बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा
- प्रदीप
श्रीवास्तव
चार घंटे देरी से जब ट्रेन लखनऊ रेलवे स्टेशन पर रुकी तो ग्यारह
बज चुके थे। जून की गर्मी अपना रंग दिखा रही थी। ग्यारह बजे ही चिल-चिलाती धूप से आंखें
चुंधियां रही थीं। टेªन की एसी
बोगी से बाहर उतरते ही लगा जैसे किसी गर्म भट्टी के सामने उतर रहा हूं। गर्म हवा के
तेज़ थपेड़े उस प्लेटफॉर्म नंबर एक पर भी झुलसा रहे थे। अपना स्ट्रॉली बैग खींचते हुए
मैं वी. आई. पी. एक्जिट के पास बने इन्क्वारी काउंटर पर पहुंचा यह पता करने कि जौनपुर
के लिए कोई ट्रेन है, तो वहां
से निराशा हाथ लगी।
कुछ टेªनें निकल चुकी थीं। अगले कई घंटे तक वहां
के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया क्या करूं? काउंटर से हटकर इधर-उधर देखने लगा। पहुंचना
जरूरी था और समय भी मेरे पास बहुत कम था। मैं थोड़ी ही दूर पर एक बेंच पर बैठ गया। स्टेशन
पर इधर-उधर नजर जा रही थी। वहां की साफ-सफाई मेंटिनेंस देखकर कहना पड़ा वाकई चेंज तो
आया है।
यही स्टेशन कुछ साल पहले तक अव्यवस्था, गंदगी का प्रतीक हुआ करता था। यदि शासक, समाज चाह लें तो कुछ भी हो सकता है। परिवर्तन
में समय नहीं लगता। यह परिवर्तन देखते-देखते मैंने बोतल निकालकर कुछ घूंट पानी पिया, फिर यह सोचते हुए बाहर आया कि चलें देखे
बाहर कोई बस वगैरह मिले तो उसी से चलें। पहुंचना तो हर हाल में है। स्टेशन की अपेक्षा
बाहर मुझे परिवर्तन के नाम पर भीड़-भाड़, अस्त-व्यस्तता
दिखी।
मेट्रो ट्रेन का काम
तेज़ी से चल रहा था। जिसके कारण डिस्टर्बेंस हर तरफ दिख रही थी। बाहर बसों की हालत, गर्मी ने मुझे पस्त कर दिया। अंततः जौनपुर
के लिए एक टैक्सी बुक की। मैंने सोचा पैसे ज़्यादा लगेंगे लेकिन कम से कम आराम तो रहेगा।
पैसे को लेकर मैंने ज़्यादा झिख-झिख नहीं की। ड्राइवर भी इत्तेफाकन पढ़ा-लिखा, समझदार, अच्छे मैनर्स वाला मिल गया। मैंने सोचा चलो रास्ते भर बोरियत
से बच जाऊंगा।
संयोग से वह
भी पूर्वांचल का निकला। बलिया जिले का। वह इंग्लिश लिट्रेचर, हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएट था। दोनों ही भाषाओं
पर उसकी जबरदस्त पकड़ देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ लिया ‘नौकरी के लिए कभी कोशिश नहीं की क्या?’ तो उसने बताया कि ‘कई प्रतियोगी परीक्षाओं के रिटेन मैंने फर्स्ट
अटेम्प्ट में ही क्लीयर कर लिए। लेकिन इंटरव्यू में हर जगह फेल होता रहा। जब कि रिटेन
की तरह इंटरव्यू भी मेरे जबरदस्त होते थे।’
आखिर में उसने जोड़ा कि ‘राजनीतिक
पहुंच या सोर्स के सिरे से नदारद होने, आर्थिक
रूप से कमजोरी, और इन सबसे ज़्यादा
यह कि जनरल कैटेगरी वालों के लिए नौकरी है ही कहां?’ उम्मीदों का हर तरफ से टोटा ऐसा था कि नौकरी पाना, उसे असंभव लगा।
प्राइवेट स्कूलों में कुछ दिन टीचर की नौकरी की लेकिन
वहां जी-तोड़ मेहनत करने के बाद मिलने वाले कुछ हज़ार रुपयों ने उसकी उम्मीदों की रही-सही
कसर भी निकाल दी। मैंने उसकी सामाजिक, राजनीतिक
विषयों पर गहरी जानकारी, क्लीयर
कांसेप्ट को देखकर कहा- ‘तुम्हारी
बातों से लगता है कि शायद तुम नौकरी ना मिलने,
अपनी इस हालत के लिए रिजर्वेशन को ज़िम्मेदार मान रहे हो।’
मेरी इस बात पर वह हंस
पड़ा। बोला ‘नहीं बिल्कुल नहीं।
मुझे लगता है कि मैं अपनी बातें आपको ठीक से कम्यूनिकेट नहीं कर पाया। देखिए मैं यह
बहुत स्पष्ट मानता हूं कि मेरे साथ फेयर गेम हुआ होता तो कम से कम तीन-चार जगह मेरा
सेलेक्शन हो जाता। लेकिन सिस्टम ही करप्ट है इसलिए यह होने की बात ही नहीं उठती। नौकरी
मुझे एकाध जगह तब भी मिल जाती यदि सिस्टम में करप्शन होता। लेकिन सर मैं जब नौकरी पाने
के प्रयास में आगे बढ़ा तो पाया कि भई यहां सिस्टम में करप्शन नहीं है। यहां तो करप्शन
में सिस्टम है। हमारे देश में वास्तव में जो सिस्टम डेवलप हुआ वह करप्शन में डेवलप
हुआ।
आप सोचिए कि जो देश सदियों के बाद आज़ाद हुआ हो, वह अपना भविष्य बनाने के लिए आगे बढ़े और
कुछ वर्ष भी ना बीते और एक बड़ा घोटाला हो जाए। फिर आरोपी को सजा देने के बजाय केंद्रीय
मंत्री बना दिया जाए। तो ऐसे देश के बेहतर भविष्य और आयडल सिस्टम के डेवलप होने की
उम्मीद करना ही मूर्खता थी, जो हम देशवाशियों
ने की। गलती तो हमारी ही थी। पूत के पांव पालने में ही नजर आ गए थे। साफ दिख रहा था
कि करप्शन के दल-दल में देश के डेवलपमेंट का बीज हमारे कर्णधार रोप रहे हैं, फिर भी हम अंधे बने रहे। शायद आज़ादी की लड़ाई
की थकान उतार रहे थे। लेकिन नहीं, थकान की
बात नहीं। बात तो यह थी कि हमलोग यह जो कहते हैं ना कि पानी ऊपर से नीचे की ओर आता
है। जहां-जहां वह पहुंचता है लोग उसे ही इस्तेमाल करते हैं। लोग सोचते हैं कि यह ऊपर
से आ रहा है, तो यह साफ ही होगा।
फिर लोग उसी के आदी होते चले जाते हैं। तो हमारे यहां देश में यही हुआ।
ऊपर करप्शन होते गए।
ऊपर से नीचे बढ़ता गया। एक के बाद एक घोटालों से देश को छलनी किया जाता रहा। लेकिन हम
क्यों कि इसके आदी हो चुके थे। इसे हमने सिस्टम मान लिया, और इस सिस्टम का जो तरीका है काम करने का
वह है भ्रष्ट तरीके से काम करना और करवाना। उसी को हमने ग्रहण कर लिया। सत्ता के मद
में चूर ऊपर लोग पूरा देश चूसते रहे। खोखला करते रहे और हम सोए रहे। साठ-पैंसठ साल
तक सोए रहे। जब जागे तो इतनी देर हो गई है कि हर तरफ भ्रष्टचार, गंदगी सड़ांध ही सड़ांध है। इतनी कि नाक फटी
जाती है।
अब आज की जेनरेशन इससे छुटकारा पाने को तड़प रही है। ऊपर
का सिस्टम भी इस चीज को समझ गया है। मुझे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि जब ऊपर वालों
ने देखा कि नई जेनरेशन इतनी परेशान हो चुकी है कि विस्फोट हो सकता है तो उसने भले ही
दबाव में या जो भी कहें संड़ाध गंदगी को दूर करना शुरू किया है। लेकिन यह सड़ांध दूर
होने में समय लगेगा। हथेली पर सरसों उगाने का कोई रास्ता तो अभी तक नैनो टेक्नोलॉजी
भी नहीं ढूंढ़ पायी है।
साठ-पैंसठ साल की सड़ांध को दूर करने में यदि ईमानदारी से पूरी
कोशिश होती रही तो भी मैं मानता हूं कि आठ-दस साल तो लग ही जाएंगे। और यह भी तब ही
हो पाएगा जब हम देशवासी जागते रहें, फिर से
सो ना जाएं। तय यह भी है कि इस बार अगर सोए तो सब कुछ नष्ट होना अवश्यंभावी है। और
यह भी कि यदि नई जेनरेशन की आवाज़ को ऊपर वालों ने नजरंदाज किया। पहले वालों की तरह
आंखें बंद किए रहे तो देश में खूनी क्रांति भी हो सकती है। और उस स्थिति के लिए मैं
यही कहूंगा कि जब किसी देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना जरूरी हो जाए, कम समय में ही, तो वहां तक पहुंचने का रास्ता खूनी क्रांति
से ही होकर गुजरता है। इतिहास इस बात का गवाह है। हमें इतिहास से सबक लेते रहना चाहिए।
जो आगे देखने से पहले अतीत पर नजर नहीं डालते उनको ठोकर लगती ही है।’
वह नॉन स्टॉप पूरे आवेश में ऐसा बोला कि मैं कुछ देर
चुप-चाप सुनता ही रहा। उसकी बातों ने वाकई मुझे यह यकीन करा दिया कि इस व्यक्ति में
बड़ा ज्वालामुखी धधक रहा है। इसी में क्यों बल्कि इसकी उम्र की पूरी पीढ़ी में ही। लेकिन
मुझे लगा कि इसने मेरी बात का तो जवाब दिया ही नहीं कि यह अपनी हालत के लिए आरक्षण
को ज़िम्मेदार मानता है कि नहीं।
यह सोच कर मैंने उसे फिर कुरेदा तो वह बड़ी बेबाकी से बोला। ‘नहीं। मैं इसे ज़िम्मेदार नहीं मानता। क्यों
कि मैं यह मानता हूं कि आज़ादी के बाद भी अगर हम समाज में फैली असमानता को दूर नहीं
कर पाएंगे तो भी देश का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा। यह व्यवस्था असमानता को दूर करने
का एक माध्यम है। लेकिन करप्शन में पैदा सिस्टम ने इस व्यवस्था को भी विकृत कर दिया।
इसकी भी धुर्रियां उड़ा दी हैं। जिसका परिणाम और नकारात्मक निकल रहा है।
समाज में सदियों से पीछे छूट गए जिन दलितों के लिए यह
व्यवस्था बनाई गई। इस व्यवस्था को विकृत कर दिए जाने के कारण उन दलितों में भी वर्ग
बनते जा रहे हैं। कुछ परसेंट हैं जो इस के चलते आगे निकल गए, वो पुश्त-दर पुश्त उसी का लाभ उठाते रहना
चाहते हैं। उनको यह क्रीम मिलती रहे इसके लिए सक्षम बन चुका यह वर्ग जो अब भी पीछे
छूटे हुए हैं, उनको आगे आने नहीं
दे रहा।
हर संभव रुकावट डालता
है, जिसका परिणाम है
कि दलितों में भी परस्पर वैमन्स्यता बढ़ रही है। असमानता बढ़ रही है। यह व्यवस्था बनाते
वक्त इसकी जो मूल भावना थी, इसकी जो
आत्मा थी उसे ही नष्ट कर दिया गया है। परिणाम यह है कि एक के सामने रखी थाली छीन कर
दूसरे को दी जा रही है। दूसरे की तीसरे को। तो जो इक्वेलिटी लाने की बात थी वह तो कहीं
है ही नहीं। बल्कि असमानता और बढ़ रही है। विषमता, विभेद चरम छूने को है। इसी का परिणाम है कि अब देश के कोने-कोने
में हर वर्ग ही आरक्षण पाने के लिए आंदोलन कर रहा है। लड़ रहा है। कोई इसकी विकृति को
सुधारने की बात ही नहीं कर रहा है।
अब ऐसे में मैं आरक्षण नहीं इस व्यवस्था की सड़ांध इसकी
विकृति को अपनी स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मानता हूं। इसे बनाते समय इसकी संकल्पना करने
वालों, इसे बनाने वालों
की बातों, उनके विचारों को
आधा भी माना जाता तो आज किसी वर्ग को आरक्षण की जरूरत ही ना होती। यह व्यवस्था ही अप्रासंगिक
हो जाती। खत्म हो जाती। असमानता से दूर समाज,
देश की प्रगति की वो कहानी लिखता जिसकी दुनिया ने भी कल्पना न की होती। मगर अफसोस
आज़ादी मिलते ही सत्ता के लोभियों की नजर हर तरफ लग गई। उनकी सत्ता हर वक्त चलती रहे, बनी रहे इसके लिए वोट की राजनीति चली और
चलती ही आ रही है। सारी समस्या को नए ढंग से नया रूप देकर उन्हें बराबर विकराल रूप
दिया गया। वह अभी भी जारी है। इसलिए मैं कहता हूं कि यह कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि
हमारे देश में गृहयुद्ध या खूनी क्रांति हो जाए।’
इन बातों को कहते हुए
ड्राइवर आदित्य विराट सिंह के चेहरे पर जबरदस्त तनाव था। चेहरा लाल हो रहा था। पीछे
सीट पर बैठा मैं बैक मिरर में यह सब कुल मिलाकर देख पा रहा था। बैक मिरर भी मुझे लगा
कि सही एंगिल पर नहीं था। उसकी बात पूरी हो गई। मैं बड़ी देर तक चुप रहा। मुझे लगा कि
शायद वह मेरी वजह से बड़े तनाव में आ गया है। मैं नहीं चाहता था कि वह तनाव में ड्राइविंग
करे। मैंने उससे कहा ‘आदित्य
जी आगे कोई अच्छा सा रेस्टोरेंट वगैरह दिखे तो रोकना।’ अपने नाम के साथ जी जुड़ा पाकर वह जैसे राहत
महसूस कर रहा था। जी कहते समय मैंने उसकी बॉडी लैंग्वेज को रीड करने की भरसक कोशिश
की थी।
आगे जब एक रेस्टोरेंट पर उसने गाड़ी रोकी तो मैंने उसकी
अनिच्छा के बावजूद उसे अपने साथ ही बैठकर लंच करने के लिए तैयार कर लिया। कई बार कहने
पर वह तैयार हुआ था। बातूनी स्वभाव के चलते इस समय भी मैंने उससे खूब बातें की जिससे
लंच कुछ ज़्यादा ही लंबा खिंच गया। इस दौरान मैंने पाया कि वह पैसे से ज़्यादा सम्मान
का भूखा है।
उसने बताया कि घर की ज़िम्मेदारियों, फिर शादी के बाद बीवी, बच्चे की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए
टीचिंग से मिलने वाली रकम ऊंट के मुंह में जीरा सी थी। कोई और रास्ता ना देखकर उसने
बीवी के गहने आदि बेचकर डाउन पेमेंट करने लायक भर की रकम जुटाई, फिर बैंक से फाइनेंस कराकर यह टैक्सी निकलवाई।
उसने बिना संकोच कहा, ‘खुद चलाता
हूं इस लिए बचत अच्छी कर लेता हूं। गाड़ी की कुछ किस्तें रह गई हैं। इसके बाद एक और
गाड़ी निकलवाऊंगा।’
उसने अपने बच्चों के
भविष्य, आगे बढ़ने को लेकर
जो भी प्लान कर रखा था उससे मैं बहुत इंप्रेस हुआ, अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन के प्रति उसकी गंभीरता प्रशंसा
योग्य थी। इसके लिए मैंने उसकी खुले दिल से प्रशंसा की। उस वक्त मैं मन में बड़ी आत्मग्लानि
महसूस कर रहा था कि मैंने अपने मां-बाप के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन संतोषजनक
ढंग से भी नहीं किया। मैं बड़ा पछतावा महसूस करने लगा।
मन में उठे इन भावों
के साथ ही मैं आदित्य की बातें सुनता रहा। रेस्टोरेंट से जौनपुर की ओर चलने के बाद
भी। जब अपने रिश्तेदार के यहां ओलंद गंज, जौनपुर
पहुंचा तो शाम हो चुकी थी। इस दौरान आदित्य की बहुत सी बातों में सेे एक बात मेरे मन
को और गहरे मथने लगी। उसने कहा था कि ‘सर चाहे
जैसे भी हो मैं कोशिश कर के कम से कम दो बीघा जमीन गांव में और खरीदूंगा। मेरे पापा
तो जीवन भर तमाम मुश्किलों के कारण गांव में एक धूर जमीन भी नहीं खरीद पाए। लेकिन उन्होंने
यह भी किया कि हर मुश्किलें सह लीं लेकिन अपने बाप-दादों की जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं
बेचा।
मैं सोचता हूं कि अगर दो-चार बीघा जमीन ले लूंगा तो फादर
को खुशी होगी कि वो ना खरीद पाए तो क्या उनके बेटे ने तो खरीद लिया। बाप-दादों का सम्मान
बढ़ा दिया। पूरा गांव ही तारीफ करेगा। उन्हें यह जो खुशी मिलेगी मेरे लिए वह जीवन की
सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।’
मैं अपने रिश्तेदार
के साथ बैठा चाय-नाश्ता करता रहा लेकिन आदित्य की यह बात दिमाग से निकल नहीं रही थी।
आदित्य जाते-जाते मुझसे हाथ मिला कर गया था। मुझे इस बात के लिए उसने बहुत-बहुत धन्यवाद
कहा था कि मैंने उसे रास्ते भर एक टैक्सी ड्राइवर नहीं एक मित्र की तरह ट्रीट किया।
फिर उसने बड़े संकोच के साथ मेरा मोबाइल नंबर भी ले लिया। बोला ‘सर जब याद आएगी तो आप से बात कर लिया करूंगा।’
देर रात जब मैं खा-पी कर लेटा तो भी उसकी बातें दिमाग
में चल रहीं थी। मैं अपनी पैतृक प्रॉपर्टी बेचने गया था। इस काम में मेरे यही रिश्तेदार
जो चचेरे भाई लगते हैं वही मदद कर रहे थे। मेरा गांव वहां से घंटे भर की ही दूरी पर
था। रामगढ़, मछली शहर तहसील।
अगले दिन सुबह मैं उन्हीं की जीप से तहसील पहुंचा। उन्होंने ड्राइवर के अलावा दो आदमी
और साथ लिए थे। उन्होंने खरीददार से सब कुछ तय कर रखा। फिफ्टी पर्सेंट पेमेंट ब्लैक
कैस में लेना था, फेयर मनी सीधे बैंक
में जमा होनी थी। सब कुछ तय था। बदले में मैं उन्हें भी कुछ देने की अपने मन में सोचे
बैठा था। असल में वह एक अच्छे खासे ठेकेदार हैं। सफल ठेकेदार के गुण दबंगई उनमें कूट-कूट
कर भरी हुई है।
तहसील में ही मुझे उनके चार-पांच आदमी और मिले। सब दूसरी
जीप से थे। रिश्तेदार ने उन्हें भी सुरक्षा की दृष्टि से बुलाया था। क्योंकि मामला
करीब पांच बीघे का था। और अस्सी लाख रुपए में तय हुआ था। हम साढ़े दस बजे पहुंच गए थे।
खरीददार कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। रिश्तेदार ने सबसे पहले संबंधित स्टाफ का पता किया।
संयोगवश सब आए थे। ग्यारह बजे भी खरीददार नहीं दिखा तो रिश्तेदार ने उन्हें फो़न किया।
रिंग जाती रही लेकिन उसने फ़ोन रिसीव नहीं किया।
इससे मैं थोड़ा परेशान हो उठा। उनके चेहरे पर भी तनाव
दिख रहा था। खरीददार चार भाई थे और सभी मिलकर खरीद रहे थे। दूसरे भाई का नंबर ट्राई
किया गया तो स्विच ऑफ मिला। बारह बज गए तो रिश्तेदार ने अपने आदमियों को खरीददार के
गांव तिलोरे उनके घर भेजा। वहां पहुंच कर उन सब ने सूचना दी कि बड़े भाई की दो घंटे
पहले ही डेथ हो गई है। वह हार्ट पेशेंट थे। दो बार पहले ही अटैक पड़ चुका था। सुबह आने
की तैयारी चल रही थी कि तभी पत्नी से बहस हो गई। पत्नी शुरू से ही भाइयों के साथ इस
सौदे के खिलाफ थी। ऐन खरीदने के समय झगड़ा उन्हें अपशगुन लगा। वह एकदम बिगड़ गए थे। और
फिर संभाल ना पाए खुद को और गिर पड़े। उन्हें इतनी तेज अटैक पड़ा था कि डॉक्टर के यहां
ले जाने का अवसर ही नहीं मिला।
यह सूचना मिलते ही रिश्तेदार ने अपना सिर पीटते हुए कहा ‘क्या! दो-चार घंटे और नहीं रुक सकते थे।’ मुझे लगा जैसे मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक
गई है। कुछ देर समझ ही नहीं आया कि क्या करूं?
मेरी बोलती बिल्कुल बंद हो गई थी। रिश्तेदार भी हैरान थे। कुछ देर बाद तय हुआ कि
जो भी हो उनके यहां चलना तो चाहिए ही। उनके अंतिम दर्शन करने। ज़्यादा करीबी नहीं तो
क्या थोड़ा बहुत परिचय तो था ही।
वहां पहुंचा तो देखा चौपहिया, दुपहिया वाहन सौ से ऊपर थे। दो सौ लोगों
से कम लोग नहीं थे। बड़ा भारी पक्का मकान था। वहां पता चला कि सारे भाई एक साथ रहते
हैं। संयुक्त परिवार की परंपरा इस परिवार ने बना रखी है। मगर बड़े भाई की पत्नी तभी
से अपना रंग दिखा रही थी, जब से उसका
बड़ा लड़का इलाहाबाद में एक बैंक में नौकरी पा गया था। और उसकी शादी के लिए लोग आने लगे
थे। वह अलग सारी व्यवस्था करना चाहती थी। अपनी बहू वह संयुक्त परिवार में लाना नहीं
चाहती थी। इसी बात को लेकर वह आए दिन विवाद पैदा करती थी।
आज जब साथ में खेत खरीदने की बात उसने एकदम फलीभूत होते
देखी तो अपना आपा खो बैठी। यह भी होश ना रख सकी कि हृदय रोगी उसका पति ज़्यादा तनाव
झेल नहीं सकता। और अब जब पति चला गया तो खुद भी झेल नहीं पाई। बेहोश पड़ी है। मगर लोग
इतने खफा हैं कि कोई डॉक्टर तक नहीं बुला रहा। रिश्तेदार ने वहां अपनी हाजिरी बजाई, मातमपुर्सी की और चल दिए। मैं सोचता रहा
इतनी दूर से आना बेकार हुआ। सारा काम-धाम छोड़कर आया, कई दिन के काम का नुकसान हो रहा है।
गांव से निकल कर सड़क पर आए तो रिश्तेदार ने कहा ‘परिवार के किसी सदस्य की अचानक डेथ से परिवार
हिल उठता है। बेचारे खेत खरीदने जा रहे थे।’
मैंने भी दुख व्यक्त करते हुए कहा ‘इसीलिए
कहते हैं पल की खबर नहीं सामान सदियों का।’
रिश्तेदार बोले ‘अरे भाई साहब ये
सब पुरानी दकियानूसी बातें छोड़िए। आप भी, मैं क्या
कह रहा हूं और आप समझ क्या रहे हैं। मैं कह रहा हूं कि महिनों से कोशिश की। तब जा कर
बात बनीं। आपको इतनी दूर से बुलाया। और ये महोदय कुछ घंटे अपना दिल भी नहीं संभाल पाए।
घर और भाइयों को मैं जितना जानता हूं उस हिसाब से तो
यह सौदा अब होना नहीं। बड़े दकियानूसी विचारों वाला परिवार है।’ तभी उनका एक साथी बोला ‘वैसे भी अब साल भर तक तो कोई सवाल नहीं।
इतने दिन कोई शुभ काम करेंगे ही नहीं। हां अगर बरसी वगैरह सब साथ ही निपटा देते हैं
तो भले ही उम्मीद की जाए कि दो-चार महिने बाद खरीद लेंगे। अभी सब लोक-लाज की बातें
करेंगे कि अभी भाई मरा है, खेती-बाड़ी
क्या खरीदें? दुनिया क्या कहेगी?’
साथी की बात ने मेरी परेशानी और बढ़ा दी। लेकिन रिश्तेदार ने
यह कह कर चैप्टर ही क्लोज कर दिया कि ‘मुझे तो
कोई उम्मीद नहीं दिखती। ये सब यहां शगुन-अपशगुन बहुत देखते हैं। अब यही कहेंगे कि इन
खेतों का सौदा बहुत अपशगुन रहा। खरीदने के पहले ही इतना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। खरीदने के
बाद ना जाने और कौन सी विपत्ति आ जाए। अब दूसरा कस्टमर ढूंढ़ना पड़ेगा। यहां तो भैंस
गई पानी में।’ इतना कह कर वो फिर
मुखातिब हुए मेरी तरफ और पूछा ‘भाई साहब
आप क्या कहते हैं। चला जाए वापस। अब तो कोई उम्मीद दिखती नहीं।’
कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा ‘मैं सोच रहा हूं कि जब आ ही गया हूं, अभी पूरा दिन पड़ा है तो चलूं चाचा से मिल
लूं। आगे कभी पता नहीं मिलना होगा भी या नहीं। पता नहीं कितने साल बाद तो आया हूं।
अब यहां से थोड़ी ही दूर है घर। पता उन्हें चल ही जाएगा। इस गांव के लोग भी वहां आते-जाते
रहते हैं। वैसे भी काम तो कुछ होना नहीं। इतनी दूर आया हूं तो कम से कम गांव घर द्वार
भी देख लूं।
शहर में तो गांव की
याद जब आती है तो बस मन मसोस कर रह जाता हूं। मैंने जब देखा कि रिश्तेदार का मन चलने
का नहीं है। वह जौनपुर सिटी अपने काम-धाम से तुरंत लौट जाना चाहते हैं। तो मैंने कहा
‘अगर आप को कोई असुविधा ना हो तो ड्राइवर
और एक जी़प मेरे साथ कर दीजिए। हो सकता है आज चाचा के यहां रुकना ही पड़े। इतने दिन
बाद जा रहा हूं, निश्चित ही रुकने
को कहेंगे। तब मना करना मेरे लिए बड़ा कठिन होगा। आपका ड्राइवर रहेगा तो मुझे रास्ता
वगैरह ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा। पैदल नहीं चलना पड़ेगा।’
मेरी बातों, भावों से उनको लगा कि मैं जरूर जाऊंगा तो
उन्होंने एक जीप मेरे लिए छोड़ी और दूसरी जीप से अपने बाकी आदमी लेकर चले गए। ड्राइवर
उस एरिया से ज़्यादा तो नहीं पर ठीक-ठाक परिचित था। इस तिलोरेे गांव से मैं अपने गांव
बरांवा पहुंचा खेती-बाड़ी तो खानदान की सब रामगढ़ में है। लेकिन घर और बाग बरांवा में।
मैं जब मुख्य सड़क जो वहां के रेलवे स्टेशन जंघई जाती है, के पड़ाव (बस स्टेशन) के पास पहुंचा तो मैंने
उस छोटे से कमरे के सामने ही गाड़ी रुकवा ली जो स्टेशन था। पड़ाव के सामने ही एक सड़क
अंदर गांव से कुछ दूर और आगे तक जाती है। उस पर कुछ आगे दाहिने मुड़ कर ही गांव के भीतर
पहुंचने का रास्ता था। पड़ाव पर पहुंचते ही सब याद आने लगा।
पिता के साथ गांव बहुत बरस पहले तब आया था, जब चचेरी बहन की शादी थी। बस स्टेशन के बगल
में चाय वाले के यहां से चाय लेकर मैं ड्राइवर के साथ ही खड़े-खड़े पीते हुए इधर-उधर
देखने लगा। सड़क पक्की थी, मगर गढ्ढों
से भरी। बचपन में जब आता था तो यह कंकड़ रोड हुआ करती थी। जिसके बारे में सुनता था कि
उसे अठारह सौ छियानवे में बनवाया गया था। एक बार जब नौ-दस बरस का रहा होऊंगा तब इसी
रोड पर बस का अगला पहिया बर्स्ट हो जाने से बस सड़क से उतर कर गढ्ढे में चली गई थी।
हम भी उसी बस में थे। सब को चोटें आईं थी। मेरा एक दांत टूट गया था। तब केंद्र में
जनता पार्टी की सरकार थी।
लोग आपातकाल की काली छाया से निकल कर एक बार फिर आज़ादी
महसूस कर रहे थे। तब भी पड़ाव पर दोपहर में सन्नाटा था। आज इतने बरसों बाद भी पड़ाव उसके
आस-पास करीब-करीब वैसा ही सन्नाटा सा हो रहा था। एक बजने वाला था। तेज़ धूप ने, गर्म हवा ने सबको घरों या छाए में दुबक जाने
को मजबूर कर दिया था। जिस दुकान से चाय ली थी उसने आगे तिरपाल बांध रखी थी। उसी की
छांव में हम जरूर थे। मगर पसीने से तर हो रहे थे। चाय वाले से हमने कुछ बात करके गांव
के बारे में जानना चाहा तो वह बड़ा अलसाया सा हाथ वाले पंखे से अपने को हवा करते हुए
हां हूं करता बड़ा अनमना सा जवाब दे रहा था। मैं भी थकान महसूस कर रहा था। तो चाय खत्म
कर चाय वाले को पैसे दिए और कंफर्म करने के लिए अपने चाचा के घर का पता पूछ लिया।
उसने जैसे ही चाचा का नाम सुना तो थोड़ा सीधा होकर बैठ
गया, और पूरा रास्ता
बता दिया। चलते समय जब मैंने बताया कि मैं उनका भतीजा हूं तो वह हाथ जोड़ कर बोला ‘अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए। बतावा
केतना बड़ी गलती हो गई। तोहे ठीक से चायो-पानी नाहीं पूछ पाए। चच्चा जनिहैं तो रिसियइहीं।’ मैंने उसे नमस्कार करते हुए कहा आप परेशान
ना होइए। ऐसा कुछ नहीं होगा। बाद में पता चला कि यह महोदय कभी सबसे छोटे चच्चा के कारण
थाने से छूट पाए थे। उसी का अहसान निभाते आ रहे हैं। मैं फिर जीप में बैठ कर चल दिया।
ड्राइवर शंभू ने रास्ता समझ लिया था। वह गाड़ी धीरे-धीरे चला रहा था। रास्ते अब पहले
जैसे ना होकर अंदर ठीकठाक थे। गांव में अंदर इंटरलॉकिंग ईंटों से खड़ंजे वाली सड़क बन चुकी थी। मुख्य सड़क से अंदर घुसते
ही पहले एक स्कूल हुआ करता था। अब वह मुझे दिखाई नहीं दिया।
गाड़ी आगे जैसे-जैसे बढ़ रही थी मन में बसी गांव की तस्वीर
साफ होती जा रही थी। मगर सामने जो दिख रहा था वह बहुत कुछ बदला हुआ दिख रहा था। पहले
के ज़्यादातर छप्पर, खपरैल वाले घरों
की जगह पक्के घर बन चुके थे। लगभग सारे घरों की छतों पर सेटेलाइट टीवी के एंटीना दिख
रहे थे। अब घरों के आगे पहले की तरह गाय-गोरूओं के लिए बनीं नांदें मुझे करीब-करीब
गायब मिलीं। चारा काटने वाली मशीनें जो पहले तमाम घरों में दिखाई देती थी वह इक्का-दुक्का
ही दिखीं। जब नांदें, गाय-गोरू
गायब थे तो चारे की जरूरत ही कहां थीं? जब चारा
नहीं तो मशीनें किस लिए? खेती में
मशीनीकरण ने बैलों आदि चौपाओं को पूरी तरह बेदखल ही कर दिया है।
अब इन जानवरों की अनुपयोगिता के चलते ग्रामीणों ने इनसे
छुट्टी पा ली है। हरियाली भी गांव में पहले जैसी नहीं मिली। हरियाली की जगह उस वक्त
हर तरफ़ तन झुलसाती धूप का एकक्षत्र राज्य था। जीप में एसी के कारण मुझे काफी राहत थी।
वह पेड़ भी मुझे करीब-करीब गायब मिले जो पहले लोगों के घरों के सामने हुआ करते थे। खासर्ताैर
से नीम, कनैल के फूल, अमरूद, केला, आदि के।
पक्के मकानों के सामने इन पेड़ों की छांव की जरूरत लोगों ने नहीं समझी। मकान आगे तक
बढ़ आए थे। और पेड़ गायब थे। घरों के दरवाजे बंद पड़े थे। मुझे गंवईपन गायब दिख रहा था।
कई घरों के आगे जीप, कारें भी दिखीं।
लेकिन पहले की तरह घरों के आगे पड़े मड़हे में तखत या खटिया पर हाथ का पंखा लिए कोई न
दिखा।
यह हमारे लिए थोड़ा कष्टदायी
रहा, क्योंकि कई जगह
रास्ता पूछने की जरूरत पड़ी लेकिन बताने वाला कोई नहीं दिख रहा था। एक तरफ बंसवारी दूर
से दिख रही थी। मुझे याद आया कि यह हमारे घर से थोड़ी ही दूर पर पश्चिम में दर्जियाने
(दर्जियों का टोला) मुहल्ले में हुआ करती थी। मगर मन में यह संदेह था कि यह पता नहीं
मैं जो समझ रहा हूं वही बंसवारी है या कहीं और तो नहीं पहुंच गया हूं।
शंभू को मैंने बंसवारी के पास ही चलने को कहा। वहां पहुंच
कर पाया कि यह तो वही दर्जियान है जिसे मैं ढूंढ़ रहा हूं। मैं सही हूं। गांव का वह
हिस्सा जहां मुस्लिम समुदाय के दर्जियों, जुलाहों
आदि के घर थे। वहीं बीड़ी बनाने वालों, चुड़ियाहिरिनों
के भी घर हैं। वहां वह कुंआ वैसा ही मिला जैसा बरसों पहले देखा था। हां उस की जगत और
उसके वह दो पिलर जिस के बीच लोहे की गराड़ी लगी थी, वह बदले हुए मिले। वहीं उतर कर मैं सामने खपरैल वाले मकान के
पास पहुंचा। इस मकान का पुराना रूप पूरी तरह नहीं खोया था।
मकान के दलान में कुछ
महिलाएं बीड़ी बनाने में जुटी थीं। एक बुजुर्गवार ढेरा (लकड़ी का एक यंत्र ,जो प्लस के आकार होता है। इसमें बीचोबीच
एक सीधी गोल लकड़ी करीब नौ दस इंच की लगी होती है। ) से सन की रस्सी बनाने में लगे थे। बुजुर्गवार गोल टोपी
लगाए थे। उनकी पतली सी लंबी सफेद दाढ़ी लहरा रही थी। मूंछें साफ थीं। बगल में नारियल
हुक्का था। चश्मा भी नाक पर आगे तक झुका था। सभी के चेहरे पर पसीना चमक रहा था। चेहरे
आलस्य से भरे थे।
खाली चेकदार लुंगी पहने,
नंगे बदन बुजुर्गवार सन की एक छोटी सी मचिया (स्टूल जैसी लंबाई-चौड़ाई वाली एक माइक्रो
खटिया जो मात्र पांच छः इंच ऊंची होती है।)पर बैठे थे। मैं उनके करीब पहुंचा, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। और अपने चाचा के
घर का रास्ता पूछा। जीप के पहुंचने पर से ही वह बराबर हम पर नजर रखे हुए थे।
चाचा का नाम सुनते ही उन्होंने कहा ‘बड़के लाला खिंआ जाबा?’ हमने कहा ‘हां’। तो उन्होंने
फिर पूछा ‘कहां से आए हअ बचवा।’ मैंने बताया ‘जौनपुर से। वो मेरे चाचा हैं।’ यह सुनते ही वह बोले ‘अरे-अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए।’ यह कहते हुए उन्होंने रस्सी बनाना बंद कर
यंत्र किनारे रखा। दोेनों हाथ घुटनों पर रख पूरा जोर देकर खड़े हो गए। दस बारह क़दम बाहर
आकर रास्ता बताया। चलते-चलते पापा का नाम पूछ लिया। मैंने बताया तो पापा का घर वाला
नाम लेकर बोले ‘तू उनकर बेटवा हअअ!
बहुत दिना बाद आए हऊअ। तू सभे त आपन घरै-दुवार छोड़ि दिअ हअअ। अऊबे नाहीं करतअ। तोहार
बबुओ कईयो-कईयो बरिस बाद आवत रहेन। चलअ तू आए बड़ा नीक किहैय।’
उन्होंने कई और बातें
कहीं। जिनका लब्बो-लुआब यह था कि हमें अपने घर-दुआर से रिश्ता नाता बनाए रखना चाहिए।
बुजुर्गवार अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं उनको क्या बताता कि मेरे पापा भी इसी सोच के
थे। वह तो रिटायरमेंट के बाद गांव में ही स्थाई रूप से बसने का सपना संजोए हुए थे।
मगर चौथे नंबर के जो चाचा तब यहां सर्वेसर्वा बने हुए थे, वह संपत्ति के लालच में ऐसे अंधे हुए थे, कि सारे भाइयों के इकट्ठा होने पर नीचता
की हद तक विवाद करते थे।
शुरू में तो कई बरस बाहर रहने वाले तीनों भाई बरदाश्त
करते रहे। और हर शादी-विवाह,बड़े त्योहारों, जाड़ों और गर्मी की छुट्टियों में परिवार
के साथ आते रहे। लेकिन आते ही यह चौथे चाचा जो तमाशा करते घर में, बाबा, दादी को भी अपमानित करते, उससे सभी का मन धीरे-धीरे टूट गया। फिर बाबा की डेथ हो गई। दादी
को पापा अपने साथ लेते गए। फिर वह आजीवन साथ रहीं। बीच में कुछ दिनों के लिए दूसरे
चाचा के पास कानपुर भी गईं।
वह चौथे चाचा की बदतमीजियों
उनके अपमानजनक उपेक्षापूर्ण व्यवहार से इतना दुखी इतना आहत थीं कि गांव छोड़ते वक्त
फूट-फूट कर रोई थीं। चौथे चाचा का नाम ले कर कहा था ‘अब हम कब्बौ ई देहरी पर क़दम ना रक्खब।’ और दादी ने अपना वचन मरकर भी निभाया। वह
दुबारा लौट कर जाने को कौन कहे फिर कभी गांव का नाम तक नहीं लिया। और जब दादी चली आईं
तो पापा और बाकी दोनों भाइयों ने भी गांव जाना लगभग बंद कर दिया।
उन बुजुर्गवार को क्या बताता कि चौथे चाचा की बदतमीजियों
से जब दादी हमेशा के लिए घर छोड़ कर चली गईं,
वह दादी जी जो पहले पापा और दूसरे चाचा के यह कहने पर कि ‘अम्मा चलो कुछ दिन हम लोगों के साथ रहेा।’ तो कहती थीं, ‘नाहीं, चाहे जऊन होई जाए, हम आपन
घर दुआर छोड़ि के कतो ना जाब।’ ऐसे में
यहां हम लोगों के आने का कोई स्कोप कहां रहा। वही चाचा जो संपत्ति के लिए अंधे हुए
थे। भाइयों का हक मार-मार कर प्रयाग में और इस गांव में भी अलग एक और मकान बनवाया था।
बाद में उनका जीवन बहुत कष्ट में बीता। सबसे हड़पी संपत्ति पांच लड़कियों की शादी में
चली गई।
यह पांच कन्या रत्न उन्हें पुत्र रत्न के लोभ में प्राप्त
हुईं थीं। पुत्र रत्न उनकी सातवीं या आठवीं संतान थी। और आखिरी भी। जिन दो कन्या रत्नों
ने शिशुवस्था में ही स्वर्गधाम कूच कर दिया था उनके लिए चाचा-चाची कहते। ‘हमार ई दोनों बिटिये बड़ी दया कई दिहिन। नाहीं
तअ शादी ढूढ़त-ढूढ़त प्राण औऊर जल्दी निकल जाई।’
बुजुर्गवार के बताए रास्ते पर चल कर मैं अपने सबसे छोटे चाचा पांच नंबर वाले के
घर के सामने रुका। उन्होंने भी अपना अच्छा खासा बड़ा मकान बनवा लिया है। घर के लॉन में
मोटर साईकिल खड़ी थी। दरवाजे खिड़की सब बंद थे। गर्मी ने सबको केैद कर रखा था। अब गांव
में यही एक चाचा रह गए हैं।
जीप से उतर कर मैंने दरवाजे को कुछ समयांतराल पर खटखटाया।
दो बार कुंडी खटखटाते वक्त बचपन का वह समय याद आया जब बाबा थे। और बड़े से घर में सारे
दरवाजों में बड़ी-बड़ी भारी सांकलें लगी थीं। बेलन वाली कुंडियां नहीं। करीब दो मिनट
बाद छब्बीस सताइस वर्षीया महिला ने दरवाजा खोला। मैं उसे पहली बार देख रहा था। वह शायद
सो रही थी।
मेरे कारण असमय ही उसकी
नींद टूट गई थी। इसकी खीझ उसके चेहरे पर मैं साफ पढ़ रहा था। खीझ उसकी आवाज़ में भी महसूस
की जब उसने पूछा ‘किससे मिलना है?’ मैंने चाचा का नाम बताया तो बोली ‘वो सो रहे हैं। बाद में आइए।’ तो मैंने कहा ‘उन्हें उठा दीजिए। मैं जौनपुर से आ रहा हूं।
वो मेरे चाचा हैं।’ मैंने उसे परिचय
दे देना उचित समझा। चाचा कहने पर वह थोड़ी सतर्क हुई और अंदर जाकर जो भी कहा हो करीब
पांच मिनट बाद चाचा का छोटा लड़का बाहर आया। मुझे उसे भी पहचानने में थोड़ा समय लगा।
उससे मिले भी बहुत समय बीत गया था। इसके पहले मैं उससे
तब मिला था जब वह हाईस्कूल में था। दाढ़ी-मूंछें शुरू ही हुईं थीं। अब वह पौने छः फीट
का लंबा चौड़ा युवक था। उसने पहचानते ही पैर छुआ और कहा ‘आइए भइया।’ दरवाजे के अंदर क़दम रखते ही हम ड्रॉइंगरूम
में थे। लगभग बीस गुणे पचीस का बड़ा सा कमरा था। जो ड्रॉइंगरूम की तरह मेंटेन था। एक
तरफ सोफा वगैरह पड़ा था। दूसरी तरफ तखत पर चाचा सोते दिखाई दिए। बीच में एक दरवाजा भीतर
की ओर जा रहा था। दरवाजे पर पड़े पर्दे की बगल से जैसी तेज़ लाइट आ रही थी उससे साफ था, कि उधर बरामदा या फिर आंगन था।
मुझे सोफे पर बैठने को कह कर चचेरे भाई, जिसका नाम शिखर है ने अपनी पत्नी को मेरा
परिचय बताया। तो उसने भी मेरे पैर छुए। साथ ही उलाहना देना भी ना भूली कि ‘भाई साहब आप लोग शादी में भी नहीं आए इसीलिए
नहीं पहचान पाए।’ मेरी इस भयो यानी
छोटे भाई की पत्नी ने ही दरवाजा खोला था। उसकी शिकायत उसका उलाहना अपनी जगह सही था।
उसने जिस तेज़ी से उलाहना दिया उससे मैं आश्चर्य में था। क्योंकि वह उलाहना दे सकती
है मैंने यह सोचा भी नहीं था। लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि मैं भी अपनी जगह सही था।
उसके ही सगे श्वसुर और मेरे इन्हीं छोटे चाचा ने एक बार
रिवॉल्वर निकाल ली थी अपने बड़े भाइयों पर। जब बाहर रहने वाले तीनों भाइयों ने चौथे
नंबर वाले चाचा को समझाने का प्रयास करते हुए कहा था कि ‘हम लोग तो रहते नहीं। तुम दोनों यहां जो
कुछ है आधा-आधा यूज करते रहोे। आगे जब कभी हम लोग आएंगे तब देखा जाएगा। कम से कम रिटायर
होने तक तो हम लोग आ नहीं रहे।’
इस पर चौथे चाचा बिफर
पड़े थे कि ‘मेरा परिवार बड़ा
है। सारी प्रॉपर्टी की देखभाल, मुकदमेंबाजी
सब मैं संभालता हूं। चाहे कुछ भी हो जाए। धरती इधर से उधर हो जाए लेकिन मैं आधा नहीं
दूंगा।’ सबने सोचा कुछ हद
तक यह सही कह रहे हैं। छोटे चाचा वैसे भी महीने में पांच-छः दिन ही रहते हैं। बाकी
दिन तो यह इलाहाबाद में अपनी नौकरी में रहते हैं। तो सबने सलाह दी कि चौथे का कहना
सही है। पैंसठ-पैंतीस के रेशियों में बांट लो तुम दोनों।
बस इतना कहना था कि यही चाचा बमबमा पड़े थे। बिल्कुल इसी
गांव के बम-बम पांड़े की तरह। जो अपनी खुराफातों से पूरे गांव को परेशान किए रहते थे।
परिवार को भी। एक होली में भांग में मदार के बीज ना जाने किस झोंक में पीस गए। ज़्यादा
मस्ती के चक्कर में ऐसा मस्त हुए कि यह लोक छोड़ कर परलोक चले गए। मगर पीछे किस्से बहुत
छोड़ गए। इन्हीं की आदतों से इंफेक्टेड यही चाचा तब अपनी पत्नी का नाम लेकर चिल्लाए
थे ‘निकाल लाव रे हमार
रिवॉल्वर, देखित हई अब ई बंटवारा
कैइसे होत है। हम छोट हैई त हमके सब जने दबइहैं। लाओ रे जल्दी।’
और मूर्ख चाची ने भी
अंदर कमरे से रिवॉल्वर निकाल कर चाचा को थमा दी थी। ये अलग बात है कि ये चाचा उस रिवॉल्वर
का कुछ प्रयोग करते उसके पहले ही गश खाकर गिर पड़े। बंटवारे की बात जहां शुरू हुई थी।
वहीं खत्म हो गई। इसके बाद तीनों भाई तभी गांव पहुंचे जब इन दोनों भाइयों के बच्चों
का शादी ब्याह हुआ या ऐसा ही कोई भूचाल आया। अन्यथा भूल गए अपना गांव, अपना घर, संपत्ति। फिर इन दोनों ने अपने मन का खूब किया। जो चाहा खाया-पिया, बेचा। जो चाहा अपने नाम कर लिया।
बाकी भाइयों के नाम बस वही खेत, बाग बचे रह गए। जो कानूनी अड़चनों या भाइयों
के हाजिर होने की अनिवार्यता के कारण बेच या अपने नाम नहीं कर सकते थे। यहां तक कि
पड़ाव पर की छः दुकानों में से पांच फर्जी लोगों को खड़ा कर बेच ली और पैसे बांट लिए।
जिसका पता दसियों साल बाद चल पाया। और मैं ऐसे ही चाचाओं में से एक सबसे छोटे वाले
से मिलने के लिए उन्हीं के ड्रॉइंगरूम में बैठा था।
अपने रिवॉल्वर वाले
चाचा से। वो सो रहे थे। लड़के ने मेरे मना करने के बावजूद उन्हें जगा दिया। उन्होंने
आंख खोली तो उसने मेरे बारे में बताया। सुनकर वह उठ कर बैठ गए। उन्हें उठने में बड़ी
मुश्किल हुई थी। दोनों हाथों से सहारा लेते हुए मुश्किल उठ पाए थे। उनके उठने से पहले
मैं उनके पास पहुंच गया था। उनके बैठते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने सिर ऊपर उठा
कर एक नजर देखकर कहा ‘खुश रहो।’
फिर सिरहाने
रखे चश्में का बॉक्स उठाया। चश्मा निकाल कर पहना। मैंने देखा वो पैंसठ की उम्र में
ही अस्सी के आस-पास दिख रहे थे, बेहद कमजोर
हो गए थे। मुझे हाथ से बगल में बैठने का संकेत करते हुए जब उन्होंने बैठने को कहा, लेकिन मैं संकोच में खड़ा ही रहा तो बोले
‘बैइठअ बच्चा।’ कांपती आवाज़ में इतना भावुक होकर वह बोले
की बिना देर किए मैं बैठ गया।
वह मेरे कंधे पर हाथ
रख कर बोले ‘बेटा हम मानित हई
कि हमसे बहुत गलती भयबा। एतना कि भुलाए लायक नाहीं बा। का बताई, ओ समय जैइसे मतिए (दिमाग) भ्रष्ट होइगा रहा।
तीनों भइया के साथे बहुत अन्याय किहे। बचवा ओकर (उसकी) हम बहुत सजौ(सजा,दंड) पाय चुका हई। तीनों भाई लोग हम्मै एक
दमैं त्याग दिेहेन।
ए बच्चा हम बादे में
बहुत पछताए। मगर तब ले बहुत देर होय चुकी रही। मुठ्ठी से सारी रेत निकरि कै जमीने मा
बिखर चुकी रही। तीनों भाइन से माफियू (माफी) मांगे के हिम्मत नाय रहि गई रही। भगवान
एतनै सजा से शांत नाय भयन। अम्मा (अम्मा, मां) रिशियाय
(गुस्सा) कै चली गईन। फिर लौटिन नाय कभौ। आखिर जीतै (जिवित) जी ओन्हें फिर देईख नाय
पाए। ई तअ तीनों भाइयन के कृपा रही कि उनके मरै पर खबर दैई दिहेन तअ आखिर दर्शन कई
लिहै।’ चाचा इतना कहते-कहते
फ़फ़क कर रो पड़े। वह सब एक सांस में बोलते चले गए थे।
जैसे ना जाने उनको कितने बरस से इसका इंतजार था कि कोई
मिले जिससे वह अपना पश्चाताप, पछतावा
मन का दुख-दर्द कह सकें। वह बिलख कर ऐसे रोने लगे कि मुझसे भी देखा नहीं जा रहा था।
मैं भावुक हो रहा था। मैंने प्यार स्नेह से उनके कंधों को पकड़ कर कहा ‘चाचा जी शांत हो जाइए, जीवन में इस तरह की बातें हो ही जाती हैं।’ मैंने समझाने के लिए कहा ‘हम लोगों के हाथ में तो कुछ है नहीं। समय
जो चाहता है करा लेता है। अपने को आप इतना दोष देकर परेशान मत होइए। जो होना था वह
हो गया। अब शांत हो जाइए।’
इस पर वह हिचकते हुए
बोले ‘नाहीं बच्चा, जऊन नाय होय के रहा ऊ.. होइगवा। इहै नाते
हमै एतना दुख बा कि अब जिय कै मन तनको नाय करत। भगवान जाने कब उठैइहें..।’ वह फिर हिचक पडे़ तो मैंने समझाते हुए कहा
‘चाचा इस तरह सोचने की कोई जरूरत नहीं
है। अभी आप को बच्चों के साथ बहुत दिन रहना है। फिर कहता हूं जो हुआ भूल जाइए। हर घर
में ऐसा होता ही रहता है। अब इतनी पुरानी बातों को लेकर परेशान होने का कोई मतलब नहीं
है।’
मुझे लगा कि बात को दूसरे ट्रैक पर लाए बिना यह शांत
नहीं होंगे। तो बात बदलते हुए कहा ‘शिखर पानी
लाओ बहुत गर्मी हो रही है।’ मेरी बात
सुनते ही उसकी पत्नी अंदर गई और करीब दस मिनट बाद चार गिलास पानी, एक प्लेट में पेठा लेकर आई। मैं इस बीच चाचा
को दूसरे ट्रैक पर ला चुका था। पूछने पर मैंने बता दिया कि घर पर बीवी, बच्चे सब ठीक हैं। मां की तबियत बराबर खराब
रहती है। डॉक्टर, दवा के बिना कोई
दिन नहीं जाता। पापा की डेथ के बाद से अब तबियत ज़्यादा खराब रहती है। दोनों छोटे भाई
भी ठीक हैं। पानी आने पर मैंने अपने हाथों से उन्हें एक पीस पेठा खिलाकर पानी पिलाया।
पानी पीने के बाद बोले ‘बच्चा सही गलत के जब तक ठीक से समझे तब तक
सब बिगड़ चुका रहा। सब जने घर छोड़-छाड़ के जाय चुका रहेन। हमहिं ईहां अकेले पड़ा हई। केऊ
बोले बतियाय वाला नाहीं बा। बस ईहै दुअरिया,
ईहै तखत औउर सबेरे उहै हनुमान जी का मंदिर। इहै बा हमार कुल दुनिया। बाबू ई मंदिरवा
ना बनवाए होतेन तअ इहो कुछ ना होत। हनुमान जी से हमें बहुत शिकायत बा। समय रहते हमै
कुछ चेताएन नाहीं। बुधिया (बुद्धि)एकदमैं भ्रष्ट कई दिहे रहेन। हम सबै जने से लड़ि-लड़ि
कै सबके दुश्मन बनाए लिहे। एतना दुश्मन बनाए लिहे कि बचवा जब तोहार चाची मरिन केऊ भाई, भतीजा दुआरी तक नाई आवा।
मुन्नन भइया एतना रिसियान रहेंन, ऐइसन दुश्मनी निभाएन कि बगलिए में रहि के
नाहीं आएन। पूरा परिवार किंवाड़ी (दरवाजा) बंद किए पड़ा रहा। तोहरे चाची के अर्थी उठी, गांव पट्टीदार के लोग आएन। मगर ऊ दरवाजा
नाहीं खोलेन। ए बच्चा करेजवा एकदम फटि गअअ,
कि एतना बड़ा परिवार, इतना मनई
घरे में, मगर केऊ आय नाहीं
रहा। आपन केऊ नाय रहा। बच्चा तब बहुत बुरा लागि रहा। मगर बाद में सोचे, ना हम लड़ित सब से, ना ऐइसन दिन देखेक पड़त।’ चाचा फिर भावुक होते जा रहे थे।
बहू को शायद अच्छा नहीं
लग रहा था। या जो भी रहा हो वह बोल उठी ‘बाबू भइया
के थोड़ा आराम करे दा। कुछ खा पी ले दा। फिर बतियाए।’ चाचा को बहू की बात से जैसे ध्यान आया कि अभी ऐसी बातों का समय नहीं है। वह
तुरंत बोले-.. ‘हां.. हां...। लइ
आओ कुछ बनाय कै।’ इतना सुनकर वह अंदर
चली गई। मैं अब भी चाचा के बगल में ही बैठा था। शिखर जो बड़ी देर से चुप खड़ा था वह बोला
‘भइया आइए इधर आराम से बैठ जाइए।’ उसके कहने पर मैं सोफे पर आराम से बैठ गया।
लेकिन गर्मी से हाल-बेहाल था। पसीने को कानों के बगल में रेंगता महसूस कर रहा था। चाचा
की बात सुनते-सुनते रुमाल निकालना भूल गया। ड्रॉइंगरूम में दो-दो सीलिंग फैन लगे हुए
थे।
लेकिन उनके सहित टीवी वगैरह सब बंद पड़े थे। बिजली नदारद
थी। शिखर से मैंने हाथ वाला ही पंखा मांगा जो एक चाचा के पास और एक उनके पीछे रखी छोटी
सी एक मेज पर पड़ा था। शिखर ने खुद हवा करने की सोची लेकिन मैंने उसके हाथ से पंखा ले
लिया। थोड़ी देर में उसकी पत्नी सूजी का हलुवा,
पानी लेकर आई। नाश्ता करते हुए पूछने पर मैंने बता दिया, कि ‘मैं अपने
सारे खेत बेचने आया हूं।’ फिर मैंने
सारी घटना बताते हुए कहा ‘मैंने सोचा
कि जब आया हूं तो आप सब से मिलता चलूं।’
चाचा बोले ‘बहुत बढ़िया किहे बच्चा। अब आवा-जावा किहे।
अब हम ज़्यादा दिन के मेहमान नाहीं हई। हमार ता मन इहै बा भइया कि हम बड़ लोग जऊन गलती
किहे। सारा परिवार कभौ मिलके नाहीं रहा। अब कम से कम तू सब जनै आपस में रिश्ता बनाए
रहा। बाप-दादा जऊन लड़ेन-भिड़ेन, गलती किहेन
अब हम बच्चा चाहित हई कि लड़िका बच्चा ओसे मुक्ति पाय जाएं। मिल-जुल कै रहें। जाने बच्चा, रिश्ता बनाए राखे। मिल-जुल के रहे में बहुत
खुशी बा। सारी खुशी इहे में बा।
बच्चा आपन अनुभव हम बतावत हई कि हम लड़ि-भिड़ के, अलग रहिके देख लिहे। सिवाय घुट-घुट के जिए, भीतर-भीतर तड़पै, अपने के गलाए के अलावा कुछ नाहीं मिला। सोचा
बच्चा हम केतना अभागा हई कि अपने भतीजन, भतीजी, भानजी, भानजों के बारे में भी कुछ नाहीं जानित। कऊन कहां बा। का करत
बा, कइसन बा। अब तोहके
देइख कै तुरंते नाहीं पहिचान पाए। बतावा केतना बड़ा अनर्थ हऊवे कि हम अपने भतीजा के
नाहीं जानित।’
चाचा बोलते ही जा रहे थे। पश्चाताप की आग में बुरी तरह
तड़प रहे अपने चाचा को देख कर मैंने सोचा कि आखिर आदमी को अपनी गलतियां आखिरी समय में
ही क्यों याद आती हैं। जब गलतियां लगातार करता रहता है तब उसे अपनी गलतियों का अहसास
क्यों नहीं होता। चाचा अब जो आंसू बहा रहे हैं क्या उनके पास तब सोचने-समझने की ताकत
नहीं थी जब बड़े-भाइयों पर रिवॉल्वर तान रहे थे। उस समय क्रोध में, आवेश में गोली चल भी सकती थी। किसी भाई की
जान भी जा सकती थी। मैंने सोचा आखिर मैं आया ही क्यों? इन्होंने जो किया उसके बाद तो कोई रिश्ता
बरसों-बरस से था ही नहीं।
गांव मैं सिर्फ़ खेत बेचने आया था। मन में तो इस तरफ
आने की कोई बात थी ही नहीं। फिर खरीददार के मर जाने के कारण उसके यहां गया। वहां सब
का रोना-पीटना देखकर ही अचानक याद आई थी इन चाचा की। और फिर कदम जैसे अपने आप ही इस
तरफ बढ़ते चले आए थे। वह भी इन चाचा के लिए जो खेत, मकान, दुकान के
बंटवारे के प्रकरण पर मेरे फादर से भी बराबर बदतमीजी से पेश आए थे।
मेरी मां, हम भाई-बहनों
को भी क्या-क्या नहीं कहा। आखिर क्या हो गया मुझे, कि मैं इनके बारे में सोच बैठा। और क़दम इधर ही बढ़ते चले आए।
क्या इसे ही कहते हैं कि खून खींचता है।.....चाचा की बातें उनकी बहू को शायद अच्छी
नहीं लग रही थीं। वह फिर बोल पड़ी ‘बाबू भइया
सफर में थक गए होंगे। उन्हें आराम करने दिजिए।’
चाचा को उसकी बात ठीक नहीं लगी। वह थोड़ा रुक कर बोले, ‘अरे तू तअ हमके बोलेन नाहीं देत हऊ।’ फिर तुरंत ही बोले ‘हां भइया सही कहत बा। थका होबा आराम कई ला।’ मैंने देखा लड़का शिखर बातों में ज़्यादा
शामिल नहीं हो रहा था। लगा जैसे वह खिंचा-खिंचा सा रहता है अपने पिता से। बहू भी थोड़ी
तेज़ लग रही थी। सलवार सूट पहने, दुपट्टा
गले में लपेटे थी।
मेरे दिमाग में बचपन की कुछ बातें याद आ गईं। छुट्टियों
में आने पर यही़ चौथे,पांचवे
चाचा अम्मा दोनों चाचियों के घूंघट ना निकालने पर नाराज होते थे। बाबा, दादी से शिकायत करते थे कि ‘बबुआइन लोगन के देखत हैंय, लाज-शरम तअ जइसे धोए के पी गईंन हैं। भइया
लोग खोपड़ी पै चढ़ाए हैयन। शहर मां का रहैय लागिन है खोपड़ी उघारे चले की आदत पड़ि गै बा।’ बाबा कुछ ना बोलते। दादी बार-बार कहने पर
मौन रह कर अपना विरोध प्रकट कर देतीं। गांव की कोई भी महिला आ जाए तो भी यह लोग नहीं
चाहते थे कि मां, चाची लोग उनके सामने
आएं। अब देख रहा था वही चाचा कैसे कितना बदल गए हैं। सबसे छोटी बहू एक तरह से उन्हें
डपट रही थी। घूंघट की तो बात ही छोड़िए। सलवार सूट में है। दुपट्टा है तो लेकिन उसका
प्रयोग फ़ैशन के लिए था। गले में लपेट रखा था। बोलने में कोई हिचक नहीं थी।
पता नहीं चाचा की सख्ती कहां चली गई थी। शायद उनसे उम्र
ने बहुत कुछ छीन लिया था। जो कुछ भी उनके वश में नहीं था उन्होंने उससे हार मान ली
थी। हथियार डाल दिए थे। मुझे लगा जैसे माहौल में कुछ घुटन महसूस कर रहा हूं। एक घंटा
हो भी रहा था। तो मैं उठा और चाचा से बोला ‘चाचा जी
अब चलता हूं। काफी समय हो गया।’ तो वह बोले
‘अरे नाहीं बच्चा, ऐइसे कहां जाबा? अरे एतना बरिस बाद आए है। कुछ खाए-पिए नाहीं।
भइया अबै तो तोसे ठीक से मिलै बतियाए नाहीं पाए। भगवान बड़ी कृपा किहेन तोहे भेज कै।
भइया रुक जाते कुछ दिन। तोहसे आपन सारी बात कहि लेइत तो हमरे ऊपर से बोझ उतरि जाए।
भइया सारी बतिया एतनी गरू (भारी) हईन कि ना जियत बनत बा ना मरत। रुक जाबा ता हमार ई
भार बहुत कम होई जाई। जानै भइया। इहै बदे कहित हई, रुक जा, बड़ा नीक
लागे भइया।’
चाचा ऐसे भावुक हो कर बोल रहे थे कि मैं एकटक उनके होंठो
को देखते उनका हाथ पकड़े खड़ा रहा। उनकी भावुकता मुझे बांध रही थी। मैं बोलने की कोशिश
कर ही रहा था कि बहू बोल पड़ी। ‘हां भइया, बाबू जी सही कहत हैअन। रुक जाइए ना। अब बड़े
लोगों ने जो किया,वो किया। सही गलत
जो भी था। उन लोगों के बीच की बात थी। उन्हीं लोगों के बीच रही और खत्म भी हो जाएगी।
खत्म क्या होगी खत्म हो चुकी है। हम लोगों के बीच तो कभी कुछ बात हुई नहीं। जब कभी
मिले ही नहीं तो होती भी क्या? तो हम सब
लोग तो मिल कर रह ही सकते हैं। आ-जा सकते हैं एक दूसरे के यहां।’
उसके इस तरह
से बोलने पर मुझे यह स्पष्ट हो गया था, कि वह घूंघट
वाले युग की चुप रहने वाली, सब कुछ
सहने वाली बहुरिया नहीं है। वह अब आज के युग की अपनी बातों को बिना हिचक कह देने वाली
तेज़-तर्रार बहू है। वो क्या कहते हैं अपने अधिकारों को लेकर बहुत सजग रहने वाली महिला।
जिसके सामने महिला को दबा, छिपाकर, घर की कोठरियों में घूंघट में बहू को रखने
के प्रबल हिमायती मेरे चाचा भी हथियार डाल चुके हैं। मैं अभी उसकी तरफ मुड़ा ही था कुछ
कहने को कि तभी शिखर बोला। ‘चिंकी सही
कह रही है भइया। एक दो दिन रुक जाइए ना। ठीक से गांव दुआर देख लीजिए। हम आपको ले चलेंगे
सब जगह। ऐइसे खाली रास्ता नापे से का फायदा?
चलिएगा आपको खेत वगैरह सब दिखा लाएंगे।’
शिखर चुप हुआ ही था कि चाचा फिर बोल पड़े। ‘बचवा अब तअ तोके रुकेन कै पड़ी। बहुरिया बोल
दिहै बा। घरे में सबसे छोट बा, ओकर तअ
बतिया तोहैं मानिन कै पड़ी।’ मैं हर
तरफ से भावनात्मक बंधन के डाले गए इन फंदों को तोड़ ना पाया। कहा ‘ठीक है,आप सब इतना कह रहे हैं तो रुकना ही पड़ेगा। तभी अंदर से किसी
दुधमुंहे बच्चे के रोने की आवाज़ आई। सुनते ही चिंकी दौड़ती हुई अंदर को चली गई। मैं
फिर सोफे पर बैठ गया। उसी समय चाचा शिखर से बोले ‘बेटवा खाए-पिए के इंतजाम करा। बचवा भुखान होइहें।’ मैंने मना किया लेकिन कोई नहीं माना।
मैं गर्मी के कारण परेशान हो रहा था। शिखर भी अंदर खाने-पीने
के इंतजाम के लिए चला गया। हाथ का पंखा हांकते-हांकते मेरे हाथ दर्द करने लगे। ऊबने
भी लगा था। काम ना होने के कारण बड़ा तनाव महसूस कर रहा था। यही सोच कर आया था कि पांचों
खेत बेचकर जो अस्सी लाख मिलेंगे उससे सबसे पहले बैंक का पचास लाख लोन खत्म कर रात-दिन
कर्ज के टेंशन से मुक्ति पाऊंगा। बाकी तीस में से दो लाख जौनपुर वाले रिश्तेदार को
दूंगा। यह उनका कमीशन था। बाकी बिजनेस को बढ़ाने में लगाऊंगा। लेकिन खरीददार की डेथ
ने सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया।
शिखर की बात मुझे ठीक लगी कि गांव भी घूम लीजिए। मैंने
सोचा चलो इसी बहाने खेत के रेट भी कंफर्म करूंगा कि क्या चल रहा है। मैं इसी उधेड़-बुन
में उठकर बाहर गया। ड्राइवर जीप को पेड़ की छाँव खड़ा कर अंदर दरवाजे बंद किए सो रहा
था। शीशे पर नॉक कर दरवाजा खुलवाया और मैं भी अंदर ही बैठ गया। अंदर फुल स्विंग में
एसी चल रहा था। ठंड में मुझे बड़ा आराम मिला। घंटों से गर्मी ने परेशान कर रखा था। कुछ
देर में मैंने राहत महसूस की। उसके बाद सूरत में पत्नी को फ़ोन कर सारी स्थितियों को
बता कर कहा मैं एक दो दिन रुक कर देखूंगा कि कोई रास्ता निकल सके। कहीं किसी दूसरे
कस्टमर से ही बात बढे़। रिश्तेदार बोल ही रहे थे कि घबराइए नहीं मैं कोशिश करूंगा कि
किसी तरह काम बन जाए। आपका इतनी दूर से आना बेकार ना जाए।
मैं जानता था कि वो पूरे जीजान से लगे हैं। आखिर दो लाख
उनको भी तो मिलने थे। रुकने की बात सुनकर पत्नी घबरा गई, कि मैं उन चाचा के यहां रुक रहा हूं जिन्होंने
कभी इन्हीं खेतों के लिए रिवॉल्वर निकाली थी। वह नाराज होने लगी। मैंने बताया कि अब
सब कुछ बदल गया है। चाचा की मानसिक, शारीरिक
हालत बताई। फिर भी उसका आग्रह था कि जौनपुर वाले रिश्तेदार के यहां चला जाऊं। जैसे
भी हो चाचा के यहां ना रुकूं। बड़ा विश्वास दिलाने पर बुझे मन से मानी। मैंने जौनपुर
वाले रिश्तेदार को भी रुकने की बात बताई। जीप भी रोक लेने को कहा तो वह भी खुशी-खुशी
मान गए। मैंने सोचा चलो एक से दो भले। जीप रहेगी तो कहीं जाने-आने में भी आसानी रहेगी।
वैसे भी शहर की जीवन शैली में पैदल चलने की आदत तो खत्म ही हो चुकी है। मेरे मन में
धीरे-धीरे कई योजनाएं आकार ले रही थीं।
करीब घंटे भर बाद शिखर खाना-खाने के लिए बुलाने आया।
पहले भी एक बार वह आया था। कि जीप में क्यों बैठे हैं? तो मैंने यह कहकर वापस कर दिया था कि गर्मी
बहुत है यहां एसी से थोड़ी राहत है। ड्राइवर तो इसी के चलते जीप से उतरा भी नहीं था।
गाड़ी को थोड़ी देर के अंतराल में स्टार्ट करता रहता था। नाश्ता भी उसे जीप में ही भिजवा
दिया गया था। खाने के लिए उसे साथ ही बुला लिया। सोचा शिखर कहां बार-बार खाने को लेकर
आता रहेगा।
चिंकी ने खाना अच्छा बनाया था। कद्दू की सब्जी थी, दूसरी आलू और प्याज की। आलू की सब्जी क्या
थी कि बिल्कुल चाट वाली स्टाइल में बनाई थी। साथ में अरहर की दाल। जिसे उसने लहसुन, जीरा, देशी घी से छौंका था। पूर्वांचल में लहसुन से दाल छौंकना आम
बात है, मुझे खाना बहुत
बढ़िया लगा। मगर रोटी में वह सोंधापन नहीं था जो बरसों पहले गांव आने पर दादी और चाची
के हाथों चुल्हे में पकी रोटी में होता था।
मेरा मन उन दिनों दादी के द्वारा सबके लिए जिस तरह खाना बनवाया
जाता था वहां पहुंच गया। जब सरसों के तेल में डूबे आम, मिर्चे का आचार, सिरके में डूबी प्याज, नींबू का सलाद। अब यह सब कहां था? सिरका पड़ी प्याज का सलाद आज भी था। लेकिन
मुझे दादी के समय वाला स्वाद इनमें ढूढे़ नहीं मिला। चिंकी, शिखर बड़े प्यार से खाना खिला रहे थे। पूछ-पूछ
रोटी, सब्जी दाल बराबर
दिए जा रहे थे। घी लगी रोटी मुलायम थी। मगर दादी वाली बात....।
चिंकी मना करने पर भी चीजों को डालती जा रही थी। इसके
चलते मैं अपनी डाइट से थोड़ा ज़्यादा भी खा गया। खाने के समय चाचा भी बराबर बैठे रहे।
और खाने को कहते रहे। उनके इस आग्रह में मुझे बार-बार दादी के आग्रह की झलक सी दिख
जाती। चाचा के आग्रह को देखकर मन में कई बार आया कि काश चाचा तुम पहले भी ऐसे ही साफ
निर्मल हृदय के होते। ऐसे ही प्यार तब भी सबके ऊपर उडे़ल रहे होते तो कितना अच्छा होता।
बाबा-दादी सारे भाई बहन तुम्हें कितने प्यार से पुत्तन, पुत्तन कहा करते थे। सब मिल कर आपको ऊंची
शिक्षा दिलाने में लगे रहे। मगर आप शहर में नशा, आवारगी में लगे रहे। आप उस दौर में ही इतनी शानेा-शौकत से रहते
थे, कि गांव के लोग
ईर्ष्या किया करते थे कि आप भाइयों की कमाई पर कैसे ऐश कर रहे हैं। कुछ लोग व्यंग्य
भी किया करते थे। आप का नाम लेकर बोलते थे ‘अरे पुत्तन
आपन कमाई पर करतै ते ज़्यादा नीक लागत।’ और तब आप
बड़ा अनाप-शनाप बोलते थे। बड़े-छोटे का भी ध्यान नहीं रखते थे। और जब नौकरी की तो वह
भी कर नहीं सके। उद्दंडता के कारण कहीं टिक ही नहीं पाते थे। मेरे पापा ने सरकारी नौकरी
लगवाई लेकिन वहां वह कारनामा किया कि नौकरी से हाथ धो बैठे। पापा की भी नौकरी जाते-जाते
बची थी।
आपकी इन हरकतों के चलते भाइयों ने अपने हाथ खींच लिए।
तब आपकी शानो-शौकत केा हवा होते देर नहीं लगी थी। देखते-देखते आप जमीन पर आ गए थे।
तब गांव वालों के व्यंग्य आपको तीर की तरह चुभते थे। मगर तब आप कसमसा कर रह जाते थे।
पहले की तरह दबंगई करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। क्यों कि भाइयों ने आना लगभग बंद
कर दिया था। गांव वाले जान गए थे कि जिस दम पर आप कूदते थे वह सारा दम निकल चुका है।
अब सब मौका ढूढ़ते थे कि आप अब पहले की तरह बोलें तो आपको कचर, मार के पहले के अपमानों का बदला लें।
आप इतना तो समझदार थे ही तो आप अपनी पतली हालत को समझ
बचाकर राह में किनारे-किनारे चलने लगे। व्यवहार बदल गया। चौथे चाचा जो आस-पास के कई
गांव नाथे रहते थे उनसे आपके छत्तीस के आकड़ें को भी गांव वाले जानते थे। वह यह भी भांप
चुके थे कि चौथे चाचा तो चाहते ही हैं कि एकाध बार आपकी धुनाई हो ही जाए। काश आप दोनों
चाचा परिवार के साथ चलते तो आज भी इस गांव में अपने खानदान से नजर मिलाने की किसी में
हिम्मत ना होती।
जमींदारी खत्म हो गई थी लेकिन बाबा ने अपनी हनक बना रखी
थी। आप लोगों की तरह गुंडई बदमाशी से नहीं। बल्कि अपने सद्कर्मों से, अपनी विद्वतता से, समाज के आखिरी व्यक्ति को भी यथोचित सम्मान, मदद देने से। उन्होंने जब मंदिर बनवाया तो
कोई भेद नहीं रखा। हर आदमी को सादर आमंत्रित करते रहे। उनकी विनम्रता, न्यायप्रियता, सादा जीवन उन्हें ऐसा विशिष्ट व्यक्तित्व
बनाती थी कि हर आदमी उनके सामने नतमस्तक था। उन्हें पूरा सम्मान देता था। उनकी इच्छा
का सम्मान करता था। उनकी किसी भी इच्छा को,
बात को पूरा करने में गर्व महसूस करता था। मगर आप दोनों चाचा ने उनकी बनाई इस शानो-शौकत
को उनके रहते ही डूबोना शुरू कर दिया था।
आप दोनों के लड़ाई-झगड़े से दादी भविष्य की तस्वीर अच्छी
तरह देख रहीं थीं। वह बड़े स्पष्ट विज़न वाली महिला थीं। बाबा से बार-बार कहती रहीं कि
अपने जीते-जी बांट दो सब, अलग कर
दो सबको। नहीं बाद में ये दोनों लड़ मरेंगे। लेकिन अपनी छवि को लेकर सचेत बाबा आतंकित
थे। वह छवि का मोह छोड़ कर व्यावहारिक नहीं बन सके। जीते जी नहीं किया बंटवारा। उनका
हर बार एक ही जवाब होता था कि ‘मेरे जीते
जी बंटवारा नहीं होगा।’ आखिर दादी
की बात को आप दोनों ने सही कर दिया। संपत्ति के लिए लड़ मरे।
इससे ज़्यादा शर्मनाक, निंदनीय क्या होगा कि एक भाई की पत्नी की
शव यात्रा निकल रही है और पड़ोस में ही एक भाई परिवार सहित घर में दरवाजा बंद किए पड़ा
रहा। तेरहवीं के दिन कहीं और चला गया। गांव में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसने आप दोनों
के कुकृत्यों पर थूका नहीं है। और चौथे चाचा के प्रयाग में मरने पर आप भी सोते रहे।
बदला लेते रहे। सगे भाई की चिता की आंच आप तक नहीं पहुंची।
आपके आतंक से आतंकित चौथे चाचा के लड़के ने ऐन बाप की
तेरहवीं वाले दिन रात बारह बजे ट्रकों में सामान भरकर प्रयाग भेज दिया, गांव वाला घर खाली कर दिया। ताला डाल दिया।
गांव थूकता रहा कि ‘का भइया बाप के
मरे का इंतजार हो रहा था का।’ चाची से
कहा कि ‘फलाने बो आदमी के
मरे का इंतजार करत रहू का?’ गांव वालों
की शूल सी चुभने वाली बातें तेरहवीं में आए बाकी शेष बचे एक भाई और अन्य के परिवार
के सदस्य भी सुनते रहे। खून का घूंट पी कर सुनते रहे, कि ‘गऊंआ से
एक पातकी कम होइगा। जब तक रहा जियब हराम किए रहा।’ सब कानाफूसी करते रहे कि ‘एकर, बेटवा तअ
बापो से आगे निकर गई बा। ताऊ, चाचन के
सामनवो भरि लइगा। घर आए मेहमानन के एक गिलास पानिऊ नाहीं पूछत बा।’
सारा परिवार एक पट्टीदार की यह बात भी सुनकर कसमसा कर
रह गया कि ‘अरे ई बापों से
बड़ा पातकी (पापी) बा। अच्छा बा गंउवां छोड़ के जात बा। बाप पूत दोनों पातकियन से गांव
मुक्ति पाए जात बा। ई गांव के बदे आज क दिन बहुते नीक बा।’ ऐसी-ऐसी कड़ुवी बातें घर आए परिवार के सदस्यों
का सीना छलनी करती रहीं। और सब ने खून का घूंट पी कर किसी तरह वह दिन बिताया और अगले
दिन सवेरे ही सब छोड़कर चले गए।
मगर पांचवें चाचा आपने
हद तो यह कर दी कि परिवार के सदस्यों से मिलने तक नहीं गए। आप दोनों की हरकतों की चर्चा
बाद में भी परिवार के सदस्य कर-कर के दुखी होते रहे। पूरे गांव में ऐसी घटनाएं,बातें नहीं हुईं जैसी आप दोनों ने कीं। आज
हम अगली जनरेशन से उम्मीद करते हैं कि परिवार खानदान को एक करें। परंपराओं को निभाएं।
चाचा-चाचा आपको क्या कहूं ? खुद को
क्या कहूं ? आया किस काम से
था? हो क्या गया, कर क्या रहा हूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्या हो गया
है मुझे?
मुझसे अच्छे तो दोनों छोटे भाई हैं। आए तहसील में ही
अपना हिस्सा बेच कर चले गए। पापा की डेथ के बाद दोनों ने चार महिना भी इंतजार नहीं
किया। दोनों कितना कह रहे थे। कि भइया बेच दो। इमोशनल होने से कोई फायदा नहीं। प्रैक्टिकल
बनिए। जब पापा लोग वहां कुछ नहीं कर पाए तो हम लोग क्या कर पाएंगे? मगर मेरी ही अकल पर पत्थर पड़ा था। आज यहां
अधर में लटका फुली कंफ्यूज्ड पड़ा हूं। कुछ डिसाइड ही नहीं कर पा रहा हूं कि क्या करूं? और ये चाचा इनके लड़के, बहू की बातें इतनी टची हैं कि और बांधे ले
जा रही हैं।
यही सब सोचता खाने के बाद मैं फिर ड्राइवर के साथ जीप
में ही आराम करने लगा। खाने के बाद चिंकी ने मिठाई भी दी थी। खोया के पेड़े बेहद स्वादिष्ट
थे। पापा यहां से जाते वक्त इन्हें जरूर ले जाते थे। ये बेहद सिंपल तरीके से यहां बनाए
जाते हैं। मोटी पिसी शक्कर में हल्की सी लिपटी यह शानदार मिठाई यहां पचासों साल से
मिलती आ रही है। मैंने सोचा शाम को चलूंगा यहां बाज़ार देखने। चलते समय यहां की मिठाइयां
जरूर ले चलूंगा।
जीप में ही मेरी आंख लग गई। सो गया। और तरह-तरह के सपने
आते रहे। करीब साढ़े छः बजे शिखर ने उठाया कि चलिए नाश्ता कर लीजिए। मैंने कहा ‘भइया देर से खाना खाया है। ज़्यादा खाया
है। अब केवल चाय पियूंगा।’ मगर वह
जिद पर अड़ा रहा। जाना पड़ा। धूप अब तक मकान की दिवार पर उसकी छत को छू रही थी। मकान
के सामने छाया ही छाया थी। हमें बुलाने से पहले दरवाजे के सामने खूब पानी का छिड़काव
कर दिया गया था। प्लास्टिक की कुर्सियां, मेज रखी
थीं। एक कुर्सी पर चाचा छड़ी लिए बैठे थे। मैं भी ड्राइवर के साथ जाकर बैठ गया। चिंकी
ने जग में पानी दिया था जिससे ड्राइवर और मैंने मुंह धोए। बड़ी राहत महसूस की।
मैं सिर्फ़ चाय पीना चाहता था। लेकिन चिंकी, शिखर, चाचा के आग्रह के सामने मेरी एक ना चली। हमें पकौड़ियां खानी
पड़ीं। पकौड़ियां खाकर बार-बार उस पत्ती का नाम मेरी जुबान पर आकर रह जा रहा था जिससे
यह बनीं थीं। अम्मा ने कई बार बना कर खिलाया था। घर पर बहुत दिनों तक यह गमलों में
लगी भी थीं। पापा की मनपसंद थीं। लेकिन उनके स्वर्गवास के बाद बीवी ने निकाल कर दूसरे
फूल वगैरह लगा दिए। मुझे गुस्सा आया था। मगर बीवी से कुछ कह नहीं सका था।
जब याद नहीं आया तो मैंने चिंकी से पूछ लिया। उसने बताया
‘अजवाइन’। यह ‘अजवाइन’ की पत्तियां
छोटी-छोटी और मोटी होती हैं। बहुत ज़्यादा महकती हैं। उन्हीं को बेसन के गाढ़े घोल में
डिप कर बनाया जाता है। चिंकी ने बेसन में कई और प्रयोग भी किए थे। जिससे पकौड़ियाँ बड़ी
तीखी और टेस्टी बन गई थीं। चटनी में उसने नींबू का छिल्का, राई,
लहसुन, हरी मिर्च, और जरा सा सरसों का तेल भी मिला दिया था।
इस एक्सपेरिमेंट ने चटनी को बहुत तीखा,टेस्टी
बना दिया था। चाय के साथ मैंने और ड्राइवर ने भी जी भर कर खा लिया।
मैंने देखा कि हम सब करीब आधा घंटा वहां बैठे चाय पीते
रहे। शाम होते ही तमाम लोग आते-जाते रहे। लेकिन किसी ने चाचा से कोई बातचीत नहीं की।
अमूमन जैसा कि गांवों में होता है कि लोग मिलते ही हाल-चाल, बातचीत, रामजोहार करते हैं। लेकिन यहां लोग सामने से निकल कर जाते रहे
लेकिन किसी ने स्माइल तक नहीं दी। दिखाई यह भी दिया कि बाकी लोग जो आस-पास अपने घरों
के सामने दिख रहे हैं वह जरूर आपस में बातचीत कर रहे थे। मुझे यह समझते देर ना लगी
कि चाचा का व्यवहार गांव में कैसा है? लोग इनके
परिवार से ही दूर भागते हैं।
मुझे फिर बड़ी कोफ्त होने लगी। कि आखिर मैं यहां क्यों
आ गया, क्यों रुक गया? बढ़ती उलझन के चलते मैंने शिखर से कहा चलो
बाज़ार घूमघाम के आते हैं। चाचा भी बोले,‘हां जा
भइया के घूमाए लियाव जाय के।’ मन मेरा
पैदल ही घूमने का था। लेकिन पैदल चलने के आलस्य के चलते जीप ले गया। बाज़ार में दुकानें
खुली हुई थीं। गर्मी से राहत मिलते ही चहल-पहल बढ़ गई थी। सूर्यास्त होने ही वाला था।
पश्चिम में दूर सूरज गाढ़ा केसरिया होता हुआ क्षितिज रेखा को छू रहा था।
बस स्टेशन के पास गाड़ी रुकवा कर मैं पैदल ही चहल-कदमी
करने लगा। सिगरेट पीने का मन हो रहा था। मैं फिर उसी दुकान पर पहुंचा दोपहर में जिससे
पता पूछा था। वह देखते ही मुस्कुराया। मैंने अपना पसंदीदा ब्रांड सिगरेट मांगी तो उसने
कहा ‘भइया ई कस्बा गांव
मा ज़्यादा महंगी सिगरेट नाहीं मिलती।’ फिर उसने
जो सबसे महंगी थी उसके पास वही एक डिब्बी बढ़ाते हुए कहा ‘लअ भइया यहू ठीक बा।’ मैंने ले
लिया। शिखर ने उससे परिचय कराया कि ये हमारे बड़े भइया हैं। फिर तो वह बातूनी पान वाला
नॉन स्टॉप चालू हो गया। दुकान के सामने पड़ी दो बेंचों पर हम बैठ गए। एक दो लोग आकर
और बैठ गए। मैंने शिखर को सिगरेट ऑफर की तो उसने भी ले ली। बात गांव के विकास से लेकर
देश के विकास तक छिड़ गई। राजनीतिक पार्टियों की ऐसी की तैसी होने लगी।
पान वाला जिसका
नाम जस्सू था, वह ग्राहकों को
निपटाता भी जाता और बात भी चालू रखता। मैंने देखा उसे राजनीति की ठीक-ठीक समझ थी। जो
लोग आकर बैठे थे वो उसकी बात में पूरा रस ले रहे थे। मैं तो ले ही रहा था। करीब सात-आठ
लोग थे। इस बीच मैंने शिखर से कह कर बगल वाली दुकान से वहां बैठे सभी लोगों के लिए
चाय मंगवा ली। पैसा भी भिजवा दिया कि कहीं यह जस्सू खुद ना देने लगे। मेरी आशंका सही
निकली।
जब चाय आई तो जस्सू
बोला ‘अरे भइया आपने काहे
मंगा ली, आप हमारे मेहमान
हैं। हमें पिलानी चाहिए चाय।’ वह चाय
वाले को वहीं से चिल्ला कर पैसा वापस करने को बोलने लगा। उसने पैसा अपने आदमी के हाथ
भेजा भी। लेकिन मैं किसी हालत में वापस नहीं लेना चाहता था। तो कहा ‘मैं बड़ा हूं। भाई कह रहे हो और भाई की मंगाई
चाय नहीं पी सकते। ये चाय नहीं,मेरा स्नेह
है आप सब के लिए।’ ऐसी भावनात्मक बातें
कह कर उसे निरुत्तर कर दिया।
वह आखिर चाय का कुल्हड़ लेता हुआ बोला ‘भइया तू ता अपने पियार से हमार करेजवे निकाल
लिहे। अब पिएक पड़बै करी।’ एक घूंट
पी कर वह फिर चालू हो गया। बोला ‘भइया ई
देश सुधरे वाला नाय बा। ई सारे नेतवे इका घोंट-घोंट पिए जात हैं। खोखला होत-जात बा
आपन देश। ई सड़ीकिए देख लें। जब हम पैदा भय रहे तब से एके ऐइसे देखत हई। गढ़हा मा सड़क।
बिजली का पता नहीं। मुंह दिखावे बदे आई जाए रतिया में।
हम तअ कहत हई भइया कि
सत्तर साल बहुत देख लिए ई लोकतंत्र? अब बंद
करो ई लोकतंत्र-फोकतंत्र का खेला। अब सेना का दई दो देश, वहू चलावे बीस-तीस बरिस। वहू का लाए के देइख
लिया जाए। जेतना देश बिगड़ गवा बा ना, ओके सेना के सोंटा के बिना ठीक नाहीं किया जाय सकत।
सेना के सोंटा के बिना काम ना चली। जब सेना का सोंटा चली तबै ई नेतवा और ई देशवासी
ठीक होइएं। एकदम हिटलर के नाई। बिना सोंटा के कऊनों सुधरे वाला नाई हैएन। हिटलर के
नाई कोऊनों चाही।
देखिन रहें हैं,
सरकार कहि रही भइया सवेरे-शाम लोटिया लई के खेत मां जाइ के बजाय घरे मा जाओ, घरे में बनवाए लेओ शौचालय। पइसवो दिहिस।
बनाए लिहिंन सब। लेकिन आदत से मजबूर जब-तक खेते में ना जइहें तब तक उतरबै नाहीं करत।
जब सोंटा चलि जाए तो कऊनों ना दिखाई देई बाहर।’
मैंने कहा ‘हिटलर के शासन का
मतलब समझते हो?’ तो उसने हिटलर की
पूरी गाथा सामने रख दी ।
‘बोला भइया ई पूरा देश बन जाई। ई जऊन कश्मीर का खेल है
ना, एक बार होई जाए
परमाणु युद्ध। तीस-चालीस करोड़ मरि जाएं। आपन देश तबहूं रहेगा। ई सारि जीऊका जंजाल बना, पूरी दुनिया के नाक में दम किए पाकिस्तान
तो नेस्तनाबूत होई जाई। उके बाद पूरा पाकिस्तान फिर से भारत में मिलाए लो। ई लोकतंत्र
के खेला में नेतवन के चलते पाकिस्तान और कश्मीर समस्या बनी। तो ई नेतवे कभो ईका ना
सुलझाए पहिएं।
भइया देश का एक हिटलर
चाहि अब, हिटलर। तबै गाड़ी
लाइन पर आई। तबै ई ससुर सुअर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश औकात मां अइहें। जैसे हिटलरवा
देश के देश खतम कई दिहिस, उहे तरह, जाने भइया। भइया तोसे एकदम मन के बात बतावत हई कि देश सुभाष
गिरी से बनत औउर एक रहत है। सुभाष गिरी ना अपनाए के देश बंटवाए, बीसन लाख मनई मार नावा गएन। पांच करोड़ घुसपैठियन
का बोझ घाते मा लादे बैइठे हैंएन। तोहईं बतावा सही कहत र्है कि नाहीं। ’
जस्सू की बातें चलती रही। और मेरी सिगरेट चाय भी। मैं
उसकी बात खाली सुनता रहा। तभी बोलता जब वह धीमा पड़ता। मैं उसमें बड़ी आग देख रहा था।
उसकी जानकारियां कम थीं। लेकिन फंडा उसका सीधा सपाट और सीधा चोट करने वाला था। वह भ्रष्टाचार, गांव की गली से लेकर दिल्ली तक के विकास
की बात करता रहा। सूरज क्षितिज से गले मिलकर गायब हो चुका था। अंधेरा हो गया था। जस्सू
ने लालटेन जला ली थी। वह आखिरी बस के आने तक दुकान खुली रखता था। अब मैं भी उठ कर बस
अड्डे के सामने जा रही रोड पर चल दिया। दोनों तरफ कुछ-कुछ दूरी पर कहीं किराना तो कहीं
कपड़े, मिठाई, चाय और पटरी पर सब्जी वगैरह की दुकानें थीं।
इन दस-पंद्रह बरसों में बहुत कुछ बदल चुका था। गांव की
दुकानों पर भी चिप्स, मैगी, कुरकुरे, कोल्ड ड्रिंक, मोबाइल
रीचार्ज सब दिख रहा था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फॉस्ट फूड के पैकेट हर दुकान पर दिख
रहे थे। और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नाक में अकेले ही दम किए पतंजलि के प्रॉडक्ट
भी दिख रहे थे। बाबा की फोटो भी। कुछ दूर आगे चलने पर एक अपेक्षाकृत कुछ बड़ी दुकान
दिखाई दी। जिसके बाहर पीपों, बोरों में
सामान भरा था। चावल, गेहूं, दाल,
चना जैसी चीजों के अलावा पैकेट दिवारों पर टंगे थे।
दुकान के दरवाजों के ऊपर दिवार पर बड़े अक्षरों से लिखा था ‘बिल्लो बुआ की कोहड़ौरी।’ यह नाम देखते ही मैंने गाड़ी रुकवा ली। मैंने
शिखर से पूछा ‘ये बिल्लो कौन है?’ यह सुनते ही शिखर बोला ‘भइया ये बिल्लो बुआ की दुकान है। आज की डेट
में बिल्लो बुआ यहां की सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन हैं। कोई ऐसा सामान नहीं है जो इनकी
दुकान पर ना मिलता हो। थोक-फुटकर दोनों मिलते हैं। आगे इनकी खाद और बीज की भी दुकान
है। पतंजलि की एजेंसी है। वह आगे है।’
मैंने उनके फादर बैजू के बारे में पूछा तो शिखर ने कहा ‘बब्बा तो कई साल पहले मर गए। बुआ अपने एक
भतीजा के साथ सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन ही नहीं ऐसी दबंग पर्सनॉलिटी बन चुकी हैं जिनकी
पहुंच हर जगह है। गांव में कोई ऐसा काम नहीं जो इनके बिना अब पूरा हो। संडे को परधानी
का चुनाव होना है। बुआ ने अब की ऐसी चाल चली है कि मुज्जी मियां की उनके परिवार की
पचीस-तीस बरस की बादशाहत खतरे में पड़ गई है। इस बार उनकी हार पक्की है। पूरा परिवार
बिलबिलाया घूम रहा है। खानदान दो फाड़ में बंट गया है।’ बिल्लो के लिए यह सब सुनकर मैं दंग रह गया।
बीसों बरस पहले की उनके साथ जुड़ीं तमाम यादों की पिक्चरें
चलने लगीं। मेरे क़दम एक़दम ठहर गए कि अब बिल्लो से मिले बिना किसी सूरत में आगे नहीं
बढ़ेंगे। मैंने शिखर से कहा कि मैं बिल्लो से मिलना चाहता हूं। बिल्लो वास्तव में वहां
की जगत बुआ हैं। छोटा हो या बड़ा उन्हें सब बिल्लो बुआ ही कहते हैं। इन्हीं जगत बुआ
से मिलने को कहा तो शिखर के चेहरे पर मैंने एक दम साफ देखा कि वह नहीं चाहता था कि
मैं मिलूं। वह ऐसे अनमना सा हुआ कि जैसे सोच रहा हो कि ये कहां आ फंसा। लेकिन उनसे
मिलने की मेरी इच्छा इतनी प्रबल थी कि सब समझ कर भी मैं नासमझ बना रहा। क्योंकि मैं
समझ गया था कि मैंने जरा भी हिचक दिखाई तो यह तुरंत मना कर देगा। गांव का मामला है
,यहां भी कुछ विवाद होगा इनका ।
कोई रास्ता ना देख कर शिखर बोला ‘ठीक है भइया आइए देखते हैं शायद बुआ हैं।’ दुकान के काउंटर के पीछे तखत पर एक काला
सा बड़े लंबे चौड़े डील का चौबीस-पचीस साल का युवक बैठा था। उसे देखकर शिखर ने कहा ‘ये उनका भतीजा सूरज है।’ दुकान के बाहर एक बोलेरो जीप, आठ दस मोटर साइकिलें खड़ी थीं। उन्हें देख
कर शिखर ने कहा ‘लगता है बुआ का
दरबार लगा है। आइए।’ मुझे साथ लेकर वह
सूरज के पास पहुंचा। जो मेरी जीप रुकने के बाद से ही बराबर मुझ पर नजर रखे हुए था।
बंसवारी वाले बुजुर्ग की तरह।
शिखर ने सूरज को नमस्कार
का कहा ‘सूरज ई हमार भइया
हएन। सूरत से आएन है। बड़के पापा के लड़िका हैएन।’ इतना सुनते ही सूरज हाथ जोड़कर तखत से नीचे उतरते हुए बोला। ‘नमस्ते-नमस्ते भइया, नमस्ते। आवा अंदर आवा। बड़ी देर के तोहके
देखत हई। मगर चिन्हि नाहि पाए। बहुत दिन बाद आए।’ कोने में काउंटर का एक हिस्सा था उसके पीछे दुकान बहुत बड़ी थी।
हर तरफ माल भरा था। दो तखत अंदर और पड़े थे।
सूरज ने मुझे बैठाकर हाल-चाल पूछना शुरू किया। फिर वही
उलाहना ‘भइया आप सब जने
ते गउंवा एकदमें छोड़ दिहै। बतावा हमें लगत बा कि पंद्रह-बीस बरिस बाद आए हअ’। मैंने सहमत होते हुए कहा ‘हां ऐसा ही कुछ टाइम हो रहा होगा।’ वह फिर बोला ‘नाहीं भइया, आवे जाए के चाही, आपन घर दुआर संपत्ति सब देखे के चाही।’ तभी शिखर ने बताया कि बुआ का नाम देखकर मैं
उनसे मिलने के लिऐ रुका हूं तो वह बड़ा खुश हुआ। ‘अरे काहे नाहीं। अबहिं बुलावत हई।’ फिर उसने वहीं से आवाज़ दी ‘बुआ,हेअअ..
बुआ तनि हिंअ आवा, देखा के आवा बा।’ अंदर बुआ की तेज़ आवाज़ गूंजी ‘के आवा बा। बतावा ना।’ सूरज फिर बोला। ‘आवा हिंआ आवा ना, खुदै आए के देखा ना।’ अबकी बुआ ’बोलीं आवत हई रे।’ बुआ अंदर आईं तो मैंने उनको नमस्कार किया।
बिल्लो ने भी ना सिर्फ़ नमस्कार किया बल्कि मुझे कुछ हिचकिचाहट
के साथ पहचानते हुए कहा ‘अरे तू
हअ। कब आए?’ उनकी बात सुनते
ही सूरज ने पूछा ‘बुआ पहिचानत हऊ
भइया के।’ बुआ ने बिना हिचक
कहा। ‘काहे नाहीं, अरे छोटपन में खेले हई एनके साथे।’ सूरज ने इस पर फिर मेरे फादर का नाम लेते
हुए कहा ‘उन्हीं के बड़का
लड़िका हैएन।’ बुआ ने उसकी तरफ
ध्यान ना देते हुए मुझे कंधों के पास पकड़ कर ‘कहां रहे
एतना दिन।’ एक बार फिर वही
उलाहना कि ‘भइया तू सभे ते
घरे दुआर छोड़ि दिहे।’ मैंने देखा
जब-जब गांव में किसी ने यह उलाहना दिया तो शिखर को अच्छा नहीं लगता था। चेहरे पर उसके
अजीब सी रेखाएं ऊभर आती थीं।
बिल्लो बुआ एक तखत पर मुझे लेकर बैठ र्गइं। एक पर सूरज
शिखर बैठ गए। बुआ ने घर भर का हाल-चाल सब पूछ डाला। अपनी बहू से चाय-नाश्ता सब मंगवाया।
उससे मेरे पैर छुआए। मैंने भी उसे आशीर्वाद स्वरूप सौ रुपया दिया। सूरज ने अपने बच्चों
को भी बुलाकर मिलवाया। उसके तीन बच्चे थे। सबसे छोटी लड़की थी करीब-करीब तीन साल की।
मैंने देखा बिल्लो शिखर को जरा सा भी तवज्जो नहीं दे रही थीं। शिखर भी बस मेरे साथ
बंधा-बंधा सा रहा वहां। मैं बीस मिनट वहां रहा। बिल्लो इतने में अपना बीसों बरस का
इतिहास बता देना चाहती थीं। खाना खाकर ही जाने देना चाहती थीं। मैंने बहुत मना किया
तो इस शर्त पर मानीं कि मैं अगले दिन सुबह उन्हीं के साथ खाना खाऊंगा। वापस आने लगा
तो बिल्लो बाहर तक छोड़ने आईं। सूरज भी। उसके बच्चे भी।
इसके बाद शिखर
के साथ मैं इधर-उधर एक दो जगह और होकर घर आ गया। आठ बज रहे थे अब तक गांव में लाइट
भी आ गई थी। शिखर ने बताया लाइट दस बजे तक रहेगी। फिर कट जाएगी। और रात बारह बजे से
फिर सुबह चार बजे तक रहेगी। मैंने कहा भइया मेरे सोने का इंतजाम छत पर ही करना। मैं
देर रात खाना खाने का आदी हूं। लेकिन यहां लाइट के चक्कर में लोग पहले ही खा लेते हैं।
छत पर ही मेरे लिए बिस्तर
लगा था। ड्राइवर बोला वह जीप ऐसे ही नहीं छोड़ सकता। गेट के सामने जीप रहेगी। वह बगल
में ही लॉन में सोया रहेगा। मेरे कहने पर वह वहीं की लोकल मच्छर अगरबत्तियां लेता आया
था। चाचा भी नीचे ही सोए। शिखर अपने परिवार के साथ छत पर दूसरे कोने में चारपाइयों
पर बिस्तर लगाए था। बड़ी सी छत पर मैं दूसरे कोने में था। सोने से पहले बड़ी देर तक वह
मुझसे बातें करता रहा।
मेरे कारण ज्यादातर बातें बिल्लो पर ही केंद्रित रहीं।
हम काफी देर तक छत पर इधर-उधर टहलते हुए बातें कर रहे थे। मैंने देखा हर चौथे-पांचवें
मकान की छत पर या बाहर दरवाजेे पर एक एल ई डी बल्ब जल रहा था। एल ई डी का राज्य गांव
में भी फैल गया था। घर के दक्षिण साइड में जो एक बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था, अचानक उसकी याद आने पर मैंने उधर देखा, तो पाया कि वह चौथाई ही रह गया है। एक गड़है
जैसा। उसके बगल के घर के बल्ब की छाया उसके पानी में ऐसे पड़ रही थी जैसे पूरे आसमान
में कोई एक बड़ा सा तारा निकल आया हो।
शिखर ने बताया प्रधान और कुछ दबंगों ने मिलकर तालाब पाट
दिया। जमीन बेच डाली। एक आदमी ने रोकने की कोशिश की थी। एक दिन उसे कुछ लोगों ने बुरी
तरह पीट डाला। वह फिर भी नहीं माना। उसने आगे कार्यवाही चालू रखी। लेकिन एक दिन घर
लौट रहा था तभी रास्ते में किसी ने गोली मार कर उसकी हत्या कर दी। पूरा गांव जानता
है कि किसने मरवाया। लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं। उसकी बीवी एफ. आई. आर. दर्ज कराने के
लिए कई साल भटकती रही। लेकिन पुलिस ने एफ. आई. आर. ही नहीं दर्ज की। उसकी बीवी पर भी
आए दिन हमले होते रहे। भरी बाज़ार उसकी इज्जत तार-तार करने की कोशिश की गई। आखिर वो
हार मान कर बैठ गई।
यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी आंखों के सामने
बीस बरस पुराना दृश्य बार-बार आता रहा। करीब तीन बीघे का बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था।
उसी से पूरे गांव के आस-पास के सारे खेत पंप लगा कर सींचे जाते थे। तालाब इतना गहरा, बड़ा था कि जब भारी बारिश होती थी तभी उसमें
पानी ऊपर तक आता था। मैं बचे-खुचे तालाब में
बल्ब की छाया को देखते सिगरेट पीता रहा। और शिखर बताता रहा कि कैसे इस तालाब और इससे
निकाली गई जमीन को हथियाने के चक्कर में देखते-देखते पांच लोगों की हत्याएं हो गईं।
मैंने पूछा ‘पुलिस में कोई नहीं
जाता क्या? वह कुछ नहीं करती?’ शिखर कुछ बोलता कि तभी लाइट चली गई। चारों
तरफ घुप्प अंधेरा हो गया। शिखर ने चिंकी को दिया जलाने को कह दिया। उसने दीया जला कर
छत के बीचो-बीच रख दिया।
हम अब छत की बाऊंड्री से हटकर अपनी चारपाई पर बैठ गए।
चिंकी का बच्चा रोने लगा। उसकी नींद खुल गई थी। जो टेबुल फ़ैन धीरे-धीरे चल रहा था, बिजली के जाते ही वह बंद हो गया था। बच्चा
गर्मी से परेशान हो रहा था। चिंकी ने हाथ के पंखे से उसे हवा करनी शुरू की तब भी वह
बीच-बीच में रोने लगता। आखिर उसने दीवार की ओर करवट लेट कर उसे दूध पिलाना शुरू कर
दिया। एक हाथ से पंखा भी करती रही। तब वह सोया। शिखर ने मच्छर वाली कुछ और अगरबत्तियां
सुलगा दीं। गर्मी और बंद हवा देख कर मैंने शिखर से कहा ‘यार लाइट बारह बजे तक तो आ जाएगी ना। उसने
कहा ‘हां’ मैंने कहा तब तक तो मुझे नींद आने वाली नहीं।
तुम चाहो तो सो जाओ। वह बोला ‘नहीं आने
दीजिए लाइट, साथ ही सोऊंगा।’ मैंने फिर सिगरेट सुलगा ली।
शिखर ने मना करते हुए कहा ‘आज कई बार हो गई। अब नहीं लूंगा।’ शिखर फिर गांव के बारे में तमाम बातें बताने
लगा। मैंने देखा वह तमाम गांव, दूसरों
के घरों के बारे में तो खूब बातें कर रहा था लेकिन अपने घर में जो महा भारत बरसों हुई
उसके बारे में एक शब्द नहीं बोल रहा था। मैं भी जानबूझ कर नहीं कर रहा था कि कहीं कोई
अप्रिय प्रसंग ना उभर आए। उसने अपने तीनों भाइयों के बारे में इतना ही बताया कि वे
तीनों ही मुंबई में सेटिल्ड हो गए हैं। यहां अपना-अपना हिस्सा सब बेच-बाच दिया है।
इस मकान के लिए बाबू जी ने भी क़ाग़ज़ पर सब लिखवा लिया है।
अब यह मकान मेरे नाम है। और नौ बीघा खेत। यही बचा है। छः बीघा
बंटाई पर है। तीन बीघा दो साल से पड़ती पड़े हैं। बहनें भी अपनी ससुराल में है। साल-दो
साल में कभी-कभी आ जाती हैं। वो खुद यहां से बीस किलोमीटर दूर एक स्कूल में टीचर था।
लेकिन दो महिना पहिले नौकरी छूट गई। प्रबंधन ने अपनी ही एक लड़की के लिए जगह बनाने के
चक्कर में उसे निकाल दिया। मैंने पूछा फिर घर का खर्च कैसे चल रहा है। उसने कहा ‘अभी तो कोई परेशानी नहीं है। महीने दो महीने
में कहीं ढूंढ़ ही लूंगा। बाकी खाने-पीने भर का तो खेत से मिल ही जाता है।’
उसकी दयनीय आवाज़ में मुझे उसकी वह परेशानी साफ दिख रही
थी,जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था।
मुझे आश्चर्य हुआ कि गांव में रह कर भी खेती बंटाई पर दिए हुए है। और तीन बीघा परती
पड़ी है। मैं बड़ी देर से यह सोच रहा था कि यह जगत बिल्लो बुआ के बारे में शायद बात करेगा।
कल जाना है उनके यहां। अकेले जाते तो अच्छा नहीं लगेगा। आखिर मैंने ही बात छेड़ी कि
‘बिल्लो का घर तो पहले यहीं हुआ करता
था। ये बाज़ार में कैसे पहुंच गईं? और पहले
तो इनके घर की बड़ी नाजुक हालत हुआ करती थी। इनके फादर बैजू बाबा आए दिन बाबा से मदद
लिया करते थे। यही बिल्लो सवेरे-सवेरे घर में चूल्हा जलाने के लिए आग लेने आ जाया करती
थीं।’ शिखर कुछ देर चुप
रहने के बाद बोला ‘भइया ये बिल्लो
बुआ ने ही घर का नक्शा बदला है। जब अलगौझी (बंटवारा) हुई तो बैजू बाबा और मुश्किल में
आ गए थे।
स्थिति कुछ ऐसी बनी कि कर्ज वगैरह के चक्कर में यहां
वाला पूरा मकान इनके हाथ से निकल गया। आज जो मकान बाज़ार में हो गया है। वह जगह पहले
गांव का बाहरी एकांत हिस्सा हुआ करता था। वहीं एक किनारे तब अपने बाबा ने अपनी ही वह
थोड़ी सी जमीन उन्हें दे दी थी। बैजू बाबा वहीं छप्पर डाल कर रहने चले गए। वहां परिवार
के साथ बैजू बाबा की हालत बहुत खराब हो गई। अपने बाबा से उनकी दुर्दशा नहीं देखी गई।
एक दिन बोले ‘‘ई बैजुवा बड़ा अभागा
बा। कहता था शाहखर्ची उतनी ही करो जितनी हर समय चल जाए। कर्जा ले लेकर यह सब करना अच्छा
नहीं है। मगर कहने पर हां-हां कर लेता है। लेकिन करता वही है जो चाहता है। इसकी मुर्खता
के कारण पूरा परिवार कष्ट उठा रहा है।’’
दादी ने कहा ‘‘जैसा किया
है वैसा भरेंगे। कोई किसी का भाग्य विधाता तो नहीं बन जाएगा।’’ असल में भइया दादी जानती थीं कि बाबा बैजू
की और मदद करने के लिए परेशान हैं। दादी यह नहीं होने देना चाहती थीं। बाबा ने दादी
से पूछे बिना जो जमीन उन्हें लिख दी थी, उससे बहुत
नाराज थीं। क्यों कि उनका मानना था कि मदद एक बार की जाती है। दो बार की जाती है। बार-बार
नहीं। फिर ये तो कभी कुछ वापस करने वाले नहीं। जो करो उसे अपना अधिकार समझ लेते हैं।
अहसान नाम की कोई चीज नहीं। लेकिन बाबा नहीं माने। बोले ‘‘देखो पढ़ा-लिखा आदमी है। उसे पढ़ा-लिखा मुर्ख
कहना ज़्यादा अच्छा है। मूर्ख ना होता तो उसकी यह हालत ही क्यों होती? कायस्थ है। सिर छिपाने की जगह तो होनी चाहिए
ना।
ऐसे तो लड़कियों की शादी भी नहीं कर पाएगा।’’
दादी की अनिच्छा के बावजूद बाबा ने खपरैल, दिवार की पथाई का सारा इंतजाम करा कर रहने
भर अच्छा-खासा बड़ा मकान बनवा दिया था। तब बैजू बाबा का परिवार अपने यहां से और गहरे
जुड़ गया था। लेकिन बाद में फिर अपने ढर्रे पर चल निकला।’ इसके बाद शिखर को बातें बताने में दिक्कत
हो रही थी। मैंने देखा वह बातों को बड़ा फिल्टर कर के बताने का प्रयास कर रहा है। इस
चक्कर में वह कई बार ट्रैक बदल रहा था। क्योंकि आगे की बातें मैं स्वयं बहुत कुछ जानता
था।
शिखर के ट्रैक बदलने का एक मात्र कारण यही था कि बैजू के यहां
से खटास की वजह इन्हीं के फादर और चौथे चाचा ही थे।
यह दोनों लोग बाबा की दी जमीन वापस चाहते थे। क्यों कि मार्केट
के कारण उसकी कीमत बढ़ गई थी। यह लोग बैजू के लिए दूसरा मकान भी बनवाने को तैयार थे।
लेकिन बैजू तैयार नहीं हुए। इसीलिए दोनों चाचा अपने बाबा से भी नाराज रहते। शिखर इन्हीं
कारणों से बोलना नहीं चाहता था। मच्छरों से आजिज आकर मैंने अपनी चारपाई के आस-पास कई
और बत्तियां सुलगा दीं। पैर की तरफ सुलगाना चाहा तो शिखर बोला ‘भइया पैताने अगरबत्ती नहीं सुलगानी चाहिए।’ मैंने कहा ‘यार कह सही रहे हो। लेकिन इन मच्छरों से
बचने को लिए और कोई रास्ता भी नहीं है।’
इस बीच मैंने शिखर की आवाज़ में आलस्य का अहसास कर उसे
सोने के लिए कह दिया। अपनी चारपाई की मच्छरदानी हर तरफ से ठीक से लगाकर उसी के अंदर
बैठ गया। मैं बहुत ऊबने लगा था। घर भी बात हो चुकी थी। सिगरेट कितनी फूंकता? कभी लेटता, कभी बैठता। बार-बार अपनी बुद्धि पर तरस खाता
कि आखिर रुका ही क्यों? बार-बार
सोचता कि बारह जल्दी बज जाएं, बिजली आ
जाए तो गर्मी से राहत मिले। मेरे पास से जाने के बाद शिखर के खर्राटे की हल्की सी आवाज़
आने लगी थी। मैं समझ गया कि मेरे अलावा यहां सब सो गए हैं। बच्चा भी। उसकी भी आवाज़
नहीं आ रही थी।
मेरे दिमाग में खेत कैसे बिकेगा इससे ज़्यादा बिल्लो
की बातें याद आ रही थीं। उनके जीवन के उन तमाम उतार-चढ़ाव भरे दिन जो काफी हद तक हम
लोगों को मालूम थे। अपनी भूरी कंजी आंखों के कारण उन्हें बिल्लो, बिल्लोइया कह के सब चिढ़ाते थे। यह सुनते
ही वह चिढ़ाने वाले को खूब ऊटपटांग कहती थीं। कोई हमउम्र कहता तो मारने को दौड़ा लेतीं।
सिकड़ी, गुट्टक खेलने में
माहिर थीं। सावन के दिनों में जब झूला पड़ता तो बिल्लो की पेंगें मानों पेंग बढ़ाकर नभ
को छू लेने को मचलतीं। जब वह झूले पर चढ़तीं तब डरपोक किस्म की लड़कियां,औरतें झूले पर नहीं बैठती थीं।
बिल्लो गुड्डों-गुड़ियों के खेल में कभी कोई रुचि नहीं
लेती थीं। खाना-पानी आदि के लिए उन्हें कहा जाता तो वह दूर भागतीं, लेकिन होली के वक्त पापड़-चिप्स, बनाना, आचार, चटनी और
कोहड़ौरी बनाने में इतनी रुचि लेतीं कि पड़ोसी भी उन्हें बुलाते। इन सब कामों में वह
ऐसे लगी रहतीं जैसे ये काम ना होकर उनके लिए कोई खेल हो।
तब कौन जानता था कि बिल्लो का यही खेल उनकी ज़िन्दगी में
नया मोड़ लाने वाला साबित होगा। वह अपने इसी खेल से अपने खानदान की नई किस्मत लिखने
वाली हैं। बस कुछ ही बरसों बाद। साथ ही जगत बुआ भी बन जाएंगी। बिल्लो मुश्किल से हाई-स्कूल
पढ़ पाई थीं कि उनकी शादी कर दी गई। तब बिल्लो बार-बार कहती रहीं कि ‘ऐ अम्मा अबहीं हमार शादी ना कर। हम्में पढ़े
दे।’ लेकिन अम्मा को
अपनी बिटिया की आवाज़ कहां सुननी थी। उसकी आवाज़ की कीमत ही क्या थी? उन्हें तो बिटिया की चंचलता, हंसमुख स्वभाव में खोट दिखाई देता था। भय
सताता रहता था कि बिटिया कहीं नाक ना कटा दे। इसके लक्षण ठीक नहीं हैं। जितनी जल्दी
हो इसकी शादी करके खानदान की इज़्जत सुरक्षित रखना बहुत जरूरी है।
शादी जल्दी हो
इसके लिए घर में कलह होती रहती थी। आखिर आनन-फानन में बिल्लो की शादी कर दी गई। खाने-पीने
की कमी ना हो यह देखने के अलावा और कुछ ज़्यादा देखने का प्रयास ही नहीं किया गया।
नाक के फेर में बिटिया के भविष्य को लेकर घनघोर लापरवाही बरती गई। इस लापरवाही की आंच
में बिटिया का भविष्य स्वाहा हो गया। लड़का उम्र में तो दस-बारह साल बड़ा था ही पूरा
निठल्ला, शोहदा भी था। गांव
की एक चुड़िहारिन के साथ उसके संबंधों की चर्चा उससे आगे-आगे चलती थी। लेकिन जल्दबाजी, लापरवाही में बिल्लो के घर वालों को यह भी
नहीं दिखा।
मगर बिल्लो इसे किस्मत का खेल मान कर चुप बैठने वाली
महिला ना थी। उसने अपने निठल्ले पति से साफ कह दिया। कि नशाबाजी ही नहीं चुड़िहारिन
से भी रिश्ता खत्म करना ही होगा। चुड़िहारिन का नाम सुनते ही वह आपे से बाहर हो गया।
मारपीट पर उतर आया तो बिल्लो ने भी पूरा प्रतिकार किया। वह गिर गया। नशे में था। लेकिन
बात फैल गई कि बहुरिया ने आदमी को पीट डाला। और अब घर में रहने को तैयार नहीं। मानो
भागी जा रही है।
बिल्लो की जिद के आगे सब हार गए। बाबू, भाई ससुराल पहुंचे। ससुराल वालों ने सारा
दोष बिल्लो पर ही मढ़कर उन्हें दोषी ठहराया था। बिल्लो अपनी जगह अडिग रही। साफ बोल दिया
कि मेरी बात नहीं मानी जाएगी तो मैं नहीं रहूंगी यहां। ससुराल वाले मायके भेजना नहीं
चाहते थे। बाबू, भाई लाना नहीं चाहते
थे। बिल्लो ने कह दिया ‘यहां नहीं
रहूंगी बाबू। तुम भी नहीं रखना चाहते तो ना रखो। मैं कहीं भी चली जाऊंगी, मगर यहां नहीं रहूंगी।’ सब समझाना, बुझाना, मनाना बेकार रहा। बाबू हार मान कर बिटिया को घर ले आए। कुल चार
हफ्ते का वैवाहिक जीवन बिता कर बिल्लो हमेशा के लिए मायके आ गईं। बाद में बहुतेरे प्रयास
हुए मगर बिल्लो टस से मस नहीं र्हुइं। अपनी शर्त पर अड़ी रहीं।
मां-बाप, भाई का
दबाव ज़्यादा हुआ तो कह दिया अगर हम इतना ही भारू हो गए हैं तो ठीक है हम घर छोड़ दे
रहें हैं। कहीं काम-धाम करके, मड़ैया डाल
के रह लेंगे। मगर वहां नहीं जाएंगे। बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा के आगे सब हार गए। बिल्लो
हमेशा के लिए रह गईं मायके में। मगर बोझ बन कर नहीं। अपनी दुनिया नए ढंग से बनाने और
उसमें सबको शामिल करने के लिए। मुझे वह दृश्य धुंधला ही सही पर याद आ रहा था। कि आने
के बाद बिल्लो हंसना, बोलना एकदम
भूल गई थीं। उनकी चंचलता, हंसमुख
चेहरा कहीं खो गया। बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आंखें,
मक्खन सा गोरापन कुछ ही दिन में ऐसा कुम्हलाया कि बिल्लो टीवी पेशेंट सी लगने लगी।
परिवार में उन्हें थोड़ी बहुत सहानुभूति मिली तो सिर्फ़ पिता से।
मां कुछ दिन तो चुप रही लेकिन उसके बाद उनकी कटुवाणी
मुखर हो उठी। वह दिन पर दिन नहीं घंटों के हिसाब से मुखर हुई। दिलो-दिमाग पर पड़ी पति
की गहरी चोट को मां रोज ही कुरेद-कुरेद कर गहरा करती कि ‘मान जा, चली जा। कौन लड़की ज़िंदगी भर मायके में रही है। कोई राजा भी अपनी
लड़की को रख नहीं सका है।’ राजा जनक
का उदाहरण देंती कि ‘वह भी सीता को रख
नहीं सके। हम सब तुम्हें कैसे रखेंगे। वो सब बुला तो रहे हैं बार-बार, जाती क्यों नहीं? ऐसे जिद करने से कुछ नहीं होने वाला। पूरे
रीति-रिवाज से शादी की गई है। शादी कोई गुड्डा गुड़िया का खेल नहीं कि जब रिशियाए गए
तब फेंक दिए। जानू कि नाहीं।’ मगर बिल्लो
सारी बात सुनकर चुप रही। बिल्कुल मौन साधे रही। ऐसे ही मौन उस दिन भी साधे थी। उनकी
अम्मा बोले जा रही थीं। वह भी जो नहीं बोलना चाहिए। किसी पंडित ने कुछ पूजा पाठ करने, प्रदोष व्रत रखने को कहा था। अम्मा चाह रही
थीं बिल्लो मान जाए, उसे करे। लेकिन
उन्हें नहीं मानना था तो नहीं मानीं।
अम्मा तब खीझ कर आपा खो बैठीं। कुछ ज़्यादा ही अनाप-शनाप
बोल गर्इं। बिल्लो भी अपना मौन व्रत संभाल ना सकीं। हो गया विस्फोट। फट पड़ी। कह दिया
‘हम इतना ही भारू हो गए थे तो दबा
देती गला। कहती तो मैं खुद ही कहीं जाकर मर जाती। ज़िन्दगी भर के लिए उस निठल्ले अवारा
बदमाश शराबी के पल्ले बांध कर मुझे नरक में क्यों झोंक दिया। हमसे पिंड छुड़ाया था।
हमने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो मुझ से ये दुश्मनी निकाली।’
बिल्लो का इतना बोलना था कि अम्मा के तन-बदन में जैसे
आग लग गई। उन्होंने बिल्लो को मनहूस, कुलच्छनी
घर पर पड़ी काली छाया तो कहा ही साथ ही यह धमकी भी दे दी, कि ‘तुम्हारी
जिद नहीं चलेगी। वो तुम्हारा आदमी है। बियाह के ले गया था। तुम्हें वहां जाना ही होगा।
महतारी-बाप शादी के बाद के साथी नाहीं हैं। तोहके ही खोपड़ी पर बैठाए रहब तो का बाकी
लड़िकन के भरसाईं में डाल देई।’
अम्मा की यह बात पूरी ही हुई थी कि दिवार पर छनाक से
चुड़ियों के टूटने की आवाज़ आई। बिल्लो ने दोनों हाथ दिवार पर ऐसे मारे कि छनाक-छनाक
सारी चुड़ियां टूट कर वहीं बिखर गईं। कलाई में चुड़ियां धंस गईं। खून टपकने लगा। बिल्लो
यहीं तक नहीं रुकी, माथे पर लगी बिंदी
पोंछ दी। मांग में कई दिन पुराना भरा सिंदूर भी हाथ से रगड़ कर पोंछ डाला। थोड़ी दूर
बाल्टी में रखे पानी को लोटे में लेकर मांग पर डाल-डाल कर सिंदूर को धो-धोकर उसका नामो-निशान
मिटा दिया।
फिर हांफती हुई चीख
कर बोली ‘लो, लो मर गया आदमी, विधवा हो गई मैं। भाड़ में गई ससुराल। आज
के बाद किसी ने नाम भी लिया तो मैं वो कर बैठुंगी जो तुम सब सोच भी नहीं पाओगे।’ बिल्लो रोती जा रही थीं। लौट कर फिर वहीं
बैठ गई जहां चुड़ियां तोड़ी थीं। बिखरी पड़ी चुड़ियों पर कलाईयों से खून टपकता रहा। आंसू
भी लगातार झरते रहे। रोते-रोते हिचकियां बंध गईं। और अम्मा जहां खड़ी थीं। बुत बनी वहीं
खड़ी देखती रहीं। बिल्लो की चीख-चिल्लाहट सुनकर भाई-बहन सब आ गए थे। संयोगवश मैं अपने
फुफेरे भाई सतीश के साथ ठीक उसी समय पहुंच गया था।
हम उसी दिन गर्मियों की छुट्टियों में वहीं पहुंचे थे।
और बिल्लो से ही मिलने गए थे। हम उससे तब से मिलते बतियाते, आए थे जब वो पांचवीं में पढ़ा करती थी। हम
जब भी मिलते बिल्लो भी खूब प्यार से मिलती-खेलती-बतियाती थी। हमने उससे गुट्टक खेलना
भी सीखा था। जब और बड़ी हुई तो वो खाने को भी कुछ ना कुछ जरूरी देती। सोंठ मिला गुड़
उसको बहुत पसंद था। हमें भी वही देती। हम भी उनके लिए शहर की टॉफी जरूर ले जाते थे।
उन्हें जरूर देते थे। ना जाने क्यों गांव चलने की बात आते ही मेरे मन में अगर कोई तस्वीर
सबसे पहले उभरती थी तो वह बिल्लो की ही। और फिर चलते समय उनके लिए अपने सामान में टॉफी
छिपा कर ले जाना मेरा पहला काम था। सतीश के दिमाग में क्या आता था ये तो वो ही जाने, मैं नहीं जानता।
यह बात घर, चाचा, सभी बुआओं के नजर में आई तो सबने मजाक उड़ाना
शुरू कर दिया। रिश्ते को दूसरा नाम देकर सब छेड़ते। कहते चलो अच्छा है पट्टीदारी से
रिश्तेदारी हो जाएगी। बात बिल्लो के घर तक भी पहुंची तो उनके घर वाले भी हंसते, मजाक करते। हम दोनों का मजाक उड़ता। बिल्लो
मजाक करने वाले को दौड़ा लेती। शुरुआती कई साल ऐसे ही बीत गए थे। हमारे उनके बीच एक
किशोर-किशोरी का रिश्ता खेल-कूद, मिलना-जुलना
बतियाना तक ही रहा। लेकिन जब किशोरावस्था पीछे-छूटने लगी तो हम दोनों के मन में एक
दूसरे के प्रति एक विशेष तरह का आकर्षण पनपने लगा था। जिसका मतलब उस वक्त हम बहुत अच्छे
से समझ नहीं पाते थे।
यह स्थिति आगे चलकर और भावनात्मक लगाव में बदल गई। और
जब मुझे बिल्लो की शादी की खबर अपने शहर में मिली थी तो मैं अजीब सी मनःस्थिति में
पड़ गया था। इतना बेचैन हो गया था कि एक जगह बैठ नहीं पा रहा था। कभी इधर जाता कभी उधर।
पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। मन में एक ही बात आती कि किसी तरह बिल्लो से मिल लेता।
उसे मना कर देता कि मत करो शादी। मन में यही बात बार-बार आती कि बिल्लो की शादी कैैंंसिल
हो जाए। मगर मन की मन में ही रही। बात आई गई हो गई।
मैं फिर से अपनी दुनिया में मस्त हो गया। इन्हीं बिल्लो
को जब उस दिन सतीश के साथ अपने हाथों अपने सुहाग चिन्ह मिटा कर विधवा बनते देखा तो
एक दम शॉक्ड रह गया। कुछ देर समझ में ही नहीं आया कि हो क्या रहा है। मुझे बस एक ही
बात समझ में आ रही थी कि बिल्लो रो रही है। कलाईयों से खून बह रहा है। उनकी मां हम
दोनों को देख कर हैरान भी हो रही थीं और गुस्सा भी कि ऐसे टाइम क्यों पहुंचे? खड़ा देख कर आखिर बोल ही दिया कि ‘जा बचवा जा, बादि में आए।’
उनकी भी आंखें आंसुओं से भरी थीं। हम उल्टे पैर वापस
हो लिए। सतीश ने मेरा मूड खराब देखकर कहा ‘तुम्हें
क्या हो गया? तुम इतना टेंस क्यों
हो गए हो? ये उनकी पर्सनल
प्रॉब्लम है। हमें क्या लेना-देना।’ सतीश की
ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी। लेकिन मैं कुछ नहीं बोला। बस धीरे-धीरे चलता रहा।
कैथाने से आगे बभनौटी की ओर क़दम अपने आप बढ़ते गए। उसी
के करीब और आगे जाकर एक भीठा (ऊंचा टीला) था उसी पर चढ़ गया। उसके एकदम शिखर पर बैठ
गया। तेज़ धूप गर्मी में यह पागलपन देखकर सतीश बोला ‘ये तुम्हें क्या हो गया है? मेरी समझ में नहीं आ रहा है। बैठना है तो चलकर किसी पेड़ की छाया
में बैठो, नहीं वापस घर चलो।
इतनी हाइट पर बैठे हो। नीचे ढाल कितनी शार्प है। इतनी गर्मी में कहीं चक्कर आ गया तो
फुटबॉल की तरह लुढ़कते हुए नीचे पहुंचोगे।आस-पास नीचे से जा रहे लोग अलग देख रहे हैं
कि कौन पागल चढ़ गए हैं।’
बगल में खड़ा सतीश बोले जा रहा था। मैं जैसे कुछ सुन ही नहीं
रहा था। नीचे जाकर जहां भीठा का ढलान खत्म हो रहा था। ठीक उसी से आगे एक तालाब था यही
कोई आधे बीघे का छिछला सा। किनारे-किनारे बेहया के पेड़ लगे थे। जिनके सफेद कुछ बैंगनी
से फूल ऊपर से दिख रहे थे। वहीं किनारे एक नीम और महुवा का पेड़ था। मुझे कुछ बोलता
ना देखकर, गर्मी से परेशान, खीझे सतीश ने हाथ पकड़ कर उठाया।
बोला ‘क्या यार, ये क्या पागलपन है? आखिर मतलब क्या है? चलो उठो।’ उसकी बात और उठाने पर मैं जैसे कुछ नॉर्मल हुआ। उठकर खड़ा हुआ
और नीचे महुआ के पेड़ को देखते हुए उतर कर उसी के नीचे बैठ गया। पेड़ घना था, उसकी छाया में आराम मिला। पसीने से हम दोनों
तर थे। बड़ी देर तक हम वहीं बैठे रहे। बिल्लो के लिए इस बार मैं कई चॉकलेट ले गया था।
हम दोनों ने बैठे-बैठे वहीं खत्म कर दिया। प्यास सताने लगी तो घर वापस आ गए।
आज उसी बिल्लो को इतने
बरसों बाद इस रूप में देखकर, और उसके
खाने का निमंत्रण पाकर मैं फिर कुछ वैसी ही फीलिंग्स से गुजर रहा था। नींद नहीं आ रही
थी। छत पर लेटे बाकी लोगों, गांव का
मामला होने के चलते छत पर चहल-क़दमी भी नहीं कर पा रहा था। सिगरेट कितनी पीता। नॉर्मली
जितना पीता था उससे कहीं ज़्यादा पी गया था। लाइट आ चुकी थी। पास ही रखा टेबुल फैन
चल रहा था लेकिन वोल्टेज इतना कम था कि पंखा पूरी तरह चल ही नहीं पा रहा था। मैंने
पास ही रखे गिलास में जग से निकाल कर पानी पिया। और लेट गया। मैंने यह तय कर लिया था
कि सवेरे बिल्लो के निमंत्रण का सम्मान करते हुए उसके साथ खाना खाऊंगा और फिर चला जाऊंगा, जौनपुर रिश्तेदार के यहां। इतना टेंशन लेकर
यहां रुकने से क्या फायदा?
अगले दिन सवेरे
आठ बजे ही बिल्लो का फ़ोन आ गया। ‘का हो ‘‘सूरत’’ नरेश का करत हएय।’ हमने बताया
नाश्ता कर रहा हूं। तो बोलीं ‘ठीक है
नाश्ता कई के आय जाओ।’ मैंने सोचा
इतनी जल्दी खाने का कौन सा टाइम। इसलिए कहा मैं खाना बारह-एक बजे तक खाता हूं। तो उसने
कहा ‘जितने बजे तोहार
मन होए ओतने बजे खाए। मगर आए तो जाओ। बैइठ के तनी घरवां का हाल-चाल बतियाव। एतना बरिस
बाद आवा है तनी गंऊंवा के बारे में जाना-बूझा। जहां खेलत-कूदत रहअ सब जने।’ बिल्लो इतना पीछे पड़ गई कि मैं नौ बजे उसके
यहां पहुंच गया। शिखर को कुछ काम था तो वह बोला ‘भइया मैं बारह बजे तक आ जाऊंगा।’
बिल्लो ने पहुंचते ही पहला प्रश्न किया ‘ई बतावा अपने बाबा, बाबू के नाई शाकाहारी अहै कि मांसो-मछरी
खात हएय।’ मैंने कहा मैं इस
परंपरा को निभा नहीं पाया। तो वह बोली ‘चला ई बढ़िया
बा। लकीर का फकीर ना बनेक चाही। जऊन नीक लगे उहै करै कै चाही।’ इसके बाद तो बिल्लो ने नाश्ते से शुरुआत
कर जो दो बजे तक खाने का प्रोग्राम चलाया, उससे मैं
एकदम अभिभूत हो उठा। मैंने कल्पना भी नहीं की थी ऐसी मेहमाननवाजी की। उनका भतीजा उसकी
पत्नी भी पूरी तनमयता से लगे रहे। भतीजा बीच-बीच में बातचीत में भाग लेता रहा। और दुकान
भी देखता रहा।
भतीजे की पत्नी अंशिता की फुर्ती, खाना बनाने की निपुणता से मैं बहुत इंप्रेस
हुआ। मैं बार-बार उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सका। बिल्लो इस तरह से अपने तखत पर बैठी
थी मानो कोई महारानी अपने सिंहासन पर बैठी हो। वो एक के बाद एक आदेश देती जा रही थी।
अंशिता उसका पालन किए जा रही थी। रसोई में उसका साथ देने के लिए एक नौकरानी थी। शिखर
भी समय पर आ गया था।
मुझे वहां बिल्लो ने पूरा घर भी दिखाया। घर तो क्या एक बहुत
बड़े आंगन के चारो तरफ बने करीब आठ-नौ कमरों का बड़ा सा मकान है। मैंने मकान की तारीफ
की तो बिल्लो ने बिना संकोच कहा ‘एके हम
तोहरे बब्बा के कृपा मानित है। बाबू जब घरवां से हाथ धोए बैइठेन। रहे का ठिकाना नहीं
रहा तब तोहार बब्बा हिंआ आपन जमीन दै दिहेन। रहे भर के बनवावे में मदद किहेन।’ बिल्लो ने यह भी लगे हाथ बता दिया कि बाद
में कुछ और जमीन उसने एक दूसरे गांव के तिवारी बाबा की थी ,वह भी दबा ली। थोड़ा लड़ाई-झगड़ा हुआ। लेकिन
फिर सब ठीक हो गया।
परिवार में बिल्लो उसका भतीजा उसके तीन बच्चे एक नौकरानी
है। आंगन में जमीन पर कोहड़ौरी (उड़द की दाल की बड़िया) सूख रही थीं। मैं करीब चार घंटे
वहां रहा और बिल्लो ने जो बताया,दिखाया
उसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। इन चार घंटों में गांव की राजनीति में बिल्लो के जबरदस्त
दखल की बातें अचरज में डाल रही थीं।
खाना खा-पीकर अंततः जब हमने बिदा ली तो दोपहर भी बिदा ले रही
थी। बिल्लो रोक रही थी कि धूप में कहा जाओगे?
रुको। मगर मैं खेत देखना चाहता था। सही रेट पता करना चाहता था। क्योंकि जब बिल्लो
को बताया कि मैं खेत बेचने आया हूं तो उसने छूटते ही कहा ‘गांव से लगाव का एक बहाना है वह भी खत्म
कर रहे हो। जब यह बहाना है तब तो इतने बरिस बाद आए। बेचे के बाद तो फिर ई मान के चलो
कि ये आखिरी आना है तुम्हारा।’
बिल्लो सही कह रही थी। बेचना ना होता तो मैं गांव पहुंचता
ही क्यों? और जब बिक जाएगा
तो उसके बाद यहां आने का प्रश्न कहां? फिर बिल्लो
ने रेट सुनने के बाद कहा ‘तोहके हर
बिगहा (बीघा) पर दुुई-ढाई लाख रुपया कम मिलत बा। ऐइसन बा जा पहले सही दाम पता करा।’ यह बात मुझे बराबर मथने लगी थी। मैंने कहा
‘ठीक है।’
वाकई जब मैं खेत पर गया तो रिश्तेदार के कई झूठ सामने
आए। उन्होंने कहा था खेत ऊसर गांजर है। चार आने मालियत का है। इससे ज़्यादा नहीं मिल
पाएगा। जिसे बंटाई पर दे रखा था, जो कभी-कभार
कुछ पैसा मनी ऑर्डर करता था हमेशा यह कहते हुए कि ‘फसल कायदे से भई नाई। दाम मिले नाई।’ उसने भी कई बातें बर्ताइं। मैंने उससे शिकायत
की ‘भाई जब मैंने खेत
दिए थे तो आठ आने मालियत के थे। तुम बीज, खाद, सिंचाई के भी पैसे बराबर लेते रहे। फिर खेत
चार आने की मालियत के कैसे हो गए? कहां गए
सारे पैसे?’ इस पर वह भड़क कर
बोला ‘भइया आठ आना दिए
थे तो आजो आठ आना है। कऊनो झूठ बोला है आप से।’
मैं चुप रहा।
खेत की कीमत के बारे में भी उसने बिल्लो ही की बात एक
तरह से दोहरा दी। सारा घालमेल सुन कर मैं परेशान हो गया। मेरा सिर चकराने लगा। तभी
उसने एक और प्रस्ताव रख कर मुझे हैरान कर दिया। बिना लाग लपेट के बोला ‘भइया जो भी आपका खेत बिकवा रहा है ऊ आपको
ठग रहा है। हमैं दो सारी ज़िम्मेदारी हम ईसे बढ़िया दाम दिला देंगे। जितना कमीशन ऊइका
दे रहे हो। ऊसे दुई पैसा कम दई दो तबोे हम काम कई देब।’ एक झटके में वह बोल गया था यह सारी बात।
ड्राइवर बगल में खड़ा था। मैं परेशान हुआ कि यह रिश्तेदार को बता देगा। मैंने बात बदलते
हुए कहा ‘नहीं-नहीं कोई ठग-वग
नहीं रहा है। वो भले आदमी हैं। दलाली-फलाली उनका काम नहीं है।’ साझीदार समझदार आदमी था। उसे समझते देर नहीं
लगी। कि वो गलत समय पर सही बात बोल गया है।
उसने तुरंत बात संभालते हुए कहा ‘नाहीं भइया मतलब ई नहीं था। हम ई कहना चाह
रहे थे कि औऊर केहू से कहेंगे तो ऊहो अपना कमीशन लेगा। हमैं बताइए हमहूं ई काम आसानी
से कर देब। एतना दिन से जोतत-बोवत हई, एहू नाते
हमार हक पहिले बनत है कि हम कुछ करि। अरे इतना दिन फसल उगाए। परिवार के रोटी-दाल भइया
इहै खेतवे से मिलत बा। अब बेचे चाहत हअ तअ बेचा भइया। मालिक हअ-तू। मगर ई कमवा हमें
करे देबा तअ दाल-रोटी चलावे के बरे कुछ इंतजाम होई जाइ। काम-धंधा करे बरे कुछ पैइसा
का इंतजाम होई जाए।’ उसकी दयनीयता, चेहरे पर भावुकता देख कर मुझे उस पर दया
आ गई। उसका लॉजिक, भी मुझे सही लगा।
मैंने बड़े स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखा। और चहलक़दमी
करता हुआ ड्राइवर, शिखर से थोड़ा दूर
ले जाकर कहा ‘तुमने अब तक जो
कहा सही कहा। मैं तुम्हारी इस बात से सहमत हूं कि तुम जोतते-बोते आए हो तो पहला हक़
जरूर तुम्हारा ही है। अब जो भी करूंगा, कोशिश करूंगा
कि तुम्हें तुम्हारा हक़ मिले। रोटी-दाल पर कोई असर नहीं आने दूंगा।’ मेरी बातें सुनकर उसकी आंखें गीली हो गईं।
उसने हाथ जोड़ कर कहा ‘भइया तोहरे
सहारे अबे तक हमार परिवार जियत रहा, आगेव ई
का बनाए रखो। ज़िंदगी भर तोहार एहसान ना भूलब।’
मैंने उसकी पीठ थपथपा कर आश्वस्त किया। कहा ‘कल तुमसे फिर बात करूंगा।’ वह चला गया।
मैंने शिखर से कहा तुम्हारे हिसाब से कितने तक में बात
सही रहेगी। तो उसने भी बिल्लो, बंटाईदार
की बात का ही समर्थन कर दिया। मैं अपने जिस खेत की मेड़ पर खड़ा था। उसमें गेंहू की फसल
लगी थी। उसकी बालियां, तने सब
सुनहले पड़ चुके थे। उसके आस-पास के खेतों में भी दूर-दूर तक गेंहू की फसल लगी थी। सब
हफ्ते दो हफ्ते में कटाई के लायक हो गई थीं। मैंने देखा कि शिखर ऊब रहा। तो मैंने उससे
कहा ‘आओ तुम्हारे खेत
पर चलते हैं।’ मुझे लगा जैसे उसका
मन मुझे अपने खेत तक ले जाने का नहीं था। उसने कहा ‘भइया। गर्मी बहुत बा। डांडे़-मेड़े काफी दूर चलना पड़ेगा। थक जाएंगे।
आपकी आदत है नहीं।’ मैंने कहा ‘नहीं ऐसा नहीं है। इतना कमजोर नहीं हूं।
मेड़ पर भी खूब चला, दौड़ा हूं। तब तुम
बहुत छोटे थे। आज फिर पुरानी याद ताजा करता हूं। वैसे मेरा यकीन है कि मैं तुमसे कम
आज भी नहीं चलूंगा।’
शिखर कोई रास्ता
ना देख कर बोला ‘ठीक है भइया चलिए।’ ड्राइवर को मैंने गाड़ी में चले जाने को कह
दिया। वह थोड़ी ही दूर पर चक रोड पर गाड़ी खड़ी किए हुए था। वह भी गर्मी में आगे मेड़ पर
चलना नहीं चाहता था। मैंने उससे पानी की बोतल गाड़ी में से मंगवा ली थी। शिखर के लिए
भी। दोनों ने बोतल से कुछ पानी पिया और चल पड़े मेड़ के किनारे-किनारे खेत में ही। गेहूं
की फसल उस खेत में मेड़ से सात-आठ इंच दूर हट कर लगी थी। चलते वक्त बालियां हम दोनों
के पैरों से टकरा कर अजीब सी सर्र-सर्र आवाज़ कर रही थीं। बीच-बीच में ऐसी स्थिति भी
आ रही थी जब हमें मेड़ पर चढ़ कर संभलते हुए चलना पड़ रहा था।
शिखर परेशान ना हो इस लिए मैं लगातार उससे बातें कर रहा
था। साढ़े पांच बजने वाले थे सूरज हमारे ठीक सामने अब भी धधक रहा था। धूप अब भी बड़ी
तीखी थी। मेरे कॉलर और बाहों के आस-पास शर्ट पसीने से भीग रही थी। शिखर की भी। मैं
रुमाल से बार-बार चेहरे और गर्दन के पास पसीना पोंछ रहा था। करीब तीन खेत क्रॅास करने
के बाद ही मैं हांफने लगा। मगर शिखर अभी मेरे जितना नहीं थका था। मुझे बोलने में जितनी
तकलीफ हो रही थी उतना उसे नहीं। तीन खेत बाद ही मैंने पूछ लिया अभी और कितनी दूर है।
तो वह बोला ‘बस भइया चार खेत
बाद अपना खेत है। वो आगे जहां दो पेड़ दिख रहे हैं वह अपने ही खेत में हैं।’
मैं सामने देखने लगा तो तेज़ धूप के कारण आँखों पूरी खोल
नहीं सका। तेज़ धूप सीधे चेहरे पर पड़ रही थी। पेड़ों की दूरी जो मैं समझ पा रहा था उससे
मुझे लगा कि कुछ ही देर में पहुंच जाऊंगा। मगर कुछ देर बाद महसूस हुआ कि जैसे-जैसे
हम आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पेड़ भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। दूरी है कि कम ही नहीं हो
रही है। दो खेत और क्रॉस करते-करते मुझे लगा कि अब बैठ जाना पड़ेगा।
पसीने से अब पूरी शर्ट
भीग गई थी। और पैंट का हाल पूछिए मत। मगर शिखर मेरे जितना नहीं भीगा था। आखिर एक जगह
मैं मेड़ पर बैठ गया। फिर पानी पीने लगा। शिखर भी। ‘मैंने उससे कहा यार ये पेड़ हमसे आगे-आगे क्यों भागे जा रहे हैं।’ शिखर हंस पड़ा। बोला ‘भइया मैं तो पहले ही कह रहा था कि आप परेशान
हो जाएंगे। यहां हम लोगों की तो आदत है। आप चाहें तो यहीं से वापस चले चलिए। वहां जाकर
वापस भी तो आना है। और ये धूप अभी घंटे भर से तो ज़्यादा रहेगी ही।’
उसकी इस बात
ने मेरी हिम्मत कमजोर कर दी। मगर रिश्तेदार की धूर्तता ने कहा कि नहीं टाइम नहीं है।
आए हैं तो हर चीज ज़्यादा से ज़्यादा पता करना ही अच्छा है। नहीं तो सब ठगते रहेंगे।
यह सोचकर मैंने एक बार फिर दोनों पेड़ों को देखा और हंसकर कहा। ‘नहीं डियर परेशान होने वाली कोई बात नहीं
है। जाकर आराम से वापस आ जाऊंगा, हां पसीना
जरूर ज़्यादा हो रहा है। शहर में पैदल चलने की आदत शुरू से ही नहीं पड़ पाई। इसी वजह
से वेट ज़्यादा है। फैट भी बढ़ा हुआ है।’ शिखर ने
कहा ‘हां आप हांफ भी
बहुत रहे हैं। इसी लिए कह रहा हूं चले चलिए।’
मैंने कहा ‘मंजिल सामने दिख
रही हो तो छोड़ कर वापस चल देना ठीक नहीं। आओ चलते हैं।’ मैंने पानी पिया और उठकर चल दिया।
पसीना बहाते, हांफते, एक-एक घूंट पानी पीते आखिर शिखर के खेत में पहुंच गया। उसके
एक खेत में जहां पेड़ लगे थे उसी की छाया में हम दोनों बैठ गए। कुछ देर बैठने के बाद
शिखर के वो खेत भी देखे। जो पड़ती पड़े थे उनके बंजर होते जाने, शिखर की लापरवाही पर मुझे कष्ट हुआ। उठकर
कुछ क़दम आगे बढ़ा तो उसके बंजर खेतों के आगे ही कुछ दूर तक कई खेतों में ‘ऐलोवेरा’ लगे थे जिसे वहां ‘घीक्वार’ या ‘ग्वारपाठा’ भी कहते हैं।
मुझे आश्चर्य हुआ कि यहां एक साथ इतने खेतों में ऐलोवेरा
की खेती कौन कर रहा है। मैंने शिखर से पूछा तो उसने बताया कि ‘यह सब बिल्लो बुआ के खेत हैं। कई साल पहले
उन्होंने औने-पौने दाम में कप्तान चच्चा की आठ बीघा जमीन खरीद ली। वो लोग भी कई-कई
साल यहां आते नहीं थे। खेत बंजर हो गए तो बेच दिया। और बिल्लो बुआ उसी बंजर जमीन से
इतना कमा रही हैं कि पूछिए मत।’
शिखर ने बताया कि ‘उन्होंने
एक बाबा की कंपनी से बात कर रखी है। सारी पैदावार ट्रकों में भर कर चली जाती है। बहुत
अच्छी कमाई हो रही है।’ मैंने कहा
‘आखिर तुम क्यों नहीं करते? जब इतना फायदा है। उन्हीं की पैदावार के
साथ-साथ तुम्हारी भी चली जाया करेगीे। बिल्लो मना थोड़े ही करेंगी।’ तब शिखर ने कहा ‘ऐसा है भइया कि सब तो छोड़कर शहर भाग गए।
मेरा भी मन यहां नहीं लग रहा। पापा जब तक हैं तब तक हम भी हैं। मैं भी शहर में ही कुछ
करना चाहता हूं।’
शिखर ने आगे जो बताया उस हिसाब से ना तो उसकी पढ़ाई ऐसी
थी कि उसे चपरासी से आगे कोई नौकरी मिल पाती ना ही कोई ऐसा काम जानता है कि उसके हिसाब
से शहर में कुछ कर पाएगा। मुझे लगा कि यह बाप के बाद खेत, घर सब बेच-बाच कर चला जाएगा। शहर में कुछ
कर पाएगा नहीं। और फिर एक दिन सड़क पर आ जाएगा।
यह सोचकर मैंने उसे समझाया कि ‘शहर में तुम्हारे लिए जितनी संभावनाएं हैं
उससे कहीं बहुत ज़्यादा संभावनाएं यहीं भरी पड़ी हैं। जब बिल्लो यहां बंजर खेतों में
गवारपाठा उगाकर ढेरों कमा सकती है तो तुम क्यों नहीं? फिर इस खेती में तो बाकी फसलों की खेती की
तरह ना तो खेतों को बहुत तैयार करना पड़ता है। ना बार-बार सिंचाई का झंझट है। उपज पूरी
की पूरी बिक जाने की गारंटी।’
इस पर शिखर खुलकर बोल
पड़ा ‘भइया मैं भी शहर
की चकाचौंध भरी लाइफ का मजा लेना चाहता हूं।’
मैंने समझाया कि ‘बिना पैसे
के किसी भी लाइफ का मजा नहीं ले सकते। यहां तुम्हारे पास इतने साधन हैं कि आराम से
बढ़िया कमाई कर सकते हो। फिर जब मन हो शहर जाओ। घूमो फिरो। शहर, देहात दोनों का मजा ले लो। शहर वाले दोनों
का मजा नहीं ले पाते।’
शिखर ने फिर कहा कि
‘भइया परिवार का कोई एक सदस्य भी यहां
रहता या बराबर आना-जाना बनाए रखता तब भी मैं हिम्मत करता। लेकिन आप सबके साथ-साथ घर
के बाकी सब भी चले गए। आना-जाना छोड़िए, भइया लोग
फ़ोन करना भी छोड़ दिए हैं। फ़ोन करने पर भी सीधे मुंह बात नहीं करते। बहनों का भी यही
हाल है। ऐसे में अब मैं यहां बहुत अकेलापन महसूस करता हूं। मेरा जी घबराता है।
कैथान के जितने पट्टीदार अपने लोग थे उन घरों का भी यही
हाल है। सब छोड़-छोड़ कर जा चुके हैं। वही लोग थोड़े बहुत बचे हैं जिनके पास वहां जाकर
कुछ करने के लिए कोई साधन या फिर पढ़ाई-लिखाई भी नहीं है। दूसरे यहां इतनी गंदी राजनीति
चल रही है, इतनी मार-काट है
कि शांति से रहा ही नहीं जा सकता। आप एकदम अलग रहना चाहें तो भी संभव नहीं है। कोई
ना कोई अपने गुट में अपने साथ करने के लिए इतना परेशान करेगा कि आपको एक में शामिल
होना ही पड़ेगा। बवाल सिर पर मोल लेना ही होगा। या गांव को अलविदा कह कर कहीं और जाइए, नहीं तो हर तरफ से सब इतना नुकसान पहुंचाएंगे
कि कहीं के नहीं रह जाएंगे।
बिल्लो बुआ भी इन्हीं सब से परेशान होकर राजनीति में
कूद पड़ीं। मगर भइया सब तो बिल्लो बुआ नहीं हो सकते ना। फिर उनकी, भतीजे की जान को खतरा हमेशा बना ही रहता
है। आपने देखा ही है कि दो चार बंदूकधारी उनको घेरे ही रहते हैं। सब उनको यहां का ऊमा
भारती कहते हैं। उन्होंने जितना रिस्क लेकर मुज्जी मियां की प्रधानी की बरसों से चली
आ रही दबंगई को हमेशा के लिए खत्म किया, उस बारे
में कोई सोच भी नहीं पाता था, कि मुज्जी
की दबंगई को कोई खत्म भी कर पाएगा।’ बिल्लो
इतनी दबंग और इतना कुछ कर चुकी होगी, यह जानकर
मैं हैरान रह गया।
कुछ देर मैं एकटक शिखर को देखता ही रह गया। मैं बिल्लो
की और बातें जानने के लिए व्याकुल हो उठा। शिखर बताता जा रहा था। उसकी बात हैरान करती
जा रही थीं। अब तक हमारा पानी खत्म हो चुका था। सूरज भी दूर क्षितिज में करीब-करीब
ढल चुका था। क्षितिज पर एक जगह एक अर्ध चंद्राकार घेरे में केसरिया प्रकाश और गहरा
हो गया था। पक्षी अपने-अपने घरौंदों की ओर चहचहाते हुए उड़ान भर रहे थे। हमारा गला सूख
रहा था। हम बातें करते हुए उठे और गाड़ी की
ओर चल दिए। गाड़ी तक पहुंचने में हमें आधा घंटा लगा। गाड़ी में से और पानी की बोतल निकालना
चाहा तो एक ही मिली। जो बोतलें छोड़ कर गया था उसे ड्राइवर महोदय गटक गए थे। शिखर की
बातों ने मुझे कई मुद्दों पर असमंजस में डाल दिया था।
मैं खेत में जाते वक्त जहां यह सोच रहा था कि आज जौनपुर लौट
जाऊं रिश्तेदार के यहां जिससे वहां आराम से सो सकूं। वहां जेनरेटर वगैरह सब है। सोने
के लिए आरामदायक अलग रूम है। मगर अब मन में आ रहा था कि रुक जाऊं। शिखर से रात भर और
बातें करूं। असल में मैं खेतों की कीमत के साथ-साथ अब बिल्लो के बारे में और जानना
चाह रहा था। जानना चाह रहा था उसके अब तक के असाधारण जीवन के बारे में।
साथ ही पता नहीं क्यों मेरे मन में शिखर को समझा-बुझा कर गांव
में ही अपना भविष्य संवारने के लिए तैयार करने की तीव्र उत्कंठा पैदा हो गई थी। मुझे
सिगरेट पीते कुछ देर चुप देखकर शिखर ने घर चलने को कहा, तभी मुझे बिल्लो से बात करने की बात याद
आई कि उसने कहा था कि देख-दाख के बताना। यह याद आते ही मैंने शिखर से कहा ‘हां चलता हूं। बस दो मिनट।’ इसके बाद उससे थोड़ा अलग हटकर बिल्लो से बात
की।
संक्षेप में उसे सारी बातें बताते हुए कहा ‘कुछ समझ में नहीं आ रहा है क्या करूं? वापस भी जाना है।’ तो वह बोली ‘ऐसा है तुम हमें थोड़ा टाइम दो, जैसा चाहोगे हम करा देंगे।’ शिखर से उसके बारे में तमाम बातें जानने
के बाद मुझे बिल्लो की बात पर पूरा यकीन था,
कि वास्तव में वही मेरा काम सही ढंग से कराएगी और कोई धोखाधड़ी नहीं करेगी। फिर
बिल्लो ने मुझसे अपने यहां रुकने का आग्रह किया।
साथ ही यह उलाहना भी दिया कि ‘हम तो कल से इंतजार कर रहे हैं कि इतने साल
बाद आए हो। अरे छोटे थे तब तो कुछ न कुछ लाना भूलते ही नहीं थे। और अब जब कमाए लगे
हो। बड़का बिजनेसमैन बन गए हो तो पूछ तक नहीं रहे हो कि बिल्लो कैसी हो? तुम पर का-का बीती अब तक?’ बिल्लो आखिरी सेंटेंस तक पहुंचते-पहुंचते
भावुक हो गई। उसकी आवाज़ भर्रायी सी लगी।
मैं बड़े अचरज में पड़ गया कि यह मुझ पर अब भी इतना अधिकार
समझती है। मुझे लगा कि उसकी बातों ने मुझे एकदम पानी-पानी कर दिया है। कुछ देर मुझे
कोई जवाब ना सूझा। मैं चुप रहा तो बिल्लो फिर बोली ‘कुछ गलत बोल दिए होई तो माफ करना।’ यह कह कर उसने मुझे और भिगो दिया। मैं लज्जित
हुआ सा बोला। ‘नहीं-नहीं प्लीज-प्लीज
कृपया ऐसा मत कहिए। मैं संकोच में था। और मैंने यही समझा था कि आप सब भूल चुकी होंगी।’
इस पर वह बोली ‘अरे कइसन बात करत हौ। ई सब कहूं भूलत है।
अरे हमरे कलेजे में सब वैसे ही, आज भी बसा
है जैसे तब था। एकदम ताजा है अबहिनों सारी बात। अच्छा पहिले ई बताओ, ई दुश्मनन के नाहीं आप-आप काहे किए जा रहे
हो। हम अबहिंनो तोहार ऊहै बिल्लो हई। अऊर हमेशा रहब। जेकरे साथे तू लड़कपन में छिप के
खलिहाने में, तो कहीं भीठा के
किनारे इमली, गट्ठा (शक्कर से
बनी गंवई मिठाई) कंपट,टाफी खाया
करते थे। तू शहर के मनई सब भुलाए दिए लेकिन हमें नाय भूलान बा। हम तो तोहे कल जब से
देखे हई, तब से इंतजार करत
हई कि हमरे लिए जो लाए होगे अब दोगे, अब दोगे।
बचपन की तरह लोगों से नजर बचा कर चुपके से मेरे हाथों
में थमाओगे। कहोगे ‘‘लो बिल्लो यह तुम्हारे
लिए लाया हूं।’’ मगर बिल्लो की ऐसी
किस्मत कहां? भूल गए सब यहां
से निकलते ही।’ बिल्लो की आवाज़
फिर भारी होने लगी। मेरी मनः स्थिति ऐसी हो रही थी कि ऐसा क्या कर डालूं कि बिल्लो
का दर्द पी जाऊं। उसकी शिकायत नहीं उलाहनों को फूल बना सब उस पर बरसा दूं। उसे इतनी
खुशी दूं कि वह पिछले सारे दर्द भूल जाए। मैंने बिल्लो से कहा ‘मुझे अब और शर्मिंदा ना करो। मैं आज तुम्हारे
यहां ही रुकूंगा। बस घंटे भर बाद आता हूं।’
यह कह कर मैंने फ़ोन काट दिया।
मुझे क्या करना है यह मैं बात करते-करते ही तय कर चुका
था। शिखर यह सुनकर चौंक गया कि मैं आज बिल्लो के यहां रूकुंगा। वह यह कतई नहीं चाहता
था। उसने गांवों में छल क्षद्म से बदला लेने,
मारने, पट्टीदारी आदि के
भय क्षण भर में दिखा दिए। मगर बिल्लो की भावनाओं के आगे मुझे यह सब बकवास के सिवा और
कुछ ना लगे। मैंने उससे दो टूक कहा ‘चलो तुम्हें
घर छोड़ देता हूं। कल तुमसे फिर मिलूंगा। अभी तुमसे बहुत बातें करनी हैं। बहुत ही इंपॉर्टेंट
डिसीजन लेना है।’
वह कुछ बोलना चाह रहा था लेकिन मैंने उसे बोलने नहीं
दिया। उसे घर पर छोड़ा और ड्राइवर को भी उसी के हवाले कर कहा ये भी तुम्हारे पास रुकेंगे।
शिखर बड़े बेमन से माना। खेत से घर तक मैंने गाड़ी खुद ड्राइव की। ड्राइविंग की अपनी
पूरी कुशलता दिखाकर मैंने ड्राइवर को सैटिसफाइड कर दिया कि गाड़ी मैं अकेले ही ले जाऊंगा। वह मेरी फास्ट, शार्प ड्राइविंग देखकर जब उतरा तो यह बोला
भी ‘भइया जी आप तो बहुत
बढ़ियां गाड़ी चलाते हैं।’ फिर मैंने
उसी के सामने रिश्तेदार को फ़ोन कर बताया कि आज मैं कहां रुकुंगा। और ड्राइवर कहां? साथ ही कि गाड़ी मैं ले जा रहा हूं। रिश्तेदार
खुशी-खुशी बोले ठीक है।
गाड़ी को लेकर ड्राइवर किसी असमंजस में ना रहे इसीलिए
मैंने यह किया। उनको वहां छोड़ कर मैं वहां से सीधे जौनपुर सिटी गया। रास्ता ना भूलूं
इसी लिए मोबाइल में जीपीएस ऑन कर दिया। सात बजने वाले थे। मैंने पूरी रफ्तार में गाड़ी
भगाई कि कहीं मार्केट बंद ना हो जाए। सबसे पहले एटीएम से जरूरत भर का पैसा निकाला फिर
बिल्लो के लिए एक महंगी खूबसूरत सी साड़ी खरीदी। उसे खूबसूरती से पैक कराया।
परिवार के बाकी लोगों
के लिए भी गिफ्ट लिए। भतीजे उसकी पत्नी, उसके बच्चों
के लिए भी कपड़े लिए। जिससे वहां किसी तरह से ऑड ना लगे। फिर एक और चीज लेकर जेब में
रख ली। कि उसे बिल्लो को एकदम अलग करके दूंगा। चुपके से। जैसे बचपन में देता था। उसकी
हथेलियों को अपने हाथों में लेकर। मैं इतनी जल्दी, हड़बड़ाहट में था कि सिगरेट और वहीं रेलवे स्टेशन के पास मिनरल
वॉटर की दस-बारह बोतलें लेकर डिक्की में डाल लीं। लेकिन घर बीवी-बच्चों से बात करना
भूल गया। मैं बिल्लो के पास पहुंचने की जल्दी में था।
वापसी में रास्ते में था तभी बिल्लो का दो बार फोन आ
चुका था। वह समझ रही थी कि मैं चाचा के यहां हूं। मैं उसे कुछ बता नहीं रहा था। बस
जल्दी पहुंचने की कोशिश कर रहा था। वापसी में तमाम जल्दबाजी के बावजूद गांव के रास्ते
में बड़े बदलाव देखता चल रहा था। लाइट का टोटा था लेकिन फिर भी मकानों की संख्या बहुत
बढ़ गई थी। मुख्य सड़क और अंदर गांव में बनीं आर. सी. सी. सड़कों पर लोगों का आना-जाना
अब भी था। बाज़ार करीब-करीब बंद हो रही थी।
बिल्लो के घर के सामने गाड़ी रोकी तो साढ़े नौ बज गए थे। उसकी
भी दुकान बंद हो चुकी थी। पांच सीढ़ियां चढ़ कर बिल्लो के घर के अंदर पहुंचना होता है।
मेन बैठक का दरवाजा तो खुला था। लेकिन चैनल पूरा बंद था। लाइट बाहर भी जल रही थी। और
अंदर बैठक में भी। एलईडी बल्ब यहां भी रोशन थे। मोदी का इफेक्ट साफ दिख रहा था। मेरी
गाड़ी रुकते ही बिल्लो चैनल के पास आई। उसका एक हिस्सा किनारे खिसका कर खोलती हुई अपनी
बुलंद आवाज़ में बोली ‘आवा बड़ा
देर कई दिहे। चच्चा जादा पियार देखावे लगा रहेन का?’
बिल्लो ठेठ गंवई स्टाइल में आ गई थी। मैं जब से गांव
में आया था तब से एक चीज़ देख रहा था कि लोग यह जानकर कि मैं शहर से आया हूं ज़्यादा
से ज़्यादा कोशिश खड़ी बोली में बात करने की कर रहे थे। वह यह भी नहीं समझ रहे थे कि
मैं सूरत,गुजरात में खड़ी
बोली से ज्यादा गुजराती बोलने का अभ्यस्त हूं। यह मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था। नकलीपन
से मैं बड़ी जल्दी ऊबने लगता हूँ । मुझे बड़ा अच्छा लगता जब मुझसे लोग अपनी स्थानीय बोली
में बात करते।
बिल्लो भी यही घालमेल बार-बार कर रही थी। मगर मैं चाह कर भी
टोक नहीं पा रहा था। इस समय जब वह अपने मौलिक अंदाज में बोली तो मुझे अच्छा लगा। मैं
उसकी बातों पर मैं मुस्कुरा भर रहा था। जब मैं गिफ्ट के सारे पैकेट निकाल कर उसकी तरफ
बढ़ा तो वह बोली ‘अरे ई सब का लिए
हो?’ मैं मुस्कुराता
रहा और उसके सामने पहुंचा तो वह अंदर पड़े तखत की तरफ इशारा कर के बोली ‘आवा बैइठा।’ फिर चैनल बंद किया। आकर बैठ गई,मुझसे थोड़ी सी दूरी बनाकर तखत पर ही। और
बोली ‘बड़ा देर कई दिहे।
कहां चला गए रहा?’ बिल्लो सामान देखकर
समझ गई थी कि मैं चाचा के यहां नहीं था। कहीं और गया था।
मैंने उसकी उत्सुकता शांत करते हुए कहा। अपनी गलती सुधारने
गया था। खेतों के चक्कर में यही भूल गया था कि जीवन में रिश्तों की बहुत बड़ी अहमियत
होती है। उनकी मर्यादा और उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को निभाना भी जरूरी है। साड़ी
का डिब्बा उसकी तरफ बढ़ाता हुआ बोला ‘यह तुम्हारे
लिए है।’ बिल्लो ने चौंकते
हुए कहा ‘अरे ई सब का?’ वह कुछ बोले उसके पहले ही मैंने कहा ‘मना मत करना। ये कोई सामान, गिफ्ट नहीं है। ये मेरी भावनाएं हैं तुम्हारे
लिए। जो तमाम परिस्थितियों के चलते दिलो-दिमाग में कहीं गहरे दब गई थीं। जो तुम्हें
देखने के बाद कुछ कुलबुलाई थीं। और शाम को तुम्हारी बातों ने दबी भावनाओं को एकदम सामने
कर दिया।’
बिल्लो फिर कुछ नहीं बोली। डिब्बा हाथों में लेकर मुझे
देखने लगी तो मैंने कहा ‘खोल कर
नहीं देखोगी।’ बिल्लो ने डिब्बा
खोलकर जब साड़ी देखी तो कुछ क्षण खुशी से देखती रही फिर बोली ‘एतनी महंगी साड़ी। एतनी महंगी साड़ी तो हम
कब्बो पहरिबे नाहीं किए।’ मैंने फिर
कहा ‘ये सिर्फ़ मेरी
भावनाएं हैं। जिनका मुल्य तय करना संभव नहीं।’
बिल्लो ने साड़ी दोनों हाथों में लेकर चूम ली। बोली ‘तू सही कहत हअ। महंगी या कुछ भी कहना तोहरे
भावना के ठेस पहुंचाना होगा। हमरे बदे ई का बा हम कुछ कहि नाहीं सकित। हमरे बाते के
एतना ध्यान देबा। दिल से लगाए लेबा ई हम सोच नाहीं पाए रहे।’
तभी मैंने भतीजे और
उसके परिवार के गिफ्ट सामने करते हुए कहा ‘कहां हैं
सब लोग?’ तो बिल्लो बोली
‘यहीं मड़ियाहूं में बहुरिया के मामा
की बिटिया बियाही बा। वही के बेटवा भा बा। आज ओकर छट्टी बा। हुंअईं सब गा हैंएन।’ मैंने पूछा ‘तुम नहीं गई।’ तो बिल्लो ने कहा ‘नाहीं। हम ई सब जगह नहीं जाईत। हींआ हालत
एइसन बा, जले वाला, दुश्मन एतना हैएन कि घरे में ताला नाहीं
लगाए सकित।
समनवो वाले मकान में, दुकान में काम करै वाले औउर दुई-तीन आदमी औउर बाकी सब हिंअइ
रहत हैंएन। वहां भी देखे रहते हैं। यहां भी। ई रतिया में हम हिंआ सब देखित है। ई सब
कैथाने में जऊन नवा घर बना बा हुंवां जात हैं। खाना-पीना सब यहीं होता है।’
यह सब सुन कर मैं बड़े पसोपेस में पड़ गया। यह घर में अकेली है।
गांव का मामला है, मुझे यहां रुकना
क्या इस समय यहां आना भी नहीं चाहिए था। मेरे मनोभाव पता नहीं बिल्लो समझ पा रही थी
कि नहीं लेकिन मैं ..मैं परेशान हो रहा था। मैंने जल्दी ही पूछ लिया ‘भतीजा कब लौटेगा?’ तो बिल्लो बोली ‘नाहीं, आज सब वहीं रुकेंगे। कल आएंगे।’ उसकी इस बात ने मुझे और झटका दिया। क्या
करूं, क्या कहूं कुछ समझ
में नहीं आ रहा था।
बिल्लो मेरी मनोदशा जान समझ कर नाराज ना हो इस लिए मैं
खुद को संभालने की कोशिश में लगा था। तभी बिल्लो उठी अंदर जाते हुए बोली ‘तुम हाथ-मुंह धो लो तब तक हम खाना निकालति
हई।’ मैं कुछ समझ ही
नहीं पा रहा था। तो मैं यंत्रवत सा बोला ‘ठीक है।’ बिल्लो ने तखत के सामने एक सेंटर टेबल रखी।
उसी पर कई अच्छे-अच्छे हॉट-पॉट लाकर रखे। प्लेट-कटलरी गिलास और ठंडे पानी की कई बोतलें
भीं। बर्तनों की चमक, स्थिति
बता रहे थे कि ये कभी-कभी खास मेहमानों के आने पर ही यूज किए जाते हैं। मैं हाथ धोकर
आया तो बिल्लो ने पोंछने के लिए मुझे इसी बीच तौलिया भी पकड़ा दी।
वह काम करते समय भी बोलती जा रही थी। उसे अकेले काम करते
देख कर मैंने पूछा ‘सब अकेले कर रही
हो नौकरानी कहां चली गई?’ तो उसने
कहा ‘वो भी भतीजे के
साथ गई है। काम-काज था तो हमने कहा लिए जाओ। काम-धाम में हाथ बटाएगी।’ मुझे तखत पर बैठने को कह कर उसने एक प्लास्टिक
का टेबल कवर मेरे सामने बिछा कर बर्तन रखे।
बिल्लो को एक ही प्लेट
में खाना निकालते देखकर मैंने पूछा ‘तुमने खा
लिया?’ तो वह बोली ‘नाहीं हम तो इंतजार कर रहे थे कि आओ तुम्हें
खिला दें तब खाएं। मेहमान का खिलाए बिना कैसे खा लेते?’ उसके तंज पर मैंने कहा ‘तो मैं तुम्हारे लिए मेहमान हूं।’ अब बिल्लो हंसती हुई बोली ‘नाहीं ,मेहमान नाहीं हम तो ऐसे ही।’ ‘अच्छा तो क्या हूं?’
‘अरे घरै के हो,आपन हो। हम तो हंसी
में बोल दिए थे।’ कहकर वह हंस पड़ी।
मैंने कहा ताज्जुब, तुमने अभी तक खाया
नहीं तो अपना भी निकालो, साथ खाएंगे।’
बिल्लो के संकोच पर मेरी जिद भारी पड़ी। उसने भी अपना
खाना निकाला। साथ ही खाया। लेकिन शुरू में संकोच साफ दिखा था। खाते हुए भी हमारी बातें
चलती रहीं। उसने बताया ‘सारा खाना
सूरज की बीवी ने बनाया है। मैंने बस यही कहा कि तुम बहुत साल बाद आए हो। शहर में बहुत
बड़ा काम-धंधा फैलाए हो। बड़े-बड़े होटल में खाए-पिए वाला हो तो उहे तरह बनाओ।’ खाना वाकई बहुत बढ़िया बना था। खीर तो इतनी
बढ़िया थी कि मुझे बोलना पड़ा कि ‘इतनी बढ़िया
खीर बहुत दिनों बाद खा रहा हूं।’ दो तरह
की कचौड़ी, पूड़ी, दही बड़ा, कटहल का कोफ़्ता, पुलाव और
सलाद सब जिस तरह काट कर बनाए गए थे वह तारीफ के काबिल थे।
आखिर मैंने पूछ लिया ‘सूरज की बीवी कितना पढ़ी लिखी है। कहां की है?’ तो बिल्लो ने बताया कि ‘है तो यहीं जंघई की। दोनों का कई साल पहले
पता नहीं कहां कैसे मिलना-जुलना हुआ। जब पता चला तो दोनों ऐसा कर चुके थे कि आफ़त खड़ी
हो गई। आनन-फानन में शादी का ड्रामा पूरा करना पड़ा। इसके मां-बाप ऐसा परेशान थे कि
पूछो मत। महतारी मार अंड-बंड बोले जाए। कहे तुम्हारे ‘‘भतीजे ने मेरी लड़की फंसा ली। मोढ़ लिया,लूट लिया उसको। कहीं का नहीं छोड़ा। अब बताओ
कहां ले जाएं उसको?’’
मैंने कहा ‘आज-कल तो
लड़के-लड़कियों का मिलना-जुलना तो मामूली क्या कोई बात ही नहीं है। फिर इतनी आफ़त वाली
बात कहां थी?’ तो बिल्लो ने कहा
‘नहीं भइया ई दोनों तो आफ़त वाला ही
काम किए थे। शादी के बाद सतवें महीना में तो महतारी-बाप बन गए। कोउनो तरह लडका होए
के पहले एक रिश्तेदार के यहां रखके मामला संभाले की कोशिश की गई। मगर ई दुनिया इस तरह
की बातें हज़ार तहों में छिपी हो तब भी सूंघ ही लेती है। तो यही हाल यहां भी हुआ।
कोई मजाक में तो कोई किसी तरह कोंचने, ताना मारने से बाज ना जाता। तुम जनतै हो
कि हम ई तरह की नौटंकी जादा बरदाश्त नहीं कर पाइत। एइसे एक दिन यहीं की पट्टीदारी में
कुछ काम-धाम रहा। वहीं कई जने मिल के मजाक-मजाक में हमें उधेड़े शुरू किहिन तो हमहूं
सोचेन बहुत हुआ तमाशा। रोज-रोज की नौटंकी आज खत्म। फिर चिल्ला कर कहा। सुना हो पंचयती
लोगन, भतीजा हमार कुछ
भी गलत नहीं किए है। ना ऊ लड़की। जब दोनों एक दूसरे का चाहत रहेन तो प्यार करिहैं, मिलिहें कि एक दूसरे की आरती उतरिहें। जो
किए अच्छा किए। बच्चा आई गा पेट में तब्बो दोनों चोरन, छिनारन के तरह छोड़ के भागे नहीं। छाती ठोंक
के कहा बच्चा भी पैदा करेंगे, शादी भी
करेंगे । दोनों के घरौ वाला चोरन की नाई मुंह नहीं छिपाएन।
अपने बच्चन
का भविष्य गंवारन, जाहिलन की तरह बर्बाद
नहीं किया। उन्हें खुशी दी। उन्हें खोखली नाक के चक्कर में मार-काट के कुंआ में नाहीं
फेंका। अरे हम खुश हैं तो दुनिया की छाती पर काहे सांप लोट रहा है। अरे आपन-आपन देखो
सब जने। मुंह छिपा-छिपा के कऊन-कऊन छिनारपन कई रहा है। कहां-कहां गोपलउअल (अवैध संबंध
जीना) कई रहा है, सब मालूम बा। और
कान खोल के सुनले दुनिया कि कोउनो दहिजार (दाढ़ीजार) हमरे परिवार की तरफ करिया आंखी
(बुरी नजर) से देखिस तो जान ले। भतीजा तो बाद में आई पहिले हमहि इहे हाथन से बोटी-बोटी
बाल नाउब (टुकड़े कर देना)।’ बिल्लो
पूरे ताव में बोले जा रही थी। और मैं उसे एकटक देख रहा था। मुझे ऐसे देखते पाकर वह
संभली। बोली। ‘तुमहू सोचत होइहो
कि ई बिल्लोइया कईसे फटाफट गाली बके जात बा।’
मैंने मुस्कुराकर कहा ‘नहीं, मैं देखने की, समझने की
कोशिश कर रहा था कि मेरे बचपन की बिल्लो से ये बिल्लो और कितनी ज़्यादा तेज़़ तर्रार, समझदार, सफल और.....।’ बिल्लो
ने मुझे ‘और’ शब्द पर ठहर जाने पर बड़ी शरारत भरी दृष्टि
से देखा तो मैं आगे बोला ‘शायद मैं
सही शब्द नहीं दे पा रहा हूं।’ तो उसने प्रश्न- भरी दृष्टि से देखते हुए
कहा ‘और दबंग भी।’ तब मैंने भी आवाज़ में शरारत घोलते हुए और
आगे जोड़ा ‘तीखी भी।’ मेरे इतना कहते ही वह ठठा कर हंस पड़ी। फिर
बोली ‘अब काहे की तीखी, और है भी कौन यहां इसकी अहमियत समझने वाला।
अच्छा ई बताओ, हममें कौन सा तीखापन
देख लिए हो?’
अब तक हम दोनों खाना
खत्म कर चुके थे। बिल्लो अंदर के कमरों के दरवाजे बंद कर अंदर आते हुए पूछ रही थी।
तभी मैं गौर से उसे देखता हुआ उठा,निसंकोच
उसकी हथेलियों को पकड़ कर ऊपर उठाया, फिर जेब
से उसका खास गिफ़्ट निकाल कर उसकी हथेली पर रखा और मुठ्ठी बंद कर दी। फिर उसकी आँखों
की गहराई में झांकते हुए कहा ‘मेरे बचपन
की अल्हड़, चंचल ,तीखी बिल्लो के लिए वही बचपन वाला मीठा सा
गिफ़्ट।’ बिल्लो एकदम शांत
रही।
चेहरा ऊपर कर मेरी आंखों में देखती रही कुछ क्षण, फिर नीचे नजर कर हथेली को खोल कर मेरा गिफ़्ट
देखा, उसके चेहरे पर फिर
मुस्कान आ गई। बोली। ‘तुमने वाकई
मुझे इस समय फिर बचपन की बिल्लो बना दिया। तुम्हारी इस चॉकलेट का मैं तब हर गर्मी, सर्दी की छुट्टी में इंतजार करती थी। और
बाद में उस निठल्ले अपने पति के यहां से जब लौटी तो उसके बाद तो अपनी ही सुध नहीं रही।
मगर जब तुम्हें देखा तो फिर इस गिफ्ट का इंतजार करने लगी थी। मगर तब तक स्थिति इतनी
बदल चुकी थी कि तुम मेरे पास आ नहीं पाते थे। या ई कही कि हम दोनों नहीं आ पाते थे।
मैं तुम्हें देखती थी कि तुम मिलने की कोशिश में घर के आस-पास आते थे। हमारी भी इच्छा
होती थी, लेकिन क़दम बढ़ नाहीं
पाते थे।’
बिल्लो की आंखें भर आई थीं। मैंने उसके हाथों से चॉकलेट
लेकर अपने हाथों से उसे खिलाई। फिर उसे उसके तखत पर बैठा दिया। तभी एक टुकड़ा उसने मेरे
मुंह में भी डाल दिया। हम दोनों तब तक बिल्कुल अपने बचपन को ही जी रहे थे। इसमें चॉकलेट
ने भी बड़ा रोल प्ले किया। हुआ यह कि हड़बड़ी में दिमाग में यह बात आई ही नहीं कि जौनपुर
से बिल्लो के पास पहुंचने तक इतनी तेज़ गर्मी में चॉकलेट बहुत ज़्यादा सॉफ्ट ,गीली सी हो जाएगी। जब खोली तब समझ में आया।
अपनी मूर्खता पर हंसी आई।
गीली चॉकलेट हम दोनों
के होंठो और हाथों में लग रही थी। तभी चॉकलेट का एक विज्ञापन आंखों के सामने कौंध गया।
जिसमें सीढ़ियों पर बैठे किशोर-किशोरी एक नई तरह की गीली सी आई चॉकलेट एक दूसरे को खिला
रहे हैं। और वह उनके मुंह-हाथों में फैली हुई है। लेकिन मैं भीतर ही भीतर यह सोच कर
परेशान हो रहा था कि यह मेरी बचपन को फिर से जीने की कोशिश कहीं बचकानी हरकत वाला तुफान
ना खड़ा कर दे। बिल्लो कहीं नाराज ना हो जाए। कोई आफत ना खड़ी हो जाए।
बचपन में इससे इस तरह व्यवहार करना, पकड़ना, छूना और बात थी। अब यह शादी-शुदा है। मेरा भी परिवार है। ना
जाने कितने बरसों बाद मिला हूं। और यह सब, कहीं कोई
तमाशा हो गया तो ... मान लो मैं बच बचा के घर चला गया। लेकिन यह तो यहीं रहेगी। दुनिया
इसका जीना हराम कर देगी। यह लाख दबंग हो, सबकी नाक
में नकेल डाल रखी हो। लेकिन एक साथ सब की नकेल कहां कस पाएगी। मैंने एक गिलास पानी
बिल्लो को देते हुए पूछा-‘बिल्लो
मैं बचपन की याद करते-करते एकदम बच्चा बन गया। बचकानी हरकत कर डाली। तुम्हारा हाथ इस
तरह पकड़ लिया, चॉकलेट खिलाई। तुम्हें
बुरा तो नहीं लगा।’
मेरी इस बात
पर बिल्लो हंस दी। बोली। ‘सच कहूं
तुम सही में बचपन जी रहे हो। इसी लिए ऐसी बचकानी बात कर रहे हो। तुमने जो कुछ भी किया
उसमें मुझे कोई छिछोरापन नहीं दिखाई दिया। ना महसूस हुआ, तुम्हारी पकड़ में ऐसी कोई भावना नाहीं थी
जिसमें मुझे कोई खोट महसूस हुई हो।’
‘हूं... फिर क्या दिखा, महसूस हुआ।’ ‘देखो इतना
पढ़ी-लिखी तो हम हैं नहीं कि तुम्हारी ऐसी बातन का कोई भारी भरकम जवाब दई सकी। लेकिन
हम महसूस यही किए कि जैसे तुम बचपन में बड़ा निसंकोच होकर एक दोस्त की तरह हाथ पकड़ कर
टॅाफी वगैरह देते थे। बिल्कुल वही भाव इस समय भी था। और कुछ तो हमरे समझ में आवा नाहीं।
अब तुम्हारे मन में कुछ और रहा हो तो बताओ साफ-साफ।’ बिल्लो की बातें बड़ी साफ बड़ी निष्कलुष थीं। मैंने कहा ‘बिल्लो यही सही है। जो तुमने बताया लेकिन
बचपन में मेरे मन में क्या कुछ और भी नहीं हो सकता था?’ बिल्लो ने कहा ‘अब जो जाना था,समझा था,बता दिया। कुछ और रहा हो तो बताओ ना। अब तो सब कुछ बदल गया है।
सारा समय कहां का कहां निकल गया है। संकोच करे की कऊनों जरूरत नाहीं है।’
मैंने कहा ‘हां ये
सच कह रही हो। अच्छा तो सच सुनो। जब कुछ और समय बीता तो तुमसे जब मिलता तो फिर हटने
का मन ना करता। मन करता कि तुम बोलती रहो। मैं तुम्हारे चेहरे को देखता रहूं। तुम्हारी
आंखें मुझे इतनी अच्छी लगतीं कि उन पर से नजर हटाने का मन ना करता। बार-बार तुम्हें
छूने का मन करता। जब छुट्टी खत्म होने पर वापस जाने का समय होता तो मन करता कि तुम्हें
भी साथ लेता चलूं। वहां पहुंच कर कई दिन बड़ा उदास रहता। मगर सब समझते कि गांव में मन
लग गया और वापस आने से परेशान हूं। वहां मैं बार-बार तुम्हारी आंखें क़ाग़ज़ पर बनाने
की कोशिश करता। मैं यह कहते-कहते काफी गंभीर हो गया था।’
तभी बिल्लो बोली ‘अरे हमें तो आज पता चल रहा ई सब। फिर खाली
आंखें ही बनाते रहे या..? ’ बिल्लो
भी यह कहते-कहते गंभीर हुई थी।
मैंने कहा ड्रॉइंग मेरी
बड़ी खराब थी। आंखें भी मुश्किल से ही बना पाता था। कुछ सीखने की भी कोशिश की। लेकिन
सब बेकार। जानती हो एक बार ऐसा भी हुआ जब मैं तुम्हारे लिए बहुत रोया।’‘क्या?’‘हां बिल्लो।’ ‘अच्छा!
मगर काहे। कब?’
‘जब सुना कि तुम्हारी
शादी हो गई।’ ‘तो इसमें रोने वाली
कऊन बात थी?’
बिल्लो सब जानते-समझते
हुए भी यह पूछ रही थी। दरअसल वह मेरे मुंह से सब सुनना चाह रही थी। तो कुछ देर उसे
देखने के बाद मैंने कहा ‘वो इसलिए
कि उन कई सालों में मिलते-जुलते तुमसे इतना लगाव हो गया था कि..... कि मैं तुमसे शादी
करने की बात सोचने लगा था। मैंने तय कर लिया था कि शादी तुम्हीं से करूंगा।’
यह सुनते ही बिल्लो
हंस पड़ी। बोली ‘बहुत भोले हो तुम।
इतना कहे में ज़िन्दगी बिता दिए। मतलब की शादी व्याह की ज़िंदगी। अब तो तुम्हारे बच्चे
भी शादी वाले हो रहे होंगे।’
‘बिल्लो मुझे क्या
मालूम था कि तुम्हारी शादी आनन-फानन में कर दी जाएगी। मैं तो यही सोचे बैठा था कि अभी
तो पढ़ोगी-लिखोगी। तब कहीं शादी होगी। तब- तक मैं भी पढ़-लिख कर नौकरी करने लगूंगा। तब
अम्मा से कहूंगा कि मेरी शादी तुमसे करा दें। मगर अचानक ही पता चला कि तुम्हारी शादी
हो गई। संयोग से उस बार हम लोग आ नहीं पाए थे। और जब आया तो सीधे तुम्हारे घर पहुंचा।
वहां तुम्हें मां के साथ देखा तो तुम अपने हाथों से...।’
‘हां तब हम अपने को अपने हाथों से विधवा बना
चुकी थी। बैठी रो रही थी। अपने वैधव्य पर नहीं,
अपनी किस्मत पर भी नाहीं। बल्कि हमरे साथ मां-बाप, समाज ने जो अन्याय किया था उसको लेकर।’
बिल्लो यह कहते-कहते बड़ी भावुक हो गई। और कुछ देर चुप रह कर
बोली ‘जब तुम इतना निष्कपट
होकर, इतना सच बोल दिए
हो तो हम भी सच कह रहे हैं। अब तो सब कहने भर का ही रह गया है। जैसे तुम मुझ से बातें
करते रहना चाहते थे। देखते रहना और छूना चाहते थे। वैसे ही मैं भी चाहती थी। मैं भी
तुमसे ही शादी करना चाहती थी। जैसे तुम यहां से जाने के बाद उदास रहते थे। रोते थे।
वैसे ही मैं भी जब भी अकेले बैठती, रहती तो
तुम्हारे ही बारे में सोचती। कई बार तो तुम्हें सपनों में भी देखती। मगर किसी से मन
की बात कह ना पाती।
तुम तो जानते ही हो
कि हमारा स्वभाव ऐसा था कि किसी को अपनी अंतरंग सहेली भी नहीं बना पाई। जब शादी की
बात आई तो बार-बार मन में आया कि अम्मा-बाबू से कहूं मन की बात लेकिन तुम लोग पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन में इतना आगे थे कि हिम्मत ही ना
पड़ी। इसी से सब अपने मन की करते रहे और मैं विवश हो देखती रही। किससे क्या कहती? मेरी सुनने वाला कोई था ही नहीं। फिर अचानक
ही शादी कर दी गई।
शादी कितने दिन चली सब जानते ही हो। और उस दिन जब शादी
के नाम पर अपने साथ हुए अन्याय का जवाब दे रही थी तो तुम्हें देख कर लगा कि भगवान मैंने
क्या पाप किया था जो मुझे यह सजा दी। कुछ सालों बाद जब तुम आते तो मन में आता कि सब
बात तुम से कहूं। मगर हिम्मत ना जुटा पाई। फिर तुम्हारे चच्चा ने घर में जो आफत मचाई
उससे तुम लोगों ने आना ही छोड़ दिया। जल्दी ही मैं निराश हो गई। और फिर परिस्थितियों
ने मुझे यहां पहुंचा दिया। और अब इस दुनिया से निकलना जीते जी संभव ही नही है। कल अचानक
ही तुम ऐसे सामने आ गए.. कुछ देर तो हम समझ ही नहीं पाए कि क्या बोलें? क्या कहें?
अब बात तो यह भी है कि कुछ सुनने-कहने के लिए बचा ही
क्या है? तुम खेत बेचने आए
हो। बेच कर जाने के बाद फिर यहां कहां आओगे?
मतलब की हम लोगों का यह आखिरी मिलना बतियाना है, तो मन कर रहा है कि जितना बोल-बतिया सकें, बतिया लें।’ यह कह कर बिल्लो प्रश्नानुकूल सी एकटक मुझे
देखने लगी। मुझे लगा कि यह बात तो सही कह रही है। खेत बेचने के बाद यहां आने का कोई
कारण ही कहां बचता है।
मैंने कहा ‘बात तो तुम सही कह रही हो। लेकिन अब तो अपनी
मनमर्जी की मालिक हो। फ़ोन पर तो जब चाहो बात कर ही सकती हो। रही बात मिलने की तो घूमने-फिरने
‘सूरत’ आ सकती हो। मैं भी इसी तरह आ सकता हूं। इसके
लिए जरूरी तो नहीं कि खेत या ऐसा कुछ हो तभी मिलें। मिलने के लिए तो बस मन में इच्छा
ही काफी है।’
इस मुद्दे पर बड़ी-बड़ी बातों के बाद बिल्लो गर्मी कम होने
के बाद ‘सूरत’ आने को तैयार हो गई। मुझसे हर साल कम से
कम चार बार गांव आने का वादा कराने के बाद। इस बीच बिल्लो ने अपने आदमियों को बोल कर
जीप मकान के पीछे अहाते में खड़ी करा दी। खाना खाने के बाद काफी देर हो गई थी। मेरा
मन सिगरेट पीने का हो रहा था। मैंने बिल्लो से कहा कि ‘मैं बाहर सिगरेट पीकर आता हूं।’
बिल्लो ने कहा ‘इतनी रात बाहर टहलना ठीक नहीं। सिगरेट जितनी
पीनी है यहीं पियो ना।’ मैं जब
एक दिन पहले बिल्लो से मिला था तभी से देख रहा था कि वह बराबर पान-मसाला मुंह में दबाए
हुए थी। मुझसे भी कई बार पूछा था लेकिन मैंने मना कर दिया था कि मैं नहीं खाता।
उसने मुझे सिगरेट के लिए कहकर फिर एक पुड़िया किनारे से फाड़कर
मुंह में भर ली। फिर एक छोटी पुड़िया निकाली जिसमें सिर्फ़ तंबाकू थी उसे भी मुंह में
डाल लिया। पुड़िया खोलने और उसे मुंह में डालने की स्टाइल से लग रहा था कि वह बरसों-बरस
से खाती आ रही है। और अन्य करोड़ों देशवासियों की तरह वह भी अपने देश के कानून की, न्यायालय की खिल्ली उड़ाती आ रही है।
न्यायालय ने तंबाकू गुटखा बंद किया तो कंपनियों ने तुरंत
रास्ता निकाल लिया कि ठीक है तंबाकू गुटखा बंद। दोनों को अलग-अलग पैक कर दिया। अब खाने
वाले अलग-अलग खरीद कर मुंह में एक साथ भर लेते हैं। मैंने पूछा ‘बिल्लो कब से खा रही हो यह सब?’ तो उसने मुस्कुराते हुए कहा ‘अरे,
अब याद नहीं। पहले अम्मा पान खाती रहीं,
उन्हीं के पनडब्बा से कभी-कभी खाना खाने के बाद पान निकाल कर खा लिया करती थी।
बस ऐसे ही पड़ गई़ पान- तंबाकू की आदत।’ ‘हूं...
अम्मा पान खाती थीं तो पान की आदत पड़ गई। और तुम्हारे बाबू जी को मैंने हुक्का और सिगरेट
पीते भी देखता था। तो कभी वहां भी तो हाथ साफ नहीं किया।’ बिल्लो फिर हंस पड़ी। बोली ‘अब क्या बताएं। कोई मुझसे बात तो करता नहीं
था। ऊपर से सुना-सुना कर ताने अलग मारे जाते थे।
ऐसे में खीझती। काम धंधा भी कुछ था नहीं तो मन एकदम बौराया
रहता था। एकदम बौराई औरत सी हरकत करती। जानबूझ कर ऐसी हरकतें करती कि कोई तो मुझसे
कुछ बोले। भले ही गाली दे। सबसे ज़्यादा मुझे खलता अम्मा का ना बोलना। मैं दिखा-दिखा
कर अंड-बंड हरकत करती। ऐसे ही एक दिन बाबू जी ने हुक्का भरा। जलाया। कि तभी प्रधान
आ गया। बाहर से आवाज़ आई तो बाबू जी बाहर गए। फिर पता नहीं क्या बात हुई कि उसी की मोटर
साइकिल पर उसी के साथ कहीं चले गए। अम्मा उस समय चौका लीप रही थीं। उनकी चुप्पी ने
मुझे और खिझाया। मैंने फिर अपनी खीझ उतारने,
वो कुछ बोलें इसके लिए उन्हें दिखाकर हुक्के का लंबा पाइप जो बाबू जी खटिया में
फंसा कर गए थे उसे निकाला और मुंह में लगाकर जोर से खींचा।
पूरा मुंह तीखे
कसैले धुएं से भर गया। और फिर ज़ोर से खांसी आने लगी। मुंह, नाक से धुंआ निकल रहा था। खांसते-खांसते
उबकाई सी आने लगी। ऐसा लगा कि उल्टी हो जाएगी। मैं इस हालत में भी अम्मा पर नजर लगाए
हुए थी कि वो कुछ बोल रही हैं कि नहीं। उन्होंने हुक्का पीते देखा कि नहीं। तब मैंने
अंदर-अंदर बड़ी राहत महसूस की जब मुझे हुक्का पीते देख कर आग बाबूला होते हुए कहा ‘‘अरे हरामजादी औऊर कुछ बचा होए वहू कयि ले।
अरे अब औऊर केतना नाक बोरबे। जीते जी खून पियत हऊ। देखाए-देखाए के खून जलावत हऊ’’ तभी मैंने फिर एक लंबा कश खींचा। फिर खांसी
का दौरा।
अब अम्मा आपा खो बैठीं, उनके पास ही लोटा पड़ा था वही फेंक कर मारा।
वह मुझे नहीं लगा तो उनका गुस्सा और बढ़ गया। उन्हीं के पास एक मौनी (मूँज की बनी कटोरी
नुमा डलिया) पड़ी थी उसे फेंक कर मारा। इस बार भी मेरा बचना था कि अम्मा लीपना-पोतना
छोड़कर उठ खड़ी हुईं। सामने उनके झाड़ू पड़ी थी वही उठाकर जमकर झड़ुवा दिया। मन भर के गाली
दी, कोसा।
झाड़ूओं की चोट से मुझे
दर्द हो रहा था। फिर भी मैं अजीब सी राहत महसूस कर रही थी। कि अम्मा बोलीं तो। मैं
तब इतना जिद में आ गई थी कि इतनी मार खा कर भी वहां से हटी नहीं। अम्मा कोसतीं हुई
जा के दलान में बैठ गईं। और मैं वहीं आंसू बहाती, बैठी, खींच-खींच
हुक्का पीती रही। पान-तंबाकू खाती ही थी तो हुक्का ज़्यादा चढ़ा नहीं। अब जिद और चिढ़ाने
के लिए की गई यह शुरुआत आगे चल कर आदत बन गई।
मैं मुस्कुराते हुए
उसे कुछ देर देखने के बाद बोला ‘तो बस हुक्का
तक रही या सिगरेट वगैरह भी।’बिल्लो
फिर हंसी। ‘आगे बहुत साल बाद
मौके से सिगरेट मिल जाए तो वहू फंूक देइत रहे। मतलब सिगरेट, बीड़ी, पान, तंबाकू
जो मिल जाए सब हजम।’ ‘अब भी?’ ‘अब भी क्या,?’ ‘मतलब मन हो जाए तो आज भी?’ ‘हां अब भी मगर अब शुरुआती आठ-दस साल की तरह
अंधाधुंध नहीं। कभी कभार हो गया तो हो गया।’
‘अच्छा..। मतलब की अपने हसबैंड की हरकतों
का बदला भड़ास इस तरह निकालती थी।’
‘बदला-वदला तो नहीं।
हमें खाली गुस्सा ये आती थी घर वालों पर कि चलो शादी जैसी भी हुई। जहां भाग्य था सब
हो गया। हमें कोई शौक तो लगा नहीं था कि अपना वैवाहिक जीवन खुद अपने हाथों खत्म करती।
लेकिन बात तो ये है ना कि दूध में मक्खी देखकर तो नहीं निगली जा सकती ना। हमने सोचा
चलो जैसे चलेगी वैसे चला लेंगे। घर वाले तो हैं ही। मगर यहां घर पर मेरे साथ जो हुआ
हुआ। जिस तरह सब का व्यवहार बदला उससे मैं खुद गुस्से से भर उठी। बल्कि कहें कि नफरत
से। मैंने तो सोचा ही नहीं था कि मां-बाप ऐसा बदलेंगे। मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा था
इन लोगों के व्यवहार से। सोचा कि जिस मायके के दम पर मैंने इतना बड़ा कदम उठाया, वो लोग तो देखना ही नहीं चाह रहे। हर तरफ
से दुत्कारी हुई महसूस करने लगी।
मुझे लगा कि मैं पेड़ से टूट कर गिरी पत्ती की तरह बेसहारा
हो गई हूं। जो राह चलते लोगों के क़दमों तले कुचल-कुचल कर खत्म हो जाएगी। जिस दिन मैंने
तय किया कि मैं जमीन पर बेसहारा होकर गिरी पत्ती नहीं हूं। मां-बाप परिवार सहारा नहीं
देना चाहते हैं तो ना दें। मुझे नहीं जरूरत किसी के सहारे की। मैं अपना सहारा खुद बनूंगी।
जब मैं मन में यह तय कर रही थी तब मैं कई दिनों से भूखी थी। ना मैं खाना मांगती थी।
ना कोई मुझसे पूछता था। भूख के मारे पानी भी नहीं पिया जाता था, उबकायी सी आने लगती। मगर खुद अपना सहारा
बनने का फैसला करते ही मैं सीधे रसोई में गई। पूरा परिवार खाना खा चुका था। एक भगोने
में थोड़ी सी सांवा की खिचड़ी थी वही निकाली। मटके में गुड़ था वो निकाला, खाया तब कहीं जाकर जी में जी आया।
मगर भूख बड़ी तेज़ लगी थी। थोड़ा सांवा पेट नहीं भर सका। फिर मैंने
चूल्हा जलाकर आटा और गुड़ का ही हलवा बना का खाया। शक्कर थी नहीं। घी मिला नहीं तो तेल
में ही बनाया। बनाते समय चुल्हे का धुंआं बर्तन की आवाज़ सुनकर दलान से उठकर अम्मा आईं।
देखा, फिर चली गईं। मैंने
सोचा कि गुस्सा होंगी। लेकिन वो कुछ बोली नहीं। उनके चेहरे पर भी मुझे कोई गुस्सा नहीं
दिखा। शायद मां की ममता कुछ हुलस उठी थी। बस यही वह समय था जब मैंने खुद सहारा बनने
का जो क़दम बढ़ाया था उसे फिर रुकने नहीं दिया। आज जिस हालत में हूं, घमंड वाली बात नहीं करती, लेकिन आस-पास के किसी गांव में कोई नहीं
जो मेरी बराबरी क्या मेरे सामने खड़ा भी हो सके। मैं मर्दों की बात कर रही हूं। औरत
तो खैर कोई है ही नहीं।’
यह कहते समय बिल्लो के चेहरे पर मुझे घमंड तो वाकई नहीं
दिखा। हां गर्व की चमक साफ दिख रही थी। एल. ई. डी. बल्ब की उस सफेद रोशनी में भी। बिल्लो
ने एक पुराना वाला पीला बल्ब भी लगा रख था। उसका कहना था कि इसकी पीली रोशनी की आदत
एकदम से छूट नहीं पा रही है। इन्हीं पीली और सफेद रोशनी में उसके गर्व को देखते हुए
मैं उठा और बिल्लो के तखत के पास पहुंच कर सिगरेट की डिब्बी खोलकर उसकी ओर बढ़ा दी।
ऐसा करते समय मेरे मन में एक ही भावना थी कि यह भी इन चीजों की शौकीन रही है। ऐसे लोग
अकेले में भले ही इसकी तलब ना महसूस करें लेकिन सामने किसी को खाता-पीता देखकर मन उनका
भी मचल उठता है।
मैंने देखा कि बिल्लो ने भी मेरे ऐसा करने पर कोई आश्चर्य
जैसा भाव व्यक्त नहीं किया। बस इतना कहा ‘चॉकलेट
खिला के तो बचपन जी रहे थे। अब ई सिगरेट पिला के क्या जियोगे?’ इतना कह कर वह हंस दी। साथ ही एक सिगरेट
निकाल कर मुंह में लगा ली। मैंने तुरंत लाइटर से जला दिया। उसने एक बेहद लंबा कश खींच
कर ढेर सा धुआं मुंह थोड़ा ऊपर कर उड़ा दिया। मगर फिर भी मुझे लगा कि उसने काफी धुआं
अंदर ही खींच लिया। उसने जिस तरह कश खींचा उससे साफ लग रहा था कि वह हुक्का खूब पी
चुकी है। सिगरेट का कश खींचने में भी वही जोर दिखा था। पहला कश लेने के बाद उसने ‘सिगरेट देखते हुए कहा सिगरेट तो बड़ी बढ़िया
है। पहली बार पी रही हूं। यहां इतनी बढ़िया सिगरेट नहीं मिलती।’
मैंने कहा ‘हां इस
रेंज में गांव में मुश्किल ही है। यह जौनपुर में मिली। हालांकि मैं जो पीता हूं वह
वहां भी नहीं मिली।’ मैंने बिल्लो की
इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि सिगरेट पिला कर क्या जी रहा हूं। मैं पूरी तरह से
उसके हाव-भाव, काम बात को गहराई
तक समझने का प्रयास का रहा था कि यह मेरी वही भोली-भाली चंचल बिल्लो है या एक दबंग
गंवई महिला। या इसमें वह गुण भी हैं जिनके आधार पर मैं इसे लेडी डॉन कह सकता हूं।
मैं वापस अपने तखत पर
बैठ कर बोला ‘बिल्लो एक बात पूछना...
नहीं दो बात पूछना चाहता हूं। अगर तुम्हारी आज्ञा हो, तुम नाराज ना हो तो।’ मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने जो अगला कश
लेने जा रही थी वह रुक गई। बोली ‘कैसी बात
कर रहे हो। कुछ कहने के लिए तुमको मुझसे आज्ञा की जरूरत की बात कहां से आ गई। तुम तो
बड़ा गजब कर दिए। पूछो, एकदम बेहिचक
पूछो। दुनिया के लिए हम चाहे जो हों। तुम्हारे लिए तुम्हारी वही बचपन वाली बिल्लो ही
रहूंगी। और तुम भी मेरे लिए हमेशा वही रहोगे जो तब थे।’
बिल्लो की इस बात ने मुझे निश्चित कर दिया तो मैंने सीधे
से कहा बिल्लो मैं यहां यह समझ के रुका कि तुम्हारा भतीजा, परिवार यहां होंगे। मगर परिस्थितिवश वो सब
नहीं हैं। तुम यहां अकेले हो। ऐसे में मेरा यहां रुकना कहीं गांव में लोगों को ऊटपटांग
बोलने का मौका ना दे दे। मैं यही सोच-सोच कर परेशान हूं। तुम्हें अगर कहने में हिचक
हो रही हो तो बताओ। ऐसी कोई बात नहीं है। मैं चाचा के यहां चला जाऊंगा। वैसे भी वो
लोग यही चाहते हैं।’ मेरे इतना कहते
ही बिल्लो ने दाहिने हाथ की हथेली अपने माथे पर चट से मारी और बोली।
‘धत्त तेरे की। का
रे मरदवा, तू शहर वाले एतना
डरपोक काहे होत हैं। अरे हम औरत जात हैं। हमें कोई चिंता नाहीं! हमरे दिमाग में तो
ई बात आई तक नाहीं। अरे हमारे घर कोई आएगा तो हमारे यहां नहीं तो किसी और के यहां रुकेगा।
औऊर दूसरी बात कि यहां किसी की इतनी बिसात नाहीं है कि हमें, हमारे घर की तरफ भूल के भी आंख उठा के देख
ले। लांछन लगावे की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकता। हां तुम्हारा मन ना लग रहा हो
तो बताओ।’
मैंने तुरंत कहा ‘नहीं-नहीं, ऐसी बात
नहीं है। मैं बस तुमको लेकर ही परेशान हो रहा था। तुमने बात साफ कर दी। अब इस बारे
में कुछ सोचना ही नहीं।’ ‘चलो तोहार
डर तअ खतम भा और दूसरी कौन सी बात पूछे चाहत हो?‘ ‘दूसरी असल में कल से तुम्हारी लाइफ के बारे में जितना जाना उसके
बाद एक प्रश्न बार-बार मन में उठ रहा है। कि चलो पहली बार जो हुआ वो हुआ। बाद में तुम्हारे
मन में फिर दूसरी शादी के लिए इच्छा नहीं हुई। या तुम्हारे घर वालों ने कोई बात आगे
नहीं बढ़ाई।’
मेरी ये बात
सुनते ही बिल्लो हंस पड़ी। बोली ‘तुमहूं
का बात करत हो। देखो पहिला जो अनुभव रहा, उससे शादी, पति नाम से ही नफरत हो गई। दूसरे घर में
सबका व्यवहार ऐसा रहा कि मन में हमेशा गुस्सा भरा रहता। कभी-कभी तो मन करता कि बांका
उठाऊं औऊर जो मिल जाए सब को बाल (काट) डालूं। बाद में जब काम-धाम में मन लगने लगा तो
गुस्सा कम हुआ। फिर जब हाथ में पैसा आने लगा तो मन पैसा कमाने में रमता गया। इतना कि
नई-नई चीज करने लगी। कोहड़ौरी से शुरू करके आचार और फिर आगे बढ़ते गए। पैसों का हिसाब, काम-धाम देख के सब कहने लगे कि ये तो एकदम
बनिया हो गई है।
पैसा आने लगा तो घर की सूरत बदलने लगी। तब एक बार अम्मा
ने बात उठाई। वो चाहती थीं कि उसी कलमुंहे से बातचीत करकेे हम उसी के साथ हो लें। वो
हमसे बात करने से पहले बाबू को वहां भेजने के लिए तैयार कर चुकी थीं। जाने के एक दिन
पहले मुझसे ना जाने क्या सोच कर पूछ लिया। इतना सुनते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई।
कि मैं इतना बड़ा बोझ हूं कि एक बार किसी तरह उस नर्क, उस मौत के मुंह से निकल कर आई। ई मां-बाप
होके फिर वहीं भेज रहे हैं। अब तो हम इतना कमा रहे हैं। घर भर की रंगत बदल दी है फिर
भी हम इन सबके लिए भारू(बोझ) बने हैं।
हमने अम्मा-बाबू दोनों को खूब खरी-खोटी सुनाई। अम्मा
बोलीं ‘तू जब तक रहबे तब
तक घरै का नकिया झुकी रहे। अरे ज़िंदगी भर के राखै तोके। ई जऊन काम धंधा फाने हऊ ओसे
अऊर सब बोलत हैयन कि सब बिटिया के कमाई खात हयेन। कब तक काने में अंगुरि डारे बैइठी
रही।’ उस दिन घर में फिर
बवाल हुआ। हमने कहा ठीक है अब हम इस घर में रहेंगे ही नहीं।
उस दिन हम कुंआ के पास खटिया डाल के सोए। सब बहुत कोशिश
किए कि अंदर चल कर सोऊं। रात-विरात कुछ हो ना जाए। गांव वाले जानेंगे तो क्या कहेंगे? लेकिन हम नहीं माने, अगले दिन उसी कुंआ के पास पहला काम किए खटिया
डाले भर एक मड़ई तैयार कराए। घर खाना-पानी सब बंद कर दिया। भुजवा के हिआं से लइया, चना,
मकई का दाना, गुड़ बजारे से लाय
के कई दिन गुजारे। फिर आनन-फानन में दिवार खड़़ी करा कर टिन शेड डलवाया। इस बीच पूरे
घर ने जोर लगा लिया कि हम घर वापस चलें। लेकिन मैं शुरू से अपने जिद की पक्की ठहरी।
तो टस से मस नहीं हुई।
घर भर ने जबरदस्ती करने की कोशिश की तो मैंने कहा कि
‘अच्छा यही है सबके लिए कि अब हमें
रोकने की कोशिश ना करो। नहीं तो तुम सबका नाम लगाकर फांसी लगा लेंगे। या फिर थाने में
रिपोर्ट लिखा देंगे। मेरे आग से तेवर देखकर सब एकदम शांत हो गए। फिर मैंने अपने कदम
अपने हिसाब से आगे बढ़ाए। जैसे-जैसे सफलता मिलती गई। मेरे सपने भी बड़े होते गए। मैंने
अब तक जो कुछ पाया है वह दुनिया के लिए भले ही मामूली हों, छोटे हों, लेकिन मेरी नजर में बहुत खास हैं। बहुत बड़े हैं। मेरा अगला जो
सपना है उसे सुन कर शायद तुम भी चाैंक जाओ।’
उस की इस बात को सुनकर मैंने कहा ‘नहीं। तुम्हारे बारे में अब तक जितना जाना
है, उसके बाद तो कुछ
भी सुनकर नहीं चौंकुंगा। बताओ अगला सपना क्या है?’ तो बिल्लो बोली ‘पहिले एक
सिगरेट निकालौ तब बताउब।’ उसने ऐसे
अंदाज में यह कहा कि मुझे हंसी आ गई। मैंने फिर उठकर उसे सिगरेट दी और खुद भी जलाई।
दो तीन कश लेने के बाद बोली ‘सिगरेट
वाकई बड़ी अच्छी है।’ मैंने कहा मगर मुझे
लगता है कि तुम्हारे सपने से ज़्यादा तो नहीं होगी। वह मुस्कुराई। फिर बोली ‘यह तो तुम ही तय करना। मेरा सपना सांसद बनने
का है। मैं अगला चुनाव लड़ूंगी। पिछले कई सालों से मैं तैयारी में लगी हूं। मेरे इस
सपने के बारे में भतीजा उसकी बीवी के बाद तुम तीसरे व्यक्ति हो जिससे मैं अपनी योजना
पर विस्तार से बात कर रही हूं। इसलिए यही कहूंगी किसी और को नहीं बताना, शिखर को भी नहीं।’
मैंने किसी को ना बताने का वादा करते हुए कहा ‘मगर बिल्लो एम. पी. का चुनाव आसान नहीं है।
किसी बड़ी पार्टी से टिकट मिलने पर भी जीतना आसान नहीं होता। टिकट मिलना ही अपने-आप
में बड़ी टेढ़ी खीर है। महिलाओं के लिए तो यह खीर कई गुना ज़्यादा टेढ़ी होती है। बड़े
नेताओं द्वारा टिकट देने के नाम पर महिला नेताओं के यौन शोषण की ना जाने कितनी घटनाएं
सामने आती रहती हैं।’ बिल्लो
के चेहरे पर मेरी इस बात के साथ ही कठोरता भी आ गई। कुछ देर चुप रहने के बाद बोली।
‘जानती हूं। बहुत अच्छी तरह जानती
हूं। टिकट देने के लिए नेता औरत का शरीर ही नहीं नोचते अगर सिर्फ़ ऐसा होता तो आधी
टिकटें औरतों के पास हों। क्योंकि तमाम तो इसके लिए खुद ही बिछ जाती हैं। लेकिन नेता
शरीर के साथ-साथ नोटों की गड्डियां भी बक्सा भर मांगते हैं। औऊर हम दोनों के लिए तैयार
हैं’ बिल्लो की इस बात
ने मुझे जबरदस्त शॉक दिया।
मैंने चौंकते हुए कहा ‘क्या! बिल्लो टिकट के लिए पैसा तक तो समझ
में आता है। लेकिन इसके लिए तुम उन कमीने नेताओं के सामने अपने तन को भी डाल दो यह...।’ बिल्लो बीच में ही हंस पड़ी। बोली ‘बहुत अनाड़ी हो। बिल्लो को घंटा दो घंटा में
ही समझ लोगो। अरे बिल्लो जब जवानी में तन की आग को थामें रही। उसे कभी भभकने नहीं दिया।
किसी की छाया नहीं पड़ने दी तो अब ई चौवालीस-पैंतालीस की उमर में कहा भभकने दूंगी। कहां
किसी को छूने दूंगी।’
मैंने कहा ‘मैं तन की आग-वाग की बात नहीं कर रहा। टिकट
के लिए नेताओं के सामने...। ‘सुनो..सुनो
तुम गलत समझ रहे हो। हमारी बात तो पूरी सुनो।’
मैंने कहा ‘ठीक है बताओ।’ वह बोली ‘देखो मैं अपने को उनकेा सौंपने नहीं जा रही। पैसा तो देना है।
वह तो दूंगी। इसके साथ ही उनको औरत भी चाहिए तो वह भी दूंगी। मगर खुद को नहीं। उनको
औरत चाहिए, मिलेगी। मगर कोई
और होगी। जब बोरों में नोट दूंगी। तो उसी तरह थोड़े नोट और ढीले करूंगी। तो जितनी कहेंगे
उतनी औरतें उनके सामने डाल दूंगी।’
बिल्लो की बात
सुनकर मैं उसे आंखें फाड़ कर देखता रहा तो वह बोली ‘ऐइसे का देख रहे हो। अब तक ऐइसे-ऐइसे रास्तों से गुजरी हूं कि
अब बिना धोखा खाए किसी भी रास्ते से कैसे निकला जाए यह सब आ गया है।’ मैंने कहा ‘वो सब तो ठीक है, लेकिन कई बार तो यह भी होता है कि यह सब
करने के बाद भी टिकट ही नहीं मिलता। तब आदमी खास कर औरत कह भी नहीं पाती कि उसने कितना
दिया, क्या-क्या किया? बिल्लो ने कहा ‘हां इस बात का भी पता है।’ ‘तो इस समस्या का क्या हल निकालोगी? किसी पार्टी से कोई संपर्क हुआ क्या?’
‘जब बनने की सोची
तो समस्या का समाधान भी निकाला, और सबसे
मज़बूत पार्टी को भी साध रखा है।’ बिल्लो
की बातें जैसे-जैसे आगे बढ़ रहीं थीं वैसे-वैसे उसका सख्त रूप भी सामने आ रहा था। मुझे
लगा कि मैं जितना इसके बारे में समझता हूं। जितना अनुमान लगाता हूं यह उससे हर बार
चार क़दम आगे ही निकलती है। मैंने आखिर पूछ ही लिया समाधान, और पार्टी के बारे में तो उसने सबसे मजबूत
पार्टी का नाम लेते हुए कहा ‘जब शामिल
हुई इस पार्टी में अपनी ताकत का अहसास कराती हुई कि कितने लोग हैं हमारे साथ, तभी यह भी गारंटी ली कि मुझे टिकट चाहिए
ही चाहिए। फिर उस कर्ताधर्ता को टटोला जिसकी सबसे अहम भूमिका होगी टिकट वितरण में।
ऊपर से बड़ा साफ-सुथरा, बडा़ सख्त
दिखने वाले इस नेता को जब और ज़्यादा करीब से जानने के लिए कि टिकट के मामले में क्या-क्या
गुल खिलाएगा। किस-किस हद तक जाएगा तो उसकी स्वच्छ छवि, सफेद कपड़ों के पीछे उसकी गंधाती, बजबजाती काली छवि नजर आई।
दो चार मुलाकात ही हुई थी, कि असली चेहरा दिखाई दिया। लार टपकाते हुआ
जब मिमियाया, टिकट की दुहाई दी
तो मैंने कहा ‘आपको मैं गड्डियों
के भोग के साथ-साथ खूबसूरत जवान औरतों का भी भोग लगवाऊंगी। मुझ बुढ़िया में क्या रखा
है? दबाव उसने बहुत
बनाया लेकिन हमने किया वही जो तय किया था। कुछ ही दिन बाद वह प्रदेश प्रभारी के नाते
बनारस पहुंचा। मैं वहीं जाकर फिर मिली। वह मिलते ही भुनभुनाया ‘‘तुमने धोखा दिया। भूल जाओ टिकट-विकट।’’ मैंने उसे मन ही मन गाली दी कि अरे नसपिटऊ, दहिजरऊ एतना खर्च करे के बाद कैइसे भूल जाई, कैसे छोड़ि देई तोंहैं। मैंनेे तुरंत कहा
‘नहीं, ऐसा नहीं है। मैं जौनपुर से यहां आपके लिए
सारी व्यवस्था कर के ही आई हूं।’ इतना कहना
था कि उसकी बांछें खिल गईं।
मगर था वह बहुत शातिर। जिस होटल में था वहां तैयार नहीं
हुआ। फिर एक दूसरी जगह व्यवस्था की। वहीं जब शरऊ दारू और लौंडिया के नशा में पगलाए
हुए थे तो उसकी पिक्चर भी बनवा लिए। जब वो मुझसे ये सब बतिया रहा था तो मोबाइल की रिंकॉर्डिंग
ऑन करके अपने ब्लाउज में छिपाए रहै। बड़ा मुंह डाल कर बात कर रहा था। हमने कहा डाल जितना
मुंह डालेगा उतना अच्छा रिकॉर्ड होगा।
ऐसे ही सात-आठ बार की उसकी कुंडली बनाए के रखे हई। टिकट
देते समय ऊ तनको एहर-ओहर हिलेन तो हम उन्हीं के नहीं ई प्रदेश में उनकी पार्टियो की
भी जिंदगी बरबाद कर देंगे। सारा खेल बिगाड़ के रख देब। बस ई टीवी चैनल वालन को एक-एक
ठो डी.वी.डी. भेजना भर रहेगा। बाकी काम तो ई चैनल वाले हफ्तों चीख-चीख के खुदै इनकी
दोगली सफेदी उतार देंगे।
रहा हमारा टिकट तो उस समय हमें उसकी जरूरत ही नहीं रहेगी। निर्दलीय
लड़ेंगे। मुद्दे को भुनाएंगे कि ई सब महिलाओं के शोषक हैं। एक बेसहारा औरत का शोषण करने
की कोशिश की। औरतों को अपने स्वाभिमान, इज्जत, अपने अधिकारों के लिए खुद ही लड़ना होगा।
सारे मर्द एक से हैं। सारी पार्टियां एक सी हैं। ऐसे ना पूरा सही अगर महिलाओं का आधा
वोट भी खींच लाए तो हमारी जीत पक्की है। पूरे क्षेत्र की वोटर लिस्ट हम खंगाल चुके
हैं। हमें अपनी गणित पर पक्का भरोसा है। जीतेंगे जरूर।’
इतना कह कर बिल्लो ने लंबा कश लेकर बहुत सा धुंआ उगल
दिया और काफी कुछ को अंदर ही जज्ब कर लिया। इसके उलट वो बातें एक भी जज्ब नहीं कर रही
थी। उसके इस रहस्योद्घाटन ने मुझे फिर अचंभित किया। कि आखिर ये औरत है क्या? ये कहां से कहां पहुंच गई है? क्या-क्या कर चुकी है? मैं बड़े आश्चर्य से उसे देख रहा था। मुझे
इस बात का सबसे ज़्यादा आश्चर्य था कि महिला के नाते इसने इतनी परेशानियों का सामना
किया है लेकिन फिर भी एक महिला होकर अपने टारगेट को पाने के लिए महिला ही को साधन बना
रही है। उसी का सेक्सुअल हैरेसमेंट करवा रही है।
मेरा मुंह आधा खुला हुआ था। मुझे इस तरह देख कर वह खिलखिलाई
‘का हो ऐइसे का देख रहे हो?’ मैं आश्चर्य भाव से वापस लौटा। पूछा ‘बिल्लो वाकई दुनिया ही नहीं, तुम भी, हम भी, सब कहां
से कहां पहुंच गए हैं। ये नेता, होटल, औरतों का इंतजाम, रिकॉर्डिंंग वह भी वाराणसी में। यह सब तुमने
कहां से सीखा? कैसे कर ले रही
हो यह सब?’ ‘तुमहूं का बात करत
हो। ई सब आज कल कऊन बड़ा काम है।’ फिर बिल्लो
ने भतीजे के योगदान का जिक्र किया।
कहा ‘औरत-फौरत
का इंतजाम वही के सहारे है। मैं बताती रहती हूं, वह वैसा ही करता रहता है। उसे मैं अपने अनुभवों से इतना तैयार
कर देना चाहती हूं कि वो भी एक दिन सांसद का चुनाव लड़ने लायक हो सके। पहले उसको विधायक
बनाऊंगी। काहे से हमने देखा कि ई पढ़ने-लिखने में कुछ खास है नहीं। बी.ए., एम. ए. करने इंजीनियरिंग, डॉक्टरी का कोई फायदा नहीं। बेरोजगारी के
इस युग में नौकरी कहीं है ही नहीं। नौकरी वही पा पा रहे हैं जो पढ़े लिखे मां विरले
हैं। बाकी तुम देख ही रहे हो कि पी. एच. डी. किए लोग सफाई कर्मी के लिए परीक्षा दे
रहे हैं।
महाराष्ट्र में एक पी. एच. डी. किए सफाई कर्मी को ट्रांसफर के
मुद्दे पर बर्खास्त कर दिया। अखबार में फोटो सहित पढ़ा था। तो हमने कहा काम धंधा करो, चुनाव लड़ो अब यही बचा है। मैं जहां सांसदी
का अगला चुनाव लड़ूंगी वहीं भतीजा विधायकी का चुनाव लड़ेगा। मगर ई जो एक साल बाद होए
वाला है इसको छोड़ कर। इसके बाद वाला यानी छः साल बाद। हम साफ कह दिए हैं तब तक जै लड़का-बच्चा
पैदा करे का हो कर लो। राजनीति में आए के बाद लड़का-बच्चा के चक्कर में कमजोर ना पड़
जाओ।’
मैंने कहा ‘वाह बिल्लो, बड़ा लंबा, दूरगामी प्रोग्राम बनाया है। मगर इस रास्ते पर आज कल तो बड़े
खतरे हैं। कैसे निपटोगी?’ ‘जैसे बाकी
चीजों से निपटती आ रही हूं, वैसे ही यहू से निपट लेब। मैं हर तरह से
तैयारी कर रही हूं। और करवा भी रही हूं।’ टारगेट
को लेकर औरतों को यूज करने, भतीजे से
सारा इंतजाम कराने की बात मुझे बहुत पिंच कर रही थी कि यह गंवई दुनिया की होकर भतीजे
से इस बारे में कैसे बात करती है।
उसकी बीवी एतराज नहीं करती क्या ? मैंने पूछा तो हंस कर बोली ‘शहर के होके तुम भी कैसी बात कर रहे हो? रिश्तों का चाबुक हमने बहुत सहा है। भतीजा
उसकी बीवी और हम एक दोस्त की तरह बतियातें हैं। सब मिलके तय करते हैं। सब खुल कर बतियातें
हैं तो कोई बात छिपाते-लुकाते नहीं। वो तुम लोग का कहते हो कि पूरी पारदर्शिता बनाए
रखते हैं।’ कह कर हंस दी। मैं
भी हंसता हुआ उसे देखता रहा।
मैंने सोचा यह जितना
बता रही है। जितना मैं देख रहा हूं, उस हिसाब
से इस एरिया में गिने-चुने ही इसके सामने टिक पाते हैं। खेत बेचने की ज़िम्मेदारी रिश्तेदार
के बजाय इसी को दे दूं। मैंने बात बढ़ाई। उसके ऐलोवेरा की खेती का भी प्रसंग उठाया तो
वह कुछ देर बाद बोली ‘देखो मैं
तो यही कहूंगी कि खेत बेचो ही नहीं। इससे जन्मभूमि से रिश्ता बना रहेगा। आते-जाते रहोगे।
अरे घूमने-फिरने जाते ही रहते हो। परिवार को लेकर एक बार यहां भी आ जाया करो। रही बात
पैसों की तो यही कहूंगी कि बेच कर एक बार पैसा पाओगे खत्म कर दोगे। ऐसे हर साल बढ़िया
पैसा मिलेगा। खेत की कीमत दिन पर दिन बढ़ेगी ही। दोहरा फायदा है। हां अगर बेचना तय कर
लिया है तो ठीक है मैं करा दूंगी।’
बिल्लो की बात में मुझे दम नजर आया। दूसरी बात कि बिल्लो मुझे
बराबर इतना मोहे जा रही थी कि मेरे मन के किसी कोने में यह बात उठ रही थी कि अगर कोई
जरिया यहां आने का बन जाए तो अच्छा ही है। शिखर भी कह रहा था कि यहां से चला जाएगा।
फिर तो कोई बहाना ही नहीं बचेगा। अगर मैं खेत ना बेचूं, ऐलोवेरा ही को ट्राई करूं। शिखर को भी तैयार
करूं। पैसे मिलने लगेंगे तो वह भी रुकेगा जरूर। उसके रुकने से आसानी रहेगी। वह कह ही
रहा था कि घर का कोई आता-जाता रहता तो भी वह यहीं रहने की सोचता।
इन दो बातों को सोच कर मैंने निर्णय लेने में देरी नहीं
की। तुरंत कहा ‘बिल्लो। तुम्हारे, प्यार, व्यवहार, तुम्हारे
काम को जानने के बाद मेरे मन में तुम्हारी जो खास तसवीर बनी है, वह मुझे रोक रही है। मोह रही है। मेरा मन
भी कह रहा है कि अब कुछ ऐसी व्यवस्था करूं कि यहां से रिश्ते का जो पेड़ सूख गया है
उसे फिर हरा-भरा करूं। और यह तभी होगा जब मैं तुम्हारी यह सलाह मान लूं कि खेत ना बेचूं, खेती करवाऊं, आता-जाता रहूं। इस लिए अब यह तय है कि खेत
नहीं बेचूंगा। ऐलोवेरा में जैसा पैसा बता रही हो मैं चाहूंगा कि वही करवाऊं। उसमें
ज्यादा झंझट नहीं है। माल के कंपनी तक जाने पेमेंट वगैरह की व्यवस्था तुम देख लोगी
तो मुझे आसानी रहेगी, नहीं किसी
और फसल के बारे में सोचना पड़ेगा।’
पहली बार बिल्लो मेरी बातों से कुछ हैरानी सी दिखाती
हुई बोली ‘तुम तो हमार करेजवा
ही निकाल लिए हो। इससे बढ़ियां और क्या होगा?
कम से कम एक जने तो यहां से संबंध बनाए रहोगे। तुम ऐसा करोगे तो शिखर भी यहां से
छोड़कर जाएगा नहीं। नहीं तो पूरा कैथान ऐसे भी खाली हो चुका है। मगर एक बात कहूं कि
जिम्मेदारी शिखर को ही दोे। गांव का मामला है। बात फैल जाएगी कि हमने तुम्हें भड़का
कर परिवार से अलग कर दिया। सारी प्रॉपर्टी पर कब्जा कर लिया। इसलिए ज़िम्मेदारी उसी
को दो। बाकी मैं पूरी निगाह रखूंगी। कहीं गड़बड़ की तो तुरंत ठीक कर दूंगी।
वैसे उसकी हिम्मत ही नहीं। फिर उसे भी तो इस काम के लिए मुझ
पर ही निर्भर रहना है। समझे। मगर सच-सच बताओ तो एक बात पूछूं।’ मैंने कहा ‘कैसी बात करती हो बिल्लो। तुमसे झूठ क्यों
बोलूंगा? पूछो जो पूछना है।’ ‘तो बताओ कि ई जो निर्णय लिए हो इसमें मेरे
प्यार, व्यवहार और मेरे
मोहने का कितना हाथ है। और कितना हाथ खेतों का है। उसमें खेती कराने का है।’ कह कर बिल्लो हंसी फिर बोली ‘देखो सच-सच बताना। एकदम उहै तरह जैइसे बचपन
में सारी बातें बताते थे।’
मुझे भी हंसी आ गई। मैंने कहा ‘बिल्लो तुम वाकई हर बात में इतनी मैच्योर
इतनी समझदार हो गई हो इसके लिए मैं तुम्हारी जितनी तारीफ करूं उतना कम है। तुम्हारे
इस रूप की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। और जिस तरह तुमने पूछा है। जितना प्यार स्नेह
दे रही हो उसके बाद तो मैं चाह कर भी कुछ छिपा नहीं सकता। झूठ बोलने की तो बात ही नहीं।
मेरा जवाब इतना ही है कि मेरे निर्णय में सबसे अहम रोल, पहला रोल, तुम्हारे प्यार स्नेह का ही है। बल्कि इसी ने मुझे यह निर्णय
लेने के बारे में सोचने की तरफ मोड़ा। दूसरा खेत या खेती कराने, या फायदे नुकसान की बात है तो उसका रोल तुम
इतना ही मानो जितना की दाल में नमक।
मैं यही कहूंगा कि तुम्हारे प्यार ने मुझे अपनी जड़ से
अपनी जमीन से सारे रिश्ते तोड़ने से रोक दिया। मुझे लगता है मेरे रुकने से शिखर भी रुकेगा।
तुमने वाकई बहुत बड़ा काम किया है। मगर यह जरूर कहूंगा कि तुमने बचपन के इस रिश्ते को
जो एक नई ऊर्जा, नई ताकत, नया रंग, नया रूप, नई उमंग
दी है इसे और आगे बढ़ाते रहना। ठहरने रुकने मत देना।’ ‘यही सब तो तुमको भी करना है। तुम भी पीछे मत हटना। ‘‘सूरत’’ घर लौटते ही भूल मत जाना। मुझे डर यही कि जाते ही बिजनेस, बीवी, बच्चों में ये सारी बातें भूल ना जाओ। मेरी बातों का यह मतलब
कतई ना निकालना कि बीवी, बच्चों, बिजनेस को भूल जाओ। यहां-वहां सब को याद
रखो। सब को गले लगाए रहो।’
‘बिल्लो यह भी कहने की बात है क्या? जिस बात की कल्पना भी नहीं की थी। वह डिसीजन
मैंने लिया है तो मैं कैसे खुद पीछे हट सकता हूं। मुझे तो अब दोहरी खुशी मिली है। और
हर कोशिश यही करूंगा कि मिलती ही रहे।’
‘भगवान चाहेगा तो यही होगा। और तुम्हें अभी से बता दे
रही हूं कि अपनी बिल्लो, अपने भतीजे
के चुनाव में तुम्हें अब आना जरूर है। सिर्फ़ आना ही नहीं है। अपनी पूरी ताकत भी लगानी
है। मैं तुम्हारे पूरे परिवार का नाम यहां की वोटर लिस्ट में डलवाऊंगी। सब का राशन
कार्ड वगैरह सब बनवाऊंगी। तुम्हारे हिस्से का जो मकान यहां पड़ा है उसे भी ठीक करवा
दूंगी। तुम पैसा आगे पीछे देते रहना। उसके लिए तुम्हें क्षण भर को भी अलग से समय निकालने
की जरूरत नहीं।’
‘तुम जो कहोगी वो करूंगा बिल्लो।’ ‘अच्छा।’ बिल्लो ने बड़े भेद भरे अंदाज में कहा। ‘हां इसमें तुम्हें शक नहीं करना चाहिए।’ ‘सोच लो’ ‘अरे इसमें सोचने वाली क्या बात है?’ ‘हूं... तो बचपन में जैइसे हमरे पास बैइठते
थे, वैसे ही मेरे पास
यहां इधर आकर बैठो।’ बिल्लो ने ठीक अपनी
बगल में हथेली रखते हुए कहा।
बिल्लो की यह बात मेरे लिए अप्रत्याशित थी। मैं एकदम
सकपका गया। चुपचाप एकटक उसे देखता रहा। उसके चेहरे पर अपनी बात कहते-कहते गहन गंभीरता
छा गई थी। मैं करीब सात फिट की दूरी पर बैठा था। लेकिन वहां से भी देख रहा था कि बिल्लो
की आंखें भरी हुई थीं। मैं उसके चेहरे को बिल्कुल समझ नहीं पा रहा था कि आखिर बिल्लो
के मन में चल क्या रहा है? यह क्या
चाहती है? मुझे चुप देख बिल्लो
बोली।
‘क्यों, डर गए।
हमरे पास बैइठने में डर लग रहा है। बचपन से ही तुम डरपोक थे। तब भी जब बैठते थे मेरे
पास तो चौंक-चौंक कर देखते रहते थे हर तरफ कि कोई देख तो नहीं रहा। एक तरफ चौंकते रहते
थे दूसरी तरफ ज़्यादा से ज़्यादा सटने की कोशिश भी करते थे। तुम्हारी इस हरकत पर मैं
मन ही मन हंसती थी। मगर इस समय तो हिंआ देखे वाला केओ नाहीं बा। फिर काहे एतना डरात
हैअ। कुछ बोलअ। बचपन वाला गिफ़्ट मुझे उसी समय को जीते हुए उसी समय की तरह से हाथों
में थमाया था। कितना निश्छल था तुम्हारा वह गिफ़्ट, तुम्हारा तरीका। का वैइसे ही बचपन की ही तरह बैइठ नाहीं सकते।
कुछ वैसी ही बातें नाहीं कर सकते जो तब किया करते थे।’
बिल्लो अब भी मुझे एकटक देखे जा रही थी। उसकी चमकदार
आंखों में आंसू और भी ज़्यादा तेज़ चमक रहे थे। मेरे दिमाग में अब भी एक शब्द नहीं सूझ
रहा था कि मैं उससे क्या कहूं ? उसके पास
जाऊं कि नहीं। यह उचित होगा कि नहीं। मेरी चुप्पी को वह ज़्यादा देर नहीं सह पाई और
बोल ही दिया। मगर खड़ी बोली में कहा ‘कोई बात
नहीं। हमीं सब गड़बड़ कर बैठे। पहले ही की तरह कुछ बौरा गई तुम्हें देख के। हमें सोचना
चाहिए कि अब बचपन बीत गया है। परिस्थितियां बदल गईं हैं। तुम शादी-शुदा हो। मैं भी।
कहने को ही सही।
दुनिया यह कहां जानती
है कि उस निठल्ले ने चुड़िहारिन और कई और आवारा बदमाश औरतों, शराब के सामने मुझे छुआ ही नहीं। आया ही
नहीं मेरे पास। पहली रात भी उसी चुड़िहारिन के पास पड़ा रहा। हां तुम बीवी-बच्चे वाले
हो। बचपन के साथ बचपन का रिश्ता भी खत्म हो गया। और हम बुढ़ौती में बचपन का रिश्ता निभाहनें
चले हैं। लगता है बेवजह तुम्हें परेशान किया। चलो अच्छा बताओ, चुनाव में भाषण देना बहुत बड़ा काम है। और
हमें ठीक से आता नहीं। तुम हमें भाषण देना कैसे सिखाओगे?’
इतना कहने के साथ ही बिल्लो ने साड़ी के आंचल से दोनों आंखें
पोंछ लीं। फिर अपनी स्थिति को एकदम बदलने की कोशिश में बनावटी हंसी हंसते हुई बोली
‘हां भाषण देना सिखा पाओगे कि नहीं?’ बड़ी हिम्मत कर अब की मैं बोला-‘जो आदमी एक छोटी सी बात का जवाब ना दे पा
रहा हो वह भाषण देना क्या सिखाएगा बिल्लो।’
इतना कहकर मैं उठा और उसके पास जाकर वैसे ही बैठ गया जैसे बचपन में बैठा करता था।
उसकी आंखों को मैंने देखा, वह फिर भरी थीं। मैंने उन्हें पोंछा। कहा ‘बिल्लो मेरी नजर में तुम आयरन लेडी हो। और
आयरन लेडी की आंखों में आंसू कभी नहीं आते।’
फिर हम बड़ी देर तक बातें करते रहे। उस दौरान मैंने साफ-साफ देखा कि उस आयरन लेडी
की भावनाएं उसका ह्रदय बाकी महिलाओं ही की तरह कोमल, निर्मल, फूल सा
नाजुक है। मगर उसने जितनी बातें कीं वह किसी विकट संघर्षशील, जुनूनी, निडर, जीवट वाले
मर्द के लिए भी एक चुनौती है। इतने दिनों में उसने खाद, बीज,
मिट्टी के तेल, सरकारी राशन, किराना, कपड़े की दुकान के साथ-साथ साइकिल, टायर ट्यूब की दूकान चलवा रखी है। कपड़े की
सबसे बड़ी दुकान उसी की है।
अच्छे खासे कस्बे का रूप ले चुके उस एरिया में उसने व्यवसाय
की जो दुनिया बनाई थी उसके सामने वहां कोई दूसरा नहीं था। उसकी लठैतों की पूरी फौज
थी। और दिन भर वह उनके साथ व्यवसाय की दुनिया संभालती थी। उसकी क्षमता उसका जुनून साफ
कह रहे थे कि धर्म-जाति की राजनीति का वह शिकार नहीं हुई तो जल्दी ही सांसद भी होगी।
उसका कड़कपन और करुणामय ह्रदय देखकर मेरे मन में आया कि तैंतीस नहीं आधे विधायक, सांसद, महिलाएं होनी चाहिए। इस से ताकत, सत्ता के मद में अत्याचारी बन गई नेता नगरी
की छवि सुधरेगी। क्योंकि जब सत्ता की ताकत के साथ मद नहीं करुणा भी होगी तब ये तथा-कथित
जनसेवक वाकई जनसेवक बन सकेंगे। इनको तैंतीस प्रतिशत आरक्षण वास्तव में इनके और जनता
वास्तव में दोनों के साथ धोखा है।
जब ये आधी दुनिया हैं
तो इनके लिए प्रधानी से लेकर सांसदी तक में आधा यानी पचास प्रतिशत आरक्षण ही न्याययोचित
है। बाकी सब धोखा या अन्याय है। इस बात के साथ ही मेरे मन में आया कि बिल्लो इसी को
मुख्य मुद्दा बना ले तो बड़े फायदे में रहेगी। जब उससे कहा तो उसने बात को हाथों-हाथ
लिया। कहा ‘ये बचपन का साथ
कुछ बड़ा कारनामा जरूर करेगा। इस बात से तो हम निश्चिंत हो सकते हैं।’
रात का पहला
पहर जहां मेरे लिए तनावपूर्ण था कि बिल्लो अकेली है वहीं दूसरा पहर आश्चर्यजनक रूप
से अद्भुत अकल्पनीय था। हालांकि इस पहर में भी हम और बिल्लो ही थे। मेरी अच्छी रात
के गर्भ से मेरी सुबह भी बड़ी-प्यारी, बड़ी खूबसूरत
पैदा हुई थी। मैं जब सुबह बिल्लो के प्यार स्नेह से भरी आवभगत से निकल कर शिखर के पास
जा रहा था, तभी बिल्लो के भतीजे
को सपरिवार वापस आते देखा। जीप में परिवार के साथ-साथ बिदाई में मिला अच्छा-खासा सामान
भी दिख रहा था।
शिखर और चाचा मुझे मेरा इंतजार करते मिले। मैंने चाचा, शिखर के सामने ऐलोवेरा की खेती सहित अपना
प्लान रखा तो चाचा तो खुशी-खुशी तैयार हो गए। खुशी इतनी कि जैसे उन्होंने जिस चीज की
उम्मीद ही ना की हो वह ना सिर्फ़ मिल गई बल्कि बेइंतहा मिल गई हो। मगर शिखर इस शर्त
के साथ तैयार हुआ कि जब तक यह सब मैं करूंगा तभी तक वह करेगा। और कम से कम चौथे महीने
मैं अवश्य आऊंगा।
मैंने आंख मूंद कर उसकी शर्त मान ली। सोचा कि जब नकदी हथेली
गर्म करने लगेगी तो यह शर्त अपने आप भूल जाएगा। बीच में एकाध बार इसको सूरत बुला कर
शहरों में इनके जैसे पढ़े-लिखों की नौकरी, बिजनेस
में क्या हालत है, ये खुद कहां ठहर
पाएंगे इसका अहसास करा दूंगा। तब यह शहर के नाम से भागेगा। इसके बाद मैं पूरा दो दिन
गांव में रुका। इसमें पूरा एक दिन बिल्लो के साथ अपने गांव के साथ-साथ कई और गांव घूमा।
ये सारे गांव उसी संसदीय क्षेत्र में आते हैं जहां से बिल्लो ने चुनाव लड़ना तय किया
था। इन गांवों में भी मैंने बिल्लो की अच्छी पकड़ देखी। वह सबकी प्यारी बिल्लो बुआ हैं।
बच्चों, बड़ों, बूढ़ों, महिलाओं सबकी।
वह सबसे ऐसे मिलती मानों सब उसके ही परिवार के सदस्य
हों। सब लगे हाथ अपने काम-धाम के बारे में भी उससे बातें कर रहे थे। मैंने उससे रास्ते
में कहा भी ‘बिल्लो तुम तो लड़ने
से पहले ही सांसद बन गई हो।’ वह हंस
कर रह गई। बिल्लो तमाम जगह मेरा परिचय भी कराती रही। बाबा का नाम लेकर कि यह उनके पोता
हैं। अगला पूरा दिन मैं शिखर के साथ घूमा। जितना समय मैं सारे गांव घूमा-फिरा उस दौरान
मैं उन बहुत सी चीजों को नहीं देख पाया, जिन्हें
मैं देखना चाहता था।
कोई बुजुर्ग मुझे खरहरा(अरहर की दाल के सूखे पेड़ों से बनी बड़ी
झाड़ू) लेकर अपना दुआर बुहारता नहीं दिखा। ना ही दौरी, (बांस की पतली खपच्चियों से बनी बड़ी गहरी
डलिया) झऊआ, मौनी, कठौती, कठौता, या कुश
लेकर डलिया बनाती कोई महिला। ना ही शाम को बाहर खटिया पर बैठे, बतियाते लोग, बुजुर्ग। ना ही शाम को घरों के बाहर नादों में चारा खाते गाय, बैल या शाम होते ही गांव के बाहर से गांव
में अपने खुरों से धूर (धूल) उड़ाता गाय गोरुओं का झुंड। गांवों में इनके खुरों से उड़ती
धूल ही के कारण तो इस बेला को गोधुलि बेला भी कहा गया है। यह गाय गोरू सीधे अपने उन
घरों के सामने नादों पर जाकर रुकते थे, जिन घरों
के मालिक उन्हें बांधते थे।
इन बेजुबनों को रास्ता बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
यह अपने ठिकाने पर अपने आप पहुंचते थे। बचपन का जो कुछ भी मैं ढूंढ़ रहा था वह कुछ नहीं
मिला। तिनकझांए भी नहीं मिला। बिल्लो के बाद उसी से मेरी ज़्यादा पटती थी। उसका तिनकझांय
नाम उसके अतिशय तुनकमिजाजी स्वभाव के कारण पड़ा था। वह शराब और गांव की राजनीति का शिकार
हो कई साल पहले ही अपनी जान गंवा बैठा था।
शिखर ने उसके बारे में और कुछ भी बताया जो अच्छा नहीं था।
बिल्लो मिली मगर उसमें
भी बचपन की मासूमियत, अल्हड़ता
ना मिली। दूसरे दिन वहां से चलते समय उससे फिर मिला था। उसने बड़े अपनत्व प्यार के साथ
बिदा किया। शिखर मेन रोड तक छोड़ने आया था। उससे बिदा लेते वक्त मैंने बड़ा होने के अधिकार
के साथ उसको काफी पैसे दिए कि ‘भाई मेरी
तरफ से यह तुम सब के लिए है। आते वक्त मैं तुम सबके लिए कुछ लेकर नहीं आ पाया था।’ मन में यह बात जरूर आई थी, कि भाई तब हमारे-तुम्हारे बीच रिश्ते में
इतनी मिठास इतनी मधुरता रह भी कहां गई थी?
मैंने जौनपुर रिश्तेदार
के यहां पहुंचने से पहले उन सबके लिए बहुत सा गिफ्ट लिया था, कि जितना इन्होंने मुझ पर खर्च किया। उसका
हिसाब बराबर कर दूं। कोई अहसान मुझ पर ना रहे। आखिर खेत बेचने से मना करने पर उनका
कमीशन मर रहा था। मैं नहीं चाहता था कि उन्हें कोई नुकसान हो। मगर पूरे परिवार ने अपने
व्यवहार से मुझे पानी-पानी कर दिया। गिफ़्ट के लिए साफ कहा कि ‘बहुत पैसा खर्च कर दिया। हमें बड़ा कष्ट हो
रहा है।’ उनके आत्मीय व्यवहार
से मैं भीतर-भीतर आत्मग्लानि महसूस करने लगा। बार-बार यह बात मन में उठने लगी कि सब
एक से नहीं होते। आत्मीय रिश्तों का कोई मोल नहीं होता। उसे पैसों से नहीं तौला जा
सकता।
रात को भी रिश्तेदार स्टेशन से तभी गए जब टेªन चल दी। उसी समय पत्नी का फ़ोन आ गया। बात
कर के जब डिस्कनेक्ट किया तो मन में इस बात के आते ही मैंने पसीना सा महसूस किया उस
एसी बोगी में भी कि बिल्लो के साथ पूरी रात बचपन के साथ और जो कुछ जिया उसे क्या नाम
दूं? उसे सही कहूं कि
गलत? या कि उस रिश्ते
के बारे में ऐसा सोचना भी गलत है। और जब-जब पत्नी के सामने होऊंगा तब-तब खुद पर कितने
घड़ों पानी को पड़ता महसूस करूंगा। तब मैं आत्मग्लानि को किस हद तक सह पाऊंगा ? यह रिश्ता मुझ पर क्या प्रभाव डालेगा? इसे अपनी एक आदर्श पत्नी के साथ धोखा कहूं
या.... और अब तो बार-बार गांव आाना-जाना रहेगा। बिल्लो के गांव। भीष्म प्रतिज्ञा वाली
बिल्लो के पास।
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पता - प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६एम /२१२ सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२, ९९१९००२०९६
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