मेरा आखिरी
आशियाना
प्रदीप
श्रीवास्तव
सूरज ना बदला, चांद ना बदला,
ना बदला रे आसमान, कितना बदल गया इंसान...। अम्मा आराम करती हुई या काम
करती हुई, दिन भर में नास्तिक फ़िल्म के लिए, गीतकार प्रदीप के लिखे भजन की इन लाइनों को कई-कई बार
गुनगुनाती थीं। वह भजन की शुरळआती लाइनों ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान..., को छोड़ देती थीं।
दादी उनको गुनगुनाती सुनतीं तो झिड़कती हुई बोलतीं, ‘अरे काम-धाम करो, जब देखो तब नचनिया-गवनियां
की तरह अलापा करती हो।’
अम्मा उनकी झिड़की सुनकर एकदम सकते में आ जातीं। चुप हो
जातीं। अपना घूंघट और बड़ा करके काम पूरा करने लगतीं। अम्मा दादी की बातों का कभी बुरा
नहीं मानती थीं। उनके हटते ही गहरी सांस लेकर मुस्कुरातीं, फिर कुछ ही देर में गुनगुनाने लगतीं ‘सूरज ना बदला....।’ यह उन दिनों की बात है जब मैं करीब बारह-तेरह वर्ष की हो रही थी। छठी में पढ़ रही
थी। देश की सीमा पर युद्ध के बादल गहराते जा रहे थे।
बाबूजी पाकिस्तान से लगती सीमा पर तैनात थे। बाबा, दादी, चाचा सभी चिंतित
रहते थे। अन्य देशवासियों की तरह यह लोग भी उन्नीस सौ बांसठ के भारत-चीन युद्ध की विभीषिका
को भुला नहीं पाए थे। उस युद्ध में गांव के ही दो पट्टीदारों का कुछ पता नहीं चल पाया
था। वह लोग चीन से लगती सीमा पर तैनात थे। जब उन लोगों की बात होती तब बाबा कहते, ‘जनम-जनम के धोखेबाज, कमीने चीन ने हिंदी-चीनी भाई-भाई करके पीठ में छूरा भोंक कर मारा था। आमने-सामने
बात होती तो बात कुछ और होती।’
एक और पट्टीदार जो बाबा के सबसे करीबी थे, वह बोलते, ‘अरे नेहरू जी समझ नहीं पाए धोखेबाज को। पंचशील का झुनझुना बजाते रहे। झ़ोऊ एनलाई
की पीठ थपथपाते रहे, गले लगाते रहे। मारा सत्यानाश
कर के रख दिया था। फौजियों को बिना हथियार के ही बेमौत मरवा दिया था। बेचारों को गोला-बारूद
तक तो मिला नहीं था लड़ने के लिए, पता नहीं काहे के
नेता बने फिरते थे।’ इस बात के जवाब में बाबा
कहते, ‘नेता नहीं। शांति मसीहा बनने के चक्कर में
सच से मुंह मोड़े रहे। सामने धोखेबाज झ़ोऊ एनलाई है, हाथ में छूरा लिए है यह देखकर भी अनदेखा किये रहे। उनको खाली नोबेल पुरस्कार दिख
रहा था। मक्कार चीन की धूर्तता नहीं।’
उन्नीस सौ बांसठ के भारत-चीन युद्ध के संबंध में ऐसी
बातें करने वाले बाबा लोग उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान से युद्ध के बादलों को देखकर
बोलते, ‘देखो अब की क्या होता है?’ बाबा कहते ‘जो भी होगा उन्नीस सौ बांसठ जैसी दुर्दशा तो नहीं होगी, मुझे इसका पूरा विश्वास है। अबकी अपने फौज़ी कम से कम
बिना हथियार के निहत्थे नहीं लड़ेंगे। हथियार रहेगा तो दुश्मनों की धज्जियां भी उड़ाएंगे, जीतेंगे भी।’
मर्दों की इन बातों को सुन-सुन कर दादी गंभीरता की मूर्ति
बन जातीं। उन्हें सीमा पर तैनात अपने बेटे की चिंता सताती। ऐसे में मां का भजन गुनगुनाना
उन्हें बहुत बुरा लगता। अम्मा जब बुआ से बात करतीं तो कहतीं, ‘अम्मा जी बेवजह नाराज होती हैं। हम भगवान को याद करते
हैं। उन पर हमें अटल भरोसा है। इनको कभी कुछ नहीं होगा। अबकी अपना देश हर हाल में जीतेगा।
अम्माजी तो कुछ समझती ही नहीं। ये भी अबकी आए थे तो कह रहे थे कि शास्त्री जी बड़ी मजबूती
से देश संभाल रहे हैं। पाकिस्तान को तबाह कर देंगे। इनको तो और पहले देश संभालना चाहिए
था। मगर अम्मा को कौन समझाए, वह पहले वाली ही
बात लिए बैठी हैं। बेवजह परेशान होती रहती हैं।’
अम्मा की बात सच निकली शास्त्री जी की छत्रछाया में देश
ने पाकिस्तान को धूल-धुसरित कर दिया। बाबूजी भी कई महीने बाद सकुशल घर लौट आए थे। गांव
में उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ। सम्मान किया गया। सीमा पर दुश्मनों की धज्जियां उड़ाने
वाले बाबू जी गांव में नायक बन गए थे। घर में खुशियों के बीच अम्मा ने कई बार दादी
से कहा, ‘अम्मा जी आप तो बेवजह परेशान हो रही थीं।
मैं तो हमेशा भगवान से प्रार्थना करती थी। मुझे अपने भगवान पर पूरा भरोसा था।’ अम्मा का इतना कहना होता था कि दादी चिढ़ जातीं, अपनी तेज़ आवाज़ में बोलतीं, ’प्रार्थना करती थी कि सनीमा (सिनेमा) के गाना गाती थी।’
दादी परंपरागत भजन-आरती को ही भजन-आरती मानती थीं। फ़िल्मी
संगीत उनकी नज़र में गंदा था। अम्मा कहतीं ‘यह भजन है अम्मा, गाना नहीं।’ मगर दादी को ना मानना था तो वह ना मानतीं। अम्मा ने भी
इस भजन को गुनगुनाना बंद करने के बजाय और ज़्यादा गुनगुनाना शुरू कर दिया था। यह तो
मैं अब भी नहीं समझ पाई कि वह और ज़्यादा दादी को चिढ़ाने के लिए गुनगुनाती थीं या बाबूजी
के सकुशल लौट आने की खुशी में, कि कितना बदल गया
इंसान।
घर में तब पता नहीं कौन कितना बदला था, या नहीं बदला था। पर मैं यह मानती हूं कि मेरे लिए सब
बदल गए थे। और किसी के बदलने की मुझे कोई परवाह नहीं थी। मगर जिन दो लोगों का बदलना
आज भी मुझे सालता है। आज तक पीड़ा देता है, और मैं बेहिचक कहती हूं कि उनके बदलने के ही कारण मेरा जीवन हमेशा-हमेशा के लिए
अंधकार में डूब गया, वह कोई और नहीं मेरी प्यारी
अम्मा और मेरे प्यारे बाबू जी ही थे। जिनके बदलने के कारण अम्मा के प्रिय इस भजन की
लाइन आज भी उन्हीं की आवाज़ में मेरे कानों में गूंजती है। ‘कितना बदल गया इंसान...।’ अम्मा-बाबूजी के लिए यह कहना मेरे लिए प्रसव पीड़ा से
गुजरने जैसा पीड़ादायी है, लेकिन क्या करूं
और सह पाना मुश्किल हो गया है। सहते-सहते, झेलते-झेलते अब नहीं रहा जाता।
सही यह है कि कोई कितना ही मज़बूत, कठोर क्यों ना हो, जीवन का एक दौर वह भी होता है जब वह टूटने लगता है। पानी के बुलबुले से भी वह घायल
होने लगता है। बुलबुला भी उसे पत्थर सी चोट पहुंचाने लगता है। मैं ऐसी ही स्थिति में
आ गई हूं, इसी लिए अम्मा-बाबूजी के लिए यह बात मन में
आती है। मेरे लिए वह तब भी, आज भी, आगे भी, पूजनीय थे, हैं और रहेंगे। लेकिन वह कितना बदले थे यह भी कभी नहीं
भूलेगा।
उस समय जब बाबा घर आकर यह बताते थे कि आज स्कूल में मेरी
पढ़ाई की फिर तारीफ हुई है। छमाही, सलाना परीक्षा का
रिजल्ट आने पर जब सबसे आगे रहने पर मुझे इनाम मिलता, हर तरफ से मेरी प्रशंसा होती तो अम्मा खुशी के मारे नाच उठती थीं। बाबू जी को खुशी
के मारे सब कुछ लिखकर लंबा सा पत्र भेजती थीं। मुझे बड़े प्यार से गले लगा लेती थीं।
मैं भी बड़ा प्यार लाड़-दुलार दिखाती।
उनकी गोद में सिर रखकर दोनों हाथों से उन्हें चिपका लेती।
चेहरा उनके पेट से चिपका कर उनके आंचल से अपना सिर ढंक लेती थी। ऐसा लगता मानो कोई
चिड़िया अपने बच्चे को अपने पंखों में छुपाए हुए है। अम्मा बड़े प्यार से, हल्के हाथों से मेरे सिर को सहलातीं। मुझे लगता जैसे
मैं मखमल नहीं धुनी हुई रूई के फाहों पर लेटी हुई हूं। मां लोरियां गा रही हैं। उसकी
मधुर रुनझुन कानों में शहद घोल रही है। पहाड़ों की ओर से आती शीतल हवा बड़ी नाजुक सी
थपकियां दे रही है।
कई-कई बार ऐसा हुआ कि मैं कुछ ही मिनटों में, ऐसे ही अम्मा की गोद में सो गई। तब अम्मा मुझे जगाती
नहीं थीं। इतना संभालकर मुझे लिटा देती थीं कि मेरी नींद टूटती नहीं थी। नींद पूरी
होने पर जब मेरी आंख खुलती तो अम्मा को अपने पास ना पाकर मैं फिर से उनके पास पहुंच
जाती। तब वह कहतीं, ‘तुझे बड़ी जल्दी नींद आती
है। गोद में लेटते ही चट से सो जाती है।’
दादी जब पाकिस्तान से युद्ध के कुछ ही हफ्तों पहले बाबूजी
का नाम लेकर कहतीं, ‘अबकी आए तो उससे कहूंगी
कि इसकी शादी-वादी ढूंढे़। अब उमर हो चली है।’ तो अम्मा कहतीं, ‘अभी नहीं अम्मा जी, अभी इसे और पढ़ाऊंगी, इसे मैं डॉक्टर बनाऊंगी।’ मैं कहती नहीं, मैं बाबूजी की तरह फौज़ी बनूंगी। दादी की बात पर मैं पैर
पटकती हुई दूसरी तरफ चली जाती।
दादी से मुझे डॉक्टर बनाने की बात करने वाली अम्मा जब
बाबूजी लौटे तो मेरी पढ़ाई की बात चलने पर उनसे भी मुझे खूब पढ़ाने की बात की थी। बाबूजी
ने भी उनकी बात पर हामी भरी थी। लेकिन हफ्ते भर बाद ही न जाने क्या हुआ, दादी-बाबा ने जो भी बातें मेरी शादी के लिए बार-बार कीं, जो कुछ भी, जैसा भी समझाया-बुझाया बाबू-अम्मा को, कि सब कुछ बदल गया। दिनभर ‘कितना बदल गया इंसान’ गाने वाली अम्मा भी बदल गईं।
जाहिर है बाबूजी उनसे पहले ही बदल गए थे। मुझे पता तक
नहीं चला और महीने भर में ही मेरी शादी तय कर दी गई। घर पर एक दिन बहुत से मेहमान आए
थे। उसी समय कब लड़के वाले मुझे देख-दाख के, रिश्ता तय करके चल दिए थे मुझे कुछ भी पता नहीं चला था। उन सब के जाने के बाद घर
भर जिस तरह से ख़ुशी से झूम रहा था, मुझ पर बार-बार
कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार उड़ेल रहा था, उससे मुझे कुछ अटपटा ज़रूर लग रहा था। लेकिन फिर भी सबके साथ हंसती-बोलती, खेलती-कूदती रही। परन्तु दो-चार दिन बाद ही मैंने महसूस
किया की अम्मा-बाबूजी, बाबा-दादी सहित घर के सारे
बड़े-बुजुर्ग कुछ ज़्यादा ही विचार-विमर्श कर रहे हैं।
सबसे ज़्यादा यह कि मुझे देखते ही सब अजीब तरह से शांत
हो जाते हैं या बात बदल देते हैं। यह सब मेरी शादी की तैयारी का एक हिस्सा है यह मुझे
पता तब चला जब एक दिन लड़के वाले मेरी गोद भराई कर गए। मैं बहुत रोई, अम्मा से गुस्सा भी हुई, चिरौरी, विनती की, लेकिन सब बेकार। कोई मेरी सुनने वाला नहीं था। अम्मा
भी बुरी तरह बदल गई थीं। कितना बदल गया इंसान अम्मा तब भी गुनगुनाती थीं। फिर देखते-देखते
मेरी शादी हो गई।
अम्मा-बाबूजी, बाबा-दादी सबने ससुराल के लिए विदा कर दिया। मैं फूट-फूट कर रोती रही। रोक लो, मुझे ना भेजो अभी। मुझे पढ़ना है। अम्मा तुझे छोड़कर न
जाऊंगी। बाबूजी। मगर सब बेकार। रो वो सब भी रहे थे। मेरे छोटे-छोटे तीन भाई भी। लेकिन
मेरे और बाकी के रोने में फ़र्क था। एकदम अलग था। सब मैं विदा हो रही हूं, इसलिए रो रहे थे। लेकिन मैं रो रही थी कि बाबूजी तो बाबूजी
अम्मा भी बदल गईं। कितना बदल गया इंसान गाते-गाते खुद भी बदल गईं।
जिसके आंचल तले मैं कितना सुरक्षित महसूस करती थी। इतनी
खुशी पाती थी कि पल में सो जाती थी। वही अम्मा कुछ सुन ही नहीं रही हैं। मैं बार-बार
उन्हें पकड़ रही हूं, और वह मुझसे खुद को छुड़ाती
जा रही हैं। छुड़ाकर दूर हटती जा रही हैं। विदा किए जा रही हैं।
मैं रास्ते भर रोती रही। अम्मा-अम्मा यही कहती सिसकती
रही। जिनके साथ ब्याही गई थी वह भी ऐसे कि चुप कराने के नाम पर बस इतना ही बोले, ‘क्या रोना-धोना लगा रखा है। चुप क्यों नहीं होती।’ मेरे मन में आया कि बस का दरवाजा खोलूं और कूद जाऊं नीचे। तब मुझे पूरी दुनिया दुश्मन लग रही थी। तीन
घंटे का सफर करने के बाद ससुराल पहुंची।
वहां पहुंचने से लेकर, आधी रात को मुझे मेरे कमरे में नंदों कुछ और ठिठोली करती औरतों द्वारा पहुंचाने
तक न जाने कितनी पूजा-पाठ, रस्में पूरी करवाई
गईं। मुझे भूख लगी है, प्यास लगी है, नींद लगी है, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं था। सास को देखते ही मैं समझ गई थी कि बहुत कड़क
मिजाज हैं। दादी से ज़्यादा तेज़ हैं। उनकी भारी आवाज़ और उससे भी ज़्यादा भारी भरकम
डील-डौल और भी ज़्यादा डरा रहे थे।
पति का व्यवहार बिल्कुल मां पर ही गया था। मुझे लगता
कि डर के मारे मेरी जान अब निकली, कि अब निकली। पतिदेव
कमरे में आए तो वह भी मेरे अनुमान से ज़्यादा डरावने, पीड़ादायी साबित हुए। मेरी सुबह जेल से छूटे कैदी की तरह
रही। रात फिर जेल में बंद कैदी। यही मेरी ज़िंदगी बन गई थी। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता
था, जब मेरी आंखों से आंसू ना बहें। मैं अकेले
में रोऊं ना।
मायके में अम्मा से मिलती, अपनी तकलीफ बताती तो वह खुद ही रोतीं। कहतीं, ‘मेरी बिटिया ससुराल है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।’ लेकिन अम्मा की बात उल्टी निकली।
सात-आठ महीनों बाद ही सब कुछ उलट-पुलट हो गया। ससुर जी
अचानक ही चल बसे। एकदम से बढ़े हाई ब्लड प्रेशर ने उनकी जान ले ली थी।
वह खाने-पीने के इतने शौकीन थे कि डॉक्टरों के लाख मना
करने पर भी मानते नहीं थे। मिर्च-मसाला, चटपटा खाना उनके प्राण थे। रिटायरमेंट से पहले ही उनकी मृत्यु के कारण कम्पन्सेंटरी
बेस पर मेरे पति को उनकी जगह नौकरी मिल गई। इसी के साथ मेरे जीवन की और ज़्यादा बर्बादी
भी शुरू हो गई। प्राइवेट से सीधे सरकारी नौकरी, पहली नौकरी की अपेक्षा दुगुनी सैलरी ने पतिदेव के क़दम बहका दिए। ऑफ़िस में ही एक
महिला केे इतने करीब होते गए कि हमसे दूर होते चले गए। आए दिन घर में मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, घर में किसी की न सुनना, सब को अपमानित करना
उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था।
बाबूजी, बाबा, चाचा सब आए समझाने, हाथ-पैर जोड़ने लगे, लेकिन राक्षसी कर्म करने
वाले मेरे पतिदेव के हाथों अपमानित हुए। मार खाते-खाते बचे। तब बाबा बोले, ‘हम ठगे गए। किस्मत फूट गई, कसाई के हाथों बिटिया को दे दिया।’ फिर उसी समय सास के मना करने के बावजूद वह मुझे लेकर
घर वापस आ गए। पतिदेव को मुझ से छुट्टी मिल गई। मैं मात्र सत्रह वर्ष की आयु में परित्यक्ता
बन गई। गनीमत यह रही कि फर्स्ट मिसकैरेज के कारण किसी बच्चे की ज़िम्मेदारी मुझ पर नहीं
थी। वैवाहिक जीवन का चैप्टर क्लोज होते ही बाबा जी अगला चैप्टर ओपन करने की जिद कर
बैठे। कहते, ‘चाहे जैसे हो मैं अपनी पोती की ज़िंदगी ऐसे
बर्बाद नहीं होने दूंगा।’ वह जल्दी से जल्दी
मेरी दूसरी शादी की तैयारी में लग गए।
एक दिन घर आए एक मेहमान से वह इस बारे में बात कर रहे
थे। अम्मा ने सुन लिया। रिश्तेदार के जाते ही उन्होंने साफ कह दिया, ’बाबूजी बिटिया की शादी अभी नहीं करेंगे। पहले उसे पढ़ाएंगे, अपने पैरों पर खड़ा करेंगे, तब उसकी दूसरी शादी करेंगे। अब आंख बंद करके उसे ऐसे
ही अंधेरे कुंए में नहीं फेंकेंगे।’ जिस अम्मा ने कभी
ससुर के सामने घूंघट नहीं हटाया था, कभी उनकी आवाज़ तक
ससुर के कानों में नहीं पड़ी थी, उसी ससुर के सामने
ऐसे सीधे-सीधे बोल देने से घर में भूचाल आ गया।
बाबा की एक ही रट, ’क्या हमने जानबूझकर बिटिया को कुंए में फेंक दिया था, क्या मैं उसका दुश्मन हूं, क्या वह मेरी कोई नहीं, क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है।’ लेकिन अम्मा पर उनकी ऐसी किसी बात का कोई भी असर नहीं
हुआ। वह अडिग रहीं। उन्होंने दो टूक कह दिया, ’बाबू जी आपका सब अधिकार है। लेकिन मैं मां हूं, मेरा भी कुछ अधिकार है। उसी अधिकार के नाते कह रही हूं कि अब मैं उसकी शादी उसे
पढ़ा-लिखा कर, उसको उसके पैरों पर खड़ा करने के बाद ही करूंगी।’
अम्मा की जिद के आगे बाबू-चाचा क्या बाबा-दादी सब हार
गए। अम्मा के इस रूप से मैं बहुत खुश हुई। बाद में बाबूजी भी अम्मा के साथ हो गए। मेरी
पढ़ाई फिर शुरू हो गई। कुछ साल बाद ही बाबूजी फौज से रिटायर होकर घर आ गए। मगर जल्दी
ही दूसरी नौकरी मिली और वह चित्रकूट पहुंच गए। देखते-देखते कई और साल बीते। बाबा-दादी
हम सब को छोड़कर स्वर्गवासी हो गए। भाइयों की नौकरी लग गई तो जल्दी ही उन सबकी शादी
भी हो गई। फिर अमूमन जैसा हर घर में होता है वैसा ही हमारे यहां भी हुआ। भाई अपनी बीवियों
भर के होकर रह गए। घर कलह का अड्डा बन गया।
बाबूजी नौकरी, घर की कलह में ऐसे फंसे कि एक दिन चित्रकूट से आते समय, एक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो वह नीचे उतर कर टहलने
लगे। ट्रेन चली तो दौड़कर चढ़ने के प्रयास में फिसल कर ट्रेन के नीचे चले गए। ऐसे गए
कि फिर कभी नहीं लौटे। घर पर इतना बड़ा मुसीबतों का पहाड़ टूटा लेकिन भाभियों पर कोई
ख़ास असर नहीं हुआ। महीना भर भी ना बीता होगा कि उन लोगों की हंसी-ठिठोली गूंजने लगी।
भाई तो खैर उन्हीं के हो ही चुके थे। अम्मा, मैं बुरी तरह टूट चुके थे। अब खर्च कैसे चले इसका प्रश्न खड़ा हुआ। बाबूजी को गए
दो महीना भी ना हुआ था कि भाई अपने-अपने परिवार के साथ अलग हो गए। हम मां-बेटी अधर
में। अम्मा की पेंशन बनने में समय लगा।
बाबूजी की जगह नौकरी मुझे मिले इसके लिए कोशिश शुरू हो
गई। एक भाई नियम विरुद्ध अपनी बीवी को लगवाना चाहते थे। लेकिन बात नहीं बनी तो वह और
दुश्मन बन बैठे। बीवी तो जानी-दुश्मनों से भी बुरा व्यवहार करने लगी। उसका वश चलता
तो हम मां-बेटी दोनों को मारती। ऐसे में मैंने कोई रास्ता ना देख कर अपने को संभाला
और अम्मा का वह रूप याद कर तन कर खड़ी हो गई, जब वह बाबा के सामने तनकर खड़ी हुई थीं। उससे भी कहीं ज़्यादा तनकर मैं भाइयों के
अन्याय के सामने खड़ी हो गई।
मुझे लगा कि मैं एक फौज़ी की बेटी हूं। उस फौज़ी की जिसने
उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में दुश्मन को कुचल कर रख दिया था। भाइयों ने मिलकर दबाना
चाहा, लेकिन मेरे रौद्र रूप के सामने उन्हें दबना
पड़ा। हां चाचा और उनका पूरा परिवार भी हम मां-बेटी के साथ था। मगर भाभियां भी हार मानने
वाली नहीं थीं। वह किसी भी तरह अपने क़दम पीछे खींचने को तैयार नहीं थीं।
एक ज्योतिषी एवं रत्नों के विशेषज्ञ तारकेश्वर शास्त्री
जी का बाबूजी के जमाने से घर पर आना-जाना था। मां ने उनके ही कहने पर मुझे लहसुनिया
नामक रत्न चांदी की अंगूठी में बनवा कर पहनाया था। बाबूजी के स्वर्गवास के बाद उन्होंने
कहा था, ‘तुम्हारी हस्त रेखाएं दुर्घटना का योग दिखा
रही हैं। तुम्हें गुप्त शत्रुओं से गंभीर हानि पहुंच सकती है। इस रत्न से तुम्हारी
रक्षा होगी।’ मगर यह रत्न भी घर के ही गुप्त शत्रुओं यानी
भाइयों और भाभियों के हमले से मुझे बचा नहीं पाया। हां इन्हें यदि प्रत्यक्ष शत्रु
मान लें तो शास्त्री जी अपनी जगह सही थे।
इन लोगों ने ऐसी चालें चलीं कि मेरी क्या ज्योतिषी जी
की भी पूरे समाज में थू-थू शुरू हो गई। हम लोगों को जब-तक पता चला तब-तक बातें हर तरफ
फैल चुकी थीं। भाभियों ने हमारे उनके बीच नाजायज संबंधों की ऐसी ऐसी कहानियां गढ़कर
फैलाई थीं कि ज्योतिषी जी, रत्न आचार्य जी, सारे रत्न झोले
में सदैव रखकर चलने के बाद भी इतना साहस नहीं कर सके कि हमारे घर, मोहल्ले की तरफ रुख करते। भाभियां इस कदर पीछे पड़ी थीं
कि आए दिन नए-नए किस्से मेरे नाम से लोगों का मनोरंजन करने लगे।
हम मां-बेटी को प्रताड़ित करने, परेशान करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रहा थी।
हम जब बात उठाते तो भाभियां एकदम सिर पर सवार हो जातीं। भाइयों का भी यही हाल होता
था। हम ज़्यादा बोलें तो मारपीट पर उतारू। रोज-रोज की चिक-चिक से चाचा और उनके परिवार
ने भी हाथ खींच लिया। जब चाचा लोगों ने हाथ खींच लिया तो घर के शत्रुओं को और खुली
छूट मिल गई।
थोड़ी बहुत जो खेती-बाड़ी थी वह ना जाने किस मूड में आकर
बाबूजी ने किसी समय अम्मा जी के नाम कर दी थी। भाई लोग एक दिन आए, बोले, ’अम्मा हमें मकान
बनवाना है, ज़्यादा पैसा हमारे पास है नहीं। इसलिए हमने
खेत बेच देने का निर्णय लिया है। खरीददार तैयार है। कल कचहरी में चलकर तुमको साइन करना
है।’ भाई ने जिस दबंगई के अंदाज में अपनी बात
कही उससे पहले से गुस्सा अम्मा एकदम आग-बबूला हो गईं। एकदम से भड़क उठीं। सीधे कहा, ’हम कहीं नहीं जाएंगे। खेत, मकान सब हमारे आदमी का है, हमारे नाम है, हमारा है। हम कुछ नहीं बेचेंगे। एक धूर नहीं बेचेंगे। अरे किस मुंह से आए हो तुम
लोग। सगी बहन-महतारी की इज्जत गांव भर में तार-तार करते शर्म नहीं आई। एक गिलास पानी
तो मां को कभी दिया नहीं, पत्थर लुढ़काया करते
हो कि कितनी जल्दी महतारी-बिटिया मरें और तुम सब बेच खाओ खेती-बारी। किस हक से आए हो
मांगने।’
अम्मा की तीखी बातों ने भाइयों को कुछ देर के लिए एकदम
सन्न कर दिया। गहन सन्नाटा छा गया। मगर बीवियों के इशारे पर चलने वाले भाई उन्हीं के
उकसाते ही भड़क उठे। लगे चिंघाड़ने तो अम्मा भी पीछे नहीं हटीं। परिणाम था कि पास-पड़ोस
सब इकट्ठा हो गए।
दरवाजे पर भीड़ लग गई। चरित्र-हनन से बुरी तरह आहत अम्मा
सबके सामने फूट पड़ीं। भाइयों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। रेशा-रेशा उधेड़ दिया।
लोग सब जानते तो थे ही लेकिन अम्मा के मुंह से सुनकर थू-थू करने लगे। भाई पड़ोसियों
को भी आंख दिखाने लगे कि हमारे घर के मामले में कोई ना बोले, इतना बोलते ही कई पड़ोसी भी उबाल खा गए। किसी ने पुलिस
को सूचना दे दी। आनन-फानन में पुलिस भी आ गई। लोग भाइयों को बंद कराने के लिए पीछे
पड़ गए। लेकिन अम्मा ने आखिर उन्हें बचा लिया।
भाई फिर भी अपनी-अपनी पैंतरेबाजी से बाज नहीं आए। आए
दिन कुछ न कुछ तमाशा करते रहे। मुकदमेंबाजी की धमकी मिलने लगी। इधर अम्मा की पेंशन
की तरह बाबूजी की जगह मुझे नौकरी मिलने में देर पर देर होती चली जा रही थी। चाचा से
हाथ जोड़-जोड़ कर अम्मा ने जल्दी से जल्दी काम कराने के लिए कहा। फिर इंतजाम करके रिश्वत
के लिए भी पैसे दिए, तब हुआ काम। इसी के साथ-साथ
चाचा की सलाह पर हम मां-बेटी ने मकान के अपने हिस्से में ताला लगाया और चित्रकूट चले
गए। हम मां-बेटी को लगा कि जैसे हमें नर्क से मुक्ति मिल गई। मगर हमने जितना समझा था
वह उतना आसान नहीं था।
कुछ ही महीने बाद एक दिन चाचा ने सूचना दी कि भाइयों
ने हमारे हिस्से में लगे ताले तोड़कर उन पर कब्जा कर लिया है। इतनी चुपके से यह सब किया
कि कुछ दिनों तक किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। चाचा ने अम्मा को पुलिस में रिपोर्ट
करने की सलाह दी। अम्मा से मैंने जल्दबाजी ना करने के लिए कहा। मैंने कहा, कह दो सोच कर बताएंगे। अम्मा से इतना सुनने के बाद चाचा
ने दोबारा कुछ नहीं कहा।
मैंने बाद में अम्मा को समझाया कि पुलिस के चक्कर में
ना पड़ो। जाने दो। अब हम दोनों को किसी और के सहारे की जरूरत नहीं है। मुझे सरकारी स्थाई
नौकरी मिल गई है। तुम्हें जीवन भर पेंशन मिलेगी। जो भी सामान था उसे उन्हें ले जाने
दो। यूज़ करने दो। कमरों को आखिर लेंगे तो वही लोग। जीते जी लें या मरने के बाद लें।
लेकिन मेरे चरित्रहनन से नाराज अम्मा बेटों को सबक सिखाना चाहती थीं। और मैं मां-बेटों
के बीच पुलिस फाटा किसी सूरत में नहीं चाहती थी। इसलिए उन को समझाने में पूरा जोर लगा
दिया।
बहुत समझाने पर अम्मा मानीं। कई दिन लग गए थे उन्हें
समझाने-मनाने में। लेकिन ना जाने क्यों इस फैसले से चाचा नाराज हो गए। उन्होंने बहुत
दिन तक बातचीत बंद कर दी। ना जाने उसमें उनका क्या स्वार्थ था। आगे जब भी अम्मा का
मन होता गांव जाने का तो कहतीं, ’बच्ची तुम्हारे
कहने पर दो कमरा जो वहां जाने, ठहरने का एक ठिकाना
था वह भी उन कपूतों को दे दिया।’ यह कहकर वह बड़ी
दुखी हो जातीं।
एक दिन उनको मैंने बहुत समझाया। कहा अम्मा काहे इतना
गुस्सा होती हो। काहे मकान, खेत को लेकर इतना
परेशान रहती हो। क्यों उनमें इतना मन लगाए रहती हो। बाबू जी की यह बात तुम भूल गई क्या
कि, ‘पूत-कपूत तो का धन संचय, पूत-सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत होगा तो जितना भी धन
संचोगे वह सारी संपत्ति को बर्बाद कर ही देगा। सपूत होगा तो अपने आप ही बना लेगा। उसके
लिए भी कुछ संचय करने की जरूरत नहीं है।’ मेरी इस बात पर अम्मा नाराज हो गईं। बोलीं, ‘मैं तुम्हें संपत्ति की लालची दिखती हूं। मैं तो उन कपूतों ने जो किया उसकी सजा
उन्हें देना चाहती हूं। और सुनो, मैं भी बहुत जिद्दी
हूं। मैं जानती हूं कि मैं सब दे दूंगी तब भी यह सब मुझे गाली ही देंगे। नहीं दूंगी
तब भी।
मेरा जिस तरह अपमान किया है, जिस तरह तुम्हारे चरित्र पर कीचड़ उछाला है, वह सही मायने में मेरा अपमान है। मेरे चरित्र पर कीचड़
उछाला है। मैं सब बर्दाश्त कर सकती हूं, लेकिन चरित्र पर लांछन नहीं। तुम भी सुन लो, मैं खेत बेचूंगी। भले ही सारा पैसा किसी मंदिर के दानपात्र में डाल दूं। किसी भिखारी
को दे दूं। लेकिन उन कपूतों को एक पैसा कहने को भी नहीं दूंगी।’
अम्मा की इस जिद या यह कहें कि गुस्से के आगे मैं हार
गई। साल भर भी नहीं बीता होगा की अम्मा ने चाचा के सहयोग से चुपचाप सारे खेत बेच दिए।
इस काम में चाचा ने बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा किया। जिस दिन अम्मा को रजिस्ट्री पर साइन
करना था, उसके एक दिन पहले वह घर आए, अगले दिन अम्मा को लेकर सीधे कचहरी गए, साइन करा दिया। पैसा सीधे अकाउंट में जमा कराया। और देर
रात तक अम्मा को लेकर घर आ गए।
अगले दिन अम्मा ने चाचा को घर वापस जाते समय सोने की
चार चूड़ियां देते हुए कहा, ’भैया बिटिया को
यह हमारी तरफ से उसे उसकी शादी में दे देना। क्योंकि उस गांव में अब मैं क्या मेरी
छाया भी नहीं पड़ेगी।’ चाचा ने कहा, ‘भाभी इतना गुस्सा ना हो। अपने ही लड़के हैं। थूक दो गुस्सा।
फिर शादी में तुम मेरे घर आओगी उन सबके पास तो जाओगी नहीं।’ अम्मा ने आशंका जाहिर की, ‘खेत बेचने से वह सब चिढ़े बैठे हैं। तुम उन सब को भी बुलाओगे
ही, अगर नहीं बुलाओगे तो भी वह सब आकर झगड़ा करेंगे।’
चाचा ने उनकी आशंका का जो जवाब दिया वह मुझे पसंद नहीं
आया। उन्होंने कहा, ‘देखो भाभी उन सबको इसलिए
बुलाना पड़ेगा क्योंकि एक तो वो सब कोई दूर के नाते-रिश्तेदार तो हैं नहीं। सगे भतीजे
हैं। दूसरे तुम्हारे पक्ष में बोलने, खेत बिकवाने में
सहयोग करने के चलते भले ही उन सब ने मुझसे मनमुटाव बना रखा हैै, लेकिन कभी सीधे झगड़ा नहीं किया। अब तुम ही बताओ ऐसे में
उन सब को ना बुलाना कहां तक उचित होगा, और फिर यह भी तो हो सकता है ना कि जब तुम इतने दिनों बाद पहुंचो तो लड़कों का दिल
पसीज जाए। और तुमसे मिलने आएं। मां-बेटों का मिलाप हो जाए। भाभी सच कह रहा हूं, तुम मां-बेटों में ऐसा हो जाए ना, तो हमें बहुत खुशी होगी। भैया की आत्मा भी बहुत खुश होगी।’
चाचा की बातों ने अम्मा को रळला दिया। वह रोती हुई बोलीं, ’भैया कौन महतारी है जो अपनी औलादों से दूर रहना चाहेगी।
उन सबका चेहरा कौन सा ऐसा पल होता है जब आंखों के सामने नहीं होता। पोता-पोतियों के
लिए आंखें तरसती हैं। उन्हें छूने, देखने, गोद में लेने को हाथ तरसते हैं। मैं कितनी अभागी हूं
कि सब है मेरे पास, लेकिन फिर भी कुछ नहीं
है मेरे साथ।’ चाचा अम्मा की यह बात सुनते ही तपाक से बोल
पड़े, ‘तो भाभी गुस्सा थूक दो। चलो, कुछ दिन के लिए मेरे साथ घर चलो। मेरे ही घर पर रुकना।
अगर बेटे तुम्हें प्यार-सम्मान से लेने आएं तो जाना उनके पास, नहीं तो नहीं जाना।’
मुझे ऐसा लगा कि चाचा की बातें सुनकर अम्मा की आंखों
के आंसू एकदम से सूख गए हैं। वह बिल्कुल शुष्क हो गई हैं। पथरीली हो गई हैं। उसी तरह
चेहरा भी। मुझे समझते देर नहीं लगी की अम्मा पर फिर गुस्सा हावी हो गया है। मैं कुछ
और सोचती-समझती कि उसके पहले ही वह बोलीं, ‘देखो भैया वहां तो अब मैं क़दम नहीं रख सकती। वह सब मुझ पर हाथ भी उठा देते तो भी
मैं माफ कर देती,
यह सोचकर कि अपनी औलाद
हैं, अपना खून हैं। अपने खून से पाला है। हमारे
आदमी का अंश हैं। इसी तरह मेरी बिटिया भी मेरा खून है, मेरे आदमी का अंश है, उसका अपमान मेरे खून, मेरे आदमी का अपमान
है। मैं सब सह सकती हूं लेकिन अपने आदमी का अपमान नहीं। अपने खून का अपमान नहीं, वह भी ऐसा-वैसा अपमान नहीं, सीधे-सीधे चरित्र पर लांछन लगाया गया। मेरी गंगाजल सी
पाक-साफ बिटिया के बारे में कितनी नीचतापूर्ण बातें पूरी दुनिया में फैलाई गईं।
मेरी बिटिया को इतना गिरा हुआ बताया गया कि आदमी ने भगा
दिया। कोई कमी थी,
आवारा थी, तभी तो भगाया गया। अब यहां मायके में आकर आवारागर्दी
कर रही है, उस ज्योतिषी को बुलाकर अपनी..... अरे कमीनों
ने क्या-क्या नहीं उड़ाया। नीचों ने अपने स्वार्थ में अंधे होकर बेचारे उस पढ़े-लिखे
महात्मा जैसे ज्योतिषी के चरित्र की भी चिंदियां उड़ा दीं। उस जैसा चरित्र वाला आदमी
मैंने आज की दुनिया में कभी-कभी ही देखा है। बेचारा इतना दुखी हुआ कि हमेशा के लिए
कहीं चला गया। कई बार मन में आशंका होती है कि कहीं आत्महत्या तो नहीं कर ली। अब तुम
ही बताओ ऐसी औलादों को मैं कैसे अपना लूं।
मेरी औलादें हैं, लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की गंदी औलादें हैं, कलंकी औलादें हैं, ऐसी कलंकी औलादों को कैसे अपना लूं। मैं मां हूं, मेरे कलेजे से पूछो कि मैं कैसे तीन-तीन बेटों के रहते
हुए भी बिना बेटों जैसा जीवन बिता रही हूं।
यह भी जानती हूं कि तीन-तीन बेटों के रहते हुए भी मेरी
अर्थी को कंधा देने वाला कोई बेटा नहीं होगा। बाहरी ही देंगे। मैं चाहूंगी भी नहीं
कि ऐसी कलंकी औलादें मेरी अर्थी को कंधा तो क्या मुझे छुएं भी। मुझे इस बात का कोई
मलाल नहीं कि औलाद वाली होते हुए भी मैं बे-औलाद जैसी मरूंगी। दुनिया कितनी ही खराब
हो गई है, मगर मुझे पूरा भरोसा है कि चार कंधे मेरी
अर्थी के लिए मिल ही जाएंगे। श्मशान में ना कोई सही, डोम अग्नि देता है तो वही मुखाग्नि भी दे ही देगा।’
यह कहते-कहते अम्मा के फ़िर आंसू झरने लगे। मैंने देखा
चाचा भी बड़े भावुक हो गए हैं। उनकी भी आंखें आंसुओं से भर गईं हैं। अब अम्मा की तकलीफ
मुझसे देखी नहीं गई। मैं उनके पास जाकर बगल में बैठ गई। उनके आंसुओं को पोंछते हुए
कहा, अम्मा चुप हो जाओ। काहे इस तरह की बातें
सोच-सोच कर अपने को परेशान करती हो। बाहरी क्यों आएंगे तुम्हारे लिए, मैं नहीं हूं क्या? तुम ही ने अभी कहा कि मैं भी तुम्हारा ही खून हूं, अगर भैया लोग नहीं आएंगे तो मैं करूंगी सब कुछ। मैं तुम्हारे
लिए चारों कंधा बन जाऊंगी।
मैं ही तुम्हें अग्नि को समर्पित करूंगी अम्मा। तुम इसे
खाली सांत्वना देने वाले शब्द न समझना। किसी बेटी के लिए यह कहना ही नहीं बल्कि सोचना
भी असहनीय है। अपनी मां के लिए यह सोच कर ही दहल उठेगी है। लेकिन मैं कह रही हूं। क्योंकि
मैं जानती हूं कि यह कटु सत्य है। इसलिए भी कह रही हूं कि तुम्हें यकीन हो जाए कि तुम्हारी
बेटी कमजोर नहीं है। उसके पास इतनी क्षमता है, इतनी हिम्मत है कि अपनी अम्मा के लिए कुछ भी कर सकती है। उसकी कोई भी इच्छा पूरी
कर सकती है। तुम अगर अपनी और इच्छाएं भी बताओगी तो मैं वह भी पूरी करूंगी। मुझ पर भरोसा
रखो। मेरे क़दम डगमगाएंगे नहीं। मेरी बात सुनकर अम्मा एकदम शांत हो गईं।
अचानक ही उनके चेहरे पर फिर कठोरता छा गई। चाचा की तरफ
देखते हुए उनका नाम लेकर बोलीं, ‘आज संयोग से तुम
यहां हो, तुम्हारे सामने कह रही हूं कि मेरी अंतिम
इच्छा यही है कि मेरी बिटिया मुझे श्मशान तक ले जाएगी, मुखाग्नि भी वही देगी। तुम्हारी ज़िम्मेदारी यह है कि
मेरे कपूत मेरी अर्थी को छूने भी ना पाएं। पहली बात तो उन सबको बताया ही ना जाए। भूले-भटके
आ भी जाएं तब भी तुम्हें यह सब कराना ही है जो मैं कह रही हूं। मुझे अपनी बिटिया पर
पूरा भरोसा है। यह जो कह रही है उसे पूरा भी करेगी। मेरे कपूत रोड़ा ना बनें यह सब तुम्हें
देखना है। बोलो तुम मेरी यह इच्छा पूरी करोगे कि नहीं।’
अम्मा का ऐसा रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं अचंभित
हो गई। उन्हें एकटक देख रही थी। तभी चाचा बोले, ‘भाभी काहे इतना गुस्सा करती हो, अरे लड़के नहीं आएंगे
तो क्या मेरा कोई अधिकार नहीं है। मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। तुम्हारा क्या मुझ पर
कोई अधिकार नहीं है। मैंने तुम्हें हमेशा भाभी से कहीं ज़्यादा मां की तरह सम्मान दिया
है। देखा है। तुम जब आई तो मैं बहुत छोटा था। अम्मा से ज़्यादा समय तो मेरा तुम्हारे
ही पास बीतता था। बाद में तो सब अम्मा से और खुद अम्मा भी कहतीं थीं कि वह हमें जन्म
देने भर की दोषी हैं। असली माई तो तुम ही हो। इस नाते तो तुम पूरे अधिकार से मुझसे
सब कुछ कह सकती हो, बल्कि कहोगी क्या, मेरा कर्तव्य है। बिटिया को ऐसे असमंजस या ऐसे काम के
लिए क्यों कह रही हो।’
यह कहते-कहते चाचा एकदम भावुक हो गए। उनके आंसू निकल
पड़े। चाचा के मन में अम्मा के लिए इतना सम्मान होगा यह मैं उसी दिन जान पाई थी। मैं
उनके इस रूप को देखकर एकदम अभिभूत हो उठी थी। मेरी भी आंखें भर आई थीं। इस समय असल
में हम तीनों की ही आंखें भरी थीं। मेरी चाचा के प्रति श्रद्धा से भरी थीं।
अम्मा चाचा का नाम लेकर बोलीं, ‘देखो मैं भी तुम्हें देवर से कहीं ऊपर स्थान हमेशा देती
रही। अपने बच्चों सा ही हमेशा माना। उसी अधिकार से कह रही हूं कि मैंने जो कहा उसे
जरूर पूरा करना। मेरे कपूतों ने जो किया मैं समझती हूं कि उन्हें उनके कर्मों की सजा
जरूर मिले। लोग जानें। जिससे कोई सपूत कपूत ना बने।’
चाचा अम्मा को बहुत देर तक समझाते रहे कि बेटों के प्रति
इतनी कठोर ना बनें, लेकिन वह टस से मस नहीं
हुईं। आखिर हार कर चाचा बोले, ‘ठीक है भाभी, तुम्हारी जो इच्छा है वही सब होगा। मगर फिर कहूंगा कि
एक नहीं ठंडे दिमाग से बार-बार सोचना। मैं तुमसे हाथ जोड़कर यही कहूंगा कि जो भी हो
तुम इतनी कठोर ना बनो। तुम ऐसा करोगी तो दुनिया यही कहेगी कि अब मां भी पत्थर दिल होने
लगी हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम पर दुनिया कुछ इस तरह का आरोप लगाए। दुनिया को तो तुम
मुझसे अच्छा समझती हो। वह तिल का ताड़ बनाने में देर नहीं लगाती। तुम अपनी जगह एकदम
सही हो, लेकिन यह दुनिया यह कहने में जरा भी देर
नहीं लगाएगी कि बड़ी कठोर मां है। अरे वह पूत कपूत हैं तो यह माता पत्थर हृदय क्यों
हो गई। सब यही कहेंगे कि जब मां इतनी कठोर है तो बेटे तो आगे निकलेंगे ही।’
चाचा आगे कुछ और बोल पाते उसके पहले ही अम्मा ने उन्हें
रोकते हुए कहा,
‘भैया एक बात बताऊं, हमें दुनिया की परवाह उतनी ही करनी चाहिए जितने से हमारा
खुद का गला ना कसने लगे। मुझे परवाह नहीं कि दुनिया माता कहेगी मुझे या कुमाता। दुनिया
का काम है कहना,
जो भी करो कुछ ना कुछ कहेगी
जरूर। अगर सख्ती नहीं करूंगी तो कहेंगे मां-बाप ही गलत हैं, सही शिक्षा, संस्कार नहीं दिए, तभी बच्चे ऐसे हुए। सख्ती
करो तो कहेंगे कसाई हैं। लेकिन भैया एक बात और बता दूं कि सब एक से नहीं होते। बहुत
लोग कसाई कहेंगे,
तो कुछ लोग यह भी कहेंगे
कि अच्छा किया। ऐसी औलादों के साथ ऐसा ही करना चाहिए। उन्हें सबक सिखाना ही चाहिए।
भैया दुनिया की इतनी चिंता ना करो, यह किसी तरह चैन से नहीं रहने देती, ना मरने देती है, न जीने देती है। इसलिए जैसा कहा है वैसा ही करना। और सुनो, बुरा मत मानना, अगर तुम्हें यह सब करने में कोई बाधा महसूस हो रही हो तो निसंकोच ना कह दो। तुम
पर कोई दबाव नहीं डाल रही हूं।’ अम्मा की यह बात
चाचा को तीर सी चुभ गई। वह एकदम विह्वल होकर बोले, ‘क्या भाभी, कैसी बात करती हो। तुम्हारी एक-एक बात, एक-एक इच्छा मेरे लिए भगवान का दिया आदेश है। मैं तुम्हारी
हर इच्छा पूरी करने में अपने जीते जी कोई कोर-कसर नहीं छोडूंगा।’
चाचा चले गए। मैंने सोचा अम्मा निश्चित ही शादी में नहीं
जाएंगी। जब इतना गुस्सा हैं तो सोचेंगी कि वहां जाने पर सारे लड़के सामने होंगे। हो
सकता है वह सब कुछ बातचीत करें। इसीलिए चाचा की लड़की की शादी में दिया जाने वाला गिफ्ट
अभी से दे दिया। चाचा के जाने के बाद अम्मा कई दिन उदास रहीं। मगर मेरी सारी आशंकाओं
के उलट अम्मा चाचा की लड़की की शादी में गईं। चाचा ने दुनिया की चिंता करते हुए अम्मा
के तीनों कपूतों को भी बुलाया। कहा, ‘अब सब हमसे बोलते-चालते
हैं तो कैसे ना बुलाते।’ तीनों भाई परिवार सहित
शामिल भी हुए। अम्मा के पैर भी संकोच के साथ ही सही छूए। भाभियों ने भी, पोते-पोतियों ने भी छूए। हमारी अम्मा जो पत्थर से भी
कठोर दिल लेकर गई थीं वह सभी के पैर छूते ही बर्फ बनके पिघल गया। बह गया आंसू बनकर।
अम्मा ने बहुत कोशिश करके अपने आंसूओं को रोका। रोना
बंद किया, कि चाचा के परिवार का कोई देख ना ले, नहीं तो कहेंगे कि क्या शादी-ब्याह, हंसी-खुशी के माहौल को खराब कर रही हैं। शुभ शगुन का
काम हो रहा है और यह आंसू बहा कर अपशगुन कर रही हैं। अम्मा परेशान हो गईं थीं। मन उनका
उचाट हो गया था। वह लड़की की विदाई के बाद ही वापस आना चाहती थीं लेकिन चाचा ने रोक
लिया। असल में सच्चाई यह थी कि वह पोते-पोतियों के प्यार-दुलार में रळकी थीं।
सब दादी, दादी कहते हुए अम्मा से चिपट गए थे। चार-पांच साल का पोता तो उनकी गोद से उतर ही
नहीं रहा था। सब इतना पीछे पड़ गए कि दादी को अपने घर खींच कर ले ही गए। चाचा, चाची ने भी प्यार-मनुहार की कि ‘जाओ, चली जाओ भाभी, बच्चे कितना प्यार से कह रहे हैं, इनकी क्या गलती, इनका हक़ क्यों छीन रही हो। तुम्हारे प्यार-स्नेह आशीर्वाद पर इनका पूरा हक है।’
असल में चाचा चाहते थे कि मां-बेटों के बीच की खांई पट
जाए। जो हुआ सो हुआ है। दिल से किसी बात को लगाकर क्या बैठना। चाचा ने ही चुपके से
तीनों भाइयों से कहा था, ‘मां को सम्मान के साथ बुलाओगे
तो जाएंगी।’ पोते-पोतियों का प्यार जहां अम्मा को घर
की तरफ खींचे लिए जा रहा था। वहीं लड़कों, बहुओं ने एक बार भी नहीं कहा तो उनके पैर उठ ही नहीं रहे थे। चाचा के कहने पर जब
तीनों भाइयों ने कहा तब वह गईं थीं।
वहां वह लाख कोशिश करके भी अपने आंसुओं को रोक नहीं सकी
थीं। बरसों बाद उस घर में वह क़दम रख कर आंसू रोकने की हर कोशिश करके भी असफल रहीं।
वह घर जहां डोली से उतरने के बाद उन्होंने अपने दांपत्य जीवन का पहला क़दम चलना शुरू
किया था। वह घर-आंगन जहां उन्होंने जीवन के ढेर सारे सुनहरे पल बिताए थे। और जीवन का
वह सबसे काला दिन भी देखा था जब पति की दर्दनाक मौत के बाद उनका पार्थिव शरीर आया था।
और फिर अर्थी में श्मशान की ओर रवाना हुआ था, अपने ही बेटों के कंधों पर। और अब उनके जाने के बाद हालत यह हो गई है कि उन्हें
यह प्रण लेना पड़ा कि अपने बेटों के कंधों पर वह नहीं करेंगी अपनी अंतिम यात्रा।
घर से कोई रिश्ता नहीं रखेंगी। वही घर-आंगन जहां गुनगुनाया
करती थीं कि सूरज ना बदला चांद ना बदला। मगर लड़के इतना बदल गए थे कि अपनी औलाद कहने
में भी अम्मा को संकोच होता था। अम्मा वहां ज़्यादा देर नहीं रुक पायीं। पोते-पोतियों
के लाख कहने पर भी नहीं। वे कहते रहे दादी रुक जाओ। उनके आंसू भी अम्मा को नहीं रोक
पाए। क्योंकि चाचा के कहने पर जिन लड़कों ने उनसे चलने के लिए कहा था, घर पहुंचने पर उन सब ने उनसे एक बार भी रुकने के लिए
नहीं कहा। अम्मा फिर पत्थर दिल बन चाचा के यहां लौट आईं थीं। और चाचा-चाची के ढेरों
आग्रह के बावजूद अगले दिन सुबह ही वहां से वापस चित्रकूट आ गईं। चाचा से साफ कह दिया
कि बिटिया घर पर अकेले है।
मैं शादी में नहीं गई थी। एक तो ऑफ़िस से छुट्टी नहीं
मिल रही थी। दूसरे मैं उस जगह किसी सूरत में नहीं जाना चाहती थी जहां मेरा सम्मान, इज्जत किसी और ने नहीं सगे भाइयों ने ही तार-तार की थी।
आने के बाद अम्मा चाचा पर भी बहुत नाराज हुईं। कहा, ‘हमें बुलाकर इस तरह उन सब से मिलाने की कोशिश उनको नहीं करनी चाहिए थी। कोई रिश्ता
टूटने के बाद कहां जुड़ता है, जो ये जोड़ने चले
थे।’ मुझे लगा अम्मा को चाचा के लिए ऐसी बात नहीं
कहनी चाहिए। उन्होंने तो परिवार को मां-बेटों को एक करने का पवित्र काम किया था। कितनी
अच्छी है उनकी भावना।
यह बात अम्मा से कही तो अम्मा बोलीं, ‘तुम सही कह रही हो, लेकिन क्या करूं उन सब ने एक शब्द भी नहीं कहा कि अम्मा रळक जाओ। मेरा मन था कि
मैं अपने आदमी, अपने पुरखों के घर में रुकूं। उस घर में
कुछ समय और बिताऊं जहां जीवन के न जाने कितने सुख-दुख के पल जिए थे। जहां इन्हीं बच्चों
को जन्म दिया। जहां रात दिन अपने सुख-दुख कष्ट की परवाह किए बगैर इन सब को पाला। जहां
इन सब की तोतली बातों, लड़खड़ाते हुए चलने की कोशिश
में गिरने, उठ कर खड़े होने को देख-देख कर मन मारे खुशी
के झूम-झूम उठता था। मगर कलेजा फट गया कि उन सब ने एक बार भी नहीं कहा कि अम्मा रुक
जाओ। कान यह सुनने को तरस गए कि, ‘अम्मा रुक जाओ।’
जब वहां से निकलने लगी तो मैं अपने को घोर अपमानित महसूस
कर रही थी। यह सोचते हुए कदम बाहर निकाल रही थी कि दुबारा अब इस घर की छाया भी नहीं
देखूंगी। बार-बार मन में आ रहा था कि मैं गाती थी कि कितना बदल गया इंसान, किसी और ने नहीं मेरी औलादों ने ही चरित्रार्थ करके दिखा
दिया है। वह भी एक नहीं, दो नहीं, तीन की तीनों ने। तीनों एक ही ढर्रे पर। उन्होंने, हमने आखिर कौन सी कमी की थी इन सब को पालने-पोषने में।
जो लोग कहते हैं कि महतारी-बाप जो संस्कार देते हैं बच्चे वही बनते हैं। मैं कहती हूं
कि यह कहना पागलपन है। हम दोनों ने पूरे घर में हमेशा अच्छे संस्कार दिए। जब-तक शादी
नहीं हुई थी इन सब की, तब-तक यह सब भी ठीक थे, सही-सही चल रहे थे।’ अम्मा यह सब कह कर रोने लगीं थीं तो बड़ी मुश्किल से चुप कराया था।
वह कुछ देर शांत रहने के बाद फिर बोलीं थीं, ‘तुमने बहुत अच्छा किया जो साथ नहीं चली। साफ मना कर दिया।
मैं ही मोह में पड़ गई थी जो तुमसे भी चलने के लिए कहा था। मन में गुस्सा तो बहुत था
लेकिन फिर भी मनमें कपूतों से मिलने के लिए जी हुलस रहा था। मगर तुमने इनकार करके हमारी
गलती को और बड़ा नहीं होने दिया। लेकिन अब खून खौल रहा है। सुनो तुमसे बहुत साफ कह रही
हूं कि जब मैं मरूं तो इन सब को भूलकर भी खबर ना देना।’
अम्मा एकदम आग बबूला होकर बोलीं थीं। मैं कुछ बोलने को
सोच ही रही थी कि अम्मा ने फिर चाचा का नाम लेकर कहा, ‘उनको भी किसी सूरत में नहीं बताना। क्योंकि मालूम होने
पर वह उन सबको बताएंगे जरूर। तुम्हें मेरी कसम है, जो मैं कह रही हूं बिल्कुल वैसा ही करना। ऐसा न करके तुम सिर्फ़ मेरी ही नहीं अपने
बाप की आत्मा को भी कष्ट दोगी। उनका अपमान करोगी।’ मैं तब उनका गुस्सा, उनकी दृढ़ता देखकर कांप
उठी थी।
मैंने कहा, अम्मा तुम परेशान ना हो, जैसा तुम चाहती
हो मैं वैसा ही करूंगी। मैं भी कैसी अभागी हूं जो मुझे यह सब करने की ज़िम्मेदारी लेनी
पड़ रही है। यह सुनते ही वह बोलीं, ‘अभागी तुम नहीं, अभागे तो वह तीनों कपूत हैं, जिनका अधिकार छीन कर मैं तुम्हें दे रही हूं।’
पता नहीं मैं अभागी हूं कि सौभाग्यशाली मगर मैंने अम्मा
की सभी इच्छाएं अक्षरशः पूरी की थीं। किसी को कानों-कान खबर ना होने दी। यह सब मुझे
उनके द्वारा कसम दिए जाने के पंद्रह साल बाद ही करना पड़ा था। मैं सोचती थी कि समय और
उम्र के साथ-साथ वह सब भूल जाएंगी। लेकिन मैं गलत निकली। समय के साथ वह बहुत कुछ भूल
गईं। मगर इस बात को बराबर याद रखा। ना सिर्फ़ याद रखा बल्कि मुझे बार-बार पूरी शक्ति
के साथ याद भी दिलाती रहती थीं। चाचा तब कुछ-कुछ समयांतराल पर आते रहते थे।
अम्मा को यह अच्छा नहीं लगता था। वजह सिर्फ़ इतनी थी
कि उन्हें इस बात पर चाचा को देखकर गुस्सा आ जाती थी कि उन्होंने धोखे से उन्हें बेटों
से मिलवाने की कोशिश की। आखिर एक दिन बोलीं, ‘बिटिया तुम यहां से ट्रांसफर करा कर किसी दूसरे शहर चलो, जो यहां से काफी दूर हो।’ मैंने पूछा क्यों अम्मा? यहां सब ठीक तो है। कई बार पूछने पर बोलीं, ‘जब तक यहां रहूंगी उनकी याद आती रहेगी। वह दर्दनाक घटना
मुझे रळलाती रहेगी। जिस दिन उनके साथ यहां वह घटना घटी तभी से मुझे यहां से पता नहीं
क्यों घृणा हो गई है। सोचती हूं कि किस-किस से घृणा करूं, कब तक करूं। मैं छोड़ना चाहती हूं इस बुरी आदत को, इसलिए कहीं दूर चलो।’ उनकी भावनाओं के आगे मुझे झुकना पड़ा। डेढ़ साल तक लगातार कोशिश करके ट्रांसफर करा
पाई। अम्मा के बताए शहर लखनऊ में।
अम्मा को मैंने यह कभी नहीं बताया कि ट्रांसफर के लिए
मैंने पूरे पिचहत्तर हज़ार रुपए रिश्वत दी थी, नहीं तो मनचाहा शहर छोड़ दो, ट्रांसफर भी नहीं
होता। अम्मा वजह के नाम पर बात केवल बाबूजी की करती थीं। लेकिन उनकी बातों से मैं साफ
अंदाजा लगा रही थी कि वह चाचा से भी छुटकारा चाहती थीं। मेरी यह आशंका चित्रकूट से
लखनऊ चलते समय कंफर्म हो गई। जब उन्होंने कसम दी इस बात की और सख्त हिदायत भी कि चाचा
या किसी रिश्तेदार को भी कभी नहीं बताऊंगी कि हम कहां चल रहे हैं। उनकी बात सुनकर मैं
कुछ देर तक उन्हें देखती ही रह गई थी। मैंने सोचा कि लखनऊ आकर वह कुछ दिन ज़्यादा डिस्टर्ब
रहेंगी। नई जगह उन्हें एडजस्ट होने में समय लगेगा, मगर मैं गलत थी, लखनऊ में उन्हें देखकर
ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी जेल से छूटकर आजाद हो गई हैं, अपने घर पहुंच गई हैं।
लखनऊ आकर उनकी यह रट और ज़्यादा तेज़ हो गई कि जैसे भी
हो मैं जल्दी से जल्दी शादी कर लूं। अपनी कोशिश वह करती रहीं। मैं जब कहती अम्मा अब
क्या शादी करनी। इतनी उम्र हो गई है। वह भी दूसरी शादी। तो कहतीं, ‘कोई उम्र नहीं हुई है। चौंतीस-पैंतीस साल में तो आजकल
लोग शादी कर रहे हैं।’ मैं कहती अम्मा सब की और
मेरी बात अलग है। इसके आगे वह मुझे बोलने ना देतीं, नॉनस्टॉप शुरू हो जाती थीं। कहतीं, ‘तुम्हें दुनियादारी कुछ पता नहीं है। एक इंसान गलत निकला तो इसका मतलब यह नहीं
कि सब वैसे ही होंगे। एक बार कुछ बात हो गयी तो इसका मतलब यह भी नहीं कि उसी बात को
लेकर बैठे रहें,
बाकी ज़िंदगी उसी बात को
सोचने में गला दें।
ज़िंदगी में बहुत ऊंच-नीच होती रहती है, ऐसे अकेले कब तक ज़िंदगी काटोगी। मैं भी तुम्हारे लिए
कितने दिन रहूंगी। ज़िंदगी भर तो बैठी नहीं रहूंगी। अपनी आंखों के सामने तुम्हारा घर-परिवार
देख लूं तो मुझे चैन पड़ जाए। नहीं तो मेरे प्राण भी नहीं निकलेंगे। यमराज से भी तू-तू, मैं-मैं करनी पड़ेगी कि रळक जाओ, अभी बिटिया की शादी करनी है।’ उनकी इस बात पर मुझे हंसी आ जाती तो कहतीं, ‘बिटिया हंसो नहीं, तुम्हें मेरी तकलीफ का अंदाजा नहीं, लेकिन मुझे तुम्हारी तकलीफ का अंदाजा है। क्या मैं नहीं समझती कि तुम किस तरह ज़िंदगी
जी रही हो।’ उनकी इस बात पर मैं लाख कोशिश करती थी नॉर्मल
बनी रहने की, लेकिन चेहरे पर घनघोर गंभीरता आ ही जाती
थी।
ऐसे में कई बार हम मां-बेटी रो पड़ती थी। अपनी-अपनी जगह
बैठी हम दोनों ही रोती रहती। आंसू बहाती रहती। बड़ी देर बाद खुद ही दोनों चुप हो जाती, क्योंकि हमें कोई चुप कराने वाला, सांत्वना देने वाला नहीं था। मैं उठती, चाय बनाती। अम्मा के साथ बैठकर पीती। असल में अम्मा अपनी
जगह सही थीं। मैं भी अन्य की ही तरह खुशहाल अच्छी ज़िंदगी जीना चाहती थी। मैं भी सपना
देखती थी कि मेरा भी कोई पति हो, बच्चे हों, पूरा परिवार हंसी-खुशी से रहे। परित्यक्ता बनने के डेढ़
साल बाद ही मैं यह सपना देखने लगी थी। लेकिन परिस्थितियां एक के बाद एक बिगड़ती ही गईं।
समय तेज़ी से निकलता जा रहा था। मैं यह नहीं कहूंगी कि समय निकल गया और मुझे पता ही
नहीं चला। मुझे सब पता चल रहा था। मैं एक-एक पल को तेज़ी से अपने से बिछुड़ते देख रही
थी।
मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि मेरे जीवन के स्वर्णिम पल
निकलते जा रहे हैं। परिस्थितियों ने मुझे विवश कर रखा था। मेरी अनुभवी अम्मा की तेज-तर्रार
आंखें सब देख-समझ रही थीं। उनका अपने कपूतों से नफरत का कारण ही यही था कि मेरे भाइयों
ने अपनी परित्यक्ता बहन की बजाए ज़िंदगी संवारने, उसकी दूसरी शादी करने के उसके चरित्र पर महज इसलिए कीचड़ उछाला, पूरे समाज में बदनाम किया जिससे मैं उनकी प्रॉपर्टी की
हवस पूरा होने में और रोड़ा ना बनूं। बाबूजी की नौकरी उनमें से किसी एक की बीवी को मिल
जाए।
अम्मा की कोशिश में कहीं कमी नहीं थी। वह लगी रहीं। पेपर
में निकलने वाले ऐड भी देखतीं। फ़ोन करतीं। लेकिन लोगों की बातचीत, प्रश्न सुनकर घबरा जातीं। दो-चार दिन शांत रहतीं फिर
कोशिश करतीं। एक दिन मुझसे बोलीं, ‘सुन बिटिया मैं
ठीक से बात नहीं कर पाती। कान से सुनाई भी कम देता है। ऐसा कर तू ही मां बन कर बात
किया कर। मैं सुनती रहूंगी।’ उनकी बात मुझे बड़ी
अटपटी लगी। लेकिन फिर उनकी जिद, उनका आदेश, जिसे मैं सालों-साल से मानती आई थी। मैं बात करती, वह ईयर फ़ोन का एक हिस्सा अपने कान में लगाकर बड़े ध्यान
से सुनतीं। फिर कहतीं इससे आगे बात करेंगे, ये सही लग रहा है। या इससे आगे बात करना ठीक नहीं है।
उनकी इस कोशिश के चलते कई लोग आए भी। लेकिन बात जहां
से शुरू होती वहीं खत्म हो जाती। किसी की नजर में मैं ज़्यादा हेल्दी होती चली गई थी, तो किसी की नज़र में ज़्यादा लंबी थी। कईयों के घरवालों
ने तो बड़ी बेशर्मी से यह पूछा कि, ‘क्या सच में पहली
शादी से तुम्हारे कोई बच्चे नहीं हैं।’ फ़ोन पर सारी बातें बता दिए जाने के बावजूद यह पूछा जाता था। इन बातों से हम दोनों
मां-बेटी बहुत आहत होती। बड़ा अपमान महसूस करती थी। मैं कहती, बस कर अम्मा अब और अपमान नहीं सहा जाता।
लेकिन अम्मा अपनी बिटिया की खुशी, उसकी ज़िंदगी सुरक्षित करने के लिए कुछ भी सहने को तैयार
थीं। इस काम में हम मां-बेटी को लगा कि किराए का मकान ठीक नहीं है। इसलिए अपना मकान
जो हम कुछ समय बाद लेने की सोच रहे थे उसे जल्दी से जल्दी लेना तय किया। इसमें खेत
बेचने से मिले पैसों से बड़ी मदद मिली। फिर भी बजट कम होने के कारण मेन सिटी से थोड़ा
दूर एक सोसाइटी में लेना पड़ा। जो मेरे ऑफ़िस से करीब तीस किलोमीटर दूर था। आने-जाने
में होने वाली दिक्कतें मुझे बिल्कुल थका देती थीं। कई टेंपो बदलकर ऑफ़िस से घर पहुंच
पाती थी।
ऑफ़िस में भी वही माहौल था, जैसा दुनिया में अन्य जगह है। कुछ अच्छे, तो ज़्यादातर नोचने खाने वाले लोग ही मिले। दो सीनियर
तो पहले ही दिन से पीछे पड़ गए थे। बिना काम के बुला कर बैठा लेते थे। बहुत करीबी, बहुत हमदर्द बनने का प्रयास करते दोनों। उन दोनों की
पूरी हिस्ट्री वहां के बाकी लोगों ने बड़ी जल्दी ही बता दी थी। दोनों की मक्कारी जान-समझ
तो मैं भी रही थी। इसलिए धीरे-धीरे अपनी दूरी बढ़ाती रही।
एक दिन एक कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ा तो साफ कहा कि, सर कोई काम हो तभी बुलाया करिए। मैं बेवजह की बातें पसंद
नहीं करती। दोनों के मन की नहीं हुई तो दोनों परेशान करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते
थे। उनके चमचे भी साथ लगे रहते थे।
चित्रकूट में मैंने इस तरह की समस्या का सामना नहीं किया
था, इसलिए यहां एकदम परेशान हो गई थी। दोनों
सीनियर का डर इतना था कि बाकी लोग यहां तक कि महिलाएं भी मुझसे बात करने से कतराती
थीं। मैं अम्मा को कुछ नहीं बताती थी कि वह परेशान होंगी। जैसे-तैसे आगे बढ़ती रही।
विभाग का लेखा अधिकारी था तो कम उम्र का ही लेकिन था बहुत ही तेज़-तर्रार। बड़े रौब-दाब
के साथ रहता था। थोड़ा उद्दंड भी था। सीनियर ने जानबूझकर मुझे उसी के साथ अटैच कर दिया, कि मुझे अकाउंट का काम आता नहीं, वह खुर्राट आदमी मुझे रोज प्रताड़ित करेगा, जब उसे पता चला तो वह भी तुरंत समझ गया कि निशाना कहां
है।
उसने छूटते ही भद्दी-भद्दी गालियां दीं सीनियर को। यह
भी ना सोचा कि मैं सामने खड़ी हूं। जब उसका गुस्सा कम हुआ तो बोला ‘सॉरी, यह साले इसी लायक
है। बताइए आपने अकाउंट का काम कभी किया नहीं, आप से काम लूं, अकाउंट का मामला है, कुछ गड़बड़ हो गई तो दोनों की नौकरी खतरे में, या फिर मैं अकेले ही करता रहूं। बदनाम यह करेंगे कि एक
वर्किंग हैंड साथ दिया तो है, काम क्यों नहीं
लेते, क्यों नहीं सिखाते, वह काम नहीं कर रही है तो यह तुम्हारा फैल्योर है।’
वह सही कह रहा था। सीनियर ने एक तीर से कई निशाने साधे
थे। खुर्राट आदमी और मुझको एक साथ परेशान करने और हमारी नकेल कसने के लिए। उनका अनुमान
था कि मैं काम जानती नहीं तो गलती मिलते ही पनिश करने मौका उन्हें आसानी से मिल जाएगा।
इससे मैं अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में उनके सामने सरेंडर कर दूंगी। इस चाल से मैं
बहुत डर गई थी। कई दिन मुझे ठीक से नींद नहीं आई थी।
ऑफ़िस के पास पहुंचते ही मेरी आधी जान ऐसे ही निकल जाती
थी। खुरार्ट ने दो-तीन दिन में ही मेरी हालत समझ लीे तो बोला, ‘आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं सबके लिए बुरा
आदमी नहीं हूं। अगर इतना ताव ना रखूं तो यह साले जीना हराम कर देंगे। साले नौकरी भी
खतरे में डाल देंगे। ज़रा भी संकोच नहीं करेंगे।’ शुरुआती दो हफ्ते उसने मुझसे कोई काम लिया ही नहीं। ना ही कोई बात करता था। काम
उसके पास ज़्यादा था तो उसका सिर झुका ही रहता था। उसी में जुटा रहता था। मैं बेकार
बैठे-बैठे बोर हो जाती थी। मुझे लगा ये तो मुझे वर्क-लेस करके ही मेरी नौकरी खतरे में
डाल देगा।
एक दिन बड़ा डरते-डरते मैंने उससे काम सिखाने के लिए कहा
तो वह बोला, ‘मैं जानता हूं खाली बैठे-बैठे आप बोर हो
जाती हैं। एक-दो दिन रुक जाइए फिर बताता हूं आपको।’ उसकी बात से मुझे बड़ी राहत मिली। उसने सच में दो दिन बाद मुझे काम बताना शुरू किया।
बताने का ढंग अच्छा था तो जल्दी ही काम समझ में आने लगा। दो महीना बीततेे-बीतते उसने
मुझे काफी कुछ सिखा दिया था। इस दौरान मुझे समझ में आया कि यह तो वैसा है ही नहीं जैसी
इसकी इमेज है। यह तो एक सहृदय आदमी है। बेवजह लोग इसे झगड़ालू, खुर्राट न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं। मैं भी कितना
डर रही थी। जल्दी ही हमारे बीच जो डर का माहौल था वह खत्म हो गया। मगर मेरे लिए नई
समस्या पैदा हो गई कि जब काम सीख लिया तो मेरा काम बढ़ता ही गया।
रोज ऑफ़िस से निकलते-निकलते सात-आठ बज जाते। घर नौ बजे
तक पहुंच पाती। अम्मा बहुत परेशान हो जातीं। मैं लाख मना करके जाती, लेकिन वह कुछ ना कुछ खाना बना ही लेतीं थीं। मुझे डर
लगता कि अब उनके हाथ-पैर ठीक से चलते नहीं। लेकिन वह मानती नहीं। कहतीं, ‘तुम दिन-भर की थकी-मंदी आती हो, खाना क्या बनाओगी।’ कहती वह सही थीं, घर पहुंच कर एक गिलास पानी
भी उठा कर पीने की हिम्मत नहीं रह जाती थी। लेकिन मैं फिर भी नहीं चाहती थी कि अम्मा
गैस-चूल्हा ऑन करें। मैं पानी, नाश्ते का सारा
सामान उनके पास रख कर जाती थी कि मेरे आने तक वह नाश्ता वगैरह कर लिया करें। लेकिन
वह ना मानने वाली थीं तो ना मानी। आखि़र एक दिन गिर पड़ीं। घुटने, कोहनी में कई जगह चोट आ गई।
अंततः मैंने खुर्राट सर से कहा कि ऑफ़िस का कुछ काम छुट्टियों
में घर ले जाकर कर लिया करूंगी। शाम को मुझे पांच बजे तक छुट्टी दे दिया करिए। उसने
कंप्यूटर के मॉनिटर पर आंखें गड़ाए-गड़ाए ही कहा, ‘देखिए, मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने कभी आपसे
पांच बजे के बाद रुकने के लिए नहीं कहा। जब रुकने के लिए नहीं कहा तो कभी जाने के लिए
भी नहीं कहूंगा कि आप पांच बजे तक यहां से चली जाया करें। जो काम है आपके सामने है।
कितना इंपॉर्टेंट है वह आप भी जानती हैं। आप अपने हिसाब से तय कर लीजिए कि करना क्या
है। आपको कोई काम घर ले जाने की इजाजत नहीं है।’ उसके इस जवाब से मैं एकदम सकते में आ गई। उससे ऐसे जवाब की मैंने कल्पना तक नहीं
की थी।
मैं कुछ देर तक हतप्रभ सी उसे देखती रह गई। मगर वह अपने
काम में बिजी रहा। उसकी कठोरता और अमानवीय जवाब से मुझे बहुत दुख हुआ। मेरी आंखें भर
आईं। लेकिन जानती थी कि आज की तारीख में इनका कोई मोल नहीं है, तो जल्दी ही उन्हें पोंछ लिया। उस दिन भी रात दस बजे
घर पहुंची। बहुत रोई। मन में आया कि छोड़ दूं नौकरी। लेकिन फिर सोचा कि कैसे चलेगी ज़िंदगी।
हाउस लोन की किस्तें कहां से भरूंगी। नहीं भरूंगी तो रहने का ठौर भी चला जाएगा। जो
भी हो, जैसे भी हो, अगर ज़िंदगी चलानी है तो नौकरी करनी ही होगी। फिर संडे
को मैंने पहला काम किया कि एक बाई ढूंढ़ कर लगाई। जो चौका-बर्तन, खाना-पीना सब कर दिया करे। होम लोन की किस्तें देने के
बाद जो पैसा बचता था उसे देखते हुए बाई लगाना बहुत ही मुश्किल था। लेकिन मैंने बाकी
खर्चों में ज़्यादा से ज़्यादा कटौती करके लगाया।
खुर्राट पर गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उस पर जाहिर नहीं होने दिया। ऐसे ही कुछ महीने
बीते होंगे कि फाइनेंसियल इयर का लास्ट मंथ आ गया। काम का बोझ एकदम बढ़ गया। सीनियरों
का हम दोनों को टॉर्चर करना ही मकसद था तो कहने को भी कुछ और हेल्पिंग हैंड नहीं दिए।
मैं आठ-नौ बजे के पहले ऑफ़िस से नहीं निकल पा रही थी।
एक दिन आठ बजे निकली तो बाहर एक टेंपो नहीं दिख रहा था।
इंतजार करते-करते थक गई। कोई ऑटो तक नहीं दिेख रहा था। करीब एक घंटा बीता होगा कि एक
बाइक तेज़ी से आगे निकली, फिर कुछ दूर आगे जाकर झटके
से रुक गई और वापस मुड़कर तेज़ी से मेरे पास आकर रळकी। मैं डरी, कुछ समझती कि खुर्राट की आवाज़ आई, ‘अरे आप अभी तक यहीं खड़ी हैं।’ वह हेलमेट लगाए था इसलिए पहचान नहीं पाई थी। मैंने कहा
पता नहीं क्यों आज टेंपो, ऑटो दिख ही नहीं
रहे हैं। पास होता तो रिक्शा कर लेती।
उसने पूछा ‘जाना कहां है?’
मैंने कॉलोनी का नाम बताया, तो वह बोला, ‘अरे वहीं तो मैं रहता हूं। आपने कभी बताया ही नहीं कि आप इतनी दूर से आती हैं।
खैर आज तो आपको कोई टेंपो नहीं मिलने वाला, क्योंकि दोपहर से ही यह सब हड़ताल पर हैं। क्यों हैं पता नहीं। पैसेंजर ज़्यादा
होने के कारण सारे ऑटो उसी रोड पर जा रहे हैं, जिस पर उन्हें आने-जाने दोनों तरफ से सवारियां मिल रही हैं। इसलिए आप मेरे साथ
चलिए, मैं आपको छोड़ दूंगा, नहीं यहीं खड़ी रह जाएंगी।’ मैं बड़े असमंजस में पड़ गई।
बाइक पर शादी से पहले भाइयों के साथ ही कभी-कभार चली
थी। शादी हुई तो कुछ दिन उस उठाईगीर पति के साथ उसी राजदूत बाइक पर जिसे बाबूजी ने
शादी में दिया था। बड़े शौक से कि उनका दामाद और बिटिया मोटर साइकिल से चलेंगे। उस समय
दहेज में बाइक का दिया जाना मायने रखता था। अब इतने दिनों बाद, इतनी उम्र में एक पराए पुरुष के साथ बाइक पर जाने की
मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी। वह भी खुर्राट के साथ। जो अब हेलमेट उतार कर बात कर
रहा था।
मुझे असमंजस में पड़ा देखकर बोला, ‘इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है? स्थिति को समझने की कोशिश करिए। इस समय कोई भी साधन नहीं
मिलेगा। कोई दिक्कत हो गई तो ज़िम्मेदारी मुझ पर आ जाएगी कि इतनी देर क्यों हुई ऑफ़िस
में।’ खुर्राट आगे दोनों सीनियरों को गाली देते
हुए बोला, ‘साले ना जाने क्या-क्या तमाशा कर दें, कोई ठिकाना नहीं उनका, बाकी जैसी आपकी इच्छा। मैं चलने के लिए कोई प्रेशर नहीं डाल रहा हूं।’
स्थिति को देखते हुए मुझे भी लगा कि यह सही कह रहा है।
इसके साथ जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। विवश होकर उसके साथ घर को चल दी। मगर
कुछ दूर चलने के बाद उसने बाइक रोककर कहा, ‘देखिए कुछ और नहीं समझ लीजिएगा। एक्चुअली मुझे इस तरह बाइक चलाने में दिक्कत हो
रही है। आप मेरी तरह दोनों तरफ पैर करके बैठ जाइए। आसानी होगी। गाड़ी बैलेंस करना मुश्किल
हो रहा है।’ मेरे लिए फिर एक और धर्म-संकट। मगर विवश
होकर बैठना पड़ा। भाइयों के साथ भी कभी उस तरह नहीं बैठी थी। मैं बड़ा ऑड फील कर रही
थी।
मैं रास्ते भर उससे गैप बनाने की कोशिश करती रही, लेकिन सब बेकार था। वह जैसे ही ब्रेक लेता मैं वैसे ही
उससे टकरा जाती। बड़ा अजीब लग रहा था। शुरू में मुझे लगा कि खुर्राट जानबूझकर तेज़ ब्रेक
लगा रहा है। मगर कुछ ही देर में यकीन हो गया कि नहीं वह संभाल कर चल रहा है, तेज़ भी नहीं चल रहा है। मैं ही बैठने की अभ्यस्त नहीं
हूं, इसीलिए संभल नहीं पा रही हूं। मैं दोनों
हाथ पीछे करके बाइक की सपोर्टिंग रॉड को पूरी ताकत से ऐसे पकड़े हुए थी जैसे कि बाइक
मेरे पैरों के बीच से आगे निकल जाएगी, और मैं सड़क पर गिर
जाऊंगी। घर करीब आने पर सोसाइटी की खराब सड़क के कारण लाख कोशिशों के बाद भी मैं बार-बार
खुर्राट से इतना ज़्यादा टच हो रही थी कि शर्मिंदगी के मारे आंसू आ गए। मन में आया
कि बाइक से कूद जाऊं नीचे। मगर विवश थी। मैं उसे घर तक नहीं ले जाना चाहती थी। इसलिए
घर से थोड़ा पहले ही उतर गई।
घर पहुंची तो अम्मा रोती मिलीं। एक तो रोज से ज़्यादा
देर हो गई थी। दूसरे वह बार-बार मोबाइल पर फ़ोन कर रही थीं। बाइक पर मैं रिंग सुन नहीं
पा रही थी। उन्हें समझाया, अम्मा ऐसे परेशान
ना हुआ करो। इतनी दूर घर लेकर बड़ी गलती कर दी है। काम कितना ज़्यादा है वह भी बता ही
चुकी हूं। मैंने उन्हें टेंपो की हड़ताल वगैरह सब बता दिया। सारे कारण गिना दिए, लेकिन यह नहीं बताया कि खुर्राट के साथ आई हूं। मैंने
सोचा कि इससे कहीं यह बेवजह तनाव में ना आ जाएं। उस दिन मैं बड़ी देर तक जागती रही।
मुझे लगा कि खुरार्ट से स्पर्श का ख्याल आते ही मुझ में
अजीब सा रोमांच पैदा हुआ जा रहा है। और कुछ तनाव भी। अगले दिन उसने मुझसे फिर कहा, ‘आपको मेरे साथ चलने में कोई दिक्कत ना हो तो साथ ही चलिएगा, बेवजह इतनी प्रॉब्लम फेस करती हैं।’ मैंने कहा ऐसी कोई बात नहीं, चली जाउंगी । बातचीत के दौरान ही उसने बताया, ‘मैं चाचा के यहां रहता हूं। चाचा अपने परिवार के साथ
अयोध्या में रहते हैं। मकान में एक किराएदार है। एक पोर्शन चाचा ने मुझे दे रखा है।
कोई किराया नहीं देना होता, इसलिए वहां रहता
हूं। खाना-पीना किराएदार बना देता है। हर महीने उसे पैसा दे देता हूं।’ उस दिन के बाद मैंने देखा कि वह बातचीत में पहले की अपेक्षा
ज़्यादा साफ हो गया है। मगर काम-धाम के मामले में कोई परिवर्तन नहीं था। जिसके चलते
अक्सर ज़्यादा देर होती ही रही। मजबूर होकर घर वापसी उसके साथ ही करनी पड़ती थी।
टेंपो से जाने में होने वाली दिक्कतों से आराम मिला तो
धीरे-धीरे मेरा भी मन करता चलो चले चलते हैं। कुछ दिन में यह रेग्युलर हो गया। मैं
घर से कुछ पहले ही उतर जाती। सुबह टेंपो से ही जाती। उसका साथ, उसका स्पर्श, उसकी ढेरों बातें मुझे रोज ही देर रात तक रोमांचित करती रहतीं थीं। फिर सोचती, मैं भी कैसी बेवकूफ हूं। इन सब बातों का मेरे लिए क्या
मतलब है। मेरा उसका क्या मेल। वह एक होनहार, अच्छी नौकरी वाला व्यक्ति है। उसके घर वालों ने उसको लेकर बहुत से सपने संजोए रखे
होंगे।
एक दिन जब वह साथ चला ऑफ़िस से तो घर चलने की जिद कर बैठा।
मैं बड़े असमंजस में पड़ गई कैसे मना करूं। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आखिर ले आई। मां
से मिलवाया। मां के पैर छूकर वह ऐसे बतियाने लगा जैसे ना जाने कितने दिनों से परिवार
का सदस्य है।
उसने मिनट भर में बता दिया कि, ‘हम दोनों साथ-साथ काम करते हैं। रोज साथ आते हैं।’ यह भी उलाहना दे दिया कि मैं सुबह बेवजह तकलीफ उठाती
हूं, मैं उसके साथ नहीं जाती। वह रुकने का नाम
ही नहीं ले रहा था। यह भी कह दिया कि, ‘इतने दिनों से साथ
आ रहे हैं। लेकिन इन्होंने कभी यह नहीं कहा कि घर चलिए, एक कप चाय पी लीजिए। मैं कहीं घर ना आ जाऊं इसलिए रोज
घर से पहले ही उतर जाती हैं। लेकिन मैं ही आज बेशर्म बन गया कि जो भी हो, आज घर चलूंगा, आपसे मिलूंगा। यह अक्सर आपके बारे में बातें करती हैं। आपके स्वास्थ्य को लेकर
इन्हें बड़ी चिंता रहती है। रहती ऑफ़िस में हैं लेकिन इनका मन यहीं आप पर लगा रहता है।’
उस समय वह ऑफ़िस वाला खुर्राट लग ही नहीं रहा था। आश्चर्य
तो मुझे यह हो रहा था कि अम्मा भी उससे बेटा, बेटा कहकर ऐसे बात कर रही थीं जैसे सच में उनका बेटा है। और बरसों बाद कहीं बाहर
से आया हैै। मैं चाय-नाश्ता ले आई तो अपने हाथ से उसे दिया। खुर्राट ने एक झटके में
वह सारी बातें अम्मा को बता दी थीं जिन्हें मैंने कभी नहीं बताया था।
मैं भीतर ही भीतर डर रही थी कि अम्मा ना जाने क्या सोच
रही होंगी, मुझे क्या समझ रही होंगी? उसके जाने के बाद मुझे कितनी गालियां देंगी। कुछ कह पाना
मुश्किल है। कहीं गुस्से में ऑफ़िस जाना ही ना बंद कर दें। खुर्राट पर बड़ी गुस्सा आ
रही थी। मन ही मन कह रही थी कि यह जितनी जल्दी चला जाए यहां से उतना ही अच्छा है। अब
जो भी हो जाए इसके साथ कभी नहीं आऊंगी। चाहे सारी रात बाहर ही क्यों ना बितानी पड़ जाए।
जब वह उठकर जाने लगा तो मेरा मन और भी ज़्यादा घबराने लगा कि अब अम्मा से डांट खाने
का समय आ गया है। आश्चर्य नहीं कि हाथ भी उठा दें।
मैं गेट बंद करके जब अंदर कमरे में आने लगी तो मैंने
महसूस किया कि मेरे पैर कांप रहे हैं। वह इतने भारी हो गए हैं कि उठ ही नहीं रहे हैं।
एक-एक क़दम बढ़ाने में पूरी ताकत लगानी पड़ रही है। जब अम्मा के सामने पहुंची तो ऐसे कांप
रही थी, जैसे कोई छोटा बच्चा टीचर के सामने कांपता
है। चेहरे पर पसीने का गीलापन साफ महसूस कर रही थी। अम्मा के सामने चाय-नाश्ते के रखे
बर्तन उठाने को झुकी तो अम्मा की अनुभवी आंखों से अपनी हालत छिपा नहीं सकी थी।
अम्मा बोलीं, ‘क्या हुआ, तुम्हें इतना पसीना क्यों हो रहा है। तबीयत
तो ठीक है ना।’ मैंने बहुत मुश्किल से जवाब दिया था, हां अम्मा तबीयत ठीक है, थकान बहुत है बस। खाना खाते समय अम्मा ने खुर्राट के
बारे में तमाम बातें पूछ डालीं, कौन है? कहां का है? मां-बाप कौन हैं? कहां रहते हैं? तुमने इतने दिनों तक कुछ बताया क्यों नहीं? दबे शब्दों में अम्मा ने कुछ और भी ऐसी बातें पूछीं जिनका
सीधा मतलब था कि हमारे उसके बीच कोई ऐसा-वैसा रिश्ता तो नहीं है।
मैंने उनकी हर बात का जवाब दे दिया था। लेकिन जब खा-पी
कर लेटी तो भी मैं इस बात से निश्चिंत नहीं हो सकी थी कि अम्मा मेरी बातों से संतुष्ट
हुईं कि नहीं। उनसे उस स्थिति के बारे में कोई बात नहीं कर सकी जिसे मैं खुद ही नहीं
समझ पा रही थी कि उसका साथ, स्पर्श मुझे क्यों
अच्छा लगता है। अकेले होने पर वही दिलो-दिमाग पर क्यों छाया रहता है। रोज अच्छा खासा
समय सोने से पहले उसी को सोचने में क्यों बीतता है। क्यों एक अजीब तरह की अनुभूति, रोमांच महसूस करती हूं।
अगले दिन ऑफ़िस के लिए निकल रही थी, अम्मा गेट बंद करने के लिए गेट पर आ गई थीं कि तभी खुर्राट
बाइक लिए सामने आ खड़ा हुआ। मैं हक्का-बक्का हो गई। पूरे शरीर में सनसनाहट और पसीने
का गीलापन महसूस होने लगा। उसने अम्मा को नमस्कार कर कहा, ‘मां जीे आप परेशान ना हुआ करिए, ये मेरे साथ ही जाएंगी, आएंगी।’ अम्मा उसके नमस्कार
के जवाब में आशीर्वाद देकर बोलीं, ‘ठीक है बेटा, संभल कर चलना, धीरे चलाना।’
सवेरे लेने के लिए उसका इस तरह आना मुझे उसकी धृष्टता
लगा। अम्मा की बात खत्म होने के पहले ही वह बोला, ‘जल्दी आइए देर हो रही है। मैं बड़े धर्म-संकट में पड़ गई कि कैसे बैठूं? जैसे रोज बैठती हूं उसी तरह दोनों तरफ पैर करके या फिर, आखिर में दोनों पैर एक ही तरफ करके बैठ गई। उसकी तरह
नहीं बैठी। घर से कुछ ही दूर एक मोड़ से निकलकर उसने बाइक रोककर कहा, ‘आप आराम से बैठ जाइए। आप जानती हैं मुझे इस तरह ड्राइव
करने में दिक्कत होती है।’ मैं बिना कुछ बोले
उसकी ही तरह बैठ गई।
इस तरह उसके साथ रोज ही आना-जाना हो गया। अब जिस दिन
थोड़ा जल्दी छुट्टी मिल जाती थी, उस दिन वह इधर-उधर
घूमने-फिरने भी साथ लेकर जाने लगा था। होटल में खाना-पीना सब होने लगा। इस दौरान वह
ऐसी कोई बात नहीं करता था जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता कि उसके मन में क्या चल रहा
है। उसके घर परिवार की बात करती तो वह बात बदल देता था।
ऐसे में उसके चेहरे पर आने वाले भावों को बड़ी कोशिश कर
मैं इतना ही समझ पाती थी कि वह परिवार की बात आते ही चिढ़ जाता है। उसकी बातें ज़्यादातर
ऑफ़िस या फिर फ़िल्मों के बारे में होती थीं। एक बात जरूर थी कि वह अक्सर बात करते-करते
एकटक मुझे देखने लगता था। मैं सकपका कर पूछती ऐसे क्या देख रहे हैं? तो वह कहता, ‘कुछ नहीं।’ जल्दी ही मेरी ज़िंदगी ऐसे उळहा-पोह में पड़
गई थी कि मैं समझ ही नहीं पाती थी कि क्या हो रहा है। घर बाहर वही हर तरह से दिमाग
में घूमता रहता था। बड़ी देर रात तक नींद नहीं आती थी। मैं पूर्व की ही तरह समय को भी
बड़ी तेज़ी से बीतते देख रही थी।
एक दिन रात करीब बारह बजे उसका फ़ोन आया। मोबाइल में उसका
नाम देखकर मैं घबरा गई कि इतनी रात को क्यों फ़ोन किया है। जल्दी से कॉल रिसीव की साथ
ही यह भी देखती रही कि अम्मा जाग तो नहीं रहीं। मैंने हेलो कहा तो वह बोला, ‘आप अभी भी जाग रही हैं?’ मैंने कहा, नहीं सो रही थी, रिंग हुई तो नींद खुल गई।
आपकी कॉल देखकर घबरा गई, क्या हुआ? मैं बात करते हुए घर के एकदम दूसरे कोने में चली गई, कि अम्मा कहीं जाग ना जाएं, बात ना सुन लें। वह बोला, ‘बस नींद नहीं आ रही थी तो सोचा शायद आप जाग रही हों तो
आपसे बातें करूं।’
मैंने झूठ कहा, नहीं मैं जल्दी सो जाती हूं। सुबह जल्दी उठना होता है। तो उसने कहा, ‘ठीक है, रखता हूं, सॉरी आपकी नींद खराब की, डिस्टर्ब किया आपको।’ मुझे लगा कि जैसे यह कहते वक्त उसकी आवाज़ कुछ बदल गई है। मैंने सोचा कि कहीं नाराज
ना हो जाए तो तुरंत कहा, नहीं-नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है। अब जाग ही गई हूं। आप बात करिए।
असल में मेरा मन स्वयं उससे बात करते रहने का हो रहा
था। सारी रात बात करने का। मैं बोलते वक्त थोड़ा हड़बड़ा गई थी। उसने मुझे तुरंत रिलैक्स
होने के लिए बोला फिर तुरंत वही फ़िल्मी डॉयलॉग कि आप आज के बाद मुझे सर नहीं कहेंगी।
आप मेरा नाम लेकर बुलाएंगीं।
मैंने तर्क़ किया लेकिन उसकी जिद के आगे सब फेल। फिर हमारी
बातें आगे बढ़ीं तो बढ़ती ही गईं। उस समय पहले जैसी कोई बात नहीं थी। वह तब जो बातें
कर रहा था, वह सब पहली बार कर रहा था। मैं जो जवाब दे
रही थी, जो कुछ कह रही थी वह सब मैं भी पहली बार
कह रही थी। उसने रोमांटिक बातें शुरू कीं और फिर कुछ ही देर में अंतरंग होता गया।
ऐसी रोमांटिक अंतरंग बातें जो जीवन में मैं पहली बार
सुन रही थी। जिन्हें मैं कभी सोच भी नहीं पाई थी। मैं रोमांच उत्तेजना के कारण सिहर
जा रही थी। मैं आश्चर्यचकित थी कि मेरे बारे में वह ऐसे ख्याल रखता है। वह अब मुझे
आपकी जगह तुम बोल रहा था। बीच-बीच में उसने मुझे कई बार टोका कि तुम हांफ क्यों रही
हो। तब मेरा ध्यान जाता कि मैं वाकई हांफ रही हूं। वह सेकेंड-दर-सेकेंड फ्रैंक, बोल्ड होता जा रहा था। और मैं सम्मोहित सी उसी स्तर पर
चढ़ती-उतरती चली जा रही थी।
शादी की पहली रात के बाद यह दूसरी ऐसी रात थी जिसे मैं
चाह कर भी अब भी भुला नहीं पा रही हूं। मुझे पल-पल बीतते समय का यूं तो हमेशा पता रहता
है लेकिन उस रात तो बातों में पता ही नहीं चला कि पल-पल करके साढ़े तीन घंटे कैसे बीत
गए, मैं जैसे नींद से जागी जब उसने अचानक ही
एक बेहद गहरी किस करते हुए कहा, ‘अब तुम सो जाओ स्वीटहार्ट, माय ड्रीम क्वीन, सुबह ऑफ़िस भी चलना है।’ उसके विवश करने
पर नहीं बल्कि उसके किस करने पर जवाब में स्वतः ही मुझसे भी किस हो गया था।
उसके हंसने फिर एक और किस की आवाज़ मुझे सुनाई दी थी।
मगर तब मैं गहरी सांस लेकर उसे सिर्फ़ गुड नाईट कह सकी थी। फ़ोन डिस्कनेक्ट नहीं कर
सकी, उसी ने किया। साढ़े तीन घंटे बाद मेरा ध्यान
पूरी तरह अपनी तरफ गया। मैंने महसूस किया कि मैं पूरी तरह पसीने-पसीने हूं। मेरी सांसें
उखड़ी हुईं थीं। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
मैं अंदर आ कर लेट गई। अम्मा पर नाइट बल्ब की हल्की रोशनी
में ही एक गहरी नजर डाली थी, कि वह जाग तो नहीं
रही थीं। उन्हें देख कर मुझे लगा कि मैं बच गई। अम्मा सो रही हैं। वह मेरी बातें नहीं
सुन सकीं। साढ़े तीन बज रहे थे। नींद से आंखें कड़ुवा रही थीं। बेड पर लेटी हुई थी लेकिन
सो नहीं पा रही थी। उसकी बातें कानों में गूंज रही थीं। कुछ समझ में नहीं आ रहा था
कि मुझे क्या हुआ है?
सुबह नींद खुली। ऑफ़िस का ध्यान आते ही हड़बड़ा कर उठ बैठी।
सामने दीवार घड़ी पर नजर पड़ते ही पैरों तले जमीन खिसक गई। दस बज रहे थे। ज़िंदगी में
उतनी तेज़ उससे पहले और अब तक मैं बेड से कभी नहीं उतरी। मैंने घबराते हुए अम्मा का
बेड देखा, वह खाली था। इस बार पैरों के नीचे से ज़मीन
खिसकी नहीं एकदम से गायब हो गई। मैं गहरे और गहरे अंतहीन घनघोर अंधेरे कुएं में गिरती
चली गई। डर के मारे पूरा शरीर सांय-सांय कर रहा था।
पांच बजे उठ जाने वाली अम्मा, जिस दिन मेरी नींद नहीं खुलती थी, उस दिन बड़े प्यार से माथे को सहला-सहलाकर उठाने वाली
अम्मा, अक्सर माथे पर चूम लेने वाली अम्मा, कहां है? आज चूमा क्यों नहीं? जगाया क्यों नहीं? उठाया क्यों नहीं? अंदर-अंदर कांपती। थर-थराते, कंप-कंपाते और घबराते
क़दमों से हांफती-दौड़ती मैं सारे कमरे, किचेन, बाथरूम हर जगह देख आई। अम्मा कहीं नहीं थीं। आंगन में
भी नहीं।
सीढ़ियां दौड़ती-फलांगती ऊपर छत पर पहुंची, अम्मा वहां भी नहीं थीं। मेरा सिर चकराने लगा। धूप-छांव
हो रही थी। बादलों के बड़े-बड़े टुकड़े इधर-उधर हो रहे थे। उनके बीच-बीच में से नीला आसमान
झांक रहा था। मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से बैठा जा रहा था। मैं जमीन पर बैठे-बैठे
रोने लगी कि अम्मा, मेरी प्यारी अम्मा, मेरे लिए अपने लड़कों, सारे रिश्तेदारों को भी सेकेंड भर में त्याग देने वाली अम्मा ने क्या हमारी बातें
सुन लीं, क्या वह अपनी प्यारी बिटिया को चरित्रहीन
मान बैठी हैं। अपने से करीब-करीब बीस बरस छोटे आदमी से अंतरंग बातें कर रही थी, यह क्या उन्हें घृणास्पद लगा। क्या विकृति लगी। इतनी
ज़्यादा घृणास्पद कि मुझसे नफरत कर बैठीं। उनका दिल टूट कर बिखर गया। लड़कों, रिश्तेदारों से निराश अम्मा को सारी आशा मुझसे ही थी।
उनके सारे सपने मुझसे ही थे। जिसे मैंने लड़कों से भी
ज़्यादा बुरी तरह तोड़ दिया, कुचल दिया। हर तरफ
से हताश-निराश अम्मा कहीं कुछ अनहोनी... कहीं उन्होंने कोई आत्मघाती क़दम तो नहीं उठा
लिया। मैं कुछ मिनट बैठी यही सोचती रही। फिर उठकर नीचे आई यह सोचते हुए कि अम्मा अगर
तुमने ऐसा कुछ किया है तो मैं भी अभी-अभी यहीं जान दे दूंगी।
नीचे उतरते हुए मेरे दिमाग में यह भी आया था कि खुर्राट
ऑफ़िस जाते हुए मुझे लेने आया होगा। अम्मा ने उसे दरवाजे से ही भगा दिया होगा। उसके
बाद खुद...। तमाम अनहोनी बातों की भयावह तस्वीरों की आंधी दिमाग में लिए मैं कमरे में
पहुंची कि मोबाइल उठाऊं, खुर्राट को फ़ोन करके पूछूं कि उससे अम्मा ने क्या कहा। उसके लिए मन में कई
अपशब्द निकल रहे थे, कि क्या जरूरत थी इतनी
रात को फ़ोन करने की, ऐसी बातें करने की। दिन
भर तो साथ रहती हूं, जितनी बातें करनी थी, जैसी भी करनी थीं, वहीं कर लेता।
इतने दिनों तक तो कैसा जेंटलमैन बना रहा। यह तो उन सबसे
भी शातिर निकला। पहले खुर्राट बन अपनी अलग तरह की इमेज का जादू चलाया। इंप्रेस किया।
धीरे-धीरे जाल में फंसाता रहा। जब जाल में फंस गई पूरी तरह तो असली रूप में आया। अपनी
इच्छा जाहिर कर दी। कैसी-कैसी बातें कर रहा था। अकाउंटेंसी की तरह कामुक बातों का भी
पूरा पंडित है। उम्र में कितनी बड़ी हूं, लेकिन कितनी बातें पहली बार जान रही थी, सुन रही थी।
कुछ बातें मुझे बड़ी गंदी, घृणास्पद लगीं। यह सोच कर मैं हैरान हो रही थी कि मुझे
क्या हो गया था कि मैं तीन साढ़े तीन घंटे तक ऐसी बातें सुनती रही। न जाने क्या-क्या
उसके कहने पर बोलती,...छि। घिन आने लगी मुझे।
मोबाइल उठाकर भी मैं खुर्राट को फ़ोन नहीं कर सकी।
मैंने सोचा अम्मा ने जो भी किया होगा उसके लिए अकेले
खुर्राट ज़िम्मेदार नहीं है। मैं भी हूं। बल्कि मैं ही ज़्यादा हूं। वह पच्चीस-छब्बीस
का है, जवान है। मैं तो पैंतालीस की हो रही हूं।
शादीशुदा, नहीं-नहीं परित्यक्ता हूं, तरह-तरह के अनुभव से गुजरी परित्यक्ता हूं। आदमी की निगाह
सेकेंड भर में पढ़ सकती हूं। इसे, इसे भी तो समझ ही
रही थी। सच तो यह है कि मैं स्वयं ही उसके लिए उत्सुक होती जा रही थी। यह जानते हुए
भी कि अम्मा बगल कमरे में सो रही हैं। रात में कई-कई बार बाथरूम के लिए उठती हैं। किसी
भी समय उठ सकती हैं, बातें सुन सकती हैं।
मैं यह सब एक बार भी सोचे बिना कैसी निडरता के साथ बतियाती
रही। इतनी बेशर्मी, निर्लज्जता से भरी बातें
सुनकर अम्मा के दिल पर क्या बीती होगी। उन पर तो जैसे वज्रपात हुआ होगा। उनका कलेजा
फट गया होगा, कि जिस लड़की को सबसे ज़्यादा पाक-साफ, स्वाभिमानी, मान-मर्यादा वाली समझती रहीं, वही सबसे ज़्यादा
निर्लज्ज निकली।
लड़के तो संपत्ति के लिए गलत निकले। अम्मा ने अब भाई-भाभियों
के झूठे आरोपों को भी सच मान लिया होगा कि मेरा उस ज्योतिषी के साथ वाकई सम्बन्ध रहा
होगा। निश्चित ही मेरी बातें सुन कर वह बर्दाश्त नहीं कर सकी होंगी और चली गईं कहीं।
पांच-छः घंटे हो रहे हैं। मैं अब उनको ढूंढूं भी तो कहां? मिल जाने पर क्या मुंह दिखाऊंगी? अम्मा तो सीधे मुंह पर थूक देंगी। मेरी छाया भी नहीं
देखना चाहेंगी।
इससे अच्छा है कि मैं मर ही जाऊं। वैसे भी ज़िंदगी में
मेरी बचा क्या है जिसके लिए जियूं। बेवजह घुट-घुट कर जीने से अच्छा है मर जाऊं। दुनिया
की उपेक्षा, नफरत को तो मैं सह सकती हूं, लेकिन अम्मा की नहीं। मेरा मर ही जाना अच्छा है। अम्मा
को ढूंढ़ने जाने का भी अब क्या फायदा। उन्होंने...।
मैंने मर जाने का निश्चय किया। समस्या मेरे साथ मेरी
साया की तरह रहती है। तो इस समय भी सामने आई कि मरूं कैसे? घर में कोई जहर वगैरह तो है नहीं। आखिर फांसी की सोच
कर अम्मा की साड़ी ले आई। मैं रोती भी जा रही थी और फंदा भी बनाती जा रही थी। तभी गेट
के बंद होने और किसी के अंदर आने की आहट मिली। कुछ अनुमान लगाने की स्थिति में नहीं
थी। जल्दी-जल्दी आंसू पोंछे। अम्मा की साड़ी जल्दी से पास पड़ी कुर्सी पर डालकर बाहर
निकलने को हुई तभी अम्मा सामने आ गईं।
मैं एकदम हक्का-बक्का उन्हें देखती रह गई। आंसू जैसे
जहां के तहां जम गए। आवाज़ हलक में ही फंस कर रह गई। कुछ क्षण पहले तक जहां इस संदेह
में कि अम्मा ने कुछ कर लिया है, इस दुख में रो रही
थी, मरने जा रही थी, अब उन्हें देखकर खुश होने के बजाय मैं इतना डर गई कि
मेरी घिग्घी बंध गई। जैसे अचानक ही कोई शेर, चीता सामने आ गया हो।
मैं थर-थर कांपती, स्टेच्यू बनी खड़ी, अपलक उन्हें देखती रह गई।
तब अम्मा अचंभित होती हुई बोलीं, ‘क्या हुआ बिटिया? तुम रो क्यों रही हो? बाहर तक आवाज़ जा रही है। बताओ क्या हुआ?’ अम्मा एकदम मेरे पास आ गईं। मेरा हाथ पकड़ कर बेड पर बिठा दिया। खुद बगल में बैठ
कर दोनों हाथों से मेरे आंसू पोंछते हुए कहा, ‘बिटिया ऐसे मत रो। तुम ऐसे रोओगी तो मैं सह नहीं पाऊंगी।’
मैं अजीब असमंजस में पड़ गई कि क्या अम्मा मेरी और खुर्राट
की कोई बात नहीं सुन पाई थीं। मैं नाहक परेशान हो रही थी। अम्मा पांच मिनट और ना आतीं
तो अब तक मैं फंदे पर लटक रही होती। मेरी रुलाई इतनी तेज़ ना होती तो अम्मा अभी बाहर
ही बैठी रहतीं। अम्मा मुझे एकदम बुत बनी देखकर अचानक उठकर किचेन में गईं, एक गिलास पानी लेकर आईं, मुझे अपने हाथ से पानी पिलाकर कर बोलीं, ‘बिटिया बोल न क्या बात हुई?’ उनका गला रुंध
गया था। मैं अचानक ही उनसे चिपट कर बिलख पड़ी।
मेरा सिर उनकी गोद में था। उसी गोद में जिसका साया बचपन
में मिलते ही मैं चट-पट सो जाती थी। मैंने रोते-रोते कहा अम्मा मुझे माफ करना, मुझसे बड़ी गलती हो गई। मुझे बचा लो। अब फिर से ऐसी गलती
नहीं होगी। अम्मा ने मुझे जगाया नहीं था इसलिए मुझे पूरा यकीन हो गया था कि उन्हें
सब मालूम है। बस इतनी उम्र-दराज अपनी बिटिया को क्या कहें, कैसे कहें, इसी अनिर्णय के कारण बाहर पांच घंटे से बैठी थीं। अम्मा बड़े प्यार से मेरा सिर
कुछ देर तक सहलाती रहीं। फिर बड़े भावुक स्वर में बोलीं, ‘बिटिया तुम से कोई गलती नहीं हुई। इसलिए तू एकदम ना रो।
गलती तो हमसे हुई,
और रोना-पछताना तो हमें
चाहिए। तुमसे तो हमें माफी मांगनी चाहिए।’
अम्मा की बात सुनकर मैं दंग रह गई। मैं सिसकते हुए बोली, अम्मा यह क्या कह रही हो। माफी मांग कर मुझे जीते जी
नर्क में क्यों डाल रही हो। न जाने कौन से पाप किए थी जो यह जीवन इस तरह बीत रहा है।
अम्मा ने मेरा सिर दोनों हाथों से ऊपर उठाया। फिर आंसू पोंछते हुए कहा, ‘तुम अपने दिमाग से यह सब निकाल दो कि तुमने कोई पाप किया
है।’ अम्मा की बातों से मुझे बहुत ताकत मिली।
मैं सारी ताकत बटोर कर बोली, अम्मा मैं दस बजे
तक सोती रही तुमने आज उठाया क्यों नहीं? पहले तो उठा दिया करती थी। अम्मा कुछ पल चुप रहने के बाद बोलीं, ‘कैसे उठाती बिटिया, चार बजे सवेरे तो तुम सोई थी। लेटने के बाद भी तुम्हें बड़ी देर तक करवट बदलते देख
रही थी। जब तुम सो गई, सवेरे नहीं उठी अपने आप, तो मैंने सोचा सोने दो। रातभर जागी हो, ऑफ़िस जाकर भी क्या करोगी।’
मैंने झट से पूछा, बल्कि मेरे मुंह से स्वतः ही निकल गया कि अम्मा वो लेने आया तो तुमने क्या...।
मैं बात पूरी भी ना कर सकी थी की अम्मा ने कहा, ‘वह भी नहीं आया। रात भर वह भी तो जागता रहा है। कैसे उठता?’ मैंने पूछा, तो अम्मा मतलब तुमने हमारी सारी बातें...। अम्मा बड़ी अधीर होकर बोलीं, ‘क्या करूं बिटिया, बुढ़ापा बड़ी खराब चीज है। नींद आती नहीं। आती भी है तो हल्की सी आवाज़ से ही खुल
जाती है। तुम्हारी नानी इस नींद को कुकुर निंदिया कहती थीं। जैसे वह हल्की आहट से ही
जाग जाते हैं वैसे ही बुढ़ापे की नींद होती है।
जब फ़ोन की घंटी बजी, तुम एकदम से मोबाइल लेकर यहां से गई, मेरी नींद तभी खुल गई थी। मुझे जरा भी अनुमान नहीं था कि उसका फ़ोन होगा। मैंने
सोचा बात कर लो,
तब पूछूं कौन है? लेकिन तुम्हारी बात बढ़ती ही गई, तुम्हारी बातों
से पता चल गया था कि किसका फ़ोन है। फिर जब तुम्हारी बातें और गहरी होती गईं तो मुझे
लगा कि मुझे नहीं सुनना चाहिए। पाप है। फिर मैंने कानों में उंगली दे दी।
मगर क्या करूं, कुछ बातें कान में पड़ ही जा रही थीं, शुरू में गुस्सा आया कि तुम यह क्या मूर्खता कर रही हो। अपने से इतने छोटे लड़के
से ऐसी बातें। मगर सोचा कि नहीं वह एक इंसान है। और तुम भी एक इंसान हो। जैसे उसकी, दुनिया भर के लोगों की ज़रूरतें हैं, इच्छाएं हैं, वैसे ही तुम्हारी भी हैं। जितना हक सबको
है अपनी जरूरतें,
इच्छाएं पूरा करने का, उतना ही तुम्हें भी है। उम्र या और किसी भी को बीच में
आने का कोई हक नहीं है। मुझे भी नहीं। बस यही सोच कर अनसुनी कर लेटी रही मैं।’
मैं उनसे पूछना चाहती थी कि अम्मा तुम्हें बुरा नहीं
लगा। लेकिन अम्मा पहले ही बोलीं, ‘सारा दोष हमारा
ही है बिटिया, एक औरत उससे भी पहले एक मां होकर भी अपनी
जवान बिटिया की भावनाएं, उसकी ज़रूरतों की तरफ ध्यान
नहीं दे पाई। देखते-देखते वह प्रौढ़ा बन गई। उसके हिस्से के सारे सुख पीछे छूटते चले
गए। लेकिन मैं परिवार, लड़कों से मिली ठोकर से
बने अपने घाव ही देखती रही। जब-तक होश आया तब-तक बहुत देर हो चुकी थी। कोई लड़का कायदे
का मिल ही नहीं रहा था।
मैं डर रही थी कि फिर से किसी गलत आदमी का पाला ना पड़
जाए। शादी के नाम पर हम फिर न ठगे जाएं। यही सब सोचते-सोचते इतना समय निकल गया। तरह-तरह
के रास्ते सोचती हूं लेकिन सब मन में ही रह जाते हैं। कोई आगे पीछे नहीं। किसको भेजूं, कहां भेजूं, क्या करूं। पास-पड़ोस में भी कोई नहीं। एक घर यहां तो दूसरा बहुत दूर। घर अकेले
छोड़कर निकला भी नहीं जा रहा है। शरीर अलग साथ नहीं दे रहा है। तेरी ज़िंदगी अपनी आंखों
के सामने पल-पल बर्बाद होते देखकर अंदर ही अंदर घुटने के सिवा मेरे वश में अब कुछ नहीं
रह गया है?’
मैंने देखा अम्मा बहुत ज़्यादा भावुक होती जा रही हैं
तो उन्हें समझाते हुए कहा, अम्मा क्यों इतना
परेशान हो रही हो,
तुम तो सब जानती हो कि
सब को सब कुछ नहीं मिलता। मुझे जो कुछ जितना मिलना था वह मिल गया। और कोई इच्छा बची
भी नहीं है। बस ना जाने कैसे उस के चक्कर में आ गई। एक ही जगह काम करते, साथ-साथ आते-जाते पता नहीं कैसे क्या हो गया मुझे। मगर
अम्मा मेरा विश्वास करो, मैं अपनी गलती सुधार लूंगी।
अब कभी उसके साथ नहीं आऊंगी, नहीं जाऊंगी। ऑफ़िस
में भी काम के सिवा एक शब्द ना बोलूंगी। आज ही उसको साफ मना कर दूंगी। होता है गुस्सा
तो होता रहे। मेरी नौकरी नहीं ले सकता। बहुत होगा तो परेशान करेगा। लेकिन कितना करेगा? खुद ही थक जाएगा। अब तो इन सब की आदत पड़ गई है।
मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोलीं, ‘नहीं, अब तुम उसे मना
नहीं करोगी। मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी देखना चाहती हूं बिटिया। मेरी बूढ़ी आंखें, मेरा अनुभव यह कहता है कि जो भी हो तुम उसके साथ खुश
रहोगी। वह भी खुश रहेगा। इसके अलावा तुम दोनों को और क्या चाहिए। और तुम खुश रहो मुझे
इसके अलावा और कुछ चाहिए, तो सिर्फ़ इतना
कि अपने जीते जी तुम्हारे लड़के-बच्चे देख लूं बस। इच्छाओं का क्या करें बेटा, बुढ़ापे में चाहत भी बहुत बढ़ जाती है।’
अम्मा ने बिना रुके अपनी बात कह डाली। मैं अवाक़ एकटक
उन्हें देखती रह गई कि मेरी अम्मा यह क्या कह रही हैं? मैं तो क्या-क्या सोच रही थी, आत्महत्या करने जा रही थी और अम्मा एकदम उलट वह कह रही
हैं जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की है। खुर्राट के साथ जीवन बिताने, शादी करने की तो मैंने सोची ही नहीं। धोखाधड़ी के चलते
जो रिश्ता बन गया उससे आगे का कोई चित्र तो ख्यालों में भी नहीं था और, और अम्मा कुछ ही घंटों में सब कुछ सोच-समझ कर इतना बड़ा
निर्णय भी ले बैठीं हैं।
मैं उनकी बेटी होते हुए भी सच में उनसे बहुत पीछे हूं।
मैंने उनके निर्णय पर कहा अम्मा तुम समझ रही हो कि तुम क्या कह रही हो? लेकिन अम्मा कुछ सोचने, सुनने, समझने को तैयार
ही नहीं हुईं। एकदम ज़िद कर बैठी थीं कि अभी खुर्राट को बुलाओ। अभी बात करेंगे। मैंने
टालने के लिए कहा अब तक वह ऑफ़िस चला गया होगा। लेकिन उन्होंने बात पकड़ते हुए कहा, ‘बिटिया हमें आज बहकाओ नहीं। ऑफ़िस गया होता तो यहां होकर
जाता। जितना भी उसको सुना है उसके हिसाब से वह तुम्हें लिए बिना जा ही नहीं सकता।’
अम्मा की जिद के आगे मैंने फ़ोन किया तो सच में वह उस
समय सो कर उठा था और मुझे फ़ोन करने ही वाला था कि मैं ऑफ़िस चली गई क्या? मैंने उससे तुरंत घर आने के लिए कहा। कहा, चाय-नाश्ता यहीं करना, अम्मा कह रही हैं। मेरी बात पर सशंकित हो उसने पूछा, ‘बात क्या है? सब ठीक तो है ना।’ मैंने कहा सब ठीक है। बस
आ जाओ। उसने ऑफ़िस चलने की बात की तो मैंने कह दिया आज नहीं जाऊंगी।
वह जब आया तो अम्मा ने बहुत खुलकर सारी बातें कीं। बिना
संकोच यह भी कहा कि, ‘तुम दोनों की सारी बातें
सुनने के बाद मुझे शादी से अच्छा कोई रास्ता नहीं दिखता। तुम्हारी बातों से मुझे पूरा
विश्वास हो गया है कि तुम दोनों खुश रहोगे। मैं नहीं चाहती कि समय, समाज, मैं या कोई भी तुम
दोनों की खुशी के बीच आए।’ खुर्राट की तमाम
बातों का अम्मा एक ही जवाब देतीं थीं कि, ‘तुम्हारे बारे में जितना जानती हूं, उससे ज़्यादा मुझे कुछ जानना भी नहीं है। अम्मा की हड़बड़ी, उनकी जल्दबाजी हम दोनों को हैरान किए हुए थी।
मैं हैरान इस बात पर भी थी कि खुर्राट से बातें करते
समय मोबाइल का साउण्ड कुछ ज़्यादा था। मगर तब खुर्राट की बातों में मैं ऐसी खोयी, उलझी थी कि मेरा ध्यान इस तरफ गया ही नहीं। जिससे खुर्राट
को भी अम्मा सुनती रहीं। मैं उन बातों को सोच-सोचकर शर्म से गड़ी जा रही थी, जिन्हें अम्मा ने भी सुना था। आखिर अम्मा की जिद के चलते
हमें उनकी बातें माननी पड़ीं। तीसरे ही दिन एक मंदिर में हम दोनों की महज दस मिनट में
शादी हो गई।
भगवान के सिवा अम्मा और पुजारी साक्षी बने। और आशीर्वाद
भी दिया। पुजारी को अम्मा और खुर्राट ने उसकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा दान-दक्षिणा
दी। मुझसे भी दिलवाया। मंदिर में उपस्थित करीब दर्जनभर लोगों को खाना भी खिलाया गया।
मिठाई-फल भी दिया गया। कुछ भिखारी भी थे उन्हें भी खूब खिलाया गया। खूब दिया गया, पैसा भी। तैयारी के नाम पर हम सब ने कुछ सिंपल से कपड़ों
के अलावा कुछ नहीं लिया था।
मेरी इस बड़ी बेमेल सी दूसरी शादी का हर काम ही एकदम अलग
तरह से, लीक से हटकर हुआ। शादी की रस्म के बाद मैं
ससुराल यानी अपने नए-नवेले पति खुर्राट के घर नहीं गई। अम्मा ने उससे हाथ जोड़कर प्रार्थना
की, ‘बेटा इस घर में है ही कौन? तुम दामाद बेटा सब कुछ हो गए हो मेरे लिए। अब तुम यहीं
रहो।’ अबकी अम्मा की ज़िद नहीं उनकी याचना, उनके स्नेह-प्यार, आंसुओं से भरी आंखों के सामने खुर्राट मोम बन गया। पिघल गया। नतमस्तक हो गया। अम्मा
दो दिन में जो खरीददारी कर पाई थीं दामाद के लिए, घर में जो तैयारी की थी वह खुर्राट के लिए आश्चर्यजनक थी। और मुझे सुहाग सेज पर
उसने आश्चर्य में डाल दिया सोने नहीं डायमंड के जेवर देकर।
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। तभी उसने यह भी बताया
कि अगर वह अम्मा की बात ना मानकर मुझे अपने यहां ले जाता तो एक छोटा सा बेड हमारी सुहाग
सेज बनता, या फिर ज़मीन। जहां ना जाने कब से झाड़ू भी
नहीं लगी है। जो भी नाम-मात्र की चीजें हैं वह सब अस्त-व्यस्त बिखरी पड़ी हैं। हमारी
तरह उसने दो दिन में भी कुछ इसलिए नहीं किया क्योंकि वह दो-तीन हफ्ते होटल में ही रहने
का प्लान बनाए हुए था। और इसी बीच कहीं किराए का मकान लेकर नए सिरे से सब कुछ खरीदना
चाहता था। मगर अम्मा के प्यार ने उसका प्लान बदल दिया। दो दिन में ऑफ़िस के अलावा वह
और कुछ काम कर सका तो बस इतना कि बैंक से पैसा निकालकर मेरे लिए डायमंड सेट ले पाया।
पसंद करने में सारी मदद ज्वैलर के यहां सेल्स वूमेन ने की। जिसकी आंखें और होंठ उसकी
नज़र में बेहद खूबसूरत थीं। मगर मुझे उसकी यह बात सिवाय ठिठोली के और कुछ नहीं लगी थी।
मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह हुआ कि सुहाग-सेज पर मुझे
मेरा खुर्राट नहीं मिला। जो मिला वह एक बेहद संकोची, शर्मीला, भावुक इंसान मिला। मैं चकित थी कि फ़ोन पर
ना जाने कैसी-कैसी बातें करने वाला खुर्राट कहां चला गया। जिस खुर्राट के इंतजार में
मैं जोश, उमंग, रोमांच में शुध-बुध खोती जा रही थी, रात में उसके एकदम बदले रूप ने मुझे झकझोर कर रख दिया था। मैं विस्मित सी बैठी
उसके हाथों से गले में डायमंड नेकलेस पहन रही थी, और साफ महसूस कर रही थी कि मेरे प्यारे खुर्राट के हाथ कांप रहे हैं। उसका पूरा
शरीर थरथरा रहा था। मैं जोश, उमंग, रोमांच, उत्तेजना शून्य
हो बस उसके थरथराते जिस्म को गहराई तक पढ़ने का प्रयास कर रही थी।
दूसरी शादी की सारी खुशियां मुझे लगा कि मेरी मुट्ठी
से रेत की तरह फिसलती जा रही हैं, और मैं उन्हें रोक
पाने में असमर्थ हूं। मुझे लगा हो ना हो, अम्मा, मेरा, दोनों ही का निर्णय गलत होने जा रहा है। बेमेल विवाह की यह गाड़ी हिलते-डुलते थोड़ा-बहुत
सफर तय कर ले यही बड़ी बात होगी। खुर्राट से मासूम गुड्डा बने अपने पति पर मुझे बड़ी
दया आ रही थी। बड़ी तरस आ रही थी। मैंने सोचा कि कहीं यह भी मेरी तरह सपने टूटने की
हताशा में डूबने लगे, इसके पहले कि इसकी भी मुट्ठी
से खुशियां फिसलने लगे, मुझे इसकी मुठ्ठी अपनी
ही दोनों हथेलियों में थाम लेनी चाहिए। मैंने पूरी कोशिश की, कि उसे उसकी सारी खुशियां मिलें। लेकिन विश्वास के साथ
अब भी नहीं कह सकती कि तब उसे वह खुशियां मिली थीं कि नहीं।
मैं अगले पंद्रह दिन तक छुट्टी पर रही। वह जाता रहा।
उसने ऑफ़िस में किसी को नहीं बताया। कहा, ‘साले इस लायक नहीं कि उनसे अपनी खुशी शेयर की जाए।’ मैंने कहा लेकिन जब मैं चलूंगी तब तो सब सिंदूर-बिंदी
देखकर जान ही जाएंगे कि शादी हो गई है। तो उसने कहा, ‘तुम्हारी शादी हो गई है यही जानेंगे ना। किससे हुई है यह तो जब हम बताएंगे तब पता
चलेगा।’ यही हुआ भी। ऑफ़िस में हम दोनों पहले की ही
तरह रहते। लोग पूछते हस्बैंड के बारे में तो मैं टाल जाती।
अम्मा खुश थीं कि मैं खुश हूं। लेकिन मैं कितना खुश थी
यह मैं ही जानती थी। खुर्राट कितना खुश था कितना नहीं यह वही जानता था। लेकिन उसे देख
कर मुझे शत-प्रतिशत भरोसा था कि कम से कम वह मुझसे ज़्यादा खुश था। अम्मा को लेकर मेरा
आकलन गलत निकला।
अम्मा की अनुभवी आंखों ने मेरी पेशानी पर कुछ इबारतें
पढ़ ली थीं। बड़े संकोच से एक दिन मेरे सिर में तेल लगाते हुए पूछा, ‘बिटिया तू खुश तो है ना, मुझसे कोई गलती तो नहीं हो गई।’ यह सुनते ही मैं एक झटके में उनकी तरफ मुड़ी। पूछा, क्यों अम्मा ऐसा क्यों पूछ रही हो? वह बोलीं, ‘पता नहीं क्यों बिटिया इधर कुछ दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि तेरे चेहरे
पर कुछ उदासी सी बीच-बीच में तैर जाती है।’ अम्मा से यह सुनते ही मैंने उन्हें बाहों में भर लिया। फिर उन के माथे को चूम कर
कहा, क्यों अम्मा, क्यों इतना चिंता करती हो? मैं एकदम खुश हूं। तुम्हें दिखता नहीं मैं कितना खुश
रहती हूं।
मैं एकदम सफेद झूठ बोलती गई। अम्मा कुछ देर जैसे मेरे
चेहरे को पढ़ने के बाद बोलीं, ‘हां बिटिया तुम
ऐसे ही हमेशा खुश रहो। तुम्हारे चेहरे पर जरा भी चिंता मेरी जान ही निकाल लेती है।
बस बिटिया अब जल्दी से एक नाती दे दो तो घर का सूनापन खत्म हो जाए। सूना-सूना घर अब
बड़ा खराब लगता है।’ अम्मा की बात पर मुझे बड़ा
तेज़ झटका लगा। साथ ही उनकी नादानी पर हंसी भी आ गई।
मैंने जब अपनी ज़्यादा हो चुकी उम्र की बात उठाई, कहा कि अब कहां इस तरह की कोई उम्मीद है तो अम्मा का
जवाब सुनकर मैं उन्हें एकटक देखती रह गई। डॉक्टर से मिलने से लेकर आईवीएफ टेक्नोलॉजी
को यूज़ करने तक की बात करने लगीं। मैं अचंभित रह गई जब उन्होंने अपनी अलमारी से कई
अखबारों के पन्नों के टुकड़े निकाल कर मेरे सामने रख दिए और उन में आईवीएफ टेक्नोलॉजी
से निसंतान दंपत्ति को संतान पैदा कराने के विज्ञापनों को दिखाते हुए कहा, ‘देखो यह सब क्या है? इनमें से किसी के यहां जाकर दिखाओ।
बिटिया उम्र की बात हमारे भी मन में थी। मगर इसमें जो
बातें लिखीं हैं उससे हमें विश्वास है कि इस घर में भी नन्हें-मुन्नों की किलकारी जरूर
गूंजेंगी। तुम्हारी गोद जरूर हरी-भरी होगी।’ कहते-कहते अम्मा एकदम भावुक हो गईं। उनका गला भर आया। अपने लिए उनकी भावना, उनके प्यार, चिंता को देखकर मेरा दिल भर गया। मेरी भी आंखें भर आईं। मैंने लाख कोशिश की लेकिन
अम्मा को चुप कराते-कराते खुद भी उनसे ज़्यादा रोने लगी।
तब उल्टा अम्मा हमें चुप करा रही थीं। मेरे सब्र का बांध
इसलिए टूटा, इसलिए मैं न रोक पाई खुद को, क्योंकि मन में खुर्राट और अपने बीच जो अनकही सी दूरी
के बीज अंकुरित होते देख रही थी, उन्हें देखते हुए
तो बच्चे का सपना देखना भी मूर्खता थी। वह भी आईवीएफ जैसी बेहद जटिल, खर्चीली टेक्नोलॉजी के जरिए। मगर यह बातें अम्मा से कह
कर मैं उन्हें दुख नहीं देना चाहती थी। दुख क्या यह सुनकर तो उन पर वज्रपात ही हो जाता।
अपनी बात, अपना दर्द मैं कह भी नहीं सकती थी। अम्मा
से भी नहीं। इसी विवशता ने मेरे आंसू और भी नहीं रुकने दिये थे। कुछ देर बाद अम्मा
का दुख कम करने के लिए मैंने झूठ ही कहा, ठीक है अम्मा,
मैं इनसे बात करूंगी। जाऊंगी
किसी डॉक्टर के पास।
जब अम्मा से मैंने यह बात कही थी, तब मन में बिल्कुल नहीं था कि इस बारे में अपने मुंह
से खुर्राट पति से बात करूंगी। मगर मन में इस बात को लेकर उथल-पुथल मची रही। रात में
उनको काफी जॉली मूड में देखकर मेरी भी बरसों-बरस से दबी इच्छा एकदम जाग उठी। मैं मचल
उठी। पति महोदय से बात उठाई तो देखा कि उनकी स्वाभाविक हंसी बनावटी हंसी में बदल गई।
मेरी बगल में बैठे थे, उठे, एक हल्की सी थपकी पीठ पर मारी और बाथरूम में चले गए।
लौटे तो मोबाइल उठा कर किसी को कॅाल की और बात करने लगे। मुझे उनका जवाब मिल चुका था।
इतना स्पष्ट जवाब दिया था कि शक-सुबह की रंच मात्र को भी गुंजाइश नहीं थी।
मेरा दिल रो उठा। कलेजा फट गया। अपनी मूर्खता पर गुस्सा
नहीं आया बल्कि खून खौल उठा कि सब कुछ जानते समझते हुए मैंने यह मूर्खता नहीं बल्कि
यह पागलपन क्यों किया। पहली मूर्खता तो इनकी बातों में आकर, भावनाओं में बहकर इनके इतने करीब चली गई। फिर अम्मा की
बातों को मान लिया जो वास्तव में मेरे मन में ही अंकूवाई बात थी। आनन-फ़ानन में शादी
कर ली। कितना सही कहा गया है कि जल्दी का काम शैतान का होता है।
मेरा मन फूट-फूटकर रोने को कर रहा था। बेड पर एक तरफ
करवट लेकर लेट गई। मैं पूरी ताकत से अपनी रुलाई रोकने में लगी हुई थी। दस मिनट बाद
ही खुर्राट को भी बेड पर लेटते महसूस किया। मुझे जवाब देने के लिए बात करने का ड्रामा
खत्म हो गया था। मैंने जब उनके हाथों का स्पर्श अपनी बाहों पर महसूस किया तो मैंने
तुरंत ही उनकी ही तरह ड्रामा किया। बात करने का नहीं, सोने का। खुर्राट ने पूछा, ‘सो गई क्या?’ लेकिन मैं एकदम निश्चल पड़ी रही। शरीर को एकदम ढीला छोड़ दिया, जिससे उनको जरा भी शक ना हो। मुझे तब और कष्ट हुआ जब
वह अगले ही पल दूसरी तरफ करवट होकर सो गए। ‘सो गई क्या?’
यह पूछ कर उन्होंने केवल
कंफ़र्म किया था कि मैं सो रही हूं कि नहीं।
इस रात के बाद मैंने फिर कभी उनसे इस चैप्टर पर एक शब्द
तो क्या एक अक्षर ना बोली। अम्मा पूछतीं तो लगातार झूठ बोलती कि डॉक्टर के पास गई थी, यह बताया, वह बताया। कुछ दवाएं भी दी हैं। पूरा कोर्स होने के बाद आने को कहा है। अम्मा से
झूठ बोलने, उन्हें धोखे में रखने का पाप मैं लगातार
करती रही। बोलते वक्त मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती थी। मन कचोटता था, लेकिन मैं अपनी इस बात पर अडिग थी कि चाहे जो भी हो जाए, चाहे दुनिया के सारे पापों के बोझ तले दबकर मैं खत्म
हो जाऊं, लेकिन सच बता कर अम्मा की आंखों में आंसू
नहीं आने दूंगी।
लेकिन मेरी कोशिश आंशिक ही सफल हो रही थी। जैसे-जैसे
समय बीत रहा था वैसे-वैसे उनकी आंखों में आंसू की चमक मैं और तेज़ होते देख रही थी।
उनकी बातचीत भी कम होती जा रही थी। चेहरे पर सूनापन, विरानापन गहरा और गहरा होता जा रहा था। हमारे और खुर्राट के बीच मधुरता का विलोपन
भी गहरा होता जा रहा था। घर में सूनापन अपनी जगह और बड़ी करता जा रहा था। और एक दिन
यही सूनापन लिए अम्मा मेरे जीवन का आखिरी कोना भी एकदम सुना करके चली गईं। रात ग्यारह
बजे मैं उनकी दवाओं का डिब्बा, पानी और घंटी का
लंबे तार वाला स्विच उनके बेड के बगल में स्टूल पर रख कर सोने गई थी।
मैंने महीने भर पहले ही यह घंटी उनकी बढ़ती स्वास्थ्य
संबंधी समस्याओं को देखते हुए लगवाई थी, कि अम्मा जरूरत पड़ने पर स्विच दबा देंगी तो मेरे कमरे में घंटी बज जाएगी। मैं तुरंत
उनके पास पहुँच जाऊंगी। लेकिन अम्मा ने घंटी नहीं बजाई। कंबल, बिस्तर की हालत, स्टूल से नीचे गिरा पानी का गिलास और दवाई का डिब्बा और खुद वह जिस तरह बिस्तर
पर पड़ी थीं, वह सारी स्थितियां चीख-चीख कर बता रही थीं
कि अम्मा ने तकलीफ़ बढ़ने पर दवा पानी लेने की कोशिश की थी। और जल्दी में नीचे गिर गईं।
फिर बड़ी कोशिश कर बिस्तर पर पहंुच तो गईं। लेकिन अपने को सही पोज़ीशन में भी नहीं कर
पाईं। स्विच जैसे का तैसा स्टूल पर पड़ा था। उन्होंने मुझे परेशान करना नहीं चाहा था।
जबकि सच यह है कि यह करके उन्होंने मुझे ऐसा दुख दिया है, जो जीवन भर मेरे साथ रहेगा।
मैंने उनकी अंतिम इच्छा का भी पूरा ध्यान रखा, कई बार भाइयों को सूचना देने के लिए सोचा लेकिन अंततः
क़दम रळक गए। वैसे भी मुझे घर का एड्रेस आदि याद ही नहीं था। किसी का कोई कॉन्टेक्ट
नंबर भी मेरे पास नहीं था। मैं अम्मा के ना रहने पर भी उनकी हर बात का अक्षरशः पालन
करने का प्राण-प्रण से प्रयास करती रही। ऑफ़िस में भी किसी को सूचना नहीं दी। कुछ पड़ोसी
आ गए थे। जो खुर्राट के परिचित थे। खुर्राट दामाद होने का रिश्ता बखूबी निभा रहे थे।
अर्थी को कंधा देने के लिए वह खुद ही आगे बढ़े।
मैं भी आगे बढ़ी, लेकिन उन्होंने एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ा। मना करना चाहा, लेकिन मैंने अपने दूसरे हाथ से उनका हाथ हटा दिया। जो
पड़ोसी कंधा देने के लिए खड़े थे उनमें से आगे वाले एक ने मुझे आगे बढ़ा देखा तो खुद ही
पीछे हट गए। मैं अपनी मां को कंधे पर लेकर आगे बढ़ी। पीछे वालों ने राम-नाम सत्य है, का मध्यम स्वर में उच्चारण शुरू किया। पास-पड़ोस के बहुत
से लोग अपने-अपने दरवाजे पर खड़े देख रहे थे। ऐसे आश्चर्य से जैसे कोई अजूबा निकल रहा
है। मगर मुझे किसी की कोई परवाह नहीं थी। मैं लड़की-लड़के के फ़र्क़ से नफरत करती थी।
आज भी करती हूं। लड़की से पहले मैं अम्मा की संतान हूं बस यही मेरे दिमाग में था। और
मैंने सारे क्रिया-कर्म सम्पन्न किए थे।
अम्मा के जाने के बाद मुझे अपना वीराना जीवन और भी विराना
लगने लगा। पूरी दुनिया ही उजाड़ लगने लगी। खुर्राट का साथ भी अब और ज़्यादा वीराना और
ज़्यादा उबाऊ लगने लगा। वह भी जब पास आता था तो उसके हाव-भाव भी ऐसे होते थे मानो बहुत
दिनों बाद वह अपनी मां के पास आया है। और अपनी मां से प्यार-दुलार दिखा रहा है। मुझ
में भी पत्नी का जोश उत्साह सब खत्म हो गया था। मुझे लगता जैसे मेरी भावनाएं वात्सल्य
भाव की छाया से गुजर-गुजर कर आती हैं। ऑफ़िस का खुर्राट घर में मेरे सामने अजीब सा उखड़ा-उखड़ा, दबा-दबा सा रहता था।
एक दिन रात को करीब दो बजे के आसपास प्यास के कारण मेरी
नींद खुल गई। पानी पीने उठी तो देखा यह बिस्तर से गायब हैं। मैंने सोचा बाथरूम गए होंगे।
मैं पानी पीकर फिर लेट गई, आंख बंद करके। कुछ
देर बाद भी यह नहीं आए तो मन में आया कि बाथरूम में इतनी देर से क्या कर रहे हैं? मैं उठी, बाथरूम में देखा तो वहां नहीं मिले। मैं घबरा गई। सटे हुए दूसरे कमरे में भी नहीं
मिले तो और परेशान हो गई। पसीना आने लगा, सनसनाहट सी होने लगी शरीर में। जल्दी-जल्दी नीचे पूरा घर देखकर ऊपर जाने लगी तो
कुछ सीढ़ियां चढ़ते ही इनकी आवाज़ सुनाई देने लगी। मुझे कुछ राहत महसूस हुई। कुछ सीढ़ियां
और चढ़कर ऊपर दरवाजे पर पहुंची तो बातें साफ-साफ सुनाई देने लगीं। अचानक ही मैं कई आशंकाओं
से घिर गई। मैं जहां दरवाजे पर खड़ी थी वहीं जड़ हो गई। सारी बातें मुझे साफ-साफ सुनाई
दे रही थीं।
एक-एक बात दहकती सुईयों सी बदन में चुभतीं जा रही थीं।
मेरी आंखों के सामने वह रात एकदम से आ गई, जिस दिन उन्होंने मुझसे इसी तरह की बातें की थीं। रोमांच उत्तेजना से भर देने वाली
बातें। खुर्राट का विश्वासघात मेरी आंखों के सामने पूरी नंगई के साथ नृत्य कर रहा था।
जिस आदमी को मैं खुद मोम समझने लगी थी। पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत भावों वाला व्यक्ति समझती थी, वह झूठा ही नहीं विश्वासघाती भी निकला। मुझे आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इतने
सालों से मैं घर,
ऑफ़िस मिलाकर चौबीस घंटों
में कम से कम बीस घंटे साथ रहती हूं, फिर भी उसे जान-समझ
नहीं पाई। उसके चेहरे पर लगा मुखौटा पहचान नहीं पाई। उतार नहीं पाई। कितनी नादान, कितनी मूर्ख हूं मैं।
मेरी आंखों से आंसू टपकने लगे। मैं चुपचाप नीचे आकर बेड
पर लेट गई, आंसुओं से तकिए का कवर भिगोती। अम्मा की
बड़ी याद आ रही थी और बाबूजी की भी। मुझे लगा जैसे हर तरफ से आवाज़ आ रही है कि तू मूर्ख
है। तू इसी लायक है। तुझ जैसी बेवकूफ़ के लिए यह दुनिया नहीं है। मूर्ख। मेरे कान जैसे
फटने लगे। मैंने कान बंद कर लिए। लेकिन यह बातें दिलो-दिमाग में बड़ी देर तक गूंजती
ही रहीं। मैं फिर सो नहीं सकी। मैं यकीन नहीं कर पा रही थी कि सब कुछ मेरे हाथ से निकल
चुका है। मुझे मालूम होने से बहुत पहले ही निकल चुका है।
मैं आंसू बहाती पड़ी रही। लगभग घंटे भर बाद दबे पांव आकर
खुर्राट भी लेट गया। मैं मुंह दूसरी तरफ किए हुए थी। मैंने ऐसा महसूस किया कि जैसे
खुर्राट बेड पर लेटने से पहले कुछ पल तक मुझे देखता रहा, कि मैं सो रही हूं कि नहीं। मेरी निश्चल अवस्था से उसे
विश्वास हो गया कि मैं सो रही हूं। वह लेटते ही सो गया। दो मिनट बाद ही उसके नाक की
खुरखुराहट आने लगी थी। मैं लेट नहीं सकी, उठ कर बैठ गई बगल में। उसकी उपस्थिति से मुझे बड़ी उलझन होने लगी। मुझे लगा कि अब
और समय तक यहां नहीं बैठ पाऊंगी, दूसरे कमरे में
चले जाना ही अच्छा है। मैं उठ कर जाने लगी, फिर दरवाजे के पास पहुंचकर अनायास ही मुड़ी। मेरी नजर सीधे उनके चेहरे पर गड़ गई।
ऐसी गड़ी की हटा ही नहीं पा रही थी।
फिर मेरे क़दम बरबस ही उसकी तरफ बढ़ते चले गए। मैं बेड
से दो क़दम पहले ठहर गई। एकटक उनके चेहरे को देखती रह गई। बरसों-बरस बाद अचानक ही अम्मा
द्वारा बार-बार गुन-गुनाया जाने वाला भजन कानों में गूंजने लगा। सूरज ना बदला, चांद ना बदला..., अम्मा जी ने बाबूजी के ना रहने के बाद कुछ भी गुनगुनाना बंद कर दिया था। मैं भी
समय के साथ भूल गई थी। लेकिन सोते हुए खुर्राट के मासूम चेहरे को देखकर पता नहीं कैसे
अम्मा की ही आवाज़ में भजन कानों में गूंजने लगा।
मैं पास रखे प्लास्टिक के स्टूल को उसके सामने रखकर बैठ
गई। उसके चेहरे को ऐसे देखने लगी जैसे पहली बार मां बनी कोई महिला अपने सोते हुए नवजात
शिशु को देखती है,
एकटक। बस मुझ में वह भाव
नहीं थे। मगर तब मैं यह जरूर सोच रही थी कि इस समय मासूम दिखने वाले इस चेहरे के पीछे
कितने चेहरे छुपे हैं। जब ऑफ़िस में मिला तो कैसा था। साथ आने-जाने लगा तो दूसरा रूप।
ज़्यादा अंतरंग बातों में एक और नया रूप। शादी की पहली रात डायमंड सेट लिए एक नया रूप।
कुछ देर बाद ही एक और बदला हुआ रूप। और आज यह है।
भगवान इस एक आदमी के पीछे और कितने आदमी छिपे हैं। मैं
ऐसा सब कुछ सोच जरूर रही थी। लेकिन बड़ी अजीब बात यह थी कि खुर्राट को लेकर उस समय भी
मेरे मन में कोई गुस्सा, भड़ास, घृणा कुछ नहीं था। मैं एक तटस्थ व्यक्ति की तरह वहां
बैठी थी, ऐसे बैठे-बैठे ना जाने मैं क्या-क्या सोचती
रही, कि इससे शादी करना ही मेरी सबसे बड़ी मूर्खता
थी। सच तो यह है कि इसके साथ मैंने अन्याय किया है। छल किया है। अपने सुख के लिए इससे
इसका सुख छीन लिया।
चलो यह भटका था, मुझे तो इसे समझाना चाहिए था। लेकिन मैं क्या उस वक्त इससे कहीं ज़्यादा उतावली
नहीं थी। कैसा-कैसा सोचती रहती थी मैं। बैठे-बैठे मुझे लगा कि मेरे पैर सुन्न हो रहे
हैं। मैंने पैर सीधा किया, धीरे-धीरे झटक कर
ब्लड सरकुलेशन को नॉरमल किया और उठकर दूसरे कमरे में आ गई। तभी मोबाइल में अलार्म रिंग
होने लगी। रोज सवेरे साढ़े पांच बजे होने वाली रिंग। मैं खुर्राट के चक्कर में तीन बजे
रात से बराबर जागती रह गई।
सोचा चलकर तैयार होउळं, किचन संभालूं। छः बजे तक अपने मोम से खुर्राट को चाय
भी देनी है। उठी कि चलूं शुरू करूँ एक और दिन
की शुरुआत। लेकिन शुरू करते-करते फिर आकर बैठ गई। सोचा आज फिर इतिहास को दोहराने दो।
स्थान वही है, पात्र वही हैं, बस एक पात्र अम्मा की कमी है। अम्मा ने भी उस दिन संयोगवश
ही मेरी, खुर्राट की अंतरंग बातों को सुनने के बाद
यह सोचकर नहीं उठाया था कि मैं रात भर जागी हूं।
आज मैं खुर्राट और उस लड़की की अंतरंग बातों को ठीक वैसे
ही सुनने के बाद खुर्राट को नहीं जगाऊंगी। क्योंकि वह भी रात भर जागा है। और मैं रात
भर अम्मा की तरह जागती रही हूं। मैं अम्मा की तरह बाहर लॉन में गेट के पास नहीं बैठी।
सोफे पर ही लेटी सोचती रही, अपनी पिछली ज़िंदगी
और भविष्य के बारे में। उस वक्त मेरी जैसी मनोदशा थी उसका विश्लेषण मैं यकीन से कहती
हूं कि फ्रायड, हैवलक एलिस भी नहीं कर पाते। बहरहाल साढ़े
नौ बजे खुर्राट की आहट मिली तो मैंने जानबूझ कर आंखें बंद कर लीं, जैसे गहरी नींद में सो रही हूं।
खुर्राट मेरा नाम पुकारता हुआ मेरे पास आया। वही नाम
जो उसने शादी के बाद मुझे दिया था। इसे वह अपना प्यारा गिफ्ट कहता था। वह मुझे अधरा
कहता था। कहता कि मेरे होठों की बनावट बहुत मोहक है। मगर उस समय उसके मुंह से अपना
यह नाम सुनकर मुझे गुस्सा आ रही थी। उसकी आवाज से धोखा, फरेब की गंदी बू आती महसूस कर रही थी। उसके तीन बार आवाज़
देने पर भी जब मैं नहीं उठी तो उसने मेरी बांह को पकड़ कर हिलाते हुए आवाज़ दी। ‘अधरा, क्या बात है, अभी तक सो रही हो। मुझे भी नहीं जगाया।’ मैंने गहरी नींद से जागने का अच्छा ड्रामा करते हुए कहा, अरे बड़ी देर हो गई, उठ तो गई थी टाइम से लेकिन बड़ी थकान महसूस हो रही थी, कमर भी दर्द कर रही थी। तो यहां बैठ गई। थोड़ा आराम मिला
तो पता नहीं कब नींद आ गई। अच्छा तुम तैयार हो मैं नाश्ता, खाना तैयार करती हूं।
उसने कुछ देर तक मेरे चेहरे को देखने के बाद पूछा, ‘क्या बात है? तबीयत तो ठीक है ना।’ मैंने अपने मन में
चल रही उथल-पुथल के कारण चेहरे पर आ गए तनाव को झूठ के आवरण में छिपाने के लिए बड़ा
झूठ बोला कि कमर दर्द ठीक नहीं हुआ है। उसी से परेशान हूं, लेकिन इतना भी नहीं है कि तुम्हारे लिए किचेन में ना
जा सकूं। मैंने उठने की कोशिश की तो उसने बड़े प्यार से दोनों हाथों से मेरे कंधों को
पकड़ कर बैठा दिया। कहा, ‘नहीं तुम आराम करो, मैं चाय वगैरह बना लेता हूं, बाकी नाश्ता बाहर से ले आता हूं।’ मैंने लाख मना किया लेकिन वह नहीं माना।
उस समय उसकी भाव-भंगिमा, बातों से इतना स्नेह झलक रहा था कि मैं भाव-विह्वल हो
उठी। मेरी हर कोशिश बेकार हो गई। मेरे आंसू छलक पड़े। आंसू देख कर वह बेहद परेशान होकर
बोला, ‘अरे अधरा तुम्हें क्या हुआ है, सच बताओ? ज़्यादा दर्द हो रहा हो तो डॉक्टर के पास ले चलूं। कपड़े चेंज करो मैं लेकर चलता
हूं।’ मुझे अंदर-अंदर बड़ी गुस्सा और हंसी भी आ
रही थी कि मैं परेशान किसी और वजह से हूं, आंसू दर्द नहीं इसके धोखे, छल-कपट के कारण
आ रहे हैं। लेकिन मैं दर्द का ड्रामा कर रही हूं। जिसे यह सच समझ रहा है। रंगमंच की
अच्छी से अच्छी कलाकार भी मेरे जैसा ड्रामा नहीं कर पाएगी, कि देखने वाले को एकदम सच स्वाभाविक लगे। और यह मेरा
मोम जैसा पिघलने वाला खुर्राट भी कितना अच्छा ड्रामेबाज है।
उस समय लग रहा था कि उससे ज़्यादा प्यार कोई पति अपनी
पत्नी से करता ही नहीं होगा। मैंने कहा नहीं, दर्द इतना नहीं है कि डॉक्टर के पास जाना पड़े। अभी पेन किलर ले लूंगी, या फिर मूव लगा लूंगी, तुम ऑफ़िस के लिए तैयार हो मैं नाश्ता बनाती हूं। लेकिन मेरी बात उसने नहीं सुनी।
अलमारी में रखा पेनकिलर बॉम ही उठा लाया। मूव था नहीं।
मैंने कहा परेशान ना हो, मैं लगा लूूंगी। लेकिन वह नहीं माना। सोफे से उठा कर
बेड पर लिटाया। ऐसे पकड़ कर ले गया जैसे ना जाने मैं कितनी गंभीर बीमार हूं। बड़ा संभालकर
पेट के बल लिटा दिया, फिर बॉम लगाकर हल्की-हल्की
मालिश करने लगा। साथ ही अपनी नसीहत भी देता जा रहा था कि, ‘पेनकिलर ना खाया करो, इसके साइड इफेक्ट बहुत खराब होते हैं। ज़्यादा जरूरी हो तो ही ऐसी क्रीम, स्प्रे या ज़ेल वगैरह लगा लिया करो। डॉक्टर को दिखाकर
प्रॉपर इलाज कराओ,
ऐसे मर्ज बढ़ाना मूर्खता
है।’
उसकी बातें सुन-सुनकर मुझे हंसी आ रही थी। किसी भी पत्नी
के लिए ऐसी स्थिति बेहद तनावपूर्ण होती है। लेकिन इस हाल में भी मुझे हंसी आ रही थी।
उसकी बातें उसकी मालिश में मुझे पति का अंश भी महसूस नहीं हो रहा था। लग रहा था जैसे
कोई ब्याहता उम्र-दराज बेटी अपनी बुजुर्ग मां को उसकी खुद के प्रति लापरवाही पर उसे
मीठी घुड़की दे रही है। समझा रही है। प्यार-स्नेह से सेवा कर रही है। रोकने की लाख कोशिशों
के बाद भी अंततः मुझे हंसी आ ही गई। इतनी तेज़ कि पूरा शरीर जोर-जोर से हिलने लगा।
शुरू में उस ने समझा कि मैं रो रही हूं, मगर अगले ही क्षण जब उसे असलियत मालूम हुई तो वह बोला, ‘यार अजीब औरत हो, दर्द में भी हंसती हो, कमाल है, तुम औरतों को समझना भी बड़ा मुश्किल काम है।’ वह अलग हटने लगा तो मैं उसका एक हाथ पकड़ कर उसी के सहारे
ही उठ कर बैठ गई। हंसी मेरी तब भी नहीं रुक रही थी। बड़ी मुश्किल से रोक कर बोली, अरे मेरे प्यारे पति देवता, हंसी इसलिए आ रही है कि मैं सोच रही हूं इतनों दिनों
में कभी भी नहीं पूछा कि कैसी हो? कितनी बार तबीयत
खराब हुई, लेकिन एक कप चाय छोड़ो पानी तक नहीं पूछा।
आज तुम्हें क्या हुआ है? आज पश्चिम से सूरज कैसे
निकल आया यही सोच-सोच कर हंस रही हूं। रहा दर्द तो वह अब भी जस का तस बना हुआ है।
तुमने इतने प्यार से मालिश की तब भी, बल्कि और बढ़ रहा है, और फैल रहा है। लेकिन प्लीज यह मत कहना कि चलो डॉक्टर के पास चलें। नहीं तो और
बढ़ जाएगा। औरतों की समस्या है, वह जानती हैं कि
कब डॉक्टर के पास जाना है। और हां, आज मैं ऑफ़िस नहीं
चलूंगी, तुम्हें अकेले ही जाना है। जाओ तैयार हो
मैं खाना बनाती हूं।
वह तैयार होने चला गया। जाते-जाते बड़े प्यार से मेरे
चेहरे को दोनों हाथों में लेकर दो-तीन बार किस किया था। मैंने भी उसके हाथों को पकड़
कर चूम लिया था। दर्द तो मेरा वाकई बढ़ रहा था लेकिन कमर का नहीं दिल का, मैं जानती थी कि इस दर्द का इलाज किसी डॉक्टर के पास
नहीं है। इसलिए उसे उसके हाल पर छोड़ दिया, कि बाद में देखती हूं। और जल्दी-जल्दी चाय-नाश्ता, खाना-पीना बना कर खुर्राट को विदा किया, अपने पतिदेव को।
उनके जाते ही दर्द और बढ़ गया। यह बढ़ना जारी रहा। मैं
रोज-रोज बातें सुनती, घर में, ऑफ़िस में। अक्सर ऑफ़िस से दो-ढाई घंटे के लिए उनका गायब
होना भी देखती रही थी। हर बार जब सोचती तो घर के किसी कोने में अकेले बैठकर रो लेती।
ऑफ़िस में जब याद आती तो खुद को संभाल पाना मुश्किल होता। ऐसे में वॉशरूम में खुद को
बंद कर रो लेती। जब-जब सोचती कि यह सब मेरे साथ क्यों हो रहा है? तो हर बार जवाब मुझे यही मिलता, दिलो दिमाग यही कहते कि गलती मेरी ही है। गलती मैंने
की है। अब उसी का परिणाम सामने है। कुछ ही महीने में मैंने इस तरह से बार-बार सोच-विचार
कर जब यह पाया कि सारी गलती मेरी ही है, तो मेरे आंसू सूख गए। मेरा रोना खत्म हो गया। अब बेडरूम में उसके साथ तभी सोती
जब वह जिद करता,
नहीं तो कभी दूसरे कमरे, कभी सोफे पर, तो कभी कहीं पड़ी रहती।
मैं उसे पूरी आजादी, पूरी निश्चिंतता देने की कोशिश करती कि वह जिससे भी बातें करता है, निश्चिंत होकर कर सके, मेरे सोने तक उसे इंतजार ना करना पड़े। मैंने उससे अपने को इतना अलग कर लिया कि
एक घर में रह कर भी हम अनजाने से हो गए। सारा काम-धाम मशीनी अंदाज में होने लगा। मेरे
देखते-देखते बड़ी तेज़ी से एक साल और निकल गया।
अब मुझे बड़ी घुटन होने लगी। वह जितनी देर मेरे आसपास
रहता उतनी देर मेरी व्याकुलता और बढ़ जाती, आखिर क्या करूं इस व्याकुलता बेचैनी से छुटकारा पाने के लिए यह सोचते हुए एक दिन
ऑफ़िस में बैठी काम कर रही थी। लंच खत्म हुए आधा घंटा बीत चुका था। यह लंच से एक घंटा
पहले से ही गायब थे। मुझे कुछ काम बता कर गए थे। वही पूरा करने में लगी थी। उसी समय
एक अधिकारी खुर्राट को पूछते हुए आ गए। मैंने कहा लंच के लिए निकले हैं, वह आते ही होंगे। मुझे कोई चिंता नहीं थी कि अधिकारी
पूछने खुद ढूंढ़ता हुआ आया है। क्योंकि मैं यह अच्छी तरह जानती थी कि ऑफ़िस में मेरा
यह खुर्राट इन अधिकारियों को जूते की टो पर रखता है।
अधिकारी के जाते ही एक साथी बोला, ‘वह चार बजे से पहले आने वाला नहीं। उसी छोकरिया के साथ
कहीं गलबहियां किए पड़ा होगा।’ उसकी यह बात मेरे
कानों में किसी जहरीले कांटों वाले कीड़े की तरह घुसकर कुलबुलाने लगी। उसके कांटें असंख्य
सूईयों की तरह चुभ-चुभ कर पीड़ा पहुंचाने लगे। मैं एकदम बिलबिला पड़ी। जल्दी से बाथरूम
में गई, शीशे में देखा तो मेरी आंखें नम हो रही थीं।
आंखों की नसें, चेहरा लाल हो रही थीं। पूरा चेहरा पसीने
से तर था। कुछ देर तक अपने को देखती रही। देखते-देखते मेरे आंसू निकलने लगे। मुझे लगा
कि अगर मैंने खुद पर कंट्रोल न किया तो मैं जोर-जोर से रो पड़ूंगी, तमाशा बन जाएगा।
घड़ियाली स्वभाव वाले आंसू पोंछने के बहाने सीधे-सीधे
चेहरा पकड़ लेंगे। पीठ सहलाने लगेंगे। चुप कराने के बहाने बाहों में भर लेंगे। मैं मजबूर
किसी को कुछ भी नहीं बता सकूंगी कि मैं क्यों रो रही हूं। इतने सालों बाद भी ऑफ़िस में
कोई यह नहीं जानता था कि मैंने उससे शादी कर ली है। उनकी नजरों में ऑफ़िस के इस सबसे
बड़े खुर्राट आदमी के साथ मेरा आना-जाना भर ही है। इसके अलावा और कुछ नहीं। क्योंकि
जिस तरह हम दोनों वहां रहते, जिस तरह बिहैव करते
थे, उससे भी किसी को कुछ और सोचने का आधार नहीं
मिलता था।
तमाम बातों का बवंडर सा उठ खड़ा हुआ दिमाग में, आंसू बंद ही नहीं हो रहे थे। आखिर मैंने अंजुरी में भर-भर
कर पानी चेहरे पर मारा। फिर आकर चेयर पर बैठ गई। मन ही मन पूरी दृढ़ता से ठान लिया कि
आज इस चैैप्टर का आखिरी पन्ना लिखकर ही रहूंगी। आज से ज़्यादा सही समय कभी नहीं आएगा।
खुर्राट ने जो काम दिया था उसे करना मैंने रोक दिया। और कंप्यूटर पर कभी कुछ, कभी कुछ करती रही। साथी की बात सच निकली, खुर्राट चार बजे ही आया। आते ही अपनी चेयर पर बैठा बाद
में, काम के बारे में पहले पूछ लिया। अधूरा है
सुनते ही बरस पड़ा। नॉनस्टॉप दो मिनट तक अंडबंड बोलता रहा। ऑफ़िस में उसका मेरे साथ यही
व्यवहार था। लेकिन उस दिन मैंने उसके इस व्यवहार से बड़ा अपमानित महसूस किया।
ऐसा महसूस करते ही मैंने उसे घूर कर देखा। बस वह एकदम
शांत हो गया। जैसे किसी खिलौने की अचानक ही बैटरी निकाल दी गई हो। इतने गुस्से के बाद
भी मेरे मन में हंसी आ गई। मन ही मन कहा वाह रे मेरे खुर्राट राजा, जरा सी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते, एकदम से पिघल कर फैल जाते हो। मर्द हो कुछ तो मजबूती
दिखाओ। मगर नहीं तुमसे यह उम्मीद करना बेवकूफी है। तुम चेहरे पर चेहरा लगाए एक बहुत
ही बड़े हिप्पोक्रेट हो, धोखेबाज हो, फरेबी हो। उस दिन मैंने रात में खाना-पीना होने तक कुछ
नहीं कहा, क्योंकि जरा सा भी तनाव होने पर वह खाना-पीना
छोड़ देता था। मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि वह भूखा रहे।
खाना-पीना, सारा काम-काज खत्म करने के बाद मैं सोफे पर उसी के बगल में बैठ गई। बहुत दिन बाद
उसके बगल में ऐसे बैठी तो वह छूटते ही बोला, ‘अरे अधरा जी आज बहुत रोमांटिक मूड में हैं। क्या बात है?’ मैंने कहा क्यों तुम नहीं हो क्या? तो वह बोला, ‘तुम मूड रोमांटिक बनाओगी तो बन जाएगा।’ अब मैं खुद पर गुस्सा हावी होते महसूस कर रही थी। यह एहसास होते ही मैंने खुद को
रोका और बेहद प्यार से बोली, घर पर तुम्हारा
मूड जब मैं रोमांटिक बनाऊंगी तब बनेगा, लेकिन उसके साथ होते हो तो कौन किस का मूड रोमांटिक बनाता है। तुम उसका या वह तुम्हारा।
इतना कहते ही जैसे उसे करेंट लग गया। झटके से उठ कर दो
क़दम दूर खड़ा होकर मुझे एकटक देखने लगा। मैंने कहा क्या हुआ? आओ बैठो ना। तो वह बोला, ‘यह तुम किसकी बात कर रही हो?’ मैंने फिर मुस्कुराते हुए कहा, क्यों परेशान हो रहे हो। आओ बैठो ना। अच्छी तरह जानते
हो कि मैं किसकी बात कर रही हूं। और सुनो मैं इस बारे में सब कुछ बहुत पहले से जानती
हूं। जैसे मेरी अम्मा ने संयोगवश ही हमारी बातें सुन ली थीं, वैसे ही एक दिन मैंने तुम दोनों की सुन ली थी।
तुम जब-जब गायब होते हो मुझे पता रहता है कि तुम उसी
के साथ रोमांटिक बने मौज-मस्ती में लगे हो। आज भी ऑफ़िस से फिर गायब हुए तब भी मालूम
था कि उसी के साथ हो। मुझे कभी बुरा नहीं लगा। आओ बैठो ना, बातें करते हैं। कुछ ऐसा सॉल्यूशन निकालते हैं कि तुम्हें
उससे मिलने के लिए छुपना ना पड़े, झूठ ना बोलना पड़े।
तुम दोनों एक साथ रहो।
मैंने देखा कि मेरी बातों से उसके चेहरे का तनाव कम हो
गया है। वह टीचर के सामने डरे हुए बच्चे की तरह धीरे से आकर मुझसे थोड़ी दूरी बना कर
बैठ गया। मैं कुछ बोलूं उसके पहले ही उसने दोनों पैर उठाकर सोफे पर रखे और उन्हें भीतर
की तरफ घुटनों से मोड़कर लेट गया। सिर मेरी गोद में रख दिया, दोनों हाथों को मेरी कमर के इर्द-गिर्द लपेट दिया। और
चेहरा एकदम मेरे पेट से चिपका लिया जैसे कोई बच्चा अपनी मां से बड़े प्यार-दुलार से
चिपक जाता है।
मैं बड़े अचरज में पड़ गई कि अब यह इसका कौन सा तमाशा है।
यूं तो यह अक्सर ऐसा करता है, लेकिन इस समय जो
बात चल रही है उसे देखते हुए तो ऐसी हरकत का प्रश्न ही नहीं उठता। उसकी इस अप्रत्याशित
हरकत ने मुझे कुछ देर कंफ्यूज कर दिया। लेकिन अंततः मैं यही समझी कि यह हो न हो अपनी
ऐसी हरकतों को एक हथियार की तरह यूज करता है। इसे हथियार बनाकर यह जो चाहे वह करते
रहना चाहता है।
यह सब समझने के बावजूद पता नहीं क्यों मुझे उसके साथ
सिंपैथी हो गई। प्यार का भी कुछ अंश मिला हुआ था। मैंने उसके बालों में प्यार से अंगुलियां
फिराते हुए कहा उठो तब तो बातें करूं। लेकिन वह छूटते ही बोला, ‘नहीं ऐसे ही कहो।’ आखिर मैंने उस महिला के बारे में जितना जानती थी वह सब कह दिया, और साथ ही यह भी कह दिया कि यदि उसके साथ शादी करना चाहते
हो तो साफ-साफ बताओ, मैं करवाऊंगी उससे तुम्हारी
शादी।
एक बार फिर उसे करेंट लगा। वह झटके से उठ कर बैठ गया।
आंखें फाड़ कर मुझे हैरत से देखने लगा। फिर बोला, ‘तुम मेरी शादी दूसरी लड़की से करवाओगी, यार कैसी औरत हो? खुद ही अपने आदमी की शादी
दूसरी औरत से करवाओगी। तुम कर लोगी यह सब।’ मैंने सपाट शब्दों में कहा, इसमें अचरज वाली
कोई बात नहीं है। जैसे अम्मा ने हमारी बातें सुनने के बाद सोचा कि हम एक दूसरे के हो
चुके हैं, हम एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते, और आनन-फानन में हमारी शादी करवा दी।
उस लड़की के साथ वैसी ही स्थिति अब मुझे तुम्हारी दिख
रही है। तो अब मैंने तय कर लिया है कि इसी महीने में तुम दोनों की शादी करवा दूंगी।
दरअसल यह करके मैं अपनी गलती ही सुधारूंगी जो बरसों पहले मैंने की। यह मैं काफी हद
तक भावावेश में और अम्मा की जल्दबाजी में आकर कर बैठी थी। जिसे पहले ही दिन से तुम
मन से एक्सेप्ट नहीं कर सके। और तुम्हारी हिचक ने मुझे पहली ही रात में भ्रमित कर दिया
था। मन से पति-पत्नी वाली कोई बात बन ही नहीं पाई थी। क्यों मैं सही कह रही हूं ना।
उसने सेकेंड भर में मौन सहमति दे दी तो मैंने भी तुरंत
निर्णय दे दिया कि यह शादी होगी। वैसे भी हमारी शादी का ना तो कोई कानूनी महत्त्व है, ना ही सामाजिक। मैंने यह भी साफ कह दिया कि शादी के पहले
ही तुम्हें सारे रिश्ते खत्म कर यह घर हमेशा के लिए छोड़ देना है। मेरी इस बात पर भी
उसने बिना विलम्ब के मौन सहमति दे दी। उसकी सहमति के साथ ही मुझे ऐसा महसूस हुआ कि
बहुत समय से जो एक बहुत भारी बोझ मैं ढोए चली आ रही थी वह उतर गया। मैं बहुत रिलैक्स
महसूस कर रही थी।
यह सारी बातें होते-होते बहुत देर हो चुकी थी। एक बज
गया था। मैंने कहा सुबह ऑफ़िस भी चलना है, अब जाइए, सोइए, मैं भी सोने जा रही हूं। मैं उठकर दूसरे कमरे में जाने लगी तो उसने मेरा हाथ पकड़
लिया, बेडरूम की तरफ लेकर चलने लगा तो मैंने कहा, नहीं, मेरा तुम्हारा अब
कोई रिश्ता नहीं रहा। अब सब खत्म हो चुका है। इसलिए यह इंपॉसिबल है। लेकिन उसकी अजब
तरीके की मनुहार,
अनुनय-विनय जिद के आगे
एक बार फिर कमजोर पड़ गई। कई महीने बाद फिर एक बेड पर थी।
उस दिन मैं पूरी रात नहीं सो सकी। सुबह बहुत देर से उठी।
किसी तरह बेमन से नाश्ता बनाकर ग्यारह बजे खुर्राट को यह कहकर ऑफ़िस भेज दिया कि मैं
ऑफ़िस नहीं आऊंगी। लंच तुम होटल में कर लेना। उसके जाने के बाद दिन भर मैं घर में इधर-उधर
बैठती रही, सोचती रही कि इसकी शादी जब एक-दो हफ़्ते में
होगी तब होगी। लेकिन इस घर से इसे एक-दो दिन में ही विदा कर देना मेरे लिए अच्छा रहेगा।
क्योंकि इसकी हरकतें मुझे कमजोर बनाने में देर नहीं लगातीं।
शाम को जब वह घर आया तो खाने के बाद मैंने बड़ी सख्ती
के साथ कह दिया कि कल छुट्टी ले लो। अपने चाचा के घर जाकर साफ-सुथरा करवाओ और शिफ्ट
हो जाओ। अब हमारा एक दिन भी साथ रहना उचित नहीं। कम से कम मैं किसी सूरत में नहीं रहूंगी।
वह बोला, ‘इतनी जल्दी भी क्या है।’ मैंने कहा जल्दी या देर की बात नहीं है। मुझे सिर्फ़
यही रास्ता दिख रहा है, इसलिए यही करूंगी।
मेरी जिद, मेरी सख्ती पर उसकी आंखों से मोटे-मोटे आंसू निकलने लगे। जिन्हें देखकर मेरा मन
एकदम पिघलने लगा। लेकिन मैं अलर्ट थी। मैंने सोचा, मैं इससे जितना बात करूंगी, जितनी देर यहां
रहूंगी यह अपनी हरकतों से मुझे कमजोर बना ही देगा। इसलिए मैं वहां एक क्षण रळके बिना
दूसरे कमरे में चली गई। दरवाजा बंद कर लिया।
उसके सामने मैंने जो बेरूखी शो की थी उसे उसने सही माना।
और कुछ ही मिनट बाद मैंने बेडरूम में जाकर उसके लेटने की आहट महसूस की। लेकिन उसके
मोटे-मोटे आंसू मुझे बेचैन किए हुए थे, तो आधे घंटे बाद ही धीरे से उसके पास गई कि देखूं सो गया या बेवकूफ अभी तक आंसू
ही बहा रहा है। लेकिन वहां उसे देखकर लगा कि बेवकूफ मैं ही हूं। मैं ही ठगी जाती हूं
बार-बार। वह आराम से चारों खाने चित सो रहा था। मैं फिर वापस अपने कमरे में दरवाज़ा
बंद किए पड़ी रही। बड़ी देर बाद सो पाई।
मैंने अगले दिन एड़ी-चोटी का जोर लगा कर उसे घर से विदा
कर दिया। वह फिर अपने चाचा के यहां शिफ्ट हो गया। उससे संबंधित जितना भी सामान था, सब मैंने उसे ही दे दिया। हफ्ते भर बाद जब उसकी शादी
हुई तो उसने जो डायमंड सेट मुझे दिया था उसे भी कुछ और सामान के साथ ले जाकर उसकी नई
पत्नी श्रृयंका को गिफ़्ट कर आई।
एक बार फिर मंदिर में उसकी शादी हुई थी। मैंने गिफ़्ट
उसे उसके घर पर दिया था। चलते वक्त वह मना करने पर भी मुझे घर तक छोड़ने आया। आखिर में
बोला, ‘मैं तुम्हें कभी, मेरा मतलब है कि मैं आपको कभी नहीं भूल पाऊंगा।’ तुम से आप कह कर उसने रिश्ते का पतले से धागे का जो आखिरी
सूत था वह भी तोड़ दिया। उस सूत के टूटने से मैंने कान में एक धमाके सा शोर महसूस किया
था। लेकिन मैंने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। मुड़ी और चल दी यह सोचते हुए कि अभी
एक आखिरी काम रह गया है। उसे जल्दी पूरा करना ही अच्छा है।
मैंने घर छोड़ कर वृद्धाश्रम में रहने का फैसला कई दिन
पहले ही कर लिया था। जिससे वृद्धों की कुछ सेवा कर सकूं और साथ ही उनके बीच रह भी सकूँ
। कई महीनों की दौड़-धूप के बाद मेरी सोच के हिसाब का एक वृद्धाश्रम मिला। जिसमें अब
मैं हूं। इसमें तीन दर्जन से अधिक वृद्ध महिलाएं हैं। मगर यहां मेरे शामिल होने में
यहां का नियम आड़े आ गया कि उम्र साठ वर्ष पूरी हो या रिटायर हो। एक एनजीओ के इस वृद्धाश्रम
के प्रबंधक से मैंने कहा अपना मकान एनजीओ के नाम करती हूं। वह मेरे बाद एनजीओ की प्रॉपर्टी
होगी। इस बीच मकान को किराए पर दूंगी। उससे मिलने वाला किराया भी दूंगी। साथ ही जो
मंथली फीस होगी वह भी दूंगी। कई गुना ज़्यादा मोल दिया तो अंततः मुझे यहां आश्रम में
जगह मिल गई। मैं मकान किराए पर देकर यहां वृद्धाओं के बीच आ गई। मैं भी तो वृद्धा हो
चुकी थी। तन से ना सही मन से ही सही।
रिटायरमेंट के बाद मैं यहां सभी वृद्धाओं की ज़्यादा
सेवा कर पा रही हूं। यहां एक ऐसी वृद्धा है जिसकी मैं कुछ ज़्यादा ही सेवा करती हूं।
वह भी अपने दो बेटों की ठुकराई हुई विधवा मां है। उसकी एक लड़की तीन चार महीने में कभी
एकाध बार मिलने को आ जाती है। जब आती है तो लगता है जैसे मां पर एहसान करने आई है।
उसकी बात व्यवहार में मुझे एक बेटी होने का अक्स नज़र ही नहीं आता है। जैसे अपना रुतबा
पैसा दिखाने आती है।
उसे देख कर मैं सोचती हूं कि अगर चाहे तो
मां को अपने साथ घर पर भी रख सकती है। मां भी उसके सामने अपनी कमजोरी नहीं प्रकट करती।
लेकिन उसके जाने के बाद बहुत रोती है, कई दिन रोती है।
मैं बहुत मुश्किल से समझा-बुझाकर चुप करा पाती हूं। उसका दुख देखकर सोचती हूं, राहत महसूस करती हूं, कि चलो मैं कम से कम इस तरह के किसी दुख-दर्द से बची रहूंगी। इन वृद्धों को देखकर
अक्सर अम्मा का प्रिय भजन गुनगुनाता हुआ चेहरा दिखाई देने लगता है कि, ‘कितना बदल गया इंसान...।’ और खुर्राट... वह भी कभी-कभार याद आ ही जाता है।
पता-प्रदीप श्रीवास्तव
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रेखाचित्र :गूगल से साभार
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