औघड़ का दान
- प्रदीप श्रीवास्तव

सीमा अफनाई हुई सी बहुत जल्दी में अपनी
स्कूटी भगाए जा रही थी। अमूमन वह इतनी तेज़ नहीं चलती। मन उसका घर पर लगा हुआ था
जहां दोनों बेटियां और पति कब के पहुंच चुके होंगे। दोनों बेटियों को उसने
डेे-बोर्डिंग में डाल रखा था जिन्हें ऑ़िफस से आते वक़्त पति घर ले आते थे और सुबह
छोड़ने भी जाते थे। क्योंकि उसके ऑफ़िस एल.डी.ए. में समय की पाबंदी को लेकर हाय तौबा
नहीं थी। हां वह सब समय से पहले पहुंचते हैं जिन्हें ऊपरी इनकम वाली जगह मिली हुई
थी। और जो सुबह होते ही शिकार को जबह करने की हसरत लिए आंखें खोलते हैं। और तब तक
अड़े रहते हैं ऑफ़िस में जब तक कि शिकार मिलने की जरा भी उम्मीद रहती है। दूसरी तरफ
जो ऊपरी इनकम वाली जगह पर नहीं होते हैं, वे अपनी कुंठा निकालते हैं देर से
ऑफ़िस पहुंच कर, अपने काम को कभी समय से पूरा न करके एवं समय से पहले ही ऑफ़िस छोड़ कर या
व्यक्तिगत कामों के लिए जब मन आया तब ऑफ़िस छोड़ कर।
सीमा का पति
नवीन इसी श्रेणी में आता है। इसलिए उसका ऑफ़िस आना-जाना पता ही नहीं चलता। कब आ जाए, कब चला जाए, कोई ठिकाना नहीं। इसके चलते वह अपने बच्चों की देख-भाल के लिए पूरा वक़्त
निकाल लेता है। पत्नी के हिस्से का भी बहुत सा काम कर डालता है, पत्नी सीमा ऑफ़िस से आने में एक मिनट भी देर कर दे तो उसका मूड खराब हो जाता
है। वह लाख कारण बताए लेकिन उसे उन पर यकीन नहीं होता। और आज तो हद ही हो गई थी।
साढ़े आठ बजने को थे। उसका कहीं पता नहीं था। मोबाइल भी नहीं उठा रही थी। उसकी बुरी
आदतों में कॉल रिसीव न करना भी शामिल था। पूछने पर एक ही जवाब कि बैग में था, रिंग सुनाई ही नहीं पड़ी। मगर आज रोज की अपेक्षा बहुत देर हो चुकी थी। इस लिए
नवीन चिंतित हो रहा था।
सीमा पति के
मूड का ही ख़याल कर अपनी स्कूटी पूरी रफ़्तार से भगाए जा रही थी। हालांकि सड़क पर इस
समय तक ऑफ़िस वालों की भीड़ कम हो चुकी होती है लेकिन फिर भी ट्रैफ़िक बहुत था और
हमेशा की तरह वायलेंट भी,
सीमा की आंखें इस ट्रैफ़िक को लेकर बहुत सतर्क थीं, मगर सचिवालय के करीब पहुंचते ही वहां लगे जाम ने उसे रोक दिया, इस पर वह खीझ कर बुदबुदाई ‘ये जाम कब पीछा छोड़ेंगे।’ हेलमेट के अंदर से उसकी यह बुदबुदाहट बाहर तक आई लेकिन बाहर गाड़ियों के शोर
में खो गई। उसके आगे-पीछे दाएं-बाएं हर तरफ गाड़ियां थीं। फोर व्हीलर से लेकर थ्री
व्हीलर, टू व्हीलर तक सब! जाम कुछ इस कदर लगा था कि जो जहां था वहीं खड़ा था, ज़्यादा टाइम लगते देख कर्इ्र्रयों ने अपनी गाड़ियां बंद कर दी थीं। सीमा ने
भी। करीब पांच मिनट के बाद ट्रैफ़िक को आगे बढ़ने के लिए सिग्नल मिला। दूसरी तरफ से
किसी मंत्री जी का काफ़िला निकलना था इसलिए ट्रैफ़िक इतनी देर तक रोका गया था।
सिग्नल मिलते
ही सारी गाड़ियां बेतहाशा भाग खड़ी हुर्इं। लेकिन सीमा की स्कूटी स्टार्ट ही न हुई।
उसने किक मारी लेकिन नतीजा शिफर, इस बीच हार्नों की चीख-पुकार एक दम बढ़ गई। इसी शोर में पीछे
किसी मनचले ने चीख कर कहा ‘अरे! माता जी हिलोगी-डुलोगी या यहीं खड़ी रहोगी।’ अपने लिए माता जी
सुनकर सीमा चिढ़ कर बुदबुदाई ‘कमीने! अपनी माता को माता जी नहीं
बुलाएंगे हमें माता जी कह रहे हैं, साले कमीने।’ इस बीच उसने और कई किक मारी जिससे स्कूटी स्टार्ट हो गई। फिर वह भी बिना एक
सेकेंड देर किए फर्राटे से आगे बढ़ गई। जब घर पहुंची तो नौ बज चुके थे। पोर्च में
एक कोने में उसने अपनी स्कूटी खड़ी की। वहीं बगल में पति की मोटर साइकिल एवं मकान
मालिक की कार और मोटर साइकिल दोनों खड़ी थीं। मतलब की उसके अलावा बाकी सब पहले ही आ
चुके थे। यह सब देखकर आज देर से आने के मुद्दे पर वह बहुत दिन बाद पति का सामना
करने में भय का अहसास कर रही थी।
पोर्च के बगल
से ही ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां थीं। मकान मालिक ने किराएदार का रास्ता भी अलग रखने
की गरज से ऊपर जाने के लिए बगल से ही सीढ़ियां बनवा दी थीं। सीमा सीढ़ियों को एक तरह
से फलांगती हुई ऊपर पहुंची। अंदर कमरे की लाइट जल रही थी। टी.वी. की आवाज़ आ रही
थी। उसके कॉलबेल बजाते ही अंदर से दोनों बेटियों की आवाज़ गूँजी ‘मम्मी .....’ और इसके कुछ ही क्षण बाद दरवाजा खुला वह पूरी तरह अंदर पहुंच भी नहीं पाई थी
कि दोनों बेटियां उससे चिपक गईं और प्रश्न पर प्रश्न चालू, ‘मम्मी इतनी देर क्यों कर दी’, छोटी वाली बोली, ‘मम्मी मेरी चॉकलेट लाई हो।’ सीमा दोनों को प्यार करती हुई सोफे की
तरफ बढ़ी जहां पति नवीन मुंह फुलाए बैठे टी.वी. देख रहे थे। सीमा भी उसके सामने
सोफे पर बैठ गई बेटियों को यह समझाते हुए कि आज चॉकलेट लेना भूल गई। तुम लोग यह
टॉफी ले लो। उसने बैग से कुछ टॉफियां निकाल कर दोनों को दे दीं जो उसके बैग में
हमेशा रहती हैं। क्योंकि इन्हें खाने की उसे आदत सी थी। अब तक पति द्वारा एक नज़र न
देखने और कुछ न बोलने से वह समझ गई कि मामला गंभीर है। उसने धीरे से कहा,
‘सॉरी बहुत देर हो गई। वो असल मेें सोफी का हाथ टूट गया है। उसका ट्रीटमेंट
कराने के बाद मुझे उसे उसके घर तक छोड़ने जाना पड़ा। इसी लिए आने में देर हो गई।’
पति इतना कहने पर भी कुछ न बोले तो उसने
कहा,
‘मैं मान रही हूं तुम सब परेशान हो गए होगे। मगर मज़बूर थी और कोई रास्ता ही
नहीं था। पूरी बात सुनोगे तो तुम्हें लगेगा कि मैंने गलती नहीं की।’
इतनी बात पर भी
पति टस से मस नहीं हुए तो उसे बड़ी खीझ हुई। प्यास के मारे गला अलग सूख रहा था। इस
बार अप्रैल महीने में ही गर्मी ने मई की गर्मी का अहसास करा दिया था। थकान, प्यास और पति के गुस्से से पस्त हो उसने बड़ी बेटी से कहा,
‘रुचिका बेटे जरा मम्मा के लिए पानी ले आओ।’
‘हां बेटा जल्दी से पानी ले आओ, साक्षात् देवी मइया अवतरित हुई हैं, चढ़ाने के लिए कुछ प्रसाद वगैरह भी ले आना।’
रुचिका, मां की बात सुनकर पानी के लिए उठ भी न पाई थी कि नवीन ने पत्नी सीमा पर तीखा
व्यंग्य बाण चला दिया और फिर रिमोट लेकर टी.वी. के चैनल बदलने लगा। रुचिका कुछ न
समझ के जब ठिठक गई तो सीमा ने उसे जाने का इशारा किया। देवी मइया सुन कर उसे
रास्ते में मिले शोहदों का फिकरा माता जी कहना फिर कानों में गूंज गया। रुचिका के
जाते ही उसने कहा,
‘कम से कम बच्चों के सामने तो ठीक से बोलिए। सोफी की मज़बूरी देखते तो तुम भी
वही करते जो मैंने किया। बच्चों को सो जाने दीजिए फिर बताती हूं कि क्या हुआ। तब
बताना कि मेरी गलती है क्या ? हां मुझे फ़ोन कर देना चाहिए था, इतनी गलती ज़रूर हुई ?’
‘ठीक है, सोने दो बच्चों को फिर आज तुम्हारी बजाता हूं कायदे से। कई दिन से नहीं बजाई
इसी लिए घर सेवा छोड़ कर समाज सेवा ज़्यादा करने लगी हो।’
नवीन की बजाने
वाली बात ने उसे राहत दी कि चलो मामला सुलझ गया। क्योंकि उसके बजाने शब्द के पीछे
छिपे अर्थ को वह बखूबी समझती थी। समझ यह भी गई थी कि लाख थकी है पर पति महोदय
जल्दी सोने नहीं देंगे। वह यह सोच ही रही थी कि छोटी बेटी जो उसकी गोद में बैठी
टॉफी खा रही थी, उसने पूछा,
‘मम्मी, पापा हम लोगों के सोने के बाद क्या बजाएंगे?’
उसके प्रश्न से चौंक कर सीमा बोली,
‘अं कुछ नहीं बेटा .... पापा ऐसे ही कुछ बोल रहे थे।’
‘नहीं आप झूठ बोल रही हैं ... बताइए न क्या बजाएंगे?’
‘ओफ्फो अपने पापा से ही पूछो क्या बजाएंगे। लीजिए अब बताइए क्या बजाएंगे। कितनी
बार कहा बच्चों का थोड़ा ध्यान रखा करिए। अब चुप क्यों हैं लीजिए संभालिए।’ कहते हुए सीमा ने बेटी को गोद से उतार कर भेज दिया नवीन के पास और बड़ी बेटी से
पानी लेकर पीने लगी। रुचि ने पिता के पास पहुंच कर फिर वही प्रश्न किया तो नवीन ने
उसे अपनी गोद में बैठाते हुए कहा,
‘हूं बेटा तब मैं मोबाइल में तुम्हारी जो पोएम रिकॉर्ड की है न उसे बजाएंगे।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि तुम्हारी आवाज़ बहुत-बहुत मीठी है न इसलिए।’
‘तो अभी क्यों नहीं बजाते ?’
‘अभी इसलिए नहीं क्योंकि अं ... अं ...
क्योंकि अभी टीवी चल रहा है।’
‘लेकिन पापा आपने तो मम्मी की बजाने के लिए कहा था।’
‘हूं ... मां की तरह पीछे ही पड़ जाती है। तुम्हारी पोएम मां के मोबाइल में भी
है न और उनका मोबाइल ज़्यादा बढ़िया है इसलिए उन्हीं का बजाएंगे। अब तुम अपना
कार्टून चैनल देखो ठीक है।’
नवीन ने रुचि के प्रश्नों से बचने के लिए उसे रिमोट थमा
दिया। और सोफे पर पसर कर बैठ गया। तब तक पानी पीकर काफी राहत महसूस कर चुकी सीमा
ने खड़े होते हुए कहा,
‘और बोलो अंड-बंड।’
इसके बाद उसने
अंदर जाकर कपड़े चेंज किए और जल्दी से किचेन में घुस गई। वहां यह देख कर उसे राहत
मिली कि पति महोदय ने सब्जी वगैरह पहले से ही काट कर रखी हुई है। चाय का कप, दूध लगा गिलास एवं नाश्ते की जूठी प्लेटों नेे यह भी बता दिया कि पति महोदय ने
नाश्ता बना कर बच्चों के साथ कर लिया है। इसके बाद उसने जल्दी-जल्दी खाना बनाया।
सबने मिलकर खाया। फिर बच्चे पापा के साथ बिस्तर पर पहुंच गए। लेकिन सीमा अभी किचेन
में ही थी। सवेरे के लिए काफी कुछ तैयारी कर लेना चाह रही थी। क्योंकि सुबह वक़्त
बहुत कम होता है। पति, बच्चों सहित खुद के लिए भी ढेर सारा काम करना होता है।
जब काम निपटा
कर पहुंची बेडरूम में तो साढे़ ग्यारह बज रहे थे। बच्चे, पति सोते मिले। एक-एक कर दोनों बच्चों को उनके कमरे में बेड पर लिटाने के बाद वह
खुद आकर पति के बगल में लेट गई। अब तक थक कर वह चूर हो चुकी थी। पति को सोता देख
उसने सोचा चलो कल करेंगे बात, फिर आंखें बंद कर ली। उसे बड़ा सुकून
मिला दिन भर की हांफती दौड़ती हलकान होती ज़िंदगी से। उसे अभी आंखें बंद किए चंद
लम्हे ही बीते थे कि पति की इस बात ने उसकी आंखें खोल दीं।
‘देवी-मइया को फुरसत मिल गई क्या ?’
इस पर वह तिलमिला कर बोली,
‘क्या हो गया है आज। तभी से देवी-मइया, देवी-मइया लगा रखा है। रास्ते में
वो शोहदे माता जी बोल रहे थे और तुम हो कि तभी से ...।’
इसके बाद सीमा
ने उसे जाम में फंसने और शोहदों के फिकरे वाला वाक्या बताया तो नवीन बोला,
‘बेवकूफ रहे होंगे। उनको रात में ठीक से दिखता नहीं होगा। नहीं तुम बीस साल की
कमसिन हसीना लगती हो। कहीं से माता जी तो लगती ही नहीं।’
‘अच्छा, तो फिर क्यों तब से देवी-मइया, देवी-मइया किए जा रहे हो।’
‘नहीं वो समाज सेवा पूरी करने के बाद तुम्हें घर का होश आया था न इस लिए। लोग
अपना घर तो देख नहीं पा रहे हैं और तुम पूरा समाज देख रही हो तो महान हुई न।’
‘पूरी बात जानने के बाद तुम्हें गुस्सा होना चाहिए। तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे
कि मैं रोज नौ-दस बजे घर आती हूं। आज सोफी ने जो बताया सुनकर मैं दंग रह गई कि
इंसान कैसे अपनी पत्नी को इतनी बर्बरता से पीटता है। वो भी उस बात के लिए जो इंसान
के हाथ में है ही नहीं और ईश्वर के आगे किसकी चली है।’
‘लेकिन वो उसे इतना क्यों मारता है। वह विरोध क्यों नहीं करती।’
‘अभी हर पत्नी विरोध करने लायक ताक़त कहां पा पाई है, सोफी भी उन्हीं में से एक है जो मार खा कर चुप-चाप आंसू बहाती रहती है।’
‘मगर तुम्हें उसको इस बात के लिए तैयार करना चाहिए। तुम तो हर बात का विरोध
करती हो।’
‘अच्छा! कह तो ऐसे रहे हो जैसे कि मैं हमेशा लड़ती ही रहती हूं और तुम चुप-चाप
सुनते रहते हो।’
‘मैंने बात विरोध की की है न कि लड़ने की। लड़ाई और विरोध में फ़र्क करना भी जान
लो देवी-मइया, समझी चलो आगे बताओ, नवीन ने व्यंग्य करते हुए करवट ली और अपना एक हाथ सीमा के वक्ष पर रख दिया।
सीमा इस पर बोली ‘सीधे रहो तो आगे बोलूं ..... ।’
‘बोलो न।’
‘उसका आदमी उसे इसलिए मारता है कि वह तीन लड़कियों को जन्म दे चुकी है, लड़का क्यों नहीं पैदा करती।’
‘क्या मूर्खता है, इसमें औरत का क्या दोष,
वो क्या कर
सकती है ?’
‘ये तुम या तुम्हारे जैसे लोग समझते हैं न। उसके पति जैसे जाहिल नहीं।’
‘क्या वो इतना भी पढ़ा लिखा नहीं है। करता क्या है वो।’
‘ओफ्फो .... पहले तुम ये जो कर रहे हो इसे बंद करो तब तो बोलूं। दर्द होता है
यार समझते क्यों नहीं।’
सीमा ने अपने
वक्ष से नवीन के हरकत कर रहे हाथ को हटाते हुए कहा
‘चलो समझ गया अब बोलो मगर जल्दी। मुझे अभी और भी कई काम करने हैं।’
‘मैं जानती हूं अभी तुम्हें और कौन से काम करने हैं।’
सीमा ने नवीन
का आशय समझते हुए कहा फिर आगे बोली,
‘असल में उसके आदमी की पढ़ाई-लिखाई, पारिवारिक बैकग्राऊंड कोई बहुत
अच्छी नहीं है। वह नौ भाई-बहन है, उसके पिता ने मोटर साइकिलों की
रिपेयरिंग का वर्कशॉप खोल रखा था। बच्चों को ज़्यादा पढ़ाने-लिखाने के बजाए
जैसे-जैसे वे बड़े हुए उन्हें वर्कशॉप में लगाते गए। इसका शौहर भाई-बहनों में छटे
नंबर पर था और किसी तरह ग्रेजूएशन कर लिया। फिर लैब टेक्नीशियन का भी कोर्स कर
लिया और संयोगवश अचानक ही के.जी.एम.यू. में नौकरी लग गई।’
‘और सोफी का परिवार ?’
‘सोफी का परिवार पढ़ा लिखा समझदार परिवार है।’
‘तो इसके चक्कर में कैसे पड़ गए। वो इतना मारता-पीटता है तो अपने मायके में
क्यों नहीं बताती।’
‘उसके साथ यह एक और बड़ी मुश्किल है।’
‘क्यों ऐसा क्या हुआ ?’
‘असल में इन दोनों ने अपने-अपने घर वालों के बहुत ज़्यादा विरोध के बावजूद लव
मैरिज की है। बाद में सोफी ने अपने घर वालों से संपर्क करना चाहा लेकिन घर वालों
ने दुत्कार दिया। उसकी सारी कोशिश बेकार हो गई। तो उसने भी हमेशा के लिए नाता तोड़
लिया। यही हाल पति का भी है। दोनों का अपने-अपने घरों से बरसों से कोई संबंध नहीं
है। उसका पति तो जब पिछले साल उसके फादर की डेथ हुई तो उनके अंतिम संस्कार में भी
नहीं गया।’
‘समझ में नहीं आता कि ऐसे उजड्ड, जाहिल के चक्कर में कैसे फंस गई
तुम्हारी सोफी।’
‘फंस नहीं गई धोखे से फंसा ली गई।’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब यह कि सोफी के फादर एच.ए.एल. में सर्विस करते थे। सोफी के एक भाई एक बहन
है। सोफी सबसे बड़ी है। इससे छोटी एक बहन बचपन में ही किसी बीमारी की वजह से मर गई
थी। सोफी पढ़ाई-लिखाई में ठीक थी। जूनियर हाई स्कूल के बाद पैरेंट्स ने उसका एडमिशन
एच.ए.एल. के स्कूल से निकाल कर निशातगंज के किसी स्कूल में करा दिया।’
‘क्यों ?’
‘क्यों कि वे नहीं चाहते थे कि सोफी को-ऐड वाले किसी स्कूल में पढ़े। वो सोचते
थे लड़कों के साथ पढ़ेगी तो बिगड़ जाएगी।’
‘ये तो मुर्खतापूर्ण सोच है बिगड़ने वाले तो कहीं भी बिगड़ सकते हैं।’
‘हां... एक्चुअली हुआ भी यही, इंटर के बाद सोफी को महिला कॉलेज
अमीनाबाद में डाल दिया गया। वहीं इसकी मुलाकात जुल्फी यानी इसके हसबैंड से हुई।
लड़कियों के कॉलेज के पास जैसे तमाम शोहदे लड़के मंडराया करते हैं वैसे ही यह भी
मंडराया करता था। महीनों सोफी यानी सूफिया का पीछा करता रहा, दोस्ती करने की बात करता रहा। आखिर उसकी मेहनत रंग लाई और सोफी फंस गई उसके
चंगुल मेें। सोफी बताती है कि तब वह सभ्य शालीन नज़र आता था। पढ़ाई के बारे में
बताता कि मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कर रहा है। फादर को बैंक में मैनेजर
बताया। भाइयों को अच्छी-अच्छी जगह पर बताया। झूठ यह भी बोला कि वह केवल चार
भाई-बहन है। और जब भी आता तो हर बार बदल-बदल कर बाइक लाता। वास्तव में यह वह
गाड़ियां होती थीं जो उसके यहां बनने आती थीं। वह कुछ देर के लिए उन्हें ले लेता।
इन सब बातों ने सोफी को प्रभावित कर दिया। वह घर से निकलती स्कूल के लिए लेकिन पूरे
समय उसके साथ घूमती ,मटर-गस्ती करती।’
‘मतलब कि पैरेंट्स ने जिस डर से को-ऐड से पीछा छुड़ाया वही हो गया।’
‘हां .... ।’
‘एक बात बताओ हसीन और चंचल तो तुम भी बहुत थी तुम्हारे पीछे लड़के नहीं पड़ते थे
क्या ?’
‘पड़ते क्यों नहीं थे। मैं दुनिया से कोई अलग थी क्या ?’
‘तो तुम क्यों नहीं फंसी ?’
‘मां... अपनी मां की वजह से। पापा तो ऑफ़िस से कभी फुरसत ही नहीं निकाल पाते थे।
जब घर पर रहते तब भी बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते थे। मगर मम्मी पूरा ध्यान देती
थीं। हम लोगों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर एक-एक गतिविधि पर पूरा ध्यान रखती थीं। हर
विषय पर खुल कर बात करती थीं। दोस्त बन कर सारी बात सुनतीं बतातीं जिस से हम लोग
संकोच में कुछ छिपाए नहीं।
,मुझे अच्छी तरह याद है कि कपड़े कैसे पहनना है यह बताने से लेकर यह तक बतातीं
थीं कि देखो बड़ी हो गई हो। रास्ते में लड़के मिल कर बात करना चाहेंगे। दोस्ती करके
तुम्हारा मिस यूज करेंगे। पेपर, टी.वी. की तमाम ऐसी घटनाओं का ब्योरा
देकर बतातीं कि हमारा समाज ऐसा है कि लड़कों का तो कुछ नहीं होता लड़कियां बरबाद हो
जाती हैं। ये शोहदे सिर्फ़ लड़कियों से उनका शरीर खेलने पाने के लिए दोस्ती करते
हैं। खुद उन्हें लूटते हैं अपने दोस्तों के सामने भी डालते हैं। मन का नहीं हुआ तो
मार डालते हैं। तेजाब डालते हैं।
बचने का रास्ता
बतातीं कि घर से स्कूल से कई लड़कियों के साथ निकलो। यदि कोई लड़का मिलने की कोशिश
करे तो सख्ती से पेश आओ। कभी डरो मत। ऐसे वह सब कुछ हम सब को खुल कर बतातीं थीें।
यही कारण था कि तमाम शोहदे पीछे पड़े लेकिन उनको जो जवाब मिलता था उससे वह दुबारा
मिलने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। और हम लोग ऐसे मूर्खतापूर्ण कामों से दूर अपनी
पढ़ाई पूरी करने में सफल रहे।’
‘तो तुम यह सोफी को भी तो समझा सकती थी।’
‘उस समय तो मैं उसे जानती भी नहीं थी। हमारा परिचय तो ऑफ़िस में हुआ।’
‘उसके घर वाले क्या करते रहे। लड़की बाहर आवारागर्दी कर रही है उनको इसकी खबर भी
नहीं थी क्या ?’
‘खबर होती तो वो उसके हाथ-पैर तोड़ कर घर बैठा देते। लेकिन जुल्फ़़ी इतना शातिर
था कि दोनों ने शादी कर ली उसके बाद घर वालों को पता चला। बड़ी हाय तौबा-मची पुलिस
फाटा सब हुआ लेकिन सब व्यर्थ। कानूनन उनका कुछ नहीं किया जा सकता था। दोनों एडल्ट
थे।’
‘ये सख्ती पहले दिखाते तो शायद ये नौबत ही न आती।’
‘ऐसा नहीं है। सोफी जैसा बताती है उस हिसाब से उसके पैरेंट्स बहुत सख्त थे। वो
तो सोफी को चौदह-पंद्रह साल की उम्र में ही बुर्का पहनने के लिए कहने लगे थे।
लेकिन उसकी जिद और जैसा बताती है कि कॉलोनी का माहौल ऐसा था कि वह बुर्का से बची
रही। और सबसे बड़ी बात यह है कि घर के चोर को रखाया नहीं जा सकता। कोई कुंए में
कूदने कीे जिद किए बैठा हो तो कब तक बचाओगे उसे। मैं तो उस समय उससे यह सुन कर दंग
रह गई जब उसने यह बताया कि बी.ए. फर्स्ट ईयर में जब इन दोनों की दोस्ती हुई तो
उसके तीन महीने बाद ही दोनों के शारीरिक संबंध बन गए थे।’
‘जब तुम्हारी सोफी इतनी उतावली थी, सेक्स की इतनी भूख लगी थी उसे तो
अकेले जुल्फ़़ी को दोष कैसे दे सकते हैं।’
‘ये भी कह सकते हो। लेकिन मुझे लगता है कि वह इतनी इनोसेंट थी कि जुल्फी जैसे
शातिर को समझ न पाई। वह कितना धूर्त और शातिर था इसका अंदाजा इसी एक बात से लगा
सकते हो कि पहली बार सेक्स के बाद उसने सोफी से कॉपर टी लगवाने की बात कर डाली। जब
सोफी डर गई, मना कर दिया इन चीजों के लिए तो उसने तरह-तरह से ऐसे समझाया जैसे कोई मेच्योर
आदमी हो। उसने डराते हुए कहा कि ऐसे वह प्रिग्नेंट हो गई तो मुश्किल हो जाएगी।
सोफी ने इस पर कहा ठीक है आज के बाद हम लोग शादी
के बाद ही सेक्स करेंगे। जुल्फ़ी को लगा कि यह तो हाथ से निकल जाएगी। तो उसने
तरह-तरह से डराया मनाया और अंततः इसके लिए सोफी को तैयार कर लिया। इसके बाद वह उसे
जब उसका मन न होता तब भी ले जाता अपने साथ। इससे पढ़ाई पर बड़ा असर पड़ा। हमेशा
फर्स्ट आने वाली सोफी किसी तरह बी.ए. पास कर पाई।’
‘हूं .... तुम्हारी सोफी की ज़िंदगी में बड़े पेंचोखम हैं। मायका-ससुराल नाम की
कोई चीज बची नहीं है। ले दे के जुल्फ़ी और जुल्फ़ी है। और वो इसी का फ़ायदा उठा रहा
है।’
‘हां इसी का फ़ायदा उठा रहा है। जैसा चाहता है वैसा व्यवहार करता है। कल रात ऐसा
मारा कि हाथ में फ्रैक्चर हो गया। रात भर कराहती रही सुबह हाथ सूजा हुआ देख कर भी
एक बार न पूछा कि कैसे ऑफ़िस जाओगी। और वह भी न जानेे किस मिट्टी की बनी है कि इस
हालत में भी स्कूटी चला कर ऑफ़िस आ गई। ऑफ़िस में जब दर्द बहुत बढ़ गया तब रोने लगी।
उस की हालत देख कर मुझ से रहा नहीं गया तो ले गई हॉस्पिटल। डॉक्टर ने देखते ही कह
दिया फ्रैक्चर है। फिर मेरा फर्ज बन गया कि मैं उसकी मदद करूं।’
‘हां... फर्ज पूरा भी किया तुमने। उसको घर छोड़ने गई तो उसका वो जाहिल आदमी मिला
था क्या ?’
‘हां दरवाजा उसी ने खोला। एक नज़र सोफी के प्लास्टर चढ़े हाथ को देखा फिर अजीब सी
नजरों से मुझे देखा। उसे देख कर मुझे गुस्सा आ गई। मगर कंट्रोल करते हुए कहा ‘इनके हाथ में गहरा फ्रैक्चर है। डॉक्टर ने आराम करने को कहा है। देखिए
मियां-बीवी में तकरार होती रहती है लेकिन ऐसा भी नहीं कि हाथ-पैर टूट जाएं।’
मेरे इतना कहते
ही सोफी बोल पड़ी,
‘सीमा आओ अंदर बैठो मैं चाय बना कर लाती हूं।’
सोफी का मतलब
मैं समझ गई थी कि वह अपने पति की आदतों के चलते नहीं चाहती थी कि मैं कुछ कहूं।
मैंने भी तुरंत बात पलटी और कहा,
‘नहीं सोफी बहुत देर हो गई है। मैं तुरंत चलूंगी। अभी घर पहुंचने में घंटे भर
से ज़्यादा लग जाएगा। मैं कल आऊंगी।’
इसके बाद मैं
स्कूटी की तरफ चल दी। सोफी ने कई बार कहा लेकिन मैं नहीं रुकी। उसकी तीनों
बच्चियां भी जुल्फ़ी के साथ खड़ी थीं। मैं उन सब को बॉय कर चल दी। रास्ते भर मेरी
नज़रों के सामने कभी तुम लोगों का तो कभी सोफी की बच्चियों का चेहरा नज़र आता रहा। उनका
चेहरा याद आते ही मैं उन मासूमों के बारे में सोचनेे लगती कि उनका भविष्य क्या
होगा। जिनकी मासूमियत कुपोषण के चलते कुम्हला गई थी।’
‘तुम्हारी सोफी की हालत वाकई बड़ी गंभीर है, उसकी ज़िदगी में हर तरफ अंधेरा ही
दिख रहा है। मुझे एक बात याद आ रही है। हालांकि मुझे कभी भरोसा नहीं था। लेकिन जब
छुटकी होने वाली थी तो तुम्हारी हालत बड़ी खराब हो गई थी। कहने को उस समय मैटरनिटी
मामलों का वह सबसे बड़ा हॉस्पिटल था। वहां की डॉक्टर नमिता अंचल पूरे शहर में जानी
जाती हैं। तुम्हें तो उन पर अटूट विश्वास है।’
‘हां वो हैं ही इतनी काबिल। अपनी सीरियस कंडीशन से मैं बहुत डरी हुई थी लेकिन
डॉक्टर नमिता का नाम सुना तो मुझे विश्वास हो गया वह मुझे बचा लेंगी। और मेरा
विश्वास टूटा नहीं।’
‘मेरी नज़र में सच कुछ और है। सीमा नो डाउट कि डॉक्टर नमिता बहुत काबिल हैं
लेकिन आज भी मेरा पूरा यकीन है कि उस दिन न सिर्फ़ तुम्हारी बल्कि छुटकी की भी जान
उस औघड़ बाबा ने बचाई जिसके पास मैं उस दिन गया था।’
‘औघड़ बाबा ने!’
‘हां ..... जब डॉक्टरों ने कहा कंडीशन बहुत सीरियस है तो मैं घबरा गया। समझ में
नहीं आ रहा था क्या करूं। तीन घंटे बाद ऑपरेशन होना था। इसी समय ऑफ़िस से सोम पांडे
आ गए। हालत जान कर वो भी परेशान हो गए। अचानक उन्होंने मुझसे कहा,
‘नवीन, आदमी दवा, पूजा-पाठ सब करता है कि न जाने कौन सी चीज लग जाए।’
मैंने प्रश्न
भरी दृष्टि से उसकी तरफ देखा तो उसने कहा ‘मोहान के पास एक औघड़ साधू बहुत दिन
से आ कर रुका हुआ है। लोग उसके पास जाते हैं तो बिना कुछ बताए ही वह मन की बात जान
जाता है और समाधान बता कर भेज देता है। आज तक कोई उससे निराश नहीं हुआ है। अभी तीन
घंटे बाकी हैं। हम लोग वहां से होके आ सकते हैं।’ तुम्हारी हालत से मैं
डरा था ही लेकिन कम समय के कारण मैंने कहा,
‘यार इस हालत में मैं गाड़ी नहीं चला पाऊंगा।’ तब वह बोले ‘मैं चलता हूं।’ मैं तुम को छोड़ कर जाना नहीं चाहता था। लेकिन जब अम्मा सहित बाकी सबने कहा तो
मैं चला गया। बाबा के पास गया तो वह मेन मोहान रोड से करीब एक किलो मीटर दूर जंगल
में मिले।
एक पेड़ के
सहारे पुआल की एक छोटी सी झोपड़ी में, करीब बीस-पचीस मीटर दूर एक छोटा
टीला था। आस-पास हर तरफ झाड़ झंखाड़। और टीले पर बीचो-बीच एक लकड़ियों का ढेर सुलग
रहा था। उसके पास ही पुआल पर एक चिथड़ा कंबल पड़ा था। बाबा उसी पर एक दम नंगे औंधे
मुंह पड़े थे। छः फिट से ज़्यादा एकदम पहलवानों जैसा जिस्म था। भभूत से उनका पूरा
जिस्म काला हो रहा था। हम दोनों हाथ जोड़ कर उनके नजदीक खड़े हो गए। हमारे प्रणाम
बोलने का उन्होंने कोई जवाब न दिया। मैं उनकी इस हरकत से आतंकित हो रहा था। वापिस
तुम्हारे पास आने की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद हमने और सोम ने एक
दूसरे की तरफ देखा और फिर जैसे ही बाबा के और करीब पहुंचने के लिए क़दम बढ़ाने को
हुए वह एकदम से उठ कर बैठ गए। उन्हें देख कर कुछ क्षण को हम दोनों सहम गए। नशे के
कारण आँखें सुर्ख थीं। बड़ी-बड़ी जटाएं। दाढ़ी। वीभत्स रूप था। हम कुछ बोलें इसके
पहले ही वह उठे और जो लकड़ियां सुलग रहीं थीं उसके किनारे पड़ी राख में से एक मुट्ठी
निकाल कर मेरे में हाथ देते हुए कहा,
‘ले जा इसको, लगा दे जा कर उसे। कुछ नहीं होगा।’
हम उनका पैर
छूने को बढ़े तो वह चीख पड़े ‘चल भाग यहां से वक़्त बहुत कम है तेरे
पास, देर हुई तो जय महाकाल।’
उनकी चीख और बात से हम एकदम पसीने-पसीने हो गए। मगर फिर
जितनी तेज़ हो सकता था हम उतनी तेज़ भागे वहां से। सोम इतनी तेज़ मोटर साइकिल चला रहा
था कि कई जगह लड़ते-लड़ते बचे। मैंने पूरी ताकत से भभूत को मुट्ठी में जकड़ रखा था।
मैं जब हॉस्पिटल पहुंचा तो तुम्हें सिजेरियन ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर ले जा रहे
थे।
तुम स्ट्रेचर पर, आंखें बंद किए पड़ी थी,
वार्ड ब्वाय, नर्स, सब जल्दी-जल्दी अंदाज में थे। मुझे लगा कि तुम्हारी हालत ज़्यादा गड़बड़ है
इसीलिए सब तेज़ी से जा रहे हैं। तुम्हारा भाई अम्मा को पकडे़ हुए चल रहा था। तभी
सोम बोला ‘जल्दी से लगाओ।’ मैं जो उस समय बहुत नर्वस हो गया था जल्दी से तुम्हारे माथे पर भभूत लगा दी।
फिर उसके बाद जो हुआ उससे मैं क्या डॉक्टर नमिता भी चौंक गईं।’
‘क्यों ऐसा क्या हो गया था।’
‘हुआ यह कि भभूत लगते ही तुमने आंखें खोल दीं। मुझे देख कर हाथ मेरी तरफ बढ़ा
दिया। मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया। मगर तभी ऑपरेशन थिएटर आ गया और फिर मैंने
तुम्हें अंदर जाने दिया। तभी डॉक्टर नमिता मेरे सामने आ गईं और बोली ‘रियली इट्स ए मिरेकल,
बाद में इस बारे में बात करती हूं।’
फिर वह जल्दी
से चली र्गइं ऑपरेशन थिएटर में। बाहर अम्मा, मैं तुुम्हारे भाई और सोम इंतजार
करते रहे। एक-एक पल बहुत भारी बीत रहा था। मगर यह लंबा नहीं चला, मुश्किल से चालीस-पैंतालीस मिनट बीते होंगे कि डॉक्टर बाहर निकलीं। मैं तुरंत
उनके पास पहुंचा तो वह बधाई देती हुईं बोलीं,
‘बधाई हो, लड़की हुई। मां-बच्ची दोनों ही बिल्कुल ठीक हैं। मगर जिस तरह से सब कुछ हुआ, उससे मैं आश्चर्य में हूं। मेरे इतने लंबे कॅरियर में इस तरह की यह पहली घटना
है।’
फिर उन्होंने
बताया कि अंदर जाते ही आश्चर्यजनक ढंग से तुम्हारी कंडीशन नॉर्मल होने लगी। जिस
सिजेरियन के लिए उन्होेंने सारी तैयारी कर रख थी वो शुरू करतीं उसके पहले ही छुटकी
का जन्म हो गया। नॉर्मल डिलीवरी हुई थी। कुछ ही देर बाद हमने तुम दोनों को देखा, लग ही नहीं रहा था कि यह वही केस है जो कुछ देर पहले तक बेहद सीरियस था। अगले
दिन डॉक्टर ने जब मुझ से भभूत के बारे में पूछा तो मैंने सारा वाक्या बता दिया।
सुन कर वह बड़ी चकित हुईं। बोली,
‘बड़ी अजीब है यह दुनिया। न जाने कैसे-कैसे लोग पड़े हैं दुनिया में। क्या पता
कौन किस रूप में मिल जाए।’
‘लेकिन आज से पहले तो तुमने यह सब कभी नहीं बताया।’
‘अं... यह कह लो कि डर। मैंने सोचा कि अगर बताऊंगा तो तुम हंसोगी कि अच्छा पहले
तो बड़ा इन सबको गरियाते थे। कि ये पाखंडी होते हैं। ढोंगी ठग होते हैं। इन को कहीं
गहरी नदी में डुबो देना चाहिए। जब सिर पर आन पड़ी तो दौड़े चले गए। इसी लिए नहीं
बताया फिर बाद में धीरे-धीरे बात भी दिमाग में धूमिल होती गई।’
‘ऐसा कैसे सोच लिया तुमने। तुम मेेरे, बच्चों के लिए इतना सोचते, करते हो और मैं तुम पर हसुंगी यह मैं
सोच भी नहीं सकती। फिर ऐसी बात दिमाग में मत लाना। मगर यह घटना तुम्हें अभी क्यों
याद आई।’
‘इसलिए याद आ गई कि मुझे लगा यदि सोफी वहां जाए तो उसकी समस्या भी शायद हल हो
जाए। जिस तरह तुम उसके बारे में बता रही हो उससे मुझे उस पर बड़ा तरस आ रहा है।’
‘तुम्हें उस बाबा पर इतना यकीन है।’
‘हां .... पूरा यकीन है। जानती हो जिस दिन तुम्हें डिस्चार्ज किया गया उस दिन
डॉक्टर नमिता ने मुझसे पूरी बात सुनने के बाद बाबा का पूरा ठिकाना नोट किया। जब
मैंने कहा कि ऐसे उन्हें ढूंढ़ पाना मुश्किल है तो उन्होेंने कहा ‘नहीं मिलेंगे तब आपको कष्ट दूंगी।’ बड़ा कुरेदने पर सिर्फ़ इतना ही
संकेत दिया कि हॉस्पिटल में सीनियर चैन से नहीं रहने दे रहे हैं और घर पर पति और
बेटी ने अपनी-अपनी हरकतों से परेशान कर रखा है। उनकी परेशानी का अंदाजा इसी से लगा
सकती हो कि यह बात कहते-कहते उनकी आंखें छल-छला आई थीं।’
‘तो बाबा के पास वह गईं कि नहीं।’
‘पता नहीं बाद में उन्होंने कोई फ़ोन नहीं किया। हालांकि मेरा नंबर अपने सेल में
फीड किया था।’
‘लेकिन सोफी से यह बताना ठीक रहेगा। वह मुस्लिम है। हिंदू बाबा की बात पर नाराज़
न हो जाए।’
‘कैसी बचकानी बात करती हो। ज़रूरत पड़ने पर आदमी हर जगह जाता है। ऐसे तमाम मुसलिम
लोगों को मैं जानता हूं जो हिंदू स्थानों पर मन्नतें मांगने जाते हैं। हिंदू
बाबाओं के शिष्य हैं। फिर तुम्हारा काम है उसकी समस्या के समाधान के लिए एक रास्ता
बता देना। बाकी हिंदू-मुसलमान वह खुद तय कर लेगी। उसे ज़रूरत होगी तो जाएगी, नहीं तो नहीं जाएगी। तुम्हारा काम है उसकी जो मदद कर सकती हो वह कर देना, बस। अब मुझे नींद आ रही सवेरे जल्दी उठना है।’
‘हां ..... रोज वही बोरिंग लाइफ कुछ बचा ही नहीं है।’
‘अभी बहुत कुछ बचा है डॉर्लिंग आओ तुम्हें बताता हूं, तुम्हारी बजानी भी तो है। कहते हुए नवीन ने सीमा को बांहों में जकड़ लिया। उसने
भी कोई प्रतिरोध नहीं किया।’
अगले दिन
उम्मीद के मुताबिक सीमा को ऑफ़िस में सोफी नहीं मिली। उसने उसे फ़ोन कर उसका हालचाल
लिया तो सोफी ने बताया ‘सूजन अभी है। दर्द पहले से कुछ ही कम हुआ है। ऑफ़िस दो-चार दिन बाद ही आ पाएगी।’ उसने यह भी बताया कि ‘पहले तो पति इस बात पर चिल्लाया कि उसको क्यों नहीं बताया। सारे ऑफ़िस में उसकी
मार-पीट की बात बताकर उसकी निंदा कराई होगी। लेकिन तब शांत हुआ जब उसे यह बताया कि
नहीं ऐसा कुछ नहीं बताया। तुम्हारे अलावा लोगों को सिर्फ़ इतना ही मालूम है कि
स्कूटी के भिड़ जाने से फ्रैक्चर हुआ।’
सोफी इसके बाद
पति की निष्ठुरता के बारे में बता कर रोने लगी कि ‘एक लड़का न होने के
कारण वह किस तरह उसे प्रताड़ित कर रहा है। इतनी चोट के बावजूद उसने खाना बनाने में
कोई मदद नहीं की। दर्द से तड़पते हुए उसने एक ही हाथ से रात ग्यारह बजे तक सारा काम
निपटाया। दवा खाने के बाद जब उसे कुछ राहत मिली और वह सो गई तो कोई आधे घंटे बाद
ही वह अपनी हवस शांत करने पर उतारू हो गया। लाख मिन्नतें कीं, चोट का, दर्द का हवाला दिया लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ा। क्रूरतापूर्वक अपनी हवस शांत कर
खर्राटे भरने लगा। और वह दर्द से घंटों पड़ी कराहती रही।’
सोफी की यातना
उसकी रुलाई सुन कर सीमा भी भावुक हो उठी। वह गुस्से में बोली,
‘सोफी वो तुम्हारा आदमी है। मुझे कुछ कहने का अधिकार तो नहीं है लेकिन यह कहे
बिना अपने को रोक नहीं पा रही हूं कि तुम्हारा आदमी ऐसा भावनाहीन प्राणी है कि वह
आदमी कहलाने लायक नहीं है। आखिर तू फंस कैसे गई इसके चक्कर में।’
‘अब क्या बताऊं, मुकद्दर में जो लिखा था वो हुआ। अब तो ऐसे ही घुट-घुट कर मरना है।’
‘नहीं सोफी ज़िंदगी घुट-घुट कर मरने के लिए नहीं होती। फिर तू किसी पर डिपेंड
नहीं है। किसी की दया पर नहीं जी रही है। तुम पहले ठीक हो जाओ। जब ऑफ़िस आओगी तब
बात करेंगे।’
‘ठीक है सीमा। तुम्हारी जैसी सहेली किस्मत से ही मिलती है। कम से कम इस मामले
में तो मैं भाग्यशाली हूं। अच्छा ऑफ़िस में ध्यान रखना। कुछ राहत मिल जाए तो ज्वाइन
करती हूं। मुझे लगता है चार-छः दिन तो लग ही जाएंगे।’
इतनी बातों के
बाद सीमा ने फ़ोन काट दिया। इस बीच उसने कई बार सोचा कि बाबा के बारे में बात करे
लेकिन न जाने क्यों संकोच कर गई। नहीं बोल पाई बाबा के बारे में। बड़ी देर तक वह
सोचती रही सोफी की तकलीफों के बारे में कि आदमी ऐसा जाहिल और क्रूर मिला है, उसकी ज़िंदगी कैसे कटेगी। ऐसे तो उसे जीवन में सुख का कोई एक कतरा भी शायद ही
मिल पाएगा।
उसे इस नर्क से निकालने के लिए तो कोशिश
करनी ही चाहिए। अभी इतनी बड़ी ज़िंदगी पड़ी है। तीन-तीन बच्चियों का भी जीवन जुड़ा है
उससे। यह तलाक लेकर किसी अच्छे इंसान से दूसरा निकाह क्यों नहीं कर लेती। इनके
यहां तलाक हम हिंदुओं के यहां की तरह दुष्कर तो है नहीं। मगर यह सलाह मैं उसे कैसे
दे सकती हूं। वह बुरा मान गई तो।
उस के दिमाग
में सोफी की मदद करने की उधेड़बुन पूरे जोरों पर थी कि तभी उसके सीनियर ने चपरासी
से उसे बुला भेजा। वह खिन्न होते हुए चपरासी से बोली ‘ठीक है कह दो आ रही हूं।’ फिर मन ही मन बुद-बुदाई कमीने के पास
कोई काम-धाम है नहीं। बैठा कर फालतू बातें करेगा, घूर घूर कर ऊपर से
नीचे देखेगा। नज़र मिल जाए तो खीसें निपोर देगा, कुत्ता कहीं का लार टपकाता घूमता
रहता है। कमीने की बीवी पता नहीं क्या करती रहती है। वह कोसती गरियाती जब उसके पास
पहुंची तो उसके अनुमान के मुताबिक ही वह खीसें निपोरता हुआ बोला,
‘आइए-आइए सीमा जी आज कल आप लिफ्ट नहीं दे रहीं हैं।’
‘नहीं सर ऐसी बात नहीं है’, कहते हुए सीमा सामने चेयर पर बैठ गई और
काफी देर तक अंदर ही अंदर कुढ़ती उसकी अनर्गल बातें सुनती रही।
सोफी करीब एक
हफ्ते बाद हालत सुधरने पर ऑफ़िस पहुंची तो सीमा के बारे में सुन कर दंग रह गई। उसकी
हिम्मत की वह कायल हो गई। हाथ में प्लास्टर लगने के बाद जब वह अगले दिन नहीं आई थी
तब सीमा ने उस समय ऑफ़िस में हंगामा खड़ा कर दिया था, जब उसका सीनियर उससे
कुछ ज़्यादा ही अश्लील बातें करने लगा था। सीमा ने न सिर्फ़ जी भर के हंगामा करा, पूरा ऑफ़िस इकट्ठा कर लिया, बल्कि उसकी लिखित कंप्लेंट की, फिर यूनियन और अन्य लोगों के साथ तब तक दबाव बनाया जब तक कि विभागीय जांच के
आदेश न हो गए। उसने यूनियन के उन लोगों की एक न सुनी जो बातचीत कर मामले को
रफा-दफा करा देना चाहते थे। यह सब जानने के बाद सोफी ने तुरंत सीमा को फ़ोन किया।
क्योंकि अभी तक वह आई नहीं थी। सीमा ने फ़ोन उठाते ही कहा,
‘अभी पैरेंट्स मीटिंग में हूं एक घंटे बाद आती हूं।’
सोफी बेसब्री
से उसका इंतजार करती रही। क्योंकि वह उसके मुंह से ही सब सुनना चाहती थी। सीमा
बताए वक़्त से जब करीब दो घंटे लेट पहुंची
ऑफ़िस तो सोफी छूटते ही बोली,
‘तूने तो कमाल कर दिया यार। उस सबसे बड़े घाघ को ठीक कर दिया। सारी औरतों का
जीना हराम कर रखा था। पिछले महीने तो मुझसे दो बार कहीं घूमने चलने के लिए कह चुका
था। मैंने मारे डर के किसी से कुछ नहीं कहा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए।’
‘यही तो गलती की। हम लोगों की इन्हीं गलतियों के चलते इन शोहदों की हिम्मत बढ़ती
है। हमें तुरंत करारा जवाब देेने की आदत डालनी ही पड़ेगी, तभी गुजारा है। अच्छा अभी कुछ काम कर लेते हैं फिर लंच में बातें करते हैं, तुम्हें अभी बहुत कुछ बताना है।’
‘हां ठीक है नहीं तो सब कहेंगे मिलते ही दोनों चालू हो गईं।’
लंच टाइम में
सोफी-सीमा फिर मिलीं। सोफी का हालचाल लेने एवं सीनियर के साथ हुए बखेड़े के बारे
में बताने के बाद सीमा सीधे उस मुद्दे पर आ गई जिसे वह सोफी से हफ्ते भर से कहना
चाह रही थी। फ़ोन पर बात जुबां पर आते-आते कई बार रह गई थी। उसने सोफी से बाबा के
बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उसकी बच्ची के जन्म के समय बाबा ने मदद की। और
आखिर में जोड़ा,
‘देखो सोफी मैं यह कहने की हिम्मत जुटाने में हफ्ते भर असमंजस में रही कि तुम
एक बार उस औघड़ बाबा से मिल लो। तुम्हारी हालत देखकर मैं बहुत आहत थी। तभी बातचीत
में पति ने यह सब बताया। संकोच वह भी कर रहे थे कि तुम मुसलमान हो, हिंदू औघड़ बाबा की बात पर नाराज़ न हो जाओ।’
‘नहीं ऐसा क्यों सोचती हो। तुम लोग मेरे लिए इतना सोच रहे हो और मैं नाराज होऊं
ऐसा तो संभव ही नहीं है। मैं तो जीवन भर तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी। मगर एक आशंका
है।’
‘क्या ?’
‘मैंने सुना है कि औघड़ बहुत ही भयानक तरह की पूजा-पाठ करते हैं। शायद कपड़े
वगैरह भी नहीं पहनते।’
‘बिना कपड़ों के तो नागा साधू रहते हैं। हां औघड़ बाबाओं की पूजा में मांस, मदिरा नशा-पानी सब चलता है। बड़े क्रोधी भी होते हैं। ज़्यादातर यह श्मशान घाट
पर पूजा करते हैं। ये समझ लो कि जैसे तुम्हारे यहां टोना, झाड़-फूंक आदि करने वाले बाबा आदि होते हैं उनसे ही मिलते जुलते।’
‘मगर सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि इनको यह बताऊं कैसे कि फलां औघड़ बाबा के पास
चलो तो मुराद पूरी होगी। बेटा ही होगा। और यदि यह नहीं गए तो जाऊंगी कैसे ?’
‘क्यों क्या तुम्हारे पति को इन बातों पर यकीन नहीं है ?’
‘थोड़ा बहुत नहीं बहुत ज़्यादा है। न जाने कितने पीर-फकीरों से मिलते रहते हैं।
तमाम भभूत, ताबीज़, गंडे आदि लाते रहते हैं। न जाने कितना पैसा इन्हीं सब पर फूँक देते हैं। अगर
मुझे सच मालूम है तो यह कई हिंदू साधु-संन्यासियों के भी चक्कर लगा चुके हैं।’
‘तब तो कोई दिक़्कत ही नहीं होनी चाहिए।’
‘है, बहुत बड़ी दिक़्कत है। वह खुद तो पीर-फकीर, मौलवी हर के पास जाते रहते हैं।
मगर मुझे इनमें से कहीं भी ले जाना उन्हें मंजूर नहीं। शुरू में एक दो जगह बड़े दबे
मन से ले गए। मगर पिछले साल एक मौलवी के यहां जब गए और उसने जो भी बताया और
झाड़-फूंक कर कुछ चीजें मुझ पर फेंकी और फिर इन्हें कुछ सामान देकर किसी चौराहे पर
फेंक कर आने को कहा, वहां तक तो सब ठीक था। लेकिन जब यह करीब दस पंद्रह मिनट बाद लौटे तो उस मौलवी
में न जाने ऐसा क्या देख लिया कि तुरंत मुझे वहां से लेकर चल दिए। रास्ते भर उसका
नाम लिए बिना ढोंगी, बेईमान और न जाने क्या-क्या गाली देते रहे।
घर पर मेरे साथ भी बदतमीजी की। इतनी बात
मेरी समझ में आई कि ‘कमीनी वहां से हट नहीं सकती थी।’ मैं आज तक नहीं समझ पाई कि आखिर उस
दिन उस मौलवी को इन्होंने ऐसा क्या करते देख लिया था कि अचानक ही इतना आग-बबूला हो
गए। फिर इस घटना के बाद मुझे कभी ऐसी किसी जगह लेकर नहीं गए। और मेरी हिम्मत भी
नहीं पड़ती कि मैं कुछ कहूं। अब तुम्हीं बताओ कि वह मुझे लेकर एक औघड़ बाबा के यहां
जाएंगे ?’
‘मुझे भी कोई उम्मीद नहीं दिखती। अब तुम अपनी सहूलियत के हिसाब से देख लो, सोचो कोई रास्ता निकाल सकती हो तो निकालो। नहीं तो फिर वक़्त का इंतजार करो।
हो सकता है तुम्हारे पति यह सब करते-करते थक हार कर बैठ जाएं और लड़के के बारे में
सोचना बंद कर लड़कियों पर ही मन लगा लें।’
‘नहीं सीमा मुझे ऐसा मुमकिन नहीं लगता।’
‘क्यों ?’
‘अब क्या बताऊं... कहना तो नहीं चाहिए मियां-बीवी के बीच की बात है, लेकिन जब तुम हमारे लिए इस हद तक परेशान हो तो खुल कर बताती हूं तुम्हें। बेटा
हो इस बात के लिए यह इस हद तक जिद पकड़ चुके हैं कि आए दिन एक और निकाह कर लेने या
फिर तलाक दे देने की धमकी देते ही रहते हैं। उनकी इस धमकी से सिहर उठती हूं कि अगर
तलाक दे दिया तो इन तीनों लड़कियों को लेकर जाऊंगी कहां। यदि दूसरा निकाह कर लिया
तो ज़िंदगी और नरक। बेटे के लिए इनकी दिवानगी का अंदाजा इसी एक बात से लगा सकती हो
कि दुआ तावीज ही नहीं तरह-तरह की अंड-बंड दवाएं भी खाते हैं और जबरदस्ती मुझे भी
खिलाते रहते हैं।
पिछले कई
महीनों से एक झोला छाप हकीम के चक्कर में पड़े हुए हैं। उसने न जाने ऐसी कौन सी दवा
दी है कि दूध में लेने के बाद जैसे अपना आपा ही खो बैठते हैं। उसके बताए तरीके से
ऐसे अंड-बंड रौंदते हैं मुझे कि मेरा कचूमर ही निकल जाता है। एक ही रात में कई बार
रौंदते हैं। नफरत इतनी कि खत्म होते ही धकेल देते हैं। मेरी हालत का अंदाजा इसी
बात से लगा सकती हो कि मेरा हाथ टूटा है लेकिन इस हाल में भी नहीं छोड़ते। मेरी
कितनी मदद करते हैं उसका अंदाजा इस बात से लगाओ कि इस हालत में जब इन्होंने पहले
दिन अपनी पहलवानी दिखा ली उसके बाद मैंने सलवार का नाड़ा बांधने की कोशिश की तो
बांध नहीं पाई। यह लौटे बाथरूम से तो दर्द से सिसकते हुए मैंने नाड़ा बांधने के लिए
कहा तो बदले में गाली मिली।
मैं लाख कोशिश
के बाद नहीं बांध पाई तो सोचा बड़ी वाली लड़की को उठाऊं। लेकिन फिर सोचा यह ठीक नहीं
है। अंततः मैंने बैग से बड़ी वाली सेफ्टी पिन निकाली और फिर मुंह में दबा कर उसे
किसी तरह खोला और एक हाथ से ही सलवार में लगाया। किसी तरह काम चला। दिन में बच्ची
की सहायता से ही नाड़ा बांधना खोलना हो पा रहा है। मारे डर के जीने भर का ही पानी
पीती हूं कि बाथरूम जाना ही न पड़े। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं कैसे करूं।’
‘माफ करना सोफी मगर तुम्हारे आदमी और जल्लाद में कोई बड़ा फ़र्क मुझे दिखता नहीं।
तुम्हारी हालत देख कर समझ में नहीं आता कि क्या करूं। बाबा के यहां जाने के लिए
तुम पति से कुछ कह नहीं सकती। और सबसे यह बात शेय़र नहीं की जा सकती।’
‘क्या वहां अकेले जाने वाला नहीं है। या तुम अगर थोड़ा वक़्त निकाल सको।’
‘इन्होंने जैसा बताया उस हिसाब से ऐसा कुछ नहीं है। टेम्पो भी आते-जाते हैं।
जहां तक मेरे चलने का प्रश्न है तो... देखो सोफी बुरा नहीं मानना मैं भी अपने आदमी
को अच्छी तरह जानती हूं। और अपनी लिमिट भी, फिर भी कहती हूं जब कोई रास्ता न
बचे तो बताना। कोई न कोई रास्ता निकाल लूंगी। नहीं होगा तो अपने हसबैंड को ही किसी
तरह तैयार कर लूंगी।’
‘वे मान जाएंगे ?’
‘मैंने कहा न मैं मना लूंगी। पहले तुम यह तय करो कि जाओगी कि नहीं। और टाइम
कैसे निकालोगी। आदमी को बताओगी कि नहीं।’
‘देखो मैंने यह तोे तय कर लिया है कि जाऊंगी। और यह भी तय है कि आदमी को इसकी
भनक भी नहीं लगने दूंगी। रही बात टाइम की तो एक ही रास्ता है पहले ऑफ़िस आऊंगी फिर
यहां कुछ देर बाद आधे दिन की छुट्टी लेकर चली जाऊंगी।’
‘लेकिन इस बीच मान लो तुम्हारा हसबैंड आ गया या फ़ोन आ गया तो कैसे मैनेज करोगी।’
‘देखा जाएगा। कहां तक क्या-क्या मैनेज करूं।’
‘अच्छा आओ अब चलते हैं लंच टाइम खत्म हुए आधा घंटा से ज़्यादा हो रहा है। एक
मिनट तुम्हें बाथरूम जाना हो तो बताओ ? इसमें संकोच की ज़रूरत नहीं है। मैं
नाड़ा बांध दूंगी। इसलिए ऑफ़िस में जितना पानी पीना हो पियो यहां मैं हूं तुम्हारे
साथ। फिर कुछ दिन में तो इससे फुरसत मिल ही जाएगी न।’
‘देखो ... डॉक्टर जिस तरह गोल-मोल बात करता है उससे तो लगता है कम से कम दो
महीने और लगेंगे।’
बाथरूम में जब
सीमा सोफी की सलवार बांध रही थी तभी उसे अपने हाथ पर गर्म-गर्म दो बूंदें टपकने का
अहसास हुआ। उसने एक झटके से सोफी के चेहरे की ओर देखा और बोली,
‘ये क्या सोफी इतना इमोशनल होने से ज़िंदगी नहीं चलती। तुम तो बहादुर हो सामना
करो हर चीज का। ऐसे कमजोर होने से काम नहीं चलता। आओ चलो। लेकिन पहले मुंह धो लो
नहीं पंचायती लोग मुंह देख कर जान लेंगे आंसुओं के बारे में और आ जाएंगे घड़ियाली
सांत्वना देेने और बाद में खिल्ली उड़ाएंगे।’
लंच से वापस
आने के बाद भी दोनों ने कुछ ही काम किया। बाकी समय बतियाती ही रहीं। सोफी अपने पति
से जुड़ी बातों को बता-बता कर बार-बार भावुक होती रही और सीमा धैर्य रखने को बोलती
रही। जुल्फी से मुलाकात के दिन को वह अपने लिए सबसे मनहूस दिन बताती रही। और सीमा
से यह भी कहा कि ‘तलाक की जैसी तलवार हर क्षण हम लोगों पर लटकती रहती है, तीन सेकेंड में तलाक हो जाता है, वैसी तलवार तुम लोगों पर होती ही
नहीं। तुम्हारे यहां तो तलाक देना शादी करने से भी ज़्यादा बड़ा और मुश्किल काम है।
इस लिए तुम लोग पतियों से बराबर बहस कर सकती हो, हम लोग नहीं। यही वजह
है कि हमें तुम जैसी आज़ादी नसीब ही नहीं हो सकती।’
दोनों की
अंतहीन बातें शाम तक चलती रहीं। छुट्टी होने पर बिदा ली घर के लिए। घर पहुंचने तक
सोफी के दिमाग में तमाम बातें उमड़ती-घुमड़ती रहीं। उसे अपनी ज़िंदगी अपनी किस्मत पर
रोना आता रहा। और अर्से बाद अचानक आज उसे बड़ी शिद्दत से अम्मी-अब्बू, भाई-बहनों की याद आ रही थी। और आखिरी बार का वह मिलना-बिछड़ना भी। जब पुलिस
कस्टडी में वह जुल्फ़ी के साथ थी, अब्बू ने उसे नाबालिग कहते हुए जुल्फ़़ी
पर उसके अपहरण का आरोप लगाया था। पुलिस ने इस पर उसे गिरफ़्तार कर लिया था। लेकिन
अब्बू उसके नाबालिग होने का कोई प्रमाण नहीं दे सके। जुल्फ़़ी के कहने पर वह अपना
हाई स्कूल का प्रमाण पत्र घर छोड़ने से पहले ही उठा लाई थी। जिसे दिखा कर जुल्फ़़ी
ने साबित कर दिया था कि वह बालिग है। और उस पर दर्ज कराया गया केस फर्जी है अतः
उसे छोड़ा जाए। क्योंकि लड़की उससे निकाह कर चुकी है।
जुल्फ़़ी की
तैयारियों के आगे पुलिस विवश थी। अंततः उन दोनों को छोड़ दिया गया। तब उसे जुल्फ़ी
के साथ जाते उसके अब्बू-अम्मी, भाई-बहन, रिश्तेदार देखते रह गए
थे। अम्मी रोते-रोते बोली थी ‘अब भी लौट आ कुछ नहीं बिगड़ा है।’ मगर बाद में हार कर चिल्ला पड़ी थी। ‘तू जन्मते ही मर क्यों नहीं गई थी
करमजली। जा तू जीवन भर पछताएगी। जैसे हम सब को तड़पा रही है जीवन भर तड़पेगी। अल्लाह
त-आला तुझे एक पल को भी चैन न बख्सेगा।’ फिर वह दुपट्टे से अपना मुंह ढक के
वहीं सड़क पर बैठ कर रोने लगी थीं। और अब्बू! वह तो गुस्से से कांप रहे थे।
अब कुछ न हो सकेगा यह यकीन हो जाने के बाद
उन्होंने ज़ुल्फ़ी और उसको जीभर गाली दी थी। और बात तब मार पीट तक पहुंच गई थी जब
उन्होंने यह कहा कि जीवन में दुबारा दिखाई मत देना नहीं तो बोटी-बोटी काट डालूंगा।
इस पर जुल्फ़ी और उसके साथी भड़क उठे थे। लेकिन थानेदार ने आमतौर पर नज़र आने वाले
सख्त पुलिसिया रवैए से अलग दोनों पक्षों को घर जाने को कहा। जुल्फ़ी का वकील तो अड़ा
हुआ था कि अब्बू के खिलाफ हत्या की धमकी देने, फर्जी केस दर्ज कराने का मामला
दर्ज हो।
इसके बाद वह
अपने परिवार से कभी न मिल सकी। निकाह के करीब साल भर बाद उसने एक दिन जुल्फ़ी से
छिपा कर तीन बार फ़ोन किया था। पहली बार भाई ने फ़ोन उठाया था। और आवाज़ सुनते ही
डांट कर फ़ोन का रिसीवर पटक दिया था। कुछ देर बाद फिर किया तो मां ने उठाया, फिर वह एक सांस में जितनी लानत मलामत भेज सकती थीं भेज कर यह कहते हुए रिसीवर
पटका कि दुबारा किया तो पुलिस में कंप्लेंट कर दूंगी।
यह भूली बिसरी
बातें सोचते-सोचते उसके आंसू निकलते रहे। और एक बार वह बुदबुदा उठी ‘अम्मी उस दिन तुम कह रही थी कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है लौट आ। मगर वहां तुमको
कैसे बताती कि तब यह मुमकिन ही न रह गया था। क्योंकि तब तक जैनब मेरे पेट में दो
महीने की हो चुकी थी। और हमारे सामने कोई रास्ता बचा न था। क्योंकि यह किसी भी
सूरत में एबॉर्शन को तैयार ही न थे।’
ऐसे ही ख़्यालों
में डूबती उतराती वह घर पहुंच गई, लेकिन दिमाग में यह बातें चलती रहीं। तब
भी जब बच्चियां अपनी दिन भर की बातें बतातीं और सुनाती रहीं। और मियां जुल्फ़ी अपनी
आदत के अनुसार मन का काम न होने पर अंड-बंड बकते रहे। आज यह बात उसके दिमाग में
कुछ इस कदर शुरू हो चुकी थी कि तब भी चलती रहीं जब बच्चियां खा पी कर सो गईं। और
मियां जी भी अपना वहशियाना खेल खेल कर खर्राटे ले रहे थे। और वह दर्द से आहत हो छत
को निहारती निश्चल पड़ी थी। तब उसका एक हाथ सलवार का नाड़ा पकड़े हुए था। क्योंकि
बाथरूम से आने के बाद वह उसे बांध नहीं पा रही थी। और तभी से वह कमरे की लाइट ऑन
किए विचारों में पहले की तरह डूबती
उतराती जा रही थी।
हाथ को लेकर
सोफी की आशंका सही निकली। पूरी तरह ठीक होने में करीब दो महीने लग गए। यह दो महीने
उसके बहुत ही कष्टपूर्ण दर्द भरे रहे। पति का जाहिलों भरा व्यवहार कहीं से कम न
हुआ। और नाड़ा बांधना! यह उसके लिए किसी भयानक सजा को भोगने का अहसास देने वाला
साबित हुआ। इन सारी बातों के साथ जो एक बात सबसे अलग रही और बराबर उसके दिमाग में
चलती रही वह थी औघड़ बाबा की। वक़्त के साथ-साथ न जाने क्यों उसे यह यकीन होता जा
रहा था कि यह औघड़ बाबा उस पर हर क्षण लटकती तलाक की तलवार को हटा देगा। उसकी कृपा
से उसे पुत्र ज़रूर पैदा होगा।
उसने तय कर लिया कि स्कूटी ठीक से चलाने
लायक होते ही वह औघड़ बाबा के पास ज़रूर जाएगी। और साथ ही यह भी तय कर लिया कि इस
बात को सीमा से भी नहीं बताएगी, किसी को भी कुछ पता नहीं चलने देगी।
नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें बनाएंगे। एक से बढ़ कर एक सलाह देने लगेंगे। सीमा है
तो बहुत मददगार, बहुत अच्छी लेकिन कभी बात करते-करते किसी से कह दिया तो बात फैलते और जुल्फ़ी
तक पहुंचते देर नहीं लगेगी। यूं तो अपनी समस्याओं से मुक्ति के लिए सभी जाते हैं
ऐसी जगहों पर लेकिन पंचायती लोग यह बात ज़्यादा उछालेंगे कि एक मुसलमान हो कर
अकेली ही चली गई औघड़ के पास।
व्यग्रता
बेसब्री के चलते वह अपने को ज़्यादा समय तक न रोक पाई। एक दिन ऑफ़िस पहुंची और घंटे
भर बाद ही छुट्टी लेकर चल दी कि अस्पताल जाना है। सीमा को भी सच नहीं बताया। साफ
झूठ बोलते हुए बताया कि पेट में कई दिन से बहुत दर्द है। एक तरफ ही होता है। डर लग
रहा है कि कहीं कुछ बड़ी समस्या न हो। आज कल तो ट्यूमर-स्यूमर जैसी न जाने कितनी
बीमारियां होती रहती हैं। सीमा ने साथ चलने को कहा तो यह कह कर मना कर दिया कि अभी
रहने दो ज़रूरत हुई तो फ़ोन करूंगी।
बाबा के पास
जाने के लिए सोफी जब चली तो एक तरफ जल्दी से जल्दी पहुंचने की व्यग्रता थी तो साथ
ही मन में यह डर भी कि कहीं बात खुल न जाए। जुल्फी जानते ही आफ़त खड़ी कर देगा। मगर
सोफ़ी का यह डर बाबा तक पहुंचने की इच्छा के आगे धीरे-धीरे कमजोर होता गया। आधे
घंटे की ड्राइविंग के बाद वह मोहान रोड पहुंची। मगर समस्या यह थी कि बाबा के बारे
में पूछे किससे। यूं तो तमाम दुकानें, आते-जाते लोगों की संख्या कम न थी।
सोफ़ी ने अंततः यही निश्चित किया कि वह ऐसी किसी
औरत से ही पता पूछेगी जो यहीं की होगी और साथ ही निचले तबके की होगी। इससे यह भी
पता चल जाएगा कि बाबा को लोग कितना जानते हैं। लोगों की नजर में बाबा कितने पहुंचे
हुए हैं। यह सोच वह फुटपाथ पर बैठी सब्जी बेच रही एक ग्रामीण महिला के पास स्कूटी
रोक कर उतरी। नजदीक जाकर पूछा तो उस ग्रामीण महिला ने उसे जो कुछ बताया उससे उसको
बड़ी राहत मिली, खुशी भी कि वह सही जगह पहुँच रही है।
वह महिला बाबा
की महिमा का बखान करते नहीं थक रही थी। मगर इस बात ने उसे थोड़ा डरा दिया था कि एक
तो बाबा जल्दी मिलते नहीं दूसरे जल्दी उनकी कृपा नहीं मिलती। लेकिन जिस पर कृपा हो
जाती है वह उनके पास से कभी खाली हाथ नहीं लौटता, उसकी मनोकामना पूरी
होकर ही रहती है। उसकी बातों से उत्साहित सोफ़ी ने ऐसी ही कई अन्य महिलाओं से भी
बात की। सभी ने बाबा का गुणगान ही किया। फ़र्क बस इतना था किसी ने कम किसी ने
ज़्यादा किया। मगर सबसे बड़ी समस्या थी उनका ठिकाना जो मेन रोड से करीब एक किलोमीटर
अंदर सूनसान जगह पर था। जहां जाने के लिए कच्चा रास्ता था। वह जगह वास्तव में आगे
स्थित जंगल का बाहरी हिस्सा था। उबड़-खाबड़ ऊंची-नीची जमीन, झाड़-झंखाड़ और इधर-उधर नज़र आते पेड़।
लोगों के बताए
ठिकाने पर डरती-सहमती सोफ़़ी किसी तरह आगे बढ़ती रही। ऐसे कच्चे रास्ते पर वह पहली
बार स्कूटी चला रही थी। उसे ड्राइविंग में बड़ी मुश्किल आ रही थी। कई बार गिरते-गिरते
बची लेकिन वह रुकी नहीं। इधर-उधर कई जगह उसे गाय-भैंसों के झुंड चरते नज़र आए।
मात्र छः-सात मिनट का रास्ता अंततः उसने पंद्रह मिनट में पूरा किया। और एक पेड़ के
सहारे पुआल की बनी एक बेहद जर्जर सी झोपड़ी के पास पहुंची। उसके सामने ही थोड़ी ऊंची
जगह थी जिसे मिट्टी डाल कर ऊंचा किया गया था। उस पर पतली मोटी कई लकड़ियां सुलग रही
थीं।
राख का ढेर, कोयले यह संकेत दे रहे थे कि आग यहां लंबे समय से जलाई जा रही है और राख वगैरह
कभी हटाई नहीं जाती। जिससे ढेर ऊंचा होता जा रहा है। इस ढेर के साथ ही कुछ और जमीन
भी ऊंची थी जो चबूतरे सी लग रही थी। जिस पर एक तरफ एक चिथड़ा सा कंबल पड़ा हुआ था।
यह सब देख कर सोफ़ी को पक्का यकीन हो गया कि यही है बाबा का ठिकाना। क्योंकि सीमा
सहित आते समय सब ने बाबा के ठिकाने के बारे में ऐसा ही सब कुछ बताया था। उस
सास-बहू ने भी जो अभी दस मिनट पहले ही इस कच्चे रास्ते पर आते समय मिली थीं।
उन्होंने भी बड़ा गुणगान किया था बाबा का। वह बाबा का आशीर्वाद लेकर लौट रही थीं।
बहू अपने पति
के एक अन्य महिला से संबंध के कारण बहुत परेशान थी। और वह भी बाबा की महिमा सुन कर
अपनी सास के साथ आई थी। उसकी सूजी हुई आंखें बता रही थीं कि वह बाबा के सामने बहुत
रो-धो कर आई थी। लेकिन बाबा के पास से लौटते वक़्त दोनों के चेहरों पर सब कुछ ठीक
हो जाने के विश्वास की चमक दिखाई दे रही थी। उन दोनों ने यह भी बताया कि बाबा कुछ
लेते-देते नहीं हैं। बहुत जल्दी क्रोधित हो जाते हैं। किसी बात को जानने सुनने के
लिए जल्द बाजी नहीं करना। शांत भाव से हाथ जोड़े खड़ी रहना। बाबा जब एक बार शुरू
होंगे तो खुदी सब कुछ बता देंगे।
सोफ़ी ने वहीं
पास में एक पेड़ की आड़ में कुछ इस ढंग से स्कूटी खड़ी की कि जल्दी उस पर किसी की नज़र
न पड़े। स्कूटी खड़ी कर कुछ देर इधर-उधर उसने नज़र दौड़ाई। काफी दूर जानवरों के साथ
तीन-चार लड़के-लड़कियां ही नज़र आए, बाबा कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रहे थे।
सोफ़ी ने दुपट्टे से अपने सिर को ढंका और कुछ सहमती सिकुड़ती सी, मन में अनजाने डर से थरथराती हुई झोपड़ी की तरफ क़दम बढ़ाए। मगर कुछ क़दम ही चल कर
ठिठक गई और अपनी चप्पल उतारी फिर आगे बढ़ी।
दस-बारह क़दम चल
कर वह झोपड़ी के प्रवेश स्थल पर पहुंची तो उसने कुछ अजीब तरह की हल्की-हल्की गंध
महसूस की। वह कंफ्यूज थी कि इसे खुशबू कहे या बदबू। डरते हुए मात्र पांच फिट ऊंचे
प्रवेश द्वार से उसने अंदर झांका तो बाबा वहां भी नहीं दिखे। हां पुआल का एक ऐसा
ढेर पड़ा था जिसे देख कर लग रहा था कि इसे सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उसके
ऊपर एक मोटी सी पुरानी दरी पड़ी थी जो कई जगह से फटी थी। एक तरफ एक घड़ा रखा था जो
एल्युमिनियम के एक जग से ढका था। दूसरी तरफ भी कुछ सामान बिखरा पड़ा था जो
तंत्र-मंत्र से संब़द्ध लगता था। पक्की मिट्टी का एक तसला सा बर्तन भी था, जिसमें भभूति का ढेर लगा हुआ था।
लगभग दस गुणे पंद्रह की वह झोपड़ी जिसमें
जगह-जगह मकड़ियों ने जाले बना रखे थे कुछ अजीब सी चीजों और अजीब सी गंध या सुगंध से
भरा था। जो पुआल का बिस्तर था उसके कोने पर बाबा का कपड़ा एक मटमैले रंग का अंगौछा
और एक करीब-करीब लंगोट जैसा कपड़ा पड़ा था। सारा दृश्य देख कर सोफ़ी को यकीन हो गया
कि वह सही जगह पहुंच गई है,
यही बाबा का डेरा है। उसे राहत महसूस हो रही थी। और साथ ही
प्यास भी लगी थी मगर पानी का तो यहां नामोनिशान नहीं था। घड़े में न जाने क्या था।
फिर बाबा की इज़ाज़त के बिना कुछ छुआ भी नहीं जा सकता था।
बाबा की
अनुपस्थिति अब उसे खलने लगी थी। यह सोच वह परेशान हो उठी कि कहीं उसे खाली हाथ
बाबा के दर्शन के बिना ही न लौटना पड़े। झोपड़ी के संकरे रास्ते से वह दो क़दम उल्टा
ही पीछे चल कर बाहर आ गई। गर्मी, धूल उसे अब ज़्यादा तकलीफदेह लग रही थी।
पसीने को बदन पर उसने रेंगता हुआ महसूस किया। खासतौर से सलवार के अंदर जाघों से
घुटनों की तरफ जाता हुआ। कहने को मौसम विभाग बारिश की संभावना रोज ही बता रहा था, लेकिन बारिश छोड़ो, बादल भी नज़र नहीं आ रहे थे। सशंकित मन लिए वह स्कूटी के पास आ कर खड़ी हो गई।
वहां की छाया उसे कुछ सुकून दे रही थी। लेकिन पंद्रह मिनट बाद भी बाबा न दिखे तो
उसकी परेशानी बढ़ने लगी। बीतते एक-एक पल बहुत भारी हो रहे थे, और जब पौन घंटा से ज़्यादा बीत गया तो सोफ़ी ने भारी मन से वापस चलने का निर्णय
ले लिया।
प्यास से उसका
गला बुरी तरह सूख रहा था। उसने स्कूटी को स्टैंड से उतारा ही था कि करीब पचास मीटर
की दूरी पर उसे एक आदमी अपनी तरफ आता दिखाई दिया। वह एकदम रुक गई और उस आदमी पर
एकदम नज़र गड़ा दी। वह एकदम मस्त चाल से करीब-करीब झूमता हुआ सा चला आ रहा था। जब वह
करीब आ गया तो सोफ़ी ने बहुत राहत महसूस की और बुदबुदाई यह बाबा जी ही लग रहे हैं।
जैसा सब ने बताया था बिल्कुल वैसा ही तो है हुलिया। कमर से नीचे झूलती जटाएं। रंग
गहरा सांवला, ऊंचाई सवा छः फिट। बदन बेहद मज़बूत कसा हुआ। पहलवानों जैसा। छाती हाथ पैर सब
बड़े-बड़े काले बालों से भरे हुए थे। और कपड़े! कमर में एक पतली सी डोरी सी चीज में
काले कपड़े के दो टुकड़े एक आगे और एक पीछे लटक रहे थे। जिसे न तो लंगोट कह सकते थे
और न ही कोपिन। बाबा के दहिने हाथ में लकड़ी का एक बड़ा कुंदा था जो जमीन तक लंबा था, बाबा उसे खींचते हुए लिए आ रहे थे।
सोफ़ी के सामने से बाबा मात्र दस क़दम की
दूरी से आगे निकल गए और लकड़ी उस सुलगती आग पर डाल दी। फिर उसे जलाने की गरज से बैठ
गए और कुछ पतली लकड़ियों, जलते कोयलों को लकड़ी की ऊंचाई तक कर दिया जिससे मोटी लकड़ी आग पकड़ सके। बाबा आग
में फूंक मार-मार कर कुंदे में आग पकड़ाने की कोशिश करने लगे। बाबा उकड़ूं बैठकर
फूंक मार रहे थे। बाबा सोफ़ी के सामने से निकलने से लेकर आग के पास बैठने तक ऐसे
बिहैव कर रहे थे, मानो सोफ़ी वहां है ही नहीं। वहां अकेले वही हैं।
इधर सोफ़ी अलग
पशोपेश में थी। जब से बाबा सामने से निकले तब से वह हाथ जोड़े खड़ी उन्हें निहारे जा
रही थी। जीवन में पहली बार किसी शख्स या बाबा को वह इस रूप में इस तरह अकेले
विराने में देख रही थी। डरी सहमी थी इस लिए अपने शरीर की थर-थराहट साफ महसूस कर
रही थी। बाबा के शरीर पर उसकी नज़र ऊपर से नीचे तक सेकेण्ड भर में दौड़ गई थी जब वह
सामने से निकले थे।
जितनी देर हो
रही थी वह उतनी ही ज़्यादा व्याकुल हो रही थी। जीवन में पहली बार वह इस अनुभव से
गुजर रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि बाबा से कैसे मुखातिब हो। पंद्रह मिनट से
ज़्यादा बीत गए थे उसे हाथ जोड़े खड़े हुए और बाबा थे कि उन्हें होश ही नहीं था। वह
उठे तो लकड़ी सुलगा कर ही उठे। मगर सोफ़़ी की हालत जस की तस ही रही। बाबा ने उसकी
तरफ देखा ही नहीं और उठ कर एक बार मद्धम स्वर में जय महाकाल बोला और चले गए झोपड़ी के
अंदर।
सोफी का असमंजस
और बढ़ गया। समझ में नहीं आ रहा था क्या करे क्या न करे। प्यास, थकान अलग पस्त किए जा रहे थे। खीज कर उसने निर्णय लिया जो भी हो एक बार बात कर
ही लेती हूं। जो होगा देखेंगे। उसने जल्दी से चप्पल उतारी और सीधे झोपड़ी के दरवाजे
पर जा खड़ी हुई। अंदर की कुछ आहट लेने के बाद बडे़ याचनापूर्ण स्वर में बोली,
‘बाबा जी’... कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला तो उसने थोड़ा तेज़ स्वर में पुनः कहा ‘बाबा जी.... मुझ पर कृपा कीजिए मैं बहुत परेशान हूं।’
इस बार अंदर से बाबा जी की भारी भरकम
आवाज़ सुनाई दी।
‘जानता हूं क्या परेशानी है तुझे।’
फिर शांति छा
गई तो सोफ़ी ने पूछा बाबा जी मैं ‘अंदर आ जाऊं ?’ अंदर से बाबा की वही भारी आवाज़ ‘आ जाओ।’ यह सुनते ही सोफी चली गई अंदर और बाबा के पैरों के पास हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई।
उसकी नजरें अपने पैरों की आस-पास की ज़मीन देखती रहीं। क्योंकि बाबा अपने पुआल के
बिस्तर पर निर्विकार भाव से चित्त लेटे हुए थे। उनका वह सूक्ष्म कपड़ा भी एक तरफ
हटा हुआ था। उनके शरीर का कोई अंश ढका नहीं था। आंखें उनकी बंद थीं।
कुछ क्षण खामोशी के बाद फिर गुर्राए ‘लड़का ..... लड़का .... लड़का । महाकाल क्या अब तू यह दुनिया बिना लड़कियों के ही
चलाएगा। अपनी सृष्टि का स्वरूप बदलने की मंशा बना ली है क्या? हर कोई बस लड़का मांगने आ जा रहा है, लड़की के बारे में बात ही नहीं करता
कोई। क्यों तुझे भी लड़का चाहिए ना?’ बाबा ने आंखें बंद किए-किए ही पूछ
लिया सोफ़ी से, तो पहले तो वह आश्चर्य में पड़ी कि मन की बात कैसे जान ली बाबा ने, एकदम हकबका उठी। हकलाती हुई बोली,
‘जी... बाबा जी... यदि अब लड़का नहीं हुआ तो मेरी ज़िदगी नर्क बन जाएगी। मेरा
शौहर मुझे छोड़ देगा।’
‘तुझे वह नहीं छोड़ पाएगा। महाकाल से प्रार्थना करूंगा कि वह तेरी मनोकामना पूरी
करे। उसके पास से कोई निराश नहीं लौटता। तू भी नहीं लौटेगी। मगर, बाबा जो कहेगा वह कर सकेगी?’
बाबा की बात सुन कर बेहद उत्साहित सोफ़ी
बोली,
‘बाबा जी आपकी सारी बात मानूंगी...। मुझे इस बार बेटा चाहिए बाबा जी बेटा।’
‘तुझे इस बार बेटा ही मिलेगा। यह कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए। एकदम निर्वस्त्र।
उनका वह सूक्ष्म वस्त्र पुआल के बिस्तर पर ही पड़ा रहा। उसने उनका साथ नहीं दिया।
सोफी झुकी-झुकी
नजरों से देखती रही उन्हें। वह अंदर ही अंदर पहले ही की तरह सहमी तो थी ही लेकिन
अब शरीर के अंदर कुछ और क्रिया के शुरू होने का अहसास भी कर रही थी। इसी बीच बाबा
ने अपने पुआल के बिस्तर की तरफ इशारा कर कहा,
‘लेट जा वहां पर।’
सोफी को बाबा
की यह बात न अनचाही लगी और न ही चौंकाने वाली। उसका दुपट्टा जो कुछ देर पहले तक
उसके सिर को ढके हुए था। अब कंधों पर पड़ा था वह। बाबा की बात सुनते ही वह लेट गई।
इस क्रम में उसका दुपट्टा अपनी जगह से हट गया और उसकी भारी छातियों का काफी हिस्सा
दिखने लगा था। उसने आँखें बंद कर ली थीं।
भाव-भांगिमा ऐसी कि जैसे सब कुछ समर्पित कर दिया हो बाबा को। कर दिया उनके हवाले
वह जो उचित समझें करें। आखिर उसे एक बेटा चाहिए जो बदल देगा उसके जीवन का रुख। अंत
कर देगा उसके पीड़ादायी जीवन का।
कुछ ही क्षण
में उसने महसूस किया कि बाबा उसकी कमर के पास बैठ गए हैं तो उसने आँखें खोल दीं।
बाबा को बैठा देख उसने उठना चाहा तो उन्होंने बाएं हाथ से इशारा कर उसे लेटे रहने
को कहा, बाबा के दाहिने हाथ की मुट्ठी बंधी हुई थी। उसमें कुछ था। बाबा कुछ बुदबुदा
रहे थे। फिर उन्होंने बाएं हाथ से ही उसका कुर्ता ऊपर तक उलट दिया, ब्रेजरी का कुछ हिस्सा दिखने लगा था। मगर वह स्थिर रही । अब बाबा हाथ में ली
भभूत को उसकी छाती के मध्य जहां धड़कन होती है वहां से लेकर उसकी विशाल नाभि तक
लगाते एवं फिर कुछ बुुदबुदाने के बाद पेट पर फूंकते। उनकी फूंक बेहद गर्म थी। इसके
बाद बाबा आंखें बंद किए ही उठ खड़े हुए और सोफ़ी के शरीर के चारो तरफ चक्कर लगाने
लगे। एकदम परिक्रमा करने की तरह। और सोफ़ी उन्हें एक टक घूमते हुए देखती रही।
वास्तव में
सोफ़ी अब न सहम रही थी, न परेशान हो रही थी, बाबा कोे उत्सुकता के साथ देखे जा रही थी। बाबा उसके एकदम करीब होकर चक्कर काट
रहे थे। और सोफ़ी उन पर से बार-बार नज़र हटाने की कोशिश करती लेकिन असफल हो जाती। वह
आंखें बंद भी नहीं कर पा रही थी। अंततः बाबा कई चक्कर लगाने के बाद सोफ़ी के ठीक
सिर के पीछे खड़े हो गए। सोफ़ी उनके पैरों को अपने सिर से छूता हुआ महसूस कर रही थी।
अचानक बाबा ने ऊंचे स्वर में जय महाकाल कहा और हाथ में शेष बची भभूत को हवा में
उछाल दिया। भभूत नीचे गिरने लगी तो सोफी आंखें मिच-मिचाने लगी। इसी बीच बाबा उसके
बाएं तरफ ठीक कमर के पास बैठ गए। सोफ़ी का कुर्ता अभी भी ऊपर को उठा हुआ था। बाबा
को बैठा देख सोफी ने जैसे ही फिर उठने का प्रयत्न किया तो बाबा ने लेटे रहने का
इशारा हाथ से ही करते हुए कहा,
‘अब मैं पुत्र की मनोकामना पूर्ण होने की प्रक्रिया को संपन्न करने जा रहा हूं, तुझे कोई ऐतराज तो नहीं।’
प्रक्रिया के
संपन्न होने की बात कहने के लहजे और बाबा की शारीरिक भाव-भंगिमाओं का आशय सोफ़ी
लगभग समझ गई थी। उसने बिना एक क्षण गंवाए, साफ-साफ कहा,
‘आप प्रक्रिया संपन्न करें बाबा जी, मुझे बस पुत्र चाहिए, जीवन का सुकून चाहिए। इसीलिए तो आई हूं।’
सोफी कुछ ऐसे
बोल गई जल्दी से जैसे कि प्रश्न जानती थी पहले से और उत्तर तैयार रखा था। उत्तर
देते ही सोफी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं। और प्रक्रिया के संपन्न होने की
प्रतीक्षा करने लगी। उसे उम्मीद थी कि बाबा तेजी से पूरी करेंगे सारी
क्रिया-प्रक्रिया। लेकिन बाबा तो पूरे आराम से निश्चिंत भाव से उसके बगल में बैठे
थे। और देख रहे थे उसकी विशाल गहरी नाभि को, उनकी आंखों में इस वक़्त आने वाले
भावों को देह की भाषा पढ़ने के विशेषज्ञ भी नहीं पढ़ सकते थे।
कुछ क्षण बाद
बाबा ने अपने दाहिने हाथ की तीन उंगलियां उसकी नाभि पर तिरछे एंगिल से ऐसे रखीं
जैसे कोई चरण स्पर्श करता है। बाबा की बीच वाली मोटी ऊंगली नाभि के बीचो-बीच गहराई
में प्रविष्ट कर रही थी। सोफी को बाबा का हाथ इतना गर्म लग रहा था जैसे कि उन्हें 103, 104 डिग्री बुखार हो। बाबा का यह तपता स्पर्श सोफी में अजीब सी तड़फड़ाहट पैदा कर
रहा था। ऐसी तड़फड़ाहट उसने जुल्फी द्वारा उस जगह न जाने कितनी बार स्पर्श या चूमने
पर भी नहीं महसूस की थी। जब उसने पहली बार स्टूूूूडेंट लाइफ में ही किया था तब भी
नहीं।
बाबा ने कुछ
क्षण उंगलियों को उसी तरह रखने के बाद पुनः जय महाकाल का स्वर ऊंचा किया और उन
तीनों उंगलियों को अपने मस्तक के मध्य स्पर्श करा दिया। इस बीच सोफी ने कई बार
उन्हें आंखें खोल-खोल देखा और फिर बंद कर लिया। वह अपने शरीर में कई जगह तनाव
महसूस कर रही थी। उसके मन में अब तुरत-फुरत ही यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ कि आखिर
बाबा जी कर क्या रहे हैं,
कौन सी प्रक्रिया है जिसे पूरी कर रहे हैं। यह सोच ही रही
थी कि उसने बाबा का हाथ सलवार के नेफे पर महसूस किया। बाबा ने सलवार के अंदर खोंसे
उसके नाड़े के सिरों को बड़ी शालीनता से बाहर निकाल लिया था। सलवार का वही नाड़ा
जिसने उसे करीब दो महीने खून के आंसू रुला दिए थे। बाबा ने नाड़ा का एक सिरा खींच
कर सलवार खोल दी। मगर काम में शालीनता अभी कायम थी।
जुल्फी भी तो
बरसों से यही करता आ रहा है। मगर कितना फ़र्क है। उसके करने में। नाड़ा खोलने में ही
शरीर का कचूमर निकाल देता है। मगर बाबा की प्रक्रिया वह पूरी-पूरी अब भी नहीं समझ
पा रही थी। बाबा अभी भी कुछ बुदबुदा रहे थे और नाड़ा खोलने के बाद भी नाड़ा पकड़े
एकदम स्थिर बैठे थे। सोफी ने फिर आंखें खोलकर देखा कुछ समझती कि इसके पहले ही बाबा
ने शालीनता कायम रखते हुए दोनों हाथों से उसकी सलवार उतार कर बिस्तर के एक कोने
में डाल दी।
वह बेहद शांत
भाव से यह सब कर रहे थे। जल्दबाजी का कहीं नामों-निशान नहीं था। जबकि सोफी गड्मड्
हो रही थी। बाबा ने सलवार की ही तरह उसके बाकी कपड़े भी उतार कर कोनेे में रख दिए।
वहां सोफी के कपड़ों का एक छोटा सा ढेर लग गया था। सोफी की आंखें अब बराबर बंद थीं।
उसकी सारी क्रियाएं प्रतिक्रियाएं साफ-साफ कह रही थीं कि बाबा के समक्ष निर्वस्त्र
होने में उसे रंच मात्र को भी ऐतराज नहीं था। बल्कि उसके चेहरे पर विश्वास था कि
पुत्र होगा, और उसे रोज-रोज की प्रताड़ना से मुक्ति भी मिलेगी। इस प्रताड़ना से मुक्ति के
लिए यह सब ठीक ही है।
अब तक बाबा
उसकी कमर से सटकर बैठ गए थे। बाबा की मंशा उसकी कुछ समझ में आ ही नहीं रही थी। कई
मिनट तक स्पर्श के बाद बाबा ने संतानोंत्पति की प्रक्रिया पूर्ण की और इस भाव से
उसकी बगल में बैठ गए जैसे वहां उनके अलावा और कोई है ही नहीं। सोफी अब तुरंत उठ कर
कपड़े पहन लेना चाहती लेकिन बाबा की मुद्रा देख कर स्थिर पड़ी रही। उठी तब जब बाबा
ने उसके पेट पर अपनी हथेली रखते हुए कई बार जय महाकाल, जय महाकाल का स्वर उच्चारित किया और उठकर चले गए झोपड़ी से बाहर एकदम नंग-धड़ंग
से।
उनके जाते ही
सोफी भी बिजली की फुर्ती से उठ बैठी और एक झटके में अपने कपड़े उठा लिए। पिछले काफी
समय से उसे यह डर बराबर सता रहा था कि वह निर्वस्त्र यह सब एक खुली जर्जर सी झोपड़ी
में कर रही है ,कहीं कोई आ ना जाए। तेजी से कपड़े पहन कर वह बाहर आई तो देखा बाबा आग की ढेर के
पास शांत भाव से बैठे थे। वह उनके करीब जाकर खड़ी हो गई। तो बाबा ने तुरंत चुटकी भर
भभूत उसके हाथ में देते हुए कहा,
‘ले महाकाल तेरी मनोकामना पूरी करेंगे। इसे घर में जहां तेरा सामान रहता है
वहीं रख देना। अगले हफ्ते आज ही के दिन फिर आना।’
सोफ़़ी ने बाबा
से भभूत ली और बैग में से पर्स निकाल कर उसमें रखी एक छोटी सी रसीद में मोड़ कर रख
लिया। चलने से पहले उसने बाबा से हिचकते हुए पूछ लिया कि ‘बाबा जी अभी और कितनी बार आना है।’ उसके इस प्रश्न पर बाबा ने एक उड़ती
सी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली और बोले,‘पेट में संतान आ जाने तक।’उनका उत्तर सुन सोफी ने उन्हें प्रणाम किया और वापस चल दी।
वापसी में उसे
स्कूटी चलाने में उतनी असुविधा नहीं महसूस हो रही थी जितनी की आते समय उसने महसूस
की थी। हां दिमाग मेें ज़रूर हलचल, उथल-पुथल पहले से ज़्यादा थी। यह उतनी न
होती यदि बाबा ने वापसी में यह न कहा होता कि ‘पेट में संतान आ जाने तक आना है।’ मन में उद्विग्नता इस वाक्य ने न सिर्फ पैदा की बल्कि उसे बढ़ा भी रही थी। वह
सोच रही थी कि न जाने कितने जतन कर, हज़ार बार सोचने के बाद, हिम्मत कर हार जाने और अंततः जीत कर किसी तरह एक बार आ पाई। और बाबा की बात तो
न जाने और कितनी बार आने को कह रही है।
चलो मान लें कि
मुकद्दर मेरा साथ देगा और मैं हड़बड़-तड़बड़ में प्रिग्नेंट हो जाऊंगी। लेकिन तब भी
अगली माहवारी तक तो इंतजार करना ही पड़ेगा। उसके पहले तो प्रिग्नेंसी हुई या नहीं
यह चेक करने का तो कोई तरीका नज़र आता नहीं। लगता नहीं कि डेढ़ महीने से पहले कुछ
मालूम हो पाएगा। इसका सीधा सा मतलब है कि कम से कम चार-पांच बार और आना पड़ेगा। और
जुल्फी! इतनी बार यहां आ कर उनसे नजर बचा पाना तो नामुमकिन ही है। आज भी देखो क्या
होता है।
सोफ़ी के मन में
इतनी उथल-पुथल उस समय बिल्कुल न थी जब बाबा ने अंदर बुलाया था और कि तब भी नहीं जब
बाबा बेटा हो इस हेतु अपनी प्रक्रिया पूरी कर रहे थे। बल्कि तब वह सब गुजर रहे
होने के बावजूद कहीं यह संतोष था कि चलो बेटा पाने का रास्ता साफ हो गया। अब
ज़िंदगी की दुश्वारियां, गर्दन पर लटकती हर क्षण तलाक की तलवार हट जाएगी। वह भी मात्र कुछ घंटे सबसे
छिप-छिपाकर बाहर रहने और एक बाबा के सान्निध्य में आने भर से।
सब कितना आसान सा लग रहा था। लेकिन बाबा ने यह
कह कर तो पूरी धारा ही बदल दी कि और कई बार आना पड़ेगा। सच है जिसने भी यह कहा है
कि ज़िदंगी में कुछ भी पाना आसान नहीं है। छोटा सा भी सुख बड़े ऊबड़-खाबड़ रास्ते से
गुजर कर ही मिल पाता है। एक औलाद का पैदा होना कितना बड़ा सुख है। लेेकिन उसके पहले
पेट में नौ महीने तक रखना,
फिर प्रसव की असहनीय पीड़ा को झेलना, दुनिया भर की दवा-दारू और न जाने कितने कष्ट फिर कहीं संतान मिलती है।
मेरी अगली
संतान जो बेटा हुई तो निश्चित ही बेइंतिहा खुशी होगी। जुल्फी की खुशी की तो कोई
सीमा ही न होगी। लेकिन उसके पहले यह सब जो मैं कर रही हूं कितना कष्टदायी है।
बल्कि यह तो उससे भी कहीं बहुत आगे है। न जाने कितना आगे है। इस असहनीय पीड़ा से
यदि बेटा मिल गया तो घर में सब निश्चित खुश होंगे, खुशी तो मुझे भी होगी लेकिन
साथ ही बदन में चुभीं अनगिनत फांसें असहनीय पीड़ा अंतिम सांस तक देती रहेंगी। बच्चा
सामने होगा तो उसके साथ ही हर क्षण बाबा का चेहरा भी होगा। जो हर वक़्त मुझे
डराएगा। सबके सामने चेहरे पर हंसी खुशी होगी लेकिन अंदर-अंदर घुटन भी होगी। यह
कहीं ऐसा भी हो सकता है जैसे कि गर्दन पर लटकी एक तलवार हटाने के लिए मैंने खुद
अपने ही हाथों उससे भी बड़ी दूसरी तलवार लटका ली हो। जिसे इस जीवन मेें तो हटाया ही
नहीं जा सकता।
सोफी मन में चल
रहे इस भीषण तूफान को लिए घर जल्दी पहुंचने की कोशिश में अफनाती हुई कुछ ही देर
में पहुंच गई मेन रोड पर। उसे बड़ा सुकून मिला था इस बात से कि बाबा के यहां से
निकलते और यहाँ आ जाने तक उसे किसी ने नहीं देखा। कोई उसे नहीं मिला। मगर मेन रोड
पर उसे एक सिरे से दूसरे सिरे तक गाड़ियां ही गाड़ियां दिखाई दे रही थीं। जो जहां
थीं वहीं खड़ी थीं। जबरदस्त जाम लगा हुआ था। इस रोड पर इतना बड़ा जाम! उसे माजरा कुछ
समझ में न आया।
रोड से करीब
पचीस-तीस क़दम पहले ही वह ठिठक गई, माजरे को समझने की कोशिश में। गाड़ियों
का शोर और हर चेहरे पर जल्दी चल देने की बेचैनी उसे साफ दिख रही थी। मगर माजरा कुछ
समझ में नहीं आ रहा था। किससे पूछे यह भी समझ में नहीं आ रहा था। इस बीच उसकी नज़र
कुछ ही दूर एक पेड़ के नीचे बैठीं सास-बहू
पर पड़ गई जो बाबा के यहां जाते वक़्त मिली थीं। वह तुरंत उनके पास पहुंची और
स्कूटी खड़ी कर सास से पूछ लिया क्या हुआ है। सास ने बड़े गुस्से से कहा ‘अरे! हुआ क्या है? वही नेतागिरी है और क्या? इन सब के पास और कोई रास्ता नहीं है
अपनी बात मनवाने के लिए जब देखो तब रास्ता जाम कर दिया। लोग मरें जिएं, चाहे जितना ज़रूरी काम उनका रह जाए, नुकसान हो जाए इससे उन्हें कोई
मतलब नहीं, बस अपनी नेतागिरी से मतलब है। इस नाशपीटी नेतागिरी ने जीना मुहाल कर रखा है।’ सास का गुस्सा उसका बड़बड़ाना बहू को अच्छा नहीं लगा। उसने धीरेे से कहा ‘अम्मा चुप हो जाओ कहीं इन सब ने सुन लिया तो आफ़त हो जाएगी।’
‘अरे सुन लेने दो, क्या आफ़त हो जाएगी। घंटों हो गए। बैठे-बैठे पैर कमर में दर्द होने लगा है। गला
सूख रहा है। और तुम कह रही हो चुप रहो।’ सास की झिड़की सुन बहू चुप हो गई।
सास के तेवर बता रहे थे कि वह तेज़ मिज़ाज़ की है और अपने घर की तानाशाह भी। और उसके
सामने बहू की स्थिति शेर के सामने मेमने जैसी है। सोफी को यह जान कर बड़ी उलझन हुई
कि जाम हटे बिना पैदल भी निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्योंकि हालात ऐसे बन चुके
हैं कि किसी भी वक़्त पुलिस लाठी चार्ज कर सकती है। और तब भगदड़ में बचना आसान नहीं
होगा।
अंदर ही अंदर
झल्लाई सोफी ने उन दोनों के साथ वक़्त गुजारने की सोची और बहू को बात करने के
इरादे से लेकर नजदीक ही एक दूसरे पेड़ के नीचे बैठ गई। उसके मन मेें बहू से यह
जानने की इच्छा प्रबल हो उठी थी कि बाबा ने उसे समस्या समाधान के लिए क्या उपाए
बताए। पूजा के लिए क्या उसे भी निर्वस्त्र कर दिया था और कि उसकी सास को अलग कर
दिया था या उसके सामने ही। बहू ने बहुत कुरेदने के बाद भी जब इस विषय पर साफ-साफ
कुछ कहना शुरू नहीं किया तब सोफी ने यह सोच कर कि यह मुझे जानती नहीं और हम दोनों
एक ही नाव पर सवार हैं तो यह किसी को कुछ बताएगी नहीं, उसे बाबा के सामने निर्वस्त्र होने की बात बता दी। सहवास वाली बात को पूरी तरह
छिपाते हुए।
इसके बाद बहू
भी कुछ खुली और बताया कि बाबा ने बड़ी कठिन पूजा की बात बताते हुए सास को साफ बता
दिया कि पूजा करने वाले को निर्वस्त्र होना पड़ेगा। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार
नहीं थी, सास से वापस चलने को कह दिया। लेकिन सास लड़के को हाथ से निकलते बर्दाश्त नहीं
कर पा रही हैं इसलिए कुछ असमंजस के बाद तैयार हो गईं। वह इसलिए भी ज़्यादा परेशान
हैं कि लड़का दूसरे धर्म की औरत के चक्कर
में पड़ा है। वह भी मन न होते हुए पहले तो अपने जीवन के अंधेरे को दूर करने की गरज
से फिर सास के दबाव एवं बाबा के विराट स्वरूप के सामने अंततः तैयार हो गई, समर्पित हो गई।
सास तो इतना
प्रभावित हैं कि बाबा को अपने सामने साक्षात् उतर आए भगवान मान कर अटूट विश्वास कर
बैठी हैं कि बस चुटकी बजाते ही अब सब सही हो जाएगा। उसे इस बात की जरा भी परवाह
नहीं थी कि बहू बाबा के सामने निर्वस्त्र होगी। वह झोपड़ी के बाहर हाथ जोड़े बैठी
रही और उसने बाबा के कहने पर आंखों में आंसू लिए सारे कपड़े उतार दिए और बाबा ने
तरह-तरह की पूजा संबंधी प्रक्रियाएं पूरी कीं, इसके लिए उन्होंने शरीर के विभिन्न
हिस्सों को छुआ भी। भभूत भी लगाई और वही दी भी। और आते वक़्त पूरा विश्वास भी कि
सब पूरी तरह ठीक हो जाएगा। बस दो तीन बार और आना पड़ेगा।
बहू की बातों
से सोफी को यकीन हो गया कि उसकी पूजा में सहवास कहीं शामिल नहीं था। क्यों कि उसकी
समस्या में संतान कहीं शामिल नहीं थी। घुल-मिल जाने के बाद दोनों की बातें करीब
डेढ़ घंटे बाद जाम खुल जाने तक चलती रहीं। वहां से चलने के बाद बहू की बातें सोफी
के मन में उथल-पुथल मचाने लगीं कि यह औरत कितने तूफानों को अपने में समेटे हुए है।
कितनी बड़ी-बड़ी व्यथाएं लिए जिए जा रही है इस दृढ़ विश्वास के साथ कि एक दिन उसका भी
समय आएगा। वाकई बड़ी हिम्मत वाली है यह। मगर एक बात है कि हम औरतों के सामने ही यह
स्थिति क्यों आती है कि हमें इस आस में ज़िदंगी बितानी पड़ती है कि एक दिन हमारा भी
समय आएगा। पूरा इतिहास इस बात से भरा पड़ा है कि औरतें हर समय इसी उम्मीद में जिए
जा रहीं हैं कि एक दिन उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा। वह औरत नहीं एक इंसान मानी
जाएगी। केवल बच्चा पैदा करने, मर्दों की शारीरिक इच्छा पूरी करने की
मशीन नहीं।
उसके मन में उठ
रहे विचारोें के यह झंझावात भीड़-भाड़ भरी सड़क आते ही खत्म हो गए। अब सारा ध्यान
ट्रैफिक पर और उसके बाद जल्द से जल्द घर
पहुँचने पर केंद्रित हो गया। क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी। घर पहुंच कर उसने बहुत
राहत महसूस की। संतोष की सांस ली कि जुल्फ़़ी के आने से पहले वह पहुंच गई और अभी
इतना टाइम है कि वह बाबा की दी भभूत उनके बताए स्थान पर इतमिनान से रख देगी। फिर
नहा-धोकर शरीर में कई जगह लगी भभूत और साथ ही शरीर से चिपकी बाबा की ख़ास तरह की
गंध को भी धो डालेगी। मन मुताबिक यह सारे काम उसने पूरे भी कर लिए। नहाने में उसे
ज़रूर आज रोज की अपेक्षा दो गुना टाइम लगा। साथ ही आज यह पहली बार था कि नहाते
वक़्त ऐसी बातों के द्वंद्व में उलझी घुटन से बेचैन होती रही कि जो किया और आगे
करेगी वह सही है कि नहीं। और इस बात पर आश्चर्य कि कैसे यह सब कर ले गई। कहां से
इतनी हिम्मत और ताकत आ गई उसमें।
पता नहीं मुराद
पूरी भी होगी कि नही, यदि न हुई तब तो वह कहीं की न रह जाएगी। और कहीं बात खुल गई तो! तब तो अंजाम
बड़ा भयानक होगा। विचारों के इस द्वंद्व में उलझी उसने खूब साबुन-शैंपू का इस्तेमाल
करते हुए स्नान किया और बाथरूम से बाहर आ गई। ऐसा कोई निशान तो नहीं रह गया जिससे
राज खुल जाने का कोई रास्ता बने यह जानने के लिए वह बाथरूम से सीधे ड्रेसिंग टेबुल
के सामने पहुंची और हर संभव तरीके से शीशे में अपने बदन के एक-एक हिस्से को देखा।
हड़बड़ाहट में होने के बावजूद वह पूरी सावधानी बरत रही थी।
पूरा इतमिनान हो जाने के बाद उसने चैन की सांस
ली। फिर अचानक ही उसका ध्यान अपने शरीर की स्थिति पर चला गया। तीन-तीन बच्चों, तरह-तरह की चिंताओं ने किस तरह उसके नपे तुले अच्छे खासे बदन को बदतरीन कर
दिया था। उम्र से पांच-छः साल बड़ी ही लग रही थी। और यह संयोग ही था कि आज शीशे में
वह स्वयं अपने निर्वस्त्र बदन को निहार रही थी। और तुलना कर रही थी अपने कई बरस
पहले के बदन से जो अब कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। उसका अंश भी नहीं।
मिलता भी कहां
से? जुल्फी से जुड़ने के बाद कुछ समय छोड़ दे तो बाकी में उसे मिला क्या? सिवाय गाली, मार,डांट के। अपने मन से सांस लेने तक की आज़ादी नहीं। नौकरी करती है लेकिन अपनी
मर्जी से एक रुमाल खरीदने की, किसी को कुछ देने की हिम्मत उसमें नहीं
है। तनख्वाह तो सब जुल्फी के पास ही रहती है। एक-एक पैसे का हिसाब लेता है। वह
ख़यालों में खोई देखती ही जा रही थी खुद को। और तब तक खोई रही जब तक कि आंखों में
भर आए आंसू छलक कर उसके स्तनों पर टपक नहीं गए। आंसूओं की गर्माहट ने उसे
हिला-डुला दिया। वह चैतन्य हो उठी। और हथेलियों से आंखों को पोंछती पहन लिए जल्दी
से अपने सारे कपड़़े। अभी उसे बच्चों को
लेने अपनी दूर की रिश्ते की उस ननद के यहां भी जाना था , जहां रिक्शा वाला रोज छुट्टी के बाद स्कूल से उन्हें लाकर वहां छोड़ जाता है।
बच्चों को लाने
के बाद वह खाना-पीना, घर के बाकी कामों को पूरा करने में लगी रही। और साथ ही उसके लगा रहा बाबा के
साथ बीता वक़्त, बाबा की बातें, उनका विशाल स्वरूप। बिल्कुल इस तरह जैसे कि यह सब उसके बदन की छाया हों। इस
बेचैनी घबराहट से बचने के लिए उसने बाबा के पास से आने के बाद आदत के एकदम विपरीत
छः-सात बार चाय पी। मगर बात जहां की तहां रही। बल्कि जैसे-जैसे जुल्फी के आने का
वक़्त नजदीक आ रहा था वैसे-वैसे उसकी घबराहट और बढ़ती जा रही थी। कैसे करेगी उसका
सामना, कहीं कोई बात बिगड़ गई तो? बड़ी मुश्किलों में बीतते गए एक-एक पल, और सात बजते-बजते जुल्फी आ गया।
डरी सहमी, अंदर ही अंदर थर-थराती और ऊपर ही ऊपर सामान्य दिखने की पूरी कोशिश करते हुए
उसने चाय-नाश्ता दिया और बच्चों को बड़ी होशियारी से उसके साथ लगा दिया। खुद किचेन
में लग गई। मगर आधे-पौन घंटे बाद उसकी बेचैनी एक दम बढ़ गई। उसने पूरे बदन में
पसीना चुह-चुहाना स्पष्ट महसूस किया। जब जुल्फ़ी ने किचेन में आकर उसे जड़ी बूटियों
का एक पैकेट थमा दिया और कहा इसे उबाल कर
उसका पानी उसे खाना खाने के बाद पीने को दे। यह वही दवाएं थीं जिसे वह किसी हकीम
से ले आता है, इस विश्वास के साथ कि इन्हें खाने के बाद संभोग करने से शर्तिया बेटा ही होगा।
यह सब सोफी पहले भी न जाने कितनी बार झेल चुकी थी। लेकिन आज पसीने-पसीने इसलिए हुई
क्यों कि बाबा से मिलने के बाद आज वह किसी भी सूरत में बिस्तर पर जुल्फी से नहीं
मिलना चाहती थी।
वह इस कोशिश
में लग गई कि किसी तरह जुल्फी सो जाए। इस जुगत में उसने जानबूझ कर लाख थके होने के
बावजूद जुल्फी की पसंद की कई चीजें बना-बना कर उसे खाने को दीं जिससे वह ज़्यादा
खा ले और आलस्य में जल्दी सो जाए सवेरे तक। और भी कई जतन किए। उसने जानबूझ कर
बच्चों को देर तक जगाए रखा,
उन्हीं के साथ लगी रही कि जुल्फी सो जाए। और वह कामयाब भी
हो गई। जुल्फी सो गया। तब वह रोज की तरह उठ कर बच्चों के पास से नहीं गई जुल्फी और
अपने बिस्तर पर।
वह सोई रही बच्चों के पास और सुबह भी
एकदम भोर में ही उठ कर काम-धाम में लग गई जिससे अकसर एकदम भोर में जुल्फी द्वारा
किए जाने वाले हमले से भी बची रहे। अंततः जुल्फी से खुद को उस रात बचा ले जाने में
वह सफल रही। इसके चलते वह सुबह राहत महसूस कर रही थी। और ताज़गीपूर्ण भी। जबकि
जुल्फी सोए रहने के कारण दवा के बेकार हो
जाने से तिलमिला उठा था और ऑफ़िस जाने तक उसे गरियाता रहा कि उसने उसे उठाया
क्यों नहीं।
सुबह ऑफ़िस के
लिए निकली तो एक नई उलझन दिमाग पर तारी हो गई कि सीमा को बताए कि नहीं। वह ठहरी
बड़ी तेज़-तर्रार। झूठ बड़ी जल्दी पकड़ लेती है। उलझन का भारी बोझ वह दोपहर तक लिए
रही। फिर यह सोच कर लंच में बताना शुरू किया कि अभी कई बार जाना है, न जाने किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पड़े। इसलिए किसी को तो बताना ही चाहिए।
और सीमा से ज़्यादा मददगार और विश्वासपात्र कोई नहीं है। और आखिर सुत्रधार भी तो
वही है। यह सोच सोफी ने विस्तार से उसे सब कुछ बता दिया। लेकिन बाबा के साथ प्रचंड
मिलन की क्रिया के दौर से गुजरने की बात बड़ी सफाई से पूरी तरह छिपा ले गई। सीमा को
संतोष था कि सोफी ने उस पर यकीन किया और वहां गई। उसकी मनोकामना पूरी हो जाएगी तो
उसका जीवन बढ़िया हो जाएगा और वह उसे हमेशा याद रखेगी।
दूसरी तरफ सोफी
को इस बात का संतोष कि सीमा से वह जो नहीं बताना चाहती थी उसे वह आसानी से छिपा ले
गई। इसके बाद सोफी का एक हफ़्ता बहुत बेचैनी कसमकस में बीता। जैसे-जैसे बाबा के पास
जाने का समय पास आ रहा था वैसे-वैसे उसका असमंजस बढ़ता जा रहा था। किसी काम में मन
नहीं लग रहा था। रात में जुल्फी के साथ वह खास क्षण और भी ज़्यादा बेचैनी भरे होते
जब दवा के जोश में वह लड़का पैदा करने के लिए पूरे प्रयास करता हांफता-हांफता लुढ़क
जाता। उस समय न चाहते हुए भी सोफी को बाबा की याद आ जाती। उसने महसूस किया कि बाबा
के पास से आने के बाद से उसे जुल्फी का शरीर फूल सा लगने लगा है। अब वह पहले सा
बलिष्ठ और पीड़ादायी नहीें लगता। जबकि जुल्फी पहले की ही तरह पूरे जोर-शोर से शुरू
हो कर अपनी सारी ताकत उसके भीतर उड़ेलने के बाद ही कहीं दम लेता है। फिर हांफता हुआ
किनारे लुढ़कता और सो जाता है।
अंततः दूसरी
बार बाबा के पास जाने का दिन आ गया तो सोफी ऑफ़िस पहुंची अटेंडेंस लगाई, दवा लेने के बहाने चल दी। सही बात सिर्फ़ सीमा को पता थी। स्कूटी स्टार्ट करते
वक़्त उसके दिमाग में यह बात एक झटके में आ कर चली गई कि सरकारी नौकरी का यही तो
बड़ा फायदा है।
इस बार जब बाबा
के पास पहुंची तो सोफी ने देखा बाबा उसी आग के ढेर के पास पालथी मार कर बैठे हैं।
उसने बिना आवाज़ किए उनके हाथ जोड़े और एक तरफ खड़ी हो गई। कुछ देर में ही बाबा भी उठ
खड़े हुए पूर्व की तरह जय महाकाल कहते हुए। और फिर सुर्ख आंखों से देखा सोफी की ओर।
उसने फिर हाथ जोड़ लिए थे।
‘आ गई तू... तेरा यह समर्पण तेरी हर चाह पूरा करेगा। यह कहते हुए बाबा चले गए
झोपड़ी के भीतर। कुछ देर बाद सोफी भी चली गई अंदर। उसने देखा सब कुछ वैसा ही था।
सिर्फ़ एक चीज नई थी। झोपड़ी के दरवाजे को बंद करने के लिए फूस बांस की खपच्चियों
से बना फाटकनुमा एक टुकड़ा जो दरवाजे के पास ही किनारे रखा था। बाबा अपने स्थान पर
बैठे कुछ खा रहे थे, उन्होंने उसे अंदर आया देख कहा,
‘आ इधर, आ ले ये खा।’
सोफी ने तेज़ी
से आगे बढ़ कर केला ले लिया और बाबा के कहने पर बैठ कर उसे खा लिया। इस बीच बाबा ने
उठकर उस फाटकनुमा चीज से झोपड़ी बंद कर ली। और पालथी मार कर बैठ गए अपने आसन पर।
पहली बार की तरह बाबा आज भी निर्वस्त्र थे। बैठने के साथ ही उन्होंने कुछ मंत्र
वगैरह बुदबुदाए और फिर सोफी को भी निर्वस्त्र कर ठीक अपने सामने पद्मासन में बैठने
को कहा। लेकिन सोफी नहीं बैठ पा रही थी। मोटी जांघें बड़ी बाधा बन बैठी थीं। अंततः
वह जैसे बैठ पा रही थी बाबा ने उसे उसी तरह बैठने दिया और अपनी प्रक्रिया तेजी से
पूरी करने लगे।
आधे घंटे बाद
बाबा उसी पुआल के बिस्तर पर उसे लेकर लेट गए। मन में तमाम उथल-पुथल लिए सोफी
यंत्रवत सी उनके साथ थी। आज उसमें पहली बार जैसा डर नहीं था। लेटे-लेटे जब कई मिनट
बीत गए और बाबा निश्चल ही पड़े रहे तो सोफी बेचैन हो उठी। उसके मन में जल्दी से
जल्दी ऑफ़िस पहुंचने की बात भी कहीं कोने में उमड़-घुमड़ रही थी। साथ ही बाबा का सख्त
बालों जटाओं से भरा शरीर उसके शरीर से चिपका हुआ था, वह भी बेचैन किए जा
रहा था। जब उससे न रहा गया तो वह बाबा से अगला आदेश क्या है यह पूछने की सोचने
लगी। लेकिन तभी बाबा ने हल्की हुंकार सी भरी, उसी तरह हल्के से जय महाकाल कहा और
पुत्र उत्पन्न करने की प्रक्रिया में जुट गए।
सोफी पहली बार
जितना इस बार आने में, बाबा से बतियाने में,
प्रक्रिया को पूरा करने में नहीं डरी थी, प्रक्रिया के पूरी होने में जो भी वक़्त लगा उसके बाद सोफी ने सुकून महसूस
किया कि अब जल्दी ही यहां से फुर्सत मिलेगी और वह लंच होते-होते ऑफ़िस पहुंच जाएगी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाबा फिर पहले की तरह उसे लिए लेट गए। अब उसकी व्याकुलता बढ़ती
जा रही थी। जब उससे न रहा गया तो उसने बाबा से ऑफ़िस पहुंचने और किसी के आ जाने की
डर की बात कह कर चलने की इज़ाज़त चाही। तो बाबा ने साफ कहा,
‘तू मेरी शरण में है, तुझे कुछ नहीं होगा।’
बाबा पर पहले
से विश्वास किए बैठी सोफी निश्चिन्त हो गई लेकिन जल्दी निकलने की इच्छा फिर भी मन
में कुलबुलाती रही। और यह कुलबुलाहट तब खत्म हुई जब बाबा ने दो और बार अपनी
प्रक्रिया पूरी कर उसे जाने की इज़ाजत दे दी। वापसी में उसने एक नज़र घड़ी पर डाली और
बुदबुदाई चलो लंच के पहले न सही कुछ देर बाद तो पहुंच ही जाऊंगी। मगर शरीर का वह
हिस्सा अब भी उसे परेशान किए जा रहा था जहां गीलापन अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़े
था। और इतना ही नहीं इस गीलेपन ने न जाने कितने बरसों से भूले बिसरे किशोरावस्था
के साथियों में से एक चेहरे हिमांशु को ला खड़ा किया।
उसने झट इस चेहरे को फिर हमेशा के लिए बिसराने
की कोशिश की लेकिन वह जितना कोशिश कर रही थी वह उतना ही ज़्यादा स्पष्ट और साथ ही
तब की बातें समेटे और भी करीब आता जा रहा था। कुछ ही क्षणों में इतना करीब आ गया
कि जिस गीलेपन ने इतने बरसों के बाद उसकी याद दिलाई थी, वह और बाबा भी
विलुप्त हो गए। ऑफ़िस पहुंचने, सीमा से बातें करना शुरू करने पर भी
हिमांशु से जुड़ी यादोें को परे नहीं ढकेल पाई। ज़्यादा देर होने की स्वतः ही सफाई
देते हुए उसने सीमा से बाबा के देर से आने की बात कही।
ऑफ़िस का शेष
समय भी ऐसी ही तमाम बातों के कहने सुनने में बीत गया। छुट्टी होते ही वह चल दी घर
को। बड़ी जल्दी में थी। इस बार भी उसके द्वारा पिछली बार का इतिहास दोहराया गया।
मगर तमाम कोशिशों के बाद इस बार वह पहले की तरह जुल्फी को चैन से सुबह तक सुला न
सकी। तमाम नानुकुर की लेकिन जुल्फी पुत्रोत्पत्ति के लिए अपने हिस्से की सारी
मेहनत करके ही माना। और मेहनत करने के बाद कुछ ही देर में सो गया। सोफी की आंखों
में नींद थी, वह सोना भी चाहती थी मगर हिमांशु का चेहरा उसे जबरिया जगाए जा रहा था। और नींद
आंखों में जलन कड़वाहट पैदा किए जा रही थी। मानो हिमांशु और नींद में जीतने की जंग
छिड़ गई थी। नींद उसे सुला देना चाहती थी हिमांशू की यादें उसे अपने में समेट लेना
चाहती थी।
आखिर हिमांशु
की यादें जीत गर्इं और सोफी उतर गई यादों के सरोवर में। पैठती गई, गहरे गहरे और गहरे। वहां उसे बचपन की वह दुनिया हर तरफ नज़र आई जहां उसने जीवन
के करीब उन्नीस वर्ष बिताए थे। एच.ए.एल विभाग की उस कॉलोनी के विशाल परिसर में
फैक्ट्री के अलावा बड़ी संख्या में बहु मंजिले आवास बने हुए थे। कुछ छोटे, कुछ बड़े, जिन में से करीब हर पांचवां मकान खाली ही रहता था। क्योंकि कुछ लोगों को बाहर
किराए पर रहना ज़्यादा फायदेमंद लगता था।
कॉलोनी के अन्य
बच्चों की तरह वह भी कैंपस मेें ही बने स्कूल में पढ़ती थी। और उन्हीं के साथ शाम
को खेलती भी थी। हिमांशु भी उसके साथ खेलता था। बेहद दुबला, पतला लेकिन कुछ ज़्यादा ही आकर्षक नैन नक्स वाला था। मगर न जाने क्यों वह अन्य
लड़कों की अपेक्षा स्कूल से लेकर कॉलोनी में खेलने तक उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा
करीब रहने की कोशिश करता था। कैसे स्पर्श कर सके इसका मौका ढूढ़ता रहता था। नजरें
मिलने पर बस देखता रह जाता और हौले से मुस्कुरा देता। इस पर वह भी नज़रें चुराती
हुई मुस्कुरा पड़ती थी। क्योंकि उसके मन में भी उसको देखते ही न जाने क्या कुछ चल
पड़ता था, उसे वह बहुत अच्छा लगता था, उसके करीब ज़्यादा रहने का उसका भी मन
करता था।
जल्दी ही वह
बेहिचक उसका हाथ पकड़ने लगा। उसे अपने से चिपका लेता, उसके गालों को चूम
लेता, हाथ बदन के कई हिस्सों तक पहुंचा देता। तब वह जल्दी ही अपने को छुड़ा कर चल
देती थी, लेकिन मन में और देर तक यह होते रहने देना चाहती थी। मगर डर और संकोच उसे
तुरंत भगा ले जाते। यह चंद दिनों तक ही रहा, उसकी भी हिम्मत बढ़ गई। इस बढ़ी
हिम्मत के चलते गर्मी की छुट्टियों में वह और करीब आ गए। हर बार की तरह कॉलोनी के
काफी बच्चे अपने-अपने गाँवों या पैतृक
घरों को चले गए थे। लेकिन फिर भी बहुत से रह गए थे। इन दोनों का भी परिवार किसी
वजह से नहीं गया था।
मई, जून की तेज़ गर्मियों के चलते बच्चों के मां-बाप देर शाम सूर्यास्त होने के बाद
ही उन्हें निकलने देते थे। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। कुछ दिन पहले ही दोनों का रिजल्ट
आया था। जिसमें दोनों ने ही आठवीं कक्षा अच्छी पोजिशन में पास की थी। जिससे घर में
कुछ ज़्यादा ही लाड़ प्यार मिल रहा था। और खेलने कूदने का ज़्यादा मौका। इसी के
चलते दोनों काफी देर खेल कूद में लगे थे। और भी दर्जनों बच्चे थे जो कई गुट में
बंटे अलग-अलग खेलों में व्यस्त थे। इनका गुट छिपने-ढूढ़ने के खेल में व्यस्त था। सब
छिप जाते थे, कोई एक सबको ढूढ़ता था,
इस क्रम में कोई छिपा हुआ यदि ढूढ़ने वाले के टीप मार देता
तो वह फिर ढूढ़ने लगता। छिपने के लिए तीन मंजिले ब्लॉक अच्छी जगह थे, बच्चे वहीं छिपते थे जो खाली पड़े थे। कहीं सीढ़ियों के नीचे खाली पड़ी जगह में
तो कहीं एकदम ऊपर छत पर।
उस दिन वह भी
छिपी थी सीढ़ियों के नीचे खाली पड़ी जगह में कि तभी हिमांशु भी आ पहुंचा छिपने के
लिए। फिर तभी ढूढ़ने वाले लड़के की आहट मिली तो वह एकदम सटकर छिप गया। वह लड़का आया
इधर-उधर देखा, ऊपर भी गया और किसी को न पाकर चला गया वापस, तो उसने भी उस जगह से
उठ कर जाना चाहा लेकिन हिमांशु ने कसकर पकड़ लिया और चूम लिया उसके गालों पर कई
जगह। वह रोमांचित हो उठी और छूटकर जाने की कोशिश भी इस रोमांच में विलीन हो गई।
उसने भी उसे पकड़ लिया। उसका सहयोग मिलते ही हिमांशु निश्चिंत हो गया और एक मासूम
बादल सा अपनी सोफी पर बरस गया। एक आश्चर्यजनक अनुभव से गुजरने के बाद दोनों चल दिए
अपने-अपने घरों को क्योंकि शाम ढल चुकी थी, धरा पर उतरने ही वाला था अंधियारा
और लोगों ने शुरू कर दिया था लाइट्स जलाना।
घर जाते वक़्त
सोफी को गीलापन बहुत लिजलिजा अहसास दे रहा था। देर से घर पहुंचने पर मां से झिड़की
भी मिल गई। इसके बाद तो दोनों एक आध हफ्ते में अक्सर मौका निकाल ही लेते थे मिलने
का। फिर बारिश का वह दिन भी आया जो उनके मिलन का आखिरी दिन साबित हुआ। मानसूनी
बारिश को शुरू हुए हफ्ते भर हो गए थे। उस दिन भी शाम होने से कुछ पहले तक बारिश
होती रही। मौसम अच्छा खासा खुशगवार हो गया था। लोग घरों से बाहर थे, बच्चे भी खेलने-कूदने निकल चुके थे।
कई दिन बाद आज फिर दोनों ने मिलने का
मौका निकाल लिया था। हिमांशु तब फिर बरसा था लेकिन पहले की तरह सोफी के तन पर नहीं, बरस गया था उसके भीतर ठीक बाबा और जुल्फी की तरह। दोनों इस अहसास से ऐसे खिल
उठे थे जैसे दिन भर बारिश के बाद गर्मी से राहत मिलते ही खिल उठे थे लोगों के
चेहरे और फैक्ट्री परिसर में भारी संख्या में लगे पेड़, पौधे, फूल, पत्ते।
सोफी जब घर को
चली तो उसे लग रहा था कि जैसे क़दम जमीन पर नहीं हवा में ही पड़ रहे हैं। उस अहसास
से वह बाहर ही नहीं आ पा रही थी जो कुछ देर पहले तन के भीतर हिमांशु का कुछ रेंग
जाने के कारण हुआ था। इस अहसास ने उसे बहुत देर रात तक सोने न दिया था। इस बीच उसे
दर्द की एक लहर के गुजर जाने का भी अहसास बराबर हो रहा था।
सुबह उसे आंखों में तेज़ जलन महसूस हुई
जब उसे अम्मी ने झकझोर कर उठा दिया था। कमर के आस-पास के हिस्सों में दर्द का भी
अहसास हुआ तभी अम्मी दबी अवाज़ में बोली थी ‘यह सब हो गया और तू घोड़े बेच कर
सोती रही ..... चल जा बाथरूम जा कर नहा।’ अम्मी की इस बात से उसका ध्यान
धब्बों भरे अपने कपड़े और बेडशीट पर गया। वह डर से थरथरा उठी कि हिमांशु और उसके
मिलन का तो यह परिणाम नहीं जिसका भेद अम्मी के सामने खुल गया। वह आंखों में आंसू
लिए गिड़गिड़ाई ‘अम्मी मैंने कुछ नहीं किया।’
‘हां ... मुझे मालूम है क्या हुआ है। एक दिन सारी लड़कियों को इस रास्ते से
गुजरना होता है। जा पहले,
इसको भी ले जा ठीक से नहा धोकर वह सब साफ कर के आ और हां यह
भी ले जा।’ कुछ और भी भीतरी कपड़ों के साथ प्रयोग करने के लिए देते हुए उसने कान में भी
कुछ कहा। अम्मी की बातों से उसे यकीन हो गया कि उसकी और हिमांशु की बात खुली नहीं
है। बात तो कुछ और है जिसके बारे में अस्पष्ट सी बातें कभी-कभी सुन लिया करती थी।
जब वह लौटी तो अम्मी ने विस्तार से सब बता कर हिदायत दी कि अब हर महीने चार-पांच
दिन ऐसा रहेगा। अब कहीं भी बाहर अकेले नहीं जाना।
सचमुच कितनी
खुश थी वह कि कई तकलीफों के बावजूद उसकी चोरी पकड़ी ही नहीं गई। मगर यह खुशी एक दो
दिन बाद ही खत्म हो गई थी क्योंकि हिमांशु से मिलने के सारे रास्ते बंद हो गए थे।
यहां तक कि स्कूल भी बंद था। इस बीच उसने कई बार उसे अपने घर के पास मंडराते देखा।
फिर दस दिन बाद वह खराब दिन भी आ गया जब वह उसके घर आ गया सबसे मिलने के बहाने।
उससे मिलने और यह बताने कि उसके फादर का ट्रांसफर बंगलौर हो गया है और सभी लोग
लखनऊ छोड़ बंगलौर जा रहे हैं। उस समय उसने कुछ क्षण अलग मिलने की तड़प उसकी आंखों
में देखी थी। मगर परिवार के सब लोग आगे थे। वह पीछे थी और हाथ मलती रह गई थी। उसके
जाने के बाद उसने सबसे छिप- छिपाकर छत पर बड़ी देर तक आंसू बहाए थे। यह सिलसिला फिर
कई रातों तक चला था। हिमांशु से बिछुड़ने का असर उसके व्यवहार और फिर पढ़ाई पर भी
पड़ा था।
बचपन का अध्याय
पूरा करते-करते सोफी की आंखें भर आई थीं। आखिर में उसके दिमाग में आया कि यदि
हिमांशु न बिछुड़ता तो निश्चित ही वह आज उसके साथ होती। यह बात दिमाग में आते ही
उसकी नजर घूम कर बगल में पड़े खर्राटे भर रहे जुल्फी पर जा पड़ी। अचानक ही वह
बुदबुदा उठी और यहां जुल्फी नहीं हिमांशु सो रहा होता। कितना मासूम, कितना नेक था। न जाने अब कहां होगा, कैसा होगा। सोफी ने फिर आँखें बंद
कर लीं कि शायद नींद आ जाए और कुछ राहत मिले। मगर उसे राहत मिली करीब डेढ़ महीने
बाद।
जब एक सुबह उसे उबकाई आने लगी। और बाद
में चेक कराने पर उसकी प्रिग्नेंसी कंफर्म हो गई। उसने मन ही मन धन्यवाद दिया बाबा
को, सीमा को। उसे पूरा यकीन था कि यह छः बार बाबा के पास जाने का परिणाम है।
जुल्फी को जब उसने बताया कि वह प्रिग्नेंट हो गई है तो उम्मीद के अनूकूल यही जवाब
मिला ‘इस बार बेटा ही होना चाहिए।’
सोफी की नींद, चैन, आराम उसकी इस बात ने अगले चार महिने तक हराम कर दिया। घबराहट, चिंता ने उसका बी.पी. बढ़ा दिया। पहले की तरह उसने यह सारी बातें फिर शेयर कीं
सीमा से तो उसने कहा ‘एक ही रास्ता बचा है कि बच्चे का लिंग
पहले ही पता कर लिया जाए कि वह लड़का है या लड़की। जैसा होगा उसके हिसाब से
आगे किया जाएगा।’
‘लेकिन सीमा जिस भी नर्सिंग होम में यह सब होता है वहां तो बाहर ही बोर्ड लगा
रहता है कि भ्रूण का लिंग परीक्षण दंडनीय अपराध है।’
‘सोफी वास्तव में यह सब एक तरह से यह बताते हैं कि यह यहां आसानी से हो जाएगा।
बस इसके लिए दो गुनी फीस देनी होगी।’
बात सोफी के
समझ में आ गई। और फिर वह एक नामचीन नर्सिंग होम में इसके लिए चेकअप के बहाने
पहुंची। सही बात सामने रखने पर पहले तो उसने ना नुकुर की लेकिन मनचाही रकम मिलते
ही चेक कर बता दिया कि बेटा है। बेहद स्वस्थ है। लेकिन चेकअप की कोई लिखित रिपोर्ट
नहीं दी। सोफी को इसकी परवाह ही कहां थी। वह तो मन चाही मुराद मिल जाने से सातवें
आसमान पर थी। उसका मन बल्लियों उछले जा रहा था। सीमा को, बाबा को उसने लाख-लाख धन्यवाद दिया। घर पहुंच कर उसने बहुत असमंजस के बाद उस
वक़्त जुल्फी को भी सच बता दिया जब वह रात में उसकी बगल में ही बैठा था और पुत्र
की आस लिए अब तक अच्छे खासे उभर आए उसके पेट को
हौले-हौले स्पर्श कर रहा था और कई बार चूमने के बाद कहा कि,
‘हकीम साहब की दवा काम कर गई तो अबकी बार बेटा ही होगा।’
तब उसने कहा ‘अगर नाराज़ न हो तो एक बात कहूं।’
‘बोलो’
‘हम दोनों की मुराद पूरी हो गई है। इस बार मैं आपका वारिस आपका बेटा ही पैदा
करूंगी।’
सोफी से इतना सुनते ही जुल्फी एक दम
सीधा बैठ गया और पूछा,
‘मगर तुम इतना यकीन से कैसे कह सकती हो?’
जुल्फी के इस
प्रश्न पर सोफी ने उसे चेकअप वाली पूरी बात बता दी। सिर्फ़ यह छिपाते हुए कि सीमा
सूत्रधार थी और आखिर तक साथ थी। उसकी बात पर जुल्फी सिर्फ़ इतना ही बोला,
‘इससे कुछ नुकसान तो नहीं होगा।’
‘नहीं डॉक्टर ने कहा है कि ‘‘स्कूटी वगैरह चलाना बंद कर दें।’’ वह बता रही थीं कि इस बात की संभावना ज़्यादा है कि बच्चा ओवर वेट, ओवर साइज हो। इसलिए बड़े सिजेरियन की ज़रूरत पड़ेगी। मतलब की उस वक़्त काफी पैसा
लग सकता है।’
सोफी की बात सुन कर जुल्फी कुछ गंभीर हो
गया। फिर बोला,
‘एक ऑटो रिक्शा लगवा देता हूं। ऑफ़िस उसी से जाओ-आओ। फिर जितनी जल्दी हो सके
उतनी जल्दी मैटरनिटी लीव ले लो। एक नौकरानी भी लगवा देता हूं, काम-धाम कम करो।’
यह बातें
जुल्फी की सोच उसकी प्रकृति, आदत से एकदम विपरीत थीं। जिसे सुन कर
सोफी को जितनी खुशी हुई उससे कहीं ज़्यादा आश्चर्य। अब तक लेट चुके जुल्फी को उसने
अपनी बाँहों में ले लिया। बहुत दिनों बाद वह बेहद सुकून भरा क्षण जी रही थी। जब कि
बाबा का चेहरा उसकी आंखों के सामने बराबर नाच रहा था। साथ यह बात भी नत्थी थी कि
कहीं बेटा बाबा की सूरत-सीरत पा गया तो क्या होगा? जुल्फी को क्या बताएगी? इसी कसमकस-उलझन में डूबते-उतराते गर्भावस्था के बाकी के पांच माह भी बीत गए और
तय समय पर डॉक्टर की आशंकाओं के अनुरूप सिजेरियन से सोफी ने खूबसूरत चेहरे-मोहरे
वाले बेटे को जन्म दिया। उसका चेहरा मां से इतना मेल खा रहा था कि देखते ही
बेसाख्ता ही मुंह से निकल जाता ‘अरे! यह तो मां पर गया है।’
कई घंटे बाद
होश में आने पर सोफी बेटे को छाती से लगा कर खुशी से रो पड़ी थी। उसी छाती से
जिसमें किन-किन रास्तों से गुजर कर उसने बेटा पाया यह राज उसने हमेशा के लिए दफन
कर लिया था। यह जानते हुए कि यह एक टीस भरी पीड़ा अंतिम क्षण तक देता रहेगा। उसे यह
देख कर बड़ा सुकून मिला था कि बेटे का चेहरा बाबा पर नहीं पूरी तरह उस पर गया था।
लेकिन शरीर की बाकी बनावट पर बाबा का अक्स साफ झलक रहा था। रंग तो पूरी तरह उन्हीं
का था। उसने सोचा मगर जो भी हो बेटा न होने के कारण उस पर तलाक की जो तलवार लटका
करती थी वह तो हट गई। उसने आस-पास देखा सिवाय नर्स और उसके सिर पर स्नेहभरा हाथ
रखे सीमा के अलावा कोई न था। नर्स ने बच्चा उससे लेकर बेड के बगल में पड़े पालने
में लिटा दिया और चली गई। तब सोफी ने सीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा,
‘मैं तुम्हारा एहसान कभी न चुका पाऊंगी।’
‘ओफ्फ... सोफी अब खुश रहो। इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। दुनिया में सभी
एक दूसरे के लिए करते हैं।’
‘पता नहीं... पर मेरा साथ कभी न छोड़ना।’
‘मैं छोड़ने के लिए किसी को अपना नहीं बनाती सोफी।’
इसी बीच पूरे
नर्सिंग होम में मिठाई बांट कर जुल्फी भी आ गया तो सीमा ने कहा ‘सोफी मैं थोड़ी देर में आती हूं।’ वह जुल्फी से पहले ही मिल चुकी थी।
उसके जाते ही सोफी ने एक टक बच्चे को निहार रहे जुल्फी से कहा,
‘अब तो खुश हैं।’
‘हां ... बहुत।’
‘सब कह रहे हैं कि बिल्कुल मुझ पर गया है।’
‘सही ही कह रहे हैं सब,
तुम्हारी स्कैन कॉपी लग रहा है। सिवाय रंग के।’
जुल्फी के
चेहरे को पढ़ने के इरादे से उसे गौर से देखते हुए सोफी ने आगे कहा,
‘शायद तुम्हारे हकीम साहब की दवा काम कर गई। सांवलापन उनकी दवाओं के कारण ही तो
नहीं हो गया।’
‘शायद नहीं, बेटा निश्चित ही हकीम साहब की दवाओं के चलते ही हुआ। और रंग... रंग का क्या
करेंगे। बेटा बेटा है। मैं हकीम साहब के पास जाऊंगा उनसे और दवाओं के लिए कहूंगा
जिससे तुम मुझे अगले साल एक और बेटा दे सको।’
‘क्या ?’
‘अरे! ...... इसमें इतना चौंकने वाली क्या बात है, एक बेटा यानी कानी आंख। कम से कम दो तो चाहिए ही चाहिए।’
तभी नर्स ने आ
कर जुल्फी को एक पर्चा थमाते हुए कुछ दवाएं तुरंत लाने को कहा। जुल्फी को कमरे से
बाहर जाता देखती रही सोफी। वह एकदम परेशान हो उठी। उसके दिमाग में एक दम से यह
कौंधा कि बच्चा पैदा करने की मशीन के अलावा भी कभी कुछ समझोगे। जो तकलीफ झेलती हूं
उसका अंश भी पलभर को न झेल पाओगे। कितनी आसानी से कह दिया और बेटा चाहिए। मन का सब
हो गया पर प्यार के दो लफ़्ज न बोल पाए। मौत के मुंह से निकल कर आई हूं पर एक बार न
पूछा कैसी हो। बस आंखों, दिलो दिमाग पर अपना ही स्वार्थ छाया हुआ है और बेटा चाहिए। बस बहुत हो गया।
देते हो तलाक तो दे दो। तुम न सही बेटे को ही सहारा बना लूंगी पर अब बच्चा पैदा
करने की मशीन बिल्कुल नहीं बनूंगी। भाड़ में गईं तुम्हारी दवाएं। अब भूल कर बाबा के
पास भी जाने वाली नहीं।
तुम्हारे पास
आने से पहले ऐसा इंतजाम करके आऊंगी कि चाहे तुम जितनी दवाएं खा लोगे, जितना भी जोर लगा लोगे मैं प्रिग्नेंट ही नहीं होऊंगी। सोफी की आंखों में आंसू
भर आए और और एकदम से अम्मी की याद आ गई।
उनसे वह आखिरी
बार मिलना एवं फिर हमेशा के लिए बिछुड़ना और साथ ही उनकी दी वह बद्दुआ कि तुझे
अल्लाह-त-आला जीवन में कभी सुकून नहीं बख्सेगा। उसने मन ही मन कहा अम्मी तू तो
कहती थी कि ‘मां-बाप के दिल से बच्चों के लिए बद्दुआ निकलती ही नहीं। वह तो गुस्सेे में
ऊपरी तौर पर निकल जाती है।’
पर अम्मी, लगता है कि मेरे लिए तेरी बद्दुआ दिल से
निकली थी, तभी तो तब से आज तक एक पल को सुकून नहीं मिला। हालात ऐसे बन गए हैं कि अंतिम
क्षण तक सुकून का एक पल मिलेगा यह सोचना भी मूर्खता है। मगर अम्मी इसमें गलती तो
मेरी ही है। न तेरे दिल को मैंने इतना दुखाया होता, न ही तेरे दिल से मेरे
लिए बद्दुआ निकलती।
तड़प तो
तू भी रही होगी अम्मी आखिर हो तो मां ही ना। औलाद से बिछुड़ कर कहां चैन होगा तुझे
भी। औलाद वाली बनकर ही समझ पाई हूं तेरे उन आंसुओं की कीमत, जो उस दिन झर रहे थे तेरी आंखों से। यह
सोचते-सोचते सोफी के भी आंसू बह चले थे। शायद दवाओं का असर कम हो गया था इसलिए
दर्द भी बढ़ रहा था। उसने अपनी जगह से ही बच्चे पर नज़र डाली और देखती रही उसे। उसके
मन में उद्विग्नता की लहरें ऊंची और ऊंची होती जा रही थीं। उन लहरों पर बाबा का
अक्स भी बड़ा और स्पष्ट होता जा रहा था।
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पता - प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६एम /२१२ सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
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