बुधवार, 2 जनवरी 2019

कहानी:मेरी जनहित याचिका:प्रदीप श्रीवास्तव

                                         मेरी जनहित याचिका
                                              - प्रदीप श्रीवास्तव
आम की बाग को आखिरी बार देखने पूरा परिवार गया था। मेरा वहां जाने का मन बिल्कुल नहीं था। मां-पिता जिन्हें हम पापा-अम्मा कहते थे, की जिद थी तो चला गया। पापा ने अम्मा की अनिच्छा के बावजूद बाग को बेचने का निर्णय ले लिया था। बाग यूं तो फसल के समय हर साल बिकती थी। और फसल यानी आम की फसल पूरी होने पर खरीददार सारे आम तोड़कर चलता बनता था। और पापा अगली फसल की तैयारी के लिए फिर कोशिश में लग जाते थे।
लेकिन बाग की देखभाल, फिर फसल को बेचने के प्रयासों, हर साल आम के बौर या पेड़ में लगने वाले रोगों से बचाव का इंतजाम कर-कर के चार साल में ही वह थक गए थे। इसलिए पूरी बाग अपने ही पट्टीदार को बेच डालने का निर्णय कर लिया। उनका कहना था नौकरी करते हुए आम का व्यवसाय करना संभव नहीं है। वैसे भी आम के व्यवसाय की हालत को देखते हुए एक बीघे की बाग का कोई ख़ास महत्व नहीं है। हां एक समय था जब छः बीघे की बाग थी। लखनऊ से सटे मलिहाबाद में छः बीघे की बाग को अच्छी-खासी बाग माना जाता है। और बाबा की देखरेख में तीन चाचा मिलकर आम के व्यवसाय को चमकाए हुए थे।
          पापा चौथे नंबर पर थे। लखनऊ में नौकरी के चलते उनके पास समय नहीं रहता था। दूसरे खेती-बाड़ी, बाग-बगीचा में उनका मन नहीं लगता था। जब तक बाबा थे सब सही चलता रहा। लेकिन उनके स्वर्गवास के साथ ही सब एकदम बदल गया। सारे भाई यूं तो अपने-अपने परिवार के साथ पहले से ही अलग-अलग रहते थे। गांव में बाबा और सबसे छोटे वाला चाचा ही रहते थे। लेकिन बाबा के गुजरते ही खेत, बाग, मकान सब चुटकी में बंट गए। बंटवारे के समय थोड़ा विवाद हुआ जिससे भाइयों के रिश्ते में खटास आ गई। जितने भाई बाहर रह रहे थे उन सबने अपने-अपने हिस्से की सारी जायदाद आनन-फानन में बेच डाली।
किसी ने पैसा जमा करने में लगाया तो किसी ने मकान में तो किसी ने गाड़ी खरीदने में। पापा ने भी खेत,मकान का पैसा लेकर लखनऊ के मकान में ऊपर एक फ्लोर और बनवा दिया। कुछ जमा कर दिया। बाग से मिलने वाले पैसों को मेरी बहनों की शादी को और बढ़िया करने में लगाना तय किया। खरीददार से पैसा लेने के बाद वह चाहते थे कि जो बाग बरसों-बरस से उनके बुजुर्गों की थी। फिर उन्हें मिली। जिसमें खेलते-कूदते उनका बचपन बीता, अब उसे सब आखिरी बार देख लें। क्यों कि अगले दिन रजिस्ट्री पर हस्ताक्षर के साथ ही बाग बिक जाएगी। मालिक बदल जाएगा। फिर उस तरफ देखने का भी कोई मतलब, कोई अधिकार नहीं होगा। उस समय पापा का व्यवहार कुछ ऐसा था, जैसे वो बाग नहीं बेच रहे बल्कि परिवार के किसी सदस्य को कहीं दूर यात्रा पर बहुत दिन के लिए बिदा करने जा रहे हैं।
बाग में पहुंच कर वे सारे लोगों को लेकर एक-एक पेड़ के पास पहुंचे, उन्हें छू-छू कर देखा। मानो उनके स्पर्श के अहसास को स्वयं में हमेशा के लिए समा लेना चाहते हों। हर पेड़ के साथ उनकी कई-कई यादें जुड़ी हुई थीं। जिसे वह बताते चल रहे थे। जैसे कोई गाइड टुरिस्ट को बताता है। एक पेड़ के साथ तो वह चिपट से गए। उस पेड़ का एक मोटा तना नीचे-नीचे बहुत दूर तक निकल गया था। पापा बताने लगे कि बचपन में एक बार वो अपने कुछ साथियों के साथ खेल रहे थे। खेल-खेल में गांव के एक बिगड़ैल सांड़ को छेड़ दिया। वह सांड़ इन लोगों को मारने एकदम से पलटा और दौड़ा लिया। सब जान बचा कर भागे।
मगर वह पीछे ही पड़ गया। पापा जान बचाने के लिए इसी मोटे तने पर चढ़ गए। कई और दोस्त भी चढ़ कर अपनी जान बचाने में सफल रहे। लेकिन एक साथी जो काफी भारी बदन का था, वह सांड़ से बच नहीं पाया। उसकी उसी पेड़ के नीचे दर्दनाक मौत हो गई थी। उसकी मौत से उसकी मां इतनी आहत हुई थी कि अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। और साल भर बाद ही एक कुंए में कूदकर मर गई। अपनी यह याद बताते-बताते पापा भावुक हो उठे थे। उन्होंने उस पेड़ की एक टहनी तोड़ कर अपने साथ रख ली। उसमें कई पत्तियां भी लगी थीं। उनकी इस हालत पर मां ने बच्चों के ही सामने कहा जब इतना लगाव है बाग से, तो पैसा वापस कर दो, मत बेचो।लेकिन पापा ने उनकी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। और दूसरी बातें करते रहे।
          उस दिन बाग में ही खाना-पीना हुआ, एक तरह से पूरा दिन वहीं पिकनिक मनाई गई, और सांझ ढले गोमती नगर, लखनऊ में अपने घर वापस आ गए। उस दिन पापा ने हर पेड़ के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाई थी। हम भाई-बहनों ने मोबाइल से स्टिल फोटोग्राफी की और वीडियो भी बनाए। जिसे मैंने यू-ट्यूब पर बाग में भावुकता से भरी एक पिकनिकनाम से अपलोड कर दिया था, जिसे बहुत लोगों ने पसंद भी किया। वापसी में उनकी भावुकता को ध्यान में रखते हुए गाड़ी बड़े भाइयों ने चलाई। पापा को आराम से बैठने के लिए कहा गया। उस दिन पापा रात भर ठीक से सोए नहीं। बड़े बेचैन रहे। रात में कई बार उठ-उठ कर बैठते रहे।
अगले दिन रजिस्ट्री ऑफ़िस में जब बाग बेचने की प्रक्रिया पूरी करके आए तो उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे सर्वोच्च न्यायालय में वह अपनी किसी संतान के जीवन से जुड़ा मुकदमा हार आए हैं। घर में मां-बच्चों सबने माहौल को हल्का बनाने का पूरा प्रयास किया। मां को कई बार यह भुनभुनाते हुए सुना गया कि अजीब आदमी हैं। समझ में नहीं आता क्या चाहते हैं? जल्दी से जल्दी बेचने के लिए रात-दिन एक किए हुए थे। जब बिक गई तो ऐसा मुंह लटकाएं हैं जैसे ना जाने क्या कुछ लुट गया है।पापा कई महीनों तक ऐसे ही उखड़े-उखड़े रहते थे। फिर घर में सबके दबाव में आकर उन्होंने पुरानी कार बेच कर एक नई कार ली। दोनों बड़े भाइयों के पास बाइक थी। मेरे पास नहीं थी। तो मुझे भी एक बाइक ले दी। हालांकि वह मेरा पसंदीदा मॉडल नहीं थी। मेरा मनचाहा मॉडल बहुत महंगा था। 
देखते-देखते बाग को बिके साल भर बीत गए। और पापा का अब सारा जोर बहनों की शादी जल्दी से जल्दी कर देने पर केंद्रित हो गया। उनकी अफनाहट देख कर अम्मा कहती अभी कौन सी उमर निकल गई है जो इतना ज़्यादा परेशान हुए जा रहे हो। अभी पढ़ाई भी तो पूरी नहीं हुई है। हम तो चाह रहे थे कि पहले सुबीर की शादी कर दी जाए। घर में एक बहू आ जाए तो अच्छा रहेगा।मां बड़े भइया की शादी के लिए कहतीं। बल्कि उनकी तो इच्छा यह थी कि पहले और दूसरे भइया अभिनव की शादी पहले हो फिर लड़की की। क्यों कि दो बड़े भाइयों के रहते वह उनसे छोटी लड़की की शादी के पक्ष में नहीं थीं। वह यह तर्क भी देतीं कि अभी वह बीस की भी पूरी नहीं हुई है। आज के जमाने में लड़कियों की शादी इतनी जल्दी कहां हो रही है? फिर लड़की पढ़ने में तेज़ है। ऐसे में उसे इतनी जल्दी घर-गृहस्थी के चक्कर में डाल देना उसकी पढ़ाई चौपट कर देना है।लेकिन पापा पर अम्मा के किसी तर्क का कोई असर नहीं होता था। हां अम्मा की बातों से यह बात भी उभर कर सामने आई कि लड़कों की शादी पर उनका इतना जोर देने के पीछे एक और भी मुख्य कारण था।
ताऊ जी ने अपने तीनों लड़कों की शादी कर दी थी। सौभाग्य से आज के माहौल को देखते हुए उनकी तीनों बहुएं ना सिर्फ़ काफी पढ़ी-लिखी थीं। बल्कि अपने काम व्यवहार से घर को खुशियों से भर दिया था। ताऊ जी, ताई जी अपनी बहुओं की तारीफ करते नहीं थकती थीं। दोनों लोग आए दिन कहीं ना कहीं घूमने-फिरने निकलते रहते थे। जो भी मिलता, वह जब तक रहता, तब तक उसके सामने उनका तारीफ पुराण चलता रहता। उनकी इन्हीं सब बातों का भूत अम्मा पर भी सवार था कि जल्दी से जल्दी दो बहुएं तो घर में आ ही जाएं। मगर पापा की इन बातों के सामने वह निरुत्तर हो जातीं। जब वह कहते कि देखो अब मेरे रिटायरमेंट के कुछ ही बरस बचे हैं। मैं रिटायरमेंट से पहले लड़कियों की शादी हर हालत में कर देना चाहता हूं।
          लड़कों से पहले इसलिए करना जरूरी समझता हूं कि बहुओं के आने के बाद घर में माहौल ऐसा बन जाता है कि लड़कियां उपेक्षित पड़ जाती हैं। लड़के अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं। मां-बाप की ताकत बुढ़ौती के चलते कम हो जाती है। फिर लड़कियों के लिए शादी ढूढ़ना, करना ऐसा दुष्कर्य कार्य बन जाता है कि सारा काम पिछड़ने लगता है। बिगड़नेे लगता है। लड़कियां घर बैठी रह जाती हैं। अभी जो लड़के जब कहता हूं साथ चले चलते हैं हर जगह, उन्हीं के पास तब इस काम के लिए समय नहीं होगा। और ना ही इच्छाशक्ति। आज जो लड़के अपनी बहनों के लिए अच्छी से अच्छी शादी के लिए तत्पर्य हैं वही अपनी बीवियों के सामने चाह कर भी नहीं कर पाएंगे। और मैं अपनी बेटियों के लिए यह बिल्कुल नहीं चाहूंगा। फिर बेटों की शादी का क्या, जब चाहेंगे तब हो जाएगी। लड़कों की शादी के लिए तो ऐसी कोई समस्या होती नहीं।
अम्मा उनकी बातों के आगे चुप रह जातीं। और फिर पापा ने अपनी इच्छानुसार रात-दिन एक कर चार साल के अंदर दोनों लड़कियों की शादी कर दी। सौभाग्य से दोनों बहनों की शादी अच्छे घरों में हुई। दोनों ही बहनोई अच्छी नौकरी कर रहे थे और बड़ी बात कि सज्जन भी थे। उनके दोनों दामाद उनकी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छे निकले। इस बीच दोनों बड़े भाइयों का व्यवसाय भी खूब चल निकला। दोनों भाइयों ने पढ़ाई की तरफ कभी विशेष ध्यान नहीं दिया तो इसी को देखते हुए पापा ने जल्दी ही दोनों को बिज़नेस करवा दिया था।
दोनों ही लोगों का रूझान भी बिज़नेस ही की तरफ था। तो मन का काम मिलते ही दोनों भाई जीजान से जुट गए। और सफल हुए। मेरा मन पढ़ाई की तरफ था तो मैं पढ़ता रहा। बहनों की शादी के बाद अम्मा की भी इच्छा पूरी हो गई। दोनों बेटों की शादी हो गई। कहां तो पापा लड़कियों की शादी रिटायरमेंट से पहले करने की कोशिश में थे। लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते वह इससे आगे निकल गए। रिटायरमेंट से छः महीने पहले दो लड़कों की भी शादी कर डाली।
अपनी दोनों बहुओं से अम्मा-पापा बहुत तो नहीं हां कुल मिलाकर खुश रहते थे। हां शुरुआती चार-छः महिने जरूर बहुत खुश रहे। मगर जल्दी ही बात बदल गई। दूसरी बहू के आने के बाद यह कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से बदली। फिर वह समय भी जल्दी आ गया कि घर में आए दिन चिक-चिक होने लगी। दोनों भाभियों के होने के बावजूद हर हफ्ते कई अवसर ऐसे आने लगे कि पापा-अम्मा और खुद मुझे अपने लिए भी चाय-नाश्ता बनाने की नौबत आ गई। हमेशा खुश रहने वाले अम्मा-पापा और खुद मैं अब शांत रहने लगे। बड़ी भाभी के दोनों बेटे जो पांच-छः साल के थे, उनके खेलकूद के चलते हम तीनों का मन थोड़ा बहल जाता। छोटी भाभी अपने करीब दो वर्षीय बेटे को घर के किसी सदस्य तक पहुंचने ही नहीं देतीं।
मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब ना हो इसके लिए मैं पूरी कोशिश करता। पापा-अम्मा की तबियत अब इन्हीं चिंताओं के कारण खराब रहने लगी। फिर एक दिन मैं कॉलेज से लौटा तो देखा अम्मा-पापा सुबह से कुछ खाए-पिए बिना बैठे हुए हैं। नाश्ता के नाम पर कुछ बिस्कुट और पानी पिया था। जाने क्या हुआ कि उस दिन दोनों भाभियों ने किचन की ओर रुख ही नहीं किया। अपने लिए वो लोग होटल से कुछ मंगा चुकी थीं। यह जान कर मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं बात कुछ आगे बढ़ाता कि अम्मा-पापा दोनों ने मुझे रोक दिया। मैं नहीं मान रहा था तो अम्मा ने अपनी कसम दे दी।
मैंने देखा उनकी आंखें भरी हुई थीं। होंठ फड़क रहे थे। पापा की तरफ देखा तो करीब-करीब यही हाल उनका भी था। उन दोनों को इतना परेशान मैंने कभी नहीं देखा था। मैंने जब पूछा क्या हुआ? तो दोनों कुछ नहीं, कुछ नहीं करते रहे। मगर अम्मा का गला लाख कोशिशों के बाद भी रूंध गया तो मैं अड़ गया। तब अम्मा ने बताया कि क्या हुआ। जिसे सुन कर मेरा खून खौल उठा। बात सिर्फ़ उसी दिन की नहीं थी। पिछले कई महिनों से ये चल रहा था। दोनों भाभियां पापा से बैंक में जमा सारा पैसा आधा-आधा मांग रही थीं। कह रही थीं कि बिज़़नेस को ठीक से और आगे बढ़ाने के लिए पैसे दीजिए। क्या करेंगे रख कर? आखिर हमारा भी कोई हक है। रात-दिन काम करते हैं। क्या हमें नौकरानी बना कर लाए हैं?’
पापा ने जब कहा कि पैसा समीर की पढ़ाई, शादी के लिए है। तुम सबके लिए जो करना था वह सब कर ही चुका हूं। दोनों को पहले ही कितना पैसा लगा कर बिजनेस करवाया है। बिज़नेस अच्छा चल भी रहा है। अब जो भी है यह छोटे के लिए है। आखिर उसके लिए भी तो कुछ करेंगे। वह बिज़नेस की जगह पढ़-लिख कर नौकरी करना चाहता है।लेकिन दोनों भाभियां नहीं मानीं। एक ही रट लगाए रहीं कि पढ़ाई तो आप पेंशन से ही करा लेंगे। वह पढ़ने में तेज़ हैं, नौकरी भी ले ही लेंगे।लेकिन पापा ने मना कर दिया। पापा ने आखिर दोनों भाइयों से पूछा। ये क्या हो रहा है? तुम दोनों क्या घर की हालत नहीं जानते।
इस पर भाइयों ने कहा कि उन्हें तो यह सब पता ही नहीं है। उन्होंने कभी एक पैसा मांगने की छोड़िए ऐसा सोचा भी नहीं।फिर दोनों ने अपनी-अपनी बीवियों को बहुत डांटा। कुछ दिन शांत रहने के बाद दोनों फिर पुराने ढर्रे पर लौट आईं। भाइयों के जाते ही अम्मा-पापा को प्रताड़ित करने लगीं। घर में कोई झगड़ा ना हो यह सोच कर अम्मा-पापा भाइयों तक बात पहुंचने ना देते। इससे उनकी हिम्मत और बढ़ गई। लेकिन घर की बात घर के ही लोगों से कब तक छिपाई जा सकती थी। भाइयों को फिर पता चला तो वह बिगड़ गए। छोटे भाई ने बीवी से यहां तक कह दिया कि बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं करूंगा। ज़्यादा बदतमीजी की तो मायके भेज दूंगा।फिर मियां-बीवी में ही रोज झगड़ा होने लगा।
 अम्मा-पापा बहुओं के हाथ-पैर तक जोड़ने लगे कि आखिर क्यों कलह कर रही हो? सारी प्रॉपर्टी है तो तुम्हीं लोगों की। हम लोग हैं ही कितने दिनों के मेहमान?’ दोनों को शांत करने के लिए पापा ने कुछ रुपए निकाल कर दे भी दिए। लेकिन उनकी यह कोशिश ढाक के तीन पात साबित हुई। बहुएं अब और बढ़-चढ़ कर उत्पात करने लगीं। सारी बात भाइयों तक पहुंच नहीं पा रही थी।
           पापा-अम्मा बहुओं के हाथ-पैर जोड़-जोड़ कर मनाते, समझाते कि घर में कलह ना करो। इन सब वजहों से दोनों बहुत परेशान थे। अम्मा ने अपनी कसम देकर मुझे भी चुप करा दिया था। उस दिन मैंने अम्मा के लाख मना करने पर भी खिचड़ी बनाई। उन दोनों के साथ खाने बैठा। पहले कभी किचेन का रुख नहीं  किया था। उस दिन पहली बार खिचड़ी बनाई तो नमक डालना भूल गया। और जल अलग गई थी।
पहले घर में इस तरह का खाना हमने क्या किसी ने नहीं खाया था। मगर किसी तरह हम तीनों ने भूख मिटाने की कोशिश की। हम तीनों ही उस खिचड़ी को ठीक से खा नहीं सके। अम्मा की तबियत ऐसी थी कि अगले कई दिनों तक वह किचेन में जाने लायक नहीं थीं। तो उस दिन अम्मा से पूछ-पूछ कर रात का खाना भी मैंने बनाया। भाई दुकाने बंद कर के देर रात लौटते थे। और खाना अपने ही कमरे में खाते थे। तो उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं चला।
यह क्रम कई दिन चलता रहा।
इससे घर में शांति आ गई। मैंने सोचा अगर खाना-पीना अलग करने से शांति बनी रह सकती है तो क्यों ना सब अलग-अलग हो जाएं। रोज-रोज की चख-चख तो खत्म हो जाए। आखिर भाइयों से कितने दिन यह बात छिपेगी। मैंने सोचा चलो किसी दिन भाइयों से बात करके अलग कर लेंगे। सही अवसर की प्रतीक्षा में आठ-दस दिन निकल गए। इस बीच शांति बनी रही तो मैंने सोचा शायद भाभियों को अपनी गलती का अहसास हो गया है। तो मैं थोड़ा लापरवाह हो गया।
इस बीच मैं दोनों टाइम खाना बना लिया करता था। मगर अम्मा-पापा की खुशी नहीं लौटा पा रहा था। वे अपने पोतों को गोद में लेने, खिलाने के लिए तरस रहे थे। उन्हें अपनी मांओं के साथ सामने से निकल कर जाता देख उनकी आंखें भर-भर आतीं। बच्चे भी अपने दादा, दादी, चाचा के पास आने को व्याकुल रहते लेकिन मांओं की सख्ती के आगे वे भी विवश थे।
क्योंकि उनकी मां उन्हें बाबा दादी की तरफ बढ़ता देख कर बेतरह डांटतीं, पीट भी देतीं। जानबूझ कर ऐसी जली-कटी बातें कहतीं कि पत्थर का कलेजा भी फट जाए। मेरे सामने तो जानबूझ कर कहतीं कि बात बढ़े। बवाल हो। लेकिन मैं अम्मा-पापा की तबियत, और मां की कसम के आगे विवश हो चुप रहता। भाभियों को इससे भी चैन ना मिला।
 करीब तीन हफ्ते की शांति के बाद जब एक दिन मैं नहीं था तो भाभियों ने पापा-अम्मा से फिर झगड़ा किया। इस बार सिर्फ़ पैसा ही नहीं गहने भी निकाल कर देने को कहा। अम्मा ने मना कर दिया तो अंड-बंड बातें कीं। धक्का-मुक्की भी। जिससे अम्मा गिर कर बेहोश हो गईं । उन्हें बेहोश देख पापा ने मुझे फ़ोन किया तुरंत आओ तुम्हारी मां की तबियत ज़्यादा खराब है।यह नहीं बताया क्यों।
घर पहुंचा तो वहां कई पड़ोसियों को देख कर सहम गया। अम्मा बेड पर आंखें बंद किए हुए पड़ी थीं। पापा सोफे पर भरी-भरी आंखें लिए रुआंसे से बैठे थे। मैंने पूछा तो बोले अब सब ठीक है।कुछ क्षण चुप रहने के बाद फिर कहा बेटा कहीं और छोटा-मोटा मकान किराए पर ले लो। वहीं रहेंगे। अब यहां ठिकाना नहीं।और फिर लाख कोशिशों के बावजूद वह फफ़क कर रो पड़े। उन्हें रोता देख मेरा खून खौल उठा। मैंने जिद पकड़ ली कि बताइए क्या हुआ? आज मैं कसम-वसम कुछ नहीं मानूंगा।
रोज-रोज झगड़े से अच्छा है एक दिन निर्णय हो जाए। तभी पड़ोस की आंटी बोलीं बेटा पहले मां-बाप की ज़िंदगी देखो। फिर जो करना हो शांति से मिल बैठ कर बात कर लो सारे भाई। नहीं ऐसे तो किसी दिन कोई अनर्थ हो जाएगा। बूढ़ा-बूढ़ी की जान चली जाएगी।फिर जो बातें मालूम हुईं उससे मैं अपना आपा खो बैठा। भाइयों को तुरंत फ़ोन कर बुलाया।
दोनों भाइयों को जब अपनी बीवियों की करतूतें पता चलीं तो उनकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं। दोनों ने अपनी बीवियों को खूब डांटा। पीट भी दिया। बड़ी तो शांत हो गई पति के रौद्र रूप को देख कर लेकिन छोटी ने रोना-पीटना शुरू कर दिया। चीख-चिल्ला कर आसमान सिर पर उठा लिया। घर के दरवाजे पर एक बार फिर पड़ोसी इकट्ठा हो गए।
घंटों की उठा-पटक के बाद किसी तरह सब शांत हुए। और पापा की जिद के आगे सभी को झुकना पड़ा। सबके किचेन और मकान में सबका हिस्सा उन्होंने अलग कर दिया। दोनों भाई कहते रहे कि पापा हम लोग ऐसा कुछ नहीं चाहते।मगर पापा का एक ही तर्क था कि देखो मैं नहीं चाहता कि हम दोनों की वजह से तुम लोगों की लाइफ डिस्टर्ब हो। हम दोनों अब कितने दिन के मेहमान हैं। तुम लोगों की पूरी लाइफ पड़ी है। तुम सब की लाइफ अगर हम मियां-बीवी के कारण डिस्टर्ब हो तो यह तो हमारे लिए और भी दुख की बात है।
इसलिए भलाई इसी में है कि तुम लोग हमारी बात मानो। अपने परिवार के साथ खुश रहो। हम दोनों भी अपना जीवन किसी तरह काट ही लेंगे। अब ज़िंदगी के लिए बचा ही क्या है? एक छोटे की शादी की ही चिंता है। अपने जीते जी वह भी कर दूं तो मुक्ति पा लूं इस ज़िंदगी से। इन कुछ ही दिनों में इतना कुछ देख लिया है, ज़िंदगी के ऐसे-ऐसे रंग देख लिए हैं कि मन भर गया है। भगवान जितनी जल्दी उठा लें उतना अच्छा।पापा यह कहते जा रहे थे और रोते भी।
हम सारे भाई उन्हें समझा-समझा कर चुप कराने में लगे रहे। मगर वह यह कह कर फूट पड़ते कि यह दिन भी देखने पड़ेंगे ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था। आखिर ऐसा कौन सा पाप किया था कि हमारे परिवार का यह हाल हो गया। घर के सदस्य इस तरह दुश्मनों सा व्यवहार कर रहे हैं।जिस कमरे में हम लोग बातें कर रहे थे उसके पीछे वाले कमरे में अम्मा सो रही थीं। जो डॉक्टर उन्हें देखने आए थे, उन्होंने कहा था कि इनका बीपी, हॉर्ट बीट बहुत बढ़ गए हैं। इन्हें सख़्त आराम कीे जरूरत है। ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए जिससे इन्हें तनाव हो। इससे इनकी जान खतरे में पड़ सकती है।जब वह घर आया था तो माहौल देख कर उसे बहुत कुछ मालूम हो गया था।
हम तीनों भाई कमरे में पापा के साथ थे। उनकी भी तबियत ना खराब हो जाए इसी उद्देश्य से सब कुछ सामान्य सा दिखाने में लगे हुए थे। पापा ने समस्या के समाधान के लिए सबको जो अलग किया था उसे बिल्कुल पुख्ता कर देना चाहते थे। बार-बार दोहरा रहे थे कि अब एक साथ रहना संभव नहीं है।मैं भी उनकी बात से सहमत था कि भाभियों का जैसा व्यवहार है, उसे देखते हुए तो एक साथ रहना संभव ही नहीं है। मगर दोनों भाई दिमाग से ज़्यादा भावना से काम ले रहे थे। और भावना में बहकर पापा को समझाने में लगे थे कि ऐसा कुछ ना करें। वो लोग अपनी बीवियों को समझा लेंगे। अब फिर ऐसी समस्या नहीं होगी। तभी एक और धमाका हुआ। हम सभी किसी अनहोनी की आशंका से सहम गए।
 पता चला कि मंझली भाभी अपनी स्कूटर लेकर बहुत गुस्से में कहीं चली गई हैं। मैं उनसे गुस्सा होने के कारण उठकर नहीं गया। लेकिन जब आधा घंटा से ज़्यादा समय बीत गया तो मुझे चिंता हुई। पापा तो सुनते ही किसी अनिष्ट की आशंका से डर गए थे। बार-बार मुझे भी ढंूढ़ने जाने के लिए कह रहे थे। आखिर मैंने मंझले भाई को फ़ोन किया को तो उन्होंने कॉल रिसीव ही नहीं की। फिर बड़े वाले को किया तो उन्होंने कहा कुछ पता नहीं चल रहा है। मोबाइल ऑफ किया हुआ है।
 यह सुन कर मैं भी सन्न रह गया। ऐसे में जो होता है वही हुआ। तुरंत बुरे ख्याल मन में आने लगे कि वह कहीं कोई गलत क़दम ना उठा लें। आज कल तो लोग जरा सी बात पर सुसाइड कर ले रहे हैं। कहीं भाभी ने यह क़दम उठा लिया तो पूरा घर तबाह हो जाएगा। भइया का तो जीवन ही बर्बाद हो जाएगा। बच्चे को कौन देखेगा। बिना मां के बच्चा कैसे जिएगा? यह बात मन में आते ही मैं तुरंत गोमती नदी पुल की ओर भागा। बाईक जितनी तेज़ चला सकता था उतनी तेज़ चलाई।
सोचा यह नदी ना जाने कितनों को समेट चुकी है। उस सूची में मेरे घर के किसी सदस्य का नाम ना जुड़े, इस भावना से यही प्रार्थना करता नदी की हर उस संभावित जगह पर गया जहां अक्सर ऐसे कांड हुए। इस बीच भाइयों को भी फ़ोन कर के पता करता रहा। हर बार निराशा हाथ लगी। मैं दो-ढाई घंटे में घर वापस आ गया। दोनों भाई मुझसे कुछ देर पहले आ चुके थे।
सबके चेहरे पर हवाईयां दौड़ रही थीं। क्या किया जाए, किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जाए। उनके मायके बताया जाए कि नहीं यही सब बातचीत कुछ देर चली फिर यह तय हुआ कि अभी और खोजबीन कर ली जाए। जहां तक हो किसी को बताया ना जाए। फिर यह समस्या आई कि तीन लोग इतने बड़े शहर में उन्हें कहां ढूंढ़ेंगे। आखिर तय हुआ कि कुछ और करीबी रिश्तेदारों को साथ ले लिया जाए। इसके लिए कई लोगों को फ़ोन कर मदद के लिए कहा गया।
घर आने में लोग समय ना गवाएं इसलिए बोल दिया गया कि जो जहां है वहीं से चला जाए ढूंढ़ने। हम तीनों ने पापा को धैर्य से काम लेने को कहा। अम्मा अभी भी सो ही रही थीं। मुझे पापा की हालत देख कर और ज़्यादा घबराहट हो रही थी। उन्हें अकेले छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। हालात ऐसे बन गए थे कि बड़ी भाभी से कुछ कहने या उन्हें नीचे कमरे में बुलाने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही थी। अंततः मन मसोस कर हम तीनों भाई उठे कि चलें देर हो रही है। मगर तभी घंटी बजी।
मुझे लगा जैसे भाभी गुस्सा ठंडा होने पर आ गर्इं हैं। लेकिन गेट पर पहुंचा तो पुलिस जीप देख कर सहम गया। पूरे शरीर में सनसनाहट होने लगी। पसीना होने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से मन कांप उठा। भाइयों के चेहरे का भी रंग उड़ गया था। लपक कर सब इंस्पेक्टर के पास पहुंचे कि क्या हुआ? तो उसने जो बताया उसे सुनकर पापा वहीं बेहोश होकर गिर पड़े। हम भाइयों के पैरों तले जमीन खिसक गई।
मंझली भाभी ने थाने में धारा 498। (दहेज प्रताड़ना कानुन)के तहत हम तीनों भाइयों, पापा-अम्मा के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कराई थी। साथ ही जान से मारने का प्रयास भी जुड़ा था। हम सब गिड़गिड़ाने लगे कि यह सब झूठ है। घर में दहेज का तो कभी नाम ही नहीं लिया गया। यह मामूली घरेलू कलह के अलावा कुछ नहीं है। बड़ी भाभी को भइया ने सामने लाकर खड़ा कर दिया। कहा कि घर की ये बड़ी बहू हैं। इन्हीं से पूछताछ कर लीजिए, क्या इन्हें एक शब्द भी कभी दहेज के लिए कहा गया है।
इस बीच जो डॉक्टर अम्मा को देख कर गए थे उन्हें ही फ़ोन कर बुलाया गया, कि पापा को भी देखें। पापा-अम्मा की हालत देख कर पुलिस का रूख थोड़ा नरम था। लेकिन उसनेे भी साफ कह दिया कि हम कानून के आगे विवश हैं। इस धारा में गिरफ्तारी तो किसी भी सूरत में नहीं रुक सकती। रिपोर्ट झूठी है या सही यह कोर्ट ही तय करेगी। हां रिपोर्ट लिखाने वाला रिपोर्ट वापस ले ले तो ही बात बन सकती है।यह सुनते ही मैंने भाभी के बारे में पूछा कि वह कहां हैं? मैंने सोचा कि उनके हाथ-पैर जोड़ कर उन्हें समझाऊं कि रिपोर्ट वापस ले लें। दहेज को लेकर तो कोई बात ही नहीं हुई।
पापा ने तो शादी के समय उनके फादर के सामने अचानक आर्थिक समस्या आ जाने पर उनकी मदद भी तुरंत की थी। कहा था कि अब आप हमारे रिश्तेदार हैं। हमारा मान-सम्मान एक है। हमें एक दूसरे का पूरा ध्यान रखना है।लेकिन पुलिस ने उम्मीदों पर और पानी फेर दिया कि वह एफ.आई.आर लिखाने की जिद पर अड़ी रहीं। और लिख जाने के बाद मायके जाने की बात कहकर जाने लगीं तो उन्हें मेडिकल चेकप के लिए रोक लिया गया। उनके घर के लोग आ चुके हैं। आप लोगों को चलना ही हो होगा।इस बीच डॉक्टर ने यह कहा कि मदर-फादर दोनों की हालत सीरियस है।तो पुलिस ने उन्हें सरकारी हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया। मगर गिरफ्तारी किसी की नहीं रुकी।
          इस बीच सारे रिश्तेदारों को फ़ोन किया गया। लेकिन कुछ लोग ही मदद को आगे बढ़े। दोनों भाई स्थानीय व्यापार मंडल के सदस्य थे। एक उसमें पदाधिकारी भी थे। तो व्यापारियों का भी एक हुजूम मदद को थाने पहुंचा। लेकिन पुलिस ने साफ कह दिया की अब जो भी हो सकता है वह कोर्ट ही से हो सकता है।भाभी के मायके वाले लाख कोशिशों के बावजूद भी सामने नहीं आए। बात नहीं की। अगले दिन हम तीनों भाई तमाम कानूनी पचड़ों को पूरा कर जेल पहुंच गए। पापा-अम्मा भी तबियत ठीक होते ही जेल आ गए। वहां उनकी हालत देख कर भाभी की हरकत पर खून खौल उठा। पापा-अम्मा हफ्ते भर में ही आधे हो गए थे। अम्मा जिन्हें पहले कभी चलने के लिए छड़ी या किसी सहारे की जरूरत नहीं थी वही अब छड़ी लेकर मुश्किल से चल पा रही थीं।
इस बीच बहनोइयों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया कि समझौता हो जाए। मामला खत्म हो। सब शांति से रहें। जो बात हुई ही नहीं आखिर पूरे परिवार को उसी आरोप में क्यों जेल में सड़ाया जाए। लेकिन भाभी के परिवार का दो टूक जवाब कि नहीं दहेज प्रताड़ना ही का मामला है। मेडिकल चेकप में चोट के निशान साफ मिले हैं।भइया ने गुस्से में जो हाथ उठाए थे उन्हीं के एक-दो स्याह निशानों को वो गंभीर चोटें बता रहे थे। जान से मारने का प्रयास बता रहे थे।
बड़ी भाभी ही बच्चों के संग घर में बची थीं। उनका नाम छोटी ने अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं किया था। क्यों कि वह दोनों मिल कर ही तो कोहराम मचा रही थीं। लेकिन गनीमत रही कि उन्होंने रिपोर्ट नहीं लिखाई। बाद में वह बच्चों के संग मायके चली गईं। घर पर ताला लटक गया। मुकदमा आगे बढ़ा। पेशियां शुरू हुईं। बहनोई जल्दी-जल्दी पेशी लगवा कर मामला जल्दी निपटाने के प्रयास में जुटे। सुलह की भी कोशिश करते रहे। मगर शर्त आई कि सारा खर्च दें। और पूरा मकान भाभी के नाम लिख दिया जाए।
पापा शर्त मानने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने साफ कहा दुनिया के सामने हम दहेज लोभी बन गए। हत्या की कोशिश करने वाले बन गए। जिस दरवाजे पर कभी पुलिस नहीं आई। वो पूरा घर आज जेल में है। जो सोचा भी नहीं था वह सब जलालत झेल रहा है परिवार। आखिर अब बचा ही क्या है? जिसको बचाने के लिए हम उसे मकान देकर सड़क पर भीख मांगें।
आज यह देंगे कल को दुकान, पेंशन भी मांगेगी। फिर क्या करेंगे? फिर इसको देंगे, तो दूसरी भी मांगेगी। उसे कहां से लाकर देंगे? अपना हाड़-मांस बेच देंगे तो भी ना दे पाएंगे।मुलाकात के वक्त पापा अपनी लड़कियों-दामादों के सामने रो-रोकर कहते कि बेटा यहां जो गति हो रही है उससे तो लगता ही नहीं कि हम यहां से जीवित निकल पाएंगे।
सही कहूं बेटा तो अब हम घर जाना भी नहीं चाहते। जितनी बेइज्जती दुनिया के सामने हुई है। जिस तरह टीवी, पेपर में हमारा तमाशा बना है। उसके बाद तो अब जीने का मन नहीं करता। सारी दुनिया हमीं पर थूक रही है। हमें ही सारा दोष दे रही है। अरे कोई एक बार नहीं पूछता कि बहू कैसी है? मेडिकल रिपोर्ट हवा में लहराते टीवी एंकर चिल्लाते हैं कि ससुराल वालों ने बेरहमी से बहू को पीटा। लेकिन कोई एक बार भी नहीं पूछता कि उसने कितनी बार हमें मारा। धमकी दी। हमने तो रिपोर्ट नहीं लिखाई। नियम तो वृद्धों की सुरक्षा का भी है।उसी दिन हम लोगों कोे यह भी पता चला कि भाभी पहले भी कई बार झगड़ा कर चुकी हैं। धक्का-मुक्की बहुत बार किया। दो तीन बार हाथ भी उठा चुकी थीं। हर बार जेल में सड़ा देने की धमकी देकर मां-बाप का मुंह बंद किए रहती थीं।
          यह सब जान कर हम सारे भाई उबल पड़े। हम सबने कहा कि यह बातें समय से मालूम हो जातीं तो यह नौबत ना आती। मैंने बहनोई से कहा कि वकील से बात करें कि क्या अब वृद्ध माता-पिता को मारने-पीटने, धमकाने, ब्लैकमेल करने के आरोप में एफ. आई. आर. हो सकती है? यदि हो सकती है तो किया जाए। उसने हमारे खिलाफ झूठी रिपोर्ट लिखाई, हम क्या सच भी नहीं लिखा सकते?’ लेकिन मेरी बात पूरी होते ही पापा ने हाथ जोड़ते हुए कहा नहीं, ऐसा कुछ मत करना। हम भी वही करेंगे तो हममें उसमें फर्क़ क्या रह जाएगा?’ और फिर पोते का नाम लेकर बोले अगर बहू भी जेल चली गई तो उसकी देखभाल कौन करेगा? बाप तो यहां है। बेचारा लावारिस हो जाएगा।तभी भइया बोले जब उनकी लड़की भी जेल में होगी तब उन्हें पता चलेगा कि जेल, पुलिस, समाज में बेइज्जती की पीड़ा क्या होती है। तभी वह केस वापस लेगी।
जब तक केस वापस नहीं होेगा तब तक कुछ नहीं होगा। हम जेल में ही सड़ते रहेंगे। अभी जमानत तक नहीं हो पाई है। हम तो जो सच है वही कहेंगे। उसकी तरह झूठ तो नहीं कहने जा रहे।लेकिन सब बेकार। सारे तर्क फेल। पापा पुत्र नहीं पोता मोह में टस से मस ना हुए। और अम्मा वह तो कुछ बोलती ही नहीं थीं। हर बात का जवाब हां, हूं। वह भी कई बार पूछने पर। जेल में आने के बाद उनकी सेहत तेज़ी से गिरती जा रही थी। जमानत की सारी कोशिश बेकार हो रही थी। कुछ न कुछ अड़ंगा हर बार लग जा रहा था। कभी केस का नंबर नहीं आता। तो कभी नंबर आया तो जज साहब उठ गए। या फिर वकीलों ने बायकॉट कर दिया।
जज साहब के अचानक ही चले जाने पर मन में बड़ी गुस्सा आती कि हर चीज पर स्वतः संज्ञान लेने वाले न्याय-मूर्तियों इस बात का स्वतः संज्ञान कब लेंगे? दूसरे पक्ष के लोग कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे केस को उलझाए रखने के लिए। यही सब करते छः सात महीने बीत गए। इसी बीच एक पेशी के लिए मां जब जेल से कोर्ट पहुंचीं तो वहीं अदालत में जज के सामने बेहोश हो कर गिर गईं। जज के आदेश पर तुरंत हॉस्पिटल पहुंचाया गया। लेकिन डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पता चला कि सडेन कॉर्डिएक अरेस्ट हुआ था।
उनका हृदय अपनी बहू द्वारा धोखे से दी गई विपत्ति का बोझ नहीं सह पाया था। कोर्ट के आदेश पर हमें उनके अंतिम संस्कार के लिए छोड़ा गया। संस्कार पूरा करते ही हम फिर जेल में थे। पापा की हालत भी हमें बराबर भयभीत किए जा रही थी। इस बीच आर्थिक रूप से घर पूरी तरह बर्बाद होने के कगार पर पहुंच गया। भाइयों की दूकानें उसी दिन से बंद थीं। बहनोई बराबर लगे रहे। पैसा भी खूब खर्च कर रहे थे। बहनें जब मिलने आईं तो उनसे हम लागों ने कह दिया कि जब बाहर आएंगे तो सारा पैसा दे देंगे। बहनोइयों को जब पता चला तो वो नाराज हुए कि यह सब सोचने की जरूरत नहीं है। आखिर हम भी परिवार के सदस्य हैं।
असल में बहनों, बहनोइयों का व्यवहार ही उस विपत्ति में हमें जीने की ताकत दे रहा था। उठ खड़े होने की कोशिश के लिए प्रेरित कर रहा था। तो उन लोगों की मेहनत का परिणाम आया। हमें जमानत मिल गई। इस बीच बड़ी भाभी का भी हृदय परिवर्तन हुआ। उन्होंने आकर हम सब से माफी मांगी। कहा कि हम छोटी के बहकावे में आ गए थे। हमें बहुत पक्षतावा है।उनकी माफी, उनके आंसू देख कर पापा ने उन्हें माफ कर दिया। उनके परिवार ने भी मदद शुरू कर दी। बड़ी भाभी के बयानों ने अहम भूमिका निभाई।
कई साल मुकदमेंबाजी के बाद अंततः हम जीत गए। सभी लोगों को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया। छोटी और उसके मायके वालों को सख्त चेतावनी मिली। पुलिस वालों को दोनों पक्षों की विवेचना ठीक से ना करने के लिए चेतावनी मिली। तब पापा ने तमाम बातों के साथ यह बहुत क्रोधित होकर कहा कि हमारी गिरफ्तारी पर तो यह मीडिया बड़ा चीखा था। लेकिन बाइज्जत बरी होने पर एक शब्द नहीं बोल रहा। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि हम बाइज्जत  जीत गए हैं। ऐसे मीडिया से तो अच्छा है कि देश बिना मीडिया के ही रहे।उनका गुस्सा जायज ही था। लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट में जीतने के बाद हमें शंका थी कि छोटी सुप्रीम कोर्ट जाएगी। हालांकि वकील ने पूरा विश्वास दिलाया कि केस उनके इतना खिलाफ है, हाई कोर्ट ने ऐसा फैसला सुनाया है कि वहां केस पहली पेशी में ही खारिज हो जाएगा। मगर हम लोगों के मन से डर नहीं निकल रहा था।
इसके पहले जमानत मिलने के बाद दोनों भाई किसी तरह अपना बिज़नेस पटरी पर लाने में सफल हो गए थे। घर जो बहुत दिन तक बंद रहने के कारण भूत घर बन गया था उसे हमने बहुत कोशिश की। बड़ी भाभी ने भी लेकिन घर की रौनक नहीं लौटी। घर में हर तरफ मां का आंसू भरा चेहरा दिखाई देता। लगता जैसे उनकी सिसकियां सुनाई दे रही हैं। बड़ी भाभी से भी अब किसी का पहले जैसा लगाव नहीं बन पा रहा था। भइया का भी। हालांकि भाभी अपनी तरफ से जीजान से लगीं थीं।
 हमेशा हंसी-मजाक करने वाले बड़े भइया अब बहुत गंभीर हो गए थे। दोनों भतीजे भी शांत रहते थे। उनकी बाल सुलभ-चंचलता ,शरारत सब विलुप्त हो गई थी। पापा अब मशीनी मानव से बन गए थे। भावहीन चेहरा लिए कभी इधर तो कभी उधर बैठेे रहते। रात में जागते मिलते। किसी से भी काम के अलावा कोई बात न करते। उनका मन बहला रहे इसके लिए हम लोगों ने कोशिश की कि उन्हें दुकान पर बैठाया जाए, लेकिन वह चुप रहे। मगर गए नहीं। घूमने-फिरने के लिए लाख कहने के बाद भी टस से मस नहीं होते।
          समय बीतने के साथ परिवार की जिंदगी चलने लगी। पापा अब फिर मेरी पढ़ाई को लेकर चिंतित हो गए। वह बोले देखो तुम्हारी मां तो यह इच्छा लिए मर गईं कि तुम भी एक लाइन से लग जाओ। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी भी शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा लूं। तुम्हारी मां का मन था तुम्हारी शादी के बाद एक बार सारे परिवार के साथ रामेश्वरम् जाने का। लेकिन दुर्भाग्य ने यह सब हमसे छीन लिया। अब ऐसी इच्छा करने की मैं हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। बस इतना चाहता हूं बेटा कि तुम पढ़ाई पूरी कर अपनी नौकरी-वौकरी शुरू कर दो। अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। किसी पर डिपेंड ना रहो। अब मेरा किसी पर भरोसा नहीं रहा।फिर पापा ने एक ऐसी बात कही की मैं विचलित हो उठा।
          उन्होंने कहा छोटी ने जिस तरह परिवार को बरबाद किया। कानूनी पचड़ों से जो अनुभव मिला उसे देखते हुए मैंने यह तय किया है कि तुम सब को अलग-अलग कर दूं। जिससे भविष्य में कोई समस्या ना खड़ी हो। माना अभी तुम भाइयों में सब कुछ बहुत अच्छा है। लेकिन मेरे बाद क्या होगा? इसको लेकर मेरे मन में बहुत डर है। अभी तीनों भाई मिल कर रह रहे हो। कल को सब अपने परिवार के साथ ही होंगे। पत्नियों के साथ ही होंगे। उनकी पत्नियों ने जो रूप दिखाया है उससे मैं यही मान कर चलता हूं कि एक साथ रहने पर कभी शांति नहीं रहेगी।
इसका एक ही समाधान मेरे दिमाग में आता है कि सब लोग अलग-अलग घरों में रहो। रिश्ते अच्छे रहें तो बोलो नहीं तो नहीं। ये मकान ऐसा बना है कि इसमें चाह कर भी अलग-अलग नहीं रहा जा सकता। इसलिए यह मकान बेच दूँगा, फिर तुम तीनों के अलग-अलग मकान बनवा दूंगा। वो मकान इतने बड़े भले ना बन पाएं। लेकिन फिर भी ठीक-ठाक बन ही जाएंगे। हां वो दोनों और पैसा लगा देंगे तो अपने मकान जैसा चाहेंगे वैसा बनवा लेंगे। मेरा क्या आज हूं कल नहीं। जब तक रहूंगा तुममें से किसी के पास किसी कमरे में पड़ा रहूंगा।
पापा की बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गया कि इनके दिमाग में कैेसी-कैसी बातें चल रही हैं। यह अंदर ही अंदर कितना पीड़ित हैं। उस समय वह बहुत भावुक थे। उस वक्त हम दोनों एक पार्क में बैठे थे। शाम ढल रही थी। सूरज गहरा केसरिया होता जा रहा था, दूर क्षितिज की ओर बढ़ता हुआ। पापा के चेहरे पर उसकी किरणें पड़ रही थीं। उनका चेहरा भी तांबई सा होता जा रहा था। लगा जैसे वह भी क्षितिज की ओर चलते जा रहे हैं। अचानक ही मन में ऐसे खयाल आए कि मैं सहम गया। पहले तो मैं उनको अपना निर्णय बदलने के लिए समझाना चाह रहा था। लेकिन यह सोच कर शांत हो गया कि इन्हें जिसमें शांति मिले, खुशी मिले वह इन्हें करने दिया जाए।
यह सच ही कह रहें हैं। आखिर कितने दिनों के मेहमान हैं? आज हैं कल नहीं। आखिर हम लोगों ने अभी तक इन्हें जीवन में दिया ही क्या? और यह भी कि हम भाइयों ने अब तक किया ही क्या? अब तक जो कुछ भी है सब इन्हीं का किया तो है। बेचना चाहते हैं मकान, इसी में इन्हें संतुष्टि मिलती है तो यही अच्छा है। फिर जो बात कह रहे हैं वह एक कटु सत्य है। उनका निर्णय बहुत व्यावहारिक है।
 उसी दिन पापा ने रात को खाने के बाद भाइयों को बुलाकर अपने मन की बात कह दी। भाइयों के लिए भी यह एक झटका था। वैसे ही जैसे मुझे लगा था। मगर पापा ने किसी से सलाह ना मांग कर एक तरह से अपना निर्णय सुनाया था। अपनी तरफ से उन्होंने किसी को कोई रास्ता नहीं दिया था कोई विकल्प रखने का। मैं तो यही चाहता था कि जो भी हो उनके मन का हो। जैसे भी हो वह खुश रहें। इन सब से बड़ी बात यह कि मैंने देखा कि शुरू में तो दोनों भाइयों के चेहरे पर शॉक जैसे भाव उभरे थे। लेकिन कुछ पल बाद भाव ऐसे हुए कि उनसे समझा जा सकता था कि पापा का यह निर्णय उन्हें भा गया है। फिर क्या था मकान बेचने और अलग-अलग तीन प्लॅाट खरीदने का काम ज़ोर-शोर से शुरू हो गया।
पापा इस पक्ष में भी नहीं थे कि प्लॅाट अगल-बगल और एक ही मोहल्ले में हों। प्लॅाट उम्मीदों से कहीं ज्यादा महंगे मिल रहे थे। इसलिए भाइयों ने लोन लिया। अलग-अलग मोहल्ले में तीन प्लॅाट लिए गए। मेरे प्लॅाट का भी पेमेंट भाइयों ने किया। पापा ने कहा मकान बिकने पर उसमें से ज्यादा हिस्सा तुम दोनों को दे दिया जाएगा। कोशिश रंग लाई। तीनों मकान बन गए।
दोनों भाइयों ने कोशिश करके अपने मकान बड़े-बड़े बनवा लिए थे। मेरे लिए मुश्किल से तीन बेडरूम का छोटा सा मकान बन सका। क्यों कि अच्छी खासी रकम प्लॅाट के एवज में भाइयों को भी दी गई थी। फिर वह दिन आया जब परिवार तीन टुकड़ों में अलग-अलग घरों में रहने लगा। वही परिवार जिसे मोतियों की तरह चुन-चुन कर बनाने में पापा-अम्मा ने अपना जीवन लगा दिया था। दोनों भाइयों ने पापा को अपने-अपने पास रखने की पूरी जिद की। मैं अब भी विश्वास से कहता हूं कि उन्होंने वह जिद पूरी ईमानदारी से, पूरे मन से नहीं की गई थी।
  पापा ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा अभी मुझे इसी के साथ रहने दो। मकान ही अलग हुए हैं। हम लोग अलग नहीं हुए हैं।यह बात पूरी करते ही वह एकदम फूट कर रो पड़े थे। आखिर वह इतना दर्द कैसे सहते? पूरा जीवन लगा कर उन्होंने अपने सपनों का जो संसार बसाया था वह कहां बचा पाए थे। सब तो बिखर गया था। अपने सपनों का संसार बिखरने का गम उनसे ज़्यादा हम कहां समझ सकते थे। तो हम सब उन्हें चुप कराते रहे। पापा इसी तरह उस दिन भी रोए थे जब मकान बेचने के बाद चाबी नए मकान मालिक को सौंपी थी। और तब भी जब मकान से सामान निकाला जा रहा था।
   नए मकान में पहला दिन हम-बाप बेटे का ऐसे कटा जैसे किसी भूत मकान में बंद कर दिए गए हों। टीवी भी देखने का मन नहीं हो रहा था। कभी इधर बैठते, कभी उधर। खाने-पीने की चीजें बहुत भरी हुई थीं। कुछ मैं लाया था। और ज्यादातर भाइयों ने लाकर भर दिया था। पहली रात बस यूं ही कट गई। ठीक से नींद नहीं आई। अगले दिन एक बहन अपने परिवार के साथ आ गई। दो दिन अच्छे कट गए। भांजे-भांजियों की उछल-कूद में पापा का मन लगा रहा। लेकिन उनके जाते ही फिर वही उदासी। लेकिन हमारी बहनों जैसी बहनें कम ही होती हैं। और बहनोई भी।
उदासी भरे चार दिन ही कटे थे कि दूसरी बहन भी आ गई। पूरा परिवार हफ़्ते भर रुका रहा। बड़ी चहल-पहल रही घर में। बहन-बहनोई जब तक रहे तब तक हर दिन पापा से बराबर कहते रहे कि आप दोनों हमारे साथ चलें। वहीं रहें, जब तक समीर की शादी नहीं हो जाती।लेकिन पापा ने कहा बेटा जब तक ऐसे चल रहा है तब तक चलने दो। जब नहीं चलेगा तब कुछ सोचा जाएगा। हां मन जब ऊबेगा तब तुम सब को फोन कर दूंगा। जैसा हो सके तुम लोग समय निकाल कर आते रहना।
 दोनों भाई सुबह शाम दोनों टाइम आते। चाय-नाश्ता, खाना-पीना लेकर आते। दुकान से एक नौकर आकर झाडू-पोंछा का काम कर जाता। हमने, पापा ने बार-बार मना किया कि यह न करें, हम लोग कर लेंगे। इस पर भाइयों का सीधा जवाब होता कि या तो साथ चलो, नहीं तो हम जो कर रहे हैं करने दो।भाभी भी हर दूसरे तीसरे दिन आतीं, और जब आतीं तब घर चलने की जिद जरूर करतीं। पापा से, मुझसे बार-बार माफी मांगतीं। कहतीं घर चलिए। आखिर सब आप ही का है। अपने ही घर चले चलना है।
 आखिर में जब माफी मांगतीं तो मैं देखता पापा के चेहरे पर अजीब से भाव आ जाते। जैसे बड़ी कसैली सी कोई चीज खा ली हो। आखिर एक दिन उन्होंने बोल दिया गहरी सांस लेते हुए। तुमने तो बस गलती कर दी। बहक गई छोटी के बहकाने से। लेकिन यहां तो पूरा घर बर्बाद हो गया। तहस-नहस हो गया। मेरे बच्चों की जिंदगी, सब का जीवन बर्बाद हो गया। पूरी दुनिया में परिवार की बेइज्जती हुई, मेरे बच्चों की मां मर गई। इसका मैं क्या करूं।
पूरी दुनिया की दौलत दे दूं तो भी इनमें से कुछ मिलने वाला नहीं है। सबके मन में गांठें पड़ गई हैं, वो अब खत्म होने वाली नहीं हैं। लाख जतन करूं तो भी गांठ बनी रहेगी। अरे पहले ऐसे ही नहीं कह दिया गया था कि ‘‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़िव चटकाय, जोड़े से फिर ना जुड़े फिर जुड़े गांठ पड़ जाए।’’ मगर अब तो दुनिया पहले की सारी बातों को बेकार-बेहूदा समझती है। और जब-तक उन्हें कुछ समझ में आता है तब-तक उनके हाथ से सब निकल चुका होता है। उनके पास सिवाय पछताने के और कुछ नहीं बचता।
अपने यहां यही हुआ है। जो गांठ पड़ गई है वह अब खत्म होने वाली नहीं है। इस लिए अब जैसा चल रहा है उसे वैसे ही चलने दिया जाए। आखिर यह भी तो कहा गया है कि प्रेम की भी अति नहीं होनी चाहिए। ज़्यादा मिठाई में कीड़े लग जाते हैं।उस दिन पापा की यह बात सुनकर भाभी बहुत गंभीर हो गई थीं। मुझे ऐसा लगा कि जैसे पापा जानबूझ कर इतना सख्त हो रहे हैं जिससे भाभी दूर रहें। वैसे भी उन्होंने जो किया उसके बाद तो हमें उनसे नहीं बोलना चाहिए था, पापा तो कम से कम बोल रहे थे। उस दिन के बाद भाभी ने कभी चलने के लिए नहीं कहा।

पापा मुझ से जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर लेने के लिए बराबर कहते। वैसे भी इस समस्या के कारण मेरे कई साल बरबाद हुए थे। कई बार मन पढ़ाई बंद कर देने का भी हुआ। लेकिन पापा और भाइयों के प्रोत्साहन से मैं संभल गया। इस बीच मंझले भइया ने छोटी को तलाक दे दिया। जब तलाक की नोटिस पहुंची थी तो उनके फादर दौड़े आए थे। कि जो हुआ उसे भूल जाइए। इंसान से गलतियां हो ही जाती हैं। आज कल लड़की की पहली शादी ही इतनी मुश्किल से होती है। डायवोर्सी की कहां हो पाएगी? बच्चे का क्या होगा? उसका तो भविष्य ही चौपट हो जाएगा।
पापा उन्हें देखते ही बिफर पड़े थे। उनकी इस बात पर कहा था कि जो गलती इंसान से हो जाती है उसे माफ किया जा सकता है। जो गलती जानबूझ कर की जाती है, पूरे कमीनेपन के साथ की जाती है वह अक्षम्य होती है। आपके क्षमा मांगने से हमारा जो परिवार बर्बाद हुआ वह आबाद हो जाएगा? क्या मेरी बीवी जो मर गई वह वापस आ जाएगी? क्या मेरी इज्जत वापस मिल जाएगी? तब तो आप पूरा परिवार मिलकर मेरी पूरी प्रॉपर्टी लिखाने पर जुटे हुए थे।
तुमने मेरे घर अपनी लड़की की शादी नहीं की थी। बल्कि संपत्ति हथियाने की साजिश के तहत उसे यहां भेजा था। अरे शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को। बेशर्मी की भी हद होती है। अगर मैं भी तुम्हारी तरह नीचता पर उतर आऊं तो तुम पर क़ानून के दुरुपयोग, वृद्ध लोगों को मारने के प्रयास का मुकदमा कर सकता हूं। तुम्हें अंदर करा सकता हूं। तुम्हारी तरह झूठ साजिश के बल पर नहीं,सच के दम पर। लेकिन इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारा परिवार बर्बाद हो।
परिवार के बर्बाद होने की तकलीफ़ क्या होती है यह हमसे पूछो।
यह तकलीफ़ आदमी को जिंदा लाश बना देती। इसका दर्द सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा कोंचता रहता है। जो पीड़ा मेरे रोम-रोम में बसी है मैं नहीं चाहता वह मेरे दुश्मन को भी मिले। इस लिए जाइए और दुबारा मेरे सामने मत पड़िएगा। क्यों कि गलती मुझसे भी हो सकती है। आखिर मैं भी इंसान हूं।पापा का वैसा रौद्र रूप मैंने जीवन में पहली बार देखा था। नहीं तो बड़ी सी बड़ी गलती वह बस यूँ ही क्षमा कर दिया करते थे। उनकी डांट, गुस्से और कही गई बातों के निहितार्थ को समझने के बाद मंझली के फादर ने दुबारा पापा की तरफ रूख नहीं किया।
 भइया को पता चला तो उन लोगों ने कहा ठीक किया। हमने और बड़े भइया ने सोचा था कि मंझले भइया का मन हो तो उन्हें वापस ले आएं। बस हम लोग कोई मतलब नहीं रखेंगे। लेकिन बात करने पर वे भी पापा की तरह बिफर पड़े थे। कहा मैं उसे एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जब उसकी बातें खून खौला दे रही हैं तो सामने होगी तो मैं खुद पर कंट्रोल नहीं कर पाऊंगा। ऐसे में साथ रहेगी तो कुछ ऐसा-वैसा हो जाएगा।
हमने सोचा कि जब इतने वर्षों के बाद भी इतना गुस्सा है। तो सही यही है कि दोनों अलग हो जाएं। मंझली को भी यह बात समझ में आ गई। तो आपसी सहमति से तलाक हो गया। हम लोगों ने सोचा था कि मंझली बच्चे को हर हाल में पाना चाहेगीे। अपने पास रखना चाहेगी। इधर भइया भी बच्चे को हर हाल में पाना चाहते थे। हमने सोचा था मामला उलझेगा लेकिन इसके उलट वह बिना हील-हुज्जत के ही निपट गया। मंझली ने बच्चे के लिए खुद तो कहा ही नहीं बल्कि मना भी कर दिया। छोटी की इस हरकत ने हम सब को एक बार फिर सकते में डाल दिया।
 हम आश्चर्य में थे कि मां अपने स्वार्थ में इस कदर अंधी हो जाएगी कि अपने बच्चे से मुंह मोड़ लेगी। सोचा कि हो सकता है घर वालों ने दबाव डाला हो कि बच्चे की परवरिश कैसे करोगी? दूसरी शादी में यह बच्चा बड़ी बाधा होगा। कोई कुछ भी समझाए लेकिन क्या अपने बच्चे के प्रति मां की ममता अब इतनी कमज़ोर हो गई है, कि वो उसे अपने पास अपना नफा-नुकसान देख कर रखेगी। हमारे हृदय उस वक्त चीत्कार कर उठे थे। जब उसने बच्चे को दिया तो वह चीख-चीख कर मम्मी-मम्मी चिल्लाता रहा। लेकिन छोटी की आँखें भीगी भर थीं, जब कि भइया बच्चे को गले से लगा कर रो पड़े थे।
हम लोगों के भी आंसू उसका रोना सुनकर नहीं रुक रहे थे। लेकिन मंझली ने कोर्ट में बच्चा देकर जैसे उससे मुक्ति पा ली। अपने परिवार के साथ मुड़ी और चली गई। मुड़कर एक बार देखा तक नहीं। बच्चे ने चीख-चीख कर उल्टी कर दी। नाक से पानी निकल आया। हिचकियां बंध गईं। पस्त हो गया। निढाल होकर बाप के कंधे पर लटक गया था। तब भइया इतना भावुक हो गए थे कि बेटा बड़ा हो चुका था लेकिन उसे गोद से नीचे तभी उतारा जब गाड़ी में बैठे।
  बड़े प्रयासों के बाद वह घर में मिक्सअप हुआ। दूसरी शादी की बात आई तो भइया बोले एक से इतना कुछ मिल गया कि जी भर गया। दूसरी ना जाने कौन सी दुनिया दिखाएगी? मेरे बेटे का पता नहीं क्या करेगी?’ उनकी आशंका अपनी जगह ठीक थी। मगर हम सब परेशान थे कि कैसे कटेगा उनका जीवन? मगर वो किसी के समझाने से नहीं समझे। इस विषय पर बात होते ही बिगड़ जाते। बेटा भी धीरे-धीरे बाप के साथ ऐसा मिला कि उनके बिना एक पल अलग नहीं रहता। बाप-बेटा एक दूसरे के छाया बन गए थे। बड़ी भाभी उससे जब मिलतीं तो उसे मां का प्यार देने का पूरा प्रयास करतीं। बाबा को जैसे प्राण मिल गए थे।
          कहने को मंझले भइया अलग रहते थे। लेकिन बेटे के आने के बाद उनका ज़्यादा समय बड़े भइया के यहां ही बीतने लगा था। मैंने देखा इन बातों से पापा को बड़ी राहत मिलती थी। इस बीच मैंने एम.एस.सी. कर ली तो पापा ने कहा अच्छा होता कि पी.एच.डी. कर लो जिससे कहीं कॉलेज में जॉब मिल जाए। फिर आगे प्रोफेसर वगैरह हो जाओगे। एम.एस.सी. वगैरह करके कोई फायदा नहीं।फिर लगे हाथ यह जोड़ देते कि जल्दी कहीं लाइन से लग जाओ तो तुम्हारी भी शादी वगैरह कर दूं। मुक्ति पाऊं ज़िम्मेदारी से। तुम्हारी मां भी उपर यही सोच रही होगी।
आखिर पापा की जिद के आगे मैंने पी.एच.डी. के लिए क़दम बढ़ाए। हालात ऐसे बने कि पी.एच.डी. के लिए दिल्ली के एक संस्थान में पहुंच गया। वहां भी बड़े पापड़ बेलने पड़े। जो प्रोफ़ेसर साहब मिले उनकी तुनक-मिजाजी, और पैसे के लिए हमेशा मुंह बाए रखने की आदत ने मेरी हालत खराब कर दी। हॉस्टल मिल नहीं पाया। किराए पर रहना बड़ा मुश्किल हो गया। प्रोफ़ेसर साहब की आदतों के चलते एक साल तो देखते-देखते निकल गया। उनकी सेवा में जितना समय देता वह ही काफी नहीं था। बहुत सी चीजों के लिए फ़ोन आता कि समीर आते समय यह लेते आना। सामान ले जाता तो कभी पैसा ना देते।
पापा जितना पैसा भेजते थे वह दिल्ली में अलग मकान लेकर रहने के लिए कम पड़ रहे थे। उपर से प्रोफ़ेसर साहब की सेवा में लगने वाला खर्च मेरी हालत को नाजुक किए जा रहा था। शोध के नाम पर प्रोफे़सर साहब से जब कोई बात करता तो उनका एक ही जवाब होता। समीर अभी तुम अपने विषय को ठीक से समझ नहीं पाए हो। अभी और आगे बढ़ना मुझे उचित नहीं लगता। जिस दिन मुझे लगेगा कि आगे बढ़ना है, आगे बढ़ेंगे। ठीक है।हर बार यही रटारटाया जवाब सुनकर मैं परेशान हो जाता। परेशान होकर मैंने अपने एक अन्य दोस्त से बात की जो एक अन्य प्रोफ़ेसर साहब के मार्ग-दर्शन में पी.एच.डी. कर रहा था। उसने कहा ये मान कर चलो कि यह दो साल से पहले खिसकने वाला नहीं है। तब-तक तुम और स्टडी करते रहो।
          कुछ और सीनियर्स से अपनी समस्या शेयर की। सब एक सा बोले। मैंने कहा ये क्या रिसर्च हुई ? तो एक ने कहा देखो परेशान होने की जरूरत नहीं। ये सर बहुत अच्छे हैं। पांच साल होते-होते तुम्हें पी.एच.डी. वगैरह सब अवॉर्ड हो जाएगी। लगे रहोगे तो कहीं किसी कॉलेज में लगवा देंगे। बस लगे रहो।उन सबकी बातें सुनकर मैं बड़ा निराश हुआ। उन प्रोफ़सर का नाम तो बहुत सुना था। कि वह तेज़-तर्रार कड़क मिजाज आदमी हैं। अपने विषय के चुनिंदा विद्वानों में से एक हैं। यह सब देखकर सोचा कि लोगों ने जो बताया था वह गलत था या मैं गलत सुन रहा था। इधर घर पर पापा की सेहत संबंधी समस्याएं और परेशान करतीं। दोनों भाई अपने बिज़नेस में व्यस्त रहते। सुबह शाम थोड़ा बहुत ही समय दे पाते थे।
पापा अपनी जिद के चलते अब भी अकेले ही रहते थे। यही सब सोचकर मैं जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर लौटना चाहता था। मन में यही था कि जब तक पापा हैं तब तक लखनऊ में ही जॉब  ढूंढूंगा । पापा की इच्छा पूरी होगी, उनकी खुशी भी देख सकूंगा। और देखभाल भी कर सकूंगा। मगर हालात तो यह कह रहे थे, कि पांच-सात साल निकल जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं।
 कई बार मन में आया कि छोड़ कर चलूं। वहीं कोशिश करूं। मगर जब पापा सेे बात की तो वो नाराज हुए कि मैं इंतजार कर रहा हूं कि तुम प्रोफ़ेसर बनो। तुम्हारी शादी कर मैं अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाऊं। वहां से यहां आओगे फिर से शुरू करोगे। दो साल जो वहां बिताए हैं वह समय और पैसा दोनों बरबाद होगा। यहां आकर तीन-चार साल में कर लोगे तो भी छः साल तो हो ही जाएंगे।
पापा अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं बड़े असमंजस में था। क्या करूं? क्या ना करूं? कुछ समझ नहीं पा रहा था। इसी बीच एक दिन पापा से बात कर रहा था, तो पापा ने जो बताया मंझले भइया के बारे में उससे मेरी परेशानी और बढ़ गई। पापा बड़े पसोपेश में थे। डर रहे थे कि फिर कोई समस्या ना खड़ी हो जाए। सुनकर कुछ समय तो मैं भी परेशान हुआ। लेकिन सोचा कि मंझले भइया ने जो किया वह उनकी स्वाभाविक जरूरत है। उन्होंने जो किया ठीक किया।
आखिर कब तक अकेले रहेंगे? लेकिन पापा की आशंका भी तो गलत नहीं है। उनका यह क़दम कोई नई समस्या ना खड़ी कर दे। उनको यही करना था तो जब कहा जा रहा था तभी दूसरी शादी कर लेते। या नहीं की तो कोई बात नहीं। जिस महिला के साथ रह रहे हैं उसे विधिवत शादी कर के रखें। किसने मना किया है। उन्हें पता नहीं क्या हो गया है। पापा को टेंशन दे रहे हैं।
सौभाग्य है कि बच्चा बड़ी मां के साथ घुल-मिल गया है। वो भी उसे अपने बच्चे की तरह पाल रही हैं। मगर इस नई महिला से कोई बच्चा हो गया तो क्या होगा? पहले तो इन्हीं सब के चलते साफ कह दिया था कि शादी नहीं करूंगा। आखिर क्या सोचकर उठाया है उन्होंने यह क़दम। अपनी उलझन शांत करने के लिए मैंने बड़े भइया को फ़ोन करके पूछा कि क्या मामला है? तो उम्मीद से एकदम अलग उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि मुझे कुछ नहीं मालूम। उनका पर्सनल मैटर है। जो चाहे करें। मुझे कोई लेना-देना नहीं। अब मैं किसी चक्कर में पड़कर अपनी लाइफ और नहीं बर्बाद करना चाहता। अब सब लोग बड़े हो, जिसे जो ठीक लगे वह करे। अब मैं किसी मामले में नहीं हूं।
          उनके इस बेरूखे जवाब ने मुझे सन्न कर दिया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वो ऐसा जवाब देंगे। और मंझले भइया ऐसी हरकत करेंगे। वही मंझले भइया जिनके लिए कहा जाता था कि इस मामले में वो बहुत संकोची, शर्मीले हैं। लेकिन वो तो एकदम डबल निकले। यह सब जानकर मेरा मन एकदम घबड़ा गया कि पता नहीं पापा कैसे हैं? ये दोनों भाई इस तरह जवाब दे रहे हैं। ऐसा बेरूखा व्यवहार मुझसे कर रहे हैं तो पापा के साथ क्या कर रहे होंगे? मैं पापा की हालत का अनुमान कर घबड़ा उठा।
मैं उसी दिन बिना रिज़र्वेशन कराए ही रात को लखनऊ के लिए चल दिया। रिजर्वेशन तत्काल में भी नहीं मिला। ट्रेन में धक्के खाते सवेरे जब घर पहुंचा तो मेरी आशंका सच निकली। पापा पूरी तरह उपेक्षित घर में अकेले पड़े थे। घर की हालत बता रही थी कि उनकी देखभाल कोई नहीं कर रहा था। कम से कम तीन-चार दिन से सफाई वगैरह कुछ नहीं हुई थी। फ्रिज में कई दिन का खाना पड़ा था। कुछ फल थे। मतलब पापा खाना भी नहीं खा रहे थे। दरवाजे पर मैंने पापा को जिस हाल में देखा था वह मेरे अनुमान को शत-प्रतिशत सही ठहरा रहा था। वो मुझे देखकर चौंक गए थे। क्यों कि मैंने आने की कोई सूचना नहीं दी थी।
पैर छूकर मैंने कहा पापा बस अचानक ही प्रोग्राम बन गया था। पैर छू कर उठा तो उन्होंने गले से लगा लिया। मैंने भी उन्हें बांहों में भर लिया। बाप-बेटे दोनों ही की आंखें नम हो गईं थीं। मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रही थीं। पापा को सोफे पर बैठा कर मैं किचेन में इसी उद्देश्य से गया था कि कुछ चाय नाश्ता बनाऊं। लेकिन जो देखा उससे मन बहुत दुखी हुआ। मां की याद में खोया जा रहा था। बार-बार आंखों में आंसू आ जा रहे थे। रात में भी खाना नहीं खाया था। भूख भी बड़ी तेज़ लगी हुई थी। मगर कहता किससे? मुझे पक्का यकीन था कि पापा भी भूखे होंगे। मगर मैं उनसे कुछ पूछूं उसके पहले ही वह बोल पड़े।
रात भर के थके होगे। बैठो मैं चाय बनाता हूं।बाप के इस प्यार ने मेरा कलेजा ही निकाल लिया। हिलते-डुलते से वो उठने ही वाले थे कि मैंने उन्हें बैठाते हुए कहा क्या पापा मेरे रहते आप करेंगे यह सब। फिर माहौल हल्का करने की गरज से मैंने बंद पड़े टी. वी. को ऑन किया। पापा ने बड़े भइया को फ़ोन करने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया। उन लोगों के रवैये से मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। मैंने कपड़े भी चेंज नहीं किए, पहले गया पास की दुकान से दही, जलेबी, खस्ता और चाय ले आया। किचेन इतना गंदा था कि बिना साफ किए कुछ नहीं बना सकता था। थकान के कारण मेरा यह सब करने का मन नहीं हो रहा था।
नाश्ते के बाद मैंने पापा से पूछा कि क्या भइया लोग नहीं आ रहे? क्या हाल हो रहा है घर का, खाना-पीना भी अस्त-व्यस्त है। आपकी सेहत बता रही है कि कुछ खा-पी नहीं रहे हैं। पापा बात टालते हुए बोले देखो हर समय कोई किसी के साथ नहीं रह सकता। और खाना-पीना सब आता रहता है। चिंता की कोई बात नहीं है। अब उम्र हो गई है। हमेशा एक सा तो नहीं रहूंगा ना। मुझे अब चिंता है तो बस तुम्हारे कॅरियर की। शादी की। बस और किसी चीज की परवाह नहीं। और जब-तक यह हो नहीं जाता तब-तक मुझे कुछ नहीं होने वाला।
पापा साफ-साफ सब कुछ छिपा रहे थे। लेकिन मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा। उन्होंने मंझले भइया के बारे में बहुत सी बातें कीं। कहा उससे यह उम्मीद नहीं थी। मैं डायवोर्स के बाद ही दूसरी शादी के लिए कह रहा था। लेकिन तब तैयार नहीं हुआ और अब यह सब हो रहा है। पता नहीं कौन सी औरत है? कैसी औरत है? क्या होगा समझ में नहीं आ रहा।मैंने कहा वो समझदार हैं। वो अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना चाह रहें हैं तो जीने दीजिए। आप चिंता मत करिए। आखिर में जाकर पापा ने भाइयों द्वारा अपनी उपेक्षा की बात भी कह ही डाली। उनकी बातें सुनकर मुझे लगा कि अब उन्हें अकेले छोड़ कर मेरा दिल्ली जाना संभव नहीं है।
          शाम को भाइयों से मिलने गया। बड़े ने फॉर्मेलिटी अच्छी की। भाभी ने भी। हां बच्चे पहले ही की तरह प्यार से मिले। बड़े भाई ने एक बार भी यह नहीं कहा कि सुबह से आए हो। फ़ोन तक नहीं किया या पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है। कुछ भी नहीं पूछा। मंझले के पास पहुंचा तो उन्होंने यह शिकवा ज़रूर किया कि सुबह से आए हो बताया तक नहीं। हाल-चाल, पढ़ाई-लिखाई भी पूछी। फिर मुझसे रहा ना गया तो मैंने महिला की बात छेड़ दी। तो उन्होंने एक लंबी चौड़ी दास्तान बताते हुए इतना कहा कि हम दोनों परिचित तो काफी समय से हैं। जो सी.ए. हमारे काम को देखता है वह उसी के ऑफ़िस में काम करती हैं। पहली बार वहीं मिली थीं। फिर बात इतनी बढ़ी कि यहां तक पहुंच गई। वह भी डायवोर्सी हैं। बुलंदशहर की रहने वाली हैं।
          मैंने कहा जब बात यहां तक पहुंच गई है तो शादी कर डालिए। भले ही मंदिर में। विभव की मां की कमी पूरी हो जाएगी। लोग कुछ कहना-सुनना बंद कर देंगे। मेरे इतना कहते ही भइया तमक कर बोले देखो मुझे दुनिया की परवाह नहीं। मेरे लिए जो ठीक है, वह मैं जानता हूं। वही कर रहा हूं। मैं पहले ही कह चुका हूं कि अब मैं शादी-वादी का झमेला नहीं पालना चाहता। विभव जब तक भाभी के पास रह रहा है ठीक से तब-तक ठीक है। नहीं तो यहीं ले आऊंगा। फिर जितना उसे मैं जान पाया हूं उस हिसाब से वह भी शादी-वादी के झमेले में नहीं पड़ना चाहती। वह शांत स्वभाव की है। एकांत जिंदगी जीना चाहती है। कुल मिला कर हम दोनों फिलहाल एक दूसरे को सूट कर रहे हैं। जब-तक सूट कर रहे हैं, तब-तक साथ हैं। नहीं तो नई दुनिया देखेंगे।आखिर मैंने पूछा आज नहीं आईं क्या? तो वह बोले टाइम हो गया है। आती ही होंगी।हम दोनों की बातें चलती रहीं। खासतौर से पापा को लेकर।
पापा के बारे में जिस रूखेपन से उन्होंने बातें कीं उससे एक तरह से ये साफ मैसेज था कि पापा कोई उनकी ज़िम्मेदारी नहीं हैं। मैंने देखा कि आज वीकली ऑफ होने के कारण वो और बड़े भाई दोनों घर पर थे। लेकिन दोनों में से कोई भी पापा के पास नहीं पहुंचा था। मेरा मन गुस्से, नफरत से भर रहा था। आठ बजने को हुआ तो मैंने सोचा चलूं पापा के लिए खाना वगैरह देखूं। इन दोनों भाइयों ने तो दुनिया ही बदल दी है। चलने को हुआ तभी बाहर गेट खुलने की आवाज़ हुई। भइया बोले शायद आ गईं ।मेरी नजर दरवाजे की तरफ चली गई। भइया का अंदाजा सही निकला, वही थीं। जिनका नाम भइया ने अनुप्रिया बताया था।
 अनुप्रिया करीब साढ़े पांच फीट की अच्छी हेल्थ वाली महिला थीं। गोरा रंग, कंधे तक कटे बाल। अपेक्षाकृत मोटे होठों पर हल्की लिपिस्टक थी। चेहरे पर दिन भर की थकान साफ झलक रही थी। हावभाव से वह शांत स्वभाव की ही लग रही थीं। उन्होंने स्किन टाइट लाइट ब्लू जींस और लाइट पिंक शर्ट पहन रखी थी। पैरों में स्टाइलिश कैनवॉस शू थे। साथ ही पतली सी पायल भी।
जींस के साथ पायल मैंने कम ही देखी थी। मैं समझ नहीं पाया कि यह ड्रेस उनकी यूनीफॉर्म थी या उनकी पसंद। भइया ने बहुत बुझे मन से मेरा परिचय दिया अनु ये समीर। मेरे छोटे भाई।इस पर उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। मैंने भी उसी तरह जवाब दिया। क्षण भर में ही यह बात मन में कौंध गई कि इन्हें भाभी कहूं या अनुप्रिया जी कहूं। मगर आखिर में हाथ जोड़कर नमस्तेकह कर रह गया।    
मैं खड़ा होे ही रहा था कि उन्होंने कहा बैठिए। हमारे बीच अकसर आपकी बातें होती हैं। कैसी चल रही है आपकी रिसर्च?’ मैंने कहा ठीक है। हाथ में लिया अपना बैग। स्कूटर की चाभी, उन्होंने सेंटर टेबिल पर रखी और सोफे पर भइया से एकदम सट कर बैठ गईं। जैसे बैठने की जगह बहुत कम हो। इधर-उधर की दो-चार और बातों के बाद वह किचेन में चली गईं। और चाय नाश्ता, लेकर लौटीं।
 मैं उन्हें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें समझना मेरे वश के बाहर है। कुछ ही देर में मैं घुटन महसूस करने लगा। पापा पर मन लगा हुआ था। इसलिए नाश्ता खत्म होते ही मैंने उठते हुए कहा भइया अब चलता हूं। पापा इंतजार कर रहे होंगे। खाने की भी देर हो रही है। भइया बोले अच्छा ठीक है।कुछ इस अंदाज में जैसे कि कह रहे हों चलो प्यारे, निकलो यहां से।
           मैं घर आया तो खाना होटल से ही लेता आया। मैंने सोचा बनाने में देर होगी। पापा भूखे होंगे। होटल में जब खाना पैक करा रहा था, तो मेरे दिल में आया कि मैंने पापा के खाने की बात की लेकिन भइया ने एक बार भी फॉर्मेल्टी के लिए भी नहीं कहा कि रुको यहीं बन जाएगा। तुम खा लो और उनका लेते जाना। अनु के लिए तो खैर कुछ कह ही नहीं सकता। उनका हमारे परिवार से क्या लेना-देना। हां यदि मैनर्स के दृष्टिकोण से देखें तो उनको भी यह कहना चाहिए था। आखिर वो दोनों कल को यदि शादी की रस्म पूरी कर लेते हैं तो पापा उनके ससुर ही होंगे। लेकिन अनु ने भी एक शब्द नहीं कहा।
पापा के साथ खाना खाते समय मेरी बातें होती रहीं। मैंने देखा कि पापा दोनों भाइयों के बारे में बात करने के इच्छुक नहीं हैं। वही पापा जो पहले बच्चों की बात करते नहीं थकते थे। पापा खाना खाकर लेटे और जल्दी ही सो गए। मैं थका था। लेकिन इन्हीं सब बातों को लेकर मन में चल रही उलझन के कारण नींद नहीं आ रही थी। दोनों भाइयों, भाभी और अनु की बातें घूम रही थीं। उन सारी बातों का मन में एक विश्लेषण सा होने लगा।
 अचानक मन में यह बात आई कि कहीं यह दोनों भाई घर में जो हुआ उसके लिए पापा, अम्मा को तो ज़िम्मेदार नहीं मानने लगे हैं। जो उनसे इस तरह मुंह मोड़ लिया है। इतने रूखे हो गए हैं कि बाप भूखा है, जिंदा है, या मर गया इसकी भी परवाह नहीं । मुझे लगा कि मेरी यह आशंका एकदम सही है कि पापा यहां एकदम अकेले पड़ गए हैं। उनकी देखभाल, खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। मैंने तय कर लिया कि पढ़ाई हो या ना हो अब पापा को छोड़ कर नहीं जाऊंगा।
          मगर अगले दिन पापा बात शुरू करते ही आग-बबूला हो गए। तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो। बाकी चीजों से तुम्हें कोई मतलब नहीं। अगर तुम्हें भी अपनी मनमर्जी करनी है तो करो।गुस्सा होते-होते यहां तक धमकी दे दी कि नहीं करोगे तो मेरा मरा मुंह देखोगे।यह बात कहते वक्त उनके चेहरे, उनकी आवाज़ में जो दृढ़ता थी, उससे मैं डर गया। आखिर मैंने यह तय किया कि एक काम वाली लगा कर जाऊंगा। जो साफ-सफाई, खाना-पीना पूरा कर दे।
घर करीब दस दिन रुका रहा। पापा की आंखें चेक कराई। उन्हें दवा वगैरह दिलवाई। जब तक रहा तब तक उन्हें रोज घुमाने ले गया। भाइयों के प्रति पापा की सोच क्या बन गई है यह जानने के लिए मैं उनसे उन लोगों की बात करने की कोशिश करता तो पापा बिना देर किए बात यह कह कर टाल देते बेटा वो लोग भी अपनी समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनको जब समय मिलता है तब वे मेरा ध्यान रखते हैं।’ 
मैं मन में कहता पापा अपनी समस्याएं तो सब की हैं। तो क्या कोई अपनी ज़िम्मेदारी नहीं पूरी करेगा। और आपकी यह बात बिलकुल झूठ है कि वो लोग समय मिलने पर अपका ध्यान रखते हैं। ऐसा होता तो आपको बार-बार पड़ोसियों की मदद ना लेनी पड़ती। मुझे इतने दिनों में सब मालूम हो गया है। समस्याएं तो पड़ोसियों के पास भी हैं। लेकिन आपके बुलाने पर आ तो जाते हैं। फिर बेटे क्यों नहीं? दस दिन से देख रहा हूं कि कोई एक बार भी देखने नहीं आया कि कैसे हैं आप? और मैं, आप खा-पी रहे हैं या नहीं। फ़ोन तक तो आया नहीं।
मेरा मन नहीं माना तो दिल्ली लौटने से एक दिन पहले मैंने कहा पापा ऐसा है कि मैं जब तक लौट कर आ नहीं जाता तब तक आप बड़े भइया के पास रहिए। या फिर यहां मकान किराए पर दे देते हैं। आप मेरे साथ चलिए। आप को सेफ करके ही मेरा मन पढ़ाई में लग पाएगा। पापा फिर बिफर पडे़। तुम मेरी सेफ्टी की चिंता मत करो। अभी मैं इतना गया-गुजरा नहीं हूं कि अकेले नहीं रह सकता। अब जमाना बहुत बदल गया है बेटा, उसे देखते हुए अपने को ढालोेगे नहीं तो नुकसान उठाते रहोगे। ठीक है तुम्हें मेरी इतनी चिंता है तो जब नहीं रह पाऊंगा तब चला आऊंगा तुम्हारे पास दिल्ली। ज़रूर कोई अच्छे कर्म किए हैं जो तुम जैसी औलाद मिली।यह कहते-कहते वह भावुक हो उठे।
अगले दिन मैं काम वाली के सहारे पापा को छोड़ कर दिल्ली आ गया। आने से पहले अपना कर्तव्य समझते हुए दोनों भाइयों से भाभी एवं बच्चों से भी मिला। बच्चों को छोड़ कर बाकी सब ऐसे मिले जैसे कोई बिन बुलाए आ पहुंचे मेहमान से मिलता है। किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि इतने दिन रहे, दुबारा क्यों नहीं आए? मंझले भइया की अनु ने जरूर कहा आप तो दुबारा आए ही नहीं।मैंने कहा बस कुछ काम में उलझा रहा।
इस बार दिल्ली आने के बाद मेरा मन हमेशा पापा पर लगा रहता। कैसे हैं, वो क्या कर रहे होंगे। खाना खाया कि नहीं। आते वक्त मैं दो-तीन पड़ोसियों के मोबाइल नंबर ले आया था। उन्हें फ़ोन करता रहता। हाल-चाल लेता रहता। काम वाली को दिन भर में दो तीन बार फ़ोन करके पूछता रहता खाना दिया कि नहीं? उनकी तबियत कैसी है? वास्तव में यदि पापा का पढ़ाई पर इतना जोर ना होता। वो इसे अपनी अंतिम इच्छा ना कहते तो इस बात की पूरी संभावना थी कि मैं पढ़ाई छोड़ कर लखनऊ चला जाता। लेकिन पापा ने जो बेड़ियां डाली थीं, वो पढ़ाई पूरी किए बिना खुलने वाली नहीं थीं।
इसलिए मैंने जी-जान से पढ़ाई पर ध्यान दिया। प्रोफ़ेसर के एकदम पीछे पड़ गया। मगर उनके जितना पीछे पड़ता वह उतना ही हर चीज को उलझा देते। इससे मेरी उलझन बढ़ गई। मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा। खीझ कर मन में यह भावना पनपने लगी कि जो होना होगा, होगा। अब प्रोफे़सर या किसी के पीछे नहीं पडूंगा। इधर पैसों की दिक्कत भी शुरू हो गई थी। घर पर नौकरानी और कई अन्य बातों से खर्च बढ़ गया था। इसलिए मैं पापा से कम से कम पैसा मांगता।
पहले जो कमरा लेकर अकेले रहता था वह छोड़ दिया। वहां से एक सीनियर के साथ रहने विकासपुरी आ गया। उनके साथ कुछ और लड़के भी रहते थे। उनमें एक एम. टेक. कर रहा था। बाकी भी ऐसे ही कुछ ना कुछ पढ़ रहे थे। सीनियर जो थे वह भी मेरी तरह रिसर्च स्कॉलर थे। कहीं कुछ काम भी करते थे। रोज के काम के लिए बाई थी। यहां आकर मैं खर्च में कटौती कर ले गया। लेकिन इन साथियों का खाने-पीने, जीवन शैली से शुरुआती कुछ हफ्तों तक मैं बड़ा असहज था। मगर यह साथी इतने उस्ताद थे कि मुझे जल्दी ही अपने जैसा बनाने में सफल हो गए।
पहले जहां महीने में एकाध बार नॉनवेज़ लेता था, अब वह महीने में बीस-बाइस दिन हो गया। पहले जहां स्मोकिंग, टोबैको, वाइन आदि की आदत नहीं थी। मॉडल शॉप पर कभी-कभी ले लिया करता था। अब स्मोकिंग बराबर चलती। वाइन वगैरह भी शुरू हो गई। फैशन का चस्का भी बढ़ता गया। खर्चा मेरा दुगुना से ज़्यादा हो गया था। वहां खर्च कम करने गया, मगर वह कई गुना बढ़ गया। लेकिन इन साथियों ने मन ऐसा बदला था कि एक बार भी वहां से हटने की बात मन में नहीं आती। बचत कैसे करूं? खर्च में कटौती कैसे करूं? यह मन में नहीं आता। बल्कि और पैसा कैसे लाऊं? कहां से लाऊं? यह बात मन में आई नहीं बल्कि उमड़ने लगी। 
साथियों की शाह-खर्ची देख कर मैं सोचता आखिर ये सब कैसे इतना पैसा ला रहे हैं। मैं वहां पहुंचने के कुछ महीनों बाद से ही पापा से महीने में दो-दो बार पैसे मांगने लगा था। संकोच बहुत होता लेकिन आखिर में मांग ही लेता। मगर अचानक ही एक समस्या आ खड़ी हुई। पापा की तबियत खराब हुई तो उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा। सूचना मिलने पर मैं जब वहां पहुंचा तब तक भाई लोग उन्हें एडमिट करा चुके थे। उन्हें लंग्स में संक्रमण के चलते सांस लेने में मुश्किल हो रही थी।
 मेरे पहुंचते ही उनके देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। भाई लोग थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बस दो-तीन बार आ जाते। भाभी एक बार। और मंझले भइया की अनु सुबह, शाम दो बार आतीं। उसी हनक, अधिकार के साथ जैसे वह घर की बहू हैं। आते ही ऐसा बिहैव करतीं जैसे सीनियर डॉक्टर राउंड पर आई हैं।
पापा से ऐसे प्यार से हाल-चाल,खाने-पीने की बातें करतीं जैसे वह उन्हें ना जाने कितना प्यार करतीं हैं।
मैंने देखा कि पापा भी उनसे इस तरह बोलते-बतियाते बिहैेव करते हैं मानो वह भी उन्हें बहू मान चुके हैं। पापा करीब महीने भर हॉस्पिटल में रहे। तीन लाख से ऊपर खर्च आया। पापा के पास जो जमा-पूंजी थी वह पहले डेढ़ दो हफ्ते में ही खत्म हो गई थी। दोनों भाइयों ने अगर हाथ न बढ़ाया होता तो उनका ट्रीटमेंट ना हो पाता। मेरे पास तो समय के अलावा और कुछ था नहीं।
पापा के पास जितना था उससे सरकारी हॉस्पिटल में तो इलाज हो सकता था, लेकिन किसी अच्छे प्राइवेट हॉस्पिटल में नहीं। इस पूरे एक महीने में सभी ने अपने-अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी कुल मिला कर पूरी की। मगर अनु ने जो किया उसे मैं किस खाने में रखूं। यह मैं समझ नहीं पा रहा था। वो मुझे समीर भइया बोलतीं। आवाज़ में मधुरता थी। हॉस्पिटल में उन्होंने मेरे हाथ में हज़ार-हज़ार के करीब बीस नोट थमाते हुए कहा इन्हें रख लिजिए। पता नहीं कैसी जरूरत पड़े।मेरा स्वाभिमान एकदम भड़क उठा कि क्या पापा के सारे लड़के-लड़कियां मर गए हैं जो एक बाहरी के पैसों से उनका इलाज होगा। क्या मैं इतना निकम्मा हूं कि पापा के लिए दस-बीस हज़ार रुपए का भी इंतजाम ना कर पाऊंगा।
मैंने अपनी आग अपने अंदर ही दबाए रख कर कहा नहीं इनकी कोई जरूरत नहीं है। पैसों की कोई कमी नहीं है। फिर आप क्यों परेशान हो रही हैं। हम लोग तो हैं ही। मेरी इस बात पर वह बड़ी बारीक मुस्कान के साथ बोलीं ठीक कह रहे हो। हम सब हैं ना। इसी लिए तो दे रही हूं। यहां अंदर बाहर की बात क्यों की जाए? मैं किसी बाहरी से तो कह नहीं रही। अपने देवर से ही कह रही हूं।मैं उन्हें एकटक देखने लगा तो बोलीं चलो भाभी ना सही, फ्रेंड के नाते तो अधिकार है मेरा। मेरे अधिकार तो तुम छीनना नहीं चाहोगे।
मैं अंदर ही अंदर उनकी बातों से थोड़ा असमंजस में पड़ गया। फिर भी तुरंत बोल दिया आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना पैसे की कोई कमी नहीं है। जरूरत होगी तो देखेंगे। और ये अधिकार-वधिकार के चक्करों में मैं पड़ता नहीं। जो मुझे ठीक लगता है वो मैं करता रहता हूं। और अभी मुझे पैसे लेना क्यों कि बिल्कुल ठीक नहीं लग रहा है इस लिए नहीं लूँगा। क्यों कि अभी इसकी जरूरत ही नहीं है। मगर वह तो जैसे पीछा छोड़ने वाली ही नहीं थीं। बोलीं, ‘यही तो मैं कह रही हूं कि जरूरत आए उस समय के लिए रख लो। और कभी-कभी अपने मन को पीछे कर बड़ों की बात भी तो मानी जाती है।
यह कहकर उन्होंने मुझे निरुत्तर कर दिया। और बड़े अधिकार के साथ मेरी शर्ट की जेब में पैसे डाल दिए। इसके बाद भी उन्होंने कई बार पैसे दिए। जो कुल मिलाकर चालीस हज़ार थे। मैंने उसमें से एक पैसा नहीं खर्च किया। जब महीने भर बाद पापा को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज किया गया तो बड़े भइया उन्हें लेकर अपने घर चले गए। उन्होंने कहा अकेले वहां ठीक नहीं है। और यहां से वहां जाकर देखभाल नहीं की जा सकती।उनकी बात को सबने मान लिया। मुझे भी इससे बड़ी राहत मिली। मगर भाभी या भइया ने एक बार भी नहीं कहा कि समीर तुम भी यहीं रुक जाओ। मेरा मन इससे बहुत टूट गया। अनु वहां भी ऐसे मिक्सप थीं जैसे कभी मंझली भाभी हुआ करती थीं।
मैं अपने घर चला आया। खाना बड़ी भाभी के कहने पर वहीं खा लिया था। उस दिन हॉस्पिटल में महीने भर की थकान के बावजूद मैं रात में सो नहीं पाता, क्यों कि भाइयों ने, भाभी ने जो व्यवहार किया। एक शब्द किसी ने नहीं बोला कि रुक जाओउससे मैं बहुत आहत था। इसलिए आते वक्त सिग्नेचर का एक क्वार्टर, सिगरेट लेता आया था। घर में कोई तो ऐसा था नहीं जिससे मैं छिपाता। एक पापा थे तो वो भी हालात के चलते भाई के यहां थे। लेकिन मैं इस बात से थोड़ा निश्चिंत हुआ कि चलो उनकी देखभाल होती रहेगी। मैं अकेले यहां क्या कर पाऊंगा।
व्हिस्की के सहारे मैं रात भर बेसुध हो कर सोया। अगले दिन सुबह दस बजे उठा। तैयार होकर पापा को फ़ोन किया, वो ठीक थे। तो मैं दिन भर इधर-उधर घूमता रहा। युनिवर्सिटी में कुछ दोस्तों के पास गया। शाम को मंझले भइया के पास गया। असल में वहां जाने का ना मेरा मन था। और ना कोई और बात। मैं अनु को उनका चालीस हज़ार रुपया वापस करना चाहता था। क्योंकि मेरा मन अभी तक उनके पैसों पर लगा था।
मैं जानबूझ कर नौ बजे के बाद घर पहुंचा जिससे भइया भी मिलें। लेकिन तब तक वो दुकान से नहीं आए थे। पहुंचने पर अनु ने बैठाया। वो बातें करना चाहती थीं। पापा के बारे में, मेरी पढ़ाई के बारे में। लेकिन मैं सीधे मुद्दे पर आ गया और उनके दिए चालीस हज़ार रुपए उनके सामने रखते हुए कहा। ये रख लीजिए। चालीस हज़ार हैं। रुपयों की ज़रूरत पड़ी नहीं इस लिए ये बच गए। ये सारे नोट भी वही थे जो अनु ने दिए थे। रुपए देखकर अनु थोड़ा अचंभे में पड़ीं। बोलीं, ‘क्या भइया। मुझसे इतनी नफरत।उनकी इस बात से मैं एकदम सकते में आ गया।
मैंने तो सोचा था कि वो थोड़ी फॉर्मेलिटी करेंगी और रुपए रख लेंगी। लेकिन उन्होंने तो बात का रूख ही ऐसा मोड़ा कि मैं परेशान हुआ। गुस्सा भी आया कि ये क्यों अपने पैसों से हमारे ऊपर एहसान लादना चाहती हैं। क्या पापा के लड़के इतने सक्षम नहीं है कि एक ऐसी महिला से हेल्प लें जिसका न तो घर से कोई रिश्ता तय है, और ना यह तय है कि कितने दिन साथ रहेंगी। जिससे रिश्ता था उसने तो यह गुल खिलाया। ये क्या करना चाहती हैं। जो बात करना है भइया के साथ करें। बाकी से क्या रिश्ता?
मैंने भी उन्हें बड़े सपाट शब्दों में कहा। ज़रूरत ही नहीं पड़ी तो बेवजह फेंक तो देता नहीं। इसलिए रखिए। हमें बेवजह किसी के लिए इतना परेशान नहीं होना चाहिए। मेरा मूड इतना खराब हो गया कि इतना कह कर उठा। और उन्हें नमस्कार कर वापस चल दिया। उन्होंने नमस्कार का जवाब दिया या नहीं यह भी नहीं देखा। वो सुनिए तो, आप नाराज हो गए क्या? मैंने ऐसा तो कुछ कहा नहीं।
यह कहते-कहते वह गेट तक आ गईं। लेकिन मैंने उन पर ध्यान दिए बिना बाइक स्टार्ट की और घर चला आया। भइया से मिलने का प्लान त्याग दिया। मुझे लगा कि शायद अनु फ़ोन करेंगी। लेकिन फ़ोन नहीं आया। सोचा शायद भइया के आने के बाद आए लेकिन नहीं आया। इससे ना जाने क्यों मेरे मन में अजीब सी खीझ पैदा हो गई।
अगले दो-तीन दिन मैं दिन में किसी टाइम पापा को देख आता। बाद में फ़ोन करता रहता। करीब हफ्ते भर बाद मुझे लगा कि वो ठीक हो चुके हैं तो मैं दिल्ली वापस आ गया। आते समय पापा, भाभी, भाइयों से मिला मगर किसी ने एक बार नहीं पूछा कि खाना वगैरह खाया कि नहीं। पैसे हैं कि नहीं। बस पापा ने पैर छूते समय आशीर्वाद दिया। ऐसे वक्त पर अम्मा की इतनी याद आई कि मैं किसी तरह अपने को रोने से रोक पाया। सोचा अम्मा होती तो क्या वह ऐसे जाने देतीं।
वह तो अपने किसी भी बेटे के कहीं भी जाते समय दही, अक्षत से तिलक करती थीं। चम्मच से दही शक्कर खिलाती थीं। आशीर्वाद देती थीं। मगर यह सब अब कहां है? अम्मा की जगह और कौन ले सकता है? अम्मा की जगह पैसे के लिए पापा ने पूछा तो मैंने कह दिया हैं। मगर सच यह था कि तब मेरे पास पैसे नहीं थे। लेकिन अब मैं वहां ज़्यादा ठहर नहीं सकता था। लौट कर मैं कई दिन बड़ा परेशान था। कि क्या करूं? कहां से पैसा लाऊं? पापा से अब मैं किसी सूरत में पैसा नहीं लेना चाहता था। क्योंकि अब उनकी दवा पर बराबर खर्च होना था।
मैंने सोचा भाई देखभाल कर रहे हैं। लेकिन बराबर पैसा भी खर्च करेंगे तो ऊब जाएंगे। पैसा मिलता रहेगा तो ऊबेंगे नहीं। इस उधेड़बुन से सिर फटने लगा तो आखिर मैंने तय किया कि हो चुकी पढ़ाई। अब लौट चलें। घर पर रहेंगे। वहीं कुछ करेंगे। फिर उस दिन शाम को अपने साथियों से कह दिया कि अब मैं जा रहा हूं। वापसी का असली कारण मैं किसी से शेयर नहीं करना चाहता था। लेकिन चेहरे पर आ-जा रहे भावों को रोक भी नहीं पा रहा था। आखिर एक साथी जो मेरी ही तरह रिसर्च स्कॉलर थे उन्होंने कहा समीर यह बात समझ में नहीं आ रही है। रिसर्च में इतना आगे आने के बाद बीच में छोड़ना सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं है।
फादर तुम्हारे अब ठीक हैं। वो जानेंगे तो उनको बुरा लगेगा। जिस तरह तुम बताते रहे उससे तो तुम्हें डॉक्टरेट एवॉर्ड होना उनकी अंतिम इच्छा है। इस नज़रिए से देखें तो तुम जा क्यों रहे हो यही समझ में नहीं आ रहा है। मैं तो यही कहूंगा कि ऐसा कोई कारण है ही नहीं कि तुम सब छोड़-छाड़ कर घर चले जाओ।इसके बाद उन्होंने जिनका नाम सौमित्र डे था और बिहार के रहने वाले थे, मुझसे सच जान ही लिया। सच जानने के बाद बोले अब मैं तुम्हें किसी हालत में नहीं जाने दूंगा।फिर उन्होंने अपनी आर्थिक समस्याओं के बारे में बताया जो उन्होंने शुरुआती दिनों में झेेली थीं।
उन्होंने कहा मैं तुम्हारी तरह हार मान लेता तो आज कहीं का नहीं रहता। मगर अब सब कुछ अपने हिसाब से कर रहा हूं। वो दिन भी दूर नहीं जब मैं प्रोफेसर भी बन जाऊंगा।तब उन्होंने बताया कि वह शाम को एक कोचिंग में पढ़ा़ते हैं। और दिन में एक कंपनी का भी काम-धाम संभालते हैं। काम ठेके पर है। जो बचता है वह रात में घर पर करतें हैं। उसी समय हमें बाकी साथियों के बारे में भी पता चला। केवल एम.टेक. कर रहा विपुल ही ऐसा था जो कहीं काम नहीं करता था। घर से जितना पैसा आता था वह उसके खर्च को देखते हुए हफ्ते भर के लिए भी पर्याप्त नहीं था।
सौमित्र के कहने पर मैंने अपने विचार बदल दिए।
मैंने एक बार फिर तय कर लिया कि जैसे भी हो पापा की इच्छा पूरी करनी ही है। मैंने विश्लेषण दूसरी तरह से किया कि इच्छा तो हम उनकी पूरी करेंगे। लेकिन भविष्य तो मेरा ही बनेगा। जीवन भर आराम से तो मैं रहूंगा। महीने भर बड़ी जोड़-तोड़ अथक कोशिशों और सौमित्र के सहयोग से एक काम मिल गया। उससे इतना पैसा मिलना शुरू हो गया कि मैं खींचतान कर किसी तरह अपनी गाड़ी बढ़ा सकता था। मगर साथियों की शाह-खर्ची से मैं स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगा। मेरा भी मन उन सब की तरह खर्च करने को मचलने लगा। वह सब के सब ठीक वीक एंड पर रात नौ बजे तक मस्ती पर निकल जाते। फिर अगले दिन आते। बीच में भी ऐसे कई दिन होते जब इनमें से कोई न कोई रात को नहीं लौटता।
इन सबने मुझे तब तक यह नहीं बताया था कि वे कहां जाते हैं? क्या करते हैं? पूछने पर यही कहते। हम वो मजा लेते हैं जिसके बारे में तुम सोच भी नहीं सकते, और हम बता भी नहीं सकते। क्यों कि कैसे बताएं यह हमें आता नहीं। जब आता नहीं तो बताएं क्या? जानना है, मजा लेना है, तो साथ चलो।
 मैंने कहा तो ठीक है, बताओ ना कब चलना है। वैसे पार्टी-सार्टी के लिए फिलहाल मेरे पास पैसा नहीं है। इस पर विपुल हंस पड़ा। अरे डिब्बे से बाहर निकल तभी जान पाएगा कि कुछ ऐसी पार्टियां भी होती हैं जिनमें पैसे की ज़रूरत ही नहीं होती। होती है तो जिंदादिली की। एक कंप्लीट पर्सनॉल्टी की। जब ये हो तो पैसा और मजा दोनों आता है। कूल मैन अब तुम तय कर लो कि कूल ही बने रहोगे या एक कंप्लीट मैन की तरह जियोगे।
          मुझे उसकी बात बड़ी अटपटी लगी। साथ ही चैलेंज भी। और रहस्यमयी भी। मैंने उसके साथ-साथ सौमित्र से भी और जानना चाहा लेकिन उन्होंने भी कहा जानना है तो साथ चलो। ऐसा एंज्वायमेंट पहले कभी नहीं मिला होगा। इसका हम चैलेंज करते हैं।उन सब की बातों ने मुझमें उत्सुकता की ऐसी लहर पैदा कर दी कि मैंने भी एक बार चलने का निर्णय कर लिया। दो दिन बाद ही वीकएंड था। जब मैंने उन सबसे कहा कि मैं चलूंगा तो विपुल ऐसे चहका जैसे उसकी लॉटरी लग गई हो। बोला अरे वाह टीम में फ्रेश प्लेअर आ गया। कल की पार्टी की तैयारी आज से ही शुरू कर दी जाए।बाकी सब भी उसके सुर में सुर मिला कर हंस पड़े।
रात दस बजते-बजते सब तैयार हो गए। सबने लिवाइस, पे-पे की महंगी जींस, ब्रांडेड शूज, टी-शर्ट पहन रखी थी। जींस तो मेरी भी ब्रांडेड थी लेकिन टी-शर्ट नहीं। शूज भी ठीक ही थे। उन सब की यह सारी बातें मुझे रहस्यमयी लग रही थीं। और मुझे आगे भी बढ़ा रही थीं। सबने अपने ऊपर डियो ऐसे डाला था मानो उसी से नहा लेंगे। पूरा कमरा उसकी स्मेल से महक रहा था।
करीब दस बजे दो-दो के जोड़ों में आगे-पीछे सब निकल लिए। मैं सौमित्र की बाइक पर था। विपुल की बाइक पर जेवियर और सुहेल की बाइक पर जसविंदर था। मैं उस टीम में एक ऐसा सदस्य था जिसे ये नहीं मालूम था कि करना क्या है? जा कहां रहे हैं? आखिर में ये काफ़िला साउथ एक्सटेंशन मार्केट में एक बड़े रेस्टोरेंट के पास रुक गया। इशारों में सब में क्या बात हो गई मुझे पता नहीं चला। फिर वहीं पास की पार्किंग में बाइक खड़ी कर सब अलग-अलग चहलक़दमी करने लगे।
सौमित्र, मैं वापस रेस्त्रां के पास खड़े हो गए।
मैं भी उत्सुकता से उन्हीं के साथ खड़ा रहा। चहलक़दमी करते बाकी में कोई सिगरेट पी रहा था तो कोई च्यूइंगम चबा रहा था। मगर एक काम सबने कर रखा था कि अपनी-अपनी रुमाल अपने गले में बांध ली थी। उन सबकी यह नौटंकी मेरी समझ में एकदम नहीं आ रही थी। तभी थोड़ा सा आगे एक लग्जरी महंगी कार बहुत धीमी स्पीड में आकर रेंगने सी लगी। मेरी नज़र उस कार के लुक के कारण उस पर चली गई थी। वह रेंगती हुई आखिर रुक गई।
तभी मैं चौंका, विपुल अचानक ही वहां कार के पास पहुंचा। अंदर जो भी ड्राइवर था उसने विपुल की तरफ के दरवाजे का शीशा थोड़ा नीचा किया। विपुल भी थोड़ा झुका। शायद वह अंदर बैठे शख्स से कुछ बातें कर रहा था। बमुश्किल दो मिनट बीता होगा कि कार का दरवाजा खुला और विपुल अंदर बैठ गया। उसके बैठते ही कार एक झटके में स्पीड लेती हुई सीधे आगे को निकल गई। मैंने सौमित्र की ओर देखा तो उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। धीरे-धीरे च्युंगम चबाए जा रहे थे।
           इसके बाद जेवियर, जसविंदर, सुहेल भी इधर-उधर टहलते रहे। पंद्रह मिनट भी ना बीता होगा कि जेवियर भी निकल गया। इसके बाद जसविंदर, सुहेल बाइक से कहीं और निकल गए। मैं सौमित्र के साथ ही रहा। तभी मैंने वहां कुछ और नवयुवकों को भी गले में रुमाल बांधे देखा। मुझसे जब रहा ना गया तो मैंने सौमित्र से पूछा आखिर हो क्या रहा है? विपुल और बाकी सब गए कहां? सभी कहीं एंज्वॉय करने के लिए चलने की बात कर रहे थे। सौमित्र ने च्यूंगम थूकते हुए कहा।
विपुल और बाकी सब तो एंज्वॉय करने गए रात भर को। अब वो कल मिलेंगे। और मैं भी निकलूंगा थोड़ी देर में।मैंने कहा और मैं, आप लोग तो मुझे भी लाए हैं साथ। सब लोग मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। सौमित्र ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा सुनो यहां सब अकेले ही जाते हैं। मैं भी किसी के साथ चला जाऊंगा, तुम्हें यहीं अकेले छोड़ कर, उस लेडी के साथ जो आएगी और रात भर अपनी कंपनी के लिए मुझे साथ ले जाएगी। तुम भी एंज्वॉय करने आए हो तो हम लोगों की तरह एंज्वॉय करो किसी लेडी के साथ, जो रात भर कंपनी के लिए तुम्हारा साथ चाहे।
 मैंने कहा मैं यहां किसी लेडी को जानता ही नहीं, मुझे कोई क्यों कॉल करेगी। इस पर सौमित्र ने कहा डियर इस खेल में कोई परिचित कभी भी कॉल नहीं करेगा। अपनी रूमाल निकालो, गले में बांधो। कोई लेडी खुद कॉल करेगी। आएगी।फिर आगे सौमित्र ने जो बतया उससे मैं भौचक्का रह गया। जिनके साथ मैं आया था एंज्वॉय करने वो सब तो घिनौने लोग थे। सौमित्र भी।
मतलब मैं इतने दिनों से गिगोलोज के साथ रह रहा था। मुझे शॉर्ट में डिटेल्स बताते हुए उसने कहा इसमें मजा भी है, पैसा भी है। ये रिच वुमेन कई बार दो-तीन घंटे के लिए साथ ले जाती हैं। तो कई बार रात भर के लिए। हर एक की अलग-अलग फीस है। तुम भी जाना चाहते हो तो गले में रुमाल बांधो जल्दी ही कोई आ ही जाएगी।मैंने कहा रुमाल जरूरी है क्या? तो उसने कहा इससे रिच वूमेन जान जाएगी, कि तुम रेडी हो। हां रुमाल की लंबाई तुम्हारे प्राइवेट पार्ट की लंबाई को इंडिकेट करती है।और फिर सौमित्र ने अलग-अलग लंबाई के लिए अलग-अलग साईज की रुमाल बता दी। अपनी बात पूरी कर वह बोला अब मैं भी तुम से अलग रहूंगा। नहीं तो कोई लेडी मुझे कॉल नहीं करेगी। तुम भी रुमाल बांध लो।मुझे असमंजस में पड़ा देखकर उसने कहा अच्छा तुम डिसीजन लेते रहना। मैं चलता हूं।यह कह कर वह रोड के दूसरी तरफ चला गया।
इसके पहले गिगोलोज के बारे में मैंने सुना था। मगर यहां तो देखने की छोड़िए उन्हीं के साथ रह रहा था। गिगोलो यानी पुरुष वेेश्याओं के साथ। मैं ज़्यादा देर वहां खड़ा नहीं रहना चाहता था इसलिए सौमित्र की बाइक जो मेरे पास थी उसे लेकर पहले इधर-उधर घूमता रहा। फिर करीब दो बजे घर आकर सो गया। सौमित्र मुझसे अलग होने के बाद मुश्किल से बीस मिनट था वहां। फिर एक कार रुकी थी। वह आराम से चहलक़दमी करते हुए पहुंचा था वहां। कुछ देर बाद वह भी विपुल की तरह कार में बैठ कर फुर्र हो गया था।
घर लौटने और सोने तक मैं इस कंफ्यूजन में था कि अब मुझे क्या करना चाहिए। इन सब के साथ रहना चाहिए या नहीं। ये सब जो कर रहे हैं वह सही है या गलत यह भी नहीं तय कर पा रहा था। असल में मेरा भी मन भटक रहा था। उन लग्जरी गाड़ियों, उनमें बैठी महिलाओं और उनसे मिलने वाली रकम, और साथ ही उनके साथ सेक्स के अटैªक्शन ने बल्कि यह कहें कि पैसे से ज़्यादा मेरा मन सेक्स के तरफ भाग रहा था।
मन में यह भी आया कि बेवजह लौट आया, चला जाता। यहां अकेले पड़ा बोर ही तो हो रहा हूं। कौन है यहां देखने वाला? किसको परवाह है यहां किसी की? ये सब इतने दिनों से यह सब करते आ रहे हैं, कौन जान पाया? मैं तो साथ रह के भी नहीं जान पाया। इन सबने बताया तभी मालूम हुआ। इन सब की कमाई तो इससे ही हो रही है। नहीं तो ये भी मेरी तरह क्राइसिस झेल रहे होते। मगर इसके बारे में सब कुछ जाने बिना क़दम बढ़ाना भी तो अच्छा नहीं है। यही सब सोचते-सोचते मैं सो गया। सुबह जब नींद खुली तो दस बज रहे थे।
उठ कर देखा तो सारे साथी अपने-अपने बेड पर बेसुध पड़े थे। इंटरलॉक की चाभी सबके पास थी। इसलिए किसी को उठाने की ज़रूरत नहीं होती थी। उठते ही पेपर और चाय की आदत से मजबूर मैंने चाय बनाई। पेपर पड़ा था दरवाजे पर उसे ले आया। घंटे भर पढ़़ता रहा। फिर तैयार होकर प्रोफ़ेसर के यहां चला गया। छुट्टी में उनके यहां ड्यूटी बजाना ज़रूरी था। सभी साथी क्यों कि छः सात घंटे से पहले उठने वालेे नहीं थे। इसलिए मैं भी शाम से पहले लौटने वाला नहीं था। सभी साथियों का यह नियम था कि जब भी रात को अपने मिशन पर निकलते तो अगले दिन पूरा समय सोते।
 शाम को जब मैं लौटा तो घर में चिकेन, मटन, व्हिस्की, चल रही थी। मुझे देखते ही विपुल बोला, ‘वेलकम वेलकम माय डियर। एंज्वॉय द पार्टी।और मैं जब तक बैठूं तब तक उसने एक पैग बना कर मेरे सामने रख दिया। साथ में सिगरेट, लाइटर, ढेर सारे चिकेन लेग पीस से भरी प्लेट, चिकेन मंचूरियन की प्लेट भी। इस समय सब के सब फुल मस्ती में थे। सब अच्छे-खासे नशे में थे।
मैं भी उनके साथ शामिल हो गया। जिन लेडी के साथ इन सब ने रात बिताई थी सब उन्हीं की बातें कर रहे थे। हमेशा की तरह बातचीत में उन लेडीज के लिए एक से एक वल्गर वर्ड्स बोले जा रहे थे, बातें की जा रही थीं। कोई उनकी फिजिक की बात करता। तो कोई सेक्स को लेकर उनकी जानकारी, उनकी इच्छाओं, उनकी पसंद की बात करता। बेडरूम, फर्नीचर, गाड़ियां सब कुछ शामिल था इसमें।
मैं सच जान चुका हूं सब यह सोच कर आज और भी खुल कर बातें कर रहे थे। पहले कुछ बातें संकेतों में होती थीं इस लिए मैं समझ नहीं पाता था। मगर आज बातचीत बिल्कुल साफ थी। बातचीत में सब अपनी-अपनी कमाई भी बताना नहीं भूल रहे थे। सबसे ज़्यादा जसविंदर ने पंद्रह हज़ार रुपए कमाए थे। सबसे कम जेवियर ने केवल नौ हज़ार कमाए। पार्टी खत्म हुई तो सब बाहर निकल गए घूमने के लिए। मुझे भी साथ जाना पड़ा।
भीतर से मेरा मन कह रहा था कि कोई भी बाहर ना जाए। इस समय सब नशे में हैं और ऐसे में ड्राइव करना अच्छा नहीं। कहीं चेकिंग वगै़रह में पकड़ लिए गए तो और मुश्किल। देर रात जब सब लौटे तो नशा उतर चुका था। सब अब मुझसे इस बारे में खुल कर बात कर रहे थे। मुझे इस लाइन की बारीकियां बता रहे थे। और फील्ड में तुरंत उतर आने को कहने लगे। तर्क एक से एक कि अभी हम पैसा इतना कमाते नहीं। आगे बढ़ने के लिए बहुत कुछ करना ही पड़ेगा। और उन सब की तमाम बातों के बाद मैंने उन्हीं के सुर में बोल दिया कि अगले वीकएंड पर चलूंगा। और गेम खेल कर ही लौटुंगा।
सक्सेज को लेकर मैंने संदेह व्यक्त किया, और यह भी कि सड़क पर गले में रुमाल डाल कर मैं चल पाऊंगा यह भी कुछ निश्चित नहीं कह सकता। तो सौमित्र बोला ये कोई प्रॉब्लम नहीं है। रुमाल बांध कर नहीं चलना चाहते तो एक प्वॉइंट ऐसा है जहां तुम अपने को रजिस्टर करा दो, वो तुम्हारी डिटेल्स के अनुसार क्लाइंट आने पर तुम्हें कॉल करेंगे।
पेमेंट भी वही तय करेंगे, तुम मेनिमम चार्ज बता देना। तुम्हें जो पेमेंट मिलेगा उसका तीस पर्सेंट तक उस प्वाइंट को देना होगा। अब तीस पर्सेंट बचाना चाहते हो तो रुमाल बांधो, नहीं तो नहीं।फिर सौमित्र ने रेट कैसे फिक्स होता है यह भी बताया। कहा यदि फोर, सिक्स पैक एब्स मेंटेन हैं तो पेमेंट बढ़ जाएगीइसके बाद वीक एंड आने तक ये सारे साथी मुझे शिक्षित करते रहे। मैं इस शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ कंफ़्यूज होता रहा, जाऊं या ना जाऊं इसी में उलझता रहा। और जब समय आया तो अंततः साथियों के प्रोत्साहन ने क़दम बढ़ा ही दिए।
गले में रुमाल के साथ चलना मैंने स्वीकार कर लिया था तो किसी प्वॉइंट में डिटेल्स दर्ज नहीं कराई। उस दिन सभी एक ही जगह ना जाकर तीन तरफ निकले। मैं सौमित्र के साथ जनकपुरी गया। जेवियर, सुहेल आई. एन. ए. अंसल प्लाजा और विपुल कनाट प्लेस को चला गया। जसविंदर किसी पव को चला गया। सौमित्र किसी पव, कॉफी हाउस या डिस्कोथेक में रुमाल बांध कर चलना पसंद नहीं करता था।
इस फ़ील्ड की दृष्टि से मेरा पहला दिन सक्सेजफुल रहा। सौमित्र को क्लाइंट मुझसे पहले मिल गई थी। या यह कहें कि पहुंचते ही मिल गई थी। मुझे घंटे भर बाद मिली। तब करीब बारह बज रहे थे। उसके पहले मुझे लगा कि शुरुआत ही गड़बड़ होने वाली है। अभी तक कोई आया नहीं। लेकिन निराश मन को आखिर मंज़िल मिली। एक गहरे नीले रंग की ऑडी एस.यू.वी. मेरे सामने रुकी। मेरी तरफ वाले दरवाजे का शीशा नीचे हुआ।
मेरी नजर तुरंत गाड़ी के अंदर गई तो ड्राइविंग सीट पर बैठी लेडी को अपनी तरफ देखते पाया। गाड़ी में लाइट बेहद कम थी। फिर भी मैं उस महिला को ठीक से देख पा रहा था। उसने फ्रेमलेश चश्मा लगा रखा था। बाल कन्धों से नीचे तक झूल रहे थे। उसने गोल गले की ढीली-ढाली डार्क ब्राउन कलर की टी-शर्ट और जींस पहन रखी थी। आंख से इशारा कर उसने करीब बुलाया तो मैं गाड़ी के दरवाजे पर जाकर खिड़की पर झुका और बोला यस मैम, कैन आई हेल्प यू। मेरे यह कहने पर उसने क्षण भर मेरी आंखों में देखने के बाद अंदर बैठने को कहा। मैं दरवाजा खोल कर अंदर बैठ गया, उसकी बगल वाली सीट पर। उसने गाड़ी धीरे से बढ़ाते हुए कहा
सिंस व्हेन आर यू इन दिस फ़ील्ड? (कब से हैं इस फ़ील्ड में) उसके इस अनपेक्षित प्रश्न से मैं थोड़ा गड़बड़ा गया। क्यों कि सौमित्र ने कहा था वो तो टाइम बताती हैं, चार्जेज़ पूछती हैं। फिर भी मैंने संभलते हुए कहा। फॉर दि लास्ट फ्यू मंथ्स ओनली। (कुछ महीने से) हाउ मैनी’ (कितने) मैंने कहा फॉर दि लास्ट फाइव ऑर सिक्स मंथ्स (यही कोई पांच या छः महीने से) इस पर वह बड़ी रहस्यमयी मुस्कान मुस्काई। फिर बोली हाउ मच डू यू चार्ज फॉर दि होल नाइट।’ (आपकी पूरी रात की फ़ीस कितनी है।)
मुझे सौमित्र की बातें यार्द आइं। उसी आधार पर मैंने कहा इट्स ट्वेंटी थाउजेंड रुपीज़ वुड यू लाइक टू पे दिस मच? (बीस हज़ार.. आप कितना देना पसंद करेंगी।) मेरे इतना कहने पर वह बोली इट्स टू मच। आई कैन अफोर्ड टू पे रुपीज टेन थाउज़ेंड ओनली।’ (यह तो बहुत हैं। मैं दस हज़ार दे सकती हूं) इट्स ऑल राइट। आई एक्सेप्ट योर ऑफर। (मैंने कहा ठीक है। मुझे यह स्वीकार है)
मैं हड़बड़ाहट में था कि कहीं डील टूट ना जाए। एक कारण और था तुरंत हां करने का। वह करीब पैंतीस साल की बहुत आकर्षक महिला थी। मैं वह व्यक्ति था जिसने पहले कभी सेक्स का अनुभव नहीं लिया था। यहां तो उम्मीदों से एकदम अलग एक शानदार महिला ने न सिर्फ मुझे सेक्स के लिए पसंद किया बल्कि अच्छी कीमत भी दे रही थी। और लग्ज़री गाड़ी में खुद ही बैठा कर ले भी जा रही थी। मेरे डन करते ही वह मुस्कुराई और बोली इट्स ए साउंड डिसीज़न।’ (बहुत अच्छा निर्णय है) फिर उसने गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी।
वैसी लग्ज़री गाड़ी में मैं पहली बार बैठा था। वहां से मुझे लेकर वह कीर्ति नगर के पास एक अच्छे ख़ासे बड़े से मकान के गेट पर रुकी। मुझे बैठे रहने को कह कर वह उतरी, गेट का ताला खोल कर गाड़ी पोर्च में खड़ी की। गेट बंद किया। मैं अब भी अंदर बैठा था। उसने खिड़की के शीशे पर नॉक कर अंदर आने का इशारा किया। उसके पीछे-पीछे मैं उस बड़े से घर में पहुंचा। मुझे ड्रॉइंग रूम में सोफे पर बैठने को कह कर वह मैडम अंदर चली गईं।
घर मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा खूबसूरत था। वहां की एक-एक चीज़ घर की रईशी को बता रहे थे और यह भी कि यहां सदस्यों की संख्या ना के बराबर है। मुझे बैठे पांच मिनट भी ना हुआ होगा कि वह महिला अंदर आई। उसके ठीक पीछे एक और महिला थी, वह उसी की बहन सी लग रही थी। मगर दो-चार साल बड़ी। दोनों मेरे सामने वाले सोफे पर बैठ र्गइं। मैं उन दोनों को देख कर सहम गया।
मैंने सोचा कि यह तो अकेले थी। इसने यह तो बताया ही नहीं कि मुझे दो को सर्विस देनी है। जब एक अंदर घर में थी तो गेट पर बाहर से ताला लगाने का क्या मतलब है? हालांकि दोनों की बॉडी लैंग्वेज, हाव-भाव बड़े अच्छे थे। बेहद शालीन, सभ्य, सुसंस्कृत लग रही थीं। दोनों ने ऐसे बात शुरू की जैसे हम बहुत पहले से मित्र रहे हैं। पांच मिनट की बात में ही दोनों ने ही मेरे मुंह से सच निकलवा लिया कि मैं इस फ़ील्ड में न्यूकमर हूं, यह मेरा पहला दिन है। मेरे सॉरी बोलने पर वह दोनों मुस्कुरा कर रह गईं। इस बीच मुझसे यह पूछ लिया गया कि क्या मैं दोनों को सर्विस दे सकता हूं। क्षण भर में मैंने सोच लिया कि मैंने ना किया तो कमज़ोर साबित होऊंगा। अनाड़ी तो साबित हो ही चुका हूं।
फैल्योर पर्सन बन कर यहां से निकलना अच्छा नहीं। और इस बात की भी पूरी संभावना है कि दोनों के लिए एग्री न होने पर ये बैरंग ही वापस कर दें। मैंने यह सारी बातें मन में कौंधते ही पूरा कॉन्फिडेंस शो करते हुए हांकर दी। इस पर बड़ी वाली के चेहरे पर बड़ी रहस्यमयी मुस्कान बिखर गई। इसके बाद डील फिर से तय हुई। कहां तो मैं एक से बीस हजा़र रुपए चार्ज करने की सोच कर घर से निकला था, फिर दस पर तैयार हो गया। वहीं फिर पंद्रह हज़ार में ही दो को सर्विस देने के लिए तैयार होना पड़ा। उन दोनों ने मुझे पूरी छूट दी थी कि मैं चाहूं तो वापस जा सकता हूं।
वे मुझे कंवेंस चार्ज के साथ-साथ इतना समय देने के लिए कुछ एक्स्ट्रा चार्ज भी दे देंगी। लेकिन मैं अब रोल बैक के लिए तैयार नहीं था। इस लिए सर्विस स्टार्ट हुई। मैंने सोचा था कि दोनों अलग-अलग टाइम में सर्विस लेंगी। लेकिन मैं गलत था। सर्विस साथ ही देनी पड़ी। मुझे या यह कहें कि मेरे लिए यह बड़ा शॉकिंग मूवमेंट रहा। शुरू से लेकर आखिर तक कई तरह के ड्राई नॉनवेज़, और बड़ी महंगी व्हिस्की के भी दौर चले। बेहद शालीनता के साथ। इस काम में भी बेहद हाई क्लास सोसायटी वाली बातों को मैं देख सुन रहा था।
बड़ी वाली महिला की अंग्रेज़ी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बहुत करीब थी। मेरी अंग्रेज़ी उन दोनों के सामने बस काम चलाऊ भर थी। दोनों ने बातचीत का ऐसा शमां बांधा था कि लग ही नहीं रहा था कि मैं एक अजनबी से मुखातिब हूं। मेरी घबराहट ना जाने कहां चली गई थी। या ये कहें कि वह दोनों इतनी एक्सपर्ट थीं कि मुझे यह अहसास ही नहीं होने दिया कि मुझे क्या कैसे करना है। बल्कि उन्होंने जैसा चाहा मुझसे वैसा करवा लिया।
लास्ट में यह कह कर तारीफ की कि उन दोनों ने खूब एंज्वॉय किया। मेरे लिए तब यह सब आश्चर्यजनक ही था। मैं यंत्रवत सा बोल गया कि मी टूइस पर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ंीं। मानो मेरी खिल्ली उड़ा रही हों कि बेटा तुमने क्या एंज्वॉय किया। तुमने तो वो किया जो हमने करवाया। तुम एक मशीन हो जिसका रिमोट मेरे हाथ में है। और फिर जैसे मुझे मेरे दायरे में रखने, मुझे मेरी हैसियत बताने की दोनों ने कोशिश की।
छोटी वाली बोली यू शुडन्ट हैव गिवेन फॉल्स इंफ़ॉर्मेशन। दि साइज ऑफ योर हैंकी वॉज़ नॉट प्रॉपर। वी एन्ज्वाएड हाउ एवर।’ (आपको गलत सूचना नहीं देनी चाहिए थी। आपकी रुमाल का आकार गलत था। आपको हमें धोखा नहीं देना चाहिए था। फिर भी हमने आनंद उठाया) उसकी इन बातों ने मुझे सकते में डाल दिया कि मैंने चीट किया।
यह संयोग था कि फिर भी उन्होंने एंज्वॉय किया। मैंने सफाई देना चाहा कि मैंने चीटिंग नहीं की। यदि ऐसा कुछ हुआ है तो मेरी जानकारी में नहीं हुआ है। मेरे चेहरे पर आए तनाव और मेरी बातों से उन्हें लगा कि मैं तनाव में आ गया हूं। यह देख कर वह बड़े ही प्रोफेशनल अंदाज में बोली आई नो दैट इट वाज़ नाट डन डेलीबरेटली बाई यू। यू कमिटेड दि सेम मिस्टेक्स विच आर नॉर्मली कमिटेड बाई नो विसेज़ इन दिस फ़ील्ड। एज सच देयर इज़ नो नीड टु-वरी अबॉउट इट।’ (हम जानते हैं यह आपने जानबूझकर नहीं किया। इस फ़ील्ड में आए नए व्यक्ति से जो गलतियां हो सकती हैं आपने वही कीं। इसलिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं।) इसके बाद मुझे मेरी फीस बड़े सलीके से दे दी गई।
चलते-चलते उन दोनों के साथ एक छोटा पैग फिर लिया। सुबह के चार बजने वाले थे। मुझे उस महिला ने एक ऐसे प्वाइंट पर छोड़ा जहां से मैं ऑटो वगैरह ले सकूं। अभी सूर्योदय होने में वक्त था। मैं ऑटो कर जनकपुरी उस स्थान पर पहुंचा जहां बाइक खड़ी थी। उसे लेकर घर आया और तानकर सो गया। मैं बुरी तरह थकान महसूस कर रहा था। सोकर करीब दो बजे उठा। बाकी मित्र भी जाग रहे थे। मैं भी तैयार होकर उन लोगों के साथ हो लिया।
           खाने के दौरान ही सबने अपनी-अपनी वीर गाथा सुनाई। मैंने भी अपनी सुनाई अंदर-अंदर फूलते हुए कि मैं तो पहली बार में ही एक रात में दो शिकार कर आया। मगर सबने मेरी वीरगाथा सुनकर जो हंसना शुरू किया तो देर तक हंसते ही रहे। सबने एक स्वर में कहा कि मैं तो फर्स्ट अटेम्प्ट में ही चीट हुआ। लूट लिया गया। बेवकूफ बन गया। और ना जाने क्या-क्या बातें कि एक मर्द हो कर दो औरतों के सामने नहीं टिक सके। दोनों ने तुम्हें लूट लिया।
मैं एकदम चुप था। समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब जो कह रहे हैं वह सही है। या मैं जो सोच रहा हूं वह। खाने-पीने के बाद पिछली बार की तरह सब फिर घूमने निकल दिए। मैं अंदर-अंदर इतना अपसेट हो गया था कि जाने का मन नहीं हुआ। सबने बहुत कहा लेकिन मैं सिर दर्द का बहाना बना कर लेट गया।
अकेला होते ही यह प्रश्न बहुत ज़्यादा परेशान करने लगा कि मैंने जो क़दम बढ़ाया है, वह सही है या गलत। अगर कहीं संयोगवश ही यह बात खुल गई कि मैं एक गिगोलो हूं तो दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा। पापा जो मंझले भइया के लिवइन में होने से ही इतना आहत हैं कि उनसे बात नहीं करना चाहते, उनके लिए तो यह इतना बड़ा सदमा होगा कि शायद अपने को संभाल ना सकें। और मेरी पढ़ा़ई, मेरे माता-पिता की अंतिम इच्छा। उसका क्या होगा? तो क्या मेरा कॅरियर खत्म हो गया? जाने-अनजाने मेरा-सेक्स वर्कर होना मेरा कॅरियर बन गया है।
जिस तरह यह मित्र मंडली बता रही है कि बड़ी संख्या में लोग इसे अपना प्रोफ़ेशन बनाए हुए हैं। महीने में लाखों कमा रहे हैं। इसमें टिके रहना आसान काम नहीं है। अपने को लैंग्वेज, मैनर्स, फिज़िक, स्टैमिना हर स्तर पर बेहतर बनाए रखना होता है। कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। कैजुअली करने वालों की संख्या ज़्यादा है, लेकिन ऐसे लोग ज़्यादा समय टिकते नहीं। पैसे भी कम मिलते हैं।
मगर मैं इस पैसे से क्या-क्या कर पाऊंगा? कितने दिन ऐसे चल पाएगा? जब यह खत्म होगा तब मेरे लिए जीवन में बचेगा क्या? क्या मैं उस वक्त ऐसी जगह खड़ा होऊंगा जहां हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा होगा। पर्सनल लाइफ नष्ट हो चुकी होगी। फैमिली लाइफ की सोच ही नहीं सकता। कौन लड़की मेरे साथ आएगी? कितने दिन उससे छिपा पाऊंगा? उसे मैं कैसे फेश कर पाऊंगा? मैं उसके साथ नॉर्मल बिहेव कर पाऊंगा? यह सारे प्रश्न मुझे इस कदर परेशान करने लगे कि सिर में वाकई दर्द होने लगा।
मैं इस बीच टीवी का चैनल कई बार बदल चुका था। और उठकर व्हिस्की के भी दो पैग जल्दी-जल्दी लगा लिए थे। इसके बाद भी तर्क-वितर्क कम नहीं हुए बल्कि उन दोनों महिलाओं के साथ बिताए पल। उनकी बातें याद आने लगीं। और साथ ही रह-रह गुदगुदाने भी लगीं। मुझे लगा कैसे कुछ बिगड़ जाएगा। सारे मित्र बता रहे हैं कि किसी को कानों-कान खबर नहीं होगी। जब चाहो फील्ड से खुद की बिदाई कर लो। कोई बताने ढूढ़ने थोड़ी आता है।
सुहेल की यह बात भी बार-बार दिमाग में कौंधती यार एक प्रोफ़ेशनल की तरह सोचो। वो कहते हैं न हेल्थ इज़ वेल्थ। यानी स्वास्थ्य संपदा है। संपदा। तो यार जब यह संपदा है तो इसका यूज भी होना चाहिए। वेस्ट करने से फायदा क्या? यह हमारा एसेट है। एसेट का मैक्सिमम यूज ही मैनेजमेंट का फर्स्ट एंड लास्ट लॉ है। सारे काम करने के बाद जो समय बच रहा है, उसमें कुछ इंकम के लिए यह करना कहीं से गलत नहीं है। फिर ऐसा काम जिसमें मजा भी खूब है।
वह जब यह सारे तर्क दे रहा था। तब बाकी सब भी जोरदार ढंग से उसी की हां में हां मिला रहे थे। उसकी इस बात का भी सबने समर्थन किया कि ऐसे भी मैरिड कपल हैं जो अपनी ब्लू मूवी बनाकर मार्केट में बेच कर पैसा कमा रहे हैं। जो अपनी पहचान छिपाए रखना चाहते हैं वो डिजाइनर मॉस्क लगा लेते हैं। जैसे बर्थ-डे पार्टी में बच्चे आदि लगा लेते हैं। मेरे लिए जानकारी के स्तर यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन खुद फ़ील्ड में पहुंच कर यह सब देख कर थोड़ा अचरज में था।
          मैं सोचता कि क्या सेक्सुअल डिजायर इतनी पावरफुल है कि लोग किसी भी स्तर पर उतर सकते हैं। और साथ ही पैसा भी वाकई इतना इंपॉर्टेंट है कि शरीर एसेट बन जाए। या अभी तक हम यह जान ही नहीं पाए हैं कि हमें चाहिए क्या? और भटक रहे हैं। मैं यह जानकर हैरान हुआ कि विपुल को कई महीने पहले एक ऐसी क्लाइंट भी मिली थी जिसने घर पहुंचने के आधे घंटे बाद डिमांड कर दी कि क्या वो अपने दो और साथियों को भी बुला सकता है। इसी समय। साथी कैसे होने चाहिए यह भी उसने बहुत खुले शब्दों में बताया। विपुल ने उसकी अफनाहट का पूरा फायदा उठाया और अपने दो साथियों को बुला भी लिया। फिर उस महिला ने जो हरकतें कीं उसके बाद विपुल उसे साइकिक क्वीन कहता था। महिला ने तीनों साथियों को रात भर के लिए पचास हज़ार रुपए पेमेंट किया था।
 विपुल का नंबर उसने सेव कर लिया था। डेढ़ दो महिने के अंतराल पर कई बार बुलाया। लेकिन उसके द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलापों, उसकी सनक भरी डिमांड से यह तीनों इतना ऊब गए कि ज़्यादा पैसा मिलने के बावजूद उसके पास जाना बंद कर दिया। विपुल ने यह जानने की बहुत कोशिश की थी कि आखिर वह साइकिक लेडी करती क्या है? इतनी स्मार्ट, इतनी रिच और साथ ही बहुत पढ़ी-लिखी भी है, फिर भी इस स्तर पर क्यों उतर आई है? विपुल सारी कोशिशें करके सिर्फ़ इतना जान सका था कि वह एक बिजनेस वुमेन थी। बाकी उसकी फै़मिली लाइफ़़ के बारे में कुछ नहीं जान सका कि वो मैरिड है, या अनमैरिड है। कितने फ़ैमिली मेंबर हैं। कुछ भी नहीं।
          नशे में भी वह इतनी सतर्क रहती थी कि सीधे चुप करा देती थी। ड्रिंक भी उतना ही लेती जितने से होशो-हवास कायम रहे। मैं सारे मित्रों के अनुभव और अपने पहले अनुभव के आधार पर सिर्फ़ इतना ही निष्कर्ष उस समय निकाल सका कि यह ऐसा दल-दल है, जिससे विरले ही बाहर निकल पाते हैं। नहीं तो ज़्यादातर उसी में समाप्त हो जाते हैं। मैंने अहसास किया कि एक तरफ मैं इससे होने वाली तमाम समस्याएं जान रहा हूं, समझ रहा हूं, निकलने की बात भी मन में आती है लेकिन सेक्स और मनी पॉवर का अट्रैक्शन जकड़े जा रहा है। क्योंकि निकलने के मेरे प्रयास बेहद कमज़ोर थे, तो आखिर मैं इस दल-दल में आकंठ डूब गया।
 फील्ड में सक्सेज के लिए जो भी फंडे ज़रूरी थे उन सबको मैंने बारीकी से जाना-सीखा। हर वह काम किया जिससे मेरी डिमांड ज़्यादा से ज़्यादा बने और ज़्यादा पेमेंट ले सकूं। अपनी कोशिशों में मैं सफल भी होता जा रहा था। जल्दी ही अपने कई साथियों को पीछे छोड़ दिया। मैं इसमें इतना रम गया कि सब भूल गया। पापा को भी भूल गया। इतना कि जब पापा का फ़ोन आता तभी उनसे बात होती। वह बातें एक दो मिनट से ज़्यादा करते तो मैं ऊबने लगता। फिर कुछ न कुछ बहाना बना कर फ़ोन काट देता। स्थिति यह आई कि इस फील्ड में आने के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि मैं लगभग आठ महीने घर नहीं गया। पापा से कह दिया कि रिसर्च वर्क का लोड ज़्यादा है, अब जल्दी नहीं आ पाऊंगा।
बचपन में पापा के सामने मैं छोटा सा भी झूठ बोलने से घबराता था, उन्हीं से मैं यह और अन्य झूठ बराबर बोलता रहा। साल-बीतते-बीतते मेेरी आदत, मेरी सेहत और बैंक एकांउट की सेहत, पढ़ाई के प्रति नजरिया, कॅरियर के प्रति चिंता सब बदल गई। पढ़ाई अब मैं दूसरे ढंग से कर रहा था। प्रोफ़ेसर की सेवा में समय ज़्यादा देता। उन पर ज़्यादा पैसे खर्च करता। अब वह भी खुश थे। फिर एक दिन उन्हीं के साथ एक होटल में डिनर कर रहा था, तो मैंने मौका देख कर कह दिया कि सर तीन साल होने जा रहे हैं। मैं अभी तक कुछ कर नहीं पाया। थीसिस का काम देखें तो अभी तो वह एक तरह से शुरू ही नहीं हुआ है। सर कुछ किजिए, मुझे जल्दी से जल्दी पी.एच.डी. अवॉर्ड कराइए। सर अब मैं घर से ज़्यादा समय तक पैसे मांग नहीं पाऊंगा।
सर इटैलियन फूड चिकेन मिलानो, डेलीजीओसो (क्मसप्रपवेव), पैन फ्राइड एसपरागस के स्वाद में डूबे कुछ देर तक सोचते रहे। फिर बोले सब हो जाएगा। परेशान होने की ज़रूरत नहीं।डिनर उस दिन उन्होंने भरपेट नहीं मन भर किया। आखिर में जब होटल से बाहर आए तो बोले समीर तुम इतना प्यार से खिलाते हो कि मना करते नहीं बनता। आज बहुत ज़्यादा हो गया।मैंने मस्का मारते हुए कहा नहीं सर आपने ऐसा कुछ ज़्यादा नहीं खाया। मैं उनको छोड़ने से पहले थीसिस के बारे में पक्की बात कर लेना चाहता था।
मैंने घुमा-फिरा कर फिर बात छेड़ी तो उन्होंने एक मोबाइल नंबर नोट करा कर कहा। ये शंपा टोक का नंबर है। इन्हें मेरा परिचय देकर बात कर लेना। कोई संकोच करने की ज़रूरत नहीं है। सीधे बोल देना यह प्रॉब्लम है। फ़ोन पर सारी बातें नहीं करना। उनसे मिलने का टाइम लेकर सीधे घर चले जाना। मैं बोल दूंगा। कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी। शुरू में वो बहुत नानुकुर करेंगी। सीधे मना कर देंगी। लेकिन चल मत देना। वो कुछ देर बाद खुदी सब बता देंगी। वो चाहेंगी तो मैक्सिमम-तीन महीने के अंदर थीसिस तुम्हारे हाथ में होगी।उनकी इस बात से मुझे बड़ी राहत मिली।
          मैंने अगले ही दिन मिलने का टाइम ले लिया। पहले तो उन्होंने मना किया कि आज टाइम नहीं है। लेकिन प्रोफे़सर साहब का नाम लेते ही बोलीं। अं ठीक है यदि आपको कोई समस्या ना हो तो नौ बजे आ जाएं।मैंने छूटते ही कहा मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। मैं आ जाऊंगा। शंपा जी के नौ बजे शब्द ने मेरे शरीर में करेंट सी दौड़ा दी। उसी पल मुझे यह और गहराई से अहसास हुआ कि आदमी का काम उसकी मानसिकता पर जबरदस्त प्रभाव डालता है। उसकी मनः स्थिति उसी के अनुरूप बनती चली जाती है। आखिर में मुंह से यह अनायास ही निकल गया कि इस गिगोलो वर्ल्ड से मैं बाहर ना आया तो वह दिन दूर नहीं जब यह मुझे पूरी तरह निगल जाएगा।
मैं पूरे समय इसी उधेड़बुन में रहा कि मेरी मति को क्या हो गया था जो मैं इस दलदल में उतर गया। और उतर गया तो इतना समय होने के बाद भी मैं निकल क्यों नहीं पा रहा हूं। शंपा जी का नौ बजे शब्द बार-बार मस्तिष्क में गूंज रहा था। यह गूंज मुझे बहुत परेशान कर रही थी। इससे छुटकारा पाने के लिए मैंने कई सिगरेट पी डाली। मगर बार-बार नौ बजे, शंपा जी, नौ बजे शंपा जी, से इतना परेशान हुआ कि सोचा दो-चार पैग लगा लूं। मगर यह सोच कर कि शंपा जी के यहां ठीक से, सलीके से पहुंचना है। नशे से सूजी आंखें चेहरा लेकर जाना मुर्खता होगी। इसलिए नहीं पी।
मैं अपने भरसक नौ बजे सलीके से शंपा जी के घर पहुंचा। वह नांगलोई में रहती थीं। मकान काफी बड़ा था। मैंने गेट पर पहुंच कर कॉल बेल बजाई तो कुछ देर बाद एक अधेड़ से व्यक्ति ने खोल कर पूछा किससे मिलना है?’ मैंने बताया तो उसने आगे इशारा कर कहा उपर चले जाइए।उसके अंदाज से स्पष्ट संकेत मिल गया कि वहां शंपा जी ऊपर किराए पर रहती हैं। बड़े से पोर्च में तीन फोर व्हीलर और कई टू व्हीलर खड़े थे। वह अधेड़ अपने मालिक का बहुत वफादार नौकर लग रहा था। जब तक मैं शंपा जी के कमरे के दरवाजे पर नहीं पहुंच गया वह नीचे खड़ा मुझे देखता रहा।
सीढ़ियों के बाद करीब आठ-दस क़दम का टेरेस था। उसके बाद कमरा दिखाई दिया। उसका दरवाजा खुला हुआ था। अंदर तेज़ लाइट थी। कोई दिख नहीं रहा था। मैंने थोड़ा संकोच के साथ आगे बढ़कर दरवाजे पर नॉक किया तो अंदर से महिला स्वर गूंजा कौन?’ यह शंपा टोक ही थीं। मैंने बाहर ही से कहा शंपा जी मैं समीर। यह सुनते ही उन्होंने कहा अच्छा-अच्छा अंदर आ जाएं।शंपा जी ने यह वाक्य थोड़ा भारी स्वर में कहा।
मैंने शूज बाहर ही उतारे और अंदर दाखिल हुआ। कमरा काफी बड़ा था। लेकिन बेहद अस्त-व्यस्त। अलमारियों, टेबल, बेड हर तरफ, किताबें, डायरियां, पेन, राइटिंग पैड, रजिस्टर रखे हुए थे। उस बड़े से कमरे से अटैच बाथरूम, किचेन भी दिख रहे थे। बेड के एक तरफ थोड़ा स्पेश डाइनिंग स्पेश की तरह प्रयोग किया जा रहा था। एक साधारण सी मेज के पास चार कुर्सियां पड़ी हुई थीं।
 शंपा जी करीब चालीस के आस-पास रही होंगी। बेड पर ही बैठी थीं। एक चौड़ी टेबिल सामने बेड पर ही उन्होंने रखी थी। दोनों पैर टेबिल के नीचे से आगे फैले हुए थे। वह टेबल पर एक पैड पर कुछ लिख रही थीं। उन्होंने अजीब सा अस्त-व्यस्त सा गाउन पहन रखा था। बाल बड़े थे। जिसे पीछे उठा कर सी पिन लगाया हुआ था। बगल में ही सिगरेट ऐश ट्रे रखी थी जिसमें सिगरेट के टोटे दिख रहे थे।
 शंपा जी गोरे रंग की कुछ हेल्दी सी थीं। मुझ पर एक नजर डाल कर कहा अच्छा-अच्छा आप ही हैं समीर। आइए बैठिए।उन्होंने स्टडी टेबिल की तरफ पड़ी चेयर की ओर इशारा करते हुए कहा। मैं आज्ञाकारी शिष्य की तरह थैंक्यू कहता हुआ बैठ गया। तभी वह बोलीं अरे दूर बैठने के लिए नहीं कहा। यहां करीब बैठिए तभी बात हो पाएगी।उन्होंने अपने दाएं हाथ से सामने एकदम करीब फुट मैट के पास इशारा करते हुए कहा।
          उनके इस वाक्य से मैंने शरीर में करेंट का झटका सा महसूस किया। मैं सहमा सा उठा कुर्सी जहां उन्होंने इशारा किया था वहीं खींच कर बैठ गया। एकदम सीधा। बिल्कुल तनकर। तेज़तर्रार स्टूडेंट माना जाने वाला, शोध कार्य में जुटा, भले ही जुगाड़ से मैं शंपा जी के सामने बड़ा असहज हो रहा था। भीतर-भीतर घबरा रहा था। मुझ पर उड़ती सी एक नजर डालकर, वह फिर लिखने लगीं। वह जितना ज़्यादा चुप थीं मैं उतना ही ज़्यादा घबरा रहा था। मन में सोचा आखिर ये इस तरह मुझे बैठा कर क्या अहसास कराना चाहती हैं। करीब पांच मिनट में मेरे पांच करम हो गए। मुझे लगा यह महिला जिस तरह टाइम ले रही है उससे तो यह प्रोफेशनल लगती ही नहीं।
पांच मिनट बाद भी जब शुरू हुईं तो पहले सिगरेट जलाई। मुझे भी ऑफर किया, मैंने मना कर दिया तो लाइटर से अपनी सिगरेट जला कर एक कश लेकर बोलीं। मुझे प्रोफेसर साहब ने बताया है कि आप क्यों आए हैं। काम तो मैं कर दूंगी। लेकिन मैं इसके पहले यह बता दूं कि मैं फीस में कोई रियायत नहीं करती। और पूरी फीस एडवांस लेती हूं। हां काम भी टाइम पर देने की गारंटी तो नहीं लेकिन पूरी कोशिश करती हूं। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि जो टाइम बताया उस टाइम पर काम पूरा ना किया हो।इतना कह कर शंपा जी ने सीधे फीस बता दी। जिसे सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। लेकिन शंपा जी तो पहले ही कह चुकी थीं कि फीस में कोई बार्गेनिंग नहीं होगी। तो मेरा मुंह बंद था।
मैं कुछ देर सोचता रहा कि अगर दो साल और निकल गए तो ना जाने कितने खर्च हो जाएंगे। जितनी जल्दी पूरी हो पी.एच.डी. उतनी जल्दी घर वापस चलूं। दूसरे जिस दुनिया में आजकल विचरण कर रहा हूं उसके चलते तो लगता ही नहीं कि थीसिस कभी पूरी क्या आधी भी कर पाऊंगा। मुझे चुप देख वह बोलीं कोई जल्दबाजी की ज़रूरत नहीं है। आराम से सोच लें। दो-चार दिन बाद बताएं।
  लेकिन मैं जो कैलकुलेशन कर चुका था इस बीच उससे यह निष्कर्ष निकाला कि मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है, तो मैंने तुरंत कहा शंपा जी मेरे पास और टाइम नहीं है। हालांकि यह फीस यदि मैं वाकई घर पर डिपेंड होता तो देने के बारे में सोच ही नहीं सकता था। लेकिन ऐसा नहीं था तो मुझे यह कहते देर नहीं लगी कि मुझे फीस मंजूर है। हां इस बात की गारंटी चाहता हूं कि मेरा काम पूरा हो जाए। थीसिस ऐसी हो कि डिग्री अवॉर्ड होने में कोई प्रॉब्लम ना हो।
मैंने देखा कि मेरी इस बात पर उनके चेहरे पर कुछ तनाव सा आ गया है। लेकिन बात निकल चुकी थी। और साथ ही यह भी कि मैं इतनी लंबी-चौड़ी फीस देने के लिए एग्री होने के बाद इतनी गारंटी लेना जरूरी भी समझता था। मगर उनके जवाब से मुझे निराशा हुई। वह बहुत बेरूखी से बोलीं। क्या प्रोफेसर साहब ने बातें ठीक से नहीं बताईं।मैंने पल भर की खामोशी के बाद तुरंत कहा शंपा जी मुझे अकाउंट नंबर बता दें, मैं फीस अभी ट्रांसफर कर देता हूं।
उन्होंने नंबर बताने में देरी नहीं की। दो अकाउंट नंबर बता कर कहा कि फिफ्टी-फिफ्टी पर्सेंट दोनों में कर दूं। मैंने फीस तुरंत ट्रांसफर कर के कहा ठीक है शंपा जी मैं अब कब आऊं? यह कह कर मैं उठा ही था कि उन्होंने हाथ से बैठने का इशारा करते हुए कहा बैठिए। अभी आप से कुछ बातें भी करनी हैं।इस सेंटेंस से मुझे एक बार फिर करेंट लगा। फीस, काम से लेकर समय तक सबकी बात हो चुकी थी। पेमेंट भी कर चुका था। वह भी हंडेªड परसेंट। उनके मोबाइल में पैसा ट्रांसफर होने का मैसेज भी आ गया था। तो अब क्या चाहती हैं।
मेरा मन अंड-बंड बातों की तरफ एकदम चला गया। वह उठीं वॉशरूम की तरफ चलीं गईं। मैं बैठा रहा। सामने टीवी पर एक मूवी ‘300’ चल रही थी। लीना हेडी और गेरार्ड बटलर की यह अद्भुत फिल्म 2007 में ही आई थी। यह प्राचीन राजा लियोनाइडस और उनके 300 जांबाज सैनिकों की विशाल पर्शियन आर्मी के साथ दिल दहला देने वाले युद्ध की कहानी पर बनी है।
 युद्ध सहित हर दृश्य इतने स्वाभाविक फ़िल्माए गए हैं कि देखते वक्त पलक ना झपके। निर्देशक जै़क स्नाइडर ने अपनी पूरी प्रतिभा उडे़ल दी है। मैं जब वहां पहुंचा था यह मूवी तब पहले से ही चल रही थी। मैंने यह फ़िल्म दोस्तों के साथ कई बार देखी थी। लीना हेडी के दो इंटीमेट शीन ऐसे थे खासतौर से बटलर के साथ कि उन्हें कम से कम परिवार के साथ नहीं देखा जा सकता था।
उधर शंपा जी वॉशरूम का दरवाजा खोल रही थीं। इधर वही शीन बस शुरू होने जा रहा था। मैंने सोचा शंपा जी आकर बंद कर देंगी या डीवीडी फॉरवर्ड कर देंगी। मगर उम्मीद के एकदम विपरीत वह पूर्ववत अपने स्थान पर बैठ गईं। नई सिगरेट जलाई और धीरे-धीरे कश लेते हुए ध्यान से मूवी देखने लगीं। शीन जैसे-जैसे अपने चरम पर पहुंचता जा रहा था कामुक आवाजें वैसे-वैसे बढ़ती जा रही थीं और वैसे-वैसे मेरी असहजता भी बढ़ती जा रही थी। इसी बीच शंपा जी ने नजर टीवी पर जमाए हुए ही पूछा आप स्मोकिंग करते नहीं या इस समय नहीं करना चाह रहे।
 इस अनपेक्षित प्रश्न से मैं चौंका। लेकिन संभलते हुए कहा स्मोकिंग करता हूं। तो लीजिए। इतना हेजीटेशन क्यों?’ इतना कह कर डिब्बी, लाइटर मेरी तरफ बढ़ा दी। मैंने भी एक सिगरेट जला कर पहला कश लिया और इसी बीच शीन खत्म हो गया। साथ ही शंपा जी का एक शब्द गूंजा मार्वलसमुझे बड़ी राहत मिली। लेकिन शंपा जी ने फिर परेशान कर दिया यह पूछ कर कि क्या मैं फ़िल्में देखता हूं। मैं किसी भी तरह से वहां और नहीं रुकना चाहता था तो तुरंत सफेद झूठ बोल दिया कि मुझे फिल्में पसंद नहीं।
शंपा जी ने स्क्रीन से नजर हटाए बिना कहा जिस टॉपिक पर आप रिसर्च कर रहे हैं मैं उस बारे में कुछ बातें करना चाहती हूं।फिर मेरी प्रतिक्रिया जाने बिना ही उन्होंने बातें शुरू कर दीं। वह बातें क्या एक से बढ़ कर एक जटिल प्रश्न थे। उनके हर दस में से आठ प्रश्न के उत्तर मेरे पास नहीं थे। उस वाटर कूल्ड कमरे में मैं पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। उसी समय मैं सही मायने में समझ पाया कि मेरी पढ़ाई की डेप्थ क्या है?
 शंपा जी के सामने मैं कहीं नहीं ठहरता था। उन्होंने बीस मिनट में ही मुझे निचोड़ डाला है, यह अहसास कर के ही मेरा मन घबड़ा उठा था कि गिगोलो वर्ल्ड नेे कैसे मेरी पढ़ाई-लिखाई को तहस-नहस कर दिया है। जिस विषय पर मैं डॉक्टरेट की डिग्री के लिए लालायित हूं कि मिल जाए तो कॅरियर राह पर ले आऊं उस विषय में मुझे दस में दो नंबर मिल रहे हैं। मेरी इस दयनीय हालत से शंपा भी खीझ उठी थीं तो उन्होंने बात समाप्त करते हुए कहा ठीक है, ज़रूरत होगी तो मैं कॉल करूंगी।
मैं उठा जल्दी से थैंक्यू बोल कर बाहर आ गया। वह पूरी रात मेरी जागते हुए बीती। बार-बार शंपा जी के एक-एक प्रश्न मेरे दिमाग को मथे जा रहे थे। बार-बार यह बात मन में आ रही थी कि शंपा जी इन प्रश्नों के जरिए मेरी पढ़ाई का स्तर जांच रही थीं, और जो स्तर पाया क्या वैसी ही गडमड सी कोई थीसिस लिख कर थमा देंगी। और प्रोफेसर साहब बस किसी तरह डिग्री दिलवा देंगे। और किसी तरह मैंने जॉब भी जुगाड़ ली तो क्लास में छात्रों को क्या पढ़ाऊंगा?
 इन बातों के अलावा एक और बात से भी मन बहुत परेशान हो रहा था। शंपा जी को लेकर मन में तमाम दुषित भावनाएं बार-बार सिर उठा रहीं थीं। जब उनके पास था तभी से। मैं हर कोशिश करके बार-बार हार जा रहा था। मुझे बार-बार वह मुझ जैसे की सर्विस हायर करने वाली महिलाओं में से एक नजर आ रही थीं। और हर बार उन्हें मैं अपने साथ अलग-अलग स्थितियों में पाता जिन स्थितियों में येे महिलाएं मुझे ले जाती थीं।
पहली बार मुझे यह सब ना जाने क्यों अटपटा, अनैतिक और घिनौना लगने लगा। मगर दिमाग में जहां यह था, वहीं मन में दूसरा पक्ष भी चल रहा था कि उन्हीं महिलाओं की तरह यह भी ऐश करें। एक बात यह भी कि इनसे पैसे की जरूरत नहीं। बस यह अपनी सहमति दे दें। मन में कहीं पॉप कॉर्न से भी फूटते कि यह तो मेरे हाथ में है। उनकी बातचीत, बॉडी लैंग्वेज, काम यह सब तो शुरू से ही आमंत्रित कर रहे हैं। मैं ही अफनाया हुआ भाग आया।
इस तरह सोचते-विचारते मैंने आखिर तय कर लिया कि यहां मैं ट्राई करूंगा। बाकी तो मुझे खरीदती हैं। अपनी सेक्सुअल डिजायर, अपनी सेक्सुअल फैंटेसी के लिए एक गुलाम खरीदती हैं। और गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती। उसकी एक ही और आखिरी हैसियत होती है कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ गुलाम है। लेकिन मैं यहां गुलाम नहीं बनूंगा।
यहां बराबर की हैसियत होगी। कोई किसी को पैसे के दम पर नहीं खरीदेगा। ना ही इश्क-विश्क का कोई चक्कर होगा। बस एक चीज़ होगी। परस्पर सहमति। इसके सिवा कुछ नहीं। और मैं सूत्र ढूंढ़ने लगा। बिना बुलाए वहां जाने की हिम्मत नहीं थी। कई दिन सोच-विचार में निकालने के बाद मैं प्रो़फेसर साहब को लेकर फिर पहले की तरह डिनर पर गया। उनसे जब शंपा जी की बात छेड़ी तो मेरी तरफ कुछ क्षण गौर से देखने के बाद बोले। अपनी थीसिस पर ध्यान दो।लेकिन मैं चुप नहीं हुआ।
प्रोफ़े़सर साहब से इतना मिक्सप हो चुका था कि दोस्तों सा रिश्ता बन गया था। मैं जानने के लिए पीछे पड़ गया तो बोले समीर दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। तुम शंपा जीे बारे में क्या सोचते हो। उससे क्या चाहते हो मैं नहीं जानता। सच यह है कि शंपा के बारे में मैं स्वयं बहुत कम जानता हूं। हालांकि पिछले दस वर्षों से हम एक दूसरे को जानते हैं। उसने कभी किसी को इतनी लिफ्ट नहीं दी कि कोई उससे उसके बारे में ज़्यादा जान समझ सके, बात कर सके। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूं कि वह असाधारण मेधा वाली औरत है।’ ‘औरत!मैं चौंका। मैं उन्हें अनमैरिड ही समझता था।
हां। तुम्हारी तरह मैं भी उन्हें काफी समय तक अनमैरिड ही समझता था। दरअसल ये उड़ीसा के एक बेहद पिछड़े इलाके के किसी गांव की रहने वाली हैं। गरीब परिवार की हैं। गांव में कोई साधन नहीं था तो इनका परिवार भुवनेश्वर आ गया। वहीं मां-बाप मजदूरी किया करते थे। बच्चे पढ़ाने की धुन में स्कूल भेजा। वहां शंपा की प्रतिभा से सभी चकित थे। फीस, ड्रेस, किताबों की दिक्कत के चलते शंपा अपनी बड़ी बहन के साथ घरों में चौका-बर्तन भी करने लगी।
वहीं किसी नौकर से इसका परिचय हुआ। वह भी पढ़ने में तेज़ था। दोनों की हालत एक सी थी। तो खूब पटने लगी। दोनों अपने प्रयासों से ग्रेजुएशन में पहुंच गए। यहीं से दोनों का जीवन दूसरे ट्रैक पर चल पड़ा। दोनों दिल्ली भाग आए कि यहां काम भी करेंगे। पढेंगे भी। और एक दिन अपना मुकाम बनाएंगे। इन्होंने शुरुआत भी अच्छी की। लेकिन जब कठिनाइयों से सामना हुआ तो इसके आदमी की पढ़ाई छूट गई। मगर दोनों का सपना टूटा नहीं।
आदमी बीवी को जी जान से पढ़ाई में आगे बढ़ाता रहा। दो बार वह आई.पी.एस. मेन में सेलेक्ट हुई। लेकिन इंटरव्यू में फेल हो गई। इसकी वजह यह थी कि तैयारी के लिए उसे जिन संसाधनों की ज़रूरत थी वह उसके पास नहीं थे। उसकी इस असफलता से उसके आदमी की छटपटाहट और बढ़ गई। इस छटपटाहट में वह गलत रास्ते पर चला गया। फिर एक दिन गायब हुआ तो लौटा ही नहीं।
शंपा ने बहुत कोशिश की। पुलिस वगैरह हर जगह। मगर अमूमन इन मामलों में जो होता है वही हुआ। रिजल्ट जीरो रहा। आदमी को ढूढ़ने के चक्कर में इनकी पढ़ाई बुरी तरह डिस्टर्ब हुई। इतना ही नहीं इस बीच यह दो लोगों के सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो गईं। इसने रिपोर्ट लिखानी चाही वह भी नहीं लिखी गई। इसकी अनवरत कोशिश के बाद जब लिखी भी गई, तो अज्ञात लोगों के खिलाफ। कुछ सफेदपोश लोगों के चलते ऐसा हुआ।
चहुँ तरफ पड़ती मार और आर्थिक तंगी ने इसे तोड़ कर रख दिया। हालत यह हुई कि इसने फिर कई महिने चौका-बर्तन किया। झुग्गी-झोपड़ी में रही। उसी समय एक जगह जहां बर्तन मांजती थी उस परिवार ने जब इसकी काबिलियत के बारे में जाना तो इसे झुग्गी से निकाल कर अपने यहां रख लिया। उन्हीं लोगों ने किसी कंपनी में नौकरी दिलाई। वहां से टीचिंग जॉब में आ गई। वहीं से लिखने-पढ़ने की तरफ यह फिर बढ़ी। मगर पहले जैसी बात नहीं आई।
वह अध्ययनशील हैं तो जानकारियां बढ़ती रहीं। उसी परिवार के बच्चों का कार्य करते-करते उनके बच्चों के दोस्तों का भी कार्य करने लगी। यहीं किसी की थीसिस लिख डाली। बस यहीं से थीसिस वगैरह लिखने के काम में आ गई। पहले तो थोडे़ बहुत पैसे लेती थीं लेकिन जब मार्केट बन गई तो डिमांड बढ़ गई। ऐसा नहीं कि यह कोई रिसर्च वगैरह करती हैं तब लिखती हैं। उसके पास कैसे थीसिस लिखी जाए इसकी जबरदस्त समझ है।
 पांच थीसिस से छठी थीसिस वह चुटकियों में बना देती हैं। लेकिन पढ़ने में वह मौलिक ही लगेगी। कोई विशेषज्ञ ही बता पाएगा कि यह कटपेस्ट है। इसके अलावा पेपर, मैगज़ीन में भी लिखने लगीं। वहां दूसरे नाम से लिखती हैं। इसी तरह यह आगे बढ़ती गईं। आज अच्छी-खासी रकम कमाती हैं। लेकिन मैं इसे उसकी बर्बादी मानता हूं। उसकी सक्सेज़ नहीं।
          वह जितनी ब्रिलिएंट हैं उसे देखते हुए यह उसका स्थान नहीं है। एक्चुअली उसने पति की खोज, और रेप के खिलाफ अपनी लड़ाई जीतने के चक्कर में छः साल गवां दिए। नहीं तो वह सिविल सर्विस ना सही कम से कम कोई और अच्छी नौकरी पा सकती थीं। उन दो घटनाओं ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। ना कॅरियर बना सकी। ना अपने साथ हुए अत्याचार का न्याय ले पाई। जहां तक मैं समझ पाया हूं तो वह अपनी ज़िंदगी बस काट रही हैं। जिए जा रही हैं। चिड़चिड़ी इतनी हैं कि जरा सी बात पर कितना बड़ा तमाशा कर दें कोई ठिकाना नहीं। अच्छी फ्रीलांसर राइटर के चलते थोड़ी बहुत पहुंच भी बना रखी है। इसलिए यदि तुमने कुछ सोच रखा है तो भूल जाओ, सिर्फ़ थीसिस याद रखो।
           प्रोफ़ेसर साहब की बात मुझे सही लगी। शंपा जी की कहानी जानने के बाद मेरे मन में उनके लिए सम्मान भाव उत्पन्न हो गया। मैंने कहा कि मैं उनके पास किसी ऐसी-वैसी भावना के साथ जाना भी नहीं चाहता। मैं थीसिस मिलने के बाद उनसे मिलते रहना चाहूंगा। एक मित्र के नाते। यदि वह चाहेंगी तो नहीं तो नहीं।
          शंपा जी ने अपना वादा पूरा किया। तीन महीना पूरा होते ही थीसिस दे दी। इस बीच उन्होंने तीन बार मुझे बुलाया। एक बार थीसिस पढ़ने को दी। पहुंचने पर बड़े प्रश्न किए। जिनके उत्तर मेरे पास नहीं थे। दूसरी बार जब थीसिस दी तो जोर देकर कहा कि पूरा दो-तीन बार ध्यान से पढ़ कर, डीपली समझ लीजिए। यह आपके काम आएगा।तीसरी बार जब उन्होंने फाइनली डमी दी तो उस दिन भी उनका व्यवहार ऐसा था कि थीसिस मिलने के बाद मैं उनसे फिर मिलने की हिम्मत नहीं कर सका। शंपा जी की हिम्मत, मेहनत, शॅार्पनेस को सैल्यूट कर मैं चला आया। मित्रता की वहां कोई उम्मीद, कोई चांस नहीं था। वह अपनी दुनिया में अकेले रहना पसंद करती थीं। इस लिए मैंने उनसे आगे मिलने-जुुलने का प्रयास करना उचित नहीं समझा।
          थीसिस को सम्मिट करने के बाद प्रोफे़सर साहब के अतिरिक्त प्रयासों के चलते मुझे जल्दी ही डॉक्टरेट मिल गई। जिसके बाद जश्न भी मना। लेकिन मेरे मन में बार-बार यही आ रहा था कि दोस्तों की जिद पर यह जश्न मना रहा हूं। वास्तव में मुझे यह भी नहीं मनाना चाहिए था। क्यों कि इसकी वास्तविक हक़दार तो शंपा जी हैं। जितनी उच्चस्तरीय थीसिस उन्होंने लिखी है वह मैं किसी भी स्थिति में नहीं लिख सकता। कटपेस्ट के जरिए भी नहीं। शंपा जी की थीसिस पढ़ने वाला कोई भी यही कहेगा कि रिसर्चर ने बड़ी गंभीरता से रिसर्च की है। और बेहतरीन लेखक भी है।
          इसके बाद मैंने प्रोफ़ेसर साहब से अगले स्टेप किसी कॉलेज, युनिवर्सिटी में जॉब के लिए कहा। कि जैसे भी हो जल्दी से जल्दी मुझे कहीं एंगेज कराएं। उन्होंने फिर अपनी पुरानी स्टाइल में जवाब दिया। परेशान होने की ज़रूरत नहीं।इस जवाब से मुझे थोड़ी खीझ हुई। मैं लखनऊ पापा के पास भी जाकर बताना चाहता था कि उनकी इच्छा पूरी होने में बस एक स्टेप बाकी है। डॉक्टरेट मिले हुए एक हफ्ता हो गया था। लेकिन मैंने अभी उन्हें बताया तक नहीं था। ना जाने मैं कैसी मनःस्थिति में था कि ना पापा को कुछ बताने का उत्साह था। ना वहां जाने का। जब कि घर गए करीब साल भर होने जा रहा था। मन अजीब सा उचाट हो रहा था। अपनी इस स्थिति से निकलने के लिए मुझे लगा कि घर का चक्कर लगा आना ही बेहतर है।
          मगर जिस दिन जाने के लिए रिजर्वेशन मिला प्रोफे़सर ने एक दिन पहले उसी दिन अपने गृह प्रवेश की सूचना दी। कहा हर हाल में तुम्हें आना है। ऐसा नहीं था कि वह मुझे बहुत चाहते थे इस लिए इतना जोर दे रहे थे। असली मकसद तो काम-धाम में ज़्यादा से ज़्यादा मदद लेना था। मुझे रुकना ही था क्योंकि मेरी डोर अभी भी उन्हीं के हाथों में थीे।
प्रोफ़ेसर ने इसका पूरा फायदा उठाया। मैं नौकर की तरह उस दिन जुटा रहा। जब देर रात घर पहुंचा तो थकान के मारे बदन टूटा जा रहा था। सारे साथी घर से गायब थे। कोई सूचना नहीं थी। मैं खा-पीकर तो आया ही था। दो पैग व्हिस्की पी कर सो गया। मगर आधे घंटे बाद ही दर्द से नींद खुल गई। टेस्टीकल में बहुत तेज़ दर्द शुरू हो गया था।
ऐसा पहली बार हो रहा था। क्यों हो रहा है समझ नहीं पा रहा था। इधर-उधर टहलता कि शायद कम हो जाए। लेकिन वह बढ़ता गया। कुछ ही देर में असह्य हो गया। कुछ समझ में नहीं आया तो दोस्तों को फ़ोन मिलाया। कुछ के स्विच ऑफ थे। संयोग से जेवियर, और विपुल से बात हुई। दोनों आधे घंटे में आकर हॉस्पिटल ले गए। वहां एडमिट कर लिया गया। इंजेक्शन दवाओं से आराम मिला तो मैं सो गया। अगले दिन कई जांचों के बाद पता चला इनफे़क्शन है। फिर शाम तक मुझे रिलीव तो कर दिया गया मगर ट्रीटमेंट करीब दो महीने चला।
          मुझसे डॉक्टर ने कई बातें पूछीं। लेकिन मैं सेक्सुअल रिलेशनशिप पर सही नहीं बता  सका। ट्रीटमेंट का शुरुआती एक हफ्ता बहुत कष्टदायक रहा। मैं ट्रीटमेंट पूरा होने के करीब ढाई महीने बाद जब घर पहुंचा तो वहां पापा की तबियत काफी खराब चल रही थी। उनकी हालत बता रही थी कि उनकी देखभाल जैसे-तैसे बस हो रही है। लेकिन मैं उन्हें अपने साथ अपने घर लाने की नहीं सोच सका। क्यों कि मैं उनकी अकेले क्या सेवा कर पाता। तो भाभी के यहां ही जो सेवा कर सकता था वो की। वह जल्दी ही ठीक भी हो गए।
तब मैंने उन्हें बताया कि मुझे डॉक्टरेट अवॉर्ड हो गई। सब ठीक रहा तो जल्दी ही कहीं टीचिंग जॉब मिल जाएगी। पापा बहुत खुश हुए। बोले अब जल्दी करो बेटा, उमर बीतती जा रही है। तुम्हारी शादी वगैरह हो जाए तो मुझे भी शांति मिले।
उनकी हालत देखते हुए मैं चुप रहा। इतना ही कहना ठीक समझा कि पहले आप ठीक हो जाइए फिर देखा जाएगा। मेरे मन में उनकी बात पर तुरंत ही यह बात आई कि क्या शादी करना। ना उम्र रही। ना उत्साह। बल्कि अब तो इस नाम से ही शरीर में झुरझुरी सी छूटने लगती है। दहेज एक्ट के उस दंश को इतने साल हो गए लेकिन टीस ज्यों की त्यों बनी हुई है। जब तक दिल्ली में रहता हूं तब तक दिमाग थोड़ा ठीक रहता है। यहां घर आते ही हर वक्त मां का बिलखता चेहरा आंखों के सामने घूमता रहता है। आखिरी समय में उनकी दर्दनाक मौत। पिता की हालत। घर का बिखराव। सारे भाइयों का अलग-अलग रहना। यह सब दिमाग को झिंझोड़ते रहते हैं। मंझले भइया तो अब किसी से मिलना भी पसंद नहीं करते।
अपनी अनु तक उनकी दुनिया सिमट गई है। इतने दिन हो गए हैं आए हुए लेकिन एक बार भी वह पापा को देखने यहां नजर नहीं आए। बड़े भाई का परिवार भी बेगानों सा व्यवहार करता है। मैं इस तरह की बातों से इतना परेशान हुआ कि जल्दी ही दिल्ली वापसी का प्रोग्राम बना लिया। यह भी सोचा कि प्रोफ़ेसर से बोलूं कि मेरा इंतजाम दिल्ली में ही करें। यहां मैं रह ही नहीं पाऊंगा।
वहां की आपाधापी में यह सब कम से कम हमेशा मेरा लहू नहीं पीते। जब खाली होता हूं, अकेला होता हूं तभी पीते हैं। पापा को शाम को बताया कि मैं कल रात को जा रहा हूं। उम्मीद है जल्दी ही जॉब मिल जाएगी। उन्होंने और रुकने को कहा लेकिन मैंने असमर्थता जता दी। इससे उनके चेहरे पर आई उदासी देखकर मेरा हृदय फटने सा लगा। मैं हट गया वहां से।
 अगले दिन मैं मंझले भइया के पास गया कि जाने से पहले उनसे मिलता चलूं। कितने महीने हो गए उनसे मिले हुए। फ़ोन पर बात हुए ही छः सात महीने हो रहे हैं। अनु को भी देख लूंगा। दोनों में पहले जैसे मधुर संबंध चल रहे हैं कि नहीं। उनके संबंधों का मधुर होना ज़रूरी है नहीं तो भइया टूट जाएंगे। मंझली मेरी भाभी ही थी। लेकिन तब भी उसकी एक गलत हरकत के कारण इतने दिनों बाद भी मेरा यह हाल है। इनकी तो पत्नी थीं। एक बच्चा है। जो अब भी बड़ी भाभी के यहां ही पल रहा है। बेचारा दुनिया में मां के होते हुए भी कैसे बिन मां के जी रहा है। मासूम मिलते ही कैसे चिपट गया था। पापा का हाल पूछा था तो बेचारा बताते-बताते कितना उदास हो गया था कि पापा कई-कई दिन बाद थोड़ी देर को आते हैं।
बड़ी मम्मी सबको प्यार करती हैं। मगर उसे थोड़ा कम करती हैं। मेरी मम्मी कब आएंगी, पापा ये बता नहीं रहे। बस एक आंटी को ले आते हैं। कहते हैं यही मम्मी हैं। वे मुझे बेवकूफ बनाते हैं। मेरी मम्मी को कहीं खो दिया है। आप उनसे कहिए ना कि मेरी मम्मी ला दें। उसकी बातें आंसुओं से भरी बड़ी-बड़ी आंखें, हिचकियों ने मुझे भी रूला दिया। मैंने देखा कि वह बड़ा हो गया है लेकिन इसके बावजूद छोटे बच्चों सी बातें कर रहा था। मन में मंझली के लिए कई अपशब्द निकल गए। कि तेरी जैसी पत्थर दिल औरत शायद ही कोई हो। और मूर्ख भी। बल्कि पागल भी। जो धन के लालच में अपने हाथों ही अपनी खुशहाल ज़िंदगी में आग लगा ले। स्वार्थी इतनी कि बच्चे को भी बिना हिचक फेंक दिया।
बच्चे की स्थिति उसकी बड़ी मम्मी, पापा और उनके बच्चों की उसके प्रति उपेक्षा की सारी कहानी कह रहे थे। मैंने यह तय कर लिया कि जब मंझले भइया से मिलूंगा तो बच्चे के बारे में उनसे जरूर कहूंगा कि उसे अपने पास ही रखें। मां का ना सही उसे बाप का प्यार तो मिलता रहेगा। ये उसका अधिकार है। अगर उसे यह नहीं दे सकते तो पैदा ही क्यों किया? बड़ों की गलती की सजा वह क्यों भुगते? इन्हीं सारी बातों से भरा मैं दिल्ली वापसी वाले दिन मंझले भइया के घर पहुंचा।
 शाम के सात बज रहे थे। कॉलबेल बजाई तो गेट अनु ने खोला। मैंने नमस्ते किया तो उन्होंने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया। बोलीं आइए बड़े दिन बाद आए।मैंने कहा हां बस ऐसे ही टाइम नहीं मिल सका। अनु की हालत खास तौर से उनका पूरी तरह निकला हुआ पेट इस बात की स्पष्ट सूचना दे रहा था कि वे प्रिग्नेंट हैं। आठवें या नवें महीने का शुरुआती समय होगा।
उन्होंने ढीली-ढाली एक्स एल साइज की कुर्ती, वैसा ही ढीला-ट्राऊजर पहन रखा था। अजीब बेतुकी सी लग रही थीं। चेहरे की रंगत बता रही थी कि भइया ने खाने-पीने देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम ड्रॉइंगरूम में बैठे। बैठते ही उन्होंने एक नाम पुकारा तो एक अधेड़ सी महिला आई। जिसे देखते ही अनु ने नाश्ते के लिए कह दिया। वह ड्रॉइंगरूम के दरवाजे से ही लौट गई। नौकरानी को हुक्म देने के बाद वह मुझसे मुखातिब हुईं, बोलीं भइया इस बार बड़े लंबे गैप के बाद आए।मैंने कहा हां, इस बार काफी टाइम हो गया। कुछ काम एक के बाद एक ऐसे आते गए कि टाइम नहीं मिल पाया।
अनु के चेहरे की तरफ मेरी नजर जैसे ही जाती तो मुझे लगता जैसे सामने मंझली बैठी है। वही पुराने दिन एक दम सामने आ गए जब मंझली पहली बार प्रिग्नेंट हुई थी। तब मंझली कितनी शालीनता संकोच से सामने आती थी। हम लोगों से नजर झुका कर ही बात करती थी। अपने को कपडे़ में हर तरफ से ऐसे ढकने की कोशिश करती कि जैसे कोई ऐसे कॉम्प्टीशन में आगे निकलने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा हो जिसमें कौन सबसे ज़्यादा शरीर को ढक सकता है। मां जब आराम करने को कहती थी तब भी संकोच करती कि सास, जिठानी काम करें और वह आराम। बार-बार काम में लग जातीं तो मां को भगाना पड़ता था। लेकिन वही मंझली बच्चे के जन्म के बाद ऐसा बदली कि परिवार ही नष्ट हो गया।
अपनी ही ज़िंदगी में आग लगा ली। मायके में भी वह हरकत की कि इज़्जत के नाम पर मां ने आत्महत्या कर ली। बड़ी भाभी ने उनके इस काम को बड़े चटखारे लेकर बताया कि मंझली डायवोर्स के बाद अपने से करीब चार-पांच साल छोटे दूर के रिश्ते के एक भतीजे के साथ भाग गई। मैं अब तक नहीं समझ पाया कि उनके दिमाग में कैसे क्या बदल गया कि वह ऐसे बदल र्गइं। किसने उनका ब्रेनवॉश कर दिया था।
अनु बराबर मुझसे बात किए जा रही थीं लेकिन मैं बेमन से उनकी बातों का सूक्ष्म सा जवाब देता। मेरा दिमाग पूरी तरह से मंझली में उलझ गया था। चाय-नाश्ता जो आया वह भी करने का मन नहीं किया। अनु के बहुत कहने पर बीच-बीच में थोड़ा बहुत ले लेता। अनु बार-बार ऐसी बातें करतीं कि मैं उन पर ध्यान दूं। उनके होने वाले बच्चे के बारे में बात करूं। लेकिन मैं कर नहीं पा रहा था। उपर से एक उलझन यह भी शुरू हो गई कि इन लोगों ने शादी की रस्म पूरी की या नहीं। या ये लोग भी विश्व प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ियों स्टेफीग्राफ, आंद्रेआगासीे की तरह कई बच्चे होने के बाद शादी की रस्म पूरी करेंगे। मेरा मन ऊब रहा था ।
अनु ,मंझली को लेकर उलझन इतनी बढ़ रही थी कि घुटन महसूस करने लगा। मैं वहां से जल्दी से जल्दी चल देना चाहता था। भाई से मिलने की इच्छा भी कमज़ोर होती जा रही थी। मगर वह भी आ गए। उनके व्यवहार से मेरा मन टूट गया। वो ऐसे मिले जैसे कोई अनचाहे दोस्त के आने पर मिलता है। इसलिए मैंने भी जल्दी से बिदा ली। चलते-चलते अनु और भइया दोनों को उनके होने वाले बच्चे के लिए शुभकामनाएं एवं बधाई दी। शादी हुई कि नहीं इस चक्कर में मैंने अनु के तन पर शादी के सुहाग के चिह्न कई बार ढूंढ़े लेकिन वह नहीं दिखे। तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने निकलते-निकलते कह दिया।
भइया शादी कर ली बताया तक नहीं। मेरे यह कहते ही दोनों चौंके। करीब-करीब एक साथ ही बोले शादी!उनके इस तरह चौंकने पर मैं सशंक्ति हुआ। मैंने कहा अरे भइया इसमें इतना चौंकना क्या। आप लोगों ने शादी कर ली। बेटा होने जा रहा है। मेरे इतना कहते ही अनु बोली अरे भइया आप भी। साथ जीने के लिए ज़रूरी नहीं कि कुछ रस्में, परंपराएं पूरी ही की जाएं। हमारे मन साफ हों। एक दूसरे के लिए चाहत होे, सम्मान हो। बस इसके अलावा और किस बात की जरूरत है। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा भी और कुछ ऐसा है जिसके बिना दो लोग साथ नहीं रह सकते।मुझे लगा कि अनु ने मुझे निरुत्तर कर दिया।
मैं एकटक उन्हें देखता रह गया। क्या बोलूं कुछ समझ नहीं पा रहा था, तभी भइया ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा क्या समीर तुम भी कैसी बात करते हो। आओ चलें।मैंने देखा अनु मुस्कुरा रही हैं। मैंने उन्हें एक बार फिर नमस्कार किया और भइया ने कंधे पर हाथ रखे-रखे ही कहा समीर मुझे शादी की रस्मों, शादी नाम से नफरत हो गई है। शादी करो तो डॉवरी एक्ट का निरंकुश खूनी पंजा अपने और परिवार के सभी लोगों के गले में डालो। जीवन हमेशा इस डर में बीते कि लड़की इस एक्ट का हथियार ना चला दे। जिस तरह से अपना घर बरबाद हुआ है उससे तो सच बताऊं अब मुझे सिंदूर, बिंदी, पायल, बिछिया जैसी सुहाग की प्रतीक चीजों से भी घृणा हो गई है। इनकी छाया से भी मैं दूर रहना चाहता हूं। इसीलिए अनुप्रिया से मैंने अपनी बातें पहले ही बता दीं। संयोग से वह भी इन परंपराओं से दूर रहती है। इसीलिए हम दोनों इतना आगेे इस तरह बढ़े।
मैंने कहा लेकिन भइया जिस तरह से आप रह रहे हैं वह लिवइन है और लिवइन के लिए भी कई कानून बन चुके हैं। करीब-करीब विवाहित पत्नी जैसे अधिकार उन्हें भी हैं। फिर यह जरूरी नहीं कि एक ने गलती की तो सब करेंगे। ऐसे तो मुझे लगता है ठीक नहीं है। इस तरह तो शादी के बिना दुनिया ही चरमरा जाएगी। फिर हम हिंदुस्तान में हैं वेस्टर्न कंट्रीज या यूरोप में नहीं। शादी तो वहां भी लोग कर ही रहे हैं।
देेखो समीर जो भी हो मैं कम से कम इस जीवन में तो निर्णय बदलने वाला नहीं। ठीक है कि लिवइन के भी बहुत से नियम कानून हैं। लेकिन अभी दहेज एक्ट जैसा अंधा निरंकुश, एक पक्षीय एक्ट नहीं है। जो दूसरे पक्ष की सुने ही ना। यह एक पूरा परिवार तहस-नहस कर देता है। यह एक्ट सीधे-सीधे कत्ल करता है तो मैं ऐसे रास्ते जाऊं ही क्यों कि अपनी बरबादी अपनी ही आंखों से देखूं।मुझे भी लगा कि भइया की नफरत गलत नहीं है। इस एक्ट में जो भी संशोधन होने चाहिए वे अभी तक नहीं हुए हैं। मैंने फिर भतीजे की बात की कि आप उसे अपने साथ क्यों नहीं रखते। बेचारा अपने पैरेंट्स के लिए कितना उदास रहता है। अपने पैरेंटस अपने होते हैं। चाचा, ताऊ कुछ भी करें बच्चे को वह प्यार नहीं दे सकते जो मां-बाप देते हैं।
          मेरी इस बात पर भइया का चेहरा एकदम से बदल गया। अब क्रोध-तनाव की जगह चेहरे पर, भावुकता हावी हो गई। वह क्षण भर चुप रहने के बाद बोले। समीर मैं यह सब जानता हूं। लेकिन कई कारणों से विवश हूं। एक तो उसे देखते ही उस चुड़ैल की याद आ जाती है। दिमाग खराब हो जाता है। नशें फटने लगती हैं। दूसरे मैं यह मानता हूं कि मेरे पास से ज़्यादा अच्छी परवरिश उसकी वहां हो रही है। वह वहां रह भर ही रहा है। सारा खर्च मैं ही उठाता हूं। मैं उसे लाना चाहता हूं। अनुप्रिया से बात भी की थी। वह तैयार भी हो गई थी।
मैं ले आया। मगर वह इतना शैतान है कि अनुप्रिया की नाक में दम कर दिया। उसका सोना, बैठना, आराम करना हराम कर दिया। एक दिन दौड़ता हुआ सीधा उसके पेट से भिड़ गया। उसकी हालत खराब हो गई तो डॉक्टर के यहां ले जाना पड़ा। फिर अनुप्रिया ने कहा तो मैंने उसे डिलीवरी हो जाने तक भइया के यहां वापस भेज दिया।
भइया की यह बात मुझे बहुत अखरी कि बेटे को अपने से अलग उन्होंने खुद नहीं अनुप्रिया के कहने से किया। जो देखा जाए तो कानूनी या सामाजिक रीत-रिवाज किसी भी दृष्टि से उनकी पत्नी है ही नहीं। रखैल शब्द मुझे बेहद फूहड़ गंदा लगता है तो मैं इसे उनके लिए यूज ही नहीं कर सकता था। तुरंत दिमाग में ऐसा कोई वर्ड नहीं आया कि उनके लिए कौन सा शब्द इस्तेमाल करूं।
लेकिन मंझले भइया की यह बात मुझे सही लगी कि परिवार बनाने के लिए जरूरी नहीं कि एक रस्म कोे निभा कर दहेज एक्ट का एक तरह से फांसी का फंदा गले में डाल लिया जाए। कम से कम तब तक नहीं ही करना चाहिए जब तक कि इस एक्ट की उन खामियों को दूर ना कर दिया जाए, जिनके चलते इसका आसानी से दुरूपयोग हो जाता है। लोग दशकों से करते चले आ रहे हैं। इसमें कम से कम यह व्यवस्था तो की ही जा सकती है कि केस झूठा साबित होने पर वही सजा उसको दी जाएगी जो दूसरे पक्ष को दी गई। ऐसा करने से बहुत हद तक इसका दुरूपयोग रुक सकता है।
लेकिन बेटे को लेकर भइया के रूख उनके निर्णय से मुझे उनके बेटे का भविष्य बहुत अंधकारमय लगने लगा। मुझसे रहा ना गया तो मैंने बोल दिया कि भइया मुझे ध्रुव के भविष्य को लेकर बड़ी चिंता हो रही है। बिन मां के उस बच्चे का क्या होगा? जब कि अभी से वह इतना अकेला पड़ गया है। कारण चाहे जो भी हो। पिता अभी से अपने पास नहीं रख पा रहा है। जब कि वह कितना छोटा, मासूम है। ऐसे बच्चे आगे चल कर बहुत गलत रास्ते पर चले जाते हैं। क्रिमिनल बन जाते हैं। मेरी यह बात भइया को बड़ी नागंवार लगी। मैंने गुस्से की कई रेखाएं उनके चेहरे पर साफ देख ली थीं।
मैंने सोचा कि क्या मैंने इतना गलत कह दिया। वो कुछ देर चुप रह कर बोले चिंता की बात नहीं है। मैं उसे हर वक्त गोद में तो लिए नहीं रह सकता। और अभी अनुप्रिया की हालत को देखते हुए उसे साथ भी नहीं रख सकता। हां उसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अब तक जो सोचा है उसके हिसाब से यह मकान मैं उसी के नाम कर दूंगा। लिखाई-पढ़ाई के लिए में जो संभव हो सकेगा करूंगा। बाकी जो संभव होगा वह भी करूंगामैंने सोचा सब कर डालेंगे लेकिन बच्चे कोे साथ नहीं रखेंगे। यह बच्चे के प्रति उनकी उस घटना के कारण उत्पन्न हुई विरक्ति है या नई पार्टनर के साथ का जादू ।
बच्चे का भविष्य क्या सुरक्षित होगा, जब पार्टनर के कहने पर उसे दुत्कार रखा है तो उसके नाम प्रॉपर्टी क्या करेंगे? क्या पढ़ाएंगे-लिखाएंगे? वैसे भी तुम्हारी पार्टनर अनु के लक्षण तो ऐसे दिख रहे हैं कि वह जल्दी ही आप बाप-बेटे की छाया भी आपस में नहीं मिलने देंगी। एक बार मंझली ने जो किया उस बारे में कुछ बात करने का मेरा मन हुआ, लेकिन दिमाग इतना भन्ना उठा था भइया की बातों से कि मैंने वहां से चल देना ही उचित समझा कि कहीं मेरा मुंह ना खुल जाए। मैं कोई सख्त बात ना बोल जाऊं।
मैंने जल्दी से उनके पैर छुए और घर आकर सामान उठाया। जो अजीब मनहूस सा दिख रहा था। और स्टेशन आ गया। टेªन दो घंटे लेट थी तो प्लेटफॉर्म पर बैठे-बैठे उसका इंतजार करने लगा। ट्रेन के आने तक मैं घर की हालत सोच-सोच कर परेशान होता रहा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर मेरे मां-बाप, परिवार ने ऐसी कौन सी गलती की थी कि मेरा पूरा परिवार नष्ट हो गया। घर में किसी चीज की कमी नहीं है। लेकिन किसी के चेहरे पर खुशी का एक भी चिह्न नहीं है। आखिर इस बर्बादी का ज़िम्मेदार किसे मानूं। मंझली की नासमझी, लालच हवस को या इस विध्वंसक क़ानून को।
          ट्रेन आ गई। उसमें बैठ गया, तब भी बातों की यह आंधी बंद नहीं हुई। आखिर में मंझले भइया की कही बातें ज़्यादा मथ रही थीं। मेरे सामने तीनों और नीचे वाली दो बर्थ पर, एक पूरा परिवार था। शायद दो भाई अपने परिवार के साथ दिल्ली जा रहे थे। एक बच्चा छोटा और एक नौ-दस साल के करीब रहा होगा। उन सब की बातें, सब के चेहरे पर हंसी-खुशी चमक रही थी। बड़ा बच्चा कुछ ज़्यादा ही नट-खट था। बिल्कुल मंझले भइया के बेटे सा लग रहा था। उस परिवार का हंसना-बोलना देख कर मैंने सोचा इससे कहीं ज़्यादा खुश था मेरा परिवार। यह परिवार ट्रेन चलने के बाद जब तक सोया नहीं तब तक मन में यही सब चलता रहा। मैं रात भर सो नहीं सका। जब सुबह होने को हुई तो नींद आने लगी। ट्रेन भी पहुंचने वाली थी। इसलिए मैंने सोचा घर चल कर ही सोऊंगा।
आधे घंटे बाद ही गाड़ी प्लेटफॉर्म पर रुकी, वह परिवार पहले उतरा, पीछे मैं। उस परिवार को लेने दो तीन लोग आए हुए थे। वह छोटा बच्चा उन्हीं में से एक युवक को अंकिल-अंकिल कहता जाकर चिपक गया उससे। युवक ने भी उसे बड़े प्यार से चिपका लिया। उसे प्यार किया। मुझे लगा जैसे वह युवक मैं हूं और बच्चा मेरा भतीजा। आंखें मेरी एकदम ही छलछर्ला आइं। मैं वहां से चल दिया, वह परिवार भी बाहर के लिए चल दिया। ऑटो कर मैं घर आया। मगर रास्ते में मैंने यह तय कर लिया कि अगर भइया ने अपने बच्चे को अपने पास नहीं रखा तो मैं उनसे कहूंगा कि वह उसे मुझे दे दें। मैं पालूंगा उसे। वो अपने नए परिवार के साथ खुश रहें। मैं अपने भतीजे के साथ उनसे ज़्यादा खुश रहूंगा। अब तक मेरी आंखें नींद के कारण झपकनें लगी थीं। घर पर सारे साथी अपनी-अपनी डेस्टिीनेशन पर जाने को तैयार हो रहे थे। मैं सबसे हाय-हैलो कर सो गया।
घर से आने के बाद मैं कई दिन तक कहीं नहीं गया। दोस्तों ने पूछा बात क्या है जो आने के बाद ऐसे सीरियस बने हुए हो। मैंने सबको एक ही बात बताई कि पापा की तबियत ठीक नहीं रहती। अब दिन पर दिन वह ढलते जा रहे हैं। मेरी बात पूरी होते ही सुहेल बोला। अरे तो यार इसमें टेंशन की क्या बात है। ढलते तो हम सब भी जा रहे हैं। और एक दिन सब ही चले जाएंगे। कोई नई बात तो है नहीं है। जब से आया है टेंशनाइज किया हुआ है।सुहेल की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। हम दोनों में बहस शुरू हो गई। कुछ ही देर में बहस ज़्यादा गर्मागर्म हो गई तो सौमित्र ने हम दोनों को अलग किया।
सुहेल की बातों के बाद खुद को यार दोस्तों, दुनिया से बहुत आहत, बहुत अकेला महसूस करने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं? यहां से लखनऊ लौट चलूं। जिस काम के लिए आया था वह तो हो ही गया है। नौकरी वहीं ढूंढ़ता हूं। मगर जब घर के लोगों का व्यवहार, उनकी हालत पर ध्यान जाता तो सोचता आखिर इस मित्र मंडली और घर के लोगों के व्यवहार में क्या फ़र्क़ है। इतने दिन घर पर रुका रहा लेकिन किसी के व्यवहार में अपनत्व जैसा तो कुछ दिखा ही नहीं। फॉर्मेलिटी ज़्यादा दिखी। पापा के व्यवहार में भी वह छः सात साल पहले वाली गहराई कहां थी? तो क्या सचमुच मेरे घर का अस्तित्व खत्म हो चुका है। सब अलग-अलग होकर, अलग-अलग घर बन चुके हैं। और मैं उन घरों के लिए एक बाहरी हूं। हालात तो सब यही बता रहे हैं।
जब बाहरी हो चुका हूं तो क्या मतलब है वहां जाकर रहने का। इस अनजान सी दुनिया में अकेला हूं। तो कहीं भी रह लूं। यहीं बना लूं ठिकाना, अपने ना सही। यहां कहने को कुछ मित्र तो हैं ही। जो जरूरत पड़ने पर कुछ ना कुछ काम तो आ ही जा रहे हैं। इस बिंदू पर चिंतन-मनन करते मुझे कई दिन बीत गए, तब कहीं जाकर मैं यह तय कर पाया कि अब यह दिल्ली ही हमारी है। अब यहीं रहना है। नौकरी का इंतजाम हो जाए तो लखनऊ का घर बेच कर यहीं कहीं ले लेता हूं एक मकान। फिर मंझले और बड़े भइया की राह पर मैं भी अपनी जिंदगी अपने तरह जीता हूं। अपनी अलग दुनिया बनाता हूं।
मैं अब प्रोफ़ेसर साहब के पीछे पड़ गया कि किसी भी तरह किसी भी कॉलेज में मुझे एडजस्ट कराएं। मैं अब पहले से ज़्यादा उनकी सेवा करने लगा। गिगोलो वर्ल्ड से मैं अपने को अलग करने की कोशिश करने लगा। इस लत से अपने को मैं मुक्त करना चाहता था। घर से आने के बाद मैं महीने भर तक किसी मिशन पर नहीं गया। मगर उसके बाद जल्दी ही मन पैसे और फिर उससे भी ज़्यादा किसी महिला के साथ अंतरंग क्षण बिताने के लिए मचलने लगा। यह मचलन रोज-रोज बढ़ती जा रही थी। इस बीच जब मित्र मंडली लौट कर अपने मिशन की बातें बताती तो मन और ज़्यादा मचल उठता। धीरे-धीरे दो महीने हो गया। मैं कहीं नहीं गया। लेकिन एक दिन मित्र मंडली ने मेरा व्रत भंग करा दिया।
सबने कहा इस बार एक नया एक्सपीरियंस तो है ही पैसा भी कई गुना ज़्यादा मिलना है। उन सब की बातों से मैं सशंकित हुआ कि अब तक जो किया अब उससे ज़्यादा क्या हो सकता है? उन सब के और ज़्यादा जोर देने से मैं और ज़्यादा सतर्क हो गया। मैंने पूरी दृढ़ता से कह दिया कि जब तक मुझे पूरी डिटेल नहीं बताई जाएगी तब तक मैं चलने वाला नहीं। उन सब ने कोई और रास्ता ना देख जो कुछ मुझे बताया, उससे मैं असमंजस में पड़ गया कि जाऊं या नहीं। मगर प्रेशर बढ़ता जा रहा था।
मुझे लगा कि बातें डिसक्लोज होने के बाद ये सब मुझे अकेले छोड़ना नहीं चाह रहे हैं। मामला लाइव सेक्स पार्टी या रेव पार्टी का था। जिसके बारे में मैंने मीडिया, नेट पर देखा भर ही था। लेकिन ऐसी स्थिति में शामिल होने के बारे में सोचा भी नहीं था।
मैंने साफ कह दिया कि यह मेरे वश का नहीं है कि मैं लोगों के सामने किसी से सेक्स करूं। चाहे जितना ज़्यादा पैसा मिले मैं नहीं चल सकता। मैं नहीं कर सकता। इतना ही नहीं मैंने उन सबको भी मना किया। कहा एक लिमिट तो होनी ही चाहिए। मगर वह सब ना मानने वाले थे तो ना माने। आखिर मुझे पार्टी में ऐज़ ए. मेंबर शामिल होने के लिए तैयार होना ही पड़ा। जिसके लिए मुझे पैसा मिलना नहीं था। बल्कि एक मोटी रकम देनी थी। सुहेल और जेवियर ने यह पार्टी अरेंज करने वालों से बात करके मुझे शामिल करने की परमीशन ले ली।
वह लोग कई बातों की जांच-पड़ताल करने के बाद मुझे बतौर सदस्य शामिल करने को तैयार हुए। लेकिन शामिल होने की फीस में उन लोगों ने एक पैसे की रियायत नहीं की। जाने के लिए तैयार होने के बाद मैंने सोचा चलो यह भी देख लेंगे कि यह पार्टी कैसे होती है? लोग पैसे की हवस, तन की हवस में किस सीमा तक, कहां तक जा सकते हैं, यह भी देख लेंगे। पार्टी कहां होगी यह मुझे आखिर तक नहीं बताया गया।
मैंने सोचा सब अपनी-अपनी बाइक से चलेंगे। लेकिन तय समय पर हम एक लग्ज़री एसयूवी गाड़ी में चले जा रहे थे। कोई मोबाइल में गेम खेल रहा था। तो कोई किसी से बतियाने में लगा था। गाड़ी किधर जा रही है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जब गुरुग्राम क्रॉस कर गई तो मुझसे रहा नहीं गया। अपने से आगे वाली सीट पर बैठे सौमित्र से पूछा अरे यार अब तो बता दो कहां चल रहे हैं। तो वह हल्के से हंस कर बोले यार इतना परेशान क्यों हो रहे हो? जहां जा रहे हैं गाड़ी वहीं जा कर रुकेगी। क्यों टेंशन ले रहे हो? मुझे खुद नहीं मालूम है। मुझे कोई टेंशन नहीं है। शायद जेवियर ही कुछ जानता हो।
सौमित्र ने जिस तरह से बात टाली। उससे मैं समझ गया कि कोई कुछ बताने वाला नहीं है। इसलिए चुप हो गया। जेवियर से भी नहीं पूछा। जानता था कि वह सौमित्र से बड़ा घाघ है। मैं अपने को चंगुल में फंसा हुआ महसूस कर रहा था। गाड़ी जब रेवाड़ी से पहले धारूहेड़ा में एक बड़ी सी कंपनी के कैंपस में रुकी तो मैं कुछ घबड़ाया कि पार्टी और वो भी ऐसी पार्टी और इस कंपनी का क्या कनेक्शन? वह कंपनी होम एप्लायंसेज़ बनाने वाली अच्छी खासी बड़ी कंपनी थी।
 ड्राइवर उतर कर अंदर गार्ड के पास गया। दो मिनट बाद एक गार्ड आया और हम सब को लेकर अंदर चला गया। अंदर करीब पूरी कंपनी क्रॉस कर आखिर में एक बड़े हॉल में सब पहुंचे। खूबसूरत हॉल था। हॉल में करीब तीस-पैंतीस लोग थे। जिनमें बहुत से युवकों के साथ-साथ टीन एज लड़कियों से लेकर प्रौढ़ सी दिखती औरतें भी थीं।
 हल्का-हल्का बड़ा मादक सा इंडियन-वेस्टर्न फ्यूजन म्यूज़िक चल रहा था। सब के हाथों में सिगरेट, हाथ में जाम थे। पूरे माहौल में अजीब सी स्मेल थी। लाइट कम थी। चारों दिवारों की फुटलाइट जल रही थीं। कुछ फैंसी लाइटें भी जल रही थीं। सब पूरी मस्ती में झूम रहे थे। ड्राइवर अंदर पहुंचा कर वहीं बैठे एक आदमी से कुछ कह कर चला गया। उसके जाते ही दरवाजा बंद हो गया। और दो-तीन स्मार्ट से लोग हाय फ्रेंड कहते हुए आगे आए। कमऑन फ्रेंड आने में बड़ी देर कर दी।हालांकि अभी बारह ही बजे थे और ऐसी पार्टियों के लिए यह समय शुरू होने का होता है। हम लोगों को साथ में ऐसे शामिल कर लिया गया जैसे कि ना जाने हम कितने पुराने यार हों। फिर किसी ने म्युजिक तेज़ कर दिया और सब लोग डांस करने लगे।
डांस क्या था उन सब के हाव-भाव जैसे थेे उस हिसाब से सबसे सटीक शब्द उसके लिए मैथुनी नृत्यही हो सकता था। कोई किसी को चिपका रहा था तो कोई किसी को। कोई सोफे पर बैठा तो कोई कहीं बैठा मस्ती में हिला-डुला जा रहा था।
मेरे सारे मित्र ऐसे चिपटे जा रहे थे लड़कियों से, उनकी बॉडी लैंग्वेज, उनकी आपसी कैमिस्ट्री ऐसी लग रही थी कि ना जाने वो कितने क्लोज फ्रैंड हैं। पूरी पार्टी में मैं ही एकदम अलग-थलग सा नजर आ रहा था। आगे क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कोई एक घंटा बीतते-बीतते पार्टी चरम पर पहुंचने लगी। कोई नाचता तो कोई कहीं बैठ जाता। फिर नाचने वालों की संख्या कम हो गई। हमारी मित्र मंडली, कुछ लड़कियों का गुत्थम-गुत्था बढ़ता जा रहा था।
इस गुत्थम-गुत्था में इन सब के कपड़े देखते-देखते गायब होने लगे। फिर जल्दी ही वहां जो शुरू हुआ वह मुझे कतई पसंद नहीं आया। इतने लोगों के सामने मित्र मंडली को उन लड़कियों के साथ सेक्स के अजीब-अजीब रूप पेश करते देख कर मैं दंग रह गया। इनके अलावा वहां उपस्थित तमाम अन्य महलिाएं भी इस सेक्स गेम में हाथ साफ कर रही थीं। पुरुष भी। रात भर चली इस लाइव सेक्स पार्टी में लाइव सेक्स का नंगा नाच देखकर मैं हतप्रभ था। मुझे लग रहा था कि हमारा इंडियाअब वाकई इंडियाहो गया है। भारत या हिंदुस्तान तो अब रहा ही नहीं है। भारत से हज़ारों मील आगे निकल गया है। वह भारत जहां नैतिकता पर बड़े-बड़े ग्रंथ हैं। बड़ी-बड़ी बातें हैं।
           अगले दिन जब मंडली वापस घर पहुंची थी तो ऐसी थकी थी। ऐसी खुमारी में थी कि सब जहां जैसे बिस्तर मिला वैसे ही उसी पर पसर गए। सबकी आंखें चेहरे अजीब से सूजे-सूजे हो रहे थे। नींद मुझे भी बड़ी तेज़ आ रही थी। लेकिन मन इतना खराब हो रहा था कि मैंने ब्रश किया। शॉवर वगैरह लेकर तब बिस्तर पर आया। वहां शराब, तरह-तरह के नॉनवेज और पहली बार ड्रग्स भी ली थी। मेरा सिर अब भी पकड़े हुए था। मैंने हैंग ओवर उतारने के लिए एक पैग व्हिस्की ली और सो गया।
 मैं जब शाम को सो कर उठा, मेरी मित्र मंडली तब भी सो रही थी। सब ड्रग्स के कारण पस्त थे। मैं तैयार होकर प्रोफ़ेसर साहब के यहां चला गया। मैं अपने को इस पार्टी की धुंध से बाहर निकालना चाहता था। प्रोफ़ेसर के यहां मैंने काफी समय बिताया। उसके बाद एक और दोस्त के पास ग्रेटर कैलास चला गया। उससे बहुत दिन बाद मिला था। वह एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में अच्छी पोजीशन पर था। और बहुत बिजी रहता था।
वह जब मिला तो हाल-चाल के बाद थोड़ा वेट करने कोे बोला। बाद में वह मिला, तमाम बातें हुईं। और फिर रात उसी के यहां रुकना तय हो गया। नांगलोई में उसके घर में रात को बड़ी देर तक जब वह सो गया तब भी जागता रहा। सोचता रहा कि मुझे इस मंडली से अब जल्दी से जल्दी छुट्टी ले लेनी है। गिगोलो, रेव पार्टी के बाद अब ये सब किंक स्टार बनने की सोच रहे हैं। क्रुएल सेक्स क्लब बीडीएमएस ज्वॉइन कर रहे हैं। इनकी कोई लिमिट है भी क्या? यह सब जिस तरह से आगे बढ़ रहे हैं उससे यह तय है कि एक दिन फंसेंगे जरूर।
इन सब के तो आगे-पीछे इनका परिवार है। लेकिन मेरा परिवार? वह तो कभी एक फ़ोन कर पूछता भी नहीं कि कैसे हो? जब मैं फ़ोन करता हूं तभी बात होती है। वह भी पापा को छोड़कर बाकी सब ऐसे बात करते हैं जैसे ऊब रहे हों। पीछा छुड़ाते हैं। ऐसे में मुझे खुद ही अपने लिए सब करना है। मैं जब उस दोस्त के यहां से अगले दिन निकला तो यह तय कर के निकला कि जैसे भी हो इसी हफ्ते इस मंडली को बॉय करना है। मैंने उसी दिन ब्रोकर से बात कर वन रूम सेट का हर हाल में जल्दी से जल्दी इंतजाम करने को कहा।
मैंने शंपा जी के घर के पास ही मकान लेना तय किया था। इस लिए ब्रोकर को वही जगह बताई। तीसरे दिन उस एरिया में उसने कई मकान दिखाए। उन्हीं में से एक मैंने ले लिया। वह कुल मिला कर छोटा सा एक अपॉर्टमेंट था। आने-जाने के टाइम को लेकर वहां कोई बंदिश नहीं थी। लैंडलॉर्ड कहीं बाहर रहता था। और मैंने वन बी. एच. के, फ्लैट लिया था। फ्लैट में ताला लगा कर जब घर पहुंचा तो मंडली को मैंने बताया। पूरा झूठ बताया कि मेरे फादर एक दो महीने के लिए आ रहे हैं। इस लिए मैं शिफ़्ट हो रहा हूं। यहां एक और व्यक्ति के लिए स्पेस नहीं है, इस लिए जा रहा हूं। अचानक ही यह जान कर मंडली बोली।
 ‘अरे बोलते तो हम में से एक दो लोग कुछ दिन कहीं और शिफ़्ट हो जाते। ऐसे अचानक छोड़ने की ज़रूरत क्या है?’ मंडली को मेरा घर छोड़ना नहीं अखरा था। अचानक यूं छोड़ना अखरा था। लेकिन मैंने तय कर लिया तो शिफ़्ट भी कर गया। मैं अपने नए ठिकाने पर मंडली को बुलाना नहीं चाहता था। सच यह था कि मंडली से अब संपर्क ही नहीं रखना चाहता था। कम से कम बात की। और एड्रेस वगैरह भी नहीं बताया। उनमें से किसी ने पूछा भी नहीं। हालांकि यह फैसला लेना मेरे लिए थोड़ा कठिन था। क्यों कि इस मंडली ने कई मौकों पर मेरी बड़ी मदद की थी। और मैं यह भी जानता था कि मंडली मेरे इस आचरण पर मुझे एहसानफरामोश ज़रूर कहेगी। लेकिन हतप्रभ कर देने वाली रेव पार्टी ने मेरा मन ऐसा तोड़ा, ऐसा विरक्त हुआ कि मैं चाहता तो भी अपना फैसला नहीं बदल सकता था।
शंपा! शंपा के करीब घर लेने का मेरा मकसद एक ही था कि इतने दिन बीत जाने के बाद भी मैं उन्हें अपने दिमाग में बराबर बसा हुआ पा रहा था। मुझे लगता जैसे वह मुझे खींच रही हैं। उनका रूखा, तेज़-तर्रार व्यवहार ना जाने क्यों मुझे सम्मोहित कर रहा था।  प्रोफे़सर द्वारा मना करने के बावजूद मैं उन्हें भुला नहीं पा रहा था। इसलिए मैं मिलने के रास्ते ढूंढ़ने लगा। जिस रास्ते से वह निकलतीं जानबूझ कर उसी रास्ते पर जाता। मुझे यह तरीका स्कूली लड़कों वाला बचकाना सा लगा। लेकिन सफल हुआ और कई मुलाक़ातें र्हुइं।
मैं उन्हें बहुत आदर के साथ नमस्कार करता। वह जवाब हालांकि बेरूखेपन ही से देतीं। कुछ और रास्ता निकालने की सोच ही रहा था कि एक दिन अचानक ही वह फिर मिल गईं। इस बार उन्होंने पूछ ही लिया कि इधर कोई काम करते हैं जो आपका बराबर आना-जाना रहता है।मतलब साफ था कि वो मुझे पहले भी देख चुकीं थीं। सिरा छोर मुझे दिख गया तो मैंने पकड़ने में देरी नहीं की। मैंने छूटते ही बता दिया कि मैं यहीं पास में रहता हूं। जिस कंपनी में काम करता हूं वह भी यहां से करीब है। वह अब भी बेरूखी ही शो करती रहीं लेकिन मैं बोलता रहा।
मैंने कहा मैं अपनी जॉब से सैटिसफाइड नहीं हूं। किसी कॉलेज में जॉब के लिए ट्राई कर रहा हूं लेकिन मेरी तैयारी ठीक नहीं है। इत्तेफाक से आप मिल गईं हैं तो मैं.....मैं यह रिक्वेस्ट करना चाह रहा हूं कि आप मुझे मेरे सब्जेक्ट पर कुछ ऐसी तैयारी करा दें जिससे मैं इंटरव्यू वगैरह क्लीयर कर सकूं। मेरी इस बात पर वह कुछ देर मुझे देखती रहीं। फिर बोलीं मैं आपकी क्या तैयारी कराऊंगी। डॉक्टरेट आपने की है मैंने नहीं।उनकी यह बात मुझे चाबुक सी लगी। लेकिन मैं किसी भी सूरत में अवसर चूकना नहीं चाहता था। तो तुरंत अपनी झेंप छिपाते हुए बोला मैंने डॉक्टरेट कैसे की है यह आप मुझसे ज़्यादा जानती हैं। हां क्योंकि आप के पास इन सब चीजों को फेस करने का एक शॉर्प विज़न है। आप तरीका जानती हैं। थोड़ा सा गाइड कर देंगी तो मुझे सक्सेज मिल जाएगी।
मैं अपने कॅरियर को सही रास्ते पर बढ़ा सकूंगा। अचानक मेरे दिमाग में आया कि यह पैसे के लिए काम करती हैं तो मैंने साफ-साफ कह दिया कि आपकी जो भी फीस होगी वह मैं दूंगा। फीस की बात आने पर वह थोड़ी देर सोचती रहीं फिर बोलीं आप के प्रोफ़ेसर साहब क्या आपको कुछ नहीं बताते।अब मैं फिर फंस गया। लेकिन बात को संभालते हुए कहा एक्चुअली वो समय नहीं निकाल पाते। दूसरे यहां से इतनी दूर हैं कि रोज जॉब के कारण पहुंच पाना मुश्किल हो रहा है। जब मिलते हैं तो बहुत कुछ बताते हैं। आप यहां वॉकिंग डिस्टेंस पर हैं तो मैंने सोचा आप से मदद ले लूं। जितना समय मैं प्रोफ़ेसर साहब के पास जाने में लगाऊंगा उतने समय में आप से बहुत कुछ जान लूंगा।
मैंने शंपा जी के लिए जब कोई रास्ता नहीं छोड़ा तो उन्होंने फीस पर मामला अटका दिया। आखिर मैंने उनके ही हिसाब से इसका भी हल निकाल दिया कि घंटे के हिसाब से पेमेंट दूंगा। टाइम के लिए यह तय हुआ कि जब उनके पास समय होगा तो वह मुझेे फ़ोन कर दिया करेंगी। इस तरह उनसे मिलने का रास्ता निकल आया। मैंने प्रोफे़सर को कुछ नहीं बताया। सोचा शंपा जी उन्हें बताएंगी तो देखेंगे। उन्हें भी किसी तरह मैनेज कर लेंगे।
पहली दो-तीन मीटिंग तो इसी में निकल गईं कि मुझे समझना जानना क्या है? और उन्हें समझाना क्या है? ज़्यादातर बातें बस इधर-उधर की हुईं। इस दौरान कॉफी, सिगरेट भी चली। चौथी बार जब मैं पहुंचा तो जिस ब्रांड की सिगरेट वो पीती थीं वही सिगरेट और एक खूबसूरत सा लाइटर ले लिया। मैंने सोचा नाराज ना हो जाएं। लेकिन उन्होंने खुशी-खुशी लिया। यहां तक कि मुंह में सिगरेट लगा कर लाइटर मुझे ही जलाने को कहा।
यह मीटिंग्स अब जल्दी ही बड़े कम अंतराल पर होने लगीं। मुझसेे मेरे विषय के बारे में तो कम हां अन्य बातें ज़्यादा होने लगीं। एक महीना पूरा होने पर जब मैंने पेमेंट करने के लिए टोटल किया तो करीब बांसठ घंटे निकल रहे थे। बिल बड़ा लंबा हो गया था। मैं परेशान हो गया कि महीने भर की पूरी कमाई इन्हीं के हवाले हो जाएगी। लेकिन जो तय किया था उस हिसाब से मैं कोई बार्गेनिंग नहीं कर सकता था। तो पेमेंट करने पहुंचा। उन्हें बताया शंपा जी इतने घंटे का इतना बिल हुआ है, आप अपना एकाउंट नंबर बता दें तो पैसा ट्रांसफर कर दूं।
यह कहने पर सिगरेट का एक कश लेकर मुझे देखा फिर खिलखिला कर हंसी। और कहा बहुत इनोसेंट हो तुम। कोई इतनी फीस देता है क्या?’ इसके बाद उन्होंने दस हज़ार रुपए ट्रांसफर करने को कहा। मैंने उन्हें बार-बार थैंक्यू बोला। एक बात जरूर थी। कि मुझे मेरे विषय। और इंटरव्यू को कैसे फेस किया जाता है। इस बारे में उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें बर्ताइं। कई बार उनकी बातें सुनकर मन में आता कि यह तो प्रोफे़सर साहब ने भी नहीं बताया।
धीरे-धीरे दो महीने बीत गए। हमारे बीच का रिश्ता एक मेंटर और लर्नर से आगे जाकर क्लोज फ्रेंड में तब्दील हो गया। इस बीच मैं प्रोफे़सर साहब से कई बार मिला। लेकिन उन्होंने शंपा जी को लेकर कोई बात नहीं उठाई। मतलब साफ था कि शंपा जी ने भी उन्हें कुछ नहीं बताया। हमारी मित्रता अब खाने-पीने से आगे बढ़ चुकी थी। मेरे साथ अब वह घूमने भी चलने लगी थीं। बड़ी चीज यह कि वह मुझे फालतू पैसे खर्च करने से सख्त मना करतीं। बीच-बीच में जिद करके खुद भी खर्च करतीं। लेकिन अपनी फीस लेने में रियायत ना करतीं।
जीवन के हर क्षेत्र को लेकर उनका कंसेप्ट इतना क्लीयर था कि जब उन्हें लगता कि मैं मित्रता की सीमा क्रास कर रहा हूं तो वह बड़ी शालीनता से टोकतीं। इट इज नॉट अ पार्ट ऑफ फ्रेंडशिप,समीर। इट्स अ मैटर ऑफ सेक्स। ओ. के.।इतना ही नहीं। मुझे जरा भी एक्साइटेड पातीं तो निसंकोच कहतीं। समीर मैं तुममें अपने लिए सेक्स डिज़ायर देख रही हूं। हम अभी सिर्फ़ एक फ्रेंड हैं।यह कह कर वह मुझे एक दम पानी-पानी कर देतीं।
मैं बगलें झांकने लगता। तो कहतीं। जो मन में हो उसे कहने की हिम्मत रखो, मैं नहीं समझ पा रही हूं कि तुम मेरे साथ इतना करीबी रिश्ता क्यों बनाना चाह रहे हो। मैं यह साफ कह दूं कि मैंने अपनी जो दुनिया बना रखी है उसमें मैं कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हूं। मैं तो यही आश्चर्य में हूं कि मैंने तुमसे फ्रेंडशिप ही कैसे बना ली? मुझे लगता है कि यह बन गई। मैंने बनाया नहीं।
 मैं नहीं समझ पा रही कि आखिर तुम मुझसे दस-बारह साल छोटे हो फिर यह रिश्ता मुझसे क्यों बनाना चाह रहे हो? आखिर क्या चाहते हो मुझसे?’ मुझसे वही पुराना घिसा-पिटा डायलॉग ही निकल सका। कि मैं आपकोे खुश देखना चाहता हूं, रेगिस्तान से दूर हरी-भरी वादियों में ले आना चाहता हूं। इतना कहते ही शंपा जी बेहद गंभीर होकर बोलीं। क्यों? क्यों लाना चाहते हो? क्या रिश्ता है मेरा तुम्हारा?। फिर तुमने ये कैसे तय कर लिया कि मैं रेगिस्तान में हूं।
           मैंने कहा अकेलापन। मैं अकेलेपन को रेगिस्तान में अकेले रहने जैसा मानता हूं। मैं अकेले रह रहा हूं। और खुद को मैं रेगिस्तान में पाता हूं। और आप भी अकेले हैं तो...। मैंने देखा कि मेरीे इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं है। तो आगे भी बड़ी बेबाकी से कह दिया कि आप कहती हैं मन में जो आए उसे कहने की हिम्मत रखनी चाहिए, तो आपकी इस बात से ही हिम्मत कर पा रहा हूं कि मैं चाहता हूं कि आप आज अपनी इस दुनिया से निकल कर एक रात मेरी दुनिया में मेरे घर पर बिताएं। इससे मैंने जो रेगिस्तान की बात की है उसे समझने में और आसानी होगी। मैंने सोचा था कि शायद वो मेरी इस बात पर शॉक्ड होंगी। लेकिन ऐसी कोई प्रतिक्रिया उन्होंने नहीं दी। शांत अपनी कुर्सी से उठीं मेज पर रखी सिगरेट निकाली, जला कर कश लेती हुई कमरे की खिड़की के पास खड़ी हो गईं।
          उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि उनके दिमाग में कोई गहन उथल-पुथल, मंथन चल रहा है। कमरे में असहनीय सन्नाटा छाया हुआ था। मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी कि आखिर शंपा जी का जवाब क्या होगा? इनके अंदर कौन सा तुफान चल रहा है? वह किस रूप में बाहर आएगा? मैंने भी एक सिगरेट सुलगा ली। और जब रहा नहीं गया तो बड़े सशंकित क़दमों से उनके पीछे पहुंचा और डरते हुए उनके कंधे पर हाथ रख कर हल्के से दबा कर कहा। मेरी बात से यदि आपको कष्ट हुआ है तो मुझे बहुत दुख है। मैं फिर कहता हूं कि मेरा... खैर छोड़िए। आप जैसा कहेंगी मैं वैसा ही करूंगा। मेरी तरफ से कोई प्रेशर नहीं है।
मैं अपनी बात खुल कर कह नहीं पा रहा था। उनकी तरफ से प्रतिक्रिया में हो रही पल-पल की देरी से मैं यही सोचने लगा कि मेरी बात से उनको कष्ट पहुंचा है। और क्रोध की अधिकता के कारण वह बोल नहीं रही हैं। मुझे लगा कि सॉरी बोल चैप्टर क्लोज किया जाए। उनके कंधे से मैंने हाथ धीरे से वापस हटाना चाहा तो अचानक ही उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठा कर कंधे पर रखे मेरे हाथ को हल्के से  दबा दिया। उस स्पर्श में इतना अपनत्व था कि मैं सिहर उठा। मेरा पूरा बदन गनगना उठा। कोई बोल मुंह से ना निकले। फिर उन्होंने एक गहरी सांस ली। मेरे हथेली को अपने हाथ में लिए-लिए पलटी और बोलीं यदि मैं यह कहूं कि तुम खुद को हरी-भरी वादियों में लाने के लिए मुझे माध्यम बना रहे हो तो?’
मैंने कहा नहीं आप ऐसा ना सोचें। हरी-भरी वादियों की कोई अर्थवत्ता तभी है जब कोई अपना भी हो साथ में। हमें लगा कि हम दोनों ही एक दूसरे के लिए अच्छे साथी साबित होंगे। मेरी इस बात पर वह बड़ी देर तक चहलक़दमी करने, सिगरेट पूरी करने के बाद बोलीं ओ.के.,आज रात तुम्हारे साथ, तुम्हारे घर पर बिताऊंगी। देखूंगी कि तुम मेरी रेगिस्तान बनी दुनिया में कितनी हरियाली बिखेर पाते हो।शंपा जी की आवाज़ अजीब सी हो रही थी। जैसे वो किसी विशाल एकदम खाली हॉल में बोल रही हों। उनके इस जवाब से मुझे बहुत खुशी हुई।
मैंने दोनों हाथों से उनके कंधे को हल्के से पकड़ कर कहा। थैंक्यू। मैं आपको लेने कितनी देर बाद आ जाऊं। उन्होंने नौ बजे का टाइम दिया। साथ ही यह कहना ना भूलीं कि समीर किसी फॉर्मेलिटी की ज़रूरत नहीं है।मैं ओ. के. कह कर घर आ गया। घर की हालत ठीक की। इसमें मुझे अच्छा खासा वक्त लग गया। मेरे पास कुल तीन घंटे थे। फिर भी जितना काम था उस हिसाब से समय कम था। मैंने एक दम आखिर में शंपा जी की पसंद के हिसाब से एक बढ़िया होटल से डिनर, शानदार व्हिस्की, सिगरेट सब लाकर रख दिए। रूम फ्रेशनर पूरे घर में स्प्रे कर दिया। और ठीक नौ बजे शंपा जी के सामने हाजिर हो गया। मुझे डर था कि लेट ना हो जाऊं। लेकिन एग्जेक्ट नौ बजे पहुंच गया था। मुझे देख कर वह मुस्कुराईं।
मैंने कहा मैं लेट तो नहीं हुआ तो वह बोलीं नेवर।उनकी आंखें उनका चेहरा देखकर मुझे लगा जैसे वह मेरे जाने के बाद देर तक खूब रोई हैं। लेकिन मैंने कुछ पूछना उचित नहीं समझा।
मैंने सीधे कहा आप तैयार हैं। टाइम हो गया है। मैंने देखा कि उन्हें मैं जैसा छोड़ गया था वह बिलकुल वैसे ही हैं। ऐश ट्रे में सिगरेट के टुकड़े बता रहे थे कि उन्होंने तीन घंटे में आठ-नौ सिगरेट पी डाली है। उन्होंने कहा ठीक है बैठो, बस चेंज कर लूं फिर चलती हूं।अस्त-व्यस्त शंपा जी मेरे बैठने का इंतजार किए बिना बाथरूम गईं। हाथ-मुंह धोकर आईं। अलमारी से कुर्ती, जींस निकाली फिर इशारे से ही मुझसे मुंह दूसरी तरफ घुमा लेने को कहा। मैं तुरंत दूसरी तरफ घूम गया। वहां चेंज करने के लिए कोई दूसरा स्पेस नहीं था। वह चेंज करती हुईं बोलीं।
तुमने आज यह अचानक ही कह दिया। पहले कभी ऐसा कोई संकेत दिया ही नहीं। मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूं कि मुझे चलना चाहिए कि नहीं।मैंने तुरंत कहा मैं समझता हूं कि यदि क़दम उठ जाएं तो उन्हें रोकना नहीं चाहिए। हमें कुछ चीजें समय पर छोड़ देनी चाहिए। उसे ही सही गलत तय करते हुए देखते रहना चाहिए। मेरी इस बात पर बोलीं। शायद इस समय मैं यही कर रही हूं। मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि तुम्हारी बातों में क्या था। ऐसी कौन सी एनर्जी है जिसने मुझे मेरी दुनिया से बाहर आकर कुछ और देखने के लिए निकाल लिया।
मैंने कहा मैं आपको क्या बताऊं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, शायद यही नियम हम दोनों के बीच भी खुद को साबित कर रहा है। इस पर वह हंसती हुई बोलीं पता नहीं क्या। खैर तुम मुड़ सकते हो।मैं फिर से उनकी तरफ मुखातिब हुआ। उन्होंने चेंज कर लिया था। बालों में जल्दी-जल्दी आठ दस कंघी कर पिन लगाया, अपना हैंड बैग लिया, मोबाइल उठाया, बोलीं। चलो! इस यकीन के साथ चल रही हूं कि जैसा तुम कह रहे हो मुझे वैसा ही अनुभव मिलेगा।उनकी इस बात पर मैंने इतना ही कहा मेरी कोशिश में कोई कमी नहीं रहेगी।
बाहर आकर बाइक स्टार्ट की, जब वह बैठ गईं तो मैंने उनसे कहा मैंने सोचा कि एक टैक्सी कर लूं। फिर आपकी बात याद आई कि फॉर्मेलिटी ना करने की आपने हिदायत दी है। और आपकी किसी बात को मैं टालने के पक्ष में बिलकुल नहीं रहता। अच्छा किया। मुझे बिलकुल अच्छा ना लगता यदि तुम टैक्सी लाते।बाहर का मौसम अच्छा खासा गुलाबी सा हो रहा था। मार्च का दूसरा हफ्ता था। हवा कुछ तेज़ और ठंडी थी। बाइक पर और अच्छी लग रही थी। शंपा जी पीछे बैठी थीं। उनके दोनों हाथ मेरी कमर के गिर्द कसे हुए थे। हम छह-सात मिनट में घर पहुंचे। गाड़ी खड़ी कर उन्हें लेकर ऊपर घर के सामने पहुंचा अंदर दाखिल होने के लिए जब इंटरलॉक खोल रहा था तब वह बोलीं बाहर कितना बढ़िया मौसम है, मन कर रहा है कि थोड़ी देर और घूमें।मैंने छूटते ही कहा तो चलूं। तो वह हंसते हुए बोलीं, ‘नहीं-नहीं मैं तो ऐसे ही कह रही थी।
          छह-सात मिनट के रास्ते में मैंने और शंपा जी ने दो चार बातों के अलावा और कोई बात नहीं की थी। अंदर आकर पहले मैंने उन्हें पूरा घर दिखाया और कहा मुझे उम्मीद है कि यहां आप कोई असुविधा महसूस नहीं करेंगी। वह बोलीं बिलकुल नहीं।बहुत अच्छा लग रहा है। मुझे ऐसी सादगी में ही जीवन का सौंदर्य दिखता है। वह बॉलकनी में खड़ी होकर बोलीं यहां इस ऊंचाई से बाहर का मौसम अच्छा लग रहा है। हवा रेशम सी फील दे रही है।उनकी बॉडी लैंग्वेज़, बातों से मुझे लगा कि वह यहां आकर खुश हुई हैं। मुझे इससे बेहद खुशी हुई। मैंने टी.वी. ऑन कर दिया। तभी उन्होंने फिर सिगरेट सुलगा ली। मुझे भी ऑफर किया।
स्टडी टेबल पर रखी फोटो देखकर बोलीं। यदि मैं गलत नहीं हूं तो यह आपके पैरेंट्स हैं।मैंने कहा हां। मां अब नहीं हैं। इस पर बोलीं ओह और पापा?’ मैंने कहा वह लखनऊ में ब्रदर के पास रहते हैं। इसके बाद कुछ और बातें कीं एक गिलास ठंडा पानी पिया और बोलीं समीर मैं सोच रही हूं कुछ देर बॉलकनी में बैठते हैं। अभी तो दस भी नहीं बजा है।वास्तव में उन्होंने मेरे मन की बात कह दी थी। मैंने दो कुर्सियां वहीं डालीं। बीच में एक छोटी टेबल भी। वहीं बैठकर हमारी बातें फिर शुरू हुईं।
          मैंने देखा शंपा जी मूड में हैं, और ना जाने कितनी बातें कह देना चाहती हैं। अंदर कमरे में मैंने टीवी बंद कर दिया। और म्यूजिक सिस्टम पर शंपा जी की पसंद का सेमी क्लॉसिकल म्यूजिक ऑन कर दिया। जिसकी आवाज़ बॉलकनी में हम तक धीरे-धीरे पहुंच रही थी। शंपा जी रह-रह कर बातें कर रही थीं। मगर इन बातों में वह अपने बारे में कुछ नहीं कह रही थीं। वह पूरे सिस्टम की बात कर रही थीं। उन्हें वर्तमान सिस्टम में बहुत सी खामियां नजर आ रही थीं। उनकी बातें धीरे-धीरे डेफ्थ और ज़्यादा डेफ्थ में जा रही थीं।
मेरे सामने एक नई शंपा ऊभर कर आ रही थी। एक अलग ही तरह की शंपा का जन्म हो रहा था। मैं अभिभूत हो रहा था। तभी उन्होंने पानी मांगा। तो मैंने पानी के साथ ही व्हिस्की के दो स्माल पैग बनाए। आइस क्यूब डाले और सामने रखते हुए कहा मुझे लगता है ये माहौल को और बेहतर करेंगे। वह बोलीं मैं कहनेे ही वाली थी।फिर एक शिप लेकर बोलीं लगता है मेरी हर चीज़ को तुमने बड़ी बारीकी से रीड किया है। ये मेरा पसंदीदा ब्रांड है।मैंने कहा मेरी कोशिश यही है कि जो भी करूं वह बेहतर हो। तुम अपनी कोशिश में अब तक तो सफल हो समीर। आगे के बारे में मैं जानती नहीं।
इसके बाद शंपा जी की नॉन स्टॉप बातें, सिगरेट चलती रहीं। मुझे लगा कि ऐसे खाने का मजा चला जाएगा। ग्यारह बज गए हैं लेकिन बातें ऐसी थीं कि मेरा भी उठने का मन नहीं कर रहा था। शंपा जी की नजर में देश बड़े गंभीर संकट से गुजर रहा है। वह खोखला हो रहा है। युनिवर्सिटीज, कॉलेज या अन्य जगहों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो हो रहा है वह वास्तव में साजिश है। आज़ादी के नाम पर विखंडन की प्रक्रिया चलाई जा रही है। वह कहतीं कि यह सब विदेशी फंडिंग, विदेशी साजिश का परिणाम हैं। कुछ लोग इन्हीं के इशारे पर नाच रहे हैं। वह बोलीं जानते हो समीर हमारे समाज की मुख्य समस्या क्या है?’
मैंने कहा नहींतो वह बोलीं आश्चर्य है, तुम्हें मालूम होना चाहिए। खैर बताती हूं। वह है धर्म की अफीम। पहले यह धर्म समाज को दिशा देता था। राजदंड के साथ मिल कर समाज को आगे बढ़ाता था। लेकिन अब धर्म लोगों में अफीम के नशे सा मिल गया है। लोगों को देश, समय से कोई लेना-देना नहीं है। सब अपने स्वार्थ से आगे सोचते ही नहीं। यह अफीम इतनी फैल चुकी है कि देश ही नहीं समीर यह पूरी दुनिया के अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। तमाम देशों में भरे पड़े एटैमिक वेपन इन अफीमचियों के हाथों में कभी भी पड़ सकते हैं। और यह स्थिति बंदर के हाथ में अस्तुरा जैसी होगी। ये पृथ्वी के लिए संकट की घड़ी है। जानते हो समीर हम दोनों इस संकट से मुक्ति की बात करते थे। रास्ता ढूंढनें की कोशिश करते थे। लेकिन क्रूर समय ने उन्हें निगल लिया।
          वह दुनिया के बारे में कॉर्ल सागन से आगे सोचते थे। कहते थे। हमारे देश ने दुनिया को वसुधैव कुटुंबकम का सिद्धांत दिया है। मैं इसे और आगे ले जाऊंगा। बड़ी गंभीरता से कहते शंपा, टेेक्नोलॉजी जिस तेज़ी से आगे बढ़ रही है उससेे हम जल्दी ही अंतरग्रहीय व्यवस्था के युग में प्रवेश कर जाएंगे। और मेरा प्रयास होगा, मेरी कोशिश यही है कि हम वसुधैव कुटुंबकम से आगे ब्रह्मांडम् कुटुंबकम बनाएंगे। दुख नाम की चीज़ इस ब्रह्मांड में नहीं होगी। मगर समीर क्या मालूम था कि उनका सपना सपना ही रहेगा। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैं धर्म की अफीम से अपने को बचाने में सफल रही हूं। मैं अपने हसबैंड के विचार ब्रह्मांडम् कुटुंबकमको इस दुनिया के सामने जल्दी ही लाऊंगी। मैं एक चीज तुम्हें अभी बता देना चाहती हूं कि इसमें मुझे तुम्हारे सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी।
तुमसे मैं या यूं कहूं कि किसी से सहयोग लूंगी यह मैंने पिछले दो महीने में तुम्हारे विहैवियर को देखने के बाद सोचा। दूसरे शब्दों में कहें कि तुमने ऐसा कर दिया।मैंने कहा कि मैं अपने को लकी मानता हूं कि आपने मुझे इस ज़िम्मेदारी के लायक माना। वह बात आगे बढ़ाएं इसके पहले मैंने कहा कि अगर आपका मूड हो तो बातों के साथ-साथ डिनर भी शुरू करें। गरम-गरम अच्छा लगेगा। हालांकि सभी हॉट-पॉट में हैं। उन्होंने मेरी बात पर मोबाइल उठा कर टाइम देखा फिर बोलीं। ठीक कहते हो। टाइम हो गया है। समीर जब मैं हसबैंड के साथ थी तो भी हम दोनों ऐसे ही बातें करते थे।
मैं ज़्यादा बात करती थी। हम दोनों जी-तोड़ मेहनत करते थे। खाना-पीना बस ऐसे ही हो जाता था। ब्रेड, दूध, अंडा, या मौसमी फल वगैरह। बाद में जैसे-जैसे इंकम बढ़ी वैसे-वैसे खाने-पीने का सिस्टम बदला। महीने में तीन चार दिन होटल में खाने लगे। वो किचेन में ज़्यादा समय देना पसंद नहीं करते थे।मैंने कहा तो क्या वो किसी एक्टिीविस्ट की तरह किसी बड़े अभियान की योजना बना रहे थे। बॉलकनी से जब मैं शंपा जी को लेकर खाने की टेबल की तरफ बढ़ा तभी यह पूछ लिया। उस वक्त मैं उनको कमर के पास पकड़े हुए चल रहा था। फिर चेयर खींच कर बैठाया। दूसरी तरफ आकर मैंने टेबल पर रखे कई हॉट-पॉट एक-एक कर खोलने शुरू किए। यह सारे हॉट-पॉट मैं आनन-फानन में यह प्रोग्राम निश्चित होने के बाद ही खरीद कर ले आया था। जिससे शंपा जी को गरम-गरम डिनर करा सकूं।
           एकदम नए इतने हॉट-पॉट देखकर उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने कह ही दिया लगता है कि तुमने बहुत पैसे खर्च किए हैं।मैंने कहा ऐसा कुछ नहीं है। बस कोशिश यह की कि सब कुछ अच्छा हो। हां मैं समझ रही हूं कि तुम सफल हो। लेकिन इतने सारे पॉट में तुमने क्या-क्या रखा हुआ है?’ मैंने कहा मैंने हर वह चीज लाने की कोशिश की हैं जिन्हें खा कर अच्छा लगे।
 मेरी इस बात पर वह हल्की मुस्कुराहट के साथ मुझे देखती रहीं फिर बोलीं मैं नहीं समझ पा रही हूं कि तुम मेरे लिए क्यों इतना परेशान हो।क्रैब डिश उनकी प्लेट में डालते हुए कहा लीजिए पहले इसे टेस्ट कीजिए। क्रैब का एक पीस मुंह में डालते हुई बोलीं आज सालों बाद क्रैब खा रही हूं। यह तो बहुत टेस्टी है। तुम भी लोमैंने कहा हां बिल्कुल। मैं इस बार उनके तुम शब्द पर अटक गया था। उन्होंने घर आने के कुछ देर बाद से ही तुम बोलना शुरू किया था।
वह बहुत प्यार से टेस्ट ले-ले कर क्रैब खा रही थीं। मैंने भी शुरू करते हुए इसके बाद प्लेटों में लॉब्स्टर, प्रॉन, सीफूड सलाद, नॉन बटर, टूना फिश आदि निकालता गया। हर डिश वह पूरा स्वाद लेकर खाती जा रही थीं। और मेरी पसंद की तारीफ करते नहीं थक रहीं थीं। क्रैब, नॉन के अलावा वह बाकी सारी चीजें  पहली बार खा रही थीं। सलाद और प्रॉन की तारीफ करते वह थक नहीं रही थीं।
हां जब डिनर शुरू हुआ तो मैंने उन्हें पहला पीस अपने हाथों से खिलाया था। और वह मुस्कुरा रही थीं। डिनर के साथ हमारी बातें बराबर चल रही थीं। वह बोलीं लगता है तुमने थीम बेस डिनर अरेंज किया है। एक नॉन को छोड़ कर बाकी सब सी फूड हैं।मैंने कहा ऐसा कोई प्लान तो नहीं था। लेकिन होटल मेनू देखा तो यही सब मुझे पसंद आया। मैंने सोचा रोज की चीजों से कुछ अलग होना चाहिए। उनके पूछने पर जब होटल का नाम बताया तो वह चौंकती हुई बोलीं अरे यह तो फाइव स्टार है। तुमने तो बहुत ज़्यादा पैसे खर्च कर दिए।
मैंने कहा खुशी की कोई कीमत नहीं होती है। तो वह बोलीं शायद तुम्हीं सही हो।करीब घंटे भर में हमने डिनर खत्म किया। मगर हमारी बातें नहीं खत्म हुईं। शिंक में शंपा जी के हाथ भी मैंने अपने हाथों से धोए। वह मना करती रहीं लेकिन मैं नहीं माना। मैंने देखा तब वह एक शर्म या अजीब सी संकोच में सिकुड़ सी रही थीं। हाथ धोकर उन्हें तौलिए से पोंछ कर मैंने कहा अभी स्वीट् तो बाकी है, बिना उसके तो डिनर अधूरा है। वह बोलीं पहले ही बहुत खा चुकी हूं, अब और कुछ लेने की इच्छा नहीं है।लेकिन मैं स्वीट डिश प्लेट में निकाल कर बॉलकनी में आ गया। वह पहले ही बॉलकनी में आ गईं थीं। हवा तेज़ थी। ठंडी भी। वह रेलिंग पकड़े खड़ी रहीं।
मैं भी उनकी बगल में उन्हीं की तरह खड़ा हो गया। वह दूर आसमान में देखती हुईं बोलीं समीर इस शानदार डिनर के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। उनके जाने के बाद सोचा ही नहीं था कि कभी ऐसे, इस माहौल में ऐसा डिनर करूंगी।मैंने कहा शंपा जी मैं सोचता हूं कि अब हमारे बीच धन्यवाद आदि जैसी किसी औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है। मेरी इस बात पर वह हंसी और एक हाथ मेरे कंधे पर रख दिया। फिर क्षण भर बाद बोलीं। समीर मुझे पूरा विश्वास है कि हम दोनों साथ-साथ लंबा सफर तय करने वाले हैं।
मुझे लगा जैसे उन्होंने मेरे मन की बात कह दी। मैं उनकी तरफ मुड़ा और बोला मैं इस बात को काफी समय से महसूस कर रहा हूं। अच्छा हुआ आपने कह कर स्पष्ट कर दिया। करीब पंद्रह मिनट हम दोनों यूं ही खड़े बातें करते रहे। फिर मुझे लगा वह आलस्य महसूस कर रहीं हैं। घड़ी पर नज़र डाली तो करीब डेढ़ बज रहे थे। मैंने कहा आइए आराम करिए, मुझे लगता है आप थक गईं हैं।
मैंने देखा खाने के दौरान जो तीन पैग व्ह्स्किी उन्होंने ली थी उसका असर खूब हो रहा है। और वह असर उनकी बातों पर दिख रहा है। मेरी बात सुनकर बोलीं हां समीर मैं आराम करना चाह रही हूं। ले चलो मुझे।मैंने प्यार से उनका हाथ पकड़ कर कहा आइए। मगर अगले ही पल उन्होंने चौंका दिया। जो हाथ मैंने पकड़ा था उसे छुड़ाया फिर दोनों हाथ बच्चे की तरह ऐसे आगे कर दिए जैसे वह गोद लेने के लिए कहता है। उनके चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत और शरारत दोनों दिख रही थी।
मैं भी मुस्कुराए बिना ना रह सका। और फिर उन्हें गोद में उठाने में देरी नहीं की। थोड़ा झुक कर दोनों हाथों से उन्हें ऊपर उठा लिया। उनका चेहरा मेरे चेहरे के एकदम सामने था। उठाने के बाद मैं कुछ देर उनकी आंखों को पढ़ने की कोशिश करता खड़ा रहा। वह भी मेरी ही आंखों में देखे जा रही थीं। फिर अचानक ही मेरे होंठों को चूम लिया। मैंने करंट सा महसूस किया। कुछ समझूँ तभी उनके होंठ फिर मेरे होठों से सट गए। मैं उन्हें ऐसे ही लिए-लिए बेड के पास आकर खड़ा हो गया। तब उन्होंने अपने होठों को अलग किया, और नीचे उतारने का संकेत भी। मैंने उतार दिया। तभी वह बोलीं समीर तुमने इन कुछ घंटों में ही मेरा ऐसा ख़्याल रखा है कि लगता है जैसे मुझ पर पड़ी बरसों-बरस की अकेलेपन की मोटी चादर बाहर चल रही फागुनी बय़ार कहीं दूर उड़ा ले गई है। और अपने नर्म मखमली स्पर्श से मुझमें बरसों से गहरे भीतर तक समाई दुख-वेदना को छू मंतर कर रही है।
मैं उनकी बात पर केवल मुस्कुरा कर रह गया। तभी उन्होंने कमरे में दोनों तरफ पड़े बेड की तरफ देखते हुए कहा लेकिन तुमने अब भी बीच में इतनी चौड़ी दरार क्यों बना रखी है। लाइक ए रिफ्ट वैली। समीर मैं और मेरे हसबैंड इस खांई को ही खत्म करना चाहते थे। हर किसी के बीच से खांई खत्म कर देना चाहते थे। लेकिन जितनी कोशिश की वह उतनी ही हर तरफ और ज़्यादा बढ़ती रही।
अब देखो यहां सिर्फ़ हम तुम हैं। तुमने मुझे एक रात अपने यहां बिताने के लिए बुलाया है। लेकिन यहां भी इतनी चौड़ी, सात फीट चौड़ी खांई बनी हुई है। समीर-समीर यह खांई मुझे इरीटेट कर रही है।शंपा जी की बात, उनकी भावनाएं मुझे समझते देर नहीं लगी। मैंने कहा आप बैठिए मैं अभी इस खांई को हमेशा के लिए खत्म करता हूं। फिर दोनों बेड मैंने आपस में मिला दिए। यह देख कर वह बोलीं हां! अब कितना अच्छा लग रहा है।वह बैठ गईं बेड पर। फिर अचानक ही चौंकती हुईं बोलीं ओह सिट।मैं चौंका अब क्या हो गया। मैंने पूछा कोई प्रॉब्लम? मुझे लगा शायद मैट्रेस हार्ड हैं। ये तो स्प्रिंग मैट्रेस पर सोती हैं।
          वह बोलीं नहीं प्रॉब्लम जैसी तो कोई बात नहीं है। स्लीपिंग ड्रेस तो लाई ही नहीं।मैं कुछ बोलता उसके पहले ही उन्होंने सॉल्यूशन दे दिया यह कह कर कि चलो मैनेज करते हैं।और फिर तुरंत मुझसे उन्होंने टॉवल मांग ली। और वॉशरूम चली गईं। लौटीं तो सिर्फ़ टॉवल में। मुंह वगैरह धोकर ब्रश करके आईं थीं। काफी फ्रेश लग रही थीं। उनके बाद मैंने भी चेंज किया, मुंह-हाथ धोने, ब्रश करने लगा। काफी थकान उतर गई। मैं आया तो शंपा जी बेड पर बैठी थीं। टॉवल में बैठना मुश्किल हो रहा था तो अजीब सा पैर पीछे मोड़ कर बैठी थीं। मैं उनके करीब बैठ गया। वह प्रश्न जो डिनर से पहले पूछा था कि क्या उनके पास अपने सिद्धांत को फलीभूत करने के लिए कोई योजना थी। पुनः पूछ लिया। तो वह कुछ देर जैसे कहीं खोे र्गइं। फिर बोलीं।
हां एक विस्तृत योजना बनाई थी हम दोनों ने। उस पर एक निश्चित अवधि के बाद काम करने की सोची थी।मैं योजना के बारे में कुछ पूछूं उसके पहले ही उन्होंने यह कह कर चैप्टर क्लोज कर दिया कि इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। आज तो मैं सिर्फ़ इस डिनर, इस रात को जीना चाहती हूं। तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं।मैंने कहा श्योर मुझे बेहद खुशी होगी। तभी वह बोलीं कि ये फैन और तेज़ नहीं हो सकता क्या?’ मैंने कहा हो जाएगा। और उठ कर उसे फुल स्पीड में कर दिया। नाइट लैंप ऑन कर लाइट ऑफ कर दी। अपने बेड पर पहुंचा तब तक वह बैठी थीं। मुझसे पूछा सुबह कितने बजे उठते हो?’ मैंने कहा कुछ निश्चित नहीं, जब नींद खुल जाए। वह बोलीं ओह मेरा भी यही हाल है। ठीक है आओ अब सोते हैं। हमारे बीच को कोई रिफ्ट वैली तो नहीं होगी ना?’
          मैं आशय पूरा समझ पाता उसके पहले ही मैं उनकी बाहों में था। जब वह बांहों में ले रही थीं तब मैंने जो खूबसूरत अहसास महसूस किया वह पहले कभी नहीं किया था। शंपा जी वाकई मुझे उसी समय से एक खा़स महिला नजर आने लगीं। जीवन के हर क्षेत्र में काम करने का उनका अपना एक अलग अंदाज मोह लेता था। उनके हर काम में एक क्लासिकता होती थी। कोई उद्दंडता, कोई हल्कापन नहीं। वह पूरी रात उनके हमारे बीच डिनर और भरपूर एक होने की रात थी। सुबह तक एक तरह से वह मुझे इस मामले में भी टीच कर रही थीं।
ऐसे जैसे सेक्स वासना नहीं है एक आर्ट है। एक क्लॉसिकल ऑर्ट, जिसकी अपनी एक कंप्लीट फिलॉसफी है। जिसे समझना आसान नहीं तो अबूझ पहेली भी नहीं है। इसे समझने के लिए धैर्य, निर्मल मन और पूरा माहौल चाहिए। और उस रात शंपा जी ने आदर्श माहौल बनाए रखा। कहने को मैंने अपने यहां रात बिताने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था। लेकिन सच यह था कि रात मैं उनके साथ बिता रहा था।
मैं उनके हाथ में एक पपेट की तरह था। जिससे वह रात भर कुशल खिलाड़ी की तरह खेलती नहीं रहीं बल्कि उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर रही थीं। और सुबह होते-होते वह पपेट प्राणवान होकर सोने, आराम करने लगा। उसकी आंख लग गई। वह सो गया। और सुबह उठा तो दस बज गए थे। उठ कर बैठा तो वह असाधारण सी महिला बिल्कुल सामान्य सी दिखती मेरी स्टडी टेबल के पास बैठी पेपर पढ़ रही थी। हॉकर बॉलकनी में पेपर फेंक जाता है। वह इस समय भी टॉवल में ही थीं। मैंने उठ कर गुडमॉर्निंग किया। उन्होंने बिना मेरी तरफ देखे ही कहा वैैरी गुडमॉर्निंग समीर।
यह गुडमॉर्निंग फिर जल्दी ही महीने में दो-तीन बार, फिर हफ्ते में होने लगा। मैं पूरे अधिकार के साथ उन्हें आमंत्रित करता और वह खुशी-खुशी आतीं। इस बीच वह मुझे मेरे विषय में बहुत कुछ बतातीं रहती थीं। लेकिन उस अभियान उस योजना के बारे में हर बार टाल जातीं। आखिर चार महीने बाद प्रोफेसर साहब की मेहनत, और मोटी रकम की रिश्वत ने एक कॉलेज में मेरी नौकरी पक्की कर दी।
उस दिन प्रोफ़ेसर साहब को मैंने फिर एक होटल में पार्टी दी। अगला फैसला मैंने शंपा जी को अपने ही साथ रखने का किया। उन्हें तैयार करने में ज़्यादा समय नहीं लगा। वह बस अपने लिए एक सेपरेट स्टडी स्पेस चाहती थीं। जो इस फ्लैट में नहीं था। तो उसी अपॉर्टमेंट में मैंने टू बी.एच.के. फ्लैट ले लिया। जिसमें दो लोगों के लिए बहुत स्पेस था। शंपा जी ने किराया शेयर करने की बात मुझसे मनवा ली थी।
महीना भर साथ रहने के बाद ही मुझे लगा कि इस महिला के साथ मुझे बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था। कॉलेज में छात्रों को लेक्चर देने के लिए रोज मेरा लेक्चर तैयार करातीं। रोज मुझे वह अपनी वृहद जानकारी से चौंका देतीं। अकसर मुझे लगता जैसे मैं उनके सामने स्टूडेंट हूं। उनके सामने कुछ भी करते वक़्त मेरे मन में एक संकोच बना रहता। यहां तक कि सेक्स के मामले में भी मैं अपने आपको उनके सामने एक स्टूडेंट से ज़्यादा ना पाता। जब कि ना जाने कितनी तरह की महिलाओं के साथ यह सब किया हुआ था।
 मैरिड, अनमैरिड, अपने से उम्र में बड़ी, छोटी, हाउस वाइफ से लेकर प्रोफेशनल वुमेन तक। इनमें ज़्यादातर ऐसे पेश आतीं जैसे कि ज़्यादा से ज़्यादा पैसा वसूलना है। ना जाने कितनी तरह की विचित्र हरकतें करतीं करवातीं थीं। कुछ तो सॉफ्ट ट्वाइज और ना जाने कैसे-कैसे एक्सपेरीमेंट करती थीं। कई बार इनसे मन ऊब जाता, घिन आती।
मगर एक महिला यह भी है। यह हर चीज को जीवंत कर देती है। सेक्स डिजायर निश्चित ही इनकी जबरदस्त है। लेकिन अपनी डिजायर को कितनी खूबसूरती से यह सौंदर्यमय बनाकर खुद उसमें डूबती हैं और पार्टनर को भी उसके सौंदर्य का पूरा रसपान कराती हैं। मध्य कालीन श्रृंगार रस के कवियों की श्रृंगार रस में डूबी रचनाओं की तरह। जल्दी ही साथ रहते-रहते आठ महीने बीत गए। मेरे यह दिन इतने खूबसूरत बीत रहे थे कि मारे खुशी के मेरे पैर जमीन पर नहीं थे।
मैंने एक दिन जब प्रोफे़सर को बताया कि कैसे मैं और शंपा इतने दिनों से साथ रह रहे हैं तो वह आश्चर्य में पड़ गए कि शंपा और मेरे साथ। छूटते ही प्रश्न खड़ा कर दिया कि तुम दोनों कैसे सामंजस्य बैठाते हो। वह तुमसे बारह-चौदह साल बड़ी हैं।इस पर मैंने कहा मैं और वह सिर्फ़ इतना जानते समझते हैं कि हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं। स्थिति तो यह है कि अब हम एक दूसरे के बिना अपना अस्तित्व ही नहीं मान पाते।
यह सुन कर प्रोफे़सर बहुत खुश हुए। बोले मुझे बड़ी खुशी हुई कि तुम दोनों एक साथ इतना खुश हो। बल्कि मैं तुम्हें इस बात के लिए धन्यवाद देता हूं कि भीतर ही भीतर अपने को खत्म करती बहुमुखी प्रतिभा की धनी, बेहद संभावनाशील और अंतरमुखी महिला को तुमने बचा लिया। उसको आत्मघाती खोल से बाहर निकाल लिया। अब कोशिश करो कि उसके अंदर की जो प्रतिभा है, संभावनाएं हैं, वह बाहर आएं। वह समाज को बहुत कुछ दे सकती हैं। खासतौर से दलितों को। मतलब दलित महिलाओं को।फिर शंपा के बारे में प्रोफे़सर ने कई ऐसी बातें बताईं जो मैं पहली बार जान रहा था। मैं आश्चर्य में था कि यह महिला इतनी गुणों से भरी है। फिर मैंने चीजों को और बेहतर समझने के लिए प्रोफ़ेसर कोे घर इनवाइट किया।
वह संडे कोे आने के लिये तैयार हो गए। मैंने खाने की ढेर सारी चीजों का सारा इंतजाम किया था। शंपा को सरप्राइज देने के लिए यह नहीं बताया कि कौन आ रहा है। बस इतना बताया कि वह बेहद ख़ास मेहमान हैं और तुम्हें मुझसे पहले से जानते हैं। वह पूरा जोर डालती रहीं दिमाग पर कि कौन हो सकता है? लेकिन अनुमान नहीं लगा सकी। प्रोफे़सर के आने के टाइम पर कॉल बेल बजी तो मैंने दरवाजा खोलने के लिए जानबूझ कर शंपा को ही भेजा। और वह वाकई मेरी उम्मीद से ज़्यादा सरप्राइज हुईं।
 वह इतनी खुश र्हुइं कि उनकी आंखें भर आईं थीं। बड़े प्यार से उन्हें बैठाया। मैं जानबूझ कर अंदर कमरे में बैठा हुआ था तो अंदर आकर मुझे प्यार से गले लगा कर बोलीं वाकई तुमने सरप्राइज दिया। मैं सोच भी नहीं पाई थी कि प्रोफ़ेसर साहब यहां आएंगे।इसके बाद शंपा ने उनकी खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं साथ में लगा रहा बस। प्रोफे़सर पूरे समय शंपा की योग्यता उनकी क्षमता की बातें करते रहे। और आखिर में जाते-जाते यह कहना ना भूले शंपा मैं समझता हूं कि अब तुम्हें फिर से एक्टिव होना चाहिए अपने उस मिशन के लिए जिसके बारे में पहले कभी तुम पूरे जोश के साथ बात करती थी।
मैं यह मानता हूं कि तुम्हें जैसे साथी की जरूरत थी वह मिल गया है। मेरा सहयोग तुम्हारे लिए जैसे पहले था वैसे ही आगे भी रहेगा। सदैव रहेगा।हम दोनों ने उन्हें बड़े आदर के साथ बिदा किया। उनके जाने के बाद मैं शंपा से उस मिशन उस अभियान के बारे में जानने के लिए बात करने लगा जिसकी चर्चा तब प्रोफे़सर साहब भी बार-बार कर रहे थे। कि तभी शाम को करीब चार बजे एक फ़ोन आया। अननोन नंबर था तो रिसीव नहीं किया। सोचा हो सकता है कोई जी वर्ल्ड की महिला हो।
उस समय ऐसी किसी महिला से बात करने की सोच कर ही मुझे पसीना आ जाता था। कॉल रिसीव ना किए हुए दो मिनट भी न बीता होगा कि मैसेज आ गया। फादर इज वेरी सीरियस, कम इमीडिएटलीसेंडर ने नाम नहीं लिखा था। अननोन नंबर था भाइयों के नंबर सेव थे। यह कौन हो सकता है यह सोचते हुए मैंने उस नंबर पर फ़ोन किया तो अनु ने रिसीव किया। बताया फादर वेंटीलेटर पर हैं। सीवियर अटैक पड़ा है। तुरंत आओ।मैं आगे कुछ पूछ नहीं पाया। उन्होंने फ़ोन यह कह कर काट दिया कि बाद में करती हूं।
          शंपा सब सुन रही थीं। तुरंत बोली समीर हिम्मत से काम लो। जो भी ट्रेन मिले उससे लखनऊ पहुंचो। तुम तैयार हो मैं देखती हूं किसी ट्रेन में शायद रिजर्वेशन मिल जाए। वह लैपटॉप खोलकर बैठ गईं। मुझे तैयार क्या होना था। एक बैग में बस कुछ कपड़े ही रखने थे। मैं तरह-तरह की आशंकाओं से घिर गया। कि वेंटीलेंटर पर हैं पता नहीं क्या होगा? इधर दस दिन से कोई बातचीत नहीं हुई थी। इन लोगों ने कुछ बताया भी नहीं। तभी शंपा ने बताया किसी टेªन में बर्थ नहीं है। मैंने कहा जाना तो है। चाहे जैैसे भी। जनरल बोगी हो या जो भी। मैं निकलता हूं। स्टेशन पर ही देखुंगा, जो भी संभव साधन पहले मिल गया उसी से निकल जाऊंगा। मैं इंतजार नहीं कर सकता।
          मेरी व्यग्रता देखकर शंपा अचानक ही बोलीं सुनो समीर कितनी भी जल्दी करोगे सुबह से पहले नहीं पहुंचोगे। लखनऊ की किसी भी फ्लाइट में टिकट बुक करती हूं। मैं भी साथ चलती हूं। जितनी जल्दी पहुंचा जाए उतना अच्छा है।मैं एकदम शॉक्ड कि वह भी चलेंगी। मुझे उन्होंने कुछ बोलने नहीं दिया। चार घंटे बाद की एक फ्लाइट में टिकट मिल गई।। मैंने कहा तुम चल कर क्या करोगी? वहां तुम्हें जानता ही कौन है? तो उन्होंने आंखों में आंखें डालकर कहा। तुम्हारे फादर हैं। मेरे भी कुछ होंगे ही ना। रही बात जानने की तो पहुंच कर बता देना। मित्र हैं। या जो उचित लगे वही बता देना।मैं शंपा के आग्रह को टाल ना सका। उनके साथ चल दिया।
रात दस बजे के करीब लखनऊ एयरपोर्ट पहुंचा। वहां से टैक्सी कर सीधे हॉस्पिटल। वहां बड़े भइया मिले। एक भतीजा भी साथ था। मैंने पूछताछ की कि कब क्या हुआ तो इतना ही बताया दो दिन पहले अचानक अटैक पड़ा और कल दोपहर से स्थिति ज़्यादा बिगड़ी तो वेंटीलेटर पर रखा गया है। मैं उनसे यह शिकायत ना कर सका कि दो दिन पहले तबियत खराब हुई तो फ़ोन क्यों नहीं किया। उनका रूखा सा जवाब परेशान कर रहा था। शंपा साथ थीं लेकिन किसी ने एक बार भी ना पूछा कि यह कौन हैं? जल्दी पहुंचने की मेरी हर कोशिश बेकार साबित हुई। बिना होश में आए ही पिता जी ने इस दुनिया से बिदा ले ली। मैं उन्हें होश में देख ना सका। दो शब्द आखिर में बोल भी ना सका।
करीब तीन बजे हॉस्पिटल स्टॉफ ने सूचना दी कि ही इज एक्सपायर्ड। यह शब्द सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी सारी शक्ति खींच ली। मैं अपने पैरों पर खड़ा भी ना रह सका। दिवार के सहारे सटे-सटे फर्श पर बैठ गया। एकदम सन्न, संज्ञा-शून्य सा हो गया। शंपा ने मुझे संभाला। भतीजे और भइया ने घर फ़ोन कर दिया था। पिता का पार्थिव शरीर लेकर पांच बजे सुबह बड़े भइया के घर पहुंचे। शाम होने से पहले बैकुंठधाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया।
मेरे पहुंचते ही सबका व्यवहार ऐसे हो गया था कि करने वाला आ गया है। छोड़ दो सब, यही करेगा। मुझे सब कुछ करने में संतोष मिल रहा था। लेकिन बाकी सदस्यों का यह रवैया चुभ रहा था। अस्वाभाविक रूप से अनु का व्यवहार संतोषकारी था। बड़े भाई को संस्कार के कामों को करना मानों बड़ा कष्टकारी लग रहा था इसका अहसास होते ही मैंने सारा काम शुरू से आखिर तक सब कुछ किया।
 यह सोच कर कि पिता सनातन सोच, परंपरावादी, रीतिरिवाज को गहराई से जीते थे। तो उनका संस्कार भी क्यों ना पूरी श्रद्धा से सनातन रीतिरिवाजों से किया जाए। मैं यही चाहता था। लेकिन दोनों भाइयों के सख्त एतराज के आगे तीन दिन में वही सब करना पड़ा। करना क्या था? एक तरह से सब निपटाया गया। इस दौरान शंपा को मैंने अपने घर में रोका था।
बहनें भी सब आईं थीं। बड़ी बहन ने चौथे दिन शंपा का परिचय पूछा था। मैंने कहा था वह एक एजूकेशनलिस्ट हैं। मेरी फ्रेंड हैं। इन्हीें के कारण मैं पापा के जीवित रहते यहां आ गया था। मगर बहनों का भी व्यवहार अच्छा नहीं रहा। बहनोई तो खैर बहनोई। किसी ने मुझसे यह नहीं पूछा कि कहां हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो? मेरा दिल घर के सब लोगों से इतना टूट गया कि तीसरे दिन सब काम करके चौथे दिन अपने घर आ गया।
दसवें दिन दिल्ली वापस आने के समय भी भाइयों के पास नहीं गया। फ़ोन कर बता दिया कि आज रात जा रहा हूं। किसी ने यह भी नहीं कहा कि मिल के जाओ। बेरूखी से बोला गया। ठीक है। अपने घर में जब चौथे दिन मैं आया था तो शंपा ने किराएदारों की बड़ी तारीफ की। कि सबने उसके खाने-पीने का पूरा ख्याल रखा। किराएदारों से भी मैंने वही बताया शंपा के लिए जो बहनों को बताया था। लेकिन जिस दिन वहां रुका उसके अगले दिन किराएदारों की नजरों में यह कौतुहल देखा कि आपकी यह मित्र हैं या कुछ और जो आप उसके साथ एक ही कमरे में सोए। मन ही मन सोचा मुर्खों तुम्हें क्या बताऊं कि वो मेरी मित्र हैं या क्या हैं? वो तो इन सबसे परे, इन सब से आगे एक खास रिश्ता रखती हैं मुझसे।
वह मेरी मित्र, पत्नी, परिवार, सब कुछ बन चुकी हैं। बल्कि इन सबसे पहले वह मेरी मेंटर हैं। उस दिन ही मैंने तय किया कि अब इस शहर में मेरे रहने का कोई कारण तो बचा नहीं है। एक मात्र कारण पिता जी अब रहे नहीं। भाई-बहनों ने एक तरह से दुत्कार दिया है। तो क्या रहना अब यहां। मगर तभी मन में आया कि जब तक यह मकान रहेगा तब तक आना-जाना रहेगा। अब सही यही है कि इसे बेच दूं, और दिल्ली में ही छोटा-मोटा फ्लैट ले लूं। इस योजना को शंपा नेे तुरंत जल्दबाजी में उठा क़दम बताया। मैंने कहा मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। मैंने एक प्रॉपर्टी डीलर को यह काम सौंपा और किराएदारों को मकान खाली करने को कह कर दिल्ली लौट आया।
आने के बाद मैं अजीब मनःस्थिति में फंस गया। कहीं जाने किसी से बोलने तक का मन ना करता। शंपा से भी नहीं। जहां बैठ जाता वहीं बैठा रह जाता। चाय-नाश्ता, खाना-पीना रखा रहता और मैं एकदम बुत बना बैठा रहता। शंपा ने बहुत कोशिश की मुझे इस हालत से निकालने की। हार कर मुझे एक मनोचिकित्सक के पास ले गईं। महीने भर ट्रीटमेंट के बाद मैं नॉर्मल हुआ। डॉक्टर ने कहा टाइम से आ गए। अन्यथा डीप डिप्रेशन का शिकार होकर मैं कोई गलत क़दम उठा सकता था। इसमें सुसाइड जैसे स्टेप की संभावना भी थी।
शंपा ना होतीं, मेरी इतनी देखभाल ना करतीं, डॉक्टर के पास ना ले जातीं तो मैं निश्चित ही नहीं बच पाता। यहां तक कि मेरी नौकरी उसके संपर्कों के कारण ही बची। यह बातें तब पता चलीं जब मैंने कॉलेज ज्वाइन किया। यह सब जानने के बाद शंपा के लिए मेरे दिल में सम्मान और बढ़ गया। मेरे मन में आता कि उसके लिए मैं क्या कर डालूं। ऐसा क्या कर डालूं कि वह और मैं दो शख्स ना होेकर इतना मिल जाएं कि एक हो जाएं। दो व्यक्तित्व विलीन होकर एक व्यक्तित्व हो जाएं।
          कई बार ऐसा होता कि उनका चेहरा देखते-देखते खो सा जाता। तो वह मेरी आंखों के सामने चुटकी बजा कर कहतीं। ऐ मिस्टर समीर कम बैक।और मैं ..मैं हंसकर रह जाता। कभी-कभी उसे बांहों में भर लेता। बड़ी देर तक नहीं छोड़ता तो वह बोलती अरे यार तुम तो कभी-कभी बिल्कुल बच्चों सी हरकत करने लगते हो।आखिर बड़ी माथा-पच्ची के बाद मैंने यह तय किया कि यह जिस योजना को सीने में दबाए, उसको क्रियान्वित होने का सपना लिए अंदर ही अंदर घुट रही हैं। उस सपने को इनसे जान-समझकर उसे पूरा करने में जी-जान से लग जाऊं।
अब मेरा शेष जीवन इनके सपने को पूरा करने में बीतेगा। मेरे जीवन का यही एक मात्र उद्देश्य होगा। फिर एक दिन मैंने अपने मन की बात उनके सामने रखकर उन्हें अपने मिशन के बारे में खुलकर बात करने, उसे कैसे पूरा करना है इसके लिए उनके पास क्या रोडमैप है उस बारे में बताने को विवश कर दिया। तो वह बोलीं समीर मैं यही जोश, दृढ़ता समर्पण चाहती थी। मुझे तुम में पहले इन चीजों में कमी दिखती थी। इसलिए बात नहीं करती थी।इसके बाद शंपा ने विस्तार से अपने विचार अपने मिशन को समझाया यह बताते हुए कि यह सारी बातें उनके पति की हैं। यह अपने-उनके संयुक्त सपने को पूरा करने का प्रयास भर है।
 वह बोलीं समीर यह तो तुम जानते ही हो कि मैं एक महा दलित वर्ग के परिवार से आती हूं। मेरे पति भी ऐसे ही थे। हमने हमारे परिवार ने इसके कारण बड़ी तकलीफें, अपमान झेले। इतना कि आज भी वह सब भुलाए नहीं भूलता है। समीर हम दोनों जब मिले तो किशोरावस्था थी। हम अपने अपमान, अपनी दशा पर बहुत सोचते। और जब यहां आए तो बरसों-बरस पढ़ते, सोचते-विचारते हमने कुछ निष्कर्ष निकाले। फिर एक योजना बनाई कि हमें करना क्या है? हमने तय किया कि हमें सबसे पहले अपने अंदर से इस भाव को ही निकालना है कि हम दलित हैं।
हमें इस भाव में आना होगा कि हम भी इंसान हैं। हम किसी से कम नहीं हैं। क्योंकि हमारे भाव जैसे होते हैं हम वैसे ही बनते जाते हैं। हम अब देखते हैं कि ऐसे दलित जो बहुत आगे निकल चुके हैं। बहुत प्रोग्रेस कर ली वह अब भी दलित होने की हीन भावना से ग्रसित हैं। गैर दलितों से जब वे मिलते हैं तो उनमें अजीब सी हीनता, संकोच बना रहता है। सबसे पहले हमें इस चीज से ऊपर उठना होगा। हम दोनों ने इसे अपने व्यवहार में लाना शुरू किया। मुझे खुशी है कि मैं इसमें पूर्णतः सफल रही। क्या तुम बताओगे कि अब तक मुझमें हीन भावना का एक भी अंश पाया है।
           मैंने कहा नहीं बिल्कुल नहीं। यहां तक कि फादर के क्रिमिशन के समय जब लखनऊ में थीं तब भी नहीं। इस पर वह बोलीं मैं हर दलित को ऐसे ही देखना चाहती हूं। वह दलित है यह भावना पूरी तरह निकाल फेंके मैं यही चाहती हूं। समीर मैं सिर्फ़ भारत में जो दलित हैं उन तक की ही बात नहीं कर रही। मैं बंगलादेश, पाकिस्तान की भी बात कर रही हूं।उनकी इस बात पर मैंने कहा अब इन देशों में हिंदू हैं ही कहां जो वहां सवर्ण-पिछड़े-दलित का प्रश्न ही उठे। मेरा यह कहना था कि शंपा मुस्कुरा दीं मैं समझ गया कि कुछ ऐसा है जो मुझसे छूट गया है। मुस्कुराने के कुछ क्षण बाद वह बोलीं समीर ऐसा है कि दलितों ने अपनी दयनीय स्थिति से मुक्ति का मार्ग निकाला धर्म परिवर्तन। लेकिन मैं मानती हूं कि यह समस्या का समाधान है ही नहीं।
          किसी भी समस्या का समाधान पलायनवादी सोच से नहीं निकलता। धर्म परिवर्तन पलायनवादी सोच का चरम है। धर्म को लेकर तो मैं विशेष रूप से कहूंगी कि अपना घर अपना ही होता है। मान लो किसी वजह से घर के किसी सदस्य ने घर से हमें बेदखल कर दिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि हम दूसरे के घर जा बसें। दूसरा हमारे झगड़े का फायदा उठाने के लिए शरण तो देगा। लेकिन शोषण भी करेगा। हमें मालिक नहीं बना देगा। जबकि सही तरीका यह है कि हमें अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए।
          अपने घर में ही अपना हिस्सा लेकर रहना चाहिए। संघर्ष करने पर अधिकार मिलता ही है। महाराष्ट्र में ही एक युवती तृप्ति देसाई का संघर्ष देखो। उसने हिंदू-मुस्लिम दो पूजा स्थानों पर महिलाओं के प्रवेश का अधिकार सभी महिलाओं को दिलाकर ही छोड़ा। साउथ की विख्यात लेखिका कमला दास भी यही कह चुकी हैं। जो किसी कमीने इंसान के धोखे में आकर जीवन के आखिर दिनों में धर्म परिवर्तन कर अंतिम सांस तक पछताती रहीं। यह वैसे ही जैसे हम कहीं चले जा रहे हैं। और अचानक बारिस होने लगे और उससे बचने के लिए हम किसी पेड़ की छांव, किसी मकान के शेड के नीचे खड़े होकर अपने को भीगने से बचाने का प्रयास करें।
           अपनी बात पर मुझे सशंकित देख उन्होंने बात और स्पष्ट कर दी। कहा देखो ज़्यादातर दलित या तो ईसाई बने या मुसलमान। ईसाई बनने पर भी कहीं ना कहीं भेदभाव का शिकार बनते ही रहते हैं। एक छोटा सा उदाहरण ले लो। इनके यहां जो नन बनती हैं। चाहे वह कॉनवेंट में हों या कहीं भी, वो भी नहीं बचतीं। ऐसे कनवर्जन से निम्नवर्ग से आई जो महिलाएं नन बनती हैं उन्हें बाकायदा नाम दे दिया गया है चेडुथी’, यह शब्द प्रतीक है उनके निम्न होने का।
 इतना ही नहीं चाहे इनके पूजा घर हों या कॅान्वेंट ज़्य़ादातर साफ-सफाई छोटे-मोटे काम इन कंवर्टेड दलितों से ही कराए जाते हैं। तो दलित होने का अभिशाप इनके साथ यहां भी चिपका रहता है। ये जब मुस्लिम बन जाते हैं तो वहां भी यह सब है। बस प्रेयर, या इबादत एक साथ करने का मौका मिल जाता है। लेकिन क्या सिर्फ़ इसी से उनकी समस्या हल हो जाएगी? इसी से उनका मान-सम्मान स्वाभिमान उन्हें मिल जाएगा? साथ प्रेयर का अधिकार तो हम संघर्ष कर के अपने मूलधर्म में भी ले लेंगे। पाकिस्तान के चूरालोगों की तो हालत जानते ही होगे।’ ‘चूरा?’ ‘हां चूरामेरे लिए यह सर्वथा नया शब्द था। तो चौंकना स्वाभाविक था।
          मेरे चौंकने पर वह चौंकी कि आश्चर्य कि तुम्हें चूरालोगों के बारे में नहीं मालूम। लेकिन हमें इस लिए मालूम है क्यों कि हम दलित हैं। लेकिन मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं दलित वर्ग से थी यह भी कहना उचित नहीं समझती। सिर्फ़ बात को समझाने के लिए यह प्रयोग किया कि एक घायल ही दूसरे घायल की पीड़ा जान समझ सकता है।
सारे चूरालोग दलित हैं। ये पाकिस्तान में ज़्यादातर लाहौर पंजाब और उनके आस-पास रहते हैं। ये वो हिंदू से ईसाई बने दलित हैं जिन्होंने यह सोचकर धर्म बदलना शुरू किया था पाकिस्तान बनने से पहले ही कि वे अपनी समस्याओं से मुक्ति पा लेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें चूराकहा गया। इस शब्द में ही कितना अपमान, घृणा नजर आ रही है। यह शब्द तो दलित शब्द का ही पर्याय हो सकता है। यह शब्द मुझे जहर बुझा शब्द लगता है।
इन चूरालोगों की हालत यह है कि आज भी ये वहां मैला ढोने का ही काम करते हैं। इनकी आबादी मैं समझती हूं कि सत्तर-अस्सी लाख है। ये वहां नर्क का जीवन जी रहे हैं। डर के मारे ये अपना नाम भी अपनी पसंद का नहीं रख पाते हैं। ईसाई हैं लेकिन नाम मुस्लिमों के या उन्हीं सा मिलता-जुलता रखते हैं। अपनी जी तोड़ मेहनत से इन्होंने शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त कर ली है। इसके बावजूद कि वहां की सत्ता इन्हें अनपढ़ बनाए रखना चाहती थी जिससे सफाई करने वाला समूह बना रहे। उनकी यह साजिश बार-बार खुल कर सामने आती रहती है।
जानते हो इनकी सुंदर लड़कियों को जबरन उठा लिया जाता है। उनकी इज़्जत तार-तार कर फेंक देते हैं। मार देते हैं। या ऐसी लड़की से जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर शादी कर लेते हैं। फिर तीन चार बच्चे पैदा कर जहां मन भर गया तीन सेकेण्ड  में तलाक देकर उसे दर-दर भीख मांगने, सेक्स वर्कर बनने के लिए ठोकर मार कर भगा देते हैं। वह फिर तिल-तिल कर मर जाती है। यह सब धर्म परिवर्तन के बाद भी हो रहा है। वह अपना त्यौहार, शादी ब्याह भी खुल कर नहीं मना पाते। अभी ईस्टर में तुमने देखा ही त्यौहार मनाते करीब अस्सी लोगों को बम विस्फोट कर मार दिया। विस्फोट इतना भीषण था कि लोगों के चीथड़े उड़ गए। सैकड़ों घायल हो गए।
मगर पूरी दुनिया मातम पुरसी भी ठीक से ना कर सकी। पोप तक कड़ा विरोध ना दर्ज कर सके। तो क्या है यह सब? इसी लिए मेरा मानना है कि धर्म परिवर्तन कोई समाधान नहीं है। मैं बौद्ध, जैन, सिख की बात नहीं करती। इन्हें मैं हिंदू धर्म से अलग नहीं पाती। यह मेरी नजर में हिंदू धर्म के परिष्कृत रूप हैं। जहां मैं पाती हूं कि सच में भेद-भाव नहीं है।
मेरा मानना है कि हमें यहूदियों से सीखना चाहिए। हमें उन्हीं की तरह एक होकर, सुदृढ़ बन कर, सशक्त बनकर अपनी गुलामी के जीवन को उतार फेंकना होगा। मैं आरक्षण व्यवस्था में भी संशोधन चाहती हूं। क्योंकि इतने दशकों तक आरक्षण का परिणाम यह हुआ है कि दलित समुदाय के जो लोग आरक्षण पाकर आगे निकल गए हैं। उसका लाभ उनके परिवार को ही मिल रहा है। इस कारण नब्बे प्रतिशत दलित अब भी दयनीय स्थिति में बने हुए हैं।
उनकी यथा स्थिति तभी बदलेगी। तभी सारे दलित अपनी गुलामी तोड़कर सक्षम, सुदृढ़ बन पाएंगे जब यह व्यवस्था सख्ती से लागू हो कि जो परिवार दो बार आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं। उसे आगे नहीं दिया जाएगा जिससे जिस दलित को अभी तक अवसर नहीं मिल पाया है उसे अवसर मिल सके। उसके लिए जगह खाली हो सके।
अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो दस-बीस नहीं शदियों-आरक्षण देते रहेंगे लेकिन सभी दलित कभी इसके दायरे में नहीं आएंगे। इनकी हालत ऐसी ही बनी रहेगी। दलित यहां कीे स्वार्थी, गंदी राजनीति का ऐसे ही एक टूल बने रहेंगे। आपस में भी लड़ते रहेंगे। इस बार एक-बार पुनः राष्ट्रपति चुनाव में यह राजनीति सामने आई। डॉ. अंबेडकर को इन सारी चीजों का अनुमान था। इसीलिए वह दस वर्ष के भीतर ही सारे दलितों को आरक्षण के लाभ के दायरे में ला देना चाहते थे। मगर ओक्षी राजनीति ने ऐसा होने नहीं दिया।
समीर मेरा दृढ़ मत है कि जब तक दलित अपनी भावना, आरक्षण की व्यवस्था को सही नहीं करेंगे तब तक उन्हें गुलामी से मुक्ति मिलने वाली नहीं। आरक्षण में संशोधन के लिए स्वयं दलितों को ही आगे आना पड़ेगा। जिस दिन वो आगे आ जाएंगे उस दिन ये सारी राजनीतिक पार्टियां एक सुर में गाने लगेंगी कि हां यह होना चाहिए। बदलाव होते देर नहीं लगेगी। बस जरूरत है स्वयं दलितों के खड़े होने की ही। इसीलिए मैं कहती हूं कि धर्म परिवर्तन से दलितों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है। धर्म परिवर्तन कोई समाधान नहीं है। जिस धर्म में हैं उसी में बराबरी का हक लें। धर्म परिवर्तन समाधान होता तो जो परिवर्तित हुए उनकी क्या स्थिति है?
अरे जब यहां से पाकिस्तान गए मुस्लिमों को मोहाजिर कह कर नेस्तनाबूद किया जा रहा है, उन्हें मुस्लिम ही नहीं माना जा रहा, मोहाजिर नाम की एक नई कौम ही बन गई तो दलितों की क्या बिसात।शंपा ने ऐसी-ऐसी बातें, तर्क योजना सामने रखीं कि मैं आश्चर्य में पड़ गया कि इस लेडी में इतना तुफान भरा है। यह तुफान यदि पूरी रफ्तार से बाहर आ गया तो निश्चित तौर पर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। इसके भीतर भरे तुफान को अनुकूल स्थिति मिल जाने भर की देरी है। 
यह जिस तरह मुझ पर यकीन कर रही है उससे लगता है यह मुझसे बड़ी अपेक्षा कर रही है। उसकी बातों ने मेरे हृदय में भी एक चिंगारी भड़का दी कि देश के हालात के लिए मुझे भी अपना बेस्ट एफ़र्ट करना चाहिए। मैंने फट से उसके सामने प्रस्ताव रखा कि तुम्हारे आंदोलन को खड़ा करने के लिए जितना संभव होगा मैं वह सब करने के लिए तुरंत अपना प्रयास शुरू करना चाहता हूं। तुम बताओ कैसे आगे बढ़ना है। मेरी इस बात पर वह मेरे चेहरे को बड़े ग़ौर से देखती रहीं। जैसे कि वहां कुछ लिखा है और वह उसे ध्यान से पढ़ रही हैं, फिर बोलीं। सिर्फ़ मैं नहीं हम दोनों।
इसके बाद हम दोनों ने एक संगठन बनाने, सोशल मीडिया का भर पूर उपयोग करने का निर्णय लिया। इस काम के लिए जो बहुत सा लिटरेचर शंपा ने तैयार किया था उनको रात दिन एक करके अंतिम रूप दिया। सोेशल मीडिया पर तो शुरुआत जल्दी कर दी गई। जिन बातों को पोस्ट किया जाता उनका रिस्पॉंन्स भी ठीक मिलने लगा तो उत्साह और बढ़ गया। लेकिन संगठन खड़ा करना मुझे सागर में सूई ढूंढ़ने जैसा लगने लगा। मगर जोश में कहीं कमी नहीं थी।
काम जब आगे बढ़ना शुरू हुआ तो आर्थिक समस्या सामने आने लगी। लिटरेचर छपवाने के लिए मोटी रकम चाहिए थी। फिर सदस्य बनाने, चंदा एकत्रित करने पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया। शंपा दिन रात एक करने लगीं। इस बीच मेरे दोस्तों में यह बात फैली तो सबने हंसी उड़ानी शुरू कर दी। लीडर ऑफ रिवोल्यूशन कह कर मजाक बनाना शुरू कर दिया। मगर मैं शंपा के साथ अडिग था। एकदम चिकना घड़ा बन गया। देखते-देखते कई महीने बीत गए। संगठन का कार्यालय बनाने की समस्या आ गई। पहले सोचा जहां रहते हैं वहीं से काम चलाएं। लेकिन लैंडलॉर्ड कोे सख्त ऐतराज था। यह बहुत बड़ी समस्या थी।
बड़ा कहने, सुनने पर प्रोफेसर साहब तैयार हुए। उन्होंने अपने मकान में एक छोटा सा कमरा इस शर्त पर दिया कि जल्दी से जल्दी हम कहीं और व्यवस्था कर लेंगे। इसी बीच लखनऊ वाला मेरा मकान बिक गया। उसके पैसे से मैं दिल्ली में मकान ही लेना चाहता था। लेकिन जितना स्पेस मैं चाहता था, जिस एरिया में चाहता था उतने पैसे में उसका चौथाई भी नहीं मिल पा रहा था। आखिर शंपा ने भी अपनी जमा-पूंजी मिला दी। लेकिन बात नहीं बनी। तो थक हार कर एंटीरियर में लिया। वहां से मेरा कॉलेज, शंपा के काम, संगठन के काम में बहुत बाधा आने लगी तो एक सेकेंड हैंड कार भी ले ली। कुछ महीने ही बीते होंगे कि अचानक ही एक दिन दो लोगों ने घर आकर शंपा और मुझसे मुलाकात की।
वह पूरी तैयारी के साथ आए थे। संगठन के बारे में जितनी बातें हम अलग-अलग माध्यम से प्रकाशित प्रसारित कर चुके थे वह उनके आधार पर सारी बातें समझ कर, आए थे। बड़ी तारीफ आदि करके उन लोगों ने आर्थिक मदद की पेशकश कर दी। हमारे लिए यह एक आश्चर्यजनक खुशी थी। लेकिन हम दोनों उन लोगों को ठीक से जान लेना चाहते थे। आखिर वह चंदे में हर महीने क्यों इतनी रकम देना चाहते थे कि हम अपना संगठन तेज़ी से खड़ा कर एक बड़ा आंदोलन शुरू कर दें। हमारे इन प्रश्नों का उन लोगों के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। तो हमने सोच कर बताने को कहा।
 दो दिन बाद वह फिर आने वाले थे तो हमने चिंतन-मनन कर कुछ प्रश्न, कुछ शर्तें तैयार कीं। उनसे पूछने के लिए। वह जब आए तो हमने अपने प्रश्न किए। जिसके उन्होंने संतोषजनक उत्तर दिए। हमने कहा कि भविष्य में या कभी भी कोई शर्त नहीं रखी जाएगी कि यह काम ऐसे किया जाएगा या वैसे। इसे शामिल कर लें या इसे हटा दें। यह बातें भी जब वह थोड़े ना-नुकुर के बाद मान गए तो हमने चंदा लेना स्वीकार कर लिया। पहले महीने चंदा इतना मिला कि काम को आगे बढ़ाने में आर्थिक समस्या ना आई। लिटरेचर को छपने के लिए दे दिया गया। हम दोनों ने सोचा कि इन लोगों से कहीं बीच में एक कार्यालय खुलवाने की व्यवस्था करने की बात कही जाएगी।
सदस्यों की संख्या धीरे-धीरे ही सही लेकिन बढ़ रही थी। प्रोफ़ेसर साहब उनके साथियों का भी सहयोग मिलने लगा था। इस बीच घर पर ही जुड़ चुके कुछ लोगों की शंपा ने चार मीटिंग्स लीं। चारों में वह जब बोली तो लगा वाकई दशकांे का अनुभवी कोई प्रखर वक्ता, नेता है। उसकी बातें सुनकर रगों में लगता जैसे लहू खौल उठेगा। मीटिंग में शामिल लोग इतने इंप्रेस हुए कि उसके कट्टर समर्थक बन गए। काम बढ़ता गया। अब हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या आ रही थी समय की।
मैं कॉलेज से इतना समय नहीं निकाल पा रहा था कि संगठन के कामों के लिए पर्याप्त समय दे सकूं। इससे रोज कुछ ना कुछ छूट जाता। शंपा बिल्कुल भूत सी जुटी हुई थी।
इसी बीच एकदिन मेरे स्कूल्स एंड कॉलेजेज ग्रुप ने एक सम्मेलन आयोजित किया। जिसमें भारत में गरीबों एवं महिलाओं की स्थिति और शिक्षा विषय पर बोलना था। प्रोफ़ेसर साहब की इच्छा और प्रयास से शंपा को उसमें बोलने के लिए बतौर विशिष्ट अतिथि आमंत्रित कर लिया गया। शंपा के पास वैसे तो बहुत कुछ था इस विषय पर बोलने के लिए लेकिन उसने फिर भी और तैयारी की।
वह अपने संगठन की संयोजक की हैसियत से वहां पहुंची थी। वक्ताओं में कई शिक्षाविद्, कई सफल एंजियोज की सफल संचालिकाएं, सफल महिला उद्यमीं शामिल थीं। गु्रप का कार्यक्रम होने के कारण ग्रुप के सभी संस्थानों के सारे स्टॉफ, सीनियर छात्र शामिल हुए। पूरा ऑडिटोरियम भरा था। मैं थोड़ा सशंकित था कि शंपा कहीं इस भीड़ के सामने बोलने में घबड़ा ना जाए, बहक ना जाए। लेकिन वह एकदम निश्चिंत थी।
बड़े से स्टेज पर वह जब अन्य आमंत्रित अतिथियों के पास जाने लगी तो मुझ से गले लग कर बोली समीर मैंने तो हार कर अपने को अंधेरों के हवाले कर दिया था। मगर तुमने वहां से मुझे खींच कर निकाल लिया। उजाले से भरी एक नई दुनिया में ला खड़ा कर दिया। वाकई मुझे रेगिस्तान से निकाल कर खूबसूरत उपवन में ले आए। जहां मेरे लिए हर तरफ संभावनाएं ही संभावनाएं दिख रही हैं। इतनी कि मैं अपने लक्ष्य को आसानी से पाते हुए स्वयं को देख पा रही हूं।फिर अचानक मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेती हुई बोलीं। समीर मेरे विश्वास को कभी तोड़ना मत। इस मिशन को जो इतना आगे बढ़ाया है उसे कभी बीच में छोड़ना मत।
यह बोलते-बोलते शंपा एकदम भावुक हो उठी थीं। आंखें भर आई थीं। मैंने सोचा कहीं इस भावुकता में वह बहक ना जाएं तो उसे संभालते हुए कहा तुम कैसी बातें कर रही हो, ऐसा सोचती भी कैसे हो? मैं तो सोच भी नहीं पाता। तभी प्रोफे़सर साहब आए तो उसने उनके पैर छूकर आशीर्वाद लिया। फिर मैंने उसे उस जगह ले जाकर बैठा दिया जहां स्वागत टीम के सदस्य स्टेज तक ले जाने के लिए उपस्थित थे।
मैं वापस ऑडिटोरियम के एग्जिट गेट पर आ गया। व्यवस्था में मेरी ड्यूटी लगी थी। कुछ देर बाद कार्यक्रम शुरू हुआ। वक्ताओं ने अपने विचार रखने शुरू किए। ज़्यादातर बातें वही रटी-रटाई, आदर्शवादी, तथ्य और तर्क से परे थीं। इसीलिए ऐसे सम्मेलनों से मैं हमेशा दूर भागता था। चौथे नंबर पर शंपा ने बोलना शुरू किया। तो मैं ध्यान से सुनने लगा। ना जाने क्यों मेरी धड़कनें बढ़ गयीं। शुरुआती दो मिनट में मुझे लगा कि वह भी अपनी पूर्ववर्तियों की तरह ही बोल कर बस निपटाएगी ही। लेकिन तभी उसने गियर बदला और देखते-देखते छा गई।
करीब पचीस मिनट के भाषण में मैंने नोट किया कि चार बार ताली बजी। जो बातें उसने कहीं उसका असर मैं हर तरफ देख रहा था। मगर साथ ही बाद में बोलने वाले कई वक्ताओं, कुछ जो परंपरावादी, यथास्थितिवादी थे उन लोगों ने शंपा के विचारों से अप्रत्यक्ष रूप से असहमति व्यक्त की। विरोध भी संकेतों में कर दिया। लेकिन शंपा ने अपनी किसी बात को वापस नहीं लिया। वह झुकी नहीं। सम्मेलन लंबा चला। करीब तीन घंटे।
श्रोता क्योंकि कॉलेज के ही थे तो सब आखिर तक रुके रहे। सुनते ना तो आखिर जाते कहां। सम्मेलन के अतिथियों ने चाय नाश्ता किया। शंपा उन लोगों के बीच चर्चा के केंद्र में थी। इस बीच शंपा ने कई बार फ़ोन कर मुझे बुलाया। कि वह उन अतिथियों से मुझे मिलवाना चाहती है। लेकिन मैं अपनी ड्यूटी और अपने एक्स्ट्रा स्ट्रिक्ट इंचार्ज के कारण जा नहीं सका। उसे मैसेज कर दिया कि नहीं आ पाऊंगा। वह मुझसे पहले घर पहुंच गई थी। कार्यक्रम के ऑर्गेनाइजर ने सभी अतिथियों को उनके आवास से लाने पहुंचाने की व्यवस्था की थी।
लोग शंपा को वहां मेरे इतना करीब देख कर कुछ उत्सुुकतापूर्ण नज़रों से देखते रहे। हमारे उसके बीच रिश्ते को केवल प्रोफ़ेसर जानते थे। अच्छा ही हुआ था कि मैं उसके साथ घर नहीं गया था। मीडिया से रिलेटेड ज़िम्मेदारी भी काफी कुछ मेरे ही पास थी। उसे पूरा कर घर पहुंचते-पहुंचते काफी रात हो गई थी। शंपा को मैंने वहां अपना इंतजार करते पाया। स्टडी टेबल पर उसने तमाम कागज़ फैला रखे थे। बेड पर भी। मतलब वह अपने काम में अब भी व्यस्त थी।
 उसका एक मोबाइल बजे जा रहा था। लेकिन वह मुझे देखते ही किसी छोटी बच्ची सी आकर मेरे गले लिपट गई। समीर, समीर कहती हुई। मैंने उसे ठीक उसी तरह गोद में उठा लिया जैसे कोई पिता ऐसे में अपने बच्चे को उठा लेता है। मैं उसको ऐसे ही लिए-लिए अंदर कमरे में आया। और उसके होठों को चूम कर एक बार प्यार से बांहों को और कस कर उतार दिया नीचे।
उसने बेड पर ही बैठते हुए कहा समीर मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरी बातों को इतनी इंपॉर्टेंस मिलेगी। इस कार्यक्रम से मुझे एक तरह से अपने मिशन के लिए बेस्ट डोज मिल गई है। इसका क्रेडिट पूरा-पूरा तुम्हें जाता है।उसकी खुशी देखकर मैं भी बहुत खुश हुआ।
मैंने कहा शंपा तुम्हारा मिशन, तुम्हारी सफलता ही मेरा मिशन मेरी सफलता है। अभी तो हम लोग सिर्फ़ शुरू ही कर पाए हैं। अभी तो हमारा टारगेट बहुत दूर है। इतना दूर है कि अभी उसका अक्स भी नहीं दिख रहा है। इसलिए हमें अपने प्रयास और तेज़ करने पड़ेंगे। जैसे-जैसे सफलता मिलेगी हमारी जिम्मेदारी भी वैसे-वैसे बढ़ती जाएगी। मेरी इस बात पर वह बोली। र्मैं समझ रहीं हूँ समीर। इसके लिए मैं हर क्षण तैयार हूं
ऐसी बातों के साथ-साथ हम दोनों ने खाना खाया। शंपा होटल से ही खाना ले आई थी। बहुत सादा सा खाना। दाल-रोटी, सब्जी, सलाद। शंपा किचेन से दूर भागती थी। उसकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती थी। खाने के बाद एक या दो पैग व्हिस्की के लेना हम दोनों की आदत थी। नहीं तो हम दोनों थकान से अपने को बहुत पस्त पाते। व्हिस्की लेने के बाद शंपा ने कार्यक्रम को लेकर कुछ और बातें भी कीं। आखिर में यह भी बताया कि एक एनजियो चलाने वाली, जिनके पति बड़े बिज़नेसमैन हैं, ने उसे अपने घर बुलाया है।
 वह मिशन से जुड़ना चाहती हैं। अपनी भरसक मदद देने को तैयार हैं। खासतौर पर आर्थिक। उसकी इस बात पर मैंने कहा शंपा हम एक ही दिन में कुछ ज़्यादा ही सक्सेज तो नहीं पा गए। तो शंपा बोलीं सक्सेज जैसा तो र्मैं नहीं मानती, लेकिन तुम कहते हो तो मान लेती हूं।’ ‘मान रही हो तो चलो सेलिब्रेट करें।’ ‘सेलिब्रेट!’ ‘हूं सेलिब्रेट।’ ‘मैं समझ गई तुम क्या सेलिब्रेट करोगे। मन मेरा भी है सेलिब्रेशन का, आओ करते हैं।
शंपा की यही साफ़गोई मुझे लूट लेती थी। मैं उसकी इसी अदा के कारण उसे ऐसे अवसर पर प्यार से माई डियर एम एल वी (मॉडर्न लेडी वात्स्यायन) कह कर जकड़ लेता था। इस पल भी मैंने यही किया। जी भर हम दोनों ने बड़ी देर तक सेलिब्रेट किया।
अगले दिन प्रिंट मीडिया में कार्यक्रम को अच्छी खासी कवरेज मिली थी। शंपा की बातों को खासतौर पर जगह दी गई थी। यह देख कर शंपा का उत्साह दोगुना हो गया। मैंने कहा शंपा वह दिन दूर नहीं जब तुम फ्रंट पेज पर छपा करोगी। रोज। वह बोली हां समीर। मेरा उद्देश्य अपने मिशन को सफल होते देखना है। जैसे-जैसे हम सफल होंगे। यह मीडिया वैसे-वैसे हमारे करीब आएगा। काश ये मीडिया हमें, हमारी बातों की अहमियत समझता। हमें अपना पॉजिटिव सपोर्ट देता तो हमारा काम आसान हो जाता।
हमारी बातों को सनसनी बनाकर हमें यूज ना करे। इसने जिस तरह से हमारी बातों को छापा है वह वास्तव में सनसनी बनाने का ही प्रयास दिख रहा है।शंपा के इस नजरिए ने मेरा उत्साह ठंडा कर दिया। हफ्ते भर बाद शंपा मुझे उस एनजियो संचालिका के पास लेकर पहुंची जिसने सपोर्ट के लिए ऑफर किया था। उसका शानदार बंग्लों, वहां खड़ी लग्ज़री गाड़ियों को देखकर मैं समझ गया कि एक बड़े बिजनेसमैन की बीवी का यह सब टाइम पास, सेलिब्रेटी बनने का जरिया भर है। यह एनजियो भी बस अपने फायदे के लिए चला रही है।
          हमें विजिटर्स स्पेस में बैठा दिया गया। फिर काफी प्रतीक्षा के बाद यह बताया गया कि मैडम थोड़़ी देर में आने वाली हैं। थोड़़ा वेट करना पड़ेगा। मुझे बड़ी उलझन हुई कि बुलाकर गायब हैं। यह क्या तरीका हुआ। पंद्रह मिनट बाद वहां एक यंग लेडी आई। हमें अपने साथ लेकर चल दी। उसने एक बड़े से बहुत ही हाई-फाई सजे हुए ड्रॉइंगरूम को क्रॉस कर हमें एक कमरे में बैठा दिया। कमरा स्टडी रूम सा या यह कहें कि आराम कक्ष सा लग रहा था। किताबें जिस तरह की और जिस ढंग से रखी थीं उसे देख कर साफ था कि मकसद, दिखावा था। सजावट भर है। फर्नीचर बहुत ही पुराने स्टाइल का क्लासिकल लुक लिए हुए था।
वहां बैठकर गप्प सटाका करने के लिए उसी अंदाज में कुर्सियां पड़ी थीं। कर्व टीवी लगा था। हम दोनों को वहां बैठा कर कोल्ड ड्रिंक और भुने हुए काजू रख कर महिला चली गई। पूरे घर में सन्नाटा था। एक गार्ड और हमें अंदर बैठाने वाली एक लेडी के अलावा वहां कोई नहीं दिख रहा था। हमें यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था। इस तरह इंतजार करना बर्दाश्त से बाहर हो रहा था। मैं वहां से तुरंत चल देना चाहता था। लेकिन शंपा का रूख कुछ पता ही नहीं चल रहा था। वह लेडी टीवी भी चला कर नहीं गई थी कि मन उसी को देखने में लगाता।
आखिर मैंने शंपा से बोल दिया टू मच यार, अब मुझे नहीं लगता कि इस तरह और वेट करना चाहिए। शंपा बोली ठीक है दो-चार मिनट और देख लेते हैं, फिर चलते हैं। ऐसे चल देना भी तो अच्छा नहीं।हम दोनों ने ड्रिंक और काजू को हाथ भी नहीं लगाया। आखिर पांच मिनट और बीतते-बीतते मैं उठने को हुआ तभी कमरे के दूसरी तरफ का दरवाजा खुला और बेहद डिजाइनर सलवार सूट पहने एक महिला ने प्रवेश किया। चेहरे पर अमीरी का टैग और हल्की मुस्कान लिए। खूबसूरत कसे हुए जिस्म की उस महिला को उसका गोरा रंग और आकर्षक बना रहा था। शंपा उसे देखते ही नमस्ते करते हुए खड़ी हुई। यंत्रवत सा मैं भी। मगर उसके चेहरे पर नजर पड़ते ही मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरे मुंह से नमस्ते भी पूरा न निकल सका।
           मेरे जैसा ही झटका उस महिला को भी लगा। उसके चेहरे का रंग क्षण भर को उड़ा लेकिन बेहद पेशेेवराना अंदाज में उसने उतनी ही तेज़ी से अपने को संभाल लिया। हम दोनों को नमस्ते का जवाब देते हुए शंपा से मुखातिब हुई। हमें बैठने को कहा। मैं एसी के कारण बहुत ज़्यादा ठंडे उस कमरे में भी जूते के अंदर पैरों में पसीना महसूस कर रहा था। मैं देख रहा था कि अंदर-अंदर वह महिला भी कहीं विचलित थी। लाख कोशिशों के बावजूद वह कुछ अनिर्णय की स्थिति में भी लग रही थी। उसने और हमने, हम दोनों ने एक दूसरे को अच्छी तरह पहचान लिया था। अचानक शंपा ने धमाका कर दिया।
 उसने मुझे अपना पति बताते हुए यह भी बताया कि मैं असिस्टेंट प्रोफे़सर हूं। कॉलेज का नाम भी बता दिया। उसने पहली बार मुझे अपना पति बताया था। मेरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई थी। और कोई वक्त होता तो मैं प्यार से उसे बांहों में भर लेता। मगर इस वक्त मैं मन ही मन सिर केे बाल नोच रहा था कि क्या जरूरत थी इतना परिचय देने की। नाम तो नाम, कॉलेज भी बता दिया। सीधे घर तक का रास्ता बता दिया।
उसके मुंह से मेरे लिए तारीफ ही तारीफ निकली चली जा रही थी। और वह महिला बहुत ही बेरूखेपन, यह कहें कि हमें हमारे छोटेपन का अहसास कराने पर तुली हुई थी। हमें अहसास करा रही थी कि हम मांगने आए हैं। वह शंपा, संगठन को लेकर बस फॉर्मेलिटी वाली बातें ही कर रही थी। मैं उसके ठीक सामने बैठा था। वह कनखियों से बार-बार मुझे देख रही थी। बातों ही बातो में अचानक ही उसने शंपा से पूछ लिया आपकी शादी कब हुई?
शंपा ने इस प्रश्न से एक झटका सा महसूस किया। फिर उसने कहा यही कोई साल भर पहले।इस पर वह अचानक ही बोली शादी बहुत लेट की क्या? अभी शादी को साल भर हुए हैं और आप इन कामों में लग गईं। अभी शादी एंज्वाय करनी चाहिए। और मैं नहीं समझ पा रही कि शादी फिर बच्चे वगैरह भी सोचेंगी ही। कैसे इस काम को करेंगी। यह कोई एक दो दिन का काम तो है नहीं। आप ने कहीं किसी से इंस्पायर्ड होकर जोश में ही बस यूं ही तो क़दम नहीं उठा लिया।यह कहते हुए उसने एक जलती दृष्टि मुझ पर भी डाल दी।
          उसकी इस बात से मैंने शंपा के तन-बदन में लगी आग की तपिश महसूस की। उसके चेहरे की भाव-भंगिमा बदल गई थी। कुछ क्षण शांत रह कर उसने कहा ये हमारी दूसरी मुलाकात है। बहुत सी बातें आप सम्मेलन में ही मेरी सुन चुकी हैं। उसके बाद यहां उसी प्वाइंट पर फिर बात करने का लॉज़िक मैं समझ नहीं पा रही हूं। मैं ऐसा सोचती हूं कि हमें टू दी प्वाइंट बात करनी चाहिए। इस जैसे काम को करने के लिए मैं जितना आगे बढ़ चुकी हूं आपको क्या लगता है कि किसी की नकल करने या बिना किसी विज़न के सिर्फ़ इंस्पायर्ड होने से किया जा सकता है।
           शंपा की तल्खी से मैं समझ गया कि बस अब यहां से जल्दी चलने का समय आ गया है। इस हाइहेडेड महिला ने जानबूझकर ही शंपा को इस तरह छेड़ा है कि यह मीटिंग तुरंत खत्म हो। वह अपने मकसद में कामयाब रही। मेरा अनुमान सही निकला। शंपा अपनी बात पूरी कर तुरंत उठ खड़ी हुई। और नमस्कार करती हुई बोली मुझे लगता है और आगे बात करके हम एक दूसरे का समय ही बरबाद करेंगे।यह कह कर वह बाहर की ओर चल दी। मुझे तो उसके साथ नत्थी होना ही था। तो मैं हो लिया।
          रास्ते में मैंने शंपा से कहा आखिर तुमने इसमें ऐसा क्या देख लिया था जो इससे मिलने चली आईं। उस समय मैंने इसे जो समझा था उसके कारण चली आई। इस उम्मीद में कि यह बहुत हेल्पफुल होगी हमारे काम में। अब क्या बताऊं। सम्मेलन में जब मिली थी तो अलग खींच-खींच कर बातें कर रही थी। लग रहा था कि बस अभी सारी हेल्प कर देगी। ऐसी हेल्प करेगी, इतना काम करेगी कि बस अभी आंदोलन चरम पर खड़ा हो जाएगा।
मिलने के लिए ना जाने कितनी बार कहा था। चलते-चलते पूरा प्रेशर डाला था कि जरूर मिलूं। मगर अभी तो ऐसे गिरगिट की तरह बदल गई कि मैं शॉक्ड हूं। इतनी बड़ी फ्रॅाड होगी मैं सोच भी नहीं पाई थी। इस हिप्पोक्रेसी ने ही तो समाज का और बंटाधार किया है।मैंने शंपा को कुरेदने के लिए कहा लेकिन जो कुछ भी कर रही है अपने एन. जी. ओ. के थ्रू कर ही रही है न।
          ‘तुम भी क्या बात करते हो। सोशल वेलफ़ेयर आजकल ऐसी रईसजादियों के लिए एक फैशन बन गया है। येे न्यूज में बने रहना चाहती हैं। सोशल वेलफ़ेयर के नाम पर गवर्नमेंट से भी वसूली करती रहतीं हैं। हमेशा फैशन क्लबों, होटलों में एंज्वाय करने वाली ये औरतें समाज के बारे में जानती ही क्या हैं जो समाज की सेवा करेंगी। इन्हें अपने मेकप, हेल्थ क्लबों से मुक्ति मिले तब तो इन्हें कुछ दिखाई देगा।
          शंपा पूरी तरह से फायर थी, तभी मैंने कहा तुम ठीक कह रही हो। देखा नहीं किस तरह मेकप किया हुआ था, कितना मेंनटेन किया हुआ अपनी बॉडी को।ऐसी बॉडी का भी कोई मतलब है जो सिर्फ़ अपने लिए ही हो। समाज, देश, दुनिया के प्रति भी तो कुछ उत्तरदायित्व बनता है।तो क्या तुम यह आंदोलन अपना दायित्व समझ कर शुरू कर रही हो।तुम कह सकते हो ऐसा। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती। मैं कुछ भी केवल दायित्व निभाने के लिए नहीं करती।
ऐसी ही बहस करते, कई और काम निपटाते हुए हम दोनों देर रात घर पहुंचे। संयोग से जिस-जिस काम के लिए जहां-जहां गए वहीं नाकामी मिली। इससे शंपा बहुत खिन्न थी। मैं भी। लेकिन मेरी खिन्नता का कारण दूसरा था। सिर्फ़ और सिर्फ़ उस रईसजादी को लेकर था। यह वह महिला थी जिसने मेरी सर्विस तीन बार हॉयर की थी। और तब यह मुझे इस घर में लेकर नहीं बल्कि गुरुग्राम के पास किसी जगह ले जाती थी। हर बार यह मुझे एक ही घर में ले गई। लेकिन बार-बार नए-नए रास्तों से।
वापसी के लिए ऐसी जगह छोड़ती जो उस घर के बजाय मेरे डेस्टिीनेशन के और आगे जाते थे। टैक्सी के लिए मुझे अलग से किराया देती थी। यह मेरी ऐसी क्लाइंट थी जो जब तक मुझे साथ रखती तब तक कुछ ना कुछ एक्सपेरिमेंट अवश्य करती रहती। उसकी हरकतों को मैं बहुत विकृत मानता था। वह ऐसी थी जिसे कोई भी पुरुष सैटिसफाइ नहीं कर सकता।
मैं उसकी हरकतों से इतना परेशान हो जाता था। इतना थक जाता था कि सोचता इसके लिए तो यह जितना पेमेंट करती है, यह उसका दस गुना करे तभी ठीक है। अन्यथा नहीं। यह सोचने के बाद जब इसने चौथी बार कॉन्टेक्ट किया था तो मैंने कह दिया कि कहीं और विजी हूं फिलहाल टाइम नहीं है। इस पर यह बहुत सख्त नाराज हुई थी। अब मुझे भीतर ही भीतर अपनी जान का खतरा नज़र आने लगा था।
इधर शंपा ने मेरे लिए जैसा धमाका इस रईसजादी के घर पर किया था वैसा ही घर पहुंच कर किया। दिन भर का थका था। देर रात जब सोने के लिए बेड पर पहुंचे तो हम दोनों दिन भर की असफलताओं पर जो बातें खाने-पीने से लेकर अब तक चली आ रही थीं उन्हें विराम दिया। टीवी ऑफ की। मैं लेट गया। शंपा बगल में बैठी थी। मोबाइल के मैसेज बॉक्स को चेक कर रही थी। मैंने सोचा सो जाएगी थोड़ी देर में, लेकिन उसने मोबाइल में व्यस्त रहते हुए ही पूछा।
समीर पता नहीं मैं सही कह रही हूं कि नहीं लेकिन मुझे वहां ऐसा लगा जैसे कि तुम दोनों एक दूसरे को देख कर चौंक गए थे। जैसे कि जानते हो एक दूसरे को और अचानक ही बहुत एबनॉर्मल सी पोजिशन में आमने-सामने आ गए। आखिर ऐसा क्यों हुआ?’ शंपा की इस बात ने मुझे एकदम हिला कर रख दिया। बड़ी मुश्किल से खुद को संभाले लेटा रहा। कुछ जवाब सूझ नहीं रहा था तो चुप था।
तभी वह फिर बोली सो गए क्या? कुछ बोल नहीं रहे हो।मैंने सोचा इसे तुरंत कुछ जवाब ना दिया तो इसका शक और गहरा हो जाएगा। मैंने नींद में होने का ड्रामा करते हुए कहा। ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था। पता नहीं तुम्हें ऐसा क्यों लगा। बात को डायवॉर्ट करने की गरज से मैंने यह भी जोड़ दिया कि शॉक्ड तो मैं तुम्हारी बात से हुआ था। मेरी बात से, मैंने ऐसा क्या कहा था?’ क्यों? तुमने मुझे हसबैंड कह के इंट्रोड्यूज किया।
ओह.... नहीं हो क्या?’ हूं क्यों नहीं, शॉक्ड इसलिए हुआ कि तुमने मुझे पहली बार हसबैंड कहा। वह भी वहां उसके सामने। उसके पहले तुमने कभी नहीं कहा। ओफ्फो समीर तुम भी ना अभी तक पति कहा नहीं कहा इसी दायरे में पड़े हुए हो। अभी तुम यह भी पूछ सकते हो कि मैंने तुम्हें पति माना कब से? तो मैं क्या जवाब दूंगी। देखो हमारा तुम्हारा जो रिश्ता है, तुम्हें स्पष्ट हो जाए इसलिए मैं यह भी जोड़ रही हूं कि पति-पत्नी का जिसे तुम आज समझ पाए हो कि सिंदूर डाला, फेरे लगाए, माला पहनाई और बन गए पति-पत्नी।
 मैं यह मानती हूं कि हमारा तुम्हारा आज जो रिश्ता है। यह धीरे-धीरे विकसित हुआ है। और यहां तक पहुंचा। आगे कहां तक जाएगा यह मैं नहीं जानती। लेकिन मेरी इच्छा यही है कि जीवन भर चले। या रिश्ते में जब तक मधुरता है। खुशबू है, अपनत्व है। जीवन राग की मिठास है तब तक। समझे माई डियर समीर। जिस दिन यह चीजें ना रहें रिश्तों में, उस दिन हमें खुशी-खुशी अलग हो जाना चाहिए। रिश्ते का बोझ ढोने की कोई ज़रूरत ही नहीं।
यदि हम भी यही करते हैं तो हममें बाकी में फर्क़ क्या रह जाएगा। समीर हमें फर्क़ बनाए रखना है। क्यों कि हमें बहुत-बहुत काम करना है। जीवन राग के रस को तरोताज़ा बनाए रखना है।और इसके बाद शंपा ने कई रोमांटिक बातें कीं, उससे कहीं ज़्यादा स्पीड में रोमांटिक हो जीवन राग का रस बिखेर दिया। खुद उसमें सराबोर हुई मुझे भी किया। और दिन भर की थकान के चलते बेसुध हो सो गई।  उसका एक हाथ मुझे अपने में समेटे मेरी पीठ के गिर्द तक था। मुझे नींद नहीं आ रही थी। शंपा और उस रईसजादी के कारण।
मैंने धीरे से शंपा को अपने से अलग किया। उठ कर सिगरेट जलाई और चहल-क़दमी करने लगा। रईसजादी से जहां मुझे अपनी जान का डर नजर आने लगा था, वहीं यह डर भी लग रहा था कि कहीं शंपा पर मेरा यह राज खुल ना जाए। जब यह जान जाएगी तो क्या करेगी? क्या यह एक पूर्व पुरुष वेश्या को स्वीकार कर पाएगी? क्या यह इतनी उदार है कि मेरी स्थिति को समझेगी और मेरे जीवन के इस हिस्से को नजरंदाज कर देगी।
पहली बार मुझेे इस बात का भी डर सताने लगा कि प्रोफे़सर, कॉलेज और ऐसे ही अन्य लोगों के बीच बात पहुंच गई तो मैं कैसे फेस करूंगा? ना जाने कितनी महिलाओं को तो सर्विस दे चुका हूं। ना जाने कितनी बार दे चुका हूं। इनमें से ना जाने कौन कहां टकरा जाए। या जिन मित्रों के साथ इस फील्ड में पहुंचा इनमें से ही कोई कहीं बात खोल दे तो। इस बात से ज़्यादा मुझे शंपा की बातें डरा रही थीं। कि रिश्ते ढोएंगे नहीं। तो कहीं यह तो नहीं कि जिस दिन इसका मन भर जाएगा उस दिन दूध की मक्खी की तरह मुझे निकाल फेंकेगी। या अपने उद्देश्य कोे पूरा करने के लिए इसे मेरे जैसे एक व्यक्ति की तलाश थी और मुझमें अपने मनपसंद गुण नजर आए तो कैच कर लिया।
मन में उठे इन प्रश्नों ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया। मैंने अजीब सी घबराहट महसूस की, कि मैं तो इसे अपने इस जीवन क्या हर जीवन में पाने की ख्वाहिश पाले हुए हूं और एक यह है कि कितनी आसानी से जब जी ना माने तब छोड़ देने की बात कर रही है। मैं खुद को एकदम ठगा हुआ सा महसूस करने लगा। मन एकदम भर आया कि घर से अलग होने के बाद यह पहली शख्स है जिसे देखकर ना जाने कैसे खुद ही एक भावनात्मक लगाव पैदा हो गया। लगाव भी ऐसा कि अलग होने की नाम पर ही कांप उठता हूं। यह अभी जैसे बोलीं उसमें तो भावनात्मक लगाव जैसा कुछ है ही नहीं। सब कुछ अपने टार्गेट को पाने के लिए मैनेज करने जैसा है।
मैं बेचैनी में सिगरेट पर सिगरेट फूंके जा रहा था। घर में इधर-उधर पागलों सा टहल रहा था। दिमाग की नशंे फटती सी महसूस र्हुइं तो एक बड़ा पैग व्हिस्की का पी गया। कुछ मिनट बाद ही दूसरा भी पी गया। मैं घर के हर कोने से टहलते हुए शंपा के पास पहुंचता उसे बेड पर सोते हुए देखता। मुझे लगता कि वह मुस्कुराते हुए मुझे देख रही है। और साथ ही वही बातें रिपीट कर रही है। वह जितना रिपीट करती मैं उतना ही ज़्यादा व्याकुल हो जाता।
जीवन में पहली बार मैं ऐसी हालत से गुजर रहा था। शंपा का चेहरा अचानक ही मुझे चिढ़ाता हुआ लगने लगा। मुझे गुस्सा आने लगा। मैंने मन में हीे कहा मैंने तुम्हें छोड़ने के लिए नहीं पाया है। तुम्हारे मन में भी यही बात नहीं बिठा पाया यह मेरी ही गलती है। लेकिन शंपा तुम्हारी बातों से कभी लगा ही नहीं कि तुम्हारे मन में यह चल रहा होगा। तुम्हारे लिए तो भावना या रिश्ता कोई महत्व नहीं रखता। तुम भी बस स्वार्थ के लिए ही साथ हो। तुमने बहुत दिनों बाद फिर मंझली की याद दिला दी। जिसने पैसों ,संपत्ति के लालच में रिश्ते, भावना, विश्वास का खून करने में देरी नहीं की। इतनी अंधी हो गई कि अपने हाथों अपनी ही खुशियों में आग लगा ली। उस आग में पूरा घर जला दिया। जिसके साथ भागी उसके साथ ना जाने किस हाल में किस जगह होगी।
          तुम्हें मैं एक विद्वान एक रचनात्मक सोच वाली विशिष्ट महिला मानता हूं। रिश्तों में जीवन राग के खत्म होने पर अलग हो जाने की नहीं तुमसे उम्मीद यह थी कि तुम कहोगी कि हमारे बीच कभी जीवन राग खत्म ही नहीं होगा। यदि हुआ तो भी हम फिर नया जीवन राग पैदा कर लेंगे। लेकिन तुमने एक सामान्य व्यक्ति की भांति तोड़ने की बात एकदम से इतनी आसानी से कह दी। आखिर फ़र्क क्या रह गया तुममें और बाकियों में। जिस फ़र्क को समझ कर मैं तुम्हारे आकर्षण में बंध गया, वह एक झटके में समाप्त हो गया।
ऐसी बातों को सोचते-सोचते अंततः शंपा के बेड के पैताने (पैर की तरफ) खड़ा हो गया। शंपा अपने प्रिय रात्रि परिधान में सो रही थी। उसका यह प्रिय रात्रि परिधान एक्स्ट्रा लार्ज सफेद टी शर्ट है। जो उसके लगभग घुटने तक पहुंचती है। बस इसके अलावा वह सोते समय कुछ नहीं पहनती। इसी अस्त-व्यस्त से परिधान में उसे देखते-देखते मुझमें ना जाने क्या प्रतिक्रिया हुई कि मैं करीब-करीब बुदबुदाता हुआ कि शंपा मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। मैं तुम्हें इतना प्यार करूंगा कि हमारे बीच जीवन राग जन्म-जन्मांतर तक चलता ही रहेगा।
इसके साथ ही मैं शंपा के पास बेड पर पहुंचा। और बिजली की फूर्ती से उसे प्यार करने लगा। इससे उसकी गहरी नींद एकदम टूट गई। वह सकपका कर उठने की कोशिश करने लगी। लेकिन मैंने मौका नहीं दिया। वह ओह समीर, समीर अरे यार ये क्या हुआ?’ उसकी ऐसी किसी बात का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा। जब मैं शांत हुआ तो वह झटके से उठ कर बैठी और मुझे तरेरती हुए कहा व्हाट हैपिंड समीर, व्हाट इज दिस। ये क्या तरीका है। घंटे भर पहले ही कंप्लीट किया था। ऐसा भी क्या।’,
मुझसे कुछ जवाब ना सूझा। मैं नाइट लैंप की हल्की रोशनी में अवाक सा उसे देखता रहा तो वह बोली आखिर क्या बात है जो ऐसी हरकत की।अब तक उसे ड्रिंक का पता चल गया था। उसने तुरंत कहा आज भी मेरे साथ दो पैग ही ड्रिंक  ली थी। साथ ही सोने के लिए लेट गए थे। फिर कब उठकर और पी ली। इतनी देर तक जाग कर क्या कर रहे थे?’ एक के बाद एक उसके क्योश्चन होते जा रहे थे। लेकिन मैं अजीब सी मनः स्थिति लिए बेवकूफों की तरह इधर-उधर देखता रहा। कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि शंपा की बातों का क्या जवाब दूं। आखिर मैं डांट खाए डरे हुए बच्चे की तरह एक तरफ करवट लेकर लेट गया। मेरी जान में जान तब आई जब मेरे लेटते ही शंपा न जाने क्या सोचकर चुप हो गई। कुछ ही देर में मैंने उसे भी टॉयलेट से आकर बेड पर लेटते हुए महसूस किया।
          सुबह मैं जब सो कर उठा तो नौ बज गए थे। बेड पर बैठे-बैठे कमरे में इधर-उधर नजर दौड़ाई मगर शंपा नहीं थी। इतनी देर में मेरी आंखों के सामने रात का दृश्य दौड़ गया। मुझे बड़ा पछतावा होने लगा। कि मैंने यह क्या जंगलीपन वाली हरकत की। मुझे शंपा से माफी मांगनी चाहिए। वह गुस्सा हो गई होगी। मैं उठकर ड्रॉइंगरूम की तरफ चल दिया। उसके लैपटॉप के की-बोर्ड की बड़ी हल्की सी आवाजें उधर से ही आ रही थीं। मैं वहां पहुंचा तो मेरे स्लीपर की आवाज़ सुनकर उसने सेकेंड भर को मुझे देखा फिर लैपटॉप पर कुछ टाइप करने लगी। वह अपनी किताबें लैपटॉप पर ही सीधे टाइप करती थी। इस तरह उसने अपना गुस्सा जाहिर कर दिया था। वह बहुत ज़्यादा गुस्से में थी।
कुछ देर एक ही जगह खड़े रह कर मैं एक डरे हुए छात्र की तरह आगे बढ़ा कि बस अब टीचर की मार पड़ने ही वाली है। वह सोफे पर बैठी अपने पैरों पर लैपटॉप रखे हुए थी। मैं उसके पैरों से एक क़दम पहले रुक गया। कुछ क्षण चुप रहा कि देखूं यह क्या बोलती है। वह ना बोली। लगी रही अपने काम में तो मैंने आत्म-ग्लानि भरे लहजे में कहा सॉरी, अब ऐसा भी क्या गुस्सा। कभी-कभी कंट्रोल नहीं रहता। हो जाती है गलती। इस बार शंपा बोली कंट्रोल’ ! क्या मतलब है तुम्हारा ‘‘कंट्रोल’’ से। अरे घंटा भर भी नहीं हुआ था। इतने दिन से साथ रह रहे हैं। फिर कंट्रोल की बात कहां से आ गई?’
उसने लैपटॉप सोफे पर किनारे रख दिया। फिर कहा ऐसा तो था नहीं कि मैं उसी समय कहीं भाग जाने वाली थी हमेशा के लिए। फिर कभी ना मिलते। तुमने बिलकुल गुंडों, मवालियों की तरह मेरा रेप किया है समीर, रेप। कितनी क्रुएलिटी से तुम विहेव कर रहे थे। मैं एकदम घबरा गई थी। मुझे लगा कि तुम मेरा मर्डर करने वाले हो। तुम्हारी इस हरकत से मैं बहुत दुखी हूं। आश्चर्य में हूं। आई एम रियली हर्ट टू मच। आई एम डीपली शॉक्ड। उस समय तुम एक हार्डकोर रेपिस्ट लग रहे थे। दिन में ही मैंने दुनिया के सामने तुम्हें हसबैंड कहा और तुमने कुछ ही घंटों के बाद मेरा रेप कर दिया। आखिर क्यों किया ऐसा? मैं रीजन जानना चाहती हूं। उस समय लग रहा था कि जैसे तुम मुझे किसी बात के लिए ब्रूटली पनिश कर रहे थे। मुझे सच बताओ समीर रीजन क्या था? मैं हर हाल में सच जानना चाहती हूं। बताओ मुझे क्या बात है?’
मुझे लगा कि स्थिति बहुत गंभीर होने जा रही है। किसी तरह इसे संभाल ना लिया तो कुछ अनहोनी जैसी बात हो सकती है। मैंने सोचा इसके क्योंका कोई ना कोई जवाब दिए बिना काम चलने वाला नहीं है। मैं उसकी बगल में बैठ गया। फिर उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा कैसी बात कर रही हो। कोई रीजन-वीजन नहीं है। तुम अपनी उस मेगा लार्ज टी-शर्ट में ऐसी सेक्ससिएस्ट पोजीशन में थी कि मैं हाइपर एक्साइटेड हो गया। थोड़ा काम व्हिस्की का भी था। समझ लो यार कि सब टी-शर्ट के कारण हुआ।
मैंने बात को मजाकिया लहजा देकर माहौल को हल्का करना चाहा। उसे बांहों में भरना चाहा। लेकिन शंपा छोड़ने को तैयार नहीं थी। उसने मेरे हाथ को धीरे से अपने कंधे से परे हटाते हुए कहा। मुझे कोई स्कूली गर्ल समझ रखा है क्या? कि तुम्हारी इस बचकानी बात पर यकीन कर लूंगी। सब टी-शर्ट के कारण हुआ ना, ठीक है आज से उसे छुऊंगी ही नहीं। और कुछ भी नहीं पहनूंगी फिर देखती हूं तुम आगे क्या बहाना बनाओगे। तुम्हें कपड़े एक्साइटेड करते है ना, तो उन्हें रात में पहनूंगी ही नहीं।’ 
मैंने कहा बार-बार सॉरी बोल रहा हूं ना। अब बस भी करो गुस्सा। मैंने उसे फिर हंसाने की कोशिश की लेकिन उसका असर कुछ खास नहीं पड़ा। बस वह थोड़ा नरम भर पड़ी। लेकिन आगे यह कह कर मुझे फिर हिला दिया। उसने कहा पता नहीं मेरा अनुमान कितना सही है या गलत कि कल केवल एक यही एबनॉर्मल बात नहीं हुई थी। उस रईसजादी और तुम जब मिले तो ऐसा लगा जैसे कि तुम दोनों एक दूसरे को देखकर चौंके। ऐसा कुछ तुम दोनों के बीच है जिसने वहां अचानक सामना होने पर दोनों को सकते में डाल दिया।
वह सच के इतना करीब है यह जानकर मेरी आत्मा भी सिहर उठी, लेकिन अपने पर नियंत्रण किए हुए मैं बोला। तुम भी सुबह-सुबह किस हिप्पोक्रेट का नाम लेकर दिन खराब कर रही हो। इतना शक करना भी अच्छा नहीं। इस समय सच में तुम्हें एक कप कॉफी की जरूरत है। तब तुम्हारा मूड सही होगा। मुझे तो खैर है ही। तुम अपना काम करो मैं बना कर लाता हूं। मुझे पीछा छुड़ाने, बात खत्म करने का तुरत-फुरत यही एक रास्ता नजर आया। मैं सीधा किचेन में चला गया।
जब मैं ग्यारह बजे कॉलेज के लिए निकला तब भी शंपा बोल नहीं रही थी। मैंने नाश्ता भी खुद ही बनाया। उसको दिया तो बहाना बना दिया अभी मूड नहीं है। मैं उस समय कुछ और बात नहीं करना चाह रहा था। कॉलेज में पूरा समय मैं बहुत बेचैन रहा। कई और काम निपटाने के बाद जब मैं देर शाम घर पहुंचा तो दरवाजा बंद मिला। शंपा कहीं गई थी। मैं ताला खोल कर अंदर पहुंचा तो किचेन सहित पूरे घर की हालत बता रही थी कि शंपा ने किचेन में क़दम ही नहीं रखा। जो नाश्ता मैंने दिया था वह भी उसी तरह सोफे के सामने टेेबिल पर पड़ा था।
घर की हर चीज़ अपनी जगह वैसी ही पड़ी थी। जैसी कल थी। मेरा दिमाग और परेशान हो गया। मन में प्रश्न उठा कि मैंने तो उसे प्यार किया था। अपने प्यार की पराकाष्ठा का अहसास कराना चाहा था। उस अहसास में इतना उसे डुबा देना चाहता था कि वह जीवन में किसी भी सूरत में मुझसे अलग होने की बात सोच ही ना सके। लेकिन उसने इसे उल्टा ही समझा। प्यार को रेप बता रही है। आखिर मैंने ऐसा क्या कर दिया कि इतना गुस्सा दिखा रही है। इस तरह तो मैं रह ही नहीं पाऊंगा। पागल हो जाऊंगा। आखिर प्यार को रेप कहने की कोशिश ये क्यों कर रही है? जबकि मैंने सिर्फ़ प्यार किया था। गलती थी तो सिर्फ़ इतनी कि थोड़ा ज़्यादा एग्रेसिव था। कहीं इसके मन में कुछ और तो नहीं शुुरू हो गया है।
मेरे आने के करीब तीन घंटे बाद शंपा ग्यारह बजे घर आई। अक्सर इतनी देर होती ही रहती थी इसलिए मैं निश्चिंत था। उसे फ़ोन नहीं किया। और करीब हफ्ते भर बाद मैंने फिर खाना भी बना लिया था। भूख लगी थी लेकिन शंपा का इंतजार करता रहा कि आएगी तो उसके ही साथ खाऊंगा। वह पोर्च में कार खड़ी कर अंदर आई तो उसके हाथ में कागज़ों के दो भारी भरकम बंडल थे। वह पैम्पलेट थे। उसके अभियान से संबंधित। जिसे लेने हम दोनों को साथ जाना था। लेकिन वह बताए बिना अकेली ही ले आई। मेरे दिमाग से उतर गया था कि सात बजे उसे कॉल करना था। बंडल उसने एक तरफ पटका। सोफे पर बैठ गई।
मैंने कहा बताया नहीं साथ ले आते। उसने बड़े बेरूखेपन से कहा मैंने सोचा ले आते हैं। कौन सा बड़ा काम है, सम्मेलन के दो महीने बचे हैं। तैयारी ठीक से हो नहीं पा रही है।मैंने कहा चलो मैं कल से और समय निकालता हूं। नहीं होगा तो कॉलेज से कुछ दिन कि छुट्टी ले लूंगा। मेरी इस बात पर वह कुछ बोली नहीं। उठ कर बाथरूम में चली गई। मुझे यह बुरा लगा कि मैं तो बात कर रहा हूं। इसके काम के लिए छुट्टी लेने को तैयार हूं। लेकिन ये अभी तक ताव दिखा रही है। बेवजह तमाशा किया हुआ है। आखिर मुझे भी गुस्सा आ सकता है। मन ही मन कहा खाना बना दिया है। अब निकलूंगा  नहीं। ऐसे ही सोचता हुआ मैं बैठा रहा। वह बाथरूम से बाहर आई किचेन में गई तो मुझे लगा इसे भूख लगी है।
उसके अंदर जाते ही बर्तनों की आवाज़ आने लगी। उन आवाजों में भी मुझे गुस्से की झलक दिख रही थी। बाहर आई तो दोनों हाथों में खाने की प्लेट लेकर आई। सामने रखते हुए कहा। जब बना लिया था तो खा भी लेते। बेकार इंतजार करने की ज़रूरत क्या थी?’ उसे खाना लाते देखकर जो खुशी हुई थी। उसकी इस बात से मूड फिर खराब हो गया। मैंने कहा सोचा साथ खाते हैं। फिर वह कुछ ना बोली खाना उसने रोज की अपेक्षा दुगुनी तेज़ी से खत्म किया। फिर प्लेट ले जाकर किचेन में रख कर हाथ वगैरह धोकर बेडरूम में चली गई। हम रोज खाना एक साथ खत्म करके उठते थे। कभी बर्तन वो रख आती थी। कभी मैं।
उसकी इस हरकत ने मुझे फिर परेशान किया। उसे मैं उसी मेगा साइज टी-शर्ट में बेडरूम की तरफ जाते देखता रहा लेकिन कुछ कह नहीं सका। मैं माहौल को बेहतर बनाने की कोशिश में था। खाना खत्म कर मैंने भी बर्तन वगैरह किचेन में पहुंचाए और बेडरूम में पहुंच गया। शंपा ने लाइट ऑफ कर रखी थी। ड्रॉइंगरूम के दरवाजे की तरफ से वहां इतनी लाइट पहुंच रही थी कि चीजों को कुछ हद तक देखा जा सकता था।
 मैंने लाइट ऑन की तो मेरा मूड एकदम से खराब हो गया। कि ये क्या तरीका है गुस्सा दिखाने का? ये कोई तरीका नहीं हुआ। बातें सुबह ही बहुत हो चुकी थीं। और मैंने यही समझा था कि मामला खत्म। लेकिन इसने तो मामला जैसे का तैसा बना रखा है। जैसा सुबह कहा था वैसा ही किया। अपनी टी-शर्ट सच में निकाल दी है। बिना कपड़ों के ही करवट लिए लेटी है। टी-शर्ट वहां कहीं आस-पास भी नहीं दिख रही थी। जानबूझ कर उसे कहीं छुपाया हुआ था।
आखिर मैं भी अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाया। मैंने कहा शर्ट क्यों नहीं पहनी ये क्या तमाशा बना रखा। वह कुछ नहीं बोली लेटी रही तो मेरा गुस्सा और बढ़ गया। इस बार मैंने थोडी़ तेज़ आवाज़ में कहा इस तरह आखिर तुम कहना क्या चाहती हो। इतना तनाव मैं नहीं बर्दाश्त कर सकता। जो कहना चाहती हो साफ-साफ कहो।
          ‘मैं ना कुछ कहना चाहती हूं ना मैंने कोई तनाव फैला रखा है, ठीक है। मैं नहीं चाहती कि मेरा एक बार फिर रेप हो। इसलिए शर्ट नहीं पहनी। आगे भी नहीं पहनूंगी। आखिर सोते समय ज़रूरत ही क्या है इनकी। यहां हमारे बीच कोई तीसरा है ही नहीं और हमारे बीच कुछ छिपा नहीं है। ठीक है। अब सो जाओ मुझे नींद आ रही है। मैं बहुत थकी हुई हूं।
          उसके इस अजीबो-गरीब जवाब से मैं खीझ उठा। मगर चुप रहा। उलझन के कारण बहुत देर रात में सोया। सुबह उठा तो उसे कल ही की तरह फिर ड्रॉइंगरूम में काम करते पाया। चाय भी सामने रखी थी। मैं बैठ गया तो उसने बिना कुछ बोले जो एक और कप रखा था उसमें चाय भरकर मेरी तरफ खिसका दिया। वह जैसे पहले से सोचे बैठी थी कि मैं जब आऊंगा तो चाय इस तरह वह मुझे दे देगी। मैंने भी चाय ले ली। दो तीन शिप लेने के बाद मैंने कहा गुस्सा उतर गया। तो वह चुप रही। फिर रीपीट किया तो कुछ देर बाद बोली मैं गुस्सा-वुस्सा नहीं थी। मैंने अपनी बात कही थी। अब भी वही कह रही हूं। मैं अपनी बात से पीछे नहीं हटी हूं।
जब गुस्सा नहीं थी तो रात में क्यों किया वह सब।
देखो मैं फिर कह रही हूं कि तुम या तो बात को समझ नहीं रहे हो। या समझना नहीं चाह रहे हो। या फिर मैं समझा नहीं पा रही हूं। मैं रात में ही सब कह चुकी हूं। जब तुम उस टी-शर्ट के कारण आउट ऑफ कंट्रोल हो जाते हो तो मेरी सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। ऐसे में मुझे सही यही लगा कि कारण ही खत्म कर दूं। वैसे भी जब कोई चीज ढकी रहती है तो क्यूरीसिटी पैदा हो जाती है, जब क्यूरीसिटी ही नहीं होगी तो...।
क्या ऊटपटांग बोलती जा रही हो। अगर औरतें लड़कियां कपड़े ना पहने तो क्या रेप नहीं होगा। मेरी बात का मतलब यह नहीं है। तुम कुतर्क कर रहे हो। कपड़े का अपना महत्व है। बात मैंने अपने तुम्हारे इस घर के अंदर के दायरे की है। और तुम उसे समग्र में लिए जा रहे हो। रजनीश अगर कहते थे कि घर में किशोरवय होने तक बच्चों को निर्वस्त्र ही रखा जाए तो वह यूं ही तो नहीं कहते थे। बात मानसिकता के निर्माण की है। कपड़े से मुक्ति पा लेने की नहीं।
मैं नहीं मानता कि ऐसा कुछ होने वाला है। यदि ऐसा होता तो स्पेन, या सारे यूरोपियन देशों, पश्चिमी देशों में रेप या सेक्सुअल हैरेसमेंट की घटनाएं होनी ही नहीं चाहिए। या नाममात्र को होनी चाहिए। वहां तो घर क्या बाहर भी न्यूडिटी हावी रहती है। अफसोस तुम्हारे इस तर्क पर मैं यह कह सकती हूं कि तुम्हारे फार्मूले से भी तो बात बनती नहीं दिख रही। यदि कपड़े पहन कर इनसे बचा जा सकता है तो मुस्लिम देशों में या मुस्लिमों में तो औरतें सिर से पैर तक कपड़ों की कई तहों में ढकी-मुंदी रहती हैं। लेकिन रेप उनके यहां भी बराबर होते रहते है।
सेक्सुअल हैरेसमेंट वहां भी बराबर बना हुआ है। जब कि मौत तक की सजा दी जाती है। इस लिए सच यह है कि मानसिकता के निर्माण की बात होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता का निर्माण कि लोग रेप या महिलाओं के शोषण की बात सोचे ही ना। क्यों कि ऐसा किए बिना ना ये रुका है ना रुकेगा। चाहे लोगों को मौत की सजा दो , उनके टुकड़े-टुकड़े कर दो कोई भी फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला।
निर्भया कांड के बाद वर्मा आयोग ने कानून सख्त किए लेकिन कोई फ़र्क पड़ा क्या? उससे भी वीभत्स कांड बराबर होते जा रहे हैं। केरल में ही लो जहां उच्च साक्षरता दर है। स्टूडेंट का रेप जिस बर्बरता से किया गया उस के सामने निर्भया के साथ हुई बर्बरता कुछ नहीं थी। केरल में लड़की के शरीर में ना जाने कैसी-कैसी भयानक चीजें इंसर्ट की गईं। उन्हें अंदर ही भयानक तरीके से मूव करा कर ऐसे खींचा गया कि उसके अंग क्षत-विक्षत हो गए। सारी आंतें बाहर आ गईं। इसके कुछ ही दिन बाद लॉ स्टूडेंट के साथ यही किया गया। उसके शरीर पर अड़तीस घाव थे। इस समस्या को रोकने के लिए जो तरीके अपनाएं जा रहे हैं वे वैसे ही हैं जैसे कोई पानी की टंकी बुरी तरह जंग खा गई है। उसे बदलने के बजाय लीकेज को बंद कर-कर सड़ चुकी टंकी का समाधान ढूंढ़ा जाए।
          तुम जैसे चाह रही हो उस हिसाब से तो ऐसी मानसिकता डेवलप करने के लिए दो-तीन पीढ़ियां चाहिए। उसके बाद भी गारंटी नहीं है। यदि दो-तीन पीढ़ियों में टंकी बदली जा सकती है तो कोशिश होनी ही चाहिए। आखिर सदियों से लीकेज बंद कर-कर के देख लिया गया। समस्या जस की तस है। जब यह तरीका फेल हो चुका है तो नया तरीका क्यों ना आजमाया जाए?’
           तो मैडम लीकेज बंद करने की कोशिश छोड़ कर मेरी मानसिकता बदलने की कोशिश करो। कल रात जो किया वह अब ना करना। मैंने यह बात प्यार से कहते हुए उसके गालों को ऐसे खींचा जैसे किसी छोटे बच्चे के खींचे जाते हैं। इस पर उसका जो जवाब आया उससे मुझे परेशानी हुई। उसने कहा वह तुम्हारी मानसिकता बदलने के मैथड का ही एक हिस्सा है। इसलिए वह कंटीन्यू रहेगा।मुझे इस बात से गुस्सा लगी। लेकिन मैं कुछ बोला नहीं उठकर चल दिया दूसरे कमरे में।
          उसका मेरी मानसिकता बदलने का प्रयोग चलता रहा। सम्मेलन की तैयारी होती रही। मगर जब सम्मेलन हुआ तो उसके साथ-साथ मेरे पैरों तले की भी जमीन खिसक गई। तैयारी के दौरान लोगों से मिल रहे रिस्पांस के आधार पर हमने अनुमान लगाया था कि कम से कम दस हज़ार लोग आएंगे। मीडिया भी अच्छा रिस्पांस देगी, कवरेज देगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुश्किल से सौ लोग आए। मीडिया के गए गुजरे से दो चार पत्रकार आए चलते बने। जो सौ लोग आए वो भी आए और चल दिए। जिन लोगों को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था उनमें से सिर्फ़ दो आए।
जब वो आए तो पचास लोग भी नहीं बचे थे। तो वो इसे अपनी इंसल्ट समझ कर चल दिए। शंपा अपना वक्तव्य पढ़कर ही चुप हुई। चुप होने के बाद वह काफी देर तक मूर्ति बनी बैठी रही। उसे गहरा सदमा लगा था। उसे हर तरफ से धोखा मिला था। यहां ऐन टाइम पर बहुत से लोगों ने जो चंदा देने की बात कही थी वह भी गायब हो गए। जिससे कर्ज बहुत बढ़ गया। हारे जुआरी से जब हम घर पहुंचे तो एकदम चुप थे। मैं सबसे ज़्यादा इस बात से परेशान था कि अब हम दोनों लाखों रुपए का कर्ज कहां से भरेंगे।
होम लोन पहले ही गले को नापे रहता है। मगर इस परेशानी से ज़्यादा मुझे दुख इस बात का था कि सम्मेलन असफल नहीं बल्कि पूरी तरह उस पर पानी फिर गया था। शंपा आते ही बेड पर ऐसे निढाल होकर पड़ गई जैसे शरीर में जान ही ना हो। जैसे योग के शवासन में पड़ी हो। मैं भी बेड पर एक तरफ बैठा था। मैंने कुछ देर बाद देखा उसकी आंखों की कोरों से आंसू निकल-निकल कर उसके कानों तक जाकर उन्हें भिगो रहे थे। वह भीतर ही भीतर रो रही थी।
कुछ ही देर में मुझे लगा कि अब यह सिसक पड़ेगी। मुझसे उसकी हालत देखी नहीं गई। मैंने उसके चेहरे को दोनांे हाथों से प्यार से पकड़ते हुए कहा शंपा ये क्या? तुमसे मुझे यह उम्मीद नहीं थी। तुम एक स्ट्रॉन्ग लेडी हो। मेरी नजरों में तुम किसी आयरन लेडी से कम नहीं हो। हम हारे नहीं हैं। हम फेल नहीं हुए हैं। हमने अपने उद्देश्य की तरफ पहला क़दम बढ़ा दिया है। हमारे क़दम अब पीछे नहीं हटेंगे।
 शंपा दिल्ली जैसे शहर में सौ लोगों का आना भी बहुत बड़ी बात है। इस बार सौ हैं, आगे सौ हज़ार होंगे। शंपा याद रखो हर बड़ा काम छोटे से ही शुरू होता है। जीरो से ही शुरू हो कर आगे असंख्य नंबर बनते हैं। आगे हम बढ़ेंगे तो कारवां बनेगा ही। आज सौ आए हैं हमारी यह उपलब्धि नहीं है। यह हमारी उस महान उपलब्धि का बीज है जो हमें भविष्य में मिलने वाली है। विशाल वटवृक्ष एक सूक्ष्म से बीज से ही निकलता है। मेरे इतना कहते-कहते शंपा चुप होने के बजाय फ़फ़क कर रो पड़ी।
एकदम उठकर मुझसे लिपट गई, मेरी छाती में सिर छिपाए बड़ी देर तक रोती रही। मैं उसे अपने में समेटे उसके सिर को सहलाता रहा। चुप कराने की कोशिश करता रहा। बड़ी देर बाद कहीं वह शांत हुई। मैंने कॉफी बनाई। उसे देते हुए कहा। जो हुआ उस पर सोचने के बजाय अब इस प्वाइंट पर सोचना शुरू करो कि आगे क्या करना है। मुझे पीछे मुड़कर देखना अपने पैरो में बेड़ियां डालने जैसा लगता है। उस रात हम दोनों ने ब्रेड, दूध से काम चलाया। खाना वगैरह कुछ नहीं बनाया।
          अगले कई दिन हम दोनों ने भारी भरकम कर्ज से कैसे निपटें, इसकी योजना बनाने में निकाल दिए। मगर मेरी परेशानियां शंपा की परेशानियों से कहीं ज़्यादा थीं। सबसे ज़्यादा मैं इस बात से परेशान हो उठा कि शंपा ने अपने मिशन से हटने का डिसीजन ले लिया। उसने साफ कह दिया कि अब वह आंदोलन वगैरह खड़ा करने का प्रयास नहीं करेगी। लेखन के जरिए ही अपने विचारों को फैलाएगी। मुझे उसका यह निर्णय परिस्थितियों के सामने घुटने टेकने जैसा लगा।
           इधर मैं जी वर्ल्ड से अपने कनेक्शन के खुलने के भय से आतंकित होता रहा। इस बीच एक चीज मैंने और देखी कि शंपा अब और ज़्यादा मुझ पर ही डिपेंड होती जा रही है। वह जैसे मुझमें ही सिमट कर रह जाना चाहती थी। उसके पास बस इतना ही काम था पढ़ना-लिखना, सोना। घर के काम में बस थोड़ा बहुत ही हाथ बंटाती। मज़बूरन बाई लगानी पड़ी। एक काम जो रेगुलर था वह मेरे आने के बाद बस यूं ही गाड़ी से घंटे भर घूम आना। यही ज़िंदगी फिर कई साल चली। इस बीच मैंने कर्ज और जी वर्ल्ड के तनाव से मुक्ति पा ली थी।
शंपा की इंकम का भी अच्छा योगदान रहा। शंपा ने इसी दौरान अपनी एक बुक पूरी की। इस दुनिया से उस दुनिया तकउसे मैंने फर्स्ट ड्रॉफ्ट से ही पढ़ना शुरू किया था। मेरे कुछ संशोधन शंपा ने स्वीकार भी किए थे। बड़ी कोशिशों के बाद एक नामी पब्लिशर उसे छापने को तैयार हुआ। यह संयोग ही था कि जिस दिन पब्लिशर को मैन्यूस्क्रिप्ट सौंपी उसके अगले ही दिन मुझे कॉलेज के एक ट्रुप के साथ बतौर मैनेजर अमरावती जाने का आदेश मिला। सीनियर प्रोफेसर अनुसुइया खरे के नेतृत्व में यह ट्रुप जा रहा था। उन्हीं के कहने पर मुझे भी जाने का आदेश मिला।
  यह दल अमरावती संत परंपरा पर शोध करने वाले छात्रों का था। मैंने सोचा शंपा को भी लेता चलूं। उसका खर्च हम खुद उठाएंगे। वह अध्ययनशील विद्वान महिला है। साथ रहेगी तो अच्छा रहेगा। सीनियर प्रोफ़ेसर से भी बात कर ली। उन्होंने कहा नियमतः तो नहीं चल सकते लेकिन चलो मैनेज किया जाएगा। लेकिन शंपा ने मना कर दिया। लाख कहने पर भी नहीं मानी। एक ही तर्क कि मैं रहूंगी तो तुम अपना काम ठीक से नहीं कर पाओगे यह तुम्हारे कॅरियर के लिए अच्छा नहीं। मेरा भी समय किल होगा। इतने समय तक घर को बंद छोड़ देना भी ठीक नहीं।उसकी दोनों ही बातें सही थीं। तो अकेले गया अमरावती।
वहां वाकई मेरा मन नहीं लग रहा था। शंपा से मेरा कितना लगाव है। वह मेरे लिए कितनी जरूरी है। यह मैं सही मायने में वहीं महसूस कर रहा था। शुुरू के कई दिन तो मैं सो ही नहीं सका। उठ-उठ कर उससे फ़ोन पर बातें करता। वह कहती सो जाओ मेरे लाल। मेरे नीले। मेरे मुन्ने। मुझे भी सोने दो। दिन भर से कितनी बातें कर चुके हो। कितनी बार कर चुके हो। तुमने तो यंग कपल को भी मात कर दिया है।यह बात बिलकुल सही है कि हम किसे कितना चाहतें हैं, इसका सही अंदाजा तभी लगता है जब हम उससे दूर होते हैं। वहीं मुझे अहसास हुआ कि इसके बिना तो मेरा जीवन है ही नहीं।
वहां गए दस दिन हो गए थे, और मैं बस अपने को किसी तरह संभाल रहा था। ग्यारहवें दिन हम पूरी टीम करीब नौ बजे खाना खा रहे थे। तभी मोबाइल पर रिंग हुई। देखा शंपा का फोन था। रिंग के साथ उसकी खिलखिलाती हुई फोटीे स्क्रीन पर आ जाती है। प्रोफेसर अनुसुइया ने व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ मुझे देखा फिर खाने में जुट गईं।
मैंने कॉल रिसीव कर जैसे ही हैलो कहा उधर से किसी जेंट्स की आवाज़ सुनते ही मेरा दिल एकदम घबरा उठा। कॉल करने वाले ने अपने को पुलिस इंस्पेक्टर बताया। पूछा ये मैडम शंपा आपकी कौन हैं।मैंने बताया वाईफ तो उसने सिलसिलेवार एक स्वर में बता दिया कि इनकी कार का एक्सीडेंट हो गया है। यह सुनते ही मारे घबराहट के मैं पसीने से तर हो गया। मैं एक झटके में हकलाते हुए पूछ बैठा कहां? कैसे? वो ठीक तो हैं?
यह बोलते-बोलते मैं उठ खड़ा हुआ। खाना खाते बाकी लोगों के हाथ भी जहां के तहां ठहर गए। सब की प्रश्नवाचक दृष्टि मेरे चेहरे पर ठहर गई। इंस्पेक्टर ने उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती वगैरह कराने की बात बता दी। यह भी बताया कि हालत सीरियस है। तुरंत आएं मैंने कहा मैं अमरावती में हूं। उसने कहा यहां लोकल कोई हो तो उसे भेजिए। मैंने सीधे प्रोफे़सर साहब को फ़ोन कर के उन्हें सारी बात बताई। उनसे रिक्वेस्ट की तुरंत हॉस्पिटल पहुंचने के लिए। फिर कई और दोस्तों से भी बात की। अमरावती से मैं नागपुर पहुंचा। वहां से मुंबई की फ्लाइट मिली। वहां से अगले दिन दिल्ली पहुंचा। वहां से कोई सीधी फ्लाइट ना मिलने के कारण बड़ा टाइम लग गया।
मैं एयरपोर्ट से सीधा हॉस्पिटल पहुंचा तो वहां मुझे प्रोफे़सर साहब और कई दोस्त मिले। सब गेट पर ही मिल गए। मैं हांफता-कांपता उनके पास पहुंचा सबके चेहरे अजीब से बुझे-बुझे लटके हुए थे। उन सबको ऐसे देख कर किसी अनहोनी की आशंका से मैं कांप उठा। प्रोफ़ेसर साहब से मैंने पूछा तो उन्होंने कंधे को पकड़ कर ढांढ़स बंधाते हुए कहा समीर हिम्मत से काम लोइसके बाद मुझे समझते देर नहीं लगी। मेरे आंसू बह चले, मेरे मुंह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। मैं जहां खड़ा था वहीं बैठ गया। मेरी दुनिया एकदम अचानक ही उजड़ गई थी। शंपा मुझे छोड़कर चली गई थी। उसकी डेड बॉडी पोस्टमार्टम के लिए भेजी जा चुकी थी।
मेरे दोस्त मुझे अपने घर लेते गए। अगले दिन पोस्टमार्टम के बाद शंपा का पार्थिव शरीर मिला। मैंने शाम तक अपने मित्रों के साथ उसका अंतिम संस्कार कर दिया। घर लौटा तो लगा जैसे शरीर में जान ही नहीं रही। दोस्तों ने संभाला। अगले तीन दिन में बाकी संस्कार पूरे कर दिए। जब तक इन सब कामों में बिजी रहा तब तक तो अहसास उतना नहीं हुआ लेकिन उसके बाद जब रात में लेटा तो मैं खुद को रोक ना सका। बेड पर एक तरफ उसके होने की आदत पड़ गई थी। बार-बार मेरा हाथ उस हिस्से को छू रहा था जिस पर शंपा रहती थी। लगता जैसे शंपा आकर लेटने ही वाली है। मैं उसका अहसास करते हुए फ़फ़क कर रो पड़ा। पूरे घर में मेरी आवाज़ पहुंच रही थी। 
मगर मेरा अपना कोई होता तब तो मेरे पास आता। मैं रोेते-रोते पस्त हो गया। खुद को कोसने लगा कि आखिर मैं उसे अकेले छोड़ कर गया ही क्यों? ना मैं जाता। ना वह बाहर शराब पीकर गाड़ी ड्राइव करती। मैं होता तो उसके इस काम के लिए खुद चला जाता। मैं इस बात का सख्ती से पालन करता था कि ड्रिंक के बाद बाहर जाना ही नहीं है। उससे मैंने आधे घंटे पहले ही फ़ोन पर जब बात की थी तब कहा भी था रात हो गई है, अब मत जाओ। मगर अपने काम के जुनून में वह खुद को ना रोक पाई। मैं यह जान भी नहीं पाया था कि उस समय उसने ड्रिंक कर रखी है। नहीं तो चाहे जैसे हो उसे रोकता।
मैंने सोचा खुद तो चली गई। इतना बड़ा काम जो छोड़ गई है अब वह कैसे होगा? कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि जब वह अपने को रेगिस्तान से बाहर खुश पा रही थी, अपने सपनों को पूरा करने के लिए आगे बढ़ रही थी तो एक छोटी सी गलती कर अपना सब कुछ क्षण भर में खो दिया। अपनी ड्रीम बुक भी पब्लिश हुई ना देख पायी। सारी मेहनत पर पानी पड़ गया। और जो मुझे अकेला छोड़ गई, मेरा क्या होगा? अब कौन रहा मेरा इस दुनिया में? भाई बहन सब ना जाने कितने बरसों से एक दूसरे को भूल चुके हैं। अब क्या करूं?
यह क्याही मुझे अब तक जीवन में बार-बार उठ खड़े होने की ताकत देता रहा है। मैं हर बार आगे बढ़ने में सफल रहा हूं तो इस बार भी मेरी आत्मा की आवाज़ ने मुझे शंपा के सपने जो कि मेरा भी सपना हैं, को पूरा करने के लिए उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। उस स्थिति में भी मैंने तय कर लिया कि किताब छप कर आते ही मैं आगे बढूंगा। उसका बाकी लिटरेचर भी छपवाऊंगा और अब प्रोफे़सर आयशा को शामिल करूंगा।
वह शंपा के समय से ही इच्छुक हैं। आयशा मुस्लिम महिलाओं की तलाक समस्या का समाधान ढूढ़ने के लिए शंपा जैसी महिला का साथ चाहती थीं। क्यों कि वह भी इस दंश का शिकार हैं। उस वक्त ना जाने क्या हुआ कि मेरा दिमाग कुछ ज़्यादा ही सक्रिय हो उठा। अचानक ही यह ख़याल भी मन में आया कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करूंगा कि ऐसे सारे कानूनों में संशोधन किया जाए जो किसी भी स्त्री-पुरुष या संस्था के खिलाफ किसी भी पक्ष के लिए एक तरफा कार्यवाई करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जरूरत हुई तो और भी क़दम उठाऊंगा। जिससे मंझली जैसी शख्सियत किसी कानून का दुरुपयोग न कर सके।
ऐसे ही सोचते रोते सिसकते देर रात किसी समय नींद आ गई। सुबह करीब नौ बजे नींद खुल गई। कॉल बेल बार-बार बजे जा रही थी। बड़ा बुरा लग रहा था। पूरा बदन टूट रहा था। किसी तरह अपने को खींचते-खांचते जाकर दरवाजा खोला। सामने प्रोफ़ेसर आयशा खड़ी थीं। पिछले कई दिन की तरह बड़े से हॉट पॉट में फिर वो नाश्ता, खाना-पीना ले कर आई थीं। मैं उन्हें नमस्कार कर अंदर ले आया।
 प्रोफ़ेसर से कॉलेज में ही परिचय हुआ था। वह कॉलेज में भी मेरे लिए कुछ ना कुछ लाती ही रहती हैं। कॉल बेल की आवाज़ से जो गुस्सा आया था वह उन्हें देखते ही खत्म हो गया। उन्होंने मुझसे कहा तैयार हो जाओ समीर। संभालो अपने को। जाने वाले को तो लाया नहीं जा सकता। जीने के लिए समय बहुत कम भी है। बहुत ज़्यादा भी। दुनिया बहुत छोटी भी है और बहुत बड़ी भी। यह दोनों हमारे सामने कैसी होंगी यह हम पर डिपेंड करता है।
आयशा मेरे इतने करीब थीं कि उनकी गर्म सांसों को मैं महसूस कर रहा था। अचानक लगा जैसे ठीक उनके पीछे ही मंझली खड़ी है। फिर अगले ही पल मन में कहा पता नहीं कहां होगी? कैसी होगी? जैसी भी हो एक बार अपने लालच का परिणाम आकर देख ले। उस कानून की विध्वंसक शक्ति से हुई तबाही के परिदृश्य पर एक नजर तो डाल ले।
 इसके साथ ही दिमाग में यह आया कि छोटे-छोटे मामलों में भी स्वतः संज्ञान लेकर क़दम उठाने वाली देश की सर्वोच्च न्याय पालिका भी ऐसे विध्वंसक समस्त क़ानूनों से उत्पन्न परिणामों का गहराई से अध्ययन करे, फिर निकले निष्कर्षों के आधार पर संशोधन के लिए क़दम उठाए। जिससे कोई भी क़ानून किसी के हाथ का हथियार ना बन जाए। सच में आखिरी व्यक्ति तक को न्याय मिले। वह सिर्फ़ होता हुआ दिखे ही नहीं ऐसा वास्तव में हो भी।
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पता-प्रदीप श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६,८२९९७५६४७४




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