पगडण्डी
विकास
प्रदीप श्रीवास्तव
हाय दिल्ली की
सर्दी कह कर ठंड से कुड़कुड़ाने वाले लोग अगर एक बार महोबा के रेलवे स्टेशन पर रात
गुजार लें, तो निश्चित ही
कहेंगे ‘हाय महोबा की
सर्दी। इससे तो अच्छी है अपनी दिल्ली की सर्दी।’ महोबा स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक की बेंच पर बैठा मैं
ठंड से कांप रहा था। दिल्ली में पांच साल रह कर मैं वहां की पांच सर्दियां झेल
चुका था। किंतु इतनी ठंड मैंने वहां कभी महसूस नहीं की थी। ना ही उतना कोहरा उन
पांच सालों में मैंने वहां कभी देखा था जितना कि इकत्तीस दिसंबर की रात को उस वक्त
वहां देख रहा था।
महोबा
में ट्रांसफर होकर आने के बाद वहां मेरा सर्दी का यह पहला मौसम था, साथ ही पहला मौका जब वहां रात में घर से
बाहर था। मैं थोड़ा डरपोक किस्म का आदमी हूं। ऑफ़िस से आने के बाद घर से मैं बाहर
तभी निकलता हूं जब बहुत जरूरी हो जाता है। नहीं तो अपने कमरे में खा-पी कर टीवी
देखता हूं और किशनगंज, बिहार
में अपने परिवार से बात कर के सो जाता हूं।
ट्रांसफर
होकर मैं कुछ ही महिने पहले वहां पहुंचा था। बीवी दोनों छोटे बच्चों को किशनगंज
बाबू जी, अम्मा जी के
पास भेजा दिया था। कहा था यहां मुझे ज़्यादा दिन ठहरना नहीं है। बच्चे अभी छोटे
हैं। छोटा तो तीन ही महिने का है। यहां अनजान शहर में मैं तो दिन भर ऑफ़िस में
रहूंगा, तुम सब को कौन
देखेगा। ज़रूरत पड़ने पर कोई भी मदद को नहीं है। बीवी का मन कतई नहीं था कि मैं
महोबा में अकेले रहूं और वह सास-ससुर के पास।
आज कल
की दबंग बीवियों सी होती तो शायद ना मानती। और मेरे जैसा दब्बू, डरपोक पति ऐसा कहने की हिम्मत भी ना कर
पाता। मगर मेरी अतिशय, सीधी-सादी, भावुक, सीरियल में भावुक दृश्य देख कर हुचक-हुचक कर रो पड़ने वाली
बीवी बिना किसी बहस के मान गई कि ठीक है जैसे भी हो साल भर किसी तरह सास-ससुर के
पास रह लूंगी। मगर उससे ज़्यादा नहीं रुक पाऊंगी। फिर ऐसे बिलख-बिलख के रोई कि
पूछिए मत।
जिस दिन मैंने
यह कहा था उसके बाद घर छोड़ने जाने तक उसकी आंखेें मुझे गीली ही दिखीं। उसकी ये
गीली आंखें मुझे भी कमज़ोर कर रही थीं। तो मैंने कहा सुनो अगर यही हाल बनाए रखना है
तो मैं भी यहां नहीं रुक पाऊंगा। और तुम्हें यहां रख कर दिन भर ऑफ़िस चला जाऊं यह
भी मुझसे नहीं होगा। ऐसे में नौकरी छोड़ कर सीधे अम्मा-बाबू जी के पास किशनगंज चलते
हैं। वहीं कुछ करेंगे-धरेंगे। इतना कहने के बाद उसने अपने को बड़ी मुश्किल से
संभाला था।
उस
सर्दी में जब मैं स्टेशन के लिए घर से चला था तब भी पत्नी को फ़ोन किया था। उसकी
हिदायत थी कि स्टेशन पहुंच कर फ़ोन करूं। फ़ोन पर आते ही उसने नसीहत दी कि ‘किसी से कुछ ले-दे कर खाना नहीं।
ज़्यादा बात नहीं करना। कहां जा रहे हो यह किसी को ना बताना। ठंडा बहुत हो रहा है।
बैग से कंबल भी निकाल कर ओढ़ लेना।’ उसकी
हिदायत पर मैंने एक बैग में कंबल रख लिया था। जैकेट, टोपी, मफलर
सब पहन रखा था। बीवी की नसीहत पर कंबल रखना मुझे तब भारी लगा था। लेकिन स्टेशन पर
जब ठंड ने सताना शुरू किया तो लगा कि अच्छा किया।
हालांकि
मैं रास्ते के लिए हमेशा लोई पसंद करता हूं,
तो उसी बैग में मैंने लोई भी रख ली थी। वही ओढ़ कर बेंच पर बैठा ट्रेन का
इंतजार करने लगा। पूरे प्लेटफॉर्म क्या करीब-करीब पूरे स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था।
जबरदस्त कोहरा था। लाइट के बल्ब, हैलोजन, ट्यूब ऐसे लग रहे थे जैसे उन पर मिट्टी
पोत दी गई है। खूब धूल उड़ रही हो। कोहरा हल्की चलती हवा के कारण धुआं सा उड़ता दिख
रहा था। रेलवे ने प्लेटफॉर्म काफी लंबा बनाया है लेकिन शेड उसके करीब चालीस
पर्सेंट हिस्से पर ही है। पूरे प्लेटफॉर्म पर इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे।
स्टाफ भी अपने-अपने कमरों में दुबका था। प्लेटफॉर्म के दूसरे सिरे पर एक चाय वाला
जहां मैंने थोड़ी देर पहले चाय पी थी वह भी अपनी दुकान बंद कर के चला गया था।
मुझ से
दस-पंद्रह क़दम की दूरी पर प्लेटफॉर्म की छत को सहारा देता मोटा पिलर ऊपर तक गया
था। पिलर से ही सटे दो कुत्ते एक दूसरे से गुंथे से पड़े सो रहे थे। मुझे बेंच पर
बैठे आधा घंटा हो रहा था। ट्रेन का टाइम भी हो रहा था। मन में व्याकुलता हो रही थी
कि ट्रेन जल्दी आ जाती तो उसमें बैठूं। इस ठंड से कुछ तो छुटकारा मिले। ठंड को
ध्यान में रख कर ही मैंने थर्ड एसी में रिजर्वेंशन कराया था।
प्लेटफॉर्म का
सन्नाटा देखकर मैंने सोचा कि महोबा से क्या मैं ही अकेला जा रहा हूं। टाइम हो रहा
है और कोई दूसरा यात्री दिखाई नहीं दे रहा। मुझे ठंड बराबर बढ़ती हुई लग रही थी।
मैंने तभी मोबाइल में लोकल टेम्प्रेचर देखा तो वह पांच डिग्री सेंटीग्रेड हो रहा
था। कुछ देर में मुझे लगा कि टेम्प्रेचर देखने के बाद मुझे और ठंड महसूस हो रही
है।
दिल को
तसल्ली दी कि बस थोड़ी देर और ट्रेन आ ही रही होगी। घर से मोबाइल पर ही ऑन लाइन
ट्रेन की स्थिति देख कर ही चला था। इस कोहरे और हाड़ कंपाती ठंड में भी वह मात्र
डेढ़ घंटे लेट थी। अन्य बहुत से लोगों की तरह मेरे लिए भी यह थोड़ा आश्चर्य का विषय
था। नहीं तो ऐसे मौसम में ट्रेन का सात-आठ घंटे लेट होना आम बात रही है। मैंने
सोचा चलो जो भी है, आए तो जल्दी।
और ऐसे ही पहुंचा भी दे। आठ-नौ घंटे लेट ना हो। साले की शादी दो ही दिन बाद है।
सोचा
इस साले को भी और कोई डेट नहीं मिली थी। हर साल तो यह कड़ाके की ठंड पड़ती है, वह यह अच्छी तरह जानता है। फिर भी यह
मूर्खता किए बैठा है। मगर उसकी सारी मूर्खता एक तरफ है क्यों कि आखिर वो साला है, वो भी इकलौता। पहुंचना हर हाल में है।
मेरा साला बना भी तो दिसंबर में ही था। हां तब इस साले ने बड़ी खुराफात की थी। मेरे
सीधे होने का पूरा फायदा उठाया था। नाक में दम कर दिया था। चलो साले से ब्याज सहित
हिसाब पूरा करूंगा। अब बेचैनी में मैं बार-बार मोबाइल में टाइम देखने लगा। लगता
जैसे टाइम बढ़ ही नहीं रहा है। इसी बीच मेरे कानों में किसी के कराहने की आवाज़ पड़ी
।
आवाज़
मेरी बेंच के पीछे से आ रही थी। इस समय ऐसा क्या हुआ? कुछ गलत की आशंका से दिल की धड़कनें बढ़
गईं । मैंने पीछे मुड़कर देखा। मेरी बेंच से करीब आठ फिट की दूरी पर दिवार से सटी
एक प्रौढ़ महिला जमीन पर लेटी थी। उसने कार्टन के टुकड़े बिछा रखे थे। चिथड़ा सी धोती
और उसी पर पुरानी सी बुशर्ट कुछेक कपड़े
उसने और पहने थे। एक शॉल भी फटी-लत्ता सी लपेट रखी थी। इस हाड़ कंपाती ठंड में उसके
पास ठंड से बचने के लिए और कुछ नहीं था। शॉल भी इतनी फटी थी कि वह उससे अपने को
पूरा नहीं ढंक पा रही थी। बुरी तरह कांप रही थी।
मैंने
उसे ध्यान से देखने का प्रयत्न किया लेकिन कपड़ों के कारण जब समझ ना पाया तो उठ कर
उसके पास गया। वह दर्द से कराह रही थी। उसे क्या तकलीफ़ थी मैं नहीं समझ पा रहा था।
मैंने दो तीन बार पूछा कि क्या तकलीफ है? मगर वह
कराहती रही। मैंने भी मूर्खता की हद कर दी थी। एक भिखारिन की तकलीफ़ क्या हो सकती
है? भूख, प्यास, आवश्यक कपड़ों, सर्दी, गर्मी, बरसात, आंधी, तुफान, से अपनी रक्षा ना कर पाने से जो भी कष्ट हो सकते हैं, उसके अलावा और क्या दुःख दर्द होंगे
इसके। मैं वहां कुछ देर खड़ा रहा।
उस की हालत पर
मुझे बड़ी दया आ रही थी। मन में आया कि इसकी कुछ मदद कर सकूं तो बहुत अच्छा होगा।
मगर क्या करूं? इतनी ठंड इसके
लिए कहीं जानलेवा ना साबित हो, यह सोच
कर मैंने तय किया कि जैसे भी हो पहले इसे ठंड से बचाऊं। फिर मैंने बैग से कंबल
निकाल कर उसे दोहरा करके ओढ़ा दिया। जिससे वह ज़्यादा कारगर हो। यह भूखी भी होगी यह
सोचकर मैंने जो भी बिस्कुट वगैरह जो मेरे पास थे उसे उसके सिरहाने ले जाकर रख
दिया।
इसी
बीच एक और आदमी दो-तीन सूटकेस, बैग
लिए आकर बेंच पर बैठ चुका था। उसे पहुंचाने एक आदमी आया था। शायद वह उसका टैक्सी
ड्राइवर था। महिला को कंबल ओढ़ाने के बाद भी उसके कराहने की आवाज़ मुझे सुनाई दे रही
थी। मेरे मन में उसे आराम देने के लिए व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। मन में ऐसी
तीव्रता मैंने कभी किसी के लिए महसूस नहीं की थी। मैंने फिर बैग खोला। उसमें से
पत्नी की दो शॉल जो उसने मंगाई थी वह निकाली और दोनों उसी के ऊपर डाल दी।
वापस
आकर बेंच पर बैठा तो वह आदमी मुझे देख रहा था। उसने मुंह में तंबाकू दबा रखी। उसे
मैंने अब गौर से देखा तो हुलिया से मुझे कोई बिजनेसमैन लगा। मुझे अपनी तरफ देखता
पाकर उसने कहा। ‘भाई साहब एक
बात कहूं नाराज तो नहीं होंगे?’ मेरे ‘नहीं’ कहने पर वह बोला। ‘आपने
जो किया बढ़िया है। लेकिन आप इन सब को जानते नहीं हैं। इसे आपने कपड़े दे दिए हैं।
लेकिन ये कल फिर ऐसी ही मिलेगी। ये यह सारे कपड़े कहीं बेच देगी। फिर नशा-पत्ती
करेगी। इन सब ने इसे धंधा बना लिया है। इतने सारे नियम-कानून हैं लेकिन पुलिस भी
कुछ नहीं करती। वह भी इनसे हफ्ता लेती है। इस लिए इनको देना इनकी आदत खराब करना
है। भीख मांगने की आदत को बढ़ावा देना है।’
उसकी
बात पर मुझे बड़ी गुस्सा आई कि अजब आदमी है। किसी की तकलीफ में उसे एक पैसे की मदद
तो करना दूर, दूसरे को भी
मना कर रहा है। मानवता नाम की चीज ही नहीं। ऊपर से मुझे शिक्षा दे रहा है। कुछ देर
तो मैं समझ ही नहीं पाया कि इसे इसकी बातों का जवाब क्या दूं? मैं देखता भर रहा। तभी वह फिर बोल पड़ा। ‘देखिए जब इन को भीख नहीं मिलेगी तभी ये
कुछ काम-धंधा करेंगे। नहीं तो ऐसे ही मागेंगे और खाएंगे-पिएंगे। इस तरह हम अपने
बीच से कभी भिखारियों को खत्म नहीं कर सकेंगे। भीख मांगना एक धब्बा, अभिशाप है हमारे समाज का। आखिर कब तक
इसे अपने साथ चिपकाए रखेंगे। ये अभी तक हमारे साथ चिपके हुए हैं इसके लिए हमारी ये
बेकार की दया ही ज़िम्मेदार है कि हम ऐसे ही दे-दे कर इन्हें पाले हुए हैं। इन्हें
और आगे बढ़ने की खुराक देते हैं।’
उसकी यह बातें मुझे खुद पर बड़ी तोहमत लगी। और
उसकी ढिठाई भी। कि इसकी हिम्मत तो देखो कि ना जान ना पहचान और लेक्चर ऐसे दे रहा
है जैसे मैं इसका नौकर हूं। अब तक मैं भी उसको जवाब देने के लिए तैयार हो चुका था।
मैंने छूटते ही कहा ‘ऐसा है कि सारे
नियम-कानून से ऊपर है मानवता। मुझे मालूम नहीं है कि दुनिया में कहीं कोई ऐसा
कानून है कि किसी की जान बचाने के लिए किसी को सजा दी जाए। और यह भी कि किसी की
जान खतरे में है तो उसे नजरंदाज कर आगे बढ़ जाएं, उसकी जान ना बचाएं।’
मेरी बात सुनते ही वह थोड़ा तेज़ आवाज़ में बोला।
‘नहीं-नहीं मैं किसी की जान बचाने से मना
नहीं कर रहा । मैं तो भीख ना देने की बात कर रहा हूं। जिससे भीख मांगने की प्रथा
को बढ़ावा ना मिले।’
उसके
तेवर और बात पर मैंने थोड़ी सी विनम्रता ओढ़ते हुए कहा ‘अरे भाई मैं साफ-साफ कह रहा हूं कि
मैंने किसी को भीख नहीं दी। मैं भीख को बढ़ावा देने ना देने के बारे में सोचता ही
नहीं। मुझे वह महिला बीमार, लाचार, बेसहारा, बेघर दिखी। उसकी हालत ऐसी है कि तुरंत उसे ठंड से बचाया ना
गया तो उसकी जान जा सकती है। और मैंने उसकी जान बचाने की ही कोशिश की है। मैं पूरे
विश्वास के साथ यह मानता हूं कि मैंने मानवता के नाते अच्छा ही किया है।’ मैंने सोचा अब वह चुप हो जाएगा। लेकिन
मेरा आकलन गलत निकला। वह तुरंत पूरी दृढ़ता से बोला।
‘हां ये तो कह सकते हैं कि जान बचाई।
लेकिन भीख तो दी ही गई। और इससे इस प्रथा को बढ़ावा भी मिला ही।’
वह यह बात पूरी कर आखिर में हंस भी दिया। इससे
मुझे लगा कि वह मेरी खिल्ली उड़ा रहा है। यह बात दिमाग में आते ही मुझे गुस्सा आ
गया। मैं इतनी खीझ महसूस कर रहा था कि अपने दब्बू स्वभाव के बावजूद नाराजगी जाहिर
करते हुए बोला-
‘अब
मुझे जो करना था वह तो मैंने कर दिया। उससे मुझे कोई अफ़सोस नहीं बल्कि संतोष ही
है। हां आप चाहें तो पुलिस में कंप्लेंट कर मुझे अरेस्ट करा दें। मैं आपके इस काम
से बिल्कुल बुरा नहीं मानूंगा। आप भी अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिजिए।’
अब वह
समझ गया कि मुझे उसकी बातें अच्छी नहीं लगीं। तो वह रफू करते हुए बोला-
‘अरे
नहीं-नहीं मेरा मतलब यह नहीं है। आप तो बुरा मान गए। आप जैसे अच्छे इंसान को कोई
क़ानून गिरफ़्तार ही नहीं कर सकता। मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। मुझे तो यह सोचना
भी दुनिया की सबसे बड़ी मुर्खता लगेगी। ये तो हमारी इन सरकारों को सोचना चाहिए कि
हमारे देश में गरीब हैं क्यों?’ उसकी
बात से मैं समझ गया कि यह उन्हीं लोगों में से एक है जो ऐसे स्थानों पर टाइम पास
करने के लिए आस-पास के लोगों को किसी ना किसी मुद्दे पर निरर्थक बहस में उलझा ही
लेते हैं।
दैवयोग
से मुझे भी यह अच्छा लगता है। लेकिन बहस करने में नहीं सुनने में। मगर वहां कोई और
नहीं था जो उससे बहस करता। मैंने सोचा चलो जब तक ट्रेन नहीं आती तब तक इसी से झक
लड़ाते हैं। यह सोचते हुए मैंने तुरंत बात आगे बढ़ाई। कहा-
‘देखिए
असल में हम भारतीयों की असल समस्या यह है कि हम पीढ़ियों से इस सोच के हो गए हैं कि
कोई देवता, मसीहा आएगा और
हमारी सारी समस्याओं को हल कर देगा। हम केवल एक ही काम करते हैं कि मसीहा का
इंतजार करते हैं। यह काम हम बहुत ईमानदारी,
निष्ठा, मेहनत से करते
हैं। इंतजार में पीढ़ी दर पीढ़ी निकाल देते हैं। लेकिन कभी हताश निराश नहीं होते, कभी नहीं थकते।’
मेरी बात सुनते ही वह आश्चर्य सा व्यक्त करते
हुए बोला-
‘अरे भाई साहब आपने तो बड़ी ऊंची बात कह
दी। यह बिल्कुल सही है। मैं तो कभी यह सोच ही नहीं पाया। मगर ये बताइए आपके दिमाग
में यह कैसे आ गया कि हम भारतीय हमेशा किसी मसीहा का ही इंतजार करते रहते हैं।’
मुझे लगा कि
बात अब उस ओर मुड़ गई है कि अंतहीन बकवास चलती रहेगी। मैंने बात आगे बढ़ाई। कहा-‘देखिए ये स्टेशन ही देखिए। अब याद करिए
जरा साल डेढ़ साल पहले के स्टेशन। जब हर तरफ गंदगी भरी रहती थी। छोटे-छोटे स्टेशनों
की तो बात ही ना करिए। अच्छा ये बताइए आप तो यहीं के रहने वाले लगते हैं। क्या
गवर्नमेंट द्वारा स्वच्छता अभियान शुरू करने से पहले यह स्टेशन इतना साफ-सुथरा
रहता था। हालांकि अब भी उतना नहीं है जितना होना चाहिए।’
‘हां...ये
बात तो है। सेंट्रल गवर्नमेंट के स्वच्छता अभियान से पहले इतनी क्या इसकी पचीस
पर्सेंट भी सफाई नहीं रहती थी। लेकिन इससे मसीहा वाली बात कैसे जोड़ रहे हैं?’
‘बड़ी मामूली सी बात है। देखिए सफाई को
लेकर हमारे यहां समाज खासतौर से धर्म में सफाई स्वच्छता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें
कही गई हैं। बहुत जोर दिया गया है। हम अपने घरों में तो बड़ा ध्यान रखते हैं। लेकिन
बाहर जितना चाहें, जहां चाहें
वहां उतनी गंदगी करते हैं। हॉस्पिटल, स्टेशन, ऑफ़िस, सड़क, यहां
तक कि मंदिर, नदी तक नहीं
छोड़ते। हां बातें हम लोग खूब करते हैं। अरे यार यहां इतनी गंदगी है। वहां इतनी
गंदगी है। गवर्नमेंट कुछ करती नहीं। लेकिन अपने कर्त्तव्य के बारे में कभी बोलते
क्या सोचते तक नहीं। लेकिन ये पी. एम. आया तो इसने सफाई को ही मुख्य मुद्दा बना
दिया।
बीमारी, और बाहर फ्रेश होने के लिए जाने वाली
महिलाओं की सुरक्षा, को देश के
सम्मान से जोड़ दिया। इतना ज़ोर देने लगा कि बहुत लोगों को वह सफाई का पुरोधा, मसीहा नजर आने लगा। देखिए हालात तेज़ी से
बदलने लगे कि नहीं। वही देश है। वही लोग हैं। व्यवस्था वही है। बस एक व्यक्ति ने
कुछ ऐसी बातें कहीं। कुछ ऐसा जोर दिया कि स्थितियां बदलने लगीं। यानी हम ऐसी सोच
के लोग हैं कि सोए रहते हैं। हमें जगाने वाला कोई चाहिए। हनुमान जी को तो श्राप था
कि उन्हें अपनी ताक़त का ज्ञान तभी होता था जब कोई उन्हें याद दिलाता था। लेकिन हम
सब ऐसे क्यों हो गए? हम इंसानों को
तो ऐसा कोई श्राप मिला नहीं फिर भी स्वामी विवेकानंद को कहना ही पड़ा।‘‘उतिष्ठत भारत, जाग्रत भारत।’’.. अगर हम लोग सोते हुए ना होते तो यह बात
कही ही क्यों जाती। मेरी बात पूरी होते ही वह बोला-
‘हां मैं मानता हूं इस बात को। आप की
बातों से लगता है कि आप किसी राजनीतिक पार्टी से गहरा संबंध रखते हैं। लेकिन भाई
काम तो शुरू से होता ही रहा है। कोई नई बात तो है नहीं। धीरे-धीरे एक दिन सब सही
हो जाएगा।’
उस की इस बात पर मैं हंस पडा़। इस बीच उसने अपना
परिचय भी दिया था। अपना नाम धीरज सोमवंशी बताया था। मैंने हंसते हुए ही कहा-‘धीरज जी मैं किसी पार्टी से कोई संबंध
नहीं रखता। मुझे ये सारी पार्टियां और नेता सबके सब एक से लगते हैं। क्यों कि मैं
यह मानता हूं कि ये जो भी करते हैं वह वोट के लिए करते हैं। उनकी पार्टी को वोट
कैसे मिले, वो कैसे जीतें
यही उनका मकसद होता है। बस फ़र्क इतना है कि कोई कम है कोई ज़्यादा। मैं जॉन
क्वांटन की इस बात को शत-प्रतिशत सही मानता हूं कि ‘‘ये नेता तो जब लोगों को सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी नजर
आती है, तो वो जाकर कुछ
और सुरंग खरीद लाते हैं।’’ तो इन
नेताओं की तो मैं बात ही नहीं करता। ये नेता हम देशवाशियों को नई-नई सुरंगें दिखाने वाले ना होते तो सत्तर साल बाद भी देश
जापान, चीन से पीछे ना
होता। सत्तर साल से गरीबी हटाने के नारे दे-दे कर वोट लिये जा रहे हैं। लेकिन गरीब
बढ़ते जा रहे हैं। नेता अमीर होते जा रहे हैं।
आज भी
कितने लोग खाना-पीना, रोटी, कपड़ा, मकान के अभाव में मर रहे हैं। इससे ज़्यादा शर्मनाक, डूब मरने वाली बात और क्या होगी? एक दो नहीं सत्तर साल बीत गए भाई। और
कितना वक्त चाहिए? इन नेताओं की
तो गरीबी, सारी
परेशानियां नेता बनते ही दूर हो जाती है। इस लिए मैं किसी नेता या पार्टी की नहीं।
व्यक्ति विशेष ही की बात करता हूं।
जिस व्यक्ति ने
स्वच्छता अभियान शुरू किया मैं उसे नेता नहीं एक व्यक्ति के रूप में लेता हूं।
क्योंकि उसका यह काम ऐसा है जिसमें मुझे उसका कोई राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध होता
नहीं दिखता। इसके उलट जिस तरह सख्ती भी बरती जा रही है उससे उसे नुकसान हो सकता
है। हां आतंकियों, कश्मीरियों के
मुद्दे पर उसे मैं उसी रास्ते पर मुड़ता देख रहा हूं, जिस रास्ते पर उसके पूर्ववर्ती चले थे।’
‘ये तो
बड़े आश्चर्य वाली बात कह रहे हैं आप। ये पी.एम. तो शुरू से ही एकदम अलग चला है
कश्मीर मुद्दे पर। बड़ा सख्त है आतंकियों पर।’
‘धीरज जी यही तो! यही तो मैं कह रहा हूं कि पहले ठीक चले। उम्मीदें बधीं कि
आतंकियों, गद्दार
अलगाववादियों से देश की सवा अरब जनता मुक्ति पाएगी। लेकिन बाद में चार कदम आगे, दो कदम पीछे वाली हालत मुझे दिखाई दे
रही है। दो उदाहरण देता हूं। पहला नवंबर 2014 का।
आतंकी कार में जा रहे थे। खुफिया सूचना पर सेना ने उन्हें एक चौराहे पर रोकना चाहा, नहीं रुके। दूसरे, तीसरे पर भी नहीं रुके।
अंततः मज़बूर होकर सेना ने कार्यवाही की और वो
दोनों आतंकी मारे गए। सेना की इस कार्यवाही पर विपक्षी पार्टियां सेना की तरीफ़ तो
नहीं कर सकीं। उल्टे उसी पर राशन पानी लेकर चढ़ पड़ीं। पी.एम. ने भी सपोर्ट नहीं
किया। जांच के आदेश हो जाते हैं। लेकिन प्रेशर इतना पड़ा कि जांच पूरी होने से पहले
ही अंततः सेना के बहुत बड़े अधिकारी को माफी मांगनी पड़ी। जांच पूरी हुई तो सेना सही
निकली।
यह
पहला मौका था जब सेना के इतने बड़े अधिकारी को माफी मांगनी पड़ी। इतना अपमान झेलना
पड़ा। देश के दुश्मन गद्दारों से माफी मांगनी पड़ी। चलिए यहां तक किसी तरह बर्दाश्त
कर लिया जाए। मगर अति तो तब हो गई। जब स्थानीय चुनाव के वक्त इसे मुद्दा बनाया
गया। कहा गया कि देखिए इतने बड़े अधिकारी ने पहले कभी माफी नहीं मांगी लेकिन अब
मांगी। अब आप ही बताइए कि जो सेना अपनी जान देकर हमारी रक्षा करती है। हम आप यहां
निश्चिंत होकर सुरक्षित गप्प मार सकते हैं,
उसी सेना को माफी मांगने के लिए विवश किया जाता है। वोट के लिए माफी को हथियार
बनाया जाता है। वहां सेना के मनोबल को किस तरह कुचला जा रहा है इसका एक उदाहरण और
देता हूं।
यही
अप्रैल 2016 की बात है। एक
लड़की के साथ दुर्व्यव्यहार पर मामला भड़क उठता है। आतंकी अपना खेल खेलने लगते है।
हंदवाड़ा में भीड़ सुरक्षा बलों पर हमलावर हो गई। सेना के जो बंकर वहां पचीस-तीस
वर्ष से बने थे उसे आंतकी भीड़ तोड़ती रही। उसे नेस्तनाबूत करती रही, मगर सेना को इन गद्दारों पर कार्यवाई
नहीं करने दी गई। यहां भी मामला झूठा निकला। इससे सेना का मनोबल चूर-चूर नहीं होगा
तो क्या होगा? फिर भी हम
अपेक्षा करते हैं कि सेना हमारी रक्षा करे। पीएम के क़दम यहां भी आगे-पीछे होते
रहे। इससे वहां अलगाववादी और मज़बूत हो रहे हैं।
इतना ही नहीं
इन अलगाववादियों को पिछली सरकारें पालती आईं हैं। इनकी सुरक्षा हमारी सरकार करती
है। इन पर करोड़ों रुपए खर्च करती है। इनके लिए होटलों में सैकड़ों कमरे हमेशा बुक
रहते हैं। मतलब कि हमारे ही पैसे से इनके खाने-पीने रहने, सुरक्षा का सारा इंतजाम होता है। मगर
फिर भी ये हमें डसते रहते हैं। नई सरकार, नई
पार्टी से लोगों ने उम्मीद की थी कि इन अलगाववादियों को कम से कम सरकार पालना बंद
करेगी। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए
इस मुद्दे पर मुझे उसके प्रति सख्त नाराजगी है। इसलिए आपसी बातों को किसी फालोअर
की बात मानकर ना चलें। एक सामान्य देशवासी की बात मानें।’
मेरी
इन बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद वह बोला-‘आप तो बड़ी दिलचस्प बातें करते हैं। टीवी चैनलों पर डिबेट
में राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की तरह अपनी बातें कह रहें हैं। बड़ा अच्छा
लग रहा है आप से बात करके। मगर विनायक सेन जी मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मैं
भी आपकी तरह किसी पार्टी का मेंबर भी नहीं हूं। मैं एक बिज़नेसमैन हूं। और एक बात
बहुत साफ मानता हूं, कहता हूं कि
कुछ भी कहिए। देश ने विकास तो किया है। इस सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। आप को भी
इस सच को मानना चाहिए। टेन में टेन नहीं तो हम इसके लिए उन्हें सेवेन, एट. मॉर्क्स तो दे ही सकते हैं। विकास
तो हुआ ही है। क्या कहते हैं आप।’
उसकी बातें
सुनते हुए मैं सोच रहा था बेटा बोल जितना बोलना है। लेक्चर दे ले। मेरा टाइम आसानी
से कट रहा है। बस पंद्रह मिनट और।
इसके बाद तो
ट्रेन की पता नहीं किस बोगी में तू और किस में मैं। मगर तब-तक तूने ये जो विकास
हमें दिखाया है उसका असली चेहरा तुझे दिखाता हूं। मगर तुम्हारी बातों का जवाब देने
से पहले एक बार उस महिला को देख लूं वह कैसी है। तेरी बातों में उसे भूल ही गया।
बातूनी, बकलोल कहीं का।
मैंने उठते हुए उससे कहा- ‘एक
मिनट मैं उसकी हालत देख कर आता हूं। शायद उसे कंबल ओढ़ने के बाद आराम मिला है। अब
उस की आवाज़ नहीं आ रही है।’ मेरे
इतना कहते ही वह बोला-‘अरे
विनायक जी आप कहां परेशान हो रहे हैं। उसे जो चाहिए था वह आपने दे दिया, अब वह तान कर सो रही है।’ लेकिन मैं उसकी बात को अनसुनी करता हुआ
उसके पास गया। देखा वह सो रही थी।
मैंने
उसे कंबल, शॉल से पहले ही
अच्छे से सिर तक ढंक दिया था। अब वह पहले की तरह बिल्कुल नहीं कराह रही थी। उसे
आराम से सोता देख कर मुझे बड़ी संतुष्टि मिली। कोहरे की तरफ मेरा ध्यान फिर गया वह
अब पहले से ज़्यादा दिख रहा था। हम शेड के बीचो-बीच थे, वह महिला दिवार से सटी थी। फिर भी कोहरे
का झोंका ऐसा लगता कि अंदर तक आ ही जा रहा है। मैं वापस आकर बैठा। प्लेटफॉर्म की
घड़ी पर नजर डाली तो वह बंद मिली।
मैंने मोबाइल में देखते हुए कहा-‘धीरज जी अब तो ट्रेन के आने का टाइम दस
मिनट ही रह गया है। लेकिन टेªन के
बारे में अभी तक कुछ एनाउंस नहीं हुआ।’ मेरी
बात पूरी भी नहीं हुई थी कि एनाउंसमेंट शुरू हो गया। मेरी उत्सुक्ता बढ़ गई। यात्री
गण कृपया ध्यान दें.....। इसके बाद पूरी बात सुनकर मैंने कहा-‘लीजिए धीरज जी विकास देखिए। ट्रेन घंटा
भर और लेट हो गई। विकास के सत्तर साल हो गए लेकिन हम ट्रेन तक टाइम से नहीं चला पा
रहे हैं।’
धीरज हंसते हुए बोला-‘कोई बात नहीं विनायक जी हमारी बात भी
अभी पूरी नहीं हुई है। जब तक पूरी होगी तब-तक एक घंटा बीत जाएगा, पता भी नहीं चलेगा।’ वह हा-हा कर फिर हंस पड़ा। मेरे कुछ
बोलने से पहले ही रेडीमेड खैनी तंबाकू का पाऊच निकाल कर बोला। ‘लीजिए ऐसे मौसम में ये बुद्धिवर्धक
चूर्ण लीजिए। बड़ा आराम मिलेगा। मैंने तुरंत मना कर दिया। झूठ बोल दिया कि मैं
तंबाकू नहीं खाता।
उसके
तंबाकू ऑफर करते ही मेरे दिमाग में आए दिन ट्रेन, बस में जहर खुरानों द्वारा ऐसे ही यात्रियों से दोस्ती करते, फिर खाने-पीने की चीजों में जहर देकर
बेहोश या मार कर लूटने की घटनाएं आ गईं। पत्नी इन चीजों को लेकर मुझे बराबर आगाह
करती रहती है कि अनजान आदमियों से भूलकर भी कुछ मत लेना, ना खाना-पीना। मैंने देखा अब तक सात-आठ
और यात्री भी प्लेटफॉर्म की अन्य कई बेंचों पर बैठ गए थे। मेरे मना करने पर वह
तंबाकू दांत और होट के बीच में चुटकी से दबाते हुए बोला-‘विनायक जी ये बुद्धिवर्धक चूर्ण मैं
स्टूडेंट लाइफ से ही खाता आ रहा हूं। बिना इसके तो मैं अब कोई काम ही नहीं कर
पाता। ये ट्रेन ड्राइवर भी मुझे लगता है कि बिना इसके इंजन स्टार्ट कर नहीं पाते।’
ट्रेन के लेट हो जाने से ज़्यादा मुझे अब उसकी
ऐसी बेहूदा बातों से खीझ होने लगी। मैंने सोचा कि खीझ कर कहीं मैं कोई सख्त बात ना
बोल बैठूं और बेवजह यहां लड़ाई-झगड़ा हो इसलिए मैं चुप रहा। सोचा यह बकलोल बकलोलई
(निरर्थक, अनर्गल बातें)
करेगा। फिर मेरी कोई बात इसको चुभ गई तो यह झगड़ा भी करेगा। मगर वह ऐसा बातुनी था
कि चुप ही नहीं हुआ। विकास के पीछे ही पड़ गया। इतना कि मैं चुप नहीं रह पाया।
मैंने कहा ‘आप जिस विकास की बात कर रहे हैं उस बारे
में इतना ही कहूंगा कि जापान, चीन और
हम लोग लगभग साथ-साथ आज़ाद हुए। मैं एकदम साफ कहता हूं कि जापान, चीन ने वास्तविक विकास किया। दुनिया के
पहले पांच-छः शक्तिशाली देशों में शामिल हैं। चीन जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहा है
अमरीका, रूस जैसी
महाशक्तियां अगले कुछ सालों में उससे पिछड़ जाएं तो आश्चर्य नहीं। जापान का विकास
तो इन सबसे आगे है ही।
हम
यहां ट्रेन के इंतजार में ठिठुर रहे हैं। बैठने तक की ढंग की जगह नहीं है। सुरक्षा
को लेकर संदेह है। चीन मैंग्लेव ट्रेन चला रहा है। जिसमें पहिए ही नहीं होते। उसकी
गुड्स ट्रेन्स कई देशों को पार कर लंदन तक सामान पहुंचा रही हैं। जापान की बुलेट
ट्रेनों का जवाब नहीं। हमारे यहां अभी बुलेट ट्रेन शुरू होने में चार-छः साल और लग
जाएं तो आश्चर्य नहीं। हम नोट छापने के लिए इंक, कागज तक बाहर से मंगाते हैं। सेना के हथियारों के लिए दूसरे
देशों पर निर्भर हैं। वो सप्लाई बंद कर दें तो हफ्ते भर भी किसी से लड़ नहीं सकते।
देश
में शत-प्रतिशत साक्षरता एक सपना बनी हुई है। पूरी शिक्षा व्यवस्था आंसू बहाने को
विवश करती है। महिलाएं क्या पुरुष, बच्चे
बूढ़े कोई भी सुरक्षित नहीं। बिजली, पानी, सड़क,
स्वास्थ्य सहित किसी भी क्षेत्र में हम नहीं कह सकते कि हम फलां क्षेत्र में
विकसित हो गए हैं। गरीबी दूर नहीं कर सके। फिर भी सरकार बड़ी बेशर्मी घमंड के साथ
प्रचार करती है कि गरीबों को हम मनरेगा योजना के तहत सौ दिन रोजगार देते हैं। इससे
उनकी रोजी-रोटी चलती है। तो भाई बेशर्म नेतागण ये भी तो बताओ कि बाकी दौ पैंसठ दिन
ये गरीब जो फांकाकसी करेंगे उसका जिम्मेदार कौन है।
सत्तर साल में
हम उनको इतना सक्षम, स्वावलंबी
क्यों नहीं बना सके कि ऐसी योजनाओं की जरुरत ही न पड़ती। इतने सालों में हम लोगों
को गढ्ढा खोदने, झऊवा उठाने
लायक ही बना सके। फिर भी हम ऐसी योजनाओं पर घमंड करते हैं। अरे ऐसी योजनाएं देश के
माथे पर कलंक हैं। काला धब्बा हैं। सबसे पहले तो हमें इस कलंक को साफ करने का
अभियान चलाना चाहिए। हम आगे बढ़े ही नहीं। हम रेंग रहे हैं। यह नई सरकार भी बड़ी
बातें कर रही है। अगर आधा भी कर ले तो भी बहुत काम होगा। हालात बदल जाएंगे। मगर
इसके लिए भी आठ-दस साल तो चाहिए ही। तो धीरज जी मैं बहुत साफ कहता हूं कि विकास तो
चीन, जापान ने किया
है। हमने नहीं।’
‘अरे आप
कैसी बातें कर रहे हैं विनायक जी। आपकी बातों को मानें तो पिछले सत्तर साल में
हमने कुछ किया ही नहीं। कोई विकास नहीं किया तो ये बताइए देश के कोने-कोने तक हम
ट्रेन से जा पाते? जहाज से दुनिया
में कहीं भी जा सकते? खाद्यान्न
में आत्मनिर्भर हैं। अब तो हर साल इतना आनाज चूहे, कीड़े खा जाते हैं, इतना
बर्बाद होता है जितना ऑस्टेªलिया
पैदा करता है। मेडिकल फैस्लिटीज के कारण मेडिकल टुरिज्म बढ़ रहा है। खेल में आगे बढ़
रहे हैं। सड़कों का जाल बिछ रहा है। बड़े-बड़े एजूकेशन सेंटर हैं, जहां विदेशों से भी लड़के पढ़ने आते हैं।
सबसे ज़्यादा पिक्चरें यहां बनती हैं। अंतरिक्ष में रिकॉर्ड-तोड़ सफलताएं हासिल कर
रहे हैं। पाकिस्तान, चीन जैसे
दुश्मन देश सीधे टकराने से बचते हैं। क्या ये सब विकास नहीं है? विकास नहीं है तो क्या है?’
धीरज
को यह सब कहते हुए मैं जितना सुन रहा था उससे कहीं ज़्यादा यह सोच रहा था कि ये
बकलोल चुप ना हुआ तो ऐसे ही सिर खाता रहेगा। इसको एकदम चुप कराने के लिए यह बहुत
जरूरी हो गया है कि इसको एकदम धो-पोंछ कर सुखा डालूं। मैंने यही सोच कर उसके चुप
होते ही कहा ‘लेकिन चीन, जापान के आगे कहां ठहरते हैं? निश्चित ही इसका जवाब हमारे, आपके पास, देश के किसी व्यक्ति के पास नहीं होगा। बंधुवर सच कहूं कि
हमने विकास किया नहीं है। विकास हो गया है। दुनिया के अर्थ-शास्त्री इस विकास को
चमत्कार या कुछ भी कहें। लेकिन मैं इसे ‘‘पगडंडी
विकास’’ कहता हूं।’
यह कहते ही
धीरज एकदम चौंक गया। अपनी जगह थोड़ा तन कर बैठते हुए उसने कहा ‘‘पगडंडी विकास’’! अरे भईया ये कौन सा विकास है? पहली बार सुन रहा हूं। मेरी तो समझ में
नहीं आ रहा है।’ धीरज ने हंसते
हुए यह बात कही। हंस मैं भी रहा था। इस पर वह फिर बोला- ‘बताइए भाई बताइए। ‘‘पगडंडी विकास’’ को हम भी जान लें ।’ मुझे लगा यह बकलोल अब ज़्यादा नहीं
बोलेगा, अब रही-सही कसर
पूरी कर दूं। मैंने कहा ठीक है। तो ध्यान से सुनिए ‘‘पगडंडी विकास’’ क्या
है?
पहले ये बताइए
कि गांव से आपका संबंध कितना है? उसने
कहा ’गांव से तो अब
मेरा कोई संबंध रहा नहीं। असल में मैं वहां की बिलो द बेल्ट राजनीति, आए दिन की समस्याओं से बहुत ऊब गया तो
खेती-बाड़ी सब बेच-बाच कर गांव को हमेशा के लिए जयराम कह आया हूं। फादर थे नहीं।
मां की भी यही इच्छा थी। उसे हमेशा यही डर सताए रहता था कि दुश्मन पट्टीदार कहीं
मेरी हत्या ना कर दें। इसी बीच एक हत्या गांव में हो भी गई तो फिर मां एकदम पीछे
पड़ गई। फिर आनन-फानन में बेच-बाच दी सारी खेती-बाड़ी।’
‘मतलब कि आप गांव में पल-बढ़े हैं। लंबे
समय तक वहां रहे हैं। इसलिए आपने पगडंडी देखी ही नहीं है बल्कि उस पर खूब चले भी
हैं। पगडंडी कैसे बनती है वह भी आप जानते हैं। वैसे आप अगर खुद बताते तो और अच्छा
था।’
‘नहीं आप ही बताइए। आप पगडंडी नहीं ‘‘पगडंडी विकास’’ की बात कर रहे हैं। जो मैं पहली बार सुन
रहा हूं। इसलिए आप ही बताइए। मुझे तो सिर्फ़ सुनना है।’
‘चलिए अच्छी बात है। देखिए मेरी नजर में
भारत का विकास ‘‘पगडंडी विकास’’ इस लिए है क्यों कि जैसे गांव-देहात या
कहीं भी किसी क्षेत्र में लोगों के किसी एक ही दिशा में आते-जाते रहने से उस पूरी
जगह जहां लोगों के पैर पड़ते हैं, वहां
से घास वगैरह गायब हो जाती है। साफ-सुथरी एक पट्टी सी बन जाती है। जैसे गंजे
व्यक्तियों के सिर पर से बीच से बाल गायब हो जाने से बीच में सफा-चट सिर नजर आता
है। यानी कि लोगों के चलने से एक रास्ता बन जाता है। घास गायब हो जाती है। तो यह
रास्ता किसी ने बनाया नहीं। यह लोगों के चलते रहने से विकसित हो गया। किसी ने
सोच-समझ कर सयास इसका विकास नहीं किया। बस हो गया। तो ठीक ऐसा ही है हमारे देश का
अधिकांश विकास। जो किया नहीं गया बस हो गया। लोग चलते रहे और देश भी चलता रहा।
इस ‘‘पगडंडी विकास’’ के कारण ही हम अंधेरे में ठंड से कांपते
ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं। और हमें यह तक नहीं पता कि वाकई ट्रेन की लोकेशन क्या
है? जापान, चीन में जितनी दूरी लोग ट्रेन से एक
घंटे में तय कर लेते हैं। हमें हमारी ट्रेनें उतनी दूर कम से कम पांच-छः घंटे में
पहुंचाती हैं। तो धीरज जी ‘‘पगडंडी
विकास’’ और किए गए
विकास में ये मूल फ़र्क़ है। अब कहिए क्या कहेंगे? मैंने सही कहा या गलत।’
मुंह में तंबाकू भरे धीरज हूंअहूं...अ कर हंसते हुए उठकर पिलर के पास गया।
पिलर के एक कोने पर पिच्च से थूक कर वापस आया। अपनी जगह बैठ कर बोला-
‘वाह विनायकजी बहुत खूब। आपकी पगडंडी
थ्योरी का भी जवाब नहीं। बड़े-बड़े अर्थ शास्त्रियों की थ्योरी इसके आगे पानी भर रही
हैं, तो मैं क्या
बोलूंगा? विकास किया गया
और विकास हो गया, इन दोनों के
बीच आपने ऐसी विभाजन रेखा खींची है कि सारे क्योश्चन खत्म हो गए हैं। हालांकि मैं
अपने एक गुरु की बात कभी नहीं भूलता कि उत्तर कितना भी सटीक हो, प्रश्न की संभावना कभी खत्म नहीं होती।’
‘ तो करिए प्रश्न।’ मैंने मन ही मन सोचा यार थोड़ा चुप क्यों
नहीं हो जाते। मैंने टाइम पास करने की सोची थी। तुम से झक लड़ाने या सिर खपाने की
नहीं। अब भी प्रश्न करने की संभावना तलाश रहा है। पता नहीं कितना प्रश्नानुकूल
प्राणी है। प्रश्न करने को कहते ही वह बोला ‘प्रश्न
की संभावना खत्म नहीं होती, मैंने
यह कहा। फिलहाल कोई प्रश्न है यह मैंने नहीं कहा।’ अपनी बात पूरी करते-करते ही उसने फिर तंबाकू का पाउच निकाल
लिया। मुझसे पूछा मैंने फिर मना कर दिया।
मन ही
मन सोचा चेन स्मोकर सुना था। ये तो चेन टोबेको ईटर लग रहा है। अभी थूक कर आया फिर
खाने जा रहा है। खाकर पाउच फिर जब जेब में रखने लगा तो मैंने उससे पूछ ही लिया ‘क्या आप मुंह में तंबाकू हमेशा दबाए
रहते हैं?’ तो उसने मुझे
कुछ आश्चर्य में डालते हुए कहा कि ‘मैं तो
सोते समय भी मुंह में दबाए रहता हूँ । ना लूं तो सो नहीं पाऊंगा।’ मैंने कहा ‘इन पैकेटों पर कैंसर पेशेंट की भयावह
फोटो रहती है। फिर भी आप लोग खाते रहते हैं। डर नहीं लगता कैंसर होने का। यह नहीं
सोचते कि कुछ हो गया तो परिवार को कौन देखेगा?’
मेरे
इतना कहते ही वह हंसा। बोला ‘आप भी
कैसी बातें करते हैं। ये बताइए कि हम लोग ट्रेन, बस वगैरह से हर जगह आते-जाते रहते है ना। जब कि हर साल
लाखों लोग एक्सीडेंट में मर जाते हैं। अपंग हो जाते हैं। परिवार तो तब भी दो राहे
पर आ जाता है। बिखर जाता है। फिर भी हम घर से निकलना बंद नहीं करते। इतना कोहरा
है। जर्नी के हिसाब से यह सबसे खतरनाक मौसम है। फिर भी देखिए हम लोग निकले हैं
कहीं ना कहीं जाने के लिए। तो जो होना होगा वह होगा। नहीं होना होगा नहीं होगा।’
बात
करने की उसकी टोन से मुझे लगा कि उसे मेरी बात बुरी लगी। दूसरे मैंने बेवजह इसे
फिर छेड़ दिया। फिर से सिर खाएगा। इसलिए बात खत्म करने की गरज से कहा ‘हां सही कह रहे हैं। बेवजह परेशान होते
हैं हम लोग कि ये हो जाएगा वो हो जाएगा।’ ये कह
कर मैं चुप हो गया। मगर मन में यह बात भी आ गई कि ऐसी सोच के चलते ही शायद पहले यह
कहा गया कि ‘चिलरे (चीलर)
के डर से कथरी नहीं छोड़ी जाती।’ लेकिन
इसका जवाब भी तो तभी के लोगों ने दिया कि ’दीदा
(आंख) फोड़ें अपने हाथ, नाव(नाम)
लगावें भवानी के।’ खुद कुंआ में कूद कर कहें कि यही होना
था। वाह री सोच। बचाव के कैसे-कैसे कुतर्क हैं।
मैंने
सोचा अच्छा होता यदि गवर्नमेंट इन चीजों का उत्पादन ही बंद करा दे। मैंने अपने
दिमाग को शांत करने की कोशिश की और उठ कर फिर उस महिला को देखने गया। मुझे इस बार
और शांति मिली कि वह आराम से सो रही थी। मैं वापस आकर बैठा ही था कि एनाउंसर की
आवाज़ फिर गूंजी, यात्री गण
कृपया ध्यान दें। मेरे कान खड़े हो गए। ध्यान से सुनने लगा कि कितनी देर में आ रही
है ट्रेन। मगर जो एनाउंस हुआ उससे मैंने खीझ कर सिर पीट लिया। ट्रेन लेट नहीं हुई
थी। कैंसिल कर दी गई थी। यह सुन कर प्लेटफॉर्म पर जो गिने-चुने यात्री बैठे थे ठंड
से सिकुड़े, उन सब में एक
हलचल सी उत्पन्न हो गई। धीरज उठकर फिर वहीं पिच्च से थूक कर आया। और मुझसे पूछा-
‘विनायक जी अब क्या किया जाए? ये तो अच्छा तमाशा हो गया।’
‘तमाशा क्या महा तमाशा हो गया। मुझे हर
हाल में पहुंचना है। समझ में नहीं आ रहा क्या करूं।’
‘पहुंचना मुझे भी है। चाहूं तो भी जर्नी
पोस्टफ़ोन नहीं कर पाऊंगा। क्यों कि अपनी आदत से परेशान हूं। घर से जब निकल देता हूं
तो जहां जाना होता है वहां फिर हर हाल में जाऊंगा। फिर चाहे आंधी आए या तुफान।
ट्रेन ना सही। बस से जाऊंगा। मगर सबेरे तक तो यहीं रुकना पड़ेगा। इस कोहरे में बाहर
कहीं कुछ भी मिलने वाला नहीं। घर में भी कोई ऐसा नहीं जिसे बुला सकूं। होता तो भी
मैं इस मौसम में बुलाता नहीं। इस लिए रात तो यहीं काटनी है।’
मैंने
भी उससे सहमत होते हुए कहा- ‘हां।
काटनी तो यहीं पड़ेगी। रात क्या सवेरे आठ-नौ बजे से पहले कोई साधन मिलने वाला नहीं।
इतना लंबा टाइम काटना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। इन सालों ने ये भी नहीं बताया कि
ट्रेन कैंसिल क्यों की?’
‘अरे बताएंगे क्या? अंडरस्टुड है। जीरो विजिविलिटी है। यही
बताएंगे।’
‘फिर भी
धीरज जी बताना तो चाहिए ना, ये तो
हम अनुमान लगा रहे हैं। हमारे यहां कोहरे के कारण ट्रेनें ठप्प होती हैं। ज़िंदगी
ठप्प होती है। ये सब जानते हैं। कोई नई बात नहीं है। रीजन बता देने से कुछ बिगड़
नहीं जाएगा।’
मैंने जूते पहने-पहने पैर उठाकर बेंच पर रख लिए।
उन्हें उतारने की हिम्मत नहीं हुई। पैर जैसे गले जा रहे थे। वूलेन मोजे, जूते पहने थे। लेकिन लग रहा था जैसे कुछ
पहना ही नहीं है। लोई को पूरी तरह लपेट लिया था। केवल आंखें खुली थीं। धीरज ने
कंबल निकाल कर ओढ़ लिया था। उसने अपने सूटकेस,
बैग सब बेंच के सामने सटा कर रख लिए थे। पैर उन्हीं पर फैला लिया था। उसने
जूते उतार दिए थे। मैंने भी अपना सामान वैसे ही रखा था लेकिन लोई में सिकुड़ा गठरी
बना बैठा था। मैं कांप रहा था। धीरज मेरी स्थिति कुछ ही देर में समझ गया। उसने कहा
‘विनायक जी आप कांप रहे हैं। कंबल, शॉल सब तो आपने उसे दे दिया। अब क्या
करेंगे?’
मैंने
कहा- ‘कुछ खास दिक्कत
नहीं है। इस लोई में रात कट ही जाएगी। मैं तो सोच रहा हूं कि मैं इतने कपड़े पहन कर
भी ठंड महसूस कर रहा हूं। उस महिला का क्या हाल होगा?’
‘आप तो बड़े दयालु लगते हैं। अपनी तकलीफ
से ज़्यादा एक अनजान महिला, एक
भिखारिन की चिंता ज़्यादा है।’
‘नहीं, चिंता वाली कोई बात नहीं है। मैं तो बस
उसकी तकलीफ का अंदाजा लगाने का प्रयास कर रहा था।’मैं हल्के से हंसते हुए बोला-
‘विनायक जी आज के जमाने में इतनी दयालुता
ऐसी सोच का कोई मतलब नहीं है। लोग इसे बेवकूफी समझते हैं। और यह भी कि ऐसे लोगों
का लोग मिस यूज करते हैं। उनका फायदा उठाते हैं। इसलिए हमें प्रैक्टिकल होना
चाहिए।’
‘अब चलिए जो भी है। मैं समझता हूं कि मैं
प्रैक्टिकल हूं। इससे पहले यह कि जो आदत है,
जो नेचर है मेरा वह तो मैं चेंज नहीं कर पाऊंगा।’
हमारी
बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि फिर एनाउंसमेंट हुआ। आने वाली तीन और ट्रेनों के
कैंसिल होने की सूचना दी गई। जिसे सुन कर मैंने धीरज से कहा- ‘क्या बात है, एक के बाद एक ट्रेनें कैंसिल हो रही
हैं। ऐसे में लेट तो खूब होती हैं। लेकिन इस तरह एक साथ कैंसिल नहीं।’ धीरज ने कहा-‘ठीक है, आप सब सामान देखिए। मैं इन्क्वारी से पता करके आता हूं।
कोहरे के कारण ट्रेनें लेट हो रही हैं या कोई और बात है।’
लौट कर
धीरज ने बताया आगे एक स्टेशन के करीब एक एक्स्प्रेस ट्रेन जबरदस्त हादसे का शिकार
हो गई है। बहुत से यात्रियों की डेथ हो गई है। पूरा ट्रैक जाम है। क्षतिग्रस्त है।
इसीलिए ट्रेनें कैंसिल की जा रही हैं। यह बताने के साथ ही उसने अपने मोबाइल पर एक
न्यूज चैनल का लाइव प्रसारण ऑन कर दिया। चैनल पर वही न्यूज चल रही थी। हर तरफ
उसमें हा-हा कार मचा दिख रहा था। एंकर, रिपोर्टर
एक्सीडेंट के लिए कयास के आधार तरह-तरह के कारण बता रहे थे। जिसमें सिग्नल को
कोहरे के कारण ना देख पाने, ठंड के
कारण पटरियों में क्रैक, फिश
प्लेट, मेंटिनेंस की
कमी से लेकर देशद्रोही शक्तियों द्वारा ट्रैक को नुकसान पहुंचाने आदि तक की बातें
थीं।
लोगों
की चीख-पुकार, खून-खच्चर
मुझसे ना देखा गया तो मैं धीरज के पास से अपनी जगह चला आया। फिर क्रोध में बोला ‘कितना बढ़िया विकास हुआ है अपने देश का।
सबसे सुरक्षित कही जाने वाली ट्रेन जर्नी भी सुरक्षित नहीं है। बराबरी करने चले
हैं चीन, जापान की।
जापान में तो पिछले पचास साल में एक भी ट्रेन दुर्घटना नहीं हुई। जय हो ‘‘पगडंडी विकास’’ की।’
यह कह कर मैं फिर से खुद को लोई में लपेट कर बैठ गया, सुबह होने का इंतजार करते हुए।
धीरज ने भी चैनल बंद कर दिया। फिर से मुंह में
तंबाकू दबा ली। इंक्वायरी पर जाते समय पिच्च से थूक कर गया था। कुछ देर वह चुप
बैठा रहा। फिर मोबाइल ऑन कर अपने पैरों पर उसे टिका दिया। कंबल ओढ़े ही था। मोबाइल
म्यूट मोड पर था। कुछ देर उसे ऐसे देख कर मैंने पूछ ही लिया- ‘क्या देख रहे हैं?’ इस पर उसने गहरी सांस लेकर छोड़ते हुए
कहा- ‘टेंशन फ्री
चैनल देख रहा हूं।’ जब वह बोल रहा
था तो उसके मुंह से ढेर सारी भाप निकल रही थी। मेरे भी।
मैंने कहा ये ‘कौन सा चैनल है जो टेंशन फ्री कर देता है।’ ‘ऐसे बहुत चैनल हैं। ये देखिए।’ उसने मोबाइल थोड़ा मेरी ओर घुमा दिया। एक
नजर डालते ही मैंने कहा ‘ओह, तो ये है टेंशन फ्री चैनल।’ धीरज पॉर्न साइट देख रहा था। उसने कहा ‘विनायक जी कुछ भी कहें, कम से कम ये साइट्स मेरा टेंशन तो दूर
कर ही देती हैं। इसीलिए इन साइट्स को मैं टेंशन फ्री चैनल कहता हूं।’
मैंने
कहा ‘पता नहीं आपने
सही कहा या गलत। मेरी समझ में ये नहीं आता कि ये टेंशन फ्री करते हैं या टेंशन
फुल। जो चीज मुझे समझ में नहीं आती उसकी तरफ मैं देखता भी नहीं। आप ये देखकर टेंशन
फ्री होते हैं तो होइए। मैं तो आराम करूंगा।’
कह कर मैंने अपनी टोपी आंखों के करीब खींच ली। मन में चलता रहा कि कैसे जल्दी घर पहुंचूं। शादी में टाइम से पहुंच
पाऊंगा कि नहीं। ऐसे मौसम में सवेरे दस-ग्यारह बजे से पहले बस भी नहीं मिल पाएगी।
रात भर जागना अलग है। नहीं कोई सामान ही लेकर खिसक गया तो और मुश्किल। मगर मेरी
सारी कोशिश बेकार गई। पता नहीं कब नींद आ गई। मैं वैसे ही बैठे-बैठे सो गया।
नींद तब खुली
जब एक चाय वाला चाय-चाय करता सामने से निकल गया। टाइम देखा तो सुबह के सात बज रहे
थे। धीरज पर नजर डाली तो वह जागता मिला। चाय पी रहा था। उसी ने चाय वाले को बुलाया
था। नजर मिलते ही बोला ‘विनायक
जी आप तो खूब सोए, बहुत थके हुए
लग रहे थे।’ मैंने कहा हां ‘पता नहीं कब नींद आ गई।’ तभी मेरा ध्यान लोई पर गया। यह देख कर
कि मेरी लोई के ऊपर एक और लोई पड़ी है, मैंने
उसे उठाया कुछ समझता कि तभी धीरज बोला-
‘मैंने
ही ओढ़ा दिया था। देखा कि आप सोते हुए भी कांप रहे हैं, तो मैंने सोचा कैसे व्यक्ति हैं, दूसरे को आराम देने के लिए खुद को तकलीफ
में क्या बल्कि अपनी जान ही खतरे में डाल रखी है। ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ करने का
कर्त्तव्य तो मेरा भी बनता है। लेकिन भाई मैं आपकी तरह महान नहीं हूं, इसलिए कंबल खुद ओढे़ रहा कि मुझे ठंड ना
लगे। लोई खाली थी तो वह आपको ओढ़ा दी। फिर कुछ देर बाद आपका कांपना बंद हुआ। आप
गहरी नींद सो गए।’ इसी बीच धीरज
ने चाय वाले को इशारा कर मुझे भी चाय दिलवाई। मैंने उसे चाय, लोई दोनों के लिए धन्यवाद कहा। बोला- ‘भाई आपने तो परिवार के सदस्य की तरह
मेरा ध्यान रखा। मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा।’
गरम-गरम
चाय बड़ी राहत दे रही थी। प्लेटफॉर्म पर अब कुछ ज़्यादा लोगों की आवा-जाही भी शुरू
हो गई थी। तभी मेरा ध्यान उस महिला की तरफ फिर गया कि देखूं उसका क्या हाल है? उठी कि नहीं। मगर उधर देखते ही मुझे तेज़
झटका लगा। उसे मैंने जो कंबल, शॉल
ओढ़ाई थी वह सब गायब थे। महिला उसी तरह अब भी पड़ी थी। खाने का जो सामान मैंने उसके
सिराहने रखा था वह भी गायब था।
मैं जल्दी से
उठ कर उसके पास गया। करीब से उसे देखा तो मेरे होश उड़ गए। महिला के चेहरे पर
मक्खियां लग रही थीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि उस बेसहारा, बेचारी के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं।
शायद रात में उसी वक्त उड़ गए थे जब मैं उसे कंबल वगैरह ओढ़ा कर कुछ देर बाद यह समझ
बैठा था कि अब वह ठंड से राहत मिलने के बाद आराम से सो रही है।
मुझे
बहुत दुख हुआ। अपने को दोषी मानते हुए मैंने सोचा कि जब पहली बार इसे ठंड से
कांपते हुए देखा था तभी इसे हॉस्पिटल भिजवाने का प्रयास करना चाहिए था। इसे
ट्रीटमेंट मिल जाता तो यह बेचारी बेमौत ना मरती। साथ ही मुझे बेहद आश्चर्य और
गुस्सा आ रही थी कि इंसानियत क्या दुनिया से बिल्कुल खत्म हो गई है कि एक मरते हुए
प्राणी के तन पर से भी कपड़ा उठा ले गए।
मैं मूर्तिवत
खड़ा एकटक उसके चेहरे को देख रहा था। मुझे बड़ी आत्मग्लानि महसूस हो रही थी। कि
बेचारी मेरी नादानी से मर गई। मैं इतना मूर्ख हूं कि कब मुझे क्या करना चाहिए यह
भी तय नहीं कर पाता। तभी धीरज मेरी बगल में आकर खड़ा हो गया। उसने उसे देखते ही
कहा-
‘अरे ये
तो मर गई है।’
‘हां... लेकिन उस आदमी को क्या कहूं जो
इसका कंबल, शॉल भी उठा ले
गया। कैसे-कैसे निष्ठुर लोग हैं इस दुनिया में।’
‘निष्ठुर क्या, वह भी इसी के जैसा रहा होगा। उसे भी
जरूरत रही होगी, तो ले गया।
चलिए आइए। पुलिस आ गई तो दुनिया भर की पूछ-ताछ हम लोगों से करेगी।’
मैंने सोचा इसे बचा तो नहीं सका लेकिन कम से कम
इसके अंतिम संस्कार का तो कुछ इंतजाम कर ही दूं। मैंने धीरज से कहा ‘पुलिस क्या आएगी। अभी तो कहीं ठंड में
दुबकी सो रही होगी।’ फिर मैंने जी.
आर. पी. को सूचना दी। धीरज का मन नहीं था कि मैं यह सब करूं। जी.आर.पी. ने मेरा
मोबाइल नंबर, नाम सब नोट कर
लिया।
उन्हीं से पता
चला कि कई महिने पहले एक ट्रेन से इसे लेकर कुछ लोग उतरे। फिर इसे यहीं छोड़ कर चले
गए। यह कुछ विक्षिप्त सी थी। कुछ बता नहीं पा रही थी। पूछ-ताछ करने पर बस रोती थी।
बहुत कोशिश की गई, लेकिन कुछ पता
नहीं चला। फिर इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया। यहीं मांगती-खाती पड़ी रहती थी। उसकी
व्यथा-कथा सुन कर मेरा हृदय रो पड़ा। बड़ा क्रोध आया उसके परिवार वालों पर कि कैसे
कमीने लोग थे जो ऐसी हालत में बेचारी को बोझ समझ कर यहां लावारिस छोड़ गए।
बड़े भारी मन से मैं धीरज के साथ स्टेशन से बाहर
आ गया। उसके ढेर सारे सामान को बाहर लाने में मैंने पूरी मदद की थी। उसने अपनी आदत
के विपरीत अपनी यात्रा कैंसिल कर दी थी। और घर चला गया था। हम दोनों ने एक दूसरे
का मोबाइल नंबर ले लिया था। हम दोस्ती की राह पर चल पड़े थे। मैं बस स्टेशन की तरफ
चल दिया कि कुछ तो साधन मिले। जिससे मैं घर अपने परिवार के पास पहुंचूं। रात में
कई घंटे सो लेने से मैं राहत महसूस कर रहा था। धीरज की तरह पस्त नहीं था।
बड़ी मसक्कत के
बाद मुझे ग्यारह बजे प्रयाग के लिए बस मिली। वहीं से मुझे किशनगंज के लिए ट्रेन
मिलनी थी। बस स्टेशन से बस जब बाहर निकलने लगी तो मेरी नजर स्टेशन में यात्रियों
के बैठने के लिए बरामदे में बने सीमेंटेड बेंच पर चली गई। जो कंबल मैंने महिला को
ओढ़ाया था वही ओढ़े एक अधेड़ सा व्यक्ति बैठा था। उसके ही बगल में उसी की हमउम्र एक
महिला बैठी थी जिसने वही शॉल ओढ़ रखी थी जो मैंने रेलवे स्टेशन वाली महिला को ओढ़ाया
था। मगर इस महिला को मैं इस मामले में अभागी नहीं कह सकता था। क्योंकि उसका पति या
जो भी हो, कोई तो था जो
उसके साथ था।
बस
रेंगती हुई और आगे बढ़ रही थी। और मेरी नजर बस की खिड़की से बराबर उन दोनों पर लगी
थी। धूल से गंदे उनके चेहरे, आदमी
की धूल में सनी बरसों से ना बनाई गई उलझी हुई करीब-करीब पूरी ही पक चुकी दाढ़ी। वह
दोनों भी भीख से अपनी ज़िन्दगी गुजर-बसर
करने वाले लग रहे थे। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यह दोनों उस महिला के मरने के
बाद कपड़े उठा लाए थे या उसके जीते जी, जिसके
कारण ठंड से वह मर गई। उनको मैं ओझल होने तक देखता रहा। बस अब तक स्टेशन से निकल
कर मेन रोड पर आ चुकी थी। तभी मोबाइल पर पत्नी का फ़ोन आ गया। सवेरे आठ बजे जब उसका
फ़ोन आया था तब मैंने उसे यहां जो कुछ हुआ वह नहीं बताया था। बस इतना कहा था कि
टाइम से कुछ घंटे देर से पहुंचूंगा ।
फ़ोन रिसीव करते
ही वह सुबुकते हुए बोली। ‘बड़ा
गजब हो गया।’ फिर उसने
विस्तार से पूरी कहानी बता दी। कि मेरे साले की जिस लड़की से शादी होनी थी उसके
चाचा अपने तीन बच्चों, पत्नी
के साथ आ रहे थे। जिस ट्रेन का एक्सीडेंट हुआ उसमें उनकी परिवार सहित डेथ हो गई।
लड़की वालों के यहां हा-हा कार मचा हुआ है। उसके परिवार के लोग डेड बॉडीज के लिए
रवाना हो चुके हैं। शादी का होना तो अब मुश्किल ही लग रहा है। उसके परिवार वालों
को जब फ़ोन किया गया तभी उन्होंने खुद ही कह दिया कि इस डेट में तो शादी नहीं होगी।
सारे रिश्तेदारों को फ़ोन कर करके मना किया जा रहा है। पत्नी को मैंने शांत रहने को
कहा। वह उस समय अपने मायके पहुंच चुकी थी। मैंने सास-ससुर, साले से बात की। उन्हें धैर्य रखने को
कहा।
पत्नी
को बता दिया कि अब इस समय मेरे आने का कोई मतलब नहीं रह गया है। इसलिए मैं बाद में
आऊंगा। मैंने धीरज की तरह अपनी यात्रा कैंसिल कर दी। बस स्टेशन से करीब दो-तीन
किलो मीटर आगे निकल चुकी थी। मैं उसे वहीं रुकवा कर उतर लिया। और वापस घर को चल
दिया। रास्ते भर यही सोचता रहा कि इन सत्तर सालों में देश ने ना जापान, चीन से आगे विकास किया होता कम से कम
उसके करीब तो होते। और तब देशवासी ऐसी दुर्घटनाओं, ठंड, गरीबी, भूख,
गर्मी, से यूं ही
बेमौत में ना मर रहे होते। ऐसे परिवार के परिवार तबाह बर्बाद ना हो रहे होते। हे
ईश्वर इस देश का भाग्य कब बदलोगे? देश के
इन कर्ता-धर्ताओं से तो उम्मीद रही नहीं। अब तुम्हीं कुछ क़दम क्यों नहीं उठाते? मेरी यात्रा की तरह देश का विकास क्यों
कैंसिल कर रखा है। हे ईश्वर, हे
ईश्वर कुछ तो बोलो।
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पता - प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६एम /२१२ सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२, ९९१९००२०९६
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