रविवार, 3 अक्टूबर 2021

कहानी संग्रह : मेरा आख़िरी आशियाना एवं अन्य कहानियां : प्रदीप श्रीवास्तव : प्रकाशक : पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम कनाडा

  

 


 

 

 

 

मेरा आख़िरी आशियाना 

एवं

 अन्य कहानियां

(कहानी संग्रह)

 प्रदीप श्रीवास्तव

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मेरा आख़िरी आशियाना 

एवं

 अन्य कहानियां 

प्रदीप श्रीवास्तव

प्रकाशक: पुस्तकबाज़ार.कॉम

कनाडा

 

 

 

 

 

 

 

Mera Aakhiri Aashiyana Evm Any Kahaniyan   

A story collection by Pradeep Srivastava

E-6M-212, Sector-M, Aliganj, Lucknow (UP), India

E-mail: pradeepsrivastava.70@gmail.com

© Copyrights reserved by writer

2021

Cover Photo: Pratyush Srivastava

Cover Model: Adhra Sharma

Cover Design: Pradeep Srivastava

Typing: Dhanjay Varshney

Publisher: PustakBazaar.com

info@pustakbazar.com

Price: $3.00 Cdn.

 

 

मेरा आख़िरी आशियाना एवं अन्य कहानियां

(कहानी संग्रह)

लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव

ई ६ एम २१२ सेक्टर एम,

अलीगंज, लखनऊ- २२६०२४

यू.पी., भारत

कॉपी राइट: लेखक

प्रथम संस्करण:२०२१

आवरण चित्र: प्रत्युष श्रीवास्तव 

आवरण मॉडल: अधरा शर्मा

आवरण सज्जा: प्रदीप श्रीवास्तव

टाइपिंग: धनंजय वार्ष्णेय

प्रकाशक: पुस्तकबाज़ार.कॉम

info@pustakbazar.com

मूल्य: $3.00 Cdn.

 

 

 

 

 

समर्पित

पूज्य पिता

ब्रह्मलीन

प्रेम मोहन श्रीवास्तव

एवं

प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव, सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृतिओं को

 

 

 

 

 

 

 

 

-अनुक्रम-

 

 मोटा दाढ़ी वाला 

 

 कौन है सब्बू का शत्रु 

 

 मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद

 

 मेरा आख़िरी आशियाना

 

 

 

 

 

 

 मोटा दाढ़ी वाला

 

वह साँवली सी बमुश्किल पंद्रह-सोलह वर्ष की रही होगी। यही कोई पाँच फुट उसकी ऊँचाई थी। पहले लम्बे कोरोना लॉक-डाऊन के बाद ऑफ़िस जाते-आते समय उसे रोज़ पॉलिटेक्निक वाले चौराहे पर भीख माँगते देखता था।

चेहरे पर पीड़ा दुख की गहन छाया के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से उसकी मासूमियत भी बनी हुई थी, वह खोई नहीं थी।

उस चौराहे पर तीन-चार साल के बच्चों से लेकर प्रौढ़ महिलाएँ तक, क़रीब दो-ढाई दर्जन भिखारी हर आने-जाने वाले के सामने हाथ फैला कर, भीख के लिए गिड़गिड़ाते मिलते हैं। लॉक-डाऊन के बाद उनमें से बहुत से चेहरे वहाँ मुझे नहीं दीखते थे। मुझे यह बिलकुल नहीं मालूम कि वो महामारी का शिकार हो गए थे या कि कहीं और चले गए।

लॉक-डाऊन के समय इन सब को एक स्कूल में ठहराया गया था। सरकार ने इनके खाने-पीने की भी व्यवस्था की थी। उस दौरान इन सब ने क्या खाया-पीया, क्या हुआ इनके साथ इसका तो पता नहीं, लेकिन चौराहे पर इनके बच्चे अब भी पैदल चलने वालों के पैर पकड़ कर लटक जाते हैं।

पैर खींचने पर घिसटते रहते हैं। छोड़ते ही नहीं। ऐसे में कुछ निष्ठुर जहाँ तेज़ झटका दे, डाँट-डपट कर चल देते हैं, वहीं कुछ लोग एक-दो रुपये देकर पिंड छुड़ाते हैं।

इस समूह में कुछ को छोड़ कर, बाक़ी सब एक-दो रुपए मिलने पर, या ना मिलने पर आदमी के आगे बढ़ते ही अपशब्द कहने से भी नहीं हिचकते। लेकिन वह मासूम पीड़ा में गहरी डूबी, लोगों के सामने मूक बनी केवल हाथ फैलाती थी। वह पूरे समूह में अलग-थलग दिखती थी।

धूल-मैल से उसके कपड़ों की ही तरह काली हो रही उसकी हथेली पर, जब मैंने पहली बार पाँच रुपये दिए थे, तब सर्दियों के दिन थे। वसंत-पंचमी ज़्यादा दूर नहीं थी। पाँच रुपये पाकर भी उसके चेहरे पर मुझे कोई भाव नहीं दिखे थे।

वह मुट्ठी बंद कर आगे बढ़ गई थी। कार में मेरी बग़ल में बैठे, मेरी ही तरह के अव्वल दर्जे के रिश्वतख़ोर मित्र ने यह देख कर कहा, "क्या यार, तुम इन सब को रोज़ पैसे दे-दे कर मुफ़्तख़ोर बना रहे हो। इनकी आदत ख़राब कर रहे हो। किसी घर में चौका-बर्तन करके भी, भीख से बहुत ज़्यादा पैसा कमा सकती हैं ये सब। लेकिन ये निठल्ले, निकम्मे काम के नाम पर हिलना भी नहीं चाहते। इन्हें बैठे-बैठे मुफ़्त में पैसा चाहिए। और अपनी सरकार का भी क्या कहना। क़ानून तो बनाती है कि भीख माँगना अपराध है। लेकिन इनको पकड़ती नहीं, जेल में डालती नहीं। ऐसी दोगली सरकारों से कुछ होने बनने वाला नहीं है।"

इसी समय सिग्नल ग्रीन हुआ तो, मैंने गाड़ी आगे बढ़ाते हुए कहा, "तुम सही कह रहे हो, कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें करने की हिम्मत, नैतिक बल इन सरकारों में नहीं है। हाँ बातें बड़ी-बड़ी करेंगे। इसलिए इन्हें दोगला कहना कहीं से ग़लत नहीं है। रिश्वत लेना अपराध है, जेल की सज़ा है। लेकिन हम-दोनों का दिन बिना रिश्वत लिए पूरा नहीं होता। ऑफ़िस में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो रिश्वत की सोचे बिना साँँस लेता हो।

"जब-तक टारगेट पूरा नहीं होता, तब-तक किसी का घर लौटने का मन नहीं करता। सबका मन करता है कि ऑफ़िस साल के तीन सौ पैंसठ दिन खुला रहे। बंद ही न हो।"

"क्या यार तुम भी कमाल करते हो, भिखारियों से अपनी तुलना कर रहे हो। ये मुफ़्त-ख़ोर हैं। काम के नाम पर हाथ भी नहीं हिलाना चाहते, हम काम करते हैं, तब कुछ लेते हैं, कोई अपराध नहीं करते कि हमें जेल में डाला जाए।"

मैंने गाड़ी के एक्सीलेटर पैडल पर दबाव बढ़ाते हुए कहा, "हम जो काम करते हैं, सरकार उसके लिए हमें हर महीने एक तारीख़ को सैलरी देती है। रिश्वत की समानांतर व्यवस्था तो हम-तुम जैसे रिश्वतख़ोर चला रहे हैं। यह व्यवस्था तो सरकार ने नहीं बनाई।"

"देखो यह समानांतर व्यवस्था हम-तुम जैसे न पिद्दी, न पिद्दी के शोरबा ने नहीं बनाई है। हमारी हैसियत ही नहीं है कुछ बनाने की, यह व्यवस्था भी अपनी सरकार ने ही बनाई है। वह भी देश की पहली सरकार ने।

"उसने देश में लिखित संविधान तो लागू किया २६ जनवरी, १९५० को। लेकिन उससे पहले इस समानांतर व्यवस्था का एक अलिखित संविधान १९४८ में ही रिश्वतख़ोरी, जाल-साज़ी का जीप घोटाला करके लागू कर दिया था।

"इंग्लैंड से जीप ख़रीदी दो हज़ार, देश में पहुँची एक सौ पचपन। बाक़ी का पैसा डकार गए वहाँ भारतीय उच्चायुक्त वी.के. कृष्णा मेनन। ख़ूब खाया और इतना खिलाया कि नेहरू ने एक पैसे की वसूली तो छोड़ो, उन्हें अपनी कैबिनेट में शामिल करके पुरस्कृत कर दिया। और हम-तुम जैसे लोग नेहरू के इसी अलिखित संविधान का पूर्ण ईमानदारी, सत्यनिष्ठा के साथ पालन करते हुए, देश की अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत कर रहे हैं, समझे।

"स्पीड बढ़ाओ, देर हो रही है। वैसे एक मज़ेदार बात सुनो, अभी जल्दी ही मैंने कहीं पढ़ा कि दो नंबर की अर्थ-व्यवस्था एक नंबर की अर्थ-व्यवस्था के लिए खाद-पानी की तरह है। बिना उसके यह पनप नहीं पाती। इसका विस्तार नहीं हो पता। उसने उदाहरण दिया था कि जबसे ब्लैक-मनी पर ज़्यादा नकेल कसी गई है, तब से रियल-एस्टेट इंडस्ट्री ठप्प पड़ी है। उससे जुड़ी बाक़ी भी पस्त हैं।"

यह कहकर मित्र जोर से हँस पड़े। देर तो नहीं हो रही थी, फिर भी मैंने स्पीड बढ़ाते हुए कहा, "यार मैं तुमसे कभी भी बहस नहीं कर पाऊँगा, क्योंकि तुम सच मानने के बजाये कुतर्क करने लगते हो। मैं केवल इतना कह रहा हूँ कि वर्तमान सरकार इस अलिखित संविधान, व्यवस्था को डिलीट करने में लगी हुई है। इसलिए थोड़ा कंट्रोल करना ही पड़ेगा। अब पहले की तरह लापरवाही ना ही की जाए तो अच्छा है। फोन पर तो लेन-देन की बात एकदम बंद कर देने में ही भलाई है। किसी ने बात रिकॉर्ड कर ली, तो नौकरी तो जाएगी ही, जेल बोनस में मिलेगी। मैंने फोन पर सब बंद कर दिया है समझे।"

"हाँ ये तो सही कह रहे हो। आये दिन फोन के चलते लोगों के पकड़े जाने की न्यूज़ आती रहती है। आज से फोन पर ऐसी सारी बातें बंद। लेकिन तय यह भी है कि अलिखित संविधान अपनी जगह पर अटल रहेगा। मुफ़्त में तो काम नहीं करूँगा। जिसको काम कराना है, उसको पैसा देना ही होगा, नहीं तो फ़ाइल में ऑब्जेक्शन लगते रहेंगे, लगते रहेंगे, इतने लगेंगे कि वह फ़ाइल, फ़ाइल ऑफ़ ऑब्जेक्शन्स हो जाएगी। आख़िर देश के पहले अलिखित संविधान को जीवित तो बनाए ही रखना है। और साथ ही यह भी सुन लो कि जो कुछ हो रहा है, मैं वही कहता हूँ। बाक़ी सुतर्क, कुतर्क तुम देखते रहो।"

बात करते-करते वह फिर हँसे। तभी उनके मोबाइल पर एक कॉल आ गई। बात करके उन्होंने कहा, "यार और तेज़ चलाओ ना। दिन की शुरुआत अच्छी होने जा रही है। क्लाइंट ऑफ़िस आ चुका है।"

कई सालों से हम कार पूल कर रहे हैं। एक दिन वह अपनी कार निकालता है, एक दिन मैं। हम-दोनों ने कार किश्त पर ज़रूर ली। लेकिन सच यह है कि हम चाहते तो इससे महँगी कार कैश पेमेंट करके ख़रीद सकते थे।
लेकिन दुनिया की नज़रों को रिश्वतख़ोर न दिखूँ, इसलिए किश्त पर ली। कार क्या, घर का हर सामान किश्त पर लेते हैं। घर तक लोन लेकर लिया। हम-दोनों उत्कोच-ख़ोर मित्रों में एक-मात्र अंतर यह है कि वह मित्र इतना पैसा होने के बावजूद किसी की एक पैसे की मदद नहीं कर सकता। लेकिन मैं मुश्किल में पड़े व्यक्ति की मदद करने की हरसंभव कोशिश करता हूँ।

उस दिन की शुरुआत मेरे लिए भी अच्छी रही है। रिश्वत जिसे मैं सद्भावना-शुल्क" कहता हूँ, के रूप में अच्छी-ख़ासी रक़म मिली थी। और शाम को घर वापसी के समय वह किशोरी भी। मित्र को चिढ़ाने, और उस मासूम किशोरी को ज़्यादा से ज़्यादा मदद देने की गरज़ से मैंने उसे सौ रुपये दे दिए।

मैंने सोचा कि इस कोरोना महामारी के समय लोग विपन्न लोगों की कितनी मदद कर रहे हैं। दूसरों की मदद करने के एक से बढ़ कर एक समाचार देखने, पढ़ने को मिल रहे हैं। वह आदमी कितना साहसी है, जिसने बेरोज़गार हुए लोगों को खाना खिलाने के लिए अपना मकान तक बेच दिया। भगवान ने दिया है तो मुझे भी कुछ तो करते रहना चाहिए।

लेकिन मेरे मित्र को उसे रुपया देना इतना खला कि वह साफ़-साफ़ बोले, "सुनो दान-वीर कर्ण, यह कलियुग चल रहा है, द्वापर युग नहीं। उस समय आज जैसी बदतर स्थिति नहीं थी, फिर भी कर्ण की दान-वीरता ही उनकी मौत का सामान बन गई थी। तुम जैसों की यह दान-वीरता देश को मुफ़्तख़ोरों, निठल्लों का देश बना कर छोड़ेगी। भिखारी बना देगी।"

उनकी यह बात, और कहने का ढंग, दोनों ही मुझे ग़लत लगे। इसलिए उन्हें, उन्हीं की शैली में जवाब देते हुए कहा, "तुम भी कितना स्लो चलते हो यार, अपना देश कब का मुफ़्तख़ोरों का देश बन चुका है। देखते नहीं, बड़ी-छोटी पार्टियाँ सभी मुफ्त्रास्त्रके सहारे राजनीति कर रही हैं। इवेन एक टुटपुँजिया-सा आदमी नौकरी छोड़कर, फ़लां-फ़लां चीज़ें मुफ़्त कर दूँगा, कहकर मुख्य-मंत्री बन गया। इसी मुफ्त्रास्त्र के सहारे वह प्रधानमन्त्री बनने के सपने सँजोये आगे बढ़ रहा है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा, यदि वह सफल हो गया।"

"अरे अब इतना भी आसान नहीं है यह सब। ऐसे तो हर कोई जो चाहे वो बन जाएगा।"

"तुम भी हद करते हो। यह सब तुम्हें दिखता नहीं कि एक ने कहा बिजली-पानी मुफ़्त कर दूँगा, सारे मुफ़्तख़ोर बार-बार अंधी भेड़ों की तरह उसी के पीछे हो लिए। वह सी.एम. बन बैठा। यह अलग बात है कि बराबर धोखा ही दे रहा है। एक ने कहा कर्ज़ माफ़ कर दूँगा तो, मुफ़्तख़ोरों का झुंड का झुंड उधर ही चल पड़ा।

"इन लोगों ने ऐसे लोगों के पीछे जाने से पहले एक बार भी यह नहीं सोचा कि सत्ता-लोलुप लोगों की इस घिनौनी चाल को सफल बनाने से देश रहेगा कि खड्ड में जाएगा। ध्यान दो ना, जब से सत्ता पाने के लिए मुफ़्तख़ोरी की व्यवस्था को ज़्यादा बढ़ावा मिला है, तब से देश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ झुकती ही जा रही है।

"अपने विभाग को ही देखो ना, हर साल बजट की घोषणा की जाती है। लेकिन कभी पूरा पैसा नहीं मिल पाता। हर प्रोजेक्ट सालों-साल अधूरे पड़े रह जाते हैं। समय, लागत कई गुना बढ़ जाती है। न जाने ऐसे कितने प्रोजेक्ट हैं, जिन पर शिलान्यास से आगे काम ही नहीं बढ़ पाया है।

"सत्ता-लोलुप और इनके झाँसे में आने वाले निठल्ले मुफ़्तख़ोर यह नहीं सोचते कि इस मुफ़्तख़ोरी से जिस दिन देश की अर्थ-व्यवस्था चरमराई तो, देश में वेनेज़ुएला की तरह दस लाख नहीं, दस करोड़ के नोट जारी करने की नौबत आ जाएगी। आज दुनिया से भीख माँग रहा वेनेज़ुएला दस-बारह साल पहले सबसे अमीर देशों में गिना जाता था।

"कभी कारों में घूमने वाले लोग अब वहाँ भीख माँग रहे हैं। अराजकता, अव्यवस्था इतनी कि देश में कितने राष्ट्रपति हैं, यही नहीं पता। अपने यहाँ तो ऐसी हालत में सड़कों पर खाने के लिए ऐसी मार-काट मचेगी कि सड़कें काली नहीं हमेशा लाल ही लाल दिखेंगी।

"सत्ता के सियारों ने लोगों की जींस में ही, मुफ़्तख़ोरी के गुण कितने गहरे पहुँचा दिए हैं, तुम्हें यह जानना है तो एक काम करो, शाम को घर पहुँच कर गेट पर यह सूचना लिख दो कि कल सुबह सात से दस बजे तक यहाँ पर कूड़ा मुफ़्त मिलेगा। देखना सुबह तुम्हें गेट पर भीड़ ना मिले तो कहना।"

मेरे मित्र को मेरी बात अच्छी नहीं लगी। वह मुस्कुराते हुए चुप रहे, तो मैंने कहा कि "तुम यह तो समझ ही रहे हो कि लोग कूड़ा इसलिए ले जाएँगे जिससे कि उसमें से तमाम चीज़ें अलग कर-कर के कबाड़ में बेच कर पैसा बना लें। जैसे विभाग में वह डबल चेहरे वाला फारुखी, एक-एक रद्दी काग़ज़ घर उठा ले जाता है, बिग-बाज़ार में बेचकर दूसरे सामान खरीदता है।"

मैं उन्हें यह सब सुना ज़रूर रहा था। लेकिन मेरी आँखों के सामने किशोरी का मासूम चेहरा बना हुआ था। उसकी दयनीय हालत मुझे कचोट रही थी। मैंने अगले दिन उसे अपनी बेटी के दो सेट कपड़े, कोविड-१९ से बचाव के लिए कई मॉस्क और कुछ खाने-पीने की चीज़ें दे दीं। मॉस्क लगाने के लिए भी कह दिया। मिसेज को जब बताया था, तब उसी ने कपड़े निकाल कर दिए थे।

आते-जाते रोज़ ही उस चौराहे पर मेरी निगाहें, उस किशोरी को ज़रूर ढूँढ़ती। कभी-कभी वह नहीं भी मिलती थी। मिलने पर मैं उसे कम से कम दस रुपये ज़रूर देता था। जल्दी ही वह हमारी प्रतीक्षा में रहने लगी। हमारी कार देखते ही लपकती हुई हमारे पास आ जाती। मेरा ध्यान इस तरफ़ भी गया कि आशा से ज़्यादा पैसा मिलने पर भी उसके चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन नहीं होता। एकदम मूक बनी आती है और पैसा मिलते ही यंत्र-वत सी चली जाती है।

जिस दिन ओवर-इनकम अच्छी होती, उस दिन मैं वापसी के समय भी उसे पैसे देता। मैंने उससे दो-तीन बार नाम पूछा, लेकिन वह मूक ही बनी रही। मुझे शक हुआ कि कहीं यह मूक-बधिर तो नहीं है।

असल में मेरे दिमाग़ में धीरे-धीरे यह बात मुखर हो रही थी कि इसके माँ-बाप, घर-परिवार का कुछ पता चले तो, उस हिसाब से इसके लिए कुछ करूँ।

यदि नहीं हैं तो, किसी अनाथालय या फिर किसी एन,जी.. संस्था के सुपुर्द कर दूँ। जो ख़र्च होगा देता रहूँगा। क्योंकि मुझे बार-बार यही लगता कि वह जन्म से भिखारी नहीं है। लेकिन वह एक चुप तो हज़ार चुप बनी रही। यह रहस्य बना रहा कि वह मूक-बधिर है कि नहीं।

जल्दी ही वसंत के मौसम ने पदार्पण किया और बढ़ चला तेज़ी से। प्रकृति अपने को ख़ूब सजा-सँवार रही थी। इसी बीच एक दिन शाम को जब वह मिली तो, मुझे लगा कि उसके कपड़े पेट पर बहुत ज़्यादा टाइट हो रहे हैं। उसने मेरी बेटी वाले ही कपड़े पहन रखे थे। जो शुरू में उसे बिलकुल फ़िट थे।

ध्यान देते ही मुझे कोई संदेह नहीं रहा कि वह प्रेग्नेंट है। मैं आवाक्उसे देखता रह गया। उसे देने के लिए नोट पकड़े मेरे हाथ जड़ हो गए। एक बार फिर उससे बात करने की कोशिश की, लेकिन वह भी मेरे जड़ हाथ की तरह मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाए जड़ बनी खड़ी रही। तभी मित्र ऊबते हुए बोले, "चलो यार, मिसेज़ को लेकर मार्केट जाना है। देर हो रही है। तुम भी पता नहीं क्यों, क्या से क्या होते जा रहे हो।"

उनकी नाराज़गी भरी यह बात सुनते ही मैंने उसके जड़ हाथ पर पैसे रखकर गाड़ी आगे बढ़ा दी। रास्ते-भर मित्र की बातें सुनता रहा, जो मुझे मानवता पर कठोर प्रहार लग रही थीं। मैं उनसे बातों में नहीं उलझना चाहता था। क्योंकि वह अपने तर्कों से मुझे हमेशा निरुत्तर कर देते हैं।

मासूम की स्थिति जब मिसेज़ को बताई तो उसने कहा, "क्या हो गया है दुनिया को, एक बच्ची एक बच्चे को जन्म देगी। कितनी पेनफ़ुल ज़िंदगी जी रही होगी। उसके माँ-बाप ने उसे किसी के साथ बाँधने का पागलपन क्यों किया?"

"पता नहीं, माँ-बाप ने उससे छुट्टी पाने के लिए किसी के पल्ले बाँध दिया या वो अनाथ है, और किसी के कमीनेपन का शिकार हो गई है।"

उस मासूम से शुरू हुई हमारी बातें अपनी बेटी पर आकर केंद्रित हो गईं। उसके भविष्य, सुरक्षा को लेकर ख़ूब बातें हुईं।

अब ऑफ़िस से घर पहुँचने पर मिसेज़ रोज़ ही मासूम किशोरी के बारे में पूछती। शाम का चाय-नाश्ता बिना उसकी चर्चा के समाप्त ही नहीं होता। उसमें मुझसे ज़्यादा इंट्रेस्ट मिसेज का बढ़ गया था।

उसके ही कहने पर मैंने उसे इतने ज़्यादा पैसे देने शुरू कर दिए, जिससे कि वह ठीक से खा-पी सके। वह और बच्चा कुपोषित न हों। उसे क्या खाना है, यह भी बताता। और मॉस्क लगाने के लिए भी कहता कि इससे तुम बीमारी से बची रहोगी। मैं सोचता कि सरकार को इन सबको मॉस्क देते रहना चाहिए। दिन-भर में ये हज़ारों लोगों के पास जाते हैं। ये सभी कोविड-१९ के एक सुपर स्प्रेडर ग्रुप से कम नहीं हैं। मेरे सारे प्रयासों के बावजूद वह मूक ही बनी रही। आख़िर हमें यह विश्वास हो गया कि वह अबोली है।

एक दिन मैंने उसे एक काग़ज़ पर सरकारी हॉस्पिटल का पता लिखकर देते हुए समझाया कि "तुम यहाँ चली जाओ। यहाँ डॉक्टर तुम्हें सारी दवा दे देंगे। मैं तुम्हें और पैसा दे दूँगा।"

लेकिन मेरी हर बात का उसके पास एक ही जवाब होता था, गहरा मौन। भाव शून्य चेहरा। कुछ हफ़्ते बाद मेरा ध्यान इस ओर गया कि उसने ज़्यादा पैसे मिलते रहने और बराबर कहते रहने से खाने-पीने पर ध्यान दिया है। क्योंकि बुझे-बुझे से उसके चेहरे की रंगत अब बदल रही थी। वज़न भी बढ़ा हुआ लग रहा था।

जल्दी ही मैंने यह महसूस किया कि उसके साथ एक भावनात्मक जुड़ाव बनता जा रहा है। लेकिन मेरी ही तरह मेरे प्रचंड रिश्वतख़ोर मित्र को यह सब न जाने क्यों इतना अरुचिकर लगा कि उसने किसी ना किसी बहाने से मेरे साथ ऑफ़िस जाना-आना बंद कर दिया। वह भाग्यवादी भी अव्वल दर्जे का है।

उसके साथ छोड़ने के कुछ समय बाद ही वसंत को पीछे ठेलते हुए चिलचिलाती धूप गर्मियों का मौसम सामने आ खड़ा हुआ। अब-तक मासूम किशोरी का पेट बहुत बढ़ चुका था। चलने-फिरने में उसे होने वाली तकलीफ़ अब साफ़ पता चलती थी।

यह देख कर मैंने उससे वहीं पास में एक सुरक्षित जगह बताते हुए कहा, "तुम वहीं बैठी रहा करो। मैं वहीं पर आ जाया करूँगा। इस धूप, गर्मीं में ज़्यादा चलो नहीं, नहीं तो तबियत ख़राब हो जाएगी।" वह एक बार फिर गहन मौन धारण किये रही। लेकिन अगले दिन वहीं मिली जहाँ बताया था।

मैंने उसे उस दिन चार सेट कपड़े और दिए, जिसे मिसेज ने इतना ढीला बनवाया था कि वह आराम से पहन सके। उसके उभरे पेट पर टाइट होकर दबाव ना डालें। कपड़े देते समय मैंने सोचा कि इस बार और अच्छे कपड़े हैं। ज़रूर ख़ुश होगी, बात का जवाब देगी, लेकिन . . . 

जैसे-जैसे उसकी डिलीवरी का टाइम नज़दीक आ रहा था, वैसे-वैसे मेरी और मिसेज़ की चिंता बढ़ रही थी कि वह मासूम किशोरी, बच्चे की डिलीवरी जैसी पहाड़ सी कठिनाई को कैसे पार करेगी। उसका जीवन भयानक ख़तरे में है। वह न जाने क्यों अपना मौन तोड़ नहीं रही है। अगर बोल नहीं सकती तो संकेतों में तो कुछ बता ही सकती है।
आज-तक एक आदमी उसके आस-पास ऐसा नहीं दिखा जिससे कुछ पता चल सके। जो कर पा रहा हूँ, उससे ज़्यादा करने के लिए कोई रास्ता ही नहीं खुल पा रहा है। कई बार खीझ उठता। मन में आता कि जब यह बोल ही नहीं रही है तो, आख़िर मैं क्यों परेशान हूँ? घर हो या ऑफ़िस दिमाग़ बार-बार इसी के पास चला जाता है।

उसको लेकर हम अजीब मनःस्थिति में पहुँचते जा रहे थे कि इसी बीच कोविड-१९ महामारी की दूसरी लहर ने अकस्मात ही हमला कर दिया। हमला पहली बार से इतना ज़्यादा तेज़ था कि देखते-देखते देश-भर में हाहाकार मच गया। मृत्यु का ऐसा भयावह तांडव क्या नगर, क्या गाँव, कहीं किसी ने नहीं देखा था। हर साँस में यही प्रश्न कि अब क्या होगा? देखो कौन बचता है।

देखते-देखते फिर सब बंद, घरों में क़ैद हो गए हम। मगर वह मासूम हमारे बीच बनी रही। हम-दोनों यही सोचते कि पता नहीं अब वह कभी मिलेगी भी या नहीं। या हम ही बच पाएँगे कि नहीं। मगर ईश्वर की कृपा रही कि हम-दोनों उत्कोच-ख़ोर मित्र सपरिवार सुरक्षित रहे, और चरणों में सब-कुछ खुलते ही फिर अपने प्रिय ऑफ़िस जाने लगे। वह समूह भी फिर अपनी जगह मिला, मगर उनमें से आधे से ज़्यादा चेहरे गायब थे। उन बेचारों के पास ख़ुद को बचाने के लिए कुछ था ही नहीं, तो महामारी के लिए नर्म चारा बन गए।

मेरे लिए संतोष की बात यह रही कि छोटे से बचे उस समूह में वह मासूम भी थी। जो बहुत कमज़ोर हो गई थी। अंदर धँसी हुई आँखें, चेहरे की उभरी हुई हड्डियाँ। और ज़्यादा बड़ा हो चुका पेट। उसकी हालत देख कर मेरा कलेजा काँप उठा। मैंने फिर उसे पहले से ज़्यादा मदद करनी शुरू की। मिसेज़ ने कहा, "जैसे भी हो उसके लिए कुछ ऐसी व्यवस्था करो कि वह आराम से रह सके। सरकारी हॉस्पिटल में ही उसके लिए कार्ड वगैरह बन जाता तो भी अच्छा था।"

मैंने कहा, "यह सब-कुछ करवा दूँ, लेकिन वह कुछ बोले, तभी तो कुछ कर पाऊँगा।"

एक दिन ऑफ़िस में काम करते हुए सोचा कि किसी दिन मिसेज़ को लेकर आता हूँ, शायद उससे यह बात करे। तभी वह नाराज़ मित्र पास आये, सिस्टम पर जो फ़ाइल मैंने ओपन की हुई थी, उसे मिनिमाइज़ कर दिया। एक एड्रेस देते हुए कहा, "यह एक एन.जी.. का एड्रेस है। ये ख़ासतौर से गर्भवती महिलाओं के लिए काम करती है। चाहो तो उनके ऑफ़िस जाकर बात कर लो। उस लड़की की देख-भाल, डिलीवरी, ट्रीटमेंट आदि सब वो मैनेज कर देंगे।"

मैंने उन्हें धन्यवाद कहा। उनके इस काम ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया था।

एड्रेस ऑफ़िस से क़रीब बीस किलोमीटर दूर था। फोन नंबर था नहीं। लेकिन मैं और समय व्यर्थ नहीं गंवाना चाहता था। इसलिए शाम को एक घंटा पहले छुट्टी लेकर एन.जी.. ऑफ़िस चला गया।

वहाँ कुल मिलाकर वह लोग किसी तरह मासूम की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हो गए। मैंने उन्हें, डिलीवरी के कुछ माह बाद तक, एक निश्चित रक़म देते रहने के लिए कह दिया। रजिस्ट्रेशन वग़ैरह के नाम पर बीस हज़ार एडवांस भी जमा कर दिए। वह उसे अगले दिन ले जाने के लिए तैयार हो गए।

वहाँ से घर के लिए चला तो मन में आया कि मासूम से पूछे बिना ही पैसा तो जमा कर दिया, कहीं उसने आने से ही मना कर दिया तो? लेकिन घर पहुँच कर इस उलझन को परे रख कर शेष बातें मिसेज़ को बताईं तो वह बहुत ख़ुश हुई।

अगले दिन सुबह मैं उसके लिए कुछ फल, खाना-पीना लेकर निकला कि उसे अब और ज़्यादा पौष्टिक खाने की बहुत ज़रूरत है। मन में यह बात भी आई कि यह सब देखकर शायद वह अपना मौन व्रत तोड़ कर, अपने परिवार, पति के बारे में कुछ बता दे, जिससे कुछ ज़्यादा मदद कर सकूँ।

लेकिन उस दिन वह नहीं मिली।

गाड़ी से उतर कर उसे आस-पास ढूँढ़ा, लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दी। निराश होकर उसके लिए लाई सारी चीज़ें सामने दिखी एक दूसरी बुज़ुर्ग भिखारन को दे कर, उदास मन से ऑफ़िस चला गया। वह भी उसके बारे में सिवाए इसके कुछ न बता पाई कि एक मोटा दाढ़ी वाला अक़्सर शाम को ठिकाने पर वापसी के समय उसके पास दिख जाता है। 

मैं दिन-भर यही सोचता रहा कि उसकी तबियत तो नहीं ख़राब हो गई। इतनी कम उम्र है। ऐसे में मिसकैरिज वग़ैरह कोई बड़ी बात नहीं है। मिसेज़ को फोन किया तो वह भी चिंता में पड़ गईं। बोलीं, "आते समय उसके साथ के बाक़ी लोगों से पूछना। उन्हें पता ही होगा।" दरअसल मैं भी यही सोच रहा था। दोपहर को एन.जी.. से फोन आया तो उनसे कह दिया, "आज वह मिली नहीं। शाम को देखता हूँ, जैसा होगा बताऊँगा।"

शाम को बड़ी आशा लिए पहुँचा। लेकिन वह फिर नहीं मिली तो, गाड़ी एक किनारे खड़ी कर अन्य भिखारियों से पूछना शुरू किया। कइयों ने कुछ बताने के बजाय पैसे ही माँगे। आख़िर एक प्रौढ़ भिखारी महिला ने बताया कि कल वह खाना लेकर अपने ठिकाने की ओर जा रही थी कि कुत्ते पीछे पड़ गए। डर के मारे वह भागी तो एक गाड़ी से टकरा गई और वहीं अपनी जान गँवा बैठी।

यह सुनते ही मेरे कान एकदम सुन्न हो गए। उसकी आगे की बातें, ट्रैफ़िक शोर, मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। लग रहा था जैसे हर तरफ़ अनगिनत मूक फ़िल्में चल रही हैं। जब-तक यह फ़िल्में मुझे सवाक लगनी शुरू हुईं , तब-तक वह महिला भी ग़ायब हो गई।

मैं उस मासूम बच्ची के बारे में फिर और कुछ नहीं जान सका। कई दिन से आसमान में डेरा डाले बादल उसी समय बरसने लगे। मुझे याद नहीं कि उस समय मेरी आँखों में पानी था या नहीं, मगर कार में बैठने तक में अच्छा-ख़ासा भीग गया था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 कौन है सब्बू का शत्रु

 

जून का तीसरा सप्ताह चल रहा था। तापमान खूब कुलाँचें भर रहा था। चालीस-ब्यालीस डिग्री को पार कर रहा था। जीवन को महँगाई, गुंडई की तरह त्रस्त किए हुए था। शहर में सड़कों पर सन्नाटा छाया रहता था। लगता जैसे कर्फ़्यू लगा हुआ है। मगर कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जो इन सब को पीछे छोड़कर आगे निकलने के लिए विवश कर देती हैं। इसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी यह भी सोचने का अवसर नहीं देतीं। कुछ ऐसी ही परिस्थितियों के चलते मैं क़रीब तीन बजे झुलसा देने वाली चिलचिलाती धूप में ऑफ़िस से घर के लिए निकला। अपने रिक्शे वाले को फोन करके बुला लिया था। वह कई सालों से मुझे अपनी सेवा दे रहा है। किसी और के पास समय से पहुँचे या ना पहुँचे, ईमानदारी बरते या ना बरते, लेकिन मेरे साथ हमेशा टाइम का पंक्चुअल और ईमानदार रहता है। बीच-बीच में पैसे माँगता रहता है, इसके चलते डेढ़-दो महीने का एडवांस उस पर मेरा हमेशा बना रहता है।

मैं इसी रिक्शे वाले के साथ अपनी परेशानियों से धींगा-मस्ती करता चला जा रहा था, अंबेडकर पार्क, गोमतीनगर, लखनऊ की बगल वाली सड़क से। सैकड़ों एकड़ में बलुआ पत्थर से बना यह स्मारक लखनऊ में नए आकर्षण केंद्रों में एक बन चुका है। इसी स्मारक की बाऊँड्री से सट कर दूर तक चली जा रही सड़क पर मुझे थोड़ा आगे एक आदमी बैठा दिखाई दिया। मन में उत्सुकता हुई कि इतनी प्रचंड गर्मी में, सुलगती सड़क पर यह क्यों बैठा हुआ है? वह एक हाथ इस तरह से आगे फैलाए हुए था कि उसके पास से निकलने वाला व्यक्ति उसे कुछ देता जाए। इतना ही नहीं उसने एक पैर भी अजीब ढंग से आगे बढ़ाया हुआ था। पैर घुटने से आठ-नौ इंच के बाद आगे कटा हुआ था। नीचे बँधी सफ़ेद पट्टी दूर से ही चमक रही थी। रिक्शा जैसे-जैसे क़रीब पहुँच रहा था, तस्वीर और साफ़ होती जा रही थी।

कुछ और क़रीब पहुँचने पर उसके बगल में ही मुझे एल्यूमिनियम की दो बैसाखियाँ भी रखी दिखाई दीं। उसकी ऐसी हालत पर मुझे बड़ी दया आयी कि, बेचारा कितनी तकलीफ़ में है। उस पर बालिश्त भर की भी छाया नहीं है। उस समय मैं कंक्रीट के घने जंगल में छाया की बात सोचने की नादानी कर रहा था। जैसे ही रिक्शा उसके सामने पहुँचा, मैंने उसे रुकवा लिया। देखा वह क़रीब पैंतीस-चालीस बरस का आदमी था। धूप ने उसे और काला बना दिया था। दुबला पतला शरीर, आँखें अपेक्षाकृत कुछ नहीं, बहुत ही ज़्यादा बड़ी थीं। नाक बहुत ही भद्दे ढंग से एक तरफ़ मुड़ी हुई थी। उसने बड़ी दयनीय सी एक फ़ुल बाँह की शर्ट पहनी हुई थी। जिसकी बाँहें ऊपर की तरफ़ मुड़ी हुईं थीं। उसकी मटमैले सफ़ेद रंग की लुंगी भी शर्ट की ही तरह दयनीय थी।

मुझे देखते ही वह हाथ ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा। मैंने उससे पूछा, "इतनी तेज़ गर्मी में जलती सड़क पर क्यों बैठे हो? कहीं छाया में क्यों नहीं बैठते? ऐसे तो तुम्हारी तबीयत ख़राब हो जाएगी।

मेरी बात का जवाब देने के बजाय वह हाथ हिलाता रहा। मुझे लगा शायद गूँगा-बहरा भी है। अपनी शंका दूर करने के लिए मैंने अपनी बात तेज़ आवाज़ में दोहरा दी। तब वह बोला, "छाया में बैठूँगा तो कोई रुकेगा ही नहीं। छाया में होता तो तुम रुकते क्या?" मुझे उससे ऐसे तीखे जवाब की आशा बिल्कुल नहीं थी। मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह थोड़ा नम्र लहजे में आगे बोला, "बहुत मुश्किल में हूँ बाबूजी, खाने और दवाई का पैसा नहीं है, अपाहिज हूँ, कुछ कर नहीं सकता।" उसकी आवाज़ से मुझे जो दर्द महसूस हुआ, उसने मुझे झकझोर कर रख दिया।

मैं एकटक उसे देखता रह गया। उस पर बड़ी दया आ रही थी। मेरा हाथ स्वतः ही जेब में चला गया। मेरे पास उस समय कुल दो नोट थे। एक पचास का और एक सौ का। मैंने पचास की नोट हाथ बढ़ाकर उसके फैले हुए हाथ पर रख दिया। उसने थरथराते हुए हाथों से जल्दी से नोट लेकर अपने माथे पर लगाया और तुरंत बोला, "बाबूजी दवाई के लिए कुछ पैसा दे दो, भगवान आपका भला करेगा।" उसकी आवाज़ में करुणा और प्रगाढ़ हो चुकी थी। सौ के नोट के साथ मेरा हाथ फिर उसके हाथ की तरफ़ बढ़ गया। उसने तुरंत नोट लपक लिया। मुझे एक साँस में न जाने कितनी शुभकामनाएँ दे डालीं। भगवान यह करे, भगवान वह करे। मैं उसे सुनता रहा, देखता रहा, कुछ बोल नहीं पा रहा था। बड़ी तेज़ी से यही सोच रहा था कि कम से कम इसकी दवा की तो व्यवस्था कर ही दूँ। उसके पैर में बँधी पट्टी निचले हिस्से में ख़ून से सनी थी। ख़ून सूख कर काला पड़ चुका था। उसने बताया घाव सही नहीं हो रहा है।

मैंने पूछा इलाज कहाँ से करवा रहे हो, तो उसने एक सरकारी हॉस्पिटल का नाम बता दिया। लगे हाथ यह भी कि हॉस्पिटल से सारी दवाएँ नहीं मिलतीं। मैं बड़ी उलझन में पड़ गया कि क्या करूँ? रिक्शे का हुड उठा हुआ था, लेकिन फिर भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे मेरा सिर ही चटक जाएगा। गर्म हवा बिल्कुल झुलसाए डालने पर ही तुली हुई थी। रिक्शे वाले का चेहरा बता रहा था कि वह धूप ही नहीं, मुझ पर भी ग़ुस्से से खौल रहा है कि, एक तो इतनी धूप में बुला लिया, ऊपर से पुण्य करने की नौटंकी में इतनी देर से धूप में उसे बेवज़ह सेंक रहे हैं।

मुझे लगा कि उसके साथ अन्याय हो रहा है। यह सोच कर मैंने भिखारी से कहा, "सुनो अब तुम्हें पैसे मिल गए हैं। तुम्हें जहाँ जाना हो वहाँ चले जाओ। धूप में तुम्हारी हालत बिगड़ जाएगी। या तुम्हें कहाँ जाना है वह बताओ, मैं तुम्हें वहाँ छोड़ दूँ।

उसका कोई उत्तर आता कि उसके पहले ही रिक्शे वाला झल्ला कर बोला, "अरे बाबूजी, आप कहाँ इस के चक्कर में पड़े हैं। आप कुछ भी कर देंगे यह आपको हमेशा ऐसे ही मिलेगा। आप चलिए ना, आपको धूप बहुत तेज़ लग रही है।" रिक्शे वाले की बातों से मुझे उसकी वास्तविक मनसा समझते देर नहीं लगी कि वह क्या चाहता है।

वह किसी सूरत में यह नहीं चाहता था कि मैं एक सेकेण्ड भी वहाँ पर रुकूँ और सुलगती सड़क पर बैठे उस आदमी को रिक्शे पर बैठा कर ले चलूँ। अपनी बात पूरी करने से पहले ही उसने रिक्शे का हैंडल सीधा किया और पैडल पर दबाव बनाने लगा। मैं समझ गया कि अब यह रुकने वाला नहीं। यह सही भी था कि अब रुका भी नहीं जाना चाहिए था। एक के लिए दूसरे को कष्ट देना किसी दृष्टि से न्याय संगत नहीं था। हमें इसकी मदद करनी है तो मुझे चाहिए कि मैं रुक जाऊँ। यह जाना चाहता है तो इसे जाने दूँ। लेकिन जल्दी मुझे भी थी और धूप में मेरी ख़ुद की हालत भी ख़राब हो रही थी, तीसरे वह सड़क पर से उठकर छाया में चलने को उत्सुक भी नहीं दिख रहा था, तो मैं चल दिया।

चलते-चलते मैं भिखारी से स्वयं को यह कहने से रोक नहीं सका कि, "तुम छाया में चले जाओ, जो मिलना होगा, वहाँ भी मिल जाएगा।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शा वाला आगे बढ़ चुका था। मेरी जेब में अब एक पैसा नहीं था। रिक्शे वाले को पैसा महीना पूरा होने पर देना होता है, इसलिए उसे पैसे देने की चिंता नहीं थी। लेकिन जो सामान लेकर घर जाना था उसे ख़रीदने के लिए मेरे पास कानी कौड़ी भी नहीं थी और सामान लेना बेहद ज़रूरी था। मैं बड़ा परेशान हो गया कि अब घर से पैसा लेकर फिर चार-पाँच किलोमीटर दूर वापस आना पड़ेगा। इस धूप में दोबारा ख़ुद को झुलसाने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है।

मैं यह सोच ही रहा था कि तभी रिक्शे वाला भुनभुनाया, "साहब आपने इसे बेवज़ह इतना पैसा दे दिया। इसका तो रोज़ का ही यही धंधा है। यह आपको कल भी ऐसे ही दिखेगा। रोज़ नई-नई पट्टी बाँधकर ऐसे ही सीधे-साधे लोगों को यह ठगता रहता है।" मैंने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कि यह अपनी खुन्नस निकाल रहा है क्योंकि इसे धूप में रुकना पड़ा। कितना पत्थर हृदय है। उस बेचारे की तकलीफ़ पर इसका दिल ज़रा भी नहीं पसीजा।

अच्छा हुआ मैंने उसे रुपये दे दिए। इसका वश चलता तो यह देने ही नहीं देता। अभी यह और आँखें निकालेगा जब घर से पैसा लेकर वापस आऊँगा सामान लेने। मेरे चुप रहने पर वह फिर बोला, "साहब आप चाहें तो कल इसकी पट्टी खुलवा कर देख लीजिएगा, कहीं कोई घाव-वाव नहीं है।

इस बार मैं अपने ग़ुस्से को रोक नहीं पाया। मैंने कहा, "होगा भाई, मान लो उसके पैर में कोई घाव नहीं है, वह धोखा दे रहा है। लेकिन यह तो सच है ना कि उसका पैर कटा हुआ है। बिना बैसाखी के तो वह चल नहीं सकता ना। तो वह काम क्या करेगा? डेढ़ सौ रुपए में एकाध दिन तो उसके खाने-पीने की व्यवस्था हो ही जाएगी।

"साहब खाना-पीना नहीं, यह इन पैसों से गांजा, स्मैक पिएगा। ये बहुत बड़ा खिलाड़ी है। इसको हम लोग दिनभर यहाँ से लेकर बादशाह नगर, मुंशी पुलिया, टेढ़ी पुलिया तक देखते रहते हैं। पुलिस वालों का पक्का जासूस है। आपने ध्यान नहीं दिया वह अभी भी गांजा पिए हुए है।"

मुझे लगा कि यह कुछ ज़्यादा ही बकवास कर रहा है। कल कुछ पैसे माँग रहा था, तंगी के चलते नहीं दिया और करुणावश इस भिखारी को दे दिया तो उसके लिए इतना ज़हर बोल रहा है। मैंने ग़ुस्सा होकर कहा, "तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे सारे समय इसी के साथ रहते हो। सब देखते हो, तुम्हें इससे इतनी ज़्यादा घृणा क्यों हो गई है?" 

इस बार मेरा लहजा थोड़ा सख़्त था तो वह तुरंत ही नम्र होता हुआ बोला, "नहीं, नहीं साहब, ऐसी बात नहीं है। आप ग़ुस्सा ना हों। हमारी बात पर यक़ीन करें। कल मैं आपको ख़ुद ही ले चलूँगा, देख लीजिएगा हमारी बात सच ना निकले तो कहिएगा।"

 इस बार मैंने कुछ संयम से बोलते हुए कहा, "मुझे कुछ नहीं देखना। वह सच्चा, झूठा, मक्कार जो भी है मुझे इसकी परवाह नहीं। मुझे जो करना था वह मैंने कर दिया, बस।" असल में अब मुझे उसकी बातों पर यक़ीन होना शुरू हो गया था। मैंने सोचा, जो भी हो कल अगर मिल गया तो सच ज़रूर मालूम करूँगा।

रिक्शे वाला ऐसा न महसूस करे कि उसके साथ अन्याय हुआ, धूप में कड़ी मेहनत की तकलीफ़ उसे ज़्यादा प्रगाढ़ ना लगे। इसलिए जब दोबारा सामान लेकर घर पहुँचा, तो उसे पचास रुपये दे दिए। हालाँकि मुझे लगा कि धूप में उसने जितना रिक्शा चलाया उस हिसाब से उसे कम से कम सौ रुपये देना ही ठीक होता। लेकिन उस समय मेरी जो स्थिति थी उस हिसाब से तो दोनों ही को मेरा एक पैसा भी देना मूर्खता थी, जो मैंने की। एक रुपया नहीं पूरे दो सौ रुपये दिये। रात में सोते वक़्त भी मेरे दिमाग़ में यह बात बनी रही कि कल सच ज़रूर जानूँगा। लेकिन अगले दिन वह नहीं मिला। मुझे बड़ी कोफ़्त हुई। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं ठगा गया या फिर मानवीय पक्ष की मुझे ठीक-ठीक समझ ही नहीं है, इसलिए मानव धर्म को ठीक से निभा नहीं पाया। क्या रिक्शे वाले की बात सही है कि मैं ठगा गया।

ऑफ़िस जाते-आते रोज़ मेरी आँखें उसे ढूँढ़तीं, ख़ासतौर से अंबेडकर पार्क के पास। हफ़्ता भर निकल गया तो मैंने एक दिन रिक्शे वाले से पूछ लिया कि, "वह बैसाखी वाला कहीं दिखा था क्या?" 

मेरे पूछते ही वह एकदम से चालू हो गया, जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि मैं पूछूँ। उसने बताया, "बाबू जी वह अपने ठिकाने बदलता रहता है। आजकल बादशाह नगर, रेलवे स्टेशन के पास अड्डा बनाए हुए है। वह ऐसे ही अपना ठगी का धंधा चलाता है।" रिक्शे वाले ने इसके साथ ही ऐसी तमाम बातें बताईं कि मैं भौचक्का रह गया कि एक अपाहिज आदमी इतना कुकर्मी हो सकता है। इतना गिरा हुआ हो सकता है। उसने जिस तरह से सब कुछ बताया, उससे मैं उसकी बातों पर पहले की तरह शक करने की स्थिति में नहीं था। उसकी बातें मुझे सही लगने लगीं। यह बात भी कि उसने मुझे बड़ी ख़ूबसूरती से ठग लिया। मुझे बड़ी ग़ुस्सा आया।

मैंने उसी दिन शाम को रिक्शे वाले से उसी के पास चलने को कहा। इस पर वह भुनभुनाया, "साहब आप तो बेवज़ह उसके लिए परेशान हो रहे हैं। उसके पास चलेंगे तो वह कोई ना कोई नई नौटंकी बताकर आपसे फिर रुपए ठग लेगा। आख़िर आप चलकर क्या कर लेंगे?" 

मैंने झल्ला कर कहा, "मैं कुछ करने-वरने नहीं जा रहा हूँ। यह देखने-समझने के लिए चलना चाहता हूँ कि वह इस हालत में इतने कुकर्म कैसे कर लेता है। क्या वह इतना भी नहीं समझता कि इन घिनौनें गंदे कामों के कारण उसकी जान भी जा सकती है। वह आज नहीं तो कल पुलिस के हत्थे ज़रूर चढ़ेगा। तब पुलिस उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ देगी।"

रिक्शे वाला बोला, "साहब, मैंने पहले ही बताया था कि वो पुलिस का दलाल है। पुलिस का उसे कोई डर नहीं है। पुलिस सब जानती है। वह ख़ुद उससे मिली हुई है, तभी तो वह चार-पाँच साल से सब कुछ कर रहा है, लेकिन आज तक कहीं उसकी धरपकड़ नहीं हुई है। ज़्यादातर समय तो वह पुलिस चौकी के सामने ही थोड़ी दूर पर रहता है। इसलिए उसका कुछ भी नहीं होने वाला। आप उसके चक्कर में अपना पैसा और समय बर्बाद कर रहे हैं बस।" उसकी बातों से मैं खीझ उठा। हमारी बहस चलती रही और हम उस एरिया में उसे ढूँढ़ते हुए थक कर अपने घर पहुँच गए। रिक्शे वाले को सौ रुपये अलग से देने पड़े। भिखारी के ना मिलने से मैं बड़ा खिन्न हो रहा था। लेकिन मैंने ज़िद कर ली कि अब जो भी हो जाए मैं उसको ढूँढ़ कर रहूँगा। यह जान कर रहूँगा कि आख़िर उसमें ऐसी कौन सी ताक़त है कि वह पौने दो टाँग का होकर भी यह सब कर लेता है। यहाँ ज़रा सी धूप सहन नहीं होती और वह इतनी जलती-पिघलती सड़क पर नंगे पैर घूमता है। ऐसे-ऐसे काम करता है कि सुनकर सिर चकरा उठता है। जो भी हो जाए अब मुझे उससे मिले बिना चैन नहीं मिलेगा।

उसे ढूँढ़ते हुए एक और हफ़्ता निकल गया लेकिन वह कहीं नहीं मिला। रिक्शे वाले के किराए के साथ-साथ मेरी उलझन, मेरा ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। उसे भुला दूँ मैं यह भी नहीं सोच पा रहा था। अंबेडकर पार्क के पास पहुँचता नहीं कि उसकी याद आ ही जाती। मुझे लगता जैसे हाथ हिलाता वहीं बैठा वो मुझे ही देख रहा है।

यह संयोग ही था कि पंद्रहवें-सोलहवें दिन ऑफ़िस से फिर मुझे दोपहर तीन बजे ही चिलचिलाती धूप में निकलना पड़ा। काम बड़ा ज़रूरी था। मैं अंबेडकर पार्क के दूसरी तरफ़ सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल वाली रोड पर चला जा रहा था। जिस पर बाईं तरफ़ क़रीब एक दर्जन हट या प्रसाधन बने हुए हैं। बीच में एक फ़िश पार्लर भी है। मेंटीनेंस के अभाव में उनकी टूट-फूट देखता आगे बढ़ रहा था कि तभी वह बाएँ तरफ़ मुझे एक हट की चौखट पर छाए में बैठा हुआ दिख गया। उसे देखते ही मैंने रिक्शा तुरंत रुकवा लिया। सब ऐसे हुआ जैसे मेरा मुझ पर कंट्रोल ही नहीं था। मैं लपक कर उसके सामने खड़ा हो गया। मैंने सोचा कि वह मुझे ऐसे देख कर भौंचक्का हो जाएगा। डरेगा। लेकिन उल्टा हुआ। भौंचक्का मैं रह गया। वह बड़ी दिलेरी के साथ मुझे मेरी आँखों में आँखें डाले देखता रहा।

मुझे लगा कि वह हल्के-हल्के मुस्कुरा भी रहा है। कुछ देर अपने को जज़्ब करने, कई बातें सोचने के बाद मैंने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?" नाम बताने के बजाय वह कुछ अजीब सा मुँह बना कर बैठा रहा। मैं ना जाने किस भावना में बहकर उसी की बगल में थोड़ा फ़ासला लेकर ज़मीन पर ही बैठ गया। रिक्शे वाला हट में एकदम पीछे चला गया। मैंने दोबारा नाम पूछा तो वह कुछ देर बाद नाम बताने के साथ ही बोला, "भूख लगी है साहब।

मैंने कहा, "यहाँ तो कोई दुकान है नहीं। यहाँ तो कुछ नहीं मिल पाएगा?" 

यह सुनते ही वह तपाक से बोला, "साहब, फोन करके मँगा लो। यहीं पर लेकर आ जाएगा।

यह सुनते ही मैं दंग रह गया। वह सीधे-सीधे ऑनलाइन खाना मँगाने के लिए कह रहा था। मैंने ना कभी सुना था, ना कभी सोचा था कि कोई भिखारी इस तरह बे-खौफ़ ऑनलाइन खाना ऑर्डर करने के लिए कहेगा और ऑनलाइन सिस्टम को भी अच्छी तरह से जानता होगा।

मुझे रिक्शे वाले की सारी बातें एकदम सच लगने लगीं। यह भिखारी नहीं, भिखारी के भेष में जरायम की दुनिया का खिलाड़ी है, और यही समझ रहा है कि मैं अपनी किसी ज़रूरत की वज़ह से इसके पीछे पड़ा हूँ। मेरी उसी ज़रूरत को यह कैश कराने की सोच रहा है। मैंने कहा, "इतनी गर्मी में कोई ऑर्डर लेकर यहाँ क्यों आएगा?" 

"करो तो साहब। सब आ जाएँगे। हम तो रोज़ ही देखते रहते हैं लोगों को ऐसे ही मँगाते हुए।" उसकी हालत से मुझे लगा कि यह भूख से कुछ ज़्यादा ही परेशान है। मैं पीछे रिक्शे वाले की ओर मुड़ा कि देखें यह क्या कहता है, लेकिन वह सिर के नीचे अपना अंगौछा रख कर जमीन पर ही सो रहा था। मैंने सोचा कमाल का आदमी है, इतनी गर्मी है और ये दो मिनट में ही सो गया। जो भी हो आदमी साफ़ दिल का लगता है।

तभी भिखारी फिर बोला, "साहब मँगा दो ना। फोन करो, सब थोड़ी ही देर में आ जाएगा।

मैंने जब देखा कि वह खाए बिना एक बात नहीं करेगा तो उससे कहा, "देखो तुम जो खाना कहोगे, वह सब मैं मँगा दूँगा। लेकिन मैं जो-जो पूछूँगा तुम मुझे वह सब सच-सच बताओगे।

दो बार कहने पर उसने हामी भरी तो मैंने ऑर्डर कर दिया। एक कंपनी तो वहाँ पर ऑर्डर डिलीवर करने को तैयार नहीं हुई। दूसरी सात सौ रुपये से ऊपर का ही ऑर्डर डिलीवर करती थी। अब क्योंकि मुझे हर हाल में बात करनी ही करनी थी तो ऑर्डर कर दिया। मैं यह भी सोचता जा रहा था कि जो भी मेरी इस हरकत को सुनेगा, मुझे मूर्ख नहीं बल्कि पागल भी कहेगा।

मैंने तीन लंच ऑर्डर किए थे। अपने और रिक्शे वाले के लिए भी। यह करके मैंने उससे फिर कहा, "तुमने जो कहा वह खाना मैंने ऑर्डर कर दिया है। अब मैं जो भी पूछूँगा वह सब तुम सच-सच बताओगे।

उसने सहमति में सिर हिलाया तो मैंने पूछा, "अपना पूरा नाम बताओ।

"सब्बू"

"यह भीख कब से माँग रहे हो?" 

"जब से पैर कट गया, तभी से।

"अच्छा-अच्छा। यह पैर कटा कैसे?" 

"ट्रेन से।

मेरी बातों का वह बड़ी चालाकी से सूक्ष्मतम जवाब दे रहा था। उसकी बातों से मैं समझ गया कि वह हद दर्जे का चालाक आदमी है। पढ़ा-लिखा नाम-मात्र का है लेकिन कढ़ा बहुत ज़्यादा है। मैं उससे आत्मीयता के साथ बातचीत जारी रखे हुए था। धीरे-धीरे वह खुलता चला गया। बताता गया कि कैसे एक खाते-पीते घर का, अपने माँ-बाप का दुलारा बेटा यहाँ इस हाल में पहुँच गया।

उसके मन में माँ-बाप के लिए कठोरतम ग़ुस्सा भरा हुआ था। उसने जो बताया, उसके साथ जो बीता वह दर्दनाक, हृदयविदारक था। बचपन की बात शुरू करने से पहले उसने लुंगी के फेंटे से एक सिगरेट निकाल कर जलाई। बड़े अंदाज़ से कई बड़े-बड़े कश लेकर गाढ़ा धुआँ उगला। उसकी गंध साफ़ बता रही थी कि उसमें गांजा भरा हुआ है। जब वह धुआँ उगलता तो मैं अपना मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता। मैं उन लोगों में से हूँ जो सुबह फ्रेश होने से पहले तंबाकू, चाय, सिगरेट आदि का सेवन करते हैं। मैं कम से कम दो कप चाय, दो सिगरेट ज़रूर पीता हूँ। इसके बावजूद तब मेरा सिर चकरा रहा था। मगर मैं उसे मना करने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था कि कहीं यह बातें बताने से मुकर ना जाए। हो सकता है कि यह बात कहने के लिए मूड बना रहा हो। उसने सिगरेट ख़त्म करके बताया कि उसके माँ-बाप दोनों ही नौकरी पेशा थे। उसे दिन भर डे-बोर्डिंग स्कूल में रहना पड़ता था। पाँच-छः साल तक उसे ख़ूब लाड़-प्यार ऐशो आराम मिला।

मगर इसके बाद जल्दी ही माँ-बाप के बीच रोज़ झगड़े होने लगे। इसके साइड इफ़ेक्ट के रूप में उसकी उपेक्षा शुरू हो गई। साथ ही साथ मार भी पड़ने लगी। जल्दी ही अब्बू ने अम्मी को तलाक़ दे दिया। दोनों जिसे-जिसे चाहते थे, उसके साथ चल दिए। शादी कर ली। उसको अब्बू ने अम्मी के पास ही छोड़ दिया था। नए सौतेले बाप ने उससे पहले दिन से ही प्यार से बात की। अम्मी जैसे पहले उसे "मेरा शाहज़ादा" कहती थीं, प्यार से उसकी देखभाल करती थीं, उसकी देखभाल को अपनी ख़ुशी मानती थीं, सुबह से लेकर रात सोने जाने तक उसे दर्जनों बार प्यार करती थीं, चुंबन लेती थीं, वैसे ही करती रहीं। वह अच्छे कॉन्वेंट स्कूल में ही पढ़ता रहा। लेकिन सौतेले भाई के जन्म के कई महीने पहले ही से स्थितियाँ तेज़ी से बदलती चली गईं। और जब भाई बाबुल का जन्म हो गया तो सब एकदम से बदल गया।

बाप का व्यवहार कठोर हो गया। उसे बेवज़ह मारना-पीटना, गंदी-गंदी गाली देना उनका रूटीन वर्क हो गया। अब मज़दूर के बच्चे और उसमें कोई फ़र्क नहीं रह गया। अम्मी भी उन्हीं की तरह हो गईं। उसे कॉन्वेंट से निकाल कर म्यूनिस्पल स्कूल में डाल दिया। बाबुल सात-आठ महीने का था तभी घूमने के लिए सभी लोग ट्रेन से चले। उसको याद नहीं कि कोलकाता से कहाँ के लिए निकले। उसे यह भी याद नहीं कि वापसी में उसे उसकी अम्मी और सौतेले बाप ने किस रेलवे स्टेशन पर छोड़ा था। बस इतना याद है कि स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर वह अम्मी के साथ था। अपने भाई बाबुल के साथ खेल रहा था। जिसे वह बहुत प्यार करता था। तभी सौतेले पिता उसे लेकर स्टेशन से बाहर निकल गए।

वहाँ उसके लिए खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदीं। फिर एक जगह उसे बैठाकर कहा, "तुम यहाँ बैठो। मैं बाबुल और तुम्हारी माँ के लिए भी चीज़ें लेकर आता हूँ।" वह गए तो फिर वापस लौटे ही नहीं। कुछ देर बाद वह उन्हें ढूँढ़ने लगा। नहीं मिले तो रोने लगा। लोग आ गए। फिर कहाँ-कहाँ होते, कैसे-कैसे वह चाइल्ड लाईन पहुँच गया। उसके बाद उसने अपने माँ-बाप, सौतेले भाई किसी को कभी नहीं देखा। इन सब के लिए उसके मन में ग़ुस्सा, घृणा कूट-कूट कर भर गई, इतनी कि, "वे मिल जाएँ तो..." वह इतना कह कर दाँत किटकिटा कर हल्के से चीख़ा। वह काँपने लगा तो मैंने उसे शांत किया।

उसने फिर एक सिगरेट पी डाली। उसकी आँखें सुर्ख़ लाल हो रही थीं। पसीने से भीग रहा था। रिक्शे वाला अब भी सो रहा था। मेरे आग्रह पर उसने बात आगे बढ़ाई, बताया कि अनाथालय में खाना-पीना, कपड़ा सब, बस किसी तरह ज़िंदा रहने भर का मिलता था। स्टॉफ़ आए दिन चप्पल-जूतों, डंडों से मारता था। साफ़-सफ़ाई, झाड़ू-पोंछा सब बच्चों से ही कराया जाता था। दिन हो या रात कई लोग बच्चों का यौन शोषण करते रहते थे। अक्सर स्टॉफ़ के बाहर के लोग भी आते थे।

उसकी नाक भी वहीं यौन शोषण के दौरान लगी गंभीर चोट के कारण हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई। ऐसे ही भूख-प्यास, मारपीट, यौन शोषण के बीच वह चौदह-पन्द्रह साल का हो गया। और फिर चार लड़कों के साथ वहाँ से भाग निकला। एक रात जब स्टॉफ़ कुछ लड़कियों का यौन शोषण करने के बाद नशे में धुत्त होकर सो गया, तो यह सब चाबी चोरी करके, मेन गेट खोल कर भाग निकले। स्टॉफ़ के लोगों के कपड़ों में जितने पैसे थे, वह भी चोरी कर लिए। फिर कई शहरों में इधर-उधर भटकते रहे। अंततः एक रेलवे स्टेशन पर ही उन पाँचों ने अपना ठिकाना बना लिया।

प्लेटफ़ॉर्म के अलग-अलग होटलों में काम करते, वहीं खाते-पीते और सोते। नशे, सेक्स से उनका परिचय तो अनाथालय से ही था। वह भी नशे के आदी होते चले गए। महिलाओं का भी जुगाड़ कर लेते थे। ऐसे ही कई वर्ष बीत गए। एक दिन यार्ड में खड़ी एक बोगी में अपनी ही तरह क़िस्मत की मारी एक महिला का शोषण कर रहे थे, सभी नशे में थे। आवेश में किससे क्या हुआ कि महिला की मौत हो गई। फिर पूरा का पूरा गुट वहाँ से भाग निकला। इस भागम-भाग में सभी बिछड़ गए। सब्बू भी अकेले भागता-भटकता एक महानगर के बड़े से रेलवे स्टेशन की भीड़ में घुस गया। फिर वहीं एक होटल में काम-धाम करने लगा। जल्दी ही यहाँ भी उसका चार-पाँच लोगों का नया गुट बन गया। नशा-पत्ती, सब उसकी चल निकली, औरत-बाज़ी भी।

एक दिन अपनी ही जैसी एक लड़की के साथ वह यार्ड में खड़ी एक बोगी में था, कि तभी जीआरपी वालों की नज़र में आ गया। भागा। बचने, भागने के चक्कर में एक ट्रेन की चपेट में आकर घायल हो गया। किसी तरह जान तो बच गई, लेकिन पैर गँवा बैठा। ठीक हुआ तो खाने-पीने के लाले पड़ गए। काम नहीं मिल रहा था। अंततः भीख माँगने को विवश हो गया। इसी बीच में ड्रग माफ़ियाओं ने उससे स्मैक, चरस आदि बिकवानी शुरू कर दी, क्योंकि उन्हें लगा कि कोई उस पर जल्दी शक नहीं करेगा। जल्दी ही उसने अपनी जैसी कई महिलाओं और लड़कियों को भी फँसाया। उन्हें भी ड्रग्स का आदी बना लिया। जब वे ड्रग्स की आदी बन गईं तो उन्हें पैसा देने पर भी ड्रग्स नहीं देता। पैसा, शोषण दोनों मिलने पर ही देता। उसकी ड्रग्स गाथा सुनकर ही मैं समझ पाया कि वह उस समय भी गांजा सहित किसी अन्य ड्रग्स के नशे में भी है।

मैंने पूछा तुम्हारे गैंग में कितनी लड़कियाँ हैं? तो उसने बड़ी शान से बताया, "नौ हैं।

मैंने कहा, "तुम चल नहीं पाते हो, तो इतनी लड़कियों को कैसे बाँधे रहते हो? वह भाग भी तो सकती हैं।

तो वह फिर बड़ी शान, अकड़ के साथ बोला, "जब तलब लगती है तो ढूँढ़ती हुई आती हैं।" एक जगह का नाम बताते हुए कहा कि, "सब शाम को वहीं पर दौड़ी आती हैं। वहीं पर इकट्ठा होती हैं।" उसकी बात सुनते-सुनते मेरा ध्यान बार-बार उसके पैर में बँधी पट्टी पर जा रहा था, जिस पर अच्छा-ख़ासा सूखा ख़ून दिख रहा था। मैंने सोचा कि जब इसका पैर कई साल पहले कटा था, तो घाव कब का ठीक हो गया होगा। अब यह कैसा ख़ून? पूछा तो वह बड़ी ही अजीब तरह से खीं-खीं करके हँस पड़ा। कुछ देर हँसने के बाद बोला, "लड़कियाँ देती हैं, लड़कियाँ।" मैं बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि लड़कियाँ ख़ून देती हैं तो वह फिर से पहले की तरह हँसकर बोला, "इतनी लड़कियाँ हैं, रोज़ एक को ब्लेड से चीरा लगाता हूँ, उसी से काम भर का ख़ून लेकर अपनी दवाई भिगो लेता हूँ। बाकी इस पट्टी को चटा देता हूँ।" इतना कहते-कहते फिर बड़ी घिनौनी हँसी हँसा। यह सुनकर मेरा ख़ून खौल उठा।

मैंने तेज़, घृणापूर्ण आवाज़ में कहा, "तुम बहुत ही क्रूर, घिनौने, नारकीय इंसान हो। तुम्हारे तो दोनों हाथ-पैर कट जाने चाहिए थे।" मेरी बात पर वह अप्रत्याशित रूप से ग़ुस्से से तमतमा उठा। मैंने भी उसी क्षण तय किया कि किसी भी तरह से इससे बाक़ी बातें जान लूँ, तो पुलिस को कॉल करके ऐसे दरिंदे को जेल भिजवा दूँ। जो साक्षात राक्षसों की तरह इतनी मासूम लड़कियों, औरतों का ख़ून पी रहा है। इसने तो युगांडा के ईदी अमीन को भी पीछे छोड़ दिया है।

वह तमतमाए चेहरे के साथ फिर सिगरेट पीने लगा। मैंने उससे अगली बात पूछने वाला ही था कि तभी वह बोला, "हम क्रूर, घिनौने राक्षस हैं, तो बताओ ज़रा, जिन लोगों ने हमें स्टेशन के बाहर छोड़ा, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रख कर काम करवाया, नोचा-खसोटा वह सब क्या हैं? सुनो, सब राक्षस हैं, राक्षस। अकेले हमें ना कहो, समझे, और चाहो तो जो पैसा उस दिन दिए थे वह भी ले लो।" वह बड़ी दबंगई से बोल रहा था। मुझे भी बड़ी ग़ुस्सा आ रहा था। मगर मैं सब जानना चाहता था। साथ ही उसके साथ उसके माँ-बाप, अनाथालय वालों ने जो अत्याचार किए, उसे जानकर उसके प्रति दया भी उभर रही थी।

तभी खाने वाले का फोन आया। उसे लोकेशन समझाई तो वह पाँच मिनट के बाद आ गया। मैंने एक डिब्बा खाना उसके सामने रखते हुए कहा, "खाओ, तुम्हें भूख लगी हैं ना।" वह मुझे डिलीवरी मैन से खाना लेकर उसको पैसे देने तक एकटक देखता रहा था। उसके जाते ही बोला, "कोई पाँच रुपया भी नहीं देता। तुम इतना किए जा रहे हो। कोई मामला है क्या?" 

मैंने कहा, "पहले खाना खाओ। मामला सिर्फ़ इतना है कि मुझे तुम्हारे ऊपर बहुत दया आ रही है कि तुम्हारे साथ इतना अत्याचार हुआ। तुम्हारी हालत देखकर मैं इतना ही सोच रहा हूँ कि तुम्हारा जीवन अच्छा हो जाए। तुम्हारी तकलीफ़ दूर हो जाए।"

मैंने रिक्शे वाले को भी उठा कर खाना दिया तो वह बोला, "अरे साहब आप क्या कर रहे हैं? यह खाना कैसे आ गया? मैं तो सवेरे ही खा कर चलता हूँ।

मैंने कहा, "कोई बात नहीं। सवेरा हुए बहुत समय हो गया है। लो खा लो।

मैंने देखा सब्बू आराम से निश्चिंत होकर खाना खा रहा था और बीच-बीच में मुझे देखे भी जा रहा था। 

मैंने पूछा, "यह बताओ जिन लड़कियों का तुम यौन शोषण करते हो, उनका शरीर काट कर उनके ख़ून से वह सब करते हो, कभी ये झगड़ा नहीं करतीं। तुम्हें डर नहीं लगता कि वह सब एक साथ मिलकर तुम्हें मार सकती हैं।

यह सुनते ही वह मुँह में खाना भरे-भरे हूँ-हूँ करके हँसा। फिर बोला, "उनकी हिम्मत नहीं है।" बैसाखी की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, "इसी से चमड़ी उधेड़ कर रख देता हूँ। ज़्यादा बोलीं तो पुलिस की लाठी से तुड़वा देता हूँ।"

मैंने उसकी हिम्मत देखकर सोचा, ऐसे बोल रहा है जैसे कि पुलिस को ख़रीद रखा है। पुलिस इसकी नौकर है। वह खाना खा चुका तो मैंने कहा, "मान लो इन लड़कियों ने पुलिस में तुम्हारी सारी बातें बता दीं तो तुम्हें पुलिस पकड़ लेगी। जेल में डाल देगी। डर नहीं लगता तुम्हें।

"कैसी बात करते हो? इनमें कौन सी लड़की है जिसे पुलिस वाले..." उसने बड़ी भद्दी सी बात कही। जिसे सुनकर मैं हक्का-बक्का रह गया। वह बड़े ताव में बोला, "लड़कियाँ क्या, तुम भी चले जाओ पुलिस में तो भी कुछ नहीं होगा। अगर पुलिस ने कुछ देर को धर भी लिया, गिरफ़्तार भी कर लिया तो पुड़िया वाले छुड़ा लेंगे।"

पुड़िया वाले का ख़ुलासा करते हुए बताया कि ड्रग्स सप्लायर की पूरी नज़र रहती है उस पर। मुझे उसकी बात पर पूरा यक़ीन नहीं हो रहा था। मैंने सोचा इसकी मानें तो पूरा का पूरा पुलिस विभाग ही इसके साथ है। मैंने कहा, "ऐसा नहीं है, मालूम होने पर पुलिस चुप नहीं बैठेगी। फिर जो भी हो अब तुम यह सब छोड़कर कुछ काम-धाम क्यों नहीं करते। हाथ-पैर से परेशान बहुत से लोग, कुछ ना कुछ काम तो कर ही रहे हैं। अपना जीवन, अपने परिवार को चला ही रहे हैं।"

मेरी इस बात पर उसने जो जवाब दिया उससे मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। घृणा बढ़ गई। वह बड़ी ऐंठ के साथ बोला, "तो हम भी तो काम कर रहे हैं। अपना जीवन चला रहे हैं। इसमें तो और भी ज़्यादा मेहनत लगती है।

मैं कुछ बोलता उसके पहले ही वह रिक्शे वाला बोला, "साहब, हम पहले दिन से ही आपसे बता रहे हैं, अपना पैसा, समय आप बर्बाद कर रहे हैं। ये ऐसे ही रहेगा। रात में चलने वाले ऑटो, टेंपो वालों को भी फँसाए हुए है। उन्हें भी लड़कियों को देता रहता है। पुलिस सब कुछ जानती है। कुछ नहीं होने वाला। आप बेवज़ह इतनी गर्मी में परेशान हो रहे हैं।" रिक्शे वाले की बात मुझे सही लगी।

मैंने अपना वाला खाने का डिब्बा भी उसे ही दे दिया। कहा, "लो यह भी तुम्हारे काम आएगा।

मैंने अपना डिब्बा खोला भी नहीं था। रिक्शे पर बैठते-बैठते मैंने कहा, "एक बार बिना सिगरेट पिए मेरी बात पर सोचना, समझना, समझ में आ जाए तो अपना काम बदलना, आते-जाते कहीं मिल जाओ तो बताना।"

 तो उसने तपाक से कहा, "अपना मोबाइल नंबर दिए जाओ।

उसके इस जवाब ने मुझे फिर सोच में डाल दिया। मैंने कहा, "नंबर कहाँ लिखोगे। कागज-पेन रखे हो?" अगले ही पल उसने हाथ पीछे कर लुंगी में खोंसा एक एंड्रॉएड मोबाइल निकालकर कहा, "बताओ नंबर।"

उसे मैं कुछ देर देखता रहा। मेरे दिमाग़ में बात आई कि दुनिया भर के क्राइम कर रहा है। ड्रग माफ़िया के संपर्क में है। आज नहीं तो कल पकड़ा जाएगा। तब इसके मोबाइल में मेरा नंबर मुझे भी पकड़वा देगा। मैंने उसे नंबर नहीं बताया और कहा, "जब मिलना हो तो वहीं अंबेडकर पार्क के पास आ जाना। वहीं मिलेंगे, सुबह नौ से दस बजे के बीच और शाम को..." मेरी बात पूरी होने से पहले ही रिक्शे वाला चल दिया। मैं जिस काम के लिए निकला था उसके लिए बड़ी देर हो गई थी तो मैंने उससे घर चलने के लिए कह दिया। मन बड़ा खिन्न हो रहा था कि कैसे-कैसे लोग हैं दुनिया में। रिक्शे वाला उसके लिए बहुत कुछ कहे जा रहा था लेकिन मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया तो वह चुप हो गया। इस बीच मैं यह सोचता रहा कि जब यह ड्रग्स बेचता है तो तमाम पैसे कमाता होगा। फिर इसे भीख माँगने की ज़रूरत क्यों? कहीं यह इस धूर्त की कोई छद्म चाल ही तो नहीं है।

अगले दिन सवेरे पेपर के लोकल पेज पर उसकी फोटो देखकर मैं सशंकित हुआ कि इसके साथ कोई कांड हो गया क्या? ख़बर पढ़ी तो मालूम हुआ कि उसने किसी धारदार हथियार से एक पन्द्रह-सोलह वर्षीय लड़की को मारने की कोशिश की। जिससे वह लहूलुहान हो गई और मरणासन्न है। उसने बादशाह नगर रेलवे स्टेशन पर यह कांड किया था। जीआरपी ने उसे पूरे गिरोह सहित पकड़ लिया था। लड़कियों ने जीआरपी वालों को सारा क़िस्सा बताकर उसका भांडा फोड़ दिया था। सारी बातें वही लिखीं थीं जो उसने बताई थीं। वह सब फिर पढ़कर मन उसके प्रति घृणा से भर गया। साथ ही भगवान को धन्यवाद कहा कि अच्छा हुआ ऐन टाइम पर उसे अपना मोबाइल नंबर बताने से मना कर दिया था।
 

 

 

 

 

     

 

मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद

 

दुष्यंत ने ऑटो रिक्शा चलाना तब से शुरू कर दिया था जब वह क़ानूनी रूप से बालिग़ भी नहीं हो पाया था। ऐसे में जब भी ट्रैफ़िक पुलिस द्वारा पकड़ा जाता तो तुरंत जितने रुपए उसके पास होते वह फट से निकाल कर उसे थमा देता। पुलिस वाला सारे नोट जेब में ठूँस-ठाँस कर रख़ते हुए कहता, ‘चल भाग, जल्दी बड़ा हो जा।ऑटो की स्पीड अपनी मर्ज़ी से घटाने-बढ़ाने वाले दुष्यंत के पास उम्र बढ़ाने की स्पीड पर कोई कंट्रोल नहीं था। वह अपने ही हिसाब से बढ़ती रही और दुष्यंत को बालिग़ बनाने में पूरे ग्यारह महीने ले लिए। वह रोज़ बड़ी बेसब्री से ग्यारहवें महीने की इक्कीसवीं तारीख़ की प्रतीक्षा करता था। 

और जब यह तारीख़ आई तो उसने ख़ुशी मनाई। लेकिन अन्य लोगों की तरह नहीं कि ख़ुशी मनाने के लिए छुट्टी ले ली, काम नहीं किया। बल्कि इस ख़ुशी को उसने अपनी तरह से अकेले ही मनाया और ऑटो रोज़ से भी चार घंटे ज़्यादा चलाया। मालिक को उसने सवेरे ही बता दिया था कि, ‘आज ज़्यादा चलाऊँगा और ज़्यादा कोटा दूँगा।मालिक उसकी ईमानदारी, मेहनत, अच्छी ड्राइविंग के कारण ही उस पर आँख मूँदकर विश्वास करता था। 

उसने उसे काम पर रखने के हफ़्ते भर बाद ही कह दिया था कि, ‘तुम चलाओ, पकड़े जाओगे तो मैं छुड़ा लूँगा।लेकिन दुष्यंत पकड़े जाने की बात मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाने के कई दिन बाद ही बताता था। मालिक को वह कोटा पूरा देता। जो बच जाता उसी से अपना काम चलाता। उस दिन अपना कोटा वह भूल जाता था। यूँ तो क़ानूनन किसी ड्राइवर को ही ऑटो का परमिट मिलता है। वह भी कॉमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस होने पर ही। लेकिन दुष्यंत के मालिक ने और कई आर्थिक रूप से सक्षम लोगों की तरह फ़र्ज़ीवाड़ा करके कई परमिट ले रखे थे। वो कई बेरोज़गार युवकों का हक़ मारे हुए था। 

ऑटो वाले और चेतेश्वरानंद की यह कहानी पढ़ने वाले मेरे मित्रों, मैं एक सच आपको इसी समय बता देना उचित समझता हूँ कि मैं कोई कहानी लेखक या कहानी नैरेटर नहीं हूँ। पूरा सच यह है कि मैं ही ऑटो वाला हूँ। मतलब कि था। था इसलिए क्योंकि काफ़ी समय पहले मैंने ऑटो चलाना छोड़ दिया है। जब चलाता था तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऑटो चलाना छूट जाएगा। और चलाना शुरू करने से पहले सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऑटो चलाऊँगा और आगे वह करूँगा जो अब कर रहा हूँ। 

मित्रों मैं अब आपको वह सच बताने जा रहा हूँ कि मुझसे ऑटो छूटा कैसे और मैं यहाँ तक पहुँचा कैसे। एक चीज़ आप से बहुत साफ़-साफ़ कहता हूँ कि अगर आप बहुत प्रगतिशील विचारों के हैं, जीवन की हर बात को, हर काम को विज्ञान के तराजू पर तौलते हैं, उसके मापदंडों पर ही कसते हैं, उससे मिले निष्कर्षों पर ही सही ग़लत का निर्णय करते हैं, तो मित्रों माफ़ करना, मैं बहुत साफ़ कहता हूँ, कि आपका विज्ञान भी उतना ही अधूरा, अस्पष्ट है, जितना कि अन्य बातें, पौराणिक आख्यान आदि-आदि। 

देखिए ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि न जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं कि विज्ञान का कोई सिद्धांत बरसों-बरस सही माना जाता है। लेकिन फिर अचानक ही कोई दूसरा वैज्ञानिक पिछले को झुठलाते हुए नया सिद्धांत, नए नियम लेकर सामने आ जाता है। पिछला ग़लत हो जाता है। इसका अर्थ आप यह न लगा लें कि मैं विज्ञान को नहीं मानता। मित्रों मैं विज्ञान को उतना ही मानता, अहमियत देता हूँ, जितना ज्योतिष शास्त्र एवं पौराणिक आख्यानों को। 

देखिए मैं जहाँ-जहाँ से होता हुआ आज जहाँ पहुँचा हूँ और आपसे जिस तरह मुख़ातिब हूँ इसे मैं विधि का विधान मानता हूँ। जिसके लिए बहुत से नास्तिक वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि ना विधि होता है, ना विधि का विधान। या प्राचीन काल में सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि की तरह कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की है बल्कि सतत् विकास की प्रक्रिया का परिणाम है यह। अर्थात् जब उनकी सृष्टि ही नहीं तो उनका विधान कैसे? आप एक बात और सोचें कि डार्विन का विकासवाद इससे इतर है क्या? हाँ कुछ वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि विज्ञान के सिद्धांतों की तरह विधि भी है और उसका विधान भी। 

आप कुछ तर्क रखें, सोचें उसके पहले मैं यह साफ़ कर दूँ कि मैं तब विज्ञान को कंप्लीट मान लूँगा जब विज्ञान भविष्य में झाँक कर यह बता दे कि कब, कहाँ, क्या, किस लिए होने वाला है। एकदम सटीक बता दे। नहीं तो फिर कहूँगा कि पौराणिक आख्यान, विज्ञान सब एक समान हैं। ज्योतिषाचार्य भविष्य में क्या होने वाला है यह बता देने का पूरा दावा करते हैं। मेरे लिए भी आश्चर्यजनक दावा किया गया था कि भविष्य में मेरे साथ क्या होने वाला है। जिसे आप आगे जान पाएँगे। 

उस विधि के विधान को ज्योतिष शास्त्र के ज़रिए ज्योतिषाचार्य पढ़ लेने का दावा करते हैं, जिसके बारे में ख़ुद पौराणिक आख्यान यह कहते हैं कि विधि का लिखा अब तक महान शिवभक्त, प्रकांड पंडित रावण ही पढ़ सका है। वह अपने दरबार में अंगद से संवाद के समय बहुत ही घमंड के साथ कहता भी है, ‘जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥अर्थात् मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी असत्य जानकर मैं हँसा। रावण आगे कहता है कि, ‘उस बात को समझ कर भी मेरे मन में डर नहीं है। बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है।’ 

तो मित्रों जब मेरे पिताजी ज़िंदा थे, तब उनकी मृत्यु से कुछ वर्ष पहले, मुझे एकदम सटीक तो नहीं याद है कि कितने वर्ष क्योंकि तब मैं छठी में पढ़ता था। उम्र यही कोई ग्यारह-बारह वर्ष रही होगी। तभी संयोगवश ही किसी ज्योतिषाचार्य से उनकी मुलाक़ात हो गई। उसकी बातचीत से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, जिसे उस ज्योतिषी ने उनकी जन्मतिथि के हिसाब से ग़लत बताया और नई कुंडली बना दी। साथ ही यह भी बताया कि, ‘आप पर कालसर्पयोग है। और आपकी राशि आज इन-इन भाव में है, और फला-फल ग्रह फलाँ फलाँ जगह हैं। इस कारण जो बला-बल निकल रहा है वह आपके लिए बहुत विनाशक है। यह बला-बल शुभ वाला नहीं अपितु अशुभ वाला है। यह जीवन को समाप्त कर देने वाला है।’ 

यह सुनकर माता जी घबरा गईं। पिताजी भी सशंकित हो गए। माता-पिता की इस हालत पर ज्योतिषाचार्य जी और मुखर हो उठे। बड़े विस्तार में जाते हुए बताया कि, ‘पिछले जन्म में आप से एक साथ कई अक्षम्य अपराध हो गए थे। जिनका परिणाम दोष फल आपको इस जन्म में मुख्य रूप से मिल रहा है। पिछले में इसलिए ज़्यादा कष्ट में नहीं रहे क्योंकि उसके पिछले वाले जन्म में आपके सद्कर्म बहुत थे। जिनका परिणाम पिछले जन्म में आप सुखी जीवन जी के भोग चुके हैं। 

आपके इस जीवन में प्रारंभ से ही क़दम-क़दम पर शारीरिक-मानसिक कष्ट, नौकरी में कष्ट, पारिवारिक जीवन में कष्ट है तो इस कालसर्पयोग के कारण ही है। आपकी कुंडली के हिसाब से राहु बारहवें भाव में है। और यजमान, कर्मों का व्यापक प्रभाव देखिए कि केतु छठे भाव का है। जिससे आप हज़ार-हज़ार कोशिश करके भी अपना ट्रांसफर होम डिस्ट्रिक्ट में नहीं करवा पा रहे हैं। 

आपके प्रतिद्वंद्वी ऑफ़िस से लेकर हर जगह आप से दो क़दम आगे ही रहते हैं। मन का कोई भी काम आप समय से नहीं कर पाते हैं। जब-तक मन का होता है, तब-तक उसके होने की सारी ख़ुशी, उत्साह सब समाप्त हो चुका होता है। आपको शारीरिक, मानसिक कोई ख़ुशी मिल ही नहीं पाती। आपकी सारी ख़ुशी हमेशा आपका यह डर छीन लेता है कि आपकी नौकरी ख़तरे में है। जबकि सच यह है कि तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी आप की नौकरी बची रहेगी लेकिन...’ 

ज्योतिषाचार्य जी ने अपना यह वाक्य बड़े रहस्यमय ढंग से अधूरा छोड़ दिया तो अम्मा घबड़ाकर हाथ जोड़ती हुई बोलीं, ‘पंडित जी लेकिन क्या? कोई अनहोनी तो नहीं है? पंडित जी बताइए ना।अम्मा के आँसू निकलने लगे। पिताजी भी गंभीर हो गए। प्रश्न-भरी दृष्टि से पंडित जी की तरफ़ देखने लगे। तो पंडित जी बोले, ‘देखिए मैंने पूरी कुंडली का बहुत ही ध्यान से समग्र अध्ययन किया है। जो समझ पाया हूँ उसके अनुसार पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि आपके ऊपर शेषनाग कालसर्प योगका प्रचंड प्रभाव है। 

मैं निःसंकोच यह मानता हूँ कि बारहों कालसर्प योगों में यह सबसे विनाशकारी योग है। इसका प्रभाव जातक की संतानों पर भी पड़ता है। विशेष रूप से छोटे पुत्र पर। उनके जीवन की भी ख़ुशियाँ नष्ट हो जाती हैं। जबकि स्वयं उसका जीवन भीषण संकट में होता है। कुंडली के हिसाब से आपके जीवन का यह जो साल चल रहा है, यह इस योग की दृष्टि से सबसे ज़्यादा प्रभावित वर्ष है।’ 

ज्योतिषाचार्य जी का यह कहना था कि अम्मा जी रो पड़ीं। और ऐसी हालत में जो होता है वही हुआ, अम्मा हाथ जोड़कर बोलीं, ‘पंडित जी जो भी उपाय हो वह करिए। जैसे भी हो इस अनिष्ट से बचाइए।लगे हाथ शेषनाग कालसर्प योगके अनिष्ट से बचने के लिए यज्ञ करवाना सुनिश्चित हो गया। आनन-फोनन में तैयारी की गई। यज्ञ ज्योतिषाचार्य पंडित जी ने अपनी टीम के साथ आकर पूरा किया। डेढ़ लाख रुपए का खर्चा आया। फिर भी पिता-अम्मा और घर के अन्य सदस्यों के मन से भय नहीं गया। 

अम्मा का हर क्षण पिताजी के जीवन को लेकर अनिष्ट की आशंका से काँपता ही बीतता था। लेकिन उस वर्ष कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ तो अम्मा-पिताजी सहित सभी के मन से भय का प्रेशर कम हो गया। मगर यह हल्कापन बस कुछ ही दिन रहा। अगले वर्ष में प्रवेश किए महीना भर भी ना बीता था कि पिताजी ऑफ़िस के किसी काम से अचानक ही भुसावल गए। लौटते समय किसी ज़हर-खुरान गिरोह के शिकार बन गए। अम्मा को एकदम बाद में बताया गया जब पिताजी का पार्थिव शरीर लेकर बड़े भाई घर पहुँचे। 

अम्मा बदहवास हो गईं। पछाड़ खा-खा कर गिरतीं। बेहोश हो जातीं। पूरे घर का यही हाल था। दरो-दिवार लॉन के पेड़-पौधों से लेकर पापा के प्यारे कुत्ते चाऊ तक का। मगर बीतता है हर क्षण तो यह भी बीत गया। सब अतीत बन गया। मित्रों इसके अलावा जो रह गया वह पहले सा ना होकर तेज़ी से बदलता चला गया। 

पिताजी की जगह बड़े भाई नौकरी वाले बने। अम्मा ने पूरी ताक़त से अपने होशो-हवास क़ायम किए, रात-दिन एक करके दोनों बहनों की, फिर बड़े भाई की भी शादी करवा दी। इतना सब कुछ बदला लेकिन ज्योतिषाचार्य जी की बताई बातों के भय का घटा-टोप कुहासा नहीं छँटा। एक दिन भैया-भाभी अपने बच्चों सहित बड़ी बहन के यहाँ गए थे। उनके बच्चे का मुंडन था। मैं घर पर ही रुका था। क्योंकि अम्मा की तबीयत ख़राब थी। उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकते थे। 

बहन-बहनोई ने मुंडन एक मंदिर में करवाने के बाद घर पर ही पार्टी दी थी। छोटी बहन भी परिवार के साथ वहीं थी। फोन पर उससे मैंने बड़ी देर तक बात की थी। वहाँ सब पार्टी में व्यस्त थे, कि तभी अम्मा की तबीयत अचानक ख़राब हो गई। वह साँस नहीं ले पा रही थीं। मुँह से अजीब सी आवाज़ निकल रही थी। मैंने पड़ोसी को बुलाया, किसी को कुछ समझ में नहीं आया। 

घबराकर मैंने भैया की कार निकाली। नज़दीक के ही एक डॉक्टर के पास ले गया। उसने अम्मा को एक बड़े हॉस्पिटल के लिए रेफ़र कर दिया। वहाँ गया तो संयोग से डॉक्टर जल्दी मिल गए। लेकिन उन्होंने देखते ही कह दिया कि, ‘बहुत देर हो चुकी है। यह अब नहीं रहीं।मैं स्तब्ध अम्मा को देखता रह गया। डॉक्टर ने ख़ुद अपने हाथ से अम्मा की साड़ी का आँचल उठाकर उनके चेहरे को ढँक दिया। मेरे कंधे को हल्के से थपथपाया और आगे बढ़ गए। अब पड़ोसी आगे आए। मुझे ढाढ़स बँधाने लगे। मुझसे भाई-बहनों, सभी को फोन करने के लिए कहा। लेकिन मैंने सोचा अभी तो पार्टी वहाँ पूरे चरम पर होगी। सब ख़ुश होंगे, खा-पी रहे होंगे। ऐसे में उन पर यह वज्रपात करना समझदारी नहीं है। 

अब जो भी होना है सब अगले दिन ही होना है। सूचना मिलने पर सभी चार-पाँच घंटे में आ ही जाएँगे। यह सोचकर मैं गाड़ी का इंतज़ाम कर अम्मा को घर ले आया। पड़ोसी बड़ी मदद कर रहे थे। मेरी आँखों में आँसू बिल्कुल नहीं थे। घर पहुँचने पर और बहुत से पड़ोसी भी मदद को आ खड़े हुए। बर्फ़ सहित अन्य जो कुछ ज़रूरी सामान था, सब आ गया। रात क़रीब बारह बजे मैंने भाई-बहनों अन्य सारे रिश्तेदारों को फोन करके सब से कहा कि अंतिम साँसें चल रही हैं, बस जितनी जल्दी हो सके आ जाएँ। 

अगले दिन घाट पर अंतिम संस्कार करके लौटने पर मुझे घर में फिर वही सन्नाटा, फिर वही उदासी दिखी हर तरफ़ जो पिताजी के जाने के बाद तारी थी। इस बार एक और बात थी जो मुझे भीतर तक झकझोर रही थी। वह यह कि पिताजी के बाद अम्मा थीं। मुझे घर, घर लग रहा था। लेकिन अम्मा जी के बाद ऐसा एहसास हो रहा था कि जैसे घर, घर ही नहीं रह गया है। बस दीवारें, छत, दरवाज़े ही हैं। जो हर तरफ़ से घेरे हुए हैं। 

इन सब से मनहूसियत ऐसे निकलती दिख रही थी कि कुछ घंटे पहले तक जिस मकान में मुझे एक जीवंतता नज़र आती थी, लगता था जैसे इसमें भी आत्मा है। यह भी सजीव है। उसी में अब ऐसा लग रहा था कि जैसे अम्मा के साथ घर की भी आत्मा चली गई है। जीवंतता ख़त्म हो गई है। एकदम भुतहा मकान, मनहूसियत, साँय-साँय करतीं दरो-दिवार। मुझे लगा जैसे मैं भी इन्हीं की तरह मनहूस दरो-दिवार होता जा रहा हूँ। मुझ में भी लोग हर तरफ़ मनहूसियत, साँय-साँय करतीं आवाज़ महसूस कर रहे हैं। दूर भाग रहे हैं। रास्ता बदल रहे हैं। दो हफ़्ता पूरा होते-होते घर सन्नाटे के अथाह समुद्र की तलहटी में जा डूबा। 

अम्मा के जाने के तीन हफ़्ते बाद ही पापा का प्रिय चाऊ भी चल बसा। उस बेजुबान जानवर ने अम्मा के जाने के बाद ही खाना-पीना छोड़ दिया था। इस ओर मेरे सहित सबका ध्यान जब-तक गया तब-तक वह चल बसा था। उससे एक गहरा लगाव परिवार के हर सदस्य को था। यह मेरे लिए एक और झटके से कम नहीं था। 

मगर जो निर्णायक झटका मैंने महसूस किया वह तो महीने भर बाद उन्हीं कालसर्पवाले ज्योतिषाचार्य जी के आने के बाद लगा। वह भाई-भाभी के साथ उनके कमरे में लंबा समय बिता कर गए तो उसके बाद ही मैंने महसूस किया कि भाई-भाभी एकदम बदले हुए हैं। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरी छाया से ही दूर भाग रहे हैं। बच्चों का मुझ तक आना ही एकदम बंद हो गया। दो-तीन दिन बीतते-बीतते वातावरण इतना भयानक, इतना तनावपूर्ण हो गया कि मुझे लगा मानो मेरा रोम-रोम विदीर्ण हो रहा है। 

लेकिन फिर सोचा एक कोशिश करूँ कि घर में व्याप्त यह अथाह तनाव ख़त्म हो जाए। छोटा हूँ तो क्या? कुछ कामों की पहल छोटों को भी कर लेनी चाहिए। मगर मेरे सारे प्रयास विफल रहे। भाई साहब, भाभी हज़ारों कोशिशों के बाद भी खुलकर नहीं बोले। मैं साफ़ समझ गया कि कालसर्पयोग की छाया मुझ पर भी कहीं पड़ रही है। यह अम्मा के समय ही मालूम हो चुका था। लेकिन कर्मकांड के लिए उनके पास लाखों रुपए नहीं थे। भाई झमेले में पड़ना नहीं चाहते थे तो अम्मा अंदर ही अंदर घुटती रहीं। कभी-कभी मन को यह दिलासा भी दे लेतीं थीं कि कराया तो था यज्ञ। कहाँ बचा उनका सुहाग। 

अपनी विवशताओं के चलते वह भीतर ही भीतर घुल रही थीं। यह सारी बातें और विस्तार से मुझे दोनों बहनों से मालूम हुईं थीं, जब घर के तनाव को ख़त्म करने में असफल होने, अम्मा के ब्रह्मलीन होने के कुछ दिन बाद मैं बड़ी बहन के यहाँ मदद के लिए पहुँचा था। 

हालाँकि इन बातों को जानने के बाद मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। क्योंकि मेरे विचार में यह सब बातें बस बातें ही हैं। लेकिन दूसरी बात जिसका स्पष्ट अनुभव मैं कर रहा था उसने मुझे हिला कर रख दिया। मुझे साफ़ दिखा कि भाई-भाभी की तरह बहन-बहनोई भी मेरे पहुँचने से आक्रांत हैं। जैसे कह रहे हों कि अरे यह क्यों आ गया। यह बात मैं घंटे भर में समझ गया। मुझे वहाँ कहीं और जाने का कोई भी साधन मिल जाता या मुझे पता हो जाता तो मैं चल देता। एक तो वहाँ के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, दूसरे पैसे भी ज़्यादा नहीं थे। 

उनके यहाँ से रेलवे, बस स्टेशन क़रीब-क़रीब बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर थे। और अँधेरा होने के बाद अपने साधन, अपने रिस्क पर ही जाया जा सकता था। वह हज़ारीबाग का एक नक्सल प्रभावित एरिया है। तो मजबूरी में मुझे रात वहीं बितानी पड़ी। मजबूरी ही में बहन को मुझे रात भर के लिए शरण देनी पड़ी। 

चिंता उलझन के कारण मैं बहुत देर रात तक जागता रहा। सोचता रहा कि ज्योतिषाचार्य जी के कालसर्प योगके गुल्ली-डंडा खेल ने क्या मुझे घर वालों के बीच अभिशप्त प्राणी के रूप में स्थापित कर दिया है। जिसकी छाया से भी सब दूर भाग रहे हैं। पूरी तरह छुटकारा पाना चाहते हैं। डरते हैं। ऐसे में क्या मुझे ख़ुद ही इन सब से दूर चला जाना चाहिए। त्याग देना चाहिए हमेशा के लिए। 

अगले दिन सवेरे नौ बजे तैयार होकर मैं बहन को प्रणाम कर चल दिया। हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता इतनी फ़ॉर्मेलिटी के साथ मिला कि मन में आया कि उसे हाथ ना लगाऊँ, प्रणाम कर चल दूँ। लेकिन मैं बहन को कोई कष्ट नहीं देना चाहता था। तो कहने भर को थोड़ा सा खा-पी कर चल दिया। अपनी पूर्वांचल की गँवई भाषा में मुँह जुठार कर चल दिया। 

बहन ने कहने के लिए भी यह नहीं कहा कि रुको, खाना बना दूँ, खा कर जाना। यह तक नहीं कहा दोनों लोगों ने कि इलाक़ा सुरक्षित नहीं है। थोड़ा और दिन चढ़े तब जाना। आश्चर्य तो यह कि अपने बच्चों को एक बार बुलाया तक नहीं कि मामा जा रहा है मिल लो। मैंने भी नाम नहीं लिया कि क्यों उन्हें धर्म-संकट में डालूँ। यही मामा जब एक बार पहले आया था तो ऐसी ख़ातिरदारी हुई थी कि घर वापस जाने का मन ही नहीं कर रहा था और आज . . .

मैं क़रीब तीन किलोमीटर तक पैदल चला तब जाकर मुझे स्टेशन तक जाने के लिए एक बस मिली। जितनी देर मैं पैदल चला उतनी देर मेरी अश्रुधारा भी चलती रही। बस यही सोच-सोच कर कि पापा-अम्मा मुझे इतनी जल्दी छोड़कर क्यों चले गए। किसके सहारे छोड़ गए। लेकिन मैं किसी हालत में यह नहीं चाहता था, कि मेरे आँसू किसी और की आँखों को दिखे, तो बस के आते ही मैं एकदम शांत पत्थर सा बन गया। बस में ही मैंने सोचा कि लगे हाथ रांची वाली बहन के यहाँ भी हो लें। देख लें कि उनके लिए भी मैं अभिशप्त व्यक्ति हूँ या कि वह मुझे अभी भी अपना वही प्रिय भाई मानती हैं। 

मगर वाह रे मेरा भाग्य कहें या अपने परिजन की मूढ़ता कि, ‘कालसर्पयोग की प्रेत-छाया मुझ से पहले वहाँ पहुँच गई थी। उन्होंने भी अपने बच्चे को मेरे पास तक नहीं आने दिया। यहाँ पहले वाली बहन के यहाँ से ज़्यादा भय आतंक देख कर मैं मुश्किल से बीस मिनट रुका। चाय के लिए साफ़ मना कर दिया। मुझे लगा इससे ज़्यादा समय तक रुकना पड़ेगा। जैसे बेमन से पानी दिया गया था वैसे ही बेमन से एक बिस्कुट खा कर पानी पिया और ज़रूरी काम का बहाना बना कर चल दिया। 

किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि, भैया अभी तुम ऐसा कौन सा काम करते हो कि यहाँ रांची में ज़रूरी काम आ गया। भाई-बहन सब के व्यवहार से मन इतना टूट गया, इतना गुस्से से भर गया सब को लेकर, कि मैंने सोचा कि जब-सब के लिए मैं एक अभिशप्त व्यक्ति हूँ, मेरी छाया से भी घृणा है सबको, तो ठीक है, अभी से ही सारे रिश्ते-नाते ख़त्म। घर पर एकदम अलग रहूँगा। किसी से भी संबंध नहीं रखूँगा। फिर सोचा एक ही घर में रहकर यह संभव नहीं है। इससे भाई-भाभी सब हमेशा आतंकित रहेंगे। आश्चर्य नहीं कि इसके कारण कभी वह मुझे घर से ही निकाल दें। 

हालाँकि मकान तो पापा ने बनवाया है, लेकिन फिर भी क्या ठिकाना। भयभीत भैया कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी रास्ता निकाल सकते हैं। यह सोच कर मैंने सोचा बाबा के यहाँ गाँव चलता हूँ। पिताजी के हिस्से की कुछ प्रॉपर्टी तो अब भी है वहाँ। चाचा से कहूँगा कि मेरे रहने और किसी काम-धंधे की कोई व्यवस्था कर दें। लेकिन बाबा के यहाँ गोरखपुर तक जाने के लिए मेरे पास पूरे पैसे नहीं थे। 

सारी उलझनों, जोड़-घटाने के बाद यह सोचकर बिना टिकट ही एक ट्रेन की जनरल बोगी में भीड़ में धँस कर बैठ गया कि टीटी देख नहीं पाएगा। बचा रहूँगा। और देख लेगा तो जो होगा देखा जाएगा। ट्रेन में बैठने से पहले जो थोड़े बहुत पैसे थे उससे एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में खाना खा लिया। पिछले दो दिन से ठीक से खाना नहीं खाया था। भूख के मारे आँतें ऐंठ रही थीं। ख़ाली पेट पानी भी नहीं पिया जा रहा था। 

मगर सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े। पिताजी इसी के समानांतर ख़ुद कही एक कहावत बोलते थे कि, ‘सिलेंडर ख़त्म होते ही मेहमान पधारे।तो यही हुआ मेरे साथ। गोरखपुर से कुछ स्टेशन पहले ही मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गई। धर लिए गए। एक-आध दर्जन नहीं क़रीब चार दर्जन लोग धरे गए थे। जिसे मैं एक्सप्रेस ट्रेन समझ कर बैठा था वह पैसेंजर थी। बाद में पता चला कि इस पैसेंजर ट्रेन में अक़्सर ऐसी चेकिंग होती रहती है। मगर पता नहीं माता-पिता की या कि भगवान की कृपा रही कि जीआरपी वालों ने नाबालिग़ लड़कों को डाँट-डाँट कर भगा दिया। 

मेरा आधार कार्ड देख कर उसने कहा, ‘देखने में तो ज़्यादा लगते हो।मैंने उनसे झूठ बोला कि आते समय रास्ते में कुछ लोगों ने मेरे पैसे छीन लिए। उसने सिर पर एक टीप मारते हुए कहा, ‘चल भाग यहाँ से। दोबारा ऐसी हरकत ना करना।उस छोटे से स्टेशन से बाहर निकला तो वह लड़का भी मिल गया जो मेरे साथ पकड़ा गया था। उसने टिकट इसलिए नहीं लिया था क्योंकि उसके पैसे सच में गिर गये थे। 

वह लखनऊ के एक व्यवसायी का बेटा था। अपने रिश्तेदार के यहाँ से लौट रहा था। एक स्टेशन पहले ही बैठा था कि बस सिलेंडर ख़त्म होते ही मेहमान आ पधारे।लेकिन वह बहुत प्रैक्टिकल और दबंग क़िस्म का था। मिनटों में उसने मुझसे बातचीत कर सब कुछ जान लिया और मुझे मुफ़्त में बड़ा ज्ञान दिया। कहा कि, ‘जब तुम्हारे भाई-बहनों ने तुम्हें त्याग दिया है तो चाचा कहाँ रहने देंगे। वह तो पहचानेंगे भी नहीं।उसने एकदम सही समय पर एकदम सही बात कही थी। 

यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया कि अब क्या करूँ। वापस भाई के पास जाना पड़ेगा। लेकिन उसने बहुत समझाया। अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी। अपने साथ चलने की सलाह दी। अपने इस हम-उम्र मार्गदर्शक की सलाह पर मैं उसके साथ लखनऊ चल दिया। एक बार फिर से बिना टिकट ही। लेकिन इस बार मैं सुरक्षित मार्गदर्शक के घर पहुँच गया। 

मार्गदर्शक दक्षेस के माँ-बाप, भाई-बहन सब ने दक्षेस का दोस्त समझकर मेरा स्वागत किया। खिलाया-पिलाया भी। अगले दिन मैंने उससे कहा, ‘यार ऐसे कितने दिन चलेगा। तुम्हारे घर में सही बात पता चलने पर इसके पहले कि कोई नाराज़ होने लगे। मेरे लिए कुछ काम बताओ। मैं कॉन्वेंट एजुकेटेड हूँ। इंटर का एग्ज़ाम अचानक आई मुसीबतों के कारण नहीं दे पाया। ट्यूशन वग़ैरह ही कहीं दिलाओ।’ 

उसने कहा, ‘एक-दो दिन रुको। मैं फ़ादर से बात करके कुछ करता हूँ। ट्यूशन वग़ैरह में कुछ नहीं रखा है। वैसे भी उनसे कोई बात छिपाकर मैं आगे नहीं बढ़ता। वह तुम्हारे लिए ज़रूर कुछ करेंगे।लेकिन जब उसने बात की तो जो हुआ उसे यही कहेंगे कि जो हुआ बस ठीक ही हुआ। उसके फ़ादर ने साफ़-साफ़ बताया कि, ‘मैं कठिन स्थितियों से घिरा हुआ हूँ। नहीं तो पूरा ख़्याल रखता। पढ़ाई भी पूरी करवाता। मगर फिर भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे बेसहारा नहीं छोड़ूँगा। हाँ किसी काम को छोटा नहीं समझना, मन लगाकर करने को तैयार रहना।’ 

मेरी बातों को उन्होंने भरोसे लायक़ समझा और अपने एक बहुत ही पुराने कस्टमर सुनील मसीह से बात की। जो उनसे काफ़ी समय से एक भरोसेमंद आदमी देने के लिए कह रहे थे। लेकिन जब मिला तो उनको ऑटो रिक्शा चलाने के लिए एक ड्राइवर चाहिए था। मैं इसके लिए भी तैयार हो गया। लेकिन अंडरएज, ड्राइविंग लाइसेंस का ना होना बड़ी बाधा बना। तो दक्षेस के पिता ने उनसे कहा, ‘यह बताता है कि इसे ड्राइविंग बहुत अच्छी आती है। टेस्ट ले लो, अगर ठीक हो तो चलवाओ। इसके 'आधार कार्ड '  के हिसाब से ग्यारह महीने की ही बात है।’ 

सुनील मसीह बहुत ही ज़्यादा कहने-सुनने समझाने के बाद तब माने जब दक्षेस के पिता ने पूरी ज़िम्मेदारी ले ली। इसके बावजूद उन्होंने घंटे भर एक बेहद बिज़ी रोड पर ड्राइव करवाया। ख़ुद पीछे बैठे रहे। मेरी ड्राइविंग से वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए, बड़े संकोच हिचक के साथ अगले दिन से ड्राइव करने के लिए ऑटो सौंपा। रोज़ बारह घंटे चला कर मुझे उन्हें पाँच सौ रुपये कोटा देना था। बाक़ी कमाई मेरी थी। मगर पहले ही दिन घाटा हुआ। मैंने दक्षेस से दो सौ रुपये उधार लेकर कोटा पूरा किया। मगर धीरे-धीरे गाड़ी लाइन पर आ गई। 

सुनील जिन्हें मैं अंकल कहता था, जल्दी ही मुझ पर पूरा भरोसा करने लगे। अपने परिवार को भी कहीं जाने-आने के लिए मेरे साथ ही भेजने लगे। चार महीने बीतते-बीतते अपने ही घर में एक कमरा किराए पर दे दिया। उनका उद्देश्य था कि वह मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा काम ले सकें। वह सफल भी हुए। असल में दक्षेस के यहाँ से मुझे इसलिए भी हटना था क्योंकि उनका परिवार बड़ा था। इसलिए उनका बड़ा मकान होते हुए भी छोटा पड़ता था। मैं सुनील अंकल का ऑटो ड्राइवर से लेकर घरेलू नौकर, सहायक सब बन गया। सामान वग़ैरह भी लाने लगा। मैं खाना बनाने में अपना समय ना बर्बाद करूँ इसलिए मेरा खाना भी वह अपने यहाँ बनवाने लगे। 

उनके परिवार में मैं इस तरह मिक्स हो गया कि बताने पर ही कोई यह समझ सकता था कि मैं परिवार का सदस्य नहीं हूँ। नौकर हूँ। सुनील अंकल मुझसे ख़ुश रहते और दिन में चौदह-पन्द्रह घंटे शराब पीकर मस्त रहते। पूरा मसीह हाउस मेरे भरोसे छोड़ कर वह पूरी तरह निश्चिंत हो गए। इस मसीह हाउस ने मुझे जीवन जीने, आगे बढ़ने का आधार दिया। साथ ही मुझे वह बनने के लिए भी उद्वेलित किया जो मैं आज हूँ। मुझे जीने हेतु जो आधार दिया उस आधार ऑटो को त्यागने के लिए भी उद्वेलित किया। 

इसके लिए ज़िम्मेदार उनके यहाँ हर डेढ़-दो महीने के अंतराल पर आने वाला एक मेहमान था। वह जब आता तो घर में कई और ऐसे लोगों का आना-जाना बढ़ जाता जो किसी चर्च, किसी कॉन्वेंट के लगते। मेरी शिक्षा मिशनरी के कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी तो मुझे यह सब जल्दी समझ में आ जाता है। जब वह आता तो मेरा काम दुगना बढ़ जाता और उस दिन की कमाई शून्य हो जाती थी। 

पूरे शहर में उसी को लेकर जाना पड़ता। अंकल तब कोटा भी नहीं लेते थे। वह ज़्यादातर लखनऊ के कई प्रमुख चर्चों में जाता था। वह जब भी मिलते तो मुझे ईसाई धर्म की महानता के बारे में ख़ूब बताते। उनके अनुसार पृथ्वी पर वही एक धर्म है जिसके रास्ते पर चलकर जीवन की सारी ख़ुशियाँ पाई जा सकती हैं। सिर्फ़ उनके प्रभु यीशु की शरण में जाकर ही महान दयालु गॉड की कृपा मिलती है। वह इतना दयालु है कि उसकी शरण में जाते ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जीवन में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ बरसती हैं। 

जब उनको लगा कि मैं उनकी बातों में रुचि लेने लगा हूँ तो मुझे बड़े गिफ़्ट और पैसे भी देने लगे। एक बार वह केवल दो दिन के लिए आए। साथ में एक अँग्रेज़ दंपती भी आया, जो ब्रिटेन से था। बेहद मृदुभाषी और सरल स्वभाव का वह युवा दंपति मुझसे चार साल ही बड़ा था। अब तक मैंने भी शादी कर ली थी। अब अंकल सुनील मसीह मेरे ससुर बन चुके थे। 

दरअसल उनके यहाँ पहुँचने के लगभग डेढ़ साल बाद मुझे एहसास हुआ कि उनकी बेटी आहना मेरे क़रीब आती जा रही है। थोड़ा सा ध्यान दिया इस तरफ़ तो पाया कि अंकल-आंटी दोनों ही बेटी मेरे साथ ज़्यादा समय तक रहे इसके लिए अवसर उपलब्ध कराने के प्रयास में लगे रहते हैं। जब-तक गहराई से समझूँ तब-तक बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी, कि एक दिन अंकल ने मुझे एवं कुछ और लोगों को बुलाकर चर्च में आहना के साथ मेरी शादी करवा दी। यह दंपती जब आया था तब मेरी शादी को कुछ ही महीने हुए थे। संयोग से उस दंपति की शादी भी इतने ही समय पहले हुई थी। 

अब मैं परिवार के सम्मानित सदस्य के तौर पर सब से मिल रहा था। बेहद हँसमुख मिलनसार मिलर दंपती हमारे साथ पहले दिन से ही बहुत घुल-मिल गए थे। आने के अगले दिन मिलर दंपती को घुमाने की ज़िम्मेदारी मेरी थी। और बार-बार आने वाले मिस्टर कॉर्टर अकेले ही किसी ज़रूरी काम से जा रहा हूँ बोलकर निकल गए थे किसी चर्च को। और ससुर जी बोतल लेकर पड़े रहे घर पर। 

मैंने पहले दिन मिलर दंपती को लखनऊ में बने नए दर्शनीय स्थलों पर घुमाया। बजाए पुराने खंडहरों में घुमाने के उन्हें लोहिया पार्क, स्वर्ण जयंती पार्क, अंबेडकर उद्यान, जनेश्वर मिश्र पार्क ले गया। अपने शहर का प्राचीन इतिहास बताया। अँग्रेज़ों, वामियों द्वारा रचित भ्रामक बातें नहीं। यह नवाबों का शहर रहा है यह भ्रामक बात मैंने नहीं बताई। मैंने साफ़-साफ़ सच कहा कि त्रेता युग में भगवान राम हुए थे। दस हज़ार साल पहले जब वह इस धरती पर अवतरित हुए तब भी यह शहर था। 

भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यह शहर भेंट कर दिया था। तब से यह लक्ष्मणपुर, लखनपुर, लाखनपुर नाम से जाना जाता था। कालांतर में लखनऊ हो गया। लेकिन इन सबके पहले इसका क्या नाम था यह मैं नहीं जानता। वह किसी भ्रम में ना रहे इसलिए मैंने उन्हें यह भी साफ़-साफ़ बता दिया कि दुनिया में इस सबसे ज़्यादा प्राचीन देश भारत की संस्कृति उसके गौरव को नष्ट करने के लिए ग़ुलामी के समय में इसके इतिहास को भी कुटिलतापूर्वक बदलने का प्रयास किया गया कि इससे पहले इसका कोई इतिहास ही नहीं था। 

यहाँ नवाबों का शासन सत्तरह सौ पचहत्तर से अट्ठारह सौ पचास तक ही रहा, उसके बाद उन्नीस सौ सैंतालीस तक ब्रिटिश शासन रहा और प्रचारित यह किया गया कि लखनऊ नवाबों का शहर है। लक्ष्मणपुर या लक्ष्मण की चर्चा तक नहीं होने दी जाती। मिलर दंपती को मैं लक्ष्मण टीला भी ले गया। जहाँ दिखाया कि कैसे ग़ुलामी के समय इसके स्वरूप को बदल दिया गया। दंपती यह जानकर बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि यह प्राचीन शहर ईसा से भी हज़ारों वर्ष पहले बस गया था। 

राम एक ऐसे राजा थे जो हज़ारों किलोमीटर दूर लंका तक विजय पताका फहरा आए थे। समुद्र पर लंबा पुल बनवाया था। जिसके अवशेष समुद्र में आज भी हैं। इसकी पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी कर चुका है। अत्याधुनिक तकनीकों के बावजूद समुद्र की प्रलयंकारी लहरों के कारण उस पर पुल बनाना करिश्में से कम आज भी नहीं माना जाता। 

मेरी पत्नी बार-बार रेजीडेंसी चलने को कह रही थी। लेकिन मैं बार-बार नज़रअंदाज़ करता रहा। जब देर शाम को हम घूम-घाम कर लौटे तो मिलर दंपती बहुत थके हुए लग रहे थे। आहना उनसे भी ज़्यादा। तमाम चर्चों, कॉन्वेंटों में चक्कर लगाकर मिस्टर कॉर्टर देर रात लौटे। उन्हें मैं चर्च-मैन कहता था। आगे आप उन्हें इसी नाम से जानेंगे। 

खाने के दौरान ख़ूब बातें हुईं। जो पूरी तरह मिलर दंपती के घूमने-फिरने पर केंद्रित रहीं। यह सारी बातें वही कर रहे थे। वह दोनों पति-पत्नी बार-बार मेरी जानकारियों की तारीफ़ करना नहीं भूल रहे थे। उनकी तारीफ़ पर मुझे बार-बार पिताजी याद आते, जिनसे मैंने यह सब जाना-समझा था। मैंने एक बात मार्क की कि मेरी और मिस्टर मिलर की बातें चर्च-मैन और मेरी पत्नी आहना और सास को अच्छी नहीं लग रही थीं। ससुर जी के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। क्योंकि तब वह इन सब बातों से बहुत ऊपर उठे हुए व्यक्ति हुआ करते थे। उस समय वह कभी इतने होशो-हवास में होते ही नहीं थे कि यह क्या, ऐसी कोई भी बात उनकी समझ में आती, उसको वह कुछ समझ पाते। 

खाने के दौरान ही अगले दिन घूमने का प्रोग्राम तय हुआ। अगुआई चर्च-मैन करेंगे यह उसने स्वयं ही घोषित कर दिया। जब उसने यह कहा तभी मैंने सोचा जब यह जाएगा तो मैं नहीं जाऊँगा। एकमात्र वज़ह यह थी कि हम दोनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे। यह हम दोनों अच्छी तरह समझते थे। लेकिन अन्य किसी पर या ज़ाहिर नहीं होने देते थे। सबके सामने ख़ुशमिज़ाज मित्रों की तरह ही पेश आते थे। मुझे दो कारणों से वह पसंद नहीं था, पहला कि वो हिंदुस्तानियों को घृणा की दृष्टि से देखता था। दूसरा वह हद दर्जे का कनिंग आदमी था। 

वह मुझसे क्यों चिढ़ता था यह मैं नहीं जानता। अनुमान लगा सकता हूँ कि मैं प्राचीन भारतीय संस्कृति, इतिहास की सराहना करता था तो वह सुन नहीं पाता था। प्रत्युत्तर में अंग्रेज़ी संस्कृति, अंग्रेज़ी साम्राज्य की तारीफ़ों के पुल बाँध कर कहता, ‘अँग्रेज़ों ने दुनिया के इतने बड़े भू-भाग पर राज किया है कि उसके राज्य में सूर्यास्त ही नहीं होता था।अपने को ऊँचा रखने के लिए हम दोनों में एक मूक प्रतिस्पर्धा चलती थी जो शायद ही बाक़ी समझ पाते थे। 

अगले दिन मैंने सीधे मना करना उचित नहीं समझा, कि यह अशिष्टता होगी, आतिथ्य भाव का उल्लंघन होगा। मैंने ससुर जी को आगे करने की सोचकर उनसे कहा, 'ऑटो ना चलाने से नुक़सान हो रहा है। बाक़ी लोग तो जा ही रहे हैं। मुझे ऑटो लेकर निकलने दीजिए।' लेकिन बात उलटी पड़ गई, वह बोले, ‘यह करने से मेहमान नाराज़ हो सकते हैं, दूसरे टैक्सी करने से ख़र्चा ज़्यादा आएगा।अन्ततः मुझे ही जाना पड़ा। एक पिद्दी से ऑटो में पाँच लोग बैठे। मैंने अपना ग़ुस्सा निकाला चर्च-मैन को आगे बैठा कर। जहाँ सिर्फ़ ड्राइवर की सीट होती है, दूसरा कोई बस किसी तरह बैठ सकता है। पहले आहना के चलने का प्रोग्राम नहीं था। लेकिन मिलर दंपती की ज़िद के चलते उसे चलना पड़ा। जिससे बैठने की जगह की समस्या पैदा हुई। 

घूमने के लिए कहाँ चलना है इसको लेकर मैंने कोई पहल नहीं की। मैंने सब चर्च-मैन पर ही छोड़ दिया, कि जहाँ कहेगा वहाँ चल दूँगा। मेरा यह अघोषित असहयोग चर्च-मैन ने भाँप लिया। मैं जहाँ शहर के नए दर्शनीय स्थलों पर ले गया था वहीं उसने सीधे रेज़ीडेंसी चलने को कहा। 

रात खाने पर बातचीत के दौरान ही उसने इसका ज़िक्र किया था मिलर से। बोला था कि, ‘यहाँ जाना चाहिए था। यह ग्रेट ब्रिटिश एंपायर के लोगों के साथ हुए बर्बरतापूर्ण अत्याचार, उनके सामूहिक नरसंहार का स्थान है। जो यह बताता है कि यहाँ हमारे पूर्वजों को किस तरह घेर कर हिंदुस्तानियों ने क़त्ल किया था। हमें वहाँ चलकर अपने दो हज़ार पूर्वजों की कब्रों पर फूल चढ़ाकर प्रभु यीशु से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन सभी को स्वर्ग में स्थान प्रदान करें। जो "सिज ऑफ लखनऊ" (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के समय अँग्रेज़ रेज़ीडेंसी में छियासी दिन छिपे रहे। यह लंबी लड़ाई इतिहास में "सिज ऑफ़ लखनऊ" के नाम से जानी जाती है। जिसमें दो हज़ार अँग्रेज़ स्वतंत्रता सेनानियों के हाथों  युद्ध में मारे गए थे) के समय शहीद हो गए थे।मिलर दंपती आश्चर्य में पड़ गए कि डेढ़ सौ वर्ष से भी पहले उनके देश के लोग अपने एंपायर को बचाने के लिए यहाँ भी लड़े थे। 

चर्च-मैन के कहने और मिलर दंपती की अतिशय उत्सुकता के कारण मैं सब को लेकर रेज़ीडेंसी पहुँचा। वहाँ पहुँचने से पहले चर्च-मैन ने काफ़ी सारे फूल ले लिए थे। वह वहाँ बहुत बार जा चुका था। इसलिए उसे किसी गाइड की ज़रूरत नहीं थी। उसके पास वहाँ के चप्पे-चप्पे की सारी जानकारी थी। उसने एक-एक हिस्से को दिखाया। उनकी डिटेल्स बताईं। अठारह सौ सत्तावन के युद्ध का ऐसा वर्णन किया कि जैसे आँखों देखा वर्णन कर रहा हो। तैंतीस एकड़ में फैली रेज़ीडेंसी के अवशेषों पर गोलियों और तोपों के गोलों के अनगिनत निशानों को दिखाया। लॉन, फूलों की क्यारियों को मिलर दंपती मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे। 

चर्च-मैन सबसे आख़िर में वहाँ बने चर्च के अवशेषों के पास लेकर गया। उससे लगे बड़े से कब्रिस्तान की ओर देख कर भावुक हो गया। कहा, ‘तुम लोग यह क़ब्रें देख रहे हो। इन्हें जल्दी गिन नहीं पाओगे। यह क़रीब दो हज़ार हैं। इनमें हमारे पूर्वज आज भी सो रहे हैं। ये हमारे वो जांबाज़ शहीद हैं जो दुश्मनों से छियासी दिनों तक बहादुरी से लड़ते रहे। शहीद होते रहे। रसद, हथियारों की आमद ना होने के कारण वो हारे नहीं, हार मानने को तैयार नहीं हुए। शहीद होना स्वीकार किया। इनमें सैकड़ों बच्चे, महिलाएँ हैं। आओ, मैं तुम्हें उस महान सेनानायक से मिलवाता हूँ जो दुनिया के महान योद्धाओं में से एक था।’ 

हम सब उसके पीछे-पीछे चलते रहे। मैं अनमना सा उसके साथ लगा रहा। मगर उसकी बातों से मुझ में भी उत्सुकता बनी हुई थी। इतनी बड़ी संख्या में क़ब्रों को देखकर मुझे अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर गर्व हो रहा था, कि जिनके साम्राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था उन्हें हमारे जांबाज़ों ने धूल चटाई थी। लेकिन दूर तक क़ब्रों को देखकर यह बात भी मन में आई कि यह सब अपने देश, अपनी मातृ-भूमि से हज़ारों किलोमीटर दूर यहाँ बेगाने देश में ना सो रहे होते, यदि इन्होंने दूसरे देशों को हड़पने का दुस्साहस ना किया होता। मेरे देशवासियों पर बर्बर अत्याचार ना किया होता। स्वतंत्रता सेनानियों ने वही किया जो उनका धर्म था। वह तो धर्म पथ पर थे। अधर्म पथ पर चलने वाले इन क़ब्रों में सो रहे हैं। क्या इन लोगों को परिणाम मालूम नहीं था। स्वतंत्रता सेनानियों में इन लोगों के  प्रति इतना गुस्सा था कि यदि ये आत्मसमर्पण कर देते तो भी जीवित न बचते । इनके अत्याचारों के कारण इनकी मृत्यु सुनिश्चित  थी ।

चर्च-मैन तमाम क़ब्रों को पार करता हुआ एक क़ब्र के पास जाकर ठहर गया। ध्यान से उसे देखता रहा। फिर जेब से रूमाल निकालकर क़ब्र पर पड़ी पत्तियों, धूल को साफ़ करके सिरहाने लगी नेम प्लेट को साफ़ किया। और सीधा खड़ा होकर सैल्यूट किया। फिर मिलर दंपती की तरफ़ मुख़ातिब हुए बिना नेम प्लेट की तरफ़ उँगली से इशारा करते हुए कहा, ‘तुम यह सब देख पा रहे हो ना। यह हैं ग्रेटेस्ट वॉरियर सर लॉरेंस। जो यहाँ शहीद हो गए। बहुत लड़ा उन्होंने। दुनिया भर में दुश्मनों को धूल चटाई और अब यहाँ सो रहे हैं। देखो यहाँ क्या लिखा है।’ 

चर्च-मैन के कहने पर मिस्टर मिलर ने सस्वर पढ़ा "यहाँ पर सत्ता का वो पुत्र दफ़न है जिसने अपनी ड्यूटी के लिए अपनी जान क़ुर्बान कर दी थी।" ‘तो मिस्टर मिलर ऐसे महान व्यक्ति थे सर लॉरेंस। इन लोगों के कारण हमारे राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था। लेकिन शायद आगे चल कर हम थोड़े ढीले पड़ गए। और महान लॉरेंस को यहाँ सोना पड़ा। एक मिनट मैं यहाँ लिखी लाइन के लिए कहूँगा "दफ़न है" की जगह लिखना चाहिए "सो रहा है"। ख़ैर मिस्टर मिलर हमें हार नहीं माननी चाहिए। 

एक वह समय था जब पूरा हिंदुस्तान हमारे इशारे पर चलता था। हम यहाँ के भाग्यविधाता थे। लेकिन समय ने हमारा साथ छोड़ा और हमें इसे आज़ाद करना पड़ा। लेकिन मैं मानता हूँ कि एक दिन यह फिर हमारा होगा। हम ही यहाँ के वास्तविक शासक होंगे। हो सकता है तुम हँसो मुझ पर। मुझे सिरफिरा समझो। संभव है तुम मन में हँस भी रहे हो। ऐसा है तो भी मुझे परवाह नहीं। क्योंकि मुझे आशा ही नहीं दृढ़ विश्वास है कि एक दिन ऐसा ही होगा। 

जब हमने सदियों पहले इस देश की धरती पर क़दम रखा था, तो हम एक मर्चेंट ही तो थे। तब किसने सोचा था कि हम दस-बीस साल नहीं दो सौ साल तक यहाँ शासन करेंगे। और एक बात बताऊँ कि हमने इस देश को आज़ाद नहीं किया है। हमने एक बिल के ज़रिए सिर्फ़ सत्ता हस्तांतरित की है। जैसे बिल के ज़रिए हस्तांतरित की है वैसे ही एक बिल के ज़रिए सत्ता हस्तांतरण निरस्त भी कर देंगे। हमारा हिंदुस्तान फिर से हमारे हाथ में होगा।’ 

चर्च-मैन की बातें सुनकर मिलर दंपती और मैं उसे आश्चर्य से देखते रह गए। आहना भी। कि यह क्या बात कर रहे हैं। वह हमारी भावना को समझ रहा था। तभी मिसेज मिलर ने कहा, ‘लेकिन अब ऐसे किसी बिल के पास करने का मतलब ही क्या? इंडिया संयुक्त राष्ट्र में है। पूरी दुनिया ने इसे संप्रभुता संपन्न देश का दर्जा दे रखा है। यह परमाणु शक्ति संपन्न देश है। हम ऐसा बिल पास करने की बात छोड़िए ला भी नहीं पाएँगे।’ 

मिसेज मिलर की बात पर चर्च-मैन ठठाकर हँसा, फिर बोला, ‘तुम लोग समझने की कोशिश करो। बहुत मामूली सी बात है, कि जिस प्रकार सत्ता हस्तांतरण पर मान्यता मिली, उसी प्रकार हस्तांतरित सत्ता को समाप्त करने पर मान्यता भी समाप्त हो जाएगी। ख़ैर इस पर हम बैठ कर बड़ी बहस करेंगे, अभी तो आओ, इधर आओ इस तरफ़ यहाँ देखो। इस क़ब्र पर क्या लिखा है।’ 

मिस्टर मिलर ने फिर पढ़ना शुरू किया, "रो मत मेरे बेटे मैं मरा नहीं हूँ, मैं यहाँ सो रहा हूँ।" चर्च-मैन लाइन पूरी होते ही बड़ी भावुकता से बोले, ‘सोचो, कल्पना करो कि कितना कष्ट पाया है यहाँ हमारे पूर्वजों ने। एक बेटे पर क्या बीती होगी जब उसने अपने हाथों से अपने पिता को यहाँ दफ़नाया होगा। अपने उस पिता को जिसकी गोद में वह बड़ा हुआ। जिसकी उँगली पकड़ कर वह पहली बार खड़ा हुआ, चलना सीखा। सोचो इस पिता की आत्मा को कितना कष्ट हुआ होगा। जब उसने अपने बेटे को भी शहीद होते और फिर यहाँ एक क़ब्र में चिर-निद्रा में सोते देखा होगा।’ 

चर्च-मैन बहुत भावुक, उत्तेजित हो रहा था। मिलर दंपती तटस्थ लग रहे थे। मिस्टर मिलर ने कहा, "हमें इतने बड़े ब्रिटिश एंपायर को खड़ा करने के लिए बड़ी क़ीमत तो चुकानी ही थी। जो हमने चुकाई। यह सच्चाई भी हमें माननी चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने भी यहाँ बड़ी संख्या में लोगों को ख़त्म किया था। इसीलिए यहाँ के लोगों में इतनी घृणा थी हमारे लिए कि उन्होंने बच्चों और महिलाओं को भी बचने का रास्ता नहीं दिया। 

अभी जलियाँवाला बाग़ कांड पर बड़ी चर्चा मीडिया में भी हुई थी। अपने जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग़ में निकलने के एक मात्र रास्ते पर ही खड़े होकर, गोलियों की बौछार करवा कर हज़ारों निर्दोष निहत्थे लोगों की हत्या करवा दी थी। उनके प्रति इसी से यहाँ के लोगों में इतनी ग़ुस्सा था कि ब्रिटेन में जाकर यहाँ के क्रांतिकारी उधम सिंह ने उन्हें मारने का प्रयास किया। लेकिन मिलते-जुलते नामों के कारण उधम सिंह धोखा खा गए और इस कांड के मास्टर माइंड तत्कालीन पंजाब के गवर्नर जनरल माइकल ओड्वॉयर को मार दिया। हमारे देश ने इतने वर्षों बाद ग़लती का अहसास किया है। इसीलिए पीएम ने जलियाँवाला बाग कांड के लिए अफ़सोस जताया। मैं समझता हूँ कि अपने देश को दो क़दम और आगे बढ़कर समग्र के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए थी।

मिस्टर मिलर की बातें चर्च-मैन को बहुत बुरी लगीं। उसने दबे स्वर में अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहा, ‘हमें अपने पूर्वजों के महान बलिदान का हृदय से सम्मान करना चाहिए। हम आज भी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं तो अपने इन्हीं महापुरुषों के बलिदानों के ही कारण। यहाँ हिंदुस्तान में उन्होंने जो कुछ किया, इस देश के लिए किया, यहाँ के लोगों की भलाई के लिए ही किया। यह सब लड़ते रहने वाले लोग थे। हमने इन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया था। बस इतनी सी बात है। 

यह भी कहता हूँ कि हमने सत्ता का हस्तांतरण ज़रूर किया लेकिन इन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास कभी भी बंद नहीं किया है। यह हर क्षण आज भी चल रहा है। और यह भी बता दूँ कि हम ही हैं जो इन्हें सही रास्ते पर ला सकते हैं। बिल लाकर इन्हें फिर से अपने झंडे तले लाने का प्रयास भले ही ना हो। इन्हें इस तरह अपने अधीन लाना उतना स्थायी ना हो। लेकिन एक दूसरे रास्ते से इन्हें अपने झंडे तले लाने के लिए हम निरंतर मज़बूती से आगे बढ़ रहे हैं। इस रास्ते से सफलता शत-प्रतिशत मिलनी है। और सदैव के लिए मिलनी है।‘ 

चर्च-मैन की बातों से इस बार मैं ख़ुद को तटस्थ नहीं रख सका। मिलर दंपती कुछ बोलें उसके पहले ही मैंने पूछ लिया कि उनका यह दूसरा रास्ता कौन सा है? इस पर चर्च-मैन ने मेरे कंधे को हल्के से थपथपाते हुए कहा, ‘बताता हूँ माय सन। देखो आज ज़माना बदल गया है। प्रत्यक्ष युद्ध के मैदान में किसी राष्ट्र को अपने झंडे तले नहीं ला सकते। आज राष्ट्र जीते नहीं जाते। क्योंकि जीत कभी भी स्थायी नहीं होती। आज राष्ट्रांतरण होता है। वह सदैव के लिए होता है। स्थायी होता है। 

किसी देश की जनता के साथ ही उस देश का अस्तित्व है। यदि उस देश की जनता ही अपनी संस्कृति, अपना धर्म त्याग कर दूसरे देश की संस्कृति, धर्म को मानने लगे, उसकी आस्था परिवर्तित हो जाए, तो यह बदलाव जनता द्वारा एक राष्ट्रांतरण है, उस दूसरे देश को जिसके धर्म, संस्कृति को उन्होंने अपनाया। इस तरह वो पहले जिस देश को, उसकी धर्म-संस्कृति को अपना मानते थे, उसका कोई नाम लेने वाला ही नहीं बचता। वह इतिहास के पन्नों में सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। यही तो हो रहा है दुनिया में। बहुत से देशों का राष्ट्रांतरण हो चुका है। वह प्रभु यीशु के होकर हमारे संगी साथी हैं। हमारी भुजाएँ हैं।’ 

चर्च-मैन को लगा कि मैं उनकी बात समझ नहीं पाया तो वह फिर बोले, ‘देखो मैं राष्ट्रांतरण के तुम्हें कुछ परफ़ेक्ट उदाहरण देता हूँ। पहला हिन्दुस्तान का ही लो। भारत के हिस्से को काट कर पाकिस्तान इसीलिए बनवाया जा सका क्योंकि उस क्षेत्र के हिंदुओं ने मुस्लिमों के प्रचार में आकर अपनी हज़ारों वर्ष पुरानी संस्कृति, धर्म बदल लिए। इस्लाम मानने लगे और पाकिस्तान बना लिया। तुम मेरी बात को और क्लीयर समझ सको इसलिए तुम्हें पर्शिया यानी ईरान का भी उदाहरण बताता हूँ। 

इतिहास बताता है कि ईरानी यानी आर्यों की पार्थियन, सोगदी, मिदी आदि शाखाएँ क़रीब दो हज़ार वर्ष पूर्व उत्तर एवं पूरब से वहाँ पहुँचीं। यहाँ के मूल लोगों के साथ एक नई संस्कृति बनी। कालांतर में परिवर्तन होते रहे। फिर यहाँ के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। यह शिया बहुल हो गया। और 1979 में इस्लामिक गणराज्य बन गया। पुराना सब समाप्त हो गया। अभी ज़्यादा वर्ष नहीं हुए उक्रेन का रूसी भाषा बाहुल्य क्षेत्र रूस में मिल गया। ऐसे ही जिन-जिन क्षेत्रों में, प्रदेशों में हमने लोगों को प्रभु यीशु के साथ जोड़ लिया है, वह क्षेत्र हमारी भुजाएँ बन गए हैं। हमारी यह भुजाएँ तेज़ी से बड़ी हो रही हैं। मज़बूत हो रही हैं। 

राष्ट्रांतरण का प्रभाव क्या होता है, इसका अनुमान इसी से लगा सकते हो कि यहाँ पूर्वोत्तर के जिन राज्यों का अंतरण हम करवा चुके हैं, उसे तुम राज्यांतरण कह सकते हो। वहाँ संविधान भी हमें बहुत सी छूट देने के लिए विवश है। एक तरफ़ यहाँ का संविधान गो-वध निषेध करता है, तो दूसरी तरफ़ अंतरण हो चुके क्षेत्रों में स्थानीय जनता के दबाव में छूट भी दी है।यह कहते हुए चर्च-मैन ठहाका लगाकर हँसा। इतना तेज़ की आस-पास के बहुत से पर्यटक मुड़-मुड़ कर उसे देखने लगे। 

मिलर दंपती और आहना भी उसके साथ हँसे जा रहे थे। मगर उसकी बातों का मर्म समझ कर मैं आश्चर्य में था, कि इतना बड़ा छल-कपट। धर्मांतरण के सहारे हिंदुस्तान को सिर्फ़ ग़ुलाम ही बनाने का प्रयास नहीं किया जा रहा है, बल्कि यहाँ तो उससे भी हज़ारों गुना ज़्यादा बढ़कर भयावह स्थिति है। यहाँ तो देश का अस्तित्व ही समाप्त किया जा रहा है। पूर्वोत्तर के तमाम क्षेत्रों में जिस तरह धर्मांतरण हो रहा है, जितना हो चुका है, उस हिसाब से तो इन नव-आक्रांताओं के पैर मज़बूती से जम चुके हैं। और हम देशवासी मस्त हैं। ख़ुद में खोए हुए हैं। बेखबर सोए हुए हैं। 

मुझे ही किस तरह शादी के समय अचानक ही ईसाई बना दिया गया। मैं इस बात की गंभीरता को समझ ही नहीं सका। खोया रहा, शादी की ख़ुशी में। उससे ज़्यादा कि अंकल का अहसान है। जबकि सही तो यह है कि हमने जी-तोड़ मेहनत करके उनका ऑटो ही नहीं, पूरा घर सँभाला हुआ है। अहसानमंद तो इन्हें मेरा होना चाहिए। मैं तो निरर्थक अहसानमंद हो ठगा गया। 

राष्ट्रांतरण की रफ़्तार और देशवासियों की मस्ती का आलम जो यही रहा तो तीन अधिकतम चार दशक में कंप्लीट राष्ट्रांतरण हो जाएगा। दुनिया की प्राचीनतम सनातन संस्कृति, सभ्यता वाले राष्ट्र का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। नामोनिशान ना रहेगा पर्शिया या फारस की तरह। यह सही ही तो कह रहा है कि इस देश का आज़ादी के वक़्त जो विभाजन हुआ वह राष्ट्रांतरण का ही तो परिणाम था। जहाँ अब सनातन संस्कृति, देश के अवशेष मात्र ही रह गए हैं। तो क्या काल के गाल में पृथ्वी की पहली सभ्यता-संस्कृति लुप्त हो जाएगी? अफ़गानिस्तान जहाँ पहले सनातन संस्कृति थी, आज वहाँ माइक्रोस्कोप लेकर ढूँढ़ने पर भी शायद ही उसके कोई अवशेष मिल पाएँ। तो... 

मेरे दिमाग में यह मंथन चलता रहा। और चर्च-मैन अपनी बातें कहता रहा। शाम होने तक वह वहीं बना रहा। फिर निकला और एक चर्च में ले गया। उसकी बातों में जोश, उत्साह, ख़ुशी सब समाई हुई थी। वह ख़ुश था कि वह संपूर्ण राष्ट्रांतरण के और क़रीब पहुँच गया है। जो ब्रिटिश एंपायर यहाँ डूबने के बाद पूरी दुनिया में डूब गया था, वह फिर यहीं अपनी नींव डाल चुका है। 

मैं बड़ी अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रहा था, कि इसकी बातों को कितनी गंभीरता से लूँ। यह जो कह रहा है क्या यह संभव है? मन में जितने प्रश्न उठ रहे थे, उनके जो उत्तर मुझे मिल पा रहे थे उनका एक ही निष्कर्ष था, कि इसकी बातें, इसके तर्क, तथ्य निराधार नहीं हैं। यह सही तो कह रहा है कि अँग्रेज़ व्यापारी बनकर आया तो दो सौ साल शासन किया। देश के टुकड़े करके गया और अब इस तरह आया तो . . .

घर लौटे तो देर हो चुकी थी। हम सब बहुत थकान महसूस कर रहे थे। आहना किचेन में जाना नहीं चाह रही थी और अकेले सास से यह सब हो पाना मुश्किल था। तो पहले मैंने ऑनलाइन खाने के लिए ऑर्डर किया। इन बड़ी कंपनियों ने मोहल्ला स्तर पर टिफ़िन सर्विस देने वालों का धंधा ही चौपट कर दिया है, नहीं तो आहना के साथ मैं इस धंधे में भी क़दम रखने वाला था। 

ऑर्डर करके सास को बताया तो उनके चेहरे पर आए भावों से लगा जैसे वह इसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। ससुर जी की अब तक उतर चुकी थी। चर्च-मैन से गप्पे लड़ाने में लग गए थे। मिलर दंपती भी। चर्च-मैन को अगले दिन आइज़ोल, मिजोरम के लिए निकलना था। वह सास-ससुर को भी ले जाना चाहता था लेकिन उन्होंने मना कर दिया। वास्तव में चर्च-मैन फ़ॉर्मेलिटी ही कर रहा था। वह अगले दिन चला गया। 

मिलर दंपती एक और दिन रुक कर हमारे आतिथ्य भाव का गुणगान करते रहे। दोनों कुल मिलाकर एक मिलनसार व्यक्ति लगे। उन्हें सनातन संस्कृति, धर्म के बारे में, अपने भारत के बारे में मैंने अपने भरसक बहुत कुछ बताने का प्रयास किया था। दंपती ने पूरी गंभीरता के साथ बातें सुनी भी थीं। और एक ख़ुलासा भी किया कि वह अपने एक रिलेटिव के बहुत बुलावे पर भारत आए हैं और अब उत्तराखंड जाएँगे। 

उनकी भारत यात्रा का ख़र्च भी वही वहन कर रहे हैं। उनके वह रिलेटिव एक बड़े व्यावसायी हैं। वह एक भारतीय योगी के शिष्य हैं। हर साल एक महीना योगी जी के आश्रम में बिताते हैं। उनके सान्निध्य में योग, ध्यान कर पुर्नउर्जस्वित होते हैं, अपने तनाव से मुक्ति पाते है। दो साल पहले ही दीक्षित होकर "टिम मे" से तेजेश्वरानंद हो गए हैं। 

मिलर दंपती ने हमसे भी चलने के लिए कई बार आग्रह किया। जाने की इच्छा आहना के सिवा किसी की नहीं थी। लेकिन चर्च-मैन की कुटिल, कलुषित बातों से मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी। अपने सनातन देश की सुरक्षा, अस्तित्व को लेकर बहुत सी बातें सोचते हुए मैं सपरिवार उनके साथ चल दिया। मन में उन योगी जी से मिलने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई थी कि आख़िर उनमें ऐसी कौन-सी योग्यता है कि हज़ारों किलोमीटर दूर देश के टिम मे तेजेश्वरानंद बन गए। उस देश का नागरिक जो हमारे देश को झूठ ही गँवारों सपेरों का देश कहते हुए दो सौ वर्षों तक हम पर राज करता रहा। और वहाँ आश्रम में मैंने जो कुछ देखा, जाना-समझा उसने मेरी आँखें खोल दीं। 

"कालसर्प" दोष के अभिशाप का जो डर मुझ में बैठा हुआ था, परेशान किए रहता था, उससे मैंने मुक्ति पा ली। चर्च-मैन की बातों से जो उलझन बनी हुई थी उसका भी समाधान ढूँढ़ लिया। बड़ी बात यह कि वहाँ ससुर जी ने स्वयं ही शराब हमेशा के लिए छोड़ देने की सौगंध ले ली। तेजेश्वरानंद के साथ ध्यान योग में लग गए। मैं उन्हें उनकी इच्छानुसार वहीं छोड़कर घर वापस आ गया। मेरे मन में लेकिन अपनी सनातन संस्कृति, देश के लिए एक योजना बनती-बिगड़ती रही। सास-ससुर वहाँ दो महीने रहे। इस बीच मैं वहाँ आहना के साथ चार बार आया-गया। दो महीने बाद सास-ससुर का कायाकल्प हो चुका था। 

शिवशंकर और शिवांसी होकर शुद्ध शाकाहारी, योग-ध्यान करने वाले बन गए थे। और मैं तरुण और आहना आराधना, मिलर दंपती सनातन संस्कृति स्वीकार कर महेश्वरानंद, पत्नी एलिना से सुदीक्षा बनकर वहाँ से लौटे। साथ ही योगी जी से यह ज्ञान भी लेकर, जो उन्होंने मिलर की इस बात पर दिया था कि, ‘जातियों में खंडित समाज कहाँ एक हो सकता है। उनकी आपसी लड़ाई ही इस देश की कमज़ोर कड़ी है।योगी जी ने कहा, ' यह सही है। इसीलिए जाति व्यवस्था को समाप्त करना भी हमारा उद्देश्य है। इस कमज़ोर कड़ी को अँग्रेज़ों ने अपने हित में प्रयोग किया। समाज को और ज़्यादा कमज़ोर बनाया।

योगी जी ने उदाहरण देते हुए बताया कि, 'अँग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को अपने हथियार के रूप में विकसित किया। 1871, 1881, 1891 में अँग्रेज़ों ने जन सर्वेक्षण कराकर स्पष्ट समझ लिया कि इस हथियार को और धार देने के लिए इन्हें और जातियों में बाँटना होगा। इसका परिणाम था कि 1871 की गणना में उन्होंने जातियों की संख्या 3208 बताई। दस वर्ष बाद ही 1881 में 19044 बताई। तब निकोलस बी डिर्क्स नाम के विद्वान ने कहा, "यह वृद्धि जातियों के बढ़ जाने की जगह सर्वेक्षण की पद्धति को बदलने का नतीजा थीं।" यह साज़िश इतने पर ही नहीं रुकी। प्रिंसेप ने 1834 में केवल बनारस में ही ब्राह्मणों का सर्वेक्षण कर उनके भीतर 107 जातियाँ और बना दी थीं। जिससे ब्राह्मणों में ही भेदभाव और बढ़ गया। 

इस हथियार को विकसित करके अँग्रेज़ 1947 तक शासक बने रहे। यह सोचकर आप आश्चर्य में पड़ जाएँगे कि 1939 में देश की जनसंख्या तीस करोड़ थी। इतने बड़े समुदाय पर ब्रिटेन अपने मात्र पैंसठ हज़ार अँग्रेज़ सैनिकों के साथ शासन करता रहा। वास्तव में हम पर अँग्रेज़ या उनसे पहले जो आक्रांता आए वो नहीं, बल्कि हमारी जातीय भेदभाव से निकली नाकारात्मक ऊर्जा हम पर राज करती रही। जिसकी डोर विदेशियों के हाथ में होती थी। 

हमें इस झूठ पर से भी पर्दा हटाना होगा कि ऊँच-नीच भेद-भाव से केवल सनातनी समाज ही ग्रस्त रहा है। दूसरे लोग यह पर्दा डालने में इसलिए सफल हुए, क्योंकि सनातनी अपने धर्म संस्कृति के विरुद्ध किसी भी हमले, झूठ-फरेब, दुष्प्रचार पर प्रतिक्रिया करना ही भूल गए। कालांतर में तो यह भाव घर कर गया कि कोउ नृप होई हमें का हानि, चेरि छांड़ि कि होइब रानी।’ 

संत तुलसी ने किसी और संदर्भ में मंथरा से यह बात कहलवाई थी, लेकिन सनातनियों ने इसे अपना स्थायी भाव बना लिया। कोई कुछ भी कहता, करता चला आ रहा है, लेकिन वो निर्लिप्त भाव से जीते चले आ रहे हैं। प्रसंग क्योंकि अँग्रेज़ों ईसाइयों का चल रहा है, तो आप ईसाइयों को ही देखिए कि इन में कितने भेद-विभेद हैं। इनमें भी एवानजिल्क, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स, कैथोलिक आदि समुदाय हैं। रोमन कैथोलिक रोम के पोप को अपना सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं। जबकि प्रोटेस्टेंट पोप जैसी व्यवस्था, परंपरा के सख्त ख़िलाफ़ हैं। वह किसी को पोप मानने के बजाय एकमात्र बाइबल पर विश्वास करते हैं। ऑर्थोडॉक्सियों ने भी अपना अलग रास्ता अपनाया है। यह भी रोम के पोप को बिल्कुल मान्यता नहीं देते। 

यह लोग जिस देश में रहते हैं, उस देश के पैट्रिआर्क को मानते हैं। ईसाइयों में यह सबसे कट्टर और परंपरावादी होते हैं। इसी प्रकार एंग्लिकन समुदाय अपने को प्रोटेस्टेंट नहीं मानते। प्रोटेस्टेंट प्रमुखतया पाँच संप्रदायों में विभक्त माने जाते हैं। बैप्टिस्ट, मैथोडिस्ट, कैल्विनिस्ट, लूथरन और एंग्लिकन। प्रोटेस्टेंटों में सबसे ज़्यादा लूथरन लोग हैं। इन्हें लूथरन इसलिए कहते हैं क्योंकि लूथर ने ही 16वीं सदी में विद्रोह किया था। जिसके परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंट शाखा बनी। इसीलिए इनको मानने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है। जैसे यह ख़ूब प्रचारित-प्रसारित किया गया कि सनातनियों में तो पूजा करने, धार्मिक ग्रंथ पढ़ने, पूजा स्थलों में प्रवेश आदि पर विभेद हैं। यह निश्चित ही हमारी सबसे बड़ी बुराई है। जिससे आज हम क़रीब क़रीब मुक्ति पा चुके हैं। 

लेकिन क्या हमने कभी, कहीं भी, किसी भी स्तर पर यह चर्चा सुनी, पढ़ी, देखी है कि ऐसा कुछ ईसाइयों में भी रहा है। विशेष रूप से मध्यकाल का समय ऐसा रहा है जब आम जनमानस को बाइबल पढ़ना क़रीब-क़रीब नामुमकिन हो गया था। क्योंकि कोई भी आमजन बाइबल की नक़ल नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप जनमानस को अपने ही धर्म के बारे में कुछ पता नहीं था। इस स्थिति को देखते हुए कुछ बिशपों, पादरियों ने विचार-विमर्श शुरू किया। उन्हें लगा कि ऐसे तो धर्म के प्रचार-प्रसार में बड़ी बाधा उत्पन्न हो जाएगी। इन्हीं लोगों ने निष्कर्ष निकाला कि पोप का प्रोटेस्ट करेंगे। इन लोगों ने विरोध स्वरूप बाइबल का अपनी स्थानीय भाषाओं में अनुवाद शुरू कर दिया। और नया संप्रदाय प्रोटेस्टेंट बना दिया।’ 

योगी जी ने इसी तरह की इतनी बातें बताईं  कि हम हैरान रह गए। मिलर दंपती उन्हें आवक् से देखते रहे। इसी समय मेरे दिमाग़ में आया कि यह सबसे उचित समय है कि योगी जी से 'कालसर्प' योग के बारे में भी चर्चा कर ली जाए। इसकी सच्चाई क्या है? ज्योतिष को कितना सही मानना चाहिए, उसे जीवन में कितना स्थान देना चाहिए? क्या विज्ञान की प्रमाणिकता, महत्व पौराणिक आख्यानों, ज्योतिष से ज़्यादा है? मैंने उन्हें अपने परिवार, ज्योतिषाचार्य जी की भविष्यवाणी से लेकर ईसाई बनने तक की सारी बातें विस्तार से बता दीं। 

सुन कर वह मुस्कुराए और कहा, ‘बेटा जीवन में जितना महत्व विज्ञान को देते हो उतना ही ज्योतिष को भी दे सकते हो। जैसे विज्ञान की तमाम बातें हम सही मानते हुए उन्हें पढ़ते-लिखते हैं, पढ़ाते, बताते, उसी के अनुसार आगे बढ़ते चले जाते हैं, कि अचानक ही नई खोज सामने आती है, नया सिद्धांत पुराने को ग़लत सिद्ध कर अपना स्थान बना लेता है। लेकिन समय, समाज जीवन तो तब भी नहीं ठहरता। चलता ही रहता है अपनी ही गति से। 

उदाहरण के तौर पर तुम इस प्रकार समझने का प्रयास करो कि जैसे 1911 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने इलेक्ट्रॉन के प्रयोगों के बाद अपना परमाणु मॉडल प्रस्तुत किया, क्या वह परमाणु मॉडल आज भी पूर्ववत है? 1932 में जेम्स चैडविक ने परमाणु नाभिक के बारे में जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था वह अक्षरशः आज भी वही है क्या? आगस्ट केकुले ने बेंजीन संरचना का सिद्धांत प्रतिपादित किया। जो कि कार्बनिक रसायन की महत्वपूर्ण बात हुआ करती थी। उनका सिद्धांत आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्या?' योगी जी साइंस के बारे में इतना कुछ जानते हैं, यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। हालाँकि वह बेहद सहज सरल ढंग से बता रहे थे, लेकिन फिर भी उनकी बातें मेरे स्तर से ऊँची थीं। 

उन्होंने खगोल, रसायन से लेकर जीव विज्ञान तक तमाम सम्बन्धित बातों की झड़ी लगा दी थी। मिलर की पत्नी एलिना यानी सुदीक्षा द्वारा प्रश्न पर प्रश्न करते रहने के कारण बात बड़ी देर तक साइंस की ही चलती रही। सुदीक्षा की भी साइंस को लेकर जानकारी बड़ी जबरदस्त थी। मैं बड़ा इंप्रेस हो रहा था। एक समय तो मुझे ऐसा लगा कि उसके प्रश्नों के कारण मेरे मूल प्रश्न के उत्तर की बात रह ही जाएगी। मेरी व्याकुलता योगी जी ने पहचान ली और फिर सुदीक्षा के ही एक प्रश्न के उत्तर के साथ ही उन्होंने मेरे मूल प्रश्न की ओर बात मोड़ी। 

कहा, ‘मोटे तौर पर यह समझ लो कि योग और ज्योतिष कोई पूजा-पाठ की वस्तु नहीं बल्कि विज्ञान हैं। योग के लिए तो दुनिया एक स्वर से यह मानती है कि हिरण्यगर्भ के इस विज्ञान को महर्षि पतंजलि ने क़रीब पाँच हज़ार वर्ष पूर्व ही विकास की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। यह पूर्णतः विकसित विज्ञान है। जिसके माध्यम से स्वस्थ रहा जा सकता है। और यह जागे हुए भारतीय समाज के सद्प्रयासों का ही परिणाम है कि प्रत्येक 21 जून को पूरी दुनिया योग दिवसमनाती है। इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना रही है। 

ज्योतिष साइंस कितनी परफ़ेक्ट है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हो कि इसके माध्यम से चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण बरसों बरस पहले कब हुआ था से लेकर भविष्य में कब होगा इसकी घोषणा ज्योतिषी सदियों से पूर्ण एक्यूरेसी के साथ करते आ रहे हैं। जबकि मशीनों के माध्यम से की जाने वाली घोषणाएँ अक़्सर भटकती हुई मिल जा रही हैं। 

जहाँ तक बात किसी व्यक्ति के बारे में भविष्यवाणी की है, तो जैसे गणित में एक दशमलव भी ग़लत कर दिया तो उत्तर ग़लत हो जाएगा। वैसे ही ज्योतिष में तिथि, जन्म का स्थान, समय और उस समय ग्रहों की स्थिति पूर्णतः सही नहीं लिखी गई है, तो उस व्यक्ति के बारे में सही भविष्यवाणी करना संभव नहीं है। आंशिक रूप से ही कुछ बताया जा सकता है। 

इसके साथ ही यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि, ज्योतिषी ज्योतिष विज्ञान की समग्र जानकारी रखता है? वह इस विज्ञान का प्रकांड पंडित है कि नहीं। यदि सब सही है तो निश्चित ही भविष्य की सटीक गणना की जा सकती है। इसकी आधी-अधूरी जानकारी के साथ इसका व्यवसाय करने वालों ने इसे हँसी-मज़ाक का विषय बना दिया है। ऐसे अधकचरे ज्ञानियों से बचना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण भ्रमवश लोग अपना, अपने परिवार का जीवन बर्बाद कर लेते हैं।योगी जी की गणना में मैं, मेरा परिवार ऐसे ही लोगों की श्रेणी का शिकार निकला। 

मिलर यानी महेश्वरानंद, सुदीक्षा को मैंने अधकचरी जानकारियों के आधार पर जितनी पौराणिक बातें बताई थीं, उन्हीं के आधार पर उन्होंने तमाम प्रश्न करे। सुदीक्षा ने ही योग साइंस है या पूजा-पद्धित यह प्रश्न खड़ा किया था। योगी जी ने सभी का समाधान दिया। उन्होंने सारतः बताया, ‘हमें मूलतः यह समझ लेना चाहिए कि सनातन धर्म जड़वादी नहीं है कि, जो पहले कह दिया गया उस पर कोई विचार-विमर्श या परिवर्तन नहीं हो सकता। समय-समय पर नए विचार-सिद्धांत विद्वानों द्वारा रखे जाते हैं जो सनातन पौराणिक आख्यानों को और समृद्ध करते हैं। 

उदाहरणार्थ अद्वैत वेदांत को ही देखिए, यह वेदांत की ही एक शाखा है। शंकराचार्य ने अपने सिद्धांत को ब्रह्म-सूत्र में प्रतिपादित किया। अहम्-ब्रह्मास्मि को अद्वैत वेदांत कहा। इसीलिए उन्हें "शंकरा द्वैत" संज्ञा दी गई है। शंकराचार्य की मूल बात यह है कि इस चराचर जगत में ब्रह्म ही सत्य है। बाक़ी सब मिथ्या। मगर शंकराचार्य के कह देने भर से बात यहीं ठहर नहीं जाती। ईश्वर के बारे में अनेकानेक विचारधाराएँ प्रस्तुत होती रहीं हैं। जिनमें मुख्यतः केवलाद्वैत, द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्ववैत, विशिष्टाद्वैत जैसी अनेकानेक विचारधाराएँ हैं। 

वास्तव में हम सनातनी कालांतर में इतनी गहरी नींद सो गए कि अपने महान पूर्वजों द्वारा दिए गए अथाह ज्ञान को ही भूल गए। अज्ञानता में बाहरी जो कहते रहे, वही सही मानते चले आ रहे हैं। विवेकानंद ने कहा, "उठो, जागो", लेकिन फिर भी हम अभी तक ठीक से जागे नहीं हैं। जब कोई बाहरी कुछ कहता है तब हम समझते हैं कि हम पहले क्या थे। अभी जब कोलंबिया यूनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल सेंटर ने सुश्रुत को दुनिया में शल्य चिकित्सा का जनक मानते हुए अपने यहाँ उनकी मूर्ति लगाई तब हमें समझ में आया कि शल्य चिकित्सा का ज्ञान सबसे पहले हम सनातनियों को ही था। 2600 साल पहले ही सुश्रुत प्लास्टिक सर्जरी अर्थात स्किन ग्राफ्ट्स आदि में पारंगत थे।योगी जी से यह सब सुनकर हम, महेश्वरानंद दंपति सभी आश्चर्य में थे। 

कई चरणों में हमारे प्रश्न-उत्तर कई दिनों तक चलते रहे। वापसी वाली सुबह से पहले की रात सोते समय महेश्वरानंद ने कहा, ‘मेरा मन ब्रिटेन वापस लौटने का बिल्कुल नहीं हो रहा है। मैं योगी जी जैसे प्रोफाऊँड नॉलेज (विपुल ज्ञान) वाले महान विभूति को छोड़कर जाना दुनिया की सबसे बड़ी मूर्खता समझता हूँ। मैं यहीं हमेशा उनके साथ रहकर ग्रेट स्पिरिचुअल पौराणिक नॉलेज को पूरी दुनिया में सब तक पहुँचाना चाहता हूँ।मैंने कहा इसके लिए तो यह और भी ज़्यादा ज़रूरी है कि हमें योगी जी के संदेश को फैलाने के लिए पूरी दुनिया को नापना चाहिए। वह मेरी बात से जल्दी ही सहमत हो गए। अगले दिन हम सभी घर के लिए चल दिए। 

जल्दी ही मेरे मन में बराबर बनती-बिगड़ती योजना सनातन सरस्वती शिशु मंदिरके रूप में साकार हुई। सास-ससुर संरक्षक बने। मैं आराधना के साथ उसके संचालन में लग गया। हमारा फ़ैसला अब तक यह भी था कि हम अपने पहले शिशु की शिक्षा भी अपने स्कूल से प्रारंभ करेंगे। "कालसर्प" दोष के भय ने अभी तक हमें माँ-बाप बनने से रोक रखा था। मगर यह भय आश्रम में ख़ुद ही मुझसे भयभीत होकर हमेशा के लिए दूर चला गया। जिसके कारण मैंने घर-परिवार त्याग दिया था। ऑटो रिक्शा ड्राइवर, नौकर बन चाकरी करने लगा था। संयोग था कि चर्च-मैन, मिलर दंपती मिल गए। जो योगी जी से मिलने का माध्यम बने, जिनके आशीर्वाद से स्कूल संचालक बन गया हूँ। 

और हाँ! परिवार शुरू करूँगा तो सबसे पहले बच्चे को लेकर भाई-बहनों का भय दूर भगाने ज़रूर जाऊँगा। कितने बरस हो गए सब से मिले हुए, देखे हुए। उनसे भी कहूँगा कि वह भी राष्ट्रांत्रण रोकने के मेरे अभियान में भागीदार बनें। 

तो मित्रों अब मैं ऑटो वाला नहीं स्कूल संचालक तरुण हूँ और पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि साल भर के अंदर पिता बनूँगा, कई बच्चों का पिता बनने का प्लान है मेरा। आख़िर राष्ट्रांतरण रोकने और हमारा जो हिस्सा राष्ट्रांतरित हो कर अलग हो चुका है, उसे फिर से हासिल करने के लिए संख्या बल बहुत-बहुत बढ़ानी है। बहुत बड़ी करनी है। आप भी जुटिए, मैं तो जुट गया हूँ। क्योंकि सच में आज़ादी भी तो लेनी है। अभी तो धूर्त अँग्रेज़ों ने शासन चलाने हेतु सत्ता हस्तांतरित भर की है। 

आप और मेरी तरह सबको यह झुनझुना थमाया गया कि हम आज़ाद हैं। हमें आज़ादी का तोहफ़ा देने का अहसान लादकर ना जाने कितने लोग महान नेताओं में अपना नाम दर्ज कराए बैठे हैं। गीत गवाते आ रहे हैं कि दे दी आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल... इस झूठ से भी पर्दा हटाना है। बहुत भारी पर्दा है इसलिए बहुत सारे लोगों की ज़रूरत है। यह जीवन से भी ज़्यादा ज़रूरी है। जिससे आने वाली पीढ़ियाँ सच में आज़ाद रहें। सुरक्षित रहें। और हाँ! चर्च-मैन काफ़ी लंबे समय बाद फिर लौटा तो सब कुछ जानकर आश्चर्य में पड़ गया। हमने उसका पहले जैसा ही आदर-सत्कार सब कुछ किया। वह उन महान योगी जी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा जिनके कारण यह परिवर्तन हुआ। हमने उसे बड़े प्यार से वहाँ भेजा। आजकल वह योगी जी का मेहमान बना हुआ है। मैं यह बिल्कुल नहीं जानता कि जब वह लौटेगा तो चर्च-मैन ही रहेगा या फिर चेतेश्वरानंद या... 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मेरा आख़िरी आशियाना

सूरज ना बदला, चाँद ना बदला, ना बदला रे आसमान, कितना बदल गया इंसान...। अम्मा आराम करती हुई या काम करती हुई, दिन भर में नास्तिक फ़िल्म के लिए, गीतकार प्रदीप के लिखे भजन की इन लाइनों को कई-कई बार गुनगुनाती थीं। वह भजन की शुरूआती लाइनों "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान...,” को छोड़ देती थीं। दादी उनको गुनगुनाती सुनतीं तो झिड़कती हुई बोलतीं, "अरे काम-धाम करो, जब देखो तब नचनिया-गवनियाँ की तरह अलापा करती हो।

अम्मा उनकी झिड़की सुनकर एकदम सकते में आ जातीं। चुप हो जातीं। अपना घूँघट और बड़ा करके काम पूरा करने लगतीं। अम्मा दादी की बातों का कभी बुरा नहीं मानती थीं। उनके हटते ही गहरी साँस लेकर मुस्कुरातीं, फिर कुछ ही देर में गुनगुनाने लगतीं "सूरज ना बदला...." यह उन दिनों की बात है जब मैं क़रीब बारह-तेरह वर्ष की हो रही थी। छठी में पढ़ रही थी। देश की सीमा पर युद्ध के बादल गहराते जा रहे थे।

बाबूजी पाकिस्तान से लगती सीमा पर तैनात थे। बाबा, दादी, चाचा सभी चिंतित रहते थे। अन्य देशवासियों की तरह यह लोग भी उन्नीस सौ बासठ के भारत-चीन युद्ध की विभीषिका को भुला नहीं पाए थे। उस युद्ध में गाँव के ही दो पट्टीदारों का कुछ पता नहीं चल पाया था। वह लोग चीन से लगती सीमा पर तैनात थे। जब उन लोगों की बात होती तब बाबा कहते, "जनम-जनम के धोखेबाज़, कमीने चीन ने हिंदी-चीनी भाई-भाई करके पीठ में छूरा भोंक कर मारा था। आमने-सामने बात होती तो बात कुछ और होती।"

एक और पट्टीदार जो बाबा के सबसे क़रीबी थे, वह बोलते, "अरे नेहरू जी समझ नहीं पाए धोखेबाज़ को। पंचशील का झुनझुना बजाते रहे। झोऊ एनलाई की पीठ थपथपाते रहे, गले लगाते रहे। मारा सत्यानाश कर के रख दिया था। फौजियों को बिना हथियार के ही बेमौत मरवा दिया था। बेचारों को गोला-बारूद तक तो मिला नहीं था लड़ने के लिए, पता नहीं काहे के नेता बने फिरते थे।" इस बात के जवाब में बाबा कहते, "नेता नहीं। शांति मसीहा बनने के चक्कर में सच से मुँह मोड़े रहे। सामने धोखेबाज़ झोऊ एनलाई है, हाथ में छूरा लिए है यह देखकर भी अनदेखा किये रहे। उनको खाली नोबेल पुरस्कार दिख रहा था। मक्कार चीन की धूर्तता नहीं।"

उन्नीस सौ बासठ के भारत-चीन युद्ध के संबंध में ऐसी बातें करने वाले बाबा लोग उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान से युद्ध के बादलों को देखकर बोलते, "देखो अब की क्या होता है?" बाबा कहते "जो भी होगा उन्नीस सौ बासठ जैसी दुर्दशा तो नहीं होगी, मुझे इसका पूरा विश्वास है। अबकी अपने फौजी कम से कम बिना हथियार के निहत्थे नहीं लड़ेंगे। हथियार रहेगा तो दुश्मनों की धज्जियाँ भी उड़ाएँगे, जीतेंगे भी।"

मर्दों की इन बातों को सुन-सुन कर दादी गंभीरता की मूर्ति बन जातीं। उन्हें सीमा पर तैनात अपने बेटे की चिंता सताती। ऐसे में माँ का भजन गुनगुनाना उन्हें बहुत बुरा लगता। अम्मा जब बुआ से बात करतीं तो कहतीं, "अम्मा जी बेवजह नाराज़ होती हैं। हम भगवान को याद करते हैं। उन पर हमें अटल भरोसा है। इनको कभी कुछ नहीं होगा। अबकी अपना देश हर हाल में जीतेगा। अम्माजी तो कुछ समझती ही नहीं। ये भी अबकी आए थे तो कह रहे थे कि शास्त्री जी बड़ी मजबूती से देश सँभाल रहे हैं। पाकिस्तान को तबाह कर देंगे। इनको तो और पहले देश सँभालना चाहिए था। मगर अम्मा को कौन समझाए, वह पहले वाली ही बात लिए बैठी हैं। बेवजह परेशान होती रहती हैं।"

अम्मा की बात सच निकली शास्त्री जी की छत्रछाया में देश ने पाकिस्तान को धूल-धूसरित कर दिया। बाबूजी भी कई महीने बाद सकुशल घर लौट आए थे। गाँव में उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ। सम्मान किया गया। सीमा पर दुश्मनों की धज्जियाँ उड़ाने वाले बाबू जी गाँव में नायक बन गए थे। घर में ख़ुशियों के बीच अम्मा ने कई बार दादी से कहा, "अम्मा जी आप तो बेवजह परेशान हो रही थीं। मैं तो हमेशा भगवान से प्रार्थना करती थी। मुझे अपने भगवान पर पूरा भरोसा था।" अम्मा का इतना कहना होता था कि दादी चिढ़ जातीं, अपनी तेज़ आवाज़ में बोलतीं, "प्रार्थना करती थी कि सनीमा (सिनेमा) के गाना गाती थी।"

दादी परंपरागत भजन-आरती को ही भजन-आरती मानती थीं। फ़िल्मी संगीत उनकी नज़र में गंदा था। अम्मा कहतीं, "यह भजन है अम्मा, गाना नहीं।" मगर दादी को ना मानना था तो वह ना मानतीं। अम्मा ने भी इस भजन को गुनगुनाना बंद करने के बजाय और ज़्यादा गुनगुनाना शुरू कर दिया था। यह तो मैं अब भी नहीं समझ पाई कि वह और ज़्यादा दादी को चिढ़ाने के लिए गुनगुनाती थीं या बाबूजी के सकुशल लौट आने की ख़ुशी में, कि कितना बदल गया इंसान।

घर में तब पता नहीं कौन कितना बदला था, या नहीं बदला था। पर मैं यह मानती हूँ कि मेरे लिए सब बदल गए थे। और किसी के बदलने की मुझे कोई परवाह नहीं थी। मगर जिन दो लोगों का बदलना आज भी मुझे सालता है। आज तक पीड़ा देता है, और मैं बेहिचक कहती हूँ कि उनके बदलने के ही कारण मेरा जीवन हमेशा-हमेशा के लिए अंधकार में डूब गया, वह कोई और नहीं मेरी प्यारी अम्मा और मेरे प्यारे बाबू जी ही थे। जिनके बदलने के कारण अम्मा के प्रिय इस भजन की लाइन आज भी उन्हीं की आवाज़ में मेरे कानों में गूँजती है। "कितना बदल गया इंसान..." अम्मा-बाबूजी के लिए यह कहना मेरे लिए प्रसव पीड़ा से गुज़रने जैसा पीड़ादायी है, लेकिन क्या करूँ और सह पाना मुश्किल हो गया है। सहते-सहते, झेलते-झेलते अब नहीं रहा जाता।

सही यह है कि कोई कितना ही मज़बूत, कठोर क्यों ना हो, जीवन का एक दौर वह भी होता है जब वह टूटने लगता है। पानी के बुलबुले से भी वह घायल होने लगता है। बुलबुला भी उसे पत्थर सी चोट पहुँचाने लगता है। मैं ऐसी ही स्थिति में आ गई हूँ, इसी लिए अम्मा-बाबूजी के लिए यह बात मन में आती है। मेरे लिए वह तब भी, आज भी, आगे भी, पूजनीय थे, हैं और रहेंगे। लेकिन वह कितना बदले थे यह भी कभी नहीं भूलेगा।

उस समय जब बाबा घर आकर यह बताते थे कि आज स्कूल में मेरी पढ़ाई की फिर तारीफ़ हुई है। छमाही, सलाना परीक्षा का रिज़ल्ट आने पर जब सबसे आगे रहने पर मुझे इनाम मिलता, हर तरफ़ से मेरी प्रशंसा होती तो अम्मा ख़ुशी के मारे नाच उठती थीं। बाबू जी को ख़ुशी के मारे सब कुछ लिखकर लंबा सा पत्र भेजती थीं। मुझे बड़े प्यार से गले लगा लेती थीं। मैं भी बड़ा प्यार लाड़-दुलार दिखाती।

उनकी गोद में सिर रखकर दोनों हाथों से उन्हें चिपका लेती। चेहरा उनके पेट से चिपका कर उनके आँचल से अपना सिर ढंक लेती थी। ऐसा लगता मानो कोई चिड़िया अपने बच्चे को अपने पंखों में छुपाए हुए है। अम्मा बड़े प्यार से, हल्के हाथों से मेरे सिर को सहलातीं। मुझे लगता जैसे मैं मखमल नहीं धुनी हुई रूई के फाहों पर लेटी हुई हूँ। माँ लोरियाँ गा रही हैं। उसकी मधुर रुनझुन कानों में शहद घोल रही है। पहाड़ों की ओर से आती शीतल हवा बड़ी नाज़ुक सी थपकियाँ दे रही है।

कई-कई बार ऐसा हुआ कि मैं कुछ ही मिनटों में, ऐसे ही अम्मा की गोद में सो गई। तब अम्मा मुझे जगाती नहीं थीं। इतना सँभालकर मुझे लिटा देती थीं कि मेरी नींद टूटती नहीं थी। नींद पूरी होने पर जब मेरी आँख खुलती तो अम्मा को अपने पास ना पाकर मैं फिर से उनके पास पहुँच जाती। तब वह कहतीं, "तुझे बड़ी जल्दी नींद आती है। गोद में लेटते ही चट से सो जाती है।"

दादी जब पाकिस्तान से युद्ध के कुछ ही हफ़्तों पहले बाबूजी का नाम लेकर कहतीं, "अबकी आए तो उससे कहूँगी कि इसकी शादी-वादी ढूँढे़। अब उमर हो चली है।" तो अम्मा कहतीं, "अभी नहीं अम्मा जी, अभी इसे और पढ़ाऊँगी, इसे मैं डॉक्टर बनाऊँगी।" मैं कहती नहीं, मैं बाबूजी की तरह फौजी बनूँगी। दादी की बात पर मैं पैर पटकती हुई दूसरी तरफ़ चली जाती।

दादी से मुझे डॉक्टर बनाने की बात करने वाली अम्मा ने, जब बाबूजी लौटे तो मेरी पढ़ाई की बात चलने पर उनसे भी मुझे ख़ूब पढ़ाने की बात की थी। बाबूजी ने भी उनकी बात पर हामी भरी थी। लेकिन हफ़्ते भर बाद ही न जाने क्या हुआ, दादी-बाबा ने जो भी बातें मेरी शादी के लिए बार-बार कीं, जो कुछ भी, जैसा भी समझाया-बुझाया बाबू-अम्मा को, कि सब कुछ बदल गया। दिनभर "कितना बदल गया इंसान" गाने वाली अम्मा भी बदल गईं।

ज़ाहिर है बाबूजी उनसे पहले ही बदल गए थे। मुझे पता तक नहीं चला और महीने भर में ही मेरी शादी तय कर दी गई। घर पर एक दिन बहुत से मेहमान आए थे। उसी समय कब लड़के वाले मुझे देख-दाख के, रिश्ता तय करके चल दिए थे मुझे कुछ भी पता नहीं चला था। उन सब के जाने के बाद घर भर जिस तरह से ख़ुशी से झूम रहा था, मुझ पर बार-बार कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार उड़ेल रहा था, उससे मुझे कुछ अटपटा ज़रूर लग रहा था। लेकिन फिर भी सबके साथ हँसती-बोलती, खेलती-कूदती रही। परन्तु दो-चार दिन बाद ही मैंने महसूस किया की अम्मा-बाबूजी, बाबा-दादी सहित घर के सारे बड़े-बुज़ुर्ग कुछ ज़्यादा ही विचार-विमर्श कर रहे हैं।

सबसे ज़्यादा यह कि मुझे देखते ही सब अजीब तरह से शांत हो जाते हैं या बात बदल देते हैं। यह सब मेरी शादी की तैयारी का एक हिस्सा है यह मुझे पता तब चला जब एक दिन लड़के वाले मेरी गोद भराई कर गए। मैं बहुत रोई, अम्मा से ग़ुस्सा भी हुई, चिरौरी, विनती की, लेकिन सब बेकार। कोई मेरी सुनने वाला नहीं था। अम्मा भी बुरी तरह बदल गई थीं। कितना बदल गया इंसान अम्मा तब भी गुनगुनाती थीं। फिर देखते-देखते मेरी शादी हो गई।

अम्मा-बाबूजी, बाबा-दादी सबने ससुराल के लिए विदा कर दिया। मैं फूट-फूट कर रोती रही। रोक लो, मुझे ना भेजो अभी। मुझे पढ़ना है। अम्मा तुझे छोड़कर न जाऊँगी। बाबूजी। मगर सब बेकार। रो वो सब भी रहे थे। मेरे छोटे-छोटे तीन भाई भी। लेकिन मेरे और बाक़ी के रोने में फ़र्क था। एकदम अलग था। सब मैं विदा हो रही हूँ, इसलिए रो रहे थे। लेकिन मैं रो रही थी कि बाबूजी तो बाबूजी अम्मा भी बदल गईं। कितना बदल गया इंसान गाते-गाते ख़ुद भी बदल गईं।

जिसके आँचल तले मैं कितना सुरक्षित महसूस करती थी। इतनी ख़ुशी पाती थी कि पल में सो जाती थी। वही अम्मा कुछ सुन ही नहीं रही हैं। मैं बार-बार उन्हें पकड़ रही हूँ, और वह मुझसे ख़ुद को छुड़ाती जा रही हैं। छुड़ाकर दूर हटती जा रही हैं। विदा किए जा रही हैं।

मैं रास्ते भर रोती रही। अम्मा-अम्मा यही कहती सिसकती रही। जिनके साथ ब्याही गई थी वह भी ऐसे कि चुप कराने के नाम पर बस इतना ही बोले, "क्या रोना-धोना लगा रखा है। चुप क्यों नहीं होती।" मेरे मन में आया कि बस का दरवाज़ा खोलूँ और कूद जाऊँ  नीचे। तब मुझे पूरी दुनिया दुश्मन लग रही थी। तीन घंटे का सफ़र करने के बाद ससुराल पहुँची।

वहाँ पहुँचने से लेकर, आधी रात को मुझे मेरे कमरे में नंदों कुछ और ठिठोली करती औरतों द्वारा पहुँचाने तक न जाने कितनी पूजा-पाठ, रस्में पूरी करवाई गईं। मुझे भूख लगी है, प्यास लगी है, नींद लगी है, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं था। सास को देखते ही मैं समझ गई थी कि बहुत कड़क मिज़ाज हैं। दादी से ज़्यादा तेज़ हैं। उनकी भारी आवाज़ और उससे भी ज़्यादा भारी भरकम डील-डौल और भी ज़्यादा डरा रहे थे।

पति का व्यवहार बिल्कुल माँ पर ही गया था। मुझे लगता कि डर के मारे मेरी जान अब निकली, कि अब निकली। पतिदेव कमरे में आए तो वह भी मेरे अनुमान से ज़्यादा डरावने, पीड़ादायी साबित हुए। मेरी सुबह जेल से छूटे क़ैदी की तरह रही। रात फिर जेल में बंद क़ैदी। यही मेरी ज़िंदगी बन गई थी। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता था, जब मेरी आँखों से आँसू ना बहें। मैं अकेले में रोऊँ ना।

मायके में अम्मा से मिलती, अपनी तकलीफ़ बताती तो वह ख़ुद ही रोतीं। कहतीं, "मेरी बिटिया ससुराल है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।" लेकिन अम्मा की बात उल्टी निकली।

सात-आठ महीनों बाद ही सब कुछ उलट-पुलट हो गया। ससुर जी अचानक ही चल बसे। एकदम से बढ़े हाई ब्लड प्रेशर ने उनकी जान ले ली थी।

वह खाने-पीने के इतने शौक़ीन थे कि डॉक्टरों के लाख मना करने पर भी मानते नहीं थे। मिर्च-मसाला, चटपटा खाना उनके प्राण थे। रिटायरमेंट से पहले ही उनकी मृत्यु के कारण कम्पन्सेंटरी बेस पर मेरे पति को उनकी जगह नौकरी मिल गई। इसी के साथ मेरे जीवन की और ज़्यादा बर्बादी भी शुरू हो गई। प्राइवेट से सीधे सरकारी नौकरी, पहली नौकरी की अपेक्षा दुगुनी सैलरी ने पतिदेव के क़दम बहका दिए। ऑफ़िस में ही एक महिला केे इतने क़रीब होते गए कि हमसे दूर होते चले गए। आए दिन घर में मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, घर में किसी की न सुनना, सब को अपमानित करना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था।

बाबूजी, बाबा, चाचा सब आए समझाने, हाथ-पैर जोड़ने लगे, लेकिन राक्षसी कर्म करने वाले मेरे पतिदेव के हाथों अपमानित हुए। मार खाते-खाते बचे। तब बाबा बोले, "हम ठगे गए। क़िस्मत फूट गई, कसाई के हाथों बिटिया को दे दिया।" फिर उसी समय सास के मना करने के बावजूद वह मुझे लेकर घर वापस आ गए। पतिदेव को मुझ से छुट्टी मिल गई। मैं मात्र सत्रह वर्ष की आयु में परित्यक्ता बन गई। ग़नीमत यह रही कि फ़र्स्ट मिसकैरेज के कारण किसी बच्चे की ज़िम्मेदारी मुझ पर नहीं थी। वैवाहिक जीवन का चैप्टर क्लोज़ होते ही बाबा जी अगला चैप्टर ओपन करने की ज़िद कर बैठे। कहते, "चाहे जैसे हो मैं अपनी पोती की ज़िंदगी ऐसे बर्बाद नहीं होने दूँगा।" वह जल्दी से जल्दी मेरी दूसरी शादी की तैयारी में लग गए।

एक दिन घर आए एक मेहमान से वह इस बारे में बात कर रहे थे। अम्मा ने सुन लिया। रिश्तेदार के जाते ही उन्होंने साफ़ कह दिया, "बाबूजी बिटिया की शादी अभी नहीं करेंगे। पहले उसे पढ़ाएँगे, अपने पैरों पर खड़ा करेंगे, तब उसकी दूसरी शादी करेंगे। अब आँख बंद करके उसे ऐसे ही अँधेरे कुँए में नहीं फेंकेंगे।" जिस अम्मा ने कभी ससुर के सामने घूँघट नहीं हटाया था, कभी उनकी आवाज़ तक ससुर के कानों में नहीं पड़ी थी, उसी ससुर के सामने ऐसे सीधे-सीधे बोल देने से घर में भूचाल आ गया।

बाबा की एक ही रट, "क्या हमने जानबूझकर बिटिया को कुँए में फेंक दिया था, क्या मैं उसका दुश्मन हूँ, क्या वह मेरी कोई नहीं, क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है।" लेकिन अम्मा पर उनकी ऐसी किसी बात का कोई भी असर नहीं हुआ। वह अडिग रहीं। उन्होंने दो टूक कह दिया, "बाबू जी आपका सब अधिकार है। लेकिन मैं माँ हूँ, मेरा भी कुछ अधिकार है। उसी अधिकार के नाते कह रही हूँ कि अब मैं उसकी शादी उसे पढ़ा-लिखा कर, उसको उसके पैरों पर खड़ा करने के बाद ही करूँगी।"

अम्मा की ज़िद के आगे बाबू-चाचा क्या बाबा-दादी सब हार गए। अम्मा के इस रूप से मैं बहुत ख़ुश हुई। बाद में बाबूजी भी अम्मा के साथ हो गए। मेरी पढ़ाई फिर शुरू हो गई। कुछ साल बाद ही बाबूजी फौज से रिटायर होकर घर आ गए। मगर जल्दी ही दूसरी नौकरी मिली और वह चित्रकूट पहुँच गए। देखते-देखते कई और साल बीते। बाबा-दादी हम सब को छोड़कर स्वर्गवासी हो गए। भाइयों की नौकरी लग गई तो जल्दी ही उन सबकी शादी भी हो गई। फिर अमूमन जैसा हर घर में होता है वैसा ही हमारे यहाँ भी हुआ। भाई अपनी बीवियों भर के होकर रह गए। घर कलह का अड्डा बन गया।

बाबूजी नौकरी, घर की कलह में ऐसे फँसे कि एक दिन चित्रकूट से आते समय, एक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो वह नीचे उतर कर टहलने लगे। ट्रेन चली तो दौड़कर चढ़ने के प्रयास में फिसल कर ट्रेन के नीचे चले गए। ऐसे गए कि फिर कभी नहीं लौटे। घर पर इतना बड़ा मुसीबतों का पहाड़ टूटा लेकिन भाभियों पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ। महीना भर भी ना बीता होगा कि उन लोगों की हँसी-ठिठोली गूँजने लगी। भाई तो ख़ैर उन्हीं के हो ही चुके थे। अम्मा, मैं बुरी तरह टूट चुके थे। अब ख़र्च कैसे चले इसका प्रश्न खड़ा हुआ। बाबूजी को गए दो महीना भी ना हुआ था कि भाई अपने-अपने परिवार के साथ अलग हो गए। हम माँ-बेटी अधर में। अम्मा की पेंशन बनने में समय लगा।

बाबूजी की जगह नौकरी मुझे मिले इसके लिए कोशिश शुरू हो गई। एक भाई नियम विरुद्ध अपनी बीवी को लगवाना चाहते थे। लेकिन बात नहीं बनी तो वह और दुश्मन बन बैठे। बीवी तो जानी-दुश्मनों से भी बुरा व्यवहार करने लगी। उसका वश चलता तो हम माँ-बेटी दोनों को मारती। ऐसे में मैंने कोई रास्ता ना देख कर अपने को सँभाला और अम्मा का वह रूप याद कर तन कर खड़ी हो गई, जब वह बाबा के सामने तनकर खड़ी हुई थीं। उससे भी कहीं ज़्यादा तनकर मैं भाइयों के अन्याय के सामने खड़ी हो गई। 

मुझे लगा कि मैं एक फौजी की बेटी हूँ। उस फौजी की जिसने उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में दुश्मन को कुचल कर रख दिया था। भाइयों ने मिलकर दबाना चाहा, लेकिन मेरे रौद्र रूप के सामने उन्हें दबना पड़ा। हाँ चाचा और उनका पूरा परिवार भी हम माँ-बेटी के साथ था। मगर भाभियाँ भी हार मानने वाली नहीं थीं। वह किसी भी तरह अपने क़दम पीछे खींचने को तैयार नहीं थीं।

एक ज्योतिषी एवं रत्नों के विशेषज्ञ तारकेश्वर शास्त्री जी का बाबूजी के जमाने से घर पर आना-जाना था। माँ ने उनके ही कहने पर मुझे लहसुनिया नामक रत्न चाँदी की अँगूठी में बनवा कर पहनाया था। बाबूजी के स्वर्गवास के बाद उन्होंने कहा था, "तुम्हारी हस्त रेखाएँ दुर्घटना का योग दिखा रही हैं। तुम्हें गुप्त शत्रुओं से गंभीर हानि पहुँच सकती है। इस रत्न से तुम्हारी रक्षा होगी।" मगर यह रत्न भी घर के ही गुप्त शत्रुओं यानी भाइयों और भाभियों के हमले से मुझे बचा नहीं पाया। हाँ इन्हें यदि प्रत्यक्ष शत्रु मान लें तो शास्त्री जी अपनी जगह सही थे।
इन लोगों ने ऐसी चालें चलीं कि मेरी क्या ज्योतिषी जी की भी पूरे समाज में थू-थू शुरू हो गई। हम लोगों को जब-तक पता चला तब-तक बातें हर तरफ़ फैल चुकी थीं। भाभियों ने हमारे उनके बीच नाजायज़ संबंधों की ऐसी ऐसी कहानियाँ गढ़कर फैलाई थीं कि ज्योतिषी जी, रत्न आचार्य जी, सारे रत्न झोले में सदैव रखकर चलने के बाद भी इतना साहस नहीं कर सके कि हमारे घर, मोहल्ले की तरफ़ रुख़ करते। भाभियाँ इस क़दर पीछे पड़ी थीं कि आए दिन नए-नए क़िस्से मेरे नाम से लोगों का मनोरंजन करने लगे।

हम माँ-बेटी को प्रताड़ित करने, परेशान करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही थी। हम जब बात उठाते तो भाभियाँ एकदम सिर पर सवार हो जातीं। भाइयों का भी यही हाल होता था। हम ज़्यादा बोलें तो मारपीट पर उतारू। रोज़-रोज़ की चिक-चिक से चाचा और उनके परिवार ने भी हाथ खींच लिया। जब चाचा लोगों ने हाथ खींच लिया तो घर के शत्रुओं को और खुली छूट मिल गई।

थोड़ी बहुत जो खेती-बाड़ी थी वह ना जाने किस मूड में आकर बाबूजी ने किसी समय अम्मा जी के नाम कर दी थी। भाई लोग एक दिन आए, बोले, "अम्मा हमें मकान बनवाना है, ज़्यादा पैसा हमारे पास है नहीं। इसलिए हमने खेत बेच देने का निर्णय लिया है। ख़रीददार तैयार है। कल कचहरी में चलकर तुमको साइन करना है।" भाई ने जिस दबंगई के अंज़ज में अपनी बात कही उससे पहले से ग़ुस्सा अम्मा एकदम आग-बबूला हो गईं। एकदम से भड़क उठीं। सीधे कहा, "हम कहीं नहीं जाएँगे। खेत, मकान सब हमारे आदमी का है, हमारे नाम है, हमारा है। हम कुछ नहीं बेचेंगे। एक धूर नहीं बेचेंगे। अरे किस मुँह से आए हो तुम लोग। सगी बहन-महतारी की इज्जत गाँव भर में तार-तार करते शर्म नहीं आई। एक गिलास पानी तो माँ को कभी दिया नहीं, पत्थर लुढ़काया करते हो कि कितनी जल्दी महतारी-बिटिया मरें और तुम सब बेच खाओ खेती-बारी। किस हक से आए हो माँगने।"

अम्मा की तीखी बातों ने भाइयों को कुछ देर के लिए एकदम सन्न कर दिया। गहन सन्नाटा छा गया। मगर बीवियों के इशारे पर चलने वाले भाई उन्हीं के उकसाते ही भड़क उठे। लगे चिंघाड़ने तो अम्मा भी पीछे नहीं हटीं। परिणाम था कि पास-पड़ोस सब इकट्ठा हो गए।

दरवाज़े पर भीड़ लग गई। चरित्र-हनन से बुरी तरह आहत अम्मा सबके सामने फूट पड़ीं। भाइयों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। रेशा-रेशा उधेड़ दिया। लोग सब जानते तो थे ही लेकिन अम्मा के मुँह से सुनकर थू-थू करने लगे। भाई पड़ोसियों को भी आँख दिखाने लगे कि हमारे घर के मामले में कोई ना बोले, इतना बोलते ही कई पड़ोसी भी उबाल खा गए। किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। आनन-फानन में पुलिस भी आ गई। लोग भाइयों को बंद कराने के लिए पीछे पड़ गए। लेकिन अम्मा ने आख़िर उन्हें बचा लिया।

भाई फिर भी अपनी-अपनी पैंतरेबाज़ी से बाज़ नहीं आए। आए दिन कुछ न कुछ तमाशा करते रहे। मुकदमेबाज़ी की धमकी मिलने लगी। इधर अम्मा की पेंशन की तरह बाबूजी की जगह मुझे नौकरी मिलने में देर पर देर होती चली जा रही थी। चाचा से हाथ जोड़-जोड़ कर अम्मा ने जल्दी से जल्दी काम कराने के लिए कहा। फिर इंतज़ाम करके रिश्वत के लिए भी पैसे दिए, तब हुआ काम। इसी के साथ-साथ चाचा की सलाह पर हम माँ-बेटी ने मकान के अपने हिस्से में ताला लगाया और चित्रकूट चले गए। हम माँ-बेटी को लगा कि जैसे हमें नर्क से मुक्ति मिल गई। मगर हमने जितना समझा था वह उतना आसान नहीं था।

कुछ ही महीने बाद एक दिन चाचा ने सूचना दी कि भाइयों ने हमारे हिस्से में लगे ताले तोड़कर उन पर कब्ज़ा कर लिया है। इतनी चुपके से यह सब किया कि कुछ दिनों तक किसी को कानों-कान ख़बर तक नहीं हुई। चाचा ने अम्मा को पुलिस में रिपोर्ट करने की सलाह दी। अम्मा से मैंने जल्दबाज़ी ना करने के लिए कहा। मैंने कहा, कह दो सोच कर बताएँगे। अम्मा से इतना सुनने के बाद चाचा ने दोबारा कुछ नहीं कहा।

मैंने बाद में अम्मा को समझाया कि पुलिस के चक्कर में ना पड़ो। जाने दो। अब हम दोनों को किसी और के सहारे की ज़रूरत नहीं है। मुझे सरकारी स्थाई नौकरी मिल गई है। तुम्हें जीवन भर पेंशन मिलेगी। जो भी सामान था उसे उन्हें ले जाने दो। यूज़ करने दो। कमरों को आख़िर लेंगे तो वही लोग। जीते जी लें या मरने के बाद लें। लेकिन मेरे चरित्रहनन से नाराज़ अम्मा बेटों को सबक़ सिखाना चाहती थीं। और मैं माँ-बेटों के बीच पुलिस फाटा किसी सूरत में नहीं चाहती थी। इसलिए उन को समझाने में पूरा ज़ोर लगा दिया।

बहुत समझाने पर अम्मा मानीं। कई दिन लग गए थे उन्हें समझाने-मनाने में। लेकिन ना जाने क्यों इस फ़ैसले से चाचा नाराज़ हो गए। उन्होंने बहुत दिन तक बातचीत बंद कर दी। ना जाने उसमें उनका क्या स्वार्थ था। आगे जब भी अम्मा का मन होता गाँव जाने का तो कहतीं, "बच्ची तुम्हारे कहने पर दो कमरा जो वहाँ जाने, ठहरने का एक ठिकाना था वह भी उन कपूतों को दे दिया।" यह कहकर वह बड़ी दुखी हो जातीं।

एक दिन उनको मैंने बहुत समझाया। कहा अम्मा काहे इतना ग़ुस्सा होती हो। काहे मकान, खेत को लेकर इतना परेशान रहती हो। क्यों उनमें इतना मन लगाए रहती हो। बाबू जी की यह बात तुम भूल गई क्या कि, "पूत-कपूत तो का धन संचय, पूत-सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत होगा तो जितना भी धन संचोगे वह सारी संपत्ति को बर्बाद कर ही देगा। सपूत होगा तो अपने आप ही बना लेगा। उसके लिए भी कुछ संचय करने की ज़रूरत नहीं है।" मेरी इस बात पर अम्मा नाराज़ हो गईं। बोलीं, "मैं तुम्हें संपत्ति की लालची दिखती हूँ। मैं तो उन कपूतों ने जो किया उसकी सज़ा उन्हें देना चाहती हूँ। और सुनो, मैं भी बहुत ज़िद्दी हूँ। मैं जानती हूँ कि मैं सब दे दूँगी तब भी यह सब मुझे गाली ही देंगे। नहीं दूँगी तब भी।

मेरा जिस तरह अपमान किया है, जिस तरह तुम्हारे चरित्र पर कीचड़ उछाला है, वह सही मायने में मेरा अपमान है। मेरे चरित्र पर कीचड़ उछाला है। मैं सब बर्दाश्त कर सकती हूँ, लेकिन चरित्र पर लांछन नहीं। तुम भी सुन लो, मैं खेत बेचूँगी। भले ही सारा पैसा किसी मंदिर के दानपात्र में डाल दूँ। किसी भिखारी को दे दूँ। लेकिन उन कपूतों को एक पैसा कहने को भी नहीं दूँगी।"

अम्मा की इस ज़िद या यह कहें कि ग़ुस्से के आगे मैं हार गई। साल भर भी नहीं बीता होगा की अम्मा ने चाचा के सहयोग से चुपचाप सारे खेत बेच दिए। इस काम में चाचा ने बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा किया। जिस दिन अम्मा को रजिस्ट्री पर साइन करना था, उसके एक दिन पहले वह घर आए, अगले दिन अम्मा को लेकर सीधे कचहरी गए, साइन करा दिया। पैसा सीधे अकाउंट में जमा कराया। और देर रात तक अम्मा को लेकर घर आ गए।

अगले दिन अम्मा ने चाचा को घर वापस जाते समय सोने की चार चूड़ियाँ देते हुए कहा, "भैया बिटिया को यह हमारी तरफ़ से उसे उसकी शादी में दे देना। क्योंकि उस गाँव में अब मैं क्या मेरी छाया भी नहीं पड़ेगी।" चाचा ने कहा, "भाभी इतना ग़ुस्सा ना हो। अपने ही लड़के हैं। थूक दो ग़ुस्सा। फिर शादी में तुम मेरे घर आओगी उन सबके पास तो जाओगी नहीं।" अम्मा ने आशंका ज़ाहिर की, "खेत बेचने से वह सब चिढ़े बैठे हैं। तुम उन सब को भी बुलाओगे ही, अगर नहीं बुलाओगे तो भी वह सब आकर झगड़ा करेंगे।"

चाचा ने उनकी आशंका का जो जवाब दिया वह मुझे पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा, "देखो भाभी उन सबको इसलिए बुलाना पड़ेगा क्योंकि एक तो वो सब कोई दूर के नाते-रिश्तेदार तो हैं नहीं। सगे भतीजे हैं। दूसरे तुम्हारे पक्ष में बोलने, खेत बिकवाने में सहयोग करने के चलते भले ही उन सब ने मुझसे मनमुटाव बना रखा हैै, लेकिन कभी सीधे झगड़ा नहीं किया। अब तुम ही बताओ ऐसे में उन सब को ना बुलाना कहाँ तक उचित होगा, और फिर यह भी तो हो सकता है ना कि जब तुम इतने दिनों बाद पहुँचो तो लड़कों का दिल पसीज जाए। और तुमसे मिलने आएँ। माँ-बेटों का मिलाप हो जाए। भाभी सच कह रहा हूँ, तुम माँ-बेटों में ऐसा हो जाए ना, तो हमें बहुत ख़ुशी होगी। भैया की आत्मा भी बहुत ख़ुश होगी।"

चाचा की बातों ने अम्मा को रुला दिया। वह रोती हुई बोलीं, "भैया कौन महतारी है जो अपनी औलादों से दूर रहना चाहेगी। उन सबका चेहरा कौन सा ऐसा पल होता है जब आँखों के सामने नहीं होता। पोता-पोतियों के लिए आँखें तरसती हैं। उन्हें छूने, देखने, गोद में लेने को हाथ तरसते हैं। मैं कितनी अभागी हूँ कि सब है मेरे पास, लेकिन फिर भी कुछ नहीं है मेरे साथ।" चाचा अम्मा की यह बात सुनते ही तपाक से बोल पड़े, "तो भाभी ग़ुस्सा थूक दो। चलो, कुछ दिन के लिए मेरे साथ घर चलो। मेरे ही घर पर रुकना। अगर बेटे तुम्हें प्यार-सम्मान से लेने आएँ तो जाना उनके पास, नहीं तो नहीं जाना।"

मुझे ऐसा लगा कि चाचा की बातें सुनकर अम्मा की आँखों के आँसू एकदम से सूख गए हैं। वह बिल्कुल शुष्क हो गई हैं। पथरीली हो गई हैं। उसी तरह चेहरा भी। मुझे समझते देर नहीं लगी की अम्मा पर फिर ग़ुस्सा हावी हो गया है। मैं कुछ और सोचती-समझती कि उसके पहले ही वह बोलीं, "देखो भैया वहाँ तो अब मैं क़दम नहीं रख सकती। वह सब मुझ पर हाथ भी उठा देते तो भी मैं माफ कर देती, यह सोचकर कि अपनी औलाद हैं, अपना खून हैं। अपने खून से पाला है। हमारे आदमी का अंश हैं। इसी तरह मेरी बिटिया भी मेरा खून है, मेरे आदमी का अंश है, उसका अपमान मेरे खून, मेरे आदमी का अपमान है। मैं सब सह सकती हूँ लेकिन अपने आदमी का अपमान नहीं। अपने खून का अपमान नहीं, वह भी ऐसा-वैसा अपमान नहीं, सीधे-सीधे चरित्र पर लाँछन लगाया गया। मेरी गंगाजल सी पाक-साफ़ बिटिया के बारे में कितनी नीचतापूर्ण बातें पूरी दुनिया में फैलाई गईं।
मेरी बिटिया को इतना गिरा हुआ बताया गया कि आदमी ने भगा दिया। कोई कमी थी, आवारा थी, तभी तो भगाया गया। अब यहाँ मायके में आकर आवारागर्दी कर रही है, उस ज्योतिषी को बुलाकर अपनी... अरे कमीनों ने क्या-क्या नहीं उड़ाया। नीचों ने अपने स्वार्थ में अंधे होकर बेचारे उस पढ़े-लिखे महात्मा जैसे ज्योतिषी के चरित्र की भी चिंदियाँ उड़ा दीं। उस जैसा चरित्र वाला आदमी मैंने आज की दुनिया में कभी-कभी ही देखा है। बेचारा इतना दुखी हुआ कि हमेशा के लिए कहीं चला गया। कई बार मन में आशंका होती है कि कहीं आत्महत्या तो नहीं कर ली। अब तुम ही बताओ ऐसी औलादों को मैं कैसे अपना लूँ।

मेरी औलादें हैं, लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की गंदी औलादें हैं, कलंकी औलादें हैं, ऐसी कलंकी औलादों को कैसे अपना लूँ। मैं माँ हूँ, मेरे कलेजे से पूछो कि मैं कैसे तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी बिना बेटों जैसा जीवन बिता रही हूँ।

यह भी जानती हूँ कि तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी मेरी अर्थी को कंधा देने वाला कोई बेटा नहीं होगा। बाहरी ही देंगे। मैं चाहूँगी भी नहीं कि ऐसी कलंकी औलादें मेरी अर्थी को कंधा तो क्या मुझे छुएँ भी। मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं कि औलाद वाली होते हुए भी मैं बे-औलाद जैसी मरूँगी। दुनिया कितनी ही ख़राब हो गई है, मगर मुझे पूरा भरोसा है कि चार कंधे मेरी अर्थी के लिए मिल ही जाएँगे। श्मशान में ना कोई सही, डोम अग्नि देता है तो वही मुखाग्नि भी दे ही देगा।"

यह कहते-कहते अम्मा के फिर आँसू झरने लगे। मैंने देखा चाचा भी बड़े भावुक हो गए हैं। उनकी भी आँखें आँसुओं से भर गईं हैं। अब अम्मा की तकलीफ़ मुझसे देखी नहीं गई। मैं उनके पास जाकर बगल में बैठ गई। उनके आँसुओं को पोंछते हुए कहा, अम्मा चुप हो जाओ। काहे इस तरह की बातें सोच-सोच कर अपने को परेशान करती हो। बाहरी क्यों आएँगे तुम्हारे लिए, मैं नहीं हूँ क्या? तुम ही ने अभी कहा कि मैं भी तुम्हारा ही खून हूँ, अगर भैया लोग नहीं आएँगे तो मैं करूँगी सब कुछ। मैं तुम्हारे लिए चारों कंधा बन जाऊँगी।

मैं ही तुम्हें अग्नि को समर्पित करूँगी अम्मा। तुम इसे खाली सांत्वना देने वाले शब्द न समझना। किसी बेटी के लिए यह कहना ही नहीं बल्कि सोचना भी असहनीय है। अपनी माँ के लिए यह सोच कर ही दहल उठेगी है। लेकिन मैं कह रही हूँ। क्योंकि मैं जानती हूँ कि यह कटु सत्य है। इसलिए भी कह रही हूँ कि तुम्हें यक़ीन हो जाए कि तुम्हारी बेटी कमज़ोर नहीं है। उसके पास इतनी क्षमता है, इतनी हिम्मत है कि अपनी अम्मा के लिए कुछ भी कर सकती है। उसकी कोई भी इच्छा पूरी कर सकती है। तुम अगर अपनी और इच्छाएँ भी बताओगी तो मैं वह भी पूरी करूँगी। मुझ पर भरोसा रखो। मेरे क़दम डगमगाएँगे नहीं।मेरी बात सुनकर अम्मा एकदम शांत हो गईं।

अचानक ही उनके चेहरे पर फिर कठोरता छा गई। चाचा की तरफ़ देखते हुए उनका नाम लेकर बोलीं, "आज संयोग से तुम यहाँ हो, तुम्हारे सामने कह रही हूँ कि मेरी अंतिम इच्छा यही है कि मेरी बिटिया मुझे श्मशान तक ले जाएगी, मुखाग्नि भी वही देगी। तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है कि मेरे कपूत मेरी अर्थी को छूने भी ना पाएँ। पहली बात तो उन सबको बताया ही ना जाए। भूले-भटके आ भी जाएँ तब भी तुम्हें यह सब कराना ही है जो मैं कह रही हूँ। मुझे अपनी बिटिया पर पूरा भरोसा है। यह जो कह रही है उसे पूरा भी करेगी। मेरे कपूत रोड़ा ना बनें यह सब तुम्हें देखना है। बोलो तुम मेरी यह इच्छा पूरी करोगे कि नहीं।"

अम्मा का ऐसा रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं अचंभित हो गई। उन्हें एकटक देख रही थी। तभी चाचा बोले, "भाभी काहे इतना ग़ुस्सा करती हो, अरे लड़के नहीं आएँगे तो क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है। मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। तुम्हारा क्या मुझ पर कोई अधिकार नहीं है। मैंने तुम्हें हमेशा भाभी से कहीं ज़्यादा माँ की तरह सम्मान दिया है। देखा है। तुम जब आई तो मैं बहुत छोटा था। अम्मा से ज़्यादा समय तो मेरा तुम्हारे ही पास बीतता था। बाद में तो सब अम्मा से और ख़ुद अम्मा भी कहतीं थीं कि वह हमें जन्म देने भर की दोषी हैं। असली माई तो तुम ही हो। इस नाते तो तुम पूरे अधिकार से मुझसे सब कुछ कह सकती हो, बल्कि कहोगी क्या, मेरा कर्तव्य है। बिटिया को ऐसे असमंजस या ऐसे काम के लिए क्यों कह रही हो।"

यह कहते-कहते चाचा एकदम भावुक हो गए। उनके आँसू निकल पड़े। चाचा के मन में अम्मा के लिए इतना सम्मान होगा यह मैं उसी दिन जान पाई थी। मैं उनके इस रूप को देखकर एकदम अभिभूत हो उठी थी। मेरी भी आँखें भर आई थीं। इस समय असल में हम तीनों की ही आँखें भरी थीं। मेरी चाचा के प्रति श्रद्धा से भरी थीं।

अम्मा चाचा का नाम लेकर बोलीं, "देखो मैं भी तुम्हें देवर से कहीं ऊपर स्थान हमेशा देती रही। अपने बच्चों सा ही हमेशा माना। उसी अधिकार से कह रही हूँ कि मैंने जो कहा उसे जरूर पूरा करना। मेरे कपूतों ने जो किया मैं समझती हूँ कि उन्हें उनके कर्मों की सजा जरूर मिले। लोग जानें। जिससे कोई सपूत कपूत ना बने।"

चाचा अम्मा को बहुत देर तक समझाते रहे कि बेटों के प्रति इतनी कठोर ना बनें, लेकिन वह टस से मस नहीं हुईं। आख़िर हार कर चाचा बोले, "ठीक है भाभी, तुम्हारी जो इच्छा है वही सब होगा। मगर फिर कहूँगा कि एक नहीं ठंडे दिमाग़ से बार-बार सोचना। मैं तुमसे हाथ जोड़कर यही कहूँगा कि जो भी हो तुम इतनी कठोर ना बनो। तुम ऐसा करोगी तो दुनिया यही कहेगी कि अब माँ भी पत्थर दिल होने लगी हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम पर दुनिया कुछ इस तरह का आरोप लगाए। दुनिया को तो तुम मुझसे अच्छा समझती हो। वह तिल का ताड़ बनाने में देर नहीं लगाती। तुम अपनी जगह एकदम सही हो, लेकिन यह दुनिया यह कहने में ज़रा भी देर नहीं लगाएगी कि बड़ी कठोर माँ है। अरे वह पूत कपूत हैं तो यह माता पत्थर हृदय क्यों हो गई। सब यही कहेंगे कि जब माँ इतनी कठोर है तो बेटे तो आगे निकलेंगे ही।"

चाचा आगे कुछ और बोल पाते उसके पहले ही अम्मा ने उन्हें रोकते हुए कहा, "भैया एक बात बताऊँ, हमें दुनिया की परवाह उतनी ही करनी चाहिए जितने से हमारा खुद का गला ना कसने लगे। मुझे परवाह नहीं कि दुनिया माता कहेगी मुझे या कुमाता। दुनिया का काम है कहना, जो भी करो कुछ ना कुछ कहेगी जरूर। अगर सख्ती नहीं करूँगी तो कहेंगे माँ-बाप ही गलत हैं, सही शिक्षा, संस्कार नहीं दिए, तभी बच्चे ऐसे हुए। सख्ती करो तो कहेंगे कसाई हैं। लेकिन भैया एक बात और बता दूँ कि सब एक से नहीं होते। बहुत लोग कसाई कहेंगे, तो कुछ लोग यह भी कहेंगे कि अच्छा किया। ऐसी औलादों के साथ ऐसा ही करना चाहिए। उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए।


भैया दुनिया की इतनी चिंता ना करो, यह किसी तरह चैन से नहीं रहने देती, ना मरने देती है, न जीने देती है। इसलिए जैसा कहा है वैसा ही करना। और सुनो, बुरा मत मानना, अगर तुम्हें यह सब करने में कोई बाधा महसूस हो रही हो तो निसंकोच ना कह दो। तुम पर कोई दबाव नहीं डाल रही हूँ।" अम्मा की यह बात चाचा को तीर सी चुभ गई। वह एकदम विह्वल होकर बोले, "क्या भाभी, कैसी बात करती हो। तुम्हारी एक-एक बात, एक-एक इच्छा मेरे लिए भगवान का दिया आदेश है। मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करने में अपने जीते जी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ूँगा।"

चाचा चले गए। मैंने सोचा अम्मा निश्चित ही शादी में नहीं जाएँगी। जब इतना ग़ुस्सा हैं तो सोचेंगी कि वहाँ जाने पर सारे लड़के सामने होंगे। हो सकता है वह सब कुछ बातचीत करें। इसीलिए चाचा की लड़की की शादी में दिया जाने वाला गिफ़्ट अभी से दे दिया। चाचा के जाने के बाद अम्मा कई दिन उदास रहीं। मगर मेरी सारी आशंकाओं के उलट अम्मा चाचा की लड़की की शादी में गईं। चाचा ने दुनिया की चिंता करते हुए अम्मा के तीनों कपूतों को भी बुलाया। कहा, "अब सब हमसे बोलते-चालते हैं तो कैसे ना बुलाते।" तीनों भाई परिवार सहित शामिल भी हुए। अम्मा के पैर भी संकोच के साथ ही सही छूए। भाभियों ने भी, पोते-पोतियों ने भी छूए। हमारी अम्मा जो पत्थर से भी कठोर दिल लेकर गई थीं वह सभी के पैर छूते ही बर्फ़ बनके पिघल गया। बह गया आँसू बनकर।

अम्मा ने बहुत कोशिश करके अपने आँसुओं को रोका। रोना बंद किया, कि चाचा के परिवार का कोई देख ना ले, नहीं तो कहेंगे कि क्या शादी-ब्याह, हँसी-ख़ुशी के माहौल को ख़राब कर रही हैं। शुभ शगुन का काम हो रहा है और यह आँसू बहा कर अपशगुन कर रही हैं। अम्मा परेशान हो गईं थीं। मन उनका उचाट हो गया था। वह लड़की की विदाई के बाद ही वापस आना चाहती थीं लेकिन चाचा ने रोक लिया। असल में सच्चाई यह थी कि वह पोते-पोतियों के प्यार-दुलार में रुकी थीं।

सब दादी, दादी कहते हुए अम्मा से चिपट गए थे। चार-पाँच साल का पोता तो उनकी गोद से उतर ही नहीं रहा था। सब इतना पीछे पड़ गए कि दादी को अपने घर खींच कर ले ही गए। चाचा, चाची ने भी प्यार-मनुहार की कि "जाओ, चली जाओ भाभी, बच्चे कितना प्यार से कह रहे हैं, इनकी क्या ग़लती, इनका हक़ क्यों छीन रही हो। तुम्हारे प्यार-स्नेह आशीर्वाद पर इनका पूरा हक़ है।

असल में चाचा चाहते थे कि माँ-बेटों के बीच की खाई पट जाए। जो हुआ सो हुआ है। दिल से किसी बात को लगाकर क्या बैठना। चाचा ने ही चुपके से तीनों भाइयों से कहा था, "माँ को सम्मान के साथ बुलाओगे तो जाएँगी।" पोते-पोतियों का प्यार जहाँ अम्मा को घर की तरफ़ खींचे लिए जा रहा था। वहीं लड़कों, बहुओं ने एक बार भी नहीं कहा तो उनके पैर उठ ही नहीं रहे थे। चाचा के कहने पर जब तीनों भाइयों ने कहा तब वह गईं थीं।

वहाँ वह लाख कोशिश करके भी अपने आँसुओं को रोक नहीं सकी थीं। बरसों बाद उस घर में वह क़दम रख कर आँसू रोकने की हर कोशिश करके भी असफल रहीं। वह घर जहाँ डोली से उतरने के बाद उन्होंने अपने दांपत्य जीवन का पहला क़दम चलना शुरू किया था। वह घर-आँगन जहाँ उन्होंने जीवन के ढेर सारे सुनहरे पल बिताए थे। और जीवन का वह सबसे काला दिन भी देखा था जब पति की दर्दनाक मौत के बाद उनका पार्थिव शरीर आया था। और फिर अर्थी में श्मशान की ओर रवाना हुआ था, अपने ही बेटों के कंधों पर। और अब उनके जाने के बाद हालत यह हो गई है कि उन्हें यह प्रण लेना पड़ा कि अपने बेटों के कंधों पर वह नहीं करेंगी अपनी अंतिम यात्रा।

घर से कोई रिश्ता नहीं रखेंगी। वही घर-आँगन जहाँ गुनगुनाया करती थीं कि सूरज ना बदला चाँद ना बदला। मगर लड़के इतना बदल गए थे कि अपनी औलाद कहने में भी अम्मा को संकोच होता था। अम्मा वहाँ ज़्यादा देर नहीं रुक पायीं। पोते-पोतियों के लाख कहने पर भी नहीं। वे कहते रहे दादी रुक जाओ। उनके आँसू भी अम्मा को नहीं रोक पाए। क्योंकि चाचा के कहने पर जिन लड़कों ने उनसे चलने के लिए कहा था, घर पहुँचने पर उन सब ने उनसे एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा। अम्मा फिर पत्थर दिल बन चाचा के यहाँ लौट आईं थीं। और चाचा-चाची के ढेरों आग्रह के बावजूद अगले दिन सुबह ही वहाँ से वापस चित्रकूट आ गईं। चाचा से साफ़ कह दिया कि बिटिया घर पर अकेले है।

मैं शादी में नहीं गई थी। एक तो ऑफ़िस से छुट्टी नहीं मिल रही थी। दूसरे मैं उस जगह किसी सूरत में नहीं जाना चाहती थी जहाँ मेरा सम्मान, इज़्ज़त किसी और ने नहीं सगे भाइयों ने ही तार-तार की थी। आने के बाद अम्मा चाचा पर भी बहुत नाराज़ हुईं। कहा, "हमें बुलाकर इस तरह उन सब से मिलाने की कोशिश उनको नहीं करनी चाहिए थी। कोई रिश्ता टूटने के बाद कहाँ जुड़ता है, जो ये जोड़ने चले थे।" मुझे लगा अम्मा को चाचा के लिए ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। उन्होंने तो परिवार को माँ-बेटों को एक करने का पवित्र काम किया था। कितनी अच्छी है उनकी भावना।

यह बात अम्मा से कही तो अम्मा बोलीं, "तुम सही कह रही हो, लेकिन क्या करूँ उन सब ने एक शब्द भी नहीं कहा कि अम्मा रुक जाओ। मेरा मन था कि मैं अपने आदमी, अपने पुरखों के घर में रुकूँ। उस घर में कुछ समय और बिताऊँ जहाँ जीवन के न जाने कितने सुख-दुख के पल जिए थे। जहाँ इन्हीं बच्चों को जन्म दिया। जहाँ रात दिन अपने सुख-दुख कष्ट की परवाह किए बग़ैर इन सब को पाला। जहाँ इन सब की तोतली बातों, लड़खड़ाते हुए चलने की कोशिश में गिरने, उठ कर खड़े होने को देख-देख कर मन मारे ख़ुशी के झूम-झूम उठता था। मगर कलेजा फट गया कि उन सब ने एक बार भी नहीं कहा कि अम्मा रुक जाओ। कान यह सुनने को तरस गए कि, "अम्मा रुक जाओ।"

जब वहाँ से निकलने लगी तो मैं अपने को घोर अपमानित महसूस कर रही थी। यह सोचते हुए क़दम बाहर निकाल रही थी कि दुबारा अब इस घर की छाया भी नहीं देखूँगी। बार-बार मन में आ रहा था कि मैं गाती थी कि कितना बदल गया इंसान, किसी और ने नहीं मेरी औलादों ने ही चरित्रार्थ करके दिखा दिया है। वह भी एक नहीं, दो नहीं, तीन की तीनों ने। तीनों एक ही ढर्रे पर। उन्होंने, हमने आख़िर कौन सी कमी की थी इन सब को पालने-पोसने में। जो लोग कहते हैं कि महतारी-बाप जो संस्कार देते हैं बच्चे वही बनते हैं। मैं कहती हूँ कि यह कहना पागलपन है। हम दोनों ने पूरे घर में हमेशा अच्छे संस्कार दिए। जब-तक शादी नहीं हुई थी इन सब की, तब-तक यह सब भी ठीक थे, सही-सही चल रहे थे।" अम्मा यह सब कह कर रोने लगीं थीं तो बड़ी मुश्किल से चुप कराया था।

वह कुछ देर शांत रहने के बाद फिर बोलीं थीं, "तुमने बहुत अच्छा किया जो साथ नहीं चली। साफ़ मना कर दिया। मैं ही मोह में पड़ गई थी जो तुमसे भी चलने के लिए कहा था। मन में ग़ुस्सा तो बहुत था लेकिन फिर भी मन में कपूतों से मिलने के लिए जी हुलस रहा था। मगर तुमने इनकार करके हमारी ग़लती को और बड़ा नहीं होने दिया। लेकिन अब ख़ून खौल रहा है। सुनो तुमसे बहुत साफ़ कह रही हूँ कि जब मैं मरूँ तो इन सब को भूलकर भी ख़बर ना देना।

अम्मा एकदम आग बबूला होकर बोलीं थीं। मैं कुछ बोलने को सोच ही रही थी कि अम्मा ने फिर चाचा का नाम लेकर कहा, "उनको भी किसी सूरत में नहीं बताना। क्योंकि मालूम होने पर वह उन सबको बताएँगे ज़रूर। तुम्हें मेरी क़सम है, जो मैं कह रही हूँ बिल्कुल वैसा ही करना। ऐसा न करके तुम सिर्फ़ मेरी ही नहीं अपने बाप की आत्मा को भी कष्ट दोगी। उनका अपमान करोगी।" मैं तब उनका ग़ुस्सा, उनकी दृढ़ता देखकर काँप उठी थी।

मैंने कहा, अम्मा तुम परेशान ना हो, जैसा तुम चाहती हो मैं वैसा ही करूँगी। मैं भी कैसी अभागी हूँ जो मुझे यह सब करने की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ रही है। यह सुनते ही वह बोलीं, "अभागी तुम नहीं, अभागे तो वह तीनों कपूत हैं, जिनका अधिकार छीन कर मैं तुम्हें दे रही हूँ।"

पता नहीं मैं अभागी हूँ कि सौभाग्यशाली मगर मैंने अम्मा की सभी इच्छाएँ अक्षरशः पूरी की थीं। किसी को कानों-कान ख़बर ना होने दी। यह सब मुझे उनके द्वारा क़सम दिए जाने के पंद्रह साल बाद ही करना पड़ा था। मैं सोचती थी कि समय और उम्र के साथ-साथ वह सब भूल जाएँगी। लेकिन मैं ग़लत निकली। समय के साथ वह बहुत कुछ भूल गईं। मगर इस बात को बराबर याद रखा। ना सिर्फ़ याद रखा बल्कि मुझे बार-बार पूरी शक्ति के साथ याद भी दिलाती रहती थीं। चाचा तब कुछ-कुछ समयांतराल पर आते रहते थे।

अम्मा को यह अच्छा नहीं लगता था। वज़ह सिर्फ़ इतनी थी कि उन्हें इस बात पर चाचा को देखकर ग़ुस्सा आ जाती थी कि उन्होंने धोखे से उन्हें बेटों से मिलवाने की कोशिश की। आखिर एक दिन बोलीं, "बिटिया तुम यहाँ से ट्रांसफ़र करा कर किसी दूसरे शहर चलो, जो यहाँ से काफ़ी दूर हो।" मैंने पूछा क्यों अम्मा? यहाँ सब ठीक तो है। कई बार पूछने पर बोलीं, "जब तक यहाँ रहूँगी उनकी याद आती रहेगी। वह दर्दनाक घटना मुझे रुलाती रहेगी। जिस दिन उनके साथ यहाँ वह घटना घटी तभी से मुझे यहाँ से पता नहीं क्यों घृणा हो गई है। सोचती हूँ कि किस-किस से घृणा करूँ, कब तक करूँ। मैं छोड़ना चाहती हूँ इस बुरी आदत को, इसलिए कहीं दूर चलो।" उनकी भावनाओं के आगे मुझे झुकना पड़ा। डेढ़ साल तक लगातार कोशिश करके ट्रांसफ़र करा पाई। अम्मा के बताए शहर लखनऊ में।

अम्मा को मैंने यह कभी नहीं बताया कि ट्रांसफ़र के लिए मैंने पूरे पिचहत्तर हज़ार रुपए रिश्वत दी थी, नहीं तो मनचाहा शहर छोड़ दो, ट्रांसफ़र भी नहीं होता। अम्मा वज़ह के नाम पर बात केवल बाबूजी की करती थीं। लेकिन उनकी बातों से मैं साफ़ अंदाज़ा लगा रही थी कि वह चाचा से भी छुटकारा चाहती थीं। मेरी यह आशंका चित्रकूट से लखनऊ चलते समय कंफ़र्म हो गई। जब उन्होंने क़सम दी इस बात की और सख़्त हिदायत भी कि चाचा या किसी रिश्तेदार को भी कभी नहीं बताऊँगी कि हम कहाँ चल रहे हैं। उनकी बात सुनकर मैं कुछ देर तक उन्हें देखती ही रह गई थी। मैंने सोचा कि लखनऊ आकर वह कुछ दिन ज़्यादा डिस्टर्ब रहेंगी। नई जगह उन्हें एडजस्ट होने में समय लगेगा, मगर मैं ग़लत थी, लखनऊ में उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी जेल से छूटकर आज़ाद हो गई हैं, अपने घर पहुँच गई हैं।

लखनऊ आकर उनकी यह रट और ज़्यादा तेज़ हो गई कि जैसे भी हो मैं जल्दी से जल्दी शादी कर लूँ। अपनी कोशिश वह करती रहीं। मैं जब कहती अम्मा अब क्या शादी करनी। इतनी उम्र हो गई है। वह भी दूसरी शादी। तो कहतीं, "कोई उम्र नहीं हुई है। चौंतीस-पैंतीस साल में तो आजकल लोग शादी कर रहे हैं।" मैं कहती अम्मा सब की और मेरी बात अलग है। इसके आगे वह मुझे बोलने ना देतीं, नॉनस्टॉप शुरू हो जाती थीं। कहतीं, "तुम्हें दुनियादारी कुछ पता नहीं है। एक इंसान ग़लत निकला तो इसका मतलब यह नहीं कि सब वैसे ही होंगे। एक बार कुछ बात हो गयी तो इसका मतलब यह भी नहीं कि उसी बात को लेकर बैठे रहें, बाक़ी ज़िंदगी उसी बात को सोचने में गला दें।

ज़िंदगी में बहुत ऊँच-नीच होती रहती है, ऐसे अकेले कब तक ज़िंदगी काटोगी। मैं भी तुम्हारे लिए कितने दिन रहूँगी। ज़िंदगी भर तो बैठी नहीं रहूँगी। अपनी आँखों के सामने तुम्हारा घर-परिवार देख लूँ तो मुझे चैन पड़ जाए। नहीं तो मेरे प्राण भी नहीं निकलेंगे। यमराज से भी तू-तू, मैं-मैं करनी पड़ेगी कि रुक जाओ, अभी बिटिया की शादी करनी है।" उनकी इस बात पर मुझे हँसी आ जाती तो कहतीं, "बिटिया हँसो नहीं, तुम्हें मेरी तकलीफ़ का अंदाज़ा नहीं, लेकिन मुझे तुम्हारी तकलीफ़ का अंदाज़ा है। क्या मैं नहीं समझती कि तुम किस तरह ज़िंदगी जी रही हो।" उनकी इस बात पर मैं लाख कोशिश करती थी नॉर्मल बनी रहने की, लेकिन चेहरे पर घनघोर गंभीरता आ ही जाती थी।

ऐसे में कई बार हम माँ-बेटी रो पड़ती थी। अपनी-अपनी जगह बैठी हम दोनों ही रोती रहती। आँसू बहाती रहती। बड़ी देर बाद ख़ुद ही दोनों चुप हो जाती, क्योंकि हमें कोई चुप कराने वाला, सांत्वना देने वाला नहीं था। मैं उठती, चाय बनाती। अम्मा के साथ बैठकर पीती। असल में अम्मा अपनी जगह सही थीं। मैं भी अन्य की ही तरह ख़ुशहाल अच्छी ज़िंदगी जीना चाहती थी। मैं भी सपना देखती थी कि मेरा भी कोई पति हो, बच्चे हों, पूरा परिवार हँसी-ख़ुशी से रहे। परित्यक्ता बनने के डेढ़ साल बाद ही मैं यह सपना देखने लगी थी। लेकिन परिस्थितियाँ एक के बाद एक बिगड़ती ही गईं। समय तेज़ी से निकलता जा रहा था। मैं यह नहीं कहूँगी कि समय निकल गया और मुझे पता ही नहीं चला। मुझे सब पता चल रहा था। मैं एक-एक पल को तेज़ी से अपने से बिछुड़ते देख रही थी।

मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि मेरे जीवन के स्वर्णिम पल निकलते जा रहे हैं। परिस्थितियों ने मुझे विवश कर रखा था। मेरी अनुभवी अम्मा की तेज़-तर्रार आँखें सब देख-समझ रही थीं। उनका अपने कपूतों से नफ़रत का कारण ही यही था कि मेरे भाइयों ने अपनी परित्यक्ता बहन की बजाए ज़िंदगी संवारने, उसकी दूसरी शादी करने के उसके चरित्र पर महज़ इसलिए कीचड़ उछाला, पूरे समाज में बदनाम किया जिससे मैं उनकी प्रॉपर्टी की हवस पूरा होने में और रोड़ा ना बनूँ। बाबूजी की नौकरी उनमें से किसी एक की बीवी को मिल जाए।

अम्मा की कोशिश में कहीं कमी नहीं थी। वह लगी रहीं। पेपर में निकलने वाले ऐड भी देखतीं। फ़ोन करतीं। लेकिन लोगों की बातचीत, प्रश्न सुनकर घबरा जातीं। दो-चार दिन शांत रहतीं फिर कोशिश करतीं। एक दिन मुझसे बोलीं, "सुन बिटिया मैं ठीक से बात नहीं कर पाती। कान से सुनाई भी कम देता है। ऐसा कर तू ही माँ बन कर बात किया कर। मैं सुनती रहूँगी।" उनकी बात मुझे बड़ी अटपटी लगी। लेकिन फिर उनकी ज़िद, उनका आदेश, जिसे मैं सालों-साल से मानती आई थी। मैं बात करती, वह ईयर फ़ोन का एक हिस्सा अपने कान में लगाकर बड़े ध्यान से सुनतीं। फिर कहतीं इससे आगे बात करेंगे, ये सही लग रहा है। या इससे आगे बात करना ठीक नहीं है।

उनकी इस कोशिश के चलते कई लोग आए भी। लेकिन बात जहाँ से शुरू होती वहीं ख़त्म हो जाती। किसी की नज़र में मैं ज़्यादा हेल्दी होती चली गई थी, तो किसी की नज़र में ज़्यादा लंबी थी। कईयों के घरवालों ने तो बड़ी बेशर्मी से यह पूछा कि, "क्या सच में पहली शादी से तुम्हारे कोई बच्चे नहीं हैं।" फ़ोन पर सारी बातें बता दिए जाने के बावजूद यह पूछा जाता था। इन बातों से हम दोनों माँ-बेटी बहुत आहत होती। बड़ा अपमान महसूस करती थी। मैं कहती, बस कर अम्मा अब और अपमान नहीं सहा जाता।

लेकिन अम्मा अपनी बिटिया की ख़ुशी, उसकी ज़िंदगी सुरक्षित करने के लिए कुछ भी सहने को तैयार थीं। इस काम में हम माँ-बेटी को लगा कि किराए का मकान ठीक नहीं है। इसलिए अपना मकान जो हम कुछ समय बाद लेने की सोच रहे थे उसे जल्दी से जल्दी लेना तय किया। इसमें खेत बेचने से मिले पैसों से बड़ी मदद मिली। फिर भी बजट कम होने के कारण मेन सिटी से थोड़ा दूर एक सोसाइटी में लेना पड़ा। जो मेरे ऑफ़िस से क़रीब तीस किलोमीटर दूर था। आने-जाने में होने वाली दिक्क़तें मुझे बिल्कुल थका देती थीं। कई टेंपो बदलकर ऑफ़िस से घर पहुँच पाती थी।

ऑफ़िस में भी वही माहौल था, जैसा दुनिया में अन्य जगह है। कुछ अच्छे, तो ज़्यादातर नोचने खाने वाले लोग ही मिले। दो सीनियर तो पहले ही दिन से पीछे पड़ गए थे। बिना काम के बुला कर बैठा लेते थे। बहुत क़रीबी, बहुत हमदर्द बनने का प्रयास करते दोनों। उन दोनों की पूरी हिस्ट्री वहाँ के बाक़ी लोगों ने बड़ी जल्दी ही बता दी थी। दोनों की मक्कारी जान-समझ तो मैं भी रही थी। इसलिए धीरे-धीरे अपनी दूरी बढ़ाती रही।

एक दिन एक कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ा तो साफ़ कहा कि, सर कोई काम हो तभी बुलाया करिए। मैं बेवज़ह की बातें पसंद नहीं करती। दोनों के मन की नहीं हुई तो दोनों परेशान करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते थे। उनके चमचे भी साथ लगे रहते थे।

चित्रकूट में मैंने इस तरह की समस्या का सामना नहीं किया था, इसलिए यहाँ एकदम परेशान हो गई थी। दोनों सीनियर का डर इतना था कि बाक़ी लोग यहाँ तक कि महिलाएँ भी मुझसे बात करने से कतराती थीं। मैं अम्मा को कुछ नहीं बताती थी कि वह परेशान होंगी। जैसे-तैसे आगे बढ़ती रही। विभाग का लेखा अधिकारी था तो कम उम्र का ही लेकिन था बहुत ही तेज़-तर्रार। बड़े रौब-दाब के साथ रहता था। थोड़ा उद्दंड भी था। सीनियर ने जानबूझकर मुझे उसी के साथ अटैच कर दिया, कि मुझे अकाउंट का काम आता नहीं, वह खुर्राट आदमी मुझे रोज़ प्रताड़ित करेगा, जब उसे पता चला तो वह भी तुरंत समझ गया कि निशाना कहाँ है।

उसने छूटते ही भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं सीनियर को। यह भी ना सोचा कि मैं सामने खड़ी हूँ। जब उसका ग़ुस्सा कम हुआ तो बोला "सॉरी, यह साले इसी लायक़ है। बताइए आपने अकाउंट का काम कभी किया नहीं, आप से काम लूँ, अकाउंट का मामला है, कुछ गड़बड़ हो गई तो दोनों की नौकरी ख़तरे में, या फिर मैं अकेले ही करता रहूँ। बदनाम यह करेंगे कि एक वर्किंग हैंड साथ दिया तो है, काम क्यों नहीं लेते, क्यों नहीं सिखाते, वह काम नहीं कर रही है तो यह तुम्हारा फ़ेल्योर है।

वह सही कह रहा था। सीनियर ने एक तीर से कई निशाने साधे थे। खुर्राट आदमी और मुझको एक साथ परेशान करने और हमारी नकेल कसने के लिए। उनका अनुमान था कि मैं काम जानती नहीं तो ग़लती मिलते ही पनिश करने मौका उन्हें आसानी से मिल जाएगा। इससे मैं अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में उनके सामने सरेंडर कर दूँगी। इस चाल से मैं बहुत डर गई थी। कई दिन मुझे ठीक से नींद नहीं आई थी।

ऑफ़िस के पास पहुँचते ही मेरी आधी जान ऐसे ही निकल जाती थी। खुरार्ट ने दो-तीन दिन में ही मेरी हालत समझ ली तो बोला, "आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं सबके लिए बुरा आदमी नहीं हूँ। अगर इतना ताव ना रखूँ तो यह साले जीना हराम कर देंगे। साले नौकरी भी ख़तरे में डाल देंगे। ज़रा भी संकोच नहीं करेंगे।" शुरुआती दो हफ़्ते उसने मुझसे कोई काम लिया ही नहीं। ना ही कोई बात करता था। काम उसके पास ज़्यादा था तो उसका सिर झुका ही रहता था। उसी में जुटा रहता था। मैं बेकार बैठे-बैठे बोर हो जाती थी। मुझे लगा ये तो मुझे वर्क-लेस करके ही मेरी नौकरी ख़तरे में डाल देगा।

एक दिन बड़ा डरते-डरते मैंने उससे काम सिखाने के लिए कहा तो वह बोला, "मैं जानता हूँ खाली बैठे-बैठे आप बोर हो जाती हैं। एक-दो दिन रुक जाइए फिर बताता हूँ आपको।" उसकी बात से मुझे बड़ी राहत मिली। उसने सच में दो दिन बाद मुझे काम बताना शुरू किया। बताने का ढंग अच्छा था तो जल्दी ही काम समझ में आने लगा। दो महीना बीततेे-बीतते उसने मुझे काफ़ी कुछ सिखा दिया था। इस दौरान मुझे समझ में आया कि यह तो वैसा है ही नहीं जैसी इसकी इमेज है। यह तो एक सहृदय आदमी है। बेवज़ह लोग इसे झगड़ालू, खुर्राट न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं। मैं भी कितना डर रही थी। जल्दी ही हमारे बीच जो डर का माहौल था वह ख़त्म हो गया। मगर मेरे लिए नई समस्या पैदा हो गई कि जब काम सीख लिया तो मेरा काम बढ़ता ही गया।
रोज़ ऑफ़िस से निकलते-निकलते सात-आठ बज जाते। घर नौ बजे तक पहुँच पाती। अम्मा बहुत परेशान हो जातीं। मैं लाख मना करके जाती, लेकिन वह कुछ ना कुछ खाना बना ही लेतीं थीं। मुझे डर लगता कि अब उनके हाथ-पैर ठीक से चलते नहीं। लेकिन वह मानती नहीं। कहतीं, "तुम दिन-भर की थकी-माँदी आती हो, खाना क्या बनाओगी।" कहती वह सही थीं, घर पहुँच कर एक गिलास पानी भी उठा कर पीने की हिम्मत नहीं रह जाती थी। लेकिन मैं फिर भी नहीं चाहती थी कि अम्मा गैस-चूल्हा ऑन करें। मैं पानी, नाश्ते का सारा सामान उनके पास रख कर जाती थी कि मेरे आने तक वह नाश्ता वग़ैरह कर लिया करें। लेकिन वह ना मानने वाली थीं तो ना मानी। आखि़र एक दिन गिर पड़ीं। घुटने, कोहनी में कई जगह चोट आ गई।

अंततः मैंने खुर्राट सर से कहा कि ऑफ़िस का कुछ काम छुट्टियों में घर ले जाकर कर लिया करूँगी। शाम को मुझे पाँच बजे तक छुट्टी दे दिया करिए। उसने कंप्यूटर के मॉनिटर पर आँखें गड़ाए-गड़ाए ही कहा, "देखिए, मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने कभी आपसे पाँच बजे के बाद रुकने के लिए नहीं कहा। जब रुकने के लिए नहीं कहा तो कभी जाने के लिए भी नहीं कहूँगा कि आप पाँच बजे तक यहाँ से चली जाया करें। जो काम है आपके सामने है। कितना इंपॉर्टेंट है वह आप भी जानती हैं। आप अपने हिसाब से तय कर लीजिए कि करना क्या है। आपको कोई काम घर ले जाने की इजाज़त नहीं है।" उसके इस जवाब से मैं एकदम सकते में आ गई। उससे ऐसे जवाब की मैंने कल्पना तक नहीं की थी।

मैं कुछ देर तक हतप्रभ सी उसे देखती रह गई। मगर वह अपने काम में बिज़ी रहा। उसकी कठोरता और अमानवीय जवाब से मुझे बहुत दुख हुआ। मेरी आँखें भर आईं। लेकिन जानती थी कि आज की तारीख़ में इनका कोई मोल नहीं है, तो जल्दी ही उन्हें पोंछ लिया। उस दिन भी रात दस बजे घर पहुँची। बहुत रोई। मन में आया कि छोड़ दूँ नौकरी। लेकिन फिर सोचा कि कैसे चलेगी ज़िंदगी? हाउस लोन की किश्तें कहाँ से भरूँगी? नहीं भरूँगी तो रहने का ठौर भी चला जाएगा। जो भी हो, जैसे भी हो, अगर ज़िंदगी चलानी है तो नौकरी करनी ही होगी। फिर संडे को मैंने पहला काम किया कि एक बाई ढूंढ़ कर लगाई। जो चौका-बर्तन, खाना-पीना सब कर दिया करे। होम लोन की किश्तें देने के बाद जो पैसा बचता था उसे देखते हुए बाई लगाना बहुत ही मुश्किल था। लेकिन मैंने बाक़ी ख़र्चों में ज़्यादा से ज़्यादा कटौती करके लगाया।

खुर्राट पर ग़ुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उस पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। ऐसे ही कुछ महीने बीते होंगे कि फ़ाइनेंशियल इयर का लास्ट मंथ आ गया। काम का बोझ एकदम बढ़ गया। सीनियरों का हम दोनों को टॉर्चर करना ही मक़सद था तो कहने को भी कुछ और हेल्पिंग हैंड नहीं दिए। मैं आठ-नौ बजे के पहले ऑफ़िस से नहीं निकल पा रही थी।


एक दिन आठ बजे निकली तो बाहर एक टेंपो नहीं दिख रहा था। इंतज़ार करते-करते थक गई। कोई ऑटो तक नहीं दिेख रहा था। क़रीब एक घंटा बीता होगा कि एक बाइक तेज़ी से आगे निकली, फिर कुछ दूर आगे जाकर झटके से रुक गई और वापस मुड़कर तेज़ी से मेरे पास आकर रुकी। मैं डरी, कुछ समझती कि खुर्राट की आवाज़ आई, "अरे आप अभी तक यहीं खड़ी हैं।" वह हेलमेट लगाए था इसलिए पहचान नहीं पाई थी। मैंने कहा, “पता नहीं क्यों आज टेंपो, ऑटो दिख ही नहीं रहे हैं। पास होता तो रिक्शा कर लेती।

उसने पूछा "जाना कहाँ है?" 

मैंने कॉलोनी का नाम बताया, तो वह बोला, "अरे वहीं तो मैं रहता हूँ। आपने कभी बताया ही नहीं कि आप इतनी दूर से आती हैं। ख़ैर आज तो आपको कोई टेंपो नहीं मिलने वाला, क्योंकि दोपहर से ही यह सब हड़ताल पर हैं। क्यों हैं पता नहीं। पैसेंजर ज़्यादा होने के कारण सारे ऑटो उसी रोड पर जा रहे हैं, जिस पर उन्हें आने-जाने दोनों तरफ़ से सवारियाँ मिल रही हैं। इसलिए आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको छोड़ दूँगा, नहीं यहीं खड़ी रह जाएँगी।" मैं बड़े असमंजस में पड़ गई।

बाइक पर शादी से पहले भाइयों के साथ ही कभी-कभार चली थी। शादी हुई तो कुछ दिन उस उठाईगीर पति के साथ उसी राजदूत बाइक पर जिसे बाबूजी ने शादी में दिया था। बड़े शौक़ से कि उनका दामाद और बिटिया मोटर साइकिल से चलेंगे। उस समय दहेज में बाइक का दिया जाना मायने रखता था। अब इतने दिनों बाद, इतनी उम्र में एक पराए पुरुष के साथ बाइक पर जाने की मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। वह भी खुर्राट के साथ। जो अब हेलमेट उतार कर बात कर रहा था। 

मुझे असमंजस में पड़ा देखकर बोला, "इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है? स्थिति को समझने की कोशिश करिए। इस समय कोई भी साधन नहीं मिलेगा। कोई दिक़्क़त हो गई तो ज़िम्मेदारी मुझ पर आ जाएगी कि इतनी देर क्यों हुई ऑफ़िस में।" खुर्राट आगे दोनों सीनियरों को गाली देते हुए बोला, "साले ना जाने क्या-क्या तमाशा कर दें, कोई ठिकाना नहीं उनका, बाक़ी जैसी आपकी इच्छा। मैं चलने के लिए कोई प्रेशर नहीं डाल रहा हूँ।"

स्थिति को देखते हुए मुझे भी लगा कि यह सही कह रहा है। इसके साथ जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। विवश होकर उसके साथ घर को चल दी। मगर कुछ दूर चलने के बाद उसने बाइक रोककर कहा, "देखिए कुछ और नहीं समझ लीजिएगा। एक्चुअली मुझे इस तरह बाइक चलाने में दिक़्क़त हो रही है। आप मेरी तरह दोनों तरफ़ पैर करके बैठ जाइए। आसानी होगी। गाड़ी बैलेंस करना मुश्किल हो रहा है।" मेरे लिए फिर एक और धर्म-संकट। मगर विवश होकर बैठना पड़ा। भाइयों के साथ भी कभी उस तरह नहीं बैठी थी। मैं बड़ा ऑड फ़ील कर रही थी।

मैं रास्ते भर उससे गैप बनाने की कोशिश करती रही, लेकिन सब बेकार था। वह जैसे ही ब्रेक लेता मैं वैसे ही उससे टकरा जाती। बड़ा अजीब लग रहा था। शुरू में मुझे लगा कि खुर्राट जानबूझकर तेज़ ब्रेक लगा रहा है। मगर कुछ ही देर में यक़ीन हो गया कि नहीं वह सँभाल कर चल रहा है, तेज़ भी नहीं चल रहा है। मैं ही बैठने की अभ्यस्त नहीं हूँ, इसीलिए सँभल नहीं पा रही हूँ। मैं दोनों हाथ पीछे करके बाइक की सपोर्टिंग रॉड को पूरी ताक़त से ऐसे पकड़े हुए थी जैसे कि बाइक मेरे पैरों के बीच से आगे निकल जाएगी, और मैं सड़क पर गिर जाऊँगी। घर क़रीब आने पर सोसाइटी की ख़राब सड़क के कारण लाख कोशिशों के बाद भी मैं बार-बार खुर्राट से इतना ज़्यादा टच हो रही थी कि शर्मिंदगी के मारे आँसू आ गए। मन में आया कि बाइक से कूद जाऊँ नीचे। मगर विवश थी। मैं उसे घर तक नहीं ले जाना चाहती थी। इसलिए घर से थोड़ा पहले ही उतर गई।

घर पहुँची तो अम्मा रोती मिलीं। एक तो रोज़ से ज़्यादा देर हो गई थी। दूसरे वह बार-बार मोबाइल पर फ़ोन कर रही थीं। बाइक पर मैं रिंग सुन नहीं पा रही थी। उन्हें समझाया, अम्मा ऐसे परेशान ना हुआ करो। इतनी दूर घर लेकर बड़ी ग़लती कर दी है। काम कितना ज़्यादा है वह भी बता ही चुकी हूँ। मैंने उन्हें टेंपो की हड़ताल वग़ैरह सब बता दिया। सारे कारण गिना दिए, लेकिन यह नहीं बताया कि खुर्राट के साथ आई हूँ। मैंने सोचा कि इससे कहीं यह बेवज़ह तनाव में ना आ जाएँ। उस दिन मैं बड़ी देर तक जागती रही।

मुझे लगा कि खुरार्ट से स्पर्श का ख़्याल आते ही मुझ में अजीब सा रोमांच पैदा हुआ जा रहा है। और कुछ तनाव भी। अगले दिन उसने मुझसे फिर कहा, "आपको मेरे साथ चलने में कोई दिक़्क़त ना हो तो साथ ही चलिएगा, बेवज़ह इतनी प्रॉब्लम फेस करती हैं।" मैंने कहा ऐसी कोई बात नहीं, चली जाऊँगी । बातचीत के दौरान ही उसने बताया, "मैं चाचा के यहाँ रहता हूँ। चाचा अपने परिवार के साथ अयोध्या में रहते हैं। मकान में एक किराएदार है। एक पोर्शन चाचा ने मुझे दे रखा है। कोई किराया नहीं देना होता, इसलिए वहाँ रहता हूँ। खाना-पीना किराएदार बना देता है। हर महीने उसे पैसा दे देता हूँ।" उस दिन के बाद मैंने देखा कि वह बातचीत में पहले की अपेक्षा ज़्यादा साफ़ हो गया है। मगर काम-धाम के मामले में कोई परिवर्तन नहीं था। जिसके चलते अक्सर ज़्यादा देर होती ही रही। मजबूर होकर घर वापसी उसके साथ ही करनी पड़ती थी।

टेंपो से जाने में होने वाली दिक़्क़तों से आराम मिला तो धीरे-धीरे मेरा भी मन करता चलो चले चलते हैं। कुछ दिन में यह रेग्युलर हो गया। मैं घर से कुछ पहले ही उतर जाती। सुबह टेंपो से ही जाती। उसका साथ, उसका स्पर्श, उसकी ढेरों बातें मुझे रोज़ ही देर रात तक रोमांचित करती रहतीं थीं। फिर सोचती, मैं भी कैसी बेवकूफ़ हूँ। इन सब बातों का मेरे लिए क्या मतलब है। मेरा उसका क्या मेल। वह एक होनहार, अच्छी नौकरी वाला व्यक्ति है। उसके घर वालों ने उसको लेकर बहुत से सपने सँजोए रखे होंगे।

एक दिन जब वह साथ चला ऑफ़िस से तो घर चलने की ज़िद कर बैठा। मैं बड़े असमंजस में पड़ गई कैसे मना करूँ। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आख़िर ले आई। माँ से मिलवाया। माँ के पैर छूकर वह ऐसे बतियाने लगा जैसे ना जाने कितने दिनों से परिवार का सदस्य है।

उसने मिनट भर में बता दिया कि, "हम दोनों साथ-साथ काम करते हैं। रोज़ साथ आते हैं।" यह भी उलाहना दे दिया कि मैं सुबह बेवज़ह तकलीफ़ उठाती हूँ, मैं उसके साथ नहीं जाती। वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। यह भी कह दिया कि, "इतने दिनों से साथ आ रहे हैं। लेकिन इन्होंने कभी यह नहीं कहा कि घर चलिए, एक कप चाय पी लीजिए। मैं कहीं घर ना आ जाऊँ इसलिए रोज़ घर से पहले ही उतर जाती हैं। लेकिन मैं ही आज बेशर्म बन गया कि जो भी हो, आज घर चलूँगा, आपसे मिलूँगा। यह अक्सर आपके बारे में बातें करती हैं। आपके स्वास्थ्य को लेकर इन्हें बड़ी चिंता रहती है। रहती ऑफ़िस में हैं लेकिन इनका मन यहीं आप पर लगा रहता है।"

उस समय वह ऑफ़िस वाला खुर्राट लग ही नहीं रहा था। आश्चर्य तो मुझे यह हो रहा था कि अम्मा भी उससे बेटा, बेटा कहकर ऐसे बात कर रही थीं जैसे सच में उनका बेटा है। और बरसों बाद कहीं बाहर से आया हैै। मैं चाय-नाश्ता ले आई तो अपने हाथ से उसे दिया। खुर्राट ने एक झटके में वह सारी बातें अम्मा को बता दी थीं जिन्हें मैंने कभी नहीं बताया था।

मैं भीतर ही भीतर डर रही थी कि अम्मा ना जाने क्या सोच रही होंगी, मुझे क्या समझ रही होंगी? उसके जाने के बाद मुझे कितनी गालियाँ देंगी। कुछ कह पाना मुश्किल है। कहीं गुस्से में ऑफ़िस जाना ही ना बंद कर दें। खुर्राट पर बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था। मन ही मन कह रही थी कि यह जितनी जल्दी चला जाए यहाँ से उतना ही अच्छा है। अब जो भी हो जाए इसके साथ कभी नहीं आऊँगी। चाहे सारी रात बाहर ही क्यों ना बितानी पड़ जाए। जब वह उठकर जाने लगा तो मेरा मन और भी ज़्यादा घबराने लगा कि अब अम्मा से डाँट खाने का समय आ गया है। आश्चर्य नहीं कि हाथ भी उठा दें।

मैं गेट बंद करके जब अंदर कमरे में आने लगी तो मैंने महसूस किया कि मेरे पैर काँप रहे हैं। वह इतने भारी हो गए हैं कि उठ ही नहीं रहे हैं। एक-एक क़दम बढ़ाने में पूरी ताक़त लगानी पड़ रही है। जब अम्मा के सामने पहुँची तो ऐसे काँप रही थी, जैसे कोई छोटा बच्चा टीचर के सामने काँपता है। चेहरे पर पसीने का गीलापन साफ़ महसूस कर रही थी। अम्मा के सामने चाय-नाश्ते के रखे बर्तन उठाने को झुकी तो अम्मा की अनुभवी आँखों से अपनी हालत छिपा नहीं सकी थी।

अम्मा बोलीं, "क्या हुआ, तुम्हें इतना पसीना क्यों हो रहा है। तबीयत तो ठीक है ना।" मैंने बहुत मुश्किल से जवाब दिया था, हाँ अम्मा तबीयत ठीक है, थकान बहुत है बस। खाना खाते समय अम्मा ने खुर्राट के बारे में तमाम बातें पूछ डालीं, कौन है? कहाँ का है? माँ-बाप कौन हैं? कहाँ रहते हैं? तुमने इतने दिनों तक कुछ बताया क्यों नहीं? दबे शब्दों में अम्मा ने कुछ और भी ऐसी बातें पूछीं जिनका सीधा मतलब था कि हमारे उसके बीच कोई ऐसा-वैसा रिश्ता तो नहीं है।

मैंने उनकी हर बात का जवाब दे दिया था। लेकिन जब खा-पी कर लेटी तो भी मैं इस बात से निश्चिंत नहीं हो सकी थी कि अम्मा मेरी बातों से संतुष्ट हुईं कि नहीं। उनसे उस स्थिति के बारे में कोई बात नहीं कर सकी जिसे मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रही थी कि उसका साथ, स्पर्श मुझे क्यों अच्छा लगता है। अकेले होने पर वही दिलो-दिमाग़ पर क्यों छाया रहता है। रोज़ अच्छा-ख़ासा समय सोने से पहले उसी को सोचने में क्यों बीतता है। क्यों एक अजीब तरह की अनुभूति, रोमांच महसूस करती हूँ। 

अगले दिन ऑफ़िस के लिए निकल रही थी, अम्मा गेट बंद करने के लिए गेट पर आ गई थीं कि तभी खुर्राट बाइक लिए सामने आ खड़ा हुआ। मैं हक्का-बक्का हो गई। पूरे शरीर में सनसनाहट और पसीने का गीलापन महसूस होने लगा। उसने अम्मा को नमस्कार कर कहा, "माँ जीे आप परेशान ना हुआ करिए, ये मेरे साथ ही जाएँगी, आएँगी।" अम्मा उसके नमस्कार के जवाब में आशीर्वाद देकर बोलीं, "ठीक है बेटा, सँभल कर चलना, धीरे चलाना।"

सवेरे लेने के लिए उसका इस तरह आना मुझे उसकी धृष्टता लगा। अम्मा की बात ख़त्म होने के पहले ही वह बोला, "जल्दी आइए देर हो रही है। मैं बड़े धर्म-संकट में पड़ गई कि कैसे बैठूँ? जैसे रोज़ बैठती हूँ उसी तरह दोनों तरफ़ पैर करके या फिर, आख़िर में दोनों पैर एक ही तरफ़ करके बैठ गई। उसकी तरह नहीं बैठी। घर से कुछ ही दूर एक मोड़ से निकलकर उसने बाइक रोककर कहा, "आप आराम से बैठ जाइए। आप जानती हैं मुझे इस तरह ड्राइव करने में दिक़्क़त होती है।" मैं बिना कुछ बोले उसकी ही तरह बैठ गई।

इस तरह उसके साथ रोज़ ही आना-जाना हो गया। अब जिस दिन थोड़ा जल्दी छुट्टी मिल जाती थी, उस दिन वह इधर-उधर घूमने-फिरने भी साथ लेकर जाने लगा था। होटल में खाना-पीना सब होने लगा। इस दौरान वह ऐसी कोई बात नहीं करता था जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता कि उसके मन में क्या चल रहा है। उसके घर परिवार की बात करती तो वह बात बदल देता था।

ऐसे में उसके चेहरे पर आने वाले भावों को बड़ी कोशिश कर मैं इतना ही समझ पाती थी कि वह परिवार की बात आते ही चिढ़ जाता है। उसकी बातें ज़्यादातर ऑफ़िस या फिर फ़िल्मों के बारे में होती थीं। एक बात ज़रूर थी कि वह अक्सर बात करते-करते एकटक मुझे देखने लगता था। मैं सकपका कर पूछती ऐसे क्या देख रहे हैं? तो वह कहता, "कुछ नहीं।" जल्दी ही मेरी ज़िंदगी ऐसे ऊहा-पोह में पड़ गई थी कि मैं समझ ही नहीं पाती थी कि क्या हो रहा है। घर बाहर वही हर तरह से दिमाग़ में घूमता रहता था। बड़ी देर रात तक नींद नहीं आती थी। मैं पूर्व की ही तरह समय को भी बड़ी तेज़ी से बीतते देख रही थी।

एक दिन रात क़रीब बारह बजे उसका फ़ोन आया। मोबाइल में उसका नाम देखकर मैं घबरा गई कि इतनी रात को क्यों फ़ोन किया है। जल्दी से कॉल रिसीव की साथ ही यह भी देखती रही कि अम्मा जाग तो नहीं रहीं। मैंने हेलो कहा तो वह बोला, "आप अभी भी जाग रही हैं?" मैंने कहा, नहीं सो रही थी, रिंग हुई तो नींद खुल गई। आपकी कॉल देखकर घबरा गई, क्या हुआ? मैं बात करते हुए घर के एकदम दूसरे कोने में चली गई, कि अम्मा कहीं जाग ना जाएँ, बात ना सुन लें। वह बोला, "बस नींद नहीं आ रही थी तो सोचा शायद आप जाग रही हों तो आपसे बातें करूँ।"

मैंने झूठ कहा, नहीं मैं जल्दी सो जाती हूँ। सुबह जल्दी उठना होता है। तो उसने कहा, "ठीक है, रखता हूँ, सॉरी आपकी नींद ख़राब की, डिस्टर्ब किया आपको।" मुझे लगा कि जैसे यह कहते वक़्त उसकी आवाज़ कुछ बदल गई है। मैंने सोचा कि कहीं नाराज़ ना हो जाए तो तुरंत कहा, नहीं-नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है। अब जाग ही गई हूँ। आप बात करिए।

असल में मेरा मन स्वयं उससे बात करते रहने का हो रहा था। सारी रात बात करने का। मैं बोलते वक़्त थोड़ा हड़बड़ा गई थी। उसने मुझे तुरंत रिलैक्स होने के लिए बोला फिर तुरंत वही फ़िल्मी डॉयलॉग कि आप आज के बाद मुझे सर नहीं कहेंगी। आप मेरा नाम लेकर बुलाएँगीं।

मैंने तर्क किया लेकिन उसकी ज़िद के आगे सब फ़ेल। फिर हमारी बातें आगे बढ़ीं तो बढ़ती ही गईं। उस समय पहले जैसी कोई बात नहीं थी। वह तब जो बातें कर रहा था, वह सब पहली बार कर रहा था। मैं जो जवाब दे रही थी, जो कुछ कह रही थी वह सब मैं भी पहली बार कह रही थी। उसने रोमांटिक बातें शुरू कीं और फिर कुछ ही देर में अंतरंग होता गया।

ऐसी रोमांटिक अंतरंग बातें जो जीवन में मैं पहली बार सुन रही थी। जिन्हें मैं कभी सोच भी नहीं पाई थी। मैं रोमांच उत्तेजना के कारण सिहर जा रही थी। मैं आश्चर्यचकित थी कि मेरे बारे में वह ऐसे ख़्याल रखता है। वह अब मुझे आपकी जगह तुम बोल रहा था। बीच-बीच में उसने मुझे कई बार टोका कि तुम हाँफ क्यों रही हो। तब मेरा ध्यान जाता कि मैं वाक़ई हाँफ रही हूँ। वह सेकेंड-दर-सेकेंड फ़्रैंक, बोल्ड होता जा रहा था। और मैं सम्मोहित सी उसी स्तर पर चढ़ती-उतरती चली जा रही थी।

शादी की पहली रात के बाद यह दूसरी ऐसी रात थी जिसे मैं चाह कर भी अब भी भुला नहीं पा रही हूँ। मुझे पल-पल बीतते समय का यूँ तो हमेशा पता रहता है लेकिन उस रात तो बातों में पता ही नहीं चला कि पल-पल करके साढ़े तीन घंटे कैसे बीत गए, मैं जैसे नींद से जागी जब उसने अचानक ही एक बेहद गहरी किस करते हुए कहा, "अब तुम सो जाओ स्वीटहार्ट, माय ड्रीम क्वीन, सुबह ऑफ़िस भी चलना है।" उसके विवश करने पर नहीं बल्कि उसके किस करने पर जवाब में स्वतः ही मुझसे भी किस हो गया था।

उसके हँसने फिर एक और किस की आवाज़ मुझे सुनाई दी थी। मगर तब मैं गहरी साँस लेकर उसे सिर्फ़ गुड नाईट कह सकी थी। फ़ोन डिस्कनेक्ट नहीं कर सकी, उसी ने किया। साढ़े तीन घंटे बाद मेरा ध्यान पूरी तरह अपनी तरफ़ गया। मैंने महसूस किया कि मैं पूरी तरह पसीने-पसीने हूँ। मेरी साँसें उखड़ी हुईं थीं। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

मैं अंदर आ कर लेट गई। अम्मा पर नाइट बल्ब की हल्की रोशनी में ही एक गहरी नज़र डाली थी, कि वह जाग तो नहीं रही थीं। उन्हें देख कर मुझे लगा कि मैं बच गई। अम्मा सो रही हैं। वह मेरी बातें नहीं सुन सकीं। साढ़े तीन बज रहे थे। नींद से आँखें कड़ुवा रही थीं। बेड पर लेटी हुई थी लेकिन सो नहीं पा रही थी। उसकी बातें कानों में गूँज रही थीं। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हुआ है?

सुबह नींद खुली। ऑफ़िस का ध्यान आते ही हड़बड़ा कर उठ बैठी। सामने दीवार घड़ी पर नज़र पड़ते ही पैरों तले ज़मीन खिसक गई। दस बज रहे थे। ज़िंदगी में उतनी तेज़ उससे पहले और अब तक मैं बेड से कभी नहीं उतरी। मैंने घबराते हुए अम्मा का बेड देखा, वह खाली था। इस बार पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकी नहीं एकदम से ग़ायब हो गई। मैं गहरे और गहरे अंतहीन घनघोर अँधेरे कुएँ में गिरती चली गई। डर के मारे पूरा शरीर साँय-साँय कर रहा था। 

पाँच बजे उठ जाने वाली अम्मा, जिस दिन मेरी नींद नहीं खुलती थी, उस दिन बड़े प्यार से माथे को सहला-सहलाकर उठाने वाली अम्मा, अक्सर माथे पर चूम लेने वाली अम्मा, कहाँ है? आज चूमा क्यों नहीं? जगाया क्यों नहीं? उठाया क्यों नहीं? अंदर-अंदर काँपती। थर-थराते, कँप-कँपाते और घबराते क़दमों से हाँफती-दौड़ती मैं सारे कमरे, किचेन, बाथरूम हर जगह देख आई। अम्मा कहीं नहीं थीं। आँगन में भी नहीं।

सीढ़ियाँ दौड़ती-फलांगती ऊपर छत पर पहुँची, अम्मा वहाँ भी नहीं थीं। मेरा सिर चकराने लगा। धूप-छाँव हो रही थी। बादलों के बड़े-बड़े टुकड़े इधर-उधर हो रहे थे। उनके बीच-बीच में से नीला आसमान झाँक रहा था। मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से बैठा जा रहा था। मैं ज़मीन पर बैठे-बैठे रोने लगी कि अम्मा, मेरी प्यारी अम्मा, मेरे लिए अपने लड़कों, सारे रिश्तेदारों को भी सेकेंड भर में त्याग देने वाली अम्मा ने क्या हमारी बातें सुन लीं, क्या वह अपनी प्यारी बिटिया को चरित्रहीन मान बैठी हैं। अपने से क़रीब-क़रीब बीस बरस छोटे आदमी से अंतरंग बातें कर रही थी, यह क्या उन्हें घृणास्पद लगा। क्या विकृति लगी। इतनी ज़्यादा घृणास्पद कि मुझसे नफ़रत कर बैठीं। उनका दिल टूट कर बिखर गया। लड़कों, रिश्तेदारों से निराश अम्मा को सारी आशा मुझसे ही थी।

उनके सारे सपने मुझसे ही थे। जिसे मैंने लड़कों से भी ज़्यादा बुरी तरह तोड़ दिया, कुचल दिया। हर तरफ़ से हताश-निराश अम्मा कहीं कुछ अनहोनी... कहीं उन्होंने कोई आत्मघाती क़दम तो नहीं उठा लिया। मैं कुछ मिनट बैठी यही सोचती रही। फिर उठकर नीचे आई यह सोचते हुए कि अम्मा अगर तुमने ऐसा कुछ किया है तो मैं भी अभी-अभी यहीं जान दे दूँगी।

नीचे उतरते हुए मेरे दिमाग़ में यह भी आया था कि खुर्राट ऑफ़िस जाते हुए मुझे लेने आया होगा। अम्मा ने उसे दरवाज़े से ही भगा दिया होगा। उसके बाद ख़ुद...। तमाम अनहोनी बातों की भयावह तस्वीरों की आँधी दिमाग़ में लिए मैं कमरे में पहुँची कि मोबाइल उठाऊँ, खुर्राट को फ़ोन करके पूछूँ  कि उससे अम्मा ने क्या कहा? उसके लिए मन में कई अपशब्द निकल रहे थे, कि क्या ज़रूरत थी इतनी रात को फ़ोन करने की, ऐसी बातें करने की। दिन भर तो साथ रहती हूँ, जितनी बातें करनी थी, जैसी भी करनी थीं, वहीं कर लेता।

इतने दिनों तक तो कैसा जेंटलमैन बना रहा। यह तो उन सबसे भी शातिर निकला। पहले खुर्राट बन अपनी अलग तरह की इमेज का जादू चलाया। इंप्रेस किया। धीरे-धीरे जाल में फँसाता रहा। जब जाल में फँस गई पूरी तरह तो असली रूप में आया। अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी। कैसी-कैसी बातें कर रहा था। अकाउंटेंसी की तरह कामुक बातों का भी पूरा पंडित है। उम्र में कितनी बड़ी हूँ, लेकिन कितनी बातें पहली बार जान रही थी, सुन रही थी।

कुछ बातें मुझे बड़ी गंदी, घृणास्पद लगीं। यह सोच कर मैं हैरान हो रही थी कि मुझे क्या हो गया था कि मैं तीन साढ़े तीन घंटे तक ऐसी बातें सुनती रही। न जाने क्या-क्या उसके कहने पर बोलती, ...छिः! घिन आने लगी मुझे। मोबाइल उठाकर भी मैं खुर्राट को फ़ोन नहीं कर सकी।

मैंने सोचा अम्मा ने जो भी किया होगा उसके लिए अकेले खुर्राट ज़िम्मेदार नहीं है। मैं भी हूँ। बल्कि मैं ही ज़्यादा हूँ। वह पच्चीस-छब्बीस का है, जवान है। मैं तो पैंतालीस की हो रही हूँ। शादीशुदा, नहीं-नहीं परित्यक्ता हूँ, तरह-तरह के अनुभव से गुज़री परित्यक्ता हूँ। आदमी की निगाह सेकेंड भर में पढ़ सकती हूँ। इसे, इसे भी तो समझ ही रही थी। सच तो यह है कि मैं स्वयं ही उसके लिए उत्सुक होती जा रही थी। यह जानते हुए भी कि अम्मा बगल कमरे में सो रही हैं। रात में कई-कई बार बाथरूम के लिए उठती हैं। किसी भी समय उठ सकती हैं, बातें सुन सकती हैं।

मैं यह सब एक बार भी सोचे बिना कैसी निडरता के साथ बतियाती रही। इतनी बेशर्मी, निर्लज्जता से भरी बातें सुनकर अम्मा के दिल पर क्या बीती होगी। उन पर तो जैसे वज्रपात हुआ होगा। उनका कलेजा फट गया होगा, कि जिस लड़की को सबसे ज़्यादा पाक-साफ़, स्वाभिमानी, मान-मर्यादा वाली समझती रहीं, वही सबसे ज़्यादा निर्लज्ज निकली। 
    लड़के तो संपत्ति के लिए ग़लत निकले। अम्मा ने अब भाई-भाभियों के झूठे आरोपों को भी सच मान लिया होगा कि मेरा उस ज्योतिषी के साथ वाक़ई सम्बन्ध रहा होगा। निश्चित ही मेरी बातें सुन कर वह बर्दाश्त नहीं कर सकी होंगी और चली गईं कहीं। पाँच-छह घंटे हो रहे हैं। मैं अब उनको ढूँढ़ूँ भी तो कहाँ? मिल जाने पर क्या मुँह दिखाऊँगी? अम्मा तो सीधे मुँह पर थूक देंगी। मेरी छाया भी नहीं देखना चाहेंगी।

इससे अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ। वैसे भी ज़िंदगी में मेरी बचा क्या है जिसके लिए जियूँ। बेवज़ह घुट-घुट कर जीने से अच्छा है मर जाऊँ। दुनिया की उपेक्षा, नफ़रत को तो मैं सह सकती हूँ, लेकिन अम्मा की नहीं। मेरा मर ही जाना अच्छा है। अम्मा को ढूँढ़ने जाने का भी अब क्या फ़ायदा। उन्होंने...

मैंने मर जाने का निश्चय किया। समस्या मेरे साथ मेरे साये की तरह रहती है। तो इस समय भी सामने आई कि मरूँ कैसे? घर में कोई ज़हर वग़ैरह तो है नहीं। आखिर फाँसी की सोच कर अम्मा की साड़ी ले आई। मैं रोती भी जा रही थी और फंदा भी बनाती जा रही थी। तभी गेट के बंद होने और किसी के अंदर आने की आहट मिली। कुछ अनुमान लगाने की स्थिति में नहीं थी। जल्दी-जल्दी आँसू पोंछे। अम्मा की साड़ी जल्दी से पास पड़ी कुर्सी पर डालकर बाहर निकलने को हुई तभी अम्मा सामने आ गईं।

मैं एकदम हक्की-बक्की उन्हें देखती रह गई। आँसू जैसे जहाँ के तहाँ जम गए। आवाज़ हलक में ही फँस कर रह गई। कुछ क्षण पहले तक जहाँ इस संदेह में कि अम्मा ने कुछ कर लिया है, इस दुख में रो रही थी, मरने जा रही थी, अब उन्हें देखकर ख़ुश होने के बजाय मैं इतना डर गई कि मेरी घिग्घी बँध गई। जैसे अचानक ही कोई शेर, चीता सामने आ गया हो।

मैं थर-थर काँपती, स्टेच्यू बनी खड़ी, अपलक उन्हें देखती रह गई। तब अम्मा अचंभित होती हुई बोलीं, "क्या हुआ बिटिया? तुम रो क्यों रही हो? बाहर तक आवाज़ जा रही है। बताओ क्या हुआ?" अम्मा एकदम मेरे पास आ गईं। मेरा हाथ पकड़ कर बेड पर बिठा दिया। ख़ुद बगल में बैठ कर दोनों हाथों से मेरे आँसू पोंछते हुए कहा, "बिटिया ऐसे मत रो। तुम ऐसे रोओगी तो मैं सह नहीं पाऊँगी।"

मैं अजीब असमंजस में पड़ गई कि क्या अम्मा मेरी और खुर्राट की कोई बात नहीं सुन पाई थीं। मैं नाहक़ परेशान हो रही थी। अम्मा पाँच मिनट और ना आतीं तो अब तक मैं फंदे पर लटक रही होती। मेरी रुलाई इतनी तेज़ ना होती तो अम्मा अभी बाहर ही बैठी रहतीं। अम्मा मुझे एकदम बुत बनी देखकर अचानक उठकर किचेन में गईं, एक गिलास पानी लेकर आईं, मुझे अपने हाथ से पानी पिलाकर कर बोलीं, "बिटिया बोल न क्या बात हुई?" उनका गला रुँध  गया था। मैं अचानक ही उनसे चिपट कर बिलख पड़ी।

मेरा सिर उनकी गोद में था। उसी गोद में जिसका साया बचपन में मिलते ही मैं चट-पट सो जाती थी। मैंने रोते-रोते कहा अम्मा मुझे माफ़ करना, मुझसे बड़ी ग़लती हो गई। मुझे बचा लो। अब फिर से ऐसी ग़लती नहीं होगी। अम्मा ने मुझे जगाया नहीं था इसलिए मुझे पूरा यक़ीन हो गया था कि उन्हें सब मालूम है। बस इतनी उम्र-दराज़ अपनी बिटिया को क्या कहें, कैसे कहें, इसी अनिर्णय के कारण बाहर पाँच घंटे से बैठी थीं। अम्मा बड़े प्यार से मेरा सिर कुछ देर तक सहलाती रहीं। फिर बड़े भावुक स्वर में बोलीं, "बिटिया तुम से कोई ग़लती नहीं हुई। इसलिए तू एकदम ना रो। ग़लती तो हमसे हुई, और रोना-पछताना तो हमें चाहिए। तुमसे तो हमें माफ़ी माँगनी चाहिए।"

अम्मा की बात सुनकर मैं दंग रह गई। मैं सिसकते हुए बोली, “अम्मा यह क्या कह रही हो। माफ़ी माँग कर मुझे जीते जी नर्क में क्यों डाल रही हो। न जाने कौन से पाप किए थी जो यह जीवन इस तरह बीत रहा है।अम्मा ने मेरा सिर दोनों हाथों से ऊपर उठाया। फिर आँसू पोंछते हुए कहा, "तुम अपने दिमाग़ से यह सब निकाल दो कि तुमने कोई पाप किया है।" अम्मा की बातों से मुझे बहुत ताक़त मिली। मैं सारी ताक़त बटोर कर बोली, “अम्मा मैं दस बजे तक सोती रही तुमने आज उठाया क्यों नहीं? पहले तो उठा दिया करती थी।अम्मा कुछ पल चुप रहने के बाद बोलीं, "कैसे उठाती बिटिया, चार बजे सवेरे तो तुम सोई थी। लेटने के बाद भी तुम्हें बड़ी देर तक करवट बदलते देख रही थी। जब तुम सो गई, सवेरे नहीं उठी अपने आप, तो मैंने सोचा सोने दो। रातभर जागी हो, ऑफ़िस जाकर भी क्या करोगी।"

मैंने झट से पूछा, बल्कि मेरे मुँह से स्वतः ही निकल गया कि अम्मा वो लेने आया तो तुमने क्या...। मैं बात पूरी भी ना कर सकी थी कि अम्मा ने कहा, "वह भी नहीं आया। रात भर वह भी तो जागता रहा है। कैसे उठता?" मैंने पूछा, “तो अम्मा मतलब तुमने हमारी सारी बातें…?” अम्मा बड़ी अधीर होकर बोलीं, "क्या करूँ बिटिया, बुढ़ापा बड़ी ख़राब चीज़ है। नींद आती नहीं। आती भी है तो हल्की सी आवाज़ से ही खुल जाती है। तुम्हारी नानी इस नींद को कुकुर निंदिया कहती थीं। जैसे वह हल्की आहट से ही जाग जाते हैं वैसे ही बुढ़ापे की नींद होती है।

जब फ़ोन की घंटी बजी, तुम एकदम से मोबाइल लेकर यहाँ से गई, मेरी नींद तभी खुल गई थी। मुझे ज़रा भी अनुमान नहीं था कि उसका फ़ोन होगा। मैंने सोचा बात कर लो, तब पूछूँ कौन है? लेकिन तुम्हारी बात बढ़ती ही गई, तुम्हारी बातों से पता चल गया था कि किसका फ़ोन है। फिर जब तुम्हारी बातें और गहरी होती गईं तो मुझे लगा कि मुझे नहीं सुनना चाहिए। पाप है। फिर मैंने कानों में उँगली दे दी।

मगर क्या करूँ, कुछ बातें कान में पड़ ही जा रही थीं, शुरू में ग़ुस्सा आया कि तुम यह क्या मूर्खता कर रही हो। अपने से इतने छोटे लड़के से ऐसी बातें। मगर सोचा कि नहीं वह एक इंसान है। और तुम भी एक इंसान हो। जैसे उसकी, दुनिया भर के लोगों की ज़रूरतें हैं, इच्छाएँ हैं, वैसे ही तुम्हारी भी हैं। जितना हक़ सबको है अपनी ज़रूरतें, इच्छाएँ पूरा करने का, उतना ही तुम्हें भी है। उम्र या और किसी भी को बीच में आने का कोई हक़ नहीं है। मुझे भी नहीं। बस यही सोच कर अनसुनी कर लेटी रही मैं।"

मैं उनसे पूछना चाहती थी कि अम्मा तुम्हें बुरा नहीं लगा। लेकिन अम्मा पहले ही बोलीं, "सारा दोष हमारा ही है बिटिया, एक औरत उससे भी पहले एक माँ होकर भी अपनी जवान बिटिया की भावनाएँ, उसकी ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान नहीं दे पाई। देखते-देखते वह प्रौढ़ा बन गई। उसके हिस्से के सारे सुख पीछे छूटते चले गए। लेकिन मैं परिवार, लड़कों से मिली ठोकर से बने अपने घाव ही देखती रही। जब-तक होश आया तब-तक बहुत देर हो चुकी थी। कोई लड़का क़ायदे का मिल ही नहीं रहा था।

मैं डर रही थी कि फिर से किसी ग़लत आदमी का पाला ना पड़ जाए। शादी के नाम पर हम फिर न ठगे जाएँ। यही सब सोचते-सोचते इतना समय निकल गया। तरह-तरह के रास्ते सोचती हूँ लेकिन सब मन में ही रह जाते हैं। कोई आगे पीछे नहीं। किसको भेजूँ, कहाँ भेजूँ, क्या करूँ। पास-पड़ोस में भी कोई नहीं। एक घर यहाँ तो दूसरा बहुत दूर। घर अकेले छोड़कर निकला भी नहीं जा रहा है। शरीर अलग साथ नहीं दे रहा है। तेरी ज़िंदगी अपनी आँखों के सामने पल-पल बर्बाद होते देखकर अंदर ही अंदर घुटने के सिवा मेरे वश में अब कुछ नहीं रह गया है?"

मैंने देखा अम्मा बहुत ज़्यादा भावुक होती जा रही हैं तो उन्हें समझाते हुए कहा, “अम्मा क्यों इतना परेशान हो रही हो, तुम तो सब जानती हो कि सब को सब कुछ नहीं मिलता। मुझे जो कुछ जितना मिलना था वह मिल गया। और कोई इच्छा बची भी नहीं है। बस ना जाने कैसे उस के चक्कर में आ गई। एक ही जगह काम करते, साथ-साथ आते-जाते पता नहीं कैसे क्या हो गया मुझे। मगर अम्मा मेरा विश्वास करो, मैं अपनी ग़लती सुधार लूँगी। अब कभी उसके साथ नहीं आऊँगी, नहीं जाऊँगी। ऑफ़िस में भी काम के सिवा एक शब्द ना बोलूँगी। आज ही उसको साफ़ मना कर दूँगी। होता है ग़ुस्सा तो होता रहे। मेरी नौकरी नहीं ले सकता। बहुत होगा तो परेशान करेगा। लेकिन कितना करेगा? ख़ुद ही थक जाएगा। अब तो इन सब की आदत पड़ गई है।

मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोलीं, "नहीं, अब तुम उसे मना नहीं करोगी। मैं तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी देखना चाहती हूँ बिटिया। मेरी बूढ़ी आँखें, मेरा अनुभव यह कहता है कि जो भी हो तुम उसके साथ ख़ुश रहोगी। वह भी ख़ुश रहेगा। इसके अलावा तुम दोनों को और क्या चाहिए? और तुम ख़ुश रहो मुझे इसके अलावा और कुछ चाहिए, तो सिर्फ़ इतना कि अपने जीते जी तुम्हारे लड़के-बच्चे देख लूँ बस। इच्छाओं का क्या करें बेटा, बुढ़ापे में चाहत भी बहुत बढ़ जाती है।"

अम्मा ने बिना रुके अपनी बात कह डाली। मैं अवाक एकटक उन्हें देखती रह गई कि मेरी अम्मा यह क्या कह रही हैं? मैं तो क्या-क्या सोच रही थी, आत्महत्या करने जा रही थी और अम्मा एकदम उलट वह कह रही हैं जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की है। खुर्राट के साथ जीवन बिताने, शादी करने की तो मैंने सोची ही नहीं। धोखाधड़ी के चलते जो रिश्ता बन गया उससे आगे का कोई चित्र तो ख़्यालों में भी नहीं था और, और अम्मा कुछ ही घंटों में सब कुछ सोच-समझ कर इतना बड़ा निर्णय भी ले बैठीं हैं।

मैं उनकी बेटी होते हुए भी सच में उनसे बहुत पीछे हूँ। मैंने उनके निर्णय पर कहा, “अम्मा तुम समझ रही हो कि तुम क्या कह रही हो?” लेकिन अम्मा कुछ सोचने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं हुईं। एकदम ज़िद कर बैठी थीं कि अभी खुर्राट को बुलाओ। अभी बात करेंगे। मैंने टालने के लिए कहा अब तक वह ऑफ़िस चला गया होगा। लेकिन उन्होंने बात पकड़ते हुए कहा, "बिटिया हमें आज बहकाओ नहीं। ऑफ़िस गया होता तो यहाँ होकर जाता। जितना भी उसको सुना है उसके हिसाब से वह तुम्हें लिए बिना जा ही नहीं सकता।"

अम्मा की ज़िद के आगे मैंने फ़ोन किया तो सच में वह उस समय सो कर उठा था और मुझे फ़ोन करने ही वाला था कि मैं ऑफ़िस चली गई क्या? मैंने उससे तुरंत घर आने के लिए कहा। कहा, चाय-नाश्ता यहीं करना, अम्मा कह रही हैं। मेरी बात पर सशंकित हो उसने पूछा, "बात क्या है? सब ठीक तो है ना।" मैंने कहा सब ठीक है। बस आ जाओ। उसने ऑफ़िस चलने की बात की तो मैंने कह दिया आज नहीं जाऊँगी।

वह जब आया तो अम्मा ने बहुत खुलकर सारी बातें कीं। बिना संकोच यह भी कहा कि, "तुम दोनों की सारी बातें सुनने के बाद मुझे शादी से अच्छा कोई रास्ता नहीं दिखता। तुम्हारी बातों से मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि तुम दोनों ख़ुश रहोगे। मैं नहीं चाहती कि समय, समाज, मैं या कोई भी तुम दोनों की ख़ुशी के बीच आए।" खुर्राट की तमाम बातों का अम्मा एक ही जवाब देतीं थीं कि, "तुम्हारे बारे में जितना जानती हूँ, उससे ज़्यादा मुझे कुछ जानना भी नहीं है।अम्मा की हड़बड़ी, उनकी जल्दबाज़ी हम दोनों को हैरान किए हुए थी।

मैं हैरान इस बात पर भी थी कि खुर्राट से बातें करते समय मोबाइल का साउण्ड कुछ ज़्यादा था। मगर तब खुर्राट की बातों में मैं ऐसी खोयी, उलझी थी कि मेरा ध्यान इस तरफ़ गया ही नहीं। जिससे खुर्राट को भी अम्मा सुनती रहीं। मैं उन बातों को सोच-सोचकर शर्म से गड़ी जा रही थी, जिन्हें अम्मा ने भी सुना था। आख़िर अम्मा की ज़िद के चलते हमें उनकी बातें माननी पड़ीं। तीसरे ही दिन एक मंदिर में हम दोनों की महज़ दस मिनट में शादी हो गई।

भगवान के सिवा अम्मा और पुजारी साक्षी बने। और आशीर्वाद भी दिया। पुजारी को अम्मा और खुर्राट ने उसकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा दान-दक्षिणा दी। मुझसे भी दिलवाया। मंदिर में उपस्थित क़रीब दर्जन भर लोगों को खाना भी खिलाया गया। मिठाई-फल भी दिया गया। कुछ भिखारी भी थे उन्हें भी ख़ूब खिलाया गया। ख़ूब दिया गया, पैसा भी। तैयारी के नाम पर हम सब ने कुछ सिंपल से कपड़ों के अलावा कुछ नहीं लिया था।

मेरी इस बड़ी बेमेल सी दूसरी शादी का हर काम ही एकदम अलग तरह से, लीक से हटकर हुआ। शादी की रस्म के बाद मैं ससुराल यानी अपने नए-नवेले पति खुर्राट के घर नहीं गई। अम्मा ने उससे हाथ जोड़कर प्रार्थना की, "बेटा इस घर में है ही कौन? तुम दामाद बेटा सब कुछ हो गए हो मेरे लिए। अब तुम यहीं रहो।" अबकी अम्मा की ज़िद नहीं उनकी याचना, उनके स्नेह-प्यार, आँसुओं से भरी आँखों के सामने खुर्राट मोम बन गया। पिघल गया। नतमस्तक हो गया। अम्मा दो दिन में जो ख़रीददारी कर पाई थीं दामाद के लिए, घर में जो तैयारी की थी वह खुर्राट के लिए आश्चर्यजनक थी। और मुझे सुहाग सेज पर उसने आश्चर्य में डाल दिया सोने नहीं डायमंड के ज़ेवर देकर।

मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। तभी उसने यह भी बताया कि अगर वह अम्मा की बात ना मानकर मुझे अपने यहाँ ले जाता तो एक छोटा सा बेड हमारी सुहाग सेज बनता, या फिर ज़मीन। जहाँ ना जाने कब से झाड़ू भी नहीं लगी है। जो भी नाम-मात्र की चीज़ें हैं वह सब अस्त-व्यस्त बिखरी पड़ी हैं। हमारी तरह उसने दो दिन में भी कुछ इसलिए नहीं किया क्योंकि वह दो-तीन हफ़्ते होटल में ही रहने का प्लान बनाए हुए था। और इसी बीच कहीं किराए का मकान लेकर नए सिरे से सब कुछ ख़रीदना चाहता था। मगर अम्मा के प्यार ने उसका प्लान बदल दिया। दो दिन में ऑफ़िस के अलावा वह और कुछ काम कर सका तो बस इतना कि बैंक से पैसा निकालकर मेरे लिए डायमंड सेट ले पाया। पसंद करने में सारी मदद ज्वैलर के यहाँ सेल्स वूमेन ने की। जिसकी आँखें और होंठ उसकी नज़र में बेहद ख़ूबसूरत थीं। मगर मुझे उसकी यह बात सिवाय ठिठोली के और कुछ नहीं लगी थी।

मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह हुआ कि सुहाग-सेज पर मुझे मेरा खुर्राट नहीं मिला। जो मिला वह एक बेहद संकोची, शर्मीला, भावुक इंसान मिला। मैं चकित थी कि फोन पर ना जाने कैसी-कैसी बातें करने वाला खुर्राट कहाँ चला गया। जिस खुर्राट के इंतज़ार में मैं जोश, उमंग, रोमांच में सुध-बुध खोती जा रही थी, रात में उसके एकदम बदले रूप ने मुझे झकझोर कर रख दिया था। मैं विस्मित सी बैठी उसके हाथों से गले में डायमंड नेकलेस पहन रही थी, और साफ़ महसूस कर रही थी कि मेरे प्यारे खुर्राट के हाथ काँप रहे हैं। उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था। मैं जोश, उमंग, रोमांच, उत्तेजना शून्य हो बस उसके थरथराते जिस्म को गहराई तक पढ़ने का प्रयास कर रही थी।

दूसरी शादी की सारी ख़ुशियाँ मुझे लगा कि मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही हैं, और मैं उन्हें रोक पाने में असमर्थ हूँ। मुझे लगा हो ना हो, अम्मा, मेरा, दोनों ही का निर्णय ग़लत होने जा रहा है। बेमेल विवाह की यह गाड़ी हिलते-डुलते थोड़ा-बहुत सफ़र तय कर ले यही बड़ी बात होगी। खुर्राट से मासूम गुड्डा बने अपने पति पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। बड़ी तरस आ रही थी। मैंने सोचा कि कहीं यह भी मेरी तरह सपने टूटने की हताशा में डूबने लगे, इसके पहले कि इसकी भी मुट्ठी से खुशियाँ फिसलने लगे, मुझे इसकी मुठ्ठी अपनी ही दोनों हथेलियों में थाम लेनी चाहिए। मैंने पूरी कोशिश की, कि उसे उसकी सारी ख़ुशियाँ मिलें। लेकिन विश्वास के साथ अब भी नहीं कह सकती कि तब उसे वह ख़ुशियाँ मिली थीं कि नहीं।

मैं अगले पंद्रह दिन तक छुट्टी पर रही। वह जाता रहा। उसने ऑफ़िस में किसी को नहीं बताया। कहा, "साले इस लायक़ नहीं कि उनसे अपनी ख़ुशी शेयर की जाए।" मैंने कहा लेकिन जब मैं चलूँगी तब तो सब सिंदूर-बिंदी देखकर जान ही जाएँगे कि शादी हो गई है। तो उसने कहा, "तुम्हारी शादी हो गई है यही जानेंगे ना। किससे हुई है यह तो जब हम बताएँगे तब पता चलेगा।" यही हुआ भी। ऑफ़िस में हम दोनों पहले की ही तरह रहते। लोग पूछते हस्बैंड के बारे में तो मैं टाल जाती।

अम्मा ख़ुश थीं कि मैं ख़ुश हूँ। लेकिन मैं कितना ख़ुश थी यह मैं ही जानती थी। खुर्राट कितना ख़ुश था कितना नहीं यह वही जानता था। लेकिन उसे देख कर मुझे शत-प्रतिशत भरोसा था कि कम से कम वह मुझसे ज़्यादा ख़ुश था। अम्मा को लेकर मेरा आकलन ग़लत निकला।

अम्मा की अनुभवी आँखों ने मेरी पेशानी पर कुछ इबारतें पढ़ ली थीं। बड़े संकोच से एक दिन मेरे सिर में तेल लगाते हुए पूछा, "बिटिया तू ख़ुश तो है ना, मुझसे कोई ग़लती तो नहीं हो गई।" यह सुनते ही मैं एक झटके में उनकी तरफ़ मुड़ी। पूछा, “क्यों अम्मा ऐसा क्यों पूछ रही हो?” वह बोलीं, "पता नहीं क्यों बिटिया इधर कुछ दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि तेरे चेहरे पर कुछ उदासी सी बीच-बीच में तैर जाती है।" अम्मा से यह सुनते ही मैंने उन्हें बाँहों में भर लिया। फिर उन के माथे को चूम कर कहा, “क्यों अम्मा, क्यों इतना चिंता करती हो? मैं एकदम ख़ुश हूँ। तुम्हें दिखता नहीं मैं कितना ख़ुश रहती हूँ।

मैं एकदम सफ़ेद झूठ बोलती गई। अम्मा कुछ देर जैसे मेरे चेहरे को पढ़ने के बाद बोलीं, "हाँ बिटिया तुम ऐसे ही हमेशा ख़ुश रहो। तुम्हारे चेहरे पर ज़रा भी चिंता मेरी जान ही निकाल लेती है। बस बिटिया अब जल्दी से एक नाती दे दो तो घर का सूनापन ख़त्म हो जाए। सूना-सूना घर अब बड़ा ख़राब लगता है।" अम्मा की बात पर मुझे बड़ा तेज़ झटका लगा। साथ ही उनकी नादानी पर हँसी भी आ गई।

मैंने जब अपनी ज़्यादा हो चुकी उम्र की बात उठाई, कहा कि अब कहाँ इस तरह की कोई उम्मीद है तो अम्मा का जवाब सुनकर मैं उन्हें एकटक देखती रह गई। डॉक्टर से मिलने से लेकर आईवीएफ टेक्नोलॉजी को यूज़ करने तक की बात करने लगीं। मैं अचंभित रह गई जब उन्होंने अपनी अलमारी से कई अख़बारों के पन्नों के टुकड़े निकाल कर मेरे सामने रख दिए और उन में आईवीएफ टेक्नोलॉजी से निसंतान दंपत्ति को संतान पैदा कराने के विज्ञापनों को दिखाते हुए कहा, "देखो यह सब क्या है? इनमें से किसी के यहाँ जाकर दिखाओ। बिटिया उम्र की बात हमारे भी मन में थी। मगर इसमें जो बातें लिखीं हैं उससे हमें विश्वास है कि इस घर में भी नन्हें-मुन्नों की किलकारी ज़रूर गूँजेंगी। तुम्हारी गोद ज़रूर हरी-भरी होगी।" कहते-कहते अम्मा एकदम भावुक हो गईं। उनका गला भर आया। अपने लिए उनकी भावना, उनके प्यार, चिंता को देखकर मेरा दिल भर गया। मेरी भी आँखें भर आईं। मैंने लाख कोशिश की लेकिन अम्मा को चुप कराते-कराते ख़ुद भी उनसे ज़्यादा रोने लगी।

तब उल्टा अम्मा हमें चुप करा रही थीं। मेरे सब्र का बाँध इसलिए टूटा, इसलिए मैं न रोक पाई ख़ुद को, क्योंकि मन में खुर्राट और अपने बीच जो अनकही सी दूरी के बीज अंकुरित होते देख रही थी, उन्हें देखते हुए तो बच्चे का सपना देखना भी मूर्खता थी। वह भी आईवीएफ जैसी बेहद जटिल, ख़र्चीली टेक्नोलॉजी के ज़रिए। मगर यह बातें अम्मा से कह कर मैं उन्हें दुख नहीं देना चाहती थी। दुख क्या यह सुनकर तो उन पर वज्रपात ही हो जाता। अपनी बात, अपना दर्द मैं कह भी नहीं सकती थी। अम्मा से भी नहीं। इसी विवशता ने मेरे आँसू और भी नहीं रुकने दिये थे। कुछ देर बाद अम्मा का दुख कम करने के लिए मैंने झूठ ही कहा, ठीक है अम्मा, मैं इनसे बात करूँगी। जाऊँगी किसी डॉक्टर के पास। 

जब अम्मा से मैंने यह बात कही थी, तब मन में बिल्कुल नहीं था कि इस बारे में अपने मुँह से खुर्राट पति से बात करूँगी। मगर मन में इस बात को लेकर उथल-पुथल मची रही। रात में उनको काफ़ी जॉली मूड में देखकर मेरी भी बरसों-बरस से दबी इच्छा एकदम जाग उठी। मैं मचल उठी। पति महोदय से बात उठाई तो देखा कि उनकी स्वाभाविक हँसी बनावटी हँसी में बदल गई। मेरी बगल में बैठे थे, उठे, एक हल्की सी थपकी पीठ पर मारी और बाथरूम में चले गए। लौटे तो मोबाइल उठा कर किसी को कॉल की और बात करने लगे। मुझे उनका जवाब मिल चुका था। इतना स्पष्ट जवाब दिया था कि शक-शुबह की रंच मात्र को भी गुंजाइश नहीं थी।

मेरा दिल रो उठा। कलेजा फट गया। अपनी मूर्खता पर ग़ुस्सा नहीं आया बल्कि ख़ून खौल उठा कि सब कुछ जानते समझते हुए मैंने यह मूर्खता नहीं बल्कि यह पागलपन क्यों किया? पहली मूर्खता तो इनकी बातों में आकर, भावनाओं में बहकर इनके इतने क़रीब चली गई। फिर अम्मा की बातों को मान लिया जो वास्तव में मेरे मन में ही अँखुवाई बात थी। आनन-फानन में शादी कर ली। कितना सही कहा गया है कि जल्दी का काम शैतान का होता है।

मेरा मन फूट-फूटकर रोने को कर रहा था। बेड पर एक तरफ़ करवट लेकर लेट गई। मैं पूरी ताक़त से अपनी रुलाई रोकने में लगी हुई थी। दस मिनट बाद ही खुर्राट को भी बेड पर लेटते महसूस किया। मुझे जवाब देने के लिए बात करने का ड्रामा ख़त्म हो गया था। मैंने जब उनके हाथों का स्पर्श अपनी बाँहों पर महसूस किया तो मैंने तुरंत ही उनकी ही तरह ड्रामा किया। बात करने का नहीं, सोने का। खुर्राट ने पूछा, "सो गई क्या?" लेकिन मैं एकदम निश्चल पड़ी रही। शरीर को एकदम ढीला छोड़ दिया, जिससे उनको ज़रा भी शक ना हो। मुझे तब और कष्ट हुआ जब वह अगले ही पल दूसरी तरफ़ करवट होकर सो गए। "सो गई क्या?" यह पूछ कर उन्होंने केवल कंफ़र्म किया था कि मैं सो रही हूँ कि नहीं।

इस रात के बाद मैंने फिर कभी उनसे इस चैप्टर पर एक शब्द तो क्या एक अक्षर ना बोली। अम्मा पूछतीं तो लगातार झूठ बोलती कि डॉक्टर के पास गई थी, यह बताया, वह बताया। कुछ दवाएँ भी दी हैं। पूरा कोर्स होने के बाद आने को कहा है। अम्मा से झूठ बोलने, उन्हें धोखे में रखने का पाप मैं लगातार करती रही। बोलते वक़्त मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती थी। मन कचोटता था, लेकिन मैं अपनी इस बात पर अडिग थी कि चाहे जो भी हो जाए, चाहे दुनिया के सारे पापों के बोझ तले दबकर मैं ख़त्म हो जाऊँ, लेकिन सच बता कर अम्मा की आँखों में आँसू नहीं आने दूँगी।

लेकिन मेरी कोशिश आंशिक ही सफल हो रही थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था वैसे-वैसे उनकी आँखों में आँसू की चमक मैं और तेज़ होते देख रही थी। उनकी बातचीत भी कम होती जा रही थी। चेहरे पर सूनापन, विरानापन गहरा और गहरा होता जा रहा था। हमारे और खुर्राट के बीच मधुरता का विलोपन भी गहरा होता जा रहा था। घर में सूनापन अपनी जगह और बड़ी करता जा रहा था। और एक दिन यही सूनापन लिए अम्मा मेरे जीवन का आख़िरी कोना भी एकदम सूना करके चली गईं। रात ग्यारह बजे मैं उनकी दवाओं का डिब्बा, पानी और घंटी का लंबे तार वाला स्विच उनके बेड के बगल में स्टूल पर रख कर सोने गई थी।

मैंने महीने भर पहले ही यह घंटी उनकी बढ़ती स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को देखते हुए लगवाई थी कि अम्मा ज़रूरत पड़ने पर स्विच दबा देंगी तो मेरे कमरे में घंटी बज जाएगी। मैं तुरंत उनके पास पहुँच जाऊँगी। लेकिन अम्मा ने घंटी नहीं बजाई। कंबल, बिस्तर की हालत, स्टूल से नीचे गिरा पानी का गिलास और दवाई का डिब्बा और ख़ुद वह जिस तरह बिस्तर पर पड़ी थीं, वह सारी स्थितियाँ चीख-चीख कर बता रही थीं कि अम्मा ने तकलीफ़ बढ़ने पर दवा पानी लेने की कोशिश की थी। और जल्दी में नीचे गिर गईं। फिर बड़ी कोशिश कर बिस्तर पर पहुँच तो गईं। लेकिन अपने को सही पोज़ीशन में भी नहीं कर पाईं। स्विच जैसे का तैसा स्टूल पर पड़ा था। उन्होंने मुझे परेशान करना नहीं चाहा था। जबकि सच यह है कि यह करके उन्होंने मुझे ऐसा दुख दिया है, जो जीवन भर मेरे साथ रहेगा।

मैंने उनकी अंतिम इच्छा का भी पूरा ध्यान रखा, कई बार भाइयों को सूचना देने के लिए सोचा लेकिन अंततः क़दम रुक गए। वैसे भी मुझे घर का एड्रेस आदि याद ही नहीं था। किसी का कोई कॉन्टेक्ट नंबर भी मेरे पास नहीं था। मैं अम्मा के ना रहने पर भी उनकी हर बात का अक्षरशः पालन करने का प्राण-प्रण से प्रयास करती रही। ऑफ़िस में भी किसी को सूचना नहीं दी। कुछ पड़ोसी आ गए थे। जो खुर्राट के परिचित थे। खुर्राट दामाद होने का रिश्ता बख़ूबी निभा रहे थे। अर्थी को कंधा देने के लिए वह ख़ुद ही आगे बढ़े।

मैं भी आगे बढ़ी, लेकिन उन्होंने एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ा। मना करना चाहा, लेकिन मैंने अपने दूसरे हाथ से उनका हाथ हटा दिया। जो पड़ोसी कंधा देने के लिए खड़े थे उनमें से आगे वाले एक ने मुझे आगे बढ़ा देखा तो ख़ुद ही पीछे हट गए। मैं अपनी माँ को कंधे पर लेकर आगे बढ़ी। पीछे वालों ने राम-नाम सत्य है, का मध्यम स्वर में उच्चारण शुरू किया। पास-पड़ोस के बहुत से लोग अपने-अपने दरवाज़े पर खड़े देख रहे थे। ऐसे आश्चर्य से जैसे कोई अजूबा निकल रहा है। मगर मुझे किसी की कोई परवाह नहीं थी। मैं लड़की-लड़के के फ़र्क़ से नफ़रत करती थी। आज भी करती हूँ। लड़की से पहले मैं अम्मा की संतान हूँ बस यही मेरे दिमाग़ में था। और मैंने सारे क्रिया-कर्म सम्पन्न किए थे।

अम्मा के जाने के बाद मुझे अपना वीराना जीवन और भी विराना लगने लगा। पूरी दुनिया ही उजाड़ लगने लगी। खुर्राट का साथ भी अब और ज़्यादा वीराना और ज़्यादा उबाऊ लगने लगा। वह भी जब पास आता था तो उसके हाव-भाव भी ऐसे होते थे मानो बहुत दिनों बाद वह अपनी माँ के पास आया है। और अपनी माँ से प्यार-दुलार दिखा रहा है। मुझ में भी पत्नी का जोश उत्साह सब ख़त्म हो गया था। मुझे लगता जैसे मेरी भावनाएँ वात्सल्य भाव की छाया से गुज़र-गुज़र कर आती हैं। ऑफ़िस का खुर्राट घर में मेरे सामने अजीब सा उखड़ा-उखड़ा, दबा-दबा सा रहता था।

एक दिन रात को क़रीब दो बजे के आसपास प्यास के कारण मेरी नींद खुल गई। पानी पीने उठी तो देखा यह बिस्तर से गा़यब हैं। मैंने सोचा बाथरूम गए होंगे। मैं पानी पीकर फिर लेट गई, आँख बंद करके। कुछ देर बाद भी यह नहीं आए तो मन में आया कि बाथरूम में इतनी देर से क्या कर रहे हैं? मैं उठी, बाथरूम में देखा तो वहाँ नहीं मिले। मैं घबरा गई। सटे हुए दूसरे कमरे में भी नहीं मिले तो और परेशान हो गई। पसीना आने लगा, सनसनाहट सी होने लगी शरीर में। जल्दी-जल्दी नीचे पूरा घर देखकर ऊपर जाने लगी तो कुछ सीढ़ियाँ चढ़ते ही इनकी आवाज़ सुनाई देने लगी। मुझे कुछ राहत महसूस हुई। कुछ सीढ़ियाँ और चढ़कर ऊपर दरवाज़े पर पहुँची तो बातें साफ़-साफ़ सुनाई देने लगीं। अचानक ही मैं कई आशंकाओं से घिर गई। मैं जहाँ दरवाज़े पर खड़ी थी वहीं जड़ हो गई। सारी बातें मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थीं।

एक-एक बात दहकती सुईयों सी बदन में चुभतीं जा रही थीं। मेरी आँखों के सामने वह रात एकदम से आ गई, जिस दिन उन्होंने मुझसे इसी तरह की बातें की थीं। रोमांच उत्तेजना से भर देने वाली बातें। खुर्राट का विश्वासघात मेरी आँखों के सामने पूरी नंगई के साथ नृत्य कर रहा था। जिस आदमी को मैं ख़ुद मोम समझने लगी थी। पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत भावों वाला व्यक्ति समझती थी, वह झूठा ही नहीं विश्वासघाती भी निकला। मुझे आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इतने सालों से मैं घर, ऑफ़िस मिलाकर चौबीस घंटों में कम से कम बीस घंटे साथ रहती हूँ, फिर भी उसे जान-समझ नहीं पाई। उसके चेहरे पर लगा मुखौटा पहचान नहीं पाई। उतार नहीं पाई। कितनी नादान, कितनी मूर्ख हूँ मैं।

मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे। मैं चुपचाप नीचे आकर बेड पर लेट गई, आँसुओं से तकिए का कवर भिगोती। अम्मा की बड़ी याद आ रही थी और बाबूजी की भी। मुझे लगा जैसे हर तरफ़ से आवाज़ आ रही है कि तू मूर्ख है। तू इसी लायक़ है। तुझ जैसी बेवकूफ़ के लिए यह दुनिया नहीं है। मूर्ख! मेरे कान जैसे फटने लगे। मैंने कान बंद कर लिए। लेकिन यह बातें दिलो-दिमाग़ में बड़ी देर तक गूँजती ही रहीं। मैं फिर सो नहीं सकी। मैं यक़ीन नहीं कर पा रही थी कि सब कुछ मेरे हाथ से निकल चुका है। मुझे मालूम होने से बहुत पहले ही निकल चुका है।

मैं आँसू बहाती पड़ी रही। लगभग घंटे भर बाद दबे पाँव आकर खुर्राट भी लेट गया। मैं मुँह दूसरी तरफ़ किए हुए थी। मैंने ऐसा महसूस किया कि जैसे खुर्राट बेड पर लेटने से पहले कुछ पल तक मुझे देखता रहा कि मैं सो रही हूँ कि नहीं। मेरी निश्चल अवस्था से उसे विश्वास हो गया कि मैं सो रही हूँ। वह लेटते ही सो गया। दो मिनट बाद ही उसके नाक की खुरखुराहट आने लगी थी। मैं लेट नहीं सकी, उठ कर बैठ गई बगल में। उसकी उपस्थिति से मुझे बड़ी उलझन होने लगी। मुझे लगा कि अब और समय तक यहाँ नहीं बैठ पाऊँगी, दूसरे कमरे में चले जाना ही अच्छा है। मैं उठ कर जाने लगी, फिर दरवाज़े के पास पहुँचकर अनायास ही मुड़ी। मेरी नज़र सीधे उनके चेहरे पर गड़ गई। ऐसी गड़ी कि हटा ही नहीं पा रही थी।

फिर मेरे क़दम बरबस ही उसकी तरफ़ बढ़ते चले गए। मैं बेड से दो क़दम पहले ठहर गई। एकटक उनके चेहरे को देखती रह गई। बरसों-बरस बाद अचानक ही अम्मा द्वारा बार-बार गुन-गुनाया जाने वाला भजन कानों में गूँजने लगा। सूरज ना बदला, चाँद ना बदला..., अम्मा जी ने बाबूजी के ना रहने के बाद कुछ भी गुनगुनाना बंद कर दिया था। मैं भी समय के साथ भूल गई थी। लेकिन सोते हुए खुर्राट के मासूम चेहरे को देखकर पता नहीं कैसे अम्मा की ही आवाज़ में भजन कानों में गूँजने लगा।

मैं पास रखे प्लास्टिक के स्टूल को उसके सामने रखकर बैठ गई। उसके चेहरे को ऐसे देखने लगी जैसे पहली बार माँ बनी कोई महिला अपने सोते हुए नवजात शिशु को देखती है, एकटक। बस मुझ में वह भाव नहीं थे। मगर तब मैं यह ज़रूर सोच रही थी कि इस समय मासूम दिखने वाले इस चेहरे के पीछे कितने चेहरे छुपे हैं। जब ऑफ़िस में मिला तो कैसा था। साथ आने-जाने लगा तो दूसरा रूप। ज़्यादा अंतरंग बातों में एक और नया रूप। शादी की पहली रात डायमंड सेट लिए एक नया रूप। कुछ देर बाद ही एक और बदला हुआ रूप। और आज यह है।

भगवान इस एक आदमी के पीछे और कितने आदमी छिपे हैं। मैं ऐसा सब कुछ सोच ज़रूर रही थी। लेकिन बड़ी अजीब बात यह थी कि खुर्राट को लेकर उस समय भी मेरे मन में कोई ग़ुस्सा, भड़ास, घृणा कुछ नहीं था। मैं एक तटस्थ व्यक्ति की तरह वहाँ बैठी थी, ऐसे बैठे-बैठे ना जाने मैं क्या-क्या सोचती रही, कि इससे शादी करना ही मेरी सबसे बड़ी मूर्खता थी। सच तो यह है कि इसके साथ मैंने अन्याय किया है। छल किया है। अपने सुख के लिए इससे इसका सुख छीन लिया।

चलो यह भटका था, मुझे तो इसे समझाना चाहिए था। लेकिन मैं क्या उस वक़्त इससे कहीं ज़्यादा उतावली नहीं थी। कैसा-कैसा सोचती रहती थी मैं। बैठे-बैठे मुझे लगा कि मेरे पैर सुन्न हो रहे हैं। मैंने पैर सीधा किया, धीरे-धीरे झटक कर ब्लड सरकुलेशन को नॉर्मल किया और उठकर दूसरे कमरे में आ गई। तभी मोबाइल में अलार्म रिंग होने लगी। रोज़ सवेरे साढ़े पाँच बजे होने वाली रिंग। मैं खुर्राट के चक्कर में तीन बजे रात से बराबर जागती रह गई। 

सोचा चलकर तैयार होऊँ, किचन सँभालूँ। छह बजे तक अपने मोम से खुर्राट को चाय भी देनी है। उठी कि चलूँ शुरू करूँ  एक और दिन की शुरुआत। लेकिन शुरू करते-करते फिर आकर बैठ गई। सोचा आज फिर इतिहास को दोहराने दो। स्थान वही है, पात्र वही हैं, बस एक पात्र अम्मा की कमी है। अम्मा ने भी उस दिन संयोगवश ही मेरी, खुर्राट की अंतरंग बातों को सुनने के बाद यह सोचकर नहीं उठाया था कि मैं रात भर जागी हूँ।

आज मैं खुर्राट और उस लड़की की अंतरंग बातों को ठीक वैसे ही सुनने के बाद खुर्राट को नहीं जगाऊँगी। क्योंकि वह भी रात भर जागा है। और मैं रात भर अम्मा की तरह जागती रही हूँ। मैं अम्मा की तरह बाहर लॉन में गेट के पास नहीं बैठी। सोफ़े पर ही लेटी सोचती रही, अपनी पिछली ज़िंदगी और भविष्य के बारे में। उस वक़्त मेरी जैसी मनोदशा थी उसका विश्लेषण मैं यक़ीन से कहती हूँ कि फ़्रॉयड, हैवलक एलिस भी नहीं कर पाते। बहरहाल साढ़े नौ बजे खुर्राट की आहट मिली तो मैंने जानबूझ कर आँखें बंद कर लीं, जैसे गहरी नींद में सो रही हूँ।

खुर्राट मेरा नाम पुकारता हुआ मेरे पास आया। वही नाम जो उसने शादी के बाद मुझे दिया था। इसे वह अपना प्यारा गिफ़्ट कहता था। वह मुझे अधरा कहता था। कहता कि मेरे होठों की बनावट बहुत मोहक है। मगर उस समय उसके मुँह से अपना यह नाम सुनकर मुझे ग़ुस्सा आ रहा था। उसकी आवाज़ से धोखे, फरेब की गंदी बू आती महसूस कर रही थी। उसके तीन बार आवाज़ देने पर भी जब मैं नहीं उठी तो उसने मेरी बाँह को पकड़ कर हिलाते हुए आवाज़ दी। "अधरा, क्या बात है, अभी तक सो रही हो। मुझे भी नहीं जगाया।" मैंने गहरी नींद से जागने का अच्छा ड्रामा करते हुए कहा, “अरे बड़ी देर हो गई, उठ तो गई थी टाइम से लेकिन बड़ी थकान महसूस हो रही थी, कमर भी दर्द कर रही थी। तो यहाँ बैठ गई। थोड़ा आराम मिला तो पता नहीं कब नींद आ गई। अच्छा तुम तैयार हो मैं नाश्ता, खाना तैयार करती हूँ।

उसने कुछ देर तक मेरे चेहरे को देखने के बाद पूछा, "क्या बात है? तबीयत तो ठीक है ना।" मैंने अपने मन में चल रही उथल-पुथल के कारण चेहरे पर आ गए तनाव को झूठ के आवरण में छिपाने के लिए बड़ा झूठ बोला कि कमर दर्द ठीक नहीं हुआ है। उसी से परेशान हूँ, लेकिन इतना भी नहीं है कि तुम्हारे लिए किचेन में ना जा सकूँ। मैंने उठने की कोशिश की तो उसने बड़े प्यार से दोनों हाथों से मेरे कंधों को पकड़ कर बैठा दिया। कहा, "नहीं तुम आराम करो, मैं चाय वग़ैरह बना लेता हूँ, बाक़ी नाश्ता बाहर से ले आता हूँ।" मैंने लाख मना किया लेकिन वह नहीं माना।

उस समय उसकी भाव-भंगिमा, बातों से इतना स्नेह झलक रहा था कि मैं भाव-विह्वल हो उठी। मेरी हर कोशिश बेकार हो गई। मेरे आँसू छलक पड़े। आँसू देख कर वह बेहद परेशान होकर बोला, "अरे अधरा तुम्हें क्या हुआ है, सच बताओ? ज़्यादा दर्द हो रहा हो तो डॉक्टर के पास ले चलूँ। कपड़े चेंज करो मैं लेकर चलता हूँ।" मुझे अंदर-अंदर बड़ा ग़ुस्सा और हँसी भी आ रही थी कि मैं परेशान किसी और वज़ह से हूँ, आँसू दर्द नहीं इसके धोखे, छल-कपट के कारण आ रहे हैं। लेकिन मैं दर्द का ड्रामा कर रही हूँ। जिसे यह सच समझ रहा है। रंगमंच की अच्छी से अच्छी कलाकार भी मेरे जैसा ड्रामा नहीं कर पाएगी कि देखने वाले को एकदम सच स्वाभाविक लगे। और यह मेरा मोम जैसा पिघलने वाला खुर्राट भी कितना अच्छा ड्रामेबाज़ है।

उस समय लग रहा था कि उससे ज़्यादा प्यार कोई पति अपनी पत्नी से करता ही नहीं होगा। मैंने कहा नहीं, दर्द इतना नहीं है कि डॉक्टर के पास जाना पड़े। अभी पेन किलर ले लूँगी, या फिर मूव लगा लूँगी, तुम ऑफ़िस के लिए तैयार हो मैं नाश्ता बनाती हूँ। लेकिन मेरी बात उसने नहीं सुनी। अलमारी में रखा पेनकिलर बॉम ही उठा लाया। मूव था नहीं।

मैंने कहा परेशान ना हो, मैं लगा लूँगी। लेकिन वह नहीं माना। सोफे से उठा कर बेड पर लिटाया। ऐसे पकड़ कर ले गया जैसे ना जाने मैं कितनी गंभीर बीमार हूँ। बड़ा सँभालकर पेट के बल लिटा दिया, फिर बॉम लगाकर हल्की-हल्की मालिश करने लगा। साथ ही अपनी नसीहत भी देता जा रहा था कि, "पेनकिलर ना खाया करो, इसके साइड इफेक्ट बहुत ख़राब होते हैं। ज़्यादा ज़रूरी हो तो ही ऐसी क्रीम, स्प्रे या जेल वगैरह लगा लिया करो। डॉक्टर को दिखाकर प्रॉपर इलाज कराओ, ऐसे मर्ज़ बढ़ाना मूर्खता है।"

उसकी बातें सुन-सुनकर मुझे हँसी आ रही थी। किसी भी पत्नी के लिए ऐसी स्थिति बेहद तनावपूर्ण होती है। लेकिन इस हाल में भी मुझे हँसी आ रही थी। उसकी बातें उसकी मालिश में मुझे पति का अंश भी महसूस नहीं हो रहा था। लग रहा था जैसे कोई ब्याहता उम्र-दराज़ बेटी अपनी बुजुर्ग माँ को उसकी ख़ुद के प्रति लापरवाही पर उसे मीठी घुड़की दे रही है। समझा रही है। प्यार-स्नेह से सेवा कर रही है। रोकने की लाख कोशिशों के बाद भी अंततः मुझे हँसी आ ही गई। इतनी तेज़ कि पूरा शरीर ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगा।

शुरू में उस ने समझा कि मैं रो रही हूँ, मगर अगले ही क्षण जब उसे असलियत मालूम हुई तो वह बोला, "यार अजीब औरत हो, दर्द में भी हँसती हो, कमाल है, तुम औरतों को समझना भी बड़ा मुश्किल काम है।" वह अलग हटने लगा तो मैं उसका एक हाथ पकड़ कर उसी के सहारे ही उठ कर बैठ गई। हँसी मेरी तब भी नहीं रुक रही थी। बड़ी मुश्किल से रोक कर बोली, “अरे मेरे प्यारे पति देवता, हँसी इसलिए आ रही है कि मैं सोच रही हूँ इतनों दिनों में कभी भी नहीं पूछा कि कैसी हो? कितनी बार तबीयत ख़राब हुई, लेकिन एक कप चाय छोड़ो पानी तक नहीं पूछा। आज तुम्हें क्या हुआ है? आज पश्चिम से सूरज कैसे निकल आया यही सोच-सोच कर हँस रही हूँ। रहा दर्द तो वह अब भी जस का तस बना हुआ है।

तुमने इतने प्यार से मालिश की तब भी, बल्कि और बढ़ रहा है, और फैल रहा है। लेकिन प्लीज़ यह मत कहना कि चलो डॉक्टर के पास चलें। नहीं तो और बढ़ जाएगा। औरतों की समस्या है, वह जानती हैं कि कब डॉक्टर के पास जाना है। और हाँ, आज मैं ऑफ़िस नहीं चलूँगी, तुम्हें अकेले ही जाना है। जाओ तैयार हो मैं खाना बनाती हूँ।

वह तैयार होने चला गया। जाते-जाते बड़े प्यार से मेरे चेहरे को दोनों हाथों में लेकर दो-तीन बार किस किया था। मैंने भी उसके हाथों को पकड़ कर चूम लिया था। दर्द तो मेरा वाक़ई बढ़ रहा था लेकिन कमर का नहीं दिल का, मैं जानती थी कि इस दर्द का इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है। इसलिए उसे उसके हाल पर छोड़ दिया, कि बाद में देखती हूँ। और जल्दी-जल्दी चाय-नाश्ता, खाना-पीना बना कर खुर्राट को विदा किया, अपने पतिदेव को।

उनके जाते ही दर्द और बढ़ गया। यह बढ़ना जारी रहा। मैं रोज़-रोज़ बातें सुनती, घर में, ऑफ़िस में। अक्सर ऑफ़िस से दो-ढाई घंटे के लिए उनका ग़ायब होना भी देखती रही थी। हर बार जब सोचती तो घर के किसी कोने में अकेले बैठकर रो लेती। ऑफ़िस में जब याद आती तो ख़ुद को सँभाल पाना मुश्किल होता। ऐसे में वॉशरूम में ख़ुद को बंद कर रो लेती। जब-जब सोचती कि यह सब मेरे साथ क्यों हो रहा है? तो हर बार जवाब मुझे यही मिलता, दिलो-दिमाग़ यही कहते कि ग़लती मेरी ही है। ग़लती मैंने की है। अब उसी का परिणाम सामने है। कुछ ही महीने में मैंने इस तरह से बार-बार सोच-विचार कर जब यह पाया कि सारी ग़लती मेरी ही है, तो मेरे आँसू सूख गए। मेरा रोना ख़त्म हो गया। अब बेडरूम में उसके साथ तभी सोती जब वह ज़िद करता, नहीं तो कभी दूसरे कमरे, कभी सोफे पर, तो कभी कहीं पड़ी रहती।

मैं उसे पूरी आज़ादी, पूरी निश्चिंतता देने की कोशिश करती कि वह जिससे भी बातें करता है, निश्चिंत होकर कर सके, मेरे सोने तक उसे इंतज़ार ना करना पड़े। मैंने उससे अपने को इतना अलग कर लिया कि एक घर में रह कर भी हम अनजाने से हो गए। सारा काम-धाम मशीनी अंदाज़ में होने लगा। मेरे देखते-देखते बड़ी तेज़ी से एक साल और निकल गया।

अब मुझे बड़ी घुटन होने लगी। वह जितनी देर मेरे आसपास रहता उतनी देर मेरी व्याकुलता और बढ़ जाती, आख़िर क्या करूँ इस व्याकुलता बेचैनी से छुटकारा पाने के लिए यह सोचते हुए एक दिन ऑफ़िस में बैठी काम कर रही थी। लंच ख़त्म हुए आधा घंटा बीत चुका था। यह लंच से एक घंटा पहले से ही ग़ायब थे। मुझे कुछ काम बता कर गए थे। वही पूरा करने में लगी थी। उसी समय एक अधिकारी खुर्राट को पूछते हुए आ गए। मैंने कहा लंच के लिए निकले हैं, वह आते ही होंगे। मुझे कोई चिंता नहीं थी कि अधिकारी पूछने ख़ुद ढूँढ़ता हुआ आया है। क्योंकि मैं यह अच्छी तरह जानती थी कि ऑफ़िस में मेरा यह खुर्राट इन अधिकारियों को जूते की टो पर रखता है।

अधिकारी के जाते ही एक साथी बोला, "वह चार बजे से पहले आने वाला नहीं। उसी छोकरिया के साथ कहीं गलबहियाँ किए पड़ा होगा।" उसकी यह बात मेरे कानों में किसी ज़हरीले काँटों वाले कीड़े की तरह घुसकर कुलबुलाने लगी। उसके काँटें असंख्य सूइयों की तरह चुभ-चुभ कर पीड़ा पहुँचाने लगे। मैं एकदम बिलबिला पड़ी। जल्दी से बाथरूम में गई, शीशे में देखा तो मेरी आँखें नम हो रही थीं। आँखों की नसें, चेहरा लाल हो रही थीं। पूरा चेहरा पसीने से तर था। कुछ देर तक अपने को देखती रही। देखते-देखते मेरे आँसू निकलने लगे। मुझे लगा कि अगर मैंने ख़ुद पर कंट्रोल न किया तो मैं ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ूँगी, तमाशा बन जाएगा।

घड़ियाली स्वभाव वाले आँसू पोंछने के बहाने सीधे-सीधे चेहरा पकड़ लेंगे। पीठ सहलाने लगेंगे। चुप कराने के बहाने बाँहों में भर लेंगे। मैं मजबूर किसी को कुछ भी नहीं बता सकूँगी कि मैं क्यों रो रही हूँ। इतने सालों बाद भी ऑफ़िस में कोई यह नहीं जानता था कि मैंने उससे शादी कर ली है। उनकी नज़रों में ऑफ़िस के इस सबसे बड़े खुर्राट आदमी के साथ मेरा आना-जाना भर ही है। इसके अलावा और कुछ नहीं। क्योंकि जिस तरह हम दोनों वहाँ रहते, जिस तरह बिहेव करते थे, उससे भी किसी को कुछ और सोचने का आधार नहीं मिलता था।

तमाम बातों का बवंडर सा उठ खड़ा हुआ दिमाग़ में, आँसू बंद ही नहीं हो रहे थे। आखिर मैंने अंजुरी में भर-भर कर पानी चेहरे पर मारा। फिर आकर चेयर पर बैठ गई। मन ही मन पूरी दृढ़ता से ठान लिया कि आज इस चैैप्टर का आख़िरी पन्ना लिखकर ही रहूँगी। आज से ज़्यादा सही समय कभी नहीं आएगा। खुर्राट ने जो काम दिया था उसे करना मैंने रोक दिया। और कंप्यूटर पर कभी कुछ, कभी कुछ करती रही। साथी की बात सच निकली, खुर्राट चार बजे ही आया। आते ही अपनी चेयर पर बैठा बाद में, काम के बारे में पहले पूछ लिया। अधूरा है सुनते ही बरस पड़ा। नॉनस्टॉप दो मिनट तक अंडबंड बोलता रहा। ऑफ़िस में उसका मेरे साथ यही व्यवहार था। लेकिन उस दिन मैंने उसके इस व्यवहार से बड़ा अपमानित महसूस किया।

ऐसा महसूस करते ही मैंने उसे घूर कर देखा। बस वह एकदम शांत हो गया। जैसे किसी खिलौने की अचानक ही बैटरी निकाल दी गई हो। इतने ग़ुस्से के बाद भी मेरे मन में हँसी आ गई। मन ही मन कहा वाह रे मेरे खुर्राट राजा, ज़रा सी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते, एकदम से पिघल कर फैल जाते हो। मर्द हो कुछ तो मज़बूती दिखाओ। मगर नहीं तुमसे यह उम्मीद करना बेवकूफ़ी है। तुम चेहरे पर चेहरा लगाए एक बहुत ही बड़े हिप्पोक्रेट हो, धोखेबाज हो, फरेबी हो। उस दिन मैंने रात में खाना-पीना होने तक कुछ नहीं कहा, क्योंकि ज़रा सा भी तनाव होने पर वह खाना-पीना छोड़ देता था। मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वह भूखा रहे। 
खाना-पीना, सारा काम-काज ख़त्म करने के बाद मैं सोफे पर उसी के बगल में बैठ गई। बहुत दिन बाद उसके बगल में ऐसे बैठी तो वह छूटते ही बोला, "अरे अधरा जी आज बहुत रोमांटिक मूड में हैं। क्या बात है?" मैंने कहा, “क्यों तुम नहीं हो क्या?” तो वह बोला, "तुम मूड रोमांटिक बनाओगी तो बन जाएगा।" अब मैं ख़ुद पर ग़ुस्सा हावी होते महसूस कर रही थी। यह एहसास होते ही मैंने ख़ुद को रोका और बेहद प्यार से बोली, “घर पर तुम्हारा मूड जब मैं रोमांटिक बनाऊँगी तब बनेगा, लेकिन उसके साथ होते हो तो कौन किस का मूड रोमांटिक बनाता है। तुम उसका या वह तुम्हारा।

इतना कहते ही जैसे उसे करेंट लग गया। झटके से उठ कर दो क़दम दूर खड़ा होकर मुझे एकटक देखने लगा। मैंने कहा, “क्या हुआ? आओ बैठो ना।तो वह बोला, "यह तुम किसकी बात कर रही हो?" मैंने फिर मुस्कुराते हुए कहा, “क्यों परेशान हो रहे हो। आओ बैठो ना। अच्छी तरह जानते हो कि मैं किसकी बात कर रही हूँ। और सुनो मैं इस बारे में सब कुछ बहुत पहले से जानती हूँ। जैसे मेरी अम्मा ने संयोगवश ही हमारी बातें सुन ली थीं, वैसे ही एक दिन मैंने तुम दोनों की सुन ली थी।

तुम जब-जब ग़ायब होते हो मुझे पता रहता है कि तुम उसी के साथ रोमांटिक बने मौज-मस्ती में लगे हो। आज भी ऑफ़िस से फिर ग़ायब हुए तब भी मालूम था कि उसी के साथ हो। मुझे कभी बुरा नहीं लगा। आओ बैठो ना, बातें करते हैं। कुछ ऐसा सॉल्यूशन निकालते हैं कि तुम्हें उससे मिलने के लिए छुपना ना पड़े, झूठ ना बोलना पड़े। तुम दोनों एक साथ रहो।

मैंने देखा कि मेरी बातों से उसके चेहरे का तनाव कम हो गया है। वह टीचर के सामने डरे हुए बच्चे की तरह धीरे से आकर मुझसे थोड़ी दूरी बना कर बैठ गया। मैं कुछ बोलूँ उसके पहले ही उसने दोनों पैर उठाकर सोफे पर रखे और उन्हें भीतर की तरफ़ घुटनों से मोड़कर लेट गया। सिर मेरी गोद में रख दिया, दोनों हाथों को मेरी कमर के इर्द-गिर्द लपेट दिया। और चेहरा एकदम मेरे पेट से चिपका लिया जैसे कोई बच्चा अपनी माँ से बड़े प्यार-दुलार से चिपक जाता है।

मैं बड़े अचरज में पड़ गई कि अब यह इसका कौन सा तमाशा है। यूँ तो यह अक्सर ऐसा करता है, लेकिन इस समय जो बात चल रही है उसे देखते हुए तो ऐसी हरकत का प्रश्न ही नहीं उठता। उसकी इस अप्रत्याशित हरकत ने मुझे कुछ देर कंफ्यूज़ कर दिया। लेकिन अंततः मैं यही समझी कि यह हो न हो अपनी ऐसी हरकतों को एक हथियार की तरह यूज़ करता है। इसे हथियार बनाकर यह जो चाहे वह करते रहना चाहता है। 

यह सब समझने के बावजूद पता नहीं क्यों मुझे उसके साथ सिंपथी हो गई। प्यार का भी कुछ अंश मिला हुआ था। मैंने उसके बालों में प्यार से अँगुलियाँ फिराते हुए कहा उठो तब तो बातें करूँ। लेकिन वह छूटते ही बोला, "नहीं ऐसे ही कहो।" आख़िर मैंने उस महिला के बारे में जितना जानती थी वह सब कह दिया, और साथ ही यह भी कह दिया कि यदि उसके साथ शादी करना चाहते हो तो साफ़-साफ़ बताओ, मैं करवाऊँगी उससे तुम्हारी शादी।

एक बार फिर उसे करेंट लगा। वह झटके से उठ कर बैठ गया। आँखें फाड़ कर मुझे हैरत से देखने लगा। फिर बोला, "तुम मेरी शादी दूसरी लड़की से करवाओगी, यार कैसी औरत हो? ख़ुद ही अपने आदमी की शादी दूसरी औरत से करवाओगी। तुम कर लोगी यह सब।" मैंने सपाट शब्दों में कहा, इसमें अचरज वाली कोई बात नहीं है। जैसे अम्मा ने हमारी बातें सुनने के बाद सोचा कि हम एक दूसरे के हो चुके हैं, हम एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते, और आनन-फानन में हमारी शादी करवा दी। 

उस लड़की के साथ वैसी ही स्थिति अब मुझे तुम्हारी दिख रही है। तो अब मैंने तय कर लिया है कि इसी महीने में तुम दोनों की शादी करवा दूँगी। दरअसल यह करके मैं अपनी ग़लती ही सुधारूँगी जो बरसों पहले मैंने की। यह मैं काफ़ी हद तक भावावेश में और अम्मा की जल्दबाज़ी में आकर कर बैठी थी। जिसे पहले ही दिन से तुम मन से एक्सेप्ट नहीं कर सके। और तुम्हारी हिचक ने मुझे पहली ही रात में भ्रमित कर दिया था। मन से पति-पत्नी वाली कोई बात बन ही नहीं पाई थी। क्यों मैं सही कह रही हूँ ना?”

उसने सेकेंड भर में मौन सहमति दे दी तो मैंने भी तुरंत निर्णय दे दिया कि यह शादी होगी। वैसे भी हमारी शादी का ना तो कोई क़ानूनी महत्त्व है, ना ही सामाजिक। मैंने यह भी साफ़ कह दिया कि शादी के पहले ही तुम्हें सारे रिश्ते ख़त्म कर यह घर हमेशा के लिए छोड़ देना है। मेरी इस बात पर भी उसने बिना विलम्ब के मौन सहमति दे दी। उसकी सहमति के साथ ही मुझे ऐसा महसूस हुआ कि बहुत समय से जो एक बहुत भारी बोझ मैं ढोए चली आ रही थी वह उतर गया। मैं बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी।

यह सारी बातें होते-होते बहुत देर हो चुकी थी। एक बज गया था। मैंने कहा सुबह ऑफ़िस भी चलना है, अब जाइए, सोइए, मैं भी सोने जा रही हूँ। मैं उठकर दूसरे कमरे में जाने लगी तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, बेडरूम की तरफ़ लेकर चलने लगा तो मैंने कहा, “नहीं, मेरा तुम्हारा अब कोई रिश्ता नहीं रहा। अब सब ख़त्म हो चुका है। इसलिए यह इंपॉसिबल है।लेकिन उसकी अजब तरीक़े की मनुहार, अनुनय-विनय ज़िद के आगे एक बार फिर कमज़ोर पड़ गई। कई महीने बाद फिर एक बेड पर थी।

उस दिन मैं पूरी रात नहीं सो सकी। सुबह बहुत देर से उठी। किसी तरह बेमन से नाश्ता बनाकर ग्यारह बजे खुर्राट को यह कहकर ऑफ़िस भेज दिया कि मैं ऑफ़िस नहीं आऊँगी। लंच तुम होटल में कर लेना। उसके जाने के बाद दिन भर मैं घर में इधर-उधर बैठती रही, सोचती रही कि इसकी शादी जब एक-दो हफ़्ते में होगी तब होगी। लेकिन इस घर से इसे एक-दो दिन में ही विदा कर देना मेरे लिए अच्छा रहेगा। क्योंकि इसकी हरकतें मुझे कमज़ोर बनाने में देर नहीं लगातीं।

शाम को जब वह घर आया तो खाने के बाद मैंने बड़ी सख़्ती के साथ कह दिया कि कल छुट्टी ले लो। अपने चाचा के घर जाकर साफ़-सुथरा करवाओ और शिफ़्ट हो जाओ। अब हमारा एक दिन भी साथ रहना उचित नहीं। कम से कम मैं किसी सूरत में नहीं रहूँगी। वह बोला, "इतनी जल्दी भी क्या है।" मैंने कहा जल्दी या देर की बात नहीं है। मुझे सिर्फ़ यही रास्ता दिख रहा है, इसलिए यही करूँगी। 

मेरी ज़िद, मेरी सख़्ती पर उसकी आँखों से मोटे-मोटे आँसू निकलने लगे। जिन्हें देखकर मेरा मन एकदम पिघलने लगा। लेकिन मैं अलर्ट थी। मैंने सोचा, मैं इससे जितना बात करूँगी, जितनी देर यहाँ रहूँगी यह अपनी हरकतों से मुझे कमज़ोर बना ही देगा। इसलिए मैं वहाँ एक क्षण रुके बिना दूसरे कमरे में चली गई। दरवाज़ा बंद कर लिया।

उसके सामने मैंने जो बेरुख़ी शो की थी उसे उसने सही माना। और कुछ ही मिनट बाद मैंने बेडरूम में जाकर उसके लेटने की आहट महसूस की। लेकिन उसके मोटे-मोटे आँसू मुझे बेचैन किए हुए थे, तो आधे घंटे बाद ही धीरे से उसके पास गई कि देखूँ सो गया या बेवकूफ़ अभी तक आँसू ही बहा रहा है। लेकिन वहाँ उसे देखकर लगा कि बेवकूफ़ मैं ही हूँ। मैं ही ठगी जाती हूँ बार-बार। वह आराम से चारों खाने चित सो रहा था। मैं फिर वापस अपने कमरे में दरवाज़ा बंद किए पड़ी रही। बड़ी देर बाद सो पाई।

मैंने अगले दिन एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा कर उसे घर से विदा कर दिया। वह फिर अपने चाचा के यहाँ शिफ़्ट हो गया। उससे संबंधित जितना भी सामान था, सब मैंने उसे ही दे दिया। हफ़्ते भर बाद जब उसकी शादी हुई तो उसने जो डायमंड सेट मुझे दिया था उसे भी कुछ और सामान के साथ ले जाकर उसकी नई पत्नी शृयंका को गिफ़्ट कर आई।

एक बार फिर मंदिर में उसकी शादी हुई थी। मैंने गिफ़्ट उसे उसके घर पर दिया था। चलते वक़्त वह मना करने पर भी मुझे घर तक छोड़ने आया। आख़िर में बोला, "मैं तुम्हें कभी, मेरा मतलब है कि मैं आपको कभी नहीं भूल पाऊँगा।" तुम से आप कह कर उसने रिश्ते का पतले से धागे का जो आख़िरी सूत था वह भी तोड़ दिया। उस सूत के टूटने से मैंने कान में एक धमाके सा शोर महसूस किया था। लेकिन मैंने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। मुड़ी और चल दी यह सोचते हुए कि अभी एक आख़िरी काम रह गया है। उसे जल्दी पूरा करना ही अच्छा है।

मैंने घर छोड़ कर वृद्धाश्रम में रहने का फ़ैसला कई दिन पहले ही कर लिया था। जिससे वृद्धों की कुछ सेवा कर सकूँ और साथ ही उनके बीच रह भी सकूँ । कई महीनों की दौड़-धूप के बाद मेरी सोच के हिसाब का एक वृद्धाश्रम मिला। जिसमें अब मैं हूँ। इसमें तीन दर्जन से अधिक वृद्ध महिलाएँ हैं। मगर यहाँ मेरे शामिल होने में यहाँ का नियम आड़े आ गया कि उम्र साठ वर्ष पूरी हो या रिटायर हो। एक एनजीओ के इस वृद्धाश्रम के प्रबंधक से मैंने कहा अपना मकान एनजीओ के नाम करती हूँ। वह मेरे बाद एनजीओ की प्रॉपर्टी होगी। इस बीच मकान को किराए पर दूँगी। उससे मिलने वाला किराया भी दूँगी। साथ ही जो मंथली फ़ीस होगी वह भी दूँगी। कई गुना ज़्यादा मोल दिया तो अंततः मुझे यहाँ आश्रम में जगह मिल गई। मैं मकान किराए पर देकर यहाँ वृद्धाओं के बीच आ गई। मैं भी तो वृद्धा हो चुकी थी। तन से ना सही मन से ही सही।

रिटायरमेंट के बाद मैं यहाँ सभी वृद्धाओं की ज़्यादा सेवा कर पा रही हूँ। यहाँ एक ऐसी वृद्धा है जिसकी मैं कुछ ज़्यादा ही सेवा करती हूँ। वह भी अपने दो बेटों की ठुकराई हुई विधवा माँ है। उसकी एक लड़की तीन-चार महीने में कभी एकाध बार मिलने को आ जाती है। जब आती है तो लगता है जैसे माँ पर एहसान करने आई है। उसकी बात व्यवहार में मुझे एक बेटी होने का अक्स नज़र ही नहीं आता है। जैसे अपना रुतबा पैसा दिखाने आती है।

उसे देख कर मैं सोचती हूँ कि अगर चाहे तो माँ को अपने साथ घर पर भी रख सकती है। माँ भी उसके सामने अपनी कमज़ोरी नहीं प्रकट करती। लेकिन उसके जाने के बाद बहुत रोती है, कई दिन रोती है। मैं बहुत मुश्किल से समझा-बुझाकर चुप करा पाती हूँ। उसका दुख देखकर सोचती हूँ, राहत महसूस करती हूँ कि चलो मैं कम से कम इस तरह के किसी दुख-दर्द से बची रहूँगी। इन वृद्धों को देखकर अक्सर अम्मा का प्रिय भजन गुनगुनाता हुआ चेहरा दिखाई देने लगता है कि, "कितना बदल गया इंसान..." और खुर्राट... वह भी कभी-कभार याद आ ही जाता है।   

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लेखक का परिचय

   प्रदीप श्रीवास्तव

जन्म: 1 जुलाई 1970

जन्म स्थान: लखनऊ

पुस्तकें: 

उपन्यास– 'मन्नू की वह एक रात', 'बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब', 'वह अब भी वहीं है' ‘अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं 

कहानी संग्रह– मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाज़ा, मेरा आख़िरी आशियाना, मेरे बाबूजी, वो मस्ताना बादल 

नाटक– खंडित संवाद के बाद

संपादन: 'हर रोज सुबह होती है' (काव्य संग्रह), वर्ण व्यवस्था

पुरस्कार:  मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवार्ड-2020

 pradeepsrivastava.70@gmail.com , psts700@gmail.com

               9919002096 , 8299756474

 

 

 

 

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