भगवान की भूल
-प्रदीप
श्रीवास्तव
मां ने बताया
था कि जब मैं गर्भ में तीन माह की थी तभी पापा की करीब पांच वर्ष पुरानी नौकरी चली
गई थी। वे एक सरकारी विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी थे। लखनऊ में किराए का एक
कमरा लेकर रहते थे। घर में मां-बाप, भाई-बहन सभी थे लेकिन उन्होंने सभी
से रिश्ते खत्म कर लिए थे। ससुराल से भी। मां ने इसके पीछे जो कारण बताया था, देखा जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं था। बिल्कुल निराधार था। मां अंतिम सांस तक
यही मानती रही कि उसकी अतिशय सुंदरता उसकी सारी खुशियों की जीवनभर दुश्मन बनी रही।
वह आज होतीं, तो मैंने अब तक जितनी भी कठिनाइयां , मान-अपमान झेले वह सारी बातें
खोलकर उन्हें बताती और समझाती कि तुम अपने मन से यह भ्रम निकाल दो कि तुम अतिशय
सुंदर थीं। तुम पर नजर पड़ते ही देखने वाला ठगा सा ठहर जाता था। और यह खूबसूरती
तुम्हारी दुश्मन थी।
मुझे देखो, मैं तो तुम्हारे विपरीत अतिशय बदसूरत हूं। मुझे बस तुम्हारा दुधिया गोरापन ही
मिला है। बाकी रही बदसूरती तो वह तो दुनियाभर की मिल गई। फिर मुझे होश संभालने से
लेकर प्रौढ़ावस्था करीब-करीब पूरा करने के बाद भी अब तक खुशी नाम की चीज मिली ही
नहीं। तुम नाहक ही अपनी सुंदरता को जीवनभर कोसती रही। असल में कई बार हम हालात के
आगे विवश हो जाते हैं। या तो हम समझौता कर उसके आगे समर्पण कर देते हैं, जहां वह ले जाए वहां चलते चले जाते हैं। या फिर एकदम अड़ जाते हैं। अपनी
क्षमताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा मोहड़ा मोल ले लेते हैं। जिससे अंततः टूट कर बिखर
जाते हैं। मैं मां की हर बात को बार-बार याद करती हूं। तमाम बातों को डायरी में भी
खूब लिखती रही। बहुत बाद में मन में यह योजना आई कि अपने परिवार की पूरी कथा
सिलसिलेवार लिखूंगी । चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इस निर्णय के पीछे एक
मात्र कारण हैं। दोनों चित्रकार मां-बेटी बरसों-बरस से मेरी ज़िंदगी में कई मोड़ पर
अहम रोल अदा करती आ रही हैं। वो मुझे सेलिब्रेटी बनाने की कोशिश बहुत बरसों से
करती आ रहीं हैं। उन्हीं की सलाह है कि मैं परिवार के बारे में लिख डालूं । यह और
उन मां-बेटी द्वारा बनाई गई मेरी न्यूड पेंटिंग्स लोगों के बीच तहलका मचा देंगी।
असल में उन दोनों
ने मुझे बहुत पहले इस बात का बड़ी गहराई से अहसास कराया था, कि मैं इस दुनिया में एक अजूबा हूं। एक ऐसी अजूबा जो जिधर निकल जाए उस पर
लोगों की नज़र पड़े और ठहरे बिना नहीं रह पाएगी। देखा जाए तो सच यही है कि मैं एक
अजूबा प्राणी ही तो हूं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अजूबों पर दुनिया का ध्यान बड़ी
जल्दी जाता है। नज़र उस पर ठहर ही जाती है। इसलिए मुझे आज भी यकीन है कि चित्रा
आंटी और मिनिषा की बात एक दिन वाकई सच होगी।
मेरी आप बीती
तहलका मचा सकती है। लेखन की बारीकियों से अनजान मैं यही समझ पाई हूं कि मेरे अब तक
के जीवन में जो घटा है सब लिख डालूं। मैं जैसी अजूबा हूं मेरे साथ अब तक जीवन में
वैसा अजूबा ही तो घटता आ रहा है। मेरी इस जीवन गाथा के मुख्य पात्र मां-बाप के बाद
चित्रा आंटी, मिनिषा, डिंपू, ननकई मौसी, सिन्हा आंटी, उप्रेती एवं दयाल अंकल आदि होंगे।
मां-बाप होते
तो निश्चित ही डिंपू को न शामिल करने देते। तब मैं उनको यही समझाती कि मां ऐसा
कैसे कर सकती हूं। आखिर अपने ड्राइवर देवेंद्र को कैसे छोड़ सकती हंू। वही देवेंद्र
मां जिसे तुम डिंपू-डिंपू कहती हो। मैं यह भी मानती हूं कि डिंपू मेरे बीच जो हुआ
आगे चलकर उसे जानते ही मां और पापा दोनों ही निश्चित ही मुझे मारते-पीटते घर से
निकाल देते। जिस डिंपू को हम लोग कभी नौकर से ज्यादा कोई तवज़्जोह नहीं देते थे
वही डिंपू उनका दामाद बन जाता यदि उसने मुझे धोखा नहीं दिया होता। और मैं उसे
गुस्से में दुत्कार न देती और फिर कभी शादी न करने का प्रण न करती। मैं पूरे यकीन
के साथ कहती हूं कि यह जानते ही मां मुझे ठीक उसी तरह घर से धक्के देकर सड़क पर
फेंक देती जैसे उन्हें और पापा को उन के
सास-ससुर ने निकाल दिया था। जबकि उन्होंने, पापा ने तो ऐसा कोई काम किया ही
नहीं था।
मुझे अच्छी तरह
याद है कि मां मौका मिलते ही बार-बार सास-ससुर द्वारा घर से निकाले जाने और मेरे
जन्म की घटना बताती थीं। मां की याददाश्त बड़ी अच्छी थी। मां हर बार एक सी ही बात
बताती थीं। कभी उसमें कोई परिवर्तन नहीं रहता था। उन्होंने यही बताया था कि शादी
की बात चली तो पापा और उनके परिवार ने उन्हें एक नज़र देखते ही हां कर दी थी। यहां
तक कह दिया था मां के माता-पिता से कि यदि आप एक पैसा भी नहीं खर्चां करेंगे तो भी
रिश्ता यही करेंगे। कोई दिक्कत है तो पैसा हम लगाने को तैयार हैं। पापा की तरफ के
इस उतावलेपन का मां के परिवार ने खूब फ़ायदा उठाया। इसमें उनके चाचा भी शामिल थे।
सबने एक राय होकर जो कुछ मां की शादी में करने, देने के लिए पहले से तय था उसका भी
अधिकांश हिस्सा रोक लिया,
नहीं दिया। मगर मां की ससुराल वालों ने इस पर भी क्षणभर को
ध्यान नहीं दिया। मां ससुराल पहुंची तो उनकी सुंदरता केवल अपने गांव ही नहीं आस-पास
के गांवों में भी चर्चा का विषय बन गई। दादी उनकी सुंदरता, सुघड़ता, उनकी बातों , व्यवहार, शिष्टाचार की चर्चा कर-कर के, सुन-सुन के खुशी के मारे फूली न समाती
थीं। रोज ही शाम को वह मां की नज़र उतारती थीं कि किसी की नज़र न लगे। पापा सहित घर
के सारे लोगों का यही हाल था।
मां कहती थी कि
पापा पहली रात को और बाद में भी कई दिनों तक रात में जब उनके पास पहुंचते तो
लालटेन उनके करीब करके देर तक उनको अपलक ही निहारा करते। मां लजा कर सिर नीचे कर
लेतीं, तो अपने दोनों हाथों में उनका चेहरा लेकर यूं धीरे-धीरे ऊपर उठाते कि मानो पानी
का कोई बुलबुला हाथों में लिए हैं और वह
इतना नाजुक है कि हल्की जुंबिश तो क्या सांस लेने की आवाज़ से भी फूट जाएगा।
वह चेहरा ऊपर
करके एकदम अपलक, एकदम निःश्वास मां को देखते। पापा को इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि घर में क्या
गांव में ही बिजली नहीं है। जब कि मां सीतापुर शहर में पली बढ़ीं थीं। हालांकि लाइट
का टोटा वहां भी था। लेकिन मां के घर में सुख-सुविधा का हर सामान था। मगर उनकी
शादी एक गांव में की गई, जहां माटी, गोबर लीपना-पोतना, कंडा, उपला, खेती किसानी यही सब था। बाबा भी गांव के बहुत बडे़ तो नहीं मगर फिर भी अच्छे
खासे खाते-पीते संपन्न किसान माने जाते थे। कच्चा-पक्का मिला कर बड़ा मकान था।
कच्चे ही सही मगर करीब-करीब पचीस बीघे खेती थी। घर में गाय, भैंस, बैल मिला कर करीब आठ-नौ जानवर थे, ट्रैक्टर था। मां बड़ा दुखी होकर
बताती थी कि मानो परिवार की इन सारी खुशियों को किसी बाहरी की तो नहीं हां परिवार
की ही नज़र लग गई थी।
जिन पापा को
पहले यह खेती-किसानी घर-द्वार अच्छा लगता था वही शादी के चार-छः दिन बाद ही यह सब
देखकर चिढ़ने लगे थे। उनको बहुत बुरा लगता था कि दादी किसी के आने पर मां को
बुलातीं और उन्हें खड़ा ही रखतीं, जब कि बाकी लोग तखत, चारपाई, स्टूल आदि पर बैठते। आने वाला मेहमान यदि मां को बैठने को कहता तो उन्हें कोने
में लंबा घूंघट काढ़ कर पीढे़ पर ही बैठने की इज़ाज़त थी। इन सबसे चिढ़े पापा तब अपना
विरोध दर्ज कराना रोक न पाए, जब चौथी की रस्म के हफ्ते भर बाद ही मां
से रसोई घर गोबर से लीपने के लिए कह दिया गया। पहले यह काम दादी खुद करती थीं
क्योंकि रसोई घर में काम वाली जा नहीं सकती थी।
उस दिन जब पापा
ने देखा कि दादी मां से गोबर से रसोई लिपवा रही हैं, और मां ने क्योंकि
पहले कभी यह सब नहीं किया था तो ठीक से लीप नहीं पा रही थीं। हांफ अलग रही थीं, पसीने से तरबरतर थीं और दादी पीढ़े पर थोड़ी दूर बैठी मां को लीपना बता रही थीं।
जहां ठीक से नहीं हुआ था वहां दुबारा करवा रही थीं। पापा उस समय तो कुछ नहीं बोले
थे। रात में मां की हथेलियों पर उभर आए
सुर्ख निशानों को कई बार चूमा था और नाराज होकर कहा था कि ’मुझसे यह सब देखा नहीं जाएगा।’ मां ने तब उन्हें मना किया था कि ‘ससुराल है। घर में तो यह सब होता ही है। अम्मा जी भी तो करती हैं।’ तब पापा बोले थे कि ‘यह तो उनकी आदत है।’ इस पर मां ने कहा कि ‘मेरी भी आदत पड़ जाएगी।’
लेकिन पापा बहस करते रहे। बोले ‘तुम मेरी बीवी हो घर की नौकरानी नहीं।
मजदूर नहीं कि
तुम्हें मेहमानों के सामने जमीन पर बैठाया जाए या खड़ा रखा जाए। गोबर लिपवाया जाए, सुबह भोर से लेकर रात तक काम में पीसा जाए। मुझसे यह सहन नहीं होगा।’ मां के लाख कहने पर भी पापा नहीं माने थे, और जब अगले दिन मां फिर चौका लीप
रही थीं, दादी पहले की तरह बता रहीं थीं तो पापा ठीक उसी वक्त आ गए। मानो वह पहले ही से
ताक लगाए बैठे थे। वो कुछ बोलते कि उसके पहले ही दादी बोल पड़ीं ‘का रे तू मेहरिया के काम का देखा करत है। अरे! घरवे का काम कय रही है। कौउनो
बाहर के नाहीं।’ दादी का इतना बोलना था कि पापा फट पड़े थे कि ‘वो तो मैं भी देख रहा
हूं कि घर का ही काम कर रही है। लेकिन एकदम मजूरिन बना दिया है। दस दिन भी नहीं
हुआ है और कोल्हू के बैल की तरह काम ले रही हो। गोबर लिपवा रही हो।’
दादी अपने सबसे
बड़े बेटे से यह अप्रत्याशित बात सुनते ही एकदम सकते में आ गर्इं थीं। उनके सारे
सपने, सारी खुशी सुंदर बहू पाने का सारा उछाह, ऊपर से गिरे शीशे की तरह छन्न से
टूटकर चूर-चूर हो गए थे। मां यह बताते-बताते खुद भी रो पड़ती थी कि पलभर में दादी
के अविरल आंसू बहने लगे थे। वह रोती हुई बोलीं थीं, ‘वाह बेटा चार दिन भः
मेहरिया के आए ओके लिए इतना दर्द और ई मां जो बरसों बरस से गोबर, माटी, पानी, लिपाई करती आई, बनाती खिलाती आई, इस लायक बनाया कि ऐसी मेहरिया मिल सके उसका कोई खयाल नहीं। इतनी बड़ी तोहमत, इतना बड़ा कलंक लगा दिया। अरे! मेरे दूध में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि यह ताना मारते
तोहार जुबान न कांपी।’
मां ने जब-जब यह बताया तब-तब आखिर में यह जोड़ना
ना भूलतीं कि सास के यह आंसू ही पापा और उनके लिए शाप बन गए। और उन दोनों को संतान
सुख नहीं मिला। अब मैं यह भी इसमें आगे जोड़ना चाहूंगी कि मां मुझसे कहती भले ही न
थीं, लेकिन मन में यह जरूर कहती रही होंगी
कि संतान दी थी तो मेरी जैसी। ऐसी अजूबा जो उन दोनों के लिए असहनीय बोझ ही रही।
मां बहुत भावुक होकर बताती थीं कि ‘सास के आंसू देखकर वह तड़प उठी थीं।’
उसने जल्दी से
गोबर सने अपने हाथ धोए और सास को समझाने लगीं, पापा को वहां से तुरंत हट जाने को
भी कहा लेकिन तब तक बातें सुनकर बाबा भी आ धमके। दादी से सारी बातें सुनते ही वह आग बबूला हो उठे। उन्होंने पापा को
नमक-हराम से लेकर जितना जद्बद् हो सकता था कहना शुरू कर दिया। पापा ने भी
जबानदराजी शुरू कर दी थी। जिसने आग में घी का काम किया। मां, बाबा-दादी सब के रो-रोकर हाथ जोड़-जोड़ कर विनती करती रहीं कि ‘शांत हो जाइए। ऐसी कोई बात नहीं है। न जाने ऐसा क्या हुआ कि यह ऐसी गलती कर
बैठे।‘ मां इतना ही बोल पाई थी कि पापा फिर बिदक उठे ‘मैंने कोई गलती नहीं
की है।’ फिर तो बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने तुरंत अपना आदेश सुनाते
हुए कहा ‘आज से तुम अपना चूल्हा अलग करो। तुम्हें परिवार के बाकी लोगों से कोई लेना
देना नहीं। कोई संबंध नहीं रहा अब तुम्हारा बाकी लोगों से।’
घर के बाकी
सारे सदस्य, मां की नंदें, देवर आदि सब आ चुके थे। जिन पापा को कभी किसी ने बाबा से तेज़ आवाज़ में बात
करते भी नहीं सुना था आज उन्हीं को उनसे इस तरह बिना हिचक लड़ते देख कर सभी सकते
में थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। दादी भी कुछ-कुछ बुदबुदाती अपनी किस्मत को कोसती
रोए जा रही थीं। मां बड़ी गहरी संास लेकर कहती कि बाबा का आदेश सुनने के बाद पापा नम्र
पड़ने के बजाय और बहक गए। उन्होंने छूटते ही कह दिया कि ’जिस घर में परिवार के सदस्य और मजदूर के बीच कोई फर्क ही नहीं वहां मुझे रहना
ही नहीं है।’ फिर तो बाबा ने अपना आखिरी महाविस्फोट किया था। साफ कहा था कि ’ठीक है, ठीक है बेटा इतनी ही शान है तो देहरी से अगर क़दम निकालना तो जीवन में कभी मुंह
मत दिखाना। हम भी देखेंगे कि कितनी शान, कितनी ऐंठ है तुममें।’
मां जब-जब अपनी
यह बात पूरी करती थीं तो आखिर में कभी मेरा हाथ पकड़ कर या कभी कंधे पर हल्के से
थपथपा कर कहतीं ‘बस तनु यही वह क्षण थे जब हमारी सारी खुशियों को हमेशा के लिए ग्रहण लग गया।’ मां सच ही कहती थीं। जीवन भर मैंने उसे कभी हंसते खिलखिलाते नहीं देखा था।
गाहे-बगाहे कभी हंसी भी तो उसकी वह हंसी हमेशा खोखली एवं नकली ही दिखी। हर हंसी के
पीछे मैं आंसू देखती थी। और पापा का भी यही हाल था। मैं पापा-अम्मा के जीवन के उस
दिन को उनके जीवन का सबसे मनहूस दिन मानती हूं। जिसकी काली छाया ने मेरे जीवन को
भी अंधकारमय बनाया है। वह इतना काला दिन था कि एक बाप की डांट को बेटा बर्दाश्त
नहीं कर सका।
वह अपने आवेश
पर काबू न कर सका और त्याग दिया सभी को। कुछ ही दिन पहले आई पत्नी के लिए इतना बड़ा
फैसला ले लिया। वह पत्नी भी हाथ जोड़ती रही लेकिन नहीं माने। मां कहती थीं कि
तुम्हारे पापा से मैंने लाख मिन्नत की, हाथ पैर जोड़े लेकिन वह ऐसा मनहूस
क्षण था कि वह नहीं माने। उन्होंने यहां तक कह दिया कि ‘तुम्हें ज़्यादा वो हो तो तुम रहो
यहीं। मुझसे संबंध खत्म। मैं नहीं रहूंगा यहां। किसी भी सूरत में नहीं। फिर शाम
होते-होते वह मां और दो सूटकेस में कपड़े वगैरह
लेकर लखनऊ चले आए थे। नाना-नानी के घर भी कोई सूचना नहीं दी थी। दो दिन बाद
जब नाना को पता चला तो वो नानी, मामा को लेकर दौड़े-भागे लखनऊ आए थे। मगर
उनकी भी सारी कोशिश नाकाम रही।
वो यहां अपने एक रिश्तेदार के यहां रुक कर कई
दिन पापा को समझाते रहे लेकिन वो टस से मस नहीं हुए थे। जिस किराए के कमरे में
पापा मां को लेकर रहने आए थे वह इतना बड़ा था ही नहीं कि उसमें मियां-बीवी के अलावा
तीसरा कोई रह पाता। आखिर थके हारे नाना जाते-जाते मां को कुछ रुपए दे गए थे।
उन्हें जल्दी ही सब ठीक हो जाने की उम्मीद थी। उनको और बाकी सबको भी यह पक्का यकीन
था जब गुस्सा कम होगा तो बाप-बेटे एक हो जाएंगे। ऐसा न होने पर नाना के सपनों पर
भी तो पानी पड़ रहा था। उन्होंने अपनी लड़की एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी को नहीं
बल्कि एक अच्छे-खासे संपन्न खुशहाल परिवार, किसान परिवार के सदस्य को ब्याही
थी।
मां इस घटना के
लिए सारा दोष केवल अपनी सुंदरता को हमेशा देती रही। बार-बार यही कहती थीं कि ‘न मैं इतनी सुन्दर होती और न ही तुम्हारे पापा मेरी सुंदरता के दिवाने हो ऐसा
गलत कदम उठाते कि मां-बाप,
भाई-बहन, ससुराल सब से हमेशा के लिए नाता खतम कर
लेते। और न ही पापा के भाई इसका गलत फायदा उठाते। दोनों नंदों की शादी हो गई लेकिन
पापा को भनक तक न लगने दी गई। साजिशन नाना के यहां से तो दुश्मनी जैसी स्थिति पैदा
कर दी गई। और आगे चलकर बाबा के कान भर-भर कर सारी चल-अचल संपत्ति से ही पापा को
बेदखल कर दिया गया।’ मां फिर भी इसके लिए जीवन भर अपनी सुंदरता को ही दोषी ठहराती रहीं। उन्होंने
यह भी बताया था कि ‘आने के बाद यदि पापा शांत हो जाते, बाबा-दादी सबसे माफी मांग लेते तो
चुटकी में सब ठीक हो जाता। बाबा-दादी मन के बड़े खरे और दिल के सच्चे थे।
वह पापा की इस
हरकत को क्षणिक उत्तेजना में उठाया गया क़दम मान कर पलभर में माफ कर देते।’ लेकिन पापा तो उनके सौंदर्य के आगे कुछ ऐेसे चुंधियाए हुए थे कि जीवन यापन का
एक मात्र सहारा अपनी टेम्परेरी नौकरी के साथ भी खिलवाड़ कर बैठे थे। और तब मां भी
बिफर पड़ी थीं। और आत्महत्या की धमकी दे दी थी। उस धमकी का असर यह हुआ कि उसके बाद
पापा कुछ भी करते लेकिन नौकरी के साथ चांस नहीं लेते। मगर उनके अगले और फैसलों ने, काम ने उन्हें और परेशान ही किया। मां इन बातों को बताते-बताते कई बार भावुक
भी होतीं और कई बार जैसे रोमांचित भी।
यह बात मां ने
न जाने कितनी बार बताई कि लखनऊ आए दस दिन भी न बीता था कि एक रात वह उनके सौंदर्य
में खोए हुए बोले कि ‘जब तक नौकरी स्थाई नहीं होगी तब तक बच्चे नहीं पैदा करेंगे।’ उस समय तो वह कुछ नहीं बोलीं लेकिन जब एक दिन बाद ही वह उन्हें फेमिली
प्लानिंग के लिए एक हॉस्पिटल लेकर जाने लगे तब उन्होंने मना किया। ‘देखो इतनी जल्दबाजी मत करो। लोग कहते हैं कि शुरू में ही यह सब करने से फिर
आगे कई बार ऐसा भी होता है कि बच्चे नहीं भी होते।’ लेकिन तब पिता जी ने
उन्हें सड़क पर ऐसा तरेरा,
इस तरह इतना तेज़ घुड़का कि मां सहम कर रह गईं। और पिता जी
अपने मन की करवा करके लौटे। हालांकि हॉस्पिटल से लौटने के बाद कई दिन मां को जो
पीड़ा, तकलीफ रही उससे पिता जी बहुत परेशान और आतंकित से रहे। इसके बाद फिर नौकरी के
नियमित होने के इंतजार में दो साल बीत गए।
दो साल बाद
पापा मां की यह बात मान गए कि ‘बच्चा होने दो शायद उसकी किस्मत से ही
हमारे दिन बहुरें।’ इस बीच पापा ने तीन मकान बदले। क्योंकि उन्हें हर बार यही शक सताए रहता था कि
मकान मालिक मां को देखते हैं। गंदी नज़र डालते हैं। और मां इस सबसे होने वाली
परेशानियों, अनावश्यक खर्चों के लिए अपनी सुंदरता को कोसती रहतीं। भगवान से मिले एक तरह से
अनुपम वरदान को कोसती थीं। अब मेरी बड़ी इच्छा होती है कि मैं यह सारी बातें, अब मां के सामने बैठ कर करती, कहती कि तुम्हारी और पापा की यह जो सोच
थी गलत थी। जिस के चलते तुम दोनों एक निरर्थक, अतिरिक्त तनाव लिए जीवनभर परेशान
रहे। लेकिन मुझे अफसोस है कि जब दोनों थे तब इतनी समझ नहीं थी। इतना ही नहीं तब तो
मां की बातों से बोर हो जाती थी। अब जब इन विषयों के लिए सोच के स्तर पर परिपक्व
हुई तो वह दोनों नहीं हैं।
कहां पाऊं
उन्हें। इतनी जल्दी छोड़ कर चल दिए ईश्वर के पास। मेरी छब्बीस- सत्ताईस की उम्र थी
जब पापा एवं मात्र नौ महीने बाद ही मां भी चली गईं। मेरे आगे पीछे कोई नहीं। मगर
मैं फिर भी यह नहीं कहूंगी कि मेरी शारीरिक स्थिति मेरे लिए एक समस्या थी और है।
मैं यही कहूंगी कि मेरा शरीर जैसा भी है, वही मेरे काम आता चला आ रहा है।
चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इसी शरीर को देखकर ही तो मुझे बरसों से सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश
करती आ रही हैं। इन्हीं सब के चलते मैं मां की तरह यह नहीं कहूंगी कि मेरा शरीर
मेरी सारी समस्याओं की जड़ है। जब थीं तब मैंने यह सब मां से कुछ-कुछ कहना शुरू ही
किया था।
पापा ने मुझसे
कभी सीधे मुंह बात की हो यह मुझे ध्यान नहीं आता। पता नहीं यह सच है कि नहीं कि
मैंने उनकी आंखों में अपने लिए हमेशा एक अजीब तरह की घृणा, नफरत, उदासी ही देखी। मानो मैं ही उनके सारे दुखों की एक मात्र कारण थी। मुझे पापा
को समझने का मौका नहीं मिला।
मां जैसा बताती
थीं। उस हिसाब से तो मेरा जन्म ही उन दोनों के लिए एक पीड़ादायी घटना थी। जब मां
बताती थी तब दुनियावी बातों की इतनी समझ नहीं थी। उस वक्त सारी बातें मेरे लिए
किसी कहानी से ज़्यादा नहीं थीं। मगर जब यह समझ बन पाई है तो उनकी बातें याद कर मन
रोता है। मां-पिता होते तो शायद मेरी हालत का अंदाजा लगा सकते। मैं खुद रोती हूं, खुद ही अपने को चुप भी कराती हूं। खुद ही अपने आंसू बहाती हूं और अपने हाथों
खुद ही पोंछती भी हूं। मेरे जन्म की कहानी जो मां ने बताई थी वह मुझे बहुत रुलाती
है।
मां ने बताया
था कि मेरे गर्भ में आने के तीसरे ही महीने बाद जब नौकरी चली गई थी तो पापा उस दिन
उनका एबॉर्शन कराने की जिद कर बैठे थे। उनसे खूब झगड़ा तक किया था। प्रिग्नेंसी के
बावजूद मां दो दिन तक इस झगड़े के कारण भूखी तड़पती रही थीं, तब मैं मासूम निरीह जान मां के पेट में इन सबसे अनजान थी।
महाभारत के
अभिमन्यु जैसी क्षमता नहीं थी कि यह सब गर्भ में ही समझती और जन्म के बाद याद भी
रखती। टेम्परेरी नौकरी भी चली जाने से पापा एकदम असहाय, विवश हो अपना आपा खो बैठे थे। घर ससुराल दोनों जगह से सारे संबंध खतम होने के
कारण वह अपनी असहाय स्थिति के कारण भयभीत हो उठे थे। मगर इस हाल में भी उनका
गुस्सा नफरत कम न हुई थी। अतः मां को इस हालत में भी मायके भेजने को तैयार नहीं
हुए। इतने जिद्दी थे कि बोल दिया मजदूरी कर लेंगे, कुछ नहीं बन पड़ेगा तो
दोनों आत्महत्या कर लेंगे। मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। फिर वह आए दिन मां
को ताना मारते कि ‘बच्चा होने दो शायद उसी की किस्मत से दिन बहुरें। कितने अच्छे दिन बहुरे। दो
जून की रोटी चलाने लायक जो नौकरी थी वह भी चली गई। अभी पेट में है तब यह किस्मत है, पैदा होगा तो न जाने क्या कराएगा।‘
फिर यह किचकिच
जब तक वह घर में रहते तब तक होती थी। नौकरी छूटने के बाद मकान मालकिन ने किसी तरह
महिने भर खाना-पीना चलाया था। मां बताती थी कि वह बड़ी भली महिला थीं। मां पेट से
है यह देखकर वह अपने पति से छिपा कर मां की मदद करती थीं। खाने-पीने की तमाम चीजें
मां को किसी न किसी बहाने देती रहती थीं। कि बच्चे को नुकसान न हो। पापा ने मकान
मालिक की मदद से गणेशगंज में किसी दुकान में नौकरी कर ली। मगर पापा के अक्खड़
स्वभाव ने उन्हें वहां भी एक हफ्ते से ज़्यादा नहीं रुकने दिया। तब मां घबरा उठी
थी। इस बीच मकान का किराया देने की बात सामने आ गई। मकान मालिक इसमें कोई रियायत
नहीं करना चाहता था। उसकी जिद, बातचीत के तरीके का पापा ने दूसरा ही
अर्थ निकाला। और अपने ऑफ़िस के समय के एक मित्र जो कि पैतृक संपत्ति के चलते बड़े धनाढ्य थे, उनके मकान में रहने लखनऊ शहर छोड़ कर मोहनलालगंज कस्बे में चले गए।
जिन पापा ने
अपने मां-बाप से घूंघट, काम-धाम के चलते लड़-भिड़ कर सब से सारे संबंध ही खतम कर लिए थे उन्होंने ही मां
से अपने इस मित्र के सामने घूंघट में ही रहने, सामने न पड़ने की सख्त हिदायत दे दी
थी। जब कि वह दोस्त पापा से मात्र सात-आठ साल ही बड़े थे। मां पापा के इस फैसले से
अचंभित थीं। हालांकि मां पापा के इस निर्णय के लिए यही कहती थीं कि अपने मित्र को
सम्मान की दृष्टि से देखने के कारण उन्होंने ऐसा किया था। मां होती तो अब मैं उनसे
साफ कहती कि नहीं ऐसा नहीं था मां। उन्होंने अपनी मनोवृत्ति के चलते ऐसा किया। वो नहीं चाहते थे कि उनके वह
मित्र तुम को देख पाएं। पापा एक अजीब तरह के भय का शिकार थे मां।
मां कई बार उस
कस्बे मोहनलालगंज के बस स्टेशन के करीब की वह दुकान भी मुझे दिखा लाई थी, जहां पापा ने उन्हीं मित्र के सहयोग से दुकान चलाई थी। जिससे गुजर बसर हो रहा
था। मां से उनकी चर्चा बराबर बड़ी होने पर भी सुनती रही थी। यह बात तो जस की तस आज
भी याद है कि जब मेरे जन्म का वक्त आया, मां को लेबरपेन शुरू हुआ तो उनकी
ही जीप से उन्हें जिला अस्पताल तक पहुंचाया गया था।
रात दस बजे
सोते से उन्हें उठाया गया था। उनकी पत्नी भी साथ हो ली थीं। पैसे की जबरदस्त तंगी
के चलते किसी बढ़िया प्राइवेट नर्सिंग होम का कार्ड पापा नहीं बनवा पाए थे। जिला
हॉस्पिटल में मां की हालत बिगड़ रही थी और रात होने के कारण स्टॉफ लापरवाही में
सुस्त पड़ा था। तब पापा के उन्हीं मित्र ने अपने स्थानीय होने के प्रभाव का प्रयोग
कर सबको झिंझोड़ कर रख दिया था। लेकिन हॉस्पिटल पहुंचने के समय जो लेबरपेन हो रहा
था वह डॉक्टर के आने के पहले ही अचानक ठीक हो गया।
डॉक्टर ने कहा
कुछ खास बात नहीं है, चाहें तो घर ले जा सकते हैं। सब घर आ गए। अगले दिन दोपहर तक फिर जाना पड़ा। फिर
उन्हीं मित्र की जीप और ड्राइवर काम आए। जो इसी अंदेशेे से गाड़ी छोड़ गए थे। ऑफ़िस
बस से चले गए थे। शाम चार बजे नॉर्मल डिलीवरी से मेरा जन्म हुआ। मां की यह बात आज
भी मुझे पीड़ा देती है कि मेरे लड़की होने पर मां का भी मन खट्टा हो गया था। और पापा
ने मेरी एकदम कमजोर नाजुक हालत के बावजूद एकदम उत्साहहीन होकर कहा था कि ‘बहुत कह रही थी न, लो बहुर गए दिन।’ और बेहद उदास चेहरा लिए बाहर चले गए थे।
मगर दो मिनट बाद ही वह एकदम खुशी से उछलते-कूदते
अंदर आए। मां का हाथ चूमते हुए बोले ‘हमारी बिटिया वाकई भाग्यशाली है
शुभांगी, हमारे दिन बहुर आए। हमें दुबारा नौकरी मिल गई है वह भी स्थाई।’ और फिर दोनों खुशी के मारे रो पड़े थे। पापा के वही मित्र यह सूचना देने के लिए
समय से पहले ही ऑफ़िस से चले आए थे। उन्होंने ही बताया कि लंबे समय से टेम्परेरी
कार्य करने वाले कुछ लोगों को स्थायी नौकरी दी गई है। उनमें पापा भी हैं। वह ऑर्डर
की फोटो कापी भी ले आए थे।
मां कहती थी कि
इस अप्रत्याशित खुशी से वह दोनों इतने खुश थे कि मानो पूरी दुनिया की खुशी उन्हें
मिल गई हो। और पापा ने आनन-फानन में उन्हीं मित्र से एक बड़ी रकम उधार ले ली। पहले
जो लोग उन्हें तब सौ-दो सौ रुपए भी देने से कतराते थे कि वापस कहां से करेंगे अब
उन लोगों की हिचक खत्म हो गई और उन्हें उधार मिलते देर न लगी। पापा ने दुकान का
सारा सामान एक दूसरे दुकान वाले को औने-पौने दाम में बेचकर कुछ और पैसा इकट्ठा
किया। फिर आठ-दस दिन में ही लखनऊ आ गए।
एक अच्छा मकान
किराए पर लेकर रहने लगे। महानगर का वह एरिया आज भी पॉश एरिया में गिना जाता है। इस
बदली स्थिति में पापा मां की ऐसे देखभाल कर रहे थे कि मानों वह छूईमूई का पौधा हैं, जो हल्के स्पर्श से ही मुरझा जाएगा। मां को काम न करना पड़े, मेरी देखभाल में कमी न हो इसके लिए नौकरानी लगा दी। खाने-पीने सुख-सुविधा की
ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था की। कुछ ही दिन में मां और मैं सेब जैसे लाल गोल-मटोल
हो गए। मगर साथ ही यह भी हुआ कि पापा रिश्वतखोरी में आकंठ डूब गए। साहबों को साधकर
खूब खाते और खिलाते। घर में खुशी हर कोने में मानो बरस रही थी। पापा मुझे मां को
इतना लाड़-प्यार देते कि देखने वाले दंग रह जाते।
देखते-देखते
मैं छः-सात महीने की हो गई और यहीं से घर की खुशियों पर फिर काली छाया मंडराने
लगी। मैं सात महीने की गोल-मटोल हो गई थी लेकिन मेरी लंबाई तीन महीने के बच्चे से
ज़्यादा नहीं थी। आठवें महीने में भी जब मैं बैठ भी नहीं पाई तो मुझे डॉक्टरों को
दिखाया गया। मगर संतोषजनक जवाब नहीं मिला। चिंता की लकीरें अब मां-पापा के माथे पर
उभरने लगी थीं। पापा ने एक से एक डॉक्टरों को दिखाया, दवाएं चलीं और मैं डेढ़ साल की उम्र में कहीं बैठना शुरू कर पाई।
डॉक्टर कुछ साफ नहीं बता पा रहे थे। कुछ बच्चे
देर से शुरू करते हैं यही जवाब मिलता था। मगर लंबाई नहीं बढ़ रही इस पर कोई कुछ
नहीं बता पा रहा था। अब पापा खीझने लगे थे। बहुत जल्दी हत्थे से उखड़ जाना उनकी आदत
बनती जा रही थी। अब दोनों के बीच एक और बच्चा पैदा करने की बात पर टुन्न-भुन्न
होने लगी। मां चाहती थी जल्दी से जल्दी एक और बच्चा पैदा हो। मगर पापा का जवाब की
अभी दो चार साल नहीं।
फिर मैं अपनी
कच्छप चाल से होती ग्रोथ और घर में अगले बच्चे को लेकर पापा-मां में होने वाली
टुन्न-भुन्न के साथ चार साल की हो गई। मैं ढाई साल की उम्र में खड़े-खड़े चलने में
समर्थ हुई थी। मगर लंबाई मेरी दो साल के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। इस बीच
डॉक्टरों के पास भटकते-भटकते यह साफ हो गया कि किसी अज्ञात कारण वश मैं बौनी बनने
के लिए अभिशप्त हो चुकी हूं। दिल्ली के एक बड़े हॉस्पिटल से जब कई जांचों के बाद यह
कंफर्म हो गया तो मां-पापा एकदम टूट गए। मां कहतीं कि ‘इसके बाद तो घर में हर तरफ खुशियां नहीं एक घुटनभरा, चिड़चिड़ा माहौल पैर पसार चुका था।’
मेरे इलाज के
लिए दोनों इसके बाद भी हाथ पैर मारते रहे। कभी होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, युनानी तो कभी एलोपैथी से लेकर झाड़-फूंक, पूजा-पाठ मंदिर तीर्थ जहां भी आशा
की किरण नज़र आई वहां गए। जो कहा गया किया। मगर ग्रोथ के मामले में मैं कच्छप गति
को शर्मिंदा करती ही रही। निराश हो मां ने अगले बच्चे के लिए अपना आग्रह बढ़ाया
लेकिन पापा किसी डॉक्टर की इस आशंका से भयभीत हो उठे थे कि जींस में कुछ गड़बड़ी है, जिससे यह संभावना पूरी है कि अगली संतान भी ऐसी ही कुछ समस्या के साथ पैदा हो।
मंगोल चाइल्ड की संभावना से भी इंकार नहीं किया
जा सकता। तब मां, पापा के अगला कोई बच्चा न पैदा करने के अंतिम निर्णय को मान गई। मगर अब दोनों
मेरे भविष्य, अपने बुढ़ापे की लाठी की चिंता में भी घुलने लगे। मेरे जन्म के समय जो खुशियां
बरस रही थीं उसमें छः-सात माह के अंदर जो ग्रहण लगा था वह धीरे-धीरे गहराता गया।
जब छः वर्ष की
उम्र में स्कूल में मेरा एडमिशन कराया गया तब तक घर की सारी खुशियां समाप्त हो
चुकी थीं। परिवार घिसटती हुई ज़िन्दगी जीने
लगा था। मैं इन चीजों के लिए इतनी समझदार नहीं थी सो हंसती, खेलती, उछलती, कूदती रही। मगर मां-बाप दोनों हंसना बोलना भूल गए थे। किसी रिश्तेदार, दोस्त या कहीं घूमने फिरने जाना बंद हो गया था।
घर में कोई आता
तो कोशिश होती कि मैं किसी के सामने न पडूँ । क्योंकि लोगों के तरह-तरह के
प्रश्नों से मां-बाप खीझ उठते थे। अंततः लोगों ने भी आना बंद कर दिया। अब घूमने
फिरने के नाम पर यही होता था कि स्कूटर पर किसी पार्क या किसी बाज़ार वगैरह आधे एक
घंटे यूं ही घूम-घाम चले आते थे। कुछ खा-पीकर या कोई खिलौना-सिलोना लेकर।
पापा का
चिड़चिड़ापन उनका स्थाई स्वभाव बन चुका था। मैं उनके साथ खेलना-कूदना चाहती तो वह अब
मुझे किसी न किसी बहाने दूसरे कमरे में भेज देते। मगर मां मेरा साथ देती थीं। बड़ी
होने पर जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि मां भी सिर्फ़ साथ ही देती थीं। अंदर ही
अंदर उनका भी मन टूटता दरकता रहता था। स्कूल में बच्चे मुझे मेरे कद को लेकर
चिढ़ाते थे। एक बार तो एक बच्चे ने जब मुझे मेरा नाम तनु बुलाने के बजाय गोली कहना
शुरू किया तो मैं रो पड़ी थी। उससे झगड़ा किया तो लंबा होने का फ़ायदा उठाकर उसने
मुझे पीट भी दिया। पापा को शाम को पता चला कि मुझे गोली कहकर चिढ़ाया गया और पिटाई
भी हुई तो अगले दिन स्कूल में उन्होंने हंगामा खड़ा कर दिया। किसी तरह प्रिंसिपल और
उस बच्चे के पैरेंट्स ने बात संभाली। इस तरह की घटनाएं अब मेरे जीवन की हिस्सा
बनती जा रही थीं। पापा कहीं झगड़ा न करें इसका रास्ता मां ने यह निकाला कि मैं पापा
से यह बातें बताऊं ही न।
धीरे-धीरे मां
अपने इस मकसद में कामयाब रहीं। मैं भी मां की बात समझ गई और ऐसा कुछ होने पर मां
को ही बताती और उन्हीं के आंचल में मुंह छिपाकर रो लेती। कई बार मां समझाती तो कभी
मुझे सीने से चिपका कर खुद ही फफ़क कर रो पड़ती थीं। मां की कठिनाई यहीं तक नहीं थी।
तनाव बर्दाश्त न कर पाने के चलते पापा ने शराब को अपना लिया। पहले कभी-कभी फिर रोज
पीना उनकी आदत बन गई।
जब मैं जान समझ
पाई कि वह शराब जैसी कोई चीज पीते हैं तब तक मैं ग्यारह-बारह बरस की हो चुकी थी।
मां जहां मेरे बौनेपन और दूसरा कोई बच्चा न पैदा करने के पापा के निर्णय से परेशान
और हमेशा दुखी रहती थीं वहीं पापा के दुखों के कारण में इसके साथ-साथ मां की
सुंदरता अब भी बराबर बनी रही। अंतिम सांस तक बनी रही। साथ में मैं तो नत्थी थी ही।
उन्हें लगा कि मां का रंगरूप मुझे जन्म देने के बाद और भी निखर आया है। लोग उन्हें
और भी ज़्यादा देखते हैं। उन्हें सारे मकान मालिक चरित्रहीन नज़र आते थे।
मेरे आठ साल का
होने तक उन्होंने छः मकान बदले थे। उन्हें बराबर यह भय सताए रहता था कि कहीं उनकी
पत्नी को कोई नुकसान न पहुंचा दे। वह तो ऑफ़िस में रहते हैं, मकान मालिक कहीं अकेले पाकर उनकी पत्नी पर हमला न कर दे। उन्हें मकान मालिकों
और उनके परिवार के सारे पुरुष सदस्यों यहां तक कि किशोरवय लड़कों तक की आंखों में
अपनी पत्नी के लिए वासना ही नज़र आती थी। अंततः अपनी इस समस्या को दूर करने का
रास्ता उन्होंने एल.डी.ए. का एक एम.आई.जी. मकान लेकर निकाल लिया।
इसके लिए बैंक से कर्ज वगैरह से लेकर जहां से
जैसे बन सका हर तरह से जुगाड़ किया। मगर शक की उनकी यह बीमारी उनका यह वहम अपने
मकान में भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। पड़ोसी वगैरह कहीं किसी से उन्होंने कोई संबंध
नहीं रखे। किसी के यहां कभी भी यहां तक कि शादी ब्याह या ऐसे किसी भी फंक्शन में
भी नहीं जाते। या फिर अकेले हो आते। हां उनके चेहरे पर मैं तब कुछ देर को हंसी, मुस्कान पाती थी जब मेरा रिजल्ट आता और मैं क्लास में टॉप करती।
मां तो खैर मां
थीं। मुझे वह ऐसे अवसर पर दुध-मुंहे बच्चे की तरह छाती से चिपका लेती थीं। वह
चाहती थीं कि और लोगों की तरह वह भी अपने बच्चे की लोगों से बात करें। उन्हें उसकी
पढ़ाई के बारे में बताएं, लोगों से तारीफ सुनें,
लेकिन पापा के कारण यह संभव ही नहीं था।
बस घर में ही जितना जश्न हम तीनों मिलकर मना
सकते थे मनाते थे। उस दिन खाना-पीना पापा किसी बढ़िया होटल से ले आते थे। मेरे लिए
अच्छी-अच्छी कई ड्रेस ले आते। हम सब का मन बाहर खुली हवा में और लोगों के साथ खुशी
मनाने को तरस जाता। हम उन लोगों में थे जो अपनी सफलता पर खुद ही ताली बजाते, शाबाशी देते, अपने हाथ अपनी पीठ ठोंकते और खा-पी कर सो जाते।
जब मैंने
यू.पी. जो कि सबसे टफ बोर्ड माना जाता है के हाई-स्कूल इक्जाम में अपने स्कूल में
टॉप किया तो स्कूल में खैर हर बार की तरह मेरा सम्मान किया ही गया, क्योंकि मैं हर क्लास में फर्स्ट आती थी। घर पर भी उस दिन अपने होश संभालने के
बाद पहली बार पापा को खुशी के मारे खिल-खिलाते देखा। मैं सोलह बरस पार कर चुकी थी
लेकिन मारे खुशी के पापा उस दिन इतने भाव-विह्वल हो उठे थे कि मुझे छोटे बच्चे की
तरह उठा लिया, मेरा माथा चूम लिया। जैसे पिता अपने साल डेढ़ साल के बच्चे को गोद में चेहरे तक
उठाए एक ही जगह खड़े-खड़े घूम जाता है, वैसे ही वह भी घूम गए थे। और देखा
जाए तो मैं किसी पांच-छः साल के बच्चे से ज़्यादा थी ही कहां।
तब मेरी हाइट
कुल चालीस इंच ही तो थी। मात्र तीन फिट चार इंच की। हां भरपूर खाने-पीने के चलते
वजन ज़रूर कुछ ज़्यादा था। शरीर के उभार ज़रूर रफ्तार में थे, कच्छप चाल से नहीं। स्तनों ने अच्छा खासा भरा पूरा आकार ले लिया था। पापा ने
जोश में उठा तो लिया था मुझे दोनों हाथों से पकड़ कर चेहरे तक लेकिन एक चक्कर लगा
कर ही उतार दिया नीचे। तीन-चार सेकेंड से ज़्यादा संभाल न सके मुझे।
उस दिन पापा
शाम को मुझे, मां को लेकर साल भर पहले ही किस्तों पर ली गई अल्टो कार में घुमाने ले गए।
महानगर के एक नामचीन चाइनीज रेस्त्रां में डिनर किया। मेरे लिए कई सारी ड्रेस, कई स्टोरी बुक खरीदी और देर तक शहर में इधर-उधर गाड़ी ड्राइव करते रात करीब
ग्यारह बजे घर लौटे। अब तक मैं थक चुकी थी। इसलिए मुंह हाथ धोकर, चेंज कर अपने कमरे में सोने चली गई। जो सामान हम ले आए थे वह ड्रॉइंगरूम में
सोफे और टेबिल पर ही पड़ा था। बेड पर लेटते ही मुझे नींद आ गई।
अभी दो ढाई
घंटे ही बीते होंगे कि मुझे नींद में ही लगा कि जैसे मां कराह रही हैं। उनकी तकलीफ
भरी आवाजे़ं मेरी नींद तोड़ने लगीं। मैं कुनमुना कर करवट ले लेती। लगता जैसे सपना
देख रही हूं। मगर यह एक ऐसा सपना था जिसमें सिर्फ़ आवाज़ थी कोई दृश्य नहीं था।
कानों में पड़ती उनकी तकलीफ भरी आवाज़ों ने आखिर मेरी नींद पूरी तरह तोड़ दी। मैं उठ
बैठी बेड पर। आवाज़ अब भी आ रही थी। अब मैं घबरा कर पसीने-पसीने हो गई। आवाज़
मां-पापा के कमरे से आ रही थी। सो लॉबी क्रॉस कर मैं वहां गई। मां की कराहने की
आवाज़ और गाढ़ी हो रही थी।
मैं अजीब सी
आशंका से घबराती खिड़की तक पहुंची कि देखूं क्या बात है। मगर उसकी ऊंचाई ज़्यादा थी
सो मैंने दरवाजे की झिरी से अंदर देखा। और फिर शर्म से पानी-पानी हो गई। पापा की
हरकतों को देख कर गुस्सा आया कि उन्हें मां को ऐसी तकलीफ नहीं देनी चाहिए। अंदर से
आती शराब की बदबू से मुझे उबकाई आने लगी थी। इस बदबू का मैं पहले ही न जाने कितनी
बार सामना कर चुकी थी। मैं जैसे गई थी फिर वैसे ही आकर अपने बिस्तर पर लेट गई।
अगला दिन
छुट्टी का था। पापा को देखते ही मेरे मन में उन को लेकर अजीब सी नफरत उमड़ पड़ी। मां
की सूजी हुई आंखें, एक तरफ कुछ ज़्यादा ही सूजे होंठ रात
का दृश्य क्षण भर में सामने खड़ा कर देते। मां पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। उनकी आए
दिन की ऐसी चोटों का मर्म मैं उसी दिन समझ पाई थी। उसी दिन स्त्री-पुरुष के उन
अंतरंग क्षणों को मैं जान पाई थी। जिसकी तब तक उथली सी ही जानकारी थी। जो सहेलियों
और मां द्वारा अपनी बेटी को जागरूक करने के दृष्टि से दी गई जानकारियों तक ही सीमित
थी। उस एक घटना ने ही मुझे कुछ ही घंटों में एकदम से कई साल बड़ा कर बिल्कुल युवा
बना दिया था।
वक्त के साथ
पापा की बढ़ती शराब, चिड़चिड़ेपन और मां के साथ अब आए दिन बेवजह ही उनकी गाली-गलौज मुझे बहुत तकलीफ
देती। मेरा मन करता कि सारी तकलीफों की जड़ मैं हूं तो आखिर मैं मर ही क्यों नहीं
जाती। कई बार मन में आत्म-हत्या करने की भी बात आती। मगर मां का ममता से लबालब भरा
चेहरा कदम उठनें ही न देता।
मेरे लिए उनकी
चिंता और साथ ही उनका हमेशा यह प्रदर्शन करना कि मुझसे उन्हें कोई तकलीफ, चिंता नहीं है। एकांत मिलते ही उनकी आंसुओं से भरी आंखें वह सब देखकर मैं अकेले
में रोती थी। मां की तकलीफों का अंदाजा सही मायनों में मैं अब कर पा रही हूं। कि
अपने मां-बाप, भाई-बहन, सास-ससुर आदि सभी के होते हुए भी निपट अकेला होना मां के लिए कितना
यंत्रणापूर्ण रहा होगा। किस तरह वह पल-पल रोती थीं। जबकि कारण कुछ भी नहीं था।
मैं मां की
दर्द पीड़ा से भरी आंखें, चेहरा अंतिम सांस तक भी कैसे भूल सकती हूं। एक बार पापा ने मुझे किसी बात पर
डांटते हुए अपने गले का पत्थर कह दिया था। नशे के कारण और भी कई भद्दी बातें कह दी
थीं। तब मैं बी.एस.सी. फाइनल इयर में थी। उस दिन पापा से मां ने कड़ा प्रतिवाद किया
था। बदले में मार खाई और जब मैं बीच में आई तो पापा ने धकेल दिया मुझे। मैं किसी
छोटे बच्चे की तरह लड़खड़ाते हुए दूर दरवाजे से टकरा कर गिरी थी। दरवाजे की कुंडी
सीधे नाक से टकराई और मेरा चेहरा और सामने के कपड़े खून से लाल होने लगे थे। चोट
कुछ ज़्यादा ही थी तो मैं तुरंत उठ न पाई। मां दौड़ कर आई थी, मुझे उठा कर अपनी बांहों में भर लिया था।
मां के कपड़े भी
लाल होने लगे। तब मां ने घबरा कर पापा से तुरंत डॉक्टर के पास चलने की प्रार्थना
की। लेकिन पापा निस्तब्ध चुपचाप खड़े रहे। तो वह एकदम गिड़गिड़ा उठीं पर वह फिर भी
खड़े रहे। तब मां बिफर पड़ीं कि ‘ठीक है, खड़े रहो तुम यहीं। मैं
अकेले ही लेकर जाऊंगी अपनी बच्ची को। मैं इक्कीस साल की हो गई थी लेकिन मां की नज़र
में तब भी बच्ची ही थी। मां की करुणा, प्यार और पापा का वैसे ही उन्हें
घूरते हुए देखना मुझमें न जाने पलक झपकते कैसी आग भर गया कि मैं मां से अलग होती
हुई गुस्से से करीब-करीब चीखती हुई बोली ‘मां मुझे कहीं नहीं जाना। रोज-रोज
मरने से अच्छा है कि आज ही मर जाऊं। जिससे पापा की, तुम्हारी तकलीफें दूर
हो जाएं। तुम दोनों को लोगों के सामने अपमानित न होना पड़े। मैं भी अब और अपमानित
जीवन नहीं जीना चाहती।’
मैं झटके से
उठी और दौड़ती हुई अपने कमरे में बेड पर लेट कर रोने लगी। मेरे पीछे मां भी ‘सुन-सुन बेटा’ कहती दौड़ी आईं। मुझे फिर बाँहों में
भर कर रोती हुई बोली थीं ‘ऐसा मत कह बेटा तेरे बिना मैं नहीं जी पाऊंगी। चल बेटा डॉक्टर के पास चल।’ मगर मैंने न जाने की जिद कर ली और रोती रही। मैं तब आश्चर्य में पड़ गई और मां
भी जब पापा भी आकर मुझे उठाने लगे। मैं न मानी तो वह भी हम दोनों को पकड़ कर रोने
लगे।
मैंने पहली एवं
आखिरी बार उन्हें इस प्रकार भावुक और रोते हुए पाया था। वह भी बार-बार डॉक्टर के
यहां चलने को कह रहे थे। माफी मांग रहे थे। उनकी यह बात मुझे और दुखी कर गई कि ‘मेरी तकलीफ भी समझा करो तुम लोग।’ मैं तब भी किसी सूरत में न गई तो
वह एक डॉक्टर को लेकर आए,
मेरी मरहम पट्टी कराई। फिर रात का खाना भी होटल से लाए।
अपने हाथों से हम दोनों के लिए खाना निकाल कर मेरे कमरे में ले आए। क्योंकि हम
दोनों अपने कमरे से बाहर नहीं आए। मां ने किचेन का रुख ही नहीं किया। उस दिन के
बाद मैं अपने जीवन से और भी खीझ गई।
कॉलेज जाने का
मन न करता। अपनी किसी भी तकलीफ को अब मैंने मां को भी बताना बंद कर दिया। उन बहुत
सी बातों को कहना बंद कर दिया था जिन्हें पहले बताती थी कि कैसे मुझे सहेलियां
चिढ़ाती हैं। पापा को तो खैर पहले भी नहीं बताती थी। सोचती कि आखिर क्या बताऊं, मेरी ऐसी कौन सी समस्या है जो वह दोनों नहीं जानते।
बी.एस.सी. में
पहुंचने के बाद बीमारियों के चलते मुझे रोज-रोज छोड़ने जाना जब पापा-अम्मा दोनों के
लिए मुश्किल हो गया था तो आखिर में मेरे लिए एक रिक्शा लगा दिया था। वह मुझे कॉलेज
से लेकर मैं जहां-जहां जाती ले जाता। फिर जाना-आना था भी कितना। कभी-कभी आकाशवाड़ी
या फिर शौकिया पेंटिंग सीखने के लिए अपनी सहेली मिनिषा के घर। जिसकी मां जो आगे
मेरे लिए चित्रा आंटी बनीं तब तक बतौर पेंटर अपना स्थान बनाने के लिए संघर्षरत
थीं। मुंबई के सबसे नामचीन कॉलेज से उन्होंने डिग्री ली थी। घर पर ही सिखाती भी
थीं। उनकी पेंटिंग ठीक-ठाक बिकती भी थीं। मगर इन सब जगहों पर मैंने कई बार जो
तकलीफें, जो अपमान, ताना झेला पापा से मार खाने के बाद उनको भी कभी नहीं बताया।
यह सब मेरी शारीरिक स्थिति का ही तो तकाजा था कि
इक्कीस की उम्र में पापा ने मारा, और हर जगह अपमानित होती रही। मैं समझती
हूं कि यदि मैं भी सामान्य लड़कियों की तरह लंबी-चौड़ी होती तो शायद उस दिन पापा से
मार न खाती और मां को भी बचा लेती। और बाद में मेरे साथ बार-बार जो हुआ वह भी न
होता।
जैसे कॉलेज के
दिनों की ही बातें लूं। अपनी मित्र गीता यादव को मैं तब फूटी आंखों देखना पसंद
नहीं करती थी। क्योंकि वह लंबी-चौड़ी पहलवान सी थी। मुझे बच्चों कि तरह गोद में उठा
लेती थी। सारे मिलकर खिलखिला कर हंसते थे। इतना ही नहीं तब मैं उसे मन ही मन खूब
गाली देती थी जब वह मेरे अंगों से खिलवाड़ कर बैठती थी। मगर एक बात उस में यह भी थी
कि और किसी को वह मुझे एक सेकेंड भी परेशान नहीं करने देती थी। मेरे लिए सबसे भिड़
जाती थी । आज वह गीता यादव पुलिस इंस्पेक्टर है। और पहले की तरह आज भी वो मेरी तरफ
किसी को आंख उठाकर देखने नहीं देती। एक बार जब डिंपू अपनी हद से बाहर जाने लगा था
तो इसी गीता से कहकर उसे फिर उसी की हद में पहुंचा दिया था। मेरी समस्या, मेरा अपमान यहीं तक नहीं था।
वह दिन, वह क्षण आज भी जस का तस याद है जब चित्रा आंटी ने मेरी अपंगता, मेरे बौनेपन को बेचने की कोशिश की थी। हालांकि बाद में यह बात मुझे सेलिब्रिटी
बनाने तक पहुंच गई। इसमें उनकी बेटी मिनिषा ने भी खूब साथ दिया था अपनी मां का। वह
वैसे तो ऑब्स्ट्रेक्ट, सेमी ऑब्सट्रेक्ट पेंटिंग ही ज़्यादा बनाती थीं। रियलिस्टक पेंटिंग तब तक
गिनी-चुनी ही बनाई थीं।
वह अचानक ही एक दिन मुझे रियलिस्टिक न्यूड
पेंटिंग के बारे में बताने लगीं। बोलीं कि
‘न्यूड पेंटिंग के लिए ही नहीं पेंटिंग सीखने के लिए ही न्यूड मॉडल्स बहुत
जरूरी हैं। बिना इनके पेंटिंग की पढ़ाई पूरी ही नहीं हो सकती।’ मैं उनसे यह सुन कर ही दंग रह गई कि ऑर्ट की पढ़ाई के दौरान डिग्री कोर्स में
तीसरे वर्ष में अर्धनग्न एवं चौथे वर्ष
में पूर्ण नग्न मॉडलों को सामने कर पढ़ाई पूरी की जाती है। क्योंकि शारीरिक
संरचना को पूरी गहराई तक जाने समझे बिना पढ़ाई अधूरी है।
वह बड़ा जोर
देकर समझातीं कि ‘देखो तनु ऑर्ट्स स्टूडेंट के लिए मॉडल का नग्न शरीर एक ऑब्जेक्ट के सिवा और
कुछ नहीं होता। ऑर्टिस्ट के लिए मॉडल की देह एक निर्जीव वस्तु के सिवा और कोई
मायने नहीं रखती। मॉडल और ऑर्टिस्ट अपना काम करते वक्त सारी भावनाओं से रहित हो कर
काम करते हैं। दुनिया के सारे बड़े ऑर्ट्स कॉलेज में न्यूड मॉडल यूज किए जाते हैं।’
इन बातों से अनजान जब मैंने आश्चर्य व्यक्त किया
तो उन्होंने यह कह कर और आश्चर्य में डाल दिया कि उन्होंने तो यह भी सुना है कि
मुंबई के जे.जे.ऑर्ट्स कॉलेज में तो डेढ़ सौ वर्ष पहले 1857 से ही पढ़ाई के दौरान छात्रों के लिए न्यूड मॉडल प्रयोग किए जाते रहें हैं।
इसके आगे मैं
उनकी यह बात भी सुन कर हैरान रह गई कि उन्होंने तो यह भी सुना है कि जे.जे.आर्ट्स
कॉलेज में तो न्यूड मॉडल्स की कॉलेज की जरूरत बिना बाधा के पूरी हो सके इसके लिए
कॉलेज कैंपस में ही एक परिवार बसाया गया था। जिसके सदस्य पढ़ाई के दौरान छात्रों के
लिए मॉडलिंग करते थे। मैंने तब उनसे यह जानकर दांतो तले ऊंगली दबा ली थी कि परिवार
के सारे सदस्य एक ही कॉलेज के तमाम स्टूडेंट्स के सामने नग्न होते रहे होंगे।
अलग-अलग उम्र के महिला-पुरुष सारे सदस्य। वाकई यह एक असाधारण काम था। उन सबका यह
काम किसी निर्विकार साधु-संत की साधना से
कम महत्वपूर्ण काम तो नहीं है।
नग्न अवस्था
में घंटों रहने के बाद भी सिर्फ़ ऑर्ट ही ऑर्ट हो। काम भावना की ज़्वाला ही न हो।
क्योंकि इस ज़्वाला के रहते तो ऑर्ट हो ही नहीं सकती। तब मैंने आंटी से मजाक में
ही कहा था कि आंटी इन लोगों से मिलना चाहूंगी। इस पर वह गहरी सांस लेकर बोली थीं। ‘तनु असल में हुआ क्या कि समय, बाज़ारवाद, महंगाई ने सब कुछ बदल
दिया। इस परिवार ने ज़्यादा पैसे कमाने के लिए दूसरे धंधे अपना लिए हैं। क्योंकि
मॉडलिंग से उन्हें कुछ खास पैसा नहीं मिलता था। दुनिया के सारे कॉलेजों का यही हाल
है। सभी के पास अब न्यूड मॉडलों का टोटा पहले से ज़्यादा हो गया है। कॉल गर्ल्स का
सहारा लिया जा रहा है। लेकिन यह बहुत महंगा है। इससे न्यूड ऑर्ट या मूर्ति शिल्प
के सारे कलाकार दुनिया भर में परेशान हैं।’ फिर इसके बाद आंटी ने दुनिया के कई
बड़े कलाकारों के भी नाम लिए। उन्होंने राजा रवि वर्मा, जतिन दास, मंजीत बावा और फिर अमृता शेरगिल और चीन के ऑर्टिस्ट ली झिआंग पिंग की पेंटिंग
के बारे में भी बताया। यह भी कि अमृता ने तो अपनी बहन को भी मॉडल बनाया। छोटी बहन
इंदिरा सुंदरम की नींद नाम से न्यूड पेंटिंग बनाई। जो बहुत प्रसिद्ध हुई।
बड़ा तहलका मचा
दिया था उन्होंने। वह न्यूड पेंटिंग तो नेट पर दुनिया आज भी देख रही है। युरोप, चीन आदि की बारे में भी खूब बातें बताईं। कहा कि ‘चीन में ली झिआंग पिंग ने कुछ बरस पहले ही अपनी युवा होती पुत्री की न्यूड
पेंटिंग बना डाली।’ चित्रा आंटी मुझे यह सब बता कर, दिखा कर इस बात के लिए कंविंस करने
में लगी हुई थीं कि मैं न्यूड पेंटिंग के लिए उनकी मॉडल बनूं। उनके हिसाब से यूं
तो न्यूड पेंटिंग अनगिनत मॉडल्स ने बनवाई हैं। लेकिन मेरी पेंटिंग तहलका मचा देगी।
करोड़ों रुपए में बिक जाए तो आश्चर्य नहीं। क्यों कि मेरा बौना शरीर तमाम बौनी
लड़कियों केे शरीर से भिन्न है। टेढ़े- मेढ़े न होकर सीधे सुडौल हैं। भरे पूरे स्तन, नितंब, जांघें यह सब मेरी न्यूड पेंटिंग्स को ऐसी आश्चर्यजनक पेंटिंग बना देंगी कि यह
न सिर्फ़ करोड़ों में बिकेंगी बल्कि मैं
दुनिया में प्रसिद्ध हो जाऊंगी।
उनको जैसे ही
लगता कि मैं उनकी बात पर यकीन नहीं कर पा रही हूं तो वह फट से एक नई सनसनीखेज
जानकारी देतीं। पहाड़ के संसार चंद्र बरू के बारे में बताया कि ‘वह एक जनजाति की महिलाओं की न्यूड पेंटिंग बनाते थे। उस जनजाति की महिलाएं
उनके लिए खुशी-खुशी न्यूड मॉडलिंग करतीं थीं।’ उनकी इस बात पर मैंने जब यह तर्क
दिया कि जब पुराने जमाने से ही लोग कलाकारों के सामने बिना शर्म संकोच के आर्ट के
लिए नग्न होते आ रहे हैं तो आज न्यूड मॉडलों की कमी क्यों हो गई। अब तो लोगों को
कपड़े उतारने में पहले के मुकाबले जरा भी संकोच नहीं है। तो आंटी करीब-करीब झल्ला
कर बोलीं ‘तनु पैसा, पैसे के कारण यह हो रहा है। मॉडल सोचते हैं कि कलाकारों के सामने नग्न होने पर
नाम मात्र को पैसा मिलता है। वहीं किसी प्रोडक्ट, फिल्म आदि के लिए कपड़े
उतारते हैं तो ज़्यादा पैसा मिलता है। आज भी जो कलाकार मॉडलों को मुंह मांगी रकम
देने या दिलाने में सक्षम हैं उन्हें न्यूड मॉडलों की कमी नहीं है।’
मेरे यह कहने
पर कि आंटी आप के पास भी पैसे की कमी नहीं है। फिर आप को मॉडलों की कमी क्यों है? इस पर खिसियानी हंसी हंसती हुई बोलीं ‘तनु-तनु मेरे बच्चे मैंने भी बहुत
पैसे खर्चं किए हैं।’ फिर उन्होंने दो न्यूड पेंटिंग दिखाईं कहा ’इन मॉडलों को मैंने
मोटी रकमें दीं। तब इन्होंने यह काम किया वह भी इस शर्त के साथ कि चेहरा इतना चेंज
कर दूं कि वह पहचान में न आएं। इससे पेंटिंग्स में वह बात नहीं आई जो आनी चाहिए
थी। इसकी वजह से पेंटिंग अच्छे दामों में नहीं बिक सकी। इसके बावजूद इन दोनों ने
आगे के लिए इतनी रकम मांगी जो मैं नहीं दे सकती थी।’
इस पर मैंने मजाक में ही कह दिया कि आंटी मुझे तो
आप एक भी पैसा नहीं दे रहीं हैं। मेरी हंसी रुकी भी नहीं थी कि आंटी बोलीं ‘तनु मेरे लिए तुम मॉडल नहीं हो। मेरे लिए एक और मिनिषा हो। मेरी बेटी हो।
असाधारण हो, मैं तुम्हें पैसे नहीं दूंगी । सेलिब्रिटी बनाऊंगी। दुनिया तुम पर पैसे
बरसाएगी।
सारे बड़े-बड़े
ऑर्टिस्ट तुम्हें अपना मॉडल बनाने के लिए करोड़ों देंगे। तुम अपनी तरह की अकेली
पहली मॉडल बन जाओगी। जैसे विश्व प्रसिद्ध मॉडल नॉओमी कैंपबेल। वह निग्रो है।
जबरदस्त काली है। लेकिन मॉडलों की मॉडल रही है। न जाने कितने प्रोडक्ट्स के लिए
मॉडलिंग की है। तुम भी उसी तरह एक सेलिब्रेटी मॉडल बन जाओगी।‘
सच कहूं तो मुझ
पर उनकी बातों का जादुई असर भी हुआ। कई दिन टुकड़ों में अपनी बातें कहने के बाद
मुझे जब उन्होंने अपने प्रभाव में आया हुआ मान लिया तो! एक बात और कि जब वह यह
बातें करतीं तो खुद भी बेहद कम कपड़ों में रहतीं और मिनिषा भी। एक बार जब मैं उनके
घर में पहुंची तो शाम के चार बज रहे थे। मेरे पहुँचते ही बड़े प्यार से मेरा स्वागत
किया। जल्दी से मुझे पेंटिंग रूम में ले गईं। उनका पेंटिंग रूम बहुत बड़ा और शानदार
था। मुझे बहुत अच्छा लगता था। तरह-तरह की पेंटिंग्स लगी थीं।
उस दिन
उन्होंने ईजल पर नया कैनवस लगा रखा था। चित्रा आंटी ने स्यान कलर की ढीली-ढाली
घुटनों से ऊपर बरमुडा पहन रखी थी। और स्लीवलेस छोटी सी बनियान, मिनिषा ने छोटी सी पीले रंग की बेहद चुस्त नेकर और मां ही की तरह स्लीवलेस
सिल्क की छोटी सी बनियान पहन रखी थी। मां की तरह मिनिषा भी तब तक अच्छी ऑर्टिस्ट
बन चुकी थी।
लाइन स्केच
बहुत अच्छा बनाने लगी थी। एक तरफ उसने भी अपना ईजल लगा रखा था। उस पर मैट फिनिश
पेपर लगा था। मां-बेटी दोनों ही मेरी न्यूड पेंटिंग बना लेने के लिए जी जान से
तैयार थीं। उनकी बातों से यह पहले ही मालूम था कि यह काम वे कई दिन में पूरा
करेंगी। और मुझे उस पोज में रोज आकर उनके लिए मॉडलिंग करनी थी। मुझ पर अपनी अपंगता, बौनेपन की कुंठा पर, सेलिब्रेटी बनकर, विजय पाने का भूत सवार हो चुका था। मेरी नज़रों के सामने सिंडी क्रॉफर्ड, नॉओमी कैंपबेल घूमती थीं। मां-बेटी ने मुझे ऐसा समझा दिया था कि मैं यह सपना
देखने लगी थी कि मैं उन सब के मुंह पर सेलिब्रेटी बनकर करोड़ों रुपए कमाकर मारूंगी
जो मुझे चिढ़ाते अपमानित करते हैं।
उन सब को
बताऊंगी कि देखो तुम अपनी और मेरी हैसियत। कहां तुम और कहां मैं। मेरी यह
मनोस्थिति उन मां-बेटी ने ही बना दी थी। इस जुनून के चलते जब उस दिन उन्होंने
न्यूड पोज के लिए मुझे कपड़े उतारने को कहा तो मैं शुरू में थोड़ा बहुत ही संकुचाई।
इस संकोच को भी मां बेटी ने एक झटके में खत्म कर दिया था। मां बोली ‘देखो संकोच करोगी तो शरीर तनाव में रहेगा। शरीर की स्वाभाविक रेखाएं नहीं
मिलेंगी। पेंटिंग खराब हो जाएगी। तुम्हारी हमारी सब की मेहनत पर पानी फिर जाएगा।’ उनकी यह बात भी जब मेरी हिचक दूर न कर पायी। चेहरे पर सहजता न आ पाई। तो मां
ने अचानक जो किया उससे मेरी आंखों के सामने एक के बाद एक मानो कई-कई बार बिजलियां
कौंध गईं थीं।
चित्रा आंटी
एकदम मेरे सामने खड़ी होकर मुझे समझा रहीं थीं। अचानक ही क्षण भर में अपनी टी-शर्ट
उतार कर कुछ दूर पड़ी एक कुर्सी पर फेंकती हुई बोलीं ‘लो देखो क्या फर्क है हममें तुममें। जैसा शरीर तुम्हारा वैसा मेरा। इसमें कैसी
शर्म, हम कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं बेटा, हम एक ऑर्टिस्ट हैं। तुम एक मॉडल
हो। आर्ट की दुनिया को हम तीनों मिलकर एक महान कृति देंगे। जब तक यह आर्ट की
दुनिया रहेगी तब तक हम तीनों का नाम रहेगा। हम अमर हो जाएंगे। तुम्हारे पैरेंट्स
को भी तुम पर गर्व होगा।’
इस बीच मिनिषा
भी मेरे सामने आ गई। मैंने देखा उस पर जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा था। मां की बात
पूरी होते ही वह भी बोली ‘तनु इसमें कोई शर्म की बात नहीं है। ये एक महान काम है। कोई गलत काम नहीं, कोई साधारण काम नहीं है जिसे हर कोई कर सके।’ फिर मां से भी आगे
निकलते हुए एकदम निर्लिप्त भाव से उसने भी मेरे ही सामने अपने कपड़े उतार दिए। मैं
हक्का-बक्का थी। मेरी कल्पना से परे था यह सब कुछ। यह कैसा महान काम था?
मैं बड़े असमंजस में थी कि ली झिआंग पिंग ने तो
अपनी बेटी को ही न्यूड मॉडल बनाया था। यहां तो मां-बेटी मॉडल बनाने के लिए उसके
सामने खुद ही न्यूड हो गई हैं। मैं हक्का-बक्का दोनों को देख ही रही थी कि तभी
आंटी मेरी बगल में बैठ गईं थीं। समझाने लगी थीं मुझे। और मिनिषा तीन कप काफी लेकर
आ गई थी। वह भी एक छोटी सी चेयर पर सामने बैठ गई। मां-बेटी कॉफी पीती रहीं और मेरी
संकोच की आखिरी रेखा भी मिटा देने के लिए अपने तर्क देती रहीं। बगल में बैठी मां
मेरे कपड़ों, बदन पर भी बराबर हाथ चला रही थी। कॉफी खत्म होते-होते आखिर दोनों सफल रहीं और
मेरे संकोच की आखिरी रेखा भी मिटा दी।
अब मैं भी
मिनिषा की तरह बिना कपड़ों के थी। मुझे एक स्टूल के बगल में खड़ा कर दिया, मेरा एक हाथ स्टूल पर था। पोज इस तरह का था कि मेरे शरीर का एक-एक अंग ज़्यादा
से ज़्यादा उन्मुक्त रहे। मां-बेटी एकदम यंत्रवत सी अपने काम में लगी रहीं। मैं
उनकी यह लगन मेहनत देख कर बहुत प्रभावित हुई। बिना हिले-डुले मूर्ति बने खड़ा रहना
बड़ा मुश्किल काम था। मैं थक जाती तो मुझे कुछ देर आराम दे दिया जाता। फिर उसी तरह
काम शुरू हो जाता।
पहले दिन दो घंटे में ही थक कर मैंने कह दिया अब
आज और नहीं कर पाऊंगी। इस पर मां-बेटी ने खुशी-खुशी पैकप कर दिया। मैंने जल्दी से
अपने कपड़े पहने, मां ने पेंटिंग शुरू करने से पहले ही कपड़े पहन लिए थे और बेटी ने भी। काम को
विराम देते ही मां ने आकर मुझे बड़े प्यार से न सिर्फ़ चूमा था बल्कि कपड़े पहनने
में भी मदद की। मिनिषा का प्यार से गले लगा लेना भी मुझे बहुत भाया। मैंने कैनवस
पर देखा कि कुछ बड़ी अस्पष्ट सी आकृति बनी हैं। मिनिषा का पेंसिल स्केच ज़्यादा
स्पष्ट था।
उस रात मैं
जागते और सोते दोनों ही हालत में एक ही सपना देख रही थी कि मेरे पास ढेरों पैसा आ
गया है। लोग मेरी पेंटिंग्स खरीद रहे हैं।
मैं सेलिब्रेटी बन गई हूं। आंटी-मिनिषा ने जो सपने दिखाए उसमें मैं कई दिन मस्त हो
डूबती-तैरती रही। मुझे बाकी लड़कियां अपने सामने बदसूरत गंदी नजर आ रही थीं। मैं
समझ रही थी कि चार-छः दिन में पेंटिंग तैयार हो जाएगी। इसलिए वह जब बुलाती मैं
टाइम से पहले पहुंच जाती। मां-बेटी में जबरदस्त उत्साह देख रही थी, वह जल्दी से जल्दी काम पूरा करने की कोशिश में थीं। मैं तो उत्साह में थी ही।
पहली बार के बाद मुझे फिर कभी कपड़े उतारने और उसी पोज में खड़ा होने में कोई हिचक
नहीं होती थी।
मगर आठ-दस दिन
बाद ही मेरा उत्साह कुछ-कुछ कम होने लगा था।
मेरा मन ऊबने
लगा और घबराहट भी होने लगी थी। मैंने देखा आंटी
पेंट सूखने के इंतजार में समय खूब ले रही हैं। मिनिषा ने ज़रूर पेंसिल स्केच
पूरा कर लिया। बहुत बढ़िया स्केच बनाया था। उसने मैटफिनिस पेपर पर मुझे पूरी तरह
उतार दिया था। अपने को नग्न देखकर मैं उस दिन एकदम शर्म से गड़ गई। अपने हुनर से
मिनिषा ने मेरे एक-एक अंग,
एक-एक उभार को साकार कर दिया था, जीवंत कर दिया था। लगता मानो मैं पेपर से बस बाहर निकल ही रही हूं। मैं कायल
हो गई थी उसकी आर्ट की। लेकिन उस दिन मेरे शर्म की जो लकीर गाढ़ी होनी शुरू हुई थी
वह हर क्षण बढ़ती जा रही थी। उस रात पहली बार मैंने गंभीरता से यह सोचा कि मैंने यह
क्या कर डाला। मेरी यह पेंटिंग कौन सा करिश्मा कर डालेगी।
न्यूड पेंटिंग्स
की भीड़ में एक और पेंटिंग ही साबित होगी इसकी संभावना ही ज़्यादा है। यह बात मेरी
समझ में पहले क्यों नहीं आई। पापा का सारा डर-खौफ कहां चला गया कि मैंने यह सब कर
डाला। मेरे दिमाग में जरा सी यह बात क्यों नहीं आई कि जब पापा-मां को यह बात पता
चलेगी तो क्या होगा? उन पर क्या बीतेगी? कितना बड़ा विस्फोट होगा? फिर उस रात चिंतन-मनन कर मैंने यह तय कर
लिया कि अगले दिन जाकर कह दूंगी कि मुझे नहीं बनना सेलिब्रिटी।
चित्रा आंटी की ऑयल पेंटिंग अभी इतनी बनी ही
नहीं है कि मुझे कोई पहचान सके। मिनिषा
वाली मांग लूंगी। फाड़ दूंगी उसे। लेकिन अगले दिन मेरा निर्णय धरा का धरा रह
गया। अगले दिन मां-बेटी ने मुझे समझा-बुझाकर फिर स्टूल के सहारे नग्न खड़ा कर दिया।
और मैंने भी यह तय कर लिया कि यह काम पूरा करूंगी। चाहे जितना बड़ा पहाड़ टूट पड़े।
मिनिषा ने उस
दिन दूसरे एंगिल से मेरा दूसरा स्केच बनाना
शुरू कर दिया था। जिस दिन ऑयल पेंटिंग पूरी हुई उस दिन उसे देखकर मैं चित्रा आंटी
की ऑर्ट के लिए यह कहे बिना न रह सकी कि ‘रियली आंटी आप ग्रेटेस्ट ऑर्टटिस्ट
हैं।‘ उनका हाथ चूम लिया था मैंने। मगर मेरी सारी उम्मीदों, सपनों पर अगले कुछ ही महीनों में पानी फिर गया। नेट पर पेंटिंग्स डाली गर्इं।
एक एग्जीबीशन में भी गर्इं। लेकिन छुट-पुट सराहना के सिवा कुछ न मिला। संतोष करने
भर को एक पेंटिंग बिकी। यानी न नाम न दाम। फिर आंटी ने मेरी न्यूड पेंटिंग की पूरी
एक सीरीज बनाने को बोला जिसे मैंने मना कर दिया। और सीखना भी बंद कर दिया।
घर पर ही जो
प्रैक्टिस हो पाती वह करती। इस बीच मां-पापा मेरी शादी को लेकर परेशान हो उठे।
मेरे जैसा कोई बौना ढूढ़ने लगे। मैं यह जानकर सोच कर ही परेशान हो उठी कि क्या
फायदा ऐसी शादी का? लोगों के बीच जोकर, हंसी का पात्र बनने का,
बौनों की एक और पीढ़ी पैदा करने का। मैं जब-जब अपनी शादी के
लिए मना करती मां-पापा दोनों नाराज हो जाते। जैसे-जैसे वक्त बीतता गया वैसे-वैसे
दोनों की चिंताएं बढ़ती गर्इं। पापा की शराब भी बढ़ती जा रही थी। और साथ ही सेहत भी
बिगड़ती जा रही थी। और घर की कलह भी।
इस बीच मैं
अपनी योजनानुसार अपने पैरों पर खड़े होने की पुरजोर कोशिश करती रही। मन में यह भी
था कि जिस दिन नौकरी मिल जाएगी। मां-बाप से साफ कह दूंगी कि शादी करनी ही नहीं। इस
बीच मैं जहां जाती और जब लौटती घर तो कई तरह के ताने अपमान जनक बातें, लोगों की हंसी-ठिठोली लेकर लौटती। दुख तब और होता जब यह सब करने वाली महिलाएं, लड़कियां ही ज़्यादा होतीं। मैं अपने कपड़ों को लेकर हमेशा तकलीफ में रहती। नाप
का कुछ मिलता नहीं। बुटीक ढूढ़ती कि महिलाएं ही मिलें। मगर वहां भी उन महिलाओं की
दबी हंसी मुझसे छिपी न रहती। क्रोध से भर उठती। मन करता सबकी टांगें काट-काट कर अपने से छोटा कर दूं। सब को महा
बौना-बौनी बना दूं। मगर घर आते-आते मन रो पड़ता। मां-बाप परेशान न हों इसलिए अकेले ही रो लेती, आंसू बहा लेती।
मां-पापा की
हताशा-निराशा देखकर मैं और टूटती। पापा तोे एकदम बदल गए। पहले जहां मुझे एक सेकेंड
भी अकेले बाहर नहीं छोड़ना चाहते थे। वही अब घंटों देर हो जाने के बाद भी कुछ न
कहते। फिर वह दौर भी शुरू हुआ जब मां-पापा दोनों ही ज़्यादा बीमार रहने लगे। पहले
पापा को मां साथ लेकर जाती थीं हॉस्पिटल। लेकिन उनकी भी तबियत ज़्यादा खराब रहने
लगी तो डिंपू को ड्राइवर रख लिया गया। फिर देखते-देखते ही वह ड्राइवर से घर का
सहयोगी भी बन गया।
जल्दी ही पापा
इतने गंभीर हो गए कि चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया।
डिंपू ही
उन्हें लेकर जाता। अंततः डॉक्टरों ने एक दिन यह कह दिया कि पापा अब कुछ ही दिनों
के मेहमान हैं। लीवर पूरी तरह डैमेज हो चुका है। पापा उस दिन अपनी निश्चित मौत
करीब देख कर रो पड़े थे। उन्होंने तमाम बातों के साथ-साथ मां से यह बड़े स्पष्ट
शब्दों में कहा था कि ‘देखो मेरे बाद जब तुम्हें नौकरी मिल जाए तो तुम ऑफ़िस में मेरी इज़्जत बनाए रखना। किसी साले से बात नहीं
करना। सब साले बस औरत को नोचने में लगे रहते हैं। जो सबसे ज़्यादा हितैषी बनने लगे
समझ लेना वह तुम्हारे शरीर को भोगने के लिए पगलाया है।’
मां ने जब कहा
कि ‘क्यों ऐसा कुभाख रहे हैं। अरे पचास की हो रही हूं, इस उमर में कोई क्यों मेरे पीछे पडे़गा।’ तब पापा की बात सुनकर मैं सहम गई
कि ‘तुम नहीं जानती, साले उम्र नहीं देखते उनको केवल औरत का बदन दिखता है, साले औरत को माल कहते हैं। बोलते हैं जब तक हर तरह के माल का टेस्ट न करो तब
तक मजा नहीं आता।’ पापा इसके बाद बमुश्किल डेढ़ माह ही जिंदा रहे। लेकिन इस डेढ़ माह में भी वह
उठना-बैठना मुश्किल होने के बावजूद अपने भरसक ऑफ़िस के एक-एक आदमी की करतूत बता-बता
कर कहते ‘इस हरामी से दूर रहना।’
कई औरतों की
हरकतें बताते हुए कहते कि ‘उनसे भी दूर रहना। साली कई मर्दों को फांसे रहती हैं। बाकी औरतों को भी फंसाती
हैं, जिससे उन पर कोई उंगली न उठाए।’ फिर वह दिन भी आया जब उन्होंने यह भी कह दिया कि उन्हें मुखाग्नि भी
मां ही देंगी। इसके अड़तालीस घंटे बाद ही चल बसे। मैंने डिंपू की मदद से आरंभ से
लेकर श्मशान तक की तैयारी की। दो-तीन पड़ोसियों ने भी मदद की। मां की बदहवाशी ऐसी
थी, बार-बार इतना बेहोश हो रही थीं कि कुछ कर ही नहीं सकती थीं। पापा की इच्छा के
चलते उन्हें श्मशान ले गए और मां ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी की। हालांकि तब भी पूरी
तरह होश में न थीं।
पापा के जाते
ही मां की डायबिटीज, ब्लडप्रेशर ने जो एक बार बढ़ना शुरू किया तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया।
मैं अकेली या ये कहें कि घर में अकेली मात्र तीन साल की बच्ची। मां को चाय-पानी, खाना आदि देना मेरे लिए उतना ही कठिन था जितना तीन चार साल के बच्चे के लिए हो
सकता था। किचेन में मेरी ऊपर तक पहुंच नहीं थी तो मैं कुर्सी लगाकर ऊपर प्लेटफॉर्म
पर बैठकर ही सब तैयार करती। लेकिन उसे लेकर उतरना मुश्किल था तो एक थोड़े छोटे
स्टूल पर चीजें नीचे रखती फिर कुर्सी पर रखती और तब मां तक पहुंचती। यह मेरे लिए
बिना सीढ़ी के छत पर चढ़ने-उतरने जैसा था। सो दो दिन बाद ही मैंने गैस चुल्हा और
सारा सामान डिंपू की मदद से नीचे जमीन पर रख लिया। बेड सहित और कई स्थानों पर
आसानी से पहुंचने के लिए एक फुट और दो फुट ऊंची चौकियां बनवा लीं। यहां तक की
बाथरूम के लिए भी।
मैं जितना
स्थितियों को संभालने की कोशिश करती मां की तबियत उतनी ही खराब होकर सब पर पानी
फेर देती थी। और पापा की जगह मां की नौकरी की बात रोज जहां से शुरू होती वहीं पर
खत्म होती। ऑफ़िस के लोगों का आना-जाना बना हुआ था। मैं सब की आंखों में पापा की
कही बातों को ही ढूढ़ती और कईयों की आंखों में पापा की बातों को पाती भी। नतीजा यह
हुआ कि मैं सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल और ननकई इन सब को छोड़ कर सब से नफरत करने लगी। मां की जर्जर
शारीरिक हालत और मानसिक हालत को देखकर ही सिन्हा आंटी ने मां की जगह मुझे नौकरी
करने की सलाह दी। अपनी बातों से उन्होंने क्षण भर में ही मुझे कंविंस कर लिया। फिर
खुद ही सारी दौड़ धूप कर करके मुझे नौकरी दिला दी और ऑफ़िस में मेरी सुरक्षा घेरा बन
गईं। उनके तेज़ तर्रार रुख। शेरनी सी दहाड़ से ऑफ़िस में हर कोई डरता था। हर कोई उनसे
कतरा कर चलता था। ननकई भी उनके संरक्षण में थी। वह बेचारी किस्मत की मारी अपने
क्लर्क पति की दुर्घटना में मौत के बाद चपरासी की जगह नौकरी करती थी। उप्रेती अंकल
और दयाल अंकल भी इन्हीं लोगों की तरह अच्छे इंसान थे। लफंगों को दबाए रहते थे।
नौकरी से एक फायदा ज़रूर हुआ कि आर्थिक स्थित जो कमजोर होती जा रही थी वह संभल गई।
ऑफ़िस जाने के
साथ-साथ नई समस्याएं भी सामने आती गईं। डिंपू जो अब घर पर ही एक कमरे में रहने लगा
था। उस पर मुझे पैसे रुपए सामान को लेकर शक हुआ। तो एक दिन सारा जरूरी सामान एक
कमरे में बंद कर ताला लगाकर ऑफ़िस जाना शुरू किया। मां की देख भाल भी होती रहे इसके
लिए डिंपू मुझे ऑफ़िस छोड़ कर चला आता था। दिन भर फ़ोन कर-कर के मां का हाल-चाल लेती
रहती। मगर मेरी हर कोशिश पर भगवान जैसे पानी फेरने पर लगा हुआ था। सारी दवा-दारू, डॉक्टरों की सारी कोशिश सब बेकार रही। मां की तबियत तेज़ी से गुजरते वक़्त की
तरह बिगड़ती रही। फिर एक दिन मां भी पापा की तरह मुझे अकेली छोड़कर चल दीं।’
डिंपू तीन बजे
ऑफ़िस आकर बोला था तुरंत चलिए, अम्मा की तबीयत बहुत खराब है। उसके उड़े
हुए चेहरे से भी मैं अंदाजा न लगा पाई थी कि मां भी छोड़कर जा चुकी हैं। मैं घर
पहुंची तो तीन चार पड़ोसियों को देखकर सकते में आ गई। इतना ही नहीं उप्रेती अंकल, सिन्हा आंटी, ननकई सहित कई और लोग भी मेरे पीछे-पीछे घर आ गए थे। तय था कि डिंपू ने ऑफ़िस
वालों को मुझसे छिपा कर बता दिया था। मुझे बुलाने जाने से पहले पास पड़ोसियों को
बुला कर छोड़ गया था।
अपने बौनेपन का
सबसे ज़्यादा अहसास मुझे उसी दिन हुआ। मां बेड पर पड़ी हुई थीं, डिंपू उन्हें चादर ओढ़ा कर गया था। मैं ठीक से उन्हें अपनी बांहों में भर कर रो
भी न पा रही थी। आश्चर्यजनक रूप से ऑफ़िस और पड़ोसियों से घर भर गया था। सिन्हा आंटी, ननकई, पड़ोसी, उप्रेती अंकल सबने मुझे संभाला। और कहा कि यदि बाहर से किसी को आना है तब तो
इंतजार किया जाए नहीं तो आज ही संस्कार कर दिया जाए। मैं किसी को क्या बताती कि
दुनिया में दो ही थे अपने और अब दोनों ही छोड़कर चले गए ऊपर। यूं तो दर्जनों का
परिवार है लेकिन बिना बात की बात पर ही सारे रिश्ते बरसों बरस पहले, मेरे जन्म से पहले ही खत्म हो गए।
उन रिश्तेदारों
में नाना-नानी, बाबा-दादी को छोड़ कर मामा, मौसी, चाचा-चाची, चचेरे, ममेरे भाई-बहन सभी तो हैं मेरे इस दुनिया में, लेकिन न उन सब ने और न
ही मैंने किसी को देखा है। तो आखिर किसका इंतजार। पापा ने ऐसा कुछ छोड़ा ही नहीं था
जो किसी का इंतजार किया जाता। तो दिल पर पत्थर रख कर लोगों से कह दिया कि संतान, नाते-रिश्तेदार जो कुछ हूं मैं ही हूं और मैं उपस्थित हूं, इसलिए संस्कार आज ही होना है। मैं सारे पड़ोसियों, ऑफ़िस के सारे लोगों और खासतौर से डिंपू की उस दिन के लिए आज भी आभारी हूं।
देखते-देखते सारी तैयारियां हो गईं। सबके बीच खुस-फुसाहट मैंने साफ सुनी थी कि
अग्नि कौन देगा। मैं स्वयं सारा काम करूंगी यह जान कर कई लोगों के चेहरे पर आश्चर्य
भी देखा था।
यही हाल श्मशान
पर भी था। जहां पर मेरे साथ डिंपू, पड़ोसी, ऑफ़िस के मिलाकर यही कोई नौ-दस लोग थे। शवदाह के लिए वहां आठ या नौ प्लेटफॉर्म
बने थे। वहीं पर मां की चिता तैयार हुई। पूरे रस्मों रिवाज के साथ मां को अंतिम
विदाई दी। वापस आ कर देखा तो घर पर सिन्हा आंटी , उनके पति, उप्रेती अंकल के अलावा सभी जा चुके थे। मैं यह सब देख कर संज्ञा शून्य सी, मशीन सी बन गई थी। घर का कोना-कोना मुझे काटने को दौड़ रहा था।
डिंपू बिना कुछ
कहे ही काम-धाम में ऐसे लगा हुआ था कि मानो यह उसी का घर हो। कुछ ही देर में पड़ोसी
जायसवाल आंटी चाय, पूड़ी-सब्जी आदि लेकर आ गईं। सबने कोशिश की कि मैं कुछ खा लूं लेकिन मेरी हलक
से नीचे आधी कप चाय के सिवा कुछ नहीं उतरा। रात दस बजे तक सब समझा-बुझा कर
ढांढस बंधाकर कर चले गए। जरूरत पड़ने पर
तुरंत फ़ोन करने की बात कहना कोई न भूला। पूरी रात मुझे नींद न आई।
घर का
कोना-कोना मुझे चीत्कार करता नज़र आ रहा था। मुझे छोटा सा अपना घर अचानक बहुत बड़ा
भूतहा महल सा नज़र आने लगा। किसके कंधे पर सिर रखकर मां के दुख में आंसू बहाऊं।
कहीं कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन उस दिन पहली बार एकदम तड़प उठा, छटपटा उठा कि काश परिवार में और सदस्य होते। काश मां-पापा ने और बच्चे पैदा
किए होते। मेरे भी भाई-बहन होते। सब एक दूसरे का सहारा बनते। काश मैं भी किसी को
जीवन साथी बना लेती। या कोई मुझे साथ ले लेता। कोई अपंग अपाहिज भी होता तो कम से
कम एक कंधा तो होता। मेरी तड़फड़ाहट रात तीन बजे एकदम बेकाबू हो गई। मैं दहाड़ मार कर
रो पड़ी। न जाने कितनी देर रोती रही। कि तभी दरवाजे पर दस्तक और डिंपू की आवाज एक
साथ सुनाई दी। उसने दरवाजे पर खड़े-खड़े ही ढांढस बंधाते हुए कहा ‘चुप हो जाइए। भगवान की मर्जी के आगे क्या करा जा सकता है। अम्मा जी की जितनी
आयु थी उतना दिन रहीं साथ। आप ऐसे रोएंगी तो उनकी आत्मा को बड़ा कष्ट होगा। शांत
होकर आराम कर लें, सवेरे आपको बहुत काम करना है।’
डिंपू ने उस
समय मुझे बड़ी हिम्मत बंधाई। बहुत काम करना है यह बात मेरे कान में गरम-गरम शीशे सी
पहुंची। मेरा रोना बंद हो गया। दिमाग सवेरे काम पर चला गया। डिंपू के एक वाक्य ने
धारा ही बदल दी। तभी मेरा ध्यान इस बात पर भी गया कि रात के तीन बज रहे थे और
मैंने घर का दरवाजा तक बंद नहीं किया था। फिर देखते-देखते सवेरा हो गया। सात
बजते-बजते पहले सिन्हा आंटी पति के साथ आईं। उनके कुछ देर बाद ही उप्रेती अंकल, ननकई और जायसवाल जी पत्नी संग आ गए। ढांड़स बंधाने का एक दौर और चला, फिर बाकी क्रिया कर्म को लेकर बातें हुईं, पापा का सब कामधाम कर ही चुकी थी
सो मुझे सारी बातें मालूम ही थीं। मैंने सनातन परंपरानुसार सारा काम किया।
ऑफ़िस महिने भर
बाद गई। जब ऑफिस के लोगों का यह जोर पड़ा कि घर पर अकेली पड़ी रहोगी तो परेशान
रहोगी। ऑफ़िस में मन थोड़ा सा बहला रहेगा। ऐसे अकेली तबियत खराब कर लोगी। इस बीच
मैंने डिंपू को भी एक महीने की छुट्टी दे दी थी। उसको यह कह दिया था कि जाओ
तुम्हें तुम्हारी तन्खवाह मिलेगी। इस एक महीने में मैं घर से बाहर नहीं निकली। कोई
आया तभी दरवाजा खुला। उम्मीदों से एकदम विपरीत मिनिषा, चित्रा आंटी दो बार आईं। और पड़ोसी जायसवाल परिवार तीन बार। सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल का फ़ोन सुबह-शाम रोज आता। बड़े स्नेह से यह लोग समझाते-बुझाते।
इन्हीं लोगों ने जोर दिया कि मैं ऑफ़िस आऊं।
एक महीने बाद
मैंने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया। मुझे अब सारी दुनिया और भी बेगानी, पराई अजीब सी लगने लगी। बाहर निकलते ही सबको अपनी तरफ घूरते पाती। कुछ आंखों
में मेरे लिए बेचारी साफ नज़र आता। कुछ में दयाभाव तो और सब में न जाने कैसे-कैसे
भाव। मां-पिता में ध्यान कुछ ऐसा लगा हुआ था कि मैं अपना काम-धाम भूलने लगी। ऑफ़िस
के काम में सिलसिलेवार गलतियों पर दया की जाने लगी। यही हाल घर के कामों का था।
हफ्तों हो जाता झाडू-पोंछा,
साफ-सफाई कुछ नहीं। पॉलिथीन में भरा कूड़ा जब बदबू के मारे
जीना हराम कर देता तो अगले दिन जमादार के आने पर फेंकती। डिंपू जब था तब उस ने
एक-दो बार हिम्मत करके मुझे खुद को संभालने और साफ-सफाई बाकी के कामों में हाथ
बंटाने को कहा था लेकिन तब मैंने मना कर दिया था। मेरा व्यवहार शायद काफी रूखा था
तो उसने आगे कुछ कहना एकदम बंद कर दिया। उसी के बाद मैंने उसे घर भेज दिया था। मैं
घर में जहां इधर-उधर घूमती,
कुछ करने लगती, तो ऐसा लगता मानो मां-पिता मुझे
मना कर रहे हैं। ‘तू रहने दे, नहीं कर पाएगी। तेरे वश का नहीं है यह सब।’
मुझे पूरा घर
सांय-सांय करता नज़र आता। दिल को दहला देने वाले इस सन्नाटे के बीच मैं
नन्हीं-मुन्नी साढ़े तीन साल की बच्ची सी डरी-सहमी कहीं इस कोने तो कहीं उस कोने
में दुबक जाती। डर से अपने को बचाने के लिए टी.वी. बराबर तेज़ आवाज़ में चलाती रहती।
म्यूजिक सिस्टम को दूसरे कमरे में चलने देती। तीन महीने ही बीता होगा कि आखिर
मैंने एक दिन तय किया कि सारा सामान बेच डालूंगी। मां-पिता से जुड़ी सारी चीजें बेच
डालूंगी। आखिर जब वे ही नहीं रहे तो उनसे जुड़ी चीजों को रखने का क्या मतलब। एक दिन
मैंने ननकई को बुला कर उसकी मदद से मां के सारे कपड़े निकाले, और उसे ही दे दिए। पहले उसने मना किया लेकिन मेरे आंसुओं के आगे मान गई। उसकी
बेटी तेरह-चौदह की हो रही थी। लंबी भी थी। मेरे किसी काम का कुछ भी नहीं था।
पापा के भी
सारे कपड़े उसी को थमा दिए कि जो तुम्हारे समझ में आए करना। उसका एक लड़का भी था जो
हाई स्कूल में पढ़ रहा था। जब ननकई जाने लगी तो मैंने ऑटो के किराए के भी दो सौ
रुपए दिए। कपड़े काफी थे। पांच एयर बैग, चार सूटकेश भरे थे। मैंने सूटकेश, एयर बैग सहित दे दिया था। यह भी कह दिया था कि किसी को यह सब बताएगी नहीं। फिर
उसी दिन रात को मैंने अलमारी के लॉकर्स में से सारे गहने निकाले जिन्हें पापा
समय-समय पर बड़े प्यार से मां के लिए लाते रहे थे। और मां बड़े प्यार से उन्हें
पहनती थीं। मगर अब सब यहीं धरे रह गए थे। जितना था सब यहीं था। मेरे लिए भी कई
गहने खरीदे गए थे वह भी थे। पापा की अंगूठियां, चेन आदि भी। बड़ी देर तक मैं सब
देखती रही। गहने उम्मीद से कहीं बहुत ज़्यादा थे। अचानक ही एक बात मन में आई कि
पापा रिश्वत की कमाई से यह सब जो इकट्ठा कर गए वह किस काम आ रहा है। कभी इन्हें
पहन कर उनको बाहर जाते नहीं देखा। बस लॉकर्स में धरे रहे।
ननकई के साथ इन
गहनों को दो दिन में अलग-अलग दुकानों पर बेच आई। जो कई लाख रुपए इक्ट्ठा हुए
उन्हें बैंक में जमा कर दिए। लौटते वक्त एक बात और मन में आई कि गहने किसी काम न
आए, इन रुपयों का भी क्या करूंगी। ननकई को मैं गहनों में से एक चेन निकाल कर पहले
ही दे चुकी थी। मन में आया यह लड़की की शादी की बात करती रहती कि चार-छः साल में
शादी करनी है पैसा जोड़ ही नहीं पा रही हूं। क्या करूं समझ में नहीं आ रहा। मन में
आया चलो अभी तो टाइम है शादी का मौका आएगा तो देखेंगे।
इस तरह मैंने
घर का बहुत सारा सामान या तो ननकई को दे दिया या बेच दिया। कमरों में अब अलमारियों
में जगह खाली-खाली नज़र आने लगी। एक अलमारी अभी भी ऐसी थी जिसे खोलना बाकी था। मुझे
याद नहीं आता कि पापा या मां ने कभी उसे मेरे सामने खोला हो। गहने वाली अलमारी के
लॉकर में मुझे जो चाभियां मिली थीं उन्हीं में से एक उस अलमारी में लग गई। उसमें
मुझे आठ-दस फाइलें मिलीं। जिसमें से एक में मकान के पेपर थे। इसके अलावा दो फाइलों
से मुझे पहली बार यह मालूम हुआ कि पापा ने दो प्लॉट भी ले रखे हैं। और आज की
मार्केट प्राइस के हिसाब से उनकी कीमत करोड़ के करीब हो रही है। क्योंकि शहर के जिस
एरिया में हैं वह अब शहर के सबसे पॉश एरिया में गिना जाता है।
मुझे लगा कि
मेरे लिए तो यह एक बड़ा सिर दर्द सामने आ गया। बाकी फाइलों में ऑफ़िस के ही तमाम
पेपर्स थे। इन आठ-दस फाइलों के अलावा बाकी अलमारी फोटो अलबमों से भरी पड़ी थी।
जिन्हें मैं टुकड़ों में कई दिनों में देख पाई। जिसमें सैकड़ों फोटो ऐसी थीं जिन्हें
पोलोरॉड कैमरा से खींचकर खुद ही तुरंत प्रिंट लिया गया था। इन फोटुओं के लिए अच्छा
यही था कि पापा या मां इन सब को अपने रहते ही जला देते। इन सारी फोटो में मां के
सौंदर्य के प्रति पापा की दिवानगी चरम पर दिख रही थी। उसे किसी और के सामने नहीं
पड़ना चाहिए था। यह काम फिर मैंने किया। ननकई को मैंने खाली हो जाने पर दो
अलमारियां भी दे दीं।
साल बीतते-बीतते
मैं काफी हद तक खुद को संभाल चुकी थी। अब घर में नाम मात्र को ज़रूरत भर का सामान
था। पूरा घर खाली-खाली था। उससे कहीं ज़्यादा खाली मेरा मन था। क्षण भर को भी अब
चैन नहीं था। अकेलापन बेचैनी में घर में टहलते रातें बीतती थीं। ऐसे टहलते-टहलते
ही एक दिन दिमाग डिंपू की ओर चला गया। कुछ ही देर में मुझे लगा कि डिंपू पिछले कुछ
महीनों से जिस तरह से काम कर रहा है, बल्कि यह कहें कि सेवा कर रहा है
वह एक ड्राइवर या घर के नौकर की सीमा से कहीं ज़्यादा था। उसकी भाव भंगिमा भी
निस्वार्थ से कहीं कुछ और लगी। यह उधेड़बुन जो मन में उस दिन शुरू हुई तो फिर वह
बंद नहीं हुई। रोज ही बार-बार शुरू हो जाती। और अब मैं उसकी हर गतिविधि को बड़ी
बारीकी से समझने का प्रयास करती। अंततः मुझे लगा कि लंबे समय तक ऐसे साथ-साथ
रोज-रोज काम करते-करते कहीं कोई ऐसा-वैसा संबंध बन जाए इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
और मेरा मन भी
तो इसे देखकर जाने कैसे अजीब सा उछल-कूद करने लगता है। अंततः मैंने तय किया कि
इससे जल्दी ही छुटकरा पा लूं। दूसरे किसी बुजुर्ग ड्राइवर की तलाश में लग गई। इसी
बीच एक दिन चित्रा आंटी मिनिषा के साथ आईं और बोलीं ‘तनु, मेरी और मिनिषा की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी है। मैं चाहती हूं तुम भी एक
बार चलो।’ मैंने हंसते हुए कहा ’मुझे क्यों ले चल रही हैं आंटी ? मैं चलूंगी तो लोग आप दोनों की
आर्ट नहीं मुझे देखने लगेंगे।’ मिनिषा ने फट से कहा ‘सही ही तो है, लोग सेलिब्रिटी ही को देखेंगे।’ मैंने कहा ‘मेरा मजाक उड़ाने में तुम्हें बड़ा मजा आता है।’ तो उसने बड़े प्यार से
गले से लगा लिया।
वह घुटनों के
बल जमीन पर बैठी, अपने चेहरे को मेरे चेहरे तक लाते हुए बोली ‘मेरी प्यारी तनु ऐसा
भूल कर भी न सोचा करो। मेरी नज़र में तुम क्या हो हम कह नहीं सकते। तुम अपने को
किसी से कम, कमजोर, हीन क्यों समझती हो। तुम जीवन में जिस तरह बढ़ रही हो यह आसान काम नहीं है।
सबके वश का नहीं है। मैं तुम्हें अपनी सबसे खास फ्रेंड मानती हूं।’ इस बीच चित्रा आंटी भी बोलीं ‘बेटा हम तुम्हें अपनी दूसरी मिनिषा
मानते हैं।’ इसके बाद मां-बेटी दोनों ने ऐसी आत्मीयता भरी बातें कहीं कि मैं इंकार न कर
सकी और अगले दिन प्रदर्शनी देखने पहुंची।
वहां प्रदर्शनी
देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ थी। जिसमें यंग जेनरेशन ज़्यादा थी। वहां मैं
पहुंची तो सबको अपनी तरफ घूरता ज़रूर पाया। ऑर्ट प्रदर्शनी में मां-बेटी की ही
पेंटिंग्स लगी थीं। यह प्रदर्शनी एक बड़े अधिकारी की ऑर्टिस्ट पत्नी की अपने पैसों, पति के प्रभाव से आयोजित प्रदर्शनी थी। ज़्यादातर पेंटिंग न्यूड थीं। शायद यंग
जेनरेशन इसीलिए ज़्यादा आकर्षित थी। दो दिन से इसको लेकर मीडिया में चर्चा थी। मैं
कुछ आगे बढ़ी ही थी कि देखा एक पेंटिंग के आगे सबसे ज़्यादा भीड़ है। लोग मोबाइल से
उसकी फोटो भी खींच रहे थे।
मुझे हर
पेंटिंग जिराफ की तरह सिर ऊपर कर के देखनी पड़ रही थी। उत्सुकतावश मैं भी उस तरफ चल
दी। ननकई भी मेरे साथ थी। क्योंकि वही अब मेरी सबसे करीबी बन चुकी थी। डिंपू बाहर
कार लिए खड़ा था। पेंटिंग के पास पहुंच कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। वहां
अगल-बगल मेरी ही दोनों पेंटिंग लगी थीं, पहली मिनिषा द्वारा बनाया गया मेरा
न्यूड स्केच था। दूसरी चित्रा आंटी द्वारा बनाई गई मेरी एक अधूरी ऑयल पेंटिंग थी।
मिनिषा ने अपने स्केच को नाम दिया था ‘गॉड वंडर्स’ और चित्रा आंटी ने अपनी पेंटिंग जिसका
चेहरा अधूरा था। उसे नाम दिया था ‘मिसटेक ऑफ गॉड।’ दुनिया के सामने अपनी नंगी तस्वीर देखकर मैं पानी-पानी हो गई।
शरीर में पसीने
का गीलापन जगह-जगह महसूस कर रही थी। ननकई को भी गौर से देखते मैं सहम गई थी। उसे
किसी तरह का शक न हो। यह सोच कर मैं सामान्य सी बनी आगे चलने लगी। फिर कई और
पेंटिंग देखने की ऐक्टिंग करती हुई बाहर आ गई। कार के पास पहुंची ही थी कि चित्रा आंटी और मिनिषा दोनों आ गर्इं।
मुझे रोकना चाह रही थीं लेकिन मैंने उनकी एक सुने बिना ही डिंपू से चलने को कह
दिया। रास्ते में ननकई को घर छोड़ते हुए अपने घर पहुंची। कमरे का टी.वी. ऑन कर बेड
पर बैठी सोचती रही। मां-बेटी के बहकावे में आकर मैं यह क्या कर बैठी। यह दोनों
मुझे शहर में निकलने लायक नहीं छोड़ेंगी। मेरे मन में उनके लिए कई गालियां निकलती
रहीं।
शाम काम वाली
आई तो उसे और डिंपू जो इस बीच कई बार आया तो उन्हें पढ़ने की कोशिश करती रही कि
कहीं इन सब को मालूम तो नहीं हो गया। यह सोच कर और परेशान हो गई कि ननकई और ऑफ़िस
का यदि कोई और भी वहां देख कर आया होगा और पहचान गया मुझे तो क्या होगा। ननकई तो
निश्चित ही पहचान गई होगी। पेंसिल स्केच तो वह गौर से देख ही रही थी। वह इतनी सजीव
है कि कोई भी मुझे एक नज़र में ही पहचान लेगा। रास्ते भर ननकई जैसे कुछ कहने पूछने
को व्याकुल लग ही रही थी। हो सकता है आज डिंपू के साथ होने के कारण नहीं पूछा।
लेकिन वह चुप रहने वाली नहीं, कल पुछेगी ज़रूर। हो सकता है ऑफ़िस में ही
पूछ ले। मैं ऑफ़िस वालों के सामने भी नग्न ही नजर आऊंगी। कैसे फेस करूंगी उन सबको।
आने के बाद कई बार चित्रा आंटी और मिनिषा का फ़ोन आया लेकिन मैंने काट दिया।
अगले दिन
रविवार था छुट्टी थी और वह दोनों आ धमकीं। दोनों मेरे लिए मिठाई-फल लेकर आई थीं।
रौब झाड़ने के लिए पति की नीली बत्ती लगी गाड़ी से आईं थीं। जो पड़ोसियों के लिए
कौतुहल का विषय बन गई। मां-बेटी में न जाने कैसा जादू था कि सामने आते ही पल में
मेरा गुस्सा छूमंतर हो गया। आधे घंटे में दोनों मुझे अपने वश में करके चल दीं।
दोनों मेरी सौ पेंटिंग्स की सीरीज की बात
कहना नहीं भूली। मेरे लाख मना करने पर अंततः यह हामी भरवा ही ली कि सोचने दीजिए।
उनके जाने के बाद जैसे मैं उनके प्रभाव से मुक्त हुई। सोत-सोते यह निर्णय ले लिया
कि कभी नहीं। मगर अब दोनों पेंटिंग के शीर्षक मुझे बेचैन कर रहे थे कि एक मुझे
ईश्वर की भूल तो दूसरी ईश्वर का आश्चर्य बता रही है। तो क्या मैं वाकई ईश्वर की
गलती की सजा भुगत रही हूं। और यदि आश्चर्य हूं तो भी साफ ही तो है। सामान्य जीवन
कहां जी रही हूं।
आखिर सबके जैसा
एक सामान्य आरामदायक जीवन हमें भी क्यों नहीं दिया। मां को सुंदरता दी तो ऐसी कि
वह उनके लिए अभिशाप बन गई। वह भी तो सामान्य जीवन न जी सकीं। पापा और वह सारा जीवन
इस सुंदरता के कारण उत्पन्न बातों के कारण ही तो सारे परिवार समाज से कटकर अभिशप्त
जीवन जीते आधे अधूरे ही चल दिए। हालांकि इसे उनका वहम भी कह सकते हैं। हां मेरा
वहम नहीं है। मुझे तो दुनिया में भगवान ने एक मजाक ही बना कर भेजा है। दुनिया की
हर चीज सारी इच्छाएं सारी संवेदनाएं सब कुछ तनमन में ठूंसकर भेजा मगर उन्हें पूरा
करने पाने का जो रास्ता हो सकता है वह सब बंद कर दिया है। बस कुछ है जो बिना मांगे
ही मिल जाता है। लोगों की हंसी, अपनी खिल्ली उड़ाते लोगों के चेहरे।
मैं उस रात
बिल्कुल न सो सकी। रात के आखिरी पहर आते-आते सोचने लगी कि आखिर कब तक चलेगी ऐसे यह
ज़िन्दगी । शादी-ब्याह का कोई मतलब ही नहीं। मां-बाप विचारे ढूंढ-ढूंढ़कर स्वर्ग
सिधार गए। मैंने भी मना किया था कि और बड़ा कार्टून नहीं बनना। कार्टून का एक और
पूरा परिवार नहीं बनाना। पता नहीं लोग कैसे यह कहते हैं कि भारत ऐसी जगह हैं जहां
कुछ हो ना हो शादी ज़रूर हो जाती है। पता नहीं .... । किसी बच्चे को अपना सकूं इसके
भी सारे रास्ते बंद हैं। और इस भूख का क्या करूं जो खाने-पीने के आलावा तन की भूख
है। जो इस अकेले घर में रोज-रोज बढ़ती जा रही है। और जब रात को यह भूख बढ़ती है तो
तन-मन मचल-मचल कर चला जाता है डिंपू के पास। कई दिन, कई हफ्ते, फिर कई महीने इसी उधेड़ बुन में निकल गए कि आखिर ज़िंदगी जियूं तो जियूं कैसे ? ऐसे तो वह दिन दूर नहीं जब मां-बाप की तरह डायबिटिज, बी.पी, हॉर्ट की पेशेंट बनकर फिर कई साल दवा-दारू के सहारे घिसटते-घिसटते जीकर मर
जाऊंगी।
यदि मैं गॉड के
मिस्टेक में ही अपने लिए कोई अवसर निकालूँ । उस मिस्टेक को अवसर में तब्दील कर दूं।
ऐसे ही मन में
होते तर्क-वितर्क प्रश्न-प्रतिप्रश्न के बीच कई और महीने बीत गए। रोज कुछ अच्छा
होता तो कुछ बड़ा तकलीफदेह भी। लोगों की हंसी उड़ाती नजरें जो पहले तीखी बर्छी सी
लगती थीं। अब वह हवा के झोंकों सी आकर मानों मुझे सहलाकर चली जातीं। नौकरी
करते-करते चार साल पूरे होने को आ गए थे। पितृपक्ष आया तो लगा कि कैसे वक्त बीत
गया पता नहीं चला। मां को भी गुजरे तीन साल हो गए। सारे विधि-विधान के अनुसार
पंडित को बुला कर मां-पिता दोनों को पितृपक्ष में पिंडदान किया। कई लोगों के लिए
यह आश्चर्य भरा रहा ।
ब्राह्मणों को
इस अवसर पर भोजन कराने, वस्त्र आदि देने की परंपरा से अलग हटकर मैंने केवल जो ब्राह्मण सारी क्रियाओं
को संपादित कराने आए थे उन्हें एक सेट कपड़ा खाने-पीने की चीजें देकर विदा किया।
इसके अलावा चार-चार पूड़ियों और सब्जी की दो सौ पैकेट एक हलवाई से बनवा कर डिंपू
ननकई के बेटे को लेकर शहर के अंदर मंदिर आदि पर जो भी भिखारी मिला उसे बांट दिया।
भिखारियों छोटे-छोटे बच्चों को खाने के लिए एकदम टूट पड़ने, मचल उठने को देखकर मेरा मन भीतर-भीतर ही रो पड़ा।
उस दिन फिर
तमाम रातों की तरह मैं सो न सकी लेकिन वह रात जीवन की सबसे अहम रात बन गई। मुझे
आगे क्या करना है इन सारी बातों को मैंने अंतिम रूप दे दिया। पहला यह तय किया कि
दो में से एक प्लाट बेचकर एक पर अनाथालय कम स्कूल के लायक बिल्डिंग बनवाऊंगी।
उसमें सड़क पर पेट की आग बुझाने के लिए दर-दर भटक रहे बच्चों को रखूंगी। जहां उनके
लिखने-पढने खाने-पीने का इंतजाम होगा। एन.जी.ओ जैसा कुछ बनाऊंगी। जो सरकारी मदद
मिल सकेगी लूंगी। अब तक मैं पहले जो कर चुकी थी वो भी इसमें मददगार साबित होगा।
मैंने चित्रा आंटी से खूब संपर्क बढ़ा लिया। उन्हें महीने में एक बार घर ज़रूर
बुलाती।
वह भी रौब झाड़ने के लिए नीली बत्ती गाड़ी लाना न
भूलतीं। मगर मैं इसका प्रयोग अपना दब-दबा बनाने के लिए करती रही। मुहल्ले के
छुट्-भैए लफंगों और डिंपू को भी राइट टाइम रखने में यह रौब काम आ रहा था। रही सही
कसर गीता को बुला कर पूरी कर लेती थी। पुलिसवर्दी में कुछ कांस्टेबिलों के साथ जब
वह आती जीप लेकर तो और दब-दबा कायम होता। नाली, सड़क के एक विवाद को गीता को बुलवा
कर चुटकी में सही करवा दिया था। इससे भी मेरी इमेज बहुत पहुँच वाली बन चुकी थी।
अपनी व्यक्तिगत
समस्याओं के चलते मैंने एक और काम यह किया था कि मां की मृत्यु के डेढ़ साल बाद ही
ननकई को सपरिवार घर पर बुला लिया था रहने के लिए। उसे ऊपर एक कमरा दे दिया था।
पहले वह आने को तैयार न हुई लेकिन मैंने जब समझाया कि कब तक किराए पर धक्के खाती
रहोगी। तुम मुझे एक पैसा किराया नहीं देना। अभी तक जो किराया दे रही हो वह बचाती
रहना। इस बीच कोई मकान एलाट करवा लेना और फिर बनवाकर चली जाना।
उसे मैंने अपना
किचेन भी दे दिया कि वहीं बनाओ खाओ। मैं सारा सामान दे दिया करूंगी। मेरा भी
खाना-पीना, चाय-नाश्ता सब तुम्हारे हवाले। तुम्हें जो लाना हो लाओ, नहीं तो कोई बात नहीं। शुरू मेें वह बहुत हिचकी मगर फिर मान गई। मैं इतना
सामान मंगवाती थी कि उसके परिवार के हिस्से का भी करीब आधे महीने का हो जाता था।
ऑफ़िस वह मेरे
साथ ही आती-जाती थी। तो आने-जाने का किराया भी उसका बचता था। कार जैसी सुविधा अलग
थी। मुझे फायदा यह हुआ कि चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब बना बनाया मिलने लगा।
काम वाली को छुड़वा दिया। सबसे बड़ी बात कि घर में तीन सदस्य और आ गए तो सुरक्षा का
एक माहौल बना। अब घर सांय-सांय कर काटने को नहीं दौड़ता था। अपना रास्ता तय करते ही
मैंने माता-पिता के नाम से एक संस्था रजिस्टर कराई। दो में से एक प्लाट पर जो इस
काम के लिए ज़्यादा मुफीद था जिस पर एक कमरा बना था उसी पर बोर्ड लगवा दिया।
बाऊंड्री पापा ने ही बनवायी थी। चित्रा आंटी की खूब मदद ली। उनकी नीली बत्ती हर
जगह काम आसान कर देती।
गीता यादव का
भी सहयोग मिलता। लोगों से सुनती थी कि पुलिस वालों से दूर रहो लेकिन वह मेरा एक
हाथ बन गई थी। और बदले में कुछ नहीं ले रही थी। बीच-बीच में दूसरे जिलों में भी
उसकी तैनाती हुई लेकिन उसने संपर्क नहीं तोड़ा। जाते-जाते अपनी महिला सहयोगियों से
आज भी मिलवाकर जाती है। फिर जाते ही वापस ट्रांसफर की कोशिश में जुट जाती है। और
जल्दी ही लौट भी आती है। गीता के विपरीत चित्रा आंटी बदले में सौ पेंटिंग्स की
सीरीज के लिए कहना नहीं भूलतीं। सच यह था कि मैं इसके लिए पूरे मन से कभी मना नहीं
कर पाती थी। बस टालती थी। एक बार मैंने हंसी में ही उनसे यहां तक कह दिया कि आंटी
शुरुआत मेरी मिनिषा की न्यूड पेंटिंग से करो।
एक लंबी एक
बौनी वास्तव में यह न्यूड पेंटिंग ली झुआंग पिंग की बेटी की बनाई गई न्यूड पेंटिंग
की तरह तहलका मचा देगी। इस पर मिनिषा मुझे बांहों में भर कर ठहाका लगा कर हंस पड़ी
थी। मां से बोली थी ‘मॉम दिस इज ए ग्रेट चैलेन्ज फॉर यू’। मां बोली थी ‘या आई एक्सेप्टेड ... । लेकिन तुम दोनों तो तैयार हो।’ उस क्षण मैं फिर सिहर उठी थी भीतर तक कि यह आंटी तो पीछा ही नहीं छोड़ती। और अब
तो अपनी भविष्य की योजनाओं को लेकर मैं खुद उनका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी।
वे मिस्टेक ऑफ
गॉड का फायदा उठाना चाह रही थीं। और अब मैं उनकी नीली बत्ती का फायदा उठाने में लग
गई। अंततः एक दिन न्यूड पेंटिंग्स कि सीरीज के लिए अपनी सहमति देते हुए मैंने एक
प्रस्ताव भी रखा कि आंटी उस दिन जो मजाक में कहा था आज पूरी गंभीरता के साथ कह रही
हूं कि इस सीरीज को बजाय सिर्फ़ मेरी सीरीज के मिनिषा और मेरी सीरीज बनाएं तो सही
मायने में आर्ट की दुनिया में तहलका मचेगा, आप कुछ असाधारण कर पाएंगी। और
प्रदर्शनी यहां के बजाय मुंबई या दिल्ली में रखें जिससे सही एक्सपोजर मिल सके।
मेरी बात सुनकर
वह बोली ‘तनु सच यह है कि इसके डैडी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए तुम यदि खुशी-खुशी
तैयार हो तो ठीक है। हां प्रदर्शनी की जहां तक बात है तो यदि तुम तैयार होती हो तो
इस सीरीज की प्रदर्शनी अमेरिका में होगी। मिनिषा के डैडी वहां सब कुछ अरेंज करा
देंगे। तुम तैयार होगी तो तुम्हें भी ले चलेंगे। इससे यहां किसी को तुम्हारे बारे
में पता चलने का खतरा नहीं रहेगा। दूसरे जो इंकम होगी उसमें भी तुम्हारा शेयर
होगा।‘
उस दिन जब आंटी
गईं तो मुझे लगा कि वो भारी मन से गई हैं। मुझे अपनी भविष्य की योजना मुट्ठी से
फिसलती रेत की तरह निकलती लगी तो अगले दिन मैंने प्रदर्शनी अमेरिका में ही हो इस
शर्त पर आंटी की किसी भी पेंटिंग के लिए मॉडलिंग करने की सहमति दे दी। सोचा जब
पेंटिंग के लिए पहले ही न जाने कितनी बार
मां-बेटी के सामने निर्वस्त्र हो चुकी हूं तो और बार करने से क्या फर्क पड़ेगा।
मां-बेटी भी तो मेरे सामने निर्वस्त्र हो चुकी हैं। भले ही यह उनका एक हथियार था
मुझे कंविंस करने के लिए।
खैर आखिर भगवान की भूल का परिणाम इस शरीर का कुछ
तो प्रयोेग हो। इसे एक ठूंठ सा छोड़ देने का क्या फायदा। फिर मैं अपनी योजनानुसार
जुट गई अपना मिशन पूरा करने में। संस्था के काम में सरकारी नौकरी के कारण कोई
विघ्न बाधा न आए इसका तरीका आंटी के पति महोदय बताते रहे। अनाथालय की बिल्डिंग
कछुआ चाल से बनवाती रही। जब तक वह कुछ काम लायक बन पाई तब तक छः साल निकल गए। आंटी
के काम की भी यही गति रही और वह अलग-अलग पोज में मेरी बमुश्किल सैंतीस पेंटिंग्स
बना पाईं।
मुझे पहली
दो-चार पेंटिंग के अलावा किसी में कुछ नयापन नजर नहीं आया। हां इस बीच मिनिषा ने
अलग-अलग पोज में मेरी पचास से ऊपर पेंसिल स्केच बना डाले जो वाकई शानदार थे।
मिनिषा मुझसे ज़्यादा देर मेहनत नहीं करवाती थी। वक्त ज्यादा लगने का कारण यह भी
था कि मैं ज्यादा वक्त नहीं दे पाती थी। शुरू में मैं डरी थी कि मां-बेटी उत्साह
में यह सब कहीं किसी को दिखा न दें। लेकिन फिर उन्हें हिफाजत से इन पेंटिंग्स के
लिए ही विशेष रूप से बनवाए गए बक्सों में बंद करते देख डर खत्म हुआ था। आंटी के
हसबैंड भी आर्ट और ऑर्टिस्ट के बड़े कद्रदान थे। तो काम सारा अच्छा चलता रहा। काम
के प्रति मां-बेटी का समर्पण देख मुझे भी अपने उद्देश्य को पूरा करने की प्रेरणा
मिलती रही।
समय या लापरवाही के कारण मेरे शरीर में कोई बड़ा
परिवर्तन मोटापा न आ जाए इसके लिए मुझे योग करने संतुलित आहार लेने का एक तरह से
आदी बना दिया था। मैं इसे किए बिना रह ही नहीं सकती थी। इसका मुझे रिजल्ट दिख रहा
था कि इन छः वर्षाें में भी मेरे शरीर, कार्य क्षमता में कोई बड़ा फ़र्क
नहीं आया था। मां-बेटी भी यह सब करके अपने को मेनटेन किए हुए थीं।
ऐसे ही
देखते-देखते एक और वर्ष बीत गया। एक दिन एक और पेंटिंग पूरी कर मां-बेटी और मैं
ऑर्ट रूम में ही बैठी कॉफी की चुस्कियां ले रही थी कि तभी आंटी अचानक ही बोली तनु
तुम्हारा पास पोर्ट बनवाना है, संभव है कि इस साल के अंत तक अमेरिका
चलना पड़े। हम लोग वहां प्रदर्शनी की तैयारी में लगे हुए हैं। मेरे कुछ रिलेटिव्स
हैं जो वहां हमारी मदद कर रहे हैं।
मैंने कहा ‘लेकिन आंटी आपकी पचास पेंटिंग भी
नहीं हुई हैं। इतनी जल्दी कैसे हो जाएगा।’ तो वह बोलीं ‘मेरी और मिनिषा की मिलाकर सौ हो रही हैं। इतने से ही काम आगे बढ़ाएंगे। सौ के
चक्कर में अभी न जाने कितने और साल लग जाएं।’ मैंने कहा ‘ठीक है। लेकिन मैं कभी बाहर गई नहीं’ तो वह बोलीं ‘तुम चिंता क्यों करती हो। तुम तो हमारे साथ रहोगी। सब कुछ हम अरेंज करेंगे, तुम्हें बस साथ चलना है।’ मैं अपनी सहमति देकर चली आई।
आंटी ने अपने
कहे अनुसार जल्दी ही पासपोर्ट भी बनवा दिया। फिर एक दिन बोलीं कि ‘तनु इस दिवाली के अगले ही दिन हम लोगों को अमेरिका चलना है। मैं, तुम, मिनिषा और उसके डैडी साथ चल रहे हैं, दो लोग और भी हैं, बाकी लोग वहीं हैं। अब कुछ ही महीने हैं जब तुम ऑर्ट की दुनिया में छा जाओगी।’ मैंने कहा ‘आंटी आप दोनों भी’ तो वह बोलीं ‘हां, हम तीनों।’ उस दिन मैं बहुत खुश थी। मिस्टेक ऑफ गॉड अमेरिका जाएगी।
मगर यह सोच-सोच
कर बार-बार शर्म महसूस कर रही थी कि मिनिषा के फादर, उसके सामने कैसे फेश
करूंगी। पेंटिंग्स के जरिए तो मैं एक तरह से उन सबके सामने नग्न ही रहूंगी। इस
सारी उधेड-बुन के बीच सारी तैयारियां चलती रहीं। वहां के मौसम के हिसाब से मेरे
लिए कपड़े भी आंटी ही अरेंज कर रही थीं। इस बीच आर्ट के बारे में जो भी लिटरेचर
जानकारी मुझे मिली उसके बारे में जानने-समझने की पूरी कोशिश की। एक चीज यह भी समझी
कि ऑर्टिस्ट अपने मॉडलों को तो लोगों के सामने इस तरह लाते नहीं। आंटी क्यों ला
रही हैं। फिर सोचा हो सकता है कि ऐसा होता ही हो। किताबों में सब कुछ तो नहीं मिल
जाता।
एक बार फिर
भाद्रपद महीना पितृपक्ष ले कर आ गया। माता-पिता को श्राद्ध देने पिंडदान देने का
वक्त। मैं हर साल यह सब पहली बार की तरह करती आ रही थी। हर बार वही रस्म निभाती
थी। लेकिन मैं यह सब रस्म समझ कर नहीं, इस यकीन के साथ करती थी कि भगवान
की भूल को इस पृथ्वी पर लाने वाले मेरे पूज्य माता-पिता को यह सब मिलता होगा। वह
ऊपर से देख रहे होंगे कि उनकी तनु किसी की मोहताज नहीं है।
बौनी है, मगर उसके इरादे और काम बहुत ऊंचे हैं। और ऊंचे होते जाएंगे। वह किसी के बताए
रास्ते पर नहीं अपने बनाए रास्ते पर ही चल रही है, चलती रहेगी। भले ही
पौराणिक आख्यान श्राद्ध के लिए पुत्र का होना अनिवार्य मानते हों लेकिन यह जरूरी
तो नहीं। आखिर पुत्री भी तो उसी मां-बाप की संतान है। अगर पुत्र के लिए पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण हैं तो यह पुत्री के लिए क्यों नहीं हो सकते। मां-बाप उसे भी तो जन्म
देते हैं। वह भी तो माता-पिता की संतान है। वह भी तो इसी ब्रह्मांड में है। उसी
ब्रह्मांड रचयिता की व्यवस्था का हिस्सा है जिसमें पुत्र है। और यह पौराणिक धर्म
गं्रथ भी तो मां-बाप की पूजा को सबसे बड़ी पूजा मानते हैं। यह सबसे बड़ी पूजा पुत्री
क्यों नहीं कर सकती।
मैं यह पूजा
करके अपने मां-बाप के ऋण से उऋण होने का अधिकार ठीक वैसे ही रखती हूं जैसे पुत्र
रखते हैं। इसलिए मैं किसी सूरत में यह करती रहूंगी। मेरे काम को हर साल पास-पड़ोस
के लोग आश्चर्य से देखते थे। मैं मां-बाप के इस कष्ट का भी निवारण पूरी तरह करूंगी
कि उनके पुत्र नहीं हैं। कौन उन्हें पिंडदान करेगा। कौन ‘गया’ जाएगा। पहला काम पिंडदान तो मैं करती आ रही अब ‘गया’ जाऊंगी इस बार। वहीं अपने मां-बाप का पिंड दान करूंगी ‘गया’ कर के आऊंगी। कहते हैं कि लड़कियां नहीं जातीं मगर मैं जाऊंगी। वहां
पंडे-पुरोहितों ने अड़चन पैदा की तो खुद ही सब कुछ कर के आऊंगी। किताबें ला लाकर रट
डालूंगी। वहां पिंड दान करने की सारी विधि जानकर और सारा सामान लेकर जाऊंगी।
बहुत सी
जानकारी करने जानने-समझने के बाद जब मैंने यह बात ननकई से शेयर की जिन्हें अब मैं
मौसी कहती थी तो उनका मुंह आश्चर्य से कुछ देर खुला रहा फिर बोलीं ‘अरे! लड़की जात इतनी दूर कैसे जाओगी।’ फिर उन्होंने वहां के पंडों, तमाम तरह की दुश्वारियों के वृतांत ऐसे बताया मानों सब उनका आंखों देखा हो। इस
पर मैंने उन्हें समझाया देखो मौसी यूं तो कहीं भी पितृपक्ष में श्राद्ध करा जा
सकता है। पौराणिक आख्यान इसकी महत्ता के
वर्णन से भरे पड़े हैं।
‘गया’ में श्राद्ध की अहमियत का अंदाजा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि यहां पितृपक्ष
ही नहीं किसी भी समय श्राद्ध कर सकते हैं। कहते हैं कि भगवान राम ने भी अपने पिता
राजा दशरथ का यहां पिंडदान किया था। फिर मैंने उन्हें यह सुना कर चकित कर दिया कि ‘गया सर्वकालेशु पिंडं दधाद्विपक्षणं।’ मगर मौसी तो मौसी, अड़ी रहीं तो मैंने कहा ‘देखो मौसी मैंने अब तक बहुत सी गलतियां
की हैं बहुत से पाप किए है,
मैं तर्पण करके उनसे मुक्ति पाना चाहती हूं। इसके लिए भी
मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया कि ‘एकैकस्य
तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन दद्याज्जलाज्जलीना। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव
नश्यति।’ मौसी को इसका अर्थ भी बता दिया कि जो भी अपने पितरों को तिल मिला कर जल की
तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते हैं उनके जन्म से लेकर तर्पण के दिन तक के पापों का
नाश हो जाता है। अतः मौसी मैं यह सब अवश्य करूंगी।
सोचा कि मौसी
बहुत परंपरावादी है। वेद-पुराणों की बातों को ब्रह्मवाक्य मानती हैं। उनको अगर इन
ग्रंथों की बातें ही बताओ तभी मानेगी। यह सोच मैंने जो कुछ पढा था, सुना था वह मौसी को बताने लगी। कहा ‘देखो मौसी मैं नहीं कहती कि तुम
मेरी किसी बात पर यकीन करो लेकिन तुम वेद-पुराणों की बात तो मानोगी।’ इस पर मौसी दोनों हाथ जोड़ती हुई बोलीं ‘अरे! मेरी बिटिया कैसी बात करती
हो। भगवान की कहीं बातों पर संदेह करके नरक में जाना है क्या ? अरे! न जाने कौन सा अधर्म-पाप किए थे कि इस जन्म मैं इतना दुख झेल रहे हैं। अब
जीवन में कभी चैन की सुख की एक सांस न मिलेगी।’ मैंने कहा ‘ऐसा क्यों कह रही हो मौसी।’ तो मौसी रो पड़ी। आंचल के कोर से आंसू
पोंछते हुए बोलीं ‘अरे! बिटिया विधवा को जीवन में आंसू के सिवा कुछ नहीं दिया है प्रभू ने।’
मैं उनका दुख
देख कर खुद भी भावुक हो गई। लेकिन जल्दी ही अपने को संभालते हुए कहा ‘मौसी प्रभु ने ऐसा नहीं किया है। बहुत सी परंपराएं और दुख तो हम अनजाने में
खुद ही ढोते रहते हैं। किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा है कि विधवा जीवन भर आंसू
बहाए। यह तो समय-परिस्थितियों के साथ चीजें बदलती रहती हैं और रीति परंपराए बनती
बिगड़ती हैं।
अब श्राद्ध को
ही ले लो। आज कितने तरह के आडंबर किए जाते हैं। लेकिन जानती हो वेद-पुराणों, पुराने जमाने में ऐसा नहीं था। पुराणों के जमाने में नियम यह था कि उचित समय
में शास्त्रों में दिए विधि-विधान के
अनुसार इसके लिए जो भी मंत्र हैं उनको बोलते हुए दान दक्षिणा अपनी सामर्थ्य अनुसार
दी जाए यही श्राद्ध है। लेकिन आजकल तो देख ही रही हो।
मौसी यह जानकर
भी आश्चर्य करोगी कि आज यही समझा जाता है कि पितृपक्ष में ही श्राद्ध किया जाता है
लेकिन ऐसा नहीं है। श्राद्ध तीन तरह से तीन अवसरों पर किया जाता है। पहला तो
पितृपक्ष में है ही जिसे नित्य श्राद्ध कहते हैं। यह उसी तिथि को करते हैं जिस
तिथि को व्यक्ति इस लोक को छोड़ परलोकवासी होता है। इसके अलावा मौसी किसी मनौती के
पूरा होने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है। इसको काम्य श्राद्ध कहते हैं। यह केवल
रोहिणी नक्षत्र में ही किया जाता है। अब तुम्हीं बताओ पहले तुमने कभी सुना था कि
मनौती पूरा करने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है।
मौसी मेरी इस
बात पर आश्चर्य मिश्रित भाव में बोली ‘मैं तो यह पहली बार सुन रही हूं।’ अपनी बात का अनूकुल प्रभाव पड़ते देख मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा ‘मौसी इतना ही नहीं जब घर में खानदान में कोई शुभ काम होता है या पुत्र का जन्म
होता है तो भी श्राद्ध करते हैं। इस तीसरे श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं।
मगर आजकल इस तरह का श्राद्ध करते पाया है किसी को? असल में मौसी इंसान
अपनी सुविधानुसार चीजों को बनाता बिगाड़ता है।’ मेरी बात पूरी होते ही मौसी अपने
गांव के पंडित पर नाराजगी जाहिर करती हुई बोलीं ‘लेकिन बिटिया गांव मां
पंडित जी ई सब कबहूँ नाहीं बताईंन।’ उनके संशय को और दूर करते हुए
मैंने कहा ‘मौसी मैं यही तो बता रही हूं कि सब अपनी सुविधा, अपना फायदा देखते हैं।
श्राद्ध की
सबसे बड़ी बात तुम यही समझ लो कि यह केवल तीन पीढ़ियों पिता, बाबा और परबाबा के लिए ही होता है। बाकी हमारे जितने भी पूर्वज उसके पहले के
हैं उन सभी का प्रतिनिधित्व हमारे ये तीनों पूर्वज ही करते हैं। इसी कारण इन तीनों
को ही पुराणों में बहुत महत्व दिया गया है। पिता को वसु, बाबा को रुद्र और परबाबा को आदित्य कहा गया है। यही तीनों हमारे श्राद्ध को
बाकी सभी पितरों तक ले जाते हैं।’ मैं यह सब कहने के साथ सोच रही थी कि
मौसी अब तक मेरी बात से सहमत हो गई होगी। लेकिन अगले ही पल उसने एक और यक्ष प्रश्न
सामने रखा कि ‘बिटिया तुम कह तो सब ठीक रही हो लेकिन तुम ठहरी कुंवारी कन्या, तुम ‘गया’ करो यह ठीक नहीं लग रहा है। कुंवारी कन्या श्राद्ध करे यह कभी सुनाई नहीं
दिया। वह भी ‘गया’ में।’
मैंने मौसी की
इस बात से उत्पन्न अपनी खीझ को पहले अंदर जज्ब किया। बल्कि यह भी सोचा कि मौसी को
कंविंस करना आसान नहीं है। पढ़ी भले ही कम हों लेकिन कढ़ी बहुत ज़्यादा हैं। मुझे
शांत देख कर मौसी तुरंत बोलीं ‘बिटिया गुस्सा हो गई क्या ?’ माहौल गड़बड़ाए न यह सोच कर मैंने फट से कहा ‘मौसी तुम कैसी बात कर
रही हो, मैं तुमसे नाराज कैसे हो सकती हूं। मैं तो यह बताने जा रही थी कि श्राद्ध केवल
पिता अपने पुत्र के लिए नहीं करता, बड़ा भाई छोटे भाई के लिए नहीं कर
सकता और पत्नी यदि निसंतान मरी है तो पति उसके लिए श्राद्ध नहीं कर सकता। लेकिन
बाकी सभी कर सकते हैं।
कुंवारी कन्या
भी कर सकती है। ‘गया’ भी जा सकती है। केवल दूसरे की जमीन, दूसरे के मकान में श्राद्ध कभी
नहीं करना चाहिए। ‘गया’ सार्वजनिक स्थल है। ऐसी हर जगह श्राद्ध किया जा सकता है। यह बात पूरी करते हुए
मेरे मन में यह बात भी पलभर को काैंधी कि अब मैं कुंवारी कहां अपना कुंवारापन तो
कब का डिंपू को सौंप चुकी हूं।’ मौसी के चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वह
अभी असमंजस में है तो मैंने वह किताब खोल कर मौसी को उन पन्नों को पढ़ाया जिनमें
मातामाह श्राद्ध का विस्तार से वर्णन किया गया था कि पुत्री अपने पिता और नाती
अपने नाना का तर्पण कर सकती है।
किताब में लिखा
देख कर मौसी का असमंजस काफी हद तक दूर हो गया। लगे हाथ मैंने वह लाइन भी पढ़ दी
जिसमें अग्नि पुराण का उल्लेख करते हुए कहा गया था कि ‘गया’ में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। मौसी अंततः सहमत हो गई कि मैं ‘गया’ जा सकती हूूं। इतनी बात कर मैं यह अच्छी तरह समझ गई थी कि मौसी उतनी नासमझ है
नहीं जितना मैं उसे समझती हूं। बल्कि सही मायने में उसके सामने नासमझ तो मैं हूं।
जो यह आज समझ पा रही हूं।
जबकि यह उसी दिन समझ लेना चाहिए था जिस दिन
प्रदर्शनी में मेरा पेंसिल स्केच देखने के दो दिन बाद उसने यह प्रश्न पूछा था कि ‘बिटिया इन लोगों ने तुम्हारा ऐसा फोटू क्यों बनाया ? इनको शर्म नहीं आई तुम्हारी नंगी फोटू बनाते और तुमने मना क्यों नहीं किया ?’ मेरी इस बात पर भी तब उसने बहस की थी कि फोटो में केवल चेहरा मेरा है। बाकी तो
उसने ऐसे ही कल्पना से बना दिया है। तब मौसी बड़ा साफ बोली थी कि लेकिन बिटिया
दुनिया तो उसे तुम्हारा ही बदन मानेगी न। तुमको मना करना चाहिए।
मौसी की इन
बातों से मुझे तभी उसकी समझ का लोहा मान लेना चाहिए था। जितनी तेजी से मेरे मन में
यह बातें आईं उतनी तेजी से उन्हें किनारे करते हुए मैंने कहा ‘मौसी एक बढ़िया एस.यू.वी. टाइप टैक्सी किराए पर लेते हैं। तुम भी अपने बच्चों
के साथ चलो। लगे हाथ तुम्हारा बेटा अपने पिता का ‘गया’ कर आएगा। ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता। डिंपू को भी साथ ले चलेंगे।’
यह सब सुनने के काफी देर बाद आखिर वह तैयार हुई
तो पैसे की दिक्कत आन पड़ी। मैंने क्योंकि कि यह तय कर लिया था कि हर हाल में
जाऊंगी तो कहा कि पैसा मैं उधार दूंगी। क्योंकि यह तुम्हें अपने पैसों से करना है।
इतना ही नहीं तुम सिर्फ़ इतना ही करोगी जितना वहां पंडों वगैरह को देना है। बाकी
आना-जाना, खाना-पीना ठहरना यह सब मेरे खर्चे पर। इसके बाद मौसी के पास कोई रास्ता नहीं
बचा तो वह तैयार हो गईं।
अब मैंने गाड़ी
के लिए चित्रा आंटी से मदद मांगी। अंकल ने अपने प्रभाव से एक बड़ी गाड़ी नाम मात्र
के किराए पर दिलवा दी। उनके सहयोग से खर्च आधा से भी ज़्यादा कम हो गया। मेरे इस
निर्णय से वह भी आश्चर्य में थीं और उनका भी मन यही था कि न जाऊं। मगर मेरा निर्णय
अटल था। मैंने डायरी में एक पूरा प्लान बनाया। ऑफ़िस में जानते हुए भी केवल हफ्ते
भर की छुट्टी की अपलीकेशन दी। मौसी से भी यही कराया। मैंने सोचा आगे जैसा होगा फ़ोन
पर बता देंगे। सारी तैयारियों के साथ पितृपक्ष के तीसरे ही दिन मौसी के परिवार, डिंपू के साथ ‘गया’ के लिए चल दी। चित्रा आंटी ने बड़ी आरामदायक नई एस.यू.वी. भेजी थी। ड्राइवर भी
सीधा लग रहा था। निकलने से पहले मैंने उन्हें गाड़ी भेजने के लिए धन्यवाद दिया।
तब उन्होंने
कहा ‘जहां भी रुकना फ़ोन करके बताती रहना। उनके इस व्यवहार से हम सभी बड़ा अच्छा
महसूस कर रहे थे। लखनऊ से निकलने के बाद मैं वाराणसी पहुंची और रात सबने वहीं एक
होटल में गुजारी। आंटी को जब बताया तो उन्होंने होटल के मैनेजर से अपने पति की बात
करा दी। उसके बाद तो उसने हम सब का बहुत बढ़िया आदर-सत्कार किया। और चलते वक्त बिल
में दस परसेंट कमी कर दी। बनारस की महिमा पापा से बहुत सुनी थी इसलिए एक दिन वहां
रुकी और जितना घूम सकती थी घूमा। तभी यह भी मालूम हुआ कि यहीं वह पिशाच मोचन है
जहां त्रिपिंडी श्राद्ध होता है खासतौर से उन लोगों के लिए जिनकी अकाल मृत्यु हुई
होती है।
यहीं मैंने
पितरों की प्रेत बाधाओं के बारे में जाना। यह भी कि यह प्रेत बाधाएं सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार की होती हैं। बनारस में और रुकने का तो मन था लेकिन मंजिल
मेरी ‘गया’ थी तो अगले दिन ‘गया’ पहुंच गए। बनारस तक ठीक-ठाक पहुंची मौसी वहां से ‘गया’ पहुंचने तक रास्ते भर उल्टी करती गईं।
‘गया’ पहुंच कर सबने होटल
में रात और अगला पूरा दिन आराम करके रास्ते की थकान उतारी। हालांकि मेरा मन दिन भर
आराम करने का नहीं था। इस बीच मेरा ध्यान पैसे पर भी था जो मेरी उम्मीद से कहीं
ज़्यादा तेजी से खत्म हो रहे थे। दूसरे दिन मैं ‘गया’ नगरी में अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए होटल से सबको लेकर सुबह ही चल दी।
मुझे लग रहा था जैसे मैंने कुछ बहुत बड़ा काम कर लिया है। लेकिन कुछ ही घंटो में यह
भाव तब तिरोहित गया जब पवित्र ‘फल्गु’ नदी के तट पर लोगों को
असीम श्रद्धा, सादगी के साथ श्राद्ध करते देखा।
मन ठहर सा गया
उस नदी के तट पर कि यही तो वह तट है जहां भगवान राम ने भी श्राद्ध किया था। और
भगवान विष्णु ने गयासुर राक्षस को मार कर इस धरती को उसके पापों से मुक्ति दिलाई
थी। तभी से इसका नाम ‘गया’ पड़ गया। मैं हर बाधा पार कर पहुंच गई ‘गया’ और मुझे वहां के दृश्य
एक अलग ही अनुभव दे रहे थे। साथ ही यथार्थ से सही मायने में सामना भी शुरू हो गया।
वहां एक के बाद एक दिक्कतें आनी शुरू हुईं। मेरी दिक्कतें हर इंसान से कई गुना
ज्यादा थीं। क्योंकि एक तो लड़की, ऊपर से मिस्टेक ऑफ गॉड। मगर मैं अडिग थी।
मैंने हर बाधा
का रास्ता निकाला और सारी रस्में पूरी कीं। सिर भी मुंडवा दिया। मैं वहां हर किसी
के लिए एक अजूबा थी और अजूबा कर रही थी। मौसी का लड़का, सिर नहीं मुंडवाना चाहता था। उसे अपनी प्यारी हेयर स्टाइल से बिछुड़ना सहन नहीं
हो रहा था। मां और मेरे दबाव से माना। वह मुझे दीदी कहता था। मगर सिर तभी मुंड़वाया
जब मैंने यह कह दिया कि यदि तुम अपने फादर से प्यार नहीं करते हो तो मत मुंड़वाओ।
मेरी इस बात का उस पर बिजली सा असर हुआ। इसके बाद मैं तीस मीटर ऊंचे विष्णु पद मंदिर गई। जो भगवान विष्णु
के पद चिह्नों पर बना है और उनके पांव के चालीस सेंटीमीटर लंबे निशान हैं।
इसके बाद
बाणासुर के बनवाए शिव मंदिर, मोरहर नदी के किनारे शिव मंदिर
कोटेश्वरनाथ, सोन नदी के किनारे सुर्य मंदिर और फिर ब्रह्मयोनि पहाड़ी पर बने शिव मंदिर जाकर
भी पिंडदान किया। वहीं पर पता चला कि इसका वर्णन रामायण में भी है। यहां तक
पहुंचने के लिए 440 सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं। इस के बाद पहाड़ पर ही मंगला गौरी मंदिर भी गई। मगर बराबर
गुफा के लिए हिम्मत न कर सकी। क्योंकि यहां कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता। इन सब
जगहों पर जाने, रस्मों को निभाने में पैसा तो खूब लगा ही समय भी चार दिन लगा। 440 सीढ़ियां चढ़ने और उतरने के बाद हमने पूरा एक दिन आराम किया था।
दान-पुण्य करने
किसी तरह के खर्च में मैंने कहने भर को भी कंजूसी नहीं की। जी खोल कर किया कि किसी
को यह न लगे कि साथ ले आई लेकिन हाथ समेट लिया। लेकिन इससे आखिरी दिन एक समस्या
खड़ी हो गई। वापसी में रास्ते भर के लिए और आखिर में जिस होटल में रुके थे उसका बिल
देने को जितना पैसा चाहिए था मेरे पास उसका आधा भी नहीं था और ए.टी.एम कॉर्ड तीन
दिन पहले ही गलती से ब्लॉक हो गया था। सोचा मौसी से कहूं उसके पास इतना है कि अगर
दे देंगी तो किसी तरह काम चल जाएगा। मगर डर गई कि मौसी कहीं कुछ और न सोच ले।
होटल के अपने
कमरे में इसी उधेड़-बुन में परेशान थी कि अब क्या करूं मगर भगवान ने ज़्यादा देर
परेशान नहीं किया, रास्ता सुझा दिया। मेरा हाथ अचानक ही अपनी कमर में सोने की पहनी करधनी पर चला
गया। जो मैं बचपन से पहनती आ रही थी। मैंने जल्दी से कपड़े बदले, करधनी रूमाल में लपेट कर पर्स में रखी और मौसी को लिया, गाड़ी निकलवाई और शहर में जौहरी की दुकान ढूंढ़-ढांढ़कर बेच आई। अब मेरे पास
जरूरत से ज़्यादा पैसा था। मौसी को बेचने की बात दुकान में काउंटर पर ही पता चली।
दुकानदार की सशंकित नज़रें भी मैं देख रही थी।
मौसी होटल
पहुंचने तक बड़बड़ाती रही यह तुमने अच्छा नहीं किया। मुझे पता होता तो कभी न करने
देती। मैं उसे चुपचाप सुनती रही। बस मन में इतना ही आया कि मेरे लिए उस करधनी का
मतलब भी क्या था। जब घर के सारे गहने पहले ही बेच डाले थे तो एक इसी को क्यों
रखती। डिंपू गाड़ी में आगे बैठा था उस पर नज़र जाते ही मन में यह भी आया कि मां-बाप
के अलावा एक यही जानता था उस करधनी के बारे में। उन अंतरंग क्षणों में बदन पर
तरह-तरह से उलटता-पलटता खेलता था उससे। चलो फुरसत मिली उससे भी। अब यह मेरे बदन पर
किसी चीज से खेलकूद नहीं कर पाएगा। मैं एकदम निश्चिंत थी। होटल के सारे पेमेंट वगैरह कर चल दी वापसी
के सफर पर।
मैंने वहां
जितना दान-पुण्य स्नान हो सकता था वह सब किया कुछ भी बचाया नहीं। डिंपू और उससे
ज़्यादा गाड़ी के ड्राइवर को मैंने अपनी ओर बार-बार कनखियों से देखते पाया तो मैंने
कह दिया ‘मैंने कोई आश्चर्यजनक काम नहीं किया है। मैं भी तो आखिर अपने मां-बाप की ही
संतान हूं। लड़की हूं तो क्या आखिर हूं तो उन्हीं की औलाद।’ ड्राइवर मेरी इस बात पर हाथ जोड़ कर बोला ‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।
भाग्यशाली हैं आप के मां-बाप जो उन्हें ऐसी संतान मिली।’
वह वास्तव में
अब मुझ से डर गया था कि मैं कहीं लौटकर उसकी शिकायत न कर दूं। लेकिन उसकी
भाग्यशाली वाली बात मुझे पिंचकर गई। काहे का भाग्य, भगवान की भूल या उनकी
दी कोई सजा जिसका परिणाम थी मैं। मेरे मां-बाप इसके कारण हर पल घुट-घुट कर मरते
रहे। मेरे सामने ही देखते-देखते बीमारी से लड़ते-जूझते तड़पते उम्र से बहुत पहले ही
मर गए। आखिर तक एक पल भी उन्हें चैन, संतोष की एक सांस नसीब नहीं हुई।
मैं आखिर यह सब जो कर रही हूं यह उनके कुछ काम आएगा भी यह भला कौन जानता है। यह तो
बस मन का एक विश्वास है। श्रद्धा है। और क्या। एक उस बात ने मेरा मन बड़ी देर तक
कसैला कर दिया। लेकिन लखनऊ वापस घर पहुंच कर एक संतोष था। कि मैंने जो चाहा पूरा
कर दिया। मौसी रास्ते से लेकर घर तक न जाने कितनी बार आशीर्वाद देती रही आभार जताती रही कि बिटिया तुम्हारी वजह से हम
अपने आदमी का तर्पण ‘गया’ में करवा पाए। हमने तो कभी सोचा भी नहीं था। आने के बाद सब ने दो-तीन दिन यात्रा
की थकान उतारी।
छुट्टियां पहले
ही काफी खतम हो चुकी थीं इसलिए चौथे दिन ऑफ़िस पहुँच गई। वहां वह पूरा दिन लोगों के
तरह-तरह के प्रश्नों के उत्तर देते ही बीता। किसी ने हिम्मत की दाद दी, किसी ने सराहा। किसी ने कहा ‘औलाद हो तो ऐसी।’ तो सुनने में यह भी आया कि ज़्यादातर ने कहा ‘अरे! पगलिया है
पगलिया।’ किसी ने कहा ‘अपने बौनेपन की कुंठा मिटाने का उसका तरीका है।’ पलभर में ही यह बातें
दिल को चीरती चली गईं। लेकिन ऐसी और न जाने कैसी-कैसी बातों की आदी तो मैं बचपन से
ही हो गयी थी। सो पलभर के दर्द के बाद सब सामान्य हो गया।
आने के हफ्ते
भर बाद ही चित्रा आंटी, मिनिषा अमरीका यात्रा की तैयारियों को लेकर कुछ बात करने घर आ गर्इं। मां-बेटी
मुझे देखते ही एकदम आवाक् सी रह र्गइं। आंटी बोली ‘तनु तुमने ये क्या
किया?’ मैंने पहले उन्हें बैठने को कहा फिर सारी बात बता दी तो उन्होंने अफसोस करते
हुए कहा ‘ओह! मुझसे गलती हुई, तुमसे उसी समय बात करनी चाहिए थी। अब अमरीका जाने के लिए वक़्त ही कितना बचा
है।’ फिर आंटी ने तमाम बातें कहीं जिनमें अफ़सोस गुस्सा दोनों झलक रहा था। जिनसे
मुझे भी थोड़ी झुंझलाहट हो रही थी। फिर भी माहौल को हल्का करने की गरज से मैंने कहा
‘आंटी कुछ पेंटिंग्स इस लुक में भी बना डालिए।’ वह इस बात पर एक उड़ती
नजर मुझ पर डालकर बोलीं ‘तुम समझ पा रही हो तनु तुमने क्या कर डाला। खैर देखते हैं कैसे मैनेज किया
जाए।’
दोनों के जाने
के बाद मैंने सोचा कि दोनों इतना पैसा खर्च कर रही हैं। मेहनत कर रही हैं। मुझे
ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अब तो कुछ नहीं हो सकता। वैसे प्रदर्शनी में मेरे जाने का
कोई मतलब है। पता नहीं आंटी मुझे क्यों ले जाना चाहती हैं। यह सनसनी पैदा करने का
उनका एक तरीका भी हो सकता है। कुल मिलाकर मैं बड़े तनाव में आ गई। मौसी ‘गया’ से आने के पांच-छः दिन बाद ही अपने बच्चों के संग कुछ दिन के लिए गांव चली गई
थी। उन के जाने के बाद खाना-पीना सब होटल से मंगवाती थी। डिंपू ले आता था। मौसी के
आने के बाद किचेन में जाने का मन ही नहीं करता था।
उस दिन आंटी की
बातों से मन बहुत खराब हो गया था। मौसी ने शाम
को अगले दिन आने की सूचना दी थी। उस रात को डिंपू को मैंने साथ सोने के लिए
फिर अपने कमरे में बुला लिया था। वह इस रिश्ते ही के कारण तो उस करधनी के बारे में
जानता था। उसके साथ यह रिश्ता मां की मौत के डेढ़ दो बरस बाद ही बन गया था। जब यह
रिश्ता बना था तो उसके कुछ महिने पहले ही मैं इसी डर से उसे निकालकर बुजुर्ग
ड्राइवर रखने की सोच रही थी कि घर में अकेले उसके साथ रहते ऐसा कुछ न हो जाए।
लेकिन जो डर था आखिर वह हो ही गया और मौसी भी यहां आने के कुछ समय बाद ही यह जान
गई थीं।
डिंपू से पहली
बार जब रिश्ता बनाया था वह आज भी ज्यों का त्यों याद है। हर तरह से हैरान परेशान
मैं, काटने को दौड़ता घर और भावनाओं के ज्वार के चरम पर पहुंचने पर उसे बुला लिया था
कमरे में। कई बार कहने पर भी उसे हिचकते देख कर मैंने उसका हाथ पकड़ कर बैठाया था
बेड पर। फिर दोे मिनट भी खुद को रोकना मुश्किल हुआ था। मुझे ऐसा लगा था कि डिंपू
को सहारा बनाने में कोई खतरा नहीं है। मैंने वैसे ही अपने में समा लिया था उसे।
उसने मुझे नाजुक फूल सा ऐसा संभाला था कि मैं सुध-बुध खो बैठी थी। पहली बार की
आक्रमता, उतावलापन कहीं कुछ नहीं था। वह इतना मैच्योर, इतना समझदार होगा इसकी
मुझे कल्पना भी न थी।
उस पूरी रात
मैंने उसे अपने साथ रखा था। फिर यह सिलसिला चल निकला था। उसके साथ ने मुझे इतना
प्रभावित किया कि मैंने बीच-बीच में कई बार सोचा कि बना लूं इसे अपना जीवन साथी।
कब तक छिपती-छिपाती रहूंगी। मगर यह सारा सपना पलक झपकते टूट कर बिखर जाता। ज्यों
ही अपनी हालत का ख़याल आता। फिर एक दिन तयकर लिया कि जब तक चल रहा है ऐसे तब तक
चलाऊंगी, नहीं तो जो होगा देखा जाएगा। फिर मैंने एक सीमा बना ली कि जब मैं चाहूंगी तभी
डिंपू मेरे कमरे में आ सकेगा। मुझे पा सकेगा नहीं तो नहीं। उसने एक दो बार जब मुझे
मेरी इच्छा के खिलाफ भी पा लिया तो अगले दिन उसके साथ किसी और बहाने से बड़ी सख्ती
से पेश आई।
गीता का सहारा
ले कर उसे इतना टाइट किया कि उसकी आत्मा भी कांप उठी। फिर तो वह उस मशीन की तरह हो
गया जो सिर्फ़ मेरे इशारे पर सक्रिय होती। ऐसी मशीन जिसे मैं अपनी सुविधानुसार
प्रयोग करती। मौसी भी उससे बराबर सतर्क रहने और इसका ध्यान रखने की सलाह देना न
भूलती कि बच्चे-वच्चे का ध्यान रखना। वह भी धोखे से उस रात आ पहुंची थी कमरे में
जब मैं डिंपू के साथ थी। उस रात सालों बाद घर में मैं और डिंपू ही थे। तो मुझे
मशीन की जरूरत पड़ी और मैंने बुला लिया था रात भर के लिए कमरे में।
अगली सुबह ऑफ़िस
जाने के लिए बेमन से तैयार हो रही थी। मौसी के दोपहर तक आने की सूचना थी। कमरे में
कपड़े पहन रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी। मन खिन्न था सो फ़ोन रिसीव नहीं किया।
कपड़े पहन चुकी थी कि तभी घंटी फिर बजी, यह सोचते हुए मैंने फ़ोन उठा लिया
कि कहीं मौसी का फ़ोन तो नहीं है, उसका प्रोग्राम चेंज हुआ हो। घर जाने के
बाद वह अक्सर यही करती हैं। फ़ोन उठाते ही उधर से पांच-छः वर्ष के बच्चे की आवाज़ आई ‘पापा कहां हो ?’ मैंने कहा ‘पापा .... यहां कोई पापा नहीं हैं।’ उसके पीछे भी कोई बच्ची बोल रही थी
वह फिर बोला ‘पापा से बात करनी है। मम्मी को चोट लग गई है। रो रही हैं।’ तो मैंने कहा ‘पापा का नाम क्या है ?’
तो उसने कहा ‘देवेंद्र’ तो मुझे एक झटका सा लगा। देवेंद्र ....। उसकी तो शादी ही नहीं हुई है।उससे
बार-बार पूछा तो उसने यही बताया। कंफर्म हो जाने पर कि देवेंद्र शादी-शुदा है कई
बच्चों का पिता है, मेरा खून खौल उठा।
मैं चीख पड़ी ‘डिंपू ... ।’ वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया। मेरे तमतमाए चेहरे को देख सहमता हुआ बोला ‘जी...’ मैंने कहा ‘लो अपने बेटे से बात करो। तुम्हारी बीवी को चोट लगी है।’ मेरी बात सुनते ही उसे काटो तो जैसे खून नहीं। बीवी के घायल होने की सूचना और
झूठ पकड़े जाने की एक साथ दोहरी मार से वह पस्त हो गया। रिसीवर लेकर हां हूं में
कुछ बात की और फ़ोन रख दिया। उसके फ़ोन रखते ही मैं दांत पीसते हुए चीखी। कमीने, धोखेबाज, नीच इतने सालों से ठगता रहा है मुझे, लूटता रहा है मुझे।
झूठ बोलता रहा
कि मेरी शादी नहीं हुई। मेरा गुस्सा देखकर वह हाथ जोड़कर माफी मांगने लगा। मगर मैं
आपे से बाहर हुई तो हो गई। कहा इसके पहले कि मैं पुलिस बुलाकर चोरी, रेप आदि के केस में तुझे अंदर करा कर तेरी ज़िंदगी जेल में सड़ा दूं। तू अपना
टंडीला बटोर कर चला जा यहां से। दोबारा मेरी नजरों के सामने मत पड़ना। वह डर के
मारे कांप रहा था। गीता से उसकी आत्मा पहले ही कांपती थी। जब वह चला गया तो मैं
अपने कमरे में पड़ी रोती रही।
मैं इस तरह ठगी जाऊंगी इसकी कल्पना भी न की थी।
ऑफ़िस नहीं गई और कुछ खाया-पिया भी नहीं। दोपहर होने तक मौसी आ गई। उसने मेरी सूजी
आंखें, चेहरा देखा तो बच्चों को ऊपर भेज चिपका लिया अपनी छाती से। जैसे कभी मां चिपका
लिया करती थी। मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। सब बता दिया उन्हें जिसे सुनकर वो भी अचंभे
में पड़ गर्इं। ‘अच्छा किया निकाल दिया। कमीने की नजर मुझे कभी अच्छी नहीं लगी।’ करीब तीन बजे शाम को उन्होंने खाना बनाया तब उनकी बड़ी जिद के बाद थोड़ा सा
खाया।
मैं अगले
तीन-चार दिन ऑफ़िस नहीं गई। मौसी जाती रही। तबियत खराब होने की सूचना भेज दी थी। दो
दिन बाद मुझे एक और दिल दुखा देने वाली खबर अखबार में मिली कि मिनिषा के फादर सहित
कई और आला अफ़सर अनियमितताओं के चलते निलंबित कर दिए गए हैं। मतलब साफ था कि अमरीका
यात्रा कैंसिल। मेरे अनाथालय वाले प्रोजेक्ट पर भी असर पड़ना था। जल्दी-जल्दी इन दो
आघातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं एकदम अपने खोल में सिमटकर रह गई। मगर अनाथालय
के काम पर रेंगती ही सही बढ़ती ही रही।
एक-एक कर
बाधाएं पार करती गई। और जीवन के छः-साल और पार कर गई। इस बीच मौसी का बेटा
ग्रेजुएशन के दौरान ही संयोग से सिपाही भर्ती में
सफल हो गया। फिर उसकी शादी हो गई और वह अपनी तैनाती वाले जिले में रहने
लगा। लड़की पढ़ने-लिखने में तो तेज नहीं थी लेकिन इश्कबाजी के चक्कर में पड़ गई तो
मौसी ने गांव में ही खाता-पीता घर देखकर उसकी शादी कर छुट्टी पा ली। मतलब सब
अपनी-अपनी राह लग गए थे लेकिन मैं अधर में थी। मौसी भी। अब बार-बार रिटायरमेंट के
बाद लड़के के पास जा कर रहने की बात करने लगी थी।
दुनिया भर की
कोशिशें करके मैंने घर के सन्नाटे, जीवन के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश
में जो सब को इक्ट्ठा किया था, सब एक-एक कर मुझे उसी हाल में छोड़ चले
गए।
अब बची थी तो
सिर्फ़ मौसी। जिसके रिटायरमेंट के दो साल रह गए थे। जिसका बेटा बार-बार नौकरी से
मुक्ति पा लेने के लिए दबाव डाल रहा था। मौसी बड़ी भाग्यशाली थी। अपने बेटे का गुण
बता-बता का निहाल हो जाती थी। मगर अब तक किसी हालत में हार न मानने की मेरी आदत पड़
चुकी थी। सो अनाथालय खोलने का एक समयबद्ध कार्यक्रम बना डाला कि जिस दिन मौसी
रिटायर होगी उसी दिन अनाथालय खुलेगा। मौसी ही उसका उद्घाटन करेगी। फिर बेचने के
लिए जो प्लाट था उसे बेचकर फंड इकट्ठा किया। जी जान से समय रहते अनाथालय तैयार कर
लिया। इस बीच गीता ने जिस ड्राइवर को डिंपू के बाद भेजा था उसने वाकई निस्वार्थ
बड़ी सेवा की।
मौसी ने, उसके बेटे ने जो मदद की वह तो खैर असाधारण थी। एक बार गिरने से हाथ टूटने पर
उसने जो सेवा कि उसे भुला नहीं सकती। आखिर वह दिन भी आया जब मौसी रिटायर हुई और
मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अपलीकेशन दे आई। मौसी ने उद्घाटन किया। उसके
बेटे-बेटी भी अपने बच्चों संग आए थे। उनके बच्चे मुझे बुवा-मौसी कहते थे। भविष्य
में कोई परेशान न करे इसलिए गीता, चित्रा आंटी आदि की मदद से पुलिस, ऑर्टिस्ट, मीडिया का मैंने बड़ा जमावड़ा किया था। ठीक उसी समय मैंने मौसी को अनाथालय का
संरक्षक, और उसकी बहू को अनाथालय से संबद्ध करने की घोषणा कर सबको अचंभित कर दिया।
मैंने अपना सपना पूरा करने के साथ-साथ इस बात की
भी पुख्ता स्थाई व्यवस्था कर ली थी कि सन्नाटा अकेलापन मुझे फिर डराने न आए।
अनाथालय के बच्चे, मौसी उसके बच्चे उन बच्चों के बच्चे सबको जोड़ दिया था। मैं खुश थी कि मैं अपने
मां-बाप के नाम पर एक ऐसी संस्था खोल सकी जहां तमाम, अनाथ, अपाहिज, वंचित बच्चों को आसरा मिल सकेगा। उनको अच्छा भविष्य देने की नींव पड़ सकेगी।
हां एक सपना अभी अधूरा रह गया था। जिसे पूरा
होने की उम्मीद अब कम थी। मगर मन में आशा का दिया टिम-टिमाता ही सही अब भी जल रहा
था। पेंटिंग प्रदर्शनी का। मेरा, चित्रा
आंटी और मिनिषा का संयुक्त सपना। अमरीका में मेरी न्यूड पेंटिंग्स की प्रदर्शनी
का। अंकल रिटायर हो चुके थे। रिटायरमेंट से सालभर पहले ही उनका निलंबन खत्म हुआ
था। मिनिषा शादी कर दो बच्चों की मगर फिर भी बेहद खूबसूरत मां बन चुकी थी। मगर
आंटी उस दिन बोली ‘तनु कोशिश में
हूं जल्दी ही प्रदर्शनी भी आयोजित होगी।’ मैंने
कहा ‘ज़रूर आंटी।’ सच कहूं तो मुझे भी अब इस प्रदर्शनी को
लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्सुकता बन पड़ी है। देखें कब पूरी होती है यह आखिरी इच्छा।
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