मन्नू की वह एक रात
लेखक
प्रदीप श्रीवास्तव
मन्नू की वह एक रात
उपन्यास
लेखक
प्रदीप श्रीवास्तव
अनुभूति प्रकाशन
ओम नगर, आलमबाग
लखनऊ
प्रकाशक :अनुभति
प्रकाशन
५५७/२१ ,ओम नगर
आलमबाग ,लखनऊ -२२६००५
प्रथम संस्करण : ,२०१३ अनुभूति प्रकाशन
दूसरा संस्करण : नवम्बर २०१३ pustak.org
तीसरा संस्करण : दिसंबर २०१६ pustakbazaar.com
चौथा संस्करण : नवम्बर २०२१ matrubharti.com
ISBN No.978-1-9886580-1-8
कॉपीराइट : लेखक
पेंटिंग एवं आवरण
सज्जा : दिनेश चंद्र वर्मा
ले -आऊट :नवीन मठपाल
कम्प्यूटर कम्पोजिंग
:ज़ीशान हैदर
मुद्रक :
स्वास्तिका प्रिंटवैल
(इंडिया) प्रा.लि.
३३ ,कैंट रोड ,लखनऊ
फोन :०५२२ -४०१९९९१
पूज्य माता -पिता
को समर्पित
जिनकी शिक्षाएं
लेखन की प्रेरणा
देतीं
हैं .
एक रात के विजन से जुड़ा अद्भुत उपन्यास
‘मन्नू की वह एक रात’ ने मुझे हिलाकर रख दिया । अज्ञेय की ‘शेखर एक जीवनी’, नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ और डॉ0 सूर्य पाल सिंह की ‘रात साक्षी है’ हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में
‘एक रात’ के विजन से जुड़ी हुई हैं। प्रदीप श्रीवास्तव ने अपने इस प्रथम उपन्यास में चेतन-अवचेतन
के मनोविज्ञान को ‘एक रात के विजन’ से जोड़ कर अद्भुत सफलता प्राप्त की है।
पाठकीय संवेदना बड़ी सहजता से घटनाओं के विकास में भागीदारी का अनुभव करते हुए, विभिन्न स्थिति में ‘मन्नू के मनोविज्ञान’
को समझने का प्रयत्न करती है। ‘बेटे की चाहत’ के केन्द्र में मन और शरीर के संघर्ष की औपन्यासिक
संरचना संवाद-कौसल के रूप में यहाँ उपस्थित है। पाप-पुण्य , धर्म-अधर्म, कर्म -भाग्य , न्याय-अन्याय रचनाकार के निशाने पर हैं, जिसे समाजशास्त्र और दर्शन के बीच में खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है।
डॉ. शैलेन्द्रनाथ मिश्र
एक विलक्षण स्त्री किरदार मन्नू की त्रासदी का वृतांत
'मन्नू की वह एक रात’ प्रदीप श्रीवास्तव का पहला उपन्यास है। यह पूरा उपन्यास एक रात में दो सगी, शादीशुदा और उम्रदराज़ बहनों के संवाद के बीच आकार ग्रहण करता है। इसमें मुख्य किरदार
बड़ी बहन मन्नू अपनी छोटी बहन बिब्बो के सामने अपने तीन-साढ़े तीन दशकों के बीच फैले
जीवनानुभव के मर्म को परत-दर-परत उद्घाटित करती है। एक तरह से कहा जाए तो एक रात में
तीन-साढ़े तीन दशकों से ज़्यादा का लंबा समय समाया हुआ है। ‘वह एक रात’ मन्नू जैसे विलक्षण स्त्री किरदार की ‘कन्फ़ेशन’ की भी लंबी; किन्तु आख़िरी रात है। यह एक मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास है। इसमें
मन्नू की तरह की दमित, उत्पीड़ित और असफल असाधारण स्त्री किरदार के मन की सूक्ष्म परतों व गांठों को खोलने
का उपन्यासकार का कौशल सादगीपूर्ण है। कहीं कोई ‘फैंटेसी’ नहीं। उपन्यास का शिल्प यथार्थवादी है। इस उपन्यास की मुख्य किरदार मन्नू न चाहते
हुए भी अपनी चाहतों, सुखों को पाने की कोशिश में लगातार दलदल की ओर फिसलती चली जाती है। उसके जीवन में
एक-एक कर हादसे घटित होते रहते हैं। वह इन्हें रोक पाने में सक्षम नहीं हो पाती; बल्कि महज़ भोक्ता बनी रहती है। ऐसा प्रतीत होता है गोया नियति का खेल हो। वह अपनी
मामूली दिनचर्याओं के बीच कभी-कभी मामूलीपन को दरकिनार करते हुए आदिम स्त्री के रूप
में सामने आती है। ऐसी स्थितियों के बीच वह नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, मर्यादा-अमर्यादा, रीति-अरीति जैसे युगपदों की हदों को लाँघ जाती है। उसके भीतर उद्दाम वासना वेगवती
नदी की धारा में बदल जाती है। वह अनियंत्रित हो जाती है। वह विवेकशून्य हो जाती है।
वह दृष्टिहीन होकर अंधेरे के हवाले हो जाती है। वह ‘कन्फ़ेशन’ के बाद भी आत्महत्या के ज़रिए मृत्यु का वरण करती है। दरअसल यह उपन्यास आज के स्त्री-विमर्श
की देहमुक्ति के चालू प्रश्नों से अलग हटकर भारतीय समाज; ख़ासतौर से हिन्दी पट्टी के सामंती पुरुष वर्चस्व वाले समाज के दमघोंटू वातावरण
के भीतर अनायास दलदल में धंसते जाते एक स्त्री किरदार की त्रासदी का वृतांत है। मुझे
उम्मीद है कि प्रदीप श्रीवास्तव का यह उपन्यास हिन्दी पाठकों के लिए बेहद पठनीय और
दिलचस्प साबित होगा।
डॉ.चंद्रेश्वर ( कवि-आलोचक)
‘मन्नू’ तुमने ऐसा क्यों किया ?
न प्रदीप श्रीवास्तव रवीन्द्र नाथ टैगोर हैं, और न मैं विलियम बटलर यीट्स (william
butler yeats)।
जब से प्रदीप जी ने मुझे यह उपन्यास दिया, तब से मेरे साथ कुछ ऐसा
होता रहा कि मैं व्यक्तिगत समस्याओं में उलझा रहा, किन्तु किसी भी दिन इसका
पाठ करना नहीं छोड़ा। जहां भी जाता इसे बगल दबाए रहता, पढ़ता इसे, सोचता, परेशान होता और फिर ध्यान मग्न होकर एक-एक शब्द का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करता।
बड़ी-बड़ी सच्चाइयों का बयान है इसमें। लगता है इन्सान की नंगी मनोदशा के एक-एक तन्तुओं
को उकेर कर देखने की कोशिश की गयी है। ऊपर मैंने ‘यीट्स’ का ज़िक्र इसलिए किया है, क्योंकि विलियम बटलर यीट्स, ‘गीतांजलि’ की प्रति को लिए कई दिन घूमते रहे, उसके बाद उसका ‘फोरवर्ड’ लिखा था। खैर इस उपन्यास ने मुझे गहराई से झकझोर कर रख ही नहीं दिया बल्कि ‘ध्यान’ की कुछ अद्भुत सीढ़ियां भी उपलब्ध करायीं।
‘मन्नू’ के मन की दहशत और इच्छा जो उसके चेतन एवं अवचेतन से एक अजस्र धारा के रूप में बाहर
आती है, वह पाठक की सहानुभूति,
करुणा, घृणा एवं भय की भागीदार बनती है। इस प्रकार
से यह कहना तर्क संगत है कि यह उपन्यास पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि बीसवीं सदी के
किसी ‘स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस’
उपन्यास से गुजर रहा हूं। घुटन, कुण्ठा, परम्परा और अपनी ‘आन्तरिक पराधीनता के खिलाफ़ विद्रोह’ सबके सब एक साथ आ खडे़ हुए हैं।
अपनी मर्मांतक पीड़ा के आगोश में ‘मन्नू’ का इस तरह से अप्रत्याशित रूप से शेक्सपीयर के दुःखान्त नाटकों की तरह ‘दया’ और ‘भय’ की भावनाओं का खतरनाक प्रस्फुटन करते हुए खत्म होना एक नवीन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
की उर्वर भूमि तैयार करता है यह उपन्यास। उम्मीद नहीं थी कि उदात्त मूल्यों का अनवरत
अध्ययन करने वाली ‘मन्नू’ अपने ‘खुद’ से बेखबर इतना खतरनाक खेल खेलेगी। ‘मन्नू’ तुमने ऐसा क्यों किया ?
यह जानना बहुत मुश्किल है लेकिन तुम्हें इस तरह से जाना नहीं
चाहिए था। ‘मन्नू’! तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिले, यही कामना है।
मन्नू मैं अपनी चार पंक्तियां तुमको समर्पित करता हूं -
जानता हूं यह तुम्हारी
मुक्तिकामी चेतना है,
प्रेम है यह, भावना है, दर्द है, संवेदना है।
देह-मन के तार खोले, मुक्त हो आकाश छू लो,
बांधना तुमको प्रकृति के नियम की अवहेलना है।
विजय प्रकाश मिश्र
(कवि-अलोचक)
मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग-एक
बरसों बाद अपनी छोटी बहन को पाकर मन्नू चाची फिर अपनी पोथी खोल बैठी थीं। छोटी
बहन बिब्बो सवेरे ही बस से आई थी। आई क्या थी सच तो यह था कि बेटों-बहुओं की आए दिन
की किच-किच से ऊब कर घर छोड़ आई थी। और बड़ी बहन के यहां इसलिए आई क्योंकि वह पिछले एक
बरस से अकेली ही रह रही थी। वह थी तो बड़ी बहन से करीब पांच बरस छोटी मगर देखने में
बड़ी बहन से दो-चार बरस बड़ी ही लगती थी। मन्नू जहां पैंसठ की उम्र में भी पचपन से ज़्यादा
की नहीं दिखती थी वहीं वह करीब साठ की उम्र में ही पैंसठ की लगती थी। चलना फिरना दूभर
था। सुलतानपुर से किसी परिचित कंडेक्टर की सहायता से जैसे तैसे आई थी। मिलते ही दोनों
बहनें गले मिलीं और फ़फक पड़ीं। इसके पहले उन्हें किसी ने इस तरह भावुक होते और मिलते
नहीं देखा था।
कहने को दोनों के सगे बहुत थे। लेकिन आज दोनों एकदम अकेली थीं। छोटी बहन जहां बच्चों
के स्वार्थ में अंधे हो जाने के कारण अपने को निपट अकेली पा रही थी, वहीं बड़ी बहन इसलिए अकेली थी क्योंकि बेटा-बीवी के कहे पर ऐसा दीवाना हुआ कि जिस
मां को खाना खिलाए बिना खाता नहीं था, वह घर छोड़ते वक़्त न सिर्फ एक-एक सामान
ले गया बल्कि मिन्नत करती मां की तरफ एक बार देखा तक नहीं। मां कहती रह गई ‘बेटा एक बार तो गले लग जा। मत जा छोड़ के, तू जो कहेगा हम करेंगे।’ मगर बेटा कहाँ देखता, कहां सुनता। वह तो अपनी आंखें, अपने कान, दिमाग अपनी बीवी के हवाले कर चुका था। और बीवी सास को दुश्मन की तरह देखती थी।
एक क्षण उसे बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। शादी के बाद तीन महीने में ही सास को तीनों
लोक दिखा के चली गई थी।
भावुक मिलन के बाद दोनों बहनें शांत तो हो गई थीं लेकिन दोनों के आंसू शांत नहीं
हुए थे। आंचल के कोर से वह बार-बार आंखें पोछतीं लेकिन वह फिर भर आतीं। कुछ देर बाद
मन्नू ने कुछ बिस्कुट और पानी बिब्बो के सामने रख कर कहा ‘लो पानी पिओ बहुत थकी हुई लग रही हो। मैं चाय बना कर लाती हूं।’
‘अरे! नहीं दीदी तुम बैठो मैं बना लाती हूँ।‘
‘तुम क्या बनाओगी, तुम्हारी हालत तो ऐसे ही खराब है। तुम आराम करो मैं बना कर ला रही हूं।’ मन्नू ने उठते हुए कहा।
बिब्बो का मन तो था कि वह चाय खुद बनाए लेकिन पैरों की तकलीफ ने उसे उठने न दिया।
किचेन में चाय बनाते हुए मन्नू ने पूछा,
‘बिब्बो इतनी दूर से अकेली क्यों आ गई किसी लड़के के साथ आती। एक दिन की छुट्टी तो
तुम्हारे बेटों को मिल ही सकती है न।’
‘क्या दीदी तुम भी सब कुछ जान कर दिल जलाती हो। बेटों को एक दिन ही नहीं महीनों
की छुट्टी मिल जाती है मगर जब उनके सास-ससुर, साली-सरहज कहती हैं तब। वो सब मां के
लिए छुट्टी नहीं ले सकते क्योंकि वह तो मां से छुट्टी पाना चाहते हैं। ये तो कहो कि
पेंशन मिल रही है तो खाना मिल जा रहा है नहीं तो भीख मांगनी पड़ती। मैं तो कहती हूं
कि सभी मेरा पीछा छोड़ दो,
मैं अकेले ही रह लूंगी लेकिन सब छोड़ते भी नहीं हैं। बस पेंशन
मिलते ही पीछे पड़ जाते हैं। किसी न किसी तरह एक-एक पैसा निकलवा कर ही दम लेते हैं।’
‘पर बिब्बो तुम्हारा छोटा बेटा अंशुल तो बहुत मानता था तुम्हें। हम लोग अक्सर कहते
थे कि आज के जमाने में औलाद हो तो अंशुल जैसी।’
‘हां बहुत मानता था। लेकिन अब तो उसके लिए चारों धाम, सारी दुनिया उसके सास-ससुर हैं। उसका बस चले तो वह सुबह शाम उनकी पूजा करे। उसकी
सारी कमाई निगोड़े ससुराल वाले पी रहे हैं।’
‘सही कह रही हो बिब्बो,
पता नहीं ये लड़की वाले कौन सी घुट्टी पिला देते हैं इन लड़कों
को कि ये अपने मां-बाप को ही दुश्मन मान बैठते हैं।’ मन्नू ने चाय की ट्रे बिब्बो
के सामने रखते हुए कहा,
‘दीदी मैं तो कहती हूं कि इन लड़की वालों का वश चले तो लड़के के घर वालों को मार कर
भगा दें और पूरे घर पर कब्जा कर लें।’ चाय के कुछ घूंट लेने के बाद मानो बिब्बो
की आवाज़ कुछ ज़्यादा तेज हो गई थी।
‘हां .... मगर एक जमाना वह भी था जब लड़की वाले उसकी ससुराल के यहां का पानी तक नहीं
पीते थे। मगर आज सास हो या साली या फिर ससुर से लेकर सरहज तक सब दामाद के घर में आकर
बेशर्मी से पड़े रोटी तोड़ते हैं।’
‘हां! मगर सच तो ये है दीदी की अगर हमारे लड़के न चाहें तो क्या मजाल है कि बहू और
उसके घर वाले आग मूतें।’
‘गुस्सा छोड़ो बिब्बो, चाय पियो। आज तो हर लड़की वाले यही कर रहें हैं। जमाने का खेल यही है तो क्या कर
सकती हो।’
‘ऐसा नहीं है दीदी। विमला का घर देखो। उसके भी चार लड़के हैं। शादी के बाद भी चारों
बेटे मां-बाप को हाथों हाथ लेते हैं। बहुएं तो मानो पूजती हैं अपने सास-ससुर को।’
‘बिब्बो ऐसी किस्मत वाले बिरले ही होते हैं। उनसे बराबरी करने का मतलब है अपना ही
खून जलाना।’
‘खून तो जब से होश संभाला तभी से जल रहा है दीदी, और तुम अपनी कहो, क्या तुम ने ज़िन्दगी में एक दिन भी खुशी के पल जिएं हैं। मगर तुम से ये सब पूछना
बेकार है। तुम अपनी बात अपना दर्द तो शुरू से ही कभी नहीं बताती थी। बस अपने में ही
घुटते रहना तो तुम्हारी आदत है। यह सब जानते हुए भी न जाने मैं क्यों तुमसे बोल रही
हूं। क्यों तुमसे पूछने लगी।’
‘ऐ बिब्बो लगता है लड़कों से आज कुछ ज़्यादा ही गुस्सा हो। बीती बातें करने से क्या
फायदा ?’
‘फायदा है दीदी, मन में बातें भरी रहती हैं तो पूरी दुनिया
ही भारी लगती है। इसलिए तुमको भी हर बार यही कहती हूं कि मन की बात कह दिया करो। मन
हलका हो जाएगा। बड़ा सुकून मिलता है सब कह देने से।’
‘इस बात को मान ले बिब्बो कि हम दोनों के कम से कम मेरे जीवन में तो सुकून नहीं
है। अब तो चली चला की बेला भी आ गई है। बचपन से एक के बाद एक घुटन भरे पल जीते-जीते
ज़िन्दगी खत्म हो गई। अब किस बात को लेकर सिर खपाऊं। अच्छा बताओ खाना क्या बनाऊं ? क्या खाओगी तुम ?’
‘तुम्हारा जो मन हो बना लो दीदी।’
’नहीं आज तू बहुत दिन बाद आई है। जो बनाऊंगी तुम्हारे मन का ही बनाऊंगी। बताओ क्या
बनाऊं ?’
‘दीदी कुछ खाने पीने का मन बिल्कुल नहीं हो रहा है, बस यही जी कर रहा है कि तुम को सारी बातें बताऊं। क्योंकि बाकी तो बात छोड़ो मेरे
पास बैठना भी नहीं चाहते हैं।’
‘ठीक है सारी बात कहना,
जी भर कर कहना। मैं सुनूंगी तुम्हारी सारी बात। मगर तुमने अपनी
हालत क्या बना रखी है। सेहत का ध्यान नहीं रखोगी तो पीने को एक गिलास पानी भी नहीं
मिलेगा।’
‘दीदी तुम तो जानती हो जब मुझे गुस्सा आता है तो मुझसे खाना पीना कुछ भी नहीं हो
पाता। और अब तो उमर भी हो चुकी है।’
‘हां .... ये तो है तू तो बचपन से ही गुस्सा
होते ही दो तीन दिन के लिए मुंह फुला लेती थी। मगर बिब्बो अब ये बात अच्छी तरह दिमाग
में बिठा लो कि हम खुद ही अपना सहारा हैं। इसलिए इस सहारे को मज़बूत बनाए रखो। क्योंकि
हमारे बेटे हमें बोझ नहीं बल्कि मांस का सड़ा लोथड़ा मानते हैं जिससे वो हर हाल में छुटकारा
चाहते हैं।’
‘कह तो ठीक रही हो दीदी लेकिन कैसे करें कुछ समझ में नहीं आता। अपने लिए कुछ करने
में मन अजीब सा होने लगता है। हमेशा आदमी बच्चों के लिए करने में सुकून मिलता था। इसकी
आदत सी है। इस उमर में कैसे बदलूं कुछ नहीं समझ पाती।’
‘कोशिश करो सब कुछ नहीं तो कुछ तो बदल ही जाएगा।’
‘ऐ.... दीदी मैं बदलूं या न बदलूं मगर लगता है तू ज़रूर कुछ बदल गई है। कैसी बड़ी-बड़ी
बातें करने लगी है।’
‘बड़ी-बड़ी बातें नहीं बिब्बो बस कुछ ऐसी बातें जो जीवन में शुरू में ही हम लोग जान
लेते तो शायद आज हम लोग जिस ताप में जल रहे हैं उसमें न जलते।’
‘कौन से ताप की बात कर रही हो?’
‘यही कि ये मेरा बेटा है। ये मेरी बहू है।
मेरा परिवार है। और ये सब हमें मानते नहीं हैं। हमारा ख़याल नहीं रखते हैं।’
‘क्यों हम औलादों से क्या इतनी भी अपेक्षा नहीं कर सकते। आखिर अपने खून से पालते
हैं उन्हें। उनको बड़ा करने पढ़ाने लिखाने के लिए अपनी सारी इच्छाओं सुख सुविधाओं को
तिलांजलि दे देते हैं।’
‘नहीं बिब्बो हम लोग यही तो गलत सोचते हैं। सच ये है कि हम जो कुछ करते है वह बच्चों
के लिए नहीं अपनी खुशी के लिए करते हैं। हम बच्चे इसलिए पैदा करते हैं कि हम मां-बाप
कहलाएं। हम उनकी किलकारियों से खुश होते हैं। उनकी अच्छी परवरिश करके पढ़ा-लिखा के खुश
होते हैं। अगर ऐसा न हो तो हमें कष्ट होता है। इस कष्ट से बचने के लिए हम सब कुछ करते
हैं न कि बच्चों के लिए।’
‘अरे! दीदी तुम तो बिलकुल आस्था चैनल के संत महात्माओं की तरह प्रवचन देने लगी।
ये बड़ी-बड़ी बातें किससे सीखी।’
‘बिब्बो तुम इसे बड़ी बात कहो या प्रवचन मगर सच ये है कि ज़िंदगी में किसी अच्छे गुरु
को ज़रूर अपना मार्ग-दर्शक बनाना चाहिए। इससे आदमी तमाम मुश्किलों से आसानी से निकल जाता है। दूसरे
तमाम पाप, भूल आदि करने से बच जाता है। .... और यह कोई सुनी सुनाई बात नहीं कह रही हूं। ये
मेरा अनुभव है। समय से मुझे गुरु मिल गया होता तो शायद जो कष्ट मैंने भोगे,
तकलीफों का जैसा अहसास किया या करती आ रही
हूं वो न होता। और जो अनर्थ मुझसे हुआ वह निश्चित ही न होता।’
मन्नू ने अनर्थ वाली बात बड़ी गहरी सांस ले कर कही। .... बात पूरी होते-होते उसकी
आंखें भी भर आई थीं।
‘तुमसे ऐसा कौन सा अनर्थ हो गया है दीदी जो तुम्हें इतना पछतावा है।’
‘है बिब्बो ..... एक ऐसा अनर्थ मैंने जीवन में किया है जिसके लिए भगवान मुझे नर्क
में ही डालेगा। तुमको देखते ही वह अनर्थ एकदम आंखों के सामने नाच गया। मैं अंदर तक
हिल गई हूँ और सच कहूं तो मैं तो चाहती हूं कि भगवान मुझे सबसे बड़ी सजा दे। मैं तो
रौरव नर्क की अधिकारिणी हूं।’
यह कहते-कहते मन्नू की आंखें बरसने लगीं। उसने उन्हें रोकने की कोशिश की मगर रोक
न सकी तो बिब्बो से न रहा गया। उसने कहा
‘चल बस कर दीदी .... मेरी समझ में नहीं आता तुम ऐसा क्या कर बैठी हो ? तुमने जीजा के रहते आत्महत्या की जो कोशिश की थी उसे मैं तुम्हारा पाप या अनर्थ
नहीं बस तुम्हारी नादानी मानती हूं, असल में गलती मेरी ही है। मैं ही बेवजह
अपना पोथा पुराण खोल बैठी .....। बेवजह तुम्हें
रुला दिया।’
‘नहीं बिब्बो ऐसा मत सोचो।’
‘मैं कुछ नहीं सोच रही,
तुम बैठो खाना मैं बनाती हूं। कहती हुई बिब्बो किचेन में चली
गई। मन्नू के लाख मना करने पर भी नहीं मानी। दरअसल वह मन्नू के आंसू और नहीं देखना
चाहती थी। मगर अनर्थ वाली बात उसे अंदर कहीं टीसने लगी थी। सफ़र के थकान पर अनर्थ वाली
बात कहीं ज़्यादा भारी पड़ती जा रही थी । खाना बनाते-बनाते उसके मन में एक बात बैठ गई
कि खाने-पीने के बाद अगर माहौल ठीक रहा तो पूछेगी अनर्थ के बारे में। मगर बिब्बो को
मौका नहीं मिला। क्योंकि खाने के बाद ही मन्नू की पड़ोसन अपने पोते को गोद में लिए आ
गई। और फिर बड़ी देर तक बतियाती रही। गिन-गिन कर अपने बहू बेटे की तारीफ करती रही। जब
वह गई तो बिब्बो ने कहा,
‘दीदी बड़ी भाग्यशाली है तुम्हारी पड़ोसन।’
‘काहे की भाग्यशाली। नौकरानी से बढ़ कर काम करती है। बस समझो बहुरिया ने मुफ़्त की
नौकरानी पाल रखी है।’
‘अरे नहीं दीदी! वह तो मगर तारीफ़ ही किए जा रही थी।’
‘तारीफ़ न करे बेचारी तो क्या करे, अपनी झूठी इज़्जत जो बनाए रखना चाहती
है। दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी बात कह देते हैं और कुछ ऐसे लोग होते
हैं जो अंदर-अंदर घुटते रहते हैं मगर चेहरे पर मुस्कान बनाए रखते हैं। ये अंदर-अंदर
घुटने वाले लोगों में है।’
‘दीदी तुम और हम ... हम दोनों किस तरह के हैं।’
‘तुम खुदी तय कर लो न।’
‘नहीं दीदी तुम्हीं तय करो वैसे भी ऐसी बातें बचपन से तुम्हीं तय करती आई हो।’
‘हां ... क्योंकि बचपन से तुम ऐसे ही बातों को मेरी ओर ठेलती आयी हो।’
‘जब जानती हो तो फिर बताओ न कि हम दोनों कैसे हैं?’
‘ऐ ... बिब्बो अब जैसे भी हैं जो भी हैं वैसे ही रहेंगे। कुछ भी बदलने वाला नहीं
है। मुझे लगता है कि हम दोनों के बदलने का वक़्त नहीं है।’
‘दीदी बुरा मत मानना लेकिन तुम जब युनिवर्सिटी में पढ़ने गई तो उसके बाद से ही बातचीत
में इतनी उस्ताद हो गई थी कि बाबा भी तारीफ करते हुए कहते थे कि तुझे तो वकील बनना
चाहिए। जबकि पहले वही बाबा पढ़ने के लिए युनिवर्सिटी जाने से रोक रहे थे।’
‘बिब्बो बंद कर न यह सारी बातें। .....
आज मैं तुझे अपने गुरु के पास ले चलूंगी। देखना वहां कैसे-कैसे लोग आते हैं। कितनी
शांति मिलती है वहां।’
‘ठीक है, लगता है मेरी बातों से तुम ऊब गई हो।’
‘नहीं बिब्बो, ऐसा मत सोचो मैं तुम्हें इसलिए वहां ले चलना चाहती हूं कि तुमने मन पर जो बोझ पाल
रखा है, उसे दूर कर दूं। गुरु की बातें बड़े से बड़ा बोझ हटा देती हैं। मैं भी जब मन में
ऐसी ही तमाम बातों का बोझ लेकर चल रही थी और जीना मुहाल हो गया था तब गुरु जी के ही
पास जाकर राहत मिली। इसके लिए मैं ठकुराईन चाची की हमेशा एहसानमंद रहूंगी जो मुझे वहां
लेकर गईं । जब उन्होंने मुझसे कहा था तब मैं भी तुम्हारी ही तरह जाने को तैयार नहीं
थी। बड़े बेमन से गई थी । लेकिन वहां कुछ समय बिताने के बाद लगा कि वहां पहले क्यों
नहीं गई।’
‘तो तुम यह मानती हो कि अब तुम्हारे मन पर कोई बोझ नहीं है।’
‘है .... मगर इतना भी नहीं कि उस बोझ तले जीवन कुचल जाए।’
‘ठीक है दीदी ज़रूर चलूंगी। जब तुम्हें इतना यकीन है उन पर तो मैं हर हाल में चलूंगी।’
गुरु जी के यहां तीन घंटे कैसे बीत गए बिब्बो को पता ही नहीं चला। लौटते वक़्त
शाम के सात बज गए थे। रास्ते में रिक्शा रोक कर मन्नू ने बिब्बो की मनपसंद सब्जी भिंडी
और करेला खरीदी। मन्नू छोटी बहन की पसंद भूली नहीं थी। रिक्शा जब घर की ओर मुड़ा तो
मन्नू ने कहा,
‘आज तुम्हारी मन पसंद भरवा भिंडी और करेला बनाऊंगी।’
‘दीदी तुम इतने दिन बाद भी मेरी पसंद भूली नहीं।’
‘कैसे भूल सकती हूँ, जिस दिन भी इन दोनों में से कोई सब्जी बनती थी उस दिन तुम बस खाने पर ही टूट पड़ती
थी। और जब कुछ बड़ी हुई और खाना खुद बनाने लगी तो तुम अपने लिए पहले ही अलग निकाल लेती
थी।’
‘हां! अम्मा भी पहले डांटती थीं फिर बाद
में तो खुद ही न सिर्फ़ मन भर सब्जी देती थीं बल्कि सीजन आने पर बड़े प्यार से बोलती
थीं।’
‘.....
लावा बिब्बोईया के लिए भरवा भिण्डिया बनाई दें।’
मन्नू-बिब्बो की बातें घर पहुँचने तक चलती रहीं और बचपन की यादें ताजा होती रहीं।
घर पहुंच कर मन्नू ने रिक्शे वाले को पैसा दिया फिर गेट का ताला खोल कर अंदर ड्रांइग
रूम में धम्म से सोफे पर बैठ गई। बिब्बो भी उसी तरह बैठ गई। बिब्बो के चेहरे पर पसीने
की बूंदें बता रही थीं कि शरीर से वह बड़ी बहन के मुकाबले ज़्यादा कमजोर है। उसकी हालत
देख कर मन्नू ने उठ कर पंखा चला दिया, फ्रिज से दो गिलास पानी और चार पीस
मिठाई लाकर बिब्बो के सामने रखते हुए कहा,
‘लो पानी पिओ, तुम तो चार घंटे में ही थक कर निढाल हो गई हो।’
बिब्बो ने पानी पीने के बाद गहरी सांस ली। फिर बोली,
‘दीदी अब तो मन करता है कि जितनी जल्दी हो भगवान उठा ले। किसी की सेवा लेने की नौबत
न आए।’
‘बिब्बो ये सब अपने हाथ में नहीं है। विधि ने जो लिखा है वही होगा। इसलिए मैं अब
यह सब सोचती ही नहीं।’
‘मैं तुम्हारे जैसा नहीं सोच पाऊंगी दीदी। मगर तुम्हारी एक बात एकदम सच है कि गुरु
जी की बातें मन का बोझ ज़रूर हल्का कर देती हैं।’
‘मैं तो पहले ही कह रही थी कि सुनोगी तभी यकीन होगा। मैं तो उस दिन को धन्य मानती
हूं जिस दिन उनके दर्शन हुए। एक और चीज बिब्बो कि जब गुरु की कृपा होती है तभी उनके
दर्शन होते हैं। जैसा कि आज उनकी तुम पर कृपा हुई तो देखो कैसे बातों ही बातों में
दर्शन मिल गए।’
‘मगर दीदी उनकी एक बात मैं अब तक नहीं समझ पाई कि खुद तो इतने बड़े सिंहासन पर बैठे
थे। सोने का कितना बड़ा ओम् पहने थे। सिल्क के जो कपड़े पहने थे वह भी दसिओं हज़ार के
रहे होंगे। और भक्तों को बता रहे थे कि,
‘असली दुख का कारण धन संपत्ति का मोह है।’
‘बिब्बो एक बार में ही सब समझ जाओगी ? उन्होंने जीवन को चलाने के लिए धन कमाने
को कभी भी गलत नहीं कहा। धन के पीछे भागने या उसकी हवस को गलत कहा। कल तुमको फिर ले
चलूंगी। तब तुम्हें बातें और ज़्यादा समझ में आएंगी, अच्छा बताओ खाना कितने
बजे खाओगी।’
‘खाने के लिए क्यों परेशान हो रही हो दीदी ........। थोड़ा सा आराम कर लो फिर मिलके
बना लेंगे।’
‘तुमको कुछ करने की ज़रूरत नहीं। ....... पहले तुम अपने को संभालो, मैं खाना बना लूंगी।’
मन्नू ने बिब्बो की कमजोर हालत पर तरस
खाते हुए उसे आराम करने का एक तरह से आदेश दिया। उसकी बात में बड़े होने की तस्वीर साफ
झलक रही थी। सच तो यह था कि बिब्बो भी आराम से लेटे रहना चाहती थी।
मन्नू ने अकेले ही नहा-धोकर खाना बनाया। फिर टीवी पर महिलाओं के संघर्ष पर केंद्रित एक धारावाहिक देखते-देखते
दोनों ने खाना खाया। इस दौरान भी दोनों की बातें रुक-रुक कर चलती रहीं। खाना खत्म होने
और सोने के लिए बिस्तर पर पहुंचने तक ग्यारह बज गए थे। एक ही कमरे में आमने-सामने पड़े बेड पर लेटी दोनों सोने की
कोशिश में आँखें बंद किए रहीं। मगर नींद दोनों की आंखों में नहीं थी। मन्नू जहां खोई
रही भूली बिसरी यादों में वहीं बिब्बो के मन में यही प्रश्न उथल-पुथल मचाए हुए था कि आखिर मन्नू दीदी
ने कौन सा अनर्थ कर डाला था। और कि उससे अभी पूछूं कि न पूछूं। इसी ऊहापोह में करवट
बदलती रही। अंततः उठ कर बैठ गई। तो मन्नू ने पूछ ही लिया।
‘क्या हुआ बिब्बो नींद नहीं आ रही क्या ?’
‘नहीं दीदी ........ अब नींद कहां आती है बस आँखें मूंदे-मूंदे कट जाती है रात।
जरा सी नींद लगती नहीं कि पता नहीं कैसे-कैसे सपने आने लगते हैं।’
‘तुम सोचती बहुत हो इसी लिए सपने आते हैं। मन को शांत रखो तो सब ठीक हो जाएगा।’
‘मन को शांत रखना अपने वश में कहां है दीदी, ये तो संत महात्मा ही कर पाते हैं।
अच्छा तुम बताओ .... तुम्हारा मन शांत रहता है। नींद तो तुम्हें भी नहीं आ रही।
..... जब कि मुझ से ज़्यादा थकी हो, सारा काम भी तुम्हीं ने किया है।’
बिब्बो की बात सुन कर मन्नू को कोई ज़वाब नहीं सूझा बस छत को देखती रही।
‘क्या हुआ दीदी कुछ बोलती क्यों नहीं!’
‘हूं ...... ! अरे क्या बोलूं ....... शायद
तुम्हीं सच बोल रही हो।’
‘दीदी...... . एक बात पूछूं ......।’
‘पूछो!’
‘तुम दिन में कह रही थी कि कोई बहुत भारी भूल तुम से हो गई थी। जो मुझे देखते ही
तुम्हें एकदम से याद आ गई। जिसके लिए तुम्हें
बड़ी से बड़ी सजा मंजूर है। आखिर कौन सा अनर्थ तुमने किया है जिसकी आग में आज भी तप रही
हो?’
बिब्बो की बात सुन कर मन्नू काफी देर चुप रही तो बिब्बो ने फिर पूछ लिया। उसके
प्रबल आग्रह को देख कर मन्नू को अहसास हो गया कि अब उस अनर्थ के बारे में बताना ही
पड़ेगा। जिसके बारे में उसने दिन में न जाने किस भावना में बह कर बोल दिया था।
‘बिब्बो बताती हूं, लेकिन डरती हूं कि पता नहीं तुम सुन भी पाओगी कि नहीं और जो सुन भी लोगी तो कहीं
उसके बाद तुम भी मुझसे हमेशा के लिए नफ़रत न करने लगो।’
‘दीदी तुम ऐसा क्यों सोचती हो। तुमसे नफ़रत करके कहां जाऊंगी। फिर हम सगी बहनें हैं।
एक खून हैं। लाठी मारने से कहीं पानी फटता है क्या ? तुमने चाहे जो किया हो, लेकिन हो मेरी बहन और सदा रहोगी । इसलिए दिन वाली तुम्हारी ही बात दोहराती हूं
कि मन में जो इकट्ठा हो गया है उसे कह डालो। मन हल्का हो जाएगा।’
‘मैं भी यही सोच रही हूं, कि आज कह ही दूं सब, मगर तुम से इतना ज़रूर कहूंगी कि किसी और से न कहना, क्यों कि जिस दिन तुम किसी से कहोगी उसी दिन मैं खुद को ख़त्म कर लूंगी।’
‘ऐसी बात है तो मैं मर जाऊंगी पर किसी से मुंह न खोलूंगी।’
बिब्बो ने उठ कर एक गिलास पानी पिया और मन्नू को भी दिया। मन्नू ने मुश्किल से
दो घूंट पानी पीकर गिलास रख दिया। कुछ देर बड़ी बेचैन सी होकर कमरे में चल रहे सीलिंग
फैन को देखती रही। फिर बोली,
‘बिब्बो मेरी शादी कैसे हुई यह तो तुम्हें याद ही होगा ? पैरों की तीन अंगुलिया कटी होने के चलते जब शादी होने में मुश्किल होने लगी तो
बाबू जी परेशान हो उठे। ऊपर से दहेज की डिमांड उन्हें और भी तोड़ देती थी। धीरे-धीरे
जब मैं तीस की हो गई तो वह हार मान बैठे और एक दिन मां से कहा,
‘मन्नू मेरे गले का पत्थर
बन गई है। न जाने कैसी किस्मत लेकर पैदा हुई है, कि जहां जाता हूं वहीं
से दुत्कार दिया जाता हूं। लगता है इस जीवन में इसकी शादी के गम में ही मर जाऊंगा।
इसके चलते ही बाकी बच्चे भी बिन ब्याहे ही बैठे रह जाएंगे।’
इससे आगे उनकी और बातें सुनने की ताब मुझ में जब न रह गई तो मैं हट गई वहां से।
कमरे में जाकर अपनी किस्मत पर खूब रोई। खाना भी नहीं खाया। बाबूजी की एक-एक बात मेरे
दिलो-दिमाग पर हथौड़े सी पड़ी थी। अगले दिन मैंने मां से कह दिया कि मेरी शादी की चिंता
छोड़ कर बाबूजी बाकी सब की शादी ढूढ़ें। मेरा इतना कहना थी कि मां एकदम बिफ़र पड़ीं । बोलीं,
‘चार ठो किताब पढ़ लिए हो तो दिमाग खराब हो गया है। हमको बताओगी कि किसकी शादी करनी
है। हम लोग अपनी शादी का नाम सुन कर हट जाते थे मां-बाप के सामने से, और तुम हमको बताओगी कि बिना तुम्हारी शादी के बाकी की शादी कैसे हो जाएगी। जब दुनिया
पूछेगी कि बड़की की शादी काहे नहीं हो रही तब हम लाख सही बताएंगे लेकिन कोई यकीन नहीं
करेगा। सब उल्टा ही सोचेंगे कि ज़रूर लड़की में कुछ ऐसा-वैसा है। तब तो और भी कोई तैयार
नहीं होगा शादी के लिए।’
फिर अम्मा बड़ी देर तक न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रही। तभी छोटके चाचा आ गए। अम्मा
का बड़बड़ाना तब भी चालू रहा। बातें तो चाचा को भी सब पता थीं। बाबूजी के साथ वह भी लड़का
देखने जाते ही थे। और उस दिन चाचा ने एक ऐसी सलाह दी अम्मा को कि वह बजाय चाचा की बात
को मना करने के एकदम हां कर बैठीं। जैसे कि वह पहले ही ऐसा ही कुछ सोचे बैठी थीं।
शाम को बाबूजी आए तो चाय नाश्ता करते-करते बाबूजी के सामने भी चाचा-अम्मा ने वही
प्रस्ताव रखा। लेकिन बाबूजी ने इन बातों का कोई ज़वाब नहीं दिया। दरअसल वह भी चुप रह
कर अपनी मौन स्वीकृति ही दे रहे थे पुराने जमाने की मौनं स्वीकृति लक्षणम् की बात को
चरितार्थ करते हुए। और मैं अब भी यही मानती हूं कि मैंने जो भी जीवन में अब तक भोगा।
और जो अनर्थ हुआ मुझसे उसकी नींव में चाचा का वह प्रस्ताव ही था। जिसके आधार पर यह
तय हुआ कि किसी नौकरीशुदा विकलांग से मेरी शादी कर दी जाए।’
‘मगर दीदी तुम तो बहुत तेज-तर्रार थी मना कर देती ऐसी शादी से।’
‘तेज-तर्रार तो थी बिब्बो, लेकिन उंगलियां भी तो मेरी ही कटी थीं न।
फिर लाख तेज-तर्रार होने की बावजूद मैं अति की हद तक भावुक थी। क्षण में भावना में
बह कर मैं किसी के लिए कुछ भी कर बैठती थी, अपना हित-अनहित सोचे बिना। फिर वह
तो मां-बाप थे । उनकी परेशानी, मां के आंसू देख कर मैं टूट गई और कह दिया। ‘जहां करना हो करो।’ फिर ऐसे लड़के की तलाश शुरू हो गई। इसी बीच अचानक इंदिरा गांधी ने देश में एमरजेंसी
लगा दी और फिर बाबूजी समय से पहले ही ऑफ़िस को चले जाते। डर के मारे कभी छुट्टी तक न
लेते।
अजीब दहशत थी हर तरफ। पहले जो बाबूजी बिना छुट्टी के ही दो-तीन दिन नहीं जाते थे अब वह जैसे ऑफ़िस
में ही सारा वक़्त गुजार देने को तैयार रहते थे। इसके चलते मेरे लिए लड़का ढूढ़ने का
काम कहीं नेपथ्य में चला गया। अंततः रोते-गाते वह घड़ी आ गई जब एमरजेंसी हटी और देश
के लोगों ने राहत की सांस ली और उसी समय मेरी शादी भी तय हो गई। मैं अब तक नहीं समझ
पा रही हूं कि उस घड़ी को अपने लिए शुभ कहूं या अशुभ। मैं समझती हूं कि सारी बात सुनने
के बाद तुम्हीं बताना कि शादी तय होने वाली घड़ी मेरे लिए क्या थी।’
बिब्बो को उठते देख कर मन्नू ने पूछा,
’क्या - हुआ, कहां जा रही हो ? अब ऊब गई क्या मेरी बातों से।’
‘नहीं .... सोचा दो कप चाय बना लाऊं।’
इससे पहले कि मन्नू कुछ कहती बिब्बो किचेन में चली गई। और चाय का पानी गैस पर चढ़ा
कर वापस आकर बोली।
‘दीदी घर पर मैं सब की शादी को लेकर होने वाली चक-चक सुनती तो थी। लेकिन लापरवाह
स्वभाव, अपने में मस्त रहने की
आदत के चलते इन बातों पर कभी ध्यान ही नहीं देती थी। जब कि तुम थी धीर-गंभीर, एक-एक बात पर ध्यान देती थी। शायद सबसे बड़ी होने के कारण तुमको बचपन से ही ऐसी
घुट्टी पिलाई गई कि सब-कुछ सहना पर बोलना नहीं क्यों कि तुम बड़ी हो और उससे भी पहले एक लड़की हो।’
‘बिब्बो हर चीज के कुछ फायदे भी हैं कुछ नुकसान भी। गुरु जी कई बार कह चुके हैं
कि जीवन में सभी को अपनी स्थितिनुसार कीमत चुकानी पड़ती है। मैंने अपनी उंगलियों की
कीमत चुकाई। जब चाचा इनका रिश्ता लेकर आए और बताया सब कुछ इनके बारे में तो एक बार
को मेरा कलेजा फट गया। कि कुछ उंगलियों के न होने की मुझे इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़
रही है। मन में आया कि कूद जाऊं कुएं में। या फांसी लगा लूं। अम्मा ने फोटो दिखाई तो
देखने का मन नहीं हुआ। वह कमरे में छोड़ कर चली गईं यह कहते हुए कि जब तुम कहोगी तभी
यह शादी होगी । मगर मैं जानती थी कि घर में सब इस रिश्ते के लिए तैयार बैठे हैं। मेरे
इंकार का मतलब होगा घर में एक बड़े कोहराम को न्योता देना। मैं घंटों सोचती रही क्या
करूं। एक अपने सुख के लिए मां-बाप, पूरे घर को चिंता, परेशानी में डालूं या फिर सबकी खुशी
के लिए अपनी भावनाओं, अपनी खुशी को आग लगा दूं।
उस दिन सब खा-पी कर सो गए। सब निश्चिंत थे। क्योंकि लड़के वाले तो पहले से ही हां
किए बैठे थे। और सब मेरी आदत को जानते हुए यह विश्वास किए बैठे थे कि मेरा जवाब भी
हां ही होगा। मैं रात भर नहीं सोई। रात करीब डेढ़-दो बजे मैंने फोटो उठा कर देखी । लालटेन की रोशनी में मुझे फोटो में यह बहुत आकर्षक
लग रहे थे। देखने से कहीं यह नहीं लग रहा था कि यह विकलांग हैं या चलते समय छड़ी का
सहारा लेते हैं। न ही यह बातें मुझे बताई गई थीं। तो मैंने सोचा हो सकता है चलने-फिरने में कुछ दिक्क़़त होगी। कोई बात
नहीं ज़िंदगी में सब कुछ तो अपने मन का नहीं मिलता। फिर पैर की समस्या को नौकरी पूरी
कर रही थी। उस जमाने में किसी बैंक में प्रोबेशनरी ऑफ़िसर होना बहुत बड़ी बात थी। हॉस्टल
में रहते हुए मैंने अपनी कई सहेलियों को पी0ओ0 की नौकरी के लिए तैयारी
करते हुए देखा था। बहुत कठिन था पी0ओ0 इक़्जाम को कंप्टीट करना।
मेरे भी मन में आया चलो अच्छी नौकरी है सब मिला के ज़िंदगी कट जाएगी। सवेरे जब मां आईं, बार-बार पूछने लगीं मेरा निर्णय तो
मैंने भी दबे मन से हां कह दी। हां सुनते ही मां को न जाने कितनी खुशियां मिल गईं एक
साथ। उनको इस बात की भी खुशी थी कि सुलतानपुर के उस कस्बे में शायद ही किसी का दामाद
प्रोबेशनरी ऑफ़िसर होगा।’
इसी बीच बिब्बो ने एक कप चाय मन्नू की तरफ बढ़ाते हुए कहा,
‘दीदी ये बात तो सच है कि उस समय लोगों के
बीच जीजा की नौकरी को लेकर बड़ी बातें हुई थीं। सारे रिश्तेदार, दोस्त सच जान कर यही कहते थे कि चलो कोई बात नहीं शरीर में थोड़ा सा नुक्स है लेकिन
नौकरी तो बहुत अच्छी है। और फिर जब वह तुम्हें देखने कार से आए थे तो लोग और भी ज़्यादा
बतियाने लगे थे।’
‘हां.. उस समय आज की तरह कार आम नहीं हो गई थी। ले दे कर वही फिएट और एंबेसडर यही
दो कारें हुआ करती थीं। जो गिने-चुने लोगों के पास ही होती थीं। मुझ पर भी इस कार वाली बात ने बड़ा प्रभाव डाला
था। मगर सच कहूं तो वह छड़ी लेकर चलते हैं यह जान कर मेरा मन टूट गया था। मैंने अपने
को मैदान में फुटबाल की तरह छोड़ दिया था कि जो जैसा चाहे, जिधर चाहे किक मार कर उधर ले जाए और हुआ भी यही। सबने जैसा चाहा वैसा किया। मेरी
शादी हो गई लेकिन एक बार भी किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि मेरे मन पर क्या
बीत रही है। सब खुश थे कि चलो मन्नू की शादी हो गई। सुनने में तो यह भी आया था कि शादी
खूब धूमधाम से हो तड़क-भड़क ढंग से हो इसके लिए इन्होंने अपने घर वालों की चोरी से काफी
पैसा बाबूजी को दिया था। मगर इस बात को शादी के बरसों बाद भी इन्होंने कई बार पूछने
पर भी नहीं बताया। पूछने पर बस एक ही ज़वाब मिला,
’तुम औरतें कितना भी पढ़-लिख लें लेकिन पंचायत करने की आदत नहीं छोड़ पातीं।’
यह सुनकर मैं भी चुप रह जाती।
मन्नू ने चाय का आखिरी घूंट पीकर कहा, ‘बिब्बो अब तू शक्कर कम
कर दे। मीठे के प्रति तेरी बचपन की दीवानगी गई नहीं अभी तक। अब इतना मीठा नुकसान करेगा।’
‘अरे! दीदी जो होगा देखा जाएगा। क्या-क्या बंद कर दें।’
‘हूँ...... शायद तुम ही सही हो। जितना ध्यान दो हर बातों पर चिंता उतनी ही ज़्यादा
बढ़ती है।’
‘हां ...... इसीलिए मैं ज़्यादा सोच-विचार नहीं करती। मैं तो तुम्हें भी ऐसा ही मानती थी। लेकिन तुम्हारी बातें सुन
कर लगता है कि तुम बचपन से ही कुछ ज़्यादा ही सोचती रही हो। खैर अभी तक तुमने जो बताया
उसमें मुझे कुछ अनर्थ जैसी बात तो नजर नहीं आती।’
‘वह अनर्थ तो अब बताऊंगी बिब्बो। शादी को लेकर जो मेरे टूटे-फूटे सपने बचे थे वह पहली ही रात से
और भी टूटने लगे। शादी के पहले मेरी इनसे जो बातचीत हुई थी और लोगों से जो मैंने सुना
था, जो इनकी पढ़ाई-लिखाई थी उससे मेरे मन में इनकी तस्वीर एक बहुत पढ़े-लिखे, समझदार सज्जन पुरुष की बनी थी। जो औरत सहित सभी की भावनाओं का बहुत आदर-सम्मान करने, उनकी इज़्ज़त करने वाला है। जो मेरी भावनाओं की कद्र करेगा। मेरी बातों को समझेगा।
मगर नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैं बड़े सपने लेकर बैठी थी सुहाग की सेज पर। अपने देवता
का इंतजार कर रही थी। कि मेरा देवता आएगा। मैं उसकी अगवानी करूंगी। मेरा देवता मुझसे
ढेर सारी-मीठी बातें करेगा। मगर नहीं मेरा देवता भी औरों की ही तरह सिर्फ़ मर्द ही
निकला। वो मर्द जिसकी नजर में औरत की अहमियत सिर्फ़ उसके शरीर तक ही है। उसके शरीर
को रौंदने में ही उसकी मर्दानगी है।
घर वालों ने जब पीछा छोड़ा तो करीब दो बजे आए कमरे में। मैंने एक आदर्श भारतीय नारी
की तरह उनकी अगवानी की। इसके पहले कि मैं कुछ समझ पाती कि मेरा देवता मर्द बन टूट पड़ा मुझ पर। मेरी भावनाओं, मेरे हृदय को जाने बिना ही रौंद डाला मुझे। मेरी तकलीफ मेरे दर्द से उसे कोई लेना-देना नहीं था। कुछ देर बाद हांफता पड़ा
मेरा मर्द मुझसे पानी मांगता है। मैं किसी तरह अपने को सम्हालती, कपड़े तन पर डालती उठी चार कद़म की दूरी पर रखे जग से पानी लाने के लिए। और जब पलटी
तो देखा मेरा विद्वान पति,
मेरा पढ़ा-लिखा अफ़सर पति बिस्तर पर ढूढ़ रहा था मेरे कुंवारे होने का निशान। उनकी इस चालाकी
ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कानपुर जैसे शहर में पैदा हुए। पढ़ाई के आखिरी छः साल दिल्ली
में पूरी करके एक बड़े बैंक का अधिकारी उससे मुझे ऐसी ओछी हरकत की कतई उम्मीद नहीं थी।
खैर पानी पिया फिर कुछ देर मुझे बगल में सटाए लेटे रहे। दर्द से परेशान मैंने सोचा
शायद सो गए। चलो उठ कर कपड़े ठीक से पहन लूं। मुझे न जाने क्यों अचानक ही ठंड लगने लगी
थी। मैंने उठना ही चाहा था कि मेरा मर्द फिर जाग गया।
एक-एक कर मेरे सारे सपने सवेरे तीन-साढ़े तीन बजे तक टूटते रहे। फिर मेरा मर्द सो
गया एक देवता की तरह और मेरे उठ कर तैयार होने का वक़्त हो गया था। आखिर एक आदर्श बहू
की तरह सवेरे-सवेरे सास-ससुर, जेठ-जेठानी सबको यथोचित प्रणाम जो करना था।
चाय-नाश्ता, खाना-पीना बना कर अपने को जो
एक आदर्श बहू साबित करना था। सो मैं कराहती, दर्द से तड़पती, करीब तीस पैंतीस घंटे से लगातार जागने के बावजूद चेहरे पर मुस्कान लिए सबकी खुशियों
में लग गई। हर तरफ नंद से लेकर बाकी सब अपने-अपने हिसाब से हंसी-ठिठोली करने व्यंग्य
मारने में लगे थे। मेरे देवता करीब नौ बजे सोकर उठे, तो चाय लेकर मुझे ही भेजा
गया। मैं मकान की तीसरी मंजिल पर पहुंची चाय लेकर। वहीं हमारे सुखों की सेज बनाई गई
थी। देखा मेरा मर्द अब बिल्कुल देवता बना बैठा था। मैं चाय सामने रख कर पैर छूने को
झुकी तो मुझे बाहों में जकड़ लिया। चूमते हुए बोले,
‘तुम्हारी जगह मेरे दिल
में है, बैठो इधर।’
बगल में बैठा कर एक तरह से जबरदस्ती चाय पिलाई। कई ऐसी बातें कहीं जो रात में कहनी
चाहिए थी। मुझे लगा मेरा सारा दर्द कहीं दूर भाग गया है। बड़ी राहत महसूस हुई। ऊपर थोड़ी
देर लग गई तो नीचे आते ही खिंचाई कर दी सबने। खैर ससुराल में सबने अपने-अपने स्तर पर
अपने-अपने मन की की।’
‘
दीदी तुम्हारे ससुराल वालों की एक बात समझ में नहीं आई। जब जीजा
को चलने में इतनी तकलीफ थी तो उन्हें तीसरी मंजिल पर कमरा क्यों दिया।’
‘छड़ी लेकर यह आराम से सीढ़ियां चढ़ सकते थे इसी लिए । दूसरे घर में उस समय मेहमानों
की भीड़ थी इसलिए नीचे हम लोगों के लिए उचित नहीं था। सौभाग्य से सब ठीक-ठाक हो गया था। और मैं ससुराल में लोगों
की उम्मीदों पर खरी उतरने में लगी हुई थी। इस बीच यह शादी के तीन दिन बाद ही लखनऊ आ
गए। छुट्टी इनकी खत्म हो चुकी थी। अब मैं अकेली थी। ससुराल में कोई मुझसे सीधे मुंह
बात नहीं करता था। जागने से लेकर सोने तक सिर्फ़ काम ही काम। और व्यंग्य बाणों की पीड़ा।
मुझे लगा कि यह यातना जीवन भर की मेरी संगनी हो गई है। मगर यहां मैं अपने को सौभाग्यशाली
मानती हूं। मुश्किल से पंद्रह दिन बीते होंगे कि यह वापस आए। और दो दिन बाद लखनऊ आने
की तैयारी हो गई। मुझे इनके साथ ही रहना था। आते वक़्त जब सास के पैर छुए तो गले से
लगा कर उन्होंने फरमाइश कर दी। ‘मुझे नौ महीने बाद गोल मटोल सा पोता चाहिए।
अपने बेटे को मैं तुम्हारे हवाले कर रही हूं।’ इसके बाद सबने अपने-अपने हिसाब से जो
बातें कहीं उनका मैं लाख कोशिशों के बावजूद सिर्फ़ यही निष्कर्ष निकाल सकी कि उनके
परिवार को एक बहू नहीं, एक ऐसी आया, एक ऐसी नौकरानी चाहिए जो साए की तरह लड़के की देख भाल करे, उन सबके लिए बच्चे पैदा करे। रात में बिस्तर पर इनकी ज़रूरतें पूरा करे। पैरों के
चलते उसकी जो समस्या है उसका सारा समाधान वह खुद बन जाए।
खैर मैं लखनऊ आ गई। यहां इन्होंने तीन कमरे का बड़ा सा मकान किराए पर लिया था। कुल
मिला कर सच कहूं तो कुछ चीजों को छोड़ कर जीवन बहुत अच्छा बीतने लगा। धीरे-धीरे मैं
इन्हें काफी हद तक समझ गई। मैं हर वो काम करती जो इनको अच्छा लगता, कभी भी ऐसा कुछ सपने में भी न करती जिससे इनको जरा भी पैरों को लेकर कोई आत्मग्लानि
या हीन भावना पैदा होने का डर हो। मगर कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि यह मेरी
साफ तौरपर निगरानी करते हैं । खा़स-तौर से मैं किससे बात करती हूं इस बात की तो बहुत ही ज़्यादा। यहां तक कि इस बीच
देवर और नंदोइ आए, मैंने जरा हंस कर बात कर ली तो उन लोगों के जाने के बाद ऐसी कौन सी कटी-छटी बात थी जो मुझे नहीं कही। उसके
बाद तो बात-बात पर ताना मारते, मेरे हॉस्टल में रहने की बातों को न जाने
क्या-क्या कह-कह कर उल्टी सीधी बातें करतें।’
‘जीजा इतना पढ़-लिख कर ऐसी ओछी हरकतें करते थे।’
‘यह तो कुछ भी नहीं है बिब्बो, उनकी बातें इतनी स्तरहीन और गंदी होती थीं
कि सुन कर यकीन करना मुश्किल हो जाता था कि यह एक पढ़े-लिखे तमाम विषयों के जानकार व्यक्ति
हैं। लगता जैसे मैं किसी जरायम पेशा वाले की बीवी हूं। स्लम की किसी झोपड़ी में रहती
हूं। हां जब कोई आता तो इनकी शालीनता देखने लायक होती। इनका कड़कपन ऐसा कि अच्छे-अच्छे
आर्मी आफ़िसरों को भी मात दे दे। इनका शक इनकी बातें सुन कर मुझे डी0एच0 लारेंस के उपन्यास ‘लेडी चैटर्ली का प्रेमी’ की नायिका ‘कोनी’ की याद आ जाती। यह उपन्यास मैंने हॉस्टल में पढ़ा था। मुझे अपनी ज़िंदगी कुछ-कुछ
इस उपन्यास की नायिका कोनी जैसी लगती। तब मुझे यकीन नहीं होता था कि आदमी ऐसा भी होता
है। साल पूरा होते-होते मेरी हालत यह हो गई कि दिन भर इनकी बातों, इनके तानों पर आंसू बहाती। जब आते
तो नए ताने-गाली सुनती और रात में इनकी मर्दानगी दिखाने के अतिरिक्त प्रयासों का शिकार
होती। कुचली जाती। वास्तव में बहुत बाद में यह समझ पाई कि उनके मन में अपंगता को लेकर
जो कुंठा भर गई थी, इन सबके पीछे वह भी बल्कि यह कहना सही होगा कि वही एक कारण था।
इस बीच मुझे कई बार बाबूजी लेने आए लेकिन इन्होंने जाने नहीं दिया। सास-ससुर की
भी न सुनी। तब सास-ससुर यह कह कर बात संभालने की कोशिश करते कि, 'भइया को परेशानी होगी इसलिए बहू को रहने दो साथ।' मगर कहने वाले कहते रहे तरह-तरह की
बातें। लेकिन यह ऐसे थे कि अपने आगे सुनते ही नहीं थे किसी की। दुनिया में किसी की
बात की कोई परवाह नहीं करते थे। फिर देखते-देखते एक साल बीत गया। और इस दौरान मैं सिर्फ़ एक बार दो घंटे के लिए मायके पहुंची।
मां-बाबूजी तुम सब मुझे देख कर ऐसे आंसू बहाए जा रहे थे जैसे मैं मौत के मुंह से
बचकर आ गई हूं। जिन बाबूजी को हम कभी भावुक होते भी न देख पाते थे उनके आंसू ऐसे झर
रहे थे कि मानों कभी रुकेंगे ही नहीं। सब खुशी के मारे फूले जा रहे थे। और गर्व से
भी। कि उनका दामाद कार से आया है। बहुत बड़ा अफ़सर है। इनकी तो देवताओं की तरह आवभगत
की गई। मगर घंटे भर में सबकी खुशी काफूर हो गई। जैसे ही इन्होंने बेहद रूखे और सख्त
लहजे में चलने का आदेश दिया। बाबू, अम्मा, भइया सब लाख मिन्नत करते रहे। एक रात ही रुकने को कहा पर यह टस से मस नहीं हुए।
आखिर में सबने हार कर मुझे विदा कर दिया। मेरा कलेजा मुंह को आ गया लेकिन इनसे भय इतना
था कि एक बार भी मैं न कह सकी कि सबकी बात मान लो, दिल रखने के लिए ही सही, मान क्यों नहीं जाते।’
‘तुम तो जीजा के डर से एक बार भी नहीं बोली रुकने को। मगर तुम्हारे जाने के बाद
सब यह बात भी कर रहे थे कि देखो मन्नू भी कैसे चार दिन में बदल गई। मां-बाप के घर एक
रात भी नहीं रुक सकी। अम्मा ने तो गुस्से में यहां तक कहा कि, "अरे! मन्नू का ही मन नहीं था। कहती तो क्या भइया रुकते न। ये तो खुदी न बोली एक
बार भी। जब अपना ही खून मुंह फेर लिए है तो और किसी को क्या कहना, वह तो पराया खून है, दामाद है।" ऐसी ही तमाम बातें बहुत
दिन तक होती रहीं। मगर किसी को यह अहसास नहीं था कि तुम भी विवश थी, जीजा के आतंक से चुप थी।’
‘मगर बिब्बो यह सब क्यों बता रही हूं तुम्हें! उस समय तो तुम थी ही वहां ?’
‘हां मगर बहुत सी बातें तो उस समय पल्ले ही न पड़ी थीं। लड़कपन कह लो यह लापरवाह स्वभाव
इसलिए पूरी बात बताओं, क्यों कि लगता है कि उस समय जो समझा था बात तो उससे उलट या कुछ और भी थी।’
‘सही कह रही हो तुम, उस समय उमर के लिहाज से तो तुम बड़ी हो गई थी लेकिन स्वभाव में कोई गंभीरता नहीं
थी। खैर उस समय मेरे मन में कई बार आया कि किसी तरह तुम लोगों को सही बात बताऊं लेकिन
न जाने तब किस संकोच के कारण कुछ नहीं कह पाई। तब यह अहसास ही नहीं था कि स्पष्ट बात
न कह पाने से तुम लोग यह भी सोच लोगे। और उस दिन दिल पर पत्थर रखे मैं चुप रही। यह
वहां से मुझे लेकर सीधे ससुराल आ गए। यहां भी हाल कुछ-कुछ वैसा ही था जैसा मायके में।
सब खुशी से निहाल थे। सास ने गले लगा लिया। शायद उनकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा खरी
उतरी थी। उनके लड़के की मैं उनकी आशाओं से बढ़ कर देखभाल करने में सफल हुई थी। मगर घंटे
भर भी न बीता था कि सास की एक बात ने हिला कर रख दिया। उन्होंने नंद, चाची सबके सामने ही कहा,
"मुझे तुमसे बहुत शिकायत है मुन्नी " वह मुझे मुन्नी ही कहती
थीं। अचानक कही गई उनकी इस बात से मैं एकदम हक्का-बक्का हो गई, मैंने डर से थर-थराते हुए धीरे से कहा,
’अनजाने में कोई गलती हुई हो तो माफ कर दीजिए अम्मा जी।’
"अब जाने में कुछ हो या अनजाने में यह तो तुम्हीं जानो। मैं तो नौ महीने में ही
पोते को खिलाना चाहती थी। तुम से जाते समय कहा भी था मगर साल बीत गए पोता कौन कहे कान
खुशखबरी भी सुनने को तरस गए। माना कि तुम लोग नए जमाने के हो। फैशन के दिवाने हो। मगर
लड़का-बच्चा समय से हो जाएं तो
ही अच्छा है।"
मैं उनका गुस्सा उनका व्यंग्य समझ गई। और सच कहूँ तो मैंने भी बच्चे के बारे में
पहले ध्यान ही नहीं दिया था। एक-दो बार बात मन में आई ज़रूर पर खुदी सोचा अभी नहीं। एक-दो साल बाद सोचेंगे। हॉस्टल में बहुत
सी लड़कियां जब बतियाती थीं तो शादी-ब्याह बच्चों आदि को भी लेकर बातें होती थीं। और सच बताऊं इन बातों का असर मुझ
पर भी था। शादी के साल बीत जाने के बावजूद इन्होंने भी कभी कोई बात नहीं की थी। और
सास ने एकदम से बच्चे की बात बोल कर मेरे होश उड़ा दिए थे। किसी तरह संभाला खुद को और
सास को सफाई देते हुए कहा,
‘नहीं अम्मा जी ऐसी बात नहीं है।’
"अब चाहे जैसी बात हो बच्ची हमें तो जो दिख रहा है हम वही कह रहे हैं। अरे! फैशन
करो मगर कुछ लिहाज-शर्म तो होनी ही चाहिए न। हम लोग भी कभी बहू थीं। मगर कभी ऐसा कुछ नहीं किया कि
सास-ससुर या किसी को कुछ कहने
का अवसर मिला हो।"
अम्मा के तानों के साथ-साथ नंदों और बाकी लोगों के व्यंग्य बाण भी मुझे छलनी करने लगे। मैं एकदम पस्त
हो गई। पहले मायके से इस तरह घंटे भर में वापसी और फिर यहां आकर तानों व्यंग्यों को
सुन कर लगा कि लोग जो कहते हैं कि ससुराल एक जेल है तो गलत नहीं कहते। मगर जब सासू
मां खाना-पीना हो जाने के बाद फिर
आकर बैठीं मेरे पास तो सभी को हटा दिया। सब सो गए। लेकिन वह हमसे बतियाती रहीं रात
दो बजे तक। मैं उनके हाथ-पैर दबा रही थी मगर उसके लिए भी उन्होंने कुछ ही देर में मना कर दिया। वह चाह रही
थीं कि मैं उनकी बात सुनती रहूँ बस। और फिर मैंने यही किया। उनकी बात सुन कर मेरे मन
में उनके तानों के कारण जो थोड़ा गुस्सा था वह न सिर्फ़ खत्म हो गया बल्कि मैंने ईश्वर
को धन्यवाद दिया कि मुझे ऐसी सुलझी हुई समझदार सास मिली। उनकी चिंता अपने और मेरे दोनों
के लिए थी। कह रही थीं,
"देखो तुम लोगों
की शादी पहले ही बहुत देर से हुई है। कब बच्चे होंगे ? कब बड़े होंगे ? कब पढ़ेंगे-लिखेंगे ? कब उन सबका शादी-ब्याह होगा।" ऐसी न जाने क्या-क्या बातें उन्होंने कहीं, उनकी हर बातों में जोर
सिर्फ़ इस बात पर था कि हमारा जीवन कैसे सुंदर बढ़िया खुशहाल हो। इसी की चिंता थी उन्हें।
वह बराबर पूछती रहीं कि हम दोनों के बीच संबंध कैसे हैं। और यह भी समझाती रहीं कि उनका
बेटा बहुत अक्खड़ है। इसलिए तुम्हीं समझ कर रहना। जब वह सो गईं तो मुझे लगा कि मां की
ममता क्या होती है यह मां बनने के बाद ही जाना जा सकता है। उनकी बातों से मुझे इतनी
राहत, इतना सुकून मिला कि उनके सोते ही मैं भी गहरी नींद में सो गई।’
‘सही कह रही हो, मां की ममता ही तो थी कि हम सब की शादी हो गई थी। इस बात से अम्मा बड़ी खुश थीं
लेकिन तुम्हारी बात आते ही वह रो पड़ती थीं । कहती थीं, "पता नहीं मन्नूआ कैसी है। उसके साथ हमने अच्छा नहीं किया। न जाने क्या कमी है कि
लड़के बच्चे भी नहीं हो रहे। कैसे कटेगी उसकी जिंदगी।"
‘ज़िन्दगी रुकती कहां है बिब्बो, चाहे जो हो वह कट ही जाती है। आखिर
मेरी भी कट ही गई न। भले ही तमाम उबड़-खाबड़ रास्ते आए लेकिन अभी तक जिए तो जा रही हूं
न। खैर अगले दिन सुबह उठते ही मेरे मन में आया कि चलो मायके में न सही ससुराल में ही
रह लूंगी कुछ दिन। लेकिन मेरी किस्मत में मेरे मन का कुछ हो ऐसा लिखा ही नहीं था। इसलिए
सुबह होते ही इनके एक फरमान ने मुझे ही नहीं पूरे घर को तनाव में डाल दिया। सवेरे का
चाय-नाश्ता चल ही रहा था कि
बहुत रूखे स्वर में इन्होंने एक घंटे में वापस लखनऊ चलने की तैयारी कर लेने को कह दिया।
किसी ने जब इनकी बात को काटने की कोई खास कोशिश नहीं की तो मैं समझ गई कि इनकी आदत
के सामने सब विवश हैं। बस सास और ससुर ने इतना कहा, "भइया कुछ दिन रुक जाते
तो अच्छा था। शादी के साल भर बाद आए हो, ऐसे चले जाओगे तो मोहल्ले वाले क्या
कहेंगे।" मगर इन्होंने ऑफ़िस का
बहाना बना कर सबको निरुत्तर कर दिया। आते वक़्त सास का रोना मुझ से देखा नहीं जा रहा
था। उनके और घर भर के आंसू देख कर मुझे इन पर गुस्सा आ रहा था कि घर वालों का मन रखने
के लिए क्या एक दिन को नहीं रुक सकते। आते वक़्त सास के पैर छूने लगी तो गले से वह
ऐसे घुट-घुट कर रोने लगीं जैसे कि वह अपनी सगी बिटिया को शादी के बाद बिदा कर रही हों।
रोते-रोते न जाने क्या-क्या कह डाला। और आज इतने बरस बाद भी उनका यह कहा मुझे ज़्यों
का त्यों याद है कि,
"मुन्नी जब तुम लोग खुद मां-बाप बनोगे तब समझोगे इन आंसुओं का मोल।" और कि "मैंने बेटा तुम्हारे सुपुर्द कर दिया है। ध्यान रखना उसका। गुस्सैल बहुत है लेकिन
दिल का बहुत अच्छा है।"
मैंने कहा ‘कैसी बात करती हो अम्मा तुम्हारा बेटा तुम्हारा ही रहेगा। पहला हक तो सदैव तुम्हारा
ही रहेगा।’
"झूठी दिलासा मत
दो मुन्नी। मैं अपनी मां की बात आज तक नहीं भूली हूं कि बेटा मां से जीवन में दो बार
अलग होता है। पहली बार तब जब जन्म के बाद उसकी नाल कटती है। और दूसरी बार तब जब बेटे
की शादी होती है। फिर वह पूरी तरह से मां से अलग होकर पत्नी का, अपने परिवार का हो जाता है। और आज भइया की बात सुन कर मां की बात मेरे कान में
बार-बार गूंज रही है। इसी लिए मैं कह रही हूं कि अब मेरा बेटा तुम्हारे हवाले है। ध्यान
रखना उसका।"
‘इतने कठोर थे जीजा कि मां-बाप के आंसुओं
से भी नहीं पसीजते थे ?’
‘मैंने कहा न कि अपनी बातों के आगे यह किसी की सुनते ही न थे। उस दिन भी नहीं सुना।
सास की बातों का भारी बोझ मन पर लिए, उन्हें रोता कलपता छोड़ कर हम लखनऊ वापस
आ गए। रास्ते भर इनका व्यवहार देख कर एक बार भी यह नहीं लग रहा था कि इन पर मां के
आंसुओं का कोई असर है। उनका यह व्यवहार मुझे अंदर तक छीले दे रहा था। ऊपर से सिगरेट
का धुआं, मुझे लग रहा था कि जैसे मेरा दम घुट जाएगा।
घर वापस आए हफ्ता भर बीत गया था लेकिन मेरे मन में सास की बातें ऐसी उथल-पुथल मचाए
हुए थीं कि मैं सामान्य नहीं हो पाई। मेरी स्थिति को भांप कर एक दिन यह बोले,
"बहुत हो गया सास प्रेम,
यही रोनी सूरत बनाए रखनी है तो वहीं रहो सास के पास।" यह सुन कर मैं हैरत में पड़ गई।
खैर रहना था इनके साथ सो हो गई इन्हीं के जैसी। मन हो या न हो यह जैसा चाहें हमें
वही करना था। और मैं करती भी रही। मगर बच्चे को लेकर अब मेरे मन में भी तड़प पैदा हो
गई थी, जो तेज़ी से बढ़ती जा रही थी। एक-एक दिन करके दो साल बीत गए। मगर इनके व्यवहार के
चलते मैं एक बार भी यह न कह सकी कि डॉक्टर से चेकअप करा लें। इसी बीच इनके शक्की स्वभाव
की परत दर परत रोज खुलती रही। जब यह लंबे समय तक घर नहीं जा रहे थे तो सास-ससुर देवर
को भेजते रहते। बीच वाला देवर ही ज़्यादा आता था। वह बहुत हंसमुख और मजाकिया स्वभाव
का था। या कहें कि बहुत फ्रैंक स्वभाव का था। इसलिए आता तो बहुत मजाक करता। यह मजाक
कभी-कभी बडे़ ओपन भी होते थे, एक सेकेण्ड को भी चुप न बैठता। उसके मजाक
के चलते मेरी दबी हंसी उसकी खिल-खिलाहट का साया पाकर खिल-खिला उठती। मगर जल्दी ही पता चला कि
यह इनको अच्छा नहीं लगता। एक बार तो इसी बात पर वह फट ही पड़े। उस दिन देवर शाम को ही
वापस घर गए थे, दो दिन रहने के बाद। उसके
जाने के बाद मैं कुछ गंभीर हो गई थी। आखिर हंसती-बोलती भी तो किससे। इनको तो इस सब से नफरत ही थी। मगर उस दिन मेरी इस हालत को देख
उन्होंने कहा,
"खसम चला गया तो हंसी भी साथ ले गया क्या ? जो मातमी सूरत बन गई। वापस बुला लो
उसको।"
उनकी बात सुन कर मुझे काटो तो खून नहीं। उस दिन मैं भी बिफ़र पड़ी। दो बरस बाद मैं
पहली बार विरोध कर रही थी। परिणाम था कि इन्होंने बिना किसी हिचक के दो-तीन थप्पड़ मुझे जड़ दिए। लेकिन मैं भी
उस दिन चुप न रही जो मेरे मन में था मैंने बोल दिया। मैंने कह दिया कि आपकी नजरों में
किसी की भावना का कोई मूल्य नहीं है। आपने बेवजह सबके विषय में वहम पाल रखा है। निरर्थक
शक करते हैं। वो भी अपने सगे भाई पर। मगर मेरी किसी बात का उनपर कोई असर नहीं था। हां
जब ज़्यादा बोली तो उन्होंने उठाई अपनी छड़ी और जड़ दी कई़। मेरा मन एकदम टूट गया। मैं
रोती पड़ी रही रात भर। सोचा इससे अच्छा तो बिन ब्याही रहती। जिसे देवता मान पूज रही
हूं वह मुझे गुलाम समझ पीट रहा है। मगर अगले दिन मैंने सुबह उठकर फिर पूर्ववत् चाय-नाश्ता खाना बना कर दिया। मगर फिर भी
यह एक शब्द न बोले। बिना खाए-पिए मुझे दो दिन बीत गए मगर मुझसे इन्होंने एक शब्द न पूछा। मैं भी जिद कर बैठी
कि जब-तक पूछेंगे नहीं मैं कुछ
नहीं खाऊंगी। चाहे जान चली जाए।
आखिर चौथे दिन मैं इनको खाना देते समय
गश खाकर गिर पड़ी। मुझे एकदम लस्त-पस्त अर्ध-बेहोशी की हालत में इन्होंने कैसे जमीन से उठाया, बिस्तर पर कैसे लिटाया यह इन्होंने अंतिम सांस तक नहीं बताया। मगर उनकी हालत को
ध्यान में रख कर उनको हुई कठिनाई का अंदाजा लगा कर मैं बाद में खुद पर बहुत क्रोधित
होती रही। मुझे इन्होंने सिर्फ़ इतना बताया कि जब काफी पानी वगैरह चेहरे पर छिड़कने
के बाद मुझे पूरी तरह होश न आया तब इन्होंने अपने किसी मित्र को फ़ोन कर बुलाना चाहा
तो फ़ोन डी0पी0 से ही खराब था। तब न चाहते हुए भी पड़ोसी को बुला कर लाए, फिर वह किसी डॉक्टर को लेकर आए उसने जो भी दवा वगैरह दी उससे मैं बड़ी जल्दी होश
में आ गई, फिर डॉक्टर ने पड़ोसी को हटा कर कुछ पूछा और इतना ही कहा कि इन्हें अभी जूस या फिर
कोई हल्का-फुल्का तरल पदार्थ दीजिए।
फिर थोड़ा-थोड़ा खाना-पीना शुरू करें। कई दिन से कुछ न खाने की वजह से ऐसा हुआ। फिर अगले दिन यह ऑफ़िस
नहीं गए। और दिन भर खाना-पीना करने के बाद रात होते-होते जब मैं काफी हद तक सामान्य
हो गई तब रात-भर जितना ऊट-पटांग मुझे
कह सकते थे कहा। मैं कुछ न बोली। ऐसे ही कई हफ़्ते बीत गए, मेरे लाख प्रयासों के बाद भी मुझसे
बात न की। फिर संयोगवश ही बिना किसी सूचना के सास-ससुर देवर के साथ आ गए। और करीब
दस दिन रुके रहे। इस बीच इन्होंने कभी सही बात जाहिर नहीं होने दी। ऐसा व्यवहार करते
रहे जैसे कि हमारे बीच कुछ हुआ ही नहीं।’
मन्नू ने एक नजर बिब्बो पर डालते हुए पूछा ‘बिब्बो तुझे नींद तो नहीं
आ रही।’
‘नहीं दीदी तुम्हारी इतनी और इस तरह की बातें सुनने के बाद तो सवाल ही नहीं उठता।
वैसे भी नींद आती कहां है। मैं परेशान हूं यह जानकर कि तुम्हारे साथ यह सब हो रहा था
और घर पर तुमने भनक तक न लगने दी।’
‘बिब्बो हालात देख कर मुझे लगता नहीं था कि कहने से कोई फ़र्क़ पड़ेगा। बल्कि तुम
सब भी परेशान होते इसलिए मैंने कभी कुछ नहीं बताया।
सास-ससुर के रहते इन्होंने जो बातचीत शुरू की थी, वह फिर उनके जाने के बाद भी चलती रही। स्थिति सामान्य देख मैंने एक दिन बच्चे को
लेकर बात उठाई। कहा कि,
‘हमारी शादी के ढाई साल होने जा रहे हैं। अब लोग बच्चे को लेकर पूछते हैं। मैं सोच
रही हूं कि किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा लूँ ।’
‘तुम्हारे पास बच्चे के
अलावा सोचने या करने को कुछ नहीं है क्या ?’
‘लेकिन ढाई साल का वक़्त कम नहीं होता। सही समय पर बच्चे हो जाते हैं तो उनकी परवरिश, पढ़ाई-लिखाई सब कुछ कायदे से
हो जाती है। नहीं तो बड़ी दिक़्क़त होती है।' मैंने सास की कही बात दोहरा दी तब यह बोले,
‘तो मैं क्या करूं ? बहुत सी चीजें अपने चाहने से नहीं होतीं।’
‘आप सही कह रहे हैं, इसीलिए तो मैं डॉक्टर के पास जाने की सोच रही हूं। यदि कोई कमी होगी तो दवा से
ठीक हो जाएगी। किसी के बच्चे को देख कर कब तक मन मसोसती रहूंगी।’
‘तुम्हारा जो मन आए करो ..... । मगर इसके लिए मुझसे कहीं आने-जाने के लिए न कहना।’
इनकी इस बात से मुझे बड़ी राहत मिली। एक
तरह से इन्होंने इज़ाज़त दे दी थी डॉक्टर के पास जाने की। इसके पहले बहुत सी रातें मैंने
तरह-तरह की पीड़ा के चलते रोते-जागते बिताई थी। लेकिन शादी के बाद यह पहली रात थी, जिसे मैंने सुकून के आंसू बहाते हुए जाग कर बिताई। अगली सुबह अच्छी रही। ऑफ़िस जाते
वक़्त शादी के बाद पहली बार जब मैंने अति उत्साह में इन्हें चूम लिया तो उन्होंने हल्की
मुस्कुराहट के साथ मेरे गाल पर हौले से एक चपत लगा दी। उस क्षण जो खुशी मैंने महसूस
की उसको बताने के लिए सही शब्दों का चयन मैं आज तक न कर पाई।
....... बिब्बो लेकिन यह
सब मैं तुमकों क्यों बताए जा रही हूं। मुझे तो सिर्फ़ अपना अनर्थ ही बताना है न, जो मैंने किया।’
‘दीदी यह सब तुम बता नहीं
रही हो। यह तो बरसों से जो तुम्हारे मन में भरा है वही मौका पाकर एकदम से फूट पड़ा है।
उसका आखिरी कतरा भी बाहर आने को उतावला है। इसलिए रोकने की कोशिश न करो। आज अपने ऊपर
से सारा बोझ उतार दो , बहुत राहत मिलेगी।’
‘ए ... बिब्बो बात तो तुम भी बहुत बड़ी-बड़ी करने लगी हो। मैं तो सोच रही थी तुम्हें
नींद आ रही होगी इसलिए बात खत्म करूं फिर कभी करेंगे।’
‘अरे! दीदी नींद कहां है आंखों में। मैंने पहले ही कहा कि इतना सुनने के बाद तो
रही-सही नींद भी खत्म हो गई।’
बिब्बो की बात सुन कर मन्नू के चेहरे पर तनाव कुछ और बढ़ गया। वह असमंजस में थी
कि आगे सारी बातें कहे या टाल जाए। दिन में भावना में बह कर कहा तो था अनर्थ जो हुआ
वह बताने को लेकिन अब कहीं मन में हिचक थी। मगर बिब्बो का आग्रह कुछ ऐसा था कि इंकार
करने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी। उठकर एक गिलास पानी पिया। और वापस बेड पर लेट
गई। कुछ देर बाद बोली,
‘बिब्बो मैं बच्चे की चाहत में इतनी पगलाई हुई थी कि इनके जाने के बाद थोड़ी देर
में ही तैयार हो गई। पहले सोचा कि पड़ोसन को साथ ले लूं लेकिन फिर सोचा नहीं इससे हमारी
पर्सनल बातें मुहल्ले भर में फैल जाएंगी। चर्चा का विषय बन जाएंगी। यह सोच मैं अकेली
ही चली गई बलरामपुर हॉस्पिटल की गाइनीकोलॉजिस्ट से चेकअप कराने। लेकिन वहां पता चला
वह तो दो हफ़्ते के लिए देश से कहीं बाहर गई हैं। मुझे बड़ी निराशा हुई, गुस्सा भी आई कि यह डॉक्टर्स इतनी लंबी छुट्टी पर क्यों चली जाती हैं। दुखी मन
से लौट रही थी कि शुरुआत ही गलत हुई। फिर अचानक रास्ते में एक क्लीनिक की याद आई। जिसके
बोर्ड पर एक लाइन विशेष रूप से लिखी थी। ‘निसंतान दंपति अवश्य मिलें।’ आते-जाते बोर्ड को मैं काफी दिन से देख रही थी। आस-पास उस क्लीनिक के डॉक्टर यू0के0 पांडे का बड़ा नाम था। उसकी याद आते ही मैं सोचते-सोचते उसकी क्लिीनिक पहुंच गई।
क़दम जैसे बरबस ही खिंचते चले गए थे उस ओर।’
‘बोर्ड पर लिखी उन बातों पर तुम्हें एकदम से इतना यकीन हो गया था।’
‘हां ... अनुभवहीनता, उतावलापन, सही-गलत की पहचान करने की क्षमता ही गड़बड़ा देती है। मेरे साथ भी यही हुआ। बिब्बो
मुझे पूरा यकीन हो गया था कि मेरे मां बनने का मेरा इंतजार अब खत्म होने वाला है। मगर
मेरा दुर्भाग्य चिपका रहा मेरे साथ। डॉक्टर ने न जाने कितने प्रश्न कर डाले। उसने सारी
व्यक्तिगत बातें पूछ डालीं। पहले किसी अन्य के सामने जिन बातों को मैं सुनने से भी
घबराती थी उस समय मुझ पर न जाने कैसा जुनून छाया था कि वह जो भी पूछता मैं खुल कर बेहिचक
जवाब देती गई।
फिर उसने पेट को अजीब तरह से दबा-दबा कर देखा, वो मुझे कुछ अटपटा सा लगा
था। किसी जेंट्स डॉक्टर से इस तरह मैं पहली बार चेकअप करा रही थी, मैं अब भी यह सोच कर आश्चर्य करती हूं कि उस दिन मेरी शर्म कहां चली गई थी कि जो
चेकअप एक लेडी डॉक्टर से करवानी चाहिए थी वह मैंने बेहिचक एक जेंट्स डॉक्टर से करा
ली। उसने जो कुछ बताया जो दवाएं दीं उससे मैं बहुत आश्वस्त हो गई थी।
शाम को इन्हें बताया सब कुछ मगर चेकअप के तरीके को छुपाते हुए। इन्होंने सारी बातें
ऐसे सुनीं मानो उन्हें सुनना कोई विवशता हो। मगर फिर भी मेरे उत्साह में कमी न आई।
मेरे उत्साह का अंदाजा इसी बात से लगा सकती हो कि शादी के बाद वह रात ऐसी रात थी जिस
दिन मैंने इनसे संबंध के लिए खुद पहल की। इनका मूड नहीं था फिर भी सारे जतन कर तैयार
किया। बहुत खुश थी कि जल्दी ही मां बन एक राजदुलारा गोद में खिलाऊंगी।
मगर इंतजार की घड़िया थीं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। डॉक्टर पहले
महीने में एक बार बुलाता था फिर वह हफ़्ते में एक बार बुलाने लगा। फिर जल्दी ही हफ़्ते
में दो बार बुलाने लगा। हर हफ़्ते फीस लेता था। हर बार कुछ न कुछ ऐसा बताता था कि मेरी
आशाएं बढ़ जातीं। तीन महीने में भी जब कुछ परिणाम न दिखा तो मैंने डॉक्टर से कहा,
‘डॉक्टर साहब क्या दवाओं का कोई असर नहीं हो रहा है। और कब तक चलेंगी।’ डॉक्टर को लगा कि मेरा धैर्य चुक रहा है। उसने तपाक से कहा,
"आप ये कैसे कह सकती हैं कि कोई असर नहीं हो रहा है। डॉक्टर मैं हूं, मैं जानता हूं कि असर कितना
हो रहा है।"
फिर उसने बड़ी गंभीर मुद्रा में मेरा चेकअप किया। सच कहूं तो मैं उसके आगे अपने
को बेबस पाती थी। उसके यहां मरीजों की लगने वाली भीड़ ख़ास तौर से निसंतान महिलाओं की
भीड़ ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला था। उस दिन उसने मेरा नंबर आने पर कहा,
"अगर आपको ऐतराज न हो तो मैं आपको आखिर में देख लूं। क्योंकि भीड़ ज़्यादा है मैं
आपको जल्दबाजी में नहीं देखना चाहता।" उसकी बात से इम्प्रेस होकर मैं आखिर में चेकअप कराने के लिए सहमत हो गई। मेरा
नंबर आने पर उसने कई ऐसी बातें पूछीं कि उन्हें बताने में पहली बार मैंने संकोच महसूस
किया। जैसे कि "यह सहवास के लिए कितना वक़्त लेते हैं। आप पूरी तरह डिस्चार्ज हो जाती हैं। हफ़्ते
में कितनी बार संबंध बनाते हैं।" और तमाम प्रश्नों के बाद जब अंग की जांच
के लिए कपड़ा हटाने को कहा तो मैं सहम गई। क्लिीनिक में मैं ही आखिरी पेसेंट थी।
मगर राजदुलारे की चाहत ने मेरी हिम्मत टूटने न दी। मैं चेकअप के लिए तैयार हो गई।
उसने मेरे निचले कपड़े को जितना मैंने हटाया था उसे और ज़्यादा हटा दिया। अब उससे छिपाने
के लिए मेरे पास कुछ बचा न था। पति के बाद अब मैं पहली बार एक गैर-मर्द के सामने अपनी लाज निर्वस्त्र
किए पड़ी थी। पहली बार कोई गैर-मर्द मेरे स्त्री अंग को देख रहा था। उसे छू रहा था। और वह पहला मौका भी था जब
मेरी आँखें किसी डॉक्टर से चेकअप कराते समय बुरी तरह बरस पड़ी थीं। मैं समझ नहीं पा
रही थी कि वह वाकई चेकअप कर रहा था या मेरे शरीर से खेल रहा था। उसकी जांच का तरीका
ऐसा था जैसे कि मुझे उत्तेजित कर मेरा उपभोग करने की कोशिश में हो। अंततः मैं कसमसा
उठी, उसे लगा कि मेरा धैर्य टूट रहा है तो वह हट गया। मैंने भी बिजली की गति से कपड़े
पहने। आ कर बैठ गई कुर्सी पर। वह सिंक में हाथ धोकर आया। चेहरे पर तनाव लिए सामने बैठ
गया। मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से देखा तो बड़ी गंभीर मुद्रा बना कर बोला,
"अं ...मुझे लगता है आपके फेलोपियन ट्यूब में कुछ प्रॉब्लम है। एज फ़ैक्टर भी एक
कारण हो सकता है। मगर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है, ट्रीटमेंट थोड़ा लंबा चल
सकता है। ..... आप एक काम करें, मैं जो दवाएं अभी दे रहा हूं उन्हें दो हफ़्ते खाएं। उसके बाद जब आइएगा तो अपने
हसबैंड को भी लेते आइएगा। संभव है उनके साथ भी कोई प्रॉब्लम हो।"
‘हे भगवान तुम इतना कुछ अकेले ही झेलती रही ? मुझे बताती तो मैं चली
आती।’
‘तुम अपना घर छोड़ कर कहां आ पाती। यह संभव ही नहीं था। फिर उस समय मेरे दिमाग में
ऐसा कुछ आया ही नहीं। उस दिन भी मैं दवा लेकर घर चली आई। और बिस्तर पर घंटों पड़ी रोती
रही कि एक संतान के लिए मैं क्या-क्या कर रही हूं। मेरे ही साथ सब कुछ क्यों हो रहा
है? मेरी ही किस्मत ऐसी क्यों
है? आखिर कौन से जन्म की सजा
ईश्वर मुझे दे रहा है? पड़ी आंसू बहाती रही, सोचती रही, उस शाम को मैंने इस बारे में इनसे कोई बात नहीं की। दो दिन बाद संडे को छुट्टी
में इनसे कहा कि आपको भी चलना है इस बार। तो यह एकदम फट पड़े। कहा,
"मैंने कहा था न कि तुमको जो करना है करो मुझे इसमें शामिल मत करना। फिर मुझे चलने
के लिए क्यों कह रही हो।"
मैं एकदम चुप हो गई। मैं जिस बात के लिए
डर रही थी वही हुआ। खैर दो हफ़्ते दवा खाने के बाद मैं फिर गई डॉक्टर को बताया सब और
यह भी कि हसबैंड नहीं आ सकते तो उसने घूरते हुए कहा,
"जब आपके हसबैंड ही नहीं चाहते तो आप मां कैसे बन सकती हैं। उनका इस तरह से इंकार
करना यही साबित करता है कि उनमें ही बड़ी कमी है जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।"
उसने फिर तरह-तरह के प्रश्न किए कि, "आप संतुष्ट होती हैं कि
नहीं। सीमेन पर्याप्त मात्रा में होता है कि नहीं।" फिर चेकअप का वही तरीका। मैंने उस दिन यह भी महसूस किया कि ठीक से चेकअप करने
का बहाना कर वह जानबूझ कर मुझे आखिर तक रोके रहता है। और हर बार उसका तरीका कुछ ज़्यादा
ही बोल्ड होता जा रहा है। उस दिन भी चेकअप के नाम पर उसने जो कुछ किया उससे मैं शर्म
से गड़ी जा रही थी। जब क्लिीनिक से बाहर निकली तो लगा जैसे दुनिया के सामने मैं चोरी
करते पकड़ी गई हूँ । मारे शर्म के पसीने-पसीने हो रही थी। मैं इतना परेशान हो गई कि
रास्ते में ही यह तय कर लिया कि बच्चा हो या न हो अब इस डॉक्टर के पास कभी नहीं आऊंगी।
खीज मेरी इतनी बढ़ गई कि मैंने दो दिन बाद सारी दवाएं भी फेंक दीं। अब मेरा ज़्यादा
व़क्त बच्चे के बारे में सोचते और आंसू बहाते बीतता। ऐसे ही कब दो साल और बीत गए पता
ही नहीं चला।
इसी बीच इनका ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया।
मगर लखनऊ से इनको न जाने कौन सा लगाव हो गया था कि जोड़-तोड़ करके फिर लौट आए लखनऊ। इसके
बाद फिर कभी लखनऊ न छोड़ा। लखनऊ में ही इस ब्रांच से उस ब्रांच में जाते रहे मगर लखनऊ
नहीं छोड़ा। शादी के छः साल बाद ही इन्होंनें यह मकान खरीद लिया था। इस बीच बड़े-बडे़
लोगों से इनका संपर्क बढ़ता गया। छुट्टी के दिनों में लोगों का आना-जाना इतना बढ़ गया कि लगता जैसे यह कोई
राजनेता हों। आने वालों में कई मंत्री, विधायक, सांसद भी होते थे। व्यस्तता कुछ ऐसी थी कि पानी पीने को भी फुरसत नहीं। मैं बरसों-बरस यह नहीं समझ पाई कि वह अपने को
व्यस्त रख कर बच्चे की बात सोचना ही नहीं चाहते थे या बच्चे इन्हें पसंद ही नहीं थे।
जिस तेजी से समय निकल रहा था उसी तेजी से मेरी व्याकुलता भी बढ़ती जा रही थी। इसी
बीच मैं बलरामपुर हॉस्पिटल की उस प्रसिद्ध लेडी डॉक्टर से लेकर अन्य जिन डॉक्टरों से
इलाज करा चुकी थी उनमें कुछ होम्योपैथी और आयुर्वेदिक वैद्य भी शामिल थे। मगर परिणाम
शुन्य निकल रहा था। हज़ारों रुपए मैं फूंक चुकी थी। कोई बात अगर मेरे पक्ष में थी तो
बस यह कि शादी के बाद से ही यह करीब आधी सैलरी मुझे दे देते थे और उसके बारे में मुझ
से कभी कुछ नहीं पूछते थे कि मैं कहां खर्च कर रही हूं। इस बीच बाबा, ओझा, तांत्रिक, मौलवियों आदि सभी के पास मैं जाती रही। सबने तरह-तरह की बातें बताईं। तरह-तरह के
जोग-जतन, काम बताए, पूजा-पाठ, व्रत बताए, मैं अंध-भक्त की तरह सब करती रही।
और परिणाम सिवाए हाथ मलने के और कुछ नहीं मिलता था। हां तरह-तरह के अनुभव ज़रूर हो रहे
थे। जहां कुछ बाबा वगैरह केवल पैसे वसूलने की जुगत में रहते थे वहीं कुछ पैसा और साथ
ही शरीर लूटने की कोशिश में भी रहते थे। पहले इन सबके प्रति मेरे मन में जो सम्मान
होता था इन अनुभवों के साथ सब खत्म हो गया। सब मुझे ठग, बदमाश, कामुक-पिशाच नजर आने लगे।
‘मगर दीदी इन सब के बारे में तुम्हें पता कैसे चलता था।’
‘बिब्बो ज़रूरत पड़ने पर आदमी रास्ता भी ढूढ़ लेता है। डॉक्टर पांडे के यहां तो मैं
अकेली ही जाती रही। मगर उसकी हरकतों से परेशान होकर अंततः मैंने चौहान जी की बीवी के
सामने अपनी बात रखी। फिर उन्होंने भी अपने स्तर पर प्रयास शुरू किए। कुछ के बारे में
अखबारों, पत्रिकाओं में उनके विज्ञापन से पता चला तो कुछ चौहान जी की बीवी से। बच्चे भले
नहीं हुए लेकिन चौहान परिवार ने हमारी जो मदद की उसको मैं कभी भूल न पाऊंगी। उनको जहां
भी कुछ पता चलता न सिर्फ़ मुझे बतातीं बल्कि साथ जातीं, पूरा वक़्त देतीं और किसी से कुछ बताती भी न थीं। और न ही कभी अहसान जतलाने की
कोशिश की। एक बाबा को तो उन्होंने मेरे लिए ही अपनी जान खतरे में डाल कर उसे इसी घर
में जूतों-चप्पलों से मारा और इस ढंग से भगाया कि किसी को पता भी नहीं चला।'
‘ऐसा क्या हो गया था कि बाबा को मारना पड़ा ?’
‘पूछो मत, वह ऐसा काला दिन था जिसे याद कर मैं आज भी कांप उठती हूं। उस कमीने ने मुझे लूट
ही लिया था, मेरी इज़्ज़त को तार-तार करने में सफल हो जाता यदि जिया कुछ पल को भी देर करतीं
। हुआ ऐसा कि उस बाबा की चर्चा बहुत थी, उसके यहां भीड़ बहुत लगती थी। चौहान
जी की बीवी को पता चला तो वह हमें भी लेकर गईं। उसका ताम-झाम देख कर मैं भी बहुत प्रभावित
हुई। बिना कुछ बताए ही उसने बता दिया कि मैं क्यों आई हूं तो मैं उसकी एकदम मुरीद हो
गई। फिर उसके यहां आए दिन आना-जाना शुरू हो गया। तरह-तरह की पूजा-पाठ,व्रत करने लगी। जब आठ-नौ महीने बीत गए तो मैं अधीर होकर एकदम एक दिन उससे कह बैठी,
‘बाबा कब होगी ईश्वर की कृपा, आप जैसा कह रहे हैं मैं बराबर वैसा ही करती
आ रही हूं मगर अब-तक निराशा ही हाथ लग रही है।’ उन्हें सब बंगाली बाबा कहते थे। मेरी बात
सुन कर वह बड़ी देर तक आंख बंद किए ऊपर की तरफ ऐसे मुंह किए रहे जैसे सीधे ईश्वर से
बात कर रहे हों । फिर आंखें खोल कर कहा लगता है तेरे घर में कोई बुरी आत्मा है जो भटक
रही है। उसे शांत करना पड़ेगा। फिर उसने तरह-तरह की सामग्री बताई जिसे लाना मेरे लिए
संभव नहीं था। फिर सबकी तरह मैंने भी कहा,
’बाबा जी आप ही मंगवा दीजिए मैं पैसा दे दूंगी । फिर उसने कुल सामान के लिए दस हज़ार
रुपए बताए जिसे सुन कर मैं घबरा गई। मगर कुछ कह न सकी। और क्योंकि इतने पैसे लेकर नहीं
गई थी इसलिए उनसे मोहलत लेकर चली आई कि दो-तीन दिन में लेकर आती हूं। मेरी बात सुन कर बंगाली बाबा बड़ा खुश हुआ। बड़े असमंजस
में मैंने दो-तीन दिन गुजार दिए। फैसला
नहीं कर पा रही थी कि क्या करूं। दस हज़ार रुपए उस समय मायने रखते थे। मेरे लिए इतना
पैसा देना मुश्किल काम था। फिर घर पर सारा अनुष्ठान होना था। मगर इन सारे असमंजस पर
आखिर बच्चे की चाहत फिर भारी पड़ी। चार दिन बाद मैं किसी तरह हिम्मत करके दस हज़ार रुपए
दे आई। यह सारे रुपए घर के खर्चों में कटौती कर-कर के मैंने काफी दिनों में जमा किए
थे। मैं इनसे पैसा नहीं मांगना चाहती थी क्योंकि मुझे पूरा यकीन था कि यह बाबा के नाम
से ही भड़क जाएंगे।
ज़िया, हां मैंने यह तो बताया
ही नहीं कि चौहान जी को मैं भाई-साहब और उनकी मिसेज को ज़िया कहती थी। तो ज़िया से कह
कर मैंने बाबा से पूजा का वह दिन निश्चित किया जिस दिन यह शहर से बाहर थे। तय समय पर
बाबा अपना सारा ताम-झाम लेकर आया। इस तीन मंजिले मकान में आसानी से किराएदार रखे जा
सकते थे। मगर इन्होंने कभी नहीं रखा। जिसके चलते सब खाली ही रहता था। पूजा-पाठ के बारे
में किसी को खबर नहीं हो इसलिए ज़िया ने पूजा सबसे ऊपर एकदम भीतर वाले कमरे में रखी।
‘लेकिन दीदी तुम्हें यह सब करते डर नहीं लगा। बंगाली तांत्रिकों के बारे में मैंने
सुना है कि जादू-टोना करने में बड़े माहिर होते हैं।’
‘बिब्बो डर तो बहुत लग रहा था। लेकिन मैंने कहा न कि बच्चे के लिए पागल हो रही थी।
मैं इतनी जुनूनी हो गई थी कि किसी भी हद तक जाने को तैयार थी। आज जब सोचती हूं, याद करती हूं कि मैं कैसे यह सब कर
गुजरती थी, कहां से मुझ में इतनी हिम्मत आ जाती थी तो मैं दंग रह जाती हूं, यकीन नहीं होता कि मैं यह सब कर गुजरी। यह मेरी अतिशय हिम्मत या यह कहो कि जुनून
ही तो था कि एक तांत्रिक को घर तक ले आई।’
‘तो उस तांत्रिक ने बताया कुछ।’
‘बताया क्या ..... आते ही उसने जो करामात दिखाई उससे हम और ज़िया दोनो दंग रह गए।
पसीने से तर-बतर थर-थर कांप रहे थे हम। ऊपर कमरे में आते ही पता नहीं कौन-कौन सा मंत्र बकने लगा। फिर हवा में
ऐसे हाथ झटक कर मुट्ठी बांध ली कि जैसे कुछ पकड़ लिया हो मुट्ठी में और जो कुछ उसने
पकड़ा है वह छूटने की बहुत कोशिश कर रहा है। अचानक वह बोला,
‘जल्दी अंधेरा करो ,जल्दी अंधेरा करो।’
हम कुछ नहीं समझ सके तो उसने खिड़की दरवाजे बंद करके पर्दे से ढक देने को कहा। मकान
तो देख ही रही हो कि तीन तरफ दूसरे मकान बने हैं। रोशनी आने का रास्ता सिर्फ़ सामने
से है। और सबसे पीछे कमरे में तो अंधेरा ऐसे हो जाता है मानो रात हो गई हो। हम पीछे
वाले कमरे में ही थे। उसने हम दोनों को करीब बुलाया और फिर धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी खोली
तो उसकी हथेली पर उस अंधेरे में कुछ चमक रहा था। महक भी कुछ अजीब सी आ रही थी। वह महक
दीपावली की न जाने क्यों याद दिला रही थी। फिर उसने कहा,
'‘देख कितनी आत्माएं हैं इस घर में जो तुझे मां नहीं बनने दे रहीं। पिछले जन्म में
तूने गो हत्या की और नाम दूसरे का लगा दिया। इससे दो घरों में झगड़ा हुआ जिसमें कई लोग
मारे गए। मरने वालों में कई बच्चे भी थे। गो हत्या से नाराज देवताओं के कारण बीमारी
फैली जिससे कई लोगों की अकाल मृत्यु हुई। उस कारण उनकी आत्माएं भटक रही हैं। और जब-तक यह भटकेंगी तू मां नहीं बन सकती।
इन सबको मुक्ति दिलानी ही होगी।'’
वह बराबर हथेली को हिला रहा था। जिससे जुगनू सी चमक हो रही थी और हम दोनों अचंभित
से देख रहे थे। फिर बाबा ने खिड़कियों के पर्दे हटवा दिए अब मोटे शीशों को पार कर कुछ
रोशनी आने लगी थी। तब वह फिर बोला,
'‘अभी कुछ देर के लिए मैं इन आत्माओं को रिहा कर रहा हूं फिर हवन कुंड में इन्हें
भस्म कर हमेशा के लिए मुक्त कर दूंगा।'’
मेरी मूर्खता देखो कि उस समय मेरे दिमाग में यह नहीं आया कि आत्मा तो अजर-अमर है।
वह चाहे जैसी हो किसी भी तरह उसे मारा नहीं जा सकता। जबकि न जाने कितनी बार गीता पढ़
चुकी थी। लेकिन जब मति भ्रष्ट थी तो क्या हो सकता था।
इसके बाद बाबा ने कमरे के सबसे कोने में जगह साफ कराई । वहां अपने साथ लाए गंगा-जल को छिड़क कर उसे पवित्र किया। यह
सब करते हुए वह न जाने कौन-कौन से मंत्रों को उच्चारित किए जा रहा था। संस्कृत भाषा
में वह इतना स्पष्ट उच्चारण कर रहा था कि उसकी विद्वता की मैं कायल हुई जा रही थी।
करीब आधे घंटे में उसने सारी तैयारी कर ली। वहीं ज़िया उसे पूरे मन-प्राण से मदद कर रही थीं । मैं एक तरफ
कोने में चटाई पर बैठी थी। क्योंकि बाबा ने कुछ लौंग मेरे हाथ में देकर कहा था कि उसे
मैं मुट्ठी में बंद कर आंख मूंद कर बैठी रहूं। मैं उसके आदेशानुसार बैठी रही।
तैयारी पूरी होने पर उसने मुझे पूजा स्थान पर बुला कर बैठाया। कुछ देर तंत्र-मंत्र
करने के बाद मेरे हाथों में रोली, सिंदूर और न जाने क्या-क्या लगाया, मेरे माथे , पूरी मांग में मुट्ठियों से सिंदूर भर दिया। इस बीच ज़िया बैठी देखती रहीं । करीब
बीस मिनट की पूजा के बाद उसने उठ जाने को कहा। हाथ में तमाम तरह की पूजा सामग्री भर
दी थी। फिर उसे ले जाकर छत पर डाल आने और पलट कर न देखने की हिदायत दी। यह कर जब लौटी
तो उसने हवन-कुंड में मंत्र पढ़-पढ़ कर
सात बार हवि दी। फिर साबूत नारियल जटा वाला उठा कर लोहे के उस छोटे से हवन-कुंड के धुंए में सात बार दिखाया और
फिर जल्दी-जल्दी उसकी जटा हटा कर नारियल तोड़ दिया। मैं और ज़िया एकदम दंग रह गए। उसमें
से चूड़ी के टूटे हुए सात टुकड़े, बहुत छोटी सी एक चुनरी, और सात लौंग जो कि सिंदूर में रंगी हुई थीं निकलीं। एक साबूत नारियल से यह सब निकलना
हम दोनों को आश्चर्य में डालने के लिए काफी था। हम अभिभूत हो बाबा के चरणों में गिर
कर पूछने लगे ’यह क्या है बाबा।’
'’यह तुझ पर किए गए टोने का सामान है। असल में तू एक साथ कई बाधाओं से घिरी है। एक
तरफ पिछले जन्म की बाधाएं हैं तो दूसरी तरफ इस जन्म में तेरे किसी अपने ने ही तुझ पर
टोना किया है। वह तुझे बरबाद कर देना चाहती है।'’
‘लेकिन बाबा किसने किया। मेरा तो किसी से झगड़ा भी नहीं है। अपनी जान में मैंने किसी
का कुछ नहीं बिगाड़ा। फिर किसी ने ऐसा क्यों किया ? और कब किया ?’
'‘तुमने भले ही इस जन्म में किसी का कुछ न बिगाड़ा हो लेकिन जलने वालों की कमी नहीं
है। न जाने तुम्हारी कौन सी बात कौन अपने बुरा मान जाएं कई बार खुद तुम्हें भी नहीं
मालूम होता। जिसने भी किया है वह तुम्हारे ही घर का है।'’
’बाबा कौन हो सकता है। हमें बता दें जिससे हम उससे सावधान रहें।’
‘'नाम बताने पर तुममें प्रतिशोध की भावना जागेगी, तुम भी गलत रास्ते पर चल
वही सब करोगी। फिर ऐसी मार-काट चलेगी कि तुम दोनों बरबाद हो जाओगी।'’
’तो बाबा कुछ ऐसा कर दीजिए कि टोने का असर ख़त्म हो जाए और आगे भी कुछ बुरा न हो।’
’'मैं कर तो सब दूंगा लेकिन जो हमला किया है उसने उसके लिए हमें यहीं बलि देनी पड़ेगी।
क्योंकि उसने तो तेरे पति की ही जान लेने की कोशिश की है। ऐसा करके वह न सिर्फ़ तुझे
मां बनने से रोकना चाहती है बल्कि पति की जान लेकर वह तुझे हर तरह से दर-दर की भिखारिन
बना देना चाहती है।'’
बाबा की यह बात सुन कर मेरी रुह कांप गई। मैं क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा
था। मैं एक दम शरणागत हो बाबा के सामने रो पड़ी। उसके आगे हाथ जोड़ कर कहा कि बाबा मुझे
इस समस्या से किसी भी तरह बचाओ। बाबा बड़ी गंभीरता से हवन कुंड को देखता रहा फिर मेरी
तरफ घूरते हुए बोला,
‘तू घबरा मत, मैं इस समस्या से तुम्हें हमेशा के लिए छुटकारा दिला दूंगा। पूजा के बाद तू नौ
महीने में ही मां बन जाएगी। मगर एक बड़ी समस्या है बेटी।’
’क्या बाबा आप बताइए आप जो कहेंगे मैं करूंगी।’
‘देख मुझे एक साथ दो पूजा करनी होगी। एक तेरे पति की जान बचाने के लिए। दूसरी मां
बनने के लिए रास्ता साफ हो इसके लिए।’
‘तो बाबा करिए न।’
'‘देखो पति की रक्षा के लिए बलि देनी पड़ेगी। मैंने पहले ही बताया कि बड़ी समस्या यह
है कि बलि यहीं देनी है। लेकिन यहां किसी जीव की बलि संभव नहीं। उसका एक ही उपाय है
कि उसकी जगह स्वर्ण देवी को स्वर्ण अर्पण कर दूं। लेकिन शायद यह तू नहीं कर पाएगी क्योंकि
कम से कम एक तोला स्वर्ण चाहिए। अब तू ही बता कि तू क्या चाहती है। पति, बच्चे या फिर जीवन भर दुखों का पहाड़ ढोना चाहती है।'’
बाबा की बात सुन कर मैं कांप गई अंदर तक। मैंने प्रश्न भरी नजर से ज़िया की तरफ
देखा ज़िया भी असमंजस में दिखाई दीं। फिर उठ कर मैं ज़िया को लेकर दूसरे कमरे में आई
उनसे पूछा तो वह बोली,
'‘मन्नू एक तोला सोना बहुत होता है। देवी-देवता पर तो सोने का पत्तुर ही चढ़ाते हैं।
मगर बाबा जी भी पहुंचे हुए लग रहे हैं। उनकी बात को टालना मुझे तो सही नहीं लग रहा।
पूजा कराने का तुम संकल्प भी ले चुकी हो।'’
ज़िया की बात सुन कर मैंने अनमने ढंग से ही लौट कर बाबा से पूजा पूरी करने को कह
दिया। सोने की दो चूड़ियां मैंने निकाल कर दे दीं।'
‘लेकिन दीदी स्वर्ण देवी नाम की भी कोई देवी हैं यह मैं पहली बार सुन रही हूं।’
‘हां मैंने भी उसी बाबा से पहली और अखिरी बार सुना था यह नाम। मगर उस क्षण ऐसी घबराई-अफनाई हुई थी कि कुछ सूझ ही नहीं रहा
था। इन बातों पर ध्यान तब गया जब यह चैप्टर क्लोज हुआ और मन में लंबे समय तक उथल-पुथल
मची रही। खैर जब मैंने चूड़ियां दे दीं तो बाबा ने चूड़ियों पर अभिमंत्रित जल छिड़का।
फिर एक काग़ज़ पर पूजा की कई सामग्री लिखीं जिस में जड़ी बूटियां भी थीं। उन्हें लाने
को कहा जो घर से कई किलोमीटर दूर अमीनाबाद में ही मिल सकती थीं।
समस्या यह खड़ी हुई कि मैं पूजा पर बैठी थी किसी और को बताना नहीं चाहती थी। अंततः
ज़िया बड़ी हिचकिचाहट के साथ गईं । वह मुझे अकेले नहीं छोड़ना चाहती थीं । वह जानती थीं
कि सामान खरीदने आने-जाने में दो-ढाई घंटे लग जाएंगे। मैं भी अंदर-अंदर भय-भीत थी लेकिन बाबा की बात सुनने के बाद
अब मैं नौ महीने में बच्चा पाने का सपना देख रही थी। सो मैंने ज़िया को भेज दिया। अब
बाबा ने अपनी पूजा और भी फैला दी। मैं पहली बार किसी पूजा में उस तरह का तमाशा देख
रही थी। ज़िया के जाते ही बाबा ने नारियल में से निकली सारी सामग्री और अन्य कई चीजें
हवन कुंड में डाल दीं। फिर मंत्र पढ़ कर मुझ पर तमाम पानी और अन्य सामग्री छिड़की और
मुझ से कहा,
‘'नहा कर सिर्फ़ एक कपड़े में आओ'’ मैं परेशान सी उसे देखती रही तो वह फिर बोला,
'‘परेशान होने की ज़रूरत नहीं। यह इस तांत्रिक पूजा का विधान है। यदि तुम्हारा पति
भी साथ देता तो विधान के हिसाब से पति-पत्नी दोनों को यह पूजा निर्वस्त्र होकर करनी
होती है। लेकिन पति शामिल नहीं है इसलिए मैंने किसी तरह यह रास्ता निकाला है। संकोच
न कर जा जल्दी कर और सिर्फ़ साड़ी ही लपेट कर आना।'’
अब मैं डर के मारे कांपने लगी थी। ज़िया भी नहीं थीं । मैं उठ कर बाथरूम की तरफ
गई। मगर नहाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। मैंने एक-दो बार झांक कर बाबा को देखा तो वह
पहले ही की तरह पूजा में व्यस्त था। अंततः मैंने सोचा चलो जो होगा देखा जाएगा जब इतना
कुछ करती आ रही हूं तो यह रिस्क भी लेती हूं। मैंने जल्दी-जल्दी खूब नहाया ढेर सा सिंदूर
वगैरह लगा होने के कारण समय थोड़ा ज़्यादा लगा। जब केवल साड़ी पहनने के लिए मैंने साड़ी
उठाई तो बड़ा अजीब सा लग रहा था। डरते-हिचकते खाली साड़ी लपेट ली। मगर बदन न पोंछने के
कारण वह बदन से जगह-जगह चिपक गई थी। शीशे में अपनी अस्त-व्यस्त हालत देख कर मेरा मन
एक बार भटका मैंने सोचा पूरे कपड़े पहनूंगी। पूजा हो या न हो। मैं सारे कपड़े पहन कर
पहुंची तो देखा बाबा आंखें बंद किए मंत्र पढ़े जा रहा था। और हवन कुंड में तरह-तरह की
सामग्री भी डाले जा रहा था। उससे जो धुवां निकल रहा था वह अब अजीब कसैला सा लग रहा
था। मैंने पहुंच कर कहा,
’बाबा जी मैं आ गई अब बताइए क्या करना है।’ बाबा बिना आँखें खोले ही क्रोधित हो
बोला,
’'तूने देवता का कहना नहीं माना। कहने के बावजूद तूने सारे कपड़े पहने हैं। तू सारी
पूजा क्यों बरबाद करना चाहती है।'’
मैं बाबा की बात सुन कर दंग रह गई कि उसने मेरी तरफ देखे बिना कैसे जान लिया कि
मैंने साड़ी के अलावा ब्लाउज, पेटीकोट वगैरह भी पहन रखे हैं। मैंने कांपते
हुए हाथ जोड़ कर माफी मांगी। अब बाबा का प्रभाव मुझ पर और भी ज़्यादा बढ़ गया। मैं भागी-भागी
कमरे में गई और जल्दी-जल्दी सारे कपड़े उतार कर एक दूसरी धोती लपेट ली और शीशे के सामने
देखने लगी कि कहीं से कोई अंग दिख तो नहीं रहा। अपने को शीशे में देख कर मुझे असमय
ही गांव की पड़ाईन चाची अचानक याद आ गईं।
जब भी मैं उनके घर जाती थी तो वह बड़े से रसोई घर में परिवार के अठारह-उन्नीस लोगों
का खाना बनाते या फिर आंगन में बरतन मांजती ही दिखतीं थीं बस एक सूती धोती में। जाड़ा
हो या गर्मी उनके तन पर बस एक धोती दिखती। और झलकते रहते थे उनके शरीर के अंग भी। उनका
भरा-पूरा शरीर मेहनती होने
का प्रभाव देता दिखता था। गर्मी के दिनों में तो पसीने से उनका बदन तर-बतर रहता था।
उनके चुल्हे में लकडी़ जलती ही रहती थी। बदन पर पसीने से चिपकी उनकी धोती उनका ही आख्यान
बांचती थी। उन कुछ सेकेण्ड में ही तन पर लिपटी वह धोती पड़ाईन चाची की व्यथा का मुझे
अहसास करा गई। मगर बाबा के प्रभाव के आगे सब बेकार था। सकुचाती हर तरफ से अपने को समेटती
जल्दी से जाकर बाबा के सामने बैठ गई। बाबा फिर बिगड़ गया।
‘'हुं अ अ....... तू बिना पूछे क्यों बैठ गई। खड़ी हो जा'’
मैं फिर खड़ी हो गई। बाबा ने फिर मंत्र पढ़ कर मुझ पर अंजुरी में
पानी भर-भर कर ग्यारह बार फेंका। हवन कुंड का धुवां वह मेरी तरफ हाथ से करता जा रहा
था और बोलता जा रहा था,
‘'जय- काली मां भर दे इसकी झोली।'’
हवन कुंड का धुवां मुझे अपने यहां के बब्बनवा की याद दिला रहा था। वह हल जोतने
या खेत में कुछ काम करके जब घर आता तो अम्मा जो खाना देतीं उसे खाने के बाद बाहर कुएं के किनारे बैठ जाता और
चिलम भर के पीता। उस समय खेलते हुए एक आध बार जब उस ओर से गुजरी तो उसका कसैला धुवां
अंदर जाते ही उबकाई सी होने लगती। आज हवन का धुवां भी कुछ वैसा ही अहसास दे रहा था।
मुझे कुछ नशा सा हो रहा था। दुनिया भर की तरह-तरह की पूजा करने के बाद बाबा ने आटे
से एक बच्चे की अनुकृति बनाई और मुझे देकर कहा,
'‘ले तेरी मंशा अब पूरी हो जाएगी। इसे अपने संतान उत्पन्न करने वाले स्थान पर सात
बार आधा प्रवेश कराओ और निकालो फिर सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी। नौ महीने में ही तेरी
गोद में बच्चा किलकारी भरेगा।'’
मैं बाबा की बात का मतलब समझ न पाई और हक्का-बक्का देखती रही तो वह गरज उठा
‘'देवी के आदेशों का अपमान करेगी तो अगले और दस जन्मों तक निसंतान ही रहेगी।'’
मैंने घबरा कर उस अनुकृति को अपनी गोद में रखा तो वह फिर गरजा '’तू मां बनने जा रही है और यह भी नहीं पता कि संतानोत्पति का स्थान क्या है। तू
अपमान कर रही है देवी का।'’
मेरी आंखों से आंसू निकलने लगे। मुझे ज़िया की याद आ रही थी कि वह जल्दी आ जाएं।
मुझे किंकर्त्तव्यविमूढ़ देख उसने लाल-लाल आंखें निकालते हुए मेरे स्त्री अंग की ओर
इशारा कर कहा,
‘'वहां है संतान उत्पत्ति का स्थान। इसे वहां रख और निकाल।'’
बाबा की बात, उसका इशारा देख कर मैं हतप्रभ रह गई। धुएं का असर अलग मेरे होशो-हवास कमजोर किए
जा रहा था। पानी और पसीने से मैं तर-बतर हो रही थी। धोती बदन से चिपकी जा रही थी, अपने अंगों को जगह-जगह से झांकते देख शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। और अब बाबा के
सामने अपने अंग में बच्चे की अनुकृति रखना निकालना मेरे मन में आया कि मैं मर क्यों
नहीं जाती। मगर बाबा था कि मुझे कुछ सोचने-समझने का अवसर ही नहीं दे रहा था। वह जल्दी करने पर जोर दे रहा था। मैंने उसके
रौद्र रूप को देख कर कहा कि अलग कमरे में जाकर यह क्रिया पूरी कर आऊं तो फिर आग बबूला
हो गया
'‘तू पागल हो गई है। देवी से छिपने की बात कर रही है। देवी को धोखा देने की बात कर
रही है। मुझ से अलग होने की बात कर रही है। साक्षात् देवी मुझ पर आई हैं। मुझ से कुछ
भी छिपा नहीं है। मैं सब जान रहा हूं। तुझे संपूर्ण देख रहा हूं फिर अलग जाने की बात
क्यों कर रही है।'’
बाबा ने जिस तरह से मेरे बदन की तरफ इशारा करके बताया मुझे लगा कि वाकई मैं उसके
सामने निर्वस्त्र हूं। उस समय मेरे दिमाग में जरा सी यह बात नहीं आई कि पतली लगभग भीगी
सी साड़ी लपेटे बैठी हूं तो बदन मेरा छिपा ही कितना होगा। मैंने खीझ कर उसके सामने ही
उसने जैसा कहा अनुकृति वैसे ही साड़ी के अंदर हाथ डाल कर रखने लगी। और मन ही मन ज़िया
को कोसने लगी कि वह अब तक आई क्यों नहीं। जितनी बार मैं अंदर डालती वह उतनी ही बार
अंजुरी भर कर पानी मुझ पर छिड़कता। फिर मेरे मुंह में कुछ डालता, खाने में वह बट्ठाता था। अंततः सात बार कहे अनुसार मैंने कर लिया। सच कहूं तो अब-तक मैं अजीब से नशे की हालत में पहुंच
गई थी। और यंत्रवत सी सब कुछ उसके अनुसार करे जा रही थी। कुछ ही देर में उसने मुझे
लिटा दिया।''
‘मगर दीदी वह इतना कुछ करता रहा और तुम्हें डर नहीं लगा। या बुरा नहीं लगा।’
‘बिब्बो मैंने कहा न मैं डरी थी, सहमी थी। बड़ी बात यह थी कि मैं नशे
में थी। और सच यह भी है कि मैं बाद में समझ पाई कि बाबा तंत्र के नाम पर न सिर्फ़ पैसा
वसूल रहा था बल्कि उसकी निगाह मेरे शरीर पर थी। जब वह मुझे लिटा कर तंत्र के नाम पर
जगह-जगह छू रहा था तब मुझे अहसास तो हो रहा था लेकिन विरोध करने की ताकत मुझ में न
रह गई थी। मैं कितनी पस्त हो गई थी इसका अंदाजा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि मैं
जान रही थी कि वह धीरे-धीरे मेरी साड़ी खोल चुका है। मैं उसके सामने निर्वस्त्र हो चुकी
हूं मगर नशा ऐसा था कि विरोध का कोई प्रयास नहीं कर पा रही थी। यहां तक कि जब वह मेरा
सब कुछ लूटने के लिए मेरे ऊपर आ चढ़ा मैं तब भी पस्त पड़ी थी। मगर मेरी फूटी किस्मत में
थोड़ा सा बेहतर छुपा था। इसीलिए ऐन वक़्त पर ज़िया हांफती-दौड़ती आ गईं । उन्होंने मेरी हालत देखते
ही सबसे पहले एक जग पानी मेरे चेहरे पर कस कर फेंक कर मारा। उनकी इस हरकत से बाबा बौरा
गया।
'‘देवी का प्रकोप मैं .....'’ इसके बाद के शब्द उसके मुंह में ही रह गए क्यों कि कुछ बोले बिना ज़िया उस पर टूट
पड़ीं । उनके हाथ में जो आया उसी से उसे मारने लगीं । मगर एक भी शब्द बोल नहीं रही
थीं । उनकी चप्पलों ने उसका चेहरा सुजा दिया था। बाबा को लगा कि वह घिर गया है तो जान
बचा कर भागने लगा। वह डर गया था कि कहीं मुहल्ला इकट्ठा हो गया तो वह सही सलामत नहीं
बचेगा। जाते-जाते जब वह अपना झोला उठाने लगा तो ज़िया ने उसे भी नहीं लेने दिया। मैं
हमेशा धीर-गंभीर रहने वाली ज़िया की समझदारी और उसका रौद्र रूप देख रही थी। जब बाबा
भाग गया तो ज़िया ने नीचे दरवाजा बंद किया। जो तब से खुला पड़ा था जब से ज़िया सामान लेने
गई थीं । वह ऊपर आईं तो एकदम शांत थीं । मुझे लेकर बाथरूम में गईं, अपने हाथों से खूब नहलाया। और फिर
एक गिलास दूध गरम करके दिया। फिर खुद ही सारी सफाई कर पूजा का नामों- निशान साफ कर दिया। बाबा का झोला उसका
सारा सामान खंगाल कर उन्होंने सोने की वह चूड़ियां भी ढूंढ़ कर मुझे दीं जो मैंने बाबा
को दी थीं। नहाने और दूध पीने के बाद मैं करीब-करीब नार्मल हो गई थी । सब ठीक-ठाक कर
ज़िया बहुत शांत होकर मेरे पास आकर बैठ गई थीं । मैं काफी देर तक रोती रही। उन्होंने
मुझसे बहुत कुछ कहने-सुनने के बजाय सिर्फ़ इतना ही कहा,
'‘जो कुछ हुआ उस बारे में कभी किसी से बात न करना। अपने पति से भी नहीं। बस ये समझो
कि बुरा वक़्त था, एक बुरा सपना था जो बीत गया। और आज के बाद कभी इन हरामियों के पास नहीं जाना है।
औलाद हो या न हो। दुनिया में करोड़ों लोग हैं बिना औलाद के। क्या वो जिंदा नहीं हैं।
किस्मत में होगा तो बिना कुछ किए भी हो जाएगा।'' मुझे चुप कराते-कराते ज़िया भी रोने लगीं । बड़ी देर तक हम दोनों बिना कुछ बोले
चुप-चाप रोते रहे।’
‘तो बच्चे की चाहत में तुम से यही अनर्थ हो गया था। एक ढोंगी बाबा ने तुम्हारी इज़्ज़त
तार-तार कर दी थी।’
‘नहीं बिब्बो अनर्थ यह नहीं था। ज़िया दो-चार मिनट नहीं दो-चार सेकेंड देर कर देतीं तो ज़रूर वो
हरामी मेरी इज़्ज़त तार-तार कर चुका होता। मगर ईश्वर ने इतनी कृपा ज़रूर की, कि वह मेरी इज़्ज़त नहीं लूट पाया।
मैं बाल-बाल बच गई थी।’
‘फिर तुम से कौन सा अनर्थ हो गया था और कि तुम इतना कुछ झेलती रही और हम लोगों को
भनक तक न लगने दी। जब मिली ऐसे हंसती खिलखिलाती मिली मानों तुमसे ज़्यादा खुश कोई है
ही नहीं।’
‘मैंने पहले ही कहा कि मैं घर वालों को किसी उलझन में नहीं डालना चाहती थी। इसलिए
न मायके और न ससुराल कहीं मुंह नहीं खोलती थी। सबसे बड़ी बात कि जब अपना आदमी ही किसी
मदद को तैयार नहीं था, उसे ही कोई परवाह नहीं थी तो किसी से कुछ कहने का मतलब था क्या? मेरा तो मानना है कि जिस औरत का पति उसकी सुनता है उसी की दुनिया भी सुनती है।
नहीं तो वह राह की धूल समान है।’
‘हां ये बात तो सही कह रही हो दीदी। मगर अभी तक तुमने जो बताया उसमें तो मुझे कहीं
से ऐसा नहीं दिखता कि तुमने कोई अनर्थ किया। बल्कि तुम्हें तो हर तरफ से धोखा ही मिला।
चाहे डॉक्टर हो या तांत्रिक सबने तुम्हें ही ठगा। अनर्थ तो उन सबने किया। बच्चे के
लिए तरसती एक औरत को बस लूटने की ही कोशिश की। और इस समय मुझे तुम पर गुस्सा बहुत आ
रहा है। मेरे बराबर बच्चे हो रहे थे। तुम कहती तो जन्मते ही एक संतान दे देती तुम्हें।
आखिर तुमने लड़का गोद लिया ही न।’
‘बिब्बो तुम शायद समझ नहीं पाओगी। पहले तो यह तैयार ही न हुए। और जब हुए तो इस तरह
कि क्या बताऊं।’
‘बताओगी क्या दीदी। सारे आदमी एक जैसे ही होते हैं। मगर दीदी मैं फिर दोहरा रही
हूं मैं अभी तक नहीं समझ पाई हूं कि तुम कौन सा अनर्थ किए बैठी हो। जब कि अनर्थ तो
तुम्हारे साथ होता रहा।’
‘बिब्बो मैं अनर्थ के बारे में सब कुछ बताऊंगी। आज तुम से कुछ भी नहीं छुपाऊंगी।
मैं बरसों से जो असह्य बोझ ढोती आ रही हूं, आज तुम्हें बता कर उसे हल्का करने की मैं ठान चुकी हूँ । मैं शुरू में ही अपना
अनर्थ बताना चाहती थी लेकिन मुझे लगा कि पहले उन हालात के बारे में तुम्हें बताऊं जिनके
कारण मैं वह अनर्थ कर बैठी और तब मुझे उसका अहसास हुआ। अगर हालात वैसे न बनते, अगर मेरे साथ वह न होता जो कुछ हुआ या होता रहा तो मैं यह मानती हूँ कि मुझसे उतना
बड़ा अनर्थ कभी न होता। मैं यह नहीं कहती कि मेरी कोई गलती नहीं थी मगर यह भी सही है
कि सारी गलती मेरी ही नहीं थी।’
‘दीदी इतना घुमा-फिरा कर बात न करो नहीं तो मैं कुछ न समझ पाऊंगी और यह बाबा वाली घटना तुमने जीजा
को बताई थी।’
‘नहीं ...... एक तो ज़िया ने मना किया था
और दूसरे उनको बताने का सीधा सा अर्थ था हमेशा के लिए उनसे अलग हो जाना। उन कुछ वर्षों
में मैं यह भली-भांति जान गई थी कि वह
लाख विद्वान हैं। बहुत प्रगतिशील विचारों के हैं लेकिन अन्य अधिकांश भारतीय मर्दों
की ही तरह औरत के मामलों में वह भी एक से थे।
पत्नी की पवित्रता उनके लिए बहुत अहम थी। मैं तुम्हें बता ही चुकी हूं कि वह शादी
के बाद पहली ही रात मेरे कुंवारे होने का निशान ढूढ़ना नहीं भूले थे। मैं यह तो आज तक
न जान पाई कि वह मेरे कुंवारेपन का निशान ढूंढ़ भी पाए थे कि नहीं। या जीवन भर मुझ पर
संदेह ही करते रहे। मौक़ा मिलने पर वह मेरी हॉस्टल लाइफ के बारे में कुरेद-कुरेद कर
पूछना नहीं भूलते थे। जब कि मुझे बाद के बरसों में यह पता चला कि वह स्वयं औरतों के
संबंध में बहुत कमजोर थे। कई औरतों से संबंध बनाए थे। सुना तो यहां तक था कि बल्कि
कुछ साल में ही सब खुल कर सामने भी आ गया कि यह जब कभी कहीं बाहर जाते थे, तो वह जहां भी रहते होटल या गेस्ट हाउस जहां भी, वहां जितने दिन रुकते उतने
दिन औरत का इंतजाम ज़रूर करवाते थे।’
‘मगर तुमको यह सब कैसे पता चल गया।’
‘अक्सर इनकी मित्र मंडली यहां जमघट लगाए रहती थी। उनकी तमाम बातें मैं सुन लेती
थी। फ़ोन पर जब यह बातें करते तो वह भी सुन लेती थी। यह अपनी अंग्रेजी शान के आगे मुझे
जाहिल ही समझते थे। मगर जब अंग्रेजी में यह सारी बातें करतें तो समझ मैं सब लेती थी।
फिर शादी के पांच-छः वर्षों बाद यह जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए इनकी यह आदतें बढ़ती गईं और पहले जहां रात
या दिन मौका मिलते ही मुझे छोड़ते नहीं थे, शरीर से ऐसा चिपके रहते थे जैसे मैं
ब्रह्मांड में सबसे खूबसूरत औरत हूं। मगर जब बाहर औरतों को भोगने लगे तो मैं उनको जाहिल, फूहड़ नजर आने लगी।
जिस बदन पर रात में एक भी कपड़ा पहनने पर बिफ़र पड़ते थे। सोते में भी बांहों में
जकड़े रहते थे भले मुझे अच्छा लगे या नहीं इसकी परवाह नहीं करते थे। वही बदन अब उन्हें
एकदम भाता नहीं था। अब हालात यह हो गए थे कि बात-बात पर मुझे झिड़कना, गाली देना कोई आ जाए तो उसके सामने अपमानित करना इनकी आदत बन गई थी। गालियां तो
इतनी भद्दी-भद्दी देते कि मन करता कि जाकर कूद जाऊं गोमती में। फिर सोचती यह तो कायरता
होगी। भागने से अच्छा है की कोशिश की जाए हालात को बदलने की।
औरत इनकी कमजोरी है यह मैं भली-भांति जान समझ चुकी थी। यह भी कि औरत को यह किस तरह किस रूप में देखना पसंद करते
हैं। तो मैंने इस हथकंडे को अपनाने की सोची और परंपरागत तरीके से साड़ी-वगैरह पहनना
बंद कर दिया। सलवार सूट और कभी-कभी जींस आदि भी पहनने लगी। हालांकि जींस सिर्फ़ घर
में ही पहनती। बाहर कभी नहीं गई। उस समय जींस औरतों के बीच आज जितनी आम नहीं थी वो
भी मेरी उम्र की औरतों में। सिंदूर लगाना करीब करीब बंद ही कर दिया क्यों कि यह सब
इनको बिल्कुल पसंद नहीं था। अपने शरीर को और बेहतर शेप देने और उनकी पसंद के अनुसार
शरीर को कर्वी बनाने के लिए तरह-तरह की एक्सरसाइज करने लगी। मेरी मेहनत रंग भी ला रही
थी।
हॉस्टल लाइफ के दौरान तरह-तरह की सहेलियों से मिले ज्ञान का फायदा अब मुझे समझ
में आ रहा था। मेरा शरीर काफी बेहतर होता जा रहा था। जब कि सच यह था कि यह सब व्यक्तिगत
तौर पर मैं खुद पसंद नहीं करती थी। बस इनकी चाहत मेरे लिए पहले जैसी बन जाए इसके लिए
यह सब कर रही थी। इतना ही नहीं चाहत के चलते खूब मेहनत करके अपनी अंग्रेजी खूब इंप्रूव
की। इनसे अंग्रेजी में ही बात करती मतलब यह कि पश्चिमी महिलाओं की तरह जीने लगी। रात
में इनकी इच्छा को ध्यान में रख कर ही सोते वक़्त एक भी कपड़ा नहीं पहनती। शुरू में
कुछ दिन ऐसा लगा कि मेरा प्रयास रंग ला रहा है। क्योंकि कई बार मेरे इन प्रयासों की
इन्होंने तारीफ की।’
‘मगर दीदी बिना कपड़ों के तुम्हें नींद आ जाती थी ?’
‘कहा न ..... यह सब लड़ाई जीतने के लिए कर रही थी। व्यक्तिगत तौर पर मैं इन चीज़ों
को कभी पसंद नहीं करती थी। मैं हमेशा भारतीय परंपरा में रची बसी महिला बन कर रहना चाहती
थी जो मेरे आदमी को पसंद नहीं था।’
‘तो यह सब करने से जीजा तुम्हें पहले की तरह चाहने लगे थे।’
‘यही तो अफसोस है बिब्बो कि मैं जितनी कोशिश करती गई उतना ही लड़ाई हारती गई। जिससे
मैं चिड़चिड़ी होती गई। मगर कभी हार न मानने की आदत के चलते मैं मैदान में डटी रही। यह
सब होते करते शादी के बारह साल बीत गए। इस बीच इन्होंने अपने घर और ससुराल सभी से नाता-रिश्ता काफी पहले ही खत्म कर लिया था।
इतने बरसों में ससुराल तभी गई, जब देवरों, ननदों की शादी हुई और आखिरी बार तब गई जब ससुर की डेथ हुई। सास उनसे आठ महीने पहले
ही गुजर गईं थी। मायके भी तभी पहुंची जब तुम लोगों की शादी हुई थी या फिर अम्मा बाबू
जी के न रहने पर।’
‘दीदी वाकई तुम कैसे सहती रही यह सब। और हम सब भी कितनी गलती करते रहे थे कि तुमसे
एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि किस हाल में हो तुम। रिश्ते-नातेदार सब जब मिलते यह बात ज़रूर होती
कि मन्नू बहुत घमंडी हो गई है, आदमी पैसे वाला मिल गया है तो दिमाग खराब
हो गया है।’
‘बिब्बो मैं अच्छी तरह जानती थी कि इनके ऐसे व्यवहार के कारण सास-ससुर और बाकी सब
पर कितना खराब असर पड़ रहा होगा। यह घमंड वाली बात छन-छन कर हमारे कानों तक भी पहुंचती
थी। मैं इनसे कहती तो यह कुछ सुनने को तैयार ही न होते। मैं यहां तक कहती कि न रखो
किसी से संपर्क कम से कम अपने मां-बाप को तो मानो। तो एकदम बिगड़ पड़ते थे मुझ पर। हर
बार एक ही बात कहते कि,
'‘मुझे क्या करना है, किससे संबंध रखना है,
किससे नहीं यह मैं तय करूंगा तुम नहीं, समझी।'’
इसके साथ ही दो चार गालियां ज़रूर मिलतीं। बाद के दिनों में तो बात-बात पर मां-बहन की गाली देना उनके लिए कोई बड़ी
बात नहीं थी।
बिब्बो एक बात और ध्यान से सुन लो कि अपने पति के बारे में जो कुछ तुम्हें बता
रही हूं इसे मेरे द्वारा दिवंगत पति की निंदा करना मत समझना। मैंने जब तुम्हें अनर्थ
को बताने का निर्णय लिया था तो उसी वक़्त अपने गुनाहों की सजा भी मैंने खुद तय कर ली
थी। अब मैं खुद को अपने गुनाहों की सजा भी दूंगी। और बरसों से जो बोझ लिए जी रही हूं
उसे निकाल एकदम से हटा कर मुक्ति पा जाऊंगी।’
‘ए दीदी ये तुम क्या सजा-वजा की बात कर रही हो मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं।’
‘सब समझ जाओगी बिब्बो। वो कहते हैं न कि आदमी जो करता है उसे उसका बदला यहीं मिल
जाता है। मैंने जो किया है उसका फल आज मुझे मिल जाएगा।’
‘दीदी मुझे लगता है तुम कुछ ज़्यादा लिख पढ़ गई हो। न जाने कैसी-कैसी बातें किए जा
रही हो।’
‘बिब्बो मैं तो पछताती हूं कि मैंने और पढ़ाई क्यों नहीं की। मैं सिर्फ़ डिग्रियों
के लिए पढ़ाई की पक्षधर नहीं हूं। मेरा तो मानना है कि सभी को जब भी समय मिले कुछ न
कुछ ज़रूर पढ़ते रहना चाहिए। बल्कि पढ़ने के लिए हर हाल में समय निकालना ही चाहिए। इससे
ज़िंदगी में उससे गलतियां कम होंगी । और शायद उससे वह अनर्थ नहीं होगा जो मुझसे हुआ।’
‘मगर दीदी तुम ने तो घर में भाइयों से भी ज़्यादा पढ़ाई की है। बहुत तेज होने के
कारण ही बाबूजी तुम्हें हॉस्टल में रह कर पढ़ने देने के लिए लखनऊ भेजने को तैयार हुए
थे। उनके इस निर्णय से चाचा-चाची यहां तक कि मां भी मुझे लगता है पूरी तरह सहमत नहीं
थीं। मुहल्ले में लोगों ने जो तरह-तरह की बातें कीं वह अलग। और शादी के बाद जीजा ने
रोका न होता तो तुम पी0एच0डी0 पूरी कर लेती। इतना कुछ तुमने पढ़ा फिर तुम से कैसे अनर्थ हो गया। मैं सोचती हूं
कि बहुत ज़्यादा पढ़ाई भी हमें भटका देती है।’
‘बिब्बो अब इस बात का निर्णय करने में मैं समर्थ नहीं हूं। लेकिन किताबें जीवन को रास्ता देती हैं मैं इससे इंकार नहीं करती।
मेरा तो यह दृढ़ मत है कि जितना पढ़ो उतना ही अच्छा है। जीवन है क्या इसे समझना उतना
ही आसान हो जाता है। इसीलिए जब तुमने बी0ए0 के बाद पढ़ाई बंद करने
का निर्णय लिया था तो मैंने तुम्हें मना किया था। कहा था कि और आगे पढ़ो।’
‘अब जो भी हो दीदी तुमने निश्चित ही मुझ से बहुत ज़्यादा पढ़ाई की लेकिन जैसा तुम
बता रही हो उस हिसाब से अनर्थ भी तुम्हीं ने किया। जब कि ज़्यादा पढ़ाई तुम्हीं ने की।
इसलिए बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। ....... खैर जो भी अनर्थ किया उसे बताओ। मुझे
तो लगता है जिसे तुम अनर्थ मान बैठी हो वह शायद अनर्थ हो ही न।’ ......... कह कर बिब्बो किचेन की ओर चल दी तो मन्नू ने पूछा ‘क्या हो गया?’
‘कुछ नहीं, सोचा न तो तुम्हारी बात पूरी हुई और न ही मुझे नींद आ रही है। बात है भी ऐसी की
पूरी सुने बिना नींद आएगी भी नहीं, तो क्यों न चाय ही बना लूं, मेरी बार-बार चाय पीने की आदत भी तो तुम्हें याद ही होगी।’
‘हां बना लो, मेरा भी मन चाय पीने का हो रहा है।’
‘दीदी एक बात है किचेन तुमने बहुत अच्छा बनवाया है। फ़िल्मों में जैसा दिखाते हैं
बिल्कुल वैसा ही लगता है।’
‘मैंने क्या- सब उन्हीं की पसंद का है। पश्चिमी जीवन-शैली इन्हें बहुत भाती थी। वह इनके
हर काम में दिखाई देती है।’
‘कहीं तुम दोनों के बीच दूरी बढ़ने का कारण यही सब तो नहीं था।’
‘मुझे तो नहीं लगता कि यह कारण रहा होगा, क्योंकि वो जैसा चाहते थे मैं वैसा
ही करती थी। अपनी पसंद अपनी इच्छा तो कभी जाहिर ही नहीं होने दी। न चाहते हुए भी हर
वह काम किया जैसा वह चाहते थे। फिर भी यदि असंतुष्ट रहे मुझसे तो शायद हम दोनों सोच
के स्तर पर बहुत भिन्न थे। और अब तक मैं यही मानती हूं कि भारतीय पति सिर्फ़ एक ऐसी
पत्नी चाहते हैं जो कि सोच-विचार या हर स्तर पर वह जो करें पत्नी भी वैसा ही करे। नहीं
तो हम इनसे दूर हो जाते हैं।’
‘ये बताओ दीदी तुम एक बच्चे के लिए इतना तरसती रही। दर-दर भटकती रही लेकिन जीजा
से इस बारे में साफ-साफ क्यों नहीं कहती थी, क्यों नहीं जिद पर अड़ गई कि तुम्हारे
चले बिना काम नहीं चलेगा इसलिए साथ चलो।’
‘बिब्बो तुमको इतनी देर से बता रही हूं कि यह इस बारे में कुछ बोलते ही बिगड़ जाते
थे। तुरंत बोलते थे,
‘'तुम्हारे पास इसके अलावा और कोई काम नहीं है क्या ? जब देखो पागलों की तरह बच्चा-बच्चा करती रहती हो। दुनिया में तमाम लोग बिना बच्चों
के हैं ,आराम से हैं, खुश हैं। मेरे पास तुम्हारी इस बकवास के लिए कोई टाइम नहीं है। ऐसी ज़ाहिल पल्ले
पड़ गई कि है कि ज़िन्दगी बरबाद कर दी है।'’
जब भी बात करती इसी तरह की गालियां मिलती थीं । उनका सहयोग था तो सिर्फ़ इतना कि
मैं कुछ करूं तो उसके लिए मना नहीं करते थे।’
बिब्बो ने चाय लाकर मन्नू को एक कप थमाते हुए कहा,
’बाबा वाली बात जब हो गई उसके बाद भी तुम पहले जैसी कोशिश करती रही या ऊब कर छोड़
दिया सब कुछ हालात के ऊपर।’
‘असल में बाबा के कुकर्मों ने मुझे हिला कर रख दिया था। मुझे सदमे से निकलने में
कई महीने लग गए थे। इस दौरान जिंदा रहने भर को किसी तरह कुछ खा-पी लेती थी और इनके जाने के बाद बेड
पर पड़ी रहती। रोती रहती। कहीं भी आती-जाती नहीं थी। बस हर वक़्त यही बात दिमाग में घूमती की यदि ज़िया कुछ सेकेण्ड ही
को देर कर देतीं तो उस कमीने बाबा ने मुझे कहीं का न छोड़ा होता। मगर वक़्त हर चीज पर
धूल डाल देता है न .............। तो इस घटना पर भी वक़्त ने धीरे-धीरे धूल की मोटी
चादर डाल दी।
मैं स्टूडेंट लाइफ के बाद एक बार फिर क़िताबों की ओर मुड़ गई। पढ़ाई के दौरान जिन
लेखक-लेखिकाओं की बहुत सी प्रसिद्ध किताबें नहीं पढ़ पाई थी, जिनका नाम बहुत सुना था उन्हें एक-एक कर लाने लगी। दिन भर या जब भी टाइम मिलता
खोई रहती इन्हीं किताबों में। सच यह था कि अब मेरे पास टाइम ही टाइम था। दिन में भी, रात में भी। क्योंकि दिन में कोई ख़ास काम नहीं था और साथ ही अब इनकी नजरों में
मेरी कोई अहमियत नहीं थी। अब रात भर मुझे चिपकाए रहना इन्हें पसंद नहीं था और सच बताऊं
तुम्हें कि कुछ दिनों बाद मेरी आदत भी बन गई थी कि मैं इनकी बाहों में समाई रहूं। लेकिन
अब सब बदल चुका था मैं हर तरफ से नकारी जा चुकी थी। तो रात भी आंखों में कटती।
नींद आती नहीं थी और किताबें भाने लगी थीं। सो रातें भी किताबों के साथ बीतने लगीं।
अब इनके बजाय रात में किताबों से चिपकी रहती। ये जल्दी सोते थे इसलिए मैं दूसरे कमरे
में जाकर पढ़ती रहती थी। सोते वक़्त इनके पास आती। तब तक ढाई-तीन बज रहे होते थे। कई
बार तो ऐसा होता कि पढ़ते-पढ़ते दूसरे कमरे में ही सो जाती। अब हमारे पति-पत्नी के संबंध
में मधुरता समाप्त हो गई थी। बस न जाने कौन सी मज़बूरी थी कि दोनों एक ही घर में रह
रहे थे। जब मज़बूरी को जानने की कोशिश करती तो मुझे हर बार यही समझ में आता कि हम दोनों
की शरीर की कमियां ही हमें शायद एक ही घर में रखे हुए थीं। हां आज भी यह कहती हूँ कि
मैंने जी-जान से इन्हें हमेशा चाहा
था। आज भी मेरे मन में उनके लिए वैसी ही जगह है जैसी शादी के बाद थी। हम दोनों के बीच
ऐसी स्थाई खाईं बन चुकी थी जिसके भरने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी।
जल्दी ही हम दोनों के कमरे स्थाई रूप से अलग हो गए। मेरे कमरे में किताबों की संख्या
बढ़ती जा रही थी। अब हम बस काम भर को ही बोलते थे। जहां तक होता बिना बोले ही काम चलाते
थे। अब घर में सिर्फ़ इनके ही लोगों का आना-जाना था। उन लोगों के आने पर ही घर में हंसी-ठहाके गूंजते थे। अब यह चाय-नाश्ता सब नौकर से ही मंगवाते थे। इस बीच अगर कोई थी
जिसके कंधों पर मैं अपना सिर रखकर दुख-दर्द कह सकती थी तो वह थी ज़िया। जिनके यहां से
हमारी घनिष्ठता बढ़ती ही जा रही थी। उनके बच्चे भी बड़े हो गए थे। इसलिए वह ज़्यादातर
वक़्त मेरे पास आती थीं । उन्होंने कई बार हमारे बीच खाईं को पाटने की कोशिश की लेकिन
इनकी ऐसी नकारात्मक प्रतिक्रिया होती कि अंततः वह भी हार मान गईं। बस मुझे मज़बूत बने
रहने को कहतीं मुझे धीरज बंधातीं। मैं तो कहती हूं कि वह न होतीं मेरे जीवन में तो
शायद मैं दूसरी बार प्रयास कर आत्म-हत्या कर चुकी होती।
ऐसे ही रोज जीते-मरते मैं जीवन के चौवालीस-पैंतालीस वर्ष तक पहुंच गई। इस बीच एक
नया परिवर्तन यह हुआ कि ज़िया ने भी अपना मकान ले लिया। मकान एल0डी0ए0 का था। इत्तेफ़ाक से बढ़िया मिल गया था तो वह छोड़ कर चली गईं कानपुर रोड कालोनी।
अब वह महीने में एक दो बार ही आतीं। अब पहले की तरह उनके पास मेरे लिए वक़्त न था।
मैं एकदम अलग-थलग पड़ गई। मुझे अब घर काटने को दौड़ता। किताबों से कितना चिपकी रहती।
बच्चे की चाहत दिलो -दिमाग से निकली न थी। और अब मुझे सब कुछ समाप्त होता दिख रहा था। इतनी उम्र के
बाद वैसे भी मां बनने के चैप्टर को क्लोज़ ही माना जाने लगता है। यह बात दिमाग में आते
ही व्याकुल हो उठती। मेरा गुस्सा इनके प्रति और बढ़ता जा रहा था। क्योंकि इनका डॉक्टर
के पास जाने से इंकार करना मेरे मन में यह बात पक्की कर चुका था कि कमी इन्हीं में
थी जिसके कारण यह कभी डॉक्टर के पास नहीं गए। अन्यथा ट्रीटमेंट होने पर बच्चे ज़रूर
होते।
मैं जब ज़िया के बच्चों को देखती तो मेरा दिल रो पड़ता। इस बीच ज़िया का बड़ा लड़का
इंटर में पहुंच चुका था। उसका कॉलेज क्योंकि इधर ही पड़ता था इसलिए ज़िया ने उसे एक मोपेड
ले दी थी। वह जब कॉलेज आता तो अक्सर यहां भी चला आता। उसे देख न जाने क्यों मेरे दिल
में एक हूक सी उठती। मेरा मन करता कि वह यहां से जाए ही न। मगर किसी के लड़के को रोक
कैसे सकती थी। फिर इंटर का इग्ज़ाम आया तो उसका सेंटर घर से काफी दूर था, लेकिन हमारे घर से दूरी आधी थी। सो
मैंने ज़िया को सलाह दी कि अपने लड़के चीनू को इग्ज़ाम तक यही रोक दीजिये । इससे इग्ज़ाम
टाइम में उसे आसानी होगी। मेरी बात जैसे ज़िया के मन की थी। वह तुरंत तैयार हो गईं।
चीनू भी तुरंत तैयार हो गया। मैं उस समय यह नहीं जानती थी कि चीनू का यहां रुकना मेरे
जीवन का सबसे बड़ा घटनापूर्ण समय होगा। उस समय जो घटेगा वह मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊंगी।
जीवन भर उसकी ही आग में जलूंगी, जल-जल कर अंततः समाप्त होऊंगी। और खुद अपने
हाथों अपनी सजा न सिर्फ़ तय करूंगी बल्कि दूंगी भी।
‘दीदी तुम क्या बार-बार सजा की बात कर रही हो, आखिर इसका मतलब क्या है
? मुझे यह सुनकर डर लगता
है। ’
‘बिब्बो तेरी बीच में बोलने की आदत गई नहीं। ध्यान से सुन सब समझ में आ जाएगा।’
‘मैं ध्यान से ही सुन रही हूं लेकिन बार-बार सजा की बात करती हो तो अजीब सा मन होने
लगता।’
‘बिब्बो कम से कम तू तो मेरे मन की पूरी बात सुन ले। सोच जिसका पति भी जीवन भर उसकी
बात न सुनता रहा हो उस औरत के मन पर कितना बोझ होगा।’
‘अरे! कैसी बात कर रही हो मैं तो न जाने कब से तुम्हारी सारी व्यथा जान लेना चाहती
हूं। मैं तो तुम्हारी बात सुन-सुन कर हैरान परेशान हूं कि तुम कैसे जीवन भर इतना कुछ
झेलती रही लेकिन कभी चेहरे पर शिकन तक न आने दी। हम यही समझते रहे कि तुमसे ज़्यादा
खुश परिवार में कोई है ही नहीं।’
‘पति साथ देता तो शायद मैं हर हाल में खुश रहती। पर यह भी सोचती हूं कि उनको दोष
क्यों दूं, होगा वही जो किस्मत में होगा। चीनू का यहां इग्ज़ाम के लिए रुकना यदि मेरे जीवन
का सबसे घटनापूर्ण अध्याय बना तो यह भी किस्मत का ही किया-धरा मानती हूं।’
‘चीनू ने ऐसा क्या किया ? एक सत्रह-अठारह साल का लड़का ऐसा कौन सा काम कर सकता है जो कि तुम्हारी जैसी औरत
के लिए सबसे घटनापूर्ण अध्याय बन जाए।’
‘तुम्हारी जगह जो भी होगा वो यही सोचेगा। मगर सच यह है कि यहां उसके रुकने के समय
से जो अध्याय उसके चलते शुरू हुआ और तब मैं पैंतालीस वर्ष की हो चुकी थी वह करीब
तिरपन की उम्र पार करने पर पूरा हुआ।’
‘ऐसी क्या बात थी जो यह अध्याय आठ वर्षों में पूरा हुआ। और जीजा तक को उसके बारे
में पता नहीं था। और आज पहली बार वह अध्याय तुम मेरे सामने खोल रही हो, पढ़ रही हो।’
‘जो अध्याय लिखा जाता है वह कभी न कभी तो खोला भी जाता है और पढ़ा भी जाता है न।’
‘तो इस अध्याय में क्या हुआ बताओ।’
‘चीनू के इग्ज़ाम शुरू हो चुके थे पेपर की डेट ऐसी पड़ी थी कि गैप लंबे थे। साइंस
साइड से पढ़ रहा था। औसत से कुछ बेहतर था पढ़ने में । कद-काठी में अपने बाप से आगे निकल चुका
था।
कुछ और भी बातें थीं जिसमें वह बाप से आगे निकल चुका था। एक तरफ बाप जहां कम बोलता
था, बहुत नपा-तुला बोलता था वहीं वह
बहुत बातूनी था। उस उम्र में ही बड़ी प्रभावशाली बातें करता था। दूसरे बाप जहां संकोची
था, महिलाओं की तरफ जहां जल्दी
नजर उठा कर नहीं देखता था वहीं वह बिंदास किस्म का एक कामुक लड़का था। लड़कियों, औरतों को देखना या तांक-झांक करने में वह संकोच नहीं करता था। यह कहना ज़्यादा अच्छा रहेगा कि कुल मिला
कर उसे अच्छी नजर वाला नहीं कहा जा सकता था।
उसकी इस आदत की ओर मेरा ध्यान तब गया जब यह पाया कि वह कनखियों से मेरे शरीर पर
नजर डालने की कोशिश करता है। ख़ासकर तब-जब आंचल ढलका हो या झुक कर कुछ कर रही हों या
ऐसी कोई भी स्थिति जब शरीर का कोई हिस्सा नज़र आने लगता है। जैसे ब्लाउज से छाती दिख
जाए या पेट दिख जाने आदि पर वह घूर कर देखने की कोशिश ज़रूर करता। उसका हर प्रयास ज़्यादा
से ज़्यादा झांकने का रहता था। उसकी नजरों में मुझे अजीब सी कामुकता नज़र आती थी।’
‘तो तुम उसे आने से रोक भी सकती थी, न आने देती उसे घर में।’
‘ऐसा नहीं कर सकती थी। ज़िया के परिवार से इमोशनली इतना जुड़ चुकी थी कि हम उनसे अलग
होने की सोच ही नहीं सकते थे।’
‘मैं अलग होने की बात कहां कर रही हूं। ज़िया को उनके लड़के की हरकत बता कर उसकी इन
हरकतों पर रोक लगा सकती थी।’
‘तुम कैसी बचकानी बात कह रही हो बिब्बो। कोई मां अपने युवा होते लड़के पर ऐसा आरोप
कभी सहन नहीं करेगी भले ही लड़का कितना ही गलत क्यों न हो। माना ज़िया बहुत मानती थी
मुझे लेकिन वह भी सहन न करती। तुरंत भले ही कुछ न कहती लेकिन मन में गांठ पड़े बिना
न रहती। इसलिए मैं चुप रही। या ये कहो कि एक नजर में यह सब देखती और फिर भूल जाती कुछ
ही देर बाद। और फिर यह एक ऐसी बात थी जिसे जो भी सुनता उलटा मुझे ही दोषी कहता।
अपने समाज को शायद तुम अभी तक समझ नहीं
पाई हो। लोग मुझे ही गलत कहते कि ऐसे कपड़े क्यों पहनती हो कि शरीर दिखे। और कि चालीस-पैंतालिस
की उम्र में ही सठिया गई है या फिर लड़के-बच्चे नहीं हैं तो क्या जाने कि बच्चे क्या होते हैं। और जानती हो मैं यह भी सोचती कि यह उम्र के साथ होने वाली एक स्वाभाविक
क्रिया है। इसे रोका नहीं जा सकता। यह तो अपोजिट सेक्स के प्रति किशोरावस्था में ही
प्रारंभ हो जाने वाले आकर्षण का उम्र के साथ बढ़ते जाने का परिणाम है।
और फिर अपनी किशोरावस्था भी याद आ जाती। जब खुद अपने ही शरीर में आने वाले बदलावों
को, उभरते आ रहे अंगों को बार-बार छूने, देखने का मन करता था। देख कर फिर संकोच
से गड़ जाना। या फिर स्पर्श के साथ ही अजीब सी रोमांचपूर्ण स्थिति का अहसास होना। या
फिर चलते वक़्त जब वक्ष हिलते तो एकदम से सुरसुरी महसूस करना। या यह देखना कि कोई देख
तो नहीं रहा है। या फिर बाहर एकदम किनारे-किनारे दबे पांव चलना। ऐसी न जाने कितनी बातें
थीं जो मेरे ख़याल में आ जातीं और मैं चीनू के खिलाफ कुछ न कर पाती। और फिर युवावस्था
में प्रवेश के साथ ही अपोजिट सेक्स के प्रति जो अजीब उत्सुकता, किसी युवक को देखकर उसे देखने की मन में उठती तरंगे सब गड़बड़ा कर रख देती थी। और
तुम ........... तुम्हें क्या अब याद नहीं है वह छत वाली घटना।’
‘कौन सी ?’
‘अरे! तुम बड़ी भुलक्कड़ हो।’
‘सही कह रही हो तुम। घर-परिवार लड़कों-बच्चों में अपना सब कुछ बिसर जाता है। मगर
ये मानती हूं तुम्हारी याददाश्त पर कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा है। इसलिए छत वाली घटना
तुम्हीं बताओ मेरे दिमाग में तो बात एकदम नहीं आ रही है।’
‘अच्छा तो याद कर वह जेठ की दोपहरी ........ । और सामने वाले घर का चबूतरा। जहां
मुहल्ले के उद्दंड लड़के छाया के नीचे अ़क्सर बैठ कर ताश वगैरह खेलते रहते थे, या बैठ कर गप्पे मारा करते थे। आए दिन सब आपस में भिड़ भी जाते थे। उस समय तू यही
कोई नवीं या दसवीं में रही होगी।’
‘हां .... याद आया। मुहल्ले के लड़कों का अड्डा था वह’
‘और छत पर तुम जो कर रही थी वह याद आया।’
‘कहा न दीदी अब कुछ याद नहीं रहा। ..... इनके न रहने के बाद तो लगता है दिमाग रह
ही नहीं गया। इसलिए तुम्हीं सब बता दो।’
‘अच्छा .......... उस दिन ऐसा हुआ कि गेहूं धोकर छत पर डाला गया था। दोपहर में तुम
से अम्मा ने कहा ऊपर जाकर गेहूं चला दो। तुम चली गई ऊपर। जब ऊपर गई तो मैं नीचे कपड़े
धो रही था। जिन्हें उस समय सिर्फ़ खंगालना भर रह गया था। कुछ देर में जब खंगाल कर कपड़े
लेकर ऊपर पहुंची तो देखा तुम बाऊंड्री के पीछे छिप कर बैठी जाली से बाहर देख रही थी।
तुम अपने में इतनी खोई हुई थी कि मेरे आने पर भी तुम्हारा ध्यान टूटा नहीं। मुझे उत्सुकता
हुई कि आखिर तुम कर क्या रही हो। मैंने चुपचाप कपड़े कोने में रखे और तुम्हारे पीछे
आकर जिधर तुम देख रही थी उधर देखा। वहां सिर्फ़ चार-पांच लड़कों के सिवा कुछ नहीं दिखा।
कुछ देर तो मैं कुछ नहीं समझ पाई, तब-तक तुम ने मुझे देख लिया
और एकदम हक्की-बक्की सी गेहूं चलाने लगी। तुम्हारी हालत देख कर मैं समझ पाई कि तुम
उन लड़कों को देख रही थी। मैंने उस समय बजाय तुम्हें कुछ कहने के सिर्फ़ इतना कहा ’चल नीचे’ और तुम जैसे इसी बात का इंतजार कर रही थी। बिजली की सी फूर्ती से तुम नीचे भाग
गई। उसके बाद मैं तुम्हारी हरकतों पर अक़्सर निगाह रखती।’
‘हां ...... याद आया। तुम सही कह रही हो। उस दिन मैं वाकई उन लड़कों को ही देख रही
थी। उनमें से एक लड़का मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता था। बस उसको देखते रहने का
मन करता था। नाम तो उसका याद नहीं है लेकिन मेरे दिमाग में वह कुछ इस कदर समाया था
कि जब मैं अकेले होती तो सोचने लगती उसके बारे में। मगर तुम्हारी निगरानी, बाबूजी की नजरें, भाइयों का सख्त रूप सब कुछ ऐसा था कि उसे छिप-छिप कर देखने के अलावा मेरे वश में
कुछ न था। फिर धीरे-धीरे कुछ समय के बाद यह सब खत्म हो गया।
दीदी तुमने अच्छा याद दिलाया। बचपन की
दुनिया एकदम सामने आ गई है। न किसी चीज की चिंता न फिक्र बस अपने में मस्त, अपने हसीन ख़्वाबों में डूबते-उतराते रहना। पर एक बात थी कि मां से ज़्यादा हम भाई-बहनों पर तुम नज़र रखती थी।
इसी लिए हम लोग बाबूजी के बाद मां के बजाय तुम से ज़्यादा डरते थे। तुम आए दिन किसी
न किसी की चोरी पकड़ ही लेती थी। लेकिन तुम्हारी कोई गलती हम लोगों की नजर में नहीं
आती थी। तुम्हारी शिकायत पर जब बाबूजी या अम्मा डांटती हम लोगों को तो तुम पर बड़ा गुस्सा
आता था। पर जब बड़े हुए, समझदार हुए तो लगा तुम जो करती थी वह ठीक था। अगर अंकुश न होता इतना तो शायद हम
लोग बहक भी सकते थे।
तुम्हारे रहने से अम्मा को हर काम में बहुत आसानी थी। इसका अहसास तो हम सबको तब
हुआ जब तुम पढ़ने के लिए हॉस्टल में लखनऊ चली आई। तब अम्मा गुस्सा होती तो यही चिल्लाती
कि '‘मन्नुआ तुम लोगों को ठीक किए रहती थी। जब
से गई है तुम सबका दिमाग खराब हो गया है।'’
सच में घर में तुम्हारे रहने की अहमियत
हमें सही मायने में तब पता चली थी। अम्मा पर तुम्हारा प्रभाव इतना था कि जब एक बार
तुम हॉस्टल से घर वापस आई और मैं उत्सुकतावश चुपके से तुम्हारा सामान देख रही थी कि
शायद तुम लखनऊ से मेकअप वगैरह का कुछ खास सामान ले आई होगी। पर मेकअप का कोई सामान
नहीं था बैग में, तुम्हारे कपड़ों के एकदम नीचे एक अंग्रेजी पत्रिका नजर आई। वैसी पत्रिका जीवन में
पहली बार देख रही थी। कवर पर एक युवा जोडे़ की तस्वीर थी जिसमें वह बिल्कुल निर्वस्त्र
थे। यह सब मेरी कल्पना से परे था। मैं एकदम हतप्रभ थी। जीवन में पहली बार किसी युवा
जोड़े को निर्वस्त्र देख रही थी।
मैंने एक नजर झटके से इधर-उधर डाली कि कोई देख तो नहीं रहा। फिर आश्वस्त होकर मैंने
मैगज़ीन बाहर निकाली और एक-एक पन्ना जल्दी-जल्दी देखने लगी। हर पन्ने पर निर्वस्त्र
युवा लड़कियों की अजीब-अजीब मुद्राओं में फोटो थीं। बीच-बीच में कई पुरुषों की भी लड़कियों
के साथ मैथुनी मुद्रा में फोटो थी। फोटो देख-देख कर मैं पसीने-पसीने हो गई थी। उन पन्नों
को बार-बार देखने का मन हो रहा था। लेकिन तभी किसी की आहट सुन कर मैगज़ीन उसी तरह वापस
रख कर बाहर आ गई। मगर दिमाग से मैगज़ीन न निकाल पाई। उसे देखने का ऐसा मन हो रहा था
कि बता नहीं सकती। उसके पहले शायद ही किसी चीज के लिए इतनी उत्सुकता पैदा हुई हो मन
में। मैं मौका निकाल-निकाल कर उसे कई दिन देखती रही। उन फोटुओं ने मेरी अजीब सी मनःस्थिति
कर दी थी।'
‘कैसी ?’
‘अब क्या बताऊं, तुम अभी बोल ही चुकी हो कि उम्र के इस दौर में अपोजिट सेक्स को लेकर बहुत ज़्यादा
आकर्षण होता है। सो उन फोटुओं को देखकर मन में अजीब से ख़याल आते, पहले दिन तो रात में सोचते-सोचते ख्यालों में खोए-खोए ही आधी रात बीत गई। और हां
एक बात और बताऊं बल्कि ये कहूं कि अपना पाप बताऊं कि उन ख्यालों में वह लड़का भी बार-बार
आता रहा जिसे मैं पसंद करती थी, और उस दिन छत पर से उसे देख रही थी। उस वक्त
मैं न जाने उसके साथ कौन-कौन सी कल्पनाओं में डूब गई थी। अगले दिन अवसर पाते ही मैंने
फिर मैगज़ीन निकाल कर घंटे भर तक देखा। या यों कहें कि तब तक देखती रही जब तक कि किसी
की आहट नहीं मिली। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक करीब हफ्ते भर बाद मां ने रंगे हाथों
पकड़ नहीं लिया। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मां को शांत न करा सकी। उन्होंने मुझे कई
थप्पड़ मारे। पास पंखा पड़ा हुआ था उससे भी मारा।
मुझसे बार-बार पूछती रहीं कि '‘कहां से लेकर आई।'’ पहले मैंने सोचा न बताऊं, किसी तरह बात यहीं समाप्त हो जाए लेकिन अम्मा कहां मानने वाली थीं। यह अप्रत्याशित
घटना थी उनके लिए, आपे से बाहर हुई जा रही थीं। जब उन्होंने बाबूजी को बताने की बात कही तो मैंने
एकदम घबरा कर सही बता दिया। तुम्हारा नाम सुनते ही मां को एक बार फिर धक्का लगा। मगर
मेरी बात पर वह यकीन नहीं कर पा रही थीं। मेरे कसम खाने पर वह यकीन कर पाईं। फिर तुरंत
उस मैगज़ीन को ले जाकर चूल्हे में जला दिया। उसी दिन तुम बड़के भईया के साथ दो-तीन दिन
के लिए मामी के यहां गई थी। नहीं तो गुस्सा देख कर तो यही लग रहा था कि वह तुम्हें
भी मारतीं। मगर गालियां खूब दीं और कहा,
‘'आने दो, कमीनी के हाथ-पैर तोड़ के बिठा दूंगी। बहुत हो गई पढ़ाई। कमीनी वहां आवारागर्दी करने गई है। हरामजादी
मुंह में कालिख पुतवाएगी। अरे! तुम सब पैदा होते ही मर जातीं तो अच्छा था।'’
खैर तुम जब मामी के यहां से लौटी तब तक उनका गुस्सा कुछ कम हो चुका था। खतम नहीं।
शायद तुम्हें याद हो कि वह तुम्हें वापस लखनऊ जाने के लिए मना कर रही थीं। एकदम जिद
पर अड़ गई थीं कि तुम नहीं जाओगी। मगर न जाने क्यों वह मैगज़ीन वाली बात पी गईं। मगर
तुम भी जाने के लिए अड़ी रही। खाना-पीना बंद कर दिया। तुम्हारा रोना-धोना चालू रहा।
तुमने तर्क दिए पढ़ाई की इंपॉर्टेंस, दुनिया में लड़कियों के आगे बढ़ने आदि
के। लेकिन वह टस से मस न हुई अंततः बाबू जी के हस्तक्षेप करने पर ही तुम जा पाई थी।
मगर इसके बाद चाहे जैसे हो वह हर महीने एक बार बाबूजी या फिर भइया, चाचा को भेजने का पूरा प्रयास करतीं।
खैर तुम चली गईं लेकिन मैं लंबे समय तक दिमाग से वह मैगज़ीन न निकाल पाई। और आज
भी देख रही हूं कि न जाने कितनी बातें याद करने पर भी याद नहीं आतीं लेकिन यह बात जरा
सी शुरू होते ही सब ऐसे याद आ गई मानो जैसे सब अभी-अभी घटा हो। मुझे तो लगता है पिछले
जन्म में जैसा किया भगवान ने वैसा ही इस जन्म में बना दिया।'
‘पिछले जन्म या इस जन्म के संबंधों पर तो विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन
मेरे बैग में वैसी मैगज़ीन थी और अम्मा मुझे इस वजह से लखनऊ नहीं आने दे रही थीं यह
तो मुझे अब पता चला।’
‘कैसी बात कर रही हो। यह कैसे हो सकता है कि तुम्हें मैगज़ीन के बारे में पता ही
नहीं था। हम तो यही सोच रहे थे कि तुम वैसी मैगज़ीन घर लेकर क्यों आई थी? तुम्हें डर नहीं था कि घर पर कोई देख लेगा।’
‘बिब्बो सच यही है कि मेरे बैग में वैसी कोई मैगज़ीन थी यह तो मैं आज जान पाई। मुझे
तो पता नहीं था कि यह सब भी हुआ था। हां यह काम किसने किया होगा इसका अंदाजा क्या विश्वास
के साथ यह कह सकती हूं कि यह काम रुबाना ही ने किया होगा। हॉस्टल में वो और उसकी पक्की
सहेली काजल इन सब तरह की खुराफातों में सबसे आगे थीं। काजल को सब काकी बोलते थे। यह
दोनों पढ़ने-लिखने में तो कुछ ख़ास नहीं
थीं। मगर खुराफातों में युनिवर्सिटी के लड़कों को मात देती थीं। उसी जमाने में वह दोनों
सिगरेट पीती थीं। कोर्स की किताबें पढ़ने में तो दोनों की कोई रुचि नहीं थी लेकिन अश्लील
साहित्य पढ़ना उनका शगल था। तमाम ऊट-पटांग किताबों के अलावा वह दोनों मंटो, सीमोन बोउवार, डी0एच0 लारेंस, ब्लादिमीर नोबाकोय, इस्मत चुगताई, अमृता प्रीतम जैसे लेखक-लेखिकाओं की प्रबल समर्थक थीं। रुबाना तो जब-तब यही कहती
कि वह अमृता प्रीतम जैसा जीवन जीना चाहती है।’
‘क्यों उनका जीवन कुछ ख़ास तरह का था क्या ?’
‘हां कह सकते हैं कि हम सब जैसा तो नहीं ही था। मैंने जितना सुना है उसके हिसाब
से तो अपने पति के अलावा कई लोगों से खुले आम संबंध रखती थीं। इमरोज जो कि उनसे उम्र
में बहुत छोटे थे उनसे आखिरी समय तक संबंध थे।’
‘अच्छा तो ऐसा जीवन चाहती थी जिसमें जैसा चाहो वैसा करो कोई रोक-टोक न हो।’
‘कहा न वह दोनों न जाने क्या-क्या करती थीं। कभी सीमोन के जीवन का बखान करतीं तो
कभी कहतीं भारत की सीमोन तो प्रभा खेतान हैं काश हमें ऐसे ही जीने दिया जाए।’
‘बड़ी तेज़ थीं दोनों।’
‘तेज़ - अरे! यह कहो क्या नहीं थी दोनों।’
‘चलो छोड़ो ऐसे लोगों की बात क्या करना तुम अपना बताओ न कौन सा अनर्थ तुमने कर डाला
था। और चीनू तुम्हारे लिए अहम क्यों हो गया था।’
गहरी सांस लेकर मन्नू बोली ‘हां चीनू ....... वह भी तो कहीं से कम नहीं था रुबाना और
काकी से। जब वह इग्ज़ाम के लिए रुका था यहां तो उसे यह सोच कर मैंने ऊपर तीसरी मंजिल
के कमरे में रोका कि वह आराम से वहां इग्ज़ाम की तैयारी करेगा। कोई डिस्टर्बेंस नहीं
होगा। मगर मेरा यह सोचना गलत था। यह तो उसे मनमानी करने की आज़ादी देने जैसा था। वह
रुबाना से आगे की चीज था। उसकी सहूलियत को ध्यान में रख कर मैं चाय-नाश्ता ऊपर ही दे आती थी। वह चाय बहुत
पीता था तो उससे पूछे बिना ही दो-ढाई घंटे बाद चाय दे आती थी। उस दिन वह पेपर देकर
आया था। मैंने पूछा कैसा हुआ तो बड़ा खुश होकर बोला ‘चाची पेपर अच्छा हुआ।’
‘अगला कब है?’
‘अब चार दिन बाद है।’
‘तब तो तुम्हें तैयारी का अच्छा वक़्त मिल जाएगा।’
‘.....
हां सो तो है।’
‘अच्छा तुम हाथ मुंह धो लो मैं खाना निकालती
हूँ ।’
उस दिन मैंने उसके लिए दाल भरा पराठा, मखाना और आलू की सब्जी बनाई थी। यह
उसके पसंद की चीजें थीं। खाना खाकर वह ऊपर जाने लगा तो मैंने पूछा,
‘चाय पिओगे’ तो बोला '‘नहीं, अभी नहीं चाची अभी कुछ देर सोऊंगा उसके बाद उठ कर पढूंगा।’ मैंने कहा ठीक है जब उठना तो बता देना, चाय बना दूंगी। उसके जाने के बाद मैंने
भी खाना खाया। इसके बाद ज़िया का फ़ोन आया काफी देर तक बात हुई। उन्होंने चीनू के बारे
में पूछा, मैंने बता दिया बढ़िया
है। खा-पी कर ऊपर गया है।
खा-पी कर मैं भी आराम करने लगी। शाम को यह आए तभी चीनू भी नीचे आ गया। उसने इन्हीं
के साथ नाश्ता किया। फिर रात को खाना भी साथ खाया। उसे साथ खाते देख मैं एकदम रो पड़ी
कि यदि समय से मेरे भी संतान हो जाती तो आज वह भी ऐसे ही खाना खा-पी रहा होता। मेरी
आंखों का तारा होता। .......... फिर मैं इन पर मन ही मन गुस्सा होती रही कि यदि डॉक्टर
के यहां चलते तो मेरे भी बच्चा होता। जो सिर्फ़ इनके असहयोग के चलते नहीं हुआ। और जो
बरसों से अपना समय दुनिया भर की किताबों को पढ़ने में गुजार रही हूं वह अपने बच्चे के
साथ गुजारती। उसके कामों में मेरा वक़्त बीतता। बड़ा क्रोध आ रहा था मुझे। उस दिन मैं
शांति से खाना न खा सकी। शायद उस दिन इनकी तबियत कुछ खराब थी, मूड बड़ा उखड़ा सा लग रहा था। यह उस दिन खा-पी कर दस बजे तक लेट गए। मैंने भी सारा
काम निपटाया और बीच वाली मंजिल में अपने कमरे में आकर लेट गई।
तुम्हें बता ही चुकी हूं कि काफी समय से हम लोगों के बिस्तर अलग-अलग हो गए थे।
चार-छः महीने में ही कभी एक साथ सोना होता था। वह भी ज़्यादातर पहल इन्हीं की तरफ से
होती थी। क्योंकि इतने दिनों से बराबर चली आ रही किच-किच इनके विवाहेतर संबंधों और
अन्य आदतों ने मुझे हिला कर रख दिया था। बिस्तर पर इनका साथ अब न जाने क्यों मुझे उत्साहित
नहीं कर पाता था। बस जैसे एक मज़बूर मशीन सी पड़ी रहती इनके आगे। मुझे लगता कि न जाने
कितनी औरतों की गंध इनके शरीर में समा गई है। ऐसा लगता मानों हम दोनों के बीच और कई
औरतें भी लेटी हैं। और वे बार-बार मुझे बाहर को ठेल रहीं हैं। मैं अपनी सारी इच्छाओं
अपनी ज़रूरतों को अपने में समाए या यह कहो ठूंसे जाती थी। और शरीर मेरा ऐसी ही बातों
से भर जाता, अकुलाता रहता।
खैर कमरे में आकर मैंने रेडियो खोला पुराने फ़िल्मी गाने आ रहे थे। लेट कर सुनती
रही मगर नींद नहीं आ रही थी, फिर लगा गाने भी असर नहीं डाल पा रहे तो
अपनी किताबों को खंगाला, उसमें से कुछ भी समझ में नहीं आ रही थीं या ये कहें खिन्न मन के सामने सब बेकार
लग रही थीं। जब कुछ समझ में न आया तो एक पुरानी धर्मयुग मैगज़ीन उठा ली। उसमें राज कपूर
के बारे में सिम्मी गरेवाल ने बड़ी ही रोचक बातें लिखीं थीं। उसे पढ़ना शुरू किया तो
उसमें मन लग गया। बड़ा लेख था मगर बहुत ही रोचक।
मैं पहली बार जान पाई कि एक रेस्त्रां में राजकपूर और सिम्मी मिले थे। बतौर प्रशंसिका सिम्मी
उन्हें फ़ोन करती रहती थीं इन्हीं बातों के बाद दोनों मिले। लेख पढ़ने के बाद न जाने
क्यों मैं अपने को बड़ा हल्का महसूस कर रही थी। कुछ और पढ़ने का मन हो रहा था। तो शिवानी
का एक कहानी संग्रह उठा लिया। पर तभी चीनू की तरफ ध्यान गया। उसको चाय बना कर देनी
थी। देर रात तक पढ़ने की उसकी आदत थी। चाय बनाने के लिए नीचे आने लगी तो जंगले से ऊपर
देखा वहां से उसके कमरे के रोशनदान दिखाई देते थे। लाइट जलती देख कर मैं समझ गई कि
अभी वो पढ़ रहा है। मुझे लगा कि उसे चाय देने में देर कर दी। रात के करीब साढ़े ग्यारह
बजने वाले थे। मैंने नीचे आकर उसके और अपने लिए एक-एक कप चाय बनाई और लेकर ऊपर आ गई।
अब तक इनके खर्राटे सुनाई देने लगे थे। अपनी चाय अपने कमरे में रखने के बाद मैं चीनू
के कमरे के पास पहुंची तो कुछ अजीब सी आवाज़ सुनी। उत्सुकतावश मैं खिड़की के पास रुक
गई। जिसके दरवाजे काफी हद तक बंद थे। थोड़ी सी जगह से जब नजर अंदर डाली तो उसकी हरकत
देख कर में हक्की बक्की रह गई। ठगी सी कुछ क्षण खड़ी रही। तय नहीं कर पा रही थी कि अंदर
जाऊं या जैसे आई हूं वैसे ही दबे पांव लौट जाऊं।’
‘मगर वो ऐसा क्या कर रहा था?’
‘बताती हूं , वह कुर्सी पर बैठा था। मेज पर कोर्स की किताब खुली पड़ी थी। और ठीक उसी के ऊपर एक
पतली सी छोटी सी किताब खुली पड़ी थी। चीनू ने कुर्सी थोड़ा पीछे खिसका रखी थी। उसने बनियान
उतार दी थी। ट्रैक सूट टाइप का जो पजामा पहन रखा था वह उसकी जांघों से नीचे तक खिसका
हुआ था। वह अपने आस-पास से एकदम बेखबर सिर थोड़ा सा ऊपर उठाए आंखें करीब बंद किए हुए था और दाहिने हाथ
से पुरुष अंग को पकड़े तेजी से हाथ चला रहा
था। उसकी हरकत देख कर मुझे बड़ी तेज गुस्सा आ गया और मैं इस स्थिति में बजाय चुपचाप
वापस आने के एक दम से दरवाजा खोल कर अंदर पहुंच
गई।
इस समय मैं ठीक उसके पीछे थी। भड़ाक से दरवाजा खुलने के कारण वह एक दम हकबका गया।
उसने तुरंत अपना पजामा ऊपर खींच कर उठना चाहा, लेकिन वह झटके खाने लगा था। बड़ी मुश्किल
से वह सीधा खड़ा हुआ। दीवार की तरफ मुंह किए रहा मेरी तरफ नहीं देख रहा था। मेरी भी
हालत अजीब सी हो रही थी। एकदम किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई थी। मुझे लगा कि इस समय मुझे
नहीं आना चाहिए था। लौट जाना चाहिए था। बड़ा लड़का है। और सबसे बड़ी बात कि कौन सा अपनी
संतान है। क्या ज़रूरत थी उसे टोकने की। खुद बड़ी शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। मैंने कुछ
बोले बिना चाय मेज पर रख दी और एक नजर उस छोटी सी किताब पर डाली, कुछ शब्दों से पता चल गया कि वह सड़क छाप अश्लील किताब थी। मैं एकदम पलटी और वापस
चल दी चुपचाप। तो वह धीरे से बोला,
‘चाची किसी से कहिएगा नहीं।’
उसके स्वर में मुझे कुछ ख़ास अफ़सोस जैसी बात नजर नहीं आ रही थी। मैंने कहा,
‘ठीक है। ये सब साफ कर देना।’
मैंने जमीन पर गिरे उसके अंश की ओर इशारा कर कहा और लौट आई कमरे में अज़ीब सी उलझन
लिए। नजरों के सामने एक साथ दो-दो सीन चल रहे थे। एक चीनू का दूसरा उसे देख कर याद
आ गई रुबाना का ।
‘क्यों ....... रुबाना से क्या मतलब चीनू का।’
‘पता नहीं पर चीनू की हरकत देख कर उस समय एकदम दिमाग में कुछ आया था तो वह रुबाना
और काकी, उनकी हरकतें और हॉस्टल की कुछ न भुलाई जाने वाली घटनाएं थीं।’
‘खैर दिमाग का भी कुछ पता नहीं, कब कहां पहुंच जाए कुछ ठिकाना नहीं।
चीनू की हरकत और रुबाना का याद आना कुछ कहना मुश्किल है।’
‘बिब्बो तुम्हारे लिए भी कुछ मुश्किल न होता अगर तुम हॉस्टल में रही होती। वहां
की अंदरूनी दुनिया को जानती।’
‘क्यों लड़कियों के हॉस्टल में ऐसा कुछ खा़स क्या होता है ? फिर तुमने कभी कुछ बताया भी तो नहीं।’
‘बताती तो इस डर से नहीं थी कि वह सब जानने के बाद बाबूजी मेरी पढ़ाई हर हालत में
बंद कर देते। और मैंने बड़े सपने पाल रखे थे तो इस लिए किसी भी सूरत में पढ़ाई बंद नहीं
करना चाहती थी। ये अलग बात है कि सपने सारे सपने ही रह गए।’
‘सारे सपने तो भाग्य वालों के ही पूरे होते हैं दीदी।’
‘नहीं मैं तो यह कहती हूं कि सपने उनके पूरे होते हैं जो उन्हें पूरा करने के लिए
दुनिया की परवाह किए बिना खुद आगे बढ़ते हैं। जो सोचते रह जाते हैं उनके सपने कभी पूरे
नहीं होते।’
‘जब तुम यह सब जानती हो तो तुम्हारे सपने क्यों अधूरे रह गए।’
‘मैं जानती तो सब थी लेकिन आगे बढ़ कर आने की हिम्मत में कमी रह गई। और रह रह कर
ठिठक जाना ही मेरे सपनों के टूटते जाने का सबसे बड़ा कारण था।’
‘मैं ठिठकने का मतलब नहीं समझी।’
‘यहां ठिठकने से मेरा मतलब यह था कि जहां मुझे अपनी बात के लिए अड़ जाना चाहिए था
वहां मैं यह सोच कर पीछे रह जाती थी कि फलां क्या कहेगा, क्या सोचेगा, दुनिया क्या कहेगी।’
‘अच्छा ..... मगर जब दुनिया में रहते हैं तो दुनिया के बारे में तो सोचना ही पडे़गा
न।’
‘हां जो दुनिया की चिंता करते हैं वह भीड़ का हिस्सा होते है। भीड़ में खोए रहते हैं।
उनका जीवन, उनकी दुनिया मेरी तरह तुम्हारी तरह दुनिया की ही चिंता में व्यर्थ चला जाता है, ख़त्म हो जाता है। और जो दुनिया के बजाय अपने सपनों के बारे में सोचते हैं उसे पूरा
करने के लिए अपने हिसाब से आगे बढ़ते हैं वह भीड़ का हिस्सा नहीं बनते, एकदम अलग नजर आते हैं,
और दुनिया सोचती है उनके बारे में, उनके बारे में चर्चा करती है।’
‘मैं तुम्हारी यह बातें पूरा तो नहीं हां काफी कुछ समझ पा रही हूं। मगर कहूं क्या
यह समझ में नहीं आ रहा है। तुम्हारी इन बातों से ज़्यादा मेरा दिमाग रुबाना, काकी और हॉस्टल पर लगा हुआ है कि चीनू की हरकत से तुम्हारे हॉस्टल के जीवन का क्या
संबंध है।’
‘संबंध है भी और कह सकते हैं नहीं भी। संबंध इस तरह से है कि उस दिन जो चीनू कर
रहा था, हॉस्टल में रुबाना, काकी और कई लड़कियां करती थीं। उन्हें किसी तरह के संकोच की तो जैसे जानकारी ही
न थी।’
‘ये क्या कह रही हो दीदी। हॉस्टल में यह सब होता है।’
‘यह सब ही नहीं .... और भी बहुत कुछ होता
है। जिसे जान कर तुम यकीन नहीं कर पाओगी।’
‘क्या मतलब ? और क्या होता है।’
‘चीनू अश्लील किताबें कोर्स की किताबों में रख कर पढ़ता था। हॉस्टल में रुबाना, काकी खुलेआम देखती पढ़ती थीं। उसी ने घर जाते वक़्त मेरे बैग में जानबूझकर वह मैगज़ीन
रखी होगी जिसे तुमने और अम्मा ने देखा था।’
‘तुम उन दोनों के साथ रहती थी तो तुमने भी वह किताबें देखी-पढ़ी होंगी ?’
‘जो चीजें सामने ही घट रही हों उनसे कब तक अछूता रहा जा सकता है ? कैसे रहा जा सकता है ?’
‘तो तुम उन दोनों से कमरा अलग लेकर भी रह सकती थी।’
‘मुश्किल था, उस समय इतनी समझ भी न
थी। दरअसल एक कमरे में चार स्टूडेंट रहती थीं। मेरे साथ रुबाना, काकी यानी काजल, और नंदिता रहती थीं। नंदिता बहुत पढ़े-लिखे और अच्छे परिवार से थी। रुबाना और काकी अच्छे-खासे खाते-पीते घर की थीं। मगर पढ़ाई-लिखाई के मामले में दोनों का परिवार
पीछे था। काकी के पिता एक व्यवसायी थे और रुबाना के ठेकेदार। दोनों को कुल मिला कर
पैसे की कमी न थी। मैं जब पहुंची तो मेरे लिए तो पूरी दुनिया ही एकदम अनजान, एकदम नई थी। मुझे हॉस्टल और रैगिंग के बारे में कोई जानकारी न थी। जबकि रुबाना, काकी काफी कुछ जानती थीं। परम खुराफाती और आज़ाद ख़याल की थीं। अपनी मनमर्जी करने
में ही उनको जैसे सब कुछ मिलता था। उनकी हरकतें कम से कम मेरी जैसी सामान्य लड़कियों
के लिए किसी अजूबे से कम न थीं। यही कारण है कि उसकी बातें मुझे जस की तस आज भी याद
हैं। और चीनू ने एकदम उसी दुनिया में पहुंचा दिया था।
मैं जब हॉस्टल में पहुंची थी तब इन दोनों ने मेरे हॉस्टल के जीवन से अनजाने होने
का खूब फायदा उठाया। दिन में कई सीनियर स्टूडेंट ने अच्छे ढंग से हमारा परिचय लिया
कुछ उसमें ऐसी थीं जो बेढंगे ढंग से भी पेश आईं। उस गुट में काकी और रुबाना की सहेलियां
भी थीं। दिन में सीनियर जूनियर रैगिंग की थ्योरी मुझे थोड़ी-थोड़ी पल्ले पड़ गई थी। शाम
को हॉस्टल पहुंची तो वहां भी सीनियरों का एक गुट आया कुछ अच्छे प्रश्न किए तो कुछ ऊल-जलूल
थे। यह गुट जब कमरे से बाहर निकल गया तो हमने राहत की सांस ली। अब-तक मेरी आंखें डबडबा आई थीं।’
‘क्यों ? तुम्हारी आँखें क्यों डब-डबा आई थीं ?’
‘क्योंकि जैसी अश्लील बातें पूछीं गई थीं वह मेरे लिए पहला अनुभव था। मेरी सोच से
परे था। यह सोच कर डर गई थी कि पहले दिन यह हाल है आगे न जाने क्या होगा। इसी बीच एक
झटका और लगा। उस गुट में से एक लड़की पलट कर अचानक हमारे कमरे में आई और बोली,
''सीनियर्स की बातों को बिना इफ-बट किए मानने में ही भलाई है, जिसने इफ-बट किया समझ लो उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद। और हां इस रूम में तुम सब की सीनियर
रुबाना और काकी हैं ध्यान रखना इस बात का।'' हमने और नंदिता ने सहमते हुए कहा
‘जी .... ठीक है।’
'‘जी क्या होता है यस मैम बोलो।'’
'‘यस मैम।'’
उस सीनियर के जाने के बाद रुबाना तो कुछ न बोली बस अपनी कुर्सी पर बैठ गई लेकिन
काकी ने कहा,
'‘तुम लोगों को बाकी सीनियर्स से डरने की ज़रूरत नहीं है। कहीं जाना तो हम दोनों के
साथ ही जाना।'’
इसके बाद काकी ने सीनियर्स के साथ कैसे पेश आना है इस बारे में एक के बाद एक हिदायतें
देते हुए जब यह कहा कि,
‘'रैगिंग की पहली क्लास हम लेंगे'’ तो हमारी रुह कांप गई।
‘फिर क्या हुआ ?’
‘इतना कहने के बाद दोनों कहीं चली गईं और करीब रात साढे़ आठ बजे लौटीं। साथ में
वो पूड़ी-सब्जी, केले, खीरा लेकर आई थीं। पूरा पैकेट हमारे सामने मेज पर रख कर काकी बोली,
'‘सुनो तुम लोगों को भूख लगी होगी। और अभी मेस शुरू नहीं हुई है। खाना बनाने का अरेंजमेंट
भी अभी नहीं है इसलिए फिलहाल आज पूड़ी-सब्जी का मजा लेते हैं।'’
सच कहूं उस समय हमें काकी और रुबाना बड़ी भली लगीं। हमारे मन में आया कि यह दोनों
तो हमारा बड़ा ख़याल रखती हैं। फिर हम चारों ने हाथ मुंह धोकर एक साथ पूड़ी-सब्जी का
मज़ा लिया। खाते वक़्त उन दोनों को हमने सीनियर समझ कर उसी तरह से व्यवहार शुरू किया
तो रुबाना बोली,
'‘ए खाने के वक़्त नो सीनियर नो जूनियर।'’
उसके बाद उसने कुछ ओछे मजाक भी किए जिससे हम सब न चाहते हुए भी हंस पड़ीं। मगर सच
यह भी है कि उनके मजाक के चलते हम सब खाना ठीक से खा सके। नहीं तो गले के नीचे उतरना
मुश्किल हो जाता। वह काफी खाना लेकर आई थीं इससे थोड़ा बच गया। तो मैंने सोचा रख दें
सुबह खा लेंगे तो रुबाना बिदक कर बोली,
‘'यहां बासी खाने का कोई रिवाज़ नहीं है। जानती नहीं हम जैसा खाएंगे हमारा दिमाग वैसा
ही बनेगा। और हमें थकी हुई बासी सोच का नहीं ताजी सोच का बिंदास बनना है। इसलिए जो
बचा है वह डस्टविन के हवाले करो आखिर उसका भी तो कोई हक़ बनता है।'’
‘उसकी बातों से तो लगता है कि वह बहुत ही आज़ाद ख़याल की थी।’
‘आज़ाद ........ अरे! यह कहो परम आज़ाद। मैंने पहले ही कहा कि उसकी आदर्श अमृता प्रीतम, सीमोन बोउवार, निनोंद लिंकलोस थीं। वह उनके जैसा ही जीवन जीने की कोशिश करती थी। इस के चलते कोर्स
को छोड़ कर न जाने क्या-क्या पढ़ती थीं। उस दिन खाने के वक़्त उसने केले को हाथ में लेकर
छीलने से पहले जो अश्लील शब्द कहे वह अब भी मेरे कानों में मानों वैसे ही गूंजते हैं
इतनी उम्र होने के बाद भी आज तक किसी लड़की से वह शब्द नहीं सुने। उस दिन की इसके अलावा
अन्य कई बातें हैं जो आज भी एकदम तरोताजा हैं।'
‘वह कौन सी बातें है ?
लेकिन हां पहले जो तुमने एक नाम लिया निनोंद का, बड़ा अजीब सा नाम है, यह कौन थी ?’
‘ ‘निनोंद! दरअसल इसके बारे में भी हमने रुबाना या काकी से मिली किसी किताब में ही
तब पढ़ा था, जब इन दोनों ने इसके बारे में खूब बढ़-चढ़कर कई बार बातें कीं। मैंने कुछ पूछा तो रुबाना बोली '‘बहुत जानना है तो पूरी किताब पढ़ ले।'’ फिर किताब मुझे थमा दी। उसी में जहां तक मुझे याद आ रहा है लिखा था कि यूरोप में
पंद्रहवीं-सोलहवीं शदी आते-आते महिलाएं साहित्य, कला आदि के क्षेत्र में
भी आगे आईं। इसी समय जब महिलाएं अभिनय के क्षेत्र में उतरीं तो अभिनेत्रियों की जाति
पैदा हो गई। यह निनोंद पहली अभिनेत्री मानी जाती है जो सन् पंद्रह सौ पैंतालीस में
मंच पर आई। इसने बेहद स्वच्छंदतापूर्ण जीवन जिया। मूल्य मान्यता, नैतिकता-अनैतिकता को हमेशा जूती के तले रखा। ऐसा बिंदास जीवन जीया कि तब के लोग
दांतों तले ऊंगली दबा लेते थे।’
‘तुम लोग वहां कोर्स की किताबें पढ़ने गई थीं कि यह सब ? खैर जो एकदम तरोताजा बातें बताने जा रही थी वह बताओ।’
‘पहली तो यही कि जब कपड़े चेंज करने का वक़्त आया तो कमरे में कोई सेपरेट जगह नहीं
देख कर मैं और नंदिता अपने कपड़े लेकर बाथरूम की तरफ जाने लगे। तो काकी ने पूछा,
'‘कहां जा रही हो?'’
हमने कहा
‘कपड़े चेंज करके आ रही हूं।’
'‘तो बाहर जाने की क्या ज़रूरत है?’'
उसकी इस बात से मैं और नंदिता चुप-चाप उसे देखते रहे तो वह बोली,
'‘यहीं क्यों नहीं चेंज करती। हम सब भी यहीं करते हैं। ये कमरा है, कोई चौराहा नहीं कि लोग तुम्हारी देख लेंगे।'’ तभी रुबाना बीच में बोली,
'‘या तुम दोनों के सामान कुछ खास तरह के हैं।'’
यह कह कर दोनों ताली बजा कर लोफड़ लड़कों
की तरह हंस पड़ीं। उनकी बातों से मैं और नंदिता शर्म से गड़ गए। सिवाए पैरों के पंजे
के पास की जमीन देखने के हम कुछ और नहीं कर पा रहे थे। तभी रुबाना फिर बोली,
‘'सुनो यहां पर्दे की हसीना बनने की ज़रूरत नहीं है। पर्दे में ही रहना था तो घर में
ही रहती ज़रूरत क्या थी पढ़ने की। कपड़े सब यहीं चेंज करो।'’
उसकी बात से मैं पसीने-पसीने हो गई, नंदिता का भी हाल मेरे ही जैसा था। हमें बुत जैसा एक जगह खड़े देख बोली,
'‘सुना नहीं ? यहीं चेंज करना है तुम्हें। और ये ध्यान रहे ये गर्ल्स हॉस्टल है, तुम्हारा घर नहीं समझीं।'’
कोई रास्ता न देख हम दोनों कमरे के दूसरे कोने में रखी अलमारी की आड़ में जाकर चेंज
करने लगे। नंदिता और हमने रात के लिए भी सलवार सूट ही पहना था। जब दोनों चेंज कर रहे
थे तो रुबाना फिर बोली,
'’तुम दोनों अंदर कुछ नहीं पहनती क्या जो तुम्हें आड़ की ज़रूरत पड़ती है।'’
हम दोनों ने कोई जवाब नहीं दिया बस जितनी जल्दी चेंज कर सकते थे चेंज कर लिया।
हमें रात के लिए भी सलवार सूट पहने देख कर रुबाना फिर भड़की,
'‘ए तुम्हें यही पहनना था तो चेंज करने की ज़रूरत ही क्या थी। जो पहन रखा था वही पहने
रहती।'’
फिर रुबाना ने हम दोनों को खाना निकालने
के लिए कहा। हम डरे सहमे आज्ञाकारी बच्चों की तरह अपने काम में जुट गए। अभी हम शुरू
ही हुए थे कि एक बार फिर चौंक गए। काकी और रुबाना बिना हिचक सामने ही चेंज करनी लगीं।
हमारी तरह अलमारी की आड़ में नहीं गईं। निः संकोच बल्कि यह कहो कि पूरी बेशर्मी के साथ
अपनी सलवार और कुर्ता उतार दिया। फिर उतनी ही बेशर्मी के साथ दोनों ने अपनी स्लीपिंग
ड्रेस बड़े आराम से उठाई और बड़े इतमिनान से पहनी। ट्राउजर और ढीली-ढाली शर्ट उस जमाने के फैशन के हिसाब
से बनी थीं।
जिस तरह की और जिस ढंग से वह पहने थीं उसे देखकर निश्चित ही कहा जा सकता था कि
वह दोनों कम से कम अपने घरों में तो उस तरह से नहीं रह सकती थीं। जहां काकी ने अपनी
शर्ट के बटन बंद कर लिए थे ऊपर के एक को छोड़ कर वहीं रुबाना काकी से कई क़दम आगे थी।
उसने न सिर्फ़ ऊपर के दो बटन बेशर्मी से खोल रखे थे बल्कि अपनी ब्रेजरी भी उतार दी
थी। इस वजह से उसकी छाती का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ़ दिख रहा था बल्कि भद्दे ढंग से
हिल भी रहा था। उसकी यह बेशर्मी देख कर मैं उसे अंदर ही अंदर गाली दे रही थी। मेरा
वश चलता तो उसे चप्पलों से पीटती। लेकिन हमारा हाल तो कटखने मास्टर को देखकर थर-थर
कांपते बच्चों की तरह था। डर के मारे काम में जुटी हुई थी। कि तभी रुबाना मुझे कनखियों
से अपनी ओर देखते पाकर बोली,
'‘ए कनखियों से क्या देख रही हो। देखना है तो बोल दिखाती हूं सब। मैं कोई गांव की
गोरी नहीं हूं कि सात तहों में बंद रखूं अपने को। ज़िंदगी मिली है तो उसे जी भर के जियूंगी।
काटूंगी नहीं।'’
ऐसी ही न जाने कितनी नसीहतें देती रही वह और साथ में काकी भी। खा-पी कर सोने का
वक़्त आया तो दोनों ने नया तमाशा शुरू कर दिया।’
‘कैसा तमाशा ?’
‘वही जो रैगिंग के नाम पर होता है।’
‘क्या किया उन दोनों ने।’
‘जब मैं और नंदिता सोने के लिए अपने-अपने बेड की तरफ चलीं तो अचानक काकी बोली’
'‘सोने की इतनी भी क्या जल्दी है। ये कोई घर है कि खाया-पिया और कि मम्मी डाटेगी। अब जबकि हम
लोगों को एक ही कमरे में एक साथ रहना है तो सबसे पहले यह ज़रूरी हो जाता है कि सब एक
दूसरे के बारे में सब कुछ जान लें।'’
इसके बाद सबसे पहले रुबाना ने अपने बारे
में बताया। उसके बताने का अंदाज कुछ ऐसा था कि जैसे वह किसी स्टेट की राजकुमारी है
और उसके जैसा दुनिया में कोई नहीं। अपनी बहादुरी के कई किस्से सुनाए। जैसे जब वह हाई
स्कूल में थी तो किसी लड़के ने उसे कुछ कह दिया तो उसे दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। उसके लंबे-चौड़े
शरीर और व्यवहार को देख कर मुझे उसकी बात पर यकीन करने में जरा भी देर न लगी। उसने
अपनी बातों से यह अहसास कराने का पूरा प्रयास किया कि यदि सामने वाला उसकी बात नहीं
मानता तो वह कुछ भी कर सकती है। वह किसी से नहीं डरती।
सच कहूं तो उसकी बातें सुन कर मैं और भी ज़्यादा डर गई। नंदिता का भी हाल यही था।
फिर काकी का नंबर आया। वह अजब ही ख़याल की लड़की थी। उसने अपने परिवार की रईसी और अपने
को बहुत तेज-तर्रार, खूबसूरत और बहुत ही विद्वान बताने की भरपूर कोशिश की। बड़े घमंड के साथ यह बात बताई
कि वह जूनियर हाई-स्कूल से ही क्लास कट करके घूमती रही है। इसके लिए घर से लेकर स्कूल तक उसे कई
बार सजा मिली लेकिन वह नहीं बदली। उसकी नजर में सारे पुरुष कमीने होते हैं, इसलिए औरतों को चाहिए कि उन्हें अपने पैरों की जूती बनाकर रखने की हर संभव कोशिश
करती रहें ।''
‘हे भगवान! ये कैसी लड़कियां थीं ।’ बिब्बो ने आश्चर्य से पूछा तो मन्नू
गहरी सांस लेकर बोली।
‘दोनों ही पूरी तरह से कंफ्यूज्ड लड़कियां थीं। वह दुनियां भर की क्रांतिकारी बातें
करती थीं लेकिन उनके काम,
व्यवहार में कहीं से उन बातों का प्रभाव नहीं दिखता था।’
‘फिर क्या हुआ।’
‘फिर मैंने और नंदिता ने अपने-अपने बारे में बताया। उन दोनों ने मेरी और नंदिता
की खूब खिल्ली उड़ाई। कहा,
‘'तुम दोनों तो सोलहवीं सदी की कन्याएं नजर आती हो। फिर यहां क्या करने आई हो। अच्छा
चलो कोई बात नहीं। हम हैं न। हम तुम्हें मॉडर्न बना देंगे। और तुम वही करोगी जो हम
कहेंगे।'’
फिर हम दोनों से गाना गाने को कहा। किसी तरह गाने से फुरसत मिली तो नाचने को कहा।
ऐसी ही त़माम ऊट-पटांग बातें कीं, काम करवाए। यह सब करते-करते रात एक बज गए
तब सोने का वक़्त आया।
पहला एक हफ़्ता ऐसी ही,
ऊट-पटांग बातों और डरते-काँपते बीता। इसके बाद फिर हालात से
थोड़ा सा परिचित होते जाने के बाद हमारे जान में जान आनी शुरू हुई। मगर रोज ही कुछ न
कुछ नया होता था या सुनने को मिलता जो हमारे लिए एक नया अनुभव होता। कोई दस दिन ही
बीते होंगे कि रुबाना और काकी का एक नया सच जो मुझे उस वक़्त बड़ा घिनौना लगा था देखने
को मिला।
‘घिनौना सच।’
‘हां! उस वक़्त मुझे उससे घिनौना कुछ और लगा ही न था।’
‘ ‘ऐसा क्या किया था उन दोनों ने।’
‘बता रही हूं। उस दिन क्लास अटेंड करने के बाद कुछ किताबों वगैरह के चक्कर में हम
लोग अमीनाबाद गए। वहां से आते वक़्त रुबाना-काकी मिल गईं। दोनों के साथ चार और सहेलियां
थीं। वहीं रुबाना ने बातों ही बातों में फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बना दिया। इवनिंग
शो देखना तय हुआ, हमने नंदिता ने मना किया तो काकी लगी आंख दिखाने। अब हमारे सामने हां करने के सिवा
कोई चारा न था। मैं जीवन में पहली बार किसी पिक्चर हाल में इवनिंग शो देख रही थी। खैर
इवनिंग शो देख कर हॉस्टल लौटे तो देर से आने के लिए वार्डेन की डांट पड़ी। खाए-पीए फिर
फ़िल्म के बारे में तमाम बातें होती रहीं। करीब एक बजे सोए।
थकान के कारण बड़ी गहरी नींद आई थी। लेकिन
रात करीब तीन बजे होंगे कि पेशाब लगने के कारण मेरी नींद खुल गई। तभी मेरे कानों ने
ऐसी आवाज़़ सुनी जो उससे पहले कभी नहीं सुनी थी। मेरे कान खड़े हो गए। कमरे का नाइट लैंप
आफ था। मगर बाहर जो स्ट्रीट लाइट लगी थीं उनमें से एक का खंबा हमारे रूम की खिड़कियों
के सामने था और रोशनदान से छन कर रोशनी भी आ रही थी। उस रोशनी में चीजों को बहुत साफ
तो नहीं हां फिर भी समझने लायक के स्तर तक आसानी से देखा जा सकता था। जब मैंने आह
..... ऊं ... जैसी आवाज़़ किधर से आ रही है यह जानने के लिए नजर डाली उस ओर जिधर से
आवाज़़ आ रही थी तो जो देख़ा उससे आश्चर्य से आंखें फटी की फटी रह गईं। रुबाना के बेड
के आगे ही काकी का बेड था और रुबाना उसी पर थी।’
‘और काकी कहां थी ?’
‘काकी भी वहीं थी। दोनों के स्लीपिंग ड्रेस की बटन सामने से खुली थीं। ट्राउजर बदन
पर नहीं था। और दोनों एक दूसरे से गुथ्थम-गुथ्था थीं। वह अजीब आवाज़़ भी उन्हीं की थीं।
यह दृश्य मेरी कल्पना से परे था। मैं सांस थामें पड़ी रही, देखती रही उनका घिनौना खेल। जिस पेशाब के लगने के कारण मेरी नींद खुली थी उसका
अहसास न जाने कहां लोप हो गया था। कुछ देर बाद जब उन दोनों का ज्वार उतरा तो रुबाना
वहां से उठी और बड़ी सावधानी से अपना ट्राउजर पहना, फिर एक नजर हम दोनों पर
डाली और अपने बेड पर आ गई। उधर काकी ने भी अपने कपड़े ठीक किए और सो गई। मगर मेरी न
सिर्फ़ नींद उड़ गई बल्कि किस लिए खुली थी यह भी भूल गई। करीब आधे घंटे तक अपने इस नए
अनुभव से हतप्रभ हो पड़ी रही। मगर पेशाब ने फिर जोर मारा तो उठी बाथरूम जाने के लिए।
अब तक दोनों सो चुकी थीं। नंदिता भी पैर फैलाए सो रही थी। बाथरूम से लौटी तो जान ही
निकल गई।’
‘क्यों ? क्या हो गया था।’
‘बाथरूम से जब कमरे में वापस आई तो देखा रुबाना अपने बेड पर बैठी है। मैं डरते हुए, अनजान सी बनी अपने बेड पर आ गई। अभी लेटी ही थी कि रुबाना उठ कर मेरे बेड पर आ
गई। मैं हकबका कर उठ बैठी। तो वह बोली,
'’तुम कितनी देर से जाग रही हो?’'
मैंने कहा ‘ बाथरूम जाने के लिए मैं तो अभी उठी हूं ।’
वह दांत पीसती हुई बोली '’झूठ मत बोलो। तुम जैसी चालाक देहातियों को मैं अच्छी तरह जानती हूं। और तुम जैसों
से कैसे निपटा जाए यह भी। देहातियों वाली बात पर मुझे भी गुस्सा आया पर मैंने स्वयं
पर काबू करते हुए कहा,
‘मैंने ऐसा क्या कर दिया है जो ऐसा कह रही हो।’
'‘ज़्यादा बनने की कोशिश न करो। जब तुम एक झटके से उठी थी मैंने तुम्हें उसी वक़्त
देख लिया था। लेकिन मैं अपने मजे का कूड़ा नहीं करना चाहती थी। और तुम्हें यह भी मालूम
है कि मैं किसी की परवाह नहीं करती हूँ । इसलिए तुमको देखने के बाद भी मैंने परवाह
नहीं की। मैं तो बस तुम्हारी कनिंगनेस को चेक करना चाहती थी। और वो पता चल गई कि तुम
कैसी हो, कितनी कनिंग हो।'’
‘ऐसी कोई बात नहीं है आप मेरा विश्वास करें । मैं नहीं चाहती थी कि आपको डिस्टर्ब
करूं।’
'‘अच्छा .... तो बताओ कि मैं क्या कर रही थी?’'
‘मैं ..... मैं...... मुझ से गलती हो गई है तो माफ कर दीजिए। यकीन कीजिए कभी किसी
से कुछ नहीं कहूंगी।’
‘'इसी में तुम्हारी भलाई है।'’
यह कह कर रुबाना अपने बेड पर गई और ऐसे तान कर सो गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मगर
मेरी नींद उड़ गई। मैं यह सोच-सोच कर परेशान थी कि इस हॉस्टल में जीवन के और क्या-क्या
रंग देखने को मिलेंगे। अगले दिन रुबाना के व्यवहार से ऐसा लगा ही नहीं कि रात में कुछ
हुआ होगा। दिन में जब क्लास अटेंड कर करीब दो बजे मैं नंदिता के साथ कैंटीन जा रही
थी कि तभी काकी अकेली आई। यह किसी आश्चर्य से कम न था। क्योंकि काकी-रुबाना कभी अकेली
नहीं रहती थीं। वह गुस्से में दिख रही थी। आते ही वह नंदिता को अलग कर मुझे थोड़ा दूर
ले गई। और आँखें दिखाते हुई बोली, ''कल रात वाली बात तुमने
किसी को भी भूल कर भी बताई तो सोच लेना गोमती में कहीं सड़ती मिलोगी समझी।'’
मैं समझ गई कि यह रुबाना से सारी बातें करके आ रही है। इन डेढ़-दो हफ्तों में मैं
यह भी जान गई थी कि इन दोनों ही के संबंध युनिवर्सिटी के नेता टाइप कई छात्रों से हैं।
तो काकी की धमकी से डर कर हाथ जोड़ कर बोली,
‘मैं कसम खा कर कहती हूं कि सपने में भी किसी से कुछ नहीं कहूंगी।’ बड़ी अनुनय-विनय के बाद वह मानी उसके बाद हम कैंटीन गए।
वहां एक और बड़ा झटका लगा। जिस नंदिता को
मैं बहुत मासूम अपने से भी ज़्यादा गई गुजरी समझती थी वह कहीं ज़्यादा चालाक निकली।
कैंटीन में बैठते ही जब उसने पूछा कि काकी ने क्या कहा तो वादे के मुताबिक मैंने बात
छिपाने की कोशिश की लेकिन नंदिता बोली,
'‘ठीक है न बताओ लेकिन मुझे सब मालूम है।'’
‘मैंने पूछा क्या?’
'‘यही कि काकी ने तुमसे क्या कहा।'’
‘अच्छा .... तो बताओ’
‘'उसने यही कहा होगा कि कल रात वाली बात किसी से न कहना।'’
अब मैं समझ गई कि इसे सब पता है तो मैंने उसे सारी घटना बता
दी । तो वह बोली,
‘'यह कोई पहला चांस नहीं है। मैंने आने के दूसरे ही दिन दोनों को पकड़ लिया था। मगर
दोनों ने जिस तरह से धमकाया उससे मैं डर गई। सोचा जो करना है करो, मुझे क्या करना है, मैं क्यों कहने जाऊं। एक बात और कहूं
कि मैंने इतनी कामुक लड़कियां पहले कभी नहीं देखीं, मैं तो कोशिश करूंगी कि
जल्दी से जल्दी रूम चेंज करा लूं।'’
मुझे नंदिता की बात सही लगी। मैंने उससे कहा,
‘ठीक है मैं भी कराती हूं। इन दोनों के साथ रहना संभव नहीं। न जाने दोनों क्या कर
दें। इनके साथ तो हम भी बदनाम हो जाएंगे।’
‘तुमने तो जीवन में बडे़ अजीब-अजीब अनुभव प्राप्त किए हैं। लेकिन चीनू की हरकत से
तुम्हें यह बातें कैसे याद आ गईं ।’
‘अब यह तो मैं बहुत साफ-साफ समझा नहीं पाऊंगी। शायद वह छात्र रहते हुए यह सब कर
रहा था। और रुबाना वाली घटना भी मेरे छात्र जीवन की थी। इस समानता ने ही शायद एकदम
से याद दिला दी रुबाना की।’
‘तो चीनू की हरकत तुमने जीजा से नहीं बताई।’
‘नहीं। उनको बताने का मतलब था एक बड़ा तमाशा खड़ा करना। और फिर उनसे मेरा संवाद ही
कितना था। मैं अपने कमरे में आकर लेट गई। मूड इतना खराब था कि न तो कुछ पढ़ पा रही थी
और न नींद आ रही थी। रह-रह कर नजरों के सामने हॉस्टल, रुबाना और चीनू घूम जाते। फिर मैंने सोचा कि चीनू कल चला जाएगा। चोरी पकड़े जाने
के बाद अब यहां नहीं रुकेगा। यही सब सोचते- सोचते तीन बजे के आस-पास मुझे नींद आ गई।
सवेरे उठी तो बड़ी थकान महसूस हो रही थी, मगर काम कहां देखता है यह सब। रोज की तरह इन्हें चाय-नाश्ता दिया। फिर चीनू को आवाज़़ दी
मगर वह हां कह कर रह जाता। नीचे नहीं आया। मैं समझ गई कि वह डर रहा है। तो बिना कोई
हील-हुज़्जत किए उसका चाय-नाश्ता लेकर ऊपर चली गई। जब मैं ऊपर
नाश्ता लेकर जा रही थी तो मन में यही था कि वह अपना सामान वगैरह पैक कर रहा होगा। लेकिन
ऊपर पहुंची तो यह देख कर दंग रह गई कि वह अपेक्षा के विपरीत एक पढ़ाकू की तरह पढ़ता मिला।
शायद पढ़ने का ड्रामा ही कर रहा हो, खीझ मिटाने का तरीका भी कह सकते हैं।
मेरे लिए यह एक आश्चर्यजनक अनुभव से गुजरने जैसा था। मैं जहां अपने अंदर एक अजीब
सी शर्म-संकोच महसूस कर रही थी कि उससे कैसे क्या कहूंगी। लेकिन मेरी हालत के विपरीत
वह एकदम बेफिक्र था। मैंने नाश्ता उसके सामने रख दिया। वह कुछ न बोला। मैंने भी कुछ
न कहा चुपचाप चली आई नीचे। मगर तभी मन में यह बात फिर आई कि शायद वह इनके जाने की प्रतीक्षा
कर रहा होगा फिर जाएगा। लेकिन नहीं ऐसा नहीं हुआ। वह शाम तक ऊपर से नीचे उतरा ही नहीं।
मैंने भी खाना वगैरह ऊपर ही दे दिया। पानी की बड़ी बोतल भी ले जा कर रख आई। पूरा दिन
बड़ी उधेड़-बुन में बीता।
शाम होते-होते अपनी अजीब सी हालत पर मैं हैरत में पड़ गई। ये सोचने लगी ये क्या
हो रहा है मुझे।'
‘क्यों ऐसा क्या हो गया था तुम्हें’
‘हुआ यह कि मेरे दिमाग में चीनू की हरकत वाला दृश्य बराबर न जाने क्यों बना हुआ
था। जितना उसे दूर झटकने की कोशिश करती वह
और भी ज़्यादा मुझसे चिपक जाता। ऐसी व्याकुलता, दिमाग में ऐसी गड़बड़ हो रही थी कि कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे ही ऊहापोह में शाम बीत गई। यह शाम को आए तो न जाने क्यों पारा चढ़ा हुआ था। उनके पारे को देख कर मैंने नाश्ते से लेकर खाना तक सब वही बनाया जो इनका मनपसंद था। मगर सब बेकार। बदले में खाने को मिलीं गालियां। और सोते वक़्त जैसे गुलाम को आदेश दिया जाता है कुछ उसी अंदाज में यह आदेश मिला कि, ''दो हफ़्ते की एक विभागीय ट्रेनिंग के लिए बंबई जाना है। इसलिए सुबह कपड़े वगैरह सब तैयार कर देना ।''
और भी ज़्यादा मुझसे चिपक जाता। ऐसी व्याकुलता, दिमाग में ऐसी गड़बड़ हो रही थी कि कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे ही ऊहापोह में शाम बीत गई। यह शाम को आए तो न जाने क्यों पारा चढ़ा हुआ था। उनके पारे को देख कर मैंने नाश्ते से लेकर खाना तक सब वही बनाया जो इनका मनपसंद था। मगर सब बेकार। बदले में खाने को मिलीं गालियां। और सोते वक़्त जैसे गुलाम को आदेश दिया जाता है कुछ उसी अंदाज में यह आदेश मिला कि, ''दो हफ़्ते की एक विभागीय ट्रेनिंग के लिए बंबई जाना है। इसलिए सुबह कपड़े वगैरह सब तैयार कर देना ।''
मैंने भी एक गुलाम की तरह ही आदेश सुना और मन ही मन कुढ़ती हुई लग गई काम में।
पता-प्रदीप
श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर
एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६
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