मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

'मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां ' पर एक परिचर्चा


                                                      



              बाएं से श्री धीरेन्द्र धीर ,श्री विजय प्रकाश मिश्रा ,डॉ .अमिता दुबे 

             श्री प्रतुल जोशी,प्रदीप श्रीवास्तव ,श्री शिवमूर्ति ,श्री हरिचरण प्रकाश 

                             एवं श्री पवन सिंह 


मानवता की प्रबल वकालत की है प्रदीप श्रीवास्तव ने :शिवमूर्ति


प्रदीप श्रीवास्तव की कहानियां नव उदारवाद, उदारवाद और भूमंडलीकरण की कहानियां हैं : हरिचरण प्रकाश 


यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ में 7 अप्रैल 2019 को प्रदीप श्रीवास्तव के कहानी संग्रह 'मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां' पर एक परिचर्चा का आयोजन भारतीय जर्नलिस्ट परिषद,अनुभूति संस्थान के  संयुक्त तत्वावधान में किया गया .


 कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कथाकार श्री शिवमूर्ति  ने कहा कि,  'सारे नियम कानून से ऊपर है मानवता और इस मानवता की प्रबल वकालत की है प्रदीप श्रीवास्तव ने लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर वह देश की वसुधैव कुटुंबकम की भावना को पीछे छोड़ देते हैं.' श्री शिवमूर्ति ने संग्रह की कहानियों की पठनीयता की बात करते हुए कहा कि, 'लम्बी कहानियों के बावजूद प्रभावशाली भाषा ,रोचकता इतनी है कि आप एक बार कहानी पढ़ना शुरू करेंगे तो बीच में छोड़ नहीं पायेंगे,आखिर तक पढ़ते चले जायेंगे .' संग्रह की 'बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा' कहानी का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए उन्होंने  कहा कि ,'महिलाओं को यह कहानी अवश्य ही पढ़नी चाहिए .' उन्होंने  'घुसपैठिये से आखिरी मुलाकात के बाद ' कहानी का भी खासतौर से  उल्लेख किया . 

वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरि चरण प्रकाश ने संग्रह पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि, 'भूमंडलीकरण ने पूंजीवाद के व्यभिचार को और बढ़ाया है. प्रदीप श्रीवास्तव की कहानियां नव उदारवाद, उदारवाद और भूमंडलीकरण की कहानियां हैं . मैं प्रदीप की  कहानिओं को आत्म स्वीकारोक्ति शैली की कहानी कहना चाहूंगा .  


' प्रदीप श्रीवास्तव ने अपनी कहानियों के बारे में बताया कि यह कहानियां शहरी निम्न मध्यवर्गीय जिंदगी की मुख्यतः  नकारात्मक स्थितियों का बयान हैं . दरअसल भूमंडलीकरण ने  हिंदुस्तानी समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. विकास और बौद्धिकता की आंधी में मानव मूल्य तिरोहित होते जा रहे हैं. लेकिन हमें सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ते रहना है. तेजी से विकसित हो रही टेक्नोलॉजी मानव को निकट भविष्य में कई ग्रहों तक ले जाने में सक्षम होगी, इस आधार पर मैं वसुधैव  कुटुंबकम के विचार को और आगे ले जाते हुए ब्रह्मांड कुटुंबकम के विचार को प्रस्तुत करता हूं .


 सारी दुनिया से इस पर चिंतन मनन का  आग्रह  करता हूं . मेरी जनहित याचिका कहानी  का पात्र इस बिंदु पर पूरी गंभीरता  से  बात करता  है .प्राणी मात्र के सुंदर खुशहाल जीवन के लिए हमें इस बिंदु पर गंभीरता से सोचना ही होगा. कार्यक्रम की संचालिका वरिष्ठ लेखिका डॉ. अमिता दुबे का मानना  था कि, ' प्रदीप की कहानियों में मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना पर विशेष बल है. कहानी के पात्र समाज में परिवर्तन लाने के लिए प्रयासरत रहते हैं.

' श्री प्रतुल जोशी का कहना था कि, 'प्रदीप की कहानियों में चित्रात्मकता  है.

वहीं श्री पवन सिंह ने कहा कि, 'यह समय जनहित याचिकाओं के सहालग का  है.



' समापन भाषण देते हुए श्री प्रवीण चोपड़ा ने कहा, 'साहित्य वही है जो समग्र समाज का हित सोचे. उसका उद्देश्य समाज की भलाई हो.

कार्यक्रम में विख्यात साहित्यिक पत्रिका 'लमही' के संपादक श्री विजय राय ,अनुभूति संस्थान  के श्री धीरेन्द्र धीर एवं अन्य विशिष्ठजन उपस्थित थे .



'लमही ' पत्रिका के संपादक श्री विजय राय .








गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

पुस्तक समीक्षा: मेरी जनहित याचिका की पड़ताल हरीचरण प्रकाश

मेरी जनहित याचिका की पड़ताल

हरीचरण प्रकाश

प्रदीप श्रीवास्तव के कहानी संग्रह ‘‘मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां’’ में कुल दस कहानियां हैं लेकिन चर्चा के लिए मैंने उनकी कहानी मेरी जनहित याचिका' को चुना है चूंकि मुझे लगा कि यह उनकी प्रतिनिधि कहानी है।
            प्रदीप की इस कहानी में और प्रसंगवश अन्य कहानियों में नरेटर अर्थात कथावाचक की जबरदस्त उपस्थित है और मैं उनकी कहानी को आत्मस्वीकारोक्ति शैली की कहानी कहना चाहूंगा। यहां जानबूझ कर मैं आत्मस्वीकारोक्ति के साथ शैली शब्द का प्रयोग कर रहा हूं ताकि यह भलीभांति स्पष्ट हो जाए कि यह किसी आप-बीती का कन्फेशनल कच्चा-चिट्ठा नहीं है वरन् एक लेखक की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। वस्तुतः कोई भी कथाकार यदि यह कहे या उसके बारे में कहा जाए कि वह भोगे हुए यथार्थ को ही लिखता है तो यह बात साहित्य की रचनात्मक प्रक्रिया की अवहेलना करने जैसी बात होगी। साहित्य यथार्थ की कल्पनात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है न कि यथातथ्य का बयान।
            इस नजरिए से देखने पर हम पाते हैं कि ‘‘मेरी जनहित याचिका’’ का वाचक-नायक स्वयं को मानव मानस के हर तल-अतल पर ले जाता है। कहानी में उसका जीवन एक ऐसे युवा के रूप में शुरू होता है जिसके पारिवारिक सरोकार बहुत गहरे हैं लेकिन इस शुरळआत में ही हम देखते हैं कि कथाकार अरबनाइजेशन की जटिलताओं को एक्सप्लोर करने के लिए तत्पर है। वस्तुतः शहरीकरण ही इस कहानी का प्रस्थान बिन्दु है जिसके तहत पिता अपनी जमीन-जायदाद-ग्रामीण सम्पत्ति बेच कर उसे शहरी जमीन-जायदाद में तब्दील करने का उपक्रम करते हैं। पिता अपना पुश्तैनी बाग बेचते भी हैं और बेचते समय दुःखी भी हैं। उनके इस दुःख के साथ किसी की सहानुभूति नहीं है, परिवार के बाकी सदस्य यही कहते हैं कि अगर इतना ही दुःखी होना था तो बेचा क्यों। इसमें सबसे गौरतलब वह मुकाम है जब पिता की भावुकता का एक वीडियो बना कर उसे यूट्यूब में अपलोड कर दिया गया। यह परिघटना इस परिवार के लिए आने वाले समय का संकेत है जो यह बताएगा कि सारे मानवीय अहसासात अब मोबाइल के दृश्य हो जाएंगे और दिल की गिरफ्त से छूट जाएंगे। बाग का बेचना किसी क्लीशे की तरह जड़ से उखड़ना ही नहीं है वरन् इस बात का संकेत है कि जब पीढ़ियों से चला आ रहा आदमी और जमीन का रिश्ता टूटेगा तो अन्य रिश्ते भी इस उलटफेर से प्रभावित होंगे।
         
   इस कहानी को हम जीवन के एक टुकड़े की कहानी नहीं कह सकते हैं। इस कहानी का अपना एक पूरा जीवन है इसलिए घटनाओं, चरित्रों और भावनाओं के बाहुल्य के कारण एक सामान्य पाठक के समक्ष यह निर्धारित करने की थोड़ी मशक्कत दरपेश हो सकती है कि आखिर इस कहानी का मूल कथातत्व क्या है। एक सामान्य पाठक की तरह मैंने भी यह कोशिश की। जहां तक मुझे समझ में आया है कि कालान्तर में नायक की स्वेच्छाचारी जीवनशैली के बावजूद इस कहानी में परिवार की केन्द्रीयता है और परिवार में भी पिता की केन्द्रीयता है। कथानायक परिवार के शेष चरित्रों को पिता की मानसप्रतिमा की कसौटी पर कसता है और तद्नुसार उनको अंक प्रदान करता है। बाद में वह इस वैयक्तिक पारिवारिकता से उबर कर कहानी को बृहत्तर सामाजिक उत्तरदायित्वों के फलक पर ले आता है जिसके कारण कहानी में एक के बाद एक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे प्रकट होते हैं।
यह कहानी शहरी मध्यवर्ग की कहानी है हालांकि शहरी मध्यवर्ग एक ऐसा पद है जो शहर की औकात के अनुसार बदलता है। केवल एक उदाहरण के रूप में कहूं तो जो मुम्बई का मध्यवर्ग है वही लखनऊ का मध्यवर्ग नहीं है और जो सुल्तानपुर का मध्यवर्ग है वह मुम्बई के निम्न मध्यमवर्ग से ज्यादा नहीं है। अतः इस हिसाब से अगर मैं इस कहानी की लोकेशन ढूंढ़ने की कोशिश करूं तो यही कहते बनता है कि यह एक छोटे शहर के मध्यवर्गीय परिवार की किसी अपेक्षाकृत बडे़ शहर के विशाल मध्यवर्ग में अपना मुकाम पाने की कोशिश है। कहानी में वर्णित परिवारिक खींचतान भी इसी मुकाम पाने की जद्दोजहद का नतीजा है जिसमें बहुत ही स्वाभाविक तरीके से एक मध्यवर्गीय परिवार का नौजवान जो अविवाहित है और अन्य भाइयों की तरह अभी उसकी कोई अपनी गृहस्थी नहीं है। इसीलिए वह अपने बडे़ भाइयों और भाभियों पर प्रतिकूल टिप्पणी करने में हिचकता नहीं है। वह मानता है कि पिता और परिवार के प्रति उसकी निष्ठा अनन्य है चूंकि वह यह नहीं समझ पा रहा है ऐसा केवल इस कारण है कि उसकी निष्ठा को कुछ अन्य रिश्तों से होकर नहीं गुजरना है, परन्तु उसकी यह सरल अनुभवहीनता ही उसे एक ऐसी तीव्र भावुकता से सम्पन्न करती है जिससे वह हर व्यक्ति और घटना को शिद्दत से महसूस करने में समर्थ होता है। 
हरी चरण प्रकाश 
            यह कहानी ढेर सारे सुपरिचित परिवारिक वृतान्तों यथा बहनों  की अच्छी शादीभाइयों  की गृहस्थी और मंझले भाई की पत्नी द्वारा स्त्री के संरक्षण के लिए बनाये गये कानूनों  का परिवारघाती दुरुपयोग और पुलिस और न्यायपालिका की कार्यशैली की यथातथ्य रिर्पोट ही रह जाती यदि कथावाचक स्वयं को आत्मान्वेषण के लिए हरी 
  प्रस्तुत नहीं करता। नायक का दिल्ली जाना इस कहानी की भावभूमि में एकाएक ऐसा बदलाव लाता है जो हमें चौकन्ना कर देता है। क्या यह वही कथानायक है? हम पाते हैं कि हमारा नायक वह सब करने के लिये प्रस्तुत है जो उसकी परिवारिक निष्ठा की मुखर उद् घोषणाओं  के प्रतिकूल है। ऐसा करके जाने-अनजाने कभी-कभी वह अपने पिता की संस्कार प्रतिमा से भी विमुख हो जाता है। वह जिगोलो बन जाता है। प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है फ्रांसीसी व्युत्पत्ति के इस शब्द का सटीक हिन्दी अनुवाद सबसे पहले मैंने नागर जी के महत्वपूर्ण सामाजिक  सन्दर्भों  वाले उपन्यास अमृत और विषमें देखा। उन्होंने जिगोलो के लिए शिश्नजीवीशब्द का प्रयोग किया है। इसके अलावा एक जिगोलो चरित्र का उद्घाटन सुरेन्द्रवर्मा के एक सर्वथा विस्मरणीय उपन्यास दो गुलदस्तों के बीचमें हुआ है।
            प्रदीप श्रीवास्तव ने अपनी कहानी में पॉलीटिकली करेक्ट होने की परवाह नहीं की है। मंझली भाभी की कुटिलता और उनके परिवार द्वारा स्त्री की गरिमा के संरक्षण के लिए बनाए गये  कानूनों के भीषण दुरुपयोग का चित्रण करने में उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की है कि उनका यह प्रत्याख्यान नारीविमर्श की लोकप्रिय वाचालताओं से उन्हें दूर कर देता है, परन्तु यहां यह सवाल करने लायक है कि दिल्ली जाने से पहले और दिल्ली जाने के बाद के कथानायक के विचार और व्यापार में इतना अन्तर कैसे निभ पाता है। हमें यहाँ  नैरेटर के विभाजित स्व से साबका पड़ता है जिससे जूझते हुए कहानी कुछ उपाख्यानों  के माध्यम से आगे बढ़ती है। हम पाते हैं कि अनुप्रिया के साथ मझले भाई की लिव-इन व्यवस्था और पिता के प्रति उनकी कथित लापरवाही के कारण नाराज रहने वाला नायक एक अराजक जीवन शैली जिसमें तरह-तरह के नशे और व्यवसायिक रतिक्रीडा है, में लिप्त हो जाता है। हालांकि यहां हमें खुद से भी यह सवाल पूछना होगा कि क्या जरूरी है कि हमारे पात्रों में सदैव एक गणितीय संगति रहे। लोग बदलते हैं और यह कहानी आश्चर्यजनक बदलावों की कहानी है और इस कारण यह सुनिश्चित नायकत्व की अवधारणा पर प्रहार करती है।
            दिल्ली पहुंचने पर इस कहानी का सामाजिक भूदृश्य एकदम से बदल जाता है। परिवार केन्द्रित चिन्ताएं बैकबर्नर पर चली जाती हैं और एक नई सामाजिक स्थिति से हमारा परिचय होता है। इस नए परिदृश्य में एक शिश्नजीवी की क्रीत यौनिकता और परिणामी यौनरोग ही नहीं है बल्कि अराजक भोग-विलास का अतिशय उल्लेख है जिसके कारण कहानी वर्णनाधिक्य का शिकार हो जाती है। इसके बाद लगता है कि कहानीकार कहानी का सामाजिक उद्धार करना चाहता है और एक आख्यानात्मक प्रविधि की तरह शम्पा जी का अवतरण होता है।
            शम्पा के माध्यम से कथावाचक न केवल अकादमिक जगत में व्याप्त  धाँधलिओं  को उजागर करता है वरन् स्वयं की वैयक्तिक-सामाजिक दृष्टि को भी प्रतिमानित करता है। वस्तुतः शम्पा के माध्यम से प्रदीप श्रीवास्तव ने एक आकर्षक और दृढ़ चरित्र की रचना की है जो जिन्दगी को अपनी शर्तों  पर जीने का प्रयास करती है, परन्तु उस प्रयास में स्वच्छन्दता नहीं है वरन् एक चेतन और जुझारू सामाजिक दृष्टि है। शम्पा के माध्यम से समीर उस प्रत्येक अवधारणा को प्रश्नाकुल करता है जो अब तक उसके जीवन का सम्बल रही है। शम्पा के माध्यम से वह पारम्परिक गृहस्थ जीवन के उस विचार और व्यवहार को प्रश्नचिह्नित करता है जिसकी अपेक्षा वह किसी समय दूसरों से करता था। शम्पा की व्यवसायिक नैतिकता निश्चय ही उन प्रोफेसर साहब से श्रेष्ठतर है जो रिसर्च गाइड के रूप में अपना कर्तव्यपालन नहीं करते हैं। निश्चय ही वह उन अनेक लोगों से अधिक प्रतिभावान है जो समझते हैं कि मेधा किसी वर्ण या वर्ग की चेरी है। वह समय को बदलना चाहती है कुछ कर के न कि केवल कुछ कह के। वह समीर को नई आस्था देती है।
            परन्तु उक्त के बावजूद हम यह भी देखते हैं कि समीर के अन्दर एक पैट्रोनाइजिंग सवर्ण हिन्दू भी है जो शम्पा को अपना माउथपीस बना लेता है। दलितों की विश्वदृष्टि जिसमें आरक्षण भी शामिल है, उसका विरोध वह शम्पा के मुख से करता है। इस कलम कौशल के कारण किसी-किसी जगह ऐसा लगता है कि लेखक ने शम्पा के चरित्र का गठन स्वयं अपनी मानसिक और शारीरिक वरीयताओं की सिद्धि के लिए भी किया है।
         
प्रदीप श्रीवास्तव
  
इस कहानी में कहीं कहीं कथावाचक की शारीरिकता के वृतान्तों का आधिपत्य दिखता है जिसके तहत खान-पान और यौनसम्बन्धों का अबाध उल्लेख है। बात-बात में मयनोशी के साथ प्रबल यौनिकता का अनवरत वर्णन है जिसमें अकुष्ठ भोग और कुंठित वासना के क्षण आस-पास डूबते उतराते रहते हैं चाहें पैसे देकर यौनसुख खरीदने वाली रईसजादियां हों या तन-मन प्रिया शम्पा हो। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि दुर्घटना में शम्पा की अचानक मृत्यु के बाद प्रोफेसर आयशा जो मुस्लिम महिलाओं के तलाक के मुद्दे पर काम कर रही थीं के बारे में कथावाचक कहता है कि ‘‘आयशा मेरे इतने करीब थीं कि उनकी गर्म सांसों को मैं महसूस कर रहा था।’’ इस वाक्य की आवश्यकता और आशय दोनों गौरतलब हैं। एक पाठक के रूप में हम इसकी परिहार्यता पर सवाल उठा सकते हैं या साहित्यिक ग्रहणशीलता को नियोजित करते हुए यह भी कह सकते हैं कि भाई यह फ्रायडियन चूक का एक साहित्यिक क्षण है।
            ‘मेरी जनहित याचिकामें मुद्दों की भीड़ जैसी जमा हो गयी है जिसका कारण कदाचित यह है कि प्रदीप अपना सब कुछ इस एक कहानी में लगा देते हैं हालांकि मेरी अपनी विनम्र राय यह है कि इस कारण कहानी कभी-कभी लेखक का एकालाप लगने लगती है। यहां यह जोड़ना आवश्यक है कि मैंने प्रदीप जी की अन्य कहानियां भी पढ़ी हैं और यह सन्तोष की बात है कि उनके पास अनुभवों और अनुभूतियों, सहानुभूतियों और समानुभूतियों की जो जमापूंजी है उनका उपयोग समुचित मितव्ययिता के साथ संग्रह की उन कहानियों में किया गया है। हम जानते ही हैं कि जो एक रचना में छूट जाता है वहीं दूसरी रचना का आधार बनता है।
            प्रदीप जी के पास यथार्थबोध की एक ऐसी पूंजी है जिसमें तरह-तरह के सिक्के संकलित हैं। जिस तरह से दिल्ली प्रवास के समय यह कहानी समीर के लगभग उन सभी उद् घोषित मूल्यों को एक के बाद एक विखंडित करती है जो उनका प्रारम्भिक संबल थे उससे यह स्पष्ट होता है कि उनका लेखकीय स्व चुन-चुन कर उन चुनौतियों को ढूंढता है जो एक लेखक प्राणी के वास्तविक और कल्पित परिवेश का हिस्सा हैं। इस लेखक के पास सटीक भाषा का साहस और कौशल भी है। इस सिलसिले में मैं कहानी के पृष्ठ 84 से एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। यह रात्रि शम्पा और समीर की रात्रि है जो ऐन्द्रिक ग्रहणशीलता से ओत-प्रोत है। यौन-संसर्ग के द्वारा एक स्त्री एक पुरुष  में प्राणप्रतिष्ठा कर रही है, ऐसा   अर्थगुम्फित भाषा-प्रयोग कम ही देखने को मिलता है।
            प्रदीप श्रीवास्तव में स्वयं से संवाद करने की जो चाह और क्षमता है वह भविष्य में उनके लेखन को नये मुकाम पर पहुंचाएगी, ऐसी मेरी आश्वस्ति और शुभकामना है। 
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                                             हरी चरण प्रकाश 
                                          एन -६०३यमुना अपार्टमेन्ट 
                                         रिवर व्यू इन्क्लेव ,सेक्टर ४ 
                                       गोमती नगर एक्सटेंशन ,लखनऊ 
                                          मोबाइल नंबर -०९८३९३११६६१
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