रविवार, 16 मई 2021

कथा संचयन-मेरी कहानियां -खंड एक -प्रदीप श्रीवास्तव - pustakbazar.com कनाडा से प्रकाशित

 



                







मेरी कहानियां 

खंड-एक 

(कथा-संचयन)

प्रदीप श्रीवास्तव  

प्रकाशक : पुस्तक बाज़ार.कॉम 









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मेरी कहानियां 

खंड एक 

(कथा संचयन)

लेखक : प्रदीप श्रीवास्तव 

ई ६ एम २१२, सेक्टर एम ,

अलीगंज, लखनऊ -२२६०२४ 

यू. पी. , भारत 

कॉपी राइट : लेखक 

प्रथम संस्करण :२०२१

आवरण चित्र : ब्रजेश कुमार श्रीवास्तव 

आवरण सज्जा :  प्रत्युष श्रीवास्तव 

कम्प्यूटर टाइपिंग : धनंजय वार्ष्णेय , वंदना मेहरोत्रा 

प्रकाशक : पुस्तकबाज़ार.कॉम 

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आईएसबीएन:   

मूल्य : 3.00cdn

 









 


समर्पित 

पूज्य पितामह ब्रह्मलीन सीताराम ,पूज्य पिताश्री प्रेम मोहन 

एवं प्रिय अनुजों प्रमोद, सत्येंद्र की स्मृतियों को। 

जिनकी यादें मेरी अक्षय ऊर्जा हैं, प्रेरणा हैं । 

संस्कृत, हिंदी, मराठी, बांग्ला, उर्दू, फ़ारसी एवं अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार रखने वाले पूज्य पितामह वेदों, पुराणों और आयुर्वेदिक ग्रंथों चरक और सुश्रुत संहिता के प्रकांड पंडित थे।  उन्होंने आयुर्वेद पर केंद्रित कई पुस्तकें लिखीं थीं। 

देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जमींदारी का परित्याग कर दिया, जिससे पूर्णतः सक्रिय भूमिका निभा सकें। स्वाधीनता के लिए वह धरना, प्रदर्शन, उपवास को नहीं, क्रान्ति पथ को उचित और विश्वसनीय रास्ता मानते थे। कई बरस भूमिगत रहे, घर-परिवार से कोई संपर्क नहीं रहा।

स्वाधीनता के बाद एक कालेज में अध्यापक हो गए। गाँव में भगवान हनुमान जी का उनका बनवाया  मंदिर आज भी है। जहां बचपन में, मैं भी उनके साथ कई बार पूजा करने गया हूँ। स्वतंत्रता-सेनानी पेंशन को अस्वीकार करने वाले मेरे पूज्य पितामह जब मैं दस वर्ष का था, तब ब्रह्मलीन हो गए। 

पूज्य पिताश्री अत्यधिक स्पष्टवादी, ईमानदार, साहित्यानुरागी, विविध विषयों की विपुल जानकारी रखने वाले व्यक्ति थे। सनातन धर्म-संस्कृति, राष्ट्रवाद को लेकर उनके विचार बहुत स्पष्ट थे। सनातन धर्म-संस्कृति ही वैदिक युग जैसे, शांत युग में दुनिया को ले जा सकती है, ऐसा उनका दृढ मत था। राष्ट्र के सम्बन्ध में उनके विचारों पर पूज्य पितामह के विचारों का गहरा प्रभाव था। 

उनसे सामान्यतः प्रतिदिन ही होने वाले विचार-विमर्श से मैंने बहुत कुछ जाना, समझा, सीखा था। सरकारी सेवा से निवृत्त होने के बाद वह अध्यात्म में और गहरे उतरते जा रहे थे। गीता-दर्शन में उनका अटूट विश्वास था। १२जुलाई, २०१२ को उन्होंने प्रातः छह बजे ब्रह्मलोक को प्रस्थान किया।

प्रिय अनुज प्रमोद बड़ी ही कुशाग्र बुद्धि के होनहार छात्र थे।     स्कूल की क्रिकेट टीम से बतौर तेज़ गेंदबाज खेलते थे। १९८६ में दसवीं की परीक्षा देकर ननिहाल गर्मीं की छुट्टियां बिताने भदोही (अब संत रविदास नगर) गए थे। 

वहीं से एक दिन परिवार के सदस्यों के साथ वाराणसी (अब काशी) घूमने जा रहे थे। ९ जून १९८६ की सुबह के नौ बज कर पैंतालीस मिनट हो रहे थे कि, तभी इनके वाहन को पीछे से एक पेट्रोल टैंकर ने टक्कर मार दी, और उसी समय प्रिय भाई प्रमोद ने इस दुनिया का हमेशा के लिए परित्याग कर दिया, मानो यह कहते हुए कि, क्या रहना ऐसी दुनिया में, जहाँ लोग राहों पर चलना भी न सीख सके। 

पता नहीं समय हमारे परिवार के लिए कठोर बना रहा या कि, दुनिया ही जिद्दी बनी रही कि, हम राहों पर नियमानुसार चलना न सीखेंगे, भले ही अनगिनत लोग असमय ही होते रहें ब्रह्मलीन, उजड़ते रहें घर के घर। 

हम चार भाइयों, एक बहन में सबसे छोटे प्रिय सत्येंद्र पढ़ने-लिखने में ही नहीं, खेल-कूद में भी सबसे तेज़ थे। शतरंज खेलने में तो मास्टर थे ही, क्रिकेट में विपक्षी टीम के लिए उनकी लेग स्पिन हमेशा सिर-दर्द बनी रहती थी। 

पढ़-लिख कर जल्दी ही वह इंजीनियर बन गए और साथ ही अपने पितामह की तरह कई भाषाओं के मास्टर भी। हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी के अलावा वह डच, रूसी और पर्शियन भाषा भी जानते थे। अपनी सत्रह वर्ष की नौकरी के दौरान वह काफी समय हॉलैंड, रूस, ईरान और नेपाल में भी रहे। 

वह जहां भी जाते वहां के समाज, भाषा, संस्कृति को बड़ी गहराई से  समझते-सीखते थे और अपने अनुभवों, जानकारियों को मुझसे साझा करते रहते थे। जब लखनऊ आते तो मेरे लिए एक कीमती पेन अवश्य ले आते। इस कथा-संचयन के कवर पर उन्हीं की भेंट की गई पेन है ....मुझे दी गई उनकी अनुपम भेंट। 

मेरे ऐसे अनुपम, प्रिय भाई को राहों पर नियमानुसार न चलने की जिद्द ठाने लोगों ने, पहले वाले प्रिय भाई की तरह ही परिवार से सदैव के लिए छीन लिया। १० मार्च २०१७ को गुरुग्राम, हरियाणा में एक मिलर ट्रक ने पीछे से उनके वाहन में टक्कर मार दी। टक्कर इतनी तेज़ थी कि, प्रिय सत्येंद्र उसी समय अपने डेढ़ वर्ष के बेटे, पांच वर्ष की बेटी, सारे परिवार को छोड़ कर ब्रह्मलीन हो गए।

........लेकिन यादें, यादें कभी ब्रह्मलीन नहीं होतीं, हो ही नहीं सकतीं। वो हमेशा साथ रहती हैं, हमारी साँसों की तरह।

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श्रद्धांजलि

तीसरे विश्व-युद्ध कोविड-19 में वीर-गति प्राप्त कर रहे सभी पुण्यात्माओं को सर्व-प्रथम मैं भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ । ईश्वर इन सभी पुण्यात्माओं को अपने श्री-चरणों में स्थान प्रदान करे, ऐसी मेरी उनसे प्रार्थना है। 

''तीसरे विश्व-युद्ध'' यह पढ़ कर आपको आश्चर्य में नहीं पड़ना चाहिए। आज दुनिया जिस महामारी कोविड-19 से त्रस्त है, लाखों लोग प्रतिदिन असमय ही काल-कवलित हो रहे हैं, कोरोना वायरस के माध्यम से चीन ने ही इसे फैलाया है। इस बात के विभिन्न माध्यमों से ऐसे अकाट्य प्रमाण सामने आते जा रहे हैं , जिन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं दिखता। 

मानव का अस्तित्व खतरे में है। यह श्रृद्धांजलि प्रकाशित होने तक मेरा या किसका-किसका जीवन सुरक्षित रहेगा, इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तीसरा विश्व-युद्ध जैविक हथियारों से लड़ा जाएगा, ऐसी आशंका २०१५ से पहले ही अमेरिकी वायु-सेना के एक शीर्ष सैन्य अधिकारी ने जताया था । भारत के रक्षा विशेषज्ञों, सुरक्षा एजेंसियों ने भी सरकार को आगाह किया था कि, २०१४ से ही भारत से हर क्षेत्र में मुंह-तोड़ जवाब मिलने से तिलमिलाया चीन जैविक हमला कर सकता है।

इन बातों की पुष्टि मीडिया में आ रहे तमाम तथ्यों से हो रही है। इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो रहा है कि, चीनियों ने इस जैविक-युद्ध के लिए तैयार किये गए दस्तावेज में, कोरोना वायरस को 'जैविक हथियार के नए युग' के रूप में दर्ज़ किया है। विश्व को जीतने के लिए तैयार किया गया, यह उसका जैविक-युद्ध हथियार है ।

उसके इस हथियार की भीषण संघारक क्षमता को, इस एक तथ्य से ही सहजता से समझा जा सकता है कि, इस जैविक हथियार ने मात्र सोलह-सत्रह महीने में ही सत्रह करोड़ से अधिक लोगों को बीमार कर दिया, चौंतीस लाख से अधिक लोग काल के गाल में समा गए। इस संघारक हथियार की तैयारी में वह सन् 2000 से ही लगा हुआ था। सन् 2003 में ही वह सार्स वायरस के जरिए जैविक हथियार का एक सफल परीक्षण भी कर चुका था। 

उसने अपने जैविक हथियार के लिए बहुत सोच-समझ कर कोरोना वायरस को चुना, क्यों कि यह ज्ञात सभी वायरसों की अपेक्षा बहुत तेज़ी से स्वयं को बदलता रहता है, स्वयं की कॉपी करते-करते, नए-नए वेरिएंट में परिवर्तित होता रहता है। इससे खतरा यह बना हुआ है कि, जिन वैक्सीनों के सहारे, इसे नियंत्रित कर मानव को बचाने का प्रयास दुनिया कर रही है, उसके सारे प्रयासों पर इसका कोई नया वेरिएंट, सारी वैक्सीनों को निष्प्रभावी करते हुए, पानी फेर सकता है।

पूर्व में विश्व के रक्षा विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों द्वारा ऐसी आशंका, संदेह बराबर व्यक्त किए जा रहे थे। लेकिन ना जाने क्यों महाशक्तिओं, सभी देशों द्वारा ऐसी आशंकाओं पर ध्यान नहीं दिया गया, कोई प्रतिक्रियात्मक कदम नहीं उठाए गए। इससे मानवता का दुश्मन यह देश बेलगाम अपनी तैयारी करता रहा। और 2018 का आखिर आते-आते उसने विश्व को जीतने का अपना अभियान प्रारंभ कर दिया। 

उसकी तैयारी कितनी पुख्ता, कितनी योजना-बद्ध है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, इस महामारी ने साल-भर में विश्व-अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है, वह लगातार सिकुड़ रही है। चिकित्सा व्यवस्था से लेकर, हर व्यवस्था चरमरा गई है। बार-बार के लॉक-डाऊन से सारी उत्पादक गतिविधियां ठप्प हो जा रही हैं।

भारी संख्या में कर्मचारिओं के संक्रमित होते जाने से कार्यालयों में कार्य की स्थिति में ठहराव गंभीर रूप लेता जा रहा है। चिकित्सालयों में मरीजों को भर्ती करने के लिए जगह नहीं है। अन्य रोगों के मरीजों को पर्याप्त चिकित्सा नहीं मिल पा रही है, परिणाम-स्वरुप वह असमय ही कालकवलित हो रहे हैं। ऐसे लोगों की संख्या कोविड-19 से मरने वालों की संख्या से कम नहीं होगी।

सिकुड़ती अर्थ-व्यवस्था से करोड़ों की संख्या में बेरोजगार हो रहे लोगों को कैसे छोड़ा जा सकता है । बेरोजगारी से उत्पन्न भुखमरी से भी बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो रही है। रोजगार जाने , व्यवसाय ठप्प होने से लोग आत्महत्या कर रहे हैं। बच्चों में कुपोषण से होने वाली मौतों में बढ़ोत्तरी हो रही है। महिलाओं की स्थिति और भी भयावह है। कोविड-19 से फैले हाहाकार में इन सब की करुण चीत्कार गुम ही होती जा रही है। 

लेकिन यहीं मानवता के दुश्मन चीन की जैविक-युद्ध के लिए डेढ़-दशक से अधिक समय तक की गई तैयारी देखिए, उसकी अर्थ-व्यवस्था नहीं सिकुड़ रही। उसकी फैक्ट्रियां बंद नहीं हो रही हैं। उसके कार्यालय निर्बाध रूप से सक्रिय हैं। 

बहुत ही कुटिलता के साथ बीते कुछ दशकों में उसने दवाओं को बनाने में प्रयोग होने वाले कच्चे माल के लिए दुनिया को अपने ऊपर निर्भर बना लिया है। और अब कई गुना कीमत पर भी कच्चा माल देने में सारे अड़ंगे लगाता है, समय पर माल नहीं देता, जिससे विभिन्न दवाओं की उपलब्धतता की समस्या दिनोंदिन गंभीर होती जा रही है। इसके सहारे वह पूरी दुनिया के हाथ उमेठता जा रहा है। दूसरी तरफ उसकी चिकित्सा व्यवस्था चाक-चौबंद है। कोविड-19 उसके यहां पूरी तरह से नियंत्रण में है। जबकि एक अरब से अधिक की महाकाय जनसंख्या वाला देश है। 

ज्ञात इतिहास में, जल-थल-नभ में इस समय वह सबसे अधिक आक्रमक बना हुआ है। हर देश को हड़पने के लिए साम-दाम-दंड-भेद चारों नीतियां अपना रहा है। क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि, कोविड-१९ जैविक हथियार के जरिये उसने वैश्विक स्थितियां अपने अनुकूल बना ली हैं। 

मैं कहना यह चाहता हूं कि, यह तो राजनीत है, एक देश, दूसरे देश को हड़पने की प्रबल इच्छा आदि-काल से रखता आया है। इस कारण इतिहास युद्धों से भरा पड़ा है। और इतिहास इस बात से भी भरा हुआ है कि, तत्कालीन लेखकों विचारकों ने ऐसी शक्तियों के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट किया, जन-समूह को जागृत किया। चाहे युद्ध की आशंका बनी तब या युद्ध काल में भी। ऐसे लेखकों विचारकों को अपने इस उत्तरदायित्व निर्वहन के लिए शासकों के क्रोध को भी झेलना पड़ा, अपना देश छोड़ना पड़ा। अपने प्राण भी न्योछावर करने पड़े।

मगर आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि, डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन चीन यह करता आ रहा है, और दुनिया-भर के लेखक विचारक ऐसा कोई अभियान क्यों नहीं खड़ा कर सके कि, अन्य देशों पर एक बड़ा दबाव पड़ता कि, वह सामूहिक रूप से मानवता की दुश्मन इस निरंकुश शक्ति पर अंकुश लगाते। एक समय द्वितीय विश्व-युद्ध में मित्र राष्ट्रों ने नाजी जर्मनी को खत्म किया था। 

मानवाधिकार, पर्यावरण से लेकर लोक-तंत्र के नाम पर पूरी दुनिया में आए दिन ही बखेड़ा कर एक माहौल बना देने वाले यह लेखक विचारक डेढ़-दशक से भी अधिक समय से मानवता को निगलने के लिए आतुर इस ड्रैगन के कुकृत्यों को लेकर अब-तक अफीमचियों  सी प्रमाद की स्थिति में क्यों पड़े हुए हैं? उनकी इस प्रमादी निद्रा के पीछे कारण क्या है?

ऐसे सभी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि, उनसे उनकी इस रहस्यमयी निद्रा का कारण जाने बिना समय उन्हें नहीं छोड़ेगा। यह सोचना शुतुरमुर्गी सोच होगी कि, समय व्यतीत हो जाएगा तब कौन पूछेगा? जी नहीं ,सब अंकित हो रहा है इतिहास के पन्नों पर। समय किसी को बचने का रास्ता नहीं देता। 

क्या एक ऐसा अभियान नहीं प्रारंभ किया जा सकता कि, दुनिया की तमाम शक्तियां एक होकर, इस मानव विनाशक कम्युनिस्ट ड्रैगन के गले की नाप ले सकें। यह नहीं भूलना चाहिए कि, मानवता के संयुक्त रूप से दो सबसे बड़े शत्रु हैं, धर्मांधता और कम्युनिस्ट सोच। इन पर नियंत्रण कर के ही मानवता के सबसे बड़े शत्रु को परास्त या समाप्त किया जा सकता है।

यह शक्ति लेखकों की कलम से ही निकलेगी, किसी परमाणु बम से नहीं। क्योंकि विचारों का संघर्ष, विचारों से ही जीता जा सकता है, किसी अन्य ताकत से नहीं। ऐसा करके ही हम तीसरे विश्व-युद्ध कोविड-19 में वीर-गति प्राप्त करने वाले लोगों को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकेंगे। इस दुनिया को बचा सकेंगे। 









अनुक्रम

१-हार गया फौजी बेटा  

२-घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद

३-मेरे बाबू जी

४-बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा            

५-हनुवा की पत्नी 

 ६- कौन है सब्बू का शत्रु     

७-नक्सली राजा का बाजा 

८-आओ थेरियों

९-बस नमक ज़्यादा हो गया

१०-एमी 

११-एबॉन्डेण्ड      

१२-बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स

१३-भगवान की भूल  

१४-करोगे कितने और टुकड़े

१५-उसे अच्छा समझती रही

१६-मेरा आख़िरी आशियाना 

१७-झूमर

१८-मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद 

१९-दीवारें तो साथ हैं

२०-औघड़ का दान      

२१-किसी ने नहीं सुना

२२-जब वह मिला         

२३-मम्मी पढ़ रही हैं 

२४-भुइंधर का मोबाइल

२५-नुरीन









हार गया फौजी बेटा

जब उसका दर्द मुझसे न देखा गया तो मैं उठकर चला गया उसके बेड के पास, जो न्यूरो सर्जरी वॉर्ड का बेड नंबर चार था। जिस पर वह छः फ़ीट से भी ज़्यादा लंबा और मज़बूत जिस्म का जवान सुबह ही भर्ती हुआ था। आने के बाद से ही वह रह-रह कर दर्द से बिलबिला पड़ता था। उसकी गर्दन में, उसकी गर्दन से भी बड़ा हॉर्ड कॉलर लगा हुआ था। जो पीछे आधे सिर से लेकर कन्धे से नीचे तक था और आगे ठुड्डी से लेकर नीचे सीने तक। मैंने उसे अपना परिचय देकर पूछा – "बेटा तुम्हें क्या हो गया है? तकलीफ़ बहुत ज़्यादा हो रही है क्या?"उसने धीरे से आँखें खोलीं रत्तीभर गर्दन मेरी तरफ किए बिना ही नज़रें तिरछी कर मुझे देखा, फिर मुस्कुराने की असफल कोशिश करते हुए बोला-

"हाँ अंकल जी, दर्द बहुत ज़्यादा है।"

अंकल शब्द ने मुझे उससे एकदम से भावनात्मक रूप से जोड़ दिया। दिमाग में अचानक से यह बात कौंध गई कि हमारी नई पीढ़ी हमारे सनातन संस्कारों से अभी एकदम से रिक्त नहीं है। पूरा न सही अंकल-आँटी, डैड-मॉम के सहारे ही सही अभी भी सनातन संस्कार प्रवाहमान है। मैंने बड़ी आत्मीयता से उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बात आगे बढ़ाई और पूछा – "तुम्हारे गले में क्या हुआ है?" तो उसने बीच-बीच में उठती दर्द की लहरों को सहन करते हुए बताया कि वह एक फौजी है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर तैनात है। एक दिन घुसपैठिये आतंकवादियों से मुठभेड़ हो गई। उन्हें दबोचने की कोशिश की गई तो पाकिस्तानी फौजियों ने उनके लिए कवर फायरिंग शुरू कर दी। उसकी टीम ने हमले के बावजूद चार आतंकियों को मार गिराया। दो पाकिस्तानी फौजी भी मारे गये। जब कि इधर वह स्वयं और उसके तीन साथी गोलियों से बुरी तरह जख्मी हो गए। दुर्भाग्य से यह भी हुआ कि जिस वाहन से सभी घायल लाए जा रहे थे वह बेहद ख़राब रास्ते के कारण एक जगह पलट गया। जिससे सभी को और चोटें आईं। मगर भगवान की इतनी कृपा रही कि ऑर्मी हॉस्पिटल में सभी डेढ़ महीने में ही चंगे हो गए। वह भी हो गया लेकिन साथ ही डॉक्टर ने यह भी कहा कि दो महीने बाद ही ड्यूटी पर जाने के लिए फिट हो पाएगा। डॉक्टर की सलाह पर ही उसे दो महीने की मेडिकल लीव मिल गई और वह घर आ गया। घर आने के कुछ दिन बाद ही उसकी गर्दन और एक हाथ-पैर में दर्द और अकड़न शुरू हुई। जो तेज़ी से बढ़ती गई।

बस्ती जैसे छोटे शहर के डॉक्टरों ने कहा इसका इलाज यहाँ नहीं हो पाएगा। लखनऊ जाइए। यहाँ आर्मी हॉस्पिटल में दिखाना चाह रहा था लेकिन साथ आए एक रिश्तेदार के कहने पर बलरामपुर हॉस्पिटल चला गया। वहाँ डॉक्टर ने जो बताया उससे सब घबरा गए। फिर डॉक्टर की सलाह पर यहाँ पी.जी.आई. आए। यहाँ बता रहे हैं कि स्थिति बड़ी गंभीर है और गले का बड़ा ऑपरेशन होगा। टाइटेनियम की प्लेट लगानी पड़ेगी, ऑपरेशन के बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं कि हाथ पैर जो कुछ ही दिनों में बेहद कमज़ोर हो गए हैं वह ठीक हो ही जाएँगे। संभावना तो यह भी है कि हालात और बिगड़ जाएँ। शरीर अपंग हो जाए। ऑपरेशन में जान जाने का भी ख़तरा ज़्यादा है। घर का इकलौता वही कमाऊ पूत है। पिता किसानी से थोड़ा बहुत कर लेते हैं। एक बहन की शादी पिछले वर्ष की। उसका काफी कर्ज़ सिर पर अभी है। दो छोटी बहनें अभी शादी को बची हैं। पिछले कुछ ही दिनों में ही अच्छी ख़ासी रकम खर्च हो चुकी है। आगे न जाने कितना खर्च आए। इन सभी बातों ने दर्द मानो और बढ़ा दिया है।

उसकी बातों ने मुझे द्रवित कर दिया। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा परेशान मत हो बेटा तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे। मरीज को ऑपरेशन के रिस्क के बारे में बताना डॉक्टर्स का कर्तव्य होता है। वैसा ही हो यह ज़रूरी नहीं। यह बहुत बड़ा और अच्छा हॉस्पिटल है, एक से बढ़कर एक काबिल डॉक्टर और बड़ी-बड़ी मशीनें हैं। बहुत गंभीर रोगी भी यहाँ आसानी से ठीक होते देखे हैं हमने। मेरी इस बात पर वह इतने दर्द के बावजूद हल्के से मुस्कुरा उठा।

मैंने पूछा, "क्या हुआ बेटा?"

"कुछ नहीं अंकल जी, ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी सभी बातें सही निकलें। यहाँ भर्ती होने के लिए, हमें इतने पापड़ बेलने पड़े कि आज़िज होकर सोचा कि चला चलूँ वापस, जो होगा देखा जाएगा। मेरे बूढ़े पिता की टाँगें दौड़ते-दौड़ते, डॉक्टरों की मिन्नतें करते-करते थक गई थीं। काँप रही थीं। उनकी और बहनों की आँसू भरी आँखें देख-देखकर मन में आता कि इससे अच्छा तो आतंकियों से लड़ते-लड़ते देश के लिए शहीद हो जाना अच्छा था। कम से कम मेरे घर वालों को यह जलालत तो नहीं झेलनी पड़ती। मेरे बड़े अधिकारी ने जब दो सीनियर्स को भेजा, यहाँ के आला अधिकारियों को फ़ोन किया तब मुझे दो दिन बाद भर्ती किया गया। यह दो दिन बाहर इस कैंपस में मैंने, मेरे परिवार ने गंदगी, मच्छरों और बंदरों के साए में कैसे काटे यह बता नहीं सकता। एमरजेंसी में कोई देखने को तैयार नहीं था। अगले दिन आइए। ओ.पी.डी. में आइए, न जाने कहाँ-कहाँ आइए। यह सब देख-देख के बस एक आवाज़ मन में आती वाह रे व्यवस्था, वाह रे मेरा देश। जब फौजियों की यह हालत है तो बाकी जनता किस पीड़ा से गुज़रती होगी। सुबह से दर्द के बारे में न जाने कितनी बार कहा लेकिन कोई नहीं सुनता। हाँ ठीक हो जाएगा, टाइम लगेगा। क्यों परेशान कर रहे हो। एक तुम्हीं नहीं हो और भी पेशेंट हैं वार्ड में। बस डाँट कर चल देते हैं। डॉक्टर्स हों या नर्स। राहत वाली बात है तो सिर्फ़ इतनी कि कुछ डॉक्टर्स और नर्स बहुत ही अच्छे से पेश आते हैं। यह सब कुछ देख के ही मुझे यह यकीन हो गया है कि यह इतना बड़ा हॉस्पिटल इन कुछ अच्छे लोगों के कारण ही चल रहा है। जैसे यह दुनिया।"

"बेटा इन बातों को इतनी गंभीरता से मत लो। सभी इन हालात का सामना करते ही हैं। इतनी टेंशन तुम्हारी सेहत के लिए भी अच्छी नहीं है।" फिर और कई बातें करके मैं अपने बेड की ओर बढ़ना चाह रहा था। क्योंकि मेरी बूढ़ी टाँगें जो बीमारी के कारण और कमज़ोर हो रही थीं, जवाब देने लगी थीं। इसी बीच आधे घंटे का विज़िटिंग हॉवर शुरू होते ही उसके पिता और दोनों बहनें आ गईं। वह सब आपस में ठीक से बात कर सकें इस गरज से मैंने उनसे सिर्फ़ परिचय लेने-देने तक ही बातचीत की और अपने बेड पर आ गया। मेरी आँखें भी इंतज़ार करने लगीं कि तीन बेटों, बहुओं, दो बेटी दामादों में से शायद कोई मिलने आएगा। पाँच दिन से कोई नहीं आया था। जबकि दो बेटे और एक बेटी इसी शहर में रहते हैं। ग़नीमत थी तो सिर्फ़ यह कि दिन भर में किसी न किसी एक का फ़ोन ज़रूर आ जाता था और इतना कह कर कट भी जाता था कि आप ठीक हैं न, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं। उनसे क्या कहता कि बच्चो बुढ़ापे में जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उस बारे में तुम लोग सोच ही नहीं रहे हो। पाँच-पाँच बच्चों का पिता होकर भी लावारिस सा यहाँ पड़ा हूँ। कोई पुरसाहाल नहीं है। काट खाने को दौड़ते इस अकेलेपन का भी कोई ईलाज है क्या इस पी.जी.आई में? मेरी आँखें भर आयीं। रुक्मिणी का चेहरा आँखों के सामने था। मन में हूक सी उठी कि अच्छा हुआ जो तुम यह सब देखने से पहले चली गई। अब मुझे भी बुला लो अपने पास। अब काटे नहीं कटता ये जीवन।

मेरे विचारों की शृंखला सिस्टर की तीखी आवाज़ ने भंग कर दी। कर्कश स्वर में चिल्ला रही थी "चलिए, बाहर चलिए मिलने का टाइम ख़त्म हो गया। जब तक पाँच बार चिल्लाओ नहीं तब तक जाने का नाम ही नहीं लेते।" उसकी कर्कश आवाज़ ने असर दिखाया और देखते-देखते सारे विज़िटर्स वार्ड से बाहर हो गए। अब बाकी पेशेंट्स भी बेड पर मेरी तरह अकेले रह गये थे। मगर मेरे और उन सब के अकेलेपन में ज़मीन आसमान का फ़र्क था। वह सब बेड पर अकेले थे लेकिन बाहर उनके घर वाले उनकी तीमारदारी के लिए बराबर बने हुए थे। इसीलिए बीमारी की लाख तकलीफ़ों के बावज़ूद सभी के चेहरों पर एक ख़ास तरह की चमक थी। मुसीबत में अपनों के साथ होने की चमक। वह फौजी भी तमाम तकलीफ़ों के बावजूद अपने चेहरे पर राहत की लकीरें लिए हुए था। कुछ मिनटों के लिए उसका अधिकारी मिलने आया था। उसके साथ और कई फौजी जवान थे। अधिकारी ने जाते समय बड़ी आत्मीयता से उस बहादुर फौजी के सिर पर हाथ रखा था।

उस रात मैं बड़ी गहरी नींद सोया था। इसलिए नहीं कि मुझे सुकून का कोई कतरा मिल गया था। सोया तो इसलिए था क्योंकि नर्स ने मुझे गलती से नींद की दवा की डबल डोज़ दे दी थी। जिसकी ख़ुमारी अगले दिन भी महसूस कर रहा था। हाँ अगले दिन शाम को तब मैंने बड़ा सुकून महसूस किया जब यह पता चला कि उस बहादुर फौजी का दो दिन बाद ऑपरेशन होगा। यह जानकर मैंने ईश्वर को हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया कि चलो दो दिन बाद देश का होनहार बहादुर फौजी अपनी तकलीफ़ों से काफी हद तक मुक्ति पा लेगा। फिर जल्दी ही स्वस्थ होकर पुनः वतन की रक्षा में लग जाएगा। फिर से अपने माँ-बाप के बुढ़ापे का सहारा बनेगा। अपनी बहनों की, अपनी शादी कर सकेगा। एक खुशहाल जीवन जिएगा।

उस दिन उससे मैंने टुकड़ों- टुकड़ों में कई बार-बातें की। उसकी बातें बड़ी दिलचस्प थीं। अपने सपनों के बारे में बताते-बताते उसने हँसते हुए यह भी बताया की वह छः बच्चे पैदा करेगा और सभी को फौज में भेजेगा। मैंने कहा अगर लड़कियाँ हुईं तो? तब उसने कहा उनको भी फौजी बनाऊँगा। अब तो लड़कियाँ भी फौज में आ रही हैं। मैंने कहा देश की जनसंख्या के बारे में नहीं सोचोगे। तब वह हँस कर बोला, "अंकल बड़ी जनसंख्या-मतलब बड़ी ताकत। कम जनसंख्या का सिद्धांत फेल हो रहा है। चीन ने भी केवल एक बच्चे के नियमों में ढील देकर दो बच्चे पैदा करने की इज़ाज़त दे दी है।"

उसकी शारीरिक स्थिति देखते हुए मैंने उससे और बहस करना उचित नहीं समझा। उसके सिर पर प्यार से हाथ रखकर कहा बेटा भगवान से प्रार्थना है कि वह तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करे। अब तुम आराम करो। मैं अपने बेड पर चलूँ नहीं तो सिस्टर फिर चिल्लाएगी कि बुढ़ऊ को एक जगह चैन नहीं मिलता।

मुँह से निकले इस वाक्य ने अचानक ही मन ख़राब कर दिया। नर्स की बात सही ही तो है। पिछले कई बरस से चैन मिला ही कहाँ। लोग कहते हैं सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा गया हूँ। अब चैन की बंसी बजाता हूँ। पर मैं तो उन किस्मत के मारों में से हूँ जो सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बाद लड़के-बच्चों की खींचतान, उपेक्षा, दुर्व्यवहार से रहा-सहा चैन भी खोकर घुटते-घुटते जीते हैं। चैन की साँस उन्हें मयस्सर ही नहीं होती। यहाँ भी तो दामादों की आए दिन की डिमाँड और बहुओं के तानों ने सारा सुख चैन कब का छीन रखा है। उस दिन भी तो रुक्मिणी ने सिर्फ़ इतना ही तो कहा था कि पर्दे, सोफे के कवर सब गंदे हो गए हैं इन्हें बदल दो। तो बहुओं ने जान-बूझ कर सुना कर कहा था कि बूढ़ा-बुढ़ऊ को चैन नहीं पड़ता। जब देखो एफ.एम. रेडियो की तरह बजते ही रहते हैं। चैन से बैठने नहीं देते, ये कर दो, वो कर दो दिमाग खराब किए रहते हैं। रुक्मिणी और मैं हक्का-बक्का रह गये थे। रुक्मिणी ने जब टोका था तो कैसा कोहराम मचाया था बहुओं ने। लड़कों ने भी उन्हीं का पक्ष लिया था। इसी के बाद रुक्मिणी जो बीमार पड़ी तो सुधर न सकी। दुनिया के सारे चकल्लसों को अलविदा कह कर देखते-देखते छः महीने में ही छोड़कर चल दी।

मैं राह में पड़े रोड़े की तरह जिस-तिस की ठोकरें खा रहा हूँ। डेढ़ महीने से जिसकी- तिसकी बातें सुन रहा हूँ। लड़के शासन में बैठे हैं ज़रा सा कोशिश करते तो मेरा भी कब का आपरेशन हो चुका होता। बढ़ते ब्रेन ट्यूमर की तकलीफ़, यहाँ की जलालत से फुर्सत तो पा जाता। पर नहीं सही तो यह होगा कि अब इस जीवन से ही फुर्सत पा लूँ। क्योंकि डॉक्टर कह रहे थे कि ऑपरेशन के बाद शरीर का कोई हिस्सा बेकार हो सकता है, अपाहिज भी हो सकता हूँ। ऐसे में कौन देखेगा मुझे। बच्चे तो बेड पर ही सड़ा मारेंगे। कीड़े-पड़ेंगे, बेड-सोर होगा "नहीं-नहीं -नहीं कराऊँगा" ऑपरेशन। बहुत होगा जो कल मरना है वह आज मर जाऊँगा। वैसे भी अब जीने का कोई कारण भी नहीं बचा है। अब किस लिए जीना-किसके लिए जीना। कल ही रिलीव करवाकर चलता हूँ। लेकिन, तब फौजी बेटे के बारे में कैसे पता चलेगा। चलो जैसे इतने दिन काटे वैसे कुछ दिन और सही। ऑपरेशन के बाद वार्ड में उसके आने तक तो रुकूँगा ही या फिर जिस दिन बोलने चालने लगेगा उसी दिन चल दूँगा यहाँ से। मन में उठी इस उथल-पुथल ने मुझे चैन से बैठने न दिया। वार्ड में भटकता रहा इधर-उधर तो एक नर्स फिर चिल्ला उठी। आप एक जगह शांति से बैठ नहीं पाते क्या? उसकी चीख ने मुझे यंत्र सा बैठा दिया बेड पर। लेकिन मन की उथल-पुथल जस की तस रही।

ऑपरेशन वाले दिन सुबह आठ बजे ही ट्रान्सपोर्ट विभाग का एक कर्मचारी काफी ऊँची पहियों वाली स्ट्रेचर लेकर आ गया। उससे पहले ही फौजी बेटे के पिता, तीनों बहनें भी आ गई थीं। उस दिन पहली बार मैंने उसके बहनोई को भी देखा। सभी की आँखें उस समय भरी-भरी थीं। चेहरे पर उदासी की अनगिनत रेखाएँ साफ नज़र आ रही थीं। लेकिन सब के सब फौजी को सामान्य रखने की गरज से सामान्य व सहज नज़र आने की कोशिश कर रहे थे। स्ट्रेचर को चलाने वाला बड़ी जल्दी में दिख रहा था। वॉर्ड में आते ही बोला, "जल्दी करिए इतना टाइम मेरे पास नहीं है और भी जगह जाना है।" उसकी बातें सुनकर सभी हड़बड़ाहट में आ गए। बहनोई और कर्मचारी ने मिलकर उसे स्ट्रेचर पर लिटाया। जल्दबाज़ी में कर्मचारी ने कुछ ज़्यादा ही झटके से उठाया जिससे फौजी बेटा गर्दन में तेज़ दर्द के कारण कराह उठा। उसकी आँखें व जबड़े कस कर भिंच गए थे। उसको लिटाने में बहनों ने भी सहयोग किया था। मैं अपने को रोक नहीं सका था इसलिए मैं भी वहीं खड़ा था। जाते वक्त उसने हल्के से हाथ उठाने की कोशिश की जो करीब-करीब निष्क्रिय हो चुका था। मैंने तुरंत उसे पल भर को अपने हाथ में लेकर कहा – "जा बेटा जल्दी से ठीक होके आ। मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।" उसने हल्के से आँखें झपकाईं। मैंने उन आँखों को साफ देखा कि वह डबडबाई हुई थीं। मेरे कुछ बोलने से पहले ही स्ट्रेचर आगे बढ़ चुका था। उसका कर्मचारी बहुत ही जल्दी में था। मैं यह नहीं जान सका कि उसकी आँखें लापरवाही से उठाए जाने के कारण हुए दर्द से भर आईं थीं या फिर शरीर के अपंग हो जाने के कारण दुखी होने से। उन सब को ओझल हो जाने तक मैं देखता रहा। उसके पिता के पैरों में कपकपाहट को भी मैंने साफ देखा था। जिनके कंधे पर जाते वक्त मैंने हौले से हाथ रखा था कि धीरज रखें।

ऑपरेशन के लिए उसके जाने के बाद मैं न तो ठीक से नाश्ता कर सका और न ही दोपहर का भोजन। मन को कहीं भी लगाने की सारी कोशिश बेकार होती रही। वह फिर-फिर फौजी बेटे के पास पहुँच ही जाता। देखते-देखते चार बज गए लेकिन कोई सूचना नहीं मिली। आखिर कोई सूचना देता भी क्यों। मैं उसका था कौन। जो उसके अपने थे वह तो उसके साथ थे। मगर हालात जानने के लिए मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। स्वीपर से लेकर वॉर्ड ब्वॉय तक से चिरौरी की मगर कोई फायदा नहीं हुआ। सब यह कह कर आगे बढ़ जाते अरे आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं, जो होगा शाम तक तो पता चल ही जाएगा। लेकिन बेचैनी बढ़ती गई तो एक स्वीपर को पचास रुपये देकर कहा बेटा जा सही-सही बात पता करके मुझे बता दे। लेकिन वह गया तो लौटा ही नहीं। उसके घर वालों को इस स्थिति में फ़ोन करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। अंततः छः बजते-बजते मैं स्टॉफ की नज़र बचा कर वॉर्ड से बाहर निकल गया। हाथ में एक पर्चा थामें रहा कि रास्ते में जो स्टॉफ मिले वह गफ़लत में रहे कि मैं किसी चेकअप वगैरह के लिए निकला हूँ। हॉस्पिटल की यूनीफॉर्म पहने होने के कारण मैं वहाँ किसी से छिप नहीं सकता था।

बचते-बचते ओ.टी. से पहले गैलरी में खड़े उसके बहनोई से मिलने में सफल हो गया। परिवार के बाकी लोग बाहर थे। उसके बहनोई से सिर्फ़ इतना पता-चला कि सुबह से ऑपरेशन चल ही रहा है। इसके अलावा कुछ नहीं बताया गया। इस बीच एक गॉर्ड ने आकर मुझसे पूछताछ शुरू कर दी। यहाँ कैसे? मैंने उसकी बातों पर ध्यान देने से पहले ही फौजी बेटे के बहनोई से उसका सेल नं. लिया और गॉर्ड से क्षमा माँगते हुए वापिस अपने बेड पर आ गया। बुरी तरह थक जाने के कारण कुछ बिस्कुट खाकर पानी पिया और लेट गया। सिर बहुत भारी होता जा रहा था। बदन में अजीब सी सनसनाहट भी महसूस कर रहा था। अंदर ही अंदर मैं डरा कि कहीं तबियत ज़्यादा न खराब हो जाए। इसी कशमकश और उधेड़बुन के बीच मन में आया कि बीमार होने के बाद साल भर से हालत यह है कि मैं सौ-पचास मीटर भी चलने में पस्त हो जाता हूँ। लगता है बस गिर ही जाऊँगा। मगर आज ऐसी कौन सी ताकत आ गयी कि मैं करीब पौने दो किलोमीटर चला वो भी इतनी जल्दी-जल्दी। इतना ही नहीं जीवन के आखिरी पड़ाव के एकदम आखिर में पहुँच कर वह काम किया जो पहले कभी नहीं किया। एक बिगड़ैल छात्र की तरह स्कूल कट कर भागने जैसी हरकत की। या फिर चोर की माफ़िक निकल भागा सारे नियम कानून को धता बताते हुए। यह भी न सोचा कि यदि कहीं गिर गया तो क्या होगा?इस पर यदि ड्यूटी पर तैनात हॉस्पिटल के किसी कर्मचारी के खिलाफ़ कोई कार्यवाही की जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता। बड़ी सिस्टर ठीक ही तो चिल्ला रही थी। तू तो मर के ऊपर चला जाएगा। यहाँ तो कई की नौकरी चले जाने का है। साउथ इंडियन उस नर्स ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में और न जाने क्या-क्या कह डाला था। पंद्रह मिनट तक पूरे वॉर्ड को सिर पर उठा लिया था। मेरे पास उससे दो-तीन बार क्षमा माँगने के अलावा और कोई चारा न था। नर्स के शांत होते ही मेरे दिमाग में यह प्रश्न कौंध गया कि इस फौजी बेटे में ऐसा क्या है कि मैं चंद दिन की मुलाकात में ऐसा मोहग्रस्त हो गया हूँ मानो यह अपना ही खून हो। खाना और दवा खाने के बाद सोने तक मैं इसी प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने में लगा रहा।

सुबह साढ़े पाँच बजे ही जाग गया। नर्स पूरे वॉर्ड के मरीजों का शुगर, बी.पी. चेक करने आ गयी थी। मेरे असाधारण रूप से बढ़े बी.पी. और शुगर को देखकर नर्स ने ताना मारा अरे बाबा किसी बेटी की शादी करनी है क्या?जो रात भर में बी.पी., शुगर इतना ज़्यादा बढ़ा लिया। मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया। मेरा मन बस यह जानने को बेचैन था कि क्या हुआ फौजी बेटे का? मैंने समय का ध्यान न देते हुए नर्स के जाते ही उसके बहनोई को फ़ोन मिला दिया। बेहद उनींदी आवाज़ में वह बोला ऑपरेशन चौदह घंटे चला था। हालत गंभीर है इसलिए वह वेंटीलेटर पर रखा गया है। मेरी घबराहट और बढ़ गयी। मैंने अपने अंदर हताशा सी महसूस की। बढ़ती तकलीफ़ नर्स को बताने के बजाय मैं आँख बंद कर लेट गया। दवा वगैरह दिन भर चढ़ने के बाद मेरी हालत कुछ कंट्रोल में आ गई। अगले कई दिन मैंने अपनी मोहग्रस्तता का कारण ढूढने और उसके सेहतमंद हो जाने के लिए प्रार्थना करने में बिता दिए। दो दिन वेंटीलेटर, फिर आठ दिन आई.सी.यू. में रहकर फौजी बेटे ने ज़िंदगी की जंग जीत ली और वॉर्ड में आ गया।

मुझे ऐसी खुशी मिली मानो खोया खज़ाना मिल गया हो। मगर इस बीच में मेरा शुगर और बी.पी. असाधारण रूप से फ्लक्चुएट करते रहे और साथ ही ऑपरेशन को लेकर भी कोई पुरसाहाल नहीं था। घर से अब फ़ोन आने भी करीब-करीब बंद ही थे। इन सब से आहत हो मैं भीतर ही भीतर टूटता जा रहा था। दूसरी तरफ फौजी बेटे के प्रति मेरा मोह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था तो तीसरी तरफ परिवार और अपने जीवन से मोह करीब-करीब भंग हो चुका था। जीने का कोई कारण नहीं दिख रहा था। रुक्मिणी का चेहरा अब पहले से ज़्यादा सामने आकर रुलाने लगा था, और फौजी बेटे का मोह हॉस्पिटल से जाने देने के लिए तैयार नहीं होने दे रहा था। रह-रहकर उसकी बातें दिमाग में कौंध जातीं। बहनों की शादी, अपनी शादी, ढेरों बच्चे, माँ-बाप को तीर्थ पर ले जाना और ऐसी ही तमाम बातें। उसके घर की हालत और अब उसके शरीर की हालत देखकर मैं सहम गया था। फौजी बेटा अब शरीर से फौज की नौकरी के लायक नहीं रह गया था। बल्कि अगले कई साल तक किसी भी नौकरी के लायक नहीं रह गया था। ऐसे में उसकी इच्छाएँ तो पूरी होने की बात बहुत दूर की कौड़ी है। खाना खर्च और बहनों की शादी ही किसी तरह हो जाए यही बहुत बड़ी बात होगी। इन सबसे बड़ी बात तो यह कि अब उसके घर का लंबा-चौड़ा खर्च कैसे चलेगा। इस उधेड़बुन में अचानक ही दिमाग में यह बात घुस आई कि मैं इसके लिए क्या कर सकता हूँ। यह तो हम देशवासियों के लिए जान दाँव पर लगा आया। इसका उत्तर ढूँढने के लिए मैंने पूरा ज़ोर लगा दिया।

अगली सुबह होते-होते मुझे उत्तर कुछ-कुछ सुझाई भी देने लगा। सोचा अब मेरी ज़िन्दगी बची ही कितनी है। बैंक में कुल जमा-पूँजी सात लाख से ऊपर ही होगी। जो रुक्मिणी और कई मित्रों की सलाह के चलते पिछले आठ-नौ साल में जमा कर ली है। इसमें बड़ा योगदान दिया छठे वेतन आयोग और फिर एरियर और बोनस आदि ने। मियाँ-बीवी के खर्चे बड़े सीमित रहे जिससे पेंशन भी काफी बचती रही। एक मामले में तो सौभाग्यशाली हूँ कि लड़के सब अच्छी स्थिति में हैं। भले ही हमें न पूछें कभी लेकिन सेल्फ डिपेंड होने के बाद कभी कुछ माँगा भी नहीं। हाँ बहुएँ ज़रूर फिराक में रहती हैं। रुक्मिणी के गहनों को लेकर आज भी सब दबी जुबान कहती ही रहती हैं। रुक्मिणी ने अपने जीते जी किसी को अपने गहने नहीं दिए थे। उसे जान से प्यारे थे गहने, यही कारण था कि उसके पास ढेरों गहने इकट्ठा थे। जो अब बैंक लॉकर की शोभा बने हुए हैं। क्यों न यह सब गहने और रुपये फौजी बेटे को दे दूँ। इससे उसकी बहनों की शादी में बड़ी मदद मिल जाएगी। बेटों के लिए तीन खंड का इतना बड़ा मकान बनवा ही दिया है। ये अलग बात है कि इस चक्कर में अपने हिस्से के सारे खेत बेच दिए। जिससे घर के लोगों ने संबंध ख़त्म कर दिए। नहीं तो आज की स्थिति में अपनी जड़ अपनी मातृ भूमि में कितनी शीतल छाया मिलती। ज़रूरत ही न थी किसी की। लेकिन मैं तो कटी पतंग हूँ। मेरे बाकी जीवन के लिए पेंशन बहुत है। ऐसा करके चल चलता हूँ किसी मन्दिर किसी बाबा के आश्रम में। वहीं ईश्वर अराधना करूँगा। पेंशन दे दूँगा आश्रम को तो कोई भी आश्रम लेने से मना नहीं करेगा।

अंततः मैंने बड़ी उधेड़बुन के बाद यह फैसला कर लिया कि अगले एक सप्ताह में यह सब करके निकल लूँ अपनी नई यात्रा पर। जहाँ जी का जंजाल सताएगा नहीं। इस फैसले के बाद मैंने बड़ी राहत महसूस की। लगा कि सिर से कोई बोझ उतर गया। बेचैनी जैसी चीज़ जाने कहाँ चली गयी। हॉस्पिटल में उस रात मैं सबसे अच्छी नींद सोया था।

अगली सुबह मेरे जीवन की दूसरी सबसे काली सुबह थी। पहली वह जिस दिन रुक्मिणी छोड़कर चली गयी थी और आज फौजी बेटा छोड़कर चला गया था। उसके परिवार का करुण क्रंदन हर किसी को भीतर तक हिला दे रहा था। मैं हक्का-बक्का हतप्रभ था। जैसे रुक्मिणी के जाने के वक्त था। पल में जैसे मेरी दुनिया ही छिन गई थी। कुछ घंटों में काग़जी कार्यवाही के बाद रोता बिलखता फौजी बेटे का परिवार उसके पार्थिव शरीर को लेकर चला गया। आर्मी के कुछ लोग थे। अपने तरीके से मैंने भी अपने फौजी बेटे को सलामी दी थी। जो चंद दिनों में ही मेरे जीवन में आया भी और चला भी गया किसी छलावे की तरह। बहुत कोशिश की थी कि फौजी को सलामी देते वक्त आँखों में आँसू न आए लेकिन आँसू थे कि वह बह ही चले मानों पीछे-पीछे उन्हें भी वहाँ तक जाना ही है।

दोपहर होते-होते खून खौला देने वाली एक बात सामने आई कि रात को ढाई बजे उसकी तबियत बिगड़ी थी। पड़ोसी मरीज ने उसकी तेज़ी से बिगड़ती हालत देखकर स्टाफ रूम में जाकर नर्स को बताया था। क्योंकि परिवार का कोई व्यक्ति वॉर्ड में रह नहीं सकता था। इसलिए पड़ोसी मरीज जो उस वक़्त जाग रहा था, वह नर्स को बताने गया था। मगर नर्स ने उसे झिड़क कर भगा दिया। घंटा बीतते-बीतते उसका साँस लेना मुश्किल हुआ तो वह पेशेंट अँधेरे में डूबे स्टाफ रूम में सोई पड़ी नर्सों के पास फिर गया तो उसे बुरी तरह डाँट कर फिर भगा दिया। इससे वह पेशेन्ट विवश हो चुप हो गया। फिर करीब आधे घंटे बाद नर्स ने आकर उसे ऑक्सीजन दी थी। मगर माहौल में बात यह थी कि फौजी बेटा इससे पहले ही यह दुनिया छोड़ चुका था।

स्टाफ की अटूट एकता कायम थी सारी बातें दबा दी गईं। मैं क्रोध के कारण अंदर ही अंदर जल रहा था। दिलो दिमाग में तूफान सा चल रहा था कि काश मेरे पास दोषी को सख्त सज़ा देने की ताक़त होती, अधिकार होता। एक व्यक्ति की ड्यूटी के प्रति लापरवाही ने मेरे फौजी बेटे की जान ले ली थी। उन देवता स्वरूप महान डॉक्टरों की मेहनत पर पानी फेर दिया था जिन्होंने चौदह घंटे लगातार ऑपरेशन कर, गले सिर में टाइटेनियम जैसी निर्जीव धातु की प्लेटें लगाकर मेरे फौजी बेटे को फिर जीवन दे दिया था। एक की लापरवाही ने न सिर्फ एक व्यक्ति को असमय मार दिया बल्कि इतने बड़े संस्थान को बदनाम भी किया। मगर मैं यह सब सिर्फ सोच ही सकता था, मेरे वश में कुछ नहीं था। कुछ करने की कोई क्षमता नहीं थी।

इसके बाद हर तरह से पस्त मैंने भी चार बजते-बजते हॉस्पिटल से विदाई ली। स्टॉफ की मुझे रोकने की कोशिशें मेरी ज़िद के आगे बौनी साबित हुईं। उन्होंने कहा अपने बेटों को बुलाइए। मैंने कहा मैंने परिवार से सारे संबंध ख़त्म कर लिए हैं। आप लोग देखते नहीं मेरे पास कोई नहीं आता। एक आदमी हमेशा यहाँ रहे हॉस्पिटल के इस नियम के बावजूद यहाँ कोई आज तक नहीं रुका।

मैं हारा जुआरी सा घर पहुँचा। अपने कमरे में बेड पर पसर गया आँखें बंद कर लीं। या यह कहें कि थकान, भूख के कारण खुद ही बंद हो गई थीं। कुछ देर बाद बड़ी बहू आई, "अरे! आप का ऑपरेशन हो गया? ऐसे कैसे आ गए आप?"

जिस पोते ने दरवाज़ा खोला था वह भी खड़ा था। उसने भी सुर मिलाया हाँ आपको बताना चाहिए था। ऑपरेशन नहीं कराऊँगा यह जानकर सब विफर रहे थे। बाकी बहुएँ और पोते-पोती भी आ गईं थीं। सभी अपने-अपने हिस्से का गुस्सा उतारकर चल दिए। किसी ने एक गिलास पानी तक नहीं पूछा।

बूढ़ी आँतें भूख से ऐंठने लगी, जब सहन शक्ति जवाब दे गई और उठने की भी शक्ति न रही तब बेशर्मों की तरह बड़ी बहू को आवाज़ दी। कई बार आवाज़ देने पर झनकती - पटकती आकर पूछा, "क्या है?"

मैंने बताया सुबह से कुछ नहीं खाया बहुत भूख लगी है, खाना दो। इस पर वह भुनभुनाती हुई बोली – "अब इस समय खाना कहाँ है, देखती हूँ कुछ है क्या?"

थोड़ी देर में एक प्लेट में दो पराठा और करेला की भुजिया सब्जी नाममात्र को रख गई। एक गिलास पानी भी। फिर इस तेज़ी से निकल गई कि कुछ और न कह दूँ। मैं बैठे-बैठे देखने लगा खाना। सुबह का खाना। मेरे बूढ़े जबड़ों, अवशेष दाँतों के लिए पराठा सब्जी दोनों ही बेहद सख्त थे। मन में एक हूक सी उठी रुक्मिणी होती तो क्या ऐसे देती। बेसाख़्ता ही मुँह से निकल आया "रुक्मिणी" आँखों से टप-टप आँसू टपक पड़े। कितना अकेला हूँ दुनिया में। कहने को नाती-पोते, बहू-बेटे, दामाद-बेटी मिलाकर उन्नीस जन हैं इस एक खून से। वाह री दुनिया मैं यहाँ सबके रहते रो रहा हूँ, अकेला हूँ। वहाँ फौजी का बाप बेटे के न रहने पर अकेला है, रो रहा है। हों तो रोना, ना हों तो रोना। अरे विधाता तेरा कैसा है यह खेला। आँखों में अश्रु लिए मैं भूख से भी हारा। किसी तरह खा गया वह दो पराठे। ज़रूरत तो कई और पराठों की थी लेकिन वह मयस्सर नहीं थे।

अपमान से भरा वह भोजन कर शरीर में कुछ जान आई तो कमरे में नज़र दौड़ाई धूल-धक्कड़, कूड़ा-करकट साफ बता रहे थे कि जब से गया हूँ तब से सफाई हुई ही नहीं। अपने बिस्तर का चादर झाड़ने की भी मुझ में हिम्मत नहीं रह गयी थी। इसलिए सो गया उस धूल से भरे बिस्तर पर। कई दिन से थकी आँखें न जाने कब लग गईं पता ही नहीं चला। मगर दो पराठों से भी पेट की आग पूरी तरह शान्त नहीं हुई थी तो कुछ ही घंटों में आँखें खुल गईं। शाम सात बजते-बजते सारे बेटे आ गये। सब आराम से चाय नाश्ता करने के बाद बारी-बारी से आए और झाड़ पिला गए कि आखिर मैं बिना बताए क्यों आ गया। कहीं तबियत खराब हो गई तो कौन देखेगा यहाँ। किसके पास टाइम है। पूरे घर को आपने टेंशन में डाल दिया। अपने टेंशन कम हैं क्या? अपने सारे बेटों की ऐसी तीखी और बेगानों सी बातें शूल सी चुभी दिल में। इन शूलों ने अपनी संतानों के प्रति रहा-सहा मोह भी भंग कर दिया और फिर मैंने हमेशा के लिए घर परिवार सब को त्यागने का निर्णय ले लिया। कहाँ जाएँ, यह तय नहीं किया था। लेकिन मन में कहीं किसी आश्रम में चले जाने की तस्वीर रह-रह कर उभर रही थी।

अगले चार दिन मैंने आराम करने और बैंक में कुल जमा पूँजी जो कि आठ लाख थी, का ड्राफ्ट बनवाने और रुक्मिणी के सारे गहने एक जगह समेट कर रखने में लगा दिए। फिर पाँचवें दिन चल दिया बिना किसी को कुछ बताए फौजी बेटे के घर। चलते समय ए.टी.एम. कार्ड, पेंशन बुक भी ले ली।

शाम चार बजते-बजते फौजी बेटे के घर पहुँच गया। उसके बहनोई का नंबर होने के कारण घर तक पहुँचने में खास दिक्कत नहीं हुई। चलते समय जब फ़ोन किया तो वह कुछ आश्चर्य में पड़ा। फिर बड़ी शालीनता से कहा था, "बाबू जी बस स्टेशन पहुँचने पर फ़ोन करिएगा, मैं आपको लेने आ जाऊँगा।" मैं जब पहुँचा तो वह पहले से ही मोटर साईकिल लिए खड़ा था। घर पहुँचने तक छुट-पुट बातों के बीच उसने शालीनता से सिर्फ़ इतना कहा, "बाबूजी बीमारी की हालत में आपको इतनी दूर अकेले नहीं आना चाहिए था। आपने जब फोन किया तो मैं यही समझ रहा था कि आप अपने किसी बेटे के साथ आ रहे होंगे।"

घर के सामने पहुँचा तो फौजी के पिता अपने घर के सामने तखत पर बैठे मिले सफेद धोती-कुर्ता पहने। उनकी जर्जर काया पहले से आधी रह गई थी। चेहरे से ऐसा लग रहा था मानो जवान फौजी बेटे की चिता की अग्नि से वह तप गए हों। मुझे देखते ही लड़खड़ाते हुए दोनों हाथ फैला कर यूँ आगे बढ़े मानो जवान बेटे की अर्थी के महाबोझ ने उनके पैर, कंधों, हाथों सहित सारे शरीर को बुरी तरह तोड़ दिया हो। मैंने भी उन्हें जल्दी से बाहों में भर लिया। वह फफक कर रो पड़े। मैं भी अपने को रोक न पाया। कुछ देर बाद दामाद ने आकर हम दोनों को शांत कराते हुए बैठाया। वहाँ पड़े दो तख्तों पर कई रिश्तेदार और पड़ोसी बैठे थे। उन्होंने सबसे मेरा परिचय कराया कि यह मेरे बेटे के साथ ही एडमिट थे। अपना ईलाज अधूरा ही छोड़कर चले आए। कई लोगों के चेहरे पर मैंने आश्चर्य की लकीरें देखीं। पत्नी से परिचय कराया तो उनका पहले से चल रहा करूण क्रंदन और तेज़ हो गया। मैंने चुप कराने की कोशिश की लेकिन मेरे भी आँसू टपकने लगे।

कुछ देर बाद वहाँ सन्नाटा पसर गया। जल्दी ही मेरे लिए पानी और कुछ खाने पीने की चीज़ें लाई गयीं। लेकिन वहाँ के ग़मगीन माहौल के चलते मैं लाख-थकान और भूख के बावजूद एक बालूशाही और एक गिलास पानी के सिवा कुछ न ले सका। यह भी तब हो पाया जब पिता, दामाद ने कई बार आग्रह किया। इस बीच मेरे लिए एक खटिया लाकर डाली गयी। उस पर दरी और चादर भी बिछा दी गई। मकान के ठीक सामने नीम और कनेर के फूल और अमरूद का एक छोटा सा पेड़ था। जिनकी छाया अच्छी शीतलता दे रहे थे। मकान काफी हद तक बड़ा था। उसकी छाया बड़ी होने लगी थी। घर की, लोगों की हालत साफ बता रहे थे कि एक परंपरावादी ठीक-ठाक खाता-पीता किसान परिवार है। जिसका क्षेत्र में ठीक-ठाक प्रभाव है। हर कुछ देर के अंतर पर कोई न कोई साईकिल या दुपहिया वाहन से आ रहा था और पिता हर किसी से मेरा परिचय पहले वाली बात कह कर ही कराते रहे। आने वाले अधिकांश लोग उन्हें चाचा या भइया ही बोल रहे थे। इस बीच दामाद की सक्रियता ने यह साफ कर दिया कि इस समय पूरा घर वही संभाले हुए है।

देखते-देखते कब शाम हुई पता ही नहीं चला। ध्यान तब गया जब कई लालटेनें जल गईं। नेचुरल काल पर जब मुझे अंदर ले जाया गया था तो अंदर लगे पंखों बल्बों से यह साफ था कि घर में बिजली है। मगर गर्मी के बावजूद उन सबका बंद पड़ा रहना साफ कह रहे थे कि बिजली के मामले में इस गाँव की कहानी भी अन्य गाँवों जैसी ही है। कुछ ही देर में मच्छरों का भी प्रकोप बढ़ा तो घर के दोनों कोनों पर कंडों में नीम की पत्तियाँ डालकर सुलगा दिया गया। उससे मच्छरों से तो राहत मिली लेकिन उसके कसैले धुएँ से मुझे बेहद तकलीफ़ होने लगी। सात बजते-बजते अँधेरे की चादर आमसान में तन गई। साथ ही कई और खटिया भी बिछा दी गईं। जिससे तय था कि आज मर्दों का बाहर ही सोना है। अंदर जगह की ज़्यादा मेहमानों के कारण कमी है। मैंने आस-पास के घरों पर नज़र दौड़ाई तो किसी घर के बाहर कोई चारपाई नज़र नहीं आई। गाँवों में भी बाहर सोना समाप्त हो चुका है जो सुनता था वह चरितार्थ देख रहा था। मुझे आए हुए तीन घंटे बीत रहे थे और साथ रखे बैग में ढेर सारे रुक्मिणी के गहने और बैंक ड्राफ्ट मुझे अंदर-अंदर बेचैन किए जा रहे थे। बढ़ते अँधेरे के साथ घर भी बेचैन करने लगा जिसे मैं आजिज आकर हमेशा के लिए त्याग आया था। इस बीच एक किशोर ने आकर कहा-अंकल जी कपड़े चेंज कर लें तो आपका बैग अंदर रख दूँ। यह सुनकर मैं एकदम से और ज़्यादा परेशान हो गया।

मैं काफी देर से इस सोच में लगा था कि कैसे फौजी बेटे के पिता को ड्राफ्ट, गहने सबसे अलग कर सौंप दूँ कि वह उसे सुरक्षित रख लें। देहात का मामला है किसी को कानों कान खबर न लगे। मैं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मगर अब वक़्त नहीं रह गया है सोच कर मैंने पिता से सबकी नज़रें बचाकर दो मिनट अलग बात करने का निवेदन किया। उन्होंने एक प्रश्नकारी दृष्टि मुझ पर डाली फिर मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा बताओ भइया ऐसी क्या बात है? मैंने उनसे फिर स्नेहपूर्वक आग्रह किया कोई गंभीर बात नहीं है। बस ऐसे ही जिसे आप पति-पत्नी तक ही सीमित रहना बेहद ज़रूरी है। इस पर वह धीरे-धीरे मेरे साथ घर के एक छोर पर आकर खड़े हो गये। तब मैंने उनसे कहा, "बाबूजी यह वक्त तो नहीं है ऐसी बात करने का लेकिन क्योंकि मेरे पास कोई और रास्ता नहीं है, वक्त भी नहीं है, इसलिए विवश होकर अभी कह रहा हूँ।" फिर संक्षेप में मैंने सारी बातें बताई तो वह हतप्रभ रह गए। मैंने प्यार से उनके हाथ को पकड़ते हुए कहा – "भाई साहब इसे मेरी अंतिम इच्छा समझ कर स्वीकारिए यह कोई एहसान या मदद नहीं है। वह आपका पुत्र होने के साथ देश का एक सच्चा सपूत भी था और ऐसे सच्चे सपूत के प्रति बस अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। कृपया इससे मुझे वंचित न करिए। मेरी अंतिम इच्छा का ख्याल कीजिए।"

वह आँसू भरी आँखों से मुझे देखते हुए बोले, "आप क्या हैं ?क्या कहूँ आपको समझ नहीं पा रहा हूँ। यकीन ही नहीं हो रहा है। आपने अपनी बातों से बाँध सा दिया है।" इस पर मैंने उन्हें और ज़्यादा प्यार से थाम लिया। उस अँधेरे में बमुश्किल हम दोनों वृद्ध चश्मों के पीछे से देख पा रहे थे। दूर रखी कई लालटेनों का क्षीण प्रकाश कुछ हद तक मददगार हो रहा था। कुछ क्षण शांत रहने के बाद वह मेरा हाथ पकड़े वापस आये और खटिया पर मुझे बैठाकर पत्नी को लेकर अंदर गए।

मेरी घबराहट अंदर ही अंदर बढ़ती जा रही थी कि पता नहीं पत्नी स्वीकार करे या नहीं। पंद्रह मिनट तक प्रतीक्षा करना मुझे घंटों प्रतीक्षा करने जैसा लगा। जब वह अकेले मेरे पास आए तो उनके चेहरे के भाव पढ़ना मेरे लिए मुश्किल था। फिर उनके कहने पर मैं बैग लेकर उनके साथ घर के एक दम भीतरी हिस्से में बने कमरे में गया। जहाँ एक तखत, एक ड्रम, कुछ बक्से रखे थे। तखत पर रखी लालटेन के पास ही उनकी पत्नी बैठी थीं जो हमारे पहुँचने पर खड़ी हो गईं। मैंने तखत पर बैग रख कर उसमें से कपड़ों के नीचे रखे जेवरों का बक्सा निकाल कर उनके सामने रख दिया। सारे जेवर मैं जूते के एक डिब्बे में रखकर लाया था। उसी में वह ड्रॉफ्ट भी रखा था । मैंने डिब्बा उन दोनों के सामने कर हाथ जोड़ लिए। उन दोनों ने निर्विकार भाव से एक नज़र डिब्बे पर डाली फिर एक दूसरे को देखने लगे। उन्हें शांत देखकर मैं तुरंत ही बोल पड़ा भाई साहब इन्हें जल्दी से रख दीजिए। कहीं कोई आ सकता है। मेरी बात से जैसे उनकी तंद्रा भंग हुई और पत्नी ने डिब्बे के जेवर एक बड़ी बक्स में सामानों में सबसे नीचे रखकर ताला लगा दिया। फिर उस पर कपड़े की गठरी, झोले आदि ऐसे रख दिए मानो वह कूड़ा घर हो।

हम जल्दी ही वापस बाहर आकर अपनी खटिया पर बैठ गए। पिता भी मेरे साथ बैठे थे हम दोनों बिल्कुल शांत थे। खाना-पीना सब ख़त्म होने के बाद बाहर पड़े बिस्तरों पर सब लेट गए। मेरा बिस्तर पिता के बगल में ही था। धुएँ से मच्छरों का प्रकोप कम हो गया था। मगर जो थे वह परेशान करने के लिए काफी थे। एक छोड़कर बाकी सारी लालटेनें बुझा दी गयीं थी। काली चादर हर तरफ गहरी हो चुकी थी।

आसमान में चमकते तारे न जाने क्यों अचानक ही बचपन की ओर खींच ले गए। गाँव में ऐसी ही एक रात पिता, चाचा, चचेरे भाइयों के साथ सोया हुआ था कि खेतों में नील गायों के हमले का पता चला और फिर देखते-देखते पूरा गाँव लालटेनें, टॉर्चें, लाठी-भाला लिए उस झुंड को खदेड़ने चल दिया था। मैं भी एक लाठी लिए चाचा के साथ हो लिया था। मगर कुछ दूर जाकर एक कीचड़ भरे गढ्ढे में गिर गया था। मेरी चीख पुकार लोगों के शोर में गुम हो गई थी। झुंड चला गया तो भगाने वाले भी चले गये। मगर किसी ने मेरी आवाज़ नहीं सुनी। मैं रात भर कीचड़ में पड़ा रोता, तड़पता रहा, आसमान के तारे देखता रहा। दूर कहीं भौंकते कुत्तों या किसी जानवर की आवाज सुन-सुनकर सिहर उठता। फिर कब मैं बेहोश हो गया पता नहीं चला।

जब आँखें खुलीं तो जिला अस्पताल के बेड पर था और सिर पर पिता जी का हाथ। मगर आज के इस गाँव में सिर्फ़ इस घर के आगे ही दर्जन भर लोग लेटे हैं। बाकी सारे घरों के बंद दरवाजों के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। कुत्तों के भौंकने की आवाजें कभी-कभी सुनाई दे जातीं। मुझे लगा शायद कुत्ते भौंकना भी भूल गए। मेरा मन अब कुछ ज़्यादा भटक रहा था। लौट-लौट कर फिर घर पहुँच जा रहा था। शाम को बड़े लड़के की कई कॉलें आई थीं। लेकिन मैंने नहीं उठाया था, तो एक एस.एम.एस. आया गुस्से से भरा कि फ़ोन उठाते क्यों नहीं? पढ़कर मेरा पारा और चढ़ गया और एस.एम.एस. से ही जवाब दिया। मैं तीर्थ यात्रा पर निकल चुका हूँ, परेशान होने की ज़रूरत नहीं। उसको एस.एम.एस. करने के बाद दिमाग में चल रहे तमाम विचारों के बीच यह बात भी आई कि सच तो है सच्चे सपूतों के कुछ काम आ सकना किसी तीर्थ से कम है क्या? करवट बदलते उधेड़बुन में उलझे मुझे बहुत देर रात नींद आई।

अगले दिन जब मैं खाने-पीने के बाद वहाँ से चलने को हुआ तो सबने समझा मैं वापस घर जा रहा हूँ। तो पिता-दामाद बोले हम आपको अपने घर का हिस्सा मान चुके हैं। यदि घर पर कोई काम न रुक रहा हो तो कुछ दिन और रुक जाइए। मैंने मन ही मन कहा कि मेरे बिना कहाँ कुछ रुकने वाला है और फिर मैं तो घर हमेशा के लिए त्याग आया हूँ। मेरी चुप्पी पर दामाद फिर बोला बाबू जी किसी काम का हर्ज न हो रहा हो तो तेरहवीं तक रुक जाइए। मुझे भी लखनऊ चलना है। आपको साथ ले चलूँगा। ऐसे आप अकेले कहाँ परेशान होंगे। उन दोनों के आग्रह मैं टाल न सका और रुक गया।

तेरहवीं के अगले दिन चलने की मैंने तैयारी की। उससे दो दिन पहले से दिमाग में यह चल रहा था कि दामाद साथ चलने को कह रहा है। इससे कैसे अपने को अलग करूँ। मगर सौभाग्य से मेरी यह समस्या अपने आप ही समाप्त हो गई। दामाद के छोटे बेटे की तबियत खराब हो गई। डायरिया से पस्त हो चुके अपने दो साल के बेटे को वह छोड़कर जाने को तैयार न हुआ। मैंने भी उससे कहा बेटा बच्चे की तबियत ठीक नहीं है। तुम अभी रुक जाओ। इस पर उसने प्रश्न भरी नज़र से देखा मुझे, तो मैंने कहा परेशान मत हो मैं चला जाऊँगा। फ़ोन पर हाल-चाल लेता रहूँगा। वह जैसे इसी बात का इंतज़ार कर रहा था। तुरंत मान गया। फिर मैंने जल्दी से विदाई ली और चल दिया। वहाँ से आते वक़्त परिवार के कई सदस्य भावुक हो गए। पिता गले से लगकर फफक पड़े थे। बोले भइया मुझसे अभागा कोई नहीं होगा। अपने इन्हीं हाथों से बेटे को अग्नि दी। बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत करा पाया था।

बस स्टेशन तक मुझे मोटरसाईकिल से पड़ोस के एक लड़के से पहुँचवा दिया गया। स्टेशन पर मैं अजीब असमंजस में पड़ गया कि कहाँ जाऊँ? घर तो त्याग दिया है। मन के कोने में कहीं दबी आश्रम की बात एक दम उभर आई। मगर किसी आश्रम के विषय में मुझे पता ही नहीं था। सोचते-विचारते स्टेशन की बेंच पर बैठे-बैठे मुझे आधा घंटा हो गया। इस बीच कई बसें आईं। कुछ मुसाफिर उतरे कुछ चढ़े। बसों के आते ही फेरी वालों की सक्रियता में एकदम आने वाले उफान को देखकर अचानक ही मन में आया कि आखिर ऐसी कोई व्यवस्था सरकार क्यों नहीं बनाती कि यह बेचारे भी शांति से अपना व्यवसाय कर सकें। इस बीच एक बस में अयोध्या की लगी नेम प्लेट देख एकदम से वहीं चलने की बात मन में उमड़ पड़ी। सोचा वहाँ अनगिनत साधू-महात्मा हैं। उनके आश्रम हैं वहीं किसी के पास चलता हूँ। संतों की सेवा करूँगा। आश्रम या मंदिर के किसी कोने में पड़ा रहूँगा और महाप्रभु राम के जन्म-स्थल पर उनकी आराधना में जीवन बिता दूँगा। वैसे भी जीवन भर कभी प्रभु का ठीक से सुमिरन नहीं किया। शायद प्रभु उसी की सज़ा दे रहा है।

मन में बीसों साल पहले अयोध्या के दृश्य आने लगे। जब रुक्मिणी के साथ गया था वहाँ। प्रभु राम की जन्म भूमि के दर्शन के साथ-साथ दिन भर और बहुत से मंदिरों को देखा था। जगह-जगह पूजा-अर्चना की थी। पवित्र सरयू नदी के तट पर भी जाकर पूजा-अर्चना की थी। वहाँ हफ्ते भर एक धर्मशाला में रहकर पूरी अयोध्या को आँखों में बसा लेने की कोशिश की थी। फिर हनुमानगढ़ी भी गया था। इन दृश्यों को, रुक्मिणी को याद करते-करते तय किया चलो वहीं पहले किसी धर्मशाला में ठहरते हैं। फिर देखभाल के किसी अच्छे संत महात्मा की शरण में हो लेते हैं। इस निर्णय के साथ ही मैं बैग लेकर उठा। अयोध्या जाने वाली किसी बस के बारे में पता करने पूछताछ कार्यालय पहुँचा तो वह खाली मिला। पूछने पर पता चला किसी काम से गए हैं। थोड़ी देर में आएँगे। मैं फिर बैठ गया आकर अपनी जगह। इस बीच मैंने महसूस किया कि मन में यह मंथन भी चल रहा है कि क्या करूँ क्या न करूँ? और पहले से कहीं ज़्यादा गति से। और अब यह भी महसूस कर रहा था कि तन-मन बीच-बीच में घर की ओर भी खिंचा जा रहा है। पर वहाँ का अपमान, दुत्कार याद आते ही ठिठक भी जाता है। संत-महात्माओं के बीच कैसे बीतेगा जीवन, वहाँ ठहर भी पाऊँगा कि नहीं, यह संशय आते ही ठिठकना ख़त्म हो जाता है। अंततः ठिठकना एकदम ख़त्म हुआ। क़दम मन में एक बड़ी योजना लिए बढ़ गए घर की ओर कि भागना तो कायरता है। ईश्वर वंदना घर पर भी हो सकती है। वहाँ अपनी व्यवस्था अलग कर रह सकूँ इतनी पेंशन तो मिलती ही है। सारे बच्चों से अलग हो जाऊँगा। जिससे वे किसी तरह का बोझ न महसूस करें। फिर रुक्मिणी के नाम एक ऐसा पुरस्कार शुरू करूँगा जो हर साल उस व्यक्ति को दिया जाएगा जो अपनी सारी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए अपने माँ-बाप की सेवा का आदर्श प्रस्तुत करता हो। न कि उन्हें बोझ मानता हो। पहला पुरस्कार फौजी बेटे को दूँगा मरणोंपरान्त। सबने गाँव में बताया था कि वह अपने माँ-बाप का श्रवण कुमार था। बस तेज़ी से लखनऊ की ओर चल रही थी। मैं स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था। जबकि सिर का दर्द बढ़ रहा था। मैंने खिड़की थोड़ी सी खोल ली थी कि बाहर की हवा कुछ आराम देगी।

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                घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद 

पिछली तीन बार की तरह इस बार भी मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकली कि लखनऊ में मानसून करीब हफ्ते भर देर से पहुंचेगा। मानसून विभाग द्वारा बताए गए संभावित समय को बीते दो दिन नहीं हुए थे कि लक्ष्मण की नगरी लखनऊ के आसमान में बादल नज़र आने लगे थे। मेरा बेहद भावुक किस्म का साथी फोटोग्रॉफर पत्रकार अरूप पाल आसमान में चहलकदमी करते मानसूनी बादलों की कई फोटो खींच कर ऑफ़िस में मेरे सिस्टम में  लोड कर गया था। मैंने उन सब फोटुओं पर एक नज़र डाली। मगर उनमें से कोई भी मुझे कुछ ख़ास नहीं लगी कि मैं उसे अखबार के लोकल पेज पर लगा कर कोई कैप्शन देता।

 शहर वालों को बताता कि लो, ''फिर घिर आए कारे बदरा, सड़क के गढ्ढे सताएंगे बन ताल-पोखरा।'' मेरा फोटोग्रॉफर साथी निराश न हो, यह सोच कर मैं कभी भी उसकी किसी फोटो को खराब या उसकी आलोचना नहीं करता था। बस इतना ही कहता था कि, ''यार कुछ इस टाइप की भी फोटो चाहिए।'' उस दिन भी मैंने उससे यही कहा कि, ''अरूप कुछ फोटो ऐसी भी लाओ जिसमें बादलों की उमड़-घुमड़ ज़्यादा हो। वह कुछ सेकेंड चुप-चाप खड़ा रहा फिर बोला, ''हूं..देखता हूं।'' फिर चला गया। 

इसके बाद मैं पेज को जल्दी-जल्दी तैयार करने लगा। 

वैसे तो पूरा पेज देर रात कहीं फाइनली तैयार हो पाता था। लेकिन जिस दिन मुझे फतेहपुर के राधा नगर में कमला वर्मा के पास जाना होता थाए उस दिन सात बजे तक जितना काम हो पाता उसे कर देताए बाकी अपने दूसरे साथी के हवाले कर के चल देता। क्योंकि मैं फतेहपुर मोटर-साइकिल से ही जाता था। लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी तय करने में मुझे दो घंटे से कुछ ज़्यादा समय लग जाता था। वहां जाने का प्रोग्राम मैं अपनी साप्ताहिक छुट्टी के एक दिन पहले बनाता था। और अगले दिन वहां से देर रात ही लौटता था। प्रधान संपादक को भी मेरी इस हरकत की पूरी जानकारी थी। लेकिन एक तरह से वह हम सबको संभाले रखने की गरज से मैनेज किए रहते थे। क्यों कि पेपर की हालत काफी खराब हो चुकी थी। 

मालिक ने जिस ताम-झाम के साथ बड़े पैमाने पर पेपर शुरू किया था उस वक़्त उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि जल्दी ही उनके खराब दिन आने वाले हैं। उनकी पार्टी की सत्ता  जाते ही वह कानून के शिकंजे में फंस जाएंगे। उन्हें अपने राजनेता होने, अपनी ताकत पर बड़ा घमंड था। उन्होंने पेपर शुरू ही किया था अपनी हनक और बढ़ाने के लिए। जब तक पार्टी की सत्ता रही, तब-तक वह कानून के शिकंजे से बाहर रहे। पेपर के लिए फंड की कोई कमी नहीं थी। लेकिन जैसे ही उनकी पार्टी सत्ता  से बाहर हुई और वह कानून के शिकंजे में फंसे, वैसे ही फंड की कमी भी शुरू हो गई।

पूरे स्टाफ पर खबरों से ज़्यादा विज्ञापन लाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। इसके चलते स्टाफ के कई अच्छे होनहार लोग पेपर छोड़ कर दूसरे पेपरों का रुख कर चुके थे। मैं भी कहीं फिराक में हूं यह अफवाह आए दिन ऑफ़िस में उड़ती रहती थी। दरअसल यह सही ही था। क्योंकि मैं एक और बात से भी आहत था। कि यहां खबरों को छापने को लेकर प्रबंधन का हस्तक्षेप अन्य पेपरों से कहीं ज़्यादा था। अतः मैं भी किसी बढ़िया विकल्प की तलाश में था। 

उस दिन भी मैं फतेहपुर जाने के लिए जब जल्दी निकलने लगा तो प्रधान संपादक अचानक ही गलियारे में मिल गए। मुझे देखते ही बोले, '' क्यों महोदय निकल लिए टूर पर।'' ऑफ़िस में सब मेरे और कमला वर्मा के रिश्तों के बारे में जानते थे, संपादक ने वही व्यंग्य मारा था। मैंने भी बिना किसी लाग-लपेट के कहा, ''सर आप तो जानते ही हैं, कि हफ्ते भर जी-तोड़ मेहनत करने के बाद मैं खुद को अगले हफ्ते के लिए रिएनरजाईज करने के लिए जाता हूं। जिससे अगले हफ्ते-भर काम ज़्यादा और बढ़िया कर सकूं।''

मेरी इस बात पर वह जोर से हा..हा कर हंस दिए, फिर बोले, ''ठीकहै, रिएनरजाईज होते रहो, मगर संभल कर। अच्छा ये बताओ उस ऐड का क्या हुआ?' मैंने कहा, 'ष्पार्टी ने अभी एक महीने रुकने को कहा है।' इस पर वह कुछ पल मेरी आंखों में आंखें डाले देखते रहे। मानो मेरी बात की सत्यता जानने के लिए उन्हें पढ़ रहे हों  । फिर हौले से सिर हिला कर बोले, ''ठीक है, ध्यान रखना। और हां बाइक धीरे चलाना।'' 

वह ऐसे मौकों पर मुझे धीरे बाइक चलाने की नसीहत देना कभी नहीं भूलते थे। उनकी यह बात मुझे कुछ देर को उनके साथ इमोशनली अटैच कर देती थी। मैं उस वक़्त जल्दी में था। कमला के पास जल्द से जल्द  पहुँचने की बेचैनी बढ़ रही थी। इसलिए उनकी इस इमोशनल बात का संक्षिप्त सा जवाब दिया ''ओके सर, थैंक यू।'' और हाथ मिला कर बाहर निकल आया अपनी बाइक के पास। मैं अपनी इस बाइक से आज भी बहुत प्यार करता हूं। यमाहा की फाइव गियर बाइक को मैं इतना मेंटेन रखता हूं कि लगता है मानो अभी-अभी शो रूम से आई है। जबकि लिए हुए पंद्रह साल से ज़्यादा हो चुके हैं और कंपनी ने इसका उत्पादन भी बंद कर दिया है। 

गाड़ी की कंडीशन देख कर मेरे दोस्त कहते भी हैं तू इसे पोंछता ज़्यादा है चलाता कम है। मैं इस जुमले को हंस कर आज भी टाल जाता हूं। अपनी इसी प्यारी बाइक को लेकर महानगर के एक प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट गयाए वहां से कबाब, पराठे और एक रोस्टेड चिकेन पैक कराया। इस रेस्टोरेंट वाले ने मुझसे तब से पैसा लेना बंद कर दिया थाए जबसे मैंने इसे पड़ोसी दुकानदार से हुए झगड़े में हवालात पहुँच जाने पर आसानी से छुड़वा दिया था। और इसके विरोधी को टाइट भी करवा दिया था। अन्य मामले में भी आए दिन उसकी कुछ न कुछ मदद करता ही रहता था। इसके चलते वह पहुंचने पर मेरी जमकर आवभगत करता है और पैसे भी नहीं लेता। 

उस दिन भी उसने बैठने और कुछ खा-पी लेने के लिए कहा लेकिन मैंने कहा फिर कभी अभी जल्दी में हूं। वहां से निकल कर मैंने रॉयल स्टैग व्हिस्की की एक बोतल भी लेकर डिक्की में डाल ली। और बिना एक पल गंवाए फतेहपुर की ओर चल दिया। तेज़ बाइक चलाना मेरी आदत में शामिल है। अपनी इसी आदत के अनुरूप मैं एवरेज सत्तर-अस्सी की स्पीड से चला और करीब पौन घंटे से कम समय में बछरांवा तिराहे पर पहुँच गया और फतेहपुर के लिए बाईं ओर मुड़ कर रुक गया। 

बस-स्टेशन के सामने एक पान की दुकान से एक डिब्बी गोल्ड फ्लेक लेकर एक सिगरेट वहीं खड़े-खड़े पी और छः पान भी बंधवा लिए। कमला के लिए चार मीठे पान अलग से लिए। लगभग नौ बज रहे थे। सड़क पर अब भी चहल-पहल थी। तभी मैंने देखा फतेहपुर डिपो की बस फतेहपुर के लिए बस-स्टेशन से बाहर निकल रही है। बस करीब-करीब पूरी भरी थी। वह मेरे सामने से ही निकल कर धीरे-धीरे आगे जा कर आंखों से ओझल हो गई। करीब दस मिनट बाद मैं भी चल दिया अपनी मंजिल की ओर। 

मेरा मन कमला तक पहुंचने को मचल रहा था। दोपहर से शाम तक उससे चार बार बात हो चुकी थी। बछरांवा से चलते वक़्त मुझे आसमान में कुछ छिटपुट बादल दिखाई दिए थे। आगे की सड़क पतली और गढ्ढों से भरी जिगजैग थी इसलिए बाइक की स्पीड ज़्यादा नहीं बढ़ा पा रहा था। कुछ किलोमीटर चलने के बाद मैंने देखा आसमान घने बादलों से ढक गया है। हवा एकदम शांत थी। सड़क पर अब चहल-पहल नहीं सन्नाटा दिखने लगा था। काफी समय के अंतराल पर इक्का-दुक्का बाइक या अन्य वाहन दिख जाते थे। हर तरफ घुप्प अंधेरा था। सड़क से बहुत दूर कहीं एकाध टिम-टिमाती लाइट दिख जाती। पूरा माहौल बेहद डरावना लग रहा था। 

मैं चाह कर भी बाइक की स्पीड बढ़ा नहीं पा रहा था। घुप्प डरावने अंधेरे को बाइक की हेडलाइट काफी दूर तक चीरती आगे-आगे चल रही थी। और बाइक की आवाज़ भी दूर तक गूंज कर भयभीत कर रही थी। इस सबके चलते मैं आगे कितना बढ़ चुका थाए यह ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था। जीवन में पहली बार ऐसे घनघोर बादलों से ढंके आसमान के नीचे घुप्प अंधेरे में अकेले वियावान सी स्थिति में गुजर रहा था। अचानक ही पूरा इलाका तेज़ रोशनी से कौंध  उठा। फिर कुछ पलों बाद बादलों की तेज़ गड़गड़ाहट ने कानों को कुछ देर के लिए सुन्न कर दिया। 

बाइक का हैंडिल मुझसे छूटते-छूटते बचा। अब मैं और ज़्यादा सावधानी बरतते हुए स्पीड कम कर आगे बढ़ रहा था। बिजली कड़कने के कुछ ही देर बार बूंदा-बांदी शुरू हो गई। मुझे तब इतना याद था कि आगे अभी लालगंज तक कहीं ठहरने की कोई जगह नहीं है। बीच में एक बेहद दयनीय हालत में पेट्रोल पंप ज़रूर पड़ेगा। और कुछ छिट-पुट मकान, वहां भी रुकने लायक कोई ठिकाना नहीं था। यह रास्ता बरसों से कमला के पास बार-बार जाने के कारण काफी हद तक मुझे याद हो गया था। 

मेरे पास एक ही रास्ता था कि जैसे भी हो जल्दी से जल्दी कमला के पास पहुंचूं। अब मैं कुछ-कुछ परेशान होने लगा था। इस बीच बारिश तेज़ हो गई थी। चेहरे पर पानी की बूंदें  सिटकी (छोटा कंकण) सी लग रही थीं। हेलमेट के शीशे पर पानी पड़ने से देखना मुश्किल हो रहा था इसलिए शीशा ऊपर कर दिया था। इसके बावजूद आंखों पर भी पानी पड़ने से देखने में दिक्कत हो रही थी। थकान अलग महसूस होने लगी थी। अब रह-रह कर बिजली चमक रही थी। बादल गरज और बरस भी रहे थे। मेरी मुश्किल बहुत बढ़ चुकी थी। 

मेरे सामने इस बारिश में भीगते हुए आगे बढ़ते रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था। इस लिए पूरी हिम्मत के साथ बढ़ता जा रहा था। मगर इतना ही काफी नहीं था। बाइक अचानक ही लहराने लगी। बैलेंस करना मुश्किल हो गया। रोक कर किसी तरह देखा तो मेरे होश उड़ गए। पिछला पहिया पंचर हो गया था। मेरे दिल की धड़कनें अचानक ही बढ़ गईं।

मेरे दिमाग में उस समय बिजली की तरह यह बात कौंध उठी कि, यहां रुके रहना खतरे का इंतजार करते रहने जैसा है। पतली सड़क के दोनों तरफ के कच्चे फुटपाथ कीचड़ से हो रहे थे। आगे बढ़ते रहना मुश्किल से दूर होते रहना जैसा था। भले ही पैदल ही सही। मैं आगे बढ़ने को हुआ तो मुझे पीछे दूर से दो हेड-लाइट करीब आती दिखाई दीं। मैं रुक गया कि शायद कोई मदद मिल जाए। 

लेकिन देखते-देखते दो बाइक सामने से आगे निकल गईं। मैंने उन्हें रोकने के लिए जोर-जोर से हाथ हिलाया था लेकिन दोनों पल-भर को भी ध्यान दिए बिना तेज़ी से आगे निकल गए। 

इस हालत में भी मैं उन दोनों को दाद दिए बिना न रह सका। ऐसी खराब सड़क और तेज़ बारिश में भी दोनों बेतहाशा गाड़ी भगा रहे थे। उन्हें देख कर मेरा जोश फिर जाग उठा। तब पैदल चलना मुझे कहीं से समझदारी न लगी और मैं पंचर गाड़ी पर ही पेट्रोल टंकी के एकदम करीब बैठ कर धीरे-धीरे आगे बढ़ चला। फिर भी गाड़ी बुरी तरह लहरा रही थी। ऐसे ही करीब बीस मिनट चलने के बाद मैं उस दयनीय पेट्रोल पंप के सामने पहुँच। वहां घुप्प अंधेरा हर तरफ था। 

पंप के पीछे कुछ दूर पर बने कमरे की छोटी सी खिड़की की झिरी से धुंधली लाइट नजर आ रही थी। मैंने बाइक खड़ी कर दरवाजा खटखटाते हुए पूछा, ''कोई  है?'' दो-तीन बार खटखटाने पर अंदर से किसी आदमी ने पूछा, ''कौन है?'' तो मैंने उसे पंचर गाड़ी की बात बताते हुए मदद मांगी, इस पर वह अंदर से ही बोला, ''थोड़ा आगे चले जाओ, बाएं तरफ एक पंचर की दुकान है। शायद कोई मिल जाए। यहां कुछ नहीं है।'' 

पंचर की दुकान सुन कर मुझे बड़ी राहत मिली। मैंने जल्दी से गाड़ी स्टार्ट कर हेड-लाइट ऑन की, बांई तरफ देखता हुआ आगे तीस-चालीस कदम ही बढ़ा होऊंगा कि बाइक की रोशनी में एक आठ-नौ फुट ऊंचे बांस में कई टायर एक के ऊपर एक रखे दिखाई दिए। दूर-दराज की पंचर की दुकानों पर दूर से ही दिखाई देने वाला यह ख़ास निशान है। मैं स्टार्ट गाड़ी लिए तेज़ कदमों से उसके पास पहुंचा। फुटपाथ से दस-पंद्रह कदम पीछे हट कर एक अच्छी-खासी बड़ी सी झोपड़ी थी। कच्ची दीवार पर छप्पर पड़ा हुआ था। छप्पर पर कई टूकड़ों में फटी-पुरानी पॉलिथीन भी पड़ी थी। 

अच्छा-ख़ासा चौड़ा दरवाजा था। जो बांस के टट्टर से बंद था। टट्टर पर अंदर से मोटे बोरे आदि लगा कर उसे शील किया गया था। उसी दरवाजे पर पहुंच कर मैंने चार-पांच आवाजें दीं। कहा, ''मेरी गाड़ी पंचर हो गयी है थोड़ी मदद चाहिए।'' तब कहीं अंदर से आवाज़ आई, ''सबेरे आओ, इतने समय कुछ न हो पाई।'' उस विकट सूनसान में एक झोपड़ी में महिला की आवाज़ सुन कर मैं कुछ पशोपेश में पड़ गया। टट्टर के कुछ सुराखों से जैसी मटमैली पीली लाइट दिख रही थी उसे देख कर लग रहा था कि अंदर लालटेन वगैरह जल रही है। 

मैं यह सोच कर परेशान था कि इस निपट अकेले में कोई महिला अकेले तो होगी नहीं। पुरुष भी जरूर होगा फिर वह क्यों नहीं बोला। मैं अब अंदर ही अंदर घबराने लगा था। मैंने फिर आवाज़ दी कि ''क्या आगे पास में कोई दुकान मिल जाएगी या बारिश रुकने तक ठहरने की जगह।'' यह बात भी दो-तीन बार दोहराने के बाद बड़ा रूखा जवाब मिला कि, ''अब अत्ती बखत हिंआ कहूं कुछ ना मिली। आगे लालगंज जाओ बस हुंआ कुछ मिल सकत है।' लालगंज यानी करीब अठाइस-तीस किलो मीटर और आगे-जाने की बात ने मेरे होश उड़ा दिए। इस बात ने सांसत और बढ़ा दी कि इस बार भी किसी पुरुष के होने की कोई आहट नहीं मिली। फिर से वही महिला बोली थी।

अब यह एकदम साफ था कि कोई ऐसा वाहन मिल जाए जिस पर मैं अपनी बाइक लाद कर आगे लालगंज तक जाऊं। क्योंकि रास्ता इतना खराब हो चुका था कि पंचर गाड़ी लेकर आगे बढ़ना अपनी जान को विकट खतरे में डालना था। यह सोच कर मैं ऐसे वाहन का इंतजार करने लगा जो बछरांवा की तरफ से लालगंज की तरफ जा रहा हो। पंद्रह मिनट बाद उधर से एक ट्रैक्टर  गुजरा। हाथ देने पर उसने रोक भी दिया। लेकिन बात नहीं बनी। उस की ट्राली भूसे से भरी थी। चारो तरफ बांसएबोरो को लगा कर ट्राली से करीब चार फुट और ऊंचाई तक भूसा भरा था। फिर ऊपर से तिरपाल से ढंका था। ट्रैक्टर  पर भी ड्राइवर सहित आठ लोग बैठे थे। 

मैंने अपनी हालत बता कर मदद मांगी तो उन सब ने हाथ खड़े करते हुए कहा हम कुछ नहीं कर पाएंगे। हां पीछे अभी कुछ और गाड़ियां आएंगी। उनका इंतजार करिए। मैं हाथ मल कर रह गया। उनकी बात पर विश्वास करनेए भीगते हुए और इंतजार करने के सिवा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। तभी मुझे अपनी अकल पर तरस आया कि अपने मित्र धीरेंद्र धीर को फ़ोन करने की बात अब तक मेरे मन में क्यों नहीं आई। शायद वह कुछ इंतजाम कर दे। वह कमला के घर में ही पिछले तीन साल से किराये पर रह रहा था। साथ ही कमला को भी बता दूं कि मैं कैसी मुसीबत में पड़ गया हूं। बेचारी कब से इंतजार कर रही होगी। मगर यह सोचते ही मेरा दिल धक्क से हो गया। 

हाथ तेजी से शर्ट की जेब में गयाए जिसमें मोबाइल था। जो बुरी तरह पानी में डूब चुका था। मन ही मन कहा हो गया सत्यानाश। मोबाइल निकाल कर ऑन करने की कोशिश की तो वह नहीं हुआ। किस्तों पर लिए गए मेरे बीस हज़ार रुपए के मोबाइल की बारिश ने ऐसी की तैसी कर दी थी। मैं अब एकदम असहाय हो गया था। इसी बीच बाइक एक तरफ लुढ़क गई। फुटपाथ के कीचड़ में  उसका साइड स्टैंड धंस गया थाए जिससे वह लुढ़क गई। किसी तरह उठा कर मैंने फिर स्टैंड पर खड़ी की। 

तभी झोपड़ी में हुई कुछ आहट की तरफ मेरा ध्यान गया। मैंने अपना कान उधर लगा दिया। लगा जैसे कोई टट्टर के पास आया। घुप्प अंधेरे में इस आहट ने मुझे बहुत डरा दिया था। मेरी धड़कनें बढ़ी हुई थीं। तभी सामने तेज़़ बिजली कौंधी। पूरा इलाका रोशनी में नहा गया। एक चमकीली पतली सी सर्पाकार लाइट आसमान में चमकी और क्षितिज पर नीचे को लपक कर गायब हो गई। इसके साथ ही कानों को सुन्न करती बादलों की गड़गड़ाहट से पूरा एरिया थर्रा उठा। मैं मुश्किल से पैर जमीन पर टिकाए रख सका। बारिश और ते़ज हो गई। मैंने मोबाइल पैंट की जेब में डाल दिया। तभी मैंने सोचा कि चलूं पेट्रोल पंप वाले को बोलूं कि रात-भर के लिए शरण दे दे। लेकिन वहां जिस तरह से गुर्रा कर बात की गई थी उससे हिम्मत नहीं पड़ी। 

वहां छोटी सी खिड़की के धुंधले से शीशे के उस पार एक बंदूक भी नजर आई थी। उस छोटे से कमरे में शरण मिलने की मुझे कोई उम्मीद नजर नहीं आई। वैसे भी ये पंप वाले किसी को रुकने नहीं देते। और ऐसे सूनसान एरिया में तो बिल्कुल नहीं। मैंने पंप पर जाने का इरादा छोड़ दिया। बहुत देर से लगातार भीगने के कारण अब मुझे अच्छी-खासी ठंड लग रही थी। पानी के साथ-साथ हवा भी तेज़ थी।

तभी मेरा ध्यान डिक्की में पड़ी रॉयल स्टेग पर गया। सोचा निकाल कर थोड़ी सी पी लूं तो इस ठंड से राहत मिलेगी। नहीं तो तबियत खराब होने का पूरा इंतजाम हो गया है। पिछले एक घंटे में दसियों बार छींक चुका हूं। यह सोच कर मैं डिक्की की तरफ पहुंचा कि तभी उस टट्टर के पीछे से उसी महिला की तेज़ आवाज़ आई कि, ''अरे! हिंआ से आगे का चले जाओ ना।'' डिक्की की तरफ बढ़ा मेरा हाथ ठहर गया। उसकी इस बात ने मुझे झकझोर दिया। कि कैसी निष्ठुर हो गई है दुनिया। इतनी मुसीबत में बाहर घंटे भर से भीग रहा हूं। यह तो नहीं कहा एक बार भी कि पानी रुकने तक आ जाओ अंदर। 

सड़क पर खड़ा हूं इस पर भी भड़क रही है। सड़क पर अनथराइज दुकान खोल रखी है। हनक ऐसी कि जैसे इसके बाप की जमीन पर खड़ा हूं। मन में भद्दी सी कई गालियां उसे एक साथ देता हुआ मैंने कहा, ''अरे! परेशान न हो, कोई साधन मिलते ही चला जाऊंगा।'' अंदर से जवाब मिला,''परेशान काहे होइबे।'' इस बार उसकी आवाज़ कुछ कर्कश हो चुकी थी। मेरा डर बढ़ता जा रहा था कि आखिर मामला क्या है कि अंदर से कोई मर्द क्यों नहीं बोल रहा है। ये महिला ही बार-बार क्यों बोल रही है। सूनसान विराने इलाके में इसके रुकने का मतलब क्या है? देहात में सड़क पर ऐसी छोटी-मोटी दुकानें रखने वाले लोग गोधुलिया (शाम) होते-होते दुकानें बंद कर अपने घरों को चले जाते हैं। औरत जात यह अकेले क्या कर रही है, अगर कोई मर्द है तो अब तक वह सन्नाटा मारे अंदर क्यों बैठा है? 

ऐेसे उमड़ते-घुमड़ते तमाम प्रश्न मेरे भय को बढ़ाते जा रहे थे। कोई गाड़ी आ रही हो यह सोच मैं फुटपाथ से पक्की सड़क की तरफ चार कदम आगे बढ़ गया। दूर-दूर तक कुछ नहीं दिख रहा था। वो क्या कहते हैं कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। व्हिस्की पीने का इरादा दिलो-दिमाग से एकदम गायब हो गया था। ऐसे में संकट-मोचन हनुमान जी याद आए और याद आया उनका चालीसा कि प्रभू रक्षा करो प्राणों की। मैं कठिन वक़्त में ही भगवान को याद करने वालों की तरह मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। 'भूत-पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै। नासै रोग हरै सब पीरा जपत निरंतर हनुमत  बीरा। संकट ते  हनुमान छुड़ावै मन क्रम वचन ध्यान जो लावै.... लाइनें दोहराने लगा। इस चालीसा पाठ के सहारे सड़क पर मैंने बीस-पचीस मिनट और काट दिए। 

इतने समय में कुल मिला कर एक जीप और एक पिकप ही निकली। जब कि फतेहपुर से बछरांवा के लिए एक भी वाहन नहीं निकला। अब तक मैंने यह निर्णय ले लिया था कि लखनऊ वापसी के लिए भी कोई साधन मिल गया तो वापस हो लूंगा। जिधर के लिए मिल जाएगा साधन ऊधर को ही चल दूंगा। बस इस विराने से जितनी जल्दी फुरसत मिले उतना अच्छा। हुनमान जी हिम्मत बढ़ा रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगने लगा। पता नहीं सच क्या था, लेकिन मैं भीतर मज़बूत होता महसूस कर रहा था। अजब है मन का भी खेल, ऐसे में जैसा सोचो वैसा ही होता दिखता है। 

अचानक मेरे मन में आया कि सड़क पर मदद के लिए इधर-उधर देख रहा हूँ। और जो मदद इतनी देर से सामने खड़ी है उसकी तरफ पूरा ध्यान ही नहीं है। नाहक उससे भूत-पिशाच के वहम में थरथर कांप रहा हूं। यह तय है कि यहां आज की रात इसके अलावा इससे अच्छी मदद क्या कहने भर को भी मदद नहीं मिलने वाली। अभी सवेरा होने में सात-आठ घंटे हैं। तब तक इस हालत में रहा तो बच पाना मुश्किल है।

 मैं वापस बाइक के पास पहुंचा। उसे स्टार्ट करने लगा, चार-पांच किक के बाद स्टार्ट हुई। हेड-लाइट ऑन कर टट्टर के पास पहुंचा। अंदर की आहट से यह साफ था कि मुझे टट्टर की झिरियों में से देखा जा रहा है। मैंने करीब पहुंच कर कहा देखिये मेरी मदद करिए। मेरी तबियत खराब होती जा रही है। यहां आगे जाने के लिए ना कोई साधन मिल रहा है और ना ही कोई छाया जहां रुक सकूं। मैं एक नौकरी-पेशा आदमी हूं। डरने वाली कोई बात नहीं है।'

यह बात मैंने इतनी तेज़ आवाज़ में कही थी कि बारिश के शोर के बावजूद भी अंदर साफ-साफ सुना जा सके। छप्पर के ऊपर पड़ी पॉलिथीन पर बारिश की पड़नें वाली बूंदों  के कारण पट-पट की आवाज़ माहौल को और डरावना बना रही थीं। अपनी बात पूरी करने के बाद मैंने कुछ क्षण इंतजार किया कि अंदर से कोई उत्तर  मिले। मगर अंदर रहस्यमयी खामोशी छायी रही। मैंने फिर विनम्र शब्दों में कहा कि, 'देखिये  परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। इस आफ़त में बस आपसे थोड़ी मदद मांग रहा हूं। रात-भर इस बारिश में रहा तो मैं बच नहीं पाऊंगा। मैं बी.पी.  और हार्ट का भी मरीज हूं। आपकी थोड़ी सी मदद से मेरी जान बच जाएगी। कोई आदमी हो तो मेरी बात करा दें।' 

इस बार अंदर से आवाज़ आई, ''अरे! एकदम पीछेह पड़ि गए हौ। कहा ना और कहूं ठौर ढूंढ लेओ।'' मैंने फिर निवेदन किया कि,''आप अच्छी तरह जानती हैं कि इस आंधी-तुफान में दूर-दूर तक कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। ठौर-ठिकाना इस विराने में कहीं है ही नहीं। आप बारिश रुकने तक बस एक किनारे बैठने भर की जगह दे दें। मेरी वजह से आप लोगों को कोई तकलीफ नहीं होगी। कोई हो तो मेरी बात करा दें। चाहें तो आप लोग मेरी तलाशी ले लें, तब अंदर आने दें।'' मैं अपनी बातें कहते-कहते पांच-छः बार छींक चुका था। अंदर से फिर कोई आवाज़़ नहीं आई तो मैंने सोचा जमाना तो पैसे का है। कोई क्यों बिना किसी फायदे के किसी की मदद करेगा। फिर अरूप की तोड़ी-मरोड़ी एक कहावत उस कठिन परिस्थिति में भी याद आई। 

वह रहीम दास जी के दोहे को इस तरह कहता कि, 'रहिमन  पैसा राखिये बिन पैसा सब सून। पैसा गये न ऊबरे मोती मानुष चून।' उसने रहीम दास जी के दोहे में पानी की जगह पैसा जोड़ दिया था। सैलरी मिलने में देरी होने पर वह सब के सामने बार-बार यही दोहराता था। मैंने सोचा इस मौसम में यदि यहां कहीं होटल या धर्म-शाला कुछ होता और मैं वहां रुकता तो हज़ार-दो हज़ार तो खर्च हो ही जाते। यह झोपड़ी इस वक़्त मेरे लिए किसी होटल से कम नहीं है। यह डूबते का तिनका नहीं पूरा-पूरा लग्जरी क्रूज़ है। यह सोचते ही मैंने फिर आवाज़ दी। ''देखिये मैं आपसे मुफ्त में मदद नहीं लूंगा। मेरे पास करीब चार-पांच सौ रुपए हैं। मैं वह सब आपको दे दूंगा।'' 

इस बार भी कोई आवाज़ नहीं आई तो मैंने अपनी बात थोड़ी और ऊंची आवाज़ में दोहराते हुए टट्टर पर दो-तीन बार दस्तक भी दी। इस बार वह बोली मगर कुछ खीझी हुई आवाज़ में। '' तुम तौ एकदम आफत कई दिनिहयो हो। रुको खोलित है।'' इसके साथ ही टट्टर में बंधी चेन के खुलने की आवाज़ आई। फिर वह दरवाजा अंदर की तरफ छः-सात इंच खिसका। और वह औरत लालटेन लिए सामने आई। 

लालटेन उसने अपने आगे कर रखी थी। फिर पूछा, ''का बात है? बताओ, काहे पाछै पड़े हौ अत्ती  रात मां औऊर कहूं जगह नाहीं मिली तुमका।'' मैंने इस बार उसकी आवाज़ में काफी नरमी देखी। इससे मेरी उम्मीद के दिए की लौ एकदम भभक पड़ी। मैंने कहा, ''देखिये मेरी वजह से आप को जरा भी परेशानी नहीं होगी। मैं बाल-बच्चों वाला एक नौकरी-पेशा आदमी हूं। आपकी थोड़ी सी मदद चाहिए बस। मेरी गाड़ी ठीक होती तो मैं रुकता ही क्यों?'' 

फिर मैंने उसे मोटर-साइकिल का पंचर पहिया दिखाते हुए कहा, ''ये  देखिए पंचर है। मैं एकदम मजबूर हूं। नहीं तो आपसे ना कहता। मेरे पास जो पैसा है सब आपको दे दूंगा।'' यह कहते हुए मैंने यह भी जोड़ा ''आपको डरने की जरूरत नहीं है।'' मेरी बात पूरी होने के बाद वह कुछ क्षण तक चुप-चाप कभी मोटर-साइकिल को तो कभी मुझे देखती रही। फिर मैंने देखा उसने लालटेन एक तरफ रख दी। और आधी खुली चेन को पूरा खोल दिया। टट्टर को पीछे इतना खिसकाया कि अंदर जाने की जगह बन जाए। मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह मुझे अंदर रुकने देने के लिए तैयार हो गई है। भूख से तड़पते आदमी के सामने खाने की भरी थाली रखने पर जैसी व्याकुलता होती है, मैं अंदर जाने की लिए वैसे ही तड़प उठा।

टट्टर पीछे खिसका कर उसने पहले से कहीं ज़्यादा मुलायम आवाज़ में कहा, ''आओ।'' खुद दो कदम बाएं तरफ हट गई। मैं मात्र पांच फिट ऊंचे उस दरवाजे से झुक कर झोपड़ी में दाखिल हो गया। मैंने जैसा सोचा थाए झोपड़ी अंदर से वैसी नहीं थी। वह काफी बड़ी थी। वह पीछे करीब सोलह-सत्तरह फिट तक चली गई थी। उसकी डायमेंशन कहने भर को आयताकार पंद्रह गुणे सत्तरह  की थी। 

अंदर जिस तरह से सामान रखे हुए थे उससे साफ था कि वह सिर्फ़ दुकान नहीं पूरा एक घर है। जिसमें गृहस्थी थी। दो चारपाइयां पड़ी थीं। एक तरफ रसोई का सारा साजो-सामान था। एक तरफ टिन के छोटे-बड़े दो बक्से थे। एक लालटेन जल रही थी। दूसरी रसोई वाले स्थान पर बुझी हुई रखी थी। एक तरफ एक तार पर कुछ जनाना और कुछ मरदाना कपड़े टंगे थे। मतलब साफ था कि इस घर में कोई मर्द भी रहता है। लेकिन इस समय वो वहां नहीं था। तब मैं समझ गया कि यह महिला इसी कारण दरवाजा खोलने से इतना हिचक रही थी।

मैंने देखा औसत कद से कुछ ज़्यादा लंबी और मजबूत जिस्म की सांवली सी महिला की आंखों में कोई संशय या भय के भाव नहीं थे। जबकि मैं जरूर अंदर-अंदर भयभीत था। मैं टट्टर से लगी दीवार के करीब खड़ा हो गया तो उसने टट्टर बंद कर दिया लेकिन चेन नहीं बांधी। फिर वह तीन-चार कदम दूर पड़ी चारपाई के पास खड़ी हो प्रश्न-भरी दृष्टि से मुझे देखने लगी। 

मैं जहां खड़ा था वहां के आस-पास की जमीन मेरे कपड़ों से चूते पानी के कारण भीगी जा रही थी। अंदर आते ही दो बार और छींक चुका था। अब मेरे मन में यह बात उठ खड़ी हुई कि इन गीले कपड़ों का क्या करूं इन्हें बदले बिना तो बात बनेगी नहीं। इन गीले कपड़ों में रहना और बाहर भीगते रहने में कोई ख़ास फर्क तो है नहीं। मगर चेंज करूं तो कैसे? एक सूखा रूमाल तक तो पास में है नहीं। इसके लिए भी मेरा ध्यान उसी महिला की तरफ गया और मैंने बिना समय गंवाए अपनी बात आगे बढ़ाई।

कहा, ''इस मदद के लिए आपको धन्यवाद देता हूं। आप मदद नहीं करतीं तो इस विराने में मेरा ना जाने क्या होता? सुबह तक शायद ही बच पाता। मैं जीवन भर आपका अहसानमंद रहूंगा।'' इस पर वह बोली, ''बार-बार कहत रहेउ, खट्खटा लागेउ तो हम कहेन खोलि देई। कबए भीगत रहेउ। नाहीं हम अत्ती  रात मां खोलित ना। तुम्हरी हालत देइख के हमका लागि तुम नीक मनई हो कोऊनो डर नाय है।'' अपने लिए उसके मुंह से नीक मनई सुन कर मैं निश्चिंत हो गया कि इस बारिश के बंद होने तक यहां ठहर सकता हूं। 

उसकी भाषा ने मुझे जरूर असमंजस में  डाल दिया था कि यह कौन सी, किस क्षेत्र की हिंदी बोल रही है। जहां तक फतेहपुर जिले की बात है तो यहां भी यह शैली  नहीं बोली जाती। मगर क्षण में इस असमंजस को किनारे लगा मैंने बात आगे बढ़ाई कहा,''आप की बात सही है। मैं नौकरी करता हूं, मेरा परिवार है, एक बेटा है। फतेहपुर काम से जा रहा था। लखनऊ से जब चला तो मौसम साफ था। बाद में एकदम बिगड़ गया।'' 

इस बीच मैंने एक बात और मार्क की कि, पान-तम्बाकू की वह जबरदस्त शौकीन है। शौकीन ही नहीं बल्कि उसकी लती कहना ज़्यादा सही है। उसके सारे दांत एकदम कत्थई हो रहे थे। उस समय भी उसके मुंह में तम्बाकू भरी हुई थी। जिसकी तीखी गंध मेरे नथुनों तक पहुंच रही थी। बिस्तर पर एक बीड़ी का बंडल और माचिस भी दिखाई दे रही थी। वह अब भी मुझसे मात्र तीन फीट की दूरी पर खड़ी थी। 

अब तक मैं सहज हो चुका था। मेरी हिम्मत बढ़ चुकी थी। तो मैंने उससे कहा, ''मौसम का भी कोई ठिकाना नहीं कब बदल जाए। अरे! हां मैंने आपसे पैसे के लिए कहा था।'' यह कहते हुए मैंने पैंट की जेब से पर्स निकाला। वह भी पानी से तर था। मैंने पर्स इस ढंग से खोला कि वह भी उसे अंदर तक ठीक से देख सके। उसमें सौ-पचास और कुछ दस की नोटें थीं। मैंने सब निकाल कर जो संयोग से पांच सौ ही थे उसकी तरफ बढ़ा दिए। कहा, ''मेरे पास इतने ही हैं। इन्हें आप रख लें।'' 

उसने बिना एक पल गंवाए हाथ बढ़ा कर नोट ले लिए। अरूप की बात दिमाग में फिर कौंध गई कि पैसा बिन सब सून। मैंने देखा नोट लेते वक़्त उसके चेहरे के भाव भी कुछ बदले थे। मैंने कहा,  ''भीगे  हैं, इन्हें कपड़ों के नीचे दबा कर रख दिजिएगा सूख जाएंगे।'' उसने यही किया सारे नोट तकिए के नीचे दबा कर रख दिए। नोट रखने के बाद वह उसी चारपाई के आगे खड़ी हो गई तो मैंने कुछ संकुचाते हुए कहा ''कोई  तौलिया या अंगौछा दे दीजिए तो अपना पानी पोंछ लूँ।'' 

मैं यह बात पूरी भी ना कर पाया था कि मेरे एक के बाद एक लगातार तीन छींकें आईं। छींक बंद होने के साथ ही उसने मुझे अंगौछा दे दिया। मैंने देखा उसकी बॉडी लैंग्वेज बड़ी सहयोगात्मक हो रही है। सिर के बाल वगैरह पोंछने के दौरान वह अपनी जगह खड़ी रही। मैंने बाल पोंछने के साथ ही उससे फिर हिम्मत करते हुए कहा कि, ''बड़ा संकोच हो रहा है कहते हुए कि, अगर एक लुंगी मिल जाती तो मैं इन भीगे कपड़ों को काम भर का सुखा लेता।'' मेरी इस बात पर भी वो कुछ बोली नहीं बस तार पर पड़ी लुंगी ला कर मुझे थमा दी और फिर दूसरी वाली चारपाई पर थोड़ा आड़ में बैठ गई। 

लुंगी देते समय वह जब मेरे ज़्यादा करीब आ गई थी तो मुझे उसके मुंह से देशी शराब का भभका सा महसूस हुआ। मैं हफ्ते में दो-तीन दिन पीने वालों में हूं। मुझे लगा कि मुझे समझने में कोई गलती नहीं हुई है। इसने थोड़ी ही सही लेकिन पी जरूर है। कम से कम दो घंटे पहले पी है। लूंगी पाते ही मैंने जल्दी-जल्दी सारे कपड़े उतार कर उसे पहन लिया। और अंगौछा कंधे पर से ओढ़ लिया। फिर कपड़ों को निचोड़ कर दीवार पर लगी दो-चार कीलों पर टांग दिया। और उसकी तरफ मुखातिब होते हुए कहा, ''धन्यवाद।'' 

असल में यह कह कर मैं उसका ध्यान आकर्षित करना चाहता था। वह दूसरी तरफ मुंह किए हुए बैठी थी। आवाज़ सुनते ही वह मेरी तरफ घूम गई। मैं तब-तक थक कर चूर हो चुका था। उसको बैठा और दूसरी चारपाई को खाली देख कर मेरा मन बैठ कर आराम करने के लिए मचल उठा।  

मैंने कहा, 'अब जा-कर राहत मिली। घंटों से भीगते रहने के कारण बुरी तरह थक गया हूं।' मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उसने मुझे बैठने को कह दिया। मैं दूसरी चारपाई पर बैठ गया। दोनों चारपाई आमने-सामने पड़ी थीं। जिस पर वह बैठी थी उस पर दरी, चादर, तकिया सब था। मैं जिस पर था उस पर केवल दरी बिछी थी। लालटेन इन दोनों चारपाइयों के बीच में रखी थी। उसके मटमैले पीले प्रकाश में झोपड़ी का माहौल रहस्यमयी सा लग रहा था। 

बाहर अब भी तेज़ बारिश हो रही थी और अब मेरी भूख जोर मारने लगी थी। मुझे डिक्की में रखे कबाब, पराठे, रोस्टेड चिकेन और व्हिस्की की याद आयी। मैंने उससे कहा, ''मेरी बाइक में कबाब, पराठे और रोस्टेड चिकेन मतलब भुना हुआ मुर्गा रखे हैं। आप कहें तो निकाल लाऊं। बहुत थक गया हूं, भूख लग रही है।'' मेरी इस बात पर उसने अजीब सा मुंह बना कर ऐसे देखा मानों कह रही हो ऊंगली पकड़ कर पहुंचा पकड़नें की बात कर रहे हो। 

उसने बड़े भद्दे ढंग से उबासी ली फिर बोली, ''लै आओ।'' काफी देर बाद बोली थी। बाहर निकलने पर भीगने से बचने के लिए मैंने उससे छाता मांगा तो उसने एक बड़ी सी पॉलिथीन थमा दी। जिसे ओढ़ कर मैं बाइक से कबाब, पराठे, चिकेन ले आया। पैकेट को मैंने चारपाई पर रख कर खोला। चिकेन, कबाब की खुशबू नाक में भर गई। मैंने उसे भी खाने को कहा तो पहले तो ना-नुकुर की। फिर मैंने कबाब, पराठे की तारीफ के पुल बांधते हुए कहा, ''यह लखनऊ की सबसे मशहूर दुकान का है। संकोच ना करें। बहुत ज़्यादा हैं। दोनों आराम से खा सकते हैं।'' कई बार कहने पर वह तैयार हो गई। पहली बार उसके चेहरे पर मुस्कान की एक लकीर दिखी। वह अपनी चारपाई से उठी और एल्युमिनियम की दो थाली मेरे सामने रख दी। 

थाली बड़ी साफ-सुथरी दिख रही थी। लेकिन मन मेरा कुछ हिचक रहा था। मगर अनिच्छा को दबाते हुए मैंने आधे-आधे कबाब, पराठे और एक-एक लेग पीस सहित चिकेन थाली में रख कर उसे भी अपनी ही चारपाई पर सामने बैठने को कहा तो वह तुरंत बैठ गई। जरा भी हिचक नहीं दिखाई। फिर खाना शुरू किया। और कोई वक़्त होता तो मैं इस तरह का ठंडा कबाब, पराठा और चिकेन कभी नहीं खाता। मगर तब भूख के कारण वे बहुत बढ़िया लग रहे थे।

बड़ा अजब अनुभव हो रहा था। बाहर बारिश, एक अनजान झोपड़ी में अनजान महिला के साथ, आधी रात को कबाब, पराठे, चिकेन की दावत उड़ा रहा था। और मन बार-बार डिक्की में रखी व्हिस्की की तरफ जा रहा था। मगर उसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। हालांकि तब -तक यह कंफर्म हो चुका था कि वह महिला पहले से ही पिए हुए है। 

उस समय एक चीज उसकी मुझे बड़ी तकलीफदेह लग रही थी। उसका खाते समय चप्प-चप्प आवाज़ करना। खाते समय मुंह से आवाज़ करने पर मुझे इतनी नफरत होती है कि खून खौल उठता है। मन करता है कि सारा खाना उठा कर सामने वाले के सिर पर दे मारूं। मगर उस समय उस आवाज़ को बर्दाश्त करने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। जिस स्पीड से उसने चार पराठे और छः कबाब और आधा चिकेन चट किए उससे साफ था कि वह उसे बहुत अच्छे लगे थे। खाने के दौरान ही मैंने उससे नाम पूछा तो उसने कमला बताया। 

मैंने मन में ही कहा अजब संयोग है जिस कमला के पास जा रहा था वहां बारिश ने पहुंचने नहीं दिया। जिसके पास रुकने को विवश कर दिया वह भी कमला। लेकिन दोनों में कितना फ़र्क है। एक जब बोलती है तो लगता है कि बस उसे सुनते ही रहो। और यह है कि मन करता है कि बस चुप हो जाए। एक फूलों सी मासूम कोमल दिखती है। तो दूसरी कठोर, सख्त लगती है। खैर खाना खत्म हुआ। वह एक जग, दो गिलास में पानी भी लेकर आई, जिसे देख कर व्हिस्की की प्यास और बढ़ गई। 

बाहर बादलों का गर्जन-तर्जन बराबर अब भी जारी था। मानसून की पहली बारिश ही उम्मीद से कहीं ज़्यादा हो रही थी। मैं बातचीत करके अब-तक उससे घुल-मिल चुका था। इसी बीच उसने यह बता दिया था कि पति श्याम लाल किसी मुआवजे आदि के चक्कर में लखनऊ गए हैं। आज काम नहीं हुआ तो वहीं दारुलसफा में ही एक नेता के साथ रुके हुए हैं। उसी ने काम कराने के लिए बुलाया था। दस हजार रुपए भी ले चुका है। बहुत दिन से लटकाए हुए है, इसीलिए पति आज उसके पीछे पड़े हैं। उसने बताया कि, ''ऊ कहिन रहै कि संभाल कै रहेऊ अंधियार होतै बंद कई लिहौ, सवेरे तक खोलेयो ना।' यह कहते हुए उसने खीसें बा दीं फिर बोली, 'लेकिन तुम ऐइस पाछे पड़ि गैओ कि तुमका अंदर बैइठा लीनिह।'' 

उसकी हंसी ने मेरा उत्साह बढ़ा दिया। मैंने कहा, '' पानी ने मज़बूर कर दिया नहीं तो परेशान नहीं करता।'' फिर मैंने उसकी तारीफ के पुल बांधते हुए कहा, ''आप बड़ी हिम्मती हैं। शुरू में तो मैं आपकी हिम्मत देख कर सहमा हुआ था। और सच कहूं कि इन कबाब, पराठों, चिकेन के साथ मैंने एक बोतल बढ़िया अंग्रेजी शराब भी ले ली थी। वह अब भी डिक्की में रखी है। खाते समय बड़ी इच्छा हो रही थी। मगर मैं आपसे पूछने की हिम्मत नहीं कर सका।'' मैं यह कहते हुए उसके चेहरे के भावों को खास तौर से पढ़ने की कोशिश कर रहा था। मैंने साफ देखा कि वह भी अंग्रेज़ी शराब सुनते ही चहक उठी। बस खुल कर बोलने में हिचक रही थी। तो मैंने कहा, ''आप परेशान ना हों, अगर कहेंगी, वह भी खुशी-खुशी तभी मैं उसे छुऊंगा।'' 

कुछ क्षण चुप रह कर वह बोली, ''अब इहां दारूह पिऐ का मन कैइ रहा है तौ पी लेऊ। जब खाए लिए हौ तो पियू लैओए पहिलै बताए होतेव कि गाड़ी मा रखै हो। जाओ लै आओ।'' मैंने उसे और चेक करने की गरज से कहा, ''नहीं मैंने तो बस आपको बात बताई। आप का मन हो तभी इज़ाज़त दिजिएगा। वैसे भी अकेले पीने में मुझे ज़्यादा मजा नहीं आता।''

 इस पर वह हंसी और बोली, ''अरे! जाओ लै आओ हम देखि रहेंन कि अब वहिकै बिना तुमका चैन ना परी। जाओ लै आओ।'' लेकिन उसे मैंने आखिरी बार टटोलते हुए कहा, ''छोड़िये अकेले क्या पीना।'' इस पर उसने फिर खींसें निकालते हुए कहा, ''अरे लै आओ, साथे खाए लिहिन तो वहूमां देखिबै।'' उसकी बात और हंसी से मुझे जब कंफर्म हो गया कि वह भी पियक्कड़ है तो फिर मैंने वही पॉलिथीन ओढ़ी और बोतल उठा लाया। 

रॉयल स्टैग की पैकिंग देख कर वह बोले बिना ना रह सकी कि, ''ईतो बहुत महंगी वाली लागि रही।'' मैंने कहा,''हाँ। और ये पूछ रहा था कि आप तंबाकू तो खाती हैं क्या ये... मैंने बात अधूरी छोड़ते हुए बोतल की ओर इशारा किया तो बड़ी चालाकी से सारी बात मुझ पर थोपती हुई बोली, ''अब कहि तो रहेन कि इत्ता तुम कहि रहे हो तो लाओ।'' 

बस इसके बाद मैंने गिलास पानी मंगवाया आमने-सामने बैठ कर पी। मैं झटके से पीने में यकीन नहीं करता। खाने के साथ धीरे-धीरे पीता हूं। मगर वह गिलास में भरते ही एक झटके में गले में उतार देती। दो पैग पीने के बाद उसने बीड़ी भी जला ली। मुझे भी पकड़ा दी। मैंने जो सिगरेट खरीदी थी वह भीग कर बेकार हो चुकी थी। 

बीड़ी पीना नहीं चाहता था लेकिन उसने इतना दबाव डाला कि कोई रास्ता ही नहीं बचा। उसकी हालत देख कर साफ था कि वह पक्की खिलाड़ी है। बाहर रह-रह कर बादल गरजते और बरसते भी जा रहे थे। इधर हम-दोनों थोड़ी ही देर में पूरी बोतल गटक गए। उसने मुझसे एक पैग ज़्यादा पी ली थी। मैंने बोतल दो-दो पैग के इरादे से खोली थी। लेकिन कमला जैसी खिलाड़ी के सामने मेरी एक ना चली।

हम-दोनों को शराब चढ़ चुकी थी। मुझे डर था कि कमला पी कर कहीं बहके नहीं। लेकिन वह एकदम सामान्य ही दिखी। बस एक गड़बड़ कर रही थी कि बार-बार मेरे चेहरे को देखती। जब मैं देखता तो वह मुस्कुरा कर सिर नीचे कर लेती। अब मैं सोच रहा था कि यह अपनी चारपाई पर चली जाए तो मैं कमर थोड़ी सीधी कर लूं। दरअसल मैं मन में यह ठाने हुए था कि वहां सोऊंगा नहीं। मुझे विश्वास नहीं था। दूसरे मुझे दो और पैग की बड़ी सख्त जरूरत महसूस हो रही थी। 

पिछले पांच-छः सालों से प्रेस क्लब की बैठकी और पैसों की इंकम के साथ-साथ पीने की मेरी आदत बहुत बढ़ गई थी। मैं कमला को अपनी चारपाई से जब उसकी चारपाई पर भेजने का रास्ता ढूढ़  रहा था। तभी मुझे लगा कि एक बार इस झोपड़ी से फिर बाहर जाना पड़ेगा। क्योंकि पेशाब जोर मार रही थी। मैंने कमला से वह पॉलिथीन फिर मांगी। सोचा कि खाली बोतल भी साथ ही बाहर फेंक  आऊंगा। लेकिन कमला बेवजह फिर हंसी और बोली 'काहे औऊर लाए का मन है का।' 

उसकी बात सुन कर मैंने मन ही मन कहा इसने तो हद ही कर दी है। मैं मर्द हो कर भी अंदर-अंदर सशंकित हूं। यह औरत हो कर भी कैसे निश्चिंत है, बेअंदाज हुई जा रही है। मैंने कहा, 'नहीं। अब कुछ है ही नहीं। वो .... जरा पेशाब के लिए जाना है।' तो वह बोली, 'तो ई बताओ ना। बाहर भीगै की कऊन जरुअत, ऐइसी चले जाओ।' उसने झोपड़ी के एक कोने की ओर इशारा किया। उस कोने में मुझे लालटेन की नाम-मात्र की रोशनी में एक टूटा पत्थर रखा दिखा और दीवार में एक नाली भी। 

साफ था कि ऐसी स्थिति के लिए ही यह व्यवस्था थी। बाकी समय झोपड़ी के सदस्य बाहर ही जाते हैं। वहां पेशाब करना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था। क्योंकि जैसी व्यवस्था थी वैसे में बैठना पड़ता। तन पर मेरे खाली लुंगी थी। खाने के बाद अंगौछे से हाथ वगैरह पोंछा था। तो वह चारपाई पर ही पड़ा था। बाहर कीचड़, पानी झोपड़ी के पीछे गढ्ढे, डरावना माहौल हो रहा था। अंततः किसी तरह अंदर ही निपट कर अपनी चारपाई पर बैठ गया। 

कमला अब भी वहीं बैठी थी मैंने घड़ी पर नजर डाली साढे़ बारह बज रहे थे। कमला पर नजर डाली तो वहां नींद नहीं, शराब की मस्ती, शुरूर नजर आ रहा था। मैंने कहा, 'साढ़े बारह बज रहे हैं, लेकिन बारिश बंद होने का नाम ही नहीं ले रही है।' मैं उसे अहसास कराना चाह रहा था कि टाइम बहुत हो गया है। मगर वह बैठी रही। मुझे लगा ये भी मेरी तरह सशंकित है, इसीलिए शायद यह भी जागते रहना चाहती है। 

फिर वह अचानक ही उठी, मैंने देखा उसके कदम कुछ लड़खड़ा रहे हैं। मन में राहत मिली चलो यह अपनी चारपाई पर गई। अब कमर सीधी कर लूंगा। मगर क्षण भर में उम्मीदों पर पानी फिर गया। वह उसी नाली के पास गई, बड़ी फुहड़ता से निपट कर सीधे मेरे ही सामने आ कर फिर बैठ गई। उसी समय बाहर सड़क पर ट्रक जैसा कोई भारी वाहन बड़ी तेज़ आवाज़ करता हुआ गुजर गया। शायद उसका साइलेंसर कहीं से टूट गया था। इसलिए बहुत देर तक उसकी कर्कश आवाज़ सुनाई देती रही। 

कमला को देख कर मुझे लगा चलो यह नहीं सोती है तो ना सोए। बैठी कुछ बतियाती रहेगी तो रात आसानी से कट जाएगी। नहीं तो इस को सोता देख कर मुझ पर नींद हावी हो जाएगी। मगर मैं गलत था। वह बातों का हां हूं जवाब देती। और बेवजह हंसती या मुस्कुराती एक बार तो बादल के गरजने पर वह ताली बजा कर खिल-खिला पड़ी। तभी मेरा ध्यान इस ओर गया कि हमारे उसके बीच जो दूरी थी वह आधी भी नहीं रह गई।

 मैं लुंगी कभी पहनता नहीं। वह भी खाली लुंगी तो उसमें मैं असहज महसूस कर रहा था। उसकी बदलती हरकतें मुझे बहुत असहज करती जा रही थीं। मैं फालतू बातें किए जा रहा था। वह हां, हूं, मुस्कुराने के साथ-साथ मेरे घुटने पर भी हाथ रख दे रही थी। और फिर एक बार रखा तो हटाया ही नहीं। 

उसके हाथ को हटाने के इरादे के साथ मैंने उसका हाथ पकड़ा लेकिन हटा ना पाया। मेरा हाथ जैसे उसके हाथ से ही चिपक गया। उसने मेरा सारा कंट्रोल बिगाड़ दिया। मैंने उसे हलके से अपनी ओर खींचा तो वह एकदम मुझपे ही आ पड़ी। जैसे ना जाने कब से इसी का इंतजार कर रही थी। बाहर गरजते बादल, बरसता पानी, विराने में अकेली झोपड़ी, झोपड़ी में टिम-टिमाती लालटेन का कहने भर का प्रकाश, मैं एक चारपाई पर अनजान महिला के साथ। मैंने लुंगी दूसरी चारपाई पर उतार कर फेंक दी। उसकी धोती बाकी कपड़े भी उसी पर फेंक दिए। और केवल दरी पड़ी उस चारपाई पर लेट गया। वह भी मुझसे चिपकी हुई थी। शराब के नशे में भी उसकी बगलों के तीखे भभके नथुनों को परेशान कर गए। 

उस चारपाई पर हम-दोनों रात साढ़े तीन बजे तक रहे। शराब के साथ-साथ मैंने उसके तन की भी प्यास बहुत बड़ी पाई। तन की प्यास बुझाने में भी उसका फूहड़पन, बेलौस अंदाज मेरे लिए एकदम नया अनुभव था। तथाकथित सभ्य औरतों की तरह उसमें कोई बनावटीपन नहीं था। एक स्वाभाविक भूख के लिए बिल्कुल स्वाभाविक बिना किसी छल-कपट के सारी क्रिया-प्रतिक्रिया, बेहिचक पहल थी। तीन बार उसने सफलतापूर्वक शिखर पर चढ़ाई की। मुझे भी वहां तक पहुंचाया। एक अनजान महिला के साथ इतनी पूर्णता के साथ शिखर छूना मेरे लिए अचरज भरा अनुभव था। तीसरी चढ़ाई के बाद उसके चेहरे पर संतुष्टि की ऐसी गाढ़ी रेखा थी कि लगता इससे ज़्यादा संतुष्ट दुनिया में कोई होगी ही नहीं। 

साढ़े तीन बजे वह जब चारपाई से नीचे उतरी तो लालटेन एकदम बुझने वाली थी। झोपड़ी में करीब-करीब अंधेरा था। उसने एक बोतल से केरोसिन तेल डाला तो वह फिर तेज़ हो गई। लेकिन उसका शीशा कार्बन से अब तक बहुत मटमैला हो चुका था। रोशनी में कोई चमक नहीं थी। बाहर बारिश अब भी हो रही थी लेकिन पहले सी तेज़ नहीं थी। मैंने उठ कर लुंगी पहनी और अपने भीगे कपड़ों को टटोला। उनका पानी तो निचुड़ चुका था। लेकिन अब भी वे पूरी तरह गीले थे। 

कमला अपने कपड़े पहन कर दूसरी चारपाई पर बैठ गई थी। मैं अपनी पर बैठ गया तो उसने बीड़ी बंडल, माचिस उठाई और एक बीड़ी जला कर मुंह में लगाया और लंबा कश लेकर ढेर सा धुंआ उगल दिया। फिर बिना कुछ कहे बीड़ी बंडल, माचिस मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, 'लेओ पिओ।' मैंने भी एक बीड़ी सुलगा ली। इसके पहले मैंने स्कूली लाइफ में दोस्तों के साथ बीड़ी पी थी। जब शुरुआत की थी तब आठवीं में था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब सिगरेट पर आ गया तो बीड़ी छोड़ दी। लेकिन उस दिन कमला के कहने पर मना नहीं कर पाया। एक बीड़ी सुलगा कर कश लेने लगा। मेरे मन में यह बात बराबर चल रही थी कि सुबह होते ही जो भी पहला साधन मिलेगा उसी से वापसी के लिए निकल लूंगा। 

चार-पांच कश के बाद कमला ने चारपाई से हाथ नीचे कर बीड़ी जमीन में रगड़ कर बुझा दी फिर मुझे देखने लगी। मैंने भी बीड़ी बुझा दी थी। ना जाने क्यों मुझे बहुत खराब लगी। मैं कमला से चलने के बारे में बात करने की सोच ही रहा था कि वह फिर धीरे से हंसी। कत्थई दांतों की दो भद्दी सी लाइनें नजर आने लगीं। फिर वह बोली, 'बहुत पोढ़ (मजबूत) मनई हौ।' उसकी बात का आशय समझ कर मैंने उसे छेड़ा, 'तुम्हारे  आदमी से भी ज़्यादा?' दरअसल मैं इसी के बहाने उससे उसके और उसके पति के बारे में भी विस्तार से जानना चाह रहा था। वह मेरी बात पर फिर मुस्कुराई और बोली, 'वहू है, मगर... फिर इसके आगे कमला चुप हो गई। लगा जैसे उसका कोई पुराना जख्म किसी ने कुरेद दिया। कुछ देर वह वैसे ही बैठी रही। 

मैंने फिर कुरेदा तो बोली, 'हमैं नींद आय रही, हम सोवै जाइत हैए, तुम्हू सोइहो का ?' उसकी भावना को समझते हुए मैंने उसे और कुरेदना ठीक नहीं समझा। 

मैंने कहा,'नहीं तुम सो जाओ। अब चार बजने को है। मैं कुछ देर बाद बाहर देखूंगा कोई साधन मिले तो वापस चलूं।' इस पर वह अलसाई सी बोली, 'सवेर होए से पहिले कुछ नाहीं मिले वाला हिआं। पानी अबहिनु बरस रहा, तौ औऊर देर लागी, अबै दुई घंटा टाइम हैए, तुम्हू सोए लेओ।' मुझे लगा वह सही कह रही। उसकी बात ने मेरी भी नींद बढ़ा दी। थकान से मेरा बदन टूट रहा था। तो मैं भी लेट गया अपनी चारपाई पर। 

मुझे बस एक ही डर था कि कहीं देर तक सोता ही ना रह जाऊं। भूले भटके इसका आदमी आ गया तो क्या होगा? मुझे लेटे हुए पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि वह उठी और मेरे बगल में चिपक कर सो गई। वह उठ कर ऐसे आई थी मानो नींद के कारण होश में ही नहीं है। मुझे बड़ा अटपटा लगा। अब क्या माजरा है। उसका दाहिना हाथ मेरी छाती पर निर्जीव सा पड़ा था। वह ऐसे चिपकी थी कि मेरा हिलना-डुलना मुश्किल था। वह बेधढ़क अस्त-व्यस्त निश्चिंत सो रही थी। उसकी इस नींद के कारण मैंने जो डेढ़-दो घंटे सोने का इरादा बनाया था वह ध्वस्त हो गया। उसके तन से उठती अजीब सी बदबू मुझे अब ज़्यादा परेशान कर रही थी। 

मेरे दिमाग में यह बात मथने लगी कि आखिर मुझे क्या हो गया था कि ऐसी विकट स्थिति में भी मैं इस महिला के साथ सोया। बिना उसके बारे में कुछ पूछे-जांचे, जाने-समझे, मैंने कैसे इसके साथ अति की सीमा तक बिस्तर साझा किया। खाया-पिया साथ में ऐसे कि जैसे ना जाने कितनी पुरानी यार हो। और इसको भी देखो इसे ना जाने क्या हुआ है, ऐसे चिपकी है जैसे बरसों बाद मिले पति से कोई बीवी निश्चिंत हो चिपक जाती है। 

मैं गुत्थी को सुलझाने में लगा रहा। लेकिन कोई सिरा पकड़ नहीं पा रहा था। जब उसकी देह गंध ने नाक में दम कर दिया तो उसे धीरे से अलग किया और उठ कर टट्टर के पास आ गया। टट्टर चेन से बंद था। ताला जकड़ा हुआ था। मैंने झिरी से बाहर देखा। पौ फटने के संकेत मिल रहे थे। बारिश रात भर बरस कर मानो थक चुकी थी। हल्की-हल्की बूंदा-बांदी बड़ी थकी हुई लग रही थी। मैंने वापस अपने कपड़ों की हालत देखी वे अब भी मुझे तकलीफ देने के लिए भीगे हुए थे। 

मैं दूसरी चारपाई पर बैठ गया। कुछ देर बाद ही मुझे सड़क पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वाहनों का छुट-पुट आना-जाना शुरू हो गया था। कोई ट्रैक्टर ट्राली जैसी सुविधा की आस में मैंने गीले कपड़े ही पहन लिए। साढ़े पांच बजने जा रहे थे। मैंने फिर कमला को उठाया। कई बार उठाने पर वह उठी थी। उसकी आंखें, चेहरा सूजे हुए लग रहे थे। कभी मुझे गीले कपड़ों में देखती तो कभी अपने आस-पास की चीजों को। मेरी तरह उसका भी नशा करीब-करीब खतम हो चुका था। मगर खुमारी जबरदस्त थी।

मैंने उससे कहा, 'कमला  जो मदद तुमने की वह जीवन भर नहीं भुलूंगा। मैं अब जल्दी वापस जाना चाहता हूं। ये ताला खोल दो।' वह मेरी बात पर मेरे चेहरे को एकटक देखती रही। ना जाने कुछ देर तक क्या सोचती रही फिर थकी सी उठी। अपना चेहरा दूसरी तरफ कर अपनी अस्त-व्यस्त धोती बाकी के कपड़े ठीक किए। दूसरे कोने में रखी बाल्टी से पानी निकाल कर हाथ-मुंह धोया और धोती के आँचल से ही पोछा। दूसरी चारपाई के बिस्तर के नीचे रखी चाबी निकाल कर ताला खोल दिया। 

मैंने बाहर झोपड़ी की दीवार के सहारे बाइक खड़ी की थी। बाहर निकलते ही पहले उस पर नजर डाली। उसे देख कर बारिश पर बड़ी गुस्सा आई। कीचड़ में स्टैंड स्थिर नहीं रह सका था। और मेरी प्यारी बाइक पलटी पड़ी थी। ईंट वगैरह से टकराने के कारण उसकी हेड लाइट भी टूट गई थी। और टंकी से पेट्रोल भी बाहर बह गया था। उसे उठा कर किसी तरह खड़ी किया। संयोग से पांच मिनट बाद ही एक ट्रैक्टर ट्रॉली ही आती दिखाई दी। आयशर ट्रैक्टर की फट्-फट् करती आवाज़ मैंने दूर से ही पहचान ली और उसे हाथ दे कर रोका। वह बछरांवा तक जा रहा था। मुझे और गाड़ी ले चलने को तैयार हो गया। 

मेरे सामने पैसे की भी समस्या आ खड़ी हुई। रात में मैंने सारे पैसे तो कमला को दे दिए थे। मैं उसके पास फिर झोपड़ी में पहुंचाए वह झोपड़ी से बाहर नहीं आई थी। सीधा कहा, 'कमला एक मदद और कर दो। मुझे सौ रुपए उधार दे दो। मैं हर हफ्ते इधर से निकलता हूं। तुम्हें ब्याज सहित दो गुना दे दूंगा।' उसने एक नजर मुझ पर डाल कर कहा, ' लैई जाओ। हम कब ब्याज मांगित, चाहे दियो, चाहे ना दियो। है तो तुम्हरै। मदद मांगि-मांगि जब हमही का लई लियो तो ई पइसन मां का धरा।' यह कहते-कहते उसने सौ रुपए की नोट मुझे थमा दी। मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा, 'कमला अगर तुम गुस्सा हो तो इसे रख लो। मैं जाने के लिए कुछ और इंतजाम कर लूंगा। मुझ पर तुम्हारा बड़ा अहसान है कमला। मैं कहने भर को भी तुम्हें दुखी नहीं कर सकता।' 

मैंने नोट सहित उसकी मुट्ठी बंद कर दी। बाहर ट्रैक्टर वाला इंतजार कर रहा था। चलने को हुआ तो उसने अधिकारपूर्वक रुपया मेरी जेब में डाल दिया। कहा, ' राखि लेयो यहू मदद है। ब्याज का मूलो ना चाही। मगर हमरे मनई के सामने हमरी छायौ कै पास ना आयो। हमार तुमार कौउनो रिश्ता थोड़े आय जाओ।' उसके जाओ कहने में घृणा नजर आई।

मैं आगे कुछ बोले बिना ड्राइवर की बगल में ट्रैक्टर के पहियों के भारी मॅडगॉर्ड पर बनी सीट पर बैठ गया। मेरी नजर झोपड़ी के टट्टर से हटी नहीं थी। वह फिर पहले की तरह बंद हो गया था। मैं बछरांवा तक इस रहस्यमयी महिला की गुत्थी सुलझाने में लगा रहा। मगर फिर वही दोहराना पडे़गा कि सिरा ही नहीं पकड़ पाया था।

मैं उस दिन समय से लखनऊ पहुंचने के बाद भी अगले दिन ऑफ़िस नहीं गया। इतना थका था कि सात-आठ घंटा घोड़ा बेच कर सोया। उसके पहले बाइक ठीक कराई। एक काम चलाऊ सस्ता-मद्दा मोबाइल लिया। संयोग से दोनों सिम सूखने के बाद काम करने लगे थे। दोपहर में ही फतेहपुर वाली कमला से बात की। वह छूटते ही ताव दिखाने लगी कि 'आने को कह कर घर क्यों नहीं आए, फ़ोन तक नहीं किया, रात-भर परेशान रही, सो नहीं पाई। इतनी लापरवाही अच्छी नहीं।' खैर जब वह शांत हुई तो मैंने उसे सारी घटना बता दी। कहा कि शायद तुम्हीं ने कमला बन के गांव की उस झोपड़ी में मेरी मदद की।

मैंने इस कमला को यह नहीं बताया कि उस अनजान रहस्यमयी महिला ने रात भर अपने तन के जरिए जो मदद की या यह कहें कि ली वह इस जीवन में कभी नहीं भूलेगी। मैं उस की मदद को यह सोच कर कभी छोटा नहीं करूंगा कि उसने पानी से बचने में जो मदद की उसके बदले अपने तन की तपिश मेरे तन से शांत की। यह अलग बात थी कि मैं तो भूत-पिशाच निकट नहिं आवैं..... करता सहमा सा खुद में सिमटा जा रहा था। मेरी हिम्मत ही नहीं थी उसे छूने की। वह ना बढ़ती तो मैं उसकी ओर देखे बिना झोपड़ी के किसी कोने में पड़ा रहता। 

मैं उस दिन बड़ी देर तक दोनों कमला और पत्नी विशाखा को लेकर उलझता रहा। पत्नी बिना बात की बात पर चार साल के मेरे बेटे हिमांक को ले कर करीब आठ महीने से तब मायके में रह रही थी। झगड़ा बस इस बात को लेकर शुरू हुआ और बढ़ा कि स्कूल में मैं बेटे का नाम हिमांक सिन्हा ही रखना चाहता था। लेकिन वह डेव बेखम सिन्हा लिखाना चाहती थी। मैंने कहा, 'तुम उसे घर में तो बेखम बुलाती ही हो। स्कूल में हिमांक चलने दो।' मगर वह भिड़ गई। मैंने कहा, 'मैंने कभी तुम्हें रोका नहीं जब चाहती हो चर्च जाती हो। सारे त्योहार जैसे चाहती हो मनाती हो। मैं भी उसमें खुशी-खुशी शामिल होता हूं। जबकि तुम हमारे कई त्योहारों को मनाने से कतराती हो। 

कायस्थों की कलम-दवात की पूजा की तुम खिल्ली उड़ा चुकी हो। सरनेम भी तुमने अपनी मर्जी से बदला। खुद को विशाखा सिन्हा कहा। मैंने कभी नहीं कहा कि मेरा सरनेम जोड़ो। तुम्हारे कहने पर मैं अपना घर, मां-बाप, भाई सब छोड़ कर अलग रहने लगा। लेकिन तुम्हें इस पर भी संतोष नहीं। तुम मेरा परिचय मेरा अस्तित्व ही मिटाने में लगी हो।' ऐसे आरोप-प्रत्यारोप उस दिन खूब हुए थे। फिर अगले दिन वह मायके चली गई थी। तब से बात ही नहीं कर रही थी। बेटे से भी बात नहीं करने देती थी। मैंने मन जानने के लिए एक बार तलाक की भी बात उठाई लेकिन उसने कोई उत्तर ही नहीं दिया। बेटे का नाम स्कूल में डेव बेखम जेवियर लिखवाया था। इतना ही नहीं सिंगिल पेरेंट बन गई। फादर नेम लिखा ही नहीं। मिसनरी स्कूल में वह अपने मन की करने में सफल रही। 

अगले चार-पांच दिन मेरे पहले जैसे ही बीते। कुछ अलग था तो इतना कि फतेहपुर चलने की जल्दी ज़्यादा थी। पहली कमला यानी झोपड़ी वाली कमला से मिलने की उत्कंठा मैं ज़्यादा पा रहा था। मैं जल्दी से जल्दी उसके पैसे वापस करना चाहता था। दूसरी बात यह कि तीन दिन पहले ही मेरे कमीशन के पचास हज़ार मुझे मिले थे। वह जेब में उछल रहे थे। सैलरी के सहारे इतना उछलना हो ही नहीं पाता। फिर सैलरी मिलती ही कितनी थी। हमेशा तीन-चार हफ्ते देर से मिलती थी।

और फिर उस दिन जब मैं निकला फतेहपुर को तो जेब में दस हज़ार रुपए डाल कर निकला। ज़्यादा पैसे ले जाने की वजह यह थी कि वहां मैं अगले दिन एक टैक्सी किराए पर लेकर कमला के साथ महर्षि भृगु की तपो स्थली भिटौरा में बनी शंकर जी की विशाल मूर्ति के दर्शन को जाना चाहता था। कमला कई बार वहां चलने को कह चुकी थी। उसी से मुझे यह पता चला था कि गंगा नदी काशी, हरिद्वार के बाद यह तीसरा स्थान है जहां उत्तरमुखी भी होती है। उसके साथ मैं रेन्ह गांव के करीब यमुना नदी के किनारे भी पिकनिक मना चुका था। 

तब उसने कहा था, 'मालूम है तुम्हें, हम लोग भगवान कृष्ण के भाई बलराम की ससुराल में पिकनिक मना रहे है। पापा कहते थे महाभारत के समय का यह बड़ा पवित्र गांव है। यहां भगवान कृष्ण के चरण पड़े थे।' दरअसल वहीं पर यह तय हुआ था   कि इन स्थानों पर मैं एक बढ़िया फीचर लिखूं। और अपने अखबार में छापूं। इसी क्रम में वह मुझे खजुआ गांव के उस सैकड़ों वर्ष पुराने इमली के पेड़ के पास भी ले गई थी। जिस पर स्वतंत्रता सेनानी जोधा सिंह अटैया और उनके इक्यावन साथियों को कर्नल क्रिस्टाइल ने 28 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी थी।

तब से इमली के इस पेड़ को बावनी इमली कहा जाता है। प्रसिद्ध शहीद स्थल अभी भी उचित सम्मान रख-रखाव, विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। उसके साथ मैं यहां की वह विशिष्ट रामलीला, दशहरा मेला भी देख चुका था, जो भादो महिने में होती है, और यहाँ रावण को मारने के बजाय पूजते हैं। वह भी राम से पहले। लखनऊ से टैक्सी ले जाना ज़्यादा महंगा पड़ता इसलिए धीरेन्द्र से कह कर एक टैक्सी मैंने पहले ही बुक कर ली थी।

उस बार मैं मोटर-साइकिल की बजाय अरूप की एल.एम.एल. वेस्पा स्कूटर ले गया था। यह सोच कर कि कम से कम पंचर होगी तो इसकी स्टेपनी तो काम आ जाएगी। हालांकि अरूप ने स्कूटर देते वक़्त जो बात कही उससे मैंने यह तय कर लिया कि इसके बाद उससे स्कूटर नहीं लूंगा। और अगला कहीं किसी का कोई काम-धाम कराने का पैसा मिला तो एक स्कूटर भी लूंगा। हालांकि उसने मजाक में ही कहा था कि, 'अबे भाभी को ले आ। इधर-उधर भटक रहा है किसी दिन धोखे में पड़ जाएगा।'

लेकिन उस की यह बात मुझे पर्सनल मैटर में इंटरफियर लगी थी। मैं करीब सात बजे बन्नावां गांव वाली कमला की झोपड़ी के सामने फिर रुका। सामने दो स्टूल पर दो आदमी बैठे बीड़ी पी रहे थे। पंचर का सारा सामान लगा था। बांस पर मोटर साइकिल के दो-चार नए टायर-ट्यूब टंगे थे। कमला कहीं नहीं दिख रही थी। मैंने हवा चेक करने को कहा तो उसमें से एक उठा और हवा चेक कर दी। मैंने थोड़ा रुकने की गरज से उससे फतेहपुर तक की सारी जानकारी पूछ डाली। ये भी कहा थक गया हूं क्या थोड़ी देर बैठ जाऊं। उसने मेरी बात पर कोई ध्यान दिये बिना स्कूटर की तरफ इशारा कर दिया कि उसी पर बैठो फिर दोनों गप्पें मारने लगे।

मैंने दाल गलती न देख जल्दी-जल्दी सिगरेट फूंकी और चल दिया फतेहपुर वाली कमला के पास। 

वहां पहुंच कर पहले अपने मित्र धीरेंद्र धीर के पास पहुंचा। वह कमला के ही घर में ऊपर किराये पर रहता था। मैं उसी से मिलने कई साल पहले तब गया था जब वह ट्रांसफर होकर फतेहपुर पहुंचा था। वहीं मैं उसकी मकान मालकिन कमला से मिला। धीरेंद्र ने ही परिचय कराया था। कमला का हसबैंड वेटनरी डॉक्टर है। और पड़ोस के ही जिले कौशांबी के एक गांव में तब तैनात था। वह हर सेकेंड सैटरडे को घर आता था। गांव की राजनीति के झमेले के चलते वह ज़्यादा निकल नहीं पाता था।

मेरा पहला परिचय बस यूं ही था। 

दूसरी बार मिला तो मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगा कि उसमें कुछ ख़ास कशिश है। और वह बातचीत में इंट्रेस्टेड भी है। इस सोच के आते ही मैं हर हफ्ते पहुंचने लगा। फिर कुछ ही दिन में फ़ोन पर हमारी बड़ी देर तक बातें होतीं और देर रात तक होतीं। सीधा-साधा धीरेंद्र इसे गलत मानता था। लेकिन फिर उसने अपने को तटस्थ कर लिया। किसी तरह की कोई समस्या न हो इसलिए पहले मैं धीरेंद्र के कमरे में पहुंचता। उसके बाद कमला के पास, जब उसके दोनों बच्चे सो जाते।

इस बार भी मैंने ऐसा ही किया। फिर अगले दिन धीरेंद्र के साथ ही निकला उसे पहले उसके ऑफ़िस में छोड़ा। वह रेलवे में था। राधानगर की उस कॉलोनी से उसका ऑफ़िस ज़्यादा दूर नहीं था। इसके बाद कमला के साथ टैक्सी में तय सारी जगहों पर हो आया। फिर शाम को उसे घर छोड़ कर मैं सीधा लखनऊ आया। इस बार मैं कमला के पास से लौट कर ना जाने क्यों अजीब सी उलझन में पड़ गया था। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि जितनी देर मैं कमला के साथ रहा। उतनी देर बन्नावां गांव वाली कमला हम-दोनों के बीच रही। 

मैं कमला के साथ तन से तो जुड़ा रहा लेकिन मन भटक रहा था। बार-बार झोपड़ी वाली कमला के पास चला जा रहा था। और बीच-बीच में विशाखा के पास भी। यह उलझन मेरी पूरे हफ्ते नहीं गई थी। समय के साथ बढ़ती रही। झोपड़ी वाली कमला से एक बार मैं खुल कर यह बात साफ-साफ करना चाहता थाए कि वह वैसे डरावने माहौल में एक अनजान पर पुरुष के साथ इस तरह क्यों पेश आई, एकदम निसंकोच, एकदम निडर होकर। और फिर जाने के समय ऐसे पेश आई कि जैसे कुछ घटा ही नहीं। एक दूसरे को देखा ही नहीं। 

रोज-रोज की इस बढ़ती उलझन के बीच मैं महीने भर में चार बार गया। मगर दुर्भाग्य से हर बार वही सूखा बांस सरीखा लंबा आदमी ही मिलता। मैं हर बार वहां रुकता हवा चेक कराने के बहाने। हर बार पूरी कोशिश करताए इस आस में दरवाजे पर नज़र डालता कि शायद वह खड़ी दिख जाए। इस चक्कर में उस सूखे बांस से फालतू की बातें करता। सिगरेट भी पिलाता मगर नतीजा जीरो। 

वह आदमी मुझे गजब का चतुर और शातिर नज़र आया था। लाख कोशिश के बाद भी वह खुलता नहीं था। कोई उम्मीद ना देख झक मार कर मैं अपनी राह हो लेता था। पांववीं बार भी हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं मिला। मन में झोपड़ी वाली कमला को लिए पूरी रात राधानगर वाली कमला के साथ बिताई थी। देर रात राधानगर वाली सो गई थी लेकिन मैं नहीं सो पाया। करीब सवा सौ किलोमीटर गाड़ी चला कर गया था। थका था फिर भी नहीं। थकान शायद कमला के साथ ने उतार दी थी। 

मैं बेड के सिरहाने टेक लगा कर बैठा था। लाइट का टोटा और फतेहपुर का साथ जनम-जनम का है। इनवर्टर के सहारे पंखा धीरे-धीरे राहत दिए हुए था। निश्चिंत सी कमला बगल में लेटी थी। मैंने उसके चेहरे पर गौर से नज़र डाली। वहां मुझे वह निश्चिंतता नज़र नहीं आई जो झोपड़ी में कमला के चेहरे पर थी। कहने को इस कमला को शारीरिक रूप से सभी बल्कि मैं भी बहुत खूबसूरत कहूंगा। मगर इस खूबसूरती में मुझे उस स्वाभाविकता की कमी नज़र आ रही थी जो झोपड़ी में थी।

झोपड़ी वाली कमला के तन की वह दिमाग में पहुंच जाने वाली तीखी गंध मुझे ज़्यादा मादक लग रही थी इस सोई हुई कमला के कॉस्मेटिक सुगंध से।

इस सोई कमला के तन की अपनी मौलिक नैसर्गिक गंध तो कहीं से अपना अहसास करा ही नहीं रही थी। सारी नैसर्गिक ब्यूटी तो इसके कैमिकल वाले स्प्रे ने सोख ली थी। जिस नैसर्गिक ब्यूटी का मैं दीवाना हूं वह मुझे पूरी तरह से विशाखा में मिली थी। इसी लिए मैं उसका दिवाना बना और अब भी हूं और आजीवन रहूंगा। मुझे इस चीज का अच्छी तरह अहसास है कि अपने लिए मेरी इस दीवानगी का विशाखा पूरा फायदा उठाती है।

मेरी यह मनोदशा जब मैं सुबह लखनऊ के लिए चला तब भी बनी रही। मन में झोपड़ी वाली कमला के पास पहुंचने की जल्दी थी। जिससे मिलने की कोशिश महीने भर से कर रहा था। उस दिन मेरे भाग्य ने साथ दिया। मैं जब ग्यारह बजे उसकी झोपड़ी के सामने रुका तो वह उसी स्टूल पर बैठी मिली जिस पर उसका लंबू बांस सा सूखा पतला आदमी मिलता था। ऐस दुबला स्कैल्टन जैसा आदमी कभी कभार ही देखने को मिलता है।

कमला को देख कर मुझे बेहद खुशी हुई। जल्दी से गाड़ी खड़ी की उसके करीब पहुंच कर मुस्कुराते हुए पूछा, 'कैसी हो कमला?' 'का...ठीक हैयन हमका का भवा, अब का काम हवै।' मुझे लगा शायद पहचान नहीं पाई। तो मैंने फिर कहा, 'कमला पहचाना नहीं क्या?' उसने सड़क की दूसरी तरफ देखते हुए कहा, 'रातिभर घरि मां राखेन, औउर बतावति हौ पहिचानिव ना। आजऊ गाड़ी बिगरी है का?' 

उसका इस तरह टेढ़ा बोलना मुझे खल गया। मैंने कहा, 'नहीं तुमसे जो पैसे उधार लिए थे वह देने आया हूं।' यह कहते हुए पांच सौ की नोट उसकी तरफ बढ़ा दी। उसने बिना एक पल देर किए नोट लेकर ब्लाउज में अंदर तक खोंस लिया। फिर सड़क पर ऐसे देखने लगी जैसे देख रही हो कि कोई देख तो नहीं रहा। मुझे उम्मीद थी कि वह पांच सौ देख कर कहेगी कि यह तो ज़्यादा हैं। दो सौ की बात हुई थी। लेकिन वह तो ऐसे ले कर बैठ गई कि मानो बरसों से वह इतने ही का इंतजार कर रही थी। और फिर मिलने की उम्मीद खो चुकी थी। लेकिन अचानक ही मिल गया। 

उसके व्यवहार ने मेरे उत्साह पर घड़ों पानी डाल दिया। फिर भी मैंने कहा, 'कमला मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।' इस पर वह बड़ी बेपरवाही से बोली, 'काहे हमार तुमसे कऊन रिश्ता जऊन हमसे बात करै चाहत हौ। पानी मा भीगौ ना। मार हाथ जोड़ै जात रहो, तौ घरि मां ठौरि दई दिन्हीं तौ तुम हमहिन का लूटि लियो, ना जाने कइस बतियात रहौ कि हम समझिन ना पाएंन। वहि पर ऐसि दारू पियाओ कि हम बौराय गैयन। ना जाने कऊंन मंतर-टोना मारेव कि हम समझेन ना पाएन। जब ले जानेन तब लै तौ तुम भागि लिनिहो रहे। अब इत्ते दिन बाद फिर आए हौ। देखेव अकेलि बैठि बस मन लहराय गवा। ठारि होइगेव आए कै। चलो फिर लूटौ यहिका। मुला बार-बार थोड़ौ बउरैइब। होइगा याकि बार होइगा। अब ठारि काहे हौ जाओ। वहिकै आवै का बखत होइ रहा। जाओ। आज गाड़ियु नाय बिगरी। पानिऊ नाय बरिस रहाए जाओ।' 

कमला ने अप्रत्याशित रूप से यह ऐसा विस्फोट किया कि मैं कांप उठा। पैरों तले जमीन खिसक गई। पसीने-पसीने हो गया। वह इतना भरी होगी अंदर-अंदर मैंने कल्पना तक ना की थी। मैंने उसके साथ छल किया, लूटा। अकेला जान नशे में करके उसे यूज किया यह ऐसे इल्जाम थे जो असहनीय थे। और यह भी कि मुझे बरसों-बरस जेल की हवा खिला सकते हैं। मैंने महसूस किया कि मैं अंदर से कांप रहा हूं। कुछ क्षण अवाक सा उसे देखने के बाद मैंने गाड़ी स्टार्ट की फिर जितना तेज़ वहां से चल सकता था चल दिया। बीच में कहीं गाड़ी नहीं रोकी। सीधे लखनऊ घर पर रुका।

मैं हफ्तों परेशान रहा उसकी बातें याद कर-कर के। उसने महज संयोगवश हुई सारी बातों को बड़ी खूबसूरती से एक साजिश का रूप दे दिया था। स्वयं पहले से नशे में धुत्त थी। अंदर से काफी देर तक मुझे देख कर बात करके तसल्ली करने के बाद दरवाजा खोला था। साजिश तो स्वयं की। और साजिशकर्ता मुझे कह रही थी।

इस बीच राधानगर की कमला से बात करता रहा लेकिन वहां भी वही डर कहीं मन में बैठ गया कि कहीं यह भी किसी दिन ऐसे ही आरोप ना मढ़ दे। आए दिन ऐसे केस आ रहे हैं कि दो-दोए तीन-तीन साल बाद यौन शोषण का आरोप लगा-लगा कर बहुत सी औरतें लोगों को तबाह कर दे रही हैं। जेल भिजवा दे रही हैं। फैसला देने वाले न्यायमुर्ति तक नहीं बच रहे। यह डर मुझे इस कदर सताने लगा कि मैंने तय कर लिया कि राधानगर वाली कमला से भी तौबा। वह भी कौन सा मुझ पर जान छिड़कती है।

जिस दिन पति के आने का प्रोग्राम होता है उस दिन आने से तो सख्ती से मना करती ही है। फ़ोन पर दो मिनट बात भी नहीं करती। उसके प्यार मोह में उस बारिस की रात मरते-मरते बचा। कितने नखरे दिखाती है। उन्हें जितना उठाता हूं उतना विशाखा के उठाऊं तो वह तो हाथो-हाथ लेगी। इन उलझनों के बीच रह-रह कर मुझे बेटे और विशाखा की याद अब बहुत ज़्यादा कचोटने लगी। फिर एक दिन सारे अहं सारे शक हटा कर विशाखा के पास पहुंचा। पहले तो वह सख्त बनी रही लेकिन बच्चे के भविष्य और बेटे की बार-बार मेरे पास चलने की जिद गाड़ी को पटरी पर ले आई। 

मगर विशाखा अब भी कहीं अहं के दायरे से पूरी तरह बाहर नहीं आ पाई थी। तो गाड़ी पटरी पर दौड़ सके यह सोच कर मैंने कहा, 'नाम वगैरह जो जैसा चाहो करो मगर ऐसी बातों के लिए जीवन नीरस ना बनाओ। सिंगिल पैरेंटिंग तपता रेगिस्तान सरीखा है। जिसकी तपिस जीवन भर जलाती है और जला-जला कर ही खत्म कर देती है।' उसकी शर्तों को सुनकर मैंने कहा, 'हम एक परिवार हैं विशाखा, कोई पोलिटकल पार्टीस का समूह नहीं कि मिनिमम साझा प्रोग्राम के तहत परिवार चलाएं।' कई बार की कोशिशों के बाद अंततः मैं उसे साथ लाने में सफल हो गया। 

घर आने से पहले मेरी इस बात को उसने बचकानी हरकत कहा था कि ,'धार्मिक आस्था हमारे बीच टकराव बन रही है तो क्यों न हम-दोनों अपना-अपना धर्म छोड़ कर कोई तीसरा धर्म अपना लें ।' उसके घर आने के बाद बेटे हिमांक के साथ मुझे लगा जैसे स्वर्ग मिल गया। मैं उस वक़्त चौंक गया जब मैं सदैव की भांति अकेले ही मंगल के दिन हनुमान जी की पूजा कर रहा था तो वह स्वयं ही बेटे के साथ उसमें शामिल हो गई। उसके बदले रूप ने मुझे ऐसा बदला कि मैंने राधानगर वाली कमला को फ़ोन करना भी बंद कर दिया। 

मुझे लगा यह सब कर के मैं अपने ही हाथों से अपने घर संसार में आग लगा रहा हूं। सबसे बड़ी बात यह कि यह सब होने के बाद मुझे अपनी ज़िंदगी बड़ी स्मूथ लगने लगी। इस बीच मेरे लिए एक अच्छी खबर और रही कि दिल्ली के एक जिस बड़े अखबार में जाने की कोशिश मैं बहुत दिनों से कर रहा था। एक केंद्रिय मंत्री से पूरा जुगाड़ लगाया था। वह काम करीब-करीब हो गया था। अच्छी सैलरी बड़ा अखबार दोनों थे। मंत्री जी की कवित्री पत्नी ने इस काम में अहम भूमिका निभाई थी। अपनी इस नौकरी से दो-चार दिन में इस्तीफा देने का निर्णय कर चुका था। यह निर्णय मैंने विशाखा से विचार-विमर्श कर किया था। 

इस्तीफे का निर्णय लेने के बाद मेरा मन नहीं लग रहा था। इसी बीच एक दिन पहुंचा तो सीनियर रिपोर्टर एक रेड की बड़ी रिपोर्ट लेकर हाजिर हुआ। एस . टी. एफ. ने एक बड़ी रेड बन्नांवा के पास ही कर हाथियारों और बम बनाने के सामान के साथ कुछ लोगों को गिरफ्तार किया था। शुरुआती जांच में गिरफ्तार लोग बंग्लादेशी घुसपैठिए निकले थे। रिपोर्ट पर एक नजर डाल कर मैंने रिपोर्टर से कहा, 'क्या जरूरत है इस मुददे पर इतनी मेहनत करने की। जानते तो हो यह सब अपने अखबार में  छप नहीं सकता।' उसने तर्क दिया,'लेकिन सर यह आज की बहुत बड़ी खबर है। देखिएगा कल यह सारे अखबार की सबसे बड़ी खबर होगी। अपने में ना फर्स्ट लीड, सेकेंड लीड खबर तो जानी ही चाहिए।' उसने एक के बाद एक तमाम तर्क दे डाले। वह अपनी मेहनत जाया नहीं होने देना चाहता था। मैंने कहा, 'अच्छा ठीक है देखता हूं। फर्स्ट लीड लायक रही तो फर्स्ट लीड ही बनेगी।' 

उसके जाने के बाद मैंने रिपोर्ट ध्यान से पढ़ी। उसकी बात सही थी बड़ी खबर थी। टीवी चैनलों पर दोपहर से ही यह खबर चल रही थी। सबसे पहले दिखाने के दावे के साथ। लेकिन हमारे रिपोर्टर ने कई ऐसी बातें कहीं थीं जो किसी चैनल पर नहीं थीं। रिपोर्ट पढ़ कर मैं भीतर-भीतर डर गया। रेड वहीं पड़ी थी जहां बारिस में मैंने पूरी रात कमला के साथ बिताई थी। जिसे कमला जाना समझा था, वह कमला नहीं कुलसुम थी। उसका बांस सरीखा सुखैला पति श्याम लाल नहीं लियाकत खान था। उसके साथ पकड़े गए लोगों का पूरा नेटवर्क आस-पास के जिलों से लेकर लखनऊ और असम तक था। कुलसुम को लियाकत पश्चिम बंगाल के एक जिले से भगा कर लाया था। 

उसका पति मीट शॉप चलाता था। उसके चार बच्चे थे। लियाकत ने वहीं संपर्क साधा और कुलसुम को फुसला कर भगा लाया था। कुलसुम और उसका पति एक बार घुसपैठिए के तौर पर पश्चिम बंगाल में ही पकड़े गए थे। लेकिन जल्दी ही एक स्थानीय नेता ने मामला रफा-दफा करा दिया था। उसी घुसपैठिया कुलसुम के घर लियाकत ने घुसपैठ की और उसे भगा लाया।

लियाकत पर आगजनी, लूटपाट के कई केस वहां दर्ज थे। इसीलिए वहां से भाग निकला था। रिपोर्ट में रिपोर्टर ने कई प्रमाणों के साथ सरकार की समय-समय पर स्वीकारोक्तियों को कोट करते हुए स्पष्ट लिखा था कि सरकार ने सदन में ही यह माना था कि 2001 में ही इनकी संख्या दो करोड़ से ऊपर है। फिर उसने लिखा कि आज 2015 में तमाम रिपोर्टों गैर सरकारी आंकड़ों की मानें तो करीब पांच करोड़ से ज़्यादा घुसपैठिए देश-भर में फैले हुए हैं। 

असम, पश्चिम बंगाल में इनकी संख्या इतनी ज़्यादा हो गई है कि यह कई जगह स्थानीय मूल के लोगों को लूटते रहते हैं। बस्तियों पर कब्जा कर रहे हैं। जला रहे हैं। मार रहे हैं। दंगे इतने बड़े पैमाने पर इतने भयावह हो रहे हैं कि सेना लगानी पड़ रही है। तमाम सीटों पर ये निर्णायक संख्या में वोटर बन गए हैं। पश्चिम बंगाल में तो ये करीब 38 सीटों पर निर्णायकों की हैसियत में हैं। इसलिए कई राजनीतिक दल इनका वोट बैंक की तरह प्रयोग कर रहे हैं। उनके राशन कार्ड, वोटर कार्ड सब बनवा रहे हैं। वे नाराज न हों इसके लिए देशद्रोह जैसे उनके कामों को अनदेखा कर रहे हैं। इससे उनकी हिम्मत आसमान छू रही है। 

कई भयावह तथ्यों के साथ यह भी जोड़ा था कि हालात इतने बिगड़ गए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। और एक-दो नहीं असम और पूर्वोत्तर के पूरे छब्बीस छात्र संगठनों ने मिल कर पूर्वोत्तर छात्र संगठन का गठन कर देश के लिए आंदोलन चला रखा है। रिपोर्टर ने बड़ी बेबाकी से यह भी लिखा कि इन घुसपैठिए चूहों में से यदि एक, एक दिन में आधा किलो आनाज खा रहा है। तो पांच करोड़ घुसपैठिए देश के सवा सौ करोड़ लोगों के हिस्से का डेली करीब ढाई करोड़ किलो आनाज चट कर जा रहे हैं। यहां का खा भी रहे हैं और पत्तल में छेद भी कर रहे हैं। यहीं के कुछ भेदियों के संग मिल कर जहां मौका पाते हैं वहीं सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानियों के खून के प्यासे बन जा रहे हैं। 

रिपोर्टर ने बड़ी खोजबीन के साथ तथ्य सहित यह बताया था कि औसतन सात-आठ लोगों का इनका परिवार गली-सड़कों में दिन में करीब पांच कुंतल कूड़ा बीनते हैं। जो औसतन छः सौ रुपए कुंतल के हिसाब से कबाड़ी खरीदता है। इस तरह से महीने में करीब नब्बे हज़ार रुपए कमाते हैं। बीस हजार खर्चें के निकाल कर सत्तर हजार महीना बचाते हैं। साल भर में नौ-दस लाख रुपया इकट्ठा कर छोटा-मोटा मकान बनाते हैं। फिर चोला बदल कर यहीं के लोगों में घुल-मिल जाते हैं। इतना ही नहीं ये सब कमला, विमला, श्याम लाल, राम लाल, राधे श्याम जैसे नाम रख पहचान छिपाए रहते हैं।

उस दिन अपने सीनियर रिपोर्टर के काम की तारीफ किए बिना मैं नहीं रह सका। उसने सप्रमाण यह भी बताया कि लखनऊ शहर में ही इन चूहों की संख्या लाखों में है। लेकिन वोट के खेल के चलते पार्टियां चुप हैं। देश को भीतर-भीतर कुतर रहे इन चूहों की तरफ से मुंह मोडे़ हुए हैं। सुरक्षा एजेंसियों की सारी रिपोर्ट्स कूड़े-कचरे में डाल दी जाती हैं। उसकी रिपोर्ट के इन हिस्सों को पढ़ते हुए मुझे कुछ माह पहले एक बड़े विख्यात लेखकए पत्रकार विभांशु दिव्याल का उपन्यास 'गाथा लंपट तंत्र की' याद आ गई। उन्होंने उपन्यास में लखनऊ में इन घुसपैठियों की स्थिति का एक हल्का सा खाका खींचा था। 

मैं पूरी रिपोर्ट पढ़ कर दंग रह गया कि देश किस तरह खतरे के मुहाने की तरफ बढ़ता जा रहा है। और सब चुप हैं। अपने-अपने स्वार्थ के आगे मुंह सीए हुए हैं। कुछ बोलते हैं तो सिर्फ बोल कर ही इतिश्री कर लेते हैं। बिना वजह की बात पर भी चीख पुकार करने वाला मीडिया भी चुप है। वह मीडिया जिससे नेपोलियन बोनापार्ट भी थर्राता था। मेरे अखबार में तो खैर पहले ही कई मुद्दों पर खामोश रहने की हिदायत थी। उसमें यह मुद्दा भी शामिल था। लेकिन उस समय मैंने यह तय कर लिया कि आजकल में इस्तीफा तो देना ही है। 

चाहे जो हो यह रिपोर्ट और बेहतर करके छापुंगा। कार्यवाई पर सारी जिम्मेदारी खुद पर लेते हुए इस्तीफा दे दूंगा। मैंने एकदम आखिर समय में उसे लीड न्यूज के तौर पर प्रिंट होने भेज दिया। अगले दिन जैसा अनुमान था वही हुआ। प्रबंधन ने क्लास ली तो मैंने दबने के बजाय इस नीति को अखबार के लिए घातक बताते हुए इसे पेपरहित में उठाया क़दम बताया था। और यह भी कहा कि अगर मैनेजमेंट इसे गलत समझता है तो मैं सहमत नहीं हूं। रिपोर्टर की कोई जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए मैं इस्तीफा दे रहा हूं। ऐसी स्थितियों में काम करना संभव नहीं है। मैनेजमेंट को मुझसे ये उम्मीद नहीं थी। सो वो अवाक् थे। लेकिन मुझे निकलना था तो निकल लिया।

रिपोर्टर को समझा दिया कि निश्चिन्त रहे कुछ नहीं होगा। मैं उस वक्त बड़ा संतोष महसूस कर रहा था कि चाहे जैसे हो मैं अपना कर्तव्य कुछ हद तक पूरा कर सका। उस रात और अगले कई दिनों तक मैं यह सोच-सोच कर परेशान होता रहा कि मैंने न सिर्फ पूरी रात एक घुसपैठिए के साथ, देश को कुतरने वाले के साथ बिताई, बल्कि शारीरिक संबंध भी पागलपन की हद तक बनाए। और इतना ही नहीं देश के इन विरोधियों के खिलाफ गुस्सा तो खूब भरा है। सबको दोष भी दे रहा हूं। लेकिन जांच टीम के पास खुद जाकर पूरा वाकया बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं।

इससे जांच टीम को शायद कुछ मदद मिल जाए। लेकिन मेरे क़दम हर बार थम जाते हैं यह सोच कर कि यह क़दम उठाने पर शारीरिक संबंधों की भी पोल खुलेगी। तब जो होगा वह होगा लेकिन विशाखा क्षण-भर को यह सहन नहीं कर पाएगी। मैं इस असमंजस में दिल्ली जाने की तैयारी में लग गया कि अपना घर बचाऊं या अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों के हित भी देखूं। समझ नहीं पा रहा हूं कि जाने कभी इस असमंजस से बाहर निकल पाऊंगा, जांच टीम के सामने पहुंच कर सारी बात कह भी पाऊंगा या नहीं।

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मेरे बाबू जी

लखनऊ ज़िले की तहसील और ब्लॉक मोहनलालगंज में न जाने ऐसा क्या है कि मैं और मेरा परिवार इसे छोड़कर लखनऊ शहर, या किसी अन्य शहर का रुख़ नहीं कर पा रहे हैं। बातें न जाने कितनी बार हुईं, ना जाने कितनी बार योजना बनी, लेकिन जितनी बार बातें हुईं, जितनी बार योजनाएँ बनीं, उतनी ही बार यह ठंडे बस्ते में चली भी गईं अगली बार फिर चर्चा का इंतज़ार करती हुईं। लगता है कि जैसे ना हम इसे मन से छोड़ने का प्रयास करते हैं और ना ही यह हमें कहीं और जाने के लिए छोड़ना चाहता है।

जिसे यह छोड़ना चाहता था उसे छोड़ दिया। और वह भी मन से छोड़ना चाहती थीं तो चली गईं। बरसों-बरस पहले छोड़ कर। फिर पलटकर ना देखा कभी। कभी क्षण भर को यह देखने के लिए भी नहीं आईं कि अपने जिन तीन बच्चों को वह छोड़कर चली गईं वह कैसे हैं? किस तकलीफ़ में हैं? स्वस्थ हैं? बीमार हैं या कि बचे भी हैं कि नहीं। 

इतना कठोर व्यवहार कि यही कहने का मन होता है कि शायद भगवान उनके शरीर में हृदय की रचना करना भूल गए थे, या फिर हृदय में संवेदना का संचार करना भूल गए थे। या फिर माँ का नहीं किसी और का हृदय लगा बैठे थे। मतलब कि भगवान भी भूल कर बैठे थे। और अगर यह ग़लती उन्होंने नहीं की थी तो यह तो निश्चित है कि उन्होंने ऐसा हँसी-ठिठोलीवश किया होगा। क्योंकि ऐसा ना किया होता तो कोई माँ अपने डेढ़ साल के पुत्र एवं आठ और नौ साल की पुत्रियों को अकेला छोड़कर ना चली जाती हमेशा के लिए।

हम बच्चों को माँ-बाप दोनों ही का प्यार बाप से ही मिला। जिनकी संघर्षशीलता, सज्जनता, प्रगतिशीलता, किसी आदर्श माँ सा कोमल हृदय, किसी माँ के भावों से भरे भाव, ज़िम्मेदार पिता आदि गुणों के कारण आज आसपास की एरिया में लोग चर्चा करते हैं। उन्हें अनूठा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति कहा जाता है। मगर पहले उन्हें क़दम-क़दम पर अपमानित किया जाता था।

उनके जीवन पर ही एक फ़िल्म निर्माता ने साल भर पहले ही एक वेब सीरीज़ बनाई थी। यहाँ भी हमारे बाबूजी अपनी अतिशय सरलता, सज्जनता के कारण ठगे गए। निर्माताओं ने जो पैसे कहे थे देने के लिए, एक भी पैसा नहीं दिया। अपना काम करके चलते बने। और बाबूजी ने उन्हें हँसकर माफ़ कर दिया। भूल गए। यह भी भूल गए कि उन्होंने उसके और उसकी टीम के खाने-पीने पर बहुत ख़र्चा किया था।

आठ-नौ बार में हज़ारों रुपए उड़ गए थे। इस घटना पर हमें भी कोई अफ़सोस नहीं है। क्योंकि यही तो आज के युग की मूल प्रवृत्ति है। पत्थर से भी ज़्यादा पत्थर हो गए हैं लोगों के दिल। लेकिन सच यह भी है कि अपवादों से खाली नहीं है दुनिया। तो इसीलिए मक्खन से कोमल हृदय वाले हैं हमारे बाबूजी। जिनका कोमल हृदय अम्मा के पत्थर हृदय को कोमल ना बना सका।

वृंद के इस दोहे को भी झुठला दिया कि, “करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान...॥” रस्सी के आते-जाते पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं, लेकिन मेरे बाबूजी अपने कोमल हृदय का निशान अम्मा के पत्थर हृदय पर ना बना पाए। वह हृदय-हीन बनी रहीं और चली गईं। तब पूरे खानदान, रिश्तेदार, नातेदार, पट्टीदार सब ने बाबूजी को ही ज़िम्मेदार ठहराया था कि, ‘यही ज़िम्मेदार है मेहरिया के जाने के लिए।’ उनकी अतिशय सहृदयता को उनका अवगुण बताया गया कि, ‘अरे मेहरिया ऐसे थोड़े ही ना रखी जाती है। मेहरिया तो मर्द ही रख सकता है। कड़कपन नहीं रखोगे तो मेहरिया पगहा तोड़ा के भागेगी ही। घर की देहरी लाँघेगी ही। सब इसकी सिधाई का नहीं नाजायज़ सिधाई का नतीजा है।’

तब सिधाई, सज्जनता भी जायज़-नाजायज़ हो गई थी। इस दुनिया ने मेरे बाबूजी के साथ इतना ही अन्याय नहीं किया था बल्कि उन्हें अपमानित करने, दुत्कारने का आख़िरी रास्ता तक चुना था। उन्हें नपुंसक कह कर अपमानित किया था। खुलेआम पूरे विश्वास के साथ यह कहा गया कि, ‘तीनों बच्चे भी इसके नहीं हैं। नपुंसक कहाँ बच्चे पैदा कर सकता है।’ सीधे-सीधे कहा जाता, ‘जिसके बच्चे थे उसी के साथ भाग गई। कोई औरत नामर्द के साथ कब तक रहेगी? कब तक निभाएगी?’ माँ का नाम लेकर कहा जाता, ‘भंवरिया (भंवरी) ने इतने साल एक नपुंसक के साथ निभाया यही बड़ी बात है। इसने तो उसका जीवन बर्बाद किया, धोखा दिया उसे। हाथ में दम नहीं था और उफनती जवानी लिए गाय का पगहा बाँधने चला था।’ बाबूजी हर अपमान, दहकते कोयले से ज़्यादा दहकती झूठी बातें ऐसी शांति से हज़म कर जाते जैसे शहद पी गए हों।

अति हो जाने पर, एकदम मुँह पर यह सब कहे जाने पर दोनों हाथ जोड़कर कहते, ‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है। भंवरी को जो कुछ चाहिए था मैंने वह सब कुछ उसे दिया। मैं नपुंसक नहीं हूँ। हर सुख उसे दिया, बच्चे भी हमारे ही हैं। कभी तेज़ आवाज़ में बात तक नहीं की। कभी भी चाहे जितना भी वह बिगड़ी, उचित-अनुचित यह सब मैंने सोचा ही नहीं। बस हँस कर शांति से यही कहता था, “बस कर भंवरिया, ग़ुस्सा होकर काहे को अपने को इतना कष्ट देती है। तुझे कैसा भी कष्ट हो यह मुझे अच्छा नहीं लगता। बच्चे हैं, इनकी बातों पर इतना ग़ुस्सा अच्छा नहीं। यह भगवान का रूप हैं।” मुझे पिक्चर देखना कभी अच्छा नहीं लगता लेकिन जब-जब उसने कहा कि नई पिक्चर आई है तो दिखाने के लिए लखनऊ ले गया। कहने को भी एक बार भी मना नहीं किया।

’घर में मीट-मछली कभी नहीं बनी लेकिन उसका जब-जब मन किया तब-तब बाज़ार में ले जाकर या चोरी से घर लाकर खिलाया। हाँ उसे एक बार डाँटने-सख़्ती करने का दोषी हूँ। जब बिटिया के होने को तीन महीना बाक़ी रह गए थे और उसने अम्मा से बदतमीज़ी की थी। अम्मा ने खाली इतना कहा था कि, “बहू खाना-पीना टाइम से करती रहो नहीं तो बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा।” मैं इतने पर भी कुछ नहीं बोलता और बोला भी नहीं था।

रात अचानक मुझे उसके मुँह से शराब जैसी कुछ अजीब सी महक मिली। बात की तो लगा कि इसने तो अच्छी-ख़ासी पी रखी है। मैं एकदम हैरान-परेशान हो गया कि यह क्या ग़ज़ब हो रहा है। इसने तो अनर्थ कर दिया है। मैं तंबाकू तक नहीं छूता और यह शराब। बहुत पूछने पर बताया था कि, “घर के कबाड़-खाने में बाबूजी ने रखी थी। वही पी ली। अम्मा से ग़ुस्सा थी, इसीलिए पी।”

होली के समय बाबूजी आने वालों के लिए जो शराब लेकर आए थे उसी की बची हुई एक छोटी शीशी उन्होंने वहाँ डाल दी थी। वही भंवरी ने पी थी। उस समय मैंने उससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा कि यह नशे में है। रात भर जागता रहा कि यह कहीं मेरे सोते ही कुछ गड़बड़ ना कर दे। अगले दिन भी बड़े प्यार से समझाया था कि, “ऐसा अनर्थ अब मत करना। किसी को पता चल गया तो सोचो कितनी बदनामी होगी और बच्चे की सोचो, ज़हर है उसके लिए यह, ज़हर।” इसके अलावा कभी मैंने उससे ऊँचे स्वर में तो छोड़िए रूखी आवाज़ में भी बात नहीं की। उसे अपने घर, अपने जीवन की लक्ष्मी कहता था। क्या यही हमारी ग़लती है?’

बाबूजी की बातों को लोग बहुत बाद में धीरे-धीरे समझ पाए। तब उन पर ताना कसना कम हुआ। लेकिन बंद तो अभी भी नहीं हुआ। मेरे बाबूजी गुणों के अथाह सागर हैं। फिर भी अम्मा ऐसे एक झटके में बिना कुछ कहे क्यों चली गईं? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में मैं आज भी लगी हुई हूँ, बाबूजी का मालूम नहीं कि वह उत्तर ढूँढ़ रहे हैं या उन्हें भूल गए हैं, या उनकी यादों को मन के किसी अँधेरे कोने में गहरे दबा दिया है। और माँ-बाप की दोनों ज़िम्मेदारी वह कैसे आदर्श ढंग से निभा ले जाएँ इसी में लगे हैं।

मैं जब आजकल मैग्ज़ीन, पेपर या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गुड पेरेंटिंग के चर्चे देखती, पढ़ती हूँ कि गुड पेरेंटिंग कैसे हो? तो हँसी आती है। मन ही मन कहती हूँ कि यह मेरे बाबूजी से सीखो। उनसे बड़ा आदर्श अभिभावक कम से कम मेरी दृष्टि में कोई और है ही नहीं। ऐसा मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं कह रही हूँ कि वह मेरे बाबूजी हैं।

जब माँ चलीं गईं तो दोनों चाचा ने घर से मुँह मोड़ लिया था। दोनों लोग बाबा-दादी से लड़-झगड़ कर अपने हिस्से की प्रॉपर्टी ली और बेच-बाच कर चले गए दूसरे शहर। फिर कभी लौट कर नहीं आए। असल में दोनों ही घर पहले से ही छोड़ना चाहते थे, बहाना ढूँढ़ रहे थे तो यह मिल गया कि, “घर में रहना मुश्किल हो गया है। बाहर मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहे। सब ताने मारते हैं। अपमानित करते हैं। हमारे परिवार, बच्चों पर इसका बुरा असर पड़ रहा है। अपना परिवार, अपना जीवन हम अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते नहीं देख पाएँगे।”

बाबूजी ने तब घर-भर से हाथ जोड़कर माफी माँगते हुए कहा था कि, "मेरी वज़ह से यह सब हुआ है तो बाक़ी लोग परेशान क्यों हों? घर छोड़कर मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा। घर ही नहीं मोहनलालगंज में दोबारा क़दम नहीं रखूँगा और मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। बच्चों को लेकर यहाँ से ख़ाली हाथ ही जाऊँगा।" लेकिन चाचा लोग नहीं माने थे। कहा, "तुम्हारे जाने से जो कलंक घर पर लगा है वह मिट नहीं जाएगा। बदनामी, नाम में नहीं बदल जाएगी। वह इस घर पर हमेशा के लिए चिपक गई है, हम ही जाएँगे।" और बेधड़क चले गए। उनके जाने और अपने हँसते-खेलते घर के ऐसे ही अचानक बिखर जाने से बाबा-दादी इतना आहत हुए कि दो साल के अंदर ही वे दोनों भी चले गए। यह दुनिया ही छोड़ दी।

मैं अक्सर सोचती हूँ बाबूजी की उस समय की मनःस्थिति के बारे में। उनकी हालत का अंदाज़ा लगाने का प्रयास करती हूँ, कि उन पर तब क्या बीती रही होगी? कैसे वह पूरी दुनिया के ताने बर्दाश्त करते रहे होंगे? मिट्टी के बर्तन बनाने का पुश्तैनी व्यवसाय भाइयों के छोड़ जाने के कारण बंद हो गया था। और बाबूजी तब चाय की दुकान चलाने लगे। जो बाबूजी की मेहनत से जल्दी ही अच्छे-ख़ासे होटल में तब्दील हो गई।

अब तो उनका यह व्यवसाय बहुत अच्छा चल रहा है। सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि बाबूजी ने व्यवसाय और हम तीनों बच्चों को कैसे सँभाला होगा? उनकी तकलीफ़ों को सोचकर काँप उठती हूँ कि कैसे वह हम दोनों बहनों को सर्दी-गर्मी, बरसात में सवेरे-सवेरे तैयार करते रहे होंगे? कैसे मोहनलालगंज बस स्टेशन से लगे शिवालय के पीछे जाकर स्कूल छोड़ते रहे होंगे? और फिर कैसे चार बजे दुकान किसके सहारे छोड़ कर हम बहनों को लेने समय से स्कूल आ जाते थे?

साइकिल पर हम दोनों बहनें पीछे कैरियर पर बैठती थी। जिसमें बाबूजी ने लोहे के दो-तीन टुकड़े और वेल्ड करा कर उसे और बड़ा करवा दिया था। जिससे हम दोनों बहनें आराम से बैठ सकें। आगे डंडे पर एक छोटी सी सीट थी। उस पर छोटा भाई बैठता था। जो क़रीब साढ़े तीन वर्ष का हो चुका था। जब-तक दादी थीं तब-तक तो वह ऐसे समय पर घर पर रहता था। लेकिन उनके ना रहने पर स्कूल जाने की उम्र तक हमेशा बाबूजी के साथ ऐसे रहता था जैसे कोई छोटा बच्चा हमेशा अपनी माँ के साथ चिपका रहता है।

देर शाम दुकान बंद कर बाबूजी हम सब को लेकर घर आते थे। खाना वह होटल की भट्टी पर ही धीरे-धीरे बनाते रहते थे। आते समय स्टील के कई पॉटवाले टिफ़िन में रखकर साइकिल के डंडे पर एक हुक में लटका लेते थे। घर पर फिर आराम से बैठकर सारे बच्चों के साथ खाते थे। खाने के बाद वह सवेरे की भी काफ़ी सारी तैयारियाँ कर डालते थे। कपड़े से लेकर खाने-पीने की सारी चीज़ें तैयार करते, सारा बर्तन वो रात में ही माँज डालते थे। मैं दस वर्ष की हो गई थी तब भी वह मुझसे कोई काम नहीं लेते थे। जब-तक वह घर का काम करते तब-तक मैं छोटे भाई को लिए रहती थी। उसे ही देखती रहती। बोतल में जो दूध वह देते वह उसे पिला देती और अपने हिसाब से उसे खिलाती-सुलाती रहती।

ग्यारह की होते-होते मैं ख़ुद इतनी समझदार हो गई थी कि उनके मना करने पर भी मैं अपनी समझ से जितना काम हो सकता था वह करने लगी थी। इसमें ज़्यादातर काम दोनों छोटे भाई-बहनों की देखभाल का ही था। इससे कुछ तो राहत बाबूजी को मिलती ही रही होगी।

मैं पूरे विश्वास के साथ यह कहती हूँ कि मेरे बाबूजी के लिए माँ के जाने के बाद सबसे कठिन दिन वह था जब एक दिन देर शाम को वह दुकान बंद करके, हम सब को लेकर घर आ रहे थे। हमेशा की तरह खाना-पीना, लादे-फाँदे। भाई आगे ही बैठा था। तब-तक वह क़रीब साढ़े चार साल का हो गया था।

घर पहुँच कर जब सब घर के अंदर आ गए, मैं स्कूल के कपड़े चेंज करने जाने लगी तभी छोटी बहन ने मुझसे कपड़े में कुछ लगा होने की बात कही। कुछ देर पहले कुछ अजीब सी स्थिति मैंने भी महसूस की थी। लेकिन वह सब तब मेरी समझ से बाहर की बात थी। माँ या बड़ी बहन कोई भी तो नहीं थी जो हमें उम्र के साथ कुछ बताती-समझाती। बाबा-दादी के बाद दोनों बुवाओं ने भी हमेशा के लिए संबंध ख़त्म कर लिए थे। उनके रहने पर भी जब आती थीं तो हम लोगों से दूर ही रहती थीं। पड़ोसी भी दूर ही रहते थे। क्योंकि पूरा दिन तो हम सब स्कूल और होटल पर ही रहते थे। अँधेरा होने तक ही घर आते थे। घर पर पूरा दिन ताला ही लगा रहता था।

तो उस दिन जो हुआ उसके लिए मैं अनजान थी। धब्बे देखकर मैं रोने लगी। डर गई। छोटी बहन भी रोने लगी, कि मुझे कोई गहरी चोट लगी है। बाबूजी ने जब जाना तो प्यार से सिर पर हाथ रखते हुए कहा, "कुछ नहीं हुआ है बेटा। रोने वाली कोई बात नहीं है।" उसके बाद उन्होंने एक माँ की तरह मुझे सब समझाया कि माहवारी क्या है? हमें कैसे सावधानी रखनी है। उन्होंने उसी समय मेरे लिए उचित कपड़ों का इंतज़ाम किया। अगले दिन मुझे स्कूल नहीं भेजा। क्योंकि उनके पूछने पर सवेरे मैंने बताया था कि तकलीफ़ ज़्यादा है। लेकिन बाबूजी हम सारे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर इतना सजग थे कि छोटे भाई-बहन को स्कूल छोड़ा। और बहन जी (तब टीचर को हम लोग बहन जी बुलाते थे) से मेरी तबीयत ख़राब होने की बात कहकर छुट्टी करा ली।

दिन-भर मैं होटल पर उन्हीं के साथ रही। उस दिन होटल से आते समय सुई-धागा सहित वह कई और चीजें भी ले आए, और रात में ही मेरे लिए बाक़ी दिनों के लिए भी नैपकिन बना दी। सन् उन्नीस सौ अस्सी के आस-पास मोहनलालगंज तब बहुत छोटा सा क़स्बा हुआ करता था। और बाज़ार में हर दुकानदार एक दूसरे को जानता था। सबसे बड़ी बात यह कि तब सेनेटरी नैपकिन को लेकर इतनी सजगता नहीं थी। उस छोटे से क़स्बे में और भी नहीं। बाबूजी चाहते भी नहीं थे कि हमारी प्राइवेट बातें किसी को पता चलें। जल्दी ही मैंने यह सब-कुछ सीख लिया। छोटी बहन के समय मैं उपस्थित थी।

हम परिवार के सारे लोग टीवी आने पर उस पर जो भी फ़िल्में देख पाते थे वही देखा करते थे। कभी पिक्चर हॉल में नहीं गए थे। कुछ समय पहले जब ‘पैडमैन’ नाम की पिक्चर आई, उसकी बड़ी चर्चा होने लगी तो हम दोनों बहनें आपस में बात कर ख़ूब हँसती कि आज सेनेटरी नैपकिन को लेकर देश में सजगता, जागरूकता पैदा करने की बात कर रहे हैं। हमारे बाबूजी चालीस साल पहले ही यह सब कर चुके हैं। बिना किसी ताम-झाम के। उनसे बड़ा प्रोग्रेसिव, महान कौन हो सकता है? उनके इस महान काम को हम दोनों बहनों के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति नहीं जानता था। मगर इस पिक्चर को लेकर एक उत्सुकता प्रबल हुई तो जीवन में पहली बार हम पूरा परिवार होटल बंद कर हॉल में पिक्चर देखने के लिए लखनऊ शहर पहुँचे।

बाबूजी किसी सूरत में तैयार नहीं हो रहे थे कि वह इस उम्र में जब नाती-पोते हो गए हैं तो पिक्चर देखने चलें। वह भी ऐसी। तो मैंने उनसे बात की। कहा, "बाबूजी आपने हम बच्चों के लिए जो-जो किया वह कितने बड़े काम थे, हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण थे। उसका एहसास हम आपको कराना चाहते हैं। हम भी करना चाहती हैं। क्योंकि मैं समझती हूँ कि आप जीवन भर बस काम ही काम करते रहे हैं। एहसास, सुख-दुःख सबसे ऊपर उठकर।" ज़िद पर अड़े बाबूजी तब माने जब उनकी यह शर्त मान ली गई कि ठीक ना लगने पर वह बीच से ही उठ कर चले आएँगे और उनके साथ सभी लोग नहीं केवल एक आदमी आएगा, और अगले दिन वह पूरी पिक्चर देखने जाएगा।

हमें उनकी शर्त माननी पड़ी। फिर कहूँगी कि हमारे बाबूजी सा कोई नहीं हो सकता। उस दिन किसी को बीच में उठकर नहीं आना पड़ा। बाबूजी ने सबके साथ पूरी पिक्चर देखी। घर पर उस दिन खाना-पीना होने के बाद टीवी नहीं खोला गया। सब ने बैठकर बातें कीं। पिक्चर के बारे में। हम दोनों बहनों के पति, भाई-भाभी और हम-सब के आठों बच्चों ने। भाई की बिटिया भी जो बच्चों में सबसे छोटी है और किशोरावस्था बस पीछे छोड़ने ही वाली है।

मुझे लगा कि बाबूजी के सान्निध्य में पूरा परिवार जिस तरह संयुक्त रूप से रहता आ रहा है। जिस तरह हँसी-ख़ुशी से खुल कर हँसता-बतियाता चला आ रहा है, वह केवल बाबूजी के ही कारण है। उनके किए गए कार्यों के महत्व को परिवार की नई जनरेशन को भी समझना चाहिए। तो इस उद्देश्य मैंने सब से कहा कि, "सेनेटरी नैपकिन को लेकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें, जो हम देख कर आए हैं पैडमैन पिक्चर में, वह कुछ भी नहीं है उस व्यक्ति के सामने जो सच में पैडमैन है, ऐक्टर नहीं।"

मेरे इतना कहते ही सब चौंक कर मुझे देखने लगे। पता नहीं क्यों बहन और बाबूजी भी। जब मैंने यह कहा कि, "वह पैडमैन इस समय हमारे बीच में है।" तो सभी फिर चौंके। इस बार बाबूजी, बहन को छोड़कर। और जब मैंने अम्मा के जाने के समय से लेकर अगले पाँच वर्ष तक का वर्णन किया, सारा घटनाक्रम बताया, बाबूजी के पैडमैन बनने तक की बात की तो सारे बच्चों ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया। बाबा जी, बाबा जी महान हैं आप। बच्चियों ने उनके हाथ चूम लिए। किसी ने उन्हें कंधे से पकड़ लिया था। तो कोई उनके पैरों को पकड़ कर बैठ गया था।

सब अपनी-अपनी बातें बोलते चले जा रहे थे। और जीवन में पहली बार हम बाबूजी की आँखों से झर-झर झरते आँसू देख रहे थे। मगर जीवन में पहली बार वह खुलकर कोई काम नहीं कर रहे थे। हम सब से बचना चाह रहे थे। उनके दोनों होंठ बुरी तरह फड़क रहे थे। मगर वह पूरी ताक़त से उन्हें भींचे हुए थे। हमारे सामने रोना नहीं चाहते थे। भाई की आँखें भरी थीं। हम दोनों बहनों के पति भी उन्हें भरी-भरी आँखों से एकटक देखे जा रहे थे।

मैंने यह सोच कर उन्हें चुप कराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की, कि जीवन भर इन्होंने हृदय में जितने आँसू बटोर रखे हैं, आज उन्हें पूरा बह जाने दिया जाए। अपने पति, बहन को भी इशारे से रोक दिया था। भाई भी शायद यही सोच रहा था जो मैं। हमारे पतियों से आख़िर नहीं रहा गया। और वह चुप कराने उनके पास पहुँच गए। जिन्हें बाबूजी अपने दो हीरा दामाद कहते हैं। उन्होंने इन्हें हीरा कैसे बनाया आप सब को यह भी बता देना चाहती हूँ। मुझे यही सही लग रहा है।

अपने इन दो हीरों को वो रोज़गार के लिए भटकते हुए देख कर लखनऊ से ही लाए थे। दोनों किसी होटल में बर्तन वग़ैरह धोने का काम करते थे। किसी अनाथालय में पले-बढ़े थे और पार्ट टाइम पढ़ाई भी कर रहे थे। इन अनगढ़ हीरों को उन्होंने ख़ूब तराशा, काम भी दिया और पढ़ाया भी।

जब हमारी शादी का समय आया और बाबूजी हमारी शादी के लिए निकले तो माँ की बात इतने दिनों बाद भी आगे-आगे पहुँच जाती थी। तमाम अपमानजनक स्थितियों को झेलने के बाद भी जब उन्हें सफलता मिलती नहीं दिखी तो उन्होंने अपने विचार बदले। और एक दिन यहीं दिव्य मंदिर "काले वीर बाबा" में अपने तराशे इन्हीं हीरों के साथ ही हम दोनों बहनों की शादी करवा दी। वह भी एक ही दिन में। एक ही हवन कुंड के समक्ष। परम पिता परमेश्वर को साक्षी मानकर शादी को संपन्न कराने वाले पुजारी जी ने उनके इस क़दम की ख़ूब प्रशंसा की थी। आशीर्वाद दिया था। बाबूजी ने गिनकर चार-पाँच लोग बुलाए थे। मोहल्ले में दो-चार दिन हुई बातों पर उन्होंने कोई ध्यान ही नहीं दिया।

इसके दो साल बाद ही भाई की भी शादी ऐसे ही एक अनाथालय में पली-बढ़ी लड़की से की जो आज हमारी प्यारी भाभी है। दुनिया में होगा नन्द-भौजाइयों के बीच छत्तीस का आँकड़ा। लेकिन हमारे यहाँ तीनों एक दूसरे की जान हैं। तीनों नहीं बल्कि सभी एक दूसरे की जान हैं। इन सभी का क्योंकि गहरा रिश्ता है काले वीर बाबा, शिवालय, यहाँ के बाज़ार, विद्यालय और घर से, तो शायद नहीं, निश्चित ही इन सबसे गहरे रिश्ते के कारण ही कोई मन से यहाँ से कहीं और जाने की सोचता ही नहीं है। बिजनेस और बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए लखनऊ या किसी और बड़े शहर में शिफ़्ट होने की बात जहाँ से शुरू होती है वहीं जाकर फिर ख़त्म हो जाती है। पिक्चर देखने वाले दिन के बाद तो हमने इस बारे में क़रीब-क़रीब सोचना ही बंद कर दिया है।

मगर अम्मा को मैं आज भी सोचती हूँ। उनका गोरा-चिट्टा चेहरा। बड़ी-बड़ी काली आँखें। लंबे बाल। कमर तक झूलती चोटी। और कोयल सी कूकती आवाज़। आज भी आँखों के सामने घूमता है उनका चेहरा। कानों में गूँजती है आवाज़। जब वह बुलाती थीं ‘नित्या’। मुझे नित्या बुलाने वाली अम्मा ना जाने किस बुरी घड़ी में, ना जाने कितनी दूर के चचेरे देवर के संग घर की देहरी लाँघ गईं हमेशा के लिए। जिनके लिए बाबूजी आज भी ना जाने कितने आँसू रोज़ हृदय में बटोरते जा रहे हैं। मेरे महान बाबूजी. . .। और अम्मा। जो भी हो वह मेरी अम्मा ही रहेंगी। इसे तो भगवान भी अब नहीं बदल सकता। विवश है वह भी। आख़िर सामने अम्मा है। सच तो यह भी है कि विधान बनाने वाला विधाता भी अपने विधान के समक्ष विवश है। मगर जो भी हो विधाता से यही प्रार्थना करती हूँ कि अम्मा जहाँ भी हों उन्हें स्वस्थ और ख़ुश रखें। और मेरे क्रांतिकारी बाबूजी को भी ।

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                 बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा            

चार घंटे देरी से जब ट्रेन लखनऊ रेलवे स्टेशन पर रुकी तो ग्यारह बज चुके थे। जून की गर्मी अपना रंग दिखा रही थी। ग्यारह बजे ही चिल-चिलाती धूप से आंखें चुंधियां रही थीं। ट्रेन की एसी बोगी से बाहर उतरते ही लगा जैसे किसी गर्म भट्टी के सामने उतर रहा हूं। गर्म हवा के तेज़ थपेड़े उस प्लेटफॉर्म नंबर एक पर भी झुलसा रहे थे। अपना स्ट्रॉली बैग खींचते हुए मैं वी.आई.पी.एक्जिट के पास बने इन्क्वारी काउंटर पर पहुंचा यह पता करने कि जौनपुर के लिए कोई ट्रेन है, तो वहां से निराशा हाथ लगी।

 कुछ ट्रेने निकल चुकी थीं। अगले कई घंटे तक वहां के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया क्या करूं, काउंटर से हटकर इधर-उधर देखने लगा। पहुंचना जरूरी था और समय भी मेरे पास बहुत कम था। मैं थोड़ी ही दूर पर एक बेंच पर बैठ गया। स्टेशन पर इधर.उधर नजर जा रही थी। वहां की साफ-सफाई मेंटिनेंस देखकर कहना पड़ा वाकई चेंज तो आया है।

यही स्टेशन कुछ साल पहले तक अव्यवस्थाओं, गंदगी का प्रतीक हुआ करता था। यदि शासक, समाज चाह लें तो कुछ भी हो सकता है। परिवर्तन में समय नहीं लगता। यह परिवर्तन देखते-देखते मैंने बोतल निकालकर कुछ घूंट पानी पियाए फिर यह सोचते हुए बाहर आया कि चलें देखे बाहर कोई बस वगैरह मिले तो उसी से चलें। पहुंचना तो हर हाल में है। स्टेशन की अपेक्षा बाहर मुझे परिवर्तन के नाम पर भीड़-भाड़, अस्त-व्यस्तता दिखी।

मेट्रो ट्रेन का काम तेज़ी से चल रहा था। जिसके कारण डिस्टर्बेंस हर तरफ दिख रही थी। बाहर बसों की हालत गर्मी ने मुझे पस्त कर दिया। अंततः जौनपुर के लिए एक टैक्सी बुक की। मैंने सोचा पैसे ज़्यादा लगेंगे लेकिन कम से कम आराम तो रहेगा। पैसे को लेकर मैंने ज़्यादा झिख.झिख नहीं की। ड्राइवर भी इत्तेफाकन पढ़ा-लिखाए समझदार अच्छे मैनर्स वाला मिल गया। मैंने सोचा चलो रास्ते भर बोरियत से बच जाऊंगा। 

संयोग से वह भी पूर्वांचल का निकला। बलिया जिले का। वह इंग्लिश लिट्रेचर हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएट था। दोनों ही भाषाओं पर उसकी जबरदस्त पकड़ देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ लिया, 'नौकरी के लिए कभी कोशिश नहीं की क्या?' तो उसने बताया कि कई प्रतियोगी परीक्षाओं के रिटेन मैंने फर्स्ट अटेम्प्ट में ही क्लीयर कर लिए। लेकिन इंटरव्यू में हर जगह फेल होता रहा। जब कि रिटेन की तरह इंटरव्यू भी मेरे जबरदस्त होते थे।' आखिर में उसने जोड़ा कि  राजनितिक पहुंच या सोर्स के सिरे से नदारद होने, आर्थिक रूप से कमजोरी और इन सबसे ज़्यादा यह कि जनरल कैटेगरी वालों के लिए नौकरी है ही कहां? उम्मीदों का हर तरफ से टोटा ऐसा था कि नौकरी पानाए उसे असंभव लगा। 

प्राइवेट स्कूलों में कुछ दिन टीचर की नौकरी की लेकिन वहां जी.तोड़ मेहनत करने के बाद मिलने वाले कुछ हज़ार रुपयों ने उसकी उम्मीदों की रही-सही कसर भी निकाल दी। मैंने उसकी सामाजिक राजनीतिक विषयों पर गहरी जानकारी, क्लीयर कांसेप्ट को देखकर कहा,  'तुम्हारी  बातों से लगता है कि शायद तुम नौकरी ना मिलने अपनी इस हालत के लिए रिजर्वेशन को ज़िम्मेदार मान रहे हो।'

 मेरी इस बात पर वह हंस पड़ा। बोला , नहीं, बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है कि मैं अपनी बातें आपको ठीक से कम्यूनिकेट नहीं कर पाया। देखिए मैं यह बहुत स्पष्ट मानता हूं कि मेरे साथ फेयर गेम हुआ होता तो कम से कम तीन-चार जगह मेरा सेलेक्शन हो जाता। लेकिन सिस्टम ही करप्ट है इसलिए यह होने की बात ही नहीं उठती। नौकरी मुझे एकाध जगह तब भी मिल जाती यदि सिस्टम में करप्शन होता। लेकिन सर मैं जब नौकरी पाने के प्रयास में आगे बढ़ा तो पाया कि भई यहां सिस्टम में करप्शन नहीं है। यहां तो करप्शन में सिस्टम है। हमारे देश में वास्तव में जो सिस्टम डेवलप हुआ वह करप्शन में डेवलप हुआ। 

आप सोचिए कि जो देश सदियों के बाद आज़ाद हुआ हो वह अपना भविष्य बनाने के लिए आगे बढ़े और कुछ वर्ष भी ना बीते और एक बड़ा घोटाला हो जाए। फिर आरोपी को सजा देने के बजाय केंद्रीय मंत्री बना दिया जाए। तो ऐसे देश के बेहतर भविष्य और आयडल सिस्टम के डेवलप होने की उम्मीद करना ही मूर्खता थी, जो हम देशवाशियों ने की। गलती तो हमारी ही थी। पूत के पांव पालने में ही नजर आ गए थे। साफ दिख रहा था कि करप्शन के दल-दल में देश के डेवलपमेंट का बीज हमारे कर्णधार रोप रहे हैं, फिर भी हम अंधे बने रहे। शायद आज़ादी की लड़ाई की थकान उतार रहे थे। लेकिन नहीं थकान की बात नहीं। बात तो यह थी कि हमलोग यह जो कहते हैं ना कि पानी ऊपर से नीचे की ओर आता है। जहां-जहां वह पहुंचता है लोग उसे ही इस्तेमाल करते हैं। लोग सोचते हैं कि यह ऊपर से आ रहा हैए तो यह साफ ही होगा। फिर लोग उसी के आदी होते चले जाते हैं। तो हमारे यहां देश में यही हुआ।

ऊपर करप्शन होते गए। ऊपर से नीचे बढ़ता गया। एक के बाद एक घोटालों से देश को छलनी किया जाता रहा। लेकिन हम क्यों कि इसके आदी हो चुके थे। इसे हमने सिस्टम मान लियाए और इस सिस्टम का जो तरीका है काम करने का वह है भ्रष्ट तरीके से काम करना और करवाना। उसी को हमने ग्रहण कर लिया। सत्ता के मद में चूर ऊपर लोग पूरा देश चूसते रहे। खोखला करते रहे और हम सोए रहे। साठ-पैंसठ साल तक सोए रहे। जब जागे तो इतनी देर हो गई है कि हर तरफ भ्रष्टचार गंदगी सड़ांध ही सड़ांध है। इतनी कि नाक फटी जाती है। 

अब आज की जेनरेशन इससे छुटकारा पाने को तड़प रही है। ऊपर का सिस्टम भी इस चीज को समझ गया है। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि जब ऊपर वालों ने देखा कि नई जेनरेशन इतनी परेशान हो चुकी है कि विस्फोट हो सकता है तो उसने भले ही दबाव में या जो भी कहें संड़ाध गंदगी को दूर करना शुरू किया है। लेकिन यह सड़ांध दूर होने में समय लगेगा। हथेली पर सरसों उगाने का कोई रास्ता तो अभी तक नैनो टेक्नोलॉजी भी नहीं ढूंढ़ पायी है। 

साठ-पैंसठ साल की सड़ांध को दूर करने में यदि ईमानदारी से पूरी कोशिश होती रही तो भी मैं मानता हूं कि आठ-दस साल तो लग ही जाएंगे। और यह भी तब ही हो पाएगा जब हम देशवासी जागते रहेंए फिर से सो ना जाएं। तय यह भी है कि इस बार अगर सोए तो सब कुछ नष्ट होना अवश्यंभावी है। और यह भी कि यदि नई जेनरेशन की आवाज़ को ऊपर वालों ने नजरंदाज किया। पहले वालों की तरह आंखें बंद किए रहे तो देश में खूनी क्रांति भी हो सकती है। और उस स्थिति के लिए मैं यही कहूंगा कि जब किसी देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना जरूरी हो जाए कम समय में ही तो वहां तक पहुंचने का रास्ता खूनी क्रांति से ही होकर गुजरता है। इतिहास इस बात का गवाह है। हमें इतिहास से सबक लेते रहना चाहिए। जो आगे देखने से पहले अतीत पर नजर नहीं डालते उनको ठोकर लगती ही है।' 

वह नॉन स्टॉप पूरे आवेश में ऐसा बोला कि मैं कुछ देर चुप-चाप सुनता ही रहा। उसकी बातों ने वाकई मुझे यह यकीन करा दिया कि इस व्यक्ति में बड़ा ज्वालामुखी धधक रहा है। इसी में क्यों बल्कि इसकी उम्र की पूरी पीढ़ी में ही। लेकिन मुझे लगा कि इसने मेरी बात का तो जवाब दिया ही नहीं कि यह अपनी हालत के लिए आरक्षण को ज़िम्मेदार मानता है कि नहीं।

यह सोच कर मैंने उसे फिर कुरेदा तो वह बड़ी बेबाकी से बोला, 'नहीं। मैं इसे ज़िम्मेदार नहीं मानता। क्यों कि मैं यह मानता हूं कि आज़ादी के बाद भी अगर हम समाज में फैली असमानता को दूर नहीं कर पाएंगे तो भी देश का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा। यह व्यवस्था असमानता को दूर करने का एक माध्यम है। लेकिन करप्शन में पैदा सिस्टम ने इस व्यवस्था को भी विकृत कर दिया। इसकी भी धुर्रियां उड़ा दी हैं। जिसका परिणाम और नकारात्मक निकल रहा है। 

समाज में सदियों से पीछे छूट गए जिन दलितों के लिए यह व्यवस्था बनाई गई। इस व्यवस्था को विकृत कर दिए जाने के कारण उन दलितों में भी वर्ग बनते जा रहे हैं। कुछ परसेंट हैं जो इस के चलते आगे निकल गए वो पुश्त-दर पुश्त उसी का लाभ उठाते रहना चाहते हैं। उनको यह क्रीम मिलती रहे इसके लिए सक्षम बन चुका यह वर्ग जो अब भी पीछे छूटे हुए हैं उनको आगे आने नहीं दे रहा।

हर संभव रुकावट डालता है, जिसका परिणाम है कि दलितों में भी परस्पर वैमन्स्यता बढ़ रही है। असमानता बढ़ रही है। यह व्यवस्था बनाते वक्त इसकी जो मूल भावना थी इसकी जो आत्मा थी उसे ही नष्ट कर दिया गया है। परिणाम यह है कि एक के सामने रखी थाली छीन कर दूसरे को दी जा रही है। दूसरे की तीसरे को। तो जो इक्वेलिटी लाने की बात थी वह तो कहीं है ही नहीं। बल्कि असमानता और बढ़ रही है। विषमता विभेद चरम छूने को है। इसी का परिणाम है कि अब देश के कोने-कोने में हर वर्ग ही आरक्षण पाने के लिए आंदोलन कर रहा है। लड़ रहा है। कोई इसकी विकृति को सुधारने की बात ही नहीं कर रहा है। 

अब ऐसे में मैं आरक्षण नहीं इस व्यवस्था की सड़ांध इसकी विकृति को अपनी स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मानता हूं। इसे बनाते समय इसकी संकल्पना करने वालों इसे बनाने वालों की बातों उनके विचारों को आधा भी माना जाता तो आज किसी वर्ग को आरक्षण की जरूरत ही ना होती। यह व्यवस्था ही अप्रासंगिक हो जाती। खत्म हो जाती। असमानता से दूर समाज देश की प्रगति की वो कहानी लिखता जिसकी दुनिया ने भी कल्पना न की होती। मगर अफसोस आज़ादी मिलते ही सत्ता के लोभियों की नजर हर तरफ लग गई। उनकी सत्ता हर वक्त चलती रहेए बनी रहे इसके लिए वोट की राजनीति चली और चलती ही आ रही है। सारी समस्या को नए ढंग से नया रूप देकर उन्हें बराबर विकराल रूप दिया गया। वह अभी भी जारी है। इसलिए मैं कहता हूं कि यह कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि हमारे देश में गृह-युद्ध या खूनी क्रांति हो जाए।'

इन बातों को कहते हुए ड्राइवर आदित्य विराट सिंह के चेहरे पर जबरदस्त तनाव था। चेहरा लाल हो रहा था। पीछे सीट पर बैठा मैं बैक मिरर में यह सब कुल मिलाकर देख पा रहा था। बैक मिरर भी मुझे लगा कि सही एंगिल पर नहीं था। उसकी बात पूरी हो गई। मैं बड़ी देर तक चुप रहा। मुझे लगा कि शायद वह मेरी वजह से बड़े तनाव में आ गया है। मैं नहीं चाहता था कि वह तनाव में ड्राइविंग करे। मैंने उससे कहा 'आदित्य जी आगे कोई अच्छा सा रेस्टोरेंट वगैरह दिखे तो रोकना।' अपने नाम के साथ जी जुड़ा पाकर वह जैसे राहत महसूस कर रहा था। जी कहते समय मैंने उसकी बॉडी लैंग्वेज को रीड करने की भरसक कोशिश की थी।

आगे जब एक रेस्टोरेंट पर उसने गाड़ी रोकी तो मैंने उसकी अनिच्छा के बावजूद उसे अपने साथ ही बैठकर लंच करने के लिए तैयार कर लिया। कई बार कहने पर वह तैयार हुआ था। बातूनी स्वभाव के चलते इस समय भी मैंने उससे खूब बातें की जिससे लंच कुछ ज़्यादा ही लंबा खिंच गया। इस दौरान मैंने पाया कि वह पैसे से ज़्यादा सम्मान का भूखा है। 

उसने बताया कि घर की ज़िम्मेदारियों फिर शादी के बाद बीवी, बच्चे की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए टीचिंग से मिलने वाली रकम ऊंट के मुंह में जीरा सी थी। कोई और रास्ता ना देखकर उसने बीवी के गहने आदि बेचकर डाउन पेमेंट करने लायक भर की रकम जुटाईए फिर बैंक से फाइनेंस कराकर यह टैक्सी निकलवाई। उसने बिना संकोच कहा,  खुद  चलाता हूं इस लिए बचत अच्छी कर लेता हूं। गाड़ी की कुछ किस्तें रह गई हैं। इसके बाद एक और गाड़ी निकलवाऊंगा।'

उसने अपने बच्चों के भविष्य, आगे बढ़ने को लेकर जो भी प्लान कर रखा था उससे मैं बहुत इंप्रेस हुआ, अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के प्रति उसकी गंभीरता प्रशंसा योग्य थी। इसके लिए मैंने उसकी खुले दिल से प्रशंसा की। उस वक्त मैं मन में बड़ी आत्मग्लानि महसूस कर रहा था कि मैंने अपने मां-बाप के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन संतोषजनक ढंग से भी नहीं किया। मैं बड़ा पछतावा महसूस करने लगा।

मन में उठे इन भावों के साथ ही मैं आदित्य की बातें सुनता रहा। रेस्टोरेंट से जौनपुर की ओर चलने के बाद भी। जब अपने रिश्तेदार के यहां ओलंद गंज, जौनपुर पहुंचा तो शाम हो चुकी थी। इस दौरान आदित्य की बहुत सी बातों में से एक बात मेरे मन को और गहरे मथने लगी। उसने कहा था कि, 'सर चाहे जैसे भी हो मैं कोशिश कर के कम से कम दो बीघा जमीन गांव में और खरीदूंगा। मेरे पापा तो जीवन भर तमाम मुश्किलों के कारण गांव में एक धूर जमीन भी नहीं खरीद पाए। लेकिन उन्होंने यह भी किया कि हर मुश्किलें सह लीं लेकिन अपने बाप-दादों की जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं बेचा। 

मैं सोचता हूं कि अगर दो-चार बीघा जमीन ले लूंगा तो फादर को खुशी होगी कि वो ना खरीद पाए तो क्या उनके बेटे ने तो खरीद लिया। बाप-दादों का सम्मान बढ़ा दिया। पूरा गांव ही तारीफ करेगा। उन्हें यह जो खुशी मिलेगी मेरे लिए वह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।'

मैं अपने रिश्तेदार के साथ बैठा चाय-नाश्ता करता रहा लेकिन आदित्य की यह बात दिमाग से निकल नहीं रही थी। आदित्य जाते-जाते मुझसे हाथ मिला कर गया था। मुझे इस बात के लिए उसने बहुत-बहुत धन्यवाद कहा था कि मैंने उसे रास्ते भर एक टैक्सी ड्राइवर नहीं एक मित्र की तरह ट्रीट किया। फिर उसने बड़े संकोच के साथ मेरा मोबाइल नंबर भी ले लिया। बोला, 'सर जब याद आएगी तो आप से बात कर लिया करूंगा।'  

देर रात जब मैं खा-पी कर लेटा तो भी उसकी बातें दिमाग में चल रहीं थी। मैं अपनी पैतृक प्रॉपर्टी बेचने गया था। इस काम में मेरे यही रिश्तेदार जो चचेरे भाई लगते हैं वही मदद कर रहे थे। मेरा गांव वहां से घंटे भर की ही दूरी पर था। रामगढ़ मछली शहर तहसील। अगले दिन सुबह मैं उन्हीं की जीप से तहसील पहुंचा। उन्होंने ड्राइवर के अलावा दो आदमी और साथ लिए थे। उन्होंने खरीददार से सब कुछ तय कर रखा। फिफ्टी पर्सेंट पेमेंट ब्लैक कैस में लेना थाए फेयर मनी सीधे बैंक में जमा होनी थी। सब कुछ तय था। बदले में मैं उन्हें भी कुछ देने की अपने मन में सोचे बैठा था। असल में वह एक अच्छे खासे ठेकेदार हैं। सफल ठेकेदार के गुण दबंगई उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। 

तहसील में ही मुझे उनके चार-पांच आदमी और मिले। सब दूसरी जीप से थे। रिश्तेदार ने उन्हें भी सुरक्षा की दृष्टि से बुलाया था। क्योंकि मामला करीब पांच बीघे का था। और अस्सी लाख रुपए में तय हुआ था। हम साढ़े दस बजे पहुंच गए थे। खरीददार कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। रिश्तेदार ने सबसे पहले संबंधित स्टाफ का पता किया। संयोगवश सब आए थे। ग्यारह बजे भी खरीददार नहीं दिखा तो रिश्तेदार ने उन्हें फो़न किया। रिंग जाती रही लेकिन उसने फ़ोन रिसीव नहीं किया। 

इससे मैं थोड़ा परेशान हो उठा। उनके चेहरे पर भी तनाव दिख रहा था। खरीददार चार भाई थे और सभी मिलकर खरीद रहे थे। दूसरे भाई का नंबर ट्राई किया गया तो स्विच ऑफ मिला। बारह बज गए तो रिश्तेदार ने अपने आदमियों को खरीददार के गांव तिलोरे उनके घर भेजा। वहां पहुंच कर उन सब ने सूचना दी कि बड़े भाई की दो घंटे पहले ही डेथ हो गई है। वह हार्ट पेशेंट थे। दो बार पहले ही अटैक पड़ चुका था। सुबह आने की तैयारी चल रही थी कि तभी पत्नी से बहस हो गई। पत्नी शुरू से ही भाइयों के साथ इस सौदे के खिलाफ थी। ऐन खरीदने के समय झगड़ा उन्हें अपशगुन लगा। वह एकदम बिगड़ गए थे। और फिर संभाल ना पाए खुद को और गिर पड़े। उन्हें इतनी तेज अटैक पड़ा था कि डॉक्टर के यहां ले जाने का अवसर ही नहीं मिला।

यह सूचना मिलते ही रिश्तेदार ने अपना सिर पीटते हुए कहा, 'क्या ! दो-चार घंटे और नहीं रुक सकते थे।' मुझे लगा जैसे मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गई है। कुछ देर समझ ही नहीं आया कि क्या करूं, मेरी बोलती बिल्कुल बंद हो गई थी। रिश्तेदार भी हैरान थे। कुछ देर बाद तय हुआ कि जो भी हो उनके यहां चलना तो चाहिए ही। उनके अंतिम दर्शन करने। ज़्यादा करीबी नहीं तो क्या थोड़ा बहुत परिचय तो था ही। 

वहां पहुंचा तो देखा चौपहिया, दुपहिया वाहन सौ से ऊपर थे। दो सौ लोगों से कम लोग नहीं थे। बड़ा भारी पक्का मकान था। वहां पता चला कि सारे भाई एक साथ रहते हैं। संयुक्त परिवार की परंपरा इस परिवार ने बना रखी है। मगर बड़े भाई की पत्नी तभी से अपना रंग दिखा रही थीए जब से उसका बड़ा लड़का इलाहाबाद में एक बैंक में नौकरी पा गया था। और उसकी शादी के लिए लोग आने लगे थे। वह अलग सारी व्यवस्था करना चाहती थी। अपनी बहू वह संयुक्त परिवार में लाना नहीं चाहती थी। इसी बात को लेकर वह आए दिन विवाद पैदा करती थी। 

आज जब साथ में खेत खरीदने की बात उसने एकदम फली-भूत होते देखी तो अपना आपा खो बैठी। यह भी होश ना रख सकी कि हृदय-रोगी उसका पति ज़्यादा तनाव झेल नहीं सकता। और अब जब पति चला गया तो खुद भी झेल नहीं पाई। बेहोश पड़ी है। मगर लोग इतने खफा हैं कि कोई डॉक्टर तक नहीं बुला रहा। रिश्तेदार ने वहां अपनी हाजिरी बजाई, मातमपुर्सी की और चल दिए। मैं सोचता रहा इतनी दूर से आना बेकार हुआ। सारा काम-धाम छोड़कर आया, कई दिन के काम का नुकसान हो रहा है। 

गांव से निकल कर सड़क पर आए तो रिश्तेदार ने कहा, 'परिवार  के किसी सदस्य की अचानक डेथ से परिवार हिल उठता है। बेचारे खेत खरीदने जा रहे थे।' मैंने भी दुख व्यक्त करते हुए कहा, 'इसीलिए कहते हैं पल की खबर नहीं सामान सदियों का।' रिश्तेदार बोले, 'अरे भाई-साहब ये सब पुरानी दकियानूसी बातें छोड़िए। आप भी मैं क्या कह रहा हूं और आप समझ क्या रहे हैं। मैं कह रहा हूं कि महिनों से कोशिश की। तब जा कर बात बनीं। आपको इतनी दूर से बुलाया। और ये महोदय कुछ घंटे अपना दिल भी नहीं संभाल पाए। 

घर और भाइयों को मैं जितना जानता हूं उस हिसाब से तो यह सौदा अब होना नहीं। बड़े दकियानूसी विचारों वाला परिवार है।' तभी उनका एक साथी बोला, 'वैसे भी अब साल भर तक तो कोई सवाल नहीं। इतने दिन कोई शुभ काम करेंगे ही नहीं। हां अगर बरसी वगैरह सब साथ ही निपटा देते हैं तो भले ही उम्मीद की जाए कि दो-चार महिने बाद खरीद लेंगे। अभी सब लोक-लाज की बातें करेंगे कि अभी भाई मरा है, खेती-बाड़ी क्या खरीदें, दुनिया क्या कहेगी।

साथी की बात ने मेरी परेशानी और बढ़ा दी। लेकिन रिश्तेदार ने यह कह कर चैप्टर ही क्लोज कर दिया कि, 'मुझे तो कोई उम्मीद नहीं दिखती। ये सब यहां शगुन-अपशगुन बहुत देखते हैं। अब यही कहेंगे कि इन खेतों का सौदा बहुत अपशगुन रहा। खरीदने के पहले ही इतना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। खरीदने के बाद ना जाने और कौन सी विपत्ति आ जाए। अब दूसरा कस्टमर ढूंढ़ना पड़ेगा। यहां तो भैंस गई पानी में।' इतना कह कर वो फिर मुखातिब हुए मेरी तरफ और पूछा, 'भाई साहब आप क्या कहते हैं। चला जाए वापस। अब तो कोई उम्मीद दिखती नहीं।' 

कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा, 'मैं सोच रहा हूं कि जब आ ही गया हूं, अभी पूरा दिन पड़ा है, तो चलूं चाचा से मिल लूं। आगे कभी पता नहीं मिलना होगा भी या नहीं। पता नहीं कितने साल बाद तो आया हूं। अब यहां से थोड़ी ही दूर है घर। पता उन्हें चल ही जाएगा। इस गांव के लोग भी वहां आते-जाते रहते हैं। वैसे भी काम तो कुछ होना नहीं। इतनी दूर आया हूं तो कम से कम गांव घर-द्वार भी देख लूं।

शहर में तो गांव की याद जब आती है तो बस मन-मसोस कर रह जाता हूं। मैंने जब देखा कि रिश्तेदार का मन चलने का नहीं है। वह जौनपुर सिटी अपने काम-धाम से तुरंत लौट जाना चाहते हैं। तो मैंने कहा, 'अगर आप को कोई असुविधा ना हो तो ड्राइवर और एक जी़प मेरे साथ कर दीजिए। हो सकता है आज चाचा के यहां रुकना ही पड़े। इतने दिन बाद जा रहा हूं, निश्चित ही रुकने को कहेंगे। तब मना करना मेरे लिए बड़ा कठिन होगा। आपका ड्राइवर रहेगा तो मुझे रास्ता वगैरह  ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा। पैदल नहीं चलना पड़ेगा।'

मेरी बातों, भावों से उनको लगा कि मैं जरूर जाऊंगा तो उन्होंने एक जीप मेरे लिए छोड़ी और दूसरी जीप से अपने बाकी आदमी लेकर चले गए। ड्राइवर उस एरिया से ज़्यादा तो नहीं पर ठीक-ठाक परिचित था। इस तिलोरे गांव से मैं अपने गांव बरांवा पहुंचा खेती-बाड़ी तो खानदान की सब रामगढ़ में है। लेकिन घर और बाग बरांवा में। मैं जब मुख्य सड़क जो वहां के रेलवे स्टेशन जंघई जाती है के पड़ाव, (बस स्टेशन) के पास पहुंचा तो मैंने उस छोटे से कमरे के सामने ही गाड़ी रुकवा ली जो स्टेशन था। पड़ाव के सामने ही एक सड़क अंदर गांव से कुछ दूर और आगे तक जाती है। उस पर कुछ आगे दाहिने मुड़ कर ही गांव के भीतर पहुंचने का रास्ता था। पड़ाव पर पहुंचते ही सब याद आने लगा। 

पिता के साथ गांव बहुत बरस पहले तब आया था, जब चचेरी बहन की शादी थी। बस स्टेशन के बगल में चाय वाले के यहां से चाय लेकर मैं ड्राइवर के साथ ही खड़े-खड़े पीते हुए इधर-उधर देखने लगा। सड़क पक्की थी, मगर गढ्ढों से भरी। बचपन में जब आता था तो यह कंकड़ रोड हुआ करती थी। जिसके बारे में सुनता था कि उसे अठारह सौ छियानवे में बनवाया गया था। एक बार जब नौ-दस बरस का रहा होऊंगा तब इसी रोड पर बस का अगला पहिया बर्स्ट हो जाने से बस सड़क से उतर कर गढ्ढे में चली गई थी। हम भी उसी बस में थे। सब को चोटें आईं थी। मेरा एक दांत टूट गया था। तब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी। 

लोग आपातकाल की काली छाया से निकल कर एक बार फिर आज़ादी महसूस कर रहे थे। तब भी पड़ाव पर दोपहर में सन्नाटा था। आज इतने बरसों बाद भी पड़ाव उसके आस-पास करीब-करीब वैसा ही सन्नाटा सा हो रहा था। एक बजने वाला था। तेज़ धूप ने, गर्म हवा ने सबको घरों या छाए में दुबक जाने को मजबूर कर दिया था। जिस दुकान से चाय ली थी उसने आगे तिरपाल बांध रखी थी। उसी की छांव में हम जरूर थे। मगर पसीने से तर हो रहे थे। चाय वाले से हमने कुछ बात करके गांव के बारे में जानना चाहा तो वह बड़ा अलसाया सा हाथ वाले पंखे से अपने को हवा करते हुए हां हूं करता बड़ा अनमना सा जवाब दे रहा था। मैं भी थकान महसूस कर रहा था। तो चाय खत्म कर चाय वाले को पैसे दिए और कंफर्म करने के लिए अपने चाचा के घर का पता पूछ लिया। 

उसने जैसे ही चाचा का नाम सुना तो थोड़ा सीधा होकर बैठ गया और पूरा रास्ता बता दिया। चलते समय जब मैंने बताया कि मैं उनका भतीजा हूं तो वह हाथ जोड़ कर बोला, 'अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए। बतावा केतना बड़ी गलती हो गई। तोहे ठीक से चायो-पानी नाहीं पूछ पाए। चच्चा जनिहैं तो रिसियइहीं।' मैंने उसे नमस्कार करते हुए कहा आप परेशान ना होइए। ऐसा कुछ नहीं होगा। बाद में पता चला कि यह महोदय कभी सबसे छोटे चच्चा के कारण थाने से छूट पाए थे। उसी का अहसान निभाते आ रहे हैं। मैं फिर जीप में बैठ कर चल दिया। ड्राइवर शंभू ने रास्ता समझ लिया था। वह गाड़ी धीरे-धीरे चला रहा था। रास्ते अब पहले जैसे ना होकर अंदर ठीक-ठाक थे। गांव में अंदर इंटरलॉकिंग ईंटों से  खड़ंजे वाली सड़क बन चुकी थी। मुख्य सड़क से अंदर घुसते ही पहले एक स्कूल हुआ करता था। अब वह मुझे दिखाई नहीं दिया।  

गाड़ी आगे जैसे-जैसे बढ़ रही थी मन में बसी गांव की तस्वीर साफ होती जा रही थी। मगर सामने जो दिख रहा था वह बहुत कुछ बदला हुआ दिख रहा था। पहले के ज़्यादातर छप्पर, खपरैल वाले घरों की जगह पक्के घर बन चुके थे। लगभग सारे घरों की छतों पर सेटेलाइट टीवी के एंटीना दिख रहे थे। अब घरों के आगे पहले की तरह गाय-गोरूओं के लिए बनीं नांदें मुझे करीब-करीब गायब मिलीं। चारा काटने वाली मशीनें जो पहले तमाम घरों में दिखाई देती थी वह इक्का-दुक्का ही दिखीं। जब नांदें, गाय-गोरू गायब थे तो चारे की जरूरत ही कहां थीं, जब चारा नहीं तो मशीनें किस लिए, खेती में मशीनीकरण ने बैलों आदि चौपाओं को पूरी तरह बेदखल ही कर दिया है। 

अब इन जानवरों की अनुपयोगिता के चलते ग्रामीणों ने इनसे छुट्टी पा ली है। हरियाली भी गांव में पहले जैसी नहीं मिली। हरियाली की जगह उस वक्त हर तरफ़ तन झुलसाती धूप का एक-क्षत्र राज्य था। जीप में एसी के कारण मुझे काफी राहत थी। वह पेड़ भी मुझे करीब-करीब गायब मिले जो पहले लोगों के घरों के सामने हुआ करते थे। खासतौर से नीम, कनैल के फूल, अमरूद, केला आदि के । पक्के मकानों के सामने इन पेड़ों की छांव की जरूरत लोगों ने नहीं समझी। मकान आगे तक बढ़ आए थे। और पेड़ गायब थे। घरों के दरवाजे बंद पड़े थे। मुझे गंवईपन गायब दिख रहा था। कई घरों के आगे जीपए कारें भी दिखीं। लेकिन पहले की तरह घरों के आगे पड़े मड़हे में तखत या खटिया पर हाथ का पंखा लिए कोई न दिखा।

यह हमारे लिए थोड़ा कष्टदायी रहा, क्योंकि कई जगह रास्ता पूछने की जरूरत पड़ी लेकिन बताने वाला कोई नहीं दिख रहा था। एक तरफ बंसवारी दूर से दिख रही थी। मुझे याद आया कि यह हमारे घर से थोड़ी ही दूर पर पश्चिम में दर्जियाने, (दर्जियों का टोला) मुहल्ले में हुआ करती थी। मगर मन में यह संदेह था कि यह पता नहीं मैं जो समझ रहा हूं वही बंसवारी है या कहीं और तो नहीं पहुंच गया हूं। 

शंभू को मैंने बंसवारी के पास ही चलने को कहा। वहां पहुंच कर पाया कि यह तो वही दर्जियान है जिसे मैं ढूंढ़ रहा हूं। मैं सही हूं। गांव का वह हिस्सा जहां मुस्लिम समुदाय के दर्जियों, जुलाहों आदि के घर थे। वहीं बीड़ी बनाने वालों, चुड़ियाहिरिनों के भी घर हैं। वहां वह कुंआ वैसा ही मिला जैसा बरसों पहले देखा था। हां उस की जगत और उसके वह दो पिलर जिस के बीच लोहे की गराड़ी लगी थीए वह बदले हुए मिले। वहीं उतर कर मैं सामने खपरैल वाले मकान के पास पहुंचा। इस मकान का पुराना रूप पूरी तरह नहीं खोया था।

मकान के दलान में कुछ महिलाएं बीड़ी बनाने में जुटी थीं। एक बुजुर्गवार ढेरा (लकड़ी का एक यंत्र एजो प्लस के आकार होता है। इसमें बीचो-बीच एक सीधी गोल लकड़ी करीब नौ दस इंच की लगी होती है।) से सन की रस्सी बनाने में लगे थे। बुजुर्गवार गोल टोपी लगाए थे। उनकी पतली सी लंबी सफेद दाढ़ी लहरा रही थी। मूंछें साफ थीं। बगल में नारियल हुक्का था। चश्मा भी नाक पर आगे तक झुका था। सभी के चेहरे पर पसीना चमक रहा था। चेहरे आलस्य से भरे थे। 

खाली चेकदार लुंगी पहने, नंगे बदन बुजुर्गवार सन की एक छोटी सी मचिया (स्टूल जैसी लंबाई-चौड़ाई वाली एक माइक्रो खटिया जो मात्र पांच-छः इंच ऊंची होती है।) पर बैठे थे। मैं उनके करीब पहुंचा, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। और अपने चाचा के घर का रास्ता पूछा। जीप के पहुंचने पर से ही वह बराबर हम पर नजर रखे हुए थे। 

चाचा का नाम सुनते ही उन्होंने कहा, 'बड़के  लाला खिंआ जाबा ? ' हमने कहा, 'हाँ'। तो उन्होंने फिर पूछा, ' कहाँ से आए हअ बचवा।' मैंने बताया, 'जौनपुर से। वो मेरे चाचा हैं।' यह सुनते ही वह बोले, 'अरे-अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए।' यह कहते हुए उन्होंने रस्सी बनाना बंद कर यंत्र किनारे रखा। दोनों हाथ घुटनों पर रख पूरा जोर देकर खड़े हो गए। दस बारह क़दम बाहर आकर रास्ता बताया। चलते-चलते पापा का नाम पूछ लिया। मैंने बताया तो पापा का घर वाला नाम लेकर बोले, 'तू   उनकर बेटवा हअअ! बहुत दिना बाद आए हऊअ। तू सभे त आपन घरै-दुवार छोड़ि दिअ हअअ। अऊबे नाहीं करतअ। तोहार बबुओ कईयो-कईयो बरिस बाद आवत रहेन। चलअ तू आए बड़ा नीक किहैय।'

उन्होंने कई और बातें कहीं। जिनका लब्बो-लुआब यह था कि हमें अपने घर-दुआर से रिश्ता-नाता बनाए रखना चाहिए। बुजुर्गवार अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं उनको क्या बताता कि मेरे पापा भी इसी सोच के थे। वह तो रिटायरमेंट के बाद गांव में ही स्थाई रूप से बसने का सपना संजोए हुए थे। मगर चौथे नंबर के जो चाचा तब यहां सर्वे-सर्वा बने हुए थे, वह संपत्ति के लालच में ऐसे अंधे हुए थे, कि सारे भाइयों के इकट्ठा होने पर नीचता की हद तक विवाद करते थे। 

शुरू में तो कई बरस बाहर रहने वाले तीनों भाई बरदाश्त करते रहे। और हर शादी-विवाह बड़े त्योहारों, जाड़ों और गर्मी की छुट्टियों में परिवार के साथ आते रहे। लेकिन आते ही यह चौथे चाचा जो तमाशा करते घर में, बाबा, दादी को भी अपमानित करते, उससे सभी का मन धीरे-धीरे टूट गया। फिर बाबा की डेथ हो गई। दादी को पापा अपने साथ लेते गए। फिर वह आजीवन साथ रहीं। बीच में कुछ दिनों के लिए दूसरे चाचा के पास कानपुर भी गईं।

वह चौथे चाचा की बदतमीजियों उनके अपमानजनक, उपेक्षापूर्ण व्यवहार से इतना दुखी, इतना आहत थीं कि गांव छोड़ते वक्त फूट-फूट कर रोईं  थीं। चौथे चाचा का नाम ले कर कहा था, 'अब हम कब्बौ ई देहरी पर क़दम ना रक्खब।' और दादी ने अपना वचन मरकर भी निभाया। वह दुबारा लौट कर जाने को कौन कहे फिर कभी गांव का नाम तक नहीं लिया। और जब दादी चली आईं तो पापा और बाकी दोनों भाइयों ने भी गांव जाना लगभग बंद कर दिया। 

उन बुजुर्गवार को क्या बताता कि चौथे चाचा की बदतमीजियों से जब दादी हमेशा के लिए घर छोड़ कर चली गईं, वह दादी जी जो पहले पापा और दूसरे चाचा के यह कहने पर कि, 'अम्मा चलो कुछ दिन हम लोगों के साथ रहेा।' तो कहती थीं, 'नाहीं चाहे जऊन होई जाए हम आपन घर दुआर छोड़ि के कतो ना जाब।' ऐसे में यहां हम-लोगों के आने का कोई स्कोप कहां रहा। वही चाचा जो संपत्ति के लिए अंधे हुए थे। भाइयों का हक मार-मार कर प्रयाग में और इस गांव में भी अलग एक और मकान बनवाया था। बाद में उनका जीवन बहुत कष्ट में बीता। सबसे हड़पी संपत्ति पांच लड़कियों की शादी में चली गई। 

यह पांच कन्या रत्न उन्हें पुत्र रत्न के लोभ में प्राप्त हुईं थीं। पुत्र रत्न उनकी सातवीं या आठवीं संतान थी। और आखिरी भी। जिन दो कन्या रत्नों ने शिशुवस्था में ही स्वर्ग-धाम कूच कर दिया था उनके लिए चाचा-चाची कहते, 'हमार ई दोनों बिटिये बड़ी दया कई दिहिन। नाहीं तअ शादी ढूढ़त-ढूढ़त प्राण औऊर जल्दी निकल जाई।' बुजुर्गवार के बताए रास्ते पर चल कर मैं अपने सबसे छोटे चाचा पांच नंबर वाले के घर के सामने रुका। उन्होंने भी अपना अच्छा खासा बड़ा मकान बनवा लिया है। घर के लॉन में मोटर-साईकिल खड़ी थी। दरवाजे खिड़की सब बंद थे। गर्मी ने सबको कैद कर रखा था। अब गांव में यही एक चाचा रह गए हैं। 

जीप से उतर कर मैंने दरवाजे को कुछ समयांतराल पर खटखटाया। दो बार कुंडी खटखटाते वक्त बचपन का वह समय याद आया जब बाबा थे। और बड़े से घर में सारे दरवाजों में बड़ी-बड़ी भारी सांकलें लगी थीं। बेलन वाली कुंडियां नहीं। करीब दो मिनट बाद छब्बीस सताइस वर्षीया महिला ने दरवाजा खोला। मैं उसे पहली बार देख रहा था। वह शायद सो रही थी।

मेरे कारण असमय ही उसकी नींद टूट गई थी। इसकी खीझ उसके चेहरे पर मैं साफ पढ़ रहा था। खीझ उसकी आवाज़ में भी महसूस की जब उसने पूछा, 'किससे मिलना है?' मैंने चाचा का नाम बताया तो बोली, 'वो सो रहे हैं। बाद में आइए।' तो मैंने कहा, 'उन्हें उठा दीजिए। मैं जौनपुर से आ रहा हूं। वो मेरे चाचा हैं।' मैंने उसे परिचय दे देना उचित समझा। चाचा कहने पर वह थोड़ी सतर्क हुई और अंदर जाकर जो भी कहा हो करीब पांच मिनट बाद चाचा का छोटा लड़का बाहर आया। मुझे उसे भी पहचानने में थोड़ा समय लगा। 

उससे मिले भी बहुत समय बीत गया था। इसके पहले मैं उससे तब मिला था जब वह हाईस्कूल में था। दाढ़ी-मूंछें शुरू ही हुईं थीं। अब वह पौने-छः फीट का लंबा चौड़ा युवक था। उसने पहचानते ही पैर छुआ और कहा, 'आइए भइया।' दरवाजे के अंदर क़दम रखते ही हम ड्रॉइंगरूम में थे। लगभग बीस गुणे पचीस का बड़ा सा कमरा था। जो ड्रॉइंगरूम की तरह मेंटेन था। एक तरफ सोफा वगैरह पड़ा था। दूसरी तरफ तखत पर चाचा सोते दिखाई दिए। बीच में एक दरवाजा भीतर की ओर जा रहा था। दरवाजे पर पड़े पर्दे की बगल से जैसी तेज़ लाइट आ रही थी उससे साफ था कि उधर बरामदा या फिर आंगन था । 

मुझे सोफे पर बैठने को कह कर चचेरे भाई जिसका नाम शिखर है ने अपनी पत्नी को मेरा परिचय बताया। तो उसने भी मेरे पैर छुए। साथ ही उलाहना देना भी ना भूली कि, 'भाई साहब आप लोग शादी में भी नहीं आए इसीलिए नहीं पहचान पाए।' मेरी इस भयो यानी छोटे भाई की पत्नी ने ही दरवाजा खोला था। उसकी शिकायत, उसका उलाहना अपनी जगह सही था। उसने जिस तेज़ी से उलाहना दिया उससे मैं आश्चर्य में था। क्योंकि वह उलाहना दे सकती है मैंने यह सोचा भी नहीं था। लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि मैं भी अपनी जगह सही था। 

उसके ही सगे श्वसुर और मेरे इन्हीं छोटे चाचा ने एक बार रिवॉल्वर निकाल ली थी अपने बड़े भाइयों पर। जब बाहर रहने वाले तीनों भाइयों ने चौथे नंबर वाले चाचा को समझाने का प्रयास करते हुए कहा था कि, ' हम-लोग तो रहते नहीं। तुम-दोनों यहां जो कुछ है आधा-आधा यूज करते रहो। आगे जब कभी हम लोग आएंगे तब देखा जाएगा। कम से कम रिटायर होने तक तो हम लोग आ नहीं रहे।' 

इस पर चौथे चाचा बिफर पड़े थे कि ,'मेरा परिवार बड़ा है। सारी प्रॉपर्टी की देख-भाल मुकदमेंबाजी सब मैं संभालता हूं। चाहे कुछ भी हो जाए। धरती इधर से उधर हो जाए लेकिन मैं आधा नहीं दूंगा।' सबने सोचा कुछ हद तक यह सही कह रहे हैं। छोटे चाचा वैसे भी महीने में पांच-छः दिन ही रहते हैं। बाकी दिन तो यह इलाहाबाद में अपनी नौकरी में रहते हैं। तो सबने सलाह दी कि चौथे का कहना सही है। पैंसठ-पैंतीस के रेशियों में बांट लो तुम-दोनों। 

बस इतना कहना था कि यही चाचा बमबमा पड़े थे। बिल्कुल इसी गांव के बम-बम पांड़े की तरह। जो अपनी खुराफातों से पूरे गांव को परेशान किए रहते थे। परिवार को भी। एक होली में भांग में मदार के बीज ना जाने किस झोंक में पीस गए। ज़्यादा मस्ती के चक्कर में ऐसा मस्त हुए कि यह लोक छोड़ कर परलोक चले गए। मगर पीछे किस्से बहुत छोड़ गए। इन्हीं की आदतों से इंफेक्टेड यही चाचा तब अपनी पत्नी का नाम लेकर चिल्लाए थे, 'निकाल  लाव रे हमार रिवॉल्वर देखित हई अब ई बंटवारा कैइसे होत है। हम छोट हैई त हमके सब जने दबइहैं। लाओ रे जल्दी।'

और मूर्ख चाची ने भी अंदर कमरे से रिवॉल्वर निकाल कर चाचा को थमा दी थी। ये अलग बात है कि ये चाचा उस रिवॉल्वर का कुछ प्रयोग करते उसके पहले ही गश खाकर गिर पड़े। बंटवारे की बात जहां शुरू हुई थी, वहीं खत्म हो गई। इसके बाद तीनों भाई तभी गांव पहुंचे, जब इन दोनों भाइयों के बच्चों का शादी ब्याह हुआ या ऐसा ही कोई भूचाल आया। अन्यथा भूल गए अपना गांव, अपना घर संपत्ति। फिर इन-दोनों ने अपने मन का खूब किया। जो चाहा खाया-पिया बेचा। जो चाहा अपने नाम कर लिया। 

बाकी भाइयों के नाम बस वही खेत बाग बचे रह गए। जो कानूनी अड़चनों या भाइयों के हाजिर होने की अनिवार्यता के कारण बेच या अपने नाम नहीं कर सकते थे। यहां तक कि पड़ाव पर की छः दुकानों में से पांच फर्जी लोगों को खड़ा कर बेच ली और पैसे बांट लिए। जिसका पता दसियों साल बाद चल पाया। और मैं ऐसे ही चाचाओं में से एक सबसे छोटे वाले से मिलने के लिए उन्हीं के ड्रॉइंगरूम में बैठा था।

अपने रिवॉल्वर वाले चाचा से। वो सो रहे थे। लड़के ने मेरे मना करने के बावजूद उन्हें जगा दिया। उन्होंने आंख खोली तो उसने मेरे बारे में बताया। सुनकर वह उठ कर बैठ गए। उन्हें उठने में बड़ी मुश्किल हुई थी। दोनों हाथों से सहारा लेते हुए मुश्किल उठ पाए थे। उनके उठने से पहले मैं उनके पास पहुंच गया था। उनके बैठते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने सिर ऊपर उठा कर एक नजर देखकर कहा, 'खुश रहो।'

फिर सिरहाने रखे चश्में का बॉक्स उठाया। चश्मा निकाल कर पहना। मैंने देखा वो पैंसठ की उम्र में ही अस्सी के आस.पास दिख रहे थेए बेहद कमजोर हो गए थे। मुझे हाथ से बगल में बैठने का संकेत करते हुए जब उन्होंने बैठने को कहा, लेकिन मैं संकोच में खड़ा ही रहा तो बोले, 'बैइठअ बच्चा।' कांपती आवाज़ में इतना भावुक होकर वह बोले की बिना देर किए मैं बैठ गया।    

वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले, 'बेटा हम मानित हई कि हमसे बहुत गलती भयबा। एतना कि भुलाए लायक नाहीं बा। का बताईए ओ समय जैइसे मतिए (दिमाग) भ्रष्ट होइगा रहा। तीनों भइया के साथे बहुत अन्याय किहे। बचवा ओकर (उसकी) हम बहुत सजौ (सजा,दंड) पाय चुका हई। तीनों भाई लोग हम्मै एक दमैं त्याग दिेहेन।

ए बच्चा हम बादे में बहुत पछताए। मगर तब ले बहुत देर होय चुकी रही। मुठ्ठी से सारी रेत निकरि कै जमीने मा बिखर चुकी रही। तीनों भाइन से माफियू (माफी) मांगे के हिम्मत नाय रहि गई रही। भगवान एतनै सजा से शांत नाय भयन। अम्मा रिशियाय (गुस्सा) कै चली गईन। फिर लौटिन नाय कभौ। आखिर जीतै (जिवित) जी ओन्हें फिर देईख नाय पाए। ई तअ तीनों भाइयन के कृपा रही कि उनके मरै पर खबर दैई दिहेन तअ आखिर दर्शन कई लिहै।' चाचा इतना कहते-कहते फ़फ़क कर रो पड़े। वह सब एक सांस में बोलते चले गए थे। 

जैसे ना जाने उनको कितने बरस से इसका इंतजार था कि कोई मिले जिससे वह अपना पश्चाताप पछतावा मन का दुख-दर्द कह सकें। वह बिलख कर ऐसे रोने लगे कि मुझसे भी देखा नहीं जा रहा था। मैं भावुक हो रहा था। मैंने प्यार स्नेह से उनके कंधों को पकड़ कर कहा, 'चाचा  जी शांत हो जाइए जीवन में इस तरह की बातें हो ही जाती हैं।' मैंने समझाने के लिए कहा , 'हम लोगों के हाथ में तो कुछ है नहीं। समय जो चाहता है करा लेता है। अपने को आप इतना दोष देकर परेशान मत होइए। जो होना था वह हो गया। अब शांत हो जाइए।'  

इस पर वह हिचकते हुए बोले, 'नाहीं बच्चा जऊन नाय होय के रहा ऊ होइगवा। इहै नाते हमै एतना दुख बा कि अब जिय कै मन तनको नाय करत। भगवान जाने कब उठैइहें।' वह फिर हिचक पडे़ तो मैंने समझाते हुए कहा,'चाचा इस तरह सोचने की कोई जरूरत नहीं है। अभी आप को बच्चों के साथ बहुत दिन रहना है। फिर कहता हूं जो हुआ भूल जाइए। हर घर में ऐसा होता ही रहता है। अब इतनी पुरानी बातों को लेकर परेशान होने का कोई मतलब नहीं है।'

मुझे लगा कि बात को दूसरे ट्रैक पर लाए बिना यह शांत नहीं होंगे। तो बात बदलते हुए कहा, 'शिखर पानी लाओ बहुत गर्मी हो रही है।' मेरी बात सुनते ही उसकी पत्नी अंदर गई और करीब दस मिनट बाद चार गिलास पानी एक प्लेट में पेठा लेकर आई। मैं इस बीच चाचा को दूसरे ट्रैक पर ला चुका था। पूछने पर मैंने बता दिया कि घर पर बीवी बच्चे सब ठीक हैं। मां की तबियत बराबर खराब रहती है। डॉक्टर दवा के बिना कोई दिन नहीं जाता। पापा की डेथ के बाद से अब तबियत ज़्यादा खराब रहती है। दोनों छोटे भाई भी ठीक हैं। पानी आने पर मैंने अपने हाथों से उन्हें एक पीस पेठा खिलाकर पानी पिलाया। 

पानी पीने के बाद बोले,' बच्चा सही गलत के जब-तक ठीक से समझे तब तक सब बिगड़ चुका रहा। सब जने घर छोड़-छाड़ के जाय चुका रहेन। हमहिं ईहां अकेले पड़ा हई। केऊ बोले बतियाय वाला नाहीं बा। बस ईहै दुअरियाए ईहै तखत औउर सबेरे उहै हनुमान जी का मंदिर। इहै बा हमार कुल दुनिया। बाबू ई मंदिरवा ना बनवाए होतेन तअ इहो कुछ ना होत। हनुमान जी से हमें बहुत शिकायत बा। समय रहते हमै कुछ चेताएन नाहीं। बुधिया (बुद्धि) एकदमैं भ्रष्ट कई दिहे रहेन। हम सबै जने से लड़ि-लड़ि कै सबके दुश्मन बनाए लिहे। एतना दुश्मन बनाए लिहे कि बचवा जब तोहार चाची मरिन केऊ भाई भतीजा दुआरी तक नाई आवा। 

मुन्नन भइया एतना रिसियान रहेंन ऐइसन दुश्मनी निभाएन कि बगलिए में रहि के नाहीं आएन। पूरा परिवार किंवाड़ी (दरवाजा) बंद किए पड़ा रहा। तोहरे चाची के अर्थी उठी, गांव पट्टीदार के लोग आएन। मगर ऊ दरवाजा नाहीं खोलेन। ए बच्चा करेजवा एकदम फटि गअअए कि एतना बड़ा परिवार, इतना मनई घरे में मगर केऊ आय नाहीं रहा। आपन केऊ नाय रहा। बच्चा तब बहुत बुरा लागि रहा। मगर बाद में सोचे ना हम लड़ित सब सेए ना ऐइसन दिन देखेक पड़त।' चाचा फिर भावुक होते जा रहे थे।

बहू को शायद अच्छा नहीं लग रहा था। या जो भी रहा हो वह बोल उठी, 'बाबू भइया के थोड़ा आराम करे दा। कुछ खा पी ले दा। फिर बतियाए।' चाचा को बहू की बात से जैसे  ध्यान आया कि अभी ऐसी बातों का समय नहीं है। वह तुरंत बोले, 'हां...हां। लइ आओ कुछ बनाय कै।' इतना सुनकर वह अंदर चली गई। मैं अब भी चाचा के बगल में ही बैठा था। शिखर जो बड़ी देर से चुप खड़ा था वह बोला, 'भइया आइए इधर आराम से बैठ जाइए।' उसके कहने पर मैं सोफे पर आराम से बैठ गया। लेकिन गर्मी से हाल-बेहाल था। पसीने को कानों के बगल में रेंगता महसूस कर रहा था। चाचा की बात सुनते-सुनते रुमाल निकालना भूल गया। ड्रॉइंगरूम में दो-दो सीलिंग फैन लगे हुए थे।

लेकिन उनके सहित टीवी वगैरह सब बंद पड़े थे। बिजली नदारद थी। शिखर से मैंने हाथ वाला ही पंखा मांगा जो एक चाचा के पास और एक उनके पीछे रखी छोटी सी एक मेज पर पड़ा था। शिखर ने खुद हवा करने की सोची लेकिन मैंने उसके हाथ से पंखा ले लिया। थोड़ी देर में उसकी पत्नी सूजी का हलुवा पानी लेकर आई। नाश्ता करते हुए पूछने पर मैंने बता दिया कि, 'मैं अपने सारे खेत बेचने आया हूं।' फिर मैंने सारी घटना बताते हुए कहा, 'मैंने सोचा कि जब आया हूं तो आप सब से मिलता चलूं।'

चाचा बोले ,'बहुत बढ़िया किहे बच्चा। अब आवा-जावा किहे। अब हम ज़्यादा दिन के मेहमान नाहीं हई। हमार ता मन इहै बा भइया कि हम बड़ लोग जऊन गलती किहे। सारा परिवार कभौ मिलके नाहीं रहा। अब कम से कम तू सब जनै आपस में रिश्ता बनाए रहा। बाप-दादा जऊन लड़ेन-भिड़ेन, गलती किहेन अब हम बच्चा चाहित हई कि लड़िका बच्चा ओसे मुक्ति पाय जाएं। मिल-जुल कै रहें। जाने बच्चा रिश्ता बनाए राखे। मिल-जुल के रहे में बहुत खुशी बा। सारी खुशी इहे में बा। 

बच्चा आपन अनुभव हम बतावत हई कि हम लड़ि-भिड़ के अलग रहिके देख लिहे। सिवाय घुट-घुट के जिए, भीतर-भीतर तड़पै, अपने के गलाए के अलावा कुछ नाहीं मिला। सोचा बच्चा हम केतना अभागा हई कि अपने भतीजन, भतीजी, भानजी, भानजों के बारे में भी कुछ नाहीं जानित। कऊन कहां बा। का करत बाए कइसन बा। अब तोहके देइख कै तुरंते नाहीं पहिचान पाए। बतावा केतना बड़ा अनर्थ हऊवे कि हम अपने भतीजा के नाहीं जानित।' 

चाचा बोलते ही जा रहे थे। पश्चाताप की आग में बुरी तरह तड़प रहे अपने चाचा को देख कर मैंने सोचा कि आखिर आदमी को अपनी गलतियां आखिरी समय में ही क्यों याद आती हैं। जब गलतियां लगातार करता रहता है तब उसे अपनी गलतियों का अहसास क्यों नहीं होता। चाचा अब जो आंसू बहा रहे हैं क्या उनके पास तब सोचने.समझने की ताकत नहीं थी जब बड़े भाइयों पर रिवॉल्वर तान रहे थे। उस समय क्रोध में आवेश में गोली चल भी सकती थी। किसी भाई की जान भी जा सकती थी। मैंने सोचा आखिर मैं आया ही क्यों? इन्होंने जो किया उसके बाद तो कोई रिश्ता बरसों-बरस से था ही नहीं। 

गांव मैं सिर्फ़ खेत बेचने आया था। मन में तो इस तरफ आने की कोई बात थी ही नहीं। फिर खरीददार के मर जाने के कारण उसके यहां गया। वहां सब का रोना-पीटना देखकर ही अचानक याद आई थी इन चाचा की। और फिर कदम जैसे अपने आप ही इस तरफ बढ़ते चले आए थे। वह भी इन चाचा के लिए जो खेत मकान दुकान के बंटवारे के प्रकरण पर मेरे फादर से भी बराबर बदतमीजी से पेश आए थे। 

मेरी मां, हम भाई-बहनों को भी क्या-क्या नहीं कहा। आखिर क्या हो गया मुझे कि मैं इनके बारे में सोच बैठा। और क़दम इधर ही बढ़ते चले आए। क्या इसे ही कहते हैं कि खून खींचता है........चाचा की बातें उनकी बहू को शायद अच्छी नहीं लग रही थीं। वह फिर बोल पड़ी, 'बाबू   भइया सफर में थक गए होंगे। उन्हें आराम करने दिजिए।' चाचा को उसकी बात ठीक नहीं लगी। वह थोड़ा रुक कर बोले, 'अरे तू तअ हमके बोलेन नाहीं देत हऊ।' फिर तुरंत ही बोले, ' हाँ भइया, सही कहत बा। थका होबा आराम कई ला।' मैंने देखा लड़का शिखर बातों में ज़्यादा शामिल नहीं हो रहा था। लगा जैसे वह खिंचा-खिंचा सा रहता है अपने पिता से। बहू भी थोड़ी तेज़ लग रही थी। सलवार सूट पहने दुपट्टा गले में लपेटे थी। 

मेरे दिमाग में बचपन की कुछ बातें याद आ गईं। छुट्टियों में आने पर यही़ चौथे, पांचवे चाचा अम्मा दोनों चाचियों के घूंघट ना निकालने पर नाराज होते थे। बाबा, दादी से शिकायत करते थे कि , 'बबुआइन लोगन के देखत हैंय, लाज-शरम तअ जइसे धोए के पी गईंन हैं। भइया लोग खोपड़ी पै चढ़ाए हैयन। शहर मां का रहैय लागिन है खोपड़ी उघारे चले की आदत पड़ि गै बा।' बाबा कुछ ना बोलते। दादी बार-बार कहने पर मौन रह कर अपना विरोध प्रकट कर देतीं। गांव की कोई भी महिला आ जाए तो भी यह लोग नहीं चाहते थे कि मां, चाची लोग उनके सामने आएं। अब देख रहा था वही चाचा कैसे कितना बदल गए हैं। सबसे छोटी बहू एक तरह से उन्हें डपट रही थी। घूंघट की तो बात ही छोड़िए। सलवार सूट में है। दुपट्टा है तो लेकिन उसका प्रयोग फ़ैशन के लिए था। गले में लपेट रखा था। बोलने में कोई हिचक नहीं थी। 

पता नहीं चाचा की सख्ती कहां चली गई थी। शायद उनसे उम्र ने बहुत कुछ छीन लिया था। जो कुछ भी उनके वश में नहीं था उन्होंने उससे हार मान ली थी। हथियार डाल दिए थे। मुझे लगा जैसे माहौल में कुछ घुटन महसूस कर रहा हूं। एक घंटा हो भी रहा था। तो मैं उठा और चाचा से बोला, 'चाचा जी अब चलता हूं। काफी समय हो गया।' तो वह बोले ,'अरे नाहीं बच्चा ऐइसे कहां जाबा, अरे एतना बरिस बाद आए है। कुछ खाए-पिए नाहीं। भइया अबै तो तोसे ठीक से मिलै बतियाए नाहीं पाए। भगवान बड़ी कृपा किहेन तोहे भेज कै। भइया रुक जाते कुछ दिन। तोहसे आपन सारी बात कहि लेइत तो हमरे ऊपर से बोझ उतरि जाए। भइया सारी बतिया एतनी गरू (भारी) हईन कि ना जियत बनत बा ना मरत। रुक जाबा ता हमार ई भार बहुत कम होई जाई। जानै भइया। इहै बदे कहित हईए रुक जाए बड़ा नीक लागे भइया।' 

चाचा ऐसे भावुक हो कर बोल रहे थे कि मैं एक-टक उनके होंठो को देखते उनका हाथ पकड़े खड़ा रहा। उनकी भावुकता मुझे बांध रही थी। मैं बोलने की कोशिश कर ही रहा था कि बहू बोल पड़ी, 'हाँ भइया बाबू जी सही कहत हैअन। रुक जाइए ना। अब बड़े लोगों ने जो किया वो किया। सही गलत जो भी था। उन लोगों के बीच की बात थी। उन्हीं लोगों के बीच रही और खत्म भी हो जाएगी। खत्म क्या होगी खत्म हो चुकी है। हम-लोगों के बीच तो कभी कुछ बात हुई नहीं। जब कभी मिले ही नहीं तो होती भी क्या? तो हम-सब लोग तो मिल कर रह ही सकते हैं। आ-जा सकते हैं एक दूसरे के यहां।'

उसके इस तरह से बोलने पर मुझे यह स्पष्ट हो गया था कि वह घूंघट वाले युग की चुप रहने वाली सब कुछ सहने वाली बहुरिया नहीं है। वह अब आज के युग की अपनी बातों को बिना हिचक कह देने वाली तेज़-तर्रार बहू है। वो क्या कहते हैं अपने अधिकारों को लेकर बहुत सजग रहने वाली महिला। जिसके सामने महिला को दबा-छिपा कर घर की कोठरियों में, घूंघट में बहू को रखने के प्रबल हिमायती मेरे चाचा भी हथियार डाल चुके हैं। मैं अभी उसकी तरफ मुड़ा ही था कुछ कहने को कि तभी शिखर बोला, 'चिंकी सही कह रही है भइया। एक-दो दिन रुक जाइए ना। ठीक से गांव दुआर देख लीजिए। हम आपको ले चलेंगे सब जगह। ऐइसे खाली रास्ता नापे से का फायदा, चलिएगा आपको खेत वगैरह सब दिखा लाएंगे।' 

शिखर चुप हुआ ही था कि चाचा फिर बोल पड़े, 'बचवा अब तअ तोके रुकेन कै पड़ी। बहुरिया बोल दिहै बा। घरे में सबसे छोट बा ओकर तअ बतिया तोहैं मानिन कै पड़ी।' मैं हर तरफ से भावनात्मक बंधन के डाले गए इन फंदों को तोड़ ना पाया। कहा, 'ठीक है, आप सब इतना कह रहे हैं तो रुकना ही पड़ेगा। तभी अंदर से किसी दुध-मुंहे बच्चे के रोने की आवाज़ आई। सुनते ही चिंकी दौड़ती हुई अंदर को चली गई। मैं फिर सोफे पर बैठ गया। उसी समय चाचा शिखर से बोले, 'बेटवा खाए-पिए के इंतजाम करा। बचवा भुखान होइहें।' मैंने मना किया लेकिन कोई नहीं माना। 

मैं गर्मी के कारण परेशान हो रहा था। शिखर भी अंदर खाने-पीने के इंतजाम के लिए चला गया। हाथ का पंखा हांकते-हांकते मेरे हाथ दर्द करने लगे। ऊबने भी लगा था। काम ना होने के कारण बड़ा तनाव महसूस कर रहा था। यही सोच कर आया था कि पांचों खेत बेचकर जो अस्सी लाख मिलेंगे उससे सबसे पहले बैंक का पचास लाख लोन खत्म कर रात-दिन कर्ज के टेंशन से मुक्ति पाऊंगा। बाकी तीस में से दो लाख जौनपुर वाले रिश्तेदार को दूंगा। यह उनका कमीशन था। बाकी बिजनेस को बढ़ाने में लगाऊंगा। लेकिन खरीददार की डेथ ने सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया। 

शिखर की बात मुझे ठीक लगी कि गांव भी घूम लीजिए। मैंने सोचा चलो इसी बहाने खेत के रेट भी कंफर्म करूंगा कि क्या चल रहा है। मैं इसी उधेड़-बुन में उठकर बाहर गया। ड्राइवर जीप को पेड़ की छाँव खड़ा कर अंदर दरवाजे बंद किए सो रहा था। शीशे पर नॉक कर दरवाजा खुलवाया और मैं भी अंदर ही बैठ गया। अंदर फुल स्विंग में एसी चल रहा था। ठंड में मुझे बड़ा आराम मिला। घंटों से गर्मी ने परेशान कर रखा था। कुछ देर में मैंने राहत महसूस की। उसके बाद सूरत में पत्नी को फ़ोन कर सारी स्थितियों को बता कर कहा मैं एक दो दिन रुक कर देखूंगा कि कोई रास्ता निकल सके। कहीं किसी दूसरे कस्टमर से ही बात बढे़। रिश्तेदार बोल ही रहे थे कि घबराइए नहीं मैं कोशिश करूंगा कि किसी तरह काम बन जाए। आपका इतनी दूर से आना बेकार ना जाए। 

मैं जानता था कि वो पूरे जीजान से लगे हैं। आखिर दो लाख उनको भी तो मिलने थे। रुकने की बात सुनकर पत्नी घबरा गई, कि मैं उन चाचा के यहां रुक रहा हूं जिन्होंने कभी इन्हीं खेतों के लिए रिवॉल्वर निकाली थी। वह नाराज होने लगी। मैंने बताया कि अब सब-कुछ बदल गया है। चाचा की मानसिक शारीरिक हालत बताई। फिर भी उसका आग्रह था कि जौनपुर वाले रिश्तेदार के यहां चला जाऊं। जैसे भी हो चाचा के यहां ना रुकूं। बड़ा विश्वास दिलाने पर बुझे मन से मानी। मैंने जौनपुर वाले रिश्तेदार को भी रुकने की बात बताई। जीप भी रोक लेने को कहा तो वह भी खुशी-खुशी मान गए। मैंने सोचा चलो एक से दो भले। जीप रहेगी तो कहीं जाने-आने में भी आसानी रहेगी। वैसे भी शहर की जीवन शैली में पैदल चलने की आदत तो खत्म ही हो चुकी है। मेरे मन में धीरे-धीरे कई योजनाएं आकार ले रही थीं। 

करीब घंटे भर बाद शिखर खाना-खाने के लिए बुलाने आया। पहले भी एक बार वह आया था। कि जीप में क्यों बैठे हैं, तो मैंने यह कहकर वापस कर दिया था कि गर्मी बहुत है यहां एसी से थोड़ी राहत है। ड्राइवर तो इसी के चलते जीप से उतरा भी नहीं था। गाड़ी को थोड़ी देर के अंतराल में स्टार्ट करता रहता था। नाश्ता भी उसे जीप में ही भिजवा दिया गया था। खाने के लिए उसे साथ ही बुला लिया। सोचा शिखर कहां बार-बार खाने को लेकर आता रहेगा।

चिंकी ने खाना अच्छा बनाया था। कद्दू की सब्जी थी, दूसरी आलू और प्याज की। आलू की सब्जी क्या थी कि बिल्कुल चाट वाली स्टाइल में बनाई थी। साथ में अरहर की दाल। जिसे उसने लहसुन, जीरा, देशी घी से छौंका था। पूर्वांचल में लहसुन से दाल छौंकना आम बात है, मुझे खाना बहुत बढ़िया लगा। मगर रोटी में वह सोंधापन नहीं था जो बरसों पहले गांव आने पर दादी और चाची के हाथों चुल्हे में पकी रोटी में होता था। 

मेरा मन उन दिनों दादी के द्वारा सबके लिए जिस तरह खाना बनवाया जाता था वहां पहुंच गया। जब सरसों के तेल में डूबे आम, मिर्चे का आचार, सिरके में डूबी प्याज, नींबू का सलाद। अब वह सब कहां था? सिरका पड़ी प्याज का सलाद आज भी था। लेकिन मुझे दादी के समय वाला स्वाद इनमें ढूढे़ नहीं मिला। चिंकी, शिखर बड़े प्यार से खाना खिला रहे थे। पूछ-पूछ रोटी, सब्जी, दाल बराबर दिए जा रहे थे। घी लगी रोटी मुलायम थी। मगर दादी वाली बात.....

चिंकी मना करने पर भी चीजों को डालती जा रही थी। इसके चलते मैं अपनी डाइट से थोड़ा ज़्यादा भी खा गया। खाने के समय चाचा भी बराबर बैठे रहे। और खाने को कहते रहे। उनके इस आग्रह में मुझे बार-बार दादी के आग्रह की झलक सी दिख जाती। चाचा के आग्रह को देखकर मन में कई बार आया कि काश चाचा तुम पहले भी ऐसे ही साफ निर्मल हृदय के होते। ऐसे ही प्यार तब भी सबके ऊपर उडे़ल रहे होते तो कितना अच्छा होता। 

बाबा-दादी सारे भाई बहन तुम्हें कितने प्यार से पुत्तन-पुत्तन कहा करते थे। सब मिल कर आपको ऊंची शिक्षा दिलाने में लगे रहे। मगर आप शहर में नशा,आवारगी में लगे रहे। आप उस दौर में ही इतनी शानेा-शौकत से रहते थे, कि गांव के लोग ईर्ष्या किया करते थे कि आप भाइयों की कमाई पर कैसे ऐश कर रहे हैं। कुछ लोग व्यंग्य भी किया करते थे। आप का नाम लेकर बोलते थे,'अरे पुत्तन आपन कमाई पर करतै ते ज़्यादा नीक लागत।' और तब आप बड़ा अनाप-शनाप बोलते थे। बड़े-छोटे का भी ध्यान नहीं रखते थे। और जब नौकरी की तो वह भी कर नहीं सके। उद्दंडता के कारण कहीं टिक ही नहीं पाते थे। मेरे पापा ने सरकारी नौकरी लगवाई लेकिन वहां वह कारनामा किया कि नौकरी से हाथ धो बैठे। पापा की भी नौकरी जाते-जाते बची थी। 

आपकी इन हरकतों के चलते भाइयों ने अपने हाथ खींच लिए। तब आपकी शानो-शौकत केा हवा होते देर नहीं लगी थी। देखते-देखते आप जमीन पर आ गए थे। तब गांव वालों के व्यंग्य आपको तीर की तरह चुभते थे। मगर तब आप कसमसा कर रह जाते थे। पहले की तरह दबंगई करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। क्यों कि भाइयों ने आना लगभग बंद कर दिया था। गांव वाले जान गए थे कि जिस दम पर आप कूदते थे वह सारा दम निकल चुका है। अब सब मौका ढूढ़ते थे कि आप अब पहले की तरह बोलें तो आपको कचर मार के पहले के अपमानों का बदला लें। 

आप इतना तो समझदार थे ही तो आप अपनी पतली हालत को समझ बचाकर राह में किनारे-किनारे चलने लगे। व्यवहार बदल गया। चौथे चाचा जो आस-पास के कई गांव नाथे रहते थे उनसे आपके छत्तीस के आकड़ें को भी गांव वाले जानते थे। वह यह भी भांप चुके थे कि चौथे चाचा तो चाहते ही हैं कि एकाध बार आपकी धुनाई हो ही जाए। काश आप दोनों चाचा परिवार के साथ चलते तो आज भी इस गांव में अपने खानदान से नजर मिलाने की किसी में हिम्मत ना होती। 

जमींदारी खत्म हो गई थी लेकिन बाबा ने अपनी हनक बना रखी थी। आप लोगों की तरह गुंडई-बदमाशी से नहीं। बल्कि अपने सद्कर्मों से, अपनी विद्वतता से, समाज के आखिरी व्यक्ति को भी यथोचित सम्मान, मदद देने से। उन्होंने जब मंदिर बनवाया तो कोई भेद नहीं रखा। हर आदमी को सादर आमंत्रित करते रहे। उनकी विनम्रता न्यायप्रियता, सादा जीवन उन्हें ऐसा विशिष्ट व्यक्तित्व बनाती थी कि हर आदमी उनके सामने नतमस्तक था। उन्हें पूरा सम्मान देता था। उनकी इच्छा का सम्मान करता था। उनकी किसी भी इच्छा को बात को पूरा करने में गर्व महसूस करता था। मगर आप दोनों चाचा ने उनकी बनाई इस शानो-शौकत को उनके रहते ही डूबोना शुरू कर दिया था। 

आप दोनों के लड़ाई-झगड़े से दादी भविष्य की तस्वीर अच्छी तरह देख रहीं थीं। वह बड़े स्पष्ट विज़न वाली महिला थीं। बाबा से बार-बार कहती रहीं कि अपने जीते-जी बांट दो सब, अलग कर दो सबको। नहीं बाद में ये दोनों लड़ मरेंगे। लेकिन अपनी छवि को लेकर सचेत बाबा आतंकित थे। वह छवि का मोह छोड़ कर व्यावहारिक नहीं बन सके। जीते-जी नहीं किया बंटवारा। उनका हर बार एक ही जवाब होता था कि  'मेरे जीते जी बंटवारा नहीं होगा।' आखिर दादी की बात को आप-दोनों ने सही कर दिया। संपत्ति के लिए लड़ मरे। 

इससे ज़्यादा शर्मनाक, निंदनीय क्या होगा कि एक भाई की पत्नी की शव यात्रा निकल रही थी और पड़ोस में ही एक भाई परिवार सहित घर में दरवाजा बंद किए पड़ा रहा। तेरहवीं के दिन कहीं और चला गया। गांव में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसने आप-दोनों के कुकृत्यों पर थूका नहीं है। और चौथे चाचा के प्रयाग में मरने पर आप भी सोते रहे। बदला लेते रहे। सगे भाई की चिता की आंच आप तक नहीं पहुंची। 

आपके आतंक से आतंकित चौथे चाचा के लड़के ने ऐन बाप की तेरहवीं वाले दिन रात बारह बजे ट्रकों में सामान भरकर प्रयाग भेज दिया, गांव वाला घर खाली कर दिया। ताला डाल दिया। गांव थूकता रहा कि, 'का भइया, बाप के मरे का इंतजार हो रहा था का।' चाची से कहा, कि, ' का फलाने बो आदमी के मरे का इंतजार करत रहू का।' गांव वालों की शूल सी चुभने वाली बातें तेरहवीं में आए बाकी शेष बचे एक भाई और अन्य के परिवार के सदस्य भी सुनते रहे। खून का घूंट पी कर सुनते रहेए कि ष्गऊंआ से एक पातकी कम होइगा। जब तक रहा जियब हराम किए रहा।ष् सब कानाफूसी करते रहे कि,' एकर बेटवा तअ बापो से आगे निकर गई बा। ताऊए चाचन के सामनवो भरि लइगा। घर आए मेहमानन के एक गिलास पानिऊ नाहीं पूछत बा।' 

सारा परिवार एक पट्टीदार की यह बात भी सुनकर कसमसा कर रह गया कि, 'अरे ई बापों से बड़ा पातकी (पापी) बा । अच्छा बा गंउवां छोड़ के जात बा। बाप पूत दोनों पातकियन से गांव मुक्ति पाए जात बा। ई गांव के बदे आज क दिन बहुते नीक बा।' ऐसी-ऐसी कड़ुवी बातें घर आए परिवार के सदस्यों का सीना छलनी करती रहीं। और सब ने खून का घूंट पी कर किसी तरह वह दिन बिताया और अगले दिन सवेरे ही सब छोड़कर चले गए।

मगर पांचवें चाचा आपने हद तो यह कर दी कि परिवार के सदस्यों से मिलने तक नहीं गए। आप दोनों की हरकतों की चर्चा बाद में भी परिवार के सदस्य कर-कर के दुखी होते रहे। पूरे गांव में ऐसी घटनाएं, बातें नहीं हुईं जैसी आप दोनों ने कीं। आज हम अगली जनरेशन से उम्मीद करते हैं कि परिवार खानदान को एक करें। परंपराओं को निभाएं। चाचा-चाचा आपको क्या कहूं, खुद को क्या कहूं , आया किस काम से था , हो क्या गया, कर क्या रहा हूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्या हो गया है मुझे? 

मुझसे अच्छे तो दोनों छोटे भाई हैं। आए तहसील में ही अपना हिस्सा बेच कर चले गए। पापा की डेथ के बाद दोनों ने चार महिना भी इंतजार नहीं किया। दोनों कितना कह रहे थे, कि भइया बेच दो। इमोशनल होने से कोई फायदा नहीं। प्रैक्टिकल बनिए। जब पापा लोग वहां कुछ नहीं कर पाए तो हम लोग क्या कर पाएंगे, मगर मेरी ही अकल पर पत्थर पड़ा था। आज यहां अधर में लटका फुली, कंफ्यूज्ड पड़ा हूं। कुछ डिसाइड ही नहीं कर पा रहा हूं कि क्या करूं, और ये चाचा इनके लड़के, बहू की बातें इतनी टची हैं कि और बांधे ले जा रही हैं। 

यही सब सोचता खाने के बाद मैं फिर ड्राइवर के साथ जीप में ही आराम करने लगा। खाने के बाद चिंकी ने मिठाई भी दी थी। खोया के पेड़े बेहद स्वादिष्ट थे। पापा यहां से जाते वक्त इन्हें जरूर ले जाते थे। ये बेहद सिंपल तरीके से यहां बनाए जाते हैं। मोटी पिसी शक्कर में हल्की सी लिपटी यह शानदार मिठाई यहां पचासों साल से मिलती आ रही है। मैंने सोचा शाम को चलूंगा यहां बाज़ार देखने। चलते समय यहां की मिठाइयां जरूर ले चलूंगा।

जीप में ही मेरी आंख लग गई। सो गया। और तरह-तरह के सपने आते रहे। करीब साढ़े छः बजे शिखर ने उठाया कि चलिए नाश्ता कर लीजिए। मैंने कहा, 'भइया देर से खाना खाया है। ज़्यादा खाया है। अब केवल चाय पियूंगा।' मगर वह जिद पर अड़ा रहा। जाना पड़ा। धूप अब तक मकान की दिवार पर उसकी छत को छू रही थी। मकान के सामने छाया ही छाया थी। हमें बुलाने से पहले दरवाजे के सामने खूब पानी का छिड़काव कर दिया गया था। प्लास्टिक की कुर्सियां, मेज रखी थीं। एक कुर्सी पर चाचा छड़ी लिए बैठे थे। मैं भी ड्राइवर के साथ जाकर बैठ गया। चिंकी ने जग में पानी दिया था जिससे ड्राइवर और मैंने मुंह धोए। बड़ी राहत महसूस की। 

मैं सिर्फ़ चाय पीना चाहता था। लेकिन चिंकी, शिखर, चाचा के आग्रह के सामने मेरी एक ना चली। हमें पकौड़ियां खानी पड़ीं। पकौड़ियां खाकर बार-बार उस पत्ती का नाम मेरी जुबान पर आकर रह जा रहा था, जिससे यह बनीं थीं। अम्मा ने कई बार बना कर खिलाया था। घर पर बहुत दिनों तक यह गमलों में लगी भी थीं। पापा की मनपसंद थीं। लेकिन उनके स्वर्गवास के बाद बीवी ने निकाल कर दूसरे फूल वगैरह लगा दिए। मुझे गुस्सा आया था। मगर बीवी से कुछ कह नहीं सका था। 

जब याद नहीं आया तो मैंने चिंकी से पूछ लिया। उसने बताया 'अजवाइन।' यह अजवाइन की पत्तियां छोटी-छोटी और मोटी होती हैं। बहुत ज़्यादा महकती हैं। उन्हीं को बेसन के गाढ़े घोल में डिप कर बनाया जाता है। चिंकी ने बेसन में कई और प्रयोग भी किए थे। जिससे पकौड़ियाँ बड़ी तीखी और टेस्टी बन गई थीं। चटनी में उसने नींबू का छिल्का, राई, लहसुन, हरी मिर्च और जरा सा सरसों का तेल भी मिला दिया था। इस एक्सपेरिमेंट ने चटनी को बहुत तीखा,टेस्टी बना दिया था। चाय के साथ मैंने और ड्राइवर ने भी जी भर कर खा लिया। 

मैंने देखा कि हम सब करीब आधा घंटा वहां बैठे चाय पीते रहे। शाम होते ही तमाम लोग आते-जाते रहे। लेकिन किसी ने चाचा से कोई बातचीत नहीं की। अमूमन जैसा कि गांवों में होता है कि लोग मिलते ही हाल-चाल, बातचीत, रामजोहार करते हैं। लेकिन यहां लोग सामने से निकल कर जाते रहे लेकिन किसी ने स्माइल तक नहीं दी। दिखाई यह भी दिया कि बाकी लोग जो आस-पास अपने घरों के सामने दिख रहे हैं वह जरूर आपस में बातचीत कर रहे थे। मुझे यह समझते देर ना लगी कि चाचा का व्यवहार गांव में कैसा है, लोग इनके परिवार से ही दूर भागते हैं। 

मुझे फिर बड़ी कोफ्त होने लगी। कि आखिर मैं यहां क्यों आ गया, क्यों रुक गया, बढ़ती उलझन के चलते मैंने शिखर से कहा चलो बाज़ार घूमघाम के आते हैं। चाचा भी बोले, 'हाँ, जा भइया के घूमाए लियाव जाय के।' मन मेरा पैदल ही घूमने का था। लेकिन पैदल चलने के आलस्य के चलते जीप ले गया। बाज़ार में दुकानें खुली हुई थीं। गर्मी से राहत मिलते ही चहल-पहल बढ़ गई थी। सूर्यास्त होने ही वाला था। पश्चिम में दूर सूरज गाढ़ा केसरिया होता हुआ क्षितिज रेखा को छू रहा था। 

बस स्टेशन के पास गाड़ी रुकवा कर मैं पैदल ही चहल-कदमी करने लगा। सिगरेट पीने का मन हो रहा था। मैं फिर उसी दुकान पर पहुंचा दोपहर में जिससे पता पूछा था। वह देखते ही मुस्कुराया। मैंने अपनी पसंदीदा ब्रांड सिगरेट मांगी तो उसने कहा, 'भइया ई कस्बा गांव मा ज़्यादा महंगी सिगरेट नाहीं मिलती।' फिर उसने जो सबसे महंगी थी उसके पास वही एक डिब्बी बढ़ाते हुए कहा, 'लअ भइया यहू ठीक बा।'  मैंने ले लिया। शिखर ने उससे परिचय कराया कि, 'ये हमारे बड़े भइया हैं।' फिर तो वह बातूनी पान वाला नॉन स्टॉप चालू हो गया। दुकान के सामने पड़ी दो बेंचों पर हम बैठ गए। एक दो लोग आकर और बैठ गए। मैंने शिखर को सिगरेट ऑफर की तो उसने भी ले ली। बात गांव के विकास से लेकर देश के विकास तक छिड़ गई। राजनीतिक पार्टियों की ऐसी की तैसी होने लगी।

पान वाला जिसका नाम जस्सू था, वह ग्राहकों को निपटाता भी जाता और बात भी चालू रखता। मैंने देखा उसे राजनीति की ठीक-ठीक समझ थी। जो लोग आकर बैठे थे वो उसकी बात में पूरा रस ले रहे थे। मैं तो ले ही रहा था। करीब सात-आठ लोग थे। इस बीच मैंने शिखर से कह कर बगल वाली दुकान से वहां बैठे सभी लोगों के लिए चाय मंगवा ली। पैसा भी भिजवा दिया कि कहीं यह जस्सू खुद ना देने लगे। मेरी आशंका सही निकली।

जब चाय आई तो जस्सू बोला, 'अरे भइया आपने काहे मंगा ली, आप हमारे मेहमान हैं। हमें पिलानी चाहिए चाय।' वह चाय वाले को वहीं से चिल्ला कर पैसा वापस करने को बोलने लगा। उसने पैसा अपने आदमी के हाथ भेजा भी। लेकिन मैं किसी हालत में वापस नहीं लेना चाहता था। तो कहा, 'मैं बड़ा हूं। भाई कह रहे हो और भाई की मंगाई चाय नहीं पी सकते। ये चाय नहीं, मेरा स्नेह है आप सब के लिए।' ऐसी भावनात्मक बातें कह कर उसे निरुत्तर कर दिया। 

वह आखिर चाय का कुल्हड़ लेता हुआ बोला,  'भइया तू ता अपने पियार से हमार करेजवे निकाल लिहे। अब पिएक पड़बै करी।' एक घूंट पी कर वह फिर चालू हो गया। बोला, 'भइया ई देश सुधरे वाला नाय बा। ई सारे नेतवे इका घोंट-घोंट पिए जात हैं। खोखला होत-जात बा आपन देश। ई सड़ीकिए देख लें। जब हम पैदा भय रहे तब से एके ऐइसे देखत हई। गढ़हा मा सड़क। बिजली का पता नहीं। मुंह दिखावे बदे आई जाए रतिया में।

हम तअ कहत हई भइया कि सत्तर साल बहुत देख लिए ई लोकतंत्र, अब बंद करो ई लोकतंत्र-फोकतंत्र का खेला। अब सेना का दई दो देश, वहू चलावे बीस-तीस बरिस। वहू का लाए के देइख लिया जाए। जेतना देश बिगड़ गवा बा ना, ओके सेना के सोंटा के बिना ठीक नाहीं किया जाय सकत। सेना के सोंटा के बिना काम ना चली। जब सेना का सोंटा चली तबै ई नेतवा और ई देशवासी ठीक होइएं। एकदम हिटलर के नाई। बिना सोंटा के कऊनों सुधरे वाला नाई हैएन। हिटलर के नाई कोऊनों चाही। 

देखिन रहें हैं सरकार कहि रही भइया सवेरे-शाम लोटिया लई के खेत मां जाइ के बजाय घरे मा जाओ, घरे में बनवाए लेओ शौचालय। पइसवो दिहिस। बनाए लिहिंन सब। लेकिन आदत से मजबूर जब-तक खेते में ना जइहें तब तक उतरबै नाहीं करत। जब सोंटा चलि जाए तो कऊनों ना दिखाई देई बाहर।' मैंने कहा, हिटलर के शासन का मतलब समझते हो?' तो उसने हिटलर की पूरी गाथा सामने रख दी । 

बोला, 'भइया ई पूरा देश बन जाई। ई जऊन कश्मीर का खेल है ना एक बार होई जाए परमाणु युद्ध। तीस-चालीस करोड़ मरि जाएं। आपन देश तबहूं रहेगा। ई सारि जीऊका जंजाल बना, पूरी दुनिया के नाक में दम किए पाकिस्तान तो नेस्तनाबूत होई जाई। उसके बाद पूरा पाकिस्तान फिर से भारत में मिलाए लो। ई लोकतंत्र के खेला में नेतवन के चलते पाकिस्तान और कश्मीर समस्या बनी। तो ई नेतवे कभो ईका ना सुलझाए पहिएं।

भइया देश का एक हिटलर चाहि अब हिटलर। तबै गाड़ी लाइन पर आई। तबै ई ससुर सुअर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश औकात मां अइहें। जैसे हिटलरवा देश के देश खतम कई दिहिस, उहे तरह, जाने भइया।  भइया तोसे एकदम मन के बात बतावत हई कि, देश सुभाषगिरी से बनत औउर एक रहत है। सुभाषगिरी ना अपनाए के देश बंटवाए, बीसन लाख मनई मार नावा गएन। पांच करोड़ घुसपैठियन का बोझ घाते मा लादे बैइठे हैंएन। तोहईं बतावा सही कहत हई कि नाहीं।' 

जस्सू की बातें चलती रही। और मेरी सिगरेट चाय भी। मैं उसकी बात खाली सुनता रहा। तभी बोलता जब वह धीमा पड़ता। मैं उसमें बड़ी आग देख रहा था। उसकी जानकारियां कम थीं। लेकिन फंडा उसका सीधा सपाट और सीधा चोट करने वाला था। वह भ्रष्टाचार, गांव की गली से लेकर दिल्ली तक के विकास की बात करता रहा। सूरज क्षितिज से गले मिलकर गायब हो चुका था। अंधेरा हो गया था। जस्सू ने लालटेन जला ली थी। वह आखिरी बस के आने तक दुकान खुली रखता था। अब मैं भी उठ कर बस अड्डे के सामने जा रही रोड पर चल दिया। दोनों तरफ कुछ-कुछ दूरी पर कहीं किराना तो कहीं कपड़े, मिठाई, चाय और पटरी पर सब्जी वगैरह की दुकानें थीं। 

इन दस-पंद्रह बरसों में बहुत कुछ बदल चुका था। गांव की दुकानों पर भी चिप्स, मैगी, कुरकुरे, कोल्ड-ड्रिंक, मोबाइल रीचार्ज सब दिख रहा था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फॉस्ट फूड के पैकेट हर दुकान पर दिख रहे थे। और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नाक में अकेले ही दम किए पतंजलि के प्रॉडक्ट भी दिख रहे थे। बाबा की फोटो भी। कुछ दूर आगे चलने पर एक अपेक्षाकृत कुछ बड़ी दुकान दिखाई दी। जिसके बाहर पीपों, बोरों में सामान भरा था। चावल, गेहूं, दाल, चना जैसी चीजों के अलावा पैकेट दिवारों पर टंगे थे। 

दुकान के दरवाजों के ऊपर दिवार पर बड़े अक्षरों से लिखा था, 'बिल्लो बुआ की कोहड़ौरी।' यह नाम देखते ही मैंने गाड़ी रुकवा ली। मैंने शिखर से पूछा, 'ये बिल्लो कौन है?' यह सुनते ही शिखर बोला, 'भइया ये बिल्लो बुआ की दुकान है। आज की डेट में बिल्लो बुआ यहां की सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन हैं। कोई ऐसा सामान नहीं है जो इनकी दुकान पर ना मिलता हो। थोक-फुटकर दोनों मिलते हैं। आगे इनकी खाद और बीज की भी दुकान है। पतंजलि की एजेंसी है। वह आगे है।'  

मैंने उनके फादर बैजू के बारे में पूछा तो शिखर ने कहा, 'बब्बा तो कई साल पहले मर गए। बुआ अपने एक भतीजा के साथ सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन ही नहीं ऐसी दबंग पर्सनॉलिटी बन चुकी हैं, जिनकी पहुंच हर जगह है। गांव में कोई ऐसा काम नहीं जो इनके बिना अब पूरा हो। संडे को परधानी का चुनाव होना है। बुआ ने अब की ऐसी चाल चली है कि मुज्जी मियां की, उनके परिवार की पचीस-तीस बरस की बादशाहत खतरे में पड़ गई है। इस बार उनकी हार पक्की है। पूरा परिवार बिलबिलाया घूम रहा है। खानदान दो फाड़ में बंट गया है।' बिल्लो के लिए यह सब सुनकर मैं दंग रह गया। 

बीसों बरस पहले की उनके साथ जुड़ीं तमाम यादों की पिक्चरें चलने लगीं। मेरे क़दम एक़दम ठहर गए कि अब बिल्लो से मिले बिना किसी सूरत में आगे नहीं बढ़ेंगे। मैंने शिखर से कहा कि मैं बिल्लो से मिलना चाहता हूं। बिल्लो वास्तव में वहां की जगत बुआ हैं। छोटा हो या बड़ा उन्हें सब बिल्लो बुआ ही कहते हैं। इन्हीं जगत बुआ से मिलने को कहा तो शिखर के चेहरे पर मैंने एक दम साफ देखा कि वह नहीं चाहता था कि मैं मिलूं। वह ऐसे अनमना सा हुआ कि जैसे सोच रहा हो कि ये कहां आ फंसा। लेकिन उनसे मिलने की मेरी इच्छा इतनी प्रबल थी कि सब समझ कर भी मैं नासमझ बना रहा। क्योंकि मैं समझ गया था कि मैंने जरा भी हिचक दिखाई तो यह तुरंत मना कर देगा। गांव का मामला है, यहां भी कुछ विवाद होगा इनका । 

कोई रास्ता ना देख कर शिखर बोला, 'ठीक है भइया, आइए देखते हैं शायद बुआ हैं।' दुकान के काउंटर के पीछे तखत पर एक काला सा बड़े लंबे चौड़े डील का चौबीस-पचीस साल का युवक बैठा था। उसे देखकर शिखर ने कहा, ' ये उनका भतीजा सूरज है।' दुकान के बाहर एक बोलेरो जीप, आठ-दस मोटर साइकिलें खड़ी थीं। उन्हें देख कर शिखर ने कहा, 'लगता है बुआ का दरबार लगा है। आइए।' मुझे साथ लेकर वह सूरज के पास पहुंचा। जो मेरी जीप रुकने के बाद से ही बराबर मुझ पर नजर रखे हुए था। बंसवारी वाले बुजुर्ग की तरह।

शिखर ने सूरज को नमस्कार का कहा, 'सूरज ई हमार भइया हएन। सूरत से आएन है। बड़के पापा के लड़िका हैएन।' इतना सुनते ही सूरज हाथ जोड़कर तखत से नीचे उतरते हुए बोला, 'नमस्ते-नमस्ते भइया, नमस्ते। आवा अंदर आवा। बड़ी देर के तोहके देखत हई। मगर चिन्हि नाहि पाए। बहुत दिन बाद आए।' कोने में काउंटर का एक हिस्सा था उसके पीछे दुकान बहुत बड़ी थी। हर तरफ माल भरा था। दो तखत अंदर और पड़े थे। 

सूरज ने मुझे बैठाकर हाल-चाल पूछना शुरू किया। फिर वही उलाहना, 'भइया आप सब जने ते गउंवा एकदमें छोड़ दिहै। बतावा हमें लगत बा कि पंद्रह-बीस बरिस बाद आए हअ।' मैंने सहमत होते हुए कहा ,'हाँ ऐसा ही कुछ टाइम हो रहा होगा।' वह फिर बोला, 'नाहीं भइया, आवे जाए के चाही, आपन घर दुआर संपत्ति सब देखे के चाही।' तभी शिखर ने बताया कि बुआ का नाम देखकर मैं उनसे मिलने के लिऐ रुका हूं तो वह बड़ा खुश हुआ। 'अरे काहे नाहीं। अबहिं बुलावत हई।' फिर उसने वहीं से आवाज़ दी, 'बुआ, एहेअअ बुआ, तनि हिंअ आवा, देखा के आवा बा।' अंदर बुआ की तेज़ आवाज़ गूंजी, 'के आवा बा। बतावा ना।' सूरज फिर बोला। 'आवा, हिंआ आवा ना, खुदै आए के देखा ना।' अबकी बुआ बोलीं, 'आवत हई रे।' बुआ अंदर आईं तो मैंने उनको नमस्कार किया। 

बिल्लो ने भी ना सिर्फ़ नमस्कार किया बल्कि मुझे कुछ हिचकिचाहट के साथ पहचानते हुए कहा, 'अरे तू हअ। कब आए?' उनकी बात सुनते ही सूरज ने पूछा, 'बुआ पहिचानत हऊ भइया के।' बुआ ने बिना हिचक कहा, 'काहे नाहीं, अरे छोटपन में खेले हई एनके साथे।' सूरज ने इस पर फिर मेरे फादर का नाम लेते हुए कहा, 'उन्हीं के बड़का लड़िका हैएन।' बुआ ने उसकी तरफ ध्यान ना देते हुए मुझे कंधों के पास पकड़ कर कहा, 'कहां रहे एतना दिन।' एक बार फिर वही उलाहना कि, 'भइया तू सभे ते घरे दुआर छोड़ि दिहे।' मैंने देखा जब-जब गांव में किसी ने यह उलाहना दिया तो शिखर को अच्छा नहीं लगता था। चेहरे पर उसके अजीब सी रेखाएं ऊभर आती थीं। 

बिल्लो बुआ एक तखत पर मुझे लेकर बैठ गईं । एक पर सूरज शिखर बैठ गए। बुआ ने घर भर का हाल-चाल सब पूछ डाला। अपनी बहू से चाय-नाश्ता सब मंगवाया। उससे मेरे पैर छुआए। मैंने भी उसे आशीर्वाद स्वरूप सौ रुपया दिया। सूरज ने अपने बच्चों को भी बुलाकर मिलवाया। उसके तीन बच्चे थे। सबसे छोटी लड़की थी करीब-करीब तीन साल की। मैंने देखा बिल्लो शिखर को जरा सा भी तवज्जो नहीं दे रही थीं। शिखर भी बस मेरे साथ बंधा-बंधा सा रहा वहां। मैं बीस मिनट वहां रहा। बिल्लो इतने में अपना बीसों बरस का इतिहास बता देना चाहती थीं। खाना खाकर ही जाने देना चाहती थीं। मैंने बहुत मना किया तो इस शर्त पर मानीं कि मैं अगले दिन सुबह उन्हीं के साथ खाना खाऊंगा। वापस आने लगा तो बिल्लो बाहर तक छोड़ने आईं। सूरज भी। उसके बच्चे भी। 

इसके बाद शिखर के साथ मैं इधर-उधर एक दो जगह और होकर घर आ गया। आठ बज रहे थे अब तक गांव में लाइट भी आ गई थी। शिखर ने बताया लाइट दस बजे तक रहेगी। फिर कट जाएगी। और रात बारह बजे से फिर सुबह चार बजे तक रहेगी। मैंने कहा भइया मेरे सोने का इंतजाम छत पर ही करना। मैं देर रात खाना खाने का आदी हूं। लेकिन यहां लाइट के चक्कर में लोग पहले ही खा लेते हैं।

छत पर ही मेरे लिए बिस्तर लगा था। ड्राइवर बोला वह जीप ऐसे ही नहीं छोड़ सकता। गेट के सामने जीप रहेगी। वह बगल में ही लॉन में सोया रहेगा। मेरे कहने पर वह वहीं की लोकल मच्छर अगरबत्तियां लेता आया था। चाचा भी नीचे ही सोए। शिखर अपने परिवार के साथ छत पर दूसरे कोने में चारपाइयों पर बिस्तर लगाए था। बड़ी सी छत पर मैं दूसरे कोने में था। सोने से पहले बड़ी देर तक वह मुझसे बातें करता रहा। 

मेरे कारण ज्यादातर बातें बिल्लो पर ही केंद्रित रहीं। हम काफी देर तक छत पर इधर-उधर टहलते हुए बातें कर रहे थे। मैंने देखा हर चौथे-पांचवें मकान की छत पर या बाहर दरवाजे पर एक एल ई डी बल्ब जल रहा था। एल ई डी का राज्य गांव में भी फैल गया था। घर के दक्षिण साइड में जो एक बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था, अचानक उसकी याद आने पर मैंने उधर देखा तो पाया कि वह चौथाई ही रह गया है। एक गड़है जैसा। उसके बगल के घर के बल्ब की छाया उसके पानी में ऐसे पड़ रही थी जैसे पूरे आसमान में कोई एक बड़ा सा तारा निकल आया हो। 

शिखर ने बताया प्रधान और कुछ दबंगों ने मिलकर तालाब पाट दिया। जमीन बेच डाली। एक आदमी ने रोकने की कोशिश की थी। एक दिन उसे कुछ लोगों ने बुरी तरह पीट डाला। वह फिर भी नहीं माना। उसने आगे कार्यवाही चालू रखी। लेकिन एक दिन घर लौट रहा था तभी रास्ते में किसी ने गोली मार कर उसकी हत्या कर दी। पूरा गांव जानता है कि किसने मरवाया। लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं। उसकी बीवी एफ.आई.आर. दर्ज कराने के लिए कई साल भटकती रही। लेकिन पुलिस ने एफ.आई.आर. ही नहीं दर्ज की। उसकी बीवी पर भी आए दिन हमले होते रहे। भरी बाज़ार उसकी इज्जत तार-तार करने की कोशिश की गई। आखिर वो हार मान कर बैठ गई। 

यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी आंखों के सामने बीस बरस पुराना दृश्य बार-बार आता रहा। करीब तीन बीघे का बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था। उसी से पूरे गांव के आस-पास के सारे खेत पंप लगा कर सींचे जाते थे। तालाब इतना गहरा बड़ा था कि जब भारी बारिश होती थी तभी उसमें पानी ऊपर तक आता था। मैं बचे-खुचे तालाब में बल्ब की छाया को देखते सिगरेट पीता रहा। और शिखर बताता रहा कि कैसे इस तालाब और इससे निकाली गई जमीन को हथियाने के चक्कर में देखते-देखते पांच लोगों की हत्याएं हो गईं। मैंने पूछा, 'पुलिस में कोई नहीं जाता क्या? वह कुछ नहीं करती?' शिखर कुछ बोलता कि तभी लाइट चली गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा हो गया। शिखर ने चिंकी को दिया जलाने को कह दिया। उसने दीया जला कर छत के बीचो-बीच रख दिया। 

हम अब छत की बाऊंड्री से हटकर अपनी चारपाई पर बैठ गए। चिंकी का बच्चा रोने लगा। उसकी नींद खुल गई थी। जो टेबुल फ़ैन धीरे-धीरे चल रहा था, बिजली के जाते ही वह बंद हो गया था। बच्चा गर्मी से परेशान हो रहा था। चिंकी ने हाथ के पंखे से उसे हवा करनी शुरू की तब भी वह बीच-बीच में रोने लगता। आखिर उसने दीवार की ओर करवट लेट कर उसे दूध पिलाना शुरू कर दिया। एक हाथ से पंखा भी करती रही। तब वह सोया। शिखर ने मच्छर वाली कुछ और अगरबत्तियां सुलगा दीं। गर्मी और बंद हवा देख कर मैंने शिखर से कहा, 'यार लाइट बारह बजे तक तो आ जाएगी ना। उसने कहा, 'हाँ।' मैंने कहा तब-तक तो मुझे नींद आने वाली नहीं। तुम चाहो तो सो जाओ। वह बोला, 'नहीं  आने दीजिए लाइट, साथ ही सोऊंगा।' मैंने फिर सिगरेट सुलगा ली। 

शिखर ने मना करते हुए कहा, 'आज कई बार हो गई। अब नहीं लूंगा।' शिखर फिर गांव के बारे में तमाम बातें बताने लगा। मैंने देखा वह तमाम गांव, दूसरों के घरों के बारे में तो खूब बातें कर रहा था लेकिन अपने घर में जो महा-भारत बरसों हुई उसके बारे में एक शब्द नहीं बोल रहा था। मैं भी जानबूझ कर नहीं कर रहा था कि कहीं कोई अप्रिय प्रसंग ना उभर आए। उसने अपने तीनों भाइयों के बारे में इतना ही बताया कि वे तीनों ही मुंबई में सेटिल्ड हो गए हैं। यहां अपना-अपना हिस्सा सब बेच-बाच दिया है। इस मकान के लिए बाबू जी ने भी क़ाग़ज़ पर सब लिखवा लिया है। 

अब यह मकान मेरे नाम है। और नौ बीघा खेत। यही बचा है। छः बीघा बंटाई पर है। तीन बीघा दो साल से पड़ती पड़े हैं। बहनें भी अपनी ससुराल में है। साल-दो साल में कभी-कभी आ जाती हैं। वो खुद यहां से बीस किलोमीटर दूर एक स्कूल में टीचर था। लेकिन दो महिना पहिले नौकरी छूट गई। प्रबंधन ने अपनी ही एक लड़की के लिए जगह बनाने के चक्कर में उसे निकाल दिया। मैंने पूछा फिर घर का खर्च कैसे चल रहा है। उसने कहा, 'अभी तो कोई परेशानी नहीं है। महीने दो महीने में कहीं ढूंढ़ ही लूंगा। बाकी खाने-पीने भर का तो खेत से मिल ही जाता है।' 

उसकी दयनीय आवाज़ में मुझे उसकी वह परेशानी साफ दिख रही थी,जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि गांव में रह कर भी खेती बंटाई पर दिए हुए है। और तीन बीघा परती पड़ी है। मैं बड़ी देर से यह सोच रहा था कि, यह जगत बिल्लो बुआ के बारे में शायद बात करेगा। कल जाना है उनके यहां। अकेले जाते तो अच्छा नहीं लगेगा। आखिर मैंने ही बात छेड़ी कि, 'बिल्लो का घर तो पहले यहीं हुआ करता था। ये बाज़ार में कैसे पहुंच गईं, और पहले तो इनके घर की बड़ी नाजुक हालत हुआ करती थी। इनके फादर बैजू बाबा आए दिन बाबा से मदद लिया करते थे। यही बिल्लो सवेरे-सवेरे घर में चूल्हा जलाने के लिए आग लेने आ जाया करती थीं।' शिखर कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, 'भइया ये बिल्लो बुआ ने ही घर का नक्शा बदला है। जब अलगौझी (बंटवारा) हुई तो बैजू बाबा और मुश्किल में आ गए थे। 

स्थिति कुछ ऐसी बनी कि कर्ज वगैरह के चक्कर में यहां वाला पूरा मकान इनके हाथ से निकल गया। आज जो मकान बाज़ार में हो गया है। वह जगह पहले गांव का बाहरी एकांत हिस्सा हुआ करता था। वहीं एक किनारे तब अपने बाबा ने अपनी ही वह थोड़ी सी जमीन उन्हें दे दी थी। बैजू बाबा वहीं छप्पर डाल कर रहने चले गए। वहां परिवार के साथ बैजू बाबा की हालत बहुत खराब हो गई। अपने बाबा से उनकी दुर्दशा नहीं देखी गई। एक दिन बोले ,''ई बैजुवा बड़ा अभागा बा। कहता था शाहखर्ची उतनी ही करो जितनी हर समय चल जाए। कर्जा ले लेकर यह सब करना अच्छा नहीं है। मगर कहने पर हां-हां कर लेता है। लेकिन करता वही है जो चाहता है। इसकी मुर्खता के कारण पूरा परिवार कष्ट उठा रहा है।' 

दादी ने कहा, ''जैसा किया है, वैसा भरेंगे। कोई किसी का भाग्य विधाता तो नहीं बन जाएगा।'' असल में भइया दादी जानती थीं कि बाबा बैजू की और मदद करने के लिए परेशान हैं। दादी यह नहीं होने देना चाहती थीं। बाबा ने दादी से पूछे बिना जो जमीन उन्हें लिख दी थी, उससे बहुत नाराज थीं। क्यों कि उनका मानना था कि मदद एक बार की जाती है। दो बार की जाती है। बार-बार नहीं। फिर ये तो कभी कुछ वापस करने वाले नहीं। जो करो उसे अपना अधिकार समझ लेते हैं। अहसान नाम की कोई चीज नहीं। लेकिन बाबा नहीं माने। बोले, ''देखो  पढ़ा-लिखा आदमी है। उसे पढ़ा-लिखा मुर्ख कहना ज़्यादा अच्छा है। मूर्ख ना होता तो उसकी यह हालत ही क्यों होती, कायस्थ है। सिर छिपाने की जगह तो होनी चाहिए ना। ऐसे तो लड़कियों की शादी भी नहीं कर पाएगा।'' 

दादी की अनिच्छा के बावजूद बाबा ने खपरैल, दिवार की पथाई का सारा इंतजाम करा कर रहने भर अच्छा-खासा बड़ा मकान बनवा दिया था। तब बैजू बाबा का परिवार अपने यहां से और गहरे जुड़ गया था। लेकिन बाद में फिर अपने ढर्रे पर चल निकला।' इसके बाद शिखर को बातें बताने में दिक्कत हो रही थी। मैंने देखा वह बातों को बड़ा फिल्टर कर के बताने का प्रयास कर रहा है। इस चक्कर में वह कई बार ट्रैक बदल रहा था। क्योंकि आगे की बातें मैं स्वयं बहुत कुछ जानता था। 

शिखर के ट्रैक बदलने का एक-मात्र कारण यही था कि बैजू के यहां से खटास की वजह इन्हीं के फादर और चौथे चाचा ही थे। 

यह दोनों लोग बाबा की दी जमीन वापस चाहते थे। क्यों कि मार्केट के कारण उसकी कीमत बढ़ गई थी। यह लोग बैजू के लिए दूसरा मकान भी बनवाने को तैयार थे। लेकिन बैजू तैयार नहीं हुए। इसीलिए दोनों चाचा अपने बाबा से भी नाराज रहते। शिखर इन्हीं कारणों से बोलना नहीं चाहता था। मच्छरों से आजिज आकर मैंने अपनी चारपाई के आस-पास कई और बत्तियां सुलगा दीं। पैर की तरफ सुलगाना चाहा तो शिखर बोला, 'भइया पैताने अगरबत्ती नहीं सुलगानी चाहिए।' मैंने कहा, 'यार कह सही रहे हो। लेकिन इन मच्छरों से बचने को लिए और कोई रास्ता भी नहीं है।' 

इस बीच मैंने शिखर की आवाज़ में आलस्य का अहसास कर उसे सोने के लिए कह दिया। अपनी चारपाई की मच्छरदानी हर तरफ से ठीक से लगाकर उसी के अंदर बैठ गया। मैं बहुत ऊबने लगा था। घर भी बात हो चुकी थी। सिगरेट कितनी फूंकता, कभी लेटता, कभी बैठता। बार-बार अपनी बुद्धि पर तरस खाता कि आखिर रुका ही क्यों? बार-बार सोचता कि बारह जल्दी बज जाएं, बिजली आ जाए तो गर्मी से राहत मिले। मेरे पास से जाने के बाद शिखर के खर्राटे की हल्की सी आवाज़ आने लगी थी। मैं समझ गया कि मेरे अलावा यहां सब सो गए हैं। बच्चा भी। उसकी भी आवाज़ नहीं आ रही थी। 

मेरे दिमाग में खेत कैसे बिकेगा इससे ज़्यादा बिल्लो की बातें याद आ रही थीं। उनके जीवन के उन तमाम उतार-चढ़ाव भरे दिन जो काफी हद तक हम-लोगों को मालूम थे। अपनी भूरी कंजी आंखों के कारण उन्हें बिल्लो, बिल्लोइया कह के सब चिढ़ाते थे। यह सुनते ही वह चिढ़ाने वाले को खूब ऊटपटांग कहती थीं। कोई हम-उम्र कहता तो मारने को दौड़ा लेतीं। सिकड़ी, गुट्टक खेलने में माहिर थीं। सावन के दिनों में जब झूला पड़ता तो बिल्लो की पेंगें मानों पेंग बढ़ाकर नभ को छू लेने को मचलतीं। जब वह झूले पर चढ़तीं तब डरपोक किस्म की लड़कियां,औरतें झूले पर नहीं बैठती थीं। 

बिल्लो गुड्डों-गुड़ियों के खेल में कभी कोई रुचि नहीं लेती थीं। खाना-पानी आदि के लिए उन्हें कहा जाता तो वह दूर भागतीं, लेकिन होली के वक्त पापड़-चिप्स, बनाना, आचार चटनी और कोहड़ौरी बनाने में इतनी रुचि लेतीं कि पड़ोसी भी उन्हें बुलाते। इन सब कामों में वह ऐसे लगी रहतीं जैसे ये काम ना होकर उनके लिए कोई खेल हो। 

तब कौन जानता था कि बिल्लो का यही खेल उनकी ज़िन्दगी में नया मोड़ लाने वाला साबित होगा। वह अपने इसी खेल से अपने खानदान की नई किस्मत लिखने वाली हैं। बस कुछ ही बरसों बाद। साथ ही जगत बुआ भी बन जाएंगी। बिल्लो मुश्किल से हाई-स्कूल पढ़ पाई थीं कि उनकी शादी कर दी गई। तब बिल्लो बार-बार कहती रहीं कि, ''ऐ अम्मा अबहीं हमार शादी ना कर। हम्में पढ़े दे।'' लेकिन अम्मा को अपनी बिटिया की आवाज़ कहां सुननी थी। उसकी आवाज़ की कीमत ही क्या थी, उन्हें तो बिटिया की चंचलता, हंसमुख स्वभाव में खोट दिखाई देता था। भय सताता रहता था कि बिटिया कहीं नाक ना कटा दे। इसके लक्षण ठीक नहीं हैं। जितनी जल्दी हो इसकी शादी करके खानदान की इज़्जत सुरक्षित रखना बहुत जरूरी है। 

शादी जल्दी हो इसके लिए घर में कलह होती रहती थी। आखिर आनन.फानन में बिल्लो की शादी कर दी गई। खाने-पीने की कमी ना हो यह देखने के अलावा और कुछ ज़्यादा देखने का प्रयास ही नहीं किया गया। नाक के फेर में बिटिया के भविष्य को लेकर घनघोर लापरवाही बरती गई। इस लापरवाही की आंच में बिटिया का भविष्य स्वाहा हो गया। लड़का उम्र में तो दस-बारह साल बड़ा था ही, पूरा निठल्ला, शोहदा भी था। गांव की एक चुड़िहारिन के साथ उसके संबंधों की चर्चा उससे आगे-आगे चलती थी। लेकिन जल्दबाजी, लापरवाही में बिल्लो के घर वालों को यह भी नहीं दिखा। 

मगर बिल्लो इसे किस्मत का खेल मान कर चुप बैठने वाली महिला ना थी। उसने अपने निठल्ले पति से साफ कह दिया। कि नशाबाजी ही नहीं चुड़िहारिन से भी रिश्ता खत्म करना ही होगा। चुड़िहारिन का नाम सुनते ही वह आपे से बाहर हो गया। मारपीट पर उतर आया तो बिल्लो ने भी पूरा प्रतिकार किया। वह गिर गया। नशे में था। लेकिन बात फैल गई कि बहुरिया ने आदमी को पीट डाला। और अब घर में रहने को तैयार नहीं। मानो भागी जा रही है। 

बिल्लो की जिद के आगे सब हार गए। बाबू, भाई ससुराल पहुंचे। ससुराल वालों ने सारा दोष बिल्लो पर ही मढ़कर उन्हें दोषी ठहराया था। बिल्लो अपनी जगह अडिग रही। साफ बोल दिया कि, ''मेरी बात नहीं मानी जाएगी तो मैं नहीं रहूंगी यहां।'' ससुराल वाले मायके भेजना नहीं चाहते थे। बाबू, भाई लाना नहीं चाहते थे। बिल्लो ने कह दिया, ''यहां नहीं रहूंगी बाबू। तुम भी नहीं रखना चाहते तो ना रखो। मैं कहीं भी चली जाऊंगी, मगर यहां नहीं रहूंगी।'' सब समझाना, बुझाना, मनाना बेकार रहा। बाबू हार मान कर बिटिया को घर ले आए। कुल चार हफ्ते का वैवाहिक जीवन बिता कर बिल्लो हमेशा के लिए मायके आ गईं। बाद में बहुतेरे प्रयास हुए मगर बिल्लो टस से मस नहीं र्हुइं। अपनी शर्त पर अड़ी रहीं। 

मां-बाप, भाई का दबाव ज़्यादा हुआ तो कह दिया, ''अगर हम इतना ही भारू हो गए हैं तो ठीक है हम घर छोड़ दे रहें हैं। कहीं काम-धाम करके, मड़ैया डाल के रह लेंगे। मगर वहां नहीं जाएंगे।'' बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा के आगे सब हार गए। बिल्लो हमेशा के लिए रह गईं मायके में। मगर बोझ बन कर नहीं। अपनी दुनिया नए ढंग से बनाने और उसमें सबको शामिल करने के लिए। मुझे वह दृश्य धुंधला ही सही पर याद आ रहा था। कि आने के बाद बिल्लो हंसना-बोलना एकदम भूल गई थीं। उनकी चंचलता, हंस-मुख चेहरा कहीं खो गया। बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आंखें, मक्खन सा गोरापन कुछ ही दिन में ऐसा कुम्हलाया कि बिल्लो टीवी पेशेंट सी लगने लगी। परिवार में उन्हें थोड़ी बहुत सहानुभूति मिली तो सिर्फ़ पिता से। 

मां कुछ दिन तो चुप रही लेकिन उसके बाद उनकी कटु-वाणी मुखर हो उठी। वह दिन पर दिन नहीं घंटों के हिसाब से मुखर हुई। दिलो-दिमाग पर पड़ी पति की गहरी चोट को मां रोज ही कुरेद-कुरेद कर गहरा करती कि, ''मान जा, चली जा। कौन लड़की ज़िंदगी भर मायके में रही है। कोई राजा भी अपनी लड़की को रख नहीं सका है।'' राजा जनक का उदाहरण देंती कि, ''वह भी सीता को रख नहीं सके। हम-सब तुम्हें कैसे रखेंगे। वो सब बुला तो रहे हैं बार-बार, जाती क्यों नहीं, ऐसे जिद करने से कुछ नहीं होने वाला। पूरे रीति-रिवाज से शादी की गई है। शादी कोई गुड्डा-गुड़िया का खेल नहीं कि जब रिशियाए गए तब फेंक दिए। जानू कि नाहीं।'' मगर बिल्लो सारी बात सुनकर चुप रही। बिल्कुल मौन साधे रही। ऐसे ही मौन उस दिन भी साधे थी। उनकी अम्मा बोले जा रही थीं। वह भी जो नहीं बोलना चाहिए। किसी पंडित ने कुछ पूजा पाठ करने, प्रदोष व्रत रखने को कहा था। अम्मा चाह रही थीं बिल्लो मान जाए, उसे करे। लेकिन उन्हें नहीं मानना था तो नहीं मानीं। 

अम्मा तब खीझ कर आपा खो बैठीं। कुछ ज़्यादा ही अनाप-शनाप बोल गर्इं। बिल्लो भी अपना मौन व्रत संभाल ना सकीं। हो गया विस्फोट। फट पड़ी। कह दिया, ''हम इतना ही भारू हो गए थे तो दबा देती गला। कहती तो मैं खुद ही कहीं जाकर मर जाती। ज़िन्दगी भर के लिए उस निठल्ले अवारा बदमाश शराबी के पल्ले बांध कर मुझे नरक में क्यों झोंक दिया। हमसे पिंड छुड़ाया था। हमने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो मुझ से ये दुश्मनी निकाली।'' 

बिल्लो का इतना बोलना था कि अम्मा के तन-बदन में जैसे आग लग गई। उन्होंने बिल्लो को मनहूस, कुलच्छनी घर पर पड़ी काली छाया तो कहा ही साथ ही यह धमकी भी दे दी कि, ''तुम्हारी जिद नहीं चलेगी। वो तुम्हारा आदमी है। बियाह के ले गया था। तुम्हें वहां जाना ही होगा। महतारी-बाप शादी के बाद के साथी नाहीं हैं। तोहके ही खोपड़ी पर बैठाए रहब तो का बाकी लड़िकन के भरसाईं में डाल देई।'' 

अम्मा की यह बात पूरी ही हुई थी कि दिवार पर छनाक से चुड़ियों के टूटने की आवाज़ आई। बिल्लो ने दोनों हाथ दिवार पर ऐसे मारे कि छनाक-छनाक सारी चुड़ियां टूट कर वहीं बिखर गईं। कलाई में चुड़ियां धंस गईं। खून टपकने लगा। बिल्लो यहीं तक नहीं रुकी, माथे पर लगी बिंदी पोंछ दी। मांग में कई दिन पुराना भरा सिंदूर भी हाथ से रगड़ कर पोंछ डाला। थोड़ी दूर बाल्टी में रखे पानी को लोटे में लेकर मांग पर डाल-डाल कर सिंदूर को धो-धोकर उसका नामो-निशान मिटा दिया।

फिर हांफती हुई चीख कर बोली, ''लो मर गया आदमी, विधवा हो गई मैं। भाड़ में गई ससुराल। आज के बाद किसी ने नाम भी लिया तो मैं वो कर बैठुंगी जो तुम सब सोच भी नहीं पाओगे।'' बिल्लो रोती जा रही थीं। लौट कर फिर वहीं बैठ गई जहां चुड़ियां तोड़ी थीं। बिखरी पड़ी चुड़ियों पर कलाईयों से खून टपकता रहा। आंसू भी लगातार झरते रहे। रोते-रोते हिचकियां बंध गईं। और अम्मा जहां खड़ी थीं। बुत बनी वहीं खड़ी देखती रहीं। बिल्लो की चीख-चिल्लाहट सुनकर भाई-बहन सब आ गए थे। संयोगवश मैं अपने फुफेरे भाई सतीश के साथ ठीक उसी समय पहुंच गया था। 

हम उसी दिन गर्मियों की छुट्टियों में वहीं पहुंचे थे। और बिल्लो से ही मिलने गए थे। हम उससे तब से मिलते बतियाते, आए थे जब वो पांचवीं में पढ़ा करती थी। हम जब भी मिलते बिल्लो भी खूब प्यार से मिलती,खेलती., बतियाती थी। हमने उससे गुट्टक खेलना भी सीखा था। जब और बड़ी हुई तो वो खाने को भी कुछ ना कुछ जरूरी देती। सोंठ मिला गुड़ उसको बहुत पसंद था। हमें भी वही देती। हम भी उनके लिए शहर की टॉफी जरूर ले जाते थे। उन्हें जरूर देते थे। ना जाने क्यों गांव चलने की बात आते ही मेरे मन में अगर कोई तस्वीर सबसे पहले उभरती थी तो वह बिल्लो की ही। और फिर चलते समय उनके लिए अपने सामान में टॉफी छिपा कर ले जाना मेरा पहला काम था। सतीश के दिमाग में क्या आता था ये तो वो ही जाने, मैं नहीं जानता। 

यह बात घर, चाचा, सभी बुआओं के नजर में आई तो सबने मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। रिश्ते को दूसरा नाम देकर सब छेड़ते। कहते चलो अच्छा है पट्टीदारी से रिश्तेदारी हो जाएगी। बात बिल्लो के घर तक भी पहुंची तो उनके घर वाले भी हंसते, मजाक करते। हम-दोनों का मजाक उड़ता। बिल्लो मजाक करने वाले को दौड़ा लेती। शुरुआती कई साल ऐसे ही बीत गए थे। हमारे उनके बीच एक किशोर-किशोरी का रिश्ता खेल-कूद, मिलना-जुलना बतियाना तक ही रहा। लेकिन जब किशोरावस्था पीछे-छूटने लगी तो हम-दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति एक विशेष तरह का आकर्षण पनपने लगा था। जिसका मतलब उस वक्त हम बहुत अच्छे से समझ नहीं पाते थे। 

यह स्थिति आगे चलकर और भावनात्मक लगाव में बदल गई। और जब मुझे बिल्लो की शादी की खबर अपने शहर में मिली थी तो मैं अजीब सी मनःस्थिति में पड़ गया था। इतना बेचैन हो गया था कि एक जगह बैठ नहीं पा रहा था। कभी इधर जाता कभी उधर। पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। मन में एक ही बात आती कि किसी तरह बिल्लो से मिल लेता। उसे मना कर देता कि मत करो शादी। मन में यही बात बार-बार आती कि बिल्लो की शादी कैंसिल हो जाए। मगर मन की मन में ही रही। बात आई गई हो गई। 

मैं फिर से अपनी दुनिया में मस्त हो गया। इन्हीं बिल्लो को जब उस दिन सतीश के साथ अपने हाथों अपने सुहाग चिन्ह मिटा कर विधवा बनते देखा तो एक दम शॉक्ड रह गया। कुछ देर समझ में ही नहीं आया कि हो क्या रहा है। मुझे बस एक ही बात समझ में आ रही थी कि बिल्लो रो रही है। कलाईयों से खून बह रहा है। उनकी मां हम दोनों को देख कर हैरान भी हो रही थीं और गुस्सा भी कि ऐसे टाइम क्यों पहुंचे, खड़ा देख कर आखिर बोल ही दिया कि, ''जा बचवा, जा बादि में आए।''

उनकी भी आंखें आंसुओं से भरी थीं। हम उल्टे पैर वापस हो लिए। सतीश ने मेरा मूड खराब देखकर कहा, '' तुम्हें क्या हो गया? तुम इतना टेंस क्यों हो गए हो? ये उनकी पर्सनल प्रॉब्लम है। हमें क्या लेना-देना।'' सतीश की ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी। लेकिन मैं कुछ नहीं बोला। बस धीरे-धीरे चलता रहा। 

कैथाने से आगे बभनौटी की ओर क़दम अपने आप बढ़ते गए। उसी के करीब और आगे जाकर एक भीठा (ऊंचा टीला) था उसी पर चढ़ गया। उसके एकदम शिखर पर बैठ गया। तेज़ धूप, गर्मी में यह पागलपन देखकर सतीश बोला, ''ये तुम्हें क्या हो गया है? मेरी समझ में नहीं आ रहा है। बैठना है तो चलकर किसी पेड़ की छाया में बैठो, नहीं वापस घर चलो। इतनी हाइट पर बैठे हो। नीचे ढाल कितनी शार्प है। इतनी गर्मी में कहीं चक्कर आ गया तो फुटबॉल की तरह लुढ़कते हुए नीचे पहुंचोगे। आस-पास नीचे से जा रहे लोग अलग देख रहे हैं कि, कौन पागल चढ़ गए हैं।'' 

बगल में खड़ा सतीश बोले जा रहा था। मैं जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। नीचे जाकर जहां भीठा का ढलान खत्म हो रहा था। ठीक उसी से आगे एक तालाब था यही कोई आधे बीघे का छिछला सा। किनारे-किनारे बेहया के पेड़ लगे थे। जिनके सफेद, कुछ बैंगनी से फूल ऊपर से दिख रहे थे। वहीं किनारे एक नीम और महुवा का पेड़ था। मुझे कुछ बोलता ना देखकर गर्मी से परेशान, खीझे सतीश ने हाथ पकड़ कर उठाया। 

बोला, ''क्या यार, ये क्या पागलपन है? आखिर मतलब क्या है? चलो उठो।'' उसकी बात और उठाने पर मैं जैसे कुछ नॉर्मल हुआ। उठकर खड़ा हुआ और नीचे महुआ के पेड़ को देखते हुए उतर कर उसी के नीचे बैठ गया। पेड़ घना था, उसकी छाया में आराम मिला। पसीने से हम-दोनों तर थे। बड़ी देर तक हम वहीं बैठे रहे। बिल्लो के लिए इस बार मैं कई चॉकलेट ले गया था। हम-दोनों ने बैठे-बैठे वहीं खत्म कर दिया। प्यास सताने लगी तो घर वापस आ गए।

आज उसी बिल्लो को इतने बरसों बाद इस रूप में देखकर और उसके खाने का निमंत्रण पाकर मैं फिर कुछ वैसी ही फीलिंग्स से गुजर रहा था। नींद नहीं आ रही थी। छत पर लेटे बाकी लोगों, गांव का मामला होने के चलते छत पर चहल-क़दमी भी नहीं कर पा रहा था। सिगरेट कितनी पीता। नॉर्मली जितना पीता था उससे कहीं ज़्यादा पी गया था। लाइट आ चुकी थी। पास ही रखा टेबुल फैन चल रहा था, लेकिन वोल्टेज इतना कम था कि पंखा पूरी तरह चल ही नहीं पा रहा था। मैंने पास ही रखे गिलास में जग से निकाल कर पानी पिया। और लेट गया। मैंने यह तय कर लिया था कि सवेरे बिल्लो के निमंत्रण का सम्मान करते हुए उसके साथ खाना खाऊंगा और फिर चला जाऊंगा जौनपुर रिश्तेदार के यहां। इतना टेंशन लेकर यहां रुकने से क्या फायदा?

अगले दिन सवेरे आठ बजे ही बिल्लो का फ़ोन आ गया। ''का हो  सूरत नरेश, का करत हएय।'' हमने बताया नाश्ता कर रहा हूं। तो बोलीं, ''ठीक है नाश्ता कई के आय जाओ।'' मैंने सोचा इतनी जल्दी खाने का कौन सा टाइम। इसलिए कहा मैं खाना बारह-एक बजे तक खाता हूं। तो उसने कहा, ''जितने बजे तोहार मन होए ओतने बजे खाए। मगर आए तो जाओ। बैइठ के तनी घरवां का हाल-चाल बतियाव। एतना बरिस बाद आवा है, तनी गंऊंवा के बारे में जाना-बूझा। जहां खेलत-कूदत रहअ सब जने।'' बिल्लो इतना पीछे पड़ गई कि मैं नौ बजे उसके यहां पहुंच गया। शिखर को कुछ काम था तो वह बोला, ''भइया मैं बारह बजे तक आ जाऊंगा।'' 

बिल्लो ने पहुंचते ही पहला प्रश्न किया, ''ई बतावा अपने बाबा, बाबू के नाई शाकाहारी अहै, कि मांसो-मछरी खात हएय।'' मैंने कहा मैं इस परंपरा को निभा नहीं पाया। तो वह बोली, ''चला ई बढ़िया बा। लकीर का फकीर ना बनेक चाही। जऊन नीक लगे उहै करै कै चाही।'' इसके बाद तो बिल्लो ने नाश्ते से शुरुआत कर जो दो बजे तक खाने का प्रोग्राम चलाया, उससे मैं एकदम अभिभूत हो उठा। मैंने कल्पना भी नहीं की थी ऐसी मेहमाननवाजी की। उनका भतीजा उसकी पत्नी भी पूरी तनमयता से लगे रहे। भतीजा बीच-बीच में बातचीत में भाग लेता रहा। और दुकान भी देखता रहा। 

भतीजे की पत्नी अंशिता की फुर्ती, खाना बनाने की निपुणता से मैं बहुत इंप्रेस हुआ। मैं बार-बार उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सका। बिल्लो इस तरह से अपने तखत पर बैठी थी मानो कोई महारानी अपने सिंहासन पर बैठी हो। वो एक के बाद एक आदेश देती जा रही थी। अंशिता उसका पालन किए जा रही थी। रसोई में उसका साथ देने के लिए एक नौकरानी थी। शिखर भी समय पर आ गया था।

मुझे वहां बिल्लो ने पूरा घर भी दिखाया। घर तो क्या एक बहुत बड़े आंगन के चारो तरफ बने करीब आठ-नौ कमरों का बड़ा सा मकान है। मैंने मकान की तारीफ की तो बिल्लो ने बिना संकोच कहा, ''एके हम तोहरे बब्बा के कृपा मानित है। बाबू जब घरवां से हाथ धोए बैइठेन। रहे का ठिकाना नहीं रहा तब तोहार बब्बा हिंआ आपन जमीन दै दिहेन। रहे भर के बनवावे में मदद किहेन।'' बिल्लो ने यह भी लगे हाथ बता दिया कि बाद में कुछ और जमीन उसने एक दूसरे गांव के तिवारी बाबा की थी ,वह भी दबा ली। थोड़ा लड़ाई-झगड़ा हुआ। लेकिन फिर सब ठीक हो गया।

परिवार में बिल्लो उसका भतीजा उसके तीन बच्चे एक नौकरानी है। आंगन में जमीन पर कोहड़ौरी (उड़द की दाल की बड़िया) सूख रही थीं। मैं करीब चार घंटे वहां रहा और बिल्लो ने जो बताया-दिखाया उसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। इन चार घंटों में गांव की राजनीति में बिल्लो के जबरदस्त दखल की बातें अचरज में डाल रही थीं। 

खाना खा-पीकर अंततः जब हमने बिदा ली तो दोपहर भी बिदा ले रही थी। बिल्लो रोक रही थी कि धूप में कहा जाओगे, रुको। मगर मैं खेत देखना चाहता था। सही रेट पता करना चाहता था। क्योंकि जब बिल्लो को बताया कि मैं खेत बेचने आया हूं तो उसने छूटते ही कहा, ''गांव  से लगाव का एक बहाना है, वह भी खत्म कर रहे हो। जब यह बहाना है तब तो इतने बरिस बाद आए। बेचे के बाद तो फिर ई मान के चलो कि ये आखिरी आना है तुम्हारा।'' 

बिल्लो सही कह रही थी। बेचना ना होता तो मैं गांव पहुंचता ही क्यों? और जब बिक जाएगा तो उसके बाद यहां आने का प्रश्न कहां? फिर बिल्लो ने रेट सुनने के बाद कहा, ''तोहके हर बिगहा (बीघा) पर दुई-ढाई लाख रुपया कम मिलत बा। ऐइसन बा जा पहले सही दाम पता करा।'' यह बात मुझे बराबर मथने लगी थी। मैंने कहा, ''ठीक  है।'' 

वाकई जब मैं खेत पर गया तो रिश्तेदार के कई झूठ सामने आए। उन्होंने कहा था खेत ऊसर-गांजर है। चार आने मालियत का है। इससे ज़्यादा नहीं मिल पाएगा। जिसे बंटाई पर दे रखा था, जो कभी-कभार कुछ पैसा मनी ऑर्डर करता था, हमेशा यह कहते हुए कि, ''फसल कायदे से भई नाई। दाम मिले नाई।'' उसने भी कई बातें बताईं । मैंने उससे शिकायत की, कि भाई जब मैंने खेत दिए थे तो आठ आने मालियत के थे। तुम बीज, खाद, सिंचाई के भी पैसे बराबर लेते रहे। फिर खेत चार आने की मालियत के कैसे हो गए? कहां गए सारे पैसे? इस पर वह भड़क कर बोला, ''भइया आठ आना दिए थे, तो आजो आठ आना है। कऊनो झूठ बोला है आप से।'' मैं चुप रहा। 

खेत की कीमत के बारे में भी उसने बिल्लो ही की बात एक तरह से दोहरा दी। सारा घालमेल सुन कर मैं परेशान हो गया। मेरा सिर चकराने लगा। तभी उसने एक और प्रस्ताव रख कर मुझे हैरान कर दिया। बिना लाग-लपेट के बोला, ''भइया जो भी आपका खेत बिकवा रहा है, ऊ आपको ठग रहा है। हमैं दो सारी ज़िम्मेदारी हम ईसे बढ़िया दाम दिला देंगे। जितना कमीशन ऊइका दे रहे हो। ऊसे दुई पैसा कम दई दो तबो हम काम कई देब।'' एक झटके में वह बोल गया था यह सारी बात। ड्राइवर बगल में खड़ा था। मैं परेशान हुआ कि यह रिश्तेदार को बता देगा। मैंने बात बदलते हुए कहा , ''नहीं-नहीं कोई ठग-वग नहीं रहा है। वो भले आदमी हैं। दलाली-फलाली उनका काम नहीं है।'' साझीदार समझदार आदमी था। उसे समझते देर नहीं लगी। कि वो गलत समय पर सही बात बोल गया है। 

उसने तुरंत बात संभालते हुए कहा, ''नाहीं भइया मतलब ई नहीं था। हम ई कहना चाह रहे थे कि औऊर केहू से कहेंगे तो ऊहो अपना कमीशन लेगा। हमैं बताइए हमहूं ई काम आसानी से कर देब। एतना दिन से जोतत-बोवत हईए एहू नाते हमार हक पहिले बनत है कि हम कुछ करि। अरे इतना दिन फसल उगाए। परिवार के रोटी-दाल भइया इहै खेतवे से मिलत बा। अब बेचे चाहत हअ तअ बेचा भइया। मालिक हअ तू। मगर ई कमवा हमें करे देबा तअ दाल-रोटी चलावे के बरे कुछ इंतजाम होई जाइ। काम-धंधा करे बरे कुछ पैइसा का इंतजाम होई जाए।'' उसकी दयनीयता, चेहरे पर भावुकता देख कर मुझे उस पर दया आ गई। उसका लॉजिक भी मुझे सही लगा। 

मैंने बड़े स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखा, और चहल-क़दमी करता हुआ ड्राइवर और शिखर से थोड़ा दूर ले जाकर कहा, ''तुमने अब-तक जो कहा सही कहा। मैं तुम्हारी इस बात से सहमत हूं कि तुम जोतते-बोते आए हो तो पहला हक़ जरूर तुम्हारा ही है। अब जो भी करूंगा, कोशिश करूंगा कि तुम्हें तुम्हारा हक़ मिले। रोटी-दाल पर कोई असर नहीं आने दूंगा।'' मेरी बातें सुनकर उसकी आंखें गीली हो गईं। उसने हाथ जोड़ कर कहा, ''भइया तोहरे सहारे अबे तक हमार परिवार जियत रहा, आगेव ई का बनाए रखो। ज़िंदगी भर तोहार एहसान ना भूलब।'' मैंने उसकी पीठ थपथपा कर आश्वस्त किया। कहा, ''कल तुमसे फिर बात करूंगा।'' वह चला गया। 

मैंने शिखर से कहा, ''तुम्हारे हिसाब से कितने तक में बात सही रहेगी। तो उसने भी बिल्लो, बंटाईदार की बात का ही समर्थन कर दिया। मैं अपने जिस खेत की मेड़ पर खड़ा था। उसमें गेंहू की फसल लगी थी। उसकी बालियां, तने सब सुनहले पड़ चुके थे। उसके आस-पास के खेतों में भी दूर-दूर तक गेंहू की फसल लगी थी। सब हफ्ते दो हफ्ते में कटाई के लायक हो गई थीं। मैंने देखा कि शिखर ऊब रहा, तो मैंने उससे कहा, ''आओ तुम्हारे खेत पर चलते हैं।'' मुझे लगा जैसे उसका मन मुझे अपने खेत तक ले जाने का नहीं था। उसने कहा, ''भइया। गर्मी बहुत बा। डांडे़-मेड़े काफी दूर चलना पड़ेगा। थक जाएंगे। आपकी आदत है नहीं।'' मैंने कहा, 'नहीं ऐसा नहीं है। इतना कमजोर नहीं हूं। मेड़ पर भी खूब चला- दौड़ा हूं। तब तुम बहुत छोटे थे। आज फिर पुरानी याद ताजा करता हूं। वैसे मेरा यकीन है कि मैं तुमसे कम आज भी नहीं चलूंगा।''

शिखर कोई रास्ता ना देख कर बोला, ''ठीक है भइया चलिए।'' ड्राइवर को मैंने गाड़ी में चले जाने को कह दिया। वह थोड़ी ही दूर पर चक रोड पर गाड़ी खड़ी किए हुए था। वह भी गर्मी में आगे मेड़ पर चलना नहीं चाहता था। मैंने उससे पानी की बोतल गाड़ी में से मंगवा ली थी। शिखर के लिए भी। दोनों ने बोतल से कुछ पानी पिया और चल पड़े मेड़ के किनारे-किनारे खेत में ही। गेहूं की फसल उस खेत में मेड़ से सात-आठ इंच दूर हट कर लगी थी। चलते वक्त बालियां हम-दोनों के पैरों से टकरा कर अजीब सी सर्र-सर्र आवाज़ कर रही थीं। बीच-बीच में ऐसी स्थिति भी आ रही थी जब हमें मेड़ पर चढ़ कर संभलते हुए चलना पड़ रहा था। 

शिखर परेशान ना हो इस लिए मैं लगातार उससे बातें कर रहा था। साढ़े पांच बजने वाले थे सूरज हमारे ठीक सामने अब भी धधक रहा था। धूप अब भी बड़ी तीखी थी। मेरे कॉलर और बाहों के आस-पास शर्ट पसीने से भीग रही थी। शिखर की भी। मैं रुमाल से बार-बार चेहरे और गर्दन के पास पसीना पोंछ रहा था। करीब तीन खेत क्रॅास करने के बाद ही मैं हांफने लगा। मगर शिखर अभी मेरे जितना नहीं थका था। मुझे बोलने में जितनी तकलीफ हो रही थी उतना उसे नहीं। तीन खेत बाद ही मैंने पूछ लिया अभी और कितनी दूर है। तो वह बोला, ''बस भइया चार खेत बाद अपना खेत है। वो आगे जहां दो पेड़ दिख रहे हैं वह अपने ही खेत में हैं।'' 

मैं सामने देखने लगा तो तेज़ धूप के कारण आँखों पूरी खोल नहीं सका। तेज़ धूप सीधे चेहरे पर पड़ रही थी। पेड़ों की दूरी जो मैं समझ पा रहा था उससे मुझे लगा कि कुछ ही देर में पहुंच जाऊंगा। मगर कुछ देर बाद महसूस हुआ कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पेड़ भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। दूरी है कि कम ही नहीं हो रही है। दो खेत और क्रॉस करते-करते मुझे लगा कि अब बैठ जाना पड़ेगा।

पसीने से अब पूरी शर्ट भीग गई थी। और पैंट का हाल पूछिए मत। मगर शिखर मेरे जितना नहीं भीगा था। आखिर एक जगह मैं मेड़ पर बैठ गया। फिर पानी पीने लगा। शिखर भी। मैंने उससे कहा, ''यार ये पेड़ हमसे आगे-आगे क्यों भागे जा रहे हैं।'' शिखर हंस पड़ा। बोला, ''भइया मैं तो पहले ही कह रहा था कि आप परेशान हो जाएंगे। यहां हम-लोगों की तो आदत है। आप चाहें तो यहीं से वापस चले चलिए। वहां जाकर वापस भी तो आना है। और ये धूप अभी घंटे भर से तो ज़्यादा रहेगी ही।''

उसकी इस बात ने मेरी हिम्मत कमजोर कर दी। मगर रिश्तेदार की धूर्तता ने कहा कि नहीं टाइम नहीं है। आए हैं तो हर चीज ज़्यादा से ज़्यादा पता करना ही अच्छा है। नहीं तो सब ठगते रहेंगे। यह सोचकर मैंने एक बार फिर दोनों पेड़ों को देखा और हंसकर कहा, ''नहीं डियर, परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। जाकर आराम से वापस आ जाऊंगा, हां पसीना जरूर ज़्यादा हो रहा है। शहर में पैदल चलने की आदत शुरू से ही नहीं पड़ पाई। इसी वजह से वेट ज़्यादा है। फैट भी बढ़ा हुआ है।'' शिखर ने कहा, '' हाँ आप हांफ भी बहुत रहे हैं। इसी लिए कह रहा हूं चले चलिए।'' मैंने कहा, '' मंज़िल सामने दिख रही हो तो छोड़ कर वापस चल देना ठीक नहीं। आओ चलते हैं।'' मैंने पानी पिया और उठकर चल दिया।

पसीना बहाते, हांफते, एक-एक घूंट पानी पीते आखिर शिखर के खेत में पहुंच गया। उसके एक खेत में जहां पेड़ लगे थे उसी की छाया में हम- दोनों बैठ गए। कुछ देर बैठने के बाद शिखर के वो खेत भी देखे। जो पड़ती पड़े थे। उनके बंजर होते जाने, शिखर की लापरवाही पर मुझे कष्ट हुआ। उठकर कुछ क़दम आगे बढ़ा तो उसके बंजर खेतों के आगे ही कुछ दूर तक कई खेतों में ऐलोवेरा लगे थे जिसे वहां घीक्वार या ग्वारपाठा भी कहते हैं। 

मुझे आश्चर्य हुआ कि यहां एक साथ इतने खेतों में ऐलोवेरा की खेती कौन कर रहा है। मैंने शिखर से पूछा तो उसने बताया कि, ''यह सब बिल्लो बुआ के खेत हैं। कई साल पहले उन्होंने औने-पौने दाम में कप्तान चच्चा की आठ बीघा जमीन खरीद ली। वो लोग भी कई-कई साल यहां आते नहीं थे। खेत बंजर हो गए तो बेच दिया। और बिल्लो बुआ उसी बंजर जमीन से इतना कमा रही हैं कि पूछिए मत।''

शिखर ने बताया कि, ''उन्होंने एक बाबा की कंपनी से बात कर रखी है। सारी पैदावार ट्रकों में भर-कर चली जाती है। बहुत अच्छी कमाई हो रही है।'' मैंने कहा, ''आखिर तुम क्यों नहीं करते, जब इतना फायदा है। उन्हीं की पैदावार के साथ-साथ तुम्हारी भी चली जाया करेगी। बिल्लो मना थोड़े ही करेंगी।'' तब शिखर ने कहा, ''ऐसा है भइया कि सब तो छोड़कर शहर भाग गए। मेरा भी मन यहां नहीं लग रहा। पापा जब-तक हैं तब-तक हम भी हैं। मैं भी शहर में ही कुछ करना चाहता हूं।'' 

शिखर ने आगे जो बताया उस हिसाब से ना तो उसकी पढ़ाई ऐसी थी कि उसे चपरासी से आगे कोई नौकरी मिल पाती, ना ही कोई ऐसा काम जानता है कि उसके हिसाब से शहर में कुछ कर पाएगा। मुझे लगा कि यह बाप के बाद खेत, घर सब बेच-बाच कर चला जाएगा। शहर में कुछ कर पाएगा नहीं। और फिर एक दिन सड़क पर आ जाएगा। 

यह सोचकर मैंने उसे समझाया कि शहर में तुम्हारे लिए जितनी संभावनाएं हैं, उससे कहीं बहुत ज़्यादा संभावनाएं यहीं भरी पड़ी हैं। जब बिल्लो यहां बंजर खेतों में गवारपाठा उगाकर ढेरों कमा सकती है तो तुम क्यों नहीं, फिर इस खेती में तो बाकी फसलों की खेती की तरह ना तो खेतों को बहुत तैयार करना पड़ता है। ना बार-बार सिंचाई का झंझट है। उपज पूरी की पूरी बिक जाने की गारंटी।''

इस पर शिखर खुलकर बोल पड़ा, ''भइया मैं भी शहर की चकाचौंध भरी लाइफ का मजा लेना चाहता हूं।'' मैंने समझाया कि, ''बिना पैसे के किसी भी लाइफ का मजा नहीं ले सकते। यहां तुम्हारे पास इतने साधन हैं कि, आराम से बढ़िया कमाई कर सकते हो। फिर जब मन हो शहर जाओ। घूमो फिरो। शहर-देहात दोनों का मजा ले लो। शहर वाले दोनों का मजा नहीं ले पाते।''

शिखर ने फिर कहा कि, ''भइया परिवार का कोई एक सदस्य भी यहां रहता या बराबर आना-जाना बनाए रखता तब भी मैं हिम्मत करता। लेकिन आप सबके साथ-साथ घर के बाकी सब भी चले गए। आना-जाना छोड़िए, भइया लोग फ़ोन करना भी छोड़ दिए हैं। फ़ोन करने पर भी सीधे मुंह बात नहीं करते। बहनों का भी यही हाल है। ऐसे में अब मैं यहां बहुत अकेलापन महसूस करता हूं। मेरा जी घबराता है। 

कैथान के जितने पट्टीदार अपने लोग थे उन घरों का भी यही हाल है। सब छोड़-छोड़ कर जा चुके हैं। वही लोग थोड़े बहुत बचे हैं जिनके पास वहां जाकर कुछ करने के लिए कोई साधन या फिर पढ़ाई-लिखाई भी नहीं है। दूसरे यहां इतनी गंदी राजनीति चल रही है, इतनी मार-काट है कि शांति से रहा ही नहीं जा सकता। आप एकदम अलग रहना चाहें तो भी संभव नहीं है। कोई ना कोई अपने गुट में अपने साथ करने के लिए इतना परेशान करेगा कि आपको एक में शामिल होना ही पड़ेगा। बवाल सिर पर मोल लेना ही होगा। या गांव को अलविदा कह कर कहीं और जाइए, नहीं तो हर तरफ से सब इतना नुकसान पहुंचाएंगे कि कहीं के नहीं रह जाएंगे। 

बिल्लो बुआ भी इन्हीं सब से परेशान होकर राजनीति में कूद पड़ीं। मगर भइया सब तो बिल्लो बुआ नहीं हो सकते ना। फिर उनकी, भतीजे की जान को खतरा हमेशा बना ही रहता है। आपने देखा ही है कि दो- चार बंदूकधारी उनको घेरे ही रहते हैं। सब उनको यहां का ऊमा भारती कहते हैं। उन्होंने जितना रिस्क लेकर मुज्जी मियां की प्रधानी की बरसों से चली आ रही दबंगई को हमेशा के लिए खत्म किया, उस बारे में कोई सोच भी नहीं पाता था कि मुज्जी की दबंगई को कोई खत्म भी कर पाएगा।'' बिल्लो इतनी दबंग और इतना कुछ कर चुकी होगी, यह जानकर मैं हैरान रह गया। 

कुछ देर मैं एकटक शिखर को देखता ही रह गया। मैं बिल्लो की और बातें जानने के लिए व्याकुल हो उठा। शिखर बताता जा रहा था। उसकी बातें हैरान करती जा रही थीं। अब-तक हमारा पानी खत्म हो चुका था। सूरज भी दूर क्षितिज में करीब-करीब ढल चुका था। क्षितिज पर एक जगह एक अर्ध चंद्राकार घेरे में केसरिया प्रकाश और गहरा हो गया था। पक्षी अपने-अपने घरौंदों की ओर चहचहाते हुए उड़ान भर रहे थे। हमारा गला सूख रहा था। हम बातें करते हुए उठे और  गाड़ी की ओर चल दिए। गाड़ी तक पहुंचने में हमें आधा घंटा लगा। गाड़ी में से और पानी की बोतल निकालना चाहा तो एक ही मिली। जो बोतलें छोड़ कर गया था उसे ड्राइवर महोदय गटक गए थे। शिखर की बातों ने मुझे कई मुद्दों पर असमंजस में डाल दिया था। 

मैं खेत में जाते वक्त जहां यह सोच रहा था कि आज जौनपुर लौट जाऊं रिश्तेदार के यहां, जिससे वहां आराम से सो सकूं। वहां जेनरेटर वगैरह सब है। सोने के लिए आरामदायक अलग रूम है। मगर अब मन में आ रहा था कि रुक जाऊं। शिखर से रात-भर और बातें करूं। असल में मैं खेतों की कीमत के साथ-साथ अब बिल्लो के बारे में और जानना चाह रहा था। जानना चाह रहा था उसके अब-तक के असाधारण जीवन के बारे में। 

साथ ही पता नहीं क्यों मेरे मन में शिखर को समझा-बुझा कर गांव में ही अपना भविष्य संवारने के लिए तैयार करने की तीव्र उत्कंठा पैदा हो गई थी। मुझे सिगरेट पीते कुछ देर चुप देखकर शिखर ने घर चलने को कहा, तभी मुझे बिल्लो से बात करने की बात याद आई कि, उसने कहा था कि देख-दाख के बताना। यह याद आते ही मैंने शिखर से कहा, ''हाँ  चलता हूं। बस दो मिनट।'' इसके बाद उससे थोड़ा अलग हटकर बिल्लो से बात की। 

संक्षेप में उसे सारी बातें बताते हुए कहा, 'कुछ  समझ में नहीं आ रहा है क्या करूं? वापस भी जाना है।? तो वह बोली, 'ऐसा है, तुम हमें थोड़ा टाइम दो, जैसा चाहोगे हम वैसा करा देंगे।' शिखर से उसके बारे में तमाम बातें जानने के बाद मुझे बिल्लो की बात पर पूरा यकीन था कि, वास्तव में वही मेरा काम सही ढंग से कराएगी और कोई धोखाधड़ी नहीं करेगी। फिर बिल्लो ने मुझसे अपने यहां रुकने का आग्रह किया। 

साथ ही यह उलाहना भी दिया कि, 'हम तो कल से इंतजार कर रहे हैं कि इतने साल बाद आए हो। अरे छोटे थे तब तो कुछ न कुछ लाना भूलते ही नहीं थे। और अब जब कमाए लगे हो। बड़का बिजनेसमैन बन गए हो तो पूछ तक नहीं रहे हो कि बिल्लो कैसी हो? तुम पर का-का बीती अब-तक, बिल्लो आखिरी सेंटेंस तक पहुंचते-पहुंचते भावुक हो गई। उसकी आवाज़ भर्रायी सी लगी। 

मैं बड़े अचरज में पड़ गया कि यह मुझ पर अब भी इतना अधिकार समझती है। मुझे लगा कि उसकी बातों ने मुझे एकदम पानी-पानी कर दिया है। कुछ देर मुझे कोई जवाब ना सूझा। मैं चुप रहा तो बिल्लो फिर बोली, 'कुछ गलत बोल दिए होई तो माफ करना।' यह कह कर उसने मुझे और भिगो दिया। मैं लज्जित हुआ सा बोला, 'नहीं-नहीं, प्लीज-प्लीज कृपया ऐसा मत कहिए। मैं संकोच में था। और मैंने यही समझा था कि आप सब भूल चुकी होंगी।'

इस पर वह बोली, 'अरे कइसन बात करत हौ। ई सब कहूं भूलत है। अरे हमरे कलेजे में सब वैसे ही आज भी बसा है जैसे तब था। एकदम ताजा है अबहिनों सारी बात। अच्छा पहिले ई बताओ, ई दुश्मनन के नाहीं आप-आप काहे किए जा रहे हो। हम अबहिंनो तोहार ऊहै बिल्लो हई। अऊर हमेशा रहब। जेकरे साथे तू लड़कपन में छिप के खलिहाने में, तो कहीं भीठा के किनारे इमली, गट्ठा (शक्कर से बनी गंवई मिठाई) कंपट (टाफी) खाया करते थे। तू शहर के मनई सब भुलाए दिए, लेकिन हमें नाय भूलान बा। हम तो तोहे कल जब से देखे हई, तब से इंतजार करत हई कि हमरे लिए जो लाए होगे अब दोगे, अब दोगे। 

बचपन की तरह लोगों से नजर बचा कर चुपके से मेरे हाथों में थमाओगे। कहोगे, लो बिल्लो, यह तुम्हारे लिए लाया हूं। मगर बिल्लो की ऐसी किस्मत कहां? भूल गए सब यहां से निकलते ही।' बिल्लो की आवाज़ फिर भारी होने लगी। मेरी मनःस्थिति ऐसी हो रही थी कि ऐसा क्या कर डालूं कि बिल्लो का दर्द पी जाऊं। उसकी शिकायत नहीं उलाहनों को फूल बना सब उस पर बरसा दूं। उसे इतनी खुशी दूं कि वह पिछले सारे दर्द भूल जाए। मैंने बिल्लो से कहा, 'मुझे अब और शर्मिंदा ना करो। मैं आज तुम्हारे यहां ही रुकूंगा। बस घंटे भर बाद आता हूं।' यह कह कर मैंने फ़ोन काट दिया। 

मुझे क्या करना है यह मैं बात करते-करते ही तय कर चुका था। शिखर यह सुनकर चौंक गया कि मैं आज बिल्लो के यहां रूकुंगा। वह यह कतई नहीं चाहता था। उसने गांवों में छल-क्षद्म से बदला लेने, मारने, पट्टीदारी आदि के भय क्षण भर में दिखा दिए। मगर बिल्लो की भावनाओं के आगे मुझे यह सब बकवास के सिवा और कुछ ना लगे। मैंने उससे दो टूक कहा, 'चलो तुम्हें घर छोड़ देता हूं। कल तुमसे फिर मिलूंगा। अभी तुमसे बहुत बातें करनी हैं। बहुत ही इंपॉर्टेंट डिसीजन लेना है।' 

वह कुछ बोलना चाह रहा था लेकिन मैंने उसे बोलने नहीं दिया। उसे घर पर छोड़ा और ड्राइवर को भी उसी के हवाले कर कहा ये भी तुम्हारे पास रुकेंगे। शिखर बड़े बेमन से माना। खेत से घर तक मैंने गाड़ी खुद ड्राइव की। ड्राइविंग की अपनी पूरी कुशलता दिखाकर मैंने ड्राइवर को सैटिसफाइड कर दिया कि गाड़ी मैं अकेले ही  ले जाऊंगा। वह मेरी फास्ट, शार्प ड्राइविंग देखकर जब उतरा तो यह बोला भी, ''भइया जी आप तो बहुत बढ़ियां गाड़ी चलाते हैं।'' फिर मैंने उसी के सामने रिश्तेदार को फ़ोन कर बताया कि आज मैं कहां रुकुंगा, और ड्राइवर कहां, साथ ही कि गाड़ी मैं ले जा रहा हूं। रिश्तेदार खुशी-खुशी बोले, ''ठीक है।'' 

गाड़ी को लेकर ड्राइवर किसी असमंजस में ना रहे इसीलिए मैंने यह किया। उनको वहां छोड़ कर मैं वहां से सीधे जौनपुर सिटी गया। रास्ता ना भूलूं इसी लिए मोबाइल में जीपीएस ऑन कर दिया। सात बजने वाले थे। मैंने पूरी रफ्तार में गाड़ी भगाई कि कहीं मार्केट बंद ना हो जाए। सबसे पहले एटीएम से जरूरत भर का पैसा निकाला फिर बिल्लो के लिए एक महंगी खूबसूरत सी साड़ी खरीदी। उसे खूबसूरती से पैक कराया।

परिवार के बाकी लोगों के लिए भी गिफ्ट लिए। भतीजे उसकी पत्नी उसके बच्चों के लिए भी कपड़े लिए। जिससे वहां किसी तरह से ऑड ना लगे। फिर एक और चीज लेकर जेब में रख ली। कि उसे बिल्लो को एकदम अलग करके दूंगा। चुपके से। जैसे बचपन में देता था। उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर। मैं इतनी जल्दी, हड़बड़ाहट में था कि सिगरेट और वहीं रेलवे स्टेशन के पास मिनरल वॉटर की दस-बारह बोतलें लेकर डिक्की में डाल लीं। लेकिन घर बीवी-बच्चों से बात करना भूल गया। मैं बिल्लो के पास पहुंचने की जल्दी में था। 

वापसी में रास्ते में था तभी बिल्लो का दो बार फोन आ चुका था। वह समझ रही थी कि मैं चाचा के यहां हूं। मैं उसे कुछ बता नहीं रहा था। बस जल्दी पहुंचने की कोशिश कर रहा था। वापसी में तमाम जल्दबाजी के बावजूद गांव के रास्ते में बड़े बदलाव देखता चल रहा था। लाइट का टोटा था लेकिन फिर भी मकानों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। मुख्य सड़क और अंदर गांव में बनीं आर. सी. सी. सड़कों पर लोगों का आना-जाना अब भी था। बाज़ार करीब-करीब बंद हो रही थी। 

बिल्लो के घर के सामने गाड़ी रोकी तो साढ़े नौ बज गए थे। उसकी भी दुकान बंद हो चुकी थी। पांच सीढ़ियां चढ़ कर बिल्लो के घर के अंदर पहुंचना होता है। मेन बैठक का दरवाजा तो खुला था। लेकिन चैनल पूरा बंद था। लाइट बाहर भी जल रही थी। और अंदर बैठक में भी। एलईडी बल्ब यहां भी रोशन थे। मोदी का इफेक्ट साफ दिख रहा था। मेरी गाड़ी रुकते ही बिल्लो चैनल के पास आई। उसका एक हिस्सा किनारे खिसका कर खोलती हुई अपनी बुलंद आवाज़ में बोली, 'आवा बड़ा देर कई दिहे। चच्चा जादा पियार देखावे लगा रहेन का?' 

बिल्लो ठेठ गंवई स्टाइल में आ गई थी। मैं जब से गांव में आया था तब से एक चीज़ देख रहा था कि लोग यह जानकर कि मैं शहर से आया हूं ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश खड़ी बोली में बात करने की कर रहे थे। वह यह भी नहीं समझ रहे थे कि मैं सूरत, गुजरात में खड़ी बोली से ज्यादा गुजराती बोलने का अभ्यस्त हूं। यह मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था। नकलीपन से मैं बड़ी जल्दी ऊबने लगता हूँ । मुझे बड़ा अच्छा लगता जब मुझसे लोग अपनी स्थानीय बोली में बात करते। 

बिल्लो भी यही घालमेल बार-बार कर रही थी। मगर मैं चाह कर भी टोक नहीं पा रहा था। इस समय जब वह अपने मौलिक अंदाज में बोली तो मुझे अच्छा लगा। मैं उसकी बातों पर मैं मुस्कुरा भर रहा था। जब मैं गिफ्ट के सारे पैकेट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा तो वह बोली, 'अरे ई सब का लिए हो?' मैं मुस्कुराता रहा और उसके सामने पहुंचा तो वह अंदर पड़े तखत की तरफ इशारा कर के बोली, 'आवा बैइठा।' फिर चैनल बंद किया। आकर बैठ गई मुझसे थोड़ी सी दूरी बनाकर तखत पर ही। और बोली , 'बड़ा देर कई दिहे। कहां चला गए रहा?' बिल्लो सामान देखकर समझ गई थी कि मैं चाचा के यहां नहीं था। कहीं और गया था। 

मैंने उसकी उत्सुकता शांत करते हुए कहा। अपनी गलती सुधारने गया था। खेतों के चक्कर में यही भूल गया था कि जीवन में रिश्तों की बहुत बड़ी अहमियत होती है। उनकी मर्यादा और उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को निभाना भी जरूरी है। साड़ी का डिब्बा उसकी तरफ बढ़ाता हुआ बोला, 'यह तुम्हारे लिए है।' बिल्लो ने चौंकते हुए कहा, 'अरे ई सब का.. वह कुछ बोले उसके पहले ही मैंने कहा, 'मना मत करना। ये कोई सामान, गिफ्ट नहीं है। ये मेरी भावनाएं हैं तुम्हारे लिए। जो तमाम परिस्थितियों के चलते दिलो-दिमाग में कहीं गहरे दब गई थीं। जो तुम्हें देखने के बाद कुछ कुलबुलाई थीं। और शाम को तुम्हारी बातों ने दबी भावनाओं को एकदम सामने कर दिया।' 

बिल्लो फिर कुछ नहीं बोली। डिब्बा हाथों में लेकर मुझे देखने लगी तो मैंने कहा, 'खोलकर कर नहीं देखोगी।' बिल्लो ने डिब्बा खोलकर जब साड़ी देखी तो कुछ क्षण खुशी से देखती रही फिर बोली, 'एतनी महंगी साड़ी। एतनी महंगी साड़ी तो हम कब्बो पहरिबे नाहीं किए।' मैंने फिर कहा, 'ये सिर्फ़ मेरी भावनाएं हैं। जिनका मुल्य तय करना संभव नहीं।' बिल्लो ने साड़ी दोनों हाथों में लेकर चूम ली। बोली, 'तू सही कहत हअ। महंगी या कुछ भी कहना तोहरे भावना के ठेस पहुंचाना होगा। हमरे बदे ई का बा हम कुछ कहि नाहीं सकित। हमरे बाते के एतना ध्यान देबा, दिल से लगाए लेबा, ई हम सोच नाहीं पाए रहे।'

तभी मैंने भतीजे और उसके परिवार के गिफ्ट सामने करते हुए कहा, 'कहां हैं सब लोग?' तो बिल्लो बोली, यहीं मड़ियाहूं में बहुरिया के मामा की बिटिया बियाही बा। वही के बेटवा भा बा। आज ओकर छट्टी बा। हुंअईं सब गा हैंएन।' मैंने पूछा, 'तुम नहीं गई।' तो बिल्लो ने कहा, 'नाहीं। हम ई सब जगह नहीं जाईत। हींआ हालत एइसन बा, जले वाला दुश्मन एतना हैएन कि घरे में ताला नाहीं लगाए सकित। 

समनवो वाले मकान में, दुकान में काम करै वाले औउर दुई-तीन आदमी औउर बाकी सब हिंअइ रहत हैंएन। वहां भी देखे रहते हैं। यहां भी। ई रतिया में हम हिंआ सब देखित है। ई सब कैथाने में जऊन नवा घर बना बा हुंवां जात हैं। खाना-पीना सब यहीं होता है।' 

यह सब सुन कर मैं बड़े पसोपेस में पड़ गया। यह घर में अकेली है। गांव का मामला है, मुझे यहां रुकना क्या इस समय यहां आना भी नहीं चाहिए था। मेरे मनोभाव पता नहीं बिल्लो समझ पा रही थी कि नहीं लेकिन मैं...मैं परेशान हो रहा था। मैंने जल्दी ही पूछ लिया,  'भतीजा कब लौटेगा? तो बिल्लो बोली, 'नाहीं, आज सब वहीं रुकेंगे। कल आएंगे।' उसकी इस बात ने मुझे और झटका दिया। क्या करूं, क्या कहूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 

बिल्लो मेरी मनोदशा जान-समझ कर नाराज ना हो, इस लिए मैं खुद को संभालने की कोशिश में लगा था। तभी बिल्लो उठी अंदर जाते हुए बोली, 'तुम हाथ-मुंह धो लो, तब-तक हम खाना निकालति हई।' मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। तो मैं यंत्रवत सा बोला, 'ठीक है।' बिल्लो ने तखत के सामने एक सेंटर टेबल रखी। उसी पर कई अच्छे-अच्छे हॉट-पॉट लाकर रखे। प्लेट-कटलरी गिलास और ठंडे पानी की कई बोतलें भीं। बर्तनों की चमक, स्थिति बता रहे थे कि ये कभी- कभी खास मेहमानों के आने पर ही यूज किए जाते हैं। मैं हाथ धोकर आया तो बिल्लो ने पोंछने के लिए मुझे इसी बीच तौलिया भी पकड़ा दी। 

वह काम करते समय भी बोलती जा रही थी। उसे अकेले काम करते देख कर मैंने पूछा, 'सब अकेले कर रही हो, नौकरानी कहां चली गई? तो उसने कहा, 'वो भी भतीजे के साथ गई है। काम-काज था, तो हमने कहा लिए जाओ। काम-धाम में हाथ बटाएगी।' मुझे तखत पर बैठने को कह कर उसने एक प्लास्टिक का टेबल कवर मेरे सामने बिछा कर बर्तन रखे।

बिल्लो को एक ही प्लेट में खाना निकालते देखकर मैंने पूछा, 'तुमने खा लिया?' तो वह बोली, 'नाहीं हम तो इंतजार कर रहे थे कि आओ तुम्हें खिला दें तब खाएं। मेहमान का खिलाए बिना कैसे खा लेते? उसके तंज पर मैंने कहा, 'तो मैं तुम्हारे लिए मेहमान हूं।' अब बिल्लो हंसती हुई बोली, 'नाहीं , मेहमान नाहीं हम तो ऐसे ही।' 'अच्छा तो क्या हूं?' 'अरे घरै के हो,आपन हो। हम तो हंसी में बोल दिए थे।' कहकर वह हंस पड़ी। मैंने कहा, ताज्जुब है, तुमने अभी तक खाया नहीं तो अपना भी निकालो, साथ खाएंगे।' 

बिल्लो के संकोच पर मेरी जिद भारी पड़ी। उसने भी अपना खाना निकाला। साथ ही खाया। लेकिन शुरू में संकोच साफ दिखा था। खाते हुए भी हमारी बातें चलती रहीं। उसने बताया, 'सारा खाना सूरज की बीवी ने बनाया है। मैंने बस यही कहा कि तुम बहुत साल बाद आए हो। शहर में बहुत बड़ा काम-धंधा फैलाए हो। बड़े-बड़े होटल में खाए-पिए वाला हो तो उहे तरह बनाओ।' खाना वाकई बहुत बढ़िया बना था। खीर तो इतनी बढ़िया थी कि मुझे बोलना पड़ा कि, 'इतनी बढ़िया खीर बहुत दिनों बाद खा रहा हूं।' दो तरह की कचौड़ी, पूड़ी, दही-बड़ा, कटहल का कोफ़्ता, पुलाव और सलाद सब जिस तरह काट कर बनाए गए थे वह तारीफ के काबिल थे। 

आखिर मैंने पूछ लिया, 'सूरज की बीवी कितना पढ़ी-लिखी है, कहां की है? तो बिल्लो ने बताया कि, 'है तो यहीं जंघई की। दोनों का कई साल पहले पता नहीं कहां कैसे मिलना-जुलना हुआ। जब पता चला तो दोनों ऐसा कर चुके थे कि आफ़त खड़ी हो गई। आनन-फानन में शादी का ड्रामा पूरा करना पड़ा। इसके मां-बाप ऐसा परेशान थे कि पूछो मत। महतारी मार अंड-बंड बोले जाए। कहे, ''तुम्हारे भतीजे ने मेरी लड़की फंसा ली। मोढ़ लिया, लूट लिया उसको। कहीं का नहीं छोड़ा। अब बताओ कहां ले जाएं उसको... 

मैंने कहा, 'आज.कल तो लड़के-लड़कियों का मिलना-जुलना तो मामूली क्या कोई बात ही नहीं है। फिर इतनी आफ़त वाली बात कहां थी?' तो बिल्लो ने कहा, 'नाहीं भइया ई दोनों तो आफ़त वाला ही काम किए थे। शादी के बाद सतवें महीना में तो महतारी-बाप बन गए। कोउनो तरह लड़का होए के पहले एक रिश्तेदार के यहां रखके मामला संभाले की कोशिश की गई। मगर ई दुनिया इस तरह की बातें हज़ार तहों में छिपी हो तब भी सूंघ ही लेती है। तो यही हाल यहां भी हुआ। 

कोई मजाक में तो कोई किसी तरह कोंचने, ताना मारने से बाज ना जाता। तुम जनतै हो कि हम ई तरह की नौटंकी जादा बरदाश्त नहीं कर पाइत। एइसे एक दिन यहीं की पट्टीदारी में कुछ काम-धाम रहा। वहीं कई जने मिल के मजाक-मजाक में हमें उधेड़े शुरू किहिन तो हमहूं सोचेन बहुत हुआ तमाशा। रोज-रोज की नौटंकी आज खत्म। फिर चिल्ला कर कहा, ''सुना हो पंचयती लोगन, भतीजा हमार कुछ भी गलत नहीं किए है। ना ऊ लड़की। जब दोनों एक दूसरे का चाहत रहेन तो प्यार करिहैं, मिलिहें कि एक दूसरे की आरती उतरिहें। जो किए अच्छा किए। बच्चा आई गा पेट में तब्बो दोनों चोरन, छिनारन के तरह छोड़ के भागे नहीं। छाती ठोंक के कहा बच्चा भी पैदा करेंगे, शादी भी करेंगे । दोनों के घरौ वाला चोरन की नाई मुंह नहीं छिपाएन।

अपने बच्चन का भविष्य गंवारन-जाहिलन की तरह बर्बाद नहीं किया। उन्हें खुशी दी। उन्हें खोखली नाक के चक्कर में मार-काट के कुंआ में नाहीं फेंका। अरे हम खुश हैं तो दुनिया की छाती पर काहे सांप लोट रहा है। अरे आपन-आपन देखो सब जने। मुंह छिपा-छिपा के कऊन-कऊन छिनारपन कई रहा है, कहां-कहां गोपलउअल (अवैध संबंध जीना) कई रहा है, सब मालूम बा। और कान खोल के सुनले दुनिया, कि कोउनो दहिजार (दाढ़ीजार) हमरे परिवार की तरफ करिया आंखी (बुरी नजर) से देखिस तो जान ले। भतीजा तो बाद में आई पहिले हमहि इहे हाथन से बोटी-बोटी बाल नाउब (टुकड़े कर देना)।' बिल्लो पूरे ताव में बोले जा रही थी। और मैं उसे एकटक देख रहा था। मुझे ऐसे देखते पाकर वह संभली। बोली, 'तुमहू सोचत होइहो कि ई बिल्लोइया कईसे फटाफट गाली बके जात बा।' 

मैंने मुस्कुराकर कहा, 'नहीं, मैं देखने की, समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरे बचपन की बिल्लो से ये बिल्लो और कितनी ज़्यादा तेज़़ तर्रार, समझदार, सफल और......... बिल्लो ने मुझे ''और'' शब्द पर ठहर जाने पर बड़ी शरारत भरी दृष्टि से देखा तो मैं आगे बोला, 'शायद मैं सही शब्द नहीं दे पा रहा हूं।'  तो उसने प्रश्न-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, 'और दबंग भी।' तब मैंने भी आवाज़ में शरारत घोलते हुए और आगे जोड़ा, 'तीखी भी।' मेरे इतना कहते ही वह ठठा कर हंस पड़ी। फिर बोली 'अब काहे की तीखी, और है भी कौन यहां इसकी अहमियत समझने वाला। अच्छा ई बताओ, हममें कौन सा तीखापन देख लिए हो?'

अब-तक हम-दोनों खाना खत्म कर चुके थे। बिल्लो अंदर के कमरों के दरवाजे बंद कर अंदर आते हुए पूछ रही थी, तभी मैं गौर से उसे देखता हुआ उठा नि:संकोच उसकी हथेलियों को पकड़ कर ऊपर उठाया, फिर जेब से उसका खास गिफ़्ट निकाल कर उसकी हथेली पर रखा और मुठ्ठी बंद कर दी। फिर उसकी आँखों की गहराई में झांकते हुए कहा, 'मेरे बचपन की अल्हड़, चंचल, तीखी बिल्लो के लिए वही बचपन वाला मीठा सा गिफ़्ट।' बिल्लो एकदम शांत रही। 

चेहरा ऊपर कर मेरी आंखों में देखती रही कुछ क्षण फिर नीचे नजर कर हथेली को खोल कर मेरा गिफ़्ट देखा, उसके चेहरे पर फिर मुस्कान आ गई। बोली, 'तुमने वाकई मुझे इस समय फिर बचपन की बिल्लो बना दिया। तुम्हारी इस चॉकलेट का मैं तब हर गर्मी, सर्दी की छुट्टी में इंतजार करती थी। और बाद में उस निठल्ले अपने पति के यहां से जब लौटी तो उसके बाद तो अपनी ही सुध नहीं रही। मगर जब तुम्हें देखा तो फिर इस गिफ्ट का इंतजार करने लगी थी। मगर तब-तक स्थिति इतनी बदल चुकी थी कि तुम मेरे पास आ नहीं पाते थे। या ई कही कि हम-दोनों नहीं आ पाते थे। मैं तुम्हें देखती थी कि तुम मिलने की कोशिश में घर के आस-पास आते थे। हमारी भी इच्छा होती थी, लेकिन क़दम बढ़ नाहीं पाते थे।' 

बिल्लो की आंखें भर आई थीं। मैंने उसके हाथों से चॉकलेट लेकर अपने हाथों से उसे खिलाई। फिर उसे उसके तखत पर बैठा दिया। तभी एक टुकड़ा उसने मेरे मुंह में भी डाल दिया। हम-दोनों तब-तक बिल्कुल अपने बचपन को ही जी रहे थे। इसमें चॉकलेट ने भी बड़ा रोल प्ले किया। हुआ यह कि हड़बड़ी में दिमाग में यह बात आई ही नहीं कि जौनपुर से बिल्लो के पास पहुंचने तक इतनी तेज़ गर्मी में चॉकलेट बहुत ज़्यादा सॉफ्ट गीली सी हो जाएगी। जब खोली तब समझ में आया। अपनी मूर्खता पर हंसी आई।

गीली चॉकलेट हम-दोनों के होंठो और हाथों में लग रही थी। तभी चॉकलेट का एक विज्ञापन आंखों के सामने कौंध गया। जिसमें सीढ़ियों पर बैठे किशोर-किशोरी एक नई तरह की गीली सी आई चॉकलेट एक दूसरे को खिला रहे हैं। और वह उनके मुंह-हाथों में फैली हुई है। लेकिन मैं भीतर ही भीतर यह सोच कर परेशान हो रहा था कि यह मेरी बचपन को फिर से जीने की कोशिश कहीं बचकानी हरकत वाला तुफान ना खड़ा कर दे। बिल्लो कहीं नाराज ना हो जाए। कोई आफत ना खड़ी हो जाए। 

बचपन में इससे इस तरह व्यवहार करना, पकड़ना, छूना और बात थी। अब यह शादी-शुदा है। मेरा भी परिवार है। ना जाने कितने बरसों बाद मिला हूं। और यह सब.. कहीं कोई तमाशा हो गया तो... मान लो मैं बच बचा के घर चला गया। लेकिन यह तो यहीं रहेगी। दुनिया इसका जीना हराम कर देगी। यह लाख दबंग हो, सबकी नाक में नकेल डाल रखी हो। लेकिन एक साथ सब की नकेल कहां कस पाएगी। मैंने एक गिलास पानी बिल्लो को देते हुए पूछा, 'बिल्लो मैं बचपन की याद करते-करते एकदम बच्चा बन गया। बचकानी हरकत कर डाली। तुम्हारा हाथ इस तरह पकड़ लिया, चॉकलेट खिलाई। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा।'

मेरी इस बात पर बिल्लो हंस दी। बोली, 'सच कहूं तुम सही में बचपन जी रहे हो। इसी लिए ऐसी बचकानी बात कर रहे हो। तुमने जो कुछ भी किया उसमें मुझे कोई छिछोरापन नहीं दिखाई दिया। ना महसूस हुआ, तुम्हारी पकड़ में ऐसी कोई भावना नाहीं थी जिसमें मुझे कोई खोट महसूस हुई हो।' 

 'हूँ...फिर क्या दिखा, महसूस हुआ।' 'देखो इतना पढ़ी-लिखी तो हम हैं नहीं कि तुम्हारी ऐसी बातन का कोई भारी भरकम जवाब दई सकी। लेकिन हम महसूस यही किए कि जैसे तुम बचपन में बड़ा नि:संकोच होकर एक दोस्त की तरह हाथ पकड़ कर टॅाफी वगैरह देते थे, बिल्कुल वही भाव इस समय भी था। और कुछ तो हमरे समझ में आवा नाहीं। अब तुम्हारे मन में कुछ और रहा हो तो बताओ साफ-साफ।' बिल्लो की बातें बड़ी साफ बड़ी निष्कलुष थीं। मैंने कहा, 'बिल्लो यही सही है। जो तुमने बताया, लेकिन बचपन में मेरे मन में क्या कुछ और भी नहीं हो सकता था?' बिल्लो ने कहा, 'अब जो जाना था, समझा था,बता दिया। कुछ और रहा हो तो बताओ ना। अब तो सब कुछ बदल गया है। सारा समय कहां का कहां निकल गया है। संकोच करे की कऊनों जरूरत नाहीं है।' 

मैंने कहा, 'हां, ये सच कह रही हो। अच्छा तो सच सुनो। जब कुछ और समय बीता तो, तुमसे जब मिलता तो फिर हटने का मन ना करता। मन करता कि तुम बोलती रहो। मैं तुम्हारे चेहरे को देखता रहूं। तुम्हारी आंखें मुझे इतनी अच्छी लगतीं कि उन पर से नजर हटाने का मन ना करता। बार-बार तुम्हें छूने का मन करता। जब छुट्टी खत्म होने पर वापस जाने का समय होता तो मन करता कि, तुम्हें भी साथ लेता चलूं। वहां पहुंच कर कई दिन बड़ा उदास रहता। मगर सब समझते कि गांव में मन लग गया और वापस आने से परेशान हूं। वहां मैं बार-बार तुम्हारी आंखें क़ाग़ज़ पर बनाने की कोशिश करता। मैं यह कहते-कहते काफी गंभीर हो गया था।'

तभी बिल्लो बोली, 'अरे, हमें तो आज पता चल रहा ई सब। फिर खाली आंखें ही बनाते रहे या....... बिल्लो भी यह कहते-कहते गंभीर हुई थी।

मैंने कहा, 'ड्रॉइंग मेरी बड़ी खराब थी। आंखें भी मुश्किल से ही बना पाता था। कुछ सीखने की भी कोशिश की। लेकिन सब बेकार। जानती हो एक बार ऐसा भी हुआ जब मैं तुम्हारे लिए बहुत रोया।' 'क्या?' 'हाँ  बिल्लो।' 'अच्छा! मगर काहे, कब?'

'जब सुना कि तुम्हारी शादी हो गई।' 'तो इसमें रोने वाली कऊन बात थी?'

बिल्लो सब जानते-समझते हुए भी यह पूछ रही थी। दरअसल वह मेरे मुंह से सब सुनना चाह रही थी। तो कुछ देर उसे देखने के बाद मैंने कहा 'वो इसलिए कि उन कई सालों में मिलते-जुलते तुमसे इतना लगाव हो गया था कि... कि मैं तुमसे शादी करने की बात सोचने लगा था। मैंने तय कर लिया था कि शादी तुम्हीं से करूंगा।'

यह सुनते ही बिल्लो हंस पड़ी। बोली, 'बहुत भोले हो तुम। इतना कहे में ज़िन्दगी बिता दिए। मतलब की शादी व्याह की ज़िंदगी। अब तो तुम्हारे बच्चे भी शादी वाले हो रहे होंगे।'

'बिल्लो मुझे क्या मालूम था कि तुम्हारी शादी आनन-फानन में कर दी जाएगी। मैं तो यही सोचे बैठा था कि अभी तो पढ़ोगी-लिखोगी। तब कहीं शादी होगी। तब-तक मैं भी पढ़-लिख कर नौकरी करने लगूंगा। तब अम्मा से कहूंगा कि मेरी शादी तुमसे करा दें। मगर अचानक ही पता चला कि तुम्हारी शादी हो गई। संयोग से उस बार हम लोग आ नहीं पाए थे। और जब आया तो सीधे तुम्हारे घर पहुंचा। वहां तुम्हें मां के साथ देखा तो तुम अपने हाथों से...

'हाँ...तब हम अपने को अपने हाथों से विधवा बना चुकी थी। बैठी रो रही थी। अपने वैधव्य पर नहीं, अपनी किस्मत पर भी नाहीं। बल्कि हमरे साथ मां-बाप, समाज ने जो अन्याय किया था उसको लेकर।'

बिल्लो यह कहते-कहते बड़ी भावुक हो गई। और कुछ देर चुप रह कर बोली, 'जब तुम इतना निष्कपट होकर, इतना सच बोल दिए हो तो हम भी सच कह रहे हैं। अब तो सब कहने भर का ही रह गया है। जैसे तुम मुझ से बातें करते रहना चाहते थे। देखते रहना और छूना चाहते थे। वैसे ही मैं भी चाहती थी। मैं भी तुमसे ही शादी करना चाहती थी। जैसे तुम यहां से जाने के बाद उदास रहते थे। रोते थे। वैसे ही मैं भी जब भी अकेले बैठती, रहती तो तुम्हारे ही बारे में सोचती। कई बार तो तुम्हें सपनों में भी देखती। मगर किसी से मन की बात कह ना पाती।

तुम तो जानते ही हो कि हमारा स्वभाव ऐसा था कि किसी को अपनी अंतरंग सहेली भी नहीं बना पाई। जब शादी की बात आई तो बार-बार मन में आया कि अम्मा-बाबू से कहूं मन की बात लेकिन तुम लोग पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन में इतना आगे थे कि हिम्मत ही ना पड़ी। इसी से सब अपने मन की करते रहे और मैं विवश हो देखती रही। किससे क्या कहती, मेरी सुनने वाला कोई था ही नहीं। फिर अचानक ही शादी कर दी गई। 

शादी कितने दिन चली सब जानते ही हो। और उस दिन जब शादी के नाम पर अपने साथ हुए अन्याय का जवाब दे रही थी तो तुम्हें देख कर लगा कि भगवान मैंने क्या पाप किया था जो मुझे यह सजा दी। कुछ सालों बाद जब तुम आते तो मन में आता कि सब बात तुम से कहूं। मगर हिम्मत ना जुटा पाई। फिर तुम्हारे चच्चा ने घर में जो आफत मचाई उससे तुम लोगों ने आना ही छोड़ दिया। जल्दी ही मैं निराश हो गई। और फिर परिस्थितियों ने मुझे यहां पहुंचा दिया। और अब इस दुनिया से निकलना जीते जी संभव ही नही है। कल अचानक ही तुम ऐसे सामने आ गए... कुछ देर तो हम समझ ही नहीं पाए कि क्या बोलें, क्या कहें? 

अब बात तो यह भी है कि कुछ सुनने-कहने के लिए बचा ही क्या है? तुम खेत बेचने आए हो। बेच कर जाने के बाद फिर यहां कहां आओगे, मतलब की हम-लोगों का यह आखिरी मिलना बतियाना है, तो मन कर रहा है कि जितना बोल-बतिया सकें, बतिया लें।' यह कह कर बिल्लो प्रश्नानुकूल सी एकटक मुझे देखने लगी। मुझे लगा कि यह बात तो सही कह रही है। खेत बेचने के बाद यहां आने का कोई कारण ही कहां बचता है।

मैंने कहा, 'बात तो तुम सही कह रही हो। लेकिन अब तो अपनी मनमर्जी की मालिक हो। फ़ोन पर तो जब चाहो बात कर ही सकती हो। रही बात मिलने की तो घूमने-फिरने 'सूरत' आ सकती हो। मैं भी इसी तरह आ सकता हूं। इसके लिए जरूरी तो नहीं कि खेत या ऐसा कुछ हो तभी मिलें। मिलने के लिए तो बस मन में इच्छा ही काफी है।'

इस मुद्दे पर बड़ी-बड़ी बातों के बाद बिल्लो गर्मी कम होने के बाद 'सूरत' आने को तैयार हो गई। मुझसे हर साल कम से कम चार बार गांव आने का वादा कराने के बाद। इस बीच बिल्लो ने अपने आदमियों को बोल कर जीप मकान के पीछे अहाते में खड़ी करा दी। खाना खाने के बाद काफी देर हो गई थी। मेरा मन सिगरेट पीने का हो रहा था। मैंने बिल्लो से कहा कि, 'मैं बाहर सिगरेट पीकर आता हूं।'

बिल्लो ने कहा, 'इतनी रात बाहर टहलना ठीक नहीं। सिगरेट जितनी पीनी है यहीं पियो ना।' मैं जब एक दिन पहले बिल्लो से मिला था तभी से देख रहा था कि वह बराबर पान-मसाला मुंह में दबाए हुए थी। मुझसे भी कई बार पूछा था लेकिन मैंने मना कर दिया था कि मैं नहीं खाता। 

उसने मुझे सिगरेट के लिए कहकर फिर एक पुड़िया किनारे से फाड़कर मुंह में भर ली। फिर एक छोटी पुड़िया निकाली जिसमें सिर्फ़ तंबाकू थी उसे भी मुंह में डाल लिया। पुड़िया खोलने और उसे मुंह में डालने की स्टाइल से लग रहा था कि वह बरसों-बरस से खाती आ रही है। और अन्य करोड़ों देशवासियों की तरह वह भी अपने देश के कानून की, न्यायालय की खिल्ली उड़ाती आ रही है। 

न्यायालय ने तंबाकू गुटखा बंद किया तो कंपनियों ने तुरंत रास्ता निकाल लिया कि ठीक है तंबाकू गुटखा बंद। दोनों को अलग-अलग पैक कर दिया। अब खाने वाले अलग-अलग खरीद कर मुंह में एक साथ भर लेते हैं। मैंने पूछा, 'बिल्लो कब से खा रही हो यह सब, तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, 'अरे.. अब याद नहीं। पहले अम्मा पान खाती रहीं, उन्हीं के पनडब्बा से कभी-कभी खाना खाने के बाद पान निकाल कर खा लिया करती थी। बस ऐसे ही पड़ गई़ पान-तंबाकू की आदत।' 'हूँ...  अम्मा पान खाती थीं तो पान की आदत पड़ गई। और तुम्हारे बाबू जी को मैंने हुक्का और सिगरेट पीते भी देखता था। तो कभी वहां भी तो हाथ साफ नहीं किया।' बिल्लो फिर हंस पड़ी। बोली, 'अब क्या बताएं। कोई मुझसे बात तो करता नहीं था। ऊपर से सुना-सुना कर ताने अलग मारे जाते थे। 

ऐसे में खीझती। काम-धंधा भी कुछ था नहीं तो मन एकदम बौराया रहता था। एकदम बौराई औरत सी हरकत करती। जानबूझ कर ऐसी हरकतें करती कि कोई तो मुझसे कुछ बोले। भले ही गाली दे। सबसे ज़्यादा मुझे खलता अम्मा का ना बोलना। मैं दिखा-दिखा कर अंड-बंड हरकत करती। ऐसे ही एक दिन बाबू जी ने हुक्का भरा। जलाया। कि तभी प्रधान आ गया। बाहर से आवाज़ आई तो बाबू जी बाहर गए। फिर पता नहीं क्या बात हुई कि उसी की मोटर-साइकिल पर, उसी के साथ कहीं चले गए। अम्मा उस समय चौका लीप रही थीं। उनकी चुप्पी ने मुझे और खिझाया। मैंने फिर अपनी खीझ उतारने, वो कुछ बोलें इसके लिए उन्हें दिखाकर हुक्के का लंबा पाइप जो बाबू जी खटिया में फंसा कर गए थे उसे निकाला और मुंह में लगाकर जोर से खींचा। 

पूरा मुंह  तीखे कसैले धुएं से भर गया। और फिर ज़ोर से खांसी आने लगी। मुंह-नाक से धुंआ निकल रहा था। खांसते-खांसते उबकाई सी आने लगी। ऐसा लगा कि उल्टी हो जाएगी। मैं इस हालत में भी अम्मा पर नजर लगाए हुए थी कि वो कुछ बोल रही हैं कि नहीं। उन्होंने हुक्का पीते देखा कि नहीं। तब मैंने अंदर-अंदर बड़ी राहत महसूस की जब मुझे हुक्का पीते देख कर आग बाबूला होते हुए कहा, ''अरे हरामजादी औऊर कुछ बचा होए वहू कयि ले। अरे अब औऊर केतना नाक बोरबे। जीते जी खून पियत हऊ। देखाए-देखाए के खून जलावत हऊ'' तभी मैंने फिर एक लंबा कश खींचा। फिर खांसी का दौरा। 

अब अम्मा आपा खो बैठीं, उनके पास ही लोटा पड़ा था वही फेंक कर मारा। वह मुझे नहीं लगा तो उनका गुस्सा और बढ़ गया। उन्हीं के पास एक मौनी (मूँज की बनी कटोरी नुमा डलिया) पड़ी थी उसे फेंक कर मारा। इस बार भी मेरा बचना था कि अम्मा लीपना-पोतना छोड़कर उठ खड़ी हुईं। सामने उनके झाड़ू पड़ी थी वही उठाकर जमकर झड़ुवा दिया। मन भर के गाली दी, कोसा।

झाड़ूओं की चोट से मुझे दर्द हो रहा था। फिर भी मैं अजीब सी राहत महसूस कर रही थी। कि अम्मा बोलीं तो। मैं तब इतना जिद में आ गई थी कि इतनी मार खा कर भी वहां से हटी नहीं। अम्मा कोसतीं हुई जा के दलान में बैठ गईं। और मैं वहीं आंसू बहाती, बैठी, खींच-खींच हुक्का पीती रही। पान-तंबाकू खाती ही थी तो हुक्का ज़्यादा चढ़ा नहीं। अब जिद और चिढ़ाने के लिए की गई यह शुरुआत आगे चल कर आदत बन गई।'

मैं मुस्कुराते हुए उसे कुछ देर देखने के बाद बोला, 'तो बस हुक्का तक रही या सिगरेट वगैरह भी... बिल्लो फिर हंसी। 'आगे बहुत साल बाद मौके से सिगरेट मिल जाए तो वहू फूँक देइत रहे। मतलब सिगरेट, बीड़ी, पान, तंबाकू जो मिल जाए सब हजम।' 'अब भी?' 'अब भी क्या? 'मतलब मन हो जाए तो आज भी?' 'हां..अब भी, मगर अब शुरुआती आठ-दस साल की तरह अंधाधुंध नहीं। कभी-कभार हो गया, तो हो गया।'

 'अच्छा। मतलब की अपने हसबैंड की हरकतों का बदला, भड़ास इस तरह निकालती थी।' 

'बदला-वदला तो नहीं। हमें खाली गुस्सा ये आती थी घर वालों पर कि चलो शादी जैसी भी हुई। जहां भाग्य था सब हो गया। हमें कोई शौक तो लगा नहीं था कि अपना वैवाहिक जीवन खुद अपने हाथों खत्म करती। लेकिन बात तो ये है ना कि दूध में मक्खी देखकर तो नहीं निगली जा सकती ना। हमने सोचा चलो जैसे चलेगी वैसे चला लेंगे। घर वाले तो हैं ही। मगर यहां घर पर मेरे साथ जो हुआ। जिस तरह सब का व्यवहार बदला, उससे मैं खुद गुस्से से भर उठी। बल्कि कहें कि नफरत से। मैंने तो सोचा ही नहीं था कि मां-बाप ऐसा बदलेंगे। मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा था इन लोगों के व्यवहार से। सोचा कि जिस मायके के दम पर मैंने इतना बड़ा कदम उठाया, वो लोग तो देखना ही नहीं चाह रहे। हर तरफ से दुत्कारी हुई महसूस करने लगी। 

मुझे लगा कि मैं पेड़ से टूट कर गिरी पत्ती की तरह बेसहारा हो गई हूं। जो राह चलते लोगों के क़दमों तले कुचल-कुचल कर खत्म हो जाएगी। जिस दिन मैंने तय किया कि मैं जमीन पर बेसहारा होकर गिरी पत्ती नहीं हूं। मां-बाप परिवार सहारा नहीं देना चाहते हैं तो ना दें। मुझे नहीं जरूरत किसी के सहारे की। मैं अपना सहारा खुद बनूंगी। जब मैं मन में यह तय कर रही थी तब मैं कई दिनों से भूखी थी। ना मैं खाना मांगती थी। ना कोई मुझसे पूछता था। भूख के मारे पानी भी नहीं पिया जाता था, उबकायी सी आने लगती। मगर खुद अपना सहारा बनने का फैसला करते ही मैं सीधे रसोई में गई। पूरा परिवार खाना खा चुका था। एक भगोने में थोड़ी सी सांवा की खिचड़ी थी वही निकाली। मटके में गुड़ था वो निकाला, खाया तब कहीं जाकर जी में जी आया। 

मगर भूख बड़ी तेज़ लगी थी। थोड़ा सांवा पेट नहीं भर सका। फिर मैंने चूल्हा जलाकर आटा और गुड़ का ही हलवा बना का खाया। शक्कर थी नहीं। घी मिला नहीं तो तेल में ही बनाया। बनाते समय चुल्हे का धुंआं बर्तन की आवाज़ सुनकर दलान से उठकर अम्मा आईं। देखा, फिर चली गईं। मैंने सोचा कि गुस्सा होंगी। लेकिन वो कुछ बोली नहीं। उनके चेहरे पर भी मुझे कोई गुस्सा नहीं दिखा। शायद मां की ममता कुछ हुलस उठी थी। बस यही वह समय था जब मैंने खुद सहारा बनने का जो क़दम बढ़ाया था उसे फिर रुकने नहीं दिया। आज जिस हालत में हूं, घमंड वाली बात नहीं करती, लेकिन आस-पास के किसी गांव में कोई नहीं जो मेरी बराबरी क्या मेरे सामने खड़ा भी हो सके। मैं मर्दों की बात कर रही हूं। औरत तो खैर कोई है ही नहीं।' 

यह कहते समय बिल्लो के चेहरे पर मुझे घमंड तो वाकई नहीं दिखा। हां गर्व की चमक साफ दिख रही थी। एल. ई. डी. बल्ब की उस सफेद रोशनी में भी। बिल्लो ने एक पुराना वाला पीला बल्ब भी लगा रखा था। उसका कहना था कि इसकी पीली रोशनी की आदत एकदम से छूट नहीं पा रही है। इन्हीं पीली और सफेद रोशनी में उसके गर्व को देखते हुए मैं उठा और बिल्लो के तखत के पास पहुंच कर सिगरेट की डिब्बी खोलकर उसकी ओर बढ़ा दी। ऐसा करते समय मेरे मन में एक ही भावना थी कि यह भी इन चीजों की शौकीन रही है। ऐसे लोग अकेले में भले ही इसकी तलब ना महसूस करें लेकिन सामने किसी को खाता-पीता देखकर मन उनका भी मचल उठता है। 

मैंने देखा कि बिल्लो ने भी मेरे ऐसा करने पर कोई आश्चर्य जैसा भाव व्यक्त नहीं किया। बस इतना कहा, 'चॉकलेट खिला के तो बचपन जी रहे थे। अब ई सिगरेट पिला के क्या जियोगे?' इतना कह कर वह हंस दी। साथ ही एक सिगरेट निकाल कर मुंह में लगा ली। मैंने तुरंत लाइटर से जला दिया। उसने एक बेहद लंबा कश खींच कर ढेर सा धुआं मुंह थोड़ा ऊपर कर उड़ा दिया। मगर फिर भी मुझे लगा कि उसने काफी धुआं अंदर ही खींच लिया। उसने जिस तरह कश खींचा उससे साफ लग रहा था कि वह हुक्का खूब पी चुकी है। सिगरेट का कश खींचने में भी वही जोर दिखा था। पहला कश लेने के बाद उसने सिगरेट देखते हुए कहा, 'सिगरेट तो बड़ी बढ़िया है। पहली बार पी रही हूं। यहां इतनी बढ़िया सिगरेट नहीं मिलती।' 

मैंने कहा, 'हाँ इस रेंज में गांव में मुश्किल ही है। यह जौनपुर में मिली। हालांकि मैं जो पीता हूं वह वहां भी नहीं मिली।' मैंने बिल्लो की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि सिगरेट पिला कर क्या जी रहा हूं। मैं पूरी तरह से उसके हाव-भाव, काम, बात को गहराई तक समझने का प्रयास का रहा था कि, यह मेरी वही भोली-भाली चंचल बिल्लो है या एक दबंग गंवई महिला। या इसमें वह गुण भी हैं जिनके आधार पर मैं इसे लेडी डॉन कह सकता हूं।

मैं वापस अपने तखत पर बैठ कर बोला, 'बिल्लो एक बात पूछना... नहीं दो बात पूछना चाहता हूं। अगर तुम्हारी आज्ञा हो, तुम नाराज ना हो तो।' मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने जो अगला कश लेने जा रही थी वह रुक गई। बोली, 'कैसी बात कर रहे हो। कुछ कहने के लिए तुमको मुझसे आज्ञा की जरूरत की बात कहां से आ गई। तुम तो बड़ा गजब कर दिए। पूछो, एकदम बेहिचक पूछो। दुनिया के लिए हम चाहे जो हों। तुम्हारे लिए तुम्हारी वही बचपन वाली बिल्लो ही रहूंगी। और तुम भी मेरे लिए हमेशा वही रहोगे जो तब थे।' 

बिल्लो की इस बात ने मुझे निश्चिन्त कर दिया तो मैंने सीधे से कहा, 'बिल्लो मैं यहां यह समझ के रुका कि तुम्हारा भतीजा, परिवार यहां होंगे। मगर परिस्थितिवश वो सब नहीं हैं। तुम यहां अकेले हो। ऐसे में मेरा यहां रुकना कहीं गांव में लोगों को ऊटपटांग बोलने का मौका ना दे दे। मैं यही सोच-सोच कर परेशान हूं। तुम्हें अगर कहने में हिचक हो रही हो तो बताओ। ऐसी कोई बात नहीं है। मैं चाचा के यहां चला जाऊंगा। वैसे भी वो लोग यही चाहते हैं।' मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने दाहिने हाथ की हथेली अपने माथे पर चट से मारी और बोली, 

 'धत्त तेरे की। का रे मरदवा तू शहर वाले एतना डरपोक काहे होत हैं। अरे हम औरत जात हैं। हमें कोई चिंता नाहीं! हमरे दिमाग में तो ई बात आई तक नाहीं। अरे हमारे घर कोई आएगा तो हमारे यहां नहीं तो किसी और के यहां रुकेगा। औऊर दूसरी बात कि यहां किसी की इतनी बिसात नाहीं है कि हमें, हमारे घर की तरफ भूल के भी आंख उठा के देख ले। लांछन लगावे की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकता। हां तुम्हारा मन ना लग रहा हो तो बताओ।'

मैंने तुरंत कहा, 'नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं बस तुमको लेकर ही परेशान हो रहा था। तुमने बात साफ कर दी। अब इस बारे में कुछ सोचना ही नहीं।' 'चलो तोहार डर तअ खतम भा और दूसरी कौन सी बात पूछे चाहत हो?' 'दूसरी.. असल में कल से तुम्हारी लाइफ के बारे में जितना जाना उसके बाद एक प्रश्न बार-बार मन में उठ रहा है। कि चलो पहली बार जो हुआ वो हुआ। बाद में तुम्हारे मन में फिर दूसरी शादी के लिए इच्छा नहीं हुई। या तुम्हारे घर वालों ने कोई बात आगे नहीं बढ़ाई।'

मेरी ये बात सुनते ही बिल्लो हंस पड़ी। बोली, 'तुमहूं का बात करत हो। देखो पहिला जो अनुभव रहा, उससे शादी, पति नाम से ही नफरत हो गई। दूसरे घर में सबका व्यवहार ऐसा रहा कि मन में हमेशा गुस्सा भरा रहता। कभी-कभी तो मन करता कि बांका उठाऊं औऊर जो मिल जाए सब को बाल (काट डालूं), बाद में जब काम-धाम में मन लगने लगा तो गुस्सा कम हुआ। फिर जब हाथ में पैसा आने लगा तो मन पैसा कमाने में रमता गया। इतना कि नई-नई चीज करने लगी। कोहड़ौरी से शुरू करके आचार और फिर आगे बढ़ते गए। पैसों का हिसाब-किताब, काम-धाम देख के सब कहने लगे कि ये तो एकदम बनिया हो गई है। 

पैसा आने लगा तो घर की सूरत बदलने लगी। तब एक बार अम्मा ने बात उठाई। वो चाहती थीं कि उसी कलमुंहे से बातचीत करके, हम उसी के साथ हो लें। वो हमसे बात करने से पहले बाबू को वहां भेजने के लिए तैयार कर चुकी थीं। जाने के एक दिन पहले मुझसे ना जाने क्या सोच कर पूछ लिया। इतना सुनते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई, कि मैं इतना बड़ा बोझ हूं कि एक बार किसी तरह उस नर्क, उस मौत के मुंह से निकल कर आई। ई मां-बाप होके फिर वहीं भेज रहे हैं। अब तो हम इतना कमा रहे हैं। घर भर की रंगत बदल दी है फिर भी हम इन सबके लिए भारू(बोझ) बने हैं।  

हमने अम्मा-बाबू दोनों को खूब खरी-खोटी सुनाई। अम्मा बोलीं,  ''तू जब-तक रहबे तब-तक घरै का नकिया झुकी रहे। अरे ज़िंदगी भर के राखै तोके। ई जऊन काम-धंधा फाने हऊ ओसे अऊर सब बोलत हैयन कि सब बिटिया के कमाई खात हयेन। कब-तक काने में अंगुरि डारे बैइठी रही।'' उस दिन घर में फिर बवाल हुआ। हमने कहा ठीक है, अब हम इस घर में रहेंगे ही नहीं। 

उस दिन हम कुंआ के पास खटिया डाल के सोए। सब बहुत कोशिश किए कि अंदर चल कर सोऊं। रात-विरात कुछ हो ना जाए। गांव वाले जानेंगे तो क्या कहेंगे? लेकिन हम नहीं माने, अगले दिन उसी कुंआ के पास पहला काम किए खटिया डाले भर एक मड़ई तैयार करा। घर खाना-पानी सब बंद कर दिया। भुजवा के हिआं से लइया, चना, मकई का दाना, गुड़, बजारे से लाय के कई दिन गुजारे। फिर आनन-फानन में दिवार खड़़ी करा कर टिन शेड डलवाया। इस बीच पूरे घर ने जोर लगा लिया कि हम घर वापस चलें। लेकिन मैं शुरू से अपने जिद की पक्की ठहरी। तो टस से मस नहीं हुई। 

घर भर ने जबरदस्ती करने की कोशिश की तो मैंने कहा कि, ''अच्छा यही है सबके लिए कि अब हमें रोकने की कोशिश ना करो। नहीं तो तुम सबका नाम लगाकर फांसी लगा लेंगे। या फिर थाने में रिपोर्ट लिखा देंगे।'' मेरे आग से तेवर देखकर सब एकदम शांत हो गए। फिर मैंने अपने कदम अपने हिसाब से आगे बढ़ाए। जैसे-जैसे सफलता मिलती गई। मेरे सपने भी बड़े होते गए। मैंने अब-तक जो कुछ पाया है, वह दुनिया के लिए भले ही मामूली हों, छोटे हों, लेकिन मेरी नजर में बहुत खास हैं। बहुत बड़े हैं। मेरा अगला जो सपना है उसे सुन कर शायद तुम भी चौंक जाओ।'' 

उस की इस बात को सुनकर मैंने कहा, 'नहीं। तुम्हारे बारे में अब-तक जितना जाना है, उसके बाद तो कुछ भी सुनकर नहीं चौंकुंगा। बताओ अगला सपना क्या है? तो बिल्लो बोली, 'पहिले एक सिगरेट निकालौ तब बताउब।' उसने ऐसे अंदाज में यह कहा कि मुझे हंसी आ गई। मैंने फिर उठकर उसे सिगरेट दी और खुद भी जलाई। दो-तीन कश लेने के बाद बोली, 'सिगरेट वाकई बड़ी अच्छी है।' मैंने कहा, 'मगर मुझे लगता है कि तुम्हारे सपने से ज़्यादा तो नहीं होगी।' वह मुस्कुराई। फिर बोली, 'यह तो तुम ही तय करना। मेरा सपना सांसद बनने का है। मैं अगला चुनाव लड़ूंगी। पिछले कई सालों से मैं तैयारी में लगी हूं। मेरे इस सपने के बारे में भतीजा उसकी बीवी के बाद तुम तीसरे व्यक्ति हो जिससे मैं अपनी योजना पर विस्तार से बात कर रही हूं। इसलिए यही कहूंगी किसी और को नहीं बताना, शिखर को भी नहीं।' 

मैंने किसी को ना बताने का वादा करते हुए कहा, 'मगर बिल्लो एम. पी. का चुनाव आसान नहीं है। किसी बड़ी पार्टी से टिकट मिलने पर भी जीतना आसान नहीं होता। टिकट मिलना ही अपने आप में बड़ी टेढ़ी खीर है। महिलाओं के लिए तो यह खीर कई गुना ज़्यादा टेढ़ी होती है। बड़े नेताओं द्वारा टिकट देने के नाम पर महिला नेताओं के यौन शोषण की ना जाने कितनी घटनाएं सामने आती रहती हैं।' बिल्लो के चेहरे पर मेरी इस बात के साथ ही कठोरता भी आ गई। कुछ देर चुप रहने के बाद बोली। 'जानती हूं। बहुत अच्छी तरह जानती हूं। टिकट देने के लिए नेता औरत का शरीर ही नहीं नोचते अगर सिर्फ़ ऐसा होता तो आधी टिकटें औरतों के पास हों। क्योंकि तमाम तो इसके लिए खुद ही बिछ जाती हैं। लेकिन नेता शरीर के साथ-साथ नोटों की गड्डियां भी बक्सा भर मांगते हैं। औऊर हम-दोनों के लिए तैयार हैं।' 

बिल्लो की इस बात ने मुझे जबरदस्त शॉक दिया। 

मैंने चौंकते हुए कहा, 'क्या ! बिल्लो टिकट के लिए पैसा तक तो समझ में आता है, लेकिन इसके लिए तुम उन कमीने नेताओं के सामने अपने तन को भी डाल दो यह....

बिल्लो बीच में ही हंस पड़ी। बोली, 'बहुत अनाड़ी हो। बिल्लो को घंटा दो घंटा में ही समझ लोगो। अरे बिल्लो जब जवानी में तन की आग को थामें रही। उसे कभी भभकने नहीं दिया। किसी की छाया नहीं पड़ने दी तो अब ई चौवालीस-पैंतालीस की उमर में कहा भभकने दूंगी। कहां किसी को छूने दूंगी।'

मैंने कहा, 'मैं तन की आग-वाग की बात नहीं कर रहा। टिकट के लिए नेताओं के सामने....

'सुनो-सुनो तुम गलत समझ रहे हो। हमारी बात तो पूरी सुनो।' मैंने कहा, 'ठीक है बताओ।' वह बोली, 'देखो  मैं अपने को उनकेा सौंपने नहीं जा रही। पैसा तो देना है। वह तो दूंगी। इसके साथ ही उनको औरत भी चाहिए तो वह भी दूंगी। मगर खुद को नहीं। उनको औरत चाहिए मिलेगी। मगर कोई और होगी। जब बोरों में नोट दूंगी। तो उसी तरह थोड़े नोट और ढीले करूंगी। तो जितनी कहेंगे उतनी औरतें उनके सामने डाल दूंगी।'

बिल्लो की बात सुनकर मैं उसे आंखें फाड़ कर देखता रहा तो वह बोली, 'ऐइसे का देख रहे हो। अब तक ऐइसे-ऐइसे रास्तों से गुजरी हूं कि अब बिना धोखा खाए किसी भी रास्ते से कैसे निकला जाए, यह सब आ गया है।' मैंने कहा, ' वो सब तो ठीक है, लेकिन कई बार तो यह भी होता है कि यह सब करने के बाद भी टिकट ही नहीं मिलता। तब आदमी खास कर औरत कह भी नहीं पाती कि, उसने कितना दिया, क्या-क्या किया। बिल्लो ने कहा, 'हाँ इस बात का भी पता है।' 'तो इस समस्या का क्या हल निकालोगी, किसी पार्टी से कोई संपर्क हुआ क्या?'

'जब बनने की सोची तो समस्या का समाधान भी निकाला, और सबसे मज़बूत पार्टी को भी साध रखा है।'

बिल्लो की बातें जैसे-जैसे आगे बढ़ रहीं थीं, वैसे-वैसे उसका सख्त रूप भी सामने आ रहा था। मुझे लगा कि मैं जितना इसके बारे में समझता हूं। जितना अनुमान लगाता हूं यह उससे हर बार चार क़दम आगे ही निकलती है। मैंने आखिर पूछ ही लिया समाधान और पार्टी के बारे में तो उसने सबसे मजबूत पार्टी का नाम लेते हुए कहा, 'जब शामिल हुई इस पार्टी में अपनी ताकत का अहसास कराती हुई कि, कितने लोग हैं हमारे साथ, तभी यह भी गारंटी ली कि मुझे टिकट चाहिए ही चाहिए। फिर उस कर्ता-धर्ता को टटोला जिसकी सबसे अहम भूमिका होगी टिकट वितरण में। ऊपर से बड़ा साफ-सुथरा, बडा़ सख्त दिखने वाले इस नेता को जब और ज़्यादा करीब से जानने के लिए कि, टिकट के मामले में क्या-क्या गुल खिलाएगा, किस-किस हद तक जाएगा, तो उसकी स्वच्छ छवि, सफेद कपड़ों के पीछे उसकी गंधाती, बजबजाती काली छवि नजर आई। 

दो-चार मुलाकात ही हुई थी, कि असली चेहरा दिखाई दिया। लार टपकाते हुआ जब मिमियाया, टिकट की दुहाई दी तो मैंने कहा, ''आपको मैं गड्डियों के भोग के साथ-साथ खूबसूरत जवान औरतों का भी भोग लगवाऊंगी। मुझ बुढ़िया में क्या रखा है?'' दबाव उसने बहुत बनाया लेकिन हमने किया वही जो तय किया था। कुछ ही दिन बाद वह प्रदेश प्रभारी के नाते बनारस पहुंचा। मैं वहीं जाकर फिर मिली। वह मिलते ही भुनभुनाया, ''तुमने धोखा दिया। भूल जाओ टिकट-विकट।'' मैंने उसे मन ही मन गाली दी कि अरे नसपिटऊए दहिजरऊ एतना खर्च करे के बाद कैइसे भूल जाई, कैसे छोड़ि देई तोंहैं। मैंने तुरंत कहा, ''नहीं  ऐसा नहीं है। मैं जौनपुर से यहां आपके लिए सारी व्यवस्था कर के ही आई हूं।'' इतना कहना था कि उसकी बांछें खिल गईं। 

मगर था वह बहुत शातिर। जिस होटल में था वहां तैयार नहीं हुआ। फिर एक दूसरी जगह व्यवस्था की। वहीं जब शरऊ दारू और लौंडिया के नशा में पगलाए हुए थे, तो उसकी पिक्चर भी बनवा लिए। जब वो मुझसे ये सब बतिया रहा था तो मोबाइल की रिकॉर्डिंग ऑन करके अपने ब्लाउज में छिपाए रहै। बड़ा मुंह डाल कर बात कर रहा था। हमने कहा डाल जितना मुंह डालेगा उतना अच्छा रिकॉर्ड होगा। 

ऐसे ही सात-आठ बार की उसकी कुंडली बनाए के रखे हई। टिकट देते समय ऊ तनको एहर-ओहर हिलेन तो हम उन्हीं के नहीं ई प्रदेश में उनकी पार्टियो की भी जिंदगी बरबाद कर देंगे। सारा खेल बिगाड़ के रख देब। बस ई टीवी चैनल वालन को एक-एक ठो डी.वी.डी. भेजना भर रहेगा। बाकी काम तो ई चैनल वाले हफ्तों चीख-चीख के खुदै इनकी दोगली सफेदी उतार देंगे। 

रहा हमारा टिकट तो उस समय हमें उसकी जरूरत ही नहीं रहेगी। निर्दलीय लड़ेंगे। मुद्दे को भुनाएंगे कि ई सब महिलाओं के शोषक हैं। एक बेसहारा औरत का शोषण करने की कोशिश की। औरतों को अपने स्वाभिमान, इज्जत, अपने अधिकारों के लिए खुद ही लड़ना होगा। सारे मर्द एक से हैं। सारी पार्टियां एक सी हैं। ऐसे ना पूरा सही अगर महिलाओं का आधा वोट भी खींच लाए तो हमारी जीत पक्की है। पूरे क्षेत्र की वोटर लिस्ट हम खंगाल चुके हैं। हमें अपनी गणित पर पक्का भरोसा है। जीतेंगे जरूर।' 

इतना कह कर बिल्लो ने लंबा कश लेकर बहुत सा धुंआ उगल दिया और काफी कुछ को अंदर ही जज्ब कर लिया। इसके उलट वो बातें एक भी जज्ब नहीं कर रही थी। उसके इस रहस्योद्घाटन ने मुझे फिर अचंभित किया। कि आखिर ये औरत है क्या? ये कहां से कहां पहुंच गई है? क्या-क्या कर चुकी है? मैं बड़े आश्चर्य से उसे देख रहा था। मुझे इस बात का सबसे ज़्यादा आश्चर्य था कि महिला के नाते इसने इतनी परेशानियों का सामना किया है, लेकिन फिर भी एक महिला होकर अपने टारगेट को पाने के लिए महिला ही को साधन बना रही है। उसी का सेक्सुअल हैरेसमेंट करवा रही है।  

मेरा मुंह आधा खुला हुआ था। मुझे इस तरह देख कर वह खिलखिलाई 'का हो, ऐइसे का देख रहे हो?' मैं आश्चर्य भाव से वापस लौटा। पूछा ,'बिल्लो वाकई दुनिया ही नहीं, तुम भी, हम भी, सब कहां से कहां पहुंच गए हैं। ये नेता, होटल, औरतों का इंतजाम, रिकॉर्डिंग वह भी वाराणसी में। यह सब तुमने कहां से सीखा, कैसे कर ले रही हो यह सब?' 'तुमहूं का बात करत हो। ई सब आज कल कऊन बड़ा काम है।' फिर बिल्लो ने भतीजे के योगदान का जिक्र किया। 

कहा, 'औरत-फौरत का इंतजाम वही के सहारे है। मैं बताती रहती हूं, वह वैसा ही करता रहता है। उसे मैं अपने अनुभवों से इतना तैयार कर देना चाहती हूं कि, वो भी एक दिन सांसद का चुनाव लड़ने लायक हो सके। पहले उसको विधायक बनाऊंगी। काहे से हमने देखा कि ई पढ़ने-लिखने में कुछ खास है नहीं। बी.ए.,एम.ए. करने, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी का कोई फायदा नहीं। बेरोजगारी के इस युग में नौकरी कहीं है ही नहीं। नौकरी वही पा, पा रहे हैं, जो पढ़े-लिखे मां विरले हैं। बाकी तुम देख ही रहे हो कि, पी. एच. डी. किए लोग सफाई कर्मी के लिए परीक्षा दे रहे हैं।  

महाराष्ट्र में एक पी. एच. डी. किए सफाई कर्मी को ट्रांसफर के मुद्दे पर बर्खास्त कर दिया। अखबार में फोटो सहित पढ़ा था। तो हमने कहा काम धंधा करो, चुनाव लड़ो अब यही बचा है। मैं जहां सांसदी का अगला चुनाव लड़ूंगी, वहीं भतीजा विधायकी का चुनाव लड़ेगा। मगर ई जो एक साल बाद होए वाला है इसको छोड़ कर। इसके बाद वाला यानी छः साल बाद। हम साफ कह दिए हैं, तब-तक जै लड़का-बच्चा पैदा करे का हो कर लो। राजनीति में आए के बाद लड़का-बच्चा के चक्कर में कमजोर ना पड़ जाओ।'' 

मैंने कहा, 'वाह बिल्लो, बड़ा लंबा, दूरगामी प्रोग्राम बनाया है। मगर इस रास्ते पर आज कल तो बड़े खतरे हैं। कैसे निपटोगी?'

 'जैसे बाकी चीजों से निपटती आ रही  हूं, वैसे ही यहू से निपट लेब। मैं हर तरह से तैयारी कर रही हूं। और करवा भी रही हूं।' टारगेट को लेकर औरतों को यूज करने, भतीजे से सारा इंतजाम कराने की बात मुझे बहुत पिंच कर रही थी कि यह गंवई दुनिया की होकर भतीजे से इस बारे में कैसे बात करती है। 

उसकी बीवी एतराज नहीं करती क्या ? मैंने पूछा तो हंस कर बोली,  'शहर के होके तुम भी कैसी बात कर रहे हो, रिश्तों का चाबुक हमने बहुत सहा है। भतीजा उसकी बीवी और हम एक दोस्त की तरह बतियातें हैं। सब मिलके तय करते हैं। सब खुल कर बतियातें हैं तो कोई बात छिपाते-लुकाते नहीं। वो तुम लोग का कहते हो कि पूरी पारदर्शिता बनाए रखते हैं।' कह कर हंस दी। मैं भी हंसता हुआ उसे देखता रहा।

मैंने सोचा यह जितना बता रही है। जितना मैं देख रहा हूं, उस हिसाब से इस एरिया में गिने-चुने ही इसके सामने टिक पाते हैं। खेत बेचने की ज़िम्मेदारी रिश्तेदार के बजाय इसी को दे दूं। मैंने बात बढ़ाई। उसके ऐलोवेरा की खेती का भी प्रसंग उठाया तो वह कुछ देर बाद बोली, 'देखो, मैं तो यही कहूंगी कि खेत बेचो ही नहीं। इससे जन्म-भूमि से रिश्ता बना रहेगा। आते-जाते रहोगे। अरे घूमने-फिरने जाते ही रहते हो। परिवार को लेकर एक बार यहां भी आ जाया करो। रही बात पैसों की तो यही कहूंगी कि, बेच कर एक बार पैसा पाओगे खत्म कर दोगे। ऐसे हर साल बढ़िया पैसा मिलेगा। खेत की कीमत दिन पर दिन बढ़ेगी ही। दोहरा फायदा है। हां अगर बेचना तय कर लिया है तो ठीक है मैं करा दूंगी।' 

बिल्लो की बात में मुझे दम नजर आया। दूसरी बात कि बिल्लो मुझे बराबर इतना मोहे जा रही थी कि, मेरे मन के किसी कोने में यह बात उठ रही थी कि, अगर कोई जरिया यहां आने का बन जाए तो अच्छा ही है। शिखर भी कह रहा था कि यहां से चला जाएगा। फिर तो कोई बहाना ही नहीं बचेगा। अगर मैं खेत ना बेचूं, ऐलोवेरा ही को ट्राई करूं। शिखर को भी तैयार करूं। पैसे मिलने लगेंगे तो वह भी रुकेगा जरूर। उसके रुकने से आसानी रहेगी। वह कह ही रहा था कि घर का कोई आता-जाता रहता तो भी वह यहीं रहने की सोचता। 

इन दो बातों को सोच कर मैंने निर्णय लेने में देरी नहीं की। तुरंत कहा, 'बिल्लो। तुम्हारे, प्यार, व्यवहार, तुम्हारे काम को जानने के बाद मेरे मन में तुम्हारी जो खास तसवीर बनी है, वह मुझे रोक रही है। मोह रही है। मेरा मन भी कह रहा है कि अब कुछ ऐसी व्यवस्था करूं कि यहां से रिश्ते का जो पेड़ सूख गया है, उसे फिर हरा-भरा करूं। और यह तभी होगा जब मैं तुम्हारी यह सलाह मान लूं कि खेत ना बेचूं, खेती करवाऊं, आता-जाता रहूं। इस लिए अब यह तय है कि खेत नहीं बेचूंगा। ऐलोवेरा में जैसा पैसा बता रही हो, मैं चाहूंगा कि वही करवाऊं। उसमें ज्यादा झंझट नहीं है। माल के कंपनी तक जाने, पेमेंट वगैरह की व्यवस्था तुम देख लोगी तो मुझे आसानी रहेगी, नहीं किसी और फसल के बारे में सोचना पड़ेगा।'

पहली बार बिल्लो मेरी बातों से कुछ हैरानी सी दिखाती हुई बोली ,'तुम  तो हमार करेजवा ही निकाल लिए हो। इससे बढ़ियां और क्या होगा? कम से कम एक जने तो यहां से संबंध बनाए रहोगे। तुम ऐसा करोगे तो शिखर भी यहां से छोड़कर जाएगा नहीं। नहीं तो पूरा कैथान ऐसे भी खाली हो चुका है। मगर एक बात कहूं कि जिम्मेदारी शिखर को ही दो। गांव का मामला है। बात फैल जाएगी कि हमने तुम्हें भड़का कर परिवार से अलग कर दिया। सारी प्रॉपर्टी पर कब्जा कर लिया। इसलिए ज़िम्मेदारी उसी को दो। बाकी मैं पूरी निगाह रखूंगी। कहीं गड़बड़ की तो तुरंत ठीक कर दूंगी। 

वैसे उसकी हिम्मत ही नहीं। फिर उसे भी तो इस काम के लिए मुझ पर ही निर्भर रहना है। समझे। मगर सच-सच बताओ एक बात पूछूं।' मैंने कहा, 'कैसी बात करती हो बिल्लो। तुमसे झूठ क्यों बोलूंगा, पूछो जो पूछना है।'

 'तो बताओ कि ई जो निर्णय लिए हो इसमें मेरे प्यार, व्यवहार और मेरे मोहने का कितना हाथ है। और कितना हाथ खेतों का है। उसमें खेती कराने का है?' कह कर बिल्लो हंसी फिर बोली, 'देखो सच-सच बताना। एकदम उहै तरह, जैइसे बचपन में सारी बातें बताते थे।' 

मुझे भी हंसी आ गई। मैंने कहा, 'बिल्लो तुम वाकई हर बात में इतनी मैच्योर, इतनी समझदार हो गई हो, इसके लिए मैं तुम्हारी जितनी तारीफ करूं उतना कम है। तुम्हारे इस रूप की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। और जिस तरह तुमने पूछा है, जितना प्यार स्नेह दे रही हो उसके बाद तो मैं चाह कर भी कुछ छिपा नहीं सकता। झूठ बोलने की तो बात ही नहीं। मेरा जवाब इतना ही है कि मेरे निर्णय में सबसे अहम रोल, पहला रोल, तुम्हारे प्यार स्नेह का ही है। बल्कि इसी ने मुझे यह निर्णय लेने के बारे में सोचने की तरफ मोड़ा। दूसरा खेत या खेती कराने, या फायदे नुकसान की बात है तो उसका रोल तुम इतना ही मानो जितना की दाल में नमक। 

मैं यही कहूंगा कि तुम्हारे प्यार ने मुझे अपनी जड़ से अपनी जमीन से सारे रिश्ते तोड़ने से रोक दिया। मुझे लगता है मेरे रुकने से शिखर भी रुकेगा। तुमने वाकई बहुत बड़ा काम किया है। मगर यह जरूर कहूंगा कि, तुमने बचपन के इस रिश्ते को जो एक नई ऊर्जा, नई ताकत, नया रंग, नया रूप, नई उमंग दी है इसे और आगे बढ़ाते रहना। ठहरने रुकने मत देना।'

'यही सब तो तुमको भी करना है। तुम भी पीछे मत हटना। सूरत  घर लौटते ही भूल मत जाना। मुझे डर यही कि जाते ही बिजनेस, बीवी, बच्चों में ये सारी बातें भूल ना जाओ। मेरी बातों का यह मतलब कतई ना निकालना कि, बीवी, बच्चों, बिजनेस को भूल जाओ। यहां-वहां सब को याद रखो। सब को गले लगाए रहो।'

 'बिल्लो यह भी कहने की बात है क्या? जिस बात की कल्पना भी नहीं की थी, वह डिसीजन मैंने लिया है तो मैं कैसे खुद पीछे हट सकता हूं। मुझे तो अब दोहरी खुशी मिली है। और हर कोशिश यही करूंगा कि मिलती ही रहे।'

'भगवान चाहेगा तो यही होगा। और तुम्हें अभी से बता दे रही हूं कि अपनी बिल्लो, अपने भतीजे के चुनाव में तुम्हें अब आना जरूर है। सिर्फ़ आना ही नहीं है। अपनी पूरी ताकत भी लगानी है। मैं तुम्हारे पूरे परिवार का नाम यहां की वोटर लिस्ट में डलवाऊंगी। सब का राशन कार्ड वगैरह सब बनवाऊंगी। तुम्हारे हिस्से का जो मकान यहां पड़ा है उसे भी ठीक करवा दूंगी। तुम पैसा आगे पीछे देते रहना। उसके लिए तुम्हें क्षण भर को भी अलग से समय निकालने की जरूरत नहीं।' 

'तुम जो कहोगी वो करूंगा बिल्लो।' 'अच्छा।' बिल्लो ने बड़े भेद भरे अंदाज में कहा। 'हाँ इसमें तुम्हें शक नहीं करना चाहिए।'

 'सोच लो।'

 'अरे इसमें सोचने वाली क्या बात है?

 'हूँ...तो बचपन में जैइसे हमरे पास बैइठते थे, वैसे ही मेरे पास यहां, इधर आकर बैठो।' बिल्लो ने ठीक अपनी बगल में हथेली रखते हुए कहा।

बिल्लो की यह बात मेरे लिए अप्रत्याशित थी। मैं एकदम सकपका गया। चुपचाप एकटक उसे देखता रहा। उसके चेहरे पर अपनी बात कहते-कहते गहन गंभीरता छा गई थी। मैं करीब सात फिट की दूरी पर बैठा था। लेकिन वहां से भी देख रहा था कि बिल्लो की आंखें भरी हुई थीं। मैं उसके चेहरे को बिल्कुल समझ नहीं पा रहा था कि, आखिर बिल्लो के मन में चल क्या रहा है, यह क्या चाहती है, मुझे चुप देख बिल्लो बोली। 

'क्यों..डर गए। हमरे पास बैइठने में डर लग रहा है। बचपन से ही तुम डरपोक थे। तब भी जब बैठते थे मेरे पास तो चौंक-चौंक कर देखते रहते थे हर तरफ कि कोई देख तो नहीं रहा। एक तरफ चौंकते रहते थे दूसरी तरफ ज़्यादा से ज़्यादा सटने की कोशिश भी करते थे। तुम्हारी इस हरकत पर मैं मन ही मन हंसती थी। मगर इस समय तो हिंआ देखे वाला केओ नाहीं बा। फिर काहे एतना डरात हैअ। कुछ बोलअ। बचपन वाला गिफ़्ट मुझे उसी समय को जीते हुए उसी समय की तरह से हाथों में थमाया था। कितना निश्छल था तुम्हारा वह गिफ़्ट, तुम्हारा तरीका। का वैइसे ही बचपन की ही तरह बैइठ नाहीं सकते। कुछ वैसी ही बातें नाहीं कर सकते जो तब किया करते थे।' 

बिल्लो अब भी मुझे एकटक देखे जा रही थी। उसकी चमकदार आंखों में आंसू और भी ज़्यादा तेज़ चमक रहे थे। मेरे दिमाग में अब भी एक शब्द नहीं सूझ रहा था कि मैं उससे क्या कहूं, उसके पास जाऊं कि नहीं। यह उचित होगा कि नहीं। मेरी चुप्पी को वह ज़्यादा देर नहीं सह पाई और बोल ही दिया। मगर खड़ी बोली में कहा, 'कोई बात नहीं। हमीं सब गड़बड़ कर बैठे। पहले ही की तरह कुछ बौरा गई तुम्हें देख के। हमें सोचना चाहिए कि अब बचपन बीत गया है। परिस्थितियां बदल गईं हैं। तुम शादी-शुदा हो। मैं भी। कहने को ही सही।

दुनिया यह कहां जानती है कि उस निठल्ले ने चुड़िहारिन और कई और आवारा बदमाश औरतों, शराब के सामने मुझे छुआ ही नहीं। आया ही नहीं मेरे पास। पहली रात भी उसी चुड़िहारिन के पास पड़ा रहा। हां तुम बीवी-बच्चे वाले हो। बचपन के साथ बचपन का रिश्ता भी खत्म हो गया। और हम बुढ़ौती में बचपन का रिश्ता निभाहनें चले हैं। लगता है बेवजह तुम्हें परेशान किया। चलो अच्छा बताओ, चुनाव में भाषण देना बहुत बड़ा काम है। और हमें ठीक से आता नहीं। तुम हमें भाषण देना कैसे सिखाओगे?' 

इतना कहने के साथ ही बिल्लो ने साड़ी के आंचल से दोनों आंखें पोंछ लीं। फिर अपनी स्थिति को एकदम बदलने की कोशिश में बनावटी हंसी हंसते हुई बोली, 'हाँ भाषण देना सिखा पाओगे कि नहीं?' बड़ी हिम्मत कर अब की मैं बोला, 'जो आदमी एक छोटी सी बात का जवाब ना दे पा रहा हो वह भाषण देना क्या सिखाएगा बिल्लो।' इतना कहकर मैं उठा और उसके पास जाकर वैसे ही बैठ गया जैसे बचपन में बैठा करता था। 

उसकी आंखों को मैंने देखा, वह फिर भरी थीं। मैंने उन्हें पोंछा। कहा, 'बिल्लो, मेरी नजर में तुम आयरन लेडी हो। और आयरन लेडी की आंखों में आंसू कभी नहीं आते।' फिर हम बड़ी देर तक बातें करते रहे। उस दौरान मैंने साफ-साफ देखा कि उस आयरन लेडी की भावनाएं, उसका ह्रदय बाकी महिलाओं ही की तरह कोमल, निर्मल, फूल सा नाजुक है। मगर उसने जितनी बातें कीं, वह किसी विकट संघर्षशील, जुनूनी, निडर, जीवट वाले मर्द के लिए भी एक चुनौती है। इतने दिनों में उसने खाद, बीज, मिट्टी के तेल, सरकारी राशन, किराना, कपड़े की दुकान के साथ-साथ साइकिल, टायर-ट्यूब की दूकान चलवा रखी है। कपड़े की सबसे बड़ी दुकान उसी की है। 

अच्छे खासे कस्बे का रूप ले चुके उस एरिया में उसने व्यवसाय की जो दुनिया बनाई थी उसके सामने वहां कोई दूसरा नहीं था। उसकी लठैतों की पूरी फौज थी। और दिन भर वह उनके साथ व्यवसाय की दुनिया संभालती थी। उसकी क्षमता उसका जुनून साफ कह रहे थे कि, धर्म-जाति की राजनीति का वह शिकार नहीं हुई तो जल्दी ही सांसद भी होगी। उसका कड़कपन और करुणामय ह्रदय देखकर मेरे मन में आया कि तैंतीस प्रतिशत नहीं आधे विधायक, सांसद महिलाएं होनी चाहिए। इस से ताकत, सत्ता के मद में अत्याचारी बन गई नेता नगरी की छवि सुधरेगी। क्योंकि जब सत्ता की ताकत के साथ मद नहीं करुणा भी होगी तब ये तथा-कथित जनसेवक वाकई जनसेवक बन सकेंगे। इनको तैंतीस प्रतिशत आरक्षण वास्तव में इनके और जनता वास्तव में दोनों के साथ धोखा है।

जब ये आधी दुनिया हैं तो इनके लिए प्रधानी से लेकर सांसदी तक में आधा यानी पचास प्रतिशत आरक्षण ही न्याययोचित है। बाकी सब धोखा या अन्याय है। इस बात के साथ ही मेरे मन में आया कि, बिल्लो इसी को मुख्य मुद्दा बना ले तो बड़े फायदे में रहेगी। जब उससे कहा तो उसने बात को हाथों-हाथ लिया। कहा,'ये बचपन का साथ कुछ बड़ा कारनामा जरूर करेगा। इस बात से तो हम निश्चिंत हो सकते हैं।'

रात का पहला पहर जहां मेरे लिए तनावपूर्ण था कि बिल्लो अकेली है, वहीं दूसरा पहर आश्चर्यजनक रूप से अद्भुत अकल्पनीय था। हालांकि इस पहर में भी हम और बिल्लो ही थे। मेरी अच्छी रात के गर्भ से मेरी सुबह भी बड़ी.प्यारी, बड़ी खूबसूरत पैदा हुई थी। मैं जब सुबह बिल्लो के प्यार स्नेह से भरी आवभगत से निकल कर शिखर के पास जा रहा था, तभी बिल्लो के भतीजे को सपरिवार वापस आते देखा। जीप में परिवार के साथ-साथ बिदाई में मिला अच्छा-खासा सामान भी दिख रहा था।

शिखर और चाचा मुझे मेरा इंतजार करते मिले। मैंने चाचा, शिखर के सामने ऐलोवेरा की खेती सहित अपना प्लान रखा तो चाचा तो खुशी-खुशी तैयार हो गए। खुशी इतनी कि जैसे उन्होंने जिस चीज की उम्मीद ही ना की हो वह ना सिर्फ़ मिल गई बल्कि बेइंतहा मिल गई हो। मगर शिखर इस शर्त के साथ तैयार हुआ कि जब-तक यह सब मैं करूंगा तभी तक वह करेगा। और कम से कम चौथे महीने मैं अवश्य आऊंगा। 

मैंने आंख मूंद कर उसकी शर्त मान ली। सोचा कि जब नकदी हथेली गर्म करने लगेगी तो यह शर्त अपने आप भूल जाएगा। बीच में एकाध बार इसको सूरत बुला कर, शहरों में इनके जैसे पढ़े-लिखों की नौकरी, बिजनेस में क्या हालत है, ये खुद कहां ठहर पाएंगे इसका अहसास करा दूंगा। तब यह शहर के नाम से भागेगा। इसके बाद मैं पूरा दो-दिन गांव में रुका। इसमें पूरा एक दिन बिल्लो के साथ अपने गांव के साथ-साथ कई और गांव घूमा। ये सारे गांव उसी संसदीय क्षेत्र में आते हैं, जहां से बिल्लो ने चुनाव लड़ना तय किया था। इन गांवों में भी मैंने बिल्लो की अच्छी पकड़ देखी। वह सबकी प्यारी बिल्लो बुआ हैं। बच्चों, बड़ों, बूढ़ों, महिलाओं सबकी। 

वह सबसे ऐसे मिलती मानों सब उसके ही परिवार के सदस्य हों। सब लगे हाथ अपने काम-धाम के बारे में भी उससे बातें कर रहे थे। मैंने उससे रास्ते में कहा भी, 'बिल्लो तुम तो लड़ने से पहले ही सांसद बन गई हो।' वह हंस कर रह गई। बिल्लो तमाम जगह मेरा परिचय भी कराती रही। बाबा का नाम लेकर कि यह उनके पोता हैं। अगला पूरा दिन मैं शिखर के साथ घूमा। जितना समय मैं सारे गांव घूमा-फिरा उस दौरान मैं उन बहुत सी चीजों को नहीं देख पाया, जिन्हें मैं देखना चाहता था। 

कोई बुजुर्ग मुझे खरहरा (अरहर की दाल के सूखे पेड़ों से बनी बड़ी झाड़ू) लेकर अपना दुआर बुहारता नहीं दिखा। ना ही दौरी (बांस की पतली खपच्चियों से बनी बड़ी गहरी डलिया) झऊआ, मौनी, कठौती, कठौता या कुश लेकर डलिया बनाती कोई महिला। ना ही शाम को बाहर खटिया पर बैठे, बतियाते लोग, बुजुर्ग। ना ही शाम को घरों के बाहर नादों  में चारा खाते गाय-बैल या शाम होते ही गांव के बाहर से गांव में अपने खुरों से धूर (धूल उड़ाता गाय गोरुओं का झुंड) गांवों में इनके खुरों से उड़ती धूल ही के कारण तो इस बेला को गोधुलि बेला भी कहा गया है। यह गाय गोरू सीधे अपने उन घरों के सामने नादों पर जाकर रुकते थे, जिन घरों के मालिक उन्हें बांधते थे। 

इन बेजुबनों को रास्ता बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी। यह अपने ठिकाने पर अपने आप पहुंचते थे। बचपन का जो कुछ भी मैं ढूंढ़ रहा था वह कुछ नहीं मिला। तिनकझांए भी नहीं मिला। बिल्लो के बाद उसी से मेरी ज़्यादा पटती थी। उसका तिनकझांय नाम उसके अतिशय तुनकमिजाजी स्वभाव के कारण पड़ा था। वह शराब और गांव की राजनीति का शिकार हो कई साल पहले ही अपनी जान गंवा बैठा था। 

शिखर ने उसके बारे में और कुछ भी बताया वह अच्छा नहीं था।

बिल्लो मिली मगर उसमें भी बचपन की मासूमियत, अल्हड़ता ना मिली। दूसरे दिन वहां से चलते समय उससे फिर मिला था। उसने बड़े अपनत्व प्यार के साथ बिदा किया। शिखर मेन रोड तक छोड़ने आया था। उससे बिदा लेते वक्त मैंने बड़ा होने के अधिकार के साथ उसको काफी पैसे दिए कि, 'भाई मेरी तरफ से यह तुम सब के लिए है। आते वक्त मैं तुम सबके लिए कुछ लेकर नहीं आ पाया था।' मन में यह बात जरूर आई थी, कि भाई तब हमारे-तुम्हारे बीच रिश्ते में इतनी मिठास इतनी मधुरता रह भी कहां गई थी।

मैंने जौनपुर रिश्तेदार के यहां पहुंचने से पहले उन सबके लिए बहुत सा गिफ्ट लिया था, कि जितना इन्होंने मुझ पर खर्च किया। उसका हिसाब बराबर कर दूं। कोई अहसान मुझ पर ना रहे। आखिर खेत बेचने से मना करने पर उनका कमीशन मर रहा था। मैं नहीं चाहता था कि उन्हें कोई नुकसान हो। मगर पूरे परिवार ने अपने व्यवहार से मुझे पानी-पानी कर दिया। गिफ़्ट के लिए साफ कहा कि, 'बहुत पैसा खर्च कर दिया। हमें बड़ा कष्ट हो रहा है।' उनके आत्मीय व्यवहार से मैं भीतर-भीतर आत्मग्लानि महसूस करने लगा। बार-बार यह बात मन में उठने लगी कि, सब एक से नहीं होते। आत्मीय रिश्तों का कोई मोल नहीं होता। उसे पैसों से नहीं तौला जा सकता। 

रात को भी रिश्तेदार स्टेशन से तभी गए जब ट्रेन चल दी। उसी समय पत्नी का फ़ोन आ गया। बात कर के जब डिस्कनेक्ट किया तो मन में इस बात के आते ही मैंने पसीना सा महसूस किया उस एसी बोगी में भी, कि बिल्लो के साथ पूरी रात बचपन के साथ और जो कुछ जिया, उसे क्या नाम दूं? उसे सही कहूं कि गलत, या कि उस रिश्ते के बारे में ऐसा सोचना भी गलत है। और जब-जब पत्नी के सामने होऊंगा तब-तब खुद पर कितने घड़ों पानी को पड़ता महसूस करूंगा। तब मैं आत्मग्लानि को किस हद तक सह पाऊंगा? यह रिश्ता मुझ पर क्या प्रभाव डालेगा? इसे अपनी एक आदर्श पत्नी के साथ धोखा कहूं या.... और अब तो बार-बार गांव आाना-जाना रहेगा। बिल्लो के गांव। भीष्म प्रतिज्ञा वाली बिल्लो के पास। 

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हनुवा की पत्नी 

हनुवा धारूहेड़ा, हरियाणा से कई बसों में सफर करने  और काफी पैदल चलने के बाद जब नोएडा सेक्टर पंद्रह घर पहुंची, तो करीब ग्यारह बजने वाले थे। मौसम में अच्छी-खासी खुनकी का अहसास हो रहा था। चार दिन बाद दीपावली थी। हनुवा का मन रास्ते भर नौकरी अपने घर भाई-बहनों, मां-बाप पर लगा हुआ था। दीपावली के एकदम करीब होने के कारण बहुत सी जगहों पर उसे रास्ते में दोनों तरफ घरों और बहुत सी  बिल्डिंगों पर रंग-बिरंगी लाइटें सजी दिख रही थीं। सुबह धारूहेड़ा जाते और आते समय उसे लोग रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों की तरफ जाते-भागते से दिख रहे थे। लग रहा था जैसे शहर खाली हो रहा है। इन लोगों के साथ हनुवा का भी मन बार-बार अपने घर इलाहाबाद के पास बड़ौत पहुंच जा रहा था। 

आज भी वह रोज की तरह सेक्टर पंद्रह के कमरे पर जल्दी पहुंचने के लिए परेशान थी लेकिन उसका मन रोज के विपरीत बड़ौत अपने मां-बाप भाई-बहनों के पास पहुंच जा रहा था। उसके साथ कमरे में चार और फ्रेंड रहती हैं। सभी इस परदेश में एक दूसरे की सुख-दुख की साथी हैं। उनका लैंडलॉर्ड मकान में नहीं रहता। उसने पूरे मकान में ऐसे ही चार किराएदार रखें हैं। वह किसी फैमिली वाले या जेंट्स को मकान किराए पर नहीं देता। गर्ल्स हॉस्टल बना रखा है। किराएदारों के लिए जो चार सेट बनवाए हैं, उन में से हर सेट में चार से ज़्यादा लड़कियों को नहीं रहने देता। 

हनुवा ने जब कमरे पर पहुंच कर कॉलबेल बजाई तो उसकी साथी सांभवी ने दरवाजा खोला। सामने हनुवा को एकदम थकी-हारी देखकर कुछ कहने के बजाए वह किनारे हट गई। उसके चेहरे की उदासी से वह समझ गई थी कि हनुवा आज भी खाली हाथ लौटी है। थकी वह भी थी लेकिन उसे हनुवा पर बड़ी दया आ रही थी। हनुवा कमरे में पड़ी चार फोल्डिंग में से एक पर धम् से बैठ गई। वह कुछ देर शांत बैठी रही। तब सांभवी ने पूछा, 'मैंने खिचड़ी बना रखी है। खाना अभी खाओगी। या पहले चाय बनाऊं?' हनुवा बोली, 'तुमने खाया की नहीं?' सांभवी के ना कहने पर उसने कहा, 'सांभवी तुम खा लो मेरा मन कुछ भी खाने-पीने का नहीं है।' सांभवी ने कहा, 'खाना-पीना छोड़ने से क्या फायदा हनुवा, तुम्हारी हालत देखकर ही मैं समझ गई थी कि आज भी तुम खाली हाथ लौटी हो। शाम को जब तुम्हें फ़ोन किया, तभी तुम्हारी बातों से मुझे अहसास हो गया था कि वहां इंटरव्यू देना बेकार ही रहा। ये कंपनी वाले इस तरह दौड़ा कर ना जाने क्या पाते हैं?'

 'पता नहीं, जो टाइम बताया था मैं उससे थोड़ी देर पहले ही ग्यारह बजे पहुंच गई थी। वहां पहले से ही बीस-पचीस लड़कियां बैठी थीं।' हनुवा ने कुछ देर बाद उठकर पानी पीते हुए कहा। 'मेरे बाद भी कई लड़कियां आईं। मुझे सब फ्रेशर ही लग रहीं थीं। मैं अंदर-अंदर खुश हो रही थी कि इंटरव्यू में इन सब पर भारी ही पड़ूंगी। अपना सेलेक्शन मैं तय मानने लगी।' 

हनुवा बात करते-करते उठी और चाय बनाने लगी। सांभवी ने उससे एक दो बार खाने के लिए और पूछा था। उसके मना करने पर उसने अपने लिए खिचड़ी निकाल कर खानी शुरू कर दी थी । उसने ढेर सा टोमैटो सॉस और चिली सॉस भी ले लिया था। हनुवा चाय लेकर उसके सामने वाली बेड पर बैठ गई। दो तीन सिप लेने के बाद बोली, 'कम्पनी बहुत बड़ी थी। मैंने सोचा बड़ी कंपनी है। सैलरी भी अच्छी होगी। चार महीने से खाली बैठी हूं, मिल जाए तो तुम सबका कर्ज उतार दूं।' 

सांभवी ने हनुवा को बीच में ही टोकते हुए कहा, 'इतना टेंशन ना ले यार, आज नहीं तो कल मिल ही जाएगी। तब दे देना।'

 'टेंशन कोई लेता कहां है? वो तो परिस्थितियों के चलते  हो जाता है। मैं यहां से गई तो थी बड़ी उम्मीदों के साथ, लेकिन उन सारे कैंडिडेट्स के बाद जब मेरा नंबर आया, मैं पहुंची इंटरव्यू देने तो पहुंचते ही कहा गया कि, 'कॉल तो केवल फ्रेशर्स के लिए है। आपके पास तो पांच साल का एक्सपीरिएंस है।' यह सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे गाल पर तमाचा जड़ दिया है। मेरे सारे सपने बीएसएनएल के सिग्नल की तरह अचानक ही टूट गए। जब मुझे लगा कोई उम्मीद नहीं है तो मैंने भी अपनी भड़ास निकाल देना ही ठीक समझा। मैं बिगड़ उठी कि,'मुझे बेवजह क्यों बुलाया गया? मेरा टाइम, पैसा जो वेस्ट हुआ उसे कौन देगा?

मैं एच.आर. मैनेजर से मिलने के लिए अड़ गई। उन्होंने सिक्योरिटी गॉर्ड बुला लिए तो भी नहीं मानी। उन्हें लगा कि मुझे कैंपस से बाहर करने पर मैं वहां भी तमाशा कर सकती हूं, तो उन लोगों ने एच. आर. मैनेजर को बुलाया। उसने भी मुझे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं नहीं मानी। आखिर मुझे कन्वेंस, लंच, मुझे जो परेशानी हुई उन सब को देखते हुए पांच हज़ार रुपए थमा दिए। मैंने सोचा जो मिल रहा है ले लो। चलो यहां से। टाइम भी बहुत हो रहा था। डर भी लग रहा था कि इनके गुंडे बदमाश कहीं पीछे ना पड़ जाएं। आखिर चली आई मन मसोस कर।' 

सांभवी अब तक अपना खाना फिनिश कर चुकी थी। प्लेट किचेन में रख कर आई। वापस अपनी फोल्डिंग पर बैठते हुए कहा, 'यार नौकरी नहीं मिली यह कोई बात नहीं है। लेकिन तुमने अकेले दम पर उनसे पैसा वसूल लिया ये बड़ी हिम्मत वाली बात है। मैं होती तो मुंह लटका कर चली आती। इतना बोलना कौन कहे सोच भी ना पाती।'

 'हिम्मत-विम्मत वाली कोई बात नहीं है। जिस कंडीशन से गुजर रही हूं, उससे आपा खो बैठी थी। रास्ते में कई बार ये बात दिमाग में आई कि मैं इतना कैसे कर गई?'

फिर हनुवा ने एक गहरी सांस लेकर कहा, 'देखो अभी और कब-तक धक्के खाने हैं।'

उसने उठते हुए अपनी दो बाकी पार्टनर के बारे में पूछा, 'ये दोनों घर गईं क्या?'

सांभवी बोली, 'हाँ, 'दोनों साथ ही निकलीं। सुहानी की ट्रेन चार बजे थी। और नीरू की छः बजे। बड़ी खुश थीं दोनों। जाते-जाते तुम्हें भी दीपावली की बधाई दे गई हैं। और ये लो, दोनों ने ये गिफ्ट तुम्हारे लिए भी दिया है।' सांभवी ने चॉकलेट के दो पैकेट हनुवा की तरफ बढ़ा दिए।

हनुवा ने पैकेट लेते हुए कहा ,'दोनों घर पहुंच जाएं तो कल उन्हें फोन करूंगी। और तुम कब जाओगी?'

आखिर में हनुवा ने सांभवी से पूछा, तो वह बड़ी हताशा भरी आवाज़ में बोली, 'क्या जाऊं यार। यहां का किराया, सारे खर्चे, पी.एल.(पर्सनल लोन) की किस्त निकालने के बाद पैसा इतना बचा ही नहीं कि जा पाऊं। जाने पर आने का किराया भी चाहिए था। जितना पैसा मैं मां को देना चाह रही थी उसका आधा भी नहीं था। सोचा जाऊंगी तो दोनों बहनों,भाई, पैरेंट्स के लिये भी गिफ्ट नहीं लूंगी तो अच्छा नहीं लगेगा। वो लोग यहां के खर्चों के बारे में नहीं जानते। कुछ कहें भले ही न, लेकिन सोच तो सकते ही हैं कि इतना कमाती है और...इसलिए मैंने सोचा कि, चलो मैं न सही वो सब तो खुशी-खुशी त्योहार मनाएं। इसलिए आज मैंने एमरजेंसी के लिए कुछ पैसे रखे बाकी सब पापा के अकाउंट में जमा कर दिए। मम्मी को फोन कर के बता दिया कि ऑफिस में एक ही दिन की छुट्टी मिल रही है। इसलिए नहीं आ पाऊंगी। पैसा भेज दिया है सब लोग खूब अच्छे से दीपावली मनाना। 

भाई के लिए स्पेशली बोल दिया कि, उसके लिए उसकी मन-पसंद ड्रेस खरीदना। सबसे छोटा है। मम्मी तो बिल्कुल पीछे पड़ गईं कि जैसे भी हो दो दिन की और छुट्टी ले लो। तुम्हारे बिना सब बड़ा खाली-खाली लगेगा। हनुवा मां बहुत रोने लगी थी। मैंने बड़ी कोशिश की लेकिन मेरे भी रुलाई आ ही गई थी। उन्हें कैसे समझाती कि मेरी मजबूरी क्या है? वह बार-बार कह रही थीं, ''बेटा होली में भी नहीं आई, अब दिवाली में भी.. उनको क्या बताती कि मम्मी जितना तुम-सब का मन होता है उससे ज़्यादा मेरा भी मन करता है, तुम-सब के साथ रहने, खाने-पीने, मजे करने का। लेकिन फिर नौकरी का क्या होगा? तब तो हालात और खराब हो जाएंगे। तब जो परेशानी होगी उससे यह दुख अच्छा है।' बात पूरी करते-करते सांभवी की आंखों से आंसू टपकने लगे। 

हनुवा जो चेंज करने के लिए उठी थी वह अपनी जगह खड़ी-खड़ी उसे सुनती रही। फिर उसके चुप होते ही बोली, 'बड़ा गुस्सा आता है, अपने लोगों की इस हालत पर। ना जीते हैं ना मरते हैं। इस समय तो मैं खुद तुम सब पर डिपेंड हूं। पैसा मेरे पास होता तो तुम्हें देकर मैं घर जरूर भेजती। चुप हो जाए खुद को ऐसे परेशान करने से फायदा भी क्या?' 

हनुवा इतना कह कर चेंज करने चली गई। एक बड़ा और एक छोटा कमरा, किचेन, टॉयलेट इतने में ही चारों सहेलियां रहती हैं। इन सबने अपनी जरूरतों में भी बहुत सी कटौती कर रखी थी। इतनी ही चीजें साथ रखीं हैं कि बस ज़िंदगी चल जाए। चेंज कर के जब हनुवा फिर आई कमरे में तो सांभवी लेटी हुई थी। उसे नींद नहीं आ रही थी। मन घर पर लगा हुआ था। हनुवा को लगा कि शायद वो सोने के मूड में है तो वह आने के बाद चुप ही रही। अपनी फोल्डिंग पर बैठी तो पूरानी होने के कारण उसके जंग लगे पाइप क्लंपों से चरचराहट की आवाज़ आई। जिसे सुन कर दूसरी तरफ मुंह किए लेटी सांभवी ने करवट ली और उसकी तरफ मुखातिब होकर कहा, 'तुम्हें भूख नहीं लगी है क्या? बाहर कुछ हैवी नाश्ता कर लिया?'

'क्या यार तुम भी मजाक करती हो। ये तो कहो वहां पैसे मिल गए थे, तो आसानी से आ गई। नहीं तो आने के लिए किराया भी नहीं था। क्या करूं मूड इतना खराब हो गया था कि कुछ खाने-पीने का मन ही नहीं हुआ। फिर वहां से निकलते-निकलते ही बहुत देर हो गई थी।'

'तो अब तो खा लो, कहो तो निकाल दूं... सांभवी ने हनुवा की पस्त हालत देख कर कहा। हालांकि बात आधे-अधूरे मन से ही कही थी। हनुवा ने कहा, 'क्या खाऊं भूख तो लगी है। खाली पेट पानी, चाय पी-पी कर पेट अजीब सा हो रहा है। दीपावली एकदम सामने खड़ी है। अभी तक घर कुछ पैसा भी नहीं भेज पाई। यह संयोग ही कहो कि वहां से पांच हज़ार मिल गए। कल सुबह पहले यह पैसे पापा के अकाउंट में जमा कर दूं, तब जाकर मुझे चैन मिलेगा।'

'ठीक है, कुछ तो खा लो, नहीं तो गैस प्रॉब्लम करेगी। वैसे भी तुझे ये प्रॉब्लम बड़ी जल्दी होती है। चाहो तो खिचड़ी गरम कर लो। ठंडी हो गई हो गई होगी, अच्छी नहीं लगेगी।'

'क्या अच्छी-खराब, पेट ही तो भरना है, जिससे चलती रह सकूं।' फिर हनुवा ने खाना खाया और अपनी फोल्डिंग पर बैठ गई । सांभवी इस बीच बात करते-करते सो गई। उसकी नाक से खुर्र-खुर्र की हल्की आवाज़ आने लगी थी। हनुवा की आंखों में नींद की कड़वाहट थी, लेकिन वह सो नहीं पा रही थी। 

सांभवी की बातों ने बड़ा उद्वेलित कर दिया था, कि उसके घर वाले उसे कितना चाहते हैं। उसे बार-बार बुला रहे हैं। वह भी जाने के लिए तड़प रही है। लेकिन अपने घर वालों की खुशी के लिए इतना परेशान है कि अपनी खुशी भी त्याग दी। यह सोच कर नहीं गई कि जाने पर किराए में ही बहुत सा पैसा खर्च हो जाएगा। तो वह कम पैसा दे पाएगी। उनकी खुशियां कहीं कम ना हो जाएं तो अपनी खुशी को त्याग दिया। बाकी दोनों सहेलियां पहले ही चली गईं। 

एक मेरा घर है। मेरे मां-बाप हैं। भाई-बहन हैं। सारी बातें हो जाती हैं। पैसे की भी बात हो जाती है। लेकिन इतने सालों में कोई एक बार भी नहीं कहता कि, तुम कब आओगी, या आओगे, शायद उनके पास मेरे लिए शब्द नहीं होते होंगे। कि आओगी कहें या आओगे। ये भाषा को बनाने वालों को क्या ये ध्यान नहीं था कि हम जैसे लोगों के लिए भी कोई शब्द बनाते। कि लोग हमें गे कहें या गी। आखिर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ता यदि हम जैसों के लिए भी भाषा में हमें परिभाषित करने वाले भी शब्द होते।

ना ऊपर वाले ने हमारे लिए कोई क्लियर स्पेस निर्धारित किया और ना नीचे वालों ने। लेकिन जब ऊपर वाले नहीं कर सके तो ये नीचे वाले कहां से करते। इनकी क्या गलती, हनुवा इन उलझनों में से निकलने की कोशिश करने लगी। जिससे सो सके। थकान से चूर हो रही थी। मगर दिल में घर की ओर से मिले ये शूल उसे ना सिर्फ़ बेध रहे थे। बल्कि जैसे बार-बार हिल-हिल कर दर्द और बढ़ा रहे थे। दर्द उसके उस अंग में भी आज ज़्यादा हो रहा था, जिसके कारण ना वह इधर की थी ना उधर की। किधर की है इस पर भाषा तक मौन है। 

मगर मां-बाप, वो क्यों मौन हैं? आखिर मैं उनकी संतान हूं। क्या यह सही है कि उनके बाकी बच्चों को किसी के ताने, किसी की हंसी, किसी की उपेक्षा ना सहनी पड़े, उनके बाकी बच्चों के शादी-ब्याह, कॅरियर पर कोई फर्क, कोई आंच ना आए, इसलिए एक बच्चे की बलि दी जा सकती है। क्या यह फार्मूला लागू होगा कि बाकी बच्चों के हित के लिए यदि एक बच्चे की बलि की आवश्यकता है, तो उसे बेहिचक दे देना चाहिए।

उसके मन की पीड़ा, उसके सारे दर्द से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। जैसे इस समाज को। और यदि यही करना था तो मुझे बचा कर क्यों रखा, मार डाला होता। यदि इसके लिए हाथ नहीं उठा पाए, नहीं हिम्मत जुटा पाए, तो कम से कम हमें हमारे जैसे लोगों की दुनिया में जाने देते। वहां हम खुलकर अपने हिसाब से सांसें तो लेते। हंस-बोल तो सकते। 

कुछ छिपाने के लिए हर क्षण चिंतित तो नहीं रहना पड़ता। हनुवा के मन में प्रश्नों की झड़ी लगी थी कि, आखिर उसके साथ ऐसा क्यों किया गया? और लोगों की तरह मुक्त होकर क्यों नहीं रह सकती? उन्हीं की तरह नौकरी के लिए कहीं भी खुल कर ट्राई क्यों नहीं कर सकती? अन्य लड़कियों की तरह हर फैशन के कपड़े, बिंदास कपड़े क्यों नहीं पहन सकती? हां लड़कियों की तरह। उसका मन लड़कियों की ही तरह तो तितली बन आज़ाद उड़ना चाहता है। उसका मन मचल-मचल उठता है। लड़कियों की तरह खिलखिलाने, उछलने-कूदने के लिए। मगर वह कर कहां पाती है यह सब। हमेशा सबसे छिपती-फिरती है।

घर वाले भी तो बचपन से ही छिपाते आ रहे हैं। क्या-क्या जतन नहीं किए और करवाए मुझसे। और मैं भी कैसे-कैसे जतन करती रहती हूं कि... इस मन-आत्मा से पूर्ण एक लड़की, शरीर से भी हूं ही। सिर्फ़ एक इस अंग को छोड़ कर। ईश्वर ने एक इस अंग के साथ भेद कर मेरी आत्माए मन को हर क्षण रोने के लिए क्यों विवश कर दिया है, एक अंग पुरुषों का, बाकी शरीर, दिल लड़कियों का देकर आखिर किस पाप की सजा दी है। 

या यह एक ह्यूमन एरर की तरह ही गॉड एरर है। जिसका परिणाम मैं भुगत रही हू। और एरर करने वाले को कोई फ़र्क़ नहीं। इस एक एरर से जान मेरी जा रही है। तीन दिन से दर्द के मारे रहा नहीं जा रहा है। कपड़े लूज पहनूं तो पोल खुलने का डर। आखिर क्या करूं, कहां मरूं जाकर? 

हनुवा सोना चाह रही थी, मगर दर्द जो अब काफी बढ़ चुका था उसके कारण वह लेट भी नहीं पा रही थी। खाने के बाद दर्द बढ़ता ही जा रहा था। वह कभी बैठती, कभी लेटती, कभी कमरे में टहलती, टेस्टिकल में उठती दर्द की लहरों ने आखिर उसके बर्दाश्त की सीमा तोड़ दी। वह कराह उठी। दर्द ऐसी जगह कि ना उसे कोई दवा सूझ रही थी। ना कोई और तरीका।

उसने सोचा जरूरत से बहुत ज़्यादा टाइट इनरवियर के कारण तो यह नहीं हो रहा तो बाथरूम में जाकर उसे भी उतार आई। ऐसा वह इसलिए करती आ रही है शुरू से, जिससे कपड़े के ऊपर से भी कभी किसी को शक ना हो। मगर दर्द तो जैसे पीछे ही पड़ गया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई जिससे उसके कराहने की आवाज़ सांभवी को जगा ना दे। लेकिन आज तो ऐसा लग रहा था जैसे उसके साथ कुछ अशुभ होना तय है। दर्द इस कदर भयानक हुआ कि हनुवा सिर कटी मुर्गी सी तड़फ उठी, फड़फड़ा उठी। उसे अब इस तरह की किसी बात का ध्यान नहीं रहा कि सांभवी जाग जाएगी।

आखिर हुआ यही। उसके रोने कलपने की आवाज़ से सांभवी की नींद खुल गई। वह उसके पास कमरे में पहुंची और उसे एकदम से कंधों के पास पकड़ कर घबड़ा कर पूछा, 'हनुवा, हनुवा, क्या हुआ तुम्हें? तुम जमीन पर क्यों पड़ी हो?'

सांभवी की आवाज सुन कर हनुवा की चैतन्यता अपनी सीक्रेसी को लेकर जैसे फिर सक्रिय हो उठी। उसने तड़पते हुए पेट में दर्द की बात कही। टेस्टिकल की बात एकदम छिपा गई।

सांभवी ने उसे हाजमें की एक दवा शीशी से निकाल कर दिया कि वह खा ले तो उसे आराम मिल जाएगा। लेकिन हनुवा ने मना कर दिया। क्यों कि दर्द सच में कहां है, यह तो वही जानती थी। यह भी जानती थी कि उसे हाजमें की दवा की नहीं, उस दवा की जरूरत है जो उसके टेस्टिकल में हो रहे दर्द को ठीक कर सके। लेकिन कौन सी दवा चाहिए ये वो भी नहीं जानती थी। 

दर्द से उसके रोने कलपने को देख सांभवी घबरा उठी। उसने हनुवा से कहा कि, वह थोड़ा धैर्य रखे, वह उसे हॉस्पिटल ले चलने की व्यवस्था करती है। लेकिन हनुवा ने उसे मना कर दिया। वह जानती थी कि डॉक्टर के पास जाते ही पोल खुल जाएगी। लेकिन दर्द ने जैसे उससे होड़ लगा रखी थी कि वह उसे हरा कर छोड़ेगा, वह उसकी पोल खोल कर रहेगा। दर्द और बढ़ गया। और भयानक हो गया। 

उसे लगा जैसे उसके युरिन ट्रैक में कांच के कई टुकड़े रेंग रहे हैं। गहरे घाव कर कर के दर्द और बढ़ा रहे हैं। उसने अचानक ही महसूस किया कि उसे तेज़ पेशाब लग आई है। इतनी तेज़ कि तुरंत ना गई तो कपड़े खराब हो जाएंगे। वह हड़बड़ा कर उठी, सांभवी ने उसकी मदद की। वह किसी तरह दर्द से दोहरी होती। लड़खडा़ती टॉयलेट में घुस गई। इस हालत में भी वह अंदर से दरवाजा बंद करना ना भूली। 

पेशाब का प्रेशर इतना तेज़ था कि वह बड़ी मुश्किल से क्षण-भर में कपड़े खोल सकी। लेकिन पेशाब करना चाहा तो लगा वह ट्रैक में ही करीब आकर फंस गई है। भयानक प्रेशर भी हो रहा था। और प्रेशर देने पर अंततः भयानक दर्द के साथ यूरिन ट्रैक को जैसे चीरती हुई दो-तीन बूंदें टपकीं। जिसे देख कर वह सहम उठी। वह यूरिन नहीं ब्लड था। पीड़ा कई गुना बढ़ गई। वह चीख पड़ी, इस पर उसके और बल्ड निकल आया। तभी दर्द के कारण वह गिर गई। उसे लगा जैसे उस पर बेहोशी छा रही है। उसने कुछ सोच कर किसी तरह दरवाजे की सिटकनी खोली, लेकिन निकलने की कोशिश में फिर लुढ़क गई। 

जिस रहस्य को रहस्य बनाए रखने के लिए उसने बरसों से इतना कुछ किया, अब उसे इस चीज की कोई सुध-बुध नहीं रही। वह कपड़े भी पहन ना पाई। उसके पेट तक का हिस्सा बाथरूम से बाहर कमरे तक आ चुका था। शेष बाथरूम में ही था। उसकी चीखों के कारण सांभवी दरवाजे पर ही खड़़ी थी। वह घबड़ा कर उसे उठाने लगी। लेकिन बहुत कोशिश कर के भी वह उसे उठा नहीं पाई तो किसी तरह खींच-खांच कर कमरे में ले आई। उसे कपड़े पहनाए। अब-तक हनुवा पूरी तरह बेहोश हो चुकी थी।

हनुवा को जब होश आया तो उसने अपने को एक हॉस्पिटल की एमरजेंसी में पाया। वह बेड पर थी। हाथ में ड्रिप लगी हुई थी और प्राइवेट पार्ट में कैथेटर। आंखों में उसकी बहुत जलन हो रही थी। उसे आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। वह बेहद छोटे से कमरे में थी। उसने उठना चाहा तो देखा उसके दोनों हाथ बेड की साइड रॉड से बंधे हुए हैं। शरीर पर लाइट मिलेट्री ग्रीन कलर की हॉस्पिटल की ड्रेस थी। ट्राउजर और शॉर्ट टी-शर्ट जैसी शर्ट। 

बदन पर यह ड्रेस देखकर वह सकते में आ गई, यह क्या? फिर क्षण-भर में उसके सामने रात का दृश्य उपस्थित हो गया। उसकी आंखें जैसे फटी जा रही थीं। वह रो पड़ी। आंसू ऐसे झरने लगे मानो बादल ही फट पड़ा हो। शर्म ऐसे महसूस कर रही थी कि, जैसे वह भरे चौराहे पर हज़ारों की भीड़ में अचानक ही निर्वस्त्र हो गई है। 

अपने जिस तन को वह पिछले पचीस वर्षों से बड़े जतन से सबकी नजरों से बचाती आ रही थी, जिससे वह अपने विशिष्ट तन के कारण, समाज में उपेक्षा, जलालत, हिमाकत सब से बची रहे, उसी रहस्य को इस मनहूस दर्द ने कैसे क्षण भर में बेपर्दा कर दिया।

ना जाने किन-किन लोगों ने उसे किशोर के गाये इस गाने की तर्ज पर देखा होगा कि, ''चाँद की भी ना पड़ी जिनपे किरन, मैंने देखे उन हसीनों  के बदन।'' जिस बात को छिपाने के लिए उसने कितनी पीड़ा, कितनी तकलीफें झेलीं, कपड़े पहनने, सोने, कहीं जाने, हर-क्षण क्या-क्या नहीं किया। वह क्षण में व्यर्थ हो गया। सांभवी ने ना जाने किस-किस को बताया होगा। मैं तो कपड़े भी नहीं पहन पाई थी। इसने सभी फ्रैंड को फ़ोन कर दिया होगा। उन सबने मेरे रहस्य को जान लिया होगा। रही-सही कसर यहां हॉस्पिटल में पूरी हो गई होगी। 

यहां का स्टॉफ ना जाने क्या सोच रहा होगा? सब मुझे झूठी धोखेबाज समझ कर गाली दे रहे होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सुबह के राउंड पर आते ही डॉक्टर, स्टॉफ मुझे डांटे, निकाल बाहर कर दें। सांभवी नहीं दिख रही है। असलियत जानते ही भाग गई होगी। तो क्या मैं यहां अकेली ही पड़ी रहूंगी? यहां के बिल का क्या होगा? पता नहीं कौन सा ट्रीटमेंट किया है? कोई यहां कुछ बताने वाला नहीं है। अब क्या होगा? इस जलालत, शर्मिंदगी से तो अच्छा था कि मर ही जाती। सभी चले गए थे। ये सांभवी भी चली गई होती तो अच्छा था। सबके सामने पोल तो ना खुलती। वहीं कमरे में बेहोश पड़े-पड़े मर जाती। मगर ये भी मेरी तरह पैसे से हमेशा खाली ही रहती है। 

हनुवा कमरे में एक छोटे से बल्ब की रोशनी में मन में उठ रहे बवंडर से तड़प उठी थी भीतर तक। उसे यह सोचते देर नहीं लगी कि इस नर्क ज़िंदगी, सबसे कुछ छिपा कर जीने से अच्छा है कि मैं आत्महत्या कर लूं। ऊपर चल रहा यह पंखा भी ज़्यादा ऊंचा नहीं है। बेड की यह चादर काम आ जाएगी। मगर तभी उसका ध्यान अपने बंधे हुए हाथों की तरफ गया तो वह बिलख पड़ी। वह बंधे हुए थे। वह कुछ नहीं कर सकती थी। वह विवश थी फिर से एक बार दुनिया का सामना करने के लिए। 

वह नहीं समझ पा रही थी कि, अब वह पोल खुल जाने के बाद दुनिया का सामना कैसे करेगी, और यह दुनिया अब उसकी हक़ीक़त जानने के बाद उससे किस तरह का व्यवहार करेगी, क्या अब उस पर हंसी-ठिठोली अपमानजनक व्यवहार की बौछार होगी, क्या अब उसे कहीं नौकरी भी नहीं मिलेगी, सभी फ्रैंड थूकेंगी उस पर कि मैंने उन सब को धोखा दिया। उनकी इज़्जत उनकी भावनाओं से खिलवाड़ किया। कोई आश्चर्य नहीं कि यह सब मिलकर मेरी पिटाई ही कर दें। या पुलिस में कंप्लेंट कर दें कि मैं मर्द जैसी कैपेसिटी की होकर उन सबको धोखा देकर साथ रही। उनके साथ लड़की बन कर रही। ये सब मुझे कई सालों के लिए जेल भिजवा सकती हैं। 

अपने बंधे हाथ को उसने छुड़ाने की कोशिश की लेकिन वो बड़ी मज़बूती से बंधे थे। जोर लगाने पर जिसमें वीगो लगा था उसमें दर्द होने लगा। दूसरे में भी पूरा जोर नहीं लगा पा रही थी। अपनी विवशता पर उसे रोना आ रहा था, विवशता से ज़्यादा उसे अकेलापन कचोट रहा था। घर की याद आ रही थी। लेकिन जब घर के लोगों की उपेक्षा, उसको लेकर उन लोगों का दिखावटी अपनापन याद आया तो दिल तड़प उठा कैसा घर ? किसका घर ? यहां पूरी दुनिया से मैं अपने को छिपाती फिरती हूं। और घर वाले मुझसे छिपते फिरते हैं। 

उन सबके हाव-भाव से साफ पता चलता है कि वे नहीं चाहते कि मैं उन लोगों के पास पहुंचूं। सब कितनी फॉर्मेलिटी करते हैं। कहीं मैं उन सबको कुछ ज़्यादा ही तो परेशान नहीं करने लगी, वो सब मुझे अपनी खुशियों पर लगा ग्रहण मानते हैं। मुझे अब यह सब समझना चाहिए। अपने स्वार्थ के लिए कब-तक उनके लिए ग्रहण बनी रहूंगी। वो मुझसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। मैं ही पीछे पड़ी रहती हूं। मगर लगता है कि अब समय आ गया है कि मैं बोल्ड स्टेप लूं। उन सब लोगों से अब हमेशा के लिए सारे रिश्ते खत्म कर लूं। 

बस एक बार जाकर किसी तरह और मिल लूं। फिर कभी उस घर क्या, उस शहर की तरफ भी अब मुंह नहीं मोडूँगी । हनुवा बेड पर पड़े-पड़े आंसू बहाती रही, बंधे हुए हाथ बहुत परेशान कर रहे थे। उसने सोचा कि किसी को आवाज़ दूं। बुलाऊं और कम से कम हाथों को खुलवा तो लूं। डॉक्टर, नर्स को जब आना होगा तब आएंगे। उसने दो-तीन बार आवाज़ दी ''एस्क्यूज मी, कोई है?' मगर कोई रिस्पांस नहीं मिला। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने फिर आवाज़ दी तो दरवाज़ा खुला और उनींदी सी सांभवी अंदर आई। उसने आकर उसके सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए पूछा, 'अब कैसी हो हनुवा?' 

हनुवा कुछ बोल ना सकी। वह सकपकायी सी सांभवी को देखती रही। सांभवी का व्यवहार उसकी सारी आशंकाओं के विपरीत अत्यंत प्यार, अपनत्व भरा था। हनुवा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले। उसकी आंखों से आंसू निकल कर पहले की तरह उसकी कनपटी भिगोते रहे। तो सांभवी बोली, 'क्या हुआ हनुवा, इस तरह क्या देख रही हो, अब तबियत कैसी है? इस बार हनुवा ने सिसकते हुए पूछा, यहां मुझे तुम ले आई?' उसके होठ फड़क रहे थे।

उसकी हालत देखकर सांभवी समझ गई कि हनुवा की इस समय असल परेशानी क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है? उसने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'मैं समझ रही हूं तुम क्या सोच रही हो? क्या जानना चाहती हो? तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। यहां भी किसी को कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। और होगी भी नहीं, क्यों कि उनको तो पैसों से मतलब है। 

डॉक्टर के लिए पेशेंट सिर्फ़ पेशेंट होता है। और कुछ नहीं। और घर से मैं तुम्हें अकेले ही ले आई थी। एम्बूलेंस से। घर पर कपड़े मैंने ही पहनाए थे। हनुवा यह समय यह सब सोचने, परेशान होने का नहीं है। तुम पहले ठीक हो जाओ। घर चलो तब सोचना। फिर इसमें सोचना क्या है? बहुत से लोग हैं इस तरह से। दुनिया में सबकी तरह अपनी नॉर्मल लाइफ जी रहें हैं। 

देखती नहीं कितनी हैं तुम्हारी जैसी, जो जज, विधायक, मेयर, प्रिसिंपल, पुलिस बनी हैं। अपनी परफार्मेंस से बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ाए हुए हैं। मैं तो समझ नहीं पा रही हूं कि, तुम अपनी फिज़िकल कंडीशन के कारण अपने को क्यों इतना टार्चर करती आ रही हो। मैं तुमसे इस बारे में बहुत पहले ही बात करना चाह रही थी। लेकिन तुम्हें जब खुद को हद से ज़्यादा छिपाते देखती, तो चुप हो जाती।' सांभवी की यह आखिरी बातें सुनते ही हनुवा चौंकते हुई बोली, 'क्या-क्या तुम....

सांभवी ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, 'हनुवा जब तुम हम लोगों के साथ रहने आई थी, तो तीन महीने बाद ही मैं बाइचांस ही तुम्हारे बारे में जान गई थी।'

हनुवा चौंकी। उसने फटी-फटी सी आंखों से उसे देखते हुए पूछा, 'क्या?'

'हाँ हनुवा।'

'तो तुमने उस समय कुछ कहा नहीं। मैं बड़े आश्चर्य में हूं।'

'हनुवा मैं इस समय भी कहां कुछ कह रही हूं। तुम बेवजह परेशान हो रही हो।'

'नहीं, मेरा मतलब बाकियों ने भी कुछ नहीं कहा?'

'बाकियों से मैंने कुछ बताया ही नहीं। वे सब कुछ नहीं जानती। हां मेरी ही तरह बाकी सब भी जान गई हों, और मेरी ही तरह कुछ नहीं कहा, तो मैं नहीं कह सकती। लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि, वे सब नहीं जानतीं। क्योंकि उन सबने मुझसे इस बारे में आज-तक कोई बात नहीं की। इसलिए तुम निश्चिंत रहो।' 

'मगर तुम.. तुम्हें गुस्सा नहीं आया कि मैंने.....

'हनुवा पहले ठीक हो जाओ, घर चलो, तब यह सब बातें करना कि, मुझे गुस्सा आया या नहीं, आया तो मैं क्यों अब तक चुप रही, आगे रहूंगी या नहीं, आगे क्या होगा? यह सब घर चल कर। हां इतना जरूर कहूंगी कि, तुम बिल्कुल शांत रहो। कोई टेंशन लेने की ज़रूरत नहीं। किसी तरह की कोई प्रॉब्लम नहीं है। जो होगा, अच्छा ही होगा।' 

सांभवी ने यह कहते हुए एक बार फिर उसके सिर को प्यार से सहला दिया। हनुवा को लगा कि, जैसे ना जाने कितना बड़ा बोझ सांभवी के स्पर्श ने उतार दिया। आंखें उसकी फिर भर आई थीं। तभी दरवाज़ा हल्की सी आवाज़ के साथ खुला। डॉक्टर नर्स के साथ आए। उससे हाल-चाल पूछा। चेकप किया। और चले गए।  वह बड़ी जल्दी में दिख रहा था।

हनुवा को फिर आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर, नर्स ने भी कुछ नहीं कहा। नर्स ने बड़े यंत्रवत ढंग से उसके हाथ खोले थे। ड्रिप निकाल दी थी। वीगो भी। वहां एक बैंडेज लगा दिया था। हनुवा इतनी हैरान, परेशान थी, सहमी हुई थी कि, सांभवी से पंद्रह मिनट की बातचीत के दौरान कई बार मन में आने के बाद भी हाथ खोलने के लिए कहने की हिम्मत नहीं कर सकी थी।

दिन में करीब तीन बजे तक उसे डिस्चार्ज कर दिया गया। उसे दवाएं वगैरह दे दी गईं । कुछ दवाएं बाहर से लेनी थीं। एक हफ्ते बाद फिर आकर चेकप कराना था। उसकी किडनी में दो से तीन एम.एम. तक के कई स्टोन थे। उन्हीं के कारण यह भयानक दर्द उठा था। शाम को वह सांभवी के साथ घर पहुंची। हनुवा बहुत थकान और कमजोरी महसूस कर रही थी। सांभवी ने उसे एक गिलास संतरे का जूस दिया। आते समय वह लेते हुए आई थी। दवाएं भीं। हनुवा बेड पर लेटने की बजाय बैठी रही तो सांभवी ने कहा, 'लेट जाओ। आराम करो।'

हनुवा ने कहा, 'नहीं,लेटने का मन नहीं हो रहा है। तुम भी तो कल से थकी हो।' 

 'हाँ, लेकिन मेरी और तुम्हारी थकान में फ़र्क है। और मैं यह भी जानती हूं कि तुम लेटना क्यों नहीं चाहती। तुम अब बेचैन क्यों हो?'

सांभवी की बात सुनकर हनुवा कुछ देर चुप रही, बैठी रही अपनी जगह। इस बीच सांभवी ने दूसरे कमरे में जाकर कपड़े चेंज किए। हॉस्पिटल जिन कपड़ों में गई थी उन्हें बाथरूम में डाला। हनुवा को भी एक सेट कपड़ा लाकर देते हुए कहा, ' चेंज कर लो। फ्रेश महसूस करोगी।'

हनुवा ने उसे प्रश्न भरी निगाहों से देखते हुए कपड़े लिए तो सांभवी ने पूछा, 'ऐसे क्या देख रही हो?'

 'मैं..मैं ये पूछ रही थी कि हॉस्पिटल में कितना पैसा लगा? कैसे मैनेज किया तुमने?'

'थोड़ा आराम करने के बाद पूछती। इतनी जल्दी क्या है?'

'नहीं सांभवी, मैं बहुत बेचैन हो रही हूं।'

'अच्छा! ऐसा है कि, हॉस्पिटल में करीब दस हज़ार लग गए। ये प्राइवेट हॉस्पिटल वाले ट्रीटमेंट के नाम पर लूटते हैं। मामूली सा हॉस्पिटल था फिर भी इतना पैसा ले लिया। उस समय तुम्हारी हालत देखकर मैं घबरा गई थी। इसलिए जैसे ही यह हॉस्पिटल नजर आया यहीं पहुंच गई। एम्बुलेंस की मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी आ जाएगी। मगर मौके से सब होता गया। और तुम हॉस्पिटल पहुंच गई।'

'और पैसे, वह कैसे मैनेज किए?'

'वह भी बाइचांस ही समझो। पांच हज़ार तो मैंने तुम्हारी पर्स से ही निकाले। वही जो तुम्हें कल ही उस कंपनी से मिले थे। करीब चार हज़ार मेरे पास थे। मैं आज ही यह पैसे भी घर भेजने वाली थी। मगर तुम्हारी हालत देखकर प्लान बदल दिया। बाकी पांच हजार ऊपर वाली फ्रेंड से लिए वह सब भी आज ही अपने घर चली गईं। 

सभी ने त्योहार की वजह ज़्यादा पैसे नहीं दिए। लेकिन फिर भी सबने थोड़े-थोड़े दिए तो पांच हज़ार हो गए। उससे काम चल गया। अभी मेरे पास करीब डेढ़ हज़ार रुपए और हैं। आगे हफ्ते भर की दवाओं का तो काम चल जाएगा, लेकिन उसके बाद भी अगर दवा चली तो कुछ और इंतजाम करना पड़ेगा। बाकी खाने-पीने का भी सारा सामान खत्म ही है।'

सांभवी की बातें  सुनकर हनुवा की आंखें भर आईं। वह बड़ी देर तक बुत बनी रही। फिर बोली, 'सांभवी तुम सबका यह अहसान कभी ना भूलुंगी। तुमने तो जिस तरह से मैनेज किया उसके लिए तो वर्ड्स ही नहीं निकल पा रहे हैं। तुमने तो फ्रैंड नहीं एक पैरेंट्स का रोल प्ले किया है। तुम ना होती तो मैं निश्चित ही ना बच पाती।'

कहते-कहते हनुवा भावुक हो गई। गला रूंध गया। आंखें भर गईं । उसे इतना भावुक देखकर सांभवी भी भावुक हो गई। वह उसके करीब जाकर बोली, 'क्या हनुवा, ये तुम क्या अहसान-वहसान लेकर बैठ गई। 

अरे हम एक जगह रहते हैं, एक दूसरे की हेल्प हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा, घर वाले तो यहां रहते नहीं। यहां तो हमीं लोग एक दूसरे के फ्रेंड, नेवर, पैरेंट्स सब-कुछ हैं। तो हम एक दूसरे की हेल्प नहीं करेंगे तो कौन करेगा। और इतना टेंशन करने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें ऐसी कोई बिमारी नहीं है कि जान चली जाए। मामुली सी स्टोन की बात है। वो भी दो-तीन एम.एम. के हैं। बाकी पैसों की जो प्रॉब्लम है वह भी देखी जाएगी। हमेशा ऐसा ही तो नहीं चलता रहेगा ना। अब तुम लेटो, आराम करो।'

सांभवी की बात सुनकर हनुवा एकदम से कुछ ना बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद बात को बदलते हुए बोली, 'तुम घर कब जाओगी?' हनुवा को सांभवी एक दिन पहले ही बता चुकी थी कि वह नहीं जा रही। लेकिन फिर भी हनुवा के मुंह से यह अचानक ही निकल गया। हनुवा की यह बात सुनकर सांभवी के चेहरे के भाव बदल गए। वह तुरंत कुछ ना बोल पाई। कुछ देर चुप रही तो हनुवा ने फिर पूछा, 'क्या हुआ, तुम ऐसे चुप क्यों हो?' तो सांभवी ने कहा, 'अब क्या बताऊं, घर जाने की पूछ रही हो। मगर अब मुझे घर जाने की बात सोच कर ही डर लगने लगता है।'

'घर जाने से डर लगने लगा है। क्या कह रही हो? ऐसा क्या हो गया?

'हां हनुवा, जैसे ही वहां जाने की बात आती है वैसे ही मैं घबरा उठती हूं। मन घबराने लगता है। वहां भाई-बहनों, पैरेंट्स और टूटते जा रहे मकान की हालत परेशान कर देती है। जब-तक यहां रहती हूं, तब-तक कुछ रिलैक्स महसूस करती हूं। या जब-तक घर भूली रहती हूं। याद आती है तो घबरा उठती हूं। पापा रिटायरमेंट के करीब पहुंच रहे हैं। फाइनेंसियल क्राइसेस इतनी है कि, मदर की तबियत बराबर खराब रहती है। लेकिन उनके ट्रीटमेंट के लिए पैसा नहीं है। मेंटीनेंस ना होने के कारण मकान टूटता जा रहा है। जाती हूं तो यह सारी बातें, लगता है जैसे मुझे नोच रही हैं।

पापा की हालत देखती हूं, उनके चेहरे पर इन सारी समस्याओं के लिए जो तड़फड़ाहट देखती हूं, उससे दिमाग की नसें फटने लगती हैं। वो लोग हंसना-बोलना तो जैसे भूल ही गए हैं। पापा तो गंभीरता की मूर्ति बन गए हैं। बड़ा से बड़ा ज़ोक सुना डालो लेकिन हंसी तो छोड़ो उनके चेहरे पर मुस्कान की लकीर भी पूरी नहीं बनती। मुझे लगता है जैसे हम सारे बच्चे पैरेंट्स के लिए खत्म ना होने वाली मुसीबत बन गए हैं। जब-तक घर पर रहो, मां से बात करो, तो वो हम सबके भविष्य को लेकर इस कदर परेशान रहती हैं कि बस यही कहेंगी,

''तुम  तीनों की शादी का क्या करूं? कहां करूं?'' जब पापा-अम्मा बैठते हैं अकेले तो भी उनके बीच घूम-फिर कर बातें हमारी शादी पर ही केंद्रित होती हैं। वो लोग तब से और ज़्यादा परेशान, डरे रहते हैं, जब से पास ही की एक फैमिली की लड़की किसी के साथ भाग गई। उस फैमिली की भी फिनांसियल कंडीशन हमारे ही जैसी थी।' 

यह कह कर सांभवी फिर भावुक हो गई थी। हनुवा ने उसके चुप होते ही कहा, 'कोई भी पैरेंट्स बच्चों की शादी को लेकर आखिर क्षण तक हार नहीं मानते । वो हमेशा ही इसी कोशिश में रहते हैं कि, बस बच्चों की शादी हो जाए। हां आस-पास की ऐसी घटनाएं हर संवेदनशील मां-बाप को परेशान करती ही हैं। तुम्हारे पैरेंट्स भी इसी तरह कोशिश में लगे ही होंगे। उन्होंने हार नहीं मानी होगी।'

हनुवा की बात पर सांभवी बड़ी उदासी भरी मुस्कान के साथ बोली, 'हमें रियलिटी को फेस करने की भी आदत डालनी चाहिए हनुवा। जो सच है उसे मान लेना चाहिए। आखिर उससे आंखें चुराने से क्या सचाई बदल जाएगी, मैं अपने पैरेंट्स से कई बार बोल चुकी हूं कि, घर की जो कंडीशन है उसे एक्सेप्ट करिए। 

हम एक भी शादी का खर्च उठाने के काबिल नहीं हैं, इस लिये आप हमारी चिंता छोड़ कर निश्चिंत हो कर जिएं। उस बारे में सोचना ही क्या जो हमारे वश में नहीं है। लेकिन वो लोग समझते नहीं। एक हारी हुई लड़ाई को लड़ते हुए खुद को खत्म किए जा रहे हैं। हनुवा मैंने शादी, हसबैंड, बच्चे इन सारी बातों के बारे में तभी से सोचना बंद कर दिया है, जब से यह समझने लायक हुई कि एक लोअर इंकम ग्रुप के व्यक्ति के लिए अपने तीन-चार बच्चे पालना कितना कठिन है। 

इज्जत के लिए एवरी टाइम लड़ते रहने वाले इन-लोगों के लिए इस डॉवरी एरा में अपनी एक भी लड़की की शादी कर पाना उतना ही मुश्किल है, जितना किसी एक्यूपमेंट के बगैर पानी पर चलना। तैरना नहीं। ऐसे में तीन लड़कियों की शादी के बारे में सोचना मेरी नजर में किसी पागलपन से कम नहीं है। और जिस दिन मेरी समझ में यह आया, मैंने उसी दिन से मैरिड लाइफ, फ़ैमिली के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। 

यह मान लिया कि यह जीवन ऐसे ही बीतेगा। क्यों कि अपने देश में डॉवरी लेने की मानसिकता पूरे समाज का एक जींस बन चुकी है। जो किसी कानून या गोली से नहीं बदलने वाली। इसे जैसी एजूकेशन से बदला जा सकता है, वह हमारे यहां है ही नहीं। और हो भी जाएगी तो मानसिकता बदलने में दो जनरेशन तो कम से कम निकल ही जाएगी। अब तुम्हीं बताओ ऐसे में कोई स्कोप नजर आता है तुम्हें। कोशिश तो मेरे पैरेंट्स जब हम बहने सत्तरह-अठारह की हुई तभी से कर रहे हैं। देखते-देखते दस साल बीत गए। लेकिन तब जहां से स्टार्ट हुए थे आज भी वहीं के वहीं खड़े हैं।

हनुवा मैं ये सोच कर परेशान होती हूं कि, मैंने तो यह डिसाइड कर लिया है। लेकिन दोनों बहनों का क्या करूं, पता नहीं वो दोनों मेरी तरह कोई निर्णय ले चुकी हैं। या अब भी शादी का सुंदर सपना लिए जीए जा रही हैं। मेरी तरह वह दोनों भी जानती है कि डॉवरी के लिए पैरेंट्स के पास पैसे नहीं हैं। और उसके बिना शादी होनी नहीं। उन बेचारियों की भी लाइफ बस यूं ही खत्म हो जाएगी। उन दोनों को लेकर मैं यह सोच कर भी परेशान होती हूं कि, वह इन्हीं बातों के चलते कहीं पड़ोस वाली लड़की की तरह कोई क़दम ना उठा बैठें।'

'लेकिन सांभवी मैं तो समझती हूं कि इस डॉवरी का जवाब यही है कि, लड़के-लड़कियां लव-मैरिज कर लें।'

'लव-मैरिज वाक़ई सॉल्यूसन होता तो कितना अच्छा होता हनुवा, मैं खुद कर लेती। पैरेंट्स की सारी टेंशन दूर कर देती। लेकिन उधर जहां डॉवरी की समस्या है, वहीं इधर धोखाधड़ी की भी प्रॉब्लम है। लव के नाम पर आगे बढ़ते हैं, लड़की को यूज करते हैं, फिर डिस्पोजल गिलास की तरह फेंक कर दूसरी पकड़ लेते हैं। लड़की विरोध करती है तो मार देते हैं।

एसिड डाल देते हैं। ब्लू फ़िल्म बना कर ब्लैक-मेल करते हैं। पॉर्न इंडस्ट्री में ये फ़िल्में डाल कर वहां से पैसे कमाते हैं। व्हाट्स ऐप पर डाल देते हैं। इतना ही नहीं अपने रीलिजन भी छिपा कर फंसाते हैं। फिर रीलिजन चेंज करने को विवश करते हैं, ना करो तो मार डालते हैं। इधर डॉवरी की आग है। तो दूसरी तरफ भी यही है। मैरिड लाइफ की खुशियां पाने के लिए जो लाइफ है, उस को ही रिस्क में डालने से मैं बचना चाहती हूँ। बहनें क्या करेंगी ये वो ही जाने, मैं बड़ी होने के बावजूद उनसे ऐसी कोई बात डिस्कस नहीं करती। क्यों कि दोनों ही मुझसे कभी-कभी इतना रफ बोल देती हैं कि, मन नहीं करता कि बात करूं। 

कुछ साल पहले पढ़ने-लिखने के लिए मैंने कुछ बात की थी। तो छोटी ने जिस बदतमीजी से बात की, उसके बाद से मैं हिम्मत नहीं कर पाती। हनुवा मैं सिर्फ़ इतना जानती हूं कि जब-तक पैरेंट्स हैं, तब-तक ही मेरा घर से रिलेशन है। उनके बाद मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती कि भाई-बहन कोई रिलेशन रखेंगे। अभी से तीनों मुझसे ठीक से बात तक नहीं करते तो आगे क्या करेंगे।'

सांभवी अपनी बात पूरी करते-करते भावुक हो उठी। उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे थे। उसकी हालत से ऐसा लग रहा था जैसे वह बरसों से भरी बैठी थी। मगर वह किसके सामने अपनी बात कहे, कब कहे, कभी उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आज संयोगवश ऐसे हालात बने कि उसका गुबार फूट पड़ा। वह रोक ना सकी। और कह दिया। लेकिन उसके मन में जो भरा था वह कुछ ही निकल पाया। जो अतिरिक्त प्रेशर था वह सेफ्टी वॉल्व के रास्ते निकल गया। मगर शेष उसके मन में , उसके अंदर भरा ही रहा। 

वह अपने फोल्डिंग बेड पर एकदम निश्चल बनी बैठी रही। हनुवा के सिर के ऊपर दीवार पर एकटक ऐसे देखती रही जैसे वहां बने किसी बिंदू पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रही हो। और हनुवा उसे अचरज भरी निगाहों से देखती रही। कि ऐसी हंसमुख, हमेशा खुश रहने वाली लड़की के अंदर इतना दुख, इतना मैग्मा भरा हुआ है। फिर भी यह कैसे हंसती मस्त रहती है। यह आखिर किस मिट्टी की बनी है, आज इस समय भी अपनी घुटन को ये पूरा कहां ओपन कर रही है। लगता है जैसे आवेश में आकर सब कुछ बोलने वाली थी। लेकिन फिर खुद को संभाल लिया। और फिर से खुद में कैद हो गई। इतना टेंशन इसके लिए अच्छा नहीं है। इसका दिमाग इस समय कहीं और ट्रांसफर करना जरूरी है। यह सोचते ही हनुवा ने कहा, 'सांभवी'

  अपना नाम सुनते ही सांभवी, हनुवा की तरफ देखते हुए धीरे से बोली, 'हूँ।'  

हनुवा ने उसे बड़े प्यार, स्नेह से देखते हुए कहा,'सांभवी तुम मेरी वजह से, कल से ठीक से खा-पी नहीं सकी हो। थकी भी बहुत हो। मैं सोच रही थी कि तुम इस समय कुछ बनाने के झंझट में नहीं पड़ो। मार्केट से ही अपनी पसंद का कुछ चटपटा सा खाने को ले आओ। मेरे लिए कुछ सादा सा ले लेना।'

हनुवा की बात सुन कर सांभवी ने कहा, 'अरे तुम भी कैसी बात करती हो। मैं थकी-वकी नहीं हूं। मैं बना लूंगी। सॉरी तुम्हें भूख लगी होगी मैं बातों के चक्कर में भूल ही गई। थोड़ा जूस रखा हुआ है। मैं तुम्हें देती हूं। उसके बाद जल्दी से बनाती हूं कुछ।'

'नहीं सांभवी मुझे भूख नहीं लगी है। मैं तो तुम्हारे लिए कह रही हूं। थकी हो, बाहर ही से ले आओ कुछ।'

'हनुवा मुझे तुम्हारी दवा की चिंता है। मैं पैसे बचा कर रखना चाहती हूं। तुम बेवजह टेंशन ले रही हो। मैं बना लूंगी।'

 लेकिन हनुवा की जिद के आगे सांभवी को मानना पड़ा। वह बाहर से अपने लिए मसाला डोसा ले आई। और हनुवा के लिए पैक्ड फ्रूट जूस ले आई। पाइन एप्पल का। और बिल्कुल सादी दाल-रोटी, चावल भी। साथ ही सांभवी ने डिश टीवी का भी पेमेंट किया। वो आज ही बंद होने वाला था। वह अपने अंदर चल रहे द्वंद्व से बचना चाह रही थी। सोचा नींद जल्दी आएगी नहीं। टीवी भी नहीं चलेगा तो मारे टेंशन के रात काटनी मुश्किल हो जाएगी। हनुवा तो दवा खा कर सो जाएगी। 

दोनों ने साथ खाया। हनुवा ने दवाओं से खराब हो चुकी जबान का टेस्ट बदलने के लिए सांभवी से डोसा का थोड़ा हिस्सा ले लिया था। अब टीवी चल रहा था। सांभवी ने जो चैनल ऑन किया था उस पर उस वक्त फीयर फैक्टर कार्यक्रम चल रहा था। जिस में चार-मेल, चार फीमेल कंस्टेस्टेंट हिस्सा ले रहे थे। उन्हें स्टंट के कई स्टेप क्रॉस करने थे। हनुवा को यह प्रोग्राम पसंद था। उसने सांभवी से यह प्रोग्राम चलने देने के लिए कहा। सांभवी ने वही प्रोग्राम चलने दिया।

 सच यह था कि दोनों की नजरें टीवी पर थीं। लेकिन मन में उनके कुछ और चल रहा था। कुछ ऐसा जो उन्हें भीतर ही भीतर विचलित कर रहा था। सांभवी अपने जीवन में उजाले की किरण किधर से आएगी उस दिशा को तलाशने में लगी थी। मगर हनुवा की हालत कुछ और थी, वह सांभवी से यह पूछना चाहती कि उसने कब, कैसे जान लिया कि, वह वास्तव में कैसी है, क्या है, जब जान गई तो क्यों चुप रही, क्या वजह है कि वह बात को बिल्कुल पी गई, कभी डिस्क्लोज नहीं किया।

 मुझसे सबसे ज़्यादा यही बात करती है। लेकिन बातचीत में कहने को भी कोई ऐसा इंडीकेशन कभी नहीं दिया कि डाउट होता। और आखिर मुझसे कब ऐसी लापरवाही हो गई कि, यह मेरे जीवन का सबसे सीक्रेट रहस्य जान गई। वह बड़ी देर तक सांभवी से पूछने की हिम्मत जुटाने के बाद बोली, 'सांभवी एक बात पूछूं?'

 टीवी की तरफ नजर किए अपने में खोई सांभवी धीरे से बोली, 'हूँ.. पूछो।'

लेकिन हनुवा संकोच में चुप रही तो सांभवी ने फिर कहा,

'पूछो, हनुवा इतना संकोच क्यों कर रही हो?'

'नहीं, मैं..मैं सोच रही हूं कि, तुम अपसेट ना हो जाओ। मैं सच कहती हूं कल से मैं यह सोच कर भी डर जाती हूं कि, कहीं तुम नाराज हो गई तो मैं यहां किसे अपना कहूंगी, मैं तो इस अंधेरी दुनिया में बिल्कुल अकेली हो जाऊंगी।'

हनुवा की इस बात ने सांभवी को कुछ पसोपेश में डाल दिया। उसने हनुवा को देखते हुए कहा, 'अरे हनुवा ऐसी क्या बात है, तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?' इतना कहती हुई वह उठकर हनुवा के पास पहुंची, उसके दोनों कंधों को प्यार से पकड़ कर पूछा, 'बताओ हनुवा क्या बात है? क्यों इतना परेशान हो?' सांभवी हनुवा के ही पास बैठ गई। 

'सांभवी तुमने कहा था कि, मेरे यहां आने के कुछ दिन बाद ही तुम मेरे बारे में जान गई थी। लेकिन कैसे? मैं तो खुद को खुद में इतना भीतर कैद किए रहती थी। फिर कैसे जान गई? तुम्हारे अलावा और किसको-किसको मेरे इस सच के बारे में पता है।

'ओफ्फो...हनुवा तुम अभी भी इसी बात में उलझी हो। आराम करो ना।'

'प्लीज सांभवी, मुझे सच-सच बताओ ना। बता दोगी तभी मैं रिलैक्स हो पाऊंगी। आराम तो खैर मेरे जैसों को जीवन में कहां मिलता है।'

हनुवा के आग्रह से सांभवी समझ गई कि यह सच कह रही है। यह सारी बात जानने के बाद ही रिलैक्स हो पाएगी, इसकी मुश्किलें इतनी हैं कि यह इस एक और प्रेशर से और ज़्यादा परेशान होगी, वह बोली, 'तुम इतना परेशान हो रही हो तो बता रही हूं।

 उस दिन मैं गुरुग्राम गई थी। एक इंटरव्यू देने। ऐड में कंपनी के बारे में जिस तरह दिया गया था, उससे मैंने समझा कि बड़ी कंपनी है। अच्छा पैकेज देगी। वॉक इन इंटरव्यू था। मगर जब पहुंची तो मैंने अपने को बिल्कुल ठगा पाया। कंपनी की बर्बाद हालत देख कर लगा कि, इससे बढ़िया तो जहां हूं वही सही है। मैं बिना इंटरव्यू दिए लौट आई। बाहर इतनी गर्मी, इतनी तेज़ धूप थी कि, मुझे लग रहा था कि, जैसे मैं झुलस गई हूं। पसीने से सारे कपड़े भीग गए थे। लू ना लग जाए इससे भी डरी जा रही थी। क्यों कि उसके पिछले ही साल लू लगने से तबियत बहुत खराब हो गई थी। 

मैं कंपनी को मन ही मन गाली देते यहां पहुंची। दरवाजा खोला तो देखा कि पंखा पूरी स्पीड में चल रहा है और तुम गहरी नींद में सो रही हो। पसीने से भीगी होने के कारण मुझे पंखे की हवा बहुत अच्छी लग रही थी। मैं कुछ देर पंखे के एकदम नीचे खड़ी हो गई। तभी मेरी नजर दुबारा तुम पर गई। तुम बिल्कुल चित्त हाथ-पैर फैलाए बेसुध सो रही थी। पंखे की तेज़ हवा से तुम्हारे बाल इधर-उधर फैले हुए थे। तुम उस वक्त इतनी इनोसेंट लग रही थी कि क्या बताऊं। जो भी होता वह कुछ देर तो जरूर देखता रह जाता। 

अचानक मेरी नजर तुम्हारे चेहरे से हट कर नीचे गई तो मैं एकदम शॉक्ड रह गई। तुम्हारे कुर्ते का निचला हिस्सा पंखे की हवा से मुंड़ कर ऊपर हो गया था। और तुमने शायद ब्रीफ भी नहीं पहना था और वहां अचानक ऐसा कुछ देखा कि मैं हक्का-बक्का रह गई। एक बार तो मैं सशंकित हुई कि, मैं कहीं किसी दूसरे घर में तो नहीं आ गई। कुछ क्षण तो यकीन नहीं हुआ। मैंने नजरें गड़ा दीं। मगर समझ नहीं पा रही थी। पता नहीं तुम उस समय कोई वल्गर सपना देख रही थी या तुम्हें वॉशरूम जाने की बेहद सख्त जरूरत थी। तुम्हारा प्राइवेट पार्ट इस बुरी तरह उठा हुआ था कि, मैं देख कर एकदम सकते में आ गई। यकीन करने के लिए मुझे कई बार देखना पड़ा। मैं...सच बताऊं हनुवा उस समय मैं गुस्से से एकदम पागल हो रही थी। मन कर रहा था कि, वहीं पास में रखा पानी का जग उठाऊं और उसी से तुम्हारे चेहरे पर बार-बार मारूं। 

जिस मुंह से तुमने हम-सब को धोखा दिया, झूठ बोला, उसे ही तोड़ दूं। एक मर्द होकर हम लड़कियों के साथ गर्ल्स हॉस्टल में रह रही हो। हम सबके साथ सोते में या ना जाने कब क्या किया होगा, मगर तुम्हारी स्ट्रॉंन्ग बॉडी के सामने डरी रही। अकेले होने का डर अलग था। हनुवा अगर बाकी तीनों भी साथ होतीं तो सच कह रही हूं कि, मैं हाथ उठा देती। गुस्से में क्षण भर में ना जाने कितनी बातें दिमाग आती चली जा रही थीं। फिर मैं कभी तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे ब्रेस्ट तो कभी उस पार्ट को देखती। अचानक ब्रेस्ट देखते-देखते यह समझ पाई कि तुम ना मेल हो ना फीमेल, तुम तो..... 

सांभवी इसके आगे ना बोल पाई। उसकी आंखें भर आई थीं। और हनुवा की आँखें भरी नहीं...उनसे आंसूओं की धार बह रही थी। सांभवी को बात अधूरा छोड़ता देख उसने उसे पूरा करते हुए कहा, 'मैं तो...हिजड़ा हूँ .... 

हनुवा इसके आगे ना बोल सकी। वह अपने घूटनों के बीच चेहरा कर फूट-फूट कर रो पड़ी। सांभवी ने उसे चुप कराने की कोशिश की लेकिन हनुवा रोती ही जा रही थी। घुटनों से सिर ऊपर कर ही नहीं रही थी। रोते-रोते उसकी हिचकियां बंध गईं। 

सांभवी बड़ी देर में उसे चुप करा सकी। उसे पानी पिलाया। फिर बोली, 'हनुवा तुम इतना सेंटी हो जाओगी मुझे मालूम होता, तो मैं कभी कुछ ना कहती। जैसे इतने दिन कभी कुछ नहीं कहा। आगे भी ना कहती।'

'सांभवी तुम्हीं बताओं मैं क्या करूं, बचपन से हर क्षण घुट-घुट कर जी रही हूं। हमेशा दुनिया से अपने को छिपाते-छिपाते घूम रही हूं। हर सांस में यही डर कि कोई जान ना जाए। लेकिन फिर भी सब बेकार। दुनिया की नजरों से बच नहीं पाती। तुम जान गई। ऐसे ही और ना जाने कितने लोग जानते होंगे। तुमने तो पता नहीं क्यों कुछ नहीं कहा। ऐसा क्यों किया? क्या मुझ पर दया आ गई थी? बताओ ना सांभवी तुम क्यों कुछ नहीं बोली? क्या बात थी?'

सांभवी नहीं चाहती थी कि इस टॉपिक पर और आगे बात की जाए। उसे लग रहा था कि इससे हनुवा और दुखी होगी। लेकिन उसके आग्रह में इतनी निरीहता, इतनी पीड़ा समाई हुई थी कि वह चाह कर भी बातों के रुख को बदलने की कोशिश ना कर सकी। उसे लगा कि इस समय हनुवा के हर प्रश्न का उत्तर देकर ही उसे शांत कर सकती है। इसे तभी शांति मिलेगी। नहीं तो यह और भी ज़्यादा टेंशन में रहेगी।

 यह सोचते ही उसने कहा, 'हनुवा हुआ यह कि, तुम्हारी सचाई जान कर मुझे जितनी तेज़ गुस्सा आया था वह उसी तरह देखते-देखते खत्म भी हो गया। 

मेरी नजर जैसे ही तुम्हारे चेहरे पर जाती मेरा गुस्सा एकदम कम होता जाता। तुम्हारे चेहरे पर उस समय मुझे इतनी मासूमियत दिख रही थी कि मैं बता नहीं सकती। जैसे कोई छोटी सी क्यूट सी बच्ची हो।

जैसे किसी छोटे से बच्चे को देखकर, प्यार करने उसे गोद में लेने खिलाने का मन होता है ना, मेरा मन तब कुछ वैसा ही होने लगा। गुस्सा एकदम गायब हो गया। मैं बैठ गई। थकान मेरी पता नहीं कहां चली गई। मैं सोचने लगी कि आखिर ये कैसा मजाक भगवान ने किया है। पूरा शरीर इतना खूबसूरत बनाया, चेहरे पर इतनी मासूमियत भोलापन, मगर साथ ही यह क्यों कर दिया कि आदमी हमेशा टेंशन में रहे। उसकी हर सांस तकलीफ में गुजरे।

आखिर इतनी पेनफुल लाइफ लेकर कोई कैसे जिएगा, मेरे मन में फिर तुम्हारे लिए यह फीलिंग आई कि तुम्हारे लिए जो भी हेल्प हो सके मैं वह जरूर करूं। तुमने अपनी एक्चुअल पोजीशन छिपाई तो इसके पीछे कोई रीजन होगा। तुमने दुनिया के सामने अपने को तमाशा बनने से रोकने के लिये ही खुद को छिपाया। इसलिये मैंने सोचा जैसे भी हो तुम्हें कोई तकलीफ ना हो। 

इसीलिए मैंने उसी समय डिसाइड कर लिया कि, कभी किसी से भी डिस्क्लोज नहीं करूंगी। तुमसे भी कभी डिस्कस नहीं करूंगी। जिससे तुम्हें कष्ट हो। बस इसीलिए नहीं बोली।'

'सांभवी की बात सुनकर हनुवा आवाक सी उसे एकटक देखती रही। भावुकता से उसकी आंखें फिर भर आईं। आंसू फिर बह चले। उसने करीब-करीब सिसकते हुए कहा 

'तुम मेरा इतना ध्यान रखती हो। मैंने कभी सोचा भी नहीं। इतना प्यार मुझे किसी फ्रेंड से मिलेगा वो भी इतने कम समय में, ये तो वाकई मेरे लिए आश्चर्यजनक खुशी है। जानती हो सांभवी मेरी तकलीफ इतनी ही नहीं है। मेरी सबसे बड़ी तकलीफ तो यह है कि मैं अपना दर्द किसी से शेयर भी नहीं कर पाती। मां तक ने मुझसे बात करना छोड़ दिया है। मैं जितनी देर घर में रहती हूं, उतनी देर मुझे लगता है जैसे वो बहुत टेंशन में आ जाती हैं। जैसे उन्हें मेरे रहने से घुटन सी होती है। सभी कटे-कटे से रहते हैं। जानती हो मेरा कलेजा फट जाता है जब मेरे रहने पर वो बहनों को अपने पास सुलाती हैं। मुझे अलग-थलग कोने में जगह दी जाती है। 

ऐसा लगता है, जैसे मैं कोई बाहरी गैर मर्द हूं, जिससे उनकी लड़कियों की इज्जत खतरे में है। मैं अपने ही घर में एक अजनबी सी रहती हूं। मुझे घर के हर कोने में अपने लिए नफरत ही नजर आती। जब से नौकरी के लिए यहां आई, तब से फ़ोन पर भी अपने लिए यह नफरत और ज़्यादा महसूस करती हूं। जो लोग नहीं जानते वो लोग ठीक से विहैव करते हैं। ऐसे लोग भी नफरत न करने लगे यही सोच कर डरती रहती हूं। अपने को बचाती रहती हूं। जैसे ही किसी के सामने पड़ती हूं। या बाहर निकलती हूं, तो मैं भीतर-भीतर कांपती रहती हूं, कि कहीं कोई सच जान न ले। 

लगता है जैसे सब कोई मुझे चेक करने निकले हैं। बचने की मेरी सारी कोशिश कई बार लगता है कि बेकार हो जाती है। जहां भी जिनके साथ रहती हूं, वो किसी ना किसी दिन मुझे जान ही लेते है। एक नॉर्मल लड़की से कहीं ज़्यादा लंबा डील-डौल मुझे ऐसे भी एबनॉर्मल बना देता है। सारे लोगों के लिए मैं एक अजीब सी क्यूरीसिटी का प्वाइंट बन जाती हूं। यही मेरे लिए मुसीबत बन जाती है। 

कुछ मौका मिलते ही मुझे पूरा देख लेना चाहते हैं। मुझे लगता है मैं कई जगह पकड़ ली़ जाती हूं। कहीं मुझे मालूम हो जाता है। कहीं नहीं, और ना जाने कितनी जगह पता ही नहीं चल पाता।'

'हनुवा सभी मेल के लिए लड़कों सी तुम्हारी हाइट क्यूरीसिटी का रीजन तो है। इसी लिए लोग तुम्हारी प्राइवेसी भी जानना चाहते होंगे।'

'सांभवी मैं मेल की बात नहीं करती। वो तो ऐसा करते ही हैं। मैं फीमेल्स की बात कर रही हूं। बहुत सी फीमेल भी मर्दों सा बिहैव करतीं हैं।  मेरे साथ ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, इस लिए कह रही हूं।'

हनुवा की बात सुनकर सांभवी चौंकती हुई बोली, 'क्या! फीमेल्स ने तुम्हारे साथ ऐसा किया। यकीन नहीं होता हनुवा।'

'मैं जानती हूं सांभवी, यकीन नहीं कर पाओगी। मैं तुम्हें अपने साथ हुई दो घटनाएं बताती हूं। जिनमें एक में मेल, एक में फीमेल इन्वॉल्व है। पहले मेल वाली घटना बताती हूं । 

एक बार बुआ की लड़की की शादी में घर के सब लोग जा रहे थे। लेकिन पैरेंट्स मेरी कंडीशन के कारण ही मुझे लेकर नहीं जाना चाहते थे। वो एक पड़ोसी को जिन्हें हम सारे भाई-बहन दादी कहते थे, उन्हें उन चार-पांच दिनों के लिए घर पर मेरे साथ छोड़ कर जाने की तैयारी कर चुके थे। मुझे इसका पता तक नहीं था। तब-तक मैं इंटर पास कर चुकी थी। सारे-भाई बहनों के कपड़े बने। लेकिन मेरे लिए नहीं। लेकिन ये मेरे लिए बड़ी बात नहीं थी। मेरे साथ चाहे त्योहार हो, या कोई भी अवसर, कपड़े लत्ते मेरे लिए म़जबूरी में ही बनते थे। एक्स एल साइज ना होता तो शायद उतरने ही मिलतीं। 

मैं अपनी उस फुफेरी बहन को बहुत चाहती थी। हमारी उसकी बहुत पटती थी। वह एक साल कुछ मजबूरी वश मेरे ही यहां रह कर पढ़ी थी। हम-दोनों का आपस में बहुत लगाव था। जब एक दिन रह गया तब मां मुझे बताने लगीं कि सब वहां जा रहे हैं। और मैं घर पर रहूंगी। घर को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। इन चार-पांच दिनों में मुझे क्या-क्या करना है, यह बताने लगीं तो मैंने कहा मैं भी चलूंगी। मैं नहीं रुकुंगी। उन्होंने बहुत समझाया। मैं नहीं मानी, जिद पर आ गई। एक तरह से पहली बार मैं मां से लड़ गई। और तब मैंने उस दिन मां से खूब गालियां, खूब जली-कटी बातें तो सुनी ही मार भी खाई। उन्होंने उस दिन मुझे तार वाली झाड़ू से खूब पीटा। इतनी तेज़ मारा था कि, हर बार का निशान मेरे शरीर पर पड़ा था। 

मैं भी जिद पर आ गई तो रोती रही। लेकिन यह भी कह दिया कि नहीं ले चलोगी तो मैं इसी घर में तुम लोगों के जाते ही आग लगा कर मर जाऊंगी। मैंने हर बार मार पर अपनी यही बात दोहराई। मेरी मां मारते-मारते थक गई। मगर मैं अपनी बात दोहराती रही। थकी हुई मां आखिर रोने लगी। उन्होंने तब जो तमाम अपशब्द मुझे कहे वह अब कुछ ज़्यादा याद नहीं। लेकिन वह आखिरी बात आज भी नहीं भूली। याद आते ही वही दृश्य एकदम सामने आ जाता है। उन्होंने चीखकर दोनों हाथों से अपना सिर पीटते हुए कहा था, ''पता नहीं कऊन पाप किए रहे जऊन ई कुलच्छनी पत्थर गटई मा भगवान डारि दिहिन।'' 

सांभवी मैं उनकी इस बात पर इतनी हर्ट हुई कि झाड़ूओं की चोट उसके आगे चोट थी ही नहीं। मैंने उस दिन खाना नहीं खाया। रोती रही रात भर। मुझे दुख इस बात का भी हुआ, और आज भी है कि मेरी बहनें वहीं खड़ी रहीं, लेकिन मां की झाड़ूओं से मुझे बचाने के लिए कोई हिली भी नही। इतना ही नहीं वह सब खुद भी नहीं चाहती थीं कि मैं चलूं। वैसे भी वह दोनों हर जगह साथ जाती थीं, मगर मुझे दूर ही रखती थीं। इन बातों से मैं इतना टूट गई कि, मैंने खुद ही सुबह मना कर दिया कि, मैं नहीं जाऊंगी। मैं घर पर ही रहूंगी। घर रखाऊंगी। मेरा ये कहना सबके मन की बात हो गई। सब यही सुनना चाह रहे थे। 

एक दिन बाद सब चले गए। पड़ोसन दादी उन सबके आने तक रहने के लिए घर आ गईं। उनके साथ ही मुझे सबके लौट आने तक रहना था। जाने के समय तक मुझसे किसी ने एक बात तक नहीं की। केवल मां जाते समय गला बैठाकर (भारी आवाज़ बनाकर बोलना) बोलते हुए तमाम शिक्षा दे गईं थीं, कि क्या करना है, क्या नहीं। सब के जाने के बाद शाम को मुझे एक और झटका लगा। दादी का एक सत्रह-अठारह साल का पोता भी आ गया। रात को उसे हमारे घर पर ही सोना था। दादी तक तो मुझे कोई ऐतराज नहीं था। लेकिन पोते के आने पर मुझे बड़ा शॉक लगा। वह आया तो दादी बोलीं, ''बिटिया बचवा के सोवै का इंतजाम कई दे। तोहार माई कहे रहिन। रात-बिरात केहू मनई के होउब जरूरी बा।''

पहले तो मैंने सोचा कि मना कर दूं। इसे वापस भेज दूं। लेकिन दादी ने मां का नाम लिया तो मैं चुप रही। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कुछ कहूं। मैंने उसे बाहर पापा वाले कमरे में सोने के लिए बोल दिया। अंदर-अंदर मेरा खून ऐसे ही खौल रहा था। उस लड़के को देख कर दिमाग और खराब हो गया। अक्सर वह घर आता रहता था। उसके घर के सभी लोगों का आना-जाना था। वह मेरे साथ बहुत ज़्यादा चुहुलबाजी करता था। मैं उसे हर वक्त अपने बदन को झांकते ही पाती थी। जब भी मेरी नजर अचानक ही उसकी नजर से मिलती तो उसकी आंखों को अपने ब्रेस्ट पर गड़ी पाती। नजर मिलते ही सकपका कर इधर-उधर देखने लगता। जानबूझ कर अगल-बगल से गुजरता। कुर्तें के अंदर झांकने की हर कोशिश करता। उसे देखते ही मैं दुपट्टे को कसकर लपेट लेती।'

'इतनी कम उम्र में ही इतनी बदतमीजी करता था। तुम्हें उसे एकदम मना कर देना चाहिए था कि सोने की जरूरत नहीं। हम काफी हैं।'

 ' कैसे कह देती। जब मां ने कहा था तो कहां से मना करती। उस समय तो उनकी झाड़ूओं की मार से वैसे भी पस्त थी। दो दिन बाद भी जगह-जगह दर्द कर रहा था। झाड़ू से ज़्यादा पीड़ा उनकी बातें दे रहीं थी। मैं फिर किस हिम्मत से उसे वापस भेज देती। लौटने पर मां को क्या जवाब देती, जो मेरी नहीं घर की रखवाली के लिए उसे रख गई थीं। 

उनकी नजर में मैं तो गले में पड़ा पत्थर थी। ऐसे पत्थर की सुरक्षा की बात कहां सोची जाती है। उनकी नजर में मैं ना लड़का थी, ना लड़की। जो लड़कियां, लड़का थीं, जो इज्जत नाक थीं। वह उन्हें अपने साथ अपने प्राण की तरह चिपकाए हुए लेकर गई थीं। जो उनका सामान, मकान था, उसकी रखवाली के लिए मुझे छोड़ गई थीं, मैं कुछ गड़बड़ ना करूं इसके लिए दादी को और दादी कहीं कमजोर ना पडे़ं इसके लिए उस लफंगे को छोड़ गई थीं।'' 

'वाकई ये तो बड़ा शॉकिंग है। कोई मां अपने बच्चे के लिए ऐसा कर सकती है, इतना क्रुएल हो सकती है, आखिर तुम भी उन्हीं की औलाद थी। तुम्हारी मां वाकई बहुत....क्या  कहें...

'कहना क्या सांभवी, मैंने पहले ही कहा ना कि, मैं उनकी संतान नहीं उनके गले में पड़ा पत्थर हूं।'

हनुवा की बात पर सांभवी ने बड़ी नफरत से 'हुंह' कहा,  फिर पूछा, 'अच्छा वह लफंगा जब-तक रहा घर पर तब-तक तुम्हारे साथ कोई हरकत तो नहीं की।'

'कोशिश पूरी की। पहली रात को मैंने उसे जिस कमरे में रखा था। उस कमरे से अंदर आने पर एक आंगन है। आंगन पार कर के फिर तीन कमरे हैं। अंदर आने पर आंगन में ही बाईं तरफ बाथरूम, टॉयलेट हैं। एक स्टोर रूम है। मैंने एक ढिबरी मतलब कि मिट्टी तेल का एक दिया दादी और उस लफंगे के कमरे में रख दिया था, कि ये सब रात में उठेंगे तो ज़रूरत पड़ेगी। बाथरूम जाने के लिए लालटेन अपने कमरे में लेते आई।'

'क्यों, घर में लाइट नहीं है क्या ?'

 'है, मगर तब आती कहां थी। चौबीस घंटे में चार छः घंटे आ जाती तो बड़ी बात हो जाती। जब आती थी तो वोल्टेज इतना कम रहता था कि, लालटेन और बल्ब की रोशनी में ज़्यादा अंतर नहीं रहता। उस समय तो हफ्ते भर से गायब थी। 

चोर खंबे से बिजली का तार ही काट ले गए थे। ट्रांसफार्मर भी जला पड़ा था। उस समय बिजली विभाग वाले इस तरह की समस्याएं तभी सॉल्व करते थे जब पूरे एरिया के लोग मिलकर पैसा इक्ट्ठा कर के दे आते थे। नहीं तो मुहल्ले में लाइट महीनों नहीं आती। इसी के चलते उस समय पूरा मोहल्ला हफ्ते-भर से अंधेरे में डूबा था। उस दिन भी। 

दिसंबर का आखिरी हफ्ता चल रहा था। ठंड बहुत थी। मैं दरवाजा बंद किए लेटी थी। रजाई में दुबकी। आंगन में बने एक ताख में तब एक ढिबरी रात भर जला कर रखी जाती थी। मैंने वह भी रख दी थी। आंगन से ही ऊपर जाने का जीना है, मैंने उसके दरवाजे पर ताला डाल दिया था। इतना सब करने के बाद भी मुझे नींद नहीं आ रही थी। बार-बार मां की मार, उनकी विष बुझी तीर सी बातें रह-रह कर कानों में गूंज रही थीं। और फुफेरी बहन की बातें, उसकी शादी के होने वाले कार्यक्रमों की पिक्चर सी आंखों के सामने चल रही थी। 

इससे मुझे बार-बार रुलाई छूट जाती। मगर खुलकर रो भी नहीं सकती थी। घर में दो-दो बाहरी बाहर वाले कमरे में सो रहे थे। टीवी-सीवी का तो कोई मतलब ही नहीं था। मैंने अपने कमरे की लालटेन बुझा दी थी। कमरे में घुप्प अंधेरा था। बाहर जलती ढिबरी की वजह से दरवाजे की झिरी पर एक मटमैली पीली लाइन सी बनी दिख रही थी। लेटे हुए आधा घंटा बीता होगा कि, बाहर कमरे में सो रही दादी के खर्राटे की आवाज़ खुर्र-खुर्र आने लगी। बड़ी गुस्सा लग रही थी।'

'ओह गॉड फिर कैसे कटी तुम्हारी रात।' सांभवी ने टीवी चैनल चेंज करते हुए पूछा।

'कटी क्या? कभी उठ कर बैठ जाती। कभी लेटती। लेटती तो लगता दरवाजे पर वही लफंगा बाहर कमरे से आकर खड़ा हो गया है। मन करता कि उठ कर चेक करूं। ऐसे ही घंटा भर बीता होगा कि, आंगन वाले दरवाजे की सांकल के हिलने की आवाज़ आई। मैं एक दम सिहर उठी। मेरा दिल इतनी तेज़ धड़कने लगा कि, बस अब जान निकल जाएगी। फिर दरवाजे के खुलने की आवाज़ हुई। पूराने जमाने के भारी-भारी दरवाजे हैं। जब खुलते, बंद होते हैं, तो आवाज़ भी जरूर आती है। दरवाजा खुलते ही मुझे लगा कि, ये लफंगा अब आकर मुझे मारेगा, मेरी इज्ज़त तार-तार करेगा। और तब मेरी पोल खुल जाएगी। ये कमीना पूरे मोहल्ले, पूरी दुनिया में मेरी बदनामी कर देगा। 

मैंने उसी कुछ क्षण में ये तय कर लिया कि अगर कुछ हुआ तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। सेकेंड भर में मैंने ऊपर छत पर लगे पंखे के बारे में सोच लिया कि, इसी पंखे में अम्मा की साड़ी का फंदा लगा कर लटक जाऊंगी। मेरे इतना सोचने तक लफंगे के आने की आहट मिली। मैं एकदम घबराकर बिजली की तेज़ी से उठ कर दरवाजे की झिरी से आंगन में झांकने लगी। उस कमीने को मैं आंगन में जलती ढिबरी की रोशनी में साफ देखा पा रही थी। बीच आंगन में खड़ा वह मेरे कमरे की ही तरफ देख रहा था। कमीना दाहिने हाथ से अपने प्राइवेट पार्ट को बराबर मसले जा रहा था। मैं पसीने-पसीने हो रही थी। मैं झिरी से एकटक उसे देखे जा रही थी। फिर कुछ देर रुक कर वह बाथरूम में चला गया। 

वह एक मिनट मुझे कई घंटे से लगे। बाथरूम से उसके पेशाब करने की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी। मेरी नजर बाथरूम के दरवाजे पर ही टिकी थी। थोड़ी देर में दरवाजा खुला, वह बाहर आया। बीच आंगन में आकर कुछ सेकेंड रुक कर, फिर दबे पांव चलता हुआ एकदम मेरे कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। मेरी स्थिति ऐसी हो गई जैसे बकरी की तब होती है जब उसे कसाई मारने के लिए कसके दबाकर अपनी छूरी उसकी गर्दन पर बस रेतने ही वाला होता है। 

आंखें एकदम पथरा गईं थीं। सांस जैसे थम गई थी। वह दरवाजे के पास आकर झिरी से अंदर झांकने की कोशिश करने लगा। इधर मैं उधर वो एक दूसरे की तरफ देखने की कोशिश में लगे थे। मेरे कमरे में घुप्प अंधेरा था उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। मैं उसे देख रही थी। मैं थोड़ा झुकी हुई थी, जिससे कि, आँखें मिल ना सकें। अचानक ही उसने दरवाजे को बड़ी सावधानी से अंदर धकेलना शुरू किया।       

इस दरवाजे में भी कुंडी की जगह सांकल ही थी। जिससे वह करीब डेढ़-दो इंच अंदर को आ गया।

दरवाजे के साथ ही मैंने अपने को भी अंदर खींच लिया। वह देखना चाह रहा था कि, दरवाजा खुला है कि बंद। खुला होता तो वह निश्चित मुझ पर हमला करता। क्योंकि वह जब दरवाजा बंद पाकर दो तीन क़दम पीछे हटा, तो उस समय भी दरवाजे को घूर रहा था। और अपने हाथ से बराबर अपने प्राइवेट पार्ट को मसले जा रहा था। फिर चला गया कमरे में। लेकिन उसने अपने कमरे की सांकल बंद नहीं की। क्योंकि सांकल की आवाज़ बिल्कुल नहीं आई। उसके जाने के बाद भी मैं दरवाजे की झिरी से उसके कमरे के दरवाजे को थर-थर कांपती देखती रही।'

'ये तो किसी डरवानी फिल्म की सीन जैसी हालत थी। तुम उसी समय चिल्ला कर उसे अंदर से ही डांटती। इतना चीखती कि, उसकी दादी भी उठ जाती।'

'डर के मारे मेरी घिघ्घी बंधी हुई थी, मैं चीखती क्या, मैं  उसके बड़े डील-डौल से भी डरती थी। और दादी जाग भी जाती तो उसका क्या कर लेती, पूरी बस्ती रजाइयों में दुबकी, घटाटोप अंधेरे में सो रही थी। मेरी कौन सुनता।'

'सही कह रही हो, आज कल तो सब ऐसे हो गए हैं, कि सामने कोई तड़पता पड़ा रहता है तो उसकी हेल्प करने के बजाय मोबाईल से वीडियो बनाते रहते हैं। एफ.बी.,यू-ट्यूब पर पोस्ट करने के लिए। ऐसी पत्थर दिल दुनिया में किसी से उम्मीद करना ही बेवकूफी है। तो उस दिन तुम सोई भी या जागती रही रात भर।' 

'डर के मारे नींद ही कहां आ रही थी। उसके जाने के बाद मैं रजाई में फिर दुबक गई। डरती-कांपती किसी तरह घंटा भर बिताया। फिर मुझे भी पेशाब लग गई। अब मेरी हालत खराब। मैं दरवाजा खोल कर बाहर निकलना नहीं चाह रही थी। डर रही थी कि आंगन में निकलते ही वह मुझे पकड़ लेगा। रोके रही अपने को। तभी फिर बाथरूम के दरवाजे की आवाज़ सुनी तो मैं फिर झांकने लगी। वही लफंगा फिर बाथरूम से निकल रहा था। उसने कमरे का दरवाजा बंद ही नहीं किया था, इसलिए खोलने की आवाज़ हुई ही नहीं। इस बार भी वह आंगन में खड़ा होकर मेरे कमरे की ओर देर तक देखने के बाद अंदर गया। अब मुझे पक्का यकीन हो गया कि यह मुझे पाने पर छोड़ेगा नहीं। मैंने तय कर लिया कि सुबह होने से पहले दरवाजा नहीं खोलूंगी। 

' तुम्हें तो पेशाब लगी थी, तो क्या रात भर....

'नहीं। रात-भर कहां रुक सकती थी। कमरे में ही एक मोबिल ऑयल का चार-पांच लीटर का डिब्बा रखा था। जिसमें मिट्टी का तेल मंगाया जाता था। मैंने रात-भर उसे ही यूज किया। उस दिन मुझे मेरे इस अभिशप्त पार्ट के कारण बहुत आसानी हुई। नहीं तो मेरी परेशानी और बढ़ जाती।'

'ओह गॉड, तुमने तो बड़े अजीब-अजीब फेज़ को फेस किया है। सुनकर ही हैरानी होती है। अगले दिन उस लफंगे को भगाया कि नहीं?'

'नहीं भगा पाई। जब मैंने अगले दिन उसे डांटते हुए कहा कि रात में ऐसा क्यों कर रहे थे, तो उसने ऐसी बात कही कि, मैं दंग रह गई। बड़े अपनत्व के साथ बोला, ''मुझे बड़ा डर लग रहा था। मैं तुम्हारी चिंता के कारण सो नहीं पा रहा था। इसीलिए मैं बार-बार उठकर बाहर देखने आता कि, तुम ठीक हो कि नहीं। सो रही हो कि नहीं। इसीलिए अंदर देखने की कोशिश कर रहा था।'' मैं उसके इस जवाब से एकदम भौचक्की रह गई। 

मुझे लगा कि शायद ये सही कह रहा है। मैंने बेवजह शक किया। एकदम कंफ्यूज होकर बिल्कुल चुप रही। सुबह वह घर चला गया। दादी रुकी रहीं । वह करीब ग्यारह बजे फिर आया। तब मैं अपने और दादी के लिए खाना बना रही थी। आया तो मुझे देखता-दाखता एकदम किचेन में आ गया। मैं मुड़ी तो खीसे निकालता हुआ बोला, ''लो खाओ।'' मैंने सोचा अभी इसने कुछ खाया नहीं होगा, इसे भूख लगी होगी इसीलिए कुछ ले आया है।

वह एक डिब्बे में वहां मिलने वाली एक मिठाई लौंगलता लेकर आया था। मैदा और खोया से बनी चाशनी में डूबी यह मिठाई मुझे बहुत पसंद है। उस स्थिति में भी मेरे मुंह में पानी आ गया। फिर भी मैं कुछ देर उसे देखने के बाद बोली। तुमसे किसने कहा था कि, मैंने कुछ खाया नहीं। और ये सब लाने के लिए पैसा कहां से ले आया? 

इस पर वह उस मिठाई की ही तरह अपनी आवाज़ में भी मिठास घोलता हुआ बोला, ''हनुवा गुस्सा काहे हो रही हो। जब-तक चाची नहीं आ रही हैं, तब-तक तो मुझे तुम्हारी चिंता करनी ही है। नहीं तो आकर जब चाची जानेंगी तो हम पर गुस्सा होंगी।''

मैंने गुस्से में कहा, ''मेरी इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। मैं अपने लिए जो करना होगा कर लूंगी। ये जो ले आए हो, इसे लेकर यहां से जाओ।'' लेकिन वह जाने के बजाए अपनी मीठी-मीठी बातों में उलझा कर एक मिठाई मेरे आगे बढ़ा दी। मैंने मन ना होते हुए भी एक पीस ले लिया। इसके साथ ही कह दिया, ''ठीक है जाओ।'' तो उसने मिठाई वहीं रख दी और चला गया। मैं आवाज़ देती रह गई, लेकिन उसने अनसुनी कर दी। ''थोड़ी देर में आऊंगा।'' कहता हुआ चला गया। 

मनपसंद मिठाई थी। हाथ में जो पकड़ी हुई थी वह खा गई। मन नहीं माना तो एक और खा गई। फिर एक कटोरी में दो पीस दादी को भी दे आई। उसके लिए चार-पांच पीस रख दिया। सोचा आएगा तो दे दूंगी। लेकर आया है, नहीं दूंगी तो अच्छा नहीं लगेगा। उसके प्रति मन में रात की घटना के कारण जो गुस्सा था, वह इस मिठाई ने जैसे कम कर दिया। 

करीब एक बजे जब धूप तेज़ हुई तो मैंने सोचा नहा लूं। कई दिन से बाल धोए नहीं आज धो लूं। नहीं तो कल बृहस्पति हो जाएगा। दादी को बता कर मैं नहाने चली गई। मैंने बाथरूम में कपड़े उतारे ही थे कि मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी। दादी से बात कर रहा था। 

मैं उसकी आवाज़ सुनकर अजीब सी झुरझुरी महसूस करने लगी। कुछ देर मैं स्थिर हो उसकी बात सुनती रही। वह घर में कौन क्या कर रहा था यही सब बता रहा था। यह सुनकर मैंने राहत की सांस ली। और कपड़े अलग कर दो-तीन जग पानी सिर पर डाला, जिससे बाल, बदन भीग जाएं तो शैंपू लगाऊं। तभी ऐसी आहट मिली जैसे वह किचेन में गया हो। मैंने दरवाजे की झिरी से देखा तो मेरा शक सही था। वह किचेन से निकल कर बाथरूम की तरफ आ रहा था। मैं डर कर थर-थर कांपने लगी। क्यों कि दिन का समय था। आंगन में अच्छी खासी तेज़ खिली हुई धूप की किरणें आधे आंगन को कवर किए हुए थीं। 

ऊपर से धूप की किरणें बाथरूम की दिवार, पूरे दरवाजे पर पड़ रही थीं। अंदर इतनी रोशनी थी कि, दरवाजे की झिरी पर आंख लगा कर साफ-साफ देखा जा सकता था। मैंने थर-थर कांपते हुए सबसे पहले तौलिया उठा कर अपने सामने लगा लिया। मैं साफ देख रही थी कि वह अंदर देखने के लिए झिरी से आंख गड़ाए देख रहा है। मैंने गुस्से में एक जग पानी झिरी पर मारा और चीख-चीख कर गाली देने लगी। इस पर वह तुरंत भाग गया।

उसके जाने के बाद भी मैं कुछ देर स्टेच्यू बनी बैठी रही। फिर नहाया। अमूमन मैं बाथरूम के दरवाजे की तरफ पीठ कर के नहाती थी। लेकिन उस दिन इस कमीने के डर से ही दरवाजे की तरफ मुंह किए थी। और मेरा शक सही निकला। बाहर निकल कर मैंने सबसे पहले उसे ही ढूढ़ा तो वह गायब मिला। 

मैंने दादी से पूछा तो वह बोलीं, ''ऐ बच्ची, बचवा ते कब्बे के चला गा बा।'' मैंने कुछ देर चुप रह कर दादी को सारी बात बताई तो वह सुनने को ही तैयार नहीं हुईं। बार-बार यही कहे जाएं,''ऐ बच्ची तू भरमाए गई हऊ। बचवा ऐइसन करै नाय सकत। अबै ओकर उमरिए केतनी बा। ऐ बच्ची मान जा तू। तू एकदम भरमाय गैय हऊ औऊर कुछ नाहीं।'' उन्होंने जिस तरह उसका पक्ष लिया उससे मैं हैरान-परेशान हो गई। मेरे मन में उनके लिए भी अपशब्द निकले। 

मैंने मन ही मन कहा कमीना इस बुढ़िया के सामने भी कुछ हरकत कर डालेगा तो भी यह यकीन नहीं करेगी। उलटा मुझे ही फंसा देगी। मुझे ठंड लग रही थी। तो मैं छत पर जा कर धूप में बैठ गई। कई दिन बाद तेज़ धूप निकली थी। बड़ा अच्छा लग रहा था। रात-भर उस कमीने के कारण मैं सो नहीं पाई थी, तो आलस्य लगने लगा।'

हनुवा अपनी बातें जारी रखे हुए थी, तभी सांभवी ने उसे एक गिलास जूस पकड़ाते हुए कहा, 'इसे पीती रहो। वीकनेस नहीं लगेगी।'

 उसने खुद भी आधा गिलास ले लिया था। हनुवा ने गिलास लेते हुए कहा, ' जिसकी तुम जैसी फ्रेंड हो, उसे कुछ नहीं हो सकता। एक बार तो यमराज भी आकर लौट जाएंगे।' हनुवा की इस बात पर सांभवी को ना जाने क्या हुआ कि, अचानक ही उठ कर उसके चेहरे को दोनों हाथों में भर कर, गाल चूम लिया और बड़े प्यार से बोली, 'ओए हनुवा-हनुवा तुझे कुछ नहीं हो सकता। अब तू अकेले नहीं है।'

उसके इस अचानक किए गए प्यार-मनुहार से हनुवा कुछ क्षण को अभिभूत सी उसे देख कर मुस्कुराई। फिर बोली, 'हाँ सांभवी, मैं अब खुद को अकेला नहीं महसूस कर रही।' तभी सांभवी उसके सामने ही बैठती हुई बोली, ' फिर वो लफंगा लौट कर आया कि नहीं।' 

'आया, और चप्पलों से मार खाकर गया। मुझे धूप अच्छी लगी। रात-भर की जगी थी। जिस बड़े बोरे पर मैं बैठी बाल सुखा रही थी, उसी पर लेट गई थी। लेटते ही मुझे उस बोरे पर ही नींद आ गई। करीब एक डेढ घंटा ही बीता होगा कि, मुझे लगा कि, जैसे मेरे ब्रेस्ट पर कुछ दबाव सा पड़ रहा है। होठ पर भी कुछ गरम-गरम सा छू रहा है। दिमाग में वह कुत्ता तो था ही, मैं हड़बड़ा कर उठने को हुई, तो अपने को उस कमीने की गिरफ्त में पाया।

वह मुझे पूरी तरह दबोचने की कोशिश में, ''सुनो-सुनो हनुवा।'' फुसफुसाती आवाज़ में कहे जा रहा था। मगर मेरा खून खौल उठा था। मैं पानी से बाहर आ पड़ी मछली सी तड़प कर उससे अलग हुई। और उसे लात-घूंसा बेतहाशा मारने लगी। वहीं पड़ी अपनी चप्पल उठाई उसी से पीटने लगी। वह बार बार सुनो-सुनो कहे जाए, हाथ जोड़े जाए। लेकिन मैं पागलों की तरह उसे गाली देते हुए मारने में लगी रही। 

एक चप्पल उसकी नाक पर लग गई, तो उससे खून बहने लगा। मगर मेरे खून सवार था। वह जितना इधर-उधर, झुके-झुके भागता, मैं दौड़ा-दौड़ा कर मारती। वह इससे बचने की कोशिश कर रहा था कि, अगल-बगल की छतों पर से कोई देख ना ले। जाड़े का दिन थाए सभी अपनी-अपनी छतों पर थे। हालांकि वर्किंग डे होने के कारण कम लोग थे। महिलाएं घर का काम-काज  निपटाने में लगी थीं। और बच्चे सब स्कूल गए हुए थे। आखिर वह अपनी चप्पल उठा कर भागा। कुछ कहना चाह रहा था, लेकिन मैं बिना कुछ सुने उसे दौड़ाते हुए पीछे से चिल्ला कर कहा, ''दुबारा दिख गए तो तुम्हारी जान ले लूंगी।'' 

उसके पीछे-पीछे दौड़ती हुई बाहर दरवाजे तक गई। मगर वह दिखाई नहीं दिया। भाग गया था। मैंने दरवाजा बंद किया। अंदर आने लगी तो देखा जगह-जगह खून की कई बूंदें पड़ी हुई थीं। सच बताऊं सांभवी उस समय खून की वह बूंदें देखकर मुझे कुछ राहत मिली कि, मैंने अपने अपमान, अपने शरीर पर हाथ डालने वाले से कुछ तो बदला ले लिया। मैंने खून की बूंदें छत तक हर जगह देखी। मुझे गुस्सा इतना लगा हुआ था कि, अपने पैरों से सारी बूंदों को रगड़ती गई। फिर लौट कर दादी के पास गई मन ही मन गाली देते हुए कि, बुढिया देख अपने पोते की करतूत। बड़ा बचवा-बचवा करके दूध का धुला बता रही थी ना। देख ले उस सुअर का असली चेहरा। लेकिन देखा वह रजाई से मुंह ढंके खुर्र-खुर्र आवाज करते सो रही  थीं। 

तब-तक मेरा गुस्सा कुछ कम पड़ चुका था। मैं फिर भीतर कमरे में गई, सबसे पहले अपनी सलवार और पैंटी चेक की, कि सही जगह हैं कि नहीं। सुअर ने मेरे कपड़े खोलकर मेरा भेद तो नहीं जान लिया। 

कपड़ों को सही सलामत पाकर मैंने राहत महसूस की। शीशे में खुद को देखा तो दो-तीन जगह खरोचें थीं। बांह और पेट पर भी थीं। कुर्ता साइड से फट गया था। ब्रेजरी के हुक टूट गए थे। इससे मैं बड़ी आहत हुई कि, कमीने के गंदे हाथों ने मेरे ब्रेस्ट छुए। उसकी गंदी आंखों ने मेरे इन अंगों को गंदी सोच के साथ देखा। मैं रो पड़ी। मुझे मां-पापा, सब पर खूब गुस्सा आया, कि मुझे पत्थर मान कर यहां अकेले छोड़ कर ना जाते तो मेरी यह दुर्गति क्यों होती। 

उनको अपनी इज्जत अपनी शान की परवाह है, जो मेरे कारण खतरे में पड़ जाती है। मेरी जान भी चली जाए इसकी परवाह किए बगैर वो मुझे कहीं भी डाल सकती हैं। आज यह कमीना अगर मुझसे बहुत ज़्यादा ताकतवर होता तो, मेरे साथ ना जाने क्या करता, भेद खोल कर ना जाने कैसे-कैसे ब्लैकमेल करता। मेरे मन में आया कि, क्या फायदा ऐसी ज़िन्दगी से। इससे अच्छा तो मर जाऊं। फिर रात वाली बात दिमाग में आई कि, मां कि कोई भी साड़ी और ऊपर लगा यह पंखा मुझे इस नरक भरी ज़िदगी से छुटकारा दिलाएंगे। मां-बाप के गले का पत्थर भी यही हटाएंगे। 

यह सोच कर मैं मां की एक साड़ी उठा लाई। उसका फंदा बनाने से पहले उस कमीने के प्रति मन में फिर गुस्सा ऊभर आया। सोचा इसके कारण मैं मरने जा रही हूं। तो इसे भी इसके कुकर्मों की सजा मिलनी चाहिए। मैंने सुसाइड लेटर लिखा। उसको जिम्मेदार ठहराते हुए उसे फांसी दिए जाने की अपील की। मां-बाप से माफी मांगी। फंदा बनाकर पंखे में फंसाने की कोशिश की, लेकिन ज्यादा ऊंची छत के कारण फंदा ना डाल पाई। फिर मन में आत्महत्या का खयाल कमजोर पड़ गया। और मैं बच गई।''

'हूं..बचती कैसे ना हनुवा, तुम्हें मुझसे जो मिलना था।' सांभवी ने एक बार फिर टीवी का चैनल बदलते हुए कहा तो, हनुवा एक गहरी सांस लेकर बोली, 'हाँ सांभवी तुमसे मिलना था। और तुमसे मिलने से पहले कई ऐसे कांटों की चुभन भी बर्दाश्त करनी थी, जिनका दर्द इस जीवन में तो कभी नहीं जाएगा। वो जब-जब मैं सांस लेती हूं, तब-तब मुझे चुभते हैं। ऐसी टीस देते हैं कि, दिल ही नहीं आत्मा तक रो पड़ती है।

हनुवा की यह बात सुन कर सांभवी को लगा कि, परिवार के लोगों ने इसे और परेशान किया होगा। मां ने और कड़वी बातें कहीं होंगी। उसने सोचा इसकी तबियत ठीक नहीं है। इस तरह की और बातें कह कर यह अपनी तबियत खराब कर लेगी। बात बदलने की गरज से उसने कहा, 'हनुवा, तुम्हें तकलीफ ना हो तो, आओ थोड़ी देर दरवाजे पर खड़े होते हैं। बाहर हर तरफ लोगों के घर लाइट से सज गए हैं। देखते हैं उन्हें। तूम्हारा मन थोड़ा चेंज हो जाएगा ।' 

हनुवा सांभवी की बात टाल ना सकी। बाहर दरवाजे पर गई। बाहर वाकई हर घर तरह-तरह की लाइट्स, झालरों से जगमगा रहा था। भारतीय त्योहार दीपावली चाइनीज झालरों की चमक से जगमग कर रहा था। रह-रह कर पटाखे भी दो दिन पहले से ही दग रह थे। लोगों की चहल-पहल देर रात होने के बाद भी दिखाई दे रही थी। सांभवी को बड़ा अच्छा लगा। 

वह हनुवा को लेकर घर के बाहर दरवाजे के सामने ही चहल-क़दमी करने लगी। हनुवा को भी अच्छा लग रहा था। तभी दो-तीन बाइक पर बैठे कुछ लफंगे टाइप के लड़के दोनों के एकदम करीब से सीटी बजाते हुए तेज़ी से निकल गए। एक ने चिल्ला कर कुछ कहा भी था। जो बाइकों के शोर में वह दोनों समझ नहीं पाईं। उनमें से कम से कम एक बाइक अमरीकी कंपनी हार्ले डेविडसन की थी। जो भारत में युवाओं के बीच स्टेटस सिम्बल बनी हुई है। उनके बीच इसका जबरदस्त क्रेज है। यह भारत की बुलेट से भी तेज़ पड़-पड़ की आवाज करती है। कॉलोनी में रोज की अपेक्षा सड़कों पर लोगों का आना-जाना आधा से भी कम था। 

सब त्योहार के कारण अपने होम डिस्ट्रिक्ट जा चुके थे। हनुवा लफंगों की इस हरकत से डर गई। कुछ देर पहले अपने साथ ऐसे ही लफंगे द्वारा की गई अपनी बातें उसके मन मस्तिष्क में पहले ही छाई हुई थीं। इसलिए वह कुछ ज्यादा ही डर गई। उसने तेज कदम से घर की तरफ चलते हुए कहा, 'सांभवी आओ अंदर चलें। बदतमीज अपनी बदतमीजी से बाज नहीं आएंगे। जहां जाओ वहीं मिल जाते हैं। वैसे भी आस-पड़ोस में ताले पड़े हैं। ऐसे में बाहर अब ठीक नहीं है।'

हनुवा के साथ सांभवी अंदर आ गई। डर वह भी गई थी। इसलिए हनुवा के कहते ही बोली, 'चलो।'

अंदर आकर हनुवा ने दरवाजा बंद कर उसे बड़ी सावधानी से चेक किया था। फिर अपने बेड पर बैठ गई। सांभवी ने बैठने के बजाय रिमोट उसे थमाते हुए कहा, 'तुम टीवी देखो तब तक मैं खाना बनाती हूं।'

 हनुवा ने कहा, 'अब मैं बिल्कुल ठीक हूं। मिल कर बनाते हैं। तुम कल से बहुत थक गई हो।' सांभवी के लाख मना करने भी उसने ज्यादातर काम खुद ही किया। समय निकाल कर नहा भी लिया। इससे वह फ्रेश महसूस कर रही थी। लग भी रही थी। खाना खाते वक्त भी दोनों ने खूब बातें कीं। सब्जी पराठा खाने के बाद सांभवी ने चाय भी बनाई। उसकी आदत थी खाना खाने के बाद चाय पीने की।

चाय पीते हुए उसने फिर कहा, 'हनुवा तुम जितनी बातें बता रही हो उससे तो लगता है कि, तुम्हारे पैरेंट्स शुरू से ही तुमसे छुटकारा चाहते हैं। ऐसे में तुम इतने दिन कैसे रही उनके साथ। और उससे ज़्यादा बड़ी बात कि, इतनी पढ़ाई-लिखाई कैसे कर ली, क्यों कि जो लोग साथ रखना ना चाह रहे हों, वो पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें, ये वाकई आश्चर्य वाली बात है।'

सांभवी के इस प्रश्न ने हनुवा को फिर एकदम गंभीर बना दिया। लेकिन अब सांभवी के साथ उसके किसी भेद जैसी चीज भी नहीं थी। इसलिए किसी बात का कोई संकोच नहीं था। तो हनुवा ने एक दो घूंट चाय पीने के बाद कहा, ' सांभवी मेरी स्थिति, इस दुनिया ने मेरे साथ जो- अत्याचार किए बचपन से ही,उसने मुझे उम्र से बहुत आगे-आगे बड़ा किया। समझ दी। तुम क्या कोई भी आश्चर्य करेगा कि,जिस घर में लोग मुझे देख कर एक सेकेंड को खुश नहीं हो पाते थे,जिनके मन में यह हो कि,यह मरे तो गले का पत्थर हटे,वो हमें कहां पढाएंगे-खाएंगे,वो भी बी.टेक कराएंगे?'

' हाँ , यही तो मैं तब से सोच रही हूं कि, यह, सब कैसे हुआ? तुम कैसे कर ले गई यह सब?'

' कर क्या ले गई। एक टीचर जो मुझे पढ़ाती थीं, उनका  बहुत बड़ा कंट्रीब्यूशन है। उन्हीं की वजह से पढ़ पाई। उन्होंने मुझे मेरी स्थिति बताई,मेरे जैसे लोगों के लिए समाज में जगह कहां है वह बताया। यह भी बताया कि,मैं कैसे क्या करूं कि,अपनी ज़िंदगी को नर्क बनने या नर्क में डूबने से बचा सकूं। हालांकि इस के लिए उन्होंने मुझसे जो कीमत वसूली वह मेरी ज़िंदगी के सबसे भयानक पीड़ादायक घावों में से एक है,जो मुझे इस समाज ने दिए।'

'अरे ऐसा सा भी क्या किया उन्होंने तुम तो बता रही हो टीचर थीं तुम्हारी। उन्हीं की वजह से तुम पढ़ पाई। टीचर हो कर ऐसा क्या किया उन्होंने ?'

सांभवी की इस बात पर हनुवा बड़ी कसैली सी हंसी-हंसी। फिर दो घूंट चाय पीकर बोली, 'सांभवी मेरा जीवन शुरू से ही इतना तकलीफदेह जटिल नहीं था। दस-ग्यारह की उम्र होते-होते मेरी तकलीफ शुरू हुई। और फिर बढ़ती गई। बचपन में ठीक थी। या ये कहें कि पैरेंट्स समझ ही नहीं सके कि ऐसी कोई प्रॉब्लम है। मेरे जन्म पर भी मां-बाप ने खूब खुशियां मनाई थीं कि उनके लड़का हुआ। मगर एक समस्या वो लोग मेरे चार-पांच साल की होने के बाद से महसूस करने लगे थे। जो आगे बढ़ती गई। मेरी आवाज़ लड़कों सी ना होकर लड़कियों सी थी। मैं बाकी बच्चों के साथ खेलती तो सब मुझे चिढ़ाते। घर में सब बड़ा ऑड फील करते। मैं इतनी समझदार तो थी नहीं। बाकी मुझे चिढ़ा रहे हैं, इतना ही समझती और इसी बात पर गुस्सा होती। जल्दी ही भाई-बहनों ने भी चिढ़ाना शुरू कर दिया। 

छह-सात की होते-होते तक  कोई दिन ऐसा ना जाता जिस दिन स्कूल और घर मिला कर मैं दो-चार बार टीचर, मां-बाप या किसी अन्य से मार डांट ना खाती। मैं अपनी उम्र के बच्चों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ रही थी। बड़े डीलडौल के कारण मैं सब को दौड़ा-दौड़ा कर मारती। फिर टीचर या मां-बाप से पिटती। मां-बाप ने कई डॉक्टरों को दिखाया। लेकिन सबने यही कहा किसी-किसी के साथ ऐसा होता है। धीरे-धीरे उम्र के साथ ठीक हो जाएगा। मां-बाप ने फिर भी कोशिश जारी रखी। अब वो लोग इस समस्या के कारण बहुत चिंतित रहने लगे। जहां से जो पता चलता वही करने लगते। 

मुझे मिर्च खूब खिलाई जाती। कैथा के सीजन में कैथा। जामुन के सीजन में मां मुझे जामुन खाने को यह कह कर देतीं कि, इसे जितनी देर हो सके उतनी देर मुंह में रखो फिर निगलो। इसके बाद मुझे खूब ठंडा पानी पिला देतीं । ऐसे ही ना जाने क्या-क्या मुझे खिलाया-पिलाया जाता रहा। इससे हालत यह हुई कि, मेरा गला बुरी तरह खराब हो गया। अजीब सी सांय-सांय करती सी आवाज़ निकलती। मेरा बोलना-चालना मुश्किल हो गया। मगर मेरी और मेरे मां-बाप के लिए असली समस्या तो अभी आनी बाकी थी। वह मेरा ग्यारहवां साल शुरू होते-होते शुरू हो गई।

 'वो समस्या क्या थी?'

'वही जो अब मैं हूं। थर्ड जेंडर। उस समय तो यह शब्द सुना भी नहीं था। तब के शब्द में हिजड़ा। उसी समय से मेरी आवाज़ के साथ-साथ अब शरीर भी लड़कियों सी स्थिति में आने लगा। मेरे लड़कियों से कट्स बनने लगे। कमर, हिप, थाई, लड़कियों सी कर्वी शेप लेने लगे। ग्यारह होते-होते निपुल लड़कियों की तरह बड़े-बड़े इतने उभर आए कि मोटी बनियान, शर्ट पहनने पर भी साफ उभार दिखाई देता। मां मेरी बनियान को पीछे से सिलकर खूब टाइट कर देतीं। मगर सारी कोशिश बेकार। स्कूल में साथी अब आवाज़ के साथ-साथ इसको भी लेकर चिढ़ाने लगे। 

कुछ तो खींच-तान नोच-खसोट करते, इस पर मैं मार-पीट करती। मैं स्कूल से आने के बाद घर से बाहर निकलना तो दो साल पहले ही बंद कर चुकी थी। एक दिन मोहल्ले के एक लड़के ने मेरी पैंट खोल कर बदतमीजी करने की कोशिश की। उस दिन फिर उसके, हमारे घरवालों के बीच खूब मारपीट हुई। बिहार के दरभंगा जिले के उस छोटे से कस्बे में इससे ज्यादा अच्छी स्थिति की उम्मीद नहीं कर सकती थी। उस दिन से मेरा स्कूल जाना भी बंद कर दिया गया। उस दिन शाम को घर में चूल्हा भी नहीं जला। मां-बाप दोनों को ही मार-पीट में कई जगह चोटें लगी थीं। डॉक्टर के यहां मरहम-पट्टी करवानी पड़ी थी।'  

'ओफ्फो, इतना सब होता रहा तुम्हारी एक इस हालत के कारण। वाकई तुमने और तुम्हारे घरवालों ने भी बड़ी मुश्किलें झेलीं हैं।'

'सांभवी ये तो कुछ भी नहीं है। आगे मैंने जो-जो अपमान, यातनाएं भोगी हैं, उनके अनगिनत घाव मुझे आज भी वैसे ही तड़पा रहे हैं, जैसे तब तड़पाते थे। एक-एक घटना, गर्म आयरन रॉड की तरह आज भी मेरे शरीर से चिपकी मुझे भयानक पीड़ा दे रही हैं। मेरी मुश्किलें इतनी बड़ी हैं कि, उनका मैं आज तक ओर-छोर ही नहीं ढूंढ पायी हूं।'

'अभी तक जो बताया वो मुश्किलें ही इतनी बड़ी हैं, इतनी पेनफुल हैं तो और ना जाने क्या-क्या झेला होगा। जब स्कूल बंद हो गया तो पढ़ाई कैसे हुई?'

'हुआ यह कि उसी दिन रात को मेरी एक हनुवा वाली मौसी आ गईं। मौसा जी उनके बच्चे भी साथ थे।'

'हनुवा वाली मौसी सुनकर सांभवी चौंकी । बीच में ही बोली, 'हनुवा वाली मौसी! तुम्हारा नाम और।'

'हाँ अजीब बात है ना। बिल्कुल मेरे नाम की तरह। हुआ यह कि, जब मैं तीन साल की थी, तब भी यह मौसी आयी थीं कुछ समय के लिए। उस वक्त ये मुझे इतना प्यार करती थीं कि, जब ये आठ दस दिन बाद जाने लगीं तो मैं मौसी-मौसी कह कर रोने लगी। लोगों ने सोचा उनके जाने के बाद चुप हो जाऊंगी। लेकिन मैं घंटों रोती रही। तो मां और सबने कहा, ''मौसी हनुवा गईं।'' असल में चित्रकूट जिले के पास ''हनुवा'' नाम का एक गांव है। मौसी वहीं रहती हैं। तो सबने कहा हनुवा गईं। यह सुन कर मैं कहना चाहती थी कि, मैं भी हनुवा जाऊंगी। लेकिन पूरा सेंटेंस बोलने के बजाय मैं आधा बोलती हनुवा, हनुवा। अगले दिन उठी तो भी मैं हनुवा-हनुवा कर रोने लगी। ऐसा कई दिन चला तो घर-भर मुझे बाद में भी हनुवा कहने लगा। और फिर यही मेरा नाम हो गया। आगे चल कर मेरे साथ यह नाम ऐसा चिपका कि, अब खुद भी इससे छुटकारा नहीं चाहती।' 

'जिस चीज या बात से बहुत दिन जुड़ाव बना रहता है, उसके साथ इमोशनली अटैचमेंट हो ही जाता है। तो उस दिन तुम्हारी हनुवा मौसी ने क्या किया, सबको इंजर्ड देखकर तो घबरा गई होंगी?'

'हाँ, दरवाजे पर जब नॉक किया, तो पापा सशंकित हुए कि, झगड़ा करने के लिए विरोधी गुट फिर तो नहीं आ गया। यह सोच कर उन्होंने घर में एक कांता रखा हुआ था उसे ही हाथ में लेकर दरवाजा खोला। उनके ठीक पीछे अम्मा भी डंडा लिए खड़ी थीं। एक हाथ में लालटेन लिए हुए। बाहर तो अंधेरा ही अंधेरा था। सामने मौसा को देख कर पापा-अम्मा के जान में जान आई। अम्मा चहकती हुई बोलीं, 'अरे सुमन तू.. पापा ने भी बढ़कर मौसा जी को नमस्ते किया और अंदर ले आए सबको।

लेकिन अंदर आते ही उन लोगों ने पहला क्योश्चन किया, ''अरे ये सब क्या हुआ? ये चोटें, कांता, लाठी... तो पापा-अम्मा ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा, ''कुछ नहीं भाई साहब, कभी-कभी लड़ाई झगड़े में भी हाथ साफ कर लेना चाहिए। पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए।'' इसके बाद चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब रात एक बजे तक चला और बातें भी। मां-पापा जानते थे कि, कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। तो सारी बातें साफ-साफ बता दीं। उनसे सलाह भी मांगी कि, ''क्या करें? बाकी बच्चों का भी भविष्य देखना है।'' हम बच्चे तो सो गए। लेकिन बड़े लोगों की बातें और देर तक चलीं। 

अगले दिन भी विचार-विमर्श चलता ही रहा। मौसा ने यह कह कर और डरा दिया कि, ''हिजड़ों तक यह बात पहुंचने में देर नहीं लगेगी। पता चलते ही वह सब इसको जबरदस्ती अपने साथ ले जाएंगे। फिर तो और ज़्यादा बदनामी होगी।''

समस्या के एक से एक हल ढूंढ़ें जाने लगे। यह हल सुनकर शायद तुम आज भी सहम उठो कि, मेरे ब्रेस्ट को सर्जरी कराकर पूरी तरह खत्म कर देने की भी बात हो गई। मगर यह समाधान बेकार हुआ। क्यों कि मां ने बड़ी दूरदर्शिता दिखाते हुए कहा कि, ''छाती तो सपाट हो जाएगी, लेकिन इसकी जांघों, कूल्हों, कमर का क्या करेंगे? अभी से सोलह-सत्तरह साल की लड़कियों सी गदराई हुई हो रही है।'' मां की इस बात ने बात जहां शुरू हुई थी वहीं पहुंचा दी।'

'हे भगवान मां-बाप, मौसा-मौसी इस तरह भी सोच सकते हैं। मेरे तो सुनकर ही रोंगटे खड़े हो गए हैं। तुम पर क्या बीती होगी?'

'बीती क्या? ग्यारह-बारह की तो हो ही रही थी। बहुत डीपली तो नहीं लेकिन काफी हद तक चीजों को समझने लगी थी। बल्कि अपनी एज से कुछ ज़्यादा। लेकिन मैं बहुत ज्यादा डरी सहमी थी। मेरे सारे भाई-बहन, मौसी के बच्चे, सब आपस में घुल-मिल कर खेल रहे थे। मैं गुम-सुम घर का कोई कोना ढूंढ़ती और वहीं छिपी रहने की कोशिश करती। उस दिन दोपहर होते-होते मौसा ने समस्या से निपटने की जो योजना सामने रखी। पापा-अम्मा को वह समझ में आ गई। 

मौसा ने साफ कहा, ''चुपचाप यहां मकान, खेत सब बेच-बाच कर कहीं दूर जा के बसो। वहीं कोई काम धंधा जमाओ। और वहां मुझे लड़का बनाए रखने की कोशिश ना करके जैसी दिखने लगी हूं, वही यानी लड़की बना के रखो। इससे कोई समस्या नहीं होगी।'' सब को यही सही लगा और फिर मौसा जी जो दो चार दिन के लिए आए थे। वह उसी दिन शाम को अकेले हनुवा गए। काम-भर के पैसे का इंतजाम कर हफ्ते भर बाद लौटे। इसके बाद मन-मुताबिक जगह की खोज में बड़ौत आ गए। और यहीं मेरी ज़िन्दगी बदल गई। 

मौसी ने ही मेरा नाम सुशील से सुमिता कर दिया। अब पैंट-शर्ट की जगह सलवार सूट मेरी ड्रेस हो गई। यही मुझे पसंद भी थी। मौसी ही मेरे लिए चार सेट कपड़े भी पहले ले आईं । सब बच्चों को भी उन्होंने ना जाने क्या-क्या समझाया कि सब मिल-जुल गईं। वास्तव में अब मैं वह बन गई थी जो मैं फील करती थी। यहां कोई दूर-दूर तक हम-लोगों को जानने वाला नहीं था। वैसे भी हम-लोगों का परिवार छोटा, अंतरमुखी है। मौसा के अलावा किसी से कोई संपर्क नहीं। दोस्त वगैरह भी नहीं। 

मौसा ने जो पैसा दिया था, वह जब खेत, मकान, बिका दरभंगा का तो वापस किया गया। जो बचा वह बिज़नेस में लगा दिया गया। संयोग से बिजनेस चल पड़ा। और फिर दो-तीन साल बीतते-बीतते जिस मकान में किराए पर रहते थे, उसी से कुछ किलोमीटर आगे पापा ने एक पुराना मकान खरीद लिया। उसी में आज भी सब रहते हैं।

मकान काफी पुराना था। तो पापा बाद में धीरे-धीरे उसे तुड़वा कर नया बनवाते गए। बाद के दिनों में मैं समझ पाई कि, अगर यहां आकर पापा का काम-धंधा ना चल गया होता, तो मुझ पर मनहूस होने के और आरोप लगते, मेरी मुश्किलें और बढ़तीं। लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि अभी तो सबसे बड़ा घाव, सबसे बड़ी पीड़ा मिलनी बाकी है।'

'क्या! इसके बाद भी अभी कुछ और होना बाकी है?'

'हाँ अभी तो बहुत कुछ बाकी है। ऐसा नहीं है कि, प्लेस और मेरा परिचय बदलते ही सब कुछ बढ़िया हो गया। शुरू में तो कई महिने लगे नए स्थान पर खुद को एडजस्ट करने में। पापा के बिजनेस को रफ्तार पकड़ने में। मैं अपने बदले रूप से कुछ ही राहत महसूस कर रही थी। लेकिन समस्या कोई खत्म तो हुई नहीं थी। 

मौसा के जिन मित्र के जरिए मकान वगैरह आसानी से मिल पाया था उन्हीं के प्रयासों से ही हम-तीनों बहनों का घर से थोड़ी दूर पर एक इंटर कॉलेज में एडमिशन हो गया। भाई का दूसरे स्कूल में। शिफ्टिंग के कारण हम भाई-बहनों की पढ़ाई काफी दिन बर्बाद हुई थी। किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ। मैं जिस कॉलेज में थी, वह बस कस्बों में जैसे होते हैं, वैसा ही था। 

मैं अपने भीतर शुरू से ही यह मान कर चल रही थी कि, मेरी पढ़ाई अन्य सभी से ज्यादा इंपॉर्टेंट है। मुझे सेल्फ डिपेंड बनना है। मुझे मेरी स्थिति ने समय से पहले बहुत कुछ सिखा-समझा दिया था। मेरे साथ घर में जो व्यवहार होता था, वह भी मुझे बहुत कुछ सिखाता-समझाता था। मां-बाप ही नहीं भाई-बहन भी ज़्यादा से ज़्यादा काम मुझ पर ही डालते थे। मगर फिर भी अपनी पढ़ाई के लिए समय निकाल ही लेती थी। 

इसीलिए पढ़ाई पिछड़ने के बाद भी मैंने जूनियर हाईस्कूल में अपनी क्लास में टॉप किया। पूरे स्कूल में मेरी दूसरी पोजीशन थी। स्कूल में मैं एक दम से सभी टीचर, सभी स्टूडेंट के बीच फेमस हो गई। मेरी क्लास टीचर नाएला ने तो मुझे सिर-आंखों पर बिठा लिया। क्यों कि उनकी भी खूब चर्चा हुई। मैं आज भी मानती हूं कि, वो एक इंटेलिजेंट टीचर हैं। वो अपने स्टूडेंट पर जितना ध्यान देती थीं, उसका आधा भी और देती रहतीं तो हर साल उनकी कम से कम तीन-चार स्टूडेंट टॉप टेन में ज़रूर रहतीं।'

'वो लापरवाह किस्म की थीं क्या?'

 'नहीं, लापरवाह तो नहीं कह सकती। एक्चुअली उनकी पर्सनल लाइफ बहुत डिस्टर्ब थी। उनके हसबैंड वाराणसी में डी. एल. डब्ल्यू. हॉस्पिटल में सर्विस करते थे। वो चाहते थे कि, मिसेज या तो नौकरी छोड़ दें, या वाराणसी ही ट्रांसफर करा लें। नाएला जी ने बहुत कोशिश की मगर हो नहीं पा रहा था। बाद के दिनों में यह भी सुनने को मिला कि, नाएला जी नौकरी करें, वो यही नहीं चाहते थे। दोनों के बीच संबंध बहुत कटु थे। उनके तीन लड़के एक लड़की थी। नाएला चाहती थीं कि, कम से कम लड़की को उनके ही पास रहने दे। लेकिन हसबैंड कहते एक कस्बे में रख कर बच्चों का कॅरियर बर्बाद नहीं करना। 

बच्चे वाराणसी में ही अपनी दादी पापा के पास रहते। नाएला जी हर सैटरडे को अपने बच्चों के पास जातीं, और मनडे को लौट आतीं। घर से जब भी लौटतीं तो एक दो-दिन उनका मूड बहुत खराब रहता। क्योंकि हर बार पति से जमकर झगड़ा होता था। पति बार-बार उन्हें तलाक देने की भी धमकी देते थे। एक बार जब वह ईद मनाकर लौटीं तो, साथ की टीचरों ने अमूमन जैसा होता है ऐसे मौकों पर सिंवई वगैरह की बात कर दी। पहले तो वह बड़ी फीकी सी हंसी के साथ सबको टालती रहीं। लेकिन अचानक ही उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।

इससे सभी सकते में आ गए। सभी टीचरों ने सॉरी बोल कर उन्हें चुप कराया। उस दिन क्या फिर वह उस पूरे हफ्ते कोई क्लास ठीक से नहीं ले पाईं और सैटरडे को हसबैंड के पास गईं भी नहीं। एक बार एक टीचर ने उन्हें सलाह दी कि, ''जब हसबैंड नहीं चाहते तो छोड़ दीजिए नौकरी। इतने टेंशन के साथ जीने का क्या फायदा?'' 

तब नाएला जी ने जवाब दिया कि, ''अगर जॉब छोड़ने से टेंशन खत्म होती तो मैं यह भी सोचती। मगर मैं जानती हूं, तब मेरी तकलीफें और बढ़ेंगी। मुझे वो जीवन भर एक-एक पैसे, एक-एक चीज के लिए तरसा देंगे। मुझे वो घर में कैद एक नौकरानी बना कर रखना चाहते हैं। बल्कि यह कहें कि, नौकरानी से भी बद्तर एक ऐसी मशीन, एक ऐसी गुलाम चाहते हैं, जिसमें कोई इमोशंस, फीलिंग्स ही ना रहे। जो घर, बच्चे उनकी मां को देखे, ए-टू-जे़ड काम करे। और वो जब जैसे चाहें वैसे अपनी सेक्सुअल डिजायर पूरी करें।

मैंने बार-बार समझाया आखिर कमाती तो हूं सबके लिए ही ना। ज़्यादा पैसा होगा तो बच्चों की परवरिश, पढ़ाई-लिखाई सब कुछ ज़्यादा अच्छी हो सकेगी। लेकिन मेरी बातें उनकी समझ में ही नहीं आतीं। और सास वह जब तक जागती हैं, तब-तक बारूद के पलीते में आग ही लगाती रहती हैं। एक बुजुर्ग उससे पहले एक महिला के नाते वह झगड़ा खत्म कराने की कोशिश करेंगी ऐसा सोचना सबसे बड़ी मूर्खता करने जैसा है।'' नाएला जी ने आखिर में बड़े फायरी अंदाज में कहा था कि, ''मैंने इनसे, इनके सारे घर वालों से निकाह से पहले ही क्लीयर कह दिया था कि, मैं नौकरी नहीं छोड़ूंगी। मेरे पैरेंट्स ने भी क्लीयर कर दिया था कि, सरकारी नौकरी है, बड़ी मुश्किल से मिली है। नाएला की सारी काबिलियत के बावजूद लाखों रुपए रिश्वत और सालों रात-दिन दौड़ धूप के बाद मिली। तब इन लोगों ने कहा नहीं नौकरी से कोई दिक्कत नहीं है। आजकल तो इसी का दौर चल रहा है। 

मगर निकाह के बमुश्किल छह-सात महिने बीते होंगे कि, नौकरी से लेकर खाने-पीने, पहनने सभी चीजों पर सभी अपने हुकुम चलाने लगे।'' नायला जी इन सबकी रिंग-लीडर अपनी सास को अपनी खुशियों में आग लगाने वाली मानती हैं। मगर इन्हीं नाएला जी को इस बात का शायद ही अहसास हो, शायद ही उन्होंने कभी फील किया हो कि, उन्होंने कैसे मेरी लाइफ में आग लगाई। ऐसी आग कि, मैं चाहे जितनी बड़ी एचीवमेंट पा लूं, मगर मेरे हृदय पर जो आग जलाई है, वह इस जीवन में नहीं बुझेगी।' 

तभी बाहर कहीं करीब ही किसी ने बहुत तेज़ आवाज़ का पटाखा दगाया। जिस की भयानक आवाज़ से दोनों चौंक उठीं। रात बारह बज रहे थे लेकिन सारे क़ानून को धता बताते हुए प्रतिबंधित आतिशबाजी अभी भी रह-रह कर चल रही थी। हनुवा की बातें भी सांभवी के मन में आतिशबाजी ही कर रही थीं। बाहर हुए धमाके से चौंकने के बाद उसने सेकेंड भर में ही संभलते हुए पूछा, ''हनुवा क्या कह रही हो, तुम्हारी टीचर ऐसा क्या कर देंगी?' 

'सांभवी मैंने कहा ना कि, मेरे साथ जो हुआ है अभी तक, उसे किसी को बताओ तो वो शॉक्ड हुए बिना नहीं रह सकेगा। नाएला ने भी जो किया वो सुनकर तुम वैसे ही चौंकोगी जैसे अभी बाहर हुए धमाके से चौंकी थी।'  

'अरे ऐसा भी क्या?'

'हाँ सांभवी, नाएला जी ने बरसों-बरस मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।'

'क्या!!! कहते हुए सांभवी अपने बेड पर पूरी तरह उठ कर बैठ गई। वह अब-तक तकिया मोड़ कर उसे ऊंचा किए, उसी पर सिर टिकाए अध-लेटी सी बातें सुन रही थी। 

'मैंने कहा था ना सांभवी, ऐसी बात है जिसे सुनकर कोई चौंकेगा ही नहीं, उसके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। नाएला जी ही हैं जिन्होंने मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।'

'हाँ, मैं तो विलीव ही नहीं कर पा रही हूं। तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट वो भी एक लेडी, तुम्हारी ही क्लास टीचर करेगी।'

'ये शॉकिंग है। लेकिन सांभवी पूरी तरह सच है। ये आजकल गवर्नमेंट ने जो स्वच्छता-अभियान चलाया है ना, कि हर घर में टॉयलेट हो, कोई बाहर नहीं जाए। आज़़ादी के बाद पहले मुख्य कामों में यह भी होता तो, अब-तक सत्तर सालों तक टॉयलेट ना होने के कारण बाहर जाने पर लाखों महिलाओं-लड़कियों की इज्जत ना लुटी होती। उनकी हत्याएं नहीं हुईं होतीं। यह तब की सरकारों का फैल्योर है। जिसे खत्म करने की अब सोची गई। और देखते-देखते बहुत काम हो गया।

टॉयलेट की प्रॉब्लम न होती तो मेरे साथ जो हुआ वह नहीं होता और नाएला जैसी इंटेलीजेंट लेडी मेरी घृणा का शिकार नहीं होती। 

वह टीचर जिसने मुझे उस रास्ते पर आगे बढ़ाया, मेरी बराबर हेल्प की जिसके कारण मैं पैरेंट्स के इंट्रेस्टेड न होने के बावजूद भी बी.टेक कर पाई। इंजीनियर बन पाई। और तीन बार सरकारी नौकरी में सेलेक्ट हुई। लेकिन वो नौकरियां सिक्योरिटी फोर्सेस की थीं। वहां फिज़िकल टेस्ट में मेरी प्राइवेसी खत्म हो जाती। इसलिए मैंने क़दम वापस खींच लिए। इसके बाद किसी सरकारी नौकरी में सेलेक्शन हुआ ही नहीं। ना जाने कितने एक्जाम दिए। अब तो याद भी नहीं कि किस-किस के रिजल्ट आए किसके नहीं।'

'हनुवा शॉकिंग ये नहीं कि, तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट हुआ। दुनिया में सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस होते रहते हैं। मेरे लिए शॉकिंग यह है कि तुम्हारा हुआ। कई बच्चों की मां तुम्हारी लेडी टीचर ने किया। वो भी सालों-साल। और तुम्हें बराबर आगे भी बढ़ाती रहीं। तुम्हारा उन्होंने कॅरियर भी बनाया। वो तो मुझे हॉलीवुड की किसी साइकिक मूवी की मेन कैरेक्टर सी लग रही हैं, कि तुम टॉयलेट के लिए बाहर जाती थी और वो तुम्हें पकड़ लेती थीं।

'शायद तुम सही कह रही हो। वो कोई मनोरोगी भी हो सकती हैं। उनकी पर्सनल लाइफ ने हो सकता है उन्हें साइकिक बना दिया हो। लेकिन टॉयलेट वाली बात तुम समझ नहीं पाई। हुआ यह कि, जिस कॉलेज में थी वह कस्बे का एक सरकारी कॉलेज था। जिसकी खस्ताहाल बिल्डिंग थी। स्टूडेंट और स्टॉफ के लिए दो टॉयलेट थे। उसमें स्टूडेंट वाला तो यूज के लायक ही नहीं बना था। स्टॉफ वाले में ही हम स्टूडेंट भी जाते थे। दरवाजे, उनकी कुंडियां ऐसी थीं कि, उन्हें बंद करने का कोई फायदा नहीं था। हल्का सा खींचते ही खुल जाते थे। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ। 

मैंने भरसक दरवाजा बंद किया था। मैं उठकर खड़ी ही हो रही थी कि, नाएला जी आईं और एकदम से दरवाजा खींच कर खोल दिया। मैं एक घुटी हुई चीख सी निकालते हुए तड़पी। कपड़े बेहद टाइट होने के कारण मैं हड़बड़ाहट में उन्हें एकदम ऊपर खींच ही नहीं पाई और मेरी प्राइवेसी नाएला के सामने पूरी तरह तार-तार हो गयी। कुछ भी छिपाने को नहीं रह गया था।

नाएला जी भी मुझे एकदम आवाक स्टेच्यू बनीं देखती रह गईं। उस हड़बड़ाहट में भी मैं उनके चेहरे पर बार-बार भाव बदलते जा रहे हैं यह समझ रही थी। मैं कपड़ों को ऊपर कर बांधते हुए बुरी तरह रोए जा रही थी। तब उन्होंने कहा। ''चुप हो जाओ, मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगी। डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन तुम्हारे मां-बाप को झूठ नहीं बोलना चाहिए था।'' 

उनकी इस बात में गुस्सा साफ झलक रहा था। मैं बाहर निकल पाती कि, तभी वह बोलीं, ''छुट्टी में जाने से पहले मुझसे मिलकर जाना।'' मैं निकल ही रही थी कि, तभी दो टीचर और आ गईं। मुझे रोता देख उन दोनों ने एक साथ पूछा, ''अरे इसे क्या हुआ?'' मैं डरी कि नाएला जी अब इन दोनों को भी सब बता देंगी। लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से कहा,  ''कुछ नहीं, मैं जरा जल्दी में थी, ध्यान दिया नहीं, दरवाजा खोल दिया। इसी लिए रो रही है।'' ये सुनते ही मेरे जान मैं जान आ गई। उनमें से एक तुरंत बोलीं ,''इसमें इतना रोने की क्या बात है ? यह भी लेडी हैं, जेंट्स तो नहीं। चलो जाओ क्लास में।'' मैं आंसू पोंछते हुए क्लास में पहुंच गई। 

शाम को छुट्टी से एक पीरियड पहले ही नाएला जी ने मुझे अपने पास बुला लिया। मुझसे पूछ-ताछ शुरू की तो, मैंने सारी बात बता दी। पहले मार-पीट, यहां शिफ्ट करने, सुशील से सुमिता बनने तक की सारी कहानी। मैं बार-बार रो पड़ती। तो उन्होंने उस दिन बहुत समझाया। यह विश्वास दिलाया कि, कभी किसी से कुछ नहीं कहेंगी। अब मेरा कॅरियर बनाना उनकी ज़िम्मेदारी है। उन्होंने कहा, ''मैं तुम्हें इतना पढ़ा-लिखा दूंगी कि, तुम नौकरी में अच्छी पोस्ट पर काम कर सकोगी। जब तुम्हारे पास पैसा होगा, पावर होगी तो सभी तुम्हारे पीछे चलेंगे। तुम्हारे घर वाले भी तुम्हें अपने साथ बुला-बुला कर रखेंगे। तब तुम्हें किसी से छिपने या डरने की जरूरत नहीं होगी। तुम ओपेनली बाकी लोगों की तरह खुल कर जी सकोगी। जो चाहोगी वह कर सकोगी।'' फिर उन्होंने कई ऐसी थर्ड जेंडर के बारे में बताया जो एक सक्सेजफुल लाइफ पूरी इज्जत के साथ जी रहीं हैं। उन्होंने मुझे उस वक्त इतना प्रोत्साहित किया, इतना समझाया कि, मैं सारी टेंशन ही भूल गई।

मुझे लगा ही नहीं कि, अभी कुछ देर पहले तक मैं बहुत डरी हुई परेशान थी। आखिर में बोलीं, ''ठीक है घर जाओ।'' मैं उठ कर उन्हें नमस्ते कर चलने लगी तो, उन्होंने अचानक दोनों हाथों से मेरे चेहरे को पकड़ा और जल्दी-जल्दी मेरे गालों पर किस कर लिया। मैं उनके इस स्नेह प्यार से इतनी खुश हो गई कि, बता नहीं सकती। उन्हें देखती खड़ी रह गई, तो मुस्कुराती हुई बोलीं, ''जाओ।'' चलने को मुड़ी तो मेरी पीठ और हिप पर भी हल्की-हल्की धौल जमा दी। 

अपनी टीचर के इस प्यार से मेरे क़दम हवा में पड़ रहे थे। तब मुझे इस बात का अहसास ही नहीं था कि, इसी प्यार के पीछे वह डंक है, जो बस कुछ ही दिनों में मुझे लगने वाला है। यह प्यार वह जाल है, वह क्षद्मावरण है, जो शिकारी अपने शिकार को फंसाने के लिए फैला रहा है।' 'ये डंक तुम्हें कितने समय बाद लगा?'

सांभवी का क्योश्चन सुन कर हनुवा ने कहा, 'तुम्हें नींद नहीं आ रही क्या?'

'नींद आती कहां है? मैं यहां हूं तो मन कभी घर, तो कभी अगले महिने की सात तारीख पर चला जा रहा है। इस बार अच्छी एम. एन. सी. में जॉब मिली है। ऑफर लेटर मिल चुका है। सैलरी पैकेज जो मिला है, वह मेरी उम्मीद से कहीं बेहतर है। मैं इतनी एक्साइटेड हूं इस जॉब को लेकर कि एक-एक घंटे का इंतजार लगता है, जैसे कई सालों का है। और इन सबसे बड़ी चीज ये कि, तुम्हारी लाइफ-हिस्ट्री सुन कर मैं इतना शॉक्ड हूं कि, सारी बातें सेकेंड भर में जान लेना चाहती हूं।

इतने तरह के प्रेशर के बाद कहीं नींद आती है क्या? वैसे भी जब से हम-लोग जॉब के लिए यहां आए हैं, तब से खाने-पीने, सोने-जागने की कोई टाइमिंग रह गई है क्या? पर्सनल लाइफ क्या होती है यह सब तो भूल ही गई हूं। कभी-कभी लगता है कि, हम-लोगों से अच्छी तो वो लड़कियां हैं, जो जहां तक हुआ पढ़ी-लिखीं। पैरेंट्स ने शादी कर दी, अपने हसबैंड बच्चों के साथ जी रहीं है। बेवजह सेल्फ-डिपेंड होने का नशा पाल लिया। जब देखो तब नौकरी की चिंता, आज है कल रहेगी इसका पता नहीं। और सरकारी नौकरी सपने से कम नहीं। उसका तो सपना देखना भी पाप है।'

सांभवी ने बेड पर पहलू बदलते हुए अपनी बात कही। उसकी बातों में, आवाज़ में उसकी तकलीफ छल-छला पड़ी थी। जिसे हनुवा ने बड़ी गहराई से फील किया। कुछ देर तक चुप उसे देखती रही। फिर कहा, 'सांभवी,  तुमने सेल्फ-डिपेंड होने का जो डिसीजन लिया वह बिल्कुल ठीक है। हम- लोग जैसी दुनिया में जी रहे हैं, उसमें तो लड़कियों का सेल्फ-डिपेंड होना बहुत ही जरूरी है। पैरेंट्स सभी के जल्दी से जल्दी लड़कियों की शादी कर देना चाहते हैं। मगर डॉवरी की आंधी में लड़की, पैरेंट्स दोनों की सारी इच्छाएं उड़ जाती हैं।

लड़कियों को आगे बढ़ाने, सेल्फ-डिपेंड बनाने की जो मेंटेलिटी डेवलप हुई अपने कंट्री में, मेरा मानना है वह ओनली-डॉवरी के ही कारण हुई। जिस तरह से लड़कियों को जलाया जाता है, उनका गला घोंटा जाता है, हाथ-पैर तोड़ा जाता है, जहर दिया जाता है, इसके बाद तो लोगों के सामने यही एक सॉल्यूशन बचा है। क्यों कि डॉवरी की डिमांड इतनी ज़्यादा है कि, उसे अरेंज करने में ही पैरेंट्स दिवालिया हो जाते हैं। किसी तरह एक बार अरेंज कर शादी कर भी दी, तो भी उसके बाद बराबर डिमांड बनी ही रहती है। पैरेंट्स, लड़की, सभी की सारी खुशियां इसी में तबाह हो जाती हैं।'

'तुम सही कह रही हो हनुवा, मेरे पैरेंट्स हम सभी भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई कराते-कराते फिनांशियली इतना वीक हो गए हैं कि क्या बताऊं। हालत यह है कि, कभी बिजली का बिल नहीं जमा होता, तो कभी हाउस, वॅाटर टैक्स। कहीं घूमना-फिरना तो जैसे हम-लोग जानते ही नहीं। पहले जब डॉवरी वगैरह की प्रॉब्लम नहीं समझती थी, तो यही सपने देखती थी कि पढ़ाई-वढ़ाई में समय बरबाद नहीं करूंगी। जल्दी से शादी करूंगी, तीन-चार बच्चे पैदा करूंगी। उन्हें लेकर लाइफ को एंज्वाय करूंगी। 

तब ऐसे सपने मैं और ज़्यादा देखने लगी थी, जब अपनी कॉलोनी ही की एक लड़की की खूब धूम-धाम से शादी, फिर उसके बच्चे, आदमी को मायके आने पर देखती। वह परी सी दिखती थी। वह बड़ी रिच फैमिली में गई  थी। 

जब अपनी बड़ी सी कार से आती, तो उसे देखने के बाद मैं कई-कई दिनों तक वैसी ही लाइफ के सपने देखती। लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुई। अपने पैरेंट्स की फिनांशियल हैसियत और डॉवरी के अभिशाप को जाना, वैसे-वैसे सारे सपने मिट्टी में मिला दिए। भूला दिया ऐसे सपनों को। समझ गई कि, अपनी लाइफ सिक्योर्ड करनी है, सेल्फ-डिपेंड बनना है तो पढ़ना है, कॅरियर बनाना है। 

हम सारे भाई-बहनों ने यही किया। पैरेंट्स इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि, लड़कियों की शादी कहां से करूं। हम सारे भाई-बहन नौकरी कर रहे हैं। प्राइवेट ही सही, लेकिन बात वही है कि, किसी की शादी के लिए लाखों रुपए दो-चार साल में तो इकट्ठा नहीं हो जाएंगे। 

पैरेंट्स हम सब की कुल इंकम का फिफ़्टी परसेंट जमा कर रहें हैं। लेकिन मुझे लगता है कि, अपनी फ़ैमिली के स्टैंडर्ड की शादी के लिए जितना चाहिए, उतना इकट्ठा करते-करते तो दस-पंद्रह साल निकल जाएंगे। तब-तक तो हम बहनें पैंतीस-चालीस की हो जाएंगे। इस उम्र में शादी और काहे की शादी। कुल मिला कर यह कि, हम बहनों का शादी के बारे में सोचना ही मूर्खता है, तो कम से कम मैंने तो सोचना बंद कर दिया। भाई जब से नौकरी में लगा है, तब से उसकी शादी के लिए लोग आ रहे हैं। मगर वो मूर्ख मानता ही नहीं। कहता है कि, बड़ी बहनों के रहते मैं कैसे कर सकता हूं।

पहले पैरेंट्स नहीं तैयार हो रहे थे। हम बहनों ने उनको किसी तरह तैयार किया कि, हम बहनों के चक्कर में भाई की ज़िदगी तबाह करना कहां की समझदारी है, तब वो तैयार हुए। मगर मेरा भाई इमोशनली बहुत वीक है। तैयार नहीं होता। कहता है कि, ''मान  लो कोई ऐसी लड़की आ गई, जो कहे कि, तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकते। सबको बाहर करो। रोज झगड़ा करने लगे। तब तो और बड़ी प्रॉब्लम खड़ी हो जाएगी। कहां जाओगी तुम सब।'' उस मूर्ख को हम बहनें समझाते हैं कि, अगर ऐसा हुआ तो कोई बात नहीं। हम अब इतना कमाते हैं कि अलग किराए पर मकान लेकर रह लेंगे।

आगे पैसे इकट्ठा कर के कोई दूसरा मकान रहने भर का बनवा लेंगे। मगर जितना हम-लोग उसको समझाते हैं, पलटकर उसका दुगुना वह हम सबको समझाने लगता है। अब तो ऐसे विहैव करता है, जैसे घर का सबसे बड़ा वही है। इधर साल भर से पापा-अम्मा से रोज बहस झगड़ा करता है कि, ''मकान बेच कर बहनों की शादी कर दो। दुनिया में बहुत लोग किराए पर रहते हैं। हम-लोग भी रह लेंगे।'' वो लोग नहीं माने तो उनकी इंसर्ट करने लगा। कि, ''आप लोगों को अपनी लड़कियों के फ्यूचर से ज़्यादा, अपनी प्रॉपर्टी प्यारी है।'' इस पर भी पैरेंट्स नहीं माने तो घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देने लगा। आखिर रोज कहते-कहते मम्मी-पापा को मना ही लिया। अब मकान बेचने और हम बहनों की शादी ढूंढ़ने का काम एक साथ चल रहा है। हम बहनों की बात सुनी ही नहीं जा रही है।' 

सांभवी की बातों को ध्यान से सुन रही हनुवा ने खुश होते हुए कहा, 'तुम बहनों को तो खुश होना चाहिए कि ऐसा भाई मिला है। नहीं तो आजकल कौन भाई बहनों के लिए इतना सोचता है। सब सेल्फ डिपेंड होते ही शादी-वादी कर अपनी दुनिया में खो जाते हैं। परिवार को पूछते ही नहीं।'

'हाँ ये तो है। लेकिन ये भी तो सही नहीं कि, हम बहनें ऐसे भाई, पैरेंट्स के लिए इतने सेल्फिस हो जाएं। मकान बेच कर जहां किसी तरह खींच-तान कर हम-तीनों की शादी हो जाएगी। वहीं परिवार के बाकी तीनों सदस्य तो परेशानी में आ जाएंगे ना। फिर जो माहौल चल रहा है, उसे देखते हुए इस बात की क्या गारंटी कि, शादी के बाद हम-तीनों खुश ही रहेंगे।

और फिर भाई की सर्विस भी कोई सरकारी नहीं है। कोई सिक्योर्ड जॉब नहीं है। आज है कल रहेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। हमीं लोग कितनी जॉब छोड़ चुके हैं। जॉब शुरू करके साल-डेढ़ साल आगे बढ़ते हैं कि, तभी अचानक ही नौकरी चली जाती है। हम विनिंग लाइन से सेकेंड भर में स्टार्टटिंग प्वाइंट पर पहुंच जाते हैं।'

'हाँ, लेकिन फिर भी मुझे तुम्हारे भाई का सॉल्यूशन, उसका विज़़न ही सही लग रहा है। तीनों बहनों की शादी हो जाएगी। किराए पर रहते हुए भी उसकी शादी में अड़चन नहीं आएगी। और जो व्यक्ति इतना ब्रॉड माइंडेड होता है, वो भविष्य बेहतर बनाने में भी सक्षम होता है। वह मकान वगैरह सब बना लेगा। ऐसे विज़नरी ब्रॉड माइंडेड, ब्रॉड हार्ट वाले लोग मिलते कहां हैं? सांभवी यहां अगर मैं ठीक होती ना तो, तुमसे सिफारिश करती कि, अपने भाई से मेरी शादी करा दो।' इतना कह कर हनुवा खिलखिला कर हंस पड़ी। 

सांभवी भी हंस दी। उसे हनुवा की बात से ज़्यादा आश्चर्य इस बात का था कि, इतने दिनों में वह पहली बार हनुवा को ऐेसे खिलखिला कर हंसते देख रही थी। लेकिन यह सब बस कुछ ही सेकेंड का था। हनुवा की हंसी बादलों में क्षण-भर को कौंधी बिजली की तरह गायब हो गई। फिर से पूरे चेहरे पर कसैलेपन की रेखाएं उभर आईं । सांभवी को उसकी हालत समझते देर नहीं लगी। मगर कहे क्या? उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। तभी हनुवा ही बोल पड़ी,

'सांभवी माफ करना हम जैसों को तो ऐसे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है। हम ना किसी के हो सकते हैं, ना किसी को अपना सकते हैं। किसी के साथ अपने को मज़ाक में भी जोड़ना हमारे लिए पाप ही है।'

'ओफ्फो हनुवा! तुम भी ना कभी-कभी तुम्हारी बातों से लगता ही नहीं कि, तुम इक्कीसवीं सदी की पढ़ी-लिखी पर्सन हो। कैसी-कैसी बातें दिमाग में भर रखी हैं। यार इतना टेक्निकल नहीं होना चाहिए।'

'मैं टेक्निकल नहीं हूं। सांभवी देखो ना, अभी तुम्हें सिर्फ़ एक सेंटेंस बोलने में कितनी मुश्किल हुई। तुम आसानी से यह भी नहीं बोल पाई कि, मैं इक्कीसवीं सदी की एक पढ़ी-लिखी गर्ल हूं। बड़ी कोशिश करके तुमने एक रास्ता निकाला, मुझे पर्सन बोला। मेरा जेंडर तय नहीं कर पाई।

सांभवी हम जैसों को तो नेचर ही ने इतना टेक्निकल बना दिया है कि, हम और टेक्निकल होने की सोच ही नहीं सकते। हमारी टेक्निकल्टी इतनी ज़्यादा है कि, हमारे यहां के कानूनविदों को पैंसठ साल लग गए फॉर्मों में हमारे लिए थर्ड-जेंडर का तीसरा कॉलम बनाने में। अब तुम्हीं बताओ इस हालत में हम जैसे लोग सोच भी सकते है टेक्निकल होने की?'

 'सॉरी हनुवा मुझे नहीं मालूम था कि, तुम इतना नाराज हो जाओगी।'

'अरे कैसी बात कर रही हो सांभवी, तुम तो मेरी जान बन चुकी हो। नाराजगी शब्द तुम्हारे लिए मेरी डिक्सनरी में है ही नहीं।'

इतना कहते-कहते हनुवा ने कुछ ही देर पहले ही, फिर से सामने आ बैठी सांभवी को गले लगा लिया। और जब उससे अलग हुई तो, उसकी आंखें भरी हुई थीं। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें सुर्ख हो गई थीं। बहुत ही भर्राई आवाज़ में बोली,

'फिर ऐसा ना सोचना, तुम्हें मैं अपना हिस्सा मान चुकी हूं। मेरा मन यही कहता है कि, इस दुनिया में अब सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हीं हो मेरी। तुमने अगर छोड़ा तो मेरे सामने मरने के सिवा कोई रास्ता ही नहीं होगा।'

हनुवा की भावुकता के सामने सांभवी भी ठहर ना सकी। अब उसने हनुवा को अपने गले से चिपका लिया। बोली, 'हनुवा-हनुवा मेरी हनुवा, मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। अब तुम ही मेरी सब कुछ हो। सब कुछ।'

इतना कहते हुए जब सांभवी अलग हुई तो उसकी भी आंखें भरी थीं। कुछ सेकेंड वह हनुवा के चेहरे को अपलक देखती रही फिर बोली, 'तुम्हारी उस टीचर ने तुम्हें किस तरह डंक मारा कि, तुम जीवन भर उसके दर्द को महसूस करोगी, यह तो बताया ही नहीं। बातों का ट्रैक ही बदल गया। कहां से कहां चले गए हम दोनों।'

'हां सही कह रही हो तुम। बात तो मैं अपनी टीचर की कर रही थी। मन तो नहीं करता कि, उनके लिए टीचर जैसे पवित्र शब्द का प्रयोग करूं। लेकिन मेरा कॅरियर बनाने में उनका इतना बड़ा हाथ है कि, या ये कहें कि, एक-मात्र उन्हीं का हाथ है, जिसकी वजह से उन्होंने मुझे जो पीड़ा दी जीवन भर की, उसे मैं थोड़ा साइड कर देती हूं। 

गुस्सा तो बहुत आता है। लेकिन फिर भी उनके लिए मन में कोई गंदा शब्द नहीं आता। कोई गाली नहीं आती। उस दिन जब स्कूल से बड़े प्यार दुलार से शाम को मुझे घर भेजा तो मैं बहुत खुश थी। लेकिन मैंने घर में किसी को कुछ नहीं बताया। अगले दिन स्कूल में नाएला जी ने मुझसे कहा कि, उनके घर पर शाम को छः बजे तक कुछ लड़कियां पढ़ने आती हैं। मैं भी आ जाया करूं तो वह पढ़ा देंगी। इससे मेरे मार्क्स और अच्छे आएंगे। 

मैं अपने घर और अपने बारे में उन लोगों की इच्छा-अनिच्छा सब जानती थी, और यह भी कि, मुझ पर एक पैसा भी एक्स्ट्रा खर्च करने वाले नहीं है। अलग से ट्यूशन की तो बात ही नहीं उठती। 

इसलिए मैंने उनसे साफ कह दिया कि, मैं नहीं आ सकती। मेरे मां-बाप फीस-किताब ही मुश्किल से देते हैं। ट्यूशन का नाम सुनते ही मार भी सकते हैं। इस पर वह बोलीं, ''मैं तुम्हें पढ़ाई-लिखाई में इतना आगे बढ़ाना चाहती हूं कि, तुम आगे चल कर किसी पर डिपेंड ना रहो। बल्कि घर की भी हेल्प कर सको। इतने अच्छे मार्क्स लाओ कि तुम्हें मैं स्कॉलरशिप दिला सकूं। पढ़ाने के लिए मैं तुम्हारे पैरेंट्स से एक पैसा नहीं चाहती।'' 

मैंने घर पर कहा, तो मुझे झिड़क दिया गया। अगले दिन नाएला जी ने सारी बात सुनने के बाद भी हार नहीं मानी। तीन-चार दिन में दुकान पर फादर से बात कर ली। फादर की दुकान के बगल में ही पीसीओ था। ज़रूरत पड़ने पर हम-लोग उसी पर संपर्क करते थे। नाएला जी फादर को कंविंस करने में सफल रहीं। और अंततः पांचवें दिन से मैं उनके घर पढ़ने जाने लगी। मेरे अलावा चार लड़कियां और आतीं थीं। 

मेरे घर से उनका घर करीब बीस मिनट की दूरी पर था। ऊपर दो कमरे का मकान उन्होंने किराए पर लिया था। नीचे मकान मालिक रहते थे। पढ़ाते समय वो किसी एक लड़की को बोल कर सबके लिए चाय बनवातीं। अपना प्रिय पारले जी बिस्कुट खुद भी खातीं और हम सबको भी देतीं। कमरे में वह एक तखत पर कभी लेटे-लेटे पढ़ातीं, तो कभी बैठ कर। कोई निश्चित टाइम नहीं था। कभी डेढ़ घंटा, कभी दो घंटा। 

पढ़ना शुरू करने के बाद जब दूसरा संडे आया तो, उन्होंने कहा, ''कल भी दोपहर तक आ जाना। बता कर आना कि देर से आऊंगी।'' इतने दिन की पढ़ाई से मैंने खुद अपनी पढ़ाई में फ़र्क महसूस किया था। घर वालों ने भी। मेरी तरह वो लोग भी इंप्रेस थे। इस लिए संडे को मैं करीब एक बजे पहुंच गई। उस समय वो हफ्ते-भर के कपड़े धुल चुकीं थीं। कमरे से लगी अच्छी-खासी बड़ी सी छत पर तार की अरगनी पर फैला रही थीं। 

उन्होंने जो मैक्सी पहन रखी थी वह भी करीब-करीब पूरी भीगी थी। बदन से मैक्सी चिपक-चिपक जा रही थी। वह मुझे बड़ी अजीब लग रही थीं। सामने से मैक्सी का काफी हिस्सा ऊपर तक खुला था। चलने पर उनकी जांघें तक खुल जाती थीं। उनका गोरापन देखकर मैंने सोचा टीचर जी का आधा गोरापन भी मिल जाता हम भाई-बहनों को तो कितना अच्छा था। वह मुझे कमरे में बैठने को बोलकर काम में लगी रहीं। 

मैं घर में काम करने की आदी तो थी ही। उनको ऐसे मेहनत करते देख कर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने हेल्प करने की कोशिश तो वो नहीं मानीं। लेकिन मैंने भी उनकी बात नहीं मानी। उनके लाख मना करने पर भी हेल्प की। बाल्टी में चादरें थीं, उन्हें भी धुल कर डाला। कपड़ों के बाद वो पूरी छत धोकर नहाना चाहती थीं। मैंने कहा आप नहाइए, छत मैं धोऊंगी। वो बड़ी मुश्किल से मेरी बात मानीं। 

मैंने देखा छत बीच-बीच में तो धो ली जाती है, लेकिन किनारे-किनारे दिवारों के पास बहुत गंदी है। मैं अपनी सफाई पसंद नेचर के चलते एक-एक कोने को पूरी तरह साफ कर जब कमरे में पहुंची, तब-तक नाएला जी दो कप चाय, एक प्लेट में बिस्कुट, ढेर सा सेवड़ा, (मैदा से बनीं नमकीन) और दो लौंगलता तखत पर रख चुकी थीं।

मुझसे उसी पर बैठने को कहा। हम सभी स्टूडेंट उनके सामने जमीन पर दरी बिछा कर बैठते थे। मैंने संकोच में नीचे ही बैठने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानीं। तखत पर उन्हीं के सामने बैठी। बीच में नाश्ता था। पहले मिठाई फिर नमकीन, चाय हम-दोनों ने खाई पी। मुझे वो बार-बार खाने को कहतीं तभी मैं लेती थी। 

मैं बहुत डर रही थी। नाश्ते के दौरान ही उन्होंने पढ़ाई की बातें शुरू कर दीं थीं। मगर जल्दी ही बातों का ट्रैक उन्होंने बदला। यह समझाने की कोशिश की, कि हमारे यहां का एजुकेशन सिस्टम केवल नौकरी के लिए ही तैयार करता है। स्टूडेंट को वह एजूकेट नहीं करती सिर्फ़ लिटरेट करती है। उन्हें अन्य डेवलप्ड कंट्रीज की तरह ऐसा नहीं बनाती कि, अपने नेचुरल टैलेंट का वो कोई यूज कर पाएं। इतनी बातें करते-करते उन्होंने फिर ट्रैक बदला और मेरी जैसी ट्रांसजेंडर की स्थिति क्या होती है समाज में यह बताने लगीं। इस बीच नाश्ता खत्म हो चुका था और मैं प्लेट वगैरह किचन में रख आई थी। जब मैं लौटी तो वो तख्त पर लेट गई थीं। मैंने सोचा अब पढ़ाएंगी। अक्सर वह पढ़ाते-पढ़ाते लेट जाती थीं। 

मैं यह सोच कर दरी बिछाने और किताबें निकालने को हुई, तभी उन्होंने अपनी बगल में तख्त पर ही बैठने को कहा। उनकी जिद पर मैं बिल्कुल उनके पैरों के पास बैठी। लेकिन वो फिर जिद कर बैठीं और मुझे बीच में बैठाया। मैं उनके चेहरे की ओर मुंह किए उनके पेट के नजदीक ही बैठी। मेरे बैठते ही उन्होंने करवट ली। उनका पेट मुझसे छूने लगा। मैं उनकी जिद के कारण हट नहीं पा रही थी। कुछ ही देर में उनकी हरकतों से मैं सहमने लगी, उनकी बातें मुझे डराने लगीं। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए कहा कि, ''तुम्हारी जैसी ट्रांसजेंडर को हिजड़ों का समूह उठा ले जाता है। शरीर के कई हिस्सों को अपने धंधे के हिसाब से अंग-भंग कर देता है। अगर उनको मालूम हो जाएगा तो वो तुम्हें जबरदस्ती उठा ले जाएंगे। घर वाले, पुलिस, कोई उन्हें रोक नहीं पाएगा।''

लगे हाथ एक घटना भी बता दी कि, मेरे जैसी किसी ट्रांसजेंडर को वो ऐसे ही ले जा रहे थे। घर के लोगों ने रोका तो वो झगड़ा करने लगे। पुलिस आई तो वो सब नंगे होकर लड़ने पर उतारू हो गए। पुलिस भाग गई। शहर-भर के हिजड़े इकट्ठा हो कर उस लड़की को लेते गए। आज वो उन्हीं की तरह नाचने-गाने का काम करती है। बेइज्जती के कारण उसके फादर-मदर ने सुसाइड कर लिया। बाकी बच्चों को भी जहर दे दिया था। सब के सब मर गए। 

मैं ये सब सुनकर रोने लगी। तो उन्होंने मुझे अपने से और चिपका कर आंसू पोंछते हुए कहा, ''हनुवा तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगी। मैं तुम्हारा कॅरियर ऐसा बना दूंगी कि, तुम बाकियों के लिए एक एक्जॉम्पिल बन जाओगी।'' उन्होंने पहले की तरह फिर कई ऐसे ट्रांसजेंडर्स की बात की जिन्होंने ने अपनी इस समस्या से पार पा के अपना एक स्पेस बनाया। 

मैं इस बीच बार-बार यह भी फील कर रही थी कि, नाएला जी के हाथ मुझे ऐसी जगह भी टच कर रहे हैं, सहला रहे हैं, जहां मेरी समझ से उन्हें टच नहीं करना चाहिए था। सांभवी उन्होंने मुझे यह कह कर सबसे ज़्यादा डरा दिया कि, हम जैसे लोग समाज में महाभारत काल से ही एकदम कोने में फेंके जाते रहे हैं।

एक उदाहरण तब का बताया, जब भगवान राम के अयोध्या वापस आने पर नगरवासी उत्सव मना रहे थे। देर हुई तो राम ने सारे नर-नारियों, बच्चों, बूढों को घर जाकर सोने आराम करने को कहा। लेकिन जो ट्रांसजेंडर थे उन्हें कहना भूल गए। और ये ट्रांसजेंडर राजा राम का आदेश ना मिलने के कारण रात-भर नाचते रहे। अगले दिन राम ने पता होने पर खेद प्रकट किया।

दूसरा उन्होंने ऐसा प्रमाण दिया, जिस पर डाउट करने का मेरे पास कोई रीजन नहीं था। उन्होंने कहा, 'तमिलनाडू में एक जिला बिल्लूपुरम है। वहां कुआगम गांव में महाभारत के काल से ही एक परंपरा चली आ रही है। गांव के एक मंदिर कुठनद्वार में साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता है। जिसमें देशभर से सारे ट्रांसजेंडर इकट्ठा होते हैं। वहां उनकी एक दिन के लिए शादी होती है। फिर मंदिर का पुजारी उनके मंगलसूत्र तोड़-कर उन्हें विधवा बना देता है। वो असली विधवाओं की तरह खूब विलाप करती हैं। यह परंपरा तब से शुरू हुई जब महाभारत युद्ध चरम पर था। उसी समय अर्जुन और उनकी नागवंशी पत्नी चित्रांगदा के पुत्र अरवाण ने युद्ध में भाग लेने से एक दिन पहले विवाह की इच्छा प्रकट कर दी। 

सभी बड़े असमंजस में पड़ गए। कृष्ण ने पूरे युद्ध की तरह यहां भी छल-छद्म का इस्तेमाल किया। एक खूबसूरत स्त्री का रूप धारण कर अरवाण से विवाह कर लिया। मगर अरवाण रात-भर अपनी सुहागरात नहीं मना सका। कृष्ण का मोहिनी रूप उसे कंफ्यूज किए रहा। उसे बार-बार ऐसा महसूस होता कि, उसकी पत्नी के शरीर से कभी माखन की, तो कभी मिसरी की खुशबू आ रही है। कृष्ण अपने हाव-भाव से रात-भर उसे कंफ्यूज किए रहे। और सवेरा हो गया। अरवाण अपनी अधूरी सुहागरात की पीड़ा लिए युद्ध मैदान में चला गया। 

उसके भयानक संग्राम से विपक्षी सेना में हा-हा कर मच गया। वह पत्थर का रूप धारण कर दुश्मनों पर लुढकता चला जा रहा था। उन्हें कुचलता मारता जा रहा था कि, तभी उसने देखा कि, उसकी पत्नी रोती, चीखती-चिल्लाती अपने सुहाग चिह्नों को मिटाती, तोड़ कर फेंकती चली आ रही है। यह देख कर अरवाण को संतोष हुआ कि, उसके बाद उस पर आंसू बहाने वाला कोई तो है। कहते हैं कि, इसी अरवाण का पत्थर बना सिर कुठनद्वार मंदिर में है। जिसकी पूजा तभी से सारे ट्रांसजेंडर करते आ रहे हैं। मेले वाले दिन आज भी दुनिया भर से सारे ट्रांसजेंडर यहां आते हैं।'

'अरे यार एक बार तो इस मेले में चल कर देखना चाहिए कि, सच क्या है?'

 'नहीं सांभवी, मैं वहां के नाम से कांपती हूं। वहां लाखों हिजड़ों में से किसी ने भी यदि मेरी सच्चाई जान ली तो मैं बच नहीं पाऊंगी। कहते हैं वो सब ट्रांसजेंडर्स को सात तहों में भी पहचान लेते हैं। तुम वहां से अकेले ही आओगी। मैं तभी से कुवागम नाम से ही सिहर उठती हूं, जब उस दिन नाएला जी ने इन किस्सों के साथ-साथ ढेर सारे ऐसे ही और किस्से बताए। मुझे थर्ड जेंडर की उन्होंने जो दुनिया दिखाई, उससे मैं तभी से हर पल डरती-कांपती रहती हूं। अपने को बचाए रखने का कौन सा जतन नहीं करती हूं। यह डर ही है कि, मैं फूट-फूट कर उनके सामने रोती रही कि, मुझे वो जल्दी से वह बना दें कि, मैं सुरक्षित होकर लोगों के लिए एक्जाम्पिल बन जाऊं। मेरे उस भय का ही उन्होंने फायदा उठाया। 

मेरी सारी फिज़िकल कंडीशन को थॉरोली समझ कर, मेरे लिए वो एक प्लान बना कर आगे बढ़ सकें, इसके लिए चेक करने के नाम पर उन्होंने मेरे सारे कपड़े अलग कर दिए। मेरे अंगों से खेलती खुद भी नेकेड हुईं। और मेरा जी भर कर सेक्सुअल हैरेसमेंट किया। उस दिन पढ़ाई के नाम पर तीन घंटे मुझे रोका। इस सारे समय चेकअप के नाम पर मेरा हैरेसमेंट करतीं रहीं। और फिर यह बरसों-बरस चला।'

 इतना कहते-कहते हनुवा फिर रोने लगी। सांभवी ने उसे चुप कराते हुए कहा, 'ओह गॉड! टीचर होकर तुम्हारे साथ ऐसा किया। और बरसों तक करती रहीं। आश्चर्य तो यह है कि, फिर भी इतने सालों बाद भी तुम्हारे मुंह से उसके लिए एक भी गलत शब्द नहीं निकलता। यार तुम क्या हो? तुम क्या-क्या सहन करती आई हो, कितना सहन करती हो, तुमने उसी दिन अपने पैरेंट्स से क्यों नहीं बताया? मान लो डर के मारे नहीं बताया। लेकिन यह भी तो कर सकती थी कि, अगले दिन से उस गंदी औरत के पास जाती ही नहीं। तुम्हें नहीं लगता कि, तुमने बड़ी गलती की, जिस कारण वह सालो-साल तुम्हारा शोषण करती रहीं।'

'सांभवी ये पॉसिबल नहीं था।'

'क्यों?'

'क्योंकि जब तीन घंटे बाद उन्होंने मुझे घर जाने के लिए छोड़ा तो एक तरह से साफ-साफ धमकी दी कि, घर में बताया तो वो मेरी सारी बातें सब को बता देंगी। वहां जो हिजड़े हैं, उन्हें भी बता देंगी। वो सबसे यही कहेंगी कि, पढ़ने के लिए डांटा-मारा तो मैंने उन पर झूठा आरोप लगा दिया। मेरी बात पर कोई यकीन नहीं करेगा। उनके पास जाना मैं इसलिए नहीं छोड़ सकती थी, क्योंकि घर पर उन्होंने सबको यकीन दिला रखा था कि, वो मेरा कॅरियर ऐसा बना देंगी कि, मैं परिवार पर कोई बोझ ना रह कर परिवार की ताकत बन जाऊंगी।

 मेरी पढ़ाई में जो परिवर्तन घर वालों ने देखा था उससे वो नाएला जी के जबरदस्त प्रभाव में थे। वो नाएला जी की ही बात मानते। सबसे ज़्यादा मैं इस बात से परेशान थी कि, उन्होंने वहां के हिजड़ों को मेरी बात बता देने की धमकी दी थी। मेरे खिलाफ उनके हाथ में यह एक ऐसा ब्रह्मास्त्र था जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। तुम्हीं बताओ क्या मेरे पास कोई जवाब हो सकता था?'

हनुवा इतना कहकर सांभवी को देखने लगी तो वह बोली, 'सच कहूं हनुवा कि, ऐसी स्थिति में मुझे भी कोई रास्ता नहीं सुझाई देता। मैं तुम्हारी जगह होती तो इतना तो यार तय था कि, मैं क्या रिजल्ट होगा इसका खयाल ना करती। और वहां जो कुछ मेरे हाथ लगता, उसी से उस निम्फोनिएक लेडी को मार देती। निश्चित ही मैं यही करती। खैर जब इतनी गिरी हुई औरत थी, तो तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कॅरियर का उसने क्या किया, जब-जब वह तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट करती थी तब-तब तुम उसे मना करने की कोशिश नहीं करती थी क्या?

'सांभवी उस समय मैं बड़ी ही अजीब, बड़ी ही क्रिटिकल सिच्यूएशन में थी। उनके सामने पड़ते ही मैं कसाई के सामने पड़ गए मेमने की तरह कांपती थी। एक ऐसी खिलौना बन जाती थी,जिसका रिमोट उनके हाथ में था। वो जैसा चाहती थीं मुझे वैसा ही चलाती थीं। और-और मैं, एक्चुअली उन्होंने अपना काम आसान, परफेक्ट बनाए रखने के लिए मुझे अपनी स्थिति, अपने शरीर को एंज्वाय करने की आदत डाली। सेक्स के हर पहलू से परिचित करा कर, वो मुझे ऐसा बना देना चाहती थीं कि, मैं खुद उनके पास पहुंचूं। 

काफी हद तक वो अपने काम में सफल रहीं। मैं खुद तो उनसे क्या पहल करती, लेकिन वो जब मुझे यूज करतीं तो मुझे कोई गुस्सा या खीझ नहीं होती थी। हां जब कभी-कभी वह बहुत ही ज़्यादा एग्रेसिव हो जातीं तो मुझे तकलीफ होती। और मैं अलग होने की कोशिश में उन्हें धकेल तक देती। मगर वह फिर इतने प्यार से करीब आतीं कि मेरा गुस्सा खत्म हो जाता। 

मैं अपनी भी गलती बताऊं कि, उनसे बचने की मैं पूरी कोशिश नहीं कर पाती थी। आधी-अधूरी ही करती थी। या शायद तब इतनी समझदार ही नहीं थी। पूरी कोशिश करती तो शायद वो उतना शोषण ना कर पातीं जितना किया। एक बात और कि, वह अपनी बात की बहुत पक्की थीं। वो मेरी पढ़ाई-लिखाई पर अब और ज़्यादा ध्यान देती थीं। उन्हीं के कारण मैं बी.टेक कर सकी। उन्होंने ही कानपुर युनिवर्सिटी से प्राइवेट एम.ए. भी करवाया। वो नौकरी के लिए जगह-जगह फॉर्म भरवाती रहीं।  

उन्होंने सिविल सर्विस के लिए भी तैयारी कराई। दो बार प्री वीट भी कर लिया। लेकिन आगे नहीं बढ़ पायी। असल में विनिंग लाइन पर पहुंच-पहुंच मैं बार-बार जो हारती रही, तो इसके पीछे मेरा डर ही जिम्मेदार है। नाएला बार-बार इससे मुझे बाहर निकलने को कहतीं। एक मनोचिकित्सक की तरह मेरा ट्रीटमेंट करतीं, लेकिन मैं भेद खुल जाने, हिजड़ा कहे जाने के डर से, उसके फोबिया से खुद को ना निकाल पाई। नाएला कोशिश करके हारती रहीं। वो खीझ कर कहतीं कि, ''अब तो इतना पढ़ चुकी हो। डरने की ज़रूरत नहीं। ये दुनिया जो चाहे कहे उसकी परवाह ही नहीं करनी है।''

उनके ऐसा कहते ही मैं गिड़गिडाने लगती कि, ''नहीं ऐसा किसी हालत में नहीं करना है। सांभवी मेरी पढ़ाई-लिखाई में जितना खर्च हुआ, वह सब उन्होंने ही किया। उन्होंने ना जाने कहां से कैसे कोशिश कर-कर के मुझे कई स्कॉलरशिप दिलवाई, जिससे उनका बोझ हल्का हुआ। बाद के दिनों में मेरे पैरेंट्स इतने इंप्रेस हुए कि,  उनसे कहने लगे, ''बहन जी आप ही इसकी मां-बाप हैं। अब तो हनुवा आपकी हुई। हम तो इसे पैदा करने भर के दोषी हैं बस।'' 

यह सुन कर मेरे तन-बदन में आग लग जाती। ऐसी टीस उठती कि, जी तड़प उठता। वहीं दूसरी तरफ नाएला जी का भी चेहरा देखती। जहां सेकेंड भर में अनगिनत भाव आ आकर चले जाते। मेरे शोषण के साल भर ही बीते होंगे कि, नाएला जी के हसबैंड ने उन्हें तीन तलाक दे दिया। वो जब बच्चों से मिलने गईं तो मिलने भी नहीं दिया। मार-पीट अलग की। इससे दुखी नाएला जी कई दिन स्कूल नहीं गईं। घर पर पड़ी रोती रहतीं। मुझे बुलातीं जरूर लेकिन पढ़ाती नहीं। बस होम वर्क वगैरह पूरा करा देतीं। खाना-पीना कुछ ना बनातीं। मेरे घर वालों के भेजने पर मना कर दिया। कहा, ''ऐसा कुछ नहीं है, बना लेंगे।'' फिर मैं ही उनके घर पर कुछ ना कुछ बना कर उनको खिला भी देती। 

उनको मामले को कोर्ट ले जाने की सलाह दी गई तो, उन्होंने कहा कि, ''कुछ नहीं होगा। कई मामले कोर्ट में गए। महिलाओं के हक़ में फैसले भी हुए। लेकिन अमल में कुछ नहीं आया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने हिसाब से चलेगा। तलाक के मामलों में हम महिलाओं के लिए बड़ी उम्मीद वहां नहीं है। कोर्ट में भी यह बाधा ही है।'' 

नाएला इस सदमें के चलते बीमार पड़ गईं। तब मैंने पैरेंट्स के कहने पर उनकी जी-जान से सेवा की। उन्हीं के साथ रहने लगी। रात में भी। जल्दी ही वह ठीक हो गईं। फिर मुझे वह अपने ही यहां रोकने लगीं। मुझे अपने साथ ही सुलातीं। मेरे प्रति उनका प्यार और उनके द्वारा मेरा शोषण दोनों ही रोज पर रोज बढ़ते गए। अब वह मेरी पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ कपड़े वगैरह का भी खर्च उठाने लगीं। साल में बाकी भाई-बहनों को भी कपड़े वगैरह देने लगीं। लेकिन इन सबको मुझसे दूर ही रखतीं।'

'तुम्हारी नाएला को मैं क्या कहूं समझ में नहीं आता। भगवान ने भी दुनिया में ना जाने कैसे-कैसे कैरेक्टर बना के भेजे हैं। लेकिन जब तुम और बड़ी हो गई तब भी कोई विरोध नहीं करती थी या कभी तुम-दोनों का झगड़ा नहीं हुआ?'

'सांभवी आज भी उनके सामने आने पर मेरी स्थिति छोटे बच्चे की तरह होती है। जो टीचर के सामने जाने पर डरता रहता है। बी.टेक करने के समय तक मैं शारीरिक रूप से नाएला जी की अपेक्षा बहुत स्ट्रॉन्ग हो चुकी थी। मैं ज़्यादा से ज़्यादा पर्सेंट्ज लाने के लिए जमकर पढ़ाई करने में लगी रहती थी। 

अब नाएला जी का मेरी पढ़ाई पर इतना ही हस्तक्षेप था कि, उनकी इंग्लिश लैंग्वेज बहुत अच्छी थी। उसी में हेल्प करती थीं। इसलिए मैं उनके मन मुताबिक उन्हें समय ना दे पाती। ऐसे में देर रात तक जब पढ़ती तो वह साथ सोने को बुला लेतीं। मैं आना-कानी करती तो नाराज होतीं। मैं मन मार कर साथ सो जाती। मुझे बड़ा गुस्सा आता। जिसे मैं रिलेशनशिप के दौरान उन्हें रौंद कर उतारती। उस वक्त तो वह कुछ ना बोलतीं। शायद वह मेरी जबरदस्त आक्रामकता के कारण हिम्मत ना कर पाती थीं। लेकिन बाद में दो-तीन दिन ठीक से बात ना करके अपनी नाराजगी जाहिर कर देतीं। मगर फिर प्यार से बुला लेंती। 

कुछ उसी तरह की स्थिति होती थी, जैसे मियां-बीवी के बीच दिन में टुन्न-भुन्न हुई लेकिन रात होते ही सब खत्म, एक हो गए। वास्तव में हुआ यह कि शुरू के दो-चार बार तो उन्होंने मेरे अग्रेसन को यह समझा कि, अब मैं बड़ी हो गई हूं। और सेक्सुअल डिजायर के अपने उफान को कंट्रोल में नहीं रख पाती। जिसका अल्फावेट मैंने उन्हीं से जाना था। लेकिन जल्दी ही जब वह मेरे अग्रेसन का कारण समझ गईं तो गुस्सा होने लगीं।'

 'वाह री नाएला जी। इनसे तुम्हें फुरसत कब मिली?'

 'फुरसत! उस दिन जब दिल्ली में जॉब मिली। जब उनसे मैं आने से पहले मिलने गई। उनके यहां मेरा जो सामान, किताबें किताबें, कपड़े वगैरह थीं उन्हें लाने गई और उनसे आशीर्वाद मांगा।'

'आशीर्वाद! उस औरत से जिसने तुम्हारी मजबूरी का सालों फायदा उठाया, सालों तुम्हारा हैरेसमेंट किया। उस औरत से आशीर्वाद! क्या हनुवा मैं तो यह सुनकर आश्चर्य में हूं।'

'सांभवी कुछ भी हो, थीं तो मेरी टीचर ही ना।'

'अरे कैसी बात कर रही हो। उसके कुकर्मों को जानने के बाद तो मुझे नहीं लगता कि उसे कोई टीचर कहेगा। उसे वैसी रिस्पेक्ट देगा। वो तो टीचर के नाम पर कलंक हैं।' 

'तुम अपनी जगह सही हो। लेकिन मेरी अपनी मजबूरी थी। मैं यह सोचती हूं कि, यदि वह नहीं होती तो मैं निश्चित ही पढ़-लिख नहीं पाती। इंजीनियर नहीं बन पाती। होता यह कि, मैं हर तरफ से उपेक्षा, अपमान, तकलीफों के चलते आत्महत्या कर लेती। या फिर अन्य थर्ड जेंडर्स की तरह नाचना-गाना या कि, उनमें से ही बहुतों की तरह सेक्स-टॉय बनी नर्क भोग रही होती। क्यों कि मुझे तो मेरे पैरेंट्स भी सपोर्ट नहीं करते थे। तो नाएला जी ने ना सिर्फ़ मरने से बचाया बल्कि नर्क भोगने से भी बचाया। सांभवी मैं इसे उनका स्वयं पर इतना बड़ा एहसान मानती हूं जिसे मैं समझती हूं कि, मैं इस जीवन में चुका नहीं सकती। इसलिए उनकी सारी गलतियों को भुला कर उन्हें अपनी टीचर ही मानती हूं। अपनी मेंटर मानती हूं। 

इसीलिए मैं उनसे आशीर्वाद लेने गई थी। असल में मैं उस वक्त बहुत भावुक हो गई थी। मेरी आंखें बार-बार भर जा थीं। जब मैंने उनके पैर छुए तो उन्होंने एकदम से मुझे खींचकर गले से लगा लिया। एकदम जकड़ लिया मुझे। और ऐसा फूट-फूट कर रोने लगीं कि, जैसे कोई मां अपनी लड़की को शादी के वक्त बिदा करते समय रोती है। मैं भी खुद को रोक न पाई, हम-दोनों बड़ी देर तक रोते रहे।

 वह बार-बार कहती रहीं, ''हनुवा मुझे माफ करना। मैं नहीं जानती कि, मैंने तुम्हारे साथ कितने गुनाह किए हैं। मगर इतना जानती हूं कि, तुम बहुत बड़े दिल वाली हो। तुम माफ कर दोगी तो ऊपर वाला भी माफ कर देगा।'' वह बार-बार यही कहतीं और फफक कर रो पड़तीं।  

मैंने किसी तरह उन्हें बैठाया। पानी पिलाया। कहा, ''आपको इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूं कि, आज मैं जो कुछ भी हूं आपकी वजह से हूं। मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई में, यहां तक कि, मेरे घर में रहन-सहन में जो बड़ा बदलाव आया उसमें भी आपका बड़ा हाथ है।'' बहुत समझाने के बाद वो चुप हुईं। मगर बीच-बीच हिचकियां उनकी आती रहीं। 

आखिर में उन्होंने मुझसे यह वादा कराया कि मैं उन्हें जीवन भर छोडूंगी  नहीं। और जब वो मरेंगी तो सूचना मिलने पर मैं जरूर पहुंचूं और उनका संस्कार पूरा कराऊं। एक बार यह कह कर वह फिर फफक पड़ीं कि,  ''हनुवा इस दुनिया में तुम्हारे सिवा अब मेरा कोई नहीं है।''

सांभवी उस दिन पहली बार मेरा ध्यान इस ओर गया कि, नाएला जी मन ही नहीं, तन-मन दोनों ही से बुरी तरह कमजोर जर्जर खोखली हो गई हैं। वह भीतर ही भीतर बड़ी तेज़ी से गलती जा रही हैं। अपनी उम्र से कहीं दुगुनी रफ्तार से। और इसकी मुझे दो ही वजह नजर आई, एक उनके पति ने उनसे जिस तरह का व्यवहार किया। दूसरा उनके मायके वालों ने भी उन्हें जिस तरह एकदम छोड़ दिया था, उससे चिंता और तनाव ने उन्हें तेजी से खोखला करना शुरू कर दिया था। लिमिट से कहीं ज़्यादा सेक्स को भी मैं एक और कारण मानती हूं । मुझे लगता है कि, वो तनाव को सेक्स के जरिए खत्म करने का रास्ता ढूंढ़ रही थीं। जो उनके भ्रम के सिवा और कुछ नहीं था।

उस दिन मुझे सही मायने में यह अहसास हुआ कि मैं भी उन्हें कितना चाहती हूं। जब अपना सामान लेकर नीचे आई। रिक्शे पर बैठी तो मैं अपने को रोक न सकी। नाएला जी ऊपर बॉलकनी पर खड़ी मुझे देख रही थीं। मैंने जैसे ही उन्हें ऊपर देखा, एकदम से रो पड़ी। मैं बिजली की तेज़ी से नीचे उतरी, जितना हो सकता था उतनी तेजी़ से ऊपर दौड़ती हुई गई और उनसे चिपक कर फूट-फूट कर रो पड़ी। वह भी रोती रहीं। 

बड़ी देर बाद मैं फिर नीचे आई और किसी तरह घर पहुंची। उसके बाद जब स्टेशन पर ट्रेन चली तो जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती मुझे लगता जैसे मेरा हृदय मुझसे अलग होता हुआ उन्हीं के पास चला जा रहा है। मेरा ध्यान घर वालों की तरफ नहीं, उन्हीं की तरफ बार-बार चला जा रहा था। दिल्ली आकर भी मैं कई दिन रोई हूं उन्हीं के लिए।'

हनुवा की आंखें फिर नम हो गईं। उसे देखते हुए सांभवी अपना सिर हनुवा की जांघों पर रखकर लेट गई। जैसे कोई लड़की बड़े प्यार स्नेह से अपनी मां की गोद में सिर रखकर लेट जाती है। 

लेटते-लेटते ही वह बोली, 'हनुवा नाएला जी के साथ जितना और जैसा तुम्हारा जीवन बीता वह अपने आप में एक इनक्रेडेबल लाइफ हिस्ट्री है। ऐसी हिस्ट्री जिसे जान कर लगता है कि, जैसे किसी ग्रेट स्टोरी राइटर ने बहुत रिसर्च करके बड़ी मेहनत से लिखी है। सच कहूं अगर तुम्हारी इस लाइफ पर एक रियलिस्टक फ़िल्म बनाई जाए तो वह सुपर-हिट होगी। लोग देखने के लिए टूट पड़ेंगे। फ़िल्म पूरी दुनिया में  तहलका मचा देगी। लेकिन इसे इंग्लिश में बनाया जाए। और फ़िल्म का डायरेक्टर मीरा नायर, दीपा मेहता जैसी सोच का हो। तुम्हारे इस कैरेक्टर को हॉलीवुड एक्ट्रेस हेल बेरी ही सबसे सही ढंग से निभा पाएगी। अं...नहीं शर्लिन चोपड़ा या वैसी ही कोई। ऐसे लोग ही तुम्हारी इस स्पेशल लाइफ हिस्ट्री के साथ सही ट्रीटमेंट कर पाएंगे। नैरोमाइंडेड या कूपमंडूक टाइप के लोग या परंपरावादी लोग इसे समझ ही नहीं पाएंगे। क्यों? मैं सही कह रही हूं हनुवा।'

सांभवी की बात सुन कर हनुवा ने, जो अब-तक अपनी जांघों पर रखे उसके सिर को सहला रही थी, उसके गालों पर हल्की सी प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा, 'अरे कैसी फ्रेंड हो यार, मैं लोगों से खुद को बचाती-छिपाती आ रही हूं, और तुम हो कि, मुझे पूरी दुनिया के ही सामने एक-दम नेकेड कर देना चाहती हो।' 

'हाँ हनुवा, मैं तुम्हें पूरी दुनिया के सामने नेकेड कर देना चाहती हूं। और तुम्हारी टीचर नायला केा भी। क्यों कि मैं समझती हूं कि, तुम्हारी स्थिति में खुद को छिपाने से अच्छा है खुद को एक्सपोज कर देना। अरे हम क्यों छिप कर घुट-घुट कर जिएं। दुनिया मुझे मेरी ही हालत में ऐसे ही एक्सेप्ट करती है तो करे, नहीं करती है तो ना करे। अगर उसे हमारी परवाह नहीं तो हमें भी उसकी परवाह नहीं। समाज और हम-दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में से किसी एक को छोड़ कर सिक्का खोटा ही रहेगा। खरा नहीं। 

इसलिए हम क्यों छिपते फिरें। और सुनो, तुम अभी कह रही थी ना कि नाएला चिंता, हायपर सेक्सुअलटी के कारण उम्र से पहले ही खोखली बुढ़ी हो गईं, तो तुम इसे खुद पर भी लागू करो। क्यों कि ये अच्छे से समझ लो कि, इस तरह तुम खुद को खुद में कैद कर नाएला से भी ज़्यादा तेज़ी से खोखली बुढ़ी हो जाओगी। और तब तुममें नाएला में सिर्फ़ इतना ही फ़र्क होगा कि बुढ़ी, खोखली कमजोर नाएला के पीछे सिवाय तुम्हारे और कोई नहीं है। और तुम्हारे पीछे परिवार होगा बस। 

लेकिन परिवार भी आजकल किसका कितने दिन साथ देता है। इसलिए अपने को पिंजड़े से बाहर निकालो। पिंजड़े के सारे दरवाजे नहीं उसकी सारी दिवारें गिरा दो। उसके अंदर फड़फड़ाने तड़पने की जरूरत नहीं है हनुवा। खुद को मारो नहीं जिंदा करो और ज़िदगी जियो।' 

सांभवी ने जिस जोरदार ढंग से अपनी बात कही, उससे हनुवा भीतर तक सहम गई, हिल गई। सही तो कह रही है यह, मैं खोखली हो रही हूं। नाएला की तरह नष्ट हो रही हूं। नाएला के पीछे तो मैं हूं लेकिन मेरे! सच में तो मेरे पीछे कोई नहीं है। वह सांभवी के सिर को सहलाते हुए कुछ देर उसे देखती रही फिर पूछा, 'सांभवी तुम मुझे दुनिया के सामने क्यों एक्सपोज करना चाहती हो यह तो बता दिया, लेकिन मेरी टीचर , मेरी मेंटर नायला जी को क्यों करना चाहती हो?'

'हनुवा शुरू में तो नायला जी पर मुझे बड़ी गुस्सा आ रही थी। उनसे बड़ी नफरत हो रही थी कि, यह कैसी लिजलिजे कैरेक्टर की गंदी औरत है। लेकिन सारी बातें सुनने के बाद लगा कि, नायला जी या उनके जैसी कोई भी औरत घृणा के लिये नहीं है। ऐसी सभी लेडी का तो हम सब को, पूरे समाज को सपोर्ट करना चाहिये। हम उनसे घृणा करके उन्हें उस गलती की सजा देते हैं, जो उन्होंने की ही नहीं। तुम्हीं सोचो यदि नायला जी के हसबेंड, उनकी सास ने उनके साथ धोखाधड़ी नहीं की होती, शादी के बाद उन्हें याातना ना दी होती, उनका जाहिल हसबेंड उन्हें बड़े-बड़े बच्चों के सामने पीटता नहीं तो, नायला जी इतनी हर्ट नहीं होतीं। ना ही अपनी नैचुरल डिजायर के लिये तुम्हें यूज करतीं। 

आखिर वो भी एक इंसान हैं। नेचर ने उन्हें भी इमोशंस दिये हैं। फीलिंग्स दी हैं। उन्हें भी सपने देखने पूरे करने का हक़ है। ये इनह्यूमन है कि, उनका हसबैंड जो चाहे करे। और नायला जी क्यों कि औरत हैं, इसलिये कुछ नहीं कर सकतीं, सिवाय इसके कि, हसबेंड जो कहे उसे गुलामों की तरह करतीं रहें। इसलिये हनुवा मैं तुम्हारी नायला जी को पूरा सपोर्ट करती हूं कि, उन्होंने कम से कम इतनी हिम्मत की, कि अपनी नेचुरल डिजायर को पूरा करने के लिये क़दम तो बढ़ाये। भले ही तुम्हारे माध्यम से। लेकिन उनकी इस हिम्मत से पिस तुम गयी। 

उन्होंने अपनी ही मासूम छात्रा का शोषण कर डाला। असल में उनके क़दम यहीं पर भटक गये। मुझे पूरा यकीन है कि, ऐसा उन्होंने केवल इसीलिए किया होगा, जिससे उन्हें किसी तरह की समस्या का सामना न करना पड़े। खोखले, जड़वादी लोगों के तानों का सामना न करना पड़े। तुम्हारे साथ क्योंकि ऐसा कोई डर नहीं था और जो उन्हें चाहिए था वह सब मिल रहा था। हनुवा मैं नाएला जी को सैल्यूट करती यदि वो हसबैंड की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष करतीं। 

अपना हक़ लेकर रहतीं। उन्हें धोखाधड़ी, घरेलू हिंसा की सजा दिला कर रहतीं। लेकिन वो हिम्मत नहीं कर सकीं। संयोग से तुम अपनी खास स्थिति के साथ उनके सामने पड़ गई। और उन्होंने अपनी एक छोटी सी इच्छा बस किसी तरह पूरी कर ली। लेकिन इसके बावजूद मैं उनसे मिलना, बात करना चाहती हूं। जब भी तुम जाओगी, मैं चलूंगी तुम्हारे साथ उनसे मिलने। ले चलोगी ना।'

'हाँ, जरूर ले चलूंगी। सांभवी तू कितनी अच्छी है। कितनी हिम्मत वाली है।' इतना कह कर हनुवा उसे स्नेह भरी नजरों से देखने लगी तो सांभवी बोली, 

'हनुवा मैं कुछ ज़्यादा तो नहीं बोल गई, मेरी बातों से अगर तुम्हें दुख हुआ हो तो सॉरी यार। मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकती।'

सांभवी ने यह कहते हुए बड़े प्यार से हनुवा का हाथ थाम लिया। हनुवा ने भी उसी सहजता से जवाब दिया. 

'अरे नहीं। मैं तुमसे फिर कहतीं हूं कि, कभी यह मत सोचा करो कि, मैं तुमसे नाराज होऊंगी। तुमने जिस सच का एकदम से सामना करा दिया, उससे मैं एकदम सकते में आ गई। सांभवी सच तो यह है ही कि, नाएला जी के पीछे मैं हूं। अगर उनको देखभाल की जरूरत पड़ी तो मैं अपना कॅरियर भी यहीं खत्म कर, उनकी सेवा के लिए उनके पास चली जाऊंगी। लेकिन तुमने मेरे परिवार की जो बात की वह थोड़ा नहीं बिल्कुल अलग है। मैं केवल एक बात बताने जा रही हूं, उसी से तुम्हें अंदाजा हो जाएगा कि मेरा परिवार कितना मेरा है। वो मुझे अपना हिस्सा मानता भी है कि नहीं।'                           

'अरे ये क्या कह रही हो?'             

'सुनों तो, ' अभी पिछले ही महीने मेरी दोनों बहनों की एंगेजमेंट हुई। हनुवा वाली मौसी ही ने अपने पट्टीदार के दोनों लड़कों से शादी तय करवाई है। दोनों भाई जुड़वा हैं। उनके मां-बाप एक ही साथ दोनों की शादी करना चाहते थे। मौसी ने बात पक्की करा दी। शादी जनवरी में होनी है। लेकिन मुझे बताया तक नहीं गया। एक दिन मैं नाएला जी से बात कर रही थी तो, उन्होंने कहा, ''तुम हमेशा छुट्टी की प्रॉब्लम बताती हो। अभी से एप्लीकेशन देकर कम से कम हफ्ते भर की छुट्टी लेकर आना। नहीं तो तुम जल्दी से चल दोगी और मैं तुमसे ठीक से बात भी नहीं कर पाऊंगी।'' 

उनसे यह सुनकर मुझे इतना शॉक लगा कि, मैं सन्न रह गई। कि मेरी सगी छोटी बहनों की शादी है। एंगेजमेंट हो गई मुझे पता तक नहीं। 

नाएला जी भी परिवार की सम्मानित सदस्य की तरह एंगेजमेंट में शामिल हुईं, और मुझे बताना तक ठीक नहीं समझा गया। लेकिन घर की बात बाहर नहीं शेयर करना चाहती थी। तो नाएला जी को जाहिर नहीं होने दिया। उनसे जल्दी से बात खत्म कर, घर मां को फ़ोन किया तो वो बोलीं, 'अरे, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। एकदम अचानक हुआ तो टाइम ही ना मिला बताने का।'' जब मैंने गुस्से में और बात बढ़ाई कि, ''दोनों बहनों, भाई किसी को दो मिनट टाइम नहीं मिला कि फोन करते। और मैंने इस बीच कई बार फ़ोन किया, तब भी तो तुम लोग एक शब्द नहीं बोले। आज हफ्ता भर हो गया तो भी टाइम नहीं मिला। मुझे घर की इतनी अहम बात बाहरी से पता चल रही है।'' 

उन को लगा कि बात पकड़ गई है तो एकदम बिदक गईं। दुनिया भर की बातें सुनाते-सुनाते आखिर गुस्से में बोल गईं कि, ''क्या करती आकर। दुनिया भर की बातें होतीं कि, बड़ी के रहते छोटी की काहे हो रही है। तुम्हारे चक्कर में इन सबका भी शादी ब्याह ना हो पाएगा।'' उनकी यह बात मुझे तीर सी बेधती चली गई। मैं रो पड़ी। मैंने रोते हुए कहा, ''ठीक कह रही हो अम्मा! मैं ही पागल हूं, मुझे खुद सोचना चाहिए था। ठीक है अम्मा तुम लोग परेशान ना हो, अब मैं शादी क्या बाद में भी नहीं आऊंगी। जिससे मेरी वजह से तुम लोग किसी परेशानी में ना पड़ो।'' मैं इससे आगे कुछ ना बोल सकी, रोती रही। और अम्मा ने झिड़कते हुए यह कह कर फोन काट दिया, ''अरे इसमें इतना रोने की क्या बात है। बेवजह अपशुगन कर रही हो।'' उनकी इस बात ने तो मेरा शरीर ही छलनी कर डाला। 

इसके बाद मैंने हफ्तों किसी को फोन नहीं किया। मगर फिर भी किसी का फ़ोन नहीं आया। आखिर फिर मन नहीं माना तो खुद ही कभी-कभी करने लगी। सब बेगानों की तरह ऊबते हुए बातें करते हैं। हाल-चाल की रस्म अदायगी तक बात होकर खत्म हो जाती है। पैसा जो होता है भेज देती हूं। उसके लिए अम्मा कभी कुछ नहीं कहतीं। तो सांभवी मेरी हालत तो नाएला जी से भी गई बीती है।

 उनके साथ तो मैं हर हाल में रहूंगी। लेकिन मेरे साथ कोई नहीं होगा। मैं अकेले ही दिवारों से सिर टकराते-टकराते खत्म हो जाऊंगी। मेरा तो अंतिम संस्कार भी करने वाला कोई नहीं होगा। मैंने तो नाएला की तरह कोई ''हनुवा'' नहीं तैयार की है।' इतना कहते-कहते हनुवा फिर सिसक पड़ी तो सांभवी उठी, उसके आंसू पोंछती हुई बोली, 

 'तुमने सांभवी तैयार की है हनुवा। तुम अकेली नहीं हो, मैं रहूंगी तुम्हारे साथ।' 

'तुम भी कब तक रह पाओगी? जल्दी ही तुम्हारी भी शादी हो जाएगी और तुम अपने पति के पास रहोगी।'

'हाँ सही कह रहे हो तुम। मैं अपने पति के ही पास रहूंगी।'

सांभवी का अपने लिए सही कह रहे हो तुम सेंटेंस हनुवा को कुछ खटका। लेकिन उसने कहा, 'फिर भी, आखिर मैं तो अकेली ही रही ना। कोई अपने पति को छोड़ कर किसी को समय दे पाया है क्या, जो तुम दोगी, और मैं चाहूंगी भी नहीं कि तुम अपने पति का टाइम मुझ पर खर्च करो।'

'हनुवा-हनुवा, मेरे प्यारे हनुवा मैं यही तो कह रही हूं कि, मैं अपने पति के पास ही रहूंगी। उसका एक क्षण भी किसी को नहीं दूंगी। मैं उसे जीवन की वो खुशियां दूंगी जो वो सोच भी नहीं पाया होगा।'

सांभवी हनुवा के दोनों कंधों को पकड़े उसकी आंखों की गहराई में झांकती, उसके चेहरे के एकदम करीब जा कर कह रही थी। और हनुवा उसे एकदम खाली-खाली नजरों से देखे जा रही थी। तो सांभवी ने उसे हल्के से झिझोड़ते हुए कहा, 

'ओह तुम कितने इनोसेंट हो। तुम ही मेरे पति हो समझे। तुम ही मेरे पति हो।'

कुछ तेज़ आवाज़ में कहते-कहते सांभवी उससे एकदम चिपट गई। हनुवा कुछ देर एकदम हक्का-बक्का सी रह गई। फिर दोनों हाथों से पकड़ कर उसे अलग करती हुई बोली, 'तुम्हें क्या हो गया है? होश में तो हो? जानती हो क्या कह रही हो?'

'अच्छी तरह जानती हूं हनुवा। महीनों सोचने-समझने के बाद मैंने यह डिसीजन काफी पहले ही ले लिया था। मैंने तुम्हें काफी पहले ही अपना पति मान लिया है। हनुवा तुम मेरे पति हो। मेरे पति। मैं आखिरी सांस तक साथ रहूंगी। अपने पति के साथ रहूंगी। मुझे परिवार, दुनिया किसी की परवाह नहीं। सिर्फ़ तुम्हारी और अपनी परवाह है। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं जानती।'

सांभवी फिर चिपट गई हनुवा के साथ। भावुकता में उसके आंसू भी निकलते जा रहे थे। हनुवा ने उसे इस बार अपने से अलग करने के बजाय प्यार से बांहों में भर लिया। उसकी पीठ को सहलाती हुई बोली,

'मेरी सांभवी, तुम मन में इतना बड़ा भुचाल लिए, इतने दिनों से मेरे साथ हो और मुझे भनक तक ना लगने दी। नहीं तो मैं कुछ तो तुम्हें समझाती कि, यह तुम गलत क़दम उठा रही हो। तुम मेरे साथ कहां खुश रह पाओगी, यह सब एक एबनार्मल रिलेशनशिप है, जो ज़्यादा दिन नहीं चलेगी। अंततः दुख ही दुख है इस जीवन में। मैं तुम को इतना आगे बढ़ने ही ना देती कि तुम्हें क़दम खींचना मुश्किल होता।'

हनुवा समझाती रही। लेकिन सांभवी कुछ ना समझी। वह वाकई इतना आगे बढ़ चुकी थी कि, पीछे जाने को कौन कहे सोच भी नहीं सकती थी। दोनों में सारी रात बहस हुई। अंततः सवेरा होते-होते सांभवी जीत गई। आगे जीवन का पूरा रोड मैप भी फाइनल हो गया कि, ठीक दीपावली के दिन दोनों घर में उन्हीं भगवान राम के समक्ष शादी करेंगे। जो विजय के जश्न में हज़ारों साल पहले थर्ड-जेंडर का ध्यान नहीं रख सके। सबको कहके यह भूल गए कि यह लोग भी आराम करें।

साक्षी, मां-बाप, भगवान सब वहीं होंगे, वही आशीर्वाद देंगे। और अगले महीने नौकरी ज्वाइन कर दोनों पति-पत्नी कहीं दूसरी जगह रहने चले जाएंगे। अपनी इस दुनिया में जीवन के इस पल में किसी को साझीदार नहीं बनाएंगे।  

अगले दिन दो-चार घंटे सोने के बाद दोनों ने पूरे घर की साफ-सफाई की। बाज़ार से पूजा के सामान के साथ-साथ, दूल्हा-दुल्हन के कपड़े सिंदूर भी ले आए। ऐन दीपावली की रात भगवान राम को ही साक्षी बनाकर सांभवी, हनुवा ने एक दूसरे को वरमाला पहनाई । हनुवा ने सांभवी की मांग में सिंदूर भरा और दोनों ने एक दूसरे को अपना पति पत्नी मान लिया।

दोनों ने अपनी सुहाग सेज़ भी बड़ी खुबसूरती से अपने ही हाथों सजाई थी। गुलाब की पंखुड़ियों से महमह महकती सेज़ पर सांभवी लाल साड़ी पहने बैठी थी। और उसका पति हनुवा पीले रंग के वस्त्र पहने उसके समीप पहुंच रहा था। कि तभी नाएला ने फोन कर उससे दीपावली में भी ना आने की शिकायत करते हुए खूब बधाई, शुभकामनाएं दीं कि, ''तुम्हारा जीवन इन असंख्य दीयों की रोशनी की तरह जगमगाए। सदैव खुश रहो।'' 

हनुवा भी उन्हें बधाई, धन्यवाद देकर अपनी दुल्हन के घूंघट को हटाने लगा। घर से कोई फ़ोन नहीं आया यह बात उसके मन में किसी पटाखे की तरह बड़ा सा विस्फोट कर समाप्त हो गई। वह सब-कुछ भूल कर अपनी पत्नी का होता गया। लाख कानून के बावजूद किसी ने रात एक बजे भी पटाखों की लंबी चटाई के पलीते में आग दिखा दी थी। वह धड़ाम-धड़ाम कर दगती ही जा रहा थी। जैसे हनुवा, सांभवी को नए जीवन की बधाई दे रही हो। हनुवा ने नाएला जी से भी शादी की बात बिल्कुल नहीं बताई।

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 कौन है सब्बू का शत्रु

जून का तीसरा सप्ताह चल रहा था। तापमान खूब कुलाँचें भर रहा था। चालीस-ब्यालीस डिग्री को पार कर रहा था। जीवन को महँगाई, गुंडई की तरह त्रस्त किए हुए था। शहर में सड़कों पर सन्नाटा छाया रहता था। लगता जैसे कर्फ़्यू लगा हुआ है। मगर कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो इन सब को पीछे छोड़कर आगे निकलने के लिए विवश कर देती हैं। इसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी यह भी सोचने का अवसर नहीं देतीं। कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते मैं क़रीब तीन बजे झुलसा देने वाली चिलचिलाती धूप में ऑफ़िस से घर के लिए निकला। अपने रिक्शे वाले को फोन करके बुला लिया था। वह कई सालों से मुझे अपनी सेवा दे रहा है। किसी और के पास समय से पहुँचे या ना पहुँचे, ईमानदारी बरते या ना बरते, लेकिन मेरे साथ हमेशा टाइम का पंक्चुअल और ईमानदार रहता है। बीच-बीच में पैसे माँगता रहता है, इसके चलते डेढ़-दो महीने का एडवांस उस पर मेरा हमेशा बना रहता है।

मैं इसी रिक्शे वाले के साथ अपनी परेशानियों से धींगा-मुस्ती करता चला जा रहा था, अंबेडकर पार्क, गोमतीनगर, लखनऊ की बगल वाली सड़क से। सैकड़ों एकड़ में बलुआ पत्थर से बना यह स्मारक लखनऊ में नए आकर्षण केंद्रों में एक बन चुका है। इसी स्मारक की बाऊँड्री से सट कर दूर तक चली जा रही सड़क पर मुझे थोड़ा आगे एक आदमी बैठा दिखाई दिया। मन में उत्सुकता हुई कि इतनी प्रचंड गर्मी में, सुलगती सड़क पर यह क्यों बैठा हुआ है? वह एक हाथ इस तरह से आगे फैलाए हुए था कि, उसके पास से निकलने वाला व्यक्ति उसे कुछ देता जाए। इतना ही नहीं उसने एक पैर भी अजीब ढंग से आगे बढ़ाया हुआ था। पैर घुटने से आठ-नौ इंच के बाद आगे कटा हुआ था। नीचे बँधी सफ़ेद पट्टी दूर से ही चमक रही थी। रिक्शा जैसे-जैसे क़रीब पहुँच रहा था, तस्वीर और साफ़ होती जा रही थी।

कुछ और क़रीब पहुँचने पर उसके बगल में ही मुझे एल्यूमिनियम की दो बैसाखियाँ भी रखी दिखाई दीं। उसकी ऐसी हालत पर मुझे बड़ी दया आयी कि, बेचारा कितनी तकलीफ़ में है। उस पर बालिश्त भर की भी छाया नहीं है। उस समय मैं कंक्रीट के घने जंगल में छाया की बात सोचने की नादानी कर रहा था। जैसे ही रिक्शा उसके सामने पहुँचा, मैंने उसे रुकवा लिया। देखा वह क़रीब पैंतीस-चालीस बरस का आदमी था। धूप ने उसे और काला बना दिया था। दुबला पतला शरीर, आँखें अपेक्षाकृत कुछ नहीं, बहुत ही ज़्यादा बड़ी थीं। नाक बहुत ही भद्दे ढंग से एक तरफ़ मुड़ी हुई थी। उसने बड़ी दयनीय सी एक फ़ुल बाँह की शर्ट पहनी हुई थी। जिसकी बाँहें ऊपर की तरफ़ मुड़ी हुईं थीं। उसकी मटमैले सफ़ेद रंग की लुंगी भी शर्ट की ही तरह दयनीय थी।

मुझे देखते ही वह हाथ ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा। मैंने उससे पूछा, "इतनी तेज़ गर्मी में जलती सड़क पर क्यों बैठे हो? कहीं छाया में क्यों नहीं बैठते? ऐसे तो तुम्हारी तबीयत ख़राब हो जाएगी।" 

मेरी बात का जवाब देने के बजाय वह हाथ हिलाता रहा। मुझे लगा शायद गूँगा-बहरा भी है। अपनी शंका दूर करने के लिए मैंने अपनी बात तेज़ आवाज़ में दोहरा दी। तब वह बोला, "छाया में बैठूँगा तो कोई रुकेगा ही नहीं। छाया में होता तो तुम रुकते क्या?" मुझे उससे ऐसे तीखे जवाब की आशा बिल्कुल नहीं थी। मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह थोड़ा नम्र लहजे में आगे बोला, "बहुत मुश्किल में हूँ बाबूजी, खाने और दवाई का पैसा नहीं है, अपाहिज हूँ, कुछ कर नहीं सकता।" उसकी आवाज़ से मुझे जो दर्द महसूस हुआ, उसने मुझे झकझोर कर रख दिया।

मैं एकटक उसे देखता रह गया। उस पर बड़ी दया आ रही थी। मेरा हाथ स्वतः ही जेब में चला गया। मेरे पास उस समय कुल दो नोट थे। एक पचास का और एक सौ का। मैंने पचास की नोट हाथ बढ़ाकर उसके फैले हुए हाथ पर रख दिया। उसने थरथराते हुए हाथों से जल्दी से नोट लेकर अपने माथे पर लगाया और तुरंत बोला, "बाबूजी दवाई के लिए कुछ पैसा दे दो, भगवान आपका भला करेगा।" उसकी आवाज़ में करुणा और प्रगाढ़ हो चुकी थी। सौ के नोट के साथ मेरा हाथ फिर उसके हाथ की तरफ़ बढ़ गया। उसने तुरंत नोट लपक लिया। मुझे एक साँस में न जाने कितनी शुभकामनाएँ दे डालीं। भगवान यह करे, भगवान वह करे। मैं उसे सुनता रहा, देखता रहा, कुछ बोल नहीं पा रहा था। बड़ी तेज़ी से यही सोच रहा था कि कम से कम इसकी दवा की तो व्यवस्था कर ही दूँ। उसके पैर में बँधी पट्टी निचले हिस्से में ख़ून से सनी थी। ख़ून सूख कर काला पड़ चुका था। उसने बताया घाव सही नहीं हो रहा है।

मैंने पूछा इलाज कहाँ से करवा रहे हो, तो उसने एक सरकारी हॉस्पिटल का नाम बता दिया। लगे हाथ यह भी कि हॉस्पिटल से सारी दवाएँ नहीं मिलतीं। मैं बड़ी उलझन में पड़ गया कि क्या करूँ? रिक्शे का हुड उठा हुआ था, लेकिन फिर भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मेरा सिर ही चटक जाएगा। गर्म हवा बिल्कुल झुलसाए डालने पर ही तुली हुई थी। रिक्शे वाले का चेहरा बता रहा था कि वह धूप ही नहीं, मुझ पर भी ग़ुस्से से खौल रहा है कि, एक तो इतनी धूप में बुला लिया, ऊपर से पुण्य करने की नौटंकी में इतनी देर से धूप में उसे बेवज़ह सेंक रहे हैं।

मुझे लगा कि उसके साथ अन्याय हो रहा है। यह सोच कर मैंने भिखारी से कहा, "सुनो अब तुम्हें पैसे मिल गए हैं। तुम्हें जहाँ जाना हो वहाँ चले जाओ। धूप में तुम्हारी हालत बिगड़ जाएगी। या तुम्हें कहाँ जाना है वह बताओ, मैं तुम्हें वहाँ छोड़ दूँ।" 

उसका कोई उत्तर आता कि उसके पहले ही रिक्शे वाला झल्ला कर बोला, "अरे बाबूजी, आप कहाँ इस के चक्कर में पड़े हैं। आप कुछ भी कर देंगे यह आपको हमेशा ऐसे ही मिलेगा। आप चलिए ना, आपको धूप बहुत तेज़ लग रही है।" रिक्शे वाले की बातों से मुझे उसकी वास्तविक मनसा समझते देर नहीं लगी कि वह क्या चाहता है।

वह किसी सूरत में यह नहीं चाहता था कि मैं एक सेकेण्ड भी वहाँ पर रुकूँ और सुलगती सड़क पर बैठे उस आदमी को रिक्शे पर बैठा कर ले चलूँ। अपनी बात पूरी करने से पहले ही उसने रिक्शे का हैंडल सीधा किया और पैडल पर दबाव बनाने लगा। मैं समझ गया कि अब यह रुकने वाला नहीं। यह सही भी था कि अब रुका भी नहीं जाना चाहिए था। एक के लिए दूसरे को कष्ट देना किसी दृष्टि से न्याय संगत नहीं था। हमें इसकी मदद करनी है तो मुझे चाहिए कि मैं रुक जाऊँ। यह जाना चाहता है तो इसे जाने दूँ। लेकिन जल्दी मुझे भी थी और धूप में मेरी ख़ुद की हालत भी ख़राब हो रही थी, तीसरे वह सड़क पर से उठकर छाया में चलने को उत्सुक भी नहीं दिख रहा था, तो मैं चल दिया।

चलते-चलते मैं भिखारी से स्वयं को यह कहने से रोक नहीं सका कि, "तुम छाया में चले जाओ, जो मिलना होगा, वहाँ भी मिल जाएगा।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शा वाला आगे बढ़ चुका था। मेरी जेब में अब एक पैसा नहीं था। रिक्शे वाले को पैसा महीना पूरा होने पर देना होता है, इसलिए उसे पैसे देने की चिंता नहीं थी। लेकिन जो सामान लेकर घर जाना था उसे ख़रीदने के लिए मेरे पास कानी-कौड़ी भी नहीं थी और सामान लेना बेहद ज़रूरी था। मैं बड़ा परेशान हो गया कि अब घर से पैसा लेकर फिर चार-पाँच किलोमीटर दूर वापस आना पड़ेगा। इस धूप में दोबारा ख़ुद को झुलसाने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है।

मैं यह सोच ही रहा था कि तभी रिक्शे वाला भुनभुनाया, "साहब आपने इसे बेवज़ह इतना पैसा दे दिया। इसका तो रोज़ का ही यही धंधा है। यह आपको कल भी ऐसे ही दिखेगा। रोज़ नई-नई पट्टी बाँधकर ऐसे ही सीधे-साधे लोगों को यह ठगता रहता है।" मैंने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कि यह अपनी खुन्नस निकाल रहा है क्योंकि इसे धूप में रुकना पड़ा। कितना पत्थर हृदय है। उस बेचारे की तकलीफ़ पर इसका दिल ज़रा भी नहीं पसीजा।

अच्छा हुआ मैंने उसे रुपये दे दिए। इसका वश चलता तो यह देने ही नहीं देता। अभी यह और आँखें निकालेगा जब घर से पैसा लेकर वापस आऊँगा सामान लेने। मेरे चुप रहने पर वह फिर बोला, "साहब आप चाहें तो कल इसकी पट्टी खुलवा कर देख लीजिएगा, कहीं कोई घाव-वाव नहीं है।" 

इस बार मैं अपने ग़ुस्से को रोक नहीं पाया। मैंने कहा, "होगा भाई, मान लो उसके पैर में कोई घाव नहीं है, वह धोखा दे रहा है। लेकिन यह तो सच है ना कि उसका पैर कटा हुआ है। बिना बैसाखी के तो वह चल नहीं सकता ना। तो वह काम क्या करेगा? डेढ़ सौ रुपए में एकाध दिन तो उसके खाने-पीने की व्यवस्था हो ही जाएगी।" 

"साहब खाना-पीना नहीं, यह इन पैसों से गांजा, स्मैक पिएगा। ये बहुत बड़ा खिलाड़ी है। इसको हम लोग दिन-भर यहाँ से लेकर बादशाह नगर, मुंशी पुलिया, टेढ़ी पुलिया तक देखते रहते हैं। पुलिस वालों का पक्का जासूस है। आपने ध्यान नहीं दिया वह अभी भी गांजा पिए हुए है।"

मुझे लगा कि यह कुछ ज़्यादा ही बकवास कर रहा है। कल कुछ पैसे माँग रहा था, तंगी के चलते नहीं दिया और करुणावश इस भिखारी को दे दिया तो उसके लिए इतना ज़हर बोल रहा है। मैंने ग़ुस्सा होकर कहा, "तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे सारे समय इसी के साथ रहते हो। सब देखते हो, तुम्हें इससे इतनी ज़्यादा घृणा क्यों हो गई है?" 

इस बार मेरा लहजा थोड़ा सख़्त था तो वह तुरंत ही नम्र होता हुआ बोला, "नहीं, नहीं साहब, ऐसी बात नहीं है। आप ग़ुस्सा ना हों। हमारी बात पर यक़ीन करें। कल मैं आपको ख़ुद ही ले चलूँगा, देख लीजिएगा हमारी बात सच ना निकले तो कहिएगा।"

इस बार मैंने कुछ संयम से बोलते हुए कहा, "मुझे कुछ नहीं देखना। वह सच्चा, झूठा, मक्कार जो भी है मुझे इसकी परवाह नहीं। मुझे जो करना था वह मैंने कर दिया, बस।" असल में अब मुझे उसकी बातों पर यक़ीन होना शुरू हो गया था। मैंने सोचा, जो भी हो कल अगर मिल गया तो सच ज़रूर मालूम करूँगा।

रिक्शे वाला ऐसा न महसूस करे कि उसके साथ अन्याय हुआ, धूप में कड़ी मेहनत की तकलीफ़ उसे ज़्यादा प्रगाढ़ ना लगे। इसलिए जब दोबारा सामान लेकर घर पहुँचा, तो उसे पचास रुपये दे दिए। हालाँकि मुझे लगा कि धूप में उसने जितना रिक्शा चलाया उस हिसाब से उसे कम से कम सौ रुपये देना ही ठीक होता। लेकिन उस समय मेरी जो स्थिति थी उस हिसाब से तो दोनों ही को मेरा एक पैसा भी देना मूर्खता थी, जो मैंने की। एक रुपया नहीं पूरे दो सौ रुपये दिये। रात में सोते वक़्त भी मेरे दिमाग़ में यह बात बनी रही कि कल सच ज़रूर जानूँगा। लेकिन अगले दिन वह नहीं मिला। मुझे बड़ी कोफ़्त हुई। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं ठगा गया या फिर मानवीय पक्ष की मुझे ठीक-ठीक समझ ही नहीं है, इसलिए मानव धर्म को ठीक से निभा नहीं पाया। क्या रिक्शे वाले की बात सही है कि मैं ठगा गया।

ऑफ़िस जाते-आते रोज़ मेरी आँखें उसे ढूँढ़तीं, ख़ासतौर से अंबेडकर पार्क के पास। हफ़्ता-भर निकल गया तो मैंने एक दिन रिक्शे वाले से पूछ लिया कि, "वह बैसाखी वाला कहीं दिखा था क्या?" 

मेरे पूछते ही वह एकदम से चालू हो गया, जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि मैं पूछूँ। उसने बताया, "बाबू जी वह अपने ठिकाने बदलता रहता है। आजकल बादशाह नगर, रेलवे स्टेशन के पास अड्डा बनाए हुए है। वह ऐसे ही अपना ठगी का धंधा चलाता है।" रिक्शे वाले ने इसके साथ ही ऐसी तमाम बातें बताईं कि, मैं भौचक्का रह गया कि, एक अपाहिज आदमी इतना कुकर्मी हो सकता है। इतना गिरा हुआ हो सकता है। उसने जिस तरह से सब कुछ बताया, उससे मैं उसकी बातों पर पहले की तरह शक करने की स्थिति में नहीं था। उसकी बातें मुझे सही लगने लगीं। यह बात भी कि उसने मुझे बड़ी ख़ूबसूरती से ठग लिया। मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया।

मैंने उसी दिन शाम को रिक्शे वाले से उसी के पास चलने को कहा। इस पर वह भुनभुनाया, "साहब आप तो बेवज़ह उसके लिए परेशान हो रहे हैं। उसके पास चलेंगे तो वह कोई ना कोई नई नौटंकी बताकर आपसे फिर रुपए ठग लेगा। आख़िर आप चलकर क्या कर लेंगे?" 

मैंने झल्ला कर कहा, "मैं कुछ करने-वरने नहीं जा रहा हूँ। यह देखने-समझने के लिए चलना चाहता हूँ कि, वह इस हालत में इतने कुकर्म कैसे कर लेता है। क्या वह इतना भी नहीं समझता कि इन घिनौनें गंदे कामों के कारण उसकी जान भी जा सकती है। वह आज नहीं तो कल पुलिस के हत्थे ज़रूर चढ़ेगा। तब पुलिस उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ देगी।"

रिक्शे वाला बोला, "साहब, मैंने पहले ही बताया था कि वो पुलिस का दलाल है। पुलिस का उसे कोई डर नहीं है। पुलिस सब जानती है। वह ख़ुद उससे मिली हुई है, तभी तो वह चार-पाँच साल से सब-कुछ कर रहा है, लेकिन आज तक कहीं उसकी धर-पकड़ नहीं हुई है। ज़्यादातर समय तो वह पुलिस चौकी के सामने ही थोड़ी दूर पर रहता है। इसलिए उसका कुछ भी नहीं होने वाला। आप उसके चक्कर में अपना पैसा और समय बर्बाद कर रहे हैं बस।"

उसकी बातों से मैं खीझ उठा। हमारी बहस चलती रही और हम उस एरिया में उसे ढूँढ़ते हुए थक कर अपने घर पहुँच गए। रिक्शे वाले को सौ रुपये अलग से देने पड़े। भिखारी के ना मिलने से मैं बड़ा खिन्न हो रहा था। लेकिन मैंने ज़िद कर ली कि, अब जो भी हो जाए मैं उसको ढूँढ़ कर रहूँगा। यह जान कर रहूँगा कि, आख़िर उसमें ऐसी कौन सी ताक़त है कि, वह पौने दो टाँग का होकर भी यह सब कर लेता है। यहाँ ज़रा सी धूप सहन नहीं होती और वह इतनी जलती-पिघलती सड़क पर नंगे पैर घूमता है। ऐसे-ऐसे काम करता है कि, सुनकर सिर चकरा उठता है। जो भी हो जाए अब मुझे उससे मिले बिना चैन नहीं मिलेगा।

उसे ढूँढ़ते हुए एक और हफ़्ता निकल गया लेकिन वह कहीं नहीं मिला। रिक्शे वाले के किराए के साथ-साथ मेरी उलझन, मेरा ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। उसे भुला दूँ मैं यह भी नहीं सोच पा रहा था। अंबेडकर पार्क के पास पहुँचता नहीं कि, उसकी याद आ ही जाती। मुझे लगता जैसे हाथ हिलाता वहीं बैठा वो मुझे ही देख रहा है।

यह संयोग ही था कि, पंद्रहवें-सोलहवें दिन ऑफ़िस से फिर मुझे दोपहर तीन बजे ही चिलचिलाती धूप में निकलना पड़ा। काम बड़ा ज़रूरी था। मैं अंबेडकर पार्क के दूसरी तरफ़ सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल वाली रोड पर चला जा रहा था। जिस पर बाईं तरफ़ क़रीब एक दर्जन हट या प्रसाधन बने हुए हैं। बीच में एक फ़िश पार्लर भी है। मेंटीनेंस के अभाव में उनकी टूट-फूट देखता आगे बढ़ रहा था कि, तभी वह बाएँ तरफ़ मुझे एक हट की चौखट पर छाए में बैठा हुआ दिख गया। उसे देखते ही मैंने रिक्शा तुरंत रुकवा लिया। सब ऐसे हुआ जैसे मेरा मुझ पर कंट्रोल ही नहीं था। मैं लपक कर उसके सामने खड़ा हो गया। मैंने सोचा कि, वह मुझे ऐसे देख कर भौंचक्का हो जाएगा। डरेगा। लेकिन उल्टा हुआ। भौंचक्का मैं रह गया। वह बड़ी दिलेरी के साथ मुझे मेरी आँखों में आँखें डाले देखता रहा।

मुझे लगा कि, वह हल्के-हल्के मुस्कुरा भी रहा है। कुछ देर अपने को जज़्ब करने, कई बातें सोचने के बाद मैंने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?" नाम बताने के बजाय वह कुछ अजीब सा मुँह बना कर बैठा रहा। मैं ना जाने किस भावना में बहकर उसी की बगल में थोड़ा फ़ासला लेकर ज़मीन पर ही बैठ गया। रिक्शे वाला हट में एकदम पीछे चला गया। मैंने दोबारा नाम पूछा तो वह कुछ देर बाद नाम बताने के साथ ही बोला, "भूख लगी है साहब।" 

मैंने कहा, "यहाँ तो कोई दुकान है नहीं। यहाँ तो कुछ नहीं मिल पाएगा?" 

यह सुनते ही वह तपाक से बोला, "साहब, फोन करके मँगा लो। यहीं पर लेकर आ जाएगा।" 

यह सुनते ही मैं दंग रह गया। वह सीधे-सीधे ऑनलाइन खाना मँगाने के लिए कह रहा था। मैंने ना कभी सुना था, ना कभी सोचा था कि, कोई भिखारी इस तरह बे-खौफ़ ऑनलाइन खाना ऑर्डर करने के लिए कहेगा और ऑनलाइन सिस्टम को भी अच्छी तरह से जानता होगा।

मुझे रिक्शे वाले की सारी बातें एकदम सच लगने लगीं। यह भिखारी नहीं, भिखारी के भेष में जरायम की दुनिया का खिलाड़ी है, और यही समझ रहा है कि, मैं अपनी किसी ज़रूरत की वज़ह से इसके पीछे पड़ा हूँ। मेरी उसी ज़रूरत को यह कैश कराने की सोच रहा है। मैंने कहा, "इतनी गर्मी में कोई ऑर्डर लेकर यहाँ क्यों आएगा?" 

"करो तो साहब। सब आ जाएँगे। हम तो रोज़ ही देखते रहते हैं लोगों को ऐसे ही मँगाते हुए।" उसकी हालत से मुझे लगा कि, यह भूख से कुछ ज़्यादा ही परेशान है। मैं पीछे रिक्शे वाले की ओर मुड़ा कि, देखें यह क्या कहता है, लेकिन वह सिर के नीचे अपना अंगौछा रख कर जमीन पर ही सो रहा था। मैंने सोचा कमाल का आदमी है, इतनी गर्मी है और ये दो मिनट में ही सो गया। जो भी हो आदमी साफ़ दिल का लगता है।

तभी भिखारी फिर बोला, "साहब मँगा दो ना। फोन करो, सब थोड़ी ही देर में आ जाएगा।" 

मैंने जब देखा कि वह खाए बिना एक बात नहीं करेगा तो उससे कहा, "देखो तुम जो खाना कहोगे, वह सब मैं मँगा दूँगा। लेकिन मैं जो-जो पूछूँगा तुम मुझे वह सब सच-सच बताओगे।" 

दो बार कहने पर उसने हामी भरी तो मैंने ऑर्डर कर दिया। एक कंपनी तो वहाँ पर ऑर्डर डिलीवर करने को तैयार नहीं हुई। दूसरी सात सौ रुपये से ऊपर का ही ऑर्डर डिलीवर करती थी। अब क्योंकि मुझे हर हाल में बात करनी ही करनी थी तो ऑर्डर कर दिया। मैं यह भी सोचता जा रहा था कि, जो भी मेरी इस हरकत को सुनेगा, मुझे मूर्ख नहीं बल्कि पागल भी कहेगा।

मैंने तीन लंच ऑर्डर किए थे। अपने और रिक्शे वाले के लिए भी। यह करके मैंने उससे फिर कहा, "तुमने जो कहा वह खाना मैंने ऑर्डर कर दिया है। अब मैं जो भी पूछूँगा वह सब तुम सच-सच बताओगे।" 

उसने सहमति में सिर हिलाया तो मैंने पूछा, "अपना पूरा नाम बताओ।" 

"सब्बू"।

"यह भीख कब से माँग रहे हो?" 

"जब से पैर कट गया, तभी से।" 

"अच्छा-अच्छा। यह पैर कटा कैसे?" 

"ट्रेन से।" 

मेरी बातों का वह बड़ी चालाकी से सूक्ष्मतम जवाब दे रहा था। उसकी बातों से मैं समझ गया कि, वह हद दर्जे का चालाक आदमी है। पढ़ा-लिखा नाम-मात्र का है लेकिन कढ़ा बहुत ज़्यादा है। मैं उससे आत्मीयता के साथ बातचीत जारी रखे हुए था। धीरे-धीरे वह खुलता चला गया। बताता गया कि, कैसे एक खाते-पीते घर का, अपने माँ-बाप का दुलारा बेटा यहाँ इस हाल में पहुँच गया।

उसके मन में माँ-बाप के लिए कठोरतम ग़ुस्सा भरा हुआ था। उसने जो बताया, उसके साथ जो बीता वह दर्दनाक, हृदयविदारक था। बचपन की बात शुरू करने से पहले उसने लुंगी के फेंटे से एक सिगरेट निकाल कर जलाई। बड़े अंदाज़ से कई बड़े-बड़े कश लेकर गाढ़ा धुआँ उगला। उसकी गंध साफ़ बता रही थी कि उसमें गांजा भरा हुआ है। जब वह धुआँ उगलता तो मैं अपना मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता। मैं उन लोगों में से हूँ जो सुबह फ्रेश होने से पहले तंबाकू, चाय, सिगरेट आदि का सेवन करते हैं। मैं कम से कम दो कप चाय, दो सिगरेट ज़रूर पीता हूँ। इसके बावजूद तब मेरा सिर चकरा रहा था। मगर मैं उसे मना करने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था कि, कहीं यह बातें बताने से मुकर ना जाए। हो सकता है कि, यह बात कहने के लिए मूड बना रहा हो। उसने सिगरेट ख़त्म करके बताया कि, उसके माँ-बाप दोनों ही नौकरी पेशा थे। उसे दिन भर डे-बोर्डिंग स्कूल में रहना पड़ता था। पाँच-छः साल तक उसे ख़ूब लाड़-प्यार ऐशो आराम मिला।

मगर इसके बाद जल्दी ही माँ-बाप के बीच रोज़ झगड़े होने लगे। इसके साइड इफ़ेक्ट के रूप में उसकी उपेक्षा शुरू हो गई। साथ ही साथ मार भी पड़ने लगी। जल्दी ही अब्बू ने अम्मी को तलाक़ दे दिया। दोनों जिसे-जिसे चाहते थे, उसके साथ चल दिए। शादी कर ली। उसको अब्बू ने अम्मी के पास ही छोड़ दिया था। नए सौतेले बाप ने उससे पहले दिन से ही प्यार से बात की।

अम्मी जैसे पहले उसे "मेरा शाहज़ादा" कहती थीं, प्यार से उसकी देखभाल करती थीं, उसकी देखभाल को अपनी ख़ुशी मानती थीं, सुबह से लेकर रात सोने जाने तक उसे दर्जनों बार प्यार करती थीं, चुंबन लेती थीं, वैसे ही करती रहीं। वह अच्छे कॉन्वेंट स्कूल में ही पढ़ता रहा। लेकिन सौतेले भाई के जन्म के कई महीने पहले ही से स्थितियाँ तेज़ी से बदलती चली गईं। और जब भाई बाबुल का जन्म हो गया तो सब एकदम से बदल गया।

बाप का व्यवहार कठोर हो गया। उसे बेवज़ह मारना-पीटना, गंदी-गंदी गाली देना उनका रूटीन वर्क हो गया। अब मज़दूर के बच्चे और उसमें कोई फ़र्क नहीं रह गया। अम्मी भी उन्हीं की तरह हो गईं। उसे कॉन्वेंट से निकाल कर म्यूनिस्पल स्कूल में डाल दिया। बाबुल सात-आठ महीने का था, तभी घूमने के लिए सभी लोग ट्रेन से चले। उसको याद नहीं कि कोलकाता से कहाँ के लिए निकले। उसे यह भी याद नहीं कि, वापसी में उसे उसकी अम्मी और सौतेले बाप ने किस रेलवे स्टेशन पर छोड़ा था। बस इतना याद है कि, स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर वह अम्मी के साथ था। अपने भाई बाबुल के साथ खेल रहा था। जिसे वह बहुत प्यार करता था। तभी सौतेले पिता उसे लेकर स्टेशन से बाहर निकल गए।

वहाँ उसके लिए खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदीं। फिर एक जगह उसे बैठाकर कहा, "तुम यहाँ बैठो। मैं बाबुल और तुम्हारी माँ के लिए भी चीज़ें लेकर आता हूँ।" वह गए तो फिर वापस लौटे ही नहीं। कुछ देर बाद वह उन्हें ढूँढ़ने लगा। नहीं मिले तो रोने लगा। लोग आ गए। फिर कहाँ-कहाँ होते, कैसे-कैसे वह चाइल्ड लाईन पहुँच गया। उसके बाद उसने अपने माँ-बाप, सौतेले भाई किसी को कभी नहीं देखा। इन सब के लिए उसके मन में ग़ुस्सा, घृणा कूट-कूट कर भर गई, इतनी कि, "वे मिल जाएँ तो...।" वह इतना कह कर दाँत किटकिटा कर हल्के से चीख़ा। वह काँपने लगा तो मैंने उसे शांत किया।

उसने फिर एक सिगरेट पी डाली। उसकी आँखें सुर्ख़ लाल हो रही थीं। पसीने से भीग रहा था। रिक्शे वाला अब भी सो रहा था। मेरे आग्रह पर उसने बात आगे बढ़ाई, बताया कि अनाथालय में खाना-पीना, कपड़ा सब, बस किसी तरह ज़िंदा रहने भर का मिलता था। स्टॉफ़ आए दिन चप्पल-जूतों, डंडों से मारता था। साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-पोंछा सब बच्चों से ही कराया जाता था। दिन हो या रात कई लोग बच्चों का यौन शोषण करते रहते थे। अक्सर स्टॉफ़ के बाहर के लोग भी आते थे।

उसकी नाक भी वहीं यौन शोषण के दौरान लगी गंभीर चोट के कारण हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई। ऐसे ही भूख-प्यास, मारपीट, यौन शोषण के बीच वह चौदह-पन्द्रह साल का हो गया। और फिर चार लड़कों के साथ वहाँ से भाग निकला। एक रात जब स्टॉफ़ कुछ लड़कियों का यौन शोषण करने के बाद नशे में धुत्त होकर सो गया, तो यह सब चाबी चोरी करके, मेन गेट खोल कर भाग निकले। स्टॉफ़ के लोगों के कपड़ों में जितने पैसे थे, वह भी चोरी कर लिए। फिर कई शहरों में इधर-उधर भटकते रहे। अंततः एक रेलवे स्टेशन पर ही उन पाँचों ने अपना ठिकाना बना लिया।

प्लेटफ़ॉर्म के अलग-अलग होटलों में काम करते, वहीं खाते-पीते और सोते। नशे, सेक्स से उनका परिचय तो अनाथालय से ही था। वह भी नशे के आदी होते चले गए। महिलाओं का भी जुगाड़ कर लेते थे। ऐसे ही कई वर्ष बीत गए। एक दिन यार्ड में खड़ी एक बोगी में अपनी ही तरह क़िस्मत की मारी एक महिला का शोषण कर रहे थे, सभी नशे में थे। आवेश में किससे क्या हुआ कि महिला की मौत हो गई। फिर पूरा का पूरा गुट वहाँ से भाग निकला। इस भागम-भाग में सभी बिछड़ गए। सब्बू भी अकेले भागता-भटकता एक महानगर के बड़े से रेलवे स्टेशन की भीड़ में घुस गया। फिर वहीं एक होटल में काम-धाम करने लगा। जल्दी ही यहाँ भी उसका चार-पाँच लोगों का नया गुट बन गया। नशा-पत्ती, सब उसकी चल निकली, औरत-बाज़ी भी।

एक दिन अपनी ही जैसी एक लड़की के साथ वह यार्ड में खड़ी एक बोगी में था, कि तभी जीआरपी वालों की नज़र में आ गया। भागा। बचने, भागने के चक्कर में एक ट्रेन की चपेट में आकर घायल हो गया। किसी तरह जान तो बच गई, लेकिन पैर गँवा बैठा। ठीक हुआ तो खाने-पीने के लाले पड़ गए। काम नहीं मिल रहा था। अंततः भीख माँगने को विवश हो गया। इसी बीच में ड्रग माफ़ियाओं ने उससे स्मैक, चरस आदि बिकवानी शुरू कर दी, क्योंकि उन्हें लगा कि, कोई उस पर जल्दी शक नहीं करेगा। जल्दी ही उसने अपनी जैसी कई महिलाओं और लड़कियों को भी फँसाया। उन्हें भी ड्रग्स का आदी बना लिया। जब वे ड्रग्स की आदी बन गईं तो उन्हें पैसा देने पर भी ड्रग्स नहीं देता। पैसा, शोषण दोनों मिलने पर ही देता। उसकी ड्रग्स गाथा सुनकर ही मैं समझ पाया कि, वह उस समय भी गांजा सहित किसी अन्य ड्रग्स के नशे में भी है।

मैंने पूछा तुम्हारे गैंग में कितनी लड़कियाँ हैं? तो उसने बड़ी शान से बताया, "नौ हैं।" 

मैंने कहा, "तुम चल नहीं पाते हो, तो इतनी लड़कियों को कैसे बाँधे रहते हो? वह भाग भी तो सकती हैं।" 

तो वह फिर बड़ी शान, अकड़ के साथ बोला, "जब तलब लगती है तो ढूँढ़ती हुई आती हैं।" एक जगह का नाम बताते हुए कहा कि, "सब शाम को वहीं पर दौड़ी आती हैं। वहीं पर इकट्ठा होती हैं।" उसकी बात सुनते-सुनते मेरा ध्यान बार-बार उसके पैर में बँधी पट्टी पर जा रहा था, जिस पर अच्छा-ख़ासा सूखा ख़ून दिख रहा था। मैंने सोचा कि जब इसका पैर कई साल पहले कटा था, तो घाव कब का ठीक हो गया होगा। अब यह कैसा ख़ून? पूछा तो वह बड़ी ही अजीब तरह से खीं-खीं करके हँस पड़ा। कुछ देर हँसने के बाद बोला, "लड़कियाँ देती हैं, लड़कियाँ।" मैं बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि लड़कियाँ ख़ून देती हैं, तो वह फिर से पहले की तरह हँसकर बोला, "इतनी लड़कियाँ हैं, रोज़ एक को ब्लेड से चीरा लगाता हूँ, उसी से काम भर का ख़ून लेकर अपनी दवाई भिगो लेता हूँ। बाकी इस पट्टी को चटा देता हूँ।" इतना कहते-कहते फिर बड़ी घिनौनी हँसी हँसा। यह सुनकर मेरा ख़ून खौल उठा।

मैंने तेज़, घृणापूर्ण आवाज़ में कहा, "तुम बहुत ही क्रूर, घिनौने, नारकीय इंसान हो। तुम्हारे तो दोनों हाथ-पैर कट जाने चाहिए थे।" मेरी बात पर वह अप्रत्याशित रूप से ग़ुस्से से तमतमा उठा। मैंने भी उसी क्षण तय किया कि किसी भी तरह से इससे बाक़ी बातें जान लूँ, तो पुलिस को कॉल करके ऐसे दरिंदे को जेल भिजवा दूँ। जो साक्षात राक्षसों की तरह इतनी मासूम लड़कियों, औरतों का ख़ून पी रहा है। इसने तो युगांडा के ईदी अमीन को भी पीछे छोड़ दिया है।

वह तमतमाए चेहरे के साथ फिर सिगरेट पीने लगा। मैं उससे अगली बात पूछने वाला ही था कि तभी वह बोला, "हम क्रूर, घिनौने राक्षस हैं, तो बताओ ज़रा, जिन लोगों ने हमें स्टेशन के बाहर छोड़ा, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रख कर काम करवाया, नोचा-खसोटा वह सब क्या हैं? सुनो, सब राक्षस हैं, राक्षस। अकेले हमें ना कहो, समझे, और चाहो तो जो पैसा उस दिन दिए थे वह भी ले लो।" वह बड़ी दबंगई से बोल रहा था। मुझे भी बड़ा  ग़ुस्सा आ रहा था। मगर मैं सब जानना चाहता था। साथ ही उसके साथ उसके माँ-बाप, अनाथालय वालों ने जो अत्याचार किए, उसे जानकर उसके प्रति दया भी उभर रही थी।

तभी खाने वाले का फोन आया। उसे लोकेशन समझाई तो वह पाँच मिनट के बाद आ गया। मैंने एक डिब्बा खाना उसके सामने रखते हुए कहा, "खाओ, तुम्हें भूख लगी हैं ना।" वह मुझे डिलीवरी मैन से खाना लेकर उसको पैसे देने तक एकटक देखता रहा था। उसके जाते ही बोला, "कोई पाँच रुपया भी नहीं देता। तुम इतना किए जा रहे हो। कोई मामला है क्या?" 

मैंने कहा, "पहले खाना खाओ। मामला सिर्फ़ इतना है कि मुझे तुम्हारे ऊपर बहुत दया आ रही है कि तुम्हारे साथ इतना अत्याचार हुआ। तुम्हारी हालत देखकर मैं इतना ही सोच रहा हूँ कि तुम्हारा जीवन अच्छा हो जाए। तुम्हारी तकलीफ़ दूर हो जाए।"

मैंने रिक्शे वाले को भी उठा कर खाना दिया तो वह बोला, "अरे साहब आप क्या कर रहे हैं? यह खाना कैसे आ गया? मैं तो सवेरे ही खा कर चलता हूँ।" 

मैंने कहा, "कोई बात नहीं। सवेरा हुए बहुत समय हो गया है। लो खा लो।" 

मैंने देखा सब्बू आराम से निश्चिंत होकर खाना खा रहा था और बीच-बीच में मुझे देखे भी जा रहा था। 

मैंने पूछा, "यह बताओ जिन लड़कियों का तुम यौन शोषण करते हो, उनका शरीर काट कर उनके ख़ून से वह सब करते हो, कभी ये झगड़ा नहीं करतीं। तुम्हें डर नहीं लगता कि वह सब एक साथ मिलकर तुम्हें मार सकती हैं।" 

यह सुनते ही वह मुँह में खाना भरे-भरे हूँ-हूँ करके हँसा। फिर बोला, "उनकी हिम्मत नहीं है।" बैसाखी की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, "इसी से चमड़ी उधेड़ कर रख देता हूँ। ज़्यादा बोलीं तो पुलिस की लाठी से तुड़वा देता हूँ।"

मैंने उसकी हिम्मत देखकर सोचा, ऐसे बोल रहा है जैसे कि पुलिस को ख़रीद रखा है। पुलिस इसकी नौकर है। वह खाना खा चुका तो मैंने कहा, "मान लो इन लड़कियों ने पुलिस में तुम्हारी सारी बातें बता दीं तो तुम्हें पुलिस पकड़ लेगी। जेल में डाल देगी। डर नहीं लगता तुम्हें।" 

"कैसी बात करते हो? इनमें कौन सी लड़की है जिसे पुलिस वाले...

उसने बड़ी भद्दी सी बात कही। जिसे सुनकर मैं हक्का-बक्का रह गया। वह बड़े ताव में बोला, "लड़कियाँ क्या, तुम भी चले जाओ पुलिस में तो भी कुछ नहीं होगा। अगर पुलिस ने कुछ देर को धर भी लिया, गिरफ़्तार भी कर लिया तो पुड़िया वाले छुड़ा लेंगे।"

पुड़िया वाले का ख़ुलासा करते हुए बताया कि ड्रग्स सप्लायर की पूरी नज़र रहती है उस पर। मुझे उसकी बात पर पूरा यक़ीन नहीं हो रहा था। मैंने सोचा इसकी मानें तो पूरा का पूरा पुलिस विभाग ही इसके साथ है। मैंने कहा, "ऐसा नहीं है, मालूम होने पर पुलिस चुप नहीं बैठेगी। फिर जो भी हो अब तुम यह सब छोड़कर कुछ काम-धाम क्यों नहीं करते। हाथ-पैर से परेशान बहुत से लोग, कुछ ना कुछ काम तो कर ही रहे हैं। अपना जीवन, अपने परिवार को चला ही रहे हैं।"

मेरी इस बात पर उसने जो जवाब दिया उससे मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। घृणा बढ़ गई। वह बड़ी ऐंठ के साथ बोला, "तो हम भी तो काम कर रहे हैं। अपना जीवन चला रहे हैं। इसमें तो और भी ज़्यादा मेहनत लगती है।" 

मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह रिक्शे वाला बोला, "साहब, हम पहले दिन से ही आपसे बता रहे हैं, अपना पैसा, समय आप बर्बाद कर रहे हैं। ये ऐसे ही रहेगा। रात में चलने वाले ऑटो, टेंपो वालों को भी फँसाए हुए है। उन्हें भी लड़कियों को देता रहता है। पुलिस सब कुछ जानती है। कुछ नहीं होने वाला। आप बेवज़ह इतनी गर्मी में परेशान हो रहे हैं।" रिक्शे वाले की बात मुझे सही लगी।

मैंने अपना वाला खाने का डिब्बा भी उसे ही दे दिया। कहा, "लो यह भी तुम्हारे काम आएगा।" 

मैंने अपना डिब्बा खोला भी नहीं था। रिक्शे पर बैठते-बैठते मैंने कहा, "एक बार बिना सिगरेट पिए मेरी बात पर सोचना, समझना, समझ में आ जाए तो अपना काम बदलना, आते-जाते कहीं मिल जाओ तो बताना।"

तो उसने तपाक से कहा, "अपना मोबाइल नंबर दिए जाओ।" 

उसके इस जवाब ने मुझे फिर सोच में डाल दिया। मैंने कहा, "नंबर कहाँ लिखोगे। कागज-पेन रखे हो?" अगले ही पल उसने हाथ पीछे कर लुंगी में खोंसा एक एंड्रॉएड मोबाइल निकालकर कहा, "बताओ नंबर।"

उसे मैं कुछ देर देखता रहा। मेरे दिमाग़ में बात आई कि दुनिया भर के क्राइम कर रहा है। ड्रग माफ़िया के संपर्क में है। आज नहीं तो कल पकड़ा जाएगा। तब इसके मोबाइल में मेरा नंबर मुझे भी पकड़वा देगा। मैंने उसे नंबर नहीं बताया और कहा, "जब मिलना हो तो वहीं अंबेडकर पार्क के पास आ जाना। वहीं मिलेंगे, सुबह नौ से दस बजे के बीच और शाम को..." मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शे वाला चल दिया। मैं जिस काम के लिए निकला था उसके लिए बड़ी देर हो गई थी तो मैंने उससे घर चलने के लिए कह दिया। मन बड़ा खिन्न हो रहा था कि कैसे-कैसे लोग हैं दुनिया में। रिक्शे वाला उसके लिए बहुत कुछ कहे जा रहा था लेकिन मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया तो वह चुप हो गया। इस बीच मैं यह सोचता रहा कि जब यह ड्रग्स बेचता है तो तमाम पैसे कमाता होगा। फिर इसे भीख माँगने की ज़रूरत क्यों? कहीं यह इस धूर्त की कोई छद्म चाल ही तो नहीं है।

अगले दिन सवेरे पेपर के लोकल पेज पर उसकी फोटो देखकर मैं सशंकित हुआ कि इसके साथ कोई कांड हो गया क्या? ख़बर पढ़ी तो मालूम हुआ कि उसने किसी धारदार हथियार से एक पन्द्रह-सोलह वर्षीय लड़की को मारने की कोशिश की। जिससे वह लहूलुहान हो गई और मरणासन्न है। उसने बादशाह नगर रेलवे स्टेशन पर यह कांड किया था। जीआरपी ने उसे पूरे गिरोह सहित पकड़ लिया था। लड़कियों ने जीआरपी वालों को सारा क़िस्सा बताकर उसका भांडा फोड़ दिया था। सारी बातें वही लिखीं थीं जो उसने बताई थीं। वह सब फिर पढ़कर मन उसके प्रति घृणा से भर गया। साथ ही भगवान को धन्यवाद कहा कि अच्छा हुआ ऐन टाइम पर उसे अपना मोबाइल नंबर बताने से मना कर दिया था।

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नक्सली राजा का बाजा 

"भोजूवीर इतना चीख-चिल्ला क्यों रहे हो? अपनी बात आराम से बैठ कर भी कह सकते हो। मैंने तुम्हारी बात कभी सुनी ना हो, तुम्हें कभी कोई इम्पॉर्टेंस ना दी हो तब तो तुम्हारा यह चीखना-चिल्लाना समझ में आता।" 

"नहीं, नेताजी मैं चीख-चिल्ला नहीं रहा हूँ, आप मेरी बात समझने की कोशिश कीजिए।"

"बैठो, पहले बैठो कुछ देर शांति से फिर बताओ। आज मैं तुम्हारी हर बात सुनने के बाद ही कोई दूसरा काम करूँगा।" 

नेताजी के कहने पर भोजू उनके सामने पड़ी बड़ी सी मेज़ के दूसरी तरफ़ रखी कई कुर्सिओं में से ठीक उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। इसी बीच नेताजी ने फोन करके चाय-पानी के लिए कह दिया। फिर भोजूवीर की तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोले,

"देखो भोजू, अभी हमें सारा ध्यान इस बात पर देना है कि चुनाव क़रीब आ गए हैं। पार्टी अपना दमखम दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए हुए है। इस बार हर हाल में सत्ता में आने के लिए कमर कसे हुए है। यही समय है जब हमें भी अपना पूरा दमखम हर हाल में दिखाना है। हमें पार्टी नेतृत्व को यह दिखाना है, अहसास कराना है, कि हम अपने क्षेत्र के ना सिर्फ़ एकमात्र सबसे बड़े मज़बूत नेता हैं, बल्कि संसदीय चुनाव में टिकट के एकमात्र दावेदार भी हम ही हैं। हमें टिकट देंगे तो यह सीट पक्की है। 

यहाँ हमारे सामने न पार्टी का कोई दूसरा नेता है, ना ही किसी और पार्टी की कोई हैसियत है। हमारी सीट इतनी पक्की है कि चुनाव तो औपचारिकता मात्र है। भोजू यह समय जब और मज़बूती से अपना दावा पेश करने का है, पिछले कई साल से पार्टी के लिए हमने जो मेहनत की है, जो समय, पैसा खर्च किया है, उसे ब्याज सहित पाई-पाई वसूलने का है, ऐसे महत्वपूर्ण अवसर पर तुम वह काम करने के लिए कह रहे हो हफ़्ते भर से जिससे अब तक के सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। पार्टी इसे हमारी बग़ावत मानेगी। 

एक मिनट का भी समय नहीं लेगी हमें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में। जिला महासचिव तो कब का इसी फ़िराक़ में बैठा है कि मैं, तुम, किसी तरह हाशिए पर पहुँचें, और उसका रास्ता साफ़ हो। तुम ही बताते रहते हो कि किस तरह बराबर हम सब की चुगलखोरी करने, हमें डैमेज करने में लगा रहता है। जब देखो तब दिल्ली में आलाकमान से संपर्क साधने में लगा रहता है। सब कुछ जानते हुए भी तुम यह सब क्यों कह रहे हो? सच क्या है वह बताओ।"

"नेताजी देखिए एक तो पता नहीं क्यों आप मुझ पर शक कर रहे हैं कि मैं कुछ छुपा रहा हूँ। बार-बार कहता हूँ कि आपको छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं हूँ। मैं साफ़-साफ़ यह कहना चाहता हूँ कि हम लोग बीते आठ-नौ सालों से पार्टी के लिए और जो ऊपर बड़े नेता, आलाकमान को घेरे रहते हैं, उन सबकी चमचई कर-कर के आज तक कुछ कर नहीं पाए। थोड़ा बहुत इधर-उधर का काम और इन सब से मिलने-जुलने का कोई मतलब है क्या? क्या है हमारा भविष्य? कहने को हमारा लीडर कहता है कि हम युवाओं को आगे ले आएँगे, युवा देश की, हमारी ताक़त हैं। हमें उन्हें आज अवसर देना ही होगा। लेकिन असल में हो क्या रहा है आप भी जानते हैं, हम भी जानते हैं। 

चाहे किसी प्रदेश की यूनिट हो या केंद्र की, सारे महत्वपूर्ण पदों पर वही पुराने खूसट डेरा जमाए हुए हैं। साले हिलने-डुलने को मुहताज हैं। मुँह से बोल निकल नहीं पाते हैं। लेकिन फिर भी खूँटा गाड़े जमें हैं। पार्टी को भी जमाए हुए हैं। ना खिसक रहे हैं, ना पार्टी को खिसकने दे रहे हैं। मुझे पार्टी का कोई भी भविष्य नज़र नहीं आ रहा है। हमारा लीडर पचास साल का हो रहा है, लेकिन आज तक बोलना नहीं सीख पाया। कब अंड-बंड बोल कर कुल्हाड़ी अपने ही ऊपर मार ले, पार्टी की ऐसी की तैसी करा दे इसका कोई ठिकाना नहीं। जब कभी लगता है कि पार्टी दो क़दम आगे बढ़ी है तभी वह कुछ ऐसा कर बैठता है कि पार्टी चार क़दम पीछे चली जाती है। 

नेताजी, नेताजी इस जहाज़ के पेंदे में इतने छेद हो चुके हैं कि उन्हें ठीक करना असंभव है। कम से कम इस लीडर के रहते तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। तो आख़िर हम इस गल चुके पेंदे वाले जहाज़ में क्यों सफ़र करें, जिसका डूबना निश्चित है। चलो ग़लती हुई, ग़लत जहाज़ में सवार हो गए, जानकारी नहीं थी। लेकिन अब तो सब कुछ जान चुके हैं। देख रहे हैं, तो अब समझदारी इसी में है कि समय रहते निकल लिया जाए। इस जहाज़ का डूबना निश्चित है। थोड़ा ज़्यादा बड़ा है तो समय कुछ ज़्यादा लेगा। बकिया डूबना तो तय है।"

नेताजी भोजू की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। और साथ ही उसकी बातों में बग़ावत की बू आ रही है या नहीं इसे भी सूँघने की पूरी कोशिश कर रहे थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि भोजू पिछले एक हफ़्ते से इतना आक्रामक क्यों हो रहा है? दिन पर दिन इसकी आक्रामकता क्यों बढ़ती ही जा रही है। वह सोचने लगे कि "इसके पीछे कोई लग तो नहीं गया है, कि यह मेरा दाहिना हाथ है? मेरी ताक़त है। इसे काट दो तो मैं बेकार हो जाऊँगा। 

पैसा रुपया सब मेरा ना सही लेकिन अस्सी परसेंट तो मेरा ही लगता है। बाक़ी में यह और अन्य हैं। लेकिन राजनीति की असली पॉवर भीड़ तो इसी के पास है। यह हाथ से निकल गया तो मैं कहीं का नहीं रह जाऊँगा। इसको जैसे भी हो साधना होगा। और यदि नहीं सधा तो?" नेताजी ने मन में ही ख़ुद ही प्रश्न किया और फिर उसी कठोरता से उत्तर भी दिया "तो यह किसी और की ताक़त बनने लायक़ भी नहीं रहेगा।" वह अंदर ही अंदर खौलते रहे, तेज़ी से कैलकुलेशन करते रहे। लेकिन चेहरे पर नम्रता की, प्यार की मोटी चादर ओढ़े रहे। और बड़े प्यार-स्नेह से बोले-

"भोजू तुम्हें मैं अपने छोटे भाई की तरह मानता हूँ, ध्यान रखता हूँ, तुम्हें आगे बढ़ा रहा हूँ। हो सकता है मुझसे अनजाने में कोई ग़लती हो गई हो। मुझे जो करना चाहिए तुम्हारे लिए वह नहीं कर पाया। तुम निसंकोच निश्चिंत होकर सब बताओ, अपने बड़े भाई को आज सब कुछ बताओ कि आख़िर क्या छूट रहा है मुझसे।"

नेताजी भोजू को समझाते रहे। उसे जितना समझाते वह उतना ही अपनी बात पर अडिग होता गया। नेताजी की चार तार की चासनी में पूरी गहराई तक रची-पगी भावनात्मक बातों को भोजू ने अपने क़रीब फटकने ही नहीं दिया। चाय नमकीन एक नहीं दो बार आई और ख़त्म हो गई। लेकिन ना नेताजी भोजू को समझा पाए और ना ही भोजू नेताजी को। अंततः नेताजी की ओढ़ी हुई सज्जनता, भोजू के लिए उमड़ता जा रहा प्यार-स्नेह अचानक ही एक झटके में ग़ायब हो गया।

वह अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए। भोजू भी जैसे पहले ही से तैयार था। वह भी खड़ा हो गया। लेकिन नेताजी उसकी उम्मीदों से भी कहीं ज़्यादा मुखर हो चुके थे। तमतमाए हुए जो बोलना शुरू किया तो बोलते ही चले गए। सीधे-सीधे कहा,

"तुम क्या समझते हो यह जो शगूफ़ा लेकर निकले हो इससे तुम राजनीति कर पाओगे। इतने दिनों में यही समझ पाए हो राजनीति को। तुम्हारे जैसे ना जाने कितने नेता राजनीति का ताज पहनने के लिए रोज़ निकलते हैं। और राजनीति की अँधेरी, बीहड़ गली में भटक-भटक कर, ठोकरें खा-खा कर कीड़े-मकोड़े की तरह मर जाते हैं। इस भीड़ में से निकल वही पाया है जो अपने सीनियर के पदचिन्हों पर बिना आवाज़ किए उसके पीछे-पीछे चला है। तुम अभी राजनीति में पहली भोर की दुपहरी भी नहीं देख पाए हो और हमें बता रहे हो कि राजनीति कैसे करें? किसके इशारे पर हमें राजनीति सिखा रहे हो? कितनी कमाई कर ली है वहाँ से?"

नेता जी की बातें भोजू को तीर सी भेदती चली गईं। नेताजी के सारे आरोप झूठे थे। वह पूरी तरह उनके प्रति निष्ठावान था। लेकिन नेताजी की कच्छप चाल वाली राजनीति से बुरी तरह तंग आ चुका था। वह नेता जी और अपनी ताक़त भी अच्छी तरह जानता-समझता था, और पार्टी में अपनी हैसियत से भी वाकिफ़ था। वह अच्छी तरह जानता था कि पार्टी में उसकी हैसियत नेता जी के दुमछल्ले की है। यह छल्ला खनकता भी तभी है जब नेताजी की दुम हिलती है। वह अपनी इस इमेज़ से  आजिज़ आ गया था। बड़ी शर्मिंदगी महसूस करता था। बदलना चाहता था अपनी इस इमेज को। निकलना चाहता था इस इमेज के शिकंजे से। उसे अच्छी तरह मालूम था कि नेताजी की राजनीति का इंजन वही है। यदि वह निकल गया तो नेताजी बिना इंजन के ढांचा (चेचिस), बॉडी भर रह जाएँगे। जो बिना इंजन के हिल भी ना पाएगा। खड़े-खड़े जंग खा जाएगा। ख़त्म हो जाएगा। 

मन में वह नेता जी से ज़्यादा तेज़ी से कैलकुलेशन करते हुए सोच रहा था कि "यह सबकुछ जानते हुए भी जिस तरह का व्यवहार मुझसे कर रहे हैं वह अब बर्दाश्त के बाहर है। अब इनको दिखाकर रहूँगा कि यह कायस्थ कुलोद्भव हैं तो मैं भी कायस्थ कुलोद्भव हूँ। नमक से नमक नहीं खाया जा सकता। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। इतने दिनों से रहती आईं यही बहुत बड़ी, बहुत अनोखी बात है। अब समय आ गया है कि इनसे मुक्ति पा लूँ। दिखा दूँ लालाजी को कि तुम हमसे हो, हम तुमसे नहीं। अनादिका कितना सही कहती है कि "तुम कितना भी कोशिश कर लो, तुम्हारी यह दोस्ती अब बस पूरी ही होने वाली है।" वह कितने दिनों से कह रही है कि "तुम्हारा नेता इस क़ाबिल नहीं कि लीडर बन सके। तुम्हारे जैसे लोगों को नेतृत्व दे सके।" 

वह मेरी बातें सुन-सुन कर कितनी बार बोल चुकी है कि "तुम्हारे इस लोकल लीडर और नेशनल लीडर में भी लीडरशिप, पॉलिटिक्स के कोई जर्म्स हैं ही नहीं। पॉलिटिक्स के जर्म्स तुममें है, इसलिए सबसे पहले तुम्हें इस पार्टी को ही छोड़ देना चाहिए। तभी सच में नेता बन पाओगे।" मगर मैं मूर्ख उसे यह कहकर चुप करा देता हूँ कि वह अपनी नौकरी सँभाले, किचेन सँभाले, होम मिनिस्ट्री भी दे रखी है वह भी सँभाले। बच्चा मिनिस्ट्री हमारा ज्वाइंट वेंचर है, उसे दोनों मिलकर सँभालेंगे। मगर सच तो यह है कि वह पॉलिटिक्स को मुझसे ज़्यादा बेहतर समझती है। मैं ही जाहिल पतियों की तरह उसे डपट देता हूँ कि अच्छा-अच्छा बहुत हुआ, अपनी मिनिस्ट्री सँभालो, मेरी पॉलिटिक्स तुम्हारे वश की नहीं है।

सच में मैं कितनी ग़लती करता आ रहा हूँ। उसे वाक़ई बहुत अंडरएस्टीमेट करता हूँ। जबकि पाँच साल से वह अपने ऑफ़िस यूनियन की प्रेसिडेंट बनती आ रही है। दो बार तो निर्विरोध हो चुकी है। मगर अब उससे मैं...मैं उसे।" भोजूवीर के मन में बड़ी द्रुत गति से यह सब अनवरत चलता रहा और फिर वह अंततः चीख-चिल्ला रहे नेताजी पर घनघोर बादल की तरह फट पड़ा। बरस गया एकदम से। लंबे समय से इकट्ठा घनघोर बादल दिल दहला देने वाली भीषण गर्जना के साथ बरस गया। बरसने केे बाद भोजूवीर ने झटके से कुर्सी पीछे खिसकाई। झटका इतना तेज़ था कि कुर्सी दो-तीन क़दम पीछे खिसक गई। 

वह गरजते हुए आख़िरी सेंटेंस बोल कर बाहर निकल गया। दरवाज़ा भी पूरी ताक़त, पूरी आक्रामकता के साथ खोला और बंद किया। नेता जी को ऐसा लगा जैसे भड़ाक से बंद हुआ दरवाज़ा सीधे उनके चेहरे पर आ लगा है। उनके चेहरे को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया है। नाक मुँह सब खून से लथपथ हो गए हैं। वह बुत बने खड़े रह गए अपनी जगह पर। भोजू का आख़िरी वाक्य उनके कानों में गूँज रहा था। 

उन्होंने पहली बार भोजू का यह रौद्र एवं बग़ावती रूप देखा था। वह इस वक़्त ग़ुस्से से ज़्यादा भयभीत थे। तभी उनकी पत्नी बग़ल वाले कमरे से अंदर आईं। उन्हें पसीने-पसीने देखकर पूछा,

"क्या हुआ? यह भोजू आज इतनी बदतमीज़ी क्यों कर रहा था। आदमियों को बुलवाकर उसके हाथ पर यहीं का यहीं क्यों नहीं तुड़वा दिया। सब के सब तो बाहर बैठे हमारे ही पैसों का खा-पी रहे हैं।" 

नेताजी को तेज़ आवाज़ में बोल रही पत्नी पर भी ग़ुस्सा आ गया। वह उसकी मूर्खता पर क्रोधित हो उठे कि मूर्ख औरत ऐसे फ़ुल वॉल्यूम में चिल्ला रही है। साले बाहर बैठे सुन रहे होंगे। वह तिलमिला कर बोले,

"चुप रहो, जहाँ नहीं बोलना होता वहाँ भी बछेड़ी जैसी कूद-फाँद करने लगती हो।"

उन्होंने लगे हाथ कई अन्य सख़्त बातें कहकर पत्नी को अंदर भेज दिया। पत्नी भी कमज़ोर नहीं पड़ी। उसने संक्षिप्त सा ही सही तीखा उत्तर दिया और पैर पटकती हुई चली गई उसी दरवाज़े से दूसरे कमरे में, जिधर से आई थी। नेताजी ने उसे जाते हुए नहीं देखा। दूसरी ओर मुँह किए मन ही मन में बस गरियाए जा रहे थे कि "साले बाहर बैठे खा तो मेरे ही पैसों का रहे हैं, लेकिन हैं तो उसी साले भोजुवा के आदमी, यह सब क्यों उस पर हाथ उठाएँगे।" वह मन में ही भोजू पर हमला किए जा रहे थे। 

"भोजू मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। आदमी तेरे पास हैं, अच्छी बात है। मगर आख़िर पॉलिटिक्स में तुझसे सीनियर हूँ। इसकी अँधेरी गलियों में आए पत्थरों, रुकावटों को कैसे हटाया जाता है वह तुझसे बेहतर जानता हूँ। और यह तो और भी अच्छी तरह जानता हूँ कि तेरे जैसे आदमी पर पत्थर कैसे गिराए जाएँ। कैसे उन्हीं के नीचे दबा कर उन्हीं पत्थरों से समाधि बना दी जाए। तेरे जितने आदमी, तेरे जैसे आदमी मेरे पास भले ही ना हों, लेकिन इतना तुझसे हज़ार गुना ज़्यादा जानता हूँ कि एक ट्रक ड्राइवर को कैसे साधना है। बड़ी मौज आती है ना तुझे गाड़ियों में दर्जनभर लोगों को साथ लेकर चलने में। घबरा नहीं, तुझे ऐसी मौज दूँगा उसी गाड़ी में कि तू मौज से ही ऊब जाएगा। इतना ऊब जाएगा कि दुनिया से ही चला जाएगा।"

तभी मोबाइल में दूसरी बार किसी की कॉल आई। रिंग पूरी होकर बंद हो गई। उन्होंने कॉल रिसीव नहीं की। भोजू की बातें उनके दिमाग़ में हथौड़े की तरह प्रहार किए जा रही थीं। उनकी चोटें उन्हें इतना विचलित कर रही थीं कि अब भी उनका पसीना सूख नहीं रहा था। बेचैनी में वह कमरे में चहलक़दमी करने लगे थे। एसी का रिमोट उठाकर कूलिंग और बढ़ा दी। गला सूख रहा था। पानी पीने की इच्छा हो रही थी लेकिन पत्नी को डाँट कर भगा चुके थे। किसी नौकर को बुलाना नहीं चाह रहे थे। हैरान परेशान आख़िर वह कुर्सी पर बैठ गए। उन पर हर तरफ़ से हमलावर भोजू का आख़िरी वाक्य "नेताजी मैं जा रहा हूँ, अब मेरी पॉलिटिक्स देखिएगा, कुछ हफ़्तों में आप छोड़िए आलाकमान भी मेरे आगे-पीछे नाचेगा। आप जैसे तो मेरे आस-पास भी नहीं फटक पाएँगे।" दिमाग़ में धाँय- धाँय  दगे जा रहा था। वह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि भोजू ऐसा क्या करेगा?

"कहीं यह सारे राज़ तो नहीं खोल देगा। जिससे बवाल खड़ा हो जाए। बड़े नेताओं की आवभगत, उनके ऐशो-आराम की क़रीब-क़रीब सारी ज़िम्मेदारियाँ यही उठाता रहा है, औरतों से लेकर शराब तक सब इसी के सहारे हुआ है, कहीं साले ने वीडियो-सीडियो तो नहीं बना रखा है कि मीडिया, सोशल मीडिया में वायरल कर दे। मुझे और उन बड़े नेताओं को एक साथ मिट्टी में मिला दे। चुनाव को अब वैसे भी ज़्यादा दिन कहाँ रह गए हैं? बरसों की सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसके चक्कर में मेरा ही नहीं पार्टी का भी सत्यानाश हो जाएगा। बड़ी मुश्किल से तो किसी तरह लड़ाई में लौटी है, कुछ उम्मीद जगी है। यह भोजुवा तो साला वाक़ई भस्मासुर बन गया है। लेकिन भस्मासुरों को जीने का हक़ कहाँ है? भोजुवा तूने जीने का हक़ खो दिया है। अब तेरी समाधि भी घर वाले तेरी प्रिय मातृभूमि भोजूवीर में ही बनावाएँगे। भोजूवा तू नाहक़ ही भोजूवीर से मरने के लिए यहाँ मेरे पास चला आया। चमकाता अपनी राजनीति वहीं भोलेबाबा के पास वाराणसी में, भोजूवीर में।"

नेताजी बड़ी सावधानी से लग गए किसी ट्रक ड्राइवर को साधने में। सावधानी इतनी कि पत्नी को भी पहली बार अपने किसी काम में राज़दार नहीं बना रहे थे। मोबाइल से कोई बात नहीं कर रहे थे। ज़रूरत पड़ने पर अकेले ही निकल रहे थे। किसी ड्राइवर या गाड़ी को लेकर नहीं, रात के अँधेरे में टहलने के बहाने बाहर निकलते। फिर कुछ दूर जाकर ओला या उबर टैक्सी बुक करते। जहाँ जाना होता उससे थोड़ा पहले ही उतर जाते। ठीक इसी तरह वापस भी आ जाते। पत्नी हर बार पूछती, "कहाँ चले गए थे इतनी देर तक, फोन भी रिसीव नहीं करते। मन घबराने लगता है।" 

सच यह था कि भोजू से छत्तीस का आँकड़ा बनने के बाद से नेता जी भी बाहर निकलते घबराते थे। बिना सिक्योरिटी के बाहर निकलते तो घर के अंदर आ जाने तक पसीने से तर रहते। लेकिन अपनी नेतागिरी के कॅरियर को लेकर इतना सजग कि उसके लिए जान हथेली पर रखकर निकलना भी उन्हें मंजूर था। उन्हें पूरा शक ही नहीं विश्वास था कि अगर भोजू को ज़रा भी पता चल गया तो वह एक्शन लेने में सेकेंड के दसवें हिस्से जितनी भी देरी नहीं करेगा। ऐसी जगह मार कर डालेगा कि एक बाल का भी पता नहीं चलेगा। उनके ही कहने पर तो कुछ ही साल पहले उसने एक अच्छे ख़ासे दबंग को ठिकाने लगा दिया था। आज तक थाने में लापता ही दर्ज है। 

भोजू के जाने के बाद वह लगातार उसके एक-एक पल की खोज-ख़बर लेने में लग गए। लेकिन उन्हें कुछ ख़ास सटीक जानकारी मिल नहीं पा रही थी। उन्हें जितनी असफलता मिल रही थी उनकी बेचैनी उतनी ही ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। वह यहाँ तक पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि भोजू आलाकमान तक पहुँचने की कोशिश में तो नहीं है। वह इसलिए भी ज़्यादा डर रहे थे कि उन्होंने कई बार बातचीत, खाने-पीने के दौरान आलाकमान की कटु आलोचना तो की ही थी, साथ ही गालियाँ भी ख़ूब बकी थीं।     

सोच-सोच कर बेचैन होते रहे कि कहीं भोजू वह सब रिकॉर्ड तो नहीं कर ले गया है। आलाकमान के सामने रख दिया तो एक झटके में पार्टी से निकाल बाहर कर दिया जाऊँगा। बेचैनी, चिंता, खोजबीन, ट्रक ड्राइवर ना साध पाने से वह दस दिनों में ही एकदम अकुला उठे। कई-कई पैग पीने के बाद भी उनको नींद नहीं आ रही थी। सच में उन्हें पहली बार पता चला कि वह कितने पानी में हैं। उनके मन में कई बार यह बात आयी कि ग़ुस्सा शांत होने पर भोजू वापस आ जाएगा। मगर दिन पर दिन बीतते गए लेकिन उसकी छाया भी नहीं पलटी। वह उनसे कोसों दूर चली गई।

अफनाहट में उन्हें यह शक भी परेशान करने लगा कि उनके आसपास आज भी जो लोग हैं वह वाक़ई उनके हैं भी या नहीं। या भोजू के जासूस बनकर उनके आगे पीछे लगे हैं। हर आदमी उनके शक के राडार पर आ गया। कई बार पत्नी भी उन्हें शक के राडार पर नज़र आने लगी। जबकि उनकी तेज़तर्रार पत्नी के राडार पर उनकी हालत साफ़ नज़र आ रही थी। जिसे देख कर पत्नी चिंता में पड़ गई कि "ऐसे तो यह बीमार पड़ जाएँगे। इन्हें कुछ हो गया तो इतना फैला हुआ काम-धंधा कौन सँभालेगा। चारों बच्चे अभी छोटे ही हैं।" आख़िर उन्होंने एक दिन नेता जी को बहुत समझा-बुझाकर कहा- 

"देखिए पता नहीं कितने राजनीतिज्ञ, पता नहीं कितनी बार यह कहते आए हैं कि राजनीति में ना तो कोई स्थायी शत्रु है, ना कोई स्थायी मित्र। देखते नहीं कैसे जानी दुश्मन नेता, पार्टियाँ ज़रूरत पड़ने पर पल भर में थूक कर बार-बार चाटने में देर नहीं करते। पलभर में गले मिलने लगते हैं। उन्हें देख कर तो कहना पड़ता है कि साँप-छछूंदर की, साँप-नेवले की भी दोस्ती हो जाती है।" इस पर नेताजी एकदम तड़कते हुए बोले, 

"आख़िर तुम कहना क्या चाहती हो?"

नेताजी भीतर-ही-भीतर बुरी तरह हिल रहे थे, पत्नी से उनकी वास्तविकता छिपी नहीं थी, फिर भी पत्नी ने अनजान बनते हुए उन्हें अपनी योजना बताई। योजना सुनते ही नेताजी लगे तियाँ-पाँचा बतियाने। लगे तांडव नृत्य करने। इतना भीषण की पत्नी को लगा कि उसका अनुमान ग़लत है कि पति के बारे में वह सब कुछ जानती-समझती है। सदैव की भाँति वह फिर चली गईं दूसरे कमरे में। इधर जब नेताजी का पारा ठंडा हुआ तो उन्हें पत्नी की बातों में दम नज़र आने लगा। कुछ ही देर में यह दम उनके दिमाग़ में बढ़-चढ़ कर बोलने लगा।

आख़िर उन्होंने तय कर लिया कि वह पत्नी की सलाह पर अमल करेंगे। मगर यह तय करते ही समस्या यह आन पड़ी कि बहाना कौन सा ढूँढें? कौन सा अवसर ढूँढें? इस पर उन्हें ज़्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। कुछ ही दिन बाद उनकी माँ की बरसी थी। वही समय उन्हें ठीक लगा। सोचा इस अवसर को ही भुनाता हूँ। उनके मन में एक लालच और उठ खड़ा हुआ कि इसी बहाने कितने उनके कहने पर चल सकते हैं यह भी पता चल जाएगा। भोजू और पार्टी को भी अपनी ताक़त का एहसास करा देंगे। 

यह सोचने के साथ ही उनके मन में एक चोर भी आ बैठा कि यह योजना कहीं बैक फ़ायर ना कर जाए। यह कहीं कम लोगों के आने से फ़्लॉप शो ना बन जाए। ऐसा हुआ तो लेने के देने पड़ जाएँगे। फिर ख़ुद ही उत्तर दिया कि "अगर ऐसा हुआ तो कहूँगा माँ की बरसी है, ख़ुशी या शक्ति प्रदर्शन का अवसर नहीं है। आप लोग कम से कम भावनात्मक बातों को राजनीति का हिस्सा ना बनाया करें। उल्टा चढ़ बैठूँगा क्वेश्चन खड़ा करने वालों पर।"

नेता जी ने पूरा ज़ोर लगा दिया। इतना कि जैसे एम.पी. का चुनाव लड़ रहे हों। नगर, ज़िला, प्रदेश, से लेकर आलाकमान तक ज़ोर लगा दिया। जिसे कभी झुक कर नमस्कार नहीं किया था उसके भी चरणों में झुक गए। जिसके चरण छूते थे उसके क़दमों में लेट गए। रीढ़विहीन जीव से रेंग गए। ग़रज़ यह कि जितना ज़्यादा, जितना बड़ा नेता आएगा भोजुवा पर उतना ही ज़्यादा असर पड़ेगा। ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा तो वह फिर से मेरे क़दमों में लोटेगा। जितनी बार नेता जी के मन में यह बात आती उतनी ही बार वह भोजू को सबसे बदतरीन गालियों से नवाज़ते कि "इस साले के कारण बीसों लाख रुपये फूँकने पड़ रहे हैं। लाखों रुपये तो कंवेंस में डूब गए हैं। कितने चक्कर तो दिल्ली के लगा चुका हूँ। तीन-तीन, चार-चार लोगों को लेकर हवाई जहाज़ से आनन-फानन में जाना-आना कितना हो गया। यह साला बहुत बड़ा भस्मासुर बन गया है। देखो अभी और क्या-क्या करवाता है। 

नेताजी की सारी मेहनत के परिणाम वाले दिन ऐसा मिला-जुला परिणाम रहा कि नेताजी ना सिर पीट पा रहे थे, ना ही ख़ुशी मना पा रहे थे। कोई बड़ा नेता, व्यक्ति नहीं आया। कुछ के व्हाट्सप मैसेज आए कि ईश्वर माता जी की आत्मा को शांति प्रदान करें। 

कुछ मैसेज इतनी जल्दी, इतनी लापरवाही से भेजे गए कि भाई लोग बरसी को ख़ुशी का अवसर मान बैठे। नेता जी इन सब को पढ़-पढ़ कर मन में ख़ूब गरियाए जा रहे थे। ज़्यादातर वही लोग आए जिनकी गिनती छुट-भैए नेताओं में होती थी या वह जो मुफ़्त का खाने-पीने का अवसर ढूँढ़ते रहते हैं। मिलने पर कहीं भी टूट पड़ते हैं। कुल मिलाकर नेताजी की अपेक्षा से कम ही लोग आए, खाय-पिए चल दिए। कोई महत्वपूर्ण आदमी आया ही नहीं। सारे समय जिस एक आदमी को उनकी आँखें ढूँढ़ रही थीं वह दिखा ही नहीं। 

भोजू का साया भी उन्हें कहीं नज़र नहीं आया। उसके ख़ासमख़ास में से भी कोई नज़र नहीं आया। नेताजी तंबू उखड़ने तक उसका इंतज़ार करते रहे। बार-बार मोबाइल देखते, रिंग होने पर उनको लगता कि भोजू का फोन आ गया। हर बीतते पल के साथ उनका दिल बैठता जा रहा था। उनकी दशा उनकी पत्नी से छिपी नहीं थी। उन्हें भोजू पर ग़ुस्सा और पति पर दया आ रही थी। देर रात नेताजी बिना ठीक से खाए-पिए ही अपने बेडरूम में चले गए। 

पत्नी सारा तामझाम समेटवाने के बाद उनके पास पहुँची। उनकी मानसिक हालत को देखते हुए उन्होंने ज़्यादा कोई बात करने के बजाए ठंडा-ठंडा कूल-कूल तेल उनके सिर पर लगाया। फिर हल्का-हल्का सिर दबाकर सुलाने की कोशिश की। 

नेताजी भी आँखें बंद किए रहे। लेकिन उन्हें नींद नहीं आ रही थी। बार-बार भोजू को गरियाते कि "साले को बेशर्म बनकर चार-चार बार बुलावा भेजा। बरसी में बुलावा भेजने का औचित्य ना होने के बावजूद ऐसा किया। व्हाट्सअप मैसेज दिया। माँ की बरसी का इमोशनल कार्ड भी खेला, लेकिन सब बेकार। साले की आँखों में सुअर का बाल है, सुअर का बाल। नहीं तो ज़रूर आता। भले ही दो मिनट को अपना मनहूस चेहरा ही दिखाने को सही।" 

इन सब से ज़्यादा नेता जी को कुछ देर पहले ही बड़े पापड़ बेलने के बाद मिली इस सूचना से और चिंता होने लगी कि भोजू किसी बड़े निर्णायक क़दम को उठाने में लगा है। इतना ही नहीं इसके लिए वह पार्टी भी छोड़ने जा रहा है। वह भी बस कुछ ही दिन में। इस सूचना ने नेता जी के पैरों तले ज़मीन खिसका दी। क्योंकि वह अच्छी तरह जानते थे कि भोजू के पास उनके जो-जो राज़ हैं, पार्टी छोड़ने के बाद वह उनका यूज़ करके उन्हें निश्चित ही सड़क पर ला खड़ा करेगा। और वह उसका कुछ भी नहीं कर पाएँगे। 

उन्हें सुलाते-सुलाते ख़ुद पत्नी सो गई मगर उन्हें नींद नहीं आई। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि जैसे तनाव से उनकी नसें फट जाएँगी। वह उठे, अलमारी से व्हिस्की निकाली, बिना सोडा, पानी के नीट ही गिलास में डाल-डाल कर एक झटके में पीते गए। एक दो नहीं तीन-चार लार्ज पैग पी गए और कुछ ही देर में बेड पर भद्द से पसर गए। इतना तेज़ी से दोनों हाथ फैलाए बेड पर पसरे क्या गिरे कि बड़े से बेड पर एक तरफ़ गहरी नींद में सो रही पत्नी से टकरा गए। इतनी तेज़ कि गहरी नींद में सो रही पत्नी घबड़ा कर उठ बैठी। लेकिन पति पर एक नज़र डालते ही समझ गईं कि माजरा क्या है? वह उठीं और किसी तरह उन्हें सीधा कर बेड के बीचो-बीच लिटाया। फिर कई कुशन उठाकर ले आईं और उन्हें उनकी दोनों तरफ़ लगा दिया, ताकि नशे में कहीं वह बेड से नीचे ना लुढ़क जाएँ। ख़ुद दूसरे कमरे में सोने चली गईं। ऐसे में वह कभी भी कोई टेंशन नहीं पालतीं बल्कि उनकी सुरक्षा का हरसंभव इंतज़ाम करके दूसरे कमरे में आराम से सो जाती हैं। आज भी यही किया।

नेता जी का अगला पूरा दिन हैंगओवर से मुक्ति पाने में निकल गया। थोड़ा बहुत जो काम किया उसमें सिर्फ़ यही जानने का प्रयास किया कि भोजू के जिस राइट-हैंड को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया था उसमें कहाँ तक सफलता मिली। जितनी जानकारियाँ उन्हें मिलीं उससे उन्हें सफलता मिलती नज़र आई। उनकी भेजी नोटों की गड्डियों का पूरा असर रात होते-होते दिखा। वह आदमी रात के अँधेरे में किसी थर्ड प्लेस पर मिलने को तैयार हो गया। 

नेता जी रात दो बजे जब उससे मिलकर लौटे तो उनको इस बात की ख़ुशी, संतुष्टि थी कि उन्होंने भोजू के राइट हैंड को पूरी तरह तोड़ लिया है। हालाँकि यह तब हुआ जब उन्होंने कई लाख रुपये की गड्डी से उसकी हथेली को और ज़्यादा गर्म कर दिया। लेकिन राइट हैंड ने जो जानकारियाँ उनको दीं उससे वो सकते में पड़ गए। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर उन सब की काट क्या है? वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि आख़िर किससे सलाह-मशविरा करें। किससे पूछें कि उन्हें क्या करना चाहिए? टेंशन बढ़ते ही वह हमेशा की तरह अपनी बार की तरफ़ बढ़ गए। 

आज भी बड़ी बोतल निकाली लेकिन कुछ देर हाथ में लिए पता नहीं क्या सोचते रहे। फिर उसे उसी तरह अलमारी में रख कर बंद कर दिया। बार के सामने ही पड़े बड़े से सोफा कम बेड पर पसर गए। नींद, चैन उन्हें कोसों दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी। उधेड़-बुन में ज़्यादा देर तक पसर भी नहीं पाए तो कमरे में चहल-क़दमी करने लगे। बेड पर पत्नी गहरी नींद में सो रही थी। वह कब आए इसका पता उसे नहीं था। नेताजी की चहल-कदमी ने उन्हें उम्मीद की एक किरण दिखा दी। उन्हें अपने एक हम-प्याला हम-निवाला लेखक मित्र की याद आई। जिसे वह ना सिर्फ़ राजनीति बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अपना सलाहकार बनाए हुए थे। कई मौक़ों पर उसने बड़ी-बड़ी गंभीर समस्याओं का समाधान उन्हें बताया और समस्या से बाहर भी निकाला था। मित्र का ध्यान आते ही उन्होंने यह भी न देखा कि रात के तीन बज रहे हैं। मोबाइल उठाया और कॉल कर दी। कई बार रिंग करने के बाद कॉल रिसीव हुई। छूटते ही नेता जी बोले-

"क्या मित्रवर यहाँ जान पर बनी हुई है और आप हैं कि कॉल तक रिसीव नहीं कर रहे हैं।" 

लेखक महोदय ने कहा, "नेता जी इतनी रात को कॉल किया सब ठीक तो है ना।" 

"सब तो क्या कुछ भी ठीक होता तो सवेरे तक इंतज़ार कर लेता। मगर कुछ भी ठीक नहीं है, इसलिए इंतज़ार करने का कोई मतलब नहीं था।" 

"अच्छा तो फिर मुझे जल्दी बताइए क्या बात है?" 

नेता जी बोले, "फोन पर सारी बातें नहीं हो पाएँगी। मिलकर ही कर सकते हैं।"

"ठीक है, मैं आने को तैयार हूँ, लेकिन इस वक़्त मेरे पास कोई साधन नहीं है।" 

"आप रहने दीजिए मैं ख़ुद आ रहा हूँ।"

 नेताजी ने गाड़ी निकाली और पत्नी को बिना बताए चले गए अपने सलाहकार मित्र के पास। सलाहकार मित्र को भी नेताजी और भोजू के बीच तनातनी की भनक थी। नेताजी ने सिलसिलेवार उन्हें सारी बातें बताईं। कहा, "आज ही उसके सबसे बड़े हमराज़ और दाहिने हाथ ने बताया है कि भोजू कोई बड़ा आंदोलन चलाने की तैयारी कर रहा है। इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण यह कि पार्टी छोड़ कर यह सब करेगा। यदि वह सक्सेस हुआ तो मेरा पॉलिटिकल कॅरियर समाप्त, असफल हुआ तो भी।"

नेता जी की इस बात पर लेखक सलाहकार मित्र ने पूछा, "असफल होने पर कैसे?"

मित्र की इस बात पर नेताजी खीझ उठे। वह ऐसा महसूस कर रहे थे कि जैसे मित्र उनकी बातों को गंभीरता से नहीं सुन रहे हैं। इस बार नेताजी ने खीज निकालते हुए बोल दिया- 

"लगता है आप मेरी बातों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।" यह सुनते ही लेखक मित्र सकपका कर बोले, "नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। पूरी गंभीरता से सुन रहा हूँ। आप बताइए। 

"देखिए पार्टी द्वारा जो काम पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में किया गया वही काम यहाँ भोजू के सहारे किया जाएगा। यदि भोजू को पब्लिक, मीडिया का सपोर्ट मिल गया तो वह निर्दलीय ही जीतेगा, जीतेगा तो आलाकमान उसे कैच करने के लिए हाथ फैलाए खड़ा है। वह बराबर ऐसे लोगों की फिराक में रहता है। तुरंत कैच कर लेगा। भोजू रातोंरात चमक जाएगा। 

यदि हार गया तो ऐसा नहीं है कि पार्टी उससे मुँह फेर लेगी। पार्टी में उसकी अहमियत बन जाएगी। क्योंकि इसके चलते पार्टी भोजू के रूप में सीट अपने कब्ज़े में ना कर पाई तो यह भी तो तय है उसके ज़रिए वह सत्ताधारी पार्टी के लिए सिरदर्द पैदा कर देगी। कुछ सीटों पर उसका खेल बिगाड़ देगी। जैसा सुनने में आया है उस हिसाब से पार्टी लाइन से अलग उसका आंदोलन उसे देखते-देखते महत्वपूर्ण बना देगा। उसके ऊपर हर तरफ़ से धन, सरकारी सुरक्षा सब बरसने लगेगा। और तब मेरे पास कुछ नहीं बचेगा। मेरी राजनीति पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी। मैं पूरी तरह ख़त्म हो जाऊँगा।

मेरे सामने राजनीति से तौबा करने, कहीं मुँह छुपा कर बैठने, डूब मरने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा।"

यह कहते हुए नेता जी बहुत गंभीर हो गए। गंभीर लेखक महोदय भी हो उठे थे। लेकिन जल्दी ही ख़ुद को सँभालते हुए बोले, "देखिए उसे मैं समझ तो बहुत दिन से रहा था। मैंने एक दो बार आपसे कहा भी था कि इससे अलर्ट रहिए। कई बार संकेत दिए लेकिन आप इग्नोर करते रहे। कहते रहे कि भोजूवीर ऐसा नहीं है। वह कुछ भी कर सकता है लेकिन मेरे साथ गद्दारी नहीं। लेकिन मैं बराबर उसे पढ़ने का प्रयास कर रहा था। मैं देख रहा था कि वह बहुत एग्रेसिव सोच का है। नियम क़ानून या सिस्टम को फ़ॉलो करने वाली उसकी सोच नहीं है। उसे बस पैसे और रुतबे की हवस है। चाहे जैसे मिले। उसके दिमाग़ में यह भरा हुआ है कि एक व्यक्ति अराजकता पैदा कर एक प्रदेश का सी.एम. बन बैठा है। 

हालाँकि अब उसकी इमेज़ थूकने-चाटने भर की रह गई है। दूसरे दो को उसने देखा कि वह जातीय मुद्दे के नाम पर हिंसा उपद्रव करवा कर विधायक बन गए। एक जातीय मुद्दे को आरक्षण की आग लगाकर तकनीकी कारणों से विधायक तो नहीं बना लेकिन पैसा, लोगों का हुजूम, सरकारी सुरक्षा ने उसे भी वी.आई.पी. बना दिया है। वह यही सब करना चाह रहा है। ख़बरें मेरे पास भी हैं, कि उसने ना सिर्फ़ अपने रास्ते का निर्धारण कर लिया है बल्कि उस पर बहुत आगे निकल चुका है। कुछ ही दिन बाद आप लोगों के देवता चित्रगुप्त की पूजा है। उसी दिन वह अपना आंदोलन शुरू कर रहा है। उसकी तैयारी पूरी और पक्की है। 

उस दिन वह धरना स्थल पर ही पहले अपने लोगों के साथ सामूहिक पूजा करेगा, फिर पूजा के समापन के साथ ही कायस्थों कोे आरक्षण दिए जाने की माँग करेगा। वहीं से आंदोलन शुरू कर देगा। इसी उद्देश्य से उसने सामूहिक पूजा के नाम पर बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति सुनिश्चित कर ली है। मुझे आश्चर्य तो यह हो रहा है, कि आपको इन सारी बातों की पूरी जानकारी नहीं है। मैं तो सोच रहा था कि आप को बहुत कुछ पता होगा। लेकिन आपके पास बस उड़ती-उड़ती जानकारी है। जिस दिन आपके यहाँ बरसी के कार्यक्रम में पार्टी के बहुत से लोग आ रहे थे उसी दिन यह भी अफ़वाह थी कि भोजू दो दिन से दिल्ली में पार्टी लीडर से गुफ़्तगू कर रहा है। मैं सोच रहा था कि आप भी उस समय दिल्ली के चक्कर लगा रहे थे आपको सारी ख़बर होगी। मगर यहाँ तो बात उलटी है।" 

नेताजी लेखक मित्र की बातें सुनकर एकदम बुत बन गए। उनकी हालत देखकर लेखक बोले, "लेकिन आपको घबराने की ज़रूरत नहीं है। भोजू कि इस चालाकी की काट मेरे दिमाग़ में कुछ धुँधली ही सही उभरने लगी है। कोई रास्ता निकल ही आएगा। यह ध्यान रखिएगा कि हर समस्या के साथ उसका समाधान भी नत्थी रहता है। थोड़ा समय दीजिए मैं जल्दी ही आता हूँ आपके पास।"

सुबह हो चुकी थी। लेखक से विदा लेकर नेताजी चेहरे पर दयनीय भाव लिए बाहर निकले। मन ही मन गाली देते हुए "साले लेखक मैं तेरे समाधान के इंतज़ार में अपना सत्यानाश करने वाला नहीं। मैं इस भोजुवा का वह हाल कर दूँगा कि इस बार यह "ॐ श्री चित्रगुप्ताय नमो नमः" बोलने लायक़ ही नहीं रहेगा। उसके पहले ही उसके घर वाले राम नाम सत्य है, भोजू नाम सत्य है, बोल चुके होंगे।" यही सोचते हुए वह घर पहुँचे कि आज इसके तियाँपाँचा के काम को हरी झंडी दे दूँगा। उस साले ड्राइवर को उसकी मुँह माँगी क़ीमत दे दूँगा।

घर पहुँचे तो उन्हें बीवी किसी से मोबाइल पर बात करती हुई मिली। ग़ुस्से में उसे भी मन-ही-मन गरियाया, "साली जब देखो तब मोबाइल ही से चिपकी रहती है।" नेताजी सीधे बेडरूम में पहुँचे। सोचा कि दो-तीन घंटा सो लूँ, फिर निकलूँ। लेकिन भोजू उन्हें लेटने देता तब ना। उनके दिलो-दिमाग़ में निरंतर नगाड़ा बजाए जा रहा था। उनके दिमाग़ का कचूमर निकाले जा रहा था। नींद से कडु़वाती आँखों, थकान से टूटते शरीर के बावजूद वह सो नहीं पाए। एक बार सोचा कि दो-चार पैग मार कर सो जाएँ। लेकिन भोजू फिर आतंकी की तरह सामने आ खड़ा होता है। हार कर उन्होंने ख़ूब जमकर नहाया। फिर निकल गए भोजूवीर के तियाँपाँचा को हरी झंडी दिखाने। क़रीब तीन घंटे बाद वह लौट, ज़ालिम ड्राइवर को हाफ़ पेमेंट एडवांस देकर। बाक़ी काम होने के बाद देने का वादा भी कर आए। साथ ही चित्रगुप्त पूजा से पहले काम हो जाने का सख़्त आदेश देना नहीं भूले। 

लौटने के बाद नेता जी इतना ख़ुश थे कि पूछिए मत। लग रहा था कि जैसे विश्व मैराथन दौड़ अत्यधिक कड़ी टक्कर मिलने के बाद भी रिकॉर्ड समय के साथ जीत कर आए हैं। दौड़ने से चेहरा, पूरा बदन पसीना-पसीना ज़रूर हो रहा था लेकिन जीतने की ख़ुशी भी चेहरे पर साफ़ दिख रही थी। कोई किसी की जान लेने का इंतज़ाम करके भी ख़ुश हो सकता है यह देखना हो तो नेताजी को देखा जाना चाहिए। जो कल तक अपने राइट हैंड रहे, हम प्याला, हम निवाला भोजूवीर की अर्थी उठवाने की व्यवस्था करके ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। वही भोजूवीर जिसे वाराणसी ज़िले के भोजूवीर क़स्बे में एक राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान देखा था।

उसकी सांगठनिक क्षमता उसके पीछे चलती भीड़ देखकर बड़ी दूर की सोची और बुला कर कहा, "यहाँ कहाँ अपने को खपा रहे हो। लखनऊ आओ, राजनीति की मुख्यधारा में खेलो।" जब वह आ गया तो जल्दी ही प्यार से उसे उसके नाम ऋषि राज की जगह भोजूराज फिर भोजूवीर कहने लगे।

जिसे कल तक वह सब से अपना छोटा भाई कहकर परिचय कराते थे, अब उसी के लिए नेताजी इंतज़ार करने लगे कि ड्राइवर जल्दी ही बाक़ी पचास पर्सेंट भी लेने आएगा। सवेरे पेपर उठाते ही आदत के मुताबिक फ्रंट पेज देखने के बजाए अब वह लोकल पृष्ठ पहले देखने लगे कि ट्रक दुर्घटना में भोजू की मृत्यु की ख़बर है कि नहीं। हर आने वाले को देखते ही उसका चेहरा पढ़ने का प्रयास करते कि भोजू की सूचना लेकर आया है क्या? लेकिन नेताजी पर जैसे साढ़ेसाती सनीचर की ढैय्या का प्रकोप था। जैसे राहु-केतु की वक्र दृष्टि उन पर पड़ रही थी। सब कुछ उलट-पुलट हो रहा था। 

भगवान चित्रगुप्त पूजा के चौबीस घंटे बचे थे, मगर भोजू की मौत की ख़ुशख़बरी सुनने को उनके कान तरस रहे थे। वह बार-बार ड्राइवर से मिलना भी नहीं चाह रहे थे। डर रहे थे कि किसी ने देख लिया और भोजू की दुर्घटना में मौत के बाद जब ड्राइवर पकड़ा जाएगा तो कहीं कोर्ट में वह यह ना बोल दे कि मैं फलां दिन उससे मिला था। 

आख़िर वह समय भी आ गया जब भगवान चित्रगुप्त की पूजा के मात्र बारह घंटे बचे। नेताजी अपने स्तर पर भोजू की तैयारियों की पल-पल की ख़बर ले रहे थे। हर पल के साथ उनकी धड़कनें तेज़ हो रही थीं। उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी। वो रात भर कमरे में चहलक़दमी करते रहे। लेकिन उनकी ख़ुशी के पल नहीं आ रहे थे। उनकी सारी ख़ुशी, सुख, चैन का रास्ता भोजू पहाड़ की तरह रोके हुए था। भगवान चित्रगुप्त आ विराजे थे। दीपावली बीत गई थी। लेकिन दीए उनके दिल पर अब भी जल रहे थे। अब भी पूरा घर, पूरी दुनिया त्यौहार की ख़ुशियाँ मना रहा था लेकिन वह अलग-थलग थे। हमेशा विधिवत भगवान चित्रगुप्त की पूजा करने वाले नेता जी पूजा के बारे में सोच भी नहीं रहे थे। जबकि पूजा के कुछ ही घंटे रह गए थे। 

भोर हो गई, सूरज चढ़ आया लेकिन नेताजी की दुनिया में अँधेरा ही था। भोर तक नहीं हो रही थी। घरवालों ने पूजा के लिए तैयार होने के लिए कहा लेकिन उन्होंने भड़कते हुए कह दिया "तुम लोग कर लो।" सब समझ गए कि कुछ बहुत ही गंभीर बात है, वरना आज तक धरती इधर से उधर हो जाए, अपनी धुरी पर उल्टा घूमना शुरू कर दे लेकिन वह भगवान चित्रगुप्त की पूजा नहीं छोड़ते थे। मगर इस बार सब उलटा हो रहा था।

इधर घर में भगवान चित्रगुप्त की पूजा चल रही थी और उधर नेताजी के पास भोजूवीर के ख़ास आदमी की कॉल आ गई। वही ख़ास आदमी जिसे नेता जी ने तोड़ लिया था। उसने जो बताया उससे नेता जी के पैरों तले ज़मीन खिसकी नहीं ग़ायब हो गई। पूरी पृथ्वी ही ग़ायब हो गई। वह अपने को त्रिशंकु की तरह अंतरिक्ष में लटका पा रहे थे। और दूर अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी पर वह भोजूवीर की सिर्फ़ सामूहिक चित्रगुप्त पूजा देख पा रहे थे। विशाल जनसमूह के साथ भोजू भगवान चित्रगुप्त की पूजा कर रहा था। और उनके घर वालों ने पता नहीं क्यों पूजा बीच में ही छोड़ दी थी। 

नेताजी घबरा गए कि घरवालों ने इतना बड़ा अपशगुन क्यों कर दिया। वह पूरी ताक़त से चिल्लाए, "मूर्खों, पागलों, पूजा अधूरी क्यों छोड़ी दी। तुम सब पागल हो गए हो क्या? मुझे बर्बाद करने पर क्यों तुले हुए हो?" मगर कोई नहीं सुन रहा था। तभी चित्रगुप्त भगवान की समवेत स्वरों में आरती शुरू हो गई। साथ में घंटा भी बज रहा था। घर के सभी लोग समवेत स्वर में आरती कर रहे थे। नेताजी का ध्यान भंग हो गया।

वह मोबाइल अभी तक कान से चिपकाए हुए थे। जबकि फोन करने वाले ने अपनी बात कहकर कब का फोन डिसकनेक्ट कर दिया था। वह एकदम पस्त होकर सोफ़े पर फिर पसर गए। सिर पीछे टिका कर आँखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद उनकी पत्नी आईं। पूजा के समय भी उनका दिमाग़ पति पर ही लगा हुआ था कि आख़िर कौन सी ऐसी बात हो गई है कि जीवन में पहली बार पूजा तक नहीं की। वह प्रसाद देने के बहाने आई थीं। इसी बहाने बात उठाकर पूछना चाहतीं थीं कि बात क्या है? बगल में बैठ कर उन्होंने उनकी बाँह पर हाथ रखकर हल्के से पूछा "सो रहे हैं क्या?" नेताजी ने आँखें खोले बग़ैर ही पूछा "क्या बात है?" दरअसल पिछले बीस बाइस घंटों से वह सो ही कहाँ पा रहे थे। उनकी नींद तो भोजू ले उड़ा था। पत्नी ने कहा "प्रसाद लाई हूँ, बात क्या है? कुछ तो बताइए।" नेताजी चुप रहे आख़िर पत्नी ने फिर पूछा तो तीखे स्वर में कहा "रख दो, जाओ यहाँ से।" पत्नी उनके सख़्त लहजे से समझ गई कि इस समय और बोलना अच्छा नहीं है। 

वह गहरे सोच में पड़ गईं। त्यौहार पूजा की जो उमंग थी उस पर पूरी तरह ग्रहण लग गया। घंटा भर भी ना बीता होगा कि नेताजी के इनफ़ॉर्मर का फोन फिर आ गया। उसने बताया कि "भोजू ने पूजा के बाद वहाँ उपस्थित क़रीब आठ सौ चित्रगुप्तवंशियों को धन्यवाद ज्ञापित करने के नाम पर संबोधित करना शुरू किया है। 

देश की आज़ादी में कायस्थों के योगदान का उल्लेख कर रहा है। स्वतंत्रता सेनानी एवं देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से लेकर महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस तक का उल्लेख किया है। सबसे योग्य प्रधानमंत्रियों में गिने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख करते हुए कहा कि "उनके ही चलते देश सुरक्षा मामलों, खाद्यान के क्षेत्र में आज आत्मनिर्भर बन सका है। फिर भी सभी राजनीतिक पार्टियों नेे कायस्थों की घोर उपेक्षा की है। उन्हें हर जगह हाशिए पर डाल दिया है। नौकरी से बाहर कर दिया गया है। 

साज़िशन उन्हें किसी भी वर्ग में नहीं रखा गया है। बड़े हैं, अगड़े हैं, बस। लेकिन दलित, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण किस वर्ण में हैं इस बिंदु पर चुप हैं। पहले भी यह बात आ चुकी है कि कायस्थों को दलित वर्ग में शामिल करो। या फिर पाँचवां वर्ण मानों। जो हाशिए पर है। इसे भी आरक्षित वर्ग में रखो। लेकिन कुटिलतापूर्वक यह कह कर नकार दिया गया कि हम स्वभावतः कुशाग्र बुद्धि के हैं। अपनी मेधा से सारे पद ले लेंगे। यह कुटिलतापूर्ण कुतर्क है। हमें रोकने, बर्बाद करने की साज़िश है। 

आज़ादी के बाद से बराबर इस साज़िश का परिणाम है कि आज कायस्थों के पास नौकरी नहीं है। जबकि सदियों से कायस्थ शासन-प्रशासन का सबसे अहम हिस्सा रहा है। मगर आज दर-दर भटक रहे हैं। कायस्थ पटरी पर दुकानें, रेहड़ियाँ लगाने से लेकर रिक्शा तक चला रहे हैं। हमसे हमारे अधिकार, रोज़गार, ज़मीन सब छीन लिए गए हैं। इसलिए हमें अब और चुप नहीं बैठना है। 

हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो हमारे अस्तित्व को समाप्त होने में अब ज़्यादा समय नहीं लगेगा। आदरणीय स्वजनों हमने यदि अभी भी कुछ नहीं किया तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी। हम अपनी आँखों के सामने ही अपनी अगली पीढ़ी को दर-दर भटकते देख ही रहे हैं।"

इनफ़ॉर्मर ने नेता जी को चटखारे लेते हुए बताया कि, "भोजू के भाषण को लोगों ने ना सिर्फ़ ध्यान से सुना बल्कि उससे आगे बढ़ने और हर क़दम पर साथ देने का वचन भी दिया। 

और भोजू ने गर्म लोहे पर चोट करने में देर नहीं की। उसने सबसे भगवान चित्रगुप्त की शपथ लेने को कहा कि सभी उसके शुरू होने वाले आंदोलन को तन-मन-धन से सहयोग करेंगे। और अब पूजा के नाम पर जिस समूह को इकट्ठा किया था उनकी भावनाओं में उबाल लाकर उन्हें लेकर धरना-प्रदर्शन के लिए आगे की ओर बढ़ चला है। पुलिस के नाम पर चार-छः लोग ही हैं। उन्होंने बिना अनुमति धरना प्रदर्शन के लिए मना किया लेकिन भोजू मान नहीं रहा है।

यह तय है कि और पुलिस फोर्स के आने में देर नहीं लगेगी। वह इन्हें आगे बढ़ने नहीं देगी। भोजू के चुने हुए बदमाश इसी समय पुलिस पर पत्थरबाज़ी, गाड़ियों, दुकानों में आग लगाने का काम शुरू कर देंगे। मजबूरन पुलिस सख़्ती करेगी, लाठी, गोली चलाएगी। दर्जनों लोग मारे जाएँगे। भोजू यही चाहता है। और यह होकर रहेगा। क्योंकि जो भीड़ उसके साथ चल रही है वह तो पूजा के लिए इकट्ठा हुई थी। उसे इस साज़िश का पता ही नहीं है। साज़िश से अनजान मासूम मारे जाएँगे। फिर विपक्षी पार्टियाँ मरे हुए लोगों की हितैषी शुभचिंतक बनकर आगे बढ़ेंगी। मीडिया तो चिल्लाएगा ही। हर तरफ़ से बहुतों का सपोर्ट मिलेगा भोजू को। जातीय राजनीति को इनकार करने का ढोंग करते हुए पार्टी उसे हाथों-हाथ ले लेगी। पैसा, आदमी, आंदोलन को और आग देने के लिए कूटनीतिज्ञों की सेवाएँ बस अगले कुछ ही घंटों बाद भोजू के क़दमों में ढेर होने लगेंगी।" 

नेताजी इनफ़ॉर्मर की बातों को इससे ज़्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाए। इतना क्रोध में आ गए कि मोबाइल पूरी ताक़त से सामने दीवार पर दे मारा। मोबाइल कई टुकड़ों में ज़मीन पर बिखर गया। क़रीब एक लाख रुपए के उनके मोबाइल के कई टुकड़े वापस उनके क़रीब आकर गिरे। पसीने से तर नेताजी थरथर काँप रहे थे।

ट्रक ड्राइवर को भी गाली दिए जा रहे थे कि साले ने पैसा ले लिया लेकिन काम नहीं किया। कर दिया होता तो आज यह भोजू... फिर कई गंदी गालियाँ दीं। बुदबुदाए "ठीक है ट्रक से नहीं मरा, ना सही। लेकिन मरेगा निश्चित।" नेता जी ने इसके साथ ही एक और कठोर निर्णय ले लिया कि वह ट्रक ड्राइवर को भी मारेंगे। आज इन दो में से एक को ज़रूर मरना है। उसे उसके धोखे की सज़ा देंगे। वह दाँत किटकिटाते हुए "बुदबुदाए भोजुवा तुझको ऐसे आसानी से नहीं छोड़ दूँगा। साला लेखक रोज़ शाम को आने के लिए कहता है। आज फिर कहा है। देखता हूँ यह नमक-हराम क्या समाधान निकालता है। बहुत पैसा ख़र्च किया है साले पर।"

नेताजी कुछ देर बैठे रहे। इस बीच मोबाइल की आवाज़ सुनकर पत्नी आई और मोबाइल के बिखरे टुकड़ों को देखकर समझ गई कि क्या हुआ? उसने मोबाइल के सारे टुकड़े उठाकर नेताजी के सामने सेंटर टेबल पर रख दिया। एक गिलास ठंडा पानी भी ले आईं। और बिना कुछ कहे वापस चली गईं। उनके जाने के बाद नेताजी ने सिम उठाया उसे दूसरे मोबाइल में लगाया। उसे वह कुछ दिन पहले ही लाए थे, लेकिन लाने के बाद मॉडल से ना जाने क्यों उनका मन हट गया। उन्होंने उसे रख दिया था, इस समय वही काम आ गया। मोबाइल ऑन होते ही उन्होंने अपने लोगों को फोन कर-कर के भोजू की लोकेशन लेनी शुरू कर दी।

आधा घंटा भी ना बीता होगा कि इनफ़ॉर्मर का फोन फिर आ गया। उसने नमक-मिर्च के साथ फिर सूचना देनी शुरू की। छूटते ही कहा, "पहले जहाँ एक-दो मीडियाकर्मी थे वहीं अब सारे प्रमुख चैनलों की ओ वी वैन आ गई हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमावड़ा हो गया है। बड़ी संख्या में पुलिस, पीएसी, रैपिड एक्शन फोर्स आ गई हैं। जुलूस को आगे बढ़ने से रोकने की पूरी कोशिश हो रही है। लेकिन साज़िशन भोजू मुठभेड़ के लिए आमादा है।" इनफ़ॉर्मर इतना ही बोल पाया था कि एक ज़ोरदार धमाके की आवाज़ ने नेताजी के कान को सुन्न कर दिया। इनफ़ॉर्मर की भी आवाज़ बंद हो गई। फोन डिस्कनेक्ट हो गया था। 

नेताजी की घबराहट से ज़्यादा उत्सुकता और बढ़ गई कि क्या हुआ? भोजू अपनी योजना में क़ामयाब हो गया क्या? उन्होंने कॉल बैक किया तो इनफ़ॉर्मर छूटते ही बोला "आप न्यूज़ चैनल देखिए मैं बाद में कॉल करूँगा।" नेताजी चीख-पुकार, गोलियों की आवाज़, धमाके, शोर के बावजूद कुछ और पूछना चाह रहे थे, लेकिन उधर से फोन काट दिया गया। नेताजी ने रिमोट उठाकर तुरंत टीवी ऑन किया। समाचार चैनल लगाने शुरू किए लेकिन किसी पर भोजू के बारे में कहीं कुछ नहीं आ रहा था। वह चैनल बदलते रहे। लोकल न्यूज़ चैनल तक पहुँचे लेकिन वहाँ भी भोजू के बारे में कुछ नहीं था। 

उन्होंने इनफ़ॉर्मर को फिर गाली दी। "यह भी साला दग़ाबाज़ निकला क्या?" उन्होंने रिमोट साइड में रख दिया। उन्हें महसूस हुआ कि गला बुरी तरह सूख रहा है तो पानी उठाकर पिया। उसके पहले पत्नी जो प्रसाद रख गई थीं उसमें से एक पीस मिठाई उठा कर खा ली थी। मिठाई, पानी ने गले को कुछ तरावट दी तो बेचैन नेता जी ने रिमोट उठाकर फिर चैनल बदलना शुरू किया। कुछ ही चैनल बदल पाए थे कि उन्हें एक चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती मिली कि, "आंदोलनकारियों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई। सूत्रों के अनुसार डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों की मौत। मरने वालों में महिलाएँ, बच्चे भी शामिल।"

नेताजी की नज़रें टीवी पर जम गईं। आधे घंटे में पूरी तस्वीर साफ़ हो गई। इनफ़ॉर्मर ने जो बताया था थोड़ी देर पहले वही सब हुआ था। कई गाड़ियों, दुकानों, पुलिस के वाहनों को आंदोलनकारियों ने आग के हवाले कर दिया था। पुलिस ने पहले लाठी, आँसू गैस, वाटर कैनन का इस्तेमाल किया लेकिन जब उपद्रवी क़ाबू में नहीं आए तो मजबूरन गोलियाँ चलाईं। मरने वालों में सात बच्चे, छह महिलाएँ, पाँच पुरुष थे। दो दर्जन से अधिक पुलिसवाले भी घायल हुए। भोजू सहित सैकड़ों लोगों को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था। 

भोजू को बिना अनुमति जुलूस, धरना, प्रदर्शन करने, सरकारी संपत्तियों को नुक़सान पहुँचाने, क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने, दंगा बलवा करने के आरोप में गिरफ़्तार किया। वह जो चाहता था वह सब हो गया था। वह चैनलों पर छाया हुआ था। जब पुलिस उसे गिरफ़्तार करके गाड़ी में बैठा रही थी तो उसने चैनल वालों से चीख-चीख कर कहा कि, "पुलिस वालों ने चित्रांशियों के शांतिपूर्ण आंदोलन का बर्बरतापूर्वक दमन किया है। सरकार ने ज़ालिम जनरल डायर की याद दिला दी है। इतिहास को दोहराया है। लेकिन वह अच्छी तरह समझ ले कि दमन से हम झुकने वाले नहीं हैं। 

डायर ने स्वतंत्रता सेनानियों का दमन किया, उनकी हत्या की तो उनका भी शासन नहीं रह पाया। इस सरकार की भी उल्टी गिनती शुरू हो गई है। हम चित्रांशी अब चुप नहीं रहेंगे। देशभर में फैलेगी यह आग। हम अपने अधिकार लेकर रहेंगे। हमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण चाहिए ही चाहिए।" वह चीख-चीख कर बोले जा रहा था। रिपोर्टर माइक लिए उसी पर टूटे पड़ रहे थे। पुलिस ने जल्दी ही भोजू को ठूँस कर गाड़ी के अंदर भर दिया था। चैनल बार-बार यही दृश्य दिखाए जा रहे थे। एंकर, रिपोर्टर चीख-चीखकर वही बात दोहराए जा रहे थे। उनकी बातें नेताजी के सिर पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं।

वह धम से सोफ़े पर बैठ गए। उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि वह क्या करें। दिमाग़ में भयानक उथल-पुथल मची हुई थी। वह सोच रहे थे कि "मेरे पीछे-पीछे चलने वाला भोजू देखते-देखते घंटे भर में नेता बन गया। एक साथ सारे चैनलों पर छाया हुआ है। पूरा देश देख रहा है। देश क्या विदेशी चैनल भी तो दिखा ही रहे होंगे। इतना बड़ा बवाल हुआ है। इतने सारे लोग मारे गए हैं। घायलों में से भी अभी बहुत से मर जाएँगे। सारे छोटे बड़े लीडर किस तरह इसी साले के पक्ष में बोल रहे हैं। जाति के नाम पर यह बवाल हुआ है। इसमें भी आलाकमान सुर में सुर मिलाए हुए है। साला कोई मॉरल ही नहीं रह गया है। नेताओं के पीछे-पीछे चलने वाले, जय-जयकार करने वाले के लिए भी आलाकमान घंटे भर में ही लाल गलीचा बिछाने लग गया है। देखता हूँ, इस अपमान का बदला लेकर रहूँगा।"

नेताजी शाम को लेखक के आने तक कहीं बाहर नहीं गए। खाना भी ठीक से नहीं खाया। दिनभर टीवी के सामने जमे रहे। जहाँ-तहाँ फोन मिलाते रहे। शाम को लेखक ने आने में दो घंटे की देरी कर दी। इससे उनकी खीझ, ग़ुस्सा और बढ़ गया था। लेखक को सामने देखते ही नेता जी एकदम से तिलमिलाए। लेकिन स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अपने ग़ुस्से पर बड़ी मुश्किल से क़ाबू कर लिया। फिर भी बड़े तल्ख़ अंदाज़ में बोले, 

"क्या भाई, यह क्या तरीक़ा है। ना कॉल रिसीव करते हैं ना मैसेज का जवाब देते हैं। मैं सुबह से परेशान हूँ।"

इसी बीच लेखक मुस्कुराते हुए उनके क़रीब पहुँचे और उनका हाथ दोनों हाथों से पकड़ लिया। नेताजी पहले से ही हाथ बढ़ाए हुए थे। लेकिन लेखक की मुस्कुराहट ने उन्हें जैसे चिढ़ाने का काम किया। लेखक ने उनके मनोभावों को तुरंत भाँप लिया था इसलिए उन्हें सोफ़े पर बैठाते हुए बोले,

"नेताजी माना भोजू ने अभी दुनिया अपनी मुट्ठी में कर ली है। मगर हर बंद मुट्ठी को खोलना मैं जानता हूँ। उसकी मुट्ठी में बंद दुनिया छीनकर मैं आपकी मुट्ठी में बंद कर दूँगा।" 

नेताजी एकटक लेखक को देखते हुए बोले, "मैं हमेशा आपकी बातों पर आँख मूँदकर यक़ीन करता रहा हूँ। लेकिन पता नहीं क्यों आज नहीं कर पा रहा हूँ।"

"आपका विश्वास इस प्रकार डोलने की वज़ह मैं जानता हूँ। और यह भी मानता हूँ कि आप की जगह जो भी होगा उसका भी यही हाल होगा।" 

"यह सब छोड़िए, इतिहास दोहराने की ज़रूरत नहीं है। आज अभी की बात करिए। मेरी मुट्ठी में दुनिया कब बंद करेंगे? कैसे करेंगे? यह बताइए।"

नेताजी ने एकदम खीज कर कहा तो लेखक कुछ देर चुप रहे। उन्हें देखते रहे। उन्हें नेताजी की बात बुरी लगी थी लेकिन नाराज़गी के कोई भाव चेहरे पर आने नहीं दिया। जब पूरी तरह जज़्ब कर लिया तब बोले- "नेताजी हर आदमी का काम करने का अपना तरीक़ा होता है। मैं मानता हूँ कि इतिहास की नींव पर ही भविष्य की इमारत बनती है। नहीं तो इमारत सतह पर ही खड़ी रहती है। हल्का सा झटका, आँधी चलते ही धराशायी हो जाती है। ख़ैर आपने कहा इतिहास नहीं तो नहीं। अब बात भोजू की मुट्ठी से दुनिया को मुक्त कराने की। देखिए मैं जो कहने जा रहा हूँ उसे बहुत ध्यान से सुनिएगा और उससे पहले यह दृढ़ निश्चय कर लीजिए कि मैं जो कहूँगा उस पर आप दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ेंगे।"

"बुलाया किसलिए, आप कुछ कहिए, तभी तो यह डिसाइड होगा कि बढ़ा जाए कि नहीं।" 

"देखिए भोजू ने एक संवेदनशील मुद्दा उठाया है। पूजा को ही सीधे पुल बनाकर आगे बढ़ गया। पुल उसका बहुत कारगर निकला। वह सफल है। आपके आलाकमान जैसे बयान दे रहे हैं, उससे यह साफ़ हो गया है कि जैसे पिछले दिनों एक राज्य के चुनाव के समय एक नहीं तीन-तीन यंग्स्टर को आपकी पार्टी ने कैच किया, उन्हें पूरी रणनीति, धनबल, बाहुबल दिया। उनके आंदोलन में दिखने वाली भीड़ भी आपके आलाकमान के निर्देश पर मैनेज की गई। आगजनी हिंसा के लिए ख़ास तौर से पेशेवर बदमाशों की फौज उपलब्ध कराई गई, जिससे ज़बरदस्त हिंसा हुई। 

"परिणाम यह हुआ कि जातीय आग बड़े पैमाने पर भड़की। वोटों का पोलराइज़ेशन हुआ, कई सीटों पर आपकी पार्टी को फ़ायदा हुआ। तीनों आपकी पार्टी के टूल बने। इनमें से दो टूल विधायक बनकर आपकी पार्टी के साथ हो गए। तीसरा भी निश्चित ही विधायक बन जाता। लेकिन तकनीकी कारणों से वह चुनाव नहीं लड़ सका। आज की डेट में यह तीनों आपकी पार्टी के इंपॉर्टेंट टूल हैं। जहाँ भी, जब भी चुनाव होता है, यह टूल स्टार्ट कर दिए जाते हैं। ये उस जगह पहुँच कर माहौल डिस्टर्ब करते हैं। घृणा, वैमनस्यता का ज़हर घोलकर वोटों का ध्रुवीकरण कराते हैं। दंगा बलवा करवाते हैं।" 

"आप कहना क्या चाहते हैं वह कहिए ना, इस कहानी का मैं क्या करूँ? यह सब बातें तो आप से पहले ही हो चुकी हैं। अब दोहराने का क्या मतलब?"

"यही फ़र्क है आप में और भोजू में।"

यह सुनकर नेताजी भड़क उठे। वह समझ गए थे कि लेखक आगे क्या बोलने वाला है। इसलिए पहले ही उखड़ पड़े। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से लेखक पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वह एक योगी की भाँति उन्हें शांत भाव से देखकर फिर बोले- "मैं यह कहना चाह रहा हूँ, वह शॉर्टकट रास्ता बताना चाह रहा हूँ, जिस पर चल कर आप अपने इस प्यादे भोजू से आगे निकल जाएँ। जो आपसे ज़्यादा तेज़ चल कर राजा बन बैठा है। उसे आप एक झटके में घोड़े की ढाई चाल से शह और मात देकर विजेता बन जाएँ।"

नेताजी लेखक को ग़ौर से देखते रहे। इस बीच उन्होंने लेखक के लिए चाय-नाश्ते के लिए कह दिया था। लेखक चाय-नाश्ते की बात पर पल भर को ठहरे थे। फिर बोले- "नेताजी सच बोलूँ तो भोजू ने संवेदनशील मुद्दा पकड़ा नहीं, बल्कि ख़ुद ही सृजित कर लिया है। वैसे ही क्या आपके दिमाग़ में ऐसा कोई मुद्दा है?" 

नेताजी लेखक की बात कुछ-कुछ समझते हुए बोले- "फिलहाल तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आप ही बताइए, आपको बुलाया किसलिए है?"

"ठीक है सुनिए। भोजू ने जो मुद्दा उठाया है उससे उसने अपने को एक जाति तक सीमित कर लिया है। इससे यदि वह चुनाव लड़ता है तो अपनी ही सीट जीत ले तो बड़ी बात है। क्योंकि अपनी जाति के शत-प्रतिशत वोट पा कर भी वो अपनी सीट निकाल नहीं पाएगा। हाँ मेन खिलाड़ियों का खेल ज़रूर बिगाड़ देगा। संक्षेप में वोट कटवा बन कर रह जाएगा। सपोर्ट मिलने पर ही जीतेगा। यह भी उन्हीं तीन यंग्स की तरह आपकी पार्टी का एक और टूल ही बनेगा। वह एक आंदोलन खड़ा कर नेता बन गया है। उसकी दुकान सज गई है। लेकिन वह हमेशा डिपेंड रहेगा बड़े खिलाड़ियों पर। यानी कि वोट बैंक के बड़े सौदागर अर्थात् बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ इसे यूज़ करेंगी। इसके पास स्वयं को यूज़ होते रहने देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।" 

बात लंबी खिंचती देख नेताजी ने फिर टोका- "महोदय आपके तरकस में मेरे लिए कौन सा ब्रह्मास्त्र है वह बताइए।"

"धैर्य रखिए वही बताने जा रहा हूँ। मैं जो तीर आपके लिए निकालने जा रहा हूँ वह आपके लिए वाक़ई ब्रह्मास्त्र है। जो आपको देखते-देखते सिर्फ हिंदुस्तान के हिंदुओं का ही हीरो नहीं बना देगा बल्कि पूरी दुनिया में फैले हिंदुओं के आप हीरो बन जाएँगे। आंदोलन चलाने के लिए दुनिया भर से आप पर चंदों की बरसात होने लगेगी। साथ ही आप के इस आंदोलन के तूफान में भोजू तिनके की तरह उड़ जाएगा। उसका कहीं अस्तित्व तक नहीं रह जाएगा। और आप भोजू की तरह किसी पर डिपेंड नहीं रहेंगे, किसी के भी टूल नहीं बनेंगे।"

लेखक की इन बातों से नेताजी के मन में एक साथ बहुत सी फुलझड़ियाँ छूटने लगीं। लेकिन अपने चेहरे पर वह कोई भाव नहीं आने दे रहे थे। लेखक ने आगे बोलना जारी रखा। सीधे-सीधे पत्ता खोलते हुए कहा- "आप इस माँग को लेकर आंदोलन शुरू करिए कि जब किसी और धर्म के पूजा स्थलों में आने वाले चढ़ावे, उसकी आय के स्रोतों पर सरकार का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है तो हिंदुओं के पूजा स्थानों पर क्यों है? हिंदुओं के पूजा स्थानों पर से सारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण तत्काल हटाए जाएँ अन्यथा सारे धर्मों पर एक नियम क़ानून लागू किए जाएँ। क्योंकि यह धर्म के नाम पर एक अमानवीय भेदभावपूर्ण कुकृत्य है, अन्याय है, जो आज़ादी के बाद से ही सरकार द्वारा हिंदुओं के साथ किया जा रहा है। यह संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। संविधान की इस भावना का घोर उल्लंघन है कि धर्म के आधार पर भी किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जो कि सारे हिंदुओं के मन में है। लेकिन हिंदू क्योंकि धर्म को लेकर कट्टर धर्मांध नहीं है, इसलिए उनके मन की यह बात उनके मन में ही तैर रही है। कोई जरा सा इस मुद्दे को छेड़ेगा तो उसे बड़ा समर्थन मिल जाएगा।"

लेखक की बात को बीच में ही काट कर नेता जी बोले- "आप यह क्या कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। अरे यह बात न जाने लोग कब से जान रहे हैं, समझ रहे हैं, ना जाने कितने कॉलमिस्ट ने लिखा है। लिखते ही आ रहे हैं। तमाम डिबेट में बोला गया है। हिंदुओं में हलचल तो छोड़िए सुगबुगाहट तक नहीं हुई। आपके पास ऐसा कोई अस्त्र-शस्त्र है जो भोजू को फिर से वहीं पहुँचा दे जहाँ वह था। और मेरा कॅरियर उस जगह से भी आगे पहुँच जाए जहाँ तक मैंने सोचा भी नहीं है। दसियों साल का समय, करोड़ों रुपये बर्बाद कर चुका हूँ। बदले में विधायकी का भी टिकट पक्का नहीं। गले पर तलवार लटकती रहती है। आलाकमान का मुँह ताकते बीतता है।"

नेताजी एकदम बिलबिला कर बोले। मारे बेचैनी के उठ कर खड़े हो गए। उनकी इस हालत पर भी लेखक शांति से नाश्ते पर धीरे-धीरे हाथ साफ़ करते रहे। पनीर टिक्का और कॉफ़ी लेते रहे। और फिर पूरी शांति के साथ बोले- "नेताजी मैं बार-बार कह रहा हूँ कि आप धैर्य से सुनिए। जैसे भोजू ने जो मुद्दा, मुद्दा था ही नहीं कभी। कुछ पर्सेंट कायस्थों के मन में वह बात आई-गई जैसी हो गई थी। उसे वह आज की डेट में एक ज्वलंत मुद्दा बना कर एक ऐसी ताक़त बन बैठा है, जिसे सभी पार्टियाँ कैच करना चाहती हैं। वैसे ही जो बात मैंने कही वह भी है। बल्कि सही यह है कि यह हज़ार गुना ज़्यादा आगे है। सही मायने में यह एक मुद्दा पहले से है। बारूद के ढेर जैसा है। जिसमें एक चिंगारी दिखाने भर की देरी है। 

आपको बस यही चिंगारी दिखानी है। चिंगारी कैसे दिखानी है यह मैं आपको बता रहा हूँ। आपने अभी तक दसियों साल, करोड़ों रुपए खर्च किए हैं लेकिन रिज़ल्ट आपके हिसाब से ज़ीरो है। अब आपको बस कुछ रुपये और खर्च करने हैं। चार पाँच-सौ आदमी इकट्ठा करने हैं, धरना प्रदर्शन की प्रशासन से इज़ाज़त लेनी है। मिलती है तो ठीक, नहीं मिलती है तो ठीक। प्रदर्शन होना ही है। बाक़ी काम मीडिया के हवाले कर दीजिए।"

लेखक की बात पर नेताजी बड़ी कड़वाहट भरी हँसी हँसे। फिर बोले- "मैं बहुत गंभीरता से पूछ रहा हूँ कि क्या यह मुद्दा वाक़ई इतना दमदार है कि यह राजनीति की दुनिया में तूफ़ान ला देगा। अगर है तो आप ने पहले क्यों नहीं बताया? मुझे ही क्यों बता रहे हैं? आपके तो बहुत से राजनीतिक मित्र हैं। ज़माने से हैं। कई तो मुझसे भी बड़ी हैसियत रखते हैं। उन्हें बता कर क्यों नहीं उन्हें बड़े से और बड़ा बना दिया?"

नेता जी की बात से लेखक महोदय तिलमिला उठे। नेता जी ने सीधे-सीधे उनका अपमान किया था। उनकी विश्वसनीयता, उनकी क्षमता पर सीधे-सीधे प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। जिससे लेखक ग़ुस्से से भर गए। लेकिन दूर की सोच कर ख़ुद पर नियंत्रण करने का पूरा प्रयास किया। फिर भी कुछ हद तक आगे उनकी बातों पर उसकी झलक दिखती रही। उन्होंने प्लेट में अभी भी पड़े काफी सारे पनीर टिक्कों में से एक छोटा पीस उठा कर मुँह में डाला। मानो उसके सहारे वह अपना ग़ुस्सा पूरा निगल जाना चाह रहे हों। फिर बोले- "मुझे बेहद अफ़सोस है कि आप मुझे आज तक इतना ही नहीं बल्कि यह कहूँगा कि आप बिल्कुल भी नहीं समझ पाए। थोड़ा बहुत भी जाना होता तो निश्चित ही ऐसी बात नहीं करते। आपने मुझ पर बहुत खर्च किया है। कई बड़े-बड़े काम कराए हैं। यह, यह पनीर टिक्का अभी भी खा ही रहा हूँ। यह बड़ी टेस्टी स्ट्रांग कॉफ़ी भी पी रहा हूँ। इसलिए अपना कर्तव्य पूरा किए बिना नहीं रह सकता।"

लेखक की बातों से नेताजी को लगा कि यह बहुत बुरा मान गए हैं। तुरंत ही उनके दिमाग़ में बात आई कि "इस कठिन समय में यह भी साथ छोड़ गए तो मुश्किल बढ़ जाएगी। यह मुझसे रूठा तो निश्चित ही यह भोजुवा के साथ खेलेगा। इसे साथ रखने में ही भलाई है। फ़ायदा है। काम ना आएगा तो कम से कम भोजुवा के साथ मिलकर मेरे लिए एक और मुसीबत तो नहीं बनेगा।" 

नेताजी ने बड़ी तेज़ी से यह कैलकुलेशन किया और तुरंत बोले, "सुनिए-सुनिए, आप मेरी बात समझे नहीं। आप हमेशा मेरे लिए महत्वपूर्ण थे, रहेंगे, और ऐसे ही पारिवारिक मित्र भी। कितनी बड़ी है मेरी समस्या यह आप अच्छी तरह समझ ही रहे हैं। मेरे उतावलेपन का कारण भी। इसलिए आप मुझे वाक़ई समाधान जल्दी बताइए।"

नेताजी का आख़िरी सेंटेंस लेखक को फिर चुभ गया। वह बोले- "देखिए मंदिर वाला जो अंदोलन मैंने बताया है वही करिए। यह आपको नायक बना देगा। नायक।"

"लेकिन इस बात को तो आप मानेंगे ही कि आंदोलन में पाँच-छः हज़ार से ज़्यादा भीड़ नहीं होगी तो फिर सफलता नहीं मिल पाएगी। क्या कहते हैं?" 

लेखक कुछ देर तक नेताजी को एकटक देखने के बाद बोले- "मैं हर एँगल से सोचने-समझने के बाद ही बोल रहा हूँ। यह अच्छी तरह जानता हूँ कि आप पैसे से तो कमज़ोर नहीं पड़ेंगे, लेकिन सच यह भी है कि हर संभव प्रयास करके भी आप पाँच सौ से ज़्यादा लोग इकट्ठा नहीं कर पाएँगे। और ज़ोरदार शुरुआत करने के लिए हर हालत में कम से कम चार-पाँच हज़ार आदमी तो चाहिए ही चाहिए। बड़ी भीड़ होगी तो मीडिया, पुलिस महकमा भी बड़ी संख्या में इकट्ठा होगा। बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ भी हर हाल में करवानी ही होगी। तभी बड़ी हलचल होगी। इतनी बड़ी की राष्ट्रीय स्तर पर लोग उसे देख पाएँगे। तभी आप अपने उद्देश्य तक पहुँचने में सफल होंगे।

यह भी अच्छी तरह जानता हूँ कि आप जो भीड़ लाएँगे उसमें से बहुत से तो पुलिस का जमावड़ा देखकर ही पीछे से ही इतने पीछे हो जाएँगे कि कहीं दिखाई ही नहीं देंगे। तो ऐसे लोग तोड़फोड़ क्या कर पाएँगे?"

"यही तो मैं कह रहा हूँ कि यह आंदोलन संभव नहीं है, इतना आसान होता तो अब तक न जाने कितने लोग आंदोलन चला चुके होते।"

नेताजी के चेहरे पर निराशा साफ़ झलकने लगी थी। उनको महसूस हुआ कि जैसे उनका दिल बैठा जा रहा है। उन्होंने पानी का गिलास उठाया और पूरा पी गए। लेखक इस बीच उन्हें ध्यान से देखते रहे। नेताजी की दयनीय हालत का अक्षर-अक्षर आसानी से पढ़े जा रहे थे। उनके चेहरे पर कोई बड़ी सफलता पा लेने जैसी ख़ुशी की रेखाएँ उभर रही थीं। जिसे हलकान हुए जा रहे नेताजी देख नहीं पा रहे थे। आख़िर लेखक फिर बोले, "आप नाहक़ परेशान हुए जा रहे हैं। मैंने कहा ना कि मैं हर एँगल से सोच समझकर बोल रहा हूँ। हज़ारों की भीड़ कैसे आएगी यह सब मुझ पर छोड़ दें, मैं ले आऊँगा। आप बस पैसे और जितनी ज़्यादा गाड़ियों का इंतज़ाम कर सकते हों वह करिए। इस मैटर पर भीड़ के सामने और मीडिया के सामने क्या-क्या बोलना है उसकी तैयारी करिए। ना हो सके तो वह भी बताइए, वह भी मैं कर दूँगा। 

"भीड़ के सामने क्या-क्या बोलना है लिखकर दे दूँगा, देख लीजिएगा। मीडिया कैसे-कैसे प्रश्न कर सकती है उनके उत्तर आपको क्या-क्या देने हैं, वह भी लिख कर दे दूँगा। रट लीजिएगा। वैसे भी आपकी पार्टी का युवराज लीडर भी तो यही करता है। चार सेंटेंस कहीं किसी विजिटर रजिस्टर पर भी लिखना होता है तो लिख कर जो दे दिया जाता है वही मोबाइल में देख कर लिखता है। फुली कंफ्यूज़्ड पर्सन है। आप तो ख़ैर विद्वान आदमी हैं। कई बार आपको बोलते देखा है।"

नेताजी लेखक की बातें सुनकर उन्हें आश्चर्य से देखने लगे। उन्हें अपनी तरफ़ ऐसे देखते पाकर वह बोले- "ऐसे आश्चर्य से क्यों देख रहे हैं। मेरी बातों पर यक़ीन नहीं हो रहा है क्या?"

"आश्चर्य क्या, यह बातें कोई नेता, माफ़िया कहता कि आप पैसों, गाड़ियों का इंतज़ाम करिए मैं हज़ारों लोगों को इकट्ठा कर दूँगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, मामूली बात थी। आप जैसा एक लेखक, एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर व्यक्ति कहे तो मैं क्या कोई भी आदमी आश्चर्य में पड़ जाएगा। आज तक आपका कोई भी ऐसा काम सामने नहीं आया है जिससे यह सोचा भी जा सके कि आप आठ-दस आदमी भी किसी आंदोलन के लिए ला सकेंगे। पिछले साल आपने अपनी किताब के विमोचन के लिए बुलाया तो मुझसे कहा कि ढंग के बीस-पचीस आदमी भेज दीजिए, जो दिखने में लिखने-पढ़ने वाले लगें।

"आपके बार-बार फोन करने पर जब मैं ख़ुद पहुँचा तो मेरे आदमियों के अलावा वहाँ बमुश्किल और दो दर्जन लोग रहे होंगे। ऐसा आदमी किसी और के लिए कहे कि वह पाँच-छ हज़ार आदमी आंदोलन के लिए इकट्ठा कर देगा तो आश्चर्य नहीं तो और क्या होगा? कौन विश्वास करेगा? सबसे बड़ी बात यह कि आज की डेट में जिस आदमी के पास इतनी क्षमता होगी तो वह ख़ुद एक बड़ा नेता बन जाएगा। और आप तो एक बड़े अच्छे वक्ता भी हैं। ज़ोरदार आवाज़ ही नहीं जब बोलना शुरू करते हैं, तथ्य-आँकड़ों की झड़ी जब अपने अकाट्य तर्कों की छौंक के साथ लगाते हैं तो पूरा समूह विस्मित भाव से देखता रह जाता है। मंत्रमुग्ध हो जाता है।

एक सफल नेता के लिए जो कुछ चाहिए वह सब कुछ आपके पास है, तो आप किसी और को नेता बनाने के लिए क्यों अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। आप सारा खेल छिपकर क्यों खेलना चाह रहे हैं, यह आश्चर्यजनक नहीं है? देखिए मैं इस समय बहुत परेशान हूँ, बहुत बड़ी उलझन में हूँ। मुझे साफ़-साफ़ बताइए। आपकी बातों ने मेरी उलझन और बढ़ा दी है। बुलाया था समाधान के लिए लेकिन आप द्वारा खड़े किए जा रहे प्रश्नों ने उलझन और बढ़ा दी है। इसलिए सच मुझे तुरंत बताइए। और समय नहीं है मेरे पास।"

नेताजी का चेहरा इस बार थोड़ा सख़्त हो चुका था। लेखक समझ गए कि अब सही समय है कि वह अपनी वास्तविक बात कहें। लोहा एकदम गर्म हो चुका है। इतना गर्म कि उस पर हल्की सी चोट भी गहरे निशान छोड़ सकती है। इतना गहरा निशान कि यह तथाकथित नेता उनका एक ज़बरदस्त टूल बन जाएगा। इतना पॉवरफुल टूल कि इसके ज़रिए वह शतरंज की कोई भी बाजी जीत लेंगे। जिस मिशन में वह बरसों से लगे हैं, उसके पूरा होने के और क़रीब पहुँच जाएँगे। यह सोचते ही उन्होंने एकदम से ऐसा ख़ुलासा किया कि उस कमरे में महाविस्फोट सा हो गया।

नेताजी हड़बड़ा कर अपनी जगह उठ कर खड़े हो गए। सेकेंड़ों में वो एसी कमरे में भी पसीने से तरबतर हो गए। जबकि एसी बाइस डिग्री टेंप्रेचर को मेंटेन किए हुए था। इसके बावजूद नेताजी के चेहरे पर पसीना इतना था कि वह नाक पर एक बूँद बनकर बस टपकने ही की स्थिति में आ गया। उनकी आँखों की बरौनी को भी पसीना छूकर नीचे गिर गया। गला उनका ऐसे सूख रहा था कि जैसे उनका ब्लड प्रेशर हाई हो गया हो। 

जबकि लेखक एकदम शांत भाव से उन्हें देखते रहे। उनके अंतर्मन को पढ़ कर समझते रहे। वह खुश हो रहे थे कि जैसा वह चाहते थे हथौड़े ने गर्म लोहे पर बिल्कुल वैसी ही चोट की है। मन चाहा निशान लोहे पर उभर आया है और अब समय है कि गर्म लोहे पर ठंडा पानी डालकर बन चुके निशान को स्थाई बना दिया जाए। वह पानी का गिलास लेकर नेताजी के पास पहुँचे। उन्हें अपने हाथों से पानी पिलाया। फिर से सोफ़े पर बैठा दिया। और बहुत ही शांत भाव से बोले- "आप इतना हैरान-परेशान बिल्कुल ना हों। आप जो चाहते हैं उससे भी कहीं बहुत कुछ ज़्यादा आपको मिलेगा। इसके लिए जो कुछ चाहिए वह सब मेरे पास है। मैंने तो केवल पाँच हज़ार आदमियों की बात की थी, लेकिन अब तो आपको यक़ीन हो गया होगा कि मैं चाहूँगा तो आप के लिए दस हज़ार आदमी भी इसी शहर में इकट्ठा कर दूँगा। अब तो आपको यह आंदोलन शुरू करने में कोई संकोच, कोई शक-शुबहा नहीं रह गया होगा। 

आंदोलन की निश्चित सफलता के लिए शुरू में जो भीड़ चाहिए उससे भी ज़्यादा मैं दूँगा। जब आंदोलन चल पड़ेगा तब आपके साथ बाक़ी लोग भी अपने आप ही गाड़ी, पैसों का इंतज़ाम कर के आएँगे। तब आपको ना गाड़ी का इंतज़ाम करना होगा, ना पैसों का, ना ही मुझे आदमियों का।"

नेताजी अब तक बहुत हद तक सँभल चुके थे। अपना पसीना कई बार पोंछ कर सुखा चुके थे। जग से गिलास में डाल-डाल कर दो गिलास पानी भी पी चुके थे। गला अब पूरी तरह तर था। उन्हें संतुष्टि हो चली थी इस बात की कि लेखक जो कह रहा है, उसके कहे अनुसार चलकर वह आंदोलन इतने बड़े पैमाने पर चला ले जायेंगे कि आलाकमान को वो धो-धो कर मारेंगे। आलाकमान अब उनकी जी हुज़ूरी करता उनके पीछे-पीछे चलेगा। नेता जी बडी़ राहत महसूस करते हुए सोच रहे थे कि "भोजुवा साला मेरी आँधी, तूफ़ान में तिनके की तरह ऐसा उड़ेगा कि उस का नामोनिशान मिट जाएगा। और उसके बाद इस लेखक। छोड़ो इसके बारे में तो बाद में सोचूँगा। यह साला इतना छुपा रुस्तम निकलेगा, इतना पहुँचा हुआ खिलाड़ी होगा सपने में भी सोचा नहीं था। सोचना क्या शक भी नहीं किया जा सकता था। अब जबकि बात खुल गई है, इसका असली चेहरा सामने आ गया है, तो ज़रूरी यह है कि इसकी एक-एक बात की जाँच-पड़ताल कर ली जाए। पूरी तरह ठोक-बजा कर देखना ज़रूरी हो गया है।" नेताजी ने मन ही मन यह जोड़-घटाव करते हुए लेखक से पूछा- "आपके इस तरह के काम-धाम या इस रूप की मैंने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है, मैं अपनी बात दोहराऊँगा कि जब आप इतना कुछ करने में सक्षम हैं, तो ख़ुद आगे बढ़कर क्यों नहीं मोर्चा सँभालते। मुझे क्यों आगे कर रहे हैं? और जब मैं आगे निकल जाऊँगा तो आपको क्या मिलेगा? आपका उद्देश्य क्या है? यह जाने बिना संशय की इतनी मोटी पर्तें हैं कि आगे बढ़ पाना बहुत कठिन लग रहा है।" 

नेताजी की बातें सुनकर लेखक सोचने लगे कि कहीं गाड़ी फिर ना पटरी से उतर जाए इसलिए तुरंत ही बोले- "आप निश्चिंत रहिए। मैं आपके संशय की सारी पर्तें तुरंत हटाता हूँ। देखिए मेरा उद्देश्य वास्तव में संपूर्ण नक्सल जगत का उद्देश्य है। स्वर्गीय कानू सान्याल, चारू मजूमदार का सपना है। देश में जन सामान्य, मज़दूरों की सरकार का सपना है। जो वर्तमान लोकशाही को समाप्त करके ही पूरा होगा। इस लोकशाही को उखाड़ने के लिए ऐसे ही जातिवादी, धार्मिक, क्षेत्रवादी, भाषावादी, अलगाववादी आंदोलनों की ही ज़रूरत है। ऐसे अंदोलन इस लोकशाही की जड़ों को खोखला कर देंगे। इतना कि एक दिन लोकशाही की दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र का भवन अपने आप धराशायी हो जाएगा। और तब इस विशाल हिंदुस्तान में जन सामान्य की, मज़दूरों की, ग़रीबों की सरकार होगी। जो इनके लिए सच में काम करेगी। उनकी ज़मीनें भीमकाय उद्योगों के लिए ज़बरिया छीनी नहीं जाएँगी।

जिन क्षेत्रों में हज़ारों-हज़ार वर्षों से जन-जातियों के लोग रहते आए हैं, उनसे उनका क्षेत्र छीना नहीं जाएगा। उसके मालिक वही रहेंगे। उसके नीति-नियंता वही रहेंगे। ना कि दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तथाकथित जनसेवक। जो जनसेवक के नाम पर धब्बा होते हैं। कहलाएँगे जनसेवक, लेकिन जनता की कमाई से प्रचंड तानाशाहों की तरह रहते हैं। करोड़ों की सैकड़ों गाड़ियों के काफ़िले में निकलते हैं। जनता के पैसों पर आलीशान ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जिएँगे और तुर्रा यह कि हम तो जनसेवक हैं।

अरे आप कैसे जनसेवक हैं भाई कि जनता आपकी छाया भी नहीं छू पाती। जब आपके निकलने का कार्यक्रम बनता है तो सड़कें खाली करा ली जाती हैं। मकानों पर सुरक्षा के नाम पर सुरक्षा-कर्मियों का कब्ज़ा हो जाता है। आप का उड़न खटोला उतरेगा तो ग़रीबों की खून-पसीने से सींची खड़ी फ़सल तबाह कर दी जाती है। यही है लोकशाही है? ये लोकशाही नहीं है, जन की सरकार नहीं है। लोग जिन्हें चुनते हैं वही चुने जाने के बाद सामंत बन बैठते हैं। 

देखते-देखते करोड़पति, अरबपति, खरबपति बन जाते हैं। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति सबके सब सोने के अभेद्य क़िलों में पहुँच जाते हैं। और जनता उन्हें पाँच साल तक ठगी सी देखती रहती है। वह भी रूबरू नहीं बस मीडिया में। वास्तव में राजशाही, तानाशाही का नया रूप है आज की लोकशाही। आज दुनिया में लोकशाही लोकतंत्र के नाम पर आम जनता का ख़ून चूस रही है। यह भी तानाशाहों जितने ही अत्याचारी शोषक हैं। हमारा संघर्ष इन बहुरूपिये सामंतों, पूँजीपतियों से आमजन, ग़रीब, जनजातीय लोगों की मुक्ति का है। ज़मीन के मालिक जो आज ये पूँजीपति बन बैठे हैं, इनसे ज़मीनें मुक्त करानी है। इसे असली मालिकों को वापस दिलाना है। जो वास्तव में इन ज़मीनों के हक़दार हैं। हमारा एकमात्र उद्देश्य ग़रीबों को उनका हक़ दिलाना है। हम नक्सली किसी के दुश्मन नहीं हैं। बस अपने अधिकार के लिए लड़ रहे हैं।"

लेखक अपनी बातों को कहते-कहते काफ़ी उग्र हो चुके थे और नेताजी उन्हें कुरेद-कुरेद कर उनसे एक-एक सच जानने में लगे हुए थे। वह अंदर-अंदर भयभीत भी थे कि वह एक हार्ड-कोर शहरी पढ़े-लिखे प्रोफ़ेसर नक्सली के सामने बैठे हैं। उनके दिमाग़ में चार-पाँच नक्सलियों की गिरफ़्तारी घूम रही थी, जो कुछ दिन पहले ही गिरफ़्तार हुए थे। उनमें भी प्रोफ़ेसर, वकील, लेखक, पत्रकार थे। तो क्या अब यह नक्सली सुदूर जंगलों, गाँवों से निकलकर शहरों की ओर रुख कर चुके हैं? शहरों में अपनी जड़ें गहरे पैठा चुके हैं? अपने मन में उठते तमाम प्रश्नों के साथ उन्होंने लेखक को फिर कुरेदा, उनसे पूछा, "आप यह बताइए कि आप चारू मजूमदार, कानू सान्याल के सपनों की बात करते हैं, लेकिन जहाँ तक मुझे याद पड़ता है कि कानू सान्याल ने जीवन के अंतिम समय में दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "नक्सल आंदोलन अपनी राह से भटक गया है। नक्सल आंदोलन में ऐसी हिंसा को स्थान नहीं दिया गया था, जैसी आजकल नक्सली कर रहे हैं।" यह बात सही भी है। आप लोग जिहादी आतंकियों से भी पहले से पकड़े गए निरीह मासूम लोगों के हाथ-पैर काटते आ रहे हैं। सिर क़लम कर देते हैं। सुरक्षाकर्मियों की लाशों को चीरकर बम भरकर भेज देते हैं। यह सब निरंतर जारी है। ये सब मरने वाले कोई अमीर नहीं ग़रीब ही होते हैं। ऐसे ग़रीब जिनके पास दो जून की रोटी भी नहीं होती। वो जब आपका साथ नहीं देते तो आप क़त्ल कर देते हैं। टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। ये कैसा न्याय है? ये ग़रीबों का कौन सा हित कर रहे हैं आप लोग। अमीरों से तो आप लोग सिर्फ़ पैसा लेते हैं। शायद ही कोई अरबपति, खरबपति हो जिसे आप लोगों ने मारा हो। एक से एक नक्सली पकड़े गए जो ख़ुद अरबपति हैं। ऐशो आराम से रहते हैं। कहाँ से आता है इनके पास इतना अकूत धन। चारू मजूमदार, कानू सान्याल का सपना कहाँ है?"

लेखक को शायद अपने उग्र होने की ग़लती का एहसास हो चुका था, इसलिए जल्दी से उसने अपने को शांत कर लिया। और नेता जी के प्रश्न का बड़ी शांति से जवाब दिया। कहा, "देखिए हम सिर्फ़ यह जानते हैं कि उनका सपना क्या था? रही बात रास्ते की तो जब पहला रास्ता मंज़िल तक पहुँचता ना दिखे तो हमें तुरंत नया रास्ता ढूँढ़ कर उस पर चल देना चाहिए। हमें सिर्फ़ मंजिल दिखाई देती है, रास्ता कैसा है? यह सोचने का हमारे पास समय नहीं होता। ना ही हम ऐसा सोचना चाहते हैं।"

"लेकिन रास्ता भटक कर तो कभी मंज़िल तक पहुँचा नहीं जा सकता।"

"मैंने कहा ना कि हम रास्ता भटके नहीं हैं, हमने रास्ता बदला है बस। भटकना और बदलना दोनों ही दो चीज़ें हैं। भटकते वो हैं जो जाना कहीं होता है अनजाने में चले कहीं और जाते हैं। बदलना वह है जो हर चीज़ को जान-समझकर सही का चयन कर के आगे बढ़ जाए।" 

"मगर मैं तो यह समझ रहा हूँ कि नक्सल आंदोलन धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ रहा है। सिकुड़ता हुआ समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। सरकार तमाम नक्सल प्रभावित ज़िलों को, क्षेत्रों को नक्सल मुक्त क्षेत्र घोषित करती जा रही है। फिर यह जो आप कानू, चारू के सपने की बात कर रहे हैं इसके पूरा होने की बात कहाँ रह जाती है।"

लेखक नेताजी की इस बात पर बड़ी रहस्यमयी हँसी हँस कर बोले- "भ्रम! सरकार, मीडिया दोनों ही बड़े भ्रम में हैं। गफ़लत में हैं। कहीं कुछ ऐसा नहीं है। जिस एरिया को वह नक्सल मुक्त बता रहे हैं, वास्तव में हम वहाँ अपना काम कर चुके हैं। हम अपनी जड़ों को वहाँ बहुत गहराई तक पहुँचा चुके हैं। जैसे गर्मियों में तेज़ धूप होने पर आपको लगता है कि दूब घास सूख गई है, ख़त्म हो गई है। लेकिन बारिश की एक फुहार पड़़ते ही वह पहले से भी कहीं ज़्यादा बड़े क्षेत्र में हरी-भरी होकर एकदम से प्रकट हो जाती है। 

"ठीक वही स्थिति हमारी है। आप की सरकार हम से मुक्ति मानकर अपनी पीठ थपथपा रही है, ख़ुश हो रही है। जबकि वास्तविकता इसके उलट है। आप आवश्यकता पड़ने पर उन क्षेत्रों से भी और बड़े क्षेत्रों में हर तरफ़ हमें पाएँगे।" 

"जब इतना सफल हो चुके हैं आप लोग, इतना फैल चुके हैं, तो क्यों नहीं अपनी जनसामान्य की सरकार बना लेते। आख़िर अब किस बात की देर है, सपना पूरा कीजिए अपने महान कानू सान्याल का और चारू मजूमदार का।"

"आप भी कैसी बातें कर रहे हैं। हमारा सपना कुछ क्षेत्रों में अपनी सरकार बनाना नहीं है। हमें पूरे भारत में अपनी सरकार बनानी है। हम पूरे भारत से पूँजीपतियों की सरकार हमेशा के लिए उखाड़ फेंकेंगे। पूरे भारत से सफ़ेद वर्दीधारी नेताओं को ही नहीं, लोकशाही की विचारधारा का ही नामोनिशान मिटाना है। यह तभी हो सकता है जब दूरदराज के सुदूर गाँव, क़स्बा छोटे शहर ही नहीं मेट्रोपॉलिटन शहर की छोटी सी छोटी गलियों तक में हम अपनी जड़ें गहरे पहुँचाएँगे। जिससे वह नीचे तक इस तथाकथित लोकशाही की जड़ों को दीमक की तरह चाट डालें। जिस दिन हमें लगेगा कि हम दूब की तरह फैल चुके हैं भीतर-ही-भीतर पूरे देश में। इस लोकशाही की जड़ों को पूरी तरह चाल दिया है। उस दिन एक फुहार से ही पूरे देश में एकदम प्रकट होंगे और देखते-देखते खोखली जड़ों पर खड़े लोकशाही की इमारत को धराशाही कर देंगे। जो ग़रीबों के ख़ून से सने गारे से बनी है।"

ग़ौर सुन रहे नेताजी ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "मैं इस समय इस बहस में क़तई नहीं पड़ूँगा कि नक्सली अपनी दुकान चलाए रखने के लिए यह सब खेल कर रहे हैं। ग़रीब, आदिवासी सभी की यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। स्थिति पूँजीवाद से ही बदलेगी। विकास बिना पूँजी के होता नहीं, चीन भी इसी राह चल रहा है। मगर नक्सली भ्रम फैलाए हुए हैं? मैं इतना ही कहूँगा कि जब क्रांति करेंगे तो क्या यहाँ की सेना, सारी सिक्योरिटी फ़ोर्सेज वह कहाँ चली जाएँगी? आप लोग लोकशाही के महल को गिराएँगे और लोकाशाही की इतनी बड़ी ताक़त, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना चुपचाप देखती रहेगी। जिसके सामने आपका आक़ा, आपका आयडल, आपका पालनहार चीन भी एक तरह से देखा जाए तो डोकलाम में बंदरघुड़की दिखाकर शांत हो गया। शांति की बात कर रहा है।"

नेताजी की बात पूरी भी ना हो पाई थी कि लेखक कुटिल हँसी हँसते हुए बीच में ही बोले, "लगता है आप मेरी बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं। आप का मन कहीं और लगा हुआ है। बातों को समझ रहे होते तो यह प्रश्न करने को छोड़िए आप के मन में यह पैदा भी नहीं होता। ख़ैर प्रश्न किया है तो उत्तर भी सुन लीजिए। यह बताइए मैं "क्या हूँ?", "कौन हूँ?"

इस प्रश्न से नेताजी अजीब सी उलझन में पड़ गए। लेखक का असली परिचय मिलने के बाद उसको लेकर एक अजीब भय उनके मन के किसी कोने में बैठ चुका था। वह लेखक के नए प्रश्न से कुछ विचलित भी हो रहे थे कि "अब यह क्यों पूछ रहा है कि "मैं कौन हूँ?" इसके बारे में जो नहीं जानता था वह भी इसने बता दिया कि यह एक हार्डकोर नक्सली है। फिर यह प्रश्न मुझसे क्यों कर रहा है? आख़िर मुझसे यह क्या कहलाना चाहता है। इसको तो अब बड़ा सोच-समझ कर जवाब देना होगा।" उनको चुप देखकर लेखक ने पूछा - "आप कहाँ खो गए, जवाब नहीं दे रहे हैं कि मैं कौन हूँ?" 

"आप क्या जानना चाह रहे हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। आप एक लेखक हैं। एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं, विभागाध्यक्ष हैं। यह मैं बरसों से जानता हूँ। समझता हूँ। जो नहीं जानता था कि आप एक नक्सली हैं, आप का सपना चारू, कानू के सपनों को पूरा करना है। वह भी आप से जान चुका हूँ। इसके बाद भी यह प्रश्न कि आप कौन हैं यह मैं समझ नहीं पा रहा हूँ तो उत्तर क्या दूँ?" 

"चलिए ठीक है, मैं ही अपने प्रश्न का उत्तर भी देता हूँ कि मैं कौन हूँ? यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूँ, विभागाध्यक्ष हूँ। बेहिचक यह भी कहता हूँ कि एक नामचीन लेखक भी हूँ जिसकी एक दो नहीं डेढ़ दर्जन किताबें हैं। वह लेखक जिसके साहित्य पर दर्जन भर छात्र पी.एच.डी. कर चुके हैं। कई प्रोफ़ेसर बन कर पढ़ा रहे हैं। आगे जो बताने वाला हूँ वह सब आप आसानी से ज़्यादा बात किए बिना समझ जाएँ इसलिए यह सब कह रहा हूँ, कि आलोचक मेरे साहित्य को उग्र वामपंथी सोच का प्रतीक कहते हैं। कुछ ज़्यादा ही घुटे हुए जो आलोचक हैं वह तो दबे स्वर में ही सही मुझे नक्सली विचारों का पोषक, प्रचारक कहते हैं। उनकी तीक्ष्ण नज़रों से मेरा वास्तविक चेहरा मुश्किल से बच पाता है।  

"उनकी संदेह की नज़र मुझ पर बनी ही रहती है। और स्पष्ट करूँ तो सीधे से यह कि नक्सल एक विचार के रूप में पूरे देश में, हर क्षेत्र में फैल रहा है। शिक्षण संस्थाओं, न्यायपालिका, सिक्योरिटीज़ फ़ोर्सेज़, सेना, मेडिकल क्षेत्र, और प्रशासनिक क्षेत्र में भी। जिस दिन हर क्षेत्र में यह पर्याप्त रूप से फैल जाएगा उस दिन एक साथ क्रांति होगी। जिन सिक्योरिटी फ़ोर्सेज़, सेना, पुलिस की ताक़त पर आप या आप जैसे लोग नक्सल आंदोलन को कुचलने का भरोसा किए बैठे हैं, जिनकी ताक़त पर आप अपने दंभ में हैं वही ताक़त आप की नहीं, परिवर्तित होकर नक्सली ताक़त बन चुकी होगी। और यह निरंतर हो रहा है। 

"यहाँ तक कि आपकी पार्टी में भी हमारे विचारों के ढेरों समर्थक हैं। आप फिर कोई संशय प्रकट करें इसके पहले ही प्रमाण दिए देता हूँ कि आपकी पार्टी के ही एक बड़े क़द्दावर नेता ने बीते दिनों ही कहा है कि नक्सली क्रांति कर रहे हैं। उसने हमारे विचारों का पूरा समर्थन किया है। वह अभिनेता से नेता बना, नाचने गाने वाला आपके आला कमान का चहेता भी है। उसका पूरा परिवार ही नचनियाँ-गवनियाँ है। तो जब नचनिए गवनिए, आपकी फ़िल्म इंडस्ट्री वाले हमारे विचारों के समर्थन में हैं तो बाक़ी आगे की आप समझ सकते हैं। यह और आगे बढ़ेगा।

"फिर दुनिया में महान रूसी क्रांति के बाद एक और उससे भी बड़ी महान क्रांति होगी। देश जनसामान्य के शासन तले आगे बढ़ेगा। लोकशाही का ठीक उसी तरह नामोनिशान नहीं रहेगा जिस तरह पूर्व सोवियत संघ में ज़ारशाही का नामोनिशान नहीं रहा। मुझे लगता है कि अब और ज़्यादा समझाने की आवश्यकता नहीं है कि लोकशाही को नेस्तनाबूद कर जनसामान्य की सरकार कैसे बनेगी?" 

"नहीं, समझाने की तो नहीं लेकिन संशय की आख़िरी पर्त रह गई है। आपको उस पर्त को भी हटाना है"

नेताजी की बात सुनकर लेखक कुछ खीझते हुए अंदाज़ में बोले- "इतना कुछ बताने के बाद भी संशय की एक पर्त रह गई है, आश्चर्य है! बताइए वह आख़िरी संशय की पर्त क्या है? ख़ुशी इस बात की है कि आपके संशय की यह आख़िरी पर्त है।" 

लेखक की खीज को नेताजी ने भाँप लिया था। वह नक्सली के सामने हैं इस भय के प्रभाव से वह क़रीब-क़रीब बाहर निकल चुके थे। अतः बेबाकी से बोले, "मैं आपकी सारी बातों से सहमत हूँ, बस एक संशय यह कि आप एक तरफ़ अपनी पहचान दुनिया से छुपाने के लिए सारे जतन करते हैं, फिर अचानक ही आपने सारे सच मेरे सामने क्यों रख दिए। किसी और को भी तो आगे करके आंदोलन करवा सकते हैं। अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। मुझसे ही क्यों? मुझ में ही ऐसी कौन सी योग्यता देखी आपने कि सारे राज़ बता दिए।" 

"क्योंकि मैंने देखा कि आप प्रतिद्वंद्विता में इस क़दर धँसे हुए हैं कि भोजू की हत्या के लिए भी जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं। आप में जैसा जुनून है मुझे अपने काम के लिए वही चाहिए था। आप में मिला तो आपसे बातें कीं। यानी सुपात्र से। बस इतनी सी बात है।"

लेखक के मुँह से भोजू की हत्या के प्रयास की बात सुनकर नेताजी हक्का-बक्का हो गए। लेकिन पूरी ताक़त से अपने को सामान्य बनाए रहे। अनजान बनते हुए कहा, "आप यह नई बात भोजू की हत्या के प्रयास की क्या कर रहे हैं? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ।"

"मुझे सब मालूम है। अनजान ना बनिए। सतवीर ड्राइवर को भोजू को ट्रक से मारने के लिए कितने पैसे दिए यह भी।"

इतना कहते हुए लेखक ने अपने मोबाइल को ऑन कर सतवीर और नेताजी की बातचीत की रिकॅार्डिंग सुना दी। सारी बातें एकदम साफ़-साफ़ रिकॉर्ड थीं। नेताजी एक बार फिर पसीने से तर हो रहे थे। उनकी हालत का अंदाज़ा करके लेखक ने उन्हें फिर पानी पिलाया। समझाने के लिए उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा- "कोई बड़ा काम ऐसे परेशान होने से नहीं होता, पूरे जोश, होश, हिम्मत के साथ आगे बढ़ने से होता है। मेरी बात मानिए जैसा कह रहा हूँ वैसा करिए, अपना आंदोलन खड़ा करिए। अपना सपना पूरा करिए। भोजू को नहीं उसके क़द को ख़त्म करिए।" 

लेखक की बातों से नेताजी बहुत साफ़-साफ़ समझ गए कि वह उसके चंगुल में ऐसा फँस चुके हैं कि वहाँ से उनका निकलना संभव नहीं है। उसे कोसते हुए सोचने लगे कि "बुलाया था इसे किस लिए और हो क्या गया है? यह न जाने कब से मेरा पीछा कर रहा है? न जाने क्या-क्या जानता है? नहीं सुनता हूँ तो जिस टोन में यह बोल रहा है उसमें साफ़-साफ़ धमकी है कि भोजूवीर की हत्या के प्रयास में यह अंदर करा देगा। यह बात जानकर भोजूवीर भी मेरी जान का जानी दुश्मन बन जाएगा। ये साला लेखक तो जेल में भी मेरी हत्या करा देगा। मेरे बाद क्या होगा मेरे परिवार का? इधर कुआँ, उधर खाई, किधर क़दम बढ़ाऊँ?"

 उनको चुप देखकर लेखक ने फिर टोका। "आजकल इतना सोचने नहीं तुरंत एक्शन लेने का दौर है। भोजू की तरह। सोचने-विचारने में समय लगाना आप जैसे नेताओं के लिए ख़ुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।" 

"मैंने डिसाइड कर लिया है कि मुझे क्या करना है। लेकिन मेरी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है कि मेरे इस एक आंदोलन से आप की महान क्रांति जैसे असंभव से सपने को पूरा करने में क्या मदद मिलेगी।"

लेखक ने बड़ी मुश्किल से अपनी खीज पर नियंत्रण करते हुए कहा- "देखिए मैं बार-बार कह रहा हूँ कि एक अकेले आपके ही आंदोलन से नहीं बल्कि ऐसे तमाम आंदोलन देशभर में होंगे और यह सारी बातें मिलकर ही चुनाव के क़रीब आने तक ऐसा माहौल बिगाड़ेंगे कि जिस एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता दिख रहा है वह भी पिछड़ जाएगी। अस्थिर मज़बूर सरकार अस्थिरता पैदा करेगी। आप क्या समझते हैं कि यह सब इतना आसान है। हम लोगों द्वारा बहुत कुछ देश भर में किया जा रहा है। बरसों-बरस से बराबर किया जा रहा है। हमारे काम का महत्व कितना है इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा लीजिए कि हमें एक नहीं कई देशों से समर्थन, मदद सब मिलती रहती है। कुछ देर पहले आपने ही चीन को हमारा पालनहार कहा ही है। आप क्या समझते हैं यह जो मॉब लिंचिंग होती है, किसानों के उपद्रव होते हैं, चुनाव आते ही बढ़ जाते हैं, क्या यह सब अपने आप ही हो जाता है?

"अपनी रोज़ी-रोटी के लिए मर रही भीड़ के पास इतना समय कहाँ है? यह सब हम ही कराते हैं। हमारे प्रयासों से होता है। दस में से एक घटना ही भीड़ की होती है बाक़ी भाड़े के गुंडों से कराई जाती है। कभी दलितों की पिटाई, हत्या। कभी किसी को मंदिर में जाने से रोकना, कभी कुँए का झगड़ा, कभी शादी का लफड़ा। कभी यूनिवर्सिटी में देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे, आए दिन पाकिस्तान ज़िंदाबाद, पाकिस्तान के झंडे फहराना ऐसी नब्बे परसेंट घटनाएँ हमारे प्रयासों का ही परिणाम होती हैं। कभी आप लोगों के दिमाग़ में यह बात क्यों नहीं आती कि ऐसी घटनाएँ चुनाव के क़रीब आते ही क्यों हर तरफ़ होने लगती हैं?

"यह बातें मैं सिर्फ़ इसलिए बता रहा हूँ जिससे आप हमारी ताक़त, हमारे विस्तार का सटीक अनुमान लगा सकें। अपना कंफ्यूज़न तुरंत दूर कर सकें। बताई इसलिए भी क्योंकि अब आप हमारे आदमी हैं। हमारे सदस्य बन चुके हैं। अपनों से कुछ क्या छुपाना, और क्या डिसाइड करना। इसी मंगल से आप का आंदोलन शुरू हो रहा है। यहाँ एक बड़े मंदिर में भीड़ में धक्का-मुक्की होगी, भगदड़ मचेगी। कुछ भक्त बेचारे मर जाएँगे। आप सिंपैथी में तुरंत वहाँ पहुँचेंगे, प्रशासन, मंदिर की व्यवस्था को एकदम दोषी ठहराएँगे। कहेंगे सरकार मंदिर का अधिग्रहण तो कर लेती है, लेकिन कोई व्यवस्था नहीं करती। जिस कारण आए दिन ऐसी घटनाओं में मासूम भक्त जान गँवाते हैं। इसलिए सरकार भारत के सभी मंदिरों से अपना शिकंजा हटाए। 

"व्यवस्थापक अपनी व्यवस्था ख़ुद कर लेंगे। वैसे भी यह भेदभावपूर्ण है। संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। यह सारी बातें मंगलवार को आप मीडिया के सामने चीख-चीखकर कहेंगे। रही बात मीडिया की कि आप के पास क्यों आएगी? क्योंकि आपके साथ कम से कम दो ढाई सौ लोग होंगे। आप प्रशासन, लोगों की मदद कर रहे होंगे। दूसरे हम ख़ुद मीडिया को इतना मैनेज करेंगे कि आप का व्यू लेने सब पहुँचेंगे। इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया दोनों ही। आप भी पार्टी लाइन के अगेंस्ट बोलकर, अगले दिन से बड़ा आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा करके भोजू की तरह छा जाएँगे।

"आपकी सफलता और सुरक्षा भी इस बात पर निर्भर है कि हमारे आपके बीच हुई यह वार्तालाप कितनी गुप्त बनी रहेगी। मेरी तरफ़ से निश्चिंत रहें। मैं जो कहता हूँ उस पर अंतिम साँस तक अडिग रहने का संकल्प रखता हूँ। आप भी रखिए। आख़िर आप एक बड़े व्यवसायी हैं। भरे-पूरे परिवार के स्वामी हैं।" 

लेखक यह कहते हुए उठे और नेता जी से हाथ मिला कर चले गए। उनकी आख़िरी बातों में साफ़-साफ़ धमकी सुनकर नेताजी बड़े गहरे सहम गए।

उन्हें लेखक की आँखों में भयानक ग़ुस्सा, खून सब कुछ दिख रहा था। वह उसके जाने के बाद भी जहाँ के तहाँ बुत बने बैठे रहे। मंगल को मंदिर में भगदड़ में भक्तों के इधर-उधर पड़े शव, चीख-पुकार, खून, दबे-कुचले बच्चे, सब दृश्य उनकी आँखों के सामने घूम रहे थे। और ख़ुद को वह इस भगदड़ के बाद अफरा-तफरी में इधर-उधर भटकते देख रहे थे। कुछ सँभलने के बाद उन्होंने सोचा कि "जो भी हो यह भगदड़ रुकनी चाहिए। हे भगवान यह राजनीति... 

नेता जी इतना ज़ोर से चीखे कि पत्नी दौड़ी भागी उनके पास पहुँच गई। मगर नेता जी की हालत उनकी कुछ समझ में नहीं आ रही थी। पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोल रहे थे। स्तब्ध से सामने दीवार पर देखे जा रहे थे। मन में एक वाक्य दोहराए जा रहे थे कि "जैसे भी हो लोगों की मौत रुकनी चाहिए। लेकिन कैसे? इस लेखक, नहीं-नहीं नक्सली राजा ने यह ख़ुलासा तो किया ही नहीं कि भगदड़ किस मंदिर में होगी। हे भगवान मैं किस बवाल में पड़ गया। इस भोजू साले के कारण मैं कहाँ से कहाँ फँस गया। अब चाहे जो भी हो भोजू से पहले इस नक्सली से निपटूँगा। साला धमकी देकर गया है। मेरे परिवार पर नज़र डाली है। लोकशाही के ख़ात्मे का सपना देख रहा है। घबड़ा नहीं तुझे सपना देखने लायक़ ही नहीं छोड़ूँगा। अपनी राजनीति की बलि देकर भी तुझे समाप्त करना पड़ा तो अब पीछे नहीं हटूँगा चीनी पिल्ले। तूने भले ही ऐसा फँसाया है कि ना निगलते बन रहा है ना उगलते।"

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आओ थेरियों

मनू मैं अक्सर खुद से पूछती हूं कि सारे तूफ़ान वाया पश्चिम से ही हमारे यहां क्यों आते हैंए कोई तूफ़ान यहीं से क्यों नहीं उठता। सोचने पर पाती हूं कि गुलामी की जंजीरें जरूर सात दशक पहले ही टूट गईंए लेकिन मैं मानती हूं कि मानसिक गुलामी से मुक्ति सच में अब भी बाकी है। यही कारण है कि जब किसी चीज पर विदेशी ठप्पा लग जाता है तभी हम उसे मानते-समझते हैं। उस पर ध्यान देते हैं। ''हैशटैग मी-टू'' का तूफ़ान भी भारत में तब असर दिखा रहा है जब पश्चिम में यह बहुत पहले से ही अपनी चपेट में बड़ों-बड़ों को समेट चुका है। अभी जल्दी ही एक बहुत बड़ा अमरीकी सैन्य अधिकारी इसकी चपेट में आ गया। जब वहां की पहली फाइटर प्लेन पायलट ने एक समिति के सामने अपने यौन शोषण का राज खोल दिया कि शुरुआती दिनों में उस अधिकारी ने बर्बरतापूर्वक उसका शोषण किया था।

अपने यहां की बात करें तो अंग्रेजीदां लोगों या मानसिकता वाले या ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि मैकाले के मानस पुत्रों के बीच भले ही ''हैशटैग मी-टू'' स्टॉर्म कहा जा रहा होए लेकिन सच यह है कि हिंदी जगत या ऐसे कहें कि गैर अंग्रेजीदां जगत में यानी हिन्दुस्तान में तथाकथित स्टॅार्म अभी दरवाजे के आस-पास भी नहीं पहुंचा है। मैं जितना जानती हूं उसी आधार पर कह रही हूं कि इस तथाकथित स्टॉर्म की गैर अंग्रेजीदां जगत में अभी आहट भी नहीं सुनाई दे रही है। इसकी हवाएं अभी तूफ़ानी रूप लेने लायक ऊर्जा ग्रहण ही नहीं कर पाई हैं। मुझे लगता है कि अंग्रेजीदां जगत में भी यह स्टॉर्म क्षणिक समय के लिए ही है।

मनू मौसम वैज्ञानिकों की तरह मैं भी इस स्टॉर्म की हवाओं का रुख पढ़ने की कोशिश बराबर कर रही हूं। मेरा आकलन यही कहता है कि जब हम ''मी-टू'' का भारतीय संस्करण सामने लाएंगे तभी सही मायने में यह अपने देश में प्रचंड तूफ़ान बनेगा। और यह भी साफ कह दूं कि गैर अंग्रेजीदां दुनिया में ही बनेगा। हवाओं का रुख बता रहा है कि जब प्रचंड तूफ़ान बनेगा तो भारत की ''आधी दुनिया'' की दुनिया ही बदल जाएगी। छोटे गांवों तक में ''आधी दुनिया'' से मर्दवादी सोच, व्यवस्थाएं, तौर-तरीके दूर भागेंगे। पूरे समाज में एक ऐसे बदलाव का युग शुरू होगा जिसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति का खोया वह युग वापस आएगा, जब शासन-प्रशासन, अध्ययन-अध्यापन से लेकर कला-संस्कृति, घर के आखिरी कोने तक में ''आधी दुनिया'' का बराबर का वर्चस्व था। 

मनू हवाओं के रुख पर मेरा आकलन यह भी है कि ऐसा प्रचंड तूफ़ान किसी उच्चवर्गीय महिला या उनके साथ जुड़ती-बढ़ती जा रही महिलाओं के प्रयासों से नहीं आएगा। जिनके लिए एक बड़े लेखक ने लिखा है कि, ''ये खाई-अघाई आउटडेटेड महिलाओं का फ्रस्ट्रेशन है, जो बीस-बीस साल बाद आरोप लगाकर एक बार फिर से लाइमलाइट में आने का भोंडा प्रयास कर रही हैं। यह उनका एक भोथरा प्रयास है। जब उनका यौन शोषण हुआ तब क्या पुलिस, न्यायालय, मीडिया नहीं था।''

लेकिन मनू मैं एक महिला होने के नाते इन बातों को खारिज करती हूं। मैं लेखक महोदय से कहना चाहती हूं कि, उच्चवर्गीय जिन भारतीय महिलाओं ने पश्चिम के ''मी-टू'' स्टॉर्म को भारत में खड़ा करने का प्रयास किया है, इनका जब शोषण हुआ था तब यह सब एक स्ट्रगलर थीं। तब यह ना खाई-अघाई की सीमा में थीं। ना तृप्त-अतृप्त की सीमा में थीं। तब यह सिर्फ़ स्ट्रगलर थीं। अपनी-अपनी फ़ील्ड में कॅरियर बनाने के लिए संघर्षरत थीं। जहां उन्हें हर तरफ मर्दवादी सोच वाली भीड़ से सामना करना पड़ रहा था। ए-टू-ज़ेड हर जगह इसी भीड़ का कब्जा था। पैर रखने के लिए भी इन महिलाओं को संघर्ष करना पड़ रहा था। आज भी स्थिति कोई बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। बस बदलाव की एक हल्की-हल्की बयार चल रही है।

आज अगर निष्पक्ष आंखों से देखें तो इन महिलाओं ने मर्दवादी सोच वालों की मुट्ठी में जकड़ी अपनी दुनिया छीन कर अपने पैर जमाए और अपनी मंजिल पाई। इस दृष्टि से यह सभी महान विजेताएं हैं। इनका जितना मान-सम्मान हो उतना ही कम है। मैं तो कहूंगी कि अभी सवा सौ करोड़ के देश में कुछ महिलाओं ने ही चंद बातें ही दुनिया के सामने साझा करके अपने देश में स्टॉर्म पैदा करने का प्रयास किया है। और इतने से ही बड़े-बड़े दिग्गज छिपने के लिए अंधेरा ठिकाना ढूंढ़ रहे हैं, लेकिन उन्हें अपना चेहरा छिपाने लायक एक अंधेरा कोना भी नहीं मिल पा रहा है।

मीडिया के दिग्गजों को भी नहीं। मनू ये आज की दुनिया के वो दिग्गज हैं, जो दुनिया के हर क्षेत्र के लोगों की बखिया उधेड़ते रहते हैं। सबके स्याह-सफेद को उजागर करते हैं, लेकिन खुद हर तरह के दल-दल में धंसे रहते हैं। इनके स्याह कारनामों को दुनिया के सामने उजाले में लाने का साहस कोई नहीं करता। मीडिया का एक अदना सा संवाददाता भी खाकी से लेकर सफेद वर्दीधारी नेताओं पर भी रौब झाड़ ले जाता है। ये लोकत्रांतिक युग की दुनिया के वास्तविक हिटलर हैं। ऐसे में संपादक की हैसियत कितनी बड़ी होती है, वह कितना ताकतवर बन जाता है मनू यह बताने की जरूरत नहीं है। ऐसे ही कई पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक कलम के धनी लेखक संपादक की ताकत का तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता।

ऐसी अकूत ताकत किसी को भी आसानी से लंपट बना सकती है। शक्ति के मद में चूर होकर वह कुछ भी कर सकता है। पिछले दिनों तुमने ऐसे ही एक लंपट के बारे में देखा-सुना होगा मीडिया में। पढ़ा भी होगा। यह उस लंपट की अकूत ताकत ही तो थी कि विदेश राज्य मंत्री बन गया, और भी ताकतवर हो गया। सही मायने में सोने पे सुहागा हुआ। मगर इस ''मी-टू'' ने ऐसे महाशक्तिशाली आदमी को भी तिनके सा उड़ा दिया। दूर देश के दौरे पर से बीच में ही वापस बुला कर इस्तीफा ले लिया गया। क्योंकि शक्तिशाली सरकार इन चंद औरतों के मुंह खोलने से उत्पन्न हुई स्थिति में प्रचंड तूफ़ान की आहट सुन रही है।

जो किसी झोपड़ी से शुरू होने वाला है। जो किसी झोपड़-पट्टी में कहीं गोल-गोल घूम रहा है। जो इतना प्रचंड चक्रवाती तूफ़ान बनने की ऊर्जा स्वयं में समेटे हुए है कि उतनी ऊर्जा आज तक इस पृथ्वी पर आए किसी तूफ़ान में नहीं थी। इन चंद औरतों को खाई-अघाई कह कर उनके काम, साहस प्रभाव को नकारने की साजिश सफल होने वाली नहीं है। ऐसे साजिशकर्ता भी साजिश करने की सजा भुगतने को तैयार रहें। डरें उस दिन से जिस दिन उनके भी स्याह पन्ने कोई महिला दुनिया के सामने पढ़ देगी। तब वह भी खुद को ना तो अपनी लिखी ढेरों किताबों के पीछे छिपा पाएंगे, ना ही जोड़-तोड़ से बनाए अपने किसी किले में।

मनू सच बताऊं जब यह ''हैश-टैग-मीटू'' पश्चिम से चला तो मैं इसके बारे में जानने के लिए कुछ ज़्यादा उत्सुक नहीं थी। सोचा वहां तो रिच मैन पर ऐसे आरोप लगा कर पैसा वसूलने की एक परंपरा सी चली आ रही है। हालांकि यह आरोप कई बार सही भी निकलते आ रहे हैं। ''यह हैश टैग-मीटू'' उसी का नया वर्जन होगा। लेकिन जब इसने जोर पकड़ा तो इसे लेकर मेरी उत्सुकता बढ़ी। मोबाइल पर ही न्यूज पढ़ने-देखने की सुविधा के चलते मैं हर समय लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने की आदी हो गई हूं। ढूंढ़-ढूंढ़ कर मीटू से रिलेटेड खबरें पढ़ने-देखने लगी।

हॉस्पिटल में ड्यूटी हॉवर्स में भी मैं यह करती रहती हूं। नर्सिंग स्टाफ की हेड होने के चलते मुझ पर बहुत सी ज़िम्मेदारियां होती हैं। लेकिन मैं अपना काम जूनियर पर डालकर अपने इस एडिक्शन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा समय निकाल ही लेती हूं। जानती हूं कि यह जूनियर का शोषण है। लेकिन जब-तक यह बात मेरे दिमाग में आई तब-तक मैं इसकी आदी हो चुकी थी। मेरा शोषण मेरे सीनियर करते रहे हैं और यह अब भी चल ही रहा है। यही क्रम नीचे तक चलता चला जा रहा है।

मैं भी जाने-अनजाने इसका हिस्सा बन गई हूं। मगर दिमाग में यह बात आने के बाद मैं इससे मुक्ति के प्रयास में हूं। मैं सिर्फ़ इतने ही प्रयास में नहीं हूं मनू, मैंने जब से तनुश्री और फिर बाद में अन्य महिलाओं का साहस देखा, जिनकी हिम्मत, पाप के खिलाफ उठ खड़े होने के जज्बे के कारण एक पूर्व संपादक, लेखक केंद्रीय मंत्री को रास्ते पर ला खड़ा किया, तब से मेरे मन में भी बवंडर उठा हुआ है। तनुश्री के बाद जिस तरह से विनता, प्रिया सहित तमाम महिलाएं उठ खड़ी हुईं उसके बाद से मैं तुम्हें सच बताऊं मैं एक दिन भी चैन से सो नहीं पाई हूं।

मनू मेरे दिमाग मेंए मन में कुछ झनझनाहट तो तभी हुई थी जब साऊथ इंडियन हीरोइन श्री रेड्डी ने अपने यौन शोषण के खिलाफ सड़क पर टॉपलेस होकर प्रदर्शन किया था। लेकिन देखो तब मैं बेचैन नहीं हुई। यह हमारी गुलाम मानसिकता का कितना बड़ा उदाहरण है कि जब इस पर पश्चिमी टैग हैशटैग मीटू लग गया तब हमारा मन बेचैन हो उठा। यानी मेरा दिमाग मीटू की तरफ गया तो मैं भनभना कर उठ बैठी। सच में मनू उसके बाद से ही मैं ना ठीक से खा पा रही हूं, ना सो पा रही हूं, ना ही ठीक से ड्यूटी दे पा रही हूं।

पहले जहां इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर ही लगी रहती थी। लगता था कि जैसे इसके बिना तो कोई ज़िन्दगी ही नहीं है। लेकिन अब इस आभासी दुनिया में मन नहीं लगता। मेरी नजरों के सामने अब चालीस साल पहले का एक दृश्य बार-बार उपस्थित हो जाता है। वही फूस का छप्पर। डरे सहमे थर-थर कांपते हम पांच छोटे-छोटे बहन-भाई।

गांव के नारकीय दरिंदे प्रधान के हाथ-पैर जोड़-जोड़ कर पैरों की धूल माथे पर लगा-लगा कर बच्चों के सामने इज्जत तार-तार ना करने की भीख मांगती गिड़गिड़ाती मां। और अपनी जिद पर अड़ा वह नारकीय कीड़ा प्रधान। हम बच्चे वह हाहाकारी हृदय-विदारक दृश्य देखने को अभिशप्त थे। प्रधान उसके चार और कमीनों ने इतना अत्याचार किया मां पर कि वह उन हरामियों के जाने के बाद भी बड़ी देर तक बेहोश पड़ी रहीं।

उन कमीनों को शक केवल इतना था कि प्रधानी के चुनाव के समय हमारे मां-बाप ने उसके विरोधी का समर्थन किया था। उन सबके जाने के बाद हम भाई-बहनों ने छप्पर के पिछवाड़े जाकर अपने पिता को खोला। कमीनों ने उनके मुंह में कपड़ा ठूंसकर, हाथ-पैर बांध कर उन्हें घर के पीछे डाल दिया था। हमने मां को ढंका। उनके चेहरे पर पानी की छींटे मार-मार कर उन्हें होश में ले आए। 

सवेरा होने पर पिता मां को लेकर गांव से बारह-चौदह कोस दूर पुलिस थाने जाने के लिए निकले कि दरिंदों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाएं। लेकिन चार-पांच कदम ही बढ़े होंगे कि दो पुलिस वाले साइकिल से आ धमके। गंदी-गंदी गालियां देते हुए पिता को मारने लगे।

गांव के कुछ लोग तमाशाई बनकर तमाशा देखते रहे। हम बच्चे रोते-चीखते चिल्लाते रहे। मां हाथ-पैर जोड़ती,गिड़गिड़ाती रहीं। लेकिन वर्दी वाले गुंडों ने उनके पेट पर ऐसी लात मारी कि पहले से ही घायल मां बेहोश होकर गिर गई। पुलिस वाले खूब मारपीट कर पिता को लेकर चले गए। हम गांव वालों से मदद की भीख मांगते रहे। लेकिन प्रधान के आतंक के चलते कोई आगे नहीं आया।

मां की हालत दो दिन के बाद कुछ संभली। जब उनके होश-ओ-हवास लौटे और पिता के वापस न लौटने की बात हम बच्चों से जानी तो कोई रास्ता ना देख पिता की जान की खातिर फिर उसी प्रधान के दरवाजे पर गईं। रोईं, हाथ-पैर जोड़े। मगर कसाई कुत्ते ने गंदी-गंदी गालियां देकर कहा, ''मैंने तेरे आदमी को बंद कर रखा है क्या? चोरी-चकारी करेगा तो पुलिस छोड़ेगी क्या? जा, वहीं जाकर पता कर।''

मां थाने पहुंची तो पता चला कि पिता को चोरी के आरोप में जेल हो गई है। मां कई दिन दौड़ती-भागती रही। लेकिन कुछ नहीं हुआ। मां, पिता से नहीं मिल पाई। कुछ भी साफ पता नहीं चला कि वो कहां हैं। उल्टे पुलिस वालों की गालियां मिलीं। धमकी मिली कि, ''जा, घर जा के चुपचाप बैठ, नहीं तो तुझे भी वहीं पहुंचा देंगे।'' कुछ भी पता नहीं चला तो निराश होकर मां लौट आईं। घायल मां, हम बच्चे कई दिन तक भूखे-प्यासे तड़पते गांव वालों से मदद मांगते रहे, लेकिन कोई हमारी तरफ देखता भी नहीं था।

हमें देखकर रास्ता बदल देता था। दरवाजे बंद कर लेता था। हार कर एक दिन मां मुंह अंधेरे ही हम-सब बच्चों को लेकर चुपचाप गांव छोड़कर शहर आ गई। हमारे पास तन पर पड़े फटे-पुराने कपड़ों के सिवा सिर्फ़ कुछ बर्तन थे। पिता के एक अंगौछे में थोड़ा सा सत्तू, कुछ चना और बहुत थोड़ा सा गुड़। हम कई दिन भूखे-प्यासे रहे। स्टेशन पर मांग कर खाया। मगर मां ने हिम्मत नहीं हारी।

जल्दी ही एक घर में साफ-सफाई का काम मिल गया। मगर वहां भी मां के साथ-साथ मेरी दो बड़ी बहनों का भी शोषण हुआ। मां वहां से भी हमें लेकर भागी। फिर वह कई बार बच्चों को लेकर इधर-उधर भागती रही। एक दिन एक मंदिर के बाहर हम भूखे-प्यासे खड़े थे। लोगों से प्रसाद लेकर खा रहे थे। उसी से हम अपनी भूख शांत कर रहे थे। तभी एक सज्जन दंपति की नजर हम पर पड़ी। उन्होंने हमसे बातें कीं।

हमारी हालत जानकर अपने यहां शरण दी। उनके बड़े से मकान के अहाते में हमें शरण मिली। हम सब यहां भी बहुत डरे हुए थे कि कहीं यहां भी पहले की तरह शोषण ना हो। डरे-सहमें हम सब वहीं अपनी उम्र के हिसाब से उस व्यवसायी के परिवार के लिए काम करते रहे। हमारी मेहनत से खुश होकर दंपत्ति ने हमारी हर तरह से मदद की, बहनों की शादी करा दी। एक भाई और मैं उस दंपति जिन्हें हम काका-काकी कहते थे, के सहयोग से थोड़ा पढ़े-लिखे। आगे बढ़े। मैं किसी तरह नर्स बन गई।

मनू नर्स बनने तक मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं किस-किस तरह की स्थितियों से गुजरी। जहां मैं नर्सिंग का कोर्स कर रही थी वहां मेरे भोलेपन मेरी विपन्न स्थिति का एक इंस्ट्रक्टर और एक सीनियर स्टूडेंट ने खूब बेजा फायदा उठाया। खूब शोषण किया।

पहले दोनों ने मेरी मदद की तो मैं उनकी एहसानमंद हो गई। उसके बाद एक दिन इंस्ट्रक्टर फिर हफ्ता भर भी ना बीता होगा कि सीनियर ने मेरा शोषण शुरू कर दिया। दोनों महिला होकर भी एक महिला का शोषण करती रहीं। लेकिन मैं, मां अपने भाई की हालत देखकर चाह कर भी विरोध नहीं कर पाई, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानती थी कि विरोध का मतलब है मेरी पढ़ाई बंद।

मैं फिर से भूख, भीख मांगने से बचना चाहती थी, किसी भी हालत में, किसी भी कीमत पर। इंस्ट्रक्टर से तो खैर कुछ महीने बाद ही फुर्सत मिल गई। क्योंकि उसे कोई और अच्छी जॉब मिल गई तो वह छोड़ कर चली गई। लेकिन सीनियर पास आउट होने तक मेरा शोषण करती रही। वह बाद में भी संपर्क रखना चाहती थी लेकिन मैंने दृढ़ता से संपर्क खत्म कर दिया।

मनू यह सब तुम्हें इसलिए बता रही हूं क्योंकि मैं एक बहुत बड़े, बहुत महान काम में तुम्हारी मदद चाहती हूं। तुम्हें भी साथी बनाना चाहती हूं। क्योंकि तुम भी उस पीड़ा से गुजरी हो, जिससे मैं गुजरी हूं। मैं यह काम क्यों कर रही हूं, इसमें तुम्हें क्यों साथ देना चाहिए, इन सब बातों को तुम जान-समझ कर बिना किसी असमंजस के निर्णय ले सको, इसलिए तुम्हें विस्तार से बताना जरूरी है।

मनू एक बात बताऊं कि हम महिलाओं पर अत्याचार कोई आज की बात नहीं है। यह हज़ारों साल से होता आ रहा है। अब तुम सोचोगी कि जब यह हज़ारों साल से होता आ रहा है। इतने सालों में कोई नहीं बंद करा सका। महिलाओं को उनका अधिकार नहीं मिला तो मैं और तुम क्या कर लेंगे। नहीं मनू, नहीं, ऐसा नहीं है। हम औरतों ने जब-जब अपने अधिकारों को समझा, संघर्ष किया तो हमें अपने अधिकार मिले भी। हम पर अत्याचार बंद भी हुए। लेकिन हम जब असावधान हुए तो फिर विपन्न हो गए। इसका उदाहरण तुम ''थेरियों'' को मान सकती हो। वो जब अपने अधिकारों के लिए सतर्क हुईं तो अपनी दुनिया बदल कर रख दी।

वह भी दो हज़ार साल से भी पहले बुद्ध के समय में। तो मनू जब हज़ारों साल पहले यह हो सकता है तो आज क्यों नहीं? आज तो पहले से बहुत आसान है। तो आओ आज हम सब मिलकर अत्याचारी, मर्दवादी सोच से अपनी दुनिया का उद्धार करें। मुक्त कराएं अपनी दुनिया।

जानती हो मनू मैं पुलिस वालों की मार से तड़पते अपने पिता का आखिरी बार देखा चेहरा आज भी भूली नहीं हूं। बहुत सालों बाद जब हम कुछ समझदार हुए, सेल्फ़डिपेंड हुए। हाथों में कुछ पैसे आए तो हम भाई-बहनों ने पिता की खोजबीन फिर शुरू की, थाने से ही। लेकिन वहां से पता चला कि उस समय गांव के इस नाम के किसी व्यक्ति को जेल भेजा ही नहीं गया था। मतलब साफ था कि प्रधान ने पुलिस के माध्यम से अपने पैसों के दम पर मेरे पिता की हत्या करवा दी थी। उन्हें गायब करवा दिया था।

मेरी पीड़ा इतनी ही नहीं है मनू। जब किसी तरह पढ़ाई पूरी कर निकली तो एक कस्बे के छोटे से प्राइवेट हॉस्पिटल में नौकरी मिली। जल्दी ही पता चला कि यहां तो लेडीज स्टॉफ का शोषण एक आम बात है। असल में हॉस्पिटल कुल मिला कर ठीक-ठाक था। मगर उसका संचालक एक झोला छाप डॉक्टर था। जिसके बारे में बाद में पता चला कि वह देह बेचने का भी धंधा वहीं हॉस्पिटल में ही करवाता है। जिन लोगों को वह बतौर कस्टमर लाता था उनके बारे में बताता कि उसे नर्व मसल्स की कमजोरी की बीमारी है। उसे दूर करने के लिए मसाज थेरेपी के लिए कहता। बोलता इसके लिए आयुर्वेदिक इलाज ज़्यादा बेहतर है। फिर टारगेट की गई नर्स से ही मसाज थेरेपी दिलवाता।

कस्टमर और उसकी मिलीभगत की यह साजिश जब-तक नर्स कुछ समझती थी तब-तक वह उनकी साजिश का शिकार होकर उनके चंगुल में फंस चुकी होती थी। नर्स की सैलरी में ही वह कस्टमर को खुश करता और उससे मिला सारा पैसा अपने पास रखता। नई नर्सों को डराने, उन्हें अपने चंगुल में फंसाए रखने के उद्देश्य से वह बड़ी गहरी चाल चलता था। वहां के थाने के दरोगा से कहता कि आपको नई नर्स का इनॉग्रेशन करना है। इससे दरोगा भी खुश कि बिना पैसे खर्च किए सब मिल रहा है। और वह झोला छाप डॉक्टर नर्स को दरोगा की वर्दी के सहारे डराने में सफल हो जाता।

मेरे साथ भी यही हुआ। मैं जब-तक कुछ समझती तब-तक दरोगा मेरा इनॉग्रेशन कर चुका था। मैं डॉक्टर के पास पहुंची कि मेरा रेप हुआ है, मुझे रिपोर्ट लिखानी है। तो वह ड्रामा करते हुए बोला, ''ये तो बड़ी मुश्किल हो गई। जिस थाने में रिपोर्ट लिखानी है ये उसी थाने का दरोगा। यह रिपोर्ट तो लिखेगा नहीं, उल्टा किसी फ़र्जी केस में अन्दर कर देगा, साथ में मुझको भी। इसलिए थोड़ा रुको। मैं तुम्हें पुलिस के बड़े अधिकारी के पास लेकर चलूंगा। तुम्हारी शिकायत पर सख्त कार्रवाई करवाऊंगा ।'' 

फिर यही कहते-कहते उसने कई दिन निकाल दिए। मैं बहुत परेशान थी कि यह तो ऐसे ही पूरा केस खत्म कर देगा। तभी एक दिन वहां की एक स्वीपर ने बताया कि सच क्या है। उसे वहां के हर इनॉग्रेशन की जानकारी रहती थी। मेरी सारी बातें भी उसे पता थीं। उसने कहा कि, ''जो भी थाने पर गया उसे यह उल्टा फंसवा देता है।'' मेरे सामने अचानक ही पिता का तड़पता चेहरा आ गया।

फिर उसी महिला स्वीपर की सलाह पर मैं वहां से चुपचाप भाग निकली। उसी ने एक मिशनरी हॉस्पिटल का पता दिया था, जो वहां से करीब दो सौ किलोमीटर दूर था, वहां गई। उस महिला का आदमी वहां काम करता था। उसे बताया तो उसने मदद की। वहां दैनिक वेतन पर नौकरी मिल गई। काम बहुत था, लेकिन मैं खुश थी। मगर कुछ महीनों बाद ही मैंने वहां के रंग-ढंग में भी वही भांग घुली पाई जो पहली जगह पाई थी। कुछ महीना बीतते-बीतते मुझे तस्वीर साफ दिखने लगी। ज़्यादातर खेल वहां नाइट ड्यूटी पर खेला जाता था।

मेरी नौकरी जिस सीनियर डॉक्टर के हाथों में थी, उसकी दो चीजें बड़ी फेमस थीं। पहली यह कि वह बहुत जेंटलमैन और हेल्पफुल नेचर के हैं। दूसरी पेशेंट को वो बड़े प्यार से देखते हैं। आधी बीमारी तो वह अपनी बातों से ही खत्म कर देते हैं। ज्वाईनिंग के छः महीने बाद मेरी लगातार तीन महीने तक नाइट ड्यूटी लगाई गई। बताया गया कि दो नर्स मेटरनिटी लीव पर चली गई हैं और चार ने अचानक ही नौकरी छोड़ दी है। 

मनू इस मिशनरी हॉस्पिटल में सब कुछ इतनी शांति, इतनी चालाकी से होता था कि, ऊपर से पूरा एटमॉसफ़ियर बहुत ही अच्छा दिखता था। कोई किसी की तरफ उंगली नहीं उठाता था। ऐसे धूर्ततापूर्ण माहौल में मेरी नाइट ड्यूटी को शुरू हुए हफ्ता भी नहीं हुआ था कि, एक दिन उसी जेंटलमैन डॉक्टर और दो नर्सों को बाईचांस मैंने स्टॉफ रूम में रंगे हाथों देख लिया। मैं सॉरी बोलते हुए उल्टे पांव वापस चली आई। जेंटलमैन डॉक्टर रंगा सियार निकला था।

मैं डर गई कि अब क्या करूं ? कहां जाऊं? मैं वहां सीनियर नर्स को बुलाने गई थी। एक पेशेंट की तबीयत बिगड़ रही थी। उसका ध्यान आते ही मैं फिर पलटी कि बुला कर ले आऊं जो होगा देखा जाएगा। किसी की ज़िंदगी बचाने से बढ़कर मेरे लिए और कुछ नहीं है। वापस मैं आधे रास्ते पर पहुंची ही थी कि उन्हीं दो में से एक सीनियर नर्स आती हुई दिखी। मैंने उनके पास पहुंच कर पेशेंट की हालत बताई। क्या-क्या देखा इस बारे में कोई बात ही नहीं की।

उन्होंने जल्दी से आकर पेशेंट को देखा। वार्ड ब्वाय को भेज कर डॉक्टर को बुलवाया। जानती हो मनू तब मैं रंगे सियार को देखकर दंग रह गई। और रंगी-पुती उन दोनों सियारिनों को भी। जो कुछ ही मिनट पहले तक किसी मानसिक रोगी की तरह घृणित स्थितियों में पड़े थे। तीनों सेवा की प्रतिमूर्ति लग रहे थे। पेशेंट को देखा, फॉर्मेलिटी पूरी की और चले गए यह जाने बगैर कि पेशेंट की तकलीफ दूर हुई कि नहीं।

सीनियर नर्स ने सुबह जाते-जाते मुझे शिक्षा दी, ''मेरी प्यारी मित्र, जीवन का आनंद उठाओ। जीसस बहुत दयालु हैं।'' उसकी बातों का मतलब मैं साफ-साफ समझ गई थी। मैं भी ऐसे चुप हो गई जैसे कि मुझे कुछ मालूम ही नहीं है। मनू जल्दी ही मुझे पता चला कि वह डॉक्टर सीनियर होने के बावजूद जब भी उसका मन उनके तथाकथित सिद्धांत जीवन का आनंद उठाने का होता है तो वह अपनी ड्यूटी नाइट में भी लगा लेता है।

मैं जहां उस रंगे सियार, सियारिनों को देखती या उनकी याद आती तो बहुत परेशान हो जाती थी कि, कहीं यह सब साजिश का शिकार बना कर मुझे भी आनंद ना देने लगें। जैसे पिछले हॉस्पिटल में साजिश रच कर झोला छाप डॉक्टर ने दरोगा से इनॉग्रेशन करा दिया था। यह सोच कर मैं वहां से भी निकलने की सोचने लगी। लेकिन तब मुझे हर तरफ सियार-सियारिन ही दिखाई दिए।

मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था कि मैं कहां जाऊं। आखिर जिसका मुझे डर था वही हुआ। कुछ ही समय बीता होगा कि, मैं इन सब के जीवन आनंद के जाल में फंस गई। वह छब्बीस या सत्ताइस दिसंबर की रात थी। कड़ाके की ठंड थी, हर तरफ हड्डी कंपा देने वाली ठंडी हवा थी। कोहरा भी भयानक धुंए की तरह उड़ रहा था। मैं नाइट ड्यूटी पर थी। उस दिन उनके फेंके जाल में फंस गई। मेरा शोषण हो रहा था। वह सब रंगे सियार-सियारिन जीवन का आनंद उठा रहे थे, मैं स्तब्ध थी। उस दिन मैं बहुत रोई कि मेरे जीवन में क्या केवल शोषण ही लिखा है। मेरे ही क्यों, मेरे परिवार के भी। पहले मां का, बड़ी बहनों का, फिर मेरा।

मैं बार-बार वह ताकत, वह साधन ढूंढ़ती मनू, जिससे इस शोषण का प्रतिकार कर सकूं। रोक सकूं। मगर हर तरफ घुप्प अंधेरा मिलता। कोई एक सेकेंड को भी साथ देने वाला नहीं मिलता। आखिर मैंने तब-तक के लिए खुद को परिस्थितियों के हवाले कर दिया जब-तक कि मेरी और मेरे घर की हालत सुदृढ़ नहीं हो जाती। 

मैं सरकारी नौकरी की तलाश में लगी रही और उनके जीवन आनंद के खेल का साधन भी बनी रही। मनू यह मेरी मजबूरी की अति थी कि, सि     र्फ़ वह सियार.सियारिन ही नहीं, उसी की तरह का एक और कमीना तथा तीन कमीनियां भी मेरा शोषण करते रहे। इन सबने मिलकर इतने घने और मजबूत जाल में फंसाया था कि, मैं उफ़ भी नहीं कर पा रही थी।

जो ऐसी स्थितियों से नहीं गुजरी हैं, मनू यह सुनकर उनका कलेजा कांप उठेगा कि महीने में दो-तीन दिन ऐसे भी बीतते थे जब मेरा चौबीस घंटे में ही तीन-तीन बार शोषण होता था। लेकिन अंततः मेरी मेहनत, मेरा धैर्य काम आया। सरकारी हॉस्पिटल में नौकरी मिल गई। लेकिन मनू उससे पहले मिशनरी हॉस्पिटल में तीन साल तक जो यातनाएं, जो अपमान बर्दाश्त किया वह आज भी एकदम ताजा है। ऐसे कि जैसे सब अभी-अभी घट रहा है। अपमान की आग मुझे आज भी उतना ही जला रही है, जितना तब जलाती थी। मनू मेरा दुर्भाग्य मेरे साथ यहीं तक नहीं रहा।

जब सरकारी हॉस्पिटल ज्वाइन किया तो बहुत खुश थी। सोचा कष्ट, पीड़ा, अपमान से भरा मेरा काला समय खत्म हुआ। घनी काली रात के बाद मेरे जीवन में चमकीली सुबह हो गई है। मगर जानती हो यह चमकीली सुबह मात्र दो साल ही रही। हॉस्पिटल का नया निदेशक आया और उसके चंगुल में कई फंस गईं। पता नहीं मुझे क्या हुआ था कि मैं भी भूल कर बैठी।

कितने-कितने तरह के शोषण के बदतरीन अनुभवों से गुजर चुकी थी फिर भी मुझसे यह मूर्खता हुई। एक जूनियर डॉक्टर के साथ मेरे संबंध बन गए और वह शादी की सीमा तक पहुंचे। उसने मुझे बड़े-बड़े सपने दिखाए। जब मैंने सपने सच करने पर जोर दिया तो वह मुकर गया। सब उसका धोखा था।

उसके बिछाए जाल में मैं फंस गई थी। बात हर तरफ फैल गई। उस जूनियर ने निदेशक के साथ मिलकर ऐसी स्थिति पैदा की, कि मैं उसकी भी हवस का शिकार बनती रही। यह सिलसिला दो साल तक चला। जब वह निदेशक सीएमओ हो कर दूसरे शहर चला गया तब मुझे मुक्ति मिली। वैसे ही जैसे पढ़ाई के दौरान इंस्ट्रक्टर से मिली थी। इतिहास ने अपने को दोहराया था। जूनियर डॉक्टर एक दबंग बिल्डर का बेटा था। इन बातों का पूरा खुलासा तब हुआ जब मैं उसके चंगुल में बुरी तरह फंस चुकी थी। विरोध करती तो नौकरी के साथ-साथ जान का खतरा भी था। अंततः जूनियर ने बहुत दिनों तक मेरा शोषण किया।

तुमसे अचानक ही जब महिला हॉस्पिटल में परिचय हुआ तो बड़ा अच्छा लगा। तुम्हारे तेज़-तर्रार व्यवहार से लगा कि, तुम्हारा शोषण तो कोई कर ही नहीं सकता। मगर कुछ ही महीनों के बाद जब तुम्हारे साथ हुई एक घटना को लेकर विवाद इतना हुआ कि हॉस्पिटल के निचले स्टाफ ने हड़ताल कर दी, भले ही दबाव में दो घंटे में ही खत्म हो गई। तब मुझे कुछ जानकारी हुई। मैं तुम्हारे पास पहुंची। तुम मेरा जरा सा अपनत्व पाकर बिलख पड़ी। और अपने शोषण की पूरी बात बताई। मनू तुम्हारी बातें सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई थी।

मैं घबरा गई कि तुम्हारी जैसी तेज़-तर्रार महिला के साथ यह हुआ तो मेरी जैसी कहां बचेंगी। तब मैं यह यकीन कर बैठी थी कि कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में जो भी महिलाएं हैं, उन सब का शोषण होता है। निश्चित ही होता है। एक भी नहीं बचतीं। और पनिश भी वही की जाती हैं, जैसे तुम्हारा ही शोषण हुआ और बतौर पनिशमेंट तुम्हारा ही ट्रांसफर भी कर दिया गया दूर डिस्ट्रिक्ट में। जिससे हम अलग हो गए। संपर्क भी बहुत क्षीण हो गया। लेकिन इस मी-टू हलचल ने मेरे अंदर एक ऐसी ज्वाला प्रज्वलित कर दी है कि, अब मैं चुप नहीं बैठ सकती। मैं चाहती हूं कि यह ज्वाला देश के कोने-कोने में, झोपड़ियों में, छप्पर, फुटपाथों में रहने वाली आखिरी औरत तक पहुंचे।

सब एक साथ दुनिया के सामने आएं और अपने साथ हुए शोषण को बताएं। जिसने उनके शरीर, इज़्ज़त मान-सम्मान को, उनकी आत्मा को कुचला है, उनका नाम उजागर करें। एक अकेली करेगी तो कठिनाई में रहेगी। कोई उसकी बात नहीं सुनेगा। हम जैसी, तुम जैसी, छप्पर में जीने वाली मेरी मां और फुटपाथों पर जीने वाली महिलाओं के पास वो ताक़त नहीं है जो तनुश्री दत्ता, प्रिया, श्री रेड्डी, जैसी सक्षम महिलाओं के साथ है। इन सब ने भी मुंह तब खोला जब यह सक्षम बन गईं। इसी से जब यह बोलीं तो पूरा मीडिया इनके साथ खड़ा हो गया, इनकी जबरदस्त ताकत बन गया।

और तुम इस ताक़त का परिणाम देख ही रही हो कि बड़े.बड़े दिग्गजों को अपने काम से हाथ धोना पड़ रहा है। पद से हाथ धोना पड़ रहा है। अपने परिवार, अपने बच्चों के सामने शर्मिंदा होना पड़ रहा है। मुंह छुपाते नहीं बन रहा है। ऐसे ही जब हम कोने, अंधेरे में पड़ी औरतें, छप्परों से निकल कर, फुटपाथों से निकल कर, एक समूह बनाकर जब शोषकों, रंगे सियारों का असली चेहरा दिखाएंगे दुनिया को, तो हमारे साथ जबरदस्त ताक़त मीडिया की, सोशल मीडिया की जुड़ जाएगी। एक समूह से यह मत समझ लेना कि हम-सब एक जगह इकट्ठा होंगे फिर आगे बढ़ेंगे।

मैं यह जानती समझती हूं कि हम तुम छप्पर में रहने वाली औरतों के लिए यह संभव नहीं है। हम सदियों से इतने शोषित हुए हैं कि मुंह खोलने की बात छोड़ो ऐसी बातें सोचने की भी क्षमता नहीं रह गई है। यह घटना ना होती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया जरा सी बात को भी देश ही नहीं दुनिया में हर तरफ पहुंचा देने की क्षमता ना रखतीं तो हम आज भी यह सोच-समझ नहीं सकते थे। मनू मैंने बहुत सोच-समझ कर एक अचूक प्लान बनाया है, और उसके हिसाब से ही आगे बढ़ रही हूं।

प्लान यह है मनू कि, सभी शोषित लड़कियां, औरतें अपने शोषण की पूरी बात, करने वाले का पूरा विवरण, समय आदि बताते हुए अपने मोबाइल से ही वीडियो मैसेज रिकॉर्ड करके मेरे पास भेज दें। इसमें छोटी सी छोटी झोपड़पट्टी में भी रहने वाली महिलाओं को भी शामिल करना है। इसके लिए हमें करना यह होगा कि, खुद ऐसी महिलाओं के पास जाकर, उन्हें सारी बातें अच्छे से समझा कर उनके शोषण की बात का वीडियो बनाकर लाना होगा।

जानती हो इसके लिए मैं अपनी तीनों बेटियों और दामादों का भी सहयोग ले रही हूं। तुम्हें यह बताते हुए मुझे खुशी हो रही है कि, मेरी तीनों बेटियां भी नौकरी करती हैं। तीनों ही मेरी तरह नर्स हैं। तमाम समस्याओं के चलते मैं बच्चों को कोई ऊंची शिक्षा तो नहीं दिला पाई लेकिन इतना जरूर कर दिया है कि, वह किसी पर डिपेंड नहीं हैं। पैसों के लिए किसी की मोहताज नहीं हैं।

मैं इस मामले में भी अपने को सौभाग्यशाली मानती हूं कि, तीनों दामाद भी बहुत ही ओपन माइंडेड और मॉडर्न विचारों वाले हैं। नौकरी करते हैं। मुझे तीनों बेटियों के लिए लड़का ढूंढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी। उन सब ने नौकरी करते-करते खुद ही अपने मन का वर तलाश लिया और फिर हमने कोर्ट मैरिज करवा कर एक हल्का-फुल्का रिसेप्शन दे दिया था। सभी अपनी दुनिया में खुश रहते हैं।

तुम यह जानकर शायद आश्चर्य करो कि, मैंने मन में ''वी-टू'' मनू हम अपने मूवमेंट का नाम वी-टू ही रखेंगे। क्योंकि मेरा लक्ष्य सबको साथ लेकर चलना है। तुम कुछ और नाम सुझा सकती हो तो बताना। जानती हो ''वी-टू'' विचार आते ही मैंने बहुत सोच-विचार कर सबसे पहले अपने पति से ही बात की। कहा कि मैं ऐसा करना चाहती हूं। आपकी मदद चाहिए और यह मदद सिर्फ़ इतनी ही कि, आप मुझे इसे करने से रोकेंगे नहीं। एक बात बताऊं मेरे साथ जो-जो शोषण हुआ वह सब बच्चों के कुछ बड़ा हो जाने के बाद मैंने एक-एक कर सब कुछ बता दिया था।

इससे मैंने कुछ दिन स्वयं को अजीब सी बदली हुई मनःस्थिति में पाया। परिवार में कुछ दिन तक मैं सभी के चेहरे पर जब वो मेरे सामने होते तो अजीब सी रेखाएं, भाव पाती। तब मैंने सोचा कि यह सब बता कर मैंने गलती तो नहीं कर दी। फिर सोचा कि बोझ लेकर चलने से क्या फायदा, क्या मतलब इसका। मेरे पति हैं, अगर मेरे हर सुख-दुख में मेरे साथ नहीं चल सकते तो ठीक है। अलग-अलग रास्ते पर चल पड़ते हैं। मैंने इस बिंदु पर भी बात की तो पाया कि नहीं मैं गलत सोच रही थी। मेरा पति और बहुत से कूप-मंडूक सोच वाले पतियों जैसा नहीं है। जिनके लिए स्त्री की तथा-कथित पवित्रता ही सब-कुछ होती है। सारी अपेक्षाएं सिर्फ़ पत्नी से ही रखते हैं।

ऐसे खुले विचारों वाले अपने प्यारे पति से जब मैंने, ''वी-टू'' की बात की तो वह बोले, ''बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?'' तो मैंने, ''कहा वह सब भी बेहद ओपन माइंडेड हैं। मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूं कि वह अपनी मां के इस क़दम का साथ देंगे। उन्हें गर्व होगा कि उनकी मां ने ऐसा क़दम उठाया है, जिसमें पूरी नारी दुनिया की सुरक्षा निहित है। उनका मान-सम्मान निहित है। इसके साथ ही मैंने यह भी बताया कि जब बेटियां नर्सिंग का कोर्स कर रही थीं, तभी से मैं उन्हें उन सारी बातों से अवगत कराती आ रही हूं, जिससे उनका सामना हो सकता है। जब उन्होंने नौकरी ज्वाइन की तभी मैंने उन्हें बताया था कि, उन्हें वहां पर किस-किस तरह की समस्याएं फेस करनी पड़ेंगी। उन्हें कैसे उनका सामना करना है।''

इतना सब-कुछ करने के बावजूद मनू जानती हो मेरी दूसरी वाली बेटी शोषण का शिकार होते-होते बची थी। वह ठीक वैसी ही स्थिति में फंसने वाली थी, जिसमें मैं सरकारी हॉस्पिटल में फंस चुकी थी। उसने मुझे कुछ नहीं बताया था। कुछ दिन उसकी उखड़ी-उखड़ी मनोदशा को देखकर मैं अंदर ही अंदर परेशान हुई कि, बात क्या है? अचानक दिमाग में आया कि कहीं यह मेरी जैसी हालत से तो नहीं गुजर रही है। बहुत प्यार से खुलकर बात की तो उसने अपनी समस्या बताई। जिसका मुझे डर था वही होने जा रहा था। अंततः मैंने उसे बचा लिया।

''वी-टू'' के लिए जब पति के साथ बात की तो मैंने बेटी की भी बात बताई। उसके पहले यह बात केवल हमारे और बेटी के बीच ही सीमित थी। यह सुनकर पहले पति आग-बबूला हुए। कहा कि, ''उसी समय क्यों नहीं बताया?'' मैंने कहा, ''अब जो भी है, वह समय तो बीत गया। ''वी-टू'' को यदि आगे बढ़ाएं तो उस आदमी को भी सजा दे सकते हैं। और जिन्होंने मेरे साथ गलत किया उनको भी।'

जानती हो जिस डॉक्टर ने मेरा शोषण किया था, वह बाद में सीएमओ होकर रिटायर हुआ। आजकल वह एक बहुत ही बड़े प्राइवेट संस्थान के एक बहुत बड़े फाइव स्टार हॉस्पिटल का निदेशक बना बैठा है। आज सड़सठ-अड़सठ की उम्र में भी वह बना ठना रहता है। सुना है वहां भी औरतों का शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है।

अपनी लाइजनिंग पावर के बल पर वह वहां के मैनेजमेंट को मेस्मराइज किए हुए है। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि हॉस्पिटल की तरफ से उसे मर्सीडीज़ बेंज जैसी महंगी कार और शैडो भी मिला हुआ है। और दूसरे का भी बताती हूंए जिसने मुझे शादी का झांसा देकर लूटा था, जिसका बाप बिल्डर है। उसने दो नंबर की अकूत कमाई से बहुत बड़ा हॉस्पिटल बना लिया है।

यह सब जब देखती हूं तो पुरानी तस्वीरें मेरे सामने आ जाती हैं। खून खौल उठता है कि, ना जाने कितनी औरतों, लड़कियों की इज्जत लूटने वाले आज यहां तक पहुंच गए हैं। अकूत धन-सम्पत्ति ही नहीं समाज में बड़े मान-सम्मान के साथ रह रहे हैं। क्या इनके कुकर्मों की कोई सजा नहीं है। मनू जानती हो तभी पति ने सलाह दी थी कि, ''एफआईआर कर दो। कोर्ट से सजा दिलाओ।''

मैंने कहा कोई फायदा नहीं। पहले तो न जाने कितने सालों तक कोर्ट के चक्कर काटने पड़ेंगे। पेशी पर पेशी होगी। धक्के खाते भटकना पड़ेगा। इसके बाद भी इन गंदे इंसानों को सजा मिलेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। कोर्ट में अपने आरोप को मैं कैसे साबित करूंगी। यह हो ही नहीं पाएगा।

दूसरे इससे तो उसके असली चेहरे को उसके घर वाले ही जान पाएंगे। यही बड़ी बात होगी। जबकि ''वी-टू'' के जरिए उसको हम पूरी दुनिया में एक्सपोज कर देंगे। वह अपने बीवी-बच्चों, नाती-पोतों सबके सामने जलील होगा। दूसरे वाले के साथ भी यही होगा। मनू पति को कंन्विंस करने में मुझे ज़्यादा वक्त नहीं लगा। उन्होंने ''वी-टू'' को आगे बढ़ाने के लिए ना केवल खुशी-खुशी हां कहा, बल्कि यह भी जोड़ा कि, ''तुम्हारी इस बहादुरी से मैं बहुत खुश हूं। मुझे गर्व है।'' उन्होंने हर तरह से सपोर्ट करने का वादा किया है। फिर हम-दोनों ने अपनी तीनों लड़कियों, दामादों को भी बुला कर बात की। वह सब भी खुशी-खुशी तैयार हो गए।

हम सब ने मिलकर ही यह योजना बनाई कि, सभी की बातें वीडियो में रिकॉर्ड की जाएं, फिर वह ''वी-टू'' नाम से फेसबुक और वेबसाइट बना कर डाला जाए। ट्विटर और व्हाट्सएप पर भी। इन्हें एक ही दिन वायरल किया जाए। हम-सब ने मिलकर अब-तक करीब दो दर्जन महिलाओं के बयान लिए हैं। और इनमें मेरे घर की बाई और तीन अन्य लोगों के बयान भी हैं। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा, सुनकर अचंभे में पड़ जाओगी कि, घरों में काम करने वाली बाईयों का कितना शोषण होता है।

हमने कई झोपड़-पट्टियों, ऑफ़िसों में काम करने वाली महिलाओं से भी जी-तोड़ प्रयास करके इतना कर लिया है कि, उम्मीद करती हूं कि अगले एक महीने में सौ की संख्या पार कर लूंगी। महिलाओं को ऐसे काम के लिए तैयार करना कितना मुश्किल होता होगा, इसका अनुमान तो तुम लगा ही सकती हो। लेकिन ''वी-टू'' का असर, और साथ ही जब मैं अपना, बेटी का और अन्य कई औरतों का वीडियो दिखाती हूं, तब वह बात करने को तैयार हो जाती हैं। फिर कई-कई बार समझाने के बाद अपनी आप-बीती रिकॉर्ड करवाती हैं। आखिर तक साथ देने का वादा करती हैं। रिकॉर्डिंग के लिए हमने एक बढ़िया कैमरा भी खरीदा है।

मनू मैं अपने, हम-सबके इस अभियान से देश के कोने-कोने तक की महिलाओं को हर हाल में जोड़ना चाहती हूं। इसलिए तुमसे रिक्वेस्ट है कि इससे जुड़ो। अपनी ''आधी दुनिया'' की मदद करो। सदियों से इसके साथ हो रहे शोषण को खत्म करने के अभियान का एक हिस्सा बनो। जैसे मैं, मेरा परिवार मिलकर पीड़ित महिलाओं के बयान ले रहे हैं। वैसे ही तुम भी करो। पहले अपना करो। फिर वही दिखा कर तुम अन्य को आसानी से कन्विंस कर लोगी। प्लीज मनू अपनी सारी गंभीरता, अपनी सारी हिम्मत, साहस बटोर कर ''आधी दुनिया'' की निर्णायक लड़ाई की जीत सुनिश्चित करने में मदद करो, इसका महत्वपूर्ण हिस्सा बनो।

क्योंकि ''हैशटैग मी-टू'' रिच वूमेन वर्ल्ड की लड़ाई तक सिमटेगा। यह स्वीकार करने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए कि, ''आधी दुनिया'' की पूरी लड़ाई तो सड़क, फुटपाथों पर जीवन बिताने वाली महिलाओं तक को शोषण से मुक्ति के बाद ही सही मायने में जीती हुई कही जाएगी। ऐसा मौका बार-बार नहीं आएगा। तुम्हें एक और दिलचस्प बात बताऊँ, मेरे हस्बैंड ने कहा कि, ''इसमें शोषित पुरुषों को भी शामिल करो, उनको भी लो। कई पुरुष भी ऐसे हैं, जो वर्क-प्लेस पर कॅरियर बनाने के चक्कर में महिलाओं द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो रहे हैं।''

लेकिन मनू मैं इस लड़ाई में पुरुषों को कतई शामिल नहीं करूंगी। क्योंकि तब यह लड़ाई भटक कर, अर्थहीन हो खत्म हो जाएगी। मनू हमें यह हर हाल में जीतनी है। सोचो मत बस क़दम आगे बढ़ाओ। मुझे कल तक अपना वीडियो मेल कर दो। मेरी प्यारी मनू, मेरा नहीं अपनी ''आधी दुनिया'' का साथ दो। जानती हो मनू हम उस देश की महिलाएं हैं, जो अपने शोषण के खिलाफ़ हज़ारों साल से उठ खड़ी होती आ रही हैं।

पश्चिम का यह ''हैश टैग-मीटू'' अभियान वास्तव में भारत के थेरिगाथा मूवमेंट का पश्चिमी संस्करण है। जब बुद्ध थे तभी बहुत सी महिलाएं जिसमें सेक्स वर्कर तक थीं, वो बौद्ध भिक्षुणी बन गईं। इनमें से तमाम महिलाओं का शोषण हुआ था। इन लोगों अपने शोषण की गाथा लिखी। जिनसे उनके शोषकों का चेहरा समाज में एक्सपोज़ हो गया। लोग शोषण करने से पहले सोचने को विवश हो गए। 

मनू हमारा अभियान अपनी इन्हीं पूर्वजों की अगली कड़ी है। जिसके रास्ते पर चलकर हम कुछ नहीं सभी महिलाओं को यानी ''आधी दुनिया'' को सुरक्षित कर सकेंगे। इसीलिए मनू, ''हैश टैग-मीटू'' नहीं, ''वी-टू''  । आओ हम सब आगे बढ़ें। आज की ''थेरिगाथा'' लिखें।

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बस नमक ज़्यादा हो गया

उसके मां-बाप कभी नहीं चाहते थे कि वह स्कूल-कॉलेज या कहीं भी खेल में हिस्सा ले। लेकिन वह हिस्सा लेती, अच्छा परफॉर्म करके ट्रॉफी भी जीतती । और मां-बाप बधाई, आशीर्वाद देने के बजाय मुंह फुला कर बैठ जाते थे। कॉलेज पहुंची तो यह धमकी भी मिली कि पढ़ना हो तो ही कॉलेज जाओ, खेलना-कूदना हो तो घर पर ही बैठो। लेकिन वह कॉलेज में चुपचाप पढ़ती और खेलती भी रही। धमकी ज़्यादा मिली तो उसने भी मां से कह दिया कि, ''कहो तो घर में रहूं या छोड़ दूं। दुनिया खेल रही है। मेरे खेलने से आख़िर ऐसी कौन सी बात हो जाएगी कि, पहाड़ टूट पड़ेगा। मैं सीरियसली खेल ही रही हूं और बहुत सी लड़कियों की तरह बॉयफ्रेंड की लिस्ट नहीं लंबी कर रही हूं। कॉलेज कट कर उनके साथ मौज-मस्ती तो नहीं कर रही हूं।''

मां को उसकी बातें जबानदराज़ी लगी। उन्होंने अपने को अपमानित महसूस किया और युवा बेटी पर हाथ उठाने से नहीं चूकीं। लेकिन उसने मार खाने के बाद और भी स्पष्ट शब्दों में कह दिया, ''यह पहली और आख़िरी बार कह रही हूं कि, आज के बाद अगर मुझे रोका या मारा गया तो मैं उसी समय हमेशा के लिए घर छोड़ दूंगी। आप या पापा इस कंफ्यूज़न में नहीं रहें कि, मैं मार या गाली से मान जाऊंगी। मैं आपके हर सपने आपके हिसाब से पूरी करने की कोशिश कर रही हूं। लेकिन साथ ही मेरा भी एक सपना है, जिसे मैं पूरा करूंगी, जरूर करूंगी। मैं उसे ही पूरा करने की कोशिश कर रही हूं। इससे आप लोगों की इज़्ज़त बढ़ेगी ही घटेगी नहीं। पैसे भी बरस सकते हैं। मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर रही हूं कि, आप लोगों को कहीं भी नीचा देखना पड़े। इसके बावजूद आप लोगों को मुझसे परेशानी है, आप नहीं मानते हैं तो ठीक है। मुझे लगता है कि, इस घर में रहकर मैं कुछ नहीं कर पाऊंगी। इसलिए मैं इसी समय घर छोड़कर जा रही हूं।''

इतना कहकर उसने अपने कपड़े व जरूरी सामान समेटने शुरू कर दिए। उसके हाव-भाव से मां को यह यकीन हो गया कि इसे यदि नहीं रोका गया तो यह निश्चित ही घर छोड़कर चली जाएगी। दुनिया में नाक कट जाएगी। और इसके हाव-भाव साफ-साफ बता रहे हैं कि, यह रुकेगी तभी जब इसे खेलने से ना रोका जाए। चलो यही सही, रुकेगी तो किसी तरह। खेल रही है तो चलो बर्दाश्त करते हैं। इससे कम से कम नाक तो नहीं कटेगी। समझाऊंगी कि बस कपड़े अपने शरीर के हिसाब से पहना करो। जरूरी नहीं है कि खुले-खुले कपड़े पहनकर ही खेल पाओगी। अब बड़ी हो गई हो यह अच्छा नहीं लगता। वह जितनी जल्दी-जल्दी अपने सामान इकट्ठा कर रही थी, मां उतनी ही तेज़ी से हिसाब-किताब करके बनावटी हेकड़ी दिखाती हुई बोली, ''अच्छा ज़्यादा दिमाग खराब ना कर। चल जा सामान जहां था वहीं रख। जो खेलना-कूदना है, स्कूल में ही खेल लिया करना। मोहल्ले की पार्क में उछल-कूद करने की ज़रूरत नहीं है।'' उसको भी अम्मा की बात और उसके भाव को समझने में देर नहीं लगी। उसने सोचा चलो जब परमिशन मिल गई है तो घर छोड़ने का अब कोई कारण बचा नहीं है।

घर छोड़कर पढ़ाई, खेल के साथ-साथ खाने-पीने रहने का भी इंतजाम करना पड़ेगा। यह सब हो तभी पाएगा जब नौकरी करके पैसा कमाऊंगी। एक साथ यह सब कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसा ना हो कि नौकरी के चक्कर में मेरा जो उद्देश्य है वही पीछे छूट जाए। मेरा सपना पाला छूने से पहले ही दम तोड़ दे। कबड्डी दम या ताक़त का खेल है तो, ज़िंदगी को चलाना भी दम का ही खेल है। और यह दम मिलता है पैसे से। आज के जमाने में पैसा कमाना सबसे ज़्यादा दम का काम है।

यह सोचकर उसने सारा सामान जहां से उठाया था वहीं रख दिया, एक आज्ञाकारी छात्रा की तरह। लेकिन पापा की याद आते ही उसने कहा, ''अम्मा तुमने तो परमिशन दे दी लेकिन पापा ने ना दी तो बात तो वहीं की वहीं रहेगी।'' उसने सोचा था कि अब तो अम्मा असमंजस में पड़ जाएंगी, कहेंगी कि शाम को जब आएंगे तब पूछा जाएगा। लेकिन उसका अनुमान गलत निकला। अम्मा तड़कती हुई बोलीं, ''जब मैंने बोल दिया है तो पापा-पापा क्या लगा रखा है। कह दूंगी कि खेलने के लिए मैंने कहा है।'' अम्मा के रुख से वह समझ गई कि अब उसके लिए कोई दिक़्क़त नहीं है। पापा अगर चाहते भी और अम्मा ना चाहतीं तो यह हो ही नहीं पाता। अम्मा मान गईं तो अब कोई रुकावट आ ही नहीं सकती।

उसका अनुमान सही था। शाम को ऑफ़िस से आने के बाद चाय-नाश्ता रात का खाना-पीना सब हो गया। लेकिन अम्मा ने बात ही नहीं की तो वह बेचैन होने लगी। जब सोने का टाइम हुआ तो उसने सोचा कि, अम्मा को याद दिलाए, कहीं वह भूल तो नहीं गईं। वह याद दिलाने के लिए अम्मा के पास जाने को उठी ही थी कि, तभी उन्होंने बड़े संक्षेप में उसके पापा से इतना ही कहा, ''सुनो ऑरिषा खेलने की जिद कर रही थी तो मैंने कह दिया ठीक है खेल लिया करो, लेकिन मोहल्ले में नहीं। अब यह कल से क्लास के बाद प्रैक्टिस करके आया करेगी। तुम ऑफ़िस से आते समय इसे जाकर देख लिया करना। हो सके तो साथ में लेकर आया करना। टेंपो-शेंपो से आने में बड़ी देर हो जाती है।''

ऑरिषा ने देखा अम्मा ने जल्दी-जल्दी अपनी बात पूरी की और किचन की ओर चली गईं। उनके हाव-भाव से यह कतई नहीं लग रहा था कि उन्हें पापा की किसी प्रतिक्रिया की कोई परवाह है। एक तरह से उन्होंने अपने शब्दों में उन्हें अपना आदेश सुनाया, इस विश्वास के साथ कि उनके आदेश का पालन होना अटल है। ऑरिषा अम्मा से ज़्यादा पापा को देखती रही कि अम्मा के आदेश को वह किस रूप में ले रहे हैं। उनके हाव.भाव से वह आसानी से समझ गई कि पापा ना चाहते हुए भी वह सब करने को तैयार हैं जो अम्मा ने कहा है। साथ ही उसके दिमाग में यह बात भी आई कि पापा के आने से सबसे अच्छा यह होगा कि, कोच आए दिन कोचिंग के नाम पर जो-जो बदतमीजियां किया करता है वह बंद हो जाएंगी। बाकी फ्रेंड्स से भी कहूंगी कि वह भी अपने-अपने पेरेंट्स को बुलाएं। रोज आधे भी आने लगेंगे तो वह एकदम सही हो जाएगा। बेवजह ऐसी-ऐसी जगह टच करता है जहां टच करने का कोचिंग से कोई लेना-देना ही नहीं है। जानबूझकर देर तक रोकता है। आधे घंटे कोचिंग देता है तो दो घंटे बदतमीजी करता है।

टीचर से कहो तो सुनती ही नहीं। उल्टा ही ब्लेम करने लगती हैं, ''शॉर्ट्स  पहन कर कबड्डी खेलोगी तो क्या बिना टच किए ही कोचिंग हो जाएगी।'' गुड-बैड टच को दिमागी फितूर कहती हैं। प्रिंसिपल के पास जाओ तो स्कूल से ही बाहर करने की धमकी कि, ''तुम लोग अपनी बेवकूफियों से कॉलेज बदनाम करती हो।'' कोच की बटरिंग के आगे वह बोल ही नहीं पातीं। 

अगले दिन कॉलेज ग्राऊंड में पापा को देखकर उसे बड़ी खुशी हुई थी। उसका ज़ोश दोगुना हो गया था। उसने कॉलेज की ही दो टीमों के बीच फ्रेंडली मैच में बहुत ही अच्छे-अच्छे मूव किये। चलते समय उसने जानबूझकर पापा का इंट्रोडक्शन कोच से करवाया। जिससे उसे इस बात का एहसास करा सके कि उसके पेरेंट्स उसका पूरा ध्यान रखते हैं। उसके साथ हैं, पूरा समय देते हैं।

रास्ते में उसने पापा से बात करने की कोशिश की। अपनी खुशी व्यक्त करनी चाही, लेकिन वह चुप रहे। उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया। ऑरिषा को दुख हुआ कि, आज के पेरेंट्स स्पोर्ट्स में अपने बच्चों की सक्सेस पर कितना खुश होते हैं। और एक मेरे पेरेंट्स हैं कि, बोलते ही नहीं, दुखी होते हैं। गुस्सा होते हैं। ना चाहते हुए भी खेलने सिर्फ़ इसलिए दे रहे हैं कि, मैं घर छोड़ने लगी। आज प्रोविंस लेविल के टूर्नामेंट के लिए टीम में मेरा सिलेक्शन कर लिया गया। कोच ने खुद बताकर बधाई दी पापा को। कितना जोश से हाथ मिलाते हुए कहा, ''आपकी बेटी बहुत अच्छी प्लेयर है। यह ऐसे ही मेहनत करती रही तो मेरी कोचिंग से यह नेशनल टीम में भी सिलेक्ट हो जाएगी। आप बहुत ही लकी हैं।'' लेकिन पापा ने उनकी बात पर कैसे एक फीकी, जबरदस्ती  की मुस्कान के साथ हाथ मिलाया था।

ऑरिषा ने सोचा घर पर यह बात अम्मा को पापा बताएंगे तो अच्छा होगा। देखते हैं वह खुश होती हैं, बधाई देती हैं, आशीर्वाद देती हैं या फिर पापा के ही पीछे-पीछे चलती हैं। लेकिन उसे घर पर बड़ी निराशा हाथ लगी। पापा ने इस बारे में कोई बात करना तो छोड़ो, वह इस तरह विहैव करते रहे, चाय-नाश्ता, खाना-पीना, टीवी देखने में व्यस्त रहे जैसे कि वह उसे लेने गए ही नहीं थे। वह उनके साथ आई ही नहीं। उन्हें कोच ने कुछ बताया ही नहीं

उसे भी गुस्सा आ गई। उसने सोचा कि अम्मा को बताऊंगी ही नहीं। बताने का क्या फायदा, लेकिन यह भी तो ठीक नहीं होगा। यह सोचकर उसने कोच की, अपने सिलेक्शन की सारी बातें अम्मा को बताईं। लेकिन उन्होंने भी पलट कर एक शब्द नहीं कहा। वह बहुत ही आहत हुई कि यह कैसे मां-बाप हैं। इन्हें अपनी बेटी की किसी भी सक्सेस से कोई खुशी ही नहीं मिलती। लेकिन मैं भी हर हाल में इतना आगे जाऊंगी कि इन्हें खुशी हो। यह हंसे, मुझे आशीर्वाद दें, इसके लिए मुझे आगे जाना है। आगे और आगे सबसे आगे जाना ही है।

ऑरिषा खेलती रही और उसकी पढ़ाई भी चलती ही रही। उसकी कोशिशों से उसके बहुत से फ्रेंड्स के पेरेंट्स या भाई भी लेने आने लगे। इससे कोच की आपत्तिजनक कुचेष्टाओं पर अंकुश लग गया। मगर उसके पापा एक चुप हज़ार चुप ही बने रहे। एक जबरदस्ती की नौकरी करने की तरह उसे लेकर आते-जाते रहे। बातचीत करने के उसके सारे प्रयासों के बावजूद उसके सामने मां-बाप चुप ही रहते। अंततः राष्ट्रीय टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए दिल्ली जाने का समय आ गया।

उसे कुछ पैसों, कुछ और कपड़ों, सामान की जरूरत थी। कहने पर मां ने मौन व्रत धारण किए-किए ही सारी चीजें उसको उपलब्ध करा दीं। टूर्नामेंट में उसकी टीम रनर अप रही। सिल्वर ट्रॉफी, न्यूज़पेपर्स में निकली न्यूज़ की कटिंग्स के साथ वह घर पहुंची। इस विश्वास के साथ कि इस बार अम्मा-पापा दोनों मौन व्रत तोड़ेंगे, मुस्कुराएंगे, बधाई देंगे, लेकिन नहीं। दोनों लोगों का मौन व्रत चालू रहा। वह मायूसी के साथ अपने कमरे में चली गई। उसने सोचा ऐसा कहीं और किसी के साथ होता है क्या? करीब दस घंटे की लंबी यात्रा की थकान के बावजूद वह बहुत देर रात तक सो नहीं सकी।

बस में बैठे-बैठे यात्रा करने के चलते वह कमर में दर्द भी महसूस कर रही थी। मगर किससे कहे अपनी पीड़ा। अम्मा-पापा तो मुंह फुलाए कब का अपने कमरे में सोने चले गए थे। दर्द से ज़्यादा परेशान होने पर उसने अपनी स्पोर्ट्स किट से पेनकिलर स्प्रे निकाल कर स्प्रे किया। तभी उसे याद आया कि यह जर्नी से नहीं बल्कि खेल के समय लगी चोट के कारण है। उपेक्षा के कारण उसने खाना भी थोड़ा बहुत जबरदस्ती ही खाया था। भूख लगी होने के बावजूद उसे पूरा खाने का मन नहीं हुआ। अगली सुबह उसने उन सारी बातों को तिलांजलि दे दी, जिससे उसे मायूसी मिल रही थी, निराशा मिल रही थी। उसने पूरा फ़ोकस अपने सपने, अपने खेल पर कर दिया।

अम्मा-पापा के लिए यह स्पष्ट सोच लिया कि आखिर मां-बाप हैं। एक दिन जब बहुत बड़ी स्टार प्लेयर बन जाऊंगी, जब दुनिया सिर आंखों पर बिठाएगी। जब पैसा चारों ओर से बरसने लगेगा तो इनका मौन व्रत भंग हो जाएगा। अंततः यह खुश होंगे ही। इनकी इस बेरुखी, उपेक्षा को ही अपनी एनर्जी बना लेती हूं। इसी एनर्जी के सहारे मैं आगे बढ़ती रहूंगी। अगले चार साल में वह नेशनल लेवल की स्टार प्लेयर बन गई। तब उसे महसूस हुआ कि उसके मां-बाप का मौन व्रत अब जाकर थोड़ा कमजोर पड़ा है।

मगर उसे इस बात का मलाल बना रहा कि यदि वह गुटबाजी, राजनीति का शिकार ना होती तो अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भी खेलने पहुंच गई होती। ऊंची पहुंच की कमी का परिणाम था कि, जो प्लेयर प्रोविंस लेवल पर भी खेलने के काबिल नहीं थीं वह अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेल आईं। और वह केवल अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, अपने जबरदस्त खेल के कारण राष्ट्रीय टीम में बनी रह सकी बस। यदि उसके पापा भी उसके लिए गलत नहीं फेयर फेवर की कोशिश करते तो शायद वह भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेलती।

कई खिलाड़ियों की तरह उसने जब इस बात को गंभीरता से महसूस किया कि अन्य कई खेलों की तरह यह खेल भी उपेक्षित है, न अपेक्षित पैसा है, न पब्लिसिटी है तो उसने नौकरी करने की ठानी। सोचा इससे कई मौकों पर पैसों की तंगी को महसूस करने से मुक्ति तो मिलेगी। बाकी रहा खेल तो जैसे चल रहा है चलता रहेगा। उसे करीब दो साल की जी-तोड़ कोशिश के बाद स्पोर्ट्स कोटे के चलते पुलिस विभाग में नौकरी मिल भी गई। नौकरी की बात उसने पेरेंट्स से शेयर नहीं की। सोचा कोई फायदा नहीं, क्योंकि उनका मौन व्रत कुछ कमज़ोर ही हुआ है, खत्म नहीं। लेकिन एक बार फिर उससे रहा नहीं गया तो दो दिन बाद उसने उन्हें बता कर आशीर्वाद मांगा, तो वह उसे मिला मगर बड़े ही कमज़ोर शब्दों में। उसने महसूस किया कि नौकरी ने दोनों लोगों का मौन व्रत थोड़ा और कमज़ोर किया है। यह व्रत उसे तब बहुत कमज़ोर लगा जब प्रशिक्षण के लिए जाते समय उसने चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद मांगा। तब मां-बाप दोनों ही लोगों ने करीब सात वर्ष के बाद सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।

सबसे पहले पिताए फिर मां उनके पीछे-पीछे। वह खुशी के आंसू लिए किसी छोटी बच्ची सी पिता के साथ चिपक गई। तब उन्होंने आशीर्वाद देते हुए उसे अपनी बाहों में भरकर कहा, ''खुश रहो बेटा। बेटी नहीं तुम बेटा से बढ़कर मेरा नाम बड़ा कर रही हो। इस घर को यश-कीर्ति की ज्योति से जगमग कर तुम हमारा जीवन सफल बना रही हो। हमें अंधेरे से आख़िर तुमने निकाल ही लिया, नहीं तो हम अंधेरे में, अंधेरा ही लिए समाप्त हो जाते।'' उनकी आंखें और गला दोनों ही भरे हुए थे। और मां भी खुशी के मारे सारे मौन व्रत तोड़ चुकी थी लेकिन अतिशय खुशी के कारण उनके शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे। लग रहा था आंखों से जो आंसू निकल रहे थे, सारे शब्द मानो उसी में घुल कर बहे जा रहे थे।

उसने दोनों को एक साथ बाहों में भर लिया और कहा, ''मैं जो भी कर पाई आप दोनों के आशीर्वाद और सहयोग से ही कर पाई। अगर आप दोनों पैसे वगैरह से लेकर और सारी चीजें उपलब्ध नहीं कराते तो मैं शायद यह सब कर ही नहीं पाती। पापा आज आपको एक सच बता रही हूं कि, अम्मा के कहने पर आप अगर रोज़ मुझे लेने ना पहुंच रहे होते तो, या तो मेरा खेल कॅरियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो चुका होता या फिर मैं कोच के द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार बनती रहती । मेरा कॅरियर इसके बावजूद बर्बाद ही होता।

इतना ही नहीं पापा आप के चलते बाकी लड़कियां भी बच पाईं। मैं सबको आपका एग्जांपल देकर उन पर प्रेशर बनाती थी कि, वह भी अपने पेरेंट्स को जरूर बुलाएं। इस कोशिश के चलते सभी के पेरेंट्स आने लगे। क्योंकि सारी लड़कियां उससे परेशान थीं। जब हम टूर्नामेंट खेलने जाते थे तो वह वहां भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आता था। लेकिन हम सब इतने अलर्ट रहते थे कि, उसकी एक भी नहीं चल पाई। इसलिए सारा क्रेडिट आप दोनों को ही जाता है।''

 उसकी बातों ने मां-बाप को और भी ज़्यादा भावुक कर दिया। उनके आंसू बह चले। पापा इतना ही बोल सके कि, ''हम बातों को बड़ी देर से समझ पाए बेटा। अब तो तुम एसआई बन चुकी हो। उस बदतमीज को सीखचों के पीछे अवश्य पहुंचाना। ऐसे गिरे हुए इंसान को सजा मिलनी ही चाहिए, जो अपने बच्चों के समान बच्चियों के लिए ऐसी गंदी सोच रखता था, कोशिश करता था।''

''मैं ज़रूर कोशिश करूंगी पापा। लेकिन क़ानून की भी अपनी सीमाएं हैं। जब-तक कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाएगा, शिकायत नहीं करेगा तब-तक हम उस पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाएंगे।''

''तो क्या तुम खुद नहीं लिखा सकती।''

''मैं भी लिखा सकती हूं पापा। ट्रेनिंग पूरी करके एक बार जॉब में आ जाऊं पूरी तरह से तब मैं उसे छोडूंगी नहीं।''

ऑरिषा को तब और बड़ा धक्का लगा जब प्रशिक्षण के दौरान भी कोच जैसे कई लोग उसे मिले। लेकिन पहले ही की तरह वह इन सबको भी उनकी सीमा में रखने में कामयाब रही। मगर जब कुएं में ही भांग गहरे घुली हुई है, तो उसे जो पहली तैनाती मिली वहां उसका इमीडिएट बॉस इंस्पेक्टर भी कोच के जैसा ही आदमी मिला।

थाने की हर महिला एम्प्लॉई को वह अपनी रखैल समझता था। सबको उसने कोई ना कोई नाम दे रखा था। ऑरिषा को वह उसके गोरे रंग के कारण चुनौटी कहता था। हर समय लिमिट क्रॉस करने का प्रयास करता था। एक बार फिर से वह कॉलेज और प्रशिक्षण सेंटर की तरह यहां भी सभी लेडीज स्टॉफ की सिक्युरिटी सील्ड बन गई। इंस्पेक्टर उससे दोस्तों की तरह बात करता था। हंसी-मजाक के बहाने कभी-कभी बहुत ही आगे बढ़ने का प्रयास करता था। कहता,  ''तू मेरी चुनौटी, मैं तेरा सुर्ती, दोनों को रगडे़ंगे तो खूब मजा आएगा।'' ऐसे समय में वह यह भूल जाती थी कि वह उसका सीनियर है।

वह बिंदास होकर गाली बकती हुई कहती, ''अबे घर वाली चुनौटी संभाल नहीं तो, कोई दूसरा सुर्ती रगड़ के मजा ले लेगा।'' यह कहकर वह ठहाका लगाकर हंसती ज़रूर। उसके साथ बाकी लोग भी खूब मजा लेते। जल्दी ही दोनों चुनौटी सुर्ती के नाम से चर्चित भी हो गए। असल में ऑरिषा प्रशिक्षण के समय ही गाली-गलौज में पारंगत हो गई थी। उसकी झन्नाटेदार गालियां बड़े-बड़े, गालीबाजों को भी झनझना कर रख देती थीं। मां-बहन की गालियां उसकी तकिया कलाम बन चुकी थीं।

उसने खुद भी ऐसी तमाम गालियां गढ़ी थीं, जो पुरुष वर्ग को तीर सी चुभती थीं। आए दिन इसके चलते उसकी किसी ना किसी से बहस हो जाती थी। जब उसकी संगी-साथी कहतीं, ''जिससे तू शादी करेगी उसके लिए तुझे खाना बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। उसका पेट तेरी गालियों से ही हमेशा भरा रहेगा।'' तो वह हंसकर कहती, ''घबराओ मत, मैं ऐसे से शादी करूंगी जिसे गाली देने की जरूरत ही नहीं रहेगी। उसका पेट मैं देसी हार्मलेस पिज्जा, चोखा-बाटी से ही भरे रहूंगी।''

उसकी  मां ने प्रशिक्षण के समय ही उससे पूछ लिया था कि, ''बेटा तू जैसा कॅरियर चाहती थी वह बना लिया है। शादी की उम्र हो गई है। तू कहे तो तेरे लिए कोई अच्छा सा लड़का देखना शुरू करूं।'' साथ ही मां ने बहुत स्पष्ट पूछा था, ''अगर तुमने कहीं देख लिया है तो वह भी बता दो। मैं उसी से ही कर दूंगी। समय से सारा काम हो जाए तो बहुत अच्छा रहता है।''

उसने कभी सोचा ही नहीं था कि, अम्मा ऐसे साफ-साफ, सीधे-सीधे पूछ लेंगी। इसलिए कुछ देर तो उन्हें देखती ही रह गई। फिर उसने भी अम्मा के ही अंदाज में साफ-साफ कहा, ''अम्मा सच-सच कहूं, ना मैंने कहीं देखा है, ना ही मैं कहीं देखूंगी। क्योंकि मैं मानती हूं कि ऐसे देखा-देखी के बाद होने वाली शादी का कोई चार्म ही नहीं रहता और मैं हर जगह चार्म ढू़ढ़ती हूं। इसलिए तुम ही ढूंढ़ो, जहां कहोगी वहीं करूंगी।''

अम्मा ने उससे थोड़े आश्चर्य के बाद कहा, ''लेकिन बेटा कम से कम अपनी पसंद के बारे में तो बता ही दो। इससे मुझे ढूंढ़नें में बहुत आसानी होगी। सही मायने में वैसा लड़का ढूंढ़ पाऊंगी जैसा तुम चाहती हो। जिसमें तुम्हें तुम्हारी पसंद का चार्म मिल सके।''

 उसने मुस्कुराते हुए बहुत साफ-साफ फिर कहा, ''अम्मा मेरी पसंद-नापसंद सब समझती हो, जानती हो फिर भी कह रही हो तो ठीक है सुनो।''

इसी के साथ उसने चंद शब्दों में अम्मा को अपनी पसंद-नापसंद सब बता दी। जिसे सुनकर वह कई बार हंसी, फिर बोलीं, ''सच बेटा, तू तो बहुत ही स्मार्ट है। मैं तो इतनी एज के बाद भी यह सब सोच ही नहीं पाई। तुम हमारी उम्मीदों से भी बहुत आगे हो बेटा। मैं एड़ी-चोटी का जोर लगा दूंगी। भगवान से प्रार्थना करूंगी कि, तेरे मन का लड़का ढूंढ़नें में मैं जल्दी से जल्दी सफल हो जाऊं।''

सच में जब वह सफल हुईं तब-तक ऑरिषा को नौकरी करते हुए डेढ़ साल ही बीता था। उसके अम्मा-पापा के पैर सातवें आसमान पर थे कि लड़की ने जैसा चाहा था वह बिल्कुल वैसा ही लड़का ढूंढ़नें में सफल रहे। भगवान को कृपा करने के लिए वह दिन भर में सैकड़ों  बार धन्यवाद देते रहे। और तैयारियां करते रहे। शादी से चार दिन पहले ऑरिषा कार्ड लेकर थाने पहुंची कि, लहगर इंस्पेक्टर को भी कार्ड देकर इंवाइट करे। उसे चिढ़ाएगी कि तेरी चुनौटी तो जा रही है। एक दमदार ख़ास सुर्ती के साथ शादी करके। अब तू अपनी सुर्ती के साथ चिल्ला चुनौटी-चुनौटी। लेकिन थाने पहुंचकर उसे निराशा हाथ लगी। इंस्पेक्टर छुट्टी पर था।

उसकी साथी ने उसे बताया कि, ''उसके साले की शादी है, आज शाम वह ससुराल जा रहा है। तैयारियों के चलते आया ही नहीं।'' यह सुनकर उसे खुराफ़ात सूझी। उसने साथी से कहा, ''चल उसको परेशान करते हैं। उसकी चुनौटी को देखते हैं। कार्ड देना ही है।''

 साथी को लेकर वह स्कूटर से ही इंस्पेक्टर के घर पहुंची । वह तैयारियों में उलझा हुआ मिला। उसे देखते ही वह बोला, ''अरे तुम यहां, क्या बात है? सब ठीक तो है ना?''

इंस्पेक्टर की शालीनता देखकर उसने एक बार अपनी साथी को देखा फिर पूरा प्रोटोकॉल मेंटेन करते हुए कहा, ''यस सर। ठीक है। मैं आपको अपनी शादी में आने के लिए इंवाइट करने आई हूं।''

यह कहते हुए उसने कार्ड आगे कर दिया। उसकी बात सुनते ही इंस्पेक्टर ने कहा, ''शादी!'' फिर खुश होते हुए कार्ड लेकर उससे हाथ मिलाया, बधाई दी और कार्ड देखने लगा। 

तभी ऑरिषा ने कहा, ''सर चुनौटी अपने सुर्ती के साथ चार दिन बाद चली जाएगी।'' उसकी बात सुनते ही वह ठहाका लगाकर हंस पड़ा। वह मौका चूकना नहीं चाहती थी। इसलिए तुरंत कहा, ''सर अपनी चुनौटी से मेरा मतलब कि भाभी जी से नहीं मिलवाएंगे क्या?''

यह सुनते ही उसने एक नज़र उस पर डालकर कहा, ''बैठो अभी मिलवाता हूं।''

उसके जाते ही साथी ने उससे कहा, ''यार यह तो लग ही नहीं रहा है कि वही लहगर इंस्पेक्टर है, जो स्टॉफ की किसी भी महिला के साथ लफंगई करने से बाज नहीं आता। कितना जेंटलमैन बना हुआ है।''

तभी इंस्पेक्टर बीवी के साथ आ गया। दोनों ने एक साथ उनके सम्मान में उठकर उन्हें नमस्कार किया। वह भी उन दोनों को बहुत हंसमुख और मिलनसार लगीं।

ऑरिषा ने चाय-नाश्ते की फॉर्मेलिटी के लिए उन्हें यह कहते हुए मना कर दिया कि, ''अभी कई जगह जाना है, देर हो जाएगी। आपको भी तैयारियां करनी हैं, इसलिए चलती हूं।'' गेट पर चलते-चलते उसने कहा, ''चलती हूं सर, चुनौटी की शादी में भाभी जी को लेकर जरूर आइएगा।''

वह हंसते हुए बोला, ''जरूर आऊंगा, लेकिन अकेले ही क्योंकि मिसेज एक हफ्ते के बाद आएंगी। मैं तो दूसरे दिन ही चला आऊंगा।''

 ''थैंक्यू यू सर। यदि परमीशन हो तो एक बात पूछूं।''

 ''पूछो, ऐसी कौन सी बात है।''

 ''सर ऑफ़िस में तो आप, आप नहीं रहते। यहां तो लग ही नहीं रहा कि आप वही हैं जो ऑफ़िस में दिनभर गाली से ही बात, काम सब करते हैं।''

इंस्पेक्टर ने गहरी सांस लेकर कहा, ''देखो यही तो घर और ऑफ़िस का फ़र्क़ है। घर, घर ही बना रहे, इसलिए यह फ़र्क़ रखना मैं जरूरी समझता हूं। और सभी समझदार लोग यही करते हैं। तुम भी जिस तरह ड्यूटी ऑवर्स में विहैव करती हो, क्या तुम्हारा वही विहैवियर घर पर भी रहता है, निश्चित ही नहीं। और तुम तो शादी चार्टर्ड अकाउंटेंट से कर रही हो। तुमने भी यदि यह डिफ़रेंस मेंटेन नहीं रखा तो अपने लिए प्रॉब्लम खड़ी कर लोगी।''

ऑरिषा इस मुद्दे पर उससे यह बहस करना चाहती थी कि, यही डिफ़रेंस जनता के बीच पुलिस विभाग को बदनाम किए हुए है। जो विहैवियर अपने लिए चाहते हैं, जनता के साथ उसका उल्टा करते हैं। लेकिन समय को देखते हुए वह वापस चल दी। मगर यह तय कर लिया कि इस प्वाइंट पर वह इनसे बात तो जरूर करेगी।

रास्ते में उसकी साथी ने उससे कहा, ''बड़ा घाघ है, ऑफ़िस में खासतौर से हम लोगों से बदतमीजी की कोई भी ऐसी हद नहीं होती, जिसे यह पार न करता हो। आए दिन मेरे हिप पर धौल जमाते हुए कहता है,  ''सिक्योरिटी टाइट है।'' तुम थोड़ी ढीली पैंट पहनती हो तो कहता है, ''इसकी सिक्योरिटी कब टाइट होगी?''

साथी की बात सुनकर ऑरिषा ने कहा, ''एक बात बताऊं, जिस दिन इसने मेरे हिप को छू लिया ना, उस दिन इसे सिखचों के पीछे पहुंचा दूंगी। सिक्योरिटी वाकई टाइट कर दूंगी। तुमको भी सख्ती से पेश आना चाहिए।''

''क्या करूं नौकरी करनी है। कब-तक किस-किस से भिड़ूंगी। हम लोग तो बहुत निचली पोस्ट पर हैं। अपने यहां तो आईएएस ऑफ़िसर रूपन देओल बज़ाज और केपीएस गिल जैसे मामले तीसों साल पहले से होते आ रहे हैं। गिल सुप्रीम कोर्ट से ही कुछ सजा पाए थे। रूपन देओल बज़ाज जैसी तेज़तर्रार महिला ऑफ़िसर की तमाम कोशिशों के बाद यह हो पाया था। वह बंद तब भी नहीं हुए थे। किसी आम आदमी का मामला होता तो वह सालों जेल में होता। ऐसे में हम लोग क्या कर पाएंगे?''

''बात निचली और ऊपरी पोस्ट की नहीं है। बात सिर्फ़ इतनी है कि हम अपने अधिकारों, अपने सम्मान को लेकर कितने अवेयर हैं, कितनी जोर से अपोज़ कर सकते हैं बस। मैं सच कहती हूं कि, मेरे साथ हरकत हुई तो मैं उसका इतने एक्स्ट्रीम लेविल पर अपोज़ करूंगी कि दुनिया देखेगी। तुझसे भी कहती हूं कि, तू उसकी बदतमीजियों का अपोज़ कर। मैं तेरे साथ हूं, हिला कर रख दूंगी साले को।''

''ठीक है यार, पहले तुम शादी करके आओ, तब सोचती हूं  इस बारे में। अच्छा एक बात बताओ, तू घर बाहर हर जगह ऐसे ही रहेगी तो सीए हस्बैंड को कैसे हैंडल करेगी।''

''उससे हमारा कोई डिफ़रेंस होगा ही नहीं तुम यह देख लेना। मैंने बहुत सोच-समझ कर सेम प्रोफ़ेशन में शादी नहीं की। इससे हमारे बीच प्रोफ़ेशन को लेकर कोई कंपटीशन नहीं होगा। तुम देखना हम-दोनों एक परफ़ेक्ट आयडल कपल होंगे। अच्छा तुम अब अपनी ड्यूटी देखो। शादी में आना जरूर।''

उसने साथी को थाने पर उतारते हुए कहा और घर आ गई। शादी के चार दिन बचे थे और काम बहुत था, लेकिन ऑरिषा के दिमाग में रूपन देओल बज़ाज, केपीएस गिल और खुद उसको चुनौटी नाम देने वाला बॉस घूम रहा था। वह बार-बार यही सोच रही थी कि, इसे लाइन पर लाऊंगी जरूर।

सादगी से शादी करने के उसके लाख आग्रह के बावजूद उसके मां-बाप बड़े धूम-धाम से शादी कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए थे। एक शानदार गेस्ट हाउस में शानदार सजावट, बारातियों के स्वागत की तैयारियां की थीं, और उसको यह सब बेवजह का तमाशा लग रहा था। होने वाले हस्बैंड से उसकी एंगेजमेंट के बाद से ही बात होती रहती थी। वह भी उसी के मूड का था।

लेकिन उसका मानना था कि, पेरेंट्स को उनके मन की करने देना चाहिए। हमें बीच में रुकावट नहीं बनना चाहिए। उसी ने उसको भी समझाया था कि, अपने विचार, अपनी इच्छा किसी पर हमें थोपनी नहीं चाहिए। जब बारात आई तो ऑरिषा ने देखा कि, आजकल के तमाम दूल्हों की तरह वह कुछ खास सजा-धजा नहीं है। उससे ज़्यादा तो कई बाराती ही सजे हुए हैं।

एक चीज ने उसे बहुत परेशान कर दिया कि बाराती तय संख्या से करीब डेढ़ गुना ज़्यादा आए हुए हैं। वह डरने लगी कि, कहीं खाना-पीना कम ना पड़ जाए। सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त ना हो जाए। जयमाल के बाद से ही उसके कानों में तनाव भरी कुछ बातें पड़ने लगी थीं।

मंडप में शादी की तैयारियां चल रही थीं कि, बवाल एकदम बढ़ गया। तोड़-फोड़, मार-पीट जम-कर हो गई। कई लोग हॉस्पिटल पहुंच गए। शादी रुक गई। दूल्हे के नाराज फादर, रिश्तेदार सबने कह दिया कि, अब यह शादी नहीं होगी। बारात वापस जाने लगी तो, उसके पापा और रिश्तेदारों ने लड़के के फादर, कई रिश्तेदारों को बंधक बना लिया कि, नुकसान की भरपाई करने के बाद ही जाने दिया जाएगा अन्यथा नहीं।

वह और दूल्हा दोनों ही हर संभव कोशिश करते रहे। सारे संकोच को दरकिनार कर मोबाइल से ही अपने अपनों को समझाते रहे। लेकिन दोनों किसी को यह समझाने में सफल नहीं हो पाए कि, जो हो गया उसे भूल कर अब शादी होने दी जाए। बाकी रही बात नुकसान के भरपाई की, तो वह भी बैठ-कर समझ ली जाएगी।

मगर जड़वादियों की तरह दोनों ही पक्ष जड़ बने रहे, अड़े रहे और सवेरा हो गया मगर मामला जहां का तहां बना रहा। इसी बीच किसी के फ़ोन करने पर पुलिस आ गई। इस समय तक यह फाइनल हो गया था कि, यह शादी तो अब किसी भी सूरत में नहीं होगी। बस क्षतिपूर्ति का मामला सेटल होना है। ऑरिषा को पुलिस आने की सूचना मिली तो, वह समझ गई कि, वही सुर्ती ही आया होगा। इस शादी के टूटने पर अब वह ऑफ़िस में उसे और परेशान करेगा।

वह जिस कमरे में थी वहां सामान वगैरह कुछ रिश्तेदार महिलाएं और अम्मा थीं। कई रिश्तेदारों का बराबर आना-जाना लगा हुआ था। सब तनाव और तैश में थे। और वह स्वयं बहुत दुखी और गुस्से में थी, सोच रही थी कि, अब हर जगह उसकी बेइज़्ज़ती होगी। उसके सारे सपने टूट गए।

अपने होने वाले पति के साथ ना जाने कितनी बार फ़ोन पर, कई बार मिलने पर कितनी-कितनी, कैसी-कैसी क्या सारी ही तरह की बातें तो दोनों के बीच होती रही थीं। कब से तो पति-पत्नी जैसे ही दोनों विहैव कर रहे थे। कितने खूबसूरत सपने दोनों ने बुने थे। अब उसे जीवन में ऐसा भला इंसान कहां मिलेगा। उनका भी तो कितना मन टूट रहा होगा। कैसे भूल पाएंगे दोनों एक दूसरे को। कम से कम मेरे दिल से तो अब वह कभी नहीं निकलेंगे। चाहे आगे कभी किसी से भी शादी हो जाए।

अवसर मिला तो इन उजड्डों को मैं छोडूंगी नहीं। मूर्खों ने हम-दोनों के सुनहरे सपनों पर पानी नहीं नमक फेरा है। जो हमें नमक की हांडी की तरह ही गलाता रहेगा। काश जाने से पहले यह किसी तरह मिल लेते तो आखि़री बार ही सही मेरी तरफ से जो गलतियां हुईं, कम से कम उनके लिए सॉरी तो बोल दूं। 

बहुत व्याकुल  होकर उसने फ़ोन उठाया कि, नहीं मिल पा रहे हैं तो कोई बात नहीं। एक बार फ़ोन ही कर लेती हूं। उसने मोबाइल उठाया ही था कि, तभी उन्हीं का फ़ोन आ गया और उसने घनघोर घटाओं में कौंधी बिजली की तेज़ी से कॉल रिसीव कर ली।

हेलो बोलते ही उधर से बड़े स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा, ''ऑरिषा मैं अपनी तुम्हारी शादी की आधी रस्में हो जाने के बाद मूर्खों की मूर्खता के चलते शादी को खत्म करने के पक्ष में नहीं हूं। इसलिए मैं इन-दोनों लोगों से अपने रिश्ते अभी के अभी खत्म करता हूं, और तुम जहां हो, जिस हाल में हो तुरंत वैसी ही हालत में बाहर गेट पर आ जाओ। मैं कार के पास खड़ा हूं। हम आज ही किसी मंदिर में अपनी शादी पूरी कर लेंगे। आज ही अपने पहले से तय शेड्यूल के हिसाब से चल देंगे। तुम मेरी बातों से एग्री हो तो तुरंत आ जाओ, यदि नहीं तो कोई बात नहीं। मुझे बता दो, मैं चलूं तुम्हें भी छोड़ कर।''

ऑरिषा उनकी इन बातों को सुनकर ना सन्न हुई और ना ही घबराई। उसने छूटते ही कहा, ''फोन डिसकनेक्ट नहीं करना, मैं तुरन्त आ रही हूं। मुझे आपके पास पहुंचने में जितना टाइम लगेगा, बस उतना ही वेट करिए।''

वह अपनी बात पूरी होने से पहले ही बाहर के लिए चल चुकी थी। अपने सुर्ख लाल डिजाइनर जोड़े में ही। मगर उसने डिजाइनर चप्पलें नहीं पहनीं। क्योंकि जिस हाल में थी, वह उसी हाल में चल दी। सामने रखी चप्पल पहनने का भी उसके पास समय नहीं था।

परिवार की महिलाएं, जब-तक कुछ समझें, उसे रोकें तब-तक वह उनके पास बाएं तरफ उनकी बाहों में बाहें डाले खड़ी हो गई। कार का दरवाजा खुला हुआ था। वह अंदर बैठने ही वाली थी कि उसकी साथी ने उसे देखकर रुकने का इशारा किया। उसके पीछे-पीछे लहगर इंस्पेक्टर भी चला आ रहा था। उसने आते ही व्यंग्य भरे लहजे में पूछा, ''मामला  क्या है?'' तो ऑरिषा ने बहुत निश्चिंतता के साथ कहा, ''कुछ नहीं सर। खाने में बस नमक ज़्यादा हो गया, और इसी बात पर इतना बवाल हुआ।''

उसने लहगर इंस्पेक्टर से दो टूक साफ-साफ शब्दों में कहा, ''सर मैं अपने पति के साथ शादी की बची हुई रस्में पूरी करने मंदिर जा रही हूं। हम-दोनों का अब इन-दोनों पक्षों से कोई लेना-देना नहीं है। और यहां जो कुछ है उसे आप संभालिए। आप मेरी शादी में आए मगर इस तरह इसके लिए भी मैं आपको धन्यवाद देती हूं। आपसे अपना गिफ्ट मैं हनीमून से लौटकर ले लूंगी और आपको पार्टी भी दूंगी। मुझे जल्दी से जाने की परमिशन दीजिए आशीर्वाद के साथ। देखिए सब इकट्ठा हो रहे हैं, अब मैं यहां एक मिनट भी रुकना नहीं चाहती। प्लीज सर प्लीज मुझे परमिशन दीजिए।''

''ठीक है जाइए आप दोनों। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जाओ चुनौटी। इन सब से अभी बोहनी करता हूं। दुगनी करूंगा। सालों ने नींद हराम की है।''

कहकर वह ठहाका लगाकर हंस पड़ा। अब-तक कई लोग आ चुके थे। समझाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन ऑरिषा ने किसी से आंख तक नहीं मिलाई। पति के साथ गाड़ी में बैठकर तेज़ रफ्तार से निकल गई और लहगर इंस्पेक्टर बोहनी करने में जुट गया था।

                          

                                         =================                                                               


एमी 

मुझे बाइक चलाना बहुत पसंद है। बहुत ज़्यादा। जुनून की हद तक। जब मैं एट स्टैंडर्ड में पहुँची तो स्कूल जाने के लिए फ़ादर ने लेडी-बर्ड साइकिल दी। उन्हें यक़ीन था कि, नई साइकिल पाकर मैं ख़ुश होऊँगी। लेकिन इसके उलट मुझे ग़ुस्सा आया। क्योंकि मैंने बहुत पहले से ही अपनी पसंद बताते हुए कहा था कि, मुझे साइकिल नहीं चाहिए। इसलिए साइकिल देखते ही नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए मैंने उनसे कहा कि, मुझे वह बाइक ले देंगे। लेकिन वह नाराज़ हो गए। मदर भी फ़ादर की तरह ही नाराज़ हुईं कि, "क्या मूर्खता है। तुम अभी बहुत छोटी हो। टेंथ स्टैंडर्ड में जाओगी तब सोचेंगे कि तुम्हें स्कूटी दी जाए या और दो-तीन साल तुम साइकिल से ही स्कूल जाओ।"

मैंने ज़िद की तो डपटते हुए मदर ने कहा, "एमी तुम्हें ज़िद नहीं करनी चाहिए, तुम एक अच्छी बच्ची हो।" मदर की डाँट खाकर मैं चुप ज़रूर हो गई थी, लेकिन बाइक के प्रति मेरा लगाव और बढ़ गया। न्यूटन का थर्ड लॉ यहाँ काम कर रहा था। क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया हो रही थी। समय के साथ यह लगाव बढ़ता रहा। उस समय तक मेरा भाई पढ़ने के लिए दिल्ली चला गया था। वह एडमिशन वग़ैरह के बाद अपनी बाइक भी ले गया था। घर में उसके बाद बस एक स्कूटर ही रह गई थी।

फ़ादर सुबह उसे लेकर ऑफ़िस चले जाते थे। और शाम को हमेशा ही देर से आते। महीने में केवल संडे का ही दिन ऐसा होता था जब वह दिन में ड्रिंक नहीं करते थे। और चर्च जाते थे। हम लोगों को भी साथ ले जाते थे। बाक़ी दिन वह ड्रिंक करके ही आते, डिनर करके फिर और पीते। जिस दिन वह डिनर के बाद कम पीते उस दिन मदर से निश्चित ही झगड़ा करते। बिना किसी बात ही के हंगामा खड़ा करते। मदर के कैरेक्टर पर लांछन लगाते। फिर मदर भी अपना आपा खो बैठती थीं।

मैं जब छोटी थी तब तो डर कर घर के किसी कोने में छिप जाती थी। डर के मारे थर-थर काँपती थी। कई बार बेहोश भी हो जाती थी। उल्टियाँ होने लगती थीं। एक बार मदर मुझे मेरी इस प्रॉब्लम के लिए अपने हॉस्पिटल ले गईं। चेकअप कराने के लिए। वह एक मिशनरी हॉस्पिटल में आज भी नर्स हैं। वहाँ डॉक्टर ने फ़ियर फ़ोबिया बताया। उन्होंने कुछ दवाएँ दीं और एक मनोचिकित्सक से चेकअप कराने के लिए भी कहा। मेरी इस प्रॉब्लम से मदर काफ़ी डर गई थीं।

उन्होंने जब फ़ादर को यह बात बताई तो वह मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, "सॉरी माय चाइल्ड।" बस इसके बाद कुछ नहीं बोले। घर के बाहर चले गए। अगले दिन फिर सब कुछ वही। ड्रिंक, मदर से झगड़ा।

यह सब तब भी होता रहा जब मैं इलेवंथ में पहुँच गई। मुझे फिर नई साइकिल दिये जाने की तैयारी थी। लेकिन मैंने साफ़ मना कर दिया कि मुझे साइकिल नहीं चाहिए। देनी है तो मुझे टू-व्हीलर ही दीजिए। वह भी बाइक, नहीं तो मैं पैदल ही जाऊँगी, और जब ख़ुद जॉब करूँगी तो सबसे पहले बाइक ही ख़रीदूँगी। लेकिन मेरी बात बिलकुल भी नहीं मानी गई। जबकि मैंने इस बीच छिप-छिप कर फ़ादर का स्कूटर चलाना सीख लिया था।

जब वह नशे में धुत्त रहते थे तो मैं चुपके से चाबी निकाल कर पूरी कॉलोनी में ख़ूब चलाती। तब मदर की अक्सर नाइट ड्यूटी ही रहती थी। अब तक फ़ियर फ़ोबिया की मेरी प्रॉब्लम भी ख़त्म हो चुकी थी। मगर पैरेंट्स की लड़ाई नहीं ख़त्म हुई थी। फ़ादर की ड्रिंक करने की आदत और बढ़ गई थी। जल्दी ही मदर ने एक रास्ता निकाला। वह लड़ाई से बचने के लिए चाहतीं कि फ़ादर ड्रिंक इतनी ले लिया करें कि झगड़ा करने के लायक़ ना रहें। नशे में गहरी नींद सो जाएँ। ऐसी स्थिति में वह उन्हें ख़ुद और पिला देतीं। उनका यह प्लान सक्सेस रहा। फ़ादर नशे में धुत्त हो सो जाते थे।

जब मैं बीएससी प्रीवियस में थी तब भी यह सब चलता रहा। फ़ादर हमेशा अपने बीच एक थर्ड पर्सन के होने की बात करते, मदर को गाली देते हुए मुझे और जस्टिन को अपनी संतान मानने से ही मना कर देते। यह सुनकर मुझे बड़ा ग़ुस्सा आता। मैं ख़ुद को अपने कमरे में बंद कर लेती। एक दिन ऐसी स्थिति में मदर ने बहुत ही उग्र रूप धारण कर लिया। वह फ़ादर से हाथापाई पर उतर आईं। उन्होंने उन्हें पूरी ताक़त से धक्का देकर बेड पर गिरा दिया। और चीखती हुईं बोलीं, "कल सुबह मेरे साथ हॉस्पिटल चलो। एमी को भी ले चलो। डीएनए टेस्ट करा लेंगे कि एमी किसकी बेटी है। अगर तुम्हारी बात सही हुई तो मैं तुम्हें, बच्चों को छोड़कर हमेशा के लिए चली जाऊँगी। नहीं तो तुम दोबारा फिर कभी यह बात नहीं करोगे।"

मदर कि इस बात पर फ़ादर और भी ज़्यादा भड़क उठे। वह बेड पर से उठने की कोशिश में फिर उसी पर लुढ़क गए। इससे उनकी खीझ, ग़ुस्सा और बढ़ गया। चीखते हुए मदर को गंदी-गंदी गालियाँ देने लगे। कहा, "तुम तो यही चाहती हो कि मैं तुझे फ़्री कर दूँ और तू उस सूअर के साथ ...छीः, ऐसी गंदी-गलीज़ बातें कहीं कि वह मेरी ज़ुबान पर कभी नहीं आ पातीं। ग़ुस्से में उन्होंने पुलिस में मदर के अगेंस्ट कंप्लेंट करने की बात कही। बोले, "तुमने मुझे मारने की कोशिश की। मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा। वह लड़खड़ाती ज़ुबान में गंदी-गंदी बातें करते जा रहे थे। मैं कमरे में बंद सुनती रही। मदर भी दूसरे कमरे में चली गईं। उन्हें तैयार होना था। नाइट शिफ़्ट में उनकी ड्यूटी थी।

वह तैयार हो ही रही थीं कि पुलिस आ गई। फ़ादर ने हंड्रेड नंबर डायल कर दिया था। मदर और मैं पुलिस देखकर हक्का-बक्का हो गए कि पुलिस क्यों? मदर ने पुलिस ऑफ़िसर से कहा, "कोई बात नहीं हुई है। इन्होंने ड्रिंक कर रखी है। नशे में हैं, ग़लती से रिंग कर दिया होगा। मैं उनकी तरफ़ से माफ़ी माँगती हूँ।" 

लेकिन पुलिस अड़ गई कि, "उन्हें सामने लाइए, वह कह रहे थे कि उन्हें उनकी मिसेज और डॉटर मिलकर मार रही हैं। उनकी जान ख़तरे में है। उन्हें बचाइए। इस लिए उन्हें सामने लाइए। हम बिना हक़ीक़त जाने नहीं जाएँगे। रिंग करने वाले से बात करनी ही है।" 

विवश होकर मदर पुलिस को लेकर बेडरूम में पहुँचीं। फ़ादर तब-तक गहरी नींद में सो रहे थे। खर्राटे कमरे में गूँज रहे थे। पूरा रूम भयानक बदबू से भरा हुआ था। उनके पैंट की ज़िप खुली हुई थी। पैर बेड से नीचे लटके हुए थे। पैंट बुरी तरह भीगी हुई थी। पेशाब करने के बाद भी वह गीले कपड़ों में सो रहे थे।

पुलिस के सामने हम शर्म से गड़े जा रहे थे। उनकी हालत देखकर पुलिस समझ गई कि मेरी मदर सच बोल रही हैं। लेकिन वह बेवजह फोन करने के लिए सख़्त नाराज़ होने लगी। कहने लगी, "दोबारा ऐसा किया तो अच्छा नहीं होगा। बंद कर देंगे।" मदर ने कई बार सॉरी बोलते हुए उन्हें एक हज़ार रुपए देकर शांत किया। मदर उस दिन ऑफ़िस नहीं गईं। फोन कर दिया कि तबीयत बहुत ख़राब है। उनके सीनियर ने इस तरह अचानक ही मना करने पर बहुत डाँटा था। मदर उस दिन बहुत रोईं। मैं भी। हम उस दिन अपनी बहुत इंसल्ट फ़ील कर रहे थे। मैंने भी उस दिन मदर से भावावेश में आकर ऐसी बातें पूछ लीं जो मुझे नहीं पूछनी चाहिए थीं। जिसका मुझे बाद में बहुत पछतावा हुआ।

मैंने उनसे पूछ लिया था कि सच क्या है? फ़ादर आख़िर इतने सालों से बार-बार यह बात क्यों पूछ रहे हैं? क्या उनकी बात सच है? वाक़ई आप के जीवन में कोई और शख़्स है। यदि आप उसके साथ ही ख़ुश हैं तो फ़ादर से डायवोर्स ले कर चली जाइए। रोज़-रोज़ का झगड़ा बंद करिए। मुझे और जस्टिन को भूल जाइए। हम दोनों भाई-बहन अपनी लाइफ़ मैनेज कर लेंगे। आप दोनों जो भी मैटर है उसे एक जैंटल पर्सन की तरह सॉल्व कर लें।

मेरी बात पर मदर शॉक्ड हुईं। बड़ी देर तक मुझे देखती ही रह गईं। फिर आँसुओं से भरी आँखों से ऊपर छत को देखती हुई बोलीं, "ओ जीसस मेरी कैसी परीक्षा ले रहा है तू। तू तो सब देख रहा है। जान रहा है। इस बच्ची को क्षमा कर देना। मैं आपसे बहुत प्रेम करती हूँ। मेरी इस प्रॉब्लम को ख़त्म कर दें। हमारी कितनी इंसल्ट हो रही है, यह आप देख ही रहे हैं।" मदर ने बड़ी देर तक प्रभु जीसस से प्रार्थना की। बार-बार की, कि वह उनकी सारी प्रॉब्लम सॉल्व कर दें। लेकिन ना जाने क्यों मैं ख़ुद को रोक नहीं पा रही थी। कुछ देर बाद मैंने अपना प्रश्न दोबारा पूछ लिया था। इस बार मदर नाराज़ हो गईं।

उस दिन पहली बार मुझ पर पूरी ताक़त से चीखती हुई बोलीं, "शटअप, शटअप एमी, तुम्हें मालूम है कि तुम क्या कह रही हो? तुम भी अपने फ़ादर की तरह मेरे कैरेक्टर पर प्रश्न कर रही हो। मुझे कैरेक्टरलेस कह रही हो। आख़िर तुम क्या चाहती हो?" उस समय मैं उनके ग़ुस्से से डर ज़रूर गई। लेकिन पुलिस, फ़ादर की हालत के कारण तब मन में जो फ़ील कर रही थी, उससे मैं बहुत ग़ुस्से में थी। मैंने ख़ूब बहस की। इस घटना के कुछ ही महीने बाद मेरा बीएससी प्रीवियस का फ़ाइनल एग्ज़ाम ख़त्म हो गया।

जिस दिन एग्ज़ाम ख़त्म हुआ, उस दिन मैं अपनी कई फ़्रेंड्स के साथ पिकनिक पर गई थी। शहर के उस वाटर पार्क में मैं तीसरी बार गई थी। वहाँ पर हम सभी फ़्रेंड्स ने बहुत मस्ती की थी। बहुत देर शाम को घर पहुँची। बहुत थक गई थी। बाहर दिनभर तरह-तरह की बहुत सी चीज़ें खाई थीं। इसलिए डिनर वग़ैरह कुछ नहीं किया।

उस दिन भी मदर की नाइट ड्यूटी थी। वह जल्दी-जल्दी सारे काम पूरे कर रही थीं। उनकी एक गंदी आदत थी बल्कि आज भी है, जिससे मैं और फ़ादर दोनों ही नफ़रत करते थे। वह काम करते समय भुनभुनाती रहती थीं। उस समय भी भुनभुना रही थीं, फ़ादर को कोस रही थीं कि, "हर तरफ़ गंदगी फैलाते रहते हैं, लेकिन सफ़ाई में कहने को भी हाथ नहीं बँटाते। बच्चों को भी अपने जैसा बना दिया है।" जब वह बच्चों को कहतीं तो मुझे बुरा लगता। क्योंकि भाई जब-तक था तब-तक वह भी काम-धाम में हाथ बँटाता रहता था। मैं और वह अधिकांश काम कर डालते थे। फिर भी मदर....। भाई के जाने के बाद मैं और ज़्यादा काम करती थी कि मदर को आराम मिले। लेकिन फिर भी उनका भुनभुनाना पूर्ववत था।

पिकनिक के चक्कर में उस दिन मैं कुछ ज़्यादा काम नहीं कर पाई थी तो उस दिन मदर कुछ ज़्यादा ही भुनभुना रही थीं। मैंने उनसे कह दिया कि, आप को नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं है। आप ऑफ़िस जाइए, मैं काम पूरा कर दूँगी। मेरी यह बात उनको बुरी लगी। मुझे झगड़ालू लड़की कहकर चीखने-चिल्लाने लगीं। मैंने सॉरी बोल दिया। फिर भी वह शांत नहीं हुईं, तभी उनके मोबाइल पर रिंग हुई। इस पर भी वह बहुत नाराज़ हुईं। कई अपशब्द कहते हुए कॉल रिसीव की। उधर से जो भी कहा गया उससे उनके चेहरे का रंग उड़ गया।

वह सिर्फ़ इतना बोलीं, अच्छा मैं तुरंत पहुँच रही हूँ। मैंने पूछा क्या हुआ तो वह इतना ही बोलीं, "तुम्हें भी मेरे साथ चलना है।" उनका ग़ुस्सा उनकी घबराहट देखकर मैं कुछ नहीं बोली, बस उनके साथ चल दी। रास्ते में उन्होंने बताया कि, "फ़ादर का एक्सीडेंट हो गया है। ऑफ़िस से आते समय वह रास्ते में एक खुले मैनहोल के कारण स्कूटर सहित गिर गए। साइड से निकलती एक दूसरी बाइक ने भी उनको हिट किया है, जिससे वह बहुत सीरियस हैं।" आधे घंटे में जब हम हॉस्पिटल पहुँचे तो सब कुछ समाप्त हो चुका था। हेड इंजरी ने फ़ादर की जान ले ली थी। स्कूटर चलाते समय उन्होंने हेलमेट लगाने के बजाय साइड मिरर पर लटका रखा था। हेलमेट लगाया होता तो बच जाते।

हमने जब हॉस्पिटल की चादर हटा कर उन्हें देखा तो उनका चेहरा चोटों से बुरी तरह भरा हुआ था। इस तरह सूजा हुआ था कि उन्हें पहचानना मुश्किल था। पूरा सिर कॉटन की मोटी लेयर और पट्टियों से ढका हुआ था। मदर उनके चेहरे को बड़ी देर तक एकटक देखती रहीं। उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। होंठ सख़्ती से भिंचे हुए लग रहे थे। फ़ादर की हालत देखकर वह दोनों हाथों से मुँह दबाए रोए जा रही थीं। दो मिनट बाद ही वार्ड ब्वाय, नर्स ने आकर हमें हटा दिया। मैं मदर को सँभाले बाहर आ गई। पुलिस ने अपनी कार्रवाई शुरू कर दी। वही फ़ादर को एक्सीडेंट के बाद हॉस्पिटल लेकर पहुँची थी। डेड बॉडी को मोर्चरी में भेज दिया गया। हम घर आ गए।

दिल्ली में भाई और कई रिलेटिव्स को मैंने कॉल कर दी थी। कुछ रिलेटिव रात भर हमारे साथ बने रहे। हमें सांत्वना देते रहे। अगले दिन शाम होने से कुछ पहले ही फ़ादर की बॉडी मिली। मैं चाह रही थी कि फ़ादर को पहले घर लाया जाए। भाई भी यही चाहता था। कुछ रिलेटिव्स भी हमारी बात से एग्री थे। लेकिन मदर नहीं। कुछ रिलेटिव्स भी मदर के साथ थे। अंततः हम हॉस्पिटल से ही उन्हें लेकर सीधे क़ब्रिस्तान गए। वहाँ उन्हें अंतिम विदा देकर घर आ गए।

कुछ दोस्त, दो-तीन रिश्तेदारों को छोड़कर बाक़ी सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गए थे। हम रात भर घर में इधर-उधर बैठते, जागते रहे। मदर अपने कमरे में ही बैठी रहीं। हम जितनी बार उन्हें देखने उनके पास पहुँचते उतनी बार उन्हें एकदम शांत बैठे पाते। वह बेंत की चेयर पर बैठी सामने दीवार पर टँगे प्रभु यीशु मसीह के चित्र को बराबर एकटक देखतीं थीं, तो कभी आँखें बंद कर लेतीं थीं। जैसे भीतर-ही-भीतर रो रही हों। उस वक़्त बीच-बीच में उनका शरीर एकदम से हिल उठता था, जैसे रोते-रोते हिचकी ली हो। हमें आसपास खड़ा देखतीं तो हाथ से इशारा कर बाहर जाने को कह देतीं। पूरी रात ऐसे ही बीत गई।

हमारा अगला एक हफ़्ता ऐसे ही भयानक सन्नाटे में बीता। भाई सहित हम तीन घर में थे। लेकिन लगता जैसे कोई है ही नहीं। इस गहन सन्नाटे को बस एक चीज़ थी जो हर घंटे बाद तोड़ रही थी, वह थी दीवार घड़ी। हर घंटे के बाद टिन्न-टिन्न करती उसकी आवाज़ कमरों में, आँगन में, बरामदे में सुनाई देती थी। मगर पहले यही आवाज़ केवल उसी कमरे में सुनी जा सकती थी जिस कमरे में वह लगी थी। वह घड़ी आज भी उसी कमरे में वहीं लगी है। भाई जस्टिन की छह-सात दिन बाद ही मदर से किसी बात पर बहस हो गई थी। आवाज़ सुनकर मैं उनके कमरे में पहुँची तो जस्टिन को इतना ही कहते सुना कि, "मैं यहाँ नहीं रह सकता। अब मैं दोबारा नहीं लौटूँगा।" मैं बहुत दिन बाद जान पाई कि उस दिन दोनों के बीच किस बात को लेकर बहस हुई थी।

मैंने तब दोनों से बहुत पूछा लेकिन किसी ने कुछ नहीं बताया। मदर ऐसे चुप हो जातीं, ऐसे दूसरी तरफ़ देखने लगतीं जैसे कि मैं किसी और से बात कर रही हूँ। जस्टिन बार-बार पूछने पर बहुत नाराज़ हुआ तो मैंने उससे दोबारा पूछा ही नहीं। वह अगले ही दिन सुबह दिल्ली लौट गया था। फिर उसने काफ़ी समय तक फोन पर भी हम दोनों से बात नहीं की। जाते समय उसने घर में ना खाना खाया, ना चाय-नाश्ता किया। मेरी सारी कोशिश बेकार रही। मदर ने तो ख़ैर कुछ कहा ही नहीं। ऐसी कौन सी बात थी जिसने दोनों के बीच इतनी नफ़रत पैदा कर दी, यह जानने का प्रयास करना मैंने कुछ समय तक बंद कर दिया था। उस दिन जाने के बाद भाई फिर कभी लौट कर घर नहीं आया।

कुछ दिन तो फोन करने पर मुश्किल से हाल-चाल बता देता था, फिर एक दिन मुझसे बड़े क्लियर वर्ड्स में कहा, "हमारी यह आख़िरी बातचीत है।" मैं कुछ कहती उसके पहले ही उसने फोन काट दिया था। मैंने कॉल किया तो मोबाइल स्विच ऑफ़ मिला। उसके एड्रेस पर जितने कोरियर मैंने भेजे वह सब अनडिलीवर होकर लौट आए थे। मैंने मदर से इस बारे में बात करनी चाही, लेकिन वह कुछ बोलती ही नहीं थीं। ज़्यादा कहती तो वह उठकर कर दूसरी जगह चली जातीं। उनके इस व्यवहार के कारण मेरा मन भाई से मिलने के लिए बेचैन हो उठा। क्रिसमस एकदम क़रीब था। मैं चाहती थी कि वह कम से कम क्रिसमस पर तो आ ही जाए। कम से कम त्यौहार पर तो परिवार के सारे लोग मिल कर रहें।

मदर को बोलकर मैं दिल्ली उसके घर पहुँची। तो लैंडलॉर्ड से मालूम हुआ कि भाई ने काफ़ी पहले ही मकान छोड़ दिया है। कहाँ गए कुछ बताया नहीं। मेरे सामने बड़ी मुसीबत आ खड़ी हुई कि अब मैं क्या करूँ। लैंडलॉर्ड ने तभी एक ऐड्रेस बताते हुए कहा कि, "आप उनके ऑफ़िस चली जाइए।" मेरे लिए यह नई जानकारी थी कि भाई नौकरी कर रहा है।

बड़ी मुश्किल से ऑफ़िस पहुँची तो पता चला भाई ऑफ़िस के काम से आउट ऑफ़ स्टेशन है, चार दिन बाद लौटेगा। यह सुनते ही मेरा सिर चकरा गया कि अब क्या करूँ। मैं शहर से अनजान थी। मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि कहाँ रुकूँ। वैसे भी मेरे पास पैसे ज़्यादा नहीं थे। आख़िर मैंने तय किया कि सीधे स्टेशन चलती हूँ, जो भी ट्रेन मिल जाएगी उसी से वापस चल दूँगी। इसके अलावा और कोई रास्ता मेरे लिए नहीं बचा था।

उसके ऑफ़िस में मैंने यह नहीं बताया कि मैं उसकी सिस्टर हूँ। स्टेशन पर मैं ना किसी ट्रेन में रिज़र्वेशन का ठीक से पता कर पाई, ना कुछ खा-पी सकी। अंदर ही अंदर बहुत डर रही थी। आख़िर एक ट्रेन की स्लीपर बोगी में बिना रिज़र्वेशन के ही चढ़ गई। टीटी को पेनॉल्टी देनी पड़ी। संयोग से बोगी में एक बहुत ही सभ्य फ़ैमिली मिल गई थी। उनकी महिलाओं ने मुझे अकेला एवं परेशान देखकर अपने साथ कर लिया था। पूरा परिवार किसी तीर्थ स्थान से लौट रहा था। उन्होंने खाने-पीने के लिए बहुत प्रेशर डाला। लेकिन मैं डर के मारे मना करती रही।

वह लोग मेरा डर समझ गए तो उस परिवार की सबसे बुज़ुर्ग महिला ने मुझे बेटी-बेटी कहकर बड़े प्यार से समझाया। उनकी अनुभवी आँखों ने मेरे चेहरे से पहचान लिया था कि मैं भूखी-प्यासी हूँ। उन्होंने अपनी बातों से मुझे बड़ा इमोशनल कर दिया। फिर मैं मना नहीं कर सकी। उनके साथ पूरा डिनर किया। घर की बनी बहुत ही टेस्टी मिठाई भी खाई। उस महिला ने मिठाई का नाम बालूशाही बताया था। साथ ही यह भी बताया कि यह उनके बड़े बेटे की मिसेज ने बनाया है। वह उसे बहू-बहू कह कर उसकी ख़ूब तारीफ़ कर रही थीं।

उस बुज़ुर्ग महिला ने अपनी बर्थ पर ही मुझे रात भर सोने भी दिया। आधे में वह, आधे में मैं सोई। तभी मुझे अनुभव हुआ कि जब शरीर थका हो, भूखा हो। तो वह जो पसंद नहीं करता वह भी ख़ूब खा लेता है। पथरीली ज़मीन पर भी गहरी नींद सो लेता है। सबसे बड़ी बात कि उस परिवार ने मुझे भीड़ की धक्का-मुक्की से बचाया। सुबह आठ बजे जब लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन से उतरी तो पूरे परिवार ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं उनके परिवार की ही सदस्य हूँ।

मैं ट्रेन से उतर कर उनकी खिड़की के सामने खड़ी तब-तक बात करती रही जब-तक ट्रेन चल नहीं दी। बोगी दूर होती जा रही थी और मैं उन्हें देखती तब-तक हाथ हिलाती रही जब-तक कि वह ओझल नहीं हो गईं। वह सभी प्रयागराज जा रहे थे। मैं थक कर इतना चूर हो गई थी कि मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। प्लेटफ़ॉर्म एक की बेंच पर बैठी मैं कुछ देर तक आराम करती रही। मैं रात भर जब-तक जगी तब-तक जिस तरह भाई की बेरुख़ी के बारे में सोच रही थी, वैसे ही तब भी सोच रही थी कि मदर के साथ ऐसी कौन सी बात हुई थी कि उसने अपने दिल में घर के लिए इतनी नफ़रत भर ली है। इतने दिन से नौकरी कर रहा है यह तक नहीं बताया। मैं बहुत ही परेशान मन के साथ घर आ गई।

मदर नाइट ड्यूटी से लौट कर सो रही थीं। उन्होंने इतनी जल्दी वापस आया देख कर पूछा, "सब ठीक तो है।" मदर को यह आशा थी कि मैं भाई के पास चार-छः दिन रह कर लौटूँगी। उन्होंने जब पूछा तो न जाने क्यों मुझे ग़ुस्सा आ गया। मैंने बिना कुछ छिपाए जो कुछ हुआ सब बता दिया। मैंने सोचा था मदर ग़ुस्सा होंगी। बहुत सी कड़वी बातें बोलेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह कुछ देर मेरे पास चुपचाप बैठी रहीं। फिर अपने रूम में जाकर पुनः सो गईं।

वह नहीं, मैं शॉक्ड कमरे में बैठी रह गई। मैं शॉक्ड इसलिए हुई कि मदर ने यह तक नहीं पूछा कि जब भाई नहीं मिला तो तुम कहाँ रही, कैसे आई। इससे ज़्यादा मैं इस बात से शॉक्ड हुई कि भाई कहाँ है? कैसा है? इस बारे में कुछ पूछा ही नहीं।

मैंने जितना बताया उतना ही सुन लिया। वह भी बेमन से। मैं कंपेयर करने लगी ट्रेन में मिले परिवार से अपने परिवार की, मदद की, बिहेवियर की। कुछ देर को तो मैं अपनी थकान ही भूल गई। मैं इस बात से भी बहुत शॉक्ड हुई कि मदर यह जानकर भी कि मैं कल से ठीक से सोयी नहीं हूँ। लगातार जर्नी से बहुत थकी हूँ। इसके बाद भी उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा कि एमी आराम करो, मैं ब्रेकफ़ास्ट तैयार करके लाती हूँ। कैसी मदर हैं? आख़िर ऐसी कौन सी बात है कि इनका व्यवहार ऐसा हो गया है। इतना बदल गया है। शारीरिक थकान से मैं पस्त हुई जा रही थी। लेकिन मदर के बिहेवियर ने मानसिक थकान इतनी दी कि मैं ज़्यादा देर बैठ नहीं सकी। फ़्रेश होकर सो गई।

मैंने मन में यह भी डिसाइड कर लिया कि अब मैं इनसे बात तभी करूँगी, उतनी ही करूँगी जब यह कुछ पूछेंगी, बात करेंगी। मैं शाम के क़रीब उठी। जब भूख महसूस हुई तो किचेन में गई। मैंने सोचा कि खाने के लिए कुछ बनाना पड़ेगा। लेकिन मदर ने मेरे सोने के बाद जो खाना बनाया था वह मेरे लिए भी रखा था। मैंने राहत महसूस की और उसे ही गरम करके खा लिया। खाते वक़्त मैंने सोचा जब बनाया था तो मुझे खाने के लिए कह भी सकती थीं। जगा सकती थीं। खाना खाकर मैं फिर सो गई। मेरे मन में आया कि देखूँ मदर क्या कर रही हैं, लेकिन फिर सोचा छोड़ो जाने दो, जब बात नहीं कर रही हैं तो क्या जाना उनके पास। रात क़रीब नौ बजे उन्होंने मुझे उठाया कि दरवाजा बंद कर लूँ, वह अपनी नाइट ड्यूटी पर जा रही हैं।

मुझसे बहुत उदास सी आवाज़ में यह भी कहा कि, "खाना किचेन में रखा है, खा लेना।" मन में सोचा कि अन्य नर्सों की तरह यह भी अपनी नाइट ड्यूटी क्यों नहीं कम करा लेतीं। जब वह चली गईं तो मैंने गेट बंद किया और ड्रॉइंग रूम में बैठकर टीवी देखने लगी। मेरे मन में बराबर यह बात उठती रही कि ऐसे माहौल में कैसे पढ़ूँगी। कैसे रहूँगी। भाई का जो नया नंबर ऑफ़िस से मिला था उस पर कॉल किया तो उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि, "मैंने सारे रिलेशन ख़त्म कर दिए हैं। मुझसे काँटेक्ट करने की कोशिश ना करो।"

उसके हद दर्जे के रूखे बिहेवियर से मैं बहुत नाराज़ हो गई। मैंने भी कह दिया कि अब बात तभी करूँगी जब तुम आओगे या कॉल करोगे। मैंने सोचा भाई ने रिश्ता ख़त्म किया है। यह मामूली बात नहीं है। मदर भी उनका नाम नहीं ले रहीं। वजह अब जाननी ही पड़ेगी। ऐसे काम नहीं चलेगा। जिस दिन मदर का मूड सही होगा उस दिन ज़रूर पूछूँगी। उनके सही मूड का इंतज़ार करते-करते महीनों निकल गए लेकिन उन के मूड में कोई चेंज नहीं आया। ऑफ़िस, घर, बस यही रूटीन था।

मैंने देखा कि फ़ादर के देहांत के बाद उन्होंने एक भी डे ड्यूटी नहीं की। यह बात बिल्कुल साफ़ थी कि उन्होंने कह कर अपनी नाइट शिफ़्ट ही करवा रखी थी। दिन में वह ज़्यादा समय घर का काम करती हुई बितातीं और थोड़ा बहुत समय प्रार्थना में। रोज़री लेकर प्रार्थना करतीं। अब महीने में एकाध संडे को ही चर्च जातीं। मुझसे कभी भूल कर भी नहीं कहतीं कि तुम भी साथ चलो। भाई के यहाँ से मेरी वापसी के बाद वह क्रिसमस में भी चर्च नहीं गईं। सर्दी का बहाना करके घर पर ही रहीं।

एक दिन मैंने उन्हें अचानक ही देखा कि वह प्रभु यीशु से प्रार्थना करती हुई क्षमा कर दिए जाने की भीख माँग रही हैं। वह चर्च में कन्फ़ेशन करने के बजाय घर में ही कन्फ़ेशन कर रही थीं। प्रभु यीशु से क्षमा कर देने की कृपा करने के लिए गिड़गिड़ा रही थीं। गिड़गिड़ाते हुए कह रही थीं कि, "मुझसे बहुत बड़ा पाप हुआ है। मैं पापी हूँ। प्रभु तुम तो अपनी शरण में आए बड़े-बड़े पापियों को भी क्षमा कर देते हो, मुझे भी कर दो। उनका यह कन्फ़ेशन मैंने उस दिन संयोगवश ही देख लिया था।

वह मुझे सोया हुआ समझ कर प्रेयर कर रही थीं। उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि वह कुछ ज़्यादा ही तेज़ बोल रही हैं। उनकी आवाज़ मुझ तक पहुँच रही है। बहुत बड़े पाप की बात सुनकर मैं शॉक्ड रह गई। समझ नहीं पा रही थी कि उन्होंने कौन-सा पाप किया है? उस दिन मैं फिर अपने को रोक नहीं सकी।

जब उन्होंने प्रेयर ख़त्म की तो मैं एकदम उनके सामने आ गई। ऐसा मैंने यह सोचकर किया कि इससे वह जान जाएँगी कि मैंने उनकी सारी बातें सुन ली हैं, इसलिए वह कुछ छुपाने का प्रयास ना करें। मुझे अपने सामने देखकर वह चौंकी। उनकी आँखों में नाराज़गी उभर आई। मैंने तुरंत सारी विनम्रता उड़ेलते हुए उनसे माफ़ी माँगी कि मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हुई। मुझे ऐसे समय में आपके पास नहीं आना चाहिए था। अपनी विनम्रता से मैंने उनका ग़ुस्सा एकदम शांत कर दिया। उन्हीं के कमरे में उनको बैठा दिया, बेड पर ही। फिर दो कप कॉफ़ी बनाकर ले आई। उन्हें कॉफ़ी बहुत पसंद है। कप उनके हाथों में पकड़ा कर मैंने फिर माफ़ी माँगी।

जब उन्होंने पहला सिप लिया तो मैंने पूछा मॉम कॉफ़ी कैसी बनी है? उन्होंने जो जवाब दिया वह मैं पहली बार सुन रही थी। क्योंकि वह हमेशा कहती थीं कि, "तुम अच्छी कॉफ़ी नहीं बना सकती। तुम्हें कम से कम कॉफी, चाय, पेस्ट्री, केक बनाना तो आना ही चाहिए।" लेकिन उस दिन उन्होंने कहा कि, "बढ़िया बनी है।" मैं जानती थी कि वह मेरी झूठी प्रशंसा कर रही हैं। लेकिन मैं अनजान बनी रही। मैंने थैंक्यू बोला। कुछ इधर-उधर की बातें तब-तक कीं जब-तक कि कॉफ़ी ख़त्म नहीं हो गई। 

उसके बाद कप किचेन में रख कर मैं वापस उनके पास आ कर बैठ गई। फिर स्टेट फ़ॉरवर्ड बात करने की अपनी आदत के अनुसार ही उनसे पूछा कि जस्टिन से आपका क्या झगड़ा हुआ था, मुझे बताइए। मैं सही बात जानकर जस्टिन से बात करूँगी, उसे समझाऊँगी, मैं कल कॉल करूँगी, मैटर सॉल्व करूँगी, यह कोई तरीक़ा नहीं हुआ कि जस्टिन मामूली सी बात के कारण हमेशा के लिए घर छोड़ दे। अपनी मॉम, सिस्टर को हमेशा के लिए छोड़ दे।

मेरे क्वेश्चन पर मदर चुप्पी साधे रहीं। फिर एक बार वह सामने दीवार पर लगी प्रभु जीसस के कैलेंडर को देखने लगीं। मैंने सोचा यह तो अच्छी बात नहीं है। मदर को बोलना चाहिए कि वह हम सब बच्चों से, अपने बच्चों से, इतनी दूरी बनाकर कैसे रह सकती हैं। मैंने पूरा ज़ोर देकर फिर प्रश्न रिपीट किया। तब वह नाराज़गी भरे स्वर में बोलीं, "प्लीज़ मुझे परेशान नहीं करो। मैं इस टॉपिक पर कोई बात नहीं करना चाहती। तुम लोग बड़े हो गए हो, जो ठीक समझो करो, मैं कहीं भी किसी के बीच में नहीं हूँ। मुझे, और तुम दोनों को भी अपना जीवन अपने हिसाब से जीना चाहिए। प्रभु जीसस ने हमें यह राइट दिया है। हमें किसी के बीच में नहीं आना चाहिए।" मदर ने इसी तरह कई बातें बिना रुके ही कह डालीं। उन्होंने जो बातें, जिस टोन में कहीं उस टोन में उन्होंने पहले कभी घर में बात नहीं की थी। मैं बेहद आश्चर्य में थी। मदर को क्या हो गया है। इतने रफ़टोन में क्यों बात कर रही हैं। हम दोनों भाई-बहन इनकी किसी बातचीत में कब आए हैं। यह नौकरी के अलावा कौन सा काम कर भी रही हैं कि हम इनके बीच में आते हैं।

मैं उनके कठोर व्यवहार से नाराज़ तो तभी से थी जब से वह जस्टिन से लड़ी थीं। जिसके कारण भाई ने हमेशा के लिए घर छोड़ दिया और उन्हें इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं थी। इनका बिहेवियर तो ऐसा हो रहा है जैसे कि यह हम दोनों की मदर हैं ही नहीं। कोई बाहरी हैं।

इन्हें देख कर तो लगता ही नहीं कि अभी जल्दी ही हमारे फ़ादर, उनके हस्बैंड की एक्सीडेंट में डेथ हो गई है। ओह... जीसस कितनी दर्दनाक थी उनकी डेथ। कितनी भयानक चोटें थीं उनके चेहरे, सिर, सारे शरीर पर। क्या फ़ादर की इतनी दर्दनाक मौत का इन पर कोई असर नहीं है। इन्हें दुख नहीं है। मुझे वह दृश्य एकदम आँखों के सामने चलता हुआ सा दिखा। ऐसा लगा जैसे दृश्य मेरे सामने से गुज़रते हुए आगे जा रहा है। जब मैंने हॉस्पिटल में उन्हें ख़ून से लथपथ पट्टियों से भरा देखा था। कितना भयावह हो चुका था उनका चेहरा। यह सब याद आते ही मेरा ग़ुस्सा एकदम बढ़ गया।

मैंने कहा आप कैसी बातें कर रही हैं? आज तक आप ने जस्टिन और मेरे किसी काम में और हम दोनों ने कभी आपके किसी काम में कोई बात कहाँ की है। ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है। फिर आप ऐसी बातें क्यों कर रही हैं। हम लोग आपके लिए अचानक इतने डिस्टर्बिंग एलिमेंट कैसे बन गए, हाँ फ़ादर को लेकर जो बात है उसे आप खुलकर साफ़-साफ़ बताइए। मेरा टोन भी थोड़ा नाराज़गी से भरा था। मैंने पहले कभी भी भाई, पैरेंट्स से इतने ख़राब टोन में बात नहीं की थी। इसलिए मदर को भी शॉक लगा। वह बड़ी देर तक मुझे देखती रहीं। फिर कहा, "तुम्हें मुझसे इतनी बदतमीज़ी के साथ बात करने का हक़ किसने दिया। क्या तुम इतनी बड़ी हो गई हो कि मुझसे क्वेश्चन करो।"

मॉम बहुत नाराज़ हो गईं। लेकिन मैंने भी वह रीज़न जान लेने की ठान ली थी, जिसके कारण वह परिवार से इतना नाराज़ थीं। हमारी उनकी बहस लंबी होती गई। बहुत ही गर्म भी। आख़िर जब मुझे लगा कि मदर मानसिक रूप से सच बताने की स्थिति में आ गई हैं, तो मैंने पूरा प्रेशर देकर कहा, मॉम आप प्रभु जीसस को मानती हैं। उन पर आपका अटूट विश्वास है, मेरा भी है, वह हमारे अच्छे-बुरे सारे कामों को देखते रहते थे, उनसे हम कुछ भी छुपा नहीं सकते हैं। हमारे दुखों का कारण ही यही है कि हम छुपाने का प्रयास करते हैं।

प्रभु यीशु शरण में आए व्यक्ति का दुख दूर करते हैं, जब आप उनसे अपने पाप को माफ़ करने के लिए प्रार्थना कर रही हैं। आप उनके शरण में है, तो फिर परेशान होने की क्या ज़रूरत है। वह सब ठीक करेगा। आप जिस पाप की बात कर रही हैं। जिसके कारण आप इतना परेशान हैं। उसे बताइए ना, आख़िर हमने क्या किया है, कि आप मुझसे, जस्टिन से, फ़ादर से इतना नाराज़ हैं। जस्टिन ने घर से रिलेशन ख़त्म कर दिए हैं। आप बार-बार गॉड से माफ़ी माँग रही हैं। सोचिए, सोचिए कितने दुख की बात है कि डैड की डेथ हो गई है। प्लीज़ बताइए, बताइए क्या बात है? आप बता कर ही प्रॉब्लम सॉल्व कर सकेंगी।

मैं बिल्कुल पीछे पड़ गई। मैंने कन्फ़ेशन की बात भी फिर उठाई। इसके बाद मॉम को लगा कि मैं बहुत कुछ जान चुकी हूँ तो अंततः सच बता दिया। जिसे सुनकर मैंने सोचा जस्टिन ने जो किया सही किया। मुझे भी उसी के रास्ते पर जाना चाहिए। ग़ुस्सा इसलिए भी मेरा और ज़्यादा बढ़ रहा था कि मैं यह भी समझ रही थी कि मदर को अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है।

 फ़ादर की डेथ का एकमात्र कारण वही निकला जिसका आरोप फ़ादर बराबर लगाते थे। और मदर पूरी ढिठाई के साथ झूठ पर झूठ बोलकर उन्हें ही झूठा, शक्की स्वभाव का अनकल्चर्ड आदमी कहकर उनकी इंसल्ट करती थीं। जो सच अब यह स्वीकार करने की हिम्मत कर पाई हैं, यदि यह उसी समय कर लेतीं, प्यार से फ़ादर से माफ़ी माँग लेतीं तो वह निश्चित ही माफ़ कर देते। वह कितने दयालु, कितने लिबरल थे। कितनी बार रिक्वेस्ट करते थे कि प्लीज़ सच बता दो मैं कुछ नहीं कहूँगा। ग़लतियाँ इंसान से हो ही जाती हैं। हम दोनों एक अच्छे कपल की तरह अपने बच्चों के साथ रहेंगे। 

लेकिन मदर ने जो एक बार झूठ को सही कहने की रट लगाई थी तो सच स्वीकार करने से पहले तक लगाती ही रहीं। इनका जो सच है उससे भले ही फ़ादर की यह बात ना सच हो कि जस्टिन और मैं उनके बच्चे नहीं हैं, लेकिन इस बात के सच होने की पूरी संभावना है कि अपने जिस तीसरे चाइल्ड को अबॉर्ट करा दिया था वह फ़ादर का नहीं था। इसीलिए फ़ादर ने ज़िद करके अबॉर्ट कराया था। और मदर की हरकतों के कारण ही परेशान होकर उन्होंने अंधाधुंध शराब पीनी शुरू कर दी थी। एक तरह से वह शराब के ज़रिए ख़ुद को ख़त्म करने पर तुले हुए थे।

बेचारे हम सब को कितना प्यार करते थे, मदर को भी। लेकिन जब से वह हॉस्पिटल में किसी के साथ जुड़ीं तब से सब कुछ बदलता चला गया। इस तरह की बातें छुपी नहीं रहतीं तो फ़ादर से कैसे छिप जातीं। उन तक पहुँच ही गईं। जिसे मदर बार-बार झूठ बताती रहीं। अंततः फ़ादर उनके इस झूठ की बलि चढ़ गए। ऐसी बातें परमाणु विखंडन से भी कहीं तेज़ एक से दो, दो से चार, चार से आठ से भी ज़्यादा तेज़ी से लोगों तक पहुँचती हैं। जस्टिन तक भी पहुँचीं। फ़ादर से तो हम बराबर सुनते ही रहते थे। उनके ना रहने पर आए लोगों में ही वह व्यक्ति भी था जिसकी वाइफ़ मदर के साथ हॉस्पिटल में है। उसकी वाइफ़ उससे सब कुछ बताती थी। इस कपल ने फ़ादर की दर्दनाक मौत पर ग़ुस्से में जस्टिन को साफ़-साफ़ सच बता दिया था।

वह दोनों को पनिश कराना चाहते थे। पता नहीं उसकी मंशा पूरी हुई कि नहीं लेकिन जस्टिन सच को माँ से ही जानना चाहता था। उसे झटका लगा था कि फ़ादर की जिन बातों को वह झूठ समझता था, एक ड्रिंकर का बेतुका अनर्गल प्रलाप समझता था। वास्तव में वही सच था, सच्चा था। मदर पर लगाए गए उनके एक-एक आरोप सही थे। मदर से उसने बहुत ही अग्रेसिव होकर बात की थी। मदर उस कपल से झगड़ने को तैयार हो गई थीं, जिसने जस्टिन को सब कुछ बताया था।

लेकिन जब जस्टिन ने तमाम बातें साफ़-साफ़ कह दी थीं तो मदर के पास बचने का कोई रास्ता नहीं बचा था। तब वह खीझकर आउट ऑफ़ कंट्रोल हो गईं थीं. शॉक्ड इसलिए हुईं थीं कि उनका जो बेटा उनकी ही बातों को सच, सही मानता था वह उसी के सामने कंप्लीटली एक्सपोज़ हो गई थीं। उनका एक-एक सच झूठ निकला था।

जस्टिन लोगों के सामने अपनी इंसल्ट बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। इसलिए मदर से बराबर भिड़ गया था। उन मदर से जो अपने झूठ को भी सच साबित करने के लिए फ़ादर के सामने भी एक स्टेप भी कम रखने को तैयार नहीं होती थीं। तो उसके सामने कैसे कमज़ोर पड़तीं। जस्टिन तो दूसरे हॉस्पिटल में जाने, या नौकरी छोड़ देने, उस आदमी से संबंध ख़त्म करने के लिये कह रहा था तो वह यह कैसे बर्दाश्त कर लेतीं।

जस्टिन भले ही अपनी जगह सही था, लेकिन सच यह भी तो है कि जो संबंध इतने सालों से बने हुए हों वह एक मिनट में, एक दिन में कैसे ख़त्म हो जाएँगे। मदर जस्टिन से इसलिए भी नफ़रत करने लगी थीं, क्योंकि जब फ़ादर के ना रहने पर चौथे दिन वह आदमी दुख प्रकट करने के लिए घर आ गया तो हॉस्पिटल के उस फॉर्मेसिस्ट को जस्टिन ने दरवाज़े से ही बुरी तरह इंसल्ट कर के भगा दिया था।

उस व्यक्ति की इंसल्ट से मदर इस क़दर नाराज़ हुई थीं कि जस्टिन से साफ़ कह दिया कि, "मैं अपनी लाइफ़ अपनी तरह से जीने की हक़दार हूँ। तुम मेरे बेटे हो, तुम्हें मैंने यह अधिकार नहीं दिया कि तुम यह डिसाइड करो कि मैं क्या करूँ, क्या ना करूँ, ओके यंग ब्लड।" जस्टिन भी उखड़ गया था। उसने तब वह बातें भी कहीं जो एक बेटे को माँ से किसी भी हालत में नहीं कहनी चाहिए थीं। मदर ने तब यही कहा था। 

उन्होंने जो बातें बताईं उसे सुनकर मुझे भी लगा था कि जस्टिन को वह बातें नहीं कहनी चाहिए थीं। मदर ने भले ही बड़ी ग़लती की है। फिर सोचा जब इतने दिनों बाद सुनकर, एक लड़की होकर, मदर की बातों से दिमाग़ फट रहा है। ख़ून उबल रहा है तो वह तो लड़का है। एक मर्द है, उससे तो मदर से बहस तब हुई थी जब लोहा बिल्कुल गर्म था। जब फ़ादर के लिए की गई लास्ट प्रेयर की गूँज भी शांत नहीं हुई थी।

मैंने मदर से उस समय बहुत सोच समझकर कहा, मॉम इतना सब कुछ हो चुका है, अब तो डैडी भी नहीं रहे। यह पूरे यक़ीन के साथ पूछ रही हूँ कि आप जो सच होगा वही कहेंगी। हमारे बीच यहाँ प्रभु यीशु भी मौजूद हैं। केवल इतना बता दीजिए कि क्या आप उस इंसान को छोड़ नहीं सकतीं जिसके कारण फ़ादर नहीं रहे। घर में हमेशा उस आदमी के कारण फ़साद होता रहा। तुम्हारा बेटा तुम्हें हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। मैं अपना कहूँ तो अब कितने दिन आपके साथ रह पाऊँगी बता नहीं सकती। मेरी इन बातों का मदर ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुप रहीं। मैंने दो बार रिपीट किया तो भी नहीं बोलीं। फिर ज़्यादा प्रेशर डाला तो बोलीं।

"मैंने बहुत कोशिश की माय चाइल्ड, लेकिन मैं विवश हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि जैसे वह मुझ में ही समाया हुआ है। इसलिए मैं समझती हूँ कि मैं कुछ भी कर लूँ, उससे अलग नहीं हो सकती।" मदर की इस बात ने मेरे ग़ुस्से को और बढ़ाया। जिससे मैंने उनसे वह प्रश्न पूछ लिया जो निश्चित ही उनके लिए जीवन का सबसे कड़वा प्रश्न था, सबसे कठिन भी, जिसका जवाब सिर्फ़ उन जैसी विकट हिम्मतवाली या एक्सट्रीम बोल्ड लेडी ही दे सकती है। ऐसी लेडी जिसके लिए अपने सुख से बढ़कर और कुछ नहीं है। हस्बैंड भी नहीं, बच्चे भी नहीं। उनकी बातों से मैं ख़ुद को इमोशनली बहुत हर्ट फ़ील कर रही थी, तो मुझे कड़वा प्रश्न पूछने में कोई प्रॉब्लम नहीं हुई थी।

मैंने विदाउट हेज़िटेशन पूछ लिया, मॉम जब उस आदमी से तुम्हारे इतने सालों से रिलेशन हैं तो एक बात मैं प्रभु यीशु के सामने इस यक़ीन के साथ पूछ रही हूँ कि जैसे अभी तक आप इतनी बोल्डनेस के साथ जीसस के सामने सच बोल रही हैं, वैसे ही सच ही बताएँगी। मेरी इस बात पर वह मेरी तरफ़ देखती हुई बेहद शिकायती लहजे में बोलीं, "अब बाक़ी ही क्या बचा है जो छुपाऊँगी। सब पीछे पड़ जाएँ तो कुछ छुपता नहीं है, जो पूछना है पूछो।" उनकी बातों को मैंने कड़वे घूँट की तरह पिया और कहा, बहुत सी भले ही ना हों लेकिन एक बात है जिसे आप चाहेंगी तभी पता चल सकेगा।

इस पर वह प्रश्न भरी आँखों से मुझे देखने लगीं, तो मैंने पूछा मॉम अब डैड तो रहे नहीं, इसलिए सच बताने से कोई प्रॉब्लम भी होने वाली नहीं है। यह बात कितनी सच है कि जस्टिन और मैं उनके नहीं तुम्हारे उस फॉर्मेसिस्ट फ़्रेंड के बच्चे हैं। मेरा यह पूछना था कि वह चीख पड़ीं थीं, "एमी" मैं चुप नहीं हुई, डरी नहीं, तो वह बोलीं, "अब तुम भी इस तरह से क्वेश्चन कर रही हो। पहले तुम्हारे डैड फिर जस्टिन और अब तुम। मैंने सोचा था कि जस्टिन के बाद इस प्रश्न से हमेशा के लिए पीछा छूट जाएगा।" उनकी बात को मैंने ध्यान से सुना, फिर उन्हें पूरी इंपॉर्टेंस देते हुए कहा आपने डैड या उनके बाद जस्टिन को सच बता दिया होता। सही जवाब दे दिया होता तो यह प्रश्न फिर कभी आपके सामने आता ही नहीं। जब-तक उत्तर नहीं बताएँगी तब-तक तो यह प्रश्न बना ही रहेगा। मैं अपनी बात पर अडिग हूँ।

उन पर प्रेशर डालती रही तो उन्होंने आख़िर वह सच बताया जिसे डैड, जस्टिन नहीं जान पाए। जिसके कारण डैड जीवन से हाथ धो बैठे। जिसे सुनकर मुझे पसीना आ गया। मॉम ने खीझते हुए कहा कि, "जस्टिन और तुम डैड के ही बच्चे हो। जो उनका नहीं था उसे उन्होंने इस दुनिया में आने ही नहीं दिया। मुझे मजबूर कर दिया अबॉर्ट कराने के लिए। टाइम ज़्यादा हो चुका था, इसके बावजूद अगेंस्ट द लॉ जाकर कराया। मेरी लाइफ़ ख़तरे में पड़ी, मगर उन्हें अपनी ज़िद की पड़ी थी। उसे पूरी करके ही माने।" मैंने कहा मॉम जब आपने उनकी पहली ज़िद कि उस आदमी से कोई संबंध नहीं रखने की नहीं मानी, जिसे मान लेने से अब तक जो कुछ हुआ वह होता ही नहीं तो एबॉर्शन की बात इतनी आसानी से कैसे मान ली।

मॉम ने जैसे पहले ही अंदाज़ा लगा लिया था कि मैं यह प्रश्न करूँगी, इसलिए वह जवाब देने के लिए ख़ुद को एकदम तैयार किए हुए थीं, तुरंत ही कहा, "वह बेबी जन्म लेता तो यह कितना बड़ा तमाशा करते दुनिया के सामने, कैसे मुझे बेइज़्ज़त करते इसका अंदाज़ा तुम भी लगा सकती हो। मुझे पूरा यक़ीन था कि वह डीएनए चेक करा कर ही मानते। ऐसे में मेरी, बच्चे की और उस आदमी की जो इंसल्ट होती वह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। तुम दोनों भी परेशान होते।"

मुझे बड़ी ग़ुस्सा आई । सोचा अपने स्वार्थ के लिए अबॉर्ट कराया और ज़िम्मेदार फ़ादर को बता रही हैं। हो तो यह भी सकता है कि वह आदमी भी ना चाहता रहा हो कि उसकी संतान ऐसी जगह जन्म ले, जहाँ वह जब चाहे तब जा भी नहीं सके। उसे गोद में भी ना ले सके। संतान उसकी होगी और नाम दूसरे का होगा।

इसलिए मैंने सोचा यह बात भी इसी समय क्लीयर कर लूँ कि वह आदमी क्या चाहता था। उसने अबॉर्शन के लिए हाँ कही थी या भरपूर विरोध किया था। पूछने पर मुझे सीधा जवाब नहीं मिल रहा था। फ़ादर को ही कटघरे में खड़ा किया जा रहा था। बहुत कुरेदने, प्रभु यीशु का वास्ता देने पर सच सामने आया, कि वह आदमी भी नहीं चाहता था कि बच्चा जन्म ले। वह शुरू से ही मना करता रहा। उसका कहना था कि उसके तीन बच्चे पहले ही हो गए हैं, एक और बच्चे को वह अभी इस तरह से दूसरे घर में नहीं चाहेगा। 

सच जानने के बाद फ़ादर के प्रति सम्मान, उनके प्रति मेरा इमोशनल अटैचमेंट बहुत बढ़ गया। मॉम के प्रति इमोशनल अटैचमेंट कम होना शुरू हो गया था। मैंने जब देखा कि मॉम सारी बातें कह देना चाहती हैं। कुछ इस तरह लग रहा था जैसे कि वह चाहती हैं कि इस टॉपिक पर जितनी बातें करनी हैं, जो कुछ मुझे कहना, सुनना है, वह सब मैं इसी समय कर लूँ। इसके बाद फिर कभी इस टॉपिक पर बात नहीं करनी है। 

तो मैंने भी सोचा कि यही अच्छा है, रोज़-रोज़ बहस से क्या फ़ायदा। यह उस आदमी को इतना चाहती हैं तो बेहतर तो यह था कि फ़ादर से अलग हो जातीं। डायवोर्स लेकर उसी के साथ रहतीं। दो नावों पर सवारी करने की कोशिश से आख़िर क्या मिला? मेरे फ़ादर, एक जेंटलमैन की, एक ग्रेट फ़ादर की जान ज़रूर चली गई। जस्टिन जैसे भाई से मैं हाथ धो बैठी। यह सब मैंने मॉम से पूछा तो उनका बड़ा अजीब उत्तर मिला।

"एक्चुअली मेरे लिए यह पॉसिबल नहीं था। क्योंकि वह व्यक्ति इस बात के लिए तैयार नहीं था कि मुझसे वह शादी करे या मेरे साथ अलग रहे। वह अपनी फ़ैमिली को नहीं छोड़ना चाहता था।" मैंने कहा, आश्चर्य है, जो व्यक्ति अपनी फ़ैमिली को फ़र्स्ट प्रिफ़ेरेंस देता है, उसके बाद कुछ सोचता है, ऐसे व्यक्ति के लिए आपने अपनी फ़ैमिली की लाइफ़ को नष्ट कर दिया। अपने हस्बैंड को बेमौत मर जाने दिया। सालों-साल वह व्यक्ति पूरे मन से आपको पाने के लिए परेशान रहा। इतना ज़्यादा कि अपने वजूद को बचाए रखने के लिए उसे ख़ुद को शराब में डुबो देना पड़ता था। और अंततः इन्हीं बातों ने उनकी जान ले ली।

मैंने तब बहुत ही ठंडे स्वर में कहा, मॉम आपको यह नहीं लगता कि उस व्यक्ति ने आपको अपना मन बहलाने का एक टूल बना कर रखा हुआ है। जब-तक घर में है, तब-तक फ़ैमिली है, बीवी है। जब आठ-दस घंटे बाहर है, ऑफ़िस में है, तो इतने समय के लिए भी एंजॉयमेंट का कुछ अरेंजमेंट होना चाहिए। तो उसने इतने समय के लिए आपको अपना एंजॉयमेंट टूल बना लिया। क्या आपको ऐसा नहीं लगता? मॉम ने तपाक से उत्तर दिया, "अपनी बात को अपोज़िट एंगल से देखो, यही बात तो वह भी कह सकता है।" मैंने कहा अपोज़िट एंगल से बात तब कही जा सकती है जब आप भी उसी की तरह अपने हस्बैंड को, फ़ैमिली को छोड़ने के लिए तैयार ना होतीं।

जैसे वह संबंध घर के बाहर तक रखना चाहता है, वैसे ही आप भी करतीं। मगर आप तो... बीच में ही मदर बोलीं, "मैंने पहले ही कहा कि मैं फ़ैमिली को लेकर, तुम्हारे फ़ादर को लेकर भी अवेयर थी। मगर फ़ैमिली को लेकर मैं उतनी कट्टर नहीं हूँ जितना कि वह थे। तुम्हारे फ़ादर का विहेवियर जिस तरह इस मैटर को लेकर हार्डकोर होता जा रहा था उससे मुझे अलग होने के लिए ज़्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती।"

मैंने कुछ देर और बातें करने के बाद पूछा। मॉम मैं नहीं समझ पा रही हूँ कि मुझे पूछना चाहिए कि नहीं, लेकिन पूछ रही हूँ कि आप आख़िर फ़ादर से ऐसा क्या चाहती थीं जो वह आपको नहीं दे पाते थे, और वह सब आपको उस आदमी से मिलता है नहीं, बल्कि इतना और ऐसा मिलता है कि आप इस कंडीशन में भी उसे छोड़ने को छोड़िए, छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं पा रही हैं। बल्कि उसे हस्बैंड से भी ऊपर रखा हुआ है। मॉम चुप रहीं। कई बार पूछने पर कहा, "मैं बहुत क्लीयर कुछ नहीं कह सकती, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मैं जिस पीस, सैटिस्फ़ैक्शन को चाहती हूँ, वह उसके पास पहुँचते ही मुझे मिल जाते हैं। तुम्हारे फ़ादर को या तो मैं नहीं समझ पायी कि वो मुझसे क्या चाहते हैं, या फिर शायद वह मुझे समझ नहीं पाए, मुझे नहीं समझा सके कि उन्हें मुझसे क्या कुछ चाहिए, कितना चाहिए। शायद दोनों ही एक दूसरे को नहीं समझा सके, ना समझ सके।"

उनकी यह चतुराई भरी बातें मुझे बहुत बुरी लगीं। मैं ख़ुद को रोक नहीं सकी। मैंने कहा, मॉम मैं भी बड़ी हो गई हूँ। बहुत सी बातें समझती हूँ। यह भी जानती हूँ कि अनुभव भले ही मेरा कम है, लेकिन घर में सालों से चले आ रहे माहौल ने मुझे बहुत मैच्योर बना दिया है। यहाँ कुछ कॉम्पलिकेशन जैसी कोई बात ही नहीं थी, कोई भी हस्बैंड यह बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसकी नॉलेज में उसकी मिसेज किसी थर्ड पर्सन के साथ रिलेशनशिप में रहे। इसीलिए आपको मना करते थे। आप मानने को तैयार नहीं थीं। बस इतनी सीधी सिंपल सी बात है। सिंपल सी बात को आप सिंपली स्वीकार कर लेतीं तो मैं पूरे कॉन्फ़िडेंस के साथ कहती हूँ कि बात जैसे भी हो मैनेज हो जाती। फ़ादर इतने लिबरल थे कि वह कोई ऐसा रास्ता ज़रूर निकालते, आपके साथ मिलकर ही निकालते कि ऐसी हालत नहीं होती। जो कुछ हुआ ऐसा नहीं है कि उससे आपको कष्ट नहीं हो रहा है। टेंशन में आप भी हैं।

मैं इतना ही चाहती हूँ कि जो बिगड़ गया है, फ़ैमिली जो बिखर गई है, यदि आप बातों को ऐसे ही कॉम्प्लिकेटेड बनाए रहेंगी तो जो अब तक बचा रह गया है उसके भी बिखरने में समय नहीं लगेगा। हम दोनों भी हमेशा के लिए अलग हो सकते हैं। इसलिए आपसे रिक्वेस्ट है कि बातों को सिंपली एकदम क्लियरली बोलिए, अब मैं अच्छी तरह समझ चुकी हूँ कि आप उस आदमी से रिलेशनशिप के बिना नहीं रह सकतीं। सॉरी मैं यह भी कह देना चाहती हूँ कि उसके साथ आपका जो भी रिलेशन है, वह ओवरऑल फिज़िकल ही है। आप दोनों के बीच इमोशनल अटैचमेंट कोई बहुत स्ट्रॉन्ग पोज़ीशन में नहीं है। बल्कि सच यह है कि कोई इमोशनल अटैचमेंट है ही नहीं। ऐसे में मैं यही कहूँगी कि आप ख़ुश रहें, टेंशन फ़्री रहें, ऐसा ही काम करें। आप चाहें तो उसे साथ लाकर यहीं रहें। मैं रेंट पर कहीं और रह लूँगी।

फ़ादर की फ़ैमिली पेंशन आपने मेरे नाम कर ही दी है। मुझे कोई दिक्क़त नहीं होगी, वैसे भी मैं जल्दी ही सेस्फ़ डिपेंड हो जाऊँगी। आपके ऊपर कोई बर्डन नहीं रहेगा। मैं साथ इसलिए नहीं रह सकती क्योंकि मैं उस व्यक्ति को सहन नहीं कर पाऊँगी जो मेरी फ़ैमिली की बर्बादी का कारण बना, जिसके कारण मेरे डैड की दर्दनाक मौत हुई। लेकिन क्योंकि आप मेरी मदर हैं, आपकी ख़ुशी में मेरी ख़ुशी है। मेरे कारण आप ख़ुश ना रह सकें यह भी ग़लत है। यह मैं नहीं चाहूँगी। इसलिए मैं आपसे ख़ुशी-ख़ुशी कह रही हूँ कि आप उस व्यक्ति के साथ रहें। मॉम यह कहते हुए मैं यह भी सोच रही हूँ कि हर मदर को भी औरों की तरह ख़ुश रहने का अधिकार है। जैसे भी वह ख़ुश रहें।

हमारी बहस निर्णायक दौर में पहुँच चुकी थी। मैं सब कुछ उसी समय फ़ाइनल कर देना चाहती थी। कल पर कुछ भी नहीं छोड़ना चाहती थी। और मदर उस व्यक्ति को। तो फ़ाइनली डिसाइड हुआ कि वह उसके साथ अब तक जैसे रह रही हैं वैसे ही रहेंगी। मुझे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं।

इस डिसीज़न तक पहुँचने में जितनी और जिस तरह की बातें हम माँ-बेटी के बीच हुईं, वह कई बार बहुत बोल्ड, बहुत ग़ुस्से से भरी, तो कभी भावुकता से भरी रहीं। कई बार दोनों की आँखों से ख़ूब आँसू भी टपके। मगर अच्छा यह रहा कि हम एक डिसीज़न तक पहुँच गए। और साथ ही मैं एक नए निष्कर्ष पर भी पहुँची, कि सीमोन बोउवार की सेकेंड सेक्स किताब में लिखी यह बात पूरी तरह सच नहीं है कि "यह कहना अतिशयोक्ति ना होगी कि पुरुष नारी का आविष्कार कर लेता, यदि परमात्मा ने नारी की सृष्टि ना की होती।"

मैंने मन ही मन कहा कि इस इक्कीसवीं सेंचुरी का पूरा सच यह है कि, "नारी ने अपने लिए पुरुष का आविष्कार कर लिया होता यदि परमात्मा ने पुरुष की सृष्टि ना की होती।" उस वक़्त मुझे अपने कुछ फ़्रेंड्स की और उनके रिलेटिव्स की बातें, उनके किए गए काम याद आ रहे थे। जो कि मेरी मॉम से कम नहीं थे, बल्कि दो तो ऐसे विचारों की हैं, ऐसी लाइफ़स्टाइल को जीती हैं कि उसे देखते हुए यह मानने में मुझे कोई शक नहीं कि मेरी मॉम उनसे बहुत पीछे हैं।

मगर इस डिसीज़न ने मेरे कॅरियर पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। मदर से एक लंबे गैप या यह कहें कि ना के बराबर कम्युनिकेशन होने, इमोशनल रिश्ते के कमज़ोर से धागे से जुड़े होने के कारण मेरा कॅरियर बिखर गया। मैं स्वयं कॅरियर के लिए पूरा एफ़र्ट नहीं कर पा रही थी। ड्रीम डॉक्टर बनने का था लेकिन वीक एफ़र्ट, मौज-मस्ती की तरफ़ ज़्यादा झुकाव के चलते डॉक्टर नहीं बन सकी। किसी तरह नर्स बन गई।

यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि मदर से अच्छे रिलेशन होते और वह अपनी ख़ुशियों को सेलिब्रेट करते हुए एक गुड मदर, गुड पेरेंट्स का भी रोल अच्छे से प्ले करतीं तो मैं डॉक्टर बन जाती। पढ़ने में क़तई कमज़ोर नहीं थी। हाँ तब मेरा स्वभाव ऐसा था कि उसे देखते हुए मुझ पर गुड पैरेंट की एक पतली सी छड़ी की छाया बनी रहनी चाहिए थी। जो मुझे ठीक रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती, उस पर चलने के लिए प्रेशर बनाए रखती। पतली सी छड़ी की छाया ना होने का रिज़ल्ट यह हुआ कि डिसीज़न डे के तीन साल बाद ही मैं बुलेट बाइक ले आई। मदर से पूछा तक नहीं। पूछती भी क्यों, उनसे कोई रिश्ता रह ही कितना गया था।

उन्होंने घर में नई बाइक देखी लेकिन कुछ पूछा तक नहीं। उनके पास अपनी ख़ुशी सेलिब्रेट करने के बाद इतना समय कहाँ रहता था कि वह यह देखतीं कि मैंने कुछ साल पहले डैड द्वारा साइकिल दिए जाने पर बाइक लाने की ज़िद की थी। और पढ़ाई पूरी किए बिना ही ले आई। मेरी पढ़ाई कैसी चल रही है, क्या पढ़ रही हूँ, क्या करूँगी? कभी कुछ नहीं पूछा। वैसे उनसे यह अपेक्षा करना मूर्खता ही थी। डिसीज़न डे के बाद हर महीने में दो तीन बार ऐसा होता था कि वह उसी आदमी के साथ ही कहीं जाकर रहती थीं। यह तक नहीं बताती थीं कि कहाँ हैं। कब आएँगी। किसके साथ हैं। हालाँकि मुझे यह तो मालूम ही रहता था। पहली बार जब ग़ायब हुई थीं तब ज़रूर पूछा था, लेकिन जो रिप्लाई मिला उसके बाद मैंने कभी नहीं पूछा।

असल में एक मकान में ही हम दो अजनबियों की तरह रह रहे थे। एक दूसरे के कमरे में जाते तक नहीं थे। इस बीच मैंने जस्टिन के बारे में जानने की बहुत कोशिश की लेकिन पता नहीं चला। उसके घर छोड़ने के क़रीब पाँच साल बाद एक रिश्तेदार से बाई चांस ही मालूम हुआ कि वह बेंगलुरू में है। वहीं कोई बिज़नेस कर रहा है। और मैरिज भी कर ली है, एक बेटा भी है। यह सुनकर मैं बहुत ख़ुश हुई थी। मदर को भी बताया था तब उन्होंने धीरे से कहा, "ओह जीसस, थैंक्यू।" उनकी आँखों में तब मैंने ख़ुशी की चमक देखी थी। मैंने सोचा चलो ठीक है, कोई किसी के साथ नहीं है। सब अलग रह कर ख़ुश हैं तो यही सही।

मैं नर्स की जॉब से कुल मिलाकर संतुष्ट थी। कुछ बड़ा करने की इच्छा कहीं गहरे दब चुकी थी। नर्स की जॉब करते-करते मुझे पाँच साल बीत गए थे। और साथ ही कार्लोस के साथ रिश्ते बने हुए तीन साल। वह बड़ा ही सक्सेसफ़ुल मेडिकल रिप्रेज़िंटेटिव था। हॉस्पिटल में ही मुलाक़ात हुई थी। हम दोनों एक ही तरह की लाइफ़ स्टाइल पसंद करते थे। इसलिए जल्दी ही बहुत क्लोज़ हो गए। कुछ दिन बाद ही मैंने मदर से उसका परिचय करा दिया था। मैंने देखा उन्होंने उसे कोई इंपॉर्टेंस नहीं दी। हालाँकि तब-तक मेरे लिए इस तरह की बातें कुछ मैटर भी नहीं करती थीं।

वह कुछ कहतीं भी तो क्या? जल्दी ही कार्लोस घर पर रुकने भी लगा। वह एक ज़बरदस्त बाइकर था। मैं जान छिड़कती थी उसकी बाइकिंग पर। उसकी बाइक भी बुलेट ही थी। छुट्टी मिलते ही हम दोनों लंबी राइड पर निकल देते थे। एक बार हम दोनों ने अपनी बाइकिंग कैपेबिलिटी को चेक करने की सोची। तय किया कि इस बार छुट्टी में किसी हिल एरिया के लिए निकलेंगे। 

छुट्टी मिलते ही हम दोनों एक ही बाइक पर हफ़्ते भर के टूर पर निकल दिए। लखनऊ से हरिद्वार, देहरादून होते हुए चंपावत तक गए। यह लम्बा रास्ता था। हमें लखीमपुर होते हुए सीधा रास्ता पकड़ना चाहिए था। मगर मस्ती में चूर हमारा जिधर मन हुआ उधर ही चल दिए। सीधा या टेढ़ा कुछ भी हमारे मन में नहीं था। छुट्टियाँ कम पड़ रही थीं, लेकिन हम दोनों ने तय किया कि हम अपना टूर चंपावत तक पूरा करके ही लौटेंगे।

हम अपनी जर्नी के आख़िर में चंपावत स्थित बनबसा के उस स्कूल और अनाथालय भी गए जिसके बारे में फ़ादर ने कई बार बताया था। उनके अनुसार हमारे ग्रैंड फ़ादर उस स्कूल में पढ़े थे। हमें जब पता चला कि स्कूल के संचालक ब्रिटेन के एक नागरिक हैं तो हमने वहाँ के लोगों से उनका संपर्क नंबर माँगा, मगर न जाने क्यों उन लोगों ने नंबर नहीं दिया। मगर हम निराश नहीं हुए और अपनी रोमांचक जर्नी पूरी कर वापस चल दिए।

जैसी ख़ूबसूरत मस्ती भरी हमारे टूर की रवानगी थी, वापसी उसके उलट अत्यंत दुखद रही। रास्ता पूरा करने के बाद घर के क़रीब पहुँचे तो रिंग रोड पर हमारी बाइक एक पेट्रोल टैंकर से टकरा गई। कार्लोस ऑन द स्पॉट हमें छोड़कर प्रभु यीशु के पास चला गया। मेरा एक पैर, हाथ, कई पसलियाँ टूट गर्ईं। दो महीने हॉस्पिटलाईज़ रही। घर पर भी एक महीना बिस्तर पर ही बीता। इस दौरान मदर ने जिस तरह मेरी देखभाल की वह बहुत अच्छी थी। लेकिन एक माँ की तरह नहीं, एक इनक्रेडिबल नर्स की तरह।

इस सारे समय मुझे डैड की बहुत याद आई। कार्लोस ने मुझे बहुत आँसू दिए। मैं बेड पर पड़े-पड़े उसके लिए बहुत रोती। मदर यह देख कर एक बार सिर्फ़ इतना बोलीं, "जो नहीं रहा उसके लिए रोते नहीं। जो दुनिया में सामने है उसे देखो।" मैंने सोचा क्या देखूँ, जो देख रही हूँ वह कहीं से कम से कम मेरे लिए तो अच्छा नहीं है। कितनी बार मुझे आपके हेल्प की तुरन्त ज़रूरत पड़ी, लेकिन आप अपने कमरे में उस बास्टर्ड आदमी के साथ बंद रहीं। आप दोनों की आवाज़ मुझ में कितनी खीज पैदा करती थी इसका अंदाज़ा आप नहीं लगा सकतीं।

आप दोनों की आवाज़ सुनकर बार-बार डैडी की याद आ जा रही थी। लगता जैसे वह अभी कमरे से निकल कर मेरे पास आएँगे, प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछेंगे, "कैसी हो माय चाइल्ड।" मदर से मैंने यह भी बताया कि हम उस स्कूल और अनाथालय भी गए थे जहाँ ग्रैंडफ़ादर ने अपना समय बिताया था। लेकिन मदर ने हमारी बात का कोई रिस्पांस नहीं दिया। वह जब हॉस्पिटल चली जातीं तो मैं दस-बारह घंटे के लिए एकदम अकेली हो जाती। शुरुआती एक महीने तो दस-बारह घंटे मैं डायपर के सहारे ही बिता पाती थी। उस तक़लीफ़ के क्षण कई बार मन में आया कि मैं भी कार्लोस की तरह मर जाती तो अच्छा था। जीसस ने मुझे इस तरह की तक़लीफ़ झेलने के लिए क्यों बचा लिया।

मुझे बड़ा याद आता अपना तब का परिवार जब जस्टिन, मैं, पैरेंट्स पूरा परिवार ख़ुशियों से भरा था। सब एक दूसरे को ख़ूब प्यार करते थे। किसी को जरा भी तक़लीफ़ हो जाए तो बाक़ी सारे लोग उसकी देखभाल में रात-दिन एक कर देते थे। मगर क्या से क्या हो गया था। मदर ने ख़ुद को, परिवार को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया था। बेड पर मैंने जो लम्बा समय बिताया उस दौरान जीवन के कई लेशन भी पढ़े, समझे। मदर को लेकर मेरा जो नज़रिया था उसमें भी बड़ा चेंज आ गया।

अब उन्हें मैं मदर से पहले एक फ़्रेंड मानने लगी। ऐसी फ़्रेंड जो अपनी लाइफ़ को एंज्वाय करे, ऐसी फ़्रेंड जिसे अपनी लाइफ़ को एंज्वाय करने से कोई भी स्थिति रोक नहीं सकती। कोई मर्यादा, सीमा है उसके लिए तो यही कि उसे अपनी लाइफ़ अपने एंज्वायमेंट से प्यार है। परिवार उसके एंज्वायमेंट में एक रोड़ा था जिससे छुटकारा पाने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ। उसी समय मैंने महसूस किया कि मैं उनके रास्ते से पूरी तरह नहीं हट पाई हूँ, इसलिए अब मुझे भी पूरी तरह हट जाना चाहिए। मगर कैसे यह तय नहीं कर पा रही थी। काफ़ी समय इसी उधेड़बुन में बीत रहा था। क़रीब छः महीने बाद मैंने ऑफ़िस ज्वाइन कर लिया था। लेकिन बाइक चलाने लायक़ नहीं हो पाई थी। ऑटो से ही जाना-आना हो पा रहा था। उस समय भावेश सान्याल मेरे क़रीब आया। ऑफ़िस में मेरी बड़ी मदद करने लगा। कुछ समय बाद मैं उसी के बाइक पर आने-जाने लगी।

उसके विहेवियर में मुझे अक्सर कार्लोस की झलक मिलती, जब वह मेरी किसी काम में हेल्प करता तो लगता जैसे डैडी उतर आए हैं। मैं ऑफ़िस जाते समय एक बार अपनी बाइक को अवश्य छूती थी। उसे भरपूर एक नज़र अवश्य देखती थी। उस पर नज़र पड़ती तो कार्लोस की याद एकदम ताज़ा हो उठती। मैं तब डॉक्टर से बार-बार पूछती थी कि मैं फिर से बाइक चलाने लायक़ कब तक हो जाऊँगी। वह मुस्कुरा कर कहते, "मैं अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहा हूँ।" मैं और ज़ोर देती तो कहते, "एक वर्ष तो लग ही जाएगा।" जब वह एक वर्ष कहते, वह भी निश्चित नहीं तो मेरा दिल बैठ जाता। बड़ी मायूसी होती। एक नर्स होने के नाते मैं भी इतना जानती हूँ कि मेरी मेन प्रॉब्लम क्या है। पसलियों, प्रपादास्थि या तलुओं की [मेटाटार्सल] हड्डियों में भयानक टूट-फूट इतनी जल्दी ठीक होने वाली नहीं है। डॉक्टर की बात सुनकर जब मैं सीरियस हो जाती थी तो भावेश बहुत ढांढ़स बँधाता था।

ऑफ़िस ज्वाइन किए हुए मुझे तीन महीने ही हुए थे कि एक दिन छुट्टियों में मैंने मदर को बाथरूम से बाहर आते देखा। वह हफ़्ते भर का कपड़ा मशीन में धुल कर बाहर निकल रही थीं। मैंने आँगन में नेचुरल लाइट में उनका चेहरा देखा तो नज़र उनके चेहरे पर टिक गई। फिर कई हिस्सों पर टिकी। मैं साफ़ देख पा रही थी कि उन्होंने अपने शरीर के कई हिस्सों को आल्टर कराया है। ख़ासतौर से अपने ऊपरी हिस्से में, उनके होंठ, गाल, थुड्डी, गर्दन हर जगह चेंज साफ़ नजर आ रहा था। उन्होंने बड़ी बारीक़ी से अपनी प्लास्टिक सर्जरी कराई थी। उन्हें देखकर मुझे ख़ुशी हुई। मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी।

मन ही मन कहा मॉम तो इस उम्र में भी इतनी ब्यूटी कॉन्शेयस हैं। वह अपनी उम्र से वाक़ई छः सात साल कम लग रही थीं। सच में ख़ूबसूरत लग रही थीं। मुझसे रहा नहीं गया।

मैंने बोल ही दिया मॉम आप वाक़ई बहुत ख़ूबसूरत लग रही हैं। मेरी बात का आशय वह समझ गईं थीं। समझते ही बोलीं, "थैंक्यू।" उनके चेहरे पर भी मुस्कुराहट थी। लेकिन मुझे लगा कि उन्होंने जो चेंज कराया है, हेयर स्टाइल उस हिसाब से मैच नहीं कर रही है। मैंने कहा मॉम हेयर स्टाइल भी चेंज कर लीजिए। मेलिना ट्रंप जैसी स्टाइल इस लुक को और इंप्रूव कर देगी। वह मुस्कुरा कर रह गईं। मॉम की ख़ुशी देख कर मुझे बहुत अच्छा फ़ील हुआ था।

तेज़ी से एक साल का समय बीत गया। लेकिन मेरा पैर ना मेरी और ना ही डॉक्टरों की अपेक्षानुसार इंप्रूव हो रहा था। हालाँकि फिर भी आराम से चलने-फिरने लगी थी। लेकिन बाइक चलाने के लायक़ नहीं हुई थी। इसी बीच एक दिन अचानक ही पता चला कि उस आदमी ने अपनी बीवी को डायवोर्स दे दिया है। और अब वह और मॉम दोनों मैरिज करने जा रहे हैं। उसने अपने को अपने परिवार से बिल्कुल अलग कर लिया है। उस दिन मैंने सोचा यह अच्छा हुआ दोनों लोग मैरिज करके आराम से ख़ुशी से रहें। मन में यह बात भी बड़ी गहराई से उठी कि यह उस परिवार के एंगल से अच्छा नहीं हुआ है। बहुत बुरा हुआ उसके परिवार के लिए। उसकी मिसेज तीन-तीन बच्चों को लेकर कैसे अपनी लाइफ़ जियेगी। वह ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं है।

मॉम और इस आदमी ने अपने व्यक्तिगत सुखों के लिए अपने-अपने परिवार की बलि दे दी है। मैं मॉम से बहुत रिज़र्व रह रही थी। मुझे तभी लगा कि अब सही समय है मॉम के रास्ते से पूरी तरह हट जाने का। तो उस दिन सीधे पूछ लिया मैरिज के बारे में तो उन्होंने भी बिना किसी संकोच के बता दिया। समय भी बता दिया कि अगले हफ़्ते मैरिज करने जा रही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि, "मैं आज ही बताने वाली थी लेकिन तुम्हें मालूम हो गया।" मैंने कहा मैं ख़ुश हूँ। मैं बहुत ख़ुश हूँ कि आपने यह डिसीज़न लिया। मैं समझती हूँ कि यह आपको और पहले ही कर लेना चाहिए था। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने सोचा शादी धूमधाम से होगी लेकिन मॉम ने कहा नहीं।

पाँच दिन बाद ही शादी थी। मॉम के मना करने पर भी मैंने पूरे घर को इतने दिनों में जितना रेनोवेट कराया जा सकता था, कराया। उनके कमरे में नया पेंट कराने से लेकर बेड, फ़र्नीचर, कॉरपेट सब नया बनवा दिया। पाँचवें दिन मैरिज के वक़्त चर्च में मैं उनके साथ थी। व्हाइट ड्रेस में मॉम वाक़ई बड़ी ख़ूबसूरत लग रही थीं। बड़ी मासूम सी। दोनों का पेयर ख़ूब अच्छा लग रहा था। लेकिन आदमी के चेहरे पर नज़र जाते ही मुझे उबकाई सी महसूस होने लगती थी। उसकी तरफ़ से मैं तुरंत मुँह फेर लेती थी। मुझे वह दोनों परिवारों को नष्ट करने वाला निहायत गंदा घिनौना व्यक्ति नज़र आ रहा था।

चर्च में गिने-चुने लोगों को ही इनवाइट किया गया था। एक होटल में छोटी सी पार्टी दी गई थी। शादी करके घर पहुँचने पर मैंने ही मॉम को रिसीव किया। कई रस्मों को भी पूरा किया। मॉम नहीं चाहती थीं लेकिन मैं नहीं मानी। मैंने ही उन्हें उनके कमरे में पहुँचाया। जिसे मैंने बहुत प्यारे ढंग से सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह निहायत गंदा आदमी नए ढंग से सजे ड्रॉइंग रूम में बैठा था। उसके कुछ दोस्त उसके साथ थे। वो लोग उसे भी हैंडसम कह रहे थे। लेकिन वह मुझे गंदा ही लग रहा था। जल्दी ही सारे गेस्ट चले गए। मॉम अपने कमरे में थीं। मॉम को मैंने गोल्ड का एक ख़ूबसूरत गिफ़्ट, बुके देकर नए जीवन की शुरुआत के लिए ख़ूब बधाई दी। उन्हें गले से लगाया। उन्होंने भी "माय चाइल्ड, माय चाइल्ड", कहकर मेरी पीठ थपथपाई।

मैंने उन्हें गुड नाईट बोलते हुए कहा, ओके मॉम, कल मिलती हूँ। लास्ट में मैंने मैनर्स के चलते उस गंदे इंसान को भी विश किया, गिफ़्ट दिया। और भावेश के साथ घर से पाँच किलोमीटर दूर उस घर में आ गई जिसे मैंने रेंट पर अपने लिए लिया था। इसी एक हफ़्ते में मैंने अपना नया आशियाना भी बना लिया था। इस पूरे एक हफ़्ते में भावेश सारे काम में मेरे साथ रहा। मेरा हाथ बँटाता रहा।

घर से जितना मेरा अपना पर्सनल सामान था वह मैं ले आई थी। नेक्स्ट डे सुबह ही मॉम का फोन आया "माय चाइल्ड कहाँ हो?" मैंने कहा मैं अपने नए घर में हूँ। उन्हें शॉक लगा, बोलीं, "क्या! तुम्हें घर छोड़कर जाने की क्या ज़रूरत है।" मैंने कहा मॉम अब वह मेरा घर नहीं रहा। कम से कम मैं यही मानती हूँ, डैड रहे नहीं, जस्टिन ने छोड़ दिया। और अब आप भी आप नहीं रहीं। सरनेम चेंज हो गया है। आप ही सोचो मॉम घर में हर जगह डैड, जस्टिन, मेरी मॉम की अनगिनत यादें हैं, वहाँ मैं किसी और को कितनी देर देख पाऊँगी। वह भी उसे जो मेरे घर की इस हालत के लिए ज़िम्मेदार है। इसलिए प्लीज़ मॉम जैसे आप डैड, जस्टिन को भूल गईं वैसे ही अब मुझे भी भूल जाइए। अपने नए जीवन को एँज्वॉय करिए। मेरा जब मन होगा, ऑफ़िस में आपसे मिल लिया करूँगी। लेकिन वहाँ कभी नहीं आऊँगी। क्योंकि अब वह मेरा घर नहीं रहा। इसलिए प्लीज़ मुझे क्षमा कीजिए।

मॉम आप इस बात को भी ठीक से समझ लें कि हमारे आपके लिए यही अच्छा है कि हम दूर रहें। हमारी खुशियाँ अब इसी दूरी पर डिपेंड करती हैं। मॉम ने मुझे समझाने की कोशिश की लेकिन मैंने अपना मत स्पष्ट बता दिया। मॉम अब आपकी दुनिया अलग है। मेरी अलग, इस सच को स्वीकारिए। मॉम ने जब यह समझ लिया कि मैं अपनी बात पर अडिग हूँ तो उन्होंने भी मुझे अच्छे जीवन की ख़ूब शुभकामनाएँ दीं और बात ख़त्म कर दी। लास्ट में यह बोले बिना नहीं रह सकीं कि, ''माय  चाइल्ड कभी-कभी मिलने आओगी तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी।''   उनसे बात ख़त्म कर मैं भावेश के साथ सामान पैक करने लगी थी। हम एक हफ़्ते के लिए चंपावत घूमने जा रहे थे। मगर बुलेट से नहीं। मेरे पैर तब भी मेरा साथ नहीं दे रहे थे। बुलेट मैंने कपड़े से कवर करके पोर्च में खड़ी करवा दी थी। कई बार मन से चाहते हुए भी हम कई चीज़ों को अपना नहीं पाते।

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एबॉन्डेण्ड 

इसे आप कहानी के रूप में पढ़ रहे हैं, लेकिन यह एक ऐसी घटना है जिसका मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। चाहें तो आप इसे एक रोचक रिपोर्ट भी कह सकते हैं। इस दिलचस्प घटना के लिए पूरे विश्वास के साथ यह भी कहता हूँ कि यह अपने प्रकार की अकेली घटना होगी। मेरा प्रयास है कि आप इसे घटते हुए देखने का अहसास करें। यह जिस गाँव में घटी उसे मैं गाँव कहना गलत समझता हूँ, क्योंकि तब तक वह अच्छा-ख़ासा बड़ा क़स्बा बन चुका था। मैं भी उसी गाँव या फिर क़स्बे का हूँ।

गाँव में मुख्यतः दो समुदाय हैं, एक समुदाय कुछ बरस पहले तक बहुत छोटी संख्या में था। इसके बस कुछ ही परिवार रहा करते थे। यह छोटा समुदाय गाँव में बड़े समुदाय के साथ बहुत ही मेल-मिलाप के साथ रहा करता था। पूरे गाँव में बड़ी शांति रहती थी। त्योहारों में सिवइंयाँ खिलाना, प्रसाद खाना एक बहुत ही सामान्य सी बात हुआ करती थी। मगर बीते कुछ बरसों में बदलाव की एक ऐसी बयार चल पड़ी कि पूरा परिदृश्य ही बदल गया। सिवइंयाँ खिलाना, प्रसाद खाना क़रीब-क़रीब ख़त्म हो गया है। अब एक समुदाय इस बात से सशंकित और आतंकित रहता है कि देखते-देखते कुछ परिवारों का छोटा समूह बढ़ते-बढ़ते बराबरी पर आ पहुँचा है।

यह बात तब एक जटिल समस्या के रूप में उभरने लगी, जब दूसरे समुदाय ने यह महसूस करना शुरू कर दिया कि सिवइंयाँ खिलाने, खाने वाला समुदाय उनके कामकाज, त्योहारों पर एतराज करने का दुस्साहस करने लगा है, इस तुर्रे के साथ कि यह उनके लिए वर्जित है। इन बातों के चलते मेल-मिलाप, मिलना-जुलना बीते ज़माने की बातें हो गईं। अब दोनों एक-दूसरे को संदेह की नज़रों से ही देखते हैं।

संदेह की दीवारें इतनी मोटी, इतनी ऊँची हो गई हैं कि क़स्बे में अनजान लोगों की पल-पल बढ़ती आमद से प्रसाद खाने-खिलाने वाला समुदाय क्रोध में है। उनका ग़ुस्सा इस बात को लेकर है कि यह जानबूझ कर बाहर से लोगों को बुला-बुला कर उन्हें कमज़ोर करने की घृणित साज़िश है। क्रोध, ईर्ष्या, कुटिलता की इबारतें दोनों ही तरफ़ चेहरों पर साफ़-साफ़ दिखती हैं। ऐसे तनावपूर्ण माहौल के बीच ही एक ऐसी घटना ने क़स्बे में देखते-देखते चक्रवाती तूफ़ान का रूप ले लिया जो कि समाज में आए दिन ही घटती रहती है।

मैं आपको क़स्बे के उस क्षेत्र में ले चलता हूँ जहाँ चक्रवाती तूफ़ान का बीज पड़ा। यहाँ एक प्राथमिक विद्यालय है। उससे कुछ दूर आगे जाकर दो-तीन फ़ीट गहरा एक बरसाती नाला दूर तक चला गया है। जो बारिश के अलावा बाक़ी मौसम में सूखा ही रहता है। जिसमें बड़ी-बड़ी घास रहती है। उसके ऊपर दोनों तरफ़ ज़मीन पर झाड़-झंखाड़ हैं। यदि इस नाले में कोई उतरकर बैठ जाए, तो दूसरी तरफ़ बाहर से उसे कोई देख नहीं सकता, जब तक कि उसकी मुँडेर पर ही खड़े होकर नीचे की ओर ना देखे।

उस दिन वह दोनों भी इसी नाले में नीचे बैठे हुए बातें कर रहे थे। अब मैं आपको पीछे उसी समय में ले चलता हूँ जब वह दोनों बातें कर रहे थे।

आइए, आप भी सुनिए उस युवक-युवती की बातें। ध्यान से। और समझने की कोशिश करिए कि ऐसा क्या है जो हम लोग अपनी आगामी पीढ़ी के बारे में नहीं सोचते, उन्हें समझने का प्रयास नहीं करते, जिसका परिणाम इस तरह की घटनाएँ होती हैं।

युवक युवती को समझाते हुए कह रहा है, "देखो रात को साढ़े तीन बजे यहाँ से एक ट्रेन जाती है। उसी से हम लोग यहाँ से निकल लेंगे। दिन में किसी बस या ट्रेन से जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है।"

युवक युवती के हाथों को अपने हाथों में लिए हुए है। साँवली-सलोनी सी युवती का चेहरा एकदम उसके चेहरे के क़रीब है। वह धीमी आवाज़ में कह रही है, "लेकिन इतनी रात को हम लोग स्टेशन के लिए निकलेंगे कैसे? यहाँ तो दिन में ही निकलना मुश्किल होता है।"

"जानता हूँ। इसलिए रात को नहीं, हम लोग स्टेशन के लिए शाम को ही चल देंगे।"

"अरे! इतनी जल्दी घर से आकर स्टेशन पर बैठे रहेंगे तो घर वाले ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहीं पहुँच जाएँगे। छोटा सा तो गाँव है। ज़्यादा देर नहीं लगेगी उन लोगों को वहाँ तक पहुँचने में। ढूँढ़ते हुए सब पहले बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन ही पहुँचेंगे । हम लोगों को वहाँ पा जाएँगे तो ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, वहीं मारकर फेंक देंगे।"

युवती की इस बात से भी युवक के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, बल्कि दृढ़ता भरी मुस्कान ही उभरी है। वह दृढ़तापूर्वक कह रहा है, "जानता हूँ, लेकिन ख़तरा तो मोल लेना ही पड़ेगा ना।"

"ऐसा ख़तरा मोल लेने से क्या फ़ायदा जिसमें मौत निश्चित हो। यह तो सीधे-सीधे ख़ुद ही मौत के मुँह में जाने जैसा है। इससे तो अच्छा है कि और इंतज़ार किया जाए, कुछ और तरीक़ा ढूँढ़ा जाए, जिससे यहाँ से सुरक्षित निकलकर अपनी मंज़िल पर पहुँच सकें।"

"ऐसा एक ही तरीक़ा हो सकता है और वह मैंने ढूँढ़ लिया है। उसके लिए जो ज़रूरी तैयारियाँ करनी थीं, वह सब भी कर ली हैं। पिछले तीन-चार दिन से यही कर रहा हूँ।"

युवक की इस बात से युवती के चेहरे पर हल्की नाराज़गी उभर आई है। जिसे ज़ाहिर करते हुए वह कह रही है, "अच्छा, तो अभी तक बताया क्यों नहीं? इतने दिनों से सब छिपा कर क्यों कर रहे हो?"

"पहले मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रहा था कि जो कर रहा हूँ वह सही है कि नहीं। कहीं ऐसा ना हो कि बचने के चक्कर में ख़ुद ही अपने को फँसा दूँ और साथ ही तुम्हारी जान भी ख़तरे में डाल दूँ।"

"इसीलिए कहती हूँ कि बात कर लिया करो, मिलकर काम करेंगे तो आसान हो जाएगा। ऐसे अकेले तो ख़ुद भी नुक़सान उठाओगे और हमारी जान भी ले लोगे।"

"नहीं, तुम्हारी जान मेरे रहते जा ही नहीं सकती। तुम्हारी जान चली जाएगी तो मैं क्या करूँगा। मेरी जान तो तेरे से भी पहले चली जाएगी। इसलिए मैं कुछ भी करूँगा, लेकिन सबसे पहले तुम्हारी सुरक्षा की सोचूँगा, उसका इंतज़ाम करूँगा, भले ही हमारी जान चली जाए।"

"तुम भी कैसी बात करते हो, मेरी तो जान ही तुम्हारे में ही बसती है। तुम्हारे साथ ही चली जाएगी, बार-बार तुम जान जाने की बात क्यों कर रहे हो। हम ज़िंदगी जीना चाहते हैं। इस दुनिया में आए हैं तो हम भी लोगों की तरह सुख उठाना चाहते हैं। ना तो किसी को हमें मारने का हक़ है और ना ही हम मरना चाहते हैं, सोचना भी नहीं चाहते, समझे। तुम भी अपने दिमाग़ से यह शब्द ही निकाल दो। इसी में हमारा भला है।"

"तुम सही कह रही हो। एकदम तुम्हारी ही तरह जीना तो हम भी चाहते हैं। कौन मरना चाहता है, लेकिन जब हमारे माँ-बाप ही, दुनिया ही हमारे पीछे पड़ी हो तो जान का ख़तरा तो है ही, और हमें कुछ ना कुछ ख़तरा तो उठाना ही पड़ेगा ना। इसका सामना तो करना ही पड़ेगा।"

"यह दुनिया नहीं। इसके पास तो किसी के लिए समय ही नहीं है। सिर्फ़ हमारे माँ-बाप ही हमारे पीछे पड़े रहते हैं। वही पड़ेंगे। वही इज़्ज़त के नाम पर हमें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, अगर पकड़ लिया तो हमें बड़ी बुरी मौत मारेंगे।"

"नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल दुनिया में एक हालात तो वह है जिसमें परिवार में ही किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। सबका सारा समय अपने लिए है। अपने मोबाइल के लिए है। लेकिन जब हम दोनों जैसा मामला आता है तो इनके पास समय ही समय होता है। ये अपना सब कुछ छोड़-छाड़ कर एकदम फट पड़ते हैं। जात-पात, धर्म, इज़्ज़त के नाम पर इनका पूरा जीवन न्योछावर होता है। अभी हमारे बारे में पता चल जाए तो देखो क्षण भर में सब गोली, बंदूक लेकर इकट्ठा हो जाएँगे कि यह हिन्दू-मुसलमान का मामला है। ये एक साथ रह ही नहीं सकते। यह रिश्ता हो ही नहीं सकता। ये हमें तो मारेंगे ही, साथ ही लड़कर अन्य बहुतों को भी मार डालेंगे।"

"ये तो तुम सही कह रहे हो। तब तो इन लोगों के पास समय ही समय होगा। लेकिन पहले तुम यह बताओ जल्दी से कि इंतज़ाम क्या किया है? हम भी तो जाने तुमने ऐसा कौन सा इंतज़ाम किया जिसको करने में चार-पाँच दिन लग गए।"

"चार-पाँच नहीं, हमने तीन-चार दिन कहा है।"

"हाँ, हाँ, वही जल्दी बताओ अँधेरा होने वाला है।"

युवती थोड़ा जल्दी में है क्योंकि गोधूलि बेला बस ख़त्म ही होने वाली है। मगर युवक जल्दी में नहीं है। वह इत्मीनान से कह रहा है।

"सुनो, यहाँ जो स्टेशन है, रेलवे स्टेशन।"

"हाँ, हाँ, बोलो तो, आगे बोलो, तुम्हारी बड़ी ख़राब आदत है एक ही बात को बार-बार दोहराने की।"

"अच्छा! तुम भी तो बेवज़ह बीच में कूद पड़ती हो। ये भी नहीं सोचती, देखती कि बात पूरी हुई कि नहीं।"

"अच्छा अब नहीं कूदूँगी। चलो, अब तो बताओ ना।"

"देखो स्टेशन से आगे जाकर एक केबिन बना हुआ है। वहाँ बगल में एक लाइन बनी है। जिसकी ठोकर पर एक पुराना रेल का डिब्बा बहुत सालों से खड़ा है।"

बात को लम्बा खिंचता देख युवती थोड़ा उत्तेजित हो उठी है। कह रही है, "हाँ, तो उसका हम क्या करेंगे?"

"सुनो तो पहले, तुम तो पहले ही ग़ुस्सा हो जाती हो।"

"अरे ग़ुस्सा नहीं हो रही हूँ। बताओ जल्दी, अँधेरा होने जा रहा है। इसलिए मैं बार-बार जल्दी करने को कह रही हूँ। घर पर इंतज़ार हो रहा होगा। ज़्यादा देर हुई तो हज़ार गालियाँ मिलेंगी। मार पड़ जाए तो आश्चर्य नहीं।"

"देखो, मैंने बहुत सोचा, बहुत इधर-उधर दिमाग़ दौड़ाया। लेकिन कोई रास्ता नहीं मिला। सोचा किसी दोस्त की मोटरसाइकिल ले लूँ। उस पर तुम्हें बैठाकर चुपचाप चल दूँ। मगर तब दोस्त को बताना पड़ेगा। इससे बात इधर-उधर फैल सकती है। यह सोचकर मोटरसाइकिल की बात दिमाग़ से निकाल दी। फिर सोचा कि दोस्त को बताऊँ ही ना। झूठ बोलकर चल दूँ। लेकिन यह सोचकर हिम्मत नहीं हुई कि दोस्त क्या कहेगा। चोरी की एफ.आई.आर. करा दी तो और मुसीबत। सच बताऊँ यदि मेरे पास मोटरसाइकिल होती तो मैं दो-तीन साल पहले ही तुम्हें कहीं इतनी दूर लेकर चला गया होता कि यहाँ किसी को भनक तक ना लगती। अब तक तो हमारा एक बच्चा भी हो गया होता।"

"चल हट। इतनी जल्दी बच्चा-वच्चा नहीं। पहले यह बताओ कि मोटरसाइकिल नहीं मिली तो फिर क्या जो पुराना रेल डिब्बा खड़ा है मुझे उसमें बैठाकर ले जाओगे? क्या बिना इंजन के गाड़ी चलाओगे?" यह कह कर युवती खिलखिला कर हँस पड़ी है।

युवक उसके सिर पर चपत लगाकर कह रह रहा है। "चुप कर पगली, पूरी बात सुनती नहीं। बस चिल्लाने लगती है बीच में। यह भी नहीं सोचती कि आसपास कोई सुन लेगा।"

"तो बताओ ना। बार-बार तो कह रही हूँ बोलो, जल्दी बोलो ना।"

युवती ने दोनों हाथों से युवक को पकड़ कर हिला दिया है। युवक कह रहा है, "देखो ट्रेन रात में साढ़े तीन बजे आती है। हम लोग शाम को ही घर नहीं पहुँचेंगे तो घरवाले ढूँढ़ना शुरू कर देंगे। वह इधर-उधर जाएँगे, बस स्टेशन जाएँगे, रेलवे स्टेशन जाएँगे। कोई जगह वो नहीं छोड़ेंगे। हर जगह जाएँगे। ऐसी हालत में बचने का एक ही रास्ता है कि हम लोग चुपचाप अँधेरा होते ही उसी डिब्बे में जाकर छुप जाएँ। हम उस डिब्बे में होंगे, वह लोग ऐसा सोच भी नहीं पाएँगे। फिर यह सब रात होते-होते ढूँढ़-ढ़ांढ़ कर चले जाएँगे। जब रात को ट्रेन आएगी तो हम उसमें आराम से बैठकर अपनी दुनिया में पहुँच जाएँगे। अब बोल, इस प्लान से बढ़िया कोई प्लान हो सकता है क्या?"

"सच में इससे अच्छा प्लान तो कुछ और हो ही नहीं सकता। और मेरे हीरो के अलावा और कोई बना भी नहीं सकता।"

युवती मारे खुशी के युवक के हाथ को अपने हाथों में लिए हुए है और पूछ रही है, "लेकिन यह बताओ, इतने बरसों से ट्रेन का डिब्बा वहाँ खड़ा है। अंदर ना जाने कितने साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े और पता नहीं क्या-क्या होंगे। कहीं साँप वग़ैरह ने काट लिया तो लोगों को भनक भी नहीं लगेगी और हम वहीं मरे पड़े रहेंगे। कोई कभी देख भी नहीं पाएगा।"

"अरे, मेरी मोटी अक़्ल, बीच में मत बोल। इतनी तो अक़्ल होनी चाहिए कि अगर हम वहाँ मरे पड़े रहेंगे तो हमारी बॉडी सड़ेगी। उसकी बदबू अपने आप ही सबको बुला ही लेगी।"

"चुप, चुप। इतनी डरावनी बात क्यों कर रहे हो।"

"मैं नहीं, तुम्हीं उल्टा-सीधा बोल रही हो। जब मैं कह रहा हूँ कि तीन-चार दिन से इंतज़ाम में लगा हूँ तो इन सारी बातों का भी ध्यान रखा ही होगा, यह तो तुम्हें समझना ही चाहिए ना। कॉमनसेन्स की बात है। सुनो, मैं चुपचाप डिब्बे के अंदर जाता था और वहाँ पर काम भर की जगह बनाता था। नौ-दस घंटे बैठने के लिए वहाँ पर काम भर का कुछ सामान भी रख दिया है। कई बोतल पानी और खाने का भी सामान है। कल घर से निकलने के बाद सबसे पहले हम यहीं मिलेंगे। इस नाले के अन्दर वह हमारी आख़िरी मुलाक़ात होगी। यहाँ से निकलने के बाद हम डिब्बे में जाकर छिप जाएँगे। एक बात बताऊँ, ये नाला हमारा सबसे अच्छा दोस्त है। हमें सबकी आँखों से बचाकर कितने दिनों से मिलाता चला आ रहा है। इसे हम हमेशा याद रखेंगे।"

युवती युवक की बातें सुनते-सुनते उसकी जाँघों पर सिर रखकर आराम से ऐसे लेट गई है जैसे कि घर जाना ही नहीं है। युवक के हाथ की उँगलियों से खेलती हुई कह रही है, "सच में ये नाला हमारा सबसे अच्छा दोस्त है। हमें सबकी नज़रों से बचाए रखता है। मगर यह बताओ अँधेरा होने के बाद डिब्बे में कुछ दिखाई तो देगा नहीं कि तुम हमारे साथ हो कि कोई और? वहाँ तो कुछ पता ही नहीं चलेगा कि तुम किधर हो, हम किधर हैं। पूरे डिब्बे में इधर-उधर भटकते टकराते रहेंगे। ऐसा ना हो कि हमें जाना कहीं है और अँधेरा हमें पहुँचा दे कहीं और।"

"रहोगी एकदम ढक्कन ही। कितना कहता हूँ कि थोड़ी अक़्ल बढ़ाओ। तुम अपना मोबाइल लेकर आना। मैं भी अपना ले आऊँगा।"

"लाने से फ़ायदा भी क्या? मेरा मोबाइल चाहे जितना भी चार्ज कर लो, आधे घंटे में ही उसकी बैट्री ख़त्म हो जाती है।

"तुम बैट्री की चिंता नहीं करो। मैंने एक पावर बैंक लेकर फुल चार्ज करके रख लिया है।"

"और टिकट?"

"टिकट, मैं दिन में ही आकर ले लूँगा और फिर शाम को ही डिब्बे में जाकर बैठे जाएँगे। ट्रेन के आने का टाइम होगा तो स्टेशन पर अनाउंसमेंट होगा। कुछ देर बाद ट्रेन की सीटी सुनाई देगी। तभी हम डिब्बे से निकल कर प्लेटफॉर्म के शुरूआती हिस्से में पहुँच जाएँगे। इसके बाद जो भी पहली बोगी मिलेगी, उसी में चढ़ लेंगे।"

"तुम भी क्या बात करते हो। इतना सेकेंड-सेकेंड भर जोड़-गाँठ कर टाइम सेट कर रहे हो। गाड़ी दो मिनट से ज़्यादा तो रुकती नहीं। मान लो प्लेटफॉर्म तक पहुँचने में मिनट भर की भी देरी हो गई तो ट्रेन तो चल देगी। हम प्लेटफॉर्म के शुरूआती हिस्से में होंगे तो दौड़कर चढ़ने का भी मौक़ा नहीं मिलेगा और यदि ट्रेन तक पहुँच भी गए और तब तक स्पीड ज़्यादा हो गई तो कैसे चढ़ेंगे? कहीं तुम या मैं कोई स्टेशन पर ही छूट गया तो?"

"ऐसा सोचकर डरो नहीं। डर गई तो अपने घर से ही नहीं निकल पाओगी। हमें थोड़ा तो ख़तरा मोल लेना ही पड़ेगा। ऐसा करेंगे कि जहाँ प्लेटफॉर्म ख़त्म होने वाला होता है वहीं कोने में थोड़ा पहले चल कर कहीं छिपे रहेंगे। जैसे ही ट्रेन उधर से निकलने लगेगी वैसे ही हम लोग इंजन के बाद वाली ही बोगी पर चढ़ लेंगे। उस समय तक ट्रेन की स्पीड इतनी ज़्यादा नहीं होती कि हम लोग चढ़ ना सकें।"

"चलो, जैसे भी हो चलना तो हर हाल में है। जैसा कहोगे वैसा करूँगी। मुझे ठीक से समझाते रहो बस। तुम जानते ही हो कि मैं ढक्कन हूँ। लेकिन ये बताओ आओगे कब?”

युवती ने उसे कुछ देर पहले ढक्कन कहे जाने पर तंज़ करते हुए पूछा तो युवक के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभर आई है। वह कह रहा है, "कल इसी टाइम। तुम यहीं मिलना। यहीं से निकल चलेंगे दोनों लोग।"

"यह बताओ कि मान लो ट्रेन लेट हो गई तो?"

"ओफ्फो, शुभ-शुभ बोलो ना। हर बार तुम गंदा ही काहे बोलती हो। उल्टा ही क्यों बोलती हो। सीधा नहीं बोल पाती क्या?"

"नहीं मान लो अगर ऐसा हो गया, ट्रेन लेट हो गई। दो घंटा, तीन घंटा और सवेरा हो गया, तब क्या करेंगे?"

"तब, तब हम लोग डिब्बे में ही बैठे रहेंगे। अगला फिर पूरा दिन वहीं बिताएँगे और जब फिर अगली रात को ट्रेन आएगी, तब जाएँगे।"

"और टिकट, पहले वाला टिकट तो बेकार हो चुका होगा।"

"अरे यार भेजा को एकदम उबाल काहे देती हो। सीधी सी बात है फिर दूसरा टिकट ले लेंगे।"

"इसके लिए तो स्टेशन पर जाना ही पड़ेगा ना।"

"देखो, अगर फिर टिकट लेने के लिए जाने में ख़तरा दिखेगा तो बिना टिकट ही चल देंगे।"

"और टी.टी. ने पकड़ लिया तो।"

"वहाँ पकड़े जाने पर इतनी दिक्क़त नहीं आएगी। उससे रिक्वेस्ट कर लेंगे कि अर्जेंसी थी, टिकट नहीं ले पाए। ट्रेन छूट रही थी। जो जुर्माना हो वह दे देंगे, और सुनो अब जो भी बोलना अच्छा बोलना। कुछ उल्टा-सीधा मत बोलना कि यह हो गया तो, वह हो गया तो, अरे अच्छा बोलना कब सिखोगी? इतनी पकाऊ क्यों बनती जा रही हो।"

"ढक्कन हूँ, इसलिए।"

युवती यह कह कर हँसने लगी है। युवक उसके सिर पर प्यार भरी एक टीप मारकर कह रहा है, "चुप, अब किन्तु-परन्तु, लेकिन-वेकिन कुछ भी नहीं कहना। वरना बता देता हूँ।"

"देखो सावधानी तो बरतनी चाहिए ना। ख़ाली अच्छा बोलने से तो अच्छा नहीं होने लगता ना। अच्छा यह बताओ घर से कुछ सामान भी लेकर चलना है क्या? जो-जो लेना है, वह तो बता दो ना।"

"अजीब पगली लड़की है। घर में सामान रखना शुरू करोगी। उसे लेकर निकलोगी तो जिसे शक ना होना होगा वह भी जान जाएगा और तुरन्त पकड़ ली जाओगी।"

"अरे कुछ कपड़े तो लूँगी। बाहर निकलूँगी तो क्या पहनूँगी, क्या करूँगी?"

"तुम उसकी चिंता ना करो। हम कई साल ज़्यादा से ज़्यादा पैसा इकट्ठा करते आएँ हैं। हमने काम भर का कर भी लिया है जिससे कि यहाँ से कोई सामान लेकर ना चलना पड़े। जो कपड़ा पहनें बस वही और कुछ नहीं। ताकि सामान के चक्कर में धरे ना जाएँ। जब ज़रूरत होगी तब ख़रीद लेंगे। 

सामान के नाम पर तुम केवल अपना आधार कार्ड, पढ़ाई के सर्टिफ़िकेट वग़ैरह ले आना। पॉलिथीन में रखकर सलवार में खोंस लेना, समझी। अब घर जाओ और कल इसी टाइम यहीं आ जाना। ऐसा ना करना कि मैं इंतज़ार करता रह जाऊँ और तुम घर पर ही बैठी रहो।"

"यह क्या कह रहे हो, मैं हर हाल में आऊँगी। ना आ पाई तो दुपट्टे से ही फाँसी लगा लूँगी या फिर बाहर कुएँ में कूदकर मर जाऊँगी। बहुत सालों से सूखा पड़ा है, ऊपर से पानी बरसता नहीं, नीचे पानी बचा नहीं है। मेरे ख़ून से उसकी बरसों की प्यास बुझ जाएगी।"

"हद कर दी है। अरे, तुम्हें मरने के लिए नहीं बोल रहा हूँ। तुम मरोगी तो मैं भी मर जाऊँगा। कितनी बार बोल चुका हूँ। समझती क्यों नहीं। इसलिए तुम यहाँ आओगी, हर हाल में आओगी और हमारे साथ चलोगी। कुछ बहाना करना क्या सोचना भी नहीं। थोड़ी बहुत देर हो जाए तो कोई बात नहीं। चलेगा। जितने काम कहे हैं वह सब आज ही कर लेना। कुछ भूलना नहीं।"

"ठीक है, नहीं भूलूँगी। तुम भी भूलना नहीं। यह अच्छी तरह समझ लो, हमारा दिल बहुत धड़क रहा है। पता नहीं क्या होगा।"

युवती अचानक ही बड़ी गम्भीर हो गई है। चेहरे पर चिंता, भय की लकीरें उभर आईं हैं। उसका भ्रम दूर करते हुए युवक कह रहा है, "कुछ नहीं होगा। हमने सालों से तैयारी की है। तुम्हें हर हाल में लेकर चलेंगे। अपनी दुनिया बसाएँगे। अपनी तरह से रहेंगे। बहुत हो गयी सबकी। अब हम अपने मन की करेंगे। अच्छा, अब तुम जाओ, नहीं तो देर हो जाएगी। तुम्हारे घर वाले पचास ठो बात पूछेंगे, दुनिया भर की गालीगुत्ता करेंगे, मारेंगे।"

"मारेंगे क्या, अम्मी अब भी चप्पलों से मारने लगती हैं तो गिनती नहीं। बस मारे चली जाएँगी। ऐसे मारती हैं जैसे कि कपड़ा धो रही हों। कोई ग़लती हो या नहीं। उन्हें मारना है तो मारेंगी। कहने को कोई बहाना भी नहीं ढूँढ़ती।"

"अब तुम्हें कोई छू भी नहीं पाएगा। बस एक दिन की ही बात रह गई है। ठीक है, जाओ कल मिलेंगे।"

"इतनी बेरुख़ी से ना भेजो। बड़ा दुख हो रहा है।"

"अभी प्यार का समय नहीं है। समझो इस बात को। इसलिए जाओ। हमेशा प्यार पाने के लिए थोड़ा दुख भी हँसते हुए सहना चाहिए।"

युवक युवती का हाथ मज़बूती से पकड़े-पकड़े कह रहा है। मन युवती का भी रुकने का है। लेकिन जाना ज़रूरी है। इसलिए वह कह रही है, "एक तरफ़ कह रहे हो जाओ-जाओ और हाथ छोड़ते ही नहीं। कुछ समझ ही नहीं पा रही हूँ, क्या करना चाह रहे हो, क्या कहना चाह रहे हो?"

"साफ़-साफ़ तो समझा रहा हूँ। पता नहीं तेरी समझ में पहली बार में कोई बात क्यों नहीं आती? यहाँ पर प्यार दिखाने लगे और किसी ने देख लिया तो सारा प्यार निकल जाएगा। प्यार करेंगे, तुम्हें पूरा प्यार करेंगे। इतना करेंगे कि तुम ज़िंदगी भर भूल नहीं पाओगी। लेकिन अभी जाओ जिससे हम दोनों को ज़िंदगी भर प्यार करने को मिले, समझी। इसलिए अभी बेरुख़ी ज़रूरी है, जाओ।"

दुविधा में पड़ा युवक युवती का हाथ अब भी पकड़े रहा तो इस बार युवती हाथ छुड़ाकर चल दी। युवक ने उसका हाथ छोड़, उसे जाने दिया। असल में दोनों एक-दूसरे को पकड़े हुए थे और कोई किसी को छोड़ना नहीं चाहता था। मगर परिस्थितियों के आगे वो मजबूर हैं। दोनों का प्यार इतना प्रगाढ़ हो गया है कि इनकी जीवन डोर दो से मिलकर एक हो गई है। चोटी की तरह मज़बूती से गुँथ गई है। इनके निश्छल प्यार, निश्छल बातों को हमें यूँ ही हवा में नहीं उड़ा देना चाहिए।

यह दोनों किशोरावस्था को कुछ ही समय पहले पीछे छोड़ आए हैं। इनके बीच जब इस रिश्ते का बीज पड़ा तब यह किशोर थे। ये ना एक साथ पढ़ते हैं, ना ही पड़ोसी हैं। कभी-कभी आते-जाते बाज़ार में नज़र मिल जाती थी। पहले आँखों से बातें हुईं फिर जुबाँ से। जब बातें शुरू हुईं तो यह रिश्ता अंकुरित होकर आगे बढ़ने लगा, वह भी बड़ी तेज़ी से। अब देखिए यह कहाँ तक जाता है। कल दोनों फिर यहीं आएँगे। वचन तो यही दिया है। मैं यह वचन आपको दे रहा हूँ कि तब मैं फिर आपको आँखों देखा दृश्य बताऊँगा। आगे जो होने वाला है वह बेहद दिलचस्प है। मैं गोधूलि बेला में आ जाऊँगा और आगे का हाल बताऊँगा।

मित्रो, पूरे चौबीस घंटे बीत चुके हैं। सूर्यास्त होने वाला है। केसरिया रंग का एक बड़े थाल बराबर गोला क्षितिज रेखा को छू चुका है यानी गोधूलि बेला है और मैं आपको दिये वचन को निभाने के क्रम में नाले किनारे आ गया हूँ, आँखों देखा हाल बताने। युवक भी आ चुका है। उसकी बेचैनी देखिए कि दो घंटे पहले से ही आकर बैठा हुआ है, नाले में ही। कभी लेटता है, कभी बैठता है। इंतज़ार कर रहा है। इतना बेचैन है कि उसी में उलट-पुलट जा रहा है। पसीने से तर है, चेहरा लाल हो रहा है। कभी घास उखाड़-उखाड़ कर फेंक रहा है, कभी कोई तिनका मुँह में रख कर दूर उछाल रहा है।

लेकिन पहाड़ सा उसका इंतज़ार, बेचैनी ख़त्म ही होने वाली है। वह युवती दूर से जल्दी-जल्दी आती मुझे दिखाई दे रही है। इधर युवक फिर लेट गया है पेट के बल और युवती मुँडेर पर पहुँच कर बड़ी सतर्क नज़रों से हर तरफ़ देख रही है। उसे कोई ख़तरा नहीं दिखा तो वह बिल्ली की तरह फुर्ती से नाले में उतरकर युवक से लिपट गई है। एकदम दुबकी हुई है। उसको देखते ही युवक भनभना रहा है। अब आप सुनिए उनकी बातें, जानिए आज क्या करने वाले हैं ये दोनों।

"कितनी देर कर दी, मालूम है तुम्हें। दो घंटे से यहाँ इंतज़ार कर रहा हूँ।"

"लेकिन मैं तो आधा घंटा ही देर से आई हूँ। तुम दो घंटे पहले ही आ गये तो मेरी क्या ग़लती।"

"अरे आधे घंटे की देरी कोई देरी ही नहीं है क्या?"

"जानती हूँ, लेकिन क्या करें। आज तो निकलना ही मुश्किल हो गया था। छोटे भाई ने कुछ उठा-पटक कर दी थी। अम्मी पहले से ही ना जाने किस बात पर ग़ुस्सा थीं। बस उन्होंने पूरे घर को बवाले-ए-घर बना दिया। आज जितनी मुश्किल हुई निकलने में, उतनी पहले कभी नहीं हुई थी। दुनिया भर का बहाना बनाया, ड्रामा किया कि यह करना है, वह करना है, सामान लाना है। तब जाकर बोलीं, "जाओ और जल्दी आना।"

मगर साथ ही भाई को भी लगा दिया। तो मैंने कहा, दर्जी के यहाँ भी जाना है। उसके यहाँ से काम ले कर आना है। ये रास्ते भर शैतानी करता है। इसे नहीं ले जाऊँगी। यह बात मानी तो एक काम और जोड़ दिया कि तरकारी भी लेती आना। घंटों क्या-क्या तरक़ीबें अपनाई, बता नहीं सकती। उनकी ज़िद देखकर तो मुझे लगा कि शायद अम्मी को शक हो गया है और मुझे अब सूखे कुँए में जान देनी ही पड़ेगी।"

युवती ने बहुत ही धीमी आवाज़ में अपनी बात कहकर युवक का हाथ पकड़ कर चूम लिया है। उसकी हालत देखकर युवक कह रहा है, "वह तो ठीक है लेकिन ये कपड़ा कैसा पहन लिया है? एकदम ख़राब। रोज़ तो इससे अच्छा पहनती थी।"

"क्या करूँ, ज़्यादा अच्छा वाला पहनने का मौक़ा ही नहीं मिल पाया। उनका ग़ुस्सा देखकर तो मुझे लग रहा था कि आज घर से बाहर क़दम निकाल ही नहीं पाऊँगी। मैं यही कोशिश करती रही कि किसी तरह निकलूँ यहाँ से। अच्छा कपड़ा भी रात में ही अलग कर लिया था। लेकिन मौक़ा नहीं मिला तो सोचा जो मिल गया, वही सही। जल्दी में यही हो पाया। हम इतना डरे हुए थे कि दिल अभी तक घबरा रहा है। मैं बार-बार पानी पी रही थी। लेकिन फिर भी पसीना आ रहा था।"

"चलो अच्छा, कोई बात नहीं, जैसा होगा देखा जाएगा। सारे पेपर्स रख लिए हैं ना?"

"हाँ, जो-जो कहा था वह सब पॉलिथीन में रख के सलवार में खोंस लिया है। अब बताओ क्या करना है?"

युवती कुर्ते को थोड़ा सा ऊपर उठाकर दिखाते हुए कह रही है। युवक पेपर्स को देखकर निश्चिंत होकर कह रहा है, "बहुत अच्छा। ये पेपर्स हमारे सिक्युरिटी गॉर्ड हैं। अब यहाँ से जल्दी से जल्दी चल देना है। दस-पंद्रह मिनट भी देर होने पर तुम्हें घर वाले ढूँढ़ना शुरू कर देंगे। इसलिए तुरन्त चलो।" इसी के साथ युवक सिर नाले से ऊपर कर चारों तरफ़ एक नज़र डाल रहा है। उसे रास्ता साफ़ दिखा तो वह नाले से बाहर निकलते हुए कह रहा है, "आओ जल्दी। जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाओ और बात बिल्कुल ना कर। हमें थोड़ा आगे-आगे चलने दे।"

दोनों अपनी पूरी ताक़त से बड़ी तेज़ चाल से चल रहे हैं। लग रहा है कि बस दौड़ ही पड़ेंगे। उधर क्षितिज रेखा पर कुछ देर पहले तक दिख रहा केसरिया बड़े थाल सा अर्ध घेरा भी कहीं ग़ायब हो गया है। बस धुँधली लालिमा भर रह गई है। आपने यह ध्यान दिया ही होगा कि दोनों कितने तेज़, होशियार हैं। कितने दूरदर्शी हैं कि यदि कहीं पुलिस पकड़ ले तो वह अपने सर्टिफ़िकेट्स दिखा सकें कि वह बालिग हैं और जो चाहें वह कर सकते हैं। क्या आप यह मानते हैं कि आज की पीढ़ी का आई.क्यू. लेविल आपकी पीढ़ी से बहुत आगे है। इस बारे में आप सोचते-समझते रहिए। फ़िलहाल वह दोनों तेज़ी से, सावधानी से आगे बढ़े जा रहे हैं। युवक ने बातें ना करने की चेतावनी दी थी, लेकिन बातें फिर भी हो रही हैं... सुनिए। युवती बिदकती हुई कह रही है।

"ठीक है, ठीक है, तुम चलो आगे-आगे।" कुछ ही मिनट चलने के बाद फिर कह रही है, "डिब्बा कितना ज़्यादा दूर है। पहले लगता था जैसे सामने खड़ा है। अब चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं और डिब्बा है कि पास आ ही नहीं रहा। लग रहा है जैसे वह भी हमारी ही चाल से और आगे चला जा रहा है।"

"तुमसे कहा ना। चुपचाप चलती रहो। बोलो नहीं। अगल-बगल कोई हो भी सकता है। सुन सकता है।"

"ठीक है।" दरअसल चलने में युवक को तो कम युवती को ज़्यादा तकलीफ़ हो रही है। दोनों एबॉन्डेण्ड बोगी की तरफ़ जिस रास्ते से आगे बढ़ रहे हैं। वह एक बड़ा मैदान है। झाड़-झंखाड़, घास से भरा उबड़-खाबड़। इसीलिए युवती फिर परेशान होकर कह रही है, "पंद्रह-बीस मिनट हुए चलते-चलते। अब जाकर डिब्बा दिखना शुरू हुआ।"

"हाँ, लेकिन सामने की तरफ़ से नहीं चलेंगे, उधर लाइट है। रेलवे ने भी इधर ही सबसे बड़ी लाइट लगवाई है।"

युवक ने लाइट से बचने के लिए थोड़ा लम्बा वाला रास्ता पकड़ा हुआ है। जो झाड़-झंखाड़ से ज़्यादा भरा हुआ है। युवती बड़ी डरी-सहमी हुई उससे एकदम सटकर चलना चाह रही है, तो युवक कह रहा है। "तुम एकदम मेरे साथ नहीं रहो। थोड़ा पीछे रहो।"

"लेकिन मुझे डर लग रहा है। पता नहीं कौन-कौन से कीड़े-मकोड़ों की अजीब सी आवाज़ें आ रहीं है। कहीं साँप-बिच्छू ना हों।"

"मैं हूँ तो साथ में। बिल्कुल डरो मत, फुल लाइट में रहे तो बे-मौत मारे जाएँगे। इसलिए इधर से ही जल्दी-जल्दी चल। बहस मत कर।"

"ठीक है।"

दोनों उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते, लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते क़रीब आधे घंटे में डिब्बे तक पहुँच ही गए हैं। दोनों के हाथ, पैर, चेहरे कई जगह छिले हुए हैं। अँधेरा घना हो चुका है और कोई समय होता तो लड़की इतने अँधेरे में बड़े-बड़े झाड़-झंखाड़ों, कीड़ों-मकोड़ों, झींगुरों की आवाज़ से सहम जाती, डर कर बेहोश हो जाती। लेकिन पकड़े जाने के डर, युवक के साथ ने इतना हौसला बढ़ा रखा है कि अब वह पूरी हिम्मत के साथ बरसों से खड़ी, कबाड़ बन चुकी बोगी में चढ़ रही है। बेहिचक। युवक जल्दी चढ़ने को कह रहा है तो सुनिए वह क्या बोल रही है।

"चढ़ तो रही हूँ। इतनी तो ऊँची सीढ़ी है।"

"अरे, तो क्या तुम समझती हो कि तुम्हारे घर के दरवाज़े की सीढ़ी है।"

युवक उसे नीचे से सहारा देते हुए कह रहा है तो वह बोल रही है, "छोड़ो मुझे, मैं चढ़ गई। आओ, तुम भी जल्दी आओ।"

"तू आगे बढ़ तब तो मैं अन्दर आऊँ। और मुँह भी थोड़ा बंद रख ना। ज़्यादा बोल नहीं।"

युवक डिब्बे में आने के बाद आगे हो गया, युवती पीछे। कूड़ा-करकट, धूल-गंदगी से भरी बोगी में आगे बढ़ते हुए युवक कह रहा है। "सबसे पहले इधर बीच में आओ, इस तरफ़। हमने जगह इधर ही बनाई है।"

युवती मोबाइल की बेहद धीमी लाइट में बहुत सँभलते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही है। रास्ते में शराब की ख़ाली पड़ी बोतलों से उसका पैर कई बार टकराया तो बोतलें घर्रर्र करती हुईं दूर तक लुढ़कती चल गईं। युवक ने उसे सँभलने को कहा। माँस खाकर फेंकी गई कई हड्डियों से भी युवती मुश्किल से बच पाई है। वह जब युवक द्वारा बोगी के बीचों-बीच बनाई गई जगह पर पहुँची तो वहाँ देखकर बोली, "अरे, यहाँ तो तुमने चटाई-वटाई सब डाल रखी है। बिल्कुल साफ़-सुथरा बना दिया है।"

"वाह! पानी भी रखा है।"

"हाँ थोड़ा सा पानी पी लो। हाँफ रही हो।"

"तुम भी पी लो, तुम भी बहुत हाँफ रहे हो और सुनो सारे दरवाज़े बंद कर दो।"

"नहीं, दरवाज़ा जैसे सालों से है वैसा ही पड़ा रहने दो। नहीं तो किसी की नज़र पड़ी तो ऐसे भले ध्यान ना जाए, लेकिन बदली हुई स्थिति उसका ध्यान खींच लेगी। फिर वह चेक भी कर सकता है। इसलिए चुपचाप बैठी रहो। बोलो नहीं।"

दोनों चटाई पर बैठ गए हैं। वहीं पानी की बोतलें, खाने की चीज़ों के कई पैकेट भी रखे हैं। बोगी की सीटें बेहद जर्जर हालत में हैं। इसलिए युवक ने नीचे ज़मीन पर ही बैठने का इंतज़ाम किया है। युवक के मोबाइल ऑफ़ करते ही युवती उसे टटोलते हुए कह रही है, "लेकिन मोबाइल क्यों ऑफ़ कर दिया, ऑन कर लो थोड़ी सी लाइट हो जाएगी। इतना अँधेरा है कि पता ही नहीं चल रहा कि तुम किधर हो।"

"नहीं। एकदम नहीं। ज़रा सी भी लाइट बाहर अँधेरे में दूर से ही चमकेगी। किसी की नज़र में आ जाएगी। बेवज़ह ख़तरा क्यों मोल लें। शांति से बैठे रहना ही अच्छा है।"

"ठीक है। लेकिन पूरी रात ही बैठना है। बस अपने आसपास ही लाइट रहती तो भी अच्छा था। ख़ैर अभी कितना टाइम हो गया है?"

"अभी तो साढ़े सात ही हुआ है।"

"बाप रे! अभी तो पूरे आठ-नौ घंटे यहाँ बैठना पड़ेगा। इतने घने अँधेरे में कैसे बैठेंगे? डर लग रहा है।"

"हम हैं ना। तो काहे को डर लग रहा है।"

"इतना अँधेरा है इसलिए। कितनी तो शराब की बोतलें, हड्डियाँ पड़ी हैं। सब पैर से टकरा रहीं थीं। यहाँ के सारे शराबी यहीं अड्डा जमाए रहते हैं क्या? बदबू भी कितनी ज़्यादा हो रही है।"

"पहले जमाए ही रहते थे, लेकिन पिछले महीने एक चोर को पुलिस ने यहीं से पकड़ कर निकाला था। उसको बहुत मारा था। उसके बाद से सारे चोर-उचक्के पीने-पाने वाले इधर का रुख़ नहीं करते। मैंने इन सारी चीज़ों का ध्यान पहले ही रखा था। लेकिन तुम मुझे इतना कसकर क्यों पकड़े हुए हो?"

"नहीं मुझे अपने से अलग मत करो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। इतना अँधेरा, ऊपर से साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े, झींगुर सब कितना शोर कर रहे हैं।"

"क्या बार-बार एक ही बात बोल रही हो। मैं छोड़ने नहीं थोड़ा आसानी से रहने को कह रहा हूँ। तुम तो इतना कसकर पकड़े हुए हो जैसे अखाड़े में दंगल कर रही हो। ये आवाज़ें डिब्बे के अंदर से नहीं, बाहर झाड़ियों से आ रही हैं। साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े जो भी हैं, सब बाहर हैं। इसलिए डरो नहीं। तुम तो इतना काँप रही हो जैसे बर्फ़ीले पानी से नहाकर पंखे के सामने बैठ गई हो।"

"मुझे बहकाओ नहीं। इतनी ही जगह तो साफ़ की है ना। बाक़ी पूरी बोगी तो वैसे ही है। सारे कीड़े-मकोड़े जहाँ थे अब भी वहीं हैं। आवाज़ें अन्दर से भी आ रही हैं। कहीं सारे कीड़े-मकोड़े सूँघते-सूँघते यहीं हमारे पास ना चले आएँ। सबसे बचने के लिए इन साँप-बिच्छूओं के बीच में तो हम आ गए हैं। अब यहाँ से निकलेंगे कैसे?"

युवती बहुत ही ज़्यादा घबराई हुई है। युवक को इतना कसकर पकड़े हुए है जैसे कि उसी में समा जाना चाहती हो। उसकी बात शत-प्रतिशत सही थी कि बाहर की तरह तमाम जीव-जंतु बोगी में भी भरे पड़े हैं। जो उन तक पहुँच सकते हैं। लेकिन युवक उसे हिम्मत बँधाए रखने के उद्देश्य से झूठ बोलता जा रहा है, कह रहा है कि, "जैसे घर से यहाँ तक आ गए हैं, वैसे ही यहाँ से निकलेंगे भी। शांति से, आराम से, सब ठीक हो जाएगा। इसलिए डरो नहीं। कीड़े-मकोड़े छोटे-मोटे हैं। आएँगे भी तो भगा देंगे या मार देंगे।" मगर युवती का डर, उसकी शंकाएँ कम नहीं हो रही हैं। वह पूछ रही है, "मान लो थोड़ी देर को कि मुझे यहाँ कुछ काट लेता है और मुझे कुछ हो गया तो तुम क्या करोगे?"

युवती के इस प्रश्न से युवक घबरा गया है। इस अँधेरे में भी युवती को बाँहों में कसकर जकड़ लिया है और कह रहा है, "मत बोल ऐसे। तुझे कुछ नहीं होगा। मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। मुझे पूरी बोगी साफ़ करनी चाहिए थी। मेरे रहते तुझे कुछ नहीं होगा। ऐसा कर तू मेरी गोद में बैठ जा। कीड़े-मकोड़े तुझ तक मुझसे पहले पहुँच ही नहीं पाएँगे। मेरे पास जैसे ही आएँगे मैं वैसे ही मार डालूँगा।"

युवक की बात सुनकर युवती ने उसे और कस लिया है। बहुत भावुक होकर कह रही है, "तुम मुझसे इतना प्यार करते हो। मुझे कोई कीड़ा-मकोड़ा काट ही नहीं सकता। लेकिन एक चीज़ बताओ, तुम्हें डर नहीं लगता क्या?"

"साँप-बिच्छुओं से बिल्कुल नहीं। लेकिन हमारे परिवार, गाँव वालों, पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर जो हाल होगा उससे डर लग रहा है। हम इंसान हैं और इंसानों से ही बच रहे हैं। क्योंकि जब ये पकड़ेंगे हमें, तो जीते जी ही हमारी खाल उतार लेंगे। जिंदा नहीं छोड़ेंगे, उससे डर लगता है। इज़्ज़त के नाम पर ये इंसान इतने क्रूर हो जाते हैं कि इनकी क्रूरता से क्रूरता भी थर्रा उठती है। ऑनर किलिंग की कितनी ही तो घटनाएँ पढ़ता रहता हूँ।

“एक में तो लड़के-लड़की को धोखे से वापस बुलाकर शरीर के कुछ हिस्सों को जलाया और तड़पाया। फिर खेत में कंडों व भूंसों के ढेर में ज़िंदा जला दिया। मुझे इसी से अपने से ज़्यादा तुम्हारी चिंता है कि पकड़े जाने पर तुम पर तुम्हारे घर वाले कितना अत्याचार करेंगे। तुम्हें कितना मारेंगे और मैं, तुम पर अत्याचार करने वाले को मार डालूँगा या फिर ख़ुद ही मर जाऊँगा। इसलिए शांति से रहो। एकदम डरो नहीं। मैं तेरे साथ में हूँ। मेरे पास इसी तरह चुपचाप बैठी रहो।"

"ठीक है, मुझे ऐसे ही पकड़े रहना, छोड़ना नहीं। मैं एकदम चुप रहूँगी।"

"ठीक है, लेकिन पहले यह बिस्कुट खाकर पानी पी लो। तुम्हारी हालत ठीक हो जाएगी। तुम अब भी काँप रही हो।"

युवक ने युवती को बिस्कुट-पानी दिया तो वह उसे भी देते हुए कह रही है, "लो तुम भी खा लो, तुम भी बहुत परेशान हो। मेरी वज़ह से तुम्हें बहुत कष्ट हो रहा है ना।"

"नहीं, तुम्हारी वज़ह से नहीं। इस दुनिया के लोगों के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। हम यहाँ इन्हीं लोगों के कारण तो हैं। आख़िर यह लोग हम लोगों को अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने क्यों नहीं देते। हर काम में यह इज़्ज़त का सवाल है। आख़िर यह सवाल कब तक बना रहेगा?

“अरे लड़का-लड़की बड़े हो गए हैं। तुमको जो करना था वह तुम कर चुके। अब उन्हें जहाँ जाना है, जिसके साथ जाना है, उनके साथ जाने दो, ना कि यह हमारे धर्म का नहीं है, दूसरे धर्म का है, वह हमारी जाति का नहीं है, ऊँची जाति वाला है, नीची जाति वाला है। आख़िर धर्म-जाति, रीति-रिवाज़, परम्परा के नाम पर यह सब नौटंकी काहे को पाले हुए हैं।"

"अरे चुप रहो, तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो, वह भी इतना तेज़ और हमसे कह रहो कि चुप रहो, चुप रहो।"

"क्या करूँ। इतनी ग़ुस्सा आ रहा है कि मन करता है इन सबको जंगल में ले जाकर छोड़ दूँ। कह दूँ कि जब हर इंसान को उसके हिसाब से जीने देने का अधिकार देने की आदत डाल सको तो इंसानों के बीच में आ जाना। अच्छा सुनो, आवाज़ बाहर तक जा रही होगी। हम दोनों अब चुप ही रहेंगे।"

"ठीक है, नहीं बोलूँगी, लेकिन सुनो किसी ट्रेन की आवाज़ आ रही है।"

"कोई मालगाड़ी होगी। पैसेंजर गाड़ी तो साढ़े तीन बजे है, जो हम दोनों को यहाँ से दूर, बहुत दूर तक ले जाएगी।"

"पैसेंजर है तो हर जगह रुकते-रुकते जाएगी।"

"नहीं अब पहले की तरह पैसेंजर ट्रेन्स भी नहीं चलतीं कि रुकते-रुकते रेंगती हुई बढ़ें। समझ लो कि पहले वाली एक्सप्रेस गाड़ी हैं जो पैसेंजर के नाम पर चल रही हैं। यहाँ से चलेगी तो तीन स्टेशन के बाद ही इसका पहला स्टॉपेज है।"

"सुनो, तुम सही कह रहे थे। देखो मालगाड़ी ही जा रही है।"

"हाँ।"

"लेकिन तुम इतना दूर क्यों खिसक गए हो। मेरे और पास आओ ना। मुझे पकड़ कर बैठो।"

"पकड़े तो हूँ। और कितने पास आ जाऊँ? अब तो बीच में से हवा भी नहीं निकल सकती।"

"नहीं। हम दोनों के मुँह के बीच से हवा निकल रही है। इसलिए और पास आ जाओ। इतना पास आ जाओ कि मुँह के बीच में से भी हवा ना निकल पाए।"

"लो, आ गया। अब कहने को भी बीच से हवा नहीं निकल पाएगी।"

"बस ऐसे ही ज़िंदगी भर साथ रहना।"

"ये भी कोई कहने की बात है।"

"पता नहीं कहने की बात है या नहीं लेकिन टाइम क्या हो रहा है?"

"अरे, कितनी बार टाइम पूछोगी?"

"टाइम ही तो पूछा है, इतना ग़ुस्सा क्यों हो रहे हो।"

"ग़ुस्सा नहीं हो रहा हूँ। जानती हो एक घंटे में तुम यह आठवीं बार टाइम पूछ रही हो।"

"पता नहीं। मैं तुम्हारी तरह गिनतीबाज़ नहीं हूँ। मुझे डर लग रहा है, इसलिए बार-बार सोच रही हूँ कि कितनी जल्दी ट्रेन आ जाए और हम लोग यहाँ से निकल चलें।"

"ट्रेन अपने टाइम से ही आएगी। हमारे टाइम या सोचने से नहीं।"

"फिर भी बताओ ना।"

"अभी साढ़े आठ बजे हैं, ठीक है। अब टाइम पूछ-पूछ कर शोर न करो। कोई आसपास सुन भी सकता है। समझती क्यों नहीं।"

"इतना धीरे बोल रही हूँ बाहर कोई नहीं सुन पाएगा।"

"फिर भी क्या ठिकाना?"

"लो, इतनी बात कह डाली मगर टाइम नहीं बताया।"

"हद कर दी, अभी बताया तो कि साढ़े आठ बजे हैं। सुनना भी भूल गई हो क्या?"

"इतना अँधेरा है, ऊपर से जब गाड़ी का टाइम कम ही नहीं हो रहा है तो क्या करूँ?"

"तुम चुपचाप बैठी रहो बस और कुछ ना करो। सब ठीक हो जाएगा। मैं हूँ ना, मुझ पर भरोसा रखो। तुमको परेशान होने, डरने की ज़रूरत नहीं है।"

"परेशान नहीं हूँ। तुम पर भरोसा करती हूँ, तभी तो सब छोड़-छाड़ कर तुम्हारे साथ हूँ।"

युवक युवती की व्याकुलता, तकलीफ़ों से परेशान हो उठा है। उसे उस पर बड़ी दया आ रही है कि कैसे उसे आराम दे। यह सोचते हुए उसने कहा, "ऐसा करो तुम सो जाओ, अभी बहुत टाइम बाक़ी है।"

"कहाँ सो जाऊँ? यहाँ क्या बिस्तर लगा है जो मैं सो जाऊँ।"

"बिस्तर तो नहीं है लेकिन इस पर लेट कर आराम कर सकती हो। इसलिए इसी पर लेट जाओ। टाइम होने पर मैं तुम्हें उठा दूँगा।"

युवक की बातों से युवती बहुत भावुक हो रही है। कुछ देर चुप रहने के बाद कह रही है। "मैं सो जाऊँ, आराम करूँ और तुम जागते रहो।"

"और क्या, एक आदमी को तो जागना ही पड़ेगा। नहीं तो गाड़ी आकर निकल जाएगी और पता भी नहीं चलेगा।"

"ठीक है तो दोनों जागेंगे।"

यह लीजिए। यह कहते हुए युवती युवक से लिपट गई है। उसे बाँहों में भर लिया है। दोनों अब अँधेरे में अभ्यस्त हो गए हैं। एक मोबाइल बहुत कम ब्राइटनेस के साथ ऑन करके युवक ने ज़मीन पर उल्टा करके रखा हुआ है। उसके एक सिरे पर नीचे कागज़ मोड़कर रख दिया है जिससे मोबाइल एक तरफ़ हल्का सा उठा हुआ है और आसपास कहने को कुछ लाइट हो रही है। युवक बड़े प्यार से युवती की पीठ सहलाते हुए कह रहा है, "ज़िद क्यों कर रही हो? अभी बहुत टाइम है। तुम्हारा साढ़े तीन बजे तक बैठे रहना अच्छा नहीं है। थक जाओगी फिर आगे चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।"

"ऐसा करते हैं ना, पहले मैं सो लेती हूँ, उसके बाद तुम सो लेना। थोड़ी-थोड़ी देर दोनों सो लेते हैं।"

"तुम्हें ये क्या हो गया है कि सोने के ही पीछे पड़ी हो?"

"तुम अकेले बहुत ज़्यादा थक जाओगे इसीलिए कह रही हूँ।"

"ऐसा है तुम लेट जाओ। चलो इधर आओ। अपने पैर सीधे करो और सिर मेरे पैर पर रख लो। ऐसे ही लेटी रहो।"

युवती की ज़िद से खीझे युवक ने एक तरह से उसे खींचते हुए ज़बरदस्ती लिटा लिया है। वह लेटती हुई कह रही है, "देखो जागते रहना, तुम भी सो मत जाना।"

"मेरी चिंता मत करो। मैं तभी सोऊँगा जब यहाँ से सही-सलामत निकलकर दिल्ली पहुँच जाऊँगा।"

"ये बताओ दिल्ली ही क्यों चल रहे हो?"

"क्योंकि वहाँ पर बहुत सारे लोग हैं। इसलिए वहाँ हमें कोई ढूँढ़ नहीं पाएगा।"

"पहले कभी गए हो वहाँ, जानते हो वहाँ के बारे में?"

"पहले कभी नहीं गया। थोड़ा बहुत जो जानता हूँ वह यू-ट्यूब, गूगल, पेपर वगैरह में जो भी पढ़ा-लिखा, देखा, बस वही जानता हूँ।"

"कहाँ रुकेंगे और क्या करेंगे?"

"पहले यहाँ से निकलने की चिंता करो। वहाँ पहुँचकर देख लेंगे।"

"हाँ, सही कह रहे हो।"

यह दोनों भी ग़ज़ब के हैं। एक-दूसरे को बार-बार चुप रहने को कहते हैं, लेकिन बातें अनवरत करते जा रहे हैं। इसी समय फिर बोगी के आसपास कुछ आहट हुई है। सजग युवक उसे चुप कराते हुए कह रहा है "एकदम शांत रहना, लगता है कोई इधर से निकल रहा है।"

"तुम्हें कैसे पता चला, हमें तो कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही," युवती फुसफुसाती हुई कह रही है।

"झाड़ियों की सरसराहट नहीं सुन रही हो। अभी तुम चुप रहो, बाद में बताएँगे।"

इस समय दोनों एकदम साँस रोके हुए पड़े हैं। हिल-डुल भी नहीं रहे हैं। सच में भयभीत कर देने वाला दृश्य है। झाड़ियों से सरसराहट की ऐसी आवाज़ आ रही है मानो कोई बड़ा जानवर उनके बीच से निकल रहा है। बोगी के एकदम क़रीब आकर सरसराहट की आवाज़ रुक गई है। मगर किसी जानवर की बहुत हल्की गुर्राहट, साथ ही नथुने से तेज़ सूँघने जैसी आवाज़ आ रही है। जैसे वह सूँघ कर आसपास क्या है यह जानना चाह रहा है।

भय से संज्ञा-शून्य कर देने वाला माहौल बना हुआ है। क़रीब तीन-चार मिनट बाद सरसराहट फिर शुरू हुई है और अब दूर जाती हुई ग़ायब हो गई है। अब तक दोनों साँस रोके हुए बैठे हैं। युवती डर के मारे पसीने से तर हो रही है। उसकी साँसें इतनी तेज़ चल रही हैं कि जैसे वह कई किलोमीटर लगातार दौड़कर आई है। उसकी धड़कन की धुक-धुक साफ़ सुनाई दे रही है। झाड़ियों में हलचल ख़त्म होने के बाद वह कह रही है।

"तुम सही कह रहे थे, झाड़ियों में से कुछ लोग निकले तो ज़रूर हैं।"

"जिस तरह से तेज़ आवाज़ हो रही थी झाड़ियों में उससे एक बात तो पक्की है कि कोई जानवर था। बड़ा जानवर। कुछ आदमियों के निकलने से ऐसी आवाज़ नहीं आती।"

"तो हम लोग यहाँ पर सुरक्षित हैं ना?"

"हाँ, हम सुरक्षित हैं। लेकिन ख़तरा तो बना ही हुआ है।"

"ख़तरा ना होता तो हम यहाँ...।"

इसी समय बाहर फिर आवाज़ होने पर युवक बड़ी फुर्ती से युवती को चुप करा रहा है, "चुप चुप, सुन, मेरा मन कह रहा है की झाड़ियों में अब जो आवाज़ हुई है वह किसी जानवर की नहीं है। मुझे लगता है कि कई लोग हमें एक साथ ढूँढ रहे हैं। नौ बज गया है। हमारे घर वाले ही होंगे। कई लोग एक साथ निकले होंगे।" यह सुनकर युवती हड़बड़ा कर उठ बैठी है। थोड़ा झुँझलाया हुआ युवक कह रहा है, "इस तरफ़ से ज़्यादा आवाज़ आई है। इसलिए चुपचाप लेटी रहो। बैठ क्यों गई?"

"क्योंकि अब मुझसे और नहीं लेटा जाता।"

"ठीक है, बैठी रहो, लेकिन इतना डर क्यों रही हो? मुझे इतना जकड़े जा रही हो, लगता है जैसे मेरी हड्डी-पसली तोड़ने की कोशिश कर रही हो।"

"मुझे ऐसे ही पकड़े रहने दो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। छोड़ दूँगी तो मेरी तो साँस ही रुक जाएगी।"

"इतना डरने से काम नहीं चलेगा। इतना ही डरना था तो घर से निकलती ही ना। मैंने तुम्हें पहले ही कितनी बार बताया था कि हिम्मत से काम लेना पड़ेगा, तभी निकल पाएँगे। डरने से कुछ नहीं होगा, समझी। इस तरह डरोगी तो ऐन टाइम पर सब गड़बड़ कर दोगी। सबसे अच्छा है कि इस समय कुछ भी बोलो ही नहीं। रात गहराती जा रही है, ढूँढ़ने वाले पूरी ताक़त से चारों तरफ़ लगे होंगे। सब इधर-उधर घूम रहे होंगे। इसलिए एकदम साँस रोक के लेटी रहो या बैठी रहो। जैसे भी रहो, आवाज़ बिल्कुल भी नहीं करो, जिससे मुझे कुछ बोलने के लिए मजबूर ना होना पड़े।"

"लेकिन सुनो।"

"हाँ बोलो।"

"मतलब यह कि मुझे, मुझे जाना है.. मतलब कि...। तुमने वहाँ भी तो देख लिया था ना सब कुछ। सब ठीक है ना। दरवाजा बंद तो नहीं है।"

"पता नहीं, इसका तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि इतने घंटों तक रहेंगे तो बाथरूम भी जाना पड़ेगा। अच्छा तुम यहीं पर लेटी रहो, मैं देखकर आता हूँ किधर ठीक-ठाक है। फिर ले चलता हूँ।"

"नहीं। मैं भी साथ चलूँगी। यहाँ मैं अकेले नहीं रुकूँगी।"

"ठीक है आओ।"

युवक युवती का हाथ पकड़कर एकदम झुके-झुके बाथरूम के पास पहुँच गया है। लाइट के लिए बीच-बीच में मोबाइल को ऑन कर रहा है। बाथरूम में नज़र डाल कर कह रहा है, "देखो बाथरूम तो गंदा पड़ा है। दरवाज़ा भी एकदम ख़राब है। आधा खुला है, जाम है, बंद भी नहीं होगा।"

घबराई युवती और परेशान हो उठी है। वह बड़ी जल्दी में है। कह रही है, "बंद नहीं होगा, तो मैं जाऊँगी कैसे?"

"देखो दरवाज़ा बहुत समय से जाम है। बंद करने के चक्कर में आवाज़ हो सकती है समझी। मैं नहीं चाहता कि इस तरह का कोई ख़तरा उठाऊँ। मैं इधर ही खड़ा हूँ तुम जाओ अंदर।"

लग रहा है कि युवती के पास समय नहीं है। वह कह रही है, "मोबाइल की टॉर्च तो जला दो।"

"पगली हो क्या? बार-बार कह रहा हूँ कि लाइट इस अँधेरे में बहुत दूर से ही लोग देख लेंगे। स्क्रीन लाइट ही बहुत है। समझ लो दीये की रोशनी में हो। ठीक है। जल्दी से जाओ।"

"अच्छा तुम यहीं खड़े रहना, कहीं जाना नहीं।"

"ठीक है, मैं यहीं बगल में खड़ा हूँ।"

"नहीं, और इधर आओ। मुझसे दूर नहीं जाओ।" डर के मारे युवती रुआँसी हो रही है। लेकिन युवक हिम्मत बढ़ा रहा है।

"तुम तो एकदम छोटी बच्ची जैसी हरकत कर रही हो।"

"डाँटो नहीं। नहीं तो मेरी जान ही निकल जाएगी।"

"डाँट नहीं रहा हूँ। तुम्हें समझा रहा हूँ, रिस्क लेना अच्छा नहीं है। अब जाओ जल्दी से।"

हड़बड़ाती, लड़खड़ाती, सहमी सी युवती अब बाथरूम से होकर लौट रही है। उसकी आँखों में आँसू चमक रहे हैं। सुनिए अब क्या कह रही है, "चलो, अब उधर चलो। एक मिनट रुकने को कहा तो दुनिया भर की बातें सुना डाली। तुम्हें भी करना हो तो कर लो। नहीं तो बाद में मुझे अकेला छोड़कर आओगे। लेकिन मैं आने नहीं दूँगी।"

"हाँ, लगी तो मुझे भी है।"

 यह सुनकर पता नहीं क्यों युवती हँस पड़ी तो युवक खिसिया गया है। कह रहा है, "अरे इसमें हँसने की क्या बात है। पाँच घंटे हो गए हैं, तुम्हें लग सकती है तो क्या मुझे नहीं?"

इस स्थिति में भी दोनों हास-परिहास कर ही ले रहे हैं। युवक बाथरूम के दरवाज़े पर है, उसकी हरकत पर युवती कह रही है, "क्या कर रहे हो? धक्का दे दूँगी, समझे। दरवाज़ा खोलो, जाओ, अंदर जाओ।"

"अरे, तुम तो ऐसे शर्मा रही हो कि क्या बताऊँ।"

"हाँ तो, अभी हम पति-पत्नी तो हैं नहीं।"

इस बात का युवक लौटते वक़्त जवाब दे रहा है। "अच्छा, तुम क्या कह रही थी अभी, हम पति-पत्नी नहीं हैं, तो क्या हैं, यह बताओगी।"

"सही तो कह रही हूँ। अभी हमारी शादी कहाँ हुई है। हम पति-पत्नी तो हैं नहीं। अभी तो हम दोनों एक साथ निकले हुए हैं। एक-दूसरे से प्यार करते हैं। प्रेमी हैं। एक-दूसरे की जान हैं। नहीं, नहीं एक ही जान हैं बस।"

"मेरी नज़र में यही सबसे बड़ा रिश्ता है कि हम एक हैं। कुछ रस्में निभाने से दो अनजान लोगों के अचानक एक साथ मिलने से कोई फ़ायदा नहीं। हम दोनों एक-दूसरे को चाहते हैं बस। मैं इसके अलावा कोई रिश्ता जानता ही नहीं।"

"सही कह रहे हो तुम। मैं तो ग़लती कर रही थी। आओ बैठो।" ये क्या बैठते वक़्त युवती का सिर युवक की नाक से टकरा गया। तो वह बोला, "सँभलकर।"

"क्या करूँ, अँधेरे में दिखाई नहीं दे रहा। तुम्हें ज़्यादा तेज़ तो नहीं लगी।"

युवती परेशान हुई तो वह बोला, "नहीं, तुम्हारा सिर भी मुझे फूल जैसा ही लगता है।"

युवक प्यार से युवती का सिर सहलाते हुए कह रहा है। जबकि नाक में उसे अच्छी ख़ासी तेज़ चोट लगी है। युवती कह रही है, "अच्छा, कभी होठों को फूल कहोगे, कभी सिर को। ख़ैर तुम चाहे जो कहो, अच्छा लगता है।" युवती ने युवक का हाथ चूम लिया तो वह बड़ा रोमांटिक हो कह रहा है।"ऐसे प्यार मत जताओ, नहीं तो मुझे भी प्यार करने का मन करने लगेगा।"

"तो करो ना। ऐसे तो अकेले में जब भी मिलते हो तो प्यार करने का कोई रास्ता छोड़ते ही नहीं हो। यहाँ तीन घंटे से एक साथ हैं। कोई आसपास भी नहीं है। अँधेरा भी है। मगर मैं देख रही हूँ कि तुमने अब तक प्यार का एक शब्द भी नहीं बोला है। बस ये ना करो। वो ना करो। इसके अलावा कुछ बोला हो तो बताओ।"

"मैं हर काम सही टाइम पर, सही ढंग से ही करता हूँ। मेरा पूरा ध्यान ट्रेन पर लगा हुआ है कि कैसे यहाँ से निकलें।" युवक बात पूरी भी नहीं कर पाया कि फिर कुछ हुआ है। उसने युवती का मुँह दबाकर उसे चुप करा दिया है। कह रहा है, "कुछ बोलना नहीं। लगता है दूसरी तरफ़ से कोई इधर ही आ रहा है। तुम यहीं रहो मैं खिड़की से झाँक कर देखता हूँ।"

"नहीं, यहीं ध्यान से सुनो।"

"बाहर देखकर ही सही बात पता चलेगी। इसलिए ऐसा है तुम एकदम सीट के नीचे जाओ, बिल्कुल नीचे। एकदम चिपक जाओ दीवार से। साँस लेने की भी आवाज़ न आए।" युवक युवती को सीट के एकदम नीचे धकेल कर बंद खिड़की की झिरी से बाहर कुछ देर देखने के बाद वापस आया गया है। युवती से कह रहा है, "आओ, बाहर निकलो। तीन-चार शराबी लग रहे थे। सब आगे चले गए।"

"मुझे बड़ा डर लग रहा है। कहीं यहाँ ना आ जाएँ।"

"बिल्कुल नहीं आएँगे। यहाँ साफ़ करने आया था, तो बहुत पुरानी शराब की बोतलें देखकर समझ गया था कि बहुत समय से यहाँ कोई नहीं आया। पुलिस रेड के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। यह सभी आगे कहीं और ठिकाना बनाए होंगे, वहीं चले गए।"

"सुनो, एक बात पूछूँ, ग़ुस्सा तो नहीं होगे ना?"

"पूछो।"

"देखो, अब कितना टाइम हो रहा है?"

युवती के टाइम पूछते ही युवक ने बड़े प्यार से उसके गालों को खींच लिया है। युवती भी प्यार से बोल रही है, "अरे, टाइम देखने को कहा है। गाल नोचने को नहीं।"

"मन तो कर रहा है तुम्हें पूरा का पूरा नोंच डालूँ। अभी तो केवल दस बजे हैं।"

"अब और कितने घंटे बाक़ी रह गए हैं।"

"क़रीब साढ़े पाँच घंटे बाक़ी हैं।"

"अच्छा, तुम्हें भूख नहीं लग रही क्या?"

"नहीं, मुझे भूख नहीं लगी है। तुम्हें लगी है तो लो तुम खाओ।"

युवक ने बड़ी फुर्ती से एक पैकेट उसे थमा दिया। मगर युवती कहाँ मानने वाली है। कह रही है, "नहीं, मैं अकेले नहीं खाऊँगी, तुम भी लो।" अब दोनों ही कुछ खा रहे हैं। युवती खाते-खाते ही लेट गई है। सिर युवक की जाँघों पर रख दिया है। दोनों फुसफुसाते हुए कुछ बातें भी कर रहे हैं। जो सुनाई नहीं दे रही हैं। बीच-बीच में एक-दूसरे को प्यार करते-करते दोनों जल्दी ही उसी में खो गये हैं। दोनों के प्यार की नज़र इतनी तेज़ है कि उन्हें लाइट की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। बड़ी शांति से घंटा भर निकल गया। चटाई, सामान वग़ैरह फिर से व्यवस्थित करने के बाद युवती कह रही है, "मैं जानती हूँ कि तुम ग़ुस्सा होने लगे हो। लेकिन ज़रा एक बार फिर से टाइम देख लो।"

"अभी तो ग्यारह ही बजे हैं।"

"अच्छा मान लो कि ट्रेन दो घंटे लेट हो गई तो।"

"तो सवेरा हो जाएगा। लोग हमें आसानी से देख लेंगे। तब इसी जगह छिपे रहने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचेगा।"

"लेकिन क्या दिन में कोई ट्रेन नहीं है?"

"हैं तो कई, लेकिन दिन में ख़तरा कितना रहेगा, यह भी तो सोचो। कोई ना कोई तुम्हारे, हमारे परिवार का ढूँढ़ता हुआ यहाँ मिल सकता है। तब तक हो सकता है पुलिस में रिपोर्ट लिखा चुके हों। ऐसे में पुलिस भी सूँघती फिर रही होगी।"

"मतलब कि चाहे जैसे भी हो हम लोगों को साढ़े तीन बजे वाली ट्रेन से ही चलना है और ऊपर वाले से दुआ यह करनी है कि ट्रेन टाइम से आ जाए। आधे घंटे भी लेट ना हो कि सवेरा होने लगे।"

"मुझे पूरा विश्वास है कि ट्रेन टाइम से आएगी। भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवान, जैसे भी हो आज ट्रेन को टाइम से ही भेजना। माना कि हम लोग अपने माँ-बाप से छिपकर भाग रहे हैं, ग़लत कर रहे हैं। वह भी आपकी तरह भगवान ही हैं, आप ही का रूप हैं। लेकिन एक तरफ़ यह भी तो है कि हम एक-दूसरे को जी जान से चाहते हैं। अगर नहीं भागेंगे तो मार दिए जाएँगे। इससे हमारे माँ-बाप पर भी हमारी हत्या का ही पाप चढ़ेगा। वह जीवन भर दुखी अलग रहेंगे। बाद में आप भी उनको इसके लिए सज़ा देंगे।

हम नहीं चाहते कि हमारे माँ-बाप को आप एक मिनट की भी कोई सज़ा दें। हम यहाँ से बच के निकल जाएँगे तो कुछ दिन बाद उनका ग़ुस्सा धीरे-धीरे कम हो जाएगा। फिर जब कभी हम वापस लौटेंगे तो वह हमें फिर से अपना लेंगे। इस तरह ना उनसे कोई पाप होगा, ना आप उनसे नाराज़ होंगे और हम अपना-अपना प्यार पाकर पति-पत्नी बन जाएँगे।"

"तुम सही कह रहे हो। जैसे भी हो ट्रेन टाइम से आए ही और जब तक हम यहाँ से दूर बहुत दूर ना निकल जाएँ तब तक किसी को कानों-कान ख़बर तक ना हो।"

"भरोसा रखो भगवान पर। वह हम लोगों का अच्छा ही करेंगे। हमारी इच्छा पूरी करेंगे और हमारे माँ-बाप को भी सारे कष्टों से दूर रखेंगे। जानता हूँ कि इससे वह लोग बहुत दुखी होंगे। बहुत परेशान होंगे, लेकिन क्या करें और कोई रास्ता भी तो नहीं बचा है। दुनिया वालों ने ऐसे नियम-क़ानून परम्पराएँ सब बना रखे हैं कि किसी को चैन से जीने ही नहीं देते। अपनी मनमर्जी से कुछ करने ही नहीं देते। जहाँ देखो कोई परम्परा खड़ी है। जहाँ देखो कोई नियम खड़ा है। कोई कुछ कर ही नहीं सकता। बस इन्हीं लोगों के हिसाब से करो। ज़िंदगी हमारी है और मालिक ये दुनिया बनी बैठी है।"

"सख़्त नियम-क़ानून, परम्पराओं तथा रीति-रिवाज़ों से हमें दुख के अलावा मिलता ही क्या है?"

"हाँ, लेकिन यह ज़रूरी भी तो है। अगर नियम क़ानून परम्पराएँ ना हों तो सारे लोग एक-दूसरे को पता नहीं क्या कर डालेंगे।"

"कुछ नहीं कर डालेंगे। सब सही रहेगा। ऐसा नहीं है कि तब कोई किसी को कुछ समझेगा ही नहीं, जो जैसा चाहेगा वैसा ही करेगा। सब एक-दूसरे को मारेंगे, काटेंगे जब जो चाहेंगे वह करेंगे एकदम अँधेर राज हो जाएगा। बिल्कुल जंगल के जानवरों से भी बदतर हालत हो जाएगी।"

युवती बड़े आवेश में आ गई है। युवक शांत करते हुए कह रहा है, "क्या बताऊँ, मानता तो मैं भी यहीं हूँ। लेकिन नियम-कानून समाज ने इसीलिए बनाए हैं कि हम में और जानवरों में फ़र्क़ बना रहे। मगर यह इतना सख़्त भी नहीं होना चाहिए कि दो लोग अपने मन की, जीवन की बातें ना कर सकें। अपने मन से जीवन जी ना सकें। अपने मन का कुछ कर ना सकें।" इसी समय युवती अचानक ही दोनों हाथों से युवक का मुँह टटोलने लगी है तो वह चौंकते हुए पूछ रहा है, "अरे! यह तुम क्या कर रही हो?"

"तुम्हारा मुँह ढूँढ़ रही हूँ। किधर है?"

"क्यों?"

"चुप रहो। मुझे लग रहा है कि आसपास फिर कुछ आहट हो रही है।"

"अच्छा, मुँह पर से हाथ तो हटाओ। मुझे सुनाई दे रहा है। यह कोई कुत्ता जैसा जानवर है। इतना फ़र्क़ तो तुम्हें पता होना चाहिए ना।"

"अरे पहली बार ऐसी रात में इस तरह कहीं पर बैठी हूँ, किसी की आहट पहचानने का कोई अनुभव थोड़ी ना है मेरे पास।"

"होना चाहिए ना। तुम्हारे घर में तो बकरी, मुर्गी-मुर्गा, कुत्ता सब पले हुए हैं। तुम्हारी मुर्गियाँ तो इतनी बड़ी और ज़बरदस्त हैं कि कुत्तों को भी दौड़ा लेती हैं।"

"दौड़ा तो तुम्हें भी लेती हैं।"

"हाँ, तुमने मुर्गियों को खिला-खिलाकर इतना मोटा-ताज़ा जो कर दिया है कि जब देखो तब लड़ने को तैयार रहती हैं और कुत्तों को तो खाना देती ही नहीं हो। वह सब साले एकदम सूखे से ऐसे हैं जैसे कि मॉडलों की तरह डाइटिंग करके सूख गए हैं।"

"ऐसा नहीं है। देशी कुत्ते इसी तरह रहते हैं, दुबले-पतले।"

"कुत्तों के बारे में इतनी जानकारी है। देशी-विदेशी, कौन मोटा होगा, पतला होगा, कैसा होगा, सब मालूम है।"

"कमाल करते हो। घर में पले हैं तो क्या इतना भी नहीं जानूँगी?"

"सच बताऊँ, तुम्हारी बात एकदम ग़लत है। पूरे गाँव में बाक़ी देशी कुत्तों को नहीं देखा है क्या, जो मोटे और बड़े भी हैं।"

"तुमने तो हद कर दी है। गाँव भर के कुत्तों की मैं जाँच-परख करती फिरती हूँ क्या? मेरे पास जैसे कुछ काम ही नहीं है।"

अनजाने ही दोनों नोंक-झोंक पर उतर आए हैं। युवती उत्तेजना में कुछ तेज़ बोल रही है। इसलिए युवक कह रहा है, "ऐसा है तू अब चुपचाप लेट जा, क्योंकि तू चुप रह ही नहीं सकती। बोलती रहेगी और कहीं किसी ने सुन लिया तो मुश्किल हो जाएगी।"

इसी बात के साथ दोनों ने ट्रैक चेंज कर दिया है। आवाज़ भी कम कर दी है। युवती एकदम फुसफुसाते हुए कह रही है।

"ऐसे बात करते रहेंगे तो टाइम कट जाएगा नहीं तो बहुत परेशान हो जाएँगे। अभी बहुत टाइम बाक़ी है।"

"परेशान होने के चक्कर में कहीं पकड़ लिए गए तो जान चली जाएगी।"

"तुम बार-बार जान जाने की बात करके डरा क्यों रहे हो?"

"डरा नहीं रहा हूँ। तुम्हें सच बता रहा हूँ। समझने की कोशिश करो, जहाँ तक हो सके शांत रहो। हो सकता है कि कोई नीचे से निकल रहा हो और हमारी बात सुन ले। बार-बार कह रहा हूँ कि रात में आवाज़ बहुत दूर तक जाती है।"

"क्यों? रात में ज़्यादा तेज़ चलती है क्या?"

"तू अब बिल्कुल चुप रह। एकदम नहीं बोलेगी, समझी।"

यह कहते-कहते युवक ने युवती का मुँह काफ़ी हद तक बंद कर दिया है। युवती छूटने की कोशिश करते हुए कह रही है, "अरे मुँह इतना कसके मत दबाओ, मेरी जान निकल जाएगी।"

"और बोलोगी तो सही में कसके दबा दूँगा। तब तक छोड़ूँगा नहीं जब तक कि तू चुपचाप पड़ी नहीं रहेगी।"

"ज़्यादा देर मत दबाना, नहीं तो मर जाऊँगी फिर यहीं की यहीं पड़ी रहूँगी।"

"तो कितनी देर दबाऊँ, यह भी बता दो।"

"बस इतनी देर कि तुम्हें अपने अंदर देर तक महसूस करती रहूँ। मगर, मगर हाथ से नहीं दबाना।"

"तो फिर किससे दबाऊँ?"

"मुँह है तो मुँह से ही दबाओ ना।"

युवती को शरारत सूझ रही है। युवक तो ख़ैर परम शरारती दिख रहा है। कह रहा है, "अच्छा तो इधर करो मुँह। बहुत बोल रही हो। अब महसूस...।"

इसके आगे युवक बोल नहीं पाया। अँधेरे में वह युवती के चेहरे तक अपना चेहरा ले जा रहा है। लेकिन थोड़ा भटक गया तो युवती कह रही है, रुको-रुको, इधर तो आँख है।"

अब दोनों के चेहरे सही जगह पर हैं। युवक की आक्रामकता पर युवती कर रही है, "बस करो, बस करो अब। यह सब नहीं। बस करो।"

युवक कुछ ज़्यादा ही शरारती हो रहा है। कह रहा है, "क्यों बस, और ज़्यादा और गहराई तक महसूस नहीं करोगी क्या?"

"नहीं, अभी इतना ही काफ़ी है। बाक़ी जब दिल्ली पहुँचेंगे सही सलामत तो पूरा महसूस करूँगी। बहुत देर तक महसूस करूँगी। इतना देर तक कि वह एहसास हमेशा-हमेशा के लिए बना रहेगा। कभी ख़त्म ही नहीं होगा। पूरे जीवन भर के लिए बना रहेगा। बस तुमसे इतना ही कहूँगी कि इतना एहसास कराने के बाद कभी भूलने के बारे में सोचना भी मत। यह मत सोचना कि मुझे छोड़ दोगे, क्योंकि तुम जैसे ही छोड़ोगे मैं वैसे ही यह दुनिया भी छोड़ दूँगी। अब मेरी ज़िंदगी सिर्फ़ तुम्हारे साथ ही चलेगी। जब तक तुम साथ दोगे तभी तक चलेगी उसके बाद एक सेकेंड को भी नहीं चलेगी।"

युवती फिर बहुत भावुक हो रही है। युवक गम्भीर होकर कह रहा है।

"तुम बार-बार केवल अपने को ही क्यों कहती हो। अब हम दोनों की ज़िंदगी एक-दूसरे के सहारे ही चलेगी। अब अकेले कोई भी नहीं रहेगा।"

उसकी बात सुनते ही युवती उससे लिपटकर फिर प्यार उड़ेलने लगी तो वह उसे सँभालते हुए कह रहा है।

"ओफ्फ हो! सारा प्यार यहीं कर डालोगी क्या? मना करती हो फिर करने लगती हो। दिल्ली के लिए कुछ बचाकर नहीं रखोगी?"

"सब बचाकर रखे हुए हूँ। तुम्हारे लिए मुझमें कितना प्यार भरा है, यह तुम अभी सोच ही नहीं पाओगे। आओ अब तुम भी लेट जाओ। कब तक बैठे रहोगे। लेटे-लेटे ही जागते रहेंगे?"

"नहीं। यह लापरवाही अच्छी नहीं। ज़रा सी लापरवाही, ज़रा सा आराम हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी।"

"ठीक है। सोएँगे नहीं लेकिन कम से कम लेटे तो रहो, थोड़ा आराम कर लो। अभी आगे बहुत ज़्यादा चलना है। पता नहीं कब सोने, बैठने, लेटने को मिले।"

"तुमसे बार-बार कह रहा हूँ, ज़िद मत करो। मैं लेट जाऊँगा तो मुझे नींद आ सकती है। तुम्हें भी आ सकती है। कहीं दोनों सो गए और ट्रेन निकल गई तो जीते जी ही मर जाएँगे। दिन भर यहाँ से बाहर नहीं निकल पाएँगे। बिना खाना-पानी के कैसे रहेंगे। बाथरूम जाने तक का तो कोई ठिकाना नहीं है। कितनी गंदगी, कितना झाड़-झंखाड़, कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है। पानी तक नहीं है।"

युवक एक पल का भी रिस्क लेने को तैयार नहीं है। युवती को अपने से ज़्यादा उसकी चिंता है। इसलिए कह रही है, "तुम यक़ीन करो, जितनी ज़्यादा तुम्हें चिंता है, उतनी ही मुझे भी है। हम बिल्कुल भी नहीं सोएँगे, बैठकर बात करने के कारण थोड़ी ज़्यादा आवाज़ हो जा रही है। लेटे रहेंगे तो एकदम क़रीब रहेंगे।

धीरे-धीरे बातें करते रहेंगे। इतनी धीरे कि हमारे अलावा और कोई भी सुन नहीं पाएगा। फिर इतने झींगुरों, कीड़े-मकोड़ों की आवाज़ बाहर हो रही है। यहाँ अंदर भी कितने झींगुरों की आवाज़ सुनाई दे रही है। यहाँ तो तुमने इतना ज़्यादा साफ़ कर दिया है कि पता नहीं चल रहा है। वरना बैठना भी मुश्किल हो जाता। अच्छा, ज़रा उधर देखो, कोई लाइट इधर की तरफ़ बढ़ती हुई लग रही है।"

"हाँ... कोई टार्च लिए आ रहा है। ऐसा है तुम एकदम सीट के नीचे चली जाओ। और यह चटाई ऊपर ही डाल लो ऐसे जैसे कि कोई सामान रखा हुआ है।"

"और तुम कहाँ जा रहे हो?"

"मैं खिड़की के पास जा रहा हूँ, देखूँगा कौन है, किधर जा रहा है।"

"सँभालकर जाना। एकदम छिपे रहना। कोई देखने ना पाए।" अब तक युवती थोड़ी निडर हो चुकी है। इस बार युवक को जाने दिया। चिपकी नहीं रही उसके साथ।

युवक बड़ी सावधानी से बंद खिड़की की झिरी से बाहर आँख गड़ाए देख रहा है। बाहर ना जाने क्या उसे दिख रहा है कि उसकी साँसें फूलने लगी हैं। वह बड़ी देर बाद युवती के पास लौटा तो वह भी घबराई हुई पूछ रही है, "इतना हाँफ क्यों रहे हो?"

"मुझे अभी लगा कि जैसे हम बस अब मारे ही जाएँगे। दूर से ऐसा लग रहा था जैसे हाथ में लाठी लिए लोग चले आ रहे हैं। क़रीब आए तब दिखा कि वह सब रेलवे के ही कर्मचारी हैं। अपने औज़ार लेकर आगे जा रहे हैं। उन्हीं में से दो के हाथों में टॉर्च थी, उसी को जलाते चले आ रहे थे। जिसकी लाइट तुमने देखी थी, सोचो अगर सच में ऐसा होता कि हमारे घर वाले ही आ रहे होते, तब क्या होता?"

"कुछ नहीं होता।"

"क्या पागलों जैसी बात करती हो।"

"पागलों जैसी नहीं। सही कर रही हूँ। कुछ नहीं होता। मैं तुम्हें और तुम मुझे कसकर पकड़ लेते। फिर किसी हालत में ना छोड़ते। चाहे वह लोग हमारे-तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालते। और हम दोनों यहाँ नहीं तो मर कर ऊपर जाकर एक साथ ही रहते। ऐसे दुनिया वालों से छुटकारा मिल जाता जो हम जैसे लोगों को एक साथ रहने नहीं देते।"

"मर जाना कहीं की भी समझदारी नहीं है, मूर्खता है मेरी नजर में।"

"तो क्या उन लोगों के सामने लाठी-डंडा, गाली, अपमान के लिए ख़ुद को छोड़ दिया जाएगा।"

"नहीं, जब तक ज़िंदा हैं, जीवन है तब तक संघर्ष करते रहना चाहिए। हार नहीं माननी चाहिए। तुम हमेशा के लिए अपने मन में यह बात बैठा लो कि हमें हार नहीं माननी है। यहाँ से बचकर निकल गए तो हमेशा के लिए अच्छा ही अच्छा होगा। अगर ना निकले तो भी सामना करेंगे।"

दोनों में फिर बहस शुरू हो गई है। युवती कह रही है, "हम दोनों मिलकर अपने दोनों परिवारों के लोगों का क्या सामना कर लेंगे? उनके साथ पुलिस होगी। ढेर सारे लोग होंगे। सब हम पर टूट पड़ेंगे। मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारी चिंता है। वो तुम्हें सबसे पहले मेरे किडनैप के आरोप में पीटेंगे। हम लाख चिल्लाएँगे कि हम तुम्हारे साथ जीवन बिताने अपने मन से आए हैं। लाख सर्टिफ़िकेट दिखाएँगे कि हम बालिग हैं। लेकिन वो पिटाई के बाद ही कुछ सुनेंगे। क्योंकि हमारे घर वालों का उन पर दबाव होगा। उनकी जेबें वो गर्म कर चुके होंगे। लेकिन मैं यह सोचना भी नहीं चाहती। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूँ, मुझे पूरा यक़ीन है ऊपर वाले पर कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। हम दोनों यहाँ से अच्छी तरह से दिल्ली पहुँच जाएँगे। ट्रेन टाइम से ज़रूर आएगी।"

"जब इतना यक़ीन है तो बार-बार डर क्यों रही हो।"

"हम भी इंसान हैं। इंसान डरता भी है और डराता भी है। वह लोग सब कुछ करेंगे ही ना, हमें अलग करने के लिए। आसानी से हमें एक नहीं होने देंगे। जी जान लगा देंगे हमें अलग करने के लिए। तो हमें भी जी जान से एक बने रहना है।"

"तुम्हें कॉलेज में कौन टीचर समझाती है, पढ़ाती है? तुम्हारे भेजे में कुछ है भी या नहीं?"

"टीचर पढ़ाती क्या है वह ख़ुद ही पढ़ती रहती है।"

"मेरे कॉलेज में तो मास्टर साहब पढ़ाते हैं। काम ना करो तो आफ़त कर देते हैं।"

"मेरे यहाँ तो टीचर को ही कुछ पता नहीं है। मोबाइल पर न जाने किससे हमेशा चैटिंग करती रहती है। बीच में कुछ पूछ लो तो चिल्ला पड़ती है। ग़ुस्सा होकर ऐसा काम देती है कि करते रहो, करते रहो लेकिन वो पूरा होने वाला नहीं। फिर चैटिंग से फ़ुर्सत पाते ही तमाम बातें सुनाती है। अच्छा ज़रा एक बार फिर से तो टाइम देख लो।"

इस बार युवक ने बिना ग़ुस्सा दिखाए कहा, "अभी तो बारह भी नहीं बजे, दस मिनट बाक़ी हैं।"

"तो ज़रा मेरे साथ उधर तक एक बार फिर चलोगे क्या?"

"फिर से जाना है?"

"हाँ, इसीलिए तो पानी नहीं पी रही थी।"

"चलो, लेकिन बैठे-बैठे चलना। खड़ी नहीं होना। कई खिड़कियाँ खुली हुई हैं, टूटी हैं, बंद भी नहीं हो रही हैं। कई बार बंद करने कोशिश की थी, मगर सब एकदम जाम हैं। इसलिए बैठे-बैठे ही चलना जिससे बाहर कोई भी देख ना सके।"

"बैठे-बैठे कैसे चलेंगे?"

"जैसे बैठे-बैठे अपने घर के आँगन की सफ़ाई करती हो, वैसे ही।"

"अरे तुमने कब देख लिया आँगन में सफ़ाई करते हुए।"

"जब एक बार छोटी वाली चाची को डेंगू हो गया था तो वैद्य जी ने बताया कि बकरी का दूध बहुत फ़ायदा करेगा। मैं सवेरे-सवेरे वही लेने तुम्हारे यहाँ आता था। तभी तुम्हें कई बार देखा था बैठे-बैठे आँगन की सफ़ाई करते हुए। जैसे बूढ़ी औरतें करती हैं और धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ती जाती हैं। वैसे ही इस समय भी नीचे-नीचे चलो, मैं भी ऐसे ही चलूँगा।"

बड़ा अजीब दृश्य है। दोनों उकंड़़ू बैठे-बैठे आगे बढ़ रहे हैं। असल में अँधेरा बोगी के कुछ हिस्सों में थोड़ा कम है। बाहर दूर-दूर तक रेलवे ने जो लाइट लगा रखी हैं उनका थोड़ा असर दूर खड़ी इस बोगी के दरवाज़े, टूटी-फूटी खिड़कियों से अन्दर तक होता है। दोनों बाथरूम की ओर आगे बढ़ रहे हैं। बोलते भी जा रहे हैं, "इस तरह वहाँ तक पहुँचने में तो पता नहीं कितना टाइम लग जाएगा।"

"कुछ टाइम नहीं लगेगा, लो पहुँच गए।"

"कहाँ पहुँच गए, बाथरूम किधर है। मुझे कुछ दिख नहीं रहा। मोबाइल ऑन करो ना।"

"तुम भी आफ़त कर देती हो। लो कर दिया अब तो दिखाई दिया।"

"हाँ दिखाई दिया। अभी कितनी तो दूर है और कह रहे थे कि पहुँच गए।"

"ठीक है अब उठ जाओ इधर की खिड़कियाँ बंद हैं।"

बाथरूम से वापस पहुँच कर दोनों फिर अपनी जगह बैठ गए हैं। लेकिन पहले की अपेक्षा अब शांत हैं। थकान और नींद का असर अब दोनों पर दिख रहा है। ये ना हावी हो यह सोचकर युवती कह रही है।

"बैठे-बैठे इतना टाइम हो गया, पता नहीं कब साढ़े तीन बजेगा। अभी भी दो घंटा बाक़ी हैं। सुनो कुछ खाने के लिए निकालो ना।"

इस समय मोबाइल युवती के हाथ में है। युवक का तंज सुनिए।

"तुम लड़कियों के दो काम कभी नहीं छूटते।"

"कौन-कौन से?"

"एक तो कभी चुप नहीं रह सकतीं। दूसरे उनको हमेशा कुछ ना कुछ खाने को मिलता रहना चाहिए। जिससे उनका मुँह चपर-चपर चलता रहे।"

"अच्छा, जैसे तुम लड़कों का दिनभर नहीं चलता। जब देखो तब मुँह में मसाला भरे चपर-चपर करते रहते हो। पिच्च-पिच्च थूक कर घर-बाहर, हर जगह गंदा किये रहते हो।"

"मैं मसाला-वसाला कुछ नहीं खाता, समझी। इसलिए मुझे नहीं कह सकती।"

"मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रही हूँ। तुमने लड़कियों की बात की तो मैंने लड़कों के बारे में बताया। मुँह चलाते रहने के अलावा जैसे उनके पास कोई काम ही नहीं है।"

"अच्छा ठीक है, ये लो नमकीन और बिस्कुट, खाओ। लेकिन कुछ बोलो नहीं।"

"तुम भी खाओ ना, अकेले नहीं खा पाऊँगी।"

"हे भगवान। बार-बार वही बकवास करती रहती है। मैं तो खा ही रहा हूँ।"

"अरे, खाने ही को तो कहा है। काहे ग़ुस्सा हो रहे हो।"

युवती ने लगभग आधी मुट्ठी नमकीन मुँह में डालकर खाना शुरू किया है। नमकीन काफ़ी कुरकुरी लग रही है क्योंकि उसके मुँह से कुर्र-कुर्र की आवाज़ सुनकर युवक कह रहा है।

"तू नमकीन खा रही है कि पत्थर चबा रही है, कितनी तेज़ आवाज़ कर रही है।"

"कमाल की बात करते हो। कड़ी चीज़ होगी तो आवाज़ तो होगी ही ना। क्या सब ऐसे ही निगल जाऊँ।"

"नहीं, जितनी तेज़ कुर्र-कुर्र कुरा सकती हो कुर्र कुराओ।

"ठीक है, मैं अब केवल बिस्कुट ही खाऊँगी, इससे कोई आवाज़ नहीं होगी।"

"अरे मैं मज़ाक कर रहा था। ले और खा और ये पानी पकड़।"

"नहीं, पानी तो बिल्कुल नहीं पियूँगी।"

"क्यों?"

"फिर जाना पड़ेगा और तुम बोलोगे कि बैठे-बैठे चलो। और मैं कहूँगी कि तुम भी कर लो तो कहोगे क्या ज़बरदस्ती कर लूँ। अच्छा सुनो, मैं थोड़ी देर लेटना चाहती हूँ, बहुत थक गई हूँ।"

"ठीक है लेट जाओ।"

"चाहो तो तुम भी थोड़ी देर लेट लो ना। बहुत टाइम हो गया है। पूरे दिन से लगातार कुछ न कुछ कर रहे हो। लगातार बैठे हो या चल रहे हो।" इस बार युवक पर थकान ज़्यादा हावी हो गई है। वह कह रहा है।

"ठीक है, चलो थोड़ा उधर खिसको, तभी तो लेटूँगा। अरे मुझे इतना क्यों पकड़ रही हो, गुदगुदी लग रही है।"

"तुम चटाई पर ही आओ ना, उधर ज़मीन पर क्यों जा रहे हो।"

"आ तो गया हूँ लेकिन तुम इतना कसकर पकड़ रही हो कि मुझे गुदगुदी लग रही है।"

"पकड़ नहीं रही हूँ, केवल साथ में ले रही हूँ।"

"ठीक है। चलो उधर खिसको, आ रहा हूँ।"

दोनों चटाई पर एक-दूसरे में समाए हुए लेटे हैं। मुश्किल से दस मिनट ही हुआ है कि यह क्या युवती एकदम से हड़बड़ाकर उठ बैठी है। उसके मुँह से घुटी-घुटी सी ई-ई-ई की आवाज़ निकल गई है। युवक भी उसी के साथ उठ बैठा है। काफ़ी घबराया हुआ है और युवती से पूछ रहा है, "क्या हुआ?" युवती अपनी सलवार ऊपर खींचती हुई कह रही है।

"लगता है कपड़े में कोई कीड़ा घुस गया है।" युवक ने जल्दी से मोबाइल टॉर्च ऑन करके देखा तो घुटने से थोड़ा नीचे क़रीब दो इंच का एक कनखजूरा चिपका हुआ था। युवक ने पल भर देरी किये बिना उसे खींचकर अलग किया और जूते से मार दिया। बिल्कुल कुचल दिया। युवती थर-थर काँप रही है। युवक ने बड़ी बारीक़ी से उस जगह को चेक किया, जहाँ कनखजूरा चिपका था। बड़ी देर में दोनों निश्चिंत हो पाए कि उसने काटा नहीं है। दोनों के चेहरे पर पसीने की बूँदें साफ़ दिख रही हैं। युवक ने एक बार फिर से पूरी जगह को बारीक़ी से साफ़ किया और फिर से दोनों लेट गए हैं। 

अब आप इस युवा कपल को क्या कहेंगे? दिन भर के थके थे। ना सोने की तय किये थे। इसलिए बार-बार बात नहीं करेंगे कहते लेकिन बात करते ही रहे। लेकिन तय समय के क़रीब आकर नींद से हार कर सो गए। अब यह सोना इनकी ख़ुशकिस्मती है या बदकिस्मती। आइए देखते हैं। बड़ी देर बाद युवती घबराकर उठ बैठी है। अफनाई हुई कह रही है।

"सुनो-सुनो, जल्दी उठो, देखो ट्रेन जा रही है क्या?"

युवक बड़ी फुर्ती से हड़बड़ा खिड़की से बाहर देख रहा है। जाती हुई ट्रेन की पहचान कर माथा पीटते हुए कह रहा है, "हे भगवान, यह तो वही ट्रेन है। अब क्या होगा? मैं बार-बार कह रहा था सो मत, लेकिन तू तो पता नहीं कितनी थकी हुई थी। बार-बार लेट जाओ, आओ लेट जाओ, लो लेट गए, लेट हो गए और ट्रेन चली गई। बताओ अब क्या करूँ। यहीं पड़े रहे अगले चौबीस घंटे तक तो घर वाले ढूँढ़ ही लेंगे। निकाल ले जाएँगे यहाँ से। कल अँधेरा होने की वज़ह से नहीं आ पाए।

दो घंटे बाद जहाँ सवेरा हुआ तो पूरा दिन है उनके पास। चप्पा-चप्पा छान मारेंगे वह। हमें निश्चित ही ढूँढ़ लेंगे और तब ना ही मैं ज़िंदा बचूँगा और ना ही तुम। बुरी मौत मारे जाएँगे। पहले सब पंचायत करेंगे, पूरा गाँव चारों तरफ़ से इकट्ठा होगा। हमें अपमानित किया जाएगा। मारा-पीटा जाएगा और फिर बोटी-बोटी काटकर फेंक दिया जाएगा वहीं।"

"नहीं ऐसा मत बोलो।"

"तो क्या बोलूँ, जो सामने दिख रहा है वही तो बोलूँगा ना। अब ऐसे रोने-धोने से काम नहीं चलेगा। जो है उसे देखो और सामना करो।"

"तुम भी तो इतनी गहरी नींद सो गए। मेरे नींद लग गई थी तो कम से कम तुम तो जागते रहते।"

"बड़ी बेवकूफ हो, तुम्हीं पीछे पड़ गई थी कि आ जाओ, सो जाओ, तब मैं लेटा था। मैं भी थका हुआ था कि नहीं।"

"तो मैं क्या करती। अच्छा सुनो अभी ख़ाली यह बताओ कि किया क्या जाए?"

"सिवाए इंतज़ार के और कुछ नहीं। कल रात को जब ट्रेन आएगी तभी चल पाएँगे। दिन में तो यहाँ से निकलना भी सीधे-सीधे मौत के मुँह में जाना है।"

"लेकिन तुम तो कह रहे हो कि दिन होगा तो वह लोग यहाँ तक भी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहुँच ही जाएँगे।"

"सही तो कह रहा हूँ। पूरा दिन होगा उनके पास ढूँढ़ने के लिए। एक-एक कोना, चप्पा-चप्पा छान मारेंगे। तू यह समझ ले कि मरना निश्चित हो गया है।"

"मरना ही है तो सबके सामने बेइज़्ज़त होकर, मार खा-खा कर मरने से अच्छा है कि हम लोग यहीं अभी फाँसी लगा लें। जीते जी एक साथ नहीं रह पाए तो कोई बात नहीं। कम से कम एक साथ मर तो लेंगे।"

"चुप! मरने, मरने, बार-बार मरने की बात कर रही है। मैं इतनी जल्दी मरने के लिए तैयार नहीं हूँ और अपने जीते जी तुझे भी मरने नहीं दूँगा।"

"तो अब क्या करोगे?"

"अभी उजाला होने में कम से कम डेढ़ घंटा है। यहाँ से बस स्टेशन क़रीब-क़रीब सात-आठ किलोमीटर दूर है। पैदल भी चलेंगे तो एक घंटे में पहुँच जाएँगे। वहाँ से कोई ना कोई बस सवेरे-सवेरे निकल ही रही होगी। वह आगे जहाँ तक जा रही होगी उसी से आगे चल देंगे। यहाँ से जितनी जल्दी, जितना ज़्यादा दूर निकल सकें पहली कोशिश यही करनी है।"

"ठीक है चलो, फिर जल्दी निकलो यहाँ से।"

चलने से पहले युवक के कहने पर युवती पेपर्स वाली पॉलिथीन, चटाई पर से उठाकर फिर से सलवार में खोंसने लगी तो युवक ने ना जाने क्या सोचकर उसे लेकर अपनी शर्ट में आगे रखकर बटन लगा ली। और पूछा, "तू इतनी दूर तक पैदल चल लेगी?"

"जब मौत सिर पर आती है तो सात-आठ किलोमीटर क्या आदमी सत्तर-अस्सी किलोमीटर भी चला जाता है और तुझे पाने के लिए तो मैं पूरी पृथ्वी ही नाप लूँगी।"

"तो चल निकल। नापते हैं सारी पृथ्वी। मेरा हाथ पकड़े रहना। छोड़ना मत। जल्दी-जल्दी चलो।"

दोनों बड़े हिम्मती हैं। बोगी से निकल कर क़रीब-क़रीब भागते हुए आगे बढ़ रहे हैं। मगर थोड़ा सा आगे निकलते ही युवक कह रहा है, रुको-रुको, एक मिनट रुको ।"

"क्या हुआ?"

"वहाँ प्लेटफॉर्म के आख़िर में जहाँ पर फायर के लिए बाल्टियाँ टंगी हुई हैं। वहीं पर रेलवे के कर्मचारी अपनी साइकिलें खड़ी करते हैं। तू एक मिनट इधर रुक शेड के किनारे। देखता हूँ अगर किसी साईकिल का लॉक खुला हुआ मिल गया तो उसे ले आता हूँ। उससे बहुत आसानी से जल्दी निकल चलेंगे।"

"यह तो साइकिल की चोरी है।"

"इसके बारे में बाद में बात कर लेंगे। तुम अपने बालों में से एक चिमटी निकालकर मुझे दे दो।"

चिमटी लेकर गया युवक फुर्ती से एक साइकिल उतार लाया है। जिसे देखकर युवती कह रही है।

"मुझे तो बड़ा डर लग रहा है। क्या-क्या करना पड़ रहा है?"

"इतना आसान थोड़ी ना है घर वालों के ख़िलाफ़ चलना, घर से भागना। आओ बैठ जाओ। लो तुम्हारी चिमटी की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। पता नहीं कोई जल्दी में था या फिर शराब के नशे में, ताला तो लगाया लेकिन उसमें से चाबी निकालना भूल गया। झोले में रखा हुआ एक टिफ़िन भी पीछे कैरियर पर लगा हुआ था। मैंने उसे निकालकर वहीं रख दिया।"

"तुम्हें साइकिल उठाते डर नहीं लगा?"

"तू बिल्कुल बोल नहीं। मुझे जल्दी-जल्दी साइकिल चलाने दे।"

युवती को आगे बैठाकर युवक पूरी ताक़त से साइकिल चला रहा है। लेकिन पहली बार साइकिल पर बैठने के कारण युवती ठीक से बैठ नहीं पा रही है। उसके हिलने-डुलने पर युवक कह रहा है।

"ठीक से बैठ ना। इतना हिल-डुल क्यों रही है।"

"मेरे पैर सुन्न होने लगे हैं।"

"तुम ज़्यादातर लड़कियाँ इतनी नाजुक क्यों होती हैं?"

"पता नहीं यह तो ऊपर वाला ही जाने।"

"क्या ऊपर वाला जाने? तमाम लड़कियाँ तो पहलवान बनकर पहलवानी कर रही हैं। सेना में जाकर गोलियाँ, फ़ाइटर ज़ेट, बस, कार, ट्रक चला रही हैं।"

"तो, ऐसे तो अपने गाँव में ट्रैक्टर भी चला रही हैं। तो क्या सबकी सब पहलवान हैं। काम करना आना चाहिए। ज़रूरत होगी तो पहलवानी भी सीख लेंगे।"

"चुप। बिलकुल चुप कर। चुपचाप बैठी रह। बिल्कुल बोलना नहीं। नहीं तो मैं तेरा मुँह फोड़ दूँगा। जब फूट जाएगा तभी चुप रहोगी क्या?"

"मेरा मुँह मत फोड़ो। नहीं तो फिर मुँह कहाँ लगाओगे?"

"तेरी ऐसी बातों के कारण ही रात में नींद आ गई और ट्रेन छूटी। अब ये साइकिल ट्रेन चलानी पड़ रही है।"

"ठीक है। चुप हूँ। और कितनी देर तक चलना पड़ेगा?"

"अभी तो पन्द्रह मिनट भी नहीं हुए हैं। घंटा भर तो लगेगा ही।"

"वहाँ कोई बस मिल जाएगी क्या?"

"चुप, बिल्कुल चुप रह।"

युवक बिना रुके पूरी ताक़त से साइकिल चलाए जा रहा है। ग़ज़ब की ताक़त, हिम्मत दिखा रहा है। पसीना उसकी नाक, ठुड्डी से होता हुआ टपक रहा है। युवती के पैर सुन्न हो रहे हैं। जिसे वह बार-बार इधर-उधर कर रही है। युवक का पसीना उसके सिर पर ही टपक रहा है। वह परेशान है और पूछ रही है, "अभी और कितना टाइम लगेगा?"

"बस आने वाला ही है स्टेशन।" जल्दी ही स्टेशन दिखने लगा है तो उतावली युवती कह रही है।

"स्टेशन दिख रहा है, लग रहा है सूरज भी निकलने वाला है। जल्दी करो और तेज़ चलाओ ना।"

"और कितनी तेज़ चलूँ ।"

"तुम्हें पसीना हो रहा है क्या?"

"तुम्हें इतनी देर बाद मालूम हुआ।"

"गर्दन पर कुछ गीला-गीला बार-बार टपक रहा है तो मुझे लगा शायद तुम्हारा पसीना ही है।"

"पसीने से पूरा भीग गया हूँ। घंटा भर हो गया साइकिल चलाते-चलाते और कोई दिन होता तो इतना ना चला पाता। मगर तेरे लिए मैं इतना क्या, यहाँ से दिल्ली तक चला सकता हूँ।"

"और मैं भी कभी साइकिल पर इतनी देर बैठी नहीं। पैर बार-बार सुन्न हो रहे हैं। कभी इधर कर रही हूँ, कभी उधर कर रही हूँ। लेकिन अगर तू दिल्ली तक चलाए तो भी ऐसे ही बैठी रह सकती हूँ।"

"अच्छा चल उतर, इतनी लम्बी फेंक दी कि अब चला नहीं पा रहा हूँ।" स्टेशन पर पहुँच कर युवक ने झटके से साइकिल रोक कर युवती को उतरने के लिए कहा और स्टेशन की बाऊँड्री से सटाकर साइकिल खड़ी कर दी यह कहते हुए, "साइकिल गेट पर ही छोड़ देता हूँ। जिसकी है भगवान उसको रास्ता दिखाना कि उसे उसकी साइकिल मिल जाए।"

सामने कुछ दूरी पर तैयार खड़ी एक बस को देखकर उत्साहित युवती कह रही है। "देखो बस तैयार खड़ी है, लगता है जल्दी ही निकलने वाली है।"

युवती युवक से भी ज़्यादा जल्दी में दिख रही है। सामने खड़ी बसों पर उसकी नज़र युवक से आगे-आगे चल रही है। युवक उसका हाथ पकड़े-पकड़े बस की तरफ़ बढ़ते हुए कह रहा है।

"हाँ और अंदर ज़्यादा लोग भी नहीं हैं। दस-पन्द्रह लोग ही दिख रहे हैं।" दोनों जल्दी-जल्दी चढ़ गए और बीच की सीट पर बैठ गए हैं। जिससे कि आगे पीछे सब पता चलता रहे। कंडक्टर अन्दर आया तो उसे देखकर युवती कह रही है, "टिकट ले लो। लेकिन यह बस जा कहाँ रही है?"

"रायबरेली जा रही है। सामने प्लेट पर लिखा है। वहीं तक का टिकट ले लेते हैं।"

कंडक्टर टिकट देकर आगे चल गया तो युवती पूछ रही है। "यह कंडक्टर हम लोगों को ऐसे घूर कर क्यों देख रहा था।"

"चुप रहो ना। उस तक आवाज़ पहुँच सकती है। रायबरेली पहुँचकर वहाँ देखेंगे, कोई ट्रेन मिल ही जाएगी दिल्ली के लिए। बस लगातार चलती रहे तो अच्छा है, वरना पकड़े जाने का डर है।"

"रायबरेली कब तक पहुँचेगी?"

"क़रीब दस बजे तक।"

इसी समय युवती चिहुँकती हुई कह रही है। "लगता है मेरा मोबाइल छूट गया है।"

"क्या कह रही हो?"

"हाँ, जल्दी-जल्दी में ध्यान नहीं रहा।"

"रखा कहाँ था?"

"मुझे एकदम ध्यान नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?"

"कुछ नहीं होगा। लोगों को जल्दी मिलेगा ही नहीं। साइलेंट मोड पर है। रिंग करके देखता हूँ किसी के हाथ लग गया है या वहीं पड़ा है। अरे, रिंग तो जा रही है।"

इसी बीच युवती फिर चिहुँकती हुई बोली। "रुको, रुको। मोबाइल तो मेरे ही पास है।"

"कमाल है सीने में छुपा के रखा हुआ है। और बता रही हो छूट गया। तुम्हें इतना भी होश नहीं रहता है।"

"ग़ुस्सा नहीं हो, जल्दबाज़ी और हड़बड़ाहट के मारे कुछ समझ में नहीं आ रहा था।"

"अच्छा हुआ तुम हड़बड़ाई, बौखलाई। इससे एक बड़ा काम हो गया। नहीं तो चाहे जहाँ पहुँच जाते पकड़े निश्चित जाते। लाओ जल्दी निकालो मोबाइल। यह संभावना भी ख़त्म करता हूँ।"

"क्या?"

"मोबाइल, मोबाइल निकालो जल्दी।"

युवती युवक की जल्दबाजी से सकपका गई है। उसे मोबाइल दे रही है।

"यह लो।"

मोबाइल लेकर युवक उसकी बैट्री निकाल रहा है। कह रहा है, "इसकी बैट्री निकाल कर रखता हूँ। ऑन रहेगा तो वो हमारी लोकेशन पता कर लेंगे। और हम तक पहुँच जाएँगे। टीवी में सुनती ही हो, बताते हैं कि मोबाइल से लोकेशन पता कर ली और वहाँ तक पुलिस पहुँच गई। अब यह दोनों मोबाइल कभी ऑन ही नहीं करूँगा।"

"फिर कैसे काम चलेगा आगे।"

"देखा जाएगा। अब तो पहला काम यह करना है कि अगले स्टेशन पर ही इस बस से उतर लेना है।"

"क्यों?"

"क्योंकि इस मोबाइल से वह यहाँ तक की लोकेशन पा चुके होंगे या जब पुलिस में जाएँगे तो वह पता कर लेगी। इस बस से उतर लेंगे और फिर कोई दूसरी पकड़ेंगे, उससे आगे बढ़ेंगे।"

हैरान परेशान दोनों आधे घंटे बाद ही अगले बस स्टॉप पर उतर गए हैं। युवक कह रहा है।

"चलो इस बस से तो पीछा छूटा।"

"हाँ, देखो अगर यहाँ दिल्ली के लिए ही बस मिल जाए तो बस से ही दिल्ली चला जाए।"

"नहीं बहुत दूर है। बस में बहुत परेशान हो जाएँगे। इसलिए ट्रेन से चलेंगे।"

दोनों को संयोग से एक ट्रेन मिल गई। जो तीन घंटे लेट होने के कारण उसी समय स्टेशन पहुँचे जब वो स्टेशन पहुँचे । इसी ट्रेन से दोनों लखनऊ पहुँच गए हैं। वहाँ दिल्ली के लिए उन्हें चार घंटे बाद ट्रेन मिलनी है। दोनों यहाँ कुछ राहत महसूस कर रहे हैं और ज़रूरत भर का सामान लेने के लिए निकल रहे हैं। युवक बोल रहा है, "चलो पहले एक बैग लेते हैं और ज़रूरत भर का सामान भी। ऐसे दोनों ख़ाली हाथ चलते रहेंगे तो ट्रेन में टीटी, सिक्योरिटी वाले कुछ शक कर सकते हैं। पीछे पड़ सकते हैं। सामान रहेगा तो ज़्यादा शक नहीं करेंगे। बाहर से जल्दी ही आ जाएँगे। टिकट लेकर यहीं कहीं आराम करते हैं। बाहर होटल या गेस्ट हाउस चलता हूँ तो बेवज़ह अच्छा ख़ासा पैसा चला जाएगा और वहाँ सबकी नज़र भी हम पर रहेगी। उतने पैसों में कुछ सामान ले लूँगा और तत्काल टिकट में बर्थ मिल जाए तो ट्रेन में आराम से सोते हुए चलेंगे।”

भाग्य दोनों के साथ है। सामान लेकर जल्दी ही लौट आए हैं। उन्हें रिज़र्वेशन में बर्थ भी मिल गई और आराम से वे चल दिए हैं। सुबह ट्रेन दिल्ली पहुँचने को हुई तो युवक बोला, "दस बजने वाले हैं। थोड़ी ही देर में स्टेशन पर होंगे। तीन-चार घंटे सो लेने से बहुत आराम मिल गया। अब हम निश्चिंत होकर कहीं भी आ जा सकते हैं। अब हमें पकड़े जाने का कोई डर नहीं है। हम पति-पत्नी की तरह आराम से रह सकेंगे।"

"ज़रूर, अगर कभी कोई मिल भी गया तो हमारे पास काग़ज़ तो हैं ही। बालिग हैं। अपने हिसाब से जहाँ चाहें वहाँ रह सकते हैं। हमें यहाँ कोई रोक-टोक नहीं सकेगा।"

स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर युवती कह रही है, "कितना बड़ा है यह स्टेशन!"

"हाँ, बहुत बड़ा। आख़िर अपने देश की राजधानी है।"

"यहाँ कोई किसी को पकड़ता नहीं क्या?"

"ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करता है वह पकड़ा जाता है। हम लोग अगर अपने गाँव में पकड़े जाते तो जो हाल वहाँ होता, वह यहाँ पर नहीं हो पाएगा। बस इतना अंतर है। आओ निकलते हैं। बाहर अभी और कई लड़ाई लड़नी है। एक घर की लड़ाई। नौकरी की लड़ाई। यहाँ की भीड़ में कुचलने से अपने को बचाने की लड़ाई। यहाँ के लोगों से अपने को बचा लेने के बाद अपने भविष्य को सँवारने की लड़ाई। अपने सपने को सच कर लेने की लड़ाई। बस लड़ाई ही लड़ाई है। आओ चलें।"

"हाँ चलो। लड़ाइयाँ चाहे जितनी ढेर सारी हों लेकिन हम दोनों मिलकर सब जीत लेंगे। सच बताऊँ। हमें तो उम्मीद नहीं थी कि अपने गाँव से निकलकर हम सुरक्षित यहाँ तक पहुँच पाएँगे। तुम्हारी हिम्मत देखती थी तो हमें यह ज़रूर लगता था कि तुम्हारी यह हिम्मत हमारे सपने को पूरा ज़रूर करेगी। तुम हमें ज़रूर, ज़रूर, ज़रूर मिलोगे।"

"तुम्हारी हिम्मत भी तो काम आई ना। तुम अगर हार जाती तो मैं क्या करता? इसलिए हम दोनों ने मिलकर जो हिम्मत जुटाई वह काम आई और दोनों यहाँ तक पहुँचे। अब अपनी दुनिया भी मिलकर बना लेंगे। मैं भगवान को सारा का सारा धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने मुझे इतनी हिम्मत दी। मुझे इतना दिमाग़ दिया कि हम सारे काम निपटा सके। बहुत-बहुत धन्यवाद हे! मेरे भगवान।"

इन दोनों ने अपने को सफल मानकर भगवान को सारा का सारा धन्यवाद दे तो दिया है। लेकिन गाँव में अभी बहुत कुछ हो रहा है। जब ये आधे रास्ते पर थे तभी वहाँ यह बात साफ़ हो गई कि दोनों मिलकर निकल गए। मामला दोनों समुदायों की इज़्ज़त का बनकर उठ खड़ा हुआ। हालात इतने बिगड़े कि समय पर भारी फ़ोर्स ना पहुँचती तो बड़ा ख़ून-ख़राबा हो जाता। वास्तव में यह दोनों तो बहाना मात्र थे। इस तूफ़ान के पीछे मुख्य कारण तो वही है कि वह संख्या बढ़ाकर अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे हैं। हमारे लिए यह वर्जित है तो यह नहीं हो सकता। इसे वर्चस्व का ही संघर्ष कहिए। यह अभी ठहरा ज़रूर है, समाप्त नहीं हुआ है।

फ़ोर्स की ताक़त से चक्रवाती तूफ़ान से होने वाली तबाही तो ज़रूर रोक दी गई है। लेकिन पूरे विश्वास से कहता हूँ कि ऐसे तूफ़ान स्थायी रूप से ऐसे युवक-युवती ही रोक पाएँगे जो अपना संसार अपने हिसाब से बसाने सँवारने में लगे हुए हैं। जिनका उनके परिवार वालों ने उनका जीते जी अन्तिम संस्कार कर परित्याग कर दिया है। ये त्यागे हुए लोग, पीढ़ी ही सही मायने में भविष्य हैं हमारी दुनिया के। फ़िलहाल आप चाहें तो इनके माँ-बाप की तरह मानते रहिए इन्हें एबॉन्डेण्ड।

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बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स

मैं कुछ भूलता नहीं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूँ। मगर यह दावा पुरज़ोर करता हूँ कि नाममात्र को ही कुछ भूलता हूँ। जैसे बचपन में मैं जिन साथियों के साथ खेलता-कूदता था, पढ़ता-लिखता था उनमें से कुछ ही हैं जो अब याद नहीं रहे या दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने, तमाम कड़ियों को जोड़ने पर पूरा याद आते हैं। एक बात और कह दूँ कि बचपन की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं रिसाइकिल बिन से भी हटा देता हूँ। चाहता हूँ कि वह दिमाग़ की हार्ड-ड्राइव से भी पूरी तरह डिलीट हो जाएँ। लेकिन वह नहीं होतीं। किसी ना किसी तरह से ना दिन देखें ना रात किसी भी समय याद आ ही जाती हैं। तब मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत क्रोध आता है कि फ़ालतू की बातों मेरे लिए अप्रिय बातों को भी वह क्यों सँजोए रखने की हठ किए बैठा है।

जैसे कि मैं नहीं चाहता कि मुझे वह होली याद आए जब मैं तेरह वर्ष का था और देश की कट्टर तानाशाही प्रवृत्ति वाली तथाकथित लोकतांत्रिक निर्लज्ज सरकार ने आपातकाल लागू किया हुआ था। देश में अगर कुछ था जो डरा-सहमा पीड़ित नहीं था, अपनी पूरी शान-ओ-शौक़त पूरी ऐंठ पूरी मुस्टंडई के साथ कण-कण में व्याप्त था, तो वह था भय अत्याचारी क्रूर निर्लज्ज तानाशाह का। ऐसा लगता था जैसे हर तरफ़ हर समय हर कोई पशु-पक्षी यहाँ तक कि नदी तालाब तारा पोखरी-पोखरा सभी अपनी प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक चाल ही भूल गए हैं । त्यौहारों की आत्मा ही छिन गई थी। वो रंगहीन-रसहीन हँसी-ख़ुशी उत्साह से मुक्त हो गए थे। लोग त्यौहार भी ऐसे मना रहे थे कि रस्म ही पूरी करनी है। अपशगुन ना होने पाए बस।

यही रस्म अदायगी उस होली को भी हो रही थी। न रंगों में कोई रंग था। ना लोगों में कोई उत्साह। जिस दिन होलिका जलनी थी उस दिन सब कुछ ठीक ही दिख रहा था। अपने भाइयों, चच्चा के साथ मैं भी होलिका में अलैया-बलैया, गोबर के बने बल्ले, गेहूँ की बालियाँ आदि डाल आया था। बाबूजी को दो महीने से वेतन नहीं मिला था। वह ज़िला हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट थे। वहीं हमारे एक पट्टीदार कम्पाउण्डर थे। वेतन ना मिलने का मुख्य कारण मतलब कि एकमात्र कारण था कि बाबूजी और पट्टीदार जिन्हें मैं चच्चा कहता था दोनों ही लोगों द्वारा नसबंदी के जितने केस करवाने थे वह दोनों ही लोग नहीं करवा पाए थे।

एड़ी-चोटी का ज़ोर दोनों ही लोगों ने लगाया हुआ था लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। इसकी वज़ह से वेतन रुका हुआ था और होली जैसे त्यौहार की बस रस्म ही पूरी की जा रही थी। हमारे संज्ञान में यह पहली होली ऐसी बीत रही थी जिसमें बच्चों सहित किसी के भी नए कपड़े नहीं बने थे। खाने-पीने की चीज़ों में भी भारी कटौती चल रही थी।

ऐसी कड़की, ऐसी स्थिति में चच्चा के घर अगले दिन यानी रंग खेलने वाले दिन विकट विपत्ति आ पड़ी। पूरे गाँव में गहरा सन्नाटा छा गया। चच्चा के ख़िलाफ़ थाने में दूसरे पट्टीदार ने एफ.आई.आर. दर्ज करा दी थी कि चच्चा और उनके लड़कों ने उनके घर का लकड़ी का काफ़ी सामान चोरी करके होलिका में जला दिया है। इसमें बैलगाड़ी का एक पहिया जो की मरम्मत के लिए रखा था और उन लकड़ियों को भी जला दिया जो धन्नियाँ बनवाने हेतु लाए थे।

शिकायत करने पर अपने लड़कों के साथ गाली-गलौज की, जान से मारने की धमकी दी। ऐन त्यौहार के दिन जब दुनिया रंग-गुलाल के बाद खाने-पीने, नए कपड़े पहन कर लोगों से मिलने-जुलने को तैयार हो रही थी तभी पुलिस चच्चा और उनके दो बड़े लड़कों को थाने उठा ले गई। घर वाले हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे, कहते रहे कि यह पूरी तरह से झूठ है, हमें फँसाने के लिए बेवज़ह झूठी एफ.आई.आर. की गई है। मगर पुलिस ने एक ना सुनी। पास-पड़ोस का कोई भी सामने नहीं आया। सब के सब घरों में दुबके रहे। ऐन त्यौहार के दिन चच्चा के घर रोना-पीटना मच गया। मगर झूठी एफ.आई.आर. करने वाले पट्टीदार के पास कोई भी नहीं पहुँचा कि भाई त्यौहार के दिन ऐसा नाटक क्यों कर रहे हो?

आपातकाल लागू होने के बाद से ही पट्टीदार त्रिनेत्रधारी आग मूत रहा था। वह था तो सत्ताधारी पार्टी के यूथ विंग का स्थानीय स्तर का कोई पदाधिकारी लेकिन अकड़ किसी बड़े लीडर से कम नहीं थी। अपने को वह समानांतर सत्ताधारी युवराज का दाहिना हाथ बताता था। युवराज के साथ खींची अपनी कई फोटो मढ़वा कर घर में लगा रखी थी। अपनी दबंगई से दूसरों की संपत्ति ख़ासतौर से खेत-खलियान बाग-बग़ीचा हथियाना उसका शग़ल बन गया था।

वह अपने इस शग़ल का शिकार चच्चा को नहीं बना पा रहा था तो उन्हें ऐसे फँसा दिया। मगर ईमानदार, सिद्धांत के पक्के चच्चा झुकने वालों में नहीं थे, तो नहीं झुके। वह क्षेत्र में ख़ौफ़ का पर्याय बने त्रिनेत्रधारी की इस चाल के समक्ष भी नहीं झुके। ताक़त के मद में चूर तानाशाह की गुलाम बनी व्यवस्था की आँखों में आँखें डाल कर सत्य की लाठी लिए डटे रहे। जल्दी ही पता चला कि उन्हें कई धाराओं में निरुद्ध कर बेटों सहित जेल भेज दिया गया। मगर सत्य की लाठी लेकर सभी के साथ खड़े रहने वाले मेरे चच्चा के साथ कोई नहीं खड़ा हुआ।

मेरे बाबूजी भी खुलकर सामने नहीं आए। बस चुपके-चुपके चच्चा के घर को आर्थिक, अन्य सामानों आदि के ज़रिए हर संभव मदद देते रहे। उन्हें रास्ते बताते रहे कि कैसे इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है। उनकी मदद के लिए उन्होंने घर के तमाम ख़र्चों में कटौती ही नहीं की बल्कि कई लोगों से पैसा उधार भी लिया। सब कुछ इतनी सावधानी से कर रहे थे कि घर में अम्मा के सिवा किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं थी।

बाबूजी ने चच्चा के घर वालों को तानाशाह के संगठन के एक वास्तविक बड़े पदाधिकारी से संपर्क साधने का भी रास्ता बताया। इससे फ़ायदा यह हुआ कि वहाँ से त्रिनेत्रधारी पर दबाव बनाया जा सका। इससे वह चच्चा के शेष बचे घर वालों को और खुलकर परेशान नहीं कर पा रहा था। लेकिन यह सब होते-होते इतना समय निकल चुका था कि एक दिन सूचना मिली कि चच्चा ने जेल की कोठरी में ही अपने पाजामे से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और जेल वालों ने जिस प्रकार आत्महत्या करना बताया वह किसी के गले नहीं उतर रहा था। हर कोई हतप्रभ था कि यह पूरी तरह निराधार और झूठ है। जेल की कोठरी में अपने पहने हुए पाजामे से, दरवाज़े के सींखचों में कोई फाँसी पर कैसे झूल सकता है, और यह कि जेल में इतने क़ैदियों, स्टॉफ़ में से कोई उन्हें यह सब करते देख नहीं पाया।

यह सब सच नहीं है। यह पुलिस द्वारा बेतुकी गढ़ी हुई कहानी है। मगर हर कोई विवश था पुलिस की इस मनगढ़ंत कहानी के आगे। जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं बोल सकता था। कुछ महीने बाद यह पता चला कि त्रिनेत्रधारी की लिखी कहानी को पुलिस ने यथार्थ में परिवर्तित किया था। चच्चा का शव मृत्यु के तीसरे दिन गाँव पहुँचा था। क़ानूनी पचड़ों के ज़रिए जितनी देर की जा सकती थी वह की गई थी। इतनी देरी के कारण पार्थिव शरीर के आते ही उसका दो घंटे में ही अंतिम संस्कार कर दिया गया।

चाची यह सब देखकर इतना बेसुध हो गईं थीं कि उनके ना आँसू निकल रहे थे, ना ही वह रो रही थीं। मूर्तिवत सब कुछ होता देख रही थीं। चच्चा के जेल में बंद दोनों लड़के अंतिम संस्कार के दिन दो घंटे के लिए आए थे। यह कोर्ट के आदेश के बाद हो पाया था। इसमें बड़ा रोल मेरे बाबूजी का था। तेरहवीं के दिन दोनों लड़के नहीं आ सके। इसके लिए भी बाबूजी ने बहुत कोशिश की थी लेकिन यह संभव नहीं हो पाया।

चच्चा के तीन छोटे भाइयों और उनके तीन छोटे बेटों ने तेरहवीं की रस्म पूरी की। यह संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक उसी दिन देश का मनहूस काला अध्याय समाप्त किए जाने की घोषणा हुई। मानो चच्चा अपना बलिदान देकर देश भर से मनहूस काली छाया हटा गए थे। मगर उनके जाने से घर पर पड़ी काली छाया गहराने लगी थी।

घर का ख़र्च कैसे चलेगा यह समस्या सुरसा के मुँह की तरह विकराल होती जा रही थी। चच्चा के भाई ज़्यादा लंबे समय तक मदद के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अपने परिवार के हिस्से का ज़्यादा हिस्सा अपने भाई के परिवार पर ख़र्च नहीं करना चाहते थे। अंततः कुछ ही महीनों में चाची अपने तीन छोटे बच्चों के साथ एकदम अकेली पड़ गईं। बाबू जी अभी भी भीतर ही भीतर मदद किए जा रहे थे। मगर उनकी भी एक सीमा थी, उससे आगे वह भी नहीं जा सकते थे। फिर भी उनके बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उठाते रहे। चाची को भी अम्मा के ज़रिए समझा-बुझाकर तैयार किया कि नाव मझदार से आप ही को निकालनी है। बाक़ी हम लोग मदद के लिए आसपास बने रहेंगे। इसलिए नाव का चप्पू आपको अपने हाथ में थामना ही होगा। जो आपको तब-तक चलाते रहना है जब-तक कि बच्चे चप्पू अपने हाथ में लेने लायक़ ना बन जाएँ।

समझदार चाची को बाबू जी की बातों से बल मिला, हिम्मत की और उठ खड़ी हुईं। चाची को चच्चा की जगह नौकरी दिलाने की बात आई लेकिन कुछ तकनीकी समस्याओं के चलते यह संभव नहीं हो पाया। चाची जल्दी ही पास में ही क़स्बे की बाज़ार में एक किराने की दुकान चलाने लगीं। तीनों लड़के भी स्कूल के बाद उन्हीं के पास दुकान पर रहते। हाथ बँटाते।

बहुत ही कम समय में चाची कुशलतापूर्वक नाव खेने लगी थीं और देश ने भी आज़ादी के बाद सबसे काले दिनों आपातकाल के थोड़े दिनों पश्चात ही अधिनायकवादी सोच की नेतृत्वकर्ता की सत्ता को उखाड़ फेंका था। वास्तविक लोकतांत्रिक लोगों के हाथों में सत्ता सौंप दी थी। अब त्रिनेत्रधारी पांडे भागा-भागा फिरने लगा। चच्चा के घर वालों ने तो तुरंत कुछ नहीं किया। लेकिन उससे त्रस्त कई और लोगों ने अपना हिसाब बराबर करना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप उस पर एक के बाद एक कई केस दर्ज हो गए। अंततः वह जेल पहुँच गया।

समय बीतता रहा। चाची नाव खेती रहीं। लड़के दुकान में हाथ बँटाते रहे, पढ़ते रहे। मगर तीसरे लड़के ने रंग बदलना शुरू कर दिया। उसे गुंडई-बदमाशी रास आने लगी। इतनी की पढ़ाई-लिखाई पिछड़ती चली गई और गुंडई बढ़ती गई। अपने रंग-ढंग से उसने घर के भी रंग-ढंग बदलने शुरू कर दिए। मैं और वह एक ही क्लास में पढ़ते थे। स्कूल और बाहर भी मुझे उसका साथ भाने लगा था। बाबूजी-अम्मा जी की नज़रों से यह बात छुपी नहीं रही। वह चिंता में पड़ गए। मगर मुझसे कुछ नहीं कह रहे थे। मैं पूरी तरह ख़ुद को आज़ाद समझ रहा था।

हाईस्कूल में मैं तो किसी तरह खींचतान के पास हो गया। मगर वह फ़ेल हो गया। ज़बरदस्त ढंग से सभी सब्जेक्ट में फ़ेल था। किसी विषय में उसका सबसे ज़्यादा नंबर इतिहास में था। सौ में नौ नंबर। मैथ में शून्य। कुल टोटल छः सौ में तैंतीस नंबर थे। मैंने जब उससे कहा कि, ‘लिख तो मेरे जितना तुम भी रहे थे, फिर सारे नंबर कहाँ चले गए?’ तो वह हंसता हुआ एग्ज़ामिनिरों को अंड-बंड बोलने लगा।

कहा, ‘इतने अच्छे-अच्छे गानों से पूरी की पूरी कॉपी भर देता था कि कॉपी जाँचते-जाँचते थक जाएँगे तो गानों से उनका मनोरंजन हो जाएगा। उनकी थकान उतर जाएगी और मुझे पुरे नंबर दे देंगे। मगर...।’ फिर वह अंड-बंड बकने लगा। टीचरों, एग्ज़ामिनिरों को कही जा रही ऊल-जुलूल बातें मुझे अखर रही थीं, और मेरे नंबर बाबूजी, अम्मा जी को इतने अखरे कि आगे की पढ़ाई के लिए मुझे दिल्ली भेज दिया। चच्चा के यहाँ।

इतना ही नहीं अगले कई साल तक होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर मेरे सारे भाई-बहनों के साथ दिल्ली आ जाते। जिससे मेरे गाँव जाने की सारी संभावनाएँ ख़त्म हो जातीं। कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं तैयारी किए बैठा रहा कि गाँव चलूँगा, चच्चा भी कहते हाँ चलना है। मगर चलने के समय सब वहीं पहुँच जाते। चच्चा, बाबूजी, अम्मा सब मिले हुए थे। उस समय उन सब पर बड़ा ग़ुस्सा आता था। गाँव का हाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता कि, ‘क्या रखा है गाँव में? वही धूल-माटी, कीचड़-गोबर। हम लोग ख़ुद ही ऊबकर अब बार-बार यहाँ आ जाते हैं।’

अम्मा चच्चा की तरफ़ देखती हुई कहतीं, ‘तुम्हारे बाबूजी की नौकरी भी चच्चा की तरह यहीं होती तो हम गाँव लौटकर जाते ही नहीं।’ तब समझ नहीं पाता था कि अम्मा-बाबूजी मेरे भले के लिए ही यह सब कुछ कर रहे थे। उस समय जो ग़ुस्सा आता था आज जब सोचता हूँ तो श्रद्धा से सिर बाबू जी, अम्मा जी, चच्चा, चाची जी सभी के चरणों में झुक जाता है। गाँव से आने के दस साल बाद मैं गाँव तब पहुँचा जब भारतीय वायुसेना में बतौर फ़ाइटर जेट पायलट मेरा चयन हो गया और प्रशिक्षण पर जाने से पहले बाबूजी ने मुझे फोन करके दो दिन के लिए गाँव बुलाया था। साथ में मेरे दोनों चचेरे भाइयों को भी।

ट्रेन लेट होने के कारण गाँव पहुँचने में हमें काफ़ी देर हो गई। हम बहुत देर रात में घर पहुँचे। सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। अम्मा-बाबूजी, भाई-बहन सब। अम्मा, बहन ने खाने-पीने की इतनी चीज़ें बनाई थीं, तैयारी घर में ऐसे की गई थी मानो शादी-ब्याह का घर हो। मैंने सबसे पहले अम्मा के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। अपनी बाँहों में भर लिया। मारे ख़ुशी के उनके आँसुओं की धारा बह चली थी। दोनों हाथों में मेरा चेहरा लेकर बार-बार माथे को चूमा। मुझे गले लगाया, रोती हुई बोलीं, ‘मेरा लाल, बेटा मैंने कैसे पत्थर बनकर तुझे इतने सालों तक यहाँ से दूर रखा बता नहीं सकती।’

रोते हुए अम्मा बोले जा रही थीं, उनके शब्द स्पष्ट नहीं निकल रहे थे। तभी बाबूजी भी बोले, ‘अरे इतना थका हुआ है, बैठने दो पहले इन सबको’ बाबू जी की आवाज़ भी बहुत भरी हुई थी। जैसे कि बस अब रो ही देंगे। असल में एक बाप तड़प रहा था अपने बेटे से मिलने के लिए। उनकी भावना समझते ही मैंने एक हाथ से उनको भी गले लगा लिया था।

मेरे लिए उस पल से ज़्यादा अनमोल शायद ही कोई दूसरा क्षण होगा। पूरा वातावरण इतना भावुक हो गया था कि बहन भी भैया बोलते हुए आ लगी गले से। मैंने उसे भी अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था। मेरी भी आँखें बरस रही थीं। बड़ी देर बाद हम अलग हुए। बाक़ी सभी भाइयों से मिला, वे भी भावुक थे। अम्मा साथ आए दोनों चचेरे भाइयों से भी मिलीं। उन्हें भी गले लगाया, आशीर्वाद दिया। बड़ी देर रात तक खाना-पीना, हँसना-बोलना, चलता रहा। सबसे ज़्यादा बातें मेरी पढ़ाई-लिखाई, एयरफ़ोर्स में मेरे सिलेक्शन को लेकर होती रहीं।

पूरा घर एक पेट्रोमैक्स, कई लालटेन के सहारे चमक रहा था। पूरे घर की रंगाई-पुताई से लेकर एक-एक चीज़ चमकाई गई थी। बहुत सी चीज़ें नई ख़रीदी गई थीं। मैं अपने लिए घर का ऐसा लगाव देखकर अभिभूत हो रहा था। कई कमरों में सभी के सोने के लिए अलग-अलग इंतज़ाम किया गया था। लेकिन सोने के समय बहन बोली, ‘बरोठे में सब एक साथ सोते हैं। सब ने बातें कर लीं, मैं तो बात कर ही नहीं पाई हूँ।’

वह सही कह रही थी। अम्मा का हाथ बँटाने में ही उसका सारा समय निकल गया था। उसके बोलते ही बाक़ी भाइयों ने भी हाँ कर दी तो एक साथ बरोठे में ही ज़मीन पर ही बिस्तर लगाया गया। क्योंकि वहाँ एक साथ सभी के लिए चारपाइयाँ नहीं पड़ सकती थीं। लेटे-लेटे ही सब बतिया रहे थे। बतियाते-बतियाते ही सब एक-एक कर सोते चले गए। मैं आख़िर तक जागता रहा। मैं थका था, आँखों में नींद भी बहुत थी लेकिन मैं सो नहीं पा रहा था।

एक ही बात बार-बार दिमाग़ में गूँज रही थी कि इतने सालों बाद आया हूँ, गाँव के संगी-साथी कैसे हैं? यह भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ। परसों सुबह फिर चले जाना है। पता नहीं फिर कब वापसी होगी। मेरा मन बार-बार चच्चा के घर चला जा रहा था, कि पता नहीं उनके यहाँ सब कैसे हैं? चाची कैसी हैं? और उनका बेटा, मेरा सहपाठी, वह कैसा है? जेल में बंद उसके दोनों भाई छूटे कि नहीं। घर में तो गाँव के बारे में कोई कुछ बात ही नहीं करता था। बहुत पूछने पर ही बाबू जी कभी-कभी कुछ-कुछ बताते थे। बाबूजी ने तो उसकी ख़ुराफ़ातों के कारण उसका नाम ही “मुतफन्नी” रखा हुआ था। वहाँ पहुँचने पर इतनी सारी बातें दिल्ली, मेरी एयरफ़ोर्स की नौकरी की होती रही थीं कि गाँव का नंबर ही नहीं आया।

अगले दिन सवेरे ही मैं भाइयों के साथ गाँव देखने, सब से मिलने निकल लिया। निकलते वक़्त अम्मा ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया था कि मैं किसी को यह भूल कर भी नहीं बताऊँगा कि मैं एयरफ़ोर्स में भर्ती हो गया हूँ। और भी कुछ ज़्यादा बातें करने से मना किया। उन्हें इससे मेरा अनिष्ट होने की आशंका सता रही थी।

मैं चच्चा के यहाँ पहुँचा तो चाची दरवाज़े पर ही बैठी मिलीं। उनके पैर छुए लेकिन वह पहचान नहीं सकीं। बताया तो ख़ूब आशीर्वाद दिया। उनके ही पीछे एक और महिला खड़ी थी जो हम लोगों के पहुँचते ही भीतर चली गई। मैंने अपने सहपाठी के बारे में पूछा तो चाची ने कहा, ‘बाज़ार में होगा दुकान पर।’ बाज़ार में हमने अपने सहपाठी इंद्रेश की दुकान पूछी तो जिनसे पूछा था वह कुछ लटपटाए। तब हमने चच्चा का नाम लिया, उनका नाम पूरा होने से पहले ही वह बोले, ‘अरे बोल्टुआ के पूछ रहे हो। ऊहे तो बा ओकर दुकनियाँ।’

उन्होंने पचास-साठ क़दम आगे एक दुकान की ओर हाथ दिखाते हुए कहा। हम वहाँ पहुँचे, वह चाय-समोसा, मिठाई की दुकान थी। सामने भट्टी पर कढ़ाई में तेल गर्म हो रहा था। उसके बगल में छोटी भट्टी में चाय की बड़ी सी केतली चढ़ी थी। भट्टी के दूसरी तरफ़ एक सोलह-सत्रह साल का लड़का उबले हुए आलू छील रहा था। मैं उससे पूछने ही वाला था कि नज़र उसके पीछे तखत पर बैठे एक औसत क़द के लेकिन मज़बूत जिस्म वाले व्यक्ति पर पड़ी। मैं देखते ही पहचान गया। मैंने जैसे ही आवाज़ दी ‘इंद्रेश।’ क्षण भर देखते ही वह भी पहचान गया।

ख़ुश होता हुआ बोला, ‘अरे तू, आवा अंदरवां आवा ना।’ कहते हुए वह उठा और मेरे पास आया। हमने उसे गले लगाकर कहा, ‘अरे तू तो बड़का सेठ हो गए हो।’ वह बोला, ‘अरे काहे का सेठ, ऐसे ही चाय-पानी चलता रहता है। आवा अंदर, आवा।’ हमें और हमारे साथ आए चचेरे भाइयों को तखत पर बैठाया। ख़ुद ग्राहकों के लिए पड़ी बेंच खींचकर उस पर बैठ गया। भट्टी के पास बैठे लड़के को चाय बनाने के लिए कहकर बतियाने लगा।

बड़ी देर तक चाय-नाश्ता, हमारी बातें होती रहीं। वह अपनी कम मेरी ज़्यादा पूछ रहा था। दिल्ली, पढ़ाई-लिखाई, इतने दिन आए क्यों नहीं? वह हँस-हँस कर अपनी एक से बढ़कर एक ख़ुराफ़ात भी बताता रहा कि इतने दिनों में कैसे त्रिनेत्रधारी से एक-एक कर बदला लिया। कैसे उसे भरे बाज़ार में मारा-पीटा। उसके लड़के को आए दिन इतना मारा-पीटा कि उसकी पढ़ाई छूट गई। त्रिनेत्रधारी ने उबकर लड़के को किसी रिश्तेदार के यहाँ भेज दिया।

त्रिनेत्र से मुक़ाबले के लिए उसने राजनीतिक पार्टी ज्वाइन कर रखी है। यह होटल भी त्रिनेत्र की ही ज़मीन कब्ज़ा करके बनाया है। मैंने उससे उसके भाइयों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि, 'बड़के दोनों भईया जेल से छूटने के बाद यहाँ ज़्यादा दिन रुके नहीं, मुम्बई चल गए। वही काम-धंधा जमाए हैं। पढ़ाई-लिखाई तो दोनों जने की खत्मे हो गई थी। एक जने आगे खाद-बीज का धंधा जमाए हैं।' सबसे छोटे के बारे में उसने बड़े गर्व से बताया कि, 'वह एक हत्या के मामले में जेल में बंद है।' मैं हैरान था कि ग़लत काम को भी यह कैसे गर्व का विषय समझ रहा है। मुझे लगा कि मैं उसकी बातों से ऊब रहा हूँ। भाइयों के चेहरों पर भी कुछ ऐसा ही भाव दिख रहा था। मैंने बात बदलने की गरज से पूछा, ‘तुमने यह दुकान का नाम कैसा रखा है “बोल्टू हस्का-फुस्की मिठाई वाला।” पूछते ही वह ज़ोर से हँसा, फिर लंबी कहानी बता डाली, बोला कि, ‘तुम्हारे जाने के बाद गाँव के ही लड़कों ने बोल्टू कहना शुरू कर दिया था। कबड्डी खेलते वक़्त मैं जिसे पकड़ लेता था वह छूट नहीं पाता था। सब कहते बोल्ट टाइट हो गया है, छूट नहीं सकता। फिर बोल्ट से बोल्टू हो गया।’

मैंने तुरंत पूछा और हस्का-फुस्की तो वह फिर हँसकर बोला, ‘यह दोनों मेरे लड़कों के नाम हैं।’ उसने तर्क दिया कि, ‘मैं ऐसा नाम रखना चाहता था अपने जुड़वा बेटों का जो किसी और का हो ही नहीं, और साथ ही कोई उसके बेटों के नाम की नक़ल भी ना करना चाहे तो मुझे यही नाम सूझा। दुकान का नाम अपना, बेटों का नाम मिला कर रखा है। दावे से कहता हूँ कि कोई भी इस नाम की नक़ल नहीं करेगा।’ मैं उसकी बातों उसके कामों से बहुत निराश हुआ। किसी तरह बात ख़त्म कर के उससे विदा ली। मैंने पूरा प्रयास किया कि मेरे भाव को वह समझ ना सके।

इसके बाद गाँव, खेत, बाग़ घूम-घाम कर घर वापस चल दिया। बार-बार अम्मा, बाबूजी को प्रणाम करता हुआ कि उन्होंने कितना सही निर्णय लिया था मुझे यहाँ से हटाने का। नहीं तो मैं भी यहीं कहीं बोल्टू हस्का-फुस्की दुकान खोले चाय बेच रहा होता। घर पर खाने-पीने के बाद मैंने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई चेक की तो वह मुझे संतोषजनक नहीं लगी। मैंने बाबूजी-अम्माजी से उनकी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजने को कहा और वापस आ गया। दोबारा मेरा गाँव जाने का मन नहीं होता था। नौकरी भी ऐसी मिली थी कि फ़ुर्सत ही नहीं। हालात भी ऐसे बने कि हम सब भाई-बहनों का शादी-ब्याह सब कुछ दिल्ली में ही संपन्न हुआ।

समय बीतता गया लेकिन बोल्टू हस्का-फुस्की मेरे दिमाग़ से नहीं निकला। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी भी हम लोगों के साथ दिल्ली में बस गए। मैं ख़ुद भी रिटायरमेंट के क़रीब पहुँच रहा हूँ। पर यह अभी भी दिमाग़ में है। इसे ढोते हुए एक दिन मैं विशाखापट्टनम से आकर एयरपोर्ट पर उतरा। मेरे बेटा-बेटी मुझे लेने आए थे। मैं कार में पीछे बैठा अपने एक कुलीग से मोबाइल पर बातें कर रहा था। घर रोहिणी पहुँचने से कुछ पहले ही एक बिल्डिंग के सेकेंड फ़्लोर पर बड़ा सा बोर्ड लगा देखा। जिस पर लिखा था, ‘बोल्ट्स जिम’। जिसे पढ़ते ही मेरे दिमाग़ में सेकेंड भर में न जाने कितनी तस्वीरें घूम गईं।

मैं गाड़ी बैक करवा कर वापस गया। बच्चों को गाड़ी में ही रुकने के लिए बोलकर ऊपर पहुँचा। मेरा अंदेशा बिल्कुल सही था। बोल्ट्स जिम का मालिक बोल्टू ही निकला। जिम क्या पूरी बिल्डिंग का मालिक वही था। हमें एक दूसरे को पहचानने में समय नहीं लगा। फिर गले मिले। तीस साल बाद। बोल्टू ने अपने बेटे को भेजकर मेरे बच्चों को भी ऊपर बुलवाया। ख़ूब ख़ातिरदारी की।

मैं बच्चों को नहीं मिलवाना चाहता था। लेकिन बात मुँह से निकल चुकी थी। आधे घंटे की मुलाक़ात में बोल्टू ने जो कुछ कहा वह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। उसने बताया कि, ‘अपनी राजनीति मैंने ऐसी चमकाई कि मैं यहाँ हूँ, मर्डर केस में जेल में बंद भाई सज़ा काट कर लौटा तो दोनों भाइयों ने मिलकर यह पा लिया। गाँव में भी खेत-बाग़, मकान, गाड़ी सब कुछ है। पहले से सैकड़ों गुना ज़्यादा संपत्ति गाँव और शहर में बना ली है। यह बिल्डिंग ही पचास करोड़ से ऊपर की है। भाई दो-दो बार ब्लॉक प्रमुख रह चुका है। एक बार विधायक भी। मैं पिछली बार एमपी का चुनाव लड़ा लेकिन थोड़े से अंतर से दूसरे नंबर पर रहा। इस बार मेरा दाँव सफल रहा तो पार्टी मुझे राज्यसभा ज़रूर भेजेगी।’ चलते समय जब मैं कार में बैठ गया था तब अचानक ही चाची के बारे में पूछने पर बोल्टू ने कहा था कि, ‘कुछ साल पहले उनकी डेथ हो गई। वह भी यहीं रहती थीं।’

रास्ते भर मैं सोचता रहा कि बाबूजी-अम्मा जी का मुझे गाँव से पढ़ने के लिए दिल्ली भेजने का निर्णय सही था या ग़लत। और मैंने भाई-बहनों को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली बुलाकर सही किया था कि ग़लत। हालाँकि सभी सरकारी नौकरी कर रहे हैं। सभी क्लास वन अफ़सर हैं।

घर पहुँच कर मैंने अम्मा-बाबूजी के पैर छू कर फिर आशीर्वाद लिया था। मैं घर से बाहर जाने-आने पर यह ज़रूर करता हूँ। उनके चरणों में मुझे सारी दुनिया ही नज़र आती है यह नहीं कहूँगा, बल्कि मैं यह कहता हूँ, समझता हूँ, अहसास करता हूँ कि मुझे तीनों लोकों की ख़ुशियाँ मिल जाती हैं। उस दिन भी चरण छूकर मुझे मेरे कन्फ्यूज़न का तुरंत उत्तर मिल गया था कि बाबूजी अम्मा जी और मैंने एकदम सही निर्णय लिया था।   

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 भगवान की भूल      

 मां ने बताया था कि, जब मैं गर्भ में तीन माह की थी तभी पापा की करीब पांच वर्ष पुरानी नौकरी चली गई थी। वे एक सरकारी विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी थे। लखनऊ में किराए का एक कमरा लेकर रहते थे। घर में मां-बाप, भाई-बहन सभी थे लेकिन उन्होंने सभी से रिश्ते खत्म कर लिए थे। ससुराल से भी। मां ने इसके पीछे जो कारण बताया थाए देखा जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं था। बिल्कुल निराधार था। मां अंतिम सांस तक यही मानती रही कि उसकी अतिशय सुंदरता उसकी सारी खुशियों की जीवनभर दुश्मन बनी रही। वह आज होतीं तो मैंने अब तक जितनी भी कठिनाइयां , मान-अपमान झेले वह सारी बातें खोलकर उन्हें बताती और समझाती कि तुम अपने मन से यह भ्रम निकाल दो कि तुम अतिशय सुंदर थीं। तुम पर नजर पड़ते ही देखने वाला ठगा सा ठहर जाता था। और यह खूबसूरती तुम्हारी दुश्मन थी। 

मुझे देखो मैं तो तुम्हारे विपरीत अतिशय बदसूरत हूं। मुझे बस तुम्हारा दुधिया गोरापन ही मिला है। बाकी रही बदसूरती तो वह तो दुनियाभर की मिल गई। फिर मुझे होश संभालने से लेकर प्रौढ़ावस्था करीब-करीब पूरा करने के बाद भी अब तक खुशी नाम की चीज मिली ही नहीं। तुम नाहक ही अपनी सुंदरता को जीवनभर कोसती रही। असल में कई बार हम हालात के आगे विवश हो जाते हैं। या तो हम समझौता कर उसके आगे समर्पण कर देते हैं, जहां वह ले जाए वहां चलते चले जाते हैं। या फिर एकदम अड़ जाते हैं। अपनी क्षमताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा मोहड़ा (चुनौती)  मोल ले लेते हैं। जिससे अंततः टूट कर बिखर जाते हैं। मैं मां की हर बात को बार-बार याद करती हूं। तमाम बातों को डायरी में भी खूब लिखती रही। बहुत बाद में मन में यह योजना आई कि अपने परिवार की पूरी कथा सिलसिलेवार लिखूंगी । चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इस निर्णय के पीछे एक मात्र कारण हैं। दोनों चित्रकार मां-बेटी बरसों-बरस से मेरी ज़िंदगी में कई मोड़ पर अहम रोल अदा करती आ रही हैं। वो मुझे सेलिब्रेटी बनाने की कोशिश बहुत बरसों से करती आ रहीं हैं। उन्हीं की सलाह है कि मैं परिवार के बारे में लिख डालूं । यह और उन मां.बेटी द्वारा बनाई गई मेरी न्यूड पेंटिंग्स लोगों के बीच तहलका मचा देंगी। 

असल में उन दोनों ने मुझे बहुत पहले इस बात का बड़ी गहराई से अहसास कराया थाए कि मैं इस दुनिया में एक अजूबा हूं। एक ऐसी अजूबा जो जिधर निकल जाए उस पर लोगों की नज़र पड़े और ठहरे बिना नहीं रह पाएगी। देखा जाए तो सच यही है कि मैं एक अजूबा प्राणी ही तो हूं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अजूबों पर दुनिया का ध्यान बड़ी जल्दी जाता है। नज़र उस पर ठहर ही जाती है। इसलिए मुझे आज भी यकीन है कि चित्रा आंटी और मिनिषा की बात एक दिन वाकई सच होगी। 

मेरी आप बीती तहलका मचा सकती है। लेखन की बारीकियों से अनजान मैं यही समझ पाई हूं कि मेरे अब तक के जीवन में जो घटा है सब लिख डालूं। मैं जैसी अजूबा हूं मेरे साथ अब तक जीवन में वैसा अजूबा ही तो घटता आ रहा है। मेरी इस जीवन गाथा के मुख्य पात्र मां-बाप के बाद चित्रा आंटी, मिनिषा, डिंपू, ननकई मौसी, सिन्हा आंटी, उप्रेती एवं दयाल अंकल आदि होंगे। 

मां-बाप होते तो निश्चित ही डिंपू को न शामिल करने देते। तब मैं उनको यही समझाती कि मां ऐसा कैसे कर सकती हूं। आखिर अपने ड्राइवर देवेंद्र को कैसे छोड़ सकती हूं। वही देवेंद्र मां जिसे तुम डिंपू-डिंपू कहती हो। मैं यह भी मानती हूं कि डिंपू मेरे बीच जो हुआ आगे चलकर उसे जानते ही मां और पापा दोनों ही निश्चित ही मुझे मारते-पीटते घर से निकाल देते। जिस डिंपू को हम लोग कभी नौकर से ज्यादा कोई तवज़्जोह नहीं देते थे वही डिंपू उनका दामाद बन जाता यदि उसने मुझे धोखा नहीं दिया होता। और मैं उसे गुस्से में दुत्कार न देती और फिर कभी शादी न करने का प्रण न करती। मैं पूरे यकीन के साथ कहती हूं कि यह जानते ही मां मुझे ठीक उसी तरह घर से धक्के देकर सड़क पर फेंक  देती जैसे उन्हें और पापा को उन के सास-ससुर ने निकाल दिया था। जबकि उन्होंने पापा ने तो ऐसा कोई काम किया ही नहीं था।

मुझे अच्छी तरह याद है कि मां मौका मिलते ही बार-बार सास-ससुर द्वारा घर से निकाले जाने और मेरे जन्म की घटना बताती थीं। मां की याददाश्त बड़ी अच्छी थी। मां हर बार एक सी ही बात बताती थीं। कभी उसमें कोई परिवर्तन नहीं रहता था। उन्होंने यही बताया था कि शादी की बात चली तो पापा और उनके परिवार ने उन्हें एक नज़र देखते ही हां कर दी थी। यहां तक कह दिया था मां के माता-पिता से कि यदि आप एक पैसा भी नहीं खर्चां करेंगे तो भी रिश्ता यही करेंगे। कोई दिक्कत है तो पैसा हम लगाने को तैयार हैं। पापा की तरफ के इस उतावलेपन का मां के परिवार ने खूब फ़ायदा उठाया। इसमें उनके चाचा भी शामिल थे। सबने एक राय होकर जो कुछ मां की शादी में करने देने के लिए पहले से तय था उसका भी अधिकांश हिस्सा रोक लिया, नहीं दिया। मगर मां की ससुराल वालों ने इस पर भी क्षणभर को ध्यान नहीं दिया। मां ससुराल पहुंची तो उनकी सुंदरता केवल अपने गांव ही नहीं आस-पास के गांवों में भी चर्चा का विषय बन गई। दादी उनकी सुंदरता, सुघड़ता उनकी बातों, व्यवहार, शिष्टाचार की चर्चा कर-कर के, सुन-सुन के खुशी के मारे फूली न समाती थीं। रोज ही शाम को वह मां की नज़र उतारती थीं कि किसी की नज़र न लगे। पापा सहित घर के सारे लोगों का यही हाल था। 

मां कहती थी कि पापा पहली रात को और बाद में भी कई दिनों तक रात में जब उनके पास पहुंचते तो लालटेन उनके करीब करके देर तक उनको अपलक ही निहारा करते। मां लजा कर सिर नीचे कर लेतीं, तो अपने दोनों हाथों में उनका चेहरा लेकर यूं धीरे-धीरे ऊपर उठाते कि मानो पानी का कोई बुलबुला हाथों में  लिए हैं और वह इतना नाजुक है कि हल्की जुंबिश तो क्या सांस लेने की आवाज़ से भी फूट जाएगा। 

वह चेहरा ऊपर करके एकदम अपलकए एकदम निःश्वास मां को देखते। पापा को इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि घर में क्या गांव में ही बिजली नहीं है। जब कि मां सीतापुर शहर में पली बढ़ीं थीं। हालांकि लाइट का टोटा वहां भी था। लेकिन मां के घर में सुख-सुविधा का हर सामान था। मगर उनकी शादी एक गांव में की गई, जहां माटी, गोबर लीपना-पोतना, कंडा, उपला, खेती किसानी यही सब था। बाबा भी गांव के बहुत बडे़ तो नहीं मगर फिर भी अच्छे-खासे खाते-पीते संपन्न किसान माने जाते थे। कच्चा-पक्का मिला कर बड़ा मकान था। कच्चे ही सही मगर करीब-करीब पचीस बीघे खेती थी। घर में गाय, भैंस, बैल मिला कर करीब आठ-नौ जानवर थे, ट्रैक्टर था। मां बड़ा दुखी होकर बताती थी कि मानो परिवार की इन सारी खुशियों को किसी बाहरी की तो नहीं हां परिवार की ही नज़र लग गई थी। 

जिन पापा को पहले यह खेती-किसानी घर-द्वार अच्छा लगता था वही शादी के चार-छः दिन बाद ही यह सब देखकर चिढ़ने लगे थे। उनको बहुत बुरा लगता था कि दादी किसी के आने पर मां को बुलातीं और उन्हें खड़ा ही रखतीं, जब कि बाकी लोग तखत, चारपाई, स्टूल आदि पर बैठते। आने वाला मेहमान यदि मां को बैठने को कहता तो उन्हें कोने में लंबा घूंघट काढ़ कर पीढे़ पर ही बैठने की इज़ाज़त थी। इन सबसे चिढ़े पापा तब अपना विरोध दर्ज कराना रोक न पाए, जब चौथी की रस्म के हफ्ते भर बाद ही मां से रसोई घर गोबर से लीपने के लिए कह दिया गया। पहले यह काम दादी खुद करती थीं क्योंकि रसोई घर में काम वाली जा नहीं सकती थी। 

उस दिन जब पापा ने देखा कि दादी मां से गोबर से रसोई लिपवा रही हैं, और मां ने क्योंकि पहले कभी यह सब नहीं किया था तो ठीक से लीप नहीं पा रही थीं। हांफ अलग रही थीं, पसीने से तरबरतर थीं और दादी पीढ़े पर थोड़ी दूर बैठी मां को लीपना बता रही थीं। जहां ठीक से नहीं हुआ था वहां दुबारा करवा रही थीं। पापा उस समय तो कुछ नहीं बोले थे। रात में  मां की हथेलियों पर उभर आए सुर्ख निशानों को कई बार चूमा था और नाराज होकर कहा था कि,  ''मुझसे यह सब देखा नहीं जाएगा।'' मां ने तब उन्हें मना किया था कि, ''ससुराल है। घर में तो यह सब होता ही है। अम्मा जी भी तो करती हैं।'' तब पापा बोले थे कि, ''यह तो उनकी आदत है।'' इस पर मां ने कहा कि, ''मेरी भी आदत पड़ जाएगी।'' लेकिन पापा बहस करते रहे। बोले, '' तुम मेरी बीवी हो घर की नौकरानी नहीं। 

मजदूर नहीं कि तुम्हें मेहमानों के सामने जमीन पर बैठाया जाए या खड़ा रखा जाए। गोबर लिपवाया जाए, सुबह भोर से लेकर रात तक काम में पीसा जाए। मुझसे यह सहन नहीं होगा।'' मां के लाख कहने पर भी पापा नहीं माने थे, और जब अगले दिन मां फिर चौका लीप रही थीं, दादी पहले की तरह बता रहीं थीं तो पापा ठीक उसी वक्त आ गए। मानो वह पहले ही से ताक लगाए बैठे थे। वो कुछ बोलते कि उसके पहले ही दादी बोल पड़ीं, ''का रे तू मेहरिया के काम का देखा करत है। अरे! घरवे का काम कय रही है। कौउनो बाहर के नाहीं।'' दादी का इतना बोलना था कि पापा फट पड़े थे कि, ''वो तो मैं भी देख रहा हूं कि घर का ही काम कर रही है। लेकिन एकदम मजूरिन बना दिया है। दस दिन भी नहीं हुआ है और कोल्हू के बैल की तरह काम ले रही हो। गोबर लिपवा रही हो।'' 

दादी अपने सबसे बड़े बेटे से यह अप्रत्याशित बात सुनते ही एकदम सकते में आ गर्इं थीं। उनके सारे सपने, सारी खुशी सुंदर बहू पाने का सारा उछाह, ऊपर से गिरे शीशे की तरह छन्न से टूटकर चूर-चूर हो गए थे। मां यह बताते-बताते खुद भी रो पड़ती थी कि पलभर में दादी के अविरल आंसू बहने लगे थे। वह रोती हुई बोलीं थीं, ''वाह बेटा चार दिन भः मेहरिया के आए ओके लिए इतना दर्द और ई मां जो बरसों बरस से गोबर, माटी, पानी, लिपाई करती आई, बनाती खिलाती आई, इस लायक बनाया कि ऐसी मेहरिया मिल सके उसका कोई खयाल नहीं। इतनी बड़ी तोहमत, इतना बड़ा कलंक लगा दिया। अरे! मेरे दूध  में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि यह ताना मारते तोहार जुबान न कांपी।''

 मां ने जब-जब यह बताया तब-तब आखिर में यह जोड़ना ना भूलतीं कि सास के यह आंसू ही पापा और उनके लिए शाप बन गए। और उन दोनों को संतान सुख नहीं मिला। अब मैं यह भी इसमें आगे जोड़ना चाहूंगी कि मां मुझसे कहती भले ही न थीं, लेकिन मन में  यह जरूर कहती रही होंगी कि संतान दी थी तो मेरी जैसी। ऐसी अजूबा जो उन दोनों के लिए असहनीय बोझ ही रही। मां बहुत भावुक होकर बताती  थीं कि,  ''सास के आंसू देखकर वह तड़प उठी थीं।'' 

उसने जल्दी से गोबर सने अपने हाथ धोए और सास को समझाने लगीं, पापा को वहां से तुरंत हट जाने को भी कहा लेकिन तब-तक बातें सुनकर बाबा भी आ धमके। दादी से सारी बातें  सुनते ही वह आग बबूला हो उठे। उन्होंने पापा को नमक-हराम से लेकर जितना जद्बद् हो सकता था कहना शुरू कर दिया। पापा ने भी जबानदराजी शुरू कर दी थी। जिसने आग में घी का काम किया। मां, बाबा-दादी सब के रो-रोकर हाथ जोड़-जोड़ कर विनती करती रहीं कि, ''शांत हो जाइए। ऐसी कोई बात नहीं है। न जाने ऐसा क्या हुआ कि यह ऐसी गलती कर बैठे।'' मां इतना ही बोल पाई थी कि पापा फिर बिदक उठे, ''मैंने कोई गलती नहीं की है।'' फिर तो बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने तुरंत अपना आदेश सुनाते हुए कहा, ''आज से तुम अपना चूल्हा अलग करो। तुम्हें परिवार के बाकी लोगों से कोई लेना-देना नहीं। कोई संबंध नहीं रहा अब तुम्हारा बाकी लोगों से।'' 

घर के बाकी सारे सदस्य, मां की नंदें, देवर आदि सब आ चुके थे। जिन पापा को कभी किसी ने बाबा से तेज़ आवाज़ में बात करते भी नहीं सुना था आज उन्हीं को उनसे इस तरह बिना हिचक लड़ते देख कर सभी सकते में थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। दादी भी कुछ-कुछ बुदबुदाती अपनी किस्मत को कोसती रोए जा रही थीं। मां बड़ी गहरी सांस लेकर कहती कि बाबा का आदेश सुनने के बाद पापा नम्र पड़ने के बजाय और बहक गए। उन्होंने छूटते ही कह दिया कि, ''जिस घर में परिवार के सदस्य और मजदूर के बीच कोई फर्क ही नहीं वहां मुझे रहना ही नहीं है।'' फिर तो बाबा ने अपना आखिरी महाविस्फोट किया था। साफ कहा था कि, ''ठीक है... ठीक है बेटा इतनी ही शान है तो देहरी से अगर क़दम निकालना तो जीवन में कभी मुंह मत दिखाना। हम भी देखेंगे कि कितनी शान, कितनी ऐंठ है तुममें।'' 

मां जब-जब अपनी यह बात पूरी करती थीं तो आखिर में कभी मेरा हाथ पकड़ कर या कभी कंधे पर हल्के से थपथपा कर कहतीं, ''बस तनु यही वह क्षण थे जब हमारी सारी खुशियों को हमेशा के लिए ग्रहण लग गया।'' मां सच ही कहती थीं। जीवन भर मैंने उसे कभी हंसते खिलखिलाते नहीं देखा था। गाहे-बगाहे कभी हंसी भी तो उसकी वह हंसी हमेशा खोखली एवं नकली ही दिखी। हर हंसी के पीछे मैं आंसू देखती थी। और पापा का भी यही हाल था। मैं पापा-अम्मा के जीवन के उस दिन को उनके जीवन का सबसे मनहूस दिन मानती हूं। जिसकी काली छाया ने मेरे जीवन को भी अंधकारमय बनाया है। वह इतना काला दिन था कि एक बाप की डांट को बेटा बर्दाश्त नहीं कर सका। 

वह अपने आवेश पर काबू न कर सका और त्याग दिया सभी को। कुछ ही दिन पहले आई पत्नी के लिए इतना बड़ा फैसला ले लिया। वह पत्नी भी हाथ जोड़ती रही लेकिन नहीं माने। मां कहती थीं कि तुम्हारे पापा से मैंने लाख मिन्नत की हाथ पैर जोड़े लेकिन वह ऐसा मनहूस क्षण था कि वह नहीं माने। उन्होंने यहां तक कह दिया कि, ''तुम्हें  ज़्यादा वो हो तो तुम रहो यहीं। मुझसे संबंध खत्म। मैं नहीं रहूंगा यहां। किसी भी सूरत में नहीं। फिर शाम होते-होते वह मां और दो सूटकेस में कपड़े वगैरह  लेकर लखनऊ चले आए थे। नाना-नानी के घर भी कोई सूचना नहीं दी थी। दो दिन बाद जब नाना को पता चला तो वो नानी, मामा को लेकर दौड़े-भागे लखनऊ आए थे। मगर उनकी भी सारी कोशिश नाकाम रही।

वो यहां अपने एक रिश्तेदार के यहां रुक कर कई दिन पापा को समझाते रहे लेकिन वो टस से मस नहीं हुए थे। जिस किराए के कमरे में पापा मां को लेकर रहने आए थे वह इतना बड़ा था ही नहीं कि उसमें मियां-बीवी के अलावा तीसरा कोई रह पाता। आखिर थके हारे नाना जाते-जाते मां को कुछ रुपए दे गए थे। उन्हें जल्दी ही सब ठीक हो जाने की उम्मीद थी। उनको और बाकी सबको भी यह पक्का यकीन था जब गुस्सा कम होगा तो बाप-बेटे एक हो जाएंगे। ऐसा न होने पर नाना के सपनों पर भी तो पानी पड़ रहा था। उन्होंने अपनी लड़की एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी को नहीं बल्कि एक अच्छे-खासे संपन्न खुशहाल परिवार, किसान परिवार के सदस्य को ब्याही थी।

मां इस घटना के लिए सारा दोष केवल अपनी सुंदरता को हमेशा देती रही। बार-बार यही कहती थीं कि, ''न मैं इतनी सुन्दर होती और न ही तुम्हारे पापा मेरी सुंदरता के दिवाने हो ऐसा गलत कदम उठाते कि मां-बाप, भाई-बहन, ससुराल सब से हमेशा के लिए नाता खतम कर लेते। और न ही पापा के भाई इसका गलत फायदा उठाते। दोनों नंदों की शादी हो गई लेकिन पापा को भनक तक न लगने दी गई। साजिशन नाना के यहां से तो दुश्मनी जैसी स्थिति पैदा कर दी गई। और आगे चलकर बाबा के कान भर-भर कर सारी चल-अचल संपत्ति से ही पापा को बेदखल कर दिया गया। मां फिर भी इसके लिए जीवन भर अपनी सुंदरता को ही दोषी ठहराती रहीं। उन्होंने यह भी बताया था कि, ''आने के बाद यदि पापा शांत हो जाते, बाबा-दादी सबसे माफी मांग लेते तो चुटकी में सब ठीक हो जाता। बाबा-दादी मन के बड़े खरे और दिल के सच्चे थे। 

वह पापा की इस हरकत को क्षणिक उत्तेजना में उठाया गया क़दम मान कर पलभर में माफ कर देते।'' लेकिन पापा तो उनके सौंदर्य के आगे कुछ ऐेसे चुंधियाए हुए थे कि जीवन यापन का एक मात्र सहारा अपनी टेम्परेरी नौकरी के साथ भी खिलवाड़ कर बैठे थे। और तब मां भी बिफर पड़ी थीं। और आत्महत्या की धमकी दे दी थी। उस धमकी का असर यह हुआ कि उसके बाद पापा कुछ भी करते लेकिन नौकरी के साथ चांस नहीं लेते। मगर उनके अगले और फैसलों ने, काम ने उन्हें और परेशान ही किया। मां इन बातों को बताते-बताते कई बार भावुक भी होतीं और कई बार जैसे रोमांचित भी। 

यह बात मां ने न जाने कितनी बार बताई कि लखनऊ आए दस दिन भी न बीता था कि एक रात वह उनके सौंदर्य में खोए हुए बोले कि, ''जब  तक नौकरी स्थाई नहीं होगी तब तक बच्चे नहीं पैदा करेंगे।'' उस समय तो वह कुछ नहीं बोलीं, लेकिन जब एक दिन बाद ही वह उन्हें फेमिली प्लानिंग के लिए एक हॉस्पिटल लेकर जाने लगे तब उन्होंने मना किया। ''देखो  इतनी जल्दबाजी मत करो। लोग कहते हैं कि शुरू में ही यह सब करने से फिर आगे कई बार ऐसा भी होता है कि बच्चे नहीं भी होते।'' लेकिन तब पिता जी ने उन्हें सड़क पर ऐसा तरेरा, इस तरह इतना तेज़ घुड़का कि मां सहम कर रह गईं। और पिता जी अपने मन की करवा करके लौटे। हालांकि हॉस्पिटल से लौटने के बाद कई दिन मां को जो पीड़ा, तकलीफ रही उससे पिता जी बहुत परेशान और आतंकित से रहे। इसके बाद फिर नौकरी के नियमित होने के इंतजार में दो साल बीत गए।  

दो साल बाद पापा मां की यह बात मान गए कि, ''बच्चा होने दो शायद उसकी किस्मत से ही हमारे दिन बहुरें।'' इस बीच पापा ने तीन मकान बदले। क्योंकि उन्हें हर बार यही शक सताए रहता था कि मकान मालिक मां को देखते हैं। गंदी नज़र डालते हैं। और मां इस सबसे होने वाली परेशानियों, अनावश्यक खर्चों के लिए अपनी सुंदरता को कोसती रहतीं। भगवान से मिले एक तरह से अनुपम वरदान को कोसती थीं। अब मेरी बड़ी इच्छा होती है कि मैं यह सारी बातें अब मां के सामने बैठ कर करती, कहती कि तुम्हारी और पापा की यह जो सोच थी गलत थी। जिस के चलते तुम दोनों एक निरर्थक, अतिरिक्त तनाव लिए जीवनभर परेशान रहे। लेकिन मुझे अफसोस है कि जब दोनों थे तब इतनी समझ नहीं थी। इतना ही नहीं तब तो मां की बातों से बोर हो जाती थी। अब जब इन विषयों के लिए सोच के स्तर पर परिपक्व हुई तो वह दोनों नहीं हैं। 

कहां पाऊं उन्हें। इतनी जल्दी छोड़ कर चल दिए ईश्वर के पास। मेरी छब्बीस-सत्ताईस की उम्र थी जब पापा एवं मात्र नौ महीने बाद ही मां भी चली गईं। मेरे आगे पीछे कोई नहीं। मगर मैं फिर भी यह नहीं कहूंगी कि मेरी शारीरिक स्थिति मेरे लिए एक समस्या थी और है। मैं यही कहूंगी कि मेरा शरीर जैसा भी है, वही मेरे काम आता चला आ रहा है। चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इसी शरीर को देखकर ही तो मुझे बरसों से सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश करती आ रही हैं। इन्हीं सब के चलते मैं मां की तरह यह नहीं कहूंगी कि मेरा शरीर मेरी सारी समस्याओं की जड़ है। जब थीं तब मैंने यह सब मां से कुछ-कुछ कहना शुरू ही किया था। 

पापा ने मुझसे कभी सीधे मुंह बात की हो यह मुझे ध्यान नहीं आता। पता नहीं यह सच है कि नहीं कि मैंने उनकी आंखों में अपने लिए हमेशा एक अजीब तरह की घृणा, उदासी ही देखी। मानो मैं ही उनके सारे दुखों की एक मात्र कारण थी। मुझे पापा को समझने का मौका नहीं मिला। 

मां जैसा बताती थीं। उस हिसाब से तो मेरा जन्म ही उन दोनों के लिए एक पीड़ादायी घटना थी। जब मां बताती थी तब दुनियावी बातों की इतनी समझ नहीं थी। उस वक्त सारी बातें मेरे लिए किसी कहानी से ज़्यादा नहीं थीं। मगर जब यह समझ बन पाई है तो उनकी बातें याद कर मन रोता है। मां-पिता होते तो शायद मेरी हालत का अंदाजा लगा सकते। मैं खुद रोती हूं, खुद ही अपने को चुप भी कराती हूं। खुद ही अपने आंसू बहाती हूं और अपने हाथों खुद ही पोंछती भी हूं। मेरे जन्म की कहानी जो मां ने बताई थी वह मुझे बहुत रुलाती है। 

मां ने बताया था कि मेरे गर्भ में आने के तीसरे ही महीने बाद जब नौकरी चली गई थी तो पापा उस दिन उनका एबॉर्शन कराने की जिद कर बैठे थे। उनसे खूब झगड़ा तक किया था। प्रिग्नेंसी के बावजूद मां दो दिन तक इस झगड़े के कारण भूखी तड़पती रही थीं, तब मैं मासूम निरीह जान मां के पेट में इन सबसे अनजान थी। 

महाभारत के अभिमन्यु जैसी क्षमता नहीं थी कि यह सब गर्भ में ही समझती और जन्म के बाद याद भी रखती। टेम्परेरी नौकरी भी चली जाने से पापा एकदम असहाय, विवश हो अपना आपा खो बैठे थे। घर ससुराल दोनों जगह से सारे संबंध खतम होने के कारण वह अपनी असहाय स्थिति के कारण भयभीत हो उठे थे। मगर इस हाल में भी उनका गुस्सा नफरत कम न हुई थी। अतः मां को इस हालत में भी मायके भेजने को तैयार नहीं हुए। इतने जिद्दी थे कि बोल दिया मजदूरी कर लेंगे, कुछ नहीं बन पड़ेगा तो दोनों आत्महत्या कर लेंगे। मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। फिर वह आए दिन मां को ताना मारते कि, ''बच्चा होने दो शायद उसी की किस्मत से दिन बहुरें। कितने अच्छे दिन बहुरे। दो जून की रोटी चलाने लायक जो नौकरी थी वह भी चली गई। अभी पेट में है तब यह किस्मत हैए पैदा होगा तो न जाने क्या कराएगा।'' 

फिर यह किचकिच जब तक वह घर में रहते तब तक होती थी। नौकरी छूटने के बाद मकान मालकिन ने किसी तरह महिने भर खाना-पीना चलाया था। मां बताती थी कि वह बड़ी भली महिला थीं। मां पेट से है यह देखकर वह अपने पति से छिपा कर मां की मदद करती थीं। खाने-पीने की तमाम चीजें मां को किसी न किसी बहाने देती रहती थीं। कि बच्चे को नुकसान न हो। पापा ने मकान मालिक की मदद से गणेशगंज में किसी दुकान में नौकरी कर ली। मगर पापा के अक्खड़ स्वभाव ने उन्हें वहां भी एक हफ्ते से ज़्यादा नहीं रुकने दिया। तब मां घबरा उठी थी। इस बीच मकान का किराया देने की बात सामने आ गई। मकान मालिक इसमें कोई रियायत नहीं करना चाहता था। उसकी जिद बातचीत के तरीके का पापा ने दूसरा ही अर्थ निकाला। और अपने ऑफ़िस के समय के एक मित्र जो कि पैतृक संपत्ति  के चलते बड़े धनाढ्य थे, उनके मकान में रहने लखनऊ शहर छोड़ कर मोहनलालगंज कस्बे में चले गए। 

जिन पापा ने अपने मां-बाप से घूंघट, काम-धाम के चलते लड़-भिड़ कर सब से सारे संबंध ही खतम कर लिए थे उन्होंने ही मां से अपने इस मित्र के सामने घूंघट में ही रहने, सामने न पड़ने की सख्त हिदायत दे दी थी। जब कि वह दोस्त पापा से मात्र सात-आठ साल ही बड़े थे। मां पापा के इस फैसले से अचंभित थीं। हालांकि मां पापा के इस निर्णय के लिए यही कहती थीं कि अपने मित्र को सम्मान की दृष्टि से देखने के कारण उन्होंने ऐसा किया था। मां होती तो अब मैं उनसे साफ कहती कि नहीं ऐसा नहीं था मां। उन्होंने अपनी मनोवृत्ति  के चलते ऐसा किया। वो नहीं चाहते थे कि उनके वह मित्र तुम को देख पाएं। पापा एक अजीब तरह के भय का शिकार थे मां। 

मां कई बार उस कस्बे मोहनलालगंज के बस स्टेशन के करीब की वह दुकान भी मुझे दिखा लाई थीए जहां पापा ने उन्हीं मित्र के सहयोग से दुकान चलाई थी। जिससे गुजर बसर हो रहा था। मां से उनकी चर्चा बराबर बड़ी होने पर भी सुनती रही थी। यह बात तो जस की तस आज भी याद है कि जब मेरे जन्म का वक्त आयाए मां को लेबरपेन शुरू हुआ तो उनकी ही जीप से उन्हें जिला अस्पताल तक पहुंचाया गया था। 

रात दस बजे सोते से उन्हें उठाया गया था। उनकी पत्नी भी साथ हो ली थीं। पैसे की जबरदस्त तंगी के चलते किसी बढ़िया प्राइवेट नर्सिंग होम का कार्ड पापा नहीं बनवा पाए थे। जिला हॉस्पिटल में मां की हालत बिगड़ रही थी और रात होने के कारण स्टॉफ लापरवाही में सुस्त पड़ा था। तब पापा के उन्हीं मित्र ने अपने स्थानीय होने के प्रभाव का प्रयोग कर सबको झिंझोड़ कर रख दिया था। लेकिन हॉस्पिटल पहुंचने के समय जो लेबरपेन हो रहा था वह डॉक्टर के आने के पहले ही अचानक ठीक हो गया। 

डॉक्टर ने कहा कुछ खास बात नहीं हैए चाहें तो घर ले जा सकते हैं। सब घर आ गए। अगले दिन दोपहर तक फिर जाना पड़ा। फिर उन्हीं मित्र की जीप और ड्राइवर काम आए। जो इसी अंदेशे से गाड़ी छोड़ गए थे। ऑफ़िस बस से चले गए थे। शाम चार बजे नॉर्मल डिलीवरी से मेरा जन्म हुआ। मां की यह बात आज भी मुझे पीड़ा देती है कि मेरे लड़की होने पर मां का भी मन खट्टा हो गया था। और पापा ने मेरी एकदम कमजोर नाजुक हालत के बावजूद एकदम उत्साहहीन होकर कहा था कि, ''बहुत कह रही थी न, लो बहुर गए दिन।'' और बेहद उदास चेहरा लिए बाहर चले गए थे।

मगर दो मिनट बाद ही वह एकदम खुशी से उछलते-कूदते अंदर आए। मां का हाथ चूमते हुए बोले, ''हमारी बिटिया वाकई भाग्यशाली है शुभांगी, हमारे दिन बहुर आए। हमें दुबारा नौकरी मिल गई है वह भी स्थाई।'' और फिर दोनों खुशी के मारे रो पड़े थे। पापा के वही मित्र यह सूचना देने के लिए समय से पहले ही ऑफ़िस से चले आए थे। उन्होंने ही बताया कि लंबे समय से टेम्परेरी कार्य करने वाले कुछ लोगों को स्थायी नौकरी दी गई है। उनमें पापा भी हैं। वह ऑर्डर की फोटो कापी भी ले आए थे।

मां कहती थी कि इस अप्रत्याशित खुशी से वह दोनों इतने खुश थे कि मानो पूरी दुनिया की खुशी उन्हें मिल गई हो। और पापा ने आनन-फानन में उन्हीं मित्र से एक बड़ी रकम उधार ले ली। पहले जो लोग उन्हें तब सौ-दो सौ रुपए भी देने से कतराते थे कि वापस कहां से करेंगे अब उन लोगों की हिचक खत्म हो गई और उन्हें उधार मिलते देर न लगी। पापा ने दुकान का सारा सामान एक दूसरे दुकान वाले को औने-पौने दाम में बेचकर कुछ और पैसा इकट्ठा किया। फिर आठ-दस दिन में ही लखनऊ आ गए। 

एक अच्छा मकान किराए पर लेकर रहने लगे। महानगर का वह एरिया आज भी पॉश एरिया में गिना जाता है। इस बदली स्थिति में पापा मां की ऐसे देखभाल कर रहे थे कि मानों वह छूईमूई का पौधा हैं, जो हल्के स्पर्श से ही मुरझा जाएगा। मां को काम न करना पड़े, मेरी देखभाल में कमी न हो इसके लिए नौकरानी लगा दी। खाने-पीने सुख-सुविधा की ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था की। कुछ ही दिन में मां और मैं सेब जैसे लाल गोल-मटोल हो गए। मगर साथ ही यह भी हुआ कि पापा रिश्वतखोरी में आकंठ डूब गए। साहबों को साधकर खूब खाते और खिलाते। घर में खुशी हर कोने में मानो बरस रही थी। पापा मुझे मां को इतना लाड़.प्यार देते कि देखने वाले दंग रह जाते। 

देखते-देखते मैं छः.सात महीने की हो गई और यहीं से घर की खुशियों पर फिर काली छाया मंडराने लगी। मैं सात महीने की गोल-मटोल हो गई थी लेकिन मेरी लंबाई तीन महीने के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। आठवें महीने में भी जब मैं बैठ भी नहीं पाई तो मुझे डॉक्टरों को दिखाया गया। मगर संतोषजनक जवाब नहीं मिला। चिंता की लकीरें अब मां-पापा के माथे पर उभरने लगी थीं। पापा ने एक से एक डॉक्टरों को दिखाया, दवाएं चलीं और मैं डेढ़ साल की उम्र में कहीं बैठना शुरू कर पाई।

डॉक्टर कुछ साफ नहीं बता पा रहे थे। कुछ बच्चे देर से शुरू करते हैं यही जवाब मिलता था। मगर लंबाई नहीं बढ़ रही इस पर कोई कुछ नहीं बता पा रहा था। अब पापा खीझने लगे थे। बहुत जल्दी हत्थे से उखड़ जाना उनकी आदत बनती जा रही थी। अब दोनों के बीच एक और बच्चा पैदा करने की बात पर टुन्न-भुन्न होने लगी। मां चाहती थी जल्दी से जल्दी एक और बच्चा पैदा हो। मगर पापा का जवाब की अभी दो चार साल नहीं। 

फिर मैं अपनी कच्छप चाल से होती ग्रोथ और घर में अगले बच्चे को लेकर पापा-मां में होने वाली टुन्न-भुन्न के साथ चार साल की हो गई। मैं ढाई साल की उम्र में खड़े-खड़े चलने में समर्थ हुई थी। मगर लंबाई मेरी दो साल के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। इस बीच डॉक्टरों के पास भटकते-भटकते यह साफ हो गया कि किसी अज्ञात कारण वश मैं बौनी बनने के लिए अभिशप्त हो चुकी हूं। दिल्ली के एक बड़े हॉस्पिटल से जब कई जांचों के बाद यह कंफर्म हो गया तो मां-पापा एकदम टूट गए। मां कहतीं कि, ''इसके बाद तो घर में हर तरफ खुशियां नहीं एक घुटनभरा, चिड़चिड़ा माहौल पैर पसार चुका था।'' 

मेरे इलाज के लिए दोनों इसके बाद भी हाथ पैर मारते रहे। कभी होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, युनानी तो कभी एलोपैथी से लेकर झाड़-फूंक, पूजा-पाठ मंदिर तीर्थ जहां भी आशा की किरण नज़र आई वहां गए। जो कहा गया किया। मगर ग्रोथ के मामले में मैं कच्छप गति को शर्मिंदा करती ही रही। निराश हो मां ने अगले बच्चे के लिए अपना आग्रह बढ़ाया लेकिन पापा किसी डॉक्टर की इस आशंका से भयभीत हो उठे थे कि जींस में कुछ गड़बड़ी है, जिससे यह संभावना पूरी है कि अगली संतान भी ऐसी ही कुछ समस्या के साथ पैदा हो।

 मंगोल चाइल्ड की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। तब मां पापा के अगला कोई बच्चा न पैदा करने के अंतिम निर्णय को मान गई। मगर अब दोनों मेरे भविष्य, अपने बुढ़ापे की लाठी की चिंता में भी घुलने लगे। मेरे जन्म के समय जो खुशियां बरस रही थीं उसमें छः.सात माह के अंदर जो ग्रहण लगा था वह धीरे-धीरे गहराता गया। 

जब छः वर्ष की उम्र में स्कूल में मेरा एडमिशन कराया गया तब तक घर की सारी खुशियां समाप्त हो चुकी थीं। परिवार घिसटती हुई ज़िन्दगी  जीने लगा था। मैं इन चीजों के लिए इतनी समझदार नहीं थी सो हंसती, खेलती, उछलती, कूदती रही। मगर मां-बाप दोनों हंसना बोलना भूल गए थे। किसी रिश्तेदार दोस्त या कहीं घूमने फिरने जाना बंद हो गया था। 

घर में कोई आता तो कोशिश होती कि मैं किसी के सामने न पडूँ । क्योंकि लोगों के तरह-तरह के प्रश्नों से मां-बाप खीझ उठते थे। अंततः लोगों ने भी आना बंद कर दिया। अब घूमने-फिरने के नाम पर यही होता था कि स्कूटर पर किसी पार्क या किसी बाज़ार वगैरह आधे एक घंटे यूं ही घूम.घाम चले आते थे। कुछ खा-पीकर या कोई खिलौना-सिलोना लेकर। 

पापा का चिड़चिड़ापन उनका स्थाई स्वभाव बन चुका था। मैं उनके साथ खेलना-कूदना चाहती तो वह अब मुझे किसी न किसी बहाने दूसरे कमरे में भेज देते। मगर मां मेरा साथ देती थीं। बड़ी होने पर जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि मां भी सिर्फ़ साथ ही देती थीं। अंदर ही अंदर उनका भी मन टूटता दरकता रहता था। स्कूल में बच्चे मुझे मेरे कद को लेकर चिढ़ाते थे। एक बार तो एक बच्चे ने जब मुझे मेरा नाम तनु बुलाने के बजाय गोली कहना शुरू किया तो मैं रो पड़ी थी। उससे झगड़ा किया तो लंबा होने का फ़ायदा उठाकर उसने मुझे पीट भी दिया। पापा को शाम को पता चला कि मुझे गोली कहकर चिढ़ाया गया और पिटाई भी हुई तो अगले दिन स्कूल में उन्होंने हंगामा खड़ा कर दिया। किसी तरह प्रिंसिपल और उस बच्चे के पैरेंट्स ने बात संभाली। इस तरह की घटनाएं अब मेरे जीवन की हिस्सा बनती जा रही थीं। पापा कहीं झगड़ा न करें इसका रास्ता मां ने यह निकाला कि मैं पापा से यह बातें बताऊं ही न। 

धीरे-धीरे मां अपने इस मकसद में कामयाब रहीं। मैं भी मां की बात समझ गई और ऐसा कुछ होने पर मां को ही बताती और उन्हीं के आंचल में मुंह छिपाकर रो लेती। कई बार मां समझाती तो कभी मुझे सीने से चिपका कर खुद ही फफ़क कर रो पड़ती थीं। मां की कठिनाई यहीं तक नहीं थी। तनाव बर्दाश्त न कर पाने के चलते पापा ने शराब को अपना लिया। पहले कभी-कभी फिर रोज पीना उनकी आदत बन गई। 

जब मैं जान समझ पाई कि वह शराब जैसी कोई चीज पीते हैं तब तक मैं ग्यारह-बारह बरस की हो चुकी थी। मां जहां मेरे बौनेपन और दूसरा कोई बच्चा न पैदा करने के पापा के निर्णय से परेशान और हमेशा दुखी रहती थीं वहीं पापा के दुखों के कारण में इसके साथ-साथ मां की सुंदरता अब भी बराबर बनी रही। अंतिम सांस तक बनी रही। साथ में मैं तो नत्थी थी ही। उन्हें लगा कि मां का रंग-रूप मुझे जन्म देने के बाद और भी निखर आया है। लोग उन्हें और भी ज़्यादा देखते हैं। उन्हें सारे मकान मालिक चरित्रहीन नज़र आते थे। 

मेरे आठ साल का होने तक उन्होंने छः मकान बदले थे। उन्हें बराबर यह भय सताए रहता था कि कहीं उनकी पत्नी को कोई नुकसान न पहुंचा दे। वह तो ऑफ़िस में रहते हैंए, मकान मालिक कहीं अकेले पाकर उनकी पत्नी पर हमला न कर दे। उन्हें मकान मालिकों और उनके परिवार के सारे पुरुष सदस्यों यहां तक कि किशोरवय लड़कों तक की आंखों में अपनी पत्नी के लिए वासना ही नज़र आती थी। अंततः अपनी इस समस्या को दूर करने का रास्ता उन्होंने एल.डी.ए.का एक एम.आई .जी .  मकान लेकर निकाल लिया।

इसके लिए बैंक से कर्ज वगैरह से लेकर जहां से जैसे बन सका हर तरह से जुगाड़ किया। मगर शक की उनकी यह बीमारी उनका यह वहम अपने मकान में भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। पड़ोसी वगैरह कहीं किसी से उन्होंने कोई संबंध नहीं रखे। किसी के यहां कभी भी यहां तक कि शादी ब्याह या ऐसे किसी भी फंक्शन में भी नहीं जाते। या फिर अकेले हो आते। हां उनके चेहरे पर मैं तब कुछ देर को हंसी, मुस्कान पाती थी जब मेरा रिजल्ट आता और मैं क्लास में टॉप करती। 

मां तो खैर मां थीं। मुझे वह ऐसे अवसर पर दुध-मुंहे बच्चे की तरह छाती से चिपका लेती थीं। वह चाहती थीं कि और लोगों की तरह वह भी अपने बच्चे की लोगों से बात करें। उन्हें उसकी पढ़ाई के बारे में बताएं, लोगों से तारीफ सुनें, लेकिन पापा के कारण यह संभव ही नहीं था।

बस घर में ही जितना जश्न हम तीनों मिलकर मना सकते थे मनाते थे। उस दिन खाना-पीना पापा किसी बढ़िया होटल से ले आते थे। मेरे लिए अच्छी-अच्छी कई ड्रेस ले आते। हम सब का मन बाहर खुली हवा में और लोगों के साथ खुशी मनाने को तरस जाता। हम उन लोगों में थे जो अपनी सफलता पर खुद ही ताली बजाते, शाबाशी देते, अपने हाथ अपनी पीठ ठोंकते और खा-पी कर सो जाते। 

जब मैंने यू. पी. जो कि सबसे टफ बोर्ड माना जाता है के हाई-स्कूल इक्जाम में अपने स्कूल में टॉप किया तो स्कूल में खैर हर बार की तरह मेरा सम्मान किया ही गया, क्योंकि मैं हर क्लास में फर्स्ट आती थी। घर पर भी उस दिन अपने होश संभालने के बाद पहली बार पापा को खुशी के मारे खिल-खिलाते देखा। मैं सोलह बरस पार कर चुकी थी लेकिन मारे खुशी के पापा उस दिन इतने भाव-विह्वल हो उठे थे कि मुझे छोटे बच्चे की तरह उठा लिया, मेरा माथा चूम लिया। जैसे पिता अपने साल डेढ़ साल के बच्चे को गोद में चेहरे तक उठाए एक ही जगह खड़े-खड़े घूम जाता है, वैसे ही वह भी घूम गए थे। और देखा जाए तो मैं किसी पांच-छः साल के बच्चे से ज़्यादा थी ही कहां। 

तब मेरी हाइट कुल चालीस इंच ही तो थी। मात्र तीन फिट चार इंच की। हां भरपूर खाने-पीने के चलते वजन ज़रूर कुछ ज़्यादा था। शरीर के उभार ज़रूर रफ्तार में थे, कच्छप चाल से नहीं। स्तनों ने अच्छा-खासा भरा पूरा आकार ले लिया था। पापा ने जोश में उठा तो लिया था मुझे दोनों हाथों से पकड़ कर चेहरे तक लेकिन एक चक्कर लगा कर ही उतार दिया नीचे। तीन-चार सेकेंड से ज़्यादा संभाल न सके मुझे। 

उस दिन पापा शाम को मुझेए मां को लेकर साल भर पहले ही किस्तों पर ली गई अल्टो कार में घुमाने ले गए। महानगर के एक नामचीन चाइनीज रेस्त्रां में डिनर किया। मेरे लिए कई सारी ड्रेस, कई स्टोरी बुक खरीदी और देर तक शहर में इधर-उधर गाड़ी ड्राइव करते रात करीब ग्यारह बजे घर लौटे। अब तक मैं थक चुकी थी। इसलिए मुंह हाथ धोकर चेंज कर अपने कमरे में सोने चली गई। जो सामान हम ले आए थे वह ड्रॉइंगरूम में सोफे और टेबिल पर ही पड़ा था। बेड पर लेटते ही मुझे नींद आ गई।

अभी दो ढाई घंटे ही बीते होंगे कि मुझे नींद में ही लगा कि जैसे मां कराह रही हैं। उनकी तकलीफ भरी आवाजे़ं मेरी नींद तोड़ने लगीं। मैं कुनमुना कर करवट ले लेती। लगता जैसे सपना देख रही हूं। मगर यह एक ऐसा सपना था जिसमें सिर्फ़ आवाज़ थी कोई दृश्य नहीं था। कानों में पड़ती उनकी तकलीफ भरी आवाज़ों ने आखिर मेरी नींद पूरी तरह तोड़ दी। मैं उठ बैठी बेड पर। आवाज़ अब भी आ रही थी। अब मैं घबरा कर पसीने.पसीने हो गई। आवाज़ मां-पापा के कमरे से आ रही थी। सो लॉबी क्रॉस कर मैं वहां गई। मां की कराहने की आवाज़ और गाढ़ी हो रही थी। 

मैं अजीब सी आशंका से घबराती खिड़की तक पहुंची कि देखूं क्या बात है। मगर उसकी ऊंचाई ज़्यादा थी सो मैंने दरवाजे की झिरी से अंदर देखा। और फिर शर्म से पानी-पानी हो गई। पापा की हरकतों को देख कर गुस्सा आया कि उन्हें मां को ऐसी तकलीफ नहीं देनी चाहिए। अंदर से आती शराब की बदबू से मुझे उबकाई आने लगी थी। इस बदबू का मैं पहले ही न जाने कितनी बार सामना कर चुकी थी। मैं जैसे गई थी फिर वैसे ही आकर अपने बिस्तर पर लेट गई।

अगला दिन छुट्टी का था। पापा को देखते ही मेरे मन में उन को लेकर अजीब सी नफरत उमड़ पड़ी। मां की सूजी हुई आंखें, एक तरफ कुछ ज़्यादा ही सूजे होंठ  रात का दृश्य क्षण भर में सामने खड़ा कर देते। मां पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। उनकी आए दिन की ऐसी चोटों का मर्म मैं उसी दिन समझ पाई थी। उसी दिन स्त्री-पुरुष के उन अंतरंग क्षणों को मैं जान पाई थी। जिसकी तब तक उथली सी ही जानकारी थी। जो सहेलियों और मां द्वारा अपनी बेटी को जागरूक करने के दृष्टि से दी गई जानकारियों तक ही सीमित थी। उस एक घटना ने ही मुझे कुछ ही घंटों में एकदम से कई साल बड़ा कर बिल्कुल युवा बना दिया था।

वक्त के साथ पापा की बढ़ती शराब, चिड़चिड़ेपन और मां के साथ अब आए दिन बेवजह ही उनकी गाली-गलौज मुझे बहुत तकलीफ देती। मेरा मन करता कि सारी तकलीफों की जड़ मैं हूं तो आखिर मैं मर ही क्यों नहीं जाती। कई बार मन में आत्म-हत्या करने की भी बात आती। मगर मां का ममता से लबालब भरा चेहरा कदम उठनें ही न देता। 

मेरे लिए उनकी चिंता और साथ ही उनका हमेशा यह प्रदर्शन करना कि मुझसे उन्हें कोई तकलीफए चिंता नहीं है। एकांत मिलते ही उनकी आंसुओं से भरी आंखें वह सब देखकर मैं अकेले में रोती थी। मां की तकलीफों का अंदाजा सही मायनों में मैं अब कर पा रही हूं। कि अपने मां-बाप, भाई-बहन, सास-ससुर आदि सभी के होते हुए भी निपट अकेला होना मां के लिए कितना यंत्रणापूर्ण रहा होगा। किस तरह वह पल-पल रोती थीं। जबकि कारण कुछ भी नहीं था। 

मैं मां की दर्द पीड़ा से भरी आंखें, चेहरा अंतिम सांस तक भी कैसे भूल सकती हूं। एक बार पापा ने मुझे किसी बात पर डांटते हुए अपने गले का पत्थर कह दिया था। नशे के कारण और भी कई भद्दी बातें कह दी थीं। तब मैं बी .एस .सी . फाइनल इयर में थी। उस दिन पापा से मां ने कड़ा प्रतिवाद किया था। बदले में मार खाई और जब मैं बीच में आई तो पापा ने धकेल दिया मुझे। मैं किसी छोटे बच्चे की तरह लड़खड़ाते हुए दूर दरवाजे से टकरा कर गिरी थी। दरवाजे की कुंडी सीधे नाक से टकराई और मेरा चेहरा और सामने के कपड़े खून से लाल होने लगे थे। चोट कुछ ज़्यादा ही थी तो मैं तुरंत उठ न पाई। मां दौड़ कर आई थी, मुझे उठा कर अपनी बांहों में भर लिया था। 

मां के कपड़े भी लाल होने लगे। तब मां ने घबरा कर पापा से तुरंत डॉक्टर के पास चलने की प्रार्थना की। लेकिन पापा निस्तब्ध चुपचाप खड़े रहे। तो वह एकदम गिड़गिड़ा उठीं पर वह फिर भी खड़े रहे। तब मां बिफर पड़ीं कि, ''ठीक है, खड़े रहो तुम यहीं। मैं अकेले ही लेकर जाऊंगी अपनी बच्ची को। मैं इक्कीस साल की हो गई थी लेकिन मां की नज़र में तब भी बच्ची ही थी। मां की करुणा प्यार और पापा का वैसे ही उन्हें घूरते हुए देखना मुझमें न जाने पलक झपकते कैसी आग भर गया कि मैं मां से अलग होती हुई गुस्से से करीब-करीब चीखती हुई बोली,  ''मां मुझे कहीं नहीं जाना। रोज-रोज मरने से अच्छा है कि आज ही मर जाऊं। जिससे पापा की, तुम्हारी तकलीफें दूर हो जाएं। तुम दोनों को लोगों के सामने अपमानित न होना पड़े। मैं भी अब और अपमानित जीवन नहीं जीना चाहती।'' 

मैं झटके से उठी और दौड़ती हुई अपने कमरे में बेड पर लेट कर रोने लगी। मेरे पीछे मां भी, ''सुन-सुन बेटा...कहती दौड़ी आईं। मुझे फिर बाँहों  में भर कर रोती हुई बोली थीं, ''ऐसा मत कह बेटा, तेरे बिना मैं नहीं जी पाऊंगी। चल बेटा डॉक्टर के पास चल।'' मगर मैंने न जाने की जिद कर ली और रोती रही। मैं तब आश्चर्य में पड़ गई और मां भी जब पापा भी आकर मुझे उठाने लगे। मैं न मानी तो वह भी हम दोनों को पकड़ कर रोने लगे। 

मैंने पहली एवं आखिरी बार उन्हें इस प्रकार भावुक और रोते हुए पाया था। वह भी बार-बार डॉक्टर के यहां चलने को कह रहे थे। माफी मांग रहे थे। उनकी यह बात मुझे और दुखी कर गई कि, ''मेरी तकलीफ भी समझा करो तुम लोग।'' मैं तब भी किसी सूरत में न गई तो वह एक डॉक्टर को लेकर आए, मेरी मरहम पट्टी कराई। फिर रात का खाना भी होटल से लाए। अपने हाथों से हम दोनों के लिए खाना निकाल कर मेरे कमरे में ले आए। क्योंकि हम दोनों अपने कमरे से बाहर नहीं आए। मां ने किचेन का रुख ही नहीं किया। उस दिन के बाद मैं अपने जीवन से और भी खीझ गई। 

कॉलेज जाने का मन न करता। अपनी किसी भी तकलीफ को अब मैंने मां को भी बताना बंद कर दिया। उन बहुत सी बातों को कहना बंद कर दिया था जिन्हें पहले बताती थी कि कैसे मुझे सहेलियां चिढ़ाती हैं। पापा को तो खैर पहले भी नहीं बताती थी। सोचती कि आखिर क्या बताऊं, मेरी ऐसी कौन सी समस्या है जो वह दोनों नहीं जानते। 

बी.एस.सी. में पहुंचने के बाद बीमारियों के चलते मुझे रोज-रोज छोड़ने जाना जब पापा-अम्मा दोनों के लिए मुश्किल हो गया था तो आखिर में मेरे लिए एक रिक्शा लगा दिया था। वह मुझे कॉलेज से लेकर मैं जहां-जहां जाती ले जाता। फिर जाना-आना था भी कितना। कभी-कभी आकाशवाड़ी या फिर शौकिया पेंटिंग सीखने के लिए अपनी सहेली मिनिषा के घर। जिसकी मां जो आगे मेरे लिए चित्रा आंटी बनीं तब तक बतौर पेंटर अपना स्थान बनाने के लिए संघर्षरत थीं। मुंबई के सबसे नामचीन कॉलेज से उन्होंने डिग्री ली थी। घर पर ही सिखाती भी थीं। उनकी पेंटिंग ठीक-ठाक बिकती भी थीं। मगर इन सब जगहों पर मैंने कई बार जो तकलीफें जो अपमान ताना झेला पापा से मार खाने के बाद उनको भी कभी नहीं बताया।

यह सब मेरी शारीरिक स्थिति का ही तो तकाजा था कि इक्कीस की उम्र में पापा ने मारा और हर जगह अपमानित होती रही। मैं समझती हूं कि यदि मैं भी सामान्य लड़कियों की तरह लंबी-चौड़ी होती तो शायद उस दिन पापा से मार न खाती और मां को भी बचा लेती। और बाद में मेरे साथ बार-बार जो हुआ वह भी न होता। 

जैसे कॉलेज के दिनों की ही बातें लूं। अपनी मित्र गीता यादव को मैं तब फूटी आंखों देखना पसंद नहीं करती थी। क्योंकि वह लंबी-चौड़ी पहलवान सी थी। मुझे बच्चों कि तरह गोद में उठा लेती थी। सारे मिलकर खिलखिला कर हंसते थे। इतना ही नहीं तब मैं उसे मन ही मन खूब गाली देती थी जब वह मेरे अंगों से खिलवाड़ कर बैठती थी। मगर एक बात उस में यह भी थी कि और किसी को वह मुझे एक सेकेंड भी परेशान नहीं करने देती थी। मेरे लिए सबसे भिड़ जाती थी । आज वह गीता यादव पुलिस इंस्पेक्टर है। और पहले की तरह आज भी वो मेरी तरफ किसी को आंख उठाकर देखने नहीं देती। एक बार जब डिंपू अपनी हद से बाहर जाने लगा था तो इसी गीता से कहकर उसे फिर उसी की हद में पहुंचा दिया था। मेरी समस्याए मेरा अपमान यहीं तक नहीं था। 

वह दिनए वह क्षण आज भी जस का तस याद है जब चित्रा आंटी ने मेरी अपंगता मेरे बौनेपन को बेचने की कोशिश की थी। हालांकि बाद में यह बात मुझे सेलिब्रिटी बनाने तक पहुंच गई। इसमें उनकी बेटी मिनिषा ने भी खूब साथ दिया था अपनी मां का। वह वैसे तो ऑब्स्ट्रेक्ट, सेमी ऑब्सट्रेक्ट पेंटिंग ही ज़्यादा बनाती थीं। रियलिस्टक पेंटिंग तब तक गिनी-चुनी ही बनाई थीं।

वह अचानक ही एक दिन मुझे रियलिस्टिक न्यूड पेंटिंग  के बारे में बताने लगीं। बोलीं कि, ''न्यूड पेंटिंग के लिए ही नहीं पेंटिंग सीखने के लिए ही न्यूड मॉडल्स बहुत जरूरी हैं। बिना इनके पेंटिंग की पढ़ाई पूरी ही नहीं हो सकती।'' मैं उनसे यह सुन कर ही दंग रह गई कि ऑर्ट की पढ़ाई के दौरान डिग्री कोर्स में तीसरे वर्ष में अर्धनग्न एवं चौथे वर्ष  में पूर्ण नग्न मॉडलों को सामने कर पढ़ाई पूरी की जाती है। क्योंकि शारीरिक संरचना को पूरी गहराई तक जाने समझे बिना पढ़ाई अधूरी है। 

वह बड़ा जोर देकर समझातीं कि , ''देखो तनु ऑर्ट्स स्टूडेंट के लिए मॉडल का नग्न शरीर एक ऑब्जेक्ट के सिवा और कुछ नहीं होता। ऑर्टिस्ट के लिए मॉडल की देह एक निर्जीव वस्तु के सिवा और कोई मायने नहीं रखती। मॉडल और ऑर्टिस्ट अपना काम करते वक्त सारी भावनाओं से रहित हो कर काम करते हैं। दुनिया के सारे बड़े ऑर्ट्स कॉलेज में न्यूड मॉडल यूज किए जाते हैं।''

इन बातों से अनजान जब मैंने आश्चर्य व्यक्त किया तो उन्होंने यह कह कर और आश्चर्य में डाल दिया कि उन्होंने तो यह भी सुना है कि मुंबई के जे.जे.ऑर्ट्स कॉलेज में तो डेढ़ सौ वर्ष पहले 1857 से ही पढ़ाई के दौरान छात्रों के लिए न्यूड मॉडल प्रयोग किए जाते रहें हैं। 

इसके आगे मैं उनकी यह बात भी सुन कर हैरान रह गई कि उन्होंने तो यह भी सुना है कि जे.जे.ऑर्ट्स कॉलेज में तो न्यूड मॉडल्स की कॉलेज की जरूरत बिना बाधा के पूरी हो सके इसके लिए कॉलेज कैंपस में ही एक परिवार बसाया गया था। जिसके सदस्य पढ़ाई के दौरान छात्रों के लिए मॉडलिंग करते थे। मैंने तब उनसे यह जानकर दांतो तले ऊंगली दबा ली थी कि परिवार के सारे सदस्य एक ही कॉलेज के तमाम स्टूडेंट्स के सामने नग्न होते रहे होंगे। अलग-अलग उम्र के महिला-पुरुष सारे सदस्य। वाकई यह एक असाधारण काम था। उन सबका यह काम किसी निर्विकार साधु-संत  की साधना से कम महत्वपूर्ण काम तो नहीं है। 

नग्न अवस्था में घंटों रहने के बाद भी सिर्फ़ ऑर्ट ही ऑर्ट हो। काम भावना की ज़्वाला ही न हो। क्योंकि इस ज़्वाला के रहते तो ऑर्ट हो ही नहीं सकती। तब मैंने आंटी से मजाक में ही कहा था कि आंटी इन लोगों से मिलना चाहूंगी। इस पर वह गहरी सांस लेकर बोली थीं। ''तनु असल में हुआ क्या कि समय, बाज़ारवाद, महंगाई ने सब कुछ बदल दिया। इस परिवार ने ज़्यादा पैसे कमाने के लिए दूसरे धंधे अपना लिए हैं। क्योंकि मॉडलिंग से उन्हें कुछ खास पैसा नहीं मिलता था। दुनिया के सारे कॉलेजों का यही हाल है। सभी के पास अब न्यूड मॉडलों का टोटा पहले से ज़्यादा हो गया है। कॉल गर्ल्स का सहारा लिया जा रहा है। लेकिन यह बहुत महंगा है। इससे न्यूड ऑर्ट या मूर्ति शिल्प के सारे कलाकार दुनिया भर में परेशान हैं।''

फिर इसके बाद आंटी ने दुनिया के कई बड़े कलाकारों के भी नाम लिए। उन्होंने राजा रवि वर्मा, जतिन दास, मंजीत बावा और फिर अमृता शेरगिल और चीन के ऑर्टिस्ट ली झिआंग पिंग की पेंटिंग के बारे में भी बताया। यह भी कि अमृता ने तो अपनी बहन को भी मॉडल बनाया। छोटी बहन इंदिरा सुंदरम की नींद नाम से न्यूड पेंटिंग बनाई। जो बहुत प्रसिद्ध हुई।

बड़ा तहलका मचा दिया था उन्होंने। वह न्यूड पेंटिंग तो नेट पर दुनिया आज भी देख रही है। युरोप, चीन आदि की बारे में भी खूब बातें बताईं। कहा कि, ''चीन में ली झिआंग पिंग ने कुछ बरस पहले ही अपनी युवा होती पुत्री की न्यूड पेंटिंग बना डाली।''

चित्रा आंटी मुझे यह सब बता कर, दिखा कर इस बात के लिए कंविंस करने में लगी हुई थीं कि मैं न्यूड पेंटिंग के लिए उनकी मॉडल बनूं। उनके हिसाब से यूं तो न्यूड पेंटिंग अनगिनत मॉडल्स ने बनवाई हैं। लेकिन मेरी पेंटिंग तहलका मचा देगी। करोड़ों रुपए में बिक जाए तो आश्चर्य नहीं। क्यों कि मेरा बौना शरीर तमाम बौनी लड़कियों के शरीर से भिन्न है। टेढ़े-मेढ़े न होकर सीधे सुडौल हैं। भरे पूरे स्तन, नितंब, जांघें यह सब मेरी न्यूड पेंटिंग्स को ऐसी आश्चर्यजनक पेंटिंग बना देंगी कि यह न सिर्फ़ करोड़ों में बिकेंगी बल्कि मैं दुनिया में प्रसिद्ध हो जाऊंगी। 

उनको जैसे ही लगता कि मैं उनकी बात पर यकीन नहीं कर पा रही हूं तो वह फट से एक नई सनसनीखेज जानकारी देतीं। पहाड़ के संसार चंद्र बरू के बारे में बताया कि, ''वह एक जनजाति की महिलाओं की न्यूड पेंटिंग बनाते थे। उस जनजाति की महिलाएं उनके लिए खुशी-खुशी न्यूड मॉडलिंग करतीं थीं।'' उनकी इस बात पर मैंने जब यह तर्क दिया कि जब पुराने जमाने से ही लोग कलाकारों के सामने बिना शर्म-संकोच के आर्ट के लिए नग्न होते आ रहे हैं तो, आज न्यूड मॉडलों की कमी क्यों हो गई। अब तो लोगों को कपड़े उतारने में पहले के मुकाबले जरा भी संकोच नहीं है। तो आंटी करीब-करीब झल्ला कर बोलीं, ''तनु पैसा, पैसे के कारण यह हो रहा है। मॉडल सोचते हैं कि कलाकारों के सामने नग्न होने पर नाम मात्र को पैसा मिलता है। वहीं किसी प्रोडक्ट, फिल्म आदि के लिए कपड़े उतारते हैं तो ज़्यादा पैसा मिलता है। आज भी जो कलाकार मॉडलों को मुंह मांगी रकम देने या दिलाने में सक्षम हैं उन्हें न्यूड मॉडलों की कमी नहीं है।'' 

मेरे यह कहने पर कि, ''आंटी आप के पास भी पैसे की कमी नहीं है। फिर आप को मॉडलों की कमी क्यों है?'' इस पर खिसियानी हंसी हंसती हुई बोलीं, ''तनु-तनु मेरे बच्चे मैंने भी बहुत पैसे खर्चं किए हैं।'' फिर उन्होंने दो न्यूड पेंटिंग दिखाईं कहा, ''इन मॉडलों को मैंने मोटी रकमें दीं। तब इन्होंने यह काम किया वह भी इस शर्त के साथ कि चेहरा इतना चेंज कर दूं कि वह पहचान में न आएं। इससे पेंटिंग्स में वह बात नहीं आई जो आनी चाहिए थी। इसकी वजह से पेंटिंग अच्छे दामों में नहीं बिक सकी। इसके बावजूद इन दोनों ने आगे के लिए इतनी रकम मांगी जो मैं नहीं दे सकती थी।''

 इस पर मैंने मजाक में ही कह दिया कि, ''आंटी मुझे तो आप एक भी पैसा नहीं दे रहीं हैं।'' मेरी हंसी रुकी भी नहीं थी कि आंटी बोलीं, ''तनु मेरे लिए तुम मॉडल नहीं हो। मेरे लिए एक और मिनिषा हो। मेरी बेटी हो। असाधारण हो, मैं तुम्हें पैसे नहीं दूंगी । सेलिब्रिटी बनाऊंगी। दुनिया तुम पर पैसे बरसाएगी। 

सारे बड़े-बड़े ऑर्टिस्ट तुम्हें अपना मॉडल बनाने के लिए करोड़ों देंगे। तुम अपनी तरह की अकेली पहली मॉडल बन जाओगी। जैसे विश्व प्रसिद्ध मॉडल नॉओमी कैंपबेल। वह निग्रो है। जबरदस्त काली है। लेकिन मॉडलों की मॉडल रही है। न जाने कितने प्रोडक्ट्स के लिए मॉडलिंग की है। तुम भी उसी तरह एक सेलिब्रेटी मॉडल बन जाओगी।'' 

सच कहूं तो मुझ पर उनकी बातों का जादुई असर भी हुआ। कई दिन टुकड़ों में अपनी बातें कहने के बाद मुझे जब उन्होंने अपने प्रभाव में आया हुआ मान लिया तो, एक बात और की, कि जब वह यह बातें करतीं तो खुद भी बेहद कम कपड़ों में रहतीं और मिनिषा भी। एक बार जब मैं उनके घर में पहुंची तो शाम के चार बज रहे थे। मेरे पहुँचते ही बड़े प्यार से मेरा स्वागत किया। जल्दी से मुझे पेंटिंग रूम में ले गईं। उनका पेंटिंग रूम बहुत बड़ा और शानदार था। मुझे बहुत अच्छा लगता था। तरह-तरह की पेंटिंग्स लगी थीं। 

उस दिन उन्होंने ईजल पर नया कैनवस लगा रखा था। चित्रा आंटी ने स्यान कलर की ढीली-ढाली घुटनों से ऊपर बरमुडा पहन रखी थी। और स्लीवलेस छोटी सी बनियान, मिनिषा ने छोटी सी पीले रंग की बेहद चुस्त नेकर और मां ही की तरह स्लीवलेस सिल्क की छोटी सी बनियान पहन रखी थी। मां की तरह मिनिषा भी तब तक अच्छी ऑर्टिस्ट बन चुकी थी। 

लाइन स्केच बहुत अच्छा बनाने लगी थी। एक तरफ उसने भी अपना ईजल लगा रखा था। उस पर मैट फिनिश पेपर लगा था। मां-बेटी दोनों ही मेरी न्यूड पेंटिंग बना लेने के लिए जी जान से तैयार थीं। उनकी बातों से यह पहले ही मालूम था कि, यह काम वे कई दिन में पूरा करेंगी। और मुझे उस पोज में रोज आकर उनके लिए मॉडलिंग करनी थी। मुझ पर अपनी अपंगता, बौनेपन की कुंठा पर सेलिब्रेटी बनकर विजय पाने का भूत सवार हो चुका था। मेरी नज़रों के सामने सिंडी क्रॉफर्ड, नॉओमी कैंपबेल घूमती थीं। मां-बेटी ने मुझे ऐसा समझा दिया था कि मैं यह सपना देखने लगी थी कि मैं उन सब के मुंह पर सेलिब्रेटी बनकर करोड़ों रुपए कमाकर मारूंगी जो मुझे चिढ़ाते अपमानित करते हैं। 

उन सब को बताऊंगी कि देखो तुम अपनी और मेरी हैसियत। कहां तुम और कहां मैं। मेरी यह मनोस्थिति उन मां-बेटी ने ही बना दी थी। इस जुनून के चलते जब उस दिन उन्होंने न्यूड पोज के लिए मुझे कपड़े उतारने को कहा तो मैं शुरू में थोड़ा बहुत ही संकुचाई। इस संकोच को भी मां बेटी ने एक झटके में खत्म कर दिया था। मां बोली, ''देखो संकोच करोगी तो शरीर तनाव में रहेगा। शरीर की स्वाभाविक रेखाएं नहीं मिलेंगी। पेंटिंग खराब हो जाएगी। तुम्हारी हमारी सब की मेहनत पर पानी फिर जाएगा।'' उनकी यह बात भी जब मेरी हिचक दूर न कर पायी। चेहरे पर सहजता न आ पाई। तो मां ने अचानक जो किया उससे मेरी आंखों के सामने एक के बाद एक मानो कई-कई बार बिजलियां कौंध गईं थीं। 

चित्रा आंटी एकदम मेरे सामने खड़ी होकर मुझे समझा रहीं थीं। अचानक ही क्षण भर में अपनी टी-शर्ट उतार कर कुछ दूर पड़ी एक कुर्सी पर फेंकती हुई बोलीं, ''लो देखो, क्या फर्क है हममें तुममें। जैसा शरीर तुम्हारा वैसा मेरा। इसमें कैसी शर्म, हम कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं बेटा, हम एक ऑर्टिस्ट हैं। तुम एक मॉडल हो। आर्ट की दुनिया को हम तीनों मिलकर एक महान कृति देंगे। जब-तक यह आर्ट की दुनिया रहेगी तब-तक हम तीनों का नाम रहेगा। हम अमर हो जाएंगे। तुम्हारे पैरेंट्स को भी तुम पर गर्व होगा।ष् 

इस बीच मिनिषा भी मेरे सामने आ गई। मैंने देखा उस पर जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा था। मां की बात पूरी होते ही वह भी बोली, ''तनु इसमें कोई शर्म की बात नहीं है। ये एक महान काम है। कोई गलत काम नहीं, कोई साधारण काम नहीं है, जिसे हर कोई कर सके।'' फिर मां से भी आगे निकलते हुए एकदम निर्लिप्त भाव से उसने भी मेरे ही सामने अपने कपड़े उतार दिए। मैं हक्का-बक्का थी। मेरी कल्पना से परे था यह सब कुछ। यह कैसा महान काम था?

मैं बड़े असमंजस में थी कि, ली झिआंग पिंग ने तो अपनी बेटी को ही न्यूड मॉडल बनाया था। यहां तो मां-बेटी मॉडल बनाने के लिए उसके सामने खुद ही न्यूड हो गई हैं। मैं हक्का-बक्का दोनों को देख ही रही थी कि तभी आंटी मेरी बगल में बैठ गईं थीं। समझाने लगी थीं मुझे। और मिनिषा तीन कप काफी लेकर आ गई थी। वह भी एक छोटी सी चेयर पर सामने बैठ गई। मां-बेटी कॉफी पीती रहीं और मेरी संकोच की आखिरी रेखा भी मिटा देने के लिए अपने तर्क देती रहीं। बगल में बैठी मां मेरे कपड़ों, बदन पर भी बराबर हाथ चला रही थी। कॉफी खत्म होते-होते आखिर दोनों सफल रहीं और मेरे संकोच की आखिरी रेखा भी मिटा दी। 

अब मैं भी मिनिषा की तरह बिना कपड़ों के थी। मुझे एक स्टूल के बगल में खड़ा कर दिया, मेरा एक हाथ स्टूल पर था। पोज इस तरह का था कि मेरे शरीर का एक-एक अंग ज़्यादा से ज़्यादा उन्मुक्त रहे। मां-बेटी एकदम यंत्रवत सी अपने काम में लगी रहीं। मैं उनकी यह लगन मेहनत देख कर बहुत प्रभावित हुई। बिना हिले-डुले मूर्ति बने खड़ा रहना बड़ा मुश्किल काम था। मैं थक जाती तो मुझे कुछ देर आराम दे दिया जाता। फिर उसी तरह काम शुरू हो जाता।

पहले दिन दो घंटे में ही थक कर मैंने कह दिया अब आज और नहीं कर पाऊंगी। इस पर मां-बेटी ने खुशी-खुशी पैकप कर दिया। मैंने जल्दी से अपने कपड़े पहने, मां ने पेंटिंग शुरू करने से पहले ही कपड़े पहन लिए थे और बेटी ने भी। काम को विराम देते ही मां ने आकर मुझे बड़े प्यार से न सिर्फ़ चूमा था बल्कि कपड़े पहनने में भी मदद की। मिनिषा का प्यार से गले लगा लेना भी मुझे बहुत भाया। मैंने कैनवस पर देखा कि कुछ बड़ी अस्पष्ट सी आकृति बनी हैं। मिनिषा का पेंसिल स्केच ज़्यादा स्पष्ट था।

उस रात मैं जागते और सोते दोनों ही हालत में एक ही सपना देख रही थी कि मेरे पास ढेरों पैसा आ गया है। लोग मेरी पेंटिंग्स  खरीद रहे हैं। मैं सेलिब्रेटी बन गई हूं। आंटी-मिनिषा ने जो सपने दिखाए उसमें मैं कई दिन मस्त हो डूबती-तैरती रही। मुझे बाकी लड़कियां अपने सामने बदसूरत गंदी नजर आ रही थीं। मैं समझ रही थी कि चार-छः दिन में पेंटिंग तैयार हो जाएगी। इसलिए वह जब बुलाती मैं टाइम से पहले पहुंच जाती। मां-बेटी में जबरदस्त उत्साह देख रही थीए वह जल्दी से जल्दी काम पूरा करने की कोशिश में थीं। मैं तो उत्साह में थी ही। पहली बार के बाद मुझे फिर कभी कपड़े उतारने और उसी पोज में खड़ा होने में कोई हिचक नहीं होती थी। 

मगर आठ-दस दिन बाद ही मेरा उत्साह कुछ-कुछ कम होने लगा था। 

मेरा मन ऊबने लगा और घबराहट भी होने लगी थी। मैंने देखा आंटी  पेंट सूखने के इंतजार में समय खूब ले रही हैं। मिनिषा ने ज़रूर पेंसिल स्केच पूरा कर लिया। बहुत बढ़िया स्केच बनाया था। उसने मैटफिनिस पेपर पर मुझे पूरी तरह उतार दिया था। अपने को नग्न देखकर मैं उस दिन एकदम शर्म से गड़ गई। अपने हुनर से मिनिषा ने मेरे एक-एक अंग, एक-एक उभार को साकार कर दिया था, जीवंत कर दिया था। लगता मानो मैं पेपर से बस बाहर निकल ही रही हूं। मैं कायल हो गई थी उसकी आर्ट की। लेकिन उस दिन मेरे शर्म की जो लकीर गाढ़ी होनी शुरू हुई थी वह हर क्षण बढ़ती जा रही थी। उस रात पहली बार मैंने गंभीरता से यह सोचा कि मैंने यह क्या कर डाला। मेरी यह पेंटिंग कौन सा करिश्मा कर डालेगी। 

न्यूड पेंटिंग्स की भीड़ में एक और पेंटिंग ही साबित होगी इसकी संभावना ही ज़्यादा है। यह बात मेरी समझ में पहले क्यों नहीं आई। पापा का सारा डर-खौफ कहां चला गया कि मैंने यह सब कर डाला। मेरे दिमाग में जरा सी यह बात क्यों नहीं आई कि जब पापा-मां को यह बात पता चलेगी तो क्या होगा, उन पर क्या बीतेगी? कितना बड़ा विस्फोट होगा? फिर उस रात चिंतन-मनन कर मैंने यह तय कर लिया कि अगले दिन जाकर कह दूंगी कि मुझे नहीं बनना सेलिब्रिटी।

चित्रा आंटी की ऑयल पेंटिंग अभी इतनी बनी ही नहीं है कि मुझे कोई पहचान सके। मिनिषा  वाली मांग लूंगी। फाड़ दूंगी उसे। लेकिन अगले दिन मेरा निर्णय धरा का धरा रह गया। अगले दिन मां-बेटी ने मुझे समझा-बुझाकर फिर स्टूल के सहारे नग्न खड़ा कर दिया। और मैंने भी यह तय कर लिया कि यह काम पूरा करूंगी। चाहे जितना बड़ा पहाड़ टूट पड़े। 

मिनिषा ने उस दिन दूसरे एंगिल से मेरा दूसरा स्केच बनाना शुरू कर दिया था। जिस दिन ऑयल पेंटिंग पूरी हुई उस दिन उसे देखकर मैं चित्रा आंटी की ऑर्ट के लिए यह कहे बिना न रह सकी कि ''रियली  आंटी आप ग्रेटेस्ट ऑर्टटिस्ट हैं।'' उनका हाथ चूम लिया था मैंने। मगर मेरी सारी उम्मीदों, सपनों पर अगले कुछ ही महीनों में पानी फिर गया। नेट पर पेंटिंग्स डाली गर्इं। एक एग्जीबीशन में भी गर्इं। लेकिन छुट-पुट सराहना के सिवा कुछ न मिला। संतोष करने भर को एक पेंटिंग बिकी। यानी न नाम न दाम। फिर आंटी ने मेरी न्यूड पेंटिंग की पूरी एक सीरीज बनाने को बोला, जिसे मैंने मना कर दिया। और सीखना भी बंद कर दिया। 

घर पर ही जो प्रैक्टिस हो पाती वह करती। इस बीच मां-पापा मेरी शादी को लेकर परेशान हो उठे। मेरे जैसा कोई बौना ढूढ़ने लगे। मैं यह जानकर सोच कर ही परेशान हो उठी कि क्या फायदा ऐसी शादी का, लोगों के बीच जोकर, हंसी का पात्र बनने का, बौनों की एक और पीढ़ी पैदा करने का। मैं जब-जब अपनी शादी के लिए मना करती मां-पापा दोनों नाराज हो जाते। जैसे-जैसे वक्त बीतता गया वैसे-वैसे दोनों की चिंताएं बढ़ती गर्इं। पापा की शराब भी बढ़ती जा रही थी। और साथ ही सेहत भी बिगड़ती जा रही थी। और घर की कलह भी। 

इस बीच मैं अपनी योजनानुसार अपने पैरों पर खड़े होने की पुरजोर कोशिश करती रही। मन में यह भी था कि, जिस दिन नौकरी मिल जाएगी। मां-बाप से साफ कह दूंगी कि शादी करनी ही नहीं। इस बीच मैं जहां जाती और जब लौटती घर तो कई तरह के ताने अपमान जनक बातें, लोगों की हंसी-ठिठोली लेकर लौटती। दुख तब और होता जब यह सब करने वाली महिलाएं, लड़कियां ही ज़्यादा होतीं। मैं अपने कपड़ों को लेकर हमेशा तकलीफ में रहती। नाप का कुछ मिलता नहीं। बुटीक ढूढ़ती कि महिलाएं ही मिलें। मगर वहां भी उन महिलाओं की दबी हंसी मुझसे छिपी न रहती। क्रोध से भर उठती। मन करता सबकी टांगें काट-काट कर अपने से छोटा कर दूं। सब को महा बौना-बौनी बना दूं। मगर घर आते-आते मन रो पड़ता। मां-बाप परेशान न हों  इसलिए अकेले ही रो लेती, आंसू बहा लेती।

मां-पापा की हताशा-निराशा देखकर मैं और टूटती। पापा तो एकदम बदल गए। पहले जहां मुझे एक सेकेंड भी अकेले बाहर नहीं छोड़ना चाहते थे। वही अब घंटों देर हो जाने के बाद भी कुछ न कहते। फिर वह दौर भी शुरू हुआ जब मां-पापा दोनों ही ज़्यादा बीमार रहने लगे। पहले पापा को मां साथ लेकर जाती थीं हॉस्पिटल। लेकिन उनकी भी तबियत ज़्यादा खराब रहने लगी तो डिंपू को ड्राइवर रख लिया गया। फिर देखते-देखते ही वह ड्राइवर से घर का सहयोगी भी बन गया। 

जल्दी ही पापा इतने गंभीर हो गए कि चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया। 

डिंपू ही उन्हें लेकर जाता। अंततः डॉक्टरों ने एक दिन यह कह दिया कि, पापा अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। लीवर पूरी तरह डैमेज हो चुका है। पापा उस दिन अपनी निश्चित मौत करीब देख कर रो पड़े थे। उन्होंने तमाम बातों के साथ-साथ मां से यह बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, ''देखो मेरे बाद जब तुम्हें नौकरी मिल जाए तो तुम ऑफ़िस में मेरी इज़्जत बनाए रखना। किसी साले से बात नहीं करना। सब साले बस औरत को नोचने में लगे रहते हैं। जो सबसे ज़्यादा हितैषी बनने लगे समझ लेना वह तुम्हारे शरीर को भोगने के लिए पगलाया है।'' 

मां ने जब कहा कि, ''क्यों ऐसा कुभाख रहे हैं। अरे पचास की हो रही हूं, इस उमर में कोई क्यों मेरे पीछे पडे़गा।'' तब पापा की बात सुनकर मैं सहम गई कि, ''तुम नहीं जानती, साले उम्र नहीं देखते, उनको केवल औरत का बदन दिखता है, साले औरत को माल कहते हैं। बोलते हैं जब तक हर तरह के माल का टेस्ट न करो तब तक मजा नहीं आता।'' पापा इसके बाद बमुश्किल डेढ़ माह ही जिंदा रहे। लेकिन इस डेढ़ माह में भी वह उठना-बैठना मुश्किल होने के बावजूद अपने भरसक ऑफ़िस के एक-एक आदमी की करतूत बता-बता कर कहते, ''इस हरामी से दूर रहना।'' 

कई औरतों की हरकतें बताते हुए कहते कि, ''उनसे भी दूर रहना। साली कई मर्दों को फांसे रहती हैं। बाकी औरतों को भी फंसाती हैं, जिससे उन पर कोई उंगली न उठाए।'' फिर वह दिन भी आया जब उन्होंने यह भी कह दिया कि उन्हें मुखाग्नि भी मां ही देंगी। इसके अड़तालीस घंटे बाद ही चल बसे। मैंने डिंपू की मदद से आरंभ से लेकर श्मशान तक की तैयारी की। दो-तीन पड़ोसियों ने भी मदद की। मां की बदहवाशी ऐसी थी, बार-बार इतना बेहोश हो रही थीं कि, कुछ कर ही नहीं सकती थीं। पापा की इच्छा के चलते उन्हें श्मशान ले गए और मां ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी की। हालांकि तब भी पूरी तरह होश में न थीं। 

पापा के जाते ही मां की डायबिटीज, ब्लड-प्रेशर ने जो एक बार बढ़ना शुरू किया तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। मैं अकेली या ये कहें कि घर में अकेली मात्र तीन साल की बच्ची। मां को चाय-पानी, खाना आदि देना मेरे लिए उतना ही कठिन था जितना तीन चार साल के बच्चे के लिए हो सकता था। किचेन में मेरी ऊपर तक पहुंच नहीं थी तो, मैं कुर्सी लगाकर ऊपर प्लेट-फॉर्म पर बैठकर ही सब तैयार करती। लेकिन उसे लेकर उतरना मुश्किल था तो एक थोड़े छोटे स्टूल पर चीजें नीचे रखती, फिर कुर्सी पर रखती और तब मां तक पहुंचती। यह मेरे लिए बिना सीढ़ी के छत पर चढ़ने-उतरने जैसा था। सो दो दिन बाद ही मैंने गैस चुल्हा और सारा सामान डिंपू की मदद से नीचे जमीन पर रख लिया। बेड सहित और कई स्थानों पर आसानी से पहुंचने के लिए एक फुट और दो फुट ऊंची चौकियां बनवा लीं। यहां तक की बाथरूम के लिए भी। 

मैं जितना स्थितियों को संभालने की कोशिश करती, मां की तबियत उतनी ही खराब होकर सब पर पानी फेर देती थी। और पापा की जगह मां की नौकरी की बात रोज जहां से शुरू होती वहीं पर खत्म होती। ऑफ़िस के लोगों का आना-जाना बना हुआ था। मैं सब की आंखों में पापा की कही बातों को ही ढूढ़ती और कईयों की आंखों में पापा की बातों को पाती भी। नतीजा यह हुआ कि मैं सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल और ननकई इन सब को छोड़ कर सब से नफरत करने लगी। मां की जर्जर शारीरिक हालत और मानसिक हालत को देखकर ही सिन्हा आंटी ने मां की जगह मुझे नौकरी करने की सलाह दी। अपनी बातों से उन्होंने क्षण भर में ही मुझे कंविंस कर लिया। फिर खुद ही सारी दौड़ धूप कर करके मुझे नौकरी दिला दी और ऑफ़िस में मेरी सुरक्षा घेरा बन गईं। उनके तेज़ तर्रार रुख। शेरनी सी दहाड़ से ऑफ़िस में हर कोई डरता था। हर कोई उनसे कतरा कर चलता था। ननकई भी उनके संरक्षण में थी। वह बेचारी किस्मत की मारी अपने क्लर्क पति की दुर्घटना में मौत के बाद चपरासी की जगह नौकरी करती थी। उप्रेती अंकल और दयाल अंकल भी इन्हीं लोगों की तरह अच्छे इंसान थे। लफंगों को दबाए रहते थे। नौकरी से एक फायदा ज़रूर हुआ कि आर्थिक स्थित जो कमजोर होती जा रही थी वह संभल गई। 

ऑफ़िस जाने के साथ-साथ नई समस्याएं भी सामने आती गईं। डिंपू जो अब घर पर ही एक कमरे में रहने लगा था। उस पर मुझे पैसे रुपए सामान को लेकर शक हुआ। तो एक दिन सारा जरूरी सामान एक कमरे में बंद कर ताला लगाकर ऑफ़िस जाना शुरू किया। मां की देख भाल भी होती रहे इसके लिए डिंपू मुझे ऑफ़िस छोड़ कर चला आता था। दिन भर फ़ोन कर-कर के मां का हाल-चाल लेती रहती। मगर मेरी हर कोशिश पर भगवान जैसे पानी फेरने पर लगा हुआ था। सारी दवा-दारू, डॉक्टरों की सारी कोशिश सब बेकार रही। मां की तबियत तेज़ी से गुजरते वक़्त की तरह बिगड़ती रही। फिर एक दिन मां भी पापा की तरह मुझे अकेली छोड़कर चल दीं।''

डिंपू तीन बजे ऑफ़िस आकर बोला था, ''तुरंत चलिए, अम्मा की तबीयत बहुत खराब है।'' उसके उड़े हुए चेहरे से भी मैं अंदाजा न लगा पाई थी कि मां भी छोड़कर जा चुकी हैं। मैं घर पहुंची तो तीन चार पड़ोसियों को देखकर सकते में आ गई। इतना ही नहीं, उप्रेती अंकल, सिन्हा आंटी ननकई सहित कई और लोग भी मेरे पीछे-पीछे घर आ गए थे। तय था कि डिंपू ने ऑफ़िस वालों को मुझसे छिपा कर बता दिया था। मुझे बुलाने जाने से पहले पास पड़ोसियों को बुला कर छोड़ गया था। 

अपने बौनेपन का सबसे ज़्यादा अहसास मुझे उसी दिन हुआ। मां बेड पर पड़ी हुई थीं, डिंपू उन्हें चादर ओढ़ा कर गया था। मैं ठीक से उन्हें अपनी बांहों में भर कर रो भी न पा रही थी। आश्चर्यजनक रूप से ऑफ़िस और पड़ोसियों से घर भर गया था। सिन्हा आंटी, ननकई, पड़ोसी, उप्रेती अंकल सबने मुझे संभाला। और कहा कि यदि बाहर से किसी को आना है तब तो इंतजार किया जाए नहीं तो आज ही संस्कार कर दिया जाए। मैं किसी को क्या बताती कि दुनिया में दो ही थे अपने और अब दोनों ही छोड़कर चले गए ऊपर। यूं तो दर्जनों का परिवार है, लेकिन बिना बात की बात पर ही सारे रिश्ते बरसों बरस पहले, मेरे जन्म से पहले ही खत्म हो गए। 

उन रिश्तेदारों में नाना-नानी, बाबा-दादी को छोड़ कर मामा, मौसी, चाचा-चाची, चचेरे ममेरे, भाई-बहन सभी तो हैं मेरे, इस दुनिया में, लेकिन न उन सब ने और न ही मैंने किसी को देखा है। तो आखिर किसका इंतजार। पापा ने ऐसा कुछ छोड़ा ही नहीं था जो किसी का इंतजार किया जाता। तो दिल पर पत्थर रख कर लोगों से कह दिया कि, संतान, नाते-रिश्तेदार जो कुछ हूं मैं ही हूं, और मैं उपस्थित हूं, इसलिए संस्कार आज ही होना है। मैं सारे पड़ोसियों, ऑफ़िस के सारे लोगों और खासतौर से डिंपू की उस दिन के लिए आज भी आभारी हूं। देखते-देखते सारी तैयारियां हो गईं। सबके बीच खुस-फुसाहट मैंने साफ सुनी थी कि अग्नि कौन देगा। मैं स्वयं सारा काम करूंगी यह जान कर कई लोगों के चेहरे पर आश्चर्य भी देखा था।

यही हाल श्मशान पर भी था। जहां पर मेरे साथ डिंपू पड़ोसी, ऑफ़िस के मिलाकर यही कोई नौ-दस लोग थे। शवदाह के लिए वहां आठ या नौ प्लेटफॉर्म बने थे। वहीं पर मां की चिता तैयार हुई। पूरे रस्मों रिवाज के साथ मां को अंतिम विदाई दी। वापस आ कर देखा तो घर पर सिन्हा आंटी, उनके पति, उप्रेती अंकल के अलावा सभी जा चुके थे। मैं यह सब देख कर संज्ञा शून्य सी, मशीन सी बन गई थी। घर का कोना-कोना मुझे काटने को दौड़ रहा था। 

डिंपू बिना कुछ कहे ही काम-धाम में ऐसे लगा हुआ था कि मानो यह उसी का घर हो। कुछ ही देर में पड़ोसी जायसवाल आंटी चाय, पूड़ी-सब्जी आदि लेकर आ गईं। सबने कोशिश की कि मैं कुछ खा लूं लेकिन मेरी हलक से नीचे आधी कप चाय के सिवा कुछ नहीं उतरा। रात दस बजे तक सब समझा-बुझा कर ढांढस बंधाकर कर चले गए। जरूरत पड़ने पर तुरंत फ़ोन करने की बात कहना कोई न भूला। पूरी रात मुझे नींद न आई।

घर का कोना-कोना मुझे चीत्कार करता नज़र आ रहा था। मुझे छोटा सा अपना घर अचानक बहुत बड़ा भूतहा महल सा नज़र आने लगा। किसके कंधे पर सिर रखकर मां के दुख में आंसू बहाऊं। कहीं कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन उस दिन पहली बार एकदम तड़प उठा, छटपटा उठा कि काश परिवार में और सदस्य होते। काश मां-पापा ने और बच्चे पैदा किए होते। मेरे भी भाई-बहन होते। सब एक दूसरे का सहारा बनते। काश मैं भी किसी को जीवन साथी बना लेती। या कोई मुझे साथ ले लेता। कोई अपंग अपाहिज भी होता तो कम से कम एक कंधा तो होता। मेरी तड़फड़ाहट रात तीन बजे एकदम बेकाबू हो गई। मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी। न जाने कितनी देर रोती रही। कि तभी दरवाजे पर दस्तक और डिंपू की आवाज एक साथ सुनाई दी। उसने दरवाजे पर खड़े-खड़े ही ढांढस बंधाते हुए कहा, ''चुप हो जाइए। भगवान की मर्जी के आगे क्या करा जा सकता है। अम्मा जी की जितनी आयु थी उतना दिन रहीं साथ। आप ऐसे रोएंगी तो उनकी आत्मा को बड़ा कष्ट होगा। शांत होकर आराम कर लें, सवेरे आपको बहुत काम करना है।'' 

डिंपू ने उस समय मुझे बड़ी हिम्मत बंधाई। बहुत काम करना है यह बात मेरे कान में गरम-गरम शीशे सी पहुंची। मेरा रोना बंद हो गया। दिमाग सवेरे काम पर चला गया। डिंपू के एक वाक्य ने धारा ही बदल दी। तभी मेरा ध्यान इस बात पर भी गया कि, रात के तीन बज रहे थे और मैंने घर का दरवाजा तक बंद नहीं किया था। फिर देखते-देखते सवेरा हो गया। सात बजते-बजते पहले सिन्हा आंटी पति के साथ आईं। उनके कुछ देर बाद ही उप्रेती अंकल, ननकई और जायसवाल जी पत्नी संग आ गए। ढांड़स बंधाने का एक दौर और चलाए फिर बाकी क्रिया कर्म को लेकर बातें हुईं, पापा का सब कामधाम कर ही चुकी थी सो मुझे सारी बातें मालूम ही थीं। मैंने सनातन परंपरानुसार सारा काम किया। 

ऑफ़िस महिने भर बाद गई। जब ऑफिस के लोगों का यह जोर पड़ा कि घर पर अकेली पड़ी रहोगी तो परेशान रहोगी। ऑफ़िस में मन थोड़ा सा बहला रहेगा। ऐसे अकेली तबियत खराब कर लोगी। इस बीच मैंने डिंपू को भी एक महीने की छुट्टी दे दी थी। उसको यह कह दिया था कि जाओ तुम्हें तुम्हारी तन्खवाह मिलेगी। इस एक महीने में मैं घर से बाहर नहीं निकली। कोई आया तभी दरवाजा खुला। उम्मीदों से एकदम विपरीत मिनिषा, चित्रा आंटी दो बार आईं। और पड़ोसी जायसवाल परिवार तीन बार। सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल का फ़ोन सुबह-शाम रोज आता। बड़े स्नेह से यह लोग समझाते-बुझाते। इन्हीं लोगों ने जोर दिया कि मैं ऑफ़िस आऊं। 

एक महीने बाद मैंने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया। मुझे अब सारी दुनिया और भी बेगानी, पराई अजीब सी लगने लगी। बाहर निकलते ही सबको अपनी तरफ घूरते पाती। कुछ आंखों में मेरे लिए बेचारी साफ नज़र आता। कुछ में दयाभाव तो और सब में न जाने कैसे-कैसे भाव। मां-पिता में ध्यान कुछ ऐसा लगा हुआ था कि मैं अपना काम-धाम भूलने लगी। ऑफ़िस के काम में सिलसिलेवार गलतियों पर दया की जाने लगी। यही हाल घर के कामों का था। हफ्तों हो जाता झाडू-पोंछा, साफ-सफाई कुछ नहीं। पॉलिथीन में भरा कूड़ा जब बदबू के मारे जीना हराम कर देता तो अगले दिन जमादार के आने पर फेंकती। डिंपू जब था तब उस ने एक-दो बार हिम्मत करके मुझे खुद को संभालने और साफ-सफाई बाकी के कामों में हाथ बंटाने को कहा था लेकिन तब मैंने मना कर दिया था। मेरा व्यवहार शायद काफी रूखा था तो उसने आगे कुछ कहना एकदम बंद कर दिया। उसी के बाद मैंने उसे घर भेज दिया था। मैं घर में जहां इधर-उधर घूमती, कुछ करने लगती, तो ऐसा लगता मानो मां-पिता मुझे मना कर रहे हैं, ''तु रहने दे, नहीं कर पाएगी। तेरे वश का नहीं है यह सब।'' 

मुझे पूरा घर सांय-सांय करता नज़र आता। दिल को दहला देने वाले इस सन्नाटे के बीच मैं नन्हीं-मुन्नी साढ़े तीन साल की बच्ची सी डरी-सहमी कहीं इस कोने तो कहीं उस कोने में दुबक जाती। डर से अपने को बचाने के लिए टीवी बराबर तेज़ आवाज़ में चलाती रहती। म्यूजिक सिस्टम को दूसरे कमरे में चलने देती। तीन महीने ही बीता होगा कि, आखिर मैंने एक दिन तय किया कि सारा सामान बेच डालूंगी। मां-पिता से जुड़ी सारी चीजें बेच डालूंगी। आखिर जब वे ही नहीं रहे तो उनसे जुड़ी चीजों को रखने का क्या मतलब। एक दिन मैंने ननकई को बुला कर उसकी मदद से मां के सारे कपड़े निकाले और उसे ही दे दिए। पहले उसने मना किया लेकिन मेरे आंसुओं के आगे मान गई। उसकी बेटी तेरह-चौदह की हो रही थी। लंबी भी थी। मेरे किसी काम का कुछ भी नहीं था। 

पापा के भी सारे कपड़े उसी को थमा दिए कि जो तुम्हारे समझ में आए करना। उसका एक लड़का भी था जो हाई स्कूल में पढ़ रहा था। जब ननकई जाने लगी तो मैंने ऑटो के किराए के भी दो सौ रुपए दिए। कपड़े काफी थे। पांच एयर बैग, चार सूटकेश भरे थे। मैंने सूटकेश, एयर बैग सहित दे दिया था। यह भी कह दिया था कि किसी को यह सब बताएगी नहीं। फिर उसी दिन रात को मैंने अलमारी के लॉकर्स में से सारे गहने निकाले जिन्हें पापा समय-समय पर बड़े प्यार से मां के लिए लाते रहे थे। और मां बड़े प्यार से उन्हें पहनती थीं। मगर अब सब यहीं धरे रह गए थे। जितना था सब यहीं था। मेरे लिए भी कई गहने खरीदे गए थे वह भी थे। पापा की अंगूठियां, चेन आदि भी। बड़ी देर तक मैं सब देखती रही। गहने उम्मीद से कहीं बहुत ज़्यादा थे। अचानक ही एक बात मन में आई कि पापा रिश्वत की कमाई से यह सब जो इकट्ठा कर गए वह किस काम आ रहा है। कभी इन्हें पहन कर उनको बाहर जाते नहीं देखा। बस लॉकर्स में धरे रहे। 

ननकई के साथ इन गहनों को दो दिन में अलग-अलग दुकानों पर बेच आई। जो कई लाख रुपए इक्ट्ठा हुए उन्हें बैंक में जमा कर दिए। लौटते वक्त एक बात और मन में आई कि गहने किसी काम न आए, इन रुपयों का भी क्या करूंगी। ननकई को मैं गहनों में से एक चेन निकाल कर पहले ही दे चुकी थी। मन में आया यह लड़की की शादी की बात करती रहती कि चार-छः साल में शादी करनी है पैसा जोड़ ही नहीं पा रही हूं। क्या करूं समझ में नहीं आ रहा। मन में आया चलो अभी तो टाइम है शादी का मौका आएगा तो देखेंगे। 

इस तरह मैंने घर का बहुत सारा सामान या तो ननकई को दे दिया या बेच दिया। कमरों में अब अलमारियों में जगह खाली-खाली नज़र आने लगी। एक अलमारी अभी भी ऐसी थी जिसे खोलना बाकी था। मुझे याद नहीं आता कि पापा या मां ने कभी उसे मेरे सामने खोला हो। गहने वाली अलमारी के लॉकर में मुझे जो चाभियां मिली थीं, उन्हीं में से एक उस अलमारी में लग गई। उसमें मुझे आठ-दस फाइलें मिलीं। जिसमें से एक में मकान के पेपर थे। इसके अलावा दो फाइलों से मुझे पहली बार यह मालूम हुआ कि पापा ने दो प्लॉट भी ले रखे हैं। और आज की मार्केट प्राइस के हिसाब से उनकी कीमत करोड़ के करीब हो रही है। क्योंकि शहर के जिस एरिया में हैं वह अब शहर के सबसे पॉश एरिया में गिना जाता है। 

मुझे लगा कि मेरे लिए तो यह एक बड़ा सिर दर्द सामने आ गया। बाकी फाइलों में ऑफ़िस के ही तमाम पेपर्स थे। इन आठ-दस फाइलों के अलावा बाकी अलमारी फोटो अलबमों से भरी पड़ी थी। जिन्हें मैं टुकड़ों में कई दिनों में देख पाई। जिसमें सैकड़ों फोटो ऐसी थीं जिन्हें पोलोरॉड कैमरा से खींचकर खुद ही तुरंत प्रिंट लिया गया था। इन फोटुओं के लिए अच्छा यही था कि पापा या मां इन सब को अपने रहते ही जला देते। इन सारी फोटो में मां के सौंदर्य के प्रति पापा की दिवानगी चरम पर दिख रही थी। उसे किसी और के सामने नहीं पड़ना चाहिए था। यह काम फिर मैंने किया। ननकई को मैंने खाली हो जाने पर दो अलमारियां भी दे दीं।

साल बीतते-बीतते मैं काफी हद तक खुद को संभाल चुकी थी। अब घर में नाम मात्र को ज़रूरत भर का सामान था। पूरा घर खाली-खाली था। उससे कहीं ज़्यादा खाली मेरा मन था। क्षण भर को भी अब चैन नहीं था। अकेलापन बेचैनी में घर में टहलते रातें बीतती थीं। ऐसे टहलते-टहलते ही एक दिन दिमाग डिंपू की ओर चला गया। कुछ ही देर में मुझे लगा कि डिंपू पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से काम कर रहा है, बल्कि यह कहें कि सेवा कर रहा है वह एक ड्राइवर या घर के नौकर की सीमा से कहीं ज़्यादा था। उसकी भाव भंगिमा भी निस्वार्थ से कहीं कुछ और लगी। यह उधेड़बुन जो मन में उस दिन शुरू हुई तो फिर वह बंद नहीं हुई। रोज ही बार-बार शुरू हो जाती। और अब मैं उसकी हर गतिविधि को बड़ी बारीकी से समझने का प्रयास करती। अंततः मुझे लगा कि लंबे समय तक ऐसे साथ-साथ रोज-रोज काम करते-करते कहीं कोई ऐसा-वैसा संबंध बन जाए इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 

और मेरा मन भी तो इसे देखकर जाने कैसे अजीब सा उछल-कूद करने लगता है। अंततः मैंने तय किया कि इससे जल्दी ही छुटकरा पा लूं। दूसरे किसी बुजुर्ग ड्राइवर की तलाश में लग गई। इसी बीच एक दिन चित्रा आंटी मिनिषा के साथ आईं और बोलीं, ''तनु मेरी और मिनिषा की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी है। मैं चाहती हूं तुम भी एक बार चलो।'' मैंने हंसते हुए कहा,'' मुझे क्यों ले चल रही हैं आंटी, मैं चलूंगी तो लोग आप दोनों की आर्ट नहीं मुझे देखने लगेंगे।'' मिनिषा ने फट से कहा, ''सही ही तो है, लोग सेलिब्रिटी ही को देखेंगे।'' मैंने कहा, ''मेरा मजाक उड़ाने में तुम्हें बड़ा मजा आता है।'' तो उसने बड़े प्यार से गले से लगा लिया। 

वह घुटनों के बल जमीन पर बैठी, अपने चेहरे को मेरे चेहरे तक लाते हुए बोली, ''मेरी प्यारी तनु ऐसा भूल कर भी न सोचा करो। मेरी नज़र में तुम क्या हो हम कह नहीं सकते। तुम अपने को किसी से कम, कमजोर, हीन क्यों समझती हो। तुम जीवन में जिस तरह बढ़ रही हो यह आसान काम नहीं है। सबके वश का नहीं है। मैं तुम्हें अपनी सबसे खास फ्रेंड मानती हूं।'' इस बीच चित्रा आंटी भी बोलीं, ''बेटा हम तुम्हें अपनी दूसरी मिनिषा मानते हैं।'' इसके बाद मां-बेटी दोनों ने ऐसी आत्मीयता भरी बातें कहीं कि मैं इंकार न कर सकी और अगले दिन प्रदर्शनी देखने पहुंची। 

वहां प्रदर्शनी देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ थी। जिसमें यंग जेनरेशन ज़्यादा थी। वहां मैं पहुंची तो सबको अपनी तरफ घूरता ज़रूर पाया। ऑर्ट प्रदर्शनी में मां-बेटी की ही पेंटिंग्स लगी थीं। यह प्रदर्शनी एक बड़े अधिकारी की ऑर्टिस्ट पत्नी की अपने पैसों, पति के प्रभाव से आयोजित प्रदर्शनी थी। ज़्यादातर पेंटिंग न्यूड थीं। शायद यंग जेनरेशन इसीलिए ज़्यादा आकर्षित थी। दो दिन से इसको लेकर मीडिया में चर्चा थी। मैं कुछ आगे बढ़ी ही थी कि, देखा एक पेंटिंग के आगे सबसे ज़्यादा भीड़ है। लोग मोबाइल से उसकी फोटो भी खींच रहे थे। 

मुझे हर पेंटिंग जिराफ की तरह सिर ऊपर कर के देखनी पड़ रही थी। उत्सुकतावश मैं भी उस तरफ चल दी। ननकई भी मेरे साथ थी। क्योंकि वही अब मेरी सबसे करीबी बन चुकी थी। डिंपू बाहर कार लिए खड़ा था। पेंटिंग के पास पहुंच कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। वहां अगल-बगल मेरी ही दोनों पेंटिंग लगी थीं, पहली मिनिषा द्वारा बनाया गया मेरा न्यूड स्केच था। दूसरी चित्रा आंटी द्वारा बनाई गई मेरी एक अधूरी ऑयल पेंटिंग थी। मिनिषा ने अपने स्केच को नाम दिया था, ''गॉड वंडर्स''  और चित्रा आंटी ने अपनी पेंटिंग  जिसका चेहरा अधूरा था। उसे नाम दिया था ''मिसटेक ऑफ गॉड।'' दुनिया के सामने अपनी नंगी तस्वीर देखकर मैं पानी-पानी हो गई। 

शरीर में पसीने का गीलापन जगह-जगह महसूस कर रही थी। ननकई को भी गौर से देखते मैं सहम गई थी। उसे किसी तरह का शक न हो। यह सोच कर मैं सामान्य सी बनी आगे चलने लगी। फिर कई और पेंटिंग देखने की ऐक्टिंग करती हुई बाहर आ गई। कार के पास पहुंची  ही थी कि चित्रा आंटी और मिनिषा दोनों आ गर्इं। मुझे रोकना चाह रही थीं लेकिन मैंने उनकी एक सुने बिना ही डिंपू से चलने को कह दिया। रास्ते में ननकई को घर छोड़ते हुए अपने घर पहुंची। कमरे का टीण्वीण् ऑन कर बेड पर बैठी सोचती रही। मां-बेटी के बहकावे में आकर मैं यह क्या कर बैठी। यह दोनों मुझे शहर में निकलने लायक नहीं छोड़ेंगी। मेरे मन में उनके लिए कई गालियां निकलती रहीं। 

शाम काम वाली आई तो उसे और डिंपू जो इस बीच कई बार आया तो उन्हें पढ़ने की कोशिश करती रही कि कहीं इन सब को मालूम तो नहीं हो गया। यह सोच कर और परेशान हो गई कि ननकई और ऑफ़िस का यदि कोई और भी वहां देख कर आया होगा और पहचान गया मुझे तो क्या होगा। ननकई तो निश्चित ही पहचान गई होगी। पेंसिल स्केच तो वह गौर से देख ही रही थी। वह इतनी सजीव है कि कोई भी मुझे एक नज़र में ही पहचान लेगा। रास्ते भर ननकई जैसे कुछ कहने पूछने को व्याकुल लग ही रही थी। हो सकता है आज डिंपू के साथ होने के कारण नहीं पूछा। लेकिन वह चुप रहने वाली नहींए कल पुछेगी ज़रूर। हो सकता है ऑफ़िस में ही पूछ ले। मैं ऑफ़िस वालों के सामने भी नग्न ही नजर आऊंगी। कैसे फेस करूंगी उन सबको। आने के बाद कई बार चित्रा आंटी और मिनिषा का फ़ोन आया लेकिन मैंने काट दिया। 

अगले दिन रविवार था छुट्टी थी और वह दोनों आ धमकीं। दोनों मेरे लिए मिठाई-फल लेकर आई थीं। रौब झाड़ने के लिए पति की नीली बत्ती लगी गाड़ी से आईं थीं। जो पड़ोसियों के लिए कौतुहल का विषय बन गई। मां-बेटी में न जाने कैसा जादू था कि सामने आते ही पल में मेरा गुस्सा छूमंतर हो गया। आधे घंटे में दोनों मुझे अपने वश में करके चल दीं। दोनों मेरी सौ पेंटिंग्स  की सीरीज की बात कहना नहीं भूली। मेरे लाख मना करने पर अंततः यह हामी भरवा ही ली कि सोचने दीजिए। उनके जाने के बाद जैसे मैं उनके प्रभाव से मुक्त हुई। सोत-सोते यह निर्णय ले लिया कि कभी नहीं। मगर अब दोनों पेंटिंग के शीर्षक मुझे बेचैन कर रहे थे कि एक मुझे ईश्वर की भूल तो दूसरी ईश्वर का आश्चर्य बता रही है। तो क्या मैं वाकई ईश्वर की गलती की सजा भुगत रही हूं। और यदि आश्चर्य हूं तो भी साफ ही तो है। सामान्य जीवन कहां जी रही हूं। 

आखिर सबके जैसा एक सामान्य आरामदायक जीवन हमें भी क्यों नहीं दिया। मां को सुंदरता दी तो ऐसी कि वह उनके लिए अभिशाप बन गई। वह भी तो सामान्य जीवन न जी सकीं। पापा और वह सारा जीवन इस सुंदरता के कारण उत्पन्न बातों के कारण ही तो सारे परिवार समाज से कटकर अभिशप्त जीवन जीते आधे अधूरे ही चल दिए। हालांकि इसे उनका वहम भी कह सकते हैं। हां मेरा वहम नहीं है। मुझे तो दुनिया में भगवान ने एक मजाक ही बना कर भेजा है। दुनिया की हर चीज सारी इच्छाएं सारी संवेदनाएं सब कुछ तनमन में ठूंसकर भेजा मगर उन्हें पूरा करने पाने का जो रास्ता हो सकता है वह सब बंद कर दिया है। बस कुछ है जो बिना मांगे ही मिल जाता है। लोगों की हंसी अपनी खिल्ली उड़ाते लोगों के चेहरे।

मैं उस रात बिल्कुल न सो सकी। रात के आखिरी पहर आते-आते सोचने लगी कि आखिर कब तक चलेगी ऐसे यह ज़िन्दगी । शादी-ब्याह का कोई मतलब ही नहीं। मां-बाप विचारे ढूंढ-ढूंढ़कर स्वर्ग सिधार गए। मैंने भी मना किया था कि और बड़ा कार्टून नहीं बनना। कार्टून का एक और पूरा परिवार नहीं बनाना। पता नहीं लोग कैसे यह कहते हैं कि भारत ऐसी जगह हैं जहां कुछ हो ना हो शादी ज़रूर हो जाती है। पता नहीं.... किसी बच्चे को अपना सकूं इसके भी सारे रास्ते बंद हैं। और इस भूख का क्या करूं जो खाने-पीने के आलावा तन की भूख है। जो इस अकेले घर में रोज-रोज बढ़ती जा रही है। और जब रात को यह भूख बढ़ती है तो तन-मन मचल-मचल कर चला जाता है डिंपू के पास। कई दिन, कई हफ्ते, फिर कई महीने इसी उधेड़ बुन में निकल गए कि आखिर ज़िंदगी जियूं तो जियूं कैसे? ऐसे तो वह दिन दूर नहीं जब मां-बाप की तरह डायबिटिज, बी पी हॉर्ट की पेशेंट बनकर फिर कई साल दवा-दारू के सहारे घिसटते-घिसटते जीकर मर जाऊंगी। 

यदि मैं गॉड के मिस्टेक में ही अपने लिए कोई अवसर निकालूँ । उस मिस्टेक को अवसर में  तब्दील कर दूं। 

ऐसे ही मन में होते तर्क-वितर्क प्रश्न-प्रतिप्रश्न के बीच कई और महीने बीत गए। रोज कुछ अच्छा होता तो कुछ बड़ा तकलीफदेह भी। लोगों की हंसी उड़ाती नजरें जो पहले तीखी बर्छी सी लगती थीं। अब वह हवा के झोंकों सी आकर मानों मुझे सहलाकर चली जातीं। नौकरी करते-करते चार साल पूरे होने को आ गए थे। पितृपक्ष आया तो लगा कि कैसे वक्त बीत गया पता नहीं चला। मां को भी गुजरे तीन साल हो गए। सारे विधि-विधान के अनुसार पंडित को बुला कर मां-पिता दोनों को पितृपक्ष में पिंडदान किया। कई लोगों के लिए यह आश्चर्य भरा रहा ।

ब्राह्मणों को इस अवसर पर भोजन कराने, वस्त्र आदि देने की परंपरा से अलग हटकर मैंने केवल जो ब्राह्मण सारी क्रियाओं को संपादित कराने आए थे उन्हें एक सेट कपड़ा खाने-पीने की चीजें देकर विदा किया। इसके अलावा चार-चार पूड़ियों और सब्जी की दो सौ पैकेट एक हलवाई से बनवा कर डिंपू ननकई के बेटे को लेकर शहर के अंदर मंदिर आदि पर जो भी भिखारी मिला उसे बांट दिया। भिखारियों छोटे-छोटे बच्चों को खाने के लिए एकदम टूट पड़ने, मचल उठने को देखकर मेरा मन भीतर-भीतर ही रो पड़ा।

उस दिन फिर तमाम रातों की तरह मैं सो न सकी लेकिन वह रात जीवन की सबसे अहम रात बन गई। मुझे आगे क्या करना है इन सारी बातों को मैंने अंतिम रूप दे दिया। पहला यह तय किया कि दो में से एक प्लाट बेचकर एक पर अनाथालय कम स्कूल के लायक बिल्डिंग बनवाऊंगी। उसमें सड़क पर पेट की आग बुझाने के लिए दर-दर भटक रहे बच्चों को रखूंगी। जहां उनके लिखने-पढने खाने-पीने का इंतजाम होगा। एन.जी.ओ. जैसा कुछ बनाऊंगी। जो सरकारी मदद मिल सकेगी लूंगी। अब-तक मैं पहले जो कर चुकी थी वो भी इसमें मददगार साबित होगा। मैंने चित्रा आंटी से खूब संपर्क बढ़ा लिया। उन्हें महीने में एक बार घर ज़रूर बुलाती।

वह भी रौब झाड़ने के लिए नीली बत्ती गाड़ी लाना न भूलतीं। मगर मैं इसका प्रयोग अपना दब-दबा बनाने के लिए करती रही। मुहल्ले के छुट्-भैए लफंगों और डिंपू को भी राइट टाइम रखने में यह रौब काम आ रहा था। रही सही कसर गीता को बुला कर पूरी कर लेती थी। पुलिसवर्दी में कुछ कांस्टेबिलों के साथ जब वह आती जीप लेकर तो और दब-दबा कायम होता। नाली, सड़क के एक विवाद को गीता को बुलवा कर चुटकी में सही करवा दिया था। इससे भी मेरी इमेज बहुत पहुँच वाली बन चुकी थी।

अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के चलते मैंने एक और काम यह किया था कि मां की मृत्यु के डेढ़ साल बाद ही ननकई को सपरिवार घर पर बुला लिया था रहने के लिए। उसे ऊपर एक कमरा दे दिया था। पहले वह आने को तैयार न हुई लेकिन मैंने जब समझाया कि कब तक किराए पर धक्के खाती रहोगी। तुम मुझे एक पैसा किराया नहीं देना। अभी तक जो किराया दे रही हो वह बचाती रहना। इस बीच कोई मकान एलाट करवा लेना और फिर बनवाकर चली जाना। 

उसे मैंने अपना किचेन भी दे दिया कि वहीं बनाओ खाओ। मैं सारा सामान दे दिया करूंगी। मेरा भी खाना-पीना, चाय-नाश्ता सब तुम्हारे हवाले। तुम्हें जो लाना हो लाओ, नहीं तो कोई बात नहीं। शुरू में वह बहुत हिचकी मगर फिर मान गई। मैं इतना सामान मंगवाती थी कि उसके परिवार के हिस्से का भी करीब आधे महीने का हो जाता था। 

ऑफ़िस वह मेरे साथ ही आती-जाती थी। तो आने-जाने का किराया भी उसका बचता था। कार जैसी सुविधा अलग थी। मुझे फायदा यह हुआ कि चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब बना बनाया मिलने लगा। काम वाली को छुड़वा दिया। सबसे बड़ी बात कि घर में तीन सदस्य और आ गए तो सुरक्षा का एक माहौल बना। अब घर सांय-सांय कर काटने को नहीं दौड़ता था। अपना रास्ता तय करते ही मैंने माता-पिता के नाम से एक संस्था रजिस्टर कराई। दो में से एक प्लाट पर जो इस काम के लिए ज़्यादा मुफीद था जिस पर एक कमरा बना था उसी पर बोर्ड लगवा दिया। बाऊंड्री पापा ने ही बनवायी थी। चित्रा आंटी की खूब मदद ली। उनकी नीली बत्ती हर जगह काम आसान कर देती। 

गीता यादव का भी सहयोग मिलता। लोगों से सुनती थी कि पुलिस वालों से दूर रहो लेकिन वह मेरा एक हाथ बन गई थी। और बदले में कुछ नहीं ले रही थी। बीच-बीच में दूसरे जिलों में भी उसकी तैनाती हुई लेकिन उसने संपर्क नहीं तोड़ा। जाते-जाते अपनी महिला सहयोगियों से आज भी मिलवाकर जाती है। फिर जाते ही वापस ट्रांसफर की कोशिश में जुट जाती है। और जल्दी ही लौट भी आती है। गीता के विपरीत चित्रा आंटी बदले में सौ पेंटिंग्स की सीरीज के लिए कहना नहीं भूलतीं। सच यह था कि मैं इसके लिए पूरे मन से कभी मना नहीं कर पाती थी। बस टालती थी। एक बार मैंने हंसी में ही उनसे यहां तक कह दिया कि आंटी शुरुआत मेरी मिनिषा की न्यूड पेंटिंग से करो। 

एक लंबी एक बौनी वास्तव में यह न्यूड पेंटिंग ली झुआंग पिंग की बेटी की बनाई गई न्यूड पेंटिंग की तरह तहलका मचा देगी। इस पर मिनिषा मुझे बांहों में भर कर ठहाका लगा कर हंस पड़ी थी। मां से बोली थी,  ''मॉम दिस इज ए ग्रेट चैलेन्ज फॉर यू।'' मां बोली थी, ''या आई एक्सेप्टेड, लेकिन तुम दोनों तो तैयार हो।'' उस क्षण मैं फिर सिहर उठी थी भीतर तक कि, यह आंटी तो पीछा ही नहीं छोड़ती। और अब तो अपनी भविष्य की योजनाओं को लेकर मैं खुद उनका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी। 

वे मिस्टेक ऑफ गॉड का फायदा उठाना चाह रही थीं। और अब मैं उनकी नीली बत्ती का फायदा उठाने में लग गई। अंततः एक दिन न्यूड पेंटिंग्स कि सीरीज के लिए अपनी सहमति देते हुए मैंने एक प्रस्ताव भी रखा कि आंटी उस दिन जो मजाक में कहा था आज पूरी गंभीरता के साथ कह रही हूं कि इस सीरीज को बजाय सिर्फ़ मेरी सीरीज के मिनिषा और मेरी सीरीज बनाएं तो सही मायने में आर्ट की दुनिया में तहलका मचेगा आप कुछ असाधारण कर पाएंगी। और प्रदर्शनी यहां के बजाय मुंबई या दिल्ली में रखें जिससे सही एक्सपोजर मिल सके। 

मेरी बात सुनकर वह बोलीं, ''तनु सच यह है कि इसके डैडी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए तुम यदि खुशी-खुशी तैयार हो तो ठीक है। हां प्रदर्शनी की जहां तक बात है तो यदि तुम तैयार होती हो तो इस सीरीज की प्रदर्शनी अमेरिका में होगी। मिनिषा के डैडी वहां सब कुछ अरेंज करा देंगे। तुम तैयार होगी तो तुम्हें भी ले चलेंगे। इससे यहां किसी को तुम्हारे बारे में पता चलने का खतरा नहीं रहेगा। दूसरे जो इंकम होगी उसमें भी तुम्हारा शेयर होगा।''

उस दिन जब आंटी गईं तो मुझे लगा कि वो भारी मन से गई हैं। मुझे अपनी भविष्य की योजना मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह निकलती लगी तो अगले दिन मैंने प्रदर्शनी अमेरिका में ही हो इस शर्त पर आंटी की किसी भी पेंटिंग के लिए मॉडलिंग करने की सहमति दे दी। सोचा जब पेंटिंग  के लिए पहले ही न जाने कितनी बार मां-बेटी के सामने निर्वस्त्र हो चुकी हूं तो और बार करने से क्या फर्क पड़ेगा। मां-बेटी भी तो मेरे सामने निर्वस्त्र हो चुकी हैं। भले ही यह उनका एक हथियार था मुझे कंविंस करने के लिए।

खैर आखिर भगवान की भूल का परिणाम इस शरीर का कुछ तो प्रयोग हो। इसे एक ठूंठ सा छोड़ देने का क्या फायदा। फिर मैं अपनी योजनानुसार जुट गई अपना मिशन पूरा करने में। संस्था के काम में सरकारी नौकरी के कारण कोई विघ्न बाधा न आए इसका तरीका आंटी के पति महोदय बताते रहे। अनाथालय की बिल्डिंग कछुआ चाल से बनवाती रही। जब तक वह कुछ काम लायक बन पाई तब तक छः साल निकल गए। आंटी के काम की भी यही गति रही और वह अलग-अलग पोज में मेरी बमुश्किल सैंतीस पेंटिंग्स बना पाईं। 

मुझे पहली दो-चार पेंटिंग के अलावा किसी में कुछ नयापन नजर नहीं आया। हां इस बीच मिनिषा ने अलग-अलग पोज में मेरी पचास से ऊपर पेंसिल स्केच बना डाले जो वाकई शानदार थे। मिनिषा मुझसे ज़्यादा देर मेहनत नहीं करवाती थी। वक्त ज्यादा लगने का कारण यह भी था कि मैं ज्यादा वक्त नहीं दे पाती थी। शुरू में मैं डरी थी कि मां-बेटी उत्साह में यह सब कहीं किसी को दिखा न दें। लेकिन फिर उन्हें हिफाजत से इन पेंटिंग्स के लिए ही विशेष रूप से बनवाए गए बक्सों में बंद करते देख डर खत्म हुआ था। आंटी के हसबैंड भी आर्ट और ऑर्टिस्ट के बड़े कद्रदान थे। तो काम सारा अच्छा चलता रहा। काम के प्रति मां-बेटी का समर्पण देख मुझे भी अपने उद्देश्य को पूरा करने की प्रेरणा मिलती रही।

समय या लापरवाही के कारण मेरे शरीर में कोई बड़ा परिवर्तन मोटापा न आ जाए इसके लिए मुझे योग करने संतुलित आहार लेने का एक तरह से आदी बना दिया था। मैं इसे किए बिना रह ही नहीं सकती थी। इसका मुझे रिजल्ट दिख रहा था कि इन छः वर्षों में भी मेरे शरीर कार्य क्षमता में कोई बड़ा फ़र्क नहीं आया था। मां-बेटी भी यह सब करके अपने को मेनटेन किए हुए थीं।

ऐसे ही देखते-देखते एक और वर्ष बीत गया। एक दिन एक और पेंटिंग पूरी कर मां-बेटी और मैं ऑर्ट रूम में ही बैठी कॉफी की चुस्कियां ले रही थी कि तभी आंटी अचानक ही बोली तनु तुम्हारा पास पोर्ट बनवाना है, संभव है कि इस साल के अंत तक अमेरिका चलना पड़े। हम लोग वहां प्रदर्शनी की तैयारी में लगे हुए हैं। मेरे कुछ रिलेटिव्स हैं जो वहां हमारी मदद कर रहे हैं।

मैंने कहा, ''लेकिन आंटी आपकी पचास पेंटिंग भी नहीं हुई हैं। इतनी जल्दी कैसे हो जाएगा?'' तो वह बोलीं, ''मेरी और मिनिषा की मिलाकर सौ हो रही हैं। इतने से ही काम आगे बढ़ाएंगे। सौ के चक्कर में अभी न जाने कितने और साल लग जाएं।'' मैंने कहा, ''ठीक  है। लेकिन मैं कभी बाहर गई नहीं... तो वह बोलीं, ''तुम चिंता क्यों करती हो। तुम तो हमारे साथ रहोगी। सब कुछ हम अरेंज करेंगे, तुम्हें बस साथ चलना है।'' मैं अपनी सहमति देकर चली आई। 

आंटी ने अपने कहे अनुसार जल्दी ही पासपोर्ट भी बनवा दिया। फिर एक दिन बोलीं कि, ''तनु इस दिवाली के अगले ही दिन हम लोगों को अमेरिका चलना है। मैं, तुम, मिनिषा और उसके डैडी साथ चल रहे हैं, दो लोग और भी हैं, बाकी लोग वहीं हैं। अब कुछ ही महीने हैं जब तुम ऑर्ट की दुनिया में छा जाओगी।'' मैंने कहा, ''आंटी आप दोनों भी...तो वह बोलीं, ''हाँ हम तीनों।'' उस दिन मैं बहुत खुश थी। मिस्टेक ऑफ गॉड अमेरिका जाएगी।

मगर यह सोच-सोच कर बार-बार शर्म महसूस कर रही थी कि, मिनिषा के फादर, उनके सामने कैसे फेश करूंगी। पेंटिंग्स के जरिए तो मैं एक तरह से उन सबके सामने नग्न ही रहूंगी। इस सारी उधेड-बुन के बीच सारी तैयारियां चलती रहीं। वहां के मौसम के हिसाब से मेरे लिए कपड़े भी आंटी ही अरेंज कर रही थीं। इस बीच आर्ट के बारे में जो भी लिटरेचर जानकारी मुझे मिली उसके बारे में जानने-समझने की पूरी कोशिश की। एक चीज यह भी समझी कि ऑर्टिस्ट अपने मॉडलों को तो लोगों के सामने इस तरह लाते नहीं। आंटी क्यों ला रही हैं। फिर सोचा हो सकता है कि ऐसा होता ही हो। किताबों में सब कुछ तो नहीं मिल जाता। 

एक बार फिर भाद्रपद महीना पितृपक्ष ले कर आ गया। माता-पिता को श्राद्ध देने पिंडदान देने का वक्त। मैं हर साल यह सब पहली बार की तरह करती आ रही थी। हर बार वही रस्म निभाती थी। लेकिन मैं यह सब रस्म समझ कर नहीं, इस यकीन के साथ करती थी कि भगवान की भूल को इस पृथ्वी पर लाने वाले मेरे पूज्य माता-पिता को यह सब मिलता होगा। वह ऊपर से देख रहे होंगे कि उनकी तनु किसी की मोहताज नहीं है। 

बौनी हैए मगर उसके इरादे और काम बहुत ऊंचे हैं। और ऊंचे होते जाएंगे। वह किसी के बताए रास्ते पर नहीं अपने बनाए रास्ते पर ही चल रही हैए चलती रहेगी। भले ही पौराणिक आख्यान श्राद्ध के लिए पुत्र का होना अनिवार्य मानते हों लेकिन यह जरूरी तो नहीं। आखिर पुत्री भी तो उसी मां-बाप की संतान है। अगर पुत्र के लिए पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण हैं, तो यह पुत्री के लिए क्यों नहीं हो सकते। मां-बाप उसे भी तो जन्म देते हैं। वह भी तो माता-पिता की संतान है। वह भी तो इसी ब्रह्मांड में है। उसी ब्रह्मांड रचयिता की व्यवस्था का हिस्सा है जिसमें पुत्र है। और यह पौराणिक धर्म ग्रन्थ भी तो मां-बाप की पूजा को सबसे बड़ी पूजा मानते हैं। यह सबसे बड़ी पूजा पुत्री क्यों नहीं कर सकती। 

मैं यह पूजा करके अपने मां-बाप के ऋण से उऋण होने का अधिकार ठीक वैसे ही रखती हूं जैसे पुत्र रखते हैं। इसलिए मैं किसी सूरत में यह करती रहूंगी। मेरे काम को हर साल पास-पड़ोस के लोग आश्चर्य से देखते थे। मैं मां-बाप के इस कष्ट का भी निवारण पूरी तरह करूंगी कि उनके पुत्र नहीं हैं। कौन उन्हें पिंडदान करेगा? कौन ''गया'' जाएगा? पहला काम पिंडदान तो मैं करती आ रही अब ''गया'' जाऊंगी इस बार। वहीं अपने मां-बाप का पिंड दान करूंगी, ''गया'' कर के आऊंगी। कहते हैं कि लड़कियां नहीं जातीं मगर मैं जाऊंगी। वहां पंडे-पुरोहितों ने अड़चन पैदा की तो खुद ही सब कुछ कर के आऊंगी। किताबें ला लाकर रट डालूंगी। वहां पिंड दान करने की सारी विधि जानकर और सारा सामान लेकर जाऊंगी। 

बहुत सी जानकारी करने जानने-समझने के बाद जब मैंने यह बात ननकई से शेयर की जिन्हें अब मैं मौसी कहती थी तो उनका मुंह आश्चर्य से कुछ देर खुला रहा फिर बोलीं, ''अरे! लड़की जात इतनी दूर कैसे जाओगी।'' फिर उन्होंने वहां के पंडों, तमाम तरह की दुश्वारियों के वृतांत ऐसे बताया मानों सब उनका आंखों देखा हो। इस पर मैंने उन्हें समझाया देखो मौसी यूं तो कहीं भी पितृपक्ष में श्राद्ध करा जा सकता है। पौराणिक आख्यान इसकी महत्ता के वर्णन से भरे पड़े हैं।

''गया'' में श्राद्ध की अहमियत का अंदाजा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि यहां पितृपक्ष ही नहीं किसी भी समय श्राद्ध कर सकते हैं। कहते हैं कि, भगवान राम ने भी अपने पिता राजा दशरथ का यहां पिंडदान किया था। फिर मैंने उन्हें यह सुना कर चकित कर दिया कि,  ''गया सर्वकालेशु पिंडं दधाद्विपक्षणं।''

मगर मौसी तो मौसी, अड़ी रहीं तो मैंने कहा, ''देखो मौसी मैंने अब तक बहुत सी गलतियां की हैं, बहुत से पाप किए हैं,  मैं तर्पण करके उनसे मुक्ति पाना चाहती हूं। इसके लिए भी मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया कि, ''एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन दद्याज्जलाज्जलीना। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।'' मौसी को इसका अर्थ भी बता दिया कि जो भी अपने पितरों को तिल मिला कर जल की तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते हैं उनके जन्म से लेकर तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। अतः मौसी मैं यह सब अवश्य करूंगी।

सोचा कि मौसी बहुत परंपरावादी है। वेद-पुराणों की बातों को ब्रह्मवाक्य मानती हैं। उनको अगर इन ग्रंथों की बातें ही बताओ तभी मानेगी। यह सोच मैंने जो कुछ पढा थाए सुना था वह मौसी को बताने लगी। कहा,  ''देखो मौसी मैं नहीं कहती कि तुम मेरी किसी बात पर यकीन करो लेकिन तुम वेद-पुराणों की बात तो मानोगी।'' इस पर मौसी दोनों हाथ जोड़ती हुई बोलीं, ''अरे! मेरी बिटिया कैसी बात करती हो। भगवान की कहीं बातों पर संदेह करके नरक में जाना है क्या? अरे! न जाने कौन सा अधर्म-पाप किए थे कि इस जन्म मैं इतना दुख झेल रहे हैं। अब जीवन में कभी चैन की सुख की एक सांस न मिलेगी।'' मैंने कहा, ''ऐसा क्यों कह रही हो मौसी?'' तो मौसी रो पड़ी। आंचल के कोर से आंसू पोंछते हुए बोलीं, ''अरे! बिटिया विधवा को जीवन में आंसू के सिवा कुछ नहीं दिया है प्रभू ने।'' 

मैं उनका दुख देख कर खुद भी भावुक हो गई। लेकिन जल्दी ही अपने को संभालते हुए कहा, ''मौसी प्रभु ने ऐसा नहीं किया है। बहुत सी परंपराएं और दुख तो हम अनजाने में खुद ही ढोते रहते हैं। किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा है कि विधवा जीवन भर आंसू बहाए। यह तो समय-परिस्थितियों के साथ चीजें बदलती रहती हैं, और रीति परंपराएं बनती बिगड़ती हैं। 

अब श्राद्ध को ही ले लो। आज कितने तरह के आडंबर किए जाते हैं। लेकिन जानती हो वेद-पुराणों, पुराने जमाने में ऐसा नहीं था। पुराणों के जमाने में नियम यह था कि, उचित समय में शास्त्रों  में दिए विधि-विधान के अनुसार इसके लिए जो भी मंत्र हैं उनको बोलते हुए दान दक्षिणा अपनी सामर्थ्य अनुसार दी जाए यही श्राद्ध है। लेकिन आजकल तो देख ही रही हो। 

मौसी यह जानकर भी आश्चर्य करोगी कि, आज यही समझा जाता है कि पितृपक्ष में ही श्राद्ध किया जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। श्राद्ध तीन तरह से, तीन अवसरों पर किया जाता है। पहला तो पितृपक्ष में है ही जिसे नित्य श्राद्ध कहते हैं। यह उसी तिथि को करते हैं जिस तिथि को व्यक्ति इस लोक को छोड़ परलोकवासी होता है। इसके अलावा मौसी किसी मनौती के पूरा होने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है। इसको काम्य श्राद्ध कहते हैं। यह केवल रोहिणी नक्षत्र में ही किया जाता है। अब तुम्हीं बताओ पहले तुमने कभी सुना था कि मनौती पूरा करने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है।'' 

मौसी मेरी इस बात पर आश्चर्य मिश्रित भाव में बोली, ''मैं तो यह पहली बार सुन रही हूं।'' अपनी बात का अनूकुल प्रभाव पड़ते देख मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ''मौसी इतना ही नहीं, जब घर में खानदान में कोई शुभ काम होता है या पुत्र का जन्म होता है तो भी श्राद्ध करते हैं। इस तीसरे श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। मगर आजकल इस तरह का श्राद्ध करते पाया है किसी को? असल में मौसी इंसान अपनी सुविधानुसार चीजों को बनाता बिगाड़ता है।'' मेरी बात पूरी होते ही मौसी अपने गांव के पंडित पर नाराजगी जाहिर करती हुई बोलीं, ''लेकिन बिटिया गांव मां पंडित जी ई सब कबहूँ नाहीं बताईंन।'' उनके संशय को और दूर करते हुए मैंने कहा, ''मौसी मैं यही तो बता रही हूं कि सब अपनी सुविधा, अपना फायदा देखते हैं। 

श्राद्ध की सबसे बड़ी बात तुम यही समझ लो कि यह केवल तीन पीढ़ियों पिता, बाबा और परबाबा के लिए ही होता है। बाकी हमारे जितने भी पूर्वज उसके पहले के हैं उन सभी का प्रतिनिधित्व हमारे ये तीनों पूर्वज ही करते हैं। इसी कारण इन तीनों को ही पुराणों में बहुत महत्व दिया गया है। पिता को वसु, बाबा को रुद्र और परबाबा को आदित्य कहा गया है। यही तीनों हमारे श्राद्ध को बाकी सभी पितरों तक ले जाते हैं।''

मैं यह सब कहने के साथ सोच रही थी कि मौसी अब तक मेरी बात से सहमत हो गई होगी। लेकिन अगले ही पल उसने एक और यक्ष प्रश्न सामने रखा कि, ''बिटिया तुम कह तो सब ठीक रही हो लेकिन तुम ठहरी कुंवारी कन्या, तुम, ''गया'' करो यह ठीक नहीं लग रहा है। कुंवारी कन्या श्राद्ध करे यह कभी सुनाई नहीं दिया। वह भी ''गया'' में।'' 

मैंने मौसी की इस बात से उत्पन्न अपनी खीझ को पहले अंदर जज्ब किया। बल्कि यह भी सोचा कि मौसी को कंविंस करना आसान नहीं है। पढ़ी भले ही कम हों लेकिन कढ़ी बहुत ज़्यादा हैं। मुझे शांत देख कर मौसी तुरंत बोलीं, ''बिटिया गुस्सा हो गई क्या ?''

माहौल गड़बड़ाए न यह सोच कर मैंने फट से कहा, ''मौसी तुम कैसी बात कर रही हो? मैं तुमसे नाराज कैसे हो सकती हूं। मैं तो यह बताने जा रही थी कि, श्राद्ध केवल पिता अपने पुत्र के लिए नहीं करता, बड़ा भाई छोटे भाई के लिए नहीं कर सकता और पत्नी यदि निसंतान मरी है तो पति उसके लिए श्राद्ध नहीं कर सकता। लेकिन बाकी सभी कर सकते हैं। 

कुंवारी कन्या भी कर सकती है। ''गया'' भी जा सकती है। केवल दूसरे की जमीन, दूसरे के मकान में श्राद्ध कभी नहीं करना चाहिए। ''गया'' सार्वजनिक स्थल है। ऐसी हर जगह श्राद्ध किया जा सकता है। यह बात पूरी करते हुए मेरे मन में यह बात भी पल-भर को कौंधी कि अब मैं कुंवारी कहां? अपना कुंवारापन तो कब का डिंपू को सौंप चुकी हूं।'' मौसी के चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वह अभी असमंजस में है तो मैंने वह किताब खोल कर मौसी को उन पन्नों को पढ़ाया जिनमें मातामाह श्राद्ध का विस्तार से वर्णन किया गया था कि पुत्री अपने पिता और नाती अपने नाना का तर्पण कर सकती है। 

किताब में लिखा देख कर मौसी का असमंजस काफी हद तक दूर हो गया। लगे हाथ मैंने वह लाइन भी पढ़ दी, जिसमें अग्नि पुराण का उल्लेख करते हुए कहा गया था कि, ''गया'' में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। मौसी अंततः सहमत हो गई कि मैं ''गया'' जा सकती हूं। इतनी बात कर मैं यह अच्छी तरह समझ गई थी कि, मौसी उतनी नासमझ है नहीं जितना मैं उसे समझती हूं। बल्कि सही मायने में उसके सामने नासमझ तो मैं हूं। जो यह आज समझ पा रही हूं।

जबकि यह उसी दिन समझ लेना चाहिए था जिस दिन प्रदर्शनी में मेरा पेंसिल स्केच देखने के दो दिन बाद उसने यह प्रश्न पूछा था कि, ''बिटिया इन लोगों ने तुम्हारा ऐसा फोटू क्यों बनाया? इनको शर्म नहीं आई तुम्हारी नंगी फोटू बनाते और तुमने मना क्यों नहीं किया?''

मेरी इस बात पर भी तब उसने बहस की थी कि, फोटो में केवल चेहरा मेरा है। बाकी तो उसने ऐसे ही कल्पना से बना दिया है। तब मौसी बड़ा साफ बोली थी कि, ''लेकिन बिटिया दुनिया तो उसे तुम्हारा ही बदन मानेगी न। तुमको मना करना चाहिए।'' 

मौसी की इन बातों से मुझे तभी उसकी समझ का लोहा मान लेना चाहिए था। जितनी तेजी से मेरे मन में यह बातें आईं उतनी तेजी से उन्हें किनारे करते हुए मैंने कहा, ''मौसी एक बढ़िया एस.यू.वी. टाइप टैक्सी किराए पर लेते हैं। तुम भी अपने बच्चों के साथ चलो। लगे हाथ तुम्हारा बेटा अपने पिता का, ''गया'' कर आएगा। ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता। डिंपू को भी साथ ले चलेंगे।''

यह सब सुनने के काफी देर बाद आखिर वह तैयार हुई तो पैसे की दिक्कत आन पड़ी। मैंने क्योंकि कि यह तय कर लिया था कि हर हाल में जाऊंगी तो कहा कि पैसा मैं उधार दूंगी। क्योंकि यह तुम्हें अपने पैसों से करना है। इतना ही नहीं तुम सिर्फ़ इतना ही करोगी जितना वहां पंडों वगैरह को देना है। बाकी आना-जाना, खाना-पीना ठहरना यह सब मेरे खर्चे पर। इसके बाद मौसी के पास कोई रास्ता नहीं बचा तो वह तैयार हो गईं। 

अब मैंने गाड़ी के लिए चित्रा आंटी से मदद मांगी। अंकल ने अपने प्रभाव से एक बड़ी गाड़ी नाम मात्र के किराए पर दिलवा दी। उनके सहयोग से खर्च आधा से भी ज़्यादा कम हो गया। मेरे इस निर्णय से वह भी आश्चर्य में थीं और उनका भी मन यही था कि न जाऊं। मगर मेरा निर्णय अटल था। मैंने डायरी में एक पूरा प्लान बनाया। ऑफ़िस में जानते हुए भी केवल हफ्ते भर की छुट्टी की अपलीकेशन दी। मौसी से भी यही कराया। मैंने सोचा आगे जैसा होगा फ़ोन पर बता देंगे। सारी तैयारियों के साथ पितृपक्ष के तीसरे ही दिन मौसी के परिवार, डिंपू के साथ ''गया''के लिए चल दी। चित्रा आंटी ने बड़ी आरामदायक नई एस. यू. वी. भेजी थी। ड्राइवर भी सीधा लग रहा था। निकलने से पहले मैंने उन्हें गाड़ी भेजने के लिए धन्यवाद दिया। 

तब उन्होंने कहा, ''जहां भी रुकना फ़ोन करके बताती रहना।'' उनके इस व्यवहार से हम सभी बड़ा अच्छा महसूस कर रहे थे। लखनऊ से निकलने के बाद मैं वाराणसी पहुंची और रात सबने वहीं एक होटल में गुजारी। आंटी को जब बताया तो उन्होंने होटल के मैनेजर से अपने पति की बात करा दी। उसके बाद तो उसने हम सब का बहुत बढ़िया आदर-सत्कार किया। और चलते वक्त बिल में दस परसेंट कमी कर दी। बनारस की महिमा पापा से बहुत सुनी थी, इसलिए एक दिन वहां रुकी और जितना घूम सकती थी घूमा। तभी यह भी मालूम हुआ कि, यहीं वह पिशाच मोचन है जहां त्रिपिंडी श्राद्ध होता है खासतौर से उन लोगों के लिए जिनकी अकाल मृत्यु हुई होती है। 

यहीं मैंने पितरों की प्रेत बाधाओं के बारे में जाना। यह भी कि यह प्रेत बाधाएं सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार की होती हैं। बनारस में और रुकने का तो मन था लेकिन मंजिल मेरी ''गया'' थी तो अगले दिन  ''गया'' पहुंच गए। बनारस तक ठीक-ठाक पहुंची मौसी वहां से ''गया'' पहुंचने तक रास्ते भर उल्टी करती गईं।

''गया'' पहुंच कर सबने होटल में रात और अगला पूरा दिन आराम करके रास्ते की थकान उतारी। हालांकि मेरा मन दिन भर आराम करने का नहीं था। इस बीच मेरा ध्यान पैसे पर भी था जो मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा तेजी से खत्म हो रहे थे। दूसरे दिन मैं ''गया'' नगरी में अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए होटल से सबको लेकर सुबह ही चल दी। मुझे लग रहा था जैसे मैंने कुछ बहुत बड़ा काम कर लिया है। लेकिन कुछ ही घंटो में यह भाव तब तिरोहित गया जब पवित्र ''फल्गू'' नदी के तट पर लोगों को असीम श्रद्धा, सादगी के साथ श्राद्ध करते देखा। 

मन ठहर सा गया उस नदी के तट पर कि, यही तो वह तट है जहां भगवान राम ने भी श्राद्ध किया था। और भगवान विष्णु ने गयासुर राक्षस को मार कर इस धरती को उसके पापों से मुक्ति दिलाई थी। तभी से इसका नाम ''गया'' पड़ गया। मैं हर बाधा पार कर पहुंच गई ''गया''  और मुझे वहां के दृश्य एक अलग ही अनुभव दे रहे थे। साथ ही यथार्थ से सही मायने में सामना भी शुरू हो गया। वहां एक के बाद एक दिक्कतें आनी शुरू हुईं। मेरी दिक्कतें हर इंसान से कई गुना ज्यादा थीं। क्योंकि एक तो लड़की, ऊपर से मिस्टेक ऑफ गॉड। मगर मैं अडिग थी। 

मैंने हर बाधा का रास्ता निकाला और सारी रस्में पूरी कीं। सिर भी मुंडवा दिया। मैं वहां हर किसी के लिए एक अजूबा थी और अजूबा कर रही थी। मौसी का लड़का, सिर नहीं मुंडवाना चाहता था। उसे अपनी प्यारी हेयर स्टाइल से बिछुड़ना सहन नहीं हो रहा था। मां और मेरे दबाव से माना। वह मुझे दीदी कहता था। मगर सिर तभी मुंड़वाया जब मैंने यह कह दिया कि, ''यदि तुम अपने फादर से प्यार नहीं करते हो तो मत मुंड़वाओ।'' मेरी इस बात का उस पर बिजली सा असर हुआ। इसके बाद मैं तीस  मीटर ऊंचे विष्णु पद मंदिर गई। जो भगवान विष्णु के पद चिह्नों पर बना है और उनके पांव के चालीस सेंटीमीटर लंबे निशान हैं। 

इसके बाद बाणासुर के बनवाए शिव मंदिर, मोरहर नदी के किनारे शिव मंदिर कोटेश्वरनाथ, सोन नदी के किनारे सुर्य मंदिर और फिर ब्रह्मयोनि पहाड़ी पर बने शिव मंदिर जाकर भी पिंडदान किया। वहीं पर पता चला कि इसका वर्णन रामायण में भी है। यहां तक पहुंचने के लिए 440 सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं। इस के बाद पहाड़ पर ही मंगला गौरी मंदिर भी गई। मगर बराबर गुफा के लिए हिम्मत न कर सकी। क्योंकि यहां कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता। इन सब जगहों पर जाने, रस्मों को निभाने में पैसा तो खूब लगा ही, समय भी चार दिन लगा। 440 सीढ़ियां चढ़ने और उतरने के बाद हमने पूरा एक दिन आराम किया था। 

दान-पुण्य करने किसी तरह के खर्च में मैंने कहने भर को भी कंजूसी नहीं की। जी खोल कर किया कि किसी को यह न लगे कि साथ ले आई लेकिन हाथ समेट लिया। लेकिन इससे आखिरी दिन एक समस्या खड़ी हो गई। वापसी में रास्ते भर के लिए और आखिर में जिस होटल में रुके थे, उसका बिल देने को जितना पैसा चाहिए था मेरे पास उसका आधा भी नहीं था और ए.टी.एम. कॉर्ड तीन दिन पहले ही गलती से ब्लॉक हो गया था। सोचा मौसी से कहूं, उसके पास इतना है कि, अगर दे देंगी तो किसी तरह काम चल जाएगा। मगर डर गई कि मौसी कहीं कुछ और न सोच ले। 

होटल के अपने कमरे में इसी उधेड़-बुन में परेशान थी कि, अब क्या करूं मगर भगवान ने ज़्यादा देर परेशान नहीं किया, रास्ता सुझा दिया। मेरा हाथ अचानक ही अपनी कमर में सोने की पहनी करधनी पर चला गया। जो मैं बचपन से पहनती आ रही थी। मैंने जल्दी से कपड़े बदले, करधनी रूमाल में लपेट कर पर्स में रखी और मौसी को लिया, गाड़ी निकलवाई और शहर में जौहरी की दुकान ढूंढ़-ढांढ़कर बेच आई। अब मेरे पास जरूरत से ज़्यादा पैसा था। मौसी को बेचने की बात दुकान में काउंटर पर ही पता चली। दुकानदार की सशंकित नज़रें भी मैं देख रही थी। 

मौसी होटल पहुंचने तक बड़बड़ाती रही, ''यह तुमने अच्छा नहीं किया। मुझे पता होता तो कभी न करने देती।'' मैं उसे चुपचाप सुनती रही। बस मन में इतना ही आया कि, मेरे लिए उस करधनी का मतलब भी क्या था। जब घर के सारे गहने पहले ही बेच डाले थे तो एक इसी को क्यों रखती। डिंपू गाड़ी में आगे बैठा था, उस पर नज़र जाते ही मन में यह भी आया कि, मां-बाप के अलावा एक यही जानता था उस करधनी के बारे में। उन अंतरंग क्षणों में बदन पर तरह-तरह से उलटता-पलटता खेलता था उससे। चलो फुरसत मिली उससे भी। अब यह मेरे बदन पर किसी चीज से खेलकूद नहीं कर पाएगा। मैं एकदम निश्चिंत  थी। होटल के सारे पेमेंट वगैरह कर चल दी वापसी के सफर पर। 

मैंने वहां जितना दान-पुण्य, स्नान हो सकता था, वह सब किया, कुछ भी बचाया नहीं। डिंपू और उससे ज़्यादा गाड़ी के ड्राइवर को मैंने अपनी ओर बार-बार कनखियों से देखते पाया तो मैंने कह दिया, ''मैंने कोई आश्चर्यजनक काम नहीं किया है। मैं भी तो आखिर अपने मां-बाप की ही संतान हूं। लड़की हूं तो क्या आखिर हूं तो उन्हीं की औलाद।'' ड्राइवर मेरी इस बात पर हाथ जोड़ कर बोला, ''नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। भाग्यशाली हैं आप के मां-बाप जो उन्हें ऐसी संतान मिली।''

वह वास्तव में अब मुझ से डर गया था कि मैं कहीं लौटकर उसकी शिकायत न कर दूं। लेकिन उसकी भाग्यशाली वाली बात मुझे पिंचकर गई। काहे का भाग्य, भगवान की भूल या उनकी दी कोई सजा जिसका परिणाम थी मैं। मेरे मां-बाप इसके कारण हर पल घुट-घुट कर मरते रहे। मेरे सामने ही देखते-देखते बीमारी से लड़ते-जूझते तड़पते उम्र से बहुत पहले ही मर गए। आखिर तक एक पल भी उन्हें चैन, संतोष की एक सांस नसीब नहीं हुई। मैं आखिर यह सब जो कर रही हूं यह उनके कुछ काम आएगा भी यह भला कौन जानता है। यह तो बस मन का एक विश्वास है। श्रद्धा है। और क्या। एक उस बात ने मेरा मन बड़ी देर तक कसैला कर दिया। लेकिन लखनऊ वापस घर पहुंच कर एक संतोष था। कि मैंने जो चाहा पूरा कर दिया। मौसी रास्ते से लेकर घर तक न जाने कितनी बार आशीर्वाद देती रही, आभार जताती रही कि, ''बिटिया तुम्हारी वजह से हम अपने आदमी का तर्पण ''गया'' में करवा पाए। हमने तो कभी सोचा भी नहीं था। आने के बाद सब ने दो-तीन दिन यात्रा की थकान उतारी।

छुट्टियां पहले ही काफी खतम हो चुकी थीं इसलिए चौथे दिन ऑफ़िस पहुँच गई। वहां वह पूरा दिन लोगों के तरह-तरह के प्रश्नों के उत्तर देते ही बीता। किसी ने हिम्मत की दाद दी, किसी ने सराहा। किसी ने कहा ''औलाद हो तो ऐसी।'' तो सुनने में यह भी आया कि ज़्यादातर ने कहा ''अरे! पगलिया है पगलिया।'' किसी ने कहा, ''अपने बौनेपन की कुंठा मिटाने का उसका तरीका है।'' पलभर में ही यह बातें दिल को चीरती चली गईं। लेकिन ऐसी और न जाने कैसी-कैसी बातों की आदी तो मैं बचपन से ही हो गयी थी। सो पलभर के दर्द के बाद सब सामान्य हो गया।

आने के हफ्ते भर बाद ही चित्रा आंटी, मिनिषा अमरीका यात्रा की तैयारियों को लेकर कुछ बात करने घर आ गर्इं। मां-बेटी मुझे देखते ही एकदम आवाक् सी रह गर्इं। आंटी बोलीं, ''तनु तुमने ये क्या किया?'' मैंने पहले उन्हें बैठने को कहा फिर सारी बात बता दी तो उन्होंने अफसोस करते हुए कहा, ''ओह! मुझसे गलती हुई, तुमसे उसी समय बात करनी चाहिए थी। अब अमरीका जाने के लिए वक़्त ही कितना बचा है।'' फिर आंटी ने तमाम बातें कहीं जिनमें अफ़सोस गुस्सा दोनों झलक रहा था। जिनसे मुझे भी थोड़ी झुंझलाहट हो रही थी। फिर भी माहौल को हल्का करने की गरज से मैंने कहा, ''आंटी कुछ पेंटिंग्स इस लुक में भी बना डालिए।'' वह इस बात पर एक उड़ती नजर मुझ पर डालकर बोलीं, ''तुम समझ पा रही हो तनु तुमने क्या कर डाला। खैर देखते हैं कैसे मैनेज किया जाए।''

दोनों के जाने के बाद मैंने सोचा कि दोनों इतना पैसा खर्च कर रही हैं। मेहनत कर रही हैं। मुझे ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अब तो कुछ नहीं हो सकता। वैसे प्रदर्शनी में मेरे जाने का कोई मतलब है। पता नहीं आंटी मुझे क्यों ले जाना चाहती हैं। यह सनसनी पैदा करने का उनका एक तरीका भी हो सकता है। कुल मिलाकर मैं बड़े तनाव में आ गई। मौसी  ''गया'' से आने के पांच-छः दिन बाद ही अपने बच्चों के संग कुछ दिन के लिए गांव चली गई थी। उन के जाने के बाद खाना-पीना सब होटल से मंगवाती थी। डिंपू ले आता था। मौसी के आने के बाद किचेन में जाने का मन ही नहीं करता था। 

उस दिन आंटी की बातों से मन बहुत खराब हो गया था। मौसी ने शाम  को अगले दिन आने की सूचना दी थी। उस रात को डिंपू को मैंने साथ सोने के लिए फिर अपने कमरे में बुला लिया था। वह इस रिश्ते ही के कारण तो उस करधनी के बारे में जानता था। उसके साथ यह रिश्ता मां की मौत के डेढ़ दो बरस बाद ही बन गया था। जब यह रिश्ता बना था तो उसके कुछ महिने पहले ही मैं इसी डर से उसे निकालकर बुजुर्ग ड्राइवर रखने की सोच रही थी कि घर में अकेले उसके साथ रहते ऐसा कुछ न हो जाए। लेकिन जो डर था आखिर वह हो ही गया और मौसी भी यहां आने के कुछ समय बाद ही यह जान गई थीं। 

डिंपू से पहली बार जब रिश्ता बनाया था, वह आज भी ज्यों का त्यों याद है। हर तरह से हैरान परेशान मैं, काटने को दौड़ता घर और भावनाओं के ज्वार के चरम पर पहुंचने पर उसे बुला लिया था कमरे में। कई बार कहने पर भी उसे हिचकते देख कर मैंने उसका हाथ पकड़ कर बैठाया था बेड पर।

फिर दो मिनट भी खुद को रोकना मुश्किल हुआ था। मुझे ऐसा लगा था कि डिंपू को सहारा बनाने में कोई खतरा नहीं है। मैंने वैसे ही अपने में समा लिया था उसे। उसने मुझे नाजुक फूल सा ऐसा संभाला था कि, मैं सुध-बुध खो बैठी थी। पहली बार की आक्रमता, उतावलापन कहीं कुछ नहीं था। वह इतना मैच्योर, इतना समझदार होगा इसकी मुझे कल्पना भी न थी। 

उस पूरी रात मैंने उसे अपने साथ रखा था। फिर यह सिलसिला चल निकला था। उसके साथ ने मुझे इतना प्रभावित किया कि, मैंने बीच-बीच में कई बार सोचा कि बना लूं इसे अपना जीवन साथी। कब तक छिपती-छिपाती रहूंगी। मगर यह सारा सपना पलक झपकते टूट कर बिखर जाता। ज्यों ही अपनी हालत का ख़याल आता। फिर एक दिन तयकर लिया कि, जब-तक चल रहा है ऐसे तब-तक चलाऊंगी, नहीं तो जो होगा देखा जाएगा। फिर मैंने एक सीमा बना ली कि, जब मैं चाहूंगी तभी डिंपू मेरे कमरे में आ सकेगा। मुझे पा सकेगा नहीं तो नहीं। उसने एक दो बार जब मुझे मेरी इच्छा के खिलाफ भी पा लिया तो, अगले दिन उसके साथ किसी और बहाने से बड़ी सख्ती से पेश आई। 

गीता का सहारा ले कर उसे इतना टाइट किया कि उसकी आत्मा भी कांप उठी। फिर तो वह उस मशीन की तरह हो गया जो सिर्फ़ मेरे इशारे पर सक्रिय होती। ऐसी मशीन जिसे मैं अपनी सुविधानुसार प्रयोग करती। मौसी भी उससे बराबर सतर्क रहने और इसका ध्यान रखने की सलाह देना न भूलती कि बच्चे-वच्चे का ध्यान रखना। वह भी धोखे से उस रात आ पहुंची थी कमरे में जब मैं डिंपू के साथ थी। उस रात सालों बाद घर में मैं और डिंपू ही थे। तो मुझे मशीन की जरूरत पड़ी और मैंने बुला लिया था रात-भर के लिए कमरे में।

अगली सुबह ऑफ़िस जाने के लिए बेमन से तैयार हो रही थी। मौसी के दोपहर तक आने की सूचना थी। कमरे में कपड़े पहन रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी। मन खिन्न था सो फ़ोन रिसीव नहीं किया। कपड़े पहन चुकी थी कि तभी घंटी फिर बजी, यह सोचते हुए मैंने फ़ोन उठा लिया कि कहीं मौसी का फ़ोन तो नहीं है, उसका प्रोग्राम चेंज हुआ हो। घर जाने के बाद वह अक्सर यही करती हैं।

फ़ोन उठाते ही उधर से पांच-छः वर्ष  के बच्चे की आवाज़ आई, ''पापा कहां हो?'' मैंने कहा, ''पापा....यहां कोई पापा नहीं हैं।'' उसके पीछे भी कोई बच्ची बोल रही थी, वह फिर बोला, ''पापा से बात करनी है। मम्मी को चोट लग गई है। रो रही हैं।'' तो मैंने कहा, ''पापा का नाम क्या है?  तो उसने कहा, ''देवेंद्र....सुनते ही मुझे एक झटका सा लगा। देवेंद्र... उसकी तो शादी ही नहीं हुई है। उससे बार-बार पूछा तो उसने यही बताया। कंफर्म हो जाने पर कि देवेंद्र शादी-शुदा है कई बच्चों का पिता है, मेरा खून खौल उठा।

मैं चीख पड़ी डिंपू...वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया। मेरे तमतमाए चेहरे को देख सहमता हुआ बोला, ''जी...मैंने कहा, ''लो.. अपने बेटे से बात करो। तुम्हारी बीवी को चोट लगी है।'' मेरी बात सुनते ही उसे काटो तो जैसे खून नहीं। बीवी के घायल होने की सूचना और झूठ पकड़े जाने की एक साथ दोहरी मार से वह पस्त हो गया। रिसीवर लेकर हां हूं में कुछ बात की और फ़ोन रख दिया। उसके फ़ोन रखते ही मैं दांत पीसते हुए चीखी। ''कमीने, धोखेबाज, नीच इतने सालों से ठगता रहा है मुझे, लूटता रहा है मुझे। 

झूठ बोलता रहा कि मेरी शादी नहीं हुई। मेरा गुस्सा देखकर वह हाथ जोड़कर माफी मांगने लगा। मगर मैं आपे से बाहर हुई तो हो गई। कहा, इसके पहले कि मैं पुलिस बुलाकर चोरी, रेप आदि के केस में तुझे अंदर करा कर तेरी ज़िंदगी जेल में सड़ा दूं। तू अपना टंडीला बटोर कर चला जा यहां से। दोबारा मेरी नजरों के सामने मत पड़ना। वह डर के मारे कांप रहा था। गीता से उसकी आत्मा पहले ही कांपती थी। जब वह चला गया तो मैं अपने कमरे में पड़ी रोती रही।

मैं इस तरह ठगी जाऊंगी इसकी कल्पना भी न की थी। ऑफ़िस नहीं गई और कुछ खाया-पिया भी नहीं। दोपहर होने तक मौसी आ गई। उसने मेरी सूजी आंखें, चेहरा देखा तो बच्चों को ऊपर भेज चिपका लिया अपनी छाती से। जैसे कभी मां चिपका लिया करती थी। मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। सब बता दिया उन्हें जिसे सुनकर वो भी अचंभे में पड़ गर्इं। ''अच्छा किया निकाल दिया। कमीने की नजर मुझे कभी अच्छी नहीं लगी।'' करीब तीन बजे शाम को उन्होंने खाना बनाया तब उनकी बड़ी जिद के बाद थोड़ा सा खाया। 

मैं अगले तीन-चार दिन ऑफ़िस नहीं गई। मौसी जाती रही। तबियत खराब होने की सूचना भेज दी थी। दो दिन बाद मुझे एक और दिल दुखा देने वाली खबर अखबार में मिली कि, मिनिषा के फादर सहित कई और आला अफ़सर अनियमितताओं के चलते निलंबित कर दिए गए हैं। मतलब साफ था कि अमरीका यात्रा कैंसिल। मेरे अनाथालय वाले प्रोजेक्ट पर भी असर पड़ना था। जल्दी-जल्दी इन दो आघातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं एकदम अपने खोल में सिमटकर रह गई। मगर अनाथालय के काम पर रेंगती ही सही बढ़ती ही रही। 

एक-एक कर बाधाएं पार करती गई। और जीवन के छः.साल और पार कर गई। इस बीच मौसी का बेटा ग्रेजुएशन के दौरान ही संयोग से सिपाही भर्ती में  सफल हो गया। फिर उसकी शादी हो गई और वह अपनी तैनाती वाले जिले में रहने लगा। लड़की पढ़ने-लिखने में तो तेज नहीं थी लेकिन इश्कबाजी के चक्कर में पड़ गई तो मौसी ने गांव में ही खाता-पीता घर देखकर उसकी शादी कर छुट्टी पा ली। मतलब सब अपनी-अपनी राह लग गए थे लेकिन मैं अधर में थी। मौसी भी। अब बार-बार रिटायरमेंट के बाद लड़के के पास जा कर रहने की बात करने लगी थी। 

दुनिया भर की कोशिशें करके मैंने घर के सन्नाटे, जीवन के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश में जो सब को इक्ट्ठा किया था, सब एक-एक कर मुझे उसी हाल में छोड़ चले गए। 

अब बची थी तो सिर्फ़ मौसी। जिसके रिटायरमेंट के दो साल रह गए थे। जिसका बेटा बार-बार नौकरी से मुक्ति पा लेने के लिए दबाव डाल रहा था। मौसी बड़ी भाग्यशाली थी। अपने बेटे का गुण बता-बता का निहाल हो जाती थी। मगर अब तक किसी हालत में हार न मानने की मेरी आदत पड़ चुकी थी। सो अनाथालय खोलने का एक समयबद्ध कार्यक्रम बना डाला कि, जिस दिन मौसी रिटायर होगी उसी दिन अनाथालय खुलेगा। मौसी ही उसका उद्घाटन करेगी। फिर बेचने के लिए जो प्लाट था उसे बेचकर फंड इकट्ठा किया। जी-जान से समय रहते अनाथालय तैयार कर लिया। इस बीच गीता ने जिस ड्राइवर को डिंपू के बाद भेजा था उसने वाकई निस्वार्थ बड़ी सेवा की। 

मौसी ने, उसके बेटे ने जो मदद की वह तो खैर असाधारण थी। एक बार गिरने से हाथ टूटने पर उसने जो सेवा कि उसे भुला नहीं सकती। आखिर वह दिन भी आया जब मौसी रिटायर हुई और मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अपलीकेशन दे आई। मौसी ने उद्घाटन किया। उसके बेटे-बेटी भी अपने बच्चों संग आए थे। उनके बच्चे मुझे बुवा-मौसी कहते थे। भविष्य में कोई परेशान न करे इसलिए गीता, चित्रा आंटी आदि की मदद से पुलिस, ऑर्टिस्ट, मीडिया का मैंने बड़ा जमावड़ा किया था। ठीक उसी समय मैंने मौसी को अनाथालय का संरक्षक और उसकी बहू को अनाथालय से संबद्ध करने की घोषणा कर सबको अचंभित कर दिया।

मैंने अपना सपना पूरा करने के साथ-साथ इस बात की भी पुख्ता स्थाई व्यवस्था कर ली थी कि सन्नाटा अकेलापन मुझे फिर डराने न आए। अनाथालय के बच्चे, मौसी, उसके बच्चे, उन बच्चों के बच्चे सबको जोड़ दिया था। मैं खुश थी कि मैं अपने मां-बाप के नाम पर एक ऐसी संस्था खोल सकी जहां तमाम, अनाथ, अपाहिज, वंचित बच्चों को आसरा मिल सकेगा। उनको अच्छा भविष्य देने की नींव पड़ सकेगी।

हां एक सपना अभी अधूरा रह गया था। जिसे पूरा होने की उम्मीद अब कम थी। मगर मन में आशा का दीया टिम-टिमाता ही सही अब भी जल रहा था। पेंटिंग प्रदर्शनी का। मेरा, चित्रा आंटी और मिनिषा का संयुक्त सपना। अमरीका में मेरी न्यूड पेंटिंग्स की प्रदर्शनी का। अंकल रिटायर हो चुके थे। रिटायरमेंट से साल-भर पहले ही उनका निलंबन खत्म हुआ था। मिनिषा शादी कर दो बच्चों की मगर फिर भी बेहद खूबसूरत मां बन चुकी थी। मगर आंटी उस दिन, ''बोलीं तनु कोशिश में हूं जल्दी ही प्रदर्शनी भी आयोजित होगी।''  मैंने कहा, ''जरूर आंटी।'' सच कहूं तो मुझे भी अब इस प्रदर्शनी को लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्सुकता बन पड़ी है। देखें कब पूरी होती है, यह आखिरी इच्छा।

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                  करोगे कितने और टुकड़े

जिस विकट अंतर्द्वंद से आज गुजर रहा हूं, अपनी अब-तक की पचहत्तर साल की उम्र में पहले कभी नहीं गुजरा था। तब भी नहीं जब देश में आपातकाल लगाया गया। और तब भी नहीं जब उन्नीस सौ चौरासी के सिख दंगों के बाद एक एकेडेमी का अध्यक्ष होने के नाते एक लेखिका को पुरस्कार देने से मना किया। क्यों कि, वह उस पुरस्कार के योग्य नहीं थी। और कई प्रभावशाली नेताओं से बराबर दबाव डलवा रही थी। मैं उन सबसे बेहिचक एक पल गंवाए बिना कहता था कि, उसकी किताब इस योग्य भी नहीं कि किसी छोटी-मोटी एकेडेमी का उसे सांत्वना पुरस्कार भी दिया जाए।

उस लेखिका को यह गुरूर था कि सबसे पुरानी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का रूलिंग पार्टी के नेताओं का फ़ोन मुझे झुका देगा। कितने तो बड़े-बड़े स्वयंभू लेखकों के फोन आए थे। एक महोदय तो बिल्कुल भिड़ ही गए थे। तब मैंने गुस्से में आकर कह दिया था कि, ''महोदय आप उनकी पैरवी क्यों कर रहे हैं यह मैं खूब समझ रहा हूं। आप उनकी अयोग्यता के बावजूद उन्हें स्थापित करने की जिस तरह जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं वह भी समझ में आता है। वह जिस तरह आप को कंपनी देती हैं, जिस तरह आपके साथ ना जाने कहां-कहां समय बिताती हैं, जाती हैं उसके बाद तो आपके पास उनके लिए यह सब करने, उन्हें स्थापित करने के अलावा कुछ रह भी नहीं जाता।'' 

यह पूरा साहित्य जगत जानता है कि, आप किस तरह उनकी रद्दी में फेंकी जाने लायक ऊल-जलूल कहानियों को झाड़-पोंछ कर छापते आ रहे हैं। जो महिला अधिकारों के नाम पर अश्लीलता, फुहड़ता से भरी होती हैं। लेकिन आप पत्रिका का सर्वे-सर्वा होने, संपादक होने का पूरा फायदा उठाते हैं। आपने पत्रिका को न जाने कितनी अयोग्य लेखिकाओं को स्थापित करने का हथियार बना लिया है। उन सबसे आपके संबंध भी जगजाहिर हैं। आपकी इस मठाधीशी के कारण कितनी ही अच्छी लेखिकाएं समय से अपना स्थान नहीं बना पा रही हैं। कहीं अंधेरे में चली जा रही हैं। इन सक्षम उत्कृष्ट लेखिकाओं के साथ जो अन्याय आप कर रहें हैं, आने वाला समय आपको माफ नहीं करेगा। आपके कुकृत्य सामने आएंगे। आप एक ऐतिहासिक पत्रिका को भ्रष्ट अनैतिक आचरण का अड्डा बना चुके हैं।'' 

खीझ के कारण मैं उन्हें एक सांस में ही यह सब बोल गया था। और तब उस पत्रिका के संपादक बिफर पड़े थे। फ़ोन का रिसीवर पूरी ताकत से पटका था। लेकिन मैं तब भी जरा भी असहज नहीं हुआ था। बल्कि मुझे संतोष हुआ, मैं खुश हुआ कि मैं एक बहुत बड़े मठाधीश, जो बड़ा साहित्यकार भी है उसके प्रभाव में भी नहीं आया। कोई गलत निर्णय नहीं लिया। 

आपातकाल के समय तो मैंने और भी सहजता के साथ निर्णय लिया था। सरकार की तानाशाही के विरुद्ध तत्काल विरोध दर्ज कराने के उद्देश्य से पुरस्कार वापस कर दिया था। कहने को पुरस्कार राज्य सरकार का छोटा सा ही था। तब मेरा कद साहित्य जगत में कुछ ख़ास नहीं था। तब एक लेखिका ने भी यह किया था। लेकिन उन लेखिका और बाकी के विरोध में बड़ा फ़र्क था। वह शासक परिवार की सदस्या थीं। जब कि बाकियों के साथ ऐसा कुछ नहीं था। यह वह समय था जब कुछ भी बोलने वाला सीखचों के पीछे होता था। यातनाओं का दौर था। हत्याओं का दौर था। सरकार के खिलाफ बोलने वाला कहां गायब हो जाएगा, किस नदी नाले में मिलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता था। 

भय से आक्रांत सभी लोगों के मुंह में से जैसे जबान ही खींच ली गई थी। इसी लिए तब साहित्य की दुनिया से पुरस्कार वापसी की कतिपय घटनाओं के अलावा कहीं, कोई बड़ी हलचल नहीं हुई थी। ऐसे दौर में भी मेरा विरोध बिना समय गंवाए दर्ज हुआ था। भय नाम की कोई बात ही नहीं थी। मन में बस एक ही बात थी कि, यदि जान जाती है तो जाए। कम से कम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का प्रयास तो सुदृढ़ होगा। क्यों कि मेरा तब भी और आज भी यही मानना है, दृढ़ मत है कि कोई देश, समाज तभी तक सुरक्षित सुदृढ़ रहता है, विकास करता है, जब-तक वहां के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली रहती है। 

अनुभा तब बहुत घबराई थी। बोली थी कि, ''तुम  यह ठीक नहीं कर रहे हो। स्वनामधन्य सारे लेखक चुप हैं। तुम तो अभी नए-नए सिपाही हो, क्यों देश की खुंखार, निर्लज्ज तानाशाही से लोहा लेने में लगे हो। तुम्हें कुछ हो गया तो इन बच्चों का क्या होगा, मेरा क्या होगा, इन बच्चों को लेकर कहां जाऊंगी, हर तरफ डर इतना है कि, कोई साथ नहीं देता। परिवार भी नहीं। देखते नहीं बाबू जी, जेठ जी, मेरे भाई भी मना करने के लिए चल कर यहां तक आए। पत्र लिख कर या फ़ोन करने की भी हिम्मत नहीं कर पाए। वह सब डरे हुए थे कि, कहीं बीच में कोई देख, सुन न ले। 

तुम्हारे कितने मित्र भी तो आ आकर कह चुके हैं कि, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के काले दिन चल रहे हैं। समझदारी इसी में है कि अभी शांत रहो। उचित समय की प्रतीक्षा करो। एक दिन यह अंधेरा छंटेगा ही। सही समय आ जाए तब जो कहना हो कहना।''

तब मैंने अनुभा से कहा था कि, ''यह प्राण जाने के डर से घर के कोने में दुबक कर बैठने का समय नहीं है। सही समय तो तभी आएगा अनुभा जब इस गलत समय का चहुं ओर विरोध किया जाएगा। हो सकता है कई जानें  चली जाएं। लेकिन कोई भी तानाशाही कितनी भी क्रूर हो, धूर्त, मक्कार, चालाक हो, वह जनाक्रोश को दबा नहीं सकती। रूस, फ्रांस में जनता ने ही क्रूर शासकों को नेस्तनाबूद किया है।'' 

यह कहते हुए मैं यह भूल गया था कि मेरी पत्नी इतिहास की ही लेक्चरर है। उसने झट कहा, ''लेकिन अभी तो यहां जनाक्रोश जैसा कुछ दिख नहीं रहा है। तुम अकेले क्या करोगे? फिर तुम लेखक हो, जननेता नहीं, कि सड़क पर उतरो। फ्रांस के रूसो, वाल्तेयर की तरह पहले ऐसा लिखो कि जनाक्रोश पैदा हो। और जब जनाक्रोश पैदा हो जाएगा तो तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। जनता अपना काम स्वयं कर लेगी। 

तुम्हारी लेखनी से उसके भीतर उपजा आक्रोश उससे सब करा लेगा। और उससे पहले तुम अपना काम कर चुके होगे। देखो मैं तो यह कहती हूं कि लेखक को अपनी कलम, लेखन छोड़कर सड़क पर तभी आना चाहिए जब वह चुक गया हो। उसके लेखन में प्राण बचे ही ना हों । और अपना उत्तरदायित्व, अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उसके पास कोई विकल्प ही ना हो। मैं तो ऐसा नहीं समझती कि तुम्हारा लेखन चुक गया है। 

बर्तोल्त ब्रेख्त की तरह ऐसा कुछ क्यों नहीं लिखते कि, हिटलर की तरह यहां की तानाशाह भी हिल जाए। उसके पांव उखड़ जाएं। वह सही रास्ते पर आ जाए। तुम ये क्यों भूल रहे हो कि, नेपोलियन बोनापार्ट जैसा सेना नायक, शासक भी लेखन, अखबार से घबराता था। यह सब जानते हुए तुम एक चुके हुए लेखक वाली हरकत क्यों कर रहे हो? कल को तुम्हारा लेखक समूह ही तुम्हें धिक्कारेगा, तुम्हारी खिल्ली उड़ाएगा। कोई तुम्हारे साथ खड़ा नहीं होगा।''

तब मुझे पत्नी की बातें बड़ी तीखी लगी थीं। मुझे लगा कि, बाहर कोई आलोचना करे या ना करे, घर में पत्नी ने पहले ही कर दी है। कहते हैं  ''निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाए।'' मैं तो इस मामले में बहुत आगे निकल गया हूं। मैंने तो ''निंदक नियरे राखिए आंगन पत्नी बनाए।'' जैसी नई धारा शुरू की है। अपने इस आलोचक की आलोचना से तब मैं काफी विचलित हो गया था। मेरा निर्णय हिल उठा था। लेकिन किसी तरह मैंने अपने को संभाला था। 

अपने निर्णय का बचाव करते हुए तर्क दिया था कि, ''देखो अनुभा मुझे लगता है कि, तुम अपनी जगह सही हो। मेरी और बच्चों को लेकर तुम्हारी चिंता उचित हो सकती है। लेकिन मेरी बात, मेरी स्थिति को भी समझने का प्रयास करो। मैं अभी चुका नहीं हूं। मेरे लेखन की आग तो अभी धधकनी शुरू ही हुई है। लेकिन कई निर्णय परिस्थितियों को देख कर लिए जाते हैं। आपातकाल का यह अंधियारा देश में देखते ही देखते आ गया है। लेखन के जरिए जनाक्रोश पैदा करना, उसे दिशा देने के लिए अभी पर्याप्त समय नहीं है। तात्कालिक ज़रूरत यह है कि, तुरंत ऐसा कुछ किया जाए कि इस तानाशाही के अत्याचार के खिलाफ तुरंत आग भड़क उठे। 

वह इतना तेज़ी से धधके कि, तानाशाह की काली दुनिया उसमें भस्म हो जाए। जनता को उसका अधिकार मिले। वह खुली हवा में सांस ले सके। देखती नहीं हो संविधान में प्रदत्त सारे मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया है। अब प्रतीक्षा का कोई कारण दिखता ही नहीं। इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि मेरा क़दम उचित है। वह मेरे चुकने का प्रतीक नहीं है। हो सकता है मेरा यह क़दम बेहद छोटा होए सूक्ष्म हो लेकिन शुरुआत तो होगी। दावानल की शुरुआत भी तो चिंगारी से ही होती है। 

मेरा कदम शोला भले ही न साबित हो। लेकिन चिंगारी तो निश्चित ही साबित होगा। जन को जगाने के लिए पहले चिंगारी ही की ज़रूरत है।'' मेरी बातों या यह कहें कि मेरी जिद के आगे पत्नी शांत हो गई। और मैं बिना किसी संशय, बिना किसी अनिर्णय की स्थिति का सामना किए बेधड़क पुरस्कार वापस कर आया था।

यह अलग बात है कि, तब चिंगारी, चिंगारी ही बन कर रह गई थी। आपातकाल जैसी काली दुनिया में भी तरह-तरह के पुरस्कार प्राप्त लेखक, रंगकर्मीं, चिंतक, फ़िल्मकार, समाज सुधारक या तथाकथित समाज-सेवी नहीं जगा। विरोधस्वरूप पुरस्कार वापस करने वालों की वैसी भीड़ नहीं जुटी जैसी आज जुटी है। 

मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बड़ा अचंभा हो रहा है कि आज देश में ना तो आपातकाल है। वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे जैसी कोई बात ही नहीं है, बल्कि आज तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का जैसा प्रयोग हो रहा है, वह इस अधिकार के दुरुपयोग का जीता जागता उदाहरण है। स्वच्छंदता है। सत्ता अपनी पसंद की नहीं है तो उसे उखाड़ फेंकने  के लिए एक ऐसा क्षद्म वातावरण तैयार करने की कोशिश हो रही है, मानो स्थिति आपातकाल से ज्यादा भयावह हो। 

अभी तुरंत कुछ न किया गया तो देश नष्ट हो जाएगा। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे हर तरफ कत्लेआम मचा हुआ है। लेखकों, कलाकारों, चिंतकों, समाज सुधारकों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। जिन एक दो घटनाओं को आधार बनाया गया वह भी गलत निकलीं। षड्यंत्र निकलीं। 

यदि कोई लेखक, समाज सुधारक वर्ग विशेष को अपमानित करने, अपनी प्रसिद्धि और बहुत बड़े सुधारकों की श्रेणी में शामिल हो जाने के शार्ट-कट के रूप में सिर्फ एक समुदाय विशेष को बराबर अपमानित करता रहेगा। हद यह कर दे कि, खुलेआम मंचों से बार-बार समुदाय विशेष के आस्था के केंद्र, उसके भगवान की मूर्ति पर पेशाब करने की बात कहेगा तो क्या कठोर प्रतिक्रिया नहीं होगी? क्या यह मानवीय स्वभाव नहीं है कि जिसकी आस्था, जिसके भगवान की मूर्ति पर पेशाब करने की बात बार-बार जो करेगा उसके खिलाफ कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी? आखिर किसी मूर्ति पर पेशाब करने की बात करके कौन सा समाज सुधार किया जा सकता है? यह कैसी प्रगतिशीलता है? यह कैसी सभ्यता है?

इसे जाहिलियत से बढ़ कर किसी बर्बर, उजड्ड जंगली आतताइयों सरीखा कार्य नहीं कहा जाएगा क्या? जैसे अतीत में तमाम बर्बर जातियां आती थीं और छल-छद्म से हमला कर मूर्तियां तोड़तीं थीं। पैरों तले कुचलती थीं। लेकिन यहां तो जाहिलियत उससे आगे निकल गई है। सीधे पेशाब करने की बात की जा रही है।

हंगामा करने वाला समूह बजाय इसकी आलोचना करने के इसे और बढ़ावा दे रहा है। और मीडिया के लिए तो खैर यह हॉट केक है ही। ऐसा हॉट केक जिससे उनकी टी.आर.पी. आसमान छूने लगे। कोई अभी तक इस बिंदू पर बात ही नहीं कर रहा कि, मूर्तियों पर पेशाब करने की बात करने वाले जिन लेखक की मृत्यु हुई, उन्हें किसने मारा इसका पता ही नहीं है। 

बस आंख मूद कर मूर्ति पूजक समूह पर बिना किसी प्रयास के आरोप लगा कर बखेड़ा खड़ा कर दिया गया। इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि, जिस राज्य में लेखक दिवंगत हुए उस राज्य में सबसे पुरानी पार्टी की सत्ता है। जिससे लेखक सुरक्षा देने की याचना करता रहा लेकिन सत्ता सोती रही। इस मनसा के साथ कि, कुछ घटे तो फायदा उठाया जाए। करेगा कोई भी नाम उसी मूर्ति पूजक समूह पर ही लगेगा। सत्ता की इस असफलता, धूर्तता पर एक शब्द नहीं बोला जा रहा। 

हवा में तैरती इन बातों की तरफ भी कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि, एक समूह यह कह रहा है, कि हालात का फायदा उठाने के लिए ही पार्टी विशेष ने ही लेखक की जान ली है। कि लेखक ऐसी बातें कर रहा है, ऐसे में शक सीधा मूर्ति पूजकों पर ही जाएगा। इससे बने माहौल से केंद्र की सत्ता उखाड़ी जा सकेगी। 

इस बात का भी कोई जवाब नहीं कि, राज्य सत्ता जानबूझ कर हत्यारे या हत्यारों को गिरफ़्तार नहीं कर रही जिससे कि ज़्यादा से ज़्यादा फायदा उठाया जा सके। ऐसे बनावटी धोखा-धड़ी से खड़ी की गई समस्या के पक्ष में बल्कि यह कहें कि, उसे और बड़ी और विराट रूप देने के लिए योगदान करने हेतु मुझ पर यह वर्ग दबाव डाल रहा है। 

महीने भर से रात-दिन यही कहा जा रहा है कि यही सही समय है तानाशाह को उखाड़ फेंकने का। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि, जिसे तानाशाह के नाम पर शैतान कहा जा रहा है, उसे तो दुनिया में लोकतंत्र के बड़े-बड़े अलंबरदार शासक देश भी हाथों-हाथ ले रहे हैं। उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछा रहे हैं। उसे अपने यहां आमंत्रित कर रहे हैं। उसे उदारमना सशक्त शासक कह रहे हैं। मुझसे कहा जा रहा है कि, आप इस समय एक बड़ी प्रभावशाली एकेडेमी के अध्यक्ष हैं, उस पद से इस्तीफा दे दें। अपने सारे अवॉर्ड वापस कर दें। 

अब आपको इनकी ज़रूरत भी क्या है? इन्हें अलमारी में रखे रहने का कोई मतलब है क्या? अरे फायदा तो यह है, इनकी अर्थवत्ता तो यह है कि इन्हें विरोध प्रदर्शित करते हुए वापस कर दें। इससे एक बार आप फिर चर्चा में आ जाएंगे। मीडिया में छा जाएंगे। वैसे भी अब ना आपकी कोई रचना आनी है, न कोई अवॉर्ड मिलना है। दो महीने बाद ही इस एकेडेमी से भी रिटायर हो जाएंगे। यह सत्ता आपको कहीं कुछ बनाने वाली नहीं। 

इन लोगों से मैं कैसे कहता कि, धूर्तता पाखंड मेरी फितरत में नहीं है। मेरे आचरण में नहीं है। जीवन के पचहत्तर साल सिद्धांतों पर चलकर ही बिताए हैं। हालात जैसे बताए जा रहे हैं, उसकी छाया भी होती तो भी मैं चुप नहीं बैठता। 

मेरा लेखक मन मेरा अंतर्मन इस षड़्यंत्री लेखक, कलाकार चिंतक समूह को लेकर बहुत व्यथित है। बहुत चिंतित है कि जब इनकी धूर्तता का मुखौटा समय उतार देगा, तब ये समय, समाज, देश-दुनिया को क्या मुंह दिखाएंगे, किस मुंह से सामना करेंगे ये इन सबका। ये मुझे जिस तरह खत्म हुआ कह रहे हैं, सच तो यह है कि यह सब खुद चुके हुए हैं। ना जाने कितने वर्षों से इन सबकी न तो कोई रचना आई है, न कोई काम आया है। ना कोई विचार। 

एक विचारधारा के कट्टर अनुयायी, इन लोगों को यह पता है कि, सत्ता की विचारधारा दूसरी है तो इन्हें मलाईदार कोई पद भी नहीं मिलने वाला। यह सब करने पर गैर ज़िम्मेदार शक्तियां, विरोधी शक्तियां हाथों-हाथ लेंगी। पूरी संभावना है कि, इस समूह पर विदेशी शक्तियां कुछ थैलियां उछालने लगें । और इन्हें मलाई चाटने को मिल जाए। जैसे तमाम विदेशी ताकतें यहां के तमाम तथाकथित समाज सेवकों, समाजसेवी संस्थाओं को पैसा देती हैं, कि हर सरकारी योजनाओं को पर्यावरण, मानवाधिकार के नाम पर रोक सकें। इसमें वे बड़े स्तर पर सफल भी हो रही हैं।

मुझे चुका हुआ या अपनी तरह पलिहर वानर समझने वाला यह समूह यह बताने तक का समय नहीं दे रहा है कि, मेरा पांच खंडों में करीब डेढ़ हज़ार पृष्ठों का उपन्यास, ''करोगे कितने और टुकड़े'' बस पूरा ही हो चुका है। जिसे मैं डेढ़ दो महीने में छपने के लिए देने जा रहा हूं। जिसे लिखने में मैंने आठ वर्ष से ज़्यादा समय लगाया है। 

पता नहीं इन पलिहर वानरों को क्यों यह समझ में नहीं आता कि खुशवंत सिंह पिचानवे वर्ष से ज़्यादा की उम्र तक लिखते रहे हैं, आखिरी उपन्यास इस उम्र में लिखा। मैं तो अभी पचहत्तर का हुआ हूं। और पूर्णतः सक्रिय हूं। सक्षम हूं। अभी बहुत सा लेखन मुझमें बाकी है। इसी लिए मेरे पास षड़्यंत्र, अवसरवादिता के लिए समय क्या, सोचने का भी समय नहीं है। यदि ऐसी स्थिति बनेगी तो मैंने आपातकाल में जैसा क़दम उठाया था वैसा क़दम उठाने से नहीं हिचकूंगा। मगर हालात कुछ ऐसे हों तब ना। 

मुझे अपने लेखक होने के कर्तव्यों का सरोकारों का पूरा ज्ञान है। भटके हुए तो तुम लोग हो, चुके हुए तो तुम लोग हो। तुम्हारे कृत्य कुकत्य हैं। देश, देशवासियों के साथ घात है। तुम सब के कारण मैं महिने भर से कैसे अंतरद्वंद से गुजर रहा हूं वो तुम्हें क्या बताऊं, अनुभा से भी यह सब अब मैं नहीं कहता क्यों कि अब वह हृदय रोगी है, तनाव में ना आए। तनाव उसके लिए जानलेवा है। अकेले ही तुम्हारे षड़्यंत्रों के चलते परेशान हूं। चिंता के कारण सो नहीं पा रहा हूं। 

सोता हूं तो बार-बार एक ही सपना दिखाई देता है। कि एक विशाल श्वेत रथ पर, धवल श्वेत वस्त्रों को धारण किए भारत माता चली आ रही हैं। क्रोध के कारण उनके नयनों से अंगारे बरस रहे हैं। वह मुझ से प्रश्न पर प्रश्न पूछ रही हैं। मेरे दायित्वों के निर्वहन के बारे में पूछ रही हैं। 

उनके रथ में जुते सातों शेर केसरिया रंग के हैं, क्रोध से वे भी गुर्रा रहे हैं। रथ के शिखर पर रक्तवर्ण की विशाल पताका भयानक रूप से फड़-फड़ करती हुई ऐसे लहरा रही है, मानो भयंकर तुफानी हवाएं चल रही हों। वे रोज मेरे सपने में आकर पूछती हैं कि, जब यह हुआ तब तुम लेखक-गण कहां मटरगस्ती कर रहे थे, जब यह हुआ तब क्यों सो रहे थे, जब यह हुआ तब क्या लिखा, जब यह हुआ तब क्या वापस किया, उनके एक भी प्रश्न का मेरे पास कोई संतोष जनक उत्तर नहीं होता है। 

जब उत्तर नहीं दे पाता तो भारत माता बहुत नाराज होती हैं। अपना क्रोध प्रदर्शित करती हुई अंतरध्यान हो जाती हैं, अगले दिन आने के लिए। मेरा अगला चौबीस घंटा यह अनुमान लगाने में निकलता है कि, भारत माता का अगला ज्वलंत प्रश्न क्या होगा? उसका मैं क्या उत्तर दूंगा? इसके दूसरी तरफ तुम सबके फ़ोन, तुम्हारे संदेश, तुम्हारे हरकारे  आकर मुझे परेशान करते हैं कि मेरा निर्णय क्या है? मैं अपने अवॉर्ड कब वापस कर रहा हूं। मैं उन उजड्ड हरकारों को क्या बताऊं कि, मैं भेड़-चाल में चलने वाला नहीं हूं। कुंए में गिरी एक भेड़ के पीछे-पीछे आंख मूंद कर उसमें गिरने वाली भेड़ों की तरह नहीं हूं। 

एक-एक तथ्य आंकड़ों का विश्लेषण करता हूं, फिर निर्णय लेता हूं कि क्या करना चाहिए। इस समय भी तुम सब द्वारा की जा रही हरकतों, बातों का निरंतर विश्लेषण कर रहा हूं और निर्णय लेने के करीब हूं कि तुम सबके साथ रहूं, या उस वर्ग के साथ जो तुम्हारे काम को देश के साथ किया जाने वाला घात कह रहें हैं। रैलियां निकाल रहे हैं। जैसे ही यह निर्णय ले लूंगा। वैसे ही जो क़दम उठाना होगा वह उठाऊंगा। पल भर का भी समय नहीं लगाऊंगा। मेरा ज़्यादा समय तो अभी भारत माता के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने में लगता है। वास्तव में उन प्रश्नों के मैं जो उत्तर दे पाऊंगा उन्हीं के आधार पर ही मेरा निर्णय आएगा। मैं तय कर पाऊंगा कि मुझे क्या करना है। 

भारत माता का पहला प्रश्न वास्तव जितना मेरे लिए है उतना ही तुम सबके लिए भी है। बल्कि मैं यह कहूंगा कि, मुझसे ज़्यादा तुम सबके लिए, क्यों कि अवॉर्ड को हथियार बनाकर अपने निहित स्वार्थों के लिए क्षद्म वातावरण तुम सबने बनाया है। मैंने नहीं। तुम सबने पलभर को यह नहीं सोचा कि तुम्हारा यह छल-कपट, स्वार्थ देश को गर्त में ले जाने का काम करेगा। करेगा क्या बल्कि कर रहा है। 

पड़ोसी देश यह सब देखकर कैसे खुशी से झूम रहा है कि, जिस काम को अरबों रुपए खर्च कर, चार युद्ध कर के, दशकों आतंकी कारवाई में लाखों को मौत के मुंह में धकेल कर वह ना कर सका, अपने षड़्यंत्र से वह कुकृत्य करने में तुम सब ने कुछ दिन में ही सफलता पा ली। जो काम वह आधी सदी से नहीं कर पा रहा था उसे तुमने चंद दिनों में थाल में सजा कर उसे दे दिया। घर के चोर को कौन रखा सका है। आस्तीन के सांप, भितरघाती गद्दार कुछ समय के लिए तो सफल हो ही जाते हैं। 

भारत माता का पहला प्रश्न ही यही है कि, ''तुम सब की अंर्तआत्मा तब कहां थी, सक्रियता तब कहां थी जब तुम्हारे ही देश के तुम्हारे ही भाई-बंधु कश्मीरी पंडितों का बरसों कश्मीर में कत्लेआम होता रहा। समूह के समूह काट डाले गए। गोलियों से भून दिए गए। जिंदा जला दिए गए। धर्म बदल दिया गया। जो ना माना उसके परिवार सहित टुकड़े कर दिए। स्त्रियों की इज्जत तार-तार होती रही। सरकार की ज़िम्मेदारी उठाने वाले डुगडुगी बजाते रहे। 

ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए जो सख्ती, सक्रियता दिखाई गई यदि उसकी आधी भी बर्बर आतंकियों, भाड़े के गुर्गों के खिलाफ दिखाई जाती तो कश्मीरी पंडितों से पूरा कश्मीर खाली ना हो जाता। लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित अपने ही देश में दशकों से शरणार्थी का नारकीय जीवन ना जी रहे होते। पूरी कश्मीरी अर्थव्यवस्था का कभी सर्वेसर्वा रहा यह समुदाय शरणार्थी कैंपों में कुछ किलो अनाज के लिए लाइन में खड़ा ना दिखता, धक्के ना खा रहा होता। 

सही तो यह है कि इनके साथ पूरी कश्मीरी सभ्यता धक्के खा रही है। क्यों कि इनके बिना तो कश्मीरी सभ्यता है ही नहीं। उसका असितत्व ही नहीं है। कोई सभ्यता अपनी जड़ से कटकर कहां पूर्ण रह पाई है। कश्मीरी पंडित कश्मीरियत की जड़ हैं। तना हैं, कली हैं, फुल हैं, पत्ती हैं। इनके बिना इस सभ्यता की कल्पना भी मूर्खता है। इस सभ्यता को बचाने के लिए, इनके साथ हो रही इस अमानवीय, बर्बर ज़्यादती के खिलाफ तब से लेकर अब तक तुम सब ने क्या किया? तुम सबने कितनी बार यह कहा कि इनके अधिकार इन्हें मिलें। इनका घर बार इन्हें वापस मिले। क्या ये भारतीय नहीं हैं। क्या संविधान में इनके लिए कोई मौलिक अधिकार नहीं है। तुम सब ने कितनी बार इन सबके लिए कुछ बोला, किया, लिखा।''

भारत माता की इन बातों के सामने मैं निरुत्तर था। सच तो यही था कि कभी कुछ किया ही नहीं। कश्मीरी पंडित समूहों में मारे जाते रहे और मैं भी शांत रहा। कोई जुंबिश तक ना हुई। आज-तक भी कुछ नहीं किया। 

डेढ़ हज़ार पृष्ठों का उपन्यास लिख डाला। ना जाने कितनी कहानियां लिख डालीं। कितने व्याख्यान दे डाले। लेकिन अपने इन देशवासियों के लिए कुछ ना बोला, डेढ़ पन्ने भी न लिखा। आज तक सोचा भी नहीं। दिमाग में बात तक नहीं आई। एक लेखक होते हुए भी अपनी ज़िम्मेदारी से, समाज, देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मैं विमुख रहा। सही मायने में मेरा यह एक गैरज़िम्मेदाराना, लापरवाही भरा कृत्य नहीं, अक्षम्य कुकृत्य है। 

मैंने भारत माता के समक्ष नतमस्तक हो अपनी अक्षम्य गलती के लिए क्षमा मांगी। और मां ने माफ कर दिया। आखिर वह मां है। भारत मां है। जिसने अपने टुकड़े करने वाले सत्तालोलुप स्वार्थियों को भी माफ कर दिया था। मेरे पश्चाताप के आंसू निकलने लगे थे। तभी मां का हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा और वह अंतरध्यान हो गईं। मेरी नींद खुल गई। उठकर बैठ गया। सामने दिवार पर लगी घड़ी में देखा एक बज रहे थे। अनुभा सो रही थी। तभी मेरा ध्यान अपनी आंखों की ओर चला गया, साथ ही हाथ भी। वह वाकई आंसुओं से भरी थीं। पल-भर में पूरा सपना आंखों के सामने चलचित्र सा चल गया। 

बेचैनी बढ़ी तो उठकर घर में ही टहलने लगा। घर बहुत बड़ा लग रहा था। यही घर तब छोटा लगता था जब सारे बच्चे यहीं थे। मगर पढ़ाई-लिखाई फिर कॅरियर जिसको जहां ले गया सब वहीं चले गए। लड़कियां ससुराल में खुश हैं। लड़के अपनी नौकरी, अपने परिवार के साथ अपने घरों में। और यह घर एकदम से बड़ा हो गया। इस बड़े घर में हम पति-पत्नी एकदम अकेले हैं। बहुत याद आती है बच्चों की। इस समय सब यहां होते तो अपनी यह व्यथा उनसे साझा करता। अपनी बेचैनी दूर करता। यूं व्यर्थ टहलता नहीं। काफी देर मैं यूं ही टहलता रहा और दोबारा पानी पी कर फिर बेड पर लेट गया। मगर नींद ना आई। बार-बार भारत माता के प्रश्नों का जवाब ढूढ़ता रहा। मुझसे बतौर लेखक कब-कब समाज देश के प्रति कहां गलतियां हुईं यही सोचता रहा। जब भोर होने को हुई तभी नींद लग गई।

मैं अगले पूरे दिन भीतर ही भीतर बहुत अशांत रहा। कई लेखकों के फोन आते रहे, कि आपकी क्या राय बन रही है। लोगों के बीच सोशल मीडिया पर भी चर्चा है कि आप पद से इस्तीफा दे रहे हैं। अवॉर्ड वापस कर रहे हैं। इन सब को मैं एक ही जवाब देता रहा। जो भी होगा समय पर सामने आ जाएगा। चिंता ना करें, मैं अन्याय के साथ कभी नहीं रहूंगा। अपना कर्तव्य निभाना अच्छी तरह जानता हूं।

घर पर भी अनुभा के साथ खाने पर अन्य बातें होती रहीं। रोज की तरह बच्चों से फ़ोन पर बातें भी कीं। नाती-पोतों, बच्चों की बातों में अपने को उलझाए रखने की कोशिश की। मगर सारी कोशिशों के बावजूद मन का एक छोर भारत माता के साथ जुड़ा रहा। वह रात भी पिछली रात सी बीती। 

भारत माता अपने भव्य रूप में सामने आईं। पहले ही की तरह पूरे क्रोध में थीं। उनके एक हाथ में देश का संविधान था। उसे मुझे दिखाते हुए कहा, ''जब यह पवित्र संविधान बना तब भी कई स्वार्थी लोगों ने अपना हित साधने का प्रयास किया था। संविधान के लागू होने के बाद भी यह प्रयास बंद नहीं हुए। बल्कि और तेज़ हुए।'' भारत माता ने पूछा, ''क्या तुम्हें इस बात की जानकारी है कि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मैंने संविधान में सभी को एक समान दी थी। लेकिन इसका गला बाद में घोंटा गया। वह भी लागू होने के एक वर्ष बाद ही। 1951 में ही।''

मेरे लिए यह अबूझ पहेली सा था। 

मैं पहली बार सुन रहा था कि अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली थी उसे साल भर बाद ही कुतर दिया गया था। मेरे जैसे लेखक को यह जानकारी तो होनी ही चाहिए थी। दर्ज़नों किताबें लिखीं। विराट उपन्यास लिख डाला। और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कितना कुछ लिखा। आज इसी मुद्दे को ही तो लेकर सब बखेड़ा खड़ा किए हुए हैं। मैं भी उसके एक पक्ष में हूं। उसे पक्ष कहूं या विपक्ष लेकिन हूं तो सही एक पक्ष में । और मुझे जानकारी ही नहीं। 

आखिर मैं कैसे तय कर पाऊंगा कि किस आधार पर मुझे अपना पक्ष तय करना है। अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते हुए मैंने भारत माता से कहा, ''पूजनीय मां मुझे इस बात की जानकारी नहीं कि किसने कब ऐसा किया। क्यों किया, कृपया मार्गदर्शन दें।'' मैं नतमस्तक हाथ जोड़े खड़ा रहा। अपनी नादानी, मूर्खता का अहसास कर मैं थर-थर कांप रहा था।

मेरी बात सुनकर मां का क्रोध और बढ़ गया। कुछ पल मुझे आग्नेय दृष्टि से देखती रहीं। मानो कह रही हों कि वस्तु-स्थिति को जाने बिना ही भेड़ों की तरह कुएं में गिर रहे हो। फिर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 1951 में ही लाए गए पहले संविधान संशोधन का उल्लेख किया। मामला अभिव्यक्ति का ही था। एक पत्रिका की बिक्री किसी भी सूरत में प्रधान मंत्री नहीं चाहते थे। मामला कोर्ट में गया।

सरकार सर्वोच्च न्यायलय में भी हार गई। इससे सत्ता तड़प उठी। क्रोध से बिफर पड़ी। यह सहन नहीं हो पा रहा था कि वह मद्रास सरकार बनाम रोमेश थापर मामले में हार गई। लोकतंत्र की सत्ता बिफर उठी। वह तानाशाह बन बैठी। फिर एक नहीं तीन-तीन संसोधन ले आई। और आईपीसी की धारा 153 ए बनाई गई। जिसके जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को डस लिया गया। 

भारत माता ने प्रश्न किया कि, ''जिस स्वतंत्रता के लिए इतना भीषण रक्तपात हुआ। इतना समय लगा। उसे आजादी मिलते ही कुतर दिया गया। तब आखिर यह समूह क्यों सो रहा था, क्या आजादी की लड़ाई की थकान उतार रहा था, और यदि थकान उतर गई हो तो इस धारा को समाप्त करने के लिए बात क्यों नहीं होती, क्यों अभी तक आजादी के बड़े-बड़े पैरोकार मुंह सिले हुए हैं।''

एक बार मैं फिर निरुत्तर था। मेरे पास सिवाय सिर झुकाए खड़े रहने के और रास्ता नहीं था। मैं क्या कहता उनसे, किस मुंह से कहता। मेरी चुप्पी पर भारत माता ने सख्त नाराजगी प्रकट की। कहा, ''यह तुम्हें याद नहीं है मान लेती हूं। लेकिन महिलाओं की आज़ादी उनके अधिकारों के लिए चिल्लाने वाले तुम लोग क्या कर रहे हो? अब तक कितनी सुरक्षित हैं महिलाएं यहां पर, और मुस्लिम महिलाओं की आजादी, उनके मौलिक अधिकारों के बारे में तुम्हारे समूह के मुंह पर पड़े ताले आखिर क्या कहते हैं? उनको संविधान से मिले अधिकारों को भी वोट की घिनौनी राजनीति करने वालों ने कुतर दिया। इसका विरोध तुम सबने क्यों नहीं किया? क्या तब भी तुम्हारी आंखों पर पट्टी बंधी थी? क्या तुम्हारे कानों में रूई ठुंसी हुई थी? क्या मुस्लिम महिलाएं इंसान नहीं हैं? क्या उनके लिए तुम सबकी संवेदनाएं मर गई हैं?  

बाकी वर्ग की महिलाओं के लिए बड़ी-बड़ी पोथी लिख डालने वाले, गला फाड़-फाड़ कर भाषण देने वाले, तुम सबकी नजर में क्या इनके लिए कोई जगह नहीं है, इनके अधिकारों को कुचलने के लिए संविधान संशोधन के वक्त की तुम सबकी चुप्पी कब टूटेगी? तुम्हारी अंतर्रात्मा कब जागेगी?'' 

भारत माता के क्रोध के आगे मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं कुछ बोलूं। उनसे कहूं कि, मैंने आवाज़ उठाई थी। मैंने कहा था यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान के साथ खिलवाड़ है। देश के साथ धोखा-धड़ी है। मुस्लिम महिलाओं के साथ धोखा-धड़ी है। उनकी तकलीफ को और बढ़ाना है। मैं उनसे बोलना चाहता था कि, तब तमाम मुस्लिम विद्वानों, संगठनों ने भी मेरी तरह शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया था। कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भारतीय अपराध दंड विधान की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। सन् 1985 में मुस्लिम सांसदों ने भी स्वागत किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री भी खुश थे। 

लेकिन तभी कट्टरपंथी, वामपंथी वोट के कारण अचानक ही पिल पड़े। हम जैसे सारे लोगों को इन सबने चीख-चीख कर दक्षिणपंथी, कम्यूनल कह-कह कर सच को झूठ कर दिया।

वोट के लोभ में प्रधानमंत्री ने भी घुटने टेक दिए। रेंग गए बिल्कुल जमीन पर। इतना अफना उठे कि साल भर में ही 1985 में ही संविधान संशोधन कर डाला। तलाक पर रक्षा का अधिकार अधिनियम बना डाला। मुस्लिम महिलाएं, संविधान, न्याय व्यवस्था ठगी की ठगी रह गईं। मुस्लिम महिलाएं फिर से भाग्य भरोसे छोड़ दी गईं। मीडिया भी चुप था, चुप है। हमें कम्यूनल कह कर मुंह बंद करने को कहा गया। अंततः हम भी तटस्थ हो गए। 

यह हमारा अपराध है। मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए भी हमें बराबर सक्रिय रहना चाहिए था। हम यह कर्तव्य पूरी तरह नहीं निभा सके, यह जघन्य अपराध भी हमसे हुआ है। ऐसे ही इसी श्रेणी में एक अपराध और हुआ जा रहा है। 

न्यायालय ने अभी तलाक, पति के दूसरे निकाह पर विचार करने की जरूरत भर बताई और धर्मांध फिर बिफर पड़े कि हमारे मामलों में हस्तक्षेप है। हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। न्यायालय हद से बाहर जा रहा है। मगर सुधारवादी चुप हैं। चौबीस घंटा हाय-तौबा मचाए रखने वाला मीडिया तौबा किए बैठा हुआ है। इसकी प्रतिक्रिया में जब दूसरा समुदाय कहता है कि संविधान में हिंदू विवाह अधिनियम की जगह भारतीय विवाह अधिनियम की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? तब नहीं की गई तो अब क्यों नहीं की जा रही है?

यह बहुसंख्यक समुदाय को ठगने के प्रयास का एक छल-कपट पूर्ण तर्क है कि, बहुसंख्यक समुदाय को पहले उदाहरण पेश करना चाहिए। लेकिन कब-तक? वह तो सत्तर सालों से करता आ रहा है। बाकी कब करेंगे। सबके लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं होती? इस पक्ष द्वारा यह बात रखते ही मीडिया, तथाकथित सुधारवादी फिर हाय-तौबा मचाने लगते हैं। मेरे मन में यह सारी बातें क्षण भर में आ गईं। लेकिन भारत माता के रौद्र रूप के सामने मेरी घिघ्घी बंधी रही। 

मैं वट-वृक्ष के पत्तों सा कांपता, हाथ जोड़े खड़ा रहा। मेरी जुबान ने यह कहने के लिए मेरा साथ नहीं दिया कि मैं उनसे कहता कि, हे हर पल स्मरणीय भारत मां मैं बराबर यह प्रश्न खड़ा करता हूं कि, इस तरह की हर कार्रवाई तुष्टिकरण की नीचतापूर्ण हरकत है। देश-देशवासियों के साथ विश्वासघात है। इसके कारण देश के टुकड़े हुए। मगर स्वार्थ को साधने के लिए यह गंदा घिनौना कार्य अब भी चल रहा है। 

सही मायने में यह आजादी से पहले जब धर्मांधता के वशी-भूत कुछ लोगों ने खिलाफत के लिए आंदोलन शुरू किया तो तब की सर्वेसर्वा बड़ी पार्टी, इससे देश को होने वाले नुकसान को लेकर आंखें मूंदे रही। उसे अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने, सर्वेसर्वा बने रहने का जुनून था। लेकिन तब तक के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति जो धर्मांधता, सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे, पता नहीं किस कारण से शांत रहने की बात छोड़िए बराबर इस आंदोलन की शुरुआत करने वाले अली बंधुओं को समर्थन देते रहे। 

इसे गौ-रक्षा से जोड़ दिया। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि महात्मा सरीखे महान व्यक्ति के सामने लोगों ने ऐसी कौन सी विवशता खड़ी कर दी थी कि, वह देश के लिए नासूर बन जाने वाली तुष्टिकरण की नीति की शुरुआत कर बैठे। तब से यह बढ़ती रही। इसने देश के टुकड़े कर दिए। मगर स्वार्थी तत्व फिर भी इसको चिपकाए हुए हैं। छः सात दशक में इससे हो रहे नुकसान को अनदेखा किए हम आगे बढ़ रहे हैं। वोट के लिए तुष्टिकरण को हथियार की तरह प्रयोग करने की इन सब में होड़ लगी हुई है। 

लेकिन मैं, मेरे जैसे अन्य वास्तविक धर्म-निरपेक्ष चाहे जिस वर्ग के हों अपनी बात रखते जरूर हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम है, इस लिए वो बराबर नुकसान भी उठाते हैं। मैं ऐसे लोगों में केरल के मौलवी चेकन्नूर को कैसे भूल सकता हूं, वहीं के प्रोफेसर टी.एस. जोजेफ, गौ रक्षक प्रशांत पुजारी को कैसे भूल सकता हूं? जो सच कहने के कारण निर्ममता पूर्वक मार दिए गए। लेकिन मीडिया से लेकर ये असहिष्णुता का हाय तौबा मचाने वाला समूह कुछ बोला ही नहीं। चूं तक न की। मानो मारे गए लोगों के जीवन का कोई मोल ही नहीं है। वो इस देश के नागरिक ही नहीं। 

मैंने अपने कुछ साथियों के साथ इस बात को सामने रखा लेकिन संचार माध्यमों ने हमारी बात अनसुनी कर दी। हर तरफ से कोशिश यही हुई कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मैं इन बातों पर अपनी निष्पक्षता भारत माता के सामने रखना चाहता था। लेकिन मैं खुद को कमजोर महसूस कर रहा था कि नहीं हमारा प्रयास उतना नहीं था। जितना हम कर सकते थे।

हमें दादरी प्रकरण पर अपनी पहल याद आई कि, सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक ने इस घटना की कितनी निंदा की थी, अभी भी कर रहा हूं। कि किस तरह वोट के लिए सच को छिपा कर झूठ को सच बना दिया गया। सरकारी खजाना मदद के नाम पर गलती करने वाले पर लुटा दिया गया। 

इसी को मुद्दा बना कर इतना बखेड़ा पैदा किया गया कि हलचल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो गई। लेकिन फोरेंसिक रिपोर्ट में सच सामने आ गया तो सब चुप हैं।। मीडिया भी। इस तरह का कुकृत्य करने वाला किसी भी रूप में देश-समाज का भला नहीं कर रहा है। मैंने यह भी कहा था कि हर वर्ग के पूजा स्थलों से लाउड-स्पीकर तत्काल प्रभाव से हमेशा के लिए हटा दिए जाएं। इनके कारण अपराधी तत्व अप्रिय घटनाओं को आसानी से अंजाम देने में सफल हो जाते हैं। 

यह ध्वनि विस्तारक यंत्र अराजक तत्वों की अराजकता का अक्सर एक सर्पोर्टिंग टूल बन जाते हैं। इस मुद्दे पर किसी भी वर्ग का यह तर्क पूरी तरह एक सिरे से नकार दिया जाए, खारिज कर दिया जाए कि उनका इसके बिना काम नहीं चल सकता। क्योंकि यह तर्क पूरी तरह से झूठ, मक्कारी छल-फरेब कुटिलता से भरा है। आखिर सारे वर्गों की पूजा तो तब भी खूब अच्छे से होती थी, जब इस यंत्र का आविष्कार भी नहीं हुआ था। लेकिन इस बात पर मुझे फोन पर गालियां, धमकियां जरूर मिलीं। दादरी घटना पर हो-हल्ला मचाने वालों ने चूं तक ना की। 

जान से मारने की धमकियां मुझे इस बात के लिए अब भी मिल रही हैं, जब मैंने यह कह दिया कि सीमांत क्षेत्रों सहित पूरे देश में जिस तरह से भारी संख्या में पूजा स्थल बेतहाशा बनाए जा रहे हैं, और किलेनुमा बनाए जा रहे हैं, वह निकट भविष्य में देश के लिए गंभीर समस्या बनेंगे। इनको देख कर लगता ही नहीं कि ये पूजा के लिए बनाई जा रही हैं। इन के पीछे छिपी कुटिलता, छल-कपट साफ नजर आता है। जांच एजेंसियां भी बार-बार इससे आगाह करती आ रही हैं। मैंने स्पष्ट मत रखा था कि, ऐसा कानून बने कि एक निश्चित जनसंख्या पर उस जगह एक निश्चित आकार का ही पूजा स्थल बन सकेगा। ऐसा कर के ही संभावित खतरे से निपटा जा सकता है। 

मैं उनसे यह भी कहना चाह रहा था कि मैं तब भी हतप्रभ था। जब हापुड़ में एक मुस्लिम महिला और उसके हिंदू पति की हत्या कर दी गई। हिंदू से महिला ने शादी क्यों कर ली? छोटी सी छोटी घटना को तूल देने को तैयार रहने वाले तथाकथित बहुरूपिए सेकुलर समूह के कानों पर जूं तक ना रेंगी। हालांकि खाप पंचायतों के लिए ये बहुरूपिए हर दम लठ्ठ भांजते दिखते हैं, मगर सिर्फ भांजते ही हैं। वहां भी ये अपना नफा-नुकसान देखकर ही हाथ डालते हैं।

मैं मां को यह बताना चाह रहा था कि, हे मां मैं हर उचित अवसर पर कहता हूं कि, हे महान सेकुलरों, हे महान समाज सुधारकों, हे महान जागरूक लेखकों, कलाकारों, समाज सेवियों, खंडित देश को बार-बार अखंड भारत कहने वाले हे महान ढपोरशंखियों, देश की अखंडता की रक्षा करने का दंभ भरने वाले दंभियों, हमेशा न्याय हो सबके साथ जैसे जुमले भाखते रहने वाले भांडों, ज़रा यह तो बताओ कि जब इस आज़ाद देश में सबको सामान अधिकार दिए गए हैं, तो एक राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देकर देश की नींव खोखली करने वाली धारा 370 (५ अगस्त,२०१९ को बी.जे.पी. सरकार ने यह धारा समाप्त कर दी) को समाप्त करने के लिए तुम सब क्यों नहीं बोलते? मैं यह सब बोलने के लिए हिम्मत जुटा ही रहा था कि, मां क्रोधित हो बोलीं, ''जब तुम बोलने की भी हिम्मत नहीं रखते हो तो लेखक बनने की ज़रूरत ही क्या थी? जब तुम साफ कहने में हिचकते हो तो तुम्हें कोई अधिकार नहीं था लेखक बनने का। 

लेखक की ज़िम्मेदारियां बहुत होती हैं। तरह-तरह की होती हैं। बहुत पवित्र होती हैं। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि लेखक एक पथ-प्रदर्शक होता है। समाज को देश को वह दिशा देता है। वह इन्हें सभ्य बनाता है। सुसंस्कृत बनाता है। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि जो समाज श्रेष्ठ बना है। मज़बूत बना है। सुसंस्कृत बना है। उसका साहित्य बहुत उच्चकोटि का रहा है। उससे समाज को जीवन मिला है। समाज जीवंत बना है। दुनिया में वह समाज अपनी श्रेष्ठता साबित कर सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा है।

तुम सब उस देश को जो कभी विश्वगुरु की पदवी पर था। जिसके पास ज्ञान का भंडार था। जिसे झुठलाने में, उसका अपमान कराने में ही तुम लोग अपनी विद्वतता समझते हो। दुनिया के आदि ग्रंथ वेदों का माखौल उड़ाते हो। उसके आगे क्या उनकी छाया के बराबर भी कुछ लिखा गया? तुम्हारा यह आचरण क्या ऊपर मुंह कर थूकने जैसा नहीं है। 

इन वैदिक साहित्य का अपमान करने वाले तथाकथित विद्वानों, जरा विचार करो, इस वैदिक साहित्य ने तो अपने समय के समाज, देश को सुसंस्कृत किया। सभ्य बनाया। दिशा दी, विश्वगुरु बनाया। तुम सबने क्या किया? क्या है तुम्हारा साहित्य? यही कि लोग उनसे दूर भागते हैं। उन्हें कोई पढ़ने वाला नहीं है। तुम्हें पाठकों को जबरदस्ती पकड़ कर उन्हें अपना लिखा,पढ़ने के लिए विवश करना पड़ता।

वह वैदिक साहित्य जो आज भी पढ़ा जा रहा है बिना विवश किए। जिसे तुम्हारी सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्था इसरो श्रेष्ठ ज्ञान कह रही है। धरोहर कह रही है। उसे अपमानित करते तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती। तुम लेखकों ने जैसी निर्लज्जता के साथ अकारण ही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए देश को भ्रमित किया हुआ है, उसकी नींव हिला रहे हो, क्या यह तुम्हारी अयोग्यता का प्रमाण नहीं है। और अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए तुम सब ऐसी उजड्डता, ऐसा गैर ज़िम्मेदारी भरा आचरण कर रहे हो। 

मुझे कभी आज़ादी ना मिली होती, यदि तब के साहित्यकार तुम जैसे होते। उन्होंने वह साहित्य रचा जिसने तब देश को दिशा दी। और मैं आज़ाद हो सकी। मगर मुझे अब दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम सबकी हरकतों के कारण मैं अपनी आज़ादी खतरे में महसूस कर रही हूं। तुम सब इस योग्य भी नहीं निकले कि, आजादी से पहले के साहित्यकारों की परंपरा को आगे बढ़ा पाओ। उससे ज़्यादा उत्कृष्ट लिखने की योग्यता तो मुझे तुम सब में दूर-दूर तक नहीं दिखती। मैं चिंतित हूं यह सब देखकर। 

मुझे यह कहना पड़ रहा है कि, वो साहित्यकार युग दृष्टा जरूर रहे। मगर युग सृष्टा शायद नहीं थे। या उन्हें समय नहीं मिल पाया कि, वो आगे आने वाले युग की रूप-रेखा सुनिश्चित कर जाते। मगर समस्या तो तब भी होती। क्यों कि तुम सब जिस विचार के हो उसी के अनुसार कार्य करते। उसे भी नकारते। उसे भी भ्रष्ट करते।

आखिर तुम सब चाहते क्या हो? यह देश जनता को जनार्दन कहता है। यदि तुम यह समझते हो कि वह कभी तुम्हारे दुराचरण को समझ नहीं सकता तो यह तुम्हारी मूर्खता है। तुम्हारा मानसिक दिवालियापन है। जनता-जनार्दन एक दिन सब समझ जाएगी। फिर तुम्हारी हालत बहुत दयनीय होगी। वह तुम्हें देश के आखिरी छोर तक नहीं, बल्कि दुनिया के ही आखिरी छोर के बाहर खदेड़ कर दम लेगी।

मुझे अभी से इस बात को लेकर बड़ा भय महसूस हो रहा है। तब की तुम्हारी दयनीय स्थिति का अंदाजा लगाकर ही मैं उलझन में पड़ जाती हूं। क्योंकि आखिर तुम सब भी तो मेरे ही हो। मेरे ही अंग हो। मेरा कोई भी अंग कटेगा, कष्ट में होगा, तो मुझे दर्द होगा ही। इस लिए मैं तुम्हें जनता-जनार्दन के क्रोध से बचने के लिए आगाह कर रही हूं, समय रहते सब कुछ सही कर लेने के लिए। सच के रास्ते पर ही चलने के लिए। अपना दायित्व ठीक से निभाओ, अन्यथा जनता-जनार्दन लेखक वर्ग को साजिशकर्ता, जटिल, कुटिल, ईर्ष्यालु, अवसरवादी, लालची, स्वार्थी, स्वार्थ के लिए नैतिकता को बेच देने वाला कहेगी, उससे नफरत करेगी।''

भारत माता बोलती जा रही थीं और मैं हिम्मत जुटाने में लगा रहा कि, मैं उन्हें उनकी बातों का जवाब दूं। उन्हें बताऊं कि मैं क्या कर रहा हूं। मैं उन्हें बताना चाह रहा था कि, हे मां मैंने इस असहिष्णुता की कुटिल तुच्छतापूर्ण मुहिम के सूत्रधार लेखक को बहुत लताड़ा था। मैंने साफ कहा था कि, जब तथाकथित एक कम्यूनल योगी से सम्मान लेते हुए शरणागत हुए जा रहे थे। मानो लेट ही जाओगे। उस समय भी यही हालात थे जो अब हैं, तो क्यों विरोध स्वरूप सम्मान लेने से मना नहीं किया, बाद में भी सम्मान लेने चले गए, अब भी सारे हालात वैसे ही हैं तो, यह वापसी का पाखंड क्यों?

मेरे विरोध पर उसने बात काट दी। इसके तुरंत बाद ही जिस लेखिका ने ऐसा किया, मैंने उनसे भी भरपूर विरोध जताया था। मैंने साफ कहा कि, आप प्रधानमंत्री रहे किसी व्यक्ति की भांजी हैं, यह ऊंगली पर गिन लिए जाने भर के बराबर ही लोग जानते थे। आप लेखिका हैं इस बारे में भी यही हाल था। लेकिन पुरस्कार वापसी के पाखंड ने आपको रातों-रात मीडिया के जरिए तमाम लोगों तक पहुंचा दिया। आप तो प्रसिद्ध हो गईं। क्या आप पुरस्कारों में मिली धनराशि और उससे जो प्रसिद्धि मिली थी वह भी लौटा सकेंगी । आपने तो एक पार्टी की राजनीतिक मौत को इस पाखंड से स्थगित कर दिया है। मगर इससे देश के साथ जो घात हुआ है उसका क्या जवाब देंगी? 

मैं भारत माता से अपनी बात पर उस लेखिका की कुटिल रहस्यमयी मुस्कुराहट के बारे में भी कहना चाह रहा था। साथ ही यह भी कहना चाह रहा था कि, हे मां मैंने लेखक होने का कर्तव्य तब भी पूरा किया, और बराबर करता आ रहा हूं, जब ये बहुरुपिए सेकुलरिस्ट, विदेशी टुकड़ों पर पलने वाले तथाकथित एन.जी.ओ. समाजसेवी, निर्दोषों का कत्ल करने वाले, विकास के हर रास्ते को बंद करने वाले नक्स्लियों की मुठभेड़ में मौत होने, आतंकवादियों की मौत होने पर हायतौबा मचाते हैं। घडियाली आंसू बहाते हैं। मोमबत्तियां जलाते हैं। लेकिन देश के फौजियों के शहीद होने पर आश्चर्यजनक ढंग से चुप रहते हैं। कमरों में व्हिस्की के जाम के साथ जश्न मनाते हैं। हे मां मैं तब भी चुप नहीं बैठा था, जब दक्षिण में राजनीतिक लाभ के लिए वर्ग विशेष की बहुलता वाले क्षेत्रों को मिलाकर मलप्पपुरम नगर बना दिया गया। 

मैं बराबर इस बात का विरोध करता आ रहा हूं कि, वीरभूमि, दुर्गापुर साहित ऐसी हर उस जगह पर देश के बहुसंख्यक समुदाय के अल्पसंख्यक हो जाने पर वहां बहुसंख्यक बने वर्ग के लोग दूसरे वर्ग की दुर्गापूजा, तांडव नृत्य, महा-आरती वगैरह त्यौहारों को मनाने नहीं दे रहे हैं। असम सहित कई राज्यों में घुसपैठियों के कारण देशवासियों के अल्पसंख्यक हो जाने, जांच आयोगों की रिपोर्टों कि, यदि घुसपैठ रोकी नहीं गई तो राष्ट्र रक्षा खतरे में है, के बावजूद कोई कार्यवाई न होने पर भी एतराज करता रहा हूं। 

मैं जोरदार शब्दों में यह कहना चाह रहा था कि, हे मां एक नेता जो कभी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में था। बुरी तरह परास्त हो गया। फिर प्रदेश के चुनाव में जुगाड़ कर जीता। उसकी उस हरकत का भी कड़ा विरोध किया जब आज़ादी से पहले अपने स्वार्थों के लिए जिन्ना ने धर्म के आधार पर जो क़दम उठाए थे वही वह भी करने करने लगा। 

मैं यह साफ-साफ कहना चाह रहा था कि, इन्हीं क़दमों के कारण मुझे दक्षिणपंथी कम्यूनल कह-कह कर अपमानित किया जाता है। अलग-थलग रखने की कोशिश की जाती है। लेकिन मैं पलभर को भी विचलित नहीं होता। अपना उत्तरदायित्व निभाता आ रहा हूं। कई बार ऐसा हुआ कि मैं सारी बातें कहना शुरू ही करने वाला होता कि मां फिर कुछ कहने लगतीं। और मैं जितना आगे बढ़ता वहां से वापस फिर प्रारंभ बिंदु पर पहुंच जाता।

लेकिन कहते हैं न कि बार-बार के प्रयास अंततः सफलता दिला ही देते हैं तो अंततः मैं भी सफल हो गया। अवसर मिलते ही मैंने अपनी यह सारी बातें कह दीं। इनमें मैंने देश के राष्ट्रपति की बात पर भी अपने स्टैंड को बताया जिसमें उन्होंने असहिष्णुता का ढोल पीटने वालों को लताड़ा था। और यह भी बताया कि फ़िल्म इंडस्ट्री के उस बीमार मानसिकता के एक  अभिनेता नाचने गाने वाले के इस बयान पर भी उसे लताड़ा था, जिसमें वह पाखंडी बोल रहा था कि उसकी पत्नी डर गई है। देश छोड़ने की बात कर रही है।

मैंने कहा जरा यह भी तो बताओ कि किस देश में जाने का निर्णय लिया है, और कि क्या वहां इसी देश की तरह खाली नाच गा के, स्वांग भर के अरबों कमा लोगे, वहां कि जनता तुम्हें ऐसे ही सिर-आंखों पर बैठाएगी, और तुम इसी तरह आराम से अव्वल दर्जे का कुटिलता भरा, झूठा, देश-द्रोह से भरा बयान देकर मुस्कुराते हुए चलते रहोगे, अरे तुम यहां सिर आंखों पर बैठाए जाते हो, देशद्रोही बयान देकर भी मुस्कराते रहते हो, सहिष्णुता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए? 

आने वाली अपनी फ़िल्म के प्रचार के लिए यह गद्दारी, यह जाहिलियत, यह जलील हरकत की है। मगर मैं तुमसे इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं करता, क्योंकि तुम तो वह स्वार्थी इंसान हो जो अपनी पत्नी का नहीं हुआ। कुछ पैसा पाते ही अपनी पहली पत्नी को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। 

एक विदेशी महिला को फंसाया, गर्भवती बनाया फिर ठोकर मार कर उसे भी भगा दिया। वह अपने बिना बाप के बच्चे को लिए जीवन गुजार रही है। मगर तुम्हारी धोखेबाजी रुकी नहीं। ढूंढ़ कर एक ऐसी दूसरी महिला को फंसा लिया जिसके सहारे सफलता की सीढ़िया चढ़ सको। तुम तो इतने लिजलिजे इंसान हो कि अपनी षड्यंत्र से भरी इस बात को कहने के लिए भी पत्नी के कंधे का सहारा लिया।

संसद में इसी मुद्दे पर वोट के सौदागरों की हठ पर भी मैंने अपनी प्रतिक्रिया बता दी। मैं संतोष महसूस कर रहा था कि मां मेरी सारी बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थी। मुझे बोलने का पूरा समय दे रही थी। और मेरी सारी बातों को सुनने के बाद मेरे कार्यों पर संतुष्टि व्यक्त की। मगर साथ ही यह भी कहा कि, ''नकारात्मक शक्तियां तो अपनी गलत बातों का ढोल इतना पीटती हैं, झूठ को इतना तेज़ कहती हैं कि, सच छिप जाता है। झूठ सच लगने लगता है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए होता है कि तुम लोग एक बार प्रतिक्रिया देकर अपने कर्तव्यों की इति-श्री समझ लेते हो। 

सकारात्मक वर्ग का यह परम कर्तव्य है कि, वह अपना प्रयास तब तक जारी रखे जब तक कि नकारात्मक शक्तियों का मुखौटा उतर न जाए। सब के सामने उनका असली चेहरा उजागर ना हो जाए। इस दृष्टि से तुम सफल नहीं हो। मैंने जो कहा यदि तुम सब वैसा कर रहे होते तो असहिष्णुता के नाम पर जैसा विषैला माहौल यह सब बनाने में सफल हुए यह हो ही ना पाता। वह सफल रहे तुम सब असफल। अब तक जो किया ठीक है। मगर वातावरण में असहिष्णुता का जो छद्म विष फैला हुआ, जिससे देशवासी आतंकित हैं। उस विष को दूरकर देशवासियों को स्वच्छ, सुखकारी निर्मल वातावरण देने के लिए क्या कर रहे हो? ऐसा क्या है जिसे सुनकर मैं निश्चिंत हो जाऊं कि, हां भितरघातियों के भितरघात से मेरी सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था है। मुझे नुकसान पहुंचाने का प्रयास करने वाले असफल रहेंगे।''

मैं भारत मां के इन प्रश्नों का तत्काल कोई उत्तर नहीं दे सका। क्यों कि इस स्तर पर मैंने कोई विचार नहीं किया था। और जब विचार ही नहीं किया था तो किसी उत्तर का कोई प्रश्न ही नहीं था। मैं निरुत्तर था। शर्मिंदगी से सिर स्वतः ही झुक गया। मां कुछ क्षण मुझे ऐसी स्थिति में देखने के बाद बोलीं, ''क्या किसी लेखक को इतना लापरवाह इतना गैरज़िम्मेदार होना चाहिए, तुम जैसे सारे लेखकों के कारण मैं निराश हूं। मैं व्याकुल हूं। मैं अपने भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हूं। सोचती हूं कि, क्या मैंने तुम लोगों से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा कर ली है। इतनी ज़्यादा कि तुम लोग उस पर खरे उतरने के योग्य ही नहीं हो। पूर्ण रूपेण अक्षम हो। संभवतः मुझे और विकल्पों पर पहले ही ज़्यादा भरोसा करना चाहिए था।'' 

मां अपनी बातें कहते हुए बहुत क्रोधित होती जा रही थीं। उनके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आते जा रहे थे। पीड़ा का भाव गाढ़ा होता जा रहा था। उनकी इस पीड़ा से मैं तड़प उठा। मैं उन्हें पल भर को भी कष्ट में बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। मैंने तुरंत तय किया कि मां से कहूं कि, हे मां मैं अपनी गलती के लिए शर्मिंदा हूं। क्षमा प्रार्थी हूं। मुझे बस एक दिन का समय दे-दें। मैं अपने अगले क़दमों के बारे में एक विस्तृत योजना आपके सामने रख दूंगा कि मैं ऐसा क्या करूंगा। जिससे आप भितरघातियों की तरफ से निश्चिंत हो सकें। वातावरण में फैला छद्म असहिष्णुता का विष समाप्त हो जाएगा। लेकिन मां इतनी निराश, इतनी क्रोध में थीं कि पलक झपकने भर में विराट रूप धारण कर अंतरध्यान हो गईं।

उनके अंतरध्यान होते ही मेरी नींद टूट गई। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। पूरा घर अकेला था। सांय-सांय कर रहा था। अनुभा सो रही थी। पिछले कई दिनों से उसकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी। बीपी, कोलेस्ट्रॉल बढ़े हुए थे। उसकी एक आंख की रोशनी तेज़ी से कम होती जा रही थी। वह पहले ग्लॉकोमा से पीड़ित थी। किसी तरह डॉक्टरों ने छः साल पहले ऑपरेशन करके आंख बचा ली थी। लेकिन अब रोशनी के तेज़ी से कम होते जाने को डॉक्टर रोक नहीं पा रहे थे। 

उसका तेज़ी से गिरता स्वास्थ्य मेरी बड़ी चिंता थी। किसी एक को तो पहले जाना ही होता है। लेकिन मैं इस कल्पना से ही व्याकुल हो उठता हूं, तड़प उठता हूं कि कहीं अनुभा मुझसे पहले न चली जाए। क्यों कि मैं उसके बिना अपने एक दिन के जीवन की भी कल्पना नहीं कर पाता। सिहर उठता हूं यह सोचकर ही कि वह पहले चली जाएगी। 

पचास साल का साथ पल में टूट जाएगा। आखिर जीवन में यह पल आता ही क्यों है? मैं अनुभा को बड़ी देर तक देखता रहा। लेकिन दिमाग में भारत मां की बातें बार-बार कौंध रही थीं कि हम अक्षम हैं। उन्होंने हमसे ज़्यादा अपेक्षा कर ली। वह विवश हैं किसी दूसरे विकल्प के बारे में सोचने के लिए।

यह बातें मुझे बहुत विचलित करने लगीं। और अनुभा के बारे में सोचना कहीं दूर-दूर होता गया। मैं उसके कमरे से ड्रॉइंगरूम में चला आया। लाइट ऑन की और सोफे पर बैठ गया। सामने दिवार पर मेरी बड़ी लड़की की बनाई दो पेंटिंग लगी हैं। बाई तरफ महा राणा प्रताप की जो अपने इतिहास प्रसिद्ध घोड़े चेतक पर सवार हैं। हाथ में भाला लिए। ऊपर घूमी हुई मूंछे, तेज़ से चमकता चेहरा। बेटी ने दूसरी पेंटिंग अंग्रेजी साम्राज्य की चूलें हिला देने वाले सुभाष चंद्र बोस की बनाई थी। उन्हें भी घोड़े पर सवार दिखाया था। 

पेंटिंग ऐसी बनी हैं, ऐसे लगी हैं, मानो भारत मां के दोनों लाल दोनों महान सेनानी जंग के मैदान में खड़े भारत मां के दुश्मनों पर हमला करने से पहले कुछ सलाह-मसविरा कर रहे हैं। पेंटिंग पर से बड़ी देर तक मेरी नजर नहीं हटी। मैं खोता गया उन्हीं में कि, इन सपूतों ने किस प्रकार अपने राष्ट्र अपनी भारत मां के लिए अपना घर परिवार जीवन सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इतिहास में अमर हो गए हैं। और चेतक! एक जानवर होकर। बल्कि उसे जानवर कहना उसका अपमान है। कहने के लिए वह घोड़ा था लेकिन जिस धरती पर जन्म लिया उसके लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। शायद ही दुनिया के किसी भी देश के इतिहास में इंसान के बाद किसी अन्य जीव को वह स्थान प्राप्त है जो चेतक को!

उन दो पेंटिंग में खोया मैं अचानक खुद से पूछ बैठा इन्होंने ने तो इतना कुछ किया अपनी भारत मां के लिए। अमर कर गए अपने-अपने मां-बाप परिवार सबको। और मैं! मैंने क्या किया? रंगने को हज़ारों पन्ने रंग डाले लेकिन किस काम के? वो भारत माता के किस काम आ रहे हैं? मेरे अब-तक के लिखे की अर्थवत्ता क्या है? बीते इतने दशकों में इतनी बातें होती रहीं, जब मुझे अपने लेखक होने का धर्म निभाना चाहिए था तब मैं पन्ने रंगने में ही लगा रहा। 

मन में महान लेखक बनने का सपना लिए पन्नों पर स्याही उडे़लता रहा। कि एक दिन दुनिया में मेरे लेखन पर चर्चा होगी। मुझे युगदृष्टा लेखक कहा जाएगा। हर किताब पूरी करते ही मूर्खों की तरह कैसे ख्यालों में खोने लगता हूं कि यह नोबेल दिला सकती है। नोबेल न सही कम से कम बुकर या ज्ञानपीठ तो निश्चित ही।

इस विराट उपन्यास को पूरा करने के करीब पहुंचते ही कैसे दिवास्वप्न देख रहा हूं कि, मेरा यह विराट उपन्यास नोबेल निश्चित दिलाएगा। अमूमन सारे लेखकों को यह बड़ी उम्र में ही मिला है। अब तो मेरी भी उम्र हो चुकी है। निश्चित ही मेरी लालसा ने मुझे अपने कर्तव्यों को समझने उसका निर्वहन करने से विमुख कर दिया। मैं वाकई अपना कर्तव्य निभा नहीं सका। भारत मां का मुझ पर गुस्सा होना उचित ही है।

सच तो यही है कि लेखक पुरस्कारों से बड़ा नहीं होता। बड़े से बड़ा पुरस्कार उसे बड़ा नहीं बना सकता। मैं तो अब यह दृढ़ता से कहना चाहूंगा कि पुरस्कार लेखक की आत्मा को ही नष्ट कर देता है। अजर-अमर अविनाशी कही जाने वाली आत्मा को। पुरस्कार ग्रहण कर लेखक अपनी कलम गिरवी रख देता है। वह अपने सरोकारों के साथ न्याय नहीं कर पाता। उस की कलम बंधक हो जाती है। सच नहीं लिख पाती। 

ज्यांपाल सार्त्र ने यही कारण बताते हुए ही तो पलक झपकते ही नोबेल ठुकरा दिया था। मगर जो कद उनका है क्या वह जॉर्ज बर्नाड शा का भी है। जिन्होंने पहले नोबेल लेने से मना किया लेकिन अंततः लालसा उन पर भारी पड़ी और उन्होंने स्वीकर कर लिया। सही मायने में ये पुरस्कार मृगमरीचिका से हैं। अपनी ओर खींच ही लेते हैं। इनकी धनराशि ललचाती है। पूर्व सोवियत संघ के बोरिस पास्तरनाक कम्यूनिस्ट शासकों की सख्त मनाही के कारण नोबेल ठुकरा देते हैं। मगर जैसे ही हालात बदले उनके उत्तराधिकारियों ने स्वीकार कर लिया।

मुझे लगा कि जैसे ड्रॉइंगरूम में हर तरफ से चीखती हुई यह आवाजें आ रही हैं कि तुम भी लालची हो। ऐसे ही लालच ने तुम्हें अपने सरोकारों से विमुख कर दिया। तुम्हारी क़लम पूर्णतः आज़ाद कहां रही। यदि ऐसा ना होता तो तुम अपने कर्तव्यों को निभाने में असफल नहीं होते। तुम भी वाल्तेयर, रूसो, ब्रूनो बन सकते थे। लेकिन तुम भी भीड़ में शामिल एक चेहरा बन कर रह गए। निरर्थक ही जीवन गंवा दिया। तुम असफल हो, कुछ नहीं कर सकते। कुछ नहीं कर सकते।

इन चीखती आवाजों ने मुझे हिला कर रख दिया। झकझोर दिया। मैं सोफे पर उठ खड़ा हुआ यह बुदबुदाते हुए कि नहीं मैं असफल नहीं हूं। र्मैं असफल नहीं हूं। मैं असफल नहीं हूं। मैं बेटी की बनाई दोनों पेंटिंग के सामने खड़ा हो गया। बुदबुदाहट अब भी चल रही थी। कि मैं असफल नहीं हूं। 

जीवन बीत गया तो क्या इतिहास तो पल भर लिखे जाते है। पल में बदल जाती है दुनिया। एक निर्णय से बदल जाता है इतिहास। जैसे गांधी जी ने अपने इस निर्णय से कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा, से पीछे हटने का निर्णय लिया वैसे ही भारत के बंटने का रास्ता साफ हो गया। बदल गया इतिहास। बंट गया देश। तो मैं भी ऐसा कुछ कर सकता हूं। कुछ ऐसा कि भारत मां निश्चिंत हो सके। असहिष्णुता के छद्म विष से विषाक्त माहौल स्वच्छ हो सके। देश के साथ छल-कपट करने वाले बेनकाब हो सकें। हर नागरिक इन बहुरूपियों को पहचान सके। इनके बरगलाने में ना आए। देश के लिए जिए-मरे। 

मेरी नजर बार-बार दोनों पेंटिंग पर जाती रही। कि इन दोनों ने भी तो आततायी ताकतों की दिशा मोड़ दी थी। अकेले ही चले थे। मुझे भी अकेले चलना है। अकेले ही। मैं बड़ी देर तक दोनों पेंटिंग देखता खड़ा रहा, मुझे लगा कि जैसे दोनों पेंटिंग से मुझे आगे क्या करना है, इस बात का संदेश दिया जा रहा है। यह संदेश कुछ ही देर में पूरा भी हो गया। ऐसा महसूस होते ही मैं फिर सोफे पर आकर बैठ गया। और तय कर लिया कि क्या करना है। 

ब्रूनो को अपनी बात कहने के ही कारण उसके देश के धर्मांधों ने उसे जिंदा जला दिया था। लेकिन मैं अपनी बात कहने के लिए। बहुरूपियों को बेनकाब करने के लिए खुद को स्वयं अग्निदेवता के हवाले कर दूंगा। कल ही कर दूंगा। यही एक रास्ता बचता है जो तत्काल पूरी दुनिया तक मेरी बात पहुंचा देगा। देखते-देखते छद्म असहिष्णुता समाप्त हो जाएगी। देश की जनता बहुरूपियों को पहचान लेगी। उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचा देगी। इसमें यही मीडिया ही काम आएगा। जब इसे कल सुबह यह खबर मिलेगी कि बहुरूपियों को बेनकाब करने के लिए, बहुत सी किताबें लिखने वाला, बहुत से महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित एक पचहत्तर वर्षीय लेखक ने शहर में सुभाष मूर्ति के नीचे आत्मदाह कर लिया। 

इन सारे चैनल्स को, मित्रों, बहुरूपियों को बेनकाब करने वाली सारी डिटेल्स वहीं चलकर मेल कर दूंगा। पहले कर दिया तो भीड़ इक्ट्ठा हो जाएगी। मैं फिर असफल हो जाऊंगा। मैंने इसके लिए अपना लैपटॉप ऑन किया। तमाम जरूरी चीजें तैयार कीं, जो तब मेल करनी थीं। फिर निश्चिन्त हो कर सोफे पर बैठ गया। 

मैं खुद में युवावस्था से ज़्यादा जोश उत्साह महसूस कर रहा था। मगर मन में तभी एक बात आई कि इसी बहाने अनुभा के पहले जाने के दर्द को बर्दाश्त करने की पीड़ा से बच जाऊंगा। और मेरा विराट उपन्यास वह भी इससे जबरदस्त प्रसिद्धि पा जाएगा। इस बाज़ारवाद के युग में ऐसी बातें रातों-रात कुछ का कुछ कर देती हैं। यह सोचते हुए मैंने सोचा थोड़ा सो लूं। कल दस बजे तक निकलना है। बेड पर मैं जब फिर लेटा तो मेरे दिमाग में कल मेल की जाने वाली मेल की हैडिंग घूम रही थी। ''हमारा भारत है, हमारा संविधान, हमारा संविधान है हमारा भारत।''

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उसे अच्छा समझती रही

मैं मकान का तीसरा फ़्लोर बनवा रहा था। उद्देश्य सिर्फ़ इतना था कि किराएदार रखकर मंथली इनकम और बढ़ाऊँ, क्योंकि दोनों बच्चे जूनियर हाईस्कूल पास कर चुके थे। आगे उनकी पढ़ाई के लिए और ज़्यादा पैसों की ज़रूरत पड़ेगी। मुझे यह बताने में भी कोई संकोच नहीं है कि आजकल के पति पत्नियों की अपेक्षा हम दोनों कुछ नहीं बहुत ही ज़्यादा रोमांटिक मूड के हैं। इस एज में भी बिल्कुल अल्ट्रामॉडर्न न्यूली मैरिड कपल की तरह, और बोल्ड भी। मेरे जो मित्र, रिश्तेदार हमें, हमारी जीवनशैली को जानते हैं, वह कहते हैं कि, "क्या यार तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए हैं, अब इतना रोमांटिक होना अच्छा नहीं है। बच्चों पर ध्यान दो, उनको ज़्यादा समय दो। बच्चे अब समझदार हो गए हैं।"

मैं ऐसे सभी लोगों को आज भी हर बार एक ही जवाब देता हूँ कि, "मैं बच्चों को पूरा समय भी देता हूँ और दुनिया की हर ज़रूरी जानकारियाँ भी। शर्म, संकोच नहीं, उचित ढंग से उन्हें बताता हूँ कि क्या सही है, क्या ग़लत है, कब क्या करना चाहिए और क्यों करना चाहिए। उन्हें भी मैं फ़्री टाइम देता हूँ। हमेशा उनके सिर पर सवार नहीं रहता। आख़िर उन्हें भी तो थोड़ा ऐसा समय चाहिए ना जिसमें वह आज़ादी महसूस कर सकें।"

ऑफ़िस में मेरी एक साथी के अलावा, एक भी व्यक्ति मुझे मेरी सोच वाला अभी तक नहीं मिला। मैं बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने का प्रबल पक्षधर आज भी हूँ। यह बात केवल कहता ही नहीं हूँ बल्कि अपने बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से देता भी आ रहा हूँ। मेरी वह साथी भी अपने दोनों बेटों और एक बेटी को मेरी ही तरह शिक्षित कर रही है। इस विषय पर सभी हमारी कटु आलोचना के सिवा और कुछ भी नहीं करते। मेरे यह सभी उग्र आलोचक कहते हैं कि मैं अपने बच्चों को भ्रष्ट बना रहा हूँ।

 मेरी इस बात को यह सभी अनर्गल प्रलाप मानते हैं कि, "यदि बच्चों को शुरू से ही सेक्स एजुकेशन दी जाए तो आगे चलकर वह तमाम हेल्थ रिलेटेड बीमारियों से बचे रहेंगे। बच्चों को इस तरह एजुकेट करके हम समाज से सेक्सुअल क्राइम्स बहुत कम कर सकते हैं।" यह आलोचक तीखे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि, "आप और आपकी पत्नी बहुत ही ज़्यादा खुले स्वभाव के हैं, इसलिए अपने आसपास का माहौल ऐसा बनाना चाहते हैं, जो आपके अनुकूल हो।"

यह बात मुझे बड़ी मूर्खतापूर्ण, सतही लगती है, जब कई स्वयंभू विद्वान मुझे रजनीश के सिद्धांतों से प्रभावित बताने लगते हैं। मेरी इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते कि, "मैंने ना रजनीश को कभी पढ़ा है, ना सुना है, तो उनकी किसी बात का मुझ पर प्रभाव कैसे पड़ सकता है।" मगर स्वयंभू विद्वानों की यह मंडली यक़ीन ही नहीं करती। एक विद्वान जी तो एक बार बड़ी गर्मागर्म बहस पर उतर आए। रजनीश की एक पुस्तक, "संभोग से समाधि की ओर" का ज़िक्र करते हुए कहा, "आपने यह किताब पूरी पढ़ी ही नहीं है, बल्कि घोंटकर पी डाली है और उसमें लिखी बातों का ही पूरी तरह पालन कर रहे हैं।"

मैंने कहा, "आप बड़ी बेतुकी बातें कर रहें हैं। मैं इस किताब के बारे में सुन भी आपके मुँह से रहा हूँ कि इस तरह की उन्होंने कोई किताब लिखी भी है। हाँ, आप जिस तरह से उस किताब की डिटेल्स बता रहे हैं, उससे यह बात बिल्कुल साफ़ है कि मैंने नहीं, आपने उस किताब को घोंटकर पी लिया है। आपके बताने के अंदाज़ से लग रहा है कि आपने एक बार नहीं उसे बार-बार पढ़ा है।"

मकान बनवाने के लिए जब लोन की अप्लीकेशन दी तो इन्हीं विद्वान से जल्दी करने के लिए कहा। तब इन्होंने पूछा, "कुल चार लोग हो, दो फ़्लोर बने हुए हैं, फिर तीसरा क्या करोगे?" मैंने कहा, "एक फ़्लोर में हम दोनों पति पत्नी रहेंगे। दूसरे में दोनों बच्चे और तीसरा फ़्लोर किराए पर दूँगा।" उन्होंने कहा, "जब किराए पर ही देना है तो दो फ़्लोर दो। तुम्हारा बड़ा मकान है। एक ही फ़्लोर में तुम्हारा पूरा परिवार रह सकता है।" मैंने उन्हें चिढ़ाने के लिए कहा, "रह सकता है। लेकिन मेरे परिवार जैसा परिवार नहीं। देखिए, मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो बच्चे ज़रा सा बड़े हो गए तो ख़ुद को बुज़ुर्ग मानकर बस जैसे-तैसे ज़िंदगी काटने लगते हैं। हम ना अपनी आज़ादी में बाधा चाहते हैं, ना उनकी में बनना चाहते हैं। इसलिए अलग-अलग ही सही है।"

मेरी इस बात पर उन्होंने कुछ ऐसी बात कही जो मुझे अपनी पर्सनल लाइफ़ में उनका अनाधिकृत हस्तक्षेप लगा, अपमान की हद तक। तो मैंने भी उन्हें कुएँ का मेंढक सहित कई और तीखी बातें कहते हुए हिसाब बराबर कर लिया। हालाँकि बाद में यह पछतावा हुआ कि जो भी हो, वह उम्र में मुझसे बड़े हैं, मुझे उनको अपमानित नहीं करना चाहिए था। यह समझ कर चुप रहना चाहिए था कि यह उनके विचार हैं। यह ज़रूरी नहीं कि सभी मेरे सुर में सुर मिलाएँ।

जैसे-जैसे तीसरा फ़्लोर बनता जा रहा था मुझे वैसे-वैसे इन सब की बातें यादें आतीं। लगता कि जैसे कानों में गूँज रही हैं। लोन अप्रूव करने वाले विद्वान अकाउंट ऑफ़िसर की यह बात ज़्यादा कि, "तुम अपने घर को वेस्टर्न कंट्रीज़ के लोगों की तरह अनैतिक कर्मों का घर बना चुके हो। दैहिक भोग ही तुम्हारा आचार-विचार, लक्ष्य है।" उनकी इस बात पर मैं उनके विशाल माथे पर लगे चंदन रोली के बड़े से तिलक को बड़ी देर तक घूरता रहा तो उन्होंने कहा, "आप अभी इस पवित्र तिलक को पाखंड आडंबर कहेंगे। लेकिन इसके वैज्ञानिक महत्व को जानकर भोगवादी संस्कृति या परम भोग से ऊबे, खिन्न पगलाए लोग जीवन की शांति, शीतलता ढूँढ़ रहे हैं इसी चंदन तिलक वाली सनातन संस्कृति में।

पिछले कुंभ में देखा नहीं कि कितनी कंपनियों के उच्च पदस्थ अधिकारियों ने करोड़ों रुपए मंथली सैलरी वाली नौकरी, बहुत हाई-फ़ाई जीवनशैली को छद्म, भुलावा, भटकाव माना, समझा और उसे छोड़कर वास्तविक सुख, शांति पाने के लिए इसी तिलक की शीतलता की छाया में आ गए। और आप उल्टा जा रहे हैं। एक छल-कपट छद्मावरण वाली दुनिया में। जहाँ की भोगाग्नि आख़िर में जलाती ही है, बस।" यह कह कर उन्होंने तिलक की महत्ता को बताने वाला यह श्लोक भी बताया, "स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृ कर्म चः। त्त्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं बिना।।"

मिस्त्री की कन्नी-बसुली की कट-कट की आवाज़ की तरह उनकी बातें मेरे दिमाग में दिन पर दिन ज़्यादा चोट करती जा रही थीं। मैं अजीब सा चिड़चिड़ा होता चला जा रहा था। बेवज़ह पत्नी-बच्चों, मज़दूरों पर उखड़ने लगा। मकान बनवाने के लिए मैंने एक महीने की मेडिकल लीव ले रखी थी। मगर एक बड़ी अजीब बात भी हो रही थी कि जहाँ हर किसी को देख कर मुझे ग़ुस्सा आता था। वहीं घर में काम कर रहे एक क़रीब चालीस वर्षीय मज़बूत कद-काठी वाले मज़दूर पर मुझे ना जाने क्यों बड़ी दया आती। वह मुझे बहुत प्रभावित करता।

 काम बंद होने पर जब वह चला जाता तो मैं सोचता आख़िर यह मुझे इतना क्यों प्रभावित कर रहा है? मुझे इस पर दया क्यों आती है? इसमें कोई शक नहीं कि तिलक वाले अकाउंटेंट की बातों के कारण मैं अजीब से वहम में पड़ गया हूँ। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि उनकी बातों और मज़दूर में कुछ सम्बन्ध है। यह क्यों मुझे एकदम अलग दिख रहा है? मैं देखता कि वह एकदम गूँगे की तरह मुँह सिले दो-तीन मज़दूरों के बराबर अकेले ही जी-तोड़ काम करता रहता है। एक मिनट भी रुकता नहीं।

लंच टाइम में सारे मिस्त्री, मज़दूर खाना खाने चले जाते हैं। आधे घंटे को कह कर निकलते हैं, लेकिन लौटते हैं एक घंटे में। हँसते-बोलते, बीड़ी-तंबाकू, पान-मसाला खाते-पीते। लेकिन यह ऊपर छत पर एक कोने में बैठकर पाँच मिनट में न जाने क्या खा-पीकर तुरंत मुँह में सुरती दबाता है और काम में जुट जाता है। जब-तक सब आते हैं तब-तक यह बहुत सारा काम पूरा कर डालता है।

मैं बड़ी सोच में पड़ गया कि वह आख़िर ऐसा क्या लाता है अंगौछे में जो पलक झपकते खाकर पानी पी लेता है। अगले दिन मैं उसके पास पहुँच गया कि देखूँ क्या लाता है? मुझे देखकर वह अचकचा गया। बहुत संकोच के साथ दिखाया। अंगौछे में छः-सात मोटी-मोटी रोटियाँ थीं। सब्ज़ी-दाल, चटनी-वटनी, प्याज-मिर्चा वग़ैरह कुछ भी नहीं था। मेरा मन बड़ा द्रवित हो गया। मैंने पूछा, "कैसे खाओगे भाई?" उसने तुरंत एक पुड़िया खोल कर दिखाई। बिल्कुल सादा सा नमक था। कहा, "ये है ना बाबू जी। इसी से खा लूँगा।"

मैंने आश्चर्य से देखते हुए कहा, "ये रूखा-सूखा कैसे खाओगे? तुम दो मिनट रुको, सब्ज़ी-दाल कुछ मँगवाता हूँ।" मैं मिसेज को आवाज़ देने ही जा रहा था कि उसने हाथ जोड़कर मना कर दिया। मैंने फिर दोहराया कि रूखा है तो उसने पानी की बोतल दिखाते हुए कहा, "नहीं साहब ये पानी है ना।" मैं आश्चर्य से उसे कुछ देर देखता रह गया। फिर वहाँ से हट गया कि वह निसंकोच होकर खाना खाए। यह सोचते हुए मैं नीचे चला आया कि बड़ा स्वाभिमानी और संकोची है। हो सकता है कि सवेरे-सवेरे कुछ बना ना पाया हो।

अगले दिन मैं अपने को फिर नहीं रोक पाया। देखा तो फिर वही नमक रोटी। मुझे बड़ी दया आई। मैंने फिर सब्ज़ी-दाल की बात उठाई तो उसने हाथ जोड़ लिया। मगर तीसरे दिन मुझसे नहीं रहा गया। जब वह खा-पी चुका, तो मैं उसी के पास ईंटों के ढेर पर बैठकर उससे बात करने लगा। बड़ी मुश्किल से वह सहज हुआ और खुल कर बोलना शुरू किया। मैंने उसे सिगरेट भी पिलाई जिससे कोई हिचक ही ना रहे। वह ले नहीं रहा था, बहुत कहने पर पीने लगा।

जिस अंदाज़ में उसने सिगरेट पी उससे मुझे विश्वास हो गया कि वह इन चीज़ों का शौक़ीन है। जब मुझे लगा कि वह बातचीत में अब पूरी तरह ट्रैक पर आ चुका है तो उससे पूछा कि, "तुम डेली साढ़े चार सौ रुपये कमाते हो, रोटी के साथ दाल या सब्ज़ी वग़ैरह भी तो ला ही सकते हो। गेहूँ के आटे की रोटी के अलावा और कुछ ना खाने से तो तुम्हारा स्वास्थ्य जल्दी ख़राब हो जाएगा। गेहूँ के आटे में ग्लूटन नामक पदार्थ बहुत होता है, जो आँतों के लिए किसी भी सूरत में अच्छा नहीं है। ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या बात है?" मेरी इस बात को वह टालने लगा। मगर उसके चेहरे पर जिस तरह के भाव आए-गए। दुख-पीड़ा की जो गहरी लकीरें चेहरे पर उभरीं, उससे मैं समझ गया कि कुछ ना कुछ तो बहुत बड़ी बात है, जो इसे बहुत कष्ट दे रही है।

मैं उससे और ज़्यादा अपनत्व के साथ बात करने लगा। कहा, "देखो कोई आपत्ति न हो तो जो भी समस्या है बताओ। मैं तुम्हारी मदद करूँगा।" मेरी बड़ी कोशिश के बाद उसने जो बताया उन बातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं हतप्रभ होकर बार-बार उसे देखता। मेरे मन में तुरंत जो बात आई वह यह कि इसे तुरंत घर से बाहर कर देना चाहिए। इसे घर के अंदर रखना मूर्खता है। ऐसे आदमी का क्या ठिकाना कि वही सारे काम ना दोहराए जो यह कर चुका है। लेकिन उसकी बेबसी, विनम्रता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह विश्वास करने में समय नहीं लगा कि वह अपने सारे ग़लत कामों के लिए सच में अपने को पश्चाताप की अग्नि में तपा रहा है। ख़ुद को शुद्ध कर रहा है। औरों की तरह उसे भी ख़ुद को शुद्ध करने का अधिकार है।

यह भी हम सभी की तरह इंसान है। हर इंसान से ग़लतियाँ होती हैं। जो ग़लतियों को स्वीकार ले, पश्चाताप कर ले, वह फिर से भला इंसान हो सकता है, और यह भला इंसान बनने में ही लगा हुआ है। इसे अगर मैंने धिक्कारा, ग़ुस्सा हुआ, भगाया तो कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिर पुराने रास्ते पर लौट जाए। उसने जब बताना शुरू किया तो ना हिचकिचाया, ना रुका।

बड़े भावुक स्वर में उसने बताया कि, "जब मैं इंटर के एग्ज़ाम का आख़िरी पेपर देकर लौटा तो देखा कि मेरे घर के सामने भीड़ लगी है। पुलिस वाले भी हैं। मैं घबराया, दौड़कर पहुँचा तो मालूम हुआ कि बाबूजी ने पंखे से लटक कर जान दे दी है। उनके कपड़े से मिली एक पर्ची में लिखा था कि वह अपनी ज़िंदगी से ऊब कर जान दे रहे हैं। किसी को परेशान ना किया जाए। ना ही पोस्टमार्टम किया जाए।

“उनके मरने के कुछ महीने बाद बहनों से मुझे पता चला कि उस दिन रात में अम्मा बाबूजी के बीच पहले ही की तरह झगड़ा हुआ था। बाबू ट्रक ड्राइवर थे। उनकी आधी कमाई शराब और औरतबाज़ी में ख़र्च हो जाती थी। इससे घर चलाने के लिए अम्मा को भी काम करना पड़ता था। वह मना करती थीं कि, ’ऐसे पैसा बर्बाद करना, शरीर बर्बाद करना ठीक नहीं है। ना जाने किन-किन औरतों के पास जाते हो। कौन-कौन सी बीमारी इकट्ठा किए मेरे पास आते हो।’ दोनों के बीच झगड़े की हर बार यही वज़ह होती थी। अम्मा कहतीं, ’बच्चों के सामने यह सब बोलते हो, कितना ख़राब लगता है। कितना बुरा असर पड़ रहा है उन सब पर। सब मोबाइल ज़माने के हैं। हम सबसे ज़्यादा जानते, समझते हैं।’ अम्मा लड़कियों का वास्ता देतीं लेकिन बाबूजी पर कोई असर नहीं होता। इस मनबढ़ई के कारण आख़िर नशे की हालत में ही परिवार को अकेला भरे जंगल में छोड़कर चले गए।

“अकेले घर चलाना अम्मा के लिए बहुत मुश्किल हो गया, इतना कि हम भाई-बहनों की पढ़ाई अंततः बंद हो गई। घर किसी तरह चल सके इसके लिए मैं नौकरी ढूँढ़ने लगा। लेकिन बहुत ढूँढ़ने पर भी मुझे नौकरी नहीं मिली। घर का ख़र्च चलना छोड़िए, उसका हिलना-डुलना भी मुश्किल होने लगा। तो मैं मज़दूरी करने लगा। एक बड़े अधिकारी का मकान बन रहा था। जैसे आप ऊपर बनवा रहे हैं, उसी तरह वह भी बनवा रहे थे। सवेरे-सवेरे ही काम शुरू करवा कर चले जाते थे। दिनभर मैडम सब कुछ देखती थीं। उनकी जैसी हँसमुख, मिलनसार, दयालु औरत मैंने आज तक दूसरी नहीं देखी। उनके जैसे ही प्यारे-प्यारे उनके दो बच्चे थे। जो सवेरे ही स्कूल चले जाते थे। मैं वहीं मज़दूरी कर रहा था। मेरे काम से वह बहुत ख़ुश थीं। एक दिन लंच के समय मेरा खाना देखकर बोलीं, ’तुम कल से खाना लेकर नहीं आना। यहीं खा लिया करना।’ शुरू में मेरा मन बिल्कुल नहीं था। लेकिन जब उन्होंने ज़्यादा कहा तो मैं मान गया।

मुझे चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब वही मिलता था, जो वह अपने लिए बनाती थीं। मैं भी बड़ा ख़ुश रहता, अहसान मानता और जी-तोड़कर खूब काम करता। काम धीमी रफ़्तार से, बड़े आराम से हो रहा था क्योंकि साहब ने एक मिस्त्री और एक ही लेबर काम पर लगाया था। मैडम ऐसे काम देख रही थीं, करवा रहीं थीं जैसे कि वह कोई मनोरंजन का काम है। एक दिन मैं दोपहर में हाथ-मुँह धोकर खाने के लिए सीमेंट वाली एक बोरी बिछा कर बैठ गया। मैडम मुझे खाना देने लगीं, बड़े प्यार से। ऐसा लग रहा था जैसे घर के किसी सदस्य को ही खिला रही हैं। बस उसी समय मुझ पर न जाने कौन सा साढ़ेसाती सनीचर सवार हो गया कि मैं उन्हें..., अब क्या बताएँ साहब, मुझे ऐसे कुछ नहीं देखना चाहिए था। मगर जब साढ़ेसाती सनीचर सवार हो तो कुछ नहीं हो सकता। मैं उसी समय उन पर हमला करने वाला था, लेकिन आख़िरी क्षण में ठहर गया। तब मैं समझ नहीं पाया था कि मैडम ने मेरी हरकत पकड़ ली है कि नहीं। वह कुल तीन बार खाने की चीज़ें परोसने आईं। मैं तीनों बार अपने को बड़ी मुश्किल से सँभाल पाया।

“उन्हें बरमुडा, टी-शर्ट में देखते ही ना जाने क्यों सनीचर मेरे सिर पर तांडव करने लगता था। ऐसा नहीं है कि वह कोई पहली बार उन कपड़ों में सामने आई थीं। मुझे महीना भर हो रहा था वहाँ काम करते-करते। दर्जनों बार वह छोटे कपड़ों में आईं। पूरा घर साहब, बेटी, बेटा सभी बड़े छोटे-छोटे कपड़ों में रहते थे। लेकिन तब सनीचर मेरे सिर पर तांडव नहीं करता था। कहने को भी नहीं। मगर उस दिन पता नहीं क्यों? उसी समय उन पर हमला करने से इसलिए भी ख़ुद को रोक पाया क्योंकि मिस्त्री के आने का डर था। खाना खाने के बाद मैं काम तो करता रहा, लेकिन मन में मैडम ही चलती रहीं। बराबर वह आँखों के सामने ही बनी रहीं। मन करता कि सारा काम-धाम छोड़कर उनके पास पहुँच जाऊँ।

“साहब मेरा पागलपन देखिए कि क़रीब तीन बजे मैं नीचे चला ही गया। हमला करने की तय करके। मुझ पर जैसे भूत सवार हो गया था। यह भी भूल गया कि घर में मिस्त्री भी है। मैं निश्चिंत पहले कमरे में पहुँचा। वह नहीं मिलीं, तो मैं लॉबी, फिर एक कमरा और पार करके बेडरूम तक चला गया। मगर मैडम वहाँ भी नहीं दिखीं। तभी मेरी नज़र सामने अलमारी पर पड़ी, जिसका दरवाज़ा बंद था। लेकिन चाबी उसी में लटकी हुई थी। मैंने एक चौकन्नी नज़र हर तरफ़ डाली। मुझे बेड पर तकिए के पास दो हज़ार और पाँच सौ की कई गड्डियाँ पड़ी हुई दिखीं। मैं ख़ुद को रोक नहीं पाया। गड्डियों को झपट कर पैंट की जेब में रख लिया। तभी कुछ आहट सुनकर वापस चल दिया। लॉबी में पहुँचा ही था कि मैडम दिख गईं। कोरियर से कोई सामान आया था। वह उसी के दो डिब्बे लिए चली आ रही थीं।

“मुझे वहाँ देखते ही हैरान होते हुए पूछा, ’तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’ उनको देखते ही मैं हकबका गया। एकदम सफ़ेद झूठ बोलते हुए जल्दी से कहा, ’जी, वह पानी माँगने आया था। ऊपर धूप बहुत तेज़ है।’ वह कुछ देर मुझे देखने के बाद बोलीं, ’ठीक है, तुम बाहर रुको। ला रही हूँ पानी।’ मैंने देखा कि मैडम का मूड उखड़ चुका है। कहाँ तो मैं हमला करने गया था, लेकिन उन्हें देखते ही घबरा गया। शायद नोट चोरी कर लिए थे इसलिए मैं उन पर हमला करने की हिम्मत नहीं कर सका। मैडम ने कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पानी पकड़ा दिया। मुझे साफ़-साफ़ ग़ुस्से में दिख रही थीं। पानी लेकर मैं ऊपर चल दिया। मेरे पैर काँप रहे थे। सही दिशा में नहीं पड़ रहे थे। अगर मैंने रुपए ना चुराए होते तो मैं निश्चित ही हमला कर चुका होता। चोरी करते हुए पकड़े जाने में बस कुछ ही सेकेंड का फ़र्क रह गया था। शायद इस बात ने मुझे अचानक ही बड़ा कमज़ोर बना दिया था। मैं सारा ज़ोर लगाकर भी अपने पैरों को थरथराने से रोक नहीं पा रहा था।"

उसकी यह बात सुनकर मैंने कहा, "बड़ी अजीब बात बता रहे हो तुम। जो आदमी रेप जैसा भयानक अपराध करने जा रहा हो चोरी तो उसके सामने कुछ है नहीं। फिर वह तुम्हें अकेली मिल भी गईं थीं।" मेरी इस बात पर वह बड़ी खिन्नता के साथ बोला, "साहब यही तो आज तक मैं भी नहीं समझ पाया कि उस समय मैं घबरा क्यों गया? मेरे पैरों की थरथराहट तब बंद हुई जब मिस्त्री की नज़र बचाकर मैंने नोट छत पर ही पड़ी मौरंग, बालू के ढेर में छिपा दिया। उसी पर कई ईंटें रख दीं। तब जाकर मैं निश्चिंत हो पाया कि अब मैं चोरी में नहीं पकड़ा जाऊँगा। शक के आधार पर पुलिस पकड़ेगी तो मिस्त्री भी धरा जाएगा। मगर रुपए कोई नहीं ढूँढ़ पाएगा।

“मुझे यक़ीन था कि मैडम बस रुपए की चोरी पकड़ने ही वाली हैं। अब कुछ ही देर में आफ़त आने वाली है। लेकिन कुछ समय बीत जाने के बाद भी जब आफ़त नहीं आई तो मेरे सिर पर फिर सनीचर तांडव करने लगा। मेरे क़दम नीचे की ओर बढ़ने लगे। मगर तभी नीचे से बच्चों की आवाज़ आने लगी। मतलब कि बच्चे स्कूल से वापस आ गए थे। मगर मेरे मन में धधक रही आग शांत नहीं हुई। तुरंत ही अगला प्लान बना लिया कि मिस्त्री पाँच बजे चला जाएगा और उसी समय बच्चे भी कोचिंग चले जाएँगे। साहब सात बजे से पहले आते ही नहीं। इससे अच्छा समय और कोई नहीं होगा। मैं भीतर ही भीतर ख़ुश हो रहा था कि बस कुछ ही समय बाद मैं अपने मन का कर लूँगा। कोई मुझे पकड़ भी नहीं पाएगा।

“मिस्त्री और बच्चों के जाने के बाद मैंने अपनी योजनानुसार सब कुछ किया। रोज़ मिस्त्री के जाने के बाद मैं घंटे भर और रुक कर काम समेटता था। उस दिन सब के जाने के बाद मैं आधे घंटे भी ख़ुद को रोक नहीं पाया। नीचे पहुँच कर लॉबी में ही मैडम को पकड़ लिया। मेरे हाथ में मिस्त्री की बसुली थी। अचानक मेरे इस भयानक रूप को देखकर मैडम सकते में आ गईं। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। लगा जैसे कि बेहोश हो जाएँगी। मेरे सिर पर सनीचर भयानक रूप से नाच रहा था। मैं बड़ी फ़ुर्ती के साथ उन्हें खींचते हुए सबसे पीछे कमरे में ले गया।

“पीछे कमरे में पहुँचते ही वह बेहोश हो गईं। अच्छी-ख़ासी मज़बूत जिस्म की थीं, लेकिन इतनी कमज़ोर! मैंने इत्मिनान से पूरी क्रूरता के साथ अपने मन का काम किया। मैडम के कपड़े उन्हीं पर फेंके। अपने कपड़े पहने, आराम से ऊपर जाकर पैसे लिए और भाग निकला। मुझे पूरा यक़ीन था कि मैडम होश में तभी आएँगी जब बच्चे, साहब आकर पानी-वानी छिड़क कर लाएँगे। मैं वहाँ से जितनी तेज़ साइकिल से भाग सकता था, उतनी तेज़ भागा। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि जाऊँ कहाँ? मुझे अब डर लगने लगा कि पुलिस पकड़ते ही हाथ-पैर तोड़ देगी। मैं हाँफता-भागता बस स्टेशन पहुँचा। जो बस जाती दिखी उसी में टिकट लेकर बैठ गया। वह रुद्रपुर जा रही थी। डर के मारे साइकिल स्टेशन के गेट पर ही छोड़ दी, जैसे कि मेरी है ही नहीं। अब मेरे पैर फिर काँप रहे थे। देर रात बस किच्छा पहुँची। लेकिन वहाँ ख़राब हो गई। फिर दूसरी बस यात्रियों को रुद्रपुर ले गई।"

उसकी बातें सुन-सुन कर मैं हतप्रभ हो रहा था। मन में कई बार आया कि कहीं यह मनगढ़ंत क़िस्सा तो नहीं सुना रहा है। उसे बीच में ही रोकते हुए पूछा, "यह बताओ तुम डकैती, रेप जैसा इतना गंदा, भयानक कांड करके भागे और आज तक पकड़े नहीं गए।" असल में उसकी दरिंदगी सुनकर मैं ग़ुस्से में आ गया था। मैंने तय किया कि इस भगोड़े को पुलिस को देकर इसे इसके कुकर्मों की सख़्त सज़ा ज़रूर दिलवाऊँगा। ये है तो ज़रूर ताक़तवर लेकिन इतना भी नहीं कि मैं रोक ना पाऊँ। अव्वल तो जब पुलिस इसकी खोपड़ी पर सवार हो जाएगी तब इसे पता चलेगा। इसे बातों में उलझा कर चुपचाप एक सौ बारह डायल करता हूँ। लेकिन आगे उसने जो बताया उससे मेरी योजना धरी की धरी रह गई।

उसने कहा, "पकड़ा गया। असल में साहब ने आते ही पुलिस बुला ली। आप तो जानते ही हैं कि आज कल हर जगह कैमरे लगे हैं। कैमरे से उन्हें सब पता चल गया। मोबाइल ने लोकेशन बता दी। रूद्रपुर पहुँचने से पहले ही पुलिए ने बस रुकवा कर उतार लिया। वापस ले आई और फिर गाली, लाठी, बेल्ट, जूता से ख़ूब मारा-तोड़ा। जो रुपये थे रास्ते में ही पुलिस की जेबों में ग़ायब हो गए। बताया गया कि मेरे पास रुपये बरामद ही नहीं हुए। मुझसे यही कहलवाया। दस साल की सज़ा काटी। घर पहुँचा तो एक और बड़ी अजीब कठोर सज़ा मुझे मिली। 

सच कहूँ तो अदालत और घर से भी बड़ी सज़ा मुझे मैडम और साहब ने दी। ऐसी सज़ा दी है कि मैं अंतिम साँस तक भुगतता रहूँगा। लेकिन तब भी सज़ा ख़त्म नहीं होगी।" उसकी इन बातों से मैं बड़ा कंफ्यूज़ हो गया कि यह क्या कह रहा है। मेरे मन में उसके लिए घृणा बढ़ती जा रही थी। उससे बात करने का मेरा टोन बदलता चला जा रहा था। मैंने नफ़रत से कहा, "साफ़-साफ़ बताओ ना सारी बात।" 

"साहब बात यह है कि मैं जेल पहुँच गया तो शुरू-शुरू में कुछ महीने मैं बहुत ही ज़्यादा परेशान रहा।

“मैं देखता कि बड़े-बड़े अपराधियों के घर के लोग भी उनसे मिलने आते हैं। कई-कई हत्याओं के हत्यारों से भी। लेकिन मुझसे मिलने कोई नहीं आता। शुरू में मैंने सोचा कि अभी सब कुछ नया-नया है, इसलिए सब ग़ुस्सा होंगे। इसीलिए नहीं आ रहे हैं। समय के साथ जब ग़ुस्सा ख़त्म हो जाएगा, तो सब आएँगे। अम्मा भी आएँगी, बहनें भी आएँगी। लेकिन दिन, महीना, साल देखते-देखते दस साल बीत गए। अम्मा कैसी हैं? बहनें कैसी हैं? घर कैसे चल रहा है? मुझे इन दस सालों में कुछ भी नहीं पता था। एक तरह से दोहरी सज़ा काट रहा था। कोई नहीं आया मेरे पास, किसी तरह की कोई सूचना नहीं थी। मैं पूरी-पूरी रात सो नहीं पाता था। छोटी सी तंग कोठरी में पड़ा तड़फड़ाता रहता था। रात दिन पछताता कि मैंने ये क्या पागलपन कर डाला। एक पागलपन की अब मुझे ना जाने क्या-क्या सज़ा मिलेगी।

“मैंने वह दस साल कैसे काटे, उन दस सालों में कैसी-कैसी पीड़ा से गुज़रा इसका अंदाज़ा कोई मेरी जैसी स्थिति से गुज़रने वाला आदमी ही लगा सकता है।" 

"अच्छा!" 

"हाँ साहब। सही कह रहा हूँ। जिस दिन मैं जेल से छूटा तब वास्तव में दस साल छः महीना बीत चुका था।" 

"क्यों, छः महीने और क्यों?" 

"क्योंकि साहब मेरी बात करने वाला घर का तो कोई आदमी था नहीं। और सरकारी काम-काज तो अपनी मर्ज़ी, अपनी रफ़्तार से चलता है। काग़ज़ी कार्रवाई पूरी होने में छः महीने निकल गए। ख़ैर जेल में रहते जहाँ जल्दी से जल्दी घर पहुँचने के लिए परेशान रहता था, वहीं जब जेल से बाहर क़दम रखा तो बड़े असमंजस में पड़ गया कि घर चलूँ कि नहीं। क्योंकि बाहर क़दम रखते ही मेरे मन में यह बात आई कि जब दस साल किसी ने कुछ ख़बर नहीं ली कि ज़िंदा भी हूँ कि नहीं, दसियों चिट्ठियाँ भेंजी, किसी का पलटकर जवाब तक नहीं मिला तो क्या जाना ऐसे घर में।

“अगर घर होता तो ऐसा व्यवहार कहाँ होता। पहुँचने पर कहीं ऐसा ना हो कि सब पहचानने से ही मना कर दें। कहीं लूटेरा कह कर दरवाज़े से ही फटकार कर ना भगा दें। आख़िर मैंने तय किया कि नहीं जाना ऐसे घर में। घर ने हमें छोड़ दिया है तो हमें भी उसे छोड़ देना चाहिए। फिर मिनट भर में मेरे दिमाग़ में जीवन भर की योजना बन गई कि जेल में जितने पैसे कमाए हैं, उसी से कोई छोटा-मोटा काम-धंधा कर लूँगा और किसी अच्छी-भली लड़की से शादी करके बच्चे पैदा करूँगा। अपना जीवन पटरी पर ले आऊँगा। कोई न कोई लड़की तो मिल ही जाएगी। बाहर अब कौन जानता है कि मैं सज़ायाफ़्ता हूँ। यह सोचकर मैं और तमाम लोगों की तरह मुंबई जाने के लिए चल दिया। डासना जेल से निकलकर यह तय करने तक मुझे तीन घंटे लग गए।

“रेलवे स्टेशन पहुँच कर तत्काल में रिज़र्वेशन करवाना चाहा तो नहीं हुआ। मैं जनरल से ही चलने की सोच कर प्लेटफॉर्म पर ही इंतज़ार करने लगा। क़रीब चार घंटे बाद ट्रेन आई। सामान के नाम पर अब तक मैंने एक बैग, कुछ और ज़रूरी कपड़े ले लिए थे। ट्रेन आई तो वही बैग लिए मैं जनरल बोगी में घुस गया। पूरी बोगी क़रीब-क़रीब भरी हुई थी। हर तरफ़ लोगों का शोरगुल था। जल्दी ही ट्रेन छूटने का समय हो गया। तभी अचानक ही मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरे जेल जाने के बाद घर पर कोई ऐसी आफ़त-विपत्ति आ गई हो कि कोई मुझ तक पहुँचने की सोच ही ना पाया हो। बाबू जी थे नहीं। अम्मा, बहनें ही थीं। कुछ भी हो सकता है। हमें पहले घर चलकर सारी बातें पता करनी ही चाहिए। सब कैसे हैं? कहाँ हैं? ज़िंदा भी हैं कि नहीं।

“तभी ट्रेन सरकने लगी। साहब इसी के साथ मेरे दिमाग़ में धमाका हुआ कि, चल उतर, जल्दी कर, घर पहुँचना है। और साहब मैं बर्थ से उतर कर ऐसे भागा बाहर की तरफ़ जैसे कोई बेटिकट यात्री चेकिंग स्क्वायड को देखकर भागता है। जब नीचे प्लेटफ़ॉर्म पर मेरे क़दम पड़े तो स्पीड इतनी तेज़ थी कि सारी कोशिशों के बावजूद मैं ख़ुद पर काबू नहीं रख सका और आगे एक खम्भे से ज़ोर से टकरा गया। मेरी नाक, माथे पर ज़ोर की चोट आ गई। ख़ून निकलने लगा। जो बैग लिया था वह भागम-भाग में ट्रेन में ही छूट गया। उसे उठाने का मेरे पास समय ही नहीं था। अब मैं जल्द से जल्द घर पहुँचने के लिए एकदम बिलबिला उठा। अगले दिन भूखा, प्यासा अपने घर पहुँचा। घर पहुँचने की तड़प में खाने-पीने की भी नहीं सोच सका। ऐसी तड़प के साथ जब घर के सामने पहुँचा तो वह मुझे एकदम उजाड़ मिला। बिल्कुल गंदा, टूटा-फूटा, कूड़ा-करकट से भरा।

“काँपते क़दमों से मैंने घर के अंदर क़दम रखा तो कमरे में अम्मा तखत पर कराहती मिलीं। वह एकदम टीबी की मरीज़ बन चुकी थीं। हड्डियों का ढाँचा भर रह गईं थीं। बाल उलझे हुए थे। धूल में सने हुए लग रहे थे। उनकी और घर की हालत देखकर मेरा कलेजा फट गया। मन किया कि इतना तेज़ चीखूँ कि मेरी अम्मा और घर का सारा दुख उस भयानक चीख में उड़ जाए। मुझे रोम-रोम में इतनी भयानक पीड़ा महसूस हुई कि उतनी पीड़ा मुझे पुलिस की सैकड़ों लाठियाँ, बेल्ट, जूते की मार से भी महसूस नहीं हुई थी।

“मेरे आँसुओं की धारा बह चली थी। तभी इस बात का जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि ख़ून के आँसू यही हैं। मेरे होंठ, ज़ुबान फड़क रहे थे। लेकिन कोई बोल नहीं निकल रहे थे। बहनों की तरफ़ ध्यान गया तो कहीं कोई नहीं दिखी। हर तरफ़ कूड़ा-करकट, धूल, मकड़ी के जाले ही दिखे। पीने का पानी तक नहीं था। मैं फिर अम्मा के पास पहुँचा, उन्हें उठाया, बहुत याद दिलाया तब वह पहचान पाईं और फिर फूट-फूट कर रो पड़ीं। उस तरह, वैसी दर्द भरी रुलाई उनकी तब भी नहीं थी जब बाबू जी ने आत्महत्या कर ली थी। बड़ी देर में चुप करा पाया।

“बार-बार खाँसते-खाँसते उनकी आँखें लाल हो गईं थीं। नल से लाकर उन्हें पानी पिलाया और कहा, ’अम्मा तू आराम कर। मैं जल्दी से कुछ खाना-पीना लेकर आता हूँ।’ लेकिन अम्मा एकदम से फिर रोती हुई मुझे कहीं जाने से रोकने लगीं, जैसे कि मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा। बड़ी देर में समझा-बुझाकर खाना-पीना ला पाया। कुछ खाने के बाद अम्मा की तबीयत जब कुछ सँभली तब उन्होंने रो-रो कर घर की तबाही का पूरा क़िस्सा घंटों में बताया कि कैसे मेरे जेल जाने के बाद हालात तेज़ी से बिगड़ते चले गए। उन्हें दमा हो गया। काम पर जाना मुश्किल हो गया। खाने-पीने के लाले पड़ने लगे।

“दोनों बहनों की बात आने पर अम्मा बड़ी तेज़ बिलख पड़ीं, ऐसा कि देर तक कुछ बोल ही नहीं पाईं। बड़ा दिलासा दिया तब बड़ी ताक़त बटोर कर बताया कि, ’भूख, प्यास सहित मैं हर चीज़ से जूझती रही। इन सबके लिए खटती रही। लेकिन दोनों ने जिस तरह आवारागर्दी की, मेरे मुँह पर कालिख पोत कर चली गईं, उससे मैंने खाट पकड़ ली। पहले बड़ी वाली किसी के साथ भाग गई। महीना भर भी नहीं हुआ कि दूसरी भी किसी के साथ चली गई। कुछ दिन बाद मालूम हुआ कि जिसके साथ छोटी वाली गई थी वह धोखेबाज़ निकला, और उसको वेश्या बाज़ार में बेच दिया।’ अम्मा जितना बतातीं उससे ज़्यादा रोतीं। मैं और दुखी होता। बहनों के बारे में सुनकर मेरे मन में पहली-पहली जो बात आई वह यही थी कि मेरे कुकर्म, मैडम के श्राप के ही कारण यह हुआ है।

“मैं आत्मग्लानि से ऐसा छटपटा उठा कि मन में आया कि बाबू जी की तरह आत्महत्या कर लूँ। मेरे कुकर्मों की सज़ा मौत ही है। मेरे कुकर्म ही के कारण घर ऐसे बर्बाद हुआ। मेरा ही नहीं साहब का भी। मैडम, साहब कहाँ जीवन भर यह चोट भुला पाएँगे। अब वह कहाँ पहले की तरह हँस-बोल पाएँगे, कहाँ जीवन में किसी पर विश्वास कर पाएँगे। लेकिन अम्मा की हालत ने आत्महत्या करने से रोक दिया। मैंने सँभल कर अम्मा के बारे में सोचा कि इनकी सेवा करके प्रायश्चित करूँगा। तबाह बरबाद घर को फिर से बनाऊँ यही सोच कर एक छोटी सी एक दुकान खोली। दाल-रोटी किसी तरह चलने लगी। लेकिन भगवान ने जैसे अम्मा के जीवन में कष्ट ही कष्ट लिखा था। दो महीने बाद ही अम्मा दुनिया छोड़ गईं। मैं हफ़्तों घर के बाहर ही नहीं निकला। पहले से ही किसी तरह खींचतान कर चल रही दुकान बंद रही। सारे ग्राहक टूट गए। जब दुकान फिर से खोली तो वह चल नहीं सकी। सामान थोक में दे जाने वालों का कर्ज़ा था, तो उसे चुकाने में दुकान बिक गई। मैं सड़क पर आ गया।

“मजबूरी में फिर मज़दूरी करने लगा। अब ना कोई आगे है, ना पीछे। मज़दूरी है, मैं हूँ, ज़िंदगी कट रही है। मगर मैडम भुलाए नहीं भूल रही हैं। हर समय एक आँख से मुझे अपना बर्बाद तबाह घर दिखता है तो दूसरी आँख से सीधी-सादी, सरल, भली महिला मैडम। और उन्हें देखकर मैं हमेशा यही समझने की कोशिश करता हूँ कि साहब, मैडम ने क़ानून से कठोर सज़ा क्यों नहीं दिलवाई। उससे भी हज़ार गुना ज़्यादा कठोर सज़ा उन्होंने स्वयं मुझे क्यों दी। यह सज़ा देने की बात उनके दिमाग़ में कैसे आई।"

"यह क्या तुम बार-बार कह रहे हो? मैडम ने तुम्हें कौन सी सज़ा दी। वह भला तुम्हें कौन सी सज़ा दे सकती थीं, जो इतनी कमजोज़ो थीं कि डर कर बेहोश हो गईं।" 

"असल में अपराध तो बाबू जी मैंने रेप का किया था। रुपए की चोरी तो लगे हाथ हो गई थी। लेकिन मैडम, साहब ने रेप की रिपोर्ट लिखवाई ही नहीं थी। डकैती, जानलेवा हमला बस यही रिपोर्ट थी।" 

"क्या?" 

"हाँ साहब। आप भी चौंक गए ना। मैं यही तो सोच-सोच कर, हैरान, परेशान रहता हूँ कि मैडम और साहब ने क्या यही सोच कर मेरी जान बचाई कि मैं सोच-सोच कर जीवन भर तिल-तिल कर मरूँ। अपने तबाह हो चुके घर पर हमेशा आँसू बहाता रहूँ। अपनी बहनों के बर्बाद होने पर रोता रहूँ। अपनी माँ की तिल-तिल कर हुई मौत पर ख़ून के आँसुओं से जीवन भर रक्त स्नान करता रहूँ। अब आप ही बताइए कि यह मौत की सज़ा से भी कठोर सज़ा है कि नहीं।"

उसकी यह बात सुनकर मैं बड़ा खिन्न हो गया। मैंने उससे कहा, "अब पता नहीं कठोर सज़ा है कि नहीं। चलो, अच्छा अब काम करो।" उसकी बातें सुनते-सुनते अब तक मेरा मन बहुत उखड़ चुका था। उसके प्रति घृणा से भर चुका था। मैंने उससे यह नहीं कहा कि रेपिस्ट, गंदे इंसान वह भली औरत, आदमी अपनी इज़्ज़त को लेकर इस सोच के होंगे कि दुनिया इस बात को ना जाने कि उनकी इज़्ज़त लुट गई है। टीआरपी के लिए मीडिया उनके साथ हुई दरिंदगी को हथियार ना बनाए। तुम वह जानवर हो जिसने उसी पर हमला किया जो बड़ा हृदय, मानवता के नाते तुम्हें वही खाना-पीना दे रही थी जो ख़ुद के लिए बनाती थी। तुझे उसने इंसान समझा, लेकिन तू विश्वासघाती, खूँखार जानवर निकला। हाँ उनकी जगह मैं, मेरी पत्नी होती तो हम तुम्हें फाँसी तक पहुँचा कर ही दम लेते। ना मीडिया को हथियार बनाते और ना उनको बनाने देते। तेरी सच्चाई ने मुझे अपने परिवार की जीवन शैली, संस्कार को लेकर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया है।

शाम को जब काम ख़त्म कर मिस्त्री-मज़दूर हाथ-मुँह धोने लगे तो मैंने सब का पूरा-पूरा हिसाब करके कह दिया कि कल से काम बंद रहेगा। सब के मोबाइल नंबर मेरे पास हैं। जब ज़रूरत होगी तो मैं बुला लूँगा। उस रेपिस्ट को मैंने बहुत हिकारत, घृणा से पैसा दिया। उसके नमस्ते का भी जवाब नहीं दिया। उसके चेहरे के भाव मुझे बता रहे थे कि उसने मेरे चेहरे के भाव पढ़ लिए हैं, कि उसके प्रति मुझमें कितनी घृणा भर गई है। आगे मैंने तीन दिन तक काम बंद रखा। घर, बाहर कहीं भी मैं अपने स्वभाव के अनुसार खुलकर हँसी-मज़ाक, बातचीत नहीं कर पा रहा था।

मिसेज ने पूछा तो कह दिया कि थकान महसूस कर रहा हूँ। दो-तीन दिन आराम के बाद फिर शुरू करवाऊँगा। मेरे शांत रहने पर उसने जब ज़्यादा ज़ोर देकर पूछा कि आख़िर बात क्या है? तो मैंने उसे सारी बात बताई। उसने कहा, "मैं भी उसे अच्छा आदमी समझ रही थी। मगर जो भी हो दुनिया को इस मानसिकता से बचाने के बारे में सोचना ही चाहिए। ऐसा समाज, ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें रेप के बारे में सोचने का कोई कारण ही ना बचे। लोग निश्चिंत होकर जैसे चाहें वैसे कपड़े पहनें, रहें, खाएँ-पिएँ।"

जल्दी ही मैंने मकान का अधूरा काम पूरा करवाया। इस दौरान मैंने परिवार को मिनट भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा। हर मज़दूर, कारीगर में मुझे वही गंदा रेपिस्ट नज़र आता। इनको मैं परिवार के सदस्यों के सामने फटकने भी नहीं देता था। बीवी से, अपनी साथी से बहुत बड़ी-बड़ी चर्चा के बाद हमारा निष्कर्ष यह निकला कि जो भी हो हमें अपनी मौलिकता नहीं छोड़नी चाहिए। जो स्वाभाविक है वही सुंदर है। सुरक्षित है। नक़ली कभी सुंदर नहीं हो सकता और ना ही सुरक्षित। इस निष्कर्ष के साथ ही हमने हमारी जीवन शैली में बहुत कुछ परिवर्तन भी किया। और हाँ, तिलक वाले अकाउंटेंट साहब से अब मेरी तीखी बहस नहीं होती।

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मेरा आख़िरी आशियाना 

सूरज ना बदला, चाँद ना बदला, ना बदला रे आसमान, कितना बदल गया इंसान... अम्मा आराम करती हुई या काम करती हुई, दिन-भर में नास्तिक फ़िल्म के लिए, गीतकार प्रदीप के लिखे भजन की इन लाइनों को कई-कई बार गुनगुनाती थीं। वह भजन की शुरूआती लाइनों "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान...,” को छोड़ देती थीं। दादी उनको गुनगुनाती सुनतीं तो झिड़कती हुई बोलतीं, "अरे काम-धाम करो, जब देखो तब नचनिया-गवनियाँ की तरह अलापा करती हो।" 

अम्मा उनकी झिड़की सुनकर एकदम सकते में आ जातीं। चुप हो जातीं। अपना घूँघट और बड़ा करके काम पूरा करने लगतीं। अम्मा दादी की बातों का कभी बुरा नहीं मानती थीं। उनके हटते ही गहरी साँस लेकर मुस्कुरातीं, फिर कुछ ही देर में गुनगुनाने लगतीं "सूरज ना बदला....।" यह उन दिनों की बात है जब मैं क़रीब बारह-तेरह वर्ष की हो रही थी। छठी में पढ़ रही थी। देश की सीमा पर युद्ध के बादल गहराते जा रहे थे।

बाबूजी पाकिस्तान से लगती सीमा पर तैनात थे। बाबा, दादी, चाचा सभी चिंतित रहते थे। अन्य देशवासियों की तरह यह लोग भी उन्नीस सौ बासठ के भारत-चीन युद्ध की विभीषिका को भुला नहीं पाए थे। उस युद्ध में गाँव के ही दो पट्टीदारों का कुछ पता नहीं चल पाया था। वह लोग चीन से लगती सीमा पर तैनात थे। जब उन लोगों की बात होती तब बाबा कहते, "जनम-जनम के धोखेबाज़, कमीने चीन ने हिंदी-चीनी भाई-भाई करके पीठ में छूरा भोंक कर मारा था। आमने-सामने बात होती तो बात कुछ और होती।"

एक और पट्टीदार जो बाबा के सबसे क़रीबी थे, वह बोलते, "अरे नेहरू जी समझ नहीं पाए धोखेबाज़ को। पंचशील का झुनझुना बजाते रहे। झोऊ एनलाई की पीठ थपथपाते रहे, गले लगाते रहे। मारा सत्यानाश कर के रख दिया था। फौजियों को बिना हथियार के ही बेमौत मरवा दिया था। बेचारों को गोला-बारूद तक तो मिला नहीं था लड़ने के लिए, पता नहीं काहे के नेता बने फिरते थे।" इस बात के जवाब में बाबा कहते, "नेता नहीं। शांति मसीहा बनने के चक्कर में सच से मुँह मोड़े रहे। सामने धोखेबाज़ झोऊ एनलाई है, हाथ में छूरा लिए है यह देखकर भी अनदेखा किये रहे। उनको खाली नोबेल पुरस्कार दिख रहा था। मक्कार चीन की धूर्तता नहीं।"

उन्नीस सौ बासठ के भारत-चीन युद्ध के संबंध में ऐसी बातें करने वाले बाबा लोग उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान से युद्ध के बादलों को देखकर बोलते, "देखो अब की क्या होता है?" बाबा कहते "जो भी होगा उन्नीस सौ बासठ जैसी दुर्दशा तो नहीं होगी, मुझे इसका पूरा विश्वास है। अबकी अपने फौजी कम से कम बिना हथियार के निहत्थे नहीं लड़ेंगे। हथियार रहेगा तो दुश्मनों की धज्जियाँ भी उड़ाएँगे, जीतेंगे भी।"

मर्दों की इन बातों को सुन-सुन कर दादी गंभीरता की मूर्ति बन जातीं। उन्हें सीमा पर तैनात अपने बेटे की चिंता सताती। ऐसे में माँ का भजन गुनगुनाना उन्हें बहुत बुरा लगता। अम्मा जब बुआ से बात करतीं तो कहतीं, "अम्मा जी बेवजह नाराज़ होती हैं। हम भगवान को याद करते हैं। उन पर हमें अटल भरोसा है। इनको कभी कुछ नहीं होगा। अबकी अपना देश हर हाल में जीतेगा। अम्माजी तो कुछ समझती ही नहीं। ये भी अबकी आए थे तो कह रहे थे कि शास्त्री जी बड़ी मजबूती से देश सँभाल रहे हैं। पाकिस्तान को तबाह कर देंगे। इनको तो और पहले देश सँभालना चाहिए था। मगर अम्मा को कौन समझाए, वह पहले वाली ही बात लिए बैठी हैं। बेवजह परेशान होती रहती हैं।"

अम्मा की बात सच निकली शास्त्री जी की छत्रछाया में देश ने पाकिस्तान को धूल-धूसरित कर दिया। बाबूजी भी कई महीने बाद सकुशल घर लौट आए थे। गाँव में उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ। सम्मान किया गया। सीमा पर दुश्मनों की धज्जियाँ उड़ाने वाले बाबू जी गाँव में नायक बन गए थे। घर में ख़ुशियों के बीच अम्मा ने कई बार दादी से कहा, "अम्मा जी आप तो बेवजह परेशान हो रही थीं। मैं तो हमेशा भगवान से प्रार्थना करती थी। मुझे अपने भगवान पर पूरा भरोसा था।" अम्मा का इतना कहना होता था कि दादी चिढ़ जातीं, अपनी तेज़ आवाज़ में बोलतीं, "प्रार्थना करती थी कि सनीमा (सिनेमा) के गाना गाती थी।"

दादी परंपरागत भजन-आरती को ही भजन-आरती मानती थीं। फ़िल्मी संगीत उनकी नज़र में गंदा था। अम्मा कहतीं, "यह भजन है अम्मा, गाना नहीं।" मगर दादी को ना मानना था तो वह ना मानतीं। अम्मा ने भी इस भजन को गुनगुनाना बंद करने के बजाय और ज़्यादा गुनगुनाना शुरू कर दिया था। यह तो मैं अब भी नहीं समझ पाई कि वह और ज़्यादा दादी को चिढ़ाने के लिए गुनगुनाती थीं या बाबूजी के सकुशल लौट आने की ख़ुशी में, कि कितना बदल गया इंसान।

घर में तब पता नहीं कौन कितना बदला था, या नहीं बदला था। पर मैं यह मानती हूँ कि मेरे लिए सब बदल गए थे। और किसी के बदलने की मुझे कोई परवाह नहीं थी। मगर जिन दो लोगों का बदलना आज भी मुझे सालता है। आज तक पीड़ा देता है, और मैं बेहिचक कहती हूँ कि उनके बदलने के ही कारण मेरा जीवन हमेशा-हमेशा के लिए अंधकार में डूब गया, वह कोई और नहीं मेरी प्यारी अम्मा और मेरे प्यारे बाबू जी ही थे। जिनके बदलने के कारण अम्मा के प्रिय इस भजन की लाइन आज भी उन्हीं की आवाज़ में मेरे कानों में गूँजती है। "कितना बदल गया इंसान...।" अम्मा-बाबूजी के लिए यह कहना मेरे लिए प्रसव पीड़ा से गुज़रने जैसा पीड़ादायी है, लेकिन क्या करूँ और सह पाना मुश्किल हो गया है। सहते-सहते, झेलते-झेलते अब नहीं रहा जाता।

सही यह है कि कोई कितना ही मज़बूत, कठोर क्यों ना हो, जीवन का एक दौर वह भी होता है जब वह टूटने लगता है। पानी के बुलबुले से भी वह घायल होने लगता है। बुलबुला भी उसे पत्थर सी चोट पहुँचाने लगता है। मैं ऐसी ही स्थिति में आ गई हूँ, इसी लिए अम्मा-बाबूजी के लिए यह बात मन में आती है। मेरे लिए वह तब भी, आज भी, आगे भी, पूजनीय थे, हैं और रहेंगे। लेकिन वह कितना बदले थे यह भी कभी नहीं भूलेगा।

उस समय जब बाबा घर आकर यह बताते थे कि आज स्कूल में मेरी पढ़ाई की फिर तारीफ़ हुई है। छमाही, सलाना परीक्षा का रिज़ल्ट आने पर जब सबसे आगे रहने पर मुझे इनाम मिलता, हर तरफ़ से मेरी प्रशंसा होती तो अम्मा ख़ुशी के मारे नाच उठती थीं। बाबू जी को ख़ुशी के मारे सब कुछ लिखकर लंबा सा पत्र भेजती थीं। मुझे बड़े प्यार से गले लगा लेती थीं। मैं भी बड़ा प्यार लाड़-दुलार दिखाती।

उनकी गोद में सिर रखकर दोनों हाथों से उन्हें चिपका लेती। चेहरा उनके पेट से चिपका कर उनके आँचल से अपना सिर ढंक लेती थी। ऐसा लगता मानो कोई चिड़िया अपने बच्चे को अपने पंखों में छुपाए हुए है। अम्मा बड़े प्यार से, हल्के हाथों से मेरे सिर को सहलातीं। मुझे लगता जैसे मैं मखमल नहीं धुनी हुई रूई के फाहों पर लेटी हुई हूँ। माँ लोरियाँ गा रही हैं। उसकी मधुर रुनझुन कानों में शहद घोल रही है। पहाड़ों की ओर से आती शीतल हवा बड़ी नाज़ुक सी थपकियाँ दे रही है।

कई-कई बार ऐसा हुआ कि मैं कुछ ही मिनटों में, ऐसे ही अम्मा की गोद में सो गई। तब अम्मा मुझे जगाती नहीं थीं। इतना सँभालकर मुझे लिटा देती थीं कि मेरी नींद टूटती नहीं थी। नींद पूरी होने पर जब मेरी आँख खुलती तो अम्मा को अपने पास ना पाकर मैं फिर से उनके पास पहुँच जाती। तब वह कहतीं, "तुझे बड़ी जल्दी नींद आती है। गोद में लेटते ही चट से सो जाती है।"

दादी जब पाकिस्तान से युद्ध के कुछ ही हफ़्तों पहले बाबूजी का नाम लेकर कहतीं, "अबकी आए तो उससे कहूँगी कि इसकी शादी-वादी ढूँढे़। अब उमर हो चली है।" तो अम्मा कहतीं, "अभी नहीं अम्मा जी, अभी इसे और पढ़ाऊँगी, इसे मैं डॉक्टर बनाऊँगी।" मैं कहती नहीं, मैं बाबूजी की तरह फौजी बनूँगी। दादी की बात पर मैं पैर पटकती हुई दूसरी तरफ़ चली जाती।

दादी से मुझे डॉक्टर बनाने की बात करने वाली अम्मा ने, जब बाबूजी लौटे तो मेरी पढ़ाई की बात चलने पर उनसे भी मुझे ख़ूब पढ़ाने की बात की थी। बाबूजी ने भी उनकी बात पर हामी भरी थी। लेकिन हफ़्ते भर बाद ही न जाने क्या हुआ, दादी-बाबा ने जो भी बातें मेरी शादी के लिए बार-बार कीं, जो कुछ भी, जैसा भी समझाया-बुझाया बाबू-अम्मा को, कि सब कुछ बदल गया। दिनभर "कितना बदल गया इंसान" गाने वाली अम्मा भी बदल गईं।

ज़ाहिर है बाबूजी उनसे पहले ही बदल गए थे। मुझे पता तक नहीं चला और महीने भर में ही मेरी शादी तय कर दी गई। घर पर एक दिन बहुत से मेहमान आए थे। उसी समय कब लड़के वाले मुझे देख-दाख के, रिश्ता तय करके चल दिए थे मुझे कुछ भी पता नहीं चला था। उन सब के जाने के बाद घर भर जिस तरह से ख़ुशी से झूम रहा था, मुझ पर बार-बार कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार उड़ेल रहा था, उससे मुझे कुछ अटपटा ज़रूर लग रहा था। लेकिन फिर भी सबके साथ हँसती-बोलती, खेलती-कूदती रही। परन्तु दो-चार दिन बाद ही मैंने महसूस किया की अम्मा-बाबूजी, बाबा-दादी सहित घर के सारे बड़े-बुज़ुर्ग कुछ ज़्यादा ही विचार-विमर्श कर रहे हैं।

सबसे ज़्यादा यह कि मुझे देखते ही सब अजीब तरह से शांत हो जाते हैं या बात बदल देते हैं। यह सब मेरी शादी की तैयारी का एक हिस्सा है यह मुझे पता तब चला जब एक दिन लड़के वाले मेरी गोद भराई कर गए। मैं बहुत रोई, अम्मा से ग़ुस्सा भी हुई, चिरौरी, विनती की, लेकिन सब बेकार। कोई मेरी सुनने वाला नहीं था। अम्मा भी बुरी तरह बदल गई थीं। कितना बदल गया इंसान अम्मा तब भी गुनगुनाती थीं। फिर देखते-देखते मेरी शादी हो गई।

अम्मा-बाबूजी, बाबा-दादी सबने ससुराल के लिए विदा कर दिया। मैं फूट-फूट कर रोती रही। रोक लो, मुझे ना भेजो अभी। मुझे पढ़ना है। अम्मा तुझे छोड़कर न जाऊँगी। बाबूजी। मगर सब बेकार। रो वो सब भी रहे थे। मेरे छोटे-छोटे तीन भाई भी। लेकिन मेरे और बाक़ी के रोने में फ़र्क था। एकदम अलग था। सब मैं विदा हो रही हूँ, इसलिए रो रहे थे। लेकिन मैं रो रही थी कि बाबूजी तो बाबूजी अम्मा भी बदल गईं। कितना बदल गया इंसान गाते-गाते ख़ुद भी बदल गईं।

जिसके आँचल तले मैं कितना सुरक्षित महसूस करती थी। इतनी ख़ुशी पाती थी कि पल में सो जाती थी। वही अम्मा कुछ सुन ही नहीं रही हैं। मैं बार-बार उन्हें पकड़ रही हूँ, और वह मुझसे ख़ुद को छुड़ाती जा रही हैं। छुड़ाकर दूर हटती जा रही हैं। विदा किए जा रही हैं।

मैं रास्ते भर रोती रही। अम्मा-अम्मा यही कहती सिसकती रही। जिनके साथ ब्याही गई थी वह भी ऐसे कि चुप कराने के नाम पर बस इतना ही बोले, "क्या रोना-धोना लगा रखा है। चुप क्यों नहीं होती।" मेरे मन में आया कि बस का दरवाज़ा खोलूँ और कूद जाऊँ  नीचे। तब मुझे पूरी दुनिया दुश्मन लग रही थी। तीन घंटे का सफ़र करने के बाद ससुराल पहुँची।

वहाँ पहुँचने से लेकर, आधी रात को मुझे मेरे कमरे में नंदों कुछ और ठिठोली करती औरतों द्वारा पहुँचाने तक न जाने कितनी पूजा-पाठ, रस्में पूरी करवाई गईं। मुझे भूख लगी है, प्यास लगी है, नींद लगी है, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं था। सास को देखते ही मैं समझ गई थी कि बहुत कड़क मिज़ाज हैं। दादी से ज़्यादा तेज़ हैं। उनकी भारी आवाज़ और उससे भी ज़्यादा भारी भरकम डील-डौल और भी ज़्यादा डरा रहे थे।

पति का व्यवहार बिल्कुल माँ पर ही गया था। मुझे लगता कि डर के मारे मेरी जान अब निकली, कि अब निकली। पतिदेव कमरे में आए तो वह भी मेरे अनुमान से ज़्यादा डरावने, पीड़ादायी साबित हुए। मेरी सुबह जेल से छूटे क़ैदी की तरह रही। रात फिर जेल में बंद क़ैदी। यही मेरी ज़िंदगी बन गई थी। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता था, जब मेरी आँखों से आँसू ना बहें। मैं अकेले में रोऊँ ना।

मायके में अम्मा से मिलती, अपनी तकलीफ़ बताती तो वह ख़ुद ही रोतीं। कहतीं, "मेरी बिटिया ससुराल है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।" लेकिन अम्मा की बात उल्टी निकली।

सात-आठ महीनों बाद ही सब कुछ उलट-पुलट हो गया। ससुर जी अचानक ही चल बसे। एकदम से बढ़े हाई ब्लड प्रेशर ने उनकी जान ले ली थी।

वह खाने-पीने के इतने शौक़ीन थे कि डॉक्टरों के लाख मना करने पर भी मानते नहीं थे। मिर्च-मसाला, चटपटा खाना उनके प्राण थे। रिटायरमेंट से पहले ही उनकी मृत्यु के कारण कम्पन्सेंटरी बेस पर मेरे पति को उनकी जगह नौकरी मिल गई। इसी के साथ मेरे जीवन की और ज़्यादा बर्बादी भी शुरू हो गई। प्राइवेट से सीधे सरकारी नौकरी, पहली नौकरी की अपेक्षा दुगुनी सैलरी ने पतिदेव के क़दम बहका दिए। ऑफ़िस में ही एक महिला के इतने क़रीब होते गए कि हमसे दूर होते चले गए। आए दिन घर में मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, घर में किसी की न सुनना, सब को अपमानित करना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था।

बाबूजी, बाबा, चाचा सब आए समझाने, हाथ-पैर जोड़ने लगे, लेकिन राक्षसी कर्म करने वाले मेरे पतिदेव के हाथों अपमानित हुए। मार खाते-खाते बचे। तब बाबा बोले, "हम ठगे गए। क़िस्मत फूट गई, कसाई के हाथों बिटिया को दे दिया।" फिर उसी समय सास के मना करने के बावजूद वह मुझे लेकर घर वापस आ गए। पतिदेव को मुझ से छुट्टी मिल गई। मैं मात्र सत्रह वर्ष की आयु में परित्यक्ता बन गई। ग़नीमत यह रही कि फ़र्स्ट मिसकैरेज के कारण किसी बच्चे की ज़िम्मेदारी मुझ पर नहीं थी। वैवाहिक जीवन का चैप्टर क्लोज़ होते ही बाबा जी अगला चैप्टर ओपन करने की ज़िद कर बैठे। कहते, "चाहे जैसे हो मैं अपनी पोती की ज़िंदगी ऐसे बर्बाद नहीं होने दूँगा।" वह जल्दी से जल्दी मेरी दूसरी शादी की तैयारी में लग गए।

एक दिन घर आए एक मेहमान से वह इस बारे में बात कर रहे थे। अम्मा ने सुन लिया। रिश्तेदार के जाते ही उन्होंने साफ़ कह दिया, "बाबूजी बिटिया की शादी अभी नहीं करेंगे। पहले उसे पढ़ाएँगे, अपने पैरों पर खड़ा करेंगे, तब उसकी दूसरी शादी करेंगे। अब आँख बंद करके उसे ऐसे ही अँधेरे कुँए में नहीं फेंकेंगे।" जिस अम्मा ने कभी ससुर के सामने घूँघट नहीं हटाया था, कभी उनकी आवाज़ तक ससुर के कानों में नहीं पड़ी थी, उसी ससुर के सामने ऐसे सीधे-सीधे बोल देने से घर में भूचाल आ गया।

बाबा की एक ही रट, "क्या हमने जानबूझकर बिटिया को कुँए में फेंक दिया था, क्या मैं उसका दुश्मन हूँ, क्या वह मेरी कोई नहीं, क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है।" लेकिन अम्मा पर उनकी ऐसी किसी बात का कोई भी असर नहीं हुआ। वह अडिग रहीं। उन्होंने दो टूक कह दिया, "बाबू जी आपका सब अधिकार है। लेकिन मैं माँ हूँ, मेरा भी कुछ अधिकार है। उसी अधिकार के नाते कह रही हूँ कि अब मैं उसकी शादी उसे पढ़ा-लिखा कर, उसको उसके पैरों पर खड़ा करने के बाद ही करूँगी।"

अम्मा की ज़िद के आगे बाबू-चाचा क्या बाबा-दादी सब हार गए। अम्मा के इस रूप से मैं बहुत ख़ुश हुई। बाद में बाबूजी भी अम्मा के साथ हो गए। मेरी पढ़ाई फिर शुरू हो गई। कुछ साल बाद ही बाबूजी फौज से रिटायर होकर घर आ गए। मगर जल्दी ही दूसरी नौकरी मिली और वह चित्रकूट पहुँच गए। देखते-देखते कई और साल बीते। बाबा-दादी हम सब को छोड़कर स्वर्गवासी हो गए। भाइयों की नौकरी लग गई तो जल्दी ही उन सबकी शादी भी हो गई। फिर अमूमन जैसा हर घर में होता है वैसा ही हमारे यहाँ भी हुआ। भाई अपनी बीवियों भर के होकर रह गए। घर कलह का अड्डा बन गया।

बाबूजी नौकरी, घर की कलह में ऐसे फँसे कि एक दिन चित्रकूट से आते समय, एक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो वह नीचे उतर कर टहलने लगे। ट्रेन चली तो दौड़कर चढ़ने के प्रयास में फिसल कर ट्रेन के नीचे चले गए। ऐसे गए कि फिर कभी नहीं लौटे। घर पर इतना बड़ा मुसीबतों का पहाड़ टूटा लेकिन भाभियों पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ। महीना भर भी ना बीता होगा कि उन लोगों की हँसी-ठिठोली गूँजने लगी। भाई तो ख़ैर उन्हीं के हो ही चुके थे। अम्मा, मैं बुरी तरह टूट चुके थे। अब ख़र्च कैसे चले इसका प्रश्न खड़ा हुआ। बाबूजी को गए दो महीना भी ना हुआ था कि भाई अपने-अपने परिवार के साथ अलग हो गए। हम माँ-बेटी अधर में। अम्मा की पेंशन बनने में समय लगा।

बाबूजी की जगह नौकरी मुझे मिले इसके लिए कोशिश शुरू हो गई। एक भाई नियम विरुद्ध अपनी बीवी को लगवाना चाहते थे। लेकिन बात नहीं बनी तो वह और दुश्मन बन बैठे। बीवी तो जानी-दुश्मनों से भी बुरा व्यवहार करने लगी। उसका वश चलता तो हम माँ-बेटी दोनों को मारती। ऐसे में मैंने कोई रास्ता ना देख कर अपने को सँभाला और अम्मा का वह रूप याद कर तन कर खड़ी हो गई, जब वह बाबा के सामने तनकर खड़ी हुई थीं। उससे भी कहीं ज़्यादा तनकर मैं भाइयों के अन्याय के सामने खड़ी हो गई। 

मुझे लगा कि मैं एक फौजी की बेटी हूँ। उस फौजी की जिसने उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में दुश्मन को कुचल कर रख दिया था। भाइयों ने मिलकर दबाना चाहा, लेकिन मेरे रौद्र रूप के सामने उन्हें दबना पड़ा। हाँ चाचा और उनका पूरा परिवार भी हम माँ-बेटी के साथ था। मगर भाभियाँ भी हार मानने वाली नहीं थीं। वह किसी भी तरह अपने क़दम पीछे खींचने को तैयार नहीं थीं।

एक ज्योतिषी एवं रत्नों के विशेषज्ञ तारकेश्वर शास्त्री जी का बाबूजी के जमाने से घर पर आना-जाना था। माँ ने उनके ही कहने पर मुझे लहसुनिया नामक रत्न चाँदी की अँगूठी में बनवा कर पहनाया था। बाबूजी के स्वर्गवास के बाद उन्होंने कहा था, "तुम्हारी हस्त रेखाएँ दुर्घटना का योग दिखा रही हैं। तुम्हें गुप्त शत्रुओं से गंभीर हानि पहुँच सकती है। इस रत्न से तुम्हारी रक्षा होगी।" मगर यह रत्न भी घर के ही गुप्त शत्रुओं यानी भाइयों और भाभियों के हमले से मुझे बचा नहीं पाया। हाँ इन्हें यदि प्रत्यक्ष शत्रु मान लें तो शास्त्री जी अपनी जगह सही थे।

इन लोगों ने ऐसी चालें चलीं कि मेरी क्या ज्योतिषी जी की भी पूरे समाज में थू-थू शुरू हो गई। हम लोगों को जब-तक पता चला तब-तक बातें हर तरफ़ फैल चुकी थीं। भाभियों ने हमारे उनके बीच नाजायज़ संबंधों की ऐसी ऐसी कहानियाँ गढ़कर फैलाई थीं कि ज्योतिषी जी, रत्न आचार्य जी, सारे रत्न झोले में सदैव रखकर चलने के बाद भी इतना साहस नहीं कर सके कि हमारे घर, मोहल्ले की तरफ़ रुख़ करते। भाभियाँ इस क़दर पीछे पड़ी थीं कि आए दिन नए-नए क़िस्से मेरे नाम से लोगों का मनोरंजन करने लगे।

हम माँ-बेटी को प्रताड़ित करने, परेशान करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही थी। हम जब बात उठाते तो भाभियाँ एकदम सिर पर सवार हो जातीं। भाइयों का भी यही हाल होता था। हम ज़्यादा बोलें तो मारपीट पर उतारू। रोज़-रोज़ की चिक-चिक से चाचा और उनके परिवार ने भी हाथ खींच लिया। जब चाचा लोगों ने हाथ खींच लिया तो घर के शत्रुओं को और खुली छूट मिल गई।

थोड़ी बहुत जो खेती-बाड़ी थी वह ना जाने किस मूड में आकर बाबूजी ने किसी समय अम्मा जी के नाम कर दी थी। भाई लोग एक दिन आए, बोले, "अम्मा हमें मकान बनवाना है, ज़्यादा पैसा हमारे पास है नहीं। इसलिए हमने खेत बेच देने का निर्णय लिया है। ख़रीददार तैयार है। कल कचहरी में चलकर तुमको साइन करना है।" भाई ने जिस दबंगई के अंज़ज में अपनी बात कही उससे पहले से ग़ुस्सा अम्मा एकदम आग-बबूला हो गईं। एकदम से भड़क उठीं। सीधे कहा, "हम कहीं नहीं जाएँगे। खेत, मकान सब हमारे आदमी का है, हमारे नाम है, हमारा है। हम कुछ नहीं बेचेंगे। एक धूर नहीं बेचेंगे। अरे किस मुँह से आए हो तुम लोग। सगी बहन-महतारी की इज्जत गाँव भर में तार-तार करते शर्म नहीं आई। एक गिलास पानी तो माँ को कभी दिया नहीं, पत्थर लुढ़काया करते हो कि कितनी जल्दी महतारी-बिटिया मरें और तुम सब बेच खाओ खेती-बारी। किस हक से आए हो माँगने।"

अम्मा की तीखी बातों ने भाइयों को कुछ देर के लिए एकदम सन्न कर दिया। गहन सन्नाटा छा गया। मगर बीवियों के इशारे पर चलने वाले भाई उन्हीं के उकसाते ही भड़क उठे। लगे चिंघाड़ने तो अम्मा भी पीछे नहीं हटीं। परिणाम था कि पास-पड़ोस सब इकट्ठा हो गए।

दरवाज़े पर भीड़ लग गई। चरित्र-हनन से बुरी तरह आहत अम्मा सबके सामने फूट पड़ीं। भाइयों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। रेशा-रेशा उधेड़ दिया। लोग सब जानते तो थे ही लेकिन अम्मा के मुँह से सुनकर थू-थू करने लगे। भाई पड़ोसियों को भी आँख दिखाने लगे कि हमारे घर के मामले में कोई ना बोले, इतना बोलते ही कई पड़ोसी भी उबाल खा गए। किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। आनन-फानन में पुलिस भी आ गई। लोग भाइयों को बंद कराने के लिए पीछे पड़ गए। लेकिन अम्मा ने आख़िर उन्हें बचा लिया।

भाई फिर भी अपनी-अपनी पैंतरेबाज़ी से बाज़ नहीं आए। आए दिन कुछ न कुछ तमाशा करते रहे। मुकदमेबाज़ी की धमकी मिलने लगी। इधर अम्मा की पेंशन की तरह बाबूजी की जगह मुझे नौकरी मिलने में देर पर देर होती चली जा रही थी। चाचा से हाथ जोड़-जोड़ कर अम्मा ने जल्दी से जल्दी काम कराने के लिए कहा। फिर इंतज़ाम करके रिश्वत के लिए भी पैसे दिए, तब हुआ काम। इसी के साथ-साथ चाचा की सलाह पर हम माँ-बेटी ने मकान के अपने हिस्से में ताला लगाया और चित्रकूट चले गए। हम माँ-बेटी को लगा कि जैसे हमें नर्क से मुक्ति मिल गई। मगर हमने जितना समझा था वह उतना आसान नहीं था।

कुछ ही महीने बाद एक दिन चाचा ने सूचना दी कि भाइयों ने हमारे हिस्से में लगे ताले तोड़कर उन पर कब्ज़ा कर लिया है। इतनी चुपके से यह सब किया कि कुछ दिनों तक किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं हुई। चाचा ने अम्मा को पुलिस में रिपोर्ट करने की सलाह दी। अम्मा से मैंने जल्दबाज़ी ना करने के लिए कहा। मैंने कहा, कह दो सोच कर बताएँगे। अम्मा से इतना सुनने के बाद चाचा ने दोबारा कुछ नहीं कहा।

मैंने बाद में अम्मा को समझाया कि पुलिस के चक्कर में ना पड़ो। जाने दो। अब हम दोनों को किसी और के सहारे की ज़रूरत नहीं है। मुझे सरकारी स्थाई नौकरी मिल गई है। तुम्हें जीवन भर पेंशन मिलेगी। जो भी सामान था उसे उन्हें ले जाने दो। यूज़ करने दो। कमरों को आख़िर लेंगे तो वही लोग। जीते जी लें या मरने के बाद लें। लेकिन मेरे चरित्रहनन से नाराज़ अम्मा बेटों को सबक़ सिखाना चाहती थीं। और मैं माँ-बेटों के बीच पुलिस फाटा किसी सूरत में नहीं चाहती थी। इसलिए उन को समझाने में पूरा ज़ोर लगा दिया।

बहुत समझाने पर अम्मा मानीं। कई दिन लग गए थे उन्हें समझाने-मनाने में। लेकिन ना जाने क्यों इस फ़ैसले से चाचा नाराज़ हो गए। उन्होंने बहुत दिन तक बातचीत बंद कर दी। ना जाने उसमें उनका क्या स्वार्थ था। आगे जब भी अम्मा का मन होता गाँव जाने का तो कहतीं, "बच्ची तुम्हारे कहने पर दो कमरा जो वहाँ जाने, ठहरने का एक ठिकाना था वह भी उन कपूतों को दे दिया।" यह कहकर वह बड़ी दुखी हो जातीं।

एक दिन उनको मैंने बहुत समझाया। कहा अम्मा काहे इतना ग़ुस्सा होती हो। काहे मकान, खेत को लेकर इतना परेशान रहती हो। क्यों उनमें इतना मन लगाए रहती हो। बाबू जी की यह बात तुम भूल गई क्या कि, "पूत-कपूत तो का धन संचय, पूत-सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत होगा तो जितना भी धन संचोगे वह सारी संपत्ति को बर्बाद कर ही देगा। सपूत होगा तो अपने आप ही बना लेगा। उसके लिए भी कुछ संचय करने की ज़रूरत नहीं है।" मेरी इस बात पर अम्मा नाराज़ हो गईं। बोलीं, "मैं तुम्हें संपत्ति की लालची दिखती हूँ। मैं तो उन कपूतों ने जो किया उसकी सज़ा उन्हें देना चाहती हूँ। और सुनो, मैं भी बहुत ज़िद्दी हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं सब दे दूँगी तब भी यह सब मुझे गाली ही देंगे। नहीं दूँगी तब भी।

“मेरा जिस तरह अपमान किया है, जिस तरह तुम्हारे चरित्र पर कीचड़ उछाला है, वह सही मायने में मेरा अपमान है। मेरे चरित्र पर कीचड़ उछाला है। मैं सब बर्दाश्त कर सकती हूँ, लेकिन चरित्र पर लांछन नहीं। तुम भी सुन लो, मैं खेत बेचूँगी। भले ही सारा पैसा किसी मंदिर के दानपात्र में डाल दूँ। किसी भिखारी को दे दूँ। लेकिन उन कपूतों को एक पैसा कहने को भी नहीं दूँगी।"

अम्मा की इस ज़िद या यह कहें कि ग़ुस्से के आगे मैं हार गई। साल भर भी नहीं बीता होगा की अम्मा ने चाचा के सहयोग से चुपचाप सारे खेत बेच दिए। इस काम में चाचा ने बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा किया। जिस दिन अम्मा को रजिस्ट्री पर साइन करना था, उसके एक दिन पहले वह घर आए, अगले दिन अम्मा को लेकर सीधे कचहरी गए, साइन करा दिया। पैसा सीधे अकाउंट में जमा कराया। और देर रात तक अम्मा को लेकर घर आ गए।

अगले दिन अम्मा ने चाचा को घर वापस जाते समय सोने की चार चूड़ियाँ देते हुए कहा, "भैया बिटिया को यह हमारी तरफ़ से उसे उसकी शादी में दे देना। क्योंकि उस गाँव में अब मैं क्या मेरी छाया भी नहीं पड़ेगी।" चाचा ने कहा, "भाभी इतना ग़ुस्सा ना हो। अपने ही लड़के हैं। थूक दो ग़ुस्सा। फिर शादी में तुम मेरे घर आओगी उन सबके पास तो जाओगी नहीं।" अम्मा ने आशंका ज़ाहिर की, "खेत बेचने से वह सब चिढ़े बैठे हैं। तुम उन सब को भी बुलाओगे ही, अगर नहीं बुलाओगे तो भी वह सब आकर झगड़ा करेंगे।"

चाचा ने उनकी आशंका का जो जवाब दिया वह मुझे पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा, "देखो भाभी उन सबको इसलिए बुलाना पड़ेगा क्योंकि एक तो वो सब कोई दूर के नाते-रिश्तेदार तो हैं नहीं। सगे भतीजे हैं। दूसरे तुम्हारे पक्ष में बोलने, खेत बिकवाने में सहयोग करने के चलते भले ही उन सब ने मुझसे मनमुटाव बना रखा हैै, लेकिन कभी सीधे झगड़ा नहीं किया। अब तुम ही बताओ ऐसे में उन सब को ना बुलाना कहाँ तक उचित होगा, और फिर यह भी तो हो सकता है ना कि जब तुम इतने दिनों बाद पहुँचो तो लड़कों का दिल पसीज जाए। और तुमसे मिलने आएँ। माँ-बेटों का मिलाप हो जाए। भाभी सच कह रहा हूँ, तुम माँ-बेटों में ऐसा हो जाए ना, तो हमें बहुत ख़ुशी होगी। भैया की आत्मा भी बहुत ख़ुश होगी।"

चाचा की बातों ने अम्मा को रुला दिया। वह रोती हुई बोलीं, "भैया कौन महतारी है जो अपनी औलादों से दूर रहना चाहेगी। उन सबका चेहरा कौन सा ऐसा पल होता है जब आँखों के सामने नहीं होता। पोता-पोतियों के लिए आँखें तरसती हैं। उन्हें छूने, देखने, गोद में लेने को हाथ तरसते हैं। मैं कितनी अभागी हूँ कि सब है मेरे पास, लेकिन फिर भी कुछ नहीं है मेरे साथ।" चाचा अम्मा की यह बात सुनते ही तपाक से बोल पड़े, "तो भाभी ग़ुस्सा थूक दो। चलो, कुछ दिन के लिए मेरे साथ घर चलो। मेरे ही घर पर रुकना। अगर बेटे तुम्हें प्यार-सम्मान से लेने आएँ तो जाना उनके पास, नहीं तो नहीं जाना।"

मुझे ऐसा लगा कि चाचा की बातें सुनकर अम्मा की आँखों के आँसू एकदम से सूख गए हैं। वह बिल्कुल शुष्क हो गई हैं। पथरीली हो गई हैं। उसी तरह चेहरा भी। मुझे समझते देर नहीं लगी की अम्मा पर फिर ग़ुस्सा हावी हो गया है। मैं कुछ और सोचती-समझती कि उसके पहले ही वह बोलीं, "देखो भैया वहाँ तो अब मैं क़दम नहीं रख सकती। वह सब मुझ पर हाथ भी उठा देते तो भी मैं माफ कर देती, यह सोचकर कि अपनी औलाद हैं, अपना खून हैं। अपने खून से पाला है। हमारे आदमी का अंश हैं। इसी तरह मेरी बिटिया भी मेरा खून है, मेरे आदमी का अंश है, उसका अपमान मेरे खून, मेरे आदमी का अपमान है। मैं सब सह सकती हूँ लेकिन अपने आदमी का अपमान नहीं। अपने खून का अपमान नहीं, वह भी ऐसा-वैसा अपमान नहीं, सीधे-सीधे चरित्र पर लाँछन लगाया गया। मेरी गंगाजल सी पाक-साफ़ बिटिया के बारे में कितनी नीचतापूर्ण बातें पूरी दुनिया में फैलाई गईं।

मेरी बिटिया को इतना गिरा हुआ बताया गया कि आदमी ने भगा दिया। कोई कमी थी, आवारा थी, तभी तो भगाया गया। अब यहाँ मायके में आकर आवारागर्दी कर रही है, उस ज्योतिषी को बुलाकर अपनी... अरे कमीनों ने क्या-क्या नहीं उड़ाया। नीचों ने अपने स्वार्थ में अंधे होकर बेचारे उस पढ़े-लिखे महात्मा जैसे ज्योतिषी के चरित्र की भी चिंदियाँ उड़ा दीं। उस जैसा चरित्र वाला आदमी मैंने आज की दुनिया में कभी-कभी ही देखा है। बेचारा इतना दुखी हुआ कि हमेशा के लिए कहीं चला गया। कई बार मन में आशंका होती है कि कहीं आत्महत्या तो नहीं कर ली। अब तुम ही बताओ ऐसी औलादों को मैं कैसे अपना लूँ।

“मेरी औलादें हैं, लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की गंदी औलादें हैं, कलंकी औलादें हैं, ऐसी कलंकी औलादों को कैसे अपना लूँ। मैं माँ हूँ, मेरे कलेजे से पूछो कि मैं कैसे तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी बिना बेटों जैसा जीवन बिता रही हूँ।

“यह भी जानती हूँ कि तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी मेरी अर्थी को कंधा देने वाला कोई बेटा नहीं होगा। बाहरी ही देंगे। मैं चाहूँगी भी नहीं कि ऐसी कलंकी औलादें मेरी अर्थी को कंधा तो क्या मुझे छुएँ भी। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं कि औलाद वाली होते हुए भी मैं बे-औलाद जैसी मरूँगी। दुनिया कितनी ही ख़राब हो गई है, मगर मुझे पूरा भरोसा है कि चार कंधे मेरी अर्थी के लिए मिल ही जाएँगे। श्मशान में ना कोई सही, डोम अग्नि देता है तो वही मुखाग्नि भी दे ही देगा।"

 यह कहते-कहते अम्मा के फिर आँसू झरने लगे। मैंने देखा चाचा भी बड़े भावुक हो गए हैं। उनकी भी आँखें आँसुओं से भर गईं हैं। अब अम्मा की तकलीफ़ मुझसे देखी नहीं गई। मैं उनके पास जाकर बगल में बैठ गई। उनके आँसुओं को पोंछते हुए कहा, अम्मा चुप हो जाओ। काहे इस तरह की बातें सोच-सोच कर अपने को परेशान करती हो। बाहरी क्यों आएँगे तुम्हारे लिए, मैं नहीं हूँ क्या? तुम ही ने अभी कहा कि मैं भी तुम्हारा ही खून हूँ, अगर भैया लोग नहीं आएँगे तो मैं करूँगी सब कुछ। मैं तुम्हारे लिए चारों कंधा बन जाऊँगी।

“मैं ही तुम्हें अग्नि को समर्पित करूँगी अम्मा। तुम इसे खाली सांत्वना देने वाले शब्द न समझना। किसी बेटी के लिए यह कहना ही नहीं बल्कि सोचना भी असहनीय है। अपनी माँ के लिए यह सोच कर ही दहल उठेगी है। लेकिन मैं कह रही हूँ। क्योंकि मैं जानती हूँ कि यह कटु सत्य है। इसलिए भी कह रही हूँ कि तुम्हें यक़ीन हो जाए कि तुम्हारी बेटी कमज़ोर नहीं है। उसके पास इतनी क्षमता है, इतनी हिम्मत है कि अपनी अम्मा के लिए कुछ भी कर सकती है। उसकी कोई भी इच्छा पूरी कर सकती है। तुम अगर अपनी और इच्छाएँ भी बताओगी तो मैं वह भी पूरी करूँगी। मुझ पर भरोसा रखो। मेरे क़दम डगमगाएँगे नहीं।” मेरी बात सुनकर अम्मा एकदम शांत हो गईं।

अचानक ही उनके चेहरे पर फिर कठोरता छा गई। चाचा की तरफ़ देखते हुए उनका नाम लेकर बोलीं, "आज संयोग से तुम यहाँ हो, तुम्हारे सामने कह रही हूँ कि मेरी अंतिम इच्छा यही है कि मेरी बिटिया मुझे श्मशान तक ले जाएगी, मुखाग्नि भी वही देगी। तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है कि मेरे कपूत मेरी अर्थी को छूने भी ना पाएँ। पहली बात तो उन सबको बताया ही ना जाए। भूले-भटके आ भी जाएँ तब भी तुम्हें यह सब कराना ही है जो मैं कह रही हूँ। मुझे अपनी बिटिया पर पूरा भरोसा है। यह जो कह रही है उसे पूरा भी करेगी। मेरे कपूत रोड़ा ना बनें यह सब तुम्हें देखना है। बोलो तुम मेरी यह इच्छा पूरी करोगे कि नहीं।"

अम्मा का ऐसा रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं अचंभित हो गई। उन्हें एकटक देख रही थी। तभी चाचा बोले, "भाभी काहे इतना ग़ुस्सा करती हो, अरे लड़के नहीं आएँगे तो क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है। मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। तुम्हारा क्या मुझ पर कोई अधिकार नहीं है। मैंने तुम्हें हमेशा भाभी से कहीं ज़्यादा माँ की तरह सम्मान दिया है। देखा है। तुम जब आई तो मैं बहुत छोटा था। अम्मा से ज़्यादा समय तो मेरा तुम्हारे ही पास बीतता था। बाद में तो सब अम्मा से और ख़ुद अम्मा भी कहतीं थीं कि वह हमें जन्म देने भर की दोषी हैं। असली माई तो तुम ही हो। इस नाते तो तुम पूरे अधिकार से मुझसे सब कुछ कह सकती हो, बल्कि कहोगी क्या, मेरा कर्तव्य है। बिटिया को ऐसे असमंजस या ऐसे काम के लिए क्यों कह रही हो।"

यह कहते-कहते चाचा एकदम भावुक हो गए। उनके आँसू निकल पड़े। चाचा के मन में अम्मा के लिए इतना सम्मान होगा यह मैं उसी दिन जान पाई थी। मैं उनके इस रूप को देखकर एकदम अभिभूत हो उठी थी। मेरी भी आँखें भर आई थीं। इस समय असल में हम तीनों की ही आँखें भरी थीं। मेरी चाचा के प्रति श्रद्धा से भरी थीं।

अम्मा चाचा का नाम लेकर बोलीं, "देखो मैं भी तुम्हें देवर से कहीं ऊपर स्थान हमेशा देती रही। अपने बच्चों सा ही हमेशा माना। उसी अधिकार से कह रही हूँ कि मैंने जो कहा उसे जरूर पूरा करना। मेरे कपूतों ने जो किया मैं समझती हूँ कि उन्हें उनके कर्मों की सजा जरूर मिले। लोग जानें। जिससे कोई सपूत कपूत ना बने।"

चाचा अम्मा को बहुत देर तक समझाते रहे कि बेटों के प्रति इतनी कठोर ना बनें, लेकिन वह टस से मस नहीं हुईं। आख़िर हार कर चाचा बोले, "ठीक है भाभी, तुम्हारी जो इच्छा है वही सब होगा। मगर फिर कहूँगा कि एक नहीं ठंडे दिमाग़ से बार-बार सोचना। मैं तुमसे हाथ जोड़कर यही कहूँगा कि जो भी हो तुम इतनी कठोर ना बनो। तुम ऐसा करोगी तो दुनिया यही कहेगी कि अब माँ भी पत्थर दिल होने लगी हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम पर दुनिया कुछ इस तरह का आरोप लगाए। दुनिया को तो तुम मुझसे अच्छा समझती हो। वह तिल का ताड़ बनाने में देर नहीं लगाती। तुम अपनी जगह एकदम सही हो, लेकिन यह दुनिया यह कहने में ज़रा भी देर नहीं लगाएगी कि बड़ी कठोर माँ है। अरे वह पूत कपूत हैं तो यह माता पत्थर हृदय क्यों हो गई। सब यही कहेंगे कि जब माँ इतनी कठोर है तो बेटे तो आगे निकलेंगे ही।"

चाचा आगे कुछ और बोल पाते उसके पहले ही अम्मा ने उन्हें रोकते हुए कहा, "भैया एक बात बताऊँ, हमें दुनिया की परवाह उतनी ही करनी चाहिए जितने से हमारा खुद का गला ना कसने लगे। मुझे परवाह नहीं कि दुनिया माता कहेगी मुझे या कुमाता। दुनिया का काम है कहना, जो भी करो कुछ ना कुछ कहेगी जरूर। अगर सख्ती नहीं करूँगी तो कहेंगे माँ-बाप ही गलत हैं, सही शिक्षा, संस्कार नहीं दिए, तभी बच्चे ऐसे हुए। सख्ती करो तो कहेंगे कसाई हैं। लेकिन भैया एक बात और बता दूँ कि सब एक से नहीं होते। बहुत लोग कसाई कहेंगे, तो कुछ लोग यह भी कहेंगे कि अच्छा किया। ऐसी औलादों के साथ ऐसा ही करना चाहिए। उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए।

“भैया दुनिया की इतनी चिंता ना करो, यह किसी तरह चैन से नहीं रहने देती, ना मरने देती है, न जीने देती है। इसलिए जैसा कहा है वैसा ही करना। और सुनो, बुरा मत मानना, अगर तुम्हें यह सब करने में कोई बाधा महसूस हो रही हो तो निसंकोच ना कह दो। तुम पर कोई दबाव नहीं डाल रही हूँ।" अम्मा की यह बात चाचा को तीर सी चुभ गई। वह एकदम विह्वल होकर बोले, "क्या भाभी, कैसी बात करती हो। तुम्हारी एक-एक बात, एक-एक इच्छा मेरे लिए भगवान का दिया आदेश है। मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करने में अपने जीते जी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ूँगा।"

चाचा चले गए। मैंने सोचा अम्मा निश्चित ही शादी में नहीं जाएँगी। जब इतना ग़ुस्सा हैं तो सोचेंगी कि वहाँ जाने पर सारे लड़के सामने होंगे। हो सकता है वह सब कुछ बातचीत करें। इसीलिए चाचा की लड़की की शादी में दिया जाने वाला गिफ़्ट अभी से दे दिया। चाचा के जाने के बाद अम्मा कई दिन उदास रहीं। मगर मेरी सारी आशंकाओं के उलट अम्मा चाचा की लड़की की शादी में गईं। चाचा ने दुनिया की चिंता करते हुए अम्मा के तीनों कपूतों को भी बुलाया। कहा, "अब सब हमसे बोलते-चालते हैं तो कैसे ना बुलाते।" तीनों भाई परिवार सहित शामिल भी हुए। अम्मा के पैर भी संकोच के साथ ही सही छूए। भाभियों ने भी, पोते-पोतियों ने भी छूए। हमारी अम्मा जो पत्थर से भी कठोर दिल लेकर गई थीं, वह सभी के पैर छूते ही बर्फ़ बनके पिघल गया। बह गया आँसू बनकर।

अम्मा ने बहुत कोशिश करके अपने आँसुओं को रोका। रोना बंद किया, कि चाचा के परिवार का कोई देख ना ले, नहीं तो कहेंगे कि क्या शादी-ब्याह, हँसी-ख़ुशी के माहौल को ख़राब कर रही हैं। शुभ शगुन का काम हो रहा है और यह आँसू बहा कर अपशगुन कर रही हैं। अम्मा परेशान हो गईं थीं। मन उनका उचाट हो गया था। वह लड़की की विदाई के बाद ही वापस आना चाहती थीं लेकिन चाचा ने रोक लिया। असल में सच्चाई यह थी कि वह पोते-पोतियों के प्यार-दुलार में रुकी थीं।

सब दादी, दादी कहते हुए अम्मा से चिपट गए थे। चार-पाँच साल का पोता तो उनकी गोद से उतर ही नहीं रहा था। सब इतना पीछे पड़ गए कि दादी को अपने घर खींच कर ले ही गए। चाचा, चाची ने भी प्यार-मनुहार की कि "जाओ, चली जाओ भाभी, बच्चे कितना प्यार से कह रहे हैं, इनकी क्या ग़लती, इनका हक़ क्यों छीन रही हो। तुम्हारे प्यार-स्नेह आशीर्वाद पर इनका पूरा हक़ है।" 

असल में चाचा चाहते थे कि माँ-बेटों के बीच की खाई पट जाए। जो हुआ सो हुआ है। दिल से किसी बात को लगाकर क्या बैठना। चाचा ने ही चुपके से तीनों भाइयों से कहा था, "माँ को सम्मान के साथ बुलाओगे तो जाएँगी।" पोते-पोतियों का प्यार जहाँ अम्मा को घर की तरफ़ खींचे लिए जा रहा था। वहीं लड़कों, बहुओं ने एक बार भी नहीं कहा तो उनके पैर उठ ही नहीं रहे थे। चाचा के कहने पर जब तीनों भाइयों ने कहा तब वह गईं थीं।

वहाँ वह लाख कोशिश करके भी अपने आँसुओं को रोक नहीं सकी थीं। बरसों बाद उस घर में वह क़दम रख कर आँसू रोकने की हर कोशिश करके भी असफल रहीं। वह घर जहाँ डोली से उतरने के बाद उन्होंने अपने दांपत्य जीवन का पहला क़दम चलना शुरू किया था। वह घर-आँगन जहाँ उन्होंने जीवन के ढेर सारे सुनहरे पल बिताए थे। और जीवन का वह सबसे काला दिन भी देखा था जब पति की दर्दनाक मौत के बाद उनका पार्थिव शरीर आया था। और फिर अर्थी में श्मशान की ओर रवाना हुआ था, अपने ही बेटों के कंधों पर। और अब उनके जाने के बाद हालत यह हो गई है कि उन्हें यह प्रण लेना पड़ा कि अपने बेटों के कंधों पर वह नहीं करेंगी अपनी अंतिम यात्रा।

घर से कोई रिश्ता नहीं रखेंगी। वही घर-आँगन जहाँ गुनगुनाया करती थीं कि सूरज ना बदला चाँद ना बदला। मगर लड़के इतना बदल गए थे कि अपनी औलाद कहने में भी अम्मा को संकोच होता था। अम्मा वहाँ ज़्यादा देर नहीं रुक पायीं। पोते-पोतियों के लाख कहने पर भी नहीं। वे कहते रहे दादी रुक जाओ। उनके आँसू भी अम्मा को नहीं रोक पाए। क्योंकि चाचा के कहने पर जिन लड़कों ने उनसे चलने के लिए कहा था, घर पहुँचने पर उन सब ने उनसे एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा। अम्मा फिर पत्थर दिल बन चाचा के यहाँ लौट आईं थीं। और चाचा-चाची के ढेरों आग्रह के बावजूद अगले दिन सुबह ही वहाँ से वापस चित्रकूट आ गईं। चाचा से साफ़ कह दिया कि बिटिया घर पर अकेले है।

मैं शादी में नहीं गई थी। एक तो ऑफ़िस से छुट्टी नहीं मिल रही थी। दूसरे मैं उस जगह किसी सूरत में नहीं जाना चाहती थी जहाँ मेरा सम्मान, इज़्ज़त किसी और ने नहीं सगे भाइयों ने ही तार-तार की थी। आने के बाद अम्मा चाचा पर भी बहुत नाराज़ हुईं। कहा, "हमें बुलाकर इस तरह उन सब से मिलाने की कोशिश उनको नहीं करनी चाहिए थी। कोई रिश्ता टूटने के बाद कहाँ जुड़ता है, जो ये जोड़ने चले थे।" मुझे लगा अम्मा को चाचा के लिए ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। उन्होंने तो परिवार को माँ-बेटों को एक करने का पवित्र काम किया था। कितनी अच्छी है उनकी भावना।

यह बात अम्मा से कही तो अम्मा बोलीं, "तुम सही कह रही हो, लेकिन क्या करूँ उन सब ने एक शब्द भी नहीं कहा कि अम्मा रुक जाओ। मेरा मन था कि मैं अपने आदमी, अपने पुरखों के घर में रुकूँ। उस घर में कुछ समय और बिताऊँ जहाँ जीवन के न जाने कितने सुख-दुख के पल जिए थे। जहाँ इन्हीं बच्चों को जन्म दिया। जहाँ रात दिन अपने सुख-दुख कष्ट की परवाह किए बग़ैर इन सब को पाला। जहाँ इन सब की तोतली बातों, लड़खड़ाते हुए चलने की कोशिश में गिरने, उठ कर खड़े होने को देख-देख कर मन मारे ख़ुशी के झूम-झूम उठता था। मगर कलेजा फट गया कि उन सब ने एक बार भी नहीं कहा कि अम्मा रुक जाओ। कान यह सुनने को तरस गए कि, "अम्मा रुक जाओ।"

जब वहाँ से निकलने लगी तो मैं अपने को घोर अपमानित महसूस कर रही थी। यह सोचते हुए क़दम बाहर निकाल रही थी कि दुबारा अब इस घर की छाया भी नहीं देखूँगी। बार-बार मन में आ रहा था कि मैं गाती थी कि कितना बदल गया इंसान, किसी और ने नहीं मेरी औलादों ने ही चरित्रार्थ करके दिखा दिया है। वह भी एक नहीं, दो नहीं, तीन की तीनों ने। तीनों एक ही ढर्रे पर। उन्होंने, हमने आख़िर कौन सी कमी की थी इन सब को पालने-पोसने में। जो लोग कहते हैं कि महतारी-बाप जो संस्कार देते हैं बच्चे वही बनते हैं। मैं कहती हूँ कि यह कहना पागलपन है। हम दोनों ने पूरे घर में हमेशा अच्छे संस्कार दिए। जब-तक शादी नहीं हुई थी इन सब की, तब-तक यह सब भी ठीक थे, सही-सही चल रहे थे।" अम्मा यह सब कह कर रोने लगीं थीं तो बड़ी मुश्किल से चुप कराया था।

वह कुछ देर शांत रहने के बाद फिर बोलीं थीं, "तुमने बहुत अच्छा किया जो साथ नहीं चली। साफ़ मना कर दिया। मैं ही मोह में पड़ गई थी जो तुमसे भी चलने के लिए कहा था। मन में ग़ुस्सा तो बहुत था लेकिन फिर भी मन में कपूतों से मिलने के लिए जी हुलस रहा था। मगर तुमने इनकार करके हमारी ग़लती को और बड़ा नहीं होने दिया। लेकिन अब ख़ून खौल रहा है। सुनो तुमसे बहुत साफ़ कह रही हूँ कि जब मैं मरूँ तो इन सब को भूलकर भी ख़बर ना देना।" 

अम्मा एकदम आग बबूला होकर बोलीं थीं। मैं कुछ बोलने को सोच ही रही थी कि अम्मा ने फिर चाचा का नाम लेकर कहा, "उनको भी किसी सूरत में नहीं बताना। क्योंकि मालूम होने पर वह उन सबको बताएँगे ज़रूर। तुम्हें मेरी क़सम है, जो मैं कह रही हूँ बिल्कुल वैसा ही करना। ऐसा न करके तुम सिर्फ़ मेरी ही नहीं अपने बाप की आत्मा को भी कष्ट दोगी। उनका अपमान करोगी।" मैं तब उनका ग़ुस्सा, उनकी दृढ़ता देखकर काँप उठी थी।

मैंने कहा, अम्मा तुम परेशान ना हो, जैसा तुम चाहती हो मैं वैसा ही करूँगी। मैं भी कैसी अभागी हूँ जो मुझे यह सब करने की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ रही है। यह सुनते ही वह बोलीं, "अभागी तुम नहीं, अभागे तो वह तीनों कपूत हैं, जिनका अधिकार छीन कर मैं तुम्हें दे रही हूँ।"

पता नहीं मैं अभागी हूँ कि सौभाग्यशाली मगर मैंने अम्मा की सभी इच्छाएँ अक्षरशः पूरी की थीं। किसी को कानों-कान ख़बर ना होने दी। यह सब मुझे उनके द्वारा क़सम दिए जाने के पंद्रह साल बाद ही करना पड़ा था। मैं सोचती थी कि समय और उम्र के साथ-साथ वह सब भूल जाएँगी। लेकिन मैं ग़लत निकली। समय के साथ वह बहुत कुछ भूल गईं। मगर इस बात को बराबर याद रखा। ना सिर्फ़ याद रखा बल्कि मुझे बार-बार पूरी शक्ति के साथ याद भी दिलाती रहती थीं। चाचा तब कुछ-कुछ समयांतराल पर आते रहते थे।

अम्मा को यह अच्छा नहीं लगता था। वज़ह सिर्फ़ इतनी थी कि उन्हें इस बात पर चाचा को देखकर ग़ुस्सा आ जाती थी कि उन्होंने धोखे से उन्हें बेटों से मिलवाने की कोशिश की। आखिर एक दिन बोलीं, "बिटिया तुम यहाँ से ट्रांसफ़र करा कर किसी दूसरे शहर चलो, जो यहाँ से काफ़ी दूर हो।" मैंने पूछा क्यों अम्मा? यहाँ सब ठीक तो है। कई बार पूछने पर बोलीं, "जब तक यहाँ रहूँगी उनकी याद आती रहेगी। वह दर्दनाक घटना मुझे रुलाती रहेगी। जिस दिन उनके साथ यहाँ वह घटना घटी तभी से मुझे यहाँ से पता नहीं क्यों घृणा हो गई है। सोचती हूँ कि किस-किस से घृणा करूँ, कब तक करूँ। मैं छोड़ना चाहती हूँ इस बुरी आदत को, इसलिए कहीं दूर चलो।" उनकी भावनाओं के आगे मुझे झुकना पड़ा। डेढ़ साल तक लगातार कोशिश करके ट्रांसफ़र करा पाई। अम्मा के बताए शहर लखनऊ में।

अम्मा को मैंने यह कभी नहीं बताया कि ट्रांसफ़र के लिए मैंने पूरे पिचहत्तर हज़ार रुपए रिश्वत दी थी, नहीं तो मनचाहा शहर छोड़ दो, ट्रांसफ़र भी नहीं होता। अम्मा वज़ह के नाम पर बात केवल बाबूजी की करती थीं। लेकिन उनकी बातों से मैं साफ़ अंदाज़ा लगा रही थी कि वह चाचा से भी छुटकारा चाहती थीं। मेरी यह आशंका चित्रकूट से लखनऊ चलते समय कंफ़र्म हो गई। जब उन्होंने क़सम दी इस बात की और सख़्त हिदायत भी कि चाचा या किसी रिश्तेदार को भी कभी नहीं बताऊँगी कि हम कहाँ चल रहे हैं। उनकी बात सुनकर मैं कुछ देर तक उन्हें देखती ही रह गई थी। मैंने सोचा कि लखनऊ आकर वह कुछ दिन ज़्यादा डिस्टर्ब रहेंगी। नई जगह उन्हें एडजस्ट होने में समय लगेगा, मगर मैं ग़लत थी, लखनऊ में उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी जेल से छूटकर आज़ाद हो गई हैं, अपने घर पहुँच गई हैं।

लखनऊ आकर उनकी यह रट और ज़्यादा तेज़ हो गई कि जैसे भी हो मैं जल्दी से जल्दी शादी कर लूँ। अपनी कोशिश वह करती रहीं। मैं जब कहती अम्मा अब क्या शादी करनी। इतनी उम्र हो गई है। वह भी दूसरी शादी। तो कहतीं, "कोई उम्र नहीं हुई है। चौंतीस-पैंतीस साल में तो आजकल लोग शादी कर रहे हैं।" मैं कहती अम्मा सब की और मेरी बात अलग है। इसके आगे वह मुझे बोलने ना देतीं, नॉनस्टॉप शुरू हो जाती थीं। कहतीं, "तुम्हें दुनियादारी कुछ पता नहीं है। एक इंसान ग़लत निकला तो इसका मतलब यह नहीं कि सब वैसे ही होंगे। एक बार कुछ बात हो गयी तो इसका मतलब यह भी नहीं कि उसी बात को लेकर बैठे रहें, बाक़ी ज़िंदगी उसी बात को सोचने में गला दें।

ज़िंदगी में बहुत ऊँच-नीच होती रहती है, ऐसे अकेले कब तक ज़िंदगी काटोगी। मैं भी तुम्हारे लिए कितने दिन रहूँगी। ज़िंदगी भर तो बैठी नहीं रहूँगी। अपनी आँखों के सामने तुम्हारा घर-परिवार देख लूँ तो मुझे चैन पड़ जाए। नहीं तो मेरे प्राण भी नहीं निकलेंगे। यमराज से भी तू-तू, मैं-मैं करनी पड़ेगी कि रुक जाओ, अभी बिटिया की शादी करनी है।" उनकी इस बात पर मुझे हँसी आ जाती तो कहतीं, "बिटिया हँसो नहीं, तुम्हें मेरी तकलीफ़ का अंदाज़ा नहीं, लेकिन मुझे तुम्हारी तकलीफ़ का अंदाज़ा है। क्या मैं नहीं समझती कि तुम किस तरह ज़िंदगी जी रही हो।" उनकी इस बात पर मैं लाख कोशिश करती थी नॉर्मल बनी रहने की, लेकिन चेहरे पर घनघोर गंभीरता आ ही जाती थी।

ऐसे में कई बार हम माँ-बेटी रो पड़ती थी। अपनी-अपनी जगह बैठी हम दोनों ही रोती रहती। आँसू बहाती रहती। बड़ी देर बाद ख़ुद ही दोनों चुप हो जाती, क्योंकि हमें कोई चुप कराने वाला, सांत्वना देने वाला नहीं था। मैं उठती, चाय बनाती। अम्मा के साथ बैठकर पीती। असल में अम्मा अपनी जगह सही थीं। मैं भी अन्य की ही तरह ख़ुशहाल अच्छी ज़िंदगी जीना चाहती थी। मैं भी सपना देखती थी कि मेरा भी कोई पति हो, बच्चे हों, पूरा परिवार हँसी-ख़ुशी से रहे। परित्यक्ता बनने के डेढ़ साल बाद ही मैं यह सपना देखने लगी थी। लेकिन परिस्थितियाँ एक के बाद एक बिगड़ती ही गईं। समय तेज़ी से निकलता जा रहा था। मैं यह नहीं कहूँगी कि समय निकल गया और मुझे पता ही नहीं चला। मुझे सब पता चल रहा था। मैं एक-एक पल को तेज़ी से अपने से बिछुड़ते देख रही थी।

मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि मेरे जीवन के स्वर्णिम पल निकलते जा रहे हैं। परिस्थितियों ने मुझे विवश कर रखा था। मेरी अनुभवी अम्मा की तेज़-तर्रार आँखें सब देख-समझ रही थीं। उनका अपने कपूतों से नफ़रत का कारण ही यही था कि मेरे भाइयों ने अपनी परित्यक्ता बहन की बजाए ज़िंदगी संवारने, उसकी दूसरी शादी करने के उसके चरित्र पर महज़ इसलिए कीचड़ उछाला, पूरे समाज में बदनाम किया जिससे मैं उनकी प्रॉपर्टी की हवस पूरा होने में और रोड़ा ना बनूँ। बाबूजी की नौकरी उनमें से किसी एक की बीवी को मिल जाए।

अम्मा की कोशिश में कहीं कमी नहीं थी। वह लगी रहीं। पेपर में निकलने वाले ऐड भी देखतीं। फ़ोन करतीं। लेकिन लोगों की बातचीत, प्रश्न सुनकर घबरा जातीं। दो-चार दिन शांत रहतीं फिर कोशिश करतीं। एक दिन मुझसे बोलीं, "सुन बिटिया मैं ठीक से बात नहीं कर पाती। कान से सुनाई भी कम देता है। ऐसा कर तू ही माँ बन कर बात किया कर। मैं सुनती रहूँगी।" उनकी बात मुझे बड़ी अटपटी लगी। लेकिन फिर उनकी ज़िद, उनका आदेश, जिसे मैं सालों-साल से मानती आई थी। मैं बात करती, वह ईयर फ़ोन का एक हिस्सा अपने कान में लगाकर बड़े ध्यान से सुनतीं। फिर कहतीं इससे आगे बात करेंगे, ये सही लग रहा है। या इससे आगे बात करना ठीक नहीं है।

उनकी इस कोशिश के चलते कई लोग आए भी। लेकिन बात जहाँ से शुरू होती वहीं ख़त्म हो जाती। किसी की नज़र में मैं ज़्यादा हेल्दी होती चली गई थी, तो किसी की नज़र में ज़्यादा लंबी थी। कईयों के घरवालों ने तो बड़ी बेशर्मी से यह पूछा कि, "क्या सच में पहली शादी से तुम्हारे कोई बच्चे नहीं हैं।" फ़ोन पर सारी बातें बता दिए जाने के बावजूद यह पूछा जाता था। इन बातों से हम दोनों माँ-बेटी बहुत आहत होती। बड़ा अपमान महसूस करती थी। मैं कहती, बस कर अम्मा अब और अपमान नहीं सहा जाता।

लेकिन अम्मा अपनी बिटिया की ख़ुशी, उसकी ज़िंदगी सुरक्षित करने के लिए कुछ भी सहने को तैयार थीं। इस काम में हम माँ-बेटी को लगा कि किराए का मकान ठीक नहीं है। इसलिए अपना मकान जो हम कुछ समय बाद लेने की सोच रहे थे उसे जल्दी से जल्दी लेना तय किया। इसमें खेत बेचने से मिले पैसों से बड़ी मदद मिली। फिर भी बजट कम होने के कारण मेन सिटी से थोड़ा दूर एक सोसाइटी में लेना पड़ा। जो मेरे ऑफ़िस से क़रीब तीस किलोमीटर दूर था। आने-जाने में होने वाली दिक्क़तें मुझे बिल्कुल थका देती थीं। कई टेंपो बदलकर ऑफ़िस से घर पहुँच पाती थी।

ऑफ़िस में भी वही माहौल था, जैसा दुनिया में अन्य जगह है। कुछ अच्छे, तो ज़्यादातर नोचने खाने वाले लोग ही मिले। दो सीनियर तो पहले ही दिन से पीछे पड़ गए थे। बिना काम के बुला कर बैठा लेते थे। बहुत क़रीबी, बहुत हमदर्द बनने का प्रयास करते दोनों। उन दोनों की पूरी हिस्ट्री वहाँ के बाक़ी लोगों ने बड़ी जल्दी ही बता दी थी। दोनों की मक्कारी जान-समझ तो मैं भी रही थी। इसलिए धीरे-धीरे अपनी दूरी बढ़ाती रही।

एक दिन एक कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ा तो साफ़ कहा कि, सर कोई काम हो तभी बुलाया करिए। मैं बेवज़ह की बातें पसंद नहीं करती। दोनों के मन की नहीं हुई तो दोनों परेशान करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते थे। उनके चमचे भी साथ लगे रहते थे।

चित्रकूट में मैंने इस तरह की समस्या का सामना नहीं किया था, इसलिए यहाँ एकदम परेशान हो गई थी। दोनों सीनियर का डर इतना था कि बाक़ी लोग यहाँ तक कि महिलाएँ भी मुझसे बात करने से कतराती थीं। मैं अम्मा को कुछ नहीं बताती थी कि वह परेशान होंगी। जैसे-तैसे आगे बढ़ती रही। विभाग का लेखा अधिकारी था तो कम उम्र का ही लेकिन था बहुत ही तेज़-तर्रार। बड़े रौब-दाब के साथ रहता था। थोड़ा उद्दंड भी था। सीनियर ने जानबूझकर मुझे उसी के साथ अटैच कर दिया, कि मुझे अकाउंट का काम आता नहीं, वह खुर्राट आदमी मुझे रोज़ प्रताड़ित करेगा, जब उसे पता चला तो वह भी तुरंत समझ गया कि निशाना कहाँ है।

उसने छूटते ही भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं सीनियर को। यह भी ना सोचा कि मैं सामने खड़ी हूँ। जब उसका ग़ुस्सा कम हुआ तो बोला "सॉरी, यह साले इसी लायक़ है। बताइए आपने अकाउंट का काम कभी किया नहीं, आप से काम लूँ, अकाउंट का मामला है, कुछ गड़बड़ हो गई तो दोनों की नौकरी ख़तरे में, या फिर मैं अकेले ही करता रहूँ। बदनाम यह करेंगे कि एक वर्किंग हैंड साथ दिया तो है, काम क्यों नहीं लेते, क्यों नहीं सिखाते, वह काम नहीं कर रही है तो यह तुम्हारा फ़ेल्योर है।" 

वह सही कह रहा था। सीनियर ने एक तीर से कई निशाने साधे थे। खुर्राट आदमी और मुझको एक साथ परेशान करने और हमारी नकेल कसने के लिए। उनका अनुमान था कि मैं काम जानती नहीं तो ग़लती मिलते ही पनिश करने मौका उन्हें आसानी से मिल जाएगा। इससे मैं अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में उनके सामने सरेंडर कर दूँगी। इस चाल से मैं बहुत डर गई थी। कई दिन मुझे ठीक से नींद नहीं आई थी।

ऑफ़िस के पास पहुँचते ही मेरी आधी जान ऐसे ही निकल जाती थी। खुरार्ट ने दो-तीन दिन में ही मेरी हालत समझ लीे तो बोला, "आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं सबके लिए बुरा आदमी नहीं हूँ। अगर इतना ताव ना रखूँ तो यह साले जीना हराम कर देंगे। साले नौकरी भी ख़तरे में डाल देंगे। ज़रा भी संकोच नहीं करेंगे।" शुरुआती दो हफ़्ते उसने मुझसे कोई काम लिया ही नहीं। ना ही कोई बात करता था। काम उसके पास ज़्यादा था तो उसका सिर झुका ही रहता था। उसी में जुटा रहता था। मैं बेकार बैठे-बैठे बोर हो जाती थी। मुझे लगा ये तो मुझे वर्क-लेस करके ही मेरी नौकरी ख़तरे में डाल देगा।

एक दिन बड़ा डरते-डरते मैंने उससे काम सिखाने के लिए कहा तो वह बोला, "मैं जानता हूँ खाली बैठे-बैठे आप बोर हो जाती हैं। एक-दो दिन रुक जाइए फिर बताता हूँ आपको।" उसकी बात से मुझे बड़ी राहत मिली। उसने सच में दो दिन बाद मुझे काम बताना शुरू किया। बताने का ढंग अच्छा था तो जल्दी ही काम समझ में आने लगा। दो महीना बीततेे-बीतते उसने मुझे काफ़ी कुछ सिखा दिया था। इस दौरान मुझे समझ में आया कि यह तो वैसा है ही नहीं जैसी इसकी इमेज है। यह तो एक सहृदय आदमी है। बेवज़ह लोग इसे झगड़ालू, खुर्राट न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं। मैं भी कितना डर रही थी। जल्दी ही हमारे बीच जो डर का माहौल था वह ख़त्म हो गया। मगर मेरे लिए नई समस्या पैदा हो गई कि जब काम सीख लिया तो मेरा काम बढ़ता ही गया।

रोज़ ऑफ़िस से निकलते-निकलते सात-आठ बज जाते। घर नौ बजे तक पहुँच पाती। अम्मा बहुत परेशान हो जातीं। मैं लाख मना करके जाती, लेकिन वह कुछ ना कुछ खाना बना ही लेतीं थीं। मुझे डर लगता कि अब उनके हाथ-पैर ठीक से चलते नहीं। लेकिन वह मानती नहीं। कहतीं, "तुम दिन-भर की थकी-माँदी आती हो, खाना क्या बनाओगी।" कहती वह सही थीं, घर पहुँच कर एक गिलास पानी भी उठा कर पीने की हिम्मत नहीं रह जाती थी। लेकिन मैं फिर भी नहीं चाहती थी कि अम्मा गैस-चूल्हा ऑन करें। मैं पानी, नाश्ते का सारा सामान उनके पास रख कर जाती थी कि मेरे आने तक वह नाश्ता वग़ैरह कर लिया करें। लेकिन वह ना मानने वाली थीं तो ना मानी। आखि़र एक दिन गिर पड़ीं। घुटने, कोहनी में कई जगह चोट आ गई।

अंततः मैंने खुर्राट सर से कहा कि ऑफ़िस का कुछ काम छुट्टियों में घर ले जाकर कर लिया करूँगी। शाम को मुझे पाँच बजे तक छुट्टी दे दिया करिए। उसने कंप्यूटर के मॉनिटर पर आँखें गड़ाए-गड़ाए ही कहा, "देखिए, मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने कभी आपसे पाँच बजे के बाद रुकने के लिए नहीं कहा। जब रुकने के लिए नहीं कहा तो कभी जाने के लिए भी नहीं कहूँगा कि आप पाँच बजे तक यहाँ से चली जाया करें। जो काम है आपके सामने है। कितना इंपॉर्टेंट है वह आप भी जानती हैं। आप अपने हिसाब से तय कर लीजिए कि करना क्या है। आपको कोई काम घर ले जाने की इजाज़त नहीं है।" उसके इस जवाब से मैं एकदम सकते में आ गई। उससे ऐसे जवाब की मैंने कल्पना तक नहीं की थी।

मैं कुछ देर तक हतप्रभ सी उसे देखती रह गई। मगर वह अपने काम में बिज़ी रहा। उसकी कठोरता और अमानवीय जवाब से मुझे बहुत दुख हुआ। मेरी आँखें भर आईं। लेकिन जानती थी कि आज की तारीख़ में इनका कोई मोल नहीं है, तो जल्दी ही उन्हें पोंछ लिया। उस दिन भी रात दस बजे घर पहुँची। बहुत रोई। मन में आया कि छोड़ दूँ नौकरी। लेकिन फिर सोचा कि कैसे चलेगी ज़िंदगी? हाउस लोन की किश्तें कहाँ से भरूँगी? नहीं भरूँगी तो रहने का ठौर भी चला जाएगा। जो भी हो, जैसे भी हो, अगर ज़िंदगी चलानी है तो नौकरी करनी ही होगी। फिर संडे को मैंने पहला काम किया कि एक बाई ढूंढ़ कर लगाई। जो चौका-बर्तन, खाना-पीना सब कर दिया करे। होम लोन की किश्तें देने के बाद जो पैसा बचता था उसे देखते हुए बाई लगाना बहुत ही मुश्किल था। लेकिन मैंने बाक़ी ख़र्चों में ज़्यादा से ज़्यादा कटौती करके लगाया।

खुर्राट पर ग़ुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उस पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। ऐसे ही कुछ महीने बीते होंगे कि फ़ाइनेंशियल इयर का लास्ट मंथ आ गया। काम का बोझ एकदम बढ़ गया। सीनियरों का हम दोनों को टॉर्चर करना ही मक़सद था तो कहने को भी कुछ और हेल्पिंग हैंड नहीं दिए। मैं आठ-नौ बजे के पहले ऑफ़िस से नहीं निकल पा रही थी।

एक दिन आठ बजे निकली तो बाहर एक टेंपो नहीं दिख रहा था। इंतज़ार करते-करते थक गई। कोई ऑटो तक नहीं दिेख रहा था। क़रीब एक घंटा बीता होगा कि एक बाइक तेज़ी से आगे निकली, फिर कुछ दूर आगे जाकर झटके से रुक गई और वापस मुड़कर तेज़ी से मेरे पास आकर रुकी। मैं डरी, कुछ समझती कि खुर्राट की आवाज़ आई, "अरे आप अभी तक यहीं खड़ी हैं।" वह हेलमेट लगाए था इसलिए पहचान नहीं पाई थी। मैंने कहा, “पता नहीं क्यों आज टेंपो, ऑटो दिख ही नहीं रहे हैं। पास होता तो रिक्शा कर लेती।”

उसने पूछा "जाना कहाँ है?" 

मैंने कॉलोनी का नाम बताया, तो वह बोला, "अरे वहीं तो मैं रहता हूँ। आपने कभी बताया ही नहीं कि आप इतनी दूर से आती हैं। ख़ैर आज तो आपको कोई टेंपो नहीं मिलने वाला, क्योंकि दोपहर से ही यह सब हड़ताल पर हैं। क्यों हैं पता नहीं। पैसेंजर ज़्यादा होने के कारण सारे ऑटो उसी रोड पर जा रहे हैं, जिस पर उन्हें आने-जाने दोनों तरफ़ से सवारियाँ मिल रही हैं। इसलिए आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको छोड़ दूँगा, नहीं यहीं खड़ी रह जाएँगी।" मैं बड़े असमंजस में पड़ गई।

बाइक पर शादी से पहले भाइयों के साथ ही कभी-कभार चली थी। शादी हुई तो कुछ दिन उस उठाईगीर पति के साथ उसी राजदूत बाइक पर जिसे बाबूजी ने शादी में दिया था। बड़े शौक़ से कि उनका दामाद और बिटिया मोटर साइकिल से चलेंगे। उस समय दहेज में बाइक का दिया जाना मायने रखता था। अब इतने दिनों बाद, इतनी उम्र में एक पराए पुरुष के साथ बाइक पर जाने की मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। वह भी खुर्राट के साथ। जो अब हेलमेट उतार कर बात कर रहा था। 

मुझे असमंजस में पड़ा देखकर बोला, "इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है? स्थिति को समझने की कोशिश करिए। इस समय कोई भी साधन नहीं मिलेगा। कोई दिक़्क़त हो गई तो ज़िम्मेदारी मुझ पर आ जाएगी कि इतनी देर क्यों हुई ऑफ़िस में।" खुर्राट आगे दोनों सीनियरों को गाली देते हुए बोला, "साले ना जाने क्या-क्या तमाशा कर दें, कोई ठिकाना नहीं उनका, बाक़ी जैसी आपकी इच्छा। मैं चलने के लिए कोई प्रेशर नहीं डाल रहा हूँ।"

स्थिति को देखते हुए मुझे भी लगा कि यह सही कह रहा है। इसके साथ जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। विवश होकर उसके साथ घर को चल दी। मगर कुछ दूर चलने के बाद उसने बाइक रोककर कहा, "देखिए कुछ और नहीं समझ लीजिएगा। एक्चुअली मुझे इस तरह बाइक चलाने में दिक़्क़त हो रही है। आप मेरी तरह दोनों तरफ़ पैर करके बैठ जाइए। आसानी होगी। गाड़ी बैलेंस करना मुश्किल हो रहा है।" मेरे लिए फिर एक और धर्म-संकट। मगर विवश होकर बैठना पड़ा। भाइयों के साथ भी कभी उस तरह नहीं बैठी थी। मैं बड़ा ऑड फ़ील कर रही थी।

मैं रास्ते भर उससे गैप बनाने की कोशिश करती रही, लेकिन सब बेकार था। वह जैसे ही ब्रेक लेता मैं वैसे ही उससे टकरा जाती। बड़ा अजीब लग रहा था। शुरू में मुझे लगा कि खुर्राट जानबूझकर तेज़ ब्रेक लगा रहा है। मगर कुछ ही देर में यक़ीन हो गया कि नहीं वह सँभाल कर चल रहा है, तेज़ भी नहीं चल रहा है। मैं ही बैठने की अभ्यस्त नहीं हूँ, इसीलिए सँभल नहीं पा रही हूँ। मैं दोनों हाथ पीछे करके बाइक की सपोर्टिंग रॉड को पूरी ताक़त से ऐसे पकड़े हुए थी जैसे कि बाइक मेरे पैरों के बीच से आगे निकल जाएगी, और मैं सड़क पर गिर जाऊँगी। घर क़रीब आने पर सोसाइटी की ख़राब सड़क के कारण लाख कोशिशों के बाद भी मैं बार-बार खुर्राट से इतना ज़्यादा टच हो रही थी कि शर्मिंदगी के मारे आँसू आ गए। मन में आया कि बाइक से कूद जाऊँ नीचे। मगर विवश थी। मैं उसे घर तक नहीं ले जाना चाहती थी। इसलिए घर से थोड़ा पहले ही उतर गई।

घर पहुँची तो अम्मा रोती मिलीं। एक तो रोज़ से ज़्यादा देर हो गई थी। दूसरे वह बार-बार मोबाइल पर फ़ोन कर रही थीं। बाइक पर मैं रिंग सुन नहीं पा रही थी। उन्हें समझाया, अम्मा ऐसे परेशान ना हुआ करो। इतनी दूर घर लेकर बड़ी ग़लती कर दी है। काम कितना ज़्यादा है वह भी बता ही चुकी हूँ। मैंने उन्हें टेंपो की हड़ताल वग़ैरह सब बता दिया। सारे कारण गिना दिए, लेकिन यह नहीं बताया कि खुर्राट के साथ आई हूँ। मैंने सोचा कि इससे कहीं यह बेवज़ह तनाव में ना आ जाएँ। उस दिन मैं बड़ी देर तक जागती रही।

मुझे लगा कि खुरार्ट से स्पर्श का ख़्याल आते ही मुझ में अजीब सा रोमांच पैदा हुआ जा रहा है। और कुछ तनाव भी। अगले दिन उसने मुझसे फिर कहा, "आपको मेरे साथ चलने में कोई दिक़्क़त ना हो तो साथ ही चलिएगा, बेवज़ह इतनी प्रॉब्लम फेस करती हैं।" मैंने कहा ऐसी कोई बात नहीं, चली जाऊँगी । बातचीत के दौरान ही उसने बताया, "मैं चाचा के यहाँ रहता हूँ। चाचा अपने परिवार के साथ अयोध्या में रहते हैं। मकान में एक किराएदार है। एक पोर्शन चाचा ने मुझे दे रखा है। कोई किराया नहीं देना होता, इसलिए वहाँ रहता हूँ। खाना-पीना किराएदार बना देता है। हर महीने उसे पैसा दे देता हूँ।" उस दिन के बाद मैंने देखा कि वह बातचीत में पहले की अपेक्षा ज़्यादा साफ़ हो गया है। मगर काम-धाम के मामले में कोई परिवर्तन नहीं था। जिसके चलते अक्सर ज़्यादा देर होती ही रही। मजबूर होकर घर वापसी उसके साथ ही करनी पड़ती थी।

टेंपो से जाने में होने वाली दिक़्क़तों से आराम मिला तो धीरे-धीरे मेरा भी मन करता चलो चले चलते हैं। कुछ दिन में यह रेग्युलर हो गया। मैं घर से कुछ पहले ही उतर जाती। सुबह टेंपो से ही जाती। उसका साथ, उसका स्पर्श, उसकी ढेरों बातें मुझे रोज़ ही देर रात तक रोमांचित करती रहतीं थीं। फिर सोचती, मैं भी कैसी बेवकूफ़ हूँ। इन सब बातों का मेरे लिए क्या मतलब है। मेरा उसका क्या मेल। वह एक होनहार, अच्छी नौकरी वाला व्यक्ति है। उसके घर वालों ने उसको लेकर बहुत से सपने सँजोए रखे होंगे।

एक दिन जब वह साथ चला ऑफ़िस से तो घर चलने की ज़िद कर बैठा। मैं बड़े असमंजस में पड़ गई कैसे मना करूँ। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आख़िर ले आई। माँ से मिलवाया। माँ के पैर छूकर वह ऐसे बतियाने लगा जैसे ना जाने कितने दिनों से परिवार का सदस्य है।

उसने मिनट भर में बता दिया कि, "हम दोनों साथ-साथ काम करते हैं। रोज़ साथ आते हैं।" यह भी उलाहना दे दिया कि मैं सुबह बेवज़ह तकलीफ़ उठाती हूँ, मैं उसके साथ नहीं जाती। वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। यह भी कह दिया कि, "इतने दिनों से साथ आ रहे हैं। लेकिन इन्होंने कभी यह नहीं कहा कि घर चलिए, एक कप चाय पी लीजिए। मैं कहीं घर ना आ जाऊँ इसलिए रोज़ घर से पहले ही उतर जाती हैं। लेकिन मैं ही आज बेशर्म बन गया कि जो भी हो, आज घर चलूँगा, आपसे मिलूँगा। यह अक्सर आपके बारे में बातें करती हैं। आपके स्वास्थ्य को लेकर इन्हें बड़ी चिंता रहती है। रहती ऑफ़िस में हैं लेकिन इनका मन यहीं आप पर लगा रहता है।"

उस समय वह ऑफ़िस वाला खुर्राट लग ही नहीं रहा था। आश्चर्य तो मुझे यह हो रहा था कि अम्मा भी उससे बेटा, बेटा कहकर ऐसे बात कर रही थीं जैसे सच में उनका बेटा है। और बरसों बाद कहीं बाहर से आया हैै। मैं चाय-नाश्ता ले आई तो अपने हाथ से उसे दिया। खुर्राट ने एक झटके में वह सारी बातें अम्मा को बता दी थीं जिन्हें मैंने कभी नहीं बताया था।

मैं भीतर ही भीतर डर रही थी कि अम्मा ना जाने क्या सोच रही होंगी, मुझे क्या समझ रही होंगी? उसके जाने के बाद मुझे कितनी गालियाँ देंगी। कुछ कह पाना मुश्किल है। कहीं गुस्से में ऑफ़िस जाना ही ना बंद कर दें। खुर्राट पर बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था। मन ही मन कह रही थी कि यह जितनी जल्दी चला जाए यहाँ से उतना ही अच्छा है। अब जो भी हो जाए इसके साथ कभी नहीं आऊँगी। चाहे सारी रात बाहर ही क्यों ना बितानी पड़ जाए। जब वह उठकर जाने लगा तो मेरा मन और भी ज़्यादा घबराने लगा कि अब अम्मा से डाँट खाने का समय आ गया है। आश्चर्य नहीं कि हाथ भी उठा दें।

मैं गेट बंद करके जब अंदर कमरे में आने लगी तो मैंने महसूस किया कि मेरे पैर काँप रहे हैं। वह इतने भारी हो गए हैं कि उठ ही नहीं रहे हैं। एक-एक क़दम बढ़ाने में पूरी ताक़त लगानी पड़ रही है। जब अम्मा के सामने पहुँची तो ऐसे काँप रही थी, जैसे कोई छोटा बच्चा टीचर के सामने काँपता है। चेहरे पर पसीने का गीलापन साफ़ महसूस कर रही थी। अम्मा के सामने चाय-नाश्ते के रखे बर्तन उठाने को झुकी तो अम्मा की अनुभवी आँखों से अपनी हालत छिपा नहीं सकी थी।

अम्मा बोलीं, "क्या हुआ, तुम्हें इतना पसीना क्यों हो रहा है। तबीयत तो ठीक है ना।" मैंने बहुत मुश्किल से जवाब दिया था, हाँ अम्मा तबीयत ठीक है, थकान बहुत है बस। खाना खाते समय अम्मा ने खुर्राट के बारे में तमाम बातें पूछ डालीं, कौन है? कहाँ का है? माँ-बाप कौन हैं? कहाँ रहते हैं? तुमने इतने दिनों तक कुछ बताया क्यों नहीं? दबे शब्दों में अम्मा ने कुछ और भी ऐसी बातें पूछीं जिनका सीधा मतलब था कि हमारे उसके बीच कोई ऐसा-वैसा रिश्ता तो नहीं है।

मैंने उनकी हर बात का जवाब दे दिया था। लेकिन जब खा-पी कर लेटी तो भी मैं इस बात से निश्चिंत नहीं हो सकी थी कि अम्मा मेरी बातों से संतुष्ट हुईं कि नहीं। उनसे उस स्थिति के बारे में कोई बात नहीं कर सकी जिसे मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रही थी कि उसका साथ, स्पर्श मुझे क्यों अच्छा लगता है। अकेले होने पर वही दिलो-दिमाग़ पर क्यों छाया रहता है। रोज़ अच्छा-ख़ासा समय सोने से पहले उसी को सोचने में क्यों बीतता है। क्यों एक अजीब तरह की अनुभूति, रोमांच महसूस करती हूँ। 

अगले दिन ऑफ़िस के लिए निकल रही थी, अम्मा गेट बंद करने के लिए गेट पर आ गई थीं कि तभी खुर्राट बाइक लिए सामने आ खड़ा हुआ। मैं हक्का-बक्का हो गई। पूरे शरीर में सनसनाहट और पसीने का गीलापन महसूस होने लगा। उसने अम्मा को नमस्कार कर कहा, "माँ जी आप परेशान ना हुआ करिए, ये मेरे साथ ही जाएँगी, आएँगी।" अम्मा उसके नमस्कार के जवाब में आशीर्वाद देकर बोलीं, "ठीक है बेटा, सँभल कर चलना, धीरे चलाना।"

सवेरे लेने के लिए उसका इस तरह आना मुझे उसकी धृष्टता लगा। अम्मा की बात ख़त्म होने के पहले ही वह बोला, "जल्दी आइए देर हो रही है। मैं बड़े धर्म-संकट में पड़ गई कि कैसे बैठूँ? जैसे रोज़ बैठती हूँ उसी तरह दोनों तरफ़ पैर करके या फिर, आख़िर में दोनों पैर एक ही तरफ़ करके बैठ गई। उसकी तरह नहीं बैठी। घर से कुछ ही दूर एक मोड़ से निकलकर उसने बाइक रोककर कहा, "आप आराम से बैठ जाइए। आप जानती हैं मुझे इस तरह ड्राइव करने में दिक़्क़त होती है।" मैं बिना कुछ बोले उसकी ही तरह बैठ गई।

इस तरह उसके साथ रोज़ ही आना-जाना हो गया। अब जिस दिन थोड़ा जल्दी छुट्टी मिल जाती थी, उस दिन वह इधर-उधर घूमने-फिरने भी साथ लेकर जाने लगा था। होटल में खाना-पीना सब होने लगा। इस दौरान वह ऐसी कोई बात नहीं करता था जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता कि उसके मन में क्या चल रहा है। उसके घर परिवार की बात करती तो वह बात बदल देता था।

ऐसे में उसके चेहरे पर आने वाले भावों को बड़ी कोशिश कर मैं इतना ही समझ पाती थी कि वह परिवार की बात आते ही चिढ़ जाता है। उसकी बातें ज़्यादातर ऑफ़िस या फिर फ़िल्मों के बारे में होती थीं। एक बात ज़रूर थी कि वह अक्सर बात करते-करते एकटक मुझे देखने लगता था। मैं सकपका कर पूछती ऐसे क्या देख रहे हैं? तो वह कहता, "कुछ नहीं।" जल्दी ही मेरी ज़िंदगी ऐसे ऊहा-पोह में पड़ गई थी कि मैं समझ ही नहीं पाती थी कि क्या हो रहा है। घर बाहर वही हर तरह से दिमाग़ में घूमता रहता था। बड़ी देर रात तक नींद नहीं आती थी। मैं पूर्व की ही तरह समय को भी बड़ी तेज़ी से बीतते देख रही थी।

एक दिन रात क़रीब बारह बजे उसका फ़ोन आया। मोबाइल में उसका नाम देखकर मैं घबरा गई कि इतनी रात को क्यों फ़ोन किया है। जल्दी से कॉल रिसीव की साथ ही यह भी देखती रही कि अम्मा जाग तो नहीं रहीं। मैंने हेलो कहा तो वह बोला, "आप अभी भी जाग रही हैं?" मैंने कहा, नहीं सो रही थी, रिंग हुई तो नींद खुल गई। आपकी कॉल देखकर घबरा गई, क्या हुआ? मैं बात करते हुए घर के एकदम दूसरे कोने में चली गई, कि अम्मा कहीं जाग ना जाएँ, बात ना सुन लें। वह बोला, "बस नींद नहीं आ रही थी तो सोचा शायद आप जाग रही हों तो आपसे बातें करूँ।"

मैंने झूठ कहा, नहीं मैं जल्दी सो जाती हूँ। सुबह जल्दी उठना होता है। तो उसने कहा, "ठीक है, रखता हूँ, सॉरी आपकी नींद ख़राब की, डिस्टर्ब किया आपको।" मुझे लगा कि जैसे यह कहते वक़्त उसकी आवाज़ कुछ बदल गई है। मैंने सोचा कि कहीं नाराज़ ना हो जाए तो तुरंत कहा, नहीं-नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है। अब जाग ही गई हूँ। आप बात करिए।

असल में मेरा मन स्वयं उससे बात करते रहने का हो रहा था। सारी रात बात करने का। मैं बोलते वक़्त थोड़ा हड़बड़ा गई थी। उसने मुझे तुरंत रिलैक्स होने के लिए बोला फिर तुरंत वही फ़िल्मी डॉयलॉग कि आप आज के बाद मुझे सर नहीं कहेंगी। आप मेरा नाम लेकर बुलाएँगीं।

मैंने तर्क किया लेकिन उसकी ज़िद के आगे सब फ़ेल। फिर हमारी बातें आगे बढ़ीं तो बढ़ती ही गईं। उस समय पहले जैसी कोई बात नहीं थी। वह तब जो बातें कर रहा था, वह सब पहली बार कर रहा था। मैं जो जवाब दे रही थी, जो कुछ कह रही थी वह सब मैं भी पहली बार कह रही थी। उसने रोमांटिक बातें शुरू कीं और फिर कुछ ही देर में अंतरंग होता गया।

ऐसी रोमांटिक अंतरंग बातें जो जीवन में मैं पहली बार सुन रही थी। जिन्हें मैं कभी सोच भी नहीं पाई थी। मैं रोमांच उत्तेजना के कारण सिहर जा रही थी। मैं आश्चर्यचकित थी कि मेरे बारे में वह ऐसे ख़्याल रखता है। वह अब मुझे आपकी जगह तुम बोल रहा था। बीच-बीच में उसने मुझे कई बार टोका कि तुम हाँफ क्यों रही हो। तब मेरा ध्यान जाता कि मैं वाक़ई हाँफ रही हूँ। वह सेकेंड-दर-सेकेंड फ़्रैंक, बोल्ड होता जा रहा था। और मैं सम्मोहित सी उसी स्तर पर चढ़ती-उतरती चली जा रही थी।

शादी की पहली रात के बाद यह दूसरी ऐसी रात थी जिसे मैं चाह कर भी अब भी भुला नहीं पा रही हूँ। मुझे पल-पल बीतते समय का यूँ तो हमेशा पता रहता है लेकिन उस रात तो बातों में पता ही नहीं चला कि पल-पल करके साढ़े तीन घंटे कैसे बीत गए, मैं जैसे नींद से जागी जब उसने अचानक ही एक बेहद गहरी किस करते हुए कहा, "अब तुम सो जाओ स्वीटहार्ट, माय ड्रीम क्वीन, सुबह ऑफ़िस भी चलना है।" उसके विवश करने पर नहीं बल्कि उसके किस करने पर जवाब में स्वतः ही मुझसे भी किस हो गया था।

उसके हँसने फिर एक और किस की आवाज़ मुझे सुनाई दी थी। मगर तब मैं गहरी साँस लेकर उसे सिर्फ़ गुड नाईट कह सकी थी। फ़ोन डिस्कनेक्ट नहीं कर सकी, उसी ने किया। साढ़े तीन घंटे बाद मेरा ध्यान पूरी तरह अपनी तरफ़ गया। मैंने महसूस किया कि मैं पूरी तरह पसीने-पसीने हूँ। मेरी साँसें उखड़ी हुईं थीं। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

मैं अंदर आ कर लेट गई। अम्मा पर नाइट बल्ब की हल्की रोशनी में ही एक गहरी नज़र डाली थी, कि वह जाग तो नहीं रही थीं। उन्हें देख कर मुझे लगा कि मैं बच गई। अम्मा सो रही हैं। वह मेरी बातें नहीं सुन सकीं। साढ़े तीन बज रहे थे। नींद से आँखें कड़ुवा रही थीं। बेड पर लेटी हुई थी लेकिन सो नहीं पा रही थी। उसकी बातें कानों में गूँज रही थीं। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हुआ है?

सुबह नींद खुली। ऑफ़िस का ध्यान आते ही हड़बड़ा कर उठ बैठी। सामने दीवार घड़ी पर नज़र पड़ते ही पैरों तले ज़मीन खिसक गई। दस बज रहे थे। ज़िंदगी में उतनी तेज़ उससे पहले और अब तक मैं बेड से कभी नहीं उतरी। मैंने घबराते हुए अम्मा का बेड देखा, वह खाली था। इस बार पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकी नहीं एकदम से ग़ायब हो गई। मैं गहरे और गहरे अंतहीन घनघोर अँधेरे कुएँ में गिरती चली गई। डर के मारे पूरा शरीर साँय-साँय कर रहा था। 

पाँच बजे उठ जाने वाली अम्मा, जिस दिन मेरी नींद नहीं खुलती थी, उस दिन बड़े प्यार से माथे को सहला-सहलाकर उठाने वाली अम्मा, अक्सर माथे पर चूम लेने वाली अम्मा, कहाँ है? आज चूमा क्यों नहीं? जगाया क्यों नहीं? उठाया क्यों नहीं? अंदर-अंदर काँपती। थर-थराते, कँप-कँपाते और घबराते क़दमों से हाँफती-दौड़ती मैं सारे कमरे, किचेन, बाथरूम हर जगह देख आई। अम्मा कहीं नहीं थीं। आँगन में भी नहीं।

सीढ़ियाँ दौड़ती-फलांगती ऊपर छत पर पहुँची, अम्मा वहाँ भी नहीं थीं। मेरा सिर चकराने लगा। धूप-छाँव हो रही थी। बादलों के बड़े-बड़े टुकड़े इधर-उधर हो रहे थे। उनके बीच-बीच में से नीला आसमान झाँक रहा था। मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से बैठा जा रहा था। मैं ज़मीन पर बैठे-बैठे रोने लगी कि अम्मा, मेरी प्यारी अम्मा, मेरे लिए अपने लड़कों, सारे रिश्तेदारों को भी सेकेंड भर में त्याग देने वाली अम्मा ने क्या हमारी बातें सुन लीं, क्या वह अपनी प्यारी बिटिया को चरित्रहीन मान बैठी हैं। अपने से क़रीब-क़रीब बीस बरस छोटे आदमी से अंतरंग बातें कर रही थी, यह क्या उन्हें घृणास्पद लगा। क्या विकृति लगी। इतनी ज़्यादा घृणास्पद कि मुझसे नफ़रत कर बैठीं। उनका दिल टूट कर बिखर गया। लड़कों, रिश्तेदारों से निराश अम्मा को सारी आशा मुझसे ही थी।

उनके सारे सपने मुझसे ही थे। जिसे मैंने लड़कों से भी ज़्यादा बुरी तरह तोड़ दिया, कुचल दिया। हर तरफ़ से हताश-निराश अम्मा कहीं कुछ अनहोनी... कहीं उन्होंने कोई आत्मघाती क़दम तो नहीं उठा लिया। मैं कुछ मिनट बैठी यही सोचती रही। फिर उठकर नीचे आई यह सोचते हुए कि अम्मा अगर तुमने ऐसा कुछ किया है तो मैं भी अभी-अभी यहीं जान दे दूँगी।

नीचे उतरते हुए मेरे दिमाग़ में यह भी आया था कि खुर्राट ऑफ़िस जाते हुए मुझे लेने आया होगा। अम्मा ने उसे दरवाज़े से ही भगा दिया होगा। उसके बाद ख़ुद...। तमाम अनहोनी बातों की भयावह तस्वीरों की आँधी दिमाग़ में लिए मैं कमरे में पहुँची कि मोबाइल उठाऊँ, खुर्राट को फ़ोन करके पूछूँ  कि उससे अम्मा ने क्या कहा? उसके लिए मन में कई अपशब्द निकल रहे थे, कि क्या ज़रूरत थी इतनी रात को फ़ोन करने की, ऐसी बातें करने की। दिन भर तो साथ रहती हूँ, जितनी बातें करनी थी, जैसी भी करनी थीं, वहीं कर लेता।

इतने दिनों तक तो कैसा जेंटलमैन बना रहा। यह तो उन सबसे भी शातिर निकला। पहले खुर्राट बन अपनी अलग तरह की इमेज का जादू चलाया। इंप्रेस किया। धीरे-धीरे जाल में फँसाता रहा। जब जाल में फँस गई पूरी तरह तो असली रूप में आया। अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी। कैसी-कैसी बातें कर रहा था। अकाउंटेंसी की तरह कामुक बातों का भी पूरा पंडित है। उम्र में कितनी बड़ी हूँ, लेकिन कितनी बातें पहली बार जान रही थी, सुन रही थी।

कुछ बातें मुझे बड़ी गंदी, घृणास्पद लगीं। यह सोच कर मैं हैरान हो रही थी कि मुझे क्या हो गया था कि मैं तीन साढ़े तीन घंटे तक ऐसी बातें सुनती रही। न जाने क्या-क्या उसके कहने पर बोलती, ...छिः! घिन आने लगी मुझे। मोबाइल उठाकर भी मैं खुर्राट को फ़ोन नहीं कर सकी।

मैंने सोचा अम्मा ने जो भी किया होगा उसके लिए अकेले खुर्राट ज़िम्मेदार नहीं है। मैं भी हूँ। बल्कि मैं ही ज़्यादा हूँ। वह पच्चीस-छब्बीस का है, जवान है। मैं तो पैंतालीस की हो रही हूँ। शादीशुदा, नहीं-नहीं परित्यक्ता हूँ, तरह-तरह के अनुभव से गुज़री परित्यक्ता हूँ। आदमी की निगाह सेकेंड भर में पढ़ सकती हूँ। इसे, इसे भी तो समझ ही रही थी। सच तो यह है कि मैं स्वयं ही उसके लिए उत्सुक होती जा रही थी। यह जानते हुए भी कि अम्मा बगल कमरे में सो रही हैं। रात में कई-कई बार बाथरूम के लिए उठती हैं। किसी भी समय उठ सकती हैं, बातें सुन सकती हैं।

मैं यह सब एक बार भी सोचे बिना कैसी निडरता के साथ बतियाती रही। इतनी बेशर्मी, निर्लज्जता से भरी बातें सुनकर अम्मा के दिल पर क्या बीती होगी। उन पर तो जैसे वज्रपात हुआ होगा। उनका कलेजा फट गया होगा, कि जिस लड़की को सबसे ज़्यादा पाक-साफ़, स्वाभिमानी, मान-मर्यादा वाली समझती रहीं, वही सबसे ज़्यादा निर्लज्ज निकली। 

लड़के तो संपत्ति के लिए ग़लत निकले। अम्मा ने अब भाई-भाभियों के झूठे आरोपों को भी सच मान लिया होगा कि मेरा उस ज्योतिषी के साथ वाक़ई सम्बन्ध रहा होगा। निश्चित ही मेरी बातें सुन कर वह बर्दाश्त नहीं कर सकी होंगी और चली गईं कहीं। पाँच-छह घंटे हो रहे हैं। मैं अब उनको ढूँढ़ूँ भी तो कहाँ? मिल जाने पर क्या मुँह दिखाऊँगी? अम्मा तो सीधे मुँह पर थूक देंगी। मेरी छाया भी नहीं देखना चाहेंगी।

इससे अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ। वैसे भी ज़िंदगी में मेरी बचा क्या है जिसके लिए जियूँ। बेवज़ह घुट-घुट कर जीने से अच्छा है मर जाऊँ। दुनिया की उपेक्षा, नफ़रत को तो मैं सह सकती हूँ, लेकिन अम्मा की नहीं। मेरा मर ही जाना अच्छा है। अम्मा को ढूँढ़ने जाने का भी अब क्या फ़ायदा। उन्होंने...

मैंने मर जाने का निश्चय किया। समस्या मेरे साथ मेरे साये की तरह रहती है। तो इस समय भी सामने आई कि मरूँ कैसे? घर में कोई ज़हर वग़ैरह तो है नहीं। आखिर फाँसी की सोच कर अम्मा की साड़ी ले आई। मैं रोती भी जा रही थी और फंदा भी बनाती जा रही थी। तभी गेट के बंद होने और किसी के अंदर आने की आहट मिली। कुछ अनुमान लगाने की स्थिति में नहीं थी। जल्दी-जल्दी आँसू पोंछे। अम्मा की साड़ी जल्दी से पास पड़ी कुर्सी पर डालकर बाहर निकलने को हुई तभी अम्मा सामने आ गईं।

मैं एकदम हक्की-बक्की उन्हें देखती रह गई। आँसू जैसे जहाँ के तहाँ जम गए। आवाज़ हलक में ही फँस कर रह गई। कुछ क्षण पहले तक जहाँ इस संदेह में कि अम्मा ने कुछ कर लिया है, इस दुख में रो रही थी, मरने जा रही थी, अब उन्हें देखकर ख़ुश होने के बजाय मैं इतना डर गई कि मेरी घिग्घी बँध गई। जैसे अचानक ही कोई शेर, चीता सामने आ गया हो।

मैं थर-थर काँपती, स्टेच्यू बनी खड़ी, अपलक उन्हें देखती रह गई। तब अम्मा अचंभित होती हुई बोलीं, "क्या हुआ बिटिया? तुम रो क्यों रही हो? बाहर तक आवाज़ जा रही है। बताओ क्या हुआ?" अम्मा एकदम मेरे पास आ गईं। मेरा हाथ पकड़ कर बेड पर बिठा दिया। ख़ुद बगल में बैठ कर दोनों हाथों से मेरे आँसू पोंछते हुए कहा, "बिटिया ऐसे मत रो। तुम ऐसे रोओगी तो मैं सह नहीं पाऊँगी।"

मैं अजीब असमंजस में पड़ गई कि क्या अम्मा मेरी और खुर्राट की कोई बात नहीं सुन पाई थीं। मैं नाहक़ परेशान हो रही थी। अम्मा पाँच मिनट और ना आतीं तो अब तक मैं फंदे पर लटक रही होती। मेरी रुलाई इतनी तेज़ ना होती तो अम्मा अभी बाहर ही बैठी रहतीं। अम्मा मुझे एकदम बुत बनी देखकर अचानक उठकर किचेन में गईं, एक गिलास पानी लेकर आईं, मुझे अपने हाथ से पानी पिलाकर कर बोलीं, "बिटिया बोल न क्या बात हुई?" उनका गला रुँध  गया था। मैं अचानक ही उनसे चिपट कर बिलख पड़ी।

मेरा सिर उनकी गोद में था। उसी गोद में जिसका साया बचपन में मिलते ही मैं चट-पट सो जाती थी। मैंने रोते-रोते कहा अम्मा मुझे माफ़ करना, मुझसे बड़ी ग़लती हो गई। मुझे बचा लो। अब फिर से ऐसी ग़लती नहीं होगी। अम्मा ने मुझे जगाया नहीं था इसलिए मुझे पूरा यक़ीन हो गया था कि उन्हें सब मालूम है। बस इतनी उम्र-दराज़ अपनी बिटिया को क्या कहें, कैसे कहें, इसी अनिर्णय के कारण बाहर पाँच घंटे से बैठी थीं। अम्मा बड़े प्यार से मेरा सिर कुछ देर तक सहलाती रहीं। फिर बड़े भावुक स्वर में बोलीं, "बिटिया तुम से कोई ग़लती नहीं हुई। इसलिए तू एकदम ना रो। ग़लती तो हमसे हुई, और रोना-पछताना तो हमें चाहिए। तुमसे तो हमें माफ़ी माँगनी चाहिए।"

अम्मा की बात सुनकर मैं दंग रह गई। मैं सिसकते हुए बोली, “अम्मा यह क्या कह रही हो। माफ़ी माँग कर मुझे जीते जी नर्क में क्यों डाल रही हो। न जाने कौन से पाप किए थी जो यह जीवन इस तरह बीत रहा है।” अम्मा ने मेरा सिर दोनों हाथों से ऊपर उठाया। फिर आँसू पोंछते हुए कहा, "तुम अपने दिमाग़ से यह सब निकाल दो कि तुमने कोई पाप किया है।" अम्मा की बातों से मुझे बहुत ताक़त मिली। मैं सारी ताक़त बटोर कर बोली, “अम्मा मैं दस बजे तक सोती रही तुमने आज उठाया क्यों नहीं? पहले तो उठा दिया करती थी।” अम्मा कुछ पल चुप रहने के बाद बोलीं, "कैसे उठाती बिटिया, चार बजे सवेरे तो तुम सोई थी। लेटने के बाद भी तुम्हें बड़ी देर तक करवट बदलते देख रही थी। जब तुम सो गई, सवेरे नहीं उठी अपने आप, तो मैंने सोचा सोने दो। रातभर जागी हो, ऑफ़िस जाकर भी क्या करोगी।"

मैंने झट से पूछा, बल्कि मेरे मुँह से स्वतः ही निकल गया कि अम्मा वो लेने आया तो तुमने क्या...। मैं बात पूरी भी ना कर सकी थी कि अम्मा ने कहा, "वह भी नहीं आया। रात भर वह भी तो जागता रहा है। कैसे उठता?" मैंने पूछा, “तो अम्मा मतलब तुमने हमारी सारी बातें…?” अम्मा बड़ी अधीर होकर बोलीं, "क्या करूँ बिटिया, बुढ़ापा बड़ी ख़राब चीज़ है। नींद आती नहीं। आती भी है तो हल्की सी आवाज़ से ही खुल जाती है। तुम्हारी नानी इस नींद को कुकुर निंदिया कहती थीं। जैसे वह हल्की आहट से ही जाग जाते हैं वैसे ही बुढ़ापे की नींद होती है।

“जब फ़ोन की घंटी बजी, तुम एकदम से मोबाइल लेकर यहाँ से गई, मेरी नींद तभी खुल गई थी। मुझे ज़रा भी अनुमान नहीं था कि उसका फ़ोन होगा। मैंने सोचा बात कर लो, तब पूछूँ कौन है? लेकिन तुम्हारी बात बढ़ती ही गई, तुम्हारी बातों से पता चल गया था कि किसका फ़ोन है। फिर जब तुम्हारी बातें और गहरी होती गईं तो मुझे लगा कि मुझे नहीं सुनना चाहिए। पाप है। फिर मैंने कानों में उँगली दे दी।

“मगर क्या करूँ, कुछ बातें कान में पड़ ही जा रही थीं, शुरू में ग़ुस्सा आया कि तुम यह क्या मूर्खता कर रही हो। अपने से इतने छोटे लड़के से ऐसी बातें। मगर सोचा कि नहीं वह एक इंसान है। और तुम भी एक इंसान हो। जैसे उसकी, दुनिया भर के लोगों की ज़रूरतें हैं, इच्छाएँ हैं, वैसे ही तुम्हारी भी हैं। जितना हक़ सबको है अपनी ज़रूरतें, इच्छाएँ पूरा करने का, उतना ही तुम्हें भी है। उम्र या और किसी भी को बीच में आने का कोई हक़ नहीं है। मुझे भी नहीं। बस यही सोच कर अनसुनी कर लेटी रही मैं।"

मैं उनसे पूछना चाहती थी कि अम्मा तुम्हें बुरा नहीं लगा। लेकिन अम्मा पहले ही बोलीं, "सारा दोष हमारा ही है बिटिया, एक औरत उससे भी पहले एक माँ होकर भी अपनी जवान बिटिया की भावनाएँ, उसकी ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान नहीं दे पाई। देखते-देखते वह प्रौढ़ा बन गई। उसके हिस्से के सारे सुख पीछे छूटते चले गए। लेकिन मैं परिवार, लड़कों से मिली ठोकर से बने अपने घाव ही देखती रही। जब-तक होश आया तब-तक बहुत देर हो चुकी थी। कोई लड़का क़ायदे का मिल ही नहीं रहा था।

“मैं डर रही थी कि फिर से किसी ग़लत आदमी का पाला ना पड़ जाए। शादी के नाम पर हम फिर न ठगे जाएँ। यही सब सोचते-सोचते इतना समय निकल गया। तरह-तरह के रास्ते सोचती हूँ लेकिन सब मन में ही रह जाते हैं। कोई आगे पीछे नहीं। किसको भेजूँ, कहाँ भेजूँ, क्या करूँ। पास-पड़ोस में भी कोई नहीं। एक घर यहाँ तो दूसरा बहुत दूर। घर अकेले छोड़कर निकला भी नहीं जा रहा है। शरीर अलग साथ नहीं दे रहा है। तेरी ज़िंदगी अपनी आँखों के सामने पल-पल बर्बाद होते देखकर अंदर ही अंदर घुटने के सिवा मेरे वश में अब कुछ नहीं रह गया है?"

मैंने देखा अम्मा बहुत ज़्यादा भावुक होती जा रही हैं तो उन्हें समझाते हुए कहा, “अम्मा क्यों इतना परेशान हो रही हो, तुम तो सब जानती हो कि सब को सब कुछ नहीं मिलता। मुझे जो कुछ जितना मिलना था वह मिल गया। और कोई इच्छा बची भी नहीं है। बस ना जाने कैसे उस के चक्कर में आ गई। एक ही जगह काम करते, साथ-साथ आते-जाते पता नहीं कैसे क्या हो गया मुझे। मगर अम्मा मेरा विश्वास करो, मैं अपनी ग़लती सुधार लूँगी। अब कभी उसके साथ नहीं आऊँगी, नहीं जाऊँगी। ऑफ़िस में भी काम के सिवा एक शब्द ना बोलूँगी। आज ही उसको साफ़ मना कर दूँगी। होता है ग़ुस्सा तो होता रहे। मेरी नौकरी नहीं ले सकता। बहुत होगा तो परेशान करेगा। लेकिन कितना करेगा? ख़ुद ही थक जाएगा। अब तो इन सब की आदत पड़ गई है।”

मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोलीं, "नहीं, अब तुम उसे मना नहीं करोगी। मैं तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी देखना चाहती हूँ बिटिया। मेरी बूढ़ी आँखें, मेरा अनुभव यह कहता है कि जो भी हो तुम उसके साथ ख़ुश रहोगी। वह भी ख़ुश रहेगा। इसके अलावा तुम दोनों को और क्या चाहिए? और तुम ख़ुश रहो मुझे इसके अलावा और कुछ चाहिए, तो सिर्फ़ इतना कि अपने जीते जी तुम्हारे लड़के-बच्चे देख लूँ बस। इच्छाओं का क्या करें बेटा, बुढ़ापे में चाहत भी बहुत बढ़ जाती है।"

अम्मा ने बिना रुके अपनी बात कह डाली। मैं अवाक एकटक उन्हें देखती रह गई कि मेरी अम्मा यह क्या कह रही हैं? मैं तो क्या-क्या सोच रही थी, आत्महत्या करने जा रही थी और अम्मा एकदम उलट वह कह रही हैं जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की है। खुर्राट के साथ जीवन बिताने, शादी करने की तो मैंने सोची ही नहीं। धोखाधड़ी के चलते जो रिश्ता बन गया उससे आगे का कोई चित्र तो ख़्यालों में भी नहीं था और, और अम्मा कुछ ही घंटों में सब कुछ सोच-समझ कर इतना बड़ा निर्णय भी ले बैठीं हैं।

मैं उनकी बेटी होते हुए भी सच में उनसे बहुत पीछे हूँ। मैंने उनके निर्णय पर कहा, “अम्मा तुम समझ रही हो कि तुम क्या कह रही हो?” लेकिन अम्मा कुछ सोचने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं हुईं। एकदम ज़िद कर बैठी थीं कि अभी खुर्राट को बुलाओ। अभी बात करेंगे। मैंने टालने के लिए कहा अब तक वह ऑफ़िस चला गया होगा। लेकिन उन्होंने बात पकड़ते हुए कहा, "बिटिया हमें आज बहकाओ नहीं। ऑफ़िस गया होता तो यहाँ होकर जाता। जितना भी उसको सुना है उसके हिसाब से वह तुम्हें लिए बिना जा ही नहीं सकता।"

अम्मा की ज़िद के आगे मैंने फ़ोन किया तो सच में वह उस समय सो कर उठा था और मुझे फ़ोन करने ही वाला था कि मैं ऑफ़िस चली गई क्या? मैंने उससे तुरंत घर आने के लिए कहा। कहा, चाय-नाश्ता यहीं करना, अम्मा कह रही हैं। मेरी बात पर सशंकित हो उसने पूछा, "बात क्या है? सब ठीक तो है ना।" मैंने कहा सब ठीक है। बस आ जाओ। उसने ऑफ़िस चलने की बात की तो मैंने कह दिया आज नहीं जाऊँगी।

वह जब आया तो अम्मा ने बहुत खुलकर सारी बातें कीं। बिना संकोच यह भी कहा कि, "तुम दोनों की सारी बातें सुनने के बाद मुझे शादी से अच्छा कोई रास्ता नहीं दिखता। तुम्हारी बातों से मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि तुम दोनों ख़ुश रहोगे। मैं नहीं चाहती कि समय, समाज, मैं या कोई भी तुम दोनों की ख़ुशी के बीच आए।" खुर्राट की तमाम बातों का अम्मा एक ही जवाब देतीं थीं कि, "तुम्हारे बारे में जितना जानती हूँ, उससे ज़्यादा मुझे कुछ जानना भी नहीं है।” अम्मा की हड़बड़ी, उनकी जल्दबाज़ी हम दोनों को हैरान किए हुए थी।

मैं हैरान इस बात पर भी थी कि खुर्राट से बातें करते समय मोबाइल का साउण्ड कुछ ज़्यादा था। मगर तब खुर्राट की बातों में मैं ऐसी खोयी, उलझी थी कि मेरा ध्यान इस तरफ़ गया ही नहीं। जिससे खुर्राट को भी अम्मा सुनती रहीं। मैं उन बातों को सोच-सोचकर शर्म से गड़ी जा रही थी, जिन्हें अम्मा ने भी सुना था। आख़िर अम्मा की ज़िद के चलते हमें उनकी बातें माननी पड़ीं। तीसरे ही दिन एक मंदिर में हम दोनों की महज़ दस मिनट में शादी हो गई।

भगवान के सिवा अम्मा और पुजारी साक्षी बने। और आशीर्वाद भी दिया। पुजारी को अम्मा और खुर्राट ने उसकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा दान-दक्षिणा दी। मुझसे भी दिलवाया। मंदिर में उपस्थित क़रीब दर्जन भर लोगों को खाना भी खिलाया गया। मिठाई-फल भी दिया गया। कुछ भिखारी भी थे उन्हें भी ख़ूब खिलाया गया। ख़ूब दिया गया, पैसा भी। तैयारी के नाम पर हम सब ने कुछ सिंपल से कपड़ों के अलावा कुछ नहीं लिया था।

मेरी इस बड़ी बेमेल सी दूसरी शादी का हर काम ही एकदम अलग तरह से, लीक से हटकर हुआ। शादी की रस्म के बाद मैं ससुराल यानी अपने नए-नवेले पति खुर्राट के घर नहीं गई। अम्मा ने उससे हाथ जोड़कर प्रार्थना की, "बेटा इस घर में है ही कौन? तुम दामाद बेटा सब कुछ हो गए हो मेरे लिए। अब तुम यहीं रहो।" अबकी अम्मा की ज़िद नहीं उनकी याचना, उनके स्नेह-प्यार, आँसुओं से भरी आँखों के सामने खुर्राट मोम बन गया। पिघल गया। नतमस्तक हो गया। अम्मा दो दिन में जो ख़रीददारी कर पाई थीं दामाद के लिए, घर में जो तैयारी की थी वह खुर्राट के लिए आश्चर्यजनक थी। और मुझे सुहाग सेज पर उसने आश्चर्य में डाल दिया सोने नहीं डायमंड के ज़ेवर देकर।

मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। तभी उसने यह भी बताया कि अगर वह अम्मा की बात ना मानकर मुझे अपने यहाँ ले जाता तो एक छोटा सा बेड हमारी सुहाग सेज बनता, या फिर ज़मीन। जहाँ ना जाने कब से झाड़ू भी नहीं लगी है। जो भी नाम-मात्र की चीज़ें हैं वह सब अस्त-व्यस्त बिखरी पड़ी हैं। हमारी तरह उसने दो दिन में भी कुछ इसलिए नहीं किया क्योंकि वह दो-तीन हफ़्ते होटल में ही रहने का प्लान बनाए हुए था। और इसी बीच कहीं किराए का मकान लेकर नए सिरे से सब कुछ ख़रीदना चाहता था। मगर अम्मा के प्यार ने उसका प्लान बदल दिया। दो दिन में ऑफ़िस के अलावा वह और कुछ काम कर सका तो बस इतना कि बैंक से पैसा निकालकर मेरे लिए डायमंड सेट ले पाया। पसंद करने में सारी मदद ज्वैलर के यहाँ सेल्स वूमेन ने की। जिसकी आँखें और होंठ उसकी नज़र में बेहद ख़ूबसूरत थीं। मगर मुझे उसकी यह बात सिवाय ठिठोली के और कुछ नहीं लगी थी।

मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह हुआ कि सुहाग-सेज पर मुझे मेरा खुर्राट नहीं मिला। जो मिला वह एक बेहद संकोची, शर्मीला, भावुक इंसान मिला। मैं चकित थी कि फोन पर ना जाने कैसी-कैसी बातें करने वाला खुर्राट कहाँ चला गया। जिस खुर्राट के इंतज़ार में मैं जोश, उमंग, रोमांच में सुध-बुध खोती जा रही थी, रात में उसके एकदम बदले रूप ने मुझे झकझोर कर रख दिया था। मैं विस्मित सी बैठी उसके हाथों से गले में डायमंड नेकलेस पहन रही थी, और साफ़ महसूस कर रही थी कि मेरे प्यारे खुर्राट के हाथ काँप रहे हैं। उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था। मैं जोश, उमंग, रोमांच, उत्तेजना शून्य हो बस उसके थरथराते जिस्म को गहराई तक पढ़ने का प्रयास कर रही थी।

दूसरी शादी की सारी ख़ुशियाँ मुझे लगा कि मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही हैं, और मैं उन्हें रोक पाने में असमर्थ हूँ। मुझे लगा हो ना हो, अम्मा, मेरा, दोनों ही का निर्णय ग़लत होने जा रहा है। बेमेल विवाह की यह गाड़ी हिलते-डुलते थोड़ा-बहुत सफ़र तय कर ले यही बड़ी बात होगी। खुर्राट से मासूम गुड्डा बने अपने पति पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। बड़ी तरस आ रही थी। मैंने सोचा कि कहीं यह भी मेरी तरह सपने टूटने की हताशा में डूबने लगे, इसके पहले कि इसकी भी मुट्ठी से खुशियाँ फिसलने लगे, मुझे इसकी मुठ्ठी अपनी ही दोनों हथेलियों में थाम लेनी चाहिए। मैंने पूरी कोशिश की, कि उसे उसकी सारी ख़ुशियाँ मिलें। लेकिन विश्वास के साथ अब भी नहीं कह सकती कि तब उसे वह ख़ुशियाँ मिली थीं कि नहीं।

मैं अगले पंद्रह दिन तक छुट्टी पर रही। वह जाता रहा। उसने ऑफ़िस में किसी को नहीं बताया। कहा, "साले इस लायक़ नहीं कि उनसे अपनी ख़ुशी शेयर की जाए।" मैंने कहा लेकिन जब मैं चलूँगी तब तो सब सिंदूर-बिंदी देखकर जान ही जाएँगे कि शादी हो गई है। तो उसने कहा, "तुम्हारी शादी हो गई है यही जानेंगे ना। किससे हुई है यह तो जब हम बताएँगे तब पता चलेगा।" यही हुआ भी। ऑफ़िस में हम दोनों पहले की ही तरह रहते। लोग पूछते हस्बैंड के बारे में तो मैं टाल जाती।

अम्मा ख़ुश थीं कि मैं ख़ुश हूँ। लेकिन मैं कितना ख़ुश थी यह मैं ही जानती थी। खुर्राट कितना ख़ुश था कितना नहीं यह वही जानता था। लेकिन उसे देख कर मुझे शत-प्रतिशत भरोसा था कि कम से कम वह मुझसे ज़्यादा ख़ुश था। अम्मा को लेकर मेरा आकलन ग़लत निकला।

अम्मा की अनुभवी आँखों ने मेरी पेशानी पर कुछ इबारतें पढ़ ली थीं। बड़े संकोच से एक दिन मेरे सिर में तेल लगाते हुए पूछा, "बिटिया तू ख़ुश तो है ना, मुझसे कोई ग़लती तो नहीं हो गई।" यह सुनते ही मैं एक झटके में उनकी तरफ़ मुड़ी। पूछा, “क्यों अम्मा ऐसा क्यों पूछ रही हो?” वह बोलीं, "पता नहीं क्यों बिटिया इधर कुछ दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि तेरे चेहरे पर कुछ उदासी सी बीच-बीच में तैर जाती है।" अम्मा से यह सुनते ही मैंने उन्हें बाँहों में भर लिया। फिर उन के माथे को चूम कर कहा, “क्यों अम्मा, क्यों इतना चिंता करती हो? मैं एकदम ख़ुश हूँ। तुम्हें दिखता नहीं मैं कितना ख़ुश रहती हूँ।”

मैं एकदम सफ़ेद झूठ बोलती गई। अम्मा कुछ देर जैसे मेरे चेहरे को पढ़ने के बाद बोलीं, "हाँ बिटिया तुम ऐसे ही हमेशा ख़ुश रहो। तुम्हारे चेहरे पर ज़रा भी चिंता मेरी जान ही निकाल लेती है। बस बिटिया अब जल्दी से एक नाती दे दो तो घर का सूनापन ख़त्म हो जाए। सूना-सूना घर अब बड़ा ख़राब लगता है।" अम्मा की बात पर मुझे बड़ा तेज़ झटका लगा। साथ ही उनकी नादानी पर हँसी भी आ गई।

मैंने जब अपनी ज़्यादा हो चुकी उम्र की बात उठाई, कहा कि अब कहाँ इस तरह की कोई उम्मीद है तो अम्मा का जवाब सुनकर मैं उन्हें एकटक देखती रह गई। डॉक्टर से मिलने से लेकर आईवीएफ टेक्नोलॉजी को यूज़ करने तक की बात करने लगीं। मैं अचंभित रह गई जब उन्होंने अपनी अलमारी से कई अख़बारों के पन्नों के टुकड़े निकाल कर मेरे सामने रख दिए और उन में आईवीएफ टेक्नोलॉजी से निसंतान दंपत्ति को संतान पैदा कराने के विज्ञापनों को दिखाते हुए कहा, "देखो यह सब क्या है? इनमें से किसी के यहाँ जाकर दिखाओ। बिटिया उम्र की बात हमारे भी मन में थी। मगर इसमें जो बातें लिखीं हैं उससे हमें विश्वास है कि इस घर में भी नन्हें-मुन्नों की किलकारी ज़रूर गूँजेंगी। तुम्हारी गोद ज़रूर हरी-भरी होगी।" कहते-कहते अम्मा एकदम भावुक हो गईं। उनका गला भर आया। अपने लिए उनकी भावना, उनके प्यार, चिंता को देखकर मेरा दिल भर गया। मेरी भी आँखें भर आईं। मैंने लाख कोशिश की लेकिन अम्मा को चुप कराते-कराते ख़ुद भी उनसे ज़्यादा रोने लगी।

तब उल्टा अम्मा हमें चुप करा रही थीं। मेरे सब्र का बाँध इसलिए टूटा, इसलिए मैं न रोक पाई ख़ुद को, क्योंकि मन में खुर्राट और अपने बीच जो अनकही सी दूरी के बीज अंकुरित होते देख रही थी, उन्हें देखते हुए तो बच्चे का सपना देखना भी मूर्खता थी। वह भी आईवीएफ जैसी बेहद जटिल, ख़र्चीली टेक्नोलॉजी के ज़रिए। मगर यह बातें अम्मा से कह कर मैं उन्हें दुख नहीं देना चाहती थी। दुख क्या यह सुनकर तो उन पर वज्रपात ही हो जाता। अपनी बात, अपना दर्द मैं कह भी नहीं सकती थी। अम्मा से भी नहीं। इसी विवशता ने मेरे आँसू और भी नहीं रुकने दिये थे। कुछ देर बाद अम्मा का दुख कम करने के लिए मैंने झूठ ही कहा, ठीक है अम्मा, मैं इनसे बात करूँगी। जाऊँगी किसी डॉक्टर के पास। 

जब अम्मा से मैंने यह बात कही थी, तब मन में बिल्कुल नहीं था कि इस बारे में अपने मुँह से खुर्राट पति से बात करूँगी। मगर मन में इस बात को लेकर उथल-पुथल मची रही। रात में उनको काफ़ी जॉली मूड में देखकर मेरी भी बरसों-बरस से दबी इच्छा एकदम जाग उठी। मैं मचल उठी। पति महोदय से बात उठाई तो देखा कि उनकी स्वाभाविक हँसी बनावटी हँसी में बदल गई। मेरी बगल में बैठे थे, उठे, एक हल्की सी थपकी पीठ पर मारी और बाथरूम में चले गए। लौटे तो मोबाइल उठा कर किसी को कॉल की और बात करने लगे। मुझे उनका जवाब मिल चुका था। इतना स्पष्ट जवाब दिया था कि शक-शुबह की रंच मात्र को भी गुंजाइश नहीं थी।

मेरा दिल रो उठा। कलेजा फट गया। अपनी मूर्खता पर ग़ुस्सा नहीं आया बल्कि ख़ून खौल उठा कि सब कुछ जानते समझते हुए मैंने यह मूर्खता नहीं बल्कि यह पागलपन क्यों किया? पहली मूर्खता तो इनकी बातों में आकर, भावनाओं में बहकर इनके इतने क़रीब चली गई। फिर अम्मा की बातों को मान लिया जो वास्तव में मेरे मन में ही अँखुवाई बात थी। आनन-फानन में शादी कर ली। कितना सही कहा गया है कि जल्दी का काम शैतान का होता है।

मेरा मन फूट-फूटकर रोने को कर रहा था। बेड पर एक तरफ़ करवट लेकर लेट गई। मैं पूरी ताक़त से अपनी रुलाई रोकने में लगी हुई थी। दस मिनट बाद ही खुर्राट को भी बेड पर लेटते महसूस किया। मुझे जवाब देने के लिए बात करने का ड्रामा ख़त्म हो गया था। मैंने जब उनके हाथों का स्पर्श अपनी बाँहों पर महसूस किया तो मैंने तुरंत ही उनकी ही तरह ड्रामा किया। बात करने का नहीं, सोने का। खुर्राट ने पूछा, "सो गई क्या?" लेकिन मैं एकदम निश्चल पड़ी रही। शरीर को एकदम ढीला छोड़ दिया, जिससे उनको ज़रा भी शक ना हो। मुझे तब और कष्ट हुआ जब वह अगले ही पल दूसरी तरफ़ करवट होकर सो गए। "सो गई क्या?" यह पूछ कर उन्होंने केवल कंफ़र्म किया था कि मैं सो रही हूँ कि नहीं।

इस रात के बाद मैंने फिर कभी उनसे इस चैप्टर पर एक शब्द तो क्या एक अक्षर ना बोली। अम्मा पूछतीं तो लगातार झूठ बोलती कि डॉक्टर के पास गई थी, यह बताया, वह बताया। कुछ दवाएँ भी दी हैं। पूरा कोर्स होने के बाद आने को कहा है। अम्मा से झूठ बोलने, उन्हें धोखे में रखने का पाप मैं लगातार करती रही। बोलते वक़्त मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती थी। मन कचोटता था, लेकिन मैं अपनी इस बात पर अडिग थी कि चाहे जो भी हो जाए, चाहे दुनिया के सारे पापों के बोझ तले दबकर मैं ख़त्म हो जाऊँ, लेकिन सच बता कर अम्मा की आँखों में आँसू नहीं आने दूँगी।

लेकिन मेरी कोशिश आंशिक ही सफल हो रही थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था वैसे-वैसे उनकी आँखों में आँसू की चमक मैं और तेज़ होते देख रही थी। उनकी बातचीत भी कम होती जा रही थी। चेहरे पर सूनापन, विरानापन गहरा और गहरा होता जा रहा था। हमारे और खुर्राट के बीच मधुरता का विलोपन भी गहरा होता जा रहा था। घर में सूनापन अपनी जगह और बड़ी करता जा रहा था। और एक दिन यही सूनापन लिए अम्मा मेरे जीवन का आख़िरी कोना भी एकदम सूना करके चली गईं। रात ग्यारह बजे मैं उनकी दवाओं का डिब्बा, पानी और घंटी का लंबे तार वाला स्विच उनके बेड के बगल में स्टूल पर रख कर सोने गई थी।

मैंने महीने भर पहले ही यह घंटी उनकी बढ़ती स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को देखते हुए लगवाई थी कि अम्मा ज़रूरत पड़ने पर स्विच दबा देंगी तो मेरे कमरे में घंटी बज जाएगी। मैं तुरंत उनके पास पहुँच जाऊँगी। लेकिन अम्मा ने घंटी नहीं बजाई। कंबल, बिस्तर की हालत, स्टूल से नीचे गिरा पानी का गिलास और दवाई का डिब्बा और ख़ुद वह जिस तरह बिस्तर पर पड़ी थीं, वह सारी स्थितियाँ चीख-चीख कर बता रही थीं कि अम्मा ने तकलीफ़ बढ़ने पर दवा पानी लेने की कोशिश की थी। और जल्दी में नीचे गिर गईं। फिर बड़ी कोशिश कर बिस्तर पर पहुँच तो गईं। लेकिन अपने को सही पोज़ीशन में भी नहीं कर पाईं। स्विच जैसे का तैसा स्टूल पर पड़ा था। उन्होंने मुझे परेशान करना नहीं चाहा था। जबकि सच यह है कि यह करके उन्होंने मुझे ऐसा दुख दिया है, जो जीवन भर मेरे साथ रहेगा।

मैंने उनकी अंतिम इच्छा का भी पूरा ध्यान रखा, कई बार भाइयों को सूचना देने के लिए सोचा लेकिन अंततः क़दम रुक गए। वैसे भी मुझे घर का एड्रेस आदि याद ही नहीं था। किसी का कोई कॉन्टेक्ट नंबर भी मेरे पास नहीं था। मैं अम्मा के ना रहने पर भी उनकी हर बात का अक्षरशः पालन करने का प्राण-प्रण से प्रयास करती रही। ऑफ़िस में भी किसी को सूचना नहीं दी। कुछ पड़ोसी आ गए थे। जो खुर्राट के परिचित थे। खुर्राट दामाद होने का रिश्ता बख़ूबी निभा रहे थे। अर्थी को कंधा देने के लिए वह ख़ुद ही आगे बढ़े।

मैं भी आगे बढ़ी, लेकिन उन्होंने एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ा। मना करना चाहा, लेकिन मैंने अपने दूसरे हाथ से उनका हाथ हटा दिया। जो पड़ोसी कंधा देने के लिए खड़े थे उनमें से आगे वाले एक ने मुझे आगे बढ़ा देखा तो ख़ुद ही पीछे हट गए। मैं अपनी माँ को कंधे पर लेकर आगे बढ़ी। पीछे वालों ने राम-नाम सत्य है, का मध्यम स्वर में उच्चारण शुरू किया। पास-पड़ोस के बहुत से लोग अपने-अपने दरवाज़े पर खड़े देख रहे थे। ऐसे आश्चर्य से जैसे कोई अजूबा निकल रहा है। मगर मुझे किसी की कोई परवाह नहीं थी। मैं लड़की-लड़के के फ़र्क़ से नफ़रत करती थी। आज भी करती हूँ। लड़की से पहले मैं अम्मा की संतान हूँ बस यही मेरे दिमाग़ में था। और मैंने सारे क्रिया-कर्म सम्पन्न किए थे।

अम्मा के जाने के बाद मुझे अपना वीराना जीवन और भी विराना लगने लगा। पूरी दुनिया ही उजाड़ लगने लगी। खुर्राट का साथ भी अब और ज़्यादा वीराना और ज़्यादा उबाऊ लगने लगा। वह भी जब पास आता था तो उसके हाव-भाव भी ऐसे होते थे मानो बहुत दिनों बाद वह अपनी माँ के पास आया है। और अपनी माँ से प्यार-दुलार दिखा रहा है। मुझ में भी पत्नी का जोश उत्साह सब ख़त्म हो गया था। मुझे लगता जैसे मेरी भावनाएँ वात्सल्य भाव की छाया से गुज़र-गुज़र कर आती हैं। ऑफ़िस का खुर्राट घर में मेरे सामने अजीब सा उखड़ा-उखड़ा, दबा-दबा सा रहता था।

एक दिन रात को क़रीब दो बजे के आसपास प्यास के कारण मेरी नींद खुल गई। पानी पीने उठी तो देखा यह बिस्तर से गा़यब हैं। मैंने सोचा बाथरूम गए होंगे। मैं पानी पीकर फिर लेट गई, आँख बंद करके। कुछ देर बाद भी यह नहीं आए तो मन में आया कि बाथरूम में इतनी देर से क्या कर रहे हैं? मैं उठी, बाथरूम में देखा तो वहाँ नहीं मिले। मैं घबरा गई। सटे हुए दूसरे कमरे में भी नहीं मिले तो और परेशान हो गई। पसीना आने लगा, सनसनाहट सी होने लगी शरीर में। जल्दी-जल्दी नीचे पूरा घर देखकर ऊपर जाने लगी तो कुछ सीढ़ियाँ चढ़ते ही इनकी आवाज़ सुनाई देने लगी। मुझे कुछ राहत महसूस हुई। कुछ सीढ़ियाँ और चढ़कर ऊपर दरवाज़े पर पहुँची तो बातें साफ़-साफ़ सुनाई देने लगीं। अचानक ही मैं कई आशंकाओं से घिर गई। मैं जहाँ दरवाज़े पर खड़ी थी वहीं जड़ हो गई। सारी बातें मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थीं।

एक-एक बात दहकती सुईयों सी बदन में चुभतीं जा रही थीं। मेरी आँखों के सामने वह रात एकदम से आ गई, जिस दिन उन्होंने मुझसे इसी तरह की बातें की थीं। रोमांच उत्तेजना से भर देने वाली बातें। खुर्राट का विश्वासघात मेरी आँखों के सामने पूरी नंगई के साथ नृत्य कर रहा था। जिस आदमी को मैं ख़ुद मोम समझने लगी थी। पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत भावों वाला व्यक्ति समझती थी, वह झूठा ही नहीं विश्वासघाती भी निकला। मुझे आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इतने सालों से मैं घर, ऑफ़िस मिलाकर चौबीस घंटों में कम से कम बीस घंटे साथ रहती हूँ, फिर भी उसे जान-समझ नहीं पाई। उसके चेहरे पर लगा मुखौटा पहचान नहीं पाई। उतार नहीं पाई। कितनी नादान, कितनी मूर्ख हूँ मैं।

मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे। मैं चुपचाप नीचे आकर बेड पर लेट गई, आँसुओं से तकिए का कवर भिगोती। अम्मा की बड़ी याद आ रही थी और बाबूजी की भी। मुझे लगा जैसे हर तरफ़ से आवाज़ आ रही है कि तू मूर्ख है। तू इसी लायक़ है। तुझ जैसी बेवकूफ़ के लिए यह दुनिया नहीं है। मूर्ख! मेरे कान जैसे फटने लगे। मैंने कान बंद कर लिए। लेकिन यह बातें दिलो-दिमाग़ में बड़ी देर तक गूँजती ही रहीं। मैं फिर सो नहीं सकी। मैं यक़ीन नहीं कर पा रही थी कि सब कुछ मेरे हाथ से निकल चुका है। मुझे मालूम होने से बहुत पहले ही निकल चुका है।

मैं आँसू बहाती पड़ी रही। लगभग घंटे भर बाद दबे पाँव आकर खुर्राट भी लेट गया। मैं मुँह दूसरी तरफ़ किए हुए थी। मैंने ऐसा महसूस किया कि जैसे खुर्राट बेड पर लेटने से पहले कुछ पल तक मुझे देखता रहा कि मैं सो रही हूँ कि नहीं। मेरी निश्चल अवस्था से उसे विश्वास हो गया कि मैं सो रही हूँ। वह लेटते ही सो गया। दो मिनट बाद ही उसके नाक की खुरखुराहट आने लगी थी। मैं लेट नहीं सकी, उठ कर बैठ गई बगल में। उसकी उपस्थिति से मुझे बड़ी उलझन होने लगी। मुझे लगा कि अब और समय तक यहाँ नहीं बैठ पाऊँगी, दूसरे कमरे में चले जाना ही अच्छा है। मैं उठ कर जाने लगी, फिर दरवाज़े के पास पहुँचकर अनायास ही मुड़ी। मेरी नज़र सीधे उनके चेहरे पर गड़ गई। ऐसी गड़ी कि हटा ही नहीं पा रही थी।

फिर मेरे क़दम बरबस ही उसकी तरफ़ बढ़ते चले गए। मैं बेड से दो क़दम पहले ठहर गई। एकटक उनके चेहरे को देखती रह गई। बरसों-बरस बाद अचानक ही अम्मा द्वारा बार-बार गुन-गुनाया जाने वाला भजन कानों में गूँजने लगा। सूरज ना बदला, चाँद ना बदला..., अम्मा जी ने बाबूजी के ना रहने के बाद कुछ भी गुनगुनाना बंद कर दिया था। मैं भी समय के साथ भूल गई थी। लेकिन सोते हुए खुर्राट के मासूम चेहरे को देखकर पता नहीं कैसे अम्मा की ही आवाज़ में भजन कानों में गूँजने लगा।

मैं पास रखे प्लास्टिक के स्टूल को उसके सामने रखकर बैठ गई। उसके चेहरे को ऐसे देखने लगी जैसे पहली बार माँ बनी कोई महिला अपने सोते हुए नवजात शिशु को देखती है, एकटक। बस मुझ में वह भाव नहीं थे। मगर तब मैं यह ज़रूर सोच रही थी कि इस समय मासूम दिखने वाले इस चेहरे के पीछे कितने चेहरे छुपे हैं। जब ऑफ़िस में मिला तो कैसा था। साथ आने-जाने लगा तो दूसरा रूप। ज़्यादा अंतरंग बातों में एक और नया रूप। शादी की पहली रात डायमंड सेट लिए एक नया रूप। कुछ देर बाद ही एक और बदला हुआ रूप। और आज यह है।

भगवान इस एक आदमी के पीछे और कितने आदमी छिपे हैं। मैं ऐसा सब कुछ सोच ज़रूर रही थी। लेकिन बड़ी अजीब बात यह थी कि खुर्राट को लेकर उस समय भी मेरे मन में कोई ग़ुस्सा, भड़ास, घृणा कुछ नहीं था। मैं एक तटस्थ व्यक्ति की तरह वहाँ बैठी थी, ऐसे बैठे-बैठे ना जाने मैं क्या-क्या सोचती रही, कि इससे शादी करना ही मेरी सबसे बड़ी मूर्खता थी। सच तो यह है कि इसके साथ मैंने अन्याय किया है। छल किया है। अपने सुख के लिए इससे इसका सुख छीन लिया।

चलो यह भटका था, मुझे तो इसे समझाना चाहिए था। लेकिन मैं क्या उस वक़्त इससे कहीं ज़्यादा उतावली नहीं थी। कैसा-कैसा सोचती रहती थी मैं। बैठे-बैठे मुझे लगा कि मेरे पैर सुन्न हो रहे हैं। मैंने पैर सीधा किया, धीरे-धीरे झटक कर ब्लड सरकुलेशन को नॉर्मल किया और उठकर दूसरे कमरे में आ गई। तभी मोबाइल में अलार्म रिंग होने लगी। रोज़ सवेरे साढ़े पाँच बजे होने वाली रिंग। मैं खुर्राट के चक्कर में तीन बजे रात से बराबर जागती रह गई। 

सोचा चलकर तैयार होऊँ, किचन सँभालूँ। छह बजे तक अपने मोम से खुर्राट को चाय भी देनी है। उठी कि चलूँ शुरू करूँ  एक और दिन की शुरुआत। लेकिन शुरू करते-करते फिर आकर बैठ गई। सोचा आज फिर इतिहास को दोहराने दो। स्थान वही है, पात्र वही हैं, बस एक पात्र अम्मा की कमी है। अम्मा ने भी उस दिन संयोगवश ही मेरी, खुर्राट की अंतरंग बातों को सुनने के बाद यह सोचकर नहीं उठाया था कि मैं रात भर जागी हूँ।

आज मैं खुर्राट और उस लड़की की अंतरंग बातों को ठीक वैसे ही सुनने के बाद खुर्राट को नहीं जगाऊँगी। क्योंकि वह भी रात भर जागा है। और मैं रात भर अम्मा की तरह जागती रही हूँ। मैं अम्मा की तरह बाहर लॉन में गेट के पास नहीं बैठी। सोफ़े पर ही लेटी सोचती रही, अपनी पिछली ज़िंदगी और भविष्य के बारे में। उस वक़्त मेरी जैसी मनोदशा थी उसका विश्लेषण मैं यक़ीन से कहती हूँ कि फ़्रॉयड, हैवलक एलिस भी नहीं कर पाते। बहरहाल साढ़े नौ बजे खुर्राट की आहट मिली तो मैंने जानबूझ कर आँखें बंद कर लीं, जैसे गहरी नींद में सो रही हूँ।

खुर्राट मेरा नाम पुकारता हुआ मेरे पास आया। वही नाम जो उसने शादी के बाद मुझे दिया था। इसे वह अपना प्यारा गिफ़्ट कहता था। वह मुझे अधरा कहता था। कहता कि मेरे होठों की बनावट बहुत मोहक है। मगर उस समय उसके मुँह से अपना यह नाम सुनकर मुझे ग़ुस्सा आ रहा था। उसकी आवाज़ से धोखे, फरेब की गंदी बू आती महसूस कर रही थी। उसके तीन बार आवाज़ देने पर भी जब मैं नहीं उठी तो उसने मेरी बाँह को पकड़ कर हिलाते हुए आवाज़ दी। "अधरा, क्या बात है, अभी तक सो रही हो। मुझे भी नहीं जगाया।" मैंने गहरी नींद से जागने का अच्छा ड्रामा करते हुए कहा, “अरे बड़ी देर हो गई, उठ तो गई थी टाइम से लेकिन बड़ी थकान महसूस हो रही थी, कमर भी दर्द कर रही थी। तो यहाँ बैठ गई। थोड़ा आराम मिला तो पता नहीं कब नींद आ गई। अच्छा तुम तैयार हो मैं नाश्ता, खाना तैयार करती हूँ।”

उसने कुछ देर तक मेरे चेहरे को देखने के बाद पूछा, "क्या बात है? तबीयत तो ठीक है ना।" मैंने अपने मन में चल रही उथल-पुथल के कारण चेहरे पर आ गए तनाव को झूठ के आवरण में छिपाने के लिए बड़ा झूठ बोला कि कमर दर्द ठीक नहीं हुआ है। उसी से परेशान हूँ, लेकिन इतना भी नहीं है कि तुम्हारे लिए किचेन में ना जा सकूँ। मैंने उठने की कोशिश की तो उसने बड़े प्यार से दोनों हाथों से मेरे कंधों को पकड़ कर बैठा दिया। कहा, "नहीं तुम आराम करो, मैं चाय वग़ैरह बना लेता हूँ, बाक़ी नाश्ता बाहर से ले आता हूँ।" मैंने लाख मना किया लेकिन वह नहीं माना।

उस समय उसकी भाव-भंगिमा, बातों से इतना स्नेह झलक रहा था कि मैं भाव-विह्वल हो उठी। मेरी हर कोशिश बेकार हो गई। मेरे आँसू छलक पड़े। आँसू देख कर वह बेहद परेशान होकर बोला, "अरे अधरा तुम्हें क्या हुआ है, सच बताओ? ज़्यादा दर्द हो रहा हो तो डॉक्टर के पास ले चलूँ। कपड़े चेंज करो मैं लेकर चलता हूँ।" मुझे अंदर-अंदर बड़ा ग़ुस्सा और हँसी भी आ रही थी कि मैं परेशान किसी और वज़ह से हूँ, आँसू दर्द नहीं इसके धोखे, छल-कपट के कारण आ रहे हैं। लेकिन मैं दर्द का ड्रामा कर रही हूँ। जिसे यह सच समझ रहा है। रंगमंच की अच्छी से अच्छी कलाकार भी मेरे जैसा ड्रामा नहीं कर पाएगी कि देखने वाले को एकदम सच स्वाभाविक लगे। और यह मेरा मोम जैसा पिघलने वाला खुर्राट भी कितना अच्छा ड्रामेबाज़ है।

उस समय लग रहा था कि उससे ज़्यादा प्यार कोई पति अपनी पत्नी से करता ही नहीं होगा। मैंने कहा नहीं, दर्द इतना नहीं है कि डॉक्टर के पास जाना पड़े। अभी पेन किलर ले लूँगी, या फिर मूव लगा लूँगी, तुम ऑफ़िस के लिए तैयार हो मैं नाश्ता बनाती हूँ। लेकिन मेरी बात उसने नहीं सुनी। अलमारी में रखा पेनकिलर बॉम ही उठा लाया। मूव था नहीं।

मैंने कहा परेशान ना हो, मैं लगा लूँगी। लेकिन वह नहीं माना। सोफे से उठा कर बेड पर लिटाया। ऐसे पकड़ कर ले गया जैसे ना जाने मैं कितनी गंभीर बीमार हूँ। बड़ा सँभालकर पेट के बल लिटा दिया, फिर बॉम लगाकर हल्की-हल्की मालिश करने लगा। साथ ही अपनी नसीहत भी देता जा रहा था कि, "पेनकिलर ना खाया करो, इसके साइड इफेक्ट बहुत ख़राब होते हैं। ज़्यादा ज़रूरी हो तो ही ऐसी क्रीम, स्प्रे या जेल वगैरह लगा लिया करो। डॉक्टर को दिखाकर प्रॉपर इलाज कराओ, ऐसे मर्ज़ बढ़ाना मूर्खता है।"

उसकी बातें सुन-सुनकर मुझे हँसी आ रही थी। किसी भी पत्नी के लिए ऐसी स्थिति बेहद तनावपूर्ण होती है। लेकिन इस हाल में भी मुझे हँसी आ रही थी। उसकी बातें उसकी मालिश में मुझे पति का अंश भी महसूस नहीं हो रहा था। लग रहा था जैसे कोई ब्याहता उम्र-दराज़ बेटी अपनी बुजुर्ग माँ को उसकी ख़ुद के प्रति लापरवाही पर उसे मीठी घुड़की दे रही है। समझा रही है। प्यार-स्नेह से सेवा कर रही है। रोकने की लाख कोशिशों के बाद भी अंततः मुझे हँसी आ ही गई। इतनी तेज़ कि पूरा शरीर ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगा।

शुरू में उस ने समझा कि मैं रो रही हूँ, मगर अगले ही क्षण जब उसे असलियत मालूम हुई तो वह बोला, "यार अजीब औरत हो, दर्द में भी हँसती हो, कमाल है, तुम औरतों को समझना भी बड़ा मुश्किल काम है।" वह अलग हटने लगा तो मैं उसका एक हाथ पकड़ कर उसी के सहारे ही उठ कर बैठ गई। हँसी मेरी तब भी नहीं रुक रही थी। बड़ी मुश्किल से रोक कर बोली, “अरे मेरे प्यारे पति देवता, हँसी इसलिए आ रही है कि मैं सोच रही हूँ इतनों दिनों में कभी भी नहीं पूछा कि कैसी हो? कितनी बार तबीयत ख़राब हुई, लेकिन एक कप चाय छोड़ो पानी तक नहीं पूछा। आज तुम्हें क्या हुआ है? आज पश्चिम से सूरज कैसे निकल आया यही सोच-सोच कर हँस रही हूँ। रहा दर्द तो वह अब भी जस का तस बना हुआ है।

“तुमने इतने प्यार से मालिश की तब भी, बल्कि और बढ़ रहा है, और फैल रहा है। लेकिन प्लीज़ यह मत कहना कि चलो डॉक्टर के पास चलें। नहीं तो और बढ़ जाएगा। औरतों की समस्या है, वह जानती हैं कि कब डॉक्टर के पास जाना है। और हाँ, आज मैं ऑफ़िस नहीं चलूँगी, तुम्हें अकेले ही जाना है। जाओ तैयार हो मैं खाना बनाती हूँ।”

वह तैयार होने चला गया। जाते-जाते बड़े प्यार से मेरे चेहरे को दोनों हाथों में लेकर दो-तीन बार किस किया था। मैंने भी उसके हाथों को पकड़ कर चूम लिया था। दर्द तो मेरा वाक़ई बढ़ रहा था लेकिन कमर का नहीं दिल का, मैं जानती थी कि इस दर्द का इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है। इसलिए उसे उसके हाल पर छोड़ दिया, कि बाद में देखती हूँ। और जल्दी-जल्दी चाय-नाश्ता, खाना-पीना बना कर खुर्राट को विदा किया, अपने पतिदेव को।

उनके जाते ही दर्द और बढ़ गया। यह बढ़ना जारी रहा। मैं रोज़-रोज़ बातें सुनती, घर में, ऑफ़िस में। अक्सर ऑफ़िस से दो-ढाई घंटे के लिए उनका ग़ायब होना भी देखती रही थी। हर बार जब सोचती तो घर के किसी कोने में अकेले बैठकर रो लेती। ऑफ़िस में जब याद आती तो ख़ुद को सँभाल पाना मुश्किल होता। ऐसे में वॉशरूम में ख़ुद को बंद कर रो लेती। जब-जब सोचती कि यह सब मेरे साथ क्यों हो रहा है? तो हर बार जवाब मुझे यही मिलता, दिलो-दिमाग़ यही कहते कि ग़लती मेरी ही है। ग़लती मैंने की है। अब उसी का परिणाम सामने है। कुछ ही महीने में मैंने इस तरह से बार-बार सोच-विचार कर जब यह पाया कि सारी ग़लती मेरी ही है, तो मेरे आँसू सूख गए। मेरा रोना ख़त्म हो गया। अब बेडरूम में उसके साथ तभी सोती जब वह ज़िद करता, नहीं तो कभी दूसरे कमरे, कभी सोफे पर, तो कभी कहीं पड़ी रहती।

मैं उसे पूरी आज़ादी, पूरी निश्चिंतता देने की कोशिश करती कि वह जिससे भी बातें करता है, निश्चिंत होकर कर सके, मेरे सोने तक उसे इंतज़ार ना करना पड़े। मैंने उससे अपने को इतना अलग कर लिया कि एक घर में रह कर भी हम अनजाने से हो गए। सारा काम-धाम मशीनी अंदाज़ में होने लगा। मेरे देखते-देखते बड़ी तेज़ी से एक साल और निकल गया।

अब मुझे बड़ी घुटन होने लगी। वह जितनी देर मेरे आसपास रहता उतनी देर मेरी व्याकुलता और बढ़ जाती, आख़िर क्या करूँ इस व्याकुलता बेचैनी से छुटकारा पाने के लिए यह सोचते हुए एक दिन ऑफ़िस में बैठी काम कर रही थी। लंच ख़त्म हुए आधा घंटा बीत चुका था। यह लंच से एक घंटा पहले से ही ग़ायब थे। मुझे कुछ काम बता कर गए थे। वही पूरा करने में लगी थी। उसी समय एक अधिकारी खुर्राट को पूछते हुए आ गए। मैंने कहा लंच के लिए निकले हैं, वह आते ही होंगे। मुझे कोई चिंता नहीं थी कि अधिकारी पूछने ख़ुद ढूँढ़ता हुआ आया है। क्योंकि मैं यह अच्छी तरह जानती थी कि ऑफ़िस में मेरा यह खुर्राट इन अधिकारियों को जूते की टो पर रखता है।

अधिकारी के जाते ही एक साथी बोला, "वह चार बजे से पहले आने वाला नहीं। उसी छोकरिया के साथ कहीं गलबहियाँ किए पड़ा होगा।" उसकी यह बात मेरे कानों में किसी ज़हरीले काँटों वाले कीड़े की तरह घुसकर कुलबुलाने लगी। उसके काँटें असंख्य सूइयों की तरह चुभ-चुभ कर पीड़ा पहुँचाने लगे। मैं एकदम बिलबिला पड़ी। जल्दी से बाथरूम में गई, शीशे में देखा तो मेरी आँखें नम हो रही थीं। आँखों की नसें, चेहरा लाल हो रही थीं। पूरा चेहरा पसीने से तर था। कुछ देर तक अपने को देखती रही। देखते-देखते मेरे आँसू निकलने लगे। मुझे लगा कि अगर मैंने ख़ुद पर कंट्रोल न किया तो मैं ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ूँगी, तमाशा बन जाएगा।

घड़ियाली स्वभाव वाले आँसू पोंछने के बहाने सीधे-सीधे चेहरा पकड़ लेंगे। पीठ सहलाने लगेंगे। चुप कराने के बहाने बाँहों में भर लेंगे। मैं मजबूर किसी को कुछ भी नहीं बता सकूँगी कि मैं क्यों रो रही हूँ। इतने सालों बाद भी ऑफ़िस में कोई यह नहीं जानता था कि मैंने उससे शादी कर ली है। उनकी नज़रों में ऑफ़िस के इस सबसे बड़े खुर्राट आदमी के साथ मेरा आना-जाना भर ही है। इसके अलावा और कुछ नहीं। क्योंकि जिस तरह हम दोनों वहाँ रहते, जिस तरह बिहेव करते थे, उससे भी किसी को कुछ और सोचने का आधार नहीं मिलता था।

तमाम बातों का बवंडर सा उठ खड़ा हुआ दिमाग़ में, आँसू बंद ही नहीं हो रहे थे। आखिर मैंने अंजुरी में भर-भर कर पानी चेहरे पर मारा। फिर आकर चेयर पर बैठ गई। मन ही मन पूरी दृढ़ता से ठान लिया कि आज इस चैप्टर का आख़िरी पन्ना लिखकर ही रहूँगी। आज से ज़्यादा सही समय कभी नहीं आएगा। खुर्राट ने जो काम दिया था उसे करना मैंने रोक दिया। और कंप्यूटर पर कभी कुछ, कभी कुछ करती रही। साथी की बात सच निकली, खुर्राट चार बजे ही आया। आते ही अपनी चेयर पर बैठा बाद में, काम के बारे में पहले पूछ लिया। अधूरा है सुनते ही बरस पड़ा। नॉनस्टॉप दो मिनट तक अंडबंड बोलता रहा। ऑफ़िस में उसका मेरे साथ यही व्यवहार था। लेकिन उस दिन मैंने उसके इस व्यवहार से बड़ा अपमानित महसूस किया।

ऐसा महसूस करते ही मैंने उसे घूर कर देखा। बस वह एकदम शांत हो गया। जैसे किसी खिलौने की अचानक ही बैटरी निकाल दी गई हो। इतने ग़ुस्से के बाद भी मेरे मन में हँसी आ गई। मन ही मन कहा वाह रे मेरे खुर्राट राजा, ज़रा सी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते, एकदम से पिघल कर फैल जाते हो। मर्द हो कुछ तो मज़बूती दिखाओ। मगर नहीं तुमसे यह उम्मीद करना बेवकूफ़ी है। तुम चेहरे पर चेहरा लगाए एक बहुत ही बड़े हिप्पोक्रेट हो, धोखेबाज हो, फरेबी हो। उस दिन मैंने रात में खाना-पीना होने तक कुछ नहीं कहा, क्योंकि ज़रा सा भी तनाव होने पर वह खाना-पीना छोड़ देता था। मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वह भूखा रहे। 

खाना-पीना, सारा काम-काज ख़त्म करने के बाद मैं सोफे पर उसी के बगल में बैठ गई। बहुत दिन बाद उसके बगल में ऐसे बैठी तो वह छूटते ही बोला, "अरे अधरा जी आज बहुत रोमांटिक मूड में हैं। क्या बात है?" मैंने कहा, “क्यों तुम नहीं हो क्या?” तो वह बोला, "तुम मूड रोमांटिक बनाओगी तो बन जाएगा।" अब मैं ख़ुद पर ग़ुस्सा हावी होते महसूस कर रही थी। यह एहसास होते ही मैंने ख़ुद को रोका और बेहद प्यार से बोली, “घर पर तुम्हारा मूड जब मैं रोमांटिक बनाऊँगी तब बनेगा, लेकिन उसके साथ होते हो तो कौन किस का मूड रोमांटिक बनाता है। तुम उसका या वह तुम्हारा।”

इतना कहते ही जैसे उसे करेंट लग गया। झटके से उठ कर दो क़दम दूर खड़ा होकर मुझे एकटक देखने लगा। मैंने कहा, “क्या हुआ? आओ बैठो ना।” तो वह बोला, "यह तुम किसकी बात कर रही हो?" मैंने फिर मुस्कुराते हुए कहा, “क्यों परेशान हो रहे हो। आओ बैठो ना। अच्छी तरह जानते हो कि मैं किसकी बात कर रही हूँ। और सुनो मैं इस बारे में सब कुछ बहुत पहले से जानती हूँ। जैसे मेरी अम्मा ने संयोगवश ही हमारी बातें सुन ली थीं, वैसे ही एक दिन मैंने तुम दोनों की सुन ली थी।”

“तुम जब-जब ग़ायब होते हो मुझे पता रहता है कि तुम उसी के साथ रोमांटिक बने मौज-मस्ती में लगे हो। आज भी ऑफ़िस से फिर ग़ायब हुए तब भी मालूम था कि उसी के साथ हो। मुझे कभी बुरा नहीं लगा। आओ बैठो ना, बातें करते हैं। कुछ ऐसा सॉल्यूशन निकालते हैं कि तुम्हें उससे मिलने के लिए छुपना ना पड़े, झूठ ना बोलना पड़े। तुम दोनों एक साथ रहो।”

मैंने देखा कि मेरी बातों से उसके चेहरे का तनाव कम हो गया है। वह टीचर के सामने डरे हुए बच्चे की तरह धीरे से आकर मुझसे थोड़ी दूरी बना कर बैठ गया। मैं कुछ बोलूँ उसके पहले ही उसने दोनों पैर उठाकर सोफे पर रखे और उन्हें भीतर की तरफ़ घुटनों से मोड़कर लेट गया। सिर मेरी गोद में रख दिया, दोनों हाथों को मेरी कमर के इर्द-गिर्द लपेट दिया। और चेहरा एकदम मेरे पेट से चिपका लिया जैसे कोई बच्चा अपनी माँ से बड़े प्यार-दुलार से चिपक जाता है।

मैं बड़े अचरज में पड़ गई कि अब यह इसका कौन सा तमाशा है। यूँ तो यह अक्सर ऐसा करता है, लेकिन इस समय जो बात चल रही है उसे देखते हुए तो ऐसी हरकत का प्रश्न ही नहीं उठता। उसकी इस अप्रत्याशित हरकत ने मुझे कुछ देर कंफ्यूज़ कर दिया। लेकिन अंततः मैं यही समझी कि यह हो न हो अपनी ऐसी हरकतों को एक हथियार की तरह यूज़ करता है। इसे हथियार बनाकर यह जो चाहे वह करते रहना चाहता है।                                      

यह सब समझने के बावजूद पता नहीं क्यों मुझे उसके साथ सिंपथी हो गई। प्यार का भी कुछ अंश मिला हुआ था। मैंने उसके बालों में प्यार से अँगुलियाँ फिराते हुए कहा उठो तब तो बातें करूँ। लेकिन वह छूटते ही बोला, "नहीं ऐसे ही कहो।" आख़िर मैंने उस महिला के बारे में जितना जानती थी वह सब कह दिया, और साथ ही यह भी कह दिया कि यदि उसके साथ शादी करना चाहते हो तो साफ़-साफ़ बताओ, मैं करवाऊँगी उससे तुम्हारी शादी।

एक बार फिर उसे करेंट लगा। वह झटके से उठ कर बैठ गया। आँखें फाड़ कर मुझे हैरत से देखने लगा। फिर बोला, "तुम मेरी शादी दूसरी लड़की से करवाओगी, यार कैसी औरत हो? ख़ुद ही अपने आदमी की शादी दूसरी औरत से करवाओगी। तुम कर लोगी यह सब।" मैंने सपाट शब्दों में कहा, इसमें अचरज वाली कोई बात नहीं है। जैसे अम्मा ने हमारी बातें सुनने के बाद सोचा कि हम एक दूसरे के हो चुके हैं, हम एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते, और आनन-फानन में हमारी शादी करवा दी। 

“उस लड़की के साथ वैसी ही स्थिति अब मुझे तुम्हारी दिख रही है। तो अब मैंने तय कर लिया है कि इसी महीने में तुम दोनों की शादी करवा दूँगी। दरअसल यह करके मैं अपनी ग़लती ही सुधारूँगी जो बरसों पहले मैंने की। यह मैं काफ़ी हद तक भावावेश में और अम्मा की जल्दबाज़ी में आकर कर बैठी थी। जिसे पहले ही दिन से तुम मन से एक्सेप्ट नहीं कर सके। और तुम्हारी हिचक ने मुझे पहली ही रात में भ्रमित कर दिया था। मन से पति-पत्नी वाली कोई बात बन ही नहीं पाई थी। क्यों मैं सही कह रही हूँ ना?”

उसने सेकेंड भर में मौन सहमति दे दी तो मैंने भी तुरंत निर्णय दे दिया कि यह शादी होगी। वैसे भी हमारी शादी का ना तो कोई क़ानूनी महत्त्व है, ना ही सामाजिक। मैंने यह भी साफ़ कह दिया कि शादी के पहले ही तुम्हें सारे रिश्ते ख़त्म कर यह घर हमेशा के लिए छोड़ देना है। मेरी इस बात पर भी उसने बिना विलम्ब के मौन सहमति दे दी। उसकी सहमति के साथ ही मुझे ऐसा महसूस हुआ कि बहुत समय से जो एक बहुत भारी बोझ मैं ढोए चली आ रही थी वह उतर गया। मैं बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी।

यह सारी बातें होते-होते बहुत देर हो चुकी थी। एक बज गया था। मैंने कहा सुबह ऑफ़िस भी चलना है, अब जाइए, सोइए, मैं भी सोने जा रही हूँ। मैं उठकर दूसरे कमरे में जाने लगी तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, बेडरूम की तरफ़ लेकर चलने लगा तो मैंने कहा, “नहीं, मेरा तुम्हारा अब कोई रिश्ता नहीं रहा। अब सब ख़त्म हो चुका है। इसलिए यह इंपॉसिबल है।” लेकिन उसकी अजब तरीक़े की मनुहार, अनुनय-विनय ज़िद के आगे एक बार फिर कमज़ोर पड़ गई। कई महीने बाद फिर एक बेड पर थी।

उस दिन मैं पूरी रात नहीं सो सकी। सुबह बहुत देर से उठी। किसी तरह बेमन से नाश्ता बनाकर ग्यारह बजे खुर्राट को यह कहकर ऑफ़िस भेज दिया कि मैं ऑफ़िस नहीं आऊँगी। लंच तुम होटल में कर लेना। उसके जाने के बाद दिन भर मैं घर में इधर-उधर बैठती रही, सोचती रही कि इसकी शादी जब एक-दो हफ़्ते में होगी तब होगी। लेकिन इस घर से इसे एक-दो दिन में ही विदा कर देना मेरे लिए अच्छा रहेगा। क्योंकि इसकी हरकतें मुझे कमज़ोर बनाने में देर नहीं लगातीं।

शाम को जब वह घर आया तो खाने के बाद मैंने बड़ी सख़्ती के साथ कह दिया कि कल छुट्टी ले लो। अपने चाचा के घर जाकर साफ़-सुथरा करवाओ और शिफ़्ट हो जाओ। अब हमारा एक दिन भी साथ रहना उचित नहीं। कम से कम मैं किसी सूरत में नहीं रहूँगी। वह बोला, "इतनी जल्दी भी क्या है।" मैंने कहा जल्दी या देर की बात नहीं है। मुझे सिर्फ़ यही रास्ता दिख रहा है, इसलिए यही करूँगी। 

मेरी ज़िद, मेरी सख़्ती पर उसकी आँखों से मोटे-मोटे आँसू निकलने लगे। जिन्हें देखकर मेरा मन एकदम पिघलने लगा। लेकिन मैं अलर्ट थी। मैंने सोचा, मैं इससे जितना बात करूँगी, जितनी देर यहाँ रहूँगी यह अपनी हरकतों से मुझे कमज़ोर बना ही देगा। इसलिए मैं वहाँ एक क्षण रुके बिना दूसरे कमरे में चली गई। दरवाज़ा बंद कर लिया।

उसके सामने मैंने जो बेरुख़ी शो की थी उसे उसने सही माना। और कुछ ही मिनट बाद मैंने बेडरूम में जाकर उसके लेटने की आहट महसूस की। लेकिन उसके मोटे-मोटे आँसू मुझे बेचैन किए हुए थे, तो आधे घंटे बाद ही धीरे से उसके पास गई कि देखूँ सो गया या बेवकूफ़ अभी तक आँसू ही बहा रहा है। लेकिन वहाँ उसे देखकर लगा कि बेवकूफ़ मैं ही हूँ। मैं ही ठगी जाती हूँ बार-बार। वह आराम से चारों खाने चित सो रहा था। मैं फिर वापस अपने कमरे में दरवाज़ा बंद किए पड़ी रही। बड़ी देर बाद सो पाई।

मैंने अगले दिन एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा कर उसे घर से विदा कर दिया। वह फिर अपने चाचा के यहाँ शिफ़्ट हो गया। उससे संबंधित जितना भी सामान था, सब मैंने उसे ही दे दिया। हफ़्ते भर बाद जब उसकी शादी हुई तो उसने जो डायमंड सेट मुझे दिया था उसे भी कुछ और सामान के साथ ले जाकर उसकी नई पत्नी शृयंका को गिफ़्ट कर आई।

एक बार फिर मंदिर में उसकी शादी हुई थी। मैंने गिफ़्ट उसे उसके घर पर दिया था। चलते वक़्त वह मना करने पर भी मुझे घर तक छोड़ने आया। आख़िर में बोला, "मैं तुम्हें कभी, मेरा मतलब है कि मैं आपको कभी नहीं भूल पाऊँगा।" तुम से आप कह कर उसने रिश्ते का पतले से धागे का जो आख़िरी सूत था वह भी तोड़ दिया। उस सूत के टूटने से मैंने कान में एक धमाके सा शोर महसूस किया था। लेकिन मैंने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। मुड़ी और चल दी यह सोचते हुए कि अभी एक आख़िरी काम रह गया है। उसे जल्दी पूरा करना ही अच्छा है।

मैंने घर छोड़ कर वृद्धाश्रम में रहने का फ़ैसला कई दिन पहले ही कर लिया था। जिससे वृद्धों की कुछ सेवा कर सकूँ और साथ ही उनके बीच रह भी सकूँ । कई महीनों की दौड़-धूप के बाद मेरी सोच के हिसाब का एक वृद्धाश्रम मिला। जिसमें अब मैं हूँ। इसमें तीन दर्जन से अधिक वृद्ध महिलाएँ हैं। मगर यहाँ मेरे शामिल होने में यहाँ का नियम आड़े आ गया कि उम्र साठ वर्ष पूरी हो या रिटायर हो। एक एनजीओ के इस वृद्धाश्रम के प्रबंधक से मैंने कहा अपना मकान एनजीओ के नाम करती हूँ। वह मेरे बाद एनजीओ की प्रॉपर्टी होगी। इस बीच मकान को किराए पर दूँगी। उससे मिलने वाला किराया भी दूँगी। साथ ही जो मंथली फ़ीस होगी वह भी दूँगी। कई गुना ज़्यादा मोल दिया तो अंततः मुझे यहाँ आश्रम में जगह मिल गई। मैं मकान किराए पर देकर यहाँ वृद्धाओं के बीच आ गई। मैं भी तो वृद्धा हो चुकी थी। तन से ना सही मन से ही सही।

रिटायरमेंट के बाद मैं यहाँ सभी वृद्धाओं की ज़्यादा सेवा कर पा रही हूँ। यहाँ एक ऐसी वृद्धा है जिसकी मैं कुछ ज़्यादा ही सेवा करती हूँ। वह भी अपने दो बेटों की ठुकराई हुई विधवा माँ है। उसकी एक लड़की तीन-चार महीने में कभी एकाध बार मिलने को आ जाती है। जब आती है तो लगता है जैसे माँ पर एहसान करने आई है। उसकी बात व्यवहार में मुझे एक बेटी होने का अक्स नज़र ही नहीं आता है। जैसे अपना रुतबा पैसा दिखाने आती है।

उसे देख कर मैं सोचती हूँ कि अगर चाहे तो माँ को अपने साथ घर पर भी रख सकती है। माँ भी उसके सामने अपनी कमज़ोरी नहीं प्रकट करती। लेकिन उसके जाने के बाद बहुत रोती है, कई दिन रोती है। मैं बहुत मुश्किल से समझा-बुझाकर चुप करा पाती हूँ। उसका दुख देखकर सोचती हूँ, राहत महसूस करती हूँ कि चलो मैं कम से कम इस तरह के किसी दुख-दर्द से बची रहूँगी। इन वृद्धों को देखकर अक्सर अम्मा का प्रिय भजन गुनगुनाता हुआ चेहरा दिखाई देने लगता है कि, "कितना बदल गया इंसान...।" और खुर्राट... वह भी कभी-कभार याद आ ही जाता है।   

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झूमर

झूमर को कोर्ट के फैसले की कॉपी बड़ी दौड़-धूप के बाद शाम करीब चार बजे मिल पाई थी। उसने अपने वकील श्यामल कांत श्रीवास्तव को तब धन्यवाद दिया था। साथ ही वकील साहब की घुमा-फिरा कर कही जा रही तमाम बातों का आशय समझते हुए पहले से तय फीस के अलावा पांच हज़ार रुपए और दिए थे। रुपए मिलने की खुशी वकील साहब के चेहरे पर दिख रही थी। 

मुंह में पान भरे उनका मुंशी अजीब सी आवाज़ में यह कहना ना भूला कि, ''अरे! जिन मामलों का फैसला आने में आठ-दस वर्ष लग जाते हैं हमारे वकील साहब ने चार वर्ष में ही करा लिया।'' झूमर भी इस बात से सहमत थी। क्योंकि शुरू में ही जिसने भी इस केस के बारे में जाना उसने यही कहा, ''यह तो शायद अपनी तरह का पहला केस है। इसका फैसला आना आसान नहीं होगा। दस-पंद्रह वर्ष लग जाएं तो आश्चर्य नहीं।''

फैसले की कॉपी लेकर जब वह घर चलने को हुई तो वकील ने यह कह कर केस जीतने की उसकी खुशी को ठंडा कर दिया कि, ''सारे पेपर्स बहुत संभाल कर रखिएगा। हो सकता है अगेंस्ट पार्टी अपर-कोर्ट में अपील करे। लेकिन आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। आपका केस तो लोअर-कोर्ट में जीतने के बाद और भी स्ट्रॉन्ग हो गया है। अब वो किसी भी कोर्ट में जाए जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता।'' 

झूमर ने कहा, ''जी ठीक है, पेपर्स संभाल कर रखूंगी।'' इसके बाद वह उन्हें नमस्कार कर अपना बैग उठा कर चल दी। स्टैंड पर अपनी ऐक्टिवा स्कूटर के पास पहुँच कर सीट खोली, उसमें से हेलमेट निकाल कर पहना और बैग, फाइलें उसी में रख दीं। स्टैंड वाले को टोकन और पैसा देकर घर को चल दी। कोर्ट से घर वृंदावन कॉलोनी पहुंचने में उसे बीस-पचीस मिनट लग गए। 

उसने गेट खोला तो सामने ही कुछ लेटर्स पड़े हुए थे। जो इंश्योरेंस कंपनी के थे और अकसर आते रहते हैं। उन्हें उठा कर उसने कमरे का दरवाजा खोला और ड्रॉइंगरूम में पहुंची, फिर कूलर, पंखा दोनों ऑन करके सोफे पर आराम से बैठ गई। दुपट्टे को चेहरे से खोल कर अलग रख दिया। 

स्कूटर चलाते समय वह दुपट्टे से चेहरे को ढंक कर इस तरह बांध लेती थी कि सिर्फ़ आंखें ही दिखती थीं। इससे धूल-धूप दोनों से बच जाती थी। चेहरे को दुपट्टे से इस तरह बांधने का चलन शुरू तो हुआ फैशन के तौर पर लेकिन इससे चेहरे की सुरक्षा बड़े अच्छे से होती है। झूमर जब रास्ते में थी तभी उसकी बेटी अंशिका का फ़ोन आया था कि, वह कोचिंग जा रही है। 

वह इंटर के बाद से ही कॉम्पटीशन की तैयारी में लग गई थी। साथ ही लखनऊ युनिवर्सिटी में बी.एस.सी. में उसका ऐडमिशन भी हो गया था। कोचिंग, युनिवर्सिटी वह टाइम से पहुंच सके इसके लिए उसने अंशिका को भी ऐक्टिवा स्कूटर ही दिला दी थी। लड़कियों और महिलाओं की पसंदीदा स्कूटरों में इसकी गिनती होती है।

मां-बेटी दोनों एक दूसरे को जी-जान से प्यार करती हैं, इसलिए हमेशा मोबाइल के जरिए संपर्क में बनी रहती हैं। अंशिका ने फ़ोन पर झूमर को यह भी बताया था कि, उसने उनके लिए नाश्ता बना कर फ्रिज में रख दिया है। उसे वह खा लेंगी। सोफे पर सिर पीछे टिकाए झूमर सुस्ताने लगी थी। कूलर की ठंडी हवा उसे बड़ी राहत दे रही थी। उसने आंखें बंद कर रखी थीं। दिनभर कोर्ट में दौड़ धूप करते-करते वह पस्त हो चुकी थी। प्यास से गला सूख रहा था लेकिन फ्रिज से पानी लेकर पीने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। 

उसकी आंखों के सामने से पूर्व पति वैभव का चेहरा हट नहीं रहा था। वह पति जिसे वह प्राणों से ज़्यादा चाहती थी। जिसके लिए दिल में अब भी कहीं एक कोना बना हुआ है। चाह कर भी उसे हटा नहीं पा रही थी। जब कि उसने कोर्ट में उसे बदचलन, आवारा, बदमाश साबित करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए। कैसे-कैसे घिनौने आरोप लगाए और उन्हें साबित करने के लिए ऊल-जलूल प्रमाण पेश किए। कैसे एक से बढ़ कर एक जलील, शर्मसार कर देने वाले प्रश्न खड़े किए। जिससे कई बार महिला जज भी नाराज हो जाती थी। 

यह सब सिर्फ़ इस लिए किया जिससे उसे झूमर को गुजारा भत्ता  या उसके जो हक हैं वह ना देने पड़ें । इस स्वार्थ में नीचता की इस हद तक गिर गया कि, अपनी बेटी को ही अपनी मानने से इंकार कर दिया। केस को उलझा कर और लंबा खींचने की गरज से बेटी के डी.एन.ए. टेस्ट की मांग कर दी। लेकिन भला हो जज का जिसने यह कहते हुए इस मांग को ठुकरा दिया कि, 'इसका कोई औचित्य नहीं बनता। क्योंकि पति-पत्नी के अलगाव के चार-पांच महीने बाद ही बच्चे का जन्म हुआ। उसके पहले दोनों पति-पत्नी साथ रहते थे। उनके बीच शारीरिक संबंध कायम थे।' 

फैसले के बाद जब वह अपने वकील के साथ बाहर निकली थी तो सामने से ही निकल रहे वैभव से उसकी आंखें मिल गई थीं। जहां उसे अपने लिए घृणा की ज्वाला दिख रही थी। 

कूलर की ठंडी हवा से उसके तन का पसीना ज़रूर सूख रहा था। लेकिन उसकी आंखें भर रही थीं। इसलिए बंद आंखों की कोरों से आंसू की लकीरें गालों से नीचे तक बनती जा रही थीं। चार साल कोर्ट के चक्कर लगाने में उसने जो जलालत, तकलीफ झेली वह उसे एक-एक कर याद आ रही थीं। वकील की आखिर में कही यह बात उसे बेचैन किए जा रही थी कि ''अगेंस्ट पार्टी अपील कर सकती है।'' 

वैभव ने यदि अपील कर दी तो ना जाने कितने बरस फिर धक्के खाने पड़ेंगे। कितनी जलालत, तकलीफ फिर झेलनी पड़ेगी। ऐसे में एक बार फिर उसे अपने एक रिश्तेदार का बार-बार कहा जाने वाला एक जुमला याद आ गया। जो शुरुआती दिनों में उसके और वैभव के बीच समस्या के समाधान के लिए मध्यस्थता कर रहे थे। और मामले को कोर्ट में ले जाने से मना करते हुए कहते थे कि, ''अदालत कहती घुस के देख, मकान कहता छू के देख।'' फिर कैलाश गौतम की, ''कचेहरी'' कविता की यह लाइन कोट करते कि, ''कचेहरी बेवा का तन देखती है, खुलेगी कहां से वह बटन देखती है।'' 

झूमर के मन में आया कि इन बातों में सच ही सच तो है। जब उसने यह मकान बनवाना शुरू किया था तो काम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। और कोर्ट में वकील से लेकर पेशकार, बाबू, टाइपिस्ट, चपरासी ऐसा कौन था जो एक-एक पैसा निचोड़ लेने में नहीं लगा था। और वकील! वह तो सबसे चार कदम और आगे था। वह कितनी सख्त बनी रहती थी तो भी कुछ ना कुछ अश्लील बातें कर ही देता था। आए दिन घर तक छोड़ देने की बात कहना नहीं भूलता था। हर बार रूखा जवाब मिलने के बाद ही उसने यह सब बंद किया था।

 यह मुश्किलें उसे कई बार तोड़ कर रख देती थीं। मगर अंततः वह अपने को बचा पाने में सफल रही। उसने अपनी बटन तक कचेहरी के हाथों को पहुंचने से रोक दिया था। वह बेवा नहीं थी लेकिन परित्यकता तो थी ही, अकेली। इसके चलते कचहेरी ने अपनी आंखें, हाथ उसके तन तक पहुंचाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। 

प्यास से गला जब ज़्यादा ही सूखने लगा तो उसने उठ कर फ्रिज से ठंडी बोतल निकाली। अंशिका द्वारा बनाया गया बेसन का चिला, टोमेटो केचप और चिली सॉस लेकर फिर सोफे पर बैठ गई। चिला को गर्म करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। पहले उसने थोड़ा सा पानी पी कर गला तर किया। फिर नाश्ता किया। तभी अंशिका का फ़ोन फिर आया कि वह कोचिंग से थोड़ा देर से निकलेगी। इसलिए आते-आते आठ बज जाएंगे। वह परेशान ना हों। 

झूमर ने जहां तक हो सका था अंशिका को कोर्ट के मामलों से दूर ही रखा था। पति अपने बीच की बातों से भी ज़्यादा परिचित नहीं कराया था। अपने पिता के बारे में अंशिका के प्रश्नों का वह यही जवाब देती थी कि, ''बेटा हम-दोनों के नेचर ज़रा भी नहीं मिलते, इसीलिए एक नहीं रह सके। जिससे रोज-रोज के झगड़े से एक दूसरे को परेशान ना करें, किसी को कोई नुकसान ना पहुंचाए।'' 

नाश्ता करने के बाद झूमर ने सोफे पर कुशन को ही तकिए की तरह सिर के नीचे लगा लिया और लेट गई। अगेंस्ट पार्टी अपील कर सकती है वकील की यह बात अब भी उसे कानों में गूंजती लग रही थी। लेटने पर उसे आराम मिला तो उसकी आंख लग गई। वह सोती रही तब-तक, जब-तक कि कॉलबेल की तेज़ आवाज़ टिंगटांग ने उसकी नींद तोड़ नहीं दी। आंख खुलते ही उसने सामने दीवार पर लगी घड़ी पर नज़र डाली तो साढ़े आठ बज रहे थे।

झूमर जल्दी से उठ कर बाहर गई और गेट खोला, सामने अंशिका थी। उसने देखते ही कहा, ''क्या मम्मी कितनी देर से घंटी बजा रही हूं, आप हैं कि सुन ही नहीं रही हैं।'' झूमर ने कहा, ''हाँ, बहुत थक गई थी। कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।''

 मां-बेटी दोनों अंदर आईं। झूमर अब भी बहुत थकान महसूस कर रही थी इसलिए अलसाई सी फिर सोफे पर बैठ गई। अंशिका ने अपना बैग, हेलमेट, मोबाइल टेबिल पर रखा।

 मां की हालत देख कर वह जान गई थी कि आज फिर इनका मूड सही नहीं है। और खाना-पीना कुछ नहीं बना है। आते वक्त वह चार समोसे खरीद कर ले आई थी। उसने चारो समोसे एक प्लेट में मां के सामने रखे। कहा, ''मम्मी खाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं।'' एक समोसा खुद लेकर उसे खाते हुए चाय बनाने किचेन में चली गई।

 मां-बेटी ने समोसा, चाय खाने-पीने के बाद करीब घंटे भर तक टीवी  देखा। इसके बाद अंशिका ने कपड़े चेंज किए और खाना बनाया। मां-बेटी खा-पीकर ग्यारह बजे तक बेड पर पहुंच गईं। 

अंशिका ने कुछ देर मोबाइल पर मेल वगैरह चेक की, व्हाट्सएप पर मित्रों को कुछ मैसेज वगैरह भेजे फिर मोबाइल ऑफ कर सो गई। मां-बेटी दोनों सोते समय मोबाइल ऑफ कर देती हैं। रात में अक्सर आने वाली अंड-बंड कॉलों के कारण ही दोनों ऐसा करती थीं। झूमर कुछ देर तो आँखें बंद किए पड़ी रही, लेकिन नींद नहीं आई तो उठ कर बेड के सिरहाने की ऊंची पुश्त का सहारा लेकर बैठ गई। पीछे तकिया लगा ली थी। 

शाम को करीब तीन घंटे सो लेने के कारण उसकी आंखों से नींद कोशों दूर हो गई थी। कोर्ट का फैसला उसे और उलझाए था। जबकि फैसला पूरी तरह उसके पक्ष में था कि बेटी अंशिका का डी.एन.ए. टेस्ट नहीं होगा। पति को गुजारा भत्ता  देना होगा। उसकी प्रापर्टी में भी झूमर का आधा हिस्सा होगा।

झूमर सोचने लगी कि उसने वकील के कहने पर, डी.एन.ए. टेस्ट से इंकार करके गलती की है। टेस्ट कराना ही अच्छा था। इससे वैभव ने दोस्तों और रिश्तेदारों में जो उसके बदचलन होने, अंशिका को अपनी संतान मानने से इंकार कर, उसे जो झूठा बदनाम कर रखा है, इससे उसका झूठ सबके सामने आ जाता। इंकार करके तो वैभव के झूठ को उसने सब के सामने सच बना दिया। ना जाने इस वकील ने ऐसा क्यों किया?

 उसे पिछले दिनों मीडिया में छाए उस केस की याद आ गई जिसमें एक महिला दो-ढाई दशक बाद एक नामचीन बड़े राजनेता का डी.एन.ए. टेस्ट कराकर यह प्रमाणित कर देती है कि, वह नेता ही उसके बेटे का पिता है। जो कई प्रदेशों के राज्यपाल, मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सच सामने आने के बाद उस नेता ने बुढ़ापे में अंततः उससे विधिवत शादी भी की। 

झूमर के मन में यह कुलबुलाहट बढ़ने लगी कि काश टेस्ट कराती। लेकिन अब वह क्या कर सकती है। बाजी तो हाथ से निकल चुकी है। बड़ी देर तक उलझन में पड़ी वह बैठी रही। उसे प्यास लगी तो उसने साइड स्टूल की तरफ देखा वहां गिलास, पानी की बोतल दोनों ही नहीं थे। अंशिका रखना भूल गई थी। वह उठ कर किचेन में गई, फ्रिज से पानी निकाल कर पिया। लाकर स्टूल पर भी रखा फिर पूर्ववत् अपनी जगह पर बैठ गई। उसने एक नज़र अंशिका पर डाली, वह गहरी नींद में सो रही थी। स्लीपिंग ड्रेस पहने सो रही अपनी बेटी पर उसकी नज़र ठहर सी गई। देखते-देखते वह अठारह की हो चुकी थी। 

लंबाई में अपनी मां से भी दो-ढाई इंच ऊपर निकल पांच फिट सात इंच की हो गई थी। चेहरा-मोहरा बनावट बिल्कुल मां पर गई थी। मगर रंग पूरी तरह से पिता पर। एकदम दुधिया गोरा। मां की तरह गेंहुआ नहीं। हां बाल मां की तरह खूब घने, काले, लंबे थे। कमर से नीचे तक लंबे बालों की वह संभाल कर देख-भाल करती थी। 

झूमर ने कई बार कहा भी कि कॉलेज, कोचिंग पढ़ाई के लिए इधर-उधर जाना रहता है। बालों को संवारने में टाइम लगता है, इन्हें कटवा कर छोटा करा लो तो आसानी रहेगी। लेकिन उसने हर बार मना कर दिया तो झूमर ने उससे कहना बंद कर दिया था। 

झूमर ने बगल में सो रही बेटी के सिर पर बड़े प्यार-स्नेह से हाथ फेरा और सिर झुका कर माथे और बालों की मिलन रेखा पर हौले से चूम लिया। उसकी आंखें भर आई थीं। उसने मन ही मन कहा वैभव सच में तुमसा अभागा बाप दूसरा नहीं होगा। इतनी होनहार प्यारी सी बिटिया को तुमने बचपन से ही दुत्कार दिया। हद तो यह कर दी कि अपनी संतान को संतान कहने से मना कर दिया, महज एक औरत, और प्रापर्टी के लिए मेरी और मेरी बच्ची की ज़िंदगी बरबाद कर दी। 

जीवन से अलग किया भी तो अन्य तमाम घिनौने विचारों वाले लोगों की तरह मुझे बदचलन कह कर। जबकि अच्छी तरह जानते हो कि बदचलनी के रास्ते पर मैं अब तक कभी चली ही नहीं। तुमने एक मासूम बच्ची से जिस तरह उसके पिता का सुख छीना है। लोगों के सामने आए दिन उसेए मुझे जिस तरह अपमान झेलना पड़ता है उसके लिए कभी ईश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा। 

मैं शुरू के दिनों में अपने भाग्य पर गर्व करती थी, इठलाती थी कि मैंने तुम जैसा आइडियल हसबैंड पाया है। मगर तुम्हारा असली रूप चार साल बाद दिखा। तब तक मैं ना इधर की रही ना उधर की। झूमर के मन में बीती बातें एक-एक कर उमड़ती जा रही थीं। उसका मन कसैला होता जा रहा था। पति के लिए अप्रिय शब्द मन में चल रहे थे।

 मन ही मन उसने कहा, ''वैभव वास्तव में तुम्हारे जैसे शातिर आदमी को सिर्फ़ मेरी दीदी ही पहचान पाई थीं। उन्होंने सगाई से एक दिन पहले ही दबे मन ही से सही साफ कहा था कि, ''झूमर पता नहीं क्यों मेरा मन कहता है कि यह ठीक नहीं है। यह अच्छा आदमी नहीं लग रहा।'' मगर तब तक मुझे देखने। बातचीत करने आदि के चलते तुम अपने परिवार के साथ चार-पांच बार आ चुके थे। 

घर आने आदि के चलते चार-पांच बार तुमसे मिल चुकी थी, बातचीत कर चुकी थी। ना जाने ऐसा क्या हो गया था कि मैं शादी से पहले ही तुम्हें टूट कर चाहने लगी थी। कैसे-कैसे रंगीन सपनों में खोई रहती थी। शादी की रस्म से पहले ही पति मान चुकी थी। तब यह नहीं मालूम था कि, जिसे इतना चाह रही हूं, इतना मान रही हूं, वही एक दिन बदचलन कह कर दुत्कार भी देगा।

तुम्हें दरअसल तब बड़ी बहन को छोड़ कर मां-बाबू, मंझली दीदी बाकी सबने भी ठीक कहा था। सब धोखे में आ गए थे कि, लड़का बहुत सज्जन और सुंदर है। अच्छी नौकरी भी है। और इन सबसे पहले यह कि उस समय घर की आर्थिक हालत बुरी तरह डावांडोल थी। एक तरह से घर मुझ पर ही निर्भर था। शादी के लिए सारा पैसा मेरी ही कमाई से इकट्ठा हुआ था।'' झूमर को वह समय याद आ रहा था। जब दोनों बहनों की शादी में इतना कर्ज हो चुका था कि, उसके बाबू जी बरसों तक उसे ही पूरा करते रहे।

 फिर यह सोच कर भाई की शादी की गई कि, जो कैश मिलेगा उससे उसकी शादी में कुछ राहत मिलेगी। लेकिन शादी से पहले सीधा-सादा दिखने वाला भाई शादी के पहले दिन ही बीवी को देख कर ऐसे बदला कि पूरे घर को जैसे सांप सूंघ गया। उसकी बीवी ने अगले ही दिन अपनी सत्ता का झंडा बुलंद कर दिया था। और भाई उसका सेनापति बन उसके पीछे-पीछे चल रहा था। स्थितियां इतनी बिगड़ीं कि एक हफ्ते बाद ही वह किराए का मकान लेकर अलग रहने लगा। उसके सहारे कर्ज से राहत पाने की जो बात सोची गई थी वह राहत मिलने की तो दूर कर्ज और बढ़ गया। 

उसके इस रुख से तब झूमर के मां-बाबू के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी। इसके बाद घर का खाना खर्च भी मुश्किल हो गया था। बाबू जी की तनख्वाह मिलने के हफ्ते भर पहले से ही तगादेदार दरवाजा खट-खटाने लगते थे। जब घर का चूल्हा जलना भी मुश्किल हो गया था तब झूमर ने खुद काम-धाम ढूंढने की कोशिश की थी। ट्यूशन भी पढ़ाने की सोची मगर उससे कुछ खास बन नहीं पा रहा था।  

भाई की शादी के साल भर भी नहीं बीते थे कि, उसके बाबू जी के रिटायरमेंट का वक्त आ गया। हालात और बदतर हो गए। कर्ज अब भी लाखों में बाकी था। भाई की शादी के बाद झूमर की शादी का जो सपना था उसके मां-बाबू जी का वह चूर-चूर हो गया था। झूमर की शादी भी हो पाएगी, उन्हें इसकी कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी। देखते-देखते उसके मां-बाबू जी को तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ लिया। वह दोनों जरा-जरा सी बात पर रो पड़ते। अपने दामादों के हाथ जोड़ते कि हम लोगों के न रहने पर झूमर की शादी किसी तरह करा देंगे।

कर्ज का बोझ जब असह्य हो गया। पेंशन ऊंट के मूंह में जीरा सी थी। ब्याज बढ़ता जा रहा था। तो अंततः उसके बाबू जी ने मकान बेचने का निर्णय ले लिया कि इससे कर्ज भी निपट जाएगा और झूमर की शादी भी किसी तरह हो जाएगी। और खुद पति-पत्नी पेंशन के सहारे किसी वृद्धाश्रम में जीवन बिताएंगे। लेकिन ऐसी कठिन स्थिति में दोनों बहनों और जीजा लोगों ने स्थिति संभाल ली। इतना ही नहीं दोनों ने मिल कर झूमर की शादी का खर्च उठाने की बात भी कह दी। 

बदले में उसके बाबू जी ने अपनी सारी प्रापर्टी अपनी तीनों लड़कियों में ही बराबर-बराबर बांटने की वसीयत करनी चाही। लड़के को उसकी बदतमीजी के कारण पूरी तरह से बेदखल कर देने का निश्चय किया। लेकिन फिर तीनों बहनों ने मिल कर उसका भी हिस्सा लगवा दिया। इस बीच एक काम और हुआ। ट्यूशन काम की तलाश के बीच झूमर ने  एम. कॉम  कर लिया। 

जहां भी पता चलता नौकरी के लिए आवेदन करना ना भूलती। मगर हर जगह निराशा मिलती। इस बीच एक दिन उसकी मंझली दीदी के देवर आए और एल.आई.सी. एजेंट बनने की बात कही। झूमर ने कहा, ''यह  काम मुझसे नहीं हो पाएगा। लोगों से परिचित नहीं हूं।'' लेकिन वह ऐसे पीछे पड़ गए कि, अंततः इसका एक्जाम दिलवा कर माने। झूमर उसमें पास हो गई। प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया। जिसके बाद उसमें कांफिडेंस बढ़ गया। दीदी के देवर रवीश के जरिए ही पहली पॉलिसी भी बेची। जल्दी ही यह काम उसको समझ में आ गया। 

रवीश के कारण काम आसान हो रहा था। जिसको पॉलिसी बेचती उसी से उसके मित्रों, रिश्तेदारों के नंबर लेकर वहां पहुंच जाती। छः सात में से एकाध कंविंश हो ही जाता था। इस तरह उसकी एक अंतहीन चेन बन गई थी। साल भर में उसका बिजनेस इतना बढ़ चुका था कि, हर महीने उसका कमीशन पंद्रह से बीस हज़ार बनने लगा। घर की हालत काफी हद तक सुधर गई।

मां-बाबूजी की सेहत कुछ सुधर गई। इसका पूरा श्रेय झूमर रवीश को अब भी देती थी। साल बीतते-बीतते झूमर खुद इस फील्ड में इतना आगे निकल चुकी थी कि रवीश की मदद की ज़रुरत नहीं रह गई थी। लेकिन फिर भी बहुत सी जगह वह साथ जाता रहा। 

बहुत बातूनी हंसमुख रवीश रिश्ते के चलते हंसी मजाक भी कई बार खुले करता था। तो भी वह बुरा नहीं मानती थी। हंसी-मजाक में अक्सर हाथ वगैरह भी पकड़ लिया करता था। उसकी बाइक पर जब पीछे बैठ कर चलती थी, तो शुरू में तो कभी-कभी लेकिन फिर वह हमेशा ही दाहिने हाथ से बाइक की हैंडिल छोड़ कर अपना हाथ पीछे कर उसका हाथ अपनी कमर के गिर्द पकड़ा देता था। वह मना करती तो कहता, ''पकड़ लो यार नहीं तो बाइक भिड़ा दूंगा।'' फिर कुछ दिनों बाद तो जैसे यह झूमर की आदत में आ गया था। बाइक चलते ही उसका हाथ स्वतः ही उसे जकड़ लेता था। 

जल्दी ही झूमर ने उसके साथ प्रयाग छान मारा था। वह उसका सीनियर था उसका व्यवसाय भी बढ़ रहा था। वह जिस भी कस्टमर के यहां उसे लेकर जाता उसको अपना जूनियर बताता। उसे इसमें बड़ा मजा आता था। बाद के दिनों में कस्टमर से बात शुरू कर आगे कहता कि, ''पॉलिसी के बारे में झूमर जी आप को बताएंगी।'' उसने उसे बहुत ही कम समय में पूरी तरह ट्रेंड कर दिया था। 

जिस दिन कोई भी पॉलिसी बिकती उस दिन वह सेलिब्रेट भी करता था। किसी होटल में चाय-नाश्ता से लेकर गंगा जी में सांझ ढलते वक्त नौका विहार भी करता। यह सब डेढ़ साल तो बिना रुकावट के चला था। लेकिन फिर झूमर को लगने लगा कि, वह अपनी हद पार करने लगा है। पहले एक बार नौका विहार के दौरान उसका हाथ अपने हाथों में लिए हौले-हौले सहलाता रहा। अपने स्वभाव के विपरीत बोल कम रहा था। 

कुछ देर ऐसा करने के बाद बोला था, ''झूमर मैं बहुत दिनों से तुमसे कुछ कहना चाह रहा हूं।'' उसने उसको गंभीरता से देखते हुए कहा, ''अच्छा! तो कहो ना। क्लाइंट के सामने तो चुप ही नहीं होते। मुझसे कुछ कहने में इतना समय ले रहे हो।'' तब उसने उसकी हथेलियों को मजबूती से पकड़ लिया था। फिर उसकी आंखों में देखते हुए कहा था। ''झूमर मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। तुमसे शादी करना चाहता हूं।'' अचानक उससे यह बात सुन कर वह सन्नाटे में आ गयी थी। 

उसने अपना हाथ उससे छुड़ाना चाहा तो उसने और कस कर पकड़ लिया। वह एकदम चुप थी तो वह फिर बोला था। ''झूमर मैंने जब तुम्हारी दीदी की शादी में तुम्हें देखा था, तभी से तुम्हें चाहने लगा था। तभी तुमसे ही शादी करने का मन बना लिया था। लेकिन मन की बात आज से पहले कभी किसी से कह नहीं पाया। पहले कई बार मन में आया कि, तुम्हारी दीदी से कहूं कि तुमसे मेरी शादी करा दें। लेकिन उनके सख्त स्वभाव के चलते कभी कुछ नहीं कह नहीं पाया।''

तब झूमर सिर्फ इतना ही कह पाई थी कि, ''रवीश हंसी-मजाक, फ्रैंकली बात या व्यवहार का यह मतलब कतई नहीं होता कि प्यार जैसा कुछ है। मैंने शादी के बारे में अभी कुछ सोचा ही नहीं है। और अगले कम से कम दो-चार साल भी कुछ नहीं सोचना चाहती।'' इस पर उसने उसके हाथ को और जोर से पकड कर अपने चेहरे के पास ला कर कहा था ''झूमर-झूमर मैंने पहले ही कहा कि, दीदी की शादी में तुम्हें देखने के बाद से ही मैंने तुमसे शादी का मन बना लिया था। ऐसा नहीं है कि जब मिलना-जुलना शुरू हुआ तब मेरे मन में ऐसा आया।''

 इसके बाद दोनों ने कोई बात नहीं की। वापस लौटते समय उसकी जिद पर झूमर ने एक ठेले पर चाट खाई और घर आ गई। उस की इस बात से अगले कई दिन झूमर के बेचैनी भरे रहे। मगर रवीश ने अपने व्यवहार को बिल्कुल नार्मल रखा था। उसे देख कर लगता ही नहीं था कि इसके मन में ऐसा कुछ चल रहा है। वह ऐसी बात कर चुका है। 

मगर दो महीने बाद ही उसने रिश्ते की सीमा तोड़ दी तो झूमर ने भी उसे छोड़ दिया हमेशा के लिए। उस दिन उसके साथ सवेरे ही अलोपी बाग गई थी। एक बड़े क्लाइंट से मिलना था। उसे पॉलिसी बेचने के लिए कई हफ्तों से दोनों ट्राई कर रहे थे। सुबह जल्दी इसलिए निकले कि दस बजते-बजते चिलचिलाती धूप शुरू हो जाती थी। मई महिने का तीसरा हफ्ता चल रहा था और दोपहर होते-होते टेंपरेचर चौवालीस-पैंतालीस तक पहुंच जाता था।

 क्लाइंट के पास पहुंचने से पहले दोनों ने अलोपी देवी के मंदिर में पूजा-अर्चना की। फिर तय समय पर क्लाइंट के पास पहुंच गए। हफ्तों की मेहनत रंग लाई। क्लाइंट ने अपने छः सदस्यीय परिवार के लिए अलग-अलग पांच पॉलिसियां लीं। फर्स्ट प्रीमियम की पांच चेक्स दीं, जो करीब दो लाख रुपए की थीं। दोनों ने पहले प्रीमियम पर मिलने वाला सारा कमीशन उन्हें देने का वादा किया और वहां से निकल कर एक दूसरे क्लाइंट के पास राजरूपपुर पहुंच गए। अब तक ग्यारह बज चुके थे। 

तेज़ धूप और लू में बाइक पर चलने पर उसे लगा जैसे गर्म हवा की आंधी के बीच से गुजर रही है। पसीने से पूरा बदन तर हो रहा था। पूरा मुंह ढंके रहने के बावजूद चेहरा पसीने से तर-बतर लाल हो रहा था। लेकिन यह सारी तकतीफें उसे उड़न छू सी होती लगीं जब दूसरे क्लाइंट के यहां भी सक्सेस मिल गई। दोनों खुश थे। बारह बजते-बजते करीब तीन लाख का बिजनेस हो चुका था। तब झूमर ने रवीश से कहा, ''अब सीधे घर चलो, इतनी धूप में और नहीं चला जाता।''

 रवीश ने कहा, ''अभी कैसे चल सकते हैं। अभी तो कई जगह चलना है।'' झूमर ने कहा, ''जो भी हो अभी घर चलो शाम को चलेंगे। सभी को फ़ोन कर के बता दो। देख रहे हो गर्मी के मारे कोई बाहर नहीं निकल रहा। सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ है। मानो कर्फ्यू लगा हुआ है।'' 

रवीश ने कहा, ''आना इधर ही है। बीस-बाइस किलोमीटर घर जा कर फिर इधर आना बड़ा मुश्किल होगा।'' झूमर ने फिर कहा, ''जो भी हो और नहीं चल सकती। नहीं होगा तो क्लाइंट्स के यहां कल चलेंगे।'' 

इस पर रवीश बोला, ''यहीं पास में मेरे एक दोस्त का घर है। उसके यहां चलते हैं, वही रुकेंगे। फिर शाम को क्लाइंट्स के यहां हो कर घर चलेंगे।''

 रवीश काम को लेकर जुनूनी है, यह सोच कर झूमर ने कह दिया, ''ठीक  है चलो दोस्त के यहां।'' उस समय तक झूमर रवीश के साथ इतना घुलमिल चुकी थी कि उस पर पूरा यकीन करती थी। बाहर खुद को उसके साथ सुरक्षित महसूस करती थी। वह कभी भी किसी के सामने उससे कोई हलकी-फुलकी बात नहीं करता था। इन सबके चलते वह उसके साथ बहुत ईजी महसूस करती थी। 

क्लाइंट के यहां से मुश्किल से दस मिनट की दूरी पर वह रवीश के साथ उसके दोस्त के घर पहुंची। एक ठीक-ठाक सा दो मंजिला मकान था। रवीश ने कॉलबेल बजाई तो एक अधेड़ महिला ने गेट खोला। एल शेप में बने पोर्च में एक टू व्हीलर और एक लेडीज साइकिल खड़ी थी। महिला ने रवीश को देखते ही मुस्कुराते हुए कहा, ''आओ रवीश कई दिन बाद आए।'' रवीश ने भी नमस्ते करते हुए कहा, ''आंटी टाइम नहीं मिल पाता।'' 

उसने फिर झूमर का परिचय कराया, ''आंटी ये झूमर मेरे साथ ही काम करती है। जिस क्लाइंट से मिलना था, वह अभी मिला नहीं, शाम को मिलेगा। इतनी धूप में घर जाकर आना मुश्किल है। तो सोचा तब-तक यहां रेस्ट कर लेते हैं।''

 झूमर ने देखा कि आंटी रवीश के काम-धाम के बारे में सब कुछ जानती हैं। लेकिन फिर भी दो मिनट हो गए एक बार भी अंदर चलने को नहीं कहा। ये रवीश के दोस्त की मां हैं, फिर भी यह व्यवहार है, तो ये चार घंटे क्या रुकने देंगी। मगर तभी रवीश बोला, ''आंटी...वो चाभी दे दीजिए।'' 

यह सुन कर झूमर को अजीब सा लगा। वह जब-तक कुछ समझती तब तक आंटी ने एक छः इंच लंबी चाभी अंदर से ला कर रवीश को थमा दी। रवीश पोर्च के बगल से ऊपर को जा रहे लंबे जीने से झूमर को लेकर ऊपर पहुंचा । लंबी चाभी से इंटरलॉक खोला, दरवाजे को अंदर धकेला। वो सीधे एक बड़े ड्रॉइंगरूम में दाखिल हो गए।

ड्रॉइंगरूम बड़ा खूबसूरत था। बढ़िया सोफे थे। दो तरफ स्टाइलिश दिवान पड़े थे जिस पर मोटे मैट्रेस और गाव तकिए लगे हुए थे। टीवी एक बड़ा फ्रिज, कई कोनों पर स्टाइलिश तिपायों पर कलाकृतियां, खिड़कियों पर भारी महरून कलर का पर्दा था। 

छत के बीचो-बीच बड़ा सा झूमर लगा था। चारो दिवारें और छत अलग-अलग कलर से पेण्ट  की गई थीं। सभी कलर एक ही फै़मिली के थे। कलर कॉबिनेशन बहुत ही खूबसूरत था। कई पेंटिंग भी थीं जो मैटफिनिश गोल्डेन कलर के फ्रेम में मढ़ी थीं। ये सभी पेंटिंग भारतीय कलाकारों की थीं। इनमें मुख्यतः राजा रवि वर्मा, मंजीत बावा, अमृता शेरगिल, जतिन दास थे। ड्रॉइंगरूम की एक-एक चीज कह रही थी कि इसका मालिक क्लासिक चीजों का शौकीन, एक आर्ट प्रेमी व्यक्ति है। 

झूमर कुछ संशय के साथ सब देख ही रही थी कि रवीश ने ए. सी.  चला दिया। फिर सोफे पर बैठते हुए उसे भी बैठने को कहा। वह बैठ गई। तभी रवीश ने टीवी के बगल में ही रखे सोनी के इंपोर्टेड म्युजिक सिस्टम को ऑन कर दिया। उसमें पहले से लगी कैसेट बजने लगी। जगजीत सिंह का गाया एक मशहूर गीत, ''होंठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो... चलने लगा था। 

तब सी. डी., डी.वी.डी., पेन ड्रॅाइव आदि का जमाना नहीं था। ए. सी. की ठंडक से इतनी राहत मिली कि झूमर को नींद आने लगी। तभी रवीश ने फ्रिज से पानी की ठंडी बोतल निकाली और किचेन से गिलास लेकर आया। झूमर ने उठ कर पानी निकालना चाहा तो उसने मना कर दिया। खुद भी लिया और उसे भी दिया। वहां वह जिस तरह मूव कर रहा था। उससे यह साफ था कि वह फैमिली मेंबर की तरह है। 

झूमर ने जब पूछा तो उसने बताया कि, यह उसके बिजनेसमैन दोस्त विवेक चंद्रा का घर है। उसकी पत्नी दिल्ली की रहने वाली है। उसके फादर भी बिजनेसमैन हैं। गर्मी की छुट्टी के चलते वह बच्चों संग वहीं गई हैं। विवेक बिजनेस के चलते ज़्यादा कहीं जा नहीं पाता। इसके बाद दोनों के बीच ज़्यादा बातचीत नहीं हुई। झूमर की तरह वह भी आलस्य में था, जगजीत सिंह के गाए गीत कैसेट में एक के बाद एक चल रहे थे। 

सोफे पर ही सिर टिकाए झूमर ने आँखें  बंद कर ली थीं। उसे नींद आ गई। बीस-पचीस मिनट बाद ही उसको लगा, जैसे उसकी बांह पकड़ कर कोई उसे खींच सा रहा है। उसकी आँखें  खुल गईं। वह एकदम सकते में आ गई। रवीश दोनों हाथों से उसकी बांहों को पकड़े हुए था।

 वह एकदम तड़प उठी। उसकी बांहों से करीब-करीब छूट गई। लेकिन उसने उतनी ही फुर्ती से फिर पकड़ते हुए जल्दी-जल्दी कहा, ''सुनो-सुनो झूमर पहले मेरी बात सुनो।'' उसकी इस बात से छूटने की झूमर की कोशिश कमजोर ज़रूर पड़ी थी, लेकिन बंद नहीं हुई थी। 

वह बोला, ''मुझे गलत मत समझो झूमर।'' फिर से उसने शादी की बात छेड़ते हुए ऐसी-ऐसी भावुकता भरी बातें शुरू कीं, कि झूमर का विरोध कमजोर होता गया। मगर अचानक ही झूमर ध्यान का अपने दुपट्टे पर गया जो, उसके कंधों पर ना हो कर सामने टेबिल पर पड़ा था। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। वह चीख उठी, ''हटो।'' साथ ही उसे धकेला भी। फिर झपट कर दुपट्टा अपने कंधों पर डालते हुए सामने ठीक किया। 

तेज़ आवाज़ में बोली, ''तुम इतने गिरे हुए इंसान होगे नहीं पता था। धोखेबाज साजिश कर यहां मुझे लूटने के लिए ले आया। मैं सो गई तो मेरे कपड़े उतार रहा है।'' उसके चिल्लाने से रवीश एकदम घबड़ा गया था। बार-बार माफी मांगने लगा। धीरे बोलने को कहने लगा। तमाशा न बने यह सोच कर तब झूमर ने आवाज़ धीमें ज़रूर कर दी। लेकिन साथ ही यह भी कह दिया कि आइंदा मेरी छाया के करीब भी ना फटकना। उसने अपना बैग उठाया और चल दी तो वह बोला, ''धूप कम हो जाने दो मैं छोड़ दूंगा।''

 उसने कहा, ''धूप क्या? अंगारे भी बरस रहे हों तो भी जाऊंगी, इसी वक़्त जाऊंगी, अकेले जाऊंगी। तुम्हें एक भला इंसान समझा था। तुम्हारी मदद का एहसान कैसे चुकाऊंगी सोचती रहती थी, लेकिन तुम मदद नहीं, मदद का खोल चढ़ा जाल फेंक कर मुझसे अपनी हवस मिटाने की कोशिश में थे। मुझे खुद पर गुस्सा आ रही है कि, तुम्हारे इस चेहरे के पीछे छिपी मक्कारी, असली घिनौना चेहरा मैं देख क्यों नहीं पाई,

याद रखना मैं उन लड़कियों में नहीं हूं जो सेक्स की भूख में आसानी से बिछ जाती हैं। मेरे लिए सबसे पहले मेरी इज्ज़त और मेरे मां-बाप का स्वाभिमान है।'' यह कह कर वह दरवाजे की ओर बढ़ी तो रवीश एकदम से जमीन पर बैठ उसके पैर पकड़ कर गिड़गिड़ा उठा था कि, ''ठीक है इसी समय चलते हैं। लेकिन अकेली मत जाओ, आंटी ना जाने क्या शक कर बैठें । मेरे साथ चलो जहां कहोगी वहीं छोड़ दूंगा। मेरा यकीन करो मेरे मन में तुम्हारे लिए कोई गलत भावना नहीं थी।''

 उसका गला एकदम भर्राया हुआ था। झूमर को जाने क्या हुआ कि वह नम्र पड़ गई और ठहर गई। तो वह उठा जल्दी से अपना सामान समेटा और झूमर के साथ नीचे आ गया। नीचे आंटी ने टोका तो बोला, ''आंटी ज़रूरी काम आ गया है जाना ही पड़ेगा।'' 

बाहर झूमर को लगा वाकई अंगारे ही बरस रहे हैं। सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ था। वहां से घर के लिए कौन सा साधन ले उसे कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। झूमर को वहां के बारे में ज़्यादा नहीं पता था। एक पेड़ के नीचे दो-तीन रिक्शे खड़े थे। रिक्शेवाले सब हुड उठाए उसी के नीचे बैठे थे। 

झूमर ने वहीं चलने को कहा तो रवीश अनमने ढंग से ले गया। मगर रिक्शेवाले कहीं भी जाने को तैयार नहीं थे। तब रवीश फिर मिन्नतें करने लगा था कि, ''यहां से घर बहुत दूर है। कोई सीधा साधन नहीं है। मुझे माफ करो। इसे मेरा प्रायश्चित समझो और घर तक छोड़ने दो।'' उसकी बार-बार की मिन्नतों, तन-झुलसाती धूप और लू से परेशान हो कर, तब झूमर उसी के साथ घर चली गई थी। 

 घर के सामने गाड़ी खड़ी कर रवीश ने फिर हाथ जोड़ा था कि, ''किसी  से कहना मत, नहीं मैं जीते-जी मर जाऊंगा।'' वह कुछ बोली नहीं। दरवाजा मां ने खोला चुपचाप अंदर चली गई। वह बाहर से ही जाने लगा तो उसकी मां ने हमेशा की तरह रुकने को कहा। मगर वह रुका नहीं। वहीं से चला गया। मां, रवीश के बीच क्या बात हुई उसने नहीं सुना। 

उसके कुछ हफ्ते बाद उसने फिर संपर्क साधने की कोशिश की थी। लेकिन झूमर ने सख्ती से मना कर दिया था। इस बीच उसने एक काम और किया, कि छद्म नाम से दो और कंपनियों की भी एजेंसी ले ली। इससे वह कस्टमर के सामने तीन कंपनियों और उसके प्रोडक्ट्स का विकल्प पेश कर और अच्छा बिजनेस करने लगी। वह अपने काम में पक्की हो चुकी थी। मेहनत पहले से दुगुना करने लगी। देखते-देखते उसका कमीशन कई गुना बढ़ गया। 

उसने लोन वगैरह सब चुकता करने के अलावा काफी पैसा जल्दी ही इकट्ठा कर लिया था। रवीश का साथ छूटने से उसे सिर्फ़ एक तकलीफ हो रही थी। कि क्लाइंट्स के पास जब जाती तो उनमें से बहुत की लपलपाती जबान से अपने लिए लार टपकती देखती। कई प्रोडक्ट् से ज़्यादा उसमें रुचि लेने लगते थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाती थी ऐसे कामुक दरिंदों से। और अपना बिजनेस आगे बढ़ाती थी। 

कर्जा निपटने और पैसा इकट्ठा होने के बाद तो जैसे घर में खुशी आ गई। मां-बाप, बहनें सब कोई उसकी तारीफ करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। फिर वह मनहूस दिन आया जब झूमर की शादी वैभव से हुई। उसे अब झूमर अपने जीवन का सबसे मनहूस दिन ही कहती है। क्योंकि वह एक छली-कपटी, लालची को अपना मान बैठी। उसे पति मान कर सौंप दिया सब कुछ। पापी ने उसे सिर्फ़ अपनी देह की भूख शांत करने की मशीन समझा। उसकी कमाई को चूसता रहा। 

झूमर सोचती है तो, उसे लगता है रवीश को ठुकराना भी उसकी ज़िन्दगी  का मनहूस दिन था। बेचारा कितना पीछे पड़ा हुआ था। बाद में दीदी जीजा सब से सिफारिश कराई थी। मगर तब उसकी उस हरकत के कारण उसके मन में इतना गुस्सा था कि उससे शादी के नाम पर ही एकदम भड़क उठती थी। 

उसने आखिर तक उसका इंतजार किया था। उसकी शादी के दो साल बाद शादी की थी। आज वह कितना खुशहाल है, उसके तीन बच्चे हैं। बीवी सरकारी नौकरी में है। क्लास टू अफ़सर है। खुद भी कितना आगे निकल गया है। एल.आई.सी. में ऊंचे पद पर बैठा है। कैसा खूबसूरत मकान है, दो-दो कारें हैं। क्या नहीं है? पिछले साल दीदी की लड़की की शादी में झूमर को मिला था। कितनी इज़्ज़त से मिला था। उसकी आंखों से लग रहा था जैसे बहुत कुछ कह रही थीं। 

शायद यही कि, ''तुमने मुझे ठुकरा कर बहुत बड़ी गलती की थी झूमर।'' मगर सच यह भी था कि, झूमर के मन से यह बात आज भी नहीं निकलती कि, उस दिन वह उसे धोखे से ही अपने दोस्त के घर ले गया था। सोता पाकर धोखे से ही उसके दुपट्टे को हटा दिया था। उसके तन को झांका था। यदि वह जरा भी कमजोर पड़ती तो उसकी इज्ज़त, उसका सम्मान सब लूट लिया होता। 

धोखा वहां भी मिला था और जिसे पति मान कर आई थी उसने भी दिया। झूमर मन ही मन दृढ़ होते हुए सोच रही थी कि, ''वैभव मैं तुम्हें कैसे बख्श दूँ । मुकदमा को चलते दो साल हुए थे। तुम्हें अपनी हार निश्चित दिख रही थी तो, तुमने साजिशन फिर मुझे अपने जाल में फंसाया। अंशिका को लेकर इमोशनली ब्लैकमेल किया। मुकदमा चल रहा था। फिर भी मैं तुम्हारे जाल में फंस गई। महिनों तुम्हें अपने ही घर में अपना तन-मन सौंपती रही। और तुम तब हर बार यही कहते थे, झूमर मैं जल्दी तुम सब को लेकर पुराने जीवन में लौट चलूंगा। बस किसी तरह निशा से फुरसत पा लूं। तुम मुकदमा वापस ले लो।

 मगर किस्मत का साथ रहा और वकील का दबाव कि ऐसा नहीं किया। सोचा थोड़ा और देख लूं। मगर तुमने एक बार फिर पैरों तले जमीन खिसका दी थी, कोर्ट में यह कह कर कि हम दोनों के शारीरिक संबंध तो अब भी बहाल हैं। यह तुम्हारा दुर्भाग्य रहा कि, तुम अपना दावा साबित ना कर सके। कोर्ट में झूठे साबित हुए। तलाक न हो सके, जिससे तुम्हें कुछ देना ना पड़े, इसके लिए तुम्हारी हर साजिश नाकाम हुई। बार-बार जज की फटकार सुनी। 

तुमने इतने दंश दिए हैं वैभव कि ,मैं किसी सूरत में तुम्हें नहीं छोडूंगी। गुजारा भत्ता ना देने और जिस प्रॉपर्टी के लिए तुम मर रहे हो, मैं उस प्रॉपर्टी में भी आधा हिस्सा लेकर रहूंगी। अपना, अपनी बेटी का एक-एक हक ले कर रहूंगी। निशा और उसके बच्चों को भी बताऊंगी तुम्हारी असली सूरत। चलो तुम सुप्रीम कोर्ट चलो वहां तक चलूंगी।

 अव्वल तो मैं निशा और तुम्हारे परिवार को ही ऐसा कर दूंगी कि, तुम कोर्ट के बारे में सोच ही नहीं पाओगे, अपील करने की तो बात ही दूर रही।'' बैठे-बैठे झूमर बेचैन हो उठी। तभी अंशिका ने करवट ली और एक हाथ उसकी गोद में सीधा फैला दिया। उसे देख कर झूमर का प्यार एकदम उमड़ पड़ा। उसके गाल को हल्के से सहलाते हुए मन ही मन बोली, ''इतनी बड़ी हो गई मगर बचपना नहीं गया।''

फिर ना जाने उसके दिमाग में क्या आया कि, बुद-बुदा उठी कि, ''बेटा अब वक्त आ गया है कि, तुझे भी जल्दी ही सब बता दूं। जिससे इस दुनिया के स्याह पक्ष से तू सावधान रहे, बची रहे।''

 झूमर ने धीरे से बेटी को अलग किया। बेड से नीचे उतरी और ड्रॉइंगरूम में आ गई। सोफे पर बैठ कर टीवी ऑन किया तो कोई न्यूज चैनल रहा था। सीरिया में आतंकवादी घटनाओं का समाचार आ रहा था। जेहादी आतंकियों द्वारा बंधक बनाए गए एक पायलट की पिंजरे में बंदकर जलाए जाने का ब्लअर किया हुआ विडियो क्लिप दिखाया जा रहा था। झूमर वह वीभत्स दृश्य देख न पाई और चैनल बदल दिया।

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मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद 

दुष्यंत ने ऑटो रिक्शा चलाना तब से शुरू कर दिया था जब वह क़ानूनी रूप से बालिग़ भी नहीं हो पाया था। ऐसे में जब भी ट्रैफ़िक पुलिस द्वारा पकड़ा जाता तो तुरंत जितने रुपए उसके पास होते वह फट से निकाल कर उसे थमा देता। पुलिस वाला सारे नोट जेब में ठूँस-ठाँस कर रख़ते हुए कहता, ‘चल भाग, जल्दी बड़ा हो जा।’ ऑटो की स्पीड अपनी मर्ज़ी से घटाने-बढ़ाने वाले दुष्यंत के पास उम्र बढ़ाने की स्पीड पर कोई कंट्रोल नहीं था। वह अपने ही हिसाब से बढ़ती रही और दुष्यंत को बालिग़ बनाने में पूरे ग्यारह महीने ले लिए। वह रोज़ बड़ी बेसब्री से ग्यारहवें महीने की इक्कीसवीं तारीख़ की प्रतीक्षा करता था। 

और जब यह तारीख़ आई तो उसने ख़ुशी मनाई। लेकिन अन्य लोगों की तरह नहीं कि ख़ुशी मनाने के लिए छुट्टी ले ली, काम नहीं किया। बल्कि इस ख़ुशी को उसने अपनी तरह से अकेले ही मनाया और ऑटो रोज़ से भी चार घंटे ज़्यादा चलाया। मालिक को उसने सवेरे ही बता दिया था कि, ‘आज ज़्यादा चलाऊँगा और ज़्यादा कोटा दूँगा।’ मालिक उसकी ईमानदारी, मेहनत, अच्छी ड्राइविंग के कारण ही उस पर आँख मूँदकर विश्वास करता था। 

उसने उसे काम पर रखने के हफ़्ते भर बाद ही कह दिया था कि, ‘तुम चलाओ, पकड़े जाओगे तो मैं छुड़ा लूँगा।’ लेकिन दुष्यंत पकड़े जाने की बात मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाने के कई दिन बाद ही बताता था। मालिक को वह कोटा पूरा देता। जो बच जाता उसी से अपना काम चलाता। उस दिन अपना कोटा वह भूल जाता था। यूँ तो क़ानूनन किसी ड्राइवर को ही ऑटो का परमिट मिलता है। वह भी कॉमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस होने पर ही। लेकिन दुष्यंत के मालिक ने और कई आर्थिक रूप से सक्षम लोगों की तरह फ़र्ज़ीवाड़ा करके कई परमिट ले रखे थे। वो कई बेरोज़गार युवकों का हक़ मारे हुए था। 

ऑटो वाले और चेतेश्वरानंद की यह कहानी पढ़ने वाले मेरे मित्रों, मैं एक सच आपको इसी समय बता देना उचित समझता हूँ कि मैं कोई कहानी लेखक या कहानी नैरेटर नहीं हूँ। पूरा सच यह है कि मैं ही ऑटो वाला हूँ। मतलब कि था। था इसलिए क्योंकि काफ़ी समय पहले मैंने ऑटो चलाना छोड़ दिया है। जब चलाता था तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऑटो चलाना छूट जाएगा। और चलाना शुरू करने से पहले सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऑटो चलाऊँगा और आगे वह करूँगा जो अब कर रहा हूँ। 

मित्रों मैं अब आपको वह सच बताने जा रहा हूँ कि मुझसे ऑटो छूटा कैसे और मैं यहाँ तक पहुँचा कैसे। एक चीज़ आप से बहुत साफ़-साफ़ कहता हूँ कि अगर आप बहुत प्रगतिशील विचारों के हैं, जीवन की हर बात को, हर काम को विज्ञान के तराजू पर तौलते हैं, उसके मापदंडों पर ही कसते हैं, उससे मिले निष्कर्षों पर ही सही ग़लत का निर्णय करते हैं, तो मित्रों माफ़ करना, मैं बहुत साफ़ कहता हूँ, कि आपका विज्ञान भी उतना ही अधूरा, अस्पष्ट है, जितना कि अन्य बातें, पौराणिक आख्यान आदि-आदि। 

देखिए ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि न जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं कि विज्ञान का कोई सिद्धांत बरसों-बरस सही माना जाता है। लेकिन फिर अचानक ही कोई दूसरा वैज्ञानिक पिछले को झुठलाते हुए नया सिद्धांत, नए नियम लेकर सामने आ जाता है। पिछला ग़लत हो जाता है। इसका अर्थ आप यह न लगा लें कि मैं विज्ञान को नहीं मानता। मित्रों मैं विज्ञान को उतना ही मानता, अहमियत देता हूँ, जितना ज्योतिष शास्त्र एवं पौराणिक आख्यानों को। 

देखिए मैं जहाँ-जहाँ से होता हुआ आज जहाँ पहुँचा हूँ और आपसे जिस तरह मुख़ातिब हूँ इसे मैं विधि का विधान मानता हूँ। जिसके लिए बहुत से नास्तिक वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि ना विधि होता है, ना विधि का विधान। या प्राचीन काल में सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि की तरह कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की है बल्कि सतत् विकास की प्रक्रिया का परिणाम है यह। अर्थात् जब उनकी सृष्टि ही नहीं तो उनका विधान कैसे? आप एक बात और सोचें कि डार्विन का विकासवाद इससे इतर है क्या? हाँ कुछ वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि विज्ञान के सिद्धांतों की तरह विधि भी है और उसका विधान भी। 

आप कुछ तर्क रखें, सोचें उसके पहले मैं यह साफ़ कर दूँ कि मैं तब विज्ञान को कंप्लीट मान लूँगा जब विज्ञान भविष्य में झाँक कर यह बता दे कि कब, कहाँ, क्या, किस लिए होने वाला है। एकदम सटीक बता दे। नहीं तो फिर कहूँगा कि पौराणिक आख्यान, विज्ञान सब एक समान हैं। ज्योतिषाचार्य भविष्य में क्या होने वाला है यह बता देने का पूरा दावा करते हैं। मेरे लिए भी आश्चर्यजनक दावा किया गया था कि भविष्य में मेरे साथ क्या होने वाला है। जिसे आप आगे जान पाएँगे। 

उस विधि के विधान को ज्योतिष शास्त्र के ज़रिए ज्योतिषाचार्य पढ़ लेने का दावा करते हैं, जिसके बारे में ख़ुद पौराणिक आख्यान यह कहते हैं कि विधि का लिखा अब तक महान शिवभक्त, प्रकांड पंडित रावण ही पढ़ सका है। वह अपने दरबार में अंगद से संवाद के समय बहुत ही घमंड के साथ कहता भी है, ‘जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥’ अर्थात् मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी असत्य जानकर मैं हँसा। रावण आगे कहता है कि, ‘उस बात को समझ कर भी मेरे मन में डर नहीं है। बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है।’ 

तो मित्रों जब मेरे पिताजी ज़िंदा थे, तब उनकी मृत्यु से कुछ वर्ष पहले, मुझे एकदम सटीक तो नहीं याद है कि कितने वर्ष क्योंकि तब मैं छठी में पढ़ता था। उम्र यही कोई ग्यारह-बारह वर्ष रही होगी। तभी संयोगवश ही किसी ज्योतिषाचार्य से उनकी मुलाक़ात हो गई। उसकी बातचीत से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, जिसे उस ज्योतिषी ने उनकी जन्मतिथि के हिसाब से ग़लत बताया और नई कुंडली बना दी। साथ ही यह भी बताया कि, ‘आप पर ‘कालसर्प’ योग है। और आपकी राशि आज इन-इन भाव में है, और फला-फल ग्रह फलाँ फलाँ जगह हैं। इस कारण जो बला-बल निकल रहा है वह आपके लिए बहुत विनाशक है। यह बला-बल शुभ वाला नहीं अपितु अशुभ वाला है। यह जीवन को समाप्त कर देने वाला है।’ 

यह सुनकर माता जी घबरा गईं। पिताजी भी सशंकित हो गए। माता-पिता की इस हालत पर ज्योतिषाचार्य जी और मुखर हो उठे। बड़े विस्तार में जाते हुए बताया कि, ‘पिछले जन्म में आप से एक साथ कई अक्षम्य अपराध हो गए थे। जिनका परिणाम दोष फल आपको इस जन्म में मुख्य रूप से मिल रहा है। पिछले में इसलिए ज़्यादा कष्ट में नहीं रहे क्योंकि उसके पिछले वाले जन्म में आपके सद्कर्म बहुत थे। जिनका परिणाम पिछले जन्म में आप सुखी जीवन जी के भोग चुके हैं। 

आपके इस जीवन में प्रारंभ से ही क़दम-क़दम पर शारीरिक-मानसिक कष्ट, नौकरी में कष्ट, पारिवारिक जीवन में कष्ट है तो इस ‘कालसर्प’ योग के कारण ही है। आपकी कुंडली के हिसाब से राहु बारहवें भाव में है। और यजमान, कर्मों का व्यापक प्रभाव देखिए कि केतु छठे भाव का है। जिससे आप हज़ार-हज़ार कोशिश करके भी अपना ट्रांसफर होम डिस्ट्रिक्ट में नहीं करवा पा रहे हैं। 

आपके प्रतिद्वंद्वी ऑफ़िस से लेकर हर जगह आप से दो क़दम आगे ही रहते हैं। मन का कोई भी काम आप समय से नहीं कर पाते हैं। जब-तक मन का होता है, तब-तक उसके होने की सारी ख़ुशी, उत्साह सब समाप्त हो चुका होता है। आपको शारीरिक, मानसिक कोई ख़ुशी मिल ही नहीं पाती। आपकी सारी ख़ुशी हमेशा आपका यह डर छीन लेता है कि आपकी नौकरी ख़तरे में है। जबकि सच यह है कि तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी आप की नौकरी बची रहेगी लेकिन...।’ 

ज्योतिषाचार्य जी ने अपना यह वाक्य बड़े रहस्यमय ढंग से अधूरा छोड़ दिया तो अम्मा घबड़ाकर हाथ जोड़ती हुई बोलीं, ‘पंडित जी लेकिन क्या? कोई अनहोनी तो नहीं है? पंडित जी बताइए ना।’ अम्मा के आँसू निकलने लगे। पिताजी भी गंभीर हो गए। प्रश्न-भरी दृष्टि से पंडित जी की तरफ़ देखने लगे। तो पंडित जी बोले, ‘देखिए मैंने पूरी कुंडली का बहुत ही ध्यान से समग्र अध्ययन किया है। जो समझ पाया हूँ उसके अनुसार पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि आपके ऊपर ‘शेषनाग कालसर्प योग’ का प्रचंड प्रभाव है। 

मैं निःसंकोच यह मानता हूँ कि बारहों कालसर्प योगों में यह सबसे विनाशकारी योग है। इसका प्रभाव जातक की संतानों पर भी पड़ता है। विशेष रूप से छोटे पुत्र पर। उनके जीवन की भी ख़ुशियाँ नष्ट हो जाती हैं। जबकि स्वयं उसका जीवन भीषण संकट में होता है। कुंडली के हिसाब से आपके जीवन का यह जो साल चल रहा है, यह इस योग की दृष्टि से सबसे ज़्यादा प्रभावित वर्ष है।’ 

ज्योतिषाचार्य जी का यह कहना था कि अम्मा जी रो पड़ीं। और ऐसी हालत में जो होता है वही हुआ, अम्मा हाथ जोड़कर बोलीं, ‘पंडित जी जो भी उपाय हो वह करिए। जैसे भी हो इस अनिष्ट से बचाइए।’ लगे हाथ ‘शेषनाग कालसर्प योग’ के अनिष्ट से बचने के लिए यज्ञ करवाना सुनिश्चित हो गया। आनन-फोनन में तैयारी की गई। यज्ञ ज्योतिषाचार्य पंडित जी ने अपनी टीम के साथ आकर पूरा किया। डेढ़ लाख रुपए का खर्चा आया। फिर भी पिता-अम्मा और घर के अन्य सदस्यों के मन से भय नहीं गया। 

अम्मा का हर क्षण पिताजी के जीवन को लेकर अनिष्ट की आशंका से काँपता ही बीतता था। लेकिन उस वर्ष कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ तो अम्मा-पिताजी सहित सभी के मन से भय का प्रेशर कम हो गया। मगर यह हल्कापन बस कुछ ही दिन रहा। अगले वर्ष में प्रवेश किए महीना भर भी ना बीता था कि पिताजी ऑफ़िस के किसी काम से अचानक ही भुसावल गए। लौटते समय किसी ज़हर-खुरान गिरोह के शिकार बन गए। अम्मा को एकदम बाद में बताया गया जब पिताजी का पार्थिव शरीर लेकर बड़े भाई घर पहुँचे। 

अम्मा बदहवास हो गईं। पछाड़ खा-खा कर गिरतीं। बेहोश हो जातीं। पूरे घर का यही हाल था। दरो-दिवार लॉन के पेड़-पौधों से लेकर पापा के प्यारे कुत्ते चाऊ तक का। मगर बीतता है हर क्षण तो यह भी बीत गया। सब अतीत बन गया। मित्रों इसके अलावा जो रह गया वह पहले सा ना होकर तेज़ी से बदलता चला गया। 

पिताजी की जगह बड़े भाई नौकरी वाले बने। अम्मा ने पूरी ताक़त से अपने होशो-हवास क़ायम किए, रात-दिन एक करके दोनों बहनों की, फिर बड़े भाई की भी शादी करवा दी। इतना सब कुछ बदला लेकिन ज्योतिषाचार्य जी की बताई बातों के भय का घटा-टोप कुहासा नहीं छँटा। एक दिन भैया-भाभी अपने बच्चों सहित बड़ी बहन के यहाँ गए थे। उनके बच्चे का मुंडन था। मैं घर पर ही रुका था। क्योंकि अम्मा की तबीयत ख़राब थी। उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकते थे। 

बहन-बहनोई ने मुंडन एक मंदिर में करवाने के बाद घर पर ही पार्टी दी थी। छोटी बहन भी परिवार के साथ वहीं थी। फोन पर उससे मैंने बड़ी देर तक बात की थी। वहाँ सब पार्टी में व्यस्त थे, कि तभी अम्मा की तबीयत अचानक ख़राब हो गई। वह साँस नहीं ले पा रही थीं। मुँह से अजीब सी आवाज़ निकल रही थी। मैंने पड़ोसी को बुलाया, किसी को कुछ समझ में नहीं आया। 

घबराकर मैंने भैया की कार निकाली। नज़दीक के ही एक डॉक्टर के पास ले गया। उसने अम्मा को एक बड़े हॉस्पिटल के लिए रेफ़र कर दिया। वहाँ गया तो संयोग से डॉक्टर जल्दी मिल गए। लेकिन उन्होंने देखते ही कह दिया कि, ‘बहुत देर हो चुकी है। यह अब नहीं रहीं।’ मैं स्तब्ध अम्मा को देखता रह गया। डॉक्टर ने ख़ुद अपने हाथ से अम्मा की साड़ी का आँचल उठाकर उनके चेहरे को ढँक दिया। मेरे कंधे को हल्के से थपथपाया और आगे बढ़ गए। अब पड़ोसी आगे आए। मुझे ढाढ़स बँधाने लगे। मुझसे भाई-बहनों, सभी को फोन करने के लिए कहा। लेकिन मैंने सोचा अभी तो पार्टी वहाँ पूरे चरम पर होगी। सब ख़ुश होंगे, खा-पी रहे होंगे। ऐसे में उन पर यह वज्रपात करना समझदारी नहीं है। 

अब जो भी होना है सब अगले दिन ही होना है। सूचना मिलने पर सभी चार-पाँच घंटे में आ ही जाएँगे। यह सोचकर मैं गाड़ी का इंतज़ाम कर अम्मा को घर ले आया। पड़ोसी बड़ी मदद कर रहे थे। मेरी आँखों में आँसू बिल्कुल नहीं थे। घर पहुँचने पर और बहुत से पड़ोसी भी मदद को आ खड़े हुए। बर्फ़ सहित अन्य जो कुछ ज़रूरी सामान था, सब आ गया। रात क़रीब बारह बजे मैंने भाई-बहनों अन्य सारे रिश्तेदारों को फोन करके सब से कहा कि अंतिम साँसें चल रही हैं, बस जितनी जल्दी हो सके आ जाएँ। 

अगले दिन घाट पर अंतिम संस्कार करके लौटने पर मुझे घर में फिर वही सन्नाटा, फिर वही उदासी दिखी हर तरफ़ जो पिताजी के जाने के बाद तारी थी। इस बार एक और बात थी जो मुझे भीतर तक झकझोर रही थी। वह यह कि पिताजी के बाद अम्मा थीं। मुझे घर, घर लग रहा था। लेकिन अम्मा जी के बाद ऐसा एहसास हो रहा था कि जैसे घर, घर ही नहीं रह गया है। बस दीवारें, छत, दरवाज़े ही हैं। जो हर तरफ़ से घेरे हुए हैं। 

इन सब से मनहूसियत ऐसे निकलती दिख रही थी कि कुछ घंटे पहले तक जिस मकान में मुझे एक जीवंतता नज़र आती थी, लगता था जैसे इसमें भी आत्मा है। यह भी सजीव है। उसी में अब ऐसा लग रहा था कि जैसे अम्मा के साथ घर की भी आत्मा चली गई है। जीवंतता ख़त्म हो गई है। एकदम भुतहा मकान, मनहूसियत, साँय-साँय करतीं दरो-दिवार। मुझे लगा जैसे मैं भी इन्हीं की तरह मनहूस दरो-दिवार होता जा रहा हूँ। मुझ में भी लोग हर तरफ़ मनहूसियत, साँय-साँय करतीं आवाज़ महसूस कर रहे हैं। दूर भाग रहे हैं। रास्ता बदल रहे हैं। दो हफ़्ता पूरा होते-होते घर सन्नाटे के अथाह समुद्र की तलहटी में जा डूबा। 

अम्मा के जाने के तीन हफ़्ते बाद ही पापा का प्रिय चाऊ भी चल बसा। उस बेजुबान जानवर ने अम्मा के जाने के बाद ही खाना-पीना छोड़ दिया था। इस ओर मेरे सहित सबका ध्यान जब-तक गया तब-तक वह चल बसा था। उससे एक गहरा लगाव परिवार के हर सदस्य को था। यह मेरे लिए एक और झटके से कम नहीं था। 

मगर जो निर्णायक झटका मैंने महसूस किया वह तो महीने भर बाद उन्हीं ‘कालसर्प’ वाले ज्योतिषाचार्य जी के आने के बाद लगा। वह भाई-भाभी के साथ उनके कमरे में लंबा समय बिता कर गए तो उसके बाद ही मैंने महसूस किया कि भाई-भाभी एकदम बदले हुए हैं। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरी छाया से ही दूर भाग रहे हैं। बच्चों का मुझ तक आना ही एकदम बंद हो गया। दो-तीन दिन बीतते-बीतते वातावरण इतना भयानक, इतना तनावपूर्ण हो गया कि मुझे लगा मानो मेरा रोम-रोम विदीर्ण हो रहा है। 

लेकिन फिर सोचा एक कोशिश करूँ कि घर में व्याप्त यह अथाह तनाव ख़त्म हो जाए। छोटा हूँ तो क्या? कुछ कामों की पहल छोटों को भी कर लेनी चाहिए। मगर मेरे सारे प्रयास विफल रहे। भाई साहब, भाभी हज़ारों कोशिशों के बाद भी खुलकर नहीं बोले। मैं साफ़ समझ गया कि ‘कालसर्प’ योग की छाया मुझ पर भी कहीं पड़ रही है। यह अम्मा के समय ही मालूम हो चुका था। लेकिन कर्मकांड के लिए उनके पास लाखों रुपए नहीं थे। भाई झमेले में पड़ना नहीं चाहते थे तो अम्मा अंदर ही अंदर घुटती रहीं। कभी-कभी मन को यह दिलासा भी दे लेतीं थीं कि कराया तो था यज्ञ। कहाँ बचा उनका सुहाग। 

अपनी विवशताओं के चलते वह भीतर ही भीतर घुल रही थीं। यह सारी बातें और विस्तार से मुझे दोनों बहनों से मालूम हुईं थीं, जब घर के तनाव को ख़त्म करने में असफल होने, अम्मा के ब्रह्मलीन होने के कुछ दिन बाद मैं बड़ी बहन के यहाँ मदद के लिए पहुँचा था। 

हालाँकि इन बातों को जानने के बाद मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। क्योंकि मेरे विचार में यह सब बातें बस बातें ही हैं। लेकिन दूसरी बात जिसका स्पष्ट अनुभव मैं कर रहा था उसने मुझे हिला कर रख दिया। मुझे साफ़ दिखा कि भाई-भाभी की तरह बहन-बहनोई भी मेरे पहुँचने से आक्रांत हैं। जैसे कह रहे हों कि अरे यह क्यों आ गया। यह बात मैं घंटे भर में समझ गया। मुझे वहाँ कहीं और जाने का कोई भी साधन मिल जाता या मुझे पता हो जाता तो मैं चल देता। एक तो वहाँ के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, दूसरे पैसे भी ज़्यादा नहीं थे। 

उनके यहाँ से रेलवे, बस स्टेशन क़रीब-क़रीब बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर थे। और अँधेरा होने के बाद अपने साधन, अपने रिस्क पर ही जाया जा सकता था। वह हज़ारीबाग का एक नक्सल प्रभावित एरिया है। तो मजबूरी में मुझे रात वहीं बितानी पड़ी। मजबूरी ही में बहन को मुझे रात भर के लिए शरण देनी पड़ी। 

चिंता उलझन के कारण मैं बहुत देर रात तक जागता रहा। सोचता रहा कि ज्योतिषाचार्य जी के ‘कालसर्प योग’ के गुल्ली-डंडा खेल ने क्या मुझे घर वालों के बीच अभिशप्त प्राणी के रूप में स्थापित कर दिया है। जिसकी छाया से भी सब दूर भाग रहे हैं। पूरी तरह छुटकारा पाना चाहते हैं। डरते हैं। ऐसे में क्या मुझे ख़ुद ही इन सब से दूर चला जाना चाहिए। त्याग देना चाहिए हमेशा के लिए। 

अगले दिन सवेरे नौ बजे तैयार होकर मैं बहन को प्रणाम कर चल दिया। हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता इतनी फ़ॉर्मेलिटी के साथ मिला कि मन में आया कि उसे हाथ ना लगाऊँ, प्रणाम कर चल दूँ। लेकिन मैं बहन को कोई कष्ट नहीं देना चाहता था। तो कहने भर को थोड़ा सा खा-पी कर चल दिया। अपनी पूर्वांचल की गँवई भाषा में मुँह जुठार कर चल दिया। 

बहन ने कहने के लिए भी यह नहीं कहा कि रुको, खाना बना दूँ, खा कर जाना। यह तक नहीं कहा दोनों लोगों ने कि इलाक़ा सुरक्षित नहीं है। थोड़ा और दिन चढ़े तब जाना। आश्चर्य तो यह कि अपने बच्चों को एक बार बुलाया तक नहीं कि मामा जा रहा है मिल लो। मैंने भी नाम नहीं लिया कि क्यों उन्हें धर्म-संकट में डालूँ। यही मामा जब एक बार पहले आया था तो ऐसी ख़ातिरदारी हुई थी कि घर वापस जाने का मन ही नहीं कर रहा था और आज . . .

मैं क़रीब तीन किलोमीटर तक पैदल चला तब जाकर मुझे स्टेशन तक जाने के लिए एक बस मिली। जितनी देर मैं पैदल चला उतनी देर मेरी अश्रुधारा भी चलती रही। बस यही सोच-सोच कर कि पापा-अम्मा मुझे इतनी जल्दी छोड़कर क्यों चले गए। किसके सहारे छोड़ गए। लेकिन मैं किसी हालत में यह नहीं चाहता था, कि मेरे आँसू किसी और की आँखों को दिखे, तो बस के आते ही मैं एकदम शांत पत्थर सा बन गया। बस में ही मैंने सोचा कि लगे हाथ रांची वाली बहन के यहाँ भी हो लें। देख लें कि उनके लिए भी मैं अभिशप्त व्यक्ति हूँ या कि वह मुझे अभी भी अपना वही प्रिय भाई मानती हैं। 

मगर वाह रे मेरा भाग्य कहें या अपने परिजन की मूढ़ता कि, ‘कालसर्प’ योग की प्रेत-छाया मुझ से पहले वहाँ पहुँच गई थी। उन्होंने भी अपने बच्चे को मेरे पास तक नहीं आने दिया। यहाँ पहले वाली बहन के यहाँ से ज़्यादा भय आतंक देख कर मैं मुश्किल से बीस मिनट रुका। चाय के लिए साफ़ मना कर दिया। मुझे लगा इससे ज़्यादा समय तक रुकना पड़ेगा। जैसे बेमन से पानी दिया गया था वैसे ही बेमन से एक बिस्कुट खा कर पानी पिया और ज़रूरी काम का बहाना बना कर चल दिया।  

किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि, भैया अभी तुम ऐसा कौन सा काम करते हो कि यहाँ रांची में ज़रूरी काम आ गया। भाई-बहन सब के व्यवहार से मन इतना टूट गया, इतना गुस्से से भर गया सब को लेकर, कि मैंने सोचा कि जब-सब के लिए मैं एक अभिशप्त व्यक्ति हूँ, मेरी छाया से भी घृणा है सबको, तो ठीक है, अभी से ही सारे रिश्ते-नाते ख़त्म। घर पर एकदम अलग रहूँगा। किसी से भी संबंध नहीं रखूँगा। फिर सोचा एक ही घर में रहकर यह संभव नहीं है। इससे भाई-भाभी सब हमेशा आतंकित रहेंगे। आश्चर्य नहीं कि इसके कारण कभी वह मुझे घर से ही निकाल दें। 

हालाँकि मकान तो पापा ने बनवाया है, लेकिन फिर भी क्या ठिकाना। भयभीत भैया कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी रास्ता निकाल सकते हैं। यह सोच कर मैंने सोचा बाबा के यहाँ गाँव चलता हूँ। पिताजी के हिस्से की कुछ प्रॉपर्टी तो अब भी है वहाँ। चाचा से कहूँगा कि मेरे रहने और किसी काम-धंधे की कोई व्यवस्था कर दें। लेकिन बाबा के यहाँ गोरखपुर तक जाने के लिए मेरे पास पूरे पैसे नहीं थे। 

सारी उलझनों, जोड़-घटाने के बाद यह सोचकर बिना टिकट ही एक ट्रेन की जनरल बोगी में भीड़ में धँस कर बैठ गया कि टीटी देख नहीं पाएगा। बचा रहूँगा। और देख लेगा तो जो होगा देखा जाएगा। ट्रेन में बैठने से पहले जो थोड़े बहुत पैसे थे उससे एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में खाना खा लिया। पिछले दो दिन से ठीक से खाना नहीं खाया था। भूख के मारे आँतें ऐंठ रही थीं। ख़ाली पेट पानी भी नहीं पिया जा रहा था। 

मगर सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े। पिताजी इसी के समानांतर ख़ुद कही एक कहावत बोलते थे कि, ‘सिलेंडर ख़त्म होते ही मेहमान पधारे।’ तो यही हुआ मेरे साथ। गोरखपुर से कुछ स्टेशन पहले ही मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गई। धर लिए गए। एक-आध दर्जन नहीं क़रीब चार दर्जन लोग धरे गए थे। जिसे मैं एक्सप्रेस ट्रेन समझ कर बैठा था वह पैसेंजर थी। बाद में पता चला कि इस पैसेंजर ट्रेन में अक़्सर ऐसी चेकिंग होती रहती है। मगर पता नहीं माता-पिता की या कि भगवान की कृपा रही कि जीआरपी वालों ने नाबालिग़ लड़कों को डाँट-डाँट कर भगा दिया। 

मेरा आधार कार्ड देख कर उसने कहा, ‘देखने में तो ज़्यादा लगते हो।’ मैंने उनसे झूठ बोला कि आते समय रास्ते में कुछ लोगों ने मेरे पैसे छीन लिए। उसने सिर पर एक टीप मारते हुए कहा, ‘चल भाग यहाँ से। दोबारा ऐसी हरकत ना करना।’ उस छोटे से स्टेशन से बाहर निकला तो वह लड़का भी मिल गया जो मेरे साथ पकड़ा गया था। उसने टिकट इसलिए नहीं लिया था क्योंकि उसके पैसे सच में गिर गये थे। 

वह लखनऊ के एक व्यवसायी का बेटा था। अपने रिश्तेदार के यहाँ से लौट रहा था। एक स्टेशन पहले ही बैठा था कि बस ‘सिलेंडर ख़त्म होते ही मेहमान आ पधारे।’ लेकिन वह बहुत प्रैक्टिकल और दबंग क़िस्म का था। मिनटों में उसने मुझसे बातचीत कर सब कुछ जान लिया और मुझे मुफ़्त में बड़ा ज्ञान दिया। कहा कि, ‘जब तुम्हारे भाई-बहनों ने तुम्हें त्याग दिया है तो चाचा कहाँ रहने देंगे। वह तो पहचानेंगे भी नहीं।’ उसने एकदम सही समय पर एकदम सही बात कही थी। 

यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया कि अब क्या करूँ। वापस भाई के पास जाना पड़ेगा। लेकिन उसने बहुत समझाया। अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी। अपने साथ चलने की सलाह दी। अपने इस हम-उम्र मार्गदर्शक की सलाह पर मैं उसके साथ लखनऊ चल दिया। एक बार फिर से बिना टिकट ही। लेकिन इस बार मैं सुरक्षित मार्ग-दर्शक के घर पहुँच गया। 

मार्ग-दर्शक दक्षेस के माँ-बाप, भाई-बहन सब ने दक्षेस का दोस्त समझकर मेरा स्वागत किया। खिलाया-पिलाया भी। अगले दिन मैंने उससे कहा, ‘यार ऐसे कितने दिन चलेगा। तुम्हारे घर में सही बात पता चलने पर इसके पहले कि कोई नाराज़ होने लगे। मेरे लिए कुछ काम बताओ। मैं कॉन्वेंट एजुकेटेड हूँ। इंटर का एग्ज़ाम अचानक आई मुसीबतों के कारण नहीं दे पाया। ट्यूशन वग़ैरह ही कहीं दिलाओ।’ 

उसने कहा, ‘एक-दो दिन रुको। मैं फ़ादर से बात करके कुछ करता हूँ। ट्यूशन वग़ैरह में कुछ नहीं रखा है। वैसे भी उनसे कोई बात छिपाकर मैं आगे नहीं बढ़ता। वह तुम्हारे लिए ज़रूर कुछ करेंगे।’ लेकिन जब उसने बात की तो जो हुआ उसे यही कहेंगे कि जो हुआ बस ठीक ही हुआ। उसके फ़ादर ने साफ़-साफ़ बताया कि, ‘मैं कठिन स्थितियों से घिरा हुआ हूँ। नहीं तो पूरा ख़्याल रखता। पढ़ाई भी पूरी करवाता। मगर फिर भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे बेसहारा नहीं छोड़ूँगा। हाँ किसी काम को छोटा नहीं समझना, मन लगाकर करने को तैयार रहना।’ 

मेरी बातों को उन्होंने भरोसे लायक़ समझा और अपने एक बहुत ही पुराने कस्टमर सुनील मसीह से बात की। जो उनसे काफ़ी समय से एक भरोसेमंद आदमी देने के लिए कह रहे थे। लेकिन जब मिला तो उनको ऑटो रिक्शा चलाने के लिए एक ड्राइवर चाहिए था। मैं इसके लिए भी तैयार हो गया। लेकिन अंडरएज, ड्राइविंग लाइसेंस का ना होना बड़ी बाधा बना। तो दक्षेस के पिता ने उनसे कहा, ‘यह बताता है कि इसे ड्राइविंग बहुत अच्छी आती है। टेस्ट ले लो, अगर ठीक हो तो चलवाओ। इसके 'आधार कार्ड '  के हिसाब से ग्यारह महीने की ही बात है।’ 

सुनील मसीह बहुत ही ज़्यादा कहने-सुनने समझाने के बाद तब माने जब दक्षेस के पिता ने पूरी ज़िम्मेदारी ले ली। इसके बावजूद उन्होंने घंटे भर एक बेहद बिज़ी रोड पर ड्राइव करवाया। ख़ुद पीछे बैठे रहे। मेरी ड्राइविंग से वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए, बड़े संकोच हिचक के साथ अगले दिन से ड्राइव करने के लिए ऑटो सौंपा। रोज़ बारह घंटे चला कर मुझे उन्हें पाँच सौ रुपये कोटा देना था। बाक़ी कमाई मेरी थी। मगर पहले ही दिन घाटा हुआ। मैंने दक्षेस से दो सौ रुपये उधार लेकर कोटा पूरा किया। मगर धीरे-धीरे गाड़ी लाइन पर आ गई। 

सुनील जिन्हें मैं अंकल कहता था, जल्दी ही मुझ पर पूरा भरोसा करने लगे। अपने परिवार को भी कहीं जाने-आने के लिए मेरे साथ ही भेजने लगे। चार महीने बीतते-बीतते अपने ही घर में एक कमरा किराए पर दे दिया। उनका उद्देश्य था कि वह मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा काम ले सकें। वह सफल भी हुए। असल में दक्षेस के यहाँ से मुझे इसलिए भी हटना था क्योंकि उनका परिवार बड़ा था। इसलिए उनका बड़ा मकान होते हुए भी छोटा पड़ता था। मैं सुनील अंकल का ऑटो ड्राइवर से लेकर घरेलू नौकर, सहायक सब बन गया। सामान वग़ैरह भी लाने लगा। मैं खाना बनाने में अपना समय ना बर्बाद करूँ इसलिए मेरा खाना भी वह अपने यहाँ बनवाने लगे। 

उनके परिवार में मैं इस तरह मिक्स हो गया कि बताने पर ही कोई यह समझ सकता था कि मैं परिवार का सदस्य नहीं हूँ। नौकर हूँ। सुनील अंकल मुझसे ख़ुश रहते और दिन में चौदह-पन्द्रह घंटे शराब पीकर मस्त रहते। पूरा मसीह हाउस मेरे भरोसे छोड़ कर वह पूरी तरह निश्चिंत हो गए। इस मसीह हाउस ने मुझे जीवन जीने, आगे बढ़ने का आधार दिया। साथ ही मुझे वह बनने के लिए भी उद्वेलित किया जो मैं आज हूँ। मुझे जीने हेतु जो आधार दिया उस आधार ऑटो को त्यागने के लिए भी उद्वेलित किया। 

इसके लिए ज़िम्मेदार उनके यहाँ हर डेढ़-दो महीने के अंतराल पर आने वाला एक मेहमान था। वह जब आता तो घर में कई और ऐसे लोगों का आना-जाना बढ़ जाता जो किसी चर्च, किसी कॉन्वेंट के लगते। मेरी शिक्षा मिशनरी के कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी तो मुझे यह सब जल्दी समझ में आ जाता है। जब वह आता तो मेरा काम दुगना बढ़ जाता और उस दिन की कमाई शून्य हो जाती थी। 

पूरे शहर में उसी को लेकर जाना पड़ता। अंकल तब कोटा भी नहीं लेते थे। वह ज़्यादातर लखनऊ के कई प्रमुख चर्चों में जाता था। वह जब भी मिलते तो मुझे ईसाई धर्म की महानता के बारे में ख़ूब बताते। उनके अनुसार पृथ्वी पर वही एक धर्म है जिसके रास्ते पर चलकर जीवन की सारी ख़ुशियाँ पाई जा सकती हैं। सिर्फ़ उनके प्रभु यीशु की शरण में जाकर ही महान दयालु गॉड की कृपा मिलती है। वह इतना दयालु है कि उसकी शरण में जाते ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जीवन में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ बरसती हैं। 

जब उनको लगा कि मैं उनकी बातों में रुचि लेने लगा हूँ तो मुझे बड़े गिफ़्ट और पैसे भी देने लगे। एक बार वह केवल दो दिन के लिए आए। साथ में एक अँग्रेज़ दंपती भी आया, जो ब्रिटेन से था। बेहद मृदुभाषी और सरल स्वभाव का वह युवा दंपति मुझसे चार साल ही बड़ा था। अब तक मैंने भी शादी कर ली थी। अब अंकल सुनील मसीह मेरे ससुर बन चुके थे। 

दरअसल उनके यहाँ पहुँचने के लगभग डेढ़ साल बाद मुझे एहसास हुआ कि उनकी बेटी आहना मेरे क़रीब आती जा रही है। थोड़ा सा ध्यान दिया इस तरफ़ तो पाया कि अंकल-आंटी दोनों ही बेटी मेरे साथ ज़्यादा समय तक रहे इसके लिए अवसर उपलब्ध कराने के प्रयास में लगे रहते हैं। जब-तक गहराई से समझूँ तब-तक बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी, कि एक दिन अंकल ने मुझे एवं कुछ और लोगों को बुलाकर चर्च में आहना के साथ मेरी शादी करवा दी। यह दंपती जब आया था तब मेरी शादी को कुछ ही महीने हुए थे। संयोग से उस दंपति की शादी भी इतने ही समय पहले हुई थी। 

अब मैं परिवार के सम्मानित सदस्य के तौर पर सब से मिल रहा था। बेहद हँसमुख मिलनसार मिलर दंपती हमारे साथ पहले दिन से ही बहुत घुल-मिल गए थे। आने के अगले दिन मिलर दंपती को घुमाने की ज़िम्मेदारी मेरी थी। और बार-बार आने वाले मिस्टर कॉर्टर अकेले ही किसी ज़रूरी काम से जा रहा हूँ बोलकर निकल गए थे किसी चर्च को। और ससुर जी बोतल लेकर पड़े रहे घर पर। 

मैंने पहले दिन मिलर दंपती को लखनऊ में बने नए दर्शनीय स्थलों पर घुमाया। बजाए पुराने खंडहरों में घुमाने के उन्हें लोहिया पार्क, स्वर्ण जयंती पार्क, अंबेडकर उद्यान, जनेश्वर मिश्र पार्क ले गया। अपने शहर का प्राचीन इतिहास बताया। अँग्रेज़ों, वामियों द्वारा रचित भ्रामक बातें नहीं। यह नवाबों का शहर रहा है यह भ्रामक बात मैंने नहीं बताई। मैंने साफ़-साफ़ सच कहा कि त्रेता युग में भगवान राम हुए थे। दस हज़ार साल पहले जब वह इस धरती पर अवतरित हुए तब भी यह शहर था। 

भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यह शहर भेंट कर दिया था। तब से यह लक्ष्मणपुर, लखनपुर, लाखनपुर नाम से जाना जाता था। कालांतर में लखनऊ हो गया। लेकिन इन सबके पहले इसका क्या नाम था यह मैं नहीं जानता। वह किसी भ्रम में ना रहे इसलिए मैंने उन्हें यह भी साफ़-साफ़ बता दिया कि दुनिया में इस सबसे ज़्यादा प्राचीन देश भारत की संस्कृति उसके गौरव को नष्ट करने के लिए ग़ुलामी के समय में इसके इतिहास को भी कुटिलतापूर्वक बदलने का प्रयास किया गया कि इससे पहले इसका कोई इतिहास ही नहीं था। 

यहाँ नवाबों का शासन सत्तरह सौ पचहत्तर से अट्ठारह सौ पचास तक ही रहा, उसके बाद उन्नीस सौ सैंतालीस तक ब्रिटिश शासन रहा और प्रचारित यह किया गया कि लखनऊ नवाबों का शहर है। लक्ष्मणपुर या लक्ष्मण की चर्चा तक नहीं होने दी जाती। मिलर दंपती को मैं लक्ष्मण टीला भी ले गया। जहाँ दिखाया कि कैसे ग़ुलामी के समय इसके स्वरूप को बदल दिया गया। दंपती यह जानकर बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि यह प्राचीन शहर ईसा से भी हज़ारों वर्ष पहले बस गया था। 

राम एक ऐसे राजा थे जो हज़ारों किलोमीटर दूर लंका तक विजय पताका फहरा आए थे। समुद्र पर लंबा पुल बनवाया था। जिसके अवशेष समुद्र में आज भी हैं। इसकी पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी कर चुका है। अत्याधुनिक तकनीकों के बावजूद समुद्र की प्रलयंकारी लहरों के कारण उस पर पुल बनाना करिश्में से कम आज भी नहीं माना जाता। 

मेरी पत्नी बार-बार रेजीडेंसी चलने को कह रही थी। लेकिन मैं बार-बार नज़रअंदाज़ करता रहा। जब देर शाम को हम घूम-घाम कर लौटे तो मिलर दंपती बहुत थके हुए लग रहे थे। आहना उनसे भी ज़्यादा। तमाम चर्चों, कॉन्वेंटों में चक्कर लगाकर मिस्टर कॉर्टर देर रात लौटे। उन्हें मैं चर्च-मैन कहता था। आगे आप उन्हें इसी नाम से जानेंगे।

खाने के दौरान ख़ूब बातें हुईं। जो पूरी तरह मिलर दंपती के घूमने-फिरने पर केंद्रित रहीं। यह सारी बातें वही कर रहे थे। वह दोनों पति-पत्नी बार-बार मेरी जानकारियों की तारीफ़ करना नहीं भूल रहे थे। उनकी तारीफ़ पर मुझे बार-बार पिताजी याद आते, जिनसे मैंने यह सब जाना-समझा था। मैंने एक बात मार्क की कि मेरी और मिस्टर मिलर की बातें चर्च-मैन और मेरी पत्नी आहना और सास को अच्छी नहीं लग रही थीं। ससुर जी के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। क्योंकि तब वह इन सब बातों से बहुत ऊपर उठे हुए व्यक्ति हुआ करते थे। उस समय वह कभी इतने होशो-हवास में होते ही नहीं थे कि यह क्या, ऐसी कोई भी बात उनकी समझ में आती, उसको वह कुछ समझ पाते। 

खाने के दौरान ही अगले दिन घूमने का प्रोग्राम तय हुआ। अगुआई चर्च-मैन करेंगे यह उसने स्वयं ही घोषित कर दिया। जब उसने यह कहा तभी मैंने सोचा जब यह जाएगा तो मैं नहीं जाऊँगा। एकमात्र वज़ह यह थी कि हम दोनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे। यह हम दोनों अच्छी तरह समझते थे। लेकिन अन्य किसी पर या ज़ाहिर नहीं होने देते थे। सबके सामने ख़ुशमिज़ाज मित्रों की तरह ही पेश आते थे। मुझे दो कारणों से वह पसंद नहीं था, पहला कि वो हिंदुस्तानियों को घृणा की दृष्टि से देखता था। दूसरा वह हद दर्जे का कनिंग आदमी था। 

वह मुझसे क्यों चिढ़ता था यह मैं नहीं जानता। अनुमान लगा सकता हूँ कि मैं प्राचीन भारतीय संस्कृति, इतिहास की सराहना करता था तो वह सुन नहीं पाता था। प्रत्युत्तर में अंग्रेज़ी संस्कृति, अंग्रेज़ी साम्राज्य की तारीफ़ों के पुल बाँध कर कहता, ‘अँग्रेज़ों ने दुनिया के इतने बड़े भू-भाग पर राज किया है कि उसके राज्य में सूर्यास्त ही नहीं होता था।’ अपने को ऊँचा रखने के लिए हम दोनों में एक मूक प्रतिस्पर्धा चलती थी जो शायद ही बाक़ी समझ पाते थे। 

अगले दिन मैंने सीधे मना करना उचित नहीं समझा, कि यह अशिष्टता होगी, आतिथ्य भाव का उल्लंघन होगा। मैंने ससुर जी को आगे करने की सोचकर उनसे कहा, 'ऑटो ना चलाने से नुक़सान हो रहा है। बाक़ी लोग तो जा ही रहे हैं। मुझे ऑटो लेकर निकलने दीजिए।' लेकिन बात उलटी पड़ गई, वह बोले, ‘यह करने से मेहमान नाराज़ हो सकते हैं, दूसरे टैक्सी करने से ख़र्चा ज़्यादा आएगा।’ अन्ततः मुझे ही जाना पड़ा। एक पिद्दी से ऑटो में पाँच लोग बैठे। मैंने अपना ग़ुस्सा निकाला चर्च-मैन को आगे बैठा कर। जहाँ सिर्फ़ ड्राइवर की सीट होती है, दूसरा कोई बस किसी तरह बैठ सकता है। पहले आहना के चलने का प्रोग्राम नहीं था। लेकिन मिलर दंपती की ज़िद के चलते उसे चलना पड़ा। जिससे बैठने की जगह की समस्या पैदा हुई। 

घूमने के लिए कहाँ चलना है इसको लेकर मैंने कोई पहल नहीं की। मैंने सब चर्च-मैन पर ही छोड़ दिया, कि जहाँ कहेगा वहाँ चल दूँगा। मेरा यह अघोषित असहयोग चर्च-मैन ने भाँप लिया। मैं जहाँ शहर के नए दर्शनीय स्थलों पर ले गया था वहीं उसने सीधे रेज़ीडेंसी चलने को कहा। 

रात खाने पर बातचीत के दौरान ही उसने इसका ज़िक्र किया था मिलर से। बोला था कि, ‘यहाँ जाना चाहिए था। यह ग्रेट ब्रिटिश एंपायर के लोगों के साथ हुए बर्बरतापूर्ण अत्याचार, उनके सामूहिक नरसंहार का स्थान है। जो यह बताता है कि यहाँ हमारे पूर्वजों को किस तरह घेर कर हिंदुस्तानियों ने क़त्ल किया था। हमें वहाँ चलकर अपने दो हज़ार पूर्वजों की कब्रों पर फूल चढ़ाकर प्रभु यीशु से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन सभी को स्वर्ग में स्थान प्रदान करें। जो "सिज ऑफ लखनऊ" (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के समय अँग्रेज़ रेज़ीडेंसी में छियासी दिन छिपे रहे। यह लंबी लड़ाई इतिहास में "सिज ऑफ़ लखनऊ" के नाम से जानी जाती है। जिसमें दो हज़ार अँग्रेज़ स्वतंत्रता सेनानियों के हाथों  युद्ध में मारे गए थे) के समय शहीद हो गए थे।’ मिलर दंपती आश्चर्य में पड़ गए कि डेढ़ सौ वर्ष से भी पहले उनके देश के लोग अपने एंपायर को बचाने के लिए यहाँ भी लड़े थे। 

चर्च-मैन के कहने और मिलर दंपती की अतिशय उत्सुकता के कारण मैं सब को लेकर रेज़ीडेंसी पहुँचा। वहाँ पहुँचने से पहले चर्च-मैन ने काफ़ी सारे फूल ले लिए थे। वह वहाँ बहुत बार जा चुका था। इसलिए उसे किसी गाइड की ज़रूरत नहीं थी। उसके पास वहाँ के चप्पे-चप्पे की सारी जानकारी थी। उसने एक-एक हिस्से को दिखाया। उनकी डिटेल्स बताईं। अठारह सौ सत्तावन के युद्ध का ऐसा वर्णन किया कि जैसे आँखों देखा वर्णन कर रहा हो। तैंतीस एकड़ में फैली रेज़ीडेंसी के अवशेषों पर गोलियों और तोपों के गोलों के अनगिनत निशानों को दिखाया। लॉन, फूलों की क्यारियों को मिलर दंपती मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे। 

चर्च-मैन सबसे आख़िर में वहाँ बने चर्च के अवशेषों के पास लेकर गया। उससे लगे बड़े से कब्रिस्तान की ओर देख कर भावुक हो गया। कहा, ‘तुम लोग यह क़ब्रें देख रहे हो। इन्हें जल्दी गिन नहीं पाओगे। यह क़रीब दो हज़ार हैं। इनमें हमारे पूर्वज आज भी सो रहे हैं। ये हमारे वो जांबाज़ शहीद हैं जो दुश्मनों से छियासी दिनों तक बहादुरी से लड़ते रहे। शहीद होते रहे। रसद, हथियारों की आमद ना होने के कारण वो हारे नहीं, हार मानने को तैयार नहीं हुए। शहीद होना स्वीकार किया। इनमें सैकड़ों बच्चे, महिलाएँ हैं। आओ, मैं तुम्हें उस महान सेनानायक से मिलवाता हूँ जो दुनिया के महान योद्धाओं में से एक था।’ 

हम सब उसके पीछे-पीछे चलते रहे। मैं अनमना सा उसके साथ लगा रहा। मगर उसकी बातों से मुझ में भी उत्सुकता बनी हुई थी। इतनी बड़ी संख्या में क़ब्रों को देखकर मुझे अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर गर्व हो रहा था, कि जिनके साम्राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था उन्हें हमारे जांबाज़ों ने धूल चटाई थी। लेकिन दूर तक क़ब्रों को देखकर यह बात भी मन में आई कि यह सब अपने देश, अपनी मातृ-भूमि से हज़ारों किलोमीटर दूर यहाँ बेगाने देश में ना सो रहे होते, यदि इन्होंने दूसरे देशों को हड़पने का दुस्साहस ना किया होता। मेरे देशवासियों पर बर्बर अत्याचार ना किया होता। स्वतंत्रता सेनानियों ने वही किया जो उनका धर्म था। वह तो धर्म पथ पर थे। अधर्म पथ पर चलने वाले इन क़ब्रों में सो रहे हैं। क्या इन लोगों को परिणाम मालूम नहीं था। स्वतंत्रता सेनानियों में इन लोगों के  प्रति इतना गुस्सा था कि यदि ये आत्मसमर्पण कर देते तो भी जीवित न बचते । इनके अत्याचारों के कारण इनकी मृत्यु सुनिश्चित  थी ।

चर्च-मैन तमाम क़ब्रों को पार करता हुआ एक क़ब्र के पास जाकर ठहर गया। ध्यान से उसे देखता रहा। फिर जेब से रूमाल निकालकर क़ब्र पर पड़ी पत्तियों, धूल को साफ़ करके सिरहाने लगी नेम प्लेट को साफ़ किया। और सीधा खड़ा होकर सैल्यूट किया। फिर मिलर दंपती की तरफ़ मुख़ातिब हुए बिना नेम प्लेट की तरफ़ उँगली से इशारा करते हुए कहा, ‘तुम यह सब देख पा रहे हो ना। यह हैं ग्रेटेस्ट वॉरियर सर लॉरेंस। जो यहाँ शहीद हो गए। बहुत लड़ा उन्होंने। दुनिया भर में दुश्मनों को धूल चटाई और अब यहाँ सो रहे हैं। देखो यहाँ क्या लिखा है।’ 

चर्च-मैन के कहने पर मिस्टर मिलर ने सस्वर पढ़ा "यहाँ पर सत्ता का वो पुत्र दफ़न है जिसने अपनी ड्यूटी के लिए अपनी जान क़ुर्बान कर दी थी।" ‘तो मिस्टर मिलर ऐसे महान व्यक्ति थे सर लॉरेंस। इन लोगों के कारण हमारे राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था। लेकिन शायद आगे चल कर हम थोड़े ढीले पड़ गए। और महान लॉरेंस को यहाँ सोना पड़ा। एक मिनट मैं यहाँ लिखी लाइन के लिए कहूँगा "दफ़न है" की जगह लिखना चाहिए "सो रहा है"। ख़ैर मिस्टर मिलर हमें हार नहीं माननी चाहिए। 

एक वह समय था जब पूरा हिंदुस्तान हमारे इशारे पर चलता था। हम यहाँ के भाग्यविधाता थे। लेकिन समय ने हमारा साथ छोड़ा और हमें इसे आज़ाद करना पड़ा। लेकिन मैं मानता हूँ कि एक दिन यह फिर हमारा होगा। हम ही यहाँ के वास्तविक शासक होंगे। हो सकता है तुम हँसो मुझ पर। मुझे सिरफिरा समझो। संभव है तुम मन में हँस भी रहे हो। ऐसा है तो भी मुझे परवाह नहीं। क्योंकि मुझे आशा ही नहीं दृढ़ विश्वास है कि एक दिन ऐसा ही होगा। 

जब हमने सदियों पहले इस देश की धरती पर क़दम रखा था, तो हम एक मर्चेंट ही तो थे। तब किसने सोचा था कि हम दस-बीस साल नहीं दो सौ साल तक यहाँ शासन करेंगे। और एक बात बताऊँ कि हमने इस देश को आज़ाद नहीं किया है। हमने एक बिल के ज़रिए सिर्फ़ सत्ता हस्तांतरित की है। जैसे बिल के ज़रिए हस्तांतरित की है वैसे ही एक बिल के ज़रिए सत्ता हस्तांतरण निरस्त भी कर देंगे। हमारा हिंदुस्तान फिर से हमारे हाथ में होगा।’ 

चर्च-मैन की बातें सुनकर मिलर दंपती और मैं उसे आश्चर्य से देखते रह गए। आहना भी। कि यह क्या बात कर रहे हैं। वह हमारी भावना को समझ रहा था। तभी मिसेज मिलर ने कहा, ‘लेकिन अब ऐसे किसी बिल के पास करने का मतलब ही क्या? इंडिया संयुक्त राष्ट्र में है। पूरी दुनिया ने इसे संप्रभुता संपन्न देश का दर्जा दे रखा है। यह परमाणु शक्ति संपन्न देश है। हम ऐसा बिल पास करने की बात छोड़िए ला भी नहीं पाएँगे।’ 

मिसेज मिलर की बात पर चर्च-मैन ठठाकर हँसा, फिर बोला, ‘तुम लोग समझने की कोशिश करो। बहुत मामूली सी बात है, कि जिस प्रकार सत्ता हस्तांतरण पर मान्यता मिली, उसी प्रकार हस्तांतरित सत्ता को समाप्त करने पर मान्यता भी समाप्त हो जाएगी। ख़ैर इस पर हम बैठ कर बड़ी बहस करेंगे, अभी तो आओ, इधर आओ इस तरफ़ यहाँ देखो। इस क़ब्र पर क्या लिखा है।’ 

मिस्टर मिलर ने फिर पढ़ना शुरू किया, "रो मत मेरे बेटे मैं मरा नहीं हूँ, मैं यहाँ सो रहा हूँ।" चर्च-मैन लाइन पूरी होते ही बड़ी भावुकता से बोले, ‘सोचो, कल्पना करो कि कितना कष्ट पाया है यहाँ हमारे पूर्वजों ने। एक बेटे पर क्या बीती होगी जब उसने अपने हाथों से अपने पिता को यहाँ दफ़नाया होगा। अपने उस पिता को जिसकी गोद में वह बड़ा हुआ। जिसकी उँगली पकड़ कर वह पहली बार खड़ा हुआ, चलना सीखा। सोचो इस पिता की आत्मा को कितना कष्ट हुआ होगा। जब उसने अपने बेटे को भी शहीद होते और फिर यहाँ एक क़ब्र में चिर-निद्रा में सोते देखा होगा।’ 

चर्च-मैन बहुत भावुक, उत्तेजित हो रहा था। मिलर दंपती तटस्थ लग रहे थे। मिस्टर मिलर ने कहा, "हमें इतने बड़े ब्रिटिश एंपायर को खड़ा करने के लिए बड़ी क़ीमत तो चुकानी ही थी। जो हमने चुकाई। यह सच्चाई भी हमें माननी चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने भी यहाँ बड़ी संख्या में लोगों को ख़त्म किया था। इसीलिए यहाँ के लोगों में इतनी घृणा थी हमारे लिए कि उन्होंने बच्चों और महिलाओं को भी बचने का रास्ता नहीं दिया। 

अभी जलियाँवाला बाग़ कांड पर बड़ी चर्चा मीडिया में भी हुई थी। अपने जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग़ में निकलने के एक मात्र रास्ते पर ही खड़े होकर, गोलियों की बौछार करवा कर हज़ारों निर्दोष निहत्थे लोगों की हत्या करवा दी थी। उनके प्रति इसी से यहाँ के लोगों में इतनी ग़ुस्सा था कि ब्रिटेन में जाकर यहाँ के क्रांतिकारी उधम सिंह ने उन्हें मारने का प्रयास किया। लेकिन मिलते-जुलते नामों के कारण उधम सिंह धोखा खा गए और इस कांड के मास्टर माइंड तत्कालीन पंजाब के गवर्नर जनरल माइकल ओ‘ ड्वॉयर को मार दिया। हमारे देश ने इतने वर्षों बाद ग़लती का अहसास किया है। इसीलिए पीएम ने जलियाँवाला बाग कांड के लिए अफ़सोस जताया। मैं समझता हूँ कि अपने देश को दो क़दम और आगे बढ़कर समग्र के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए थी।" 

मिस्टर मिलर की बातें चर्च-मैन को बहुत बुरी लगीं। उसने दबे स्वर में अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहा, ‘हमें अपने पूर्वजों के महान बलिदान का हृदय से सम्मान करना चाहिए। हम आज भी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं तो अपने इन्हीं महापुरुषों के बलिदानों के ही कारण। यहाँ हिंदुस्तान में उन्होंने जो कुछ किया, इस देश के लिए किया, यहाँ के लोगों की भलाई के लिए ही किया। यह सब लड़ते रहने वाले लोग थे। हमने इन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया था। बस इतनी सी बात है। 

यह भी कहता हूँ कि हमने सत्ता का हस्तांतरण ज़रूर किया लेकिन इन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास कभी भी बंद नहीं किया है। यह हर क्षण आज भी चल रहा है। और यह भी बता दूँ कि हम ही हैं जो इन्हें सही रास्ते पर ला सकते हैं। बिल लाकर इन्हें फिर से अपने झंडे तले लाने का प्रयास भले ही ना हो। इन्हें इस तरह अपने अधीन लाना उतना स्थायी ना हो। लेकिन एक दूसरे रास्ते से इन्हें अपने झंडे तले लाने के लिए हम निरंतर मज़बूती से आगे बढ़ रहे हैं। इस रास्ते से सफलता शत-प्रतिशत मिलनी है। और सदैव के लिए मिलनी है।‘ 

चर्च-मैन की बातों से इस बार मैं ख़ुद को तटस्थ नहीं रख सका। मिलर दंपती कुछ बोलें उसके पहले ही मैंने पूछ लिया कि उनका यह दूसरा रास्ता कौन सा है? इस पर चर्च-मैन ने मेरे कंधे को हल्के से थपथपाते हुए कहा, ‘बताता हूँ माय सन। देखो आज ज़माना बदल गया है। प्रत्यक्ष युद्ध के मैदान में किसी राष्ट्र को अपने झंडे तले नहीं ला सकते। आज राष्ट्र जीते नहीं जाते। क्योंकि जीत कभी भी स्थायी नहीं होती। आज राष्ट्रांतरण होता है। वह सदैव के लिए होता है। स्थायी होता है। 

किसी देश की जनता के साथ ही उस देश का अस्तित्व है। यदि उस देश की जनता ही अपनी संस्कृति, अपना धर्म त्याग कर दूसरे देश की संस्कृति, धर्म को मानने लगे, उसकी आस्था परिवर्तित हो जाए, तो यह बदलाव जनता द्वारा एक राष्ट्रांतरण है, उस दूसरे देश को जिसके धर्म, संस्कृति को उन्होंने अपनाया। इस तरह वो पहले जिस देश को, उसकी धर्म-संस्कृति को अपना मानते थे, उसका कोई नाम लेने वाला ही नहीं बचता। वह इतिहास के पन्नों में सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। यही तो हो रहा है दुनिया में। बहुत से देशों का राष्ट्रांतरण हो चुका है। वह प्रभु यीशु के होकर हमारे संगी साथी हैं। हमारी भुजाएँ हैं।’ 

चर्च-मैन को लगा कि मैं उनकी बात समझ नहीं पाया तो वह फिर बोले, ‘देखो मैं राष्ट्रांतरण के तुम्हें कुछ परफ़ेक्ट उदाहरण देता हूँ। पहला हिन्दुस्तान का ही लो। भारत के हिस्से को काट कर पाकिस्तान इसीलिए बनवाया जा सका क्योंकि उस क्षेत्र के हिंदुओं ने मुस्लिमों के प्रचार में आकर अपनी हज़ारों वर्ष पुरानी संस्कृति, धर्म बदल लिए। इस्लाम मानने लगे और पाकिस्तान बना लिया। तुम मेरी बात को और क्लीयर समझ सको इसलिए तुम्हें पर्शिया यानी ईरान का भी उदाहरण बताता हूँ। 

इतिहास बताता है कि ईरानी यानी आर्यों की पार्थियन, सोगदी, मिदी आदि शाखाएँ क़रीब दो हज़ार वर्ष पूर्व उत्तर एवं पूरब से वहाँ पहुँचीं। यहाँ के मूल लोगों के साथ एक नई संस्कृति बनी। कालांतर में परिवर्तन होते रहे। फिर यहाँ के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। यह शिया बहुल हो गया। और 1979 में इस्लामिक गणराज्य बन गया। पुराना सब समाप्त हो गया। अभी ज़्यादा वर्ष नहीं हुए उक्रेन का रूसी भाषा बाहुल्य क्षेत्र रूस में मिल गया। ऐसे ही जिन-जिन क्षेत्रों में, प्रदेशों में हमने लोगों को प्रभु यीशु के साथ जोड़ लिया है, वह क्षेत्र हमारी भुजाएँ बन गए हैं। हमारी यह भुजाएँ तेज़ी से बड़ी हो रही हैं। मज़बूत हो रही हैं। 

राष्ट्रांतरण का प्रभाव क्या होता है, इसका अनुमान इसी से लगा सकते हो कि यहाँ पूर्वोत्तर के जिन राज्यों का अंतरण हम करवा चुके हैं, उसे तुम राज्यांतरण कह सकते हो। वहाँ संविधान भी हमें बहुत सी छूट देने के लिए विवश है। एक तरफ़ यहाँ का संविधान गो-वध निषेध करता है, तो दूसरी तरफ़ अंतरण हो चुके क्षेत्रों में स्थानीय जनता के दबाव में छूट भी दी है।’ यह कहते हुए चर्च-मैन ठहाका लगाकर हँसा। इतना तेज़ की आस-पास के बहुत से पर्यटक मुड़-मुड़ कर उसे देखने लगे। 

मिलर दंपती और आहना भी उसके साथ हँसे जा रहे थे। मगर उसकी बातों का मर्म समझ कर मैं आश्चर्य में था, कि इतना बड़ा छल-कपट। धर्मांतरण के सहारे हिंदुस्तान को सिर्फ़ ग़ुलाम ही बनाने का प्रयास नहीं किया जा रहा है, बल्कि यहाँ तो उससे भी हज़ारों गुना ज़्यादा बढ़कर भयावह स्थिति है। यहाँ तो देश का अस्तित्व ही समाप्त किया जा रहा है। पूर्वोत्तर के तमाम क्षेत्रों में जिस तरह धर्मांतरण हो रहा है, जितना हो चुका है, उस हिसाब से तो इन नव-आक्रांताओं के पैर मज़बूती से जम चुके हैं। और हम देशवासी मस्त हैं। ख़ुद में खोए हुए हैं। बेखबर सोए हुए हैं। 

मुझे ही किस तरह शादी के समय अचानक ही ईसाई बना दिया गया। मैं इस बात की गंभीरता को समझ ही नहीं सका। खोया रहा, शादी की ख़ुशी में। उससे ज़्यादा कि अंकल का अहसान है। जबकि सही तो यह है कि हमने जी-तोड़ मेहनत करके उनका ऑटो ही नहीं, पूरा घर सँभाला हुआ है। अहसानमंद तो इन्हें मेरा होना चाहिए। मैं तो निरर्थक अहसानमंद हो ठगा गया। 

राष्ट्रांतरण की रफ़्तार और देशवासियों की मस्ती का आलम जो यही रहा तो तीन अधिकतम चार दशक में कंप्लीट राष्ट्रांतरण हो जाएगा। दुनिया की प्राचीनतम सनातन संस्कृति, सभ्यता वाले राष्ट्र का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। नामोनिशान ना रहेगा पर्शिया या फारस की तरह। यह सही ही तो कह रहा है कि इस देश का आज़ादी के वक़्त जो विभाजन हुआ वह राष्ट्रांतरण का ही तो परिणाम था। जहाँ अब सनातन संस्कृति, देश के अवशेष मात्र ही रह गए हैं। तो क्या काल के गाल में पृथ्वी की पहली सभ्यता-संस्कृति लुप्त हो जाएगी? अफ़गानिस्तान जहाँ पहले सनातन संस्कृति थी, आज वहाँ माइक्रोस्कोप लेकर ढूँढ़ने पर भी शायद ही उसके कोई अवशेष मिल पाएँ। तो... 

मेरे दिमाग में यह मंथन चलता रहा। और चर्च-मैन अपनी बातें कहता रहा। शाम होने तक वह वहीं बना रहा। फिर निकला और एक चर्च में ले गया। उसकी बातों में जोश, उत्साह, ख़ुशी सब समाई हुई थी। वह ख़ुश था कि वह संपूर्ण राष्ट्रांतरण के और क़रीब पहुँच गया है। जो ब्रिटिश एंपायर यहाँ डूबने के बाद पूरी दुनिया में डूब गया था, वह फिर यहीं अपनी नींव डाल चुका है। 

मैं बड़ी अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रहा था, कि इसकी बातों को कितनी गंभीरता से लूँ। यह जो कह रहा है क्या यह संभव है? मन में जितने प्रश्न उठ रहे थे, उनके जो उत्तर मुझे मिल पा रहे थे उनका एक ही निष्कर्ष था, कि इसकी बातें, इसके तर्क, तथ्य निराधार नहीं हैं। यह सही तो कह रहा है कि अँग्रेज़ व्यापारी बनकर आया तो दो सौ साल शासन किया। देश के टुकड़े करके गया और अब इस तरह आया तो . . .

घर लौटे तो देर हो चुकी थी। हम सब बहुत थकान महसूस कर रहे थे। आहना किचेन में जाना नहीं चाह रही थी और अकेले सास से यह सब हो पाना मुश्किल था। तो पहले मैंने ऑनलाइन खाने के लिए ऑर्डर किया। इन बड़ी कंपनियों ने मोहल्ला स्तर पर टिफ़िन सर्विस देने वालों का धंधा ही चौपट कर दिया है, नहीं तो आहना के साथ मैं इस धंधे में भी क़दम रखने वाला था। 

ऑर्डर करके सास को बताया तो उनके चेहरे पर आए भावों से लगा जैसे वह इसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। ससुर जी की अब तक उतर चुकी थी। चर्च-मैन से गप्पे लड़ाने में लग गए थे। मिलर दंपती भी। चर्च-मैन को अगले दिन आइज़ोल, मिजोरम के लिए निकलना था। वह सास-ससुर को भी ले जाना चाहता था लेकिन उन्होंने मना कर दिया। वास्तव में चर्च-मैन फ़ॉर्मेलिटी ही कर रहा था। वह अगले दिन चला गया। 

मिलर दंपती एक और दिन रुक कर हमारे आतिथ्य भाव का गुणगान करते रहे। दोनों कुल मिलाकर एक मिलनसार व्यक्ति लगे। उन्हें सनातन संस्कृति, धर्म के बारे में, अपने भारत के बारे में मैंने अपने भरसक बहुत कुछ बताने का प्रयास किया था। दंपती ने पूरी गंभीरता के साथ बातें सुनी भी थीं। और एक ख़ुलासा भी किया कि वह अपने एक रिलेटिव के बहुत बुलावे पर भारत आए हैं और अब उत्तराखंड जाएँगे। 

उनकी भारत यात्रा का ख़र्च भी वही वहन कर रहे हैं। उनके वह रिलेटिव एक बड़े व्यावसायी हैं। वह एक भारतीय योगी के शिष्य हैं। हर साल एक महीना योगी जी के आश्रम में बिताते हैं। उनके सान्निध्य में योग, ध्यान कर पुर्नउर्जस्वित होते हैं, अपने तनाव से मुक्ति पाते है। दो साल पहले ही दीक्षित होकर "टिम मे" से तेजेश्वरानंद हो गए हैं। 

मिलर दंपती ने हमसे भी चलने के लिए कई बार आग्रह किया। जाने की इच्छा आहना के सिवा किसी की नहीं थी। लेकिन चर्च-मैन की कुटिल, कलुषित बातों से मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी। अपने सनातन देश की सुरक्षा, अस्तित्व को लेकर बहुत सी बातें सोचते हुए मैं सपरिवार उनके साथ चल दिया। मन में उन योगी जी से मिलने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई थी कि आख़िर उनमें ऐसी कौन-सी योग्यता है कि हज़ारों किलोमीटर दूर देश के टिम मे तेजेश्वरानंद बन गए। उस देश का नागरिक जो हमारे देश को झूठ ही गँवारों सपेरों का देश कहते हुए दो सौ वर्षों तक हम पर राज करता रहा। और वहाँ आश्रम में मैंने जो कुछ देखा, जाना-समझा उसने मेरी आँखें खोल दीं। 

"कालसर्प" दोष के अभिशाप का जो डर मुझ में बैठा हुआ था, परेशान किए रहता था, उससे मैंने मुक्ति पा ली। चर्च-मैन की बातों से जो उलझन बनी हुई थी उसका भी समाधान ढूँढ़ लिया। बड़ी बात यह कि वहाँ ससुर जी ने स्वयं ही शराब हमेशा के लिए छोड़ देने की सौगंध ले ली। तेजेश्वरानंद के साथ ध्यान योग में लग गए। मैं उन्हें उनकी इच्छानुसार वहीं छोड़कर घर वापस आ गया। मेरे मन में लेकिन अपनी सनातन संस्कृति, देश के लिए एक योजना बनती-बिगड़ती रही। सास-ससुर वहाँ दो महीने रहे। इस बीच मैं वहाँ आहना के साथ चार बार आया-गया। दो महीने बाद सास-ससुर का कायाकल्प हो चुका था। 

शिवशंकर और शिवांसी होकर शुद्ध शाकाहारी, योग-ध्यान करने वाले बन गए थे। और मैं तरुण और आहना आराधना, मिलर दंपती सनातन संस्कृति स्वीकार कर महेश्वरानंद, पत्नी एलिना से सुदीक्षा बनकर वहाँ से लौटे। साथ ही योगी जी से यह ज्ञान भी लेकर, जो उन्होंने मिलर की इस बात पर दिया था कि, ‘जातियों में खंडित समाज कहाँ एक हो सकता है। उनकी आपसी लड़ाई ही इस देश की कमज़ोर कड़ी है।’ योगी जी ने कहा, ' यह सही है। इसीलिए जाति व्यवस्था को समाप्त करना भी हमारा उद्देश्य है। इस कमज़ोर कड़ी को अँग्रेज़ों ने अपने हित में प्रयोग किया। समाज को और ज़्यादा कमज़ोर बनाया।' 

योगी जी ने उदाहरण देते हुए बताया कि, 'अँग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को अपने हथियार के रूप में विकसित किया। 1871, 1881, 1891 में अँग्रेज़ों ने जन सर्वेक्षण कराकर स्पष्ट समझ लिया कि इस हथियार को और धार देने के लिए इन्हें और जातियों में बाँटना होगा। इसका परिणाम था कि 1871 की गणना में उन्होंने जातियों की संख्या 3208 बताई। दस वर्ष बाद ही 1881 में 19044 बताई। तब निकोलस बी डिर्क्स नाम के विद्वान ने कहा, "यह वृद्धि जातियों के बढ़ जाने की जगह सर्वेक्षण की पद्धति को बदलने का नतीजा थीं।" यह साज़िश इतने पर ही नहीं रुकी। प्रिंसेप ने 1834 में केवल बनारस में ही ब्राह्मणों का सर्वेक्षण कर उनके भीतर 107 जातियाँ और बना दी थीं। जिससे ब्राह्मणों में ही भेदभाव और बढ़ गया। 

इस हथियार को विकसित करके अँग्रेज़ 1947 तक शासक बने रहे। यह सोचकर आप आश्चर्य में पड़ जाएँगे कि 1939 में देश की जनसंख्या तीस करोड़ थी। इतने बड़े समुदाय पर ब्रिटेन अपने मात्र पैंसठ हज़ार अँग्रेज़ सैनिकों के साथ शासन करता रहा। वास्तव में हम पर अँग्रेज़ या उनसे पहले जो आक्रांता आए वो नहीं, बल्कि हमारी जातीय भेदभाव से निकली नाकारात्मक ऊर्जा हम पर राज करती रही। जिसकी डोर विदेशियों के हाथ में होती थी। 

हमें इस झूठ पर से भी पर्दा हटाना होगा कि ऊँच-नीच भेद-भाव से केवल सनातनी समाज ही ग्रस्त रहा है। दूसरे लोग यह पर्दा डालने में इसलिए सफल हुए, क्योंकि सनातनी अपने धर्म संस्कृति के विरुद्ध किसी भी हमले, झूठ-फरेब, दुष्प्रचार पर प्रतिक्रिया करना ही भूल गए। कालांतर में तो यह भाव घर कर गया कि ‘कोउ नृप होई हमें का हानि, चेरि छांड़ि कि होइब रानी।’ 

संत तुलसी ने किसी और संदर्भ में मंथरा से यह बात कहलवाई थी, लेकिन सनातनियों ने इसे अपना स्थायी भाव बना लिया। कोई कुछ भी कहता, करता चला आ रहा है, लेकिन वो निर्लिप्त भाव से जीते चले आ रहे हैं। प्रसंग क्योंकि अँग्रेज़ों ईसाइयों का चल रहा है, तो आप ईसाइयों को ही देखिए कि इन में कितने भेद-विभेद हैं। इनमें भी एवानजिल्क, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स, कैथोलिक आदि समुदाय हैं। रोमन कैथोलिक रोम के पोप को अपना सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं। जबकि प्रोटेस्टेंट पोप जैसी व्यवस्था, परंपरा के सख्त ख़िलाफ़ हैं। वह किसी को पोप मानने के बजाय एकमात्र बाइबल पर विश्वास करते हैं। ऑर्थोडॉक्सियों ने भी अपना अलग रास्ता अपनाया है। यह भी रोम के पोप को बिल्कुल मान्यता नहीं देते। 

यह लोग जिस देश में रहते हैं, उस देश के पैट्रिआर्क को मानते हैं। ईसाइयों में यह सबसे कट्टर और परंपरावादी होते हैं। इसी प्रकार एंग्लिकन समुदाय अपने को प्रोटेस्टेंट नहीं मानते। प्रोटेस्टेंट प्रमुखतया पाँच संप्रदायों में विभक्त माने जाते हैं। बैप्टिस्ट, मैथोडिस्ट, कैल्विनिस्ट, लूथरन और एंग्लिकन। प्रोटेस्टेंटों में सबसे ज़्यादा लूथरन लोग हैं। इन्हें लूथरन इसलिए कहते हैं क्योंकि लूथर ने ही 16वीं सदी में विद्रोह किया था। जिसके परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंट शाखा बनी। इसीलिए इनको मानने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है। जैसे यह ख़ूब प्रचारित-प्रसारित किया गया कि सनातनियों में तो पूजा करने, धार्मिक ग्रंथ पढ़ने, पूजा स्थलों में प्रवेश आदि पर विभेद हैं। यह निश्चित ही हमारी सबसे बड़ी बुराई है। जिससे आज हम क़रीब क़रीब मुक्ति पा चुके हैं। 

लेकिन क्या हमने कभी, कहीं भी, किसी भी स्तर पर यह चर्चा सुनी, पढ़ी, देखी है कि ऐसा कुछ ईसाइयों में भी रहा है। विशेष रूप से मध्यकाल का समय ऐसा रहा है जब आम जनमानस को बाइबल पढ़ना क़रीब-क़रीब नामुमकिन हो गया था। क्योंकि कोई भी आमजन बाइबल की नक़ल नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप जनमानस को अपने ही धर्म के बारे में कुछ पता नहीं था। इस स्थिति को देखते हुए कुछ बिशपों, पादरियों ने विचार-विमर्श शुरू किया। उन्हें लगा कि ऐसे तो धर्म के प्रचार-प्रसार में बड़ी बाधा उत्पन्न हो जाएगी। इन्हीं लोगों ने निष्कर्ष निकाला कि पोप का प्रोटेस्ट करेंगे। इन लोगों ने विरोध स्वरूप बाइबल का अपनी स्थानीय भाषाओं में अनुवाद शुरू कर दिया। और नया संप्रदाय प्रोटेस्टेंट बना दिया।’ 

योगी जी ने इसी तरह की इतनी बातें बताईं  कि हम हैरान रह गए। मिलर दंपती उन्हें आवक् से देखते रहे। इसी समय मेरे दिमाग़ में आया कि यह सबसे उचित समय है कि योगी जी से 'कालसर्प' योग के बारे में भी चर्चा कर ली जाए। इसकी सच्चाई क्या है? ज्योतिष को कितना सही मानना चाहिए, उसे जीवन में कितना स्थान देना चाहिए? क्या विज्ञान की प्रमाणिकता, महत्व पौराणिक आख्यानों, ज्योतिष से ज़्यादा है? मैंने उन्हें अपने परिवार, ज्योतिषाचार्य जी की भविष्यवाणी से लेकर ईसाई बनने तक की सारी बातें विस्तार से बता दीं। 

सुन कर वह मुस्कुराए और कहा, ‘बेटा जीवन में जितना महत्व विज्ञान को देते हो उतना ही ज्योतिष को भी दे सकते हो। जैसे विज्ञान की तमाम बातें हम सही मानते हुए उन्हें पढ़ते-लिखते हैं, पढ़ाते, बताते, उसी के अनुसार आगे बढ़ते चले जाते हैं, कि अचानक ही नई खोज सामने आती है, नया सिद्धांत पुराने को ग़लत सिद्ध कर अपना स्थान बना लेता है। लेकिन समय, समाज जीवन तो तब भी नहीं ठहरता। चलता ही रहता है अपनी ही गति से। 

’उदाहरण के तौर पर तुम इस प्रकार समझने का प्रयास करो कि जैसे 1911 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने इलेक्ट्रॉन के प्रयोगों के बाद अपना परमाणु मॉडल प्रस्तुत किया, क्या वह परमाणु मॉडल आज भी पूर्ववत है? 1932 में जेम्स चैडविक ने परमाणु नाभिक के बारे में जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था वह अक्षरशः आज भी वही है क्या? आगस्ट केकुले ने बेंजीन संरचना का सिद्धांत प्रतिपादित किया। जो कि कार्बनिक रसायन की महत्वपूर्ण बात हुआ करती थी। उनका सिद्धांत आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्या?' योगी जी साइंस के बारे में इतना कुछ जानते हैं, यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। हालाँकि वह बेहद सहज सरल ढंग से बता रहे थे, लेकिन फिर भी उनकी बातें मेरे स्तर से ऊँची थीं। 

उन्होंने खगोल, रसायन से लेकर जीव विज्ञान तक तमाम सम्बन्धित बातों की झड़ी लगा दी थी। मिलर की पत्नी एलिना यानी सुदीक्षा द्वारा प्रश्न पर प्रश्न करते रहने के कारण बात बड़ी देर तक साइंस की ही चलती रही। सुदीक्षा की भी साइंस को लेकर जानकारी बड़ी जबरदस्त थी। मैं बड़ा इंप्रेस हो रहा था। एक समय तो मुझे ऐसा लगा कि उसके प्रश्नों के कारण मेरे मूल प्रश्न के उत्तर की बात रह ही जाएगी। मेरी व्याकुलता योगी जी ने पहचान ली और फिर सुदीक्षा के ही एक प्रश्न के उत्तर के साथ ही उन्होंने मेरे मूल प्रश्न की ओर बात मोड़ी। 

कहा, ‘मोटे तौर पर यह समझ लो कि योग और ज्योतिष कोई पूजा-पाठ की वस्तु नहीं बल्कि विज्ञान हैं। योग के लिए तो दुनिया एक स्वर से यह मानती है कि हिरण्यगर्भ के इस विज्ञान को महर्षि पतंजलि ने क़रीब पाँच हज़ार वर्ष पूर्व ही विकास की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। यह पूर्णतः विकसित विज्ञान है। जिसके माध्यम से स्वस्थ रहा जा सकता है। और यह जागे हुए भारतीय समाज के सद्प्रयासों का ही परिणाम है कि प्रत्येक 21 जून को पूरी दुनिया ‘योग दिवस’ मनाती है। इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना रही है। 

ज्योतिष साइंस कितनी परफ़ेक्ट है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हो कि इसके माध्यम से चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण बरसों बरस पहले कब हुआ था से लेकर भविष्य में कब होगा इसकी घोषणा ज्योतिषी सदियों से पूर्ण एक्यूरेसी के साथ करते आ रहे हैं। जबकि मशीनों के माध्यम से की जाने वाली घोषणाएँ अक़्सर भटकती हुई मिल जा रही हैं। 

जहाँ तक बात किसी व्यक्ति के बारे में भविष्यवाणी की है, तो जैसे गणित में एक दशमलव भी ग़लत कर दिया तो उत्तर ग़लत हो जाएगा। वैसे ही ज्योतिष में तिथि, जन्म का स्थान, समय और उस समय ग्रहों की स्थिति पूर्णतः सही नहीं लिखी गई है, तो उस व्यक्ति के बारे में सही भविष्यवाणी करना संभव नहीं है। आंशिक रूप से ही कुछ बताया जा सकता है। 

इसके साथ ही यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि, ज्योतिषी ज्योतिष विज्ञान की समग्र जानकारी रखता है? वह इस विज्ञान का प्रकांड पंडित है कि नहीं। यदि सब सही है तो निश्चित ही भविष्य की सटीक गणना की जा सकती है। इसकी आधी-अधूरी जानकारी के साथ इसका व्यवसाय करने वालों ने इसे हँसी-मज़ाक का विषय बना दिया है। ऐसे अधकचरे ज्ञानियों से बचना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण भ्रमवश लोग अपना, अपने परिवार का जीवन बर्बाद कर लेते हैं।’ योगी जी की गणना में मैं, मेरा परिवार ऐसे ही लोगों की श्रेणी का शिकार निकला। 

मिलर यानी महेश्वरानंद, सुदीक्षा को मैंने अधकचरी जानकारियों के आधार पर जितनी पौराणिक बातें बताई थीं, उन्हीं के आधार पर उन्होंने तमाम प्रश्न करे। सुदीक्षा ने ही योग साइंस है या पूजा-पद्धित यह प्रश्न खड़ा किया था। योगी जी ने सभी का समाधान दिया। उन्होंने सारतः बताया, ‘हमें मूलतः यह समझ लेना चाहिए कि सनातन धर्म जड़वादी नहीं है कि, जो पहले कह दिया गया उस पर कोई विचार-विमर्श या परिवर्तन नहीं हो सकता। समय-समय पर नए विचार-सिद्धांत विद्वानों द्वारा रखे जाते हैं जो सनातन पौराणिक आख्यानों को और समृद्ध करते हैं। 

’उदाहरणार्थ अद्वैत वेदांत को ही देखिए, यह वेदांत की ही एक शाखा है। शंकराचार्य ने अपने सिद्धांत को ब्रह्म-सूत्र में प्रतिपादित किया। अहम्-ब्रह्मास्मि को अद्वैत वेदांत कहा। इसीलिए उन्हें "शंकरा द्वैत" संज्ञा दी गई है। शंकराचार्य की मूल बात यह है कि इस चराचर जगत में ब्रह्म ही सत्य है। बाक़ी सब मिथ्या। मगर शंकराचार्य के कह देने भर से बात यहीं ठहर नहीं जाती। ईश्वर के बारे में अनेकानेक विचारधाराएँ प्रस्तुत होती रहीं हैं। जिनमें मुख्यतः केवलाद्वैत, द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्ववैत, विशिष्टाद्वैत जैसी अनेकानेक विचारधाराएँ हैं। 

’वास्तव में हम सनातनी कालांतर में इतनी गहरी नींद सो गए कि अपने महान पूर्वजों द्वारा दिए गए अथाह ज्ञान को ही भूल गए। अज्ञानता में बाहरी जो कहते रहे, वही सही मानते चले आ रहे हैं। विवेकानंद ने कहा, "उठो, जागो", लेकिन फिर भी हम अभी तक ठीक से जागे नहीं हैं। जब कोई बाहरी कुछ कहता है तब हम समझते हैं कि हम पहले क्या थे। अभी जब कोलंबिया यूनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल सेंटर ने सुश्रुत को दुनिया में शल्य चिकित्सा का जनक मानते हुए अपने यहाँ उनकी मूर्ति लगाई तब हमें समझ में आया कि शल्य चिकित्सा का ज्ञान सबसे पहले हम सनातनियों को ही था। 2600 साल पहले ही सुश्रुत प्लास्टिक सर्जरी अर्थात स्किन ग्राफ्ट्स आदि में पारंगत थे।’ योगी जी से यह सब सुनकर हम, महेश्वरानंद दंपति सभी आश्चर्य में थे। 

कई चरणों में हमारे प्रश्न-उत्तर कई दिनों तक चलते रहे। वापसी वाली सुबह से पहले की रात सोते समय महेश्वरानंद ने कहा, ‘मेरा मन ब्रिटेन वापस लौटने का बिल्कुल नहीं हो रहा है। मैं योगी जी जैसे प्रोफाऊँड नॉलेज (विपुल ज्ञान) वाले महान विभूति को छोड़कर जाना दुनिया की सबसे बड़ी मूर्खता समझता हूँ। मैं यहीं हमेशा उनके साथ रहकर ग्रेट स्पिरिचुअल पौराणिक नॉलेज को पूरी दुनिया में सब तक पहुँचाना चाहता हूँ।’ मैंने कहा इसके लिए तो यह और भी ज़्यादा ज़रूरी है कि हमें योगी जी के संदेश को फैलाने के लिए पूरी दुनिया को नापना चाहिए। वह मेरी बात से जल्दी ही सहमत हो गए। अगले दिन हम सभी घर के लिए चल दिए।  

जल्दी ही मेरे मन में बराबर बनती-बिगड़ती योजना ‘सनातन सरस्वती शिशु मंदिर’ के रूप में साकार हुई। सास-ससुर संरक्षक बने। मैं आराधना के साथ उसके संचालन में लग गया। हमारा फ़ैसला अब तक यह भी था कि हम अपने पहले शिशु की शिक्षा भी अपने स्कूल से प्रारंभ करेंगे। "कालसर्प" दोष के भय ने अभी तक हमें माँ-बाप बनने से रोक रखा था। मगर यह भय आश्रम में ख़ुद ही मुझसे भयभीत होकर हमेशा के लिए दूर चला गया। जिसके कारण मैंने घर-परिवार त्याग दिया था। ऑटो रिक्शा ड्राइवर, नौकर बन चाकरी करने लगा था। संयोग था कि चर्च-मैन, मिलर दंपती मिल गए। जो योगी जी से मिलने का माध्यम बने, जिनके आशीर्वाद से स्कूल संचालक बन गया हूँ। 

और हाँ! परिवार शुरू करूँगा तो सबसे पहले बच्चे को लेकर भाई-बहनों का भय दूर भगाने ज़रूर जाऊँगा। कितने बरस हो गए सब से मिले हुए, देखे हुए। उनसे भी कहूँगा कि वह भी राष्ट्रांत्रण रोकने के मेरे अभियान में भागीदार बनें। 

तो मित्रों अब मैं ऑटो वाला नहीं स्कूल संचालक तरुण हूँ और पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि साल भर के अंदर पिता बनूँगा, कई बच्चों का पिता बनने का प्लान है मेरा। आख़िर राष्ट्रांतरण रोकने और हमारा जो हिस्सा राष्ट्रांतरित हो कर अलग हो चुका है, उसे फिर से हासिल करने के लिए संख्या बल बहुत-बहुत बढ़ानी है। बहुत बड़ी करनी है। आप भी जुटिए, मैं तो जुट गया हूँ। क्योंकि सच में आज़ादी भी तो लेनी है। अभी तो धूर्त अँग्रेज़ों ने शासन चलाने हेतु सत्ता हस्तांतरित भर की है। 

आप और मेरी तरह सबको यह झुनझुना थमाया गया कि हम आज़ाद हैं। हमें आज़ादी का तोहफ़ा देने का अहसान लादकर ना जाने कितने लोग महान नेताओं में अपना नाम दर्ज कराए बैठे हैं। गीत गवाते आ रहे हैं कि दे दी आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल... इस झूठ से भी पर्दा हटाना है। बहुत भारी पर्दा है इसलिए बहुत सारे लोगों की ज़रूरत है। यह जीवन से भी ज़्यादा ज़रूरी है। जिससे आने वाली पीढ़ियाँ सच में आज़ाद रहें। सुरक्षित रहें। और हाँ! चर्च-मैन काफ़ी लंबे समय बाद फिर लौटा तो सब कुछ जानकर आश्चर्य में पड़ गया। हमने उसका पहले जैसा ही आदर-सत्कार सब कुछ किया। वह उन महान योगी जी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा जिनके कारण यह परिवर्तन हुआ। हमने उसे बड़े प्यार से वहाँ भेजा। आजकल वह योगी जी का मेहमान बना हुआ है। मैं यह बिल्कुल नहीं जानता कि जब वह लौटेगा तो चर्च-मैन ही रहेगा या फिर चेतेश्वरानंद या...। 

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दीवारें तो साथ हैं

पति को घर से गए कई घंटे हो गए थे। अब बीतता एक-एक क्षण मिसेज़ माथुर को अखरने लगा था। वैसे भी एक लंबे समय तक ऊहापोह की स्थिति में रहने के बाद बड़ी मुश्किल से पति-पत्नी दोनों मिलकर आज ही यह निर्णय ले पाए थे कि बस बहुत हुआ, नहीं रहना अब इस घर में। बड़े ही भारी मन से लिया था दोनों ने यह निर्णय, कलेजा मुँह को आ गया था जब यह निर्णय लिया।

वो करते भी क्या, कोई और रास्ता भी तो नहीं सूझ रहा था उन्हें। अन्यथा जीवन भर की कमाई लगा कर बनाए गए अपने सपनों के आशियाने को छोड़ना कौन चाहता है। जीवन में न जाने कितने सुख-दुख भरे पल जो जिए उन्होंने वह सब इसी मकान की दीवारों, कोनों में ही तो कहीं पैबस्त हैं। नज़र डालने पर उन्हें उन दिनों के हँसते-खिलखिलाते परिवार की आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं। लेकिन वक़्त ने कैसे चंद बरसों में ही बदल दिया सब कुछ कि अब इसे छोड़ कर कहीं और ठिकाने की तलाश करनी पड़ रही है। बुढ़ापे में पति आज आठवें दिन भी चार घंटे से न जाने कहाँ भटक रहा है। फ़ोन करने पर "आ रहा हूँ" कह कर काट दे रहा है। न जाने क्या बात है। उनके उधेड़-बुन की यह शृंखला अचानक बज उठी कॉलबेल ने तोड़ दी। पति आ गए इस उम्मीद में जल्दी से उठ कर उन्होंने गेट खोला। लेकिन सामने मिसेज़ गुप्ता थीं। चेहरे पर मुश्किल से खींच लाई मुस्कुराहट के साथ उन्होंने उनका स्वागत कर कहा,

"आओ राहुल की मम्मी, अंदर आओ, बताओ क्या हाल है?"

"मैं ठीक हूँ दीदी, आप अपनी बताइए, इधर कई हफ़्तों से दिखाई नहीं दीं। सत्संग में भी नहीं आ रहीं, आज भी नहीं आईं तो सबने कहा भई पता करो क्या बात है। मैंने कहा मैं जाऊँगी शाम को। वैसे भी कल संडे है और गुरुजी भी आ रही हैं, कल वह अपनी अमृतवाणी सुनाएँगी यह भी बताना है।"

"हाँ .... सही कह रही हो, करीब महीना भर तो हो ही रहा है घर से कहीं निकले।"

"ऐसा भी क्या हो गया? आपकी तबीयत तो ठीक है न? और माथुर साहब भी ठीक हैं न?"

"तबीयत तो कुल मिला कर ठीक है। बुढ़ापा है, ऐसे में जितने रोग हो सकते हैं - वह सब हैं। आए दिन कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है। वह कहाँ पीछा छोड़ने वाले। माथुर साहब भी बस ठीक ही हैं।"

"आप सही कह रहीं हैं। अब तो हम सब उम्र के उस दौर में हैं जहाँ कई-कई रोगों को साथ ले कर चलना ही है। यही क्या कम है कि ज़िंदगी के साठ साल तो कम से कम पूरे कर ही लिए हैं हम सबने। और मैं तो यह भी कहती हूँ कि ईश्वर की कृपा है हम सब पर कि हमारे बच्चे सब लाइन से लग गए हैं और ऐसी गुरु भी मिल गई हैं जिसकी कृपा हम पर हमेशा बरसती रहती है।"

"हाँ ...ये तो है। इसमें कोई शक नहीं।"

मिसेज़ माथुर ने बड़े गंभीर स्वर में कहा। उनके चेहरे पर पीड़ा की रेखाएँ इतनी गाढ़ी हो चुकी थीं कि उसे राहुल की मम्मी ने तुरंत पढ़ लिया और पूछा,

"क्या बात है दीदी .... आप बहुत परेशान दिख रही हैं। माथुर साहब से कुछ बात हो गई है क्या? इतनी परेशान तो मैंने पिछले बीस बरसों में आपको कभी नहीं देखा।"

"नहीं माथुर साहब से तो मेरी कभी कोई बहस होती ही नहीं। जब भी कभी कोई बात हुई तो बच्चों ही के कारण।"

"अब तो बच्चे भी बच्चे वाले हो गए हैं। फिर आपके तो सारे बच्चे भी अच्छी पोज़ीशन पर हैं। सारे बच्चे आप दोनों का पूरा ख़याल रखते हैं। हम लोग कई बार कहते भी हैं कि दीदी बहुत लक्की हैं। रिटायर होते-होते लड़की और तीनों लड़कों की न सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई पूरी करवा दी बल्कि सभी सेल्फ़ डिपेंड हैं। सबकी शादी भी कर दी। सारे बच्चे मिल कर रह रहे हैं। दीदी तो वाकई बहुत खुश हैं।"

यह बातें सुनते-सुनते मिसेज़ माथुर की आँखें भर आईं। चेहरा दर्द भरी रेखाओं से भर उठा। जिसे देख राहुल की माँ से रहा नहीं गया। वह अपनी जगह से उठ कर मिसेज़ माथुर के बगल में बैठ गईं। स्नेह भरा हाथ उनकी पीठ पर रखते हुए कहा,

"दीदी आखिर क्या बात है? अगर ऐसी कोई बहुत पर्सनल बात नहीं है तो मुझे बताइए शायद मैं कुछ कर सकूँ। बेटों, बहुओं से कोई बात हुई है क्या? अगर ऐसा है तो इतना परेशान मत होइए। आजकल यह घर-घर की बात है। इसको लेकर परेशान होना बेवज़ह है। माथुर साहब भी नहीं दिख रहे। कहीं गए हैं क्या?"

"हाँ .... ओल्ड एज होम गए हैं। यह पता करने की हम लोग वहाँ रह पाएँगे कि नहीं।"

मिसेज़ माथुर ने बहुत गहरी साँस लेकर बड़े भारी मन से कहा, उनकी बात सुन कर मिसेज़ गुप्ता अचंभित सी हो बोलीं,

"क्या...? ये क्या कह रही हैं आप? अपना इतना बड़ा मकान, तीन-तीन काबिल बेटों-बहुओं के रहते इस बुढ़ापे में ओल्ड एज होम जाएँगी? इस उम्र में जब ज़्यादा देखभाल, बच्चों का सहारा चाहिए तो आप लोग ओल्ड एज होम जाने की तैयारी कर रहें हैं। ऐसा क्या हो गया?"

"हाँ .... सही कहा आपने, बेटे हैं, बहुए हैं, पर अब अपने कहाँ हैं। माँ-बाप उनके लिए घर का वह कूड़ा हैं जिसे वह हर हाल में घर के बाहर फेंक देना चाहते हैं। और जब अपना खून, अपने बेटे अपने नहीं हैं तो बहुओं की बात करना भी बेमानी है।"

"लेकिन आपने तो पहले कभी ऐसा कुछ ज़ाहिर ही न होने दिया। जब भी हम लोग आए बहुओं-बेटों, सबको हँसते बोलते ही पाया। अरे! ... हाँ आज बहुएँ भी नहीं दिख रही हैं और वो दिल्ली वाली बहू का क्या हाल है? वह काफी दिनों से नहीं आई है।"

"एक अपने भाई के यहाँ गई है, दूसरी मौसी के यहाँ और दिल्ली वाली वहीं है। बेटे को ऑफ़िस से फुरसत नहीं है। बहू को अपने माँ-बाप, बहनों-भाइयों से फुरसत नहीं है। कभी कभार भूले-भटके फ़ोन कर लेती है। बेटे का हाल थोड़ा सा अलग है। फ़ोन करता है रोज़। मगर इसके अलावा सारा वक़्त, सेवा सुश्रुषा, हँसना-बोलना, घूमना-फिरना यह सब सास-ससुर, सालियों, सालों के साथ है। सास-ससुर को इतने प्यार से मम्मी-पापा बोलता है कि अपने सगे माँ-बाप को भी कभी न बोला होगा।"

"ओह! क्या कह रही हैं आप? उसे तो मैं आपके बच्चों में सबसे होनहार सबसे अच्छा समझती थी।"

"सही समझती थी। शादी से पहले वह वाकई माँ-बाप, भाई-बहनों सबको बहुत चाहता था। मगर शादी के बाद न जाने बीवी ने, सास-ससुर ने, साले-सालियों ने कौन सा जादू कर दिया है, उसके ऐसे कान भरे हैं कि वह बिल्कुल ही बदल गया है। अब जब कभी घर आता है तो उसके व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे कि वह किसी गैर के यहाँ या रिश्तेदारी में आया है। अजीब सा कटा-कटा सा रहता है। ऐसा लगता है कि बस खानापूरती कर रहा है। लाड़-प्यार वह सब भी जताएगा। लेकिन यह सब इतना बनावटी होता है कि देख कर दिल में शूल सी चुभती है।"

"तो कभी आप टोकती नहीं हैं, कि वह यह सब क्यों कर रहा है।"

"नहीं, जब तक नहीं आता तब तक तो मन में सोचती हूँ कि अब की आएगा तो ज़रूर पूछूँगी कि बेटा मेरी परवरिश में कहाँ कमी रह गई कि जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए सास-ससुर तुम्हारे लिए माँ-बाप से भी बढ़ कर हो गए हैं। जिस माँ ने जन्म दिया, जिस माँ-बाप की गोद में खेले बड़े हुए। खुद गीले में सो कर जिस माँ ने इस लायक बनाया कि आज दुनिया में लोग तुम्हें पूछते हैं। तुम्हारी इज़्ज़त करते हैं। जिनकी परवरिश के कारण वह मुकाम बना पाए कि तुम्हारी शादी के लिए न जाने कितने लोग आए। दरवाज़े पर लाइन लग गई लड़की वालों की, आज वही माँ-बाप,घर तुम्हें बेगाने से क्यों लगते हैं? और सास-ससुर सगे माँ-बाप से बढ़ कर कैसे हो गए। .... मगर क्या करूँ जब सामने आता है तो कुछ याद नहीं आता। बस इतना ही होश रहता है कि मेरा बेटा मेरे सामने आ गया है। जो कभी मेरी गोद में खेलता था, जिसकी किलकारियों से हम मियाँ-बीवी साँस ले कर जीवित रहते, आगे बढ़ते थे आज वह खुद बाप बन गया है। देखते-देखते कितनी जल्दी वक़्त निकल गया। बस यही सब दिमाग में, मन में रह जाता है। बाकी सब न जाने कहाँ लोप हो जाता है।"

"और माथुर साहब, वह कुछ नहीं कहते?"

"वो क्या कहेंगे। बाप हैं और सबसे ज़्यादा यह कि मर्द हैं। बस अंदर ही अंदर घुलते रहते हैं। मुझे लगता है कि वह मुझ से ज़्यादा व्यथित रहते हैं लेकिन मुँह नहीं खोलते। जब कभी कुछ कहती हूँ तो डाँट कर चुप करा देते हैं। मगर इस बीच उनकी भरी हुई आँखें मुझ से नहीं छिप पातीं। उनके अंदर चलती उथल-पुथल उनके सिसकते हृदय की आवाज़ मैं साफ सुनती हूँ। उनकी बेबसी मुझे अंदर तक छील कर रख देती है। फिर उनकी और अपनी दोनों की बेबसी पर सिवाए आँसू बहा कर किसी कोने में खुद को सांत्वना देने के अलावा मेरे पास कुछ नहीं बचता।"

"ओफ़्फ...... मैं...... मैं क्या सत्संग में सभी लोग अब तक यही समझती हैं कि आप से ज़्यादा खुश और कोई हो ही नहीं सकता। कभी एक बार भी मैं नहीं समझती कि किसी के मन में यह आया होगा कि आप इतने सारे कष्टों के साथ जी रहीं हैं। और इतनी हिम्मत के साथ कि कभी आपने बाहर किसी को अहसास तक न होने दिया।"

"किसी से बताते भी तो कैसे?" हम लोग तो इज़्ज़त को ले कर मरते रहते हैं कि दुनिया क्या कहेगी। इसलिए अंदर-अंदर चाहे जितना घुटते रहें जब कोई आया तो उसके सामने चेहरे पर हँसी मुस्कुराहट के अलावा कुछ न आने दिया। बल्कि कोशिश यह भी कि लोगों के सामने अपने बेटे-बहुओं की तारीफ़ ही निकले।"

"वह सब तो ठीक है। मगर मैं यह नहीं समझ पा रही कि एक दो नहीं पिछले कई बरसों से आप दोनों यह सब कैसे झेलते रहे? ये सब कैसे बरदाश्त करती रहीं?"

"वक़्त ... वक़्त सब करा देता है। जब बात सामने आती है तो हिम्मत भी आ जाती है।"

"नहीं दीदी सब इतना नहीं कर पाते। पाँडे जी का घर देखिए न। उन्होंने तो जब बच्चों ने ज़्यादा परेशान किया, तो सब को अलग कर दिया। इसके बाद जब बेटों ने बैंक में जमा पैसों और पेंशन पर भी नज़र लगाई तो पहले तो विरोध किया। मगर जब बेटे झगड़े पर उतारू हुए, बहुओं ने आफ़त कर दी, जीना हराम कर दिया तो उन्होंने बिना देर किए पुलिस की मदद ली। यहाँ तक कह दिया कि मियाँ-बीवी को कुछ हुआ तो ज़िम्मेदार यही सब होंगे। पुलिस जब अपने पुलिसिया अंदाज़ में आई तो सभी बहुओं-बेटों ने न सिर्फ़ माफी माँगी बल्कि वादा किया कि कभी परेशान नहीं करेंगे। तब से दोनों ठीक हैं। टिफिन सर्विस लगा ली है। दोनों टाइम खाना-पीना घर बैठे मिल जाता है। चाय-नाश्ता किसी तरह खुद बना लेते हैं। बच्चों से कोई मतलब ही नहीं रखते।"

"तुम ठीक कहती हो। लेकिन बिरले ही माँ-बाप ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाएँगे। कम से कम मैं तो ऐसा नहीं कर पाऊँगी। भले ही बच्चे घर से बाहर निकाल दें। सड़क पर रहना पड़े। भले ही जान चली जाए। क्या तुम ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाओगी?"

"नहीं ...... मैं भी सोच कर ही सहम जाती हूँ दीदी।"

"जानती हो मेरी अम्मा बचपन में एक कहानी हम सब बच्चों को सुनाती थीं कि माँ कैसी होती है। वो कहानी आज भी मुझे करीब-करीब पूरी याद है। बताती थीं कि एक गाँव में माँ-बेटा अकेले रहते थे। बेटे के बाप बचपन में ही गुज़र गए थे। माँ, माँ-बाप दोनों ही की ज़िम्मेदारी निभा रही थी। दोनों का प्यार स्नेह दे रही थी। उसे अच्छी परवरिश देने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही थी। लड़का बड़ा हुआ। उसका एक लड़की से इश्क हो गया।

माँ बेटे की शादी कहीं और करना चाहती थी। लड़के ने यह बात लड़की से बताई। इससे वह नाराज़ हो गई। तब लड़के ने कहा चलो हम लोग अलग रह कर शादी कर लेंगे तो उस लड़की ने शर्त रख दी कि जब तुम अपनी माँ का कलेजा लाकर दोगे तभी मैं तुम्हारे साथ शादी करूँगी। लड़की के प्यार में अंधे लड़के ने माँ को मार दिया। फिर उसका कलेजा निकाल कर दौड़ता-भागता प्रेमिका के पास जाने लगा। रास्ते में ठोकर लगने से वह गिर गया। लड़का फिर उठा, कलेजा उठा कर चलने लगा तो उसमें से आवाज़ आई

"बेटा तुझे ज़्यादा चोट तो नहीं आई? यह सुन कर बेटे का मन बदल गया। वह लौट आया माँ के पार्थिव शरीर के पास और विलाप करने लगा। मगर जब अम्मा यह कहानी सुनाती थीं पैंतालीस-पचास साल पहले तब के लड़के भले ही ठोकर लगने पर माँ के लिए विलाप करते रहे हों, लेकिन आज पाँच दशक में पूरी पीढ़ी बदल गई है। अब वह भावनात्मक लगाव खत्म हो चुका है जो हुआ करता था। आज के लड़के तो उठ कर फिर चल देंगे आवाज़ को सुने बिना ही।"

"आप सही कह रही हैं। आज के बच्चे भावनाहीन हो चुके हैं। वास्तव में जो आप बता रही हैं यही हालत घर-घर की है। विरला ही कोई घर होगा जहाँ बच्चे माँ-बाप को पूरी अहमियत देते हों। नहीं तो करीब-करीब सभी माँ-बाप की हालत वही है जो आपकी है। हम सत्संगियों के बीच उस वक़्त आपकी बड़ी तारीफ़ होती थी जब आप एक बार कुछ महीनों के लिए दिल्ली छोटे बेटे के पास गई थीं। सब यही कहते कि आपने बच्चों को बड़ी अच्छी परवरिश दी है। वह सब आपको कितना हाथों-हाथ लिए हुए हैं। दिल्ली जैसे महँगे शहर में भी बेटा माँ को इतने दिनों से रखे हुए है। मैं आज अपने मन का एक पाप आपके सामने कहती हूँ। उस समय मुझे अपनी किस्मत पर बड़ी कोफ़्त हो रही थी। मेरा बेटा उस समय मुंबई में था। उसने अपने मन से तो कभी एक बार भी भूल कर नहीं कहा कि हाँ मम्मी-पापा तुम लोग आ कर घूम जाओ या फिर खुद साथ चलने की बात की हो।

आपको दिल्ली में देख कर में खुद को रोक न पाई। एक दिन जब फ़ोन आया तो मैंने बड़े संकोच में कहा,

"बेटा ज़रा एक बार हम लोगों को भी मुंबई घुमा दे बड़ी-बड़ी बातें सुनती हूँ इस शहर के बारे में। बड़ा मन होता है वहाँ आने का।"

जानती हो दीदी मुझे क्या जवाब मिला।

"यही कहा होगा कि टाइम नहीं है।"

"नहीं इसके अलावा भी बहुत कुछ कहा। छूटते ही बोला, "अरे! मम्मी तुम्हें घूमने की पड़ी है। मैं यहाँ अपना कॅरियर देखूँ कि गाइड बन कर तुम्हें घुमाऊँ। फिर यहाँ लाइफ़ इतनी फास्ट है कि तुम लोग एक घंटे भी एडजस्ट नहीं कर पाओगी। फिर मुंबई में देखना क्या फ़िल्में तो देखती ही रहती हो।"

कल्पना से परे उसके इस जवाब से मैं एकदम आहत हो गई। गुस्सा भी आया। फ़ोन रखने से पहले मैंने इतना ज़रूर कह दिया -

"बेटा तुम भी तो लखनऊ के हो जब तुम वहाँ जा कर एडजस्ट हो सकते हो तो हम लोग क्या दो-चार दिन वहाँ नहीं रह पाएँगे? और फिर सुना है वहाँ ज़्यादातर उ.प्र. और बिहार के ही लोग हैं। खैर तुम परेशान न हो हम लोग नहीं आएँगे।"

और उसके बाद मैं कई दिन रोई थी। अपनी किस्मत पर गुस्सा आ रहा था। और यही सोचती थी कि आप कितनी भाग्यशाली हैं कि आपका बेटा आपको महीनों अपने पास रखे था।

"काश तुम जैसा सोचती थी वैसा होता।"

"क्यों? ऐसा भी क्या हुआ दीदी।"

"दरअसल हुआ यह था कि बेटे के सास-ससुर, सभी साले-सालियाँ महीने भर से वहाँ डेरा जमाए हुए थे। एक साथ छः लोगों को दिल्ली जैसे शहर में झेलना मुश्किल हो गया। उसकी परेशानियों का अंदाज़ा लगा हम लोग परेशान हो रहे थे। एक दो बार जब फ़ोन पर बात हुई तो मैंने खुद बात उठाई। तो वह बोला,

"हाँ परेशानी तो बहुत हो रही है। पैसे भी सब खत्म हो गए हैं। काफी उधार भी हो गया है।"

"तो किसी तरह जाने को क्यों नहीं कहते?"

"कैसे कहूँ वो लोग बुरा मान गए तो।"

"तो ऐसा करो, बोल दो कि हम सब लोग दो तीन दिन में आ रहे हैं। यह सुन कर शायद चले जाएँ।"

बेटे ने ऐसा ही किया लेकिन वह सब इतने बेशर्म कि टस से मस न हुए। सच कहूँ ऐसे बेशर्म मर्द-औरत इसके पहले मैंने नहीं देखे थे। कि पूरा परिवार दामाद की रोटी तोड़ रहा हो। हमारे पूर्वांचल में इसे बहुत बुरा मानते हैं। मगर ज़माने का फेर देखो ये सब भी उसी पूर्वांचल के होकर दामाद के यहाँ गुलछर्रे उड़ा रहे थे जिस पूर्वांचल में लोग लड़की-दामाद के यहाँ का एक गिलास पानी भी पीना धर्म के खिलाफ मानते हैं।"

"हाँ ये तो आप सही कह रही हैं। फिर वो सब गए कैसे?"

"गए क्या बेटे की परेशानी सुन कर मैं गुस्से में आ गई। मैंने वहाँ जाने की ठान ली। मगर एक मुश्किल यह आ पड़ी कि अगले पंद्रह दिनों तक किसी ट्रेन में रिज़र्वेशन नहीं मिल रहा था। तब मैंने बड़े बेटे से कहा। फिर तीन दिन बाद ही हम कार से वहाँ पहुँच गए।

हमारा वहाँ पहुँचना बेटे को छोड़ कर बाकी सबको बहुत खला। हालाँकि बेटे के चेहरे पर भी कोई खुशी नज़र नहीं आई थी। मैंने सोचा शायद अपनी समस्याओं से पस्त होने के कारण ऐसा है। मगर कुछ ही घंटों के बाद ही उसकी बातों से साफ हुआ कि नहीं वह तो इस असमंजस में है कि अपने ससुराल वालों के सामने अपने भाई और माँ को कैसे ज़्यादा तवज़्जो दे। बहू के चेहरे पर तो अपने लिए नफ़रत की रेखाएँ साफ देख रही थी। बेटे का असमंजस और बहू की नफ़रत उनके काम काज में साफ दिख रही थी।

मेरा जो बेटा ऑफ़िस में बहुत सख्त मिजाज बड़ा गुस्से वाला माना जाता है, उसी को ससुरालियों के सामने भीगी बिल्ली बने देख कर मैं अंदर ही अंदर कुढ़ रही थी। उसके भीरुपन का अंदाज़ा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि रात जब सोने का वक़्त आया तो मुझे, बड़े बेटे के लिए बरामदे में बिस्तर लगाया गया। और ससुरालियों के लिए बाक़ायदा अंदर कमरे में ही सारी व्यवस्था थी। मुझे यह बहुत खला। अंदर ही अंदर मैं यह भी डर रही थी कि बड़ा बेटा कहीं भड़क न उठे। क्योंकि गुस्से में वह दुर्वासा ऋषि से कम नहीं है।

मगर वह शांत ही रहा। जाने का फ़र्क यह पड़ा कि वह सब दूसरे दिन वहाँ से चले गए। मगर जाते वक़्त उन सबके चेहरे पर अपने लिए नफ़रत की इबारत साफ पढ़ रही थी कि ये सब यहाँ क्यों आ गए? खैर मैंने राहत महसूस की कि बेटे को मुसीबत से मुक्ति मिली।

"और आपकी बहू के रिएक्शन क्या थे?"

"बहू के रिएक्शन! आज भी मैं कुछ कह नहीं सकती। उसके मन की बात भाँप पाना या उसके चेहरे को पढ़ पाना मैं समझती हूँ कि हम जैसों के वश में नहीं है। जब पहुँची थी तब तो चेहरे पर नफ़रत साफ दिख रही थी। लेकिन कुछ घंटो बाद उसके हावभाव समझना मुश्किल हो गया था। उसने अपने को बड़ी कुशलता से संभाल लिया था।"

"क्या वो इतनी नाटकीय है?"

"हाँ यही कह सकती हो। मैंने अपने जीवन में उसके जैसी दूसरी औरत नहीं देखी जिसके मन के भावों का अंदाज़ा ही न लगाया जा सके। उसके जवाब इतने डिप्लोमेटिक होते हैं कि एक आम व्यक्ति के वश में नहीं है उसे समझना। हमने जब हफ़्ते भर बाद ही लखनऊ वापस आने की बात की तो उसने फॉर्मेलिटी के लिए भी एक शब्द नहीं कहा कि मम्मी और रुक जाइए। वैसे मैं रुकना भी नहीं चाहती थी क्यों कि मेरे रुकने पर भी खर्चा तो बढ़ता ही न। जो मैं नहीं चाहती थी। इसलिए मैंने बेटे से कहा किसी तरह एक दिन की छुट्टी लेकर लखनऊ छोड़ दो मुझे। उसने कहा ठीक है। पहले ऑफ़िस में देख लूँ।"

"क्यों बड़ा बेटा पहले ही चला आया था क्या?"

"हाँ उसके पास भी छुट्टी नहीं थी तो वह भी पहुँचाने के अगले ही दिन वापस आ गया था। इतनी जल्दी फिर उसे नहीं बुलाना चाहती थी क्योंकि उसके ऑफ़िस में तो छुट्टी की और भी ज़्यादा मारामारी रहती है।"

"तब तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ गई होंगी आने को ले कर?"

"हाँ मैं जितना जल्दी कर रही थी उतनी ही देर हो रही थी। कहने के तीसरे दिन छोटे बेटे ने बताया कि टाइम नहीं मिल पा रहा है। साथ ही एक बात और जोड़ी कि ऐसा करो अभी और कुछ समय तक रुक जाओ। मैंने पूछा क्यों तो उसने जवाब दिया, ससुराल के लोग पूछ रहे थे कि तुम कब तक हो। वह सब दीपावली यहीं मनाना चाहते हैं। तुम चली गई तो सब फिर महीनों के लिए आ टपकेंगे। और अभी दीपावली आने में करीब डेढ़ महीना है। फिर उसने और भी तमाम बातें बताईं। जिन्हें सुनने के बाद मैं रुक गई। तब मैंने एक और बात महसूस की कि मेरा बेटा अब शादी से पहले वाला वह बेटा नहीं है जो माँ-बाप, घर-परिवार के लिए बहुत कुछ करना चाहता था। अब वह घर में भी जो व्यवहार कर रहा था वह बहुत प्रोफेशनल था। बहुत कैलकुलेटिव ढंग से बात करता है। उसके एक-एक काम के पीछे एक पूरा कैलकुलेशन होता है। मैं उसके इस बदले रूप से बेहद आहत हुई। एक क्षण रुकना नहीं चाहती थी। मगर उसको कष्ट में भी नहीं देखना चाहती थी इसलिए रुकी रही।"

"ओह ... और हम लोग सोचते थे कि आपका बेटा आपसे बहुत प्यार करता है इसलिए रोक रखा। हमारे बेटे ही माँ-बाप से प्यार नहीं करते।"

"मेरी ऐसी किस्मत कहाँ...। जब तक रही तब तक बेटे का व्यवहार देख-देख कर मन में यही आता कि यह सब देखने की ज़रूरत ही क्या है? भगवान ऊपर क्यों नहीं बुला लेता। अब करने धरने के लिए जीवन में बचा ही क्या है? कौन है दुनिया में अपना। बेटे को लाख व्यस्तताओं के बावजूद ऑफ़िस से आने के बाद भी ससुराल में सबसे घंटों बात करने के लिए फुरसत मिल जाती है लेकिन कभी घर फ़ोन कर के बाप से बात करने के लिए टाइम नहीं होता।

कई-कई दिन हो जाता इनका कोई हाल न मिलता। मेरे पास उस वक़्त मोबाइल था नहीं, बहू से कहने की हिम्मत जुटा न पाती कि लखनऊ घर पर बात कराओ। मज़बूर होकर एक दिन बेटे से कहा तो बात हो पाई।

तभी ये पता चला कि लखनऊ से बड़े बेटे और इनका फ़ोन आता था लेकिन छोटे बेटे के पास वक़्त नहीं होता था कि मुझ से बात करा देता। इनकी आवाज़ से मुझे यह भी यकीन हो गया कि इनकी भी हालत कोई अच्छी नहीं है। हाँ वहाँ चार साल के पोते के कारण इनका मन ज़रूर थोड़ा बहल जाता था। और मैं पिंजरे में बंद तड़पती रहती। मेरी पूरी दुनिया बरामदे और बॉलकनी तक ही सीमित थी। अपनी और इनकी स्थिति पर मुझे बार-बार कुछ ही महीने पहले टी.वी. पर देखी अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी की बागवान पिक्चर याद आ जाती। उसमें बेटों की उपेक्षा का शिकार माँ-बाप बुढ़ापे में बंट कर अलग-अलग बेटों के पास एक दूसरे से दूर रहते थे। बुढ़ापे में हैरान परेशान व्याकुल। मुझे अपनी कहानी भी बागवान जैसी लग रही थी। हेमा मालिनी ही की तरह मैं सोच कर परेशान हो जाती कि पता नहीं ये ठीक से खा-पी रहें हैं कि नहीं। मैं इसी उधेड़ बुन में परेशान रहती। व्याकुल रहती कि कैसे जल्दी से लखनऊ पहुँचूँ। मगर हालात ऐसे थे कि वापसी हो नहीं पा रही थी। फिर मैंने सोचा इन्हें भी बुला लूँ।

आखिर बहुत हिम्मत करके एक दिन छोटे बेटे से बोली कि कुछ दिन के लिए अपने पापा को भी यहीं बुला लो। मैं सोच रही हूँ कि एक बार अक्षरधाम मंदिर हो आएँ सब लोग। सच कहूँ तो मंदिर सिर्फ़ एक बहाना था मैं इनकी परेशानियों का अनुमान लगा लगा कर परेशान हो रही थी इसलिए सारे जतन कर रही थी कि हम जहाँ भी रहें साथ रहें। क्योंकि बच्चों के व्यवहार ने कहीं हमारे विश्वास को झकझोर दिया था। हिल गई थी हमारे विश्वास की डोर। और बचपन में बाबू जी की अक्सर कही जाने वाली बात का अर्थ भी मैं तभी समझ पाई थी।

"कौन सी बात का?"

"असल में गाँव में जब वह कभी चाचा एवं अन्य लोगों के साथ बैठते और समाज की बातें शुरू होतीं, परिवार की बात आतीं तो वह एक बात जोड़ना नहीं भूलते, कहते

"एक माँ-बाप कई-कई बच्चों को हँसी-खुशी पाल लेते हैं। लेकिन कई-कई बच्चे मिलकर एक अपने माँ-बाप को बुढ़ापे में कुछ बरस भी नहीं पाल पाते।"

"सही तो कहते थे आप के बाबू जी। हम लोगों के कई-कई बच्चे एक माँ-बाप को मैदान में फुटबॉल की तरह एक दूसरे की तरफ किक मार-मार कर ठेल रहे हैं। हमारा सहारा कहाँ बन पा रहे हैं। आप ही देखिए कि आप दिल्ली में, माथुर साहब, लखनऊ में मगर बच्चों को परवाह नहीं थी कि उन्हें भी आपके पास पहुँचा देते। वैसे माथुर साहब कब पहुँचे?"

"नहीं पहुँचे। लाख जतन के बावजूद किसी बेटे के पास वक़्त नहीं था। या कहें कि उन्हें परवाह ही नहीं थी।"

"हे भगवान! तुम्हारे भी खेल निराले हैं। मगर दीदी उस बीच माथुर साहब गए तो थे कहीं बाहर। एक दिन मैं आई थी तो आपकी बड़ी बहू ने बताया था कि वो आऊट ऑफ स्टेशन हैं।"

"हाँ ..... तब वो चार-पाँच दिन के लिए लड़की के यहाँ गए थे। असल में लड़की के ससुर युग निर्माण योजना से जुड़े हैं। बहुत सक्रिय रहते हैं। उन्होंने ही बहुत आग्रह करके बुलाया था। कोई यज्ञ वगैरह का आयोजन था उसी में शामिल होने के लिए। मुझे भी बुला रहे थे लेकिन मैं वहाँ होने के कारण नहीं जा पाई थी। इनका भी मन नहीं था लेकिन समधी जी के आग्रह के आगे एक न चली। इतना ही नहीं वह इनको लेकर चित्रकूट वगैरह घूमने गए। फिर दामाद खुद आकर लखनऊ छोड़ कर गए। मैं इस मामले में बहुत खुशनसीब हूँ। मेरा दामाद हीरा है। आज के ज़माने को देखते हुए मैं तो कहूँगी कि भगवान सभी को ऐसा ही दामाद दे।"

"आप सही कह रही हैं। नहीं तो लड़के तो लड़के दामाद तो और भी जी का जंजाल बन कर सामने आते हैं। उनकी डिमांड उनके नखरे पूरे करते-करते ही ज़िंदगी खतम हो जाती है।"

"असल में दामाद आजकल दो तरह के हैं। एक तो वो हैं जो दहेज के लालची हैं। दहेज के लिए लड़की को मारते-पीटते हैं, जलाकर मार डालते हैं। ऐसे लालचियों की संख्या ज़्यादा है। उसके बाद ज़्यादातर उस तरह के हैं जो बीवी, सास-ससुर, साले-सालियों के पिच्छलग्गू या ये कहें कि गुलाम बन कर रहते हैं। उनकी सेवा-सुश्रुषा में उन्हें बड़ी खुशी मिलती है। उनके लिए तन-मन-धन लुटा देते हैं। अपने घर वालों से नफरत करते हैं। मुझे सुकून सिर्फ़ इस बात का है कि लड़कों के लिए जहाँ हम लोग एक बेकार वस्तु हो चुके हैं वहीं मेरा दामाद न तो दहेज के लालच में लड़की को जलाने मारने, आए दिन डिमांड करने या नखरे दिखाने वाला है और न ही ससुराल वालों की गुलामी करने वाला, वह अपने घर और ससुराल दोनों का पूरा ख़याल रखता है। उन्हें उनका पूरा सम्मान देता है। आज कल ऐसे दामाद गिने-चुने ही होते हैं।"

"हाँ ऐसे दामाद ही सही मायने में हीरा हैं। .... अच्छा ये बताइए कि आपकी लड़की दामाद को इन सारी बातों के बारे में पता है?"

"लड़की को थोड़ा बहुत मालूम है। मैंने उसे मना कर रखा है कुछ बताने के लिए। क्योंकि बताने से सिवाए बदनामी के और कुछ तो मिलने वाला नहीं इसलिए उसको भी कुछ खास नहीं बताया। हाँ उसने कई बार यह ज़रूर कहा कि अगर परेशानी ज़्यादा होती है तो तुम लोग हमारे यहाँ आ जाओ। मगर ऐसे ज़िंदा रहने से तो अच्छा है मर जाना। लड़की के सहारे की ज़रूरत न पड़े भले ही आज ही अभी ही मौत हो जाए।"

"कैसी बात कर रही हैं दीदी। आखिर लड़की भी तो आपकी ही संतान है न। और अब हमें इस बंधन या इस सोच से बाहर आना चाहिए कि लड़की के घर का पानी नहीं पीना चाहिए।"

"देखो अगर तुम्हारी बात मान लें कि चलो लड़की के घर खाने-पीने रहने में कोई संकोच हिचक नहीं करनी चाहिए। आखिर वह भी अपनी ही संतान है। मेरी समझ में लड़की की मदद तभी लेनी चाहिए जब कोई और रास्ता बचा ही न हो। सिर्फ़ लड़की ही हो। लड़के हों ही नहीं। लड़कों के रहते लड़की-दामाद के यहाँ रहना मेरी नज़र में बहुत गलत है। फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस तरह हमें बुरा लगता है कि लड़के ससुरालियों की सेवा में लगे रहते हैं। वैसे ही यदि हम लड़की के यहाँ जाकर रहेंगे तो क्या उसके घर वालों को बुरा नहीं लगेगा? क्या दामाद के माँ-बाप अपने बेटे को ससुरालियों का पिछलग्गू नहीं कहेंगे जैसे हम कह रहे हैं?"

"बात तो सही कह रही हैं आप। मगर इस समस्या का हल क्या ओल्ड एज़ होम है? क्या आप वहाँ शांति से रह सकेंगी? क्या वहाँ आपका मन शांत रह सकेगा? मुझे तो लगता है कि आप वहाँ जाकर और भी ज़्यादा परेशान होंगी यह सोच-सोच कर कि अपनों के रहते हम ओल्ड एज होम में रहने को अभिशप्त हैं। फिर कुछ भी हो जाए मन का क्या करेंगे। बच्चे कैसे भी हो जाएँ माँ-बाप का मन तो उतना कठोर नहीं होगा न, आप ही कुछ देर पहले यह बोल रही थीं। अभी आप परेशान होकर जाने को तैयार हो गई हैं। लेकिन मैं समझती हूँ कि वहाँ जाकर आप हालात को और खराब कर लेंगी। फिर तब यदि वापस आएँगी बेटे-बहू यही कहेंगे हर क्षण लो गए तो थे बड़े ताव में, ठिकाना नहीं लगा। आ गए। उस स्थिति में न इधर के रहेंगे न उधर के। नज़र उठाकर बात करना भी मुश्किल हो जाएगा। खुद अपनी ही नज़रों में हीनता सी महसूस होगी। बच्चों और खुद के बीच एक ऐसी दरार पड़ेगी जिसे भरना संभव नहीं होगा। जीवन के आखिरी कुछ बरस जो रह गए हैं वो नरक समान हो जाएँगे। यह कुुछ वैसा ही होगा जैसे किसी छोटी सी तकलीफ से छुटकारा पाने के लिए किसी और बड़ी मुसीबत को मोल ले लिया जाए। फिर उस बात का क्या होगा जो अभी आपने कही कि लड़की को भी इस लिए सारी बातें नहीं बतातीं कि बदनामी होगी। जब ओल्ड एज होम जाने की बात उसे और दुनिया को मालूम होगी तब क्या बदनामी नहीं होगी। ज़रा सोचिए ठंडे दिमाग से।"

"तो तुम्हीं बताओ क्या करें हम, इधर कुआँ उधर खांई किधर जाएँ हम?" कहते-कहते मिसेज़ माथुर रो पड़ीं।

"आप चुप हो जाइए। ऐसे हिम्मत नहीं हारते। पहले तो यह समझ लें कि यह घर-घर की कहानी है। इसलिए यह सोच-सोच कर दिल छोटा करने की ज़रूरत नहीं है कि एक आप ही परेशान हैं। आप जैसा अगर सब सोचने लगेंगे तब पूरी दुनिया ओल्ड एज होम में तब्दील हो जाएगी। बच्चे गलत कर रहे हैं तो हमारा तो कर्त्तव्य है कि हम तो उन्हें सही बात बताएँ, यदि मानते हैं तो ठीक है, नहीं मानते हैं तो उन्हें अपना जीवन अपने हिसाब से जीने दें। छोड़ दें उन्हें उनके हाल पर।

हम ऐसा कुछ भी न करें जिससे उनको यह लगे कि हम उनकी खुशियों उनकी आज़ादी के बीच में आ गए हैं। सच बताऊँ आपको, जब मुंबई घूमने वाली बात पर बेटे की बातों से दिल टूट गया तो मैं बहुत रोई धोई, गुस्से के मारे कई दिन खाना नहीं खाया। ऊट-पटांग कहती रही बेटे को। कई दिनों चला यह सब, तब एक दिन इन्होंने ही यह सब समझाया। और कहा हमारी और बच्चों की दोनों की भलाई, खुशी इसी में है कि हम किसी के रास्ते में न आएँ। वो भले हमसे कुछ अपेक्षा कर लें लेकिन हमें उनसे एक पैसे की अपेक्षा नहीं करनी है। वो कब आ रहे हैं, कब जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं। अपने कमाए पैसे का सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग हमें इस बारे में सोचना ही नहीं है। उन्हें ठोकर लगने दो, तभी तो वो समझ पाएँगे कि संभला कैसे जाता है। कैसे सावधानी से चला जाए कि ठोकर लगे ही न। क्यों कि हम उस जमाने में जी रहे हैं जहाँ कुछ कहने का अर्थ बच्चे यही लगाते हैं कि हम उनकी आज़ादी, उनके अधिकारों में हस्तक्षेप कर रहे हैं।"

"अरे! हम माँ-बाप हैं क्या हमें इतना भी अधिकार नहीं कि उनसे कुछ पूछ सकें। उन्हें कुछ कह सकें। माँ-बाप, बेटे-बेटियों के अधिकारों, आज़ादी की बात होगी। ये सब एक परिवार के सदस्य हैं या कि बाहरी लोगों का एक झुंड जो अधिकार माँगेंगे, आज़ादी की बात करेंगे। अरे! जब यह सब छीने जाते हैं तब इनकी बात आती है। माँ-बाप तो हर पल सिर्फ़ अपने बच्चों को कैसे अच्छा से अच्छा भविष्य दे सकें केवल यही कोशिश तो करते रहते हैं। फिर घर में यह सारी बातें कहाँ से आ गईं।"

"दीदी आप अपनी जगह सही हैं। लेकिन सच यह है कि आप जैसा चाहती सोचती हैं ज़रूरी नहीं है कि सभी वैसा ही करें। आप जैसा चाहती हैं ऐसा तो सैकड़ों साल पहले ही संभव था। जब माँ-बाप बच्चों के लिए पूज्य हुआ करते थे। और बच्चे माँ-बाप के लिए प्राणों से बढ़कर। यह आज के जमाने में ही हो रहा है कि माँ-बाप पैसे के लालच में लड़कियों से धंधा कराते हैं या बेच देते हैं। या संपत्ति के लिए बाप द्वारा बेटों के कत्ल, बेटों द्वारा बाप के कत्ल का समाचार हम पढ़ते देखते हैं। देखो दीदी सच यह है कि जैसी हवा चल रही हो हमें उसी के अनुकूल अपने को सम्हालते हुए चलना चाहिए। उसके विपरीत चलेंगे तो कष्ट होगा या फिर हममें इतनी क्षमता हो कि हम हवा का रुख बदल दें। ऐसा तो हम लोगों के वश में है नहीं।"

"तो क्या लड़कों की गुलामी करें। उनके सामने गिड़गिड़ाए कि हमारा ख़याल रखें।"

"ओफ़्फो... आप अपने गुस्से को पहले दूर करें। गुरु जी कितना समझाती हैं कि घर को संभालने के लिए या एक रखने के लिए उतनी ही कोशिश करें जितनी से कोई घुटन न महसूस करे। यदि ऐसा होने लगे तो सबको उसके उस हाल पर छोड़ देना चाहिए जिस हाल में वो खुल कर साँस ले सकें। इसी में सबकी भलाई है। आप क्यों चाहती हैं कि लड़के आपको हर वक़्त सिर आँखों पर बिठा कर रखें। यह तो है नहीं कि आप उन पर आश्रित हैं। अरे! वो आपकी परवाह नहीं करते हैं तो आप भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर अपने लिए अलग व्यवस्था कर लें। सुबह-शाम के लिए नौकरानी रख लें जो खाना-पीना, कपड़ा सब कर दे। माथुर साहब इतना तो कमाते ही हैं। फिर क्यों परेशान हैं। हाँ ऐसा करने पर जब लड़के रोकें तो विनम्रतापूर्वक उनसे कह दें कि भाई तुम लोगों के पास वक़्त नहीं है तो ऐसा कर लिया। इससे तुम लोगों को भी आसानी होगी। यह करना ओल्ड एज होम जाने से कहीं बेहतर है। इससे न तो घर की बात बाहर पहुँचेगी न आप अपने घर को छोड़ेंगी। न ओल्ड एज होम के भावनाहीन, ठस, मशीनी माहौल के घुटन से सामना होगा। और हो सकता है लड़के इस क़दम से अपनी गलती समझ जाएँ और आपके हिसाब से चलने लगे। ओल्ड एज होम जाकर तो आप जीवन भर के लिए बात को बिगाड़ लेंगी। बात के सम्हलने के लिए सारे रास्ते हमेशा के लिए बंद कर देंगी। आप इस बारे में गंभीरता से सोचिए। फिर डिसीज़न लीजिए।

ज़रा ओल्ड एज होम की कल्पना कीजिए। हर तरफ से बेसहारा वृद्ध लोगों का एक समूह होगा। जिनके चेहरे पर सिवाय उदासी के कुछ न होगा। जो हमेशा चुप रहेंगे या फिर अपनी दुख भरी कहानी बता कर आँसू बहाएँगे, आपको भी रुलाएँगे। एक निश्चित टाइम पर खाना-पीना और योग आदि के नाम पर बेवजह ज़बरदस्ती हँसाने का उपक्रम करेंगे। यहाँ तो सब कुछ अपना है। वहाँ कुछ भी अपना न होगा। मेरी तो समझ में यह नहीं आ रहा है कि आपने वहाँ जाने का सोच भी कैसे लिया। और आश्चर्य तो यह कि माथुर साहब भी तैयार होकर चल दिए ओल्ड एज होम के लिए। सोचिए गुरु जी सुनेंगी तो क्या कहेंगी कि उनकी दसियों साल की शिक्षा का कोई फ़र्क नहीं है। वह तो यह भी बताती हैं कि हम यदि बहुओं को भी, उतना ही प्यार करें वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपनी बेटियों के साथ करते हैं तो शायद ही कोई बहू होगी जो हमें नहीं मानेगी। कहीं कुछ कमी तो हमसे भी रह जाती होगी तभी तो बहुएँ हमें खलनायिका समझने लगती हैं।"

"अरे! तुम क्या यह कहना चाहती हो कि मैं बहुओं से लड़ती हूँ?"

"नहीं ... नहीं मैं ऐसा सोचती भी नहीं, मैं तो एक जनरल बात कर रही हूँ कि जैसे गुरु जी बतातीं है कि ताली दोनों हाथ से बजती है चलिए आप अपनी बहुओं को बहुत मानती हैं लेकिन वह फिर भी आपको नहीं मानतीं तो सीधा सा मतलब है कि वह संयुक्त परिवार या सब को साथ लेकर चलने में यकीन नहीं करतीं। ऐसे में समझदारी इसी में है कि उसे उसके हिसाब से जीने दीजिए। आप अपने हिसाब से जीएँ। अगर इस थोड़ी सी दूरी से शांति बनी रहे तो मुझे लगता है यह कहीं से गलत नहीं है। बाकी आप समझदार हैं दीदी, जो ठीक समझें करें मगर फिर भी कहूँगी कि ओल्ड एज होम जाने के बारे में एक बार फिर से विचार अवश्य कर लें।"

"सच कहूँ तो मन तो मेरा भी नहीं है। मज़बूर होकर ही यह फैसला लिया। मगर जैसा तुम बता रही हो ओल्ड एज होम के बारे में उसे जानकर तो लगता है यहीं रहना बेहतर है। जब कोई रास्ता न बचे तभी वहाँ के बारे में सोचें। मगर मुश्किल यह भी है कि यह जब कोई डिसीज़न ले लेते हैं तो जल्दी बदलते नहीं। इन्हें कैसे समझाऊँ।"

"तभी कॉल बेल बजी तो मिसेज़ माथुर ने उठते हुए कहा लगता है आ गए हैं। तुम रुको मैं खोलती हूँ गेट," पत्नी-संग माथुर साहब अंदर आ गये। राहुल की माँ ने उन्हें नमस्कार कर उठते हुए कहा,

"अच्छा दीदी अब मैं चलती हूँ।"

"नहीं ... नहीं बैठो इतनी जल्दी क्या है।"

राहुल की माँ के बैठने के बाद मिसेज़ माथुर ने पति के सामने उनकी सारी बातें रखीं। जिन्हें सुनकर वह बोले,

"आप कह तो सही रही हैं। कई ओल्ड एज होम के चक्कर लगा चुका हूँ। वहाँ के हालात तो मुझे और भी बदतर नज़र आए। बड़ा ही नीरस ऊबाऊ और दमघोंटू माहौल है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ कहाँ जाऊँ।"

"भाई साहब मेरी मानिए तो यहीं रहिए अपने घर में। यह दीवारें, यह सामान, यह पूरा घर सब कुछ है आपका। बच्चे भले ही दूरी बनाए हुए हैं लेकिन इन्हें आपने बरसों पहले जहाँ बनवाया था ये आज भी वहीं है। इन्होंने आपका साथ नहीं छोड़ा। यह निर्जीव हैं मगर आपके साथ बनी हुई हैं और आखिर तक बनी ही रहेंगी। जब तक आप इनसे अलग नहीं होंगे तब तक यह आपको छोड़ने वाली नहीं। तब आप इन्हें क्यों छोड़ रहे हैं। यह निर्जीव हैं लेकिन अहसास करिए तो इनके साथ भी एक भावनात्मक रिश्ता है आप दोनों का। यहाँ आप बच्चों से अलग भी रहेंगे तो भी माहौल दमघोंटू नहीं लगेगा। मैं तो कहूँगी कि एक बार इत्मिनान से विचार कर लें तब क़दम आगे बढ़ाएँ।"

"विचार क्या करना है, आप जो कह रही हैं सही कह रही हैं। जब इस घर की दीवारें नहीं छोड़ रहीं हमारा साथ तो हम छोड़ कर क्यों जाएँ कहीं और। मेरा खून पसीना समाया है इन दीवारों में, एक-एक पैसा जोड़ कर बनाया है। आपने बहुत सही समझाया। यह भी तो मेरे ही परिवार का हिस्सा हैं। वो कहते हैं न कि मानो तो देवता नहीं तो पत्थर। चलो बच्चे न सही यही सही। कोई तो है साथ। ओल्ड एज होम में यह भी न होगा।"

"इतना ही नहीं भाई साहब इन दीवारों पर आपको अपने बच्चों का बचपन, अपने जीवन के बीते सारे पल भी हँसते-खिल-खिलाते सुनाई देंगे दिखाई देंगे। सब कुछ अपना होगा। फिर हालात बदलते भी तो देर नहीं लगती। हो सकता है जब बच्चे गलती का अहसास करें तो फिर लौट आएँ आपके पास। मैं तो यह भी सोचती हूँ कि हम लोगों का यह संन्यास आश्रम है। बच्चों का मोह छोड़ कर बस अपने को ईश्वर, अन्य कामों में व्यस्त रखें। यह अकेला घर हम लोगों की वन में बनी कुटिया है। है न दीदी। आधुनिक ज़माने की कुटिया। क्योंकि वन तो अब रहे नहीं तो वन में कुटिया कहाँ से बनेगी।"

राहुल की माँ की इस बात पर माथुर दंपति मुस्कुरा उठे। माथुर ने गहरी साँस लेकर कहा,

"आप सही कह रही हैं। समय के साथ परिवर्तित स्थितियों को समझना जितना ज़रूरी है उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है उनके अनुसार अपने आचार-व्यवहार, मन, कार्यशैली, जीवनशैली में भी परिवर्तन लाना। जड़वादी सोच से बचना। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आपने जीवन संध्या के व़क्त एक गलत क़दम उठाने से बचा लिया। आपको इसके लिए धन्यवाद देता हूँ।"

"अरे! भाई साहब इसमें धन्यवाद की क्या बात है। सच तो यह है कि हम सब एक ही नाव पर सवार हैं। सहयात्री हैं। यात्रा हँसते मुस्कुराते पूरी हो यह ज़िम्मेदारी सभी यात्रियों की है।"

"तभी माथुर साहब का मोबाइल बज उठा। नंबर देख कर उन्होंने मोबाइल पत्नी को देते हुए कहा,

"लो तुम्हारे श्रवण कुमार का फ़ोन आ गया बात करो। अभी मेरा मन बात करने का नहीं है।" स्थिति को देखते हुए राहुल की माँ ने भी यह कहते हुए चलने की इज़ाज़त ली कि "अब चलती हूँ। बहुत देर हो गई है वो भी आ गए होंगे और हाँ कल सत्संग ज़रूर आइएगा।

                                ===================


औघड़ का दान

सीमा अफनाई हुई सी बहुत जल्दी में अपनी स्कूटी भगाए जा रही थी। अमूमन वह इतनी तेज़ नहीं चलती। मन उसका घर पर लगा हुआ था जहां दोनों बेटियां और पति कब के पहुंच चुके होंगे। दोनों बेटियों को उसने डे-बोर्डिंग में डाल रखा था, जिन्हें ऑफिस से आते वक़्त पति घर ले आते थे और सुबह छोड़ने भी जाते थे। क्योंकि उसके ऑफ़िस एल.डी.ए. में समय की पाबंदी को लेकर हाय तौबा नहीं थी।

हां वह सब समय से पहले पहुंचते हैं, जिन्हें ऊपरी इनकम वाली जगह मिली हुई थी। और जो सुबह होते ही शिकार को जबह करने की हसरत लिए आंखें खोलते हैं। और तब-तक अड़े रहते हैं ऑफ़िस में जब-तक कि शिकार मिलने की जरा भी उम्मीद रहती है। दूसरी तरफ जो ऊपरी इनकम वाली जगह पर नहीं होते हैं, वे अपनी कुंठा निकालते हैं देर से ऑफ़िस पहुंच कर, अपने काम को कभी समय से पूरा न करके एवं समय से पहले ही ऑफ़िस छोड़ कर या व्यक्तिगत कामों के लिए जब मन आया तब ऑफ़िस छोड़ कर।

सीमा का पति नवीन इसी श्रेणी में आता है। इसलिए उसका ऑफ़िस आना-जाना पता ही नहीं चलता। कब आ जाए, कब चला जाए कोई ठिकाना नहीं। इसके चलते वह अपने बच्चों की देख-भाल के लिए पूरा वक़्त निकाल लेता है। पत्नी के हिस्से का भी बहुत सा काम कर डालता है, पत्नी सीमा ऑफ़िस से आने में एक मिनट भी देर कर दे तो उसका मूड खराब हो जाता है। 

वह लाख कारण बताए लेकिन उसे उन पर यकीन नहीं होता। और आज तो हद ही हो गई थी। साढ़े आठ बजने को थे। उसका कहीं पता नहीं था। मोबाइल भी नहीं उठा रही थी। उसकी बुरी आदतों में कॉल रिसीव न करना भी शामिल था। पूछने पर एक ही जवाब कि बैग में था, रिंग सुनाई ही नहीं पड़ी। मगर आज रोज की अपेक्षा बहुत देर हो चुकी थी। इस लिए नवीन चिंतित हो रहा था।

सीमा पति के मूड का ही ख़याल कर अपनी स्कूटी पूरी रफ़्तार से भगाए जा रही थी। हालांकि सड़क पर इस समय तक ऑफ़िस वालों की भीड़ कम हो चुकी होती है, लेकिन फिर भी ट्रैफ़िक बहुत था और हमेशा की तरह वायलेंट भी।

सीमा की आंखें इस ट्रैफ़िक को लेकर बहुत सतर्क थीं, मगर सचिवालय के करीब पहुंचते ही वहां लगे जाम ने उसे रोक दिया, इस पर वह खीझ कर बुदबुदाई, ''ये जाम कब पीछा छोड़ेंगे।'' हेलमेट के अंदर से उसकी यह बुदबुदाहट बाहर तक आई, लेकिन बाहर गाड़ियों के शोर में खो गई। उसके आगे-पीछे दाएं-बाएं हर तरफ गाड़ियां थीं। फोर व्हीलर से लेकर थ्री व्हीलर, टू व्हीलर तक सब! जाम कुछ इस कदर लगा था कि जो जहां था वहीं खड़ा था, ज़्यादा टाइम लगते देख कईयों ने अपनी गाड़ियां बंद कर दी थीं। सीमा ने भी। करीब पांच मिनट के बाद ट्रैफ़िक को आगे बढ़ने के लिए सिग्नल मिला। दूसरी तरफ से किसी मंत्री जी का काफ़िला निकलना था इसलिए ट्रैफ़िक इतनी देर तक रोका गया था। 

सिग्नल मिलते ही सारी गाड़ियां बेतहाशा भाग खड़ी हुर्इं। लेकिन सीमा की स्कूटी स्टार्ट ही न हुई। उसने किक मारी लेकिन नतीजा शिफर, इस बीच हार्नों  की चीख-पुकार एक दम बढ़ गई। इसी शोर में पीछे किसी मनचले ने चीख कर कहा, ''अरे! माता जी हिलोगी-डुलोगी या यहीं खड़ी रहोगी।''

अपने लिए माता जी सुनकर सीमा चिढ़ कर बुदबुदाई, ''कमीने! अपनी माता को माता जी नहीं बुलाएंगे, हमें माता जी कह रहे हैं, साले कमीने।'' इस बीच उसने और कई किक मारी जिससे स्कूटी स्टार्ट हो गई। फिर वह भी बिना एक सेकेंड देर किए फर्राटे से आगे बढ़ गई। जब घर पहुंची तो नौ बज चुके थे। पोर्च में एक कोने में उसने अपनी स्कूटी खड़ी की। वहीं बगल में पति की मोटर-साइकिल एवं मकान मालिक की कार और मोटर-साइकिल दोनों खड़ी थीं। मतलब की उसके अलावा बाकी सब पहले ही आ चुके थे। यह सब देखकर आज देर से आने के मुद्दे पर वह बहुत दिन बाद पति का सामना करने में भय का अहसास कर रही थी। 

पोर्च के बगल से ही ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां थीं। मकान मालिक ने किराएदार का रास्ता भी अलग रखने की गरज से ऊपर जाने के लिए बगल से ही सीढ़ियां बनवा दी थीं। सीमा सीढ़ियों को एक तरह से फलांगती हुई ऊपर पहुंची। अंदर कमरे की लाइट जल रही थी।  टीवी की आवाज़ आ रही थी। उसके कॉलबेल बजाते ही अंदर से दोनों बेटियों की आवाज़ गूँजी,  ''मम्मी.... और इसके कुछ ही क्षण बाद दरवाजा खुला, वह पूरी तरह अंदर पहुंच भी नहीं पाई थी कि, दोनों बेटियां उससे चिपक गईं और प्रश्न पर प्रश्न चालू, ''मम्मी इतनी देर क्यों कर दी?'' छोटी वाली बोली, ''मम्मी मेरी चॉकलेट लाई हो?''

सीमा दोनों को प्यार करती हुई सोफे की तरफ बढ़ी जहां पति नवीन मुंह फुलाए बैठे टीवी देख रहे थे। सीमा भी उसके सामने सोफे पर बैठ गई बेटियों को यह समझाते हुए कि, ''आज चॉकलेट लेना भूल गई। तुम लोग यह टॉफी ले लो।''

उसने बैग से कुछ टॉफियां निकाल कर दोनों को दे दीं जो उसके बैग में हमेशा रहती हैं। क्योंकि इन्हें खाने की उसे आदत सी थी। अब तक पति द्वारा एक नज़र न देखने और कुछ न बोलने से वह समझ गई कि मामला गंभीर है। उसने धीरे से कहा, 

''सॉरी बहुत देर हो गई। वो असल में सोफी का हाथ टूट गया है। उसका ट्रीटमेंट कराने के बाद मुझे उसे उसके घर तक छोड़ने जाना पड़ा। इसी लिए आने में देर हो गई।''

पति इतना कहने पर भी कुछ न बोले तो उसने कहा, 

''मैं मान रही हूं तुम सब परेशान हो गए होगे। मगर मज़बूर थी और कोई रास्ता ही नहीं था। पूरी बात सुनोगे तो तुम्हें लगेगा कि मैंने गलती नहीं की।'' 

इतनी बात पर भी पति टस से मस नहीं हुए तो उसे बड़ी खीझ हुई। प्यास के मारे गला अलग सूख रहा था। इस बार अप्रैल महीने में ही गर्मी ने मई की गर्मी का अहसास करा दिया था। थकान, प्यास और पति के गुस्से से पस्त हो उसने बड़ी बेटी से कहा, 

 ''रुचिका बेटे जरा मम्मा के लिए पानी ले आओ।''

'' हाँ बेटा जल्दी से पानी ले आओ, साक्षात् देवी मइया अवतरित हुई हैं, चढ़ाने के लिए कुछ प्रसाद वगैरह भी ले आना।'' 

रुचिका, मां की बात सुनकर पानी के लिए उठ भी न पाई थी कि नवीन ने पत्नी सीमा पर तीखा व्यंग्य बाण चला दिया और फिर रिमोट लेकर टीवी के चैनल बदलने लगा। रुचिका कुछ न समझ के जब ठिठक गई तो सीमा ने उसे जाने का इशारा किया। देवी मइया सुन कर उसे रास्ते में मिले शोहदों का फिकरा ''माता जी'' कहना फिर कानों में गूंज गया। रुचिका के जाते ही उसने कहा, 

''कमसे कम बच्चों के सामने तो ठीक से बोलिए। सोफी की मज़बूरी देखते तो तुम भी वही करते जो मैंने किया। बच्चों को सो जाने दीजिए फिर बताती हूं कि क्या हुआ। तब बताना कि मेरी गलती है क्या ? हां मुझे फ़ोन कर देना चाहिए था, इतनी गलती ज़रूर हुई।''

'' ठीक है, सोने दो बच्चों को फिर आज तुम्हारी बजाता हूं कायदे से। कई दिन से नहीं बजाई इसी लिए घर-सेवा छोड़ कर समाज-सेवा ज़्यादा करने लगी हो।''

नवीन की बजाने वाली बात ने उसे राहत दी कि चलो मामला सुलझ गया। क्योंकि उसके बजाने शब्द के पीछे छिपे अर्थ को वह बखूबी समझती थी। समझ यह भी गई थी कि लाख थकी है, पर पति महोदय जल्दी सोने नहीं देंगे। वह यह सोच ही रही थी कि छोटी बेटी जो उसकी गोद में बैठी टॉफी खा रही थी, उसने पूछा, 

''मम्मी पापा हम-लोगों के सोने के बाद क्या बजाएंगे?''

उसके प्रश्न से चौंक कर सीमा बोली,

''अं...कुछ नहीं बेटा, पापा ऐसे ही कुछ बोल रहे थे।''

 ''नहीं, आप झूठ बोल रही हैं.....बताइए न क्या बजाएंगे?''

''ओफ्फो अपने पापा से ही पूछो क्या बजाएंगे। लीजिए अब बताइए क्या बजाएंगे। कितनी बार कहा बच्चों का थोड़ा ध्यान रखा करिए। अब चुप क्यों हैं लीजिए संभालिए।'' कहते हुए सीमा ने बेटी को गोद से उतार कर भेज दिया नवीन के पास और बड़ी बेटी से पानी लेकर पीने लगी। रुचि ने पिता के पास पहुंच कर फिर वही प्रश्न किया तो नवीन ने उसे अपनी गोद में बैठाते हुए कहा,

'' हूँ...बेटा तब मैं मोबाइल में तुम्हारी जो पोएम रिकॉर्ड की है न, उसे बजाएंगे।''

''क्यों?'' 

''क्योंकि तुम्हारी आवाज़ बहुत-बहुत मीठी है न इसलिए।''

''तो अभी क्यों नहीं बजाते?''

''अभी इसलिए नहीं क्योंकि  अं.....अं....क्योंकि अभी टीवी चल रहा है।''

 ''लेकिन पापा आपने तो मम्मी की बजाने के लिए कहा था।''

'' हूँ...मां की तरह पीछे ही पड़ जाती है। तुम्हारी पोएम मां के मोबाइल में भी है न, और उनका मोबाइल ज़्यादा बढ़िया है, इसलिए उन्हीं का बजाएंगे। अब तुम अपना कार्टून चैनल देखो ठीक है।''

नवीन ने रुचि के प्रश्नों से बचने के लिए उसे रिमोट थमा दिया। और सोफे पर पसर कर बैठ गया। तब-तक पानी पीकर काफी राहत महसूस कर चुकी सीमा ने खड़े होते हुए कहा, 

''और बोलो अंड-बंड।''

इसके बाद उसने अंदर जाकर कपड़े चेंज किए और जल्दी से किचेन में घुस गई। वहां यह देख कर उसे राहत मिली कि पति महोदय ने सब्जी वगैरह पहले से ही काट कर रखी हुई है। चाय का कप, दूध लगा गिलास एवं नाश्ते की जूठी प्लेटों ने यह भी बता दिया कि पति महोदय ने नाश्ता बना कर बच्चों के साथ कर लिया है।

इसके बाद उसने जल्दी-जल्दी खाना बनाया। सबने मिलकर खाया। फिर बच्चे पापा के साथ बिस्तर पर पहुंच गए। लेकिन सीमा अभी किचेन में ही थी। सवेरे के लिए काफी कुछ तैयारी कर लेना चाह रही थी। क्योंकि सुबह वक़्त बहुत कम होता है। पति, बच्चों सहित खुद के लिए भी ढेर सारा काम करना होता है। 

जब काम निपटा कर पहुंची बेडरूम में तो साढे़ ग्यारह बज रहे थे। बच्चे, पति सोते मिले। एक-एक कर दोनों बच्चों को उनके कमरे में बेड पर लिटाने के बाद वह खुद आकर पति के बगल में लेट गई। अब-तक थक कर वह चूर हो चुकी थी। पति को सोता देख उसने सोचा चलो कल करेंगे बात, फिर आंखें बंद कर लीं । उसे बड़ा सुकून मिला दिन-भर की हांफती-दौड़ती हलकान होती ज़िंदगी से। उसे अभी आंखें बंद किए चंद लम्हे ही बीते थे कि, पति की इस बात ने उसकी आंखें खोल दीं। 

''देवी-मइया को फुरसत मिल गई क्या?''

इस पर वह तिलमिला कर बोली,

''क्या हो गया है आज। तभी से देवी-मइया, देवी-मइया लगा रखा है। रास्ते में वो शोहदे माता-जी बोल रहे थे और तुम हो कि तभी से........

इसके बाद सीमा ने उसे जाम में फंसने और शोहदों के फिकरे वाला  वाक़िया बताया तो नवीन बोला,

'' बेवकूफ रहे होंगे। उनको रात में ठीक से दिखता नहीं होगा। नहीं तो तुम बीस साल की कमसिन हसीना लगती हो। कहीं से माता जी तो लगती ही नहीं।''

''अच्छा, तो फिर क्यों तब से देवी-मइया, देवी-मइया किए जा रहे हो।''

''नहीं, वो समाज सेवा पूरी करने के बाद तुम्हें घर का होश आया था न, इस लिए। लोग अपना घर तो देख नहीं पा रहे हैं और तुम पूरा समाज देख रही हो तो महान हुई न।''

 ''पूरी बात जानने के बाद तुम्हें गुस्सा होना चाहिए। तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे कि मैं रोज नौ-दस बजे घर आती हूं। आज सोफी ने जो बताया सुनकर मैं दंग रह गई कि, इंसान कैसे अपनी पत्नी को इतनी बर्बरता से पीटता है। वो भी उस बात के लिए जो इंसान के हाथ में है ही नहीं और ईश्वर के आगे किसकी चली है?''

''लेकिन  वो उसे इतना क्यों मारता है। वह विरोध क्यों नहीं करती?''

''अभी हर पत्नी विरोध करने लायक ताक़त कहां पा पाई है, सोफी भी उन्हीं में से एक है जो मार खा कर चुप-चाप आंसू बहाती रहती है।''

''मगर तुम्हें उसको इस बात के लिए तैयार करना चाहिए। तुम तो हर बात का विरोध करती हो।''

''अच्छा! कह तो ऐसे रहे हो जैसे कि मैं हमेशा लड़ती ही रहती हूं और तुम चुप-चाप सुनते रहते हो।''

''मैंने बात विरोध की, की है न कि लड़ने की। लड़ाई और विरोध में फ़र्क करना भी जान लो देवी-मइया, समझी, चलो आगे बताओ।''

नवीन ने व्यंग्य करते हुए करवट ली और अपना एक हाथ सीमा के वक्ष पर रख दिया। सीमा इस पर बोली, ''सीधे रहो तो आगे बोलूं ...

''बोलो न।''

''उसका आदमी उसे इसलिए मारता है कि वह तीन लड़कियों को जन्म दे चुकी है, लड़का क्यों नहीं पैदा करती?''

 ''क्या मूर्खता है, इसमें औरत का क्या दोष, वो क्या कर 

सकती है?''

''ये तुम या तुम्हारे जैसे लोग समझते हैं न। उसके पति जैसे जाहिल नहीं।''

''क्या वो इतना भी पढ़ा लिखा नहीं है। करता क्या है वो?''

''ओफ्फो.....पहले तुम ये जो कर रहे हो, इसे बंद करो तब तो बोलूं। दर्द होता है यार समझते क्यों नहीं।''

सीमा ने अपने वक्ष से नवीन के हरकत कर रहे हाथ को हटाते हुए कहा,

''चलो समझ गया, अब बोलो मगर जल्दी। मुझे अभी और भी कई काम करने हैं।''

''मैं जानती हूं अभी तुम्हें और कौन से काम करने हैं।'' 

सीमा ने नवीन का आशय समझते हुए कहा फिर आगे बोली,

''असल में उसके आदमी की पढ़ाई-लिखाई, पारिवारिक बैकग्राऊंड कोई बहुत अच्छी नहीं है। वह नौ भाई-बहन है, उसके पिता ने मोटर-साइकिलों की रिपेयरिंग का वर्क-शॉप खोल रखा था। बच्चों को ज़्यादा पढ़ाने-लिखाने के बजाए जैसे-जैसे वे बड़े हुए उन्हें वर्क-शॉप में लगाते गए। इसका शौहर भाई-बहनों में छटे नंबर पर था और किसी तरह ग्रेजूएशन कर लिया। फिर लैब टेक्नीशियन का भी कोर्स कर लिया और संयोगवश अचानक ही के जी.एम.यू. में नौकरी लग गई।''

''और सोफी का परिवार?''

''सोफी का परिवार पढ़ा लिखा समझदार परिवार है।''

''तो इसके चक्कर में कैसे पड़ गए? वो इतना मारता-पीटता है तो अपने मायके में क्यों नहीं बताती।?'' 

''उसके साथ यह एक और बड़ी मुश्किल है।''

''क्यों ऐसा क्या हुआ?''

''असल में इन-दोनों ने अपने-अपने घर वालों के बहुत ज़्यादा विरोध के बावजूद लव-मैरिज की है। बाद में सोफी ने अपने घर वालों से संपर्क करना चाहा लेकिन घर वालों ने दुत्कार दिया। उसकी सारी कोशिश बेकार हो गई, तो उसने भी हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया। यही हाल पति का भी है। दोनों का अपने-अपने घरों से बरसों से कोई संबंध नहीं है। उसका पति तो जब पिछले साल उसके फादर की डेथ हुई तो उनके अंतिम संस्कार में भी नहीं गया।''

''समझ में नहीं आता कि ऐसे उजड्ड, जाहिल के चक्कर में कैसे फंस गई तुम्हारी सोफी।''

''फंस नहीं गई, धोखे से फंसा ली गई।''

''क्या मतलब?'' 

''मतलब यह कि सोफी के फादर एच.ए.एल. में सर्विस करते थे। सोफी के एक भाई एक बहन है। सोफी सबसे बड़ी है। इससे छोटी एक बहन बचपन में ही किसी बीमारी की वजह से मर गई थी। सोफी पढ़ाई-लिखाई में ठीक थी। जूनियर हाई स्कूल के बाद पैरेंट्स ने उसका एडमिशन एच.ए.एल. के स्कूल से निकाल कर निशातगंज के किसी स्कूल में करा दिया।''

''क्यों?''

''क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सोफी को-ऐड वाले किसी स्कूल में पढ़े। वो सोचते थे लड़कों के साथ पढ़ेगी तो बिगड़ जाएगी।''

''ये तो मुर्खतापूर्ण सोच है बिगड़ने वाले तो कहीं भी बिगड़ सकते हैं।''

''हाँ, एक्चुअली हुआ भी यही, इंटर के बाद सोफी को महिला कॉलेज अमीनाबाद में डाल दिया गया। वहीं इसकी मुलाकात जुल्फी यानी इसके हसबैंड से हुई। लड़कियों के कॉलेज के पास जैसे तमाम शोहदे लड़के मंडराया करते हैं, वैसे ही यह भी मंडराया करता था। महीनों सोफी यानी सूफिया का पीछा करता रहा, दोस्ती करने की बात करता रहा। 

आखिर उसकी मेहनत रंग लाई और सोफी फंस गई उसके चंगुल में। सोफी बताती है कि, तब वह सभ्य शालीन नज़र आता था। पढ़ाई के बारे में बताता कि मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कर रहा है। फादर को बैंक में मैनेजर बताया। भाइयों को अच्छी-अच्छी जगह पर बताया। झूठ यह भी बोला कि वह केवल चार भाई-बहन है। और जब भी आता तो हर बार बदल-बदल कर बाइक लाता।

वास्तव में यह वह गाड़ियां होती थीं जो उसके यहां बनने आती थीं। वह कुछ देर के लिए उन्हें ले लेता। इन सब बातों ने सोफी को प्रभावित कर दिया। वह घर से निकलती स्कूल के लिए लेकिन पूरे समय उसके साथ घूमती, मटर-गस्ती करती।''

''मतलब कि पैरेंट्स ने जिस डर से को-ऐड से पीछा छुड़ाया वही हो गया।'' 

''हाँ।''

''एक बात बताओ हसीन और चंचल तो तुम भी बहुत थी तुम्हारे पीछे लड़के नहीं पड़ते थे क्या?''

 ''पड़ते क्यों नहीं थे। मैं दुनिया से कोई अलग थी क्या?''

''तो तुम क्यों नहीं फंसी?''

''मां...अपनी मां की वजह से। पापा तो ऑफ़िस से कभी फुरसत ही नहीं निकाल पाते थे। जब घर पर रहते तब भी बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते थे। मगर मम्मी पूरा ध्यान देती थीं। हम-लोगों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर एक-एक गतिविधि पर पूरा ध्यान रखती थीं। हर विषय पर खुल कर बात करती थीं। दोस्त बन कर सारी बात सुनतीं, बतातीं जिस से हम लोग संकोच में कुछ छिपाए नहीं। 

मुझे अच्छी तरह याद है कि कपड़े कैसे पहनना है, यह बताने से लेकर यह तक बताती थीं कि, देखो बड़ी हो गई हो। रास्ते में लड़के मिल कर बात करना चाहेंगे। दोस्ती करके तुम्हारा मिस यूज करेंगे। पेपर,  टीवी की तमाम ऐसी घटनाओं का ब्योरा देकर बतातीं कि, ''हमारा समाज ऐसा है कि, लड़कों का तो कुछ नहीं होता, लड़कियां बरबाद हो जाती हैं। ये शोहदे सिर्फ़ लड़कियों से उनका शरीर खेलने, पाने के लिए दोस्ती करते हैं। खुद उन्हें लूटते हैं, अपने दोस्तों के सामने भी डालते हैं। मन का नहीं हुआ तो मार डालते हैं। तेजाब डालते हैं।'' 

बचने का रास्ता बतातीं कि, 'घर से स्कूल से कई लड़कियों के साथ निकलो। यदि कोई लड़का मिलने की कोशिश करे तो सख्ती से पेश आओ। कभी डरो मत।' ऐसे वह सब कुछ हम-सब को खुल कर बतातीं थीं। यही कारण था कि तमाम शोहदे पीछे पड़े लेकिन उनको जो जवाब मिलता था, उससे वह दुबारा मिलने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। और हम लोग ऐसे मूर्खतापूर्ण कामों से दूर अपनी पढ़ाई पूरी करने में सफल रहे।''

''तो तुम यह सोफी को भी तो समझा सकती थी।''

''उस समय तो मैं उसे जानती भी नहीं थी। हमारा परिचय तो ऑफ़िस में हुआ।'' 

''उसके घर वाले क्या करते रहे। लड़की बाहर आवारागर्दी कर रही है उनको इसकी खबर भी नहीं थी क्या?''

''खबर होती तो वो उसके हाथ-पैर तोड़ कर घर बैठा देते। लेकिन जुल्फ़़ी इतना शातिर था कि दोनों ने शादी कर ली उसके बाद घर वालों को पता चला। बड़ी हाय तौबा-मची, पुलिस-फाटा सब हुआ लेकिन सब व्यर्थ। कानूनन उनका कुछ नहीं किया जा सकता था। दोनों एडल्ट थे।''

''ये सख्ती पहले दिखाते तो शायद ये नौबत ही न आती।''

''ऐसा नहीं है। सोफी जैसा बताती है उस हिसाब से उसके पैरेंट्स बहुत सख्त थे। वो तो सोफी को चौदह-पंद्रह साल की उम्र में ही बुर्का पहनने के लिए कहने लगे थे। लेकिन उसकी जिद और जैसा बताती है कि, कॉलोनी का माहौल ऐसा था कि, वह बुर्का से बची रही। और सबसे बड़ी बात यह है कि घर के चोर को रखाया नहीं जा सकता। कोई कुँए में कूदने की जिद किए बैठा हो तो, कब-तक बचाओगे उसे। मैं तो उस समय उससे यह सुन कर दंग रह गई, जब उसने यह बताया कि बी.ए. फर्स्ट ईयर में जब इन दोनों की दोस्ती हुई तो, उसके तीन महीने बाद ही दोनों के शारीरिक संबंध बन गए थे।''

''जब तुम्हारी सोफी इतनी उतावली थी, सेक्स की इतनी भूख लगी थी उसे तो, अकेले जुल्फ़़ी को दोष कैसे दे सकते हैं?''

''ये भी कह सकते हो। लेकिन मुझे लगता है कि, वह इतनी इनोसेंट थी कि, जुल्फी जैसे शातिर को समझ न पाई। वह कितना धूर्त और शातिर था इसका अंदाजा इसी एक बात से लगा सकते हो कि, पहली बार सेक्स के बाद उसने सोफी से कॉपर टी लगवाने की बात कर डाली। जब सोफी डर गई, मना कर दिया इन चीजों के लिए तो उसने तरह-तरह से ऐसे समझाया जैसे कोई मेच्योर आदमी हो। उसने डराते हुए कहा कि, 'ऐसे वह प्रिग्नेंट हो गई तो मुश्किल हो जाएगी।'

सोफी ने इस पर कहा, 'ठीक है, आज के बाद हम लोग शादी के बाद ही सेक्स करेंगे।' जुल्फ़ी को लगा कि यह तो हाथ से निकल जाएगी। तो उसने तरह-तरह से डराया, मनाया और अंततः इसके लिए सोफी को तैयार कर लिया। इसके बाद वह उसे, जब उसका मन न होता तब भी ले जाता अपने साथ। इससे पढ़ाई पर बड़ा असर पड़ा। हमेशा फर्स्ट आने वाली सोफी किसी तरह बी.ए. पास कर पाई।''

''हूँ...तुम्हारी सोफी की ज़िंदगी में बड़े पेंचोखम हैं। मायका-ससुराल नाम की कोई चीज बची नहीं है। ले दे के जुल्फ़ी और जुल्फ़ी है। और वो इसी का फ़ायदा उठा रहा है।''

''हाँ, इसी का फ़ायदा उठा रहा है। जैसा चाहता है वैसा व्यवहार करता है। कल रात ऐसा मारा कि हाथ में फ्रैक्चर हो गया। रात-भर कराहती रही, सुबह हाथ सूजा हुआ देख कर भी एक बार न पूछा कि, कैसे ऑफ़िस जाओगी। और वह भी न जाने किस मिट्टी की बनी है कि, इस हालत में भी स्कूटी चला कर ऑफ़िस आ गई। ऑफ़िस में जब दर्द बहुत बढ़ गया तब रोने लगी। उस की हालत देख कर मुझ से रहा नहीं गया तो ले गई हॉस्पिटल। डॉक्टर ने देखते ही कह दिया फ्रैक्चर है। फिर मेरा फर्ज बन गया कि मैं उसकी मदद करूं।'' 

''हाँ, फर्ज पूरा भी किया तुमने। उसको घर छोड़ने गई तो, उसका वो जाहिल आदमी मिला था क्या?''

''हाँ दरवाजा उसी ने खोला। एक नज़र सोफी के प्लास्टर चढ़े हाथ को देखा फिर अजीब सी नजरों से मुझे देखा। उसे देख कर मुझे गुस्सा आ गई। मगर कंट्रोल करते हुए कहा, 'इनके हाथ में गहरा फ्रैक्चर है। डॉक्टर ने आराम करने को कहा है। देखिए मियां-बीवी में तकरार होती रहती है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि हाथ-पैर टूट जाएं।''

मेरे इतना कहते ही सोफी बोल पड़ी,

'सीमा आओ अंदर बैठो मैं चाय बना कर लाती हूं।'

सोफी का मतलब मैं समझ गई थी कि, वह अपने पति की आदतों के चलते नहीं चाहती थी कि, मैं कुछ कहूं। मैंने भी तुरंत बात पलटी और कहा,

'नहीं सोफी, बहुत देर हो गई है। मैं तुरंत चलूंगी। अभी घर पहुंचने में घंटे भर से ज़्यादा समय लग जाएगा। मैं कल आऊंगी।'

इसके बाद मैं स्कूटी की तरफ चल दी। सोफी ने कई बार कहा, लेकिन मैं नहीं रुकी। उसकी तीनों बच्चियां भी जुल्फ़ी के साथ खड़ी थीं। मैं उन सब को बॉय कर चल दी। रास्ते-भर मेरी नज़रों के सामने कभी तुम लोगों का, तो कभी सोफी की बच्चियों का चेहरा नज़र आता रहा। उनका चेहरा याद आते ही मैं उन मासूमों के बारे में सोचने लगती कि, उनका भविष्य क्या होगा। जिनकी मासूमियत कुपोषण के चलते कुम्हला गई थी।''

''तुम्हारी सोफी की हालत वाकई बड़ी गंभीर है, उसकी ज़िदगी में हर तरफ अंधेरा ही दिख रहा है। मुझे एक बात याद आ रही है। हालांकि मुझे कभी भरोसा नहीं था। लेकिन जब छुटकी होने वाली थी तो, तुम्हारी हालत बड़ी खराब हो गई थी। कहने को उस समय मैटरनिटी मामलों का वह सबसे बड़ा हॉस्पिटल था। वहां की डॉक्टर नमिता अंचल पूरे शहर में जानी जाती हैं। तुम्हें तो उन पर अटूट विश्वास है।''

''हाँ वो हैं ही इतनी काबिल। अपनी सीरियस कंडीशन से मैं बहुत डरी हुई थी, लेकिन डॉक्टर नमिता का नाम सुना तो मुझे विश्वास हो गया वह मुझे बचा लेंगी। और मेरा विश्वास टूटा नहीं।'' 

''लेकिन मेरी नज़र में सच कुछ और है। सीमा नो डाउट कि डॉक्टर नमिता बहुत काबिल हैं, लेकिन आज भी मेरा पूरा यकीन है कि उस दिन न सिर्फ़ तुम्हारी, बल्कि छुटकी की भी जान उस औघड़ बाबा जी ने बचाई जिनके पास मैं उस दिन गया था।''

''औघड़ बाबा ने!''

''हाँ, जब डॉक्टरों ने कहा कंडीशन बहुत सीरियस है तो मैं घबरा गया। समझ में नहीं आ रहा था क्या करूं। तीन घंटे बाद ऑपरेशन होना था। इसी समय ऑफ़िस से सोम पांडे आ गए। हालत जान कर वो भी परेशान हो गए। अचानक उन्होंने मुझसे कहा,

'नवीन आदमी दवा, पूजा-पाठ सब करता है कि, न जाने कौन सी चीज लग जाए।'

मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से उसकी तरफ देखा तो उसने कहा, 'मोहान के पास एक औघड़ साधू बहुत दिन से आ कर रुका हुआ है। लोग उनके पास जाते हैं, तो बिना कुछ बताए ही वह मन की बात जान जाता है, और समाधान बता कर भेज देता है। आज-तक कोई उससे निराश नहीं हुआ है। अभी तीन घंटे बाकी हैं। हम लोग वहां से होके आ सकते हैं।' तुम्हारी हालत से मैं डरा था ही लेकिन कम समय के कारण मैंने कहा,

'यार इस हालत में मैं गाड़ी नहीं चला पाऊंगा।' तब वह बोले, 'मैं चलता हूं।' मैं तुम को छोड़ कर जाना नहीं चाहता था। लेकिन जब अम्मा सहित बाकी सबने कहा तो मैं चला गया। बाबा के पास गया तो वह मेन मोहान रोड से करीब एक किलो मीटर दूर जंगल में मिले। 

एक पेड़ के सहारे पुआल की एक छोटी सी झोपड़ी में, करीब बीस-पचीस मीटर दूर एक छोटा टीला था। आस-पास हर तरफ झाड़ झंखाड़। और टीले पर बीचो-बीच एक लकड़ियों का ढेर सुलग रहा था। उसके पास ही पुआल पर एक चिथड़ा कंबल पड़ा था। बाबा उसी पर एक दम नंगे औंधे मुंह पड़े थे। छः फिट से ज़्यादा एकदम पहलवानों जैसा जिस्म था। भभूत से उनका पूरा जिस्म काला हो रहा था। 

हम-दोनों हाथ जोड़ कर उनके नजदीक खड़े हो गए। हमारे प्रणाम बोलने का उन्होंने कोई जवाब न दिया। मैं उनकी इस हरकत से आतंकित हो रहा था। वापिस तुम्हारे पास आने की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद हमने और सोम ने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर जैसे ही बाबा के और करीब पहुंचने के लिए क़दम बढ़ाने को हुए वह एकदम से उठ कर बैठ गए। 

उन्हें देख कर कुछ क्षण को हम दोनों सहम गए। नशे के कारण आँखें सुर्ख थीं। बड़ी-बड़ी जटाएं। दाढ़ी। वीभत्स रूप था। हम कुछ बोलें इसके पहले ही वह उठे और जो लकड़ियां सुलग रहीं थीं, उसके किनारे पड़ी राख में से एक मुट्ठी निकाल कर मेरे में हाथ देते हुए कहा,

'ले जा इसको, लगा दे जा कर उसे। कुछ नहीं होगा।'

हम उनका पैर छूने को बढ़े तो वह चीख पड़े, 'चल भाग यहां से, वक़्त बहुत कम है तेरे पास, देर हुई तो जय महाकाल।' उनकी चीख और बात से हम एकदम पसीने-पसीने हो गए। मगर फिर जितनी तेज़ हो सकता था हम उतनी तेज़ भागे वहां से। सोम इतनी तेज़ मोटर-साइकिल चला रहा था कि कई जगह लड़ते-लड़ते बचे। मैंने पूरी ताकत से भभूत को मुट्ठी में जकड़ रखा था। मैं जब हॉस्पिटल पहुंचा तो तुम्हें सिजेरियन ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर ले जा रहे थे। 

तुम स्ट्रेचर पर आंखें बंद किए पड़ी थी, वार्ड ब्वाय, नर्स, सब जल्दी-जल्दी अंदाज में थे। मुझे लगा कि तुम्हारी हालत ज़्यादा गड़बड़ है इसीलिए सब तेज़ी से जा रहे हैं। तुम्हारा भाई अम्मा को पकडे़ हुए चल रहा था। तभी सोम बोला, 'जल्दी से लगाओ।' मैं, जो उस समय बहुत नर्वस हो गया था, जल्दी से तुम्हारे माथे पर भभूत लगा दी। फिर उसके बाद जो हुआ उससे मैं क्या डॉक्टर नमिता भी चौंक गईं।''

''क्यों ऐसा क्या हो गया था।''

''हुआ यह कि भभूत लगते ही तुमने आंखें खोल दीं। मुझे देख कर हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया। मगर तभी ऑपरेशन थिएटर आ गया और फिर मैंने तुम्हें अंदर जाने दिया। तभी डॉक्टर नमिता मेरे सामने आ गईं और बोलीं, 'रियली इट्स ए मिरेकल, बाद में इस बारे में बात करती हूं।'

फिर वह जल्दी से चली गईं ऑपरेशन थिएटर में। बाहर अम्मा, मैं तुम्हारे भाई और सोम इंतजार करते रहे। एक-एक पल बहुत भारी बीत रहा था। मगर यह लंबा नहीं चला, मुश्किल से चालीस-पैंतालीस मिनट बीते होंगे कि डॉक्टर बाहर निकलीं। मैं तुरंत उनके पास पहुंचा तो वह बधाई देती हुईं बोलीं,

'बधाई हो, लड़की हुई। मां-बच्ची दोनों ही बिल्कुल ठीक हैं। मगर जिस तरह से सब कुछ हुआ, उससे मैं आश्चर्य में हूं। मेरे इतने लंबे कॅरियर में इस तरह की यह पहली घटना है।' 

फिर उन्होंने बताया कि अंदर जाते ही आश्चर्यजनक ढंग से तुम्हारी कंडीशन नॉर्मल होने लगी। जिस सिजेरियन के लिए उन्होंने सारी तैयारी कर रख थी वो शुरू करतीं, उसके पहले ही छुटकी का जन्म हो गया। नॉर्मल डिलीवरी हुई थी। कुछ ही देर बाद हमने तुम-दोनों को देखा, लग ही नहीं रहा था कि यह वही केस है जो कुछ देर पहले तक बेहद सीरियस था। अगले दिन डॉक्टर ने जब मुझ से भभूत के बारे में पूछा तो मैंने सारा वाक़िया बता दिया। सुन कर वह बड़ी चकित हुईं। बोलीं,      

'बड़ी अजीब है यह दुनिया। न जाने कैसे-कैसे लोग पड़े हैं दुनिया में। क्या पता कौन किस रूप में मिल जाए।'

''लेकिन आज से पहले तो तुमने यह सब कभी नहीं बताया।''

''अं....यह कह लो कि डर। मैंने सोचा कि अगर बताऊंगा तो तुम हंसोगी कि अच्छा पहले तो बड़ा इन सबको गरियाते थे। कि ये पाखंडी होते हैं। ढोंगी ठग होते हैं। इन को कहीं गहरी नदी में डुबो देना चाहिए। जब सिर पर आन पड़ी तो दौड़े चले गए। इसी लिए नहीं बताया फिर बाद में धीरे-धीरे बात भी दिमाग में धूमिल होती गई।''

''ऐसा कैसे सोच लिया तुमने। तुम मेरे, बच्चों के लिए इतना सोचते, करते हो और मैं तुम पर हसुंगी, यह मैं सोच भी नहीं सकती। फिर ऐसी बात दिमाग में मत लाना। मगर यह घटना तुम्हें अभी क्यों याद आई।''

''इसलिए याद आ गई कि मुझे लगा यदि सोफी वहां जाए तो उसकी समस्या भी शायद हल हो जाए। जिस तरह तुम उसके बारे में बता रही हो उससे मुझे उस पर बड़ा तरस आ रहा है।''

''तुम्हें उस बाबा पर इतना यकीन है।''

''हाँ.....पूरा यकीन है। जानती हो जिस दिन तुम्हें डिस्चार्ज किया गया, उस दिन डॉक्टर नमिता ने मुझसे पूरी बात सुनने के बाद बाबा का पूरा ठिकाना नोट किया। जब मैंने कहा कि, ऐसे उन्हें ढूंढ़ पाना मुश्किल है, तो उन्होंने कहा, 'नहीं मिलेंगे तब आपको कष्ट दूंगी।' बड़ा कुरेदने पर सिर्फ़ इतना ही संकेत दिया कि हॉस्पिटल में सीनियर चैन से नहीं रहने दे रहे हैं और घर पर पति और बेटी ने अपनी-अपनी हरकतों से परेशान कर रखा है। उनकी परेशानी का अंदाजा इसी से लगा सकती हो कि यह बात कहते-कहते उनकी आंखें छल-छला आई थीं।''

''तो बाबा के पास वह गईं कि नहीं।''

''पता नहीं बाद में उन्होंने कोई फ़ोन नहीं किया। हालांकि मेरा नंबर अपने सेल में फीड किया था।''

''लेकिन सोफी से यह बताना ठीक रहेगा। वह मुस्लिम है। हिंदू बाबा की बात पर नाराज़ न हो जाए।''

''कैसी बचकानी बात करती हो। ज़रूरत पड़ने पर आदमी हर जगह जाता है। ऐसे तमाम मुसलिम लोगों को मैं जानता हूं जो हिंदू स्थानों पर मन्नतें मांगने जाते हैं। हिंदू बाबाओं के शिष्य हैं। फिर तुम्हारा काम है उसकी समस्या के समाधान के लिए एक रास्ता बता देना। बाकी हिंदू-मुसलमान वह खुद तय कर लेगी। उसे ज़रूरत होगी तो जाएगी, नहीं तो नहीं जाएगी। तुम्हारा काम है उसकी जो मदद कर सकती हो, वह कर देना बस। अब मुझे नींद आ रही सवेरे जल्दी उठना है।''

''हाँ...रोज वही बोरिंग लाइफ कुछ बचा ही नहीं है।''

''अभी बहुत कुछ बचा है डॉर्लिंग, आओ तुम्हें बताता हूं, तुम्हारी बजानी भी तो है।'' कहते हुए नवीन ने सीमा को बांहों में जकड़ लिया। उसने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया।''

अगले दिन उम्मीद के मुताबिक सीमा को ऑफ़िस में सोफी नहीं मिली। उसने उसे फ़ोन कर उसका हाल-चाल लिया तो सोफी ने बताया, सूजन अभी है। दर्द पहले से कुछ ही कम हुआ है। ऑफ़िस दो-चार दिन बाद ही आ पाएगी। उसने यह भी बताया कि, 'पहले तो पति इस बात पर चिल्लाया कि उसको क्यों नहीं बताया। सारे ऑफ़िस में उसकी मार-पीट की बात बताकर उसकी निंदा कराई होगी। लेकिन तब शांत हुआ जब उसे यह बताया कि नहीं ऐसा कुछ नहीं बताया। तुम्हारे अलावा लोगों को सिर्फ़ इतना ही मालूम है कि स्कूटी के भिड़ जाने से फ्रैक्चर हुआ।' 

सोफी इसके बाद पति की निष्ठुरता के बारे में बता कर रोने लगी कि, एक लड़का न होने के कारण वह किस तरह उसे प्रताड़ित कर रहा है। इतनी चोट के बावजूद उसने खाना बनाने में कोई मदद नहीं की। दर्द से तड़पते हुए उसने एक ही हाथ से रात ग्यारह बजे तक सारा काम निपटाया। 

दवा खाने के बाद जब उसे कुछ राहत मिली और वह सो गई तो कोई आधे घंटे बाद ही वह अपनी हवस शांत करने पर उतारू हो गया। लाख मिन्नतें कीं, चोट का, दर्द का हवाला दिया लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ा। क्रूरतापूर्वक अपनी हवस शांत कर खर्राटे भरने लगा। और वह दर्द से घंटों पड़ी कराहती रही। 

सोफी की यातना उसकी रुलाई सुन कर सीमा भी भावुक हो उठी। वह गुस्से में बोली,

'सोफी वो तुम्हारा आदमी है। मुझे कुछ कहने का अधिकार तो नहीं है लेकिन यह कहे बिना अपने को रोक नहीं पा रही हूं कि, तुम्हारा आदमी ऐसा भावनाहीन प्राणी है कि वह आदमी कहलाने लायक नहीं है। आखिर तू फंस कैसे गई इसके चक्कर में।'

'अब क्या बताऊं, मुकद्दर में जो लिखा था वो हुआ। अब तो ऐसे ही घुट-घुट कर मरना है।'' 

'नहीं सोफी ज़िंदगी घुट-घुट कर मरने के लिए नहीं होती। फिर तू किसी पर डिपेंड नहीं है। किसी की दया पर नहीं जी रही है। तुम पहले ठीक हो जाओ। जब ऑफ़िस आओगी तब बात करेंगे।'

'ठीक है सीमा। तुम्हारी जैसी सहेली किस्मत से ही मिलती है। कम से कम इस मामले में तो मैं भाग्यशाली हूं। अच्छा ऑफ़िस में ध्यान रखना। कुछ राहत मिल जाए तो ज्वाइन करती हूं। मुझे लगता है चार-छः दिन तो लग ही जाएंगे।'

इतनी बातों के बाद सीमा ने फ़ोन काट दिया। इस बीच उसने कई बार सोचा कि बाबा के बारे में बात करे लेकिन न जाने क्यों संकोच कर गई। नहीं बोल पाई बाबा के बारे में। बड़ी देर तक वह सोचती रही सोफी की तकलीफों के बारे में कि आदमी ऐसा जाहिल और क्रूर मिला है, उसकी ज़िंदगी कैसे कटेगी। ऐसे तो उसे जीवन में सुख का कोई एक कतरा भी शायद ही मिल पाएगा। 

उसे इस नर्क से निकालने के लिए तो कोशिश करनी ही चाहिए। अभी इतनी बड़ी ज़िंदगी पड़ी है। तीन-तीन बच्चियों का भी जीवन जुड़ा है उससे। यह तलाक लेकर किसी अच्छे इंसान से दूसरा निकाह क्यों नहीं कर लेती। इनके यहां तलाक हम हिंदुओं के यहां की तरह दुष्कर तो है नहीं। मगर यह सलाह मैं उसे कैसे दे सकती हूं। वह बुरा मान गई तो। 

उस के दिमाग में सोफी की मदद करने की उधेड़बुन पूरे जोरों पर थी कि तभी उसके सीनियर ने चपरासी से उसे बुला भेजा। वह खिन्न होते हुए चपरासी से बोली, 'ठीक है कह दो आ रही हूं।' फिर मन ही मन बुद-बुदाई कमीने के पास कोई काम-धाम है नहीं। बैठा कर फालतू बातें करेगाए घूर-घूर कर ऊपर से नीचे देखेगा। नज़र मिल जाए तो खीसें निपोर देगा, कुत्ता कहीं का लार टपकाता घूमता रहता है। कमीने की बीवी पता नहीं क्या करती रहती है। वह कोसती गरियाती जब उसके पास पहुंची तो उसके अनुमान के मुताबिक ही वह खीसें निपोरता हुआ बोला,

'आइए-आइए सीमा जी आज कल आप लिफ्ट नहीं दे रहीं हैं।'

'नहीं सर ऐसी बात नहीं है।' कहते हुए सीमा सामने चेयर पर बैठ गई और काफी देर तक अंदर ही अंदर कुढ़ती उसकी अनर्गल बातें सुनती रही।

सोफी करीब एक हफ्ते बाद हालत सुधरने पर ऑफ़िस पहुंची तो सीमा के बारे में सुन कर दंग रह गई। उसकी हिम्मत की वह कायल हो गई। हाथ में प्लास्टर लगने के बाद जब वह अगले दिन नहीं आई थी तब सीमा ने उस समय ऑफ़िस में हंगामा खड़ा कर दिया था, जब उसका सीनियर उससे कुछ ज़्यादा ही अश्लील बातें करने लगा था।

सीमा ने न सिर्फ़ जी भर के हंगामा करा, पूरा ऑफ़िस इकट्ठा कर लिया, बल्कि उसकी लिखित कंप्लेंट की, फिर यूनियन और अन्य लोगों के साथ तब-तक दबाव बनाया जब तक कि विभागीय जांच के आदेश न हो गए। उसने यूनियन के उन लोगों की एक न सुनी जो बातचीत कर मामले को रफा-दफा करा देना चाहते थे। यह सब जानने के बाद सोफी ने तुरंत सीमा को फ़ोन किया। क्योंकि अभी तक वह आई नहीं थी। सीमा ने फ़ोन उठाते ही कहा, 

''अभी पैरेंट्स मीटिंग में हूं, एक घंटे बाद आती हूं।''

सोफी बेसब्री से उसका इंतजार करती रही। क्योंकि वह उसके मुंह से ही सब सुनना चाहती थी। सीमा बताए वक़्त से जब करीब दो घंटे लेट पहुंची  ऑफ़िस तो सोफी छूटते ही बोली, 

''तूने तो कमाल कर दिया यार। उस सबसे बड़े घाघ को ठीक कर दिया। सारी औरतों का जीना हराम कर रखा था। पिछले महीने तो मुझसे दो बार कहीं घूमने चलने के लिए कह चुका था। मैंने मारे डर के किसी से कुछ नहीं कहा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए।''

''यही तो गलती की। हम लोगों की इन्हीं गलतियों के चलते इन शोहदों की हिम्मत बढ़ती है। हमें तुरंत करारा जवाब देने की आदत डालनी ही पड़ेगीए तभी गुजारा है। अच्छा अभी कुछ काम कर लेते हैं फिर लंच में बातें करते हैं, तुम्हें अभी बहुत कुछ बताना है।''

''हाँ ठीक है, नहीं तो सब कहेंगे मिलते ही दोनों चालू हो गईं।''

लंच टाइम में सोफी-सीमा फिर मिलीं। सोफी का हाल-चाल लेने एवं सीनियर के साथ हुए बखेड़े के बारे में बताने के बाद सीमा सीधे उस मुद्दे पर आ गई जिसे वह सोफी से हफ्ते भर से कहना चाह रही थी। फ़ोन पर बात जुबां पर आते-आते कई बार रह गई थी। उसने सोफी से बाबा के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उसकी बच्ची के जन्म के समय बाबा ने मदद की। और आखिर में जोड़ा,

''देखो सोफी, मैं यह कहने की हिम्मत जुटाने में हफ्ते भर असमंजस में रही कि, तुम एक बार उस औघड़ बाबा से मिल लो। तुम्हारी हालत देखकर मैं बहुत आहत थी। तभी बातचीत में पति ने यह सब बताया। संकोच वह भी कर रहे थे कि, तुम मुसलमान हो, हिंदू औघड़ बाबा की बात पर नाराज़ न हो जाओ।''

''नहीं, ऐसा क्यों सोचती हो। तुम लोग मेरे लिए इतना सोच रहे हो और मैं नाराज होऊं ऐसा तो संभव ही नहीं है। मैं तो जीवन भर तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी। मगर एक आशंका है।'' 

''क्या?''

''मैंने सुना है कि औघड़ बहुत ही भयानक तरह की पूजा-पाठ करते हैं। शायद कपड़े वगैरह भी नहीं पहनते।''

''बिना कपड़ों के तो नागा साधू रहते हैं। हां औघड़ बाबाओं की पूजा में मांस-मदिरा नशा-पानी सब चलता है। बड़े क्रोधी भी होते हैं। ज़्यादातर यह श्मशान घाट पर पूजा करते हैं। ये समझ लो कि जैसे तुम्हारे यहां टोना, झाड़-फूंक आदि करने वाले बाबा आदि होते हैं उनसे ही मिलते जुलते।''

''मगर सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि, इनको यह बताऊं कैसे कि फलां औघड़ बाबा के पास चलो तो मुराद पूरी होगी। बेटा ही होगा। और यदि यह नहीं गए तो जाऊंगी कैसे?''

''क्यों क्या तुम्हारे पति को इन बातों पर यकीन नहीं है?''

''थोड़ा बहुत नहीं बहुत ज़्यादा है। न जाने कितने पीर-फकीरों से मिलते रहते हैं। तमाम भभूत, ताबीज़, गंडे आदि लाते रहते हैं। न जाने कितना पैसा इन्हीं सब पर फूँक देते हैं। अगर मुझे सच मालूम है तो यह कई हिंदू साधु-संन्यासियों के भी चक्कर लगा चुके हैं।''

''तब तो कोई दिक़्कत ही नहीं होनी चाहिए।''

'' है बहुत बड़ी दिक़्कत है। वह खुद तो पीर-फकीर, मौलवी हर के पास जाते रहते हैं। मगर मुझे इनमें से कहीं भी ले जाना उन्हें मंजूर नहीं। शुरू में एक दो जगह बड़े दबे मन से ले गए। मगर पिछले साल एक मौलवी के यहां जब गए और उसने जो भी बताया और झाड़-फूंक कर कुछ चीजें मुझ पर फेंकी और फिर इन्हें कुछ सामान देकर किसी चौराहे पर फेंक कर आने को कहा, वहां तक तो सब ठीक था। लेकिन जब यह करीब दस-पंद्रह मिनट बाद लौटे तो उस मौलवी में न जाने ऐसा क्या देख लिया कि तुरंत मुझे वहां से लेकर चल दिए। रास्ते भर उसका नाम लिए बिना ढोंगी, बेईमान और न जाने क्या-क्या गाली देते रहे। 

घर पर मेरे साथ भी बदतमीजी की। इतनी बात मेरी समझ में आई कि 'कमीनी वहां से हट नहीं सकती थी।' मैं आज तक नहीं समझ पाई कि आखिर उस दिन उस मौलवी को इन्होंने ऐसा क्या करते देख लिया था कि, अचानक ही इतना आग-बबूला हो गए। फिर इस घटना के बाद मुझे कभी ऐसी किसी जगह लेकर नहीं गए। और मेरी हिम्मत भी नहीं पड़ती कि मैं कुछ कहूं। अब तुम्हीं बताओ कि वह मुझे लेकर एक औघड़ बाबा के यहां जाएंगे?''

''मुझे भी कोई उम्मीद नहीं दिखती। अब तुम अपनी सहूलियत के हिसाब से देख लो, सोचो कोई रास्ता निकाल सकती हो तो निकालो। नहीं तो फिर वक़्त का इंतजार करो। हो सकता है तुम्हारे पति यह सब करते-करते थक-हार कर बैठ जाएं और लड़के के बारे में सोचना बंद कर लड़कियों पर ही मन लगा लें।''

''नहीं सीमा मुझे ऐसा मुमकिन नहीं लगता।''

''क्यों ?''

''अब क्या बताऊं...कहना तो नहीं चाहिए मियां-बीवी के बीच की बात है, लेकिन जब तुम हमारे लिए इस हद तक परेशान हो तो खुल कर बताती हूं तुम्हें। बेटा हो इस बात के लिए यह इस हद तक जिद पकड़ चुके हैं कि, आए दिन एक और निकाह कर लेने या फिर तलाक दे देने की धमकी देते ही रहते हैं। 

उनकी इस धमकी से सिहर उठती हूं कि अगर तलाक दे दिया तो इन तीनों लड़कियों को लेकर जाऊंगी कहां। यदि दूसरा निकाह कर लिया तो ज़िंदगी और नरक। बेटे के लिए इनकी दिवानगी का अंदाजा इसी एक बात से लगा सकती हो कि, दुआ तावीज ही नहीं तरह-तरह की अंड-बंड दवाएं भी खाते हैं और जबरदस्ती मुझे भी खिलाते रहते हैं। 

पिछले कई महीनों से एक झोला छाप हकीम के चक्कर में पड़े हुए हैं। उसने न जाने ऐसी कौन सी दवा दी है कि, दूध में लेने के बाद जैसे अपना आपा ही खो बैठते हैं। उसके बताए तरीके से ऐसे अंड-बंड रौंदते हैं मुझे कि, मेरा कचूमर ही निकल जाता है। एक ही रात में कई बार रौंदते हैं। नफरत इतनी कि खत्म होते ही धकेल देते हैं।

 मेरी हालत का अंदाजा इसी बात से लगा सकती हो कि मेरा हाथ टूटा है, लेकिन इस हाल में भी नहीं छोड़ते। मेरी कितनी मदद करते हैं उसका अंदाजा इस बात से लगाओ कि, इस हालत में जब इन्होंने पहले दिन अपनी पहलवानी दिखा ली उसके बाद मैंने सलवार का नाड़ा बांधने की कोशिश की तो बांध नहीं पाई। यह लौटे बाथरूम से तो दर्द से सिसकते हुए मैंने नाड़ा बांधने के लिए कहा तो बदले में गाली मिली।

मैं लाख कोशिश के बाद नहीं बांध पाई तो सोचा बड़ी वाली लड़की को उठाऊं। लेकिन फिर सोचा यह ठीक नहीं है। अंततः मैंने बैग से बड़ी वाली सेफ्टी पिन निकाली और फिर मुंह में दबा कर उसे किसी तरह खोला और एक हाथ से ही सलवार में लगाया। किसी तरह काम चला। दिन में बच्ची की सहायता से ही नाड़ा बांधना खोलना हो पा रहा है। मारे डर के जीने भर का ही पानी पीती हूं कि बाथरूम जाना ही न पड़े। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? कैसे करूं।?

''माफ़ करना सोफी, मगर तुम्हारे आदमी और जल्लाद में कोई बड़ा फ़र्क मुझे दिखता नहीं। तुम्हारी हालत देख कर समझ में नहीं आता कि क्या करूं। बाबा के यहां जाने के लिए तुम पति से कुछ कह नहीं सकती। और सबसे यह बात शेय़र नहीं की जा सकती।''

''क्या वहां अकेले जाने वाला नहीं है? या तुम अगर थोड़ा वक़्त निकाल सको।" 

''इन्होंने जैसा बताया उस हिसाब से ऐसा कुछ नहीं है। टेम्पो भी आते-जाते हैं। जहां तक मेरे चलने का प्रश्न है तो...देखो सोफी बुरा नहीं मानना मैं भी अपने आदमी को अच्छी तरह जानती हूं, और अपनी लिमिट भी, फिर भी कहती हूं जब कोई रास्ता न बचे तो बताना। कोई न कोई रास्ता निकाल लूंगी। नहीं होगा तो अपने हसबैंड को ही किसी तरह तैयार कर लूंगी।''

''वे मान जाएंगे?''

''मैंने कहा न, मैं मना लूंगी। पहले तुम यह तय करो कि जाओगी कि नहीं। और टाइम कैसे निकालोगी। आदमी को बताओगी कि नहीं।''

''देखो मैंने यह तो तय कर लिया है कि जाऊंगी। और यह भी तय है कि आदमी को इसकी भनक भी नहीं लगने दूंगी। रही बात टाइम की तो एक ही रास्ता है पहले ऑफ़िस आऊंगी फिर यहां कुछ देर बाद आधे दिन की छुट्टी लेकर चली जाऊंगी।'' 

''लेकिन इस बीच मान लो तुम्हारा हसबैंड आ गया या फ़ोन आ गया तो कैसे मैनेज करोगी?''

''देखा जाएगा। कहां तक क्या-क्या मैनेज करूं।''

''अच्छा आओ अब चलते हैं लंच टाइम खत्म हुए आधा घंटा से ज़्यादा हो रहा है। एक मिनट तुम्हें बाथरूम जाना हो तो बताओ , इसमें संकोच की ज़रूरत नहीं है। मैं नाड़ा बांध दूंगी। इसलिए ऑफ़िस में जितना पानी पीना हो पियो, यहां मैं हूं तुम्हारे साथ। फिर कुछ दिन में तो इससे फुरसत मिल ही जाएगी न।''

''देखो....डॉक्टर जिस तरह गोल-मोल बात करता है उससे तो लगता है कम से कम दो महीने और लगेंगे।''

बाथरूम में जब सीमा सोफी की सलवार बांध रही थी तभी उसे अपने हाथ पर गर्म-गर्म दो बूंदें टपकने का अहसास हुआ। उसने एक झटके से सोफी के चेहरे की ओर देखा और बोली, 

''ये क्या सोफी, इतना इमोशनल होने से ज़िंदगी नहीं चलती। तुम तो बहादुर हो, सामना करो हर चीज का। ऐसे कमजोर होने से काम नहीं चलता। आओ चलो। लेकिन पहले मुंह धो लो नहीं पंचायती लोग मुंह देख कर जान लेंगे आंसुओं के बारे में और आ जाएंगे घड़ियाली सांत्वना देने और बाद में खिल्ली उड़ाएंगे।'' 

लंच से वापस आने के बाद भी दोनों ने कुछ ही काम किया। बाकी समय बतियाती ही रहीं। सोफी अपने पति से जुड़ी बातों को बता-बता कर बार-बार भावुक होती रही और सीमा धैर्य रखने को बोलती रही। जुल्फी से मुलाकात के दिन को वह अपने लिए सबसे मनहूस दिन बताती रही। और सीमा से यह भी कहा कि, ''तलाक की जैसी तलवार हर क्षण हम-लोगों पर लटकती रहती है, तीन सेकेंड में तलाक हो जाता है, वैसी तलवार तुम लोगों पर होती ही नहीं। तुम्हारे यहां तो तलाक देना शादी करने से भी ज़्यादा बड़ा और मुश्किल काम है। इस लिए तुम लोग पतियों से बराबर बहस कर सकती हो, हम लोग नहीं। यही वजह है कि हमें तुम जैसी आज़ादी नसीब ही नहीं हो सकती।''

दोनों की अंतहीन बातें शाम तक चलती रहीं। छुट्टी होने पर बिदा ली घर के लिए। घर पहुंचने तक सोफी के दिमाग में तमाम बातें उमड़ती-घुमड़ती रहीं। उसे अपनी ज़िंदगी अपनी किस्मत पर रोना आता रहा। और अर्से बाद अचानक आज उसे बड़ी शिद्दत से अम्मी-अब्बू, भाई-बहनों की याद आ रही थी। और आखिरी बार का वह मिलना-बिछुड़ना  भी।

जब पुलिस कस्टडी में वह जुल्फ़ी के साथ थी, अब्बू ने उसे नाबालिग कहते हुए जुल्फ़़ी पर उसके अपहरण का आरोप लगाया था। पुलिस ने इस पर उसे गिरफ़्तार कर लिया था। लेकिन अब्बू उसके नाबालिग होने का कोई प्रमाण नहीं दे सके। जुल्फ़़ी के कहने पर वह अपना हाई-स्कूल का प्रमाण पत्र घर छोड़ने से पहले ही उठा लाई थी। जिसे दिखा कर जुल्फ़़ी ने साबित कर दिया था कि वह बालिग है। और उस पर दर्ज कराया गया केस फर्जी है अतः उसे छोड़ा जाए। क्योंकि लड़की उससे निकाह कर चुकी है।

जुल्फ़़ी की तैयारियों के आगे पुलिस विवश थी। अंततः उन दोनों को छोड़ दिया गया। तब उसे जुल्फ़ी के साथ जाते उसके अब्बू-अम्मी, भाई-बहन रिश्तेदार देखते रह गए थे। अम्मी रोते-रोते बोली थी, 'अब भी लौट आ कुछ नहीं बिगड़ा है।' मगर बाद में हार कर चिल्ला पड़ी थी। 'तू जन्मते ही मर क्यों नहीं गई थी करमजली। जा तू जीवन भर पछताएगी। जैसे हम सब को तड़पा रही है, जीवन भर तड़पेगी। अल्लाह त आला तुझे एक पल को भी चैन न बख्सेगा।' फिर वह दुपट्टे से अपना मुंह ढक के वहीं सड़क पर बैठ कर रोने लगी थीं। और अब्बू! वह तो गुस्से से कांप रहे थे।

अब कुछ न हो सकेगा यह यकीन हो जाने के बाद उन्होंने ज़ुल्फ़ी और उसको जी-भर गाली दी थी। और बात तब मार-पीट तक पहुंच गई थी जब उन्होंने यह कहा कि, 'जीवन में दुबारा दिखाई मत देना नहीं तो बोटी-बोटी काट डालूंगा।' इस पर जुल्फ़ी और उसके साथी भड़क उठे थे। लेकिन थानेदार ने आमतौर पर नज़र आने वाले सख्त पुलिसिया रवैए से अलग दोनों पक्षों को घर जाने को कहा। जुल्फ़ी का वकील तो अड़ा हुआ था कि अब्बू के खिलाफ हत्या की धमकी देने, फर्जी केस दर्ज कराने का मामला दर्ज हो। 

इसके बाद वह अपने परिवार से कभी न मिल सकी। निकाह के करीब साल भर बाद उसने एक दिन जुल्फ़ी से छिपा कर तीन बार फ़ोन किया था। पहली बार भाई ने फ़ोन उठाया था। और आवाज़ सुनते ही डांट कर फ़ोन का रिसीवर पटक दिया था। कुछ देर बाद फिर किया तो मां ने उठाया, फिर वह एक सांस में जितनी लानत मलामत भेज सकती थीं, भेज कर यह कहते हुए रिसीवर पटका कि दुबारा किया तो पुलिस में कंप्लेंट कर दूंगी। 

यह भूली बिसरी बातें सोचते-सोचते उसके आंसू निकलते रहे। और एक बार वह बुदबुदा उठी, 'अम्मी उस दिन तुम कह रही थी कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है लौट आ। मगर वहां तुमको कैसे बताती कि, तब यह मुमकिन ही न रह गया था। क्योंकि तब-तक जैनब मेरे पेट में दो महीने की हो चुकी थी। और हमारे सामने कोई रास्ता बचा न था। क्योंकि यह किसी भी सूरत में एबॉर्शन को तैयार ही न थे।'

ऐसे ही ख़्यालों में डूबती उतराती वह घर पहुंच गई, लेकिन दिमाग में यह बातें चलती रहीं। तब भी जब बच्चियां अपनी दिन भर की बातें बतातीं और सुनाती रहीं। और मियां जुल्फ़ी अपनी आदत के अनुसार मन का काम न होने पर अंड-बंड बकते रहे। आज यह बात उसके दिमाग में कुछ इस कदर शुरू हो चुकी थी कि, तब भी चलती रहीं जब बच्चियां खा पी कर सो गईं। और मियां जी भी अपना वहशियाना खेल, खेल कर खर्राटे ले रहे थे। और वह दर्द से आहत हो छत को निहारती निश्चल पड़ी थी। तब उसका एक हाथ सलवार का नाड़ा पकड़े हुए था। क्योंकि बाथरूम से आने के बाद वह उसे बांध नहीं पा रही थी। और तभी से वह कमरे की लाइट ऑन किए विचारों में पहले की तरह डूबती उतराती जा रही थी। 

हाथ को लेकर सोफी की आशंका सही निकली। पूरी तरह ठीक होने में करीब दो महीने लग गए। यह दो महीने उसके बहुत ही कष्ट-पूर्ण दर्द भरे रहे। पति का जाहिलों भरा व्यवहार कहीं से कम न हुआ। और नाड़ा बांधना! यह उसके लिए किसी भयानक सजा को भोगने का अहसास देने वाला साबित हुआ। 

इन सारी बातों के साथ जो एक बात सबसे अलग रही और बराबर उसके दिमाग में चलती रही वह थी औघड़ बाबा की। वक़्त के साथ-साथ न जाने क्यों उसे यह यकीन होता जा रहा था कि यह औघड़ बाबा उस पर हर क्षण लटकती तलाक की तलवार को हटा देगा। उसकी कृपा से उसे पुत्र ज़रूर पैदा होगा।  

उसने तय कर लिया कि स्कूटी ठीक से चलाने लायक होते ही वह औघड़ बाबा के पास ज़रूर जाएगी। और साथ ही यह भी तय कर लिया कि इस बात को सीमा से भी नहीं बताएगी, किसी को भी कुछ पता नहीं चलने देगी। नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें बनाएंगे। एक से बढ़ कर एक सलाह देने लगेंगे।

सीमा है तो बहुत मददगार, बहुत अच्छी लेकिन कभी बात करते-करते किसी से कह दिया तो बात फैलते और जुल्फ़ी तक पहुंचते देर नहीं लगेगी। यूं तो अपनी समस्याओं से मुक्ति के लिए सभी जाते हैं ऐसी जगहों पर लेकिन पंचायती लोग यह बात ज़्यादा उछालेंगे कि एक मुसलमान हो कर अकेली ही चली गई औघड़ के पास।

व्यग्रता बेसब्री के चलते वह अपने को ज़्यादा समय तक न रोक पाई। एक दिन ऑफ़िस पहुंची और घंटे भर बाद ही छुट्टी लेकर चल दी कि अस्पताल जाना है। सीमा को भी सच नहीं बताया। साफ झूठ बोलते हुए बताया कि पेट में कई दिन से बहुत दर्द है। एक तरफ ही होता है। डर लग रहा है कि कहीं कुछ बड़ी समस्या न हो। आज कल तो ट्यूमर-स्यूमर जैसी न जाने कितनी बीमारियां होती रहती हैं। सीमा ने साथ चलने को कहा तो यह कह कर मना कर दिया कि अभी रहने दो ज़रूरत हुई तो फ़ोन करूंगी।

बाबा के पास जाने के लिए सोफी जब चली तो एक तरफ जल्दी से जल्दी पहुंचने की व्यग्रता थी तो साथ ही मन में यह डर भी कि कहीं बात खुल न जाए। जुल्फी जानते ही आफ़त खड़ी कर देगा। मगर सोफ़ी का यह डर बाबा तक पहुंचने की इच्छा के आगे धीरे-धीरे कमजोर होता गया। आधे घंटे की ड्राइविंग के बाद वह मोहान रोड पहुंची। मगर समस्या यह थी कि बाबा के बारे में पूछे किससे। यूं तो तमाम दुकानें, आते-जाते लोगों की संख्या कम न थी।

सोफ़ी ने अंततः यही निश्चित किया कि वह ऐसी किसी औरत से ही पता पूछेगी जो यहीं की होगी और साथ ही निचले तबके की होगी। इससे यह भी पता चल जाएगा कि बाबा को लोग कितना जानते हैं। लोगों की नजर में बाबा कितने पहुंचे हुए हैं। यह सोच वह फुटपाथ पर बैठी सब्जी बेच रही एक ग्रामीण महिला के पास स्कूटी रोक कर उतरी। नजदीक जाकर पूछा तो उस ग्रामीण महिला ने उसे जो कुछ बताया उससे उसको बड़ी राहत मिली, खुशी भी कि वह सही जगह पहुँच रही है। 

वह महिला बाबा की महिमा का बखान करते नहीं थक रही थी। मगर इस बात ने उसे थोड़ा डरा दिया था कि एक तो बाबा जल्दी मिलते नहीं दूसरे जल्दी उनकी कृपा नहीं मिलती। लेकिन जिस पर कृपा हो जाती है वह उनके पास से कभी खाली हाथ नहीं लौटता, उसकी मनोकामना पूरी होकर ही रहती है। उसकी बातों से उत्साहित सोफ़ी ने ऐसी ही कई अन्य महिलाओं से भी बात की। 

सभी ने बाबा का गुणगान ही किया। फ़र्क बस इतना था किसी ने कम किसी ने ज़्यादा किया। मगर सबसे बड़ी समस्या थी उनका ठिकाना जो मेन रोड से करीब एक किलोमीटर अंदर सूनसान जगह पर था। जहां जाने के लिए कच्चा रास्ता था। वह जगह वास्तव में आगे स्थित जंगल का बाहरी हिस्सा था। उबड़-खाबड़, ऊंची-नीची, जमीन, झाड़-झंखाड़ और इधर-उधर नज़र आते पेड़। 

लोगों के बताए ठिकाने पर डरती-सहमती सोफ़़ी किसी तरह आगे बढ़ती रही। ऐसे कच्चे रास्ते पर वह पहली बार स्कूटी चला रही थी। उसे ड्राइविंग में बड़ी मुश्किल आ रही थी। कई बार गिरते-गिरते बची लेकिन वह रुकी नहीं। इधर-उधर कई जगह उसे गाय-भैंसों के झुंड चरते नज़र आए। मात्र छः-सात मिनट का रास्ता अंततः उसने पंद्रह मिनट में पूरा किया। और एक पेड़ के सहारे पुआल की बनी एक बेहद जर्जर सी झोपड़ी के पास पहुंची। उसके सामने ही थोड़ी ऊंची जगह थी जिसे मिट्टी डाल कर ऊंचा किया गया था। उस पर पतली मोटी कई लकड़ियां सुलग रही थीं। 

राख का ढेर, कोयले यह संकेत दे रहे थे कि आग यहां लंबे समय से जलाई जा रही है और राख वगैरह कभी हटाई नहीं जाती। जिससे ढेर ऊंचा होता जा रहा है। इस ढेर के साथ ही कुछ और जमीन भी ऊंची थी जो चबूतरे सी लग रही थी। जिस पर एक तरफ एक चिथड़ा सा कंबल पड़ा हुआ था। यह सब देख कर सोफ़ी को पक्का यकीन हो गया कि यही है बाबा का ठिकाना। क्योंकि सीमा सहित आते समय सब ने बाबा के ठिकाने के बारे में ऐसा ही सब कुछ बताया था। उस सास-बहू ने भी जो अभी दस मिनट पहले ही इस कच्चे रास्ते पर आते समय मिली थीं। उन्होंने भी बड़ा गुणगान किया था बाबा का। वह बाबा का आशीर्वाद लेकर लौट रही थीं। 

बहू अपने पति के एक अन्य महिला से संबंध के कारण बहुत परेशान थी। और वह भी बाबा की महिमा सुन कर अपनी सास के साथ आई थी। उसकी सूजी हुई आंखें बता रही थीं कि वह बाबा के सामने बहुत रो-धो कर आई थी। लेकिन बाबा के पास से लौटते वक़्त दोनों के चेहरों पर सब कुछ ठीक हो जाने के विश्वास की चमक दिखाई दे रही थी। उन दोनों ने यह भी बताया कि बाबा कुछ लेते-देते नहीं हैं। बहुत जल्दी क्रोधित हो जाते हैं। किसी बात को जानने सुनने के लिए जल्द बाजी नहीं करना। शांत भाव से हाथ जोड़े खड़ी रहना। बाबा जब एक बार शुरू होंगे तो खुदी सब कुछ बता देंगे।

सोफ़ी ने वहीं पास में एक पेड़ की आड़ में कुछ इस ढंग से स्कूटी खड़ी की कि जल्दी उस पर किसी की नज़र न पड़े। स्कूटी खड़ी कर कुछ देर इधर-उधर उसने नज़र दौड़ाई। काफी दूर जानवरों के साथ तीन-चार लड़के-लड़कियां ही नज़र आएए बाबा कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रहे थे। सोफ़ी ने दुपट्टे से अपने सिर को ढंका और कुछ सहमती सिकुड़ती सी, मन में अनजाने डर से थरथराती हुई झोपड़ी की तरफ क़दम बढ़ाए। मगर कुछ क़दम ही चल कर ठिठक गई और अपनी चप्पल उतारी फिर आगे बढ़ी। 

दस-बारह क़दम चल कर वह झोपड़ी के प्रवेश स्थल पर पहुंची तो उसने कुछ अजीब तरह की हल्की-हल्की गंध महसूस की। वह कंफ्यूज थी कि इसे खुशबू कहे या बदबू। डरते हुए मात्र पांच फिट ऊंचे प्रवेश द्वार से उसने अंदर झांका तो बाबा वहां भी नहीं दिखे। हां पुआल का एक ऐसा ढेर पड़ा था जिसे देख कर लग रहा था कि इसे सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उसके ऊपर एक मोटी सी पुरानी दरी पड़ी थी जो कई जगह से फटी थी। एक तरफ एक घड़ा रखा था जो एल्युमिनियम के एक जग से ढका था। दूसरी तरफ भी कुछ सामान बिखरा पड़ा था जो तंत्र-मंत्र से संब़द्ध लगता था। पक्की मिट्टी का एक तसला सा बर्तन भी थाए जिसमें भभूति का ढेर लगा हुआ था। 

लगभग दस गुणे पंद्रह की वह झोपड़ी जिसमें जगह-जगह मकड़ियों ने जाले बना रखे थे कुछ अजीब सी चीजों और अजीब सी गंध या सुगंध से भरा था। जो पुआल का बिस्तर था उसके कोने पर बाबा का कपड़ा एक मटमैले रंग का अंगौछा और एक करीब-करीब लंगोट जैसा कपड़ा पड़ा था। सारा दृश्य देख कर सोफ़ी को यकीन हो गया कि वह सही जगह पहुंच गई है, यही बाबा का डेरा है। उसे राहत महसूस हो रही थी। और साथ ही प्यास भी लगी थी मगर पानी का तो यहां नामो-निशान नहीं था। घड़े में न जाने क्या था। फिर बाबा की इज़ाज़त के बिना कुछ छुआ भी नहीं जा सकता था। 

बाबा की अनुपस्थिति अब उसे खलने लगी थी। यह सोच वह परेशान हो उठी कि कहीं उसे खाली हाथ बाबा के दर्शन के बिना ही न लौटना पड़े। झोपड़ी के संकरे रास्ते से वह दो क़दम उल्टा ही पीछे चल कर बाहर आ गई। गर्मी, धूल उसे अब ज़्यादा तकलीफदेह लग रही थी। पसीने को बदन पर उसने रेंगता हुआ महसूस किया। खासतौर से सलवार के अंदर जाघों से घुटनों की तरफ जाता हुआ। 

कहने को मौसम विभाग बारिश की संभावना रोज ही बता रहा था, लेकिन बारिश छोड़ो, बादल भी नज़र नहीं आ रहे थे। सशंकित मन लिए वह स्कूटी के पास आ कर खड़ी हो गई। वहां की छाया उसे कुछ सुकून दे रही थी। लेकिन पंद्रह मिनट बाद भी बाबा न दिखे तो उसकी परेशानी बढ़ने लगी। बीतते एक-एक पल बहुत भारी हो रहे थे, और जब पौन घंटा से ज़्यादा बीत गया तो सोफ़ी ने भारी मन से वापस चलने का निर्णय ले लिया। 

प्यास से उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। उसने स्कूटी को स्टैंड से उतारा ही था कि करीब पचास मीटर की दूरी पर उसे एक आदमी अपनी तरफ आता दिखाई दिया। वह एकदम रुक गई और उस आदमी पर एकदम नज़र गड़ा दी। वह एकदम मस्त चाल से करीब-करीब झूमता हुआ सा चला आ रहा था। जब वह करीब आ गया तो सोफ़ी ने बहुत राहत महसूस की और बुदबुदाई यह बाबा जी ही लग रहे हैं। 

जैसा सब ने बताया था बिल्कुल वैसा ही तो है हुलिया। कमर से नीचे झूलती जटाएं। रंग गहरा सांवला, ऊंचाई सवा छः फिट। बदन बेहद मज़बूत कसा हुआ। पहलवानों जैसा। छाती हाथ पैर सब बड़े-बड़े काले बालों से भरे हुए थे। और कपड़े! कमर में एक पतली सी डोरी सी चीज में काले कपड़े के दो टुकड़े एक आगे और एक पीछे लटक रहे थे। जिसे न तो लंगोट कह सकते थे और न ही कोपिन। बाबा के दहिने हाथ में लकड़ी का एक बड़ा कुंदा था जो जमीन तक लंबा था, बाबा उसे खींचते हुए लिए आ रहे थे। 

सोफ़ी के सामने से बाबा मात्र दस क़दम की दूरी से आगे निकल गए और लकड़ी उस सुलगती आग पर डाल दी। फिर उसे जलाने की गरज से बैठ गए और कुछ पतली लकड़ियों, जलते कोयलों को लकड़ी की ऊंचाई तक कर दिया, जिससे मोटी लकड़ी आग पकड़ सके। बाबा आग में फूंक मार-मार कर कुंदे में आग पकड़ाने की कोशिश करने लगे। बाबा उकड़ूं बैठ-कर फूंक मार रहे थे। बाबा सोफ़ी के सामने से निकलने से लेकर आग के पास बैठने तक ऐसे बिहैव कर रहे थे, मानो सोफ़ी वहां है ही नहीं। वहां अकेले वही हैं। 

इधर सोफ़ी अलग पशोपेश में थी। जब से बाबा सामने से निकले तब से वह हाथ जोड़े खड़ी उन्हें निहारे जा रही थी। जीवन में पहली बार किसी शख्स या बाबा को वह इस रूप में इस तरह अकेले विराने में देख रही थी। डरी सहमी थी इस लिए अपने शरीर की थर-थराहट साफ महसूस कर रही थी। बाबा के शरीर पर उसकी नज़र ऊपर से नीचे तक सेकेण्ड भर में दौड़ गई थी जब वह सामने से निकले थे। 

जितनी देर हो रही थी वह उतनी ही ज़्यादा व्याकुल हो रही थी। जीवन में पहली बार वह इस अनुभव से गुजर रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि बाबा से कैसे मुखातिब हो। पंद्रह मिनट से ज़्यादा बीत गए थे उसे हाथ जोड़े खड़े हुए और बाबा थे कि उन्हें होश ही नहीं था। वह उठे तो लकड़ी सुलगा कर ही उठे। मगर सोफ़़ी की हालत जस की तस ही रही। बाबा ने उसकी तरफ देखा ही नहीं और उठ कर एक बार मद्धम स्वर में 'जय महाकाल' बोला और चले गए झोपड़ी के अंदर।

सोफी का असमंजस और बढ़ गया। समझ में नहीं आ रहा था क्या करे क्या न करे। प्यास-थकान अलग पस्त किए जा रहे थे। खीज कर उसने निर्णय लिया जो भी हो एक बार बात कर ही लेती हूं। जो होगा देखेंगे। उसने जल्दी से चप्पल उतारी और सीधे झोपड़ी के दरवाजे पर जा खड़ी हुई। अंदर की कुछ आहट लेने के बाद बडे़ याचनापूर्ण स्वर में बोली,

''बाबा जी....कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला तो उसने थोड़ा तेज़ स्वर में पुनः कहा, ''बाबा जी....मुझ पर कृपा कीजिए मैं बहुत परेशान हूं।''

इस बार अंदर से बाबा जी की भारी भरकम आवाज़ सुनाई दी। 

''जानता हूं क्या परेशानी है तुझे।'' 

फिर शांति छा गई तो सोफ़ी ने पूछा, ''बाबा जी मैं अंदर आ जाऊं?'' अंदर से बाबा की वही भारी आवाज़, ''आ जाओ।'' यह सुनते ही सोफी चली गई अंदर और बाबा के पैरों के पास हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। उसकी नजरें अपने पैरों की आस-पास की ज़मीन देखती रहीं। क्योंकि बाबा अपने पुआल के बिस्तर पर निर्विकार भाव से चित्त लेटे हुए थे। उनका वह सूक्ष्म कपड़ा भी एक तरफ हटा हुआ था। उनके शरीर का कोई अंश ढका नहीं था। आंखें उनकी बंद थीं। 

कुछ क्षण खामोशी के बाद फिर गुर्राए,''लड़का....लड़का....लड़का। महाकाल क्या अब तू यह दुनिया बिना लड़कियों के ही चलाएगा। अपनी सृष्टि का स्वरूप बदलने की मंशा बना ली है क्या? हर कोई बस लड़का मांगने आ जा रहा है, लड़की के बारे में बात ही नहीं करता कोई। क्यों तुझे भी लड़का चाहिए ना?'' बाबा ने आंखें बंद किए-किए ही पूछ लिया सोफ़ी से, तो पहले तो वह आश्चर्य में पड़ी कि मन की बात कैसे जान ली बाबा ने, एकदम हकबका उठी। हकलाती हुई बोली, 

''जी.....बाबा जी.....यदि अब लड़का नहीं हुआ तो मेरी ज़िदगी नर्क बन जाएगी। मेरा शौहर मुझे छोड़ देगा।''

''तुझे वह नहीं छोड़ पाएगा। महाकाल से प्रार्थना करूंगा कि वह तेरी मनोकामना पूरी करे। उसके पास से कोई निराश नहीं लौटता। तू भी नहीं लौटेगी। मगर बाबा जो कहेगा वह कर सकेगी?''

बाबा की बात सुन कर बेहद उत्साहित सोफ़ी बोली, 

''बाबा जी आपकी सारी बात मानूंगी.....मुझे इस बार बेटा चाहिए बाबा जी बेटा।''

''तुझे इस बार बेटा ही मिलेगा।''

यह कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए। एकदम निर्वस्त्र। उनका वह सूक्ष्म वस्त्र पुआल के बिस्तर पर ही पड़ा रहा। उसने उनका साथ नहीं दिया। 

सोफी झुकी-झुकी नजरों से देखती रही उन्हें। वह अंदर ही अंदर पहले ही की तरह सहमी तो थी ही लेकिन अब शरीर के अंदर कुछ और क्रिया के शुरू होने का अहसास भी कर रही थी। इसी बीच बाबा ने अपने पुआल के बिस्तर की तरफ इशारा कर कहा,

''लेट जा वहां पर।''

सोफी को बाबा की यह बात न अनचाही लगी और न ही चौंकाने वाली। उसका दुपट्टा जो कुछ देर पहले तक उसके सिर को ढके हुए था। अब कंधों पर पड़ा था वह। बाबा की बात सुनते ही वह लेट गई। इस क्रम में उसका दुपट्टा अपनी जगह से हट गया और उसकी भारी छातियों का काफी हिस्सा दिखने लगा था। उसने आँखें बंद कर ली थीं। भाव-भांगिमा ऐसी कि जैसे सब कुछ समर्पित कर दिया हो बाबा को। कर दिया उनके हवाले वह जो उचित समझें करें। आखिर उसे एक बेटा चाहिए जो बदल देगा उसके जीवन का रुख। अंत कर देगा उसके पीड़ादायी जीवन का। 

कुछ ही क्षण में उसने महसूस किया कि बाबा उसकी कमर के पास बैठ गए हैं तो उसने आँखें खोल दीं। बाबा को बैठा देख उसने उठना चाहा तो उन्होंने बाएं हाथ से इशारा कर उसे लेटे रहने को कहा, बाबा के दाहिने हाथ की मुट्ठी बंधी हुई थी। उसमें कुछ था। बाबा कुछ बुदबुदा रहे थे। फिर उन्होंने बाएं हाथ से ही उसका कुर्ता ऊपर तक उलट दिया, ब्रेजरी का कुछ हिस्सा दिखने लगा था। मगर वह स्थिर रही । 

अब बाबा हाथ में ली भभूत को उसकी छाती के मध्य जहां धड़कन होती है, वहां से लेकर उसकी विशाल नाभि तक लगाते एवं फिर कुछ बुदबुदाने के बाद पेट पर फूंकते। उनकी फूंक बेहद गर्म थी। इसके बाद बाबा आंखें बंद किए ही उठ खड़े हुए और सोफ़ी के शरीर के चारो तरफ चक्कर लगाने लगे। एकदम परिक्रमा करने की तरह। और सोफ़ी उन्हें एक टक घूमते हुए देखती रही। 

वास्तव में सोफ़ी अब न सहम रही थी, न परेशान हो रही थी, बाबा को उत्सुकता के साथ देखे जा रही थी। बाबा उसके एकदम करीब होकर चक्कर काट रहे थे। और सोफ़ी उन पर से बार-बार नज़र हटाने की कोशिश करती लेकिन असफल हो जाती। वह आंखें बंद भी नहीं कर पा रही थी। अंततः बाबा कई चक्कर लगाने के बाद सोफ़ी के ठीक सिर के पीछे खड़े हो गए।

सोफ़ी उनके पैरों को अपने सिर से छूता हुआ महसूस कर रही थी। अचानक बाबा ने ऊंचे स्वर में जय महाकाल कहा और हाथ में शेष बची भभूत को हवा में उछाल दिया। भभूत नीचे गिरने लगी तो सोफी आंखें मिच-मिचाने लगी। इसी बीच बाबा उसके बाएं तरफ ठीक कमर के पास बैठ गए। सोफ़ी का कुर्ता अभी भी ऊपर को उठा हुआ था। बाबा को बैठा देख सोफी ने जैसे ही फिर उठने का प्रयत्न किया तो बाबा ने लेटे रहने का इशारा हाथ से ही करते हुए कहा, 

''अब मैं पुत्र की मनोकामना पूर्ण होने की प्रक्रिया को संपन्न करने जा रहा हूं, तुझे कोई ऐतराज तो नहीं।''

प्रक्रिया के संपन्न होने की बात कहने के लहजे और बाबा की शारीरिक भाव-भंगिमाओं का आशय सोफ़ी लगभग समझ गई थी। उसने बिना एक क्षण गंवाए, साफ-साफ कहा,

''आप प्रक्रिया संपन्न करें बाबा जी, मुझे बस पुत्र चाहिए, जीवन का सुकून चाहिए। इसीलिए तो आई हूं।''

सोफी कुछ ऐसे बोल गई जल्दी से जैसे कि प्रश्न जानती थी पहले से और उत्तर तैयार रखा था। उत्तर देते ही सोफी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं। और प्रक्रिया के संपन्न होने की प्रतीक्षा करने लगी। उसे उम्मीद थी कि बाबा तेजी से पूरी करेंगे सारी क्रिया-प्रक्रिया। लेकिन बाबा तो पूरे आराम से निश्चिंत भाव से उसके बगल में बैठे थे। और देख रहे थे उसकी विशाल गहरी नाभि को, उनकी आंखों में इस वक़्त आने वाले भावों को देह की भाषा पढ़ने के विशेषज्ञ भी नहीं पढ़ सकते थे। 

कुछ क्षण बाद बाबा ने अपने दाहिने हाथ की तीन उंगलियां उसकी नाभि पर तिरछे एंगिल से ऐसे रखीं जैसे कोई चरण स्पर्श करता है। बाबा की बीच वाली मोटी ऊंगली नाभि के बीचो-बीच गहराई में प्रविष्ट कर रही थी। सोफी को बाबा का हाथ इतना गर्म लग रहा था जैसे कि उन्हें 103, 104 डिग्री बुखार हो। बाबा का यह तपता स्पर्श सोफी में अजीब सी तड़फड़ाहट पैदा कर रहा था। ऐसी तड़फड़ाहट उसने जुल्फी द्वारा उस जगह न जाने कितनी बार स्पर्श या चूमने पर भी नहीं महसूस की थी। जब उसने पहली बार स्टूडेंट लाइफ में ही किया था तब भी नहीं। 

बाबा ने कुछ क्षण उंगलियों को उसी तरह रखने के बाद पुनः जय महाकाल का स्वर ऊंचा किया और उन तीनों उंगलियों को अपने मस्तक के मध्य स्पर्श करा दिया। इस बीच सोफी ने कई बार उन्हें आंखें खोल-खोल देखा और फिर बंद कर लिया। वह अपने शरीर में कई जगह तनाव महसूस कर रही थी। उसके मन में अब तुरत-फुरत ही यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ कि आखिर बाबा जी कर क्या रहे हैं? कौन सी प्रक्रिया है जिसे पूरी कर रहे हैं।

यह सोच ही रही थी कि उसने बाबा का हाथ सलवार के नेफे पर महसूस किया। बाबा ने सलवार के अंदर खोंसे उसके नाड़े के सिरों को बड़ी शालीनता से बाहर निकाल लिया था। सलवार का वही नाड़ा जिसने उसे करीब दो महीने खून के आंसू रुला दिए थे। बाबा ने नाड़ा का एक सिरा खींच कर सलवार खोल दी। मगर काम में शालीनता अभी कायम थी। 

जुल्फी भी तो बरसों से यही करता आ रहा है। मगर कितना फ़र्क है। उसके करने में। नाड़ा खोलने में ही शरीर का कचूमर निकाल देता है। मगर बाबा की प्रक्रिया वह पूरी-पूरी अब भी नहीं समझ पा रही थी। बाबा अभी भी कुछ बुदबुदा रहे थे और नाड़ा खोलने के बाद भी नाड़ा पकड़े एकदम स्थिर बैठे थे। सोफी ने फिर आंखें खोल-कर देखा कुछ समझती कि इसके पहले ही बाबा ने शालीनता कायम रखते हुए दोनों हाथों से उसकी सलवार उतार कर बिस्तर के एक कोने में डाल दी। 

वह बेहद शांत-भाव से यह सब कर रहे थे। जल्दबाजी का कहीं नामों-निशान नहीं था। जबकि सोफी गड्मड् हो रही थी। बाबा ने सलवार की ही तरह उसके बाकी कपड़े भी उतार कर कोने में रख दिए। वहां सोफी के कपड़ों का एक छोटा सा ढेर लग गया था। सोफी की आंखें अब बराबर बंद थीं। उसकी सारी क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं, साफ-साफ कह रही थीं कि बाबा के समक्ष निर्वस्त्र होने में उसे रंच मात्र को भी ऐतराज नहीं था। बल्कि उसके चेहरे पर विश्वास था कि पुत्र होगा, और उसे रोज-रोज की प्रताड़ना से मुक्ति भी मिलेगी। इस प्रताड़ना से मुक्ति के लिए यह सब ठीक ही है। 

अब तक बाबा उसकी कमर से सटकर बैठ गए थे। बाबा की मंशा उसकी कुछ समझ में आ ही नहीं रही थी। कई मिनट तक स्पर्श के बाद बाबा ने संतानोंत्पति की प्रक्रिया पूर्ण की और इस भाव से उसकी बगल में बैठ गए जैसे वहां उनके अलावा और कोई है ही नहीं। सोफी अब तुरंत उठ कर कपड़े पहन लेना चाहती लेकिन बाबा की मुद्रा देख कर स्थिर पड़ी रही। उठी तब जब बाबा ने उसके पेट पर अपनी हथेली रखते हुए कई बार जय महाकाल, जय महाकाल का स्वर उच्चारित किया और उठकर चले गए झोपड़ी से बाहर एकदम नंग-धड़ंग से। 

उनके जाते ही सोफी भी बिजली की फुर्ती से उठ बैठी और एक झटके में अपने कपड़े उठा लिए। पिछले काफी समय से उसे यह डर बराबर सता रहा था कि, वह निर्वस्त्र यह सब एक खुली जर्जर सी झोपड़ी में कर रही है, कहीं कोई आ ना जाए। तेजी से कपड़े पहन कर वह बाहर आई तो देखा बाबा आग की ढेर के पास शांत-भाव से बैठे थे। वह उनके करीब जाकर खड़ी हो गई। तो बाबा ने तुरंत चुटकी भर भभूत उसके हाथ में देते हुए कहा,

''ले, महाकाल तेरी मनोकामना पूरी करेंगे। इसे घर में जहां तेरा सामान रहता है, वहीं रख देना। अगले हफ्ते आज ही के दिन फिर आना।''

सोफ़़ी ने बाबा से भभूत ली और बैग में से पर्स निकाल कर उसमें रखी एक छोटी सी रसीद में मोड़ कर रख लिया। चलने से पहले उसने बाबा से हिचकते हुए पूछ लिया कि, ''बाबा जी अभी और कितनी बार आना है।'' उसके इस प्रश्न पर बाबा ने एक उड़ती सी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली और बोले, ''पेट में संतान आ जाने तक।'' उनका उत्तर सुन सोफी ने उन्हें प्रणाम किया और वापस चल दी।

वापसी में उसे स्कूटी चलाने में उतनी असुविधा नहीं महसूस हो रही थी जितनी की आते समय उसने महसूस की थी। हां दिमाग में ज़रूर हलचल, उथल-पुथल पहले से ज़्यादा थी। यह उतनी न होती यदि बाबा ने वापसी में यह न कहा होता कि, ''पेट में संतान आ जाने तक आना है।'' मन में उद्विग्नता इस वाक्य ने न सिर्फ पैदा की बल्कि उसे बढ़ा भी रही थी। वह सोच रही थी कि, न जाने कितने जतन कर, हज़ार बार सोचने के बाद, हिम्मत कर हार जाने और अंततः जीत कर किसी तरह एक बार आ पाई। और बाबा की बात तो न जाने और कितनी बार आने को कह रही है। 

चलो मान लें कि मुकद्दर मेरा साथ देगा और मैं हड़बड़-तड़बड़ में प्रिग्नेंट हो जाऊंगी। लेकिन तब भी अगली माहवारी तक तो इंतजार करना ही पड़ेगा। उसके पहले तो प्रिग्नेंसी हुई या नहीं यह चेक करने का तो कोई तरीका नज़र आता नहीं। लगता नहीं कि डेढ़ महीने से पहले कुछ मालूम हो पाएगा। इसका सीधा सा मतलब है कि कम से कम चार-पांच बार और आना पड़ेगा। और जुल्फी! इतनी बार यहां आ कर उनसे नजर बचा पाना तो नामुमकिन ही है। आज भी देखो क्या होता है। 

सोफ़ी के मन में इतनी उथल-पुथल उस समय बिल्कुल न थी जब बाबा ने अंदर बुलाया था, और कि तब भी नहीं जब बाबा बेटा हो इस हेतु अपनी प्रक्रिया पूरी कर रहे थे। बल्कि तब वह सब गुजर रहे होने के बावजूद कहीं यह संतोष था कि, चलो बेटा पाने का रास्ता साफ हो गया। अब ज़िंदगी की दुश्वारियां, गर्दन पर लटकती हर क्षण तलाक की तलवार हट जाएगी। वह भी मात्र कुछ घंटे सबसे छिप-छिपाकर बाहर रहने और एक बाबा के सान्निध्य में आने भर से।

सब कितना आसान सा लग रहा था। लेकिन बाबा ने यह कह कर तो पूरी धारा ही बदल दी कि और कई बार आना पड़ेगा। सच है जिसने भी यह कहा है कि ज़िदंगी में कुछ भी पाना आसान नहीं है। छोटा सा भी सुख बड़े ऊबड़-खाबड़ रास्ते से गुजर कर ही मिल पाता है। एक औलाद का पैदा होना कितना बड़ा सुख है। लेकिन उसके पहले पेट में नौ महीने तक रखना, फिर प्रसव की असहनीय पीड़ा को झेलना, दुनिया भर की दवा-दारू और न जाने कितने कष्ट फिर कहीं संतान मिलती है। 

मेरी अगली संतान जो बेटा हुई तो निश्चित ही बेइंतिहा खुशी होगी। जुल्फी की खुशी की तो कोई सीमा ही न होगी। लेकिन उसके पहले यह सब जो मैं कर रही हूं कितना कष्टदायी है। बल्कि यह तो उससे भी कहीं बहुत आगे है। न जाने कितना आगे है। इस असहनीय पीड़ा से यदि बेटा मिल गया तो घर में सब निश्चित खुश होंगे, खुशी तो मुझे भी होगी लेकिन साथ ही बदन में चुभीं अनगिनत फांसें असहनीय पीड़ा अंतिम सांस तक देती रहेंगी।

बच्चा सामने होगा तो उसके साथ ही हर क्षण बाबा का चेहरा भी होगा। जो हर वक़्त मुझे डराएगा। सबके सामने चेहरे पर हंसी-खुशी होगी लेकिन अंदर-अंदर घुटन भी होगी। यह कहीं ऐसा भी हो सकता है जैसे कि गर्दन पर लटकी एक तलवार हटाने के लिए मैंने खुद अपने ही हाथों उससे भी बड़ी दूसरी तलवार लटका ली हो। जिसे इस जीवन में तो हटाया ही नहीं जा सकता। 

सोफी मन में चल रहे इस भीषण तूफान को लिए घर जल्दी पहुंचने की कोशिश में अफनाती हुई कुछ ही देर में पहुंच गई मेन रोड पर। उसे बड़ा सुकून मिला था इस बात से कि बाबा के यहां से निकलते और यहाँ आ जाने तक उसे किसी ने नहीं देखा। कोई उसे नहीं मिला। मगर मेन रोड पर उसे एक सिरे से दूसरे सिरे तक गाड़ियां ही गाड़ियां दिखाई दे रही थीं। जो जहां थीं वहीं खड़ी थीं। जबरदस्त जाम लगा हुआ था। इस रोड पर इतना बड़ा जाम! उसे माजरा कुछ समझ में न आया। 

रोड से करीब पचीस-तीस क़दम पहले ही वह ठिठक गई, माजरे को समझने की कोशिश में। गाड़ियों का शोर और हर चेहरे पर जल्दी चल देने की बेचैनी उसे साफ दिख रही थी। मगर माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किससे पूछे यह भी समझ में नहीं आ रहा था। इस बीच उसकी नज़र कुछ ही दूर एक पेड़ के नीचे  बैठीं सास-बहू पर पड़ गई जो बाबा के यहां जाते वक़्त मिली थीं। वह तुरंत उनके पास पहुंची और स्कूटी खड़ी कर सास से पूछ लिया क्या हुआ है।

सास ने बड़े गुस्से से कहा, ''अरे! हुआ क्या है? वही नेतागिरी है, और क्या? इन सब के पास और कोई रास्ता नहीं है अपनी बात मनवाने के लिए, जब देखो तब रास्ता जाम कर दिया। लोग मरें जिएं, चाहे जितना ज़रूरी काम उनका रह जाए, नुकसान हो जाए इससे उन्हें कोई मतलब नहीं, बस अपनी नेतागिरी से मतलब है। इस नाशपीटी नेतागिरी ने जीना मुहाल कर रखा है।'' सास का गुस्सा, उसका बड़बड़ाना बहू को अच्छा नहीं लगा। उसने धीरे से कहा, ''अम्मा चुप हो जाओ, कहीं इन सब ने सुन लिया तो आफ़त हो जाएगी।''

''अरे सुन लेने दो, क्या आफ़त हो जाएगी। घंटों हो गए। बैठे-बैठे पैर कमर में दर्द होने लगा है। गला सूख रहा है। और तुम कह रही हो चुप रहो।''

सास की झिड़की सुन बहू चुप हो गई। सास के तेवर बता रहे थे कि, वह तेज़ मिज़ाज़ की है, और अपने घर की तानाशाह भी। और उसके सामने बहू की स्थिति शेर के सामने मेमने जैसी है। सोफी को यह जान कर बड़ी उलझन हुई कि, जाम हटे बिना पैदल भी निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्योंकि हालात ऐसे बन चुके हैं कि, किसी भी वक़्त पुलिस लाठी चार्ज कर सकती है। और तब भगदड़ में बचना आसान नहीं होगा। 

अंदर ही अंदर झल्लाई सोफी ने उन दोनों के साथ वक़्त गुजारने की सोची और बहू को बात करने के इरादे से लेकर नजदीक ही एक दूसरे पेड़ के नीचे बैठ गई। उसके मन में बहू से यह जानने की इच्छा प्रबल हो उठी थी कि, बाबा ने उसे समस्या समाधान के लिए क्या उपाए बताए। 

पूजा के लिए क्या उसे भी निर्वस्त्र कर दिया था, और कि उसकी सास को अलग कर दिया था या उसके सामने ही। बहू ने बहुत कुरेदने के बाद भी जब इस विषय पर साफ-साफ कुछ कहना शुरू नहीं किया तब सोफी ने यह सोच कर कि, यह मुझे जानती नहीं और हम-दोनों एक ही नाव पर सवार हैं, तो यह किसी को कुछ बताएगी नहीं, उसे बाबा के सामने निर्वस्त्र होने की बात बता दी। सहवास वाली बात को पूरी तरह छिपाते हुए।

इसके बाद बहू भी कुछ खुली और बताया कि बाबा ने बड़ी कठिन पूजा की बात बताते हुए सास को साफ बता दिया कि, पूजा करने वाले को निर्वस्त्र होना पड़ेगा। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी, सास से वापस चलने को कह दिया। लेकिन सास लड़के को हाथ से निकलते बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं, इसलिए कुछ असमंजस के बाद तैयार हो गईं। वह इसलिए भी ज़्यादा परेशान हैं कि, लड़का  दूसरे धर्म की औरत के चक्कर में पड़ा है। वह भी मन न होते हुए पहले तो अपने जीवन के अंधेरे को दूर करने की गरज से, फिर सास के दबाव एवं बाबा के विराट स्वरूप के सामने अंततः तैयार हो गई, समर्पित हो गई। 

सास तो इतना प्रभावित हैं कि, बाबा को अपने सामने साक्षात् उतर आए भगवान मान कर अटूट विश्वास कर बैठी हैं कि, बस चुटकी बजाते ही अब सब सही हो जाएगा। उसे इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी कि, बहू बाबा के सामने निर्वस्त्र होगी। वह झोपड़ी के बाहर हाथ जोड़े बैठी रही और उसने बाबा के कहने पर आंखों में आंसू लिए सारे कपड़े उतार दिए, और बाबा ने तरह-तरह की पूजा संबंधी प्रक्रियाएं पूरी कीं। इसके लिए उन्होंने शरीर के विभिन्न हिस्सों को छुआ भी। भभूत भी लगाई और वही दी भी। और आते वक़्त पूरा विश्वास भी कि सब पूरी तरह ठीक हो जाएगा। बस दो तीन बार और आना पड़ेगा। 

बहू की बातों से सोफी को यकीन हो गया कि, उसकी पूजा में सहवास कहीं शामिल नहीं था। क्यों कि उसकी समस्या में संतान कहीं शामिल नहीं थी। घुल-मिल जाने के बाद दोनों की बातें करीब डेढ़ घंटे बाद जाम खुल जाने तक चलती रहीं। वहां से चलने के बाद बहू की बातें सोफी के मन में उथल-पुथल मचाने लगीं कि यह औरत कितने तूफानों को अपने में समेटे हुए है। कितनी बड़ी-बड़ी व्यथाएं लिए जिए जा रही है, इस दृढ़ विश्वास के साथ कि एक दिन उसका भी समय आएगा। वाकई बड़ी हिम्मत वाली है यह। 

मगर एक बात है कि हम औरतों के सामने ही यह स्थिति क्यों आती है कि, हमें इस आस में ज़िदंगी बितानी पड़ती है कि, एक दिन हमारा भी समय आएगा। पूरा इतिहास इस बात से भरा पड़ा है कि औरतें हर समय इसी उम्मीद में जिए जा रहीं हैं कि, एक दिन उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा। वह औरत नहीं एक इंसान मानी जाएगी। केवल बच्चा पैदा करने, मर्दों की शारीरिक इच्छा पूरी करने की मशीन नहीं। 

उसके मन में उठ रहे विचारों के यह झंझावात भीड़-भाड़ भरी सड़क आते ही खत्म हो गए। अब सारा ध्यान ट्रैफिक  पर और उसके बाद जल्द से जल्द घर पहुँचने पर केंद्रित हो गया। क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी। घर पहुंच कर उसने बहुत राहत महसूस की। संतोष की सांस ली कि जुल्फ़़ी के आने से पहले वह पहुंच गई और अभी इतना टाइम है कि, वह बाबा की दी भभूत उनके बताए स्थान पर इतमिनान से रख देगी। फिर नहा-धोकर शरीर में कई जगह लगी भभूत और साथ ही शरीर से चिपकी बाबा की ख़ास तरह की गंध को भी धो डालेगी।

मन मुताबिक यह सारे काम उसने पूरे भी कर लिए। नहाने में उसे ज़रूर आज रोज की अपेक्षा दो गुना टाइम लगा। साथ ही आज यह पहली बार था कि नहाते वक़्त ऐसी बातों के द्वंद्व में उलझी, घुटन से बेचैन होती रही कि, जो किया और आगे करेगी वह सही है कि, नहीं। और इस बात पर आश्चर्य कि कैसे यह सब कर ले गई। कहां से इतनी हिम्मत और ताकत आ गई उसमें।

पता नहीं मुराद पूरी भी होगी कि नहीं, यदि न हुई तब तो वह कहीं की न रह जाएगी। और कहीं बात खुल गई तो! तब तो अंजाम बड़ा भयानक होगा। विचारों के इस द्वंद्व में उलझी उसने खूब साबुन-शैंपू का इस्तेमाल करते हुए स्नान किया और बाथरूम से बाहर आ गई। ऐसा कोई निशान तो नहीं रह गया जिससे राज खुल जाने का कोई रास्ता बने यह जानने के लिए वह बाथरूम से सीधे ड्रेसिंग टेबुल के सामने पहुंची और हर संभव तरीके से शीशे में अपने बदन के एक-एक हिस्से को देखा। हड़बड़ाहट में होने के बावजूद वह पूरी सावधानी बरत रही थी।

 पूरा इतमिनान हो जाने के बाद उसने चैन की सांस ली। फिर अचानक ही उसका ध्यान अपने शरीर की स्थिति पर चला गया। तीन-तीन बच्चों, तरह-तरह की चिंताओं ने किस तरह उसके नपे तुले अच्छे खासे बदन को बदतरीन कर दिया था। उम्र से पांच-छः साल बड़ी ही लग रही थी। और यह संयोग ही था कि, आज शीशे में वह स्वयं अपने निर्वस्त्र बदन को निहार रही थी। और तुलना कर रही थी अपने कई बरस पहले के बदन से जो अब कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। उसका अंश भी नहीं। 

मिलता भी कहां से, जुल्फी से जुड़ने के बाद कुछ समय छोड़ दे तो बाकी में उसे मिला क्या? सिवाय गाली? मार-डांट के। अपने मन से सांस लेने तक की आज़ादी नहीं। नौकरी करती है, लेकिन अपनी मर्जी से एक रुमाल खरीदने की, किसी को कुछ देने की हिम्मत उसमें नहीं है। तनख्वाह तो सब जुल्फी के पास ही रहती है। एक-एक पैसे का हिसाब लेता है। 

वह ख़यालों में खोई देखती ही जा रही थी खुद को। और तब-तक खोई रही जब-तक कि, आंखों में भर आए आंसू छलक कर उसके स्तनों पर टपक नहीं गए। आंसूओं की गर्माहट ने उसे हिला-डुला दिया। वह चैतन्य हो उठी। और हथेलियों से आंखों को पोंछती पहन लिए जल्दी से अपने सारे कपड़़े। अभी उसे  बच्चों को लेने अपनी दूर की रिश्ते की उस ननद के यहां भी जाना था, जहां रिक्शा वाला रोज छुट्टी के बाद स्कूल से उन्हें लाकर वहां छोड़ जाता है। 

बच्चों को लाने के बाद वह खाना-पीना, घर के बाकी कामों को पूरा करने में लगी रही। और साथ ही उसके लगा रहा बाबा के साथ बीता वक़्त, बाबा की बातें, उनका विशाल स्वरूप। बिल्कुल इस तरह जैसे कि यह सब उसके बदन की छाया हों। इस बेचैनी घबराहट से बचने के लिए उसने बाबा के पास से आने के बाद आदत के एकदम विपरीत छह-सात बार चाय पी। मगर बात जहां की तहां रही। बल्कि जैसे-जैसे जुल्फी के आने का वक़्त नजदीक आ रहा था वैसे-वैसे उसकी घबराहट और बढ़ती जा रही थी। कैसे करेगी उसका सामना, कहीं कोई बात बिगड़ गई तो, बड़ी मुश्किलों में बीतते गए एक-एक पल, और सात बजते-बजते जुल्फी आ गया। 

डरी-सहमी, अंदर ही अंदर थर-थराती और ऊपर ही ऊपर सामान्य दिखने की पूरी कोशिश करते हुए उसने चाय-नाश्ता दिया और बच्चों को बड़ी होशियारी से उसके साथ लगा दिया। खुद किचेन में लग गई। मगर आधे-पौन घंटे बाद उसकी बेचैनी एक दम बढ़ गई। उसने पूरे बदन में पसीना चुह-चुहाना स्पष्ट महसूस किया। जब जुल्फ़ी ने किचेन में आकर उसे जड़ी-बूटियों का एक पैकेट  थमा दिया और कहा इसे उबाल कर उसका पानी उसे खाना खाने के बाद पीने को दे।

यह वही दवाएं थीं जिसे वह किसी हकीम से ले आता है, इस विश्वास के साथ कि इन्हें खाने के बाद संभोग करने से शर्तिया बेटा ही होगा। यह सब सोफी पहले भी न जाने कितनी बार झेल चुकी थी। लेकिन आज पसीने-पसीने इसलिए हुई क्यों कि बाबा से मिलने के बाद आज वह किसी भी सूरत में बिस्तर पर जुल्फी से नहीं मिलना चाहती थी। 

वह इस कोशिश में लग गई कि किसी तरह जुल्फी सो जाए। इस जुगत में उसने जान-बूझ कर लाख थके होने के बावजूद जुल्फी की पसंद की कई चीजें बना-बना कर उसे खाने को दीं जिससे वह ज़्यादा खा ले और आलस्य में जल्दी सो जाए सवेरे तक। और भी कई जतन किए। उसने जान-बूझ कर बच्चों को देर तक जगाए रखा, उन्हीं के साथ लगी रही कि जुल्फी सो जाए। और वह कामयाब भी हो गई। जुल्फी सो गया। तब वह रोज की तरह उठ कर बच्चों के पास से नहीं गई जुल्फी और अपने बिस्तर पर। 

वह सोई रही बच्चों के पास और सुबह भी एकदम भोर में ही उठ कर काम-धाम में लग गई, जिससे अकसर एकदम भोर में जुल्फी द्वारा किए जाने वाले हमले से भी बची रहे। अंततः जुल्फी से खुद को उस रात बचा ले जाने में वह सफल रही। इसके चलते वह सुबह राहत महसूस कर रही थी। और ताज़गीपूर्ण भी। जबकि जुल्फी सोए रहने के कारण दवा के बेकार हो जाने से तिलमिला उठा था और ऑफ़िस जाने तक उसे गरियाता रहा कि उसने उसे उठाया क्यों नहीं।

सुबह ऑफ़िस के लिए निकली तो एक नई उलझन दिमाग पर तारी हो गई कि सीमा को बताए कि नहीं। वह ठहरी बड़ी तेज़-तर्रार। झूठ बड़ी जल्दी पकड़ लेती है। उलझन का भारी बोझ वह दोपहर तक लिए रही। फिर यह सोच कर लंच में बताना शुरू किया कि अभी कई बार जाना है, न जाने किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पड़े। इसलिए किसी को तो बताना ही चाहिए। और सीमा से ज़्यादा मददगार और विश्वासपात्र कोई नहीं है। और आखिर सुत्र-धार भी तो वही है।

यह सोच सोफी ने विस्तार से उसे सब कुछ बता दिया। लेकिन बाबा के साथ प्रचंड मिलन की क्रिया के दौर से गुजरने की बात बड़ी सफाई से पूरी तरह छिपा ले गई। सीमा को संतोष था कि सोफी ने उस पर यकीन किया और वहां गई। उसकी मनोकामना पूरी हो जाएगी तो उसका जीवन बढ़िया हो जाएगा और वह उसे हमेशा याद रखेगी।

दूसरी तरफ सोफी को इस बात का संतोष कि, सीमा से वह जो नहीं बताना चाहती थी, उसे वह आसानी से छिपा ले गई। इसके बाद सोफी का एक हफ़्ता बहुत बेचैनी कसमकस में बीता। जैसे-जैसे बाबा के पास जाने का समय पास आ रहा था वैसे-वैसे उसका असमंजस बढ़ता जा रहा था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। रात में जुल्फी के साथ वह खास क्षण और भी ज़्यादा बेचैनी भरे होते जब दवा के जोश में वह लड़का पैदा करने के लिए पूरे प्रयास करता हांफता-हांफता लुढ़क जाता। उस समय न चाहते हुए भी सोफी को बाबा की याद आ जाती। 

उसने महसूस किया कि, बाबा के पास से आने के बाद से उसे जुल्फी का शरीर फूल सा लगने लगा है। अब वह पहले सा बलिष्ठ और पीड़ादायी नहीं लगता। जबकि जुल्फी पहले की ही तरह पूरे जोर-शोर से शुरू हो कर अपनी सारी ताकत उसके भीतर उड़ेलने के बाद ही कहीं दम लेता है। फिर हांफता हुआ किनारे लुढ़कता और सो जाता है। 

अंततः दूसरी बार बाबा के पास जाने का दिन आ गया तो सोफी ऑफ़िस पहुंची अटेंडेंस लगाई, दवा लेने के बहाने चल दी। सही बात सिर्फ़ सीमा को पता थी। स्कूटी स्टार्ट करते वक़्त उसके दिमाग में यह बात एक झटके में आ कर चली गई कि, सरकारी नौकरी का यही तो बड़ा फायदा है।

इस बार जब बाबा के पास पहुंची तो सोफी ने देखा बाबा उसी आग के ढेर के पास पालथी मार कर बैठे हैं। उसने बिना आवाज़ किए उनके हाथ जोड़े और एक तरफ खड़ी हो गई। कुछ देर में ही बाबा भी उठ खड़े हुए पूर्व की तरह जय महाकाल कहते हुए। और फिर सुर्ख आंखों से देखा सोफी की ओर। उसने फिर हाथ जोड़ लिए थे।

''आ गई तू....तेरा यह समर्पण, तेरी हर चाह पूरा करेगा। यह कहते हुए बाबा चले गए झोपड़ी के भीतर। कुछ देर बाद सोफी भी चली गई अंदर। उसने देखा सब कुछ वैसा ही था। सिर्फ़ एक चीज नई थी। झोपड़ी के दरवाजे को बंद करने के लिए फूस बांस की खपच्चियों से बना फाटकनुमा एक टुकड़ा जो दरवाजे के पास ही किनारे रखा था। बाबा अपने स्थान पर बैठे कुछ खा रहे थे, उन्होंने उसे अंदर आया देख कहा,

''आ, इधर आ, ले ये खा।''

सोफी ने तेज़ी से आगे बढ़ कर केला ले लिया और बाबा के कहने पर बैठ कर उसे खा लिया। इस बीच बाबा ने उठकर उस फाटकनुमा चीज से झोपड़ी बंद कर ली। और पालथी मार कर बैठ गए अपने आसन पर। पहली बार की तरह बाबा आज भी निर्वस्त्र थे। बैठने के साथ ही उन्होंने कुछ मंत्र वगैरह बुदबुदाए और फिर सोफी को भी निर्वस्त्र कर ठीक अपने सामने पद्मासन में बैठने को कहा। लेकिन सोफी नहीं बैठ पा रही थी। मोटी जांघें बड़ी बाधा बन बैठी थीं। अंततः वह जैसे बैठ पा रही थी बाबा ने उसे उसी तरह बैठने दिया और अपनी प्रक्रिया तेजी से पूरी करने लगे। 

आधे घंटे बाद बाबा उसी पुआल के बिस्तर पर उसे लेकर लेट गए। मन में तमाम उथल-पुथल लिए सोफी यंत्रवत सी उनके साथ थी। आज उसमें पहली बार जैसा डर नहीं था। लेटे-लेटे जब कई मिनट बीत गए और बाबा निश्चल ही पड़े रहे तो सोफी बेचैन हो उठी। उसके मन में जल्दी से जल्दी ऑफ़िस पहुंचने की बात भी कहीं कोने में उमड़-घुमड़ रही थी। साथ ही बाबा का सख्त बालों, जटाओं से भरा शरीर उसके शरीर से चिपका हुआ था, वह भी बेचैन किए जा रहा था। जब उससे न रहा गया तो वह बाबा से अगला आदेश क्या है यह पूछने की सोचने लगी। लेकिन तभी बाबा ने हल्की हुंकार सी भरी, उसी तरह हल्के से जय महाकाल कहा और पुत्र उत्पन्न करने की प्रक्रिया में जुट गए। 

सोफी पहली बार जितना इस बार आने में, बाबा से बतियाने में, प्रक्रिया को पूरा करने में नहीं डरी थी, प्रक्रिया के पूरी होने में जो भी वक़्त लगा उसके बाद सोफी ने सुकून महसूस किया कि अब जल्दी ही यहां से फुर्सत मिलेगी और वह लंच होते-होते ऑफ़िस पहुंच जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाबा फिर पहले की तरह उसे लिए लेट गए। अब उसकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। जब उससे न रहा गया तो उसने बाबा से ऑफ़िस पहुंचने और किसी के आ जाने की डर की बात कह कर चलने की इज़ाज़त चाही। तो बाबा ने साफ कहा, 

''तू मेरी शरण में है, तुझे कुछ नहीं होगा।''

बाबा पर पहले से विश्वास किए बैठी सोफी निश्चिन्त हो गई लेकिन जल्दी निकलने की इच्छा फिर भी मन में कुलबुलाती रही। और यह कुलबुलाहट तब खत्म हुई जब बाबा ने दो और बार अपनी प्रक्रिया पूरी कर उसे जाने की इज़ाजत दे दी। वापसी में उसने एक नज़र घड़ी पर डाली और बुदबुदाई चलो लंच के पहले न सही कुछ देर बाद तो पहुंच ही जाऊंगी। मगर शरीर का वह हिस्सा अब भी उसे परेशान किए जा रहा था, जहां गीलापन अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़े था। और इतना ही नहीं इस गीलेपन ने न जाने कितने बरसों से भूले बिसरे किशोरावस्था के साथियों में से एक चेहरे हिमांशु को ला खड़ा किया।

उसने झट इस चेहरे को फिर हमेशा के लिए बिसराने की कोशिश की लेकिन वह जितना कोशिश कर रही थी वह उतना ही ज़्यादा स्पष्ट और साथ ही तब की बातें समेटे और भी करीब आता जा रहा था। कुछ ही क्षणों में इतना करीब आ गया कि, जिस गीलेपन ने इतने बरसों के बाद उसकी याद दिलाई थी, वह और बाबा भी विलुप्त हो गए। ऑफ़िस पहुंचने, सीमा से बातें करना शुरू करने पर भी हिमांशु से जुड़ी यादों को परे नहीं ढकेल पाई। ज़्यादा देर होने की स्वतः ही सफाई देते हुए उसने सीमा से बाबा के देर से आने की बात कही। 

ऑफ़िस का शेष समय भी ऐसी ही तमाम बातों के कहने सुनने में बीत गया। छुट्टी होते ही वह चल दी घर को। बड़ी जल्दी में थी। इस बार भी उसके द्वारा पिछली बार का इतिहास दोहराया गया। मगर तमाम कोशिशों के बाद इस बार वह पहले की तरह जुल्फी को चैन से सुबह तक सुला न सकी। तमाम नानुकुर की लेकिन जुल्फी पुत्रोत्पत्ति के लिए अपने हिस्से की सारी मेहनत करके ही माना। और मेहनत करने के बाद कुछ ही देर में सो गया।

सोफी की आंखों में नींद थी, वह सोना भी चाहती थी, मगर हिमांशु का चेहरा उसे जबरिया जगाए जा रहा था। और नींद आंखों में जलन कड़वाहट पैदा किए जा रही थी। मानो हिमांशु और नींद में जीतने की जंग छिड़ गई थी। नींद उसे सुला देना चाहती थी हिमांशू की यादें उसे अपने में समेट लेना चाहती थी। 

आखिर हिमांशु की यादें जीत गर्इं और सोफी उतर गई यादों के सरोवर में। पैठती गई, गहरे गहरे और गहरे। वहां उसे बचपन की वह दुनिया हर तरफ नज़र आई जहां उसने जीवन के करीब उन्नीस वर्ष बिताए थे। एच.ए.एल. विभाग की उस कॉलोनी के विशाल परिसर में फैक्ट्री के अलावा बड़ी संख्या में बहु मंजिले आवास बने हुए थे। कुछ छोटे, कुछ बड़े, जिन में से करीब हर पांचवां मकान खाली ही रहता था। क्योंकि कुछ लोगों को बाहर किराए पर रहना ज़्यादा फायदेमंद लगता था। 

कॉलोनी के अन्य बच्चों की तरह वह भी कैंपस में ही बने स्कूल में पढ़ती थी। और उन्हीं के साथ शाम को खेलती भी थी। हिमांशु भी उसके साथ खेलता था। बेहद दुबला-पतला लेकिन कुछ ज़्यादा ही आकर्षक नैन नक्स वाला था। मगर न जाने क्यों वह अन्य लड़कों की अपेक्षा स्कूल से लेकर कॉलोनी में खेलने तक उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा करीब रहने की कोशिश करता था। 

कैसे स्पर्श कर सके, इसका मौका ढूढ़ता रहता था। नजरें मिलने पर बस देखता रह जाता और हौले से मुस्कुरा देता। इस पर वह भी नज़रें चुराती हुई मुस्कुरा पड़ती थी। क्योंकि उसके मन में भी उसको देखते ही न जाने क्या कुछ चल पड़ता था, उसे वह बहुत अच्छा लगता था, उसके करीब ज़्यादा रहने का उसका भी मन करता था। 

जल्दी ही वह बेहिचक उसका हाथ पकड़ने लगा। उसे अपने से चिपका लेता, उसके गालों को चूम लेता, हाथ बदन के कई हिस्सों तक पहुंचा देता। तब वह जल्दी ही अपने को छुड़ा कर चल देती थी, लेकिन मन में और देर तक यह होते रहने देना चाहती थी। मगर डर और संकोच उसे तुरंत भगा ले जाते। 

यह चंद दिनों तक ही रहा, उसकी भी हिम्मत बढ़ गई। इस बढ़ी हिम्मत के चलते गर्मी की छुट्टियों में वह और करीब आ गए। हर बार की तरह कॉलोनी के काफी बच्चे अपने-अपने गाँवों या पैतृक घरों को चले गए थे। लेकिन फिर भी बहुत से रह गए थे। इन दोनों का भी परिवार किसी वजह से नहीं गया था। 

मई-जून की तेज़ गर्मियों के चलते बच्चों के मां-बाप देर शाम सूर्यास्त होने के बाद ही उन्हें निकलने देते थे। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। कुछ दिन पहले ही दोनों का रिजल्ट आया था। जिसमें दोनों ने ही आठवीं कक्षा अच्छी पोजिशन में पास की थी। जिससे घर में कुछ ज़्यादा ही लाड़ प्यार मिल रहा था। और खेलने कूदने का ज़्यादा मौका।

इसी के चलते दोनों काफी देर खेल-कूद में लगे थे। और भी दर्जनों बच्चे थे जो कई गुट में बंटे अलग-अलग खेलों में व्यस्त थे। इनका गुट छिपने-ढूढ़ने के खेल में व्यस्त था। सब छिप जाते थे, कोई एक सबको ढूढ़ता था, इस क्रम में कोई छिपा हुआ यदि ढूढ़ने वाले के टीप मार देता तो वह फिर ढूढ़ने लगता। छिपने के लिए तीन मंजिले ब्लॉक अच्छी जगह थे, बच्चे वहीं छिपते थे जो खाली पड़े थे। कहीं सीढ़ियों के नीचे खाली पड़ी जगह में तो कहीं एकदम ऊपर छत पर। 

उस दिन वह भी छिपी थी सीढ़ियों के नीचे खाली पड़ी जगह में कि तभी हिमांशु भी आ पहुंचा छिपने के लिए। फिर तभी ढूढ़ने वाले लड़के की आहट मिली तो वह एकदम सटकर छिप गया। वह लड़का आया इधर-उधर देखा, ऊपर भी गया और किसी को न पाकर चला गया वापस, तो उसने भी उस जगह से उठ कर जाना चाहा, लेकिन हिमांशु ने कसकर पकड़ लिया और चूम लिया उसके गालों पर कई जगह।

वह रोमांचित हो उठी और छूट-कर जाने की कोशिश भी इस रोमांच में विलीन हो गई। उसने भी उसे पकड़ लिया। उसका सहयोग मिलते ही हिमांशु निश्चिंत हो गया और एक मासूम बादल सा अपनी सोफी पर बरस गया। एक आश्चर्यजनक अनुभव से गुजरने के बाद दोनों चल दिए अपने-अपने घरों को क्योंकि शाम ढल चुकी थी, धरा पर उतरने ही वाला था अंधियारा और लोगों ने शुरू कर दिया था लाइट्स जलाना। 

घर जाते वक़्त सोफी को गीलापन बहुत लिजलिजा अहसास दे रहा था। देर से घर पहुंचने पर मां से झिड़की भी मिल गई। इसके बाद तो दोनों एक आध हफ्ते में अक्सर मौका निकाल ही लेते थे मिलने का। फिर बारिश का वह दिन भी आया जो उनके मिलन का आखिरी दिन साबित हुआ। मानसूनी बारिश को शुरू हुए हफ्ते भर हो गए थे। उस दिन भी शाम होने से कुछ पहले तक बारिश होती रही। मौसम अच्छा खासा खुशगवार हो गया था। लोग घरों से बाहर थे, बच्चे भी खेलने-कूदने निकल चुके थे। 

कई दिन बाद आज फिर दोनों ने मिलने का मौका निकाल लिया था। हिमांशु तब फिर बरसा था लेकिन पहले की तरह सोफी के तन पर नहीं बरस गया था, उसके भीतर ठीक बाबा और जुल्फी की तरह। दोनों इस अहसास से ऐसे खिल उठे थे जैसे दिन भर बारिश के बाद गर्मी से राहत मिलते ही खिल उठे थे लोगों के चेहरे और फैक्ट्री परिसर में भारी संख्या में लगे पेड़-पौधे, फूल-पत्ते। 

सोफी जब घर को चली तो उसे लग रहा था कि जैसे क़दम जमीन पर नहीं हवा में ही पड़ रहे हैं। उस अहसास से वह बाहर ही नहीं आ पा रही थी, जो कुछ देर पहले तन के भीतर हिमांशु का कुछ रेंग जाने के कारण हुआ था। इस अहसास ने उसे बहुत देर रात तक सोने न दिया था। इस बीच उसे दर्द की एक लहर के गुजर जाने का भी अहसास बराबर हो रहा था। 

सुबह उसे आंखों में तेज़ जलन महसूस हुई जब उसे अम्मी ने झकझोर कर उठा दिया था। कमर के आस-पास के हिस्सों में दर्द का भी अहसास हुआ, तभी अम्मी दबी अवाज़ में बोली थीं, ''यह सब हो गया और तू घोड़े बेच कर सोती रही....चल जा बाथरूम जा कर नहा।'' अम्मी की इस बात से उसका ध्यान धब्बों भरे अपने कपड़े और बेडशीट पर गया। वह डर से थरथरा उठी कि हिमांशु और उसके मिलन का तो यह परिणाम नहीं जिसका भेद अम्मी के सामने खुल गया। वह आंखों में आंसू लिए गिड़गिड़ाई, ''अम्मी मैंने कुछ नहीं किया।'' 

''हाँ मुझे मालूम है क्या हुआ है। एक दिन सारी लड़कियों को इस रास्ते से गुजरना होता है। जा पहले, इसको भी ले जा ठीक से नहा धोकर, वह सब साफ कर के आ और हां यह भी ले जा।'' कुछ और भी भीतरी कपड़ों के साथ प्रयोग करने के लिए देते हुए उसने कान में भी कुछ कहा। अम्मी की बातों से उसे यकीन हो गया कि उसकी और हिमांशु की बात खुली नहीं है। बात तो कुछ और है जिसके बारे में अस्पष्ट सी बातें कभी-कभी सुन लिया करती थी। जब वह लौटी तो अम्मी ने विस्तार से सब बता कर हिदायत दी कि, अब हर महीने चार-पांच दिन ऐसा रहेगा। अब कहीं भी बाहर अकेले नहीं जाना। 

सचमुच कितनी खुश थी वह कि कई तकलीफों के बावजूद उसकी चोरी पकड़ी ही नहीं गई। मगर यह खुशी एक-दो दिन बाद ही खत्म हो गई थी, क्योंकि हिमांशु से मिलने के सारे रास्ते बंद हो गए थे। यहां तक कि स्कूल भी बंद था। इस बीच उसने कई बार उसे अपने घर के पास मंडराते देखा। फिर दस दिन बाद वह खराब दिन भी आ गया जब वह उसके घर आ गया सबसे मिलने के बहाने। 

उससे मिलने और यह बताने कि उसके फादर का ट्रांसफर बंगलौर हो गया है और सभी लोग लखनऊ छोड़ बंगलौर जा रहे हैं। उस समय उसने कुछ क्षण अलग मिलने की तड़प उसकी आंखों में देखी थी। मगर परिवार के सब लोग आगे थे। वह पीछे थी और हाथ मलती रह गई थी। उसके जाने के बाद उसने सबसे छिप-छिपाकर छत पर बड़ी देर तक आंसू बहाए थे। यह सिलसिला फिर कई रातों तक चला था। हिमांशु से बिछुड़ने का असर उसके व्यवहार और फिर पढ़ाई पर भी पड़ा था। 

बचपन का अध्याय पूरा करते-करते सोफी की आंखें भर आई थीं। आखिर में उसके दिमाग में आया कि यदि हिमांशु न बिछुड़ता तो निश्चित ही वह आज उसके साथ होती। यह बात दिमाग में आते ही उसकी नजर घूम कर बगल में पड़े खर्राटे भर रहे जुल्फी पर जा पड़ी। अचानक ही वह बुदबुदा उठी और यहां जुल्फी नहीं हिमांशु सो रहा होता। कितना मासूम, कितना नेक था। न जाने अब कहां होगा? कैसा होगा? सोफी ने फिर आँखें बंद कर लीं कि शायद नींद आ जाए और कुछ राहत मिले। मगर उसे राहत मिली करीब डेढ़ महीने बाद। 

जब एक सुबह उसे उबकाई आने लगी। और बाद में चेक कराने पर उसकी प्रिग्नेंसी कंफर्म हो गई। उसने मन ही मन धन्यवाद दिया बाबा को, सीमा को। उसे पूरा यकीन था कि यह छः बार बाबा के पास जाने का परिणाम है। जुल्फी को जब उसने बताया कि वह प्रिग्नेंट हो गई है तो उम्मीद के अनूकूल यही जवाब मिला, 'इस बार बेटा ही होना चाहिए।' 

सोफी की नींद, चैन, आराम उसकी इस बात ने अगले चार महिने तक हराम कर दिया। घबराहट, चिंता ने उसका बी.पी. बढ़ा दिया। पहले की तरह उसने यह सारी बातें फिर शेयर कीं सीमा से तो उसने कहा, ''एक ही रास्ता बचा है कि, बच्चे का लिंग  पहले ही पता कर लिया जाए कि वह लड़का है या लड़की। जैसा होगा उसके हिसाब से आगे किया जाएगा।'' 

''लेकिन सीमा जिस भी नर्सिंग होम में यह सब होता है, वहां तो बाहर ही बोर्ड लगा रहता है कि भ्रूण का लिंग परीक्षण दंडनीय अपराध है।''

''सोफी वास्तव में यह सब एक तरह से यह बताते हैं कि, यह यहां आसानी से हो जाएगा। बस इसके लिए दो गुनी फीस देनी होगी।'' 

बात सोफी के समझ में आ गई। और फिर वह एक नामचीन नर्सिंग होम में इसके लिए चेकअप के बहाने पहुंची। सही बात सामने रखने पर पहले तो उसने ना नुकुर की लेकिन मनचाही रकम मिलते ही चेक कर बता दिया कि बेटा है। बेहद स्वस्थ है। लेकिन चेकअप की कोई लिखित रिपोर्ट नहीं दी। सोफी को इसकी परवाह ही कहां थी। वह तो मन चाही मुराद मिल जाने से सातवें आसमान पर थी।

उसका मन बल्लियों उछले जा रहा था। सीमा को, बाबा को उसने लाख-लाख धन्यवाद दिया। घर पहुंच कर उसने बहुत असमंजस के बाद उस वक़्त जुल्फी को भी सच बता दिया जब वह रात में उसकी बगल में ही बैठा था और पुत्र की आस लिए अब-तक अच्छे खासे उभर आए उसके पेट को हौले-हौले स्पर्श कर रहा था और कई बार चूमने के बाद कहा कि, 

''हक़ीम साहब की दवा काम कर गई तो अबकी बार बेटा ही होगा।''

तब उसने कहा, ''अगर नाराज़ न हो तो एक बात कहूं।''

''बोलो।''

''हम-दोनों की मुराद पूरी हो गई है। इस बार मैं आपका वारिस आपका बेटा ही पैदा करूंगी।''

सोफी से इतना सुनते ही जुल्फी एक दम सीधा बैठ गया और पूछा, 

''मगर तुम इतना यकीन से कैसे कह सकती हो?''

जुल्फी के इस प्रश्न पर सोफी ने उसे चेकअप वाली पूरी बात बता दी। सिर्फ़ यह छिपाते हुए कि सीमा सूत्र-धार थी और आखिर तक साथ थी। उसकी बात पर जुल्फी सिर्फ़ इतना ही बोला,

''इससे कुछ नुकसान तो नहीं होगा।''

''नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि, स्कूटी वगैरह चलाना बंद कर दें। वह बता रही थीं कि इस बात की संभावना ज़्यादा है कि, बच्चा ओवर वेट, ओवर साइज हो। इसलिए बड़े सिजेरियन की ज़रूरत पड़ेगी। मतलब की उस वक़्त काफी पैसा लग सकता है।''

सोफी की बात सुन कर जुल्फी कुछ गंभीर हो गया। फिर बोला, 

''एक ऑटो रिक्शा लगवा देता हूं। ऑफ़िस उसी से जाओ-आओ। फिर जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी मैटरनिटी लीव ले लो। एक नौकरानी भी लगवा देता हूं, काम-धाम कम करो।'' 

यह बातें जुल्फी की सोच उसकी प्रकृति, आदत से एकदम विपरीत थीं। जिसे सुन कर सोफी को जितनी खुशी हुई उससे कहीं ज़्यादा आश्चर्य। अब-तक लेट चुके जुल्फी को उसने अपनी बाँहों में ले लिया। बहुत दिनों बाद वह बेहद सुकून भरा क्षण जी रही थी। जब कि बाबा का चेहरा उसकी आंखों के सामने बराबर नाच रहा था।

साथ यह बात भी नत्थी थी कि कहीं बेटा बाबा की सूरत-सीरत पा गया तो क्या होगा? जुल्फी को क्या बताएगी? इसी कसमकस-उलझन में डूबते-उतराते गर्भावस्था के बाकी के पांच माह भी बीत गए और तय समय पर डॉक्टर की आशंकाओं के अनुरूप सिजेरियन से सोफी ने खूबसूरत चेहरे-मोहरे वाले बेटे को जन्म दिया। उसका चेहरा मां से इतना मेल खा रहा था कि देखते ही बेसाख्ता ही मुंह से निकल जाता, 'अरे! यह तो मां पर गया है।' 

कई घंटे बाद होश में आने पर सोफी बेटे को छाती से लगा कर खुशी से रो पड़ी थी। उसी छाती से जिसमें किन-किन रास्तों से गुजर कर उसने बेटा पाया, यह राज उसने हमेशा के लिए दफन कर लिया था। यह जानते हुए कि, यह एक टीस भरी पीड़ा अंतिम क्षण तक देता रहेगा। उसे यह देख कर बड़ा सुकून मिला था कि, बेटे का चेहरा बाबा पर नहीं पूरी तरह उस पर गया था। लेकिन शरीर की बाकी बनावट पर बाबा का अक्स साफ झलक रहा था। रंग तो पूरी तरह उन्हीं का था। 

उसने सोचा मगर जो भी हो बेटा न होने के कारण उस पर तलाक की जो तलवार लटका करती थी वह तो हट गई। उसने आस-पास देखा सिवाय नर्स और उसके सिर पर स्नेह-भरा हाथ रखे सीमा के अलावा कोई न था। नर्स ने बच्चा उससे लेकर बेड के बगल में पड़े पालने में लिटा दिया और चली गई। तब सोफी ने सीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, 

''मैं तुम्हारा एहसान कभी न चुका पाऊंगी।''

''ओफ्फ....सोफी अब खुश रहो। इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। दुनिया में सभी एक दूसरे के लिए करते हैं।''

''पता नहीं...पर मेरा साथ कभी न छोड़ना।'' 

''मैं छोड़ने के लिए किसी को अपना नहीं बनाती सोफी।'' 

इसी बीच पूरे नर्सिंग होम में मिठाई बांट कर जुल्फी भी आ गया तो सीमा ने कहा, ''सोफी मैं थोड़ी देर में आती हूं।'' वह जुल्फी से पहले ही मिल चुकी थी। उसके जाते ही सोफी ने एक-टक बच्चे को निहार रहे जुल्फी से कहा,

''अब तो खुश हैं?''

''हाँ बहुत।''

''सब कह रहे हैं कि बिल्कुल मुझ पर गया है।''

''सही ही कह रहे हैं सब, तुम्हारी स्कैन कॉपी लग रहा है। सिवाय रंग के।''

जुल्फी के चेहरे को पढ़ने के इरादे से उसे गौर से देखते हुए सोफी ने आगे कहा, 

''शायद तुम्हारे हकीम साहब की दवा काम कर गई। सांवलापन उनकी दवाओं के कारण ही तो नहीं हो गया।''

''शायद नहीं, बेटा निश्चित ही हकीम साहब की दवाओं के चलते ही हुआ। और रंग...रंग का क्या करेंगे? बेटा बेटा है। मैं हकीम साहब के पास जाऊंगा उनसे और दवाओं के लिए कहूंगा जिससे तुम मुझे अगले साल एक और बेटा दे सको।''

''क्या?''

''अरे! इसमें इतना चौंकने वाली क्या बात है? एक बेटा यानी कानी आंख। कम से कम दो तो चाहिए ही चाहिए।''

तभी नर्स ने आ कर जुल्फी को एक पर्चा थमाते हुए कुछ दवाएं तुरंत लाने को कहा। जुल्फी को कमरे से बाहर जाता देखती रही सोफी। वह एकदम परेशान हो उठी। उसके दिमाग में एक दम से यह कौंधा कि, ''बच्चा पैदा करने की मशीन के अलावा भी कभी कुछ समझोगे। जो तकलीफ झेलती हूं, उसका अंश भी पलभर को न झेल पाओगे। कितनी आसानी से कह दिया और बेटा चाहिए। 

मन का सब हो गया पर प्यार के दो लफ़्ज न बोल पाए। मौत के मुंह से निकल कर आई हूं पर एक बार न पूछा कैसी हो? बस आंखों, दिलो-दिमाग पर अपना ही स्वार्थ छाया हुआ है और बेटा चाहिए। बस बहुत हो गया। देते हो तलाक तो दे दो। तुम न सही बेटे को ही सहारा बना लूंगी, पर अब बच्चा पैदा करने की मशीन बिल्कुल नहीं बनूंगी। भाड़ में गईं तुम्हारी दवाएं। अब भूल कर बाबा के पास भी जाने वाली नहीं। 

तुम्हारे पास आने से पहले ऐसा इंतजाम करके आऊंगी कि चाहे तुम जितनी दवाएं खा लोगे, जितना भी जोर लगा लोगे, मैं प्रिग्नेंट ही नहीं होऊंगी।'' सोफी की आंखों में आंसू भर आए और एकदम से अम्मी की याद आ गई। 

उनसे वह आखिरी बार मिलना एवं फिर हमेशा के लिए बिछुड़ना और साथ ही उनकी दी वह बद्दुआ कि, ''तुझे अल्लाह त आला जीवन में कभी सुकून नहीं बख्सेगा।'' उसने मन ही मन कहा अम्मी तू तो कहती थी कि ''मां-बाप के दिल से बच्चों के लिए बद्दुआ निकलती ही नहीं। वह तो गुस्से में ऊपरी तौर पर निकल जाती है।'' पर अम्मी लगता है कि, मेरे लिए तेरी बद्दुआ दिल से निकली थी, तभी तो तब से आज तक एक पल को सुकून नहीं मिला। हालात ऐसे बन गए हैं कि, अंतिम क्षण तक सुकून का एक पल मिलेगा यह सोचना भी मूर्खता है। मगर अम्मी इसमें गलती तो मेरी ही है। न तेरे दिल को मैंने इतना दुखाया होता, न ही तेरे दिल से मेरे लिए बद्दुआ निकलती। 

तड़प तो तू भी रही होगी अम्मी, आखिर हो तो मां ही ना। औलाद से बिछुड़ कर कहां चैन होगा तुझे भी। औलाद वाली बनकर ही समझ पाई हूं, तेरे उन आंसुओं की कीमत, जो उस दिन झर रहे थे तेरी आंखों से।'' यह सोचते-सोचते सोफी के भी आंसू बह चले थे।

शायद दवाओं का असर कम हो गया था, इसलिए दर्द भी बढ़ रहा था। उसने अपनी जगह से ही बच्चे पर नज़र डाली और देखती रही उसे। उसके मन में उद्विग्नता की लहरें ऊंची और ऊंची होती जा रही थीं। उन लहरों पर बाबा का अक्स भी बड़ा और स्पष्ट होता जा रहा था।


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किसी ने नहीं सुना

 रक्षा-बंधन का वह दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा अभिशप्त दिन है। जो मुझे तिल-तिल कर मार रहा है। आठ साल हो गए जेल की इस कोठरी में घुट-घुटकर मरते हुए। तब उस दिन सफाई देते-देते शब्द खत्म हो गए थे। चिल्लाते-चिल्लाते मुंह खून से भर गया था। मगर किसी ने यकीन नहीं किया। पुलिस कानून, दोस्त, रिश्तेदार, बच्चे और बीवी किसी ने भी नहीं। सभी की नज़रों में मुझे घृणा दिख रही थी। सभी मुझे गलत मान रहे थे। मेरी हर सफाई, हर प्रयास घृणा की उस आग में जलकर खाक हो गए थे। 

ज़िंदगी भर से सुनता आ रहा हूं, कानून के हाथ बड़े लंबे होते हैं, उससे बड़े से बड़ा चालाक अपराधी भी नहीं बच सकता, लेकिन यहां अपराधी आठ बरस से आराम से घूम रहे हैं, मस्त जीवन जी रहे हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए एक निर्दोष को धोखे से फंसा कर अपराधी साबित कर दिया। कानून के शिकंजे में वे नहीं बल्कि उन सबने उसे अपने शिकंजे में कर प्रयोग कर लिया। और उनकी साजिश का शिकार बना मैं जेल में सड़ रहा हूं। वो भी दुनिया के सबसे घृणित अपराध के आरोप में । एक बलात्कारी के रूप में। अपनी ही साथी से बर्बरतापूर्वक बलात्कार करनेए उसकी हत्या करने के प्रयास के आरोप में। धारा तीन सौ छिहत्तरए तीन सौ सात के तहत। आज भी बीवी से नज़र मिला नहीं पाता। बहन राखी बंधवाने फिर आने लगी है। शुरू के दो बरस तो वह आई ही नहीं। हां न जाने क्यों बहनोई शुरू से ही अन्य सबकी अपेक्षा मेरे प्रति नरम रहे हैं और ढांढ़स बंधाते रहते हैं, और जिस साले को मैं उठाईगीर, छुट्ट-भैया नेता मानता था वह सबसे ज़्यादा काम आया।

उस दिन भी जब मैं राखी बंधवाने के बाद वापस घर आने के लिए निकला और बहनोई के पैर छूने लगा तो उन्होंने गले से लगाकर कहा था,

''नीरज गाड़ी आराम से चलाना। यार कहना तो नहीं चाह रहा था लेकिन बात क्योंकि तुम मियां-बीवी के बीच खटास का कारण बनती जा रही है, इसलिए कह रहा हूं। इसे एक बहनोई की नहीं एक सच्चे मित्र की सलाह मानकर विचार करना। देखो बाहर जो भी करो मगर इसका ध्यान रखो कि उससे तुम्हारा परिवार डिस्टर्ब न हो। घर की शांति न भंग हो। क्योंकि घर की शांति गई तो समझ लो सब गया। ऑफ़िस में संजना के साथ तुम्हारे जो भी संबंध हैं, उसे मैं तुम्हारा पर्सनल मैटर मानता हूं। 

मगर जब कोई मैटर अच्छे ख़ासे खुशहाल परिवार की नींव हिलाने लगे तो ज़रूर सोचना चाहिए। तुम एक खुशहाल परिवार के मालिक हो। दो होनहार बच्चे हैं। और बहुत खुशकिस्मत हो कि नीला जैसी बेहद समझदार पढ़ी-लिखी बीवी मिली है। ऐसे में संजना जैसी औरत की तुम्हारी ज़िंदगी में कैसे कोई अहमियत हो सकती है। कम से कम मैं तो नहीं समझता। गंभीरता से विचार करो। नीला और बच्चों में ही तुम्हारी सब खुशी है, सारा संसार है और उन सबका तुम में। तुम अपने परिवार की खुशी छीन कर कहीं और लुटा रहे हो, नीरज। जबकि वह तुम्हें पहले ही एक बार चीट कर चुकी है। यदि मेरी बात अच्छी न लगे तो क्षमा करना।''

उन्होंने इतना कहकर बड़े प्यार से कंधा थप-थपाकर बिदा किया था। उनकी बात में, कंधा थप-थपाने में एक पिता का सा भाव था। अपनत्व की शीतलता थी। लेकिन तब मेरी मति पर पत्थर पड़ा था। संजना के प्यार नहीं बल्कि उसके छद्म प्यार की काली छाया थी मुझ पर, और मुझे उनकी बात बुरी लगी थी। 

तब मेरे मन में आया था कि यह समझाना-बुझाना ज़्यादा हुआ तो आना ही बंद कर दूंगा। बहन पर भी गुस्सा आया था कि, वह भी कभी फ़ोन पर कभी मिलने पर संजना को लेकर व्यंग्य करना नहीं भूलती। भले ही मजाक के रूप में कहेए, कहती ज़रूर है। गुस्सा बीवी पर भी बहुत आया था। उसे मन ही मन न जाने कितनी गालियां दी थीं। कोई भी ऐसी भद्दी गाली न थी जो उस वक़्त न दी हो। घर पहुंच कर पीटने का भी मन कर रहा था कि यह मेरी बातें बताती क्यों है, मेरी बहन-बहनोई से। और न जाने किस-किस से बताती रहती है।

गुस्सा इतना बढ़ गया था कि घर न जाकर एक होटल में बैठ गया था। फिर वहीं चाय नाश्ता करते-करते गुस्से से उबलते-उबलते संजना को फ़ोन कर दिया था। मन में उस वक़्त चल रहा था कि, रोकना हो तो रोक लो। जितना कहोगे उतना जाऊंगा। इन सबसे मेरी ज़रा सी खुशी देखी नहीं जाती। सब सिर्फ़ पैसे के साथी हैं। अपने-अपने सुखों के लिए मरते रहते हैं। मैं दो पल की खुशी कहीं ढूंढ़ लेता हूं तो, सब भड़क उठते हैं। गुस्सा और प्रतिशोध उस वक़्त इतना बढ़ गया था कि, संजना से फ़ोन पर उस वक़्त यह सारी बातें शेयर कर डाली थीं। बीच में कुछ दिनों गंभीर अनबन के बाद संजना से दुबारा मेरे रिश्ते  जब से मधुर हुए थे तब से मैं उसको लेकर और भी ज़्यादा पजेशिव हो गया था। 

यह सब बताते-बताते एकदम भावुक हो उठा था। उस वक़्त बीवी बच्चे सब मुझे सबसे बड़े दुश्मन लग रहे थे और संजना सबसे बड़ी हितैषी। तब की अपनी सबसे बड़ी हितैषी से मैंने तुरंत मिलने के लिए कहा। पहले वह तैयार न हुई। बहुत जोर देने पर दो घंटे बाद आई थी। उसे देखकर मैं खुशी से एकदम फूल गया था। 

मुझे अपनी सारी खुशियां उसी में दिख रही थीं। इत्तेफ़ाक से वह भी अपने घर वालों से झगड़ा करके आई थी। अपनी मां और अपने इकलौते भाई से। उसकी चार बहनें थीं उनसे भी उसकी पटती नहीं थी। दरअसल वह अपने मायके में ही रहती थी। अपने पति से अलग रहते उसे तीन साल हो गए थे।

जब छोड़कर आई थी तो अपने छः वर्षीय बेटे को भी साथ ले आई थी। उसके ससुरालियों का कहना था कि वह बेहद झगड़ालू है, किसी के साथ उसकी नहीं निभ सकती। पति ने जब अलग रहने की उसकी बात नहीं मानी थी तब उसने उन्हें भी छोड़ने का फैसला एक झटके में ले लिया था। 

पति की मर्जी के खिलाफ उसने नौकरी भी शुरू की थी। यह भी दोनों के बीच झगड़े का एक और कारण था। पति कहता था जितना कमाता हूं वह काफी है। लेकिन वह कहती तुम्हारा बिजनेस बाकी भाइयों की तरह अच्छा नहीं चल रहा। इसलिए मैं भी कमाऊंगी। जिठानियों, देवरानियों के पैसों को लेकर जो कमेंट होते हैं मैं एक सेकेंड को सहन नहीं करूंगी। मैं किसी से कम नहीं रह सकती। तुम अपना हिस्सा लेकर अलग क्यों नहीं रहते। पति जब नहीं माना तो छोड़ आई घर रहने लगी थी मायके में। 

यह संयोग ही था कि उसकी एक और बहन भी मायके में ही रहती थी। उसके आदमी ने उसे शादी के कुछ ही महीनों बाद छोड़ दिया था, कि वह पत्नी धर्म निभा ही नहीं सकती। धोखे से शादी कर उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। पर अब और नहीं। संजना की अपनी ऐसी संन्यासिनी बहन से भी नहीं पटती थी। 

सन्यासिनी इसलिए कि पति से संबंध-विच्छेद के बाद उसका अधिकांश समय पूजा-पाठ में ही बीतता था। चार-छः महीने में ही कभी बोल-चाल हो पाती थी। घर वाले भी उसकी सारी ज़्यादती इसलिए सहते कि फिलहाल दो साल से पूरे घर का खर्च वही चला रही थी। क्योंकि भाई का बिज़नेस ठप्प पड़ गया था, और फादर को रिटायर हुए कई साल हो गए थे। बीमार अलग। वह घर की इस स्थिति का पूरा फ़ायदा उठाती थी। जो चाहती थी करती थी। 

ऐसी संजना जो अपनों की, अपने पति की नहीं थी, अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती थी, मैं उसी का दिवाना बना हुआ था। दिवानगी ऐसी थी कि उसके लिए मैं भी अपनों, अपनी पत्नी, बच्चों को दरकिनार कर बैठा था। उस दिन बहनोई ने सब समझाया तो अंदर ही अंदर तिलमिला उठा था। और रोम-रोम, संजना-संजना चिल्ला उठा था। उससे मिलने के लिए बेवकूफों की तरह उसका देर तक इंतजार किया था।

जब आई तो घर-भर की शिकायत कर डाली थी उससे। और उसने भी बताया कि वह भी झगड़ कर आई है। और जी-भर कर अंड-बंड अपने घर वालों को कहा। भाई को भी राखी बांधने के आधे घंटे बाद ही खूब खरी-खोटी सुनाई और हिदायत भी दी कि, वह छोटा है छोटे की ही तरह रहे। उससे कोई पूछताछ न किया करे। उसने यह धमकी उसके माध्यम से वास्तव में पूरे घर को दी थी। अपने घर वालों पर जी-भर भड़ास-निकालने के साथ ही उसने होटल में जी-भर कर पकौड़ी और दही बड़े खाए थे।

उसका हाथ फेंक-फेंक कर, आंखें नचा-नचाकर बातें करना उस समय मुझे बहुत भाया था। वह बला की खूबसूरत लग रही थी। उसकी बातों से साफ था कि झगड़कर आने के कारण उसे घर जाने की कोई जल्दी नहीं है। 

तभी मेरे दिमाग में पत्नी से पिछली रात को हुई बहस याद आ गई जिसकी तरफ से घर पहुंचने पर ही ध्यान हटा था। उस रात खाने के वक़्त वह उदास सी लग रही थी। मैंने तब कोई ध्यान नहीं दिया था। ड्रॉइंग-रूम में टीवी पर देर तक मैच देखकर जब बेडरूम पहुंचा तो देखा लाइट ऑफ थी। नाइट लैंप भी ऑफ था।

लाइट ऑन की तो देखा वह बेड पर एक तरफ करवट किए लेटी है। पीठ मेरी तरफ थी, इसलिए यह नहीं जान पाया कि सो रही है कि, जाग रही है। आज फिर उसने कई दिन पहले की तरह स्लीपिंग गाऊन की जगह साड़ी ही पहन रखी थी। यानी कपड़े चेंज नहीं किए थे। साड़ी भी अस्त-व्यस्त सी थी, कुछ-कुछ अध-खुली सी। 

कुछ क्षण देखने के बाद मैंने लाइट ऑफ की और नाइट लैंप ऑन कर उसकी बगल में लेट गया।  सो रही हो पूछने पर जब कोई उत्तर नहीं मिला तो उसे पकड़कर चेहरा उसका अपनी तरफ करना चाहा तो उसने शरीर एकदम कड़ा कर लिया। मैंने और ताक़त लगाई तो उसने और कड़ा कर लिया। तो मैंने पूछा,

''क्यों आज क्या तमाशा है?''

''कुछ नहीं, तबीयत ठीक नहीं है।''

''क्या हुआ? ऐसे लेटने से सही हो जाएगी क्या?''

इस पर उसने कोई जवाब नहीं दिया और लेटी रही निश्चल तो, उसे पकड़ कर मैंने फिर से अपनी तरफ करने का प्रयास करते हुए कहा,

''मेरे पास आओ तबीयत ठीक हो जाएगी।''

मगर उसने पहले की तरह शरीर को कड़ा किए रखा। मेरी इच्छा जितनी प्रबल होती जा रही थी, नीला का प्रतिरोध भी उतना ही प्रगाढ़ होता जा रहा था। लेकिन मेरी इच्छा हावी हो ही गई। नीला का प्रतिरोध हार गया। उसने अंततः समर्पण कर दिया। मैंने जब अपनी मनमानी कर ली तब मेरा ध्यान उसकी सिसकी और उस कम रोशनी में आंसू से भरी उसकी आंखों की तरफ गया। मैं अंदर ही अंदर और गुस्से से भर रहा था कि तभी उसने भर्रायी आवाज़ में कहा,

''बस दिखा ली ताकत, और कुछ नहीं करना है। जो बाकी रह गया हो वह भी कर लो, मैं कुछ भी नहीं कहने वाली।''

उसके इस ताने को जज्ब करने की कोशिश करते हुए मैंने कहा,

''मेरा दिमाग मत खराब करो समझी। आजकल कुछ ज़्यादा ही सिर पर सवार हो रही हो।'' 

''दिमाग किसका खराब है यह अच्छी तरह जानते हो। और मेरी हैसियत ही तुमने इस घर में क्या बना रखी है जो मैं सिर पर सवार होऊंगी। मेरी हालत एक गुलाम से बदतर है, दिन भर सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा करो उसके बाद तुम जैसा चाहो वैसे यूज करो। बस यही हैसियत है मेरी।''

''मैं यूज करता हूं तुम्हें?''

''और क्या करते हो? अभी जो किया वह यूज करना नहीं तो और क्या है?''

''तो क्यों ड्रॉमा कर रही थी?''

''मैं कोई ड्रामा नहीं कर रही थी। अगर संजना से संबंध नहीं तोड़ सकते तो मुझे छोड़ दो। क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अब यह नहीं बर्दाश्त कर पाऊंगी कि, तुम जब मेरे पास आओ तो तुम्हारे तन-मन से, कपड़ों से उस बदजात औरत की गंदी बदबू भी साथ आए।''

''जुबान संभाल कर बात करो तो ज़्यादा अच्छा है समझी।''

''मेरी जुबान संभालने के बजाय आप अपने को संभालिए। क्यों अपने बसे बसाए घर को अपने ही हाथों आग के हवाले कर रहे हो?''

''आग के हवाले मैं नहीं तुम कर रही हो। पिछले आठ-नौ महीनों से तुमने जीना हराम कर रखा है। जब-तक घर में रहो तब-तक ताने मारती हो। तुम्हारे हर काम में ताना, व्यंग्य, नफ़रत नज़र आती है। यहां तक कि बच्चों को बिना उनकी गलती के मेरे सामने पीटती हो। वास्तव में उस समय तुम बच्चों को नहीं एक तरह से मुझे पीट रही होती हो। घर को आग के हवाले तो तुम कर रही हो।''

''मैं ऐसा कुछ नहीं कर रही हूं, यदि यह हो रहा है तो इसका कारण भी अच्छी तरह जान-समझ रहे हो। और जब कारण जानते हो तो उसे दूर क्यों नहीं करते। क्यों चिपकाए हुए संजना को अपने साथ। जबकि वो जब चाहती है, तब आती है तुम्हारे पास, तभी मिलती है तुमसे। उसके चक्कर में इतना तमाशा हो गया। नौकरी जाते-जाते बची आखिर क्या मज़बूरी है आपकी? क्या ज़रूरत है उसको साथ चिपकाने की। लोग तरह-तरह की बातें करते हैं, तुम्हें ज़रा भी शर्म-संकोच नहीं आती।''

नीला की बातों से मेरा क्रोध और बढ़ गाया। मैं करीब-करीब चीखते हुए बोला,

''संजना, संजना, संजना दिमाग खराब कर रखा है, किसी से बात करना भी मुश्किल कर दिया है।''

मेरी इस बात पर नीला भी और उत्तेजित होकर बोली थी।

'' बात करने के लिए कौन मना करता है। बात तो और भी तमाम औरतों से करते हो। और किसी के साथ तो यह समस्या नहीं है। क्यों कि और किसी के साथ तो कोई समस्या है ही नहीं। समस्या सिर्फ़ इसी के साथ है, इसलिए लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। यह बातें छिपती नहीं हैं। ऑफ़िस से लेकर यहां कॉलोनी तक में आप और संजना चर्चा का विषय बने हुए हैं। पता सब आपको भी है। घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। बच्चे बड़े हो रहे हैं, क्या असर पड़ेगा उन पर?''

''लोगों की बातों, अफवाहों पर तुम्हें बड़ा यकीन हो गया है। और मैं जो कहता हूं उस पर यकीन नहीं है।''

''मैं किसी की बात पर या अफवाहों पर ध्यान देकर नहीं बोलती। आठ-नौ महीनों से खुद जो देख सुन रही हूं, उससे आंखें नहीं मूंद सकती। रात बारह-एक बजे तक उससे बतियातें रहते हैं। उसको लेकर न जाने कहां-कहां घूमते रहते हैं। उससे कैसी-कैसी, क्या-क्या बातें करते हैं, यह सब मुझसे छिपा नहीं है।''

''झूठ है सब। ऐसे बोल रही हो जैसे हमेशा मेरे पीछे-पीछे चलती हो और मैं या संजना खुद आकर तुमको सारी बातें बताते हैं। अफवाहें तो तुम खुद उड़ा रही हो मनगढंत कहानी बना-बना कर।''

''मेरी एक-एक बात सच है, मैं कोई मनगढंत कहानी नहीं बता रही समझे।''

नीला की इस बात पर मैंने कड़ा प्रतिरोध करते हुए कहा था कि,

''कुछ भी सच नहीं है सब बकवास है समझी।''

मेरे इतना कहने पर नीला ने मेरा मोबाइल उठा लिया तो मुझे लगा कि शायद यह किसी को फ़ोन करने जा रही है। शायद संजना को ही। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उसने मोबाइल की ऑटो कॉल रिकॉर्ड का फोल्डर ओपन कर रिकॉर्ड बातों में से किसी एक फोल्डर को ऑन कर दिया। जिसमें मेरी और संजना की अश्लील बातें सुनाई देने लगीं। यह पूरा हो इससे पहले उसने दूसरा ऑन कर दिया, जिसमें वह मुझसे फ़ोन पर ही ओरल सेक्स करने का मजा देने को बोल रही थी। और मैं बोल रहा था, 

'यार ये थ्रू सेटेलाइट सेक्स में मजा नहीं।' तो वह बोली, 

''क्यों?'' मैंने कहा, 

''तुमसे थ्रू सेटेलाइट सेक्स करते-करते मैं एक्साइटेड हो जाऊंगा और फिर बीवी पर टूट पडूंगा। और आजकल उसका मूड खराब रहता है, इसलिए उसके नखरे उठाने पड़ेंगे।'' 

यह बात पूरी हो इसके पहले नीला ने अगले फोल्डर को ऑन कर दिया। जिसमें वह अपने अंगो के बारे में बता रही थी। और मैं अपने। यह बात हमारे उसके बीच सेक्स रिलेशनशिप बनने से पहले की थीं। जिसमें वह अपने सौंदर्य को बनाए रखने के लिए की जाने वाली कोशिशों और अल्ट्रा इनर पहनने के बारे में बोल रही थी। और मैं उसे और सेक्सी बनने के नुस्खे बताए जा रहा था। नीला जितने फोल्डर ओपन करती सबमें एक से बढ़कर एक अश्लील बातें सुनाई देतीं। 

मैं एकदम हक्का-बक्का था। मेरे मोबाइल ने मुझे मेरी बीवी के सामने एकदम नंगा कर दिया था। अपने को दबंग किस्म का मानने वाला मैं उस समय बीवी के सामने सहमा सा महसूस कर रहा था। बड़ा आश्चर्य तो मुझे इस बात का था कि, मेरी बातें मेरे मोबाइल में रिकॉर्ड हैं और यह मुझे पता ही नहीं। मेरी बीवी सब जानती है। मुझे यह भी पता नहीं था कि मेरे मोबाइल में बातचीत रिकॉर्ड हो जाती है। जब कि पिछले छः महीने से यह मोबाइल मेरे पास था। 

संयोग यह कि इसे मैंने एक बार संजना के यह कहने पर ही खरीदा था कि, 'यार कब तक पुराने मोबाइल पर लगे रहोगे। इससे आवाज़ साफ नहीं आती। नया लो न।' आज उसी मोबाइल ने हमारी पोल खोल दी थी। मुझे हक्का-बक्का देखकर बीवी कुछ क्षण मुझे देखती रही फिर मोबाइल मेरी तरफ धीरे से उछाल दिया। 

उसकी आंखें भरी थीं। वह बेड से उतर कर अलमारी से अपना नाइट गाउन निकालने को चल दी। मेरी एक नजर उसके बदन पर गई, मगर मेरा मन शून्य हो गया था। भावनाहीन हो गया था। गाऊन पहनकर उसने बेड पर से साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट उठाकर एक तरफ रख दिया। फिर भरे गले से बोली,

''मुझे नहीं लगता कि मैंने पत्नी धर्म निभाने में कभी कोई गलती की है कि, तुम्हें किसी और की तरफ देखने की ज़रूरत हो। फिर ऐसा क्यों कर रहे हो, अरे! इतनी सी बात आपकी समझ में नहीं आ रही कि, जो औरत अपने पति की नहीं हुई, तुम्हीं बता चुके हो कि उसका पति महीनों से बीमार पड़ा है, लेकिन वह देखने को कौन कहे उससे बात तक नहीं करती, जो अपने भाई-बहन, मां-बाप की न हुई आप की क्या होगी।

अरे! इतना भी आपकी समझ में नहीं आ रहा जो पति के रहते गैर मर्द से अपने अंग-अंग का बखान करे, फ़ोन पर सेक्स करने का मजा ले। खुद कहे कल वहां चलो मजा करते हैं, यह कहे कि एक बच्चा मैं तुमसे चाहती हूं। एक बच्चा जो है उसको तो पाल नहीं पा रही, उसे लावारिस सा डे-बोर्डिग में छोड़ रखा है। और एक बच्चा तुमसे और चाहती है।

अरे! यह सब उसकी कुटिल साजिश है। तुम को फंसाकर तुम्हारी सारी संपत्ति हड़प लेगी। ठीक वैसे ही जैसे सुख-शांति, घर का खुशहाल माहौल छीन लिया है। इस समय इतने तनाव में हो तुम, हम, यह पूरा माहौल, सिर्फ़ एक उसकी वजह से, जिससे तुम्हें क्षणिक छद्म सुख के सिवा सिर्फ़ बर्बादी ही मिलती है।'' 

बीवी की बातें मुझे उस वक़्त काटने को दौड़ती लग रही थीं। तब मेरे दिमाग में एक ही बात घूम रही थी कि बातें रिकॉर्ड कैसे हुईं? मैंने पूछ लिया तो उसने जो बताया उससे मेरा मन और ज़्यादा खिन्न हो गया। उसने नफरत भरे शब्दों में कहा कि, 

''एक दिन बेटे के हाथ में मोबाइल लग गया और उसने रिकॉर्डिंग ऑन कर ली। जब बातें मेरे कानों में पड़ीं तो मोबाइल लेकर मैंने चेक किया। तब पता चला कि, इसमें तो ऑटो कॉल रिकॉर्डिंग का भी सिस्टम है। उसे ऑन करने पर सब रिकॉर्ड हो जाएगा। उसके बाद मैं बराबर रिकॉर्डिंग सुनती रही। सोचा कि एक दिन साफ-साफ बात करूंगी इस बारे में।'' 

इसके बाद नीला दूसरी तरफ मुंह किए लेटी रही। कुछ देर उसकी सिसकियां भी सुनाई दीं। मैं उस वक़्त नीला को अपने दुश्मन की तरह देख रहा था। मैं खुद पर इस बात के लिए भी खीझ रहा था कि, मैं मोबाइल, कम्प्यूटर आदि के बारे में अच्छे से जानकारी क्यों नहीं रखता हूं।

आज जब जेल में हूं, तब नीला की सारी बातें इतनी अच्छी, इतनी तर्क-पूर्ण लग रही हैं कि, मन-मसोस कर रह जाता है कि, काश उसकी बातें मान लेता।

आज भी नहीं भूल पाया हूं संजना के साथ किया गया वह पहला लंच। जब वह लंच के वक़्त अपना लंच बॉक्स लेकर नि:संकोच मेरे पास आकर बोली थी,

''नीरज जी मैं आज लंच आप के साथ करूंगी। आप को कोई ऐतराज तो नहीं है।''

उस दिन उसे नौकरी ज्वाइन किए मुश्किल से हफ़्ता भर हुआ था। उसका इस तरह बोलना मुझे कुछ चौंका गया। क्योंकि इतने दिनों में मेरी उससे हाय-हैलो के अलावा और कोई बात नहीं हुई थी। दूसरे वह सेक्शन की महिलाओं के साथ मिक्सअप होने के बजाय मेरे पास आई थी। जबकि सेक्शन की सारी महिलाएं एक गुट में आती थीं। साथ ही लंच करती थीं। पुरुषों का भी यही हाल था।

कुछ-कुछ लोगों के कई गुट थे। सभी लंच ऊपर कैंटीन में जाकर करते थे। लेकिन मैं कैंटीन न जाकर अपनी टेबल पर ही करता था। संयोग से उस दिन लंच मैंने ही बनाया था। क्योंकि नीला कई दिन से बुखार में तप रही थी। 

लंच करते वक़्त वह चपर-चपर बातें भी किए जा रही थी, जो मुझे अच्छी नहीं लग रहीं थीं। अचानक मुझे लगा कि, वह साड़ी का आंचल खिसक जाने के बावजूद जानबूझ कर उस पर ध्यान नहीं दे रही है। जबकि स्तनों का अच्छा-खासा हिस्सा दिख रहा है।

मुझे यह भी लगा कि, वह जानबूझ कर लंच को लंबा खींच रही है। उसने अपने लंच के काफी हिस्से की अदला-बदला कर ली थी। मैं अजीब सी स्थिति का अहसास करते हुए लंच जल्दी खत्म करने की कोशिश में था, क्योंकि उसके स्तन, जिसकी गोलाइयों के बीच में, उसकी सोने की पतली सी चेन गहराई तक उतर गई थी, मुझे असहज किए जा रहे थे।

दूसरे बाकी लोग लंच करके वापस आने लगे थे और हम-दोनों पर अर्थपूर्ण नजरें डालते हुए आगे जा रहे थे। मुझे जल्दी लंच खत्म कर लेने पर उसने कहा, ''आप बहुत स्पीड में लंच करते हैं।'' फिर जल्दी ही अपना लंच खत्म कर कहा, 

''भाभी जी खाना अच्छा बनाती हैं।'' 

मुझे लगा वह जली हुई सब्जी, और मोटे-मोटे बेडौल से पराठों पर व्यंग्य मार रही है तो, अनायास मैंने सारी बातें बताते हुए कह दिया कि,

''मैंने बनाया है।'' 

मेरा इतना कहना था कि, उसने चौंकने का नाटक करते हुए मेरी हथेली को तेजी से मुंह के पास खींचकर चूम लिया। मुझे लगा कि उसने जानबूझ कर मेरे हाथ को ठुड्डी के नीचे रखकर इस ढंग से चूमा कि, मेरा हाथ उसके स्तनों को छू जाए। मैं अपनी सकपकाहट को छिपाने की कोशिश में लंच बॉक्स बंद करने लगा। और वह अपने को बेखबर सा दिखाते हुए बोली,

''वाक़ई आप बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। भाभी जी को छुट्टियों में तो आपके हाथों के बने टेस्टी खाने का मजा मिलता ही होगा। वह बड़ी लकी हैं। सॉरी नीरज जी मैंने एक्साइटेड हो कर आपके हाथ को किस कर लिया, उसमें जूठा लगा गया होगा। लाइए मैं साफ कर देती हूं।'' 

इसके पहले कि वह मेरा हाथ पकड़ती मैंने उसे मना कर दिया और उठकर चल दिया बाथरुम की ओर। उसके बदन का स्पर्श मुझे शाम को घर पहुंचने तक कुछ ज़्यादा ही परेशान करने लगा। मैंने रात में सोते वक़्त नीला से सारी बातें शेयर की तो वह तमककर बोली थी,

''ऐसी बेशर्म औरत से दूर ही रहिए। आप उसे डांट कर हटा भी सकते थे। पक्का वो अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तुम्हारे पीछे पड़ गई है।'' 

मुझे उस वक़्त नीला की यह बात एक पत्नी का दूसरी औरत का अपने पति की तरफ देखना बर्दाश्त न कर पाने जैसी ही लगी थी। तब यह अनुमान नहीं था कि, नीला की यह बातें आगे चलकर अक्षरशः सच साबित होने वाली हैं। 

लंच वाली घटना के अगले ही दिन से संजना से मुझे रोज एक नया अनुभव, एक नया अहसास मिलने लगा था। दो-चार दिन में वह बातचीत में इतना घुल-मिल गई थी कि लगता जैसे न जाने कितने बरसों से मेरे साथ ही रह रही है। मेरा ध्यान जब इस तरफ जाता तो मैं हैरान हो जाता कि, मैं तो इस बात के लिए जाना जाता हूं कि, मैं किसी से जल्दी मिक्सअप नहीं होता, वह भी औरतों से तो और भी नहीं। फिर इसने ऐसा क्या जादू कर दिया है कि लगता है कि यह मेरे पास ही बैठी रही। 

दो-तीन हफ्ते बीतते-बीतते ही हम-दोनों की दोस्ती लोगों के बीच काना-फूसी का सबब बन गई। लोग देखते ही व्यंग्य भरी मुस्कुराहटें फेंकने लगे। मैं इस बात से जब कुछ अचकचाता तो संजना का सीधा जवाब होता, '' क्या राजा जी, तुम भी कमाल करते हो। ऐसी बातों की इतनी परवाह करते हो। मैं तो ऐसी बातों को सुनने के लायक भी नहीं समझती कि, इन्हें एक कान से सुनो फिर दूसरे कान से निकालने की जहमत उठाओ। फिर आप क्यों इतना परेशान होते हैं। ये सब जब भौंकते-भौंकते थक जाएंगे तो अपने आप चुप हो जाएंगे।'' 

उसकी इस बात से मैं दंग रह गया। इस बीच मेरा काम बढ़ गया था। उसका भी काम मुझे करना पड़ रहा था। क्योंकि वह इतने प्यार-मनुहार के साथ अपना काम करने को कहती कि मैं इंकार न कर पाता। काम सारा मैं करता और वह अपने नाम से उसे आगे बढ़ाती।

जल्दी ही लोगों के बीच यह भी चर्चा का विषय बन गया। जब मैं अकेले होता तो रोज सोचता कि अब यह सब नहीं करूंगा। लेकिन उसके आते ही मैं सब भूल जाता, सम्मोहित सा हो जाता और मन प्राण से उसका हो जाता। 

डेढ़-दो महीने में ही हम-दोनों के संबंध अंतरंगता की सारी सीमा तोड़ने को मचल उठे। दीपावली की छुट्टी के बाद जब वह ऑफ़िस आई तो बहुत ही तड़क-भड़क के साथ। सरसों के फूल सी पीली साड़ी जिस पर आसमानी रंग के चौड़े बार्डर और बीच में सिल्वर कलर की बुंदियां थीं। अल्ट्राडीप नेक बैक ब्लाउज के साथ उसने, अल्ट्रा लो वेस्ट साड़ी पहन रखी थी। अन्य लोग जहां उसकी इस अदा को फूहड़ता बता रहे थे, वहीं वह मुझे न जाने क्यों सेक्स बम लग रही थी। मिलते ही मैंने उससे कहा भी यही, ''जानेमन इस ड्रेस में तो एटम बम लग रही हो। कहां गिरेगा यह बम।''

इस पर उसने बेहद उत्तेजक हाव-भाव बनाते हुए कहा,

''घबराते क्यों हो राजा जी, तुम्हीं पर गिरेगा।''

फिर मैंने उसकी क्लीविज और उसके खुले पेट पर तीखी नज़र डालते हुए भेद-भरी आवाज़ में कहा,

''थोड़ा और डीप नहीं जा सकती थी क्या?''

मेरा यह कहना था कि, वह कामुकता भरी नजरों से देखते हुए अपने चेहरे को मेरे बहुत करीब लाकर बोली,

''और डीप जाती राजा जी, तो एल.ओ.सी. क्रॉस हो जाती और तुम सारे मर्द मधुमक्ख्यिों की तरह चिपक जाते मुझसे।''

मुझे वह मिक्सअप होने के डेढ दो हफ्ते बाद से ही बड़े मादक अंदाज में राजाजी बोलने लगी थी। उसकी बात पर मैंने पूछा, ''जानेमन यह  एल.ओ.सी. क्या है?'' 

''हद हो गई लाइन ऑफ कंट्रोल नहीं जानते। साड़ी और डीप ले जाती तो एल.ओ.सी. का अतिक्रमण हो जाता।''

मैंने कहा,

''जब एल.ओ.सी. का अतिक्रमण हो यह नहीं चाहती तो इतना भी डीप जाने की क्या ज़रुरत थी। साड़ी और ऊपर से बांधती।''

''मैंने ये कब कहा राजाजी कि मैं एल.ओ.सी. का अतिक्रमण नहीं चाहती। मगर इसका अधिकार सबको थोडे़ ही है।''

''तो वह लकी पर्सन कौन है, जिसको तुमने अपनी एल.ओ.सी. के अतिक्रमण का अधिकार दे रखा है।''

''कमाल है, तुम्हारे सिवा किसी और को यहां यह अधिकार दे सकती हूं क्या?''

उसकी इस बात ने मुझमें अजीब सी सनसनी पैदा कर दी। पल-भर चुप रहकर मैंने कहा,

''नहीं कमाल तो ये है कि, मुझे तुम ने अपनी एल.ओ.सी. के अतिक्रमण का अधिकार दिया है। वो भी अपने पति के रहते। और ये अधिकार दिया कब यह पहले कभी बताया ही नहीं।''

मेरी इस बात पर वह अचानक ही एकदम उदास हो उठी। आंखें भर आईं। कुछ इस कदर कि आंसू बस बह ही चलेंगे। उसकी अचानक बदली इस स्थिति को देखकर मैं सकपका गया कि, अभी कुछ देर पहले तक कितना हंस-बोल रही थी। रोमांटिक हुई जा रही थी, यह अचानक क्या हो गया है। 

मेरी बात से नाराज या दुखी हो गई है क्या? मैं परेशान इसलिए भी हो उठा कि कहीं इसके आंसूओं को किसी ने देख लिया तो आफ़त हो जाएगी। न जाने लोग क्या सोच बैठेंगे। दिमाग में यह बातें आते ही मैं एकदम घबरा उठा, डर गया मैं। तुरंत मैंने उससे माफी मांगते हुए कहा,

''संजना जी सॉरी मुझसे कोई गलती हुई हो तो माफ कीजिएगा। आप को दुखी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था।'' 

मैं अपनी यह बात पूरी भी न कर पाया था कि फिर और गड्मड् हो गया। उसने बिना किसी संकोच के अपने दोनों हाथों से मेरा दाहिना हाथ पकड़ कर कहा,

''नहीं नीरज, ऐसा क्यों सोचते हो, तुम्हारे जैसे इंसान किसी का दिल दुखाने के लिए नहीं, दुख से तड़पते दिलों को सहारा देने के लिए होते हैं। आंसू तो इसलिए आ गए कि, तुम अचानक ही हसबैंड की बात छेड़ बैठे। जो मुझे लगता है कि, मेरी सबसे ज़्यादा दुखती रग है। जो जरा सी छू जाने पर दिल चीर देने वाली टीस दे जाती है। और तुमने अंजाने ही इस सबसे दुखती रग को छू दिया। 

तुम्हारा मेरी इस बात से शॉक्ड होना सही था कि, पति के रहते मैंने एक गैर मर्द को एल.ओ.सी. क्रॉस करने का अधिकार कैसे दे दिया। लेकिन यदि मेरी बातें सुनोगे तो तुम्हें शॉक नहीं लगेगा। यह सही है कि मैंने जो तुम्हें एल.ओ.सी. क्रॉस करने का अधिकार दिए जाने की बात कही वह मजाक नहीं है।

मैंने पूरे होशो-हवास में कई दिनों सोच-विचार के तुम्हें एल.ओ.सी. क्रॉस करने का अधिकार दिया है। तुम्हें इस बात का पूरा अधिकार है कि तुम जितना चाहो उतना मेरी साड़ी, ब्लाउज डीप ले जा सकते हो। उन्हें डीपेस्ट कर मुझ में जैसे चाहो वैसे समा सकते हो।'' 

अब तक संजना के आंसू उसकी पलकों से बाहर नहीं आए थे। वह भरी हुई थीं। मगर उसके चेहरे पर अब अवसाद से कहीं ज़्यादा दृढ़ता, कठोरता की लकीरें स्पष्ट होती जा रही थीं। और बातों का विस्तार बढ़ता जा रहा था। 

मैंने क्योंकि कभी ऐसी स्थिति की कल्पना ही नहीं की, थी सो परेशान हो रहा था। संजना जैसी औरत जिससे मिले चंद रोज ही हुए हैं वह सीधे-सीधे शारीरिक संबंध के लिए खुद ही कह देगी। वह भी ऑफ़िस में ही सारे अधिकार दे देने की बात करेगी कि जैसे चाहो वैसे उसके तन को भोगो। 

हालांकि यह सच है कि जिस दिन उसने मेरे साथ पहली बार लंच किया था। और जानबूझ कर मेरे हाथ को अपने स्तनों का स्पर्श करा दिया था, तभी से मेरे मन के किसी कोने में उसके बदन के साथ एकाकार होने की इच्छा अंकुआ चुकी थी। जिसे संजना की दिन पर दिन होने वाली तमाम हरकतें बराबर पुष्पित-पल्लवित करती जा रही थीं।

लेकिन मैंने अपनी तरफ से ऐसी कोई कोशिश कभी नहीं की थी कि वह अपना तन मेरे तन के साथ एकाकार करे। यह मन में ही रह जाने वाली बात जैसी थी। ठीक वैसी ही जैसे न जाने कितनी बातें मन में उभर कर फिर वहीं दफन हो जाती हैं सदा के लिए। जो कभी संभव नहीं बन  पातीं। 

जैसे छात्र जीवन में एक बार मैं पड़ोसी मुल्क की एक सिंगर झुमा लैला की एक मैग्ज़ीन में बेहद बोल्ड तस्वीरें देखकर अर्सें तक एकाकार होता रहा उसके तन के संग। मगर मन की यह फैंटेसी मन के सागर में कहीं गहरे ही डूब गई थी जल्दी ही। 

मगर उस दिन संजना के साथ जब एकाकार होने का मन हुआ था, तब मैं छात्र जीवन की तरह अकेला नहीं था। तब मेरे साथ मेरी बीवी नीला थी। जो उस वक़्त मेरी ही बगल में लेटी सो रही थी। और उस दिन इस इच्छा के चलते उसके साथ ऐसे एकाकार हुआ था मैं, जैसे मेरे रोम-रोम से संजना-संजना का स्वर फूट रहा हो। 

मेरे तन के नीचे पिस रहा था नीला का तन लेकिन मेरा तन संजना के तन को भोगने का अहसास कर रहा था। नीला के मुंह से निकलने वाली मादक आहों में मुझे संजना के स्वर सुनाई दे रहे थे। बड़ी ही जटिल स्थिति थी मेरी। 

अपनी आदर्श पत्नी, मुझको टूटकर चाहने वाली पत्नी से मिलने  का कोई अहसास नहीं था। यहां तक की तन का संघर्ष समाप्त हो जाने के बाद नीला सो गई, मगर मैं संजना के तन की महक का अहसास कर रहा था। बराबर जाग रहा था। यह स्थिति दिन पर दिन प्रगाढ़ होती जा रही थी। जल्दी ही हालत यह हो गई थी कि, नीला में मुझे हर कमी नज़र आने लगी थी। 

मगर इन सब के बावजूद मैंने कभी भी संजना के तन को पाने के लिए गंभीरता से नहीं सोचा था। इसलिए जब अचानक ही उसने एल.ओ.सी.  अतिक्रमण का अधिकार मुझे देने की बात बेहिचक कही तो, मैं हतप्रभ रह गया था। मैं व्याकुल हो उठा था इस बात के लिए कि, वह अपनी बातों को विस्तार न दे, तुरंत बंद कर दे। लेकिन वह चुप तब हुई जब शाम को कहीं अलग बैठकर बात करने का प्रोग्राम तय हो गया।

तय स्थान पर पहुंचने के लिए हम-दोनों छुट्टी होने से एक घंटे पहले ही अलग-अलग निकले। सड़क, होटल, मॉल हर जगह त्योहार की छुट्टी के बाद खुलने के कारण भीड़-भाड़ काफी कम थी। एक प्रसिद्ध रेस्टोरेंट में हम-दोनों बैठे कॉफी पी रहे थे। संजना के चेहरे को मैंने पढ़ने की कोशिश की, तो मुझे लगा कि वहां उदासी नहीं, बल्कि खिन्नता और उससे भी कहीं ज़्यादा न जाने किस बात की व्यग्रता दिख रही है। 

उसका मन जैसे वहां था ही नहीं, जैसे वह जल्दी से जल्दी वहां से निकल लेना चाहती हो। मैं विचारों के मकड़-जाल में खुद को उलझा सा महसूस कर रहा था। हम-दोनों के बीच बातें भी छुट-पुट ही हो रही थीं। इस बीच मैंने देखा कि, जैसे वह मुझे पढ़ने की गरज से बराबर देख रही है। और मैं....मैं भी कभी पीली साड़ी में बैठी संजना को देखता तो, कभी कनखियों से आस-पास के दृश्यों पर भी नज़र डाल लेता। कुल मिला कर बोरियत ज़्यादा बढ़ी तो मैंने उससे कहा,

''तुम पति के बारे में कुछ खास बातें करना चाह रही थी।''

इस पर वह कुछ खोई-खोई सी बोली,

''हाँ...लेकिन कहीं ऐसी जगह चलो जहां हम-दोनों के अलावा कोई और न हो। ऐसे में मैं कोई बात कर ही नहीं पाऊंगी।''

उसने इस बात की ऐसी जिद पकड़ ली कि, हार कर मैंने विधायक निवास में रहने वाले अपने एक मित्र से बात की, जो अपने क्षेत्र के विधायक को मिले आवास में अकेले ही रहता था। और दिनभर नेतागिरी या ये कहें कि, दलाली के चक्कर में सत्ता के गलियारों में चक्कर काटता था। और उसके विधायक जी मंत्री बनने का ख़्वाब पाले दिल्ली में पार्टी के बड़े नेताओं के यहां डेरा डाले रहते थे।

मैंने कुछ घंटे के एकांत के लिए उससे आवास देने को कहा तो, वह तुरंत तैयार हो गया। चाबी देते समय उसने कनखियों से संजना को देखा था, फिर मेरे हाथ में चाबी थमाते हुए बोला था, 'मैं रात दस-ग्यारह बजे के बाद आऊंगा। एक प्रोग्राम में जाना है।'

उसकी बात से मैं तुरंत समझ गया था कि, वह फेंक रहा है कि, उसे प्रोगाम में जाना है। वह सिर्फ मुझे यह बताना चाह रहा था कि, वह ग्यारह बजे तक नहीं आएगा। तब-तक मैं संजना के साथ वक़्त बिता सकता हूं। वह मेरे घर कई बार आ चुका था, जिससे वह मेरी पत्नी, बच्चों सभी को पहचानता था।

संजना को देख कर वह बाकी के हालात तुरंत ताड़ गया था। यह बात तब और पक्की हो गई थी, जब उसने खाने-पीने का काफी सामान अपने एक आदमी के हाथ पंद्रह-बीस मिनट में ही भिजवा दिया था। जिसमें उस एरिया में फ़ेमस ड्राई बडे़ भी थे। यह सब खाने-पीने के दौरान ही हम दोनों की बातें चल पड़ी थीं। 

संजना पति को लेकर ऐसी बातें कह रही थी कि, मेरे कान खडे़ हुए जा रहे थे। उसकी शारीरिक भाव-भंगिमाओं और बातों में कहीं कोई सामंजस्य नहीं दिख रहा था। शरीर कुछ कह रहा था और बातें कुछ और। उसकी बातों का कुल लब्बो-लुआब यह था कि, उसका पति बेहद पिछड़ी सोच का है। उसकी बात नहीं मानता था, जिससे बिज़नेस में वह घर में अन्य भाइयों से एकदम पिछड़ कर, सबसे दयनीय स्थिति में था और उसे शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी। वह बहुत भाग्यवादी है। 

काम-काज का आधा वक़्त पूजा-पाठ और मंदिरों के चक्कर में बिता देता है। वह पति और पिता का रोल ठीक से नहीं निभा रहा था। वह जानते ही नहीं कि पति-पिता का रोल क्या होता है। सहस्त्राब्दियों पहले की बातें करते हैं कि, पत्नी केवल संतानोंत्पत्ति के लिए है। हद तो यह कि महीने में पांच-छः दिन उनके व्रत में निकल जाते हैं।

व्रत वाले दिन उसे छूते नहीं थे। कोशिश करो तो दूसरे कमरे में चले जाते थे। उनके रहते टीवी पर मनचाहे सीरियल नहीं देख सकती। कहने पर दुनिया भर का लेक्चर दे डालते थे। और तीन इंच लंबा तिलक अलग लगाते हैं। कहीं घूमने-फिरने लेकर नहीं जाते थे। कपड़े ऐसे पहनों कि चेहरे और हाथ के अलावा कुछ नहीं दिखना चाहिए। खाना-पीना साधुओं सा। 

बाहर की चीजों फास्ट-फूड की बात नहीं कर सकते। विरोध करो तो दुश्मनों की तरह झगड़ा करते हैं। यह सब हद से ज़्यादा हो गया, ज़िंदगी नरक हो गई तो वह छोड़ आई उन्हें। क्योंकि अब वह अपनी ज़िंदगी व्यर्थ नहीं काटेगी। अब किसी के लिए वह मुड़ कर नहीं देखेगी। वह अब हर जगह से अपने लिए सुख का एक-एक कतरा बटोर लेगी। जी-भर कर अपना आक्रोश निकालने के बाद वह उठ कर बाथरूम चली गई। जब लौटी तो मुंह-हाथ धोकर। 

अब उसके चेहरे पर विषाद की जगह काफी हद तक ताज़गी नज़र आ रही थी। उसने कमरे में बेड पर रखे अपने बैग में से अपनी हैंकी निकाल कर चेहरा पोंछने के बाद वापस रखा और बेड पर लेट गई। उसके पहले उसने सीलिंग फैन को स्लो स्पीड पर चला दिया था।

हालांकि मौसम में अच्छी-खासी खुमारी थी। लगता था कि ठंडक दस्तक देने के लिए कहीं नजदीक आ चुकी है। मगर फिर भी फैन चला दिया, आंचल बेड पर फैला था। और उसके दोनों हाथ भी। उसकी छाती ऊपर-नीचे उठ कर गिर रही थी। मैं अब भी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा था। कुछ ही क्षण शांत रहने के बाद उसने पूछा,

''नीरज तुम व्रत रखते हो?''

''हाँ'' 

''महीने में कितने दिन?''

उसकी अब-तक की बातों से मेरा मूड पहले ही खिन्न हो चुका था, लेकिन फिर भी मैंने कहा,

''मैं केवल मंगल का व्रत रखता हूं।''

''मतलब महीने में चार व्रत तुम भी रखते हो।''

''हाँ।''

''और तुम्हारी पत्नी?''

''वह प्रदोष वगैरह जैसे व्रत रखती है। महीने में दो-तीन व्रत तो उसके भी हो जाते हैं। लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रही हो?''

''कुछ समझना चाहती हूं। ये बताओ जिस दिन तुम्हारा व्रत होता है, उस दिन यदि तुम्हारी पत्नी तुम से सेक्स की डिमांड करती है तो, क्या तुम व्रत की वजह से उसे मना कर देते हो?''

''ये कैसी बातें कर रही हो। क्या जानना चाह रही हो तुम मैं समझ नहीं पा रहा हूं।''

''मैं जानना नहीं, तुम्हें बताना चाह रही हूं। तुम्हें वह बातें बताना चाह रही हूं जिन्होंने मेरा सुख-चैन सब बरबाद ही नहीं कर दिया है, बल्कि मेरे हिस्से का सुख-चैन कभी मुझ तक पहुंचने ही नहीं दिया। जब शादी हुई तो ससुराल में धन-दौलत सारी सुख-सुविधाएं थीं। वह सब देखकर मैं फूली नहीं समाई थी। लेकिन पति ने पहली ही रात जीवन की शुरुआत ही खराब की।

यह जानकर तुम्हें यकीन नहीं होगा कि, सुहागरात को मेरा पति मेरे साथ इसलिए संबंध बनाने से मना करता है कि, वह बरसों से बृहस्पति का व्रत रखता आया है। और क्योंकि रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी यानि कि बृहस्पति आ चुका है, इसलिए वह व्रत में शारीरिक संबंध नहीं बनाएगा। इससे उसका व्रत भंग हो जाएगा। 

यह सुनकर मैं दंग रह गई। मुझे लगा कि, जैसे मैं किसी संन्यासी के साथ बंध गई हूं। शादी से पहले सहेलियों से इस पहली रात के बारे में न जाने कितनी बातें की थीं। नई-नई शादी-सुदा सहेलियों और अन्य के साथ जो हसीन बातें हुईं थीं, उससे मैंने भी एक से एक रंगीन सपने बुन रखे थे।

उन सपनों को और रंगीन बनाने के लिए अपनी अनुभवी सहेलियों से जो कुछ जाना था, उन सब के सहारे मैंने अपने को हर तरह से खूब तैयार किया था। मगर यह नहीं जानती थी कि, मैं तो एक संन्यासी से ब्याह दी गई हूं। जो ऋषि-मुनियों से भी बड़ा हठी-व्रती है। औरत की जिस कमनीय काया के काम बाण से ऋषि-मुनि, देवता भी पल में सारे व्रत भूल स्खलित हो जाते हैं, उस अजेय काम-बाण के सारे वार मेरे पति को छू भी न पाएंगे। 

मेरे सारे जतन धरे के धरे रह जाएंगे। मेरी कमनीय काया के सामने पति ऐसे निर्विकार बना रहेगा कि ऋषि-मुनि भी पानी मांगेंगे। यह सपने में भी नहीं सोचा था। ऐसा नहीं कि, यह तान के सो गए, सारी रात बात करते रहे, मगर सारी बातें ऐसी, जैसे कि हमारी शादी के पंद्रह-बीस साल हो गए हों। मैं अंदर ही अंदर कुढ़ती रही, सुनती रही उनकी बकवास। हालत यह थी कि चाह कर भी न तो मैं सो पा रही थी। और न ही जो हसीन सपने बुने थे उन्हें हक़ीक़त में तब्दील कर पा रही थी।''

''बड़ी अजीब दास्तान सुनाई तुमने, यकीन ही नहीं कर पा रहा हूं कि कोई आदमी ऐसा भी होगा। पहली रात केवल उबाऊ बातों में बिताएगा इससे बड़ी बात तो यह कि, तुम यह सब सुनती भी रही।''

''यार तुम भी हद करते हो। मैं क्या कर सकती थी।''

''क्यों नहीं कर सकती थी। आखिर पत्नी थी। बोल सकती थी कि आज पहली रात है। तो बातें पहली रात वाली हों, न कि पंद्रह साल बाद वाली। और फिर पंद्रह साल बाद भी पति-पत्नी की बातें ऐसी तो नहीं होतीं।''

'' अच्छा तो मैं उनसे कहती कि, आओ रोमांटिक बातें करो, मुझे प्यार करो।''

''किसी को तो आगे आना ही होता है।''

''अच्छा तो मुझे ये बताओगे कि, अगर पहली रात तुम यही सब करते और तुम्हारी बीवी रोमांस के लिए, सेक्स के लिए पहल करती तो, उस समय तुम क्या करते। अपनी पत्नी को किस रूप में लेते। सच बताना ज़रा भी झूठ नहीं बोलना।''

''संजना जिन हालात से गुजरा नहीं, जिस बारे में कुछ जानता नहीं उसके बारे में क्या कहूं।''

''क्यों, सोचो और अपने को उस हालात में ले जाकर सोचो फिर जवाब दो। मैं यह अच्छी तरह जानती हूं कि, तुम जवाब दे सकते हो, यदि तुम देना चाहोगे।''

''तुम्हारी इस जिद पर सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि, मैं आश्चर्य में पड़ जाता। शायद इस आश्चर्य में पड़ जाने के बाद मैं सेक्स कर ही न पाता। फिर उसे परे धकेलकर किसी और कमरे में चला जाता।''

''और फिर अगले दिन क्या करते?''

''अगले दिन...

''हाँ अगले दिन तुम क्या करते। बीवी को रखते या उसे करेक्टरलेस या फिर न जाने क्या-क्या समझ कर वापस कर देते।''

''ओफ्फ यार मुझे इन बातों में मत उलझाओ। मैं तुम्हारे आदमी की ऐसी विचारधारा को सुनकर सिर्फ़ हैरत में हूं। कोई आदमी पहली ही रात में ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है। ऐसी हरकतें तो आदमी उसी हालत में करता है जबकि वह सेक्सुअली कमजोर हो। नहीं तो अमूमन औरतों की शिकायत यह होती है कि, पहली रात को उसका पति इतना दिवाना था कि बातचीत तो बाद में, आते ही टूट पड़ा। या और मन की करके तान कर सो गया। बात तो की ही नहीं। तुम्हारे आदमी के साथ क्या ऐसी कोई प्रॉब्लम है।''

''नहीं भगवान ने शारीरिक दृष्टि से तो उन्हें एक जबरदस्त मर्द बनाकर भेजा है। जो किसी भी औरत के लिए पसंदीदा मर्द हो सकता है। लेकिन विचारों की दृष्टि से वह एक विरक्त इंसान हैं। ऐसे में उनके जबरदस्त मर्द होने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। ऐसे विरक्त मर्द से तो एक कमजोर मर्द ही सही है। कुछ तो करेगा। न पूरी सही कुछ तो भूख शांत करेगा।''

''समझ में नहीं आता कि तुम्हारा पति कैसा है। और साथ ही तुम भी। तुम कहीं से भी कम खूबसूरत नहीं हो। न ही किसी बात से अनजान, इसलिए आश्चर्य तो यह भी है कि, तुम अपने पति की विरक्ति दूर नहीं कर सकी। बल्कि खुद ही उससे दूर हो गई।''

''नीरज तुमने बड़ी आसानी से मुझ पर तोहमत लगा दी। मुझे फैल्योर कह दिया। मैं मानती हूं कि मैं फेल नहीं हूं। मेरे पति के विचारों को बदलना, उन्हें स्वाभाविक नजरिया रखने के लिए तैयार कर पाना, मैं क्या किसी भी औरत के लिए संभव नहीं है।

तुम यकीन नहीं कर पाओगे कि शादी के तीसरे दिन हमारे संबंध बने और उन्हें मैंने कहीं पंद्रहवें दिन जाकर बिना कपड़ों के देखा। नहीं तो सेक्स के समय भी बनियान उतारते ही नहीं थे। मेरे कपड़े भी बस ऊपर नीचे कर देते थे। और उन्होंने भी उसी दिन मुझे पूरी तरह से बिना कपड़ों के देखा। और यह भी तब हुआ जब मैंने पंद्रहवें दिन जान-बूझकर एक नाटक किया। सोचा कि हम शादी के पंद्रहवें दिन तीसरी बार संबंध बना रहें हैं। जबकि सहेलियों में से कईयों ने बताया था कि, उन्होंने पहली ही रात को इससे कहीं ज़्यादा बार संबंध बनाए थे।''

''बड़ा विचित्र है तुम्हारा अनुभव। पति को देख सको, इसके लिए तुम्हें नाटक करना पड़ा। पहली बार सुन रहा हूं यह सब। मगर आश्चर्य यह भी है कि, तुमने ऐसा कौन सा नाटक किया था कि तुम्हारे पति जैसा व्यक्ति फंस गया उसमें।''

''हुआ यह कि, उस रात को मैंने जब देखा कि, करीब आधे घंटे की फालतू बातों के साथ यह कुछ ज़्यादा खुल गए हैं, तो मेरे दिमाग में आया कि, आज इन्हें इनके दब्बू उबाऊ खोल से बाहर निकाल कर मजेदार खुली दुनिया में ले आऊं। जब यह अपने ऊबाऊ तरीके के साथ आगे बढ़े तो, मैंने हल्की सी सिसकारी ली और अलग हटते हुए कहा, 'लगता है कपड़े में कुछ है, काट रहा है।' 

फिर कपड़ों में इधर-उधर कसमसाते हुए एक-एक कर सारे कपड़े उतार डाले। और कीड़ा ढूँढ़ने को कहती रही। आंहें भरती रही कि, बड़ा दर्द हो रहा है। कुछ देर यही सब बहाना करते हुए इनके भी उतार दिए। मगर हमारे बैरागी मियां जी अपने खोल से बाहर आकर कुछ ही देर में घबरा उठे। कुछ ही देर में पति कर्म पूरा किया और फिर लौट गए अपने खोल में। किसी शर्मीली औरत की तरह बंद कर लिया खुद को कपड़ों में और मुझे भी बंद कर दिया। 

कुछ पल को जो खुली सांस मिली थी वह समाप्त हो गई। फिर से घुटन भरी दुनिया में पहुंच गई। अगले दिन उनसे यह भी सुनने को मिला कि मुझमें शर्मों-हया नाम की चीज नहीं। 

अब इसी बात से अंदाजा लगाओ कि, मेरी ज़िंदगी पति के साथ कैसी बीत रही थी। इतना ही नहीं, जब प्रिग्नेंट हुई तो घर में बात मालूम होते ही सास के हुक्म के चलते डिलीवरी के एक महीने बाद जाकर यह मेरे कमरे में सोने आए। 

इस दौरान मैं तड़प कर रह गई कि पति के साथ अकेले में इन अद्भुत क्षणों को जीयूं। मगर पूरी न हुई यह आस। कुछ बोल नहीं सकती थी क्योंकि पति उनकी सलाह को मानकर खुद ही दूर भाग रहे थे। मैं कैसे घुट-घुटकर काट रही हूं अपनी ज़िन्दगी यह समझना आसान नहीं है नीरज।''

संजना धारा-प्रवाह एक से एक बातें बताए जा रही थी। जिनका कुल लब्बो-लुआब यह था कि पति की कट्टर दकियानूसी विचार धारा, आचरण ने उसकी सारी खुशियों को जलाकर राख कर दिया है। जिससे ऊबकर वह खुले में सांस लेने की गरज से उन्हें छोड़ मायके चली आई। लेकिन यहां परिस्थितियों के चलते पूरे घर का ही बोझ उस पर आ पड़ा है। उस पर तुर्रा यह कि लोग उस पर हुकुम भी चलाना चाहते हैं। 

भाई एक पैसा कमाकर नहीं लाता है, लेकिन चाहता है कि वह उसकी सारी बात माने। साफ-साफ यह बोला कि, सारी सैलरी उसे दो। वह चलाएगा घर। जब यह नहीं किया तो झगड़ा करने लगा। इन सारी चीजों से ऊबकर उसने मायके में भी बगावत कर दी कि वह जो चाहेगी वह करेगी। 

इस खुन्नस से लोग उसके बच्चे को पीटते हैं। इसका अहसास करते ही उसने उसे डे-बोर्डिंग में डाल दिया। और अब वह हर पल को खुशी के पल में बदलना चाहती है। उसकी बातें काफी हद तक यह बता रही थीं कि वाकई उसके साथ हर स्तर पर अन्याय हुआ है। उसकी लंबी बातों को खत्म करने की गरज से मैंने कहा, 

''आखिर इन सारी बातों के बीच मुझ से क्या चाहती हो, मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए, भविष्य में क्या करोगी, क्या सोचा है इस बारे में ?''

''खुशी के पल चाहती हूं, मुझे पूरा यकीन है कि यह तुम्हीं दे सकते हो। रही बात भविष्य की तो, तुम अगर ऐसे ही सहयोग करोगे तो मेरा कंफर्मेशन आसानी से हो जाएगा। और आगे चल कर प्रमोशन भी। और यह भी जानती हूं कि, यह सब तुम्हारे हाथ में है। तुम चाहोगे तो कोई रोक नहीं पाएगा।''

संजना की इन बातों से मैं बड़े पशोपेश में पड़ गया था। मुझसे उसकी यह अपेक्षाएं छोटी नहीं बहुत बड़ी थीं। मैं सोच में पड़ गया कि उसकी इतनी सारी अपेक्षाओं को पूरा करने में तो जो मुश्किल है, वह है ही। उससे बड़ी बात ये कि यह इतनी ज़्यादा डिमांडिंग है कि, इसकी मांगें कभी खत्म नहीं होंगी।

कुछ देर पहले तक जहां मेरा मन उसके तन पर लगा हुआ था, मैं उसके साथ गहन अंतरंग पलों में खोना चाहता था बल्कि उतावला था, उसकी इन बातों ने उतावलेपन पर ठंडा पानी उड़ेलना शुरू कर दिया था। अब तक हम दोनों खाने-पीने की अधिकांश चीजें चट कर चुके थे। इस बीच उसका मादक अंदाज में बार-बार पहलू बदलना, खुद पर मेरे नियंत्रण को कमजोर करता जा रहा था। मगर इन बातों ने मेरे मन को भ्रमित कर दिया था। वक़्त बीतता जा रहा था तो मैंने कहा,

''संजना ऑफ़िस में जो कुछ है मेरे हाथ में है उसके हिसाब से मैं तुम्हारी हर मदद करूंगा। लेकिन खुशी के पल दे पाऊंगा इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि तुमने जो कुछ बताया उस हिसाब से तुम पति-ससुराल से सारे संबंध खत्म कर चुकी हो। मायके में भी बस रह रही हो। और जैसे खुशी के पल मुझसे पाने की बात तुम कर रही हो, पता नहीं वह तुम्हें दे पाऊंगा कि नहीं।

मेरी पत्नी है, बच्चे हैं, उन्हें छोड़ पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। और जैसी खुशी तुम चाहती हो वह तो पति के साथ ही मिल सकती है। ऐसे में रास्ता यही बचता है कि या तो पति के पास वापस जाओ और उन्हें समझा-बुझाकर अपने रास्ते पर ले आओ। अगर यह संभव नहीं है तो ऐसे में बेहतर यही है कि डायवोर्स देकर दूसरी शादी कर लो।''

मेरी इस बात पर वह बड़ी देर तक मुझे ऐसे देखती रही जैसे मैंने निहायत बेवकूफी भरी बात कह दी है। फिर बोली,

''यह दोनों ही संभव नहीं है नीरज। पति के पास वापस जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उन्हें बदलना असंभव है। कम से कम मेरे वश में तो कतई नहीं है। रही बात डायवोर्स और दूसरी शादी की तो वह भी संभव नहीं है। एक तो वह डायवोर्स नहीं देंगे यह आखिरी बार झगड़े के समय ही उन्होंने कह दिया था। इसलिए यह आसान नहीं।

यदि मान भी लूं कि किसी तरह यह हो गया तो दूसरी शादी के बारे में मैं अब सोचना भी नहीं चाहती। पहली शादी का अनुभव ऐसा है। दूसरी शादी में मन की बात हो जाएगी इस बात की क्या गारंटी। वह मेरे बच्चे को स्वीकार करेगा यह मुझे नामुमकिन ही लगता है। यही सब सोच कर मैंने यह तय कर लिया है कि, न पति को डायवोर्स दूंगी न दूसरी शादी करूंगी। कुछ पल खुशी के तुम से मिल सकते हैं यही सोचकर तुम्हारी तरफ बढ़ी। मुझे खुशी मिलेगी या नहीं यह सब अब तुम्हारे हाथ में है।''

''तुम्हें यकीन है कि इस तरह तुम्हें खुशी मिल जाएगी। जैसा चाहती हो वैसा मिल जाएगा।''

''हाँ मुझे लगता है कि इन हालातों में जितना चाहती हूं, उतना मिला जाएगा। मगर तुम इतनी बहस क्यों कर रहे हो? नीरज क्या तुम डर रहे हो?''

''मैं कोई बहस नहीं कर रहा हूं, न ही इसमें डरने या न डरने जैसी कोई बात है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि क्या तुम सोच समझकर यह क़दम बढ़ा रही हो। यदि तुम्हारे मन का नहीं हुआ तब क्या करोगी।''

मेरी इस बात पर संजना फिर लेट गई बेड पर उसके दोनों पैर नीचे लटक रहे थे। कपड़े पहले से ज़्यादा अस्त-व्यस्त हो रहे थे। बदन पहले से अब कहीं और ज़्यादा उघाड़ हो रहा था। उसका कामुक लुक और ज़्यादा कामुक हो रहा था। उसकी बॉडी लैंग्वेज और ज़्यादा प्रगाढ़ आमंत्रण दे रही थी। मैं उसके सामने कुर्सी पर बैठा उसे निहार रहा था। उसने कुछ क्षण मेरी आंखों में देखा फिर बोली,

''मैंने बहुत सोच समझ कर ही तुम्हारी तरफ यह क़दम बढ़ाया है। तुममें कुछ ख़ास देखा तभी तो तुम्हें एल.ओ.सी. के अतिक्रण का अधिकार दिया। किसी और के पास तो नहीं गई। फिर मैं तुमसे तुम्हारी पत्नी, बच्चों के हिस्से का कुछ नहीं मांग रही हूं। इन सबके हिस्से से अलग जो वक़्त है तुम्हारा, मैं उसी में से थोड़ा समय चाहती हूँ, यह भी नहीं कह रही कि अपना सारा समय मुझे दे दो। भले ही यह समय बहुत थोड़ा होगा। लेकिन मैं उसी में ढूढ़ लूंगी अपनी खुशी। यदि तुम्हें कोई एतराज न हो।''

इतना कहकर जब वह चुप हो गई तो मैं एक-टक उसे देखता रहा। उसकी वासना से भरी आंखें पूरा बदन मुझे बरबस ही खींचे ले रहे थे। जब मैं उसे कुछ देर ऐसे ही देखता रहा तो उसने दोनों हाथ बढ़ा दिए मेरी ओर ऐसे जैसे कि बांहों में भर लेना चाहती हो। बिना कुछ बोले मुझे देखे जा रही थी। अब मेरे दिमाग में तर्क-वितर्क, सोच-विचार, एकदम स्थिर हो गए। मैं चेतना शून्य होता गया। 

मेरा नियंत्रण संजना के हाथों में चला जा रहा था। मैं खिंचा हुआ सा उठा और एकाकार हो गया उससे। और तब उसकी अफनाहट इतनी तीव्र थी कि मैं उस स्थिति में भी दंग रह गया। एकाकार होने का यह क्रम फिर रात साढ़े दस बजे तक चला। इस बीच हम कई बार एक दूसरे में समाए। 

संजना की अफनाहट, चाहत, उसकी कोशिश ही इतनी जबरदस्त थी कि मैं चाहकर भी एक बार में ही ठहर नहीं सकता था। संजना का वश चलता तो सारी रात रहती मेरे साथ। इस बीच उसके और मेरे घर से फ़ोन आने लगे थे। हम-दोनों ने घर वालों से झूठ बोला। मगर अब रुकना संभव नहीं था। क्योंकि जिस दोस्त ने चाबी दी थी, उसके आने का वक़्त हो रहा था। इसलिए हम दोनों ने जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह धोए। कपड़े पहने, वहां की सारी चीजें व्यवस्थित कीं और चल दिए। मैंने संजना को उसके घर छोड़कर अपने घर की राह ली थी।

मन में संजना की अफनाहट को लेकर उधेड़बुन चल रही थी, कि उसकी यह अफनाहट इतनी तीव्र न होती यदि पति ने उसे वह सब दिया होता जो एक पत्नी पति से चाहती है। यदि वह न पूरा सही कुछ ही उसके मन की करता तो उसे छोड़ती नहीं। बेचारी ऊपर से कितनी हंस-मुख सी दिखती है। देखने वाला कह ही नहीं सकता कि उसे इतनी तक़लीफ है। इतनी सारी तक़लीफों के बाद भी चेहरे पर उदासी नहीं आने देती। बहुत हिम्मती है। मुझे बड़ा तरस आने लगा था उसकी स्थिति पर। 

उसकी स्थिति का आकलन करते-करते मैं जब घर पहुंचा तो करीब बारह बज चुके थे। बच्चे खा-पी के सो चुके। नीला पत्नी धर्म निभाते हुए अभी जाग रही थी। चेहरे पर परेशानी चिंता झलक रही थी। क्योंकि मैं इतनी देर तक घर से बाहर नहीं रहता था। मैं उससे नज़रें मिलाकर बात करने में कुछ असहजता महसूस कर रहा था। वह जो कुछ पूछती उसका जवाब दाएं-बाएं देखते हुए देता। उसने समझा मेरा मूड खराब है तो उसने कहा,

''चेंज करिए मैं खाना लगाती हूं।'' 

मैंने खाने के लिए मना कर दिया। क्योंकि वहां इतना खा लिया था कि, कुछ और खाने का मन नहीं था। दूसरे पत्नी के सामने अजीब सी झेंप महसूस कर रहा था। शादी के बाद यह पहला अवसर था जब मैंने पत्नी के अलावा बाहर किसी अन्य औरत के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे। शादी के पहले मेरे किसी भी लड़की या औरत से संबंध इतने करीबी नहीं थे कि वह शारीरिक सीमा की हद तक पहुंचते। इसलिए मेरी बड़ी अजीब हालत हो रही थी। 

मैं चेंज कर के लेट गया बेड पर लेकिन अपनी इस मनोदशा के चलते नीला से यह कहना भूल गया कि वह खाना खा ले। नीला मुझे खिलाए बिना खाती नहीं थी। मेरी आंखें नींद से बोझिल हो रही थीं लेकिन न जाने क्यों सो नहीं पा रहा था। नीला मुझे गंभीर परेशानी में समझ कर कुछ अजीब सी सावधानी बरतती हुई सी लग रही थी। मैं उसकी तरफ पीठ किए हुए लेटा था। कुछ देर बाद नीला ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,

''क्या बात है इतना सीरियस क्यों हो? तबियत तो ठीक है न?''

मैं नीला के भावनात्मक लगाव से भरे इस प्रश्न से एकदम से कुछ हद तक सकते में आ गया। तुरंत कोई जवाब न बन पड़ा बस हूं कर के रह गया। उसने फिर और ज़्यादा पूछताछ शुरू कर दी। उसकी पूछताछ में भावनात्मक लगाव का पुट इतना ज़्यादा था कि मैं कई बार पूरी कोशिश के बाद भी उसे चुप नहीं करा पाया बस, ''हाँ, कुछ नहीं, बस थकान महसूस कर रहा हूं।'' कहकर चुप हो गया कि नीला भी चुपचाप सो जाए। 

मैं गुनहगार होने के भाव से ऐसा दबा जा रहा था कि नीला की तरफ मुंह करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। हम-दोनों के बीच यह कसमकस कुछ देर यूं ही चलती रही। नीला सब-कुछ जानने के लिए कुछ इस कदर पीछे पड़ी थी जैसे कोई दारोगा जिद पर आ गया हो कि अभियुक्त से सच उगलवा कर रहेगा। इसके लिए वह हर हथकंडे अपनाता है। नीला कुछ वैसे ही दारोगा की तरह पीछे पड़ी थी।

मुझे लगा जैसे उसे शक हो गया है। वह मेरी चोरी पकड़ चुकी है। लेकिन मेरे मुंह से सुनना चाहती है। कुछ देर बाद उसने एक पत्नी की तरह नहीं एक शातिर बेहद चालाक औरत वाला हथकंडा अपनाया। अपने तन का बहुत ही शालीनता से प्रयोग करना शुरू किया। मुझे इस कदर प्यार करना शुरू किया मानो मैं उससे बरसों बाद मिला हूं और फिर बरसों के लिए दूर चला जाऊंगा। 

मैं अंदर ही अंदर खीज से भरा जा रहा था लेकिन मन-मस्तिष्क में अंदर न जाने ऐसा क्या चल रहा था कि नीला का मैं विरोध नहीं कर पा रहा था। उसे मना करने की जैसे मुझ में ताकत ही न थी। अपराध बोध ने उस वक़्त जितना पस्त कर दिया था नीला के सामने उसके पहले कभी न किया था। इसका आधा भी नहीं। जबकि पहले भी कई काम उससे छिपाकर करता रहा था। 

मैं नीला से प्यार के मूड में उस वक्त दो वजहों से नहीं था। एक तो अपराध-बोध के तले कुचला जा रहा था। दूसरे संजना के साथ कई घंटों तक व्यस्त रहने के कारण बुरी तरह थका था। मैं गहरी नींद सोना चाहता था। 

एक बात और कि आने के बाद नहाया नहीं था। इन सबके चलते मैं उस रात नीला से हर हाल में दूर रहना चाहता था। जब नीला ने कोई रास्ता नहीं छोड़ा तो मैं अचानक ही फट पड़ा। क्योंकि मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं बचा था। मैंने एक हाथ से उसे एक तरफ परे धकेलते हुए चीख कर कहा, 

''सोने क्यों नहीं देती।'' 

मैं उस वक़्त यह भी भूल गया कि, बच्चे चीख सुनकर उठ सकते हैं। मेरी इस हरकत से नीला एकदम हत-प्रभ हो कुछ क्षण को जिस पोज में थी उसी में स्थिर हो गई। और मैं गहरी-गहरी सांसें लेते हुए नाइट लैंप की बेहद कम नीली रोशनी में छत को देखने लगा। कुछ देर बाद नीला धीरे-धीरे यंत्रवत सी बेड से नीचे उतरी, अपना गाऊन उठाया और कुछ सेकेंड मुझे देखती रही।

उस कम रोशनी में भी मैंने अहसास किया कि उसकी बड़ी-बड़ी आंखें भरी हुई थीं। और शरीर का सारा तनाव विलुप्त हो चुका था। उसने वैसे ही खड़े-खड़े अपना गाऊन पहना। और हारे हुए जुआरी की तरह, थकी हारी सी कमरे से बाहर चली गई दूसरे कमरे में। मैं कुछ देर तरह-तरह की बातों में उलझा सो गया।

सुबह करीब चार बजे ही मेरी नींद खुल गई। मैं सपने में खोया हुआ था संजना के साथ। विधायक के उसी कमरे में। कि तभी नीला न जाने कहां से आ गई थी और संजना को बालों से पकड़ कर खींचते हुए विधायक निवास की गैलरी में खींचे जा रही थी। और लोग आंखें फाड़कर-फाड़कर देख रहे थे। मैं उसे बचाने के लिए उठा था कि नींद खुल गई। रात का दृश्य मेरी नजरों के सामने आ गया। मैं उठकर कमरे से अटैच बाथरूम में गया, पेशाब कर, आ कर फिर बैठ गया। 

तरह-तरह के विचारों में फिर उलझने लगा तो, नीला कहां सो रही है, यह देखने की गरज से पहले बच्चों के कमरे में गया। वहां नहीं मिली तो ड्रॉइंगरूम में गया। वहां वह सोफे पर सो रही थी। वह चादर नीचे गिरी हुई थी जो उसने ओढ़ी थी। गाऊन की जो बेल्ट उसने बांधी थी वह करीब-करीब खुल चुकी थी।

गाऊन का एक तरफ का हिस्सा बेल्ट के पास तक का सोफे से नीचे लटका हुआ था। जिससे कमर के पास तक का उसका बदन पूरी तरह खुल गया था। जिसे देखकर मेरा मन अचानक ही संजना के बदन से उसकी तुलना कर बैठा कि कौन ज़्यादा सुंदर है। उस वक़्त संजना का बदन मुझे नीला से कहीं बेहतर नजर आया था। दोनों की तुलना करता मैं करीब एक मिनट वैसे ही खड़ा रह गया। 

अचानक नीला कुछ कसमसाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ। फिर यह सोचकर मैंने उसका कपड़ा ठीक कर दिया, कहीं बच्चे उठकर आ गए तो नीला को इस हाल में देखना गलत होगा। मैं जाने के लिए जैसे ही मुड़ा कि गाऊन का वह हिस्सा फिर पहले जैसी हालत में आ गया। सिल्क का होने की वजह से तुरंत फिसल जा रहा था।

अंततः मैंने उसे उठाने की कोशिश की, कि चलकर सो जाए अंदर क्योंकि उसके उठने का वक़्त छः बजे है। और अभी दो घंटा बाकी है। लेकिन उसने आंख खुलते ही जैसे ही  मुझे देखा तो मेरा हाथ परे झटक दिया। मैंने कहा इस हालत में बच्चे देख सकते हैं, अंदर क्यों नहीं चलती। तो उसने गुस्सा दिखाते हुए गाऊन की बेल्ट कसी, चादर उठायी उसे कस के लपेट कर फिर सोफे पर ही लेट गई।

अमूमन ऐसा गुस्सा दिखाने पर मैं भड़क उठता लेकिन उस दिन मैं कुछ सहमा सा एकदम चुप रहा। चला आया बेडरूम में और सिगरेट पीने लगा। फिर लेट गया। बहुत थकान महसूस कर रहा था लेकिन फिर भी दुबारा सो न सका।

सुबह का माहौल बहुत तनावपूर्ण रहा। सूजा चेहरा, सूजी आंखें लिए नीला ने सारा काम किया। मुझ पर गुस्सा दिखाते हुए बच्चों पर चीखती चिल्लाती रही। मैंने कुछ कोशिश की तो मुझसे भी लड़ गई। मैं बिना चाय-नाश्ता किए, लंच लिए बिना ही ऑफिस आ गया। 

एक तरफ मेरे चेहरे पर जहां तनाव गुस्से की लकीरें हल्की, गाढ़ी हो रही थीं, वहीं संजना खिलखिलाती हुई मिली। चेहरा ऐसा ताज़गीभरा लग रहा था, मानो कोई बेहद भाग्यशाली नई नवेली दुल्हन पति के साथ ढेर सारा स्वर्गिक आनंद लूटने के बाद पूरी रात सुख की गहरी नींद सोई हो। और सुबह तरोताजा होकर आई हो। मुझे देखते ही चहकते हुए पूछा,

''कैसे हो राजा जी ?'' 

मैंने उखड़े हुए मन से कहा,

''ठीक हूं।''

''तो चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही हैं?''

''कुछ नहीं यार, बस ऐसे ही तबियत कुछ ठीक नहीं है।''

''तबियत ठीक नहीं है। या बीवी से झगड़ा कर के आए हो।''

''छोड़ो यार, काम करने दो, बहुत काम पेंडिंग पड़ा हुआ है।''

'' ठीक है, काम करो जब मूड ठीक हो जाए तो बताना। कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।''

इतना कहकर संजना जाने को मुड़ी तो, मैंने रेस्ट लेने की गरज से सिर कुर्सी पर पीछे टिका दिया। आँखें बंद करने ही जा रहा था कि, वह बिजली की फुर्ती से पलटी और सीधे मेरे होठों पर किस कर बोली,

''अब मूड सही हो जाएगा। ठीक से काम करोगे। लंच साथ करेंगे।''

इससे पहले कि मैं कुछ बोलता उसने बड़ी अश्लीलतापूर्ण ढ़ंग से आंख मारी और चली गई। यह देख कर बड़ी राहत मिली कि आस-पास कोई नहीं था। अचानक मुझे होठों का ध्यान आया कि, कहीं उसकी लिपस्टिक तो नहीं लग गई। बाथरूम में देखा तो शक सही निकला। उस वक़्त गुस्सा बहुत आया लेकिन उससे कुछ कहने की हिम्मत न जुटा सका। आखिर मैं उसके कहने पर एल.ओ.सी. क्रॉस कर चुका था। 

लंच का वक़्त आते-आते भूख से आंतें कुलबुलाने लगी थीं। मैं रेस्टोरेंट जाने के इरादे से उठा ही था कि संजना आ धमकी लंच बॉक्स लिए हुए। मैंने कहा,

''मैं लेकर नहीं आया हूं कम पड़ जाएगा।'' 

लेकिन वह अड़ी रही और साथ ही लंच करना पड़ा। उसका बनाया पराठा-सब्जी मुझे बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगे थे। जबकि उसने कहा कि, उसके लिए भी वह बडे़ प्यार से बना कर ले आई है। मैंने उसके खाने की झूठी तारीफ कर दी कि अच्छा बना है।

लंच के आधे घंटे तक उसने यही बताया कि देर से पहुंचने के कारण सबने बड़ी हाय-तौबा मचाई लेकिन उसने किसी की परवाह नहीं की। और सबको चुप करा दिया। बरसों बाद कल वह खूब चैन की नींद सोई थी। इसके लिए उसने मेरा धन्यवाद करते हुए रिक्वेस्ट की यह वादा करने की, कि मैं उसका साथ अब कभी न छोडूंगा।

मुझसे वादा कराने के बाद ही वह मानी। उसकी निश्चिंतता उसकी खुशी देखकर मेरे दिमाग में आया कि, यह सच बोल रही है कि, यह बरसों बाद कल चैन की नींद सोई है। इसकी चैन भरी इस नींद की कीमत उधर नीला ने चुकाई। रात-भर तड़पी और सोफे पर पड़ी रही। और मैं भी तभी से तनाव में जी रहा हूं। मगर मेरा यह सारा तर्क-वितर्क तब धरा का धरा रह जाता जब संजना शुरू हो जाती। जैसे ही वह अपने प्यार की बयार चलाती मैं वैसे ही उड़ जाता। 

यह सिलसिला जब एक बार शुरू हुआ तो फिर वह चलता ही चला गया। हम-दोनों के संबंध अब ऑफ़िस के अलावा बाकी जगहों में भी चर्चा का विषय बन गए। हालत यह थी कि जो भी मुझे टोकता वही मेरा दुश्मन बन जाता। मैं उससे संबंध विच्छेद कर लेता। नीला से संबंध तनाव की सीमा तक पहुंच गए थे। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन तीखी नोंक-झोंक न होती। बच्चे भी मुझसे कटे-कटे अपनी मां के ही साथ चिपके रहते। 

बहुत बाद में मेरे ध्यान में आया कि, नीला की आंखें अब स्थाई रूप से सूजी रहने लगी हैं। आज मैं यह सोच कर ही सिहर उठता हूं कि, कैसे उसने वह अनगिनत रातें काटी होंगी तड़पती हुई अकेले ही। क्योंकि मेरा रहना तो न रहने के ही बराबर था। उसके हिस्से का हंसने-बोलने का सारा समय सारी बातें तो संजना छीन लेती थी। उसके हिस्से का तन का सुख भी वही छीन लेती थी।

मुझे अच्छी तरह याद है कि, मैंने उससे उस एक बरस में एक बार भी रात या दिन कभी भी संबंध नहीं बनाए। क्योंकि संजना के तन का मैं इतना प्यासा था कि, उसके सिवा मुझे कुछ दिखता ही नहीं था। उसके साथ महीने में जितनी बार संबंध बनाता था, पत्नी नीला से तो कभी उतनी बार नहीं बनाया, सिवाय शादी के कुछ महीनों बाद। 

मेरा रोम-रोम आज कांप उठता है यह सोचकर कि, नीला ने कैसे इतने लंबे समय तक इतना तनाव झेला। कैसे वह फिर भी पूरे घर को पहले ही की तरह चलाती रही। मेरी वजह से गुस्से, अपमानजनक बातों को सहती, सुनती रही। और अपने तन की भूख पर इतना नियंत्रण कि, कभी इस दौरान भूलकर भी तन की भूख के चलते नहीं आई। बल्कि गुस्सा, प्रतिरोध दर्ज कराने के लिए,-जान बूझकर ऐसे कपड़े, इस ढंग से पहनती कि जैसे कोई पर्दानशीं बहू अपने ससुर के साथ हो।

बच्चों पर शुरू में तो बड़ा गुस्सा दिखाती रही लेकिन बाद में शांत रहकर उनसे अतिशय प्यार जताने लगी। मैं सैलरी देता तो हाथ न लगाती, तो मैं अपने खर्च के लिए पैसे निकालकर बाकी उसकी अलमारी में रखने लगा। तनाव-पूर्ण यह माहौल जब एक बरस के करीब पहुंचा तो एक दिन नीला ने बच्चों को अलगकर तमाम बातें कहने के साथ यह कहा, 

''तुम्हारी हरकतों से घर तबाह हो गया है। बच्चे बड़े हो गए हैं? मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी बुरी बातें मेरे बच्चों का भी भविष्य बरबाद करें। मैं अपनी आंखों के सामने यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसलिए मैं बच्चों को लेकर अलग रहूंगी। तुम खुश रहो उस डायन के साथ।''  

इसके बाद नीला की कई और तीखी बातों ने माहौल बिगाड़ दिया। तीखी नोंक-झोंक हुई। शादी के बाद मैंने पहली बार उस पर हाथ उठाया। मगर उसने मुझे हैरत में डालते हुए पूरी मज़बूती से बीच में ही मेरा हाथ पकड़ कर चीखते हुए कहा, 

''होश में रहो बता दे रही हूं। हद से आगे निकल चुके हो। अब मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी।'' 

फिर उसने संजना को एक से बढ कर, एक गालियां देते हुए साफ कहा ''आइंदा फिर हाथ उठाने की कोशिश की तो मैं सीधे पुलिस में जाऊंगी। क्योंकि अब इज़्ज़त, मान-मर्यादा या लोग क्या कहेंगे, इन बातों का तो कोई मतलब रहा नहीं। तुम्हारी कीर्ति पताका कॉलोनी का बच्चा-बच्चा जान चुका है। और आज के बाद तुम मेरे बच्चों की तरफ भी आंख उठाकर नहीं देखोगे। नहीं तो मैं भी अपनी हद भूल जाऊंगी।'' 

मैं आज तक उसके हद भूल जाने की बात का अर्थ नहीं समझा कि क्या वह मेरे हाथ उठाने पर, मुझ पर हाथ उठाने को कह रही थी या जैसे मैं संजना के साथ रिश्ते जी रहा था वैसा ही कुछ करने को कह रही थी। खैर उस दिन के बाद उसने बेडरूम में आना, उसकी साफ-सफाई तक बंद कर दी। बच्चे भी नहीं आते मेरे पास। 

एक बदलाव और हुआ, सैलरी के दिन आते ही, उसने पिचहत्तर प्रतिशत हिस्सा पूरी दबंगई के साथ लेना शुरू कर दिया। सच यह था कि उसके इस रौद्र रूप से कई बार मैं अंदर ही अंदर डर जाता था। अब ऑफ़िस से घर आने में कतराने लगा था। ज़्यादा से ज़्यादा समय बाहर बिताता। संजना के साथ। मेरी सैलरी का बड़ा हिस्सा संजना के ऊपर खर्च होने लगा। इससे घर पर रकम कम पहुंचने लगी। 

एक बार नीला ने पूछा मैंने ध्यान नहीं दिया। अगली बार जब फिर मैंने सैलरी कम दी तो नीला भड़कते हुए बोली, ''अगली बार एक पैसा भी कम दिया तो सीधे ऑफ़िस पहुंच जाऊंगी।''

इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी मुझे यकीन था कि, वह बहुत शर्मीली और संकोची है। ऑफ़िस नहीं आएगी। मगर मेरा यह आकलन गलत निकला। अगली बार जब मैंने फिर सैलरी कम दी तो उसने एक शब्द नहीं बोला, घूर कर जलती हुई एक नजर मुझ पर डाली, पैर पटकती हुई अलमारी के पास जाकर पैसे रखे, फिर पलटकर एक और जलती नजर डाली और चली गई। 

मैं फिर खो गया संजना में। उसको मैं उस वक़्त एक क्षण भी भूल नहीं पाता था। उस दिन भी रात में सोने से पहले एक बजे तक मैंने संजना से बातें कीं। सारी बातें अश्लीलता की एक से बढ़कर एक इबारतें थीं। अगले दिन मैं संजना में ही खोया ऑफ़िस में था कि, नीला का फ़ोन आया, ''मैं ऑफ़िस के गेट पर हूं। तुरंत आओ नहीं तो मैं अंदर आ जाऊंगी।'' 

मैं एकदम घबरा गया। और करीब-करीब दौड़ता हुआ गेट पर पहुंचा। जबसे उसने मेरा हाथ पकड़ा था मैं उसकी दृढ़ता से वाकिफ़ हो गया था। उसके पास पहुंचते ही, मैं सबसे पहले उसे लेकर ऑफ़िस से कुछ दूर गया, फिर बहुत ही नम्रता-पूर्वक पूछा, 

''क्या बात है, घर पर सब ठीक तो है न ?'' 

मेरी ओढ़ी हुई नम्रता को उसने घृणा-पूर्वक साइड दिखाते हुए कहा, 

''ये घर की याद कहां से आ गई तुम्हें। तुम्हारा जो घर है तुम उसकी चिंता करो।'' 

''यहां किस लिए आ गई हो?'' 

''सैलरी के लिए, जितनी सैलरी मुझे चाहिए वह तुम दो महीने से कहने के बाद भी नहीं दे रहे हो। और मैंने कहा था कि, मैं ऑफ़िस आकर ले लूंगी। क्योंकि मैं अपना, अपने बच्चों का हिस्सा किसी और पर नहीं लुटाने दूंगी।''

उसकी बात सुनकर मैं घबरा गया। चेहरे पर पसीने के आने का अहसास मैंने साफ महसूस किया। उस वक़्त गुस्से से ज़्यादा मैं उससे डरा हुआ था। मैंने बात संभालने की गरज से कहा, 

''ठीक है, अगले महीने पूरे मिल जाएंगे।''

''अगले महीने नहीं, जितने रुपए अब-तक कम दिए हैं, मुझे वह सारे के सारे आज ही चाहिए। शाम को यदि मुझे पैसे नहीं मिले तो मैं कल यहां गेट पर आकर फ़ोन नहीं करूंगी। बल्कि सीधे अंदर आकर उस छिनार संजना को सबके सामने चप्पलों से मारूंगी, फिर तुमसे हिसाब लूंगी सबके सामने समझे।''

इतना कह कर नीला ने सुर्ख और सूजी हुई आंखों से मुझे घूरा और पलट कर पैदल ही चल दी। मैं खड़ा उसे देखता रहा। उसके तेवर से मैं पसीने-पसीने हो गया था। जिस तरह उसने संजना को गाली देकर कहा था कि, आज पैसे न मिलने पर वह कल आकर पीटेगी उसे, उससे यह साफ था कि वह जो कह रही है वह नि:संदेह कर डालेगी। 

काफी समय से उसकी एक से एक गालियां सुनकर मैं हैरान रह जाता कि, यह मेरी वही नीला है जो मध्यकालीन श्रृंगार रस के कवि विद्यापति की रचनाएं सस्वर गाकर रिकॉर्ड कर चुकी है। उनकी अधिकांश रचनाएं उसे जुबानी याद हैं। जो महादेवी वर्मा को अपनी प्रिय लेखिका बताती है। और उनकी भी तमाम रचनाएं याद कर रखी हैं। अवसर आने पर सुनाती भी है। 

हालांकि संजना के मेरे जीवन में आने के बाद यह अवसर कभी नहीं आया। मैं सोचता आखिर यह इतनी गालियां कहां से जान गई। और सिर्फ़ जानती ही नहीं, इस तरह बेधड़क देती है कि, लगता है ऐसे गाली-गलौज के माहौल में ही पली-बढ़ी है। फिर सोचा नहीं समाज में,  घर-बाहर जो भी है अस्तित्व में, वह सब जानते हैं। बस संस्कार के चलते वही चीजें प्रमुखता से सामने आती हैं जो संस्कार में मिलती हैं। 

बाकी एक तरह से सुसुप्त अवस्था में रहती हैं, जो अनुकूल वक़्त पर ही उभरती हैं। तो क्या मैं जो कर रहा हूं, वह इस स्तर का है कि, नीला जैसी औरत में गाली-गलौज जैसी जो चीजें सुसुप्तावस्था में थीं, उसके लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो गई, और उसके मुंह से धड़ा-धड़ गालियां निकल रही हैं। जिसके लिए सिर्फ़ मैं जिम्मेदार हूं। 

ऐसी तमाम उथल-पुथल लिए मैं नीला को आगे टेम्पो पर बैठकर जाने तक देखता रहा। इसके बाद मैं भी वापस अपनी सीट पर पहुंचा। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद मैं बाकी समय कोई काम नहीं कर सका। बस फाइल खोले बैठा रहा। इस बीच संजना कई बार आई और चुहुलबाजी कर के चली गई।

छुट्टी के बाद हम-दोनों फिर मिले। कहीं घूमने जाने का प्लान हम सवेरे ही बना चुके थे। लेकिन अब मैं नहीं जाना चाहता था। मेरी चिंता नीला की धमकी को लेकर थी। शाम को घर पहुंचते ही अगर उसे पैसे नहीं दिए तो कल वह ऑफ़िस आक़र आफत कर देगी। घूमने जाने से मना किया तो संजना पीछे पड़ गई। जब मैंने उसे सब बताया तो वो भी चिंता में पड़ गई। फिर कुछ देर चुप रहने के बाद बोली, ''चलो पहले कहीं कुछ खाते-पीते हैं। फिर सोचते हैं कुछ।''

एक होटल में कुछ खाने-पीने के बाद मैंने राहत महसूस की। तमाम बातचीत के बीच मुझे असमंजस में फंसा देख संजना ने कहा, ''सुनो आज तुम उसे पैसा देकर पहले किसी तरह मामले को शांत करो। फिर सोचते हैं कि इसका परमानेंट  सॉल्यूशन क्या होगा।'' 

''लेकिन मेरे पास अभी पैसे हैं ही नहीं, सब खत्म हो चुके हैं।'' 

''कोई बात नहीं, मैं अपने पास से देती हूं। सैलरी मिले तो दे देना।'' 

फिर संजना ने ए.टी.एम. से पैसे निकाल कर दिए।

घर पहुंचकर मैंने पैसे नीला के सामने पटक दिए। मेरे मन में आया कि कहूं कि दोबारा ऑफ़िस आने की कोशिश मत करना। लेकिन हिम्मत न कर सका। हां गुस्से में मैंने चाय-नाश्ता, खाना-पीना कुछ नहीं किया। संजना के साथ ही इतना खा.पी लिया था कि ज़रूरत ही नहीं रह गई थी।

मैं बेड पर अकेले लेटे-लेटे सोने की कोशिश करने लगा, जिससे दिन-भर के तनाव से मुक्ति मिल सके। लेकिन दिन से ही नीला की हरकत कुछ इस तरह दिलो-दिमाग पर हावी हो गई कि रात दो बज गए, लेकिन नींद नहीं आई। 

कभी नीला की धमकी भरी बातें बेचैन करतीं, तो कभी संजना का परमानेंट सॉल्यूशन वाला डॉयलाग। मैंने उस दिन, उस वक़्त पहली बार महसूस किया कि, मैं दो औरतों के बीच पिस रहा हूं। इसके लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार भी मैं हूं। मगर कोई रास्ता तो होगा कि, इस पिसने की पीड़ा से बाहर आ सकूं। 

यह बात आते ही, दिमाग में आया कि इन दो पाटों को अलग करना ही मुक्ति दे सकता है। लेकिन कैसे हो यह समझ नहीं पा रहा था। पहली बार उस दिन दिमाग में आया कि, नीला को छोड़ दूं क्या? अलग हो जाऊं उससे हमेशा के लिए, दे दूं तलाक उसे। इसके अलावा तो परमानेंट सॉल्यूशन और कुछ हो नहीं सकता। कहीं संजना भी यही तो नहीं कहना चाह रही थी। 

इस बिंदू पर आते ही मुझे लगने लगा कि इसके अलावा मुक्ति का और कोई रास्ता है नहीं। अब तलाक चाहिए ही, रही बात बच्चों कि तो उन्हें भी उसी के साथ दे दूंगा। जैसे चाहेगी पाल लेगी। दे दूंगा गुजारा भत्ता। यह मकान भी उसी को दे दूंगा। कोई दूसरा मकान किसी तरह ले लूंगा। संजना के साथ शादी करने के बाद उसकी सैलरी, मेरी आधी सैलरी के आधार पर इतना लोन तो बैंक से मिल ही जाएगा कि कोई एक ठीक-ठाक मकान ले लूं। 

उस वक़्त संजना को लेकर दिवानगी के चलते मेरे दिमाग में यह नहीं आया कि नीला अकेले बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, लड़की की शादी की जिम्मेदारी कैसे निभा पाएगी। दोनों बच्चे मैंने पैदा किए हैं, वह अकेले क्यों ज़िम्मेदारी उठाए। यह बात भी दिमाग में न आई कि, संजना जब मेरे साथ आएगी तो उसका बेटा भी साथ होगा। उसे मैं कैसे स्वीकार कर पाऊंगा। 

अब मुझे यह सोचकर ही आश्चर्य होता है कि, तब मेरे दिमाग में कैसे अपनी पत्नी अपनी नीला को छोड़ने का विचार इतनी आसानी से आ गया था। लेकिन उस संजना को छोड़ने का विचार एक पल को न आया, जिसके कारण दो पाटों में दब गया था। उस संजना का जो अपने पति की नहीं हुई थी, उसे सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया था उसने, क्योंकि झूठ फरेब उससे नहीं होता था। 

जो उसकी कामुकता को गलत समझता था। उस संजना को जो मनमानी करने के लिए मां-बाप, भाई-बहन को भी दुत्कार चुकी थी। और मुझसे परिचय के कुछ ही दिन बाद अपना तन खोल कर खड़ी हो गई कि, उसकी भूख शांत करो, क्यों कि उसके पति ने उसके तन की छुधा कभी शांत ही नहीं की, वह बेहद ठंडा आदमी है, जो किसी भी औरत के लायक नहीं।

इतना ही नहीं तब मेरी आंखें उसके तन की चमक में ऐसी चुंधियाई हुई थीं, कि मैं उसकी इस हरकत से भी उसकी असलियत का अंदाजा नहीं लगा पाया कि, वह ऐसा कोई दिन नहीं जाता था, जिस दिन अपने कंफर्मेशन या प्रमोशन को लेकर बात न करती रही हो।

जिस दिन शारीरिक संबंधों का दौर चलता उस दिन तो पहले और बाद में भी पूरे अधिकार से यह कहती। बल्कि एक तरह से आदेश देती कि तुम्हें यह करना है। उस वक़्त उसकी यह बातें कुछ खास नहीं लगती थीं। 

जब कंफर्मेशन का वक़्त निकल गया और कोई कार्यवाही नहीं हुई तो एक दिन फिर उसने मिलन के क्षण से पहले ही बड़े अधिकार से कहा, 

''लगता है तुम जानबूझकर मेरा कंफर्मेशन, प्रमोशन नहीं करा रहे हो। जिससे मुझे जब चाहो, ऐसे ही यूज करते रहे।'' 

मुझे उसी वक़्त उसकी इस बात से चौंक जाना चाहिए था। लेकिन नहीं चौंका, आंखों, दिलो-दिमाग पर पर्दा जो पड़ा था। उसकी इस बात पर कान दिए बिना मैं उसके तन पर टूटा हुआ था। उसके तन पर उस वक़्त सिर्फ़ मैं था। कपड़े के नाम पर एक सूत न था। 

न उस पर, न मुझ पर मगर ऐसी स्थिति में भी वह इतनी बड़ी बात कह गई थी। मगर मैं बेखबर था। उसके दिमाग में ऐसी चरम स्थिति में भी यह सब कैलकुलेशन चल रही थी। और मेरे दिमाग में सिर्फ़ यह कि, मेरे तन से उसका तन कभी जुदा न हो। 

उस दिन उसकी परमॉनेंट सॉल्यूशन की बात का भी निहितार्थ मैं समझ न पाया, और पत्नी को तलाक देने की सोचने लगा था। देर रात तक इसी उथल-पुथल में जागता रहा कि कैसे जल्दी से जल्दी इसे तलाक देकर इससे छुटकारा पा लूं। 

मेरा ध्यान इस तरफ भी नहीं गया कि, नीला ने मेरे सारे कपड़े गंदे, साफ सब लाकर बेडरूम में ही पटक दिए थे। उसका एक बड़ा ढेर बना हुआ था। काफी दिनों से साफ-सफाई न होने के कारण पूरा बेडरूम कचरा घर नजर आ रहा था। तलाक देने की धुन में बहुत देर से सोया और जब सुबह उठा तो बहुत देर हो चुकी थी।

बहुत जल्दी करने के बावजूद करीब दो घंटे देर से ऑफ़िस पहुंचा। उस दिन पूरा वक़्त इस उथल-पुथल में बीता कि नीला से तलाक के बारे में संजना से बात करूं कि न करूं। मेरे उखड़े मूड के बावजूद संजना अपनी हरकतों से बाज नहीं आई। चुहुलबाजी उसकी रुकी नहीं। छुट्टी होने से कुछ पहले आकर बोली, 

''सुना  है मेरा कंफर्मेंशन लेटर आ गया है। कुछ पता भी करोगे या यूं ही मुंह लटकाए रहोगे।''

उसकी इस बात से मैं थोड़ा अचरज में पड़ा गया कि, लेटर आ गया इसकी भनक इसको कैसे मिल गई। दूसरे ऐसे बेरूखे ढंग से बोल रही है। आखिर और किन से इसके संबंध हैं, जो इसे सूचना देता है। उसकी इस बात से मैं इतना गड्मड् हो गया कि शाम को कहीं और चल कर बात करने की बात कहने की हिम्मत न जुटा सका। 

और उम्मीद से एकदम विपरीत वह बिना मुझे कुछ बताए चली गई। मुझे इस हरकत पर बड़ी गुस्सा आई। ऑफ़िस से बाहर निकलते ही मैंने उसे मोबाइल पर फ़ोन किया, कई बार ट्राई करने के बाद उसने कॉल रिसीव की। फिर छूटते ही बोली, 

''अभी बिजी हूं बाद में बात करती हूं।'' 

मैं कुछ बोलूं कि उसके पहले ही काट दिया। मेरा गुस्सा और बढ़ गया। मैंने तुरंत फिर कॉल की लेकिन उसने रिसीव नहीं की। कई बार किया तो स्विच ऑफ कर दिया। उसने पहली बार ऐसी हरकत की थी।

मैं गुस्से से एकदम झल्ला उठा। मेरे मुंह से उस वक़्त पहली बार उसके लिए अपशब्द निकला, ''कमीनी कहीं की एक मिनट बात नहीं कर सकती।'' मैंने उस क्षण पहली बार महसूस किया कि मैं आसमान में कटी पतंग सा भटक रहा हूं। या ओवर एज हो चुके बेरोजगार सा सड़कों पर निरुद्देश्य चप्पलें चटका रहा हूं। जिसे निकम्मा समझ घर वाले और बाहर वाले दोनों ही दुत्कार चुके हैं।

जिसका न घर में कोई ठिकाना है और न ही कहीं बाहर। मैं सड़क किनारे काफी देर तक खड़ा रहा मोटर साइकिल खड़ी कर उसी के सहारे। घर जाता तो किसके लिए। बीवी दुश्मन बन चुकी थी, बच्चे बेगाने। अपने घर में ही मैं कचरा-घर बन चुके बेडरूम तक सीमित रह गया था। बेहद तनाव और काफी देर तक खड़े रहने से जब थक गया तो मैं मोटर साइकिल स्टार्ट कर चल दिया। मगर जाना कहां है, दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था। 

ट्रैफिक से लदी-फंदी, हांफती सड़क पर बढ़ता रहा और आखिर में रेलवे स्टेशन के उस कोने पर जा कर खड़ा हो गया, जहां लोग सामने बने गेट से प्लेटफार्म नंबर एक तक अनधिकृत रूप से पहुंच जाते हैं। वहां की सिक्योरिटी में बना यह सबसे बड़ा छेद जैसा है। 

आते-जाते लोगों को देखते मन में चलते तुफान से मैं एकदम बिखर सा गया था। बाइक वहीं खड़ी कर मैं दिशाहीन सा आगे बढ़ता जा रहा था, मुझे यह भी होश नहीं था कि, बाइक वहां बिना लॉक किए ही खड़ी कर दी है। जिसके चोरी होने का पूरा खतरा है।

मैं आगे बढ़ता गया और फिर वी.आई.पी. इंट्रेंस से आगे ओवर फुट-ब्रिज पर चढ़ गया। और बीच में पहुंचते-पहुंचते मेरे क़दम थम से गए। मैं रेलिंग के सहारे खड़ा हो गया। और दूर तक नीचे इधर-उधर, आते-जाते लोगों को देखता रहा। खो गया उसी भीड़ में एक तरह से। मगर कोई चेहरा ऊपर से साफ नहीं दिख रहा था। रात के आठ बज रहे थे। गाड़ियों, दुकानों की लाइट और स्ट्रीट लाइट इतनी नहीं थी कि ऊपर से किसी को स्पष्ट देखा जा सकता। 

मैं संजना तो, कभी नीला में खोया, थका-हारा, रेलिंग के सहारे तब-तक खड़ा रहा जब-तक कि एक लड़की के, '' एस्क्यूज मी'' शब्द कानों में नहीं पड़े। मैंने गर्दन घुमा कर दाहिनी तरफ आवाज़ की दिशा में देखा। एक करीब छब्बीस-सत्ताइस साल की लड़की खड़ी थी। वहां रोशनी बहुत कम थी, फिर भी मैं देख पा रहा था कि वह गेंहुएं रंग की थी और मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी। 

मेरे मुखातिब होते ही बोली, ''किसी का इंतजार कर रहे हैं क्या?'' मेरे लिए उस वक़्त यह अप्रत्याशित स्थिति थी। सो तुरंत मुझ से कोई जवाब न बन पड़ा। उसे देखता रहा मैं। औसत कद से कुछ ज़्यादा लंबी थी वह। भरा-पूरा शरीर था।

चुस्त कुर्ता और पजामा पहन रखा था। जिसे लैगी कहते हैं। वास्तव यह साठ-सत्तर के दशक में हिंदी फिल्मों में हिरोइनों द्वारा खूब पहनी गई स्लेक्स ही हैं। जब मैं कुछ बोलने के बजाए उसे देखता ही रहा तो वह फिर बड़ी अदा से बोली, 

''कहां खो गए मिस्टर।'' 

''कहीं नहीं....लेकिन मैं आपको पहचानता नहीं, आप कौन हैं?''

''कभी तो पहचान शुरू हो ही जाती है न। बैठ कर बातें करेंगे जान जाएंगे एक दूसरे को, और जब जान जाएंगे तो मजे ही मजे करेंगे।''  

इस बार उसके और ज़्यादा इठला के बोलने ने मुझे एकदम सचेत कर दिया कि, यह उस एरिया में चलती-फिरती, गर्म गोश्त की दुकान है, जो खुद ही माल भी है, और खुद ही विक्रेता भी। यह उनमें से नहीं है जिनके सौदागर साथ होते हैं। मैं संजना और नीला के चलते बेहद गुस्से और तनाव में था ही तो, दिमाग में एकदम से एक नई स्टोरी चल पड़ी। 

सोचा घर जाने का कोई मतलब नहीं है, वहां बीवी-बच्चे कोई भी पूछने वाला नहीं है। और जिस के लिए अपने भरे-पूरे, खुशहाल परिवार को हासिए पर धकेल रखा है, वह आज बात तक नहीं कर रही है। दगाबाज निकली। अच्छा है आज ज़िदगी का यह अनुभव भी लेते हैं। घर पर फ़ोन भी नहीं करूंगा। देखूं नीला या बच्चों में से कोई फ़ोन करता है या नहीं। इससे यह भी पता चल जाएगा कि, यह सब वाकई मुझसे से नफ़रत करते हैं या सिर्फ़ गुस्सा मात्र है। 

हालांकि ज़िदंगी में गर्म-गोश्त का अनुभव लेने का यह कोई पहला निर्णय नहीं था। इससे करीब पंद्रह वर्ष पहले पांच दोस्तों के साथ गोवा घूमने गया था। तब शादी नहीं हुई थी। वहां जिस होटल में रुके थे, वहीं के एक वेटर ने यह सेवा भी उपलब्ध कराने का ऑफर दिया था। और हम सबने कुछ असमंजस के बाद हां कर दी थी। 

तब उसने रात नौ बजते-बजते सबके लिए व्यवस्था कर दी थी। इनमें कोई भी लड़की बीस साल से ज़्यादा की नहीं थी। लेकिन अगले दिन सभी संतुष्ट थे कि जो खर्च किया उसका भरपूर मजा मिला। सभी लड़कियां कस्टमर को कैसे खुश किया जाए इस हुनर में पारंगत थीं। 

आज इस फुट ओवर ब्रिज पर इस लड़की ने पंद्रह वर्ष पुरानी यादें ताजा कर दी थीं। साथ में एक नया जोश भी। बात आगे बढ़ाई तो, पता चला वह ऊपर जितनी भोली दिख रही है, अपने क्षेत्र की अंदर से उतनी ही ज़्यादा मंझी हुई खिलाड़ी है।

पहले तो मेरे सामने समस्या यह थी कि, उसे लेकर जाऊं कहां। यह बात आते ही उसने कहा, उसके पास इस समस्या का भी समाधान है, उसे बस पेमेंट करना होगा। मगर मैं उसकी बताई जगह पर रात गुजारने में हिचक रहा था। तो फिर अपने विधायक वाले मित्र को फ़ोन किया।

उसने अफ़सोस जाहिर करते हुए कहा, ''यार दो दिन से तो विधायक जी रुके हुए हैं।'' लगे हाथ उसने यह मज़ाक भी कर डाला, ''क्या यार, भाभी जी आजकल मजा नहीं दे पा रही हैं क्या? जो इधर-उधर भटक रहा है।'' कुछ और अश्लील बातें भी उसने कहीं, जिन्हें अनसुना कर मैंने बात खत्म कर दी। 

फिर नैंशी के साथ उसकी बताई जगह पर पहुंच गया। जो स्टेशन के नजदीक ही उस एरिया का जाना-पहचाना दादा लॉज था। जहां गर्म-गोश्त को लेकर हुए, कई कांड पहले भी मीडिया में चर्चा में आ चुके थे। मैं भीतर ही भीतर डरा, लेकिन संजना और नीला के बीच जिस तरह से उलझा था उससे बहुत गुस्से में था। 

खिन्नता नहीं आवेश में उबला जा रहा था। जो मेरे डर पर हॉवी हो गया। लॉज में सारी इंट्री नैंशी ही ने कराईं, जो करीब-करीब फर्जी ही थीं। मैंने जब उस कर्मचारी की तरफ देखा तो, उसने दाईं आंख हल्के से दबाते हुए कहा, 

''क्यों परेशान हो रहे हैं सर, नैंशी जी सब मैनेज कर लेती हैं। आप बेफ़िक्र होकर एंज्वाय करें।'' 

फिर वह आदमी ऊपर रूम तक छोड़ने भी आ गया। रूम खोल कर दिखाया, सेवा की तमाम बातें करते हुए खड़ा हो गया तो, नैंशी ने उसे दो सौ रुपए दिलवाते हुए कहा, 

''ये हम-दोनों का पूरा ख्याल रखेंगे आप निश्चिंत रहें।'' 

पैसा पाते ही वह चला गया। उसके जाते ही नैंशी बड़े ही मादक अंदाज में बोली, 

''आइए नीरज जी बैठिए। कुछ बातें करते हैं। जानते हैं एक दुसरे को फिर ऐश करते हैं। या फिर डिनर के बाद या जैसा आप कहें।'' 

यह कहकर वह बेड पर यूं बैठ गई कि, गोया वह बड़ा लंबा सफर तय कर के थक गई है, और लंबे समय बाद आराम का अवसर मिला है। एक बात मैंने गौर की, कि उसमें अन्य तमाम सेक्स वर्कर की तरह बाजारूपन नहीं था। या नाम-मात्र का था। मुझे शांत देखकर वह फिर बोली, 

''बैठिए ना नीरज जी, ऐसे क्या देख रहे हैं। है तो सब आप ही के लिए न। और हां थोड़ा रिलैक्स होइए। कोई टेंशन है तो मैं हूं न, चुटकी बजाते दूर कर दूंगी।''

मैं कुछ बोलूं कि, उसके पहले ही उसने फ़ोन उठाया और दो सूप का ऑर्डर कर दिया। मैंने भी सामने टेबिल पर हेलमेट रखा और बेड के सामने ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। फिर उसने अपने बारे में बातें शुरू कीं, जिन पर मेरा ध्यान बिल्कुल नहीं था। क्योंकि मेरा ध्यान रह-रहकर संजना पर चला जाता। 

मुझे लगता जैसे मेरे सामने वही बैठी बक-बक कर रही है। कुछ देर में वेटर सूप दे गया। जिसे चट करने से पहले उसने बाथरूम में जाकर मुंह धो लिया था। अब उसका चेहरा ज्यादा ताजगी भरा लग रहा था। मैंने सूप आधा ही छोड़ दिया था। 

नैंशी के सूप पीने के ढंग ने बता दिया था कि, उसे टेबल मैनर्स आदि की पूरी जानकारी है। और उसकी यह बात सच है कि, वह एक पढ़े-लिखे अच्छे घर की है। बस किसी वजह से इस फील्ड में भी आ जाती है कभी-कभी। बातचीत में इतनी एक्सपर्ट थी कि कुछ ही मिनटों में उसने मुझे सारे तनावों, संजना के दायरे से एकदम खींचकर अपने दायरे में शामिल कर लिया। 

जल्दी ही मैं उसके साथ हंसने-खिलखिलाने लगा। तब मुझे लगा कि इसके साथ रात बिताने के लिए पांच हज़ार देना कोई बुरा सौदा नहीं है। बात उसने दस हज़ार से शुरू की थी। कम करने की बात आई तो कई शर्तें रखकर उसने मूड खराब कर दिया था कि इतने पैसे में यह करने देंगे, यह नहीं या इतने पैसे देंगे तो यह भी कर देंगे। और इतने देंगे तो सब-कुछ। 

जिस तरह उसने खुल कर बात की थी, उससे मैं दंग रह गया था। उससे पहले यह सब सिर्फ सुना भर था। तब मैं एक बार को क़दम पीछे हटाने को सोचने लगा था। क्योंकि सौ रुपए ही थे। और दस हज़ार जो अलग रखे थे, वह बीमा के प्रीमियम के लिए था। जो इत्तेफाक से एजेंट के न आ पाने के कारण मेरे ही पास था। 

उस दस हज़ार ने नैंशी के साथ क़दम आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। अन्यथा मैं नैंशी के साथ होता ही नहीं। मगर अब इस बात को लेकर मैं किसी असमंजस में नहीं था। बल्कि मन के किसी कोने में कहीं संतोष ही था। एक कोने में कहीं यह भी कि, प्रीमियम का कहीं और जुगाड़ देखा जाएगा। अब मैं खोने लगा था नैंशी की खनक भरी हंसी में। 

बातों ही बातों में उसने डिनर का भी ऑर्डर दे दिया था। जिसमें मेरी पसंद भी उसने पूछी थी। खाना सब नॉनवेज ही था। जब वेटर डिनर रख कर जाने लगा था, तो उसने बाहर डू नॉट डिस्टर्ब का टैग लगा देने के लिए कह दिया। साथ ही नीचे रिसेप्शन पर भी फ़ोन कर मना कर दिया।

डिनर ऑर्डर करने से पहले उसने अचानक ही शॉवर लेने की बात कर मुझे चौंका दिया था। मैंने जब यह कहा कि, ''चेंज के लिए कपड़े कहां हैं?'' तो उसने वहां रखे दो टॉवल की ओर इशारा करते हुए कहा, ''होटल वाले ये इसीलिए तो रखते हैं।'' फिर उसने बेहिचक सारे कपड़े उतारकर चेयर पर डाल दिए और बाथरूम की ओर चल दी। हाव-भाव ऐसे थे कि जैसे अपने पति के ही सामने सब कुछ कर रही हो। दरवाजे पर ठिठक कर बोली, 

''कमऑन यार एक साथ शॉवर लेते हैं। हालांकि ये उस फीस में शामिल नहीं है। लेकिन आपकी अदा पर, यह मेरी तरफ से एक गिफ्ट है।''

मैं उसके बदन और उसकी बातों में उलझा था कि, तभी उसने आकर एक झटके में मेरी बेल्ट खींच दी। कुछ ही देर में, मैं भी उसी की तरह था। फिर दिगंबर ही उसके साथ शॉवर लिया।

उस पल उसने जो किया उससे मैं सच में एकदम मदमस्त हो गया। उस पल को तब मैंने अपने जीवन के सबसे हसीन पलों में शामिल किया था। अब भी उस पल को इस सूची से हटाने का मन नहीं करता। जेल की इस बंद कोठरी में भी नहीं। 

बाथरूम में नीला के साथ बच्चों के बड़ा होने से पहले मैंने कई बार एक साथ शॉवर लिया था। मगर ईमानदारी से कहूं कि, सच यही है कि नैंशी के साथ और नीला के साथ का कोई मुकाबला नहीं था। क्योंकि दोनों का मिजाज ही एकदम जुदा था। नीला में जहां शर्म-संकोच, शालीनता की तपिश की आंच थी, वहीं नैंशी में यह सिरे से नदारद थी। 

हां नीला के साथ नैचुरल शॉवर का जो अनुभव था वह अद्भुत था। नैचुरल शॉवर यानी बारिश में अपनी पत्नी के साथ भीगने का। यह अनुभव तो करीब-करीब सभी ने लिया होता है, लेकिन मैंने जो किया था वह गिने चुने लोग ही करते हैं। क्योंकि इसमें अहम रोल बारिश का होता है, वह भी ऐसी बारिश जो रात में हो रही हो और लगातार कई घंटों तक रिमझिम बारिश होती ही रहे। साथ ही सबसे ऊंचा मकान हो, और उसमें दूसरा कोई न हो। सौभाग्य ने मुझे यह सब दे रखा था। 

मेरे मकान की छत अगल-बगल के सारे मकानों से ऊंची थी। शादी को डेढ़ साल हो रहे थे। उस साल मानसून मौसम विभाग की सारी भविष्य वाणियों को धता बताते हुए एक हफ्ता पहले ही आ गया था। दो-चार दिन एक आध हल्की फुहारों के बाद एक दिन जो शाम के बाद पहले कुछ ते़ज फिर धीरे-धीरे बारिश शुरू हुई तो, फिर वह बंद होने का नाम ही न ले। फिर लाइट भी चली गई।

एमरजेंसी लाइट या फिर इन्वर्टर जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। मोमबत्ती से काम चल रहा था। गर्मी ने सताया तो अचानक छत पर घूमने का विचार एकदम से दिमाग में कौंध गया, जैसे उस समय आसमान में बार-बार बिजली कौंध रही थी।

मैंने नीला को भी कुछ ना नुकुर के बाद साथ ले लिया था। छत पर पहले दोनों एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले चहल-क़दमी करते रहे। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा था। दूर सड़कों पर इक्का-दुक्का आती-जाती गाड़ियों की लाइट दिख जाती या फिर आसमान में कौंधती बिजली कुछ पल को आस-पास का इलाका रोशन कर देती। 

जिससे नीला डर कर चिपक जाती और फिर कुछ देर में नीचे चलने को बोलने लगी। लेकिन यह सब मुझे बचपन के हसीन दिन भी याद दिला रहे थे। फिर जल्दी नीला के साथ उसके भीगे बदन ने मेरा मूड एकदम रोमांटिक कर दिया। 

मैंने अपनी बातों और हरकतों से उसका मूड भी अपने जैसा ही बना लिया। फिर बाऊंड्री के बगल में ही मैं उसे लेकर लेट गया था जमीन पर। फिर वहां हम-दोनों ने वह अद्भुत पल जिए। नेचर के साथ नैचुरल कंडीशन में ही। जो विरलों को ही नसीब होता है, नेचर के ही सहयोग से। 

इस अद्भुत स्थिति में हम-दोनों करीब घंटे भर रहे। फिर नीला को छींकें आने लगीं तो उसके आग्रह पर मैं मन न होते हुए भी नीचे चलने को तैयार हुआ। हम-दोनों नीचे आधे जीने तक बैठे-बैठे ही उतरे। क्योंकि छत पर खड़े होकर हम-दोनों कपड़े पहनने का रिस्क नहीं लेना चाहते थे कि, कहीं भूले-भटके किसी के नजर में न आ जाएं। उस दिन सवेरा होते-होते हम-दोनों तेज जुखाम से पीड़ित थे। आज भी वह पल याद कर मन रोमांचित हो जाता है। 

नैंशी के साथ उस शॉवर ने भी तन-मन में गुदगुदी की थी लेकिन वैसा रोमांच नहीं। बाथरूम से हम-दोनों बीस-पच्चीस मिनट में ही बाहर आ गए थे। जहां कमरे में सिर्फ़ दो तौलिए थे। जिन से हमने तन पोछा भी और उसे कहने भर को ढंका भी। फिर डिनर किया। तभी लगा गीले तौलिए दिक़्कत कर रहे हैं, तो दोनों ने उन्हें हटा दिया।

हम-दोनों को अब उनकी ज़रूरत ही कहां थी। रात-भर नैंशी ने जीवन के कई नए अनुभव दिए। कई बार तो ऐसा लगा जैसे एंज्वाय करने के लिए उसने मुझे हॉयर किया है। एंज्वाय मैं नहीं, वह कर रही है। वह भी अपने तरीके से। जैसे चाहे वैसे मुझे इस्तेमाल कर रही है, जो चाहे कर या करवा रही है।

सवेरे तक न वह सोई न ही सोने दिया। एक से एक बातें, काम करती या करवाती रही। सवेरे करीब छः बजे लॉज से बाहर आए तो उसने अपना सेल नंबर दिया फिर कॉल करने के लिए। फिर ऑटो कर चल दी। कहां यह नहीं बताया था। 

मैंने जब घर की राह ली तो जेब में मात्र दो हज़ार बचे थे। लॉज का किराया, वहां के कुछ कर्मचारियों को नैंशी ने इस तरह पैसे दिलवाए कि, मेरे पास कुछ पूछने के लिए वक़्त ही नहीं होता था। गोया कि मैं कोई धन-पशु हूं।

नैंशी के जाते ही मेरे दिमाग में घर हावी होने लगा। रात में कई बार मेरी नज़र मोबाइल पर इस आस में गई कि बस अब घंटी बजेगी। और नीला तनतनाती हुई पूछेगी कि कहां हो? या बच्चों की आवाज़ कि पापा कहां हो? गुस्से में नीला खुद फ़ोन न करके बच्चों से ऐसा करा सकती है। लेकिन मेरी आस पूरी नहीं हुई। भूल से भी एक कॉल नहीं आई। 

कई बार मन संजना पर भी गया। फ़ोन करूं या न करूं, मैंने इस असमंजस में रात में बारह बजे तक अपने को रोके रखा। फिर उसके बाद जब कॉल की तो उसने फ़ोन काट दिया। मैं गुस्से से तिलमिला उठा था। पर नैंशी के सामने जाहिर नहीं होने दिया। फिर नैंशी के मायाजाल में ऐसा डूबा था कि यह सब नेपथ्य में चले गए थे। 

मगर अब नैंशी नेपथ्य में थी। नीला हावी थी। एक बार भी फोन न आने से मैं हैरत में था। सोचने लगा कि संजना से संबंध बना के क्या मैंने कोई गुनाह किया। और क्या यह गुनाह इतना बड़ा है कि, बीवी-बच्चे इस कदर मुंह मोड़ लें कि, यह तक जानने की कोशिश न करें कि मैं जिंदा भी हूं या कहीं मर-खप गया। फिर सोचा नीला ने शायद यह सोचकर फ़ोन न किया हो कि, संजना के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा होऊंगा। 

विचारों के इस उथल-पुथल में अचानक ही यह बात भी दिमाग में कौंध गई कि जैसे मैं बाहर औरतों से संबंध बनाए घूम रहा हूं, कहीं नीला भी तो.....यह बात दिमाग में आते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा गला सूखने लगा। 

मुझे महसूस हुआ कि अब जल्दी घर न पहुंचा, तुरंत पानी न पिया तो गिर जाऊंगा। मैंने बाइक की स्पीड यह सोचकर और बढ़ा दी। बल्कि यह कहें कि एक्सीलेटर पर हाथ खुद ही और घूम गया। इस बीच मन के कोने में कहीं यह बात भी गुनगुनाई, नहीं मैं लाख कुछ भी करूं लेकिन नीला किसी गैर-मर्द के सामने अपने को नहीं लाएगी। 

मैं कुछ भी करूं वह मुझसे लड़ाई-झगड़ा सब कर लेगी। लेकिन अपना तन कहीं और नहीं उघाड़ेगी। वह ऐसी औरत है ही नहीं। उलझन के सागर में डूबता उतराता मैं अंततः घर पहूंचा। गेट पर अंदर से ताला लगा था। मतलब सब घर में ही थे। मगर सुबह के साढ़े छः बजने वाले थे और ताला लगा था यह बात कुछ अलग थी। क्योंकि नीला जल्दी उठती है और गेट का ताला खोल कर फिर काम में जुट जाती है। 

कई बार घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला, जो ग्रिल के गेट से करीब पंद्रह फिट दूर था। सामने नीला खड़ी थी। उससे मैं पूरी तरह नज़र नहीं मिला पा रहा था। करीब आठ-दस सेकेंड वह मुझे एकटक देखती रही फिर अंदर चली गई। जाहिर है चाबी लेने गई थी। 

जब आई तो मुझे ऊपर से नीचे तक ऐसे देख रही थी मानो स्कैन कर रही हो कि, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है। फिर उसके हिसाब से सवाल दागे जाएं। मैं मुश्किल से उसके चेहरे पर नज़र डाल पाया था। आंखें चेहरा साफ बता रहे थे कि, वह रात-भर सोई नहीं थी। और संभवतः रोई भी बहुत थी।

गेट का ताला खोलकर उसने गेट खोला नहीं, बल्कि ताले को कुंडे में चाबी सहित झटके से लटका कर तीक्ष्ण नज़र मुझ पर फिर डाली और पैर पटकती हुई चली गई अंदर। उसकी बॉडी लैंग्वेज बता रही थी कि, स्कैन कर उसने यह जान समझ लिया था कि, मेरे साथ कुछ भी अनहोनी नहीं हुई थी, और मैंने रात-भर ऐश की है। 

जब मैं अंदर पहुंचा तो देखा बच्चे सो रहे थे। डाइनिंग टेबिल की स्थिति बता रही थी कि, किसी ने भी खाना ठीक से नहीं खाया। घर की एक-एक चीज इस बात की गवाही दे रही थी कि, यहां रहने वाला हर शख्स बेचैन सा रात में इधर-उधर उठता-बैठता-लेटता रहा है। 

जागा तो मैं भी था रात-भर। इधर-उधर, डरता-बैठता-लेटता, उस लॉज में नैंशी के साथ जाने क्या-क्या करता रहा। फ़र्क़ इतना था कि, यहां सब हैरान-परेशान, व्याकुल तनाव में पस्त थे। और वहां मैं जश्न मना रहा था ऐश कर था। 

नींद से आंखें बोझिल हो रही थीं। और इन सबके पीछे सिर्फ़ एक इफेक्ट संजना इफेक्ट काम कर रहा था। मगर अब मेरी हालत ऐसी न रह गई थी कि मैं कुछ सोच-विचार पाता। जूते उतार कर वही कपड़े पहने-पहने बेड पर पसर गया। और कोई मौका होता तो नीला जूते ही नहीं, कपड़े भी उतार कर आराम से लिटाती। मैं भरे-पूरे घर में भी अकेला था। अकेले ही गहरी नींद में सो गया ।

जब मेरी नींद खुली तो मोबाइल पैंट की जेब में ही बजे जा रहा था। वाइब्रेटर भी ऑन था तो शरीर में झन-झनाहट भी हो रही थी। जेब से मोबाइल निकालते हुए मैंने घड़ी पर नज़र डाली तो ग्यारह बज रहे थे। मुझे एक झटका सा लगा। जल्दी से बैठ गया। मोबाइल तब-तक बंद हो चुका था। देखा तो सात मिस्ड कॉल पड़ी थीं। सभी ऑफ़िस की थीं। 

मैं अंदर ही अंदर सहम गया। फिर उस नंबर पर कॉल की जो मेरे करीबी कुलिग का था। हां उसके पहले यह जरूर चेक कर लिया था कि, कहीं कोई कॉल संजना की तो नहीं थी। यह देख बेहद निराश हुआ कि, उसकी एक भी कॉल नहीं थी। कुलिग लविंदर सिंह ने फ़ोन उठाने में देर नहीं की। छूटते ही बोला,

''ओए कहां है तू? फ़ोन क्यों नहीं उठा रहा। तेरे घर फ़ोन किया तो भाभी जी बोलीं कुछ पता नहीं कहां हैं। कुछ नाराज सी लग रही थीं। तू आखिर है कहां?''

''कब फ़ोन किया था?''

''अरे यार एक घंटे पहले किया था। जब कई बार करने पर भी तूने नहीं रिसीव किया तो घर वाले नंबर पर ट्राई किया था। तब पता चला कि किसी को भी पता ही नहीं कि, तुम कहां हो? तो फिर तुझे मिलाने लगा। आखिर माजरा क्या है?''

लविंदर की बात से साफ था कि, मैं सो रहा था लेकिन नीला ने गुस्से में कह दिया पता नहीं कहां हैं। बात टालने की गरज से मैंने कहा,

''माजरा कुछ नहीं है मिलने पर बात करूंगा। ये बताओ ऑफ़िस में कोई पूछ तो नहीं रहा था।''

''बॉस सुबह से कई बार पूछ चुके हैं। काफी गुस्से में हैं। तुमसे तुरंत मिलना चाहते हैं। बल्कि वो कल ही बुलाए थे। लेकिन तुम आधे घंटे पहले ही निकल चुके थे। फिर उन्होंने कई बार कॉल की तुम्हें, लेकिन तुमने कॉल रिसीव नहीं की।''

''हाँ ऑफ़िस का लैंडलाइन नंबर देखकर मैंने समझा तुम्हीं लोगों में से कोई बात करना चाह रहा होगा। इसीलिए नहीं उठाया। मैं जरूरी काम से निकला था।''

''अरे यार ऐसा भी क्या जरूरी काम था कि दो मिनट बात भी नहीं कर सकते थे। घर भी नहीं गए।''

''जब मिलूंगा तब इस बारे में बात करूंगा। बॉस क्यों इतना पूछ रहे हैं। सब ठीक तो है न?''

''मुझे कुछ खास पता नहीं। बस इतना मालूम है कि तुमसे ही जुड़ा कोई सीरियस मैटर है। इसलिए जैसे भी हो तुरंत आओ।''

लविंदर की बातों ने मेरे होश उड़ा दिए। कुछ ऐेसे कि संजना, नैंशी भी उड़ गए उसी में। आनन-फानन में तैयार होकर मैं ऑफ़िस पहुंचा। वहां सब ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं फांसी के फंदे पर चढ़ने जा रहा हूं।

कईयों के चेहरे पर जहां हवाइयां  उड़ रही थीं, वहीं कुछ चेहरों पर व्यंग्य भरी मुस्कुराहट भी साफ दिख रही थी। खासतौर से लतखोरी लाल के चेहरे पर। मैं उस समय उससे बहस में नहीं उलझना चाहता था। डरता-डरता, अंदर-अंदर सहमता मैं चला गया, तमाम उलझनों में उलझा बॉस के चैंबर में।

अंदर जो हुआ वह मेरी कल्पना से परे था। जो बॉस पिछले पंद्रह वर्षों से मुझे छोटे भाई की तरह मानता था, और मैं उन्हें बॉस से ज़्यादा बड़ा भाई मानता था, जिसके चलते ऑफ़िस में मेरी एक अलग ही धाक थी, उसी बॉस ने, भाई ने मुझे क्या नहीं कहा।

बेहतर तो यह था कि, वह मुझे जूता उतार कर चार जूते मार लेते मगर वह बातें न कहते, जो कहीं। मेरी आंखें भर आईं तब कहीं वह कुछ नरम पड़े, मगर आगे जो बातें कहीं उससे मेरे पैंरों तले जमीन खिसक गई। मैंने हाथ जोड़कर रिक्वेस्ट की, कि मुझे किसी भी तरह बचा लें । मगर उन्होंने साफ कहा, 

''मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि, तुम्हारी नौकरी बच जाए। यह कोई सरकारी डिपार्टमेंट तो है नहीं। लिमिटेड कंपनी है। शहर के सबसे पुराने पब्लिशिंग हाउसेस में गिनती है इसकी। इतिहास के कई पन्नों में दर्ज हो  चुकी है। इस समय टॉप मैनेजमेंट  बहुत सख्त है। क्योंकि पिछले काफी समय से अव्यवस्था ज़्यादा फैली है। कई अनियमितताओं में तुम्हारा नाम ऊपर है। 

पूरे ऑफ़िस में, ऊपर तक यह बात फैली हुई है कि, मेरा तुम पर वरदहस्त है। जिससे तुम मनमानी करते हो। नियमों का उल्लंघन करते हो। संजना के कंफर्मेशन के लिए तुमने जो रिपोर्ट भेजी पूरी तरह झूठी, बायस्ड, निराधार है। 

मैनेजमेंट को उससे तुम्हारे संबंधों की पूरी जानकारी है। यह भी पता है कि उसका सारा काम तुम करते हो। उसे कुछ नहीं आता। उसकी गलत साइड लेकर तुम लोगों से मिसबिहैव करते हो, ऑफ़िस का पूरा वर्क कल्चर, वर्क एटमॉस्फियर किल कर दिया है।

कुछ लोगों ने सप्रमाण तुम्हारी एनॉनिमस रिपोर्ट तक की है। मैंने ऊपर समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन प्रमाण इतने पुख्ता हैं कि, मैं कुछ नहीं कर सका। सस्पेंशन के अलावा फिलहाल कोई रास्ता नहीं बचा है। खैर अभी जाओ, धैर्य से काम लो, लंच के बाद आकर मिलना। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं।''

कुर्सी से जब मैं उठा तब उन्होंने यह भी कहा, ''चेहरे पर नियंत्रण रखो। ऐसा न हो कि बिना बोले ही सब कुछ कह दो।''

मगर मुझसे कंट्रोल कहां होना था। चेहरे पर थकान ऊपर से उड़ती हवाइयों ने ऐसा बना दिया था, मानो मैं अपनी सारी दुनिया ही लुटाकर चला आ रहा हूं। बाहर निकला तो फिर सब कनखियों से देख रहे थे। मैं किसी से नज़रें नहीं मिला सका। 

नॉर्मल दिखने की लाख कोशिशों के बावजूद बुझा-बुझा सा, चुनाव हारा सबसे हॉट उम्मीदवार सा, खिसयाया हुआ अपनी चेयर पर आकर बैठ गया। गला सूख रहा था। एक गिलास पानी पिया। कुछ राहत मिली। 

आश्चर्य मुझे अब इस बात का होता है कि, उस विकट स्थिति में भी दिलो-दिमाग के किसी कोने में बराबर संजना-संजना गूंज रहा था। कुर्सी पर सिर टिकाकर मैंने आंखें बंद कर लीं। मुझे लगा कि एक बार किसी तरह संजना आ जाती तो अच्छा था। उसे फ़ोन कर बुलाने का मन हुआ। मैं इस बात से अंदर ही अंदर खौल रहा था कि, कल से वह बात क्यों नहीं कर रही है। आ क्यों नहीं रही है।

कई बार उसे फ़ोन करने के लिए इंटरकॉम की तरफ हाथ बढ़ा-बढ़ा कर मैं ठहर जाता। इस बीच कई लोगों ने तीन-चार बार फ़ोन करके हाल-चाल लेने के बहाने माजरा जानने की कोशिश जरूर की। मैं चतुराई से सबको साइड दिखाता रहा, नीला, संजना, नैंसी और बॉस की बातों में उलझता-गड्मड् होता रहा। जैसे-तैसे वक़्त बीता और लंच के बाद बॉस ने सस्पेंसन लेटर भी थमा दिया। 

तब मैंने महसूस किया जैसे मेरे तन में खून रह ही नहीं गया। मेरी टांगें इतनी कमजोर हो गई हैं कि, बदन का बोझ उठाने में उनका दम निकल सा रहा है। लग रहा था मानो बदन हजारों किलो का हो गया हो । शाम को किसी तरह घर पहुंचा और कचरा घर बने बेडरूम में पसर गया। कुछ देर बाद मेरी आंखों की कोरों से आंसू निकलकर कानों तक पहुंचने लगे। मुझे जिस तरह से सब-कुछ बताया गया था, उस हिसाब से नौकरी का बच पाना करीब-करीब नामुमकिन ही लग रहा था। 

इन सारी स्थितियों के लिए मुझे अब एक-मात्र दोषी संजना ही लग रही थी। मुझे अब वह नागिन सी लगने लगी। मन में उसके लिए गालियों, अपशब्दों की बाढ़ सी आ गई थी। कुछ देर बाद मुझे भूख-प्यास भी सताने लगी थी। 

मगर किससे कहूं, नीला, बच्चों से तो कुछ कहने-सुनने का अधिकार मैं पहले ही खो चुका था। उनसे संवाद के सारे साधन खत्म थे। इन कुछ क्षणों में ही मैं अपने को इतना अकेला हारा महसूस करने लगा कि, जी में आया आत्म-हत्या कर लूं। रह-रह कर संजना को गाली देता। 

तब मुझे एक बात शीतल मरहम सी लगी कि, ठीक है मैं सस्पेंड हुआ, मगर मुझे धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने वाली संजना का कंफर्मेशन भी नहीं हुआ। इतना ही नहीं उसे सख्त चेतावनी भी दी गई है। वैसे तो उसकी नौकरी ही जा रही थी। लेकिन तिकड़मी लतखोरी लाल की तिकड़म उसके काम आ गई। 

अब समझ में आया था कि, तिकड़मी लतखोरी पिछले काफी समय से संजना के आगे-पीछे किसी न किसी बहाने क्यों लगा रहता था। साथ ही वह कमीनी भी मुझसे नज़र बचा-बचाकर मिलती थी उससे। वह वास्तव में मुझे डॉज दे रही थी। डबल क्रॉस कर रही थी।

मैं मुर्ख पगलाया-अंधराया हुआ था। मुझे लतखोरी लाल से मिली यह बहुत बड़ी पराजय लग रही थी। मैं युद्ध के मैदान में खुद को हारा, अकेला खड़ा पा रहा था। जिसके सारे फौजी भी उसका साथ छोड़कर भाग नहीं खड़े हुए थे, बल्कि विपक्षी से जा मिले थे। मुझे लगा अब सब-कुछ खत्म हो गया है।

मैं अंतिम सांसें गिन रहा हूं, और मेरा बेड, मेरी शरसैय्या है। मगर मेरी किस्मत इतनी काली है कि, कोई अर्जुन की तरह, मेरे सूखते गले को धरती का सीना वेधकर, शीतल जल कौन कहे, एक गिलास फिल्टर वाला पानी भी देने वाला नहीं है। मैं प्राण निकलने की प्रतीक्षा करता युद्ध-भूमि में घायल सिपाही सा पड़ा था, आंखें बंद किए हुए। ना जाने कब तक। 

कान-तक पहुंचे आंसू, अब-तक सूख चुके। फिर अचानक ही माथे पर एक चिर-परिचित शीतल स्पर्श का अहसास किया और बोझिल सी आँखें खुल गईं । फिर आश्चर्य से निहारती रहीं, उस डबडबाई, झील सी गहरी आंखों को। आश्चर्य मिश्रित खुशी थी मेरे लिए। क्योंकि इस वक़्त उन आंखों में खुद के लिए मैं प्यार-स्नेह का उमड़ता सागर देख रहा था।

मैं न हिल सका, न कुछ बोल सका। बस आंसू फिर से कानों तक जाने लगे। जिसे मैं लंबे समय से अपना दुश्मन नंबर एक माने हुए था। उससे छुटकारा पाना चाहता था, वही मेरी पत्नी नीला मेरे सामने खड़ी थी। अपने शीतल स्पर्श से मेरी सारी पीड़ा खीचें जा रही थी। फिर बोली,

''उठिए।''

आज उसकी आवाज़, मुझे शहद सी मधुर लग रही थी। मुझे निश्चल पड़ा देख मेरा हाथ पकड़ कर उसने उठाया। बाथरूम में छोडा और कहा,

''हाथ-मुंह धोकर आइए।''

मैं जब बाथरूम से आया तो वह लॉबी में खड़ी बोली,

''आइए नाश्ता करिए।''

मैं बिना कुछ बोले आज्ञाकारी फौजी की तरह डाइनिंग टेबिल के गिर्द पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। नीला भी नाश्ता रखकर सामने बैठ गई। मेरे साथ ऐसे नाश्ता कर रही थी, मानो सारी समस्या उसने हलकर ली है। मैं बडे़ असमंजस में था उसके इस बदले रूप से। नाश्ता ख़त्म होते ही उसने कहा,

''कपडे़ चेंज करके आप आराम करिए मैं, थोड़ी देर में खाना लगाती हूं।''

मेरी किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना जाने लगी तो, मैंने हौले से बच्चों के बारे में पूछा। नाश्ता करने के बाद मैं कुछ राहत महसूस कर रहा था। वह किचेन की तरफ बढ़ती हुए बोली,

''दोनों मामा के यहां गए हैं। कल आएंगे। आज उनके बेटे का बर्थ-डे है।''

''तुम नहीं गई?''

इतना कहने पर पलटकर उसने एक नज़र मुझ पर डाली फिर बोली,

''बच्चों के कमरे में आराम करिए। बेडरूम कल साफ करूंगी। खाना वहीं लेती आऊंगी।''

मैं समझ गया नीला इस बारे में कुछ बात नहीं करना चाहती। सारी बात उसने बिना कुछ कहे ही कह दी थी। आगे कुछ कहने की मैं हिम्मत नहीं कर सका। चेंज करके लेट गया बच्चों के कमरे में। नीला के बदले रूप को समझने में मैं लगा हुआ था। मगर हर चीज पर भारी था सस्पेंशन।

सारी आशाओं के विपरीत नीला ने बच्चों के बेड पर मेरे साथ ही पूरे मन से खाना खाया। फिर बच्चों के अलग-अलग पड़े बेड को मिला कर, डबल बेड बना दिया। इतना ही नहीं जब स्लीपिंग गाउन पहकर आई तो स्प्रे भी कर लिया था। यहां तक कि बेड पर भी काफी स्प्रे कर दिया। 

उसकी इस हरकत से मैं अंदर-अंदर कुढ़ गया। मन में आया यहां नौकरी जा रही है। कल को खाने के लाले पड़ जाएंगे। और यह रोमांटिक हुई जा रही है। चाहती तो बच्चों को बुला सकती थी। आखिर उनका घर है ही कितनी दूर।

मन में यही उथल-पुथल लिए मैं लेट गया। उसने मेरी कुढ़न को और बढ़ाते हुए बच्चों के लिए कमरे में लगे टीवी को ऑन कर दिया, और फिर बड़े बेफिक्र अंदाज में सटकर लेट गई। मैं आखिर खुद को रोक न सका।

''आज बहुत बुरा हुआ। बड़ा मनहूस दिन है मेरे लिए।''

आगे कुछ बोलने से पहले ही वह बोल पड़ी,

''सब मालूम है मुझे। परेशान होने की ज़रूरत नहीं। सब ठीक हो जाएगा। तुम चाहोगे तो आगे भी हमेशा सब ठीक ही रहेगा।''

''क्या! क्या मालूम है तुम्हें?''

''यही कि संजना का कंफर्मेशन रुक गया है। तुम्हें सस्पेंड कर दिया गया है। तुमने लाख कोशिश की, लेकिन वह धूर्त औरत तुमसे बात तक नहीं कर रही है।''

मुझे एकदम करंट सा लगा। मैं एक झटके में उठकर बैठ गया। और उतनी ही तेज़ी से पूछा,

''ये सब तुमको कैसे मालूम। और इतनी आसानी से बोले जा रही हो जैसे कोई बात ही नहीं हुई।''

''आराम से लेटो सब बताती हूं। रही बात तुम्हारी नौकरी की तो उसे कुछ नहीं होने वाला। मैंने सब ठीक कर लिया है। आश्चर्य नहीं कि तुमको सस्पेंड करने वाला तुम्हारा बॉस, कुछ दिन बाद अपनी नौकरी बचाने के लिए तुमसे मदद मांगे।''

''पागल हो गई हो क्या? आयं-बायं-सायं बके जा रही हो। ऑफिस है तुम्हारा घर नहीं कि जो चाहो कर लो। बॉस कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं है। जो मुझसे मदद मांगने आएगा।''

''आएगा देख लेना। मैं भी कोई ऐसी-वैसी औरत नहीं हूं। मेरा नाम भी नीला है। तुम्हारी बीवी हूं समझे। और तुम शायद भूल गए कि, तुम्हारी कंपनी का मालिक प्रिंट पेपर, किताबों की बिक्री के लिए मेरे उसी नेता भाई पर पूरी तरह डिपेंड है, जिससे तुम आवारा, छुट-भैया नेता कहकर सारे संबंध खत्म किए हुए हो। 

जब तुम रात-भर गायब रहे तो, उसी ने तुम्हारी सारी खोज खबर ली। तुम ज़रूर उसे दुत्कारते रहते हो, बरसों से घर तक नहीं आने देते। उसी  छुट-भैया नेता से तुम्हारे ऑफिस के कई लोग बेहद करीबी संबंध बनाए हुए हैं। 

इतना तो समझ ही गए होगे कि मुझे पल-पल की जानकारी क्यों रहती है। ऐसे आंखें फाड़कर क्या देख रहे हो। जो कह रही हूं, एकदम सही कह रही हूं। जैसे अचानक सस्पेंशन लेटर मिला है न, वैसे ही जल्दी ही, रिवोक लेटर मिलेगा विथ प्रमोशन लेटर।''

''अच्छा! वो छुट-भैया इतना बड़ा नेता हो गया है कि, बड़े-बड़े बिजनेसमैन उसके आगे हाथ जोड़ते हैं। मदद मांगते हैं। मेरी नौकरी उसके दम पर है। इतना है तो फिर संजना को बाहर क्यों नहीं कर दिया अब तक।''

''जो चाहोगे सब हो जाएगा। अभी तक मैंने उससे कुछ नहीं कहा था सिर्फ़ भाभी के घमंडी ऐंठू स्वभाव के कारण। कि वह मेरी खिल्ली उड़ाएगी।''

''अब तो बता दिया, अब नहीं उड़ाएगी क्या?''

''मैंने उनसे बात ही नहीं की। भाई से फ़ोन पर बात की और मना भी कर दिया था कि भाभी को नहीं बताएं।''

''और वो मान जाएंगे।''

''मुझे यकीन है उस पर। आज तक उसने मेरी किसी बात को मना नहीं किया है।''

''तब तो यह मानकर चलें कि अगले दो-चार दिन में संजना नौकरी से बाहर होगी। और बॉस अपनी नौकरी बचाने के लिए मेरे सामने गिड़-गिड़ा रहे होंगे।''

''वो है ही इसी लायक। ऐसी कमीनी है जो, चाहे जितनी जगह मुंह मार ले उसकी क्षुधा शांत नहीं होगी। उसकी चालाकी का अंदाजा इसी बात से लगा लो कि, जब उसको वहां के लोगों से भाई की जानकारी हुई तो, उसने कंफर्मेशन के लिए सीधे तुम्हारे बॉस को फांस लिया।

तुम्हें मालूम है कि, वह पिछले एक हफ्ते में दो रातें तुम्हारे बॉस के साथ बिता चुकी है। तुम्हारा बॉस चाहता तो तुम्हें सस्पेंशन से बचा सकता था, लेकिन तुमको संजना से अलग कर, अकेले यूज करते रहने के लिए ऐसा नहीं किया। वही बॉस जिसको तुम बड़े भाई की तरह मानते हो।''

''तुम इतने यकीन से कैसे कह सकती हो।''

''भाई ने सब पता किया। तुम्हारे ऑफ़िस के लोगों ने ही सब बताया। इतना ही नहीं, वहां की बातें सुनकर तो मेरी नसें तनाव से फटने लगीं। मुझे या भाई को लोगों ने इसलिए नहीं बताया कि, वे हमसे डरते हैं, या फिर हमारे हितैषी हैं,

इसलिए बताया क्योंकि सभी वहां एक दूसरे को जानवर की तरह काट खाने में लगे हैं। मुझे तो उस समय तुम पर बड़ा तरस आया कि आखिर तुम कैसे रहते हो जानवरों के झुण्ड  में। जो लोग सब बता रहे थे, वे तुम्हारे मामले के जरिए अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए थे।

जिसको तुम लोग लतखोरी लाल कहते हो, दरअसल ज़्यादातर लोग उससे त्रस्त हैं। वो लोग उसको इसी बहाने ठिकाने लगाने में लगे हुए हैं। पहले मुझे लगा कि, वहां वह अकेला इतना गंदा इंसान होगा, लेकिन भाई जब तह तक पहुंचा तो, पता लगा वहां तो हर तीसरा आदमी ही लतखोरी लाल है। 

तुम्हारे मामले ने जो इतना तूल पकड़ा वह इस लतखोरी के चलते ही हुआ। क्योंकि ऑफ़िस में सीनियारिटी को लेकर वो तुमसे खुन्नस खाए रहता है। दूसरे संजना की हरकतों के चलते उसे लगा कि, वो आसानी से उसपे हाथ साफ कर लेगा। 

लेकिन वो अपने स्वार्थ में तुम्हारे सामने बिछ गई। इससे वह और चिढ़ गया। और तुम्हारे बॉस को चढ़ा दिया कि, 'सर करना आपको है, लेकिन संजना के मजे वह ले रहा है। सर राइट तो सिर्फ़ आपका बनता है।' बस चढ़ गए तुम्हारे बॉस।

''मगर इतनी अंदर की बात तुम्हें कौन बताएगा?''

'' मास्टर साहब! जिसको तुम लोग मास्टर साहब कहते हो। तुम्हारे बॉस का चपरासी। उसके अनुसार उसने यह सब खुद अपने कानों से सुना था।''

''वो कह रहा है तो मान सकता हूं।''

''उस पर इतना यकीन है।''

''उसकी सबसे गंदी आदत है दूसरों की बात सुनना और चुगुलखोरी करना। मगर जो भी बातें बताता है, वह कभी गलत नहीं निकलतीं। बताने का अंदाज मास्टरों सा होता है, इसलिए सब मास्टर साब कहते हैं।''

''मतलब लतखोरी की बातों में आकर, तुम्हारे भाई सामान बॉस ने तुम्हारे साथ गद्दारी की।''

''मैं...मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। यकीन नहीं होता मेरे साथ ऐसा विश्वासघात करेंगे।''

''तुम्हारे यहां के हालात समझने में मैं खुद बहुत उलझ गई। एक नज़र में देखूं तो संजना ने तुमको यूज किया। मगर सच यह कि वह यूज हो रही है। लतखोरी फंसा नहीं सका तो बॉस के जाल में फंसवा दिया। अब वो उसको यूज कर रहे हैं। 

लतखोरी जिस तरह कुत्ते सा उसके पीछे पड़ा है उससे यह तय है कि, वह और कई अन्य जल्दी ही उसे यूज करेंगे। उसकी हालत गलियों में कुत्तों के झुंड के बीच फंसी कुतिया सी हो गई है। जिसे हर कुत्ता नोचने में लगा है। कुत्तों से वह ऐसे घिर गई है कि, उसका बचना नामुमकिन है।''

''यार अब इतना भी नहीं है जितना तुम कह रही हो।''

''नाराज होने की ज़रूरत  नहीं है। जिस मास्टर की बात पर तुम्हें पूरा भरोसा है न, उसी मास्टर की बताई बातों के आधार पर कह रही हूं।''

''अच्छा और क्या बताया उसने?''

''बहुत सी बातें बताई हैं। उसी में एक यह भी है कि लतखोरी और एक और ने मिलकर संजना की बाथरूम में फ्रेश होने आदि के समय की नेकेड वीडियोग्रॉफी की है।''

''ये बकवास है, वो बहुत छोटा सा बाथरूम है, वहां कौन कैमरा लेकर बैठ सकता है।''

''यही तो, तुम्हें तो अपने मोबाइल के बारे में ही ठीक से पता नहीं है। वहां पर एक ज़्यादा जी.बी. वाले मेमोरी कार्ड लगे मोबाइल को, नया सिम लगा कर, वीडियो रिकॉर्डिंग पर ऑन कर छिपा दिया। नए सिम का नंबर किसी को दिया नहीं था, इसलिए कॉल आ नहीं सकती थी। साइलेंट  मोड पर भी था। 

जानबूझकर सुबह दो घंटे और शाम को छुट्टी से पहले लगाया गया। क्योंकि महिलाएं सुबह ऑफ़िस पहुंच कर बाथरूम ज़रूर जाती हैं, फ्रेश होने के साथ-साथ अपना मेकअप और कपड़ा ठीक करने। यही शाम को घर चलने से पहले करती हैं। ऐसे ही टाइम में संजना और कई अन्य औरतों की रिकॉर्डिंग कर ली गई है।''

''ये तुमने अच्छा बताया। मैं कल ही पोल खोलकर सालों को ठीक कर दूंगा।''

''कुछ नहीं होगा। कोई सामने नहीं आएगा। तुम्हारे पास वीडियो क्लिपिंग तो है नहीं। तो तुम उसे रिकॉर्ड करने वाले का नाम प्रूफ नहीं कर पाओगे। उलटा तुम्हीं अपराधी ठहरा दिए जाओगे। जब वो सब रिकॉर्डिंग  यूज करें, बात खुले तब सामने आओ।''

''मैंने सोचा भी नहीं था कि ये साले इतने नीचे गिर जाएंगे।''

''जो कुछ लोगों ने बताया है मुझे, उस हिसाब से यह तो नीचता की एक झलक है। तुम्हारे यहां तो शबीहा, मानसी, श्रृद्धा की ऐसी कहानियां बताई गईं कि, लगता है वहां सेक्सुअली बीमार फ्रस्टेटेड मर्दों का जमघट है। जो औरतों के लिए नीचता की कोई भी सीढ़ी चढ़ सकते हैं।''

''ये दो-चार दिन में ही तुमको सालों-साल पुरानी बातें किसने बता दीं।''

''दो-चार दिन नहीं, जब से तुम संजना के दिवाने हुए तभी से लोगों ने फ़ोन करने शुरू कर दिए थे। वो फ़ोन तो इसलिए करते थे कि, ऑफ़िस में आकर तुम्हारी छीछालेदर करूं, लेकिन मैं खुद पर किसी तरह नियंत्रण किए रहती। 

फ़ोन करने वाले नाम नहीं बताते थे। अविश्वास करने पर ऐसे-ऐसे प्रमाण देते कि, कोई रास्ता न बचता। इस चक्कर में मैं कई बार तुम्हारे ऑफ़िस तक गई। उसे साथ लेकर तुम्हें जाते हुए भी देखा। इसीलिए घर पर मैं पूरी कड़ाई से पेश आती।''

''ये फ़ोन किन नंबरों से आते थे?''

''सब पी.सी.ओ. से होते थे। मैं जब भी कॉल बैक करती नंबर पी.सी.ओ. का निकलता। इनमें एक तो इतना हरामजादा है कि, बहुत ही हम-दर्द बनकर बात करता। दिनभर में कई बार बात करता। 'तबियत कैसी है? कोई दिक़्कत हो तो बताइए मैं आ जाऊं। नीरज जी मेरे बड़े भाई समान है। थोड़ा बहक गए हैं। भाभी जी क्या करिएगा। कुछ औरतें ऐसी होती हैं कि अच्छे-अच्छे मर्दों को फंसा लेती हैं। फिर नीरज जी को क्या कहें। आप जैसी खूबसूरत बीवी घर में है, फिर भी संजना के पीछे पड़े हैं। 

अरे! भाभी जी इन लोगों ने लिमिट क्रॉस कर दी है ऑफ़िस हॉवर में ही जाने कहां घंटों बिताकर आ जाते हैं। भाभी जी आपको यकीन न हो तो जब मैं कहूं तो आ जाइए सब दिखा देता हूं।' ऐसी तमाम बातें सुनती तो मैं अंदर ही अंदर रो पड़ती, खीझ जाती। मगर संभाले रहती खुद को।

वह इतनी आत्मीयता से बातें करता कि मेरे मन में उसके लिए सम्मान उभर आया। उसकी बातों ने एक बार मुझे इतना भावुक कर दिया कि मैंने रिक्वेस्ट करते हुए कहा,'भइया किसी तरह उस चुड़ैल से इनको बचाओ।' फिर कुछ बातों के बाद उसने अगले दिन मुझे ऑफ़िस के पास बुलाया। मैं जाने को तैयार हो गई।''

''कमीने फ़ोन करते रहे और तुमने मुझे बताया तक नहीं। जिसके पास गई थी वो कौन था उस हरामजादे का नाम बताओ।''

''बताती हूं.....मेरी स्थिति का शायद तुम्हें अंदाजा हो गया होगा। तुमने संजना के साथ जो रिश्ते रखे उससे मुझ पर क्या बीतती है। लोगों के फ़ोन आए चुगुलखोरी के लिए तो तुम्हें इतना बुरा लगा।''

''मैंने नाम पूछा कि जब गई तो वहां कौन मिला?''

''मैं नहीं गई।''

''क्यों ?''

''क्यों कि उसी दिन करीब सात बजे उसका फ़ोन फिर आया। नमक-मिर्च लगा कर बताया कि तुम संजना के साथ ऐश कर रहे हो। मैंने कहा जगह बताइए में वहीं पहुंच जाऊंगी। तो बोला आप नहीं पहुंच पाएंगी। आप मेरे पास आइए मैं ले चलूँगा  आपको। 

कुछ और बहस के बाद धीरे से हंसते हुए बोला, 'क्या भाभी जी इतना टेंशन लेकर कोई काम नहीं होता न। थोड़ा प्यार से काम करिए। आप आइए मैं आपको अपनी बाइक पर बैठा कर ले चलूँगा।' उसकी नीचताई पर मैंने सोचा कि, आपसे पहले क्यों न उसी हरामजादे को पकडूं। 

यह सोचकर मैंने कहा, 'ठीक है मैं आपके साथ चलूंगी, आप अपना नाम तो बताइए, परिचय दीजिए।' तो वह धूर्त बोला फलां जगह आप पहुंचिए मैं आपको वहीं मिलूंगा। मैंने कहा, 'आपको पहचानूंगी कैसे? कुछ तो बताइए।' मैंने उसको पकड़ने की ठान ली थी, इसलिए जानबूझ कर ऐसे अंदाज में बोली कि, उसको ये न लगे कि, मैं उसकी हरकतों से नाराज हो रही हूं। लेकिन इससे उसकी हिम्मत एकदम बढ़ गई। 

 वह आहें भरते हुए बोला, 'अरे! भाभी जी आप डर क्यों रही हैं, आप जैसी सेक्सी भाभी का मैं सेक्सी देवर हूं। आपको पूरा एंज्वायमेंट दूंगा, फिर आपको पति देव के पास ले चलूंगा।' मैं गुस्से से अपना आपा खोने ही जा रही थी कि, बिना रुके ही वह आगे बोल पड़ा, 'अरे! भाभी जी आपकी कर्वी बॉडी का असली कद्रदान तो मैं ही हूं, आइए में आपको पूरा... इसके आगे मैं चिल्ला पड़ी। जी-भरकर गाली देते हुए कहा, 'जा अपनी बहनों का कर्वी बदन देख।' इस पर उसने तुरंत फ़ोन काट दिया।

मैंने तुरंत कॉल बैक किया, लेकिन पहले ही की तरह पी.सी.ओ. का ही नंबर मिला। मैंने पी.सी.ओ. वाले से बाइक का नंबर देखकर बताने को कहा तो, उसने टालमटोल कर फ़ोन काट दिया। इससे मैं इतना आहत हुई कि बहुत देर तक रोती रही। कि दुनिया में कैसे-कैसे नीच लोग हैं। पति को दूसरी औरत के साथ देखा तो पत्नी को भी चरित्रहीन समझ कर उसी के पीछे पड़ गए। उसको सड़क-छाप चरित्रहीन औरत समझ लिया।''

''तुम उसकी आवाज़ पहचान सकती हो?''

''किसकी-किसकी पहचान करोगे। कई करते थे। एक-दो को छोड़कर बाकी सब कुत्तों की तरह लार टपकाते कुछ न कुछ बोल ही देते थे।''

''तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया। खैर एक न एक दिन पता करके ही रहूंगा। सालों को छोड़ूंगा नहीं।''

''पहले अपनी नौकरी ठीक करो, फिर निपटना इन सबसे। तुम अगर नहीं भी निपटोगे इन सबसे तो, भी मैं छोड़ने वाली नहीं। मैंने भाई से बात कर रखी है। खासतौर से लतखोरी के लिए, क्योंकि सारे फसाद की जड़ वही है।''

नीला को इसके बाद मैं इस श्रेणी में आने वाले लोगों के बारे में विस्तार से बताता रहा। खासतौर से लतखोरी के बारे में कि, वो औरतों को फंसाने के लिए कैसे पहले उनकी मदद करता है। घर छोड़ने, सामान खरीदने से लेकर ज़रूरत पड़े तो चप्पल पहनाने तक।

इसके बाद धीरे से काम के बहाने घूमाने निकलता है, फिर असली रूप में सामने आता है। शबीहा के साथ उसने यही किया था। उसका आदमी शराब का लती था। टी.बी. हो गई थी। डॉक्टरों ने कहा तुम्हारे लिए जहर है, छूना भी नहीं लेकिन वह नहीं माना फिर एक दिन सोया तो कभी न उठा।

फिर एक लंबी थकाऊ प्रक्रिया के बाद उसकी बेगम शबीहा को नौकरी मिली। डिस्पैच का काम देखने में अनजान थी तो मददगार बड़े पैदा हो गए। सबसे आगे लतीफ था। जो अपने कर्मों के कारण लतखोरी नाम लिए घूमता है।

इसकी बहुत सी हरकतें एक अनाम से साहित्यकार जी. सी. श्रीवास्तव की एक किताब के करेक्टर से मिलती-जुलती हैं। उसका नाम लतखोरी ही था किताब में, बस सबने उसे ही यह नाम दे दिया। उसने शबीहा का हर काम बडे़ मनोयोग से करके सबसे पहले उसे अपने वश में किया था। फिर उसके कान भर-भर के, उसने पहले उसे सास-ससुर, देवर से अलग कर, अलग मकान तक दिला दिया। 

अलग कुछ इस तरह किया कि, किसी से बात तक न करे। इसके लिए उसे ऐसा भरा कि, वह सब को दुश्मन मानती। अचानक एक दिन लंच के बाद ही शबीहा के रोने की आवाज़ और साथ ही अनगिनत गालियां सुनाई देने लगी। लोग पहुंचे तो पता चला लतखोरी कई चप्पल खा चुका है। 

शबीहा ने सारी पोल खोल दी सबके सामने कि, कैसे यह जबरदस्ती घर पहुंच जाता है। पिछले कई महीने से शारीरिक संबंध के लिए तरह-तरह से नाकेबंदी कर विवश कर रहा है। आए दिन अश्लील फोटो, मोबाइल पर ब्लू फिल्में दिखाता रहता है। इसके चक्कर में वह घर वालों से लड़ गई, अब न घर की रही न घाट की। दस साल के बेटे के साथ कैसे चलाए ज़िंदगी।

इस घटना को कई कारणों से दबा दिया गया। किसी नेता ने फ़ोन करे थे। अल्पसंख्यकों के बीच शहर में उसकी बड़ी पकड़ थी। मगर साजिशें बंद न हुईं। महीना भर भी न हुआ कि, एक दूसरे मामले में शबीहा को फंसा दिया गया। जांच के बाद डिमोट कर दी गई, इसके बाद भी लतीफ जैसे लोग उसे नोचने में लगे रहे।

फिर एक दिन पता चला कि वह अपने एक चचाजात भाई के साथ हैदराबाद भाग गई। निकाह उसने कई महीने पहले ही कर लिया था। उसके साथ उसे एक-दो बार देखा गया था। जब वह बाइक पर छोड़ने आया था।

ऐसी स्थिति मानसी, श्रद्धा के साथ भी आई थी। दोनों पति के न रहने पर नौकरी करने आयी थीं। भाई लोग उन दोनों पर भी पिल पड़े थे। लेकिन उनके घर वाले भारी पड़े। लोगों को लेने के देने पड़े तो, उनसे किनारा कर लिया। वह दोनों आज भी पूरी हनक शान से कार्यरत हैं।

मैं ऑफ़िस की ऐसी ही तमाम घटनाओं में डूबता-उतराता सारी रात जागता रहा। और नीला में लंबे समय बाद एकदम से उभर आई हनक और उसकी शान भी देखता रहा। इस लंबी बात के बाद उसने मानो बरसों से ढो रहे किसी बोझ को उतार फेंका था। विजयी भाव उसके चेहरे पर तारी था। अपनी विजय का उसने जश्न भी अपनी तरह खूब मनाया था। 

बच्चों के न होने का भरपूर फायदा उठा लेने में कोई कोर कसर उसने नहीं छोड़ी थी। बरस-भर की अपनी प्यास उसने जी-भर के बुझाई। बेसुद्ध पड़ी थी। उस दिन नीला इस कदर निश्चिंत और बेधड़क थी कि, हमेशा की तरह नाइट लैंप ऑफ करने पर जोर देने की बात तो दूर उसने ट्यूब लाइट जलाए रखी। ये नहीं कहा कि, ''अरे! घर में बच्चे हैं, जल्दी पहनने दो कपड़े।''

आज उसके कपड़े किनारे ही पड़े थे। मेरी नज़र उसकी आंखों पर गई जिसके गिर्द अब काले घेरे साफ दिख रहे थे। जिसके लिए मैं ज़िम्मेदार था। मैं खुद तो मस्त था संजना और नैंशी जैसी औरतों के साथ और नीला रोती थी, जागती थी। अंदर ही अंदर घुलती थी। इस घुलन ने आंखों के गिर्द स्याह धब्बों के रूप में अपने परिणाम छोड़ दिए थे और मैं अंधा आज, तब उसको देख रहा था जब, उन बाजारू औरतों द्वारा दुत्कारा जा चुका था। 

अब मुझे नीला फिर पहले की तरह दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला लग रही थी। सबसे प्यारी। उसने जो तकलीफें झेलीं, उसको सोचते-सोचते मेरी आंखें भर आईं। मैं एकटक ट्यूब लाईट की दूधिया रोशनी में उसके तन को मंत्र-मुग्ध सा देखता रहा।

उसे देख ऐसा लग रहा था कि, मानो कोई मुर्तिकार अपनी कला को चरमोत्कर्ष देने के लिए अपनी स्वप्निल योजना पर काम कर रहा है। और उसकी मॉडल सौंदर्य देवी उसे सहयोग के लिए अपना योगदान मॉडल बनकर कर रही है।

वह अपने अछूते सौंदर्य को समर्पित कर निश्चिंत पड़ी है, कि मुर्तिकार अपना कार्य सौंदर्य देवी की प्रतिमा खूबसूरती से बना सके। मैं सौंदर्य देवी को देखते-देखते कब ठीक उसके चेहरे के ऊपर था पता नहीं चला। अचानक नीला ने चिहुंक कर आंखें खोल दीं। फिर जल्दी-जल्दी कई बार पलकें झपकाते हुए हाथ से अपने गालों को छुआ और उठ बैठी। दोनों हथेलियों में मेरा चेहरा लेते हुए बोली, 

''ये क्या! तुम रो रहे हो? हिम्मत से काम लो। मैंने कहा न सब ठीक हो जाएगा। कुछ होने वाला नहीं। पहले कभी तुम इतने कमजोर नहीं दिखे।''

उस वक़्त नीला मुझे अक्षत-यौवना सी दिखी। न जाने तब उसका कैसा सम्मोहन था मुझपे कि, वह मुझे धरा पर ईश्वर द्वारा भेजी ऐसी सौंदर्य प्रतिमा लगी, जिसे ईश्वर शायद वस्त्र पहनाना भूल गया था। क्योंकि वह अपनी ही बनाई कृति के सौंदर्य में खुद ही सुध-बुध खो बैठा।

और मैंने उस ईश्वर की अनुपम कृति पर कई बूंद आंसू टपका दिए थे, जिसने उसमें प्राण डाल दिए थे। जीवित हो उठी वह प्रतिमा, अब मुझे सांत्वना दे रही थी। समझा-बुझा रही थी, फिर अपनी बांहो में समेट लिया। 

मेरे सब्र की सारी सीमा तब टूट गई और मैं फूटकर रो पड़ा था। वह कुछ न बोली। बांहों में लिए-लिए ही लेट गई। फिर उसने मुझे कुछ न सोचने दिया। सुबह दोनों ही तब उठे जब मोबाइल पर घंटी बजी। बेटी ने मां को फ़ोन किया था।

ऑफ़िस में दिन-भर मैं असाधारण रूप से शांत रहा। संजना दिमाग में ऐसी छायी रही कि, निकल ही न सकी। उसके साथ बिताए एक-एक पल याद करता फिर, उसको कई भद्दी गालियां देता। कुछ बातें ऐसी थीं जिनके मतलब मैं अब समझ पा रहा था। लतखोरी से उसकी जुगलबंदी, बॉस की कुछ ज़्यादा ही तारीफ। जबकि पहले उसी बॉस को गाली देती थी। 

जिस-जिस दिन उसने मुझसे जो-जो कहा था वह अब ऐसे याद आ रहे थे कि, लगता है जैसे आंखों के सामने मानो उन्हीं बातों पर केंद्रित फ़िल्म चल रही हो। मैं तब भी उसकी धूर्तता पकड़ नहीं सका, जब वह घटना से दो-तीन महीने पहले से मुझसे बेरूखी दिखाने लगी थी। बुलाने पर भी नहीं सुनती थी। 

तब कुछ लोगों ने संकेतों में कहा भी था कि, यह बड़ी धूर्त है, मतलब परस्त है, अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती है। संभल कर रहो। यह सब काम से मतलब रखने वाले लोग थे। अपने पति की जगह चपरासी की नौकरी करने वाली जीवन के करीब पांच दशक जी चुकी ननकई ने तो एक दिन अपने ठेठ अंदाज में कहा था, 

''साहब बुरा न मानो तो एक बात कही?''

''कहो।''

''आप पढे़-लिखे हो, सब जानत हो। मुला हमहू पचास बरीस से दुनिया द्याखित है। हमरे हिआं ऐसी मेहुरूआ का नगिनया ब्वालत हैं। जेहिका डसा पानिऊ न मांगै।''

''तुम किसकी बात कर रही हो?''

''अब साहब रिसियाओ न, सिजनवा कंहिआ सबै ऐइसे कहत हैं। जब आप रहत हों, तौ आपसे बाझि रहत है, नाहिं तो अऊर कई जन हैं, उन्हसे बाझि रहत है। कइओ जने कै साथ तौ ऑफ़िसिया के बाद हीआं-हुआं घूमा करत है। अबहिं पाछै महिनवा मा तौ यहू जानि पड़ा कि, इ तोमर साहब कै साथ कहूं घूमत रहै, तौ हुवैं उन क्यार बीवी पहुंच गई, जिहिसे ऊबोलिन रहे घरै मां कि ऑफ़िस मां काम बहुत हवैं तो आय न पहिएं।''

''अच्छा ठीक है। तुम जाओ।''

तब ननकई ने और कई बातें कहीं थी, वह विस्तार से बताना चाहती थी। लेकिन मैं उस वक़्त उसकी बातें बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। और उसे भगा दिया था। हालांकि उसने जो बताया था, प्रमाण सहित बताया था, मगर तब संजना इफेक्ट ने मेरा दिमाग शून्य कर दिया था।

सच पर भी मैं गुस्सा हुआ था। मैंने उसके जाते ही संजना को बुलाया वह पहले की तरह हंसते हुए आ गई। मैंने केवल उसे चेक करने के लिए शाम को घूमने का प्रोग्राम मन न होते हुए भी बनाया, वह एक पल देर किए बिना तैयार हो गई।

मुझे ननकई पर तब और गुस्सा आया, मगर कुछ सोचकर शांत हो गया। इस घटना के कुछ हफ्ते बाद मुझे कई चीजें ऐसी मिलीं जो बड़ी अजीब थीं। एक दिन उसने किसी पत्रिका में रेप और उससे संबंधित कानून, जांच आदि पर केंद्रित एक रिपोर्ट दिखाते हुए पूछा,

''ये टी.एफ.टी. टेस्ट क्या होता है?'' 

मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो रिपोर्ट के साथ छपे एक बॉक्स को खोलकर सामने करते हुए कहा,

''यह पढ़ो।'' 

मैंने पढ़ कर कहा,

''यह तो बड़ा भयानक है। मेरी नज़र में तो यह जिसके साथ रेप हुआ उसी के साथ कानून के द्वारा किया जाने वाला एक और रेप है। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि, अंग्रजों के जमाने के इस अमानवीय कानून को अभी तक हमारी सरकार अमल में क्यों ला रही है।''

''ला तो रही है, लेकिन एक और रेप जैसा क्यों है?''

''क्या बेवकूफी भरा प्रश्न है। ये अत्याचार नहीं तो और क्या है। औरत के एक्स्ट्रीम सीक्रेट पार्ट पर पहले तो अपराधी धावा बोलता है। फिर जांच के लिए महिला के उसी हिस्से पर जांच करने वाली या वाले की दो अंगुलियां प्रवेश करती हैं। यानी टू फिंगर टेस्ट।

इस पर मुर्खतापूर्ण तर्क यह कि, यदि फिंगर ईजली इंसर्ट कर गई तो मतलब महिला हैविचुअल मानी जाएगी, अपराधी के छूटने के रास्ते खुल जाते हैं। अरे! किसी की शारीरिक बनावट भी तो ऐसी हो सकती है या फिर चेक करने वाले की अंगुलियां पतली भी तो हो सकती हैं।

यह अवैज्ञानिक, मूर्खतापूर्ण तरीका है कि नहीं। शारीरिक चोट, अपमान हर चीज औरत के हिस्से में। फिर कोर्ट में वकील ऐसे अश्लील, जलील बातें पूछता है कि, पीड़ित महिला थक-हार के पस्त हो जाती है। और मूंछों पर ताव देकर अपराधी फिर निकल पड़ता है अगले शिकार पर। ये तुमको एक और रेप जैसा नहीं लगता। मुझे लगता है एक औरत के नाते ऐसी औरतों की पीड़ा-दर्द मुझसे बेहतर तुम समझ सकती हो।''

''अहाँ...औरतों की पीड़ा का जिक्र इतनी खूबसूरती कर रहे हो कि, औरतें खुद भी न कर पाएं। मगर जनाब की यह कोमल हृदयता तब तो मुझे कहीं नहीं दिखती जब जनाबे आली मेरी एल.ओ.सी. पर घुसपैठ करते हैं।''

''ओफ्फो तुम्हें इसके अलावा भी कुछ सूझता है क्या?''

''हाँ, सूझता क्यों नहीं, मगर तुम्हारे सामने बस यही सूझता है तो, मैं क्या करूं?''

इतना ही नहीं इसके बाद भी टी.एफ.टी. को लेकर वह बड़ी देर तक निरर्थक फालतू बातें करती रही। वकील क्या-क्या पूछते हैं? यह कुरेद-कुरेद कर पूछा। इसके बाद उसको लेकर मेरा तनाव धीरे-धीरे बढ़ता गया। और वह उतनी ही तेजी से मुझसे दूर होती गई। मेरे भरसक प्रयासों के बावजूद। 

मेरा सस्पेंशन और उसका कंफर्मेंशन रुकना अपने-आप में इस ऑफ़िस की पहली घटना थी। और उससे भी ज़्यादा यह कि, मेरा सस्पेंशन चौथे दिन न सिर्फ़ खत्म हो गया, बल्कि पांचवें दिन ही संस्पेंड करने वाले बॉस ने ही बुला कर प्रमोशन लेटर भी थमा दिया।

इस आर्श्चयजनक घटना पर खुशी व्यक्त करने वालों में लतखोरी लाल सबसे आगे था। उसके दोगलेपन पर मैं भीतर-भीतर कुढ़ा जा रहा था। मगर साथ ही मन में नीला के भाई को धन्यवाद भी देता जा रहा था। पक्षताता हूं, आज इस बात पर कि, तब मैंने अपनी झूठी शान, अकड़ दंभ के चलते उसको एक फ़ोन तक नहीं किया। 

इस घटना के अगले ही दिन यह रियुमर दिन भर उड़ी कि, संजना की नौकरी जा रही है। एक बात और कि, लतखोरी लाल तक ने मुझे बधाई दी लेकिन संजना भूलकर भी न आई। 

अचानक एक दिन उसे मैंने लतखोरी के साथ बॉस के घर के सामने देखा। मैं वहां रुका रहा, फिर आधे घंटे बाद लतखोरी को वहां से जाते देखा। संजना उसके साथ नहीं थी। मेरा माथा ठनका मैं रुका रहा। देर तक जब वह न आई तो भीतर ही भीतर जलता-भुनता घर चला आया। इधर नीला पहले से कहीं ज़्यादा मुझ पर ध्यान दे रही थी, और बच्चे तो मानो दसियों साल बाद मिले हों मुझ से। अब मैं भी पहले सा नीलामय होता जा रहा था। यह नीला इफेक्ट था।

बॉस के घर जिस दिन संजना मुझे दिखी थीए उसके हफ्ते भर बाद एक दिन गेट पर उससे आमना-सामना हो गया। मुझे आश्चर्य में डालते हुए वह एकदम हहा के मिली। मुझे बोलने का मौका दिए बिना न जाने क्या-क्या बोल गई। आखिर में बेलौस मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली,

''मैं जानती हूं कि तुम बहुत गुस्सा हो। लेकिन मैं बहुत मुशीबत में हूं। तुमसे मैं किसी दिन फुरसत में सारी बातें करूंगी।'' 

इसके बाद सैटर-डे को शाम को कहीं बैठ कर बात करना तय हो गया। मैं उसके समक्ष जैसे चेतना शून्य हो गया था। रिमोट चालित खिलौना सा। जिसका रिमोट उसके हाथ में था। यह मैं लाख न चाहते हुए भी तमाम कोशिशों के बावजूद कर बैठा था। 

पुनः नीलामय होने के बावजूद। बदलकर फिर संजनामय हो गया। फिर पहले की तरह सारे संबंध बहाल हो गए। और फिर यंत्रवत सा उस रक्षा-बंधन के दिन तय समय पर हम मिले, वह अपने भाई को राखी बांध कर आई थी। और मैं अपनी बहन से राखी बंधवा कर आया था।

उसके ही बताए शहर के अलग-थलग से एरिया में स्थित एक रेस्त्रां में, घंटे भर की बातचीत में उसने दुनिया-भर की पंचायत बता डाली। दसियों बार माफी मांगी। कहा, ''धोखे से लोगों ने गलत-फहमी पैदा की। मैंने झूठ पकड़ लिया है, मतलब समझ गई हूं। मैं फिर पहले जैसे संबंध रखूंगी।''  

इस बार फर्क सिर्फ़ इतना रहा कि, नीला से मैं विमुख न होने पाऊं इसका पूरा ध्यान रखा। पूरी कोशिशों के बावजूद इसमें मैं पूर्णतः सफल नहीं था। असफल मैं लतखोरी और बॉस की साजिश के सामने भी हुआ। नीला का भाई भी चारो खाने चित हो गया। सच केवल ननकई निकली। उसकी सारी बातें अक्षरशः सच साबित हुईं। संजना एंड कंपनी ने जो डसा तो मैं वाकई आज-तक पानी न मांग सका।

उसके साथ अंतरंग क्षण बिताने उसकी ही बताई जगह लखनऊ के प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट कुकरैल के पास पहुँच गया। वह मकान वन विभाग की जमीन पर बने अवैध निर्माणों में था। जिसके लिए संजना ने बताया कि यह उसके एक रिश्तेदार का है, जिसे उसने किराए पर लिया है। अगले बृहस्पति को यहां शिफ्ट करेगी। 

दो घंटे वहां बिताने के बाद हम-दोनों वहां से निकले। करीब पचास कदम चलने पर ही संजना ने रोक दिया। उसने धीरे से कहा, ''आगे देखो लतखोरी खड़ा है।'' मैंने देखा लतखोरी दो और लोगों के साथ खड़ा है। मैंने कहा क्या फ़र्क पड़ता है, चलते हैं। मगर वह नहीं मानी और मैं कुछ कहूं उसके पहले ही बाइक से उतरकर चली गई वापस। जाते-जाते फुसफुसाकर बोली, ''कल मिलूंगी।''

मैं खुशी के मारे अंदर-अंदर फूलता पिचकता घर आ गया। थोड़ा वक़्त बच्चों के साथ बिताया। खाया-पिया बेडरूम में आ गया। नीला ने बताया जब मैं अपने बहनोई के यहां गया था, तब उसका भाई अपनी पत्नी संग आया था। मैंने छूटते ही कहा, 

''अहसान जताने आया होगा।''

वह बिदकते हुई बोली, 

''हमेशा उल्टा ही क्यों बोलते हो। उन दोनों ने इस बारे में बात तक नहीं की।''

इसके बाद हम इधर-उधर की बातें करते हुए सोने की तैयारी में थे। नींद आने लगी थी। बारह बजने ही वाले थे कि कॉल-बेल बज उठी। हम-दोनों चौंके इतनी रात में कौन आ गया। नीला बिन बताए आने वाले मेहमान की बात सोचकर भनभना उठी कि इतनी रात को खाना-पीना करना पडे़गा। अब दो बजे के पहले सोना मुश्किल है।

मैंने कपड़े पहने और हाथ में मोबाइल लेकर बाहर निकला। बाहर पुलिस जीप और गेट पर तीन-चार पुलिस वाले देखकर मैं एकदम सकपका गया। अंदर ही अंदर तेज़ी से कैलकुलेशन चलने लगी। गेट पर पहुंचकर मैं कुछ पूछता कि इसके पहले ही इंस्पेक्टर ने पूछा, 

''आप ही नीरज हैं?'' 

मेरे हां कहते ही वह कड़क स्वर में बोला, 

''आपके खिलाफ रेप करने की एफ.आई.आर. है। थाने चलिए।'' 

मुझे यह सुनते ही ऐसा शॉक लगा कि, पल में पसीने से तरबतर हो गया। गला एकदम सूख गया आवाज़ नहीं निकल रही थी। इस पर इंस्पेक्टर ने गेट का ताला तुरंत खोलने को कहा। मैं घिघियाया हुआ कुछ कहना चाह रहा था। लेकिन वह कड़क कर बोला,

''ताला खोलो।'' 

मुझे अंदर भाग कर नीला को बताने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, वह पहले ही सब सुनकर भाई को फ़ोन लगा चुकी थी। भाई ने इंस्पेक्टर से बात कराने को कहा तो, उसने बहुत घुड़कियां देते हुए मुश्किल से बात की,  ''थाने तो लेकर जाना ही पड़ेगा। रेप का मामला है उसे मारने की कोशिश भी की गई है, चोट के निशान हैं उसकी बॉडी पर। सॉरी यह नहीं हो सकता मैं इन्हें ले जा रहा हूं।''

नीला रोने लगी। वह हक्का-बक्का कभी मुझे, तो कभी पुलिस को देखती, शोर सुनकर बच्चे भी जागकर बाहर आए और घबरा गए। साले के फ़ोन का फ़र्क यह हुआ कि मुझे कपड़े चेंज  करने का वक़्त दे दिया गया। लेकिन जीप में मुझे खींच-तान कर धकेलते हुए ऐसे ठूंसा की मानों मैं कोई हत्यारा हूं। 

मेरे मन में इस समय साले को भी लेकर उधेड़बुन चल रही थी। जिसे मैं अब-तक टप्पेबाज, छुट्भैया नेता समझता था, उसके प्रति अब नजरिया बदल गया था। पहले नौकरी को लेकर उसने जो किया, फिर अब उसके फ़ोन से पुलिस टीम जिस तरह से नरम पड़ी, उससे मेरे मन में उसके लिए सम्मान पैदा हो गया। 

वह भावनात्मक भाव तब एकदम सातवें आसमान पर पहुँच गया जब मैंने देखा वह अपने दर्जन-भर साथियों के साथ थाने पर मुझसे पहले ही पहुंच कर बैठा हुआ है। एक तरफ कोने में संजना बैठी थी। उसके कपड़े अजीब से मुड़े-तुड़े, खीचें-ताने हुए, अस्त-व्यस्त से लग रहे थे। चेहरे पर एक जगह स्याह धब्बा भी दिख रहा था। साले के कारण मुझे भी कुर्सी पर बैठने दिया गया।

इंस्पेक्टर के सामने संजना सुबुकते हुए बोली, 

''सर यही है जिन्होंने मेरे साथ रेप किया।''

उसके इस आरोप को सुनकर मैं आवाक रह गया। मेरा मुंह खुला का खुला रह। कोई बोल न निकल सके। उसने आरोप लगाया कि, मैं उसे धोखे से ले गया और नशीली कोल्ड-ड्रिंक पिलाकर रेप किया। मैंने हक्का-बक्का उसके आरोप को इंकार करते हुए, सिलसिलेवार उसके साथ सारे संबंधों के बारे में खुलकर बताया और यह भी कि, आज यह मुझे इंकार करने के बाद जबरदस्ती लेकर वहां गई थी।

इंस्पेक्टर बोला, ''यह तो इन सब से इंकार कर रही हैं।'' इसी बीच यह देखकर मैं हैरान रह गया कि, लतखोरी लाल दो मोटर-साइकिल पर चार लोगों के साथ आ धमका। आंखें मेरी खुली की खुली रह गईं। जब बॉस को कार से उतरते देखा तो, मैंने सोचा शायद यह मामले को रफा-दफा कराने के लिए आए होंगे जिससे ऑफ़िस की बदनामी न हो। लेकिन उन्होंने भी उसकी एकतरफा तारीफ करते हुए यहां तक कह डाला कि, मैं संजना को महीनों से परेशान कर रहा हूँ, उसके पीछे पड़ा हुआ था और मौका देखते ही मैंने रेप किया। 

उसके इस झूठ पर मैं चीख पड़ा तो इंस्पेक्टर ने मुझे डपट दिया। मैंने साले की तरफ देखा तो उसने बातें शुरू कीं, लेकिन तभी इंस्पेक्टर के लिए कोई फ़ोन आ गया। दो मिनट तक उसने बातें कीं, लेकिन इतनी देर में उसने सिर्फ चौदह-पंद्रह बार यस सर, यस सर ही कहा। रिसीवर रखते ही मुझे हवालात में डलवा दिया। साले ने विरोध किया तो उसकी भी एक न सुनी। साफ कहा, ''देखिए मैं मज़बूर हूं। कानून जो कहेगा वही होगा। ये अपराधी हैं या नहीं ये अदालत तय करेगी।'' साले ने कई फ़ोन लगाए लेकिन बात नहीं बनी। 

बात एकदम साफ थी कि लतखोरी और बॉस ने जबरदस्त साजिश रची थी। इतना बड़ा जैक लगाया कि, उसके सामने मेरे साले का वह जैक बौना साबित हुआ था जिसके जरिए उसने मेरा सस्पेंशन खत्म करा दिया था, प्रमोशन तक करा दिया था। बॉस को मेरे कदमों में खड़़ा कर दिया था। मैं हवालात में पड़ा, सोचने लगा कि क्या अब मेरे साले से कंपनी को कोई काम नहीं पड़ेगा। या कंपनी ने उसका कोई विकल्प ढूंढ़ लिया है। 

मेरा ये अनुमान बाद के दिनों में सच निकला था। कंपनी के मालिकान ने साले की सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही कमीशन खोरी से आज़िज आकर उससे बड़ा जैक ढूढ़ लिया था। संयोग से उन्हें यह जैक सस्पेंशन की घटना के बाद जल्दी ही मिल गया था, जिसका उन्होंने तुरंत उपयोग कर डाला। 

एक तीर से दो निशाने साधे, एक तो साले से मुक्ति पाई, दूसरे मुझे ठिकाने लगा दिया। इसमें मशीन बने बॉस, लतखोरी लाल एवं उनकी टीम। मालिकान एवं इस टीम, दोनों ने एक दूसरे को यूज किया। बल्कि इन सबमें सबसे स्मार्ट निकली संजना। जिसकी नौकरी जा रही थी उसने इन सब को यूज किया। न सिर्फ़ नौकरी बचाई, मुझे सदैव के लिए ठिकाने लगा दिया। बॉस और लतखोरी जैसे लोगों को भी हमेशा के लिए अपनी मुठ्ठी में कर लिया।

हवालात में मैं बच्चों, नीला के चेहरे, मालिकान और बाकियों की गणित, साले के हश्र आदि के बारे में सोच-सोचकर हत-प्रभ हो रहा था। दिमाग की नशें फटने लगीं थीं। मुझे कानून की जितनी जानकारी थी, उससे भी मुझे साफ पता था कि, मुझे अब अदालत में सजा पाने से कोई ताकत नहीं बचा सकती।

क्योंकि एफ.आई.आर. से पहले मैंने ही उससे संबंध बनाए थे। साजिशन यह सब किया गया था। इसलिए गलती की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही थी। निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। बस एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि, संजना के शरीर पर चोटें  कहां से आईं थीं। 

खैर मुकदमा चला। दोनों पक्षों के वकीलों की जमकर बहस हुई। मेरे साले ने ऐसे मामलों के नामी-गिरामी वकील को किया था। जिनका इस बात के लिए नाम था कि, वह मुकदमा हारते नहीं लेकिन मेरे मामले में वह भी असफल हुए। 

उन्होंने कोर्ट में संजना से एक से बढ़ कर एक हिला देने वाले प्रश्न किए, मगर संजना मंजी हुई खिलाड़ी निकली। उसके वकील ने उसे और पॉलिश कर दिया था। वकील ने डिगाने उसे तोड़ने के लिए जितने ही ज़्यादा खुलकर प्रश्न किए, उसने उतने ही ज़्यादा बेखौफ जवाब दिए।

उसकी हिम्मत, उसकी बातें सुनकर जज, वकील, कोर्ट में उपस्थित सारे लोग दंग रह जाते थे। केस लोअर कोर्ट में हारने के बाद हाई कोर्ट,  सुप्रीम कोर्ट तक गया लेकिन हर जगह हार मिली। पेपर वालों ने केस को खूब स्पाइसी न्यूज़ की तरह यूज किया।

मेरे वकील की सारी कोशिशों का अंजाम यह हुआ कि, केश कुछ लंबा खिंचा। छः साल में सुप्रीम कोर्ट से भी फैसला आ गया। मैं मुकदमा हार गया। रेप करने और हत्या के प्रयास में दस साल की सजा हुई। मेरा जीवन मेरा घर सब बर्बाद हो गया। आर्थिक, सामाजिक, मानसिक तौर से कहीं का नहीं रहा। बेटी की शादी के लिए जो पैसे जोडे़ थे वह भी खत्म हो गए थे। मैं भी पूरी तरह टूट कर बिखर गया था।

कुछ बचा था तो नीला की दृढ़ता। उससे संबंध सुधरने के बावजूद फिर संबंध बनाए संजना से, इतनी बड़ी बदनामी हुई ,सब कुछ तहस-नहस हो गया। और नीला ने अपने भाई के सहयोग से यह शहर भी छोड़ दिया। मायके भी नहीं गई। तीर्थ राज प्रयाग चली गई। कई लोगों की सलाह के बावजूद उसने टीचिंग जॉब या अन्य कोई नौकरी नहीं की। 

बल्कि भाई के साथ बिजनेस किया। सारा पैसा साले ने लगाया था। असल में उसने भी कमाई का अपना एक और केंद्र  बनाया था। पूरा डिपार्टमेंटल स्टोर चलाने की ज़िम्मेदारी नीला की थी। क्यों कि पैसा सारा साले का था तो, दुकान से होने वाले प्रॉफ़िट पर पिचहत्तर प्रतिशत हिस्सा उसका निश्चित हुआ।

कोई अपनी मेहनत से सारी दुनिया न सही, अपनी दुनिया कैसे बदल देता है यह नीला ने कर दिखाया था। दो साल बीतते-बीतते उसने लखनऊ का मकान बेच दिया। मेरे लाख मना करने पर भी जेल में उसने मुझ पर खूब दबाव डालकर मुझे राजी कर लिया। जितना पैसा मिला उतने ही पैसे में प्रयाग में ही थोड़ा सा छोटा मकान ले लिया।

किराए का मकान छोड़कर अपने मकान में रहने से पहले उसने सारा सामान काम-भर का नया लिया। किचेन, ड्रॉइंगरूम, डाइनिंगरूम आदि के लिए, टीवी, म्यूजिक सिस्टम आदि सब। पहले वाला उसने सारा सामान लखनऊ में ही बेच डाला। उसमें बहुत सा ऐसा सामान था जो मैंने बड़े प्यार से खरीदा था।

इसे पागलपन या नफरत की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं कि उसने मेरे, अपने, बच्चों के कपड़े, रुमाल तक या तो किसी को दे दिए या बेच दिए। इसमें हमारी शादी का जोड़ा भी था। उसकी तमाम बेसकीमती साड़ियां सब कुछ शामिल था। गहने भी सब बेच दिए थे।

यह सब करने के बाद जब वह मुझसे मिलने आयी, तब सारा वाक़या बताया तो मैंने अपना माथा पीट लिया। भर्राये गले से उससे पूछा, ''ये तुम मुझे सजा दे रही हो, या कर क्या रही हो?'' उसने बेहद रूखे स्वर में जो जवाब दिया, उसके आगे जो बात जोड़ी उससे मैं दहल गया। उसके अंदर दहकते ज्वालामुखी से मैं भीतर तक झुलस गया। उसने साफ कहा,

''न्यूटन का थर्ड लॉ तो पढ़ा ही है न, कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।  यह सब जो हो रहा है, यह मैं या कोई और नहीं कर रहा है। यह तुमने जो काम किए हैं, वो अच्छे थे या खराब वो तुम जानो, ये सब उन्हीं करमों के प्रतिक्रिया के परिणाम हैं।''

'' मैं कितनी बार कह चुका हूं कि, मैंने रेप नहीं किया है।''

''रेप नहीं किया लेकिन उससे नाजायज संबंध तो बनाए ना। गलत काम का परिणाम, कैसे गलत नहीं होगा?''

नीला के सामने अब मैं पहले की तरह, उससे नजर मिला कर बात नहीं करता था। चुप हो गया उसके तर्कों के सामने। उसने कहा कि, ''तमाम कोशिशों के बावजूद तुमने उस कमीनी औरत से संबंध बनाए। मुझ से झगड़ा करते हुए मुझे क्या-क्या गालियां नहीं देते थे। 

मोटी, थुल-थुल, बदसूरत, पत्नी कहलाने लायक नहीं। कभी तुम्हारे दिमाग में ये नहीं आता था कि, यदि पलटकर मैं यही कहती। तुम्हारी तरह मैं भी पराए पुरुषों से संबंध बनाती। मैं भी कहती कि, यदि मैं दो बच्चों को पैदाकर थुल-थुल हो गई हूं, मेरे अंग लुज-लुजे हो गए हैं, लटक गए हैं, तो तुम कौन सा पचीस साल के जोशीले जवान हो, तुम भी तो तोंदियल हो गए हो। सिर पर चांद नज़र आने लगा है, प्रौढ़ता तुम पर भी उतनी ही हावी है, जितनी मुझ पर तो, तुम्हारे पर क्या बीतती?'' 

मैं उसकी बातों के सामने सिर्फ़ सिर झुका सका। ''बोलो कोई जवाब है तुम्हारे पास। मैं आज की प्रगतिशील अपने, अधिकारों के लिए लड़ जाने वाली बीवी होती तो, क्या अब-तक न जाने कब का तुमसे तलाक ले चुकी होती। तब बच्चों का क्या होता?''

इस पर मैंने कहा कि,

''तुम यहां मुझे जलील करने आती हो या मिलने?''

''आती तो हूं मिलने। जहां तक ज़लील होने की बात है तो, जरा ध्यान से सोचो कौन ज़लील होता है। वो पत्नी जो अपने उस पति से मिलने आती है जो रेप के केस में सजा काट रहा है। यहां का स्टाफ और बाकी लोग किस तरह घूर-घूरकर मुझे भेद भरी निगाहों से देखते हैं, कभी इस तरफ देखा। मैं अपने पर लगी गिद्ध सी नज़रों से कैसे खुद को बचाती हूं सोचा है कभी?''

नीला सही तो कह रही थी कि वास्तव में ज़लील तो वही हो रही थी। इतना आहत हुआ कि, आगे उसकी सारी बातों पर एक चुप हजार चुप रहने के सिवा कुछ न कर सका। मैं उस दिन से उसकी उपस्थिति से खुद को कुछ ज्यादा ही आतंकित महसूस करने लगा था।

जेल में बंद हुए छः साल भी न हुए थे कि, एक दिन आकर उसने फिर धमाका कर दिया कि, लड़की की शादी तय कर दी है। तारीख बताई तो मैंने कहा, 

''इतनी सर्दी में कैसे संभालोगी अकेले।''

लड़के के बारे में बताया कि, ''वह भी बिजनेसमैन है। बड़ा परिवार है।'' 

फिर मैंने कहा, 

''कि अभी वो मुश्किल से उन्नीस की है, आखिर इतनी जल्दी क्यों किए हुए हो? 

''हमारे कामों का असर कहीं बच्चों पर न पड़े, वो भी कहीं हमारी राह न पकड़़ लें।'' 

मैं निरूत्तर था। तभी वह बेटे के लिए बोली कि, ''मैंने उससे भी कह दिया है कि, नौकरी तुझे बिल्कुल नहीं करनी है। काम-भर की पढ़ाई कर ले और बिजनेस संभाल। किसी का पिछलग्गू बनने की ज़रूरत नहीं। और शादी के लिए भी बोल दिया कि, कोई पसंद कर रखी हो तो बता दे, वहीं कर दूंगी। मेरी बात मान सकता है तो ठीक है, नहीं तो अपनी दुनिया अपने हिसाब से चला और मेरा पीछा छोड दे।''

उसकी इस बात पर भी मन में तमाम प्रश्नों का बवंडर उठा, लेकिन कुछ कहने की मैं हिम्मत न जुटा सका। देखते-देखते उसने दोनों की शादी कर दी। 

मैं बड़ी तैयारी में था वकील से मिलकर कि, वो कानूनी रूप कुछ भी करे लेकिन शादी में कुछ घंटे ही शामिल होने के लिए मुझे निकाल ले। वकील अपने काम में सफल रहा, लेकिन मैं और वकील दोनों ही नीला के सामने विफल रहे।

मुझे शादी में शामिल होने से सख्त मना कर दिया। उसके इस डिसीजन से मेरा रोयां-रोयां कांप उठा था। मैं फूट-फूटकर रो पड़ा। मैंने कहा कि, कोर्ट से ज़्यादा भयानक सजा तो तुम दे रही हो।'' उसने कहा, 

''निश्चित ही तुम भी मेरी ही तरह बच्चों की भलाई ही चाहते हो। और यदि तुम शादी में वहां आए तो, सब लोग तरह-तरह की पंचायत करेंगे। पूरी शादी खराब हो जाएगी। तुम नहीं रहोगे बातें तो तब भी होंगी। लेकिन इतनी नहीं कि पूरा माहौल ही बिगड़ जाए।''

वकील ने कहा कोर्ट से आदेश ले लेते हैं, तब कोई रोक नहीं पाएगा। बीवी के ही खिलाफ कोर्ट जाना, वह भी नीला जैसी बीवी के खिलाफ मुझे दुनिया के सबसे बड़े अपराधों सा लगा तो, मैंने वकील से ऐसा कुछ नहीं करने को कहा। 

इस दौरान मैं अंदर ही अंदर बेहद टूट गया, पहले कोर्ट की सजा फिर नीला द्वारा की जाने वाली बातें, उसके काम, मुझे हर पल एक नई सजा देने जैसा काम कर रहे थे। हां बीच-बीच में नीला अपनी बातों से मुझे एक तरह से रिचार्ज भी कर देती थी। लेकिन उसके इस रंग-ढंग से मैं अंततः जेल में बुरी तरह बीमार पड़ गया। जेल में जब हालत नहीं सुधरी तो मुझे बलरामपुर हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया। नीला ने बड़ी देखभाल की। 

कुछ दिन बाद वापस फिर जेल। फिर एक हफ्ते तक नीला नहीं आई, उसके बाद जब आई तो उसे गौर से देखता रह गया। मुझे इन कुछ वर्षों में ही उसके चेहरे पर उभर आई तमाम झुर्रियां उस दिन दिखाई दीं। अधिकांश बाल अचानक ही सफेद हो गए थे। न जाने क्यों हमेशा टिप-टॉप रहने वाली नीला ने डाई नहीं किया था। मांग में सिंदूर भी कई दिन पहले का लग रहा था। बिंदी भी अपनी जगह पर नहीं थी। अपनी तरफ इस तरह देखते पाकर उसने कहा,

''बहुत अटपटी सी दिख रही हूं न। सोच रहे होगे हमेशा शलीके से रहने वाली मैं इतनी अस्त-व्यस्त कैसे हूं? क्यों यही बात है न?

''हाँ, ऐसा क्यों कर रही हो?''

''सलीके से रहने, श्रृंगार करने का कोई कारण अब नहीं रह गया। पहले या मुकदमे के समय भी कई कारण से सलीके में रहती थी। एक जिससे तुम्हारे मन का भार यह सब देखकर और ज़्यादा न हो। नंबर दो, दुनिया वाले यह न समझें कि, मैं एकदम निसहाय हूं, और उठाइगिरे लार टपकाते मदद को खड़े नज़र आएं। बच्चे भी और ज़्यादा परेशान न हों। लेकिन अब ऐसा कुछ बचा नहीं।

और अब किसी सलीके या श्रृंगार आदि से नफ़रत और बढ़ गई है। आखिर यह करूं तो किसके लिए, यह सारी बातें तो परिवार से सीधे जुड़ी होती हैं। और परिवार जैसा तो अब कुछ रहा ही नहीं। लड़की अपने ससुराल में खुश है। और खुशी की बात ये है कि, बेटा अपने कॅरियर को लेकर बहुत सेंसियर है, लेकिन मेरी तरफ देखना भी उसे पंसद नहीं। कई बार पूछ चुकी हूं लेकिन वो हां, हूं में भी बात करना पसंद नहीं करता।''

''क्यों ऐसा क्या हो गया?''

''पता नहीं, उसका बिहेवियर कुछ इस ढंग का हो गया है कि, तुम्हारा या मेरा नाम आते ही जैसे उसका मुंह कसैला हो जाता है। घर में करीब डेढ़ दो सालों से मैंने उसके चेहरे पर हंसी छोड़िए, मुस्कुराहट भी नहीं देखी। उसकी बीवी का भी यही हाल है। बहन से भी कोई ज़्यादा संपर्क नहीं रखता।''

''पहले तो ऐसा नहीं था। इतना ज़्यादा चंचल था। तुम जैसे यहां मेरे साथ दुश्मनों सा ट्रीट करती हो वैसा ही उसके साथ करती होगी। तुम्हीं ज़िम्मेदार हो इसके लिए।''

''आखिर फिर अपनी खोल में पहुंच ही गए। आज आखिरी बार एक बात बहुत साफ बता दे रही हूं कि, अब कुछ ही साल रह गए हैं यहां से छूटने में । छूटने के बाद यदि दुबारा भूल कर भी किसी औरत की तरफ देखा या ऐसी कोई हरकत की तो, मैं जो करूंगी, जो मैंने निश्चित कर लिया है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।''

''जब तय कर लिया है तो, बता भी दो कि क्या करोगी?''

मेरे यह कहने पर वह कुछ क्षण मुझे घूरती रही। फिर बोली,

''तुम को और खुद को गोली मार दूंगी। जिससे मेरे बच्चों का जीवन तुम्हारे कुकर्मों के कारण और नर्क न बने। मेरा तो बना ही दिया।''

''हद से कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई हो।''

 मेरे यह कहते ही वह फिर कुछ क्षण मुझे घूरने के बाद बोली,

''हद से ज़्यादा नहीं बढ़ गई हूं। मेरी और तुम्हारी हद क्या है, वो बता रही हूं। इसलिए बता रही हूं जिससे तुम दुबारा अपनी हद न पार करो।''

इसके बाद नीला ने कई और कठोर, दिल दहला देने वाली बातें कहीं और चली गई। मैं हक्का-बक्का मुंह बाए पड़ा रहा अपनी कोठरी में। बातों की चाबुक इतनी जबरदस्त थी कि, अगले कई दिनों तक मैं सो न सका। रह-रहकर मेरा गुस्सा कानून पर टूट पड़ता कि, यह इस तरह अपाहिज है कि, शातिर लोग साजिश रचकर इसे अपना हथियार बना, अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं।

यह अंधा ही नहीं साक्ष्यों का मोहताज भी है। इस उधेड़बुन ने मुझे एक काम सौंप दिया। कि अभी जो तीन साल जेल में और रहने हैं। उस समय का उपयोग करूं। एक ऐसी किताब लिखूं दुनिया के लिए, जिसमें मेरा और मुझे फंसाने वालों का पूरा कच्चा चिट्ठा हो। कानून कैसे साजिशकर्ताओं के हाथों यूज हो जाता है, यह भी तो लोग जाने, और कानून में आवश्यक संसोधन हो इसका भी प्रयास हो। 

यह निर्णय करते ही मैंने दो दिन बाद ही पेन और राइटिंगपैड मंगा कर लिखना शुरू कर दिया। इस प्रयास के साथ कि, रिहा होने से पूर्व किताब छपकर आ जाए। एक बार फिर मैंने छपाई के लिए छुट्भैय्ये साले की मदद लेने की भी सोच ली।

मैं एक निवेदन अपने सारे देशवासियों से भी करता हूँ कि, यह किताब आए तो एक बार अवश्य पढ़ें। जिससे मेरी तरह साजिश का शिकार न बनें। मुझे जीवन-भर इस बात का भी इंतजार रहेगा कि, लतखोरी, संजना और बॉस की गिरेबॉन तक कानून के लंबे हाथ कब पहुंचेंगे, जिससे कानून पर मेरी खंडित आस्था फिर बन सके।

                                   ==================


                     जब वह मिला         

उस दिन जेठ महिने का तीसरा बड़ा मंगल था। इस दिन लखनऊ के सभी हनुमान मंदिरों पर विशेष पूजा-अर्चना होती है। सुबह से ही मंदिरों पर भक्तों का तांता लग जाता है। जगह-जगह भंडारों का आयोजन किया जाता है। जो देर रात तक चलता है। 

मैं पूजा-अर्चना किशोरावस्था में ही छोड़ चुका था। क्योंकि मैं पूरी तरह ईश्वरी सत्ता पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। बीस का होते-होते आधा-अधूरा विश्वास भी खत्म हो गया था। ईश्वर है, ईश्वर की सत्ता है, यह सब मुझे कोरी कल्पना लगते। 

मैं किसी पूजा स्थान में न जाता। घर पर भी पूजा के समय हट जाता। माता-पिता ने कई बार ईश्वर की सत्ता, जीवन में उसके महत्व को लेकर समझाया। लेकिन मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर मैंने एक दिन कह दिया कि, मैं विवश हूं। कहने भर को भी मेरा विश्वास नहीं है, तो पूजा-पाठ का आडंबर मैं कैसे कर सकता हूं, जिस दिन हो जाएगा उस दिन करने लगूंगा। इसके बाद पिता श्री ने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। 

भक्त टाइप के एक मामा जब भी वाराणसी से आते तो ज़रूर कहते कि, ''बेटा जब पड़ती है तो बड़े-बड़े विश्वास करने लगते हैं। सारी नास्तिकता क्षण भर में दूर हो जाती है।''

मेरे कई दोस्त भी ऐसा ही कहते। मैं सबको यही जवाब देता कि, मैं कोई सोच समझ कर ऐसा नहीं कर रहा हूं। जिस दिन मन में विश्वास जागेगा उस दिन से करने लगूंगा। नहीं जागेगा तो नहीं करूंगा। 

जीवन का पचीसवां साल पूरा करते-करते दो अवसर ऐसे आए, जब मौत एकदम मेरे सामने आ खड़ी हुई। पहली बार तब, जब वाराणसी से पटना रेलवे का एक एक्जाम देने जा रहा था। ट्रेन लेट थी, रात एक बजे तक उसके चलने की संभावना थी। मैं प्लेटफॅार्म पर बैग लिए खड़ा था।

तभी यह एनाउंस हुआ कि, ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर आएगी। मैंने देखा तमाम लोग जो उस ट्रेन से जाने वाले थे, वो सब फुटओवर ब्रिज से जाने के बजाए प्लेटफॉर्म से नीचे ट्रैक पर उतर गए, और दो लाइनें क्रॉस कर अगले प्लेटफॉर्म पर जाने लगे। 

मुझे ऐसा करना ठीक नहीं लगा, इसलिए फुट ओवर ब्रिज की तरफ बढ़ा। लेकिन दिन भर का थका होने के कारण, और सबको शॉर्टकट से उधर पहुंचते देख कर मेरा मन क्षण-भर में बदल गया। मैं जहां था वहीं रुक गया दो मिनट को। मन में कुछ हिचक तो आयी। पर आखिर हिचक पर शॉर्ट-कट ने विजय पा ली और मैं अपना बैग लेकर प्लेटफॉर्म से नीचे उतर गया। 

मैं पहला ट्रैक क्रॉस करके आगे बढ़ा ही था कि पूरे स्टेशन की लाइट चली गई। अब-तक जिनको उधर जाना था वो सब जा चुके थे। मैं अकेला था। अंधेरा होते ही मैंने कदम और तेज़ बढ़ाए, जल्दी से दूसरे प्लेटफॉर्म के पास पहुंचा। बैग प्लेटफॉर्म पर ऊपर रखा। प्लेटफॉर्म मेरी छाती तक ऊंचा था। मैं ऊपर चढ़ने की कोशिश करने लगा कि, तभी दो लोगों ने मेरे दोनों हाथों को, मेरे कंधे के पास पकड़ा और पूरी ताकत लगा कर जितना तेज़ हो सकता था, मुझे ऊपर खींच लिया। 

मैं प्लेटफॉर्म पर पहुंचा ही था कि, ट्रेन की बोगियां आगे निकलती चली गईं। गाड़ी यार्ड से प्लेटफॉर्म पर लाई जा रही थी। सबसे पिछला डिब्बा मेरी तरफ था। और इंजन बहुत आगे दूसरी तरफ, इसीलिए इंजन की लाइट, आवाज़ वगैरह कुछ देख सुन नहीं सका था। ट्रेन की बोगियां आठ-दस की स्पीड से मेरी तरफ खिसकती चली आई थीं। मेरी मौत बन कर। लेकिन उन दो अनजान लोगों ने आधे सेकेंड के अंतर पर मुझे मौत के सामने से खींच लिया था। 

मेरा शरीर पेट, जांघों, घुटने के पास बुरी तरह छिल गया। पैंट भी फट गई थी। अब तक कई लोग मेरे इर्द-गिर्द जमा हो गए थे। सब भगवान की दुहाई देने लगे कि, उन्होंने बचा लिया। इन दोनों लोगों ने देवता बन कर तुम्हें बचा लिया। बहुत भाग्यशाली हो भइया। मैं एकदम संज्ञा-शून्य हो गया था। चेतना लौटी तो दर्द ने परेशान करना शुरू कर दिया।

 अब तक लोगों ने मुझसे पूछताछ कर स्थिति जान लेने के बाद घर लौट जाने की सलाह दी। लेकिन जिद्दी स्वभाव का मैं नहीं माना। पटना जाने वाली ट्रेन पर चढ़ गया। जब ट्रेन चल दी तो बैग से एक पैंट निकाली, बाथरूम में जाकर पैंट बदल ली। क्योंकि वह घुटने के आस-पास बुरी तरह फट गई थी। पैंट बदलने से पहले रुमाल गीला कर घावों को साफ कर लिया था। 

दूसरी बार मौत के सामने मैं तब पहुंच गया था जब एक बार चार-पांच मोटर-साइकिलों पर दोस्तों के एक गुट के साथ पिकनिक के लिए निकला। साथ में मेरा फुफेरा भाई भी था। जो गांव से आया था। रास्ते में एक नहर पड़ी तो गुट रुक गया वहीं, जो लोग तैरना जानते थे वो नहर में तैरने लगे। मैंने गांव में ही दो-तीन बार हाथ आजमाए थे। तैराकी की ए.बी.सी.डी. से पूरी तरह वाकिफ नहीं था। 

मगर दोस्तों के उकसाने में कूद पड़ा। तेज़ बहाव में बहने लगा। हुड़दंगी दोस्तों को जब-तक मालूम होता तब तक मैं डूबने लगा। इस बीच अच्छे तैराक मेरे भाई की नज़र मुझ पर पड़ गई। फिर उसने किसी तरह मुझे बाहर निकाला। मैं बेहोश हो चुका था। दोस्तों ने अस्पताल पहुंचाया और मैं बच गया। मगर तब भी मेरे मन में अणु भर भी ईश्वर को लेकर कोई बात आई ही नहीं।

जब शादी का वक्त आया तो शर्त लगा दी कि, जिसे जो करना हो करे, लेकिन किसी तरह की रस्म अदायगी के नाम पर भी मुझसे कोई पूजा-पाठ ना कराई जाए। मेरी इस जिद पर पिता श्री दुर्वासा ऋषि बन गए। सबका यह ख़याल टूट गया था कि, मैं शादी के नाम पर बदल जाऊंगा। अनुमान गलत निकलते ही सब बिफर पड़े थे। होने वाली ससुराल पक्ष के लोग भी हतप्रभ थे। 

हालात ऐसे बने कि, लगा रिश्ता हो ही नहीं पाएगा। मगर कन्या-पक्ष ऐसा किसी सूरत में नहीं होने देना चाहता था। वह रास्ता निकालने में लगा हुआ था। इस बीच मेरा एक मित्र जो आज भी मेरे परिवार के सदस्य जैसा है। हर सुख-दुख का साथी है, उसने मुझसे एक ऐसी तीखी चुभती हुई बात कही कि, अंततः रास्ता निकल आया। वह मुझे गाली देते हुए बोला, ''साले एक से एक एहसानफ़रामोश कमीने देखे। मगर तुम्हारे सा कमीना दूसरा नहीं होगा। 

बहुत बड़े नास्तिक बने हो। अपनी ऐंठ के लिए मां-बाप, भाई-बहन, पूरे घर की खुशी में आग लगा रखी है। तुमसे पूजा करने को कौन कह रहा है। सबकी ख़ुशी के लिए थोड़ी सी रस्मों का आडंबर भी नहीं कर सकते। ये अच्छी तरह सुन लो कि, एहसानफ़रामोसों को देख कर मेरा खून खौलता है। आज के बाद मेरी नज़रों के सामने भी न पड़ना। क्योंकि पड़ गए तो छोड़ूंगा नहीं।''

इतना कह कर उसने बाइक स्टार्ट की और ऐसे भागा कि, जैसे पीछे मौत पड़ी है। मैं एकदम सन्नाटे में उसे देखता रह गया। 

मेरी कल्पना से परे था उसका यह व्यवहार। दरअसल बरसों से वह मेरे परिवार में इतना घुल-मिल चुका है, मेरे मां-बाप की इतनी सेवा करता है, मानता है कि, देखने वालों को लगता है मानों वह सगा बेटा है। मेरे मां-बाप भी उसे अपने बेटे सा ही प्यार देते हैं। उनका यही बेटा अपने इस मां-बाप के कष्ट से बिफर पड़ा था। मुझे पीटने की धमकी देकर चला गया था। मैं हक्का-बक्का शाम को ऑफ़िस से जानबूझ कर देर से घर पहुंचा।

 दोपहर से ही दोस्त की गालियां, धमकी भरी बातें दिमाग को मथे जा रही थीं। मैं आश्चर्य में था कि, किसी से भी मामुली बात पर भी मरने-मारने को उतारू हो जाने वाला मैं, आखिर ऐसा क्या हुआ कि, उसकी इतनी गालियों, पीटने की धमकी को सुनता चुपचाप खड़ा रहा। मुझमें जरा सी जुंबिश तक नहीं हुई। इतने घंटे हो गए लेकिन अभी तक उसके लिए गुस्से जैसी कोई बात मन में आई ही नहीं। देर रात तक इस उलझन में नींद नहीं आई। 

मन में कुछ आया तो बस यही कि, दोस्त सही ही तो कह रहा है। मेरी इस एक बात से कितने लोगों के हृदय टूट रहे हैं। यदि शादी टूटती है तो उस लड़की पर क्या बीतेगी जो एंगेजमेंट के बाद से ही कितने ही सपने संजोए बैठी होगी। पूरा परिवार किस तरह बार-बार हाथ जोड़ रहा है, छटपटा रहा है।

घर में भी सबके चेहरे पर कितना तनाव कितना संत्रास दिख रहा है। सबके चेहरे पर यातना की कितनी गाढ़ी लकीरें दिख रही हैं। यह सारी लकीरें मेरे द्वारा कुछ रस्में अदा कर देने भर से खुशी की लकीरों में बदल जाएंगी। और फिर यही हुआ। जब सुबह मैंने छोटे भाई और बहनोई को फ़ोन करके कहा कि, जैसा आप लोग करना चाहते हैं करें। मैं सारी रस्में पूरी करने को तैयार हूं। इस तरह घर में अचानक ही खुशी बरस पड़ी। 

जिसके कारण यह खुशी बरसी, मैंने फिर अपने उस दोस्त को फ़ोन किया। छूटते ही मैंने कहा, ''साले, गाली, धमकी देके गया था ना। बड़े जोश में था। उसके बाद क्या हुआ पता किया एक बार भी।''

वह अब भी ताव खाए हुए था। बोला, '''अबे धमकी नहीं दी थी समझे, जो कहा था सही कहा था। और सुन, तुम जो बताने वाले हो, वो मुझे मालूम है कि तुम लाइन पर आ गए हो। तभी तुम्हारी काल रिसीव की नहीं तो करता ही नहीं। तुम इसी से सोच लो कि, इस जरा सी बात से सब घर भर कितना खुश हैं। जिसमें तुम आग लगाए हुए थे।'' 

''मैंने कहा, ''सही कह रहे हो यार, अकसर जिद के कारण नुकसान उठाता रहता हूं।''

''तो ऐसा करो कि अब जिद छोड़ दो। घर वालों, बीवी आ जाए तो उसकी भी सुनो। अपनी खुशी से पहले दूसरे की खुशी के बारे में सोचोगे तो हमेशा खुश रहोगे, हाथों-हाथ लिए जाओगे।''

अपने उस मित्र से ऐसी गंभीर अर्थ-पूर्ण बातें भी सुन सकता हूं, यह कभी कल्पना भी नहीं की थी। उसकी बात सुन कर मैंने कहा, ''ठीक है फिलॉसफर भाई याद रखूंगा।''

इस पर वह जोर से हंसा, बोला, ''शाम को घर होते हुए जाना।'' इसके बाद शादी-ब्याह सब हंसी-खुशी निपट गया। लेकिन, ''दूसरे की खुशी के बारे में सोचोगे तो हमेशा खुश रहोगे, यह बात दिमाग से नहीं निकली। यह दिमाग में ऐसी बैठी कि, किसी को मेरे कारण कष्ट तो नहीं हो रहा मन इसी विश्लेषण में लगा रहता। 

कई महीने बाद लगा कि, यह तो मेरा स्थाई भाव बन गया है। बड़े क्लियर कांसेप्ट वाली बीवी ने छ-सात महीने बाद ही यह कह दिया कि, ''रोज आप हनुमान सेतु मंदिर के सामने से निकलते हैं। दो मिनट रुक कर पूजा कर लिया करेंगे, हर मंगल को प्रसाद चढ़ा दिया करेंगे तो बड़ा अच्छा होगा। हमें बल्कि हम सबको बड़ी खुशी होगी।''

उसकी बात सुन कर मैं उसका चेहरा देखने लगा। ऐसी बात कही थी जो मेरे लिए किसी सजा से कम नहीं थी। मगर उसकी सबकी खुशी इसी में छिपी थी। और मेरी आदत सी होती जा रही थी दूसरे की खुशी देखने की। मुझे एकटक खुद को देखते पाकर बीवी बोली, ''अगर आप को अच्छा नहीं लग रहा है तो कोई बात नहीं।'' 

नई-नई बीवी जो कुल मिला कर मेरी उम्मीदों से ज़्यादा अच्छी थी। उसकी खुशी का मामला आ पड़ा तो मैं जाने लगा। दो-चार दिन की कोशिश के बाद ही मैं यह शुरू कर पाया। और जब दो हफ्ते बाद मंगल को प्रसाद चढ़ा कर लौटा तो बीवी को जो खुशी मिली वह तो मिली ही मां-बाप की खुशी तो रोके नहीं रुक रही थी।

पिताश्री ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, ''वाह बेटा, मैं बीसों साल कहता रहा तो नहीं समझ में आया, बीवी ने दो दिन में समझा दिया।'' यह सुन कर बीवी मुस्कुरा कर चली गई भीतर कमरे में। पिता श्री को देख कर लग रहा था कि, जैसे बरसों बरस बाद उनकी ना जाने कितनी बड़ी मनोकामना पूरी हो गई। इधर मैं पहले दूसरों की खुशी का ध्यान रखते-रखते कब अपने जिद्दी स्वभाव से दूर हो गया, इसका अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ। 

मेरे दोस्त के एक सेंटेंस ने मेरा जीवन बदल दिया था। मेरा घर परिवार बदल गया था। मंदिर जाना मेरी आदत में आ चुका था। मगर सच यह भी था कि, विश्वास कोई बहुत प्रगाढ़ नहीं था। जब पहला बेटा हुआ तो उसे भी ले कर गया। बराबर जाने लगा। देखते-देखते शादी के आठ साल बीत गए बेटा पांच साल का हो गया। एक और संतान के लिए बीवी व परिवार का दबाव बराबर पड़ रहा था। तर्क यह कि एक औलाद यानी कानी आंख। 

दबाव तब और बढ़ गया जब मेरे छोटे भाई जिसकी शादी मुझ से डेढ़ साल बाद हुई थी, वह जल्दी-जल्दी दो बच्चों का पिता बन गया। बीवी अब हफ्ते में कम से कम दो बार तो यह डायलॉग बोल देती कि, ''बेटा  पांच साल का हो गया है। अम्मा-बाबूजी की भी उमर अब सत्तर पार हो रही है। अगला बच्चा क्या बुढ़ापे में करोगे। अम्मा-बाबूजी के रहते हो जाएगा तो वो कितना खुश होंगे। अब दोनों लोग जीवन के ऐसे पड़ाव पर हैं कि, कब तक साथ रहेंगे कुछ नहीं कहा जा सकता।'' 

इस बात ने मन में एक बार फिर यह उलझन पैदा कर दी कि, सबकी खुशी की बात फिर आ खड़ी हुई है। कुछ महीनों में यह ज़्यादा गंभीर हो चुकी है। बीवी को छेड़ने के लिए मैंने कई बार कहा भी कि, '' यार तुम समझती क्यों नहीं। ज़्यादा बच्चे पैदा करोगी तो तुम्हारा फ़िगर खराब हो जाएगा। 

अपना पेट देख रही हो पहले से कितना निकल आया है। कमर कमरा होती जा रही है। और ब्रेस्ट मध्यकाल के रीति कालीन कवियों की नायिकाओं के सुमेरू पर्वत से हो रहे हैं। उनकी साइज के तुम्हारे लिए आसानी से कपड़े भी मार्केट में नहीं मिलते, ढूढनें पड़ते हैं। एक्स एल साइज में भी तुम्हारे सुमेरू पर्वत फिट नहीं हो रहे हैं। लगता है किला तोड़ बाहर ही आ जाएंगे। और बच्चे पैदा करके पूरी पृथ्वी ही हिलाओगी क्या?'' 

इस पर वह कुछ देर आंखें तरेरती हुई देखती, फिर उसके होठों पर प्यार भरी मुस्कुराहट की एक बड़ी बारीक रेखा दिखाई देती और तब वह बड़े अंदाज में कहती, ''ऐसा है घड़ी-घड़ी नया ड्रामा मत किया करिए। कभी तो इनकी ऐसे तारीफ करोगे कि मानो मुझसे सुंदर कोई है ही नहीं। और जब बच्चे की बात करो तो वे सुमेरू पर्वत नज़र आने लगते हैं। अपनी पढ़ाई-लिखाई का इस तरह मिस यूज ना किया करिए। और खुद की बताइए, मैं तो बच्चा पैदा कर के धरती हिलाऊ हो रही हूं। ये तुम्हारा पेट चौराहे के भन्गू हलवाई की तरह तिब्बत का पठार क्यों हो रहा है?'' ऐेसे ही तर्क-वितर्क देते-देते आखिर हम दोनों हंस पड़ते थे। 

उस दिन रात को भी ऐसा ही हुआ था। तो मैंने कहा, ''देखो, हंसी-मजाक अपनी जगह है। अम्मा-बाबूजी तो अपने जमाने, अपनी सोच के हिसाब से बात करेंगे। मगर हमें तो आज के हिसाब से देखना है ना। एक बच्चे को ही पढ़ाने-लिखाने में कितना खर्च हो रहा है। अभी मनरीत फर्स्ट में है, कितना पैसा लग रहा है? आगे की पढ़ाई के लिए लाखों रुपए चाहिए। इस एक को इस कमाई में ठीक से लिखा-पढ़ा लूं यही बड़ी बात है। और पैदा कर लिए तो क्या करेंगे? बच्चों को अगर अच्छा भविष्य ना दे सके तो इससे बड़ा अपराध और कोई नहीं होगा।?'' 

बच्चों के भविष्य को लेकर मेरी यह सारी चिंताएं, सारे तर्क मेरी सुमेरू पर्वत वाली बीवी ने हल्की मुस्कुराहट, रीति कालीन कवियों के शब्दों में मादक-मोहक मुस्कुराहट, चितवन के बाण से पल-भर में एक किनारे कर दी। साफ कह दिया कि, ''देखो ये सब ठीक है। लेकिन ये बड़े बुजुर्ग, घर के बाकी छोटे, यह सब लोग भी तो आज ही की दुनिया में जी रहे हैं। क्या वो लोग यह सब नहीं जानते-समझते? सब एक ही बात कह रहे हैं, तो कोई तो मललब होगा ही ना उसके पीछे। फिर आप यह क्यों नहीं सोचते कि अम्मा-बाबूजी को कितनी खुशी मिलेगी। 

भगवान की कृपा से उन्होंने जीवन में जो चाहा उन्हें सब मिला। सारी खुशियां मिलीं। एक तरह से यह उनकी आखिरी इच्छा, खुशी जैसी बात है। क्या हम-लोग अपने मां-बाप की आखिरी इच्छा नहीं पूरी कर सकते। आखिर में उनका रिकॉर्ड क्यों खराब करें कि, उन्होंने जो चाहा, उन्हें सब मिला लेकिन आखिर में बस एक इच्छा रह गई।''

सबकी खुशी के सरोवर में मेरी बात, मेरी इच्छा फिर कहीं डूब कर विलीन हो गई। मैं सुमेरू पर्वत के नीचे दब कर रह गया।

बीवी ने बताया कि, उसकी मां-बहनें भी ना जाने कितनी बार यह सब कह चुकी हैं। अंततः फैसले पर अंतिम मोहर लग गई कि, हम-दोनों मनरीत जूनियर को भी इस दुनिया में जल्दी से जल्दी ले आएंगे। रही बात सुमेरू के हिमालय बनने की तो शहर में बॉडी अल्टर की क्लिीनिक्स खुल चुकी हैं। वहां भी हो आएंगे। इस फैसले के बाद बीवी खुशी से बहक रही थी। मैं भी कहीं कानों में खुशी की रुनझुन सुन रहा था। 

अगले दिन तीसरे बड़े मंगल के अवसर पर मंदिर पहुंचना है, यह भी अगले दिन के कार्यक्रमों की लिस्ट में सबसे ऊपर लिख दिया गया था। इसीलिए घर से निकल कर हनुमान सेतु मंदिर हो कर फिर अपने तय रास्ते बंधे वाली रोड से होते हुए निशातगंज रोड की तरफ बाइक से चल पड़ा। उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा सड़क पर भीड़ बहुत ज़्यादा थी इसलिए ज़्यादा तेज़ नहीं चल पा रहा था।

 कुछ देर बाद मैं निशातगंज रोड के पास पहुंचने ही वाला था कि, देखा पुल से थोड़ा पहले बंधे पर और फिर नीचे उतर कर नदी की तरफ उसकी धारा से पहले तक सैकड़ों लोगों की भीड़ लगी थी। मैं भी ठिठक गया। मैंने अगल-बगल के लोगों से पूछा, '' क्या हुआ ?'' तो कई ने कहा, ''मालूम नहीं।'' और आगे बढ़ा तो पता चला कल एक प्रेमी-युगल यहाँ कूद गया था। उन्हीं को ढूंढ़ा जा रहा है। 

यह सुन कर मैंने बाइक किनारे खड़ी की। और बंधे से नीचे उतर गया। सुबह-सुबह अखबार में यह खबर मैं पढ़ चुका था कि एक प्रेमी जोडे़ ने गोमती नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली है। लड़की की लाश तो दो घंटे बाद ही गोताखोरों की मदद से निकाल ली गई थी। लेकिन लड़के की डेड-बॉडी का कुछ पता नहीं चल रहा था। 

मैं नीचे पहुंचा तो लड़के के बुजुर्ग मां-बाप उसका छोटा भाई, तीन बहनें और दो बहनोई सब धारा से कुछ पहले ही सारी उम्मीदों के बिखर जाने से आहत, भरी-भरी सूजी हुई आंखें लिए दिखाई दिए। मां दुपट्टे से अपना मुंह दबाए रोए जा रही थी। बीच-बीच में टूटती आवाज़ों में कहे जा रही थी, ''या अल्लाह रहम कर, मेरे बच्चे को बचा लो, मेरा बच्चा मुझे बख्स दो।'' 

मैं अपेक्षाकृत शांत खड़े उसके बहनोइयों के पास पहुंचा कि उनसे तफसील से सब जान लूं। दरअसल किसी भी घटना की तह तक पहुंच कर उसकी सारी बातें जान लेने, रेशा-रेशा समझ लेने की मेरी आदत सी है। मैं अभी उनके पास पहुंचा ही था कि, एक पुलिस वाले ने फिर से सबको डंडे से फटकारते हुए ऊपर जाने को कहा।

एक मेरे पास भी पहुंचा और उखड़ते हुए बोला, ''अरे! चलिए ऊपर जाइए। आपको अलग से कहा जाएगा क्या?'' इस पर मैंने उसके करीब पहुँच कर अपना परिचय देते हुए कहा, ''मैं सूचना विभाग में हूं। मैं कुछ बातें जानना चाहता हूं।'' इस पर वह नम्र हुआ। और पूछने पर उसने पूरी घटना बताई कि, ''दोनों पुराने शहर के टुड़ियागंज के पास के एक मोहल्ले के हैं। कुछ साल पहले तक दोनों घरों में आना-जाना था। वहीं लड़का-लड़की करीब आए। इसको लेकर दोनों परिवार में झगड़ा शुरू हो गया। लाख बंदिशों के बावजूद दोनों मिल ही लेते थे। लड़की वाले काफी अच्छे बिजनेसमैन हैं, पैसे वाले हैं। लड़के वाले उसके सामने कुछ भी नहीं। दूसरे लड़की पढ़ी-लिखी थी। लड़का सातवीं-आठवीं पास था, किसी टेलर शॉप में टेलर था। 

बंदिशें ज़्यादा हुईं तो पिछले महीने दोनों भाग गए। बरेली में जाकर निकाह कर लिया। हफ्ते भर बाद लौटे तो लड़के के परिवार ने दोनों को हाथों-हाथ लिया। मगर लड़की वाले पैसे के दम पर निकाह को अवैध ठहराते हुए पुलिस के पास पहुंच गए। लड़की को जबरदस्ती साथ लेते गए। लेकिन दोनों एक दूसरे के दिवाने थे। मौका मिलते ही भाग निकले। शहर छोड़ने की फिराक में थे। दोनों रेलवे स्टेशन पर भी देखे गए थे। मगर फिर पता नहीं क्या हुआ कि, यहां आकर कूद गए। 

लड़की की डेड बॉडी तो कल ही दो घंटे बाद मिल गई थी। पोस्टमार्टम के बाद आज उसके घर वालों को मिल जाएगी। मगर लड़के की अभी तक नहीं मिल पाई है। गोताखोर अंदर जा-जाकर खाली हाथ लौट रहे हैं।''

मैंने कहा, ''अब तक तो बॉडी फूल कर खुद ही ऊपर आ जाती।''

वह बोला, ''हां, लेकिन हो सकता है, इतनी ऊपर से कूदने पर नीचे किसी पत्थर-झाड़ी वगैरह में हाथ-पैर फंस गए हों।''

मैंने कहा, ''यह भी हो सकता है बॉडी आगे बह गई हो।''

इस पर वह कांस्टिेबिल बोला, ''हां, यह भी हो सकता है।'' 

उसके लापरवाही भरे अंदाज से मैं जल-भुन उठा। मैं वहां से तुरंत लड़के के मां-बाप के पास पहुंचा लेकिन उनका रोना, उनकी दयनीय हालत देख कर मैं अंदर तक कांप उठा। कुछ मिनट उन्हें देखता रहा फिर भारी मन से ऊपर चला आया।

सड़क पर आने-जाने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैंने बाइक स्टार्ट कीए ऑफ़िस चला आया। लेकिन काम में मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। नज़रों के सामने से लड़के के मां-बाप का चेहरा हट ही नहीं रहा था। मां रोते-रोते बार-बार अपने बेटे का नाम ले रही थी। ''अरे! कोई मेरे लाल को ला दो। अरे! बेटा नाज़िम ये क्या कर डाला तूने। या अल्लाह। क्या हो गया था तुझे...... 

उसकी मां की इस करूण हालत ने मुझे इतना परेशान कर दिया कि, काम-धाम तो दूर की बात थी। मेरा ऑफ़िस में रुकना ही मुश्किल हो गया। बस जी करता कि, तुरंत नाज़िम के घर वालों के पास पहुंच कर कैसे भी हो उनकी मदद करूं। नाज़िम की डेड बॉडी निकलवा लूं।

उसके परिवार के सदस्यों की हालत देख कर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि, आर्थिक रूप से वो बहुत कमजोर हैं। मेरी व्याकुलता इतनी बढ़ी कि, लंच के बाद सीनियर से तबियत खराब होने की बात कह कर निकल लिया। 

ए.टी.एम. से दस हज़ार रुपए निकाले कि, नाज़िम के परिवार को दे दूंगा। उनकी कुछ तो मदद हो जाएगी। अभी डेड बॉडी का पोस्ट-मार्टम वगैरह होने का भी झंझट  है। चलते समय मैंने यह भी तय कर लिया कि, यदि डेड-बॉडी अब-तक मिल गई होगी, और वो लोग घर चले गए होंगे तो फिर उनके घर जाऊंगा। 

बंधे पर जब पहुंचा तो देखा हालात जस के तस थे। तेज़ चिल-चिलाती धूप थी लेकिन रोड पर मंदिर जाने वालों का तांता जस का तस लगा हुआ था। नीचे नाज़िम के परिवार के पास गिने-चुने लोग थे। पुल की दीवार की छाया में नाज़िम का परिवार था। सब के चेहरे पर मायूसी दुख की गाढ़ी लकीरें थीं। मां वहीं एक कपड़े पर निश्चल लेटी हुई थी। मुझे लगा शायद कल से रोते, जागते रहने के कारण पस्त होकर निढाल हो गई है। 

मैंने पास पहुंच कर उनकी लड़की से पूछा तो उसने कहा, ''कुछ देर पहले गश खाकर लुढ़क गईं थीं। तो लिटा दिया है। इतनी निढाल हो गई हैं कि बैठना मुश्किल हो गया है।''

उनकी बात सुनते ही मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया कि, ''हो सके तो इन्हें घर भिजवा दीजिए, गाड़ी की व्यवस्था मैं करवा देता हूं।'' उसने कहा, ''कोई फायदा नहीं, जाने को ही तैयार नहीं हैं। कहतीं हैं कि, बेटा मिलेगा तभी जाऊंगी। नहीं तो यहीं मैं भी डूब जाऊंगी।''

यह सुन कर मैं एकदम परेशान हो उठा। मन जैसे एकदम छटपटा उठा कि इस दुखियारी मां के लिए ऐसा क्या कर दूं कि, इसका बेटा मिल जाए। 

उसके कराहने की आवाज़ मेरे कानों तक आ रही थी। इसी बीच उसके दामाद और परिवार के एक-दो और लोग मुझे वहां खड़ा देख कर आ गए तो मैं उनकी ओर मुखातिब हुआ और संक्षेप में अपना परिचय दे कर पूछा कि, ''ये गोताखोर क्या बता रहा है? दोनों एक ही जगह कूदे हैं? एक डेड-बॉडी दो घंटे मिल गई। दूसरे में इतना वक़्त क्यों लगा रहा है?'' इस पर एक व्यक्ति जो पड़ोसी था उनका, वह गोताखोरों और पुलिसवालों को गरियाते हुए बोला, ''साले जानबूझ कर नहीं निकाल रहे हैं।'' 

उसने लड़की पक्ष के लोगों को भी अपशब्द कहते हुए कहा कि, ''सालों ने इसको पैसा तौल दिया होगा, कह दिया होगा मत निकालना। यहां गरीबों की सुनने वाला कौन है?''

मुझे उसकी बात में कुछ दम नज़र आया। उसका गुस्सा जायज़ था। उसकी बात को सिरे से नकारा नहीं जा सकता था। आग बरसाती धूप, गर्म हवा के थपेड़ों ने मेरी परेशानी दो गुनी कर रखी थी। पसीने से लथपथ हो गया था। जान-बूझ कर डेड बॉडी नहीं निकाल रहे हैं, यह सुन कर मैं बड़ा खिन्न हो गया कि, आखिर लोग इतने नीच, इतने गिरे हुए कैसे हो जाते हैं कि, लाश को भी नहीं छोड़ते। 

एक इंसान जो अब इस दुनिया में नहीं रहा, उसके शरीर पर भी खिलवाड़, प्रतिशोध, वार। यह सोचते-सोचते मैं पुल के नीचे छाया में पहुंच गया। गोमती की धारा पुल से काफी आगे बीचो-बीच थी। वहां पांच-छः लोग और भी थे, जो दीवार के सहारे टेक लगाए बैठे थे।

ये गांजा, भांग, चरस, स्मैक का नशा करने वाले वह नशेड़ी टाइप के लोग थे, जो हनुमान सेतु मंदिर, इस पुल के बीच मंडराया करते हैं। मंदिर में आने वाले भक्तों से जो कुछ खाने-पीने को और पैसे मिल जाते है उन्हीं से पेट भरते हैं, और नशे का जुगाड़ करते हैं। मैं उन सबसे चार क़दम पहले खड़ा सोच ही रहा था कि, क्या करूं तभी देखा गोताखोर भी वहीं आ कर बैठ गया। 

वह कुछ देर पहले ही दो मिनट से ज़्यादा समय तक डुबकी लगा कर खाली हाथ लौटा था। नाज़िम के घर वाले एकदम उसके पास पहुंचे थे। फिर उसने जो भी कहा हो, उसके बाद फिर सब अपनी-अपनी जगह चले गए। 

मैं भी उसके पास पहुंचा, पूछा, ''क्या बात है? बॉडी क्यों नहीं मिल रही है?''

इस पर उसने मुंह ऊपर करके, आंखें तरेर कर एक नज़र मुझे देखा फिर कहा, ''वो मेरे सामने नहीं पड़ी है कि, हम जाएं और उठा कर लेते आएं। इतनी गहरी, बड़ी नदी है। अंदर जाकर ढूंढ़ना पड़ता है। जान हथेली पर ले के जाता हूं। भूसे में सूई की तरह ढूंढ़ता हूं। हम कोई जान-बूझ कर तो उसे नीचे ही छोड़ कर नहीं आ रहे। बार-बार गोता लगाने में मेरी भी जान को खतरा है। हमारा भी परिवार है।''

उसकी इस दबंगई से मैं गुस्से में आ गया। 

बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से को ज़ज्ब कर शांत रहा। सोचा कहीं बिगड़ गया तो नाज़िम के परिवार वाले गुस्सा होंगे। वह गोताखोर करीब दस मिनट वहां बैठा रहा फिर उठ कर नदी की धारा के किनारे-किनारे करीब डेढ़ सौ क़दम आगे चला गया। नाज़िम के परिवार के चार-पांच लोग भी उसी से कुछ बात करते हुए साथ-साथ गए थे। मैं उसे तब तक देखता रहा जब-तक कि, वह आगे जाकर फिर नदी में नहीं कूद गया।

जब वह कूदा तभी वहां बैठे नशेड़ियों में से एक बोला, ''साला नौटंकी कई रहा है। फिर खाली हाथ आई। गर्मी मां तैरे का मजा लई रहा है। अबै हाथ मां गड्डी थमाय दौ, निकाल के सामने रखि देई।''

उसकी यह बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए। सोचा कि, यह क्या कह रहा है? जो बातें अक़सर सुनता था क्या वह सच है कि, ये सब बिना पैसा लिए डेड-बॉडी नहीं निकालते। तो क्या लड़की वालों ने पैसा तौल दिया था जो इसने दो घंटे में ही उसकी डेड-बॉडी निकाल दी थी। 

बात की तह तक जाने के लिए मैं उन नशेड़ियों के पास ही बैठ गया। जरा सी उन सब जैसी बात की तो वह सब खुल गए। बात-चीत में सब ने साफ कहा अभी पांच-दस हज़ार हाथ पर रख दो, बस थोड़ी देर में सब काम हो जाएगा। देर करने से कोई फायदा नहीं। लाश अंदर सड़ जाएगी। जो जलीय जीव हैं, नोच खा कर वो उसकी बुरी गति अलग बना रहे होंगे। 

यह सब सुन कर मैं गोताखोर पर गुस्सा हो उठा। मुंह से कुछ गालियां निकल गईं तो एक नशेड़ी फिर बोला, ''बाबू जी इनका पुलिस वाले भी कुछ ना कर पहिएं। ई ऐइसे डुबकी लगाए-लगाए कहता रही, कि नहीं मिली। मुर्दा की गति खराब करने से कोई फायदा नहीं। ज़्यादा टाइम होई जाई तो डूबकीयों लगाईब बंद कर देई चला जाई। कह देई लाश, कहीं बह गई। फिर कबहूं लाश ना मिली।''

यह सुन कर मैं घबरा गया कि, नाज़िम की मां की ऐसे में क्या हालत होगी, क्षण-भर में यह सोचते ही मेरा हलक सूख गया। मैंने सशंकित मन से कहा, ''लेकिन इतना टाइम हो रहा है, अब-तक तो लाश फूल कर खुद ही उतराने लगती।'' 

नशेड़ियों में से फिर एक बोला, ''अरे! बाबूजी ये गोताखोर आने देगा तब ना।''

मैंने चौंकते हुए पूछा, ''क्या मतलब?''

तो वह बोला, ''ये सब लाश को नीचे पत्थर-वत्थर से दबा देते हैं या बांध देते हैं किसी चीज से। इनके इस काम का कभी किसी को पता नहीं चलता।''

उसकी इन बातों को सुन कर अचानक ही मेरे मुंह से स्वतः ही यह निकल गया कि, ''हे भगवान ये क्या हो रहा है? लाश का भी सौदा हो रहा है।'' इस तरफ ध्यान जाते ही मैं चिहुंक पड़ा कि मेरे मुंह से यह क्या निकल गया? मैंने तो ऐसा सोचा ही नहीं।

मैंने यह महसूस किया कि, मन में ईश्वर पर आस्था का अथाह सागर लहराने लगा है। शरीर में ऐसी अजीब सी अनुभुति हो रही थी कि उसे अभिव्यक्त करने के लिए मैं कोई शब्द अभी तक नहीं ढूंढ़ पाया। उसी समय मुझे मारने की धमकी देने वाले अपने उसी मित्र की बात भी असमय ही याद आ गई। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि, मुझे क्या हो रहा है। तभी मैंने दूर से नाज़िम के कुछ परिवारीजन के साथ गोताखोर को खाली हाथ आते देख लिया। 

मन उसको लेकर क्रोध से उबल पड़ा लेकिन नशेड़ी की बात याद आई कि, पुलिस भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैंने फिर खुद को संभाला और तय कर लिया क्या करना है। कुछ देर में वह फिर नशेड़ियों से कुछ दूर छाया में बैठ गया।

नाज़िम के लोग अपने लोगों के पास चले गए। तब मैं उठ कर उसके पास जाकर बैठ गया। उसने एक नज़र मुझ पर डाली फिर सामने नदी की तरफ देखने लगा। उस को वहां मेरा बैठना खल रहा था। फिर मैंने सही बात जानने के लिए उससे उसके जैसे हो कर बात की तो वह कुछ खुला। 

उसने अपना नाम कल्लू बताया। नाम सुन कर मैंने मन ही मन कहा कि, माँ-बाप ने सही ही नाम रखा है। कल्लू। दिल का, तन का, विचारों का काला आदमी।

मैंने उसे कुरेदते हुए पूछा, ''तुम अकेले कर लोगे यह काम?''

वह बोला, ''इस समय कई गोताखोर बाहर गए हैं, मैं फिलहाल अकेला हूं।''

मैंने कमाई के बारे में पूछा तो वह टाल गया, ''अरे! साहब मौत हाथ पर लिए जाता हूं। लेकिन कमाई-धमाई क्या कुछ नहीं। आज-कल लोग काम तो तुरंत चाहते हैं। मगर सब मुफ्त में। काम होने के बाद कोई मुड़ कर देखता भी नहीं कि, गोताखोर भी नदी से बाहर आ गया है कि नहीं।'' उसकी हां में हां मिलाते हुए मैंने कहा, '' तुम सही कह रहे हो। दुनिया है ही इतनी स्वार्थी। आखिर तुम लोगों का भी तो कोई वजूद है। 

अच्छा एक बात बताओ इस काम में तुम कल से लगे हो। लड़की की डेड बॉडी दो घंटे में ही निकाल दी। लड़के की भी ढूंढ़ ही रहे हो। निकाल ही दोगे। कल उन लोगों ने काम होने के बाद कुछ दिया-विआ की नहीं, कि बस काम बनते ही चलते बने।''

मेरी इस बात पर गहरी सांस ली फिर बोला, ''जाने भी दीजिए बाबूजी, क्या करना है। मिल गया तो ठीक है, नहीं तो कोई बात नहीं।''

उसकी मंशा भांपते हुए मैंने कहा, ''देखो कल्लू, बुरा नहीं मानना। लड़की वालों ने तुम्हें दिया कि नहीं, मैं नहीं जानता। और सच यह है कि, जानना भी नहीं चाहता। मैं तुमसे एक बहुत ज़रूरी बात कहना चाहता हूं। सुनो, मैं बाद की कोई बात ही नहीं रखना चाहता हूं। ये पांच हज़ार तुम अभी लो और लड़के को अब बाहर ले आओ, बाद में और हो सका तो वो भी देखेंगे।''

अचानक ही मेरे द्वारा पैसा एकदम उसके हाथ पर रख देने से वह चौंक सा गया। बोला, ''मगर साहब घर वाले तो कुछ बोल ही नहीं रहे हैं, आप क्यों ये सब कर रहे हैं। आप उसके घर के तो नहीं लगते।'' 

मैं बातों में उलझना नहीं चाहता था। इसलिए कहा, ''छोड़ो, ये सब बातें बाद में हो जाएंगी। अभी तो जैसे भी हो जल्दी से काम पूरा कर दो।''

इस के बाद उसने नशेड़ियों के झुंड में किसी को इशारा किया। उनमें एक अजीब सी चाल में लगभग दौड़ता आया। गोताखोर ने उसकी मुट्ठी में नोट थमाते हुए ना जाने कौन सी बात भुन्न से कही कि, मैं सुन नहीं पाया। मगर वह नशेड़ी सुनते ही उसी गति से वहां से भाग गया। नशेड़ियों के झुंड में वापस नहीं गया। बल्कि सीधा ऊपर बंधे वाली सड़क पर चढ़ कर मंदिर की ओर जाते भक्तों की भीड़ में ओझल हो गया। 

उसके ओझल होने के बाद मेरा ध्यान गोताखोर की ओर गया। मैंने उसकी तरफ देखा ही था कि, वह बोला, ''घबराइए नहीं साहब, जी-जान लगा दूंगा। जैसे भी हो निकाल कर लाऊंगा।''

इतना कहते हुए वह उठ कर चला गया। मैं इस वक़्त अपने को बड़ा ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। वह नशेड़ी इसी गोताखोर का आदमी था। इतना करीबी, इतना विश्वसनीय कि, उसने उसे बिना हिचक सारे पैसे दे दिए। मैं उससे कुछ पूंछ सकूं इसके पहले ही वह गोता लगाने चल दिया। 

बोल ऐसे रहा था जैसे उससे सज्जन आदमी कोई दूसरा नहीं होगा। पैसा लेकर जाने वाले नशेड़ी ने ही मेरे कान तक यह बात पहुंचाई थी कि, पांच-दस हज़ार दे दो, अभी निकाल कर रख देगा। यह सुन कर ही मेरा दिमाग इस ओर गया था। और मैंने यह सोचा यदि, पैसा देकर ही काम बन जाता है तो दे देते हैं। 

नाजिम का शव उसके परिवार को तो मिल जाएगा। एक मां के वह आंसू तो बंद हो जाएंगे जो शव न मिलने के कारण बह रहे हैं। ठगे जाने के अहसास से दोनों पर बड़ी गुस्सा आ रही थी। मैं वहीं बैठा था। तभी देखा नाज़िम के परिवार के लोग उस जगह तक आगे चले गए थे, जहां वह गोताखोर गया था। 

अगले करीब आधे घंटे तक मैं वहीं बैठा रहा। बड़ी कसमकस, बड़ी उधेड़बुन में बीता यह समय। भगवान के लिए बेसाख्ता ही मेरे मुंह से जैसे शब्द निकल गए थे, वह मेरे लिए अचरज भरा था। ऐसी कौन सी अदृश्य ताकत थी जिसके प्रभाव से यह हो गया। मुझे अहसास यह होने के बाद हुआ।

नाज़िम के लिए जिस तरह से सुबह से परेशान हूं, उसके लिए तो मुझे अचरज जैसा कुछ नहीं लगा, क्यों कि मेरे मित्र की बात ने जो बरसों-बरस पहले कही थी केवल परिवार के संबंध में, वह जाने-अनजाने मेरी प्रकृति बन गई थी, कि दूसरे की खुशी भी कभी देख लिया करो। आदत में परिवर्तन ऐसा हुआ था कि, किसी की मदद या उसकी खुशी के लिए क़दम खुद ब खुद बढ़ जाते हैं। इसी में मुझे खुशी मिलती है। या यह कहे कि इसी में मैं अपने लिए खुशी पाता था।

अचानक मेरे कानों में नाज़िम के परिवार के उन सदस्यों की तेज़ रोने की आवाज़ सुनाई दी। जो गोताखोर के पीछे गए थे। मैं भी उठ कर तेज़ी से भाग कर वहां पहुंचा। वहां का दृश्य देख कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। आंखें भर आईं। 

गोताखोर कल्लू एक युवक की अच्छी-खासी फूल चुकी डेड-बॉडी दोनों हाथों में लिए किनारे आ चुका था। यह निश्चित ही नाज़िम था। उसका बदन अकड़ा हुआ था। चेहरा बेहद डरावना वीभत्स हो रहा था। दोनों आंखों की जगह बड़े गढ्ढे से नज़र आ रहे थे। मांस, चमड़ी छितरा चुकी थी। हाथों-पैरों में भी कई जगह जलीय जन्तुओं द्वारा काटे जाने के वीभत्स निशान थे। 

कपड़े शरीर से एकदम तने हुए थे। शर्ट की बटन लगता था कि, बस अब टूट ही जाऐगी। बॉडी देख कर यह साफ था कि, युवक अच्छा-खासा लंबा था। कल्लू ने नाज़िम के शरीर को जैसे ही रेतीली जमीन पर रखना चाहा, उसके पहले ही नाज़िम की बड़ी बहन ने चीख कर कहा, ''रुको भइया।''

कल्लू एकदम से ठिठक गया। इसी बीच बहन ने अपना दुपट्टा झटके से उतार कर जमीन पर फैला दिया कि, उसके दिवंगत भाई का शव यूं ही जमीन पर ना रखा जाए। 

शव को संभालना कल्लू के लिए भारी पड़ रहा था। दुपट्टा पूरी तरह बिछा भी ना पाई थी कि, कल्लू ने शव को उसी पर लिटा दिया और हांफते हुए दो क़दम पीछे हट गया। शव को देख कर परिवार की तीन महिलाएं जो उसकी बहन के साथ आई थीं, वो भी बहन के साथ पछाड़ खा-खा कर गिरी जा रही थीं। पुरुष सदस्य भी फ़फ़क पड़े थे। 

सभी शव के इर्द-गिर्द बैठ गए थे। इसी बीच दो कांस्टिेबल भी वहां आ धमके। उनके पीछे-पीछे चार-पांच लोग नाज़िम की मां को बिल्कुल पस्त हालत में लेकर पहुंच गए। वह बेटे को देखते ही बेहोश हो गईं। साथ की महिलाओं ने समय पर न संभाल लिया होता तो वह धड़ाम से रेतीली जमीन पर चित्त पड़ी होतीं।

सभी का रोना, करूण कृंदन ऐसा था कि, मानो कलेजा ही फट पड़ेगा। मैं अपने लोगों के बीच कठोर हृदय व्यक्ति के रूप में जाना जाता हुं। लेकिन उस दृश्य को देख कर मेरी भी आंखें भर आईं। मुझ से रहा नहीं जा रहा था। 

मैंने सोचा अब चलूं यहां से, नाज़िम का शव मिल गया है। उसके परिवार के सारे लोग उसके साथ हैं। मुझे तो कोई जानता भी नहीं। अब मेरा यहां क्या काम? तभी मुझे कल्लू से कही बात याद आई कि शव बाहर ले आओ फिर और हो सका तो करते हैं। 

मैंने सोचा चलो उसको हज़ार पांच सौ और दे कर निकलूं यहां से, घर चलूं। थक गया हूं। मेरी नज़र कल्लू को ढूंढ़ने लगी लेकिन वह नदारद था। मैं आश्चर्य में पड़ गया कि, पुलिस ने इतनी जल्दी उसे क्यों निकल जाने दिया। अब तक आस-पास सौ के करीब लोग इकट्ठा हो चुके थे। कल्लू पर मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसकी हरकत पर गालियां निकलने लगीं मुंह से। 

जिस तरह पैसे मिलने के बाद उसने देखते-देखते शव निकाल दिया था। उससे यह साफ था कि, उसने पैसों के लिए ही जानबूझ कर शव को दबाया था। जिसकी वजह से पूरा परिवार चौबीस घंटों से खून के आंसू रो रहा है। 

एक शव पानी में सड़ रहा था। जलीय जीव-जन्तु उसे नोच-खसोट रहे थे। वह कुछ हज़ार रुपयों के लिए यह सब कर रहा था। यह क्रूरता, हृदयहीनता की निशानी नहीं है, तो इसे और क्या कह सकते हैं? मेरा चित्त बिल्कुल फट गया। 

नाज़िम के परिवारीजन के रोने बिलखने की आवाज़ अब भी आ रही थी। पुलिस अपनी कार्यवाई में लग चुकी थी। तभी मेरे दिमाग में आया कि बचे हुए पांच हज़ार रुपए नाज़ि़म के परिवार केा दे दूं। उनके इस गाढ़े वक़्त में ये कुछ तो काम आ ही जाएंगे। अभी पोस्टमार्टम और ना जाने क्या-क्या कानूनी कार्यवाइयों के झमेले भी झेलने हैं इस परिवार को। बदनसीब का अंतिम संस्कार आज भी नहीं हो पाएगा। मिट्टी की दुर्गति अलग होगी। 

मैंने किसी तरह पूछताछ कर नाज़ि़म के बहनोई को यह कहते हुए पांच हज़ार रुपए दे दिए कि, ''ये रखिए, कुछ काम से नाज़िम ने मुझे दिए थे। नाज़ि़म का सुना तो चला आया। कल घर आऊंगा।'' मेरी इस बात से उनको लगा कि, मैं शायद नाज़िम का दोस्त या कोई परिचित ही हूं। मैंने ऐसा यह सोच कर कहा कि, कोई किसी अनजान से पैसा, ऐसे भला क्यों लेगा, वो आगे कुछ पूछे-ताछे, उनके परिवार को रोता-बिलखता छोड़ कर मैं घर आ गया। 

घर पर उस दिन सामान्य से ज़्यादा चहल-पहल थी। लेकिन मेरा मन किसी चीज में नहीं लग रहा था। देर रात तक सब खा-पी कर सो गए। मैं बेड पर पीछे तकिया लगाए बैठा था। बगल में ही पत्नी भी अस्त-व्यस्त पड़ी थी। निश्चिंत सो रही थी। उसके सुमेरू पर्वत करीब-करीब पूरे खुले हुए थे। लेकिन मेरा मन फिर भी मित्र की इस बात का विश्लेषण कर रहे थे कि, ''कभी किसी दूसरे की खुशी के बारे में भी सोच लिया करो।'' 

मुझे लगा कि, उसके इस एक सेंटेंस ने किस तरह मेरा मूल चरित्र ही बदल दिया है। अब किसी का कष्ट देखना संभव नहीं बन पा रहा है। लोगों को यदि नाज़ि़म की घटना बताऊंगा तो शायद इसे वो मेरा पागलपन ही कहेंगे। तभी स्कूली जीवन में पढ़ा प्रताप नारायण मिश्र का एक निबंध ''बात'' याद आने लगा। जिसमें बात के प्रभाव का विश्लेषण था।

आखिर एक बात ने ही तो मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया। तभी घनघोर गहरी नींद में सो रही मेरी पत्नी का एक हाथ मेरी जांघों पर आ गिरा। मेरी विचार श्रृंखला टूट गई। और दुबारा नहीं जुड़ पाई। मैं लेटने के बाद भी देर तक जागता रहा। आखिर सोता भी कैसे, बरसों-बरस बाद अनायास ही दिन में मुंह से भगवान का नाम निकल आया। उनमें पूरी आस्था प्रकट हो चुकी थी। अब मुझे कहीं किंतु-परंतु नज़र ही नहीं आ रहा था। 

                                 

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मम्मी पढ़ रही हैं 


''कैसी हो हिमानी, क्या कर रही हो?''

''ठीक हूं शिवा, दिव्यांश का होमवर्क पूरा करा रही हूं, तुम बताओ तुम क्या कर रही हो?''

''मैं बहुत टेंशन में हूं यार। आज सुबह ही तुम्हें फ़ोन करने वाली थी लेकिन काम इतने थे कि कर ही नहीं पाई।'' 

''अच्छा, लेकिन तुम्हें किस बात की टेंशन हो गई?''

''क्या यार तुम तो ऐसे बोल रही हो कि, जैसे मैं इंसान ही नहीं हूं और जब मैं इंसान नहीं हूं तो मुझे टेंशन नहीं, क्यों ऐसा ही है, है न।''

''अरे नहीं भाई तुम तो बुरा मान गई। मेरा मतलब यह था कि, टेंशन तो हम जैसे लोगों को होती है कि, हसबैंड के लिए सारा काम टाइम से करो, नहीं तो कहीं उनका पारा सातवें आसमान पर न पहुंच जाए। हर ग्यारह महीने बाद मकान बदलने की टेंशन, किराया बढ़ने की टेंशन।

मुंह मांगा किराया देने के बाद भी मकान मालिक की भौंहें तो नहीं तनी हैं? इसका टेंशन, ज़िंदगी खानाबदोशों सी हो गयी है इसका टेंशन। बार-बार मकान बदलने से जो नुकसान होता है उसका टेंशन। कोई मेहमान आ जाए तो कम जगह के चलते उसे कहां ठहराएं इसका टेंशन।

मतलब कि यहां ज़िंदगी का दूसरा नाम ही टेंशन हो गया है। जबकि निजी मकान के चलते और पति के तीन-चार महीने के अंतर पर आने के कारण तुम इन सब टेंशन से दूर हो। हो कि नहीं, बताओ।''

''कमाल है तुमने तो पूरा लेक्चर ही दे डाला। मगर हिमानी सच यह है कि, यहां भी ज़िंदगी में कम टेंशन नहीं है। हसबैंड के होते हुए भी चार साल से अकेले ही रह रही हूं। तीन-चार महीने में आते हैं और कब उनकी छुट्टी खत्म हो जाती है पता नहीं चलता है। 

सब कुछ अकेले ही संभालना पड़ता है। दूसरे इतना बड़ा दुमंजिला मकान है, लेकिन कोई किराएदार न रखने की इनकी जिद के चलते खाली ही रहता है। जिसकी साफ-सफाई में ही हालत खराब हो जाती है। ऊपर से पांच साल के बच्चे के साथ अकेले रहना कितना तकलीफ़देह है, इसका अंदाजा लगा सकती हो।''

''सही कह रही हो। इसी लिए तो कहती हूं कि, भाई साहब से कह कर एक पोर्सन किराए पर मुझे दे दो। मैं किराए में कमी नहीं रखूंगी। बस हर ग्यारह महीने में मकान बदलने, ब्रोकर को कमीशन देने से थोड़ी राहत मिल जाएगी और तुम्हारा अकेलापन भी थोड़ा कम होगा।''

''हिमानी सच कहूँ तो मैं भी यही सोचती हूं, लेकिन क्या बताऊँ इनकी जिद के आगे मेरी कुछ नहीं चलती। अकेलेपन से खीझ कर कई बार तो मैं यहां तक कह चुकी हूं कि, तुम बी.एस.एफ. की नौकरी छोड़कर यहीं कोई बिजनेस करो तो अच्छा है। लेकिन मानते ही नहीं। कहते हैं तुम क्या जानो फौजी होने का क्या मतलब होता है।

इस पर मेरे गुस्सा आ जाती है। इसीलिए पिछली दो बार से ये बार-बार एक और बच्चे के लिए कह रहे हैं। लेकिन मैं साफ-साफ कह देती हूं कि, बच्चे पैदा करना और पालना भी कोई हंसी खेल नहीं है। जब यहां रहोगे तभी दूसरा करेंगे नहीं तो एक ही काफी है। एक ही जब तक जागता है नाक में दम किए रहता है। दूसरे में तो जान ही निकल जाएगी।''

''तुम सही कह रही हो। ये मियां लोग तो बस जबान चला देते हैं कि और बच्चे पैदा करना है। गोया बच्चे पैदा करना न हो गया जैसे गोल-गप्पे खाना हो गया। यही हाल मेरे यहां है। कई महीने से कह रहे हैं कि, दिव्यांश छः साल का हो गया है, अब एक और बच्चा पैदा करते हैं।

जानती हो मैंने साफ कह दिया कि, देखो जब-तक खानाबदोसों की ज़िंदगी है, तब-तक अगले बच्चे के बारे में सोचेंगे ही नहीं। पहले मकान बनवाओ, अब अपने मकान में ही अगला बच्चा पैदा करूंगी। फिर एक की परवरिश तो कायदे से कर लो। वकालत के पेशे में कमाई ही कितनी हो पा रही है।''

''अरे कैसी बात कर रही हो। वकीलों की इनकम का तो कोई ठिकाना ही नहीं है।''

''तुम सही कह रही हो, लेकिन ऐसे कुछ ही वकील हैं, जो लाखों क्या करोड़ों भी कमाते हैं। लेकिन ज़्यादातर के लिए किसी तरह ज़िंदगी चलने भर का ही हो पाता है। मेरे यहां भी ठीक-ठाक ही कमा लेते हैं। लेकिन इतना नहीं कि पचास-साठ लाख में मिलने वाला पांच-छः सौ स्क्वॉयर फिट का एक छोटा सा मकान ले सकें।

सच कहूँ तो आज से आठ-दस साल पहले मैंने सोचा ही नहीं था कि, लखनऊ जैसे शहर की तस्वीर इस तरह बदल जाएगी कि, एक मकान लेना हम जैसे लोगों के लिए एक सपना बन जाएगा। तुम इस मामले में लकी हो कि, शादी के साल भर बाद ही इतना बड़ा मकान कर लिया।''

''क्या भाग्यशाली यार, इनकी तनख्वाह से थोड़े ही हो गया। यह सब मेरे फादर के कारण हुआ। उन्होंने कोई लड़का न होने के कारण सारी प्रॉपर्टी बेच कर हम चारों बहनों को बराबर-बराबर पैसा दे दिया था। केवल एक छोटा सा मकान रखा था अपने लिए। उसके लिए भी वसीयत कर गए थे। मां-बाप के न रहने पर वह भी बेच दिया गया। यही सारा पैसा इकट्ठा करके और थोड़ा बहुत अपने पास से मिलाकर यह मकान बनवा पाए, नहीं तो बी.एस.एफ. की नौकरी में पैसा है ही कितना।''

''फिर भी यार वकीलों से तो लाख गुना अच्छी है ये नौकरी। मेरे मायके-ससुराल में भी काफी प्रॉपर्टी है। दो भाई हैं इसलिए मायके की प्रॉपर्टी के बारे में सोच ही नहीं सकती। ससुराल में ससुर की जिद है कि, उनके जीते जी कुछ बिकेगा नहीं। देखो कब-तक लिखी है ज़िंदगी में खानाबदोशी। खैर यार तुमने अभी तक यह तो बताया ही नहीं कि, फ़ोन क्यों किया? कौन सा टेंशन हो गया है तुम्हें?''

''अरे हां, इतनी लंबी बात हो गई और जिस बात के लिए फ़ोन किया था वह तो रह ही गई। असल में नमन को जो लड़की ट्यूशन पढ़ाती थी उसकी कहीं नौकरी लग गई। उसने पहले से बताया नहीं और अचानक ही छोड़कर चली गई। अब नमन को पढ़ाना, उसका होमवर्क कराना ये मेरे वश का नहीं है। फिर वो मेरी सुनता भी नहीं। 

अभी से कहता है कि मम्मी तुम्हें कुछ आता-जाता नहीं, मैं तुमसे नहीं पढूंगा। जब तक सोता नहीं तब तक कार्टून चैनल देखा करता है या फिर लॉन में खेला करता है, और कहीं मोबाइल हाथ लग गया तो अपनी सारी मौसियों से बात करता है, या फिर गेम खेलेगा, इसलिए कह रही थी कि कोई अच्छा ट्यूटर हो तो बताओ।''

''कोई ट्यूटर तो यार मेरी जानकारी में है नहीं। दिव्यांश को जो पढ़ाता है वो इनके किसी परिचित का लड़का है। यही उसे ले आए थे। मैं उससे कोई खास बात करती नहीं। बस जब आता है तो चाय-बिस्कुट वगैरह जा कर दे देती हूं।

''पढ़ाता कैसा है?''

''पढ़ाता तो बढ़िया है। पहले वाले ट्यूटर की तरह केवल पढ़ाता ही नहीं बल्कि मैनर्स भी सिखाता है। दो महीने में ही दिव्यांश में बड़ा फ़र्क आया है। पढ़ाई, मैनर्स दोनों में।

''अरे यार तो भाई साहब से बोल कर मेरे लिए भी कह दो न, मैं इतने दिनों से परेशान हूं।''

''तुम्हारे लिए या नमन के लिए?''

''अरे यार मतलब नमन के लिए ही। मैं थोड़े ही इस उम्र ट्यूशन पढ़ूंगी।''

''हूँ....देखो आज जब ये आएंगे तब बोलूंगी इनसे। जैसा होगा कल बताऊंगी।''

''ठीक है मैं तुम्हें कल दोपहर में फ़ोन करूंगी।''

फ़ोन डिस्कनेक्ट होते ही हिमानी बुदबुदाई, हाँ तो कह दिया इससे कि, इनसे बात करके बताऊंगी, लेकिन यदि यह न मानेंगे तो वह बुरा मान जाएगी। दस जगह तरह-तरह की बातें करेगी। है भी बड़ी तुनक-मिजाज। बैठे-बिठाए इसने सिर दर्द करा दिया। मुझे पहले ही मना कर देना चाहिए था।

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शाम को अपने पति के लौटने पर जब हिमानी ने बात की तो छूटते ही वह बोले,

''तुम तो कहती हो बड़ी परपंच करने वाली औरत है। कहीं इसके चलते टीचर दिव्यांश को पढ़ाना न बंद कर दे।''

''अब क्या बताऊं वो बिल्कुल पीछे ही पड़ गई तो एकदम से मना करते नहीं बना।''

''ठीक है टीचर से बोल देता हूं। यदि टाइम है उसके पास तो पढ़ा दे।  फीस वगैरह को लेकर तुम बीच में नहीं पड़ना।''

''मुझे क्या ज़रूरत है बीच में पड़ने की। कल दिव्यांश को जब वो पढ़ा लेगा तो भेज दूंगी उसके पास, फिर वो दोनों जानें, मुझे कुछ नहीं बोलना बीच में। 

अगले दिन टीचर को भेजने के बाद हिमानी ने फ़ोन किया,  

''हैलो....हां शिवा आज टीचर पहुंचा पढ़ाने के लिए?''

''हां टाइम का बड़ा पंक्चुअल लगता है।''

''हां पंक्चुअल तो है, और पढ़ाई कैसी लगी?''

''अब पहले दिन तो सभी अच्छा पढ़ाने की कोशिश करते हैं। दूसरे एक ही दिन में समझना मुश्किल है। बड़ी बात तो यह है कि, कहीं से वह टीचर लगता ही नहीं है। अपने को हीरो से कम नहीं समझता। एकदम विवेक ओबरॉय जैसा लुक बना रखा है।''

''देखना हीरो के चक्कर में न पड़ जाना। वैसे विवेक ओबरॉय की कॉपी सा लगता है, बहुत मिलता है उसका चेहरा।''

 हिमानी ने शिवा को छेड़ा तो उसने तुनक कर कहा 

''घबड़ा नहीं, मैं तेरे विवेक के चक्कर में नहीं पड़ने वाली। पढ़ाता है ट्यूशन और नखरे हीरो जैसे, कि मैं चाय नहीं कॉफी पीता हूं। मेरा तो मूड ही खराब कर दिया था उसने, और पैसे भी ज़्यादा ले रहा है। मज़बूरी है इसलिए उसकी मुंह मांगी फीस देने को तैयार होना पड़ा।''

''अरे, तुम तो नाराज हो गई। मैं तो मजाक कर रही थी।''

''मैं भी मजाक ही कर रही हूं हिमानी कि जिसे तू हीरो समझ फिदा है उस पर मैं लाइन नहीं मारने वाली।''

शिवा ने जोर से हंसते हुए हिमानी को छेड़ा, तो उसने बात को विराम देने की गरज से कहा,

''लाइन-वाइन मारने की उमर न जाने कब की निकल गई। अब तो उठने से लेकर सोने तक इन्हीं पर लाइन मारती हूं कि जनाब का मूड सही बना रहे।

''मतलब, लाइन तो मारती हो न भले ही पति को मारो।''

''ओफ्फ तू तो बिल्कुल पीछे ही पड़ गई। बड़ी मस्ती में हो क्या बात है?''

''कोई बात-वात नहीं यार। अच्छा कल पैरेंट्स मीटिंग है वहीं मिलते हैं। ठीक है।''

''हां, ठीक है।''

अगले दिन पैरेंट्स मीटिंग में मिलने के बाद भी दोनों के बीच ट्यूटर पुराण चर्चा का विषय बना रहा। चर्चा जब समाप्त हुई तो दोनों एक दूसरे के प्रति खासा तनाव लिए बिदा हुईं। फिर दोनों की हफ्तों बात नहीं हुई। फ़ोन पर भी नहीं। 

बच्चे स्कूल वैन से आते-जाते थे इसलिए मुलाकात का कोई बहाना भी न बना। इस बीच दोनों ट्यूटर के जरिए एक-दूसरे के बच्चे की पढ़ाई की स्थिति जानने का पूरा प्रयास करती रहतीं।

महीना भर भी नहीं बीत पाया था कि, हिमानी से रहा नहीं गया। क्योंकि ट्यूटर इधर कई दिनों से शिवा और नमन दोनों की तारीफ कुछ ज़्यादा ही करने लगा था और आज पढ़ाने भी न आया। फ़ोन करने पर बराबर रिंग जा रही थी, लेकिन वह कॉल रिसीव नहीं कर रहा था।

हिमानी के मन में एकदम से यही बात उमड़ने-घुमड़ने लगी कि, शिवा ने कहीं उसे भड़का कर मना तो नहीं कर दिया। यह बात मन में आते ही उसने न आव देखा न ताव शिवा को फ़ोन कर दिया, मगर फ़ोन उसके बेटे नमन ने उठाया। हिमानी ने उससे बड़े प्यार से कहा,

''नमन बेटा मम्मी कहां हैं? उनसे बात करा दो।''

''मम्मी...मम्मी तो आंटी ऊपर हैं।''

''अच्छा, तुम क्या कर रहे हो?''

''मैं तो पढ़ रहा हूं।''

''अच्छा टीचर जी आए हैं क्या?''

''हां आए हैं।''

''तो बेटा जरा उनसे ही बात करा दो।''

''लेकिन आंटी वो तो ऊपर हैं, मम्मी को पढ़ा रहे हैं।''

''क्या! मम्मी को पढ़ा रहे हैं?''

''हां।''

''तुम्हें कौन पढ़ा रहा है?''

''टीचर जी।''

''ओफ्फो..तुमने तो अभी कहा कि वो ऊपर हैं।''

''हां, वो मुझे पोएम लिखने, ई.वी.एस. का काम करने के लिए कह कर ऊपर मम्मी को पढ़ाने गए हैं।'' 

''अच्छा! बेटा वो मम्मी को कब से पढ़ा रहे हैं?''

''कई दिन से।''

''बेटा याद करके बताओ कितने दिन से।''

''ऊं....आंटी टीचर जी मम्मी को फाइव दिन से पढ़ा रहे हैं।''

''अच्छा! रोज ऊपर ही पढ़ाते हैं और तुम नीचे पढ़ते हो?''

''हां।''

''तो तुम ऊपर नहीं जाते।''

''नहीं, टीचर जी कहते हैं, जब-तक मैं नीचे न आऊं, तब-तक पढ़ाई करते रहना, अपनी जगह से उठना नहीं।''

''बेटा तुम मोबाइल तो मम्मी को जाकर दे सकते हो। मुझे उनसे ज़रूरी बात करनी है। मैं टीचर जी से कह दूंगी वो तुम्हें उठने पर डांटेंगे नहीं।''

''नहीं आंटी, नहीं जा सकता। उन्होंने डांटने के लिए नहीं, पीटने के लिए है कहा है। बोला है कि पढ़ाई छोड़कर उठे तो बहुत पीटूंगा।''

''हूं ठीक है...ठीक है...बेटा मेरी समझ में अच्छी तरह आ गया है कि, तुम्हारी मम्मी कौन सी पढ़ाई कर रहीं है। आश्चर्य तो यह है कि नकली विवेक ओबरॉय पर ही मर मिटीं। वह भी इतनी जल्दी।''

''क्या कह रहीं हैं आंटी?''

''अं....कुछ नहीं, कुछ नहीं। मैं तुमसे कुछ नहीं कह रही थी।''

''अच्छा आंटी मैं फ़ोन रखता हूं, मुझे जोर की शू-शू आई है।''

''हां..बेटा ठीक है जाओ।''

हिमानी फ़ोन काटते हुए बुदबुदाई, आदमी को देश की रक्षा करने से फुरसत नहीं और बीवी को बेटे के ट्यूटर के साथ गुलछर्रे उड़ाने से फुरसत नहीं, और बेटा बेचारा खुद ही स्टूडेंट है, खुद ही अपना ट्यूटर भी। कहीं यह ट्यूटर के ही साथ फुर्र हो गई तो, बेचारा नन्हीं सी जान कहां जाएगा।

लेकिन मैं कर भी क्या सकती हूं। इससे पूछ-ताछ की तो निश्चित ही यह लड़ बैठेगी। बेवजह बखेड़ा खड़ा होगा। ये जानेंगे तो मेरी खैर नहीं। मगर इतना तो जरूर कहूंगी कि, आज फ़ोन करें। अगर वह फ़ोन न रिसीव करे तो, देर रात उसके फादर को फ़ोन कर कहें कि, उससे बात कराएं तब-तक तो पहुंच ही जाएगा घर। उसे पढ़ाना है तो आए, न आना हो तो बताए। मैं दिव्यांश के लिए कोई दूसरा ट्यूटर ढूंढ़ लूंगी। मैं दिव्यांश की पढ़ाई के साथ कम्प्रोमाइज नहीं कर सकती।

हिमानी ने शाम को सारी बातें पति को बताई तो, तुरंत ही वह यकीन न कर सके कि, ऐसा कुछ हो सकता है और हिमानी से कहा कि, ''बिना  कायदे से जाने-समझे, इस तरह की बातें किसी के लिए न किया करो । रही बात फ़ोन करने की तो वह मैं कर लूंगा। हो सकता है वह पढ़ाना ही न चाह रहा हो।''

लेकिन उन्होंने जब ट्यूटर को फोन किया तो उसने न सिर्फ़ पहली ही बार में कॉल रिसीव कर ली, बल्कि शालीनता से अगले दिन पढ़ाने के लिए आने की बात भी कही। यह भी बताया कि, कुछ काम आ गया था इसलिए पढ़ाने नहीं आ सका था।

उसकी बात ने हिमानी को पति के सामने पशोपेश में डाल दिया। लेकिन अगले दिन वह ट्यूटर फिर नहीं आया। हिमानी की कॉल भी रिसीव नहीं की तो उसका गुस्सा बढ़ने लगा। उसने तुरंत शिवा को कॉल किया। लेकिन उसने भी कॉल रिसीव नहीं की।

इस पर वह अपना आपा खो बैठी। बेटे को घर पर ही छोड़कर रिक्शा कर पहुँच गई शिवा के घर। गेट-खोलकर अंदर पहुंची तो दरवाजा खुला मिला। उसने जान-बूझकर न कॉलबेल बजाई और ना ही आवाज दी। एक तरह से दबे पांव दाखिल हो गई।

ड्रॉइंगरूम में उसे उम्मीदों के अनुरूप नमन पढ़ता मिला। पूछने पर उसने फिर कहा, ''मम्मी ऊपर टीचर जी से पढ़ रही हैं।''

यह सुनकर हिमानी ने मन ही मन कहा, आज देखती हूं तेरी मम्मी कौन सी पढ़ाई कर रही हैं। उसने प्यार से नमन के गाल को छूते हुए कहा,  ''ठीक है बेटा, मैं उनसे ऊपर ही जाकर बात कर लूँगी। तुम अपनी पढ़ाई करो।''

हिमानी इतनी उतावली थी शिवा की पढ़ाई देखने को कि, नमन कुछ बोले, उसके पहले ही दबे पांव तेजी से चल दी ऊपर। मित्रता के चलते घर में पहले से आना-जाना था इसलिए घर का कोना-कोना वह जानती थी। उसे कमरे तक पहुंचने में देर नहीं लगी।

जिस कमरे के दरवाजे बंद थे और अंदर लाइट जल रही थी। उसी के दरवाजे पर पहुंच कर उसने अंदर की आहट लेने की कोशिश की। लेकिन कोई आवाज उसे सुनाई न दी। अपने उतावलेपन के कारण वह अपने को चार-पांच सेकेंड से ज़्यादा न रोक सकी। 

हल्के से शिवा का नाम लेते हुए उसने दरवाजे को अंदर को धकेला तो वह एकदम से खुल गया। जितनी तेजी से दरवाजा खुला उतनी ही तेज़ी से वह अंदर को दाखिल भी हो गयी। उसकी तेज़ी से कहीं ज़्यादा अंदर बेड पर टीचर और शिवा हरकत में आए।

फटी-फटी आंखों से, गहरी-गहरी साँसें लेते हुए, वह उन दोनों को अस्त-व्यस्त हालत में देखती रही और शिवा घुटी सी आवाज में क्रोधित होती हुई बोली, ''तुम बिना बताए घर में कैसे घुस आई?''

हिमानी कुछ बोले उसके पहले ही टीचर उसकी बगल से बिजली की फूर्ती से निकल गया नीचे की ओर। हड़बड़ाहट में वह हिमानी का कंधा छीलते हुए निकला था।

हत-प्रभ हिमानी, शिवा की नफरत, क्रोध से काफी हद तक भयभीत हो गई बोली, ''नहीं-नहीं मैं, मैं जा रही हूँ।''

कहकर वह पलटी और दो कदम ही आगे बढ़ी होगी कि, शिवा ने कहा, ''रुको मेरी बात सुनो।''

हिमानी रुक गई तो शिवा ने उसका हाथ पकड़ कर पहले उसे बेड पर ही बैठाया। फिर उसका हाथ पकड़े-पकड़े ही सामने ही एक मोढ़ा खींच कर बैठ गई। उसकी आँखें आँसुओं से भर गई थीं। कुछ देर तक दोनों शांत रहीं। फिर शिवा के नीचे झुके चेहरे को अपने दोनों हाथों से ऊपर करते हुए हिमानी ने कहा,

''परेशान होने की ज़रूरत नहीं। मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी। मगर तुम्हें गेट वगैरह बंद रखना चाहिए था। यहां दरवाजा भी खुला रखा था। कहीं तुम्हारा बेटा ही आ जाता तो? सोचो तुम-दोनों को इस हालत में देख लेता तो तुम्हारी क्या हालत होती।

बच्चा कल को अपने बाप को भी कह सकता है। तब क्या होगा? जीवन तबाह होते देर नहीं लगेगी। पति चाहे जैसे हों, वह अपनी पत्नी को पल भर को भी किसी दूसरे की बांहों में बर्दाश्त नहीं कर सकते। फिर तुम्हारे पति तो फौजी हैं। वो तो जानते ही तुम्हें गोली मार देंगे।

इतनी बड़ी लापरवाही तुम कैसे कर बैठी, मेरा शरीर अब-तक थरथरा रहा है। दिमाग में सांय-सांय सी हो रही है कि, यह सब तुम क्या कर बैठी, सबसे बड़ी बात यह है कि, वह तुम्हारे बच्चे का ट्यूटर है। अभी महीना भर भी नहीं हुआ उसको यहां आते। उसने कौन सा ऐसा जादू कर दिया कि तुम अपनी सुध-बुध खो बैठी।''

''पता नहीं...उसने जादू कर दिया या मैं ही फिसल गई। उस दिन तुमने मजाक में ही कहा था कि, वह विवेक ओबरॉय सा है और कि देखो उसके चक्कर में न पड़ जाना। मगर तब यह सोचा भी न था कि कुछ ही दिन में इस हद तक पहुंच जाऊंगी।

उस दिन रात को जब नमन सो गया था तो अकेले ही टीवी देख रही थी। इनका फ़ोन दिन में आया था कि आज नाइट ड्यूटी है। बॉर्डर पर जहां तैनाती है, वहां आतंकवादियों का बहुत खतरा है। 

बात करते हुए यह बोले, ''जान हथेली पर लेकर ड्यटी करनी पड़ती है। किसी भी वक्त कुछ भी हो सकता है।''

मैने हमेशा की तरह फिर कहा कि, ''चले आइए हमेशा के लिए।'' कुछ और बातें भी कहीं। इस पर वह कुछ नाराज हुए। फिर समझाते-समझाते खुद भी बेहद भावुक हो गए। बोले, 'समझा करो, कौन अपने बच्चे-बीवी के पास नहीं रहना चाहेगा। उन्हें छोड़ कर जान हथेली पर लिए घूमना चाहेगा। लेकिन सब घर में ही बैठे रहेंगे तो कौन करेगा देश और देशवासियों की रक्षा।'

फिर उन्होंने तमाम प्यार भरी बातें कीं। यह भी कहा कि, 'अब की बहुत जल्दी आऊंगा।' उनकी बातों से मैं बहुत भावुक हो गई थी, और..और कुछ उत्तेजित भी। असल में वह जब भी बातें करते हैं.... अब तुम्हें क्या बताऊं, करीब चार सालों से हम-लोग इस नौकरी की वजह से एक होकर भी अलग ही हैं। छुट्टी कुछ ही दिन की होती है। आते ही कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चलता। 

उस दिन टीवी देख रही थी चैनल भी आदत के मुताबिक बदल रही थी। लेकिन दिमाग में इनसे की गईं बातें ही घूम रही थीं। सेक्स संबंधी बातें कुछ ज़्यादा ही घूम रही थीं। उस समय इनसे बात भी नहीं कर सकती थी। बड़ी देर बाद कहीं खुद पर नियंत्रण कर पाई और तब कहीं सोई। 

दरअसल चार साल से रोज ऐसे ही अकेले रात-दिन बीतती है। रात का सन्नाटा, अकेलापन मुझे तोड़ कर रख देता है। हालत यह है कि, पूरे-घर की लाइट ऑन रखती हूं फिर भी डर लगता है। बाथरूम जाने को भी डरती हूं। जी चुराती हूं कि सुबह हो तो जाऊँ। बस यही ज़िन्दगी जिए जा रही हूं। यकीन करो इसके बावजूद मेरे दिलो-दिमाग में कभी भी किसी गैर मर्द के लिए कभी कोई भावना उठी ही नहीं। सामने हों या न हों हर वक्त इनके सिवा किसी को नहीं सोचती।

मगर उस दिन न जाने क्यों विवेक ओबरॉय की बात दिमाग से निकली ही नहीं। फिर जब वह पढ़ाने आने लगा तो मुझे लगा कि, तुमने जितना कहा था, यह तो उससे कहीं ज़्यादा विवेक ओबरॉय से मिलता-जुलता है। उसने कोई खास कोशिश नहीं की थी इसके बावजूद वह असली विवेक ओबरॉय का छोटा भाई लग रहा था। न चाहते हुए भी मेरी नजर बार-बार उस पर चली जाती थी। फिर अंदर-अंदर बातें करने का मन करने लगा। दो दिन में ही उससे खूब बातें करने भी लगी। वह भी खूब बात करता। 

उसके बिंदास अंदाज का मुझ पर बड़ी तेज़ी से असर पड़ रहा था। मुश्किल से पांच-छः दिन ही बीते होंगे कि, उसने एक दिन नमन को करीब घंटे-भर का काम देकर मुझसे बड़े धीरे से कहा, 'नमन को पढ़ने देते हैं। हम-लोगों की बातों से यह डिस्टर्ब होगा। हम लोग दूसरे कमरे में बात करें तो अच्छा रहेगा।'' उसकी इस बात को हां करने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। क्योंकि मैं इम्प्रेस हो गई थी। मैं आश्चर्य में थी कि नमन डिस्टर्ब होता है, यह बात मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई।''

शिवा इसके आगे बोल न सकी क्योंकि तभी नमन नीचे से ऊपर आ गया। हिमानी को लगा नमन के अचानक आने से शिवा मानो सहम सी गई है। हिमानी ने कुछ बोलना चाहा, लेकिन उसके पहले ही शिवा ने बेटे को यह कहते हुए नीचे भेज दिया कि, 'बेटा मैं तुम्हारी आंटी से कुछ ज़रूरी बातें कर रही हूं, तुम नीचे फ्रिज में से अपनी फ्रूटी लेकर वहीं पिओ।' नमन मानो यही सुनना चाहता था। फ्रूटी ड्रिंक उसकी फेवरेट ड्रिंक थी। उसके जाते ही हिमानी ने जैसे ही बोलना शुरू किया शिवा ने उसे टोकते हुए कहा, 

''नहीं हिमानी पहले मेरी बात सुन लो।''

''ठीक है बताओ।''

''नमन के डिस्टर्ब होने की बात मेरे मन में थी, और मैं टीचर की बात से एकदम से सम्मोहित सी थी। उठकर दूसरे कमरे में आ गई। पीछे-पीछे वह भी आ गया। नीचे जिस कमरे में हम पहुंचे वहां केवल दो स्टूल और एक तखत पड़ा हुआ है। जिस पर कोई बिस्तर भी नहीं है। मैंने सोचा यह कुछ ऐसी बातें करना चाह रहा होगा, जो नमन के सामने नहीं कर सकता। इसी लिए अलग हटने की बात कही। मगर अंदर आए तो बात कल्पना से परे निकली।

''कल्पना से परे निकली?''

''हां...पहले उसने मुझे काफी हद तक चौंकाया, अंदर आते ही दरवाजे को भेड़ कर, फिर पूरा पर्दा खींच कर। मैं कुछ समझती इसके पहले ही आकर एकदम बेधड़क होकर मुझे बाहों में भर लिया। मैं एकदम से चिंहुँक पड़ी। घुटी-घुटी आवाज में कहा, 'ये क्या कर रहे हो? इसके आगे मैं कुछ न बोल पायी, उसने कसकर मेरे होंठों को अपने मुंह में दबा लिया। मुझे इतना कस कर भींच कर पकड़ रखा था कि, कसमसा भी नहीं पा रही थी। उसमें बड़ी ताकत है। इस बीच वह एकदम पगलाया हुआ अजीब-अजीब हरकतें करने लगा। वह हांफ अलग रहा था। 

हांफ मैं भी रही थी और शरीर में बढ़ता तनाव मुझे बेबस किए जा रहा था। मैं जैसे झूल सी गई थी उसकी बांहों में। तभी वह मुझे लिए-लिए तखत पर लेट गया। खट् से हुई आवाज़ से मैं थोड़ा हकबकाई। मगर अपने को अलग नहीं कर पाई। 

उसकी बिजली की सी तेज़ी से हो रही हरकतों के कारण मेरे सारे कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए। साड़ी उसने कमर से ऊपर उलट दी। इसी उठा-पटक के बीच फिर तखत पर खट् से कुछ तेज़ आवाज हुई तो, मैं सकते में आ गई। 

एकदम डर गई कि नमन आ गया तो मैं बेमौत मारी जाऊंगी। यह बात मन में आते ही मैंने किसी तरह उसके मुंह पर हाथ रख कर पीछे धकेला और फुर्ती से उठकर खड़ी हो गई। गुस्सा होते हुए कहा, 'होश में आओ नहीं मैं चिल्ला पड़ूँगी।'

खड़ी होने पर मेरी अस्त-व्यस्त साड़ी नीचे आ गई, और मेरा बदन ढक गया। फिर ब्लाउज वगैरह सब ठीक कर बाहर को चलने को हुई तो उसने फिर पकड़ने की कोशिश की। हाथ तक जोड़ लिया कि, मैं रुक जाऊं लेकिन मैं बाहर चली आई नमन के पास। 

पीछे-पीछे कुछ ही देर में वह भी आ गया। मैंने मार्क किया कि नमन कुछ अजीब सी नज़रों से हमें देख रहा है। मैं इससे अंदर ही अंदर सहम गई। मैंने उसके ध्यान को बंटाने के लिए कहा, 

'बेटा टीचर सोच रहे हैं कि, तुम्हें कल से उस कमरे में पढ़ाएं। इसीलिए उन्हें कमरा दिखाने ले गई थी।' फिर टीचर की ओर देखकर कहा, '    कल से नमन को उस कमरे में पढ़ाइए। वह कभी मुझे देखता कभी नमन की ओर, इसके बाद कुछ समय पहले ही चला गया।

''तुम चाहती तो उसे अगले दिन से पढ़ाने आने के लिए मना कर सकती थी।''

''हां....मगर बात ये थी कि मैं उसके....उसके...मतलब उसके जादू में फंसी हुई थी। उसके जाने के बाद भी मुझे ऐसा लग रहा था मानो, मैं उसी की बांहों में कैद हूं और वो बार-बार मुझे प्यार किए जा रहा है। इस बीच नमन जो कुछ कहता, मैं बस हां, हूं में उसका जवाब देती किसी मशीन की तरह। 

मैं इतना बेचैन हो गई कि अंततः बाज़ार चली गई और तमाम ऐसे सामान भी खरीद लाई जिनकी वास्तव में उस समय ज़रूरत ही नहीं थी। यहां तक कि, नमन ने जो भी कहा वह सब भी खरीद डाला। 

चार सौ रुपये के उसने खिलौने ही खरीदवा लिए। जिस चीज के लिए गई थी बाहर कि, उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा सकूं, वह नहीं हो पाया, हुआ उसका उल्टा। उसी के ख़याल में और गहरे उतरती चली जा रही थी।

इधर-उधर घूमते-घामते आठ बजे घर आई मगर उसको एक पल को भुला नहीं पाई। घर आई तो नमन के चलते खाना बनाया। नमन को तहरी पसंद है, तो उसका फायदा उठाते हुए तहरी डाल दी। फिर उसे खिला पिला कर सुला दिया 

''और खुद खाया था।''

''नहीं। मन ही नहीं हो रहा था। फिर अचानक ही दस बजे उसका फ़ोन आ गया। उसका नंबर देखते ही मुझे न जाने क्या हो गया कि एकदम से रिसीव कर लिया, जैसे कि न जाने कितने दिनों से उसकी प्रतीक्षा में थी। हैलो बोलते ही उसने कहा, 'हाय सेक्सी-सेक्सी डॉर्लिंग क्या कर रही हो?'

मैंने कहा ये क्या बदतमीजी है, इस पर बड़ी ढिठाई के साथ उसने कहा, 'डॉर्लिंग क्यों बेकार में ड्रामा कर रही हो। तुम मेरी ज़रूरत हो, मैं तुम्हारी ज़रूरत हूं। यही सच है। इतनी छोटी सी बात मानने में तुम्हें इतनी देर क्यों लग रही है?'

इस पर मैंने थोड़ा झिड़कते हुए कहा, 'देखो ये सब फालतू की बातें मत करो, मेरा पति है, बच्चा है। मुझे किसी की जरूरत नहीं है। समझे।' 

इस पर वह फिर बोला, 'यही तो मैं तुम्हें समझाना चाह रहा हूं कि, तुम्हें वास्तव में किसी और पति और बच्चे की ज़रूरत ही नहीं है। वो तो तुम्हारे साथ हैं ही। तुम्हें  तो सिर्फ़ एक ऐसे मर्द साथी की ज़रूरत है, जो पति के बाद भी तुममें बची रह गई, प्यार की ज़रूरत को पूरी ईमानदारी से पूरा कर सके, वो मैं कर सकता हूं, इसका मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं।' 

उसकी इस बात से मुझे ऐसा अहसास हुआ मानो शरीर में अचानक ही कहीं कुछ चुभ गया है। मगर तुरंत अपने को संभालते हुए बोली, 'देखो मेरा पति जी भर कर मुझे प्यार देता और लेता है, मुझे किसी और की ज़रूरत नहीं। मेरे पति की जगह कोई और ले ही नहीं सकता! समझे।'

मेरी इस बात पर वह थोड़ा झुंझलाते हुए बोला, 'ओफ्फो तुम कैसी औरत हो। यार तुम औरतों की सबसे बड़ी प्रॉब्लम यही है कि, मन की बात कहने से डरती हो। 

मैं बार-बार कह रहा हूं कि, तुम्हारे पति की जगह कोई ले ही नहीं सकता। मैं तुम्हारा एक सच्चा दोस्त बनना चाहता हूँ। जो अभी तक तुम्हारे पास कोई है ही नहीं। जिस तरह तुम्हारे पति की जगह कोई नहीं ले सकता, ठीक उसी तरह तुम्हारे दोस्त की जगह कोई नहीं ले सकता। इतनी मामूली सी बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रही है।

ज़िंदगी का जो सुख दोस्त दे सकता है, वो पति नहीं और जो पति दे सकता है, वो दोस्त नहीं और मैं यही सुख तुम्हें देना चाहता हूं। क्योंकि तुम्हें इसकी सख्त ज़रूरत है, और मुझे तुम्हारी सख्त ज़रूरत है। हम दोनों एक दूसरे की ज़रूरत पूरी करें, यही आज की ज़रूरत है।

उसकी यह बात मुझे गड्मड् करने लगी। फिर भी थोड़ी सख्त बनने की कोशिश करते हुए कहा, 'देखो तुम्हारी ये बातें मेरी समझ में नही आ रही हैं। मेरे पति का फ़ोन आने वाला है, अब फ़ोन रखो।' इस पर उसने यह शर्त रख दी कि पति से बात करने के बाद उसे फ़ोन करूंगी। 

मेरे लाख मना करने पर भी नहीं माना। तो मैंने फ़ोन काट दिया। इस पर उसने बार-बार फ़ोन करना शुरू कर दिया। अंततः मुझे कहना पड़ा कि, जब इनसे बात हो जाएगी तब करेंगे। हालांकि इनका फ़ोन आने की कोई संभावना नहीं थी, लेकिन संयोग से इसके फ़ोन रखते ही इनका फ़ोन आ गया।

कुछ देर ही बात हो पाई। इसके बाद मेरे दिमाग में इस बात को लेकर उथल-पुथल मच गई कि, फ़ोन करूं कि न करूं। इस उधेड़बुन में ग्यारह बज गए। मुझे नहीं नींद आ रही थी और न ही यह तय कर पा रही थी कि, फ़ोन करूं कि न करूं।

अब-तक उसका भी फ़ोन नहीं आया तो मैंने समझा कि, वो सो गया होगा। मगर मैं गलत थी, थोड़ी ही देर बाद उसका फ़ोन आ गया। रिसीव करूं न करूं यही सोचते-सोचते रिंग खत्म हो गई। इसके बाद ऐसा तीन बार हुआ।

कॉल रिसीव न करने पर उसने एस.एम.एस. किया कि, 'फ़ोन नहीं उठाएंगी तो मैं अभी घर आ जाऊंगा। मैं जानता हूं कि आप जाग रही हैं, और यह भी जानता हूं कि, आप मुझे रोक भी नहीं पाएंगी।' यह पढ़कर मैं बेहद पशोपेश में पड़ गई।

उसकी यह बात सच थी कि, मैं उसी के कारण सो नहीं पा रही थी। यह उधेड़बुन और बढ़ती कि इसी बीच फिर उसकी कॉल आ गई। रिंग सुनते ही मुझे न जाने क्या हो गया कि, मैंने एक झटके में कॉल रिसीव कर बोल दिया, 'हैलो' तो उसने तुरंत ही करीब हंसते हुए कहा, 

'मेरा अनुमान सही था कि, तुम जाग रही हो, मेरे लिए जाग रही हो।' उसकी इन बातों से मैं समझ गई कि, वह बेहद तेज़-तर्रार और बिंदास किस्म का है। वह बहुत अच्छी तरह जानता है कि, कब? क्या? कितना कहना है।

इसे आधे-अधूरे मन से रोकना संभव नहीं, और मैं पूरे मन से कोशिश कहां कर रही हूं। कुछ सेकेंड चुप रहकर मैंने कहा, 'क्या बकवास कर रहे हो तुम! आखिर तुम चाहते क्या हो?' इस पर वह कुछ गंभीर आवाज़ में बोला, 'हां..तुम्हारी, हां चाहता हूं।' 

उसकी इस बात पर मैं कुछ असहज सी हो गई और थोड़ा अटपटाते हुए कहा,  'किस बात की हां चाहते हो?'

इस पर वह बोला, 'जानते हुए क्यों अनजान बन रही हो?'

सच यही था कि, मैं जान रही थी कि, वह किस बात की हां चाह रहा था, मैं जानबूझकर अनजान बन रही थी।'' 

''तो वो जो चाह रहा था, उसके लिए तुमने 'हां' कर दी। 

''नहीं...सुनो तो पहले, लेकिन पहले यह बताओ कि, क्या तुम समझ गई कि, वह किस बात के लिए 'हां' चाहता था।

''हां, जितना तुमने बताया उससे एकदम साफ है कि, वह तुम्हारे साथ सेक्स के लिए ही 'हां' चाहता था। जिस तरह दिन में उसने तुम्हारे साथ व्यवहार किया। कमरे में तुम्हारी साड़ी उलट कर तुम्हें बेपर्दा कर दिया, और फिर तुम नमन के चलते वहां से किसी तरह भागी। 

लेकिन इस सबके बावजूद उसे घर से डांट-डपट पर बाहर नहीं खदेड़ा, इससे वह यह यकीन कर बैठा कि, तुम स्वयं तैयार हो, केवल घर में बेटे के चलते ही भागी। इसीलिए उसकी हिम्मत सातवें आसमान पर थी। वो तो केवल बात बिल्कुल पक्की करने के लिए तुमसे 'हां' कहलवा रहा था। और जैसा तुम बता रही हो, उससे यह तो साफ है कि, वो पहल करे इसके लिए रास्ता तुम्हीं ने तैयार किया। मैं गलत तो नहीं कर रही?''

''सुनो हिमानी....देखो मैं बहुत कन्फ्यूज हूं, मैंने सोच-समझ कर कुछ नहीं किया। वास्तव में मैंने कुछ किया ही नहीं समझी, ना जाने सब कैसे हो गया। सब अपने आप होता चला गया। मेरा यह भी कहने का मन होता है कि, मेरी कोई गलती नहीं। पता नहीं मैं क्या कह रही हूं। मेरी समझ में नहीं आ रहा है।''

''इतना टेंशन लेने की ज़रूरत नहीं है। दुनिया में यह सब जमाने से होता आ रहा है। फ़र्क इतना है कि कभी कम कभी ज़्यादा। खैर, फिर तुमने उसको क्या जवाब दिया। सेक्स के लिए तुमसे हां कहलाना चाह रहा था तुमने हां कर दी?''

''नहीं, मैं अनजान बनी रही कि, किस बात के लिए वह 'हां' कहलाना चाह रहा। इस पर वह खीझ कर बड़े फूहड़ शब्दों में बोला, 'तुम ड्रॉमा अच्छा कर लेती हो। लेकिन मैं तुम्हारी तरह एक्टर नहीं हूं। सीधे बात कह रहा हूं, इसलिए साफ-साफ कह रहा हूं कि, दिन में तुम्हारे साथ सेक्स की मैंने जो कहानी अधूरी छोड़ी थी,  बल्कि सिर्फ़ मैंने नहीं, तुमने भी। 

यानी तुमने और हमने, दिन में तुम्हारे बेटे के कारण जो कहानी अधूरी छोड़ी थी, उसे पूरा करने के लिए तुम्हारी, 'हां', साफ-साफ 'हां', सुनना चाहता हूं। अब ये नहीं कहना कि, मैं समझी नहीं। क्योंकि समझ तो तुम मुझसे ज़्यादा रही हो। जितना मैं तुम्हारे तन-बदन को छूकर, देखकर एक्साइटेड हूं, उससे कहीं ज़्यादा, तुम भी मेरे तन-बदन को देख कर तड़प रही हो। 

ऐसा नहीं होता तो, इतनी रात गए मुझसे बात नहीं करती, और दिन में ही मुझे मार कर भगाती समझीं। एकदम साफ बात ये है कि, हम-दोनों एक दूसरे के साथ सेक्स करने को बेताब हैं। इसीलिए अभी तक जाग रहे हैं, और उसी के बारे में बात भी कर रहे हैं, और कल मैं तुम्हारे साथ किसी भी सूरत में सेक्स करना चाहता हूं। इसी के लिए तुमसे अभी के अभी, 'हां' सुनना चाहता हूं.....इतनी देर से मैं बोले जा रहा हूं तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?'

उसकी यह बेखौफ होकर कही गईं बातें मेरे तन-बदन में सनसनी सी पैदा कर चुकी थीं। कुछ बोलती क्यों नहीं? उसकी यह बात सुनकर मैं जैसे नींद से जागी और झटके में बोल दिया, 'देखो मैं तुम्हारी कोई बात नहीं समझ रही, फ़ोन रखो समझे।'

इस पर वह भड़कते हुए बोला, 'देखो, ये खंड-खंड पाखंड का अखंड पाठ बंद करो। फ़ोन अब मैं तब बंद करूंगा जब तुम एक शानदार किस करोगी। उतना ही शानदार जितना शानदार तुम्हारा बदन है, और इतना तेज़ कि यहां तक आवाज़ सुनाई दे। जल्दी, जल्दी करो।'

हिमानी शिवा के चेहरे को बड़े ध्यान से देख रही थी मानो उसे पढ़ने की कोशिश में लगी हो। शिवा के चुप होते ही उसने फिर कुरेदा। 

'तो तुमने उसे किस कर लिया।'

'अं....नहीं उसकी इस बात पर मैंने फ़ोन काट दिया। इस पर उसने फिर तुरंत फ़ोन किया। मैंने रिसीव नहीं किया तो, तुरंत एस.एम.एस. आया कि, 'बात करो नहीं तो अभी आता हूं।' एस.एम.एस. पढ़ ही पाई थी कि फिर फ़ोन आ गया। 

मैंने जैसे ही रिसीव किया वह तुरंत बोला, 'चलो मैं ही शुरुआत करता हूं।' फिर फ़ोन पर इतनी तेज़ किस किया कि मानों फ़ोन पर ही खींच लेगा अपने पास। फिर हालात ऐसे पैदा किये कि मुझे भी वैसा ही करना पड़ा। जैसे ही मैंने यह किया तो वह हंसते हुए बोला, 'आखिर तुमने 'हां', कर दी।'

मैंने छूटते ही कहा, 'क्या?' तो वह हंसते हुए बोला, 'इससे ज़्यादा साफ, स्पष्ट 'हां', और कैसे कहोगी कि, बजाए जुबान से बोलने के तुमने किस करके 'हां' की। अब कल नमन नीचे पढ़ेगा। हम-तुम ऊपर कमरे में तन-बदन की पढ़ाई करेंगे।'

इस पर मैं तिलमिला कर बोली कि, 'कल से पढ़ाने मत आना।' तो फिर वह हंसते हुए बोला,

'मैं कल ज़रूर आऊंगा। अगर तुम वाकई तन-बदन की पढ़ाई मेरे साथ नहीं करना चाहती, तो मुझे गेट से ही डांट कर भगा देना मैं कुछ नहीं बोलूंगा। चुपचाप चला आऊंगा फिर कभी नहीं मिलूंगा। यदि ऐसा नहीं किया तो, मैं तुम्हारे साथ पढ़ाई करूंगा। 

फिलहाल मैं बाकी की रात तुम्हारे इस हॉट-हॉट किस और उससे भी ज़्यादा दिन में जो तुम्हारे तपते बदन की तपिस मिली है, उसी तपिस के साथ बिताऊंगा और निश्चित ही तुम भी यही करोगी। मेरे हॉट किस, जलते बदन की तपिस से तुम भी करवटें बदलोगी। सचाई कल हमारी-तुम्हारी आँखें बता देंगी।'

इतना कह कर उसने एक बार फिर किस किया और गुडनाइट कह कर फ़ोन काट दिया।''

शिवा इतना कह कर चुप हो गई। चेहरे पर कुछ राहत सी दिख रही थी, मानो कोई बड़ा काम अंततः किसी तरह पुरा कर ही लिया। चेहरे पर पसीने की चमक दिख रही थी। मगर हिमानी सब कुछ जान लेने से कम पर तैयार नही थी। वह उसके और करीब जा कर बोली,

''हूं....बेहद सनसनी पूर्ण हैं तुम्हारी बातें। तो इसके बाद तुम सो गई या जागती रही उसके 'किस' और उसको 'किस' करके।

'हूं....अब तुम बताओ मेरी जगह तुम होती तो क्या करती। तुरंत सो जाती या करवटें बदलती या उसकी ही कल्पना में बेड पर उलटती-पलटती रहती।''

''मैं?''

''हां तुम, तुम क्या करती?''

''तुमने तो बड़ा असमंजस में डाल दिया।''

''असमंजस नहीं हिमानी। बहुत साफ-साफ और सही-सही जवाब देना, क्योंकि तुम्हारे जवाब पर मेरे भविष्य की एक नई राह या तो रोशन होगी या अंधकारमय हो जाएगी या फिर समाप्त हो जाएगी। इसलिए जो कहना सही कहना।''

''ठीक है, सही ही कहूंगी। शायद कुछ देर उसकी बातों, उसकी किस और क्योंकि खुद भी किस किया हुआ है, तो ऐसे में करवटें बदलती, इधर-उधर टहलती और शायद ख़यालों में उसे ही लिए-लिए सो जाती।''

''यह सब शायद करती।''

''अब शायद ही कह सकती हूं। जब उस हालात से गुजरी नहीं तो साफ-साफ कैसे कह सकती हूं।''

''देखो कुछ हालात ऐसे होते हैं जिनके परिणाम तय होते हैं। बेड पर दिन भर के काम-धाम के बाद पति-पत्नी मिलते हैं, आपस में चिपटते हैं तो उनमें उत्तेजना पैदा ही होगी, और मैंने जिस हालात की बात की है उसमें भी चाहे आदमी हो या औरत, उत्तेजना में वह भी जल्दी सो नहीं पाएगा। सेक्स की भावना में खोया देर तक जागेगा।''

''क्या शिवा, पूरी दुनिया की कहानी बता रही हो, लेकिन खुद क्या किया उस बारे में नहीं बोल रही हो।''

''बता तो रही हूं, बड़ी देर तक उसी में खोई इधर-उधर टहलती रही, करवटें बदलती रही, बहुत देर बाद नींद आई। सुबह अलार्म नहीं बजता तो नमन को टाइम से स्कूल नहीं भेज पाती।''

''हां जब देर से सोओ तो, सुबह नींद कहां खुल पाती है। खैर फिर शाम को क्या हुआ? उसको रोका या क्या किया?''

हिमानी के इस प्रश्न से शिवा कुछ देर चुप रही, फिर बिना किसी हिचक के बोली, 

''शाम को जब वह पढ़ाने आया तो रोज की तरह गेट खोलने मैं नहीं गई। नमन ने गेट खोला। मैं उस कमरे में भी नहीं गई, जहां वह उसको पढ़ाता है। दूसरे कमरे में रही कि, उससे नजरें ही न मिलाऊं, दूर बनी रहूं। वह चला जाएगा पढ़ा कर।''

''लेकिन उसने तो तुमसे रात में ही कह दिया था कि, यदि तुमने उसे गेट से ही मना नहीं किया तो, वह यही समझेगा कि, तुमने उसके साथ सेक्स के लिए 'हां' कर दी है। और तुमने यही किया, नमन से गेट खुलवा कर उसे अपनी 'हां' बता दी थी।''

''मैं उसके सामने नहीं पड़ना चाहती, जिससे कि उसे देखकर कहीं कमजोर न पड़ जाऊं। इसलिए दूसरे कमरे में बनी रही कि, वह बेरुखी से नाराज होकर चला जाएगा।''

''लेकिन इसे उसने तुम्हारी हां मान ली, और तुम जिस कमरे में थी वहां पहुंच गया।''

''नहीं वो बहुत चालाक है। नमन को जल्दी-जल्दी काम देकर इतनी तेज़ आवाज़ में बोलना शुरू किया कि मैं सब सुन सकूं। नमन से कहा, 'आप यह सब काम पूरा करो, तब-तक मैं तुम्हारी मम्मी को इंगलिश बताता हूं, जिससे वो तुम्हें मेरे न आने पर भी ठीक से पढ़ा सकें। तुमको डिस्टर्ब न हो, इस लिए उन्हें मैं ऊपर कमरे में पढ़ाऊंगा।'' इतना कह कर वह तेज़ आवाज में ही, एक सख्त टीचर की तरह बोला, 'आइए, आप भी आइए, टाइम वेस्ट मत करिए। जल्दी करिए।' 

यह कहकर वह उसी कमरे में आने लगा जिसमें मैं थी। शायद वह सटीक अनुमान लगा चुका था कि, मैं किस कमरे में हू। अंततः मैं उसके सामने आ गई। पहले से ही उसकी आवाज़ सुन-सुन कर कमजोर पड़ रही मैं, उसके सामने पड़ कर एकदम आज्ञाकारी स्टूडेंट बन गई। बदन पर चींटियां सी रेंग रही थीं। मैं टालने के लिए उससे यह भी नहीं कह सकी कि, नमन डिस्टर्ब नहीं होगा इसी कमरे में पढ़ाइए।''

''कह भी तो नहीं सकती थी, क्योंकि जो पढ़ाई तुम-दोनों करने वाले थे, वह तो सबकी नज़र बचाकर अलग कमरे में ही हो सकती थी। खैर तुम मना भी तो कर सकती थी कि, तुम्हें पढ़ना ही नहीं। उसे लेकर ऊपर जाती ही न।''

''सब कर सकती थी, मगर वह कुछ करने ही नहीं दे रहा था। मैं उसे ऊपर लेकर जाऊं, उसके पहले ही वह ऊपर जीने की तरफ बढ़ता हुआ बोला, 'आइए, जल्दी आइए, मेरे पास टाइम कम है। अभी नमन को भी देखना है।' 

वह लंबे कदमों से जीने पर चढ़ने लगा। अपनी लंबाई का वह पूरा फायदा उठा रहा था। वह ऊपर चढ़ गया, तब-तक मैं नीचे ही खड़ी रही असमंजस में खुद से लड़ती हुई। एक नज़र नमन पर डालती फिर ऊपर सीढ़ियों के दूसरे सिरे पर। तभी उसने फिर बड़े अधिकार से कहा, 'प्लीज जल्दी आइए मेरे पास फालतू टाइम नहीं है।' 

उसकी इस बात से मैं एकदम से हार गई खुद से। और नमन पर एक नज़र डाल कर कहा, 'बेटा मन लगाकर पढ़ना, नहीं टीचर जी डांटेंगे। मैं ऊपर हूं।'

अब-तक मेरी साँसें  धौंकनी सी चलने लगी थीं। गहरी साँसें और शरीर में जगह-जगह बढ़ते जा रहे तनाव को लिए मैं ऊपर कमरे के दरवाजे के बीच पहुंची ही थी कि, उसने बेहिचक मेरा हाथ पकड़ कर अंदर खींच लिया। मैं कुछ समझती कि, इसके पहले ही उसने झुक कर मुझे काफी नीचे से पकड़ कर ऊपर उठा लिया। मेरा चेहरा एकदम उसके चेहरे के सामने था।

मैं एकदम जैसे संज्ञाशून्य सी उसे देखे जा रही थी। मेरे दोनों हाथ उसके कंधों पर थे। मेरी आंखें देखते हुए उसने कहा, 'मैं जानता था तुम मना नहीं कर सकती थी, क्योंकि  तुम्हें भी मेरी उतनी ही जरूरत है, जितनी मुझे तुम्हारी। हम-दोनों किसी रिश्ते का कोई बोझ नहीं ढोएंगे, बस एक दूसरे को जीवन का मजा देंगे, लेंगे और....

''तुमको वो ऐसे उठाए हुए था, और तुमने उससे एक बार भी नीचे उतारने के लिए नहीं कहा।

'' सुनो तो पहले, मैं उस समय अजीब सी हालत में थी। बस गहरी-गहरी सांसें लिए जा रही थी, फिर अचानक ही उसने मेरा निचला होंठ अपने होठों के बीच में लेकर कसके चूस लिया। मैं एकदम गनगना उठी ऊपर से नीचे तक। फिर कंधे पर रखे अपने दोनों हाथों से उस पर दबाव डालने लगी नीचे उतारने के लिए। 

इस पर उसने जान-बूझ कर इस तरह नीचे उतारा धीरे-धीरे कि, मेरी साड़ी सिकुड़ती हुई उसके ही हाथ में फंसी रह गई। मैं एकदम बेपर्दा हो जाने के कारण, एकदम से कसमसा उठी तो, उसने मुझे बिना कोई मौका दिए, एकदम गोद में उठा लिया, जैसे बच्चे को दोनों हाथों से गोद में उठाया जाता है। फिर लेकर बेड पर आ गया।''

''वह यह सब करता रहा और तुम कुछ बोल नहीं पा रही थी या कुछ कर नहीं रही थी।''

''मैं कर तो रही थी, वह जैसे जो कर रहा था, मैं करने दे रही थी, तभी तो वह कर रहा था।''

''फिर इसके बाद तुम दोनों ने खूब पढ़ाई की तन-मन की। नहीं ये कहें कि सिर्फ़ तन की।''

''हाँ सिर्फ़ तन की। उसने पहले ही कह दिया था कि, हम किसी रिश्ते का बोझ नहीं ढोते।'

''वाकई मस्त कर देने वाली है तुम्हारी पढ़ाई। जब तुमसे सुनकर इतना सुरूर पैदा हो जा रहा है तो, यह सब करते हुए तुमने तो सारे जहां का मजा लूट लिया होगा यार, क्यों है न?''

''अब जो चाहो कह सकती हो।''

''खैर उसकी इस बात में कितना दम है कि, तुम्हें सेक्स का जो मजा पति नहीं दे सकते, वह वो दे सकता है।''

''पति.वो दोनों की अपनी.अपनी बात है। दोनों अपनी जगह एक.दूसरे से अलग हैं।

''मैं मतलब नहीं समझी।''

''मतलब पति में कोई जल्दबाजी नहीं होती। घर में आराम से अपने मन पसंद खाने का निश्चिंत होकर मजा लेने जैसा अनुभव होता है। जबकि उसके साथ अनुभव कुछ ऐसा, जैसे किसी शानदार-शादी पार्टी में तरह-तरह के पकवानों का जल्दी-जल्दी मजा लेना। बस कह सकते हैं, दोनों का अपना ही मजा है। एक घर का खाना है, दूसरा बाहर का फास्ट-फूड''

''वाह यार क्या बात कही है। ये सुनकर तो मेरा भी मन ललचाने लगा है। खैर ये पढ़ाई कितनी देर तक चली। जो नए-नए व्यंजन चखे उनके बारे में बताओगी कुछ।''

''लगता है मन तुम्हारा भी बल्लियों उछल रहा है, क्यों?''

''क्यों नहीं उछलना चाहिए। दुनिया में दावतें कौन नहीं उड़ाना चाहता।''

''बिल्कुल, तुम भी उड़ाओ, ढूंढों कोई पार्टी।''

''खैर बताओ आगे क्या हुआ?''

''बताना क्या यार, जो बातें हम-लोग सुनते हैं न कि, टीवी, इंटरनेट ने नई जेनरेशन को अपनी पिछली जेनरेशन से मीलों आगे कर दिया है, मैं तो कहती हूं, मीलों नहीं सैकड़ों मील आगे कर दिया है। पोर्न साइट्स, लिटरेचर, जो भी हैं दुनिया में, वह उन सब से जुड़-कर, पुरा मास्टर हो गया है सेक्स में। खुद के साथ-साथ अपने पार्टनर को भी कैसे पूरा मजा दिया जाए, इसका उसे पूरा ज्ञान है। जिसका अमूमन हमारे पतियों को नहीं होता।''

''क्या कह रही हो? ऐसा क्या किया उसने?''

''उसने जो भी किया, जैसा भी किया, पति की किताब में उसका ज़िक्र ही नहीं है। इसलिए उस तरह के अनुभव की उनके साथ कल्पना ही नहीं की जा सकती। उसने उस एक घंटे में ही, हर बार एक नयापन, एक नई ताज़गी से भरा अनुभव दिया। पति की तरह हर अध्याय एक सा नहीं था।''

''अरे यार साफ-साफ बताओ न कि, हर बार वो क्या नया करता था कि, तुम एकदम उसकी दिवानी हो गई हो। पति भी मर्द है, वो भी मर्द है, आज के ही युग के हैं दोनों, फिर ऐसा क्या कि, वो बिल्कुल अलग है, दिवाना कर देने वाला है।''

''नहीं हिमानी यह गलत है कि, दोनों आज के मर्द हैं। पति उस समय की सोच रखने वाला है, जब इंटरनेट, फेसबुक, चैटिंग, ट्विटर जैसी चीजों की पैठ हमारे जीवन में नहीं थी। हम घर में पकौड़ी बना के खा लिया करते थे।

पिज्जा, के.एफ. सी. के चिकन, मॅकडोनल्ड्स का मजा नहीं जानते थे, और टीचर इंटरनेट, फेसबुक, चैटिंग, ट्विटर के जमाने का है। वह पकौड़ी नहीं, पिज़्जा, चिकन, मॅकडोनल्ड्स की जेनरेसन का है। हर क्षण एक बदलाव भरा अनुभव, खुलापन उसकी ज़िंदगी है। 

उसने इन चंद दिनों में ही बता दिया, करके दिखा दिया कि, हमारे पति ही थकाऊ, एकरस ज़िन्दगी के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं, बल्कि हम भी इसके लिए बराबर के ज़िम्मेदार हैं, बल्कि हम लोग ज़्यादा हैं।''

''क्या?''

''हां, जरा सोचो न हम लोग क्या करते हैं अपने पतियों के साथ एकांत क्षणों में। अभी शादी के दस साल भी नहीं हुए, लेकिन जरा बताओ तो कितनी बार खुलकर बिस्तर पर उनके साथ होते हैं। अपने मन की करते हैं, या वो जो कहते हैं, वो करते हैं। बस एक ही रटी-रटाई ज़िंदगी रोज जीते हैं। 

परिणाम यह होता है कि, चंद बरसों में ही हम बोर हो जाते हैं। चीखते चिल्लाते हैं बच्चों पर। एक चिड़-चिड़ी ज़िंदगी जीते हैं। उस दिन मैं तुमसे बोल रही थी न कि, नमन जब तक सोता नहीं, परेशान किए रहता है। लेकिन इसने जब से ज़िन्दगी के कुछ पन्ने नए अंदाज में पढ़ाए, तबसे अब उसी नमन की शैतानियां खिजाती नहीं, चिड़-चिड़ा नहीं बनातीं। 

मैं उसके बेबाक अंदाज, खुलेपन, बिंदास आदत और इस आदत में छिपे मौज-मस्ती के हिलोरें मारते सागर को देखकर एक दम अचंभित हूं। और उसी से इतनी हिम्मत मिली है कि, ये कह पा रही हूँ कि, इस मस्ती भरे सागर में डूबते-उतराते रहना चाहती हूँ।

मैं जी-भर के ज़िंदगी जीना चाहती हूं। और तुमसे भी कहती हूँ, बड़ी अनमोल है ज़िंदगी, और साथ ही बहुत थोड़ी भी। यूं बर्बाद मत करो। वक़्त निकल जाने के बाद आंसू बहाने की मूर्खता करके, ज़िन्दगी को क्यों बर्बाद करना चाहती हो?'' 

''तुम कहना क्या चाहती हो शिवा?''

हिमानी ने अर्थ-भरी नज़र से शिवा की आँखों में झांकते हुए पूछा, तो शिवा ने उसके चेहरे की ओर करीब जाते हुए कहा,

''तुम भी मेरी तरह इस मौज-मस्ती के सागर में डूबो। खूब गहरे डूबकर पूरा मजा लो। देखो कितनी शानदार है ये ज़िंदगी। जिसे हम-लोग अपने हाथों से उबाऊ-थकाऊ बना कर, दिन-भर हाय-हाय कर रही हैं।''

''ये तुम क्या कह रही हो? इस क्षण-भर की मौज-मस्ती में कहीं बात पति तक पहुंच गई तो, ज़िंदगी के नर्क बनते भी देर नहीं लगेगी। हमारा अच्छा-खासा खुशहाल परिवार इस नर्क की आग में जलकर क्षण में राख हो जाएगा।''

''ओफ्फ इतनी देर में तुम कुछ नहीं समझ पाई। ज़िंदगी नर्क तब बन जाती है, जब हम पति के रहते किसी और से भी इश्क लड़ाने लगते हैं। पति के हिस्से का टाइम प्रेमी के बारे में सोचने, उससे मिलने की जुगत में लगा देते हैं। बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देते। 

जब कि मैं जिस बारे में कह रही हूं वह इश्क है ही नहीं। इसके उलट एक ऐसी चीज है, जिसमें किसी चीज़ की चिंता नहीं है। बल्कि बेफ़िक्री है। जिस में कुछ देर की मौज-मस्ती के बाद ज़िंदगी खिल-खिला उठती है। 

हम एक नई ऊर्जा के साथ अपने पति-बच्चों के काम में लग जाते हैं। हमारा घर और खुशहाल हो जाता है। सोचो इस बात के बारे में जल्दी सोचो। कहां इससे हमारी ज़िंदगी नर्क बनेगी। हमारी ज़िंदगी में सिर्फ मज़ा ही मज़ा होगा। बोलो होगा कि नहीं?'' 

''यह कहते-कहते शिवा ने हिमानी को दोनों हाथों से पकड़ कर हल्के से हिला दिया और आंखों में बराबर देखती रही। इसपर हिमानी के भी दोनों हाथ बरबस ही शिवा के दोनों कंधों पर पहुंच गए। कुछ क्षण दोनों एक दूसरे को देखती रहीं फिर हिमानी ने गंभीर स्वर में कहा,

''शिवा तुम्हारी बातों, तुम्हारे काम से मुझे बड़ा डर लग रहा है।''

''पहले मैं भी तुम्हारी तरह डर रही थी। मगर कल के उस छोकरे ने दो-चार दिन में ही जीवन की एक नई, एकदम अनोखी फिलॉस्फी सामने रखकर पल-भर में डर छू-मंतर कर दिया। वो इतना सुलझा हुआ है कि, साफ कहता है कि, 'तुम अभी कहो तो मैं अभी चला जाऊंगा, दुबारा छाया भी नहीं देखूंगा तुम्हारी।'

मैंने कहा, 'इतना आसान है?' तो बोला, 'कितनी बार कह चुका हूं कि, छोड़ना वहां मुश्किल होता है, जहां इमोशनली अटैचमेंट होता है। यहां इमोशन की बात छोड़ो, सच यह है कि फिजिकल रिश्ता भी नहीं है। यहां बस एक ही फंडा है कि, जहां ज़िंदगी का मजा मिल जाए लो और अगली बार मिले, इसके लिए आगे बढ़ चलो.....

''शिवा ऐसा आदमी हमें यूज भी तो कर सकता है। कल को ब्लैक-मेल करके न जाने क्या-क्या कराने लगे।''

''ओफ्फ हिमानी, अब इतना भी क्या डरना। किस्मत में यदि यही सब लिखा होगा तो, पति भी यही सब कर सकता है। हम इंसान हैं, हम क़दम आगे बढ़ाएंगे नहीं तो, जीवन में आगे बढ़ेंगे कैसे? एक जगह ठहरे रह जाएंगे मकान की इन दीवारों की तरह। जिसमें चाहे जितना रंग रोगन करा लो, एक वक्त के बाद लोना लगने ही लगता है। कहते हैं न कि चलता पानी कभी नहीं सड़ता। ठहरा पानी चंद दिनों में ही सड़ने लगता है। इसलिए कहती हूं कि, एक बार ही सही कोशिश तो करो, क़दम तो बढ़ाओ हिमानी, क़दम तो बढ़ाओ।''

''अरे शिवा क्या क़दम बढ़ाऊँ। एक बार को तुम्हारी बात मान भी लूं तो तुम्हें तो संयोग से मिल गया है विवेक ओबरॉय। मैं कहां ढूढ़ने जाऊं, कहीं अनाड़ी का खेल, खेल का सत्यानाश न हो जाए।

''तुम्हें भी ढूंढ़ने की ज़रूरत कहां?''

''क्यों?''

''क्योंकि वह विवेक ओबरॉय उतना ही तुम्हारे लिए भी तैयार है, जितना मेरे लिए रहता है।

''मतलब, मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझ पा रही।''

''देखो, बात ध्यान से सुनना-समझना, उतावलापन, गुस्सा वगैरह कुछ नहीं करना।''

''मुझमें न कोई गुस्सा है, और न ही कोई उतावलापन। मगर बात साफ-साफ करो। साफ कहूं तो मैं अभी तक तुम्हारी कुछ बातों से, हैरान ज़रूर हो जा रही हूं, क्योंकि आज के पहले मैं तुम्हें जो समझती थी, उससे उलट, इस समय मैं तुम्हारी बिल्कुल उलट दूसरी तस्वीर देख रही हूं।''

''पहले तुम जो तस्वीर देख रही थी मेरी वही तस्वीर थी। आज जो देख रही हो वह तब थी ही नहीं। और मैं साफ-साफ ही कह रही हूं कि, तुम्हें कुछ ढूढ़ने-ढाँढ़ने की जरूरत ही नहीं। जो विवेक मेरा है, वही तुम्हारा भी है। वह तुम्हारे फिगर का भी दिवाना है। बस तुम्हें अपने क़दम बढ़ाने हैं। वो तो तुम्हें बांहों में भरने को न जाने कब से तैयार है।''

''अरे तुम ये क्या कह रही हो? मैंने तो कभी उससे बात ही नहीं की। तुमसे किसने बताया यह सब?''

''उसी ने। मैंने कहा न कि वो एकदम अलग तरह का इंसान है। भीड़ से एकदम अलग।''

''क्या कहा उसने?''

''दो दिन पहले रात में फ़ोन पर वह बात कर रहा था। असल में पहले मिलन के बाद से, रात में इनसे बात करने के बाद उससे रोज सोने जाने तक बात होती रहती है। वह तरह-तरह की बड़ी दिलचस्प बातें करता है। उस दिन मैंने उससे पूछा कि, 'ये बताओ कि, मैं तुम्हारे जीवन में आने वाली पहली औरत हूं या पहले भी कोई आ चुकी है।' तो वह हंसकर बोला, 

''कोई नहीं, कई और आ चुकी हैं।'' 

''मैंने नाम पूछा तो वह नहीं बताया। सिर्फ़ इतना बताया कि, 'तीन औरतों से मिला। लेकिन कब-तक मिला, कब-तक मिलता रहा याद नहीं।'

मैंने कहा, 'तुमने अपने से बड़ी उम्र की औरतों से ही संबंध क्यों बनाए? तुम्हें कोई हम-उम्र लड़की नहीं मिलती क्या?' तो उसने तमाम बातें बताते हुए कहा कि, 'यह महज एक संयोग है।'

फिर उसने तुम्हारी बात शुरू कर दी। मुझसे कहा कि, 'तुम्हारा कुछ ज़्यादा ही गदराया बदन मुझे बहुत मजा देता है।' फिर तुम्हारा नाम लेता हुआ बोला कि, 'वो मुझे बेहद अच्छी लगती हैं। दुबली-पतली, इनका अपना एक ख़ास मजा होता है। सोचो एक ही बेड, तुम-दोनों और मैं कितना मजा आएगा। एक अमेजिंग वर्ल्ड में होंगे हम लोग।' इसके बाद हम तीनों के बीच सेक्स की क्या-क्या स्थिति हो सकती है, उसने ऐसी अकल्पनीय दुनिया सामने रखी कि, मैं अजीब सी दुनिया में पहुंच गई। उसकी बातों ने मुझे अकल्पनीय दुनिया की सैर करा दी थी।''

''शिवा-शिवाए क्या हो गया है तुझे? उस एक तक तुम्हारे संबंध किसी तरह समझ पा रही हूं। मगर अब आगे तुम दोनों और जो करने को उतावले हो, उसे मैं समझ नहीं पा रही हूं, इसे क्या नाम दूं। ग्रुप सेक्स के बारे में पढ़ती सुनती हूं, मगर जो कह रही हो वह तो, समलिंगी, विपरीत लिंगी, उभयलिंगी, सामूहिक सेक्स सब है, जिसमें तुम तैरना, डुपकी लगाना चाहती हो।''

यह कहते हुए हिमानी के चेहरे पर अच्छा-खासा तनाव उभर आया था। जिसे शिवा तुरंत भांप गई। बात कहीं हाथ से निकल न जाए इसलिए अपनी आवाज़ में और नम्रता लाते हुए बोली,

''मैं और वह सिर्फ़ जीवन को जीने की बात कर रहे हैं। वो जो कहता है, उसके हिसाब से यदि तुम जीवन को इतने टुकड़ों में बांटोगी तो सिवाय कष्ट परेशानी के कुछ नहीं पाओगी।''

''तो तुम क्या चाहती हो कि, मैं तुम दोनों के साथ हो जाऊं।''

''नहीं, हम-दोनों यह कुछ नहीं कहते। हम सिर्फ़ यह चाहते हैं कि, यदि तुम ठीक समझो तो ही हमारे साथ आओ। हम-दोनों के बीच तुमको लेकर बातें अक्सर होती हैं। लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि, तुमसे इस बारे में बात भी करूंगी। 

तुम अचानक ही हम-दोनों के बीच उस स्थिति में आ पहुंची। और बातचीत में मैंने देखा कि, तुम पूरा रस लेकर सुन रही हो, बल्कि मुझे लगा कि, तुम भी कहीं कुछ ऐसा ही मजा लेना चाहती हो, तो बात कहने की हिम्मत जुटा पाई। और सच कहना कि, तुम्हारे मन में क्या ऐसा कुछ एकदम नहीं उठा? बोलो, बोलो हिमानी तुम्हें मेरी कसम है।'' 

हिमानी चुप उसे देखती रही तो, शिवा ने उसे कंधों पर फिर से पकड़ लिया और दबाव देकर पूछने लगी। 

''हिमानी जवाब दो। क्या तुममें ऐसी कोई भावना कभी पनपी नहीं या मैं जो कर रही हूं, उसे तुम गुनाह मान रही हो। मुझे जब-तक जवाब नहीं दोगी तब तक मैं तुम्हें छोडूंगी नहीं।''

शिवा के जिद के आगे अंततः हिमानी झुकी और कहा, .

''तुम कोई गुनाह नहीं कर रही हो। रही बात मेरी तो मैं भी इंसान हूं, एक औरत हूं। मेरे पति ने एक मुकदमे का जिक्र करते हुए एक बार कहा था सेक्स के बारे में कि, 'यह ह्यूमन नेचर है। इंसान ने इसे टैबू का रूप देकर, इसे एक गंदी चीज का रूप दे दिया है। यह भी तो ईश्वर की बनाई चीज है। फिर गंदी कैसे हो गई? इसे नैसर्गिक रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। हां इतना भी इसके चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए कि, यह लत या बीमारी बन जाए।''

''वाह हिमानी, वाह, मुझे मेरा जवाब मिल गया और नसीहत भी कि, इसे बीमारी नहीं बनने देना है। सब कुछ लिमिट में होना चाहिए।'' 

कहते-कहते अचानक ही शिवा ने हिमानी को बांहों में जकड़ लिया। हिमानी की तरफ से भी कुछ अनमना सा पल भर का ही प्रतिरोध था। कुछ देर बाद दोनों अलग हुईं तो शिवा बोली, 

''तुम्हारे होंठों को कुछ नहीं हुआ है हिमानी, यह उस सुख की छाया मात्र है। तुम्हारे चेहरे पर छायी सुर्खी, यह फूलती सांसें साफ कह रही हैं कि, तुम भी इस अनजान सुख को पाकर आश्चर्य में हो। कल जब दिव्यांश, नमन स्कूल में रहेंगे तब तुम यहां आ जाना। फिर हम तीनों मजे की उस दुनिया की सैर करेंगे। 

जिसकी अभी हम सिर्फ़ कल्पना ही कर पाएंगे। एक बात और कहूंगी कि, कल जब-तक तुम आओगी नहीं, तब-तक तुम खोई-खोई सी रहोगी। रात भर सो न सकोगी। पति की बांहों में होगी तो भी कल जल्दी आए इसके लिए तड़पती रहोगी। तुम्हारा चेहरा यही सब कह रहा है।''

शिवा के चुप होने पर हिमानी ने एक भरपूर नजर उसके चेहरे पर डाली। फिर अस्त-व्यस्त हुए कपड़ों को, एक बार फिर ठीक किया और कमरे से बाहर निकलने को मुड़ चली, तभी शिवा ने कहा, ''रुको।'' वह रुक कर जैसे ही मुड़ी, शिवा ने फुर्ती से उसके होठों को एक पल को अपने होंठो के बीच लेकर भरपूर रस पान किया। फिर छोड़ते हुए बोली, 

''मुझे चिंता थी कि, कल आने तक तुम कैसे अपना समय काटोगी। अब मैं निश्चिंत रहूंगी, क्योंकि यह किस तुम्हें कल तक सम्हाले रहेगा''। 

हिमानी चेहरे पर अब तक कायम सुर्खी को लिए घर के लिए मुड़ चली। उसके दिलो-दिमाग में इस अप्रत्याशित अनुभव ने एक अंधड़ चला रखा था। तरह-तरह के प्रश्नों के थपेड़ों से वह चोटिल होती सी महसूस कर रही थी। 

यह क्या किया मैंने? कल आऊं कि न आऊं? मुझमें ऐसा क्या है कि, वह मुझ पर मरा जा रहा है। शिवा जैसा बता रही है, क्या वह वाकई ऐसा अद्भुत अनुभव देता है? ऐसे अनगिनत क्यों के उत्तर ढूंढती वह बढ़ी जा रही थी। क़दम घर की ओर कुछ ऐसे बढ़ रहे थे, मानो पीछे से खूब तेज़ हवा के झोंके धकेल रहे हों ।

                                   ================


                   भुइंधर का मोबाइल

अम्मा आज विवश होकर आपको यह पत्र लिख रही हूँ , क्योंकि मोबाइल पर यह सारी बातें कह पाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। आप जानती हैं कि, मैं ऐसा क्यों कर रही हूं? क्योंकि आपका बेटा भुइंधर! सुनो अम्मा आप इस बात के लिए गुस्सा न होना कि, मैं अपने पति-परमेश्वर और आपके बड़े बेटे का नाम ले रही हूँ । क्योंकि दिल्ली में आकर आपका बेटा बहुत बदल गया है। जिन साहब के यहां गाड़ी चलाते हैं, यह उन्हीं की तरह सब कुछ करने की कोशिश करते हैं। उनकी एक-एक बात की नकल करते हैं।

साहब की बीवी और साहब नाम लेकर एक दूसरे को पुकारते हैं, यहां आने पर यही सनक इन पर भी सवार हुई। मुझसे जब पहली बार ऐसा करने को कहा तो, मैंने तो पूरा जोर लगाया, मना किया कि, ''ये गलत है, ऐसा न करिए, अपनी संस्कृति, अपने कुल में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि औरत अपने पति का नाम ले, आप कुल की मर्यादा मुझ से क्यों  भंग करा रहे हैं? जो अम्मा जानेंगी तो उनको बुरा लगेगा। बहुत गुस्सा होंगी, आपसे भले कुछ न कहेंगी क्योंकि आप उनके बड़े बेटे हैं। मगर हमारी तो खाल ही खींच लेंगी। यही कहेंगी कि, 'हे करमजली, कुलबोरन अपने मनई क्यार नाव लेत है।'  

ये सब समझाने के बावजूद अम्मा ये टस से मस न हुए। अड़े रहे एकदम अड़ियल बैल की तरह। बल्कि यह कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि, एकदम बभनै की तरह अड़ियाए गए। अपनी कसम दे दी। मैं तब भी नहीं मानी तो मारने-पीटने पर उतारू हो गए। हमने सोचा कि, आज-तक नहीं मारा, शादी के पांच साल हो रहे हैं तो, अब क्या मारेंगे?

 मगर अड़ियाय गए तो अड़ियाय गए। और जब कई थप्पड़ मेरे पड़ गए, मेरे कान सुन्न पड़ गए, आंखों के आगे अंधेरा छा गया, तो मैंने हार मान ली। क्यों कि मैं यह अच्छी तरह जानती हूं कि, यहां बचाने के लिए न आप हैं, न बाबू जी, न पड़ोस वाली काकी, और न ही छोटके भइया। तो मैंने हार मान ली। तब इन्होंने मुझ से कहा,'' सात फेरे ली थी शादी में, तो इसी समय सात बार नाम लो।'' मार खा-खा कर, तब-तक हलकान हो चुकी मैंने, मन ही मन भगवान से माफी मांगते हुए सात बार इनका नाम लिया।

अम्मा आप मेरी बात पर यकीन करें , यह सब एकदम सच है। उस दिन यह अपने नाम को एकदम चरितार्थ कर रहे थे। पूरी धरती सिर पर उठाए हुए थे। मैं एकदम मज़बूर हो गई थी। और एक बात यह भी मान गई कि, आपने इनका नाम भुइंधर एकदम सही रखा है। बचपन में भी ऐसे ही धरती सिर पर उठाते रहे होंगे, तभी आपने यह नाम दिया होगा।

अम्मा यह चिट्ठी और आगे पढ़ने से पहले एक काम और कर लीजिए। अपने पास जग भर कर पानी और कुछ खाने-पीने का सामान रख लीजिए। क्योंकि आगे बहुत सारी बातें लिखी हैं। आपको पढ़ने में टाइम लगेगा। सिर्फ़ टाइम ही नहीं आगे ऐसी-ऐसी बातें लिखीं हैं, जिनको पढ़ कर आपका दिल जोर से धड़क सकता है। आपका गला सूख सकता है। आप परेशान हो सकती हैं। इसलिए आप पानी और कुछ खाने का सामान ज़रूर रख लें । फिर आगे पढ़ें।

अम्मा देखिए मैंने आप को कभी सासु मां नहीं, अपनी सगी अम्मा की तरह माना है। मैं सबसे यही कहती हूं कि हमारी सास हमें मां से भी बढ़ कर मानती हैं। अपनी बिटिया की तरह हमारा ख़याल रखती हैं। सच बताएं अम्मा जब मैं सास-बहू के झगड़ों के बारे में सुनती हूं तो यकीन नहीं होता है कि आखिर सास-बहू कैसे लड़ती हैं। अगर सारी सास आप जैसी हो जाएं और बहुएं तुम्हारी बहू जैसी, मतलब की मेरी जैसी तो सोचिए अम्मा इस दुनिया में सारे घर स्वर्ग भले न बन पाएं, लेकिन कम से कम घर तो ज़रूर बन जाएंगे। लेकिन पता नहीं अम्मा ये सब घर कब बनेंगे ?

अम्मा मैं ये चिठ्ठी आपको सिर्फ़ इसलिए लिख रही हूँ, जिससे कि, हमारा घर, जो घर है, वह घर बना रहे। नर्क न बन जाए। यह चिट्ठी इस लिए भी लिख रही हूं कि, जब घर छोड़ कर मैं आपके पुत्र के साथ यहां दिल्ली आ रही थी तो, आपने एक आग्रह किया था, जो मेरे लिए भगवान के दिए आदेश से कम न था। 

आपने कहा था कि, 'मैं बेटे के साथ भेज रही हूं, उसका ध्यान रखना। उसे कोई भी परेशानी नहीं होनी चाहिए। बस समझ लो तुम्हारे हवाले कर रही हूं अपना बेटा। कुछ भी हुआ तो तुम्हीं से पूछुंगी।'' तो अम्मा तुम्हारी यह बात मेरे दिलो-दिमाग में हमेशा रहती है या यह कहो कि मेरे रग-रग में बस गई है।

मैंने इनका पूरा ध्यान रखा। क्यों कि एक तो आपका आदेश था और दूसरे मेरे पति-परमेश्वर जो ठहरे। इनको जरा सी छींक भी आ जाए तो मैं व्याकुल हो जाती हूं। और ऐसे में जब बात इनकी जान पर आ गई हो तो मैं आपको यह चिट्ठी कैसे न लिखती।

अम्मा पहले तो आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूं कि, इस चिट्ठी के बारे में कभी भी, किसी से कुछ न कहना। नहीं तो इन्हें पता चल जाएगा। और तब तुम्हारी यह बहू जिंदा न बचेगी। इसलिए मैं आपको अपनी कसम दे रही हूं कि, कभी न बताना किसी को। और इसे चुगली भी मत समझना। तुम्हें यह बताना ही बताना है। क्योंकि मेरे सुहाग की रक्षा का प्रश्न आ खड़ा हुआ है। उसकी रक्षा के लिए ज़रूरी है आपको यह सब बताना। आपका बेटा सदैव सुरक्षित रहे, इसलिए भी यह बताना ज़रूरी है। 

अम्मा हुआ यह कि, जब हम यहां आए तो, शुरू में इनकी यहां पर जो स्थिति थी, घर इन्होंने जिस ढंग का बना रखा था, उसे देख कर मैं बड़ी परेशान हो गई। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि, यह सब क्या है। घर तो क्या था कि पूरा भटियारखाना था।

चार मंजिले मकान के सबसे ऊपर एक बड़ा कमरा और उससे लगा एक छोटा कमरा है। इस छोटे कमरे को ही रसोई बना रखा है। बाकी बहुत बड़ी सी छत है। रसोई में सामान के नाम पर कुछ बर्तन गंदे-संदे पड़े थे। खाने का सामान कहीं खुला तो, कहीं बंद। कहीं पॉलिथीन में तो, कहीं किसी में पड़ा था।

हर तरफ धूल-धक्कड़ थी। चलो कोई बात नहीं इतना सब तो ठीक था, क्योंकि बिना औरत के घर, घर कहां बन पाता है। इसलिए इससे कोई दिक्कत नहीं हुई। हां दिक्कत कमरे से घर गृहस्थी के अलावा बाकी जो चीजें मिलीं उनसे हुई। यह दिक्कत ऐसी थी कि कलेजा फट गया।

आप पढ़ेंगी इस बारे में तो आपको भी बहुत कष्ट होगा। मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहती थी, इसीलिए इतने दिनों तक नहीं बताया था। लेकिन अब क्यों कि, मुझे लगता है कि, इनके कामों के बारे में आपको बता कर, इन्हें रोकने की कोशिश न की तो गलत होगा। क्योंकि मुझे लगता है कि इनकी आदतें न बदली गईं या इनके कामों पर रोक न लगाई गई तो, इनकी जान खतरे में पड़ी रहेगी। आपको बता कर मैं आपसे मदद चाहती हूं।

हां अम्मा! कमरे के बारे में आपको बताना इसलिए ज़रूरी समझती हूं, जिससे कि आप सारी बात आसानी से समझ सकें। आप अभी तक यही समझती रही हैं कि, आपका बेटा शराबी-कबाबी नहीं है। मगर ऐसा नहीं है। यह रोज शराब भी पीते हैं और मीट की तो हालत यह है कि, इंसान का मांस मिल जाए तो वह भी न छोड़ें।

लेकिन अम्मा यह जानकर आप घबराइए नहीं। आजकल सब खा रहे हैं। फिर इन शहरों में तो यह सब फैशन है। और आप तो जानती हैं कि, अपने देश के लोग तो अब फैशन के दीवाने हो गए हैं। फैशन के नाम पर तो कहो सब कपड़े उतार कर चलें। और चलें क्या बल्कि चल ही रहे हैं। शहरों में तो जैसे आग लगी है। 

खैर अम्मा इनके कमरे में जो कुछ मिला उसे देख कर मेरे बदन में आग लग गई। इनकी अलमारी में कई लड़कियों की फोटो मिलीं। मगर आग तो इससे लगी कि, फोटो में कई लड़कियां नंगी थीं। एक में यह एक नंगी औरत को बांहों में दबोचे हुए थे।

गुस्से की आग में मैं एकदम जल गई। तिलमिला उठी। मन में आया कि, अभी पूछूं इनसे इन सब के बारे में। मगर कुछ कहने-करने की हिम्मत नहीं कर सकी। क्योंकि आपके भुइंधर के गुस्से और मार से मेरी रुह कांपती है। 

बात यहीं तक होती तो भी गनीमत थी। कमरे को साफ करते-करते, एक के बाद एक तन-बदन को आग लगाने वाली चीजें मिलती ही जा रही थीं। यह सब आपसे बताने की हिम्मत मैं कभी न कर पाती। मगर फिर कह रही हूं कि, बात इनके प्राणों की है तो, मैं सब लिख दे रही हूं। मैं इतना घबरा गई हूं कि, बताने में कोई शर्म-संकोच नहीं कर सकती। 

चाह कर भी नहीं, क्यों कि यह करके मैं बता ही न पाऊंगी। और तब इनकी जान खतरे में पड़ी रहेगी और साथ ही मेरी भी। इसलिए आप भी बात को पूरे ध्यान से पढ़िए और समझिए, घबराइए नहीं, घबराने से काम नहीं चलेगा। अम्मा मेरी इस बात को नसीहत नहीं, पूरी तरह से मेरी प्रार्थना समझना।

हां तो आने के बाद मैंने घर को, जो भटियारखाना बना हुआ था, उसे वास्तव में घर बनाया। यह रात को लौटे तो साफ-सुथरा घर देख कर बोले, 'अरे वाह मेरी रानी तुमने तो एकदम काया ही पलट दी।' फिर हमको बांहों में जकड़ लिया और मुंह भर चूम-चूम कर गीला कर दिया। तब मुझे इनके मुंह से शराब का ऐसा भभका मिला कि, मेरा सिर चकरा गया। ये शराब के नशे में बुरी तरह धुत्त थे। 

मार हमको चूमें जाएं, रगड़े.मसले जाएं। किसी तरह खुद को छुड़ा कर अलग हुई तो जान में जान आई। चाय बनाने लगी तो मना कर दिया। कहा, 'मैं थका हूं आराम करने दो।' फिर कुछ ही देर में बिस्तर पर पसर के सो गए। जूता भी नहीं उतारा, पैर बिस्तर से नीचे लटका हुआ था। मैंने जूता उतार कर किसी तरह इन्हें बिस्तर पर सीधा लिटाया। फिर इंतजार करती रही उठने, खाने का। भूख के मारे मेरा बुरा हाल था।

रात करीब दो बजे जब यह उठे बाथरूम जाने के लिए तो फिर मैंने पूछा तो बोले, 'सोई नहीं?' मैंने कहा, 'तुम्हें खाना खिलाए बिना कैसे सो जाती?'' तो बोले, 'ये तो आते ही पीछे पड़ गई। ठीक है ले आ खाना।' खैर किसी तरह खाना खाया, मुश्किल से दो चार कौर, फिर हमने भी खा लिया। अब तक इनका नशा उतर चुका था। चार घंटा सो भी चुके थे लेकिन मुझे जोर से नींद आ रही थी, सो मैं बिस्तर पर लेटते ही सो गई। 

अब क्योंकि चारपाई एक ही थी तो एक ही पर सो रहे थे। मगर इनकी हरकतों से कुछ ही देर में  नींद खुल गई। फिर इन्होंने मेरे साथ जो हरकतें कीं, मुझे जिस तरह नोचा-खसोटा, मसला कि तड़प उठी। इनका यह अवतार मेरे लिए एक नया अनुभव था।

मुझ से जो करने को कहा और करवाया, अपने मोबाइल में जो पिक्चरें  दिखाईं वह सब मैं तुम से किसी सूरत में नहीं बता सकती। बस ये समझ लीजिए कि जितने अरमान लेकर गांव से यहां पहुंची थी, वह इनकी हरकतों से इनके नए रूप से पहले ही दिन चकनाचूर हो गए। 

अगले दिन सुबह जब यह तैयार होकर ड्यूटी पर निकलने वाले थे तो, इन्हें खुश देख कर मैंने बड़े मनुहार से प्रार्थना की कि, 'आज मत पीजिएगा। शाम को जल्दी आइएगा, मैं आपका मनपसंद खाना बनाऊंगी।' बस इतना कहते ही इनकी भृकुटि तन गई। 

मैंने सहमते हुए कहा, 'देखिए ये बहुत ख़राब चीज है। कल आप अपने होश में नहीं थे तो, देखिए क्या किया।' मैंने अपने बदन के कपड़े हटा कर वे हिस्से दिखाए जो उनकी हरकतों से चोट खाकर काले पड़ गए थे। खरोंचों, सूजन को भी दिखाया। 

मगर इसका असर सिर्फ़ इतना हुआ कि, मुझ पर एक जलती नजर डाली और गाड़ी की चाभी उठाई, फिर मुझे भी एक मोबाइल थमाते हुए कहा, 'इसे रख, ज़रूरत पड़ने पर फ़ोन करना। मेरी ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं।' कह कर चल दिए। फिर उस दिन मुंह बनाए रात बारह बजे आए, खाना खाया सो गए। एक बात न की।

मैं नींद न आने के कारण उठी और छत का पर टहलने लगी। उस ऊंची छत से दूर-दूर तक बिजली की रोशनी और बड़े-बड़े मकान दिख रहे थे। हर तरफ जलती बिजली देखकर एक बार मन में आया कि, काश अपने गांव-देहातों में भी बिजली ऐसे ही आने लगे तो कितना अच्छा होता।

हम-लोग तो बिजली को तरसते रहते हैं। दो-चार घंटे आ गई तो बड़ी बात है। और यहां देखो कितनी इफरात बिजली है। सड़कों पर बड़ी-बड़ी महंगी गाड़ियां भी दौड़ती दिख रही थीं। मगर फिर भी न जाने क्यों मेरा मन न सिर्फ़ अजीब सा व्याकुल हो रहा था, बल्कि अचानक ही रह-रह कर तुम सब की याद आ रही थी। 

इतने हलचलों से भरे शहर में एकदम अकेलापन महसूस कर रही थी। सच भी तो यही था, वहां आखिर अपना था भी कौन? और जब कोई अपना था नहीं तो, अकेलापन डसे बिना कैसे छोड़ता? सो वह डसता रहा। अंततः मैं ऊब कर कमरे में आ गई। वहां मेरी नजर इनके कपड़ों पर पड़ी। अनायास ही मैं उनकी तलाशी लेने लगी।

मैं जानती थी यह गलत है, लेकिन इनकी हरकतों के चलते रोक न सकी। और जानती हैं अम्मा क्या मिला इनके कपड़ों में? एक डिब्बी बहुत महंगी वाली सिगरेट, और नोटों की गड्डी। जिसमें दो हज़ार, पांच सौ, सौ-सौ के नोट थे। गिनने पर बारह हज़ार से ज़्यादा निकले।

मैं परेशान हो गई। आखिर कहां से आया इतना पैसा, महंगी सिगरेट। दूसरी जेब में हाथ डाला तो उसमें इनकी घड़ी मिली। जिसे यह रोज लगाते थे। बरबस ही मेरी नजर इनकी कलाई पर गई तो देखा एक नई घड़ी लगाए हुए हैं। जो देखने में बहुत महंगी लग रही थी। 

मैं परेशान हो गई कि अपनी कमाई से दस गुना ज़्यादा यह कहां से खर्च कर रहे हैं। मैं यह सोच ही रही थी कि, यह कसमसा कर उठे फिर मेरी तरफ देखा। मैं तब-तक इनका सामान वापस रख चुकी थी। मुझे देख कर पूछा, 'सोई नहीं क्या?' 

मैंने कहा, 'नींद नहीं आ रही।' 

'क्यों?'

'अ..नई जगह है न, इसीलिए, और आज अम्मा की भी बहुत याद आ रही है।'

अम्मा फिर यह उठकर बाथरूम गए, और आकर पानी पीकर लेटते हुए बोले, 'लाइट ऑफ करके आ, मैं तुझको सुला देता हूं।' मैं इनकी हरकतों से समझ गई कि, यातना के मेरे क्षण शुरू। पर मैंने भी सोच लिया कि, जैसे भी हो, आज इनसे हक़ीक़त पूछूँगी । 

जब यह अपना यातनापूर्ण खेल, मेरे साथ खेल कर अघा गए तो, मैंने पूछ लिया रुपया, घड़ी, फोटो आदि के बारे में। बस फिर क्या था, आग बबूला हो बोले, 'मेरी जासूसी करती है। दिमाग खराब हो गया है तेरा। देख बीवी है, बीवी की तरह रह। मास्टरनी बनने की कोशिश की तो फाड़ कर रख देंगे समझी।' 

अम्मा इसके बाद और भी ऐसी बातें कहीं, गालियां दीं कि, बता नहीं सकती। खैर मैंने भी ठान रखा था इसलिए, चुप मैं भी न हुई। मुझे बार-बार तुम्हारी बात याद आती तो मैं बार-बार तनकर खड़ी हो जाती। गाली ,मार खाती रही मगर फिर भी पीछे न हटी। मैं ठान चुकी थी कि, इनको रास्ते पर लाकर रहूंगी। 

इसी समय मुझे तुम्हारी यह बात भी याद आ जाती कि, 'ऊ मेहरिया भी कऊन, जऊन अपने मनसवा का अपने वश मा न राखि सकै।' मैं अपनी कोशिश में लगी रही कि ये पीना बंद कर दें। यह भी जानने की, कि नौकरी के अलावा कौन सा धंधा कर रहे हैं, जो ऊट-पटांग पैसा, सामान ले आ रहे हैं। इस कोशिश में अम्मा आए दिन हम गाली, मार खाते रहे और कि खाते ही आ रहे हैं। 

एक दिन ये रात में साहब को एयरपोर्ट पर छोड़ कर बारह बजे के करीब आए। मैं खाना बनाए इंतजार कर रही थी। लेकिन आए तो किसी बहुत बढ़िया होटल से अपना और मेरा खाना लेते आए। अपने लिए मुर्गा-सुर्गा लाए थे। मेरे लिए शाकाहारी।

सोते-सोते दो बजने वाले थे। बहुत गर्मी हो रही थी। कि तभी कूलर में न जाने क्या हुआ कि बंद हो गया। कमरे में पंखे की हवा भी तपाए दे रही थी। बाहर छत पर गए, वहां हवा कुछ राहत दे रही थी तो, यह बोले,  'चलो आज खुले में सोते हैं। बहुत दिन से बाहर सोए नहीं हैं।' 

जमीन पर ही बिस्तर लगाया। बाहर की हवा वाकई पंखे की हवा से ज़्यादा राहत दे रही थी। ये एकदम मस्तियाए हुए थे। मैंने मौका देख कर पूछ लिया, फिर से उन सारी बातों के बारे में तो बोले, 'फालतू का ड्रामा करके मूड मत खराब कर, चल इधर आ।'

कहकर मुझे खींच कर चिपकाना चाहा तो, अम्मा मैंने भी छिटक कर बिस्तर के एकदम किनारे पहुंच कर कहा, 'नहीं, पहले बताओ तभी कुछ करने दूंगी।' 

जानती हैं अम्मा आपका पूत बड़ा जबरा है। इतना जबरा कि, मारे भी और रोने भी न दे। मगर मेरी भी एक ही धुन थी कि इन्हें रास्ते पर लाना है, तो मैं अपनी बात पर अड़ी रही। फिर अचानक ही इन्होंने मेरी साड़ी का आंचल पकड़ कर खींच लिया कस कर। मगर मैं इनकी पकड़ से बचने के लिए दूसरी तरफ लुढ़कती गई। इनके हाथ मैं नहीं, सिर्फ़ मेरी साड़ी लगी।

अब इनका सुर बदलने लगा। बोले, 'देख नौटंकी न कर सीधे आ जा। नहीं तो दुशासन की तरह चीर हरण करते देर नहीं लगेगी मुझे।' इतना कह कर यह बाज की तरह झपट पड़े मुझ पर, अब साड़ी के बाद मेरा दूसरा कपड़ा इनके हाथ में था। पर मैं फिर इनके हाथ न लगी। अब मैं खाली ब्लाउज में रह गई थी। तो एक तकिया जो मेरे हाथ लगा, उसे लगा लिया अपने सामने।

अम्मा यह पढ़ कर तुम्हें अचंभा हो रहा होगा, और गुस्सा भी आ रही होगी। लेकिन मैं यही कहूँगी कि आप गुस्सा न हों, पहले बात को पूरा पढ़ लीजिए। ये रात में हमारे साथ रोज यही नंगई का खेल खेलते हैं। ये सोच कर भी न परेशान हों कि, हम छत पर यह सब कर रहे थे, तो दुनिया देख रही थी।

मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि किसी और मकान की छत से इस मकान की छत पर नहीं देखा जा सकता। अच्छा तो जब यह दूसरी बार भी मुझे न पकड़ पाए तो एकदम भन्ना पड़े और बोले, 'साली छिनारपन दिखाती है। नहीं.....है तो, न......। यहां साहब की बीवी...को पीछे पड़ी रहती है, उसकी....हूं तेरी क्या औकात। चल हट यहां से छिनार कहीं की।' 

इतना कह कर इन्होंने पेटीकोट खींच कर मेरे मुंह पर मारा और दूसरी तरफ मुंह करके करवट लेट गए। मैं हक्का-बक्का तकिया पकड़े खड़ी रह गई। क्यों कि इतना जोर का एक नया तमाचा मेरे चेहरे पर पड़ा था कि, साहब की बीवी के साथ इनके संबंध हैं।

मेरे काटो तो खून नहीं। मैं थर-थर कांप रही थी। इतना बड़ा धोखा यह साहब को दे रहे हैं, मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात कर रहे हैं, यह कुकर्म एक दिन ज़रूर खुलेगा। और तब इनकी क्या हालत होगी, मैं यह सोच कर पसीने-पसीने हो गई। क्योंकि अम्मा साहब बहुत गुस्से वाला आदमी है। इन्होंने ही एक बार बताया था कि, पहले किसी बड़ी कंपनी में काम करते थे, लेकिन वहां के मालिक से झगड़ कर अलग हुए और अपनी कंपनी खोली रात-दिन मेहनत कर आज खुद बहुत बड़ी कंपनी के मालिक बन गए हैं।

मगर आज भी सोलह-सत्रह घंटे काम करते हैं। कंपनी के काम से आए दिन हवाई जहाज से इधर-उधर जाते रहते हैं। अम्मा तुम ऐसे आदमी को देवता कह सकती हो। मैं तो यही मानती हूं। मगर अम्मा एक मामले में वह बड़ा दुर्भाग्यशाली है। उसकी बीवी बहुत हरामजादी है। नहीं ये गाली तो उसके लिए कुछ नहीं है।

मुझे उससे बड़ी कमीनी औरत दुनिया में दूसरी नहीं दिखाई देती। जानती हैं, आदमी मेहनत करके खियाए जा रहा है, और इस चुड़ैल को अय्याशी के सिवाय कुछ और नहीं सूझता। एक लड़का है। वो बहुत ऊंची पढ़ाई के लिए बाहर विदेश गया है। ये कमीनी घर में अकेली रहती है। जब देखो तब चमचमाती गाड़ी में घूमती रहती है।

और जब उस दिन तुम्हारे भुइंधर के मुंह से यह सुना कि, इसने हमारे आदमी को भी नहीं बख्शा तो, तब से वह हमें फूटी आंखों नहीं सुहाती। खैर उस दिन रात-भर मैं सोई नहीं, आंसू बहाती पड़ी रही। ये तमाचा इतना तेज़ था कि, मैं बरदाश्त नहीं कर पा रही थी। कई बार मन में आया कि, इस सबसे ऊंची छत से नीचे कूद कर मर जाऊं।

आखिर किसके लिए जीयूं। जिसके सहारे यहां आई, वही इतना बड़ा धोखेबाज निकला तो, इस बेगानी दुनिया में कौन मेरा होगा। फिर सोचा यह तो कायरता होगी। हार मान कर जान देने से क्या फायदा। कोशिश करती हूं कि, इन्हें धोखेबाजी, अय्याशी, शराबखोरी की दुनिया से बाहर निकालूं।

अम्मा आप गुस्सा हो सकती हैं कि, मैं आपके लड़के को धोखेबाज कह रही हूं। मगर आप ही बता दें क्या कहूं ? मैं समझ रही हूं अम्मा तुम्हारे पास भी इसके अलावा कोई जवाब नहीं है। मैं अंदर ही अंदर घुटती इनको रास्ते पर लाने की कोशिश में लगी रही। सोचा कि चलो लड़का-बच्चा हो जाएंगे तो यह बदल जाएंगे।

मगर मुझ करमजली के ऐेसे भाग्य कहां? आज तक एक बच्चे की खातिर तरस रही हूं। न जाने कितनी बार डॉक्टर के यहां चलने को कहा, मगर शराब और उस चुड़ैल के साथ अय्याशी के आगे इनके कान पर जूं नहीं रेंगती। 

एक बार कुछ सोच कर हमने कहा, 'ऐसा करो कहीं और इससे अच्छी नौकरी ढूंढ़ लो। किसी और मुहल्ले में चलो। जहां अपने तरह के लोग हों, यहां सब बड़े-बड़े लोग हैं। किसी से हम बात नहीं कर पाते। मन बड़ा ऊबता है। इतने दिन हो गए इसी कमरे में पड़े.पड़े।'

जानती हो अम्मा सब कहा सुना बेकार गया। ये चिकने घड़े से भी ज़्यादा चिकने निकले। बस उसी हरामजादी के दीवाने बने बौराए हुए हैं। साहब के न रहने पर, जब वह चुड़ैल इनको लेकर निकल जाती है तो, मैं हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं कर पाती हूं।

मगर कब-तक सहती, हर चीज़ की एक सीमा होती है न, तो मैंने भी एक दिन ठान लिया कि, इनको तब रंगे हाथों पकड़ूंगी। जब ये यह कहकर नीचे चुड़ैल के पास जाते हैं कि, 'मेम साहब बुला रही हैं।' और साथ ही मैंने यह भी तय किया कि, जब रंगे-हाथ पकड़ू़ंगी तो, इतना चीखूंगी-चिल्लाऊंगी कि, उसकी काली करतूत से दुनिया वाकिफ़ हो जाए, और तब यह हमारे पति-परमेश्वर भुइंधर को भी निकाल देगी। 

ऐसे इस कमीनी से फुरसत मिल जाएगी। मैं मौक़े की ताक में थी। अम्मा जल्दी ही एक अवसर मिल गया। साहब एक हफ़्ता के लिए टूर पर बाहर गए। जिस दिन वह बाहर गए, उसके अगले ही दिन यह दिन भर कहीं गायब रहे। अम्मा वह चुड़ैल इतनी चालाक है कि हम क्या बताएं। 

दुनिया को उसकी करतूत पर शक न हो, इसके लिए न सिर्फ़ भुइंधर को हमेशा ड्राइवर की सफेद वर्दी में रखती है, बल्कि बात-चीत भी खुर्राट मालकिन की तरह करती है। अपमान करने की हद तक। खैर उस दिन शाम को लौटने के बाद यह उसके पास नहीं गए।

खाने-पीने की ढेर सारी चीजें लेकर आए। मगर मुंह लटका हुआ था। इसलिए उस दिन मैं कुछ न बोली सिवाय इसके कि, 'तबीयत खराब है क्या?' 'नहीं! क्या ज़रूरी है तुम्हें हर चीज बताना?' उनकी इस झिड़की से मैं एकदम शांत हो गई।

अगले दिन उस चुड़ैल ने एक पार्टी रखी। जिसमें उसी की तरह की पंद्रह-सोलह औरतें आईं। जमके खाना-पीना, ताश खेलने से लेकर शराब पीने तक का काम हुआ। ऐसी बेहयाई अम्मा हमने यहीं आ के देखी। तन उघारे इन औरतों को तुम बेहया औरतों की देवी कह सकती हो। ऐसी पार्टियों के बारे में वहां थी तब पिक्चरों में देखा सुना था। यहां उसका असली रूप देख कर दंग रह गई।

खैर शाम होते-होते सब खतम हुआ, रात हुई, दिन-भर उनकी पार्टी का काम-धाम देख कर थके हारे भुइंधर भी आए ऊपर। खाना-पीना सब नीचे से आया था। लेकिन वह भ्रष्ट खाना हमारे गले से नीचे नहीं उतर सकता था तो, हमने दूसरा बनाया। फिर इनकी ना नुकुर, हां, ना, दुनिया-भर के नखरे उठाए। तब ये थोड़ा सा खाके टहलने लगे छत पर।

इनको देख के लग रहा था कि, मन इनका कहीं और है। रात ग्यारह बजे के करीब सोने के लिए लेटे। यह भी लेट चुके थे। कि तभी मेरी सौतन बन चुकी इनकी मोबाइल की घंटी घन-घना उठी। मेरा जी जल उठा। इन्होंने नंबर देखा और उठकर कमरे से बाहर छत पर जाकर बात की जिससे मैं न सुन सकूं। बात करके मेरे पास आए बोले, 'मैं काम से जा रहा हूं, हो सकता है देर हो जाए। मेरा इंतजार मत करना, सो जाना।' फिर यह जल्दी-जल्दी तैयार हो कर चल दिए। 

मुझे शक था, सो इनके निकलने के बाद मैं छत पर आकर देखने लगी कि, यह कौन सी गाड़ी लेकर जा रहे हैं। दरअसल साहब ने कई गाड़ियां रखी हैं। मैं छत पर खड़ी देखती रही, लेकिन यह बाहर दिखाई नहीं दिए। बस गेट-कीपर ऊंघता नजर आया।

मैंने मन में उमड़ती-घुमड़ती शंकाओं के बीच ठान लिया कि, चाहे जो हो आज नीचे चल कर देखूंगी, जान कर रहूंगी कि, नीचे क्या-क्या कुकर्म होते हैं। यह ठाने मैं दबे-पांव नीचे पहुंची। अम्मा घर में जगह-जगह बेहद फैंसी झाड़-फानूस लगे हैं। हल्की-हल्की रोशनी हर तरफ थी। 

मैंने देखा बाहर जाने वाला रास्ता अंदर से बंद था, मतलब घर से कोई भी बाहर नहीं गया था। अब मेरा शक और पक्का होता जा रहा था। मैं दबे-पांव मालकिन के कमरे तक पहुंच गई। मगर अंदर से कोई आहट नहीं मिल रही थी।

दरअसल अम्मा एयरकंडीशन कमरा है तो वह हर तरफ से एकदम बंद रहता है। तो बाहर आवाज़ नहीं आ सकती। अब मैं परेशान हो उठी कि, कैसे पता करूं। मगर एक जिद मुझे बराबर आगे बढ़ा रही थी कि, आज चाहे जैसे हो पता करना है सब कुछ।

अंततः मुझे कमरे के अंदर झांकने का रास्ता नजर आ गया। मैंने खाने वाली मेज के पास लगी कुर्सियों में से, एक खींच कर उस खिड़की के पास लगाई जिसके, ऊपरी हिस्से के पास पर्दा कुछ इंच हटा था और वहां से अंदर देखा जा सकता था। मेरे पैर थर-थरा रहे थे। अम्मा पूरे बदन में मैं पसीने का गीलापन महसूस कर रही थी। 

दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। मगर जिद के आगे सब बेकार था। मैं अपने पति-परमेश्वर की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थी। इसीलिए कुर्सी पर चढ़ कर मालकिन के कमरे के अंदर झांकने लगी। अम्मा अंदर मैंने जो देखा उसे लिखते हुए हाथ कांप रहे हैं।

मैं शर्म के मारे पानी-पानी हो रही थी, मगर अंदर जिन दो प्राणियों को देख कर, मैं पानी-पानी हो रही थी, उन पर तो शर्म की छाया भी न थी। क्रोध के कारण मेरा खून उबल रहा था। अम्मा मैं हत-प्रभ थी। बस देखती ही रह गई। जानती हैं मैंने अंदर क्या देखा?

अम्मा अगर आपके बेटे और मेरे पति-परमेश्वर के प्राणों की बात न होती तो, मैं कभी मुंह न खोलती, मगर मज़बूर होकर लिख रही हूं। अंदर वह कमीनी शराब पी रही थी और सिगरेट फूंक रही थी। और जानती हैं उसके तन पर कपड़ों के नाम पर एक ऐसा टुकड़ा था, जो कुछ हद तक समीज जैसा था। जिसमें ऊपर दो पतली पट्टी थी, जिसके सहारे वह उसके तन पर टिका था।

कपड़े की लंबाई उसकी जांघ तक थी। इसके अलावा उसने कुछ नहीं पहना था। उसकी बड़ी-बड़ी छाती थल-थल कर हिल रही थी। वह बेड पर मोटी तकिया के सहारे अधलेटी पड़ी थी। और हमारे पति परमेश्वर! अम्मा कहते हुए मैं शर्म से गड़ी जा रही हूं कि, हमारे पति परमेश्वर खाली कच्छा पहने उसके पैरों के पास बैठे शराब पी रहे थे।

सिगरेट का जैसा धुंआ वह चुड़ैल छोड़ रही थी, वैसे ही यह भी छोड़ रहे थे। दोनों का मुंह मानो पुराने जमाने वाले कोयला और भाप से चलने वाले इंजन बने हुए थे। गांव में बड़की महराजिन जैसे हुक्का पीके धुंआ छोड़ती थीं, अम्मा यह दोनों उससे भी ज़्यादा धुंआ छोड़ रहे थे।

इतना ही नहीं अम्मा इससे आगे भी और जान लीजिए कि, हमारे प्राण प्यारे पति-परमेश्वर ने उस चुड़ैल के साथ और क्या किया! अपने लड़के के कारनामें जो आगे पढेंगीं  तो, आपका खून उबल सकता है। वैसे एक बात बताएं अम्मा, शहर में यह सब खूब हो रहा है। समझ लो कि पूरे कुंए में ही भांग मिली हुई है। और हमारे पति-परमेश्वर वह भांग पीकर बौराए हुए हैं।

अब आगे पढ़िए। उस चुड़ैल ने फिर अपना एक पैर हमारे पति-परमेश्वर की जांघों पर रख दिया तो वो उसको सहलाते रहे। इस बीच वह चुड़ैल दीवार पर टंगे बड़े टीवी पर, अम्मा एक चीज पहले आपको और बता दें कि अब यहां ज़्यादातर लोग पहले की तरह वह मोटे वाले टीवी मेज पर रख कर नहीं देखते। अब नए तरह के पतले-पतले टीवी आते हैं, जिसे कैलेंडर की तरह दीवार पर टांग कर देखो। 

वह चुड़ैल भी टीवी पर एक बहुत गंदी पिक्चर दारू पीते हुए देख रही थी। अम्मा इस तरह की पिक्चरों को ब्लू फ़िल्म कहते हैं। असल में इसमें आदमी-औरत जो कुछ रात में, अपने कमरों में करते हैं, वही बल्कि उससे हज़ार गुना अंड-बंड तरह से सब करते हुए पिक्चर में दिखाते हैं। 

अम्मा ये जान कर आपका मुंह खुला का खुला रह जाएगा कि, एक साथ कई-कई औरतें और मर्द होते हैं। ये नारकीय लोग जानवरों तक को नहीं छोड़ते। यही सब कुकर्म टीवी पर वह चुड़ैल देख रही थी। और हमारे पति-परमेश्वर उसके पैर मसल रहे थे। उनके हाथ कपड़े के अंदर तक जा रहे थे।

अम्मा एक मिनट रुकिए एक बात और साफ कर दें। आप ये तो समझ गई होंगी कि, ब्लू पिक्चरों के बारे में हमें कैसे पता चला। मगर मैं फिर भी बता रही हूं कि, यह सब हमें, हमारे परमेश्वर ने बताया, दिखाया। अपने मोबाइल पर आए दिन हमें दिखाते हैं। जबरिया दिखाते हैं और उसी तरह का कुकर्म करने को कहते हैं। जब हम नहीं करते तो हमें कूंचते हैं। महतारी, बहिन गरिया के कहते हैं, 'साली सारा मूड बरबाद कर देती है।' 

खैर उस चुड़ैल ने आगे क्या किया उसे भी जान लीजिए। कुछ देर बाद नशे में तुम्हारे भुइंधर और वह चुड़ैल एकदम चैती के बौराए कुकुर और कुकुरिया नजर आ रहे थे। अचानक उसने हमारे पति-परमेश्वर का हाथ पकड़ कर खींच लिया अपने ऊपर, फिर पलट कर भुइंधर के ऊपर चढ़ बैठी। हमारे पति परमेश्वर एकदम चिंचियाए पड़े उस भैंस के वजन से। अम्मा एक बात फिर बता दें कि, इन-दोनों की कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी। भुइंधर जिस तरह मुंह खोले उसके बैठने पर उससे बात एकदम साफ थी कि वह चिंचियाए। 

उस चुड़ैल ने इनके होंठ.....लाल कर दिए। इसके बाद बेहयाओं की उस महारानी ने अपना वह झबला उतार कर हमारे परमेश्वर के हाथ छि..... अम्मा वह सब लिखने की हिम्मत लाख कोशिशों के बाद भी नहीं कर पा रही हूं। 

खैर अम्मा मैंने पहले ही आपसे कहा था कि, मैं इस इंतजार में थी कि, इन दोनों को रंगे-हाथ पकड़ने पर इतना बवाल करूंगी कि, दुनिया जान जाएगी, फिर यह हमको लेकर वहां से हट जाएंगे। लेकिन जब मैंने रंगे -हाथ पकड़ा तो स्तब्ध रह गई। मेरा दिमाग एकदम सुन्न पड़ गया, ठस हो गया था जैसे। कल्पना से एकदम उल्टी तसवीर देख कर हकबका गई थी। इसी लिए उस नारकीय काम को होते देखती रह गई। अपने नारकीय कुकृत्यों के बाद यह दोनों काफी देर तक पसरे पड़े रहे। 

फिर अचानक वह चुड़ैल कुछ बोली और उठ कर बैठ गए दोनों। इसके बाद चुडै़ल उठ कर कमरे से लगे बाथरूम की तरफ चल दी। बेहया ने अब भी एक कपड़ा तन पर नहीं डाला था। अम्मा यहां बड़े शहरों में कमरे से लगा हुआ ही बाथरूम भी बनाए रहते हैं, जिससे कमरे से बाहर न जाना पड़े। 

उधर वह बाथरूम में गई, इधर हम अपने परमेश्वर का एक और घिनौना रूप देख रहे थे। जिस बिस्तर पर दोनों ने नरक मचाया था, हमारे परमेश्वर ने उस पर बिछी चादर खींच कर उठाई और कमरे से बाहर वाले बाथरूम में लेकर चले गए। 

हमारे वही पति-परेमश्वर जो हमारे सामने पानी का गिलास भी बाएं से दाएं खिसकाने में अपनी बेइज्जती समझते हैं, वह उस चादर को उठाकर बाथरूम में कपड़े धोने वाली मशीन में डालने गए थे। जब वह कमरे से निकलने लगे तो मैं जल्दी से उतर कर मेज के नीचे छिप गई थी। कुछ देर बाद हमारे परमेश्वर बाथरूम से निकल कर फिर कमरे में दाखिल हो गए। दरवाजा फिर बंद कर दिया था। 

मैं फिर कुर्सी पर चढ़ कर अंदर देखने लगी। अब हमारे परमेश्वर दूसरी चद्दर बेड पर बिछा कर तौलिया लपेट कर खड़े थे। कुछ ही देर में वह बेहया भी बाथरूम से बाहर आई। गनीमत थी कि, अब तन पर तौलिया लपेटे थी, हालांकि तौलिया उसकी जांघ और आधी छाती ही ढके थी। चुड़ैल आकर बैठ गई और फिर हमारे परमेश्वर ने सिगरेट सुलगा कर उसे दी और खुद भी पीने लगे।

इस बीच दोनों कुछ बतियाते रहे। फिर शराब निकाली गई और पीनी शुरू की गई। अब-तक कुर्सी पर पंजे के बल खड़े-खड़े मैं बुरी तरह थक गई थी, और पूरी तरह पस्त होकर निराश भी कि, हमारे परमेश्वर अब हमारे लिए नहीं, सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं। दिल में बनी पति-परमेश्वर की सुन्दर पवित्र मूर्ति खंड-खंड हो टूटती जा रही थी।

मुझे लगा कि जितना देख रही हूं वह उतनी ही तेज़ी से बिखर रही है। इस डर से कि कहीं वह पूरी तरह से न बिखर जाए और मेरी आस्था परमेश्वर की तरफ से एकदम नेस्तनाबूत न हो जाए, मैं कुर्सी से नीचे उतरी, उसे सही जगह पर रखा और ऊपर कमरे में आ गई। 

अम्मा तब ऐसा लग रहा था कि, इस दुनिया में मैं एकदम अकेली हूं। दुनिया के सारे लोग कहीं दूसरे लोक में चले गए हैं। इंसान ही नहीं बल्कि सारे जीव जंतु भी, पेड़-पौधे भी, ताल, पोखर, नदी, समुद्र का पानी भी। पूरी धरती एकदम खाली-खाली विरान पड़ी है, और मैं निपट अकेली खड़ी हूं। कोई नहीं है मेरे साथ सिवाय धरती के ।

मैं फफक-फफक कर रो रही हूं, बार-बार तुम्हें, बाबूजी, माई, बाबू को चिल्ला-चिल्ला कर बुला रही हूं, मगर कोई मेरी नहीं सुन रहा है। तब मैं पछताने लगी, खीझ कर अपना सिर पीटने लगी, कि क्यों तुम्हारी इच्छा के खिलाफ मैं अपनी मर्जी से, अपनी जड़ से कट कर यहां बेगाने सूखे हृदयहीन भीड़ से भरे शहर में आ गई।

क्यों पति-परमेश्वर को इस बात के लिए उकसाती रही कि वह मुझे साथ ले कर शहर चलें । अम्मा आज यह बात खोल रही हूं कि, मैं ही इन्हें बराबर कहती थी कि, मुझे ले कर शहर चलो। इतना ही नहीं अम्मा उस समय तुम मुझे एक खलनायिका दिखती थी, बड़ी गुस्सा आती थी तुम पर, जब तुम कहती थी कि, 'अरे आपन देश दुनिया छोड़ के कहां जइयो, भुइंधरवा का जाय द्यो नौकरी करै, वह बीच-बीच मइहा आवा करी।'  

अम्मा क्षमा करना, तब तुम्हारी बातें हमें जहर लगतीं थीं। लगता था कि, तुम हमारी खुशियों की सबसे बड़ी दुश्मन हो। जानती हो तब मैं बड़े-बड़े सपने देखती थी कि, अपने पति-परमेश्वर के साथ शहर की रंगीन ज़िदगी का मजा लूंगी। मेरे साथ सिर्फ़ मेरा पति होगा। 

उस समय मुझे परिवार के बाकी सारे सदस्य दाल-भात में मूसर-चंद नजर आते थे। मगर अम्मा आज बस यही कहती हूं ज़िंदगी का मजा केवल अपनों के साथ है। बेगानों के साथ नहीं। जानती हो अम्मा उस दिन मैं खूब रोई, रोती रही मगर कोई भी आंसू पोंछने या सांत्वना देने वाला नहीं था।

मैं रोते-रोते न जाने कब सो गई। जब आंख खुली तो देखा पति परमेश्वर अपनी सफेद वर्दी में सूजी हुई लाल-लाल आंखें लिए सामने खड़े हैं। मैं हकबका कर उठ बैठी। मेरी आंखें बुरी तरह जल रही थीं। पूरा बदन टूट रहा था। बाहर नजर गई तो देखा सवेरा हो चुका है। और हमारे परमेश्वर अब अपनी खरखराती आवाज़ में गरज रहे थे कि, दरवाजा बंद करके नहीं सो सकती थी। फिर खुद पसर गए सोने के लिए। 

मुझे अजीब सी नफ़रत हो रही थी। ऐसा लग रहा था मानो मेरे कमरे में मेरे बिस्तर पर कोई गैर-मर्द आकर सो रहा है। मैं जितना इन्हें न देखने की कोशिश करती उतना ही नजर बार-बार इन्हीं पर जा ठहरती और मेरा क्रोध बढ़ता जा रहा था। अंततः मैंने इनके कपड़ों की तलाशी लेने की सोची। मगर करीब पहुंच कर भी हाथ न लगा सकी।

मुझे ऐसा लग रहा था कि, कपड़ों से उस चुड़ैल की बदबू आ रही है। काफी कसमकस के बाद आखिर तलाशी ले ही ली। मोबाइल उठा कर चेक किया तो दंग रह गई। मुझे लगा कि यह बात एकदम बकवास है कि, किसी मर्द को उसकी बीवी से ज़्यादा कोई और नहीं जान सकता। कम से कम मेरे साथ यही हो रहा था। 

मैं पति की दगाबाजी का एक और रूप देख रही थी। रात मालकिन के साथ मिल कर इन्होंने जो भी कुकर्म किए थे वह सब इनके मोबाइल में रिकॉर्ड था। जाहिर था कि, यह सब धोखे से ही किया गया था। इसका उद्देश्य मालकिन को ब्लैकमेल करने या फिर इसे गंदी पिक्चरों वाली दुनिया में बेच कर पैसा कमाना ही था। यह देख कर मेरी घबराहट और बढ़ गई। मैंने तय कर लिया कि इनसे अब बात कर के ही रहूंगी चाहे अंजाम कुछ भी हो। 

यह करीब चार घंटे बाद सो कर उठे, और तैयार होने लगे तो मैंने बिना कुछ बोले, किसी तरह पराठा सब्जी बनाकर सामने रख दिया। जब यह खा चुके तो मैंने बात छेड़ दी। अनजान बनने लगे तो मैंने सारी बातें खोल कर सामने रख दीं कि मुझे सब मालूम है, सब अपनी आंखों से देखा है मैंने। 

बस अम्मा इतना कहना था कि, इन्होंने जी भर के मुझे मारा-पीटा। उसी दौरान यह भी बोले कि, मालकिन की आदतों का फायदा उठा कर वह मोटी रकम कमाना चाहते हैं। जिससे अपना व्यवसाय खड़ा कर सकें। अब अपनी योजना के पूरा होने के बेहद करीब हैं। और यह सब गलत नहीं है। सब ऊटपटांग ढंग से ही अमीर बने हैं। मैं भी बनूंगा।

अम्मा उनकी योजना सुन कर मेरी रुह कांप गई। क्योंकि मालिक बहुत खूंखार है। इनकी हरकत पता चलते ही वह हम-दोनों को जिंदा नहीं छोड़ेगा। मालकिन भी कम नहीं है। वह दोनों ही हम-दोनों को कहां मार कर फेंक देंगे, अम्मा यह कभी पता नहीं चलेगा। बस अम्मा यही सोच कर घबरा गई हूं, और यह चिट्ठी लिख रही हूं। 

यह पढ़ते ही तुम किसी भी तरह एक बार बुला लो। उसके बाद मैं भूल कर भी अपनी जड़, अपना घर-द्वार छोड़ कर शहर का नाम न लूंगी। यहां यह जितना कमाते हैं, उतना वहां भी कमा लेंगे। बस अम्मा एक बार बुला लो। मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं। बचा लो मेरा सुहाग, मेरे पति-परमेश्वर को। अपने प्यारे भुइंधर को। अम्मा देर बिल्कुल न करना, देर करोगी तो हमारे मरने की खबर पाओगी। अभी तो और न जाने कितनी बातें हैं अम्मा, जो आकर आपको बतानी हैं, आपके भुइंधर और उनके मोबाइल की। अच्छा अम्मा जो भी गलतियां मुझ से हुई हैं, उसके लिए क्षमा करना।                                                    तुम्हारी बहू , निर्मला 

                 

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                        नुरीन

नुरीन होश संभालने के साथ ही अपनी अम्मी की आदतों, कामों से असहमत होने लगी थी। जब कुछ बड़ी हुई तो आहत होने पर विरोध भी करने लगी। ऐसे में वह अम्मी से मार खाती और फिर किसी कमरे के किसी कोने में दुबक कर घंटों सुबुकती रहती। दो-तीन टाइम खाना भी न खाती। लेकिन अम्मी उससे एक बार भी खाने को न कहती। बाकी चारो बहनें उससे छोटी थीं।

जब अम्मी उसे मारती थी तो वह बहनें इतनी दहशत में आ जातीं कि, उसके पास फटकती भी न थीं। सब अम्मी के जोरदार चाटों, डंडों, चिमटों की मार से थर-थर कांपती थीं। वह चाहे स्याह करे या सफेद, उसके अब्बू शांत ही रहते। अम्मी जब आपा खो बैठतीं, डंडों, चिमटों से लड़कियों को पीटतीं तो बेबस अब्बू अपनी एल्यूमिनियम की बैशाखी लिए खट्खट् करते दूसरी जगह चले जाते। 

उनकी आंखें तब भरी हुई होती थीं। जिन्हें वह कहीं दूसरी जगह  बैठ कर अपने कुर्ते के कोने से आहिस्ता से पोंछ लेते। वह पूरी कोशिश  करते थे कि, कोई उन्हें ऐसे में देख न ले। लेकिन अन्य बच्चों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील नुरीन से अक्सर वह बच नहीं पाते थे। तब नुरीन चुपचाप उन्हें एक गिलास पानी थमा आती थी। खुद पिटने पर वह ऐसा नहीं कर पाती थी। उसे अब्बू की हालत पर बड़ा तरस आता था। 

छः साल पहले एक दुर्घटना में उनका एक पैर बेकार हो गया था। कई और चोटों के कारण वह ज़्यादा देर बैठ भी नहीं सकते थे। रही-सही कसर मुंह के कैंसर ने पूरी कर दी थी। तंबाकू-शराब के चलते कैंसर ने मुंह को ऐसा जकड़ा था कि, जबड़े के कुछ हिस्से से लेकर जुबान का भी अधिकांश हिस्सा काट दिया गया था। जिससे वह बोल भी नहीं सकते थे।

उनकी इस दयनीय स्थिति पर भी अम्मी उन्हें लताड़ने-धिक्कारने अपमानित करने से बाज नहीं आती थी। शायद ही कोई ऐसा सप्ताह बीतता जब वह अब्बू को यह कह कर ना धिक्कारती हों कि, 'ये पांच-पांच लड़कियां पैदा कर के किसके भरोसे छोड़ दी, कौन पालेगा इनको, तुम्हारा बोझ ढोऊं कि इन करमजलियों का, अंय बताओ किस-किस को ढोऊं।'

जब अब्बू उनकी इन जली-कटी बातों पर प्रश्नों और लाचारी से भरी आंखों से देखते तो अम्मी किचकिचाती हुई यह भी जोड़ देती, 'अब हमें क्या देख रहे हो, जब कहती थी तब समझ में नहीं आया था, तब तो दारू भी चाहिए, मसाला भी चाहिए, खाओ, अब हमीं को चबा लो।' यह कहते हुए अम्मी पैर पटकती, धरती हिलाती चल देती थी। और अब्बू बुत बने बैठे रहते। 

नुरीन को अम्मी की बातें, गुस्सा कभी-कभी कुछ ही क्षण को ठीक लगता था कि, अब्बू के बेकार होने के बाद घर-बाहर का सारा काम उन्हीं के कंधों पर आ गया। घर के उनके कामों में जहां अब्बू को कपड़े पहनने में मदद करना तक शामिल है, वहीं बाहर का सारा काम, सारे बच्चों के स्कूल के झमेले और फिर दिन में तीन बार आरा मशीन पर जाना। 

पहले दादा को आरा मशीन पर पहुंचाना, फिर दोपहर का खाना देने जाना, शाम को उनको घर ले आना। अब्बू के बेकार होने के बाद दादा एक बार फिर से आरा मशीन  का अपना पुश्तैनी धंधा देखने लगे थे। नौकरों के सहारे बड़ा नुकसान होने के कारण उन्होंने मजबूरी में यह कदम उठाया था कि, चलो बैठे रहेंगे तो कुछ तो फर्क पडे़गा। 

नुरीन हालांकि घर के कामों में अम्मी की बहुत मदद करती थी। उम्र से कहीं ज़्यादा करती थी। इसके चलते उसकी पढ़ाई भी डिस्टर्ब होती थी। ऐसे माहौल में नुरीन को कभी अच्छा नहीं लगता था कि, कोई मेहमान उसके घर पर आए। लेकिन मेहमान थे कि आए दिन टपके ही रहते थे।

शहर के अलग-अलग हिस्सों में सभी रिश्तों की मिला कर उसकी छः से ज़्यादा फुफ्फु और इनके अलावा चाचा और ख़ालु थे। इन सबमें उसे सबसे ज़्यादा अपने छोटे ख़ालु का आना खलता था। वह न दिन देखें, ना रात जब देखो टपक पड़ते थे। बाकी और जहां परिवार के सदस्यों को लेकर आते थे। वहीं वह अकेले ही आते थे। 

अब्बू के एक्सीडेंट के समय जहां कई रिश्तेदारों ने बड़ी मदद की थी, वहीं इस ख़ालु ने खाना-पूर्ती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब्बू के कैंसर के इलाज के वक़्त भी यही हाल था। नुरीन को अपने इस ख़ालु के चेहरे पर मक्कारी-धूर्तता का ही साया दिखता था। वह चाहती थी कि अम्मी भी ख़ालु की इस धूर्तता को पहचानें।

उसे बड़ा गुस्सा आता जब वह अम्मी के साथ अकेले किसी कमरे में बैठकर हंसी-मजाक करता, बतियाता, चाय-नाश्ता करता। और अब्बू अलग-थलग किसी कमरे में अकेले बैठे सूनी-सूनी आंखें लिए दीवार या किसी चीज को एक टक निहारा करते। 

उस वक़्त उसका मन ख़ालु का मुंह नोच लेने का करता, जब वह अम्मी के कंधों पर हाथ रखे बगल में चलता हुआ रसोई तक चला जाता। या फिर जब वह दोनों कमरे में बातें कर रहे होते तो, उसके या किसी बहन के वहां पहुंचने पर अम्मी गुस्से से चीख पड़तीं।

उसे यह भी समझने में देर नहीं लगी थी कि, उसकी ही तरह अब्बू भी अंदर-अंदर यह सब देख कर बहुत चिढ़ते हैं। मगर उनकी मज़बूरी यह थी कि, वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं सकते थे। दादा की कुछ चलती नहीं थी। घर चलता रहे इस गरज से वह बेड पर आराम करने की हालत में हिलते-कांपते, आरा-मशीन का धंधा संभालते थे। 

उन्हें मौत के करीब पहुंच चुके अपने बेटे के इलाज की चिंता सताए रहती थी। वैसे भी अब्बू के इलाज के चलते घर अब-तक आर्थिक रूप से बिल्कुल टूट चुका था। बाकी दोनों बेटे मुंबई में धंधा जमा लेने के बाद से घर से कोई खास रिश्ता नहीं रख रहे थे। इन सबके बावजूद उनकी हिम्मत पस्त नहीं हुयी थी। तमाम लोगों का बड़ा भारी परिवार होने के बावजूद वह खुद को एकदम तन्हा ही पाते थे। मगर फिर भी उनकी हिम्मत में कमी नहीं थी। 

नुरीन उनके इस जज्बे को सलाम करती थी। और अब्बू के साथ-साथ दादा की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ती थी। वह दादा से कई बार बोल चुकी थी कि, दादा उसे काम-धंधे में हाथ बंटाने दें। लेकिन दादा बस यह कह कर मना कर देते कि, 'बेटा मैं अपने जीते जी तुम्हें लकड़ी के इस धंधे में हरगिज नहीं आने दूंगा। दुकान पर मर्दों की जमात रहती है। वहां तुम्हारा जाना उचित नहीं है।'

दादा की इस बात पर वह चुप रह जाती और मन ही मन कहती दादा वहां तो बाहरी मर्दों की जमात से आप मेरे लिए खतरा देख रहे हैं। लेकिन घर में धूर्तों की जो जमात आती रहती है, उसमें मैं कितनी सुरक्षित हूं इस पर भी तो कभी गौर फरमाइए। 

यह सोचते-सोचते उसकी आंखें भर आतीं कि, अब्बू देख कर भी कुछ करने लायक नहीं हैं, और दादा घर में धूर्तों की जमात पहचानने लायक नहीं रहे। वह हर ओर अंधेरा ही अंधेरा देख रही थी। इस अंधेरे को दूर करने की वह सोचती और इस कोशिश में घर के ज़्यादा से ज़्यादा काम करने के बावजूद जी-जान से पढ़ाई करती। 

अपनी बहनों को भी पढ़ने के लिए बराबर कहती और बहनों को अपने साथ एक जगह रखती। रिश्तेदारों से दूर रहने की कोशिश करती। घर के इस अंधेरे में दरवाजों, कोनों, दीवारों से टकराते, गिरते-पड़ते उसने ग्रेजुएशन कर लिया। इस पर उसने राहत महसूस की और सोचा कि आगे की पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी तलाशेगी। 

ग्रेजुएशन किए अभी दो-तीन महिना भी ना बीता था कि, पूरे घर पर कहर टूट पड़ा। एक दिन अब्बू के मुंह से खून आने पर जांच कराई गई तो पता चला कि, कैंसर तो गले में भी फैला हुआ है, और लास्ट स्टेज में है। और अब्बू का जीवन चंद दिनों का ही रह गया है। 

यह सुनते ही दादा को तो जैसे काठ मार गया। नुरीन को लगा कि, जैसे दुनिया ही खत्म हो गई। अब्बू भले ही अपाहिज हो गए थे। गूंगे  हो गए थे। लेकिन एक साया तो था। अब्बू का साया। अम्मी और वह दोनों अब्बू को लेकर फिर पी.जी.आई., लखनऊ के चक्कर लगाने लगी थीं। अब अम्मी को देख कर नुरीन को ऐसा लगा कि, मानो अम्मी के लिए यह एक रूटीन वर्क है।

अब्बू की सामने खड़ी मौत से जैसे उन पर कोई खास फ़र्क नहीं था। मानो वह पहले ही से यह सब जाने और समझे हुए थीं कि, यह सब तो एक दिन होना ही था। जल्दी ही पी.जी.आई., के डॉक्टरों ने निराश हो कर अब्बू को घर भेज दिया।

कहा कि, 'ऊपर वाले पर भरोसा रखें। अब हमारे हाथ में कुछ नहीं बचा। आप चाहें तो टाटा इंस्टीट्यूटए मुंबई ले जा सकती हैं।' यह सुन कर अम्मी एकदम शांत हो गईं। भाव-शून्य हो गया उनका चेहरा। वह खुद रो पड़ी थी। पिछली बार जिन रिश्तेदारों ने पैसे आदि हर तरह से सहयोग किया था। वही सब इस बार खाना-पूर्ति कर चलते बने। 

पैसे की तंगी पहले से ही थी। ऐसे में लाखों रुपए अब और कहां से आते कि, अब्बू को इलाज के लिए मुंबई ले जाते। सबने एक तरह से हार मान ली। अब पल-पल इस दहशत में बीतने लगा कि, वह मनहूस पल कौन सा होगा जिसमें मौत अब्बू को छीन ले जाएगी। इधर कहने को दी गईं दवाओं का कुछ भी असर नहीं था।

अब मुंह में खून, भयानक पीड़ा से अब्बू ऐसा कराहते कि, सुनने वालों के भी आंसू आ जाएं। इस बीच नुरीन ने देखा कि, वह मनहूस ख़ालु अब आ तो नहीं रहा, लेकिन फ़ोन पर अम्मी से पहले से ज़्यादा बातें करता रहता है। अब्बू की इस हालत और ख़ालु की कमीनगी से नुरीन का खून खौल उठता था। 

वह अब दादा की आंखों में भी गहरा सूनापन देख रही थी। उन्होंने मुंबई में अपने बाकी बेटों को फ़ोन किया कि, 'तुम्हारा एक भाई मौत के दरवाजे पर खड़ा है। तुम लोग मदद कर दो तो किसी तरह मुंबई भेज दूँ , वहां उसका इलाज करा दो।'

मगर उन बेटों ने मुख्तसर सा जवाब दिया कि, 'अब्बू यहां इतनी मुश्किलात हैं कि, हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे। डॉक्टर, हॉस्पिटल तो वहां भी बहुत अच्छे से हैं। वहीं कोशिश करिए।' दादा को इन बेटों से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी।

मगर उम्मीद की हर किरण की तरफ वह आस लिए बेतहाशा दौड़ पड़ते थे। नुरीन भी दादा के साथ ही दौड़ रही थी। बल्कि वह उनसे भी आगे निकल जाने को छटपटाती थी। तो इसी छटपटाहट में उसने मुंबई में चाचाओं को खुद भी फ़ोन लगाया कि, 'आप लोग अब्बू को बचा लें। वह ठीक हो जाएंगे तो, आप सबके पैसे हर हाल में दे देंगे।' नुरीन जानती थी कि, उसके चाचा इतने सक्षम हैं कि, अब्बू का मुंबई में आसानी से इलाज करा सकते हैं। मगर उन चाचाओं ने नुरीन की आखिरी उम्मीद का सारा नूर खत्म कर दिया। 

हार कर वह अम्मी से बोली थी कि, एक बार वह भी चाचाओं से बोले। लेकिन वह तो जैसे अंजाम का इंतजार कर रही थीं। नुरीन की बात पर टस से मस नहीं हुईं । कुछ बोलती ही नहीं। बुत बनी उसकी बात बस सुन लेती थीं। नुरीन हर तरफ से थक हार कर आखिर में दादा के पास पहुंची। 

उनके हाथ जोड़ फफक कर रो पड़ी कि, 'दादा अब्बू को बचा लो। सबने साथ छोड़ दिया दादा। अब आप ही कुछ करिए। अब तो अम्मी भी कुछ नहीं बोलती। दादा बिना अब्बू के कैसे रहेंगे हम लोग।' नुरीन को दादा पर पूरा यकीन था कि, वह कितना भी जर्जर हो गए हैं, लेकिन फिर भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वालों में नहीं हैं। कोई न कोई रास्ता निकालने की कोशिश जरूर करेंगे। 

नुरीन के आंसू, उसकी सिसकियों को सुन कर दादा भी रो पड़े थे। मगर जल्दी ही अपने आंसू पोंछते हुए बोले, 'अल्लाह-त-आला पर भरोसा रख बच्ची, वह बड़ा रहम करने वाला है, तेरे आंसू बेकार ना जाएंगे मेरी बच्ची।' इस पर नुरीन बोली थी, 'लेकिन दादा लाखों रुपए कहां से आएंगे। कोई रास्ता तो नहीं दिख रहा। सबने मुंह मोड़ लिया है। दादा वक़्त बिल्कुल नहीं है।' नुरीन को दादा ने तब बहुत ढाढ़स बंधाया था। लेकिन खुद को लाचार समझ रहे थे। 

पैसे का इंतजाम कहीं से होता दिख नहीं रहा था। उस दिन वह रात-भर जागते रहे। पैसे का इंतजाम कैसे हो इसी उधेड़बुन में फजिर की अजान की आवाज़ उनके कानों में पड़ी। वह उठना चाह रहे थे। लेकिन उनको लगा जैसे उनके शरीर में उठने की ताब ही नहीं बची। बड़ी मुश्किलों बाद कहीं वो उठ कर बैठ सके। उस दिन पूरी ताकत लगा कर वह बहुत दिनों बाद नमाज के लिए खुद को तैयार कर सके। 

नमाज अता कर वह बैठे ही थे कि, नुरीन फिर उनके सामने खड़ी थी। उसने आंगन की तरफ खुलने वाली कमरे की दोनों खिड़कियां खोल दी थीं। कमरे में अच्छी-खासी रोशनी आने लगी थी। वह दादा के लिए कॉफी वाले बड़े से मग में भर कर चाय और एक प्लेट में कई रस लेकर आई थी। 

वह दादा को बरसों से यही नाश्ता सुबह बड़े शौक से करते देखती आ रही थी। खाने-पीने के मामले में उसने दादा के दो ही शौक देखे थे, एक चाय के साथ बर्मा बेकरी के ''रस'' खाने और हर दूसरे-तीसरे दिन गलावटी कबाब के साथ रुमाली रोटी खाने का।

जब खाते वक़्त कोई मेहमान साथ होता तो, वह यह कहना ना भूलते कि, 'भाई इस शहर के गलावटी कबाब और इस रुमाली रोटी का जवाब नहीं। लोग भले ही काकोरी के गलावटी कबाब को ज़्यादा उम्दा मानें लेकिन मुझे तो, यही लज़ीज़ लगते हैं।'

यदि कोई कहता कि, 'अरे काकोरी लखनऊ से कौन सा अलग है।' तो वह जोड़ते, 'जाना तो जाता है, काकोरी के नाम से ही ना।' फिर वह शीरमाल और मालपुआ की भी बात करते। नुरीन को अच्छी तरह याद है कि, दादा ने कई बार यह भी कहा था कि, 'अगर मुझे कोई दूसरी जगह तख्तो-ताज भी दे दे और वहां गलावटी कबाब न हो तो, मैं वहां ना जाऊं।'

जब मुंह में डेंचर लग गए तो कहते, 'इस डेंचर ने सारा स्वाद ही बिगाड़ दिया।' नुरीन ने दादा को अब्बू के पहले ऑपरेशन के बाद पल-भर में अपनी इस प्रिय चीज को हमेशा के लिए त्यागते देखा था। तब उन्होंने यह कहते हुए कबाब, रोटी से भरी प्लेट हमेशा के लिए सामने से परे सरका दी थी कि, 'जब यह मेरे बेटे के गले नहीं उतर सकती तो, मैं इसे कैसे खा सकता हूं।' 

उस दिन के बाद नुरीन ने दादा को इस ओर देखते भी ना पाया। आज उन्हीं दादा ने रस भी खाने से साफ मना कर दिया। कहा, 'नुरीन बेटा अब कभी मेरी आंखों के सामने यह ना लाना।' उन्होंने कांपते हाथों से चाय उठाकर पीनी शुरू कर दी थी। उन्होंने इसके आगे कुछ नहीं कहा था, लेकिन नुरीन ने उनकी भरी हुई आंखें देख कर सब समझ लिया था।

फिर जल्दी से कुछ बिस्कुट लाकर उनके सामने रखते हुए कहा, 'दादा बिस्कुट भी खा लीजिए, खाली पेट चाय नुकसान करेगी।' नुरीन के कई बार कहने पर उन्होंने एक बिस्कुट खाया, फिर भर्रायी आवाज़ में उससे अब्बू के बारे में पूछा। 

नुरीन बोली, 'रात-भर दर्द के मारे कराहते रहे। घंटे भर पहले ही सोए हैं।' नुरीन की सूजी हुई आंखें देख कर उन्होंने पूछा था, 'तू भी रात-भर नहीं सोई।' नुरीन ने साफ बोल दिया कि, 'कैसे सोती दादा, अब्बू के पास कोई भी नहीं था। अम्मी बोलीं थी कि, उनकी तबियत ठीक नहीं है। वो दूसरे कमरे में सो रही थीं। अभी कुछ देर पहले ही उठी हैं।' 

दादा को चुप देख कर नुरीन फिर बोली, 'दादा अब्बू का इलाज कैसे होगा? सबने साथ छोड़ दिया है।' तब वह बोले, 'ठीक है बेटा, सबने साथ छोड़ दिया है, लेकिन अभी मेरी हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा है। मेरी उम्मीद अभी नहीं टूटी है। अपने सामने अपने बेटे को बिना इलाज मरने नहीं दूंगा। भले ही मकान-दुकान बेचने पड़ें। झोपड़ी में रहना पड़े रह लूंगा, मगर हाथ पे हाथ धरे बैठा नहीं रहूंगा।'

तभी नुरीन को लगा जैसे अब्बू के कराहने की आवाज़ आई है। 'मैं अभी आई दादा... कहती हुई वह अब्बू के कमरे की ओर दौड़ गई। उसको यूँ  भागते देख उन्हें लगा कि, उनका बेटा शायद जाग गया है। उम्र ने उनके सुनने की कुवत भी कम कर दी थी। इसीलिए नुरीन को जो आवाज़ सुनाई दी, उसका उन्हें अहसास ही नहीं था।

नुरीन को जाते देख वह यह जरूर बुद-बुदाए थे कि, 'न जाने तुम सब की मुकद्दर में क्या लिखा है।' फिर उनका दिमाग रात में सोची इस बात पर चला गया कि, 'अब काम-धाम कुछ करने लायक रहा नहीं। आरा-मशीन का धंधा भी बड़ा मुश्किलों वाला हो गया है। रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है। 

मुंशी विपिन बिहारी के सहारे यह काम अब कब-तक खीचूंगा। गुंडे-माफिया दुकान की लबे रोड लंबी-चौड़ी जमीन पर नज़र गड़ाए हुए हैं। बरसों से गाहे-बगाहे धमकाते आ रहे हैं। सब शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स, अपॉर्टमेंट बनवा कर अरबपति बनने का ख्वाब पाले हुए हैं। यही शाद सही होता तो खुद ही कुछ करता।

लखनऊ युनिवर्सिटी पास ही है, हॉस्टल ही बनवा देता तो कितना कमाता। मगर जब ठीक था तो मेरी कुछ सुनता नहीं था। होटल से लेकर ना जाने काहे-काहे का ख्वाब वह भी पाले हुए था। अब ना मेरा ठिकाना है, ना उसका। इधर बीच भू-माफिया और भी ज़्यादा सलाम ठोकने लगे हैं। जीते जी यह हाल है, मरने के बाद तो सब ऐसे ही इन सब को मार धकिया के कब्जा कर लेंगे। 

माफिया तो माफिया ये एम.एल.सी. माफिया तो आए दिन हाथ जोड़-जोड़ कर और डराता है। भाई-परिवार सब के सब एक से बढ़ कर एक हैं। चुनाव के समय चचाजान, चचाजान कह के एक वक़्त पूरे डालीगंज में घुमा लाया था। मैंने कभी बेचने की बात ही नहीं की थी। लेकिन ना जाने कितनी बार कह चुका है।

चचा जब भी बेचना हो तो हमें बताना आपको मुंह मांगी रकम दूंगा। सारे काम काज बैठे-बैठे करा दूंगा। क्यों न इसे ही बेच दूं। किसी और को बेचा तो टांग अड़ा देगा। माफिया ऊपर से नेता। जान छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। दुकान भी जाएगी पैसा भी नहीं मिलेगा। पांच-छः साल पहले ही साठ-सत्तर लाख बोल रहा था। कहता हूं अब सब कुछ बहुत बदल चुका है। 

प्रॉपर्टी के दाम आसमान को छू रहे हैं। सवा करोड़ दे दो तो लिख देता हूं तुम्हारे नाम। सवा करोड़ कहूंगा तो एक करोड़ में तो सौदा पट ही जाएगा। इतने में शाद का इलाज भी करा लूंगा। सत्तर-पचहत्तर लाख जमा कर ब्याज से किसी तरह घर का खर्च चलाऊंगा। इसके अलावा अब कोई रास्ता बचा नहीं है। मकान बेचने से इसका आधा भी ना मिलेगा।

पुराने शहर की इन पतली-पतली गलियों और आए दिन के दंगे-फसादों से आजिज आ कर लोग पहले ही नई कॉलोनियों की तरफ खुले में जा रहे हैं, तो ऐसे में यहां कौन आएगा।' नुरीन के दादा ने सारा हिसाब-किताब करके नेता माफिया के घर जाने के लिए, अपने मुंशी को फ़ोन कर कहा कि किसी कारिंदे को आटो के साथ भेज दे।

वह नुरीन या उसकी अम्मी को लेकर नहीं जाना चाहते थे। फ़ोन कर के उन्होंने रिसीवर रखा और एक गहरी सांस ले कर बुदबुदाए। 'जाने मुकद्दर में क्या लिखा है। इस बुढ़ापे में ऊपर वाला और ना जाने क्या-क्या करवाएगा।'

वह करीब दो घंटे बाद जब माफिया नेता के यहां से लौटे तो बड़ी निराशा के भाव थे चेहरे पर। कारिंदा उन्हें उनके कमरे में बेड पर बैठा कर चला गया था। वह ज़्यादा देर बैठ न सके और बेड पर लेट गए। नुरीन उसकी बहनें-अम्मी कोई भी आस-पास दिख नहीं रहा था। गला सूख रहा था मगर किसी को आवाज़ देने की ताब नहीं थी।

काफी देर बाद नुरीन दरवाजे के करीब दिखी तो उन्होंने कोई रास्ता न देख अपनी छड़ी जमीन पर भरसक पूरी ताकत से पटकी कि, आवाज़ इतनी तेज हो कि नुरीन सुन ले। इससे जिस तरीके से आवाज़ नुरीन के कानों में पहुंची, उससे वह सशंकित मन से दौड़ी आई दादा के पास और छड़ी उठा कर पूछा, 'अरे! दादा क्या हुआ? आप कहां चले गए थे? अम्मी आपको दुकान तक छोड़ने जाने आईं, तो आप ना जाने कहां चले गए थे। वह बहुत गुस्सा हो रही थीं।' उन्होंने नुरीन की किसी बात का जवाब देने के बजाय इशारे से पानी मांगा। 

नुरीन पानी लेकर आई तो पीने के कुछ देर बाद बोले, 'तेरे अब्बू कैसे हैं?' नुरीन ने कहा, 'सो रहे हैं। लेकिन आप कहा चले गए थे?' तब वह बोले, 'शाद के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम करने गया था।' उनकी यह बात सुन कर नुरीन कुछ उत्साह से बोली, 'तो इंतजाम हो गया दादा।'

इस पर गहरी सांस लेकर बोले, 'अभी तो नहीं हुआ। बड़ी जालिम है यह दुनिया। सब मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं। मगर परेशान ना हो मैं जल्दी ही कर लूंगा । और हां सुनो कुछ देर बाद मुझसे मिलने कोई आएगा। उसे यहीं भेज देना। और देखना उस समय कोई शोर-शराबा न हो।'

नुरीन दादा की बात से बड़ी निराश हुई। पानी का खाली गिलास लेकर वह बुझे मन से रसोई में चली गई। अम्मी कुछ काम से बाहर जाते समय खाना बनाने को कह गई थीं। मगर उसका मन कुछ करने का नहीं हो रहा था। वह अच्छी तरह समझ रही थी कि, हर पल अब्बू उन सबसे दूर होते जा रहे हैं।

उसने सोचा कि दादा से पूछूं कि, वह कहां से? कैसे? कब तक? पैसों का इंतजाम कर पाएंगे। फिर यह सोच कर ठहर गई, कि कहीं वह नाराज न हो जाएं। वह समझदार तो बहुत थी, लेकिन अभी दादा की तकलीफ का सही-सही अंदाजा नहीं लगा पा रही थी। 

दादा बेड पर लेटे-लेटे उस बिल्डर का इंतजार कर रहे थे। जिसे वह बात करने के लिए फ़ोन कर बुला चुके थे। क्योंकि माफिया नेता ने उन्हें निराश किया था। वह अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे थे। उसने बड़ी होशियारी से उनकी खूब आव-भगत की थी। गले लगाया था। बड़े आत्मीयता भरे लफ्ज़ों में कहा था,

'अरे चचाजान आप परेशान न होइए। आपको शाद के इलाज के लिए जितना पैसा चाहिए, बीस-पचीस लाख वह ले जाइए। पहले उसका इलाज कराइए, बाकी सौदा लिखा-पढ़ी होती रहेगी। आप जो रकम कहेंगे हम देने को तैयार हैं। मगर पहले शाद का इलाज जरूरी है। चचा ये बड़ी भयानक बीमारी है। संभलने का मौका नहीं देती। और फिर शाद का मामला तो बहुत गंभीर है। पहले ही एक ऑपरेशन हो  चुका है।' 

उसकी बात याद कर उन्होंने मन ही मन उसे गरियाते हुए कहा, 'कमीना मुझे कैसे डरा रहा था। बीस-पचीस लाख में करोड़ों की प्रॉपर्टी हड़पना चाहता है। बीस-पचीस लाख दे कर पहले फंसा लेगा, फिर औने-पौने दाम देगा कि, इससे ज़्यादा नहीं दे पाऊंगा, चाहे दें या ना दें। मेरे पैसे वापस कर बात खत्म करिए।

और क्योंकि तब पैसे वापस करना मेरे वश में नहीं होगा। तब औने-पौने में सब लिख देने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं होगा। इसके चक्कर में पड़ा तो, यह तो दर-दर का भिखारी बना देगा। कमीना कितना पीछे पड़ा हुआ था कि, पैसा लिए ही जाइए। जब दाल नहीं गली तो कैसे आवाज में तल्खी आने लगी थी। देखो अब यह बिल्डर क्या गुल खिलाता है।' 

जब-तक बिल्डर आया नहीं, तब-तक वह इन्हीं सब बातों में उलझते रहे। इस बीच नुरीन के बड़ी जिद करने पर उन्होंने मूंग की दाल की थोड़ी सी खिचड़ी खायी थी। जब ढाई-तीन घंटे बाद बिल्डर आकर गया तो उससे भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखी। उसने सीधे कहा कि, 'वह एरिया ऐसा है जो अपॉर्टमेंट या शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स दोनों ही के लिए कोई बहुत अच्छा नहीं है। फिर भी हम कोशिश करते हैं। कुछ बात बनी तो आएंगे।'

नुरीन के दादा ने देखा कि उसकी मां इस दौरान खिड़की के आस-पास बराबर बनी हुई है। उसकी इस हरकत पर उन्हें गुस्सा आ रहा था कि, यह छिप कर जासूसी कर रही है। बिल्डर अभी उन्हें निराश करके गया ही था, वह अभी निराशा से उबर भी न पाए थे कि, वह अंदर आ गई और सीधे बेलौस पूछताछ करने लगी कि, 'यह क्या कर रहे हैं?' उनके यह बताने पर कि, 'शाद के इलाज के लिए दुकान बेच कर पैसे का इंतजाम कर रहा हूं।' तो वह बहस पर उतर आई कि, 

'आप बिना बताए ऐसा कैसे करने जा रहे हैं? वह मेरे शौहर हैं, जो करना है मैं करूंगी। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि, मुझे क्या करना है, क्या नहीं। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं। आप तो हम सबको भीख मंगवा देंगे।'

नुरीन के दादा उसकी अम्मी की इन बातों का आशय समझते ही सकते में आ गए। उसने सख्त लहजे में कहा था कि, 'आप दुकान नहीं बेचेंगे।' इस पर क्रोधित हो कर उन्होंने भी पुरजोर आवाज़ में कहा,

'वो तो मैं भी जानता हूं कि, वह तुम्हारा शौहर है, और तुम उसके साथ क्या कर रही हो। लेकिन उससे पहले वह मेरी औलाद है, मेरे जिगर का टुकड़ा है। मैं उसे अपने जीते जी कुछ नहीं होने दूंगा। प्रॉपर्टी मेरी है, मैं उसे बेचुंगा, उसका इलाज कराऊंगा। मुझे रोकने वाला कोई कौन होता है। अगर मेरे रास्ते में कोई आया तो मैं उसे छोडूंगा नहीं, पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा।'

जब और ज़्यादा बोलने की ताब ना रही तो, वह अपना थर-थर कांपता शरीर लेकर बेड पर लेट गए। इस बीच दोनों की तेज़ आवाजें सुन कर नुरीन दौड़ी चली आई थी। वह अब्बू के पास बैठी थी, जब उसने यह तेज़ आवाज़ें सुनी थीं। उसकी बाकी बहनें  भी आ गई थीं।

मगर सब अम्मी का आग-बबूला चेहरा देख कर सन्न खड़ी रह गईं। नुरीन भी कुछ बोलने की हिम्मत न कर सकी। क्षण-भर भी न बीता कि, अम्मी दरवाजे की ओर पलटी और चीख पड़ी, 'यहां मरने क्यों आ गई सब की सब। इतने बड़े घर में कहीं और मरने का ठौर नहीं मिला क्या?'

अम्मी का भयानक चेहरा देख सभी सिहर उठीं। सभी देखते-देखते वहां से भाग लीं। नुरीन भी चली गई। तब उसकी अम्मी बुद-बुदाई, 'देखती हूं बुढ़ऊ कि, बिना मेरे तू कैसे कुछ करता है। कब्र में पड़ा है, ऊपर खाक भर पड़ने को बाकी रह गई है, और हमें धमकी दे रहा पुलिस में भेजने की, मुझे पुलिस के डंडे खिलाएगा। घबड़ा मत पुलिस के डंडे कैसे पड़वाए जाते हैं, यह मैं दिखाऊंगी तुझे। 

अगला दिन तू इस घर में नहीं पुलिस के डंडों, गालियों के बीच थाने में बिताएगा। नुरीन को बरगला कर उसे मेरे खिलाफ भड़काए रहता है ना, देखना उसी नुरीन से मैं तुझे न ठीक कराऊं, तो अपनी वालिद की औलाद नहीं।'

इसके बाद नुरीन की अम्मी का बाकी दिन, सोने से पहले तक का सारा समय बच्चों को मारने-पीटने, गरियाने, शौहर की इस दयनीय हालत में भी उनको झिड़कने और अपने दुल्हा-भाई से कई दौर में लंबी बातचीत करने में बीता। रात करीब दस बजे दुल्हा भाई को उन्होंने घर भी बुलाया। फिर उसको और नुरीन को लेकर एक कमरे में घंटों खुसुर-फुसुर न जाने क्या बतियाती रही।

नुरीन के अलावा बाकी बच्चों को दूसरे कमरे में सोने भेज दिया था। बातचीत के दौरान नुरीन कई बार उठ-उठ कर बाहर जाने को हुई, लेकिन उन्होंने उसे पकड़-पकड़ बैठा लिया। उस रात उसे सुलाया भी अपने ही पास। यह अलग बात है कि, नुरीन रात-भर रोती रही, जागती रही, सो नहीं पाई।

अगली सुबह रोज जैसी सामान्य ही दिख रही थी। नुरीन दादा को उनका नाश्ता दे आई थी। मगर उसके चेहरे पर अजीब सी दहशत, अजीब सा सूनापन ही था। वह खोई-खोई सी थी। फिर ग्यारह बजते-बजते उसकी अम्मी उसे तैयार कर चौक थाने पहुंच गई। जब घंटे भर बाद नुरीन को लेकर लौटी तो, उसने सबसे पहले ससुर के कमरे की ही जांच-पड़ताल की।

वहां दो लोगों को बैठा पाकर भुन.भुनाई, 'बुढ्ढा प्रॉपर्टी डीलरों का जमघट लगाए हुए है। सठिया गया है। कुछ देर और सठिया ले। तेरा सठियानापन ऐसे निकालूंगी कि, कब्र में भी तेरी रुह कांपेगी। दुल्हा-भाई को लोफर कहता है ना....घबरा मत।'

इधर नुरीन ने कमरे में पहुंचते ही बुर्का उतार कर फेंका और फूट-फूटकर रो पड़ी। उसकी अम्मी बाकी बहनों को दूसरे कमरे में बंद कर उसके पास पहुंची। बोली, 'देख मैं जो भी कर रही हूं, तेरे अब्बू की जान बचाने के लिए कर रही हूं। मैं उनको और किसी को भी कुछ नहीं होने दूंगी। अब तू खुद ही तय कर ले कि, अपने अब्बू की मौत का गुनाह अपने सिर लेना चाहती है या उनकी जान बचा कर अल्लाह की नेक बंदी बनना चाहती है।' 

अम्मी की बातों का नुरीन पर कोई असर नहीं था। वह फूट-फूटकर रोती ही रही। उसे थाने से आए हुए घंटा भर न हुआ था कि, इंस्पेक्टर दो कांस्टेबलों के साथ आ धमका। घर के दरवाजे से दादा के कमरे तक उन्हें उसकी अम्मी ही लेकर गई। उसके दादा बेड पर आंखें बंद किए लेटे हुए थे। प्रॉपर्टी डीलर कुछ देर पहले ही जा चुके थे। 

कमरे में इंस्पेक्टर, कांस्टेबलों के जूतों की आवाज़ सुन कर दादा ने आंखें खोल दीं। दाहिनी तरफ सिर घुमा कर तीन लोगों को अम्मी संग खड़ा देख वह माजरा एकदम समझ ना पाए। तभी इंस्पेक्टर बोला, 'जनाब उठिए आपसे कुछ बात करनी है।'

इंस्पेक्टर का लहजा बड़ा नम्र था। शायद दादा की उम्र और उनकी जर्जर हालत देख कर वह अपने कड़क पुलिसिए लहजे में नहीं बोल रहा था। चेहरे पर अचंभे की अनगिनत रेखाएं लिए दादा उठने लगे। उठने में उनकी तकलीफ देखकर इंस्पेक्टर ने उन्हें बैठने में मदद की और साथ ही प्रश्न भरी नजर नुरीन की अम्मी पर भी डाली। 

दादा ने बैठ कर कांपते हाथों से चश्मा लगाया और इंस्पेक्टर की तरफ देखकर बोले, 'जी बताइए क्या पूछना चाहते हैं?'

दादा का चेहरा पसीने से भर गया था। इंस्पेक्टर ने उनका नाम पूछने के बाद कहा, 'आपकी पोती नुरीन ने कंप्लेंट की है कि, आप आए दिन उसके साथ छेड़-छाड़ करते हैं। आज तो आपने हद ही कर दी, सीधे उसकी आबरू लूटने पर उतर आए। उसके अब्बू बीमार हैं, लाचार हैं तो आप उसकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं।'

इंस्पेक्टर इसके आगे आपनी बात पूरी ना कर सका। दादा दोनों हाथ कानों पर लगा कर बोले, 'तौबा-तौबा या अल्लाह, ये मैं क्या सुन रहा हूं। इस उमर में इतनी बड़ी जलालत भरी तोहमत। या अल्लाह अब उठा ही ले मुझे।'

यह कहते-कहते दादा गश खाकर बेड पर ही लुढ़क गए। इस पर इंस्पेक्टर ने एक जलती नजर अम्मी पर डालते हुए कहा, 'इनके चेहरे पर पानी डालिए और अपनी बेटी को भी बुलाइए।'

इस बीच इंस्पेक्टर ने मोबाइल पर अपने सीनियर से बात की जिसका लब्बो-लुआब यह था कि मामला संदेहास्पद है। दादा को जब-तक होश आया तब-तक इंस्पेक्टर ने नुरीन से भी पूछ-ताछ कर मामले को समझने की कोशिश की। लेकिन नुरीन ने रटा हुआ जवाब बोल दिया। अब-तक उसके ख़ालु सहित कई लोग आ चुके थे। 

घर के बाहर भी लोगों का हुजूम लगने लगा था। लोगों तक बात के फैलते देर न लगी। छुट्ट-भैये नेता मामले को तूल देने की फिराक में लग गए। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि, अब-तक अस्सी-बयासी वर्ष का जीवन इज्ज़त से बेदाग गुजार चुके, असदुल्ला खां उर्फ मुन्ने खां अपनी पोती के साथ ऐसा करेंगे। 

अपने समय के मशहूर कनकउएबाज (पतंगबाज) मुन्ने खां का आस-पास अपने समय में अच्छा-खासा नाम था। पूरे जीवन उन पर किसी झगड़े-फसाद, किसी भी तरह के गलत काम का आरोप नहीं लगा था। मजहबी जलसों में भी वह खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। लोगों के बीच उनकी जो छवि थी उससे किसी को उन पर लगे आरोप पर यकीन नहीं हो रहा था। 

थाने पर उनके पहुंचने के साथ ही लोगों की भीड़ भी पहुंचने लगी थी। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा था कि, आरोपित, आरोपी दोनों एक ही परिवार के एक ही घर के सदस्य हैं। किसको क्या कहें। थाने पर वरिष्ठ अधिकारियों ने समझा-बुझा कर भीड़ को वापस किया। 

मुन्ने खां, नुरीन, उसकी अम्मी से कई बार पूछ-ताछ की गई। नुरीन से महिला अफसर ने बड़े प्यार से सच जानने का प्रयास किया। लेकिन नुरीन ने हर बार उसे वही सच बताया जो उसकी अम्मी और ख़ालु ने रटाया था। इससे वह बुरी तरह खफा हो गई।

अंततः मुन्ने खां को हवालात में डाल दिया गया। अगले तीन दिन उनके हवालात में ही कटने वाले थे। क्योंकि अगले दिन किसी त्योहार की और फिर इतवार की छुट्टी थी। 

नुरीन जब अम्मी, ख़ालु के साथ घर पहुंची तो, देखा रात नौ बजने वाले थे फिर भी, घर के आस-पास दर्जनों लोगों का जमावड़ा था। सारे लोगों के चेहरे घूम कर उन्हीं लोगों की तरफ हो रहे थे। अंदर पहुँचते ही नुरीन फूट-फूटकर रोने लगी। अब तक एक-एक कर सारी फुफ्फु-फूफा, ख़ालु-खाला सब आ चुके थे। 

घर लोगों से भर चुका था। साथ ही दो धड़ों में बंटा भी हुआ था। एक धड़ा दादा की लड़कियों, उनके परिवारों का था, जो दादा को अम्मी की साजिश का शिकार एकदम निर्दोष मान रहा था। दूसरी तरफ नुरीन की ननिहाल की तरफ के लोग थे, जो मासूम नुरीन को दादा के जुल्मों का श्किार, उनकी करतूतों की सताई लड़की मान रहे थे।

जो यह कहने से ना चूक रहे थे कि, 'बेचारी के बाप की अब-तब लगी है। और बुढ्ढा उसे अभी से अनाथ समझ हाथ साफ करने में लगा हुआ है।' तो कोई बोल रहा था कि, 'ऐसे गंदे इंसान को तो दोज़ख में भी जगह न मिलेगी। अरे इसकी हिम्मत तो देखो। इसे तो जेल में ही सड़ा कर मार देना चाहिए।'

नुरीन के कानों में यह बातें पिघले शीशे सी पड़ रही थीं। उसके आंसू बंद ही नहीं हो रहे थे। मारे शर्मिंदगी के वह कमरे से बाहर नहीं निकल रही थी। दरवाजा अंदर से बंद कर रखा था। 

सारी फुफ्फु उससे बात कर सच जानना चाह रही थीं। लेकिन अम्मी और उनका धड़ा मिलने ही नहीं दे रहा था। देखते-देखते घर में ही दोनों धड़ों के बीच मार-पीट की नौबत आ गई। फिर फुफ्फु-फूफा, और मुहल्ले के कई लोगों का हुजूम थाने पहुंचा कि, किसी तरह दादा को छुड़ाया जाए, जिसका जो बन सका फ़ोन-ओन सब कराया गया।

लेकिन पुलिस ने कानून के सामने विवशता जाहिर करके सबको वापस भेज दिया। उन सबके आने पर नुरीन की अम्मी ने एक और हंगामा किया। अपने सारे लोगों के साथ मिलकर किसी को घर के अंदर नहीं घुसने दिया। बात बढ़ गई। आधी रात हंगामा देख किसी ने पुलिस को फ़ोन कर दिया। पुलिस ने मामले की गंभीरता को देखते हुए फुफ्फु-फूफा आदि सबको उन्हें उनके घर वापस भेज दिया।

नुरीन करीब तीन बजे कमरे से बाहर निकल कर अब्बू के पास गई। अब तक अम्मी सहित सब सो रहे थे। उसने अब्बू को देखा, वह भी सो रहे थे। वह उनके सिरहाने खड़ी उनके चेहरे को अपलक निहारती रही। उसे लगा जैसे अब्बू के शरीर में कोई जुंबिस ही नहीं हो रही है। 

उसने घबराते हुए उनके हाथ को पकड़ कर हलके से हिलाया, कोई जवाब न मिला तो उसने दुबारा हिलाते हुए, 'अब्बू' आवाज़ भी दी तो इस बार उन्होंने हल्के से आंखें खोल दीं। नुरीन को लगा वह नाहक घबरा उठी थी। अब्बू तो पहले जैसे ही हैं। मगर उनकी आंखों में हल्की सी सुर्खी जरूर आ रही थी। उसने अब्बू के कंधे पर कुछ ऐसे थपकी दी जैसे कोई मां अपने दुध-मुंहे बच्चे को थपकी देकर सुलाती है। उसने देखा अब्बू ने भी आंखें बंद कर ली और सो गए।

अगला पूरा दिन अजीब से कोहराम और कशमकस में बीता। जंग का मैदान बने घर में उसे लगा कि, एक पक्ष जहां दादा को छुड़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है, वहीं अम्मी और उनका गुट दादा को हर हाल में लंबी सजा दिलाने में लगा है। इतना ही नहीं अम्मी उस पर बराबर नजर भी रखे हुए हैं, किसी से मिलने भी नहीं दे रही हैं।

इस बीच मान-मनौवल, दबाव, सुलह-समझौते की सबकी सारी कोशिशें अम्मी की एक ही बात के आगे ढेर होती रहीं कि, 'मैं ऐसे आदमी को बख्श के अपने सिर पर गुनाह का बोझ न लादुंगी, जिसने मेरी जवान, मासूम बेटी की इज़्जत पर हाथ डाला है।'

नुरीन ने देखा कि, अम्मी के बेअंदाज तेवर के आगे सब धीरे-धीरे पस्त होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं लोगों के बीच यह बात भी दबे जुबान हो रही है कि, ऐसी औरत का क्या ठिकाना, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ना जाने किस पर क्या आरोप लगा दे। 

ऐसी ही किच-किच के बीच पूरा दिन बीत गया। ना ठीक से खाना-पानी। न ही आराम। समोसा-चाय, नमक-पारा चाय पर ही सब रहे। मर्द लोग बाहर खा-पीकर आते रहे। उसने अब्बू के लिए उनके हिसाब से लिक्वड फूड नली के जरिए दिया। उसे दिन-भर सबसे ज़्यादा कुढ़न अम्मी और ख़ालु के बीच गुपचुप होती गुफ्तगू से हुई। 

काली रात फिर घिर आई। बड़ी जिद पर उसे अम्मी ने अपने कमरे में सोने की इजाजत दी। वह जब सोने के लिए कमरे में पहुंची तो देखा उसकी बहनें सो चुकी हैं। उसके तख्त पर का बिस्तर गायब था। मतलब साफ था कि, किसी मेहमान के लिए ले लिया गया था। 

उठाने वाले को यह परवाह बिल्कुल नहीं थी कि वह कैसे सोएगी। आधी रात में कोई और रास्ता ना देख वह बिना बिस्तर के ही लेट गई। कम रोशनी का एक बल्ब अंधेरे से लड़ने में लगा हुआ था। 

दो दिन से ठीक से सो ना पाने। खाना-पीना न मिलने, भयंकर तनाव के चलते उसे सिर दर्द हो रहा था। आंखें जल रही थीं। मगर फिर भी उसका मन दादा पर लगा हुआ था। उसका मन बार-बार उस हवालात में चला जा रहा था, जिसमें दादा बंद थे। 

वह यह सोच-सोच कर परेशान होने लगी कि, उनकी जर्जर-सूखी हड्डियां हवालात की पथरीली जमीन का कैसे मुकाबला कर रही होंगी। अब-तक तो उनका अंग-अंग चोटिल हो चुका होगा। जिस तरह से उन्हें जीप में बिठाया गया। थाने पर इधर-उधर किया गया, उस कड़ियल व्यवहार, कड़ियल माहौल को वह कितना झेल पाएंगे।

दो-चार दिन भी झेल पाएं तो बड़ी बात होगी। अम्मी के दबाव, उनके डर के चलते मैंने एक फरिश्ते जैसे इंसान पर, वह भी अपने सगे दादा पर एकदम झूठा, वह भी इतना घिनौना आरोप लगाया। इन खयालों ने उसे भीतर ही भीतर और तोड़ना शुरू कर दिया। 

उसकी आंखों के  किनारों से आंसू निकल कर, कानों तक जा कर उन्हें भिगो रहे थे। इस बात पर वह सिसक पड़ी कि, वह अम्मी, खालू की साजिश का आखिर विरोध क्यों न कर पाई। तमाम बातों पर अम्मी से अकसर भिड़ जाने की उसकी हिम्मत आखिर कहां चली गई थी कि, दादा पर ऐसा आरोप लगाया।

वह दादा जो मेरे अब्बू, हम सबके भविष्य के लिए अपनी जान से प्यारी दुकान, पुरखों की निशानी, कैसे एक पल गंवाए बिना बेचने लगे। और एक अम्मी है। जो अब्बू का क्या होगा? उसे इससे ज़्यादा चिंता प्रॉपर्टी की है। उसे बचाने के लिए इस हद तक गिर गई। मुझे अब्बू के नाम पर कितना डरा धमका रही हैं। एक तरह से ब्लैकमेल कर रही हैं। अब्बू की जान का भय दिखा कर ब्लैकमेल कर रही हैं।

जब कि सच यह है कि, ऐसे तो अब्बू जितने समय के मेहमान हैं, वह भी ना चल पाएंगे। और मुझे तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं छोड़ा है। मैं किस तरह लोगों को अपना मुंह दिखाऊंगी। सच तो सामने आएगा ही। दादा छूटेंगे ही। या अल्लाह मैं कैसे करूंगी इन सबका सामना। अपना यह काला मुंह दुनिया के किस कोने में ले जाऊंगी। कहां छिपाऊंगी अपना गुनाह। अल्लाह कभी माफ नहीं करेगा मुझे।

पुलिस वाले जिस तरह बार-बार पूछ-ताछ कर रहे हैं, मैं ज़्यादा समय उनको अंधेरे में रख नहीं पाऊंगी। वैसे भी उन सब की हमदर्दी दादा ही के साथ है। उन्हें सिर्फ़ प्रमाण नहीं मिल पा रहा है कि झूठ पकड़ सकें। जिस दिन वह मेरा झूठ पकड़ेंगे, उस दिन मुझे जेल भेजे बिना छोडे़ंगे नहीं। और तब मुझे सजा होने से कोई नहीं बचा सकेगा। मैं बर्बाद हो जाऊंगी। बताते हैं लेडीज पुलिस भी बहुत मारती है।

अम्मी के दबाव में, मैंने जो गुनाह किया है, उसकी सजा अल्लाह जो देगा, वो तो देगा ही, पुलिस उससे पहले ही हड्डी-पसली एक कर देगी। दुनिया थूक-थूक कर ही ऐसी जलालत की दुनिया में झोंक देगी कि, मेरे सामने सिवाय कहीं डूब मरने के कोई रास्ता नहीं होगा। 

अम्मी का यह झूठ-गुनाह बस दो चार दिन का ही है। उसके गुनाह से मैंने यदि समय रहते निजात ना पा ली तो, सब कुछ बरबाद होने, तबाह होने से बचा ना पाऊंगी। समय रहते अम्मी के गुनाह की इस दुनिया को नष्ट करना ही होगा, इसी में पूरे परिवार और उनकी भी भलाई है।

नुरीन लाख थकी-मांदी, भूखी-प्यासी थी, लेकिन दिमाग में चलते इन बातों के बवंडर से खुद को अलग नहीं कर पा रही थी। आंखों में गहरी नींद थी, लेकिन उन्हें बंद कर वह सो नहीं पा रही थी। उसके दिलो-दिमाग इंतिहा की हद तक बेचैन थे।

तालाब से बाहर छिटक गई मछली की तरह उसकी तडफड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी कि, कैसे इस हालात को बदल दे। जो कालिख खुद पर पोत ली है, उसे साफ कर पाक-साफ बन जाए। उलझन तड़फड़ाहट बेचैनी इतनी बढ़ी कि, वह उठ कर बैठ गई।

अगली सुबह उसकी अम्मी जल्द ही उठ गई। उसने रात-भर एक सपना कई बार देखा कि, नुरीन अपनी सारी बहनों को लिए घर के आंगन में एक तरफ खड़ी है। वो उन्हें जो भी बात कहती है, उसे नुरीन और उसकी बहनें एक-दम तवज्जोह नहीं दे रही हैं। और जब वह गुस्से में उन्हें मारने दौड़ती है तो, वह सब नुरीन के पीछे-पीछे, कुछ कदम बाहर को जा कर, एक-दम गायब हो जाती हैं।

उन्होंने बेड पर से उतरने के लिए दोनों पैर नीचे लटकाए, दुपट्टे को ओढ़ने के लिए कंधे पर पीछे फेंका तो, उनको लगा कि उसके एक कोने पर कुछ बंधा हुआ है। दुपट्टे के छोर को वापस खींचा तो, देखा उनका शक सही था। वह मन ही मन बोलीं, मैं तो दुपट्टे में यूं कभी कुछ बांधती नहीं। कल सोते वक्त भी, कुछ नहीं था मेरे हाथ में, जो बांधती।'

मन में बढ़ती जा रही इस उलझन के बीच ही उन्होंने गांठ खेल कर देखा तो, उसमें किसी कॉपी के कई पन्ने बंधे हुए थे। जिसके पहले पन्ने पर बड़े अक्षरों में सिर्फ़ इतना लिखा था, 'अम्मी यह सिर्फ़ तुम्हारे लिए है। आगे के पन्नों को पूरा जरूर पढ़ लेना।'

यह लाइन पढ़ते ही उसकी अम्मी भीतर ही भीतर कुछ बुरा होने की आशंका  से घबरा उठी। उन्होंने अपनी धड़कनों के बढ़ते जाने को स्पष्ट महसूस किया। साथ ही पूरे शरीर में एक थर-थराहट भी। 

जल्दी से अगला पन्ना खोल कर पढ़ना शुरू किया। पहली लाइन पढ़ते ही दिल धक् से हो कर रह गया। चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक उठीं। हथेलियां नम हो उठीं। कुछ क्षण अपने को संभालने के बाद उन्होंने पहली ही लाइन से फिर पढ़ना शुरू किया। 

नुरीन ने बिना किसी अभिवादन के सीधे-सीधे लिखना शुरू किया था कि, 'अम्मी मैं हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रही हूं। इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ज़िम्मेदार हो। मैं तुम्हारे गुनाहों में अब और साथ नहीं दे सकती। इसलिए मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है।

इससे भी पहले यह कहूंगी कि, मैं अपने अब्बू को, निरीह, लाचार अब्बू को, तुम्हारे गुनाहों के कारण समय से पहले मौत के मुंह में जाते नहीं देख सकती। और साथ ही यह भी कि, तुम अब्बू के इलाज में अकेली सबसे बड़ी बाधा हो, रुकावट हो। 

अम्मी मैंने अब-तक, अपने जीवन में तुम्हारी जैसी औरत नहीं देखी, जो संपत्ति के लालच में अपने शौहर को मौत के मुंह में धकेल दे। मुफ्त की संपत्ति पाने के लिए फरिश्ते जैसे अपने ससुर पर अपनी पोती की इज्जत लूटने का घिनौना इल्जाम लगा दे। 

तुम लालच में इतनी अंधी हो गई हो कि, अपनी बेटी की इज्जत पूरी दुनिया के सामने उछालते तुम्हें जरा भी संकोच, शर्म नहीं आई। तुमने पल-भर को भी यह ना सोचा कि, अस्सी बरस के ऐसे इंसान पर तुम आरोप लगा रही हो जो, चलने-फिरने, खाने-पीने में भी लाचार है। वह मेरी जैसी लहीम-सहीम एक जवान लड़की की इज़्जत क्या लूट पाएगा। 

तुम्हें यह आरोप लगाते हुए जरा सी यह बात समझ में न आई कि, दुनिया तुम्हारी इन बातों पर कैसे यकीन कर लेगी। हर आदमी शुरू से ही तुम पर ही शक कर रहा है। पुलिस को दुनिया ऐसी-वैसी कहती रहती है। लेकिन वह सब भी, तुम्हीं पर शक कर रहे हैं कि, तुमने मुझ पर कोई न कोई दबाव बना कर ही, मुझे इस साजिश में शामिल किया है। 

अम्मी तुम्हें भले ही पुलिसवालों, दुनिया वालों की नज़र में खुद के लिए लानत-मलामत ना दिख रही हो, लेकिन मैंने इन सबकी नज़रों में अपने लिए गुस्सा, नफरत, लानत.मलामत सब देखा है। किसी के सामने पड़ने पर शर्म के मारे मैं जमीन में धंसी चली जाती हूं। मुझे लगता है कि, जैसे सचमुच ही सरे-राह मेरी इज़्जत लुट चुकी है।

पुलिस वालों ने जिस तरह से सच जानने के लिए तरह-तरह के सवाल किए, वह मैं बता नहीं सकती। तुम्हें भले ही इन बातों से कोई फर्क ना पड़े, लेकिन मुझे वह सब सुन कर लगता है कि, इससे अच्छा था कि, मैं मर ही जाती। 

उस महिला अधिकारी ने बड़ा साफ-साफ पूछा कि, 'तुम्हारे दादा ने यह छेड़खानी पहली बार की या इसके पहले कितनी बार की। उन्होंने तुम्हारे शरीर के किस-किस हिस्से को छुआ।' वह मुझसे सच उगलवाने पर इस कदर तुली हुई थी कि, शरीर के अहम हिस्सों की तरफ इशारा करके पूछती, 'यहां छुआ या यहां छुआ। किस तरह से दबाया, कितना किया।'

मैं जवाब दे पाने के बजाय फूट-फूट कर रो पड़ी थी अम्मी। मुझे यह सब सुन कर लग रहा था, मानो सचमुच मेरी इज़्जत लुट रही है। असहनीय थी मेरे लिए वह जलालत। 

मैं उस पुलिस अधिकारी को क्या बताती कि, मेरे दादा के हाथ हमेशा हम सब बच्चों की भलाई के लिए, दुआ के लिए ही उठे। सिर पर हाथ हमेशा आशीर्वाद के लिए ही रखा। लेकिन अम्मी, मैं ऐसी खुर्राट पुलिस ऑफिसर के भी सामने, ऐसी जलालत भरी स्थिति में भी टूटी नहीं। झूठ को बराबर सच बनाए रही। रोती रही मगर अड़ी रही।

क्योंकि अब्बू का चेहरा बराबर मेरे सामने था। और तुम्हारी धमकी बराबर कानों में गूंजती रही कि, 'जरा भी तूने सच बोला तो अब्बू का मरा मुंह देखेगी।' तुम बराबर झूठ पर झूठ बोलती रही कि, तुम और ख़ालु अब्बू के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम बस कर ही चुकी हो।

अम्मी यह सब जानते हुए भी, मैं सिर्फ़ इस लिए तुम्हारे इशारे पर नाचती रही, क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अब्बू को नहीं खोना चाहती। और इसीलिए यहां से भागने का भी फै़सला लिया। हमेशा के लिए। क्योंकि मैं जानती हूं कि, मैं यहां रहूंगी तो तुम तो अब्बू का इलाज कराने से रही। ऊपर से दादा को भी छोड़ोगी नहीं।

इस हालत में इस तरह तो वह यूं ही चल बसेंगे। इसलिए मैं जा रही हूं। सबसे पहले मैं यहां से जाकर पुलिस को विस्तार से ई-मेल करूंगी, कि दादा को किस तरह झूठी साजिश रचकर फंसाया गया। मुझे साजिश में शामिल होने के लिए फंसाया गया, विवश किया गया। 

इन सारी बातों की मैं विडियो रिकॉर्डिंग कर के, विडियो भी पुलिस को मेल कर दूंगी। कि दादा बिल्कुल बेगुनाह हैं, उन्हें तुरंत छोड़ दिया जाए। इस काम के लिए मैं तुम्हारा मोबाइल ले जा रही हूं। यह काम पूरा होते ही कोरियर से भेज दूंगी।

क्योंकि अपने पास रखूंगी तो पुलिस इसके सहारे मुझ तक पहुंच जाएगी। सच जानने के बाद वह तुम्हें नहीं छोड़ेगी। इसलिए मैं दादा को भी फ़ोन करके उनसे गुजारिश करूंगी कि, वो ख़ालु को छोड़ कर हमें, तुम्हें और बाकी सबको बख्श दें। पुलिस को किसी भी तरह मना कर दें।

उन्हें अब्बू का वास्ता दूंगी। अल्लाह-त-अला का वास्ता दूंगी कि, हम भटक गए थे। हमें माफ कर दें। हमें पूरा यकीन है कि, वे ऐसे नेक इंसान हैं कि, हम ने उनसे इतनी घिनौनी ज़्यादती की है, लेकिन वह फिर भी हमें बख्श देंगे। वो इतनी कूवत रखते हैं कि, हमें जरूर बचा लेंगे। 

अम्मी अब तुम यह सोच रही होगी कि, इस सबसे अब्बू का इलाज कहां से हो जाएगा। तो अम्मी यह अच्छी तरह समझ लो कि, जब मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि, यह कदम उठाने से दादा को बचाने के साथ-साथ अब्बू के इलाज का भी रास्ता साफ हो जाएगा, तभी मैंने यह क़दम उठाया।

मैं दादा से साफ कहूंगी कि, आप छूटते ही सबसे पहले जो प्रॉपर्टी बेचना चाहते हैं, तुरंत बेचकर अब्बू का इलाज कराएं। और घर में शांति बनी रहे, इसके लिए वह तुम पर किसी सूरत में कोई केस न करें। तुम्हें बख्श दें।

एक तरह से यह तुम्हारे लिए सजा भी है। मैं उनसे यह भी कहूंगी कि, दादा मुझे भूल जाओ। क्योंकि मेरे वहां रहने पर आप यह सब नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अम्मी, ख़ालु के साथ कोई ना कोई साजिश रच कर मुझे फंसाए रहेंगी। 

अम्मी मैं दादा को यह भी बता दूंगी कि, तुमने किस तरह प्रॉपर्टी के चक्कर में मेरा निकाह ख़ालु के लड़के दिलशाद से करने की साजिश रची है। अम्मी तुम प्रॉपर्टी के चक्कर में इस कदर गिर जाओगी, मैंने यह कभी भी नहीं सोचा था। तुम्हें यह भी ख़याल नहीं आया कि, मैं भी एक इंसान हूं, कोई भेड़-बकरी नहीं कि, जहां चाहे बांध दिया, जब चाहा तब जबह कर दिया। 

इस निकाह के बारे में सोचते हुए तुम्हें यह ख़याल तो करना चाहिए था कि, जिस लड़के के साथ मैं बचपन से खेलती-कूदती, पढ़ती-लिखती आई, जिसे मैंने हमेशा सगा भाई माना। उसे सगे भाई का दर्जा दिया, चाहा, प्यार किया, और उसने भी हमें, हमेशा सगी बहन माना, प्यार दिया। उससे तुम मेरा निकाह करने का फै़सला किए बैठी हो। 

ख़ालु तो ख़ालु ठहरे, वह जानते हैं कि, घर में कोई लड़का है नहीं। मकान-दुकान मिलाकर कई करोड़ की प्रॉपर्टी है, जो अंततः लड़कियों को ही मिलेगी। इस स्वार्थ में अंधे हो उन्होंने तुम्हें फंसाया, फिर अपने लड़के को मुझसे निकाह के लिए तैयार कर लिया। 

जब से तुम दोनों ने दिलशाद को इसके लिए तैयार किया है, तब से उसको मुझसे मिलने नहीं दिया। क्योंकि तुम्हें यह डर है कि, मुझसे मिलने के बाद वह मुकर ना जाए। 

अम्मी तुम्हें सोचना चाहिए था कि, आखिर मैं ऐसे शख्स से कैसे निकाह कर लूंगी, जिसे बचपन से भाई की तरह देखती रही हूं। फिर अचानक उसे शौहर मान लूं। उसके बच्चों को पैदा करने लगूं। छी....अम्मी मुझे घिन आती है। यह खयाल आते ही उबकाई आने लगती है।

मैं दिलशाद को भी समझा कर मेल करूंगी। मुझे यकीन है कि, वह भी क़दम पीछे खींच लेगा। मैं उसको यह भी समझाऊंगी कि, यदि तुम्हारे अब्बू, मेरी अम्मी, मेरी छोटी बहनों से निकाह की बात चलाएं, तो भी तुम ना मानना। बल्कि ऐसे किसी गलत काम को तुम रोकना भी। 

अम्मी मैं एकदम समझ नहीं पा रही कि, आखिर ख़ालु ऐसा कौन सा काला जादू जानते हैं कि, इतनी आसानी से तुम्हें बरगलाया। अपने इशारे पर तुम्हें नचाते हुए एक के बाद एक गुनाह करवाए जा रहे हैं। अम्मी जरा सोचो कि, इससे बड़ा गुनाह क्या होगा कि, तुम उनके बहकावे में आकर अपने शौहर से दगा कर बैठी। मेरी जुबान यह कहते नहीं कांप रही अम्मी कि, तुम लंबे समय से यह इंतजार कर रही हो कि, कब तुम्हारे शौहर इस दुनिया से कूच कर जाएं। 

अम्मी यह कहने की हिम्मत इस लिए कर पाई हूं, क्योंकि तुम्हारी हरकतों ने दिलो-दिमाग से तुम्हारे लिए सारी इज्जत धो डाली है। जिस तरह तुमने अपनी जवान लड़कियों के सामने, घर में शौहर के रहते ख़ालु से नाजायज संबंधों की पेंगें बढ़ाईं, उससे अम्मी मन में तुम्हारे लिए नफरत ही नफरत भर गई है। 

अपने शौहर की लाचारगी का जैसा फ़ायदा तुम उठा रही हो, अम्मी वैसा शायद ही कोई बीवी उठाती हो। जरा सोचो अम्मी तुम्हारी इस घिनौनी, ज़लील हरकत से अब्बू पर क्या बीतती होगी। अम्मी गुनाह करके ज़्यादा दिन बचा नहीं जा सकता। और अब यही तुम्हारे साथ भी हुआ। मैं जा रही हूं। मेरे जाने से तुम्हारे और कई गुनाह भी बेपर्दा हो जाएंगे। कम से कम दादा के साथ तुमने जो किया वह तो बेपर्दा हो ही जाएगा। 

जहां तक बाकी गुनाहों की बात है, तो समय के साथ वह अपने आप ही खुल जाएंगे। क्योंकि गुनाह एक दिन खुद पुरजोर आवाज़ में दुनिया के सामने सच बोल ही देता है। अम्मी मैं पुलिस को यह भी कह दूंगी कि, मैं अब बालिग हूं। मैं कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र हूं। अब मैं घर में नहीं रहूंगी। इसलिए मुझे ढूंढ़ा ना जाए। 

दादा से कह कर सारे केस समाप्त करवा लूंगी। अम्मी मुझे अपनी हिम्मत, अपनी क्षमता पर यकीन है। एक दिन अपना एक मुकाम जरूर बनाऊंगी। जिस दिन कुछ बन गई, उस दिन एक बार घर जरूर आऊंगी। माना दुनिया बहुत खतरनाक है। 

एक अकेली लड़की का उसमें रहना दुनिया के सबसे भयानक खतरे का सामना करने जैसा है। शेर, चीतों, भालुओं जैसे हिंसक जानवरों से भरे जंगल में अकेले घूमने जैसा है। अम्मी, ख़ालु जैसे लोगों के चलते खतरे का सामना तो मैं अपने घर में भी करती ही आ रही हूं। 

अम्मी इसी खतरनाक दुनिया में एक लड़की पढ़-लिख कर, मेहनत करके, होटल में वेटर से लेकर ना जाने क्या-क्या काम करके आगे बढ़ती है, अपने इसी मुल्क में केंद्रीय मंत्री बन जाती है। और भी ऐसी ना जाने कितनी लड़कियों ने अपना मुकाम बनाया है, तो मैं भी क्यों नहीं बना सकती।

अम्मी मैं जिस दिन कुछ बन जाऊंगी उस दिन अपनी बहनों को भी साथ ले जाऊंगी। और हां मैं तुम्हारा बुर्का पहन कर जा रही हूं। बड़ा खूबसूरत है। तुम भले ही छिपाओ, लेकिन मुझे मालूम है कि किसने दिया है। वैसे भी क्या वाकई तुम्हें बुर्के की जरूरत है भी। 

अम्मी तुमने मेरे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा है। इसलिए जा रही हूं। हो सके तो गुनाहों से तौबा कर लेना। ज़िंदगी बड़ी खूबसूरत है। इसे खूबसूरत बनाए रखना अपने ही हाथों में है। अच्छा अल्लाह हाफिज।'

नुरीन के खत को पूरा पढ़ते-पढ़ते नुरीन की अम्मी पसीने से नहा उठीं। उन्हें सब कुछ हाथों से निकलता लग रहा था। हाथों से कागजों को मोड़ कर उन्हें जल्दी से एक अलमारी में रख कर ताला बंद कर दिया। और दुल्हा-भाई को फ़ोन करने के लिए उस कमरे में जाने को उठीं, जिसमें लैंडलाइन फ़ोन रखा था। पसीने से तर उनका शरीर कांप रहा था। 

उन्होंने दरवाजे की तरफ क़दम बढ़ाया ही था कि, एकदम से नुरीन सामने आ खड़ी हुई। वह एकदम हक्का-बक्का पलभर को बुत सी बन गईं। नुरीन भी उनसे दो क़दम पहले ही स्तब्ध हो ठहर गई। उसकी अम्मी के दिमाग में एक साथ उठ खड़े हुए अनगिनत सवालों ने, उन्हें एकदम झकझोर कर रख दिया। 

फिर भी घर में मेहमानों की मौजूदगी का ख़याल उनके शातिर दिमाग से छूट न सका। वह दांत पीसती हुई आग-बबूला हो बोलीं, 'कलमुंही तू तो जहन्नुम में चली गई थी, फिर यहां मरने कैसे आ गई। कहीं ठिकाना नहीं लगा।'

यह कहती हुई वह नुरीन की तरफ बढ़ने को हुईं तो वह बेखौफ बोली,  'दिलशाद से बात करने के बाद मैंने इरादा बदल दिया।'

उसकी इस बात का अम्मी ने ना जाने क्या मतलब निकाला कि, उस पर हाथ उठाती हुई बोली, 'हरामजादी मुझको बदचलन कहते तेरी काली जुबान कट कर गिर न गई।'

अम्मी के ऐसे रौद्र रूप से पहले जहां नुरीन दहल उठती थी, वह इस वक़्त बिल्कुल नहीं डरी और अम्मी के उठे हाथ को बीच में ही थाम कर बोली, 'बस अम्मी....अब भी संभल जाओ नहीं तो मैं चिल्ला कर सबको इकट्ठा कर लूंगी।'

कल्पना से परे उसके इस रूप से उसकी अम्मी सहम सी गईं। उन्हें  जवान बेटी के हाथों में गजब की ताकत का अहसास हुआ। उन्होंने अपना हाथ नुरीन के हाथों में ढीला छोड़ दिया तो नुरीन ने उन्हें अपनी पकड़ से मुक्त कर दिया।

दोनों मां-बेटी पल-भर एक दूसरे की आँखों में देखती रहीं। नुरीन की आंखें भर चुकी थीं। अम्मी की आंखें क्रोध से धधक रही थीं। सुर्ख हुई जा रही थीं। सहसा वह बोलीं, 'मालूम होता तू ऐसी होगी, तो पैदा होते ही गला घोंट कर कहीं फेंक देती।'

इतना ही नहीं यह कहते-कहते उन्होंने नुरीन को पकड़ कर एक तरह से उसे जबरन बेड पर बैठा दिया। फिर बोलीं, 'मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि, तू ऐसी नमक-हराम एहसान फरामोश होगी। इतनी बदकार होगी कि, अपनी अम्मी को ही बदनाम करने पर तुल जाएगी। उसे बदचलन कहने में तेरी जुबान नहीं कांपेगी। तेरी जैसी औलाद से अच्छा था कि मैं बे-औलाद रहती।

अरे! आज तक सुना है कि, किसी लड़की ने अपनी अम्मी को ऐसा कहा हो। उसकी जासूसी की हो। चली थी घर छोड़ कर भागने, मुकाम बनाने, अब्बू का इलाज कराने, उस बुढ्ढे को छुड़ाने, कर चुकी सब। अपनी यह मनहूस सूरत लेकर बाहर निकलने में जान निकल गई। घबरा नहीं मैं तेरी सारी मुराद पूरी कर दूंगी। अब तेरी रुह भी इस घर से बाहर ना जाने पाएगी। देखना मैं तेरा क्या हाल करती हूं।' 

'अम्मी तुम्हारे जो दिल में आए कर लेना, मार कर फेंक देना मुझे, मैं उफ तक न करूंगी। मगर पहले अब्बू का इलाज हो जाने दो।'

इतना सुनते ही उसकी अम्मी फिर बरस पड़ीं। बोलीं, ' हाँ...ऐसे बोल रही है जैसे करोड़ों रुपए वो कमा के भरे हुए हैं घर में, और बाकी जो बचा वो तूने भर दिए हैं।'

'अम्मी उन्होंने कमा के करोड़ों भरे नहीं हैं तो, तुमसे या दादा से भी कभी इलाज के लिए एक शब्द बोला भी नहीं है। जो भी उनका इलाज अभी तक हुआ है, वह दादा ने खुद कराया है। एक बाप ने अपने बेटे का इलाज कराया है। और वही बाप आगे भी अपने बेटे का इलाज कराने के लिए अपनी संपत्ति बेच रहा है तो, तुम्हें क्यों ऐतराज हो रहा है।'

उसकी इस बात पर उसकी अम्मी और आग बबूला हो उठीं। किच-किचाते हुए बोलीं, 'चुप......इसके आगे वह कुछ और ना बोल सकीं। क्यों कि नुरीन बीच में ही, पहले से कहीं ज़्यादा तेज आवाज़ में बोली,

'बस अम्मी! बहुत हो गया। मेरे पास अब फालतू बातों के लिए वक़्त नहीं है। मैं थाने जाकर अपनी कंप्लेंट वापस लेने के लिए दिलशाद को बुला चुकी हूं। वह कुछ देर में आता ही होगा। मैं हर सूरत में दादा को छुड़ा कर आज ही लाऊंगी समझीं। अब इस बारे में मैं तुमसे या किसी से भी ना एक शब्द सुनना चाहती हूं, और ना ही कहना चाहती हूं।' 

नुरीन की एकदम तेज हुई आवाज़, एकदम से ज़्यादा तल्ख हो गए तेवर से उसकी अम्मी जैसे ठहर सी गई। उन्हें बोलने का मौका दिए बगैर नुरीन बोलती गई। उसने आगे कहा, 'और अम्मी यह भी साफ-साफ बता दूं कि, मैंने घर छोड़ने का इरादा बाहर आने वाली दुशवारियों से डर कर नहीं बदला। मैंने घर छोड़ने का इरादा दिलशाद से बात कर यह समझने के बाद बदला कि जिस मकसद से मैं यह क़दम उठा रही हूं, वह तो पूरा ही नहीं होगा। 

दिलशाद ने साफ कहा कि, ''ऐसे कुछ नहीं हो पाएगा। केस उलझ जाएगा। पुलिस पहले तुमको ढूढ़ने में लग जाएगी। और कोई आश्चर्य नहीं कि, अपनी योजना पर पानी फिर जाने और लेटर में लिखी तुम्हारी बातों से खिसियाई, गुस्साई अम्मी, तुम्हारे फूफा वगैरह पर यह आरोप लगा दें कि, उन लोगों ने उनकी लड़की नुरीन का अपहरण करा लिया या हत्या कर दी। 

वह कुछ भी कर सकती हैं, ऐसा ही कोई और बखेड़ा भी खड़ा कर सकती हैं। ऐसे मैं दादा का छूटना, अब्बू का इलाज तो दूर की बात हो जाएगी। तुम्हारी अम्मी घर के ना जाने कितनों और को अंदर करा देगी । तुम भाग कर ना अपनी बहनों को बचा पाओगी और ना खुद को।

जैसे उन्होंने तुम्हारा निकाह मुझ से तय कर दिया। वैसे ही तुम्हारे ना रहने पर तुम्हारी बहनों का निकाह ऐसे ही तय कर देंगी। मेरे इंकार करने पर दूसरे भाइयों से कर देंगी। कुल मिला कर पूरा घर तबाह हो जाएगा। जब कि यहां रह कर जो तुमने तय किया है वह सब हो जाएगा। घर की और ज़्यादा थू-थू भी नहीं होगी। मुझसे जितनी मदद हो सकेगी मैं वह सब करूंगा।'' 

अम्मी मुझे दिलशाद की सारी बातें एकदम सही लगीं। मुझे जब पक्का यकीन हो गया कि, मैं यहां रह कर ही सब कुछ कर पाऊंगी, तभी मैंने अपना इरादा बदला। अम्मी दिलशाद ने सच्चे भाई होने का अपना हक बखूबी अदा किया है। वह कुछ ही देर में यहां आने वाला है। मैं फिर तुमसे कह रही हूं कि, अपनी जिद से अब भी तौबा कर लो। दादा को छुड़ाने साथ चलो। 

अब्बू का इलाज करवाने के लिए वह जो करना चाहते हैं, वह उन्हें करने दो। इससे मेरी, तुम्हारी, इस घर की दुनिया में और ज़्यादा बदनामी होने से बच जाएगी। हम-दोनों ये कह देंगे कि, गलतफहमी के कारण यह गलती हो गई। थाने वाले मान जाएंगे। वह सब तो पहले से ही दादा को बेगुनाह मान कर ही चल रहे हैं। 

अम्मी मान जाओ अभी भी वक़्त है, इससे ऊपर वाला हमें बख्श देगा। वरना ये तो गुनाह-ए-कबीरा है, जो कभी बख्शा नहीं जाएगा। इसलिए कह रही हूं कि, तैयार हो जाओ हमारे साथ चलो। क्योंकि अब मैं किसी भी सूरत में पीछे हटने वाली नहीं। 

एक बात तुम्हें और बता दूं कि, मैं यहां तुम से यह सब कहने नहीं आई थी। मैं तो इरादा बदलने के बाद जो खत तुम्हारे दुपट्टे में बांध गई थी, उन्हें वापस लेने आई थी। जिससे कि तुम उन्हें ना पढ़ सको। उनमें लिखी बातों से तुम्हें दुख न पहुंचे । मगर बदकिस्मती से आज तुम रोज से जल्दी उठ गई और खत पढ़ लिया। उनमें लिखी बातों के लिए अभी इतना ही कहूंगी कि, मुझे माफ कर दो या बाद में जो सजा चाहे, दे लेना, मगर अभी चलो।' 

नुरीन अपनी बात पूरी करके ही चुप हुई। उसकी अम्मी दो बार बीच में बोलने को हुई, लेकिन उसने मौका ही नहीं दिया। उसके तेवर ने उसकी अम्मी को यह यकीन करा दिया कि, बाजी अब उसके हाथ से निकल कर बहुत दूर जा चुकी है। 

अब भलाई अगली पीढ़ी की बात मान लेने में ही है। नहीं तो इसके जोश में उठे कदम से, वह भी हवालात का सफर तय कर सकती है। साजिश रचने के आरोप में। करमजला दिलशाद इसके साथ है ही। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। जिसे सुन नुरीन फिर उनसे मुखातिब हुई। कहा,

'लगता है दिलशाद आ गया है। तुम साथ चल रही हो तो मैं रुकूं, नहीं तो अकेले ही जाऊं।'

उसकी अम्मी ने एक जलती हुई नज़र उस पर डालते हुए, नफरत भरी आवाज में मुख्तसर सा जवाब दिया, 'चलती हूं।'

इस बीच घर में ठहरे कई मेहमान जाग चुके थे, उनकी आवाजें आने लगी थीं । नुरीन बाहर दरवाजा खोलने को चल दी। वह बात किसी और तक पहुंचने से पहले अम्मी को लेकर थाने के लिए निकल जाना चाहती थी। जिससे बाकी सब, कोई रुकावट ना पैदा कर दें। उसे लगा कि, थाने पर जल्दी पहुँच कर इंतजार कर लेना अच्छा है, लेकिन यहां रुकना नहीं।

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लेखक का परिचय                                                                              



प्रदीप श्रीवास्तव 

जन्म : १ जुलाई १९७० 

जन्म स्थान : लखनऊ ,भारत 

पुस्तकें :                                                                                           

उपन्यास - 'मन्नू की वह एक रात' ,'बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख्वाब' , 'वह अब भी वहीं है' ,

कहानी संग्रह- 'मेरी जनहित याचिका' , 'हार गया फौजी बेटा' , 'औघड़ का दान', 'नक्सली राजा का बाजा ', 

'मेरा आखिरी आशियाना' ,'मेरे बाबू जी '

कथा संचयन- मेरी कहानियां 

खंड एक 

नाटक- खंडित संवाद के बाद 

सम्पादन-'हर रोज सुबह होती है' ( काव्य संग्रह ) , वर्ण व्यवस्था 

पुरस्कार - मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड -२०२० 

pradeepsrivastava.70@gmail.com, psts700@gmail.com  

9919002096 ,  8299756474