मेरे बाबू
जी
प्रदीप
श्रीवास्तव
लखनऊ जिले की तहसील और ब्लॉक मोहनलालगंज में न जाने ऐसा क्या है कि मैं और मेरा
परिवार इसे छोड़कर लखनऊ शहर,
या किसी अन्य शहर का रुख नहीं कर पा रहे हैं। बातें न जाने कितनी
बार हुईं, ना जाने कितनी बार योजना बनी, लेकिन जितनी बार बातें हुईं, जितनी बार योजनाएं बनीं, उतनी ही बार यह ठंडे बस्ते में चली भी गईं
अगली बार फिर चर्चा का इंतजार करती हुईं। लगता है कि जैसे ना हम इसे मन से छोड़ने का
प्रयास करते हैं और ना ही यह हमें कहीं और जाने के लिए छोड़ना चाहता है।
जिसे यह छोड़ना चाहता था उसे छोड़ दिया। और वह भी मन से छोड़ना चाहती थीं तो चली गईं।
बरसों-बरस पहले छोड़ कर। फिर पलटकर ना देखा कभी। कभी क्षण भर को यह देखने के लिए भी
नहीं आईं कि अपने जिन तीन बच्चों को वह छोड़कर चली गईं वह कैसे हैं? किस तकलीफ़ में हैं? स्वस्थ हैं? बीमार हैं या कि बचे भी हैं कि नहीं।
इतना कठोर व्यवहार कि यही कहने का मन होता है कि शायद भगवान उनके शरीर में हृदय
की रचना करना भूल गए थे, या फिर हृदय में संवेदना का संचार करना भूल गए थे। या फिर मां का नहीं किसी और
का हृदय लगा बैठे थे। मतलब कि भगवान भी भूल कर बैठे थे। और अगर यह गलती उन्होंने नहीं
की थी तो यह तो निश्चित है कि उन्होंने ऐसा हंसी-ठिठोलीवश किया होगा। क्योंकि ऐसा ना
किया होता तो कोई मां अपने डेढ़ साल के पुत्र एवं आठ और नौ साल की पुत्रियों को अकेला
छोड़कर ना चली जाती हमेशा के लिए।
हम बच्चों को मां-बाप दोनों ही का प्यार बाप से ही मिला। जिनकी संघर्षशीलता, सज्जनता, प्रगतिशीलता, किसी आदर्श मां सा कोमल हृदय, किसी मां के भावों से भरे भाव, ज़िम्मेदार पिता आदि गुणों के कारण आज आसपास की एरिया में लोग चर्चा करते हैं। उन्हें
अनूठा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति कहा जाता है। मगर पहले उन्हें क़दम-क़दम पर अपमानित किया
जाता था।
उनके जीवन पर ही एक फ़िल्म निर्माता ने साल भर पहले ही एक वेब सीरीज बनाई थी। यहां
भी हमारे बाबूजी अपनी अतिशय सरलता, सज्जनता के कारण ठगे गए। निर्माताओं
ने जो पैसे कहे थे देने के लिए, एक भी पैसा नहीं दिया। अपना काम करके चलते
बने। और बाबूजी ने उन्हें हंसकर माफ कर दिया। भूल गए। यह भी भूल गए कि उन्होंने उसके
और उसकी टीम के खाने-पीने पर बहुत खर्चा किया था।
आठ-नौ बार में हज़ारों रुपए उड़ गए थे। इस घटना पर हमें भी कोई अफ़सोस नहीं है। क्योंकि
यही तो आज के युग की मूल प्रवृत्ति है। पत्थर से भी ज़्यादा पत्थर हो गए हैं लोगों
के दिल। लेकिन सच यह भी है कि अपवादों से खाली नहीं है दुनिया। तो इसीलिए मक्खन से
कोमल हृदय वाले हैं हमारे बाबूजी। जिनका कोमल हृदय अम्मा के पत्थर हृदय को कोमल ना
बना सका।
वृंद के इस दोहे को भी झुठला दिया कि, ‘‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान...।। रस्सी के आते-जाते पत्थर पर भी निशान पड़ जाते
हैं, लेकिन मेरे बाबूजी अपने कोमल हृदय का निशान अम्मा के पत्थर हृदय पर ना बना पाए।
वह हृदय-हीन बनी रहीं और चली गईं। तब पूरे खानदान, रिश्तेदार, नातेदार, पट्टीदार सब ने बाबूजी को ही ज़िम्मेदार ठहराया था कि, ‘यही ज़िम्मेदार है मेहरिया के जाने के लिए।’ उनकी अतिशय सहृदयता को उनका अवगुण बताया
गया कि, ‘अरे मेहरिया ऐसे थोड़े ही ना रखी जाती है। मेहरिया तो मर्द ही रख सकता है। कड़कपन
नहीं रखोगे तो मेहरिया पगहा तोड़ा के भागेगी ही। घर की देहरी लांघेगी ही। सब इसकी सिधाई
का नहीं नाजायज सिधाई का नतीजा है।’
तब सिधाई, सज्जनता भी जायज-नाजायज हो गई थी। इस दुनिया ने मेरे बाबूजी के साथ इतना ही अन्याय
नहीं किया था बल्कि उन्हें अपमानित करने, दुत्कारने का आखिरी रास्ता तक चुना
था। उन्हें नपुंसक कह कर अपमानित किया था। खुलेआम पूरे विश्वास के साथ यह कहा गया कि, ‘तीनों बच्चे भी इसके नहीं हैं। नपुंसक कहां बच्चे पैदा कर सकता है।’ सीधे-सीधे कहा जाता,
‘जिसके बच्चे थे उसी के साथ भाग गई। कोई औरत नामर्द के
साथ कब तक रहेगी? कब तक निभाएगी?’ मां का नाम लेकर कहा जाता, ‘भंवरिया (भंवरी) ने इतने साल एक नपुंसक के
साथ निभाया यही बड़ी बात है। इसने तो उसका जीवन बर्बाद किया, धोखा दिया उसे। हाथ में दम नहीं था और उफनती जवानी लिए गाय का पगहा बांधने चला
था।’ बाबूजी हर अपमान, दहकते कोयले से ज़्यादा दहकती झूठी बातें ऐसी शांति से हजम कर जाते जैसे शहद पी
गए हों।
अति हो जाने पर, एकदम मुंह पर यह सब कहे जाने पर दोनों हाथ जोड़कर कहते, ‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है। भंवरी को जो कुछ चाहिए था मैंने वह सब कुछ उसे दिया। मैं नपुंसक नहीें
हूं। हर सुख उसे दिया, बच्चे भी हमारे ही हैं। कभी तेज़ आवाज में बात तक नहीं की। कभी भी चाहे जितना भी
वह बिगड़ी, उचित-अनुचित यह सब मैंने सोचा ही नहीं। बस हंस कर शांति से यही कहता था, ‘‘बस कर भंवरिया, गुस्सा होकर काहे को अपने को इतना कष्ट देती है। तुझे कैसा भी कष्ट हो यह मुझे
अच्छा नहीं लगता। बच्चे हैं, इनकी बातों पर इतना गुस्सा अच्छा नहीं। यह
भगवान का रूप हैं।’’ मुझे पिक्चर देखना कभी अच्छा नहीं लगता लेकिन जब-जब उसने कहा कि नई पिक्चर आई है
तो दिखाने के लिए लखनऊ ले गया। कहने को भी एक बार भी मना नहीं किया।
घर में मीट-मछली कभी नहीं बनी लेकिन उसका जब-जब मन किया तब-तब बाज़ार में ले जाकर
या चोरी से घर लाकर खिलाया। हां उसे एक बार डांटने-सख्ती करने का दोषी हूं। जब बिटिया
के होने को तीन महीना बाकी रह गए थे और उसने अम्मा से बदतमीजी की थी। अम्मा ने खाली
इतना कहा था कि, ‘‘बहू खाना-पीना टाइम से करती रहो नहीं तो बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा।’’ मैं इतने पर भी कुछ नहीं बोलता और बोला भी नहीं था।
रात अचानक मुझे उसके मुंह से शराब जैसी कुछ अजीब सी महक मिली। बात की तो लगा कि
इसने तो अच्छी-खासी पी रखी है। मैं एकदम हैरान-परेशान हो गया कि यह क्या गजब हो रहा
है। इसने तो अनर्थ कर दिया है। मैं तंबाकू तक नहीं छूता और यह शराब। बहुत पूछने पर
बताया था कि, ‘‘घर के कबाड़-खाने में बाबूजी ने रखी थी। वही पी ली। अम्मा से गुस्सा थी, इसीलिए पी।’’
होली के समय बाबूजी आने वालों के लिए जो शराब लेकर आए थे उसी की बची हुई एक छोटी
शीशी उन्होंने वहां डाल दी थी। वही भंवरी ने पी थी। उस समय मैंने उससे ज़्यादा कुछ
नहीं कहा कि यह नशे में है। रात भर जागता रहा कि यह कहीं मेरे सोते ही कुछ गड़बड़ ना
कर दे। अगले दिन भी बड़े प्यार से समझाया था कि, ‘‘ऐसा अनर्थ अब मत करना। किसी को पता
चल गया तो सोचो कितनी बदनामी होगी और बच्चे की सोचो, जहर है उसके लिए यह, जहर।’’ इसके अलावा कभी मैंने उससे ऊंचे स्वर में तो छोड़िए रूखी आवाज़ में भी बात नहीं की।
उसे अपने घर, अपने जीवन की लक्ष्मी कहता था। क्या यही हमारी गलती है?’
बाबूजी की बातों को लोग बहुत बाद में धीरे-धीरे समझ पाए। तब उन पर ताना कसना कम
हुआ। लेकिन बंद तो अभी भी नहीं हुआ। मेरे बाबूजी गुणों के अथाह सागर हैं। फिर भी अम्मा
ऐसे एक झटके में बिना कुछ कहे क्यों चली गईं? इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने में मैं आज
भी लगी हुई हूं, बाबूजी का मालूम नहीं कि वह उत्तर ढूंढ़ रहे हैं या उन्हें भूल गए हैं, या उनकी यादों को मन के किसी अंधेरे कोने में गहरे दबा दिया है। और मां-बाप की
दोनों ज़िम्मेदारी वह कैसे आदर्श ढंग से निभा ले जाएं इसी में लगे हैं।
मैं जब आजकल मैग्ज़ीन,
पेपर या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गुड पेरेंटिंग के चर्चे देखती, पढ़ती हूं कि गुड पेरेंटिंग कैसे हो? तो हंसी आती है। मन ही मन कहती हूं
कि यह मेरे बाबूजी से सीखो। उनसे बड़ा आदर्श अभिभावक कम से कम मेरी दृष्टि में कोई और
है ही नहीं। ऐसा मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं कह रही हूं कि वह मेरे बाबूजी हैं।
जब मां चलीं गईं तो दोनों चाचा ने घर से मुंह मोड़ लिया था। दोनों लोग बाबा-दादी
से लड़-झगड़ कर अपने हिस्से की प्रॉपर्टी ली और बेच-बाच कर चले गए दूसरे शहर। फिर कभी
लौट कर नहीं आए। असल में दोनों ही घर पहले से ही छोड़ना चाहते थे, बहाना ढूंढ़ रहे थे तो यह मिल गया कि, ‘‘घर में रहना मुश्किल हो गया है। बाहर
मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। सब ताने मारते हैं। अपमानित करते हैं। हमारे परिवार, बच्चों पर इसका बुरा असर पड़ रहा है। अपना परिवार, अपना जीवन हम अपनी आंखों के सामने बर्बाद होते नहीं देख पाएंगे।’’
बाबूजी ने तब घर-भर से हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए कहा था कि, ‘‘मेरी वजह से यह सब हुआ है तो बाकी लोग परेशान क्यों हों? घर छोड़कर मैं हमेशा के लिए चला जाऊंगा। घर ही नहीं मोहनलालगंज में दोबारा क़दम नहीं
रखूंगा और मुझे कुछ चाहिए भी नहीं। बच्चों को लेकर यहां से खाली हाथ ही जाऊंगा।’’ लेकिन चाचा लोग नहीं माने थे। कहा, ‘‘तुम्हारे जाने से जो कलंक घर पर लगा
है वह मिट नहीं जाएगा। बदनामी, नाम में नहीं बदल जाएगी। वह इस घर पर हमेशा
के लिए चिपक गई है, हम ही जाएंगे।’’ और बेधड़क चले गए। उनके जाने और अपने हंसते-खेलते घर के ऐसे ही अचानक बिखर जाने
से बाबा-दादी इतना आहत हुए कि दो साल के अंदर ही वे दोनों भी चले गए। यह दुनिया ही
छोड़ दी।
मैं अक्सर सोचती हूं बाबूजी की उस समय की मनःस्थिति के बारे में। उनकी हालत का
अंदाजा लगाने का प्रयास करती हूं, कि उन पर तब क्या बीती रही होगी? कैसे वह पूरी दुनिया के ताने बर्दाश्त करते रहे होंगे? मिट्टी के बर्तन बनाने का पुश्तैनी व्यवसाय भाइयों के छोड़ जाने के कारण बंद हो
गया था। और बाबूजी तब चाय की दुकान चलाने लगे। जो बाबूजी की मेहनत से जल्दी ही अच्छे-खासे
होटल में तब्दील हो गई।
अब तो उनका यह व्यवसाय बहुत अच्छा चल रहा है। सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
कि बाबूजी ने व्यवसाय और हम तीनों बच्चों को कैसे संभाला होगा? उनकी तकलीफों को सोचकर कांप उठती हूं कि कैसे वह हम दोनों बहनों को सर्दी-गर्मी, बरसात में सवेरे-सवेरे तैयार करते रहे होंगे? कैसे मोहनलालगंज बस स्टेशन
से लगे शिवालय के पीछे जाकर स्कूल छोड़ते रहे होंगे? और फिर कैसे चार बजे दुकान
किसके सहारे छोड़ कर हम बहनों को लेने समय से स्कूल आ जाते थे?
साइकिल पर हम दोनों बहनें पीछे कैरियर पर बैठती थी। जिसमें बाबूजी ने लोहे के दो-तीन
टुकड़े और वेल्ड करा कर उसे और बड़ा करवा दिया था। जिससे हम दोनों बहनें आराम से बैठ
सकें। आगे डंडे पर एक छोटी सी सीट थी। उस पर छोटा भाई बैठता था। जो करीब साढ़े तीन वर्ष
का हो चुका था। जब-तक दादी थीं तब-तक तो वह ऐसे समय पर घर पर रहता था। लेकिन उनके ना
रहने पर स्कूल जाने की उम्र तक हमेशा बाबूजी के साथ ऐसे रहता था जैसे कोई छोटा बच्चा
हमेशा अपनी मां के साथ चिपका रहता है।
देर शाम दुकान बंद कर बाबूजी हम सब को लेकर घर आते थे। खाना वह होटल की भट्टी पर
ही धीरे-धीरे बनाते रहते थे। आते समय स्टील के कई पॉटवाले टिफ़िन में रखकर साइकिल के
डंडे पर एक हुक में लटका लेते थे। घर पर फिर आराम से बैठकर सारे बच्चों के साथ खाते
थे। खाने के बाद वह सवेरे की भी काफी सारी तैयारियां कर डालते थे। कपड़े से लेकर खाने-पीने
की सारी चीजें तैयार करते,
सारा बर्तन वो रात में ही मांज डालते थे। मैं दस वर्ष की हो
गई थी तब भी वह मुझसे कोई काम नहीं लेते थे। जब-तक वह घर का काम करते तब-तक मैं छोटे
भाई को लिए रहती थी। उसे ही देखती रहती। बोतल में जो दूध वह देते वह उसे पिला देती
और अपने हिसाब से उसे खिलाती-सुलाती रहती।
ग्यारह की होते-होते मैं खुद इतनी समझदार हो गई थी कि उनके मना करने पर भी मैं
अपनी समझ से जितना काम हो सकता था वह करने लगी थी। इसमें ज़्यादातर काम दोनों छोटे
भाई-बहनों की देखभाल का ही था। इससे कुछ तो राहत बाबूजी को मिलती ही रही होगी।
मैं पूरे विश्वास के साथ यह कहती हूं कि मेरे बाबूजी के लिए मां के जाने के बाद
सबसे कठिन दिन वह था जब एक दिन देर शाम को वह दुकान बंद करके, हम सब को लेकर घर आ रहे थे। हमेशा की तरह खाना-पीना, लादे-फांदे। भाई आगे ही बैठा था। तब-तक वह करीब साढ़े चार साल का हो गया था।
घर पहुंच कर जब सब घर के अंदर आ गए, मैं स्कूल के कपड़े चेंज करने जाने लगी
तभी छोटी बहन ने मुझसे कपड़े में कुछ लगा होने की बात कही। कुछ देर पहले कुछ अजीब सी
स्थिति मैंने भी महसूस की थी। लेकिन वह सब तब मेरी समझ से बाहर की बात थी। मां या बड़ी
बहन कोई भी तो नहीं थी जो हमें उम्र के साथ कुछ बताती-समझाती। बाबा-दादी के बाद दोनों
बुवाओं ने भी हमेशा के लिए संबंध खत्म कर लिए थे। उनके रहने पर भी जब आती थीं तो हम
लोगों से दूर ही रहती थीं। पड़ोसी भी दूर ही रहते थे। क्योंकि पूरा दिन तो हम सब स्कूल
और होटल पर ही रहते थे। अंधेरा होने तक ही घर आते थे। घर पर पूरा दिन ताला ही लगा रहता
था।
तो उस दिन जो हुआ उसके लिए मैं अनजान थी। धब्बे देखकर मैं रोने लगी। डर गई। छोटी
बहन भी रोने लगी, कि मुझे कोई गहरी चोट लगी है। बाबूजी ने जब जाना तो प्यार से सिर पर हाथ रखते हुए
कहा, ‘‘कुछ नहीं हुआ है बेटा। रोने वाली कोई बात नहीं है।’’ उसके बाद उन्होंने एक मां की तरह मुझे सब समझाया कि माहवारी क्या है? हमें कैसे सावधानी रखनी है। उन्होंने उसी समय मेरे लिए उचित कपड़ों का इंतजाम किया।
अगले दिन मुझे स्कूल नहीं भेजा। क्योंकि उनके पूछने पर सवेरे मैंने बताया था कि तकलीफ
ज़्यादा है। लेकिन बाबूजी हम सारे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर इतना सजग थे कि छोटे
भाई-बहन को स्कूल छोड़ा। और बहन जी (तब टीचर को हम लोग बहन जी बुलाते थे) से मेरी तबीयत
खराब होने की बात कहकर छुट्टी करा ली।
दिनभर मैं होटल पर उन्हीं के साथ रही। उस दिन होटल से आते समय सुई-धागा सहित वह
कई और चीजें भी ले आए, और रात में ही मेरे लिए बाकी दिनों के लिए भी नैपकिन बना दी। सन् उन्नीस सौ अस्सी
के आस-पास मोहनलालगंज तब बहुत छोटा सा कस्बा हुआ करता था। और बाज़ार में हर दुकानदार
एक दूसरे को जानता था। सबसे बड़ी बात यह कि तब सेनेटरी नैपकिन को लेकर इतनी सजगता नहीं
थी। उस छोटे से कस्बे में और भी नहीं। बाबूजी चाहते भी नहीं थे कि हमारी प्राइवेट बातें
किसी को पता चलें। जल्दी ही मैंने यह सब-कुछ सीख लिया। छोटी बहन के समय मैं उपस्थित
थी।
हम परिवार के सारे लोग टीवी आने पर उस पर जो भी फिल्में देख पाते थे वही देखा करते
थे। कभी पिक्चर हॉल में नहीं गए थे। कुछ समय पहले जब ‘पैडमैन’ नाम की पिक्चर आई, उसकी बड़ी चर्चा होने लगी तो हम दोनों बहनें आपस में बात कर खूब हंसती कि आज सेनेटरी
नैपकिन को लेकर देश में सजगता, जागरूकता पैदा करने की बात कर रहे हैं। हमारे
बाबूजी चालीस साल पहले ही यह सब कर चुके हैं। बिना किसी ताम-झाम के। उनसे बड़ा प्रोग्रेसिव, महान कौन हो सकता है?
उनके इस महान काम को हम दोनों बहनों के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति
नहीं जानता था। मगर इस पिक्चर को लेकर एक उत्सुकता प्रबल हुई तो जीवन में पहली बार
हम पूरा परिवार होटल बंद कर हॉल में पिक्चर देखने के लिए लखनऊ शहर पहुंचे।
बाबूजी किसी सूरत में तैयार नहीं हो रहे थे कि वह इस उम्र में जब नाती-पोते हो
गए हैं तो पिक्चर देखने चलें। वह भी ऐसी। तो मैंने उनसे बात की। कहा, ‘‘बाबूजी आपने हम बच्चों के लिए जो-जो किया वह कितने बड़े काम थे, हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण थे। उसका एहसास हम आपको कराना चाहते हैं। हम भी करना
चाहती हैं। क्योंकि मैं समझती हूं कि आप जीवन भर बस काम ही काम करते रहे हैं। एहसास, सुख-दुःख सबसे ऊपर उठकर।’’ जिद पर अड़े बाबूजी तब माने जब उनकी यह शर्त
मान ली गई कि ठीक ना लगने पर वह बीच से ही उठ कर चले आएंगे और उनके साथ सभी लोग नहीं
केवल एक आदमी आएगा, और अगले दिन वह पूरी पिक्चर देखने जाएगा।
हमें उनकी शर्त माननी पड़ी। फिर कहूंगी कि हमारे बाबूजी सा कोई नहीं हो सकता। उस
दिन किसी को बीच में उठकर नहीं आना पड़ा। बाबूजी ने सबके साथ पूरी पिक्चर देखी। घर पर
उस दिन खाना-पीना होने के बाद टीवी नहीं खोला गया। सब ने बैठकर बातें कीं। पिक्चर के
बारे में। हम दोनों बहनों के पति, भाई-भाभी और हम-सब के आठों बच्चों ने। भाई
की बिटिया भी जो बच्चों में सबसे छोटी है और किशोरावस्था बस पीछे छोड़ने ही वाली है।
मुझे लगा कि बाबूजी के सान्निध्य में पूरा परिवार जिस तरह संयुक्त रूप से रहता
आ रहा है। जिस तरह हंसी-खुशी से खुल कर हंसता-बतियाता चला आ रहा है, वह केवल बाबूजी के ही कारण है। उनके किए गए कार्यों के महत्व को परिवार की नई जनरेशन
को भी समझना चाहिए। तो इस उद्देश्य मैंने सब से कहा कि, ‘‘सेनेटरी नैपकिन को लेकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें, जो हम देख कर आए हैं पैडमैन
पिक्चर में, वह कुछ भी नहीं है उस व्यक्ति के सामने जो सच में पैडमैन है, ऐक्टर नहीं।’’
मेरे इतना कहते ही सब चौंक कर मुझे देखने लगे। पता नहीं क्यों बहन और बाबूजी भी।
जब मैंने यह कहा कि, ‘‘वह पैडमैन इस समय हमारे बीच में है।’’ तो सभी फिर चौंके। इस बार बाबूजी, बहन को छोड़कर। और जब मैंने अम्मा के जाने के समय से लेकर अगले पांच वर्ष तक का
वर्णन किया, सारा घटनाक्रम बताया,
बाबूजी के पैडमैन बनने तक की बात की तो सारे बच्चों ने उन्हें
चारो तरफ से घेर लिया। बाबा जी, बाबा जी महान हैं आप। बच्चियों ने उनके हाथ
चूम लिए। किसी ने उन्हें कंधे से पकड़ लिया था। तो कोई उनके पैरों को पकड़ कर बैठ गया
था।
सब अपनी-अपनी बातें बोलते चले जा रहे थे। और जीवन में पहली बार हम बाबूजी की आंखों
से झर-झर झरते आंसू देख रहे थे। मगर जीवन में पहली बार वह खुलकर कोई काम नहीं कर रहे
थे। हम सब से बचना चाह रहे थे। उनके दोनों होंठ बुरी तरह फड़क रहे थे। मगर वह पूरी ताकत
से उन्हें भींचे हुए थे। हमारे सामने रोना नहीं चाहते थे। भाई की आंखें भरी थीं। हम
दोनों बहनों के पति भी उन्हें भरी-भरी आंखों से एकटक देखे जा रहे थे।
मैंने यह सोच कर उन्हें चुप कराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की, कि जीवन भर इन्होंने हृदय में जितने आंसू बटोर रखे हैं, आज उन्हें पूरा बह जाने दिया जाए। अपने पति, बहन को भी इशारे से रोक
दिया था। भाई भी शायद यही सोच रहा था जो मैं। हमारे पतियों से आखिर नहीं रहा गया। और
वह चुप कराने उनके पास पहुंच गए। जिन्हें बाबूजी अपने दो हीरा दामाद कहते हैं। उन्होंने
इन्हें हीरा कैसे बनया आप सब को यह भी बता देना चाहती हूं। मुझे यही सही लग रहा है।
अपने इन दो हीरों को वो रोजगार के लिए भटकते हुए देख कर लखनऊ से ही लाए थे। दोनों
किसी होटल में बर्तन वगैरह धोने का काम करते थे। किसी अनाथालय में पले-बढ़े थे और पार्ट
टाइम पढ़ाई भी कर रहे थे। इन अनगढ़ हीरों को उन्होंने खूब तराशा, काम भी दिया और पढ़ाया भी।
जब हमारी शादी का समय आया और बाबूजी हमारी शादी के लिए निकले तो मां की बात इतने
दिनों बाद भी आगे-आगे पहुंच जाती थी। तमाम अपमानजनक स्थितियों को झेलने के बाद भी जब
उन्हें सफलता मिलती नहीं दिखी तो उन्होंने अपने विचार बदले। और एक दिन यहीं दिव्य मंदिर
‘‘काले वीर बाबा’’ में अपने तराशे इन्हीं हीरों के साथ ही हम दोनों बहनों की शादी करवा दी। वह भी
एक ही दिन में। एक ही हवन कुंड के समक्ष। परम पिता परमेश्वर को साक्षी मानकर शादी को
संपन्न कराने वाले पुजारी जी ने उनके इस क़दम की खूब प्रशंसा की थी। आशीर्वाद दिया था।
बाबूजी ने गिनकर चार-पांच लोग बुलाए थे। मोहल्ले में दो-चार दिन हुई बातों पर उन्होंने
कोई ध्यान ही नहीं दिया।
इसके दो साल बाद ही भाई की भी शादी ऐसे ही एक अनाथालय में पली-बढ़ी लड़की से की जो
आज हमारी प्यारी भाभी है। दुनिया में होगा नन्द-भौजाइयों के बीच छत्तीस का आंकड़ा। लेकिन
हमारे यहां तीनों एक दूसरे की जान हैं। तीनों नहीं बल्कि सभी एक दूसरे की जान हैं।
इन सभी का क्योंकि गहरा रिश्ता है काले वीर बाबा, शिवालय, यहां की बाज़ार, विद्यालय और घर से, तो शायद नहीं, निश्चित ही इन सबसे गहरे रिश्ते के कारण ही कोई मन से यहां से कहीं और जाने की
सोचता ही नहीं है। बिजनेस और बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए लखनऊ या किसी और बड़े शहर में
शिफ्ट होने की बात जहां से शुरू होती है वहीं जाकर फिर खत्म हो जाती है। पिक्चर देखने
वाले दिन के बाद तो हमने इस बारे में करीब-करीब सोचना ही बंद कर दिया है।
मगर अम्मा को मैं आज भी सोचती हूं। उनका गोरा-चिट्टा चेहरा। बड़ी-बड़ी काली आंखें।
लंबे बाल। कमर तक झूलती चोटी। और कोयल सी कूकती आवाज़। आज भी आंखों के सामने घूमता है
उनका चेहरा। कानों में गूंजती है आवाज़। जब वह बुलाती थीं ‘नित्या’। मुझे नित्या बुलाने वाली अम्मा ना जाने किस बुरी घड़ी में, ना जाने कितनी दूर के चचेरे देवर के संग घर की देहरी लांघ गईं हमेशा के लिए। जिनके
लिए बाबूजी आज भी ना जाने कितने आंसू रोज हृदय में बटोरते जा रहे हैं। मेरे महान बाबूजी...।
और अम्मा। जो भी हो वह मेरी अम्मा ही रहेंगी। इसे तो भगवान भी अब नहीं बदल सकता। विवश
है वह भी। आखिर सामने अम्मा है। सच तो यह भी है कि विधान बनाने वाला विधाता भी अपने
विधान के समक्ष विवश है। मगर जो भी हो विधाता से यही प्रार्थना करती हूं कि अम्मा जहां
भी हों उन्हें स्वस्थ और खुश रखें। और मेरे क्रांतिकारी बाबूजी को भी।
पता-प्रदीप श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६,८२९९७५६४७४
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