रविवार, 3 अक्तूबर 2021

प्रकाशनार्थ : कहानी संग्रह : मेरे बाबू जी एवं अन्य कहानियां : प्रदीप श्रीवास्तव : प्रकाशक : पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम, कनाडा

  

 

 

 

 


 

 

 

मेरे बाबू जी  

 

एवं

 अन्य कहानियां

(कहानी संग्रह)

प्रदीप श्रीवास्तव

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मेरे बाबू जी  

 

एवं

 अन्य कहानियां

 

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक: पुस्तकबाज़ार.कॉम

कनाडा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Mere Babu ji Evm Any Kahaniyan   

A story collection by Pradeep Srivastava

E-6M-212, Sector-M, Aliganj, Lucknow (UP), India

E-mail: pradeepsrivastava.70@gmail.com

© Copyrights reserved by writer

2021

Cover Photo: Pratyush Srivastava

Cover Design: Pradeep Srivastava

Typing: Dhanjay Varshney

Publisher: PustakBazaar.com

info@pustakbazar.com

Price: $3.00 Cdn.

 

 

 

 

 

 

 

मेरे बाबू जी एवं अन्य कहानियां

(कहानी संग्रह)

लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव

ई ६ एम २१२ सेक्टर एम,

अलीगंज, लखनऊ- २२६०२४

यू.पी., भारत

कॉपी राइट: लेखक

प्रथम संस्करण:२०२१

आवरण चित्र: प्रत्युष श्रीवास्तव 

आवरण सज्जा: प्रदीप श्रीवास्तव

टाइपिंग: धनंजय वार्ष्णेय

प्रकाशक: पुस्तकबाज़ार.कॉम

info@pustakbazar.com

मूल्य: $3.00 Cdn.

 

 

 

 

 

समर्पित

पूज्य पिता

ब्रह्मलीन

प्रेम मोहन श्रीवास्तव

एवं

प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव, सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृतिओं को

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अनुक्रम

 

lएबॉन्डेण्ड 

 

lमेरे बाबू जी

 

lबोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स

 

lउसे अच्छा समझती रही

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 एबॉन्डेण्ड

 

इसे आप कहानी के रूप में पढ़ रहे हैं, लेकिन यह एक ऐसी घटना है जिसका मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। चाहें तो आप इसे एक रोचक रिपोर्ट भी कह सकते हैं। इस दिलचस्प घटना के लिए पूरे विश्वास के साथ यह भी कहता हूँ कि यह अपने प्रकार की अकेली घटना होगी। मेरा प्रयास है कि आप इसे घटते हुए देखने का अहसास करें। यह जिस गाँव में घटी उसे मैं गाँव कहना गलत समझता हूँ, क्योंकि तब तक वह अच्छा-ख़ासा बड़ा क़स्बा बन चुका था। मैं भी उसी गाँव या फिर क़स्बे का हूँ।

गाँव में मुख्यतः दो समुदाय हैं, एक समुदाय कुछ बरस पहले तक बहुत छोटी संख्या में था। इसके बस कुछ ही परिवार रहा करते थे। यह छोटा समुदाय गाँव में बड़े समुदाय के साथ बहुत ही मेल-मिलाप के साथ रहा करता था। पूरे गाँव में बड़ी शांति रहती थी। त्योहारों में सिवइंयाँ खिलाना, प्रसाद खाना एक बहुत ही सामान्य सी बात हुआ करती थी। मगर बीते कुछ बरसों में बदलाव की एक ऐसी बयार चल पड़ी कि पूरा परिदृश्य ही बदल गया। सिवइंयाँ खिलाना, प्रसाद खाना क़रीब-क़रीब ख़त्म हो गया है। अब एक समुदाय इस बात से सशंकित और आतंकित रहता है कि देखते-देखते कुछ परिवारों का छोटा समूह बढ़ते-बढ़ते बराबरी पर आ पहुँचा है।

यह बात तब एक जटिल समस्या के रूप में उभरने लगी, जब दूसरे समुदाय ने यह महसूस करना शुरू कर दिया कि सिवइंयाँ खिलाने, खाने वाला समुदाय उनके कामकाज, त्योहारों पर एतराज करने का दुस्साहस करने लगा है, इस तुर्रे के साथ कि यह उनके लिए वर्जित है। इन बातों के चलते मेल-मिलाप, मिलना-जुलना बीते ज़माने की बातें हो गईं। अब दोनों एक-दूसरे को संदेह की नज़रों से ही देखते हैं।

संदेह की दीवारें इतनी मोटी, इतनी ऊँची हो गई हैं कि क़स्बे में अनजान लोगों की पल-पल बढ़ती आमद से प्रसाद खाने-खिलाने वाला समुदाय क्रोध में है। उनका ग़ुस्सा इस बात को लेकर है कि यह जानबूझ कर बाहर से लोगों को बुला-बुला कर उन्हें कमज़ोर करने की घृणित साज़िश है। क्रोध, ईर्ष्या, कुटिलता की इबारतें दोनों ही तरफ़ चेहरों पर साफ़-साफ़ दिखती हैं। ऐसे तनावपूर्ण माहौल के बीच ही एक ऐसी घटना ने क़स्बे में देखते-देखते चक्रवाती तूफ़ान का रूप ले लिया जो कि समाज में आए दिन ही घटती रहती है।

मैं आपको क़स्बे के उस क्षेत्र में ले चलता हूँ जहाँ चक्रवाती तूफ़ान का बीज पड़ा। यहाँ एक प्राथमिक विद्यालय है। उससे कुछ दूर आगे जाकर दो-तीन फ़ीट गहरा एक बरसाती नाला दूर तक चला गया है। जो बारिश के अलावा बाक़ी मौसम में सूखा ही रहता है। जिसमें बड़ी-बड़ी घास रहती है। उसके ऊपर दोनों तरफ़ ज़मीन पर झाड़-झंखाड़ हैं। यदि इस नाले में कोई उतरकर बैठ जाए, तो दूसरी तरफ़ बाहर से उसे कोई देख नहीं सकता, जब तक कि उसकी मुँडेर पर ही खड़े होकर नीचे की ओर ना देखे।

उस दिन वह दोनों भी इसी नाले में नीचे बैठे हुए बातें कर रहे थे। अब मैं आपको पीछे उसी समय में ले चलता हूँ जब वह दोनों बातें कर रहे थे।

आइए, आप भी सुनिए उस युवक-युवती की बातें। ध्यान से। और समझने की कोशिश करिए कि ऐसा क्या है जो हम लोग अपनी आगामी पीढ़ी के बारे में नहीं सोचते, उन्हें समझने का प्रयास नहीं करते, जिसका परिणाम इस तरह की घटनाएँ होती हैं।

युवक युवती को समझाते हुए कह रहा है, "देखो रात को साढ़े तीन बजे यहाँ से एक ट्रेन जाती है। उसी से हम लोग यहाँ से निकल लेंगे। दिन में किसी बस या ट्रेन से जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है।"

युवक युवती के हाथों को अपने हाथों में लिए हुए है। साँवली-सलोनी सी युवती का चेहरा एकदम उसके चेहरे के क़रीब है। वह धीमी आवाज़ में कह रही है, "लेकिन इतनी रात को हम लोग स्टेशन के लिए निकलेंगे कैसे? यहाँ तो दिन में ही निकलना मुश्किल होता है।"

"जानता हूँ। इसलिए रात को नहीं, हम लोग स्टेशन के लिए शाम को ही चल देंगे।"

"अरे! इतनी जल्दी घर से आकर स्टेशन पर बैठे रहेंगे तो घर वाले ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहीं पहुँच जाएँगे। छोटा सा तो गाँव है। ज़्यादा देर नहीं लगेगी उन लोगों को वहाँ तक पहुँचने में। ढूँढ़ते हुए सब पहले बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन ही पहुँचेंगे । हम लोगों को वहाँ पा जाएँगे तो ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, वहीं मारकर फेंक देंगे।"

युवती की इस बात से भी युवक के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, बल्कि दृढ़ता भरी मुस्कान ही उभरी है। वह दृढ़तापूर्वक कह रहा है, "जानता हूँ, लेकिन ख़तरा तो मोल लेना ही पड़ेगा ना।"

"ऐसा ख़तरा मोल लेने से क्या फ़ायदा जिसमें मौत निश्चित हो। यह तो सीधे-सीधे ख़ुद ही मौत के मुँह में जाने जैसा है। इससे तो अच्छा है कि और इंतज़ार किया जाए, कुछ और तरीक़ा ढूँढ़ा जाए, जिससे यहाँ से सुरक्षित निकलकर अपनी मंज़िल पर पहुँच सकें।"

"ऐसा एक ही तरीक़ा हो सकता है और वह मैंने ढूँढ़ लिया है। उसके लिए जो ज़रूरी तैयारियाँ करनी थीं, वह सब भी कर ली हैं। पिछले तीन-चार दिन से यही कर रहा हूँ।"

युवक की इस बात से युवती के चेहरे पर हल्की नाराज़गी उभर आई है। जिसे ज़ाहिर करते हुए वह कह रही है, "अच्छा, तो अभी तक बताया क्यों नहीं? इतने दिनों से सब छिपा कर क्यों कर रहे हो?"

"पहले मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रहा था कि जो कर रहा हूँ वह सही है कि नहीं। कहीं ऐसा ना हो कि बचने के चक्कर में ख़ुद ही अपने को फँसा दूँ और साथ ही तुम्हारी जान भी ख़तरे में डाल दूँ।"

"इसीलिए कहती हूँ कि बात कर लिया करो, मिलकर काम करेंगे तो आसान हो जाएगा। ऐसे अकेले तो ख़ुद भी नुक़सान उठाओगे और हमारी जान भी ले लोगे।"

"नहीं, तुम्हारी जान मेरे रहते जा ही नहीं सकती। तुम्हारी जान चली जाएगी तो मैं क्या करूँगा। मेरी जान तो तेरे से भी पहले चली जाएगी। इसलिए मैं कुछ भी करूँगा, लेकिन सबसे पहले तुम्हारी सुरक्षा की सोचूँगा, उसका इंतज़ाम करूँगा, भले ही हमारी जान चली जाए।"

"तुम भी कैसी बात करते हो, मेरी तो जान ही तुम्हारे में ही बसती है। तुम्हारे साथ ही चली जाएगी, बार-बार तुम जान जाने की बात क्यों कर रहे हो। हम ज़िंदगी जीना चाहते हैं। इस दुनिया में आए हैं तो हम भी लोगों की तरह सुख उठाना चाहते हैं। ना तो किसी को हमें मारने का हक़ है और ना ही हम मरना चाहते हैं, सोचना भी नहीं चाहते, समझे। तुम भी अपने दिमाग़ से यह शब्द ही निकाल दो। इसी में हमारा भला है।"

"तुम सही कह रही हो। एकदम तुम्हारी ही तरह जीना तो हम भी चाहते हैं। कौन मरना चाहता है, लेकिन जब हमारे माँ-बाप ही, दुनिया ही हमारे पीछे पड़ी हो तो जान का ख़तरा तो है ही, और हमें कुछ ना कुछ ख़तरा तो उठाना ही पड़ेगा ना। इसका सामना तो करना ही पड़ेगा।"

"यह दुनिया नहीं। इसके पास तो किसी के लिए समय ही नहीं है। सिर्फ़ हमारे माँ-बाप ही हमारे पीछे पड़े रहते हैं। वही पड़ेंगे। वही इज़्ज़त के नाम पर हमें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, अगर पकड़ लिया तो हमें बड़ी बुरी मौत मारेंगे।"

"नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल दुनिया में एक हालात तो वह है जिसमें परिवार में ही किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। सबका सारा समय अपने लिए है। अपने मोबाइल के लिए है। लेकिन जब हम दोनों जैसा मामला आता है तो इनके पास समय ही समय होता है। ये अपना सब कुछ छोड़-छाड़ कर एकदम फट पड़ते हैं। जात-पात, धर्म, इज़्ज़त के नाम पर इनका पूरा जीवन न्योछावर होता है। अभी हमारे बारे में पता चल जाए तो देखो क्षण भर में सब गोली, बंदूक लेकर इकट्ठा हो जाएँगे कि यह हिन्दू-मुसलमान का मामला है। ये एक साथ रह ही नहीं सकते। यह रिश्ता हो ही नहीं सकता। ये हमें तो मारेंगे ही, साथ ही लड़कर अन्य बहुतों को भी मार डालेंगे।"

"ये तो तुम सही कह रहे हो। तब तो इन लोगों के पास समय ही समय होगा। लेकिन पहले तुम यह बताओ जल्दी से कि इंतज़ाम क्या किया है? हम भी तो जाने तुमने ऐसा कौन सा इंतज़ाम किया जिसको करने में चार-पाँच दिन लग गए।"

"चार-पाँच नहीं, हमने तीन-चार दिन कहा है।"

"हाँ, हाँ, वही जल्दी बताओ अँधेरा होने वाला है।"

युवती थोड़ा जल्दी में है क्योंकि गोधूलि बेला बस ख़त्म ही होने वाली है। मगर युवक जल्दी में नहीं है। वह इत्मीनान से कह रहा है।

"सुनो, यहाँ जो स्टेशन है, रेलवे स्टेशन।"

"हाँ, हाँ, बोलो तो, आगे बोलो, तुम्हारी बड़ी ख़राब आदत है एक ही बात को बार-बार दोहराने की।"

"अच्छा! तुम भी तो बेवज़ह बीच में कूद पड़ती हो। ये भी नहीं सोचती, देखती कि बात पूरी हुई कि नहीं।"

"अच्छा अब नहीं कूदूँगी। चलो, अब तो बताओ ना।"

"देखो स्टेशन से आगे जाकर एक केबिन बना हुआ है। वहाँ बगल में एक लाइन बनी है। जिसकी ठोकर पर एक पुराना रेल का डिब्बा बहुत सालों से खड़ा है।"

बात को लम्बा खिंचता देख युवती थोड़ा उत्तेजित हो उठी है। कह रही है, "हाँ, तो उसका हम क्या करेंगे?"

"सुनो तो पहले, तुम तो पहले ही ग़ुस्सा हो जाती हो।"

"अरे ग़ुस्सा नहीं हो रही हूँ। बताओ जल्दी, अँधेरा होने जा रहा है। इसलिए मैं बार-बार जल्दी करने को कह रही हूँ। घर पर इंतज़ार हो रहा होगा। ज़्यादा देर हुई तो हज़ार गालियाँ मिलेंगी। मार पड़ जाए तो आश्चर्य नहीं।"

"देखो, मैंने बहुत सोचा, बहुत इधर-उधर दिमाग़ दौड़ाया। लेकिन कोई रास्ता नहीं मिला। सोचा किसी दोस्त की मोटरसाइकिल ले लूँ। उस पर तुम्हें बैठाकर चुपचाप चल दूँ। मगर तब दोस्त को बताना पड़ेगा। इससे बात इधर-उधर फैल सकती है। यह सोचकर मोटरसाइकिल की बात दिमाग़ से निकाल दी। फिर सोचा कि दोस्त को बताऊँ ही ना। झूठ बोलकर चल दूँ। लेकिन यह सोचकर हिम्मत नहीं हुई कि दोस्त क्या कहेगा। चोरी की एफ.आई.आर. करा दी तो और मुसीबत। सच बताऊँ यदि मेरे पास मोटरसाइकिल होती तो मैं दो-तीन साल पहले ही तुम्हें कहीं इतनी दूर लेकर चला गया होता कि यहाँ किसी को भनक तक ना लगती। अब तक तो हमारा एक बच्चा भी हो गया होता।"

"चल हट। इतनी जल्दी बच्चा-वच्चा नहीं। पहले यह बताओ कि मोटरसाइकिल नहीं मिली तो फिर क्या जो पुराना रेल डिब्बा खड़ा है मुझे उसमें बैठाकर ले जाओगे? क्या बिना इंजन के गाड़ी चलाओगे?" यह कह कर युवती खिलखिला कर हँस पड़ी है।

युवक उसके सिर पर चपत लगाकर कह रह रहा है। "चुप कर पगली, पूरी बात सुनती नहीं। बस चिल्लाने लगती है बीच में। यह भी नहीं सोचती कि आसपास कोई सुन लेगा।"

"तो बताओ ना। बार-बार तो कह रही हूँ बोलो, जल्दी बोलो ना।"

युवती ने दोनों हाथों से युवक को पकड़ कर हिला दिया है। युवक कह रहा है, "देखो ट्रेन रात में साढ़े तीन बजे आती है। हम लोग शाम को ही घर नहीं पहुँचेंगे तो घरवाले ढूँढ़ना शुरू कर देंगे। वह इधर-उधर जाएँगे, बस स्टेशन जाएँगे, रेलवे स्टेशन जाएँगे। कोई जगह वो नहीं छोड़ेंगे। हर जगह जाएँगे। ऐसी हालत में बचने का एक ही रास्ता है कि हम लोग चुपचाप अँधेरा होते ही उसी डिब्बे में जाकर छुप जाएँ। हम उस डिब्बे में होंगे, वह लोग ऐसा सोच भी नहीं पाएँगे। फिर यह सब रात होते-होते ढूँढ़-ढ़ांढ़ कर चले जाएँगे। जब रात को ट्रेन आएगी तो हम उसमें आराम से बैठकर अपनी दुनिया में पहुँच जाएँगे। अब बोल, इस प्लान से बढ़िया कोई प्लान हो सकता है क्या?"

"सच में इससे अच्छा प्लान तो कुछ और हो ही नहीं सकता। और मेरे हीरो के अलावा और कोई बना भी नहीं सकता।"
युवती मारे खुशी के युवक के हाथ को अपने हाथों में लिए हुए है और पूछ रही है, "लेकिन यह बताओ, इतने बरसों से ट्रेन का डिब्बा वहाँ खड़ा है। अंदर ना जाने कितने साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े और पता नहीं क्या-क्या होंगे। कहीं साँप वग़ैरह ने काट लिया तो लोगों को भनक भी नहीं लगेगी और हम वहीं मरे पड़े रहेंगे। कोई कभी देख भी नहीं पाएगा।"

"अरे, मेरी मोटी अक़्ल, बीच में मत बोल। इतनी तो अक़्ल होनी चाहिए कि अगर हम वहाँ मरे पड़े रहेंगे तो हमारी बॉडी सड़ेगी। उसकी बदबू अपने आप ही सबको बुला ही लेगी।"

"चुप, चुप। इतनी डरावनी बात क्यों कर रहे हो।"

"मैं नहीं, तुम्हीं उल्टा-सीधा बोल रही हो। जब मैं कह रहा हूँ कि तीन-चार दिन से इंतज़ाम में लगा हूँ तो इन सारी बातों का भी ध्यान रखा ही होगा, यह तो तुम्हें समझना ही चाहिए ना। कॉमनसेन्स की बात है। सुनो, मैं चुपचाप डिब्बे के अंदर जाता था और वहाँ पर काम भर की जगह बनाता था। नौ-दस घंटे बैठने के लिए वहाँ पर काम भर का कुछ सामान भी रख दिया है। कई बोतल पानी और खाने का भी सामान है। कल घर से निकलने के बाद सबसे पहले हम यहीं मिलेंगे। इस नाले के अन्दर वह हमारी आख़िरी मुलाक़ात होगी। यहाँ से निकलने के बाद हम डिब्बे में जाकर छिप जाएँगे। एक बात बताऊँ, ये नाला हमारा सबसे अच्छा दोस्त है। हमें सबकी आँखों से बचाकर कितने दिनों से मिलाता चला आ रहा है। इसे हम हमेशा याद रखेंगे।"

युवती युवक की बातें सुनते-सुनते उसकी जाँघों पर सिर रखकर आराम से ऐसे लेट गई है जैसे कि घर जाना ही नहीं है। युवक के हाथ की उँगलियों से खेलती हुई कह रही है, "सच में ये नाला हमारा सबसे अच्छा दोस्त है। हमें सबकी नज़रों से बचाए रखता है। मगर यह बताओ अँधेरा होने के बाद डिब्बे में कुछ दिखाई तो देगा नहीं कि तुम हमारे साथ हो कि कोई और? वहाँ तो कुछ पता ही नहीं चलेगा कि तुम किधर हो, हम किधर हैं। पूरे डिब्बे में इधर-उधर भटकते टकराते रहेंगे। ऐसा ना हो कि हमें जाना कहीं है और अँधेरा हमें पहुँचा दे कहीं और।"

"रहोगी एकदम ढक्कन ही। कितना कहता हूँ कि थोड़ी अक़्ल बढ़ाओ। तुम अपना मोबाइल लेकर आना। मैं भी अपना ले आऊँगा।"

"लाने से फ़ायदा भी क्या? मेरा मोबाइल चाहे जितना भी चार्ज कर लो, आधे घंटे में ही उसकी बैट्री ख़त्म हो जाती है।

"तुम बैट्री की चिंता नहीं करो। मैंने एक पावर बैंक लेकर फुल चार्ज करके रख लिया है।"

"और टिकट?"

"टिकट, मैं दिन में ही आकर ले लूँगा और फिर शाम को ही डिब्बे में जाकर बैठे जाएँगे। ट्रेन के आने का टाइम होगा तो स्टेशन पर अनाउंसमेंट होगा। कुछ देर बाद ट्रेन की सीटी सुनाई देगी। तभी हम डिब्बे से निकल कर प्लेटफॉर्म के शुरूआती हिस्से में पहुँच जाएँगे। इसके बाद जो भी पहली बोगी मिलेगी, उसी में चढ़ लेंगे।"

"तुम भी क्या बात करते हो। इतना सेकेंड-सेकेंड भर जोड़-गाँठ कर टाइम सेट कर रहे हो। गाड़ी दो मिनट से ज़्यादा तो रुकती नहीं। मान लो प्लेटफॉर्म तक पहुँचने में मिनट भर की भी देरी हो गई तो ट्रेन तो चल देगी। हम प्लेटफॉर्म के शुरूआती हिस्से में होंगे तो दौड़कर चढ़ने का भी मौक़ा नहीं मिलेगा और यदि ट्रेन तक पहुँच भी गए और तब तक स्पीड ज़्यादा हो गई तो कैसे चढ़ेंगे? कहीं तुम या मैं कोई स्टेशन पर ही छूट गया तो?"

"ऐसा सोचकर डरो नहीं। डर गई तो अपने घर से ही नहीं निकल पाओगी। हमें थोड़ा तो ख़तरा मोल लेना ही पड़ेगा। ऐसा करेंगे कि जहाँ प्लेटफॉर्म ख़त्म होने वाला होता है वहीं कोने में थोड़ा पहले चल कर कहीं छिपे रहेंगे। जैसे ही ट्रेन उधर से निकलने लगेगी वैसे ही हम लोग इंजन के बाद वाली ही बोगी पर चढ़ लेंगे। उस समय तक ट्रेन की स्पीड इतनी ज़्यादा नहीं होती कि हम लोग चढ़ ना सकें।"

"चलो, जैसे भी हो चलना तो हर हाल में है। जैसा कहोगे वैसा करूँगी। मुझे ठीक से समझाते रहो बस। तुम जानते ही हो कि मैं ढक्कन हूँ। लेकिन ये बताओ आओगे कब?”

युवती ने उसे कुछ देर पहले ढक्कन कहे जाने पर तंज़ करते हुए पूछा तो युवक के चेहरे पर हल्की मुस्कान उभर आई है। वह कह रहा है, "कल इसी टाइम। तुम यहीं मिलना। यहीं से निकल चलेंगे दोनों लोग।"

"यह बताओ कि मान लो ट्रेन लेट हो गई तो?"

"ओफ्फो, शुभ-शुभ बोलो ना। हर बार तुम गंदा ही काहे बोलती हो। उल्टा ही क्यों बोलती हो। सीधा नहीं बोल पाती क्या?"

"नहीं मान लो अगर ऐसा हो गया, ट्रेन लेट हो गई। दो घंटा, तीन घंटा और सवेरा हो गया, तब क्या करेंगे?"

"तब, तब हम लोग डिब्बे में ही बैठे रहेंगे। अगला फिर पूरा दिन वहीं बिताएँगे और जब फिर अगली रात को ट्रेन आएगी, तब जाएँगे।"

"और टिकट, पहले वाला टिकट तो बेकार हो चुका होगा।"

"अरे यार भेजा को एकदम उबाल काहे देती हो। सीधी सी बात है फिर दूसरा टिकट ले लेंगे।"

"इसके लिए तो स्टेशन पर जाना ही पड़ेगा ना।"

"देखो, अगर फिर टिकट लेने के लिए जाने में ख़तरा दिखेगा तो बिना टिकट ही चल देंगे।"

"और टी.टी. ने पकड़ लिया तो।"

"वहाँ पकड़े जाने पर इतनी दिक्क़त नहीं आएगी। उससे रिक्वेस्ट कर लेंगे कि अर्जेंसी थी, टिकट नहीं ले पाए। ट्रेन छूट रही थी। जो जुर्माना हो वह दे देंगे, और सुनो अब जो भी बोलना अच्छा बोलना। कुछ उल्टा-सीधा मत बोलना कि यह हो गया तो, वह हो गया तो, अरे अच्छा बोलना कब सिखोगी? इतनी पकाऊ क्यों बनती जा रही हो।"

"ढक्कन हूँ, इसलिए।"

युवती यह कह कर हँसने लगी है। युवक उसके सिर पर प्यार भरी एक टीप मारकर कह रहा है, "चुप, अब किन्तु-परन्तु, लेकिन-वेकिन कुछ भी नहीं कहना। वरना बता देता हूँ।"

"देखो सावधानी तो बरतनी चाहिए ना। ख़ाली अच्छा बोलने से तो अच्छा नहीं होने लगता ना। अच्छा यह बताओ घर से कुछ सामान भी लेकर चलना है क्या? जो-जो लेना है, वह तो बता दो ना।"

"अजीब पगली लड़की है। घर में सामान रखना शुरू करोगी। उसे लेकर निकलोगी तो जिसे शक ना होना होगा वह भी जान जाएगा और तुरन्त पकड़ ली जाओगी।"

"अरे कुछ कपड़े तो लूँगी। बाहर निकलूँगी तो क्या पहनूँगी, क्या करूँगी?"

"तुम उसकी चिंता ना करो। हम कई साल ज़्यादा से ज़्यादा पैसा इकट्ठा करते आएँ हैं। हमने काम भर का कर भी लिया है जिससे कि यहाँ से कोई सामान लेकर ना चलना पड़े। जो कपड़ा पहनें बस वही और कुछ नहीं। ताकि सामान के चक्कर में धरे ना जाएँ। जब ज़रूरत होगी तब ख़रीद लेंगे। 

सामान के नाम पर तुम केवल अपना आधार कार्ड, पढ़ाई के सर्टिफ़िकेट वग़ैरह ले आना। पॉलिथीन में रखकर सलवार में खोंस लेना, समझी। अब घर जाओ और कल इसी टाइम यहीं आ जाना। ऐसा ना करना कि मैं इंतज़ार करता रह जाऊँ और तुम घर पर ही बैठी रहो।"

"यह क्या कह रहे हो, मैं हर हाल में आऊँगी। ना आ पाई तो दुपट्टे से ही फाँसी लगा लूँगी या फिर बाहर कुएँ में कूदकर मर जाऊँगी। बहुत सालों से सूखा पड़ा है, ऊपर से पानी बरसता नहीं, नीचे पानी बचा नहीं है। मेरे ख़ून से उसकी बरसों की प्यास बुझ जाएगी।"

"हद कर दी है। अरे, तुम्हें मरने के लिए नहीं बोल रहा हूँ। तुम मरोगी तो मैं भी मर जाऊँगा। कितनी बार बोल चुका हूँ। समझती क्यों नहीं। इसलिए तुम यहाँ आओगी, हर हाल में आओगी और हमारे साथ चलोगी। कुछ बहाना करना क्या सोचना भी नहीं। थोड़ी बहुत देर हो जाए तो कोई बात नहीं। चलेगा। जितने काम कहे हैं वह सब आज ही कर लेना। कुछ भूलना नहीं।"

"ठीक है, नहीं भूलूँगी। तुम भी भूलना नहीं। यह अच्छी तरह समझ लो, हमारा दिल बहुत धड़क रहा है। पता नहीं क्या होगा।"

युवती अचानक ही बड़ी गम्भीर हो गई है। चेहरे पर चिंता, भय की लकीरें उभर आईं हैं। उसका भ्रम दूर करते हुए युवक कह रहा है, "कुछ नहीं होगा। हमने सालों से तैयारी की है। तुम्हें हर हाल में लेकर चलेंगे। अपनी दुनिया बसाएँगे। अपनी तरह से रहेंगे। बहुत हो गयी सबकी। अब हम अपने मन की करेंगे। अच्छा, अब तुम जाओ, नहीं तो देर हो जाएगी। तुम्हारे घर वाले पचास ठो बात पूछेंगे, दुनिया भर की गालीगुत्ता करेंगे, मारेंगे।"

"मारेंगे क्या, अम्मी अब भी चप्पलों से मारने लगती हैं तो गिनती नहीं। बस मारे चली जाएँगी। ऐसे मारती हैं जैसे कि कपड़ा धो रही हों। कोई ग़लती हो या नहीं। उन्हें मारना है तो मारेंगी। कहने को कोई बहाना भी नहीं ढूँढ़ती।"

"अब तुम्हें कोई छू भी नहीं पाएगा। बस एक दिन की ही बात रह गई है। ठीक है, जाओ कल मिलेंगे।"

"इतनी बेरुख़ी से ना भेजो। बड़ा दुख हो रहा है।"

"अभी प्यार का समय नहीं है। समझो इस बात को। इसलिए जाओ। हमेशा प्यार पाने के लिए थोड़ा दुख भी हँसते हुए सहना चाहिए।"

युवक युवती का हाथ मज़बूती से पकड़े-पकड़े कह रहा है। मन युवती का भी रुकने का है। लेकिन जाना ज़रूरी है। इसलिए वह कह रही है, "एक तरफ़ कह रहे हो जाओ-जाओ और हाथ छोड़ते ही नहीं। कुछ समझ ही नहीं पा रही हूँ, क्या करना चाह रहे हो, क्या कहना चाह रहे हो?"

"साफ़-साफ़ तो समझा रहा हूँ। पता नहीं तेरी समझ में पहली बार में कोई बात क्यों नहीं आती? यहाँ पर प्यार दिखाने लगे और किसी ने देख लिया तो सारा प्यार निकल जाएगा। प्यार करेंगे, तुम्हें पूरा प्यार करेंगे। इतना करेंगे कि तुम ज़िंदगी भर भूल नहीं पाओगी। लेकिन अभी जाओ जिससे हम दोनों को ज़िंदगी भर प्यार करने को मिले, समझी। इसलिए अभी बेरुख़ी ज़रूरी है, जाओ।"

दुविधा में पड़ा युवक युवती का हाथ अब भी पकड़े रहा तो इस बार युवती हाथ छुड़ाकर चल दी। युवक ने उसका हाथ छोड़, उसे जाने दिया। असल में दोनों एक-दूसरे को पकड़े हुए थे और कोई किसी को छोड़ना नहीं चाहता था। मगर परिस्थितियों के आगे वो मजबूर हैं। दोनों का प्यार इतना प्रगाढ़ हो गया है कि इनकी जीवन डोर दो से मिलकर एक हो गई है। चोटी की तरह मज़बूती से गुँथ गई है। इनके निश्छल प्यार, निश्छल बातों को हमें यूँ ही हवा में नहीं उड़ा देना चाहिए।

यह दोनों किशोरावस्था को कुछ ही समय पहले पीछे छोड़ आए हैं। इनके बीच जब इस रिश्ते का बीज पड़ा तब यह किशोर थे। ये ना एक साथ पढ़ते हैं, ना ही पड़ोसी हैं। कभी-कभी आते-जाते बाज़ार में नज़र मिल जाती थी। पहले आँखों से बातें हुईं फिर जुबाँ से। जब बातें शुरू हुईं तो यह रिश्ता अंकुरित होकर आगे बढ़ने लगा, वह भी बड़ी तेज़ी से। अब देखिए यह कहाँ तक जाता है। कल दोनों फिर यहीं आएँगे। वचन तो यही दिया है। मैं यह वचन आपको दे रहा हूँ कि तब मैं फिर आपको आँखों देखा दृश्य बताऊँगा। आगे जो होने वाला है वह बेहद दिलचस्प है। मैं गोधूलि बेला में आ जाऊँगा और आगे का हाल बताऊँगा।

मित्रो, पूरे चौबीस घंटे बीत चुके हैं। सूर्यास्त होने वाला है। केसरिया रंग का एक बड़े थाल बराबर गोला क्षितिज रेखा को छू चुका है यानी गोधूलि बेला है और मैं आपको दिये वचन को निभाने के क्रम में नाले किनारे आ गया हूँ, आँखों देखा हाल बताने। युवक भी आ चुका है। उसकी बेचैनी देखिए कि दो घंटे पहले से ही आकर बैठा हुआ है, नाले में ही। कभी लेटता है, कभी बैठता है। इंतज़ार कर रहा है। इतना बेचैन है कि उसी में उलट-पुलट जा रहा है। पसीने से तर है, चेहरा लाल हो रहा है। कभी घास उखाड़-उखाड़ कर फेंक रहा है, कभी कोई तिनका मुँह में रख कर दूर उछाल रहा है।

लेकिन पहाड़ सा उसका इंतज़ार, बेचैनी ख़त्म ही होने वाली है। वह युवती दूर से जल्दी-जल्दी आती मुझे दिखाई दे रही है। इधर युवक फिर लेट गया है पेट के बल और युवती मुँडेर पर पहुँच कर बड़ी सतर्क नज़रों से हर तरफ़ देख रही है। उसे कोई ख़तरा नहीं दिखा तो वह बिल्ली की तरह फुर्ती से नाले में उतरकर युवक से लिपट गई है। एकदम दुबकी हुई है। उसको देखते ही युवक भनभना रहा है। अब आप सुनिए उनकी बातें, जानिए आज क्या करने वाले हैं ये दोनों।

"कितनी देर कर दी, मालूम है तुम्हें। दो घंटे से यहाँ इंतज़ार कर रहा हूँ।"

"लेकिन मैं तो आधा घंटा ही देर से आई हूँ। तुम दो घंटे पहले ही आ गये तो मेरी क्या ग़लती।"

"अरे आधे घंटे की देरी कोई देरी ही नहीं है क्या?"

"जानती हूँ, लेकिन क्या करें। आज तो निकलना ही मुश्किल हो गया था। छोटे भाई ने कुछ उठा-पटक कर दी थी। अम्मी पहले से ही ना जाने किस बात पर ग़ुस्सा थीं। बस उन्होंने पूरे घर को बवाले--घर बना दिया। आज जितनी मुश्किल हुई निकलने में, उतनी पहले कभी नहीं हुई थी। दुनिया भर का बहाना बनाया, ड्रामा किया कि यह करना है, वह करना है, सामान लाना है। तब जाकर बोलीं, "जाओ और जल्दी आना।"

मगर साथ ही भाई को भी लगा दिया। तो मैंने कहा, दर्जी के यहाँ भी जाना है। उसके यहाँ से काम ले कर आना है। ये रास्ते भर शैतानी करता है। इसे नहीं ले जाऊँगी। यह बात मानी तो एक काम और जोड़ दिया कि तरकारी भी लेती आना। घंटों क्या-क्या तरक़ीबें अपनाई, बता नहीं सकती। उनकी ज़िद देखकर तो मुझे लगा कि शायद अम्मी को शक हो गया है और मुझे अब सूखे कुँए में जान देनी ही पड़ेगी।"

युवती ने बहुत ही धीमी आवाज़ में अपनी बात कहकर युवक का हाथ पकड़ कर चूम लिया है। उसकी हालत देखकर युवक कह रहा है, "वह तो ठीक है लेकिन ये कपड़ा कैसा पहन लिया है? एकदम ख़राब। रोज़ तो इससे अच्छा पहनती थी।"

"क्या करूँ, ज़्यादा अच्छा वाला पहनने का मौक़ा ही नहीं मिल पाया। उनका ग़ुस्सा देखकर तो मुझे लग रहा था कि आज घर से बाहर क़दम निकाल ही नहीं पाऊँगी। मैं यही कोशिश करती रही कि किसी तरह निकलूँ यहाँ से। अच्छा कपड़ा भी रात में ही अलग कर लिया था। लेकिन मौक़ा नहीं मिला तो सोचा जो मिल गया, वही सही। जल्दी में यही हो पाया। हम इतना डरे हुए थे कि दिल अभी तक घबरा रहा है। मैं बार-बार पानी पी रही थी। लेकिन फिर भी पसीना आ रहा था।"

"चलो अच्छा, कोई बात नहीं, जैसा होगा देखा जाएगा। सारे पेपर्स रख लिए हैं ना?"

"हाँ, जो-जो कहा था वह सब पॉलिथीन में रख के सलवार में खोंस लिया है। अब बताओ क्या करना है?"

युवती कुर्ते को थोड़ा सा ऊपर उठाकर दिखाते हुए कह रही है। युवक पेपर्स को देखकर निश्चिंत होकर कह रहा है, "बहुत अच्छा। ये पेपर्स हमारे सिक्युरिटी गॉर्ड हैं। अब यहाँ से जल्दी से जल्दी चल देना है। दस-पंद्रह मिनट भी देर होने पर तुम्हें घर वाले ढूँढ़ना शुरू कर देंगे। इसलिए तुरन्त चलो।" इसी के साथ युवक सिर नाले से ऊपर कर चारों तरफ़ एक नज़र डाल रहा है। उसे रास्ता साफ़ दिखा तो वह नाले से बाहर निकलते हुए कह रहा है, "आओ जल्दी। जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाओ और बात बिल्कुल ना कर। हमें थोड़ा आगे-आगे चलने दे।"

दोनों अपनी पूरी ताक़त से बड़ी तेज़ चाल से चल रहे हैं। लग रहा है कि बस दौड़ ही पड़ेंगे। उधर क्षितिज रेखा पर कुछ देर पहले तक दिख रहा केसरिया बड़े थाल सा अर्ध घेरा भी कहीं ग़ायब हो गया है। बस धुँधली लालिमा भर रह गई है। आपने यह ध्यान दिया ही होगा कि दोनों कितने तेज़, होशियार हैं। कितने दूरदर्शी हैं कि यदि कहीं पुलिस पकड़ ले तो वह अपने सर्टिफ़िकेट्स दिखा सकें कि वह बालिग हैं और जो चाहें वह कर सकते हैं। क्या आप यह मानते हैं कि आज की पीढ़ी का आई.क्यू. लेविल आपकी पीढ़ी से बहुत आगे है। इस बारे में आप सोचते-समझते रहिए। फ़िलहाल वह दोनों तेज़ी से, सावधानी से आगे बढ़े जा रहे हैं। युवक ने बातें ना करने की चेतावनी दी थी, लेकिन बातें फिर भी हो रही हैं... सुनिए। युवती बिदकती हुई कह रही है।

"ठीक है, ठीक है, तुम चलो आगे-आगे।" कुछ ही मिनट चलने के बाद फिर कह रही है, "डिब्बा कितना ज़्यादा दूर है। पहले लगता था जैसे सामने खड़ा है। अब चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं और डिब्बा है कि पास आ ही नहीं रहा। लग रहा है जैसे वह भी हमारी ही चाल से और आगे चला जा रहा है।"

"तुमसे कहा ना। चुपचाप चलती रहो। बोलो नहीं। अगल-बगल कोई हो भी सकता है। सुन सकता है।"

"ठीक है।" दरअसल चलने में युवक को तो कम युवती को ज़्यादा तकलीफ़ हो रही है। दोनों एबॉन्डेण्ड बोगी की तरफ़ जिस रास्ते से आगे बढ़ रहे हैं। वह एक बड़ा मैदान है। झाड़-झंखाड़, घास से भरा उबड़-खाबड़। इसीलिए युवती फिर परेशान होकर कह रही है, "पंद्रह-बीस मिनट हुए चलते-चलते। अब जाकर डिब्बा दिखना शुरू हुआ।"

"हाँ, लेकिन सामने की तरफ़ से नहीं चलेंगे, उधर लाइट है। रेलवे ने भी इधर ही सबसे बड़ी लाइट लगवाई है।"

युवक ने लाइट से बचने के लिए थोड़ा लम्बा वाला रास्ता पकड़ा हुआ है। जो झाड़-झंखाड़ से ज़्यादा भरा हुआ है। युवती बड़ी डरी-सहमी हुई उससे एकदम सटकर चलना चाह रही है, तो युवक कह रहा है। "तुम एकदम मेरे साथ नहीं रहो। थोड़ा पीछे रहो।"

"लेकिन मुझे डर लग रहा है। पता नहीं कौन-कौन से कीड़े-मकोड़ों की अजीब सी आवाज़ें आ रहीं है। कहीं साँप-बिच्छू ना हों।"

"मैं हूँ तो साथ में। बिल्कुल डरो मत, फुल लाइट में रहे तो बे-मौत मारे जाएँगे। इसलिए इधर से ही जल्दी-जल्दी चल। बहस मत कर।"

"ठीक है।"

दोनों उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते, लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते क़रीब आधे घंटे में डिब्बे तक पहुँच ही गए हैं। दोनों के हाथ, पैर, चेहरे कई जगह छिले हुए हैं। अँधेरा घना हो चुका है और कोई समय होता तो लड़की इतने अँधेरे में बड़े-बड़े झाड़-झंखाड़ों, कीड़ों-मकोड़ों, झींगुरों की आवाज़ से सहम जाती, डर कर बेहोश हो जाती। लेकिन पकड़े जाने के डर, युवक के साथ ने इतना हौसला बढ़ा रखा है कि अब वह पूरी हिम्मत के साथ बरसों से खड़ी, कबाड़ बन चुकी बोगी में चढ़ रही है। बेहिचक। युवक जल्दी चढ़ने को कह रहा है तो सुनिए वह क्या बोल रही है।

"चढ़ तो रही हूँ। इतनी तो ऊँची सीढ़ी है।"

"अरे, तो क्या तुम समझती हो कि तुम्हारे घर के दरवाज़े की सीढ़ी है।"

युवक उसे नीचे से सहारा देते हुए कह रहा है तो वह बोल रही है, "छोड़ो मुझे, मैं चढ़ गई। आओ, तुम भी जल्दी आओ।"

"तू आगे बढ़ तब तो मैं अन्दर आऊँ। और मुँह भी थोड़ा बंद रख ना। ज़्यादा बोल नहीं।"

युवक डिब्बे में आने के बाद आगे हो गया, युवती पीछे। कूड़ा-करकट, धूल-गंदगी से भरी बोगी में आगे बढ़ते हुए युवक कह रहा है। "सबसे पहले इधर बीच में आओ, इस तरफ़। हमने जगह इधर ही बनाई है।"

युवती मोबाइल की बेहद धीमी लाइट में बहुत सँभलते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही है। रास्ते में शराब की ख़ाली पड़ी बोतलों से उसका पैर कई बार टकराया तो बोतलें घर्रर्र करती हुईं दूर तक लुढ़कती चल गईं। युवक ने उसे सँभलने को कहा। माँस खाकर फेंकी गई कई हड्डियों से भी युवती मुश्किल से बच पाई है। वह जब युवक द्वारा बोगी के बीचों-बीच बनाई गई जगह पर पहुँची तो वहाँ देखकर बोली, "अरे, यहाँ तो तुमने चटाई-वटाई सब डाल रखी है। बिल्कुल साफ़-सुथरा बना दिया है।"

"वाह! पानी भी रखा है।"

"हाँ थोड़ा सा पानी पी लो। हाँफ रही हो।"

"तुम भी पी लो, तुम भी बहुत हाँफ रहे हो और सुनो सारे दरवाज़े बंद कर दो।"

"नहीं, दरवाज़ा जैसे सालों से है वैसा ही पड़ा रहने दो। नहीं तो किसी की नज़र पड़ी तो ऐसे भले ध्यान ना जाए, लेकिन बदली हुई स्थिति उसका ध्यान खींच लेगी। फिर वह चेक भी कर सकता है। इसलिए चुपचाप बैठी रहो। बोलो नहीं।"

दोनों चटाई पर बैठ गए हैं। वहीं पानी की बोतलें, खाने की चीज़ों के कई पैकेट भी रखे हैं। बोगी की सीटें बेहद जर्जर हालत में हैं। इसलिए युवक ने नीचे ज़मीन पर ही बैठने का इंतज़ाम किया है। युवक के मोबाइल ऑफ़ करते ही युवती उसे टटोलते हुए कह रही है, "लेकिन मोबाइल क्यों ऑफ़ कर दिया, ऑन कर लो थोड़ी सी लाइट हो जाएगी। इतना अँधेरा है कि पता ही नहीं चल रहा कि तुम किधर हो।"

"नहीं। एकदम नहीं। ज़रा सी भी लाइट बाहर अँधेरे में दूर से ही चमकेगी। किसी की नज़र में आ जाएगी। बेवज़ह ख़तरा क्यों मोल लें। शांति से बैठे रहना ही अच्छा है।"

"ठीक है। लेकिन पूरी रात ही बैठना है। बस अपने आसपास ही लाइट रहती तो भी अच्छा था। ख़ैर अभी कितना टाइम हो गया है?"

"अभी तो साढ़े सात ही हुआ है।"

"बाप रे! अभी तो पूरे आठ-नौ घंटे यहाँ बैठना पड़ेगा। इतने घने अँधेरे में कैसे बैठेंगे? डर लग रहा है।"

"हम हैं ना। तो काहे को डर लग रहा है।"

"इतना अँधेरा है इसलिए। कितनी तो शराब की बोतलें, हड्डियाँ पड़ी हैं। सब पैर से टकरा रहीं थीं। यहाँ के सारे शराबी यहीं अड्डा जमाए रहते हैं क्या? बदबू भी कितनी ज़्यादा हो रही है।"

"पहले जमाए ही रहते थे, लेकिन पिछले महीने एक चोर को पुलिस ने यहीं से पकड़ कर निकाला था। उसको बहुत मारा था। उसके बाद से सारे चोर-उचक्के पीने-पाने वाले इधर का रुख़ नहीं करते। मैंने इन सारी चीज़ों का ध्यान पहले ही रखा था। लेकिन तुम मुझे इतना कसकर क्यों पकड़े हुए हो?"

"नहीं मुझे अपने से अलग मत करो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। इतना अँधेरा, ऊपर से साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े, झींगुर सब कितना शोर कर रहे हैं।"

"क्या बार-बार एक ही बात बोल रही हो। मैं छोड़ने नहीं थोड़ा आसानी से रहने को कह रहा हूँ। तुम तो इतना कसकर पकड़े हुए हो जैसे अखाड़े में दंगल कर रही हो। ये आवाज़ें डिब्बे के अंदर से नहीं, बाहर झाड़ियों से आ रही हैं। साँप-बिच्छू, कीड़े-मकोड़े जो भी हैं, सब बाहर हैं। इसलिए डरो नहीं। तुम तो इतना काँप रही हो जैसे बर्फ़ीले पानी से नहाकर पंखे के सामने बैठ गई हो।"

"मुझे बहकाओ नहीं। इतनी ही जगह तो साफ़ की है ना। बाक़ी पूरी बोगी तो वैसे ही है। सारे कीड़े-मकोड़े जहाँ थे अब भी वहीं हैं। आवाज़ें अन्दर से भी आ रही हैं। कहीं सारे कीड़े-मकोड़े सूँघते-सूँघते यहीं हमारे पास ना चले आएँ। सबसे बचने के लिए इन साँप-बिच्छूओं के बीच में तो हम आ गए हैं। अब यहाँ से निकलेंगे कैसे?"

युवती बहुत ही ज़्यादा घबराई हुई है। युवक को इतना कसकर पकड़े हुए है जैसे कि उसी में समा जाना चाहती हो। उसकी बात शत-प्रतिशत सही थी कि बाहर की तरह तमाम जीव-जंतु बोगी में भी भरे पड़े हैं। जो उन तक पहुँच सकते हैं। लेकिन युवक उसे हिम्मत बँधाए रखने के उद्देश्य से झूठ बोलता जा रहा है, कह रहा है कि, "जैसे घर से यहाँ तक आ गए हैं, वैसे ही यहाँ से निकलेंगे भी। शांति से, आराम से, सब ठीक हो जाएगा। इसलिए डरो नहीं। कीड़े-मकोड़े छोटे-मोटे हैं। आएँगे भी तो भगा देंगे या मार देंगे।" मगर युवती का डर, उसकी शंकाएँ कम नहीं हो रही हैं। वह पूछ रही है, "मान लो थोड़ी देर को कि मुझे यहाँ कुछ काट लेता है और मुझे कुछ हो गया तो तुम क्या करोगे?"

युवती के इस प्रश्न से युवक घबरा गया है। इस अँधेरे में भी युवती को बाँहों में कसकर जकड़ लिया है और कह रहा है, "मत बोल ऐसे। तुझे कुछ नहीं होगा। मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। मुझे पूरी बोगी साफ़ करनी चाहिए थी। मेरे रहते तुझे कुछ नहीं होगा। ऐसा कर तू मेरी गोद में बैठ जा। कीड़े-मकोड़े तुझ तक मुझसे पहले पहुँच ही नहीं पाएँगे। मेरे पास जैसे ही आएँगे मैं वैसे ही मार डालूँगा।"

युवक की बात सुनकर युवती ने उसे और कस लिया है। बहुत भावुक होकर कह रही है, "तुम मुझसे इतना प्यार करते हो। मुझे कोई कीड़ा-मकोड़ा काट ही नहीं सकता। लेकिन एक चीज़ बताओ, तुम्हें डर नहीं लगता क्या?"

"साँप-बिच्छुओं से बिल्कुल नहीं। लेकिन हमारे परिवार, गाँव वालों, पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर जो हाल होगा उससे डर लग रहा है। हम इंसान हैं और इंसानों से ही बच रहे हैं। क्योंकि जब ये पकड़ेंगे हमें, तो जीते जी ही हमारी खाल उतार लेंगे। जिंदा नहीं छोड़ेंगे, उससे डर लगता है। इज़्ज़त के नाम पर ये इंसान इतने क्रूर हो जाते हैं कि इनकी क्रूरता से क्रूरता भी थर्रा उठती है। ऑनर किलिंग की कितनी ही तो घटनाएँ पढ़ता रहता हूँ।

एक में तो लड़के-लड़की को धोखे से वापस बुलाकर शरीर के कुछ हिस्सों को जलाया और तड़पाया। फिर खेत में कंडों व भूंसों के ढेर में ज़िंदा जला दिया। मुझे इसी से अपने से ज़्यादा तुम्हारी चिंता है कि पकड़े जाने पर तुम पर तुम्हारे घर वाले कितना अत्याचार करेंगे। तुम्हें कितना मारेंगे और मैं, तुम पर अत्याचार करने वाले को मार डालूँगा या फिर ख़ुद ही मर जाऊँगा। इसलिए शांति से रहो। एकदम डरो नहीं। मैं तेरे साथ में हूँ। मेरे पास इसी तरह चुपचाप बैठी रहो।"

"ठीक है, मुझे ऐसे ही पकड़े रहना, छोड़ना नहीं। मैं एकदम चुप रहूँगी।"

"ठीक है, लेकिन पहले यह बिस्कुट खाकर पानी पी लो। तुम्हारी हालत ठीक हो जाएगी। तुम अब भी काँप रही हो।"
युवक ने युवती को बिस्कुट-पानी दिया तो वह उसे भी देते हुए कह रही है, "लो तुम भी खा लो, तुम भी बहुत परेशान हो। मेरी वज़ह से तुम्हें बहुत कष्ट हो रहा है ना।"

"नहीं, तुम्हारी वज़ह से नहीं। इस दुनिया के लोगों के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। हम यहाँ इन्हीं लोगों के कारण तो हैं। आख़िर यह लोग हम लोगों को अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने क्यों नहीं देते। हर काम में यह इज़्ज़त का सवाल है। आख़िर यह सवाल कब तक बना रहेगा?

अरे लड़का-लड़की बड़े हो गए हैं। तुमको जो करना था वह तुम कर चुके। अब उन्हें जहाँ जाना है, जिसके साथ जाना है, उनके साथ जाने दो, ना कि यह हमारे धर्म का नहीं है, दूसरे धर्म का है, वह हमारी जाति का नहीं है, ऊँची जाति वाला है, नीची जाति वाला है। आख़िर धर्म-जाति, रीति-रिवाज़, परम्परा के नाम पर यह सब नौटंकी काहे को पाले हुए हैं।"

"अरे चुप रहो, तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो, वह भी इतना तेज़ और हमसे कह रहो कि चुप रहो, चुप रहो।"

"क्या करूँ। इतनी ग़ुस्सा आ रहा है कि मन करता है इन सबको जंगल में ले जाकर छोड़ दूँ। कह दूँ कि जब हर इंसान को उसके हिसाब से जीने देने का अधिकार देने की आदत डाल सको तो इंसानों के बीच में आ जाना। अच्छा सुनो, आवाज़ बाहर तक जा रही होगी। हम दोनों अब चुप ही रहेंगे।"

"ठीक है, नहीं बोलूँगी, लेकिन सुनो किसी ट्रेन की आवाज़ आ रही है।"

"कोई मालगाड़ी होगी। पैसेंजर गाड़ी तो साढ़े तीन बजे है, जो हम दोनों को यहाँ से दूर, बहुत दूर तक ले जाएगी।"

"पैसेंजर है तो हर जगह रुकते-रुकते जाएगी।"

"नहीं अब पहले की तरह पैसेंजर ट्रेन्स भी नहीं चलतीं कि रुकते-रुकते रेंगती हुई बढ़ें। समझ लो कि पहले वाली एक्सप्रेस गाड़ी हैं जो पैसेंजर के नाम पर चल रही हैं। यहाँ से चलेगी तो तीन स्टेशन के बाद ही इसका पहला स्टॉपेज है।"

"सुनो, तुम सही कह रहे थे। देखो मालगाड़ी ही जा रही है।"

"हाँ।"

"लेकिन तुम इतना दूर क्यों खिसक गए हो। मेरे और पास आओ ना। मुझे पकड़ कर बैठो।"

"पकड़े तो हूँ। और कितने पास आ जाऊँ? अब तो बीच में से हवा भी नहीं निकल सकती।"

"नहीं। हम दोनों के मुँह के बीच से हवा निकल रही है। इसलिए और पास आ जाओ। इतना पास आ जाओ कि मुँह के बीच में से भी हवा ना निकल पाए।"

"लो, आ गया। अब कहने को भी बीच से हवा नहीं निकल पाएगी।"

"बस ऐसे ही ज़िंदगी भर साथ रहना।"

"ये भी कोई कहने की बात है।"

"पता नहीं कहने की बात है या नहीं लेकिन टाइम क्या हो रहा है?"

"अरे, कितनी बार टाइम पूछोगी?"

"टाइम ही तो पूछा है, इतना ग़ुस्सा क्यों हो रहे हो।"

"ग़ुस्सा नहीं हो रहा हूँ। जानती हो एक घंटे में तुम यह आठवीं बार टाइम पूछ रही हो।"

"पता नहीं। मैं तुम्हारी तरह गिनतीबाज़ नहीं हूँ। मुझे डर लग रहा है, इसलिए बार-बार सोच रही हूँ कि कितनी जल्दी ट्रेन आ जाए और हम लोग यहाँ से निकल चलें।"

"ट्रेन अपने टाइम से ही आएगी। हमारे टाइम या सोचने से नहीं।"

"फिर भी बताओ ना।"

"अभी साढ़े आठ बजे हैं, ठीक है। अब टाइम पूछ-पूछ कर शोर न करो। कोई आसपास सुन भी सकता है। समझती क्यों नहीं।"

"इतना धीरे बोल रही हूँ बाहर कोई नहीं सुन पाएगा।"

"फिर भी क्या ठिकाना?"

"लो, इतनी बात कह डाली मगर टाइम नहीं बताया।"

"हद कर दी, अभी बताया तो कि साढ़े आठ बजे हैं। सुनना भी भूल गई हो क्या?"

"इतना अँधेरा है, ऊपर से जब गाड़ी का टाइम कम ही नहीं हो रहा है तो क्या करूँ?"

"तुम चुपचाप बैठी रहो बस और कुछ ना करो। सब ठीक हो जाएगा। मैं हूँ ना, मुझ पर भरोसा रखो। तुमको परेशान होने, डरने की ज़रूरत नहीं है।"

"परेशान नहीं हूँ। तुम पर भरोसा करती हूँ, तभी तो सब छोड़-छाड़ कर तुम्हारे साथ हूँ।"

युवक युवती की व्याकुलता, तकलीफ़ों से परेशान हो उठा है। उसे उस पर बड़ी दया आ रही है कि कैसे उसे आराम दे। यह सोचते हुए उसने कहा, "ऐसा करो तुम सो जाओ, अभी बहुत टाइम बाक़ी है।"

"कहाँ सो जाऊँ? यहाँ क्या बिस्तर लगा है जो मैं सो जाऊँ।"

"बिस्तर तो नहीं है लेकिन इस पर लेट कर आराम कर सकती हो। इसलिए इसी पर लेट जाओ। टाइम होने पर मैं तुम्हें उठा दूँगा।"

युवक की बातों से युवती बहुत भावुक हो रही है। कुछ देर चुप रहने के बाद कह रही है। "मैं सो जाऊँ, आराम करूँ और तुम जागते रहो।"

"और क्या, एक आदमी को तो जागना ही पड़ेगा। नहीं तो गाड़ी आकर निकल जाएगी और पता भी नहीं चलेगा।"

"ठीक है तो दोनों जागेंगे।"

यह लीजिए। यह कहते हुए युवती युवक से लिपट गई है। उसे बाँहों में भर लिया है। दोनों अब अँधेरे में अभ्यस्त हो गए हैं। एक मोबाइल बहुत कम ब्राइटनेस के साथ ऑन करके युवक ने ज़मीन पर उल्टा करके रखा हुआ है। उसके एक सिरे पर नीचे कागज़ मोड़कर रख दिया है जिससे मोबाइल एक तरफ़ हल्का सा उठा हुआ है और आसपास कहने को कुछ लाइट हो रही है। युवक बड़े प्यार से युवती की पीठ सहलाते हुए कह रहा है, "ज़िद क्यों कर रही हो? अभी बहुत टाइम है। तुम्हारा साढ़े तीन बजे तक बैठे रहना अच्छा नहीं है। थक जाओगी फिर आगे चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।"

"ऐसा करते हैं ना, पहले मैं सो लेती हूँ, उसके बाद तुम सो लेना। थोड़ी-थोड़ी देर दोनों सो लेते हैं।"

"तुम्हें ये क्या हो गया है कि सोने के ही पीछे पड़ी हो?"

"तुम अकेले बहुत ज़्यादा थक जाओगे इसीलिए कह रही हूँ।"

"ऐसा है तुम लेट जाओ। चलो इधर आओ। अपने पैर सीधे करो और सिर मेरे पैर पर रख लो। ऐसे ही लेटी रहो।"

युवती की ज़िद से खीझे युवक ने एक तरह से उसे खींचते हुए ज़बरदस्ती लिटा लिया है। वह लेटती हुई कह रही है, "देखो जागते रहना, तुम भी सो मत जाना।"

"मेरी चिंता मत करो। मैं तभी सोऊँगा जब यहाँ से सही-सलामत निकलकर दिल्ली पहुँच जाऊँगा।"

"ये बताओ दिल्ली ही क्यों चल रहे हो?"

"क्योंकि वहाँ पर बहुत सारे लोग हैं। इसलिए वहाँ हमें कोई ढूँढ़ नहीं पाएगा।"

"पहले कभी गए हो वहाँ, जानते हो वहाँ के बारे में?"

"पहले कभी नहीं गया। थोड़ा बहुत जो जानता हूँ वह यू-ट्यूब, गूगल, पेपर वगैरह में जो भी पढ़ा-लिखा, देखा, बस वही जानता हूँ।"

"कहाँ रुकेंगे और क्या करेंगे?"

"पहले यहाँ से निकलने की चिंता करो। वहाँ पहुँचकर देख लेंगे।"

"हाँ, सही कह रहे हो।"

यह दोनों भी ग़ज़ब के हैं। एक-दूसरे को बार-बार चुप रहने को कहते हैं, लेकिन बातें अनवरत करते जा रहे हैं। इसी समय फिर बोगी के आसपास कुछ आहट हुई है। सजग युवक उसे चुप कराते हुए कह रहा है "एकदम शांत रहना, लगता है कोई इधर से निकल रहा है।"

"तुम्हें कैसे पता चला, हमें तो कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही," युवती फुसफुसाती हुई कह रही है।

"झाड़ियों की सरसराहट नहीं सुन रही हो। अभी तुम चुप रहो, बाद में बताएँगे।"

इस समय दोनों एकदम साँस रोके हुए पड़े हैं। हिल-डुल भी नहीं रहे हैं। सच में भयभीत कर देने वाला दृश्य है। झाड़ियों से सरसराहट की ऐसी आवाज़ आ रही है मानो कोई बड़ा जानवर उनके बीच से निकल रहा है। बोगी के एकदम क़रीब आकर सरसराहट की आवाज़ रुक गई है। मगर किसी जानवर की बहुत हल्की गुर्राहट, साथ ही नथुने से तेज़ सूँघने जैसी आवाज़ आ रही है। जैसे वह सूँघ कर आसपास क्या है यह जानना चाह रहा है।

भय से संज्ञा-शून्य कर देने वाला माहौल बना हुआ है। क़रीब तीन-चार मिनट बाद सरसराहट फिर शुरू हुई है और अब दूर जाती हुई ग़ायब हो गई है। अब तक दोनों साँस रोके हुए बैठे हैं। युवती डर के मारे पसीने से तर हो रही है। उसकी साँसें इतनी तेज़ चल रही हैं कि जैसे वह कई किलोमीटर लगातार दौड़कर आई है। उसकी धड़कन की धुक-धुक साफ़ सुनाई दे रही है। झाड़ियों में हलचल ख़त्म होने के बाद वह कह रही है।

"तुम सही कह रहे थे, झाड़ियों में से कुछ लोग निकले तो ज़रूर हैं।"

"जिस तरह से तेज़ आवाज़ हो रही थी झाड़ियों में उससे एक बात तो पक्की है कि कोई जानवर था। बड़ा जानवर। कुछ आदमियों के निकलने से ऐसी आवाज़ नहीं आती।"

"तो हम लोग यहाँ पर सुरक्षित हैं ना?"

"हाँ, हम सुरक्षित हैं। लेकिन ख़तरा तो बना ही हुआ है।"

"ख़तरा ना होता तो हम यहाँ..."

इसी समय बाहर फिर आवाज़ होने पर युवक बड़ी फुर्ती से युवती को चुप करा रहा है, "चुप चुप, सुन, मेरा मन कह रहा है की झाड़ियों में अब जो आवाज़ हुई है वह किसी जानवर की नहीं है। मुझे लगता है कि कई लोग हमें एक साथ ढूँढ रहे हैं। नौ बज गया है। हमारे घर वाले ही होंगे। कई लोग एक साथ निकले होंगे।" यह सुनकर युवती हड़बड़ा कर उठ बैठी है। थोड़ा झुँझलाया हुआ युवक कह रहा है, "इस तरफ़ से ज़्यादा आवाज़ आई है। इसलिए चुपचाप लेटी रहो। बैठ क्यों गई?"

"क्योंकि अब मुझसे और नहीं लेटा जाता।"

"ठीक है, बैठी रहो, लेकिन इतना डर क्यों रही हो? मुझे इतना जकड़े जा रही हो, लगता है जैसे मेरी हड्डी-पसली तोड़ने की कोशिश कर रही हो।"

"मुझे ऐसे ही पकड़े रहने दो। मुझे बहुत ज़्यादा डर लग रहा है। छोड़ दूँगी तो मेरी तो साँस ही रुक जाएगी।"

"इतना डरने से काम नहीं चलेगा। इतना ही डरना था तो घर से निकलती ही ना। मैंने तुम्हें पहले ही कितनी बार बताया था कि हिम्मत से काम लेना पड़ेगा, तभी निकल पाएँगे। डरने से कुछ नहीं होगा, समझी। इस तरह डरोगी तो ऐन टाइम पर सब गड़बड़ कर दोगी। सबसे अच्छा है कि इस समय कुछ भी बोलो ही नहीं। रात गहराती जा रही है, ढूँढ़ने वाले पूरी ताक़त से चारों तरफ़ लगे होंगे। सब इधर-उधर घूम रहे होंगे। इसलिए एकदम साँस रोक के लेटी रहो या बैठी रहो। जैसे भी रहो, आवाज़ बिल्कुल भी नहीं करो, जिससे मुझे कुछ बोलने के लिए मजबूर ना होना पड़े।"

"लेकिन सुनो।"

"हाँ बोलो।"

"मतलब यह कि मुझे, मुझे जाना है.. मतलब कि...। तुमने वहाँ भी तो देख लिया था ना सब कुछ। सब ठीक है ना। दरवाजा बंद तो नहीं है।"

"पता नहीं, इसका तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि इतने घंटों तक रहेंगे तो बाथरूम भी जाना पड़ेगा। अच्छा तुम यहीं पर लेटी रहो, मैं देखकर आता हूँ किधर ठीक-ठाक है। फिर ले चलता हूँ।"

"नहीं। मैं भी साथ चलूँगी। यहाँ मैं अकेले नहीं रुकूँगी।"

"ठीक है आओ।"

युवक युवती का हाथ पकड़कर एकदम झुके-झुके बाथरूम के पास पहुँच गया है। लाइट के लिए बीच-बीच में मोबाइल को ऑन कर रहा है। बाथरूम में नज़र डाल कर कह रहा है, "देखो बाथरूम तो गंदा पड़ा है। दरवाज़ा भी एकदम ख़राब है। आधा खुला है, जाम है, बंद भी नहीं होगा।"

घबराई युवती और परेशान हो उठी है। वह बड़ी जल्दी में है। कह रही है, "बंद नहीं होगा, तो मैं जाऊँगी कैसे?"

"देखो दरवाज़ा बहुत समय से जाम है। बंद करने के चक्कर में आवाज़ हो सकती है समझी। मैं नहीं चाहता कि इस तरह का कोई ख़तरा उठाऊँ। मैं इधर ही खड़ा हूँ तुम जाओ अंदर।"

लग रहा है कि युवती के पास समय नहीं है। वह कह रही है, "मोबाइल की टॉर्च तो जला दो।"

"पगली हो क्या? बार-बार कह रहा हूँ कि लाइट इस अँधेरे में बहुत दूर से ही लोग देख लेंगे। स्क्रीन लाइट ही बहुत है। समझ लो दीये की रोशनी में हो। ठीक है। जल्दी से जाओ।"

"अच्छा तुम यहीं खड़े रहना, कहीं जाना नहीं।"

"ठीक है, मैं यहीं बगल में खड़ा हूँ।"

"नहीं, और इधर आओ। मुझसे दूर नहीं जाओ।" डर के मारे युवती रुआँसी हो रही है। लेकिन युवक हिम्मत बढ़ा रहा है।

"तुम तो एकदम छोटी बच्ची जैसी हरकत कर रही हो।"

"डाँटो नहीं। नहीं तो मेरी जान ही निकल जाएगी।"

"डाँट नहीं रहा हूँ। तुम्हें समझा रहा हूँ, रिस्क लेना अच्छा नहीं है। अब जाओ जल्दी से।"

हड़बड़ाती, लड़खड़ाती, सहमी सी युवती अब बाथरूम से होकर लौट रही है। उसकी आँखों में आँसू चमक रहे हैं। सुनिए अब क्या कह रही है, "चलो, अब उधर चलो। एक मिनट रुकने को कहा तो दुनिया भर की बातें सुना डाली। तुम्हें भी करना हो तो कर लो। नहीं तो बाद में मुझे अकेला छोड़कर आओगे। लेकिन मैं आने नहीं दूँगी।"

"हाँ, लगी तो मुझे भी है।"

यह सुनकर पता नहीं क्यों युवती हँस पड़ी तो युवक खिसिया गया है। कह रहा है, "अरे इसमें हँसने की क्या बात है। पाँच घंटे हो गए हैं, तुम्हें लग सकती है तो क्या मुझे नहीं?"

इस स्थिति में भी दोनों हास-परिहास कर ही ले रहे हैं। युवक बाथरूम के दरवाज़े पर है, उसकी हरकत पर युवती कह रही है, "क्या कर रहे हो? धक्का दे दूँगी, समझे। दरवाज़ा खोलो, जाओ, अंदर जाओ।"

"अरे, तुम तो ऐसे शर्मा रही हो कि क्या बताऊँ।"

"हाँ तो, अभी हम पति-पत्नी तो हैं नहीं।"

इस बात का युवक लौटते वक़्त जवाब दे रहा है। "अच्छा, तुम क्या कह रही थी अभी, हम पति-पत्नी नहीं हैं, तो क्या हैं, यह बताओगी।"

"सही तो कह रही हूँ। अभी हमारी शादी कहाँ हुई है। हम पति-पत्नी तो हैं नहीं। अभी तो हम दोनों एक साथ निकले हुए हैं। एक-दूसरे से प्यार करते हैं। प्रेमी हैं। एक-दूसरे की जान हैं। नहीं, नहीं एक ही जान हैं बस।"

"मेरी नज़र में यही सबसे बड़ा रिश्ता है कि हम एक हैं। कुछ रस्में निभाने से दो अनजान लोगों के अचानक एक साथ मिलने से कोई फ़ायदा नहीं। हम दोनों एक-दूसरे को चाहते हैं बस। मैं इसके अलावा कोई रिश्ता जानता ही नहीं।"

"सही कह रहे हो तुम। मैं तो ग़लती कर रही थी। आओ बैठो।" ये क्या बैठते वक़्त युवती का सिर युवक की नाक से टकरा गया। तो वह बोला, "सँभलकर।"

"क्या करूँ, अँधेरे में दिखाई नहीं दे रहा। तुम्हें ज़्यादा तेज़ तो नहीं लगी।"

युवती परेशान हुई तो वह बोला, "नहीं, तुम्हारा सिर भी मुझे फूल जैसा ही लगता है।"

युवक प्यार से युवती का सिर सहलाते हुए कह रहा है। जबकि नाक में उसे अच्छी ख़ासी तेज़ चोट लगी है। युवती कह रही है, "अच्छा, कभी होठों को फूल कहोगे, कभी सिर को। ख़ैर तुम चाहे जो कहो, अच्छा लगता है।" युवती ने युवक का हाथ चूम लिया तो वह बड़ा रोमांटिक हो कह रहा है।

"ऐसे प्यार मत जताओ, नहीं तो मुझे भी प्यार करने का मन करने लगेगा।"

"तो करो ना। ऐसे तो अकेले में जब भी मिलते हो तो प्यार करने का कोई रास्ता छोड़ते ही नहीं हो। यहाँ तीन घंटे से एक साथ हैं। कोई आसपास भी नहीं है। अँधेरा भी है। मगर मैं देख रही हूँ कि तुमने अब तक प्यार का एक शब्द भी नहीं बोला है। बस ये ना करो। वो ना करो। इसके अलावा कुछ बोला हो तो बताओ।"

"मैं हर काम सही टाइम पर, सही ढंग से ही करता हूँ। मेरा पूरा ध्यान ट्रेन पर लगा हुआ है कि कैसे यहाँ से निकलें।" युवक बात पूरी भी नहीं कर पाया कि फिर कुछ हुआ है। उसने युवती का मुँह दबाकर उसे चुप करा दिया है। कह रहा है, "कुछ बोलना नहीं। लगता है दूसरी तरफ़ से कोई इधर ही आ रहा है। तुम यहीं रहो मैं खिड़की से झाँक कर देखता हूँ।"

"नहीं, यहीं ध्यान से सुनो।"

"बाहर देखकर ही सही बात पता चलेगी। इसलिए ऐसा है तुम एकदम सीट के नीचे जाओ, बिल्कुल नीचे। एकदम चिपक जाओ दीवार से। साँस लेने की भी आवाज़ न आए।" युवक युवती को सीट के एकदम नीचे धकेल कर बंद खिड़की की झिरी से बाहर कुछ देर देखने के बाद वापस आया गया है। युवती से कह रहा है, "आओ, बाहर निकलो। तीन-चार शराबी लग रहे थे। सब आगे चले गए।"

"मुझे बड़ा डर लग रहा है। कहीं यहाँ ना आ जाएँ।"

"बिल्कुल नहीं आएँगे। यहाँ साफ़ करने आया था, तो बहुत पुरानी शराब की बोतलें देखकर समझ गया था कि बहुत समय से यहाँ कोई नहीं आया। पुलिस रेड के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। यह सभी आगे कहीं और ठिकाना बनाए होंगे, वहीं चले गए।"

"सुनो, एक बात पूछूँ, ग़ुस्सा तो नहीं होगे ना?"

"पूछो।"

"देखो, अब कितना टाइम हो रहा है?"

युवती के टाइम पूछते ही युवक ने बड़े प्यार से उसके गालों को खींच लिया है। युवती भी प्यार से बोल रही है, "अरे, टाइम देखने को कहा है। गाल नोचने को नहीं।"

"मन तो कर रहा है तुम्हें पूरा का पूरा नोंच डालूँ। अभी तो केवल दस बजे हैं।"

"अब और कितने घंटे बाक़ी रह गए हैं।"

"क़रीब साढ़े पाँच घंटे बाक़ी हैं।"

"अच्छा, तुम्हें भूख नहीं लग रही क्या?"

"नहीं, मुझे भूख नहीं लगी है। तुम्हें लगी है तो लो तुम खाओ।"

युवक ने बड़ी फुर्ती से एक पैकेट उसे थमा दिया। मगर युवती कहाँ मानने वाली है। कह रही है, "नहीं, मैं अकेले नहीं खाऊँगी, तुम भी लो।" अब दोनों ही कुछ खा रहे हैं। युवती खाते-खाते ही लेट गई है। सिर युवक की जाँघों पर रख दिया है। दोनों फुसफुसाते हुए कुछ बातें भी कर रहे हैं। जो सुनाई नहीं दे रही हैं। बीच-बीच में एक-दूसरे को प्यार करते-करते दोनों जल्दी ही उसी में खो गये हैं। दोनों के प्यार की नज़र इतनी तेज़ है कि उन्हें लाइट की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। बड़ी शांति से घंटा भर निकल गया। चटाई, सामान वग़ैरह फिर से व्यवस्थित करने के बाद युवती कह रही है, "मैं जानती हूँ कि तुम ग़ुस्सा होने लगे हो। लेकिन ज़रा एक बार फिर से टाइम देख लो।"

"अभी तो ग्यारह ही बजे हैं।"

"अच्छा मान लो कि ट्रेन दो घंटे लेट हो गई तो।"

"तो सवेरा हो जाएगा। लोग हमें आसानी से देख लेंगे। तब इसी जगह छिपे रहने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचेगा।"

"लेकिन क्या दिन में कोई ट्रेन नहीं है?"

"हैं तो कई, लेकिन दिन में ख़तरा कितना रहेगा, यह भी तो सोचो। कोई ना कोई तुम्हारे, हमारे परिवार का ढूँढ़ता हुआ यहाँ मिल सकता है। तब तक हो सकता है पुलिस में रिपोर्ट लिखा चुके हों। ऐसे में पुलिस भी सूँघती फिर रही होगी।"

"मतलब कि चाहे जैसे भी हो हम लोगों को साढ़े तीन बजे वाली ट्रेन से ही चलना है और ऊपर वाले से दुआ यह करनी है कि ट्रेन टाइम से आ जाए। आधे घंटे भी लेट ना हो कि सवेरा होने लगे।"

"मुझे पूरा विश्वास है कि ट्रेन टाइम से आएगी। भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि हे भगवान, जैसे भी हो आज ट्रेन को टाइम से ही भेजना। माना कि हम लोग अपने माँ-बाप से छिपकर भाग रहे हैं, ग़लत कर रहे हैं। वह भी आपकी तरह भगवान ही हैं, आप ही का रूप हैं। लेकिन एक तरफ़ यह भी तो है कि हम एक-दूसरे को जी जान से चाहते हैं। अगर नहीं भागेंगे तो मार दिए जाएँगे। इससे हमारे माँ-बाप पर भी हमारी हत्या का ही पाप चढ़ेगा। वह जीवन भर दुखी अलग रहेंगे। बाद में आप भी उनको इसके लिए सज़ा देंगे।

हम नहीं चाहते कि हमारे माँ-बाप को आप एक मिनट की भी कोई सज़ा दें। हम यहाँ से बच के निकल जाएँगे तो कुछ दिन बाद उनका ग़ुस्सा धीरे-धीरे कम हो जाएगा। फिर जब कभी हम वापस लौटेंगे तो वह हमें फिर से अपना लेंगे। इस तरह ना उनसे कोई पाप होगा, ना आप उनसे नाराज़ होंगे और हम अपना-अपना प्यार पाकर पति-पत्नी बन जाएँगे।"

"तुम सही कह रहे हो। जैसे भी हो ट्रेन टाइम से आए ही और जब तक हम यहाँ से दूर बहुत दूर ना निकल जाएँ तब तक किसी को कानों-कान ख़बर तक ना हो।"

"भरोसा रखो भगवान पर। वह हम लोगों का अच्छा ही करेंगे। हमारी इच्छा पूरी करेंगे और हमारे माँ-बाप को भी सारे कष्टों से दूर रखेंगे। जानता हूँ कि इससे वह लोग बहुत दुखी होंगे। बहुत परेशान होंगे, लेकिन क्या करें और कोई रास्ता भी तो नहीं बचा है। दुनिया वालों ने ऐसे नियम-क़ानून परम्पराएँ सब बना रखे हैं कि किसी को चैन से जीने ही नहीं देते। अपनी मनमर्जी से कुछ करने ही नहीं देते। जहाँ देखो कोई परम्परा खड़ी है। जहाँ देखो कोई नियम खड़ा है। कोई कुछ कर ही नहीं सकता। बस इन्हीं लोगों के हिसाब से करो। ज़िंदगी हमारी है और मालिक ये दुनिया बनी बैठी है।"

"सख़्त नियम-क़ानून, परम्पराओं तथा रीति-रिवाज़ों से हमें दुख के अलावा मिलता ही क्या है?"

"हाँ, लेकिन यह ज़रूरी भी तो है। अगर नियम क़ानून परम्पराएँ ना हों तो सारे लोग एक-दूसरे को पता नहीं क्या कर डालेंगे।"

"कुछ नहीं कर डालेंगे। सब सही रहेगा। ऐसा नहीं है कि तब कोई किसी को कुछ समझेगा ही नहीं, जो जैसा चाहेगा वैसा ही करेगा। सब एक-दूसरे को मारेंगे, काटेंगे जब जो चाहेंगे वह करेंगे एकदम अँधेर राज हो जाएगा। बिल्कुल जंगल के जानवरों से भी बदतर हालत हो जाएगी।"

युवती बड़े आवेश में आ गई है। युवक शांत करते हुए कह रहा है, "क्या बताऊँ, मानता तो मैं भी यहीं हूँ। लेकिन नियम-कानून समाज ने इसीलिए बनाए हैं कि हम में और जानवरों में फ़र्क़ बना रहे। मगर यह इतना सख़्त भी नहीं होना चाहिए कि दो लोग अपने मन की, जीवन की बातें ना कर सकें। अपने मन से जीवन जी ना सकें। अपने मन का कुछ कर ना सकें।" इसी समय युवती अचानक ही दोनों हाथों से युवक का मुँह टटोलने लगी है तो वह चौंकते हुए पूछ रहा है, "अरे! यह तुम क्या कर रही हो?"

"तुम्हारा मुँह ढूँढ़ रही हूँ। किधर है?"

"क्यों?"

"चुप रहो। मुझे लग रहा है कि आसपास फिर कुछ आहट हो रही है।"

"अच्छा, मुँह पर से हाथ तो हटाओ। मुझे सुनाई दे रहा है। यह कोई कुत्ता जैसा जानवर है। इतना फ़र्क़ तो तुम्हें पता होना चाहिए ना।"

"अरे पहली बार ऐसी रात में इस तरह कहीं पर बैठी हूँ, किसी की आहट पहचानने का कोई अनुभव थोड़ी ना है मेरे पास।"

"होना चाहिए ना। तुम्हारे घर में तो बकरी, मुर्गी-मुर्गा, कुत्ता सब पले हुए हैं। तुम्हारी मुर्गियाँ तो इतनी बड़ी और ज़बरदस्त हैं कि कुत्तों को भी दौड़ा लेती हैं।"

"दौड़ा तो तुम्हें भी लेती हैं।"

"हाँ, तुमने मुर्गियों को खिला-खिलाकर इतना मोटा-ताज़ा जो कर दिया है कि जब देखो तब लड़ने को तैयार रहती हैं और कुत्तों को तो खाना देती ही नहीं हो। वह सब साले एकदम सूखे से ऐसे हैं जैसे कि मॉडलों की तरह डाइटिंग करके सूख गए हैं।"

"ऐसा नहीं है। देशी कुत्ते इसी तरह रहते हैं, दुबले-पतले।"

"कुत्तों के बारे में इतनी जानकारी है। देशी-विदेशी, कौन मोटा होगा, पतला होगा, कैसा होगा, सब मालूम है।"

"कमाल करते हो। घर में पले हैं तो क्या इतना भी नहीं जानूँगी?"

"सच बताऊँ, तुम्हारी बात एकदम ग़लत है। पूरे गाँव में बाक़ी देशी कुत्तों को नहीं देखा है क्या, जो मोटे और बड़े भी हैं।"

"तुमने तो हद कर दी है। गाँव भर के कुत्तों की मैं जाँच-परख करती फिरती हूँ क्या? मेरे पास जैसे कुछ काम ही नहीं है।"

अनजाने ही दोनों नोंक-झोंक पर उतर आए हैं। युवती उत्तेजना में कुछ तेज़ बोल रही है। इसलिए युवक कह रहा है, "ऐसा है तू अब चुपचाप लेट जा, क्योंकि तू चुप रह ही नहीं सकती। बोलती रहेगी और कहीं किसी ने सुन लिया तो मुश्किल हो जाएगी।"

इसी बात के साथ दोनों ने ट्रैक चेंज कर दिया है। आवाज़ भी कम कर दी है। युवती एकदम फुसफुसाते हुए कह रही है।

"ऐसे बात करते रहेंगे तो टाइम कट जाएगा नहीं तो बहुत परेशान हो जाएँगे। अभी बहुत टाइम बाक़ी है।"

"परेशान होने के चक्कर में कहीं पकड़ लिए गए तो जान चली जाएगी।"

"तुम बार-बार जान जाने की बात करके डरा क्यों रहे हो?"

"डरा नहीं रहा हूँ। तुम्हें सच बता रहा हूँ। समझने की कोशिश करो, जहाँ तक हो सके शांत रहो। हो सकता है कि कोई नीचे से निकल रहा हो और हमारी बात सुन ले। बार-बार कह रहा हूँ कि रात में आवाज़ बहुत दूर तक जाती है।"

"क्यों? रात में ज़्यादा तेज़ चलती है क्या?"

"तू अब बिल्कुल चुप रह। एकदम नहीं बोलेगी, समझी।"

यह कहते-कहते युवक ने युवती का मुँह काफ़ी हद तक बंद कर दिया है। युवती छूटने की कोशिश करते हुए कह रही है, "अरे मुँह इतना कसके मत दबाओ, मेरी जान निकल जाएगी।"

"और बोलोगी तो सही में कसके दबा दूँगा। तब तक छोड़ूँगा नहीं जब तक कि तू चुपचाप पड़ी नहीं रहेगी।"

"ज़्यादा देर मत दबाना, नहीं तो मर जाऊँगी फिर यहीं की यहीं पड़ी रहूँगी।"

"तो कितनी देर दबाऊँ, यह भी बता दो।"

"बस इतनी देर कि तुम्हें अपने अंदर देर तक महसूस करती रहूँ। मगर, मगर हाथ से नहीं दबाना।"

"तो फिर किससे दबाऊँ?"

"मुँह है तो मुँह से ही दबाओ ना।"

युवती को शरारत सूझ रही है। युवक तो ख़ैर परम शरारती दिख रहा है। कह रहा है, "अच्छा तो इधर करो मुँह। बहुत बोल रही हो। अब महसूस..."

इसके आगे युवक बोल नहीं पाया। अँधेरे में वह युवती के चेहरे तक अपना चेहरा ले जा रहा है। लेकिन थोड़ा भटक गया तो युवती कह रही है, रुको-रुको, इधर तो आँख है।"

अब दोनों के चेहरे सही जगह पर हैं। युवक की आक्रामकता पर युवती कर रही है, "बस करो, बस करो अब। यह सब नहीं। बस करो।"

युवक कुछ ज़्यादा ही शरारती हो रहा है। कह रहा है, "क्यों बस, और ज़्यादा और गहराई तक महसूस नहीं करोगी क्या?"

"नहीं, अभी इतना ही काफ़ी है। बाक़ी जब दिल्ली पहुँचेंगे सही सलामत तो पूरा महसूस करूँगी। बहुत देर तक महसूस करूँगी। इतना देर तक कि वह एहसास हमेशा-हमेशा के लिए बना रहेगा। कभी ख़त्म ही नहीं होगा। पूरे जीवन भर के लिए बना रहेगा। बस तुमसे इतना ही कहूँगी कि इतना एहसास कराने के बाद कभी भूलने के बारे में सोचना भी मत। यह मत सोचना कि मुझे छोड़ दोगे, क्योंकि तुम जैसे ही छोड़ोगे मैं वैसे ही यह दुनिया भी छोड़ दूँगी। अब मेरी ज़िंदगी सिर्फ़ तुम्हारे साथ ही चलेगी। जब तक तुम साथ दोगे तभी तक चलेगी उसके बाद एक सेकेंड को भी नहीं चलेगी।"

युवती फिर बहुत भावुक हो रही है। युवक गम्भीर होकर कह रहा है।

"तुम बार-बार केवल अपने को ही क्यों कहती हो। अब हम दोनों की ज़िंदगी एक-दूसरे के सहारे ही चलेगी। अब अकेले कोई भी नहीं रहेगा।"

उसकी बात सुनते ही युवती उससे लिपटकर फिर प्यार उड़ेलने लगी तो वह उसे सँभालते हुए कह रहा है।

"ओफ्फ हो! सारा प्यार यहीं कर डालोगी क्या? मना करती हो फिर करने लगती हो। दिल्ली के लिए कुछ बचाकर नहीं रखोगी?"

"सब बचाकर रखे हुए हूँ। तुम्हारे लिए मुझमें कितना प्यार भरा है, यह तुम अभी सोच ही नहीं पाओगे। आओ अब तुम भी लेट जाओ। कब तक बैठे रहोगे। लेटे-लेटे ही जागते रहेंगे?"

"नहीं। यह लापरवाही अच्छी नहीं। ज़रा सी लापरवाही, ज़रा सा आराम हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी।"

"ठीक है। सोएँगे नहीं लेकिन कम से कम लेटे तो रहो, थोड़ा आराम कर लो। अभी आगे बहुत ज़्यादा चलना है। पता नहीं कब सोने, बैठने, लेटने को मिले।"

"तुमसे बार-बार कह रहा हूँ, ज़िद मत करो। मैं लेट जाऊँगा तो मुझे नींद आ सकती है। तुम्हें भी आ सकती है। कहीं दोनों सो गए और ट्रेन निकल गई तो जीते जी ही मर जाएँगे। दिन भर यहाँ से बाहर नहीं निकल पाएँगे। बिना खाना-पानी के कैसे रहेंगे। बाथरूम जाने तक का तो कोई ठिकाना नहीं है। कितनी गंदगी, कितना झाड़-झंखाड़, कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है। पानी तक नहीं है।"
युवक एक पल का भी रिस्क लेने को तैयार नहीं है। युवती को अपने से ज़्यादा उसकी चिंता है। इसलिए कह रही है, "तुम यक़ीन करो, जितनी ज़्यादा तुम्हें चिंता है, उतनी ही मुझे भी है। हम बिल्कुल भी नहीं सोएँगे, बैठकर बात करने के कारण थोड़ी ज़्यादा आवाज़ हो जा रही है। लेटे रहेंगे तो एकदम क़रीब रहेंगे।

धीरे-धीरे बातें करते रहेंगे। इतनी धीरे कि हमारे अलावा और कोई भी सुन नहीं पाएगा। फिर इतने झींगुरों, कीड़े-मकोड़ों की आवाज़ बाहर हो रही है। यहाँ अंदर भी कितने झींगुरों की आवाज़ सुनाई दे रही है। यहाँ तो तुमने इतना ज़्यादा साफ़ कर दिया है कि पता नहीं चल रहा है। वरना बैठना भी मुश्किल हो जाता। अच्छा, ज़रा उधर देखो, कोई लाइट इधर की तरफ़ बढ़ती हुई लग रही है।"
"हाँ... कोई टार्च लिए आ रहा है। ऐसा है तुम एकदम सीट के नीचे चली जाओ। और यह चटाई ऊपर ही डाल लो ऐसे जैसे कि कोई सामान रखा हुआ है।"

"और तुम कहाँ जा रहे हो?"

"मैं खिड़की के पास जा रहा हूँ, देखूँगा कौन है, किधर जा रहा है।"
"सँभालकर जाना। एकदम छिपे रहना। कोई देखने ना पाए।" अब तक युवती थोड़ी निडर हो चुकी है। इस बार युवक को जाने दिया। चिपकी नहीं रही उसके साथ।

युवक बड़ी सावधानी से बंद खिड़की की झिरी से बाहर आँख गड़ाए देख रहा है। बाहर ना जाने क्या उसे दिख रहा है कि उसकी साँसें फूलने लगी हैं। वह बड़ी देर बाद युवती के पास लौटा तो वह भी घबराई हुई पूछ रही है, "इतना हाँफ क्यों रहे हो?"

"मुझे अभी लगा कि जैसे हम बस अब मारे ही जाएँगे। दूर से ऐसा लग रहा था जैसे हाथ में लाठी लिए लोग चले आ रहे हैं। क़रीब आए तब दिखा कि वह सब रेलवे के ही कर्मचारी हैं। अपने औज़ार लेकर आगे जा रहे हैं। उन्हीं में से दो के हाथों में टॉर्च थी, उसी को जलाते चले आ रहे थे। जिसकी लाइट तुमने देखी थी, सोचो अगर सच में ऐसा होता कि हमारे घर वाले ही आ रहे होते, तब क्या होता?"

"कुछ नहीं होता।"

"क्या पागलों जैसी बात करती हो।"

"पागलों जैसी नहीं। सही कर रही हूँ। कुछ नहीं होता। मैं तुम्हें और तुम मुझे कसकर पकड़ लेते। फिर किसी हालत में ना छोड़ते। चाहे वह लोग हमारे-तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालते। और हम दोनों यहाँ नहीं तो मर कर ऊपर जाकर एक साथ ही रहते। ऐसे दुनिया वालों से छुटकारा मिल जाता जो हम जैसे लोगों को एक साथ रहने नहीं देते।"

"मर जाना कहीं की भी समझदारी नहीं है, मूर्खता है मेरी नजर में।"

"तो क्या उन लोगों के सामने लाठी-डंडा, गाली, अपमान के लिए ख़ुद को छोड़ दिया जाएगा।"

"नहीं, जब तक ज़िंदा हैं, जीवन है तब तक संघर्ष करते रहना चाहिए। हार नहीं माननी चाहिए। तुम हमेशा के लिए अपने मन में यह बात बैठा लो कि हमें हार नहीं माननी है। यहाँ से बचकर निकल गए तो हमेशा के लिए अच्छा ही अच्छा होगा। अगर ना निकले तो भी सामना करेंगे।"

दोनों में फिर बहस शुरू हो गई है। युवती कह रही है, "हम दोनों मिलकर अपने दोनों परिवारों के लोगों का क्या सामना कर लेंगे? उनके साथ पुलिस होगी। ढेर सारे लोग होंगे। सब हम पर टूट पड़ेंगे। मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारी चिंता है। वो तुम्हें सबसे पहले मेरे किडनैप के आरोप में पीटेंगे। हम लाख चिल्लाएँगे कि हम तुम्हारे साथ जीवन बिताने अपने मन से आए हैं। लाख सर्टिफ़िकेट दिखाएँगे कि हम बालिग हैं। लेकिन वो पिटाई के बाद ही कुछ सुनेंगे। क्योंकि हमारे घर वालों का उन पर दबाव होगा। उनकी जेबें वो गर्म कर चुके होंगे। लेकिन मैं यह सोचना भी नहीं चाहती। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूँ, मुझे पूरा यक़ीन है ऊपर वाले पर कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। हम दोनों यहाँ से अच्छी तरह से दिल्ली पहुँच जाएँगे। ट्रेन टाइम से ज़रूर आएगी।"

"जब इतना यक़ीन है तो बार-बार डर क्यों रही हो।"

"हम भी इंसान हैं। इंसान डरता भी है और डराता भी है। वह लोग सब कुछ करेंगे ही ना, हमें अलग करने के लिए। आसानी से हमें एक नहीं होने देंगे। जी जान लगा देंगे हमें अलग करने के लिए। तो हमें भी जी जान से एक बने रहना है।"

"तुम्हें कॉलेज में कौन टीचर समझाती है, पढ़ाती है? तुम्हारे भेजे में कुछ है भी या नहीं?"

"टीचर पढ़ाती क्या है वह ख़ुद ही पढ़ती रहती है।"

"मेरे कॉलेज में तो मास्टर साहब पढ़ाते हैं। काम ना करो तो आफ़त कर देते हैं।"

"मेरे यहाँ तो टीचर को ही कुछ पता नहीं है। मोबाइल पर न जाने किससे हमेशा चैटिंग करती रहती है। बीच में कुछ पूछ लो तो चिल्ला पड़ती है। ग़ुस्सा होकर ऐसा काम देती है कि करते रहो, करते रहो लेकिन वो पूरा होने वाला नहीं। फिर चैटिंग से फ़ुर्सत पाते ही तमाम बातें सुनाती है। अच्छा ज़रा एक बार फिर से तो टाइम देख लो।"

इस बार युवक ने बिना ग़ुस्सा दिखाए कहा, "अभी तो बारह भी नहीं बजे, दस मिनट बाक़ी हैं।"

"तो ज़रा मेरे साथ उधर तक एक बार फिर चलोगे क्या?"

"फिर से जाना है?"

"हाँ, इसीलिए तो पानी नहीं पी रही थी।"

"चलो, लेकिन बैठे-बैठे चलना। खड़ी नहीं होना। कई खिड़कियाँ खुली हुई हैं, टूटी हैं, बंद भी नहीं हो रही हैं। कई बार बंद करने कोशिश की थी, मगर सब एकदम जाम हैं। इसलिए बैठे-बैठे ही चलना जिससे बाहर कोई भी देख ना सके।"

"बैठे-बैठे कैसे चलेंगे?"

"जैसे बैठे-बैठे अपने घर के आँगन की सफ़ाई करती हो, वैसे ही।"

"अरे तुमने कब देख लिया आँगन में सफ़ाई करते हुए।"

"जब एक बार छोटी वाली चाची को डेंगू हो गया था तो वैद्य जी ने बताया कि बकरी का दूध बहुत फ़ायदा करेगा। मैं सवेरे-सवेरे वही लेने तुम्हारे यहाँ आता था। तभी तुम्हें कई बार देखा था बैठे-बैठे आँगन की सफ़ाई करते हुए। जैसे बूढ़ी औरतें करती हैं और धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ती जाती हैं। वैसे ही इस समय भी नीचे-नीचे चलो, मैं भी ऐसे ही चलूँगा।"

बड़ा अजीब दृश्य है। दोनों उकंड़़ू बैठे-बैठे आगे बढ़ रहे हैं। असल में अँधेरा बोगी के कुछ हिस्सों में थोड़ा कम है। बाहर दूर-दूर तक रेलवे ने जो लाइट लगा रखी हैं उनका थोड़ा असर दूर खड़ी इस बोगी के दरवाज़े, टूटी-फूटी खिड़कियों से अन्दर तक होता है। दोनों बाथरूम की ओर आगे बढ़ रहे हैं। बोलते भी जा रहे हैं, "इस तरह वहाँ तक पहुँचने में तो पता नहीं कितना टाइम लग जाएगा।"

"कुछ टाइम नहीं लगेगा, लो पहुँच गए।"

"कहाँ पहुँच गए, बाथरूम किधर है। मुझे कुछ दिख नहीं रहा। मोबाइल ऑन करो ना।"

"तुम भी आफ़त कर देती हो। लो कर दिया अब तो दिखाई दिया।"

"हाँ दिखाई दिया। अभी कितनी तो दूर है और कह रहे थे कि पहुँच गए।"

"ठीक है अब उठ जाओ इधर की खिड़कियाँ बंद हैं।"

बाथरूम से वापस पहुँच कर दोनों फिर अपनी जगह बैठ गए हैं। लेकिन पहले की अपेक्षा अब शांत हैं। थकान और नींद का असर अब दोनों पर दिख रहा है। ये ना हावी हो यह सोचकर युवती कह रही है।

"बैठे-बैठे इतना टाइम हो गया, पता नहीं कब साढ़े तीन बजेगा। अभी भी दो घंटा बाक़ी हैं। सुनो कुछ खाने के लिए निकालो ना।"

इस समय मोबाइल युवती के हाथ में है। युवक का तंज सुनिए।

"तुम लड़कियों के दो काम कभी नहीं छूटते।"

"कौन-कौन से?"

"एक तो कभी चुप नहीं रह सकतीं। दूसरे उनको हमेशा कुछ ना कुछ खाने को मिलता रहना चाहिए। जिससे उनका मुँह चपर-चपर चलता रहे।"

"अच्छा, जैसे तुम लड़कों का दिनभर नहीं चलता। जब देखो तब मुँह में मसाला भरे चपर-चपर करते रहते हो। पिच्च-पिच्च थूक कर घर-बाहर, हर जगह गंदा किये रहते हो।"

"मैं मसाला-वसाला कुछ नहीं खाता, समझी। इसलिए मुझे नहीं कह सकती।"

"मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रही हूँ। तुमने लड़कियों की बात की तो मैंने लड़कों के बारे में बताया। मुँह चलाते रहने के अलावा जैसे उनके पास कोई काम ही नहीं है।"

"अच्छा ठीक है, ये लो नमकीन और बिस्कुट, खाओ। लेकिन कुछ बोलो नहीं।"

"तुम भी खाओ ना, अकेले नहीं खा पाऊँगी।"

"हे भगवान। बार-बार वही बकवास करती रहती है। मैं तो खा ही रहा हूँ।"

"अरे, खाने ही को तो कहा है। काहे ग़ुस्सा हो रहे हो।"

युवती ने लगभग आधी मुट्ठी नमकीन मुँह में डालकर खाना शुरू किया है। नमकीन काफ़ी कुरकुरी लग रही है क्योंकि उसके मुँह से कुर्र-कुर्र की आवाज़ सुनकर युवक कह रहा है।

"तू नमकीन खा रही है कि पत्थर चबा रही है, कितनी तेज़ आवाज़ कर रही है।"

"कमाल की बात करते हो। कड़ी चीज़ होगी तो आवाज़ तो होगी ही ना। क्या सब ऐसे ही निगल जाऊँ।"

"नहीं, जितनी तेज़ कुर्र-कुर्र कुरा सकती हो कुर्र कुराओ।

"ठीक है, मैं अब केवल बिस्कुट ही खाऊँगी, इससे कोई आवाज़ नहीं होगी।"

"अरे मैं मज़ाक कर रहा था। ले और खा और ये पानी पकड़।"

"नहीं, पानी तो बिल्कुल नहीं पियूँगी।"

"क्यों?"

"फिर जाना पड़ेगा और तुम बोलोगे कि बैठे-बैठे चलो। और मैं कहूँगी कि तुम भी कर लो तो कहोगे क्या ज़बरदस्ती कर लूँ। अच्छा सुनो, मैं थोड़ी देर लेटना चाहती हूँ, बहुत थक गई हूँ।"

"ठीक है लेट जाओ।"

"चाहो तो तुम भी थोड़ी देर लेट लो ना। बहुत टाइम हो गया है। पूरे दिन से लगातार कुछ न कुछ कर रहे हो। लगातार बैठे हो या चल रहे हो।" इस बार युवक पर थकान ज़्यादा हावी हो गई है। वह कह रहा है।

"ठीक है, चलो थोड़ा उधर खिसको, तभी तो लेटूँगा। अरे मुझे इतना क्यों पकड़ रही हो, गुदगुदी लग रही है।"

"तुम चटाई पर ही आओ ना, उधर ज़मीन पर क्यों जा रहे हो।"

"आ तो गया हूँ लेकिन तुम इतना कसकर पकड़ रही हो कि मुझे गुदगुदी लग रही है।"

"पकड़ नहीं रही हूँ, केवल साथ में ले रही हूँ।"

"ठीक है। चलो उधर खिसको, आ रहा हूँ।"

दोनों चटाई पर एक-दूसरे में समाए हुए लेटे हैं। मुश्किल से दस मिनट ही हुआ है कि यह क्या युवती एकदम से हड़बड़ाकर उठ बैठी है। उसके मुँह से घुटी-घुटी सी ई--ई की आवाज़ निकल गई है। युवक भी उसी के साथ उठ बैठा है। काफ़ी घबराया हुआ है और युवती से पूछ रहा है, "क्या हुआ?" युवती अपनी सलवार ऊपर खींचती हुई कह रही है।

"लगता है कपड़े में कोई कीड़ा घुस गया है।" युवक ने जल्दी से मोबाइल टॉर्च ऑन करके देखा तो घुटने से थोड़ा नीचे क़रीब दो इंच का एक कनखजूरा चिपका हुआ था। युवक ने पल भर देरी किये बिना उसे खींचकर अलग किया और जूते से मार दिया। बिल्कुल कुचल दिया। युवती थर-थर काँप रही है। युवक ने बड़ी बारीक़ी से उस जगह को चेक किया, जहाँ कनखजूरा चिपका था। बड़ी देर में दोनों निश्चिंत हो पाए कि उसने काटा नहीं है। दोनों के चेहरे पर पसीने की बूँदें साफ़ दिख रही हैं। युवक ने एक बार फिर से पूरी जगह को बारीक़ी से साफ़ किया और फिर से दोनों लेट गए हैं। 

अब आप इस युवा कपल को क्या कहेंगे? दिन भर के थके थे। ना सोने की तय किये थे। इसलिए बार-बार बात नहीं करेंगे कहते लेकिन बात करते ही रहे। लेकिन तय समय के क़रीब आकर नींद से हार कर सो गए। अब यह सोना इनकी ख़ुशकिस्मती है या बदकिस्मती। आइए देखते हैं। बड़ी देर बाद युवती घबराकर उठ बैठी है। अफनाई हुई कह रही है।

"सुनो-सुनो, जल्दी उठो, देखो ट्रेन जा रही है क्या?"

युवक बड़ी फुर्ती से हड़बड़ा खिड़की से बाहर देख रहा है। जाती हुई ट्रेन की पहचान कर माथा पीटते हुए कह रहा है, "हे भगवान, यह तो वही ट्रेन है। अब क्या होगा? मैं बार-बार कह रहा था सो मत, लेकिन तू तो पता नहीं कितनी थकी हुई थी। बार-बार लेट जाओ, आओ लेट जाओ, लो लेट गए, लेट हो गए और ट्रेन चली गई। बताओ अब क्या करूँ। यहीं पड़े रहे अगले चौबीस घंटे तक तो घर वाले ढूँढ़ ही लेंगे। निकाल ले जाएँगे यहाँ से। कल अँधेरा होने की वज़ह से नहीं आ पाए।

दो घंटे बाद जहाँ सवेरा हुआ तो पूरा दिन है उनके पास। चप्पा-चप्पा छान मारेंगे वह। हमें निश्चित ही ढूँढ़ लेंगे और तब ना ही मैं ज़िंदा बचूँगा और ना ही तुम। बुरी मौत मारे जाएँगे। पहले सब पंचायत करेंगे, पूरा गाँव चारों तरफ़ से इकट्ठा होगा। हमें अपमानित किया जाएगा। मारा-पीटा जाएगा और फिर बोटी-बोटी काटकर फेंक दिया जाएगा वहीं।"

"नहीं ऐसा मत बोलो।"

"तो क्या बोलूँ, जो सामने दिख रहा है वही तो बोलूँगा ना। अब ऐसे रोने-धोने से काम नहीं चलेगा। जो है उसे देखो और सामना करो।"

"तुम भी तो इतनी गहरी नींद सो गए। मेरे नींद लग गई थी तो कम से कम तुम तो जागते रहते।"

"बड़ी बेवकूफ हो, तुम्हीं पीछे पड़ गई थी कि आ जाओ, सो जाओ, तब मैं लेटा था। मैं भी थका हुआ था कि नहीं।"

"तो मैं क्या करती। अच्छा सुनो अभी ख़ाली यह बताओ कि किया क्या जाए?"

"सिवाए इंतज़ार के और कुछ नहीं। कल रात को जब ट्रेन आएगी तभी चल पाएँगे। दिन में तो यहाँ से निकलना भी सीधे-सीधे मौत के मुँह में जाना है।"

"लेकिन तुम तो कह रहे हो कि दिन होगा तो वह लोग यहाँ तक भी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहुँच ही जाएँगे।"

"सही तो कह रहा हूँ। पूरा दिन होगा उनके पास ढूँढ़ने के लिए। एक-एक कोना, चप्पा-चप्पा छान मारेंगे। तू यह समझ ले कि मरना निश्चित हो गया है।"

"मरना ही है तो सबके सामने बेइज़्ज़त होकर, मार खा-खा कर मरने से अच्छा है कि हम लोग यहीं अभी फाँसी लगा लें। जीते जी एक साथ नहीं रह पाए तो कोई बात नहीं। कम से कम एक साथ मर तो लेंगे।"

"चुप! मरने, मरने, बार-बार मरने की बात कर रही है। मैं इतनी जल्दी मरने के लिए तैयार नहीं हूँ और अपने जीते जी तुझे भी मरने नहीं दूँगा।"

"तो अब क्या करोगे?"

"अभी उजाला होने में कम से कम डेढ़ घंटा है। यहाँ से बस स्टेशन क़रीब-क़रीब सात-आठ किलोमीटर दूर है। पैदल भी चलेंगे तो एक घंटे में पहुँच जाएँगे। वहाँ से कोई ना कोई बस सवेरे-सवेरे निकल ही रही होगी। वह आगे जहाँ तक जा रही होगी उसी से आगे चल देंगे। यहाँ से जितनी जल्दी, जितना ज़्यादा दूर निकल सकें पहली कोशिश यही करनी है।"

"ठीक है चलो, फिर जल्दी निकलो यहाँ से।"

चलने से पहले युवक के कहने पर युवती पेपर्स वाली पॉलिथीन, चटाई पर से उठाकर फिर से सलवार में खोंसने लगी तो युवक ने ना जाने क्या सोचकर उसे लेकर अपनी शर्ट में आगे रखकर बटन लगा ली। और पूछा, "तू इतनी दूर तक पैदल चल लेगी?"

"जब मौत सिर पर आती है तो सात-आठ किलोमीटर क्या आदमी सत्तर-अस्सी किलोमीटर भी चला जाता है और तुझे पाने के लिए तो मैं पूरी पृथ्वी ही नाप लूँगी।"

"तो चल निकल। नापते हैं सारी पृथ्वी। मेरा हाथ पकड़े रहना। छोड़ना मत। जल्दी-जल्दी चलो।"

दोनों बड़े हिम्मती हैं। बोगी से निकल कर क़रीब-क़रीब भागते हुए आगे बढ़ रहे हैं। मगर थोड़ा सा आगे निकलते ही युवक कह रहा है, रुको-रुको, एक मिनट रुको ।"

"क्या हुआ?"

"वहाँ प्लेटफॉर्म के आख़िर में जहाँ पर फायर के लिए बाल्टियाँ टंगी हुई हैं। वहीं पर रेलवे के कर्मचारी अपनी साइकिलें खड़ी करते हैं। तू एक मिनट इधर रुक शेड के किनारे। देखता हूँ अगर किसी साईकिल का लॉक खुला हुआ मिल गया तो उसे ले आता हूँ। उससे बहुत आसानी से जल्दी निकल चलेंगे।"

"यह तो साइकिल की चोरी है।"

"इसके बारे में बाद में बात कर लेंगे। तुम अपने बालों में से एक चिमटी निकालकर मुझे दे दो।"

चिमटी लेकर गया युवक फुर्ती से एक साइकिल उतार लाया है। जिसे देखकर युवती कह रही है।

"मुझे तो बड़ा डर लग रहा है। क्या-क्या करना पड़ रहा है?"

"इतना आसान थोड़ी ना है घर वालों के ख़िलाफ़ चलना, घर से भागना। आओ बैठ जाओ। लो तुम्हारी चिमटी की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। पता नहीं कोई जल्दी में था या फिर शराब के नशे में, ताला तो लगाया लेकिन उसमें से चाबी निकालना भूल गया। झोले में रखा हुआ एक टिफ़िन भी पीछे कैरियर पर लगा हुआ था। मैंने उसे निकालकर वहीं रख दिया।"

"तुम्हें साइकिल उठाते डर नहीं लगा?"

"तू बिल्कुल बोल नहीं। मुझे जल्दी-जल्दी साइकिल चलाने दे।"

युवती को आगे बैठाकर युवक पूरी ताक़त से साइकिल चला रहा है। लेकिन पहली बार साइकिल पर बैठने के कारण युवती ठीक से बैठ नहीं पा रही है। उसके हिलने-डुलने पर युवक कह रहा है।

"ठीक से बैठ ना। इतना हिल-डुल क्यों रही है।"

"मेरे पैर सुन्न होने लगे हैं।"

"तुम ज़्यादातर लड़कियाँ इतनी नाजुक क्यों होती हैं?"

"पता नहीं यह तो ऊपर वाला ही जाने।"

"क्या ऊपर वाला जाने? तमाम लड़कियाँ तो पहलवान बनकर पहलवानी कर रही हैं। सेना में जाकर गोलियाँ, फ़ाइटर ज़ेट, बस, कार, ट्रक चला रही हैं।"

"तो, ऐसे तो अपने गाँव में ट्रैक्टर भी चला रही हैं। तो क्या सबकी सब पहलवान हैं। काम करना आना चाहिए। ज़रूरत होगी तो पहलवानी भी सीख लेंगे।"

"चुप। बिलकुल चुप कर। चुपचाप बैठी रह। बिल्कुल बोलना नहीं। नहीं तो मैं तेरा मुँह फोड़ दूँगा। जब फूट जाएगा तभी चुप रहोगी क्या?"

"मेरा मुँह मत फोड़ो। नहीं तो फिर मुँह कहाँ लगाओगे?"

"तेरी ऐसी बातों के कारण ही रात में नींद आ गई और ट्रेन छूटी। अब ये साइकिल ट्रेन चलानी पड़ रही है।"

"ठीक है। चुप हूँ। और कितनी देर तक चलना पड़ेगा?"

"अभी तो पन्द्रह मिनट भी नहीं हुए हैं। घंटा भर तो लगेगा ही।"

"वहाँ कोई बस मिल जाएगी क्या?"

"चुप, बिल्कुल चुप रह।"

युवक बिना रुके पूरी ताक़त से साइकिल चलाए जा रहा है। ग़ज़ब की ताक़त, हिम्मत दिखा रहा है। पसीना उसकी नाक, ठुड्डी से होता हुआ टपक रहा है। युवती के पैर सुन्न हो रहे हैं। जिसे वह बार-बार इधर-उधर कर रही है। युवक का पसीना उसके सिर पर ही टपक रहा है। वह परेशान है और पूछ रही है, "अभी और कितना टाइम लगेगा?"

"बस आने वाला ही है स्टेशन।" जल्दी ही स्टेशन दिखने लगा है तो उतावली युवती कह रही है।

"स्टेशन दिख रहा है, लग रहा है सूरज भी निकलने वाला है। जल्दी करो और तेज़ चलाओ ना।"

"और कितनी तेज़ चलूँ ।"

"तुम्हें पसीना हो रहा है क्या?"

"तुम्हें इतनी देर बाद मालूम हुआ।"

"गर्दन पर कुछ गीला-गीला बार-बार टपक रहा है तो मुझे लगा शायद तुम्हारा पसीना ही है।"

"पसीने से पूरा भीग गया हूँ। घंटा भर हो गया साइकिल चलाते-चलाते और कोई दिन होता तो इतना ना चला पाता। मगर तेरे लिए मैं इतना क्या, यहाँ से दिल्ली तक चला सकता हूँ।"

"और मैं भी कभी साइकिल पर इतनी देर बैठी नहीं। पैर बार-बार सुन्न हो रहे हैं। कभी इधर कर रही हूँ, कभी उधर कर रही हूँ। लेकिन अगर तू दिल्ली तक चलाए तो भी ऐसे ही बैठी रह सकती हूँ।"

"अच्छा चल उतर, इतनी लम्बी फेंक दी कि अब चला नहीं पा रहा हूँ।" स्टेशन पर पहुँच कर युवक ने झटके से साइकिल रोक कर युवती को उतरने के लिए कहा और स्टेशन की बाऊँड्री से सटाकर साइकिल खड़ी कर दी यह कहते हुए, "साइकिल गेट पर ही छोड़ देता हूँ। जिसकी है भगवान उसको रास्ता दिखाना कि उसे उसकी साइकिल मिल जाए।"

सामने कुछ दूरी पर तैयार खड़ी एक बस को देखकर उत्साहित युवती कह रही है। "देखो बस तैयार खड़ी है, लगता है जल्दी ही निकलने वाली है।"

युवती युवक से भी ज़्यादा जल्दी में दिख रही है। सामने खड़ी बसों पर उसकी नज़र युवक से आगे-आगे चल रही है। युवक उसका हाथ पकड़े-पकड़े बस की तरफ़ बढ़ते हुए कह रहा है।

"हाँ और अंदर ज़्यादा लोग भी नहीं हैं। दस-पन्द्रह लोग ही दिख रहे हैं।" दोनों जल्दी-जल्दी चढ़ गए और बीच की सीट पर बैठ गए हैं। जिससे कि आगे पीछे सब पता चलता रहे। कंडक्टर अन्दर आया तो उसे देखकर युवती कह रही है, "टिकट ले लो। लेकिन यह बस जा कहाँ रही है?"

"रायबरेली जा रही है। सामने प्लेट पर लिखा है। वहीं तक का टिकट ले लेते हैं।"

कंडक्टर टिकट देकर आगे चल गया तो युवती पूछ रही है। "यह कंडक्टर हम लोगों को ऐसे घूर कर क्यों देख रहा था।"

"चुप रहो ना। उस तक आवाज़ पहुँच सकती है। रायबरेली पहुँचकर वहाँ देखेंगे, कोई ट्रेन मिल ही जाएगी दिल्ली के लिए। बस लगातार चलती रहे तो अच्छा है, वरना पकड़े जाने का डर है।"

"रायबरेली कब तक पहुँचेगी?"

"क़रीब दस बजे तक।"

इसी समय युवती चिहुँकती हुई कह रही है। "लगता है मेरा मोबाइल छूट गया है।"

"क्या कह रही हो?"

"हाँ, जल्दी-जल्दी में ध्यान नहीं रहा।"

"रखा कहाँ था?"

"मुझे एकदम ध्यान नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?"

"कुछ नहीं होगा। लोगों को जल्दी मिलेगा ही नहीं। साइलेंट मोड पर है। रिंग करके देखता हूँ किसी के हाथ लग गया है या वहीं पड़ा है। अरे, रिंग तो जा रही है।"

इसी बीच युवती फिर चिहुँकती हुई बोली। "रुको, रुको। मोबाइल तो मेरे ही पास है।"

"कमाल है सीने में छुपा के रखा हुआ है। और बता रही हो छूट गया। तुम्हें इतना भी होश नहीं रहता है।"

"ग़ुस्सा नहीं हो, जल्दबाज़ी और हड़बड़ाहट के मारे कुछ समझ में नहीं आ रहा था।"

"अच्छा हुआ तुम हड़बड़ाई, बौखलाई। इससे एक बड़ा काम हो गया। नहीं तो चाहे जहाँ पहुँच जाते पकड़े निश्चित जाते। लाओ जल्दी निकालो मोबाइल। यह संभावना भी ख़त्म करता हूँ।"

"क्या?"

"मोबाइल, मोबाइल निकालो जल्दी।"

युवती युवक की जल्दबाजी से सकपका गई है। उसे मोबाइल दे रही है।

"यह लो।"

मोबाइल लेकर युवक उसकी बैट्री निकाल रहा है। कह रहा है, "इसकी बैट्री निकाल कर रखता हूँ। ऑन रहेगा तो वो हमारी लोकेशन पता कर लेंगे। और हम तक पहुँच जाएँगे। टीवी में सुनती ही हो, बताते हैं कि मोबाइल से लोकेशन पता कर ली और वहाँ तक पुलिस पहुँच गई। अब यह दोनों मोबाइल कभी ऑन ही नहीं करूँगा।"

"फिर कैसे काम चलेगा आगे।"

"देखा जाएगा। अब तो पहला काम यह करना है कि अगले स्टेशन पर ही इस बस से उतर लेना है।"

"क्यों?"

"क्योंकि इस मोबाइल से वह यहाँ तक की लोकेशन पा चुके होंगे या जब पुलिस में जाएँगे तो वह पता कर लेगी। इस बस से उतर लेंगे और फिर कोई दूसरी पकड़ेंगे, उससे आगे बढ़ेंगे।"

हैरान परेशान दोनों आधे घंटे बाद ही अगले बस स्टॉप पर उतर गए हैं। युवक कह रहा है।

"चलो इस बस से तो पीछा छूटा।"

"हाँ, देखो अगर यहाँ दिल्ली के लिए ही बस मिल जाए तो बस से ही दिल्ली चला जाए।"

"नहीं बहुत दूर है। बस में बहुत परेशान हो जाएँगे। इसलिए ट्रेन से चलेंगे।"

दोनों को संयोग से एक ट्रेन मिल गई। जो तीन घंटे लेट होने के कारण उसी समय स्टेशन पहुँचे जब वो स्टेशन पहुँचे । इसी ट्रेन से दोनों लखनऊ पहुँच गए हैं। वहाँ दिल्ली के लिए उन्हें चार घंटे बाद ट्रेन मिलनी है। दोनों यहाँ कुछ राहत महसूस कर रहे हैं और ज़रूरत भर का सामान लेने के लिए निकल रहे हैं। युवक बोल रहा है, "चलो पहले एक बैग लेते हैं और ज़रूरत भर का सामान भी। ऐसे दोनों ख़ाली हाथ चलते रहेंगे तो ट्रेन में टीटी, सिक्योरिटी वाले कुछ शक कर सकते हैं। पीछे पड़ सकते हैं। सामान रहेगा तो ज़्यादा शक नहीं करेंगे। बाहर से जल्दी ही आ जाएँगे। टिकट लेकर यहीं कहीं आराम करते हैं। बाहर होटल या गेस्ट हाउस चलता हूँ तो बेवज़ह अच्छा ख़ासा पैसा चला जाएगा और वहाँ सबकी नज़र भी हम पर रहेगी। उतने पैसों में कुछ सामान ले लूँगा और तत्काल टिकट में बर्थ मिल जाए तो ट्रेन में आराम से सोते हुए चलेंगे।

भाग्य दोनों के साथ है। सामान लेकर जल्दी ही लौट आए हैं। उन्हें रिज़र्वेशन में बर्थ भी मिल गई और आराम से वे चल दिए हैं। सुबह ट्रेन दिल्ली पहुँचने को हुई तो युवक बोला, "दस बजने वाले हैं। थोड़ी ही देर में स्टेशन पर होंगे। तीन-चार घंटे सो लेने से बहुत आराम मिल गया। अब हम निश्चिंत होकर कहीं भी आ जा सकते हैं। अब हमें पकड़े जाने का कोई डर नहीं है। हम पति-पत्नी की तरह आराम से रह सकेंगे।"

"ज़रूर, अगर कभी कोई मिल भी गया तो हमारे पास काग़ज़ तो हैं ही। बालिग हैं। अपने हिसाब से जहाँ चाहें वहाँ रह सकते हैं। हमें यहाँ कोई रोक-टोक नहीं सकेगा।"

स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर युवती कह रही है, "कितना बड़ा है यह स्टेशन!"

"हाँ, बहुत बड़ा। आख़िर अपने देश की राजधानी है।"

"यहाँ कोई किसी को पकड़ता नहीं क्या?"

"ऐसा नहीं है, जो गड़बड़ करता है वह पकड़ा जाता है। हम लोग अगर अपने गाँव में पकड़े जाते तो जो हाल वहाँ होता, वह यहाँ पर नहीं हो पाएगा। बस इतना अंतर है। आओ निकलते हैं। बाहर अभी और कई लड़ाई लड़नी है। एक घर की लड़ाई। नौकरी की लड़ाई। यहाँ की भीड़ में कुचलने से अपने को बचाने की लड़ाई। यहाँ के लोगों से अपने को बचा लेने के बाद अपने भविष्य को सँवारने की लड़ाई। अपने सपने को सच कर लेने की लड़ाई। बस लड़ाई ही लड़ाई है। आओ चलें।"

"हाँ चलो। लड़ाइयाँ चाहे जितनी ढेर सारी हों लेकिन हम दोनों मिलकर सब जीत लेंगे। सच बताऊँ। हमें तो उम्मीद नहीं थी कि अपने गाँव से निकलकर हम सुरक्षित यहाँ तक पहुँच पाएँगे। तुम्हारी हिम्मत देखती थी तो हमें यह ज़रूर लगता था कि तुम्हारी यह हिम्मत हमारे सपने को पूरा ज़रूर करेगी। तुम हमें ज़रूर, ज़रूर, ज़रूर मिलोगे।"

"तुम्हारी हिम्मत भी तो काम आई ना। तुम अगर हार जाती तो मैं क्या करता? इसलिए हम दोनों ने मिलकर जो हिम्मत जुटाई वह काम आई और दोनों यहाँ तक पहुँचे। अब अपनी दुनिया भी मिलकर बना लेंगे। मैं भगवान को सारा का सारा धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने मुझे इतनी हिम्मत दी। मुझे इतना दिमाग़ दिया कि हम सारे काम निपटा सके। बहुत-बहुत धन्यवाद हे! मेरे भगवान।"

इन दोनों ने अपने को सफल मानकर भगवान को सारा का सारा धन्यवाद दे तो दिया है। लेकिन गाँव में अभी बहुत कुछ हो रहा है। जब ये आधे रास्ते पर थे तभी वहाँ यह बात साफ़ हो गई कि दोनों मिलकर निकल गए। मामला दोनों समुदायों की इज़्ज़त का बनकर उठ खड़ा हुआ। हालात इतने बिगड़े कि समय पर भारी फ़ोर्स ना पहुँचती तो बड़ा ख़ून-ख़राबा हो जाता। वास्तव में यह दोनों तो बहाना मात्र थे। इस तूफ़ान के पीछे मुख्य कारण तो वही है कि वह संख्या बढ़ाकर अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे हैं। हमारे लिए यह वर्जित है तो यह नहीं हो सकता। इसे वर्चस्व का ही संघर्ष कहिए। यह अभी ठहरा ज़रूर है, समाप्त नहीं हुआ है।

फ़ोर्स की ताक़त से चक्रवाती तूफ़ान से होने वाली तबाही तो ज़रूर रोक दी गई है। लेकिन पूरे विश्वास से कहता हूँ कि ऐसे तूफ़ान स्थायी रूप से ऐसे युवक-युवती ही रोक पाएँगे जो अपना संसार अपने हिसाब से बसाने सँवारने में लगे हुए हैं। जिनका उनके परिवार वालों ने उनका जीते जी अन्तिम संस्कार कर परित्याग कर दिया है। ये त्यागे हुए लोग, पीढ़ी ही सही मायने में भविष्य हैं हमारी दुनिया के। फ़िलहाल आप चाहें तो इनके माँ-बाप की तरह मानते रहिए इन्हें एबॉन्डेण्ड।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 मेरे बाबू जी

लखनऊ ज़िले की तहसील और ब्लॉक मोहनलालगंज में न जाने ऐसा क्या है कि मैं और मेरा परिवार इसे छोड़कर लखनऊ शहर, या किसी अन्य शहर का रुख़ नहीं कर पा रहे हैं। बातें न जाने कितनी बार हुईं, ना जाने कितनी बार योजना बनी, लेकिन जितनी बार बातें हुईं, जितनी बार योजनाएँ बनीं, उतनी ही बार यह ठंडे बस्ते में चली भी गईं अगली बार फिर चर्चा का इंतज़ार करती हुईं। लगता है कि जैसे ना हम इसे मन से छोड़ने का प्रयास करते हैं और ना ही यह हमें कहीं और जाने के लिए छोड़ना चाहता है।

जिसे यह छोड़ना चाहता था उसे छोड़ दिया। और वह भी मन से छोड़ना चाहती थीं तो चली गईं। बरसों-बरस पहले छोड़ कर। फिर पलटकर ना देखा कभी। कभी क्षण भर को यह देखने के लिए भी नहीं आईं कि अपने जिन तीन बच्चों को वह छोड़कर चली गईं वह कैसे हैं? किस तकलीफ़ में हैं? स्वस्थ हैं? बीमार हैं या कि बचे भी हैं कि नहीं। 

इतना कठोर व्यवहार कि यही कहने का मन होता है कि शायद भगवान उनके शरीर में हृदय की रचना करना भूल गए थे, या फिर हृदय में संवेदना का संचार करना भूल गए थे। या फिर माँ का नहीं किसी और का हृदय लगा बैठे थे। मतलब कि भगवान भी भूल कर बैठे थे। और अगर यह ग़लती उन्होंने नहीं की थी तो यह तो निश्चित है कि उन्होंने ऐसा हँसी-ठिठोलीवश किया होगा। क्योंकि ऐसा ना किया होता तो कोई माँ अपने डेढ़ साल के पुत्र एवं आठ और नौ साल की पुत्रियों को अकेला छोड़कर ना चली जाती हमेशा के लिए।

हम बच्चों को माँ-बाप दोनों ही का प्यार बाप से ही मिला। जिनकी संघर्षशीलता, सज्जनता, प्रगतिशीलता, किसी आदर्श माँ सा कोमल हृदय, किसी माँ के भावों से भरे भाव, ज़िम्मेदार पिता आदि गुणों के कारण आज आसपास की एरिया में लोग चर्चा करते हैं। उन्हें अनूठा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति कहा जाता है। मगर पहले उन्हें क़दम-क़दम पर अपमानित किया जाता था।

उनके जीवन पर ही एक फ़िल्म निर्माता ने साल भर पहले ही एक वेब सीरीज़ बनाई थी। यहाँ भी हमारे बाबूजी अपनी अतिशय सरलता, सज्जनता के कारण ठगे गए। निर्माताओं ने जो पैसे कहे थे देने के लिए, एक भी पैसा नहीं दिया। अपना काम करके चलते बने। और बाबूजी ने उन्हें हँसकर माफ़ कर दिया। भूल गए। यह भी भूल गए कि उन्होंने उसके और उसकी टीम के खाने-पीने पर बहुत ख़र्चा किया था।

आठ-नौ बार में हज़ारों रुपए उड़ गए थे। इस घटना पर हमें भी कोई अफ़सोस नहीं है। क्योंकि यही तो आज के युग की मूल प्रवृत्ति है। पत्थर से भी ज़्यादा पत्थर हो गए हैं लोगों के दिल। लेकिन सच यह भी है कि अपवादों से खाली नहीं है दुनिया। तो इसीलिए मक्खन से कोमल हृदय वाले हैं हमारे बाबूजी। जिनका कोमल हृदय अम्मा के पत्थर हृदय को कोमल ना बना सका।

वृंद के इस दोहे को भी झुठला दिया कि, “करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान...रस्सी के आते-जाते पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं, लेकिन मेरे बाबूजी अपने कोमल हृदय का निशान अम्मा के पत्थर हृदय पर ना बना पाए। वह हृदय-हीन बनी रहीं और चली गईं। तब पूरे खानदान, रिश्तेदार, नातेदार, पट्टीदार सब ने बाबूजी को ही ज़िम्मेदार ठहराया था कि, ‘यही ज़िम्मेदार है मेहरिया के जाने के लिए।उनकी अतिशय सहृदयता को उनका अवगुण बताया गया कि, ‘अरे मेहरिया ऐसे थोड़े ही ना रखी जाती है। मेहरिया तो मर्द ही रख सकता है। कड़कपन नहीं रखोगे तो मेहरिया पगहा तोड़ा के भागेगी ही। घर की देहरी लाँघेगी ही। सब इसकी सिधाई का नहीं नाजायज़ सिधाई का नतीजा है।

तब सिधाई, सज्जनता भी जायज़-नाजायज़ हो गई थी। इस दुनिया ने मेरे बाबूजी के साथ इतना ही अन्याय नहीं किया था बल्कि उन्हें अपमानित करने, दुत्कारने का आख़िरी रास्ता तक चुना था। उन्हें नपुंसक कह कर अपमानित किया था। खुलेआम पूरे विश्वास के साथ यह कहा गया कि, ‘तीनों बच्चे भी इसके नहीं हैं। नपुंसक कहाँ बच्चे पैदा कर सकता है।सीधे-सीधे कहा जाता, ‘जिसके बच्चे थे उसी के साथ भाग गई। कोई औरत नामर्द के साथ कब तक रहेगी? कब तक निभाएगी?’ माँ का नाम लेकर कहा जाता, ‘भंवरिया (भंवरी) ने इतने साल एक नपुंसक के साथ निभाया यही बड़ी बात है। इसने तो उसका जीवन बर्बाद किया, धोखा दिया उसे। हाथ में दम नहीं था और उफनती जवानी लिए गाय का पगहा बाँधने चला था।बाबूजी हर अपमान, दहकते कोयले से ज़्यादा दहकती झूठी बातें ऐसी शांति से हज़म कर जाते जैसे शहद पी गए हों।

अति हो जाने पर, एकदम मुँह पर यह सब कहे जाने पर दोनों हाथ जोड़कर कहते, ‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है। भंवरी को जो कुछ चाहिए था मैंने वह सब कुछ उसे दिया। मैं नपुंसक नहीं हूँ। हर सुख उसे दिया, बच्चे भी हमारे ही हैं। कभी तेज़ आवाज़ में बात तक नहीं की। कभी भी चाहे जितना भी वह बिगड़ी, उचित-अनुचित यह सब मैंने सोचा ही नहीं। बस हँस कर शांति से यही कहता था, “बस कर भंवरिया, ग़ुस्सा होकर काहे को अपने को इतना कष्ट देती है। तुझे कैसा भी कष्ट हो यह मुझे अच्छा नहीं लगता। बच्चे हैं, इनकी बातों पर इतना ग़ुस्सा अच्छा नहीं। यह भगवान का रूप हैं।मुझे पिक्चर देखना कभी अच्छा नहीं लगता लेकिन जब-जब उसने कहा कि नई पिक्चर आई है तो दिखाने के लिए लखनऊ ले गया। कहने को भी एक बार भी मना नहीं किया।

घर में मीट-मछली कभी नहीं बनी लेकिन उसका जब-जब मन किया तब-तब बाज़ार में ले जाकर या चोरी से घर लाकर खिलाया। हाँ उसे एक बार डाँटने-सख़्ती करने का दोषी हूँ। जब बिटिया के होने को तीन महीना बाक़ी रह गए थे और उसने अम्मा से बदतमीज़ी की थी। अम्मा ने खाली इतना कहा था कि, “बहू खाना-पीना टाइम से करती रहो नहीं तो बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा।मैं इतने पर भी कुछ नहीं बोलता और बोला भी नहीं था।

रात अचानक मुझे उसके मुँह से शराब जैसी कुछ अजीब सी महक मिली। बात की तो लगा कि इसने तो अच्छी-ख़ासी पी रखी है। मैं एकदम हैरान-परेशान हो गया कि यह क्या ग़ज़ब हो रहा है। इसने तो अनर्थ कर दिया है। मैं तंबाकू तक नहीं छूता और यह शराब। बहुत पूछने पर बताया था कि, “घर के कबाड़-खाने में बाबूजी ने रखी थी। वही पी ली। अम्मा से ग़ुस्सा थी, इसीलिए पी।

होली के समय बाबूजी आने वालों के लिए जो शराब लेकर आए थे उसी की बची हुई एक छोटी शीशी उन्होंने वहाँ डाल दी थी। वही भंवरी ने पी थी। उस समय मैंने उससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा कि यह नशे में है। रात भर जागता रहा कि यह कहीं मेरे सोते ही कुछ गड़बड़ ना कर दे। अगले दिन भी बड़े प्यार से समझाया था कि, “ऐसा अनर्थ अब मत करना। किसी को पता चल गया तो सोचो कितनी बदनामी होगी और बच्चे की सोचो, ज़हर है उसके लिए यह, ज़हर।इसके अलावा कभी मैंने उससे ऊँचे स्वर में तो छोड़िए रूखी आवाज़ में भी बात नहीं की। उसे अपने घर, अपने जीवन की लक्ष्मी कहता था। क्या यही हमारी ग़लती है?’

बाबूजी की बातों को लोग बहुत बाद में धीरे-धीरे समझ पाए। तब उन पर ताना कसना कम हुआ। लेकिन बंद तो अभी भी नहीं हुआ। मेरे बाबूजी गुणों के अथाह सागर हैं। फिर भी अम्मा ऐसे एक झटके में बिना कुछ कहे क्यों चली गईं? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में मैं आज भी लगी हुई हूँ, बाबूजी का मालूम नहीं कि वह उत्तर ढूँढ़ रहे हैं या उन्हें भूल गए हैं, या उनकी यादों को मन के किसी अँधेरे कोने में गहरे दबा दिया है। और माँ-बाप की दोनों ज़िम्मेदारी वह कैसे आदर्श ढंग से निभा ले जाएँ इसी में लगे हैं।

मैं जब आजकल मैग्ज़ीन, पेपर या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गुड पेरेंटिंग के चर्चे देखती, पढ़ती हूँ कि गुड पेरेंटिंग कैसे हो? तो हँसी आती है। मन ही मन कहती हूँ कि यह मेरे बाबूजी से सीखो। उनसे बड़ा आदर्श अभिभावक कम से कम मेरी दृष्टि में कोई और है ही नहीं। ऐसा मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं कह रही हूँ कि वह मेरे बाबूजी हैं।

जब माँ चलीं गईं तो दोनों चाचा ने घर से मुँह मोड़ लिया था। दोनों लोग बाबा-दादी से लड़-झगड़ कर अपने हिस्से की प्रॉपर्टी ली और बेच-बाच कर चले गए दूसरे शहर। फिर कभी लौट कर नहीं आए। असल में दोनों ही घर पहले से ही छोड़ना चाहते थे, बहाना ढूँढ़ रहे थे तो यह मिल गया कि, “घर में रहना मुश्किल हो गया है। बाहर मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहे। सब ताने मारते हैं। अपमानित करते हैं। हमारे परिवार, बच्चों पर इसका बुरा असर पड़ रहा है। अपना परिवार, अपना जीवन हम अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते नहीं देख पाएँगे।

बाबूजी ने तब घर-भर से हाथ जोड़कर माफी माँगते हुए कहा था कि, "मेरी वज़ह से यह सब हुआ है तो बाक़ी लोग परेशान क्यों हों? घर छोड़कर मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा। घर ही नहीं मोहनलालगंज में दोबारा क़दम नहीं रखूँगा और मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। बच्चों को लेकर यहाँ से ख़ाली हाथ ही जाऊँगा।" लेकिन चाचा लोग नहीं माने थे। कहा, "तुम्हारे जाने से जो कलंक घर पर लगा है वह मिट नहीं जाएगा। बदनामी, नाम में नहीं बदल जाएगी। वह इस घर पर हमेशा के लिए चिपक गई है, हम ही जाएँगे।" और बेधड़क चले गए। उनके जाने और अपने हँसते-खेलते घर के ऐसे ही अचानक बिखर जाने से बाबा-दादी इतना आहत हुए कि दो साल के अंदर ही वे दोनों भी चले गए। यह दुनिया ही छोड़ दी।

मैं अक्सर सोचती हूँ बाबूजी की उस समय की मनःस्थिति के बारे में। उनकी हालत का अंदाज़ा लगाने का प्रयास करती हूँ, कि उन पर तब क्या बीती रही होगी? कैसे वह पूरी दुनिया के ताने बर्दाश्त करते रहे होंगे? मिट्टी के बर्तन बनाने का पुश्तैनी व्यवसाय भाइयों के छोड़ जाने के कारण बंद हो गया था। और बाबूजी तब चाय की दुकान चलाने लगे। जो बाबूजी की मेहनत से जल्दी ही अच्छे-ख़ासे होटल में तब्दील हो गई।

अब तो उनका यह व्यवसाय बहुत अच्छा चल रहा है। सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि बाबूजी ने व्यवसाय और हम तीनों बच्चों को कैसे सँभाला होगा? उनकी तकलीफ़ों को सोचकर काँप उठती हूँ कि कैसे वह हम दोनों बहनों को सर्दी-गर्मी, बरसात में सवेरे-सवेरे तैयार करते रहे होंगे? कैसे मोहनलालगंज बस स्टेशन से लगे शिवालय के पीछे जाकर स्कूल छोड़ते रहे होंगे? और फिर कैसे चार बजे दुकान किसके सहारे छोड़ कर हम बहनों को लेने समय से स्कूल आ जाते थे?

साइकिल पर हम दोनों बहनें पीछे कैरियर पर बैठती थी। जिसमें बाबूजी ने लोहे के दो-तीन टुकड़े और वेल्ड करा कर उसे और बड़ा करवा दिया था। जिससे हम दोनों बहनें आराम से बैठ सकें। आगे डंडे पर एक छोटी सी सीट थी। उस पर छोटा भाई बैठता था। जो क़रीब साढ़े तीन वर्ष का हो चुका था। जब-तक दादी थीं तब-तक तो वह ऐसे समय पर घर पर रहता था। लेकिन उनके ना रहने पर स्कूल जाने की उम्र तक हमेशा बाबूजी के साथ ऐसे रहता था जैसे कोई छोटा बच्चा हमेशा अपनी माँ के साथ चिपका रहता है।

देर शाम दुकान बंद कर बाबूजी हम सब को लेकर घर आते थे। खाना वह होटल की भट्टी पर ही धीरे-धीरे बनाते रहते थे। आते समय स्टील के कई पॉटवाले टिफ़िन में रखकर साइकिल के डंडे पर एक हुक में लटका लेते थे। घर पर फिर आराम से बैठकर सारे बच्चों के साथ खाते थे। खाने के बाद वह सवेरे की भी काफ़ी सारी तैयारियाँ कर डालते थे। कपड़े से लेकर खाने-पीने की सारी चीज़ें तैयार करते, सारा बर्तन वो रात में ही माँज डालते थे। मैं दस वर्ष की हो गई थी तब भी वह मुझसे कोई काम नहीं लेते थे। जब-तक वह घर का काम करते तब-तक मैं छोटे भाई को लिए रहती थी। उसे ही देखती रहती। बोतल में जो दूध वह देते वह उसे पिला देती और अपने हिसाब से उसे खिलाती-सुलाती रहती।

ग्यारह की होते-होते मैं ख़ुद इतनी समझदार हो गई थी कि उनके मना करने पर भी मैं अपनी समझ से जितना काम हो सकता था वह करने लगी थी। इसमें ज़्यादातर काम दोनों छोटे भाई-बहनों की देखभाल का ही था। इससे कुछ तो राहत बाबूजी को मिलती ही रही होगी।

मैं पूरे विश्वास के साथ यह कहती हूँ कि मेरे बाबूजी के लिए माँ के जाने के बाद सबसे कठिन दिन वह था जब एक दिन देर शाम को वह दुकान बंद करके, हम सब को लेकर घर आ रहे थे। हमेशा की तरह खाना-पीना, लादे-फाँदे। भाई आगे ही बैठा था। तब-तक वह क़रीब साढ़े चार साल का हो गया था।

घर पहुँच कर जब सब घर के अंदर आ गए, मैं स्कूल के कपड़े चेंज करने जाने लगी तभी छोटी बहन ने मुझसे कपड़े में कुछ लगा होने की बात कही। कुछ देर पहले कुछ अजीब सी स्थिति मैंने भी महसूस की थी। लेकिन वह सब तब मेरी समझ से बाहर की बात थी। माँ या बड़ी बहन कोई भी तो नहीं थी जो हमें उम्र के साथ कुछ बताती-समझाती। बाबा-दादी के बाद दोनों बुवाओं ने भी हमेशा के लिए संबंध ख़त्म कर लिए थे। उनके रहने पर भी जब आती थीं तो हम लोगों से दूर ही रहती थीं। पड़ोसी भी दूर ही रहते थे। क्योंकि पूरा दिन तो हम सब स्कूल और होटल पर ही रहते थे। अँधेरा होने तक ही घर आते थे। घर पर पूरा दिन ताला ही लगा रहता था।

तो उस दिन जो हुआ उसके लिए मैं अनजान थी। धब्बे देखकर मैं रोने लगी। डर गई। छोटी बहन भी रोने लगी, कि मुझे कोई गहरी चोट लगी है। बाबूजी ने जब जाना तो प्यार से सिर पर हाथ रखते हुए कहा, "कुछ नहीं हुआ है बेटा। रोने वाली कोई बात नहीं है।" उसके बाद उन्होंने एक माँ की तरह मुझे सब समझाया कि माहवारी क्या है? हमें कैसे सावधानी रखनी है। उन्होंने उसी समय मेरे लिए उचित कपड़ों का इंतज़ाम किया। अगले दिन मुझे स्कूल नहीं भेजा। क्योंकि उनके पूछने पर सवेरे मैंने बताया था कि तकलीफ़ ज़्यादा है। लेकिन बाबूजी हम सारे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर इतना सजग थे कि छोटे भाई-बहन को स्कूल छोड़ा। और बहन जी (तब टीचर को हम लोग बहन जी बुलाते थे) से मेरी तबीयत ख़राब होने की बात कहकर छुट्टी करा ली।

दिनभर मैं होटल पर उन्हीं के साथ रही। उस दिन होटल से आते समय सुई-धागा सहित वह कई और चीजें भी ले आए, और रात में ही मेरे लिए बाक़ी दिनों के लिए भी नैपकिन बना दी। सन् उन्नीस सौ अस्सी के आस-पास मोहनलालगंज तब बहुत छोटा सा क़स्बा हुआ करता था। और बाज़ार में हर दुकानदार एक दूसरे को जानता था। सबसे बड़ी बात यह कि तब सेनेटरी नैपकिन को लेकर इतनी सजगता नहीं थी। उस छोटे से क़स्बे में और भी नहीं। बाबूजी चाहते भी नहीं थे कि हमारी प्राइवेट बातें किसी को पता चलें। जल्दी ही मैंने यह सब-कुछ सीख लिया। छोटी बहन के समय मैं उपस्थित थी।

हम परिवार के सारे लोग टीवी आने पर उस पर जो भी फ़िल्में देख पाते थे वही देखा करते थे। कभी पिक्चर हॉल में नहीं गए थे। कुछ समय पहले जब पैडमैननाम की पिक्चर आई, उसकी बड़ी चर्चा होने लगी तो हम दोनों बहनें आपस में बात कर ख़ूब हँसती कि आज सेनेटरी नैपकिन को लेकर देश में सजगता, जागरूकता पैदा करने की बात कर रहे हैं। हमारे बाबूजी चालीस साल पहले ही यह सब कर चुके हैं। बिना किसी ताम-झाम के। उनसे बड़ा प्रोग्रेसिव, महान कौन हो सकता है? उनके इस महान काम को हम दोनों बहनों के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति नहीं जानता था। मगर इस पिक्चर को लेकर एक उत्सुकता प्रबल हुई तो जीवन में पहली बार हम पूरा परिवार होटल बंद कर हॉल में पिक्चर देखने के लिए लखनऊ शहर पहुँचे।

बाबूजी किसी सूरत में तैयार नहीं हो रहे थे कि वह इस उम्र में जब नाती-पोते हो गए हैं तो पिक्चर देखने चलें। वह भी ऐसी। तो मैंने उनसे बात की। कहा, "बाबूजी आपने हम बच्चों के लिए जो-जो किया वह कितने बड़े काम थे, हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण थे। उसका एहसास हम आपको कराना चाहते हैं। हम भी करना चाहती हैं। क्योंकि मैं समझती हूँ कि आप जीवन भर बस काम ही काम करते रहे हैं। एहसास, सुख-दुःख सबसे ऊपर उठकर।" ज़िद पर अड़े बाबूजी तब माने जब उनकी यह शर्त मान ली गई कि ठीक ना लगने पर वह बीच से ही उठ कर चले आएँगे और उनके साथ सभी लोग नहीं केवल एक आदमी आएगा, और अगले दिन वह पूरी पिक्चर देखने जाएगा।

हमें उनकी शर्त माननी पड़ी। फिर कहूँगी कि हमारे बाबूजी सा कोई नहीं हो सकता। उस दिन किसी को बीच में उठकर नहीं आना पड़ा। बाबूजी ने सबके साथ पूरी पिक्चर देखी। घर पर उस दिन खाना-पीना होने के बाद टीवी नहीं खोला गया। सब ने बैठकर बातें कीं। पिक्चर के बारे में। हम दोनों बहनों के पति, भाई-भाभी और हम-सब के आठों बच्चों ने। भाई की बिटिया भी जो बच्चों में सबसे छोटी है और किशोरावस्था बस पीछे छोड़ने ही वाली है।

मुझे लगा कि बाबूजी के सान्निध्य में पूरा परिवार जिस तरह संयुक्त रूप से रहता आ रहा है। जिस तरह हँसी-ख़ुशी से खुल कर हँसता-बतियाता चला आ रहा है, वह केवल बाबूजी के ही कारण है। उनके किए गए कार्यों के महत्व को परिवार की नई जनरेशन को भी समझना चाहिए। तो इस उद्देश्य मैंने सब से कहा कि, "सेनेटरी नैपकिन को लेकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें, जो हम देख कर आए हैं पैडमैन पिक्चर में, वह कुछ भी नहीं है उस व्यक्ति के सामने जो सच में पैडमैन है, ऐक्टर नहीं।"

मेरे इतना कहते ही सब चौंक कर मुझे देखने लगे। पता नहीं क्यों बहन और बाबूजी भी। जब मैंने यह कहा कि, "वह पैडमैन इस समय हमारे बीच में है।" तो सभी फिर चौंके। इस बार बाबूजी, बहन को छोड़कर। और जब मैंने अम्मा के जाने के समय से लेकर अगले पाँच वर्ष तक का वर्णन किया, सारा घटनाक्रम बताया, बाबूजी के पैडमैन बनने तक की बात की तो सारे बच्चों ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया। बाबा जी, बाबा जी महान हैं आप। बच्चियों ने उनके हाथ चूम लिए। किसी ने उन्हें कंधे से पकड़ लिया था। तो कोई उनके पैरों को पकड़ कर बैठ गया था।

सब अपनी-अपनी बातें बोलते चले जा रहे थे। और जीवन में पहली बार हम बाबूजी की आँखों से झर-झर झरते आँसू देख रहे थे। मगर जीवन में पहली बार वह खुलकर कोई काम नहीं कर रहे थे। हम सब से बचना चाह रहे थे। उनके दोनों होंठ बुरी तरह फड़क रहे थे। मगर वह पूरी ताक़त से उन्हें भींचे हुए थे। हमारे सामने रोना नहीं चाहते थे। भाई की आँखें भरी थीं। हम दोनों बहनों के पति भी उन्हें भरी-भरी आँखों से एकटक देखे जा रहे थे।

मैंने यह सोच कर उन्हें चुप कराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की, कि जीवन भर इन्होंने हृदय में जितने आँसू बटोर रखे हैं, आज उन्हें पूरा बह जाने दिया जाए। अपने पति, बहन को भी इशारे से रोक दिया था। भाई भी शायद यही सोच रहा था जो मैं। हमारे पतियों से आख़िर नहीं रहा गया। और वह चुप कराने उनके पास पहुँच गए। जिन्हें बाबूजी अपने दो हीरा दामाद कहते हैं। उन्होंने इन्हें हीरा कैसे बनाया आप सब को यह भी बता देना चाहती हूँ। मुझे यही सही लग रहा है।

अपने इन दो हीरों को वो रोज़गार के लिए भटकते हुए देख कर लखनऊ से ही लाए थे। दोनों किसी होटल में बर्तन वग़ैरह धोने का काम करते थे। किसी अनाथालय में पले-बढ़े थे और पार्ट टाइम पढ़ाई भी कर रहे थे। इन अनगढ़ हीरों को उन्होंने ख़ूब तराशा, काम भी दिया और पढ़ाया भी।

जब हमारी शादी का समय आया और बाबूजी हमारी शादी के लिए निकले तो माँ की बात इतने दिनों बाद भी आगे-आगे पहुँच जाती थी। तमाम अपमानजनक स्थितियों को झेलने के बाद भी जब उन्हें सफलता मिलती नहीं दिखी तो उन्होंने अपने विचार बदले। और एक दिन यहीं दिव्य मंदिर "काले वीर बाबा" में अपने तराशे इन्हीं हीरों के साथ ही हम दोनों बहनों की शादी करवा दी। वह भी एक ही दिन में। एक ही हवन कुंड के समक्ष। परम पिता परमेश्वर को साक्षी मानकर शादी को संपन्न कराने वाले पुजारी जी ने उनके इस क़दम की ख़ूब प्रशंसा की थी। आशीर्वाद दिया था। बाबूजी ने गिनकर चार-पाँच लोग बुलाए थे। मोहल्ले में दो-चार दिन हुई बातों पर उन्होंने कोई ध्यान ही नहीं दिया।

इसके दो साल बाद ही भाई की भी शादी ऐसे ही एक अनाथालय में पली-बढ़ी लड़की से की जो आज हमारी प्यारी भाभी है। दुनिया में होगा नन्द-भौजाइयों के बीच छत्तीस का आँकड़ा। लेकिन हमारे यहाँ तीनों एक दूसरे की जान हैं। तीनों नहीं बल्कि सभी एक दूसरे की जान हैं। इन सभी का क्योंकि गहरा रिश्ता है काले वीर बाबा, शिवालय, यहाँ के बाज़ार, विद्यालय और घर से, तो शायद नहीं, निश्चित ही इन सबसे गहरे रिश्ते के कारण ही कोई मन से यहाँ से कहीं और जाने की सोचता ही नहीं है। बिजनेस और बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए लखनऊ या किसी और बड़े शहर में शिफ़्ट होने की बात जहाँ से शुरू होती है वहीं जाकर फिर ख़त्म हो जाती है। पिक्चर देखने वाले दिन के बाद तो हमने इस बारे में क़रीब-क़रीब सोचना ही बंद कर दिया है।

मगर अम्मा को मैं आज भी सोचती हूँ। उनका गोरा-चिट्टा चेहरा। बड़ी-बड़ी काली आँखें। लंबे बाल। कमर तक झूलती चोटी। और कोयल सी कूकती आवाज़। आज भी आँखों के सामने घूमता है उनका चेहरा। कानों में गूँजती है आवाज़। जब वह बुलाती थीं नित्या। मुझे नित्या बुलाने वाली अम्मा ना जाने किस बुरी घड़ी में, ना जाने कितनी दूर के चचेरे देवर के संग घर की देहरी लाँघ गईं हमेशा के लिए। जिनके लिए बाबूजी आज भी ना जाने कितने आँसू रोज़ हृदय में बटोरते जा रहे हैं। मेरे महान बाबूजी. . .। और अम्मा। जो भी हो वह मेरी अम्मा ही रहेंगी। इसे तो भगवान भी अब नहीं बदल सकता। विवश है वह भी। आख़िर सामने अम्मा है। सच तो यह भी है कि विधान बनाने वाला विधाता भी अपने विधान के समक्ष विवश है। मगर जो भी हो विधाता से यही प्रार्थना करती हूँ कि अम्मा जहाँ भी हों उन्हें स्वस्थ और ख़ुश रखें। और मेरे क्रांतिकारी बाबूजी को भी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स

मैं कुछ भूलता नहीं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूँ। मगर यह दावा पुरज़ोर करता हूँ कि नाममात्र को ही कुछ भूलता हूँ। जैसे बचपन में मैं जिन साथियों के साथ खेलता-कूदता था, पढ़ता-लिखता था उनमें से कुछ ही हैं जो अब याद नहीं रहे या दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने, तमाम कड़ियों को जोड़ने पर पूरा याद आते हैं। एक बात और कह दूँ कि बचपन की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं रिसाइकिल बिन से भी हटा देता हूँ। चाहता हूँ कि वह दिमाग़ की हार्ड ड्राइव से भी पूरी तरह डिलीट हो जाएँ। लेकिन वह नहीं होतीं। किसी ना किसी तरह से ना दिन देखें ना रात किसी भी समय याद आ ही जाती हैं। तब मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत क्रोध आता है कि फ़ालतू की बातों मेरे लिए अप्रिय बातों को भी वह क्यों सँजोए रखने की हठ किए बैठा है।

जैसे कि मैं नहीं चाहता कि मुझे वह होली याद आए जब मैं तेरह वर्ष का था और देश की कट्टर तानाशाही प्रवृत्ति वाली तथाकथित लोकतांत्रिक निर्लज्ज सरकार ने आपातकाल लागू किया हुआ था। देश में अगर कुछ था जो डरा-सहमा पीड़ित नहीं था, अपनी पूरी शान--शौक़त पूरी ऐंठ पूरी मुस्टंडई के साथ कण-कण में व्याप्त था, तो वह था भय अत्याचारी क्रूर निर्लज्ज तानाशाह का। ऐसा लगता था जैसे हर तरफ़ हर समय हर कोई पशु-पक्षी यहाँ तक कि नदी तालाब तारा पोखरी-पोखरा सभी अपनी प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक चाल ही भूल गए हैं । त्यौहारों की आत्मा ही छिन गई थी। वो रंगहीन-रसहीन हँसी-ख़ुशी उत्साह से मुक्त हो गए थे। लोग त्यौहार भी ऐसे मना रहे थे कि रस्म ही पूरी करनी है। अपशगुन ना होने पाए बस।

यही रस्म अदायगी उस होली को भी हो रही थी। न रंगों में कोई रंग था। ना लोगों में कोई उत्साह। जिस दिन होलिका जलनी थी उस दिन सब कुछ ठीक ही दिख रहा था। अपने भाइयों, चच्चा के साथ मैं भी होलिका में अलैया-बलैया, गोबर के बने बल्ले, गेहूँ की बालियाँ आदि डाल आया था। बाबूजी को दो महीने से वेतन नहीं मिला था। वह ज़िला हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट थे। वहीं हमारे एक पट्टीदार कम्पाउण्डर थे। वेतन ना मिलने का मुख्य कारण मतलब कि एकमात्र कारण था कि बाबूजी और पट्टीदार जिन्हें मैं चच्चा कहता था दोनों ही लोगों द्वारा नसबंदी के जितने केस करवाने थे वह दोनों ही लोग नहीं करवा पाए थे।

एड़ी-चोटी का ज़ोर दोनों ही लोगों ने लगाया हुआ था लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। इसकी वज़ह से वेतन रुका हुआ था और होली जैसे त्यौहार की बस रस्म ही पूरी की जा रही थी। हमारे संज्ञान में यह पहली होली ऐसी बीत रही थी जिसमें बच्चों सहित किसी के भी नए कपड़े नहीं बने थे। खाने-पीने की चीज़ों में भी भारी कटौती चल रही थी।

ऐसी कड़की, ऐसी स्थिति में चच्चा के घर अगले दिन यानी रंग खेलने वाले दिन विकट विपत्ति आ पड़ी। पूरे गाँव में गहरा सन्नाटा छा गया। चच्चा के ख़िलाफ़ थाने में दूसरे पट्टीदार ने एफ.आई.आर. दर्ज करा दी थी कि चच्चा और उनके लड़कों ने उनके घर का लकड़ी का काफ़ी सामान चोरी करके होलिका में जला दिया है। इसमें बैलगाड़ी का एक पहिया जो की मरम्मत के लिए रखा था और उन लकड़ियों को भी जला दिया जो धन्नियाँ बनवाने हेतु लाए थे।

शिकायत करने पर अपने लड़कों के साथ गाली-गलौज की, जान से मारने की धमकी दी। ऐन त्यौहार के दिन जब दुनिया रंग-गुलाल के बाद खाने-पीने, नए कपड़े पहन कर लोगों से मिलने-जुलने को तैयार हो रही थी तभी पुलिस चच्चा और उनके दो बड़े लड़कों को थाने उठा ले गई। घर वाले हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे, कहते रहे कि यह पूरी तरह से झूठ है, हमें फँसाने के लिए बेवज़ह झूठी एफ.आई.आर. की गई है। मगर पुलिस ने एक ना सुनी। पास-पड़ोस का कोई भी सामने नहीं आया। सब के सब घरों में दुबके रहे। ऐन त्यौहार के दिन चच्चा के घर रोना-पीटना मच गया। मगर झूठी एफ.आई.आर. करने वाले पट्टीदार के पास कोई भी नहीं पहुँचा कि भाई त्यौहार के दिन ऐसा नाटक क्यों कर रहे हो?

आपातकाल लागू होने के बाद से ही पट्टीदार त्रिनेत्रधारी आग मूत रहा था। वह था तो सत्ताधारी पार्टी के यूथ विंग का स्थानीय स्तर का कोई पदाधिकारी लेकिन अकड़ किसी बड़े लीडर से कम नहीं थी। अपने को वह समानांतर सत्ताधारी युवराज का दाहिना हाथ बताता था। युवराज के साथ खींची अपनी कई फोटो मढ़वा कर घर में लगा रखी थी। अपनी दबंगई से दूसरों की संपत्ति ख़ासतौर से खेत-खलियान बाग-बग़ीचा हथियाना उसका शग़ल बन गया था।

वह अपने इस शग़ल का शिकार चच्चा को नहीं बना पा रहा था तो उन्हें ऐसे फँसा दिया। मगर ईमानदार, सिद्धांत के पक्के चच्चा झुकने वालों में नहीं थे, तो नहीं झुके। वह क्षेत्र में ख़ौफ़ का पर्याय बने त्रिनेत्रधारी की इस चाल के समक्ष भी नहीं झुके। ताक़त के मद में चूर तानाशाह की गुलाम बनी व्यवस्था की आँखों में आँखें डाल कर सत्य की लाठी लिए डटे रहे। जल्दी ही पता चला कि उन्हें कई धाराओं में निरुद्ध कर बेटों सहित जेल भेज दिया गया। मगर सत्य की लाठी लेकर सभी के साथ खड़े रहने वाले मेरे चच्चा के साथ कोई नहीं खड़ा हुआ।

मेरे बाबूजी भी खुलकर सामने नहीं आए। बस चुपके-चुपके चच्चा के घर को आर्थिक, अन्य सामानों आदि के ज़रिए हर संभव मदद देते रहे। उन्हें रास्ते बताते रहे कि कैसे इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है। उनकी मदद के लिए उन्होंने घर के तमाम ख़र्चों में कटौती ही नहीं की बल्कि कई लोगों से पैसा उधार भी लिया। सब कुछ इतनी सावधानी से कर रहे थे कि घर में अम्मा के सिवा किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं थी।

बाबूजी ने चच्चा के घर वालों को तानाशाह के संगठन के एक वास्तविक बड़े पदाधिकारी से संपर्क साधने का भी रास्ता बताया। इससे फ़ायदा यह हुआ कि वहाँ से त्रिनेत्रधारी पर दबाव बनाया जा सका। इससे वह चच्चा के शेष बचे घर वालों को और खुलकर परेशान नहीं कर पा रहा था। लेकिन यह सब होते-होते इतना समय निकल चुका था कि एक दिन सूचना मिली कि चच्चा ने जेल की कोठरी में ही अपने पाजामे से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और जेल वालों ने जिस प्रकार आत्महत्या करना बताया वह किसी के गले नहीं उतर रहा था। हर कोई हतप्रभ था कि यह पूरी तरह निराधार और झूठ है। जेल की कोठरी में अपने पहने हुए पाजामे से, दरवाज़े के सींखचों में कोई फाँसी पर कैसे झूल सकता है, और यह कि जेल में इतने क़ैदियों, स्टॉफ़ में से कोई उन्हें यह सब करते देख नहीं पाया।

यह सब सच नहीं है। यह पुलिस द्वारा बेतुकी गढ़ी हुई कहानी है। मगर हर कोई विवश था पुलिस की इस मनगढ़ंत कहानी के आगे। जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं बोल सकता था। कुछ महीने बाद यह पता चला कि त्रिनेत्रधारी की लिखी कहानी को पुलिस ने यथार्थ में परिवर्तित किया था। चच्चा का शव मृत्यु के तीसरे दिन गाँव पहुँचा था। क़ानूनी पचड़ों के ज़रिए जितनी देर की जा सकती थी वह की गई थी। इतनी देरी के कारण पार्थिव शरीर के आते ही उसका दो घंटे में ही अंतिम संस्कार कर दिया गया।

चाची यह सब देखकर इतना बेसुध हो गईं थीं कि उनके ना आँसू निकल रहे थे, ना ही वह रो रही थीं। मूर्तिवत सब कुछ होता देख रही थीं। चच्चा के जेल में बंद दोनों लड़के अंतिम संस्कार के दिन दो घंटे के लिए आए थे। यह कोर्ट के आदेश के बाद हो पाया था। इसमें बड़ा रोल मेरे बाबूजी का था। तेरहवीं के दिन दोनों लड़के नहीं आ सके। इसके लिए भी बाबूजी ने बहुत कोशिश की थी लेकिन यह संभव नहीं हो पाया।

चच्चा के तीन छोटे भाइयों और उनके तीन छोटे बेटों ने तेरहवीं की रस्म पूरी की। यह संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक उसी दिन देश का मनहूस काला अध्याय समाप्त किए जाने की घोषणा हुई। मानो चच्चा अपना बलिदान देकर देश भर से मनहूस काली छाया हटा गए थे। मगर उनके जाने से घर पर पड़ी काली छाया गहराने लगी थी।

घर का ख़र्च कैसे चलेगा यह समस्या सुरसा के मुँह की तरह विकराल होती जा रही थी। चच्चा के भाई ज़्यादा लंबे समय तक मदद के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अपने परिवार के हिस्से का ज़्यादा हिस्सा अपने भाई के परिवार पर ख़र्च नहीं करना चाहते थे। अंततः कुछ ही महीनों में चाची अपने तीन छोटे बच्चों के साथ एकदम अकेली पड़ गईं। बाबू जी अभी भी भीतर ही भीतर मदद किए जा रहे थे। मगर उनकी भी एक सीमा थी, उससे आगे वह भी नहीं जा सकते थे। फिर भी उनके बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उठाते रहे। चाची को भी अम्मा के ज़रिए समझा-बुझाकर तैयार किया कि नाव मझदार से आप ही को निकालनी है। बाक़ी हम लोग मदद के लिए आसपास बने रहेंगे। इसलिए नाव का चप्पू आपको अपने हाथ में थामना ही होगा। जो आपको तब-तक चलाते रहना है जब-तक कि बच्चे चप्पू अपने हाथ में लेने लायक़ ना बन जाएँ।

समझदार चाची को बाबू जी की बातों से बल मिला, हिम्मत की और उठ खड़ी हुईं। चाची को चच्चा की जगह नौकरी दिलाने की बात आई लेकिन कुछ तकनीकी समस्याओं के चलते यह संभव नहीं हो पाया। चाची जल्दी ही पास में ही क़स्बे की बाज़ार में एक किराने की दुकान चलाने लगीं। तीनों लड़के भी स्कूल के बाद उन्हीं के पास दुकान पर रहते। हाथ बँटाते।

बहुत ही कम समय में चाची कुशलतापूर्वक नाव खेने लगी थीं और देश ने भी आज़ादी के बाद सबसे काले दिनों आपातकाल के थोड़े दिनों पश्चात ही अधिनायकवादी सोच की नेतृत्वकर्ता की सत्ता को उखाड़ फेंका था। वास्तविक लोकतांत्रिक लोगों के हाथों में सत्ता सौंप दी थी। अब त्रिनेत्रधारी पांडे भागा-भागा फिरने लगा। चच्चा के घर वालों ने तो तुरंत कुछ नहीं किया। लेकिन उससे त्रस्त कई और लोगों ने अपना हिसाब बराबर करना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप उस पर एक के बाद एक कई केस दर्ज हो गए। अंततः वह जेल पहुँच गया।

समय बीतता रहा। चाची नाव खेती रहीं। लड़के दुकान में हाथ बँटाते रहे, पढ़ते रहे। मगर तीसरे लड़के ने रंग बदलना शुरू कर दिया। उसे गुंडई-बदमाशी रास आने लगी। इतनी की पढ़ाई-लिखाई पिछड़ती चली गई और गुंडई बढ़ती गई। अपने रंग-ढंग से उसने घर के भी रंग-ढंग बदलने शुरू कर दिए। मैं और वह एक ही क्लास में पढ़ते थे। स्कूल और बाहर भी मुझे उसका साथ भाने लगा था। बाबूजी-अम्मा जी की नज़रों से यह बात छुपी नहीं रही। वह चिंता में पड़ गए। मगर मुझसे कुछ नहीं कह रहे थे। मैं पूरी तरह ख़ुद को आज़ाद समझ रहा था।

हाईस्कूल में मैं तो किसी तरह खींचतान के पास हो गया। मगर वह फ़ेल हो गया। ज़बरदस्त ढंग से सभी सब्जेक्ट में फ़ेल था। किसी विषय में उसका सबसे ज़्यादा नंबर इतिहास में था। सौ में नौ नंबर। मैथ में शून्य। कुल टोटल छः सौ में तैंतीस नंबर थे। मैंने जब उससे कहा कि, ‘लिख तो मेरे जितना तुम भी रहे थे, फिर सारे नंबर कहाँ चले गए?’ तो वह हंसता हुआ एग्ज़ामिनिरों को अंड-बंड बोलने लगा।

कहा, ‘इतने अच्छे-अच्छे गानों से पूरी की पूरी कॉपी भर देता था कि कॉपी जाँचते-जाँचते थक जाएँगे तो गानों से उनका मनोरंजन हो जाएगा। उनकी थकान उतर जाएगी और मुझे पुरे नंबर दे देंगे। मगर...फिर वह अंड-बंड बकने लगा। टीचरों, एग्ज़ामिनिरों को कही जा रही ऊल-जुलूल बातें मुझे अखर रही थीं, और मेरे नंबर बाबूजी, अम्मा जी को इतने अखरे कि आगे की पढ़ाई के लिए मुझे दिल्ली भेज दिया। चच्चा के यहाँ।

इतना ही नहीं अगले कई साल तक होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर मेरे सारे भाई-बहनों के साथ दिल्ली आ जाते। जिससे मेरे गाँव जाने की सारी संभावनाएँ ख़त्म हो जातीं। कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं तैयारी किए बैठा रहा कि गाँव चलूँगा, चच्चा भी कहते हाँ चलना है। मगर चलने के समय सब वहीं पहुँच जाते। चच्चा, बाबूजी, अम्मा सब मिले हुए थे। उस समय उन सब पर बड़ा ग़ुस्सा आता था। गाँव का हाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता कि, ‘क्या रखा है गाँव में? वही धूल-माटी, कीचड़-गोबर। हम लोग ख़ुद ही ऊबकर अब बार-बार यहाँ आ जाते हैं।

अम्मा चच्चा की तरफ़ देखती हुई कहतीं, ‘तुम्हारे बाबूजी की नौकरी भी चच्चा की तरह यहीं होती तो हम गाँव लौटकर जाते ही नहीं।तब समझ नहीं पाता था कि अम्मा-बाबूजी मेरे भले के लिए ही यह सब कुछ कर रहे थे। उस समय जो ग़ुस्सा आता था आज जब सोचता हूँ तो श्रद्धा से सिर बाबू जी, अम्मा जी, चच्चा, चाची जी सभी के चरणों में झुक जाता है। गाँव से आने के दस साल बाद मैं गाँव तब पहुँचा जब भारतीय वायुसेना में बतौर फ़ाइटर जेट पायलट मेरा चयन हो गया और प्रशिक्षण पर जाने से पहले बाबूजी ने मुझे फोन करके दो दिन के लिए गाँव बुलाया था। साथ में मेरे दोनों चचेरे भाइयों को भी।

ट्रेन लेट होने के कारण गाँव पहुँचने में हमें काफ़ी देर हो गई। हम बहुत देर रात में घर पहुँचे। सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। अम्मा-बाबूजी, भाई-बहन सब। अम्मा, बहन ने खाने-पीने की इतनी चीज़ें बनाई थीं, तैयारी घर में ऐसे की गई थी मानो शादी-ब्याह का घर हो। मैंने सबसे पहले अम्मा के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। अपनी बाँहों में भर लिया। मारे ख़ुशी के उनके आँसुओं की धारा बह चली थी। दोनों हाथों में मेरा चेहरा लेकर बार-बार माथे को चूमा। मुझे गले लगाया, रोती हुई बोलीं, ‘मेरा लाल, बेटा मैंने कैसे पत्थर बनकर तुझे इतने सालों तक यहाँ से दूर रखा बता नहीं सकती।

रोते हुए अम्मा बोले जा रही थीं, उनके शब्द स्पष्ट नहीं निकल रहे थे। तभी बाबूजी भी बोले, ‘अरे इतना थका हुआ है, बैठने दो पहले इन सबकोबाबू जी की आवाज़ भी बहुत भरी हुई थी। जैसे कि बस अब रो ही देंगे। असल में एक बाप तड़प रहा था अपने बेटे से मिलने के लिए। उनकी भावना समझते ही मैंने एक हाथ से उनको भी गले लगा लिया था।

मेरे लिए उस पल से ज़्यादा अनमोल शायद ही कोई दूसरा क्षण होगा। पूरा वातावरण इतना भावुक हो गया था कि बहन भी भैया बोलते हुए आ लगी गले से। मैंने उसे भी अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था। मेरी भी आँखें बरस रही थीं। बड़ी देर बाद हम अलग हुए। बाक़ी सभी भाइयों से मिला, वे भी भावुक थे। अम्मा साथ आए दोनों चचेरे भाइयों से भी मिलीं। उन्हें भी गले लगाया, आशीर्वाद दिया। बड़ी देर रात तक खाना-पीना, हँसना-बोलना, चलता रहा। सबसे ज़्यादा बातें मेरी पढ़ाई-लिखाई, एयरफ़ोर्स में मेरे सिलेक्शन को लेकर होती रहीं।

पूरा घर एक पेट्रोमैक्स, कई लालटेन के सहारे चमक रहा था। पूरे घर की रंगाई-पुताई से लेकर एक-एक चीज़ चमकाई गई थी। बहुत सी चीज़ें नई ख़रीदी गई थीं। मैं अपने लिए घर का ऐसा लगाव देखकर अभिभूत हो रहा था। कई कमरों में सभी के सोने के लिए अलग-अलग इंतज़ाम किया गया था। लेकिन सोने के समय बहन बोली, ‘बरोठे में सब एक साथ सोते हैं। सब ने बातें कर लीं, मैं तो बात कर ही नहीं पाई हूँ।

वह सही कह रही थी। अम्मा का हाथ बँटाने में ही उसका सारा समय निकल गया था। उसके बोलते ही बाक़ी भाइयों ने भी हाँ कर दी तो एक साथ बरोठे में ही ज़मीन पर ही बिस्तर लगाया गया। क्योंकि वहाँ एक साथ सभी के लिए चारपाइयाँ नहीं पड़ सकती थीं। लेटे-लेटे ही सब बतिया रहे थे। बतियाते-बतियाते ही सब एक-एक कर सोते चले गए। मैं आख़िर तक जागता रहा। मैं थका था, आँखों में नींद भी बहुत थी लेकिन मैं सो नहीं पा रहा था।

एक ही बात बार-बार दिमाग़ में गूँज रही थी कि इतने सालों बाद आया हूँ, गाँव के संगी-साथी कैसे हैं? यह भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ। परसों सुबह फिर चले जाना है। पता नहीं फिर कब वापसी होगी। मेरा मन बार-बार चच्चा के घर चला जा रहा था, कि पता नहीं उनके यहाँ सब कैसे हैं? चाची कैसी हैं? और उनका बेटा, मेरा सहपाठी, वह कैसा है? जेल में बंद उसके दोनों भाई छूटे कि नहीं। घर में तो गाँव के बारे में कोई कुछ बात ही नहीं करता था। बहुत पूछने पर ही बाबू जी कभी-कभी कुछ-कुछ बताते थे। बाबूजी ने तो उसकी ख़ुराफ़ातों के कारण उसका नाम ही मुतफन्नीरखा हुआ था। वहाँ पहुँचने पर इतनी सारी बातें दिल्ली, मेरी एयरफ़ोर्स की नौकरी की होती रही थीं कि गाँव का नंबर ही नहीं आया।

अगले दिन सवेरे ही मैं भाइयों के साथ गाँव देखने, सब से मिलने निकल लिया। निकलते वक़्त अम्मा ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया था कि मैं किसी को यह भूल कर भी नहीं बताऊँगा कि मैं एयरफ़ोर्स में भर्ती हो गया हूँ। और भी कुछ ज़्यादा बातें करने से मना किया। उन्हें इससे मेरा अनिष्ट होने की आशंका सता रही थी।

मैं चच्चा के यहाँ पहुँचा तो चाची दरवाज़े पर ही बैठी मिलीं। उनके पैर छुए लेकिन वह पहचान नहीं सकीं। बताया तो ख़ूब आशीर्वाद दिया। उनके ही पीछे एक और महिला खड़ी थी जो हम लोगों के पहुँचते ही भीतर चली गई। मैंने अपने सहपाठी के बारे में पूछा तो चाची ने कहा, ‘बाज़ार में होगा दुकान पर।बाज़ार में हमने अपने सहपाठी इंद्रेश की दुकान पूछी तो जिनसे पूछा था वह कुछ लटपटाए। तब हमने चच्चा का नाम लिया, उनका नाम पूरा होने से पहले ही वह बोले, ‘अरे बोल्टुआ के पूछ रहे हो। ऊहे तो बा ओकर दुकनियाँ।

उन्होंने पचास-साठ क़दम आगे एक दुकान की ओर हाथ दिखाते हुए कहा। हम वहाँ पहुँचे, वह चाय-समोसा, मिठाई की दुकान थी। सामने भट्टी पर कढ़ाई में तेल गर्म हो रहा था। उसके बगल में छोटी भट्टी में चाय की बड़ी सी केतली चढ़ी थी। भट्टी के दूसरी तरफ़ एक सोलह-सत्रह साल का लड़का उबले हुए आलू छील रहा था। मैं उससे पूछने ही वाला था कि नज़र उसके पीछे तखत पर बैठे एक औसत क़द के लेकिन मज़बूत जिस्म वाले व्यक्ति पर पड़ी। मैं देखते ही पहचान गया। मैंने जैसे ही आवाज़ दी इंद्रेश।क्षण भर देखते ही वह भी पहचान गया।

ख़ुश होता हुआ बोला, ‘अरे तू, आवा अंदरवां आवा ना।कहते हुए वह उठा और मेरे पास आया। हमने उसे गले लगाकर कहा, ‘अरे तू तो बड़का सेठ हो गए हो।वह बोला, ‘अरे काहे का सेठ, ऐसे ही चाय-पानी चलता रहता है। आवा अंदर, आवा।हमें और हमारे साथ आए चचेरे भाइयों को तखत पर बैठाया। ख़ुद ग्राहकों के लिए पड़ी बेंच खींचकर उस पर बैठ गया। भट्टी के पास बैठे लड़के को चाय बनाने के लिए कहकर बतियाने लगा।

बड़ी देर तक चाय-नाश्ता, हमारी बातें होती रहीं। वह अपनी कम मेरी ज़्यादा पूछ रहा था। दिल्ली, पढ़ाई-लिखाई, इतने दिन आए क्यों नहीं? वह हँस-हँस कर अपनी एक से बढ़कर एक ख़ुराफ़ात भी बताता रहा कि इतने दिनों में कैसे त्रिनेत्रधारी से एक-एक कर बदला लिया। कैसे उसे भरे बाज़ार में मारा-पीटा। उसके लड़के को आए दिन इतना मारा-पीटा कि उसकी पढ़ाई छूट गई। त्रिनेत्रधारी ने उबकर लड़के को किसी रिश्तेदार के यहाँ भेज दिया।

त्रिनेत्र से मुक़ाबले के लिए उसने राजनीतिक पार्टी ज्वाइन कर रखी है। यह होटल भी त्रिनेत्र की ही ज़मीन कब्ज़ा करके बनाया है। मैंने उससे उसके भाइयों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि, 'बड़के दोनों भईया जेल से छूटने के बाद यहाँ ज़्यादा दिन रुके नहीं, मुम्बई चल गए। वही काम-धंधा जमाए हैं। पढ़ाई-लिखाई तो दोनों जने की खत्मे हो गई थी। एक जने आगे खाद-बीज का धंधा जमाए हैं।' सबसे छोटे के बारे में उसने बड़े गर्व से बताया कि, 'वह एक हत्या के मामले में जेल में बंद है।' मैं हैरान था कि ग़लत काम को भी यह कैसे गर्व का विषय समझ रहा है। मुझे लगा कि मैं उसकी बातों से ऊब रहा हूँ। भाइयों के चेहरों पर भी कुछ ऐसा ही भाव दिख रहा था। मैंने बात बदलने की गरज से पूछा, ‘तुमने यह दुकान का नाम कैसा रखा है बोल्टू हस्का-फुस्की मिठाई वाला।पूछते ही वह ज़ोर से हँसा, फिर लंबी कहानी बता डाली, बोला कि, ‘तुम्हारे जाने के बाद गाँव के ही लड़कों ने बोल्टू कहना शुरू कर दिया था। कबड्डी खेलते वक़्त मैं जिसे पकड़ लेता था वह छूट नहीं पाता था। सब कहते बोल्ट टाइट हो गया है, छूट नहीं सकता। फिर बोल्ट से बोल्टू हो गया।

मैंने तुरंत पूछा और हस्का-फुस्की तो वह फिर हँसकर बोला, ‘यह दोनों मेरे लड़कों के नाम हैं।उसने तर्क दिया कि, ‘मैं ऐसा नाम रखना चाहता था अपने जुड़वा बेटों का जो किसी और का हो ही नहीं, और साथ ही कोई उसके बेटों के नाम की नक़ल भी ना करना चाहे तो मुझे यही नाम सूझा। दुकान का नाम अपना, बेटों का नाम मिला कर रखा है। दावे से कहता हूँ कि कोई भी इस नाम की नक़ल नहीं करेगा।मैं उसकी बातों उसके कामों से बहुत निराश हुआ। किसी तरह बात ख़त्म कर के उससे विदा ली। मैंने पूरा प्रयास किया कि मेरे भाव को वह समझ ना सके।

इसके बाद गाँव, खेत, बाग़ घूम-घाम कर घर वापस चल दिया। बार-बार अम्मा, बाबूजी को प्रणाम करता हुआ कि उन्होंने कितना सही निर्णय लिया था मुझे यहाँ से हटाने का। नहीं तो मैं भी यहीं कहीं बोल्टू हस्का-फुस्की दुकान खोले चाय बेच रहा होता। घर पर खाने-पीने के बाद मैंने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई चेक की तो वह मुझे संतोषजनक नहीं लगी। मैंने बाबूजी-अम्माजी से उनकी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजने को कहा और वापस आ गया। दोबारा मेरा गाँव जाने का मन नहीं होता था। नौकरी भी ऐसी मिली थी कि फ़ुर्सत ही नहीं। हालात भी ऐसे बने कि हम सब भाई-बहनों का शादी-ब्याह सब कुछ दिल्ली में ही संपन्न हुआ।

समय बीतता गया लेकिन बोल्टू हस्का-फुस्की मेरे दिमाग़ से नहीं निकला। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी भी हम लोगों के साथ दिल्ली में बस गए। मैं ख़ुद भी रिटायरमेंट के क़रीब पहुँच रहा हूँ। पर यह अभी भी दिमाग़ में है। इसे ढोते हुए एक दिन मैं विशाखापट्टनम से आकर एयरपोर्ट पर उतरा। मेरे बेटा-बेटी मुझे लेने आए थे। मैं कार में पीछे बैठा अपने एक कुलीग से मोबाइल पर बातें कर रहा था। घर रोहिणी पहुँचने से कुछ पहले ही एक बिल्डिंग के सेकेंड फ़्लोर पर बड़ा सा बोर्ड लगा देखा। जिस पर लिखा था, ‘बोल्ट्स जिम। जिसे पढ़ते ही मेरे दिमाग़ में सेकेंड भर में न जाने कितनी तस्वीरें घूम गईं।

मैं गाड़ी बैक करवा कर वापस गया। बच्चों को गाड़ी में ही रुकने के लिए बोलकर ऊपर पहुँचा। मेरा अंदेशा बिल्कुल सही था। बोल्ट्स जिम का मालिक बोल्टू ही निकला। जिम क्या पूरी बिल्डिंग का मालिक वही था। हमें एक दूसरे को पहचानने में समय नहीं लगा। फिर गले मिले। तीस साल बाद। बोल्टू ने अपने बेटे को भेजकर मेरे बच्चों को भी ऊपर बुलवाया। ख़ूब ख़ातिरदारी की।

मैं बच्चों को नहीं मिलवाना चाहता था। लेकिन बात मुँह से निकल चुकी थी। आधे घंटे की मुलाक़ात में बोल्टू ने जो कुछ कहा वह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। उसने बताया कि, ‘अपनी राजनीति मैंने ऐसी चमकाई कि मैं यहाँ हूँ, मर्डर केस में जेल में बंद भाई सज़ा काट कर लौटा तो दोनों भाइयों ने मिलकर यह पा लिया। गाँव में भी खेत-बाग़, मकान, गाड़ी सब कुछ है। पहले से सैकड़ों गुना ज़्यादा संपत्ति गाँव और शहर में बना ली है। यह बिल्डिंग ही पचास करोड़ से ऊपर की है। भाई दो-दो बार ब्लॉक प्रमुख रह चुका है। एक बार विधायक भी। मैं पिछली बार एमपी का चुनाव लड़ा लेकिन थोड़े से अंतर से दूसरे नंबर पर रहा। इस बार मेरा दाँव सफल रहा तो पार्टी मुझे राज्यसभा ज़रूर भेजेगी।चलते समय जब मैं कार में बैठ गया था तब अचानक ही चाची के बारे में पूछने पर बोल्टू ने कहा था कि, ‘कुछ साल पहले उनकी डेथ हो गई। वह भी यहीं रहती थीं।

रास्ते भर मैं सोचता रहा कि बाबूजी-अम्मा जी का मुझे गाँव से पढ़ने के लिए दिल्ली भेजने का निर्णय सही था या ग़लत। और मैंने भाई-बहनों को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली बुलाकर सही किया था कि ग़लत। हालाँकि सभी सरकारी नौकरी कर रहे हैं। सभी क्लास वन अफ़सर हैं।

घर पहुँच कर मैंने अम्मा-बाबूजी के पैर छू कर फिर आशीर्वाद लिया था। मैं घर से बाहर जाने-आने पर यह ज़रूर करता हूँ। उनके चरणों में मुझे सारी दुनिया ही नज़र आती है यह नहीं कहूँगा, बल्कि मैं यह कहता हूँ, समझता हूँ, अहसास करता हूँ कि मुझे तीनों लोकों की ख़ुशियाँ मिल जाती हैं। उस दिन भी चरण छूकर मुझे मेरे कन्फ्यूज़न का तुरंत उत्तर मिल गया था कि बाबूजी अम्मा जी और मैंने एकदम सही निर्णय लिया था।  

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 उसे अच्छा समझती रही

मैं मकान का तीसरा फ़्लोर बनवा रहा था। उद्देश्य सिर्फ़ इतना था कि किराएदार रखकर मंथली इनकम और बढ़ाऊँ, क्योंकि दोनों बच्चे जूनियर हाईस्कूल पास कर चुके थे। आगे उनकी पढ़ाई के लिए और ज़्यादा पैसों की ज़रूरत पड़ेगी। मुझे यह बताने में भी कोई संकोच नहीं है कि आजकल के पति पत्नियों की अपेक्षा हम दोनों कुछ नहीं बहुत ही ज़्यादा रोमांटिक मूड के हैं। इस एज में भी बिल्कुल अल्ट्रामॉडर्न न्यूली मैरिड कपल की तरह, और बोल्ड भी। मेरे जो मित्र, रिश्तेदार हमें, हमारी जीवनशैली को जानते हैं, वह कहते हैं कि, "क्या यार तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए हैं, अब इतना रोमांटिक होना अच्छा नहीं है। बच्चों पर ध्यान दो, उनको ज़्यादा समय दो। बच्चे अब समझदार हो गए हैं।"

मैं ऐसे सभी लोगों को आज भी हर बार एक ही जवाब देता हूँ कि, "मैं बच्चों को पूरा समय भी देता हूँ और दुनिया की हर ज़रूरी जानकारियाँ भी। शर्म, संकोच नहीं, उचित ढंग से उन्हें बताता हूँ कि क्या सही है, क्या ग़लत है, कब क्या करना चाहिए और क्यों करना चाहिए। उन्हें भी मैं फ़्री टाइम देता हूँ। हमेशा उनके सिर पर सवार नहीं रहता। आख़िर उन्हें भी तो थोड़ा ऐसा समय चाहिए ना जिसमें वह आज़ादी महसूस कर सकें।"

ऑफ़िस में मेरी एक साथी के अलावा, एक भी व्यक्ति मुझे मेरी सोच वाला अभी तक नहीं मिला। मैं बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने का प्रबल पक्षधर आज भी हूँ। यह बात केवल कहता ही नहीं हूँ बल्कि अपने बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से देता भी आ रहा हूँ। मेरी वह साथी भी अपने दोनों बेटों और एक बेटी को मेरी ही तरह शिक्षित कर रही है। इस विषय पर सभी हमारी कटु आलोचना के सिवा और कुछ भी नहीं करते। मेरे यह सभी उग्र आलोचक कहते हैं कि मैं अपने बच्चों को भ्रष्ट बना रहा हूँ। मेरी इस बात को यह सभी अनर्गल प्रलाप मानते हैं कि, "यदि बच्चों को शुरू से ही सेक्स एजुकेशन दी जाए तो आगे चलकर वह तमाम हेल्थ रिलेटेड बीमारियों से बचे रहेंगे। बच्चों को इस तरह एजुकेट करके हम समाज से सेक्सुअल क्राइम्स बहुत कम कर सकते हैं।" यह आलोचक तीखे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि, "आप और आपकी पत्नी बहुत ही ज़्यादा खुले स्वभाव के हैं, इसलिए अपने आसपास का माहौल ऐसा बनाना चाहते हैं, जो आपके अनुकूल हो।"

यह बात मुझे बड़ी मूर्खतापूर्ण, सतही लगती है, जब कई स्वयंभू विद्वान मुझे रजनीश के सिद्धांतों से प्रभावित बताने लगते हैं। मेरी इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते कि, "मैंने ना रजनीश को कभी पढ़ा है, ना सुना है, तो उनकी किसी बात का मुझ पर प्रभाव कैसे पड़ सकता है।" मगर स्वयंभू विद्वानों की यह मंडली यक़ीन ही नहीं करती। एक विद्वान जी तो एक बार बड़ी गर्मागर्म बहस पर उतर आए। रजनीश की एक पुस्तक, "संभोग से समाधि की ओर" का ज़िक्र करते हुए कहा, "आपने यह किताब पूरी पढ़ी ही नहीं है, बल्कि घोंटकर पी डाली है और उसमें लिखी बातों का ही पूरी तरह पालन कर रहे हैं।"

मैंने कहा, "आप बड़ी बेतुकी बातें कर रहें हैं। मैं इस किताब के बारे में सुन भी आपके मुँह से रहा हूँ कि इस तरह की उन्होंने कोई किताब लिखी भी है। हाँ, आप जिस तरह से उस किताब की डिटेल्स बता रहे हैं, उससे यह बात बिल्कुल साफ़ है कि मैंने नहीं, आपने उस किताब को घोंटकर पी लिया है। आपके बताने के अंदाज़ से लग रहा है कि आपने एक बार नहीं उसे बार-बार पढ़ा है।"

मकान बनवाने के लिए जब लोन की अप्लीकेशन दी तो इन्हीं विद्वान से जल्दी करने के लिए कहा। तब इन्होंने पूछा, "कुल चार लोग हो, दो फ़्लोर बने हुए हैं, फिर तीसरा क्या करोगे?" मैंने कहा, "एक फ़्लोर में हम दोनों पति पत्नी रहेंगे। दूसरे में दोनों बच्चे और तीसरा फ़्लोर किराए पर दूँगा।" उन्होंने कहा, "जब किराए पर ही देना है तो दो फ़्लोर दो। तुम्हारा बड़ा मकान है। एक ही फ़्लोर में तुम्हारा पूरा परिवार रह सकता है।" मैंने उन्हें चिढ़ाने के लिए कहा, "रह सकता है। लेकिन मेरे परिवार जैसा परिवार नहीं। देखिए, मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो बच्चे ज़रा सा बड़े हो गए तो ख़ुद को बुज़ुर्ग मानकर बस जैसे-तैसे ज़िंदगी काटने लगते हैं। हम ना अपनी आज़ादी में बाधा चाहते हैं, ना उनकी में बनना चाहते हैं। इसलिए अलग-अलग ही सही है।"

मेरी इस बात पर उन्होंने कुछ ऐसी बात कही जो मुझे अपनी पर्सनल लाइफ़ में उनका अनाधिकृत हस्तक्षेप लगा, अपमान की हद तक। तो मैंने भी उन्हें कुएँ का मेंढक सहित कई और तीखी बातें कहते हुए हिसाब बराबर कर लिया। हालाँकि बाद में यह पछतावा हुआ कि जो भी हो, वह उम्र में मुझसे बड़े हैं, मुझे उनको अपमानित नहीं करना चाहिए था। यह समझ कर चुप रहना चाहिए था कि यह उनके विचार हैं। यह ज़रूरी नहीं कि सभी मेरे सुर में सुर मिलाएँ।

जैसे-जैसे तीसरा फ़्लोर बनता जा रहा था मुझे वैसे-वैसे इन सब की बातें यादें आतीं। लगता कि जैसे कानों में गूँज रही हैं। लोन अप्रूव करने वाले विद्वान अकाउंट ऑफ़िसर की यह बात ज़्यादा कि, "तुम अपने घर को वेस्टर्न कंट्रीज़ के लोगों की तरह अनैतिक कर्मों का घर बना चुके हो। दैहिक भोग ही तुम्हारा आचार-विचार, लक्ष्य है।" उनकी इस बात पर मैं उनके विशाल माथे पर लगे चंदन रोली के बड़े से तिलक को बड़ी देर तक घूरता रहा तो उन्होंने कहा, "आप अभी इस पवित्र तिलक को पाखंड आडंबर कहेंगे। लेकिन इसके वैज्ञानिक महत्व को जानकर भोगवादी संस्कृति या परम भोग से ऊबे, खिन्न पगलाए लोग जीवन की शांति, शीतलता ढूँढ़ रहे हैं इसी चंदन तिलक वाली सनातन संस्कृति में।

पिछले कुंभ में देखा नहीं कि कितनी कंपनियों के उच्च पदस्थ अधिकारियों ने करोड़ों रुपए मंथली सैलरी वाली नौकरी, बहुत हाई-फ़ाई जीवनशैली को छद्म, भुलावा, भटकाव माना, समझा और उसे छोड़कर वास्तविक सुख, शांति पाने के लिए इसी तिलक की शीतलता की छाया में आ गए। और आप उल्टा जा रहे हैं। एक छल-कपट छद्मावरण वाली दुनिया में। जहाँ की भोगाग्नि आख़िर में जलाती ही है, बस।" यह कह कर उन्होंने तिलक की महत्ता को बताने वाला यह श्लोक भी बताया, "स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृ कर्म चः। त्त्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं बिना।।"

मिस्त्री की कन्नी-बसुली की कट-कट की आवाज़ की तरह उनकी बातें मेरे दिमाग में दिन पर दिन ज़्यादा चोट करती जा रही थीं। मैं अजीब सा चिड़चिड़ा होता चला जा रहा था। बेवज़ह पत्नी-बच्चों, मज़दूरों पर उखड़ने लगा। मकान बनवाने के लिए मैंने एक महीने की मेडिकल लीव ले रखी थी। मगर एक बड़ी अजीब बात भी हो रही थी कि जहाँ हर किसी को देख कर मुझे ग़ुस्सा आता था। वहीं घर में काम कर रहे एक क़रीब चालीस वर्षीय मज़बूत कद-काठी वाले मज़दूर पर मुझे ना जाने क्यों बड़ी दया आती। वह मुझे बहुत प्रभावित करता। काम बंद होने पर जब वह चला जाता तो मैं सोचता आख़िर यह मुझे इतना क्यों प्रभावित कर रहा है? मुझे इस पर दया क्यों आती है? इसमें कोई शक नहीं कि तिलक वाले अकाउंटेंट की बातों के कारण मैं अजीब से वहम में पड़ गया हूँ। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि उनकी बातों और मज़दूर में कुछ सम्बन्ध है। यह क्यों मुझे एकदम अलग दिख रहा है? मैं देखता कि वह एकदम गूँगे की तरह मुँह सिले दो-तीन मज़दूरों के बराबर अकेले ही जी-तोड़ काम करता रहता है। एक मिनट भी रुकता नहीं।

लंच टाइम में सारे मिस्त्री, मज़दूर खाना खाने चले जाते हैं। आधे घंटे को कह कर निकलते हैं, लेकिन लौटते हैं एक घंटे में। हँसते-बोलते, बीड़ी-तंबाकू, पान-मसाला खाते-पीते। लेकिन यह ऊपर छत पर एक कोने में बैठकर पाँच मिनट में न जाने क्या खा-पीकर तुरंत मुँह में सुरती दबाता है और काम में जुट जाता है। जब-तक सब आते हैं तब-तक यह बहुत सारा काम पूरा कर डालता है।

मैं बड़ी सोच में पड़ गया कि वह आख़िर ऐसा क्या लाता है अंगौछे में जो पलक झपकते खाकर पानी पी लेता है। अगले दिन मैं उसके पास पहुँच गया कि देखूँ क्या लाता है? मुझे देखकर वह अचकचा गया। बहुत संकोच के साथ दिखाया। अंगौछे में छः-सात मोटी-मोटी रोटियाँ थीं। सब्ज़ी-दाल, चटनी-वटनी, प्याज-मिर्चा वग़ैरह कुछ भी नहीं था। मेरा मन बड़ा द्रवित हो गया। मैंने पूछा, "कैसे खाओगे भाई?" उसने तुरंत एक पुड़िया खोल कर दिखाई। बिल्कुल सादा सा नमक था। कहा, "ये है ना बाबू जी। इसी से खा लूँगा।"

मैंने आश्चर्य से देखते हुए कहा, "ये रूखा-सूखा कैसे खाओगे? तुम दो मिनट रुको, सब्ज़ी-दाल कुछ मँगवाता हूँ।" मैं मिसेज को आवाज़ देने ही जा रहा था कि उसने हाथ जोड़कर मना कर दिया। मैंने फिर दोहराया कि रूखा है तो उसने पानी की बोतल दिखाते हुए कहा, "नहीं साहब ये पानी है ना।" मैं आश्चर्य से उसे कुछ देर देखता रह गया। फिर वहाँ से हट गया कि वह निसंकोच होकर खाना खाए। यह सोचते हुए मैं नीचे चला आया कि बड़ा स्वाभिमानी और संकोची है। हो सकता है कि सवेरे-सवेरे कुछ बना ना पाया हो।

अगले दिन मैं अपने को फिर नहीं रोक पाया। देखा तो फिर वही नमक रोटी। मुझे बड़ी दया आई। मैंने फिर सब्ज़ी-दाल की बात उठाई तो उसने हाथ जोड़ लिया। मगर तीसरे दिन मुझसे नहीं रहा गया। जब वह खा-पी चुका, तो मैं उसी के पास ईंटों के ढेर पर बैठकर उससे बात करने लगा। बड़ी मुश्किल से वह सहज हुआ और खुल कर बोलना शुरू किया। मैंने उसे सिगरेट भी पिलाई जिससे कोई हिचक ही ना रहे। वह ले नहीं रहा था, बहुत कहने पर पीने लगा।

जिस अंदाज़ में उसने सिगरेट पी उससे मुझे विश्वास हो गया कि वह इन चीज़ों का शौक़ीन है। जब मुझे लगा कि वह बातचीत में अब पूरी तरह ट्रैक पर आ चुका है तो उससे पूछा कि, "तुम डेली साढ़े चार सौ रुपये कमाते हो, रोटी के साथ दाल या सब्ज़ी वग़ैरह भी तो ला ही सकते हो। गेहूँ के आटे की रोटी के अलावा और कुछ ना खाने से तो तुम्हारा स्वास्थ्य जल्दी ख़राब हो जाएगा। गेहूँ के आटे में ग्लूटन नामक पदार्थ बहुत होता है, जो आँतों के लिए किसी भी सूरत में अच्छा नहीं है। ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या बात है?" मेरी इस बात को वह टालने लगा। मगर उसके चेहरे पर जिस तरह के भाव आए-गए। दुख-पीड़ा की जो गहरी लकीरें चेहरे पर उभरीं, उससे मैं समझ गया कि कुछ ना कुछ तो बहुत बड़ी बात है, जो इसे बहुत कष्ट दे रही है।

मैं उससे और ज़्यादा अपनत्व के साथ बात करने लगा। कहा, "देखो कोई आपत्ति न हो तो जो भी समस्या है बताओ। मैं तुम्हारी मदद करूँगा।" मेरी बड़ी कोशिश के बाद उसने जो बताया उन बातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं हतप्रभ होकर बार-बार उसे देखता। मेरे मन में तुरंत जो बात आई वह यह कि इसे तुरंत घर से बाहर कर देना चाहिए। इसे घर के अंदर रखना मूर्खता है। ऐसे आदमी का क्या ठिकाना कि वही सारे काम ना दोहराए जो यह कर चुका है। लेकिन उसकी बेबसी, विनम्रता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह विश्वास करने में समय नहीं लगा कि वह अपने सारे ग़लत कामों के लिए सच में अपने को पश्चाताप की अग्नि में तपा रहा है। ख़ुद को शुद्ध कर रहा है। औरों की तरह उसे भी ख़ुद को शुद्ध करने का अधिकार है।

यह भी हम सभी की तरह इंसान है। हर इंसान से ग़लतियाँ होती हैं। जो ग़लतियों को स्वीकार ले, पश्चाताप कर ले, वह फिर से भला इंसान हो सकता है, और यह भला इंसान बनने में ही लगा हुआ है। इसे अगर मैंने धिक्कारा, ग़ुस्सा हुआ, भगाया तो कोई आश्चर्य नहीं कि यह फिर पुराने रास्ते पर लौट जाए। उसने जब बताना शुरू किया तो ना हिचकिचाया, ना रुका।

बड़े भावुक स्वर में उसने बताया कि, "जब मैं इंटर के एग्ज़ाम का आख़िरी पेपर देकर लौटा तो देखा कि मेरे घर के सामने भीड़ लगी है। पुलिस वाले भी हैं। मैं घबराया, दौड़कर पहुँचा तो मालूम हुआ कि बाबूजी ने पंखे से लटक कर जान दे दी है। उनके कपड़े से मिली एक पर्ची में लिखा था कि वह अपनी ज़िंदगी से ऊब कर जान दे रहे हैं। किसी को परेशान ना किया जाए। ना ही पोस्टमार्टम किया जाए।

उनके मरने के कुछ महीने बाद बहनों से मुझे पता चला कि उस दिन रात में अम्मा बाबूजी के बीच पहले ही की तरह झगड़ा हुआ था। बाबू ट्रक ड्राइवर थे। उनकी आधी कमाई शराब और औरतबाज़ी में ख़र्च हो जाती थी। इससे घर चलाने के लिए अम्मा को भी काम करना पड़ता था। वह मना करती थीं कि, ’ऐसे पैसा बर्बाद करना, शरीर बर्बाद करना ठीक नहीं है। ना जाने किन-किन औरतों के पास जाते हो। कौन-कौन सी बीमारी इकट्ठा किए मेरे पास आते हो।दोनों के बीच झगड़े की हर बार यही वज़ह होती थी। अम्मा कहतीं, ’बच्चों के सामने यह सब बोलते हो, कितना ख़राब लगता है। कितना बुरा असर पड़ रहा है उन सब पर। सब मोबाइल ज़माने के हैं। हम सबसे ज़्यादा जानते, समझते हैं।अम्मा लड़कियों का वास्ता देतीं लेकिन बाबूजी पर कोई असर नहीं होता। इस मनबढ़ई के कारण आख़िर नशे की हालत में ही परिवार को अकेला भरे जंगल में छोड़कर चले गए।

अकेले घर चलाना अम्मा के लिए बहुत मुश्किल हो गया, इतना कि हम भाई-बहनों की पढ़ाई अंततः बंद हो गई। घर किसी तरह चल सके इसके लिए मैं नौकरी ढूँढ़ने लगा। लेकिन बहुत ढूँढ़ने पर भी मुझे नौकरी नहीं मिली। घर का ख़र्च चलना छोड़िए, उसका हिलना-डुलना भी मुश्किल होने लगा। तो मैं मज़दूरी करने लगा। एक बड़े अधिकारी का मकान बन रहा था। जैसे आप ऊपर बनवा रहे हैं, उसी तरह वह भी बनवा रहे थे। सवेरे-सवेरे ही काम शुरू करवा कर चले जाते थे। दिनभर मैडम सब कुछ देखती थीं। उनकी जैसी हँसमुख, मिलनसार, दयालु औरत मैंने आज तक दूसरी नहीं देखी। उनके जैसे ही प्यारे-प्यारे उनके दो बच्चे थे। जो सवेरे ही स्कूल चले जाते थे। मैं वहीं मज़दूरी कर रहा था। मेरे काम से वह बहुत ख़ुश थीं। एक दिन लंच के समय मेरा खाना देखकर बोलीं, ’तुम कल से खाना लेकर नहीं आना। यहीं खा लिया करना।शुरू में मेरा मन बिल्कुल नहीं था। लेकिन जब उन्होंने ज़्यादा कहा तो मैं मान गया।

मुझे चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब वही मिलता था, जो वह अपने लिए बनाती थीं। मैं भी बड़ा ख़ुश रहता, अहसान मानता और जी-तोड़कर खूब काम करता। काम धीमी रफ़्तार से, बड़े आराम से हो रहा था क्योंकि साहब ने एक मिस्त्री और एक ही लेबर काम पर लगाया था। मैडम ऐसे काम देख रही थीं, करवा रहीं थीं जैसे कि वह कोई मनोरंजन का काम है। एक दिन मैं दोपहर में हाथ-मुँह धोकर खाने के लिए सीमेंट वाली एक बोरी बिछा कर बैठ गया। मैडम मुझे खाना देने लगीं, बड़े प्यार से। ऐसा लग रहा था जैसे घर के किसी सदस्य को ही खिला रही हैं। बस उसी समय मुझ पर न जाने कौन सा साढ़ेसाती सनीचर सवार हो गया कि मैं उन्हें..., अब क्या बताएँ साहब, मुझे ऐसे कुछ नहीं देखना चाहिए था। मगर जब साढ़ेसाती सनीचर सवार हो तो कुछ नहीं हो सकता। मैं उसी समय उन पर हमला करने वाला था, लेकिन आख़िरी क्षण में ठहर गया। तब मैं समझ नहीं पाया था कि मैडम ने मेरी हरकत पकड़ ली है कि नहीं। वह कुल तीन बार खाने की चीज़ें परोसने आईं। मैं तीनों बार अपने को बड़ी मुश्किल से सँभाल पाया।

उन्हें बरमुडा, टी-शर्ट में देखते ही ना जाने क्यों सनीचर मेरे सिर पर तांडव करने लगता था। ऐसा नहीं है कि वह कोई पहली बार उन कपड़ों में सामने आई थीं। मुझे महीना भर हो रहा था वहाँ काम करते-करते। दर्जनों बार वह छोटे कपड़ों में आईं। पूरा घर साहब, बेटी, बेटा सभी बड़े छोटे-छोटे कपड़ों में रहते थे। लेकिन तब सनीचर मेरे सिर पर तांडव नहीं करता था। कहने को भी नहीं। मगर उस दिन पता नहीं क्यों? उसी समय उन पर हमला करने से इसलिए भी ख़ुद को रोक पाया क्योंकि मिस्त्री के आने का डर था। खाना खाने के बाद मैं काम तो करता रहा, लेकिन मन में मैडम ही चलती रहीं। बराबर वह आँखों के सामने ही बनी रहीं। मन करता कि सारा काम-धाम छोड़कर उनके पास पहुँच जाऊँ।

साहब मेरा पागलपन देखिए कि क़रीब तीन बजे मैं नीचे चला ही गया। हमला करने की तय करके। मुझ पर जैसे भूत सवार हो गया था। यह भी भूल गया कि घर में मिस्त्री भी है। मैं निश्चिंत पहले कमरे में पहुँचा। वह नहीं मिलीं, तो मैं लॉबी, फिर एक कमरा और पार करके बेडरूम तक चला गया। मगर मैडम वहाँ भी नहीं दिखीं। तभी मेरी नज़र सामने अलमारी पर पड़ी, जिसका दरवाज़ा बंद था। लेकिन चाबी उसी में लटकी हुई थी। मैंने एक चौकन्नी नज़र हर तरफ़ डाली। मुझे बेड पर तकिए के पास दो हज़ार और पाँच सौ की कई गड्डियाँ पड़ी हुई दिखीं। मैं ख़ुद को रोक नहीं पाया। गड्डियों को झपट कर पैंट की जेब में रख लिया। तभी कुछ आहट सुनकर वापस चल दिया। लॉबी में पहुँचा ही था कि मैडम दिख गईं। कोरियर से कोई सामान आया था। वह उसी के दो डिब्बे लिए चली आ रही थीं।

मुझे वहाँ देखते ही हैरान होते हुए पूछा, ’तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’ उनको देखते ही मैं हकबका गया। एकदम सफ़ेद झूठ बोलते हुए जल्दी से कहा, ’जी, वह पानी माँगने आया था। ऊपर धूप बहुत तेज़ है।वह कुछ देर मुझे देखने के बाद बोलीं, ’ठीक है, तुम बाहर रुको। ला रही हूँ पानी।मैंने देखा कि मैडम का मूड उखड़ चुका है। कहाँ तो मैं हमला करने गया था, लेकिन उन्हें देखते ही घबरा गया। शायद नोट चोरी कर लिए थे इसलिए मैं उन पर हमला करने की हिम्मत नहीं कर सका। मैडम ने कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पानी पकड़ा दिया। मुझे साफ़-साफ़ ग़ुस्से में दिख रही थीं। पानी लेकर मैं ऊपर चल दिया। मेरे पैर काँप रहे थे। सही दिशा में नहीं पड़ रहे थे। अगर मैंने रुपए ना चुराए होते तो मैं निश्चित ही हमला कर चुका होता। चोरी करते हुए पकड़े जाने में बस कुछ ही सेकेंड का फ़र्क रह गया था। शायद इस बात ने मुझे अचानक ही बड़ा कमज़ोर बना दिया था। मैं सारा ज़ोर लगाकर भी अपने पैरों को थरथराने से रोक नहीं पा रहा था।"

उसकी यह बात सुनकर मैंने कहा, "बड़ी अजीब बात बता रहे हो तुम। जो आदमी रेप जैसा भयानक अपराध करने जा रहा हो चोरी तो उसके सामने कुछ है नहीं। फिर वह तुम्हें अकेली मिल भी गईं थीं।" मेरी इस बात पर वह बड़ी खिन्नता के साथ बोला, "साहब यही तो आज तक मैं भी नहीं समझ पाया कि उस समय मैं घबरा क्यों गया? मेरे पैरों की थरथराहट तब बंद हुई जब मिस्त्री की नज़र बचाकर मैंने नोट छत पर ही पड़ी मौरंग, बालू के ढेर में छिपा दिया। उसी पर कई ईंटें रख दीं। तब जाकर मैं निश्चिंत हो पाया कि अब मैं चोरी में नहीं पकड़ा जाऊँगा। शक के आधार पर पुलिस पकड़ेगी तो मिस्त्री भी धरा जाएगा। मगर रुपए कोई नहीं ढूँढ़ पाएगा।

मुझे यक़ीन था कि मैडम बस रुपए की चोरी पकड़ने ही वाली हैं। अब कुछ ही देर में आफ़त आने वाली है। लेकिन कुछ समय बीत जाने के बाद भी जब आफ़त नहीं आई तो मेरे सिर पर फिर सनीचर तांडव करने लगा। मेरे क़दम नीचे की ओर बढ़ने लगे। मगर तभी नीचे से बच्चों की आवाज़ आने लगी। मतलब कि बच्चे स्कूल से वापस आ गए थे। मगर मेरे मन में धधक रही आग शांत नहीं हुई। तुरंत ही अगला प्लान बना लिया कि मिस्त्री पाँच बजे चला जाएगा और उसी समय बच्चे भी कोचिंग चले जाएँगे। साहब सात बजे से पहले आते ही नहीं। इससे अच्छा समय और कोई नहीं होगा। मैं भीतर ही भीतर ख़ुश हो रहा था कि बस कुछ ही समय बाद मैं अपने मन का कर लूँगा। कोई मुझे पकड़ भी नहीं पाएगा।

मिस्त्री और बच्चों के जाने के बाद मैंने अपनी योजनानुसार सब कुछ किया। रोज़ मिस्त्री के जाने के बाद मैं घंटे भर और रुक कर काम समेटता था। उस दिन सब के जाने के बाद मैं आधे घंटे भी ख़ुद को रोक नहीं पाया। नीचे पहुँच कर लॉबी में ही मैडम को पकड़ लिया। मेरे हाथ में मिस्त्री की बसुली थी। अचानक मेरे इस भयानक रूप को देखकर मैडम सकते में आ गईं। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। लगा जैसे कि बेहोश हो जाएँगी। मेरे सिर पर सनीचर भयानक रूप से नाच रहा था। मैं बड़ी फ़ुर्ती के साथ उन्हें खींचते हुए सबसे पीछे कमरे में ले गया।

पीछे कमरे में पहुँचते ही वह बेहोश हो गईं। अच्छी-ख़ासी मज़बूत जिस्म की थीं, लेकिन इतनी कमज़ोर! मैंने इत्मिनान से पूरी क्रूरता के साथ अपने मन का काम किया। मैडम के कपड़े उन्हीं पर फेंके। अपने कपड़े पहने, आराम से ऊपर जाकर पैसे लिए और भाग निकला। मुझे पूरा यक़ीन था कि मैडम होश में तभी आएँगी जब बच्चे, साहब आकर पानी-वानी छिड़क कर लाएँगे। मैं वहाँ से जितनी तेज़ साइकिल से भाग सकता था, उतनी तेज़ भागा। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि जाऊँ कहाँ? मुझे अब डर लगने लगा कि पुलिस पकड़ते ही हाथ-पैर तोड़ देगी। मैं हाँफता-भागता बस स्टेशन पहुँचा। जो बस जाती दिखी उसी में टिकट लेकर बैठ गया। वह रुद्रपुर जा रही थी। डर के मारे साइकिल स्टेशन के गेट पर ही छोड़ दी, जैसे कि मेरी है ही नहीं। अब मेरे पैर फिर काँप रहे थे। देर रात बस किच्छा पहुँची। लेकिन वहाँ ख़राब हो गई। फिर दूसरी बस यात्रियों को रुद्रपुर ले गई।"

उसकी बातें सुन-सुन कर मैं हतप्रभ हो रहा था। मन में कई बार आया कि कहीं यह मनगढ़ंत क़िस्सा तो नहीं सुना रहा है। उसे बीच में ही रोकते हुए पूछा, "यह बताओ तुम डकैती, रेप जैसा इतना गंदा, भयानक कांड करके भागे और आज तक पकड़े नहीं गए।" असल में उसकी दरिंदगी सुनकर मैं ग़ुस्से में आ गया था। मैंने तय किया कि इस भगोड़े को पुलिस को देकर इसे इसके कुकर्मों की सख़्त सज़ा ज़रूर दिलवाऊँगा। ये है तो ज़रूर ताक़तवर लेकिन इतना भी नहीं कि मैं रोक ना पाऊँ। अव्वल तो जब पुलिस इसकी खोपड़ी पर सवार हो जाएगी तब इसे पता चलेगा। इसे बातों में उलझा कर चुपचाप एक सौ बारह डायल करता हूँ। लेकिन आगे उसने जो बताया उससे मेरी योजना धरी की धरी रह गई।

उसने कहा, "पकड़ा गया। असल में साहब ने आते ही पुलिस बुला ली। आप तो जानते ही हैं कि आज कल हर जगह कैमरे लगे हैं। कैमरे से उन्हें सब पता चल गया। मोबाइल ने लोकेशन बता दी। रूद्रपुर पहुँचने से पहले ही पुलिए ने बस रुकवा कर उतार लिया। वापस ले आई और फिर गाली, लाठी, बेल्ट, जूता से ख़ूब मारा-तोड़ा। जो रुपये थे रास्ते में ही पुलिस की जेबों में ग़ायब हो गए। बताया गया कि मेरे पास रुपये बरामद ही नहीं हुए। मुझसे यही कहलवाया। दस साल की सज़ा काटी। घर पहुँचा तो एक और बड़ी अजीब कठोर सज़ा मुझे मिली। सच कहूँ तो अदालत और घर से भी बड़ी सज़ा मुझे मैडम और साहब ने दी। ऐसी सज़ा दी है कि मैं अंतिम साँस तक भुगतता रहूँगा। लेकिन तब भी सज़ा ख़त्म नहीं होगी।" उसकी इन बातों से मैं बड़ा कंफ्यूज़ हो गया कि यह क्या कह रहा है। मेरे मन में उसके लिए घृणा बढ़ती जा रही थी। उससे बात करने का मेरा टोन बदलता चला जा रहा था। मैंने नफ़रत से कहा, "साफ़-साफ़ बताओ ना सारी बात।

"साहब बात यह है कि मैं जेल पहुँच गया तो शुरू-शुरू में कुछ महीने मैं बहुत ही ज़्यादा परेशान रहा।

मैं देखता कि बड़े-बड़े अपराधियों के घर के लोग भी उनसे मिलने आते हैं। कई-कई हत्याओं के हत्यारों से भी। लेकिन मुझसे मिलने कोई नहीं आता। शुरू में मैंने सोचा कि अभी सब कुछ नया-नया है, इसलिए सब ग़ुस्सा होंगे। इसीलिए नहीं आ रहे हैं। समय के साथ जब ग़ुस्सा ख़त्म हो जाएगा, तो सब आएँगे। अम्मा भी आएँगी, बहनें भी आएँगी। लेकिन दिन, महीना, साल देखते-देखते दस साल बीत गए। अम्मा कैसी हैं? बहनें कैसी हैं? घर कैसे चल रहा है? मुझे इन दस सालों में कुछ भी नहीं पता था। एक तरह से दोहरी सज़ा काट रहा था। कोई नहीं आया मेरे पास, किसी तरह की कोई सूचना नहीं थी। मैं पूरी-पूरी रात सो नहीं पाता था। छोटी सी तंग कोठरी में पड़ा तड़फड़ाता रहता था। रात दिन पछताता कि मैंने ये क्या पागलपन कर डाला। एक पागलपन की अब मुझे ना जाने क्या-क्या सज़ा मिलेगी।

मैंने वह दस साल कैसे काटे, उन दस सालों में कैसी-कैसी पीड़ा से गुज़रा इसका अंदाज़ा कोई मेरी जैसी स्थिति से गुज़रने वाला आदमी ही लगा सकता है।

"अच्छा!" 

"हाँ साहब। सही कह रहा हूँ। जिस दिन मैं जेल से छूटा तब वास्तव में दस साल छः महीना बीत चुका था।

"क्यों, छः महीने और क्यों?" 

"क्योंकि साहब मेरी बात करने वाला घर का तो कोई आदमी था नहीं। और सरकारी काम-काज तो अपनी मर्ज़ी, अपनी रफ़्तार से चलता है। काग़ज़ी कार्रवाई पूरी होने में छः महीने निकल गए। ख़ैर जेल में रहते जहाँ जल्दी से जल्दी घर पहुँचने के लिए परेशान रहता था, वहीं जब जेल से बाहर क़दम रखा तो बड़े असमंजस में पड़ गया कि घर चलूँ कि नहीं। क्योंकि बाहर क़दम रखते ही मेरे मन में यह बात आई कि जब दस साल किसी ने कुछ ख़बर नहीं ली कि ज़िंदा भी हूँ कि नहीं, दसियों चिट्ठियाँ भेंजी, किसी का पलटकर जवाब तक नहीं मिला तो क्या जाना ऐसे घर में।

अगर घर होता तो ऐसा व्यवहार कहाँ होता। पहुँचने पर कहीं ऐसा ना हो कि सब पहचानने से ही मना कर दें। कहीं लूटेरा कह कर दरवाज़े से ही फटकार कर ना भगा दें। आख़िर मैंने तय किया कि नहीं जाना ऐसे घर में। घर ने हमें छोड़ दिया है तो हमें भी उसे छोड़ देना चाहिए। फिर मिनट भर में मेरे दिमाग़ में जीवन भर की योजना बन गई कि जेल में जितने पैसे कमाए हैं, उसी से कोई छोटा-मोटा काम-धंधा कर लूँगा और किसी अच्छी-भली लड़की से शादी करके बच्चे पैदा करूँगा। अपना जीवन पटरी पर ले आऊँगा। कोई न कोई लड़की तो मिल ही जाएगी। बाहर अब कौन जानता है कि मैं सज़ायाफ़्ता हूँ। यह सोचकर मैं और तमाम लोगों की तरह मुंबई जाने के लिए चल दिया। डासना जेल से निकलकर यह तय करने तक मुझे तीन घंटे लग गए।

रेलवे स्टेशन पहुँच कर तत्काल में रिज़र्वेशन करवाना चाहा तो नहीं हुआ। मैं जनरल से ही चलने की सोच कर प्लेटफॉर्म पर ही इंतज़ार करने लगा। क़रीब चार घंटे बाद ट्रेन आई। सामान के नाम पर अब तक मैंने एक बैग, कुछ और ज़रूरी कपड़े ले लिए थे। ट्रेन आई तो वही बैग लिए मैं जनरल बोगी में घुस गया। पूरी बोगी क़रीब-क़रीब भरी हुई थी। हर तरफ़ लोगों का शोरगुल था। जल्दी ही ट्रेन छूटने का समय हो गया। तभी अचानक ही मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरे जेल जाने के बाद घर पर कोई ऐसी आफ़त-विपत्ति आ गई हो कि कोई मुझ तक पहुँचने की सोच ही ना पाया हो। बाबू जी थे नहीं। अम्मा, बहनें ही थीं। कुछ भी हो सकता है। हमें पहले घर चलकर सारी बातें पता करनी ही चाहिए। सब कैसे हैं? कहाँ हैं? ज़िंदा भी हैं कि नहीं।

तभी ट्रेन सरकने लगी। साहब इसी के साथ मेरे दिमाग़ में धमाका हुआ कि, चल उतर, जल्दी कर, घर पहुँचना है। और साहब मैं बर्थ से उतर कर ऐसे भागा बाहर की तरफ़ जैसे कोई बेटिकट यात्री चेकिंग स्क्वायड को देखकर भागता है। जब नीचे प्लेटफ़ॉर्म पर मेरे क़दम पड़े तो स्पीड इतनी तेज़ थी कि सारी कोशिशों के बावजूद मैं ख़ुद पर काबू नहीं रख सका और आगे एक खम्भे से ज़ोर से टकरा गया। मेरी नाक, माथे पर ज़ोर की चोट आ गई। ख़ून निकलने लगा। जो बैग लिया था वह भागमभाग में ट्रेन में ही छूट गया। उसे उठाने का मेरे पास समय ही नहीं था। अब मैं जल्द से जल्द घर पहुँचने के लिए एकदम बिलबिला उठा। अगले दिन भूखा, प्यासा अपने घर पहुँचा। घर पहुँचने की तड़प में खाने-पीने की भी नहीं सोच सका। ऐसी तड़प के साथ जब घर के सामने पहुँचा तो वह मुझे एकदम उजाड़ मिला। बिल्कुल गंदा, टूटा-फूटा, कूड़ा-करकट से भरा।

काँपते क़दमों से मैंने घर के अंदर क़दम रखा तो कमरे में अम्मा तखत पर कराहती मिलीं। वह एकदम टीबी की मरीज़ बन चुकी थीं। हड्डियों का ढाँचा भर रह गईं थीं। बाल उलझे हुए थे। धूल में सने हुए लग रहे थे। उनकी और घर की हालत देखकर मेरा कलेजा फट गया। मन किया कि इतना तेज़ चीखूँ कि मेरी अम्मा और घर का सारा दुख उस भयानक चीख में उड़ जाए। मुझे रोम-रोम में इतनी भयानक पीड़ा महसूस हुई कि उतनी पीड़ा मुझे पुलिस की सैकड़ों लाठियाँ, बेल्ट, जूते की मार से भी महसूस नहीं हुई थी।

मेरे आँसुओं की धारा बह चली थी। तभी इस बात का जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि ख़ून के आँसू यही हैं। मेरे होंठ, ज़ुबान फड़क रहे थे। लेकिन कोई बोल नहीं निकल रहे थे। बहनों की तरफ़ ध्यान गया तो कहीं कोई नहीं दिखी। हर तरफ़ कूड़ा-करकट, धूल, मकड़ी के जाले ही दिखे। पीने का पानी तक नहीं था। मैं फिर अम्मा के पास पहुँचा, उन्हें उठाया, बहुत याद दिलाया तब वह पहचान पाईं और फिर फूट-फूट कर रो पड़ीं। उस तरह, वैसी दर्द भरी रुलाई उनकी तब भी नहीं थी जब बाबू जी ने आत्महत्या कर ली थी। बड़ी देर में चुप करा पाया।

बार-बार खाँसते-खाँसते उनकी आँखें लाल हो गईं थीं। नल से लाकर उन्हें पानी पिलाया और कहा, ’अम्मा तू आराम कर। मैं जल्दी से कुछ खाना-पीना लेकर आता हूँ।लेकिन अम्मा एकदम से फिर रोती हुई मुझे कहीं जाने से रोकने लगीं, जैसे कि मैं हमेशा के लिए चला जाऊँगा। बड़ी देर में समझा-बुझाकर खाना-पीना ला पाया। कुछ खाने के बाद अम्मा की तबीयत जब कुछ सँभली तब उन्होंने रो-रो कर घर की तबाही का पूरा क़िस्सा घंटों में बताया कि कैसे मेरे जेल जाने के बाद हालात तेज़ी से बिगड़ते चले गए। उन्हें दमा हो गया। काम पर जाना मुश्किल हो गया। खाने-पीने के लाले पड़ने लगे।

दोनों बहनों की बात आने पर अम्मा बड़ी तेज़ बिलख पड़ीं, ऐसा कि देर तक कुछ बोल ही नहीं पाईं। बड़ा दिलासा दिया तब बड़ी ताक़त बटोर कर बताया कि, ’भूख, प्यास सहित मैं हर चीज़ से जूझती रही। इन सबके लिए खटती रही। लेकिन दोनों ने जिस तरह आवारागर्दी की, मेरे मुँह पर कालिख पोत कर चली गईं, उससे मैंने खाट पकड़ ली। पहले बड़ी वाली किसी के साथ भाग गई। महीना भर भी नहीं हुआ कि दूसरी भी किसी के साथ चली गई। कुछ दिन बाद मालूम हुआ कि जिसके साथ छोटी वाली गई थी वह धोखेबाज़ निकला, और उसको वेश्या बाज़ार में बेच दिया।अम्मा जितना बतातीं उससे ज़्यादा रोतीं। मैं और दुखी होता। बहनों के बारे में सुनकर मेरे मन में पहली-पहली जो बात आई वह यही थी कि मेरे कुकर्म, मैडम के श्राप के ही कारण यह हुआ है।

मैं आत्मग्लानि से ऐसा छटपटा उठा कि मन में आया कि बाबू जी की तरह आत्महत्या कर लूँ। मेरे कुकर्मों की सज़ा मौत ही है। मेरे कुकर्म ही के कारण घर ऐसे बर्बाद हुआ। मेरा ही नहीं साहब का भी। मैडम, साहब कहाँ जीवन भर यह चोट भुला पाएँगे। अब वह कहाँ पहले की तरह हँस-बोल पाएँगे, कहाँ जीवन में किसी पर विश्वास कर पाएँगे। लेकिन अम्मा की हालत ने आत्महत्या करने से रोक दिया। मैंने सँभल कर अम्मा के बारे में सोचा कि इनकी सेवा करके प्रायश्चित करूँगा। तबाह बरबाद घर को फिर से बनाऊँ यही सोच कर एक छोटी सी एक दुकान खोली। दाल-रोटी किसी तरह चलने लगी। लेकिन भगवान ने जैसे अम्मा के जीवन में कष्ट ही कष्ट लिखा था। दो महीने बाद ही अम्मा दुनिया छोड़ गईं। मैं हफ़्तों घर के बाहर ही नहीं निकला। पहले से ही किसी तरह खींचतान कर चल रही दुकान बंद रही। सारे ग्राहक टूट गए। जब दुकान फिर से खोली तो वह चल नहीं सकी। सामान थोक में दे जाने वालों का कर्ज़ा था, तो उसे चुकाने में दुकान बिक गई। मैं सड़क पर आ गया।

मजबूरी में फिर मज़दूरी करने लगा। अब ना कोई आगे है, ना पीछे। मज़दूरी है, मैं हूँ, ज़िंदगी कट रही है। मगर मैडम भुलाए नहीं भूल रही हैं। हर समय एक आँख से मुझे अपना बर्बाद तबाह घर दिखता है तो दूसरी आँख से सीधी-सादी, सरल, भली महिला मैडम। और उन्हें देखकर मैं हमेशा यही समझने की कोशिश करता हूँ कि साहब, मैडम ने क़ानून से कठोर सज़ा क्यों नहीं दिलवाई। उससे भी हज़ार गुना ज़्यादा कठोर सज़ा उन्होंने स्वयं मुझे क्यों दी। यह सज़ा देने की बात उनके दिमाग़ में कैसे आई।"

"यह क्या तुम बार-बार कह रहे हो? मैडम ने तुम्हें कौन सी सज़ा दी। वह भला तुम्हें कौन सी सज़ा दे सकती थीं, जो इतनी कमजोज़ो थीं कि डर कर बेहोश हो गईं।

"असल में अपराध तो बाबू जी मैंने रेप का किया था। रुपए की चोरी तो लगे हाथ हो गई थी। लेकिन मैडम, साहब ने रेप की रिपोर्ट लिखवाई ही नहीं थी। डकैती, जानलेवा हमला बस यही रिपोर्ट थी।

"क्या?" 

"हाँ साहब। आप भी चौंक गए ना। मैं यही तो सोच-सोच कर, हैरान, परेशान रहता हूँ कि मैडम और साहब ने क्या यही सोच कर मेरी जान बचाई कि मैं सोच-सोच कर जीवन भर तिल-तिल कर मरूँ। अपने तबाह हो चुके घर पर हमेशा आँसू बहाता रहूँ। अपनी बहनों के बर्बाद होने पर रोता रहूँ। अपनी माँ की तिल-तिल कर हुई मौत पर ख़ून के आँसुओं से जीवन भर रक्त स्नान करता रहूँ। अब आप ही बताइए कि यह मौत की सज़ा से भी कठोर सज़ा है कि नहीं।"

उसकी यह बात सुनकर मैं बड़ा खिन्न हो गया। मैंने उससे कहा, "अब पता नहीं कठोर सज़ा है कि नहीं। चलो, अच्छा अब काम करो।" उसकी बातें सुनते-सुनते अब तक मेरा मन बहुत उखड़ चुका था। उसके प्रति घृणा से भर चुका था। मैंने उससे यह नहीं कहा कि रेपिस्ट, गंदे इंसान वह भली औरत, आदमी अपनी इज़्ज़त को लेकर इस सोच के होंगे कि दुनिया इस बात को ना जाने कि उनकी इज़्ज़त लुट गई है। टीआरपी के लिए मीडिया उनके साथ हुई दरिंदगी को हथियार ना बनाए। तुम वह जानवर हो जिसने उसी पर हमला किया जो बड़ा हृदय, मानवता के नाते तुम्हें वही खाना-पीना दे रही थी जो ख़ुद के लिए बनाती थी। तुझे उसने इंसान समझा, लेकिन तू विश्वासघाती, खूँखार जानवर निकला। हाँ उनकी जगह मैं, मेरी पत्नी होती तो हम तुम्हें फाँसी तक पहुँचा कर ही दम लेते। ना मीडिया को हथियार बनाते और ना उनको बनाने देते। तेरी सच्चाई ने मुझे अपने परिवार की जीवन शैली, संस्कार को लेकर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया है।

शाम को जब काम ख़त्म कर मिस्त्री-मज़दूर हाथ-मुँह धोने लगे तो मैंने सब का पूरा-पूरा हिसाब करके कह दिया कि कल से काम बंद रहेगा। सब के मोबाइल नंबर मेरे पास हैं। जब ज़रूरत होगी तो मैं बुला लूँगा। उस रेपिस्ट को मैंने बहुत हिकारत, घृणा से पैसा दिया। उसके नमस्ते का भी जवाब नहीं दिया। उसके चेहरे के भाव मुझे बता रहे थे कि उसने मेरे चेहरे के भाव पढ़ लिए हैं, कि उसके प्रति मुझमें कितनी घृणा भर गई है। आगे मैंने तीन दिन तक काम बंद रखा। घर, बाहर कहीं भी मैं अपने स्वभाव के अनुसार खुलकर हँसी-मज़ाक, बातचीत नहीं कर पा रहा था।

मिसेज ने पूछा तो कह दिया कि थकान महसूस कर रहा हूँ। दो-तीन दिन आराम के बाद फिर शुरू करवाऊँगा। मेरे शांत रहने पर उसने जब ज़्यादा ज़ोर देकर पूछा कि आख़िर बात क्या है? तो मैंने उसे सारी बात बताई। उसने कहा, "मैं भी उसे अच्छा आदमी समझ रही थी। मगर जो भी हो दुनिया को इस मानसिकता से बचाने के बारे में सोचना ही चाहिए। ऐसा समाज, ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें रेप के बारे में सोचने का कोई कारण ही ना बचे। लोग निश्चिंत होकर जैसे चाहें वैसे कपड़े पहनें, रहें, खाएँ-पिएँ।"

जल्दी ही मैंने मकान का अधूरा काम पूरा करवाया। इस दौरान मैंने परिवार को मिनट भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा। हर मज़दूर, कारीगर में मुझे वही गंदा रेपिस्ट नज़र आता। इनको मैं परिवार के सदस्यों के सामने फटकने भी नहीं देता था। बीवी से, अपनी साथी से बहुत बड़ी-बड़ी चर्चा के बाद हमारा निष्कर्ष यह निकला कि जो भी हो हमें अपनी मौलिकता नहीं छोड़नी चाहिए। जो स्वाभाविक है वही सुंदर है। सुरक्षित है। नक़ली कभी सुंदर नहीं हो सकता और ना ही सुरक्षित। इस निष्कर्ष के साथ ही हमने हमारी जीवन शैली में बहुत कुछ परिवर्तन भी किया। और हाँ, तिलक वाले अकाउंटेंट साहब से अब मेरी तीखी बहस नहीं होती।

 

======================

 

 

 

 

 

 




लेखक का परिचय

   प्रदीप श्रीवास्तव

जन्म: 1 जुलाई 1970

जन्म स्थान: लखनऊ

पुस्तकें: 

उपन्यास– 'मन्नू की वह एक रात', 'बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब', 'वह अब भी वहीं है' ‘अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं 

कहानी संग्रह– मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाज़ा, मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबूजी, वो मस्ताना बादल 

नाटक– खंडित संवाद के बाद

संपादन: 'हर रोज सुबह होती है' (काव्य संग्रह), वर्ण व्यवस्था

पुरस्कार:  मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवार्ड-2020

Pradeepsrivastava.70@gmail.com, psts700@gmail.com 

9919002096 , 8299756474