शनिवार, 31 अगस्त 2019

कहानी :मैं ऑटोवाला और चेतेश्वरानन्द :प्रदीप श्रीवास्तव



मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद 

प्रदीप श्रीवास्तव


दुष्यंत ने ऑटो रिक्शा चलाना तब से शुरू कर दिया था जब वह कानूनी रूप से बालिग भी नहीं हो पाया था। ऐसे में जब भी ट्रैफ़िक पुलिस द्वारा पकड़ा जाता तो तुरंत जितने रुपए उसके पास होते वह फट से निकाल कर उसे थमा देता। पुलिस वाला सारे नोट जेब में ठूंस-ठांस कर रखते हुए कहता, ‘चल भाग, जल्दी बड़ा हो जा।’ ऑटो की स्पीड अपनी मर्जी से घटाने-बढ़ाने वाले दुष्यंत के पास उम्र बढ़ाने की स्पीड पर कोई कंट्रोल नहीं था। वह अपने ही हिसाब से बढ़ती रही और दुष्यंत को बालिग बनाने में पूरे ग्यारह महीने ले लिए। वह रोज बड़ी बेसब्री से ग्यारहवें महीने की इक्कीसवीं तारीख की प्रतीक्षा करता था। 

और जब यह तारीख आई तो उसने खुशी मनाई। लेकिन अन्य लोगों की तरह नहीं कि खुशी मनाने के लिए छुट्टी ले ली, काम नहीं किया। बल्कि इस खुशी को उसने अपनी तरह से अकेले ही मनाया और ऑटो रोज से भी चार घंटे ज़्यादा चलाया। मालिक को उसने सवेरे ही बता दिया था कि, ‘आज ज़्यादा चलाऊंगा और ज़्यादा कोटा दूंगा।’ मालिक उसकी ईमानदारी, मेहनत, अच्छी ड्राइविंग के कारण ही उस पर आंख मूंदकर विश्वास करता था। 

उसने उसे काम पर रखने के हफ्ते भर बाद ही कह दिया था कि, ‘तुम चलाओ, पकड़े जाओगे तो मैं छुड़ा लूंगा।’ लेकिन दुष्यंत पकड़े जाने की बात मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाने के कई दिन बाद ही बताता था। मालिक को वह कोटा पूरा देता। जो बच जाता उसी से अपना काम चलाता। उस दिन अपना कोटा वह भूल जाता था। यूं तो कानूनन किसी ड्राइवर को ही ऑटो का परमिट मिलता है। वह भी कॉमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस होने पर ही। लेकिन दुष्यंत के मालिक ने और कई आर्थिक रूप से सक्षम लोगों की तरह फर्जीवाड़ा करके कई परमिट ले रखे थे। वो कई बेरोजगार युवकों का हक़ मारे हुए था। 

ऑटो वाले और चेतेश्वरानंद की यह कहानी पढ़ने वाले मेरे मित्रों, मैं एक सच आपको इसी समय बता देना उचित समझता हूं कि मैं कोई कहानी लेखक या कहानी नैरेटर नहीं हूं। पूरा सच यह है कि मैं ही ऑटो वाला हूं। मतलब कि था। था इसलिए क्योंकि काफी समय पहले मैंने ऑटो चलाना छोड़ दिया है। जब चलाता था तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऑटो चलाना छूट जाएगा। और चलाना शुरू करने से पहले सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऑटो चलाऊंगा और आगे वह करूंगा जो अब कर रहा हूं। 

मित्रों मैं अब आपको वह सच बताने जा रहा हूं कि मुझसे ऑटो छूटा कैसे और मैं यहां तक पहुंचा कैसे। एक चीज आप से बहुत साफ-साफ कहता हूं कि अगर आप बहुत प्रगतिशील विचारों के हैं, जीवन की हर बातों को, हर काम को विज्ञान के तराजू पर तौलते हैं, उसके मापदंडों पर ही कसते हैं, उससे मिले निष्कर्षों पर ही सही गलत का निर्णय करते हैं। तो मित्रों माफ करना, मैं बहुत साफ कहता हूं, कि आपका विज्ञान भी उतना ही अधूरा, अस्पष्ट है, जितना कि अन्य बातें, पौराणिक आख्यान आदि-आदि। 

देखिए ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि न जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं कि विज्ञान का कोई सिद्धांत बरसों-बरस सही माना जाता है। लेकिन फिर अचानक ही कोई दूसरा वैज्ञानिक पिछले को झुठलाते हुए नया सिद्धांत, नए नियम लेकर सामने आ जाता है। पिछला गलत हो जाता है। इसका अर्थ आप यह न लगा लें कि मैं विज्ञान को नहीं मानता। मित्रों मैं विज्ञान को उतना ही मानता, अहमियत देता हूं, जितना ज्योतिष शास्त्र एवं पौराणिक आख्यानों को। 

देखिए मैं जहां-जहां से होता हुआ आज जहां पहुंचा हूं और आपसे जिस तरह मुखातिब हूं इसे मैं विधि का विधान मानता हूं। जिसके लिए बहुत से नास्तिक वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि ना विधि होता है, ना विधि का विधान। या प्राचीन काल में सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि की तरह कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की है बल्कि सतत् विकास की प्रक्रिया का परिणाम है यह। अर्थात् जब उनकी सृष्टि ही नहीं तो उनका विधान कैसे? आप एक बात और सोचें कि डार्विन का विकासवाद इससे इतर है क्या? हां कुछ वैज्ञानिकों की तरह आप भी कह सकते हैं कि विज्ञान के सिद्धांतों की तरह विधि भी है और उसका विधान भी। 

आप कुछ तर्क रखें, सोचें उसके पहले मैं यह साफ कर दूं कि मैं तब विज्ञान को कंप्लीट मान लूंगा जब विज्ञान भविष्य में झांक कर यह बता दे कि कब, कहां, क्या, किस लिए होने वाला है। एकदम सटीक बता दे। नहीं तो फिर कहूंगा कि पौराणिक आख्यान, विज्ञान सब एक समान हैं। ज्योतिषाचार्य भविष्य में क्या होने वाला है यह बता देने का पूरा दावा करते हैं। मेरे लिए भी आश्चर्यजनक दावा किया गया है कि भविष्य में मेरे साथ क्या होने वाला है। जिसे आप आगे जान पाएंगे। 

उस विधि के विधान को ज्योतिष शास्त्र के जरिए ज्योतिषाचार्य पढ़ लेने का दावा करते हैं, जिसके बारे में खुद पौराणिक आख्यान यह कहते हैं कि विधि का लिखा अब तक महान शिवभक्त, प्रकांड पंडित रावण ही पढ़ सका है। वह अपने दरबार में अंगद से संवाद के समय बहुत ही घमंड के साथ कहता भी है, ‘जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला।। नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची।।’ अर्थात् मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बांचकर, विधाता की वाणी असत्य जानकर मैं हंसा। रावण आगे कहता है कि, ‘उस बात को समझ कर भी मेरे मन में डर नहीं है। बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है।’ 

तो मित्रों जब मेरे पिताजी जिंदा थे, तब उनकी मृत्यु से कुछ वर्ष पहले, मुझे एकदम सटीक तो नहीं याद है कि कितने वर्ष क्योंकि तब मैं छठी में पढ़ता था। उम्र यही कोई ग्यारह-बारह वर्ष रही होगी। तभी संयोगवश ही किसी ज्योतिषाचार्य से उनकी मुलाकात हो गई। उसकी बातचीत से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, जिसे उस ज्योतिषी ने उनकी जन्मतिथि के हिसाब से गलत बताया और नई कुंडली बना दी। साथ ही यह भी बताया कि, ‘आप पर ‘कालसर्प’ योग है। और आपकी राशि आज इन-इन भाव में है, और फला-फल ग्रह फलां फलां जगह हैं। इस कारण जो बला-बल निकल रहा है वह आपके लिए बहुत विनाशक है। यह बला-बल शुभ वाला नहीं अपितु अशुभ वाला है। यह जीवन को समाप्त कर देने वाला है।’ 

यह सुनकर माता जी घबरा गईं। पिताजी भी सशंकित हो गए। माता-पिता की इस हालत पर ज्योतिषाचार्य जी और मुखर हो उठे। बड़े विस्तार में जाते हुए बताया कि, ‘‘पिछले जन्म में आप से एक साथ कई अक्षम्य अपराध हो गए थे। जिनका परिणाम दोष फल आपको इस जन्म में मुख्य रूप से मिल रहा है। पिछले में इसलिए ज़्यादा कष्ट में नहीं रहे क्योंकि उसके पिछले वाले जन्म में आपके सद्कर्म बहुत थे। जिनका परिणाम पिछले जन्म में आप सुखी जीवन जी के भोग चुके हैं। 

आपके इस जीवन में प्रारंभ से ही क़दम-क़दम पर शारीरिक-मानसिक कष्ट, नौकरी में कष्ट, पारिवारिक जीवन में कष्ट है तो इस ‘कालसर्प’ योग के कारण ही है। आपकी कुंडली के हिसाब से राहु बारहवें भाव में है। और यजमान, कर्मों का व्यापक प्रभाव देखिए कि केतु छठे भाव का है। जिससे आप हज़ार-हज़ार कोशिश करके भी अपना ट्रांसफर होम डिस्ट्रिक्ट में नहीं करवा पा रहे हैं। 

आपके प्रतिद्वंद्वी ऑफ़िस से लेकर हर जगह आप से दो क़दम आगे ही रहते हैं। मन का कोई भी काम आप समय से नहीं कर पाते हैं। जब-तक मन का होता है, तब-तक उसके होने की सारी खुशी, उत्साह सब समाप्त हो चुका होता है। आपको शारीरिक, मानसिक कोई खुशी मिल ही नहीं पाती। आपकी सारी खुशी हमेशा आपका यह डर छीन लेता है कि आपकी नौकरी खतरे में है। जबकि सच यह है कि तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी आप की नौकरी बची रहेगी लेकिन...।’’ 

ज्योतिषाचार्य जी ने अपना यह वाक्य बड़े रहस्यमय ढंग से अधूरा छोड़ दिया तो अम्मा घबड़ाकर हाथ जोड़ती हुई बोलीं, ‘पंडित जी लेकिन क्या? कोई अनहोनी तो नहीं है? पंडित जी बताइए ना।’ अम्मा के आंसू निकलने लगे। पिताजी भी गंभीर हो गए। प्रश्न-भरी दृष्टि से पंडित जी की तरफ देखने लगे। तो पंडित जी बोले, ‘देखिए मैंने पूरी कुंडली का बहुत ही ध्यान से समग्र अध्ययन किया है। जो समझ पाया हूं उसके अनुसार पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि आपके ऊपर ‘शेषनाग कालसर्प योग’ का प्रचंड प्रभाव है। 

मैं निःसंकोच यह मानता हूं कि बारहों कालसर्प योगों में यह सबसे विनाशकारी योग है। इसका प्रभाव जातक की संतानों पर भी पड़ता है। विशेष रूप से छोटे पुत्र पर। उनके जीवन की भी खुशियां नष्ट हो जाती हैं। जबकि स्वयं उसका जीवन भीषण संकट में होता है। कुंडली के हिसाब से आपके जीवन का यह जो साल चल रहा है, यह इस योग की दृष्टि से सबसे ज़्यादा प्रभावित वर्ष है।’ 

ज्योतिषाचार्य जी का यह कहना था कि अम्मा जी रो पड़ीं। और ऐसी हालत में जो होता है वही हुआ, अम्मा हाथ जोड़कर बोलीं, ‘पंडित जी जो भी उपाय हो वह करिए। जैसे भी हो इस अनिष्ट से बचाइए।’ लगे हाथ ‘शेषनाग कालसर्प योग’ के अनिष्ट से बचने के लिए यज्ञ करवाना सुनिश्चित हो गया। आनन-फानन में तैयारी की गई। यज्ञ ज्योतिषाचार्य पंडित जी ने अपनी टीम के साथ आकर पूरा किया। डेढ़ लाख रुपए का खर्चा आया। फिर भी पापा-अम्मा और घर के अन्य सदस्यों के मन से भय नहीं गया। 

अम्मा का हर क्षण पिताजी के जीवन को लेकर अनिष्ट की आशंका से कांपता ही बीतता था। लेकिन उस वर्ष कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ तो अम्मा-पिताजी सहित सभी के मन से भय का प्रेशर कम हो गया। मगर यह हल्कापन बस कुछ ही दिन रहा। अगले वर्ष में प्रवेश किए महीना भर भी ना बीता था कि पिताजी ऑफ़िस के किसी काम से अचानक ही भुसावल गए। लौटते समय किसी जहर-खुरान गिरोह के शिकार बन गए। अम्मा को एकदम बाद में बताया गया जब पिताजी का पार्थिव शरीर लेकर बड़े भाई घर पहुंचे। 

अम्मा बदहवास हो गईं। पछाड़ खा-खा कर गिरतीं। बेहोश हो जातीं। पूरे घर का यही हाल था। दरो-दिवार लॉन के पेड़-पौधों से लेकर पापा के प्यारे कुत्ते चाऊ तक का। मगर बीतता है हर क्षण तो यह भी बीत गया। सब अतीत बन गया। मित्रों इसके अलावा जो रह गया वह पहले सा ना होकर तेज़ी से बदलता चला गया। 

पिताजी की जगह बड़े भाई नौकरी वाले बने। अम्मा ने पूरी ताकत से अपने होशो-हवास कायम किए, रात-दिन एक करके दोनों बहनों की, फिर बड़े भाई की भी शादी करवा दी। इतना सब कुछ बदला लेकिन ज्योतिषाचार्य जी की बताई बातों के भय का घटा-टोप कुहासा नहीं छटां। एक दिन भैया-भाभी अपने बच्चों सहित बड़ी बहन के यहां गए थे। उनके बच्चे का मुंडन था। मैं घर पर ही रुका था। क्योंकि अम्मा की तबीयत खराब थी। उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकते थे। 

बहन-बहनोई ने मुंडन एक मंदिर में करवाने के बाद घर पर ही पार्टी दी थी। छोटी बहन भी परिवार के साथ वहीं थी। फ़ोन पर उससे मैंने बड़ी देर तक बात की थी। वहां सब पार्टी में व्यस्त थे, कि तभी अम्मा की तबीयत अचानक खराब हो गई। वह सांस नहीं ले पा रही थीं। मुंह से अजीब सी आवाज़ निकल रही थी। मैंने पड़ोसी को बुलाया, किसी को कुछ समझ में नहीं आया। 

घबराकर मैंने भैया की कार निकाली। नजदीक के ही एक डॉक्टर के पास ले गया। उसने अम्मा को एक बड़े हॉस्पिटल के लिए रेफर कर दिया। वहां गया तो संयोग से डॉक्टर जल्दी मिल गए। लेकिन उन्होंने देखते ही कह दिया कि, ‘बहुत देर हो चुकी है। यह अब नहीं रहीं।’ मैं स्तब्ध अम्मा को देखता रह गया। डॉक्टर ने खुद अपने हाथ से अम्मा की साड़ी का आंचल उठाकर उनके चेहरे को ढंक दिया। मेरे कंधे को हल्के से थपथपाया और आगे बढ़ गए। अब पड़ोसी आगे आए। मुझे ढांढ़स बंधाने लगे। मुझसे भाई-बहनों, सभी को फ़ोन करने के लिए कहा। लेकिन मैंने सोचा अभी तो पार्टी वहां पूरे चरम पर होगी। सब खुश होंगे, खा-पी रहे होंगे। ऐसे में उन पर यह वज्रपात करना समझदारी नहीं है। 

अब जो भी होना है सब अगले दिन ही होना है। सूचना मिलने पर सभी चार-पांच घंटे में आ ही जाएंगे। यह सोचकर मैं गाड़ी का इंतजाम कर अम्मा को घर ले आया। पड़ोसी बड़ी मदद कर रहे थे। मेरी आंखों में आंसू बिल्कुल नहीं थे। घर पहुंचने पर और बहुत से पड़ोसी भी मदद को आ खड़े हुए। बर्फ़ सहित अन्य जो कुछ जरूरी सामान था, सब आ गया। रात करीब बारह बजे मैंने भाई-बहनों अन्य सारे रिश्तेदारों को फ़ोन करके सब से कहा कि अंतिम सांसें चल रही हैं, बस जितनी जल्दी हो सके आ जाएं। 

अगले दिन घाट पर अंतिम संस्कार करके लौटने पर मुझे घर में फिर वही सन्नाटा, फिर वही उदासी दिखी हर तरफ जो पिताजी के जाने के बाद तारी थी। इस बार एक और बात थी जो मुझे भीतर तक झकझोर रही थी। वह यह कि पिताजी के बाद अम्मा थीं। मुझे घर, घर लग रहा था। लेकिन अम्मा जी के बाद ऐसा एहसास हो रहा था कि जैसे घर, घर ही नहीं रह गया है। बस दीवारें, छत, दरवाजे ही हैं। जो हर तरफ से घेरे हुए हैं। 

इन सब से मनहूसियत ऐसे निकलती दिख रही थी कि कुछ घंटे पहले तक जिस मकान में एक जीवंतता नज़र आती थी, लगता था जैसे इसमें भी आत्मा है। यह भी सजीव है। उसी में अब ऐसा लग रहा था कि जैसे अम्मा के साथ घर की भी आत्मा चली गई है। जीवंतता खत्म हो गई है। एकदम भुतहा मकान, मनहूसियत, साएं-साएं करतीं दरो-दिवार। मुझे लगा जैसे मैं भी इन्हीं की तरह मनहूस दरो-दिवार होता जा रहा हूं। मुझ में भी लोग हर तरफ मनहूसियत, साएं-साएं करतीं आवाज़ महसूस कर रहे हैं। दूर भाग रहे हैं। रास्ता बदल रहे हैं। दो हफ़्ता पूरा होते-होते घर सन्नाटे के अथाह समुद्र की तलहटी में जा डूबा। 

अम्मा के जाने के तीन हफ़्ते बाद ही पापा का प्रिय चाऊ भी चल बसा। उस बेजुबान जानवर ने अम्मा के जाने के बाद ही खाना-पीना छोड़ दिया था। इस ओर मेरे सहित सबका ध्यान जब-तक गया तब-तक वह चल बसा था। उससे एक गहरा लगाव परिवार के हर सदस्य को था। यह मेरे लिए एक और झटके से कम नहीं था। 

मगर जो निर्णायक झटका मैंने महसूस किया वह तो महीने भर बाद उन्हीं ‘कालसर्प’ वाले ज्योतिषाचार्य जी के आने के बाद लगा। वह भाई-भाभी के साथ उनके कमरे में लंबा समय बिता कर गए तो उसके बाद ही मैंने महसूस किया कि भाई-भाभी एकदम बदले हुए हैं। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरी छाया से ही दूर भाग रहे हैं। बच्चों का मुझ तक आना ही एकदम बंद हो गया। दो-तीन दिन बीतते-बीतते वातावरण इतना भयानक, इतना तनावपूर्ण हो गया कि मुझे लगा मानो मेरा रोम-रोम विदीर्ण हो रहा है। 

लेकिन फिर सोचा एक कोशिश करूं कि घर में व्याप्त यह अथाह तनाव खत्म हो जाए। छोटा हूं तो क्या? कुछ कामों की पहल छोटों को भी कर लेनी चाहिए। मगर मेरे सारे प्रयास विफल रहे। भाई साहब, भाभी हज़ारों कोशिशों के बाद भी खुलकर नहीं बोले। मैं साफ समझ गया कि ‘कालसर्प’ योग की छाया मुझ पर भी कहीं पड़ रही है। यह अम्मा के समय ही मालूम हो चुका था। लेकिन कर्मकांड के लिए उनके पास लाखों रुपए नहीं थे। भाई झमेले में पड़ना नहीं चाहते थे तो अम्मा अंदर ही अंदर घुटती रहीं। कभी-कभी मन को यह दिलासा भी दे लेतीं थीं कि कराया तो था यज्ञ। कहां बचा उनका सुहाग। 

अपनी विवशताओं के चलते वह भीतर ही भीतर घुल रही थीं। यह सारी बातें और विस्तार से मुझे दोनों बहनों से मालूम हुईं थीं, जब घर के तनाव को खत्म करने में असफल होने, अम्मा के ब्रह्मलीन होने के कुछ दिन बाद मैं बड़ी बहन के यहां मदद के लिए पहुंचा था। 

हालांकि इन बातों को जानने के बाद मुझ पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। क्योंकि मेरे विचार में यह सब बातें बस बातें ही हैं। लेकिन दूसरी बात जिसका स्पष्ट अनुभव मैं कर रहा था उसने मुझे हिला कर रख दिया। मुझे साफ दिखा कि भाई-भाभी की तरह बहन-बहनोई भी मेरे पहुंचने से आक्रांत हैं। जैसे कह रहे हों कि अरे यह क्यों आ गया। यह बात मैं घंटे भर में समझ गया। मुझे वहां कहीं और जाने का कोई भी साधन मिल जाता या मुझे पता हो जाता तो मैं चल देता। एक तो वहां के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, दूसरे पैसे भी ज़्यादा नहीं थे। 

उनके यहां से रेलवे, बस स्टेशन करीब-करीब बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर थे। और अंधेरा होने के बाद अपने साधन, अपने रिस्क पर ही जाया जा सकता था। वह हज़ारीबाग का एक नक्सल प्रभावित एरिया है। तो मज़बूरी में मुझे रात वहीं बितानी पड़ी। मज़बूरी ही में बहन को मुझे रात भर के लिए शरण देनी पड़ी। 

चिंता उलझन के कारण मैं बहुत देर रात तक जागता रहा। सोचता रहा कि ज्योतिषाचार्य जी के ‘कालसर्प योग’ के गुल्ली-डंडा खेल ने क्या मुझे घर वालों के बीच अभिशप्त प्राणी के रूप में स्थापित कर दिया है। जिसकी छाया से भी सब दूर भाग रहे हैं। पूरी तरह छुटकारा पाना चाहते हैं। डरते हैं। ऐसे में क्या मुझे खुद ही इन सब से दूर चला जाना चाहिए। त्याग देना चाहिए हमेशा के लिए। 

अगले दिन सवेरे नौ बजे तैयार होकर मैं बहन को प्रणाम कर चल दिया। हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता इतनी फॉर्मेलिटी के साथ मिला कि मन में आया कि उसे हाथ ना लगाऊं, प्रणाम कर चल दूं। लेकिन मैं बहन को कोई कष्ट नहीं देना चाहता था। तो कहने भर को थोड़ा सा खा-पी कर चल दिया। अपनी पूर्वांचल की गंवई भाषा में मुंह जुठार कर चल दिया। 

बहन ने कहने के लिए भी यह नहीं कहा कि रुको, खाना बना दूं, खा कर जाना। यह तक नहीं कहा दोनों लोगों ने कि इलाका सुरक्षित नहीं है। थोड़ा और दिन चढ़े तब जाना। आश्चर्य तो यह कि अपने बच्चों को एक बार बुलाया तक नहीं कि मामा जा रहा है मिल लो। मैंने भी नाम नहीं लिया कि क्यों उन्हें धर्म-संकट में डालूं। यही मामा जब एक बार पहले आया था तो ऐसी खातिरदारी हुई थी कि घर वापस जाने का मन ही नहीं कर रहा था और आज...। 

मैं करीब तीन किलोमीटर तक पैदल चला तब जाकर मुझे स्टेशन तक जाने के लिए एक बस मिली। जितनी देर मैं पैदल चला उतनी देर मेरी अश्रूधारा भी चलती रही। बस यही सोच-सोच कर कि पापा-अम्मा मुझे इतनी जल्दी छोड़कर क्यों चले गए। किसके सहारे छोड़ गए। लेकिन मैं किसी हालत में यह नहीं चाहता था कि मेरे आंसू किसी और की आंखों को दिखें। तो बस के आते ही मैं एकदम शांत पत्थर सा बन गया। बस में ही मैंने सोचा कि लगे हाथ रांची वाली बहन के यहां भी हो लें। देख लें कि उनके लिए भी मैं अभिशप्त व्यक्ति हूं या कि वह मुझे अभी भी अपना वही प्रिय भाई मानती हैं। 

मगर वाह रे मेरा भाग्य कहें या अपने परिजन की मूढ़ता कि ‘कालसर्प’ योग की प्रेत-छाया मुझ से पहले वहां पहुंच गई थी। उन्होंने भी अपने बच्चे को मेरे पास तक नहीं आने दिया। यहां पहले वाली बहन के यहां से ज़्यादा भय आतंक देख कर मैं मुश्किल से बीस मिनट ýका। चाय के लिए साफ मना कर दिया। मुझे लगा इससे ज़्यादा समय तक ýकना पड़ेगा। जैसे बेमन से पानी दिया गया था वैसे ही बेमन से एक बिस्कुट खा कर पानी पिया और ज़रूरी काम का बहाना बना कर चल दिया। 

किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि भैया अभी तुम ऐसा कौन सा काम करते हो कि यहां रांची में जरूरी काम आ गया। भाई-बहन सब के व्यवहार से मन इतना टूट गया, इतना गुस्से से भर गया सब को लेकर कि मैंने सोचा कि जब-सब के लिए मैं एक अभिशप्त व्यक्ति हूं, मेरी छाया से भी घृणा है सबको, तो ठीक है, अभी से ही सारे रिश्ते-नाते खत्म। घर पर एकदम अलग रहूंगा। किसी से भी संबंध नहीं रखूंगा। फिर सोचा एक ही घर में रहकर यह संभव नहीं है। इससे भाई-भाभी सब हमेशा आतंकित रहेंगे। आश्चर्य नहीं कि इसके कारण कभी वह मुझे घर से ही निकाल दें। 

हालांकि मकान तो पापा ने बनवाया है, लेकिन फिर भी क्या ठिकाना। भयभीत भैया कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी रास्ता निकाल सकते हैं। यह सोच कर मैंने सोचा बाबा के यहां गांव चलता हूं। पिताजी के हिस्से की कुछ प्रॉपर्टी तो अब भी है वहां। चाचा से कहूंगा कि मेरे रहने और किसी काम-धंधे की कोई व्यवस्था कर दें। लेकिन बाबा के यहां गोरखपुर तक जाने के लिए मेरे पास पूरे पैसे नहीं थे। 

सारी उलझनों, जोड़-घटाने के बाद यह सोचकर बिना टिकट ही एक ट्रेन की जनरल बोगी में भीड़ में धंस कर बैठ गया कि टीटी देख नहीं पाएगा। बचा रहूंगा। और देख लेगा तो जो होगा देखा जाएगा। ट्रेन में बैठने से पहले जो थोड़े बहुत पैसे थे उससे एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में खाना खा लिया। पिछले दो दिन से ठीक से खाना नहीं खाया था। भूख के मारे आंतें ऐंठ रही थीं। खाली पेट पानी भी नहीं पिया जा रहा था। 

मगर सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े। पिताजी इसी के समानांतर खुद कही एक कहावत बोलते थे कि, ‘सिलेंडर खत्म होते ही मेहमान पधारे।’ तो यही हुआ मेरे साथ। गोरखपुर से कुछ स्टेशन पहले ही मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गई। धर लिए गए। एक-आध दर्जन नहीं करीब चार दर्जन लोग धरे गए थे। जिसे मैं एक्सप्रेस ट्रेन समझ कर बैठा था वह पैसेंजर थी। बाद में पता चला कि इस पैसेंजर ट्रेन में अक्सर ऐसी चेकिंग होती रहती है। मगर पता नहीं माता-पिता की या कि भगवान की कृपा रही कि जीआरपी वालों ने नाबालिग लड़कों को डांट-डांट कर भगा दिया। 

मेरा आधार कार्ड देख कर उसने कहा, ‘देखने में तो ज़्यादा लगते हो।’ मैंने उनसे झूठ बोला कि आते समय रास्ते में कुछ लोगों ने मेरे पैसे छीन लिए। उसने सिर पर एक टीप मारते हुए कहा, ‘चल भाग यहां से। दोबारा ऐसी हरकत ना करना।’ उस छोटे से स्टेशन से बाहर निकला तो वह लड़का भी मिल गया जो मेरे साथ पकड़ा गया था। उसने टिकट इसलिए नहीं लिया था क्योंकि उसके पैसे सच में गिर गये थे। 

वह लखनऊ के एक व्यावसाई का बेटा था। अपने रिश्तेदार के यहां से लौट रहा था। एक स्टेशन पहले ही बैठा था कि बस ‘सिलेंडर खत्म होते ही मेहमान आ पधारे।’ लेकिन वह बहुत प्रैक्टिकल और दबंग किस्म का था। मिनटों में उसने मुझसे बातचीत कर सब कुछ जान लिया और मुझे मुफ़्त में बड़ा ज्ञान दिया। कहा कि, ‘जब तुम्हारे भाई-बहनों ने तुम्हें त्याग दिया है तो चाचा कहां रहने देंगे। वह तो पहचानेंगे भी नहीं।’ उसने एकदम सही समय पर एकदम सही बात कही थी। 

यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया कि अब क्या करूं। वापस भाई के पास जाना पड़ेगा। लेकिन उसने बहुत समझाया। अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी। अपने साथ चलने की सलाह दी। अपने इस हम-उम्र मार्गदर्शक की सलाह पर मैं उसके साथ लखनऊ चल दिया। एक बार फिर से बिना टिकट ही। लेकिन इस बार मैं सुरक्षित मार्गदर्शक के घर पहुंच गया। 

मार्गदर्शक दक्षेस के मां-बाप, भाई-बहन सब ने दक्षेस का दोस्त समझकर मेरा स्वागत किया। खिलाया-पिलाया भी। अगले दिन मैंने उससे कहा, ‘यार ऐसे कितने दिन चलेगा। तुम्हारे घर में सही बात पता चलने पर इसके पहले कि कोई नाराज होने लगे। मेरे लिए कुछ काम बताओ। मैं कॉन्वेंट एजुकेटेड हूं। इंटर का एग्ज़ाम अचानक आई मुसीबतों के कारण नहीं दे पाया। ट्यूशन वगैरह ही कहीं दिलाओ।’ 

उसने कहा, ‘एक-दो दिन रुको। मैं फादर से बात करके कुछ करता हूं। ट्यूशन वगैरह में कुछ नहीं रखा है। वैसे भी उनसे कोई बात छिपाकर मैं आगे नहीं बढ़ता। वह तुम्हारे लिए जरूर कुछ करेंगे।’ लेकिन जब उसने बात की तो जो हुआ उसे यही कहेंगे कि जो हुआ बस ठीक ही हुआ। उसके फादर ने साफ-साफ बताया कि, ‘मैं कठिन स्थितियों से घिरा हुआ हूं। नहीं तो पूरा ख्याल रखता। पढ़ाई भी पूरी करवाता। मगर फिर भी परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे बेसहारा नहीं छोडूंगा। हां किसी काम को छोटा नहीं समझना, मन लगाकर करने को तैयार रहना।’ 

मेरी बातों को उन्होंने भरोसे लायक समझा और अपने एक बहुत ही पुराने कस्टमर सुनील मसीह से बात की। जो उनसे काफी समय से एक भरोसेमंद आदमी देने के लिए कह रहे थे। लेकिन जब मिला तो उनको ऑटो रिक्शा चलाने के लिए एक ड्राइवर चाहिए था। मैं इसके लिए भी तैयार हो गया। लेकिन अंडरएज, ड्राइविंग लाइसेंस का ना होना बड़ी बाधा बना। तो दक्षेस के पिता ने उनसे कहा, ‘यह बताता है कि इसे ड्राइविंग बहुत अच्छी आती है। टेस्ट ले लो, अगर ठीक हो तो चलवाओ। इसके आधार के हिसाब से ग्यारह महीने की ही बात है।’ 

सुनील मसीह बहुत ही ज़्यादा कहने-सुनने समझाने के बाद तब माने जब दक्षेस के पिता ने पूरी ज़िम्मेदारी ले ली। इसके बावजूद उन्होंने घंटे भर एक बेहद बिजी रोड पर ड्राइव करवाया। खुद पीछे बैठे रहे। मेरी ड्राइविंग से वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए, बड़े संकोच हिचक के साथ अगले दिन से ड्राइव करने के लिए ऑटो सौंपा। रोज़ बारह घंटे चला कर मुझे उन्हें पांच सौ रुपये कोटा देना था। बाकी कमाई मेरी थी। मगर पहले ही दिन घाटा हुआ। मैंने दक्षेस से दो सौ ýपये उधार लेकर कोटा पूरा किया। मगर धीरे-धीरे गाड़ी लाइन पर आ गई। 

सुनील जिन्हें मैं अंकल कहता था, जल्दी ही मुझ पर पूरा भरोसा करने लगे। अपने परिवार को भी कहीं जाने-आने के लिए मेरे साथ ही भेजने लगे। चार महीना बीतते-बीतते अपने ही घर में एक कमरा किराए पर दे दिया। उनका उद्देश्य था कि वह मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा काम ले सकें। वह सफल भी हुए। असल में दक्षेस के यहां से मुझे इसलिए भी हटना था क्योंकि उनका परिवार बड़ा था। इसलिए उनका बड़ा मकान होते हुए भी छोटा पड़ता था। मैं सुनील अंकल का ऑटो ड्राइवर से लेकर घरेलू नौकर, सहायक सब बन गया। सामान वगैरह भी लाने लगा। मैं खाना बनाने में अपना समय ना बर्बाद करूं इसलिए मेरा खाना भी वह अपने यहां बनवाने लगे। 

उनके परिवार में मैं इस तरह मिक्स हो गया कि बताने पर ही कोई यह समझ सकता था कि मैं परिवार का सदस्य नहीं हूं। नौकर हूं। सुनील अंकल मुझसे खुश रहते और दिन में चौदह-पन्द्रह घंटे शराब पीकर मस्त रहते। पूरा मसीह हाउस मेरे भरोसे छोड़ कर वह पूरी तरह निश्चिंत हो गए। इस मसीह हाउस ने मुझे जीवन जीने, आगे बढ़ने का आधार दिया। साथ ही मुझे वह बनने के लिए भी उद्वेलित किया जो मैं आज हूं। मुझे जीने का जो आधार दिया उस आधार ऑटो को त्यागने के लिए भी उद्वेलित किया। 

इसके लिए ज़िम्मेदार उनके यहां हर डेढ़-दो महीने के अंतराल पर आने वाला एक मेहमान था। वह जब आता तो घर में कई और ऐसे लोगों का आना-जाना बढ़ जाता जो किसी चर्च, किसी कॉन्वेंट के लगते। मेरी शिक्षा मिशनरी के कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी तो मुझे यह सब जल्दी समझ में आ जाता है। जब वह आता तो मेरा काम दुगना बढ़ जाता और उस दिन की कमाई शून्य हो जाती थी। 

पूरे शहर में उसी को लेकर जाना पड़ता। अंकल तब कोटा भी नहीं लेते थे। वह ज्यादातर लखनऊ के कई प्रमुख चर्चों में जाता था। वह जब भी मिलते तो मुझे ईसाई धर्म की महानता के बारे में खूब बताते। उनके अनुसार पृथ्वी पर वही एक धर्म है जिसके रास्ते पर चलकर जीवन की सारी खुशियां पाई जा सकती हैं। सिर्फ़ उनके प्रभु यीशु की शरण में जाकर ही महान दयालु गॉड की कृपा मिलती है। वह इतना दयालु है कि उसकी शरण में जाते ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जीवन में खुशियां ही खुशियां बरसती हैं। 

जब उनको लगा कि मैं उनकी बातों में रुचि लेने लगा हूं तो मुझे बड़े गिफ़्ट और पैसे भी देने लगे। एक बार वह केवल दो दिन के लिए आए। साथ में एक अंग्रेज दंपत्ति भी आया, जो ब्रिटेन से था। बेहद मृदुभाषी और सरल स्वभाव का वह युवा दंपति मुझसे चार साल ही बड़ा था। अब तक मैंने भी शादी कर ली थी। अब अंकल सुनील मसीह मेरे ससुर हैं। 

दरअसल उनके यहां पहुंचने के लगभग डेढ़ साल बाद मुझे एहसास हुआ कि उनकी बेटी आहना मेरे करीब आती जा रही है। थोड़ा सा ध्यान दिया इस तरफ तो पाया कि अंकल-आंटी दोनों ही बेटी मेरे साथ ज़्यादा समय तक रहे इसके लिए अवसर उपलब्ध कराने के प्रयास में लगे रहते हैं। जब-तक गहराई से समझूं तब-तक बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि एक दिन अंकल ने मुझे एवं कुछ और लोगों को बुलाकर चर्च में आहना के साथ मेरी शादी करवा दी। यह दंपत्ति जब आया था तब मेरी शादी को कुछ ही महीने हुए थे। संयोग से उस दंपति की शादी भी इतने ही समय पहले हुई थी। 

अब मैं परिवार के सम्मानित सदस्य के तौर पर सब से मिल रहा था। बेहद हंसमुख मिलनसार मिलर दंपत्ति हमारे साथ पहले दिन से ही बहुत घुल-मिल गए थे। आने के अगले दिन मिलर दंपत्ति को घुमाने की ज़िम्मेदारी मेरी थी। और बार-बार आने वाले मिस्टर कॉर्टर अकेले ही किसी जरूरी काम से जा रहा हूं बोलकर निकल गए थे किसी चर्च को। और ससुर जी बोतल लेकर पड़े रहे घर पर। 

मैंने पहले दिन मिलर दंपत्ति को लखनऊ में बने नए दर्शनीय स्थलों पर घुमाया। बजाए पुराने खंडहरों में घुमाने के उन्हें लोहिया पार्क, स्वर्ण जयंती पार्क, अंबेडकर उद्यान, जनेश्वर मिश्र पार्क ले गया। अपने शहर का प्राचीन इतिहास बताया। अंग्रेजों, वामियों द्वारा रचित भ्रामक बातें नहीं। यह नवाबों का शहर रहा है यह भ्रामक बात मैंने नहीं बताई। मैंने साफ-साफ सच कहा कि त्रेता युग में भगवान राम हुए थे। दस हज़ार साल पहले जब वह इस धरती पर अवतरित हुए तब भी यह शहर था। 

भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यह शहर भेंट कर दिया था। तब से यह लक्ष्मणपुर, लखनपुर, लाखनपुर नाम से जाना जाता था। कालांतर में लखनऊ हो गया। लेकिन इन सबके पहले इसका क्या नाम था यह मैं नहीं जानता। वह किसी भ्रम में ना रहे इसलिए मैंने उन्हें यह भी साफ-साफ बता दिया कि दुनिया में इस सबसे ज़्यादा प्राचीन देश भारत की संस्कृति उसके गौरव को नष्ट करने के लिए गुलामी के समय में इसके इतिहास को भी कुटिलतापूर्वक बदलने का प्रयास किया गया कि इससे पहले इसका कोई इतिहास ही नहीं था। 

यहां नवाबों का शासन सत्तरह सौ पिचहत्तर से अठारह सौ पचास तक ही रहा, उसके बाद उन्नीस सौ सैंतालीस तक ब्रिटिश शासन रहा और प्रचारित यह किया गया कि लखनऊ नवाबों का शहर है। लक्ष्मणपुर या लक्ष्मण की चर्चा तक नहीं होने दी जाती। मिलर दंपत्ति को मैं लक्ष्मण टीला भी ले गया। जहां दिखाया कि कैसे गुलामी के समय इसके स्वरूप को बदल दिया गया। दंपत्ति यह जानकर बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि यह प्राचीन शहर ईसा से भी हज़ारों वर्ष पहले बस गया था। 

राम एक ऐसे राजा थे जो हज़ारों किलोमीटर दूर लंका तक विजय पताका फहरा आए थे। समुद्र पर लंबा पुल बनवाया था। जिसके अवशेष समुद्र में आज भी हैं। इसकी पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी कर चुका है। अत्याधुनिक तकनीकों के बावजूद समुद्र की प्रलयंकारी लहरों के कारण उस पर पुल बनाना करिश्में से कम आज भी नहीं माना जाता। 

मेरी पत्नी बार-बार रेजिडेंसी चलने को कह रही थी। लेकिन मैं बार-बार नजरअंदाज करता रहा। जब देर शाम को हम घूम-घाम कर लौटे तो मिलर दंपत्ति बहुत थके हुए लग रहे थे। आहना उनसे भी ज़्यादा। तमाम चर्चों, कॉन्वेंटों में चक्कर लगाकर मिस्टर कॉर्टर देर रात लौटे। उन्हें मैं चर्च-मैन कहता था। आगे आप उन्हें इसी नाम से जानेंगे। 

खाने के दौरान खूब बातें हुईं। जो पूरी तरह मिलर दंपत्ति के घूमने-फिरने पर केंद्रित रहीं। यह सारी बातें वही कर रहे थे। वह दोनों पति-पत्नी बार-बार मेरी जानकारियों की तारीफ करना नहीं भूल रहे थे। उनकी तारीफ पर मुझे बार-बार पिताजी याद आते, जिनसे मैंने यह सब जाना-समझा था। मैंने एक बात मार्क की कि मेरी और मिस्टर मिलर की बातें चर्च-मैन और मेरी पत्नी आहना और सास को अच्छी नहीं लग रही थीं। ससुर जी के बारे में कुछ नहीं कहूंगा। क्योंकि तब वह इन सब बातों से बहुत ऊपर उठे हुए व्यक्ति हुआ करते थे। उस समय वह कभी इतने होशो-हवास में होते ही नहीं थे कि यह क्या, ऐसी कोई भी बात उनकी समझ में आती, उसको वह कुछ समझ पाते। 

खाने के दौरान ही अगले दिन घूमने का प्रोग्राम तय हुआ। अगुआई चर्च-मैन करेंगे यह उसने स्वयं ही घोषित कर दिया। जब उसने यह कहा तभी मैंने सोचा जब यह जाएगा तो मैं नहीं जाऊंगा। एकमात्र वजह यह थी कि हम दोनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे। यह हम दोनों अच्छी तरह समझते थे। लेकिन अन्य किसी पर या जाहिर नहीं होने देते थे। सबके सामने खुशमिजाज मित्रों की तरह ही पेश आते थे। मुझे दो कारणों से वह पसंद नहीं था, पहला कि वो हिंदुस्तानियों को घृणा की दृष्टि से देखता था। दूसरा वह हद दर्जे का कनिंग आदमी था। 

वह मुझसे क्यों चिढ़ता था यह मैं नहीं जानता। अनुमान लगा सकता हूं कि मैं प्राचीन भारतीय संस्कृति, इतिहास की सराहना करता था तो वह सुन नहीं पाता था। प्रत्युत्तर में अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी साम्राज्य की तारीफों के पुल बांध कर कहता, ‘अंग्रेजों ने दुनिया के इतने बड़े भू-भाग पर राज किया है कि उसके राज्य में सूर्यास्त ही नहीं होता था।’ अपने को ऊंचा रखने के लिए हम दोनों में एक मूक प्रतिस्पर्धा चलती थी जो शायद ही बाकी समझ पाते थे। 

अगले दिन मैंने सीधे मना करना उचित नहीं समझा, कि यह अशिष्टता होगी, आतिथ्य भाव का उल्लंघन होगा। मैंने ससुर जी को आगे करने की सोचकर उनसे कहा, ऑटो ना चलाने से नुकसान हो रहा है। बाकी लोग तो जा ही रहे हैं। मुझे ऑटो लेकर निकलने दीजिए। लेकिन बात उलटी पड़ गई, वह बोले, ‘यह करने से मेहमान नाराज़ हो सकते हैं, दूसरे टैक्सी करने से खर्चा ज़्यादा आएगा।’ अन्ततः मुझे ही जाना पड़ा। एक पिद्दी से ऑटो में पांच लोग बैठे। मैंने अपना गुस्सा निकाला चर्च-मैन को आगे बैठा कर। जहां सिर्फ़ ड्राइवर की सीट होती है, दूसरा कोई बस किसी तरह बैठ सकता है। पहले आहना के चलने का प्रोग्राम नहीं था। लेकिन मिलर दंपत्ति की जिद के चलते उसे चलना पड़ा। जिससे बैठने की जगह की समस्या पैदा हुई। 

घूमने के लिए कहां चलना है इसको लेकर मैंने कोई पहल नहीं की। मैंने सब चर्च-मैन पर ही छोड़ दिया, कि जहां कहेगा वहां चल दूंगा। मेरा यह अघोषित असहयोग चर्च-मैन ने भांप लिया। मैं जहां शहर के नए दर्शनीय स्थलों पर ले गया था वहीं उसने सीधे रेजीडेंसी चलने को कहा। 

रात खाने पर बातचीत के दौरान ही उसने इसका जिक्र किया था मिलर से। बोला था कि, ‘यहां जाना चाहिए था। यह ग्रेट ब्रिटिश एंपायर के लोगों के साथ हुए बर्बरतापूर्ण अत्याचार, उनके सामूहिक नरसंहार का स्थान है। जो यह बताता है कि यहां हमारे पूर्वजों को किस तरह घेर कर हिंदुस्तानियों ने कत्ल किया था। हमें वहां चलकर अपने दो हज़ार पूर्वजों की कब्रों पर फूल चढ़ाकर प्रभु यीशु से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन सभी को स्वर्ग में स्थान प्रदान करें। जो ‘‘सिज ऑफ लखनऊ’’ (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के समय अंग्रेज रेजीडेंसी में छियासी दिन छिपे रहे। यह लंबी लड़ाई इतिहास में ‘‘सिज ऑफ लखनऊ’’ के नाम से जानी जाती है। जिसमें दो हज़ार अंग्रेज स्वतंत्रता सेनानियों से युद्ध में मारे गए थे) के समय शहीद हो गए थे।’ मिलर दंपत्ति आश्चर्य में पड़ गए कि डेढ़ सौ वर्ष से भी पहले उनके देश के लोग अपने एंपायर को बचाने के लिए यहां भी लड़े थे। 

चर्च-मैन के कहने और मिलर दंपत्ति की अतिशय उत्सुकता के कारण मैं सब को लेकर रेजीडेंसी पहुंचा। वहां पहुंचने से पहले चर्च-मैन ने काफी सारे फूल ले लिए थे। वह वहां बहुत बार जा चुका था। इसलिए उसे किसी गाइड की जरूरत नहीं थी। उसके पास वहां के चप्पे-चप्पे की सारी जानकारी थी। उसने एक-एक हिस्से को दिखाया। उनकी डिटेल्स बताईं। अठारह सौ सत्तावन के युद्ध का ऐसा वर्णन किया कि जैसे आंखों देखा वर्णन कर रहा हो। तैंतीस एकड़ में फैली रेजीडेंसी के अवशेषों पर गोलियों और तोपों के गोलों के अनगिनत निशानों को दिखाया। लॉन, फूलों की क्यारियों को मिलर दंपत्ति मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे। 

चर्च-मैन सबसे आखिर में वहां बने चर्च के अवशेषों के पास लेकर गया। उससे लगे बड़े से कब्रिस्तान की ओर देख कर भावुक हो गया। कहा, ‘तुम लोग यह कब्रें देख रहे हो। इन्हें जल्दी गिन नहीं पाओगे। यह करीब दो हज़ार हैं। इनमें हमारे पूर्वज आज भी सो रहे हैं। ये हमारे वो जांबाज शहीद हैं जो दुश्मनों से छियासी दिनों तक बहादुरी से लड़ते रहे। शहीद होते रहे। रसद, हथियारों की आमद ना होने के कारण वो हारे नहीं, हार मानने को तैयार नहीं हुए। शहीद होना स्वीकार किया। इनमें सैकड़ों बच्चे, महिलाएं हैं। आओ, मैं तुम्हें उस महान सेनानायक से मिलवाता हूं जो दुनिया के महान योद्धाओं में से एक था।’ 

हम सब उसके पीछे-पीछे चलते रहे। मैं अनमना सा उसके साथ लगा रहा। मगर उसकी बातों से मुझ में भी उत्सुकता बनी हुई थी। इतनी बड़ी संख्या में कब्रों को देखकर मुझे अपने स्वतंत्रता सेनानियों पर गर्व हो रहा था, कि जिनके साम्राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था उन्हें हमारे जांबाजों ने धूल चटाई थी। लेकिन दूर तक कब्रों को देखकर यह बात भी मन में आई कि यह सब अपने देश, अपनी मातृभूमि से हज़ारों किलोमीटर दूर यहां बेगाने देश में ना सो रहे होते, यदि इन्होंने दूसरे देशों को हड़पने का दुस्साहस ना किया होता। मेरे देशवासियों पर बर्बर अत्याचार ना किया होता। स्वतंत्रता सेनानियों ने वही किया जो उनका धर्म था। वह तो धर्म पथ पर थे। अधर्म पथ पर चलने वाले इन कब्रों में सो रहे हैं। क्या इन लोगों को परिणाम मालूम नहीं था। 

चर्च-मैन तमाम कब्रों को पार करता हुआ एक कब्र के पास जाकर ठहर गया। ध्यान से उसे देखता रहा। फिर जेब से रूमाल निकालकर कब्र पर पड़ी पत्तियों, धूल को साफ करके सिरहाने लगी नेम प्लेट को साफ किया। और सीधा खड़ा होकर सैल्यूट किया। फिर मिलर दंपत्ति की तरफ मुखातिब हुए बिना नेम प्लेट की तरफ उंगली से इशारा करते हुए कहा, ‘तुम यह सब देख पा रहे हो ना। यह हैं ग्रेटेस्ट वॉरियर सर लॉरेंस। जो यहां शहीद हो गए। बहुत लड़ा उन्होंने। दुनिया भर में दुश्मनों को धूल चटाई और अब यहां सो रहे हैं। देखो यहां क्या लिखा है।’ 

चर्च-मैन के कहने पर मिस्टर मिलर ने सस्वर पढ़ा ‘‘यहां पर सत्ता का वो पुत्र दफ़न है जिसने अपनी ड्यूटी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी।’’ ‘तो मिस्टर मिलर ऐसे महान व्यक्ति थे सर लॉरेंस। इन लोगों के कारण हमारे राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था। लेकिन शायद आगे चल कर हम थोड़े ढीले पड़ गए। और महान लॉरेंस को यहां सोना पड़ा। एक मिनट मैं यहां लिखी लाइन के लिए कहूंगा ‘‘दफ़न है’’ की जगह लिखना चाहिए ‘‘सो रहा है’’। खैर मिस्टर मिलर हमें हार नहीं माननी चाहिए। 

एक वह समय था जब पूरा हिंदुस्तान हमारे इशारे पर चलता था। हम यहां के भाग्यविधाता थे। लेकिन समय ने हमारा साथ छोड़ा और हमें इसे आज़ाद करना पड़ा। लेकिन मैं मानता हूं कि एक दिन यह फिर हमारा होगा। हम ही यहां के वास्तविक शासक होंगे। हो सकता है तुम हंसो मुझ पर। मुझे सिरफिरा समझो। संभव है तुम मन में हंस भी रहे हो। ऐसा है तो भी मुझे परवाह नहीं। क्योंकि मुझे आशा ही नहीं दृढ़ विश्वास है कि एक दिन ऐसा ही होगा। 

जब हमने सदियों पहले इस देश की धरती पर क़दम रखा था, तो हम एक मर्चेंट ही तो थे। तब किसने सोचा था कि हम दस-बीस साल नहीं दो सौ साल तक यहां शासन करेंगे। और एक बात बताऊं कि हमने इस देश को आज़ाद नहीं किया है। हमने एक बिल के जरिए सिर्फ़ सत्ता हस्तांतरित की है। जैसे बिल के जरिए हस्तांतरित की है वैसे ही एक बिल के जरिए सत्ता हस्तांतरण निरस्त भी कर देंगे। हमारा हिंदुस्तान फिर से हमारे हाथ में होगा।’ 

चर्च-मैन की बातें सुनकर मिलर दंपत्ति और मैं उसे आश्चर्य से देखते रह गए। आहना भी। कि यह क्या बात कर रहे हैं। वह हमारी भावना को समझ रहा था। तभी मिसेज मिलर ने कहा, ‘लेकिन अब ऐसे किसी बिल के पास करने का मतलब ही क्या? इंडिया संयुक्त राष्ट्र में है। पूरी दुनिया ने इसे संप्रभुता संपन्न देश का दर्जा दे रखा है। यह परमाणु शक्ति संपन्न देश है। हम ऐसा बिल पास करने की बात छोड़िए ला भी नहीं पाएंगे।’ 

मिसेज मिलर की बात पर चर्च-मैन ठठाकर हंसा, फिर बोला, ‘तुम लोग समझने की कोशिश करो। बहुत मामूली सी बात है, कि जिस प्रकार सत्ता हस्तांतरण पर मान्यता मिली, उसी प्रकार हस्तांतरित सत्ता को समाप्त करने पर मान्यता भी समाप्त हो जाएगी। खैर इस पर हम बैठ कर बड़ी बहस करेंगे, अभी तो आओ, इधर आओ इस तरफ यहां देखो। इस कब्र पर क्या लिखा है।’ 

मिस्टर मिलर ने फिर पढ़ना शुरू किया, ‘‘रो मत मेरे बेटे मैं मरा नहीं हूं, मैं यहां सो रहा हूं।’’ चर्च-मैन लाइन पूरी होते ही बड़ी भावुकता से बोले, ‘सोचो, कल्पना करो कि कितना कष्ट पाया है यहां हमारे पूर्वजों ने। एक बेटे पर क्या बीती होगी जब उसने अपने हाथों से अपने पिता को यहां दफनाया होगा। अपने उस पिता को जिसकी गोद में वह बड़ा हुआ। जिसकी उंगली पकड़ कर वह पहली बार खड़ा हुआ, चलना सीखा। सोचो इस पिता की आत्मा को कितना कष्ट हुआ होगा। जब उसने अपने बेटे को भी शहीद होते और फिर यहां एक कब्र में चिर-निद्रा में सोते देखा होगा।’ 

चर्च-मैन बहुत भावुक, उत्तेजित हो रहा था। मिलर दंपत्ति तटस्थ लग रहे थे। मिस्टर मिलर ने कहा, ‘‘हमें इतने बड़े ब्रिटिश एंपायर को खड़ा करने के लिए बड़ी कीमत तो चुकानी ही थी। जो हमने चुकाई। यह सच्चाई भी हमें माननी चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने भी यहां बड़ी संख्या में लोगों को खत्म किया था। इसीलिए यहां के लोगों में इतनी घृणा थी हमारे लिए कि उन्होंने बच्चों और महिलाओं को भी बचने का रास्ता नहीं दिया। 

अभी जलियांवाला कांड पर बड़ी चर्चा मीडिया में भी हुई थी। अपने जनरल डायर ने जलियांवालाबाग में निकलने के एक मात्र रास्ते पर ही खड़े होकर, गोलियों की बौछार करवा कर हज़ारों निर्दोष निहत्थे लोगों की हत्या करवा दी थी। उनके प्रति इसी से यहां के लोगों में इतनी गुस्सा थी कि ब्रिटेन में जाकर यहां के क्रांतिकारी उधम सिंह ने उन्हें मारने का प्रयास किया। लेकिन मिलते-जुलते नामों के कारण उधम सिंह धोखा खा गए और इस कांड के मास्टर माइंड तत्कालीन पंजाब के गवर्नर जनरल माइकल ओ‘ ड्वॉयर को मार दिया। हमारे देश ने इतने वर्षों बाद इसका अहसास किया है। इसीलिए पीएम ने जलियांवालाबाग कांड के लिए अफसोस जताया। मैं समझता हूं कि अपने देश को दो क़दम और आगे बढ़कर समग्र के लिए माफी मांगनी चाहिए थी।’’ 

मिस्टर मिलर की बातें चर्च-मैन को बहुत बुरी लगीं। उसने दबे स्वर में अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहा, ‘हमें अपने पूर्वजों के महान बलिदान का हृदय से सम्मान करना चाहिए। हम आज भी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं तो अपने इन्हीं महापुरुषों के बलिदानों के ही कारण। यहां हिंदुस्तान में उन्होंने जो कुछ किया इस देश के लिए किया, यहां के लोगों की भलाई के लिए ही किया। यह सब लड़ते रहने वाले लोग थे। हमने इन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास किया था। बस इतनी सी बात है। 

यह भी कहता हूं कि हमने सत्ता का हस्तांतरण जरूर किया लेकिन इन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास कभी भी बंद नहीं किया है। यह हर क्षण आज भी चल रहा है। और यह भी बता दूं कि हम ही हैं जो इन्हें सही रास्ते पर ला सकते हैं। बिल लाकर इन्हें फिर से अपने झंडे तले लाने का प्रयास भले ही ना हो। इन्हें इस तरह अपने अधीन लाना उतना स्थाई ना हो। लेकिन एक दूसरे रास्ते से इन्हें अपने झंडे तले लाने के लिए हम निरंतर मज़बूती से आगे बढ़ रहे हैं। इस रास्ते से सफलता शत-प्रतिशत मिलनी है। और सदैव के लिए मिलनी है।‘ 

चर्च-मैन की बातों से इस बार मैं खुद को तटस्थ नहीं रख सका। मिलर दंपत्ति कुछ बोलें उसके पहले ही मैंने पूछ लिया कि उनका यह दूसरा रास्ता कौन सा है? इस पर चर्च-मैन ने मेरे कंधे को हल्के से थपथपाते हुए कहा, ‘बताता हूं माय सन। देखो आज जमाना बदल गया है। प्रत्यक्ष युद्ध के मैदान में किसी राष्ट्र को अपने झंडे तले नहीं ला सकते। आज राष्ट्र जीते नहीं जाते। क्योंकि जीत कभी भी स्थाई नहीं होती। आज राष्ट्रांतरण होता है। वह सदैव के लिए होता है। स्थाई होता है। 

किसी देश की जनता के साथ ही उस देश का अस्तित्व है। यदि उस देश की जनता ही अपनी संस्कृति, अपना धर्म त्याग कर दूसरे देश की संस्कृति, धर्म को मानने लगे, उसकी आस्था परिवर्तित हो जाए, तो यह बदलाव जनता द्वारा एक राष्ट्रांतरण है उस दूसरे देश को जिसके धर्म, संस्कृति को उन्होंने अपनाया। इस तरह वो पहले जिस देश को अपना मानते थे उसका कोई नाम लेने वाला ही नहीं बचता। वह इतिहास के पन्नों में सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। यही तो हो रहा है दुनिया में। बहुत से देशों का राष्ट्रांतरण हो चुका है। वह प्रभु यीशु के होकर हमारे संगी साथी हैं। हमारी भुजाएं हैं।’ 

चर्च-मैन को लगा कि मैं उनकी बात समझ नहीं पाया तो वह फिर बोले, ‘देखो मैं राष्ट्रांतरण के तुम्हें कुछ परफेक्ट उदाहरण देता हूं। पहला हिन्दुस्तान का ही लो। भारत के हिस्से को काट कर पाकिस्तान इसीलिए बनवाया जा सका क्योंकि उस क्षेत्र के हिंदुओं ने मुस्लिमों के प्रचार में आकर अपनी हज़ारों वर्ष पुरानी संस्कृति, धर्म बदल लिए। इस्लाम मानने लगे और पाकिस्तान बना लिया। तुम मेरी बात को और क्लीयर समझ सको इसलिए तुम्हें पर्शिया यानि ईरान का भी उदाहरण बताता हूं। 

इतिहास बताता है कि ईरानी यानि आर्यों की पार्थियन, सोगदी, मिदी आदि शाखाएं करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व उत्तर एवं पूरब से वहां पहुंचीं। यहां के मूल लोगों के साथ एक नई संस्कृति बनी। कालांतर परिवर्तन होते रहे। फिर यहां के लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। यह शिया बहुल हो गया। और 1979 में इस्लामिक गणराज्य बन गया। पुराना सब समाप्त हो गया। अभी ज़्यादा वर्ष नहीं हुए उक्रेन का रूसी भाषा बाहुल्य क्षेत्र रूस में मिल गया। ऐसे ही जिन-जिन क्षेत्रों में, प्रदेशों में हमने लोगों को प्रभु यीशु के साथ जोड़ लिया है वह क्षेत्र हमारी भुजाएं बन गए हैं। हमारी यह भुजाएं तेज़ी से बड़ी हो रही हैं। मज़बूत हो रही हैं। 

राष्ट्रांतरण का प्रभाव क्या होता है इसका अनुमान इसी से लगा सकते हो कि यहां पूर्वाेत्तर के जिन राज्यों का अंतरण हम करवा चुके हैं उसे तुम राज्यांतरण कह सकते हो। वहां संविधान भी हमें बहुत सी छूट देने के लिए विवश है। एक तरफ यहां का संविधान गो-वध निषेध करता है तो दूसरी तरफ अंतरण हो चुके क्षेत्रों में स्थानीय जनता के दबाव में छूट भी दी है।’ यह कहते हुए चर्च-मैन ठहाका लगाकर हंसा। इतना तेज़ की आस-पास के बहुत से पर्यटक मुड़-मुड़ कर उसे देखने लगे। 

मिलर दंपत्ति और आहना भी उसके साथ हंसे जा रहे थे। मगर उसकी बातों का मर्म समझ कर मैं आश्चर्य में था कि इतना बड़ा छल-कपट। धर्मांतरण के सहारे हिंदुस्तान को सिर्फ़ गुलाम नहीं बनाया जा रहा है बल्कि यहां तो उससे भी हज़ारों गुना ज़्यादा बढ़कर भयावह स्थिति है। यहां तो देश का अस्तित्व ही समाप्त किया जा रहा है। पूर्वोत्तर के तमाम क्षेत्रों में जिस तरह धर्मांतरण हो रहा है, जितना हो चुका है, उस हिसाब से तो इन नव-आक्रांताओं के पैर मज़बूती से जम चुके हैं। और हम देशवासी मस्त हैं। खुद में खोए हुए हैं। बेखबर सोए हुए हैं। 

मुझे ही किस तरह शादी के समय अचानक ही ईसाई बना दिया गया। मैं इस बात की गंभीरता को समझ ही नहीं सका। खोया रहा, शादी की खुशी में। उससे ज्यादा कि अंकल का अहसान है। जबकि सही तो यह है कि हमने जी-तोड़ मेहनत करके उनका ऑटो ही नहीं पूरा घर संभाला हुआ है। अहसानमंद तो इन्हें मेरा होना चाहिए। मैं तो ख़ामख्वाह अहसानमंद हो ठगा गया। 

राष्ट्रांतरण की रफ़्तार और देशवासियों की मस्ती का आलम जो यही रहा तो तीन अधिकतम चार दशक में कंप्लीट राष्ट्रांतरण हो जाएगा। दुनिया की प्राचीनतम सनातन संस्कृति, सभ्यता वाले राष्ट्र का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। नामोनिशान ना रहेगा। पर्शिया या फारस की तरह। यह सही ही तो कह रहा है कि इस देश का आजादी के वक्त जो विभाजन हुआ वह राष्ट्रांतरण का ही तो परिणाम था। जहां अब सनातन संस्कृति, देश के अवशेष मात्र ही रह गए हैं। तो क्या काल के गाल में पृथ्वी की पहली सभ्यता-संस्कृति लुप्त हो जाएगी? अफगानिस्तान जहां पहले सनातन संस्कृति थी, आज वहां माइक्रोस्कोप लेकर ढूंढ़ने पर भी शायद ही उसके कोई अवशेष मिल पाएं। तो...। 

मेरे दिमाग में यह मंथन चलता रहा। और चर्च-मैन अपनी बातें कहता रहा। शाम होने तक वह वहीं बना रहा। फिर निकला और एक चर्च में ले गया। उसकी बातों में जोश, उत्साह, खुशी सब समाई हुई थी। वह खुश था कि वह संपूर्ण राष्ट्रांतरण के और करीब पहुंच गया है। जो ब्रिटिश एंपायर यहां डूबने के बाद पूरी दुनिया में डूब गया था, वह फिर यहीं अपनी नींव डाल चुका है। 

मैं बड़ी अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रहा था, कि इसकी बातों को कितनी गंभीरता से लूं। यह जो कह रहा है क्या यह संभव है? मन में जितने प्रश्न उठ रहे थे, उनके जो उत्तर मुझे मिल पा रहे थे उनका एक ही निष्कर्ष था, कि इसकी बातें, इसके तर्क, तथ्य निराधार नहीं हैं। यह सही तो कह रहा है कि अंग्रेज व्यापारी बनकर आया तो दो सौ साल शासन किया। देश के टुकड़े करके गया और अब इस तरह आया तो...। 

घर लौटे तो देर हो चुकी थी। हम सब बहुत थकान महसूस कर रहे थे। आहना किचेन में जाना नहीं चाह रही थी और अकेले सास से यह सब हो पाना मुश्किल था। तो पहले मैंने ऑनलाइन खाने के लिए ऑर्डर किया। इन बड़ी कंपनियों ने मोहल्ला स्तर पर टिफिन सर्विस देने वालों का धंधा ही चौपट कर दिया है, नहीं तो आहना के साथ मैं इस धंधे में भी क़दम रखने वाला था। 

ऑर्डर करके सास को बताया तो उनके चेहरे पर आए भावों से लगा जैसे वह इसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। ससुर जी की अब तक उतर चुकी थी। चर्च-मैन से गप्पे लड़ाने में लग गए थे। मिलर दंपत्ति भी। चर्च-मैन को अगले दिन आइज़ोल, मिजोरम के लिए निकलना था। वह सास-ससुर को भी ले जाना चाहता था लेकिन उन्होंने मना कर दिया। वास्तव में चर्च-मैन फॉर्मेलिटी ही कर रहा था। वह अगले दिन चला गया। 

मिलर दंपत्ति एक और दिन रुक कर हमारे आतिथ्य भाव का गुणगान करते रहे। दोनों कुल मिलाकर एक मिलनसार व्यक्ति लगे। उन्हें सनातन संस्कृति, धर्म के बारे में, अपने भारत के बारे में मैंने अपने भरसक बहुत कुछ बताने का प्रयास किया था। दंपत्ति ने पूरी गंभीरता के साथ बातें सुनी भी थीं। और एक खुलासा भी किया कि वह अपने एक रिलेटिव के बहुत बुलावे पर भारत आए हैं और अब उत्तराखंड जाएंगे। 

उनकी भारत यात्रा का खर्च भी वही वहन कर रहे हैं। उनके वह रिलेटिव एक बड़े व्यावसाई हैं। वह एक भारतीय योगी के शिष्य हैं। हर साल एक महीना योगी जी के आश्रम में बिताते हैं। उनके सान्निध्य में योग, ध्यान कर पुर्नऊज्वसित होते हैं, अपने तनाव से मुक्ति पाते है। दो साल पहले ही दीक्षित होकर टिम मे से तेजेश्वरानंद हो गए हैं। 

मिलर दंपत्ति ने हमें भी चलने के लिए कई बार आग्रह किया, तो मैं सपरिवार उनके साथ चल दिया। जाने की इच्छा आहना के सिवा किसी की नहीं थी। लेकिन चर्च-मैन की कुटिल कलुषित बातों से मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी। अपने सनातन देश की सुरक्षा, अस्तित्व को लेकर बहुत कुछ सोच कर मैं चल दिया। मन में उन योगी जी से मिलने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो गई थी कि आखिर उनमें ऐसी कौन-सी योग्यता है कि हज़ारों किलोमीटर दूर देश के टिम मे तेजेश्वरानंद बन गए। उस देश का नागरिक जो हमारे देश को गंवारों सपेरों का देश कहते हुए दो सौ वर्षों तक हम पर राज करता रहा। और वहां आश्रम में जो कुछ मैंने देखा, जाना-समझा उसने मेरी आंखें खोल दीं। 

कालसर्प दोष के अभिशाप का जो डर मुझ में बैठा हुआ था, परेशान किए रहता था, उससे मैंने मुक्ति पा ली। चर्च-मैन की बातों से जो उलझन बनी हुई थी उसका भी समाधान ढूंढ़ लिया। बड़ी बात यह कि ससुर जी ने स्वयं ही शराब हमेशा के लिए छोड़ देने की सौगंध ले ली। तेजेश्वरानंद के साथ ध्यान योग में लग गए। मैं उन्हें उनकी इच्छानुसार वहीं छोड़कर घर वापस आ गया। मेरे मन में लेकिन अपनी सनातन संस्कृति, देश के लिए एक योजना बनती-बिगड़ती रही। सास-ससुर वहां दो महीने रहे। इस बीच मैं वहां आहना के साथ चार बार आया-गया। दो महीने बाद सास-ससुर का कायाकल्प हो चुका था। 

शिवशंकर और शिवांसी होकर शुद्ध शाकाहारी, योग-ध्यान करने वाले हो गए थे। और मैं तýण और आहना आराधना, मिलर दंपत्ति सनातन संस्कृति स्वीकार कर महेश्वरानंद, पत्नी एलिना से सुदिक्षा बनकर वहां से लौटे। साथ ही योगी जी से यह ज्ञान भी लेकर जो उन्होंने मिलर की इस बात पर दिया था कि, ‘जातियों में खंडित समाज कहां एक हो सकता है। उनकी आपसी लड़ाई ही इस देश की कमजोर कड़ी है।’ योगी जी ने कहा यह सही है। इसीलिए जाति व्यवस्था को समाप्त करना भी हमारा उद्देश्य है। इस कमजोर कड़ी को अंग्रेजों ने अपने हित में प्रयोग किया। समाज को और ज़्यादा कमजोर बनाया। 

योगी जी ने उदाहरण देते हुए बताया कि, ‘‘अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था को अपने हथियार के रूप में विकसित किया। 1871, 1881, 1891 में अंग्रेजों ने जन सर्वेक्षण कराकर स्पष्ट समझ लिया कि इस हथियार को और धार देने के लिए इन्हें और जातियों में बांटना होगा। इसका परिणाम था कि 1871 की गणना में उन्होंने जातियों की संख्या 3208 बताई। दस वर्ष बाद ही 1881 में 19044 बताई। तब निकोलस बी डिर्क्स नाम के विद्वान ने कहा, ‘‘यह वृद्धि जातियों के बढ़ जाने की जगह सर्वेक्षण की पद्धति को बदलने का नतीजा थीं।’’ यह साजिश इतने पर ही नहीं ýकी। प्रिंसेप ने 1834 में केवल बनारस में ही ब्राह्मणों का सर्वेक्षण कर उनके भीतर 107 जातियां और बना दी थीं। जिससे ब्राह्मणों में ही भेदभाव और बढ़ गया। 

इस हथियार को विकसित करके अंग्रेज 1947 तक शासक बने रहे। यह सोचकर आप आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि 1939 में देश की जनसंख्या तीस करोड़ थी। इतने बड़े समुदाय पर ब्रिटेन अपने मात्र पैंसठ हज़ार अंग्रेज सैनिकों के साथ शासन करता रहा। वास्तव में हम पर अंग्रेज या उनसे पहले जो आक्रांता आए वो नहीं बल्कि हमारी जातीय भेदभाव से निकली नाकारात्मक ऊर्जा हम पर राज करती रही। जिसकी डोर विदेशियों के हाथ में होती थी। 

हमें इस झूठ पर से भी पर्दा हटाना होगा कि ऊंच-नीच भेद-भाव से केवल सनातनी समाज ही ग्रस्त रहा है। दूसरे लोग यह पर्दा डालने में भी इसलिए सफल हुए क्योंकि सनातनी अपने धर्म संस्कृति के विरुद्ध किसी भी हमले, झूठ-फरेब, दुष्प्रचार पर प्रतिक्रिया करना ही भूल गए। कालांतर में तो यह भाव घर कर गया कि ‘कोउ नृप होई हमें का हानि, चेरि छांड़ि कि होइब रानी।’ 

संत तुलसी ने किसी और संदर्भ में मंथरा से यह बात कहलाई थी लेकिन सनातनियों ने इसे अपना स्थाई भाव बना लिया। कोई कुछ भी कहता, करता रहा वह निर्लिप्त भाव से जीते रहे। प्रसंग क्योंकि अंग्रेजों ईसाइयों का चल रहा है तो आप ईसाइयों को ही देखिए कि इन में कितने भेद-विभेद हैं। इनमें भी एवानजिल्क, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स, कैथोलिक आदि समुदाय हैं। रोमन कैथोलिक रोम के पोप को अपना सर्वाेच्च धर्मगुरु मानते हैं। जबकि प्रोटेस्टेंट पोप जैसी व्यवस्था परंपरा के सख्त खिलाफ हैं। वह किसी को पोप मानने के बजाय एकमात्र बाइबल पर विश्वास करते हैं। ऑर्थोडॉक्सियों ने भी अपना अलग रास्ता अपनाया है। यह भी रोम के पोप को बिल्कुल मान्यता नहीं देते। 

यह लोग जिस देश में रहते हैं उस देश के पैट्रिआर्क को मानते हैं। ईसाइयों में यह सबसे कट्टर और परंपरावादी होते हैं। इसी प्रकार एंग्लिकन समुदाय अपने को प्रोटेस्टेंट नहीं मानते। प्रोटेस्टेंट प्रमुखतया पांच संप्रदायों में विभक्त माने जाते हैं। बैप्टिस्ट, मैथोडिस्ट, कैल्विनिस्ट, लूथरन और एंग्लिकन। प्रोटेस्टेंटों में सबसे ज्यादा लूथरन लोग हैं। इन्हें लूथरन इसलिए कहते हैं क्योंकि लूथर ने ही 16वीं सदी में विद्रोह किया था। जिसके परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंट शाखा बनी। इसीलिए इनको मानने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। जैसे यह खूब प्रचारित-प्रसारित किया गया कि सनातनियों में तो पूजा करने, धार्मिक ग्रंथ पढ़ने, पूजा स्थलों में प्रवेश आदि पर विभेद हैं। यह निश्चित ही हमारी सबसे बड़ी बुराई है। जिससे आज हम करीब करीब मुक्ति पा चुके हैं। 

लेकिन क्या हमने कभी, कहीं भी, किसी भी स्तर पर यह चर्चा सुनी, पढ़ी, देखी है कि ऐसा कुछ ईसाइयों में भी रहा है। विशेष रूप से मध्यकाल का समय ऐसा रहा है जब आम जनमानस को बाइबल पढ़ना करीब-करीब नामुमकिन हो गया था। क्योंकि कोई भी आमजन बाइबल की नकल नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप जनमानस को अपने ही धर्म के बारे में कुछ पता नहीं था। इस स्थिति को देखते हुए कुछ बिसपों, पादरियों ने विचार-विमर्श शुरू किया। उन्हें लगा कि ऐसे तो धर्म के प्रचार-प्रसार में बड़ी बाधा उत्पन्न हो जाएगी। इन्हीं लोगों ने निष्कर्ष निकाला कि पोप का प्रोटेस्ट करेंगे। इन लोगों ने विरोध स्वरूप बाइबल का अपनी स्थानीय भाषाओं में अनुवाद शुरू कर दिया। और नया संप्रदाय प्रोटेस्टेंट बना दिया।’ 

योगी जी ने इसी तरह की इतनी बातें बताई कि हम हैरान रह गए। मिलर दंपत्ति उन्हें आवक् से देखते रहे। इसी समय मेरे दिमाग में आया कि यह सबसे उचित समय है कि योगी जी से ‘कालसर्प योग‘ के बारे में भी चर्चा कर ली जाए। इसकी सच्चाई क्या है? ज्योतिष को कितना सही मानना चाहिए, उसे जीवन में कितना स्थान देना चाहिए? क्या विज्ञान की प्रमाणिकता, महत्व पौराणिक आख्यानों, ज्योतिष से ज़्यादा है? मैंने उन्हें अपने परिवार, ज्योतिषाचार्य जी की भविष्यवाणी से लेकर ईसाई बनने तक की सारी बातें विस्तार से बता दीं। 

सुन कर वह मुस्कुराए और कहा, ‘बेटा जीवन में जितना महत्व विज्ञान को देते हो उतना ही ज्योतिष को भी दे सकते हो। जैसे विज्ञान की तमाम बातें हम सही मानते हुए उन्हें पढ़ते-लिखते हैं, पढ़ाते, बताते, उसी के अनुसार आगे बढ़ते चले जाते हैं कि अचानक ही नई खोज सामने आती है, नया सिद्धांत पुराने को गलत सिद्ध कर अपना स्थान बना लेता है। लेकिन समय, समाज जीवन तो तब भी नहीं ठहरता। चलता ही रहता है अपनी ही गति से। 

उदाहरण के तौर पर तुम इस प्रकार समझने का प्रयास करो कि जैसे 1911 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने इलेक्ट्रॉन के प्रयोगों के बाद अपना परमाणु मॉडल प्रस्तुत किया, क्या वह परमाणु मॉडल आज भी पूर्ववत है? 1932 में जेम्स चैडविक ने परमाणु नाभिक के बारे में जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था वह अक्षरशः आज भी वही है क्या? आगस्ट केकुले ने बेंजीन संरचना का सिद्धांत प्रतिपादित किया। जो कि कार्बनिक रसायन की महत्वपूर्ण बात हुआ करती थी। उनका सिद्वांत आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्या?‘ योगी जी साइंस के बारे में इतना कुछ जानते हैं यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। हालांकि वह बेहद सहज सरल ढंग से बता रहे थे लेकिन फिर भी मेरे स्तर से यह ऊँची बातें थीं। 

उन्होंने खगोल, रसायन से लेकर जीव विज्ञान तक सम्बन्धित तमाम बातों की झड़ी लगा दी थी। मिलर की पत्नी एलिना यानी सुदीक्षा द्वारा प्रश्न पर प्रश्न करते रहने के कारण बात बड़ी देर तक साइंस की ही चलती रही। सुदीक्षा की भी साइंस को लेकर जानकारी बड़ी जबरदस्त थी। मैं बड़ा इंप्रेस हो रहा था। एक समय तो मुझे ऐसा लगा कि उसके प्रश्नों के कारण मेरे मूल प्रश्न के उत्तर की बात रह ही जाएगी। मेरी व्याकुलता योगी जी ने पहचान ली और फिर सुदीक्षा के ही एक प्रश्न के उत्तर के साथ ही उन्होंने मेरे मूल प्रश्न की ओर बात मोड़ी। 

कहा, ‘मोटे तौर पर यह समझ लो कि योग और ज्योतिष कोई पूजा-पाठ की वस्तु नहीं बल्कि विज्ञान हैं। योग के लिए तो दुनिया एक स्वर से यह मानती है कि हिरण्यगर्भ के इस विज्ञान को महर्षि पतंजलि ने करीब पांच हज़ार वर्ष पूर्व ही विकास की चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। यह पूर्णतः विकसित विज्ञान है। जिसके माध्यम से स्वस्थ रहा जा सकता है। और यह जागे हुए भारतीय समाज के सद्प्रयासों का ही परिणाम है कि प्रत्येक 21 जून को पूरी दुनिया ‘योग दिवस’ मनाती है। इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना रही है। 

ज्योतिष साइंस कितनी परफेक्ट है इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हो कि इसके माध्यम से चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण बरसों बरस पहले कब हुआ था से लेकर भविष्य में कब होगा इसकी घोषणा ज्योतिषी सदियों से पूर्ण एक्यूरेसी के साथ करते आ रहे हैं। जबकि मशीनों के माध्यम से की जाने वाली घोषणाएं अक्सर भटकती हुई मिल जा रही हैं। 

जहां तक बात किसी व्यक्ति के बारे में भविष्यवाणी की है तो जैसे गणित में एक दशमलव भी गलत कर दिया तो उत्तर गलत हो जाएगा। वैसे ही ज्योतिष में तिथि, जन्म का स्थान, समय और उस समय ग्रहों की स्थिति पूर्णतः सही नहीं लिखी गई है तो उस व्यक्ति के बारे में सही भविष्यवाणी करना संभव नहीं है। आंशिक रूप से ही कुछ बताया जा सकता है। 

इसके साथ ही यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ज्योतिषी ज्योतिष विज्ञान की समग्र जानकारी रखता है? वह इस विज्ञान का प्रकांड पंडित है कि नहीं। यदि सब सही है तो निश्चित ही भविष्य की सटीक गणना की जा सकती है। इसकी आधी-अधूरी जानकारी के साथ इसका व्यवसाय करने वालों ने इसे हंसी-मजाक का विषय बना दिया है। ऐसे अधकचरे ज्ञानियों से बचना चाहिए। ऐसे लोगों के कारण भ्रमवश लोग अपना, अपने परिवार का जीवन बर्बाद कर लेते हैं।’ योगी जी की गणना में मैं, मेरा परिवार ऐसे ही लोगों की श्रेणी का शिकार निकला। 

मिलर यानी महेश्वरानंद, सुदिशा को मैंने अधकचरी जानकारियों के आधार पर जितनी पौराणिक बातें बताई थीं उन्हीं के आधार पर उन्होंने तमाम प्रश्न करे। सुदिक्षा ने ही योग साइंस है या पूजा-पद्धित यह प्रश्न खड़ा किया था। योगी जी ने सभी का समाधान दिया। उन्होंने सारतः बताया, ‘हमें मूलतः यह समझ लेना चाहिए कि सनातन धर्म जड़वादी नहीं है कि जो पहले कह दिया गया उस पर कोई विचार-विमर्श या परिवर्तन नहीं हो सकता। समय-समय पर नए विचार-सिद्धांत विद्वानों द्वारा रखे जाते हैं जो सनातन पौराणिक आख्यानों को और समृद्ध करते हैं। 

उदाहरणार्थ अद्वैत वेदांत को ही देखिए, यह वेदांत की ही एक शाखा है। शंकराचार्य ने अपने सिद्धांत को ब्रह्म-सूत्र में प्रतिपादित किया। अहम्-ब्रह्मस्मि को अद्वैत वेदांत कहा। इसीलिए उन्हें ‘‘शांकराद्वैत’’ संज्ञा दी गई है। शंकराचार्य की मूल बात यह है कि इस चराचर जगत में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या। मगर शंकराचार्य के कह देने भर से बात यहीं ठहर नहीं जाती। ईश्वर के बारे में अनेकानेक विचारधाराएं प्रस्तुत होती रहीं हैं। जिनमें मुख्यतः केवलाद्वैत, द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्ववैत, विशिष्टाद्वैत जैसी अनेकानेक विचारधाराएं हैं। 

वास्तव में हम सनातनी कालांतर में इतनी गहरी नींद सो गए कि अपने महान पूर्वजों द्वारा दिए गए अथाह ज्ञान को ही भूल गए। अज्ञानता में बाहरी जो कहते वही सही मानते चले आ रहे हैं। विवेकानंद ने कहा, ‘‘उठो, जागो’’, लेकिन फिर भी हम अभी तक ठीक से जागे नहीं हैं। जब कोई बाहरी कुछ कहता है तब हम समझते हैं कि हम पहले क्या थे। अभी जब कोलंबिया यूनिवर्सिटी इरविंग मेडिकल सेंटर ने सुश्रुत को दुनिया में शल्य चिकित्सा का जनक मानते हुए अपने यहां उनकी मूर्ति लगाई तब हमें समझ में आया कि शल्य चिकित्सा का ज्ञान सबसे पहले हम सनातनियों को ही था। 2600 साल पहले ही सुश्रुत प्लास्टिक सर्जरी अर्थात स्किन ग्राफ्ट्स आदि में पारंगत थे।’ योगी जी से यह सब सुनकर हम, महेश्वरानंद दंपति सभी आश्चर्य में थे। 

कई चरणों में हमारे प्रश्न-उत्तर कई दिनों तक चलते रहे। वापसी वाली सुबह से पहले की रात सोते समय महेश्वरानंद ने कहा, ‘मेरा मन ब्रिटेन वापस लौटने का बिल्कुल नहीं हो रहा है। मैं योगी जी जैसे प्रोफाऊंड नॉलेज (विपुल ज्ञान) वाले महान विभूति को छोड़कर जाना दुनिया की सबसे बड़ी मूर्खता समझता हूं। मैं यहीं हमेशा उनके साथ रहकर ग्रेट स्प्रिीचुअल पौराणिक नॉलेज को पूरी दुनिया में सब तक पहुंचाना चाहता हूं।’ मैंने कहा इसके लिए तो यह और भी ज्यादा जरूरी है कि हमें योगी जी के संदेश को फैलाने के लिए पूरी दुनिया को नापना चाहिए। वह मेरी बात से जल्दी ही सहमत हो गए। अगले दिन हम सभी घर के लिए चल दिए। 

जल्दी ही मेरे मन में बराबर बनती-बिगड़ती योजना ‘सनातन सरस्वती शिशु मंदिर’ के रूप में साकार हुई। सास-ससुर संरक्षक बने। मैं आराधना के साथ उसके संचालन में लग गया। हमारा फैसला अब तक यह भी था कि हम अपने पहले शिशु की शिक्षा भी अपने स्कूल से प्रारंभ करेंगे। कालसर्प दोष के भय ने अभी तक हमें मां-बाप बनने से रोक रखा था। मगर यह भय आश्रम में खुद ही मुझसे भयभीत होकर हमेशा के लिए दूर चला गया। जिसके कारण मैंने घर-परिवार त्याग दिया था। ऑटो रिक्शा ड्राइवर, नौकर बन चकरी करने लगा था। संयोग था कि चर्च-मैन, मिलर दंपत्ति मिल गए। जो योगी जी से मिलने का माध्यम बने, जिनके आशीर्वाद से स्कूल संचालक बन गया हूं। 

और हां! परिवार शुरू करूंगा तो सबसे पहले बच्चे को लेकर भाई-बहनों का भय दूर भगाने जरूर जाऊंगा। कितने बरस हो गए सब से मिले हुए, देखे हुए। उनसे भी कहूंगा कि वह भी राष्ट्रांत्रण रोकने के मेरे अभियान में भागीदार बनें। 

तो मित्रों अब मैं ऑटो वाला नहीं स्कूल संचालक तरुण हूं और पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि साल भर के अंदर पिता बनूंगा, कई बच्चों का पिता बनने का प्लान है मेरा। आखिर राष्ट्रांतरण रोकने और हमारा जो हिस्सा राष्ट्रांतरित हो कर अलग हो चुका है, उसे फिर से हासिल करने के लिए संख्या बल बहुत-बहुत बढ़ानी है। बहुत बड़ी करनी है। आप भी जुटिए, मैं तो जुट गया हूं। क्योंकि सच में आज़ादी भी तो लेनी है। अभी तो धूर्त अंग्रेजों ने शासन चलाने हेतु सत्ता हस्तांतरित भर की है। 

आप और मेरी तरह सबको यह झुनझुना थमाया गया कि हम आज़ाद हैं। हमें आज़ादी का तोहफ़ा देने का अहसान लादकर ना जाने कितने लोग महान नेताओं में अपना नाम दर्ज कराए बैठे हैं। गीत गवाते आ रहे हैं कि दे दी आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल...। इस झूठ से पर्दा हटाना है। बहुत भारी पर्दा है इसलिए बहुत सारे लोगों की जरूरत है। यह जीवन से भी ज़्यादा जरूरी है। जिससे आने वाली पीढ़ियां सच में आज़ाद रहें। सुरक्षित रहें। और हां! चर्च-मैन काफी लंबे समय बाद फिर लौटा तो सब कुछ जानकर आश्चर्य में पड़ गया। हमने उसका पहले जैसा ही आदर-सत्कार सब कुछ किया। वह उन महान योगी जी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा जिनके कारण यह परिवर्तन हुआ। हमने उसे बड़े प्यार से वहां भेजा। आजकल वह योगी जी का मेहमान बना हुआ है। मैं यह बिल्कुल नहीं जानता कि जब वह लौटेगा तो चर्च-मैन ही रहेगा या फिर चेतेश्वरानंद या...। 

कहानी :मैं ऑटोवाला और चेतेश्वरानन्द :प्रदीप श्रीवास्तव 

प्रदीप श्रीवास्तव 

ई ६ एम २१२ सेक्टर एम् 

अलीगंज लखनऊ -२२६०२४ 

७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६ 

शनिवार, 17 अगस्त 2019

कहानी:बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स : प्रदीप श्रीवास्तव


बोल्टू के हस्का फुस्की और बोल्ट्स
प्रदीप श्रीवास्तव
मैं कुछ भूलता नहीं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूं। मगर यह दावा पुरजोर करता हूं कि नाममात्र को ही कुछ भूलता हूं। जैसे बचपन में मैं जिन साथियों के साथ खेलता-कूदता था, पढ़ता-लिखता था उनमें से कुछ ही हैं जो अब याद नहीं रहे या दिमाग पर बहुत जोर डालने, तमाम कड़ियों को जोड़ने पर पूरा याद आते हैं। एक बात और कह दूं कि बचपन की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं रीसाइकिल बिन से भी हटा देता हूं। चाहता हूं कि वह दिमाग की हार्ड ड्राइव से भी पूरी तरह डिलीट हो जाएं। लेकिन वह नहीं होतीं। किसी ना किसी तरह से ना दिन देखें ना रात किसी भी समय याद ही जाती हैं। तब मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत क्रोध आता है कि फालतू की बातों मेरे लिए अप्रिय बातों को भी वह क्यों संजोए रखने की हठ किए बैठा है।
जैसे कि मैं नहीं चाहता कि मुझे वह होली याद आए जब मैं तेरह वर्ष का था और देश की कट्टर तानाशाही प्रवृत्ति वाली तथाकथित लोकतांत्रिक निर्लज्ज सरकार ने आपातकाल लागू किया हुआ था। देश में अगर कुछ था जो डरा-सहमा पीड़ित नहीं था, अपनी पूरी शान--शौकत पूरी ऐंठ पूरी मुस्टंडई के साथ कण-कण में व्याप्त था, तो वह था भय अत्याचारी क्रूर निर्लज्ज तानाशाह का। ऐसा लगता था जैसे हर तरफ हर समय हर कोई पशु-पक्षी यहां तक कि नदी तालाब तारा पोखरी-पोखरा सभी अपनी प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक चाल ही भूल गए हैं त्यौहारों की आत्मा ही छिन गई थी। वो रंगहीन-रसहीन हंसी-खुशी उत्साह से मुक्त हो गए थे। लोग त्यौहार भी ऐसे मना रहे थे कि रस्म ही पूरी करनी है। अपशगुन ना होने पाए बस।
यही रस्म अदायगी उस होली को भी हो रही थी। रंगों में कोई रंग था। ना लोगों में कोई उत्साह। जिस दिन होलिका जलनी थी उस दिन सब कुछ ठीक ही दिख रहा था। अपने भाइयों, चच्चा के साथ मैं भी होलिका में अलैया-बलैया, गोबर के बने बल्ले, गेहूं की बालियां आदि डाल आया था। बाबूजी को दो महीने से वेतन नहीं मिला था। वह जिला हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट थे। वहीं हमारे एक पट्टीदार कम्पाउण्डर थे। वेतन ना मिलने का मुख्य कारण मतलब कि एकमात्र कारण था कि बाबूजी और पट्टीदार जिन्हें मैं चच्चा कहता था दोनों ही लोगों द्वारा नसबंदी के जितने केस करवाने थे वह दोनों ही लोग नहीं करवा पाए थे।
एड़ी-चोटी का जोर दोनों ही लोगों ने लगाया हुआ था लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। इसकी वजह से वेतन रुका हुआ था और होली जैसे त्यौहार की बस रस्म ही पूरी की जा रही थी। हमारे संज्ञान में यह पहली होली ऐसी बीत रही थी जिसमें बच्चों सहित किसी के भी नए कपड़े नहीं बने थे। खाने-पीने की चीजों में भी भारी कटौती चल रही थी।
ऐसी कड़की, ऐसी स्थिति में चच्चा के घर अगले दिन यानी रंग खेलने वाले दिन विकट विपत्ति पड़ी। पूरे गांव में गहरा सन्नाटा छा गया। चच्चा के खिलाफ थाने में दूसरे पट्टीदार ने एफ.आई.आर. दर्ज करा दी थी कि चच्चा और उनके लड़कों ने उनके घर का लकड़ी का काफी सामान चोरी करके होलिका में जला दिया है। इसमें बैलगाड़ी का एक पहिया जो की मरम्मत के लिए रखा था और उन लकड़ियों को भी जला दिया जो धन्नियां बनवाने हेतु लाए थे।
शिकायत करने पर अपने लड़कों के साथ गाली-गलौज की, जान से मारने की धमकी दी। ऐन त्यौहार के दिन जब दुनिया रंग-गुलाल के बाद खाने-पीने, नए कपड़े पहन कर लोगों से मिलने-जुलने को तैयार हो रही थी तभी पुलिस चच्चा और उनके दो बड़े लड़कों को थाने उठा ले गई। घर वाले हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते रहे, कहते रहे कि यह पूरी तरह से झूठ है, हमें फंसाने के लिए बेवजह झूठी एफ.आई.आर. की गई है। मगर पुलिस ने एक ना सुनी। पास-पड़ोस का कोई भी सामने नहीं आया। सब के सब घरों में दुबके रहे। ऐन त्यौहार के दिन चच्चा के घर रोना-पीटना मच गया। मगर झूठी एफ.आई.आर. करने वाले पट्टीदार के पास कोई भी नहीं पहुंचा कि भाई त्यौहार के दिन ऐसा नाटक क्यों कर रहे हो
आपातकाल लागू होने के बाद से ही पट्टीदार त्रिनेत्रधारी आग मूत रहा था। वह था तो सत्ताधारी पार्टी के यूथ विंग का स्थानीय स्तर का कोई पदाधिकारी लेकिन अकड़ किसी बड़े लीडर से कम नहीं थी। अपने को वह समानांतर सत्ताधारी युवराज का दाहिना हाथ बताता था। युवराज के साथ खींची अपनी कई फोटो मढ़वा कर घर में लगा रखी थी। अपनी दबंगई से दूसरों की संपत्ति खासतौर से खेत-खलियान बाग-बगीचा हथियाना उसका शगल बन गया था।
वह अपने इस शगल का शिकार चच्चा को नहीं बना पा रहा था तो उन्हें ऐसे फंसा दिया। मगर ईमानदार, सिद्धांत के पक्के चच्चा झुकने वालों में नहीं थे, तो नहीं झुके। वह क्षेत्र में खौफ़ का पर्याय बने त्रिनेत्रधारी की इस चाल के समक्ष भी नहीं झुके। ताकत के मद में चूर तानाशाह की गुलाम बनी व्यवस्था की आंखों में आंखें डाल कर सत्य की लाठी लिए डटे रहे। जल्दी ही पता चला कि उन्हें कई धाराओं में निरुद्ध कर बेटों सहित जेल भेज दिया गया। मगर सत्य की लाठी लेकर सभी के साथ खड़े रहने वाले मेरे चच्चा के साथ कोई नहीं खड़ा हुआ।
मेरे बाबूजी भी खुलकर सामने नहीं आए। बस चुपके-चुपके चच्चा के घर को आर्थिक, अन्य सामानों आदि के जरिए हर संभव मदद देते रहे। उन्हें रास्ते बताते रहे कि कैसे इस समस्या से मुक्ति पायी जा सकती है। उनकी मदद के लिए उन्होंने घर के तमाम खर्चों में कटौती ही नहीं की बल्कि कई लोगों से पैसा उधार भी लिया। सब कुछ इतनी सावधानी से कर रहे थे कि घर में अम्मा के सिवा किसी को कानों-कान खबर तक नहीं थी।
बाबूजी ने चच्चा के घर वालों को तानाशाह के संगठन के एक वास्तविक बड़े पदाधिकारी से संपर्क साधने का भी रास्ता बताया। इससे फायदा यह हुआ कि वहां से त्रिनेत्रधारी पर दबाव बनाया जा सका। इससे वह चच्चा के शेष बचे घर वालों को और खुलकर परेशान नहीं कर पा रहा था। लेकिन यह सब होते-होते इतना समय निकल चुका था कि एक दिन सूचना मिली कि चच्चा ने जेल की कोठरी में ही अपने पाजामे से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और जेल वालों ने जिस प्रकार आत्महत्या करना बताया वह किसी के गले नहीं उतर रहा था। हर कोई हतप्रभ था कि यह पूरी तरह निराधार और झूठ है। जेल की कोठरी में अपने पहने हुए पाजामे से, दरवाजे के सींख्चों में कोई फांसी पर कैसे झूल सकता है, और यह कि जेल में इतने कैदियों, स्टॉफ़ में से कोई उन्हें यह सब करते देख नहीं पाया।
यह सब सच नहीं है। यह पुलिस द्वारा बेतुकी गढ़ी हुई कहानी है। मगर हर कोई विवश था पुलिस की इस मनगढ़ंत कहानी के आगे। जिसके बारे में कोई कुछ भी नहीं बोल सकता था। कुछ महीने बाद यह पता चला कि त्रिनेत्रधारी की लिखी कहानी को पुलिस ने यथार्थ में परिवर्तित किया था। चच्चा का शव मृत्यु के तीसरे दिन गांव पहुंचा था। कानूनी पचड़ों के जरिए जितनी देर की जा सकती थी वह की गई थी। इतनी देरी के कारण पार्थिव शरीर के आते ही उसका दो घंटे में ही अंतिम संस्कार कर दिया गया।
चाची यह सब देखकर इतना बेसुध हो गईं थीं कि उनके ना आंसू निकल रहे थे, ना ही वह रो रही थीं। मूर्तिवत सब कुछ होता देख रही थीं। चच्चा के जेल में बंद दोनों लड़के अंतिम संस्कार के दिन दो घंटे के लिए आए थे। यह कोर्ट के आदेश के बाद हो पाया था। इसमें बड़ा रोल मेरे बाबूजी का था। तेरहवीं के दिन दोनों लड़के नहीं सके। इसके लिए भी बाबूजी ने बहुत कोशिश की थी लेकिन यह संभव नहीं हो पाया।
चच्चा के तीन छोटे भाइयों और उनके तीन छोटे बेटों ने तेरहवीं की रस्म पूरी की। यह संयोग ही कहा जाएगा कि ठीक उसी दिन देश का मनहूस काला अध्याय समाप्त किए जाने की घोषणा हुई। मानो चच्चा अपना बलिदान देकर देश भर से मनहूस काली छाया हटा गए थे। मगर उनके जाने से घर पर पड़ी काली छाया गहराने लगी थी।
घर का खर्च कैसे चलेगा यह समस्या सुरसा के मुंह की तरह विकराल होती जा रही थी। चच्चा के भाई ज्यादा लंबे समय तक मदद के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वे अपने परिवार के हिस्से का ज़्यादा हिस्सा अपने भाई के परिवार पर खर्च नहीं करना चाहते थे। अंततः कुछ ही महीनों में चाची अपने तीन छोटे बच्चों के साथ एकदम अकेली पड़ गईं। बाबू जी अभी भी भीतर ही भीतर मदद किए जा रहे थे। मगर उनकी भी एक सीमा थी, उससे आगे वह भी नहीं जा सकते थे। फिर भी उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाते रहे। चाची को भी अम्मा के जरिए समझा-बुझाकर तैयार किया कि नाव मझदार से आप ही को निकालनी है। बाकी हम लोग मदद के लिए आसपास बने रहेंगे। इसलिए नाव का चप्पू आपको अपने हाथ में थामना ही होगा। जो आपको तब-तक चलाते रहना है जब-तक कि बच्चे चप्पू अपने हाथ में लेने लायक ना बन जाएं।
समझदार चाची को बाबू जी की बातों से बल मिला, हिम्मत की और उठ खड़ी हुईं। चाची को चच्चा की जगह नौकरी दिलाने की बात आई लेकिन कुछ तकनीकी समस्याओं के चलते यह संभव नहीं हो पाया। चाची जल्दी ही पास में ही कस्बे की बाज़ार में एक किराने की दुकान चलाने लगीं। तीनों लड़के भी स्कूल के बाद उन्हीं के पास दुकान पर रहते। हाथ बंटाते।
बहुत ही कम समय में चाची कुशलतापूर्वक नाव खेने लगी थीं और देश ने भी आजादी के बाद सबसे काले दिनों आपातकाल के थोड़े दिनों पश्चात ही अधिनायकवादी सोच की नेतृत्वकर्ता की सत्ता को उखाड़ फेंका था। वास्तविक लोकतांत्रिक लोगों के हाथों में सत्ता सौंप दी थी। अब त्रिनेत्रधारी पांडे भागा-भागा फिरने लगा। चच्चा के घर वालों ने तो तुरंत कुछ नहीं किया। लेकिन उससे त्रस्त कई और लोगों ने अपना हिसाब बराबर करना शुरू कर दिया था। परिणामस्वरूप उस पर एक के बाद एक कई केस दर्ज हो गए। अंततः वह जेल पहुंच गया।
समय बीतता रहा। चाची नाव खेती रहीं। लड़के दुकान में हाथ बंटाते रहे, पढ़ते रहे। मगर तीसरे लड़के ने रंग बदलना शुरू कर दिया। उसे गुंडई-बदमाशी रास आने लगी। इतनी की पढ़ाई-लिखाई पिछड़ती चली गई और गुंडई बढ़ती गई। अपने रंग-ढंग से उसने घर के भी रंग-ढंग बदलने शुरू कर दिए। मैं और वह एक ही क्लास में पढ़ते थे। स्कूल और बाहर भी मुझे उसका साथ भाने लगा था। बाबूजी-अम्मा जी की नजरों से यह बात छुपी नहीं रही। वह चिंता में पड़ गए। मगर मुझसे कुछ नहीं कह रहे थे। मैं पूरी तरह खुद को आज़ाद समझ रहा था।
हाईस्कूल में मैं तो किसी तरह खींचतान के पास हो गया। मगर वह फेल हो गया। जबरदस्त ढंग से सभी सब्जेक्ट में फेल था। किसी विषय में उसका सबसे ज़्यादा नंबर इतिहास में था। सौ में नौ नंबर। मैथ में शून्य। कुल टोटल छः सौ में तैंतीस नंबर थे। मैंने जब उससे कहा कि, ‘लिख तो मेरे जितना तुम भी रहे थे, फिर सारे नंबर कहां चले गए?’ तो वह हंसता हुआ एग्ज़ामिनिरों को अंड-बंड बोलने लगा।
कहा, ‘इतने अच्छे-अच्छे गानों से पूरी की पूरी कॉपी भर देता था कि कॉपी जांचते-जांचते थक जाएंगे तो गानों से उनका मनोरंजन हो जाएगा। उनकी थकान उतर जाएगी और मुझे पुरे नंबर दे देंगे। मगर... फिर वह अंड-बंड बकने लगा। टीचरों, एग्ज़ामिनिरों को कही जा रही ऊल-जुलूल बातें मुझे अखर रही थीं, और मेरे नंबर बाबूजी, अम्मा जी को इतने अखरे कि आगे की पढ़ाई के लिए मुझे दिल्ली भेज दिया। चच्चा के यहां।
इतना ही नहीं अगले कई साल तक होली, दिवाली जैसे त्यौहारों पर मेरे सारे भाई-बहनों के साथ दिल्ली जाते। जिससे मेरे गांव जाने की सारी संभावनाएं खत्म हो जातीं। कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं तैयारी किए बैठा रहा कि गांव चलूंगा, चच्चा भी कहते हां चलना है। मगर चलने के समय सब वहीं पहुंच जाते। चच्चा, बाबूजी, अम्मा सब मिले हुए थे। उस समय उन सब पर बड़ी गुस्सा आती थी। गांव का हाल पूछने पर एक ही जवाब मिलता कि, ‘क्या रखा है गांव में? वही धूल-माटी, कीचड़-गोबर। हम लोग खुद ही ऊबकर अब बार-बार यहां जाते हैं।
अम्मा चच्चा की तरफ देखती हुई कहतीं, ‘तुम्हारे बाबूजी की नौकरी भी चच्चा की तरह यहीं होती तो हम गांव लौटकर जाते ही नहीं। तब समझ नहीं पाता था कि अम्मा-बाबूजी मेरे भले के लिए ही यह सब कुछ कर रहे थे। उस समय जो गुस्सा आती थी आज जब सोचता हूं तो श्रद्धा से सिर बाबू जी, अम्मा जी, चच्चा, चाची जी सभी के चरणों में झुक जाता है। गांव से आने के दस साल बाद मैं गांव तब पहुंचा जब भारतीय वायुसेना में बतौर फाइटर जेट पायलट मेरा चयन हो गया और प्रशिक्षण पर जाने से पहले बाबूजी ने मुझे फ़ोन करके दो दिन के लिए गांव बुलाया था। साथ में मेरे दोनों चचेरे भाइयों को भी।
ट्रेन लेट होने के कारण गांव पहुंचने में हमें काफी देर हो गई। हम बहुत देर रात में घर पहुंचे। सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। अम्मा-बाबूजी, भाई-बहन सब। अम्मा, बहन ने खाने-पीने की इतनी चीजें बनाई थीं, तैयारी घर में ऐसे की गई थी मानो शादी-ब्याह का घर हो। मैंने सबसे पहले अम्मा के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया। अपनी बाहों में भर लिया। मारे खुशी के उनके आंसुओं की धारा बह चली थी। दोनों हाथों में मेरा चेहरा लेकर बार-बार माथे को चूमा। मुझे गले लगाया, रोती हुई बोलीं, ‘मेरा लाल, बेटा मैंने कैसे पत्थर बनकर तुझे इतने सालों तक यहां से दूर रखा बता नहीं सकती।
रोते हुए अम्मा बोले जा रही थीं, उनके शब्द स्पष्ट नहीं निकल रहे थे। तभी बाबूजी भी बोले, ‘अरे इतना थका हुआ है, बैठने दो पहले इन सबको बाबू जी की आवाज़ भी बहुत भरी हुई थी। जैसे कि बस अब रो ही देंगे। असल में एक बाप तड़प रहा था अपने बेटे से मिलने के लिए। उनकी भावना समझते ही मैंने एक हाथ से उनको भी गले लगा लिया था।
मेरे लिए उस पल से ज़्यादा अनमोल शायद ही कोई दूसरा क्षण होगा। पूरा वातावरण इतना भावुक हो गया था कि बहन भी भैया बोलते हुए लगी गले से। मैंने उसे भी अपनी बाहों के घेरे में ले लिया था। मेरी भी आंखें बरस रही थीं। बड़ी देर बाद हम अलग हुए। बाकी सभी भाइयों से मिला, वे भी भावुक थे। अम्मा साथ आए दोनों चचेरे भाइयों से भी मिलीं। उन्हें भी गले लगाया, आशीर्वाद दिया। बड़ी देर रात तक खाना-पीना, हंसना-बोलना, चलता रहा। सबसे ज़्यादा बातें मेरी पढ़ाई-लिखाई, एयरफ़ोर्स में मेरे सिलेक्शन को लेकर होती रहीं।
पूरा घर एक पेट्रोमैक्स, कई लालटेन के सहारे चमक रहा था। पूरे घर की रंगाई-पुताई से लेकर एक-एक चीज चमकाई गई थी। बहुत सी चीजें नई खरीदी गई थीं। मैं अपने लिए घर का ऐसा लगाव देखकर अभिभूत हो रहा था। कई कमरों में सभी के सोने के लिए अलग-अलग इंतजाम किया गया था। लेकिन सोने के समय बहन बोली, ‘बरोठे में सब एक साथ सोते हैं। सब ने बातें कर लीं, मैं तो बात कर ही नहीं पाई हूं।
वह सही कह रही थी। अम्मा का हाथ बंटाने में ही उसका सारा समय निकल गया था। उसके बोलते ही बाकी भाइयों ने भी हां कर दी तो एक साथ बरोठे में ही जमीन पर ही बिस्तर लगाया गया। क्योंकि वहां एक साथ सभी के लिए चारपाईयां नहीं पड़ सकती थीं। लेटे-लेटे ही सब बतिया रहे थे। बतियाते-बतियाते ही सब एक-एक कर सोते चले गए। मैं आखिर तक जागता रहा। मैं थका था, आंखों में नींद भी बहुत थी लेकिन मैं सो नहीं पा रहा था।
एक ही बात बार-बार दिमाग में गूंज रही थी कि इतने सालों बाद आया हूं, गांव के संगी-साथी कैसे हैं? यह भी अभी तक नहीं देख पाया हूं। परसों सुबह फिर चले जाना है। पता नहीं फिर कब वापसी होगी। मेरा मन बार-बार चच्चा के घर चला जा रहा था, कि पता नहीं उनके यहां सब कैसे हैं? चाची कैसी हैं? और उनका बेटा, मेरा सहपाठी, वह कैसा है? जेल में बंद उसके दोनों भाई छूटे कि नहीं। घर में तो गांव के बारे में कोई कुछ बात ही नहीं करता था। बहुत पूछने पर ही बाबू जी कभी-कभी कुछ-कुछ बताते थे। बाबूजी ने तो उसकी खुराफ़ातों के कारण उसका नाम हीमुतफन्नी’’ रखा हुआ था। वहां पहुंचने पर इतनी सारी बातें दिल्ली, मेरी एयरफ़ोर्स की नौकरी की होती रही थीं कि गांव का नंबर ही नहीं आया।
अगले दिन सवेरे ही मैं भाइयों के साथ गांव देखने, सब से मिलने निकल लिया। निकलते वक्त अम्मा ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया था कि मैं किसी को यह भूल कर भी नहीं बताऊंगा कि मैं एयरफ़ोर्स में भर्ती हो गया हूं। और भी कुछ ज़्यादा बातें करने से मना किया। उन्हें इससे मेरा अनिष्ट होने की आशंका सता रही थी।
मैं चच्चा के यहां पहुंचा तो चाची दरवाजे पर ही बैठी मिलीं। उनके पैर छुए लेकिन वह पहचान नहीं सकीं। बताया तो खूब आशीर्वाद दिया। उनके ही पीछे एक और महिला खड़ी थी जो हम लोगों के पहुंचते ही भीतर चली गई। मैंने अपने सहपाठी के बारे में पूछा तो चाची ने कहा, ‘बाज़ार में होगा दुकान पर। बाज़ार में हमने अपने सहपाठी इंद्रेश की दुकान पूछी तो जिनसे पूछा था वह कुछ लटपटाए। तब हमने चच्चा का नाम लिया, उनका नाम पूरा होने से पहले ही वह बोले, ‘अरे बोल्टुआ के पूछ रहे हो। ऊहे तो बा ओकर दुकनियां।
उन्होंने पचास-साठ क़दम आगे एक दुकान की ओर हाथ दिखाते हुए कहा। हम वहां पहुंचे, वह चाय-समोसा, मिठाई की दुकान थी। सामने भट्टी पर कढ़ाई में तेल गर्म हो रहा था। उसके बगल में छोटी भट्टी में चाय की बड़ी सी केतली चढ़ी थी। भट्टी के दूसरी तरफ एक सोलह-सत्रह साल का लड़का उबली हुई आलू छील रहा था। मैं उससे पूछने ही वाला था कि नज़र उसके पीछे तखत पर बैठे एक औसत कद के लेकिन मज़बूत जिस्म वाले व्यक्ति पर पड़ी। मैं देखते ही पहचान गया। मैंने जैसे ही आवाज़ दीइंद्रेश। क्षण भर देखते ही वह भी पहचान गया।
खुश होता हुआ बोला, ‘अरे तू, आवा अंदरवां आवा ना। कहते हुए वह उठा और मेरे पास आया। हमने उसे गले लगाकर कहा, ‘अरे तू तो बड़का सेठ हो गए हो। वह बोला, ‘अरे काहे का सेठ, ऐसे ही चाय-पानी चलता रहता है। आवा अंदर, आवा। हमें और हमारे साथ आए चचेरे भाइयों को तखत पर बैठाया। खुद ग्राहकों के लिए पड़ी बेंच खींचकर उस पर बैठ गया। भट्टी के पास बैठे लड़के को चाय बनाने के लिए कहकर बतियाने लगा।
बड़ी देर तकचाय-नाश्ता, हमारी बातें होती रहीं। वह अपनी कम मेरी ज़्यादा पूछ रहा था। दिल्ली, पढ़ाई-लिखाई, इतने दिन आए क्यों नहीं? वह हंस-हंस कर अपनी एक से बढ़कर एक खुराफ़ात भी बताता रहा कि इतने दिनों में कैसे त्रिनेत्रधारी से एक-एक कर बदला लिया। कैसे उसे भरी बाज़ार में मारा-पीटा। उसके लड़के को आए दिन इतना मारा-पीटा कि उसकी पढ़ाई छूट गई। त्रिनेत्रधारी ने उबकर लड़के को किसी रिश्तेदार के यहां भेज दिया।
त्रिनेत्र से मुकाबले के लिए उसने राजनीतिक पार्टी ज्वाइन कर रखी है। यह होटल भी त्रिनेत्र की ही जमीन कब्जा करके बनाया है। मैंने उससे उसके भाइयों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि, 'बड़के दोनों भईया जेल से छूटने के बाद यहां ज्यादा दिन रुके नहीं, मुम्बई चल गए। वही काम-धंधा जमाए हैं। पढ़ाई-लिखाई तो दोनों जने की खत्मे हो गई थी। एक जने आगे खाद-बीज का धंधा जमाए हैं।' सबसे छोटे के बारे में उसने बड़े गर्व से बताया कि, 'वह एक हत्या के मामले में जेल में बंद है।' मैं हैरान था कि गलत काम को भी यह कैसे गर्व का विषय समझ रहा है। मुझे लगा कि मैं उसकी बातों से ऊब रहा हूं। भाइयों के चेहरों पर भी कुछ ऐसा ही भाव दिख रहा था। मैंने बात बदलने की गरज से पूछा, ‘तुमने यह दुकान का नाम कैसा रखा है ‘‘बोल्टू हस्का-फुस्की मिठाई वाला।’’ पूछते ही वह ज़ोर से हंसा, फिर लंबी कहानी बता डाली, बोला कि, ‘तुम्हारे जाने के बाद गांव के ही लड़कों ने बोल्टू कहना शुरू कर दिया था। कबड्डी खेलते वक्त मैं जिसे पकड़ लेता था वह छूट नहीं पाता था। सब कहते बोल्ट टाइट हो गया है, छूट नहीं सकता। फिर बोल्ट से बोल्टू हो गया।
मैंने तुरंत पूछा और हस्का-फुस्की तो वह फिर हंसकर बोला, ‘यह दोनों मेरे लड़कों के नाम हैं। उसने तर्क दिया कि, ‘मैं ऐसा नाम रखना चाहता था अपने जुड़वा बेटों का जो किसी और का हो ही नहीं, और साथ ही कोई उसके बेटों के नाम की नकल भी ना करना चाहे तो मुझे यही नाम सूझा। दुकान का नाम अपना, बेटों का नाम मिला कर रखा है। दावे से कहता हूं कि कोई भी इस नाम की नकल नहीं करेगा। मैं उसकी बातों उसके कामों से बहुत निराश हुआ। किसी तरह बात खत्म कर के उससे विदा ली। मैंने पूरा प्रयास किया कि मेरे भाव को वह समझ ना सके।
इसके बाद गांव, खेत, बाग घूम-घाम कर घर वापस चल दिया। बार-बार अम्मा, बाबूजी को प्रणाम करता हुआ कि उन्होंने कितना सही निर्णय लिया था मुझे यहां से हटाने का। नहीं तो मैं भी यहीं कहीं बोल्टू हस्का-फुस्की दुकान खोले चाय बेच रहा होता। घर पर खाने-पीने के बाद मैंने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई चेक की तो वह मुझे संतोषजनक नहीं लगी। मैंने बाबूजी-अम्माजी से उनकी आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजने को कहा और वापस गया। दोबारा मेरा गांव जाने का मन नहीं होता था। नौकरी भी ऐसी मिली थी कि फुर्सत ही नहीं। हालात भी ऐसे बने कि हम सब भाई-बहनों का शादी-ब्याह सब कुछ दिल्ली में ही संपन्न हुआ।
समय बीतता गया लेकिन बोल्टू हस्का-फुस्की मेरे दिमाग से नहीं निकला। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी भी हम लोगों के साथ दिल्ली में बस गए। मैं खुद भी रिटायरमेंट के करीब पहुंच रहा हूं। पर यह अभी भी दिमाग में है। इसे ढोते हुए एक दिन मैं विशाखापट्टनम से आकर एयरपोर्ट पर उतरा। मेरे बेटा-बेटी मुझे लेने आए थे। मैं कार में पीछे बैठा अपने एक कुलिग से मोबाइल पर बातें कर रहा था। घर रोहिणी पहुंचने से कुछ पहले ही एक बिल्डिंग के सेकेंड फ्लोर पर बड़ा सा बोर्ड लगा देखा। जिस पर लिखा था, ‘बोल्ट्स ज़िम जिसे पढ़ते ही मेरे दिमाग में सेकेंड भर में जाने कितनी तस्वीरें घूम गईं।
मैं गाड़ी बैक करवा कर वापस गया। बच्चों को गाड़ी में ही रुकने के लिए बोलकर ऊपर पहुंचा। मेरा अंदेशा बिल्कुल सही था। बोल्ट्स ज़िम का मालिक बोल्टू ही निकला। ज़िम क्या पूरी बिल्डिंग का मालिक वही था। हमें एक दूसरे को पहचानने में समय नहीं लगा। फिर गले मिले। तीस साल बाद। बोल्टू ने अपने बेटे को भेजकर मेरे बच्चों को भी ऊपर बुलवाया। खूब खातिरदारी की।
मैं बच्चों को नहीं मिलवाना चाहता था। लेकिन बात मुंह से निकल चुकी थी। आधे घंटे की मुलाकात में बोल्टू ने जो कुछ कहा वह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। उसने बताया कि, ‘अपनी राजनीति मैंने ऐसी चमकाई कि मैं यहां हूं, मर्डर केस में जेल में बंद भाई सजा काट कर लौटा तो दोनों भाइयों ने मिलकर यह पा लिया। गांव में भी खेत-बाग, मकान, गाड़ी सब कुछ है। पहले से सैकड़ों गुना ज़्यादा संपत्ति गांव और शहर में बना ली है। यह बिल्डिंग ही पचास करोड़ से ऊपर की है। भाई दो-दो बार ब्लॉक प्रमुख रह चुका है। एक बार विधायक भी। मैं पिछली बार एमपी का चुनाव लड़ा लेकिन थोड़े से अंतर से दूसरे नंबर पर रहा। इस बार मेरा दांव सफल रहा तो पार्टी मुझे राज्यसभा जरूर भेजेगी। चलते समय जब मैं कार में बैठ गया था तब अचानक ही चाची के बारे में पूछने पर बोल्टू ने कहा था कि, ‘कुछ साल पहले उनकी डेथ हो गई। वह भी यहीं रहती थीं।
रास्ते भर मैं सोचता रहा कि बाबूजी-अम्मा जी का मुझे गांव से पढ़ने के लिए दिल्ली भेजने का निर्णय सही था या गलत। और मैंने भाई-बहनों को आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली बुलाकर सही किया था कि गलत। हालांकि सभी सरकारी नौकरी कर रहे हैं। सभी क्लास वन अफसर हैं।
घर पहुंच कर मैंने अम्मा-बाबूजी के पैर छू कर फिर आशीर्वाद लिया था। मैं घर से बाहर जाने-आने पर यह जरूर करता हूं। उनके चरणों में मुझे सारी दुनिया ही नजर आती है यह नहीं कहूंगा, बल्कि मैं यह कहता हूं, समझता हूं, अहसास करता हूं कि मुझे तीनों लोकों की खुशियां मिल जाती हैं। उस दिन भी चरण छूकर मुझे मेरे कन्फ्यूजन का तुरंत उत्तर मिल गया था कि बाबूजी अम्मा जी और मैंने एकदम सही निर्णय लिया था।     
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पता-प्रदीप श्रीवास्तव
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