैदा होने लगी। जब आधी रात के बाद मैं कमरे पर पहुंचता तो तुम इंतजार करती मिलती। तुम्हारी आंखों से आंसू टपकते देखता तो मैं बड़ी मुसीबत में पड़ जाता।
मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करता तो तुम हाथ ना लगाने देती। ताना मारती। रमानी बहनों को गंदी-गंदी गालियां देती हुई कहती, 'जा उन्हीं की भरसांय में घुस जा। मेरे पास क्यों आया है? मैं तेरी क्या लगती हूं?'
मैं अपनी मजबूरी बताता तो तुम मानने के बजाय कहती, 'तू खुद ही यही चाहता है, इसी लिए इशारा मिलते ही भाग जाता है कमीनियों के पास।'
मैं कहता कि, 'किया-धरा तो सब तुम्हारा ही है ,पहले तो तूने ही उनके सामने मुझे पहुंचाया। तूने ही कितनी कोशिश की, कि ये बहनें मुझे अपने साथ लें।'
तुम ठहरने वाली तो थी नहीं तो, बिना रुके ही तुरंत जवाब देती थी, 'तब मैंने कुछ और सोच कर किया था। मगर जो सोचा था वह तो कुछ हो ही नहीं पाया। यह दोनों तो मस्ती भी करती हैं, आगे भी बढ़ती जाती हैं। हम बस इनकी सेवा ही करते रह जाते हैं। हमें गुलाम से बद्तर बना दिया है। हमारा नाम, हमारा शरीर भी हमारा नहीं रह गया है।'
एक बार जब मैंने कहा कि, 'जो काम तुम्हारी योजना, तुम्हारी कोशिशों से हुआ,जिसमें मैं केवल एक पुर्जे की तरह तुम्हारे हाथों प्रयोग हुआ, तो ऐसे काम की ज़िम्मेदारी तुम मुझ पर थोपने पर क्यों तुली हुई हो। मैं तो काम तक ही सीमित रहना चाहता था। लेकिन तू ही नई-नई योजना बनाती और आगे-आगे घुसती गई। साथ ही साथ मुझे भी उनके सामने चारा बना कर डालती गई। अब-जब उन दोनों को तुम्हारा यह चारा पसंद आ गया है, तो तुम्हें बुरा लग रहा है।' 
मेरा यह कहना था कि, तुम एकदम भड़क उठी। तुमने मुझे चारा बनाया अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए, यह बात तुम्हें  मिर्ची की तरह लगी।
एकदम भड़कती हुई बोली, 'लगता है तेरा दिमाग इन बहनों के साथ सो-सो कर फिर गया है। मैं स्वार्थी नहीं हूं। स्वार्थी वह दोनों हैं। उनका असर तुझ पर भी आ गया है। मैं खूब अच्छी तरह समझ रही हूँ कि अब तू मुझसे ऊब गया है, तुझ पर उन दोनों की गोरी चमड़ी का नशा चढ़ गया है, और पैसा कमाने का तूने कोई और रास्ता ढूंढ लिया है, सब अकेले ही कमाना चाहता है।'
मुझे तुम्हारी यह एकदम झूठी बात बहुत बुरी लगी। मैं भी बिगड़ गया। तुम्हारे ही अंदाज़ में बोला ,'स्वार्थी तो लगता है तू हो गई है,रास्ता तूने नया पकड़ लिया है या फिर ढूंढ रही है, इसीलिए उस दिन खुद पीने के नाम पर लगता है केवल अपने कपड़ों पर छिड़क ली थी बस  ,और मुझे जमकर पिला कर उस अमरीकन के सामने चारे की तरह डाल दिया,लेकिन उस दिन तुम्हारी योजना क्या थी ,बार-बार पूछने पर भी आजतक नहीं बताया। तुम्हारी बदकिस्मती से सबकी तबियत न खराब होती तो तू आज न जाने कहाँ होती।'
मैं सख्त बातें बोलता ही चला गया तो तुम रोने लगी, रोते-रोते  बोली ,'गुस्से में थी इसलिए बोल दिया। इतना भी नहीं समझता ,कुछ समझाने के बजाय उलटा ताव दिखा रहा है।' 
उस समय तुम गुस्से से ज्यादा दुखी थी। मेरा रमानी बहनों के पास जाना तब तुझे बहुत ज्यादा अखरने लगा था। अपने ही जाल में तू खुद को फंसा पाकर व्याकुल हो रही थी।
तेरी परेशानी देख कर मैंने कहा, 'अगर तू तैयार हो तो अब यहां से कहीं और चलें। कहीं और अपना ठिकाना बनाएं। अपना काम शुरू करें। आखिर यह सब एकदिन तो करना ही पड़ेगा। कब-तक ऐसे इंतजार करते रहेंगे। काम-भर का तो पैसा इकट्ठा हो ही चुका है।'
मगर मेरी सारी बातें फिर सिरे से बेकार हो गईं। तुमने जो बातें कहनी शुरू कीं उससे मैं समझ गया कि तुम यहां से कहीं और जाने के मूड में नहीं हो। चाहे जितनी भी मेहनत हो, बाकी जो आराम यहां है वह तुम्हारे मुंह लग गया है। यह बात जब मैं आगे तुमसे बार-बार कहने लगा तो एक दिन तुम खीझ कर बोली, 'देख बार-बार ताना मत मारा कर। जब जानता- समझता है तो काहे मेरे सिरदर्द करता है। तू ही सही है। मैं अब सच में थक गई हूं। अब कुछ करने क्या सोचने का भी जी नहीं करता। बस तू मेरा साथ ना छोड़ना। अब मैं रमानी बहनों की तरह पैसे के पीछे नहीं भागना चाहती। इन दोनों को देखकर सोचती हूं कि इन्हें आखिर इस पैसे से क्या मिल रहा है। कौन सा सुख मिल रहा है इन्हें। इतनी उमर हो गई लेकिन शादी-ब्याह का कुछ अता-पता नहीं। पति, बच्चों का सुख क्या है? परिवार क्या है? ये सब इन्हें पता ही नहीं। ऐसा नहीं है कि इन्हें काम-धंधा, पैसा के अलावा और कुछ अच्छा नहीं लगता। मगर पैसे के मोह में फंसी हैं दोनों।'
मैं तुम्हारी यह बातें बड़ी गंभीरता से सुन रहा था। तुम्हारे इस बदले रूप से मैं आश्चर्य में था कि, कहां तो यह क्या-क्या जुगत भिड़ा रही थी ढेर सा पैसा कमाने, रमानी बहनों की तरह आगे बढ़ने के लिए। कितनी कड़ी मेहनत करती रही। वह भी खाया-पिया,किया,कराया जो बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। इतने सालों में इन बहनों की तमाम साजिश में शामिल हुई। मुझे भी किया।
मगर चालाक बहनों के आगे दाल नहीं गली तो ऊब गई। हार मान ली। हथियार डाल दिए। अब गृहस्थी, बच्चे, सुख-दुख की बात कर रही है। ना इधर की रही ना उधर की। अपना भी, मेरा भी, सब लुटवा के अब फिर से रूप बदल रही है। रास्ता बता रही है।
मुझे गुस्सा आई तो मैंने कहा, 'देख उन दोनों को शादी ब्याह, लड़के-बच्चे चाहिए या पैसा, किसमें उनको सुख मिलता है, किसमें नहीं ये वो अच्छी तरह जानती-समझती हैं। उन्हें जो करना है, वो वही कर रही हैं, हमें उनसे क्या लेना-देना। हमें क्या चाहिए, हमें खाली उससे मतलब रखना है बस। ना तू इधर चलती है ना उधर। अभी तक पैसा-पैसा, अपना धंधा, अपना धंधा चिल्लाती रही। अब-जब पैसे का इंतजाम हो गया है, तो फिर रास्ता बदल रही है। आखिर तू चाहती क्या है? कुछ साफ-साफ बताएगी।'
मेरी बात का जवाब देने के बजाय तुम सिर नीचे किए देखती रही। चुप रही। तो मेरा गुस्सा और बढ़ गया। मैंने खीझ कर कहा, 'देख ऐसे नहीं चलेगा। आज, अभी तय कर ले, कि क्या करना है? ये बार-बार रास्ता बदलना मेरी समझ में नहीं आता। इससे अपना समय क्या, सब-कुछ बरबाद कर रही हो, साथ में मेरा भी। इसलिए साफ-साफ, एक निश्चित बात बताओ कि चाहती क्या हो ?' 
लेकिन तुम चुप रही। बार-बार पूछने पर भी चुप रही तो मैंने  गुस्से से थोड़ा तेज़ आवाज़ में कहा , 'आज तुझे अभी का अभी बोलना पड़ेगा। नहीं तो अभी से तेरा रास्ता अलग, मेरा अलग। तू रह इन्हीं दोनों के साथ। मैं कहीं और बनाऊंगा अपना ठिकाना।'
इतने पर भी जब तुम चुप रही तो मैं गुस्से से फट पड़ा। चीखता हुआ बोला, 'तेरी इस चुप्पी से मैं समझ गया कि तेरे मन में क्या है। असल में तू अब ऊब गई है, डर गई है, थक गई है और साथ ही मुझको भी लेकर तू बदल चुकी है ,अलग रास्ते पर जाना चाहती है। मगर इतना अच्छी तरह समझ ले, कि मेरे बिना तू एक मिनट भी नहीं चल पाएगी,समझी। अब तू मर यहीं। मैं इसी समय कहीं और जा रहा हूं, कुछ और करूंगा। तेरी तरह चार कदम आगे ,दो कदम पीछे चलना अब मुझे बर्दाश्त नहीं।'
यह कह कर मैं पैर पटकता हुआ चल दिया तो तुमने झपट कर पीछे से मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने कहा, 'छोड़, अब मेरे रास्ते में कभी ना आना समझी।'
लेकिन छोड़ने के बजाए तुम बड़े भरे गले से बोली, 
'मैं रास्ते में नहीं आ रही। तेरे साथ ही चल रही हूँ ,साथ ही रहूंगी। जहां भी रहेगा वहीं रहूंगी। अब मुझे पैसा-वैसा कुछ नहीं चाहिए। बस तू चाहिए, तू। मुझे परिवार चाहिए। बच्चे चाहिए और कुछ नहीं.....
मगर मैं इतना गुस्से में था कि तुम्हें खींचता हुआ तीन-चार कदम आगे बढ़ गया। इसपर तुम एकदम से पैर पकड़ कर बैठ गई, और कातर स्वर में रोती हुई बोली, 'रुक जा ना, इतना कठोर क्यों बन रहा है? अब मैं बहुत थक चुकी हूं, टूट चुकी हूँ, हार चुकी हूँ ,अब मुझसे कुछ नहीं हो पा रहा। मुझे सहारा चाहिए, तेरा सहारा। तू नहीं देगा तो कौन देगा ? तेरे सिवा और कौन है मेरे आगे पीछे,मेरी दुनिया तो अब तू ही है न।'
इतना कहते-कहते तुम फूट-फूट कर रोने लगी। तुम्हारी रुलाई, आंसू ने मेरे क़दम रोक दिये। लगा जैसे मेरे पैर ज़मीन से चिपक गए हैं। मेरे गुस्से पर दर्जनों मटका ठंडा पानी पड़ गया है। मुझे तुम पर इतनी दया आ गई कि, तुम्हें उठा कर बाँहों में भर लिया। तुम अब भी ऐसे बिलख रही थी जैसे कोई महिला अपने प्रिय के अचानक ही ना रहने पर बिलखती है। बड़ी देर में तुम्हें चुप करा पाया। बार-बार तुम यही कहती रही कि, 'अब मुझे तुम और परिवार के सिवा और कुछ भी नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं।'
इस तरह तुमने उस दिन जीवन में जिस उद्देश्य को लेकर दोनों आगे बढ़ रहे थे,उन बढ़ते क़दमों को अचानक ही रोक कर एकदम उलटी दिशा में मोड़ दिया। तुमने जीवन एक अजीब से नीरस रास्ते पर आगे बढ़ा दिया। देखते-देखते तुम इतना बदल गई काम-धाम,व्यवहार हर चीज में कि मैं परेशान होकर पूछता, आखिर क्या हो गया है तुम्हें? लेकिन तुम कोई उत्तर न देती।
तुम्हारी चीखती आवाज़ रमानी हाऊस से बिलकुल गुम हो गई, तुम जहां तक हो सकता रमानी हाऊस के कामों से अपना हाथ खींचे रहती। इससे मेरा काम और बढ़ गया। इसके साथ ही तुममें एक और बदलाओ हुआ कि अब तुम मेरी सेवा ज़्यादा करने लगी। ज़िंदगी  इसी ढर्रे पर आगे बढ़ती रही। कई महीने ऐसे ही बीत गए। मेरा मन इस हालत से बहुत ऊबने लगा, लेकिन तुमसे कुछ नहीं  कहता। तुम हालात से समझौता कर ऐसे खुश हो गई थी, जैसे तुमने अपने मन का सब कुछ पा लिया हो।
मैं घर-बाहर का सारा काम निपटा कर, जब देर रात कमरे पर पहुंचता तो तुम बड़े प्यार से मिलती, साथ ऐसे हंसती, बोलती, खाती जैसे तुमसे ज्यादा सुखी कोई है ही नहीं। अब तुम आये दिन बच्चों  के लिए किसी डॉक्टर के पास चलने को कहने लगी, लेकिन मैं टालता रहा। मैं उस हालत और उतनी उम्र में कोई नई ज़िम्मेदारी नहीं बढ़ाना चाहता था। लेकिन तुम हर तीसरे-चौथे दिन इसी पर जोर देने लगी।
इसी बीच एक दिन रमानी बहनों ने फिर एक और झटका दिया। हमें बुलाकर बताया कि अब वह दोनों अमरीका में ही रह कर बिज़नेस करेंगी। वहीं से सब संभालेंगी। अब रमानी हाऊस के लिए उन्हें केवल एक हाऊस कीपर की जरुरत है बस। हम-दोनों को इन बातों का अंदेशा था, फिर भी अचानक सुनकर सन्न रह गए। अब समस्या यह आ गई कि नौकरी मैं करूंगा या तुम। क्योंकि नौकरी किसी एक के लिए ही थी।
दोनों बहनों ने इतने दिन की सेवा के चलते इतना अहसान किया कि फैसला हम-दोनों पर छोड़ दिया कि हम ही आपस में तय कर लें कि कौन नौकरी छोड़ेगा। मैंने सोचा कि तुम कहीं मुझे स्वार्थी, कपटी ना समझ लो इसलिए मैंने तुमसे कहा, 'ऐसा है तू कर ले नौकरी। मैं बाहर कहीं और काम तलाश लूंगा या अपना धंधा शुरू करूंगा। एक तरह से यह अपना काम शुरू करने का बढ़िया अवसर सा है, पहले उसी भले मानुष होटल वाले के पास जाऊँगा। तुम औरत जात हो , बाहर तुम्हें  ज़्यादा परेशानी होगी।' 
लेकिन शायद तुम भी वही सोच रही थी, जो मैं। तुमने कहा, 'नहीं,यहां नौकरी तुम्हीं करो। मैं आस-पास कहीं ढूंढ़ लूंगी। तुम परेशान मत हो। फिर उस भले मानुष के पास क्या जाएगा? इतने  साल हो रहे हैं ,अब तो पहचानेगा भी नहीं।'
'ऐसा नहीं है। मैं बीच-बीच में उनसे मिलता रहा हूँ।'   
असल में हम-दोनों एक दूसरे को परेशान नहीं देखना चाहते थे। लेकिन मैं अपनी बात पर अडिग रहा। अंततः तुम्हें ही नौकरी के लिए तैयार होना पड़ा। मैंने कहा, 'देखो, दोनों बहनें ये तो जानती ही हैं कि, हम पति-पत्नी ही हैं। एक कमरे रहते हैं। मैं बाहर कहीं भी नौकरी करूंगा, लेकिन रहूंगा यहीं। तू इन बहनों को यही समझाना कि मैं साथ रहूंगा। इतने  बड़े रमानी हाऊस की रखवाली में बड़ा सहयोग हो जाएगा। एक से दो भले रहेंगे।'
तुमने यही बात बहनों को समझाई। उनसे  बिना हिचक कहा, 'पहले की तरह नौकरी मैं ही करूंगी। यह दिन भर बाहर कोई और काम-धंधा करेगा। हम दोनों पति-पत्नी हैं, इसलिए रहना तो एक ही जगह होगा।'
दोनों मुझे ही नौकरी पर रखने के पक्ष में थीं, लेकिन मेरे इंकार ,और तुम्हारी बातों से अंततः वो मान गईं। इसके बाद हफ्ते भर में यहां सारी व्यवस्था करके दोनों अमरीका रवाना हो गईं, भाई के पास। यहां की सारी फैक्ट्रियों की ज़िम्मेदारी उसी आदमी को सौंपी जो पहले इन दोनों के अमरीका जाने पर, डेली रमानी हाऊस दिन में  एक बार जरूर आता था। घर के तमाम हिस्सों में ताला लगा दिया गया।
उनके जाने के बाद हमारी ज़िंदगी भी एकदम बदल गई। अब हमारे पास काम तो कम था, लेकिन काम के घंटे चौबीस हो गए थे। घर की रखवाली करनी थी। वह आदमी दिन भर में किसी भी समय आ जाता था, इसलिए हमेशा एलर्ट रहना पड़ता था। दोनों बहनों के जाने के बाद मैं एक हफ्ते तक कहीं नहीं गया। खूब आराम किया, इतना कि ऊबने लगा, तब मैं बाहर निकला। 
इस बीच कई बार मन में आया कि तुमको लेकर कहीं घूमने जाऊं। लेकिन समस्या यह थी कि तुम्हारा घर पर रहना जरूरी था। क्योंकि चेक करने आने वाले आदमी के अलावा रमानी बहनों का फ़ोन किसी भी समय आ जाता था। बात करने में कोई समस्या ना आए, इसलिए दोनों जाते-जाते एक बढ़िया मोबाइल भी तुमको दे गई थीं। तुम पिंजड़े में कैद होकर रह गई थी। मैं कहीं आस-पास ही चलने को कहता, लेकिन तुम तब भी तैयार नहीं होती। लेकिन तुम भी आखिर कब तक पिंजरे में रहती , कुछ दिन बाद देर शाम को साथ निकलने लगी। जितनी देर बाहर रहते उतनी देर अपने उस साथी को रखवाली की जिम्मेदारी देता जिसके लिए तुम हर बार यही कहती थी कि ,'उसकी नज़रें अच्छी नहीं हैं ।' लेकिन मैं उसे सालों से जानता था ,चरित्र, ईमानदारी के मामले में खुद से ज्यादा मैं उस पर विश्वाश करता था, इसलिए हर बार तुमसे यही कहता कि ,'वह ऐसा नहीं है, बहुत  भला आदमी है।' आगे जब उसने कई बार निस्वार्थ मदद की, तब तुम्हें मेरी बात पर यकीन हुआ,और बोली, 'सही में वो अच्छा आदमी है,उसकीआँखों की बनावट ही ऐसी है कि वहम हो जाता है।'        
कई दिन तक बरसों की अपनी थकान उतारने के बाद जब मैं काम-धाम के लिए बाहर निकला तो सबसे पहले होटल वाले उसी भले मानुष के पास पहुंचा। उन्हें प्रणाम कर अपनी हालत बताई तो वह बड़ी सज्जनता के साथ बोले , 'अगर नौकरी करना चाहो तो मैं दे सकता हूं। जगह नहीं होगी तो भी बना दूंगा। लेकिन कई बार अपना काम-धंधा करने की बात तुम कह चुके हो, इसलिए जो बताओ वो मदद करने के लिए तैयार हूँ।' 
उनकी इस भलमनसाहत पर मैंने हाथ जोड़ कर आभार जताते हुए कहा, 'थोड़ी बहुत पूंजी इकट्ठा की है। आप मुझे, मेरे हिसाब का कोई धंधा कराने में मदद कीजिए।' उन्हें अपनी कुल पूंजी भी बता दी। कहते हैं  ना कि, धरती कभी वीरों से खाली नहीं रहती। अच्छे आदमी हर जगह, हर समय रहते हैं। तो उस भले आदमी ने मेरी पूंजी के हिसाब से ही मुझे एक जगह चाय, समोसा, पकौड़ी की दुकान खुलवा दी। आखिर में पूंजी कुछ कम पड़ी तो उन्होंने थोड़े पैसे उधार भी दिए। एक कारीगर भी दिया। साथ ही यह भी कहा कि,'इससे जितनी जल्दी हो सके, सारा काम सीख लो।'
शुरू के दिनों में दुकान कुछ सुस्त चली, लेकिन फिर धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ने लगी। हम-दोनों का अपना काम करने का सपना पूरा होने लगा। हम-दोनों खुश जरूर थे, लेकिन मेरे मन में कोई ज़्यादा उत्साह नहीं था। क्योंकि हम अपनी ट्रक के सहारे, अपना बड़ा बिजनेस खड़ा करने का चूर-चूर हुआ सपना भुला नहीं पा रहे थे। जिसे रमानी बहनों ने बड़ी निर्ममता से चूर-चूर किया था। और जीते रहने की अनिवार्य कोशिशों को करते रहने के कारण मेरा विलेन-किंग बनने का सपना भी डूब रहा था। मैं बड़े से कड़ाहे में, खौलते तेल में जब समोसे, पकौड़ियां तलने के लिए डालता तो मुझे लगता जैसे मैं विलेन-किंग बनने के अपने सपने को खौलते तेल में डाल-डाल कर खत्म कर रहा हूँ।   
दूसरी तरफ मैं तुम्हारी उदासी दूर करने की कोशिश में कुछ  पूछता, तो तुम यही कहती, 'नहीं। ऐसी कोई बात नहीं है।'
ज्यादा पूछने पर, सच को छिपाती हुई तुम हर बार करीब-करीब एक ही बात कहती, 'तू तो सवेरे ही निकल जाता है, फिर देर रात आता है। कुल पांच-छह घंटे के लिए। मतलब की सोने भर को ही यहां रहता है। मैं इतने बड़े घर में अकेले पड़ी रहती हूं। काम कुछ है नहीं । एकदम ऊब  जाती हूं। ऊपर से दिन में किसी भी टाइम वो मैनेजर चला आता है। ऐसे देखता है, जैसे मैं चोर हूं, डकैत हूं। मन बड़ा परेशान हो जाता है। इससे अच्छा तो जब वो दोनों थीं, तभी था।'
मैं कहता,'इसीलिए तो मैं दिन-भर में तुझे दसियों बार फ़ोन करता रहता हूं। जब दुकान शुरू कि तभी ये सोच रहा था कि, तू अकेले परेशान होगी। लेकिन अभी तो कोई और रास्ता भी नहीं दिख रहा। कम पैसों में अच्छी जगह मिल भी नहीं पाएगी। अभी जो भी कमाई हो रही है, उसका ज़्यादा हिस्सा तो उस भले मानुष का कर्ज उतारने में निकल जाता है। नहीं तो यहां से निकल कर दुकान के पास ही कोई कमरा किराए पर ले लूँ तो, आने-जाने में जो कई घंटे बरबाद होते हैं, वह तेरे साथ बिताऊँ।'
मेरी चिंता तुमसे देखी नहीं गई, मुझे समझाते हुए तुमने कहा, 'अब तुम इतना भी परेशान मत हो। ये बात अच्छी तरह समझ लो कि अपना धंधा करने का जैसा मौका ऊपरवाले ने दिया है, यह दुबारा नहीं मिलेगा। इसलिए सारा दिमाग उसमें लगा। मुझमें उतनी ही देर लगा, जितनी देर यहां रहता है। ज़्यादा कमाई करके कर्जा उतार दे। फिर इस जेल से भी मुक्ति पा लेंगे। वहीं पास में रहेंगे,या फिर दिन-भर होटल पर तुम्हारे साथ रहूँगी, काम में कुछ हाथ ही बंटाऊंगी।'
तुमने मेरे मन का बोझ हल्का करने के लिए यह सब कह तो दिया था, लेकिन वास्तविकता तो मैं जानता था, कि तुम्हारे मन का बोझ मेरे मन के बोझ से कहीं बहुत ज्यादा है। 
इसलिए तुम्हारे चेहरे पर हँसी-खुशी लाने के लिए मैं हँसी-मज़ाक करता, रमानी बहनों का नाम लेकर तुम्हें छेड़ता कि बड़ी याद आती है दोनों की, कितना मजा देती थीं रात को ,बड़ी वाली का तो जवाब नहीं था, और हाय रे इमेल्डा....
मगर तुम पर अब  ऐसी बातों का भी, जैसे कोई असर ही नहीं  होता था, जब कि पहले ऐसी बातों पर भड़क उठती थी। वैसे समीना तुमसे यह बात भले ही मज़ाक में कहता था, लेकिन वास्तव  में सच यही था,रात में अक्सर उनकी याद आती, मन करता काश उसी तरह वो कुछ घंटा साथ बिताएं न। तुम्हारे साथ होते हुए भी मेरा ऐसा सोचना, इच्छा रखना,जानता था कि पूरी तरह गलत है, लेकिन इस मन का क्या करता? मेरे कंट्रोल से बाहर हो ही जाता था । लेकिन इसकी ज़िम्मेदार उन बहनों के साथ-साथ तुम भी थी, मेरे मुंह में खून तो तुम्हीं लोगों ने लगाया था।                      
उस दौर में तुम मेरे हर मज़ाक,बात पर मुझे बार-बार यही समझाती कि,'छोड़ न इन बातों को,भूल जा सब,ये फालतू बातें मन खराब करती हैं, अब बस शांत रहने, होटल को बढ़ता देखने में ही आराम महसूस करती हूँ।'  
लेकिन जल्दी ही मेरा ध्यान तुम्हारे तेज़ी से गिरते स्वास्थ्य की तरफ गया, तो मुझे लगा कि तुम  जितना बता रही हो बात सिर्फ़ उतनी नहीं है। बात कुछ और भी है, जिससे तुम बहुत चिंता करती हो। इसी कारण तुम्हारा स्वास्थ्य खराब हो रहा है। यह समझते ही एक दिन मैंने जिद कर ली सच जानने की ,मैंने कहा ,'देखो सच क्या है, वह साफ-साफ बताओ, तभी मैं होटल जाऊँगा, नहीं तो नहीं।'
बहुत कोशिश के बाद तुमने जो बताया उसे सुनकर मैंने कहा, 'तू भी कमाल करती है। इस उमर में काहे को बच्चा-बच्चा कर रही है। अरे हर चीज का एक टाइम होता है। सबकी किस्मत में सब-कुछ नहीं होता। जो हमारी किस्मत में है, वो हमें मिल रहा है। जो नहीं है वह नहीं मिल रहा है। बेवजह चिंता कर-कर के अपनी सेहत खराब कर रही हो। तेरे कारण मुझे भी चिंता होती है। मेरी भी सेहत गड़बड़ाएगी। निश्चिंत होकर क्यों नहीं जीती, कि मैं तेरे लिए हूं, तू मेरे लिए है। हैं ना सहारा एक दूसरे का।'
लेकिन मेरा समझाना-बुझाना सब बेकार गया। तुम जिद नहीं, हाथ जोड़ने लगी कि, 'एक बार ले चल किसी डॉक्टर के पास। वो जो कह देंगी, वही करेंगे। मना कर देंगी तो दुबारा सोचूंगी भी नहीं।'
मैंने फिर समझाया, 'तू बात समझने की कोशिश क्यों नहीं करती। अरे मोटी अकल से सोच, डॉक्टर के पास जाएंगे तो वो कुछ ना कुछ बीमारी बताएगा,दवाएं देगा ही। तंत्र-मंत्र वाले के पास जाओ तो वो भी कुछ झांड़-फूंक बताएगा ही। इतनी मामूली सी बात समझती क्यों नहीं ।'
मगर तुम कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं हुई। हर बात का एक जवाब, 'एक बार चल ना। एक बार चलने में क्या बिगड़ जाएगा। डॉक्टर कुछ ज़्यादा बोलेंगी तो नहीं जाऊंगी दुबारा।'
आखिर विवश हो कर एक दिन डॉक्टर के यहां ले ही गया। उसने जांच के बाद साफ-साफ कह दिया कि अब उम्मीद बहुत कम है। फिर ना जाने कौन-कौन सी टेक्नोलॉजी का सहारा लेने की सलाह दी। जब खर्चा बताया तो हम-दोनों के पांव तले जमीन खिसक गई। लौट आए उल्टे पांव। रास्ते भर तुम एकदम चुप रही। मैं तुम्हें घर छोड़ कर होटल चला गया। धंधे का आधे से ज़्यादा दिन का खोटी हुआ था।
उस दिन जब लौटा तो तुम बहुत उदास थी। खाना मेरी वजह से बनाया था, नहीं तो शायद बनाती ही नहीं। साथ में बहुत कहने पर नाम-मात्र को खाया। खाते समय ही मैंने तय किया कि आज ही तुमसे एक फैसला हर हाल में लेने को कहूंगा। लेकिन खाना खत्म होते ही तुमने  कहा, 'शाम को फ़ोन पर तुमने कहा था कि, पैर में बहुत दर्द हो रहा है। ठीक ना हुआ हो तो आओ तेल मालिश कर दूं।'
तुम्हारी इस बात पर मैं तुम्हें बड़ी देर तक देखता रहा, क्योंकि पहले भी कई बार तकलीफ हुई, लेकिन तब कहने पर तुम लापरवाही से यही कहती कि, 'दवा ले लेना। काहे को मुंह लटकाए बैठा है। बनता है बड़ा विलेन-किंग।'
जब कई सारे नौकर थे, तब तुम दिन-भर में कम से कम दस बार तो विलेन-किंग का ताना मारती ही थी। लेकिन जैसे-जैसे करीब आती गई,वैसे-वैसे यह ताना मारना बंद कर दिया था । मेरा ख़याल ज़्यादा से ज़्यादा रखने लगी थी। उस समय तुमने मालिश के लिए इतने अपनत्व से कहा था कि, मैं  कुछ बोल ही नहीं पाया। मुझे शांत देख कर तुमने कहा , 'चल लेट जा, मालिश कर देती हूं। दिन-भर काम में जुटा रहता है। बार-बार कहती हूं कि, थोड़ा आराम भी कर लिया कर।'
तुम मालिश भी किए जा रही थी और बड़बड़ाए भी जा रही थी। थोड़ी देर में ही मैंने तुम्हें  मना करते हुए कहा, 'रहने दे, तू भी तो थकी है। चल आराम कर।'
मगर तुम मालिश करती रही और रमानी बहनों को गाली देती रही। उन्हें धोखेबाज, आवारा, एहसान-फरामोश बताती रही। जबकि मुझे उनका नाम लेने को भी मना करती थी। उस समय मैंने तुम्हें समझाते हुए कहा कि, 'दूसरों  को देखकर उनके जैसा बनने के चक्कर में हम-दोनों ने अपनी ही शांति खत्म कर के बड़ी गलती की। भगवान ने अगर हमारी किस्मत में बड़ा होना लिखा ही होता तो हम बन जाते। जैसे ये रमानी परिवार बन गया। हमारी किस्मत में नहीं है, तो हम बार-बार कोशिश कर के भी जहां के तहां बने हुए हैं।
बड़वापुर से क्या बनने आया था। उसके लिये क्या-क्या नहीं  किया। कितने पापड़ बेले, भूखा-प्यासा रहा। मजदूरों के दिए खाने पर जिन्दा रहा। सुन्दर हिडिम्बा जैसी मालकिन की ना जाने कितनी बार उल्टियां तक साफ कीं। छब्बी, तोंदियाल जैसे अपने प्रिय लोगों को खो दिया। पुलिस की लाठियां खाईं। यह भी कहूँ कि फ़र्ज़ी एनकाऊंटर का शिकार होने से बचा।
एक ने मुफ्त में मॉडलिंग करवा ली, तो एक ने घटिया फ़िल्म में काम भी करा लिया। लेकिन आज तक फ़िल्म का नाम भी नहीं मालूम हो पाया। 
यहाँ इन बहनों ने क्या-क्या नहीं कराया। लोग कहते हैं  कि मेहनत करो फल मिलेगा। मैंने जी-तोड़ मेहनत की, मगर वह फल नहीं मिला जिसके लिए मेहनत की। कारण शायद यही हो सकता है कि, मैंने जानकारी के अभाव में मेहनत गलत की या फिर मेरी किस्मत में जो बनना लिखा है,वही बनता जा रहा हूं। यही तेरे साथ भी है। तुम्हारे शौहर ने दूसरी औरत के चक्कर में  तुम पर अत्याचार ना किया होता, तलाक न दिया होता, तो आज तुम मेरे साथ यहां न होती। जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि, जब शौहर के साथ थी शुरू में, तो क्या सपने में भी सोचा था, कि ज़िंदगी में यह सब करोगी। जो कुछ अब-तक किया।'
मेरी बातें बड़ी देर तक सुनते रहने के बाद भी तुम कुछ बोली नहीं, बस मालिश करती रही। तुम्हारी चुप्पी से मुझे बड़ी खीझ हुई। मैंने अपने पैरों को मोड़कर तुम्हें मालिश करने से मना कर दिया, कहा, 'बस कर, थक गई होगी। मैं इतनी देर से बोले जा रहा हूं और तू है कि कुछ जवाब ही नहीं दे रही। मैं पागल-वागल हूं क्या?'
मेरे इतना कहने पर तुमको लगा कि मैं गुस्सा हो गया हूं। तो तुमने कहा, 'गुस्सा काहे को हो रहे हो। मैं क्या जवाब दूं तुम्हारी बातों का। जो तुम कह रहे हो, सही कह रहे हो। मुझे भी  लगता है कि किस्मत में जो था वह हुआ। आगे जो लिखा है वही होगा, लेकिन मुझे जो और बहुत सी तकलीफें मिल रही हैं, उसके लिए मेरे गुनाह भी जिम्मेदार हैं।'
बात पूरी करते-करते तुम्हारा गला भर गया। आंखों में आंसू आ गए। गुनाह शब्द पर मेरा ध्यान ज़्यादा गया। मैंने सोचा कि यहां जो कुछ हुआ उसमें तो रमानी परिवार,मैं, सब-के-सब बराबर के भागीदार हैं ,फिर ये अकेले खुद को क्यों दोषी मान रही है। इसने कौन सा ऐसा गुनाह किया है ? कब किया है ? जिसके कारण यह इतना पछता रही है। उसका इतना दुख है कि रो रही है। पहले कभी तो किसी गुनाह के बारे में संकेत तक नहीं दिया। 
आखिर मैंने पूछा, 'तुमने कौन सा गुनाह किया है? कब किया? पहले तो कभी कुछ बताया नहीं।'
 मेरे प्रश्नों का तुमने कोई उत्तर नहीं दिया। उठ कर तेल की शीशी अलमारी में रखी, फिर आकर शांत बैठ गई। मैं भी उठ कर बैठ गया था। तुम चुप रही तो मैंने फिर पूछा, ज़्यादा जोर देने पर तुम बोली, 'क्या कहूँ ? कहने का मतलब पुरानी बातें दोहराना ही होगा। सब तो तुम्हारे साथ हुआ। तुम्हारी आंखों के सामने हुआ। फिर भी पूछ रहे हो।'
'काहे को पहेली बुझाती हो। मेरे सामने कौन सा गुनाह किया। मेरे सामने करती तो तुझे मना ना किया होता।'
'तुझे भी जब-तक बच्चों की तरह ना समझाओ, तब-तक कुछ समझ में नहीं आता। अरे यहां जो कुछ किया वो गुनाह नहीं है क्या? पैसा कमाने, अमीर बनने के लिए इन बहनों की नकल की, झूठ बोला, धोखा दिया। रुपये-पैसे पर हाथ साफ़ किया, इन सबसे ज़्यादा बड़ा गुनाह तो यह कि, बिना सोचे-समझे यहां ना जाने कैसे-कैसे लोगों के साथ सोई।
इन बहनों की नकल करने में एकदम संकोच नहीं किया। यहां तक कि इन बहनों के साथ भी...और तो और तुझे भी साजिशन इसी में धकेला। तू भी इन बहनों से लेकर और ना जाने किन-किन औरतों के साथ सोया। क्या-क्या नहीं किया। मैंने शराब से लेकर पता नहीं कौन-कौन सा नशा कर डाला। खुद तो किया ही तुझसे भी कराया। अब तू ही बता गुनाह किया की नहीं।'
मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि तुम्हारी इन बातों का जवाब क्या दूं। तुम कह तो एकदम सही रही थी। मैं बिलकुल शांत तुम्हें देखता रहा तो तुम फिर बोली, 'तुम्हारे साथ यही तो सबसे बड़ी मुश्किल है, या तो लड़ पड़ोगे, या फिर चुप रहोगे? मैं जब वह सब कर रही थी, तो कम से कम मुझे टोकता तो। ऐसा तो नहीं था कि मैं तुम्हारी बात सुनती ही नहीं। ना पूरी मानती कम से कम आधी ही मानती। गुनाह कुछ तो कम हुआ होता। मगर नहीं, मर्द होकर भी तू वही करता गया, जो मैं करती गई, कहती गई।'
'क्या कहता मैं, उस समय मेरी कोई बात सुनती भी थी। हमेशा सिर पर सवार रहती थी। वो दोनों तेरी बात टालती नहीं थी, तो मैं सोचता कि, मेरी कोई बात तुझे बुरी लगी तो शिकायत कर देगी। दूसरे जब मैंने देखा कि औरत होकर तू अमीर बनने के लिए कितना कुछ किए जा रही, आगे-पीछे कुछ सोच ही नहीं रही, मुझे भी साथ खींचे हुए है ,तो मैंने सोचा चलो जो होगा देखा जाएगा। जो ये कह रही है,हम भी करते हैं वही सब, तो मैं लगा रहा साथ में। 
अब क्या मालूम था कि, ये बहनें इतनी शातिर हैं कि, हमें कुछ समझेंगी ही नहीं। हमें अपने काम, अपनी अय्याशी के लिए एक मशीन की तरह इस्तेमाल करेंगी और काम निकल जाने पर लात मार के चल देंगी। 
इसीलिए मैं कह रहा हूं कि इस रमानी हाऊस से पूरी तरह मुक्ति पा ली जाए। हालांकि यह सोचने में देर बड़ी कर दी गई है, लेकिन अब भी कुछ कर लेने भर का तो समय है ही। जो भी गलत, सही हुआ, वो हुआ। लेकिन अब यहां जब-तक रहेंगे, तब-तक ये सारी बातें दिमाग खराब किये रहेंगी, जीना मुश्किल कर देंगी। मगर तू है कि तैयार ही नहीं हो रही है।'
'मैं तैयार हूं, मैं खुद निकलना चाह रही हूं यहां से। बस तुम कर्जा जल्दी से उतार दो, तो यहां से निकलते हैं। नहीं तो यहां से मिल रही पगार बंद हो जाएगी तो और मुश्किल होगी'
'वो तो उतार ही रहा हूं। थोड़ा बहुत तो है नहीं। जितना दे रहा हूं हर महीने, उस हिसाब से दो साल तो लग ही जाएंगे। तब-तक यहां रहना मुझे ठीक नहीं लग रहा। सच बताऊँ, तुम्हारी बात सुनने के बाद तो मेरा मन और ज़्यादा उखड़ गया है।'
'जैसे इतना झेला, वैसे ही थोड़ा और झेल लो। अभी किराए पर कहीं और मकान लेने से कर्ज़ा उतारना मुश्किल हो जाएगा। और सुनो जितना पैसा हमें मिलता है, अब उतने से ही हम-दोनों अपना खर्चा चलाएंगे। तुम जितना कमाओ, सब कर्जा उतारने में लगा दो, इससे जल्दी खत्म हो जाएगा।'
'चलो यही करते हैं।'
मैंने तुम्हारा मन रखने के लिए यह कह तो जरूर दिया था,लेकिन जानता था कि इससे कोई ज्यादा अंतर पड़ने वाला नहीं, क्योंकि तब-तक रमानी हाऊस से होने वाली आय चौथाई ही रह गई थी। इस लिए खर्चों में तमाम कटौती के बावजूद सच में ऐसा हो नहीं पा रहा था। होटल की कमाई से अच्छी-खासी रकम निकालनी ही पड़ती थी, क्योंकि रमानी बहनें हमेशा फंसाये रखने के उद्देश्य से एक महीने की पगार रोके ही रहती थीं। 
इन सबसे बड़ी नई समस्या तो यह शुरू हो गई थी कि, ना जाने क्या हो गया कि आए दिन तुम्हारी तबियत खराब रहने लगी। कभी बुखार, कभी कमर दर्द तो कभी सिर दर्द, कभी पेट खराब। हर हफ्ते कम से कम एक-दो दिन डॉक्टर के यहां ले जाना पड़ता। डॉक्टर आए दिन ना जाने कौन-कौन सी जांच कराते। एक से एक महंगी दवाएं देतें। 
ढेर सारी दवाएं देखकर तुम परेशान होकर कहती, 'खाना खाने से अच्छा है कि दवाएं ही खाया करूं।' अब तुम दिन-भर में कम से कम एक बार यह जरूर कहती कि, 'कहाँ तो सोचा था कि पगार से घर का खर्चा चलेगा, लेकिन हालत यह हो गई है कि दवाई का ही पूरा नहीं पड़ता, होटल की कमाई न होती तो खाने-पीने के भी लाले पड़ जाते।'   
तुम्हारी बात सही थी। होटल सही समय पर चल निकला था। और साथ ही दवा का सिलसिला भी चलता ही चला जा रहा था। कई डॉक्टर बदले, लेकिन तुम्हारी हालत सुधरने के बजाए दिन पर दिन गिरती ही जा रही थी। अब मैं बड़ी चिंता में पड़ गया। जल्दी ही हालत यह हो गई कि, मुझे दुकान के साथ ही घर का भी काम-काज संभालना शुरू करना पड़ा।
एक दिन फैक्ट्री मैनेजर ने अचानक ही तुम्हारे लिए पूछ लिया कि, 'इसकी हालत क्यों खराब हो रही है?' तो मैंने उसे सब बताया। उस दिन उसने जिस तरह से बात की, उससे लगा कि यह ऊपर से भले ही सख्त, रूखे व्यवहार वाला दिखता हो, लेकिन वास्तव में है दयालु। वह बिहार के किसी जिले का रहने वाला था। उसी ने फिर एक बड़े डॉक्टर का पता दिया। कहा, 'अच्छे डॉक्टर को दिखाओ तभी ठीक से पता चल पायेगा कि कौन सी बीमारी है? बीमारी का ठीक-ठीक पता चलने पर ही सही ट्रीटमेंट हो पाएगा।'
मैनेजर की बातों से मैं बहुत परेशान हो गया, तुमको अगले ही दिन उसी डॉक्टर के पास ले गया। तुम चलने को तैयार नहीं हो रही थी कि, बड़ा डॉक्टर है, बहुत पैसा लेगा। लेकिन मैं नहीं माना ,मैंने  कहा कि, 'तुम्हारे जीवन से बढ़ कर नहीं है पैसा।'
जब डॉक्टर के पास पहुंच गया तब भी तुम मना ही करती रही। कहती रही, 'चल ना वापस। काहे को मगजमारी करता है। मैं उन्हीं दवाओं से ठीक हो जाऊँगी।' 
आखिर मैं खीझ उठा, तो गुस्सा होते हुए बोला, 'ऐसा है, तू अब चुपकर। उन्हीं दवाओं से ठीक होना होता, तो अब-तक कब का हो गई होती। महीने के महीने बीतते जा रहा हैं। जो कह रहा हूं वह चुपचाप कर।' 
डांट खाने के बाद तुम कुछ नहीं बोली, डॉक्टर से ठीक से चेकअप कराया। इस डॉक्टर ने पिछले सभी डॉक्टरों को गलत बताते हुए, उनकी सारी दवाएं बंद कर दीं। कई जांचें कराईं। कुछ की रिपोर्ट तो कुछ ही देर में मिल गई,लेकिन कुछ की एक-दो  दिन बाद मिलीं। सारी रिपोर्ट्स मिलने पर जब फिर पहुंचे डॉक्टर के पास तो उसने पहले तुमको अलग करके  मुझे जो बताया ,उसे सुनते ही मेरे होश गुम हो गए। हाथ-पांव फूल गए।
तुम एक नहीं, दो-दो भयानक रोगों की शिकार हो चुकी थी। दोनों ही रोग शरीर में अपनी पूरी पैठ बना चुके थे। इलाज लंबा नहीं जीवन भर चलने वाला था। इसके बाद भी ठीक होने की कोई संभावना नहीं थी। मेरी घबराहट देखकर डॉक्टर ने मुझे समझाया-बुझाया। दवाएं लिख कर, हिम्मत से काम लेने को कह कर भेज दिया।
डॉक्टर के केबिन से मैं जैसे ही बाहर आया, तुमने पूछना शुरू कर दिया।
'क्या बताया डॉक्टर ने?'
 मैं टालता रहा। अपने चेहरे पर उड़ रही हवाइयों को भी छिपाने की कोशिश करता रहा। मगर तुम पीछे पड़ी रही। मैं रास्ते भर टालता रहा। लेकिन घर पहुंचकर तुम बोली, 'तुम सच-सच काहे नहीं बता रहे हो।' 
मैंने कहा, 'सच ही तो बता रहा हूं बार-बार। बुखार बिगड़ गया है बस, लेकिन तुम विश्वास ही नहीं कर रही हो तो मैं क्या करूं।'
इस बार तुम गुस्सा होती हुई तेज़ आवाज़ में बोली,'तुम बार-बार झूठ बोल रहे हो समझे। हमें कल की छोकरिया समझ रखा है कि, झूठ-सच जो कहोगे आंख मूँद कर मान लूंगी। जब से तुम डॉक्टर से बात करके, बाहर आए हो तब से तुम्हारे चेहरे का रंग उड़ा हुआ है। इतनी देर हो गई है, लेकिन अभी तक चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं। अरे सही बताने में इतना काहे डर रहे हो। हमें इतना कमजोर काहे समझ रहे हो।'
तुम इतना पीछे पड़ गई कि, मैं विवश हो गया। विवश इसलिए भी हुआ कि तुम पसीना-पसीना हो रही थी, आँखों से आंसू गिर रहे थे,कमजोरी के मारे ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी। मगर जिद पर अड़ी हुई थी। तुम्हारी हालत पर मुझे इतनी दया आई कि मैंने सच बता दिया। उसे सुनकर तुम बड़ी देर मुझे आवाक देखती रही।
तुम्हारी हालत देखकर मैंने सोचा कि, तुम सच जानकर रोओगी-धोओगी। लेकिन तुमने ऐसा कुछ नहीं किया। कुछ देर में ही खुद को संभाल कर बोली, 'तो इसमें इतना परेशान होने वाली कौन सी बात है। खाएंगे दवाई, जो होगा देखा जाएगा। अरे ऐसे भी कौन सी ज़िंदा हूँ। रोज-रोज मर ही तो रही हूँ। बेवजह ही इतनी देर से परेशान किए थे। तुम्हारे चेहरे पर हवाईयों, सामान पकड़ते समय कांपते हाथों को देख कर ही मैं  समझ गई थी कि मामला कुछ ज्यादा ही बड़ा है?'
इसके बाद हम-दोनों बड़ी देर तक चुप बैठे रहे। आते समय बड़ा पाव, भेलपूरी ले आए थे। तुम को कुछ राहत मिले यह सोचकर तुम्हें खिलाने और खुद भी खाने की सोची, लेकिन हम-दोनों पूरा क्या आधा भी नहीं खा सके। और कोई समय होता तो यह सब पांच मिनट में खत्म हो जाता।
लेकिन उस समय हम ऐसे खा रहे थे, जैसे कि हलक के नीचे जा ही ना रहा हो और हम उसे जबरदस्ती अंदर ठूंस रहे हों। तुम मुझे कहती खा, मैं तुम्हें कहता खा। एक बार मैं ज़्यादा कहने लगा तो तुम बड़ा-पाव किनारे खिसकाती हुई एकदम मुझसे लिपट गई। मेरी छाती में सिर छिपाकर हुचक-हुचक कर रोने लगी। मैंने भी बांहों में भर लिया। तुम्हें चुप कराने के लिए, मेरे पास कहने को कोई शब्द नहीं थे, तो मैं तुम्हारा सिर सहलाता रहा।
तुम बड़ी देर तक ऐसे ही रोती रही,और मैं भविष्य में तुम्हारे,अपने सामने आने वाली भयावह स्थिति को सोच कर सिहर रहा था। तुमने मेरे लाख कहने पर भी कोई दवा नहीं खाई। मैंने तुम्हारा ध्यान रखते हुए बाद में तुम्हारी मनपसंद कचौड़ी और आलू,कद्दू की सब्जी बनाई। बहुत कहने पर भी नहीं खा रही थी,जब मैंने अपने हाथों से खिलाना शुरू किया तब तुम मुश्किल से थोड़ा सा खा पाई। कहने भर को।
तुम्हारी ह्रदय बेधने वाली परेशानी देख कर मैंने फिर ज्यादा जोर नहीं दिया। मुझे तुम्हारी आँखों में आंसू बराबर दिख रहे थे,लेकिन मैं नहीं चाहता था कि तुम मेरे ह्रदय के आंसू देख कर उन्हें बहाओ। मुझे अब हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा दिख रहा था। तुम्हें देखता तो ऐसा  महसूस होता जैसे तुम उस अँधेरे में मुझसे कहीं दूर और दूर होती, काले आसमान में किसी नन्हें तारे सी झिलमिलाने लगी हो। मेरी उदासी इतनी घनी होती गई कि मैं संज्ञा-शून्य सा हो गया। 
अगले दिन मैं खाना बनाने किचेन में गया तो गैस चूल्हे पर तवा रख कर खड़ा रहा ,गैस जलती रही ,बहुत देर हो जाने पर तुम लड़खड़ाती हुई देखने पहुँच गई। कभी पूरे रमानी हाऊस को, अपनी तीखी आवाज़ से गुंजा देने वाली तुम्हारी आवाज़ में,अब वह शक्ति नहीं रह गई थी कि मुझे एक आवाज़ दे कर बुला सकती। 
अब तुम्हारी आवाज़ सामने बैठा व्यक्ति ही सुन सकता था। तुमने जब मेरी बांह पकड़ी तो मेरी संज्ञा लौटी,तुम्हें देख कर मैं घबड़ा गया। तवा बीच में हल्का केसरिया सा हो रहा था। जल्दी से तुम्हें वहीं एक तरफ बैठा कर खाना बनाया, फिर तुम्हें वापस कमरे में पहुंचा कर खाना ले आया। अगले दो-तीन दिन मैं होटल नहीं गया। कारीगर के सहारे छोड़ दिया। तुम्हारी सेवा में लगा रहा। नई दवाओं से तुम्हें कुछ राहत मिली तो तुम एकदम पीछे पड़ गई कि 'होटल जाओ,धंधा सम्भालो। कब-तक मेरी सेवा में लगे रहोगे। कोई मर्द औरत की इतनी सेवा करता है, मैंने तो यह ख्वाब में भी नहीं सोचा था। इतने साल शौहर के साथ रही, कई बार बीमार पड़ी, लेकिन उसने एक गिलास पानी तक नहीं पूछा,खाने-पीने की तो बात ही छोड़ दो। ऊपर वाले से दुआ करती हूँ  कि हर औरत को तुम्हारे जैसा ही शौहर दे। कोई दवा असर करे या न करे, लेकिन तुम्हारी सेवा,तुम्हारे बेइंतेहा प्यार ने इतना असर कर दिया है कि अब तुम होटल सम्भालो,मैं ठीक हूँ।'
तुम्हारी ज़िद के चलते मैं चौथे दिन होटल चला गया। तुम्हें अकेला छोड़कर जाने का मेरा मन बिल्कुल नहीं हो रहा था, तो मैंने कहा, 'सुन, तू भी मेरे साथ होटल  चल। वहाँ एक तरफ तुम्हारे लेटने भर की जगह बना दूंगा,वहीं आराम करना।' 
लेकिन तुम नहीं मानी। बोली, 'वहां ग्राहक आते-जाते रहेंगे ,शोरगुल में आराम कहाँ कर पाऊँगी। मैं रहूंगी तो तुम काम भी ठीक से नहीं कर पाओगे। इसलिए तुम जाओ मैं यहीं रहूंगी। जरूरत पड़ी तो फ़ोन करूंगी। वैसे भी यहां ताला लगा के तो चल नहीं सकती। मैनेजर किस समय आ जाए, कोई ठिकाना तो रहता नहीं।'
तुम्हारी जिद, बातों के आगे मुझे झुकना ही पड़ा। मैं चला गया। लेकिन होटल पर मेरा मन नहीं लग रहा था। संयोगवश उस दिन रोज से कहीं तीन गुना ज़्यादा कस्टमर आ रहे थे। आगे के दो होटल उस दिन पता नहीं क्यों बंद थे। शाम चार बजते-बजते मेरा मन बड़ा घबड़ाने लगा। मैंने सोचा होटल कारीगर के सहारे छोड़ कर चलूं। लेकिन ग्राहकों की आवाजाही मुझे रोक ले रही थी। मगर पांच बजते-बजते मैं खुद को रोक नहीं पाया। तुम्हारे पास तुरंत पहुँचने के लिए अफनाया हुआ चल दिया।

रमानी हाऊस पहुंचा तो मेन गेट के बगल वाला छोटा गेट खुला हुआ था। मैं बाइक खड़ी कर अंदर दाखिल हुआ तो लॉन में ही मैनेजर, तीन चार लोग और दिखाई दिए। मैनेजर ने मुझे देखते ही कहा , 'आप?'
वह अपना मोबाइल कान में लगाने ही जा रहे थे, लेकिन मुझे देखते ही हाथ नीचे कर लिया। तभी मेरे मोबाइल पर एक रिंग होकर बंद हो गई। निकाल कर नंबर देखा तो वह नंबर मैनेजर का ही था। वह मुझे ही फोन कर रहे थे। मुझे देखते ही काट दिया था। मैंने उनके पास पहुंच कर नमस्ते किया। मन थोड़ा सशंकित हुआ कि आज इनके साथ इतने लोग क्यों? मैं कुछ पूछता उसके पहले ही उन्होंने पूछा, 'तुम-दोनों के बीच कोई झगड़ा-वगड़ा चल रहा था क्या?'
उनके इस प्रश्न से मैं एकदम घबड़ा गया कि क्या हो गया है? ये ऐसा क्यों पूछ रहे हैं? मैंने उन्हें  देखते हुए कहा, 'नहीं तो। हम-दोनों के बीच तो कोई झगड़ा नहीं चल रहा। हमारे बीच झगड़ा होता ही नहीं।'
मेरे जवाब पर उन्होंने मुझे घूरते हुए कहा, 'ठीक है।' फिर चुप हो गए तो  मैं सर्वेंट क्वार्टर की तरफ मुड़ा। मेरा मन तुम पर लगा हुआ था। लेकिन मेरे मुड़ते ही मैनेजर थोड़ा भारी आवाज़ में बोले, 'यहीं रुको, अभी कहीं नहीं जाओ।'
उनकी इस बात से मैं घबरा गया। मैंने सोचा कि इनसे कहूं कि मुझे अंदर तुम्हारे पास जाने दें । आखिर ऐसी कौन सी बात है कि, ना तो तुम दिख रही हो, और ना ही ये मुझे अंदर जाने दे रहे हैं। लेकिन मेरे कुछ बोलने से पहले ही उनके मोबाइल की घंटी बज उठी, उन्होंने अंग्रेजी में बात की। रमानी बहनों के कारण उनकी अंग्रेजी में कही बातों का सारा अर्थ मैं समझ गया था। उन्होंने किसी को सारी बातें बताते हुए जल्दी ही पुलिस के आने की बात कही थी। पुलिस का नाम सुनते ही मैं पसीना-पसीना हो गया। साहब, सुन्दर हिडिम्बा के चलते पुलिस की मार का अनुभव मिल चुका था। वह भी बिना किसी अपराध के। इसलिए पुलिस के आने की बात ने मेरी हालत खराब कर दी। मैं एकदम घबरा उठा कि यह मैनेजर कुछ बता नहीं रहा है। तुम्हारा कुछ अता-पता नहीं है।
आखिर कौन सी गड़बड़ हो गई है, कि पुलिस बुलाई गई है। फ़ोन पर मैनेजर की बात खत्म होते ही मैंने उनसे पूछा, 'आखिर आप बताते क्यों नहीं बात क्या है? सैमी दिख नहीं रही है, पुलिस भी आ रही है, क्या हुआ है ? कुछ तो बताइए। मुझे सैमी के पास जाने दीजिए।'
मगर मेरी बातों का मैनेजर पर कोई असर नहीं पड़ा। 
उन्होंने बड़े सपाट शब्दों में कहा, 'शांति से खड़े रहो। जब समझ ही लिया है कि पुलिस आ रही है, तो सीधे नहीं रह सकते। बेवजह उछल-कूद मचा रखी है। इतना कॉमनसेंस नहीं है, कि जब पुलिस आ रही है, तो कोई तो ख़ास बात होगी ही।'
उन्होंने यह बात बड़े गुस्से में कही। मैं आसानी से इस बात को समझ गया था कि उनके गुस्से का असली कारण यह था, कि मैंने उनकी बातों का आशय समझ लिया था। जबकि उन्होंने  यह सोचकर अंग्रेजी में बात की थी, कि मैं उनकी बात नहीं जान पाऊँगा। लेकिन उनके गुस्से का मुझ पर जो असर हुआ, उससे तुमसे तुरंत मिलने की अकुलाहट एकदम बढ़ गई। मैंने थोड़ा तन कर कहा, 'मैं सैमी के पास जा रहा हूं। पुलिस जब आएगी तब आएगी।'
मेरी बात सुनते ही वह हत्थे से उखड़ गए। मेरी तरफ झपट कर मुझे आंखें तरेरते हुए कहा, ' तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या? चुपचाप खड़े रहो, इसी में तुम्हारी भलाई है समझे।' उनके आगे आते ही, बाकी साथी भी एकदम से आगे आए और मुझे घेर लिया। और कोई समय होता, तो मैनेजर का टेटुआ पकड़ कर, उसे एक हाथ से ही दूर फेंक देता। मेरे कंधे से भी कम थी उनकी हाइट, मगर हालात के कारण खून का घूंट पीकर शांत रहा। मुझे छब्बी की घटना याद आ रही थी। वहां भी तो आखिर में पुलिस ही आई थी।
पूरा दृश्य नजर के सामने आ गया था। मेरी आत्मा काँप उठी। मैनेजर का व्यवहार उस  समय सुन्दर हिडिम्बा के व्यवहार जैसा हो रहा था। इन सबके चलते मैं बहुत व्याकुल हो अचानक मुड़ कर तुम तक पहुँचने के लिए कमरे की तरफ भागा। मैंने मैनेजर सहित उसके किसी आदमी की परवाह नहीं की। उन सबने पकड़ने की कोशिश की, लेकिन उन सबको एक तरफ झटकता हुआ मैं कमरे के सामने पहुंच गया।
वो भी चिल्लाते हुए मेरे पीछे पहुंच गए। लेकिन दरवाज़े पर पहुँच कर भी मैं तुम्हारे पास नहीं पहुंच पाया। कमरे का दरवाजा बंद था। मैं जब-तक खोलने की कोशिश करता, तब-तक उन पांचों ने मुझे खींच कर दरवाजे से दूर कर दिया। मैनेजर ने लगे हाथ कई गालियां दे डालीं। साथ ही हाथ भी उठाया, लेकिन आखिरी क्षण में ना जाने क्या सोचकर वापस खींच लिया। उनके साथियों ने मुझे दबोच रखा था।
मैंने उनसे खुद को छुड़ाने की कोशिश की लेकिन छुड़ा नहीं पाया। तभी मुझे अहसास हुआ कि अब मुझमें आठ-दस साल पहले वाली ताकत नहीं रह गई है। अब-तक जितना समझता था, सच में तो उसकी आधी भी नहीं है। इस अहसास के साथ ही मैं एकदम सन्न रह गया। मैंने खुद को उन सबकी पकड़ में एकदम ढीला छोड़ दिया। फिर मैनेजर से  हाथ जोड़कर कहा, 'मुझे खाली इतना बता दीजिए कि सैमी कहां है? बात क्या है? मुझे उसके पास क्यों नहीं जाने दे रहे हैं?'
मैंने बड़ी विनम्रता से पूछा था। लेकिन समीना बदले में मुझे भद्दी-भद्दी गालियां और चुप रहने की हिदायत मिली। मेरी कोशिश बेकार गई। मैं शांत हो खड़ा हो गया। मेरे पहुंचने के करीब पंद्रह मिनट बाद पुलिस पहुंची। मैनेजर पुलिस इंस्पेक्टर से ऐसे मिला, जैसे कोई बहुत करीबी बड़े दिन बाद अचानक ही मिल गया हो। उसने उसको फिर अंग्रेजी में सारी बातें बताईं । लेकिन ज़्यादातर बातें थोड़ा अलग जाकर कीं, जो सुनाई नहीं दी। 
दो मिनट बाद ही वह कमरे के सामने पहुंचा। कांस्टेबिल ने दरवाजा खोल दिया। वह अपनी फोर्स के साथ दाखिल हो गया। हम-सब बाहर ही थे। मैं पसीना-पसीना हो गया। दिल बड़ी तेज़ी से धड़कनें लगा। ऐसे जैसे कि मैं दसियों किलोमीटर दौड़ कर रुका हूं। तुमको लेकर तरह-तरह के अशुभ विचार मन में एक के बाद एक आते जा रहे थे। 
कुछ देर में पुलिस ने मुझे अंदर बुला लिया। कमरे में पहुंचते ही मुझे जो दिखा,उससे मैं हतप्रभ हो गया। दिलो-दिमाग बिल्कुल सुन्न हो गए। आंखों के सामने कुछ देर को अंधेरा छा गया। तुम पंखे से बंधी साड़ी से लटकी हुई थी। मैं हक्का-बक्का तुम्हें  देखता रह गया। आंखों से आंसू टपकने लगे। 
तभी इंस्पेक्टर ने पूछा, 'ये तुम्हारी कौन है?' 
उसके प्रश्न से चौंक कर मैं उसकी ओर मुड़ा। मैं तुरंत उसकी बात का जवाब नहीं दे सका तो उसने फिर पूछा। मैंने कहा, 'जी ये मेरी पत्नी है?'
फिर उसने पूछा, 'तुम्हारी शादी कब हुई?'
यह बात पहली बार मुझसे किसी ने पूछी थी। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, कि क्या जवाब दूं। मैं असमंजस में चुप रहा तो उसने फिर डपटते हुए पूछा, तो मैंने बता दिया कि इतने दिनों से हम दोनों पति-पत्नी की तरह रह रहे हैं। इसी घर में हम-दोनों मिले। साथ ही मैंने रमानी बहनों का हवाला देकर कहा कि, 'आप चाहें तो उनसे भी पूछ लें।'
मेरी इस बात पर वह कुछ देर मुझे घूर कर देखता रहा फिर कहा, 'बिना शादी के ही दावा ठोंक दिया पति होने का।' इसके साथ ही उसने कई गालियां दीं।
इसके बाद फोटो खींच कर तुमको फंदे से उतारा गया। लेडीज पुलिस के नाम पर दो मरियल सी कांस्टेबिल थीं। मैं नहीं चाहता था, कि तुमको पुरुष कांस्टेबिल छुएं। लेकिन मन का तो जीवन में कुछ हुआ ही नहीं, तो यहां कैसे हो जाता। उन सब ने तुमको उतार कर तखत पर लिटाया। अलग-अलग कोणों कई और फोटो खींची गई। पूरे कमरे की तलाशी ली गई, तो तखत पर पड़े तकिए के नीचे तुम्हारा लिखा सुसाइड लेटर मिला।
तुमने सीधे-सीधे लिखा था, '' मेरे प्यारे-प्यारे विलेन-किंग, मेरे तशव्वुर के राजा, मेरे हीरो तुम बिल्कुल खफा ना होना, ना तुम ये कहना, कि मैं कायर थी, ज़िंदगी  की दुश्वारियों से डर कर मौत को गले लगा लिया। 
मेरे दिल में हर पल रहने वाले मेरे राजा, मैंने दरअसल अपना एक फर्ज पूरा किया है। जब डाक्टर ने यह बताया, कि मेरे युटेरस में कैंसर है, जो काफी फैल चुका है। सर्जरी हर हाल में जल्दी से जल्दी करनी होगी। बात इतनी होती तो भी मैं तुम्हारे प्रति अपना फर्ज पूरा करने के लिए यह कदम ना उठाती। 
मगर जब उसने एड्स भी बताया और कहा कि तुम्हारी बीमारी लापरवाही के कारण बहुत बढ़ चुकी है। और एक दूसरे हॉस्पिटल का नाम बताकर कहा कि वह फोन कर देगा। मैं वहीं जाऊं। तुरंत एडमिट करने की स्टेज में हूँ। उसने यह भी बताया कि पैसा बहुत लगेगा। पूछने पर जितना बताया उससे मैं बहुत डर गई। इतना तो मैं तब भी नहीं डरी थी, जब उसने इन बीमारियों के बारे में बताया था।
मैंने इतना जानने के बाद पूछा, कि इतना पैसा खर्च करने के बाद मैं बच तो जाऊँगी। तो वह साफ़-साफ़  बताने के बजाय कहानी समझाने लगा। बार-बार पूछने पर भी कहानी समझाता रहा तो मैं सच समझ गई। मुझे यकीन हो गया कि जो सुनती हूं कि ये बीमारी मौत के साथ जाती नहीं,बल्कि मौत तक ले जाती है, तो सही यही है। यह मुझे मौत के सामने लाकर खड़ा कर चुकी है। बेवजह है पैसा खर्च करना। तिल-तिल कर मरने, रोज-रोज मरने से अच्छा है कि एक बार मरूं। 
देखो एक फायदा और समझदारी की बात यह भी है कि इससे ना सिर्फ पैसा बच जाएगा, बल्कि और ज़्यादा कर्ज नहीं होगा। तुम पर पहले ही बहुत कर्ज है। मैं नहीं चाहती कि तुम कर्ज के साथ-साथ मेरे कारण और तकलीफ झेलो। मुझे पता चल गया था कि तुम मुझे एडमिट करने के लिए पैसों के इंतजाम में लग गए हो।
अब एक और बात कहने जा रही हूं। देखो इस उम्मीद, इस विश्वास के साथ कह रही हूं, कि तुम मेरी बात मान जाओगे। मैं सच में तुझे दिल से चाहती हूं। इसीलिए इतना कह रही हूं। बहुत सोच-समझ कर कह रही हूं। रोज-रोज टीवी, पेपर, लोगों से सुनती-समझती रही हूँ , तुम भी यह जानते-समझते ही होगे कि ये बीमारी कैसे फैलती है।
हम-दोनों इतने दिनों से साथ हैं, संबंध हैं। देखो, मैं ऊपर वाले से बार-बार ये दुआ करती हूं, अंतिम सांस में भी यही दुआ करूंगी, कि तुझे ना हो। लेकिन मेरे प्यारे विलेन राजा तुम्हीं बताओ सच्चाई से मुंह कैसे मोड़ लूं? तुम्हीं तो बार-बार कहते हो कि सच्चाई से डरना नहीं चाहिए। इसीलिए बहुत हिम्मत करके कह रही हूं कि अपनी जांच जल्दी से जल्दी करवा लेना। 
तुझ पर कुछ अधिकार समझती हूं, इसीलिए यह भी कह रही हूं, कि मैं चाहती हूँ की तेरा अकेलापन मेरे साथ ही खत्म हो जाए। देख मैं बार-बार कहती हूं कि जरा भी हील-हुज्जत ना करना, मेरे ना रहने के बाद तुम लौट जाना। लौट जाना अपने जिले। अपने मुहल्ले। अपने घर, बड़वापुर लौट जाना। देखना वहां सब कैसे तुझे हाथों-हाथ लेंगे। तेरे सारे दोस्त, तेरा पूरा परिवार, पूरा खानदान तुझे सिर आंखों पर बिठाएगा।
तुम्हारे वो तीव्रतम सुख वाले प्रोफ़ेसर साहब भी गले से लगा लेंगे। तुमने उनके बारे में जो-जो बताया था, उससे मैं उन्हें बहुत ज्ञानी आदमी मानती हूँ। वो जरूर तुम्हारी पीठ थपथपा कर कहेंगे, यह तुमने बहुत अच्छा किया जो लौट आये। सुबह का भूला  शाम को लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते। लेकिन अब यह भूल दुबारा नहीं करना।
तब उनसे कहना कि बरसों पहले आपने तीव्रतम सुख के बारे में तो बता दिया था,अब तीव्रतम दुःख के बारे में भी बता दीजिये। जब वो बता दें, तब देखना किअब-तक तुम्हारे जीवन में जो कुछ हुआ, क्या उसमें कोई ऐसी घटना भी हुई जिसे तीव्रतम दुःख कह सकते हैं । अगर ठीक समझना तो उसके बारे में अपने प्रोफ़ेसर साहब से बात भी करना। देखना इन सारी बातों तुझे इतना सुकून मिलेगा, कि तुमको मुझे भूलने में भी देर नहीं लगेगी। तू जान भी नहीं पाएगा कि कब मुझे भूल गया।
मेरी यह बात एकदम सच मानना। कोई शक-शुबहा ना करना। मैं अपना अनुभव कह रही हूं। जब मेरा मन तेरे साथ लग गया। तेरे में रम गया। तो मैं अपना पिछला सारा कुछ भूल गई। भूल गई बच्चों को। भूल गई उस शौहर को, उसकी ज्यादतियों को, उसके हर काम को जिसके कारण मेरा यह हाल हुआ। मैं भूल गई थी उसके कहे गए आखिरी शब्दों, को जो मुझे तब बर्छियों की तरह चीरते चले गए थे। ''तलाक, तलाक, तलाक।'' 
मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि कभी इन बर्छियों का जख्म भरेगा। यह जख्म देने वाले शौहर को कभी भूल पाऊँगी। काश देश में तीन तलाक पर कानून पहले बना होता तो मैं उस नामुराद को मज़ा जरूर चखाती।
लेकिन तू ही देख न, सोच न कि जब तेरे साथ सुकून मिला। तुमने बेइंतेहा प्यार दिया । पैसा कमाने का जूनुन शुरू हुआ तो सब भूल गई। खो गई तुझी में। अब तू खुद को ही देख ले ना। जब मुझसे मिला तो शुरू में अपनी छब्बी की कितनी बातें करता था। थकता ही नहीं था। छब्बी से शुरू होता था, छब्बी पर ही खत्म होता था।
सच बताऊँ तब मैं ऊब जाती थी छब्बी, छब्बी सुनते-सुनते। लेकिन जब तू मेरे साथ जुड़ा तो भूल ही गया छब्बी को। जरा याद कर के देख, पहले के मुकाबले, एक पैसा भी याद करता है छब्बी को। अब तो तेरे मुंह से सैमी ही निकलता है। इसीलिए कहती हूं कि बड़वापुर लौट जाना।
वहां परिवार के साथ जब सुकून पाएगा तो सब भूल जाएगा। जब तुझे जरूरत पड़ेगी तो तेरा पूरा परिवार तेरे साथ खड़ा मिलेगा। और यहां,यहां तो कोई नहीं होगा आगे-पीछे। एक बात और कि इतने दिनों साथ रहते-रहते, यह बखूबी समझती हूं कि अब तू अकेले नहीं रह पाएगा। तू अंदर से बहुत कमजोर हो चुका है। अब तुझे सहारा चाहिए ही। अपनों का सहारा। इसलिए मेरी बात मान लेना, बड़वापुर लौट जाना। निसंकोच लौट जाना।
हां जब कभी समय मिल जाया करे अपनों से तो मुझे याद करके आंसू ना बहाना। बल्कि हंसना, खुश होना। खुश होना कि हम-दोनों ने इतना समय साथ-साथ बिताया। आखिर में इस तरह अलग हुए यह सोचकर भी दुखी ना होना। मेरे हिसाब से तुम्हारे अब-तक के जीवन का यही तीव्रतम दुःख है। फिर भी कहूँगी कि दुखी बिलकुल मत होना और अपने प्रोफ़ेसर साहब से कहना कि अधूरी शिक्षा न दिया करें, सिक्के के दोनों पहलू दिखाया करें।
देखा मैंने भी तुम्हारे प्रोफ़ेसर साहब की तरह जल्दी ही तुम्हें उत्तर बता दिया, तुम्हें परेशान नहीं होने दिया। देखो मेरे तन,मन,धन, मेरे ख्वाबों के राजा हम-दोनों ने जो कुछ किया, देखा जाए तो किसी भी तरह से सही तो नहीं था ना। हम-दोनों उन चाहतों के शिकार हुए, जो हर तरह से नाजायज थीं। अपनी गलत चाहतों के ही कारण हम-दोनों गुनाह दर गुनाह करते रहे। और अब....
देखो विलेन राजा, अब मैं यह मानती हूं कि आदमी को उसके अच्छे-बुरे का सारा शिला इसी ज़िंदगी में,इसी धरती पर मिल जाता है। दोजख-जन्नत सब यहीं है। इसलिए परेशान मत होना। दुखी मत होना। अपने घर लौट जाना। जहाज का पंक्षी हो या घोंसले का, शाम ढले जहाज या घोंसले में ही लौटता है।
आखिर में यह नहीं लिखूंगी कि मेरा अंतिम संस्कार तुम अपने हाथों करना, मुझे सुपुर्दे खाक करना, क्योंकि तुम पर मुझे पक्का भरोसा है, आंख मूंद कर यकीन करती हूं, कि यह सब तो तुम बिना कहे ही करोगे। अच्छा मुझे माफ करना। इस खता के लिए भी और जो जाने-अंजाने हुई हों उन सब के लिए भी। 
  अलविदा, अलविदा मेरे विलेन राजा।''
तो समीना इस तरह तुम एक झटके में अलविदा कह कर चल दी। छब्बी से आखिर में दो बातें करने को कौन कहे उसे देख भी नहीं सका था। मेरी पीड़ा इससे ज्यादा और क्या होगी कि तुमने भी दो बातें कर लेने का अवसर नहीं दिया। छब्बी और तुममें  इतना फ़र्क है कि छब्बी का अंतिम संस्कार कैसे हुआ यह तक पता नहीं चला। पुलिस की लाठियां उल्टे मिली थीं। जबकि तुम्हारा, तुम्हारी  इच्छानुसार अंतिम संस्कार कर सका था।
शुरुआत में पुलिस से कुछ गालियों की सिवा कोई और मुश्किल नहीं हुई। मैनेजर भी न सिर्फ शांत रहे,बल्कि हर तरह से मदद की,एक मित्र की तरह साथ दिया। तुम्हारी कही सारी बातें मैंने पूरी कीं। बस एक बात को छोड़कर कि बहुत कोशिश करके भी बड़वापुर घर नहीं लौट सका। क्योंकि घर लौटने को लेकर तुमने जो बातें जानी समझी थीं, वह वास्तव में वैसी रह नहीं गईं हैं।
वहां जाने के बाद कोई मुझे सिर-आंखों पर बैठाने को छोड़ो ढंग से बैठने के लिए भी कहने वाला नहीं है। इसके लिए अकेले ज़िम्मेदार मैं ही हूँ। मैंने काम ही ऐसे किए थे। दूसरे करेला उस पर नीम चढ़ा यह कि यहां कुछ बन तो सका नहीं। हां बनने के चक्कर में कर्म ऐसे-ऐसे कर डाले कि बदले में वो बीमारियां पाल ली हैं, कि मां-बाप भी होते तो सिर आंखों पर बैठाने को छोड़ दे, घर के किसी कोने में ही बैठाते। यही सब सोच कर मैंने तुम्हारी घर वापस जाने की बात नहीं मानी। इसके लिए बार-बार माफी माँगता हूँ ।
तुमने तो बीमारी का सिर्फ अंदेशा ही जताया था, मगर मुझे यकीन था। मैंने इस मामले में भी खुद को तभी तुम्हारे साथ मान लिया था, जब डॉक्टर ने तुम्हें यह बिमारी बताई थी। जल्दी ही यकीन सच में बदल गया। लेकिन मैं जब-तक काम करने लायक रहा तब-तक करता रहा और भले मानुष का कर्जा उतार दिया। मुझे पूरा विश्वास था कि यह सब जानने के बाद रमानी बहनें मुझे मैनेजर से कह कर बाहर निकलवा देंगी। मगर मैं इंतजार करता रहा, लेकिन उन्होंने  नहीं निकाला। मैं आश्चर्य में तो तब पड़ा, जब करीब दो साल बाद दोनों बहनें वापस आईं।
उन्हें देखकर मैंने सोचा, कि बस अब समय आ गया है बाहर सड़क, फुटपाथ पर दर-दर भटकने का। मगर मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैं उनके आने पर डर के मारे उनके सामने नहीं गया। वह दोनों खुद ही आईं कमरे पर। मेरा हाल-चाल पूछा। तब-तक मैं बेहद कमजोर पड़ चुका था। बातों ही बातों में मैंने बता दिया कि काम-धंधा सब बंद हो चुका है। अब खाना-पीना  भी मुश्किल है। दवा की तो कोई बात ही नहीं । 
उन दोनों ने संक्षिप्त सा कहा, 'परेशान होने की जरूरत नहीं। मैं अरेंज करवा देती हूं।' और इस तरह उन बहनों के चलते सर्वेंट क्वार्टर मेरा ठिकाना बना हुआ है। कौन सा दिन मेरी भी ज़िंदगी का आखिरी दिन होगा, उसी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। अब हाल यह है कि इस ''रमानी हाऊस'' में जिस ओर भी नजर डालता हूँ ,तुम ही तुम दिखाई देती हो। विलेन-किंग कहने वाली मेरी सैमी।
अब मैं एक और बात भी अकसर सोचता हूं कि यह सब करके तुम तो चली गई, और मैं मौत के दरवाजे पर खड़ा हूँ, मगर ये बहनें... मेरे साथ संबंध तो इन दोनों के भी रहे हैं। इन्हीं का आने-जाने वाला कोई मेहमान ही तो यह मौत का सामान यहां तक ले आया। फिर ये सामान लाने वाले अब-तक मौज में कैसे हैं? या इनमें भी कई हैं जो हम जैसे हो गए हैं, मगर पैसों की आड़ में सब छिपे हुए हैं। जैसे साहब,सुन्दर  हिडिम्बा के काले कारनामें और बड़वापुर में बंद पड़ी फैक्ट्री को बंद करवाने वाले लोग।
 अरे वाह ! वाह-वाह, आखिर मैंने इसे पूरा कर ही लिया। शाबास रे हमनी के,शाबास।
हाँ समीना मैं खुद ही को बार-बार शाबासी दे रहा हूँ। क्योंकि मेरे आगे-पीछे तो कोई है नहीं जो मुझे मेरी किसी सफलता पर शाबासी दे, बधाई दे, इसलिए मैंने अपने हाथों से अपनी पीठ छू कर स्वयं को बधाई दे दी । क्योंकि जीवन में पहली बार मैंने कोई काम सफलता-पूर्वक पूरा कर लिया है।
काम भी कोई साधारण काम नहीं है,कम से कम मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असाधारण ही है। तुम होती तो तुम भी खुशी से झूम उठती। क्योंकि यह काम ऐसा है जो विलेन-किंग बनने के मेरे सपने को एक दूसरे तरीके से पूरा करेगा। जानती हो इसका पूरा श्रेय मैनेजर साहब को जाता है।
मैं तो यह सोचता हूँ कि यह हमारा दुर्भाग्य था कि वो हमें इतनी देर से मिले, नहीं तो हमारा जीवन ही कुछ और होता ,न मैं तुम्हें खोता, न खुद को खोने की कगार पर खड़ा पाता। तुम्हारे जाने के बाद कभी-कभार उनसे होने वाली बात जल्दी ही इतनी होने लगी कि हम मित्रवत हो गए। 
सारी बातें जानने के बाद एक दिन वह बोले, 'तुम तो वास्तविक जीवन में ही नायक-खलनायक सब बन चुके हो,सारे रोल अदा कर दिए हैं। तुम्हारा जीवन तो किसी बहुरंगी फिल्म से भी ज्यादा उतार-चढ़ाव भरा है, इतना ज्यादा कि फिल्म क्या एक लम्बी शानदार वेब-सीरीज बन सकती है। वैसे भी अब समय वेब-सीरीज का है, फिल्म तो बीते जमाने की बात होने की तरफ बढ़ रही है। इस कोविड-१९ महामारी ने तो फिल्म इंडस्ट्री की भी आक्सीजन चोक कर दी है।'
समीना फिर एक दिन वह अचानक ही बोले,'बासू विलेन-किंग बनने का तुम्हारा सपना मैं पूरा कराऊंगा।'
यह सुनते ही मैं अवाक् उन्हें देखता रह गया। क्योंकि मैं उनकी क्षमता,उनका स्वभाव जानता हूँ। वह वही बात कहते हैं, जिसे शत-प्रतिशत कर सकते हैं। 
मुझे अवाक देख कर उन्होंने पूछा, 'क्यों, मेरी बात पर विश्वाश नहीं हो रहा है क्या ?'
मैंने कहा,'आपकी किसी भी बात पर अविश्वाश की बात तो मैं सोच ही नहीं  सकता। मैं तो अपनी किस्मत पर आश्चर्यचकित हूँ कि अब मेरा सपना पूरा होगा। मगर अपनी हालत को देख कर समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं एक्टिंग कैसे करूंगा ?' 
वह मुस्कुराते हुए बोले, 'तुम्हें एक्टिंग करनी ही नहीं है।'
उनकी यह बात सुनकर मैं बड़े पशोपेस में पड़ गया कि बिना एक्टिंग किये मेरा सपना कैसे पूरा हो जायेगा। मैंने बड़े संकोच के साथ उनसे अपनी शंका व्यक्त की तो उन्होंने बहुत  विश्वाश के साथ आराम से सारी बातें बताईं। जिसे सुनकर मैंने कहा,'मेरा सपना तो केवल विलेन बनने का था, लेकिन आपने तो मुझे हीरो,विलेन से लेकर राइटर,डायरेक्टर सब बना दिया। मैं बना दिया ही कहूँगा क्यों आपने तो एक तरह से सारी तैयारी भी कर ली है कि कैसे-कैसे क्या-क्या किया जाना है।'
हाँ समीना, वह एक पुख्ता प्लान के साथ मुझ से बात कर रहे थे। असल में उनके एक बहुत ही करीबी मित्र फायनेंसर हैं। वो फिल्म ,सीरियल निर्माताओं को फाइनेंस करते हैं । मैनेजर साहब ने उन्हीं से बात की। उन्होंने उनकी बात एक सीरियल निर्माता से करा दी। निर्माता ने उनसे बातें करने के बाद कहा बड़ी, 'इंट्रेस्टिंग बातें हैं। औडिएंस को ग्रिप में लिए रहेंगी। आप मुझे पूरी स्टोरी दीजिये।'
इसके बाद मैनेजर साहब ने मुझसे सिलसिलेवार पूरी स्टोरी देने  के लिए कहा। अब मेरे सामने विकट समस्या आ खड़ी हुई कि मैं पूरी स्टोरी दूँ कैसे? मैनेजर साहब ने कहा, 'यह काम तुम्हारे अलावा कोई और तो कर नहीं सकता। करना तुम्हें ही है। तुम्हारे जीवन की बातें तुम्हीं लिख सकते हो।
मैं यह जानता हूँ कि तुम्हारे लिए यह कोई कठिन काम नहीं है। जब अपने सपने के लिए अब-तक इतना संघर्ष किया, तो इसे आखिरी संघर्ष समझ कर शुरू कर दो। मुझे पूरा विश्वाश है कि तुम जब शुरू कर दोगे तो आसानी से पूरा कर लोगे। घबराने की कोई जरूरत नहीं है। घर छोड़ने से लेकर अब-तक की सारी बातें जैसे मुझे बताते थे, वैसे ही उसे लिखते चले जाओ बस। इतना तो लिखना-पढ़ना जानते ही हो कि जो भी बातें हैं, वह सब लिख लोगे। जो भी लिखोगे उसे फाइनली उनका प्रोफेशनल स्क्रिप्ट राइटर अपने हिसाब से ठीक कर लेगा। वो स्टोरी में जरूर कुछ ऐसा जोड़ेंगे-घटाएंगे जिससे यह उनके मुनाफे के लिए हॉट केक बन सके।' 
समीना इसके बाद मैनेजर साहब ने मुझे इतना समय नहीं दिया कि ज्यादा सोच-विचार कर मैं कन्फ्यूज होता। उन्होंने अगले ही दिन एक छोटी सी फोल्डिंग टेबिल,एक रिम कागज़ ,एक पैकेट पेन भिजवा कर फोन किया। हँसते हुए कहा,'मिस्टर राइटर आज से नहीं, अभी से शुरू हो जाइये। टेबल बिस्तर पर रख कर आराम से जितनी देर लिख सकें, उतनी ही देर लिखें। लगातार देर तक बैठ कर खुद को थकाने की आवश्यकता नहीं है।'
समीना मैनेजर साहब की बातों, कागज़, पेन सब देख-सुन कर मैं उत्साह ,उमंग ,जोश से भर गया। जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देखकर तुरंत उसके साथ लग जाता है, मैं भी उसी तरह लग गया। बिस्तर पर दिवार के सहारे पीठ टिका कर बैठ गया। टेबिल खोल कर पैरों के ऊपर रख ली, राइटिंग पैड पर पेपर लगा कर शीर्षक लिखा '' बड़वापुर का विशेश्वर '' लेकिन फिर तुरंत काट दिया,क्योंकि मुझे लगा कि यह शीर्षक गलत है,और अनुचित भी, क्योंकि विशेश्वर के साथ छब्बी और समीना भी हैं। इन दोनों के बिना तो कुछ लिखा ही नहीं जा सकता। 
बड़ी देर सोचने पर भी जब समझ में नहीं आया तो मैंने शीर्षक छोड़ कर आगे लिखना शुरू कर दिया। और आज करीब पांच महीने बाद यह पूरा लिख लिया है, लेकिन सही और उचित शीर्षक अभी तक नहीं रख पाया। हालांकि दिमाग में कई शीर्षक आये ,जैसे ''बासू की सैमी'' , ''बासू,छब्बी और सैमी'',''उसकी नायिका का आखिरी पत्र'', ...मगर इन सब से मुझे बात बनती नहीं दिखी, तो मैंने यह सोच कर इस पर दिमाग लगाना बंद कर दिया कि मैनेज़र साहब से कहूँगा कि, आप प्रोफेशनल स्क्रिप्ट राइटर कहियेगा कि वो अपने हिसाब से रख लेंगे ।  वैसे भी आप कह ही रहे थे कि वह शुरुआत ही इस ढंग से करेंगे कि उनके लिए यह शुरू से आखिर तक हॉट केक बन जाये।
समीना इस समय मेरे रोम-रोम से मैनेजर साहब के लिए धन्यवाद गूँज रहा है। वह इन पांच महीनों में बराबर मेरे पास आते रहे, मुझे प्रोत्साहित करते रहे। एक दिन मैंने उनसे कहा कि,'आप सीरियल बनवा देंगे, मेरी कहानी हमेशा के लिए अमर हो जायेगी, लेकिन फिर भी मेरी एक्टिंग की इच्छा, इच्छा ही रह जायेगी।'
इस पर वह मुझे कुछ देर गंभीरता से देखने के बाद बोले,'तुम्हारी यह इच्छा जरूर पूरी होगी। मैं उनसे कहूँगा कि आखिरी के कुछ एपिसोड में वो कुछ ऐसा मोड़ दें कि बीमार बासू का रोल तुम कर सको। जब बीमार बासू ही वह रोल अदा करेगा तो दृश्य इतना स्वाभाविक होगा कि देखने के बाद कोई उसे भूल नहीं पायेगा। ये दृश्य तुम्हें हमेशा जीवित रखेंगे मेरे मित्र।' यह सुनते ही मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया,'देखिये आखिरी एपिसोड बनने तक जीवित भी रह पाता हूँ कि नहीं।'
मेरे यह  कहते ही  वह बहुत गंभीर हो गए। मुझे लगा कि मैं बिलकुल सच बात, गलत समय पर बोल गया तो बात बदलने की गरज़ से अपने मन की यह बात भी उनसे कही कि, कहानी में ''रमानी हाउस'' सहित सभी के नाम बदल दे रहा हूँ, जिससे किसी का व्यक्तिगत जीवन आम चर्चा का विषय बन उनके मान-सम्मान को ठेस न पहुंचाए। पहले तो सभी के वास्तविक चेहरे दुनिया के सामने उजागर करना चाहता था, लेकिन फिर सोचा प्रतिशोध अच्छा नहीं।' यह सुन कर उन्होंने कहा, 'यह अच्छा किया,नहीं तो रमानी बहनें तुम पर अमरीका से ही हमला करतीं,और यहां वालों के हमलों की गिनती मुश्किल हो जाती।'
वह बराबर अपनी राय बताते रहते थे, जिससे मुझे अपना काम पूरा करने में बहुत आसानी हुई। आज रात ही वह यह पूरी कहानी ले जाएंगे सीरियल निर्माता को देने के लिए। लेकिन समीना मैं बड़ा अजीब सा महसूस कर रहा हूँ कि पहले विलेन बनने की कोशिश करते-करते नौकर बन गया, मैनेजर साहब ने नौकर से उठा कर लेखक बना दिया। लेकिन इन सब के बीच विलेन-किंग बनने का मेरा सपना कहाँ है? मैं तो स्वयं को अब भी वहीं खड़ा पा रहा हूँ , जहाँ कभी प्रस्थान के समय था। मेरी विजय रेखा, मुझे अब भी उसी क्षितिज रेखा के पास दिख रही है, जहाँ प्रस्थान के समय थी। हाँ...हाँ समीना, वह अब भी वहीं है ...           
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                                                                                  ई ६ एम २१२ सेक्टर 'एम'
                                                                                  अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
                                                                                   यू.पी. भारत 
                                                                                   मोबाईल नंबर:९९१९००२०९६ ,8299756474
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                                                                                    ,
फोटो : गूगल से साभार