सोमवार, 31 दिसंबर 2018

पुस्तक समीक्षा:नक्सलबाड़ी की चिंगारी:प्रदीप श्रीवास्तव


समीक्ष्य पुस्तक:
बेनीमाधो तिवारी की पतोह
लेखक: मधुकर सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ,
18, इंस्टीट्यूशनल एरिया,
लोदी रोड, नई दिल्ली-110003
मूल्य: 140 रुपये

                                           नक्सलबाड़ी की चिंगारी
                                               -प्रदीप श्रीवास्तव

शोषण, अन्याय, रूढ़िवाद, सामंतवाद के खिलाफ साहित्यकारों की क़लम बराबर चलती ही रहती है। नक्सलबाड़ी में शोषण के खिलाफ दशकों पहले जनसामान्य का फूटा आक्रोश नक्सल आंदोलन के रूप में विराट रूप ले चुका है। लेकिन आज कहा यह भी जाता है कि शोषण के खिलाफ उठी यह आवाज़ आज अपना रास्ता भटक गई है। इस आंदोलन के सूत्रधारों में गिने जाने वालों में से एक कानू सान्याल जिन्होंने पूरा जीवन इस आंदोलन को धार देने में झोंक दिया था और आखिरी समय तक झोपड़ी में फटेहाल रहे, उन्होंने आखिर समय यह स्वीकार किया था कि आंदोलन अपने रास्ते पर नहीं है। दरअसल कानू आंदोलन के हिंसा की पराकाष्ठा तक पहुंच जाने से आक्रांत थे। नक्सल आंदोलन के बीज क्यों पड़े, इसका उद्देश्य क्या था और यह किस रास्ते पर चल पड़ा है इसका बहुत ही विश्लेषणात्मक विवेचन महाश्वेता देवी के साहित्य में मिलता है। आलोचक यहां तक मानते हैं कि भोजपुरी क्षेत्र में इसके प्रभाव का जितना जीवंत चित्रण उन्होंने किया है उतना वे साहित्यकार भी नहीं कर पाएं हैं जो वहीं के हैं, वहीं के होकर रहे। समीक्ष्य पुस्तक बेनीमाधव तिवारी की पतोहके लेखक मधुकर सिंह जैसे आलोचकों के इस निष्कर्ष को चुनौती देते हुए से लगते हैं। उन्होंने अपने इस दसवें उपन्यास में भोजपुरी क्षेत्र में नक्सलाइट मूवमेंट के जो सकारात्मक प्रभाव देखे उनको ही आधार बनाकर एक प्रभावशाली रचना की। जिसमें नक्सलाइट मूवमेंट के नकारात्मक पक्षों की तरफ नज़र डालने के बजाय इसका समाज पर सकारात्मक प्रभाव क्या पड़ा उन्होंने केवल इसी पर अपनी नज़र केंद्रित रखी। मधुकर यह स्थापित करना चाहते हैं कि नक्सलाइट मूवमेंट ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर न सही पर किसी हद तक रुढ़िवादिता, जातियों की बेड़ी को बहुत कमज़ोर करने का काम किया है। साथ ही शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में लामबंद होने की सोच, कूवत पैदा की है। उन्होंने पात्रों की कोई भीड़ इकट्ठा न करके गिने चुने पात्र लिए हैं और उन्हीं के कंधों पर रख कर अपनी बात पूरी की है। ठीक वैसे ही जैसे अवधी के उपन्यासकार भारतेंदू मिश्र ने अपने उपन्यास नई रोसनीमें किया है कि जन-आक्रोश को रेखांकित करने के लिए नायक निरहू, शोषक वर्ग के प्रतीक ठाकुर राम बकस सिंह, पंडित, रजोल जैसे कुछ पात्रों के जरिए बेहद सशक्त उपन्यास लिखा। उसकी पृष्ठभूमि काफी हद तक समीक्ष्य उपन्यास सी है। वह अवध क्षेत्र में घटता है तो यह भोजपुरी में। समीक्ष्य उपन्यास नायिका सुनंदा और उसके श्वसुर बेनीमाधव तिवारी के ईर्दगिर्द ही चलता है। बाकी पात्र भुनेसर, हरिहर यादव, हरिकिशुनी, रंगीला सिंह इन दोनों से नत्थी हुए से चलते हैं।
बेनीमाधव रिटायरमेंट के बाद शहर से अपने गांव चले आते हैं मय लावलश्कर अपने कई सपनों के साथ रहने के लिए। लेकिन बदले हालात उन्हें हिलाकर रख देते हैं। इस स्थिति में अपना अहम स्थान बनाने और अपने दुश्मन पर भारी पड़ने के चक्कर में गांव की राजनीति में कूदने का मन बनाते हैं। यहीं से उनकी दिक्कतें शुरू होती हैं और साथ ही उनकी कट्टर ब्राह्मणवादी सोच, श्रेष्ठतम होने की सोच भी दरकनी शुरू हो जाती है। वह रंगीला सिंह के घोर अनैतिक कार्यों से भी आक्रांत हो गांव को उससे मुक्ति दिलाने की ठान बैठते हैं। सपनों को पूरा करने के लिए वह जब साधन ढूंढ़ते हैं तो उनकी नज़र हर तरफ से घूम फिर कर अपनी विधवा बहू पर टिकती है। जो गांव में अकेली स्नातक है और अब अकेली जीवन काट रही थी, साथ के लिए उसका भाई आया हुआ था। बेनीमाधव योजनानुसार बहू को आंगनबाड़ी में प्रवेश कराते हैं तो अचानक अपने को फंसा हुआ महसूस करने लगते हैं कि उनकी बहू ब्राह्मण वर्ग की स्थापित मूल्य-मान्यताओं को दरकिनार कर ऐसे क़दम उठा सकती है जो उसकी नाक कटवा देंगे। लेकिन क़दम आगे बढ़ा चुके बेनी के पास लौटने का रास्ता नहीं बचता। अंततः हालात बहू को मुखिया बना देते हैं। इस काम में नक्सलाइट मूवमेंट से जुड़े लोग, प्रगतिवादी सोच के लोग और गांव का पूरा शोषित वर्ग उसके साथ होता है।
असमंजस में फंसे बेनी की बहू सुनंदा अपने तर्कों से यह समझाने में सफल होती है कि जड़वादी सोच से बाहर आकर बदलते परिवेश को स्वीकारने, रूढ़ियों, जातिगत बंधनों को तोड़ने में ही समझदारी है, भलाई है। और जब बेनी की काया पलट होती है तो वह पूरी तरह से बहू, शोषितों के साथ संबल बन खड़े हो जाते हैं। इतना ही नहीं तहेदिल से विधवा बहू का अंतरजातीय पुनर्विवाह स्वीकार कर उसे आशीर्वाद देते हैं। सामंतवादी ताकतें बदलाव की इस बयार को बर्दाश्त नहीं कर पातीं और बेनी की हत्या कर देते हैं। मगर बदलाव की बयार रुकने के बजाय तेज़ हो जाती है और सामंतवादी ताकतों को नेस्तनाबूद कर देती है। उपन्यास में दर्ज़ यह सारी बातें इतने प्रभावशाली ढंग से दर्ज़ हैं कि पढ़ते हुए लगता है जैसे किसी सही घटना का ब्यौरा पढ़ रहे हैं। इस पूरे उपन्यास की चर्चा में यदि गोरख पांडे के गीत और एक कैरेक्टर जो कि मैना है उसकी चर्चा न हो तो गलत होगा। लेखक ने जहां गोरख पांडे के गीतों का प्रशंसनीय प्रयोग किया है वहीं मैना कई जगह हास्यास्पद लगने लगती है। पक्षी होकर जब वह रंगीला सिंह जैसे दुर्दांत बंदूकधारी को धराशायी कर देती है तो दृश्य बड़ा हास्यास्पद लगता है, किसी मुंबइया फ़िल्म की याद दिला देता है। उपन्यास शुरू से आखिर तक बेहद दिलचस्प होता यदि उसके समापन में लेखक ने जल्दबाजी न की होती। पता नहीं जल्दी का दबाव प्रकाशक का था या किसी और का। मगर इन सबके बावजूद एक आम पाठक के लिए बेहद दिलचस्प है यह कृति। साथ ही मधुकर सिंह की इस के लिए भी भरपूर प्रशंसा करनी होगी कि आज जब साहित्य में गांव, खलिहान, दालान, उपले, रहट, पंच परमेश्वर, चौपाल, गांववासी, गंवई माटी विस्मृत होते जा रहे हैं ऐसे में मधुकर ने उसे ही केंद्र में लाने की कोशिश की। यह जरूरी है क्योंकि लाख प्रगति और शहरों की ओर पलायन के बाद भी मुख्य भारत गांव में ही बसता है। यदि उसकी आवाज़ अनसुनी की जाएगी तो नक्सलबाड़ी की चिंगारी और फैलती ही जाएगी।                                                                                                                       
 
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पुस्तक समीक्षा:महा पुरुष की महागाथा:प्रदीप श्रीवास्तव

समीक्ष्य पुस्तक: पूत अनोखो जायो
लेखक: नरेंद्र कोहली
प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड,
जे-40, जोरबाग लेन, नई दिल्ली-110003
मूल्य: रुपए 295
                                              महापुरुष की महागाथा
                                                 -प्रदीप श्रीवास्तव

साहित्य समाज को समृद्ध बनाता है, सुसंस्कृत बनाता है, साहित्य चेतना का निर्माण करता है, आशाओं आकांक्षाओं को प्रेरित करता है, फंतासी के माध्यम से हमें यथार्थ के प्रति प्रेरित करता है।नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार मारियो वार्गास लोसा ने कुछ वर्ष पहले साहित्य की अहमियत रेखांकित करते हुए जब यह कहा तो यह पश्चिम के बहुसंख्य साहित्यकारों की उस घोषणा को नकारने जैसा लगा कि दुनिया में साहित्य, कला की मौत का वक़्त आ गया है।मारियो का मानना है कि साहित्य के बिना समाज समाज ही नहीं रहेगा। भारत में आज के सिरमौर कथा शिल्पी नरेंद्र कोहली पिछले पांच दशक से विपुल साहित्य सृजन करते हुए मानो इस सिद्धांत को पहले से ही प्रतिपादित करते आ रहे हैं। आज जब यह कहा जा रहा है कि अच्छा उपन्यास वह जो छोटा हो इसके उलट वह सामान्यतः छह -सात सौ पृष्ठों का उपन्यास लिखते हैं। सुखद यह है कि यह पाठकों के बीच अपनी एक खास पहचान बनाने में सफल भी होते हैं। उनका आठ खंडों में लिखा महासमरउपन्यास संभवतः विश्व का सबसे बड़ा उपन्यास कहे जाने वाले टालस्टॉय के वार एंड पीसके बाद सबसे बड़ा है। उनका समीक्ष्य उपन्यास पूत अनोखो जायोभी छह सौ छप्पन  पृष्ठों का एक बड़ा उपन्यास है। यह स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित है। ऐतिहासिक पात्रों को लेकर नए संदर्भों में एक सर्वथा नई और विराट रचना करने की उनकी सिद्धहस्तता इस रचना में भी और मुखर हुई है।
स्वामी विवेकानंद के बचपन से लेकर सन् 1893 में शिकागो, अमेरिका में ऐतिहासिक विश्व-धर्म संसद तक की उनकी यात्रा का नरेंद्र कोहली ने ऐसा विशद वर्णन किया है कि पाठक अपने महान पूर्वज की देशभक्ति, अपने देश को पुनः विश्व सिरमौर बनाने, उनके हृदय में लहराते करुणा के सागर को देख कर चमत्कृत हो उठेगा। उनका लक्ष्य के प्रति अदम्य इच्छाशक्ति के साथ बढ़ने का जुनून जहां पाठक इस आख्यान में पाएंगे वहीं स्वामी विवेकानंद के जीवन के बारे में कई अनछुए पहलुओं का भी दर्शन करेंगे। जैसे वह अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के ऐसे आदर्श शिष्य हैं जिन्होंने अपने पिता के असमय देहांत के बाद परिवार की परवरिश से भी ज़्यादा देश को आज़ाद कराने की बात को अहमियत दी, परिवार के प्रति जितनी चिंता थी उससे असंख्य गुना अधिक वह देश की आज़ादी के लिए कटिबद्ध थे।
युवावस्था में ही संन्यास ग्रहण करने के बाद अन्य बहुत से संन्यासियों की तरह दीन-दुनिया त्यागने की नहीं, अपने देशवासियों को, अपनी संस्कृति, अपने ज्ञान को जानने, उसकी अहमियत पहचानने और अपने देश को आजाद कराने के लिए प्राण प्रण से तैयार रहने के लिए प्रेरित करना अपना मूल कर्तव्य समझा। अंग्रेजों के खिलाफ तत्कालीन जनमानस को अज्ञानता की निद्रा से जगाने, शिकागो में विश्व समुदाय के सामने देश की वास्तविक और उज्ज्वल छवि को स्थापित करने का जैसा अप्रतिम कार्य उन्होंने किया उसका उतना ही अप्रतिम वर्णन इस उपन्यास में है। ऐसा श्रेष्ठ चित्रण आज कम ही देखने को मिलता है। ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर लिखे जाने वाले उपन्यासों के साथ अकसर उपन्यास से ज़्यादा उसके  दस्तावेज बन जाने का भय रहता है। लेकिन नरेंद्र कोहली की अद्भुत लेखन क्षमता के सामने यह सारी बातें बेमानी हो जाती हैं। वर्णन इतना रोचक है कि हर पन्ना अगले पन्ने को पढ़ने के लिए व्यग्र बना देता है। आमजन की सहज सरल भाषा में छोटे-छोटे वाक्य रोचकता को बढ़ाते हैं। कई जगह कुछ क्लिष्ट शब्द भी प्रयोग हुए हैं लेकिन इस कुशलता के साथ कि सामान्य पाठक भी आशय आसानी से समझ जाए। उदाहरण दृष्टव्य है पवित्र हृदय पुरुष धन्य हैं, क्योंकि आत्मा स्वयं पवित्र है। अपवित्र हो भी कैसे सकती है। ईश्वर से ही उसका आविर्भाव हुआ है। वह ईश्वर प्रसूत है। बाईबिल के शब्दों में वह ईश्वर का निःश्वास है। कुरान की भाषा में वह ईश्वर की आत्मास्वरूप है। ईश्वरात्मा कभी अपवित्र हो ही नहीं सकती है। किंतु दुर्भाग्य से हमारे शुभाशुभ कार्यों के कारण वह मानो सदियों की मैल, सैकड़ों वर्षों की अशुद्धि और धूल से आवृत है।यह उपन्यासांश एक साथ दो बातें स्पष्ट कर रहा है, एक भाषा पर लेखक की अद्भुत पकड़, दूसरी उसका विशद अध्ययन। नरेंद्र ने पांच दशकों में जो विपुल साहित्य सृजित किया है वह आदि ग्रंथों वेदों से लेकर सारे पौराणिक आख्यानों और अन्य सारे धर्मों के विराट अध्ययन के बिना संभव ही नहीं है। उनकी रचनाओं में हिंदू, सिख, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी सहित सारे धर्मों का प्रासंगिक ज़िक्र मिलता है। लेखन में ऐसी व्यापक दृष्टि एक तपस्वी बन कर ही पाई जा सकती है। नरेंद्र यह तपस्या पचास वर्षों से कर रहे हैं ,कोई और बाधा न हो इसके लिए नौकरी भी त्याग दी। मगर यहीं एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि देश-समाज के लिए जो इतनी तपस्या कर रहा है उसे प्रतिफल क्या मिल रहा है। पाठकों के बीच वह जैसे हाथों-हाथ लिए जाते हैं, क्या समालोचक और पुरस्कृत करने वाली संस्थाएं भी वही दृष्टिकोण अपनाती हैं? महाकाव्यात्मक उपन्यास के प्रणेता कहे जाने वाले नरेंद्र को शलाका और अट्टहास आदि जैसे सम्मान ही दिए जा सके हैं। दरअसल यह एक ऐसी वैश्विक समस्या है जिसका समाधान न जाने कब होगा कि हम साहित्य शिल्पियों को समय पर सम्मानित करने की परंपरा को पुख्ता कर पाएं। यह स्थिति लेखकों को पीड़ित करती है जो समय-समय पर सामने भी आती है। प्रसंगवश कुछ नाम दर्ज करना जरूरी है जैसे 1909 की नोबेल विजेता सेलमा लेगरलॉफ, 2003 के जे. एम. कोट्जी, 2006 के ओरहान पामुक, 2010 के मारियो वार्गास ने पुरस्कार प्राप्त करते समय अपनी यह पीड़ा दर्ज कराई थी। यह समस्या खत्म होनी ही चाहिए। नरेंद्र ही नहीं ऐसे हर साहित्य शिल्पी की ओर दृष्टि जानी ही चाहिए। समीक्ष्य उपन्यास की उत्कृष्टता शायद इस ओर भी इंगित कर रही है।
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सोमवार, 24 दिसंबर 2018

कहानी:नक्सली राजा का बाजा :प्रदीप श्रीवास्तव

                                 नक्सली राजा का बाजा
                                  - प्रदीप श्रीवास्तव  

भोजूवीर इतना चीख-चिल्ला क्यों रहे हो? अपनी बात आराम से बैठ कर भी कह सकते हो। मैंने तुम्हारी बात कभी सुनी ना हो, तुम्हें कभी कोई इम्पॉर्टेंस ना दी हो तब तो तुम्हारा यह चीखना-चिल्लाना समझ में आता ।
नहीं, नेताजी मैं चीख-चिल्ला नहीं रहा हूं, आप मेरी बात समझने की कोशिश कीजिए।
बैठो, पहले बैठो कुछ देर शांति से फिर बताओ। आज मैं तुम्हारी हर बात सुनने के बाद ही कोई दूसरा काम करूंगा।
नेताजी के कहने पर भोजू उनके सामने पड़ी बड़ी सी मेज के दूसरी तरफ रखी कई कुर्सिओं में से ठीक उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। इसी बीच नेताजी ने फ़ोन करके चाय-पानी के लिए कह दिया। फिर भोजूवीर की तरफ मुखातिब हो कर बोले-
देखो भोजू, अभी हमें सारा ध्यान इस बात पर देना है कि चुनाव करीब आ गए हैं। पार्टी अपना दमखम दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। इस बार हर हाल में सत्ता में आने के लिए कमर कसे हुए है। यही समय है जब हमें भी अपना पूरा दमखम हर हाल में दिखाना है। हमें पार्टी नेतृत्व को यह दिखाना है, अहसास कराना है, कि हम अपने क्षेत्र के ना सिर्फ़ एकमात्र सबसे बड़े मजबूत नेता हैं, बल्कि संसदीय चुनाव में टिकट के एकमात्र दावेदार भी हम ही हैं। हमें टिकट देंगे तो यह सीट पक्की है।
यहां हमारे सामने न पार्टी का कोई दूसरा नेता है, ना ही किसी और पार्टी की कोई हैसियत है। हमारी सीट इतनी पक्की है कि चुनाव तो औपचारिकता मात्र है। भोजू यह समय जब और मज़बूती से अपना दावा पेश करने का है, पिछले कई साल से पार्टी के लिए हमने जो मेहनत की है, जो समय, पैसा खर्च किया है, उसे ब्याज सहित पाई-पाई वसूलने का है, ऐसे महत्वपूर्ण अवसर पर तुम वह काम करने के लिए कह रहे हो हफ्ते भर से जिससे अब तक के सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। पार्टी इसे हमारी बगावत मानेगी।
एक मिनट का भी समय नहीं लेगी हमें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में। जिला महासचिव तो कब का इसी फ़िराक में बैठा है कि मैं, तुम, किसी तरह हाशिए पर पहुंचें, और उसका रास्ता साफ हो। तुम ही बताते रहते हो कि किस तरह बराबर हम सब की चुगलखोरी करने, हमें डैमेज करने में लगा रहता है। जब देखो तब दिल्ली में आलाकमान से संपर्क साधने में लगा रहता है । सब कुछ जानते हुए भी तुम यह सब क्यों कह रहे हो ? सच क्या है वह बताओ।
नेताजी देखिए एक तो पता नहीं क्यों आप मुझ पर शक कर रहे हैं कि मैं कुछ छुपा रहा हूं। बार-बार कहता हूं कि आपको छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं हूं। मैं साफ-साफ यह कहना चाहता हूं कि हम लोग बीते आठ-नौ सालों से पार्टी के लिए और जो ऊपर बड़े नेता, आलाकमान को घेरे रहते हैं, उन सबकी चमचई कर-कर के आज तक कुछ कर नहीं पाए। थोड़ा बहुत इधर-उधर का काम और इन सब से मिलने-जुलने का कोई मतलब है क्या ? क्या है हमारा भविष्य ? कहने को हमारा लीडर कहता है कि हम युवाओं को आगे ले आएंगे, युवा देश की, हमारी ताकत हैं। हमें उन्हें आज अवसर देना ही होगा। लेकिन असल में हो क्या रहा है आप भी जानते हैं, हम भी जानते हैं।
चाहे किसी प्रदेश की यूनिट हो या केंद्र की, सारे महत्वपूर्ण पदों पर वही पुराने खूसट डेरा जमाए हुए हैं। साले हिलने-डुलने को मोहताज हैं। मुंह से बोल निकल नहीं पाते हैं । लेकिन फिर भी खूंटा गाड़े जमें हैं। पार्टी को भी जमाए हुए हैं। ना खिसक रहे हैं, ना पार्टी को खिसकने दे रहे हैं। मुझे पार्टी का कोई भी भविष्य नजर नहीं आ रहा है। हमारा लीडर पचास साल का हो रहा है, लेकिन आज तक बोलना नहीं सीख पाया। कब अंड-बंड बोल कर कुल्हाड़ी अपने ही ऊपर मार ले, पार्टी की ऐसी की तैसी करा दे इसका कोई ठिकाना नहीं। जब कभी लगता है कि पार्टी दो क़दम आगे बढ़ी है तभी वह कुछ ऐसा कर बैठता है कि पार्टी चार कदम पीछे चली जाती है।
नेताजी, नेताजी इस जहाज के पेंदे में इतने छेद हो चुके हैं कि उन्हें ठीक करना असंभव है। कम से कम इस लीडर के रहते तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। तो आखिर हम इस गल चुके पेंदे वाले जहाज में क्यों सफर करें, जिसका डूबना निश्चित है। चलो गलती हुई, गलत जहाज में सवार हो गए, जानकारी नहीं थी। लेकिन अब तो सब कुछ जान चुके हैं। देख रहे हैं, तो अब समझदारी इसी में है कि समय रहते निकल लिया जाए। इस जहाज का डूबना निश्चित है। थोड़ा ज़्यादा बड़ा है तो समय कुछ ज़्यादा लेगा। बकिया डूबना तो तय है।
नेताजी भोजू की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। और साथ ही उसकी बातों में बगावत की बू आ रही है या नहीं इसे भी सूंघने की पूरी कोशिश कर रहे थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि भोजू पिछले एक हफ्ते से इतना आक्रामक क्यों हो रहा है? दिन पर दिन इसकी आक्रामकता क्यों बढ़ती ही जा रही है। वह सोचने लगे कि इसके पीछे कोई लग तो नहीं गया है, कि यह मेरा दाहिना हाथ है? मेरी ताकत है। इसे काट दो तो मैं बेकार हो जाऊंगा।
पैसा रुपया सब मेरा ना सही लेकिन अस्सी परसेंट तो मेरा ही लगता है। बाकी में यह और अन्य हैं। लेकिन राजनीति की असली पावर भीड़ तो इसी के पास है। यह हाथ से निकल गया तो मैं कहीं का नहीं रह जाऊंगा। इसको जैसे भी हो साधना होगा। और यदि नहीं सधा तो?’ नेताजी ने मन में ही खुद ही प्रश्न किया और फिर उसी कठोरता से उत्तर भी दिया तो यह किसी और की ताकत बनने लायक भी नहीं रहेगा।वह अंदर ही अंदर खौलते रहे, तेज़ी से कैलकुलेशन करते रहे। लेकिन चेहरे पर नम्रता की, प्यार की मोटी चादर ओढ़े रहे। और बड़े प्यार-स्नेह से बोले-
भोजू तुम्हें मैं अपने छोटे भाई की तरह मानता हूं, ध्यान रखता हूं, तुम्हें आगे बढ़ा रहा हूं। हो सकता है मुझसे अनजाने में कोई गलती हो गई हो। मुझे जो करना चाहिए तुम्हारे लिए वह नहीं कर पाया। तुम निसंकोच निश्चिंत होकर सब बताओ, अपने बड़े भाई को आज सब कुछ बताओ कि आखिर क्या छूट रहा है मुझसे।
नेताजी भोजू को समझाते रहे। उसे जितना समझाते वह उतना ही अपनी बात पर अडिग होता गया । नेताजी की चार तार की चासनी में पूरी गहराई तक रची-पगी भावनात्मक बातों को भोजू ने अपने करीब फटकने ही नहीं दिया। चाय नमकीन एक नहीं दो बार आई और खत्म हो गई। लेकिन ना नेताजी भोजू को समझा पाए और ना ही भोजू नेताजी को। अंततः नेताजी की ओढ़ी हुई सज्जनता, भोजू के लिए उमड़ता जा रहा प्यार-स्नेह अचानक ही एक झटके में गायब हो गया।
वह अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए। भोजू भी जैसे पहले ही से तैयार था। वह भी खड़ा हो गया। लेकिन नेताजी उसकी उम्मीदों से भी कहीं ज्यादा मुखर हो चुके थे। तमतमाए हुए जो बोलना शुरू किया तो बोलते ही चले गए। सीधे-सीधे कहा-
तुम क्या समझते हो यह जो शगूफा लेकर निकले हो इससे तुम राजनीति कर पाओगे। इतने दिनों में यही समझ पाए हो राजनीति को। तुम्हारे जैसे ना जाने कितने नेता राजनीति का ताज पहनने के लिए रोज निकलते हैं। और राजनीति की अंधेरी ,बीहड़ गली में भटक-भटक कर, ठोकरें खा-खा कर कीड़े-मकोड़े की तरह मर जाते हैं। इस भीड़ में से निकल वही पाया है जो अपने सीनियर के पदचिन्हों पर बिना आवाज़ किए उसके पीछेे-पीछे चला है। तुम अभी राजनीति में पहली भोर की दुपहरी भी नहीं देख पाए हो और हमें बता रहे हो कि राजनीति कैसे करें? किसके इशारे पर हमें राजनीति सिखा रहे हो? कितनी कमाई कर ली है वहां से?’
नेता जी की बातें भोजू को तीर सी भेदती चली गईं। नेताजी के सारे आरोप झूठे थे। वह पूरी तरह उनके प्रति निष्ठावान था। लेकिन नेताजी की कच्छप चाल वाली राजनीति से बुरी तरह तंग आ चुका था। वह नेता जी और अपनी ताकत भी अच्छी तरह जानता-समझता था, और पार्टी में अपनी हैसियत से भी वाकिफ़ था। वह अच्छी तरह जानता था कि पार्टी में उसकी हैसियत नेता जी के दुमछल्ले की है। यह छल्ला खनकता भी तभी है जब नेताजी की दुम हिलती है। वह अपनी इस इमेज से आज़िज़ आ गया था। बड़ी शर्मिंदगी महसूस करता था। बदलना चाहता था अपनी इस इमेज को। निकलना चाहता था इस इमेज के शिकंजे से। उसे अच्छी तरह मालूम था कि नेताजी की राजनीति का इंजन वही है। यदि वह निकल गया तो नेताजी बिना इंजन के ढांचा (चेचिस), बॉडी भर रह जाएंगे। जो बिना इंजन के हिल भी ना पाएगा। खड़े-खड़े जंग खा जाएगा। खत्म हो जाएगा।
मन में वह नेता जी से ज़्यादा तेज़ी से कैलकुलेशन करते हुए सोच रहा था कि यह सबकुछ जानते हुए भी जिस तरह का व्यवहार मुझसे कर रहे हैं वह अब बर्दाश्त के बाहर है। अब इनको दिखाकर रहूंगा कि यह कायस्थ कुलोद्भव हैं तो मैं भी कायस्थ कुलोद्भव हूं। नमक से नमक नहीं खाया जा सकता। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। इतने दिनों से रहती आईं यही बहुत बड़ी, बहुत अनोखी बात है। अब समय आ गया है कि इनसे मुक्ति पा लूं। दिखा दूं लालाजी को कि तुम हमसे हो, हम तुमसे नहीं। अनादिका कितना सही कहती है कि ‘‘तुम कितना भी कोशिश कर लो, तुम्हारी यह दोस्ती अब बस पूरी ही होने वाली है।’’ वह कितने दिनों से कह रही है कि ‘‘तुम्हारा नेता इस काबिल नहीं कि लीडर बन सके। तुम्हारे जैसे लोगों को नेतृत्व दे सके।’’
वह मेरी बातें सुन-सुन कर कितनी बार बोल चुकी है कि ‘‘तुम्हारे इस लोकल लीडर और नेशनल लीडर में भी लीडरशिप, पॉलिटिक्स के कोई जर्म्स हैं ही नहीं। पॉलिटिक्स के जर्म्स तुममें है, इसलिए सबसे पहले तुम्हें इस पार्टी को ही छोड़ देना चाहिए। तभी सच में नेता बन पाओगे।’’ मगर मैं मूर्ख उसे यह कहकर चुप करा देता हूं कि वह अपनी नौकरी संभाले, किचेन संभाले, होम मिनिस्ट्री भी दे रखी है वह भी संभाले। बच्चा मिनिस्ट्री हमारा ज्वाइंट वेंचर है, उसे दोनों मिलकर संभालेंगे। मगर सच तो यह है कि वह पॉलिटिक्स को मुझसे ज़्यादा बेहतर समझती है। मैं ही जाहिल पतियों की तरह उसे डपट देता हूं कि अच्छा-अच्छा बहुत हुआ, अपनी मिनिस्ट्री संभालो, मेरी पॉलिटिक्स तुम्हारे वश की नहीं है।
सच में मैं कितनी गलती करता आ रहा हूं। उसे वाकई बहुत अंडरएस्टीमेट करता हूं। जबकि पांच साल से वह अपने ऑफ़िस यूनियन की प्रेसिडेंट बनती आ रही है। दो बार तो निर्विरोध हो चुकी है। मगर अब उससे मैं...मैं उसे।भोजूवीर के मन में बड़ी द्रुत गति से यह सब अनवरत चलता रहा और फिर वह अंततः चीख-चिल्ला रहे नेताजी पर घनघोर बादल की तरह फट पड़ा। बरस गया एकदम से। लंबे समय से इकट्ठा घनघोर बादल दिल दहला देने वाली भीषण गर्जना के साथ बरस गया। बरसने केे बाद भोजूवीर ने झटके से कुर्सी पीछे खिसकाई। झटका इतना तेज़ था कि कुर्सी दो-तीन कदम पीछे खिसक गई ।
वह गरजते हुए आखिरी सेंटेंस बोल कर बाहर निकल गया। दरवाजा भी पूरी ताकत, पूरी आक्रामकता के साथ खोला और बंद किया। नेता जी को ऐसा लगा जैसे भड़ाक से बंद हुआ दरवाजा सीधे उनके चेहरे पर आ लगा है। उनके चेहरे को बुरी तरह जख्मी कर दिया है। नाक मुंह सब खून से लथपथ हो गए हैं। वह बुत बने खड़े रह गए अपनी जगह पर। भोजू का आखिरी वाक्य उनके कानों में गूंज रहा था ।
उन्होंने पहली बार भोजू का यह रौद्र एवं बगावती रूप देखा था। वह इस वक्त गुस्से से ज़्यादा भयभीत थे। तभी उनकी पत्नी बगल वाले कमरे से अंदर्र आइं। उन्हें पसीने-पसीने देखकर पूछा-
क्या हुआ? यह भोजू आज इतनी बदतमीजी क्यों कर रहा था। आदमियों को बुलवाकर उसके हाथ पर यहीं का यहीं क्यों नहीं तुड़वा दिया। सब के सब तो बाहर बैठे हमारे ही पैसों का खा-पी रहे हैं।
नेताजी को तेज़ आवाज़ में बोल रही पत्नी पर भी गुस्सा आ गया। वह उसकी मूर्खता पर क्रोधित हो उठे कि मूर्ख औरत ऐसे फुल वॉल्यूम में चिल्ला रही है। साले बाहर बैठे सुन रहे होंगे। वह तिलमिला कर बोले-
चुप रहो, जहां नहीं बोलना होता वहां भी बछेड़ी जैसी कूद-फांद करने लगती हो।
उन्होंने लगे हाथ कई अन्य सख्त बातें कहकर पत्नी को अंदर भेज दिया। पत्नी भी कमजोर नहीं पड़ी। उसने संक्षिप्त सा ही सही तीखा उत्तर दिया और पैर पटकती हुई चली गई उसी दरवाजे से दूसरे कमरे में, जिधर से आई थी। नेताजी ने उसे जाते हुए नहीं देखा। दूसरी ओर मुंह किए मन ही मन में बस गरियाए जा रहे थे कि साले बाहर बैठे खा तो मेरे ही पैसों का रहे हैं, लेकिन हैं तो उसी साले भोजुवा के आदमी, यह सब क्यों उस पर हाथ उठाएंगे।वह मन में ही भोजू पर हमला किए जा रहे थे।
भोजू मैंने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। आदमी तेरे पास हैं, अच्छी बात है। मगर आखिर पॉलिटिक्स में तुझसे सीनियर हूं। इसकी अंधेरी गलियों में आए पत्थरों, रुकावटों को कैसे हटाया जाता है वह तुझसे बेहतर जानता हूं। और यह तो और भी अच्छी तरह जानता हूँ कि तेरे जैसे आदमी पर पत्थर कैसे गिराए जाएं। कैसे उन्हीं के नीचे दबा कर उन्हीं पत्थरों से समाधि बना दी जाए। तेरे जितने आदमी, तेरे जैसे आदमी मेरे पास भले ही ना हों, लेकिन इतना तुझसे हज़ार गुना ज़्यादा जानता हूं कि एक ट्रक ड्राइवर को कैसे साधना है। बड़ी मौज आती है ना तुझे गाड़ियों में दर्जनभर लोगों को साथ लेकर चलने में। घबरा नहीं, तुझे ऐसी मौज दूंगा उसी गाड़ी में कि तू मौज से ही ऊब जाएगा। इतना ऊब जाएगा कि दुनिया से ही चला जाएगा।
तभी मोबाइल में दूसरी बार किसी की कॉल आई। रिंग पूरी होकर बंद हो गई। उन्होंने कॉल रिसीव नहीं की। भोजू की बातें उनके दिमाग में हथौड़े की तरह प्रहार किए जा रही थीं। उनकी चोटें उन्हें इतना विचलित कर रही थीं कि अब भी उनका पसीना सूख नहीं रहा था। बेचैनी में वह कमरे में चहलकदमी करने लगे थे। एसी का रिमोट उठाकर कूलिंग और बढ़ा दी । गला सूख रहा था। पानी पीने की इच्छा हो रही थी लेकिन पत्नी को डांट कर भगा चुके थे। किसी नौकर को बुलाना नहीं चाह रहे थे। हैरान परेशान आखिर वह कुर्सी पर बैठ गए। उन पर हर तरफ से हमलावर भोजू का आखिरी वाक्य नेताजी मैं जा रहा हूं, अब मेरी पॉलिटिक्स देखिएगा, कुछ हफ्तों में आप छोड़िए आलाकमान भी मेरे आगे-पीछे नाचेगा। आप जैसे तो मेरे आस-पास भी नहीं फटक पाएंगे।दिमाग में धायें-धायें   दगे जा रहा था। वह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि भोजू ऐसा क्या करेगा?
कहीं यह सारे राज तो नहीं खोल देगा। जिससे बवाल खड़ा हो जाए। बड़े नेताओं की आवभगत, उनके ऐशो-आराम की करीब-करीब सारी ज़िम्मेदारियां यही उठाता रहा है, औरतों से लेकर शराब तक सब इसी के सहारे हुआ है, कहीं साले ने वीडियो-सीडियो तो नहीं बना रखा है कि मीडिया, सोशल मीडिया में वायरल कर दे। मुझे और उन बड़े नेताओं को एक साथ मिट्टी में मिला दे। चुनाव को अब वैसे भी ज़्यादा दिन कहां रह गए हैं? बरसों की सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसके चक्कर में मेरा ही नहीं पार्टी का भी सत्यानाश हो जाएगा। बड़ी मुश्किल से तो किसी तरह लड़ाई में लौटी है, कुछ उम्मीद जगी है। यह भोजुवा तो साला वाकई भस्मासुर बन गया है। लेकिन भस्मासुरों को जीने का हक कहां है? भोजुवा तूने जीने का हक़ खो दिया है। अब तेरी समाधि भी घर वाले तेरी प्रिय मातृभूमि भोजूवीर में ही बनावाएंगे। भोजूवा तू नाहक ही भोजूवीर से मरने के लिए यहां मेरे पास चला आया। चमकाता अपनी राजनीति वहीं भोलेबाबा के पास वाराणसी में, भोजूवीर में।
नेताजी बड़ी सावधानी से लग गए किसी ट्रक ड्राइवर को साधने में। सावधानी इतनी कि पत्नी को भी पहली बार अपने किसी काम में राजदार नहीं बना रहे थे। मोबाइल से कोई बात नहीं कर रहे थे। जरूरत पड़ने पर अकेले ही निकल रहे  थे। किसी ड्राइवर या गाड़ी को लेकर नहीं, रात के अंधेरे में टहलने के बहाने बाहर निकलते। फिर कुछ दूर जाकर ओला या उबर टैक्सी बुक करते। जहां जाना होता उससे थोड़ा पहले ही उतर जाते। ठीक इसी तरह वापस भी आ जाते। पत्नी हर बार पूछती कहां चले गए थे इतनी देर तक, फ़ोन भी रिसीव नहीं करते। मन घबराने लगता है।
सच यह था कि भोजू से छत्तीस का आंकड़ा बनने के बाद से नेता जी भी बाहर निकलते घबराते थे। बिना सिक्योरिटी के बाहर निकलते तो घर के अंदर आ जाने तक पसीने से तर रहते। लेकिन अपनी नेतागिरी के कॅरियर को लेकर इतना सजग कि उसके लिए जान हथेली पर रखकर निकलना भी उन्हें मंजूर था। उन्हें पूरा शक ही नहीं विश्वास था कि अगर भोजू को जरा भी पता चल गया तो वह एक्शन लेने में सेकेंड के दसवें हिस्से जितनी भी देरी नहीं करेगा। ऐसी जगह मार कर डालेगा कि एक बाल का भी पता नहीं चलेगा। उनके ही कहने पर तो कुछ ही साल पहले उसने एक अच्छे खासे दबंग को ठिकाने लगा दिया था। आज तक थाने में लापता ही दर्ज है।
भोजू के जाने के बाद वह लगातार उसके एक-एक पल की खोज-खबर लेने में लग गए। लेकिन उन्हें कुछ खास सटीक जानकारी मिल नहीं पा रही थी। उन्हें जितनी असफलता मिल रही थी उनकी बेचैनी उतनी ही ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। वह यहां तक पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि भोजू आलाकमान तक पहुंचने की कोशिश में तो नहीं है। वह इसलिए भी ज़्यादा डर रहे थे कि उन्होंने कई बार बातचीत, खाने-पीने के दौरान आलाकमान की कटु आलोचना तो की ही थी, साथ ही गालियां भी खूब बकी थीं।    
सोच-सोच कर बेचैन होते रहे कि कहीं भोजू वह सब रिकॉर्ड तो नहीं कर ले गया है। आलाकमान के सामने रख दिया तो एक झटके में पार्टी से निकाल बाहर कर दिया जाऊंगा। बेचैनी, चिंता, खोजबीन, ट्रक ड्राइवर ना साध पाने से वह दस दिनों में ही एकदम अकुला उठे। कई-कई पैग पीने के बाद भी उनको नींद नहीं आ रही थी। सच में उन्हें पहली बार पता चला कि वह कितने पानी में हैं। उनके मन में कई बार यह बात आयी कि गुस्सा शांत होने पर भोजू वापस आ जाएगा। मगर दिन पर दिन बीतते गए लेकिन उसकी छाया भी नहीं पलटी। वह उनसे कोसों दूर चली गई।
अफनाहट में उन्हें यह शक भी परेशान करने लगा कि उनके आसपास आज भी जो लोग हैं वह वाकई उनके हैं भी या नहीं। या भोजू के जासूस बनकर उनके आगे पीछे लगे हैं। हर आदमी उनके शक के राडार पर आ गया। कई बार पत्नी भी उन्हें शक के राडार पर नजर आने लगी। जबकि उनकी तेजतर्रार पत्नी के राडार पर उनकी हालत साफ नजर आ रही थी । जिसे देख कर पत्नी चिंता में पड़ गई कि ऐसे तो यह बीमार पड़ जाएंगे। इन्हें कुछ हो गया तो इतना फैला हुआ काम-धंधा कौन संभालेगा। चारों बच्चे अभी छोटे ही हैं।आखिर उन्होंने एक दिन नेता जी को बहुत समझा-बुझाकर कहा-
देखिए पता नहीं कितने राजनीतिज्ञ, पता नहीं कितनी बार यह कहते आए हैं कि राजनीति में ना तो कोई स्थाई शत्रु है, ना कोई स्थाई मित्र। देखते नहीं कैसे जानी दुश्मन नेता, पार्टियां जरूरत पड़ने पर पल भर में थूक कर बार-बार चाटने में देर नहीं करते। पलभर में गले मिलने लगते हैं। उन्हें देख कर तो कहना पड़ता है कि सांप-छछूंदर की, सांप-नेवले की भी दोस्ती हो जाती है।इस पर नेताजी एकदम तड़कते हुए बोले-
आखिर तुम कहना क्या चाहती हो?’
नेताजी भीतर-ही-भीतर बुरी तरह हिल रहे थे, पत्नी से उनकी वास्तविकता छिपी नहीं थी, फिर भी पत्नी ने अनजान बनते हुए उन्हें अपनी योजना बताई। योजना सुनते ही नेताजी लगे तियां-पांचा बतियाने। लगे तांडव नृत्य करने। इतना भीषण की पत्नी को लगा कि उसका अनुमान गलत है कि पति के बारे में वह सब कुछ जानती-समझती है। सदैव की भांति वह फिर चली गईं दूसरे कमरे में। इधर जब नेताजी का पारा ठंडा हुआ तो उन्हें पत्नी की बातों में दम नजर आने लगा। कुछ ही देर में यह दम उनके दिमाग में बढ़-चढ़ कर बोलने लगा।
आखिर उन्होंने तय कर लिया कि वह पत्नी की सलाह पर अमल करेंगे। मगर यह तय करते ही समस्या यह आन पड़ी कि बहाना कौन सा ढूंढें ? कौन सा अवसर ढूंढें ? इस पर उन्हें ज़्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। कुछ ही दिन बाद उनकी मां की बरसी थी। वही समय उन्हें ठीक लगा। सोचा इस अवसर को ही भुनाता हूं। उनके मन में एक लालच और उठ खड़ा हुआ कि इसी बहाने कितने उनके कहने पर चल सकते हैं यह भी पता चल जाएगा। भोजू और पार्टी को भी अपनी ताकत का एहसास करा देंगे।
यह सोचने के साथ ही उनके मन में एक चोर भी आ बैठा कि यह योजना कहीं बैक फायर ना कर जाए। यह कहीं कम लोगों के आने से फ्लॉप शो ना बन जाए। ऐसा हुआ तो लेने के देने पड़ जाएंगे। फिर खुद ही उत्तर दिया कि अगर ऐसा हुआ तो कहूंगा मां की बरसी है, खुशी या शक्ति प्रदर्शन का अवसर नहीं है। आप लोग कम से कम भावनात्मक बातों को राजनीति का हिस्सा ना बनाया करें । उल्टा चढ़ बैठूंगा क्वेश्चन खड़ा करने वालों पर।
नेता जी ने पूरा जोर लगा दिया। इतना कि जैसे एम. पी. का चुनाव लड़ रहे हों। नगर, जिला, प्रदेश, से लेकर आलाकमान तक जोर लगा दिया। जिसे कभी झुक कर नमस्कार नहीं किया था उसके भी चरणों में झुक गए। जिसके चरण छूते थे उसके कदमों में लेट गए। रीढ़विहीन जीव से रेंग गए। गरज यह कि जितना ज्यादा, जितना बड़ा नेता आएगा भोजुवा पर उतना ही ज्यादा असर पड़ेगा। ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा तो वह फिर से मेरे कदमों में लोटेगा। जितनी बार नेता जी के मन में यह बात आती उतनी ही बार वह भोजू को सबसे बदतरीन गालियों से नवाजते कि इस साले के कारण बीसों लाख रुपये फूंकने पड़ रहे हैं। लाखों रुपये तो कंवेंस में डूब गए हैं। कितने चक्कर तो दिल्ली के लगा चुका हूं। तीन-तीन, चार-चार लोगों को लेकर हवाई जहाज से आनन-फानन में जाना-आना कितना खर्च हो गया। यह साला बहुत बड़ा भस्मासुर बन गया है। देखो अभी और क्या-क्या करवाता है।
नेताजी की सारी मेहनत के परिणाम वाले दिन ऐसा मिलाजुला परिणाम रहा कि नेताजी ना सिर पीट पा रहे थे, ना ही खुशी मना पा रहे थे। कोई बड़ा नेता, व्यक्ति नहीं आया। कुछ के व्हाट्सप मैसेज आए कि ईश्वर माता जी की आत्मा को शांति प्रदान करें ।
कुछ मैसेज इतनी जल्दी, इतनी लापरवाही से भेजे गए कि भाई लोग बरसी को खुशी का अवसर मान बैठे। नेता जी इन सब को पढ़-पढ़ कर मन में खूब गरियाए जा रहे थे। ज़्यादातर वही लोग आए जिनकी गिनती छुटभैए नेताओं में होती थी या वह जो मुफ्त का खाने-पीने का अवसर ढूंढ़ते रहते हैं। मिलने पर कहीं भी टूट पड़ते हैं। कुल मिलाकर नेताजी की अपेक्षा से कम ही लोग आए, खाय-पिए चल दिए। कोई महत्वपूर्ण आदमी आया ही नहीं। सारे समय जिस एक आदमी को उनकी आंखें ढंूढ़ रही थीं वह दिखा ही नहीं।
भोजू का साया भी उन्हें कहीं नजर नहीं आया। उसके खासमखास में से भी कोई नजर नहीं आया। नेताजी तंबू उखड़ने तक उसका इंतजार करते रहे। बार-बार मोबाइल देखते, रिंग होने पर उनको लगता कि भोजू का फ़ोन आ गया। हर बीतते पल के साथ उनका दिल बैठता जा रहा था। उनकी दशा उनकी पत्नी से छिपी नहीं थी। उन्हें भोजू पर गुस्सा और पति पर दया आ रही थी। देर रात नेताजी बिना ठीक से खाए-पिए ही अपने बेडरूम में चले गए।
पत्नी सारा तामझाम समेटवाने के बाद उनके पास पहुंची। उनकी मानसिक हालत को देखते हुए उन्होंने ज़्यादा कोई बात करने के बजाए ठंडा-ठंडा कूल-कूल तेल उनके सिर पर लगाया। फिर हल्का-हल्का सिर दबाकर सुलाने की कोशिश की।
नेताजी भी आंखें बंद किए रहे। लेकिन उन्हें नींद नहीं आ रही थी। बार-बार भोजू को गरियाते कि साले को बेशर्म बनकर चार-चार बार बुलावा भेजा। बरसी में बुलावा भेजने का औचित्य ना होने के बावजूद ऐसा किया। व्हाट्सअप मैसेज दिया। मां की बरसी का इमोशनल कार्ड भी खेला, लेकिन सब बेकार। साले की आंखों में सुअर का बाल है, सुअर का बाल। नहीं तो जरूर आता। भले ही दो मिनट को अपना मनहूस चेहरा ही दिखाने को सही।
इन सब से ज़्यादा नेता जी को कुछ देर पहले ही बड़े पापड़ बेलने के बाद मिली इस सूचना से और चिंता होने लगी कि भोजू किसी बड़े निर्णायक क़दम को उठाने में लगा है। इतना ही नहीं इसके लिए वह पार्टी भी छोड़ने जा रहा है। वह भी बस कुछ ही दिन में। इस सूचना ने नेता जी के पैरों तले जमीन खिसका दी। क्योंकि वह अच्छी तरह जानते थे कि भोजू के पास उनके जो-जो राज हैं, पार्टी छोड़ने के बाद वह उनका यूज करके उन्हें निश्चित ही सड़क पर ला खड़ा करेगा। और वह उसका कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
उन्हें सुलाते-सुलाते खुद पत्नी सो गई मगर उन्हें नींद नहीं आई। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि जैसे तनाव से उनकी नशें फट जाएंगी। वह उठे, अलमारी से व्हिस्की निकाली, बिना सोडा, पानी के नीट ही गिलास में डाल-डाल कर एक झटके में पीते गए। एक दो नहीं तीन-चार लार्ज पैग पी गए और कुछ ही देर में बेड पर भद्द से पसर गए। इतना तेज़ी से दोनों हाथ फैलाए बेड पर पसरे क्या गिरे कि बड़े से बेड पर एक तरफ गहरी नींद में सो रही पत्नी से टकरा गए। इतनी तेज़ कि गहरी नींद में सो रही पत्नी घबड़ा कर उठ बैठी। लेकिन पति पर एक नजर डालते ही समझ गईं कि माजरा क्या है? वह उठीं और किसी तरह उन्हें सीधा कर बेड के बीचो-बीच लिटाया। फिर कई कुशन उठाकर ले आईं और उन्हें उनकी दोनों तरफ लगा दिया, ताकि नशे में कहीं वह बेड से नीचे ना लुढ़क जाएं। खुद दूसरे कमरे में सोने चली र्गइं। ऐसे में वह कभी भी कोई टेंशन नहीं पालतीं बल्कि उनकी सुरक्षा का हरसंभव इंतजाम करके दूसरे कमरे में आराम से सो जाती हैं। आज भी यही किया।
नेता जी का अगला पूरा दिन हैंगओवर से मुक्ति पाने में निकल गया। थोड़ा बहुत जो काम किया उसमें सिर्फ़ यही जानने का प्रयास किया कि भोजू के जिस राइटहैंड को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया था उसमें कहां तक सफलता मिली। जितनी जानकारियां उन्हें मिलीं उससे उन्हें सफलता मिलती नजर आई। उनकी भेजी नोटों की गड्डियों का पूरा असर रात होते-होते दिखा। वह आदमी रात के अंधेरे में किसी थर्ड प्लेस पर मिलने को तैयार हो गया।
नेता जी रात दो बजे जब उससे मिलकर लौटे तो उनको इस बात की खुशी, संतुष्टि थी कि उन्होंने भोजू के राइट हैंड को पूरी तरह तोड़ लिया है। हालांकि यह तब हुआ जब उन्होंने कई लाख रुपये  की गड्डी से उसकी हथेली को और ज़्यादा गर्म कर दिया। लेकिन राइट हैंड ने जो जानकारियां उनको दीं उससे वो सकते में पड़ गए। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उन सब की काट क्या है? वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर किससे सलाह-मशविरा करें। किससे पूछें कि उन्हें क्या करना चाहिए? टेंशन बढ़ते ही वह हमेशा की तरह अपनी बार की तरफ बढ़ गए।
आज भी बड़ी बोतल निकाली लेकिन कुछ देर हाथ में लिए पता नहीं क्या सोचते रहे। फिर उसे उसी तरह अलमारी में रख कर बंद कर दिया। बार के सामने ही पड़े बड़े से सोफा कम बेड पर पसर गए। नींद, चैन उन्हें कोसों दूर-दूर तक नहीं दिख रही थी। उधेड़बुन में ज़्यादा देर तक पसर भी नहीं पाए तो कमरे में चहलक़दमीं करने लगे। बेड पर पत्नी गहरी नींद में सो रही थी। वह कब आए इसका पता उसे नहीं था। नेताजी की चहलकदमीं ने उन्हें उम्मीद की एक किरण दिखा दी। उन्हें अपने एक हम-प्याला हम-निवाला लेखक मित्र की याद आई। जिसे वह ना सिर्फ़ राजनीति बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अपना सलाहकार बनाए हुए थे। कई मौकों पर उसने बड़ी-बड़ी गंभीर समस्याओं का समाधान उन्हें बताया और समस्या से बाहर भी निकाला था। मित्र का ध्यान आते ही उन्होंने यह भी न देखा कि रात के तीन बज रहे हैं। मोबाइल उठाया और कॉल कर दी। कई बार रिंग करने के बाद कॉल रिसीव हुई। छूटते ही नेता जी बोले-
क्या मित्रवर यहां जान पर बनी हुई है और आप हैं कि कॉल तक रिसीव नहीं कर रहे हैं।
लेखक महोदय ने कहा, ‘नेता जी इतनी रात को कॉल किया सब ठीक तो है ना।
सब तो क्या कुछ भी ठीक होता तो सवेरे तक इंतजार कर लेता। मगर कुछ भी ठीक नहीं है, इसलिए इंतजार करने का कोई मतलब नहीं था।
अच्छा तो फिर मुझे जल्दी बताइए क्या बात है?’
नेता जी बोले, ‘फ़ोन पर सारी बातें नहीं हो पाएंगी। मिलकर ही कर सकते हैं।
ठीक है, मैं आने को तैयार हूं, लेकिन इस वक्त मेरे पास कोई साधन नहीं है।
आप रहने दीजिए मैं खुद आ रहा हूं।
नेताजी ने गाड़ी निकाली और पत्नी को बिना बताए चले गए अपने सलाहकार मित्र के पास। सलाहकार मित्र को भी नेताजी और भोजू के बीच तनातनी की भनक थी। नेताजी ने सिलसिलेवार उन्हें सारी बातें बताईं। कहा, ‘आज ही उसके सबसे बड़े हमराज और दाहिने हाथ ने बताया है कि भोजू कोई बड़ा आंदोलन चलाने की तैयारी कर रहा है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि पार्टी छोड़ कर यह सब करेगा। यदि वह सक्सेस हुआ तो मेरा पॉलिटिकल कॅरियर समाप्त, असफल हुआ तो भी।
नेता जी की इस बात पर लेखक सलाहकार मित्र ने पूछा, ‘असफल होने पर कैसे?’
मित्र की इस बात पर नेताजी खीझ उठे। वह ऐसा महसूस कर रहे थे कि जैसे मित्र उनकी बातों को गंभीरता से नहीं सुन रहे हैं। इस बार नेताजी ने खीज निकालते हुए बोल दिया-
लगता है आप मेरी बातों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।यह सुनते ही लेखक मित्र सकपका कर बोले, ‘नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। पूरी गंभीरता से सुन रहा हूं। आप बताइए।
देखिए पार्टी द्वारा जो काम पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में किया गया वही काम यहां भोजू के सहारे किया जाएगा। यदि भोजू को पब्लिक, मीडिया का सपोर्ट मिल गया तो वह निर्दलीय ही जीतेगा, जीतेगा तो आलाकमान उसे कैच करने के लिए हाथ फैलाए खड़ा है। वह बराबर ऐसे लोगों की फिराक में रहता है। तुरंत कैच कर लेगा। भोजू रातोंरात चमक जाएगा।
यदि हार गया तो ऐसा नहीं है कि पार्टी उससे मुंह फेर लेगी। पार्टी में उसकी अहमियत बन जाएगी। क्योंकि इसके चलते पार्टी भोजू के रूप में सीट अपने कब्जे में ना कर पाई तो यह भी तो तय है उसके जरिए वह सत्ताधारी पार्टी के लिए सिरदर्द पैदा कर देगी। कुछ सीटों पर उसका खेल बिगाड़ देगी। जैसा सुनने में आया है उस हिसाब से पार्टी लाइन से अलग उसका आंदोलन उसे देखते-देखते महत्वपूर्ण बना देगा। उसके ऊपर हर तरफ से धन, सरकारी सुरक्षा सब बरसने लगेगा। और तब मेरे पास कुछ नहीं बचेगा। मेरी राजनीति पूरी तरह खत्म हो जाएगी। मैं पूरी तरह खत्म हो जाऊंगा ।
मेरे सामने राजनीति से तौबा करने, कहीं मुंह छुपा कर बैठने, डूब मरने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा।
यह कहते हुए नेता जी बहुत गंभीर हो गए। गंभीर लेखक महोदय भी हो उठे थे। लेकिन जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोले, ‘देखिए उसे मैं समझ तो बहुत दिन से रहा था। मैंने एक दो बार आपसे कहा भी था कि इससे अलर्ट रहिए। कई बार संकेत दिए लेकिन आप इग्नोर करते रहे। कहते रहे कि भोजूवीर ऐसा नहीं है। वह कुछ भी कर सकता है लेकिन मेरे साथ गद्दारी नहीं। लेकिन मैं बराबर उसे पढ़ने का प्रयास कर रहा था। मैं देख रहा था कि वह बहुत एग्रेसिव सोच का है। नियम कानून या सिस्टम को फॉलो करने वाली उसकी सोच नहीं है। उसे बस पैसे और रळतबे की हवस है। चाहे जैसे मिले। उसके दिमाग में यह भरा हुआ है कि एक व्यक्ति अराजकता पैदा कर एक प्रदेश का सी. एम. बन बैठा है।
हालांकि अब उसकी इमेज थूकने-चाटने भर की रह गई है। दूसरे दो को उसने देखा कि वह जातीय मुद्दे के नाम पर हिंसा उपद्रव करवा कर विधायक बन गए। एक जातीय मुद्दे को आरक्षण की आग लगाकर तकनीकी कारणों से विधायक तो नहीं बना लेकिन पैसा, लोगों का हुजूम, सरकारी सुरक्षा ने उसे भी वी. आई. पी. बना दिया है। वह यही सब करना चाह रहा है। खबरें मेरे पास भी हैं, कि उसने ना सिर्फ अपने रास्ते का निर्धारण कर लिया है बल्कि उस पर बहुत आगे निकल चुका है। कुछ ही दिन बाद आप लोगों के देवता चित्रगुप्त की पूजा है। उसी दिन वह अपना आंदोलन शुरू कर रहा है। उसकी तैयारी पूरी और पक्की है।
उस दिन वह धरना स्थल पर ही पहले अपने लोगों के साथ सामूहिक पूजा करेगा, फिर पूजा के समापन के साथ ही कायस्थों कोे आरक्षण दिए जाने की मांग करेगा। वहीं से आंदोलन शुरू कर देगा। इसी उद्देश्य से उसने सामूहिक पूजा के नाम पर बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति सुनिश्चित कर ली है। मुझे आश्चर्य तो यह हो रहा है, कि आपको इन सारी बातों की पूरी जानकारी नहीं है। मैं तो सोच रहा था कि आप को बहुत कुछ पता होगा । लेकिन आपके पास बस उड़ती-उड़ती जानकारी है। जिस दिन आपके यहां बरसी के कार्यक्रम में पार्टी के बहुत से लोग आ रहे थे उसी दिन यह भी अफवाह थी कि भोजू दो दिन से दिल्ली में पार्टी लीडर से गुफ्तगू कर रहा है। मैं सोच रहा था कि आप भी उस समय दिल्ली के चक्कर लगा रहे थे आपको सारी खबर होगी। मगर यहां तो बात उलटी है।
नेताजी लेखक मित्र की बातें सुनकर एकदम बुत बन गए। उनकी हालत देखकर लेखक बोले, ‘लेकिन आपको घबराने की जरूरत नहीं है। भोजू कि इस चालाकी की काट मेरे दिमाग में कुछ धुंधली ही सही उभरने लगी है। कोई रास्ता निकल ही आएगा। यह ध्यान रखिएगा कि हर समस्या के साथ उसका समाधान भी नत्थी रहता है। थोड़ा समय दीजिए मैं जल्दी ही आता हूं आपके पास।
सुबह हो चुकी थी। लेखक से विदा लेकर नेताजी चेहरे पर दयनीय भाव लिए बाहर निकले। मन ही मन गाली देते हुए साले लेखक मैं तेरे समाधान के इंतजार में अपना सत्यानाश करने वाला नहीं। मैं इस भोजुवा का वह हाल कर दूंगा कि इस बार यह ‘‘ॐ श्री चित्रगुप्ताय नमो नमः’’ बोलने लायक ही नहीं रहेगा। उसके पहले ही उसके घर वाले राम नाम सत्य है, भोजू नाम सत्य है, बोल चुके होंगे।यही सोचते हुए वह घर पहुंचे कि आज इसके तियांपांचा के काम को हरी झंडी दे दूंगा। उस साले ड्राइवर को उसकी मुंह मांगी कीमत दे दूंगा ।
घर पहुंचे तो उन्हें बीवी किसी से मोबाइल पर बात करती हुई मिली। गुस्से में उसे भी मन-ही-मन गरियाया, ‘साली जब देखो तब मोबाइल ही से चिपकी रहती है। नेताजी सीधे बेडरूम में पहुंचे। सोचा कि दो-तीन घंटा सो लूं, फिर निकलूं। लेकिन भोजू उन्हें लेटने देता तब ना। उनके दिलो-दिमाग में निरंतर नगाड़ा बजाए जा रहा था। उनके दिमाग का कचूमर निकाले जा रहा था। नींद से कडु़वाती आंखों, थकान से टूटते शरीर के बावजूद वह सो नहीं पाए। एक बार सोचा कि दो चार पैग मार कर सो जाएं। लेकिन भोजू फिर आतंकी की तरह सामने आ खड़ा होता है। हार कर उन्होंने खूब जमकर नहाया। फिर निकल गए भोजूवीर के तियांपांचा को हरी झंडी दिखाने। करीब तीन घंटे बाद वह लौट, जालिम ड्राइवर को हाफ पेमेंट एडवांस देकर। बाकी काम होने के बाद देने का वादा भी कर आए। साथ ही चित्रगुप्त पूजा से पहले काम हो जाने का सख्त आदेश देना नहीं भूले।
लौटने के बाद नेता जी इतना खुश थे कि पूछिए मत। लग रहा था कि जैसे विश्व मैराथन दौड़ अत्यधिक कड़ी टक्कर मिलने के बाद भी रिकॉर्ड समय के साथ जीत कर आए हैं। दौड़ने से चेहरा, पूरा बदन पसीना-पसीना जरूर हो रहा था लेकिन जीतने की खुशी भी चेहरे पर साफ दिख रही थी। कोई किसी की जान लेने का इंतजाम करके भी खुश हो सकता है यह देखना हो तो नेताजी को देखा जाना चाहिए। जो कल तक अपने राइट हैंड रहे, हम प्याला, हम निवाला भोजूवीर की अर्थी उठवाने की व्यवस्था करके खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। वही भोजूवीर जिसे वाराणसी जिले के भोजूवीर कस्बे में एक राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान देखा था।
उसकी सांगठनिक क्षमता उसके पीछे चलती भीड़ देखकर बड़ी दूर की सोची और बुला कर कहा, ‘यहां कहां अपने को खपा रहे हो। लखनऊ आओ, राजनीति की मुख्यधारा में खेलो।जब वह आ गया तो जल्दी ही प्यार से उसे उसके नाम ऋषि राज की जगह भोजूराज फिर भोजूवीर कहने लगे।
जिसे कल तक वह सब से अपना छोटा भाई कहकर परिचय कराते थे, अब उसी के लिए नेताजी इंतजार करने लगे कि ड्राइवर जल्दी ही बाकी पचास पर्सेंट भी लेने आएगा। सवेरे पेपर उठाते ही आदत के मुताबिक फ्रंट पेज देखने के बजाए अब वह लोकल पृष्ठ पहले देखने लगे कि ट्रक दुर्घटना में भोजू की मृत्यु की खबर है कि नहीं। हर आने वाले को देखते ही उसका चेहरा पढ़ने का प्रयास करते कि भोजू की सूचना लेकर आया है क्या ? लेकिन नेताजी पर जैसे साढ़ेसाती सनीचर की ढैय्या का प्रकोप था। जैसे राहु-केतु की वक्र दृष्टि उन पर पड़ रही थी। सब कुछ उलट-पुलट हो रहा था।
भगवान चित्रगुप्त पूजा के चौबीस घंटे बचे थे, मगर भोजू की मौत की खुशखबरी सुनने को उनके कान तरस रहे थे। वह बार-बार ड्राइवर से मिलना भी नहीं चाह रहे थे। डर रहे थे कि किसी ने देख लिया और भोजू की दुर्घटना में मौत के बाद जब ड्राइवर पकड़ा जाएगा तो कहीं कोर्ट में वह यह ना बोल दे कि मैं फलां दिन उससे मिला था।
आखिर वह समय भी आ गया जब भगवान चित्रगुप्त की पूजा के मात्र बारह घंटे बचे। नेताजी अपने स्तर पर भोजू की तैयारियों की पल-पल की खबर ले रहे थे। हर पल के साथ उनकी धड़कनें तेज़ हो रही थीं। उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी। वो रात भर कमरे में चहलकदमी करते रहे। लेकिन उनकी खुशी के पल नहीं आ रहे थे। उनकी सारी खुशी, सुख, चैन का रास्ता भोजू पहाड़ की तरह रोके हुए था। भगवान चित्रगुप्त आ विराजे थे। दीपावली बीत गई थी। लेकिन दीए उनके दिल पर अब भी जल रहे थे। अब भी पूरा घर, पूरी दुनिया त्यौहार की खुशियां मना रहा था लेकिन वह अलग-थलग थे। हमेशा विधिवत भगवान चित्रगुप्त की पूजा करने वाले नेता जी पूजा के बारे में सोच भी नहीं रहे थे। जबकि पूजा के कुछ ही घंटे रह गए थे।
भोर हो गई, सूरज चढ़ आया लेकिन नेताजी की दुनिया में अंधेरा ही था। भोर तक नहीं हो रही थी। घरवालों ने पूजा के लिए तैयार होने के लिए कहा लेकिन उन्होंने भड़कते हुए कह दिया तुम लोग कर लो।सब समझ गए कि कुछ बहुत ही गंभीर बात है, वरना आज तक धरती इधर से उधर हो जाए, अपनी धुरी पर उल्टा घूमना शुरू कर दे लेकिन वह भगवान चित्रगुप्त की पूजा नहीं छोड़ते थे। मगर इस बार सब उलटा हो रहा था।
इधर घर में भगवान चित्रगुप्त की पूजा चल रही थी और उधर नेताजी के पास भोजूवीर के खास आदमी की कॉल आ गई। वही खास आदमी जिसे नेता जी ने तोड़ लिया था। उसने जो बताया उससे नेता जी के पैरों तले जमीन खिसकी नहीं गायब हो गई। पूरी पृथ्वी ही गायब हो गई। वह अपने को त्रिशंकु की तरह अंतरिक्ष में लटका पा रहे थे। और दूर अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी पर वह भोजूवीर की सिर्फ़ सामूहिक चित्रगुप्त पूजा देख पा रहे थे। विशाल जनसमूह के साथ भोजू भगवान चित्रगुप्त की पूजा कर रहा था। और उनके घर वालों ने पता नहीं क्यों पूजा बीच में ही छोड़ दी थी।
नेताजी घबरा गए कि घरवालों ने इतना बड़ा अपशगुन क्यों कर दिया। वह पूरी ताकत से चिल्लाए, ‘मूर्खों, पागलों, पूजा अधूरी क्यों छोड़ी दी। तुम सब पागल हो गए हो क्या? मुझे बर्बाद करने पर क्यों तुले हुए हो ?’ मगर कोई नहीं सुन रहा था। तभी चित्रगुप्त भगवान की समवेत स्वरों में आरती शुरू हो गई। साथ में घंटा भी बज रहा था। घर के सभी लोग समवेत स्वर में आरती कर रहे थे। नेताजी का ध्यान भंग हो गया।
वह मोबाइल अभी तक कान से चिपकाए हुए थे। जबकि फ़ोन करने वाले ने अपनी बात कहकर कब का फ़ोन डिसकनेक्ट कर दिया था। वह एकदम पस्त होकर सोफे पर फिर पसर गए। सिर पीछे टिका कर आंखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद उनकी पत्नी आईं। पूजा के समय भी उनका दिमाग पति पर ही लगा हुआ था कि आखिर कौन सी ऐसी बात हो गई है कि जीवन में पहली बार पूजा तक नहीं की। वह प्रसाद देने के बहाने आई थीं। इसी बहाने बात उठाकर पूछना चाहतीं थीं कि बात क्या है? बगल में बैठ कर उन्होंने उनकी बांह पर हाथ रखकर हल्के से पूछा सो रहे हैं क्या?’ नेताजी ने आंखें खोले बगैर ही पूछा क्या बात है?’ दरअसल पिछले बीस बाइस घंटों से वह सो ही कहां पा रहे थे। उनकी नींद तो भोजू ले उड़ा था। पत्नी ने कहा प्रसाद लाई हूं, बात क्या है? कुछ तो बताइए।नेताजी चुप रहे आखिर पत्नी ने फिर पूछा तो तीखे स्वर में कहा रख दो, जाओ यहां से।पत्नी उनके सख्त लहजे से समझ गई कि इस समय और बोलना अच्छा नहीं है।
वह गहरे सोच में पड़ गईं.त्यौहार  पूजा की जो उमंग थी उस पर पूरी तरह ग्रहण लग गया। घंटा भर भी ना बीता होगा कि नेताजी के इनफॉर्मर का फ़ोन फिर आ गया। उसने बताया कि भोजू ने पूजा के बाद वहां उपस्थित करीब आठ सौ चित्रगुप्तवंशियों को धन्यवाद ज्ञापित करने के नाम पर संबोधित करना शुरू किया है ।
देश की आजादी में कायस्थों के योगदान का उल्लेख कर रहा है। स्वतंत्रता सेनानी एवं देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से लेकर महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस तक का उल्लेख किया है। सबसे योग्य प्रधानमंत्रियों में गिने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘‘उनके ही चलते देश सुरक्षा मामलों, खाद्यान के क्षेत्र में आज आत्मनिर्भर बन सका है। फिर भी सभी राजनीतिक पार्टियों नेे कायस्थों की घोर उपेक्षा की है। उन्हें हर जगह हाशिए पर डाल दिया है। नौकरी से बाहर कर दिया गया है।
साजिशन उन्हें किसी भी वर्ग में नहीं रखा गया है। बड़े हैं, अगड़े हैं, बस। लेकिन दलित, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण किस वर्ण में हैं इस बिंदु पर चुप हैं। पहले भी यह बात आ चुकी है कि कायस्थों को दलित वर्ग में शामिल करो। या फिर पांचवां वर्ण मानों। जो हाशिए पर है। इसे भी आरक्षित वर्ग में रखो। लेकिन कुटिलतापूर्वक यह कह कर नकार दिया गया कि हम स्वभावतः कुशाग्र बुद्धि के हैं। अपनी मेधा से सारे पद ले लेंगे। यह कुटिलतापूर्ण कुतर्क है। हमें रोकने, बर्बाद करने की साजिश है ।
आजादी के बाद से बराबर इस साजिश का परिणाम है कि आज कायस्थों के पास नौकरी नहीं है। जबकि सदियों से कायस्थ शासन-प्रशासन का सबसे अहम हिस्सा रहा है। मगर आज दर-दर भटक रहे हैं। कायस्थ पटरी पर दुकानें, रेहड़ियां लगाने से लेकर रिक्शा तक चला रहे हैं । हमसे हमारे अधिकार, रोजगार, जमीन सब छीन लिए गए हैं। इसलिए हमें अब और चुप नहीं बैठना है ।
हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो हमारे अस्तित्व को समाप्त होने में अब ज्यादा समय नहीं लगेगा। आदरणीय स्वजनों हमने यदि अभी भी कुछ नहीं किया तो हमारी आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी। हम अपनी आंखों के सामने ही अपनी अगली पीढ़ी को दर-दर भटकते देख ही रहे हैं।’’
इनफॉर्मर ने नेता जी को चटखारे लेते हुए बताया कि, ‘भोजू के भाषण को लोगों ने ना सिर्फ ध्यान से सुना बल्कि उससे आगे बढ़ने और हर कदम पर साथ देने का वचन भी दिया।
और भोजू ने गर्म लोहे पर चोट करने में देर नहीं की। उसने सबसे भगवान चित्रगुप्त की शपथ लेने को कहा कि सभी उसके शुरू होने वाले आंदोलन को तन-मन-धन से सहयोग करेंगे। और अब पूजा के नाम पर जिस समूह को इकट्ठा किया था उनकी भावनाओं में उबाल लाकर उन्हें लेकर धरना-प्रदर्शन के लिए आगे की ओर बढ़ चला है। पुलिस के नाम पर चार-छः लोग ही हैं। उन्होंने बिना अनुमति धरना प्रदर्शन के लिए मना किया लेकिन भोजू मान नहीं रहा है।
यह तय है कि और पुलिस फोर्स के आने में देर नहीं लगेगी। वह इन्हें आगे बढ़ने नहीं देगी। भोजू के चुने हुए बदमाश इसी समय पुलिस पर पत्थरबाजी, गाड़ियों, दुकानों में आग लगाने का काम शुरू कर देंगे। मजबूरन पुलिस सख्ती करेगी, लाठी, गोली चलाएगी। दर्जनों लोग मारे जाएंगे। भोजू यही चाहता है। और यह होकर रहेगा। क्योंकि जो भीड़ उसके साथ चल रही है वह तो पूजा के लिए इकट्ठा हुई थी। उसे इस साजिश का पता ही नहीं है। साजिश से अनजान मासूम मारे जाएंगे। फिर विपक्षी पार्टियां मरे हुए लोगों की हितैषी शुभचिंतक बनकर आगे बढ़ेंगी। मीडिया तो चिल्लाएगा ही। हर तरफ से बहुतों का सपोर्ट मिलेगा भोजू को। जातीय राजनीति को इनकार करने का ढोंग करते हुए पार्टी उसे हाथों-हाथ ले लेगी। पैसा, आदमी, आंदोलन को और आग देने के लिए कूटनीतिज्ञों की सेवाएं बस अगले कुछ ही घंटों बाद भोजू के कदमों में ढेर होने लगेंगी।
नेताजी इनफॉर्मर की बातों को इससे ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाए। इतना क्रोध में आ गए कि मोबाइल पूरी ताकत से सामने दीवार पर दे मारा। मोबाइल कई टुकड़ों में जमीन पर बिखर गया । करीब एक लाख रळपए के उनके मोबाइल के कई टुकड़े वापस उनके करीब आकर गिरे। पसीने से तर नेताजी थरथर कांप रहे थे।
ट्रक ड्राइवर को भी गाली दिए जा रहे थे कि साले ने पैसा ले लिया लेकिन काम नहीं किया। कर दिया होता तो आज यह भोजू...... फिर कई गंदी गालियां दीं। बुदबुदाए ठीक है ट्रक से नहीं मरा, ना सही। लेकिन मरेगा निश्चित।नेता जी ने इसके साथ ही एक और कठोर निर्णय ले लिया कि वह ट्रक ड्राइवर को भी मारेंगे। आज इन दो में से एक को जरूर मरना है। उसे उसके धोखे की सजा देंगे। वह दांत किटकिटाते हुए बुदबुदाए भोजुवा तुझको ऐसे आसानी से नहीं छोड़ दूंगा। साला लेखक रोज शाम को आने के लिए कहता है। आज फिर कहा है। देखता हूं यह नमक-हराम क्या समाधान निकालता है। बहुत पैसा खर्च किया है साले पर।
नेताजी कुछ देर बैठे रहे। इस बीच मोबाइल की आवाज सुनकर पत्नी आई और मोबाइल के बिखरे टुकड़ों को देखकर समझ गई कि क्या हुआ? उसने मोबाइल के सारे टुकड़े उठाकर नेताजी के सामने सेंटर टेबल पर रख दिया। एक गिलास ठंडा पानी भी र्ले आइं। और बिना कुछ कहे वापस चली गईं। उनके जाने के बाद नेताजी ने सिम उठाया उसे दूसरे मोबाइल में लगाया। उसे वह कुछ दिन पहले ही लाए थे, लेकिन लाने के बाद मॉडल से ना जाने क्यों उनका मन हट गया। उन्होंने उसे रख दिया था, इस समय वही काम आ गया। मोबाइल ऑन होते ही उन्होंने अपने लोगों को फ़ोन कर-कर के भोजू की लोकेशन लेनी शुरू कर दी।
आधा घंटा भी ना बीता होगा कि इनफॉर्मर का फ़ोन फिर आ गया। उसने नमक मिर्च के साथ फिर सूचना देनी शुरू की। छूटते ही कहा, ‘पहले जहां एक-दो मीडियाकर्मी थे वहीं अब सारे प्रमुख चैनलों की ओ वी वैन आ गई हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमावड़ा हो गया है। बड़ी संख्या में पुलिस, पीएसी, रैपिड एक्शन फोर्स आ गई हैं। जुलूस को आगे बढ़ने से रोकने की पूरी कोशिश हो रही है। लेकिन साजिशन भोजू मुठभेड़ के लिए आमादा है।इनफॉर्मर इतना ही बोल पाया था कि एक जोरदार धमाके की आवाज ने नेताजी के कान को सुन्न कर दिया। इनफॉर्मर की भी आवाज बंद हो गई। फ़ोन डिसकनेक्ट हो गया था ।
नेताजी की घबराहट से ज़्यादा उत्सुकता और बढ़ गई कि क्या हुआ? भोजू अपनी योजना में कामयाब हो गया क्या? उन्होंने कॉल बैक किया तो इनफॉर्मर छूटते ही बोला आप न्यूज़ चैनल देखिए मैं बाद में कॉल करूंगा।नेताजी चीख-पुकार, गोलियों की आवाज, धमाके, शोर के बावजूद कुछ और पूछना चाह रहे थे, लेकिन उधर से फोन काट दिया गया। नेताजी ने रिमोट उठाकर तुरंत टीवी ऑन किया। समाचार चैनल लगाने शुरू किए लेकिन किसी पर भोजू के बारे में कहीं कुछ नहीं आ रहा था। वह चैनल बदलते रहे। लोकल न्यूज़ चैनल तक पहुंचे लेकिन वहां भी भोजू के बारे में कुछ नहीं था।
उन्होंने इनफॉर्मर को फिर गाली दी। यह भी साला दगाबाज निकला क्या?’ उन्होंने रिमोट साइड में रख दिया। उन्हें महसूस हुआ कि गला बुरी तरह सूख रहा है तो पानी उठाकर पिया। उसके पहले पत्नी जो प्रसाद रख गई थीं उसमें से एक पीस मिठाई उठा कर खा ली थी। मिठाई, पानी ने गले को कुछ तरावट दी तो बेचैन नेता जी ने रिमोट उठाकर फिर चैनल बदलना शुरू किया। कुछ ही चैनल बदल पाए थे कि उन्हें एक चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती मिली कि, ‘आंदोलनकारियों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई। सूत्रों के अनुसार डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों की मौत। मरने वालों में महिलाएं, बच्चे भी शामिल।
नेताजी की नजरें टीवी पर जम गईं। आधे घंटे में पूरी तस्वीर साफ हो गई। इनफॉर्मर ने जो बताया था थोड़ी देर पहले वही सब हुआ था। कई गाड़ियों, दुकानों, पुलिस के वाहनों को आंदोलनकारियों ने आग के हवाले कर दिया था। पुलिस ने पहले लाठी, आंसू गैस, वाटर कैनन का इस्तेमाल किया लेकिन जब उपद्रवी काबू में नहीं आए तो मजबूरन गोलियां चर्लाइं। मरने वालों में सात बच्चे, छह महिलाएं, पांच पुरळष थे। दो दर्जन से अधिक पुलिसवाले भी घायल हुए। भोजू सहित सैकड़ों लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।
भोजू को बिना अनुमति जुलूस, धरना, प्रदर्शन करने, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने, क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने, दंगा बलवा करने के आरोप में गिरफ्तार किया। वह जो चाहता था वह सब हो गया था। वह चैनलों पर छाया हुआ था। जब पुलिस उसे गिरफ्तार करके गाड़ी में बैठा रही थी तो उसने चैनल वालों से चीख-चीख कर कहा कि, ‘पुलिस वालों ने चित्रांशियों के शांतिपूर्ण आंदोलन का बर्बरतापूर्वक दमन किया है। सरकार ने जालिम जनरल डायर की याद दिला दी है। इतिहास को दोहराया है। लेकिन वह अच्छी तरह समझ ले कि दमन से हम झुकने वाले नहीं हैं।
डायर ने स्वतंत्रता सेनानियों का दमन किया, उनकी हत्या की तो उनका भी शासन नहीं रह पाया। इस सरकार की भी उल्टी गिनती शुरू हो गई है। हम चित्रांशी अब चुप नहीं रहेंगे। देशभर में फैलेगी यह आग। हम अपने अधिकार लेकर रहेंगे। हमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण चाहिए ही चाहिए।वह चीख-चीख कर बोले जा रहा था। रिपोर्टर माइक लिए उसी पर टूटे पड़ रहे थे। पुलिस ने जल्दी ही भोजू को ठूंस कर गाड़ी के अंदर भर दिया था। चैनल बार-बार यही दृश्य दिखाए जा रहे थे। एंकर, रिपोर्टर चीख-चीखकर वही बात दोहराए जा रहे थे। उनकी बातें नेताजी के सिर पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं।
वह धम से सोफे पर बैठ गए। उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि वह क्या करें। दिमाग में भयानक उथल-पुथल मची हुई थी। वह सोच रहे थे कि मेरे पीछे-पीछे चलने वाला भोजू देखते-देखते घंटे भर में नेता बन गया। एक साथ सारे चैनलों पर छाया हुआ है। पूरा देश देख रहा है। देश क्या विदेशी चैनल भी तो दिखा ही रहे होंगे। इतना बड़ा बवाल हुआ है। इतने सारे लोग मारे गए हैं। घायलों में से भी अभी बहुत से मर जाएंगे। सारे छोटे बड़े लीडर किस तरह इसी साले के पक्ष में बोल रहे हैं। जाति के नाम पर यह बवाल हुआ है। इसमें भी आलाकमान सुर में सुर मिलाए हुए है। साला कोई मॉरल ही नहीं रह गया है। नेताओं के पीछे-पीछे चलने वाले, जय-जयकार करने वाले के लिए भी आलाकमान घंटे भर में ही लाल गलीचा बिछाने लग गया है। देखता हूं, इस अपमान का बदला लेकर रहूंगा।
नेताजी शाम को लेखक के आने तक कहीं बाहर नहीं गए। खाना भी ठीक से नहीं खाया। दिनभर टीवी के सामने जमे रहे। जहां-तहां फ़ोन मिलाते रहे। शाम को लेखक ने आने में दो घंटे की देरी कर दी। इससे उनकी खीझ, गुस्सा और बढ़ गया था। लेखक को सामने देखते ही नेता जी एकदम से तिलमिलाए। लेकिन स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अपने गुस्से पर बड़ी मुश्किल से काबू कर लिया। फिर भी बड़े तल्ख अंदाज में बोले-
क्या भाई, यह क्या तरीका है। ना कॉल रिसीव करते हैं ना मैसेज का जवाब देते हैं। मैं सुबह से परेशान हूं।
इसी बीच लेखक मुस्कुराते हुए उनके करीब पहुंचे और उनका हाथ दोनों हाथों से पकड़ लिया। नेताजी पहले से ही हाथ बढ़ाए हुए थे। लेकिन लेखक की मुस्कुराहट ने उन्हें जैसे चिढ़ाने का काम किया। लेखक ने उनके मनोभावों को तुरंत भांप लिया था इसलिए उन्हें सोफे पर बैठाते हुए बोले-
नेताजी माना भोजू ने अभी दुनिया अपनी मुट्ठी में कर ली है। मगर हर बंद मुट्ठी को खोलना मैं जानता हूं। उसकी मुट्ठी में बंद दुनिया छीनकर मैं आपकी मुट्ठी में बंद कर दूंगा।
नेताजी एकटक लेखक को देखते हुए बोले मैं हमेशा आपकी बातों पर आंख मूंदकर यकीन करता रहा हूं। लेकिन पता नहीं क्यों आज नहीं कर पा रहा हूं।
आपका विश्वास इस प्रकार डोलने की वजह मैं जानता हूं । और यह भी मानता हूं कि आप की जगह जो भी होगा उसका भी यही हाल होगा।
यह सब छोड़िए, इतिहास दोहराने की जरूरत नहीं है। आज अभी की बात करिए। मेरी मुट्ठी में दुनिया कब बंद करेंगे? कैसे करेंगे? यह बताइए।
नेताजी ने एकदम खीज कर कहा तो लेखक कुछ देर चुप रहे। उन्हें देखते रहे। उन्हें नेताजी की बात बुरी लगी थी लेकिन नाराजगी के कोई भाव चेहरे पर आने नहीं दिया। जब पूरी तरह जज्ब कर लिया तब बोले-
नेताजी हर आदमी का काम करने का अपना तरीका होता है। मैं मानता हूं कि इतिहास की नींव पर ही भविष्य की इमारत बनती है। नहीं तो इमारत सतह पर ही खड़ी रहती है। हल्का सा झटका, आंधी चलते ही धराशायी हो जाती है। खैर आपने कहा इतिहास नहीं तो नहीं। अब बात भोजू की मुट्ठी से दुनिया को मुक्त कराने की। देखिए मैं जो कहने जा रहा हूं उसे बहुत ध्यान से सुनिएगा और उससे पहले यह दृढ़ निश्चय कर लीजिए कि मैं जो कहूंगा उस पर आप दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ेंगे।
बुलाया किसलिए, आप कुछ कहिए, तभी तो यह डिसाइड होगा कि बढ़ा जाए कि नहीं।
देखिए भोजू ने एक संवेदनशील मुद्दा उठाया है। पूजा को ही सीधे पुल बनाकर आगे बढ़ गया। पुल उसका बहुत कारगर निकला। वह सफल है। आपके आलाकमान जैसे बयान दे रहे हैं, उससे यह साफ हो गया है कि जैसे पिछले दिनों एक राज्य के चुनाव के समय एक नहीं तीन-तीन यंग्स्टर को आपकी पार्टी ने कैच किया, उन्हें पूरी रणनीति, धनबल, बाहुबल दिया। उनके आंदोलन में दिखने वाली भीड़ भी आपके आलाकमान के निर्देश पर मैनेज की गई। आगजनी हिंसा के लिए खास तौर से पेशेवर बदमाशों की फौज उपलब्ध कराई गई, जिससे जबरदस्त हिंसा हुई।
परिणाम यह हुआ कि जातीय आग बड़े पैमाने पर भड़की। वोटों का पोलराइजेशन हुआ, कई सीटों पर आपकी पार्टी को फायदा हुआ। तीनों आपकी पार्टी के टूल बने। इनमें से दो टूल विधायक बनकर आपकी पार्टी के साथ हो गए। तीसरा भी निश्चित ही विधायक बन जाता। लेकिन तकनीकी कारणों से वह चुनाव नहीं लड़ सका। आज की डेट में यह तीनों आपकी पार्टी के इंपॉर्टेंट टूल हैं। जहां भी, जब भी चुनाव होता है, यह टूल स्टार्ट कर दिए जाते हैं। ये उस जगह पहुंच कर माहौल डिस्टर्ब करते है। घृणा, वैमनस्यता का जहर घोलकर वोटों का ध्रुवीकरण कराते हैं। दंगा बलवा करवाते हैं।
आप कहना क्या चाहते हैं वह कहिए ना, इस कहानी का मैं क्या करूं। यह सब बातें तो आप से पहले ही हो चुकी है। अब दोहराने का क्या मतलब?’
यही फ़र्क है आप में और भोजू में।
यह सुनकर नेताजी भड़क उठे। वह समझ गए थे कि लेखक आगे क्या बोलने वाला है। इसलिए पहले ही उखड़ पड़े। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से लेखक पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वह एक योगी की भांति उन्हें शांत भाव से देखकर फिर बोले-
मैं यह कहना चाह रहा हूं, वह शॉर्टकट रास्ता बताना चाह रहा हूं, जिस पर चल कर आप अपने इस प्यादे भोजू से आगे निकल जाएं। जो आपसे ज्यादा तेज़ चल कर राजा बन बैठा है। उसे आप एक झटके में घोड़े की ढाई चाल से शह और मात देकर विजेता बन जाएं।
नेताजी लेखक को गौर से देखते रहे। इस बीच उन्होंने लेखक के लिए चाय नाश्ते के लिए कह दिया था। लेखक चाय-नाश्ते की बात पर पल भर को ठहरे थे। फिर बोले-
नेताजी सच बोलूं तो भोजू ने संवेदनशील मुद्दा पकड़ा नहीं, बल्कि खुद ही सृजित कर लिया है। वैसे ही क्या आपके दिमाग में ऐसा कोई मुद्दा है ?’
नेताजी लेखक की बात कुछ-कुछ समझते हुए बोले-
फिलहाल तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। आप ही बताइए, आपको बुलाया किसलिए है?’
ठीक है सुनिए। भोजू ने जो मुद्दा उठाया है उससे उसने अपने को एक जाति तक सीमित कर लिया है। इससे यदि वह चुनाव लड़ता है तो अपनी ही सीट जीत ले तो बड़ी बात है। क्यों कि अपनी जाति के शत-प्रतिशत वोट पा कर भी वो अपनी सीट निकाल नहीं पाएगा। हां मेन खिलाड़ियों का खेल जरूर बिगाड़ देगा। संक्षेप में वोट कटवा बन कर रह जाएगा। सपोर्ट मिलने पर ही जीतेगा। यह भी उन्हीं तीन यंग्स की तरह आपकी पार्टी का एक और टूल ही बनेगा। वह एक आंदोलन खड़ा कर नेता बन गया है। उसकी दुकान सज गई है। लेकिन वह हमेशा डिपेंड रहेेगा बड़े खिलाड़ियों पर। यानी कि वोट बैंक के बड़े सौदागर अर्थात् बड़ी राजनीतिक पार्टियां इसे यूज करेंगी। इसके पास स्वयं को यूज़ होते रहने देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
बात लंबी खिंचती देख नेताजी ने फिर टोका-
महोदय आपके तरकस में मेरे लिए कौन सा ब्रह्मास्त्र है वह बताइए।
धैर्य रखिए वही बताने जा रहा हूं। मैं जो तीर आपके लिए निकालने जा रहा हूं वह आपके लिए वाकई ब्रह्मास्त्र है। जो आपको देखते-देखते सिर्फ हिंदुस्तान के हिंदुओं का ही हीरो नहीं बना देगा बल्कि पूरी दुनिया में फैले हिंदुओं के आप हीरो बन जाएंगे। आंदोलन चलाने के लिए दुनिया भर से आप पर चंदों की बरसात होने लगेगी। साथ ही आप के इस आंदोलन के तूफान में भोजू तिनके की तरह उड़ जाएगा। उसका कहीं अस्तित्व तक नहीं रह जाएगा। और आप भोजू की तरह किसी पर डिपेंड नहीं रहेंगे, किसी के भी टूल नहीं बनेंगे।
लेखक की इन बातों से नेताजी के मन में एक साथ बहुत सी फुलझड़ियां छूटने लगीं। लेकिन अपने चेहरे पर वह कोई भाव नहीं आने दे रहे थे। लेखक ने आगे बोलना जारी रखा। सीधे-सीधे पत्ता खोलते हुए कहा-
आप इस मांग को लेकर आंदोलन शुरू करिए कि जब किसी और धर्म के पूजा स्थलों में आने वाले चढ़ावे, उसकी आय के स्रोतों पर सरकार का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है तो हिंदुओं के पूजा स्थानों पर क्यों है? हिंदुओं के पूजा स्थानों पर से सारे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण तत्काल हटाए जाएं अन्यथा सारे धर्मों पर एक नियम कानून लागू किए जाएं। क्योंकि यह धर्म के नाम पर एक अमानवीय भेदभावपूर्ण कूकृत्य है, अन्याय है, जो आजादी के बाद से ही सरकार द्वारा हिंदुओं के साथ किया जा रहा है। यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान की इस भावना का घोर उल्लंघन है कि धर्म के आधार पर भी किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जो कि सारे हिंदुओं के मन में है। लेकिन हिंदू क्योंकि धर्म को लेकर कट्टर धर्मांध नहीं है, इसलिए उनके मन की यह बात उनके मन में ही तैर रही है। कोई जरा सा इस मुद्दे को छेड़ेगा तो उसे बड़ा समर्थन मिल जाएगा।
लेखक की बात को बीच में ही काट कर नेता जी बोले-
आप यह क्या कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूं। अरे यह बात न जाने लोग कब से जान रहे हैं, समझ रहे हैं, ना जाने कितने कॉलमिस्ट ने लिखा है। लिखते ही आ रहे हैं। तमाम डिबेट में बोला गया है। हिंदुओं में हलचल तो छोड़िए सुगबुगाहट तक नहीं हुई। आपके पास ऐसा कोई अस्त्र-शस्त्र्र है जो भोजू को फिर से वहीं पहुंचा दे जहां वह था। और मेरा कॅरियर उस जगह से भी आगे पहुंच जाए जहां तक मैंने सोचा भी नहीं है। दसियों साल का समय, करोड़ों रुपये  बर्बाद कर चुका हूं। बदले में विधायकी का भी टिकट पक्का नहीं। गले पर तलवार लटकती रहती है। आलाकमान का मुंह ताकते बीतता है।
नेताजी एकदम बिलबिला कर बोले। मारे बेचैनी के उठ कर खड़े हो गए। उनकी इस हालत पर भी लेखक शांति से नाश्ते पर धीरे-धीरे हाथ साफ करते रहे। पनीर टिक्का और कॉफी लेते रहे। और फिर पूरी शांति के साथ बोले-
नेताजी मैं बार-बार कह रहा हूं कि आप धैर्य से सुनिए। जैसे भोजू ने जो मुद्दा, मुद्दा था ही नहीं कभी। कुछ पर्सेंट कायस्थों के मन में वह बात आई-गई जैसी हो गई थी। उसे वह आज की डेट में एक ज्वलंत मुद्दा बना कर एक ऐसी ताकत बन बैठा है, जिसे सभी पार्टियां कैच करना चाहती हैं। वैसे ही जो बात मैंने कही वह भी है। बल्कि सही यह है कि यह हज़ार गुना ज़्यादा आगे है। सही मायने में यह एक मुद्दा पहले से है। बारूद के ढेर जैसा है। जिसमें  एक चिंगारी दिखाने भर की देरी है।
आपको बस यही चिंगारी दिखानी है। चिंगारी कैसे दिखानी है यह मैं आपको बता रहा हूं। आपने अभी तक दसियों साल, करोड़ों रळपए खर्च किए हैं लेकिन रिजल्ट आपके हिसाब से जीरो है। अब आपको बस कुछ रुपये और खर्च करने हैं। चार पांच-सौ आदमी इकट्ठा करने हैं, धरना प्रदर्शन की प्रशासन से इजाजत लेनी है। मिलती है तो ठीक, नहीं मिलती है तो ठीक। प्रदर्शन होना ही है। बाकी काम मीडिया के हवाले कर दीजिए।
लेखक की बात पर नेताजी बड़ी कड़वाहट भरी हंसी हंसे। फिर बोले-
मैं बहुत गंभीरता से पूछ रहा हूं कि क्या यह मुद्दा वाकई इतना दमदार है कि यह राजनीति की दुनिया में तूफान ला देगा। अगर है तो आप ने पहले क्यों नहीं बताया? मुझे ही क्यों बता रहे हैं? आपके तो बहुत से राजनीतिक मित्र हैं। जमाने से हैं। कई तो मुझसे भी बड़ी हैसियत रखते हैं। उन्हें बता कर क्यों नहीं उन्हें बड़े से और बड़ा बना दिया?’
नेता जी की बात से लेखक महोदय तिलमिला उठे। नेता जी ने सीधे-सीधे उनका अपमान किया था। उनकी विश्वसनीयता, उनकी क्षमता पर सीधे-सीधे प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। जिससे लेखक गुस्से से भर गए। लेकिन दूर की सोच कर खुद पर नियंत्रण करने का पूरा प्रयास किया। फिर भी कुछ हद तक आगे उनकी बातों पर उसकी झलक दिखती रही। उन्होंने प्लेट में अभी भी पड़े काफी सारे पनीर टिक्कों में से एक छोटा पीस उठा कर मुंह में डाला। मानो उसके सहारे वह अपना गुस्सा पूरा निगल जाना चाह रहे हों। फिर बोले-
मुझे बेहद अफसोस है कि आप मुझे आज तक इतना ही नहीं बल्कि यह कहूंगा कि आप बिल्कुल भी नहीं समझ पाए। थोड़ा बहुत भी जाना होता तो निश्चित ही ऐसी बात नहीं करते। आपने मुझ पर बहुत खर्च किया है। कई बड़े-बड़े काम कराए हैं। यह, यह पनीर टिक्का अभी भी खा ही रहा हूं । यह बड़ी टेस्टी स्ट्रांग कॉफी भी पी रहा हूं। इसलिए अपना कर्तव्य पूरा किए बिना नहीं रह सकता।
लेखक की बातों से नेताजी को लगा कि यह बहुत बुरा मान गए हैं। तुरंत ही उनके दिमााग में बात आई कि इस कठिन समय में यह भी साथ छोड़ गए तो मुश्किल बढ़ जाएगी। यह मुझसे रूठा तो निश्चित ही यह भोजुवा के साथ खेलेगा। इसे साथ रखने में ही भलाई है। फायदा है। काम ना आएगा तो कम से कम भोजुवा के साथ मिलकर मेरे लिए एक और मुसीबत तो नहीं बनेगा।नेताजी ने बड़ी तेजी से यह कैलकुलेशन किया और तुरंत बोले-
सुनिए-सुनिए, आप मेरी बात समझे नहीं। आप हमेशा मेरे लिए महत्वपूर्ण थे, रहेंगे, और ऐसे ही पारिवारिक मित्र भी। कितनी बड़ी है मेरी समस्या यह आप अच्छी तरह समझ ही रहे हैं। मेरे उतावलेपन का कारण भी। इसलिए आप मुझे वाकई समाधान जल्दी बताइए।
नेताजी का आखिरी सेंटेंस लेखक को फिर चुभ गया। वह बोले-
देखिए मंदिर वाला जो अंदोलन मैंने बताया है वही करिए। यह आपको नायक बना देगा। नायक।
लेकिन इस बात को तो आप मानेंगे ही कि आंदोलन में पांच-छः हज़ार से ज़्यादा भीड़ नहीं होगी तो फिर सफलता नहीं मिल पाएगी। क्या कहते हैं?’
लेखक कुछ देर तक नेताजी को एकटक देखने के बाद बोले-
मैं हर एंगल से सोचने-समझने के बाद ही बोल रहा हूं । यह अच्छी तरह जानता हूं कि आप पैसे से तो कमजोर नहीं पड़ेंगे, लेकिन सच यह भी है कि हर संभव प्रयास करके भी आप पांच सौ से ज़्यादा लोग इकट्ठा नहीं कर पाएंगे। और जोरदार शुरळआत करने के लिए हर हालत में कम से कम चार-पांच हज़ार आदमी तो चाहिए ही चाहिए। बड़ी भीड़ होगी तो मीडिया, पुलिस महकमा भी बड़ी संख्या में इकट्ठा होगा। बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ भी हर हाल में करवानी ही होगी। तभी बड़ी हलचल होगी। इतनी बड़ी की राष्ट्रीय स्तर पर लोग उसे देख पाएंगे। तभी आप अपने उद्देश्य तक पहुंचने में सफल होंगे।
यह भी अच्छी तरह जानता हूं कि आप जो भीड़ लाएंगे उसमें से बहुत से तो पुलिस का जमावड़ा देखकर ही पीछे से ही इतने पीछे हो जाएंगे कि कहीं दिखाई ही नहीं देंगे। तो ऐसे लोग तोड़फोड़ क्या कर पाएंगे।
यही तो मैं कह रहा हूं कि यह आंदोलन संभव नहीं है, इतना आसान होता तो अब तक न जाने कितने लोग आंदोलन चला चुके होते।
नेताजी के चेहरे पर निराशा साफ झलकने लगी थी। उनको महसूस हुआ कि जैसे उनका दिल बैठा जा रहा है। उन्होंने पानी का गिलास उठाया और पूरा पी गए। लेखक इस बीच उन्हें ध्यान से देखते रहे। नेताजी की दयनीय हालत का अक्षर-अक्षर आसानी से पढ़े जा रहे थे। उनके चेहरे पर कोई बडी़ सफलता पा लेने जैसी खुशी की रेखाएं उभर रही थीं। जिसे हलकान हुए जा रहे नेताजी देख नहीं पा रहे थे। आखिर लेखक फिर बोले-
आप नाहक परेशान हुए जा रहे हैं। मैंने कहा ना कि मैं हर एंगल से सोच समझकर बोल रहा हूं। हज़ारों की भीड़ कैसे आएगी यह सब मुझ पर छोड़ दें, मैं ले आऊंगा। आप बस पैसे और जितनी ज़्यादा गाड़ियों का इंतजाम कर सकते हों वह करिए। इस मैटर पर भीड़ के सामने और मीडिया के सामने क्या-क्या बोलना है उसकी तैयारी करिए। ना हो सके तो वह भी बताइए, वह भी मैं कर दूंगा।
भीड़ के सामने क्या-क्या बोलना है लिखकर दे दूंगा, देख लीजिएगा। मीडिया कैसे-कैसे प्रश्न कर सकती है उनके उत्तर आपको क्या-क्या देने हैं, वह भी लिख कर दे दूंगा। रट लीजिएगा। वैसे भी आपकी पार्टी का युवराज लीडर भी तो यही करता है। चार सेंटेंस कहीं किसी विजिटर रजिस्टर पर भी लिखना होता है तो लिख कर जो दे दिया जाता है वही मोबाइल में देख कर लिखता है। फुली कंफ्यूज्ड पर्सन है। आप तो खैर विद्वान आदमी हैं। कई बार आपको बोलते देखा है।
नेताजी लेखक की बातें सुनकर उन्हें आश्चर्य से देखने लगे। उन्हें अपनी तरफ ऐसे देखते पाकर वह बोले-
ऐसे आश्चर्य से क्यों देख रहे हैं। मेरी बातों पर यकीन नहीं हो रहा है क्या?’
आश्चर्य क्या, यह बातें कोई नेता, माफिया कहता कि आप पैसों, गाड़ियों का इंतजाम करिए मैं हज़ारों लोगों को इकट्ठा कर दूंगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, मामूली बात थी। आप जैसा एक लेखक, एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर व्यक्ति कहे तो मैं क्या कोई भी आदमी आश्चर्य में पड़ जाएगा। आज तक आपका कोई भी ऐसा काम सामने नहीं आया है जिससे यह सोचा भी जा सके कि आप आठ-दस आदमी भी किसी आंदोलन के लिए ला सकेंगे। पिछले साल आपने अपनी किताब के विमोचन के लिए बुलाया तो मुझसे कहा कि ढंग के बीस-पचीस आदमी भेज दीजिए, जो दिखने में लिखने-पढ़ने वाले लगें।
आपके बार-बार फ़ोन करने पर जब मैं खुद पहुंचा तो मेरे आदमियों के अलावा वहां बमुश्किल और दो दर्जन लोग रहे होंगे। ऐसा आदमी किसी और के लिए कहे कि वह पांच-छ हज़ार आदमी आंदोलन के लिए इकट्ठा कर देगा तो आश्चर्य नहीं तो और क्या होगा? कौन विश्वास करेगा? सबसे बड़ी बात यह कि आज की डेट में जिस आदमी के पास इतनी क्षमता होगी तो वह खुद एक बड़ा नेता बन जाएगा। और आप तो एक बड़े अच्छे वक्ता भी हैं। जोरदार आवाज ही नहीं जब बोलना शुरू करते हैं, तथ्य-आंकड़ों की झड़ी जब अपने अकाट्य तर्कों की छौंक के साथ लगाते हैं तो पूरा समूह विस्मित भाव से देखता रह जाता है। मंत्रमुग्ध हो जाता है।
एक सफल नेता के लिए जो कुछ चाहिए वह सब कुछ आपके पास है, तो आप किसी और को नेता बनाने के लिए क्यों अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। आप सारा खेल छिपकर क्यों खेलना चाह रहे हैं, यह आश्चर्यजनक नहीं है? देखिए मैं इस समय बहुत परेशान हूं, बहुत बड़ी उलझन में हूं। मुझे साफ-साफ बताइए। आपकी बातों ने मेरी उलझन और बढ़ा दी है। बुलाया था समाधान के लिए लेकिन आप द्वारा खड़े किए जा रहे प्रश्नों ने उलझन और बढ़ा दी है। इसलिए सच मुझे तुरंत बताइए। और समय नहीं है मेरे पास।
नेताजी का चेहरा इस बार थोड़ा सख्त हो चुका था। लेखक समझ गए कि अब सही समय है कि वह अपनी वास्तविक बात कहें। लोहा एकदम गर्म हो चुका है। इतना गर्म कि उस पर हल्की सी चोट भी गहरे निशान छोड़ सकती है। इतना गहरा निशान कि यह तथाकथित नेता उनका एक जबरदस्त टूल बन जाएगा। इतना पावरफुल टूल कि इसके जरिए वह शतरंज की कोई भी बाजी जीत लेंगे। जिस मिशन में वह बरसों से लगे हैं, उसके पूरा होने के और करीब पहुंच जाएंगे। यह सोचते ही उन्होंने एकदम से ऐसा खुलासा किया कि उस कमरे में महाविस्फोट सा हो गया।
नेताजी हड़बड़ा कर अपनी जगह उठ कर खड़े हो गए। सेकेंडों में वो एसी कमरे में भी पसीने से तरबतर हो गए। जबकि एसी बाइस डिग्री टेंप्रेचर को मेंटेन किए हुए था। इसके बावजूद नेताजी के चेहरे पर पसीना इतना था कि वह नाक पर एक बूंद बनकर बस टपकने ही की स्थिति में आ गया। उनकी आंखों की बरौनी को भी पसीना छूकर नीचे गिर गया। गला उनका ऐसे सूख रहा था कि जैसे उनका ब्लड प्रेशर हाई हो गया हो।
जबकि लेखक एकदम शांत भाव से उन्हें देखते रहे। उनके अंतर्मन को पढ़ कर समझते रहे। वह खुश हो रहे थे कि जैसा वह चाहते थे हथौड़े ने गर्म लोहे पर बिल्कुल वैसी ही चोट की है। मन चाहा निशान लोहे पर उभर आया है और अब समय है कि गर्म लोहे पर ठंडा पानी डालकर बन चुके निशान को स्थाई बना दिया जाए। वह पानी का गिलास लेकर नेताजी के पास पहुंचे। उन्हें अपने हाथों से पानी पिलाया। फिर से सोफे पर बैठा दिया। और बहुत ही शांत भाव से बोले-
आप इतना हैरान-परेशान बिल्कुल ना हों। आप जो चाहते हैं उससे भी कहीं बहुत कुछ ज़्यादा आपको मिलेगा। इसके लिए जो कुछ चाहिए वह सब मेरे पास है। मैंने तो केवल पांच हज़ार आदमियों की बात की थी, लेकिन अब तो आपको यकीन हो गया होगा कि मैं चाहूंगा तो आप के लिए दस हज़ार आदमी भी इसी शहर में इकट्ठा कर दूंगा। अब तो आपको यह आंदोलन शुरू करने में कोई संकोच, कोई शक सुबहा नहीं रह गया होगा।
आंदोलन की निश्चित सफलता के लिए शुरू में जो भीड़ चाहिए उससे भी ज़्यादा मैं दूंगा। जब आंदोलन चल पड़ेगा तब आपके साथ बाकी लोग भी अपने आप ही गाड़ी, पैसों का इंतजाम कर के आएंगे। तब आपको ना गाड़ी का इंतजाम करना होेगा, ना पैसों का, ना ही मुझे आदमियों का।
नेताजी अब तक बहुत हद तक संभल चुके थे। अपना पसीना कई बार पोंछ कर सुखा चुके थे। जग से गिलास में डाल-डाल कर दो गिलास पानी भी पी चुके थे। गला अब पूरी तरह तर था। उन्हें संतुष्टि हो चली थी इस बात की कि लेखक जो कह रहा है, उसके कहे अनुसार चलकर वह आंदोलन इतने बड़े पैमाने पर चला ले जायेंगे कि आलाकमान को वो धो-धो कर मारेंगे। आलाकमान अब उनकी जी हुजूरी करता उनके पीछे-पीछे चलेगा। नेता जी बडी़ राहत महसूस करते हुए सोच रहे थे कि भोजुवा साला मेरी आंधी, तूफ़ान में तिनके की तरह ऐसा उड़ेगा कि उस का नामोनिशान मिट जाएगा। और उसके बाद इस लेखक। छोड़ो इसके बारे में तो बाद में सोचूंगा। यह साला इतना छुपा रळस्तम निकलेगा, इतना पहुंचा हुआ खिलाड़ी होगा सपने में भी सोचा नहीं था। सोचना क्या शक भी नहीं किया जा सकता था। अब जबकि बात खुल गई है, इसका असली चेहरा सामने आ गया है, तो जरूरी यह है कि इसकी एक-एक बात की जांच-पड़ताल कर ली जाए। पूरी तरह ठोंक-बजा कर देखना जरूरी हो गया है।नेताजी ने मन ही मन यह जोड़-घटाव करते हुए लेखक से पूछा-
आपके इस तरह के काम-धाम या इस रूप की मैंने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है, मैं अपनी बात दोहराऊंगा  कि जब आप इतना कुछ करने में सक्षम हैं, तो खुद आगे बढ़कर क्यों नहीं मोर्चा संभालते। मुझे क्यों आगे कर रहे हैं? और जब मैं आगे निकल जाऊंगा तो आपको क्या मिलेगा? आपका उद्देश्य क्या है? यह जाने बिना संशय की इतनी मोटी पर्तें हैं कि आगे बढ़ पाना बहुत कठिन लग रहा है।
नेताजी की बातें सुनकर लेखक सोचने लगे कि कहीं गाड़ी फिर ना पटरी से उतर जाए इसलिए तुरंत ही बोले-
आप निश्चिंत रहिए। मैं आपके संशय की सारी पर्तें तुरंत हटाता हूं। देखिए मेरा उद्देश्य वास्तव में संपूर्ण नक्सल जगत का उद्देश्य है। स्वर्गीय कानू सान्याल, चारू मजूमदार का सपना है। देश में जन सामान्य, मजदूरों की सरकार का सपना है। जो वर्तमान लोकशाही को समाप्त करके ही पूरा होगा। इस लोकशाही को उखाड़ने के लिए ऐसे ही जातिवादी, धार्मिक, क्षेत्रवादी, भाषावादी, अलगाववादी आंदोलनों की ही जरूरत है। ऐसे अंदोलन इस लोकशाही की जड़ों को खोखला कर देंगे। इतना कि एक दिन लोकशाही की दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र का भवन अपने आप धराशायी हो जाएगा। और तब इस विशाल हिंदुस्तान में जन सामान्य की, मजदूरों की, गरीबों की सरकार होगी। जो इनके लिए सच में काम करेगी। उनकी जमीनें भीमकाय उद्योगों के लिए जबरिया छीनी नहीं जाएंगी।
जिन क्षेत्रों में हज़ारों हज़ार वर्षों से जन-जातियों के लोग रहते आए हैं, उनसे उनका क्षेत्र छीना नहीं जाएगा। उसके मालिक वही रहेंगे। उसके नीति-नियंता वही रहेंगे। ना कि दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तथाकथित जनसेवक। जो जनसेवक के नाम पर धब्बा होते हैं। कहलाएंगे जनसेवक, लेकिन जनता की कमाई से प्रचंड तानाशाहों की तरह रहते हैं। करोड़ों की सैकड़ों गाड़ियों के काफिले में निकलते हैं। जनता के पैसों पर आलीशान ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जिएंगे और तुर्रा यह कि हम तो जनसेवक हैं।
अरे आप कैसे जनसेवक हैं भाई कि जनता आपकी छाया भी नहीं छू पाती। जब आपके निकलने का कार्यक्रम बनता है तो सड़के खाली करा ली जाती हैं। मकानों पर सुरक्षा के नाम पर सुरक्षाकर्मियों का कब्जा हो जाता है। आप का उड़न खटोला उतरेगा तो गरीबों की खून पसीने से सींची खड़ी फसल तबाह कर दी जाती है। यही है लोकाशाही है? ये लोकशाही नहीं है, जन की सरकार नहीं है। लोग जिन्हें चुनते हैं वही चुने जाने के बाद सामंत बन बैठते हैं।
देखते-देखते करोड़पति, अरबपति, खरबपति बन जाते हैं। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति सबके सब सोने के अभेद्य किलों में पहुंच जाते हैं। और जनता उन्हें पांच साल तक ठगी सी देखती रहती है। वह भी रूबरू नहीं बस मीडिया में। वास्तव में राजशाही, तानाशाही का नया रूप है आज की लोकशाही। आज दुनिया में लोकशाही लोकतंत्र के नाम पर आम जनता का खून चूस रही है। यह भी तानाशाहों जितने ही अत्याचारी शोषक हैं। हमारा संघर्ष इन बहुरळपिए सामंतों, पूंजीपतियों से आमजन, गरीब, जनजातीय लोगों की मुक्ति का है। जमीन के मालिक जो आज ये पूंजीपति बन बैठे हैं, इनसे जमीनें मुक्त करानी है। इसे असली मालिकों को वापस दिलाना है। जो वास्तव में इन जमीनों के हक़दार हैं। हमारा एकमात्र उद्देश्य गरीबों को उनका हक दिलाना है। हम नक्सली किसी के दुश्मन नहीं हैं। बस अपने अधिकार के लिए लड़ रहे हैं।
लेखक अपनी बातों को कहते-कहते काफी उग्र हो चुके थे और नेताजी उन्हें कुरेद-कुरेद कर उनसे एक-एक सच जानने में लगे हुए थे। वह अंदर-अंदर भयभीत भी थे कि वह एक हार्डकोर शहरी पढ़े-लिखे प्रोफ़ेसर नक्सली के सामने बैठे हैं। उनके दिमाग में चार-पांच नक्सलियों की गिरफ्तारी घूम रही थी, जो कुछ दिन पहले ही गिरफ्तार हुए थे। उनमें भी प्रोफ़ेसर, वकील, लेखक, पत्रकार थे। तो क्या अब यह नक्सली सुदूर जंगलों, गांवों से निकलकर शहरों की ओर रुख  कर चुके हैं? शहरों में अपनी जड़ें गहरे पैठा चुके हैं? अपने मन में उठते तमाम प्रश्नों के साथ उन्होंने लेखक को फिर कुरेदा, उनसे पूछा,
आप यह बताइए कि आप चारू मजूमदार, कानू सान्याल के सपनों की बात करते हैं, लेकिन जहां तक मुझे याद पड़ता है कि कानू सान्याल ने जीवन के अंतिम समय में दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘‘नक्सल आंदोलन अपनी राह से भटक गया है। नक्सल आंदोलन में ऐसी हिंसा को स्थान नहीं दिया गया था, जैसी आजकल नक्सली कर रहे हैं।’’ यह बात सही भी है। आप लोग जिहादी आतंकियों से भी पहले से पकड़े गए निरीह मासूम लोगों के हाथ-पैर काटते आ रहे हैं। सिर कलम कर देते हैं । सुरक्षाकर्मियों की लाशों को चीरकर बम भरकर भेज देते हैं।
यह सब निरंतर जारी है। ये सब मरने वाले कोई अमीर नहीं गरीब ही होते हैं। ऐसे गरीब जिनके पास दो जून की रोटी भी नहीं होती। वो जब आपका साथ नहीं देेते तो आप कत्ल कर देते हैं। टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। ये कैसा न्याय है? ये गरीबों का कौन सा हित कर रहे हैं आप लोग। अमीरों से तो आप लोग सिर्फ़ पैसा लेते हैं। शायद ही कोई अरबपति, खरबपति हो जिसे आप लोगों ने मारा हो। एक से एक नक्सली पकड़े गए जो खुद अरबपति हैं। ऐशो आराम से रहते हैं। कहां से आता है इनके पास इतना अकूत धन। चारू मजूमदार, कानू सान्याल का सपना कहां है?’
लेखक को शायद अपने उग्र होने की गलती का एहसास हो चुका था, इसलिए जल्दी से उसने अपने को शांत कर लिया। और नेता जी के प्रश्न का बड़ी शांति से जवाब दिया। कहा-
देखिए हम सिर्फ यह जानते हैं कि उनका सपना क्या था ? रही बात रास्ते की तो जब पहला रास्ता मंजिल तक पहुंचता ना दिखे तो हमें तुरंत नया रास्ता ढूंढ़ कर उस पर चल देना चाहिए। हमें सिर्फ़ मंजिल दिखाई देती है, रास्ता कैसा है? यह सोचने का हमारे पास समय नहीं होता। ना ही हम ऐसा सोचना चाहते हैं।
लेकिन रास्ता भटक कर तो कभी मंजिल तक पहुंचा नहीं जा सकता।
मैंने कहा ना कि हम रास्ता भटके नहीं हैं, हमने रास्ता बदला है बस। भटकना और बदलना दोनों ही दो चीजें हैं। भटकते वो हैं जो जाना कहीं होता है अनजाने में चले कहीं और जाते हैं। बदलना वह है जो हर चीज को जान-समझकर सही का चयन कर के आगे बढ़ जाए।
मगर मैं तो यह समझ रहा हूं कि नक्सल आंदोलन धीरे-धीरे कमजोर पड़ रहा है। सिकुड़ता हुआ समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। सरकार तमाम नक्सल प्रभावित जिलों को, क्षेत्रों को नक्सल मुक्त क्षेत्र घोषित करती जा रही है। फिर यह जो आप कानू, चारू के सपने की बात कर रहे हैं इसके पूरा होने की बात कहां रह जाती है।
लेखक नेताजी की इस बात पर बड़ी रहस्यमयी हंसी हंस कर बोले-
भ्रम! सरकार, मीडिया दोनों ही बड़े भ्रम में हैं। गफलत में हैं। कहीं कुछ ऐसा नहीं है। जिस एरिया को वह नक्सल मुक्त बता रहे हैं, वास्तव में हम वहां अपना काम कर चुके हैं। हम अपनी जड़ों को वहां बहुत गहराई तक पहुंचा चुके हैं। जैसे गर्मियों में तेज धूप होने पर आपको लगता है कि दूब घास सूख गई है, खत्म हो गई है। लेकिन बारिश की एक फुहार पड़़ते ही वह पहले से भी कहीं ज़्यादा बड़े क्षेत्र में हरी-भरी होकर एकदम से प्रकट हो जाती है ।
ठीक वही स्थिति हमारी है। आप की सरकार हम से मुक्ति मानकर अपनी पीठ थपथपा रही है, खुश हो रही है। जबकि वास्तविकता इसके उलट है। आप आवश्यकता पड़ने पर उन क्षेत्रों से भी और बड़े क्षेत्रों में हर तरफ हमें पाएंगे।
जब इतना सफ़ल हो चुके हैं आप लोग, इतना फैल चुके हैं, तो क्यों नहीं अपनी जनसामान्य की सरकार बना लेते। आखिर अब किस बात की देर है, सपना पूरा कीजिए अपने महान कानू सान्याल का और चारू मजूमदार का।
आप भी कैसी बातें कर रहे हैं। हमारा सपना कुछ क्षेत्रों में अपनी सरकार बनाना नहीं है। हमें पूरे भारत में अपनी सरकार बनानी है। हम पूरे भारत से पूंजीपतियों की सरकार हमेशा के लिए उखाड़ फेंकेंगे। पूरे भारत से सफेद वर्दीधारी नेताओं को ही नहीं लोकशाही की विचारधारा का ही नामोनिशान मिटाना है। यह तभी हो सकता है जब दूरदराज के सुदूर गांव, कस्बा छोटे शहर ही नहीं मेट्रोपॉलिटन शहर की छोटी सी छोटी गलियों तक में हम अपनी जड़ें गहरे पहुंचाएंगे। जिससे वह नीचे तक इस तथाकथित लोकशाही की जड़ों को दीमक की तरह चाल डालें। जिस दिन हमें लगेगा कि हम दूब की तरह फैल चुके हैं भीतर-ही-भीतर पूरे देश में। इस लोकशाही की जड़ों को पूरी तरह चाल दिया है। उस दिन एक फुहार से ही पूरे देश में एकदम प्रकट होंगे और देखते-देखते खोखली जड़ों पर खड़े लोकशाही की इमारत को धराशाही कर देंगे। जो गरीबों के खून से सने गारे से बनी है।
गौर से सुन रहे नेताजी ने बीच में ही टोकते हुए कहा-
मैं इस समय इस बहस में कतई नहीं पड़ूंगा कि नक्सली अपनी दुकान चलाए रखने के लिए यह सब खेल कर रहे हैं। गरीब, आदिवासी सभी की यथा स्थिति बनाए रखना चाहते हैं। स्थिति पूंजीवाद से ही बदलेगी। विकास बिना पूंजी के होता नहीं, चीन भी इसी राह चल रहा है। मगर नक्सली भ्रम फैलाए हुए हैं? मैं इतना ही कहूंगा कि जब क्रांति करेंगे तो क्या यहां की सेना, सारी सिक्योरिटी फोर्सेज वह कहां चली जाएंगी? आप लोग लोकशाही के महल को गिराएंगे और लोकाशाही की इतनी बड़ी ताकत, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना चुपचाप देखती रहेगी। जिसके सामने आपका आका, आपका आयडल, आपका पालनहार चीन भी एक तरह से देखा जाए तो डोकलाम में बंदरघुड़की दिखाकर शांत हो गया। शांति की बात कर रहा है।
नेताजी की बात पूरी भी ना हो पाई थी कि लेखक कुटिल हंसी हंसते हुए बीच में ही बोले-
लगता है आप मेरी बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं। आप का मन कहीं और लगा हुआ है। बातों को समझ रहे होते तो यह प्रश्न करने को छोड़िए आप के मन में यह पैदा भी नहीं होता। खैर प्रश्न किया है तो उत्तर भी सुन लीजिए। यह बताइए मैं क्या हूं?’ कौन हूं?’
इस प्रश्न से नेताजी अजीब सी उलझन में पड़ गए। लेखक का असली परिचय मिलने के बाद उसको लेकर एक अजीब भय उनके मन के किसी कोने में बैठ चुका था। वह लेखक के नए प्रश्न से कुछ विचलित भी हो रहे थे कि अब यह क्यों पूछ रहा है कि ‘‘मैं कौन हूं?’’ इसके बारे में जो नहीं जानता था वह भी इसने बता दिया कि यह एक हार्डकोर नक्सली है। फिर यह प्रश्न मुझसे क्यों कर रहा है? आखिर मुझसे यह क्या कहलाना चाहता है। इसको तो अब बड़ा सोच-समझ कर जवाब देना होगा।उनको चुप देखकर लेखक ने पूछा -
आप कहां खो गए, जवाब नहीं दे रहे हैं कि मैं कौन हूं ?’
आप क्या जानना चाह रहे हैं मैं समझ नहीं पा रहा हूं। आप एक लेखक हैं। एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, विभागाध्यक्ष हैं। यह मैं बरसों से जानता हूं। समझता हूं। जो नहीं जानता था कि आप एक नक्सली हैं, आप का सपना चारू, कानू के सपनों को पूरा करना है। वह भी आप से जान चुका हूं। इसके बाद भी यह प्रश्न कि आप कौन हैं यह मैं समझ नहीं पा रहा हूं तो उत्तर क्या दूं ?’
चलिए ठीक है, मैं ही अपने प्रश्न का उत्तर भी देता हूं कि मैं कौन हूं? यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूं, विभागाध्यक्ष हूं। बेहिचक यह भी कहता हूं कि एक नामचीन लेखक भी हूं जिसकी एक दो नहीं डेढ़ दर्जन किताबें हैं। वह लेखक जिसके साहित्य पर दर्जन भर छात्र पी.एच.डी. कर चुके हैं। कई प्रोफेसर बन कर पढ़ा रहे हैं। आगे जो बताने वाला हूं वह सब आप आसानी से ज़्यादा बात किए बिना समझ जाएं इसलिए यह सब कह रहा हूं, कि आलोचक मेरे साहित्य को उग्र वामपंथी सोच का प्रतीक कहते हैं। कुछ ज़्यादा ही घुटे हुए जो आलोचक हैं वह तो दबे स्वर में ही सही मुझे नक्सली विचारों का पोषक, प्रचारक कहते हैं । उनकी तीक्ष्ण नजरों से मेरा वास्तविक चेहरा मुश्किल से बच पाता है ।
उनकी संदेह की नजर मुझ पर बनी ही रहती है। और स्पष्ट करूं तो सीधे से यह कि नक्सल एक विचार के रूप में पूरे देश में, हर क्षेत्र में फैल रहा है। शिक्षण संस्थाओं, न्यायपालिका, सिक्योरिटीज फोर्सेस, सेना, मेडिकल क्षेत्र, और प्रशासनिक क्षेत्र में भी। जिस दिन हर क्षेत्र में यह पर्याप्त रूप से फैल जाएगा उस दिन एक साथ क्रांति होगी। जिन सिक्योरिटी फोर्सेज, सेना, पुलिस की ताकत पर आप या आप जैसे लोग नक्सल आंदोलन को कुचलने का भरोसा किए बैठे हैं, जिनकी ताकत पर आप अपने दंभ में हैं वही ताकत आप की नहीं, परिवर्तित होकर नक्सली ताकत बन चुकी होगी। और यह निरंतर हो रहा है।
यहां तक कि आपकी पार्टी में भी हमारे विचारों के ढेरों समर्थक हैं। आप फिर कोई संशय प्रकट करें इसके पहले ही प्रमाण दिए देता हूं कि आपकी पार्टी के ही एक बड़े कद्दावर नेता ने बीते दिनों ही कहा है कि नक्सली क्रांति कर रहे हैं। उसने हमारे विचारों का पूरा समर्थन किया है। वह अभिनेता से नेता बना, नाचने गाने वाला आपके आला कमान का चहेता भी है। उसका पूरा परिवार ही नचनियां-गवनियां है। तो जब नचनिए गवनिए, आपकी फ़िल्म इंडस्ट्री वाले हमारे विचारों के समर्थन में हैं तो बाकी आगे की आप समझ सकते हैं। यह और आगे बढ़ेगा।
फिर दुनिया में महान रूसी क्रांति के बाद एक और उससे भी बड़ी महान क्रांति होगी। देश जनसामान्य के शासन तले आगे बढ़ेगा। लोकशाही का ठीक उसी तरह नामोनिशान नहीं रहेगा जिस तरह पूर्व सोवियत संघ में जारशाही का नामोनिशान नहीं रहा। मुझे लगता है कि अब और ज़्यादा समझाने की आवश्यकता नहीं है कि लोकशाही को नेस्तनाबूद कर जनसामान्य की सरकार कैसे बनेगी?’
नहीं, समझाने की तो नहीं लेकिन संशय की आखिरी पर्त रह गई है। आपको उस पर्त को भी हटाना है
नेताजी की बात सुनकर लेखक कुछ खीझते हुए अंदाज में बोले-
इतना कुछ बताने के बाद भी संशय की एक पर्त रह गई है, आश्चर्य है। बताइए वह आखिरी संशय की पर्त क्या है ? खुशी इस बात की है कि आपके संशय की यह आखिरी पर्त है।
लेखक की खीज को नेताजी ने भांप लिया था। वह नक्सली के सामने हैं इस भय के प्रभाव से वह करीब-करीब बाहर निकल चुके थे। अतः बेबाकी से बोले-
मैं आपकी सारी बातों से सहमत हूं, बस एक संशय यह कि आप एक तरफ अपनी पहचान दुनिया से छुपाने के लिए सारे जतन करते हैं, फिर अचानक ही आपने सारे सच मेरे सामने क्यों रख दिए। किसी और को भी तो आगे करके आंदोलन करवा सकते हैं। अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। मुझसे ही क्यों? मुझ में ही ऐसी कौन सी योग्यता देखी आपने कि सारे राज बता दिए।
क्योंकि मैंने देखा कि आप प्रतिद्वंद्विता में इस कदर धंसे हुए हैं कि भोजू की हत्या के लिए भी जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं । आपमें जैसा जुनून है मुझे अपने काम के लिए वही चाहिए था। आप में मिला तो आपसे बातें कीं। यानी सुपात्र से। बस इतनी सी बात है।
लेखक के मुंह से भोजू की हत्या के प्रयास की बात सुनकर नेताजी हक्का-बक्का हो गए। लेकिन पूरी ताकत से अपने को सामान्य बनाए रहे। अनजान बनते हुए कहा-
आप यह नई बात भोजू की हत्या के प्रयास की क्या कर रहे हैं? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।
मुझे सब मालूम है। अनजान ना बनिए। सतवीर ड्राइवर को भोजू को ट्रक से मारने के लिए कितने पैसे दिए यह भी।
इतना कहते हुए लेखक ने अपने मोबाइल को ऑन कर सतवीर और नेताजी की बातचीत की रिकॅार्डिंग सुना दी। सारी बातें एकदम साफ-साफ रिकॉर्ड थीं। नेताजी एक बार फिर पसीने से तर हो रहे थे। उनकी हालत का अंदाजा करके लेखक ने उन्हें फिर पानी पिलाया। समझाने के लिए उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा-
कोई बड़ा काम ऐसे परेशान होने से नहीं होता, पूरे जोश, होश, हिम्मत के साथ आगे बढ़ने से होता है। मेरी बात मानिए जैसा कह रहा हूं वैसा करिए, अपना आंदोलन खड़ा करिए। अपना सपना पूरा करिए। भोजू को नहीं उसके कद को खत्म करिए।
लेखक की बातों से नेताजी बहुत साफ-साफ समझ गए कि वह उसके चंगुल में ऐसा फंस चुके हैं कि वहां से उनका निकलना संभव नहीं है। उसे कोसते हुए सोचने लगे कि बुलाया था इसे किस लिए और हो क्या गया है। यह न जाने कब से मेरा पीछा कर रहा है। न जाने क्या-क्या जानता है। नहीं सुनता हूं तो जिस टोन में यह बोल रहा है उसमें साफ-साफ धमकी है कि भोजूवीर की हत्या के प्रयास में यह अंदर करा देगा। यह बात जानकर भोजूवीर भी मेरी जान का जानी दुश्मन बन जाएगा। ये साला लेखक तो जेल में भी मेरी हत्या करा देगा। मेरे बाद क्या होगा मेरे परिवार का ? इधर कुआं, उधर खांई, किधर कदम बढ़ाउळं।
उनको चुप देखकर लेखक ने फिर टोका। आजकल इतना सोचने नहीं तुरंत एक्शन लेने का दौर है। भोजू की तरह। सोचने-विचारने में समय लगाना आप जैसे नेताओं के लिए खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
मैंने डिसाइड कर लिया है कि मुझे क्या करना है। लेकिन मेरी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है कि मेरे इस एक आंदोलन से आप की महान क्रांति जैसे असंभव से सपने को पूरा करने में क्या मदद मिलेगी।
लेखक ने बड़ी मुश्किल से अपनी खीज पर नियंत्रण करते हुए कहा-
देखिए मैं बार-बार कह रहा हूं कि एक अकेले आपके ही आंदोलन से नहीं बल्कि ऐसे तमाम आंदोलन देशभर में होंगे और यह सारी बातें मिलकर ही चुनाव के करीब आने तक ऐसा माहौल बिगाड़ेंगे कि जिस एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता दिख रहा है वह भी पिछड़ जाएगी। अस्थिर मज़बूर सरकार अस्थिरता पैदा करेगी। आप क्या समझते हैं कि यह सब इतना आसान है। हम लोगों द्वारा बहुत कुछ देश भर में किया जा रहा है। बरसों-बरस से बराबर किया जा रहा है। हमारे काम का महत्व कितना है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा लीजिए कि हमें एक नहीं कई देशों से समर्थन, मदद सब मिलती रहती है। कुछ देर पहले आपने ही चीन को हमारा पालनहार कहा ही है। आप क्या समझते हैं यह जो मॉब लिंचिंग होती है, किसानों के उपद्रव होते हैं, चुनाव आते ही बढ़ जाते हैं, क्या यह सब अपने आप ही हो जाता है।
अपनी रोजी रोटी के लिए मर रही भीड़ के पास इतना समय कहां है। यह सब हम ही कराते हैं। हमारे प्रयासों से होता है। दस में से एक घटना ही भीड़ की होती है बाकी भाड़े के गुंडों से कराई जाती है। कभी दलितों की पिटाई, हत्या। कभी किसी को मंदिर में जाने से रोकना, कभी कुंए का झगड़ा, कभी शादी का लफड़ा। कभी युनिवर्सिटी में देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे, आए दिन पाकिस्तान जिंदाबाद, पाकिस्तान के झंडे फहराना ऐसी नब्बे परसेंट घटनाएं हमारे प्रयासों का ही परिणाम होती हैं। कभी आप लोगों के दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती कि ऐसी घटनाएं चुनाव के करीब आते ही क्यों हर तरफ होने लगती हैं ।
यह बातें मैं सिर्फ़ इसलिए बता रहा हूं जिससे आप हमारी ताकत, हमारे विस्तार का सटीक अनुमान लगा सकें । अपना कंफ्यूजन तुरंत दूर कर सकें । बताई इसलिए भी क्योंकि अब आप हमारे आदमी हैं। हमारे सदस्य बन चुके हैं। अपनों से कुछ क्या छुपाना, और क्या डिसाइड करना। इसी मंगल से आप का आंदोलन शुरू हो रहा है। यहां एक बड़े मंदिर में भीड़ में धक्का-मुक्की होगी, भगदड़ मचेगी। कुछ भक्त बेचारे मर जाएंगे। आप सिंपैथी में तुरंत वहां पहुंचेंगे, प्रशासन, मंदिर की व्यवस्था को एकदम दोषी ठहराएंगे। कहेंगे सरकार मंदिर का अधिग्रहण तो कर लेती है, लेकिन कोई व्यवस्था नहीं करती। जिस कारण आए दिन ऐसी घटनाओं में मासूम भक्त जान गंवाते हैं। इसलिए सरकार भारत के सभी मंदिरों से अपना शिकंजा हटाए।
व्यवस्थापक अपनी व्यवस्था खुद कर लेंगे। वैसे भी यह भेदभावपूर्ण है। संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। यह सारी बातें मंगलवार को आप मीडिया के सामने चीख-चीखकर कहेंगे। रही बात मीडिया की कि आप के पास क्यों आएगी? क्योंकि आपके साथ कम से कम दो ढाई सौ लोग होंगे। आप प्रशासन, लोगों की मदद कर रहे होंगे। दूसरे हम खुद मीडिया को इतना मैनेज करेंगे कि आप का व्यू लेने सब पहुंचेंगे। इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया दोनों ही। आप भी पार्टी लाइन के अगेंस्ट बोलकर, अगले दिन से बड़ा आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा करके भोजू की तरह छा जाएंगे,
आपकी सफलता और सुरक्षा भी इस बात पर निर्भर है कि हमारे आपके बीच हुई यह वार्तालाप कितनी गुप्त बनी रहेगी। मेरी तरफ से निश्चिंत रहें। मैं जो कहता हूं उस पर अंतिम सांस तक अडिग रहने का संकल्प रखता हूं। आप भी रखिए। आखिर आप एक बड़े व्यवसायी हैं। भरे-पूरे परिवार के स्वामी हैं।
लेखक यह कहते हुए उठे और नेता जी से हाथ मिला कर चले गए। उनकी आखिरी बातों में साफ-साफ धमकी सुनकर नेताजी बड़े गहरे सहम गए।
उन्हें लेखक की आंखों में भयानक गुस्सा, खून सब कुछ दिख रहा था। वह उसके जाने के बाद भी जहां के तहां बुत बने बैठे रहे। मंगल को मंदिर में भगदड़ में भक्तों के इधर-उधर पड़े शव, चीख-पुकार, खून, दबे-कुचले बच्चे, सब दृश्य उनकी आंखों के सामने घूम रहे थे। और खुद को वह इस भगदड़ के बाद अफरा-तफरी में इधर-उधर भटकते देख रहे थे। कुछ संभलने के बाद उन्होंने सोचा कि जो भी हो यह भगदड़ रुकनी चाहिए। हे भगवान यह राजनीति...।
नेता जी इतना जोर से चीखे कि पत्नी दौड़ी भागी उनके पास पहुंच गई। मगर नेता जी की हालत उनकी कुछ समझ में नहीं आ रही थी। पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोल रहे थे। स्तब्ध से सामने दिवार पर देखे जा रहे थे। मन में एक वाक्य दोहराए जा रहे थे कि जैसे भी हो लोगों की मौत रळकनी चाहिए। लेकिन कैसे? इस लेखक, नहीं-नहीं नक्सली राजा ने यह खुलासा तो किया ही नहीं कि भगदड़ किस मंदिर में होगी। हे भगवान मैं किस बवाल में पड़ गया। इस भोजू साले के कारण मैं कहां से कहां फंस गया। अब चाहे जो भी हो भोजू से पहले इस नक्सली से निपटुंगा। साला धमकी देकर गया है। मेरे परिवार पर नजर डाली है। लोकशाही के खात्मे का सपना देख रहा है। घबड़ा नहीं तुझे सपना देखने लायक ही नहीं छोडूंगा । अपनी राजनीति की बलि देकर भी तुझे समाप्त करना पड़ा तो अब पीछे नहीं हटूंगा। नहीं हटूंगा चीनी पिल्ले। तूने भले ही ऐसा फंसाया है कि ना निगलते बन रहा है ना उगलते।
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