मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

कहानी : उसे अच्छा समझती रही : प्रदीप श्रीवास्तव



  उसे अच्छा समझती रही                            


प्रदीप श्रीवास्तव



मैं मकान का तीसरा फ़्लोर बनवा रहा था। उद्देश्य सिर्फ़ इतना था कि किराएदार रखकर मंथली इनकम और बढ़ाऊँ, क्योंकि दोनों बच्चे जूनियर हाईस्कूल पास कर चुके थे। आगे उनकी पढ़ाई के लिए और ज़्यादा पैसों की ज़रूरत पड़ेगी। मुझे यह बताने में भी कोई संकोच नहीं है कि आजकल के पति पत्नियों की अपेक्षा हम दोनों कुछ नहीं बहुत ही ज़्यादा रोमांटिक मूड के हैं। इस एज में भी बिल्कुल अल्ट्रामॉडर्न न्यूली मैरिड कपल की तरह, और बोल्ड भी। मेरे जो मित्र, रिश्तेदार हमें, हमारी जीवनशैली को जानते हैं, वह कहते हैं कि, "क्या यार तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए हैं, अब इतना रोमांटिक होना अच्छा नहीं है। बच्चों पर ध्यान दो, उनको ज़्यादा समय दो। बच्चे अब समझदार हो गए हैं।"


मैं ऐसे सभी लोगों को आज भी हर बार एक ही जवाब देता हूँ कि, "मैं बच्चों को पूरा समय भी देता हूँ और दुनिया की हर ज़रूरी जानकारियाँ भी। शर्म, संकोच नहीं, उचित ढंग से उन्हें बताता हूँ कि क्या सही है, क्या ग़लत है, कब क्या करना चाहिए और क्यों करना चाहिए। उन्हें भी मैं फ़्री टाइम देता हूँ। हमेशा उनके सिर पर सवार नहीं रहता। आख़िर उन्हें भी तो थोड़ा ऐसा समय चाहिए ना जिसमें वह आज़ादी महसूस कर सकें।"



 

ऑफ़िस में मेरी एक साथी के अलावा, एक भी व्यक्ति मुझे मेरी सोच वाला अभी तक नहीं मिला। मैं बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने का प्रबल पक्षधर आज भी हूँ। यह बात केवल कहता ही नहीं हूँ बल्कि अपने बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से देता भी आ रहा हूँ। मेरी वह साथी भी अपने दोनों बेटों और एक बेटी को मेरी ही तरह शिक्षित कर रही है। इस विषय पर सभी हमारी कटु आलोचना के सिवा और कुछ भी नहीं करते। मेरे यह सभी उग्र आलोचक कहते हैं कि मैं अपने बच्चों को भ्रष्ट बना रहा हूँ। मेरी इस बात को यह सभी अनर्गल प्रलाप मानते हैं कि, "यदि बच्चों को शुरू से ही सेक्स एजुकेशन दी जाए तो आगे चलकर वह तमाम हेल्थ रिलेटेड बीमारियों से बचे रहेंगे। बच्चों को इस तरह एजुकेट करके हम समाज से सेक्सुअल क्राइम्स बहुत कम कर सकते हैं।" यह आलोचक तीखे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि, "आप और आपकी पत्नी बहुत ही ज़्यादा खुले स्वभाव के हैं, इसलिए अपने आसपास का माहौल ऐसा बनाना चाहते हैं, जो आपके अनुकूल हो।"


यह बात मुझे बड़ी मूर्खतापूर्ण, सतही लगती है, जब कई स्वयंभू विद्वान मुझे रजनीश के सिद्धांतों से प्रभावित बताने लगते हैं। मेरी इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते कि, "मैंने ना रजनीश को कभी पढ़ा है, ना सुना है, तो उनकी किसी बात का मुझ पर प्रभाव कैसे पड़ सकता है।" मगर स्वयंभू विद्वानों की यह मंडली यक़ीन ही नहीं करती। एक विद्वान जी तो एक बार बड़ी गर्मागर्म बहस पर उतर आए। रजनीश की एक पुस्तक, "संभोग से समाधि की ओर" का ज़िक्र करते हुए कहा, "आपने यह किताब पूरी पढ़ी ही नहीं है, बल्कि घोंटकर पी डाली है और उसमें लिखी बातों का ही पूरी तरह पालन कर रहे हैं।"


मैंने कहा, "आप बड़ी बेतुकी बातें कर रहें हैं। मैं इस किताब के बारे में सुन भी आपके मुँह से रहा हूँ कि इस तरह की उन्होंने कोई किताब लिखी भी है। हाँ, आप जिस तरह से उस किताब की डिटेल्स बता रहे हैं, उससे यह बात बिल्कुल साफ़ है कि मैंने नहीं, आपने उस किताब को घोंटकर पी लिया है। आपके बताने के अंदाज़ से लग रहा है कि आपने एक बार नहीं उसे बार-बार पढ़ा है।"



 

मकान बनवाने के लिए जब लोन की अप्लीकेशन दी तो इन्हीं विद्वान से जल्दी करने के लिए कहा। तब इन्होंने पूछा, "कुल चार लोग हो, दो फ़्लोर बने हुए हैं, फिर तीसरा क्या करोगे?" मैंने कहा, "एक फ़्लोर में हम दोनों पति पत्नी रहेंगे। दूसरे में दोनों बच्चे और तीसरा फ़्लोर किराए पर दूँगा।" उन्होंने कहा, "जब किराए पर ही देना है तो दो फ़्लोर दो। तुम्हारा बड़ा मकान है। एक ही फ़्लोर में तुम्हारा पूरा परिवार रह सकता है।" मैंने उन्हें चिढ़ाने के लिए कहा, "रह सकता है। लेकिन मेरे परिवार जैसा परिवार नहीं। देखिए, मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो बच्चे ज़रा सा बड़े हो गए तो ख़ुद को बुज़ुर्ग मानकर बस जैसे-तैसे ज़िंदगी काटने लगते हैं। हम ना अपनी आज़ादी में बाधा चाहते हैं, ना उनकी में बनना चाहते हैं। इसलिए अलग-अलग ही सही है।"


मेरी इस बात पर उन्होंने कुछ ऐसी बात कही जो मुझे अपनी पर्सनल लाइफ़ में उनका अनाधिकृत हस्तक्षेप लगा, अपमान की हद तक। तो मैंने भी उन्हें कुएँ का मेंढक सहित कई और तीखी बातें कहते हुए हिसाब बराबर कर लिया। हालाँकि बाद में यह पछतावा हुआ कि जो भी हो, वह उम्र में मुझसे बड़े हैं, मुझे उनको अपमानित नहीं करना चाहिए था। यह समझ कर चुप रहना चाहिए था कि यह उनके विचार हैं। यह ज़रूरी नहीं कि सभी मेरे सुर में सुर मिलाएँ।


जैसे-जैसे तीसरा फ़्लोर बनता जा रहा था मुझे वैसे-वैसे इन सब की बातें यादें आतीं। लगता कि जैसे कानों में गूँज रही हैं। लोन अप्रूव करने वाले विद्वान अकाउंट ऑफ़िसर की यह बात ज़्यादा कि, "तुम अपने घर को वेस्टर्न कंट्रीज़ के लोगों की तरह अनैतिक कर्मों का घर बना चुके हो। दैहिक भोग ही तुम्हारा आचार-विचार, लक्ष्य है।" उनकी इस बात पर मैं उनके विशाल माथे पर लगे चंदन रोली के बड़े से तिलक को बड़ी देर तक घूरता रहा तो उन्होंने कहा, "आप अभी इस पवित्र तिलक को पाखंड आडंबर कहेंगे। लेकिन इसके वैज्ञानिक महत्व को जानकर भोगवादी संस्कृति या परम भोग से ऊबे, खिन्न पगलाए लोग जीवन की शांति, शीतलता ढूँढ़ रहे हैं इसी चंदन तिलक वाली सनातन संस्कृति में।


पिछले कुंभ में देखा नहीं कि कितनी कंपनियों के उच्च पदस्थ अधिकारियों ने करोड़ों रुपए मंथली सैलरी वाली नौकरी, बहुत हाई-फ़ाई जीवनशैली को छद्म, भुलावा, भटकाव माना, समझा और उसे छोड़कर वास्तविक सुख, शांति पाने के लिए इसी तिलक की शीतलता की छाया में आ गए। और आप उल्टा जा रहे हैं। एक छल-कपट छद्मावरण वाली दुनिया में। जहाँ की भोगाग्नि आख़िर में जलाती ही है, बस।" यह कह कर उन्होंने तिलक की महत्ता को बताने वाला यह श्लोक भी बताया, "स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृ कर्म चः। त्त्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं बिना।।"


मिस्त्री की कन्नी-बसुली की कट-कट की आवाज़ की तरह उनकी बातें मेरे दिमाग में दिन पर दिन ज़्यादा चोट करती जा रही थीं। मैं अजीब सा चिड़चिड़ा होता चला जा रहा था। बेवज़ह पत्नी-बच्चों, मज़दूरों पर उखड़ने लगा। मकान बनवाने के लिए मैंने एक महीने की मेडिकल लीव ले रखी थी। मगर एक बड़ी अजीब बात भी हो रही थी कि जहाँ हर किसी को देख कर मुझे ग़ुस्सा आता था। वहीं घर में काम कर रहे एक क़रीब चालीस वर्षीय मज़बूत कद-काठी वाले मज़दूर पर मुझे ना जाने क्यों बड़ी दया आती। वह मुझे बहुत प्रभावित करता। काम बंद होने पर जब वह चला जाता तो मैं सोचता आख़िर यह मुझे इतना क्यों प्रभावित कर रहा है? मुझे इस पर दया क्यों आती है? इसमें कोई शक नहीं कि तिलक वाले अकाउंटेंट की बातों के कारण मैं अजीब से वहम में पड़ गया हूँ। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि उनकी बातों और मज़दूर में कुछ सम्बन्ध है। यह क्यों मुझे एकदम अलग दिख रहा है? मैं देखता कि वह एकदम गूँगे की तरह मुँह सिले दो-तीन मज़दूरों के बराबर अकेले ही जी-तोड़ काम करता रहता है। एक मिनट भी रुकता नहीं।



 

लंच टाइम में सारे मिस्त्री, मज़दूर खाना खाने चले जाते हैं। आधे घंटे को कह कर निकलते हैं, लेकिन लौटते हैं एक घंटे में। हँसते-बोलते, बीड़ी-तंबाकू, पान-मसाला खाते-पीते। लेकिन यह ऊपर छत पर एक कोने में बैठकर पाँच मिनट में न जाने क्या खा-पीकर तुरंत मुँह में सुरती दबाता है और काम में जुट जाता है। जब-तक सब आते हैं तब-तक यह बहुत सारा काम पूरा कर डालता है।



मैं बड़ी सोच में पड़ गया कि वह आख़िर ऐसा क्या लाता है अंगौछे में जो पलक झपकते खाकर पानी पी लेता है। अगले दिन मैं उसके पास पहुँच गया कि देखूँ क्या लाता है? मुझे देखकर वह अचकचा गया। बहुत संकोच के साथ दिखाया। अंगौछे में छः-सात मोटी-मोटी रोटियाँ थीं। सब्ज़ी-दाल, चटनी-वटनी, प्याज-मिर्चा वग़ैरह कुछ भी नहीं था। मेरा मन बड़ा द्रवित हो गया। मैंने पूछा, "कैसे खाओगे भाई?" उसने तुरंत एक पुड़िया खोल कर दिखाई। बिल्कुल सादा सा नमक था। कहा, "ये है ना बाबू जी। इसी से खा लूँगा।"


मैंने आश्चर्य से देखते हुए कहा, "ये रूखा-सूखा कैसे खाओगे? तुम दो मिनट रुको, सब्ज़ी-दाल कुछ मँगवाता हूँ।" मैं मिसेज को आवाज़ देने ही जा रहा था कि उसने हाथ जोड़कर मना कर दिया। मैंने फिर दोहराया कि रूखा है तो उसने पानी की बोतल दिखाते हुए कहा, "नहीं साहब ये पानी है ना।" मैं आश्चर्य से उसे कुछ देर देखता रह गया। फिर वहाँ से हट गया कि वह निसंकोच होकर खाना खाए। यह सोचते हुए मैं नीचे चला आया कि बड़ा स्वाभिमानी और संकोची है। हो सकता है कि सवेरे-सवेरे कुछ बना ना पाया हो।


अगले दिन मैं अपने को फिर नहीं रोक पाया। देखा तो फिर वही नमक रोटी। मुझे बड़ी दया आई। मैंने फिर सब्ज़ी-दाल की बात उठाई तो उसने हाथ जोड़ लिया। मगर तीसरे दिन मुझसे नहीं रहा गया। जब वह खा-पी चुका, तो मैं उसी के पास ईंटों के ढेर पर बैठकर उससे बात करने लगा। बड़ी मुश्किल से वह सहज हुआ और खुल कर बोलना शुरू किया। मैंने उसे सिगरेट भी पिलाई जिससे कोई हिचक ही ना रहे। वह ले नहीं रहा था, बहुत कहने पर पीने लगा।


जिस अंदाज़ में उसने सिगरेट पी उससे मुझे विश्वास हो गया कि वह इन चीज़ों का शौक़ीन है। जब मुझे लगा कि वह बातचीत में अब पूरी तरह ट्रैक पर आ चुका है तो उससे पूछा कि, "तुम डेली साढ़े चार सौ रुपये कमाते हो, रोटी के साथ दाल या सब्ज़ी वग़ैरह भी तो ला ही सकते हो। गेहूँ के आटे की रोटी के अलावा और कुछ ना खाने से तो तुम्हारा स्वास्थ्य जल्दी ख़राब हो जाएगा। गेहूँ के आटे में ग्लूटन नामक पदार्थ बहुत होता है, जो आँतों के लिए किसी भी सूरत में अच्छा नहीं है। ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या बात है?" मेरी इस बात को वह टालने लगा। मगर उसके चेहरे पर जिस तरह के भाव आए-गए। दुख-पीड़ा की जो गहरी लकीरें चेहरे पर उभरीं, उससे मैं समझ गया कि कुछ ना कुछ तो बहुत बड़ी बात है, जो इसे बहुत कष्ट दे रही है।


मैं उससे और ज़्यादा अपनत्व के साथ बात करने लगा। कहा, "देखो कोई आपत्ति न हो तो जो भी समस्या है बताओ। मैं तुम्हारी मदद करूँगा।" मेरी बड़ी कोशिश के बाद उसने जो बताया उन बातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं हतप्रभ होकर बार-बार उसे देखता। मेरे मन में तुरंत जो बात आई वह यह कि इसे तुरंत घर से बाहर कर देना चाहिए। इसे घर के अंदर रखना मूर्खता है। ऐसे आदमी का क्या ठिकाना कि वही सारे काम ना दोहराए जो यह कर चुका है। लेकिन उसकी बेबसी, विनम्रता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह विश्वास करने में समय नहीं लगा कि वह अपने सारे ग़लत कामों के लिए सच में अपने को पश्चाताप की अग्नि में तपा रहा है। ख़ुद को शुद्ध कर रहा है। औरों की तरह उसे भी ख़ुद को शुद्ध करने का अधिकार है।



 

यह भी हम सभी की तरह इंसान है। हर इंसान से ग़लतियाँ होती हैं। जो ग़लतियों को स्वीकार ले, पश्चाताप कर ले, वह फिर से भला इंसान हो सकता है, और यह भला इंसान बनने में ही लगा हुआ है। इसे अगर मैंने धिक्कारा, ग़ुस्सा हुआ, भगाया तो कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिर पुराने रास्ते पर लौट जाए। उसने जब बताना शुरू किया तो ना हिचकिचाया, ना रुका।


बड़े भावुक स्वर में उसने बताया कि, "जब मैं इंटर के एग्ज़ाम का आख़िरी पेपर देकर लौटा तो देखा कि मेरे घर के सामने भीड़ लगी है। पुलिस वाले भी हैं। मैं घबराया, दौड़कर पहुँचा तो मालूम हुआ कि बाबूजी ने पंखे से लटक कर जान दे दी है। उनके कपड़े से मिली एक पर्ची में लिखा था कि वह अपनी ज़िंदगी से ऊब कर जान दे रहे हैं। किसी को परेशान ना किया जाए। ना ही पोस्टमार्टम किया जाए।


“उनके मरने के कुछ महीने बाद बहनों से मुझे पता चला कि उस दिन रात में अम्मा बाबूजी के बीच पहले ही की तरह झगड़ा हुआ था। बाबू ट्रक ड्राइवर थे। उनकी आधी कमाई शराब और औरतबाज़ी में ख़र्च हो जाती थी। इससे घर चलाने के लिए अम्मा को भी काम करना पड़ता था। वह मना करती थीं कि, ’ऐसे पैसा बर्बाद करना, शरीर बर्बाद करना ठीक नहीं है। ना जाने किन-किन औरतों के पास जाते हो। कौन-कौन सी बीमारी इकट्ठा किए मेरे पास आते हो।’ दोनों के बीच झगड़े की हर बार यही वज़ह होती थी। अम्मा कहतीं, ’बच्चों के सामने यह सब बोलते हो, कितना ख़राब लगता है। कितना बुरा असर पड़ रहा है उन सब पर। सब मोबाइल ज़माने के हैं। हम सबसे ज़्यादा जानते, समझते हैं।’ अम्मा लड़कियों का वास्ता देतीं लेकिन बाबूजी पर कोई असर नहीं होता। इस मनबढ़ई के कारण आख़िर नशे की हालत में ही परिवार को अकेला भरे जंगल में छोड़कर चले गए।


“अकेले घर चलाना अम्मा के लिए बहुत मुश्किल हो गया, इतना कि हम भाई-बहनों की पढ़ाई अंततः बंद हो गई। घर किसी तरह चल सके इसके लिए मैं नौकरी ढूँढ़ने लगा। लेकिन बहुत ढूँढ़ने पर भी मुझे नौकरी नहीं मिली। घर का ख़र्च चलना छोड़िए, उसका हिलना-डुलना भी मुश्किल होने लगा। तो मैं मज़दूरी करने लगा। एक बड़े अधिकारी का मकान बन रहा था। जैसे आप ऊपर बनवा रहे हैं, उसी तरह वह भी बनवा रहे थे। सवेरे-सवेरे ही काम शुरू करवा कर चले जाते थे। दिनभर मैडम सब कुछ देखती थीं। उनकी जैसी हँसमुख, मिलनसार, दयालु औरत मैंने आज तक दूसरी नहीं देखी। उनके जैसे ही प्यारे-प्यारे उनके दो बच्चे थे। जो सवेरे ही स्कूल चले जाते थे। मैं वहीं मज़दूरी कर रहा था। मेरे काम से वह बहुत ख़ुश थीं। एक दिन लंच के समय मेरा खाना देखकर बोलीं, ’तुम कल से खाना लेकर नहीं आना। यहीं खा लिया करना।’ शुरू में मेरा मन बिल्कुल नहीं था। लेकिन जब उन्होंने ज़्यादा कहा तो मैं मान गया।


मुझे चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब वही मिलता था, जो वह अपने लिए बनाती थीं। मैं भी बड़ा ख़ुश रहता, अहसान मानता और जी-तोड़कर खूब काम करता। काम धीमी रफ़्तार से, बड़े आराम से हो रहा था क्योंकि साहब ने एक मिस्त्री और एक ही लेबर काम पर लगाया था। मैडम ऐसे काम देख रही थीं, करवा रहीं थीं जैसे कि वह कोई मनोरंजन का काम है। एक दिन मैं दोपहर में हाथ-मुँह धोकर खाने के लिए सीमेंट वाली एक बोरी बिछा कर बैठ गया। मैडम मुझे खाना देने लगीं, बड़े प्यार से। ऐसा लग रहा था जैसे घर के किसी सदस्य को ही खिला रही हैं। बस उसी समय मुझ पर न जाने कौन सा साढ़ेसाती सनीचर सवार हो गया कि मैं उन्हें..., अब क्या बताएँ साहब, मुझे ऐसे कुछ नहीं देखना चाहिए था। मगर जब साढ़ेसाती सनीचर सवार हो तो कुछ नहीं हो सकता। मैं उसी समय उन पर हमला करने वाला था, लेकिन आख़िरी क्षण में ठहर गया। तब मैं समझ नहीं पाया था कि मैडम ने मेरी हरकत पकड़ ली है कि नहीं। वह कुल तीन बार खाने की चीज़ें परोसने आईं। मैं तीनों बार अपने को बड़ी मुश्किल से सँभाल पाया।


“उन्हें बरमुडा, टी-शर्ट में देखते ही ना जाने क्यों सनीचर मेरे सिर पर तांडव करने लगता था। ऐसा नहीं है कि वह कोई पहली बार उन कपड़ों में सामने आई थीं। मुझे महीना भर हो रहा था वहाँ काम करते-करते। दर्जनों बार वह छोटे कपड़ों में आईं। पूरा घर साहब, बेटी, बेटा सभी बड़े छोटे-छोटे कपड़ों में रहते थे। लेकिन तब सनीचर मेरे सिर पर तांडव नहीं करता था। कहने को भी नहीं। मगर उस दिन पता नहीं क्यों? उसी समय उन पर हमला करने से इसलिए भी ख़ुद को रोक पाया क्योंकि मिस्त्री के आने का डर था। खाना खाने के बाद मैं काम तो करता रहा, लेकिन मन में मैडम ही चलती रहीं। बराबर वह आँखों के सामने ही बनी रहीं। मन करता कि सारा काम-धाम छोड़कर उनके पास पहुँच जाऊँ।


“साहब मेरा पागलपन देखिए कि क़रीब तीन बजे मैं नीचे चला ही गया। हमला करने की तय करके। मुझ पर जैसे भूत सवार हो गया था। यह भी भूल गया कि घर में मिस्त्री भी है। मैं निश्चिंत पहले कमरे में पहुँचा। वह नहीं मिलीं, तो मैं लॉबी, फिर एक कमरा और पार करके बेडरूम तक चला गया। मगर मैडम वहाँ भी नहीं दिखीं। तभी मेरी नज़र सामने अलमारी पर पड़ी, जिसका दरवाज़ा बंद था। लेकिन चाबी उसी में लटकी हुई थी। मैंने एक चौकन्नी नज़र हर तरफ़ डाली। मुझे बेड पर तकिए के पास दो हज़ार और पाँच सौ की कई गड्डियाँ पड़ी हुई दिखीं। मैं ख़ुद को रोक नहीं पाया। गड्डियों को झपट कर पैंट की जेब में रख लिया। तभी कुछ आहट सुनकर वापस चल दिया। लॉबी में पहुँचा ही था कि मैडम दिख गईं। कोरियर से कोई सामान आया था। वह उसी के दो डिब्बे लिए चली आ रही थीं।



 

“मुझे वहाँ देखते ही हैरान होते हुए पूछा, ’तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’ उनको देखते ही मैं हकबका गया। एकदम सफ़ेद झूठ बोलते हुए जल्दी से कहा, ’जी, वह पानी माँगने आया था। ऊपर धूप बहुत तेज़ है।’ वह कुछ देर मुझे देखने के बाद बोलीं, ’ठीक है, तुम बाहर रुको। ला रही हूँ पानी।’ मैंने देखा कि मैडम का मूड उखड़ चुका है। कहाँ तो मैं हमला करने गया था, लेकिन उन्हें देखते ही घबरा गया। शायद नोट चोरी कर लिए थे इसलिए मैं उन पर हमला करने की हिम्मत नहीं कर सका। मैडम ने कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पानी पकड़ा दिया। मुझे साफ़-साफ़ ग़ुस्से में दिख रही थीं। पानी लेकर मैं ऊपर चल दिया। मेरे पैर काँप रहे थे। सही दिशा में नहीं पड़ रहे थे। अगर मैंने रुपए ना चुराए होते तो मैं निश्चित ही हमला कर चुका होता। चोरी करते हुए पकड़े जाने में बस कुछ ही सेकेंड का फ़र्क रह गया था। शायद इस बात ने मुझे अचानक ही बड़ा कमज़ोर बना दिया था। मैं सारा ज़ोर लगाकर भी अपने पैरों को थरथराने से रोक नहीं पा रहा था।"


उसकी यह बात सुनकर मैंने कहा, "बड़ी अजीब बात बता रहे हो तुम। जो आदमी रेप जैसा भयानक अपराध करने जा रहा हो चोरी तो उसके सामने कुछ है नहीं। फिर वह तुम्हें अकेली मिल भी गईं थीं।" मेरी इस बात पर वह बड़ी खिन्नता के साथ बोला, "साहब यही तो आज तक मैं भी नहीं समझ पाया कि उस समय मैं घबरा क्यों गया? मेरे पैरों की थरथराहट तब बंद हुई जब मिस्त्री की नज़र बचाकर मैंने नोट छत पर ही पड़ी मौरंग, बालू के ढेर में छिपा दिया। उसी पर कई ईंटें रख दीं। तब जाकर मैं निश्चिंत हो पाया कि अब मैं चोरी में नहीं पकड़ा जाऊँगा। शक के आधार पर पुलिस पकड़ेगी तो मिस्त्री भी धरा जाएगा। मगर रुपए कोई नहीं ढूँढ़ पाएगा।


“मुझे यक़ीन था कि मैडम बस रुपए की चोरी पकड़ने ही वाली हैं। अब कुछ ही देर में आफ़त आने वाली है। लेकिन कुछ समय बीत जाने के बाद भी जब आफ़त नहीं आई तो मेरे सिर पर फिर सनीचर तांडव करने लगा। मेरे क़दम नीचे की ओर बढ़ने लगे। मगर तभी नीचे से बच्चों की आवाज़ आने लगी। मतलब कि बच्चे स्कूल से वापस आ गए थे। मगर मेरे मन में धधक रही आग शांत नहीं हुई। तुरंत ही अगला प्लान बना लिया कि मिस्त्री पाँच बजे चला जाएगा और उसी समय बच्चे भी कोचिंग चले जाएँगे। साहब सात बजे से पहले आते ही नहीं। इससे अच्छा समय और कोई नहीं होगा। मैं भीतर ही भीतर ख़ुश हो रहा था कि बस कुछ ही समय बाद मैं अपने मन का कर लूँगा। कोई मुझे पकड़ भी नहीं पाएगा।


“मिस्त्री और बच्चों के जाने के बाद मैंने अपनी योजनानुसार सब कुछ किया। रोज़ मिस्त्री के जाने के बाद मैं घंटे भर और रुक कर काम समेटता था। उस दिन सब के जाने के बाद मैं आधे घंटे भी ख़ुद को रोक नहीं पाया। नीचे पहुँच कर लॉबी में ही मैडम को पकड़ लिया। मेरे हाथ में मिस्त्री की बसुली थी। अचानक मेरे इस भयानक रूप को देखकर मैडम सकते में आ गईं। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। लगा जैसे कि बेहोश हो जाएँगी। मेरे सिर पर सनीचर भयानक रूप से नाच रहा था। मैं बड़ी फ़ुर्ती के साथ उन्हें खींचते हुए सबसे पीछे कमरे में ले गया।


“पीछे कमरे में पहुँचते ही वह बेहोश हो गईं। अच्छी-ख़ासी मज़बूत जिस्म की थीं, लेकिन इतनी कमज़ोर! मैंने इत्मिनान से पूरी क्रूरता के साथ अपने मन का काम किया। मैडम के कपड़े उन्हीं पर फेंके। अपने कपड़े पहने, आराम से ऊपर जाकर पैसे लिए और भाग निकला। मुझे पूरा यक़ीन था कि मैडम होश में तभी आएँगी जब बच्चे, साहब आकर पानी-वानी छिड़क कर लाएँगे। मैं वहाँ से जितनी तेज़ साइकिल से भाग सकता था, उतनी तेज़ भागा। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि जाऊँ कहाँ? मुझे अब डर लगने लगा कि पुलिस पकड़ते ही हाथ-पैर तोड़ देगी। मैं हाँफता-भागता बस स्टेशन पहुँचा। जो बस जाती दिखी उसी में टिकट लेकर बैठ गया। वह रुद्रपुर जा रही थी। डर के मारे साइकिल स्टेशन के गेट पर ही छोड़ दी, जैसे कि मेरी है ही नहीं। अब मेरे पैर फिर काँप रहे थे। देर रात बस किच्छा पहुँची। लेकिन वहाँ ख़राब हो गई। फिर दूसरी बस यात्रियों को रुद्रपुर ले गई।"


उसकी बातें सुन-सुन कर मैं हतप्रभ हो रहा था। मन में कई बार आया कि कहीं यह मनगढ़ंत क़िस्सा तो नहीं सुना रहा है। उसे बीच में ही रोकते हुए पूछा, "यह बताओ तुम डकैती, रेप जैसा इतना गंदा, भयानक कांड करके भागे और आज तक पकड़े नहीं गए।" असल में उसकी दरिंदगी सुनकर मैं ग़ुस्से में आ गया था। मैंने तय किया कि इस भगोड़े को पुलिस को देकर इसे इसके कुकर्मों की सख़्त सज़ा ज़रूर दिलवाऊँगा। ये है तो ज़रूर ताक़तवर लेकिन इतना भी नहीं कि मैं रोक ना पाऊँ। अव्वल तो जब पुलिस इसकी खोपड़ी पर सवार हो जाएगी तब इसे पता चलेगा। इसे बातों में उलझा कर चुपचाप एक सौ बारह डायल करता हूँ। लेकिन आगे उसने जो बताया उससे मेरी योजना धरी की धरी रह गई।


उसने कहा, "पकड़ा गया। असल में साहब ने आते ही पुलिस बुला ली। आप तो जानते ही हैं कि आज कल हर जगह कैमरे लगे हैं। कैमरे से उन्हें सब पता चल गया। मोबाइल ने लोकेशन बता दी। रूद्रपुर पहुँचने से पहले ही पुलिए ने बस रुकवा कर उतार लिया। वापस ले आई और फिर गाली, लाठी, बेल्ट, जूता से ख़ूब मारा-तोड़ा। जो रुपये थे रास्ते में ही पुलिस की जेबों में ग़ायब हो गए। बताया गया कि मेरे पास रुपये बरामद ही नहीं हुए। मुझसे यही कहलवाया। दस साल की सज़ा काटी। घर पहुँचा तो एक और बड़ी अजीब कठोर सज़ा मुझे मिली। सच कहूँ तो अदालत और घर से भी बड़ी सज़ा मुझे मैडम और साहब ने दी। ऐसी सज़ा दी है कि मैं अंतिम साँस तक भुगतता रहूँगा। लेकिन तब भी सज़ा ख़त्म नहीं होगी।" उसकी इन बातों से मैं बड़ा कंफ्यूज़ हो गया कि यह क्या कह रहा है। मेरे मन में उसके लिए घृणा बढ़ती जा रही थी। उससे बात करने का मेरा टोन बदलता चला जा रहा था। मैंने नफ़रत से कहा, "साफ़-साफ़ बताओ ना सारी बात।" 



 


"साहब बात यह है कि मैं जेल पहुँच गया तो शुरू-शुरू में कुछ महीने मैं बहुत ही ज़्यादा परेशान रहा।


“मैं देखता कि बड़े-बड़े अपराधियों के घर के लोग भी उनसे मिलने आते हैं। कई-कई हत्याओं के हत्यारों से भी। लेकिन मुझसे मिलने कोई नहीं आता। शुरू में मैंने सोचा कि अभी सब कुछ नया-नया है, इसलिए सब ग़ुस्सा होंगे। इसीलिए नहीं आ रहे हैं। समय के साथ जब ग़ुस्सा ख़त्म हो जाएगा, तो सब आएँगे। अम्मा भी आएँगी, बहनें भी आएँगी। लेकिन दिन, महीना, साल देखते-देखते दस साल बीत गए। अम्मा कैसी हैं? बहनें कैसी हैं? घर कैसे चल रहा है? मुझे इन दस सालों में कुछ भी नहीं पता था। एक तरह से दोहरी सज़ा काट रहा था। कोई नहीं आया मेरे पास, किसी तरह की कोई सूचना नहीं थी। मैं पूरी-पूरी रात सो नहीं पाता था। छोटी सी तंग कोठरी में पड़ा तड़फड़ाता रहता था। रात दिन पछताता कि मैंने ये क्या पागलपन कर डाला। एक पागलपन की अब मुझे ना जाने क्या-क्या सज़ा मिलेगी।


“मैंने वह दस साल कैसे काटे, उन दस सालों में कैसी-कैसी पीड़ा से गुज़रा इसका अंदाज़ा कोई मेरी जैसी स्थिति से गुज़रने वाला आदमी ही लगा सकता है।" 


"अच्छा!" 


"हाँ साहब। सही कह रहा हूँ। जिस दिन मैं जेल से छूटा तब वास्तव में दस साल छः महीना बीत चुका था।" 


"क्यों, छः महीने और क्यों?" 


"क्योंकि साहब मेरी बात करने वाला घर का तो कोई आदमी था नहीं। और सरकारी काम-काज तो अपनी मर्ज़ी, अपनी रफ़्तार से चलता है। काग़ज़ी कार्रवाई पूरी होने में छः महीने निकल गए। ख़ैर जेल में रहते जहाँ जल्दी से जल्दी घर पहुँचने के लिए परेशान रहता था, वहीं जब जेल से बाहर क़दम रखा तो बड़े असमंजस में पड़ गया कि घर चलूँ कि नहीं। क्योंकि बाहर क़दम रखते ही मेरे मन में यह बात आई कि जब दस साल किसी ने कुछ ख़बर नहीं ली कि ज़िंदा भी हूँ कि नहीं, दसियों चिट्ठियाँ भेंजी, किसी का पलटकर जवाब तक नहीं मिला तो क्या जाना ऐसे घर में।


“अगर घर होता तो ऐसा व्यवहार कहाँ होता। पहुँचने पर कहीं ऐसा ना हो कि सब पहचानने से ही मना कर दें। कहीं लूटेरा कह कर दरवाज़े से ही फटकार कर ना भगा दें। आख़िर मैंने तय किया कि नहीं जाना ऐसे घर में। घर ने हमें छोड़ दिया है तो हमें भी उसे छोड़ देना चाहिए। फिर मिनट भर में मेरे दिमाग़ में जीवन भर की योजना बन गई कि जेल में जितने पैसे कमाए हैं, उसी से कोई छोटा-मोटा काम-धंधा कर लूँगा और किसी अच्छी-भली लड़की से शादी करके बच्चे पैदा करूँगा। अपना जीवन पटरी पर ले आऊँगा। कोई न कोई लड़की तो मिल ही जाएगी। बाहर अब कौन जानता है कि मैं सज़ायाफ़्ता हूँ। यह सोचकर मैं और तमाम लोगों की तरह मुंबई जाने के लिए चल दिया। डासना जेल से निकलकर यह तय करने तक मुझे तीन घंटे लग गए।


“रेलवे स्टेशन पहुँच कर तत्काल में रिज़र्वेशन करवाना चाहा तो नहीं हुआ। मैं जनरल से ही चलने की सोच कर प्लेटफॉर्म पर ही इंतज़ार करने लगा। क़रीब चार घंटे बाद ट्रेन आई। सामान के नाम पर अब तक मैंने एक बैग, कुछ और ज़रूरी कपड़े ले लिए थे। ट्रेन आई तो वही बैग लिए मैं जनरल बोगी में घुस गया। पूरी बोगी क़रीब-क़रीब भरी हुई थी। हर तरफ़ लोगों का शोरगुल था। जल्दी ही ट्रेन छूटने का समय हो गया। तभी अचानक ही मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरे जेल जाने के बाद घर पर कोई ऐसी आफ़त-विपत्ति आ गई हो कि कोई मुझ तक पहुँचने की सोच ही ना पाया हो। बाबू जी थे नहीं। अम्मा, बहनें ही थीं। कुछ भी हो सकता है। हमें पहले घर चलकर सारी बातें पता करनी ही चाहिए। सब कैसे हैं? कहाँ हैं? ज़िंदा भी हैं कि नहीं।


“तभी ट्रेन सरकने लगी। साहब इसी के साथ मेरे दिमाग़ में धमाका हुआ कि, चल उतर, जल्दी कर, घर पहुँचना है। और साहब मैं बर्थ से उतर कर ऐसे भागा बाहर की तरफ़ जैसे कोई बेटिकट यात्री चेकिंग स्क्वायड को देखकर भागता है। जब नीचे प्लेटफ़ॉर्म पर मेरे क़दम पड़े तो स्पीड इतनी तेज़ थी कि सारी कोशिशों के बावजूद मैं ख़ुद पर काबू नहीं रख सका और आगे एक खम्भे से ज़ोर से टकरा गया। मेरी नाक, माथे पर ज़ोर की चोट आ गई। ख़ून निकलने लगा। जो बैग लिया था वह भागमभाग में ट्रेन में ही छूट गया। उसे उठाने का मेरे पास समय ही नहीं था। अब मैं जल्द से जल्द घर पहुँचने के लिए एकदम बिलबिला उठा। अगले दिन भूखा, प्यासा अपने घर पहुँचा। घर पहुँचने की तड़प में खाने-पीने की भी नहीं सोच सका। ऐसी तड़प के साथ जब घर के सामने पहुँचा तो वह मुझे एकदम उजाड़ मिला। बिल्कुल गंदा, टूटा-फूटा, कूड़ा-करकट से भरा।


“काँपते क़दमों से मैंने घर के अंदर क़दम रखा तो कमरे में अम्मा तखत पर कराहती मिलीं। वह एकदम टीबी की मरीज़ बन चुकी थीं। हड्डियों का ढाँचा भर रह गईं थीं। बाल उलझे हुए थे। धूल में सने हुए लग रहे थे। उनकी और घर की हालत देखकर मेरा कलेजा फट गया। मन किया कि इतना तेज़ चीखूँ कि मेरी अम्मा और घर का सारा दुख उस भयानक चीख में उड़ जाए। मुझे रोम-रोम में इतनी भयानक पीड़ा महसूस हुई कि उतनी पीड़ा मुझे पुलिस की सैकड़ों लाठियाँ, बेल्ट, जूते की मार से भी महसूस नहीं हुई थी।


“मेरे आँसुओं की धारा बह चली थी। तभी इस बात का जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि ख़ून के आँसू यही हैं। मेरे होंठ, ज़ुबान फड़क रहे थे। लेकिन कोई बोल नहीं निकल रहे थे। बहनों की तरफ़ ध्यान गया तो कहीं कोई नहीं दिखी। हर तरफ़ कूड़ा-करकट, धूल, मकड़ी के जाले ही दिखे। पीने का पानी तक नहीं था। मैं फिर अम्मा के पास पहुँचा, उन्हें उठाया, बहुत याद दिलाया तब वह पहचान पाईं और फिर फूट-फूट कर रो पड़ीं। उस तरह, वैसी दर्द भरी रुलाई उनकी तब भी नहीं थी जब बाबू जी ने आत्महत्या कर ली थी। बड़ी देर में चुप करा पाया।



“बार-बार खाँसते-खाँसते उनकी आँखें लाल हो गईं थीं। नल से लाकर उन्हें पानी पिलाया और कहा, ’अम्मा तू आराम कर। मैं जल्दी से कुछ खाना-पीना लेकर आता हूँ।’ लेकिन अम्मा एकदम से फिर रोती हुई मुझे कहीं जाने से रोकने लगीं, जैसे कि मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा। बड़ी देर में समझा-बुझाकर खाना-पीना ला पाया। कुछ खाने के बाद अम्मा की तबीयत जब कुछ सँभली तब उन्होंने रो-रो कर घर की तबाही का पूरा क़िस्सा घंटों में बताया कि कैसे मेरे जेल जाने के बाद हालात तेज़ी से बिगड़ते चले गए। उन्हें दमा हो गया। काम पर जाना मुश्किल हो गया। खाने-पीने के लाले पड़ने लगे।


“दोनों बहनों की बात आने पर अम्मा बड़ी तेज़ बिलख पड़ीं, ऐसा कि देर तक कुछ बोल ही नहीं पाईं। बड़ा दिलासा दिया तब बड़ी ताक़त बटोर कर बताया कि, ’भूख, प्यास सहित मैं हर चीज़ से जूझती रही। इन सबके लिए खटती रही। लेकिन दोनों ने जिस तरह आवारागर्दी की, मेरे मुँह पर कालिख पोत कर चली गईं, उससे मैंने खाट पकड़ ली। पहले बड़ी वाली किसी के साथ भाग गई। महीना भर भी नहीं हुआ कि दूसरी भी किसी के साथ चली गई। कुछ दिन बाद मालूम हुआ कि जिसके साथ छोटी वाली गई थी वह धोखेबाज़ निकला, और उसको वेश्या बाज़ार में बेच दिया।’ अम्मा जितना बतातीं उससे ज़्यादा रोतीं। मैं और दुखी होता। बहनों के बारे में सुनकर मेरे मन में पहली-पहली जो बात आई वह यही थी कि मेरे कुकर्म, मैडम के श्राप के ही कारण यह हुआ है।


“मैं आत्मग्लानि से ऐसा छटपटा उठा कि मन में आया कि बाबू जी की तरह आत्महत्या कर लूँ। मेरे कुकर्मों की सज़ा मौत ही है। मेरे कुकर्म ही के कारण घर ऐसे बर्बाद हुआ। मेरा ही नहीं साहब का भी। मैडम, साहब कहाँ जीवन भर यह चोट भुला पाएँगे। अब वह कहाँ पहले की तरह हँस-बोल पाएँगे, कहाँ जीवन में किसी पर विश्वास कर पाएँगे। लेकिन अम्मा की हालत ने आत्महत्या करने से रोक दिया। मैंने सँभल कर अम्मा के बारे में सोचा कि इनकी सेवा करके प्रायश्चित करूँगा। तबाह बरबाद घर को फिर से बनाऊँ यही सोच कर एक छोटी सी एक दुकान खोली। दाल-रोटी किसी तरह चलने लगी। लेकिन भगवान ने जैसे अम्मा के जीवन में कष्ट ही कष्ट लिखा था। दो महीने बाद ही अम्मा दुनिया छोड़ गईं। मैं हफ़्तों घर के बाहर ही नहीं निकला। पहले से ही किसी तरह खींचतान कर चल रही दुकान बंद रही। सारे ग्राहक टूट गए। जब दुकान फिर से खोली तो वह चल नहीं सकी। सामान थोक में दे जाने वालों का कर्ज़ा था, तो उसे चुकाने में दुकान बिक गई। मैं सड़क पर आ गया।


“मजबूरी में फिर मज़दूरी करने लगा। अब ना कोई आगे है, ना पीछे। मज़दूरी है, मैं हूँ, ज़िंदगी कट रही है। मगर मैडम भुलाए नहीं भूल रही हैं। हर समय एक आँख से मुझे अपना बर्बाद तबाह घर दिखता है तो दूसरी आँख से सीधी-सादी, सरल, भली महिला मैडम। और उन्हें देखकर मैं हमेशा यही समझने की कोशिश करता हूँ कि साहब, मैडम ने क़ानून से कठोर सज़ा क्यों नहीं दिलवाई। उससे भी हज़ार गुना ज़्यादा कठोर सज़ा उन्होंने स्वयं मुझे क्यों दी। यह सज़ा देने की बात उनके दिमाग़ में कैसे आई।"


"यह क्या तुम बार-बार कह रहे हो? मैडम ने तुम्हें कौन सी सज़ा दी। वह भला तुम्हें कौन सी सज़ा दे सकती थीं, जो इतनी कमजोर थीं कि डर कर बेहोश हो गईं।" 


"असल में अपराध तो बाबू जी मैंने रेप का किया था। रुपए की चोरी तो लगे हाथ हो गई थी। लेकिन मैडम, साहब ने रेप की रिपोर्ट लिखवाई ही नहीं थी। डकैती, जानलेवा हमला बस यही रिपोर्ट थी।" 


"क्या?" 


"हाँ साहब। आप भी चौंक गए ना। मैं यही तो सोच-सोच कर, हैरान, परेशान रहता हूँ कि मैडम और साहब ने क्या यही सोच कर मेरी जान बचाई कि मैं सोच-सोच कर जीवन भर तिल-तिल कर मरूँ। अपने तबाह हो चुके घर पर हमेशा आँसू बहाता रहूँ। अपनी बहनों के बर्बाद होने पर रोता रहूँ। अपनी माँ की तिल-तिल कर हुई मौत पर ख़ून के आँसुओं से जीवन भर रक्त स्नान करता रहूँ। अब आप ही बताइए कि यह मौत की सज़ा से भी कठोर सज़ा है कि नहीं।"


उसकी यह बात सुनकर मैं बड़ा खिन्न हो गया। मैंने उससे कहा, "अब पता नहीं कठोर सज़ा है कि नहीं। चलो, अच्छा अब काम करो।" उसकी बातें सुनते-सुनते अब तक मेरा मन बहुत उखड़ चुका था। उसके प्रति घृणा से भर चुका था। मैंने उससे यह नहीं कहा कि रेपिस्ट, गंदे इंसान वह भली औरत, आदमी अपनी इज़्ज़त को लेकर इस सोच के होंगे कि दुनिया इस बात को ना जाने कि उनकी इज़्ज़त लुट गई है। टीआरपी के लिए मीडिया उनके साथ हुई दरिंदगी को हथियार ना बनाए। तुम वह जानवर हो जिसने उसी पर हमला किया जो बड़ा हृदय, मानवता के नाते तुम्हें वही खाना-पीना दे रही थी जो ख़ुद के लिए बनाती थी। तुझे उसने इंसान समझा, लेकिन तू विश्वासघाती, खूँखार जानवर निकला। हाँ उनकी जगह मैं, मेरी पत्नी होती तो हम तुम्हें फाँसी तक पहुँचा कर ही दम लेते। ना मीडिया को हथियार बनाते और ना उनको बनाने देते। तेरी सच्चाई ने मुझे अपने परिवार की जीवन शैली, संस्कार को लेकर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया है।


शाम को जब काम ख़त्म कर मिस्त्री-मज़दूर हाथ-मुँह धोने लगे तो मैंने सब का पूरा-पूरा हिसाब करके कह दिया कि कल से काम बंद रहेगा। सब के मोबाइल नंबर मेरे पास हैं। जब ज़रूरत होगी तो मैं बुला लूँगा। उस रेपिस्ट को मैंने बहुत हिकारत, घृणा से पैसा दिया। उसके नमस्ते का भी जवाब नहीं दिया। उसके चेहरे के भाव मुझे बता रहे थे कि उसने मेरे चेहरे के भाव पढ़ लिए हैं, कि उसके प्रति मुझमें कितनी घृणा भर गई है। आगे मैंने तीन दिन तक काम बंद रखा। घर, बाहर कहीं भी मैं अपने स्वभाव के अनुसार खुलकर हँसी-मज़ाक, बातचीत नहीं कर पा रहा था।


मिसेज ने पूछा तो कह दिया कि थकान महसूस कर रहा हूँ। दो-तीन दिन आराम के बाद फिर शुरू करवाऊँगा। मेरे शांत रहने पर उसने जब ज़्यादा ज़ोर देकर पूछा कि आख़िर बात क्या है? तो मैंने उसे सारी बात बताई। उसने कहा, "मैं भी उसे अच्छा आदमी समझ रही थी। मगर जो भी हो दुनिया को इस मानसिकता से बचाने के बारे में सोचना ही चाहिए। ऐसा समाज, ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें रेप के बारे में सोचने का कोई कारण ही ना बचे। लोग निश्चिंत होकर जैसे चाहें वैसे कपड़े पहनें, रहें, खाएँ-पिएँ।"


जल्दी ही मैंने मकान का अधूरा काम पूरा करवाया। इस दौरान मैंने परिवार को मिनट भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा। हर मज़दूर, कारीगर में मुझे वही गंदा रेपिस्ट नज़र आता। इनको मैं परिवार के सदस्यों के सामने फटकने भी नहीं देता था। बीवी से, अपनी साथी से बहुत बड़ी-बड़ी चर्चा के बाद हमारा निष्कर्ष यह निकला कि जो भी हो हमें अपनी मौलिकता नहीं छोड़नी चाहिए। जो स्वाभाविक है वही सुंदर है। सुरक्षित है। नक़ली कभी सुंदर नहीं हो सकता और ना ही सुरक्षित। इस निष्कर्ष के साथ ही हमने हमारी जीवन शैली में बहुत कुछ परिवर्तन भी किया। और हाँ, तिलक वाले अकाउंटेंट साहब से अब मेरी तीखी बहस नहीं होती।



प्रदीप श्रीवास्तव 

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कहानी : उसे अच्छा समझती रही : प्रदीप श्रीवास्तव 


कहानी :कौन है सब्बू का शत्रु :प्रदीप श्रीवास्तव

                                    


                                      कौन है सब्बू का शत्रु


                                                       प्रदीप श्रीवास्तव

                                                                 


जून का तीसरा सप्ताह चल रहा था। तापमान खूब कुलाँचें भर रहा था। चालीस-ब्यालीस डिग्री को पार कर रहा था। जीवन को महँगाई, गुंडई की तरह त्रस्त किए हुए था। शहर में सड़कों पर सन्नाटा छाया रहता था। लगता जैसे कर्फ़्यू लगा हुआ है। मगर कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो इन सब को पीछे छोड़कर आगे निकलने के लिए विवश कर देती हैं। इसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी यह भी सोचने का अवसर नहीं देतीं। कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते मैं क़रीब तीन बजे झुलसा देने वाली चिलचिलाती धूप में ऑफ़िस से घर के लिए निकला। अपने रिक्शे वाले को फोन करके बुला लिया था। वह कई सालों से मुझे अपनी सेवा दे रहा है। किसी और के पास समय से पहुँचे या ना पहुँचे, ईमानदारी बरते या ना बरते, लेकिन मेरे साथ हमेशा टाइम का पंक्चुअल और ईमानदार रहता है। बीच-बीच में पैसे माँगता रहता है, इसके चलते डेढ़-दो महीने का एडवांस उस पर मेरा हमेशा बना रहता है।


मैं इसी रिक्शे वाले के साथ अपनी परेशानियों से धींगा-मस्ती करता चला जा रहा था, अंबेडकर पार्क, गोमतीनगर, लखनऊ की बगल वाली सड़क से। सैकड़ों एकड़ में बलुआ पत्थर से बना यह स्मारक लखनऊ में नए आकर्षण केंद्रों में एक बन चुका है। इसी स्मारक की बाऊँड्री से सट कर दूर तक चली जा रही सड़क पर मुझे थोड़ा आगे एक आदमी बैठा दिखाई दिया। मन में उत्सुकता हुई कि इतनी प्रचंड गर्मी में, सुलगती सड़क पर यह क्यों बैठा हुआ है? वह एक हाथ इस तरह से आगे फैलाए हुए था कि उसके पास से निकलने वाला व्यक्ति उसे कुछ देता जाए। इतना ही नहीं उसने एक पैर भी अजीब ढंग से आगे बढ़ाया हुआ था। पैर घुटने से आठ-नौ इंच के बाद आगे कटा हुआ था। नीचे बँधी सफ़ेद पट्टी दूर से ही चमक रही थी। रिक्शा जैसे-जैसे क़रीब पहुँच रहा था, तस्वीर और साफ़ होती जा रही थी।



 


कुछ और क़रीब पहुँचने पर उसके बगल में ही मुझे एल्यूमिनियम की दो बैसाखियाँ भी रखी दिखाई दीं। उसकी ऐसी हालत पर मुझे बड़ी दया आयी कि, बेचारा कितनी तकलीफ़ में है। उस पर बालिश्त भर की भी छाया नहीं है। उस समय मैं कंक्रीट के घने जंगल में छाया की बात सोचने की नादानी कर रहा था। जैसे ही रिक्शा उसके सामने पहुँचा, मैंने उसे रुकवा लिया। देखा वह क़रीब पैंतीस-चालीस बरस का आदमी था। धूप ने उसे और काला बना दिया था। दुबला पतला शरीर, आँखें अपेक्षाकृत कुछ नहीं, बहुत ही ज़्यादा बड़ी थीं। नाक बहुत ही भद्दे ढंग से एक तरफ़ मुड़ी हुई थी। उसने बड़ी दयनीय सी एक फ़ुल बाँह की शर्ट पहनी हुई थी। जिसकी बाँहें ऊपर की तरफ़ मुड़ी हुईं थीं। उसकी मटमैले सफ़ेद रंग की लुंगी भी शर्ट की ही तरह दयनीय थी।


मुझे देखते ही वह हाथ ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा। मैंने उससे पूछा, "इतनी तेज़ गर्मी में जलती सड़क पर क्यों बैठे हो? कहीं छाया में क्यों नहीं बैठते? ऐसे तो तुम्हारी तबीयत ख़राब हो जाएगी।" 


मेरी बात का जवाब देने के बजाय वह हाथ हिलाता रहा। मुझे लगा शायद गूँगा-बहरा भी है। अपनी शंका दूर करने के लिए मैंने अपनी बात तेज़ आवाज़ में दोहरा दी। तब वह बोला, "छाया में बैठूँगा तो कोई रुकेगा ही नहीं। छाया में होता तो तुम रुकते क्या?" मुझे उससे ऐसे तीखे जवाब की आशा बिल्कुल नहीं थी। मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह थोड़ा नम्र लहजे में आगे बोला, "बहुत मुश्किल में हूँ बाबूजी, खाने और दवाई का पैसा नहीं है, अपाहिज हूँ, कुछ कर नहीं सकता।" उसकी आवाज़ से मुझे जो दर्द महसूस हुआ, उसने मुझे झकझोर कर रख दिया।



 

मैं एकटक उसे देखता रह गया। उस पर बड़ी दया आ रही थी। मेरा हाथ स्वतः ही जेब में चला गया। मेरे पास उस समय कुल दो नोट थे। एक पचास का और एक सौ का। मैंने पचास की नोट हाथ बढ़ाकर उसके फैले हुए हाथ पर रख दिया। उसने थरथराते हुए हाथों से जल्दी से नोट लेकर अपने माथे पर लगाया और तुरंत बोला, "बाबूजी दवाई के लिए कुछ पैसा दे दो, भगवान आपका भला करेगा।" उसकी आवाज़ में करुणा और प्रगाढ़ हो चुकी थी। सौ के नोट के साथ मेरा हाथ फिर उसके हाथ की तरफ़ बढ़ गया। उसने तुरंत नोट लपक लिया। मुझे एक साँस में न जाने कितनी शुभकामनाएँ दे डालीं। भगवान यह करे, भगवान वह करे। मैं उसे सुनता रहा, देखता रहा, कुछ बोल नहीं पा रहा था। बड़ी तेज़ी से यही सोच रहा था कि कम से कम इसकी दवा की तो व्यवस्था कर ही दूँ। उसके पैर में बँधी पट्टी निचले हिस्से में ख़ून से सनी थी। ख़ून सूख कर काला पड़ चुका था। उसने बताया घाव सही नहीं हो रहा है।


मैंने पूछा इलाज कहाँ से करवा रहे हो, तो उसने एक सरकारी हॉस्पिटल का नाम बता दिया। लगे हाथ यह भी कि हॉस्पिटल से सारी दवाएँ नहीं मिलतीं। मैं बड़ी उलझन में पड़ गया कि क्या करूँ? रिक्शे का हुड उठा हुआ था, लेकिन फिर भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मेरा सिर ही चटक जाएगा। गर्म हवा बिल्कुल झुलसाए डालने पर ही तुली हुई थी। रिक्शे वाले का चेहरा बता रहा था कि वह धूप ही नहीं, मुझ पर भी ग़ुस्से से खौल रहा है कि, एक तो इतनी धूप में बुला लिया, ऊपर से पुण्य करने की नौटंकी में इतनी देर से धूप में उसे बेवज़ह सेंक रहे हैं।


मुझे लगा कि उसके साथ अन्याय हो रहा है। यह सोच कर मैंने भिखारी से कहा, "सुनो अब तुम्हें पैसे मिल गए हैं। तुम्हें जहाँ जाना हो वहाँ चले जाओ। धूप में तुम्हारी हालत बिगड़ जाएगी। या तुम्हें कहाँ जाना है वह बताओ, मैं तुम्हें वहाँ छोड़ दूँ।" 



 


उसका कोई उत्तर आता कि उसके पहले ही रिक्शे वाला झल्ला कर बोला, "अरे बाबूजी, आप कहाँ इस के चक्कर में पड़े हैं। आप कुछ भी कर देंगे यह आपको हमेशा ऐसे ही मिलेगा। आप चलिए ना, आपको धूप बहुत तेज़ लग रही है।" रिक्शे वाले की बातों से मुझे उसकी वास्तविक मनसा समझते देर नहीं लगी कि वह क्या चाहता है।


वह किसी सूरत में यह नहीं चाहता था कि मैं एक सेकेण्ड भी वहाँ पर रुकूँ और सुलगती सड़क पर बैठे उस आदमी को रिक्शे पर बैठा कर ले चलूँ। अपनी बात पूरी करने से पहले ही उसने रिक्शे का हैंडल सीधा किया और पैडल पर दबाव बनाने लगा। मैं समझ गया कि अब यह रुकने वाला नहीं। यह सही भी था कि अब रुका भी नहीं जाना चाहिए था। एक के लिए दूसरे को कष्ट देना किसी दृष्टि से न्याय संगत नहीं था। हमें इसकी मदद करनी है तो मुझे चाहिए कि मैं रुक जाऊँ। यह जाना चाहता है तो इसे जाने दूँ। लेकिन जल्दी मुझे भी थी और धूप में मेरी ख़ुद की हालत भी ख़राब हो रही थी, तीसरे वह सड़क पर से उठकर छाया में चलने को उत्सुक भी नहीं दिख रहा था, तो मैं चल दिया।


चलते-चलते मैं भिखारी से स्वयं को यह कहने से रोक नहीं सका कि, "तुम छाया में चले जाओ, जो मिलना होगा, वहाँ भी मिल जाएगा।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शा वाला आगे बढ़ चुका था। मेरी जेब में अब एक पैसा नहीं था। रिक्शे वाले को पैसा महीना पूरा होने पर देना होता है, इसलिए उसे पैसे देने की चिंता नहीं थी। लेकिन जो सामान लेकर घर जाना था उसे ख़रीदने के लिए मेरे पास कानी कौड़ी भी नहीं थी और सामान लेना बेहद ज़रूरी था। मैं बड़ा परेशान हो गया कि अब घर से पैसा लेकर फिर चार-पाँच किलोमीटर दूर वापस आना पड़ेगा। इस धूप में दोबारा ख़ुद को झुलसाने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है।


मैं यह सोच ही रहा था कि तभी रिक्शे वाला भुनभुनाया, "साहब आपने इसे बेवज़ह इतना पैसा दे दिया। इसका तो रोज़ का ही यही धंधा है। यह आपको कल भी ऐसे ही दिखेगा। रोज़ नई-नई पट्टी बाँधकर ऐसे ही सीधे-साधे लोगों को यह ठगता रहता है।" मैंने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कि यह अपनी खुन्नस निकाल रहा है क्योंकि इसे धूप में रुकना पड़ा। कितना पत्थर हृदय है। उस बेचारे की तकलीफ़ पर इसका दिल ज़रा भी नहीं पसीजा।


अच्छा हुआ मैंने उसे रुपये दे दिए। इसका वश चलता तो यह देने ही नहीं देता। अभी यह और आँखें निकालेगा जब घर से पैसा लेकर वापस आऊँगा सामान लेने। मेरे चुप रहने पर वह फिर बोला, "साहब आप चाहें तो कल इसकी पट्टी खुलवा कर देख लीजिएगा, कहीं कोई घाव-वाव नहीं है।" 


इस बार मैं अपने ग़ुस्से को रोक नहीं पाया। मैंने कहा, "होगा भाई, मान लो उसके पैर में कोई घाव नहीं है, वह धोखा दे रहा है। लेकिन यह तो सच है ना कि उसका पैर कटा हुआ है। बिना बैसाखी के तो वह चल नहीं सकता ना। तो वह काम क्या करेगा? डेढ़ सौ रुपए में एकाध दिन तो उसके खाने-पीने की व्यवस्था हो ही जाएगी।" 


"साहब खाना-पीना नहीं, यह इन पैसों से गांजा, स्मैक पिएगा। ये बहुत बड़ा खिलाड़ी है। इसको हम लोग दिनभर यहाँ से लेकर बादशाह नगर, मुंशी पुलिया, टेढ़ी पुलिया तक देखते रहते हैं। पुलिस वालों का पक्का जासूस है। आपने ध्यान नहीं दिया वह अभी भी गांजा पिए हुए है।"



 

मुझे लगा कि यह कुछ ज़्यादा ही बकवास कर रहा है। कल कुछ पैसे माँग रहा था, तंगी के चलते नहीं दिया और करुणावश इस भिखारी को दे दिया तो उसके लिए इतना ज़हर बोल रहा है। मैंने ग़ुस्सा होकर कहा, "तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे सारे समय इसी के साथ रहते हो। सब देखते हो, तुम्हें इससे इतनी ज़्यादा घृणा क्यों हो गई है?" 


इस बार मेरा लहजा थोड़ा सख़्त था तो वह तुरंत ही नम्र होता हुआ बोला, "नहीं, नहीं साहब, ऐसी बात नहीं है। आप ग़ुस्सा ना हों। हमारी बात पर यक़ीन करें। कल मैं आपको ख़ुद ही ले चलूँगा, देख लीजिएगा हमारी बात सच ना निकले तो कहिएगा।"



 इस बार मैंने कुछ संयम से बोलते हुए कहा, "मुझे कुछ नहीं देखना। वह सच्चा, झूठा, मक्कार जो भी है मुझे इसकी परवाह नहीं। मुझे जो करना था वह मैंने कर दिया, बस।" असल में अब मुझे उसकी बातों पर यक़ीन होना शुरू हो गया था। मैंने सोचा, जो भी हो कल अगर मिल गया तो सच ज़रूर मालूम करूँगा।


रिक्शे वाला ऐसा न महसूस करे कि उसके साथ अन्याय हुआ, धूप में कड़ी मेहनत की तकलीफ़ उसे ज़्यादा प्रगाढ़ ना लगे। इसलिए जब दोबारा सामान लेकर घर पहुँचा, तो उसे पचास रुपये दे दिए। हालाँकि मुझे लगा कि धूप में उसने जितना रिक्शा चलाया उस हिसाब से उसे कम से कम सौ रुपये देना ही ठीक होता। लेकिन उस समय मेरी जो स्थिति थी उस हिसाब से तो दोनों ही को मेरा एक पैसा भी देना मूर्खता थी, जो मैंने की। एक रुपया नहीं पूरे दो सौ रुपये दिये। रात में सोते वक़्त भी मेरे दिमाग़ में यह बात बनी रही कि कल सच ज़रूर जानूँगा। लेकिन अगले दिन वह नहीं मिला। मुझे बड़ी कोफ़्त हुई। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं ठगा गया या फिर मानवीय पक्ष की मुझे ठीक-ठीक समझ ही नहीं है, इसलिए मानव धर्म को ठीक से निभा नहीं पाया। क्या रिक्शे वाले की बात सही है कि मैं ठगा गया।


ऑफ़िस जाते-आते रोज़ मेरी आँखें उसे ढूँढ़तीं, ख़ासतौर से अंबेडकर पार्क के पास। हफ़्ता भर निकल गया तो मैंने एक दिन रिक्शे वाले से पूछ लिया कि, "वह बैसाखी वाला कहीं दिखा था क्या?" 


मेरे पूछते ही वह एकदम से चालू हो गया, जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि मैं पूछूँ। उसने बताया, "बाबू जी वह अपने ठिकाने बदलता रहता है। आजकल बादशाह नगर, रेलवे स्टेशन के पास अड्डा बनाए हुए है। वह ऐसे ही अपना ठगी का धंधा चलाता है।" रिक्शे वाले ने इसके साथ ही ऐसी तमाम बातें बताईं कि मैं भौचक्का रह गया कि एक अपाहिज आदमी इतना कुकर्मी हो सकता है। इतना गिरा हुआ हो सकता है। उसने जिस तरह से सब कुछ बताया, उससे मैं उसकी बातों पर पहले की तरह शक करने की स्थिति में नहीं था। उसकी बातें मुझे सही लगने लगीं। यह बात भी कि उसने मुझे बड़ी ख़ूबसूरती से ठग लिया। मुझे बड़ी ग़ुस्सा आया।


मैंने उसी दिन शाम को रिक्शे वाले से उसी के पास चलने को कहा। इस पर वह भुनभुनाया, "साहब आप तो बेवज़ह उसके लिए परेशान हो रहे हैं। उसके पास चलेंगे तो वह कोई ना कोई नई नौटंकी बताकर आपसे फिर रुपए ठग लेगा। आख़िर आप चलकर क्या कर लेंगे?" 


मैंने झल्ला कर कहा, "मैं कुछ करने-वरने नहीं जा रहा हूँ। यह देखने-समझने के लिए चलना चाहता हूँ कि वह इस हालत में इतने कुकर्म कैसे कर लेता है। क्या वह इतना भी नहीं समझता कि इन घिनौनें गंदे कामों के कारण उसकी जान भी जा सकती है। वह आज नहीं तो कल पुलिस के हत्थे ज़रूर चढ़ेगा। तब पुलिस उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ देगी।"



 

रिक्शे वाला बोला, "साहब, मैंने पहले ही बताया था कि वो पुलिस का दलाल है। पुलिस का उसे कोई डर नहीं है। पुलिस सब जानती है। वह ख़ुद उससे मिली हुई है, तभी तो वह चार-पाँच साल से सब कुछ कर रहा है, लेकिन आज तक कहीं उसकी धरपकड़ नहीं हुई है। ज़्यादातर समय तो वह पुलिस चौकी के सामने ही थोड़ी दूर पर रहता है। इसलिए उसका कुछ भी नहीं होने वाला। आप उसके चक्कर में अपना पैसा और समय बर्बाद कर रहे हैं बस।" उसकी बातों से मैं खीझ उठा। हमारी बहस चलती रही और हम उस एरिया में उसे ढूँढ़ते हुए थक कर अपने घर पहुँच गए। रिक्शे वाले को सौ रुपये अलग से देने पड़े। भिखारी के ना मिलने से मैं बड़ा खिन्न हो रहा था। लेकिन मैंने ज़िद कर ली कि अब जो भी हो जाए मैं उसको ढूँढ़ कर रहूँगा। यह जान कर रहूँगा कि आख़िर उसमें ऐसी कौन सी ताक़त है कि वह पौने दो टाँग का होकर भी यह सब कर लेता है। यहाँ ज़रा सी धूप सहन नहीं होती और वह इतनी जलती-पिघलती सड़क पर नंगे पैर घूमता है। ऐसे-ऐसे काम करता है कि सुनकर सिर चकरा उठता है। जो भी हो जाए अब मुझे उससे मिले बिना चैन नहीं मिलेगा।


उसे ढूँढ़ते हुए एक और हफ़्ता निकल गया लेकिन वह कहीं नहीं मिला। रिक्शे वाले के किराए के साथ-साथ मेरी उलझन, मेरा ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। उसे भुला दूँ मैं यह भी नहीं सोच पा रहा था। अंबेडकर पार्क के पास पहुँचता नहीं कि उसकी याद आ ही जाती। मुझे लगता जैसे हाथ हिलाता वहीं बैठा वो मुझे ही देख रहा है।


यह संयोग ही था कि पंद्रहवें-सोलहवें दिन ऑफ़िस से फिर मुझे दोपहर तीन बजे ही चिलचिलाती धूप में निकलना पड़ा। काम बड़ा ज़रूरी था। मैं अंबेडकर पार्क के दूसरी तरफ़ सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल वाली रोड पर चला जा रहा था। जिस पर बाईं तरफ़ क़रीब एक दर्जन हट या प्रसाधन बने हुए हैं। बीच में एक फ़िश पार्लर भी है। मेंटीनेंस के अभाव में उनकी टूट-फूट देखता आगे बढ़ रहा था कि तभी वह बाएँ तरफ़ मुझे एक हट की चौखट पर छाए में बैठा हुआ दिख गया। उसे देखते ही मैंने रिक्शा तुरंत रुकवा लिया। सब ऐसे हुआ जैसे मेरा मुझ पर कंट्रोल ही नहीं था। मैं लपक कर उसके सामने खड़ा हो गया। मैंने सोचा कि वह मुझे ऐसे देख कर भौंचक्का हो जाएगा। डरेगा। लेकिन उल्टा हुआ। भौंचक्का मैं रह गया। वह बड़ी दिलेरी के साथ मुझे मेरी आँखों में आँखें डाले देखता रहा।


मुझे लगा कि वह हल्के-हल्के मुस्कुरा भी रहा है। कुछ देर अपने को जज़्ब करने, कई बातें सोचने के बाद मैंने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?" नाम बताने के बजाय वह कुछ अजीब सा मुँह बना कर बैठा रहा। मैं ना जाने किस भावना में बहकर उसी की बगल में थोड़ा फ़ासला लेकर ज़मीन पर ही बैठ गया। रिक्शे वाला हट में एकदम पीछे चला गया। मैंने दोबारा नाम पूछा तो वह कुछ देर बाद नाम बताने के साथ ही बोला, "भूख लगी है साहब।" 


मैंने कहा, "यहाँ तो कोई दुकान है नहीं। यहाँ तो कुछ नहीं मिल पाएगा?" 


यह सुनते ही वह तपाक से बोला, "साहब, फोन करके मँगा लो। यहीं पर लेकर आ जाएगा।" 


यह सुनते ही मैं दंग रह गया। वह सीधे-सीधे ऑनलाइन खाना मँगाने के लिए कह रहा था। मैंने ना कभी सुना था, ना कभी सोचा था कि कोई भिखारी इस तरह बे-खौफ़ ऑनलाइन खाना ऑर्डर करने के लिए कहेगा और ऑनलाइन सिस्टम को भी अच्छी तरह से जानता होगा।


मुझे रिक्शे वाले की सारी बातें एकदम सच लगने लगीं। यह भिखारी नहीं, भिखारी के भेष में जरायम की दुनिया का खिलाड़ी है, और यही समझ रहा है कि मैं अपनी किसी ज़रूरत की वज़ह से इसके पीछे पड़ा हूँ। मेरी उसी ज़रूरत को यह कैश कराने की सोच रहा है। मैंने कहा, "इतनी गर्मी में कोई ऑर्डर लेकर यहाँ क्यों आएगा?" 


"करो तो साहब। सब आ जाएँगे। हम तो रोज़ ही देखते रहते हैं लोगों को ऐसे ही मँगाते हुए।" उसकी हालत से मुझे लगा कि यह भूख से कुछ ज़्यादा ही परेशान है। मैं पीछे रिक्शे वाले की ओर मुड़ा कि देखें यह क्या कहता है, लेकिन वह सिर के नीचे अपना अंगौछा रख कर जमीन पर ही सो रहा था। मैंने सोचा कमाल का आदमी है, इतनी गर्मी है और ये दो मिनट में ही सो गया। जो भी हो आदमी साफ़ दिल का लगता है।


तभी भिखारी फिर बोला, "साहब मँगा दो ना। फोन करो, सब थोड़ी ही देर में आ जाएगा।" 


मैंने जब देखा कि वह खाए बिना एक बात नहीं करेगा तो उससे कहा, "देखो तुम जो खाना कहोगे, वह सब मैं मँगा दूँगा। लेकिन मैं जो-जो पूछूँगा तुम मुझे वह सब सच-सच बताओगे।" 


दो बार कहने पर उसने हामी भरी तो मैंने ऑर्डर कर दिया। एक कंपनी तो वहाँ पर ऑर्डर डिलीवर करने को तैयार नहीं हुई। दूसरी सात सौ रुपये से ऊपर का ही ऑर्डर डिलीवर करती थी। अब क्योंकि मुझे हर हाल में बात करनी ही करनी थी तो ऑर्डर कर दिया। मैं यह भी सोचता जा रहा था कि जो भी मेरी इस हरकत को सुनेगा, मुझे मूर्ख नहीं बल्कि पागल भी कहेगा।



 

मैंने तीन लंच ऑर्डर किए थे। अपने और रिक्शे वाले के लिए भी। यह करके मैंने उससे फिर कहा, "तुमने जो कहा वह खाना मैंने ऑर्डर कर दिया है। अब मैं जो भी पूछूँगा वह सब तुम सच-सच बताओगे।" 



 

उसने सहमति में सिर हिलाया तो मैंने पूछा, "अपना पूरा नाम बताओ।" 


"सब्बू"।


"यह भीख कब से माँग रहे हो?" 


"जब से पैर कट गया, तभी से।" 


"अच्छा-अच्छा। यह पैर कटा कैसे?" 


"ट्रेन से।" 

                                                   


मेरी बातों का वह बड़ी चालाकी से सूक्ष्मतम जवाब दे रहा था। उसकी बातों से मैं समझ गया कि वह हद दर्जे का चालाक आदमी है। पढ़ा-लिखा नाम-मात्र का है लेकिन कढ़ा बहुत ज़्यादा है। मैं उससे आत्मीयता के साथ बातचीत जारी रखे हुए था। धीरे-धीरे वह खुलता चला गया। बताता गया कि कैसे एक खाते-पीते घर का, अपने माँ-बाप का दुलारा बेटा यहाँ इस हाल में पहुँच गया।


उसके मन में माँ-बाप के लिए कठोरतम ग़ुस्सा भरा हुआ था। उसने जो बताया, उसके साथ जो बीता वह दर्दनाक, हृदयविदारक था। बचपन की बात शुरू करने से पहले उसने लुंगी के फेंटे से एक सिगरेट निकाल कर जलाई। बड़े अंदाज़ से कई बड़े-बड़े कश लेकर गाढ़ा धुआँ उगला। उसकी गंध साफ़ बता रही थी कि उसमें गांजा भरा हुआ है। जब वह धुआँ उगलता तो मैं अपना मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता। मैं उन लोगों में से हूँ जो सुबह फ्रेश होने से पहले तंबाकू, चाय, सिगरेट आदि का सेवन करते हैं। मैं कम से कम दो कप चाय, दो सिगरेट ज़रूर पीता हूँ। इसके बावजूद तब मेरा सिर चकरा रहा था। मगर मैं उसे मना करने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था कि कहीं यह बातें बताने से मुकर ना जाए। हो सकता है कि यह बात कहने के लिए मूड बना रहा हो। उसने सिगरेट ख़त्म करके बताया कि उसके माँ-बाप दोनों ही नौकरी पेशा थे। उसे दिन भर डे-बोर्डिंग स्कूल में रहना पड़ता था। पाँच-छः साल तक उसे ख़ूब लाड़-प्यार ऐशो आराम मिला।


मगर इसके बाद जल्दी ही माँ-बाप के बीच रोज़ झगड़े होने लगे। इसके साइड इफ़ेक्ट के रूप में उसकी उपेक्षा शुरू हो गई। साथ ही साथ मार भी पड़ने लगी। जल्दी ही अब्बू ने अम्मी को तलाक़ दे दिया। दोनों जिसे-जिसे चाहते थे, उसके साथ चल दिए। शादी कर ली। उसको अब्बू ने अम्मी के पास ही छोड़ दिया था। नए सौतेले बाप ने उससे पहले दिन से ही प्यार से बात की। अम्मी जैसे पहले उसे "मेरा शाहज़ादा" कहती थीं, प्यार से उसकी देखभाल करती थीं, उसकी देखभाल को अपनी ख़ुशी मानती थीं, सुबह से लेकर रात सोने जाने तक उसे दर्जनों बार प्यार करती थीं, चुंबन लेती थीं, वैसे ही करती रहीं। वह अच्छे कॉन्वेंट स्कूल में ही पढ़ता रहा। लेकिन सौतेले भाई के जन्म के कई महीने पहले ही से स्थितियाँ तेज़ी से बदलती चली गईं। और जब भाई बाबुल का जन्म हो गया तो सब एकदम से बदल गया।


बाप का व्यवहार कठोर हो गया। उसे बेवज़ह मारना-पीटना, गंदी-गंदी गाली देना उनका रूटीन वर्क हो गया। अब मज़दूर के बच्चे और उसमें कोई फ़र्क नहीं रह गया। अम्मी भी उन्हीं की तरह हो गईं। उसे कॉन्वेंट से निकाल कर म्यूनिस्पल स्कूल में डाल दिया। बाबुल सात-आठ महीने का था तभी घूमने के लिए सभी लोग ट्रेन से चले। उसको याद नहीं कि कोलकाता से कहाँ के लिए निकले। उसे यह भी याद नहीं कि वापसी में उसे उसकी अम्मी और सौतेले बाप ने किस रेलवे स्टेशन पर छोड़ा था। बस इतना याद है कि स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर वह अम्मी के साथ था। अपने भाई बाबुल के साथ खेल रहा था। जिसे वह बहुत प्यार करता था। तभी सौतेले पिता उसे लेकर स्टेशन से बाहर निकल गए।


वहाँ उसके लिए खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदीं। फिर एक जगह उसे बैठाकर कहा, "तुम यहाँ बैठो। मैं बाबुल और तुम्हारी माँ के लिए भी चीज़ें लेकर आता हूँ।" वह गए तो फिर वापस लौटे ही नहीं। कुछ देर बाद वह उन्हें ढूँढ़ने लगा। नहीं मिले तो रोने लगा। लोग आ गए। फिर कहाँ-कहाँ होते, कैसे-कैसे वह चाइल्ड लाईन पहुँच गया। उसके बाद उसने अपने माँ-बाप, सौतेले भाई किसी को कभी नहीं देखा। इन सब के लिए उसके मन में ग़ुस्सा, घृणा कूट-कूट कर भर गई, इतनी कि, "वे मिल जाएँ तो...।" वह इतना कह कर दाँत किटकिटा कर हल्के से चीख़ा। वह काँपने लगा तो मैंने उसे शांत किया।


उसने फिर एक सिगरेट पी डाली। उसकी आँखें सुर्ख़ लाल हो रही थीं। पसीने से भीग रहा था। रिक्शे वाला अब भी सो रहा था। मेरे आग्रह पर उसने बात आगे बढ़ाई, बताया कि अनाथालय में खाना-पीना, कपड़ा सब, बस किसी तरह ज़िंदा रहने भर का मिलता था। स्टॉफ़ आए दिन चप्पल-जूतों, डंडों से मारता था। साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-पोंछा सब बच्चों से ही कराया जाता था। दिन हो या रात कई लोग बच्चों का यौन शोषण करते रहते थे। अक्सर स्टॉफ़ के बाहर के लोग भी आते थे।


उसकी नाक भी वहीं यौन शोषण के दौरान लगी गंभीर चोट के कारण हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई। ऐसे ही भूख-प्यास, मारपीट, यौन शोषण के बीच वह चौदह-पन्द्रह साल का हो गया। और फिर चार लड़कों के साथ वहाँ से भाग निकला। एक रात जब स्टॉफ़ कुछ लड़कियों का यौन शोषण करने के बाद नशे में धुत्त होकर सो गया, तो यह सब चाबी चोरी करके, मेन गेट खोल कर भाग निकले। स्टॉफ़ के लोगों के कपड़ों में जितने पैसे थे, वह भी चोरी कर लिए। फिर कई शहरों में इधर-उधर भटकते रहे। अंततः एक रेलवे स्टेशन पर ही उन पाँचों ने अपना ठिकाना बना लिया।


प्लेटफ़ॉर्म के अलग-अलग होटलों में काम करते, वहीं खाते-पीते और सोते। नशे, सेक्स से उनका परिचय तो अनाथालय से ही था। वह भी नशे के आदी होते चले गए। महिलाओं का भी जुगाड़ कर लेते थे। ऐसे ही कई वर्ष बीत गए। एक दिन यार्ड में खड़ी एक बोगी में अपनी ही तरह क़िस्मत की मारी एक महिला का शोषण कर रहे थे, सभी नशे में थे। आवेश में किससे क्या हुआ कि महिला की मौत हो गई। फिर पूरा का पूरा गुट वहाँ से भाग निकला। इस भागम-भाग में सभी बिछड़ गए। सब्बू भी अकेले भागता-भटकता एक महानगर के बड़े से रेलवे स्टेशन की भीड़ में घुस गया। फिर वहीं एक होटल में काम-धाम करने लगा। जल्दी ही यहाँ भी उसका चार-पाँच लोगों का नया गुट बन गया। नशा-पत्ती, सब उसकी चल निकली, औरत-बाज़ी भी।


एक दिन अपनी ही जैसी एक लड़की के साथ वह यार्ड में खड़ी एक बोगी में था, कि तभी जीआरपी वालों की नज़र में आ गया। भागा। बचने, भागने के चक्कर में एक ट्रेन की चपेट में आकर घायल हो गया। किसी तरह जान तो बच गई, लेकिन पैर गँवा बैठा। ठीक हुआ तो खाने-पीने के लाले पड़ गए। काम नहीं मिल रहा था। अंततः भीख माँगने को विवश हो गया। इसी बीच में ड्रग माफ़ियाओं ने उससे स्मैक, चरस आदि बिकवानी शुरू कर दी, क्योंकि उन्हें लगा कि कोई उस पर जल्दी शक नहीं करेगा। जल्दी ही उसने अपनी जैसी कई महिलाओं और लड़कियों को भी फँसाया। उन्हें भी ड्रग्स का आदी बना लिया। जब वे ड्रग्स की आदी बन गईं तो उन्हें पैसा देने पर भी ड्रग्स नहीं देता। पैसा, शोषण दोनों मिलने पर ही देता। उसकी ड्रग्स गाथा सुनकर ही मैं समझ पाया कि वह उस समय भी गांजा सहित किसी अन्य ड्रग्स के नशे में भी है।


मैंने पूछा तुम्हारे गैंग में कितनी लड़कियाँ हैं? तो उसने बड़ी शान से बताया, "नौ हैं।" 


मैंने कहा, "तुम चल नहीं पाते हो, तो इतनी लड़कियों को कैसे बाँधे रहते हो? वह भाग भी तो सकती हैं।" 


तो वह फिर बड़ी शान, अकड़ के साथ बोला, "जब तलब लगती है तो ढूँढ़ती हुई आती हैं।" एक जगह का नाम बताते हुए कहा कि, "सब शाम को वहीं पर दौड़ी आती हैं। वहीं पर इकट्ठा होती हैं।" उसकी बात सुनते-सुनते मेरा ध्यान बार-बार उसके पैर में बँधी पट्टी पर जा रहा था, जिस पर अच्छा-ख़ासा सूखा ख़ून दिख रहा था। मैंने सोचा कि जब इसका पैर कई साल पहले कटा था, तो घाव कब का ठीक हो गया होगा। अब यह कैसा ख़ून? पूछा तो वह बड़ी ही अजीब तरह से खीं-खीं करके हँस पड़ा। कुछ देर हँसने के बाद बोला, "लड़कियाँ देती हैं, लड़कियाँ।" मैं बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि लड़कियाँ ख़ून देती हैं तो वह फिर से पहले की तरह हँसकर बोला, "इतनी लड़कियाँ हैं, रोज़ एक को ब्लेड से चीरा लगाता हूँ, उसी से काम भर का ख़ून लेकर अपनी दवाई भिगो लेता हूँ। बाकी इस पट्टी को चटा देता हूँ।" इतना कहते-कहते फिर बड़ी घिनौनी हँसी हँसा। यह सुनकर मेरा ख़ून खौल उठा।


मैंने तेज़, घृणापूर्ण आवाज़ में कहा, "तुम बहुत ही क्रूर, घिनौने, नारकीय इंसान हो। तुम्हारे तो दोनों हाथ-पैर कट जाने चाहिए थे।" मेरी बात पर वह अप्रत्याशित रूप से ग़ुस्से से तमतमा उठा। मैंने भी उसी क्षण तय किया कि किसी भी तरह से इससे बाक़ी बातें जान लूँ, तो पुलिस को कॉल करके ऐसे दरिंदे को जेल भिजवा दूँ। जो साक्षात राक्षसों की तरह इतनी मासूम लड़कियों, औरतों का ख़ून पी रहा है। इसने तो युगांडा के ईदी अमीन को भी पीछे छोड़ दिया है।


वह तमतमाए चेहरे के साथ फिर सिगरेट पीने लगा। मैंने उससे अगली बात पूछने वाला ही था कि तभी वह बोला, "हम क्रूर, घिनौने राक्षस हैं, तो बताओ ज़रा, जिन लोगों ने हमें स्टेशन के बाहर छोड़ा, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रख कर काम करवाया, नोचा-खसोटा वह सब क्या हैं? सुनो, सब राक्षस हैं, राक्षस। अकेले हमें ना कहो, समझे, और चाहो तो जो पैसा उस दिन दिए थे वह भी ले लो।" वह बड़ी दबंगई से बोल रहा था। मुझे भी बड़ी ग़ुस्सा आ रहा था। मगर मैं सब जानना चाहता था। साथ ही उसके साथ उसके माँ-बाप, अनाथालय वालों ने जो अत्याचार किए, उसे जानकर उसके प्रति दया भी उभर रही थी।


तभी खाने वाले का फोन आया। उसे लोकेशन समझाई तो वह पाँच मिनट के बाद आ गया। मैंने एक डिब्बा खाना उसके सामने रखते हुए कहा, "खाओ, तुम्हें भूख लगी हैं ना।" वह मुझे डिलीवरी मैन से खाना लेकर उसको पैसे देने तक एकटक देखता रहा था। उसके जाते ही बोला, "कोई पाँच रुपया भी नहीं देता। तुम इतना किए जा रहे हो। कोई मामला है क्या?" 


मैंने कहा, "पहले खाना खाओ। मामला सिर्फ़ इतना है कि मुझे तुम्हारे ऊपर बहुत दया आ रही है कि तुम्हारे साथ इतना अत्याचार हुआ। तुम्हारी हालत देखकर मैं इतना ही सोच रहा हूँ कि तुम्हारा जीवन अच्छा हो जाए। तुम्हारी तकलीफ़ दूर हो जाए।"


मैंने रिक्शे वाले को भी उठा कर खाना दिया तो वह बोला, "अरे साहब आप क्या कर रहे हैं? यह खाना कैसे आ गया? मैं तो सवेरे ही खा कर चलता हूँ।" 


मैंने कहा, "कोई बात नहीं। सवेरा हुए बहुत समय हो गया है। लो खा लो।" 


मैंने देखा सब्बू आराम से निश्चिंत होकर खाना खा रहा था और बीच-बीच में मुझे देखे भी जा रहा था। 


मैंने पूछा, "यह बताओ जिन लड़कियों का तुम यौन शोषण करते हो, उनका शरीर काट कर उनके ख़ून से वह सब करते हो, कभी ये झगड़ा नहीं करतीं। तुम्हें डर नहीं लगता कि वह सब एक साथ मिलकर तुम्हें मार सकती हैं।" 


यह सुनते ही वह मुँह में खाना भरे-भरे हूँ-हूँ करके हँसा। फिर बोला, "उनकी हिम्मत नहीं है।" बैसाखी की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, "इसी से चमड़ी उधेड़ कर रख देता हूँ। ज़्यादा बोलीं तो पुलिस की लाठी से तुड़वा देता हूँ।"


मैंने उसकी हिम्मत देखकर सोचा, ऐसे बोल रहा है जैसे कि पुलिस को ख़रीद रखा है। पुलिस इसकी नौकर है। वह खाना खा चुका तो मैंने कहा, "मान लो इन लड़कियों ने पुलिस में तुम्हारी सारी बातें बता दीं तो तुम्हें पुलिस पकड़ लेगी। जेल में डाल देगी। डर नहीं लगता तुम्हें।" 


"कैसी बात करते हो? इनमें कौन सी लड़की है जिसे पुलिस वाले...।" उसने बड़ी भद्दी सी बात कही। जिसे सुनकर मैं हक्का-बक्का रह गया। वह बड़े ताव में बोला, "लड़कियाँ क्या, तुम भी चले जाओ पुलिस में तो भी कुछ नहीं होगा। अगर पुलिस ने कुछ देर को धर भी लिया, गिरफ़्तार भी कर लिया तो पुड़िया वाले छुड़ा लेंगे।"


पुड़िया वाले का ख़ुलासा करते हुए बताया कि ड्रग्स सप्लायर की पूरी नज़र रहती है उस पर। मुझे उसकी बात पर पूरा यक़ीन नहीं हो रहा था। मैंने सोचा इसकी मानें तो पूरा का पूरा पुलिस विभाग ही इसके साथ है। मैंने कहा, "ऐसा नहीं है, मालूम होने पर पुलिस चुप नहीं बैठेगी। फिर जो भी हो अब तुम यह सब छोड़कर कुछ काम-धाम क्यों नहीं करते। हाथ-पैर से परेशान बहुत से लोग, कुछ ना कुछ काम तो कर ही रहे हैं। अपना जीवन, अपने परिवार को चला ही रहे हैं।"


मेरी इस बात पर उसने जो जवाब दिया उससे मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। घृणा बढ़ गई। वह बड़ी ऐंठ के साथ बोला, "तो हम भी तो काम कर रहे हैं। अपना जीवन चला रहे हैं। इसमें तो और भी ज़्यादा मेहनत लगती है।" 


मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह रिक्शे वाला बोला, "साहब, हम पहले दिन से ही आपसे बता रहे हैं, अपना पैसा, समय आप बर्बाद कर रहे हैं। ये ऐसे ही रहेगा। रात में चलने वाले ऑटो, टेंपो वालों को भी फँसाए हुए है। उन्हें भी लड़कियों को देता रहता है। पुलिस सब कुछ जानती है। कुछ नहीं होने वाला। आप बेवज़ह इतनी गर्मी में परेशान हो रहे हैं।" रिक्शे वाले की बात मुझे सही लगी।


मैंने अपना वाला खाने का डिब्बा भी उसे ही दे दिया। कहा, "लो यह भी तुम्हारे काम आएगा।" 


मैंने अपना डिब्बा खोला भी नहीं था। रिक्शे पर बैठते-बैठते मैंने कहा, "एक बार बिना सिगरेट पिए मेरी बात पर सोचना, समझना, समझ में आ जाए तो अपना काम बदलना, आते-जाते कहीं मिल जाओ तो बताना।"


 तो उसने तपाक से कहा, "अपना मोबाइल नंबर दिए जाओ।" 


उसके इस जवाब ने मुझे फिर सोच में डाल दिया। मैंने कहा, "नंबर कहाँ लिखोगे। कागज-पेन रखे हो?" अगले ही पल उसने हाथ पीछे कर लुंगी में खोंसा एक एंड्रॉएड मोबाइल निकालकर कहा, "बताओ नंबर।"


उसे मैं कुछ देर देखता रहा। मेरे दिमाग़ में बात आई कि दुनिया भर के क्राइम कर रहा है। ड्रग माफ़िया के संपर्क में है। आज नहीं तो कल पकड़ा जाएगा। तब इसके मोबाइल में मेरा नंबर मुझे भी पकड़वा देगा। मैंने उसे नंबर नहीं बताया और कहा, "जब मिलना हो तो वहीं अंबेडकर पार्क के पास आ जाना। वहीं मिलेंगे, सुबह नौ से दस बजे के बीच और शाम को..." मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शे वाला चल दिया। मैं जिस काम के लिए निकला था उसके लिए बड़ी देर हो गई थी तो मैंने उससे घर चलने के लिए कह दिया। मन बड़ा खिन्न हो रहा था कि कैसे-कैसे लोग हैं दुनिया में। रिक्शे वाला उसके लिए बहुत कुछ कहे जा रहा था लेकिन मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया तो वह चुप हो गया। इस बीच मैं यह सोचता रहा कि जब यह ड्रग्स बेचता है तो तमाम पैसे कमाता होगा। फिर इसे भीख माँगने की ज़रूरत क्यों? कहीं यह इस धूर्त की कोई छद्म चाल ही तो नहीं है।


अगले दिन सवेरे पेपर के लोकल पेज पर उसकी फोटो देखकर मैं सशंकित हुआ कि इसके साथ कोई कांड हो गया क्या? ख़बर पढ़ी तो मालूम हुआ कि उसने किसी धारदार हथियार से एक पन्द्रह-सोलह वर्षीय लड़की को मारने की कोशिश की। जिससे वह लहूलुहान हो गई और मरणासन्न है। उसने बादशाह नगर रेलवे स्टेशन पर यह कांड किया था। जीआरपी ने उसे पूरे गिरोह सहित पकड़ लिया था। लड़कियों ने जीआरपी वालों को सारा क़िस्सा बताकर उसका भांडा फोड़ दिया था। सारी बातें वही लिखीं थीं जो उसने बताई थीं। वह सब फिर पढ़कर मन उसके प्रति घृणा से भर गया। साथ ही भगवान को धन्यवाद कहा कि अच्छा हुआ ऐन टाइम पर उसे अपना मोबाइल नंबर बताने से मना कर दिया था।



प्रदीप श्रीवास्तव 

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कहानी : कौन है सब्बू का शत्रु