शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

उपन्यास :बेनज़ीर-दरिया किनारे का ख्वाब :प्रदीप श्रीवास्तव- pustakbazar.com कनाडा से प्रकाशित

                                     










          बेनज़ीर 

                                    दरिया किनारे का ख्वाब 

                               

                                         प्रदीप श्रीवास्तव


    बेनज़ीर 

दरिया किनारे का ख्वाब 

(उपन्यास)

लेखक:प्रदीप श्रीवास्तव 

कॉपी राइट:लेखक

प्रथम संस्करण:२०२० 

आवरण चित्र:प्रत्युष श्रीवास्तव

आवरण मॉडल:अधरा शर्मा   

आवरण सज्जा:कुंदन सिंह मेहता 

कम्प्यूटर टाइपिंग:धनंजय वार्ष्णेय 

ले-आउट:नवीन मठपाल          


                                                     समर्पित

                                                   पूज्य पिता 

                                                    ब्रह्मलीन 

                                              प्रेम मोहन श्रीवास्तव

                                                       एवं 

           प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव,सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृतिओं को   

 

                  


                                              बेनज़ीर

                                  दरिया  किनारे का ख्वाब  

                                        . प्रदीप श्रीवास्तव

       

काशी नगरी के पॉश एरिया में उनका अत्याधुनिक  खूबसूरत मकान है। जिसके पोर्च में उन की बड़ी सी लग्जरी कार खड़ी होती है। एक छोटा गार्डेन नीचे है, तो उससे बड़ा पहले फ्लोर पर है। जहां वह कभी-कभी पति के साथ बैठकर अपने बिजनेस को और ऊचांइयों पर ले जाने की रणनीति बनाती हैं। तमाम फूलों, हरी-भरी घास, बोनशाई पेड़ों से भरपूर गार्डेन में वह रोज नहीं बैठ पातीं, क्योंकि व्यस्तता के कारण उनके पास समय नहीं होता। जो थोड़ा बहुत समय मिलता है,उसे वहअपने तीन बच्चों के साथ बिताती हैं । जो वास्तव में उनके नहीं हैं।

दोनों पति-पत्नी जितना समय एक दूसरे को देना चाहते हैं, वह नहीं दे पाते। उन दोनों के बीच प्यार का अथाह सागर हिलोरें मारता वैसे ही बढता जा रहा है, जैसे ग्लोबल वार्मिंग ध्रुवों  की बर्फ पिघला-पिघला कर सागर के तल को बढ़ाये जा रही है। और ऐसे ही बढ़ते सागर तल के किनारे वो अपने होटल बिजनेस की नींव रख चुकी हैं। जिसका विस्तार पूरे देश में करने का उनका सपना है। लेकिन एक चीज है जो उन दोनों को भीतर ही भीतर कुतर रही है, वैसे ही चाल रही है जैसे इंसानों के कुकृत्य पृथ्वी को चाल रहे हैं। लेकिन उन्हें जो चाल रहा है वह उन दोनों का या किसी अन्य का भी कोई कुकृत्य नहीं है। 

मेरे बहुत प्रयासों के बाद वह तैयार हुए कि मैं उनके जीवन को आधार  बना कर यह उपन्यास लिख सकता हूं। हालांकि पति में मैं कुछ हिचकिचाहट देख रहा था। उनकी रॉलर  कॉस्टर जैसी उतार-चढाव  भरी  ज़िन्दगी की  जानकारी मुझे संयोगवश ही कहीं से मिली थी। उस  संक्षिप्त सी जानकारी में ही ऐसी  बातें थीं, जिसने मेरे लेखक हृदय को उद्वेलित कर दिया कि इस कैरेक्टर को और जानूं और समझूं, फिर लिखूं।

लिखूं अपने प्रिय मित्र, पाठकों के लिए एक ऐसा  उपन्यास जो वो पढ़ना  शुरू करें तो पूरा पढ़  कर उसे छोड़ न पाएं ,बल्कि खोए रहें  उसी उपन्यास में। बेनज़ीर  को महसूस करते रहें अपने आसपास,अपने हर तरफ। मन में उठे इस भाव ने मेरा खाना-पीना,उठना-बैठना, घूमना-फिरना और रोज रात को सोने से पहले दो पैग ली जाने वाली व्हिसकी, सब पर अधिकार  जमा लिया।

हर सांस में बेनज़ीर ,उपन्यास, बेनज़ीर,उपन्यास रच-बस गया । मैं पूरी तन्मयता से लग गया  कि बेनज़ीर मुझसे मुखातिब हो कह डालें अपना सब कुछ। स्याह-सफेद सब। पूरी निष्ठा समर्पण के साथ किया गया  मेरा परिश्रम सफल हुआ।

जब वह मुखातिब हुईं  तो कई बार मुझे बेहद कूपमंडूक लगीं , तो कई बार इतनी बिंदास कि उनके  साहस को सैल्यूट करना पड़ा । यह बात आप बिल्कुल ना कहें  कि कोई या तो कूपमंडूक हो सकता है या फिर बिंदास। दोनों एक साथ नहीं। लेकिन मेरा दावा है कि बेनज़ीर  के बारे में पूरी बातें जानकर आप मेरी बात से पूर्णत: सहमत हो जाएंगे । उन्होंने अपने जीवन में आगे बढ़ने  के लिए जहां अपने नजदीक खींची गईं  दिवारों को एकदम तोड़  कर गिरा दिया, समतल कर दिया या फिर उसे लांघ गईं, वहीं वह अपने लिए अपने हिसाब की बाऊंड्री बना भी लेती हैं या फिर बिना बाऊंड्री के ही अपनी दुनिया बनाती हैं । 

लम्बे समय के बाद जब उन्होंने  मन से सहयोग  शुरू किया तो यह उपन्यास आकार लेने लगा। शहद सी मीठी आवाज में अपनी बहुत ही हृदयस्पर्शी बातें उन्होंने बतानी प्रारम्भ कीं। अपने खूबसूरत हैंगिंग गार्डेन में ,जब पहली बैठक में उन्होंने चर्चा शुरू की,थी तो सर्दी का मौसम छोड़  कर जा रहा था। रविवार का दिन था। हरी घास  पर बैंत की  स्टाइलिश  चार कुर्सियां पड़ीं  थीं। उसी में से एक पर वह बैठी थीं , सामने वाली पर मैं। बीच में शीशे की टेबल थी , जिस पर मैंने अपने दो मोबाइल रखे थे बातचीत  रिकॉर्ड  करने के लिए। बेनज़ीर  ने हल्के नीले रंग  की सलवार और गुलाबी  कुर्ता पहना हुआ था। ड्रेस की कटिंग और डिजाइन बहुत फैंसी और बोल्ड थी। मैंने जींस और डेनिम शर्ट पहनी थी। 

वहां पहुंचने से पहले मैंने खुद को अच्छे ढंग  से तैयार किया था। एक काफी महंगा  विदेशी सेंट भी लगाया था। बात की शुरुआत  में उन्होंने कहा , 'आखिर आप अपनी जिद पूरी कर ही ले रहे हैं। मेरे जीवन पर किताब भी लिखी जा सकती है, कभी सोचा भी नहीं था। खैर आपने कहा कि जो कुछ बचपन से अब-तक याद है वो बता दूं। याद तो मुझे इतना है कि शुरू कहां से करूं,यह मुझे बहुत समय तक सोचना पड़ा।

 क्या है कि मैं अपनी कोई भी बात अम्मी-अब्बू को पता नहीं ठीक से समझा नहीं पाती थी या फिर वो लोग  ऐसे  थे कि समझ नहीं पाते थे। उन्हें छोटी सी छोटी बात समझाना मेरे लिए नाकों-चने चबाने से कम नहीं होता था। जबकि उनके अलावा घर या बाहर कहीं भी मुझे अपनी बात कहने या किसी को भी कन्वींस करने में ज्यादा  दिक्कत नहीं होती। उनकी पिछली बातों को ध्यान में रखते हुए, यह भी नहीं कह सकती कि मैंने जब उन्हें कुछ कहने-सुनने समझाने  की कोशिश शुरू की थी, तब-तक उन दोनों की उम्र हो गई थी। इसलिए उन्हें कुछ भी समझाना आसान नहीं था।

वो क्या कहते हैं  कि साठ के बाद सठिया जाते हैं और वह  लोग  तो पैंसठ से ऊपर हो रहे थे। असल में अम्मी-अब्बू दोनों शुरू से ही ऐसे ही थे। कम से कम अपनी याददाश्त में बचपन से उन्हें ऐसे ही देखती आ रही थी। हां दस-बारह साल पहले तक अम्मी के साथ यह समस्या नहीं थी। तब दोनों छोटी अम्मी साथ रहती थीं। अब्बू से अम्मी का छत्तीस नहीं बहत्तर का आंकड़ा रहता था। महीनों हो जाता था, वह एक दूसरे को देखते भी नहीं थे। अम्मी उनकी आहट मिलते ही अपने कमरे में खुद को छिपा लेती थीं कि, कहीं अब्बू से सामना ना हो जाए। क्योंकि अब्बू सामना होने पर कुछ ना कुछ तीखा जरूर बोलते थे और अम्मी अपना आपा खो बैठती थीं। सारी लानत-मलामत उन पर भेजती हुई चीखती-चिल्लाती धरती आसमान एक कर देती थीं। और तब अब्बू की तरफ से दोनों छोटी अम्मियां भी मैदान में कूद पड़ती थीं। मगर अम्मी की आक्रामकता के आगे  वह दोनों कमजोर पड़  जाती थीं। उन्हें अपने कमरों में दुबक जाना पड़ता  था। कई बार तो अम्मी के हाथ उस समय जो भी सामान लग जाता उसी से उन दोनों अम्मियों को मारने के लिए दौड़ पड़तीं  थीं।

एक बार तो तीसरी वाली अम्मी को चाय वाली भगोनियाँ  जिसमें हैंडल लगा  हुआ था, उसी से मार-मार कर लहूलुहान कर दिया था। बीच वाली आईं तीसरी वाली को बचाने तो वह भी बुरी तरह मार खा गईं। उनकी गोद से उनकी साल भर की बच्ची यानी मेरी सौतेली बहन गिरते-गिरते बची। यह तो अल्लाह का करम था कि ऐन वक्त पर आकर अब्बू ने दोनों को बचा लिया था, नहीं तो इनमें से किसी की जान भी जा सकती थी।

दूसरी वाली फिर भी बेहोश हो गई थीं। तब वह करीब तीन महीने की गर्भवती थीं। उनकी वह तीसरी संतान थी। मुझे आज भी पूरा विश्वास है कि, तब अब्बू भी अम्मी की आक्रामकता से डरते थे, क्योंकि मेरी सौतेली अम्मियों पर आए दिन हाथ उठाने वाले अब्बू मेरी अम्मी पर किच-किचा कर रह जाते थे ,लेकिन उन पर हाथ नहीं उठाते थे।

कई बार तो मैंने साफ-साफ देखा कि वह उठा हुआ हाथ भी वापस खींच लेते थे। अम्मी से इतना दबने का या उनसे डरने का मैं जो एकमात्र कारण मानती हूं वह यह कि,अम्मी मकान की मालकिन थीं। यही एकमात्र कारण था जिससे अब्बू अम्मी के ऊपर उस तरह हावी नहीं होते थे, जिस तरह बाकी तीन अम्मियों पर होते थे।




वह मकान हमारे नाना ने हमारी अम्मी के नाम कर दिया था। बकायदा उनके नाम रजिस्ट्री भी की थी। जब नाना-नानी इंतकाल हुआ,तब मकान ज्यादा बड़ा नहीं था। अम्मी कई भाई-बहनों की अकाल मृत्यु के बाद अकेली ही बची थीं। नाना-नानी उनका निकाह जल्द से जल्द करके अपनी तरफ से निश्चिंत हो जाना चाहते थे।

नाना ने चौदह साल की उम्र में ही अम्मी के निकाह की तैयारी शुरू कर दी थी। लेकिन टीवी की बीमारी ने अचानक ही नाना को छीन लिया। तब मकान में तीन कमरे ही हुआ करते थे। नाना के साथ ही इनकम के सारे रास्ते भी बंद हो गए तो नानी ,अम्मी को खाने-पीने के लाले पड़  गए। आखिर नानी ने एक कमरे में अपनी सारी गृहस्थी समेटी और दो कमरे किराए पर दे दिए। इससे दोनों को दो जून की रोटी का इंतजाम हो गया। नानी चार बच्चों और फिर पति की मौत के गम से बुरी तरह टूटतीं जा रही थीं।

लेकिन रोटी से ज्यादा चिंता उन्हें बेटी यानी अम्मी के निकाह की थी। लाख कोशिश उन्होंने कर डाली लेकिन नानी अम्मी का निकाह नहीं कर पाईं। तीन साल निकल गए। एक जगह तो निकाह के ऐन बारात आने वाले दिन ही रिश्ता टूट गया। नानी चार बच्चों और पति की मौत का गम तो सह ले रही थीं, लेकिन इससे उनको इतना सदमा लगा  कि कुछ ही महीनों में चल बसीं

अम्मी बताती थीं कि नानी के इंतकाल से वह गहरे सदमे में आ गईं । कैसे जिएं, क्या करें उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मगर जीवन जीने का जज्बा बना रहा तो उन्होंने उनके निकाह के लिए जो गहने थे उसे बेच दिया। उससे मिले पैसे और निकाह के लिए जो पैसे थे वह सब मिलाकर, खींचतान कर तीन कमरे और बनवाए जिससे कि और किराएदार रख सकें। इनकम को और बढ़ाया  जा सके। साथ ही वह अपनी चिकनकारी के हुनर का भी इस्तेमाल करने लगीं । लखनऊ में चौक के पास एक दुकान से कपड़े  ले आतीं और कढाई  करके दे आतीं। उनका यही क्रम चल निकला।

अब्बू उसी दुकान से बने हुए कपड़े थोक में ले जाते थे। वहीं अम्मी अब्बू की मुलाकात हुई, फिर डेढ साल बाद ही निकाह। अब्बू अम्मी के ही मकान में आकर साथ रहने लगे। मकान से किराएदार निकाल दिए गए। लेकिन पैसों की किल्लत हुई, तो कुछ दिन बाद फिर आधा मकान किराए पर दे दिया गया। फिर देखते-देखते अम्मी ने हम पांच भाई-बहनों को जन्म दिया। चौथी संतान के कुछ महीने बाद अम्मी को पता चला कि अब्बू तो पहले ही से शादीशुदा हैं, और दो बच्चे भी हैं जो अच्छे-खासे बड़े  हो चुके हैं।

अम्मी ने यह पता चलते ही कोहराम खड़ा कर दिया। लेकिन तब वह पांच छोटे-छोटे बच्चों के साथ अब्बू की ज्यादतियों के सामने कमजोर पड़ गईं। अब्बू के झांसें में आकर वह अपना जमा-जमाया काम-धंधा पहले ही छोड़  चुकी थीं। उन्होंने अब्बू से सारे रिश्ते-नाते खत्म कर घर छोड़ने के लिए कहा। 'खुला' देने की भी धमकी दी। लेकिन अब्बू टस से मस ना हुए, जमे रहे मकान में। अम्मी, बच्चों को बस जीने भर का खाना-पीना देते थे। लाज ढकने भर को कपड़े। अम्मी के लिए अपने वालिद को खोने के बाद यह सबसे बड़ा  सदमा था, जिसने उन्हें बीमार बना दिया।

उन्होंने बिस्तर पकड़  लिया। लीवर की गंभीर  समस्या से पीड़ित हो गईं। फिर उनका जीवन पूरी तरह अब्बू की दया पर निर्भर हो गया। वह कुछ भी ज्यादती करते रहते लेकिन अम्मी उफ तक नहीं कर पाती थीं। अब्बू ने उनको वर्षों तक खूब प्रताड़ित  किया। बीमारी की हालत में भी उन पर हाथ उठाते रहते थे, कि वह मकान अब्बू के नाम लिख दें। लेकिन अम्मी लाख मार खातीं, मगर जवाब हर बार एक ही देतीं, कि जो तलाक आप बार-बार मांगने पर भी नहीं दे रहे हैं, मकान अपने नाम लिखवाते ही मुझे तलाक देकर बच्चों सहित सड़क  पर मारकर फेंक देंगें। हमें सड़कों पर भीख मांगने के लिए छोड़ देंगे। हमें अपनी देह तक बेचने को मजबूर कर देंगे।

इतना ही नहीं अम्मी हर मौके  पर पास-पड़ोस  से लेकर, हर मिलने वाले से सारी बातें बताकर यह जरूर कहतीं थीं कि मेरी , मेरे बच्चों की जान खतरे में है। मुझे कुछ हो जाए तो पुलिस को खबर कर देना। इन बातों से अब्बू बहुत दबाव में आ जाते थे। जिससे अम्मी की दुश्वारियां और बढ़तीं । घर का आँगन जंग  का मैदान बन जाता। यह जंग  तब और बड़ी , डरावनी हो गई जब अब्बू मेरी सौतेली अम्मी को भी घर लेते आए। अब रोज ही घर में जो हंगामा होता, उससे पास-पड़ोस के लोग भी ना चाहते हुए भी अतंतः बीच-बचाव कराने को विवश हो जाते।

अम्मी बार-बार यही कहतीं, यह झूठे दगाबाज हैं, मक्कार हैं। मेरी संपत्ति हथियाने के लिए मुझसे दगाबाजी की, और दगा  देकर ही निकाह भी किया। यह मुझे तलाक दें और मुझे, मेरा मकान व बच्चों को छोड़  कर जाएं। मुझे मेरा मेहर भी नहीं चाहिए। रख लें उसे। उन्होंने गुनाह किया है मैं एक गुनाहगार  के साथ नहीं रह सकती। अम्मी 'खुला; देने की धमकी  तो बार-बार देतीं, लेकिन दे नहीं पाईं। अम्मी, बड़ी अम्मी को भी जलील करतीं। कहतीं तुम एक गुनाहगार का साथ दे रही हो। एक सताई औरत को परेशान कर रही हो। इस जुल्म की सजा तुम्हें अल्लाहताला जरूर देंगे। इस आदमी ने तुम्हें,मुझे एक साथ धोखा दिया है। जो तुम्हारा नहीं हुआ, वह मेरा कहां से हो जाएगा । इसने हमें धोखा दिया और ना जाने कितनों को देगा । ऐसे  गुनाहगार को छोड़ देना ही सही है।

कई रिश्तेदार, दूसरे लोग  झगड़ों  और अम्मी के रुख  को देखकर कहते, 'रोज-रोज के झगड़े से अच्छा है तलाक देकर शांति से क्यों नहीं रहते। मगर  सबकी बातों का अब्बू एक ही जवाब देते, 'मैं गुनाहगार  नहीं हूं। मैंने कोई धोखा नहीं दिया है। मैंने दोनों से निकाह किया है। दोनों को बेपनाह चाहता हूं। इसलिए किसी को तलाक नहीं दूंगा। उनकी बातों से बड़ी  अम्मी भी सहमत नहीं होतीं। उन्हें मेरी अम्मी की बातें सही लगतीं । जब वह बोलतीं तो अब्बू बच्चों के सामने ही उन्हें बुरी तरह पीट-पीटकर अधमरा कर देते। 

चीखते-चिल्लाते, कहते ,'इसके बहकावे में आकर मुझे गुनहगार कह रही है। दोनों मिलकर मेरे खिलाफ साजिश कर रही हो।' इसी बात को लेकर एक दिन विवाद इतना बढ़ा कि, अब्बू ने बड़ी अम्मी को तीन सेकेंड में तलाक.ए.बिद्दत दे दिया। तलाक देकर बच्चों सहित बड़ी  अम्मी को आधी रात को घर से धक्के देकर बाहर निकाल दिया। जाड़े का दिन था। वह घर  के बाहर मारपीट से बुरी तरह चोट खाई दीवार के सहारे बैठी रोती रहीं। बच्चे भी,जो आठ से बारह साल तक के थे।'

मैंने देखा कि बेनज़ीर बड़ी अम्मी के बाहर निकाले जाने की बात बताते हुए बहुत भावुक हो गईं। उस पर नियंत्रण के लिए उन्होंने  टेबिल पर रखे एक वायरलेस स्विच को उठाकर उसके बीच में बने एक बटन को दो बार दबाया। फिर वापस रखते हुए कहा, 'आप  मुझे अगर ,इतना गौर से देखते रहेंगे तो जो बताना है मैं वही भूल जाऊँगी।' यह कह कर वह हंस दीं । उनकी इस बात से न मैं सकपकाया, ना ही मन में कोई संकोच हुआ।

मैंने छूटते ही कहा, 'बेनज़ीर जी मैं गौर  से देख नहीं रहा हूं। बल्कि आप जो दास्तान बता रही हैं ,उसकी गहराई में उतरकर, उसे आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूं। जिससे मैं उपन्यास में प्राण-प्रतिष्ठा कर, उसे जीवन्त बनाने में सफल रहूं। वरना आपकी हमारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। ' 

'ठीक है ,उतरिए आप गहराई में। ये लेखन की बातें आप लेखक ही जानें। लेकिन जब आप देखते हैं, तो मुझे लगता है कि जैसे आपकी आंखें जादू करके वह सब भी जान लेना चाहती हैं, जो मैंने आज तक किसी को नहीं बताया और बताना भी नहीं चाहती।' यह कहकर वह पुनः हंस दीं। फिर अतीत में डूबती हुई सी बोलीं , 

'उनकी हालत पर तरस खा कर मोहल्ले के लोगों  ने कंबल, खाने-पीने की चीजें तो दीं, लेकिन अब्बू की हरकतों के कारण किसी ने उन्हें अपने घर में शरण नहीं दी। मेरी अम्मी से नहीं रहा गया ,तो जब अब्बू सो गए तो चुपचाप बड़ी अम्मी को समझा-बुझाकर घर के अंदर ले आईं कि, 'रात यहीं बिताओ। इतनी ठंड में बाहर तुम पर जान पर बन आएगी। जो भी हो मैं अपनी इंसानियत का फर्ज निभाने की कोशिश करुँगी। सवेरे तुम चली जाना अपने घर,  क्योंकि हम दोनों की भलाई इसी में है। बड़ी अम्मी बड़ी मान-मनौवल के बाद अंदर आईं। लेकिन लाख मिन्नतों के बाद भी खाने-पीने का एक निवाला भी मंजूर नहीं किया। बच्चों ने भी नहीं।

दिन भर से घर में जो हंगामा  बरपाया था अब्बू ने उससे घर में चूल्हा नहीं जला था। अब्बू बाहर से खाकर आए और तानकर सो गए थे। वह जब सुबह उठे तब-तक बड़ी अम्मी अपने बच्चों के साथ अपने मायके चली गईं थीं। कोई उन्हें देख ना ले, मोहल्ले के लोगों  के सामने उन्हें शर्मिंदा ना होना पड़े ,इसलिए कड़ाके  की ठंड, घना कोहरा और अम्मी के बार-बार कहने के बावजूद सवेरा होने से कुछ ही पहले वह चली गईं। तब सड़क पर अंधेरा ही था। इक्का-दुक्का गाड़ियां दिख रही थीं। अम्मी ने उनसे जाते वक्तअपनी हर गलती के लिए माफी मांगते हुए, जरूरत भर के पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने नहीं लिये।

अम्मी ने कहा कम से कम किराए भर के तो रख लो। तब उन्होंने पैरों से पायल उतार कर अम्मी को देते हुए कहा, 'इनके बदले दोगी तभी लूंगी ,नहीं तो नहीं।' अम्मी की सारी कोशिशें बेकार गईं। पायल उन्हें लेनी ही पड़ी। वह जाते समय रो रही थीं। मगर आंखों में गुस्सा चेहरे पर कठोरता साफ दिख रही थी। 

वह दूर तक एकदम सीधी चली जाती सड़क पर अपने बच्चों को लिए चली गईं जल्दी-जल्दी। हम दरवाजे पर खड़े उन्हें देखते रहे, मगर वह ज्यादा दूर तक दिखाई नहीं दीं। बमुश्किल पचास-साठ कदम चली होंगी कि कोहरे में ओझल हो गईं। उनके ओझल होने के बाद भी अम्मी बड़ी देर तक बाहर ही खड़ी रहीं। बड़ी अम्मी ने जाते वक्त अम्मी को नसीहत दी थी कि, 'जो भी हो जाए इस जल्लाद के नाम मकान मत लिखना। अपने हाथ कभी ना कटाना, नहीं तो यह जल्लाद तुम्हारी मुझसे भी बुरी हालत करेगा ।'

इस तरह बड़ी अम्मी घर से हमेशा के लिए चली गईं। अम्मी अंदर आकर अपने बिस्तर पर बैठ गईं। बड़ी अम्मी की बातें दोहरा-दोहरा कर बार-बार रोती और चुप होती रहीं। हम सभी बच्चे डरे-सहमे इधर-उधर कोनों में दुबके हुए थे। देखते-देखते नौ बज गए,लेकिन चाय तक नहीं बनी थी।

अब्बू नौ बजे उठे। उनके उठने की आहट से हम सब एकदम सिहर उठे। उठते ही उन्होंने बाहर जाकर देखा कि बड़ी अम्मी तो नहीं हैं। उन्हें बाहर अंदर कहीं भी ना देखकर कहा, 'खुदा  का शुक्र है शैतान की खाला से निजात मिली।'  फिर अम्मी से बोले,'तू भी रास्ते पर आ जा तो अच्छा है। जो कहता हूं वो कर नहीं तो तेरा हश्र और भी बुरा होगा। '

  पहले से ही खफा अम्मी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने छूटते ही बड़ी अम्मी का नाम लेते हुए कहा,' कान खोल कर सुन लो, मैं वह नहीं हूं और ना ही वह शैतान की खाला थीं और ना मैं हूं। शैतान कौन है कहने की जरूरत नहीं। मैं तो कहती हूं कि पलक झपकने की भी देर ना करो, अभी का अभी मुझे तलाक दो और जाओ यहां से, पीछा छोड़ो  मेरा, छोड़ो  मेरा पीछा। मुझे कोई जरूरत नहीं है तुम्हारी। इस मुगालते  में न रहो कि तुम्हारे बिना मैं जी ना पाऊँगी, अपने बच्चों को जिला ना पाऊँगी.' 

इन्हीं बातों के साथ अब्बू-अम्मी के बीच जोरदार झगड़े का एक और दौर सुबह-सुबह ही शुरू हो गया। पड़ोसियों की आंख उस कड़कड़ती ठंड में हमारे घर की चीख-चिल्लाहट से खुली। यह चीख-चिल्लाहट और भी भयानक होने लगी, जब एक दिन अचानक ही अब्बू दूसरी तीसरी अम्मी को लेकर ,आ धमके और फिर लगातार कई दिन तक बवाल चलता रहा। 

मेरी यह दोनों ही सौतेली अम्मियां आपस में ममेरी बहनें थीं और तलाकशुदा भी। लेकिन अब्बू निकाह करके ले आए। हफ्ते भर के अंदर दोनों से निकाह किया था। दोनों ही बेहद गरीबी और मुफलिसी में जीवन जी रही थीं। बाद में पता चला कि अब्बू ने वहां भी झूठ-फरेब का सहारा लिया था। दोनों ही जगह अलग -अलग  बातें की थीं। जैसे-जैसे उनके झूठ सामने आते गए वैसे-वैसे झगड़े बढते गए। फिर एक दिन खूब मारपीट हुई और बात पुलिस तक पहुंच गई। मेरी अम्मी सहित दोनों सौतेली अम्मियों को भी चोटें आई थीं।

कई दिन की चख-चख के बाद पुलिस ने मामला रफा-दफा कराया। मगर झगड़े की सारी जड़ें घर में मौजूद थीं, तो वह चलता रहा। फिर वह दिन भी आया जब जिन दो अम्मियों को अब्बू लाए थे झूठ ही झूठ बोल कर, जिनके लिए मेरी अम्मी को भयानक यातनाएं देते थे, परेशान करते थे, साथ ही उन दोनों को भी मारते थे, मेरी उन दोनों अम्मियों को भी तलाक दे दिया। घर से निकाल दिया। बच्चों को भी उन्हीं के हवाले कर दिया।

तब अम्मी ने एक बार फिर अपने जीवन से अब्बू को निकालने का पुरजोर प्रयास किया। लेकिन अब्बू ने मेरी अम्मी को तलाक नहीं दिया। बार-बार मांगने , भीषण फसाद होने पर भी नहीं दिया। घर पर जमे रहे। मगर सौतेली अम्मियों के जाने के बाद  झगड़े-फसाद कुछ कम हुए। समय के साथ और कम होते गए। इसी बीच एक दिन पता चला कि बड़ी अम्मी को उनके मायके वालों ने भी डेढ़ महीने बाद ही घर से  निकाल दिया था। 

 कहने को कई भाई ,मां-बाप सभी थे। उसके बाद उनका, उनके बच्चों का आज-तक कुछ पता नहीं चला । पता नहीं जीवित भी हैं या नहीं। यदि नहीं हैं तो उनकी मौत का जिम्मेदार किसे कहूं ?केवल अब्बू को ,या अम्मी-अब्बू दोनों को। मकान अम्मी  का  था ,वह चाहतीं तों रोक सकती थीं। यदि जीवित हैं तो उनकी तकलीफों का जिम्मेदार कौन ?'

बेनज़ीर यह कहते हुए बहुत गंभीर हो गईं । अतीत में बहुत गहरे उतर गईं तो मैं भी शांति से उन्हें देखता रहा। थोड़ी ही देर में वह जैसे जागीं ,मुझ पर एक नज़र डाली ,फिर हलके से मुस्कुराती हुईं बोलीं ,  

'जल्दी ही अम्मी ,अब्बू के बीच रिश्ते सामान्य हो गए और हम भाई-बहनों की संख्या कुल सात पर जाकर रुकी। मैं उनकी सबसे छोटी संतान हूं। इसलिए मैं ही घर में अम्मी-अब्बू के साथ आखिर तक रही। बाकी तीन भाई ,तीन बहनें अपने-अपने परिवार के साथ अपने घरों  को चले गए। कोई दे या ना दे ,अम्मी-अब्बू भले ही बड़ी  वाली दोनों बहनों को रात-दिन कोसते रहे, लेकिन मैं कहूँगी  कि उन बहनों के कारण घर जंग के मैदान से शांति का मैदान या घर बना। नहीं तो अम्मियों के जाने के बाद हम बच्चों के कारण घर में हरदम धूम-धड़ाम  होता रहता था। बहनों ने किया बस इतना कि अब्बू की बेइंतिहा पाबंदियों हद दर्जे की पर्देदारी के खिलाफ आवाज उठाई और खुली हवा में सांस लेने के लिए अब्बू के बनाए सारे बाड़ों  को तोड़कर  बिखरा दिया। 

हम पर पाबंदियों की इतनी तहें या पाबंदियां इतने  स्तर की थीं कि जेड प्लस सिक्योरिटी पाए लोगों  की सुरक्षा  भी उतने स्तर की नहीं होगी।आलम यह था कि घर के छोटे से आंगन में भी हम बिना सिर ढके नहीं रह सकते थे। सूरज की रोशनी भी हमें छू ले, देख ले ,यह भी अब्बू को गवारा नहीं था। पाबंदियां आयद करने की उनकी ताकत को दोनों बहनों ने कतरा-कतरा कर बिखेर दिया था। इसके बावजूद वह अपनी कोशिश करते रहते थे। 

हम सारे बच्चे टीवी देखने के लिए तरस गए, मोबाइल क्या होता है यह हम केवल सुनते थे। पढ़ने-लिखने से हमारा सामना इतना ही रहा कि एक खातून को अब्बू ने उर्दू पढानें  के लिए रखा था। वही आकर हम बहनों को लिखने-पढ़ने लायक उर्दू पढ़ा-सिखा सकीं।

खातून उर्दू भाषा,कुरान की अच्छी जानकार होने के साथ-साथ उर्दू साहित्य की भी अच्छी जानकार थीं। फिराक गोरखपुरी, इस्मत चुगताई, कुर्तउलएन हैदर उनके प्रिय लेखक-लेखिकाएं थीं । वह चाहती थीं कि हम बहनों को ठीक से पढाई-लिखाई में आगे  बढ़ाया  जाए। हमारा दाखिला स्कूल में करा दिया जाए। वह अब्बू से बार-बार कहतीं कि, 'आपकी  बच्चियां पढ़ने में तेज हैं, उन्हें अच्छी तालीम दीजिए।' मगर अब्बू की नजरों में या गलत था। भाईयों को तो उन्होंने मदरसों में डाल रखा था। मगर हमारे लिए मदरसा जाने पर भी उनको सख्त ऐतराज  था।

उनके हिसाब से हम लड़कियां लड़कों  की बराबरी कत्तई नहीं कर सकतीं। ऊपर वाले ने ही हमें दूसरे पायदान पर खड़ा करके भेजा है, तो वह कैसे लड़कियों को लड़कों  के बराबर खड़ा कर दें। एक बार उन खातून ने उनसे इस बारे में थोड़ी बात कर ली,समझाने का प्रयास किया कि, 'बच्चों के अच्छे  मुस्तक़बिल के लिए, उनको तालीम देना आवश्यक है। मजहब की किताबों में लिखी बातों का यह मतलब कत्तई नहीं है, कि बच्चियों को तालीम कत्तई  ना दी जाए। यह किताबों में लिखी बातों को गलत ढंग से समझना है।'

उनकी यह बातें अब्बू को इतनी नागवार लगीं  कि उन्होंने उनसे साफ कह दिया कि, 'आप  हमारे बच्चों को गलत रास्ते पर भेज रही हैं। आज से आप पढ़ाना  बंद कर दीजिए।' खातून ने खुशी-खुशी उनकी बातें मानते हुए कहा, 'अगर आप यह सोच रहे थे, कि मैं आपके पैसों के लिए इन बच्चियों को पढ़ा रही थी, तो आप बड़ी  गलतफहमी में हैं। बच्चियों को पढ़ाना  मैं अपना कर्तव्य मानती रही हूं। मेरी नजर में बच्चे-बच्चियों में कोई भेद करना गुनाह है। पैसा कमाना मेरा मकसद होता तो मैं यहां आने के बजाय किसी अन्य स्कूल के बच्चों को ट्यूशन दे रही होती। आप जितना देते हैं उसका छः.सात गुना पैसा मिलता।'

खातून ने लगे हाथ कई और बातें कह दीं। जो सीधे-सीधे अब्बू की जाहिलियत की तरफ संकेत कर रही थीं। इसका अहसास होते ही अब्बू को अपना आपा खोते देर नहीं लगी । उन्होंने छूटते ही खातून पर काफिर होने का आरोप लगाते हुए कह दिया, 'मेरे  यहां काफिरों को आने की कोई जरूरत नहीं है।'

खातून भी गुस्सा  हो कर चली गईं हमेशा के लिए। जाते-जाते इतना जरूर कह गईं, 'ऐसी  सोच ही हमारे दुखों, हमारी जाहिलियत का मुख्य कारण है।' उस दिन और उसके बाद भी कई दिन तक घर का माहौल अब्बू की बातों से गर्म होता रहा। पढाई  से इस तरह दूर होना हम बच्चों को बहुत खला। लेकिन हम सभी के हाथ-पैर बंधे थे। जल्दी ही हमें छत पर भी जाने की मनाही हो गई। हम तभी जा सकते थे, जब साथ में अम्मी भी हों। घर  के कामकाज निपटाने के अलावा हमारा सारा वक्त चिकनकारी में बीतने लगा ।

अम्मी ने ही हम सारी बहनों को चिकनकारी का हुनर सिखाया था। मेरी तीनों बड़ी बहनों ने कम उमर में ही इतनी काबिलियत हासिल कर ली थी कि उनके काम की माँग बढ गई थी। थोक का धंधा करने वाला जो डिज़ाइन देता, वे उनके अलावा भी नई-नई डिजाइनें पेश करतीं। यह डिज़ाइन इतनी खूबसूरत होती थीं, कि ग्राहक हाथों-हाथ लेता। थोक वाले ने जल्दी ही अपनी डिज़ाइनें  देना बंद कर दिया। यह कह दिया कि आप अपने हिसाब से डिज़ाइन  बनाएं। 

हम बहनों की काम की स्पीड माशाल्लाह बिजली से हाथ चलते थे।हमारे हुनर से धंधा खूब चल निकला। आमदनी कई गुना बढ़ गई। साथ ही उम्र भी हो चली तो अम्मी निकाह के लिए परेशान होने लगीं । लेकिन अब्बू के कानों में जूं नहीं रेंग  रही थी।

अम्मी के बहुत दबाव पर जब आगे बढे तो कुछ इस तरह कि, कई जगह रिश्ते बनते-बनते ऐसे  टूटे कि अम्मी आपा खो बैठीं। उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि,'तुम जानबूझकर लड़कियों का निकाह नहीं होने देना चाहते। तुम इनकी कमाई हाथ से निकलने नहीं देना चाहते।' इस बात पर अब घर में खूब हंगामा  होने लगा। कई महीने बड़े हंगामाखेज बीते। फिर अचानक ही एक जगह अम्मी के प्रयासों से दो बड़ी बहनों का निकाह एक ही घर  में तय हो गया। एक ही दिन निकाह होना तय हुआ। 

अम्मी को परिवार बहुत भला लग  रहा था। लड़के  भी सीधे लग  रहे थे और बड़ी  बात यह थी कि दोनों अपने खानदानी धंधे टेलरिंग  को जमाए हुए थे। अच्छा-खासा खाता-पीता घर  था। कस्बे की  बाजार  में दोनों की टेलरिंग  की दुकान थी। अम्मी ने सोचा इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। लड़कियां  चिकनकारी से जुड़ी हैं ,यह सब मिलकर काम खूब बना ले जाएंगे । जीवन भर खुश रहेंगे । एक दिन लड़के और उनके परिवार वाले आकर सगाई  कर गए। दो महीने बाद ही निकाह का दिन मुकर्रर हो गया। अम्मी का वश चलता तो निकाह तुरंत का तुरंत कर देतीं। लेकिन पैसों की कमी के चलते वह तैयारी के लिए थोड़ा  समय लेने के लिए विवश थीं।

अब्बू के लिए वह साफ-साफ कहती थीं कि वह खुले मन से निकाह के लिए तैयारी नहीं कर रहे हैं। हाथ नहीं बंटा रहे हैं। इन बातों के कारण रोज दो-चार बार दोनों में तू-तू मैं-मैं होती रही। इस बीच लड़कों  के अम्मी-अब्बू हर हफ्ते मिलने आने लगे । लड़कों  की बहनें भी जरूर आतीं।

सभी बेहद हंसमुख स्वभाव की थीं। जब दूसरी बार वह सब आईं तो दो मोबाइल भी लेकर आईं और छुपाकर दोनों बहनों को दे गईं। यह मोबाइल लड़कों  ने ही भिजवाए थे। संदेश भिजवाया था कि बात जरूर करें। जाते-जाते मोबाइल चलाना भी सिखा गईं। अब्बू को पता ना चले इसलिए दोनों ने मोबाइल को साइलेंट मोड में लगा दिया था। केवल वाइब्रेटर ऑन था। देते समय कहा,'चलाना  सीख जाना तो अपने हिसाब से कर लेना।'

हम बहनों के लिए यह मोबाइल किसी अजूबे से कम नहीं थे। उस दिन हम चारों बहनें खाने-पीने के बाद चिकनकारी के काम में लगे थे। पूरा दिन अम्मी के साथ निकाह की तैयारियों में निकल गया था। अम्मी थक कर चूर थीं, तो सो गईं। मगर चिकन का ऑर्डर था तो हम बहनें उसे ही पूरा करने में लगी रहीं । रात नौ बजे होंगे  कि दोनों ही मोबाइल की लाइट ब्लिंक करने लगी । थरथराहट भी हो रही थी। 

बड़ी दोनों बहनों ने मोबाइल हम छोटी बहनों के हाथ में थमा दिया। उन्हें संकोच हो रहा था। मगर हमें कॉल रिसीव करना भी नहीं आ रहा था। संकोच और नासमझी के चलते कॉल खत्म हो गई लेकिन हम रिसीव नहीं कर सके। अम्मी-अब्बू का डर अलग था। अम्मी तो खैर कुछ ना कहतीं लेकिन पता चलने पर अब्बू हमारी खाल खींच लेते। हम सब बहनें इस बात से भी डर रही थीं कि लड़के  कहीं नाराज ना हो जाएं। उन्होंने इतने महंगे  मोबाइल अपनी बहनों के हाथ भिजवाए हैं। हो ना हो बहनें भी इससे नाराज होंगी । कुछ ही समय बाद कॉल फिर आ गई।

कॉल आते ही एक बहन पानी के बहाने आंगन में गई कि, देख आए अब्बू-अम्मी सो रहे है कि नहीं। उसने लौटकर बताया कि दोनों लोग सो रहे हैं। अब्बू के कमरे से उनके खर्राटों की आवाज आ रही है। लेकिन तब-तक कॉल फिर खत्म हो गई। हम डर गए कि अब निश्चित ही नाराज हो जायेंगे । हम खुसुर-फुसुर आपस में बातें कर रहे थे।

काम भी करते जा रहे थे और तय हुआ कि इस बार कॉल रिसीव करनी है और जो हरा-लाल रिसीवर इसमें फुदकने लगता है। इसमें हरे वाले को ही पकड़ना है। हम बहनों का अंदाजा सही निकला। करीब तीन-चार मिनट के बाद फिर जैसे ही कॉल आई, दोनों मोबाइल वैसे ही बड़ी  बहनों ने हम दोनों छोटी बहनों के हाथों में थमा दिया।

दोनों संकोच कर रही थीं। हम छोटी बहनें चुहुलबाजी पर उतर आई थीं। पहले तय बातों के अनुसार हमने हरे रिसीवर को छू लिया। कान में लगाया तो लड़की  की आवाज आई। उसने तुरंत पहचान लिया और अपना परिचय देते हुए बताया कि वह लड़कों  की बहन बोल रही है। फिर मोबाइल पर भी उसने सलाम किया और बड़े  प्यार से दोनों बड़ी  बहनों से बात कराने को कहा।

वह दोनों ही मोबाइल पर एक साथ थी। यानी दोनों मोबाइल उसने एक साथ कान से लगाए  थे। हमने मोबाइल बड़ी बहनों को पकड़ा दिए। कुछ संकोच के साथ दोनों ने बात शुरू कर दी। पहले बहन ने कुछ देर बात की फिर लड़के  लाइन पर आ गए। हम दोनों छोटी बहनें बड़ी  बहनों के कान से अपने कान सटाए उनकी बातें सुन रही थीं । दोनों ही लड़के बड़ी  शालीनता से बातें कर रहे थे।

पहले दिन की बातचीत करीब पन्द्रह मिनट चली। फिर यह सिलसिला चल निकला। दिन भर में चार-पांच बार से ज्यादा बातें होतीं। हम बहनें इसलिए बातें कर पा रही थीं क्योंकि अब अम्मी दिनभर कामों में व्यस्त रहतीं, बाहर रहतीं या घर के अगले हिस्से में। हमारे लिए राहत की बात थी तो सिर्फ इतनी कि हमारे तीनों भाई निकाह के बाद अलग  रहने लगे  थे। अब्बू से उन सबकी एक मिनट भी नहीं पटती थी। निकाह के पहले से ही। इतना ही नहीं, तीनों भाइयों ने घर भी एक ही दिन छोड़ा था। एक साथ किराए का मकान लिया था। फिर तीनों को लगा  कि लखनऊ में रहकर कुछ ख़ास नहीं कर पाएंगे,तो जल्दी ही मुंबई निकल गए।

जाते समय सब कुछ देर को घर आए थे। अम्मी और हम सब से मिलने। इत्तेफ़ाक़ से अब्बू भी थे, तो उनसे भी मुलाकात हो गई। लेकिन अब्बू के तानों से उन सभी ने फिर किनारा कस लिया और नाराज होकर चले गए। जाते-जाते अम्मी के गले मिल कर गए थे। अब्बू पहले ही नाराज़गी जाहिर करते हुए कहीं बाहर चले गए थे। तीनों भाभियां भी खिंची-खिंची सी हम सबसे मिली थीं।

यह तीनों भाई घर पर ही होते, तो हम बहनों का  इस तरह लड़कों  से रोज-रोज बात करना संभव ना हो पाता। पहले दिन के बाद से ही जब भी कॉल आती तो बड़ी बहनें अपने-अपने मोबाइल लेकर कहीं कोनों में छिपकर बातें करतीं, देर तक। इस दौरान हम उनके चेहरों को कई बार सुर्ख होते अच्छी तरह देख लेते थे। हम बहनें जल्दी ही मोबाइल चलाने में पारंगत हो गई थीं ।

पहली बार मोबाइल पर ही हम पिक्चरें देख रहे थे। सीरियल देख रहे थे। जिनके बारे में पहले सिर्फ सुना ही करते थे। पहली बार हम जान रहे थे कि दुनिया कहां पहुंच गई है और हमारी दुनिया यही एकदम अंधेरी सी कोठरी है। लगता ही नहीं कि हम आज की दुनिया के हैं । हमें लगता कि जैसे हम नई दुनिया में पहुंच गए हैं। इस नई दुनिया को देखने और काम के चक्कर में हम बहनें तीन-चार घंटे से ज्यादा सो भी नहीं पा रही थी।

देखते-देखते दो महीने का समय बीत गया और बारात दरवाजे पर आ गई। खुशी के मारे हम सातवें आसमान पर थे। पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। शादी के जोड़ों  में हमें दोनों बहनें हूर की परी लग रही थीं। उनके हसीन सपने उनकी आंखों में तैर रहे थे। पूरा घर मेहमानों से खचाखच ऐसे भरा था, जैसे कि मोबाइल की मेमोरी।

अब्बू की लापरवाही, खुदगर्जी के कारण अम्मी के कंधे पर दोहरा भार था। उनके कदम रुक  ही नहीं रहे थे। कभी यहां, तो कभी वहां चलते ही जा रहे थे। मगर खुशी उनके भी चेहरे पर अपनी चमक बिखेर रही थी। बारातियों, मेहमानों का खाना-पीना खत्म हुआ। निकाह के लिए मौलवी जी पधारे कि तभी पूरे माहौल में मातमी सन्नाटा छा गया। अम्मी गश खाकर गिर  गईं।

बड़ी मुश्किल से उनके चेहरे पर पानी छिड़क-छिड़क कर उन्हें होश में लाया गया। कुछ ही देर में पूरा माहौल हंगामाख़ेज़ हो गया। अब्बू ने निकाह पूरा किए जाने से साफ मना कर दिया। मौलवी और उनके स्वर एक से थे कि दूल्हे, उनका परिवार देवबंदी मसलक के हैं इसलिए यह निकाह नहीं हो सकता। तमाम हंगामें  पुलिस-फाटे के बाद खर्चे का हिसाब-किताब हुआ और बारात बैरंग  वापस लौट गई। दोनों बहनें गहरे सदमे में थीं।अम्मी बार-बार गश खाकर बेहोश होती जा रही थीं। अब्बू ने रिश्तेदारों, दोस्तों की इस बात पर गौर तक करना गवारा न समझा कि, निकाह होने दो, यह मसला कोई ऐसा मसला नहीं है, जिसका कोई हल ना हो। कोई ना कोई हल निकाल ही लिया जाएगा ।

पूरे घर में हफ़्तों  मातमी सन्नाटा पसरा रहा। कई दिन तक अम्मी का गुस्सा अब्बू पर निकलता रहा। उन्होंने चीख-चीख कर कहा, 'तुमने हमारे बच्चों के दुश्मन की तरह काम किया है। तुमने जानबूझ कर निकाह खत्म कराया है।' एक दिन तो बात हाथापाई की स्थिति तक आ गई। अम्मी का गुस्सा उस दिन सबसे भयानक रूप में सामने था।

अब्बू भी सीधे-सीधे लगाए गए आरोपों से तिलमिला उठे थे। लेकिन अम्मी की एक-एक बात सच थी तो वह जवाब नहीं दे पा रहे थे और गाली-गलौज पर उतर आए। यह अम्मी के बर्दाश्त से बाहर था तो वह हाथापाई पर आईं। हम लड़किओं ने दोनों को अलग किया। निकाह रद्द होने के बाद हम बहनें यह सोचकर परेशान थीं कि उनका  मोबाइल उन्हें कैसे वापस करें। तीन-चार दिन बीत गए थे ,लड़कों  की कोई कॉल नहीं आई। इस दौरान हम बहनें सन्नाटे में रहतीं। दोनों बड़ी बहनों की आंखों में हमें आंसू भी दिखाई देते।

बात करते-करते उन दोनों की आंखें बरसने लगतीं। दोनों मोबाइल अब हमें ऐसे लगते जैसे वह दोनों लड़के ही हमारे बीच बैठे हों। एक बार रात को मेरी नींद खुली तो मैंने बड़ी  वाली को करवटें बदलते और कई बार मोबाइल चूमते हुए देखा।

यह देखकर मुझे उन पर बड़ा तरस आया। मन में आया कि खुद ही दोनों बहनों को उनके पास ले जाकर निकाह करा दूं। जैसे यह दोनों यहां तड़प रही हैं, वैसे ही वह दोनों भी तो तड़प रहे होंगे । बड़ी कोफ्त हुई कि अब्बू को आखिर क्या मिल गया निकाह खत्म कराकर। एक दिन मैंने बहनों से कहा कि, 'कहो तो फोन लगाऊं, बात करूं। हो सकता है वह लोग  कोई रास्ता निकालें।' दोनों बहनें डरती रहीं। लेकिन मैंने देखा वह मना भी नहीं कर रही हैं, तो मैं समझ गई कि उनका जवाब क्या है। वह वही चाहती हैं जो मैं सोच रही हूं।

मैंने अगले दिन रात में उसी समय फोन लगाया जिस समय पहले बात हुआ करती थी। फोन बड़े वाले ने उठाया। मैंने बहुत झिझकते हुए उनसे जो कुछ हुआ उसके लिए माफी मांगी । अफसोस जाहिर किया। मेरा अनुमान था कि वह नाराज होंगे, लेकिन नहीं, वह पहले की ही तरह शालीनता से बोले, 'जो  मुकद्दर में था वह हुआ। अफसोस या माफी की जरूरत नहीं है।' इसके बाद मैंने बहुत कहा कि, 'आपके मोबाइल, हम आप तक कैसे पहुंचाएं, समझ नहीं पा रहे हैं।'  तो वह झिझकते हुए बोले, 'इसकी  जरूरत नहीं है, हमने तोहफा दिया था। तोहफा वापस नहीं करते और ना ही लिए जाते हैं।'

इसी के साथ उन्होंने बहनों का हालचाल पूछ लिया तो मेरी हिम्मत बढ गई। मैंने कह दिया, 'बहुत ग़मगीन है।' मैंने लगे हाथ यह बोलकर ही दम लिया कि, 'आप अपने घर के बड़े -बुजुर्गों  से बात करिए कि, वह अब्बू से मिलकर कोई रास्ता निकालें। सारी तैयारियां तो हैं ही। निकाह होने में समय नहीं लगेगा ।'

वह कुछ देर सोच कर बोले, 'हमें  कोई गुंजाईश  नहीं  दिखती। आपके वालिद ने हमारे बुजुर्गों  को बहुत जलील किया। इसलिए मैं तो बात करने की हिम्मत नहीं कर सकता। आपके वालिद ही पहल करें तो इतना यकीन के साथ कहता हूं कि मेरे वालिद रास्ता निश्चित ही निकाल लेंगे।'  उनकी बात सुनकर मैंने सोचा मेरे वालिद इतना चाहते होते तो बात बिगाड़ते  ही क्यों। उस दिन मैंने मौका देख कर दोनों बहनों की भी बात करवाई। दोनों ने जितनी देर बात की उतनी देर उनकी आंखों से आंसू निकलते ही रहे।

उनके आंसू देखकर मेरे मन में उनकी तकलीफ गहरे उतर गई। गुस्सा भी उतने ही गहरे उतरता जा रहा था। कोई रास्ता कैसे निकल सकता है मैं यह सोचने लगी। तीनों सो गईं, लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। अगले दिन सुबह मेरी नींद तब खुली जब अम्मी की आवाज कानों में गूँजी , ' बेंज़ी उठेगी भी, कि सोती ही रहेगी घोड़े  बेचकर।' सच में उस दिन बहुत देर हो गई थी। नौ बज गए थे। बाद में पता चला कि उस दिन बाकी बहनें भी देर से उठी थीं।

उस दिन अम्मी का मूड कुछ सही देख कर ,दोपहर को मैंने उनसे बात उठाई। मैंने साफ-साफ कहा, 'अम्मी अब्बू का जो रवैया है उससे तो बहनों का निकाह होने से रहा। इतना अच्छा घर-परिवार भी उन्होंने ठुकरा दिया। तू ही फिर कदम बढ़ा तभी कुछ हो पायेगा।' मैंने देखा कि अम्मी ने बड़ी गंभीरता से मेरी बात सुनी है, तो मैंने अपनी बात और आगे  बढ़ाई । तब अम्मी बड़े गंभीर  स्वर में बोलीं, ' कोशिश  की तो थी जी-जान से। लेकिन इसने सब पर पानी फेर दिया। कहीं का नहीं छोड़ा  हमें। हर तरफ कितनी बेइज्जती हुई, कितनी बदनामी हुई। अब और रिश्ता कहां से ढूंढ लें । इसके कर्मों के कारण लड़कों  ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है। कितनी बार बुलाया लेकिन कोई नहीं आया। 

अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया है कि, इसके रहते तुम लोग  बिना निकाह के ही रह जाओगी । इससे जान छुड़ाने की जितनी भी कोशिश की, यह उतना ही गले पड़  गया है।'  अम्मी की इस बात ने मुझे हिम्मत दी। मैंने सीधे-सीधे कहा, 'अम्मी  अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है। लड़के वाले बड़े नेक हैं। अब भी चाहते हैं। तू अब्बू को अलग कर ,खुद बात कर तो वह मान जाएंगे। तब चार लोगों  को बुलाकर निकाह पढ़वा देना। हमें विश्वास है कि वह लोग  नेक इंसान हैं, वह हमारी बात मान जायेंगे।' 

मेरी बात पर अम्मी मुझे आश्चर्य से देखने लगीं । मैंने कोशिश जारी रखी। तीसरे नंबर वाली ने भी पूरा साथ दिया। दोनों बड़ी  तटस्थ बनी रहीं। दो दिन की मेहनत के बाद मैंने सोचा कि अम्मी की बात कैसे कराऊं, दोनों मोबाइल का जिक्र तो किसी हालत में उनसे कर नहीं सकती थी। तो एक छोटा मोबाइल खरीदने के लिए तैयार कर लिया कि, मोबाइल लाकर उसी से बात करें।

लेकिन एक बार फिर हमारी उम्मीदों पर कहर टूट पड़ा । लड़कों  के अब्बू मोबाइल पर ही कहर बनकर टूट पड़े । चीखने लगे । लानत-मलामत जितना भेज सकते थे, जितना जलील कर सकते थे, उतना करके फोन काट दिया। उनकी बातों से यह साफ़ जाहिर था कि उन्होंने लड़कों को धोखे में रखा ,नहीं तो वो बात कराते  ही नहीं । उनकी जाहिलियत भरी बातों से अम्मी को गहरा सदमा लगा । मुझे भी सदमा उनसे कम नहीं लगा  था।  

दिनभर और फिर रात को भी हम बहनों और अम्मी ने भी खाना नहीं खाया। चिकनकारी का काम बेमन से ही करते रहे, आखिर ऑर्डर पूरा करना था। वह लेट हो रहा था। रात काफी हो चुकी थी और हम काम में जुटे हुए थे। आपस में कोई बात भी नहीं कर रहा था। हम चारों के चेहरे ऐसे मातमी हुए जा रहे थे कि, मानो जैसे अभी-अभी किसी प्रिय को कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक करके आए हैं।

उस दिन हम बहनों ने दोनों मोबाइल पर ना तो कोई चैनल ऑन किया, ना ही कोई पिक्चर लगाई। मशीन की तरह अपना काम करते रहे। आधी रात होने वाली थी कि तभी एक मोबाइल की लाइट जलने-बुझने लगी । थरथराने लगा । नंबर पहचान कर हमने तुरंत कॉल रिसीव की। उधर से लड़के  की आवाज सुनकर मैं अचंभे में पड़  गई, क्योंकि अब तो सब कुछ खत्म हो गया था।  फिर क्यों कॉल की। 

कॉल रिसीव करते ही उसने बड़े अदब से बात शुरू कर दी। मैंने तुरंत ही बहन को मोबाइल दे दिया। दोनों ही भाइयों ने बहनों से बात की। फिर यह सिलसिला रोज का हो गया। बहनों के चेहरे से उदासी रोज ब रोज कम होती जा रही थी। हमें बड़ी  तसल्ली हो रही थी कि अब बुजुर्गों  की बजाय जवान अपने रास्ते तलाशने में लगे हैं।

यह सब होते-होते महीना भर बीत रहा था और गर्मी दिन पर दिन बढती जा रही थी। जुम्मे का दिन था। हम अपने बिस्तर में ही दुबके हुए थे। आसमान में एक-दो तारे अब भी दिखाई दे रहे थे। चिड़ियों  की चहचहाहट शुरू हो गई थी। घर के बाहर सड़क पर एक पुराने बड़े  पीपल के पेड़ पर इन पक्षियों का बसेरा था।

अचानक अम्मी की तीखी तेज़ आवाज़ में पंछियों की चहचहाहट गुम हो गई । वह चीख रही थीं कि, 'यह दरवाजा रात भर से खुला है क्या? कौन उठा है? बोलती क्यों नहीं तुम सब।' मगर हम सांसें रोके पड़ी रहीं। अम्मी कमरे के पास आकर चीखीं तो मैंने कहा, ' बंद  तो किया था। अप्पी उठी होंगी।'   ' अरे उठी होंगी तो दरवाजा क्यों खुला है, कोई बाहर गया है क्या ?' इतना कहते-कहते अम्मी हमारे बिस्तर के पास आकर खड़ी  हो गईं। दोनों अप्पी के बिस्तर खाली थे। अम्मी फिर दहाड़ीं ,' अरे कहां गई दोनों, गुसलखाने में भी नहीं हैं।'

देखते-देखते पूरा घर छान मारा गया। लेकिन दोनों अप्पी नहीं मिलीं। 'कहाँ गईं ,जमीन निगल गई या आसमान ले उड़ा । या अल्लाह अब तू ही बता कहां हैं दोनों...।' अम्मी माथा पीटते हुए जमीन पर बैठ गईं। अब्बू ने न आव देखा ना ताव हम दोनों ही बहनों को कई थप्पड़ रसीद करते हुए पूछा, ' तुम चारों एक ही कमरे में थीं, वो दोनों लापता हैं और तुम दोनों को खबर तक नहीं है। सच बताओ वरना खाल खींच डालूंगा तुम दोनों की।'

हम दोनों ही छोटी बहनें मार खाती रहीं, लेकिन कुछ बोले नहीं, सिवाय इसके कि,' हम  नहीं जानते। हम तो साथ सोए थे। दोनों कब उठीं हमें नहीं पता।' चिमटे के कई निशान हमारे बदन पर उतर आए थे लेकिन हमारे जवाब नहीं बदले। बदल भी नहीं सकते थे, आखिर हम दोनों ने, दोनों अप्पियों से वादा किया था कि हमारे शरीर से पूरी की पूरी चमड़ी भी उधेड़  ली  जायेगी ,तब भी हम कुछ नहीं बोलेंगे ।

दोपहर होते-होते अब्बू अपने भरसक हर उस जगह हो आए थे जहां भी उन्हें जरा भी शक था। पूरी कोशिश यह भी करते रहे कि मोहल्ले में किसी को खबर ना हो। अम्मी घर पर कभी इधर, तो कभी उधर बैठकर रोतीं। हम दोनों को, तो कभी उन दोनों को कोसतीं। उन्होंने अब्बू से पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने के लिए कहा, तो वह दांत पीसते हुए बोले, 'चुप कर, और तमाशा बनवाएगी । पहले तूने खूब बनवाया, अब तेरी कमीनी औलादें तमाशा बनवा रही हैं।' अब्बू पुरानी बातें लेकर झगड़े पर उतर आए। खूब तमाशा कर, हम दोनों को फिर मारपीट कर कहीं चले गए। हमें मार-मार कर वह अधमरा ही कर देते यदि अम्मी बीच में ना होतीं।

शाम को एक नया कोहराम मच गया। इसका अंदाजा हमें पहले से ही था। अब्बू ने शक के आधार पर लड़कों  के बारे में पता किया। किसी के जरिए उन्हें सच मालूम हो गया कि दोनों अप्पी उन्हीं दोनों लड़कों  के साथ दूर कहीं अपना आशियाना बनाने के लिए निकल गई हैं। दोनों लड़कों  ने शहर छोड़ने  के बाद अपने घर वालों को फोन  करके बता दिया था। बाद में यह भी पता चला कि अपने घर  वालों को यह भी हिदायत दे दी थी कि वह सब अपनी मर्जी से जा रहे हैं। सोच समझकर जा रहे हैं। यदि किसी को परेशान किया गया तो वह कोर्ट भी जा सकते हैं।

उन सबने अपने मोबाइल बंद कर दिए थे। हमसे भी कहा था कि मोबाइल मामला शांत होने तक नहीं खोलना। अपने नए आशियाने की तलाश में उन्हें मुंबई पहुंचना था तो वह वहां पहुंच गए। बहनों और अपने अपने टेलरिंग  हुनर के सहारे उन्हें वहां अपनी दुनिया को सजाने संवारने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी ।

यहां अब्बू-अम्मी तो वहां उनके वालिद माथा ठोंक कर बैठ गए कि सारे बच्चे बालिग हैं। इसलिए पुलिस में भी जाने का कोई फायदा नहीं है। अब हम दोनों बहनों पर पाबंदियां और सख्त हो गईं। रात सोते वक्त मुख्य दरवाजे पर ताला लगने लगा । दोनों बहनों के जाने से पैसों की किल्लत बढ़ने लगी । क्योंकि अब काम आधा  हो रहा था तो आमदनी भी आधी हो गई थी।

अम्मी की आंखें अब साथ नहीं दे रही थीं। अब्बू को गठिया बड़ी  तेज़ी  से जकड़  रहा था। साथ ही काम धंधे के प्रति लापरवाह भी और ज्यादा हो गए।  उनका यह रवैया  तभी से हो गया था, जब से काम हम चारों बहनों ने संभाल लिया था। हम दोनों बहनों की हालत अब कोल्हू के बैल सरीखी हो गई थी। खाना-पीना, काम, बस और कुछ नहीं। कढाई  करते-करते, नींद पूरी न होने से हमारी आंखों के नीचे स्याह थैलियां बन गई थीं। हां एक चीज और अम्मी अब्बू के ताने गालियां अब पहले से ज्यादा मिल रही थीं। हम दानों बहनों को महीनों हो जाते दरवाजे से बाहर दुनिया देखे, छत पर भी जा नहीं सकते थे। वहां भी ताला पड़ा  था।

बाहर की दुनिया हम उतनी ही देख पाते थे जितना आंगन में खड़ी  होकर ऊपर आसमान दिख जाता था। वह भी तब, जब आंगन में अम्मी-अब्बू कोई ना रहे। अप्पी खीझ कर कहतीं, ' गलती की हमने। अप्पी के साथ हम दोनों भी निकल जाती तो अच्छा था। दोनों मुकद्दर वाली थीं। अच्छे चाहने वाले शौहर मिल गए। अपनी दुनिया, अपने घर में, अपने मन की ज़िन्दगी  जी रही हैं। यहां हम कीड़े-मकोड़ों  की तरह अंधेरे कोने में पड़े  हैं। धूप तक नसीब नहीं होती। ईद तक पर तो बाहर निकल नहीं पाते। लानत है ऐसी ज़िन्दगी  पर। बदकिस्मती भी हमारी इतनी कि कोई...।'  इतना कहकर अप्पी सुबुकने लगतीं। मोटे-मोटे आंसू उनकी बड़ी-बड़ीआँखों से गिरने लगते थे। जिन्हें बड़ी  देर बाद रोक पाती थीं।

मगर उनके यह आंसू बेकार नहीं गए। एक दिन अम्मी-अब्बू में बहुत तीखी नोकझोंक,गाली- गलौज  हुई। हम अम्मी को अपने कमरे ले आए। वह अपने मुकद्दर को कोसते हुए रो रही थीं कि , ' न  जाने वह कौन सी नामुराद घड़ी  थी जो इस जालिम, जाहिल के जाल में फंस गई। गले का पत्थर बना पड़ा  हुआ है।'

वह खूब रोते हुए दोनों अप्पियों का नाम लेकर बोलीं, ' इसी  के चलते वह दोनों इस हाल को पहुंचीं, पता नहीं कहां हैं, किस हाल में हैं, ज़िंदा भी हैं कि नहीं।'  उनके इतना बोलते ही मेरे मुंह से निकल गया कि, 'बिलकुल ठीक हैं। तुम परेशान ना हो।' मेरे इतना कहते ही वो एकदम चौंककर मुझे देखने लगीं । तो मैंने फिर कहा ,' दोनों अप्पियां ठीक हैं। तुम परेशान ना हुआ करो।' फिर मैंने छोटे वाले मोबाइल से उनकी बात भी करा दी। लेकिन दोनों बड़े  मोबाइल के बारे में, और बाकी कुछ नहीं बताया।

इतना भर कहा कि, छोटे  वाले मोबाइल का नंबर उन लोगों  के पास था। उनका एक दिन फोन आया, तब पता चला। इस बातचीत का सिलसिला आगे चलता रहे मैं यही चाहती थी। कोशिश भी की। लेकिन नहीं हो सका। बस कभी-कभार हाल-चाल भर की बातें हो पाती थीं। शायद दोनों बहनोई नहीं चाहते थे। थोड़ा सा अम्मी का व्यवहार भी ज़िम्मेदार था। वह पुरानी बातों को लेकर शुरू हो जाती थीं, और माहौल गर्मा जाता था।

बार-बार यही होता था तो बहनोइयों ने भी हाथ खींच लिया। हालांकि हम बहनों के बीच छुपे तौर पर बातें अक्सर हो जाती थीं। साल बीतते-बीतते अम्मी ने एक दूर के चचा जात भाई के रिश्तेदार से बेहद साधारण ढंग से तीसरी अप्पी का निकाह कर दिया। लड़के  की पहली दो बेगमें जचगी  के दौरान गुजर गईं थीं। उनकी ठीक-ठाक कमाई थी। तो अम्मी ने बात चलते ही निकाह करने में देर नहीं की।

अब मैं एकदम अकेली पड़  गई। काम कई गुना ज्यादा  बढ़  गया। लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मैं उतना काम नहीं कर पा रही थी जितना कि पहले कर लिया करती थी। इस कारण काम पिछड़ता जा रहा था और आमदनी घटती जा रही थी। इतनी घटी  कि खाना-पीना और अम्मी-अब्बू की दवा-दारू के भी लाले पड़ने लगे । तो आखिर आधा मकान अम्मी ने किराए पर दे दिया।

एक कमरे में मैं और चिकन का सारा काम। आंगन में एक कामचलाऊ दीवार उठवा दी गई। मकान में दो हिस्से हो गए। गुसलखाना, आने-जाने का रास्ता साझा था। मेरे कमरे का जो दरवाजा दूसरे कमरे की तरफ खुलता था अम्मी ने उसमें ताला जड़  दिया। एक बड़ा  बकस जो पूरे बेड के बराबर था  उसको दरवाजे से चिपका कर रख दिया। अपनी जान उन्होंने हर वह इंतजाम किया जिससे मुझ तक परिंदा भी पर ना मार सके। उधर के हिस्से में किराएदार आकर रहने लगा । अम्मी के ही दूर के रिश्तेदार थे। एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी की बस में क्लीनर थे। बस किसी कम्पनी से अटैच थी।

किराए से मिलने वाले पैसों से किसी तरह गुजर-बसर होने लगी । मगर दवा के बढ़ते  खर्च के  आगे  सारी आमदनी कम पड़ती  जा रही थी। अम्मी की मेरे निकाह को लेकर चिंता बढ़ती  जा रही थी। देखते-देखते उनकी सेहत इतनी तेज़ी से बिगड़नी  शुरू हुई कि वह बाहर जाने, कच्चा माल लाने, बना हुआ देकर आने की स्थिति में नहीं रहीं।

अब्बू जाते तो सारा पैसा गायब  हो जाता। जो भी पैसा उनके हाथ लगता वह उसे सट्टे में उड़ा  देते। सेहत उनकी भी उनसे दूर होती जा रही थी। मेरे लिए बदकिस्मती जैसे इतनी ही काफी नहीं थी। सट्टेबाजी में कहीं लेनदेन को लेकर अब्बू मारपीट का शिकार हो गए। गिर पड़े ,या  जाने क्या हुआ कि सीने पर कई जगह गंभीर चोटें आईं। हॉस्पिटल में महिना भर भर्ती रहे, लेकिन फिर घर लौटकर नहीं आ पाए। मरनी-करनी सब मिलाकर बहुत कर्जा हो गया।' 

' यह तो आपके परिवार पर ऊपर वाले की बड़ी तगड़ी मार थी। कैसे संभाला खुद को।'

' हाँ,  इतनी तगड़ी  मार थी कि दो जून की रोटी भी मुश्किल में पड़ गई । दोनों जून चूल्हा जल सके इसके लिए जरूरी था कि चिकन का धंधा चलता रहे। इस लिए मुझे कदम निकालने पड़े ।

शुरू में बड़ी  दिक्कत आई लेकिन मैं गाड़ी  को पटरी पर ले ही आई। अब मेरे जिम्मे किराएदार, काम, खाना-पीना सब आ गया। सांस लेने को भी फुर्सत नहीं मिलती थी। अब्बू के जाने के बाद एकदम बाहर का कमरा ठीक-ठाक कराया। उसमें रोजमर्रा की चीजों की दुकान खोल दी। एक छोटा तखत  डाल दिया। जिस पर आराम से बैठकर अम्मी दुकान संभालने लगीं । मुझे बड़ी  कोफ़्त  होती ,बड़ा  दुख होता, जब याद आता कि पैसे की गंभीर  तंगी  के चलते अब्बू का ठीक से इलाज नहीं हो सका। मैं ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठा करने का अब कोई अवसर छोड़ना  नहीं चाहती थी। क्योंकि मुझे हर तरफ से निराशा ही हाथ लगी  थी।

बड़ी  बहनों ने तो हालचाल लेना ही बंद कर दिया था। अब्बू के इंतकाल की सूचना पर दोनों ने फोन  पर ही रो-धो  कर मातमपुर्सी  कर ली थी। कभी-कभार तीसरी वाली ही खैर-सल्लाह ले लिया करती थी। मगर बदकिस्मती यहां भी साथ-साथ बनी रही। उसके एक बेटा हुआ था। दोनों मां-बेटे स्वस्थ थे। मगर कुछ महिनों बाद अप्पी चिकनगुनिया बुखार में चल बसीं। तब बेटा बमुश्किल छः महीने का था। उनका शौहर चाहता था कि अब मैं उससे निकाह कर लूं। लेकिन अम्मी से पहले ही मैंने मना कर दिया। उन्होंने लाख कोशिशें कीं  लेकिन मैं नहीं मानी। असल में अप्पी ने कई बार रो-रो कर उनकी एक घिनौनी हरकत के बारे में बताया था  । वह बिस्तर पर अपनी अननेचुरल हरकतों से उन्हें बहुत सताते थे। बहुत तक़लीफ़ देते थे ,इससे मुझे उनके नाम से ही नफ़रत होती थी। उसके बच्चे को जब अप्पी थीं, तब मैंने दो बार गोद  में लिया था।

इसलिए उसकी बार-बार याद आती कि पता नहीं मासूम किस हाल में होगा । भूलती तो किराएदार का सात-आठ महीने का बच्चा जब रोता या उसकी किलकारी सुनाई देती तो फिर उसकी याद आ जाती। असल में किराएदार की एक और बात भी मेरा ध्यान खींचती थी कि इन सबके बीच मैं खुद कहा हूं। जब मियां-बीवी रात को एकांत में खुशमिजाज होकर बातें करते तो मुझे सब सुनाई देता था। धीरे से करते थे तब भी। अम्मी का ध्यान शायद इस तरफ नहीं गया था कि, यह दरवाजे का पर्दा है, दूसरी तरफ एक जवान मियां-बीवी हैं तो उनकी बातें, आवाज़ें  यह कहां रोक पायेगा ।

अम्मी दिनभर की थकी-मांदी सो जाती थीं। उनके कमरे के बाद आंगन फिर मेरा कमरा था। चिकनकारी के लिए एक छोटी सी लाइट थी, जिसे पुराना टेबल लैंप कह सकते थे। उसी से काम चलाती थी। उससे  लाइट सीधे वहीं पर पड़ती थी जहां मुझे चाहिए होती थी। मेरा ध्यान हमेशा इस पर रहता था कि ज्यादा लाइट के चक्कर में बिजली का बिल न बढे ।

मैं यह बात खुल कर कहती हूं कि यह दरवाजा मुझे बड़ी हीअजीब स्थितियों में ले जाने ,कुछ मामलों में मेरी सोच को बदलने का कारण बना। और आपको सच बताऊं कि आखिरी सांस तक यह दरवाजा मेरे ज़ेहन  से निकलेगा नहीं।' 

'क्यों, ऐसा क्या था उस दरवाजे में जो वह आपके पूरे जीवन में साथ बना रहेगा।आखिर एक दरवाजा....।' 

मैं बहुत तल्लीनता के साथ बड़ी देर से बेनज़ीर को सुन रहा था। दरवाजे का ऐसा  ज़िक्र  सुनकर मैं अचानक ही बोल पड़ा। तब वह कुछ देर शांत रहीं। फिर गौर से मुझे देखकर बोलीं, ' समझ  नहीं पा रही हूं कि बोलूं कि नहीं।' 

' जब बात जुबां पर आ ही गई है तो बता ही दीजिए, क्योंकि यह जब इतनी  इंपोर्टेंट है कि आपके जीवन भर साथ रहेगी तो इसे कैसे छोड़  सकते हैं।'

' सही कह रहे हैं। असल में एक रात मैं काम में जुटी हुई थी, कि तभी कुछ अजीब सी आवाज़ें, दबी-दबी हंसी सुनाई दी, जो बड़ी उत्तेजक थीं। मैं बार-बार सुन रही थी दरवाजे के उस तरफ की आवाज़ें । आखिर मैं दबे पांव दरवाजे से लगे रखे बक्से पर बैठ गई। और जो लैंप था उसे एकदम जमीन की तरफ कर दिया। दरवाजे पर मोटा सा जो पर्दा डाला गया था कि, लाइट इधर-उधर ना आए-जाए उसे हल्का सा हटाकर दरवाजे की झिरी से उधर देखा तो देखती ही रह गई।'

' क्यों ?ऐसा क्या था उस तरफ।' 

 ' मैं पूरे दावे के साथ कह रही हूं कि, उस तरफ जो था, उस पर नजर पड़ने  के बाद कोई देखे बिना हट ही नहीं सकता था।' 

'आप यह भी कहिए कि, इतना सुनने के  बाद कोई पूछे-जाने बिना रह भी नहीं सकता। तो बताइए क्या था उस तरफ। '

 'जब आप इतना उतावले हो रहे हैं, तो बिना बताए कैसे रह सकती हूं। मैंने देखा कि बीवी तकिया लगाए सीधे लेटी थी। छत वाला पंखा पूरी स्पीड में चल रहा था। ना मियां के तन पर एक कपड़ा था और ना बीवी के। छोटा बच्चा मां की छाती पर ही लेटा दूध पी रहा था। मियां की चुहुलबाजी चालू थी। वह दूसरी वाली छाती से बच्चा बन खेल रहा था। दोनों के हाथ भी एक दूसरे की शर्मगाहों  में खेल रहे थे। जब बच्चा सो गया तो उसे दीवार की तरफ किनारे लिटा दिया। उसकेआगे देखने की मुझमें हिम्मत, ताकत कुछ भी नहीं रह गई थी।'

' या बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहीं हैं । '

आदतन ही मेरे मुँह से यह बात निकल गई। मैंने सोचा निश्चित ही इन्हें यह बात बुरी लगेगी ,लेकिन वह मेरीआँखों में जैसे कुछ पढ़ती हुई बोलीं , 

' आप को मुझ पर यह हथियार नहीं चलाना चाहिए था। मेरी हिम्मत ही है कि, हम आप यहाँ बैठे बात कर रहे हैं। '

यह कह कर वह बहुत अर्थभरी मुस्कान मुस्काईं। मैं भी मुस्कराहट  के साथ उन्हें चुपचाप देखता रहा। कुछ बोलना उचित नहीं लगा। वह आगे बोलीं , 'आगे मैं और कुछ देखने की हिम्मत इसलिए नहीं कर पाई, क्योंकि जितना देखा उसी से मैं पसीने से भीग गई थी। दोनों कपड़े तरबतर हो रहे थे। ऐसे हांफ रही थी कि, जैसे दसियों मंजिल की सीढ़ियां चढ़  उतर कर आई हूं। छातियां ऐसे ऊपर नीचे गिर रही थीं कि, लगता था जैसे संभल ही नहीं पाएंगी। कपड़े उन्हें थाम ही नहीं पायेंगे। मैं बक्से से उतरकर नीचे जमीन पर बैठ गई। उन दोनों की ना जाने कैसी-कैसी आवाज़ें  मेरे कानों में पड़तीं ,और मेरे बदन को जलाती रहीं बड़ी  देर तक।'

'वाकई अद्भुत घटना है। आपने सही कहा था कि, नजर पड़ने  के बाद हटा नहीं जा सकता था। आप तो फिर भी हट गईं , और कोई तो आखिर तक नहीं हटता। हिप्पोक्रेसी यह होती कि वह किसी से यह शेयर ना करता। मैं आपके साहस की प्रशंसा करता हूं कि, आप बीच से हटीं भी, शेयर भी कर रही हैं। आगे आप...।'

'हाँ आगे यह हुआ कि फिर अचानक ही गिलास गिरने की आवाज आई, और उसके कुछ ही सेकेंड बाद बच्चे के रोने की। फिर वह चुप भी हो गया। लेकिन साथ ही कुछ ऐसी चुटुर-चुटुर आवाज सुनाई दी जैसे कि, वह दूध पी रहा हो। मेरा ध्यान वहीं लगा  रहा। काम रुक  गया। कपड़ा, सुई-धागा किनारे पड़ा  रहा। सांसें फूलती रहीं। लग रहा था जैसे वह दृश्य बार-बार मेरी आंखों के सामने घट रहा है।

कुछ देर बाद उधर से आहट आनी बंद हो गई। मेरा मन यह जानने को मचल रहा था कि अब उधर क्या हो रहा है। खुद को मैं ज्यादा देर रोक न पाई। दूसरी तरफ कमरे में फिर से झांकनें लगी । अब-तक बेटा मां की छाती पर ही दूध पीता-पीता सो गया था। दोनों अब भी खुसुर-फुसुर अंदाज में बातें कर रहे थे। जो काफी हद तक मैं सुन और जो समझ भी रही थी, उससे बदन में सनसनाहट महसूस कर रही थी।

अचानक मां ने बेटे को फिर दीवार की तरफ सुरक्षित लिटा दिया। मियां-बीवी एक दूसरे की बाहों की गिरफ्त में मोहब्बत भरी बातें, हरकतें करते रहे। दोनों के बीच इस बेइंतिहा मोहब्बत को देखकर मैं सोचने लगी कि, दोनों कितने खूबसूरत मुकद्दर वाले हैं। ज़ाहिदा   कितनी खुशनसीब है कि, उसे इतना मोहब्बत करने वाला शौहर मिला है, और मुकद्दर यह भी देखो कि बेपनाह हुस्न भी उसे मिला है। एक बच्चे की मां हो गई है, लेकिन कैसी बला की खूबसूरत लग रही है। और मियां! वह भी उससे कहीं कम नहीं है। मेरी नजर ज़ाहिदा से कहीं ज्यादा उसके मियां रियाज़ पर ही ठहर रही थी।

उन दोनों को पता नहीं आसमानी या कि जिस्मानी जो भी गर्मी थी, वह इतनी ज्यादा थी कि वह अपने कपड़े नहीं पहन रहे थे। मेरी जिस्मानी गर्मी भी मुझे बेहद तकलीफ दे रही थी। उसके शौहर के कारण यह बेइंतिहा बढ़ती  ही जा रही थी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं वापस आकर अपनी जगह बैठ गई। अपनी उखड़ी-उखड़ी सांसों को संभालने की कोशिश करने लगी । पानी भी पी लिया जिससे कि, जल्दी से जल्दी दिल की धक-धक करती आवाज बंद हो। कहीं यह अम्मी और इस खुशनसीब जोड़े के कानों में न पड़ जाए। मैंने कुछ देर बाद जमीन की तरफ की गई लाइट को फिर सीधा किया कि, चलूं कपड़े पर अधूरा छूट गया डिज़ाइन पूरा करूं, नहीं तो सवेरे अम्मी को क्या जवाब दूंगी ।

फ्रेम लगा कपड़ा,सुई धागा उठाया, लेकिन उंगुलियां हरकत नहीं कर पा रही थीं। तन-मन खुशनसीब जोड़े  रियाज़-ज़ाहिदा के पास से हट ही नहीं पा रहे थे। ज़ाहिदा की खुशनसीबी से अपने को तौलने लगी कि, इसमें मुझ में फ़र्क़ क्या है। इसका नसीब ऐसा और मेरा ऐसा क्यों है। बिल्कुल टूटे आईने सा। क्या कमी है मुझमें। मैंने महसूस किया कि, जैसे मेरे शरीर में अजीब सी थरथराहट बराबर बनी हुई है। उधर दूसरी तरफ कमरे से अब कोई आहट नहीं मिल रही थी। मेरी उत्सुकता फिर बढ़ी  कि, अब उधर क्या हो रहा है?

देखा तो फिर देखती ही रह गई। पूरा परिवार, पूरे सुकून से गहरी नींद में सो रहा था। बच्चा दीवार की तरफ था। उसके बाद बीच में उसकी मां ज़ाहिदा और फिर उसका वालिद रियाज़ । मैं एकटक देखती रही। मन ही मन कहा ज़ाहिदा तू कितनी खूबसूरत मुकद्दर वाली है। मुझ से पांच-छः साल छोटी ही होगी ,और ऐसा कौन सा सुख है जो तेरी झोली में नहीं है। मेरी नजर बड़ी  देर तक ज़ाहिदा के शरीर पर ऊपर से नीचे तक, बार-बार सफर करती रही। बगल में ही रियाज़ पर मेरी नजर बस एक बार ही सफर कर पाई।

मैं ख्यालों में खोई रही कि, ज़ाहिदा मुझसे कहने भर को ही थोड़ी सी ज्यादा गोरी है। उसके अंगों से अपने अंगों  का मिलान करती हुई मैं बैठ गई। मुझे लगा कि, जैसे वह दोनों भी सोते हुए अपने बिस्तर सहित मेरे कमरे में आ गए हैं। दोनों ही अब भी एकदम पहले ही की तरह लेटे हुए हैं। गर्मी से बचने के लिए अपने सारे कपड़े अब भी एक बक्से पर फेंके हुए हैं।

मन में आते ऐसे तमाम ख्यालों का ना जाने मुझ पर कैसा असर हुआ कि, मैंने भी अपने एक-एक करके सारे कपड़े  निकाल फेंके, कमरे के दूसरे कोने में। मैं ज़ाहिदा से अपने अंग-अंग  का मिलान करके ,अपने तन की वह खामी मालूम करना चाहती थी, जिसके कारण मुझे उसके जैसा सुख नसीब नहीं था। मैंने रोशनी अपनी तरफ करके,शीशे में पहले अपने चेहरे का मिलान किया। अपनी आंखें, नाक, होंठ और अपनी घनी ज़ुल्फ़ों का भी। यह सब मुझे ज़ाहिदा से बीस नहीं पचीस लगीं। गर्दन,छातियों पर नजर डाली तो मैं देखती ही रह गई। बड़ी देर तक। एकटक। वह मुझे जाहिदा की छातियों से कई-कई गुना ज्यादा खूबसूरत नजर आ रही थीं।

ज़ाहिदा से ज़्यादा बड़े,ज़्यादा भूरे लट्टू एकदम तने हुए। पूरी छाती उससे भी कहीं ज़्यादा  सख्त, मानो संमरमर की किसी खूबसूरत इमारत पर अगल-बगल दो खूबसूरत संगमरमरी गुम्बद हों।अपने संगमरमरी गुम्बदों को देख-देखकर मैं ना जाने कैसे-कैसे ख्वाब देखने लगी । हद तो यह कि मैं उन्हें छेड़ने भी लगी। इससे ज़्यादा यह कि मैं अजीब से खूबसूरत एहसास से गुजरने लगी। मेरे खुद के हाथ मुझे अपने ना लगकर ऐसे लगने जैसे कि रियाज़  के हाथ हैं। वह ज़ाहिदा के पास से उठकर मानो मेरे पास आकर बैठ गया है। एकदम मेरे पीछे और मुझेअपनी आगोश  में समेटे हुए है। उसके हाथों की थिरकन के कारण मैं आहें भर रही हूं। ज़ाहिदा से भी तेज़ ।

उफ़ इतनी तेज़ गर्मी कि, मुझे गुम्बदों  पर पसीने की मोतियों सी चमकती अनगिनत बूंदें दिखने लगीं । जो एक-एक कर आपस में मिलकर, धागे सी पतली लकीर बन गुम्बदों के बीच से नीचे तक चली गईं। फिर देखते-देखते गोल भंवर सी गहरी झील में उतर गईं। मुझे वह ज़ाहिदा की नदी में पड़ीं भंवर सी बड़ी नाभि से भी बड़ी और खूबसूरत लगी। और नीचे गई तो वह लकीर घने अंधेरे वन से गुजरती एक खोई नदी सी दिखी। वह भी ज़ाहिदा की नदी से कहीं... ओह, जो ज़ाहिदा सी खूबसूरत जाँघों के बीच जाने कहां तक चली जा रही थी।

मैं खुशी से फूली जा रही थी कि ज़ाहिदा हर बात में मुझसे पीछे-पीछे और पीछे ही छूटती जा रही है। मारे खुशी के मैं इतने पर ही ठहर नहीं सकी, खुद को रोक नहीं सकी। घूम  कर पीछे देखने लगी अपने नितंबों को, जो उससे भी ज़्यादा गोरेऔर सख्त नज़रआ रहे थे। बनावट ऐसी  जैसे कि, तेज़  बारिश में पानी का बना कोई बड़ा सा बुलबुला। जिसे रियाज अपने कठोर हाथों से पिचकाने की कोशिश कर रहा है, उसे दबोचना चाहता है, लेकिन वह कर नहीं पा रहा है। वह फिर-फिर वैसे ही होते जा रहे हैं। वह ज़ाहिदा  के बुलबुलों से कहीं बहुत ज़्यादा खूबसूरत हैं।

मैं ज़ाहिदा की हर चीज से कहीं ज़्यादा खूबसूरत, अपनी खूबसूरती से रात भर बात करती रही। अपना दुख उनसे बांटती रही। पूछती रही कि मुझे ज़ाहिदा सी खुशी क्यों नहीं मिलती। और फिर किसी समय थक कर सो गई। सवेरे-सवेरे अम्मी की चीखती आवाज ने जगाया। तड़प कर उठ बैठी और अपने कमरे का नजारा देखकर कांप उठी।

कमरे की लाइट जल रही थी। फ्रेम में लगा कढाई वाला कपड़ा दूर पड़ा था। मेरे तन के सारे कपड़े सामने दीवार के पास उनसे टकरा-टकरा कर इधर-उधर पड़े  हुए थे। अपने को उस हाल में देख कर मैं खुद से ही शर्मा गई। जल्दी-जल्दी कपड़े पहन कर अम्मी के पास गई। सवेरे-सवेरे ही झूठ बोल दिया कि, देर तक कढाई करती रही। बंद कमरे में कल गर्मी बहुत थी, इसीलिए सो नहीं पाई। सवेरे राहत मिली तो आंख लग गई। थोड़ी देर बाद आकर मैंने कमरे का बाकी हुलिया ठीक किया। सारा दिन बिना रुके मैं रात में छूटा काम पूरा करती रही।'

अपने ही शरीर के ऐसे बिंदास वर्णन से बेनज़ीर मुझे जितनी गजब की किस्सागो नज़र आई उतनी ही गजब की बोल्ड लेडी भी। मैं सच में उनसे इतना इंप्रेस हुआ कि, मंत्रमुग्ध होकर उन्हें एकटक देखता-सुनता, एकदम खो सा गया, तो उसने कहा, ' कहाँ खो गए, आप ऐसे  क्या देख रहे हैं?' उनके इन प्रश्नों से मैं जैसे नींद से लौट आया। मैंने कहा, 'मैं आपकी कमाल की किस्सागोई में खो गया था। आपकी बोल्ड पर्सनॉलिटी ने ऐसा जादू कर दिया कि आपको एकटक देखता रह गया। यह भी भूल गया कि लाइफ में मैनर्स की भी अपनी एक इम्पॉर्टेंस है।'

 मेरी यह बात पूरी होने से पहले ही वह खिलखिला कर हंस पड़ीं । उनकी हंसी से मैंने बड़ी  शर्मिंदगी महसूस की। उससे मुक्ति पाने के लिए मैंने जल्दी से वह प्रश्न पूछ लिया जो मन में तब खड़ा हुआ था, जब वह अपनी बातें बिना संकोच कहे जा रही थीं। मैंने भी उन्हीं की तरह बोल्ड होते हुए पूछा, ' तो यह वह क्षण थे जिसमें आप जीवन में पहली बार स्त्री-पुरुष संबंधों  को पहली बार जान-समझ और हां देख भी रही थीं ।'

'नहीं, समझ तो पहले से ही रही थी। काफी पहले से। देख पहली बार रही थी। वह महज इत्तेफाक ही था। नहीं तो ऐसा भी वाकिया होगा ,यह कभी सोचा भी नहीं था। और कभी ख्वाबों में भी यह नहीं सोचा था कि, किसी को बताऊँगी भी ,वह भी इस तरह ...।'

'हस्बैंड को भी नहीं बताएंगी, क्या यह भी नहीं सोचा था।'

' हाँ , बिल्कुल नहीं सोचाा था कि, कभी हसबैंड को भी बताऊँगी। उनके बाद आप दूसरे व्यक्ति हैं जिसे यह सब बताया।'

मैं उनकी बातें  सुन रहा था और रह-रह कर मेरे दिमाग में बरसों पहले खुशवंत सिंह की पढी आत्मकथा '' सच प्यार और थोड़ी सी शरारत '' घूम रही थी। मैं सोच रहा था कि, यह जिस तरह ,जिस-जिस तरह की बातें बता रही हैं ,यह सब उपन्यास के बजाय यदि आत्मकथा के रूप में आतीं,  तो निश्चित ही यह खुशवंत सिंह की आत्मकथा से भी ज्यादा ईमानदार  आत्मकथा होती। लेकिन इनका डर इन्हें इसकी इजाजत नहीं दे रहा है। बात आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा ,' हस्बेंड के बाद आप अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें मुझे ही क्यों बताने लगीं ?'

यह सुनकर वह कुछ देर मुझे देखती, कुछ सोचती रहीं फिर मेरे प्रश्न को अपनी हंसी में विलोपित करती हुई बोलीं , ' मैं आपको कुछ बता नहीं रही ,आपकी मोनालिशा सी रहस्य्मयी  मुस्कान ,भेद-भरी चितवन सारी बातें जान ले रहीं हैं ।'

' न कहने का आपका अंदाज, आप ही की तरह  बहुत खूबसूरत है ।  इस प्वाइंट पर आगे  बातें होंगी। अभी तो यह बताइए कि, जब रात इतनी हंगामाखेज थी तो आपका दिन कैसा बीता।' 

' बताया ना, जी-तोड़ मेहनत करते हुए। इतना कि अम्मी बोलीं , 'अपनी उंगलिओं पर थोड़ा  रहम कर। दो घड़ी, थोड़ा ठहर कर सुस्ता ले।' लेकिन मुझे चैन नहीं था। मन ही मन अम्मी को कहती कि, 'उंगलिओं  पर रहम करुँगी , तो रात भर क्या किया? तेरे इस प्रश्न का मैं क्या जवाब दूंगी। अम्मी कहीं मेरी चोरी ना पकड़ लें, इस डर से मैं दिन भर भीतर ही भीतर डरती जी -जान से काम में जुटी रही। बीच-बीच में अजीब सी सिहरन से कांप उठती। दुकान भी थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रही। लेकिन जब रात हुई तो फिर वही अफसाना, वही रियाज़ , वही ज़ाहिदा और उनकी मोहब्बत भरी दुनिया का गवाह वह कमरा और उनकी चोर गवाह मैं। उनकी दुनिया देख-देख कर ऐसी-ऐसी बातें मन में उठतीं कि, अगले दिन सोच-सोच कर मैं खुद हैरान होती कि, या अल्लाह यह मुझे क्या हो रहा है। यदि किसी की मोहब्बत से लबरेज दुनिया देखना गुनाह है, तो या मेरे परवरदिगार, मुझे मेरे इस गुनाह  के लिए बख्श देना। 

मगर मेरा गुनाह क्या है? मैं जीवन की सबसे बेहतरीन खुशी के एहसास से महरूम क्यों हूं?और यदि इन अहसासात से महरूम ही रखना है, तो जरूरत ही क्या थी ज़ाहिदा से भी खूबसूरत तन-मन देने की। ज़ाहिदा से खुद का मिलान, रियाज़  के साथ अजीब से खयालों में खोना, जैसे कि ज़ाहिदा की जगह खुद को उसके आगोश में खोते देखना और फिर काम, मतलब कि चिकनकारी का पीछे-पीछे, काफी पीछे छूटते जाना,परिणाम यह हुआ कि जल्दी ही घर की माली हालत और भी बुरी हालत में जा खड़ी हुई ।'

इतना कह कर बेनज़ीर अचानक ही चुप हो मुझे देखती हुई बोलीं,' एक बात बताइए, जब मैं अपनी बात कहने लगती हूं, तो आप एक स्टेच्यू की तरह मुझे इतना गौर से क्यों देखने लगते हैं? ऐसा क्या है मेरे इस चेहरे पर कि आप स्टेच्यू बन जाते हैं।' 

मेरे जेहन में कहीं अहसास था इस बात का कि, वो ऐसा पुछेंगी, लेकिन कोई जवाब मैंने तैयार नहीं किया था। परन्तु प्रश्न आते ही तीर सा जवाब निकल गया कि,' मैं आपकी अतिशय ईमानदारी, किसी मर्द से भी बढ़ कर साहस से अभिभूत हूं। इतना कि स्टेच्यू कब बन जाता हूं,इसका पता तब चलता है जब आप टोकती हैं। आप जानती हैं कि आप जो बता रही हैं, वह सब इतनी बेबाकी से बताने की हिम्मत बड़े-बड़े हिम्मती, ईमानदार, साहसी भी नहीं कर पाते हैं। खैर मैं ज्यादा बोलकर आपकी कंटीन्यूटी ब्रेक नहीं करना चाहता। इसलिए प्लीज आप आगे बताइये ।' 

बेनज़ीर हल्की मुस्कान लिए बोलीं ,' और आप फिर से स्टेच्यू बन गए तो।'

 ' मैं पूरा प्रयास करूँगा कि ऐसा ना हो।'

' ठीक  है। तो जब काम पीछे छूटने लगा तो कई ऑर्डर भी हाथ से फिसल गए। अम्मी की दवा का खर्च बढ़ता जा रहा था। मुझे लगा  कि चिकन से ज्यादा दुकान पर ध्यान दूं तो अच्छा है। वैसे भी अम्मी से नहीं हो पा रहा है। मैं यही करने लगी, पर अम्मी दिल से यह कत्तई नहीं चाहती थीं। लेकिन हालात ने उन्हें अपने कदम पीछे करने के लिए मजबूर कर दिया।

वह रात-दिन एक ही जुगत में लगी रहतीं। उठते-बैठते यही बात कहतीं कि, 'जैसे भी हो , निकाह भर का पैसा इकट्ठा हो जाए तो ,कोई भला सा लड़का देखकर तेरा निकाह कर दूं, तो मेरे दिल को सुकून मिल जाए। फिर मैं राजी-खुशी इस दुनिया से रुखसत होऊं। बहुत जी लिया। मैं एड़ियाँ  घिस-घिस कर नहीं जीना चाहती।' अम्मी जितना जोर लगा रही थीं अपने को ठीक करने के लिए, बीमारी उन्हें उतनी ही ज्यादा जकड़े  जा रही थी।

उनकी हालत देखकर मेरा जी हलक को आ जाता। वह पुरानी बातें याद कर-कर रोतीं। तो मैंने सोचा क्यों ना टीवी का इंतजाम कर दिया जाए। तो मैंने बिना किसी हिचक,लाग-लपेट के सीधे-सीधे उनसे बात कर ली। कह दिया कि, 'जब मर्द देख सकते हैं, तो औरतें क्यों नहीं देख सकतीं? क्या वह इंसान नहीं हैं? आखिर हम औरतें ही सारी तरह की कैद में क्यों हैं?' अम्मी  को राजी करने में बड़ी  मशक्कत करनी पड़ेगी , मैं तो यह सोचकर परेशान थी, लेकिन हुआ इसका उल्टा।

अम्मी तो जैसे पहले से ही तैयार बैठी थीं। बस पहल के लिए हिम्मत नहीं कर पा रही थीं। मेरे पहल करते ही वह तैयार हो गईं। मगर यह दिखावा करते हुए कि वह मेरे लिए मानीं। बहुत प्यार से बोलीं, ' तुम्हारा  इतना मन है तो ठीक है लगवा देते हैं। अब है ही कौन मना करने वाला। वैसे भी तुम बच्चों के साथ बहुत ही ज्यादा ज्यादती हुई है इस घर  में।

मैं रोज ही सोचती थी, मेरा यही  ख्वाब  था कि दुनिया के बाकी बच्चों की तरह हमारे बच्चे भी खूब पढ़ें -लिखें , खुश रहें, अच्छी तरबीयत पाएं, तरक्की करें। जिससे वह सबके सब अपने पैरों पर खड़े  होने लायक बनें। मगर तुम सबकी या हम सबकी यह बदकिस्मती ही रही कि घर जाहिलियत का अड्डा बना रहा। अखाड़ा बना रहा। मेरे सारे ख्वाब जर्रे-जर्रे होकर तबाह हो गए। मुझे क्या पता था कि,अल्लाहताला मुझे, मेरे किसी गुनाह  की सजा देगा । बड़ा सा ख्वाब दिखाकर उसे धूल बना देगा । ऐसे  इंसान को मेरे जीवन में भेजेगा जो झूठ-फरेब, धोखे के सिवा कुछ जानता ही नहीं था। जो इंसानियत को कुचलने में ही यकीन रखता था।'

अम्मी अपनी भड़ास निकालते-निकालते रोने लगीं तो उन्हें चुप कराया।

 टीवी के लिए पैसे कहां से आयेंगे? यह पूछा ,तो जो बात निकल कर सामने आई ,उससे हमारे सपने बिखरने लगे। फिर रास्ता निकला कि, टीवी को किस्तों में लिया जाए। मगर दुकानदार की शर्तों के आगे वह भी नामुमकिन लगा । हम किस्तें कहां से देंगे, इसका वह पुख्ता जरिया जानना चाहते थे। हमारे काम से आने वाली आमदनी को वह कच्ची आमदनी कह रहे थे। लेकिन मैं भी जिद पर अड़ी  रही, हाथ-पैर मारती रही। अंततः एक सूत्र मुझे मिला।

मेरे घर  से कुछ ही दूर आगे  रहने वाले एक पड़ोसी के बेटे मुन्ना चीपड़ काम आये।ऐसा आये,मुकद्दर ने कुछ ऐसा खेल-खेला कि पूछिए मत। वह एक बैंड पार्टी में शौकिया सेक्सोफोन बजाने के साथ-साथ, एक एनजीओ भी सालों से चलातेआ रहे थे। इसके जरिए वह लड़के-लड़किओं  को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलवाते थे। फिर उन्हें रोजगार  शुरू करने या आगे बढ़ने के लिए सरकारी मदद या लोन भी दिलवाते थे।आए दिन किसी ना किसी प्रदर्शनी, कार्यक्रम में इन सबको लेकर जाते थे। इससे उन सबको अपना-अपना व्यवसाय आगे  ले जाने में मदद मिलती थी।इससे कई लड़के-लड़कियां अपना काम-धंधा अच्छे से खड़ा कर चुके थे।'

'एक मिनट, मैं यहाँ आपको थोड़ा  सा रोकना चाहूंगा। मुन्ना नाम तो समझ में आता है। अच्छा है। बहुत प्यार,स्नेह से मां-बाप द्वारा अपने हृदय के टुकड़े बेटे को ना जाने कब से दिया जाने वाला नाम है। लेकिन यह चीपड़ सरनेम पहली बार सुन रहा हूं। बड़ा अनकामन सा लग  रहा है। इस पर भी लगे  हाथ कुछ प्रकाश डालेंगी क्या ?'

 मेरी इस बात पर बेनज़ीर चेहरे को थोड़ा ऊपर कर, बड़ी स्टाइल से बिल्कुल बॉलीवुड हिरोइनों की तरह हा-हा करके हंसीं। फिर बोलीं, 'दरअसल चीपड़ उनका सरनेम नहीं है। उनके दोस्तों द्वारा उनको दिया गया निकनेम है। दोस्तों का दिया यह नाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि, मां-बाप का दिया उपनाम ही खो गया। ऐसा कि, खुद मां-बाप सहित, सभी घर वाले  भी चीपड़ ही कहने लगे। ' 

 '  ओह बड़े दिलचस्प व्यक्ति लगते हैं। तो इन्होंने आगे क्या किया?'

' दरअसल उनके कामों के कारण उन्हें जानने वालों की संख्या बहुत थी। हां एक समय वह मोहल्ले के सबसे लफंगे  लड़के हुआ करते थे। आए दिन लड़ाई-झगड़ा करना, चलती लड़कियों-महिलाओं को छेड़ना  उनका रोज का काम था। पूरा मोहल्ला उनसे त्रस्त रहता था। उनकी अब्बू से भी खूब छनती थी, क्योंकि वो कैरमबाजी में भी माहिर थे। अब्बू भी कैरम खेलते थे। एक बार बात-बात में वह राज्य स्तर की कैरम प्रतियोगिता जीत आये । इस जीत ने उन्हें  एकदम बदल दिया। वह क्या कहते हैं कि रातों-रात उनका चोला ही बदल गया। पहले जहां लफंगई के कारण चर्चित रहते थे , अब वह अपनी सज्जनता, अच्छे व्यवहार के लिए,अपने काम-धाम के कारण सबकी जुबां पर आ गए।

वह दुकान पर सामान लेने कभी-कभार आ जाते थे। अम्मी से भी थोड़ी- बहुत बात कर लेते  थे। कोई रास्ता ना देख अम्मी से मैंने कहा कि,' इन्हीं से बात करो, यह कोई ना कोई रास्ता निकाल देंगे।' अम्मी भी जैसे पहले से ही यही सोच रही थीं। उनसे बात की तो वह बोले ,' चाची परेशान ना हो, सब हो जाएगा ।' और सच में अगले दिन अम्मी के कमरे की दीवार पर टीवी टंग  गया। उन्होंने साथ ही डिश कनेक्शन भी करवा दिया। स्वयं गारंटर बने। जीरो डाउन पेमेंट में काम हो जाने के कारण हमने इतनी राहत महसूस की कि बता नहीं सकते।

पहले दिन अम्मी ने खूब तबीयत से टीवी देखा। तरह-तरह के कार्यक्रम देखती रहीं। बार-बार मुन्ना-मुन्ना करती उनको दुआ भी देती रहीं और यह भी कहती रहीं  कि, 'वाकई हम सब न जाने कौन सी जाहिलियत भरी दुनिया में जीते आ रहे थे। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है और हम अंधेरी कोठरी में ही जीवन बिता आए।

 झरोखे से ही दुनिया को झांका है तो लगता है ना जाने कौन से इंसानों की दुनिया में पहुंच गए हैं। जहां हमारा कोई है ही नहीं। ना दुनिया हमें पहचान रही है। ना हम दुनिया को। वाह री जाहिलियत तू ऐसे तबाह कर देगी हमारी ज़िन्दगी , ऐसे हमें जानवर सा जीवन बिता डालने के लिए अंधेरे कुँए में झोंक देगी, हम ख्वाब में भी यह नहीं सोच पाए थे। इसके कारण अच्छा-बुरा समझना ही नहीं आएगा, मुझे जरा भी इल्म होता तो सच कहती हूं ,बेंजी मैं इस जाहिलियत के खिलाफ इतनी बड़ी  बगावत कर देती कि यह जाहिलियत भी थर्रा उठती, कांप उठती, दुनिया देखती। मगर अब तो कुछ बचा ही नहीं है। शैतान हमें तबाह कर जा चुका है। अब उस पर कितने भी कंकड़ मारो कुछ नहीं होने वाला।'

उनके घायल मन की इस दर्द भरी आवाज से मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी रूह भी दर्द से कराह उठी। मैंने कहा, 'अम्मी  जो मुकद्दर में लिखा था वह हुआ। बीती बातों को लेकर क्या रोना,उससे क्या फायदा। दिल के पुराने जख्मों को कुरेद-कुरेद कर फिर से खुद को लहूलुहान करने से कुछ नहीं मिलने वाला।' मैंने सोचा अम्मी ने शैतान किसे कहा पूछ लूं। लेकिन फिर सोचा कहीं यह उनके जख्मों पर ताजा गर्म सालन डालने जैसा ना हो। वह मेरी बात पर बोलीं, 'नहीं  बेंजी हक़ीक़त यह नहीं है। मुकद्दर तभी होता है, जब उसमें ना बहुत ज्यादा तो कुछ हिस्सा खुशियां भी हों । हमारे मुकद्दर में भी खुशियां हर हाल में रही होंगी । जिन्हें हमारे घर की जाहिलियत व अपनों ने जमींदोज कर दिया।'

मैंने कहा, 'हलकान ना हो अम्मी। अब तू टीवी देखा कर, तेरा जी हल्का होता रहेगा।'  'अब क्या जी हल्का होना, पैर कब्र की ओर बढ चले हैं। रुख्शती का दिन सामने आ गया है। क्या टीवी देख पाऊँगी , क्या जी बहलाऊंगी, तेरी चिंता खाए जा रही है, किसके सहारे तुझे छोड़कर रुखशत  होऊँगी, समझ में ही नहीं आ रहा है क्या होगा तेरा।' अम्मी बोलती ही रहीं और टीवी चलती रही,मैं  उन्हें समझाती रही। लेकिन अम्मी के जख्म कुछ ऐसे हरे हो गए थे कि ना वो टीवी देख पा रही थीं, ना मेरी बात समझ रही थीं। देर रात खाने तक मैं उन्हें समझाती रही। अब पता नहीं वह मेरी बात समझ गई थीं या थक गईं थीं कि, खाना खाकर बिस्तर पर पड़े-पड़े  बिल्कुल चुपचाप टीवी देखती रहीं। मुझसे भी उन्होंने देखने को कहा लेकिन मैंने कहा,'अभी  बहुत काम पूरा करना है। टीवी देखते हुए काम नहीं कर पाऊँगी ।' खाना खाकर मैं अपने कमरे में आ गई।

चिकन के काम का ढेर लगा  हुआ था। मैं मोबाइल में तो सब कुछ देखती ही आ रही थी। इसलिए अम्मी के साथ टीवी देखने की मेरी कोई खास इच्छा नहीं थी। टीवी के आने के साथ ही मुझे उसकी किस्त निकालने की चिंता हो गई। मैं अच्छी तरह जानती थी कि अब दुगना काम करके ही किस्त निकाल पाऊंगी। जबकि काम करने में सबसे ज्यादा खलल रियाज़  और ज़ाहिदा कई महीनों से बने हुए थे।

पहले केवल मोबाइल था जिसमें टीवी.सीवी देखने के चलते अक्सर खलल पड़ती  थी। हालांकि उसे देखते हुए भी मेरी ऊँगलियाँ कढाई करती रहती थीं। मगर ज़ाहिदा  और रियाज़ रोज रात को बड़ी  देर तक मुझे सन्न-मन्न कर बुत बनाकर बक्से पर बैठा देते थे। महीना बीता। किस्त देने का टाइम आया तो बड़ी  मुश्किल से किस्त जमा हो पाई। साथ ही यह पहला मौका था जब अम्मी ने कहा, 'बेंजी तू ही जाकर जमा कर आ। रिक्शा कर लेना। पैदल थक जाओगी ।'

अम्मी मुझे बेनज़ीर ना कहकर बेंजी  ही बुलाती थीं। उनकी इस बात पर मैं उन्हें देखती ही रह गई, तो वह बोलीं, 'मुझसे अब रिक्शे पर भी बैठा नहीं जाता। ऐसे क्या देख रही है। रास्ते तो सब जानती ही है। जाहिलियत से पीछा छुड़ा सीख कुछ। अब जितना सब सीख लोगी वही सब सीखा हुआ तेरे मददगार होंगे।अब बंद कमरे से बाहर निकलकर देख, सब जान -समझ अब। ' अम्मी सच कह रही थीं। अब्बू के जाने के बाद वह तमाम जगह मुझे लेकर जाती रहीं थीं।

पहले कभी-कभी,लेकिन जैसे-जैसे उनकी सेहत गिरती गई । मेरा उनके साथ जाना बढ़ता  गया। तो काम-धंधे के सलीके से लेकर रास्ते तक सब जानती थी। मैंने तैयार होकर बुर्का डाला उसकी जेब में टीवी के सारे कागजात रखे। अम्मी से पैसे मांगे तो वह देती हुईं  मुझ पर एक नजर डालकर बोलीं, ' बुर्का  डाल लिया, अच्छा चलो ठीक है।' मुझे उनका यह प्रश्न बड़ा अटपटा लगा, क्योंकि बिना बुर्का के तो पहले कभी मैं बाहर निकली ही नहीं थी।

ऐसा अम्मी ने क्यों पूछा, मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ लिया,' क्या हुआ अम्मी ऐसा  क्यों पूछ रही हो, बिना बुर्के के कभी निकली हूं क्या?' 'कुछ  नहीं, कोई बात नहीं, बस ऐसे  ही पता नहीं क्या दिमाग  में आ गया और बात निकल गई।' इतना कहकर अम्मी ने चश्मा लगा कर फिर टीवी देखना शुरू कर दिया।

 मैंने एक नजर उन पर डाली और बाहर निकल गई। मैं रास्ते भर उनकी बात की गहराई में उतरने की कोशिश करती रही। जहाँ पैसा जमा करना था, वह घर से तीन किलोमीटर दूर था। इसलिए मैं पैसे बचाने के चक्कर में पैदल ही आई-गई। जो पैसे बचे उससे अम्मी के लिए आते समय संतरे खरीद लिए थे। डॉक्टर ने न जाने कितनी बार कहा था कि, 'इनको  कोई एक फल रोज दीजिए। इनको विटामिंस, मिनरल्स की बहुत कमी है।' जब ऎसी बातें डॉक्टर कहते थे, तो मुझे बहुत बड़े जाहिल लगते थे। मैं तुरंत ही मन ही मन यह कह कर अपनी खीज मिटाती थी कि, जिन्हें दो जून का खाना भी ठीक से मयस्सर नहीं है,जो अपना इलाज तक पैसे की तंगी  के कारण नहीं करा पातीं, उनसे रोज फल खाने को कह रहे हो। पत्थर पड़े तुम्हारी समझदारी पर।

मैं संतरे खरीद कर जब घर को वापस चली तो, इतनी खुश थी कि जैसे ना जाने कितना बड़ा  मैदान मार लिया है। ऐसी खुशी कि पांव हवा में उड़ते  से लग  रहे थे। लग रहा था जैसे खूब तेज आंधी सी चल रही है, और फड़-फड़  करते बुर्के को उड़ा के ले जायेंगे। वैसे भी घर  से कुछ आगे चलने के बाद ही मैंने अपना चेहरा खोल दिया था। इतनी उम्र के बाद बाहर ऐसे  चल रही थी। मुझे कोई संकोच ,कोई झिझक भी नहीं हो रही थी। लग रहा था कि जैसे इतने वर्षों तक मैं किसी डिब्बे में बंद थी। सांस फूलने के कारण बेहोश थी। अचानक ही ढक्कन खुल गया, मुझे हवा मिली और मैं होश में आ गई।

घर पहुंचने से पहले मैंने चेहरा फिर ढंक लिया। घर  के भीतर पैर रखते ही मुझे विश्वास हो चुका था कि, मैं अम्मी की बुर्के वाली बात की गहराई नाप चुकी हूं। अम्मी को मैंने बचे हुए पैसे और संतरे थमाते हुए कहा, 'तुम नाहक हलकान हुई जा रही थी। कितना तो सब आसान है। किस्त जमा हो गई। संतरे अच्छे दिखे तो सोचा तुम्हारे लिए ले लूं। डॉक्टर बार-बार कहता है कि तुम्हें फल दूं। विटामिंस की बहुत ज्यादा  कमी है तुममें।' मेरी बात सुनते ही अम्मी की आंखें भर आईं और बोलीं, 'अरे मेरी बेंजी, मेरा जिगर अब काहे मेरी इतनी चिंता करती है। इतने पैसे में तो कई टाइम की सब्जी आ जाती।'

उनकी तकलीफ समझते ही मैंने कहा,'अम्मी  परेशान ना हो। मैंने अलग  से कोई पैसे नहीं खर्च किए। पैदल आई-गई थी। किराए के जो पैसे बचे उन्हीं में थोड़े से और मिलाकर ले आई हूं।' यह सुनते ही अम्मी बोलीं, ' या अल्लाह तेरी अकल को क्या हो गया है। इतनी गर्मी में इतनी दूर पैदल ही आई-गई। तभी मैं कहूं कि चेहरा इतना लाल,झुलसा-झुलसा क्यों हो रहा है। अरे मेरी बच्ची इतनी तकलीफ ना उठा। यह संतरे खाने से कुछ होने वाला नहीं है। यह सब नसीब वालों के लिए है। देख चेहरा कितना लाल हो रहा है। एकदम कुम्हला गई है।'

इतना कहते हुए अम्मी ने मेरी पेशानी को चूम लिया और , 'कहा अल्लाह  हमेशा तेरी हिफाजत करें यही दुआ करती हूं। अब फिर से ऐसा मत करना।' मैंने कहा, 'अम्मी  यूं परेशान ना हुआ करो। चेहरा तो बुर्के...।' मेरी बात पूरी होने से पहले ही अम्मी बोलीं , 'हाँ , इतनी गर्मी ऊपर से इतना भारी भरकम बुर्का, खौला के रख देता है बदन।' 

मेरे मन में आया कि,अम्मी को बता दूं कि मैंने बाहर चेहरा खोला हुआ था। लेकिन यह सच कहने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। आने के बाद मैंने घर के सारे काम निपटाए। अम्मी की दवा-दारू देखी। कढाई का ज्यादा से ज्यादा काम निपटाने की सोची। पूरी कोशिश भी की, क्योंकि मेरे ज़ेहन  में यह बात बखूबी थी कि रात मेरी कैसी बीतेगी ,और सारी कोशिश के बावजूद ज़ेहन में जो था रात वैसी ही बीती थी।

वही ज़ाहिदा-रियाज़ , फिर अपने कपड़ों  के साथ जंग । उतार-उतार कर उन्हें दीवारों पर रात भर के लिए दे मारना। फिर अपने ही तन बदन को देख-देख कर इतराना। और आखिर में मायूसी के दरिया में डूब कर खूब आंसू बहाना कि, हाय रे मेरा मुकद्दर। मेरे संग ऐसा क्यों कर रहा है? और जमीन पर ही पड़े-पड़े सो जाना रात भर के लिए। और चिकनकारी, वह भी मेरी तरह मायूस रात भर जमीन पर पड़ी रहती।

सवेरा होता तो दीवारों से टकरा-टकरा कर जख्मी पड़े, अपने कपड़ों  को फिर उठाती। रात के अपने गुनाहों  के लिए उनसे माफी की दरख्वास्त करती, फिर उन्हें प्यार से झाड़-पोंछकर पहन लेती। रोज-रोज के इस फसाने से मैं दिन में यह महसूस करती थी कि जैसे मैं बहुत तंग आ गई हूं। लेकिन रात में इस फसाने से एकदम जुदा एहसास होते। यही होते-होते अगली किस्त जमा करने का समय आ गया।

इस बार पहले से कहीं ज्यादा दिक्कतें दरपेश हुईं। मगर किसी तरह जोड़-गाँठ कर किस्त जमा कर आई। इस बार भी पहली बार ही की तरह पैदल ही आई-गई, लेकिन अम्मी के लिए संतरे नहीं ले पाई। एक भी नहीं। क्योंकि किस्त के अलावा दो-तीन रुपये ही बचे थे। किराए के भी पैसे नहीं थे। रास्ते भर मन बड़ा दुखी रहा। लोगों को हंसते-बोलते, आते-जाते देखकर बार-बार यह सवाल ज़ेहन में खड़ा होता कि हमारे मुकद्दर में ऐसी हंसी-खुशी क्यों नहीं लिखी है। घर पहुंची तो देखा टीवी चल रहा है। दुकान पर आए एक बच्चे को अम्मी कुछ सामान दे रही थीं। बैठे-बैठे सामान देने में भी उन्हें इतनी तकलीफ थी कि चेहरे पर दर्द साफ-साफ अपने निशान छोड़ रहा था।

मैंने अंदर आकर उनसे कहा, 'अम्मी पैसे जमा कर आई।' इसके आगे  मैं कुछ बोल नहीं पाई, क्योंकि मैं दिल में घुसी अनगिनत फांसों का दर्द महसूस कर रही थी कि, अम्मी के लिए कुछ ला ना पाई। मेरा दिल रो रहा था। पूरा मन आंसुओं से नहा रहा था और जून के दूसरे हफ्ते की धूप में आने-जाने के कारण पसीने से तन नहाया हुआ था। मैंने बुर्का उतार कर अलग  किया, एक गिलास पानी पी कर बैठी, तो ध्यान दिया की अम्मी इस दौरान लगातार मुझे ही देख रही थीं।

मैंने पूछ लिया, 'क्या हुआ अम्मी, ऐसे क्या देख रही हो?' ' तेरी  तकलीफ देख रही हूं। बाहर अभी दोपहर भी नहीं हुई है और आसमान से जैसे शोले बरस रहे हैं। अपना चेहरा देखो कितना लाल हो रहा है। नकाब ठीक से नहीं डाला था क्या?' अम्मी की बात से मैं सिहर उठी। उन्हें सीधे देखने की हिम्मत नहीं कर पाई। इस बीच अम्मी ने दुकान में रखे बिस्कुट का एक छोटा सा पैकेट उठाकर मुझे देते हुए कहा, 'लो पानी पी लो। खाली पानी नुकसान करेगा।' मैं दुबारा पानी पीती रही और सोचती रही कि अम्मी की बात का क्या जवाब दूं।

उनकी बात से साफ है कि उन्होंने सच भांप लिया है। मैं खुद देख रही थी कि जितना बदन कपड़े से ढंका था ,वह पसीने-पसीने जरूर था। लेकिन चेहरे और ढके हिस्से के रंग में फ़र्क़  था। मैंने सोचा कि सच बता देना ही मुनासिब होगा, नहीं तो अम्मी ना जाने क्या-क्या सोचकर हलकान होती रहेंगी। मैं कुछ सहमती हुई  बोली, ' अम्मी  एक बात बताऊं, नाराज तो नहीं होगी ?' ' क्या? बताओ ना,परेशान क्यों हो रही हो तुम, हमें मालूम है कि तुम कुछ भी करोगी , लेकिन गुनाह नहीं करोगी । हमें तुम पर पूरा एतबार है। बताओ।'

अम्मी की बात से मेरा हौसला थोड़ा बढ़ा । लेकिन फिर भी मैंने डरते-डरते कहा, 'अम्मी  पता नहीं तुम गुनाह कहोगी या क्या कहोगी, लेकिन बाहर सबको देख-देख कर मैं खुद को रोक नहीं पाई। मोहल्ले से निकलने के बाद मैंने नकाब.. ।' इसके आगे मैं बोल नहीं पाई। तो अम्मी बोलीं, 'दिल-दुखाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे चेहरे से जान तो हम पिछली बार ही गए थे कि, तुम नकाब बिना ही आई-गई हो। इतनी तेज़ धूप में चेहरे की रंगत ही बदल गई है।'

अम्मी की बात से मुझे बड़ी  राहत मिली। मैंने कहा, 'तो अम्मी तुम नाराज नहीं हो।'

 'अरे  काहे की नाराज़गी । शर्मो-हया इज्जत का अपनी ध्यान रखो, उसके साथ कोई कोताही न करना, नकाब आखिर है इसी के लिए न । तो अगर  बिना नकाब के ध्यान रखा जा सकता है तो नकाब के सहारे की जरूरत ही क्या है ?'

 अम्मी की बात को पूरा समझकर मैंने सोचा लगे  हाथ एक बात और साफ कर लूं, तो थोड़ा  झिझकते हुए पूछा, 'तो अम्मी अब बिना नकाब कहीं आ-जा सकती हूं? तुम्हें कोई एतराज नहीं है।'

मेरे सवाल पर कुछ देर चुप रहने के बाद अम्मी बोलीं, 'अब  कहा तो नकाब बुर्का सब शर्मो-हया की हिफाजत  के लिए ही बनाए गए हैं। अगर इनके बिना भी हिफाजत  कर सकती हो तो क्या जरूरत है लबादे की।' अम्मी की इस बात से मुझे लगा कि, मैं मानों तेज बर्फीली हवाओं के बीच से गुजर रही हूं। मैं बेहद खुश थी कि, अम्मी नाराज नहीं हुई थीं और इतना ही नहीं साफ-साफ यह भी बता दिया कि अगर मैं अपनी शर्मो-हया का बखूबी ख्याल रख सकती हूं तो नकाब क्या बिना बुर्के के भी निकल सकती हूं। मेरी यह खुशी किसी जलसे में शामिल होने की खुशी से कम नहीं थी।'

बेनज़ीर यह कहकर हल्के से मुस्कुराई तो मैंने कहा, 'देखा जाए तो जीवन में एक तरह से आपको पहली बार आज़ादी  मिली, जिसे याद कर आप इस वक्त भी रोमांचित हुईं। उस दिन से पहले कभी सोचा था कि, आपको आपकी अम्मी ही इतनी आज़ादी देंगी।'

 'नहीं, कभी नहीं सोचा था, लेकिन ख्वाब में,मन में तो सबकी तरह आज़ादी की बात रहती ही थी। और फिर सबसे बड़ी बात यह कि, जब जो होना होता है, जो ऊपर वाला चाहता है, वही होता है।'

'सही कह रही हैं आप, तुलसीदास जी भी यही कह गए हैं कि, '' होइहि सोइ जो राम रचि राखा।''

'हाँ ,ऐसा ही सोचकर हम बड़ी-बड़ी मुश्किलें भी जीत लेते हैं।'

 इतना कहकर बेनज़ीर जैसे खो गईं  बीते दौर में, कुछ देर में लौटती हुई बोलीं, 'मेरी यह खुशी मेरे खाना पकाने से लेकर उस रात चिकनकारी के काम में भी साफ-साफ दिखी। कई महीनों बाद मैंने उस रात उतना काम किया जितना तब किया करती थी, जब सारी बहनें एक साथ हुआ करती थीं। जल्दी ही तीसरी किस्त का समय करीब आ गया। समय जैसे-जैसे करीब आ रहा था वैसे-वैसे मुझे लग  रहा था जैसे कोई बड़ी  मुसीबत करीब आ रही है। हफ्ता भर रह गया था लेकिन आधा पैसा भी नहीं जुटा पाई थी।

हम दोनों परेशान थीं कि बड़ी  बेइज्जती हो जाएगी  मोहल्ले में। एक तो किस्तों पर टीवी लिया, वह भी तब, जब मोहल्ले में एक-एक घर में न जाने कितने वर्षों पहले ही टीवी लग गई  थीं, और यहां आलम यह है कि तीसरी किस्त ही नहीं निकल पा रही है। मारे गम के अम्मी ने दो दिन टीवी ऑन ही नहीं किया। मैं भी हिम्मत नहीं कर सकी कि टीवी ऑन कर दूं। इन दोनों दिन मेरा भी मन इतना परेशान रहा, इतना गमजदा रहा कि, रात भर ना तो ज़ाहिदा रियाज़ मुझे परेशान कर सके, ना ही उनकी आती आवाज़ों  का कोई फ़र्क़ मुझ पर पड़ा , और ना ही दीवारों से टकराकर रोज की तरह मेरे कपड़े घायल  हुए, न सुबह मुझे उनसे माफी मांगनी पड़ी, ना उन्हें जमीन से उठाने की जहमत उठानी पड़ीं । 

दोनों रात मैंने जमकर चिकनकारी की। इतनी कि उंगलियां अकड़ने  लगीं , जवाब देने लगीं । मगर मैं रुकी नहीं। मालिश-वालिश करके उन्हें काम लायक बनाती रही।

लेकिन दूसरे दिन जब सुबह उठी तो मन में एक ख्याल आ गया। किस्त को लेकर मन में जो  गम था उसे उस ख्याल ने कम कर दिया। फिर उस दिन अम्मी को चिंता ना करने के लिए कहते हुए मैंने टीवी ऑन कर दिया। लेकिन अम्मी का मन उखड़ा रहा, तो उखड़ा ही रहा। मैंने कहा, 'अम्मी ऐसे अपने को हलकान करने से क्या फायदा। कहा ना इंतजाम हो जायेगा ।' मगर अम्मी ने मेरी बात का जवाब देने के बजाय एक बार गौर से मुझे देखा और फिर मुंह दूसरी तरफ घुमा  लिया।

उनकी आंखें आंसुओं से भरी थीं। भाव कुछ ऐसे थे जैसे मुझ पर तरस खा रही हों। मुझे बड़ा  दुख हुआ। मैंने सोचा कि कहीं अम्मी यह तो नहीं सोच रहीं कि, मेरे कहने में आकर उन्होंने टीवी लेकर बड़ी  जहमत मोल ले ली है। यह सोचकर मैं तड़प उठी। मैं अम्मी को दुखी नहीं देख सकती थी। मैं उनके पास जाकर बैठ गई। चेहरे को देखा तो उनके आंसू भी निकल रहे थे। वह चुपचाप रोए जा रही थीं।

उनकी हालत देखकर मेरा कलेजा कांप उठा। मैंने उनके दोनों हाथों को पकड़ कर चूम लिया और कहा, ' अम्मी-अम्मी काहे को हलकान हुई जा रही हो। कुछ नहीं होगा । क़िस्त  जमा हो जाएगी । बल्कि सारी किस्तें एक साथ जमा हो जाएँगी। बस तुम मेरी एक बात मान लो, ना मत कहना।' मेरी इस बात पर अम्मी ने कुछ पल आश्चर्य से मुझे ऐसे देखा कि मानो पूछ रही हों, अच्छा तो तुम्हारे पास इतना पैसा कहां से आ गया?  उनकी सवालिया नजरों का मैंने तुरंत जवाब दे देना उचित समझा।

मैंने समझाते हुए कहा, 'अम्मी ऐसा करो ना कि निकाह के लिए जो गहने इकट्ठा किये हैं, उनमें से कुछ बेचकर टीवी का सारा पैसा चुका दो। टीवी के लिए जैसे पैसा इकट्ठा करते हैं, वैसे ही इकट्ठा करके धीरे-धीरे गहने बनवा लिए जायेंगे । इससे कम से कम गले में फांसी तो नहीं रहेगी  कि, आज ही किस्त जमा करनी है।आगे-पीछे इकट्ठा करने से सारा काम बन जायेगा। वैसे भी कौन सा अभी का अभी मेरा निकाह होने जा रहा है।'




मेरी बात सुनकर अम्मी ने कुछ जवाब देने के बजाय एक बार मुझे देखा फिर पहले की तरह सामने दिवार देखने लगीं । जैसे दीवार पर कुछ चल रहा हो। मुझसे रहा नहीं गया। तो मैं अपनी बात पर अड़ गई। क्योंकि मैं किस्त की जहमत से अम्मी और खुद को भी निजात दिलाने की ठान चुकी थी। बड़ी  जद्दोजहद के बाद आखिर अम्मी ने बहुत ही दर्द भरी आवाज में मुक्तसर सी अपनी सहमति दे दी। मुझे लगा  कि जैसे मुझे मेरी रुकी हुई सांसों के लिए फिर से हवा मिल गई।'

अपनी बात पूरी करते-करते बेनज़ीर  जैसे खो गई उन्हीं यादों में। समय जैसे उल्टा घूम गया था, और वह अम्मी के साथ किस्त का मसला सुल्टा रही थी। मैं भी एकदम चुप रहा कि, इन्हें एक बार फिर जी लेने दो अपने बीते हुए पल को। मिल लेने दो अपनी अम्मी से। एकदम पिनड्रॉप सायलेंट हो गया। करीब मिनट भर बाद बेनज़ीर ने एक गहरी सांस लेकर छोड़ते  हुए कहा, 'ओह टीवी किस्त। इस किस्त ने भी दरवाजे की ही तरह मेरी लाइफ में अहम किरदार निभाया।' यह कह कर वह मेरी आंखों में देखने लगीं । उनकी आंखें, साफ भरी हुई झील सी चमक रही थीं।

मैंने पूछा, 'क्या  कोई ख़ास मसला इस किस्त के साथ भी जुड़ा  हुआ है ?'

' ऐसा ही मानिए बल्कि ऐसा ही है। उस दिन धूप अपने पूरे शबाब पर थी। अम्मी ने एक अनुमान से कुछ गहने निकाल कर मुझे दिए। उन्हें बड़ी हिफाजत से बुर्के में रखकर मैं बाजार के लिए चल दी, अकेली। पहले अम्मी ने साथ चलने की हिम्मत की। लेकिन फिर थक कर, पस्त हो बैठ गईं। तैयार होते-होते ही इतना हांफने लगीं  कि, उनका सांस लेना मुश्किल हो गया, तो मैंने उन्हें रोका, दवा-पानी दिया। जब उनकी सांस कुछ संभली तो मैं चल दी बाहर। कुछ ही देर बाद मैंने नकाब फिर से हटा दिया।

हटाते समय बड़ीअजीब सी गुस्सा से भरी हुई थी। मन में  यही सोच रही थी कि, लगने दो चिलचिलाती धूप। झुलस कर कठोर हो जाने दो इस गोरे नाजुक से चेहरे को। गोरेपन को बदल जाने दो सांवले या कालेपन में। ऐसे गोरेपन से भी क्या लेना-देना। क्या अहमियत जो एक पल की खुशी भी मयस्सर ना होने दे। जल जाने दो इस मासूमियत को। खूबसूरती को। मन में बहुत सी आंधियाँ लिए मैं आंधी-तूफ़ान सी कत्तई नहीं जा रही थी। बिल्कुल आराम से टहलते हुए चल रही थी। मैं बड़े  इत्मीनान से एक-एक चीज, एक-एक शख्स को गहराई से देखती-समझती और यह सोचती जा रही थी कि ऐसा कौन सा काम करूं कि, कमाई बढ़ा  सकूं। अम्मी की कायदे से दवाई हो सके और ज़ाहिदा-रियाज़  को घर  से बाहर कर सकूं।

जिनके कारण ना जाने कितनी रातों से मैं सो नहीं पा रही हूं। काम-धंधा सब चौपट हो गया है और खुद मैं भी। इनसे निजात पाना जरूरी हो गया है। जितना वह किराया देते हैं, बस उसका इंतजाम हो जाए।

 मैं यही सब सोचती हौले-हौले टहलते हुए बड़ी देर बाद एक सोने-चांदी की दुकान के करीब पहुंची। दुकान की सीढियों तरफ मुड़ी ही थी कि, अंदर से मुन्ना चीपड़ अपनी मां के साथ दुकान का शीशे का दरवाजा खोलकर एकदम सामने आ गए। सीधे आंखों से आंखें मिल गईं। बचने का कोई रास्ता नहीं रह गया था। मैं हड़बड़ा उठी। ध्यान नकाब, खुले चेहरे की तरफ गया। लेकिन मेरे हाथ इसके लिए बढे ही नहीं कि नकाब डालूं।

जब-तक मैं कुछ सोचूं-समझूं ,आगे बढूं  कि, जैसे  मैं उन्हें देख ही नहीं रही हूं, मैं उस दुकान के लिए आई ही नहीं, तब-तक मां-बेटे मेरे सामने खड़े थे। मुन्ना ने बेहिचक पूछा,'आप  इतनी धूप में कहां जा रही हैं?' मेरे लब हिल भी ना पाए थे कि उनकी मां बोलीं, 'अरे  बेटा तुम अकेले ही, क्या बात है? कुछ परेशान लग  रही हो। हमें बताओ, हम हैं मदद के लिए।'

अब-तक मैं खुद को संभाल चुकी थी। मैंने कहा, ' नहीं चच्ची, परेशानी वाली कोई बात नहीं है। अम्मी की दवा लेने निकली थी। उनकी कान की बाली टूट गई थी, सोचा लगे हाथ बाली भी ठीक करवा लूं। वही कराने आई हूं।'

 ' ठीक है बेटा। अच्छा एक बात तुम्हें अभी से बता रही हूं कि जल्दी ही निष्ठा की शादी है। उसमें तुम्हें जरूर आना है। घर आऊँगी  तुम्हारी अम्मी के पास शादी का कार्ड लेकर। उन्हें भी इंवाइट करूँगी।आजकल सारा घर शादी की तैयारी में ही लगा है। ठीक है बेटा, चलूं अभी बहुत काम बाकी है।'

 'मैंने कहा, ठीक है चच्ची जरूरआऊँगी।'

 मुन्ना ने अब-तक अपनी बाइक स्टार्ट कर दी थी। चाची दो-तीन बैग लेकर बैठ गईं। मुझे पक्का यकीन था कि वह निष्ठा के लिए गहने लेने आईं थीं। जब वह चली गईं तो मैं दुकान में दाखिल हो गई। मेरे कानों में कहीं दूर से बैंडबाजे की आवाज पड़ने  लगी ।

धूप में अपने को जितना मैं झुलसा सकती थी, उतना झुलसा कर ढाई घंटे बाद अम्मी के पास पहुंची। वह बेसब्री से मेरा इंतजार कर रही थीं। पहुंचते ही मैंने कुछ नहीं कहा। बुर्का उतार कर कुछ देर अपना पसीना सुखाती रही। थोड़ी  देर बाद एक गिलास  पानी पिया। सोचा अम्मी अब  कुछ पूछेंगी , लेकिन वह चुप रहीं। तभी एक ग्राहक कुछ सामान लेने आ गया तो मैंने उसे सामान देकर पैसे ले लिए। मगर अम्मी ने उसके बाद भी कुछ नहीं पूछा। शायद उन्होंने मेरा चेहरा पढ़  लिया था। तजुर्बे से अपने क्या हुआ यह जान लिया था।

उनका इस तरह चुप रहना मुझे छूरी सा चीरने से लगा । आखिर मैं खुद ही बोली, 'अम्मी  मैं गहने वापस लेती आई हूं। वह पुराने गहने के नाम पर बिल्कुल ठगने को लगा था। जबकि सारे गहने नए हैं। मैं दो दुकानों पर गई लेकिन दोनों ही दुकानों पर एक ही बात कही गई तो सोचा ऐसे बेचना तो इन्हें एक तरह से लुटा आना होगा। तो सोचा पहले एक बार तुमसे मशविरा कर लूं।'

जब मैंने अम्मी को वह रकम बताई जो ज्वेलर दे रहा था, तो वह दोनों हाथ उठाकर बोलीं, '  अल्लाह शुक्र है तेरा, तूने लुटने से बचा लिया। यह तो जितने में खरीदा था उसका आधा भी नहीं है। अच्छा किया जो तू चली आई। मगर अब किस्त का क्या करूं।' यह कहकर उन्होंने अपना माथा पीट लिया।

उनकी तकलीफ देखकर मेरे मन में आया कि,आग लगा दूं टीवी को, जिसके कारण अम्मी को इतना दुख मिल रहा है। एकदम अफनाहट में मैंने झटके में बोल दिया कि, 'अम्मी  किराएदार से बोलो कि, इतनी ज्यादा जगह इतने कम में ना मिल पायेगी । इसलिए किराया बढाओ और कुछ महीने का एक इकट्ठा पेशगी दो।'

 मेरी बात सुनते ही अम्मी खीजकर बोलीं,' क्या बच्चों जैसी बातें करती हो। ऐसे नहीं होता है समझी।'

मैंने, अम्मी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला। किस्त की तारीख निकल गई। एजेंसी से कई फोन आए, हम कई बार पैसा पहुंचाने की बात कहकर भी जब नहीं पहुंच पाए तो उसने गारंटर मुन्ना को ही फोन  कर दिया।

हमें इस बात का अहसास था, आभास था। लेकिन वह इतनी जल्दी गारंटर तक पहुंच जाएंगे  यह नहीं सोचा था। तारीख गुजरे दस दिन भी नहीं हुए थे कि, एक दिन देर शाम मुन्ना दुकान पर आकर अम्मी से बात करने लगे । वह बहुत ही संकोच में बात कर रहे थे । कुछ देर अम्मी की खैरसल्लाह लेने के बाद उन्होंने मुद्दे की बात बहुत ही हिचकिचाते हुए कही तो अम्मी ने समस्या बताई कि, ' बेटा क्या बताऊं, चिकन वालों ने काफी पैसा रोका हुआ है। यह लोग काम करा लेते हैं ,और पैसा दो-तीन महीने तक रोके रहते हैं। पूरा कभी देते ही नहीं,आधा हमेशा फंसाए रहते हैं। दुकान और किराया जो थोड़ा बहुत मिलता है वो  सब मुई मेरी दवाई में चला जाता है। इसी से इतना...।' 

मुन्ना बीच में ही बोले, ' चाची इतना परेशान ना हों, मैं हूं ना। जितना इंतजाम हुआ है, उतना ही मुझे दे दीजिए। बाकी मैं मिलाकर दे आऊँगा। आपके पास जब हो तब मुझे दे दीजियेगा।' उनकी बात से मैं क्याअम्मी ने भी बड़ी राहत महसूस की। अम्मी के इशारे पर मैं शरबत ले आई थी। मुन्ना उसे ही धीरे-धीरे पी रहे थे। इस बीच अम्मी ने पैसे निकालकर मुन्ना को दे दिये।

मुन्ना ने पता नहीं अचानक क्या सोचकर, जो रुपये अम्मी ने दिये थे वो, और जितने कम थे वह मिलाकर अम्मी को वापस देते हुए कहा, 'चाची इसे अपने पास रखो। अगर कोई तकलीफ ना हो तो कल आप बेनज़ीर के हाथ भिजवा दीजियेगा। असल में बात यह है कि निष्ठा की शादी एकदम करीब है। बेनज़ीर ने आपको तो बताया ही होगा । बड़ा  काम है। कहीं ध्यान से उतर गया तो रह जायेगा । एक बात और कहूंगा  कि,आगे ऐसी बात आए तो निसंकोच बता दीजियेगा। आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। सब बहुत आसानी से हो जाएगा। और हां, अम्मा तो आएँगी  ही कार्ड लेकर। लेकिन मैं भी,अभी से आपको अपनी बहन की शादी के लिए इंवाइट कर रहा हूं। आप बेनज़ीर को लेकर जरूर आइयेगा। अम्मा ने बेनज़ीर से बाजार में ही कह दिया था। अब तो यह भी बाहर जाने-आने लगी हैं।' यह कहकर मुन्ना उठे,और अम्मी को नमस्कार करके चले गए ।

अम्मी ने उन्हें ढेर सारी दुआएं दीं। उन्हें  निष्ठा के काम से कहीं जाना था। वह जल्दी में थे । वह ज्वेलर के यहां अपनी मां के संग  मिले थे, मैं अम्मी को मारे तनाव के यह बताना ही भूल गई थी।

मुन्ना के जाने के बाद मैंने अम्मी को तफसील से सारी बातें बता दीं। सुन कर वह बोलीं, ' कहीं इन्हें  शक तो नहीं हो गया कि हम गहना बेचने गए थे।' मैंने कहा, 'अम्मी ऐसा होना तो नहीं चाहिए। मैंने पूरी कोशिश की थी कि, उन्हें सच का जरा भी एहसास ना हो। मैंने यही कहा कि, तुम्हारी बाली ठीक कराने आई हूं।' अम्मी बोलीं,' चलो, जैसी अल्लाह की मर्जी। उसकी रज़ा इसी में है तो यही सही।'

कई दिनों बाद हम दोनों उस दिन चैन से खाना, खा सके और मैंने जी-जान से चिकनकारी की। उस दिन भी ज़ाहिदा-रियाज़ ने हफ्तों बाद बहुत खलल डाला, लेकिन मैं डिगी नहीं। उन पर जो गुस्सा था वह खत्म हो गया था। सोचा परवरदिगार ने इनको खुशियां बख्शी हैं, हमें नहीं दीं, तो हम उनकी खुशियों से क्यों परेशान हों। मैंने परवरदिगार से अपनी सोच के लिए माफी मांगी और दुआ की, कि उनकी खुशियां हमेशा यूं ही बरकरार रखें।'

' एक बात बताइए कि रियाज़-ज़ाहिदा आपके यहां जब आए, उसके बाद से ही आप उन्हें उस ख़ास स्थिति में देखती रहीं। तो वो आपके लिए परेशानी का सबब थे या कि कुछ और?'  'बड़ी मुश्किल बात पूछ ली। मैं खुद आज तक समझ नहीं पाई कि, उनके कारण जो-जो हुआ जो-जो महसूस करती थी, उस हिसाब से क्या कहूं। मुझे लगता है सारी कोशिश के बाद भी यही कह पाऊँगी कि,परेशानी का सबब थी भीं, नहीं भी।'

 ' छोड़िये  इस प्वाइंट पर जब क्लियर होईयेगा  तब आगे बताईयेगा । अभी तो किस्तों की समस्या कैसे सुलझी वह कहिए।'

'क़िस्त के मामले में आपको भी काफी रूचि है।'

 ' बात रूचि की नहीं है। मुझे लगता है कि टीवी और किस्त ने आप दोनों के जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। इसलिए पूरा जानना चाहता हूँ।'

' हाँ,यह सही है। जल्दी ही किस्त का एक और दौर सामने आ खड़ा  हुआ। हालात पहले से ही थे। इस बीच निष्ठा की शादी हो गई थी।अम्मी शादी में अपनी सेहत और कई अन्य कारणों  से जाना नहीं चाहती थीं। लेकिन मुन्ना, उनकी अम्मा के प्यार मोहब्बत के आगे रुक ना सकीं। उनके साथ मैं भी गई। जीवन में पहली बार मैं मोहल्ले में किसी शादी में शामिल हुई थी।

अम्मी को तो सब जानते थे लेकिन मुझ से अधिकांश लोग अनजान थे। कई लोगों  ने अम्मी से आखिर कह ही दिया कि पहली बार देख रही हूं आपकी बेटी को। एक चाची ने तो यहां तक कह दिया कि, 'अरे भाभी जी, इतनी चांद सी प्यारी बिटिया को कहाँ  इतने दिनों तक छुपाए रखी थी। मैं तो पहली बार देख रही हूं।' 

मुझे उनकी बात पर बड़ी  शर्म आई। मैं अम्मी से एकदम छोटी बच्ची की तरह चिपकी जा रही थी। मैंने अपना गहरे गुलाबी रंग का घाघरा-कुर्ती पहना था। उस पर वैसी ही हल्के रंग  की चुन्नी थी।

यह कपड़ा मेरे लिए बहनों की शादी के समय बनवाया गया था। जिसमें खूब भारी कढाई  का काम था, सुनहरी रंग से। तैयार होकर मैंने खुद को एक बार शीशे में गौर से देखा था। तब ऐसा कोई एहसास मन में नहीं था। चलते वक्त मैंने अम्मी से हल्की सी दरख्वास्त की थी कि बुर्का ना पहनूं। एक तो बेहद गर्मी है। दूसरे इतने मोटे भारी कपड़ों पर फिर से एक और कपड़ा डालना बहुत ही मुसीबत वाला काम है। मेरी तो गर्मी के मारे जान ही निकल जायेगी । जाना तो रात में ही है ना। तब अम्मी ने बड़े  प्यार से मुझे देखते हुए कहा था, ' मेरी बेंजी, तुझे नजर ना लगे। परवरदिगार तुझे बुरी नजरों से बचाए। जा, तुझे जो अच्छा लगे वह अपने हिसाब से कर ले।' 

अम्मी की बातों से न जाने कितने वर्षों बाद मैंने बेइंतिहा खुशी महसूस की थी। बेइंतिहा खुशी मुझे निष्ठा को भी लाल जोड़े में वरमाल के वक्त देखकर भी हुई थी। एकदम परी सी निष्ठा की वही तस्वीर दिल में लिए देर रात तक हम घर वापस आ गए।

आते वक्त अम्मी ऐसी शांत,खोई-खोई सी थीं कहीं, जैसे न जाने क्या सोच रही हैं। न जाने किस दुनिया में हैं। वह जब सोने के लिए लेटीं तब-तक मैं उनके भावों को समझ चुकी थी कि, मोहल्ले की मुझसे करीब दस-बारह वर्ष छोटी लड़की की शादी हो गई थी और उनकी बेटी की निकाह का कहीं दूर-दूर तक कुछ पता नहीं था। मैं भी जब कमरे में आई तो मेरा मन भी अम्मी के मन से कहीं ज्यादा भारी हो रहा था। कुछ करने का जी नहीं हो रहा था। बार-बार लाल जोड़े  में निष्ठा और उसके राजकुमार से दूल्हे की तस्वीर नजर आ रही थी और साथ उन चाची की बात कानों में गूंज रही थी कि, 'इतनी चांद से प्यारी बच्ची को कहां छुपा कर रखा था भाभी जी।' मैं सोचते-सोचते शीशे में मैं खुद को देखने लगी ।

मैंने मन ही मन कहा, मैं भी निष्ठा से कम खूबसूरत नहीं हूं। मगर तभी मन में दूसरी आवाज भी उठी कि, मुझसे बदसूरत मुकद्दर वाली भी कोई ना होगी। मैं देखती रही खुद को, इतराती रही खुद को ही देखते हुए,अपनी खूबसूरती पर। बड़ी देर बाद मेरी नजर इस तरफ गई कि मेरे कपड़े अब काफी कस गए हैं। जब सिलवाए गए थे तब से कई वर्षों में अच्छी-खासी मोटी हो गई हूं। चुन्नी हटाकर एक बार फिर देखा तो गुरूर से भर उठी। मगर अपनी हालत का अंदाजा होते ही मैं दुख, गुस्से से कांप उठी, आग लग उठी मेरे तन-बदन में।

मेरी बदकिस्मती देखिए कि, दुनिया में मेरा कोई नहीं था, जिस पर मैं अपना गुस्सा  निकालती। एक उस छोटे कमरे की दिवारें ही थीं जिन पर गुस्सा उतारती आ रही थी। उस समय भी उतारा। सारे कपड़े निकाल-निकाल कर सामने दीवार पर दे मारे। उन्हें रोज से भी ज्यादा जख्मी कर दिया, और जमीन पर ही पड़ी रही। न जाने कितनी देर तक। कमरे में अंधेरा कर दिया था। यूं ही पड़े-पड़े अपने चेहरे के आसपास की जमीन को मैं बहुत देर तक नम करती रही। सवेरे जब कानों में अम्मी की आवाज पड़ी, तो आंखें खुल गईं। होश में लौटते ही चौंक कर उठ बैठी। मानो सामने जलजला आ गया हो।

घायल कपड़े दीवारों से सटे हुए आसपास पड़े थे। यह तो पहले भी न जाने कितनी बार हुआ था, मगर इस बार हंगामाखेज यह था कि, दरवाजा रात भर खुला ही रह गया था। यह तो गनीमत थी कि, घर में सिर्फ अम्मी थीं। जो सवेरे-सवेरे चलने-फिरने में एकदम लाचार रहती थीं,और किराएदार का रास्ता अलग था। नहीं तो मेरे लिए यह कयामत की सुबह  होती। शादी में पहने कपड़ों  को जल्दी-जल्दी उठाकर बिस्तर पर फेंका और घर  वाले पहनकर अम्मी के पास पहुंची।

मुझे हांफते हुए देखकर अम्मी ने पूछा, ' हांफ क्यों रही हो, कोई बुरा ख्वाब देखा क्या?' मैंने बचने के लिए सवेरे-सवेरे ही अम्मी से झूठ बोलने का गुनाह किया। कह दिया, ' हाँ  हमने बहुत बुरा ख्वाब देखा। तुम्हारी आवाज कानों में पड़ी तब कहीं जाकर उससे निजात मिली।'

'आँखें भी तेरी सूजी हुई लग रही हैं। रात भर सोई नहीं क्या?' 

मैंने, 'कहा सोई तो थी। मुझे तो ऐसा नहीं लग रहा है।' 

मैंने देखा कि,अम्मी की भी आंखें बुरी तरह सूजी हुई हैं। मन ही मन मैंने कहा, 'अम्मी तू तो रात भर मेरी चिंता में जागती रही, इसलिए तेरी आंखें सूजी हैं। और मैं अपने मुकद्दर पर रोते-रोते सोई, इसलिए मेरी आंखें सूजी हैं। लेकिन दोनों के लिए जिम्मेदार सिर्फ मैं हूं। मैं हूं।'

'इसमें कोई संदेह नहीं कि,आप, आपकी अम्मी ने मानसिक पीड़ा के उस लेवल को भी क्रॉस   किया है, जिस पर पहुंच कर अधिकांश लोग बिखर जाते हैं।'

 ' हाँ, लेकिन हमें किस्तें देनी थीं, तो हम कैसे बिखर सकते थे। निष्ठा की शादी के बाद जब फिर अगली किस्त का नंबर आया तो हम मां-बेटी पहले की तरह हलकान नहीं हुईं , क्योंकि मुन्ना पर हमें भरोसा था कि वह सब संभाल लेंगे। फिर भी हमने जितना हो सका, उतना पैसा इकट्ठा किया था। आखिरी दिन अम्मी उन्हें फोन करने की सोच ही रही थीं कि वो खुद ही आ गए। अम्मी ने अपने हालात बताये तो उन्होंने कहा, 'आप क्यों बार-बार शर्मिंदा करती हैं। जितने हैं उतने ही दीजिए बाकी हो जाएंगे।' 

उस दिन देर शाम को जब वह रसीद देने आये तो अम्मी ने बैठा लिया, कहा, ' बेटा चाय  पीकर जाओ।'

वह बहुत संकोच कर रहे थे। जाने को उतावले थे, लेकिन अम्मी की बात नहीं टाल पाए। मैं उनके लिए चाय-नमकीन बिस्कुट लाई थी। अम्मी पुरानी बातें दोहराने लगीं । मैं दरवाजे की आड़ में सुनती रही। उन्होंने बताया कि, 'चिकन का काम अच्छा नहीं चल पा रहा है। बेंजी  अकेले कितना करेगी। किराया भी कोई बहुत ज्यादा नहीं आता है। आधी कमाई तो निगोड़ी  मेरी बीमारी ही खा जाती है। समय निकला जा रहा है। इसके निकाह की चिंता सताए रहती है। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता।'

अम्मी की तमाम बातें बड़े  ध्यान से सुनने के बाद मुन्ना ने कहा, ' चाची एक बात कहूं। अगर आप और बेनज़ीर थोड़ी  हिम्मत करें तो आसानी से आपकी इनकम बहुत बढ़ जायेगी । इतनी कि, आपकी दवाई, बाकी सारे खर्चे और बेनज़ीर के निकाह के लिए भी, आप बहुत कुछ जोड़ लेंगी।'

 'बेटा हम सारी हिम्मत करने को तैयार हैं। बेनज़ीर बहुत मेहनती है। उसकी मेहनत में कमी नहीं है। मगर क्या करें, कुछ समझ में ही नहीं आता। चिकन के काम में मेहनत हमारी होती है, कमाई सब बड़े मगरमच्छ खा जाते हैं।' 

' चाची, जितना मेरी समझ में आता है, उस हिसाब से मैं रास्ता बता रहा हूं। आप दोनों खूब सोच-समझ कर बताना। ठीक लगे तो कदम बढ़ाना, नहीं तो कुछ और सोचा जायेगा।' 

अम्मी बोलीं, 'सोचना क्या बेटा, कुछ रास्ता बचा ही नहीं है। इसलिए कुछ ना कुछ तो हर हाल में करना ही है। तुम बताओ।'

'चाची पहला काम तो यह कि बेनज़ीर  सिलाई-कढाई  में मास्टर है। घर में जो करती है वह करती रहे। मेरे ट्रेनिंग सेंटर में सिलाई-चिकनकारी सीखने बहुत सी लड़कियां आती हैं। सेंटर पर अगर बेनज़ीर उन्हें सिखाने के लिए आती हैं ,तो हर महीने उन्हें तनख्वाह मिलेगी। उससे आपकी दवा और किस्तें दोनों बड़े आराम से निकल जाएंगी। आप तो जानती हैं कि, हमारा सेंटर हमारी एनजीओ के माध्यम से चलता है। गवर्नमेंट से हमें हेल्प मिलती है, जो तनख्वाह दूसरों को देते हैं, वह बेनज़ीर को मिल जाया करेगी। कहीं दूर जाना नहीं है। सेंटर मेरे ही घर पर है। इसके अलावा चिकन की एक दुकान मैं ऑनलाइन खुलवा दूंगा ।'

इसके बाद मुन्ना ने अमेजन, फ्लिपकार्ट  आदि के बारे में बहुत सी बातें बताईं। अम्मी को खूब समझाया। जिसका विज्ञापन हम टीवी पर देखा ही करते थे। मगर समझ में कुछ नहीं आता था। उस समय भी थोड़ा ही समझ में आया। मुन्ना की बात सुनकर अम्मी ने कहा,' बेटा  बेनज़ीर से भी पूछ लूं, काम उसको करना है। देखते हैं  कि वह तैयार होती है कि नहीं।' 'ठीक है चाची, मैंने पहले ही कहा कि, पहले आप दोनों लोग बातचीत करके समझ लीजिए फिर आगे बढिये। जैसा हो वह मुझे कल बता दीजियेगा।'

मुन्ना के जाने के बाद हम मां-बेटी ने बड़ी  देर तक सलाह-मशविरा किया। अम्मी ने फिर पुरानी बात दोहराते हुए कहा, ' बेंजी,अब तू यह समझ ले कि, तुझे अपनी हिफाज़त, अपने अच्छे मुस्तकबिल के लिए अकेले ही आगे बढ़ना है। इसलिए हिम्मत कर और काम शुरू कर दे।' 

अम्मी ने और तमाम नसीहतें दे डालीं। मुझे रात भर इत्मीनान से सोच-समझ कर फैसला करने को कहा। हालांकि मैं फैसला तो मुन्ना की बात सुनकर ही कर चुकी थी। अम्मी से कहा भी लेकिन वह बोलीं, ' फिर भी सोच-समझ लेने में हर्ज क्या है?'

दो दिन बाद मैं पहली बार मुन्ना के ट्रेनिंग सेंटर पर लड़किओं को ट्रेनिंग देने गई। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि 'घर से मात्र दो सौ कदम की दूरी पर मुन्ना अच्छा-खासा बड़ा सा ट्रेनिंग सेंटर चल रहा था और हमें कुछ भी खास मालूमात नहीं थी। चार पाली में करीब चार सौ लड़कियां ट्रेनिंग लेने आती थीं। मुझे सुबह से शाम तक ट्रेनिंग देनी थी। मैं पहले दिन शर्म-संकोच के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी। लेकिन मुन्ना ने दिन भर में दो-तीन बार ऐसा  सिखाया-समझाया कि, अगले दिन से मुझे कोई ख़ास दिक्कत पेश नहीं आई। दो-तीन दिन में ही लड़कियों ने मुन्ना से कह दिया कि, मैं जितना बता रही हूं वैसा तो पहले दूसरी टीचर बता ही नहीं पातीं थीं।

मुन्ना बड़ा  खुश हो गए। मुझे भी बड़ी  खुशी हुई कि, इतने लोग मेरे हुनर की तारीफ कर रहे हैं। बड़ी  बात यह कि लोग मुझसे सीख रहे हैं। अम्मी को बताया तो वह भी खुश हुईं। देखते-देखते महीना बड़ी तेज़ी  से बीतने लगा । जैसे-जैसे महीना पूरा होने के करीब आ रहा था वैसे-वैसे तनख्वाह को लेकर मेरी धड़कनें  बढ़ रही थीं। अम्मी ने कई बार मुन्ना पर आशंका भी जाहिर की कि, ' पता नहीं जितना पैसा कह रहा है, वह देगा भी कि नहीं। क्या करेगा , कितने दिन यह सब चलेगा।'

'लेकिन जब उनकी इतनी अच्छी छवि थी, वह इतना सबकुछ कर रहे थे आप लोगों  के लिए , तो ऐसा शक करने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए ।'

 'आप सही कह रहे हैं। लेकिन जो बाहिरियों  से ज्यादा अपनों  से ही हज़ार-हज़ार जख्म पाए हों, ऐसे जख्म जो कभी भरे ही नहीं जा सकते,वो इस मामले में इतना कमजोर हो जाते हैं  कि,अपने और गैर का फ़र्क़  करना भूल जाते हैं। हमारे साथ भी यही हो रहा था। इन्हीं आशंकाओं असमंजस के बीच एक महीना पूरा हो गया। लेकिन मुन्ना ने तनख्वाह की बात ही नहीं की। धड़कने और बढ़ गईं। फिर दो-तीन दिन और बीत गए तब अम्मी ने कहा कि , 'आज  मुन्ना से पूछना तो क्या हुआ तनख्वाह का ।'

  मैंने कहा, ' नहीं अम्मी अभी ठहर जा। कुछ दिन और ऐसे ही चलने दे। किस्त में ही उन्होंने  कितने पैसे दे रखे हैं। गारंटी भी ली हुई है। ऐसे में अभी पूछना अच्छा नहीं होगा।'

 उस दिन रात को मेरे दिमाग में भी आशंकाएं कई बार कुलबुलाईं, मगर काम-धंधा, मुन्ना के प्रति लोगों  का यकीन, खासतौर से वहां पर मेरे अलावा अन्य जो लोग काम कर रहे थे उनका, देखकर मेरा भी भरोसा पक्का बना रहा।

इस बीच चिकनकारी और कम हो गई। खाना-पीना, अम्मी का काम, दुकान का भी कुछ ना कुछ देखना पड़ता था। इन सब से रात होते-होते इतना थक जाती थी कि, रात में उंगलियां जल्दी ही जवाब देने लगतीं।'

'.. और  ज़ाहिदा-रियाज़, यह टाइम तो उनका भी होता था।'

 यह सुनते ही बेनज़ीर  हंस पड़ीं । फिर गहरी सांस लेकर बोलीं , '....ज़ाहिदा-रियाज़  उफ... दोनों मेरे लिए एक अजीब तरह की बला बन गए थे। यह बला पहले मुझे खूब मजा देती, लेकिन जब छूटे हुए कामों की तरफ ध्यान जाता तो बड़ा कष्ट देती। समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या करूं। वैसे मैं देख रही हूं कि आपका मन भी उन्हीं दोनों पर लगा  हुआ है। देखिए, उनके चक्कर में प्रश्न ही न भूल जाइएगा ।'

 इतना कह बेनज़ीर हंसी तो मुझे कोई संकोच या आड  फील नहीं हुआ। मैंने भी उन्हीं  के लहजे में कहा, 'आप  निश्चिंत रहिए। प्रश्न भूलूंगा नहीं ,बल्कि उन दोनों से कुछ नए प्रश्न भी गढ़ लूंगा।'

 'इसे कहते हैं कॉन्फिडैंस। खैर ,एक महीना पूरा होने के नौ दिन बाद जब मैं फिर ट्रेनिंग  सेंटर जाने लगी  तो अम्मी बोलीं, 'बेंजी सुन, आज अगर ठीक समझना तो मुन्ना से बात उठाना। किस्त का भी कल आखिरी  दिन है।' 

मैंने कहा, 'ठीक है।' मगर वहां पहुंचकर मैं मुन्ना से बात उठाने की हिम्मत नहीं कर पाई। एक तो वह मुझसे बहुत ही कम बोलते थे, बस काम भर का ही। दूसरे जो भी बोलते थे,  वह इतना संकोच के साथ कि, मुझे लगता यह तो मुझसे भी ज्यादा संकोची हैं । मगर जब स्टाफ की दूसरी लड़कियों  से वह खुलकर बात करते । हंसते, बोलते तो मैं सोचती कि, क्या यह मुझे इस लायक नहीं समझते कि, मुझसे बातें करें। मुझे यह नजरंदाज क्यों करते हैं ।

मुझे भीतर ही भीतर लड़कियों और मुन्ना दोनों पर गुस्सा आती। खैर एक बार फिर साबित हुआ कि सब्र का फल मीठा होता है। लंच के समय मुन्ना ने स्टाफ के एक-एक सदस्य को अपने सजे-धजे कमरे में बुला-बुलाकर तनख्वाह देनी शुरू कर दी। उन सबसे वह रजिस्टर पर साइन भी करवा रहे थे। यह देखकर मेरी सांस फूलने लगी । पसीना आने लगा  कि, मुझे तो साइन करना आता ही नहीं। मन ही मन सोचा कि, या अल्लाह कितनी बड़ी  तौहीन होगी । बरसों बाद मुझे उस समय उन टीचर की याद आ गई जो घर  पर हम बहनों को उर्दू पढानें आती थीं और अब्बू से हम लोगों  का दाखिला स्कूल में कराने के लिए कहती थीं। अब्बू के ना मानने पर ज्यादा जोर दिया, तो उन्होंने उन्हें काफिर कहकर जलील करके भगा दिया था।

एक चीज से मैं और परेशान हो रही थी, कि मुझे तनख्वाह नहीं मिलेगी क्या , क्योंकि मुन्ना एक-एक करके सारे स्टाफ को बुला रहे थे। सब पैसा पाकर खुश हो रहे थे। जब आखिरी  लड़की  भी तनख्वाह लेकर निकल गई ,और मुन्ना रजिस्टर बंद करके अपनी कुर्सी से उठने लगे, तो मेरा जी धक्क से हो गया। मन एकदम रो पड़ा कि, यहां भी ठगी गई, मोहल्ले में ही ठगी गई।

अपना काम-धंधा छोड़कर, यहां जी-तोड़  मेहनत का यह सिला मिला। अम्मी को पता चलेगा तो बेचारी पर क्या बीतेगी। मन एकदम जोर-जोर से रो रहा था। आंखों में आंसू भर आए थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें रोक पा रही थी। वह इतनी भर गई थीं कि मुझे लगा कि उन्हें अगर पोंछा नहीं तो आंसू बह चलेंगे । मैंने सबकी नजरें बचाकर दुपट्टे की कोर से आंसू पोंछने शुरू किए ही थे कि मुन्ना सामने आ खड़े हुए।

मैं सिर झुकाए हुई थी कि, उन्होंने  पूछ लिया, ' क्या हुआ बेनज़ीर ?'

 मैंने चौंककर कहा, 'कुछ नहीं, आंख में कुछ चला गया था, वही निकाल रही थी।' मैंने एकदम झूठ बोला था।

 'अच्छा, निकल गया हो तो दो मिनट के लिए मेरे कमरे में आ जाओ।' 

इतना कहकर वह अपनी कुर्सी पर जा कर बैठ गए। मैं भी पीछे-पीछे पहुंच गई। उन्होंने  बड़ी  इज्जत से कुर्सी पर बैठने को कहा और मेरी तनख्वाह सामने रखकर बोले, ' गिन लीजिये इत्मीनान से।'

 यूं तो तनख्वाह कोई बहुत बड़ी  रकम नहीं थी, लेकिन मेरे लिए यह निश्चित ही एक बड़ी  रकम थी। एक साथ इतनी रकम पहली बार मिली थी तो मैं रोक नहीं पाई खुद को। आंसू लाख कोशिशों के बावजूद बह चले। होंठ फड़कने लगे ।

मुन्ना को मेरी हालत समझते देर नहीं लगी । उन्होंने बड़ी समझदारी से कहा, 'अपनी मेहनत की कमाई पाकर वाकई बहुत खुशी होती है। भगवान चाहेगा तो आप अपनी मेहनत से बहुत आगे जाएंगी । इससे बहुत ज्यादा रकम कमाएंगी।'

'उन्होंने फिर गिनने को कहा तो मैं बोली, 'आपने गिन लिया है। मुझे यकीन है, फिर से गिनने की जरूरत नहीं है।'  

 'नहीं रुपये  हमेशा गिन कर लेने और देने चाहिए।' 

अंततः  मुझे वहीं पर गिनना पड़ा ।

रुपये गिन कर मैंने कहा, 'बिलकुल  ठीक हैं।' 

मैंने उन्हें शुक्रिया भी कहा। तभी उन्होंने मेरे लिए जो सबसे बड़ा  जी का जंजाल था रजिस्टर, उसे मेरे सामने करके, साइन करने के लिए कहा। पेन आगे बढ़ाई तो मैंने कांपते हाथों से पकड़ तो लिया, लेकिन हाथ रजिस्टर के पन्ने पर रख नहीं पा रही थी। यहां तक कि पेन भी ठीक से पकड़ नहीं पा रही थी। मुन्ना को समझते देर नहीं लगी । उन्होंने  बात को संभालते हुए कहा, ' आप परेशान ना हों। यह लीजिए। इससे तो और भी अच्छा काम चलेगा ।'

साथ ही स्टैम्प पैड खोलकर मेरे सामने रख दिया। अगूंठा लगाते हुए मुझे इतनी शर्मिंदगी  हुई कि कह नहीं सकती। मन हुआ कि कहां छिप जाऊं कि मुन्ना देख ना सकें। उस कुछ ही वक्त में अपने वालिदैन पर इतनी गुस्सा आई कि मैं बता नहीं सकती। किसी भयानक तूफान सी यह बातें दिमाग में घूम गईं कि, अपने बच्चों को क्या इतना भी नहीं पढ़ा सकते थे कि वह अपना नाम लिख सकें। उन्हें दुनिया के सामने किसी अंधेरी दुनिया से आए जानवरों की तरह ना रहना पड़े । हमारा कसूर क्या था जो हमें जाहिल बनाकर रखा? इसलिए कि हम लड़कियां थीं । इसलिए पढ़-लिख नहीं सकती थीं । जाहिल बनी रहें, जाहिल ही होकर जियें, जाहिलियत ही लिए मर जाएं। क्या हमें कोई हक़ ही नहीं था  कि हम पढ-लिख सकते। इंसान बन सकते। कितना मन होता था कि, मोहल्ले की बाकी लड़कियों  की तरह हम भी स्कूल जाएं, पढ़ें-लिखें ।

मगर अब्बू एक ही रट लगाए  रहते थे कि, 'नहीं लड़कियों  का स्कूल जाना, लिखना-पढ़ना  किसी भी सूरत में जायज नहीं है। हराम है।' 

पता नहीं कहां से ऐसी जाहिलियत भरी बातें पढ़कर-सुनकर आते थे। और अम्मी! बाकी बातों के लिए तो अब्बू से लड़ जाती थीं। घर को जंग-ए-मैदान बना देती थीं। अगर इस मुद्दे पर भी आगे आतीं, लड़ जातीं, अब्बू को तैयार करतीं कि, नहीं हम भी पढ़-लिख सकें, दुनिया के और लोगों  की तरह इंसान बन सकें। अम्मी को हर हाल में उन टीचर को रोकना चाहिए था जिनसे अब्बू ने झगड़ा  किया था और उन्हें काफिर  कहकर जलील करके भगा  दिया था।

वह अम्मी के साथ-साथ एक औरत भी तो हैं। उन्हें अपनी लड़कियों  के बारे में अब्बू से ज्यादा सोचना चाहिए था। अब्बू को अपने जीवन की इस सबसे बड़ी  गलती को करने से रोकना चाहिए था। गलती नहीं बल्कि यह तो गुनाह है। गुनाह-ए-कबीरा। अम्मी में वह कूवत थी, कि वह अब्बू को यह गुनाह करने से रोक सकती थीं। मैं तो यही मानूंगी कि तुम भी अब्बू के साथ इस मामले में एक थीं।

तुम भी अब्बू की तरह मानती थी कि हम लड़किओं  को पढ़ने-लिखने का, आगे बढ़नें  का कोई हक़ नहीं है। आज जो तुम थोड़ा-बहुत बदली हो तो हालात और मेरी जैसी औलाद के कारण ही बदली हो। अम्मी आज मैं तुमसे अपने इन सवालों के जवाब जरूर मांगूंगी कि हमें तुमने इस तरह जाहिल क्यों बनाया। तुम्हें एहसास कराऊंगी कि, हमारी आज कितनी बड़ी  बेइज्जती हुई है। जो दरअसल हमारी नहीं, सही मायने में तुम्हारी ही बेइज्जती है।

मैं जब बड़े गुस्से में पहुंची तो अम्मी लेटे-लेटे टीवी देख रही थीं और मुझको देखते ही बोलीं, ' बहुत देर लगा दी बेंजी, आज ज्यादा लड़कियां थीं क्या?' 

मैं कोई जवाब दिए बिना उन्हीं के पास ही बैठ गई। फिर अपने दिल के पास हिफाजत से रखी अपनी पहली तनख्वाह निकालकर अम्मी के हाथों में थमा दी। बुर्का पहनने पर यह आसानी रहती थी कि, कई चीजें आसानी से रख लेती थी। अम्मी ने तनख्वाह वापस मेरे हाथों में थमाते हुए कहा, 'अरे मेरी बिटिया इसे तू ही रख। इस पर तेरा ही हक़ है। यह तेरी जी- तोड़ मेहनत की पहली कमाई है। अल्लाहताला तुझे और तरक्की दे, तू और आगे बढ़।' 

इतना कहकर उन्होंने मेरी पेशानी चूम ली। मैंने पैसे अम्मी को वापस थमाते हुए कहा, ' इसे  तू रख। मैं क्या करुँगी इनका।' तो वह बोली, 'अब  तुम ही संभालो। तुम्हें ही सब करना है तो मैं क्या करुँगी इनका। यह तेरी मेहनत का, तेरी हुनर का इनाम है। इसीलिए मैं कहती हूं कि, हुनर कभी बेकार नहीं जाता। वह आदमी को बड़ी ताकत देता है।'

अम्मी की इन बातों के बावजूद अंगूठा लगाने से जो गुस्सा था मन में ,मैं उसे बाहर आने से रोक न पाई। मैंने कहा, 'हाँ अम्मी लेकिन हुनर का कोई मतलब तभी है, जब पढाई-लिखाई भी साथ हो। नहीं तो हुनरमंद या मजदूरी करने वाली में मुझे कोई फ़र्क़ नहीं दिखता। वह भी मेहनत करते हैं, काम करते हैं। यह देखो सबूत।'

मैंने अपना अंगूठा उनके सामने कर दिया। जिसमें स्टैम्प पैड की स्याही लगी  हुई थी। उसे देखकर अम्मी ने पूछा, 'यह क्या? अंगूठा कहाँ लगाया।' 

 मैं भरे गले से बोली,' मुन्ना चीपड़ के रजिस्टर पर। सभी लोग अपनी तनख्वाह लेकर अपने साइन कर रही थीं, मगर मुझे तो पेन पकड़नी भी नहीं आती। अम्मी सोचो कितनी जलालत झेलनी पड़ी मुझे। मुझसे आधी-आधी उम्र की लड़कियां  साइन कर रही थीं और सबसे उम्रदराज हो कर भी मैं रजिस्टर देखकर पसीने-पसीने हो रही थी।'

मेरी बात, आवाज का मतलब समझते ही अम्मी बोलीं, 'तो फिर तुम... उन लड़कियों  ने तुम्हें..।' 

अब-तक मेरे आंसू निकलने लगे  थे। मैंने कहा, ' कोई नहीं जान पाई। शायद मुन्ना मेरी जाहिलियत जानते थे। इसलिए मुझे सबसे बाद में बुलाया। पहले पेन पकड़ाई  मगर मेरे कांपते हाथों को देखकर समझते हुए बोले, 'कोई बात नहीं आप...। सोचो अम्मी हमारी जाहिलियत ने हमें जहालत के कितने गहरे अँधेरे  गड्ढे में डाला हुआ है। जहां इतने गहरे कीचड़ में फंसी हुई हूं कि निकल ही नहीं पा रही हूं।

अम्मी हम लोगों  को आप लोगों  ने क्यों नहीं पढ़ाया । हम और लोगों की तरह पढ़ते तो कौन सा पहाड़  टूट पड़ता । कौन सा हम मजहब से बाहर चले जाते। मुझे अच्छी तरह याद है कि, जब खातून पढ़ाने आती थीं तो कई बार बताया था कि, मजहब सभी को पढ़ने-लिखने जानकार  बनने का हक़ देता है। वह हमें पढ़ाना चाहती थीं, वह चाहती थीं कि हम भी पढ़ -लिखकर अच्छे इंसान बनें। लेकिन अब्बू उन्हीं से लड़ गये। उन्हें काफिर कहकर जलील किया, भगा  दिया। और तुम भी चुपचाप यह सब देखती रहीं, सुनती रहीं। एक शब्द भी ना बोलीं।

अम्मी मेरे अंगूठे  पर लगी  स्टैम्प पैड की यह स्याही मेरे माथे पर ही नहीं बल्कि अपने पूरे खानदान के माथे पर लगी  कलंक की स्याही है। यह हम लोगों  पर पढे-लिखे सभ्य समाज का एक जोरदार तमाचा है। जो हमें इस बात की सजा दे रहा है कि हम सभ्य समाज में रहते हुए भी असभ्य क्यों बने हुए हैं।'

यह कहते-कहते मैं रो पड़ी। अम्मी मेरी तनख्वाह अपने हाथ में पकड़े  उसे एकटक देखती रहीं। कुछ देर बाद भी जब मैं सिसकती रही तो अम्मी ने अपनी चुप्पी तोड़ी । मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं , 'बेंजी तू हुनरमंद तो बहुत है। इसीलिए तुझे एक साथ पंद्रह हज़ार रुपये तनख्वाह मिली  है। लेकिन तूने यह बड़ी  गैर-मामूली बात कही कि, पढाई-लिखाई के बिना हुनर बेकार है। उसकी कोई कदर नहीं है। वह किसी मतलब का नहीं है।

तेरे अल्फाजों ने मुझे बहुत गहराई से वह बातें जरा देर में  समझा दीं, जो मुझे बच्चे पैदा करने से पहले ही समझ लेनी चाहिए थीं। वह कहते हैं ना कि देर आए दुरुस्त आए। मैं अपनी गलती सुधारूंगी। तुझे पढाऊंगी। अल्लाह ने चाहा तो अगले महीने की तनख्वाह तू अंगूठे  का निशान लगा कर नहीं, इज्जत की कलम पकड़ कर, साइन  करके लेगी ।' 

अम्मी ने बड़ी सख्ती, बड़े जज्बे के साथ अपनी बात कही तो मेरा गुस्सा कुछ कम हुआ। मैंने आंसू पोंछते हुए कहा, ' क्या अम्मी, यह सब अब कहां हो पायेगा । ऐसा कौन सा स्कूल है जहां मुझे दाखिला मिलेगा, कौन मुझे पढायेगा। '

इस पर वह पहले ही की तरह बोलीं, ' स्कूल न सही, दूसरे रास्ते हैं। इस टीवी ने किस्तों को लेकर भले ही जहमत खड़ी कर दी है, लेकिन तमाम बातें भी पता चलती रहती हैं। इसमें उम्रदराज लोगों के पढ़ने -लिखने के बारे में बहुत बार देखा है।' 

'बसअम्मी, मैं अब पढ़ने-लिखने जाकर अपनी और फजीहत नहीं कराऊंगी ।'

 मगर अम्मी चुप नहीं हुईं और बोलीं, 'सुन, मुन्ना तो जान ही गया है। उससे क्या छुपाना। उसी से कहेंगे  कि वह पढ़ने का इंतजाम भी करवा दे। यहीं घर पर ही, नहीं तो कम से कम वो साइन करना तो खुद ही सिखा दे।

अरे हां ऐसा कर, उसके पैसे भी वापस करने हैं, और उसने वो क्या कहा था कि चिकन के कपड़ों को जो तुम बना रही हो, उसे टीवी पर कहां बेचने को कह रहा था। महीना भर हो रहा है, उसने कुछ बताया भी नहीं , वह भी पूछ लेंगे। बेनज़ीर जब कदम निकाला है तो तुम्हें कुछ नहीं, बहुत कुछ करना चाहिए। चाहे जैसे भी हो। मैं हर हाल में यही चाहूंगी  कि अगली तनख्वाह तू साइन करके ही ले।'

 अम्मी की बातें सुनकर मैं कुछ देर उन्हें देखती ही रही, फिर हलके से मुस्कुराते हुए बोली, 'अम्मी , मैं तो समझ रही थी कि मेरी बातों से तू गुस्सा  होगी । कहोगी  चल बस कर, चार पैसे क्या कमा लिए बड़े बोल निकलने लगे  हैं। अब हर काम में मुझको नसीहत देगी ।

बहुत हुआ अब घर  के बाहर कदम नहीं रखना है। काम हो, किस्तें जमा हों सब भाड़  में जाए। रही टीवी तो कह दूंगी  कि अपना टीवी  वापस ले लो। नहीं है मेरे पास पैसा। लेकिन तुमने तो मेरे मन की बात कह दी। मैंने भी वहां अंगूठा लगाते  समय सोच लिया था कि चाहे जैसे हो साईन करना तो जरूर सीख लूँगी । अगली बार साईन करके ही तनख्वाह लुंगी ।' 'तो  बिटिया अब तो खुश हो जा। सब तेरे मन का हो रहा है।'

 उनकी प्यार भरी यह बात सुनकर मैं , 'अम्मी , मेरी प्यारी अम्मी । ' कहकर उनके गले लग  गई। अगले दिन मैंने अम्मी का संदेशा मुन्ना को दे दिया। वह सारे काम-धाम करके घर  आया तो मैं उसके लिए चाय-नाश्ता ले आई और बातचीत में भी शामिल हो गई।

पिछली बार की तरह दरवाजे की आड़  में नहीं गई, लेकिन अम्मी की आड़  में जरूर बैठी रही। अम्मी ने उसे शुक्रिया कहा तो मुन्ना ने कहा ,'अरे चाची इसमें शुक्रिया की कोई बात नहीं है। बेनज़ीर  की मेहनत का ही है सब। यह अपने काम में बहुत माहिर हैं । मुझे पता ही नहीं था। नहीं तो मैं पहले ही संपर्क करता। जो पैसे बाहर किसी को दे रहा था वह घर के  घर में ही रहते।'

'बेटा क्या करें। समय के आगे  हम कुछ नहीं कर पाते। जिस चीज का समय जब आता है, वह तभी होता है।' इसके साथ ही अम्मी ने मुन्ना से किस्त वाले पैसे लेने, ऑनलाइन सेल और साइन की बात उठाई तो उसने पैसों के लिए साफ मना करते हुए कहा, 'जब  टीवी की किस्तें खत्म हो जाएं, तब आप मेरे पैसे दीजियेगा।' साइन के लिए बोला, 'कल एक कॉपी-पेन इन्हें दे  दूंगा,साइन भी बता दूंगा, उसी में यह प्रैक्टिस करेंगी । ऑनलाइन सेल की कार्रवाई होती रहेगी । कल जब यह आएँगी तो वहीं कंप्यूटर पर कर दूंगा । ध्यान नहीं था, नहीं तो लैपटॉप लेकर आता।'

मुन्ना ने बड़े  विस्तार से सब बता दिया। जब वह बता रहा था, तब मैं उसकी बातों में जैसे खो गई थी। मुझे उसकी बात करने का लहज़ा बहुत खूबसूरत लग  रहा था। उनके जाते ही अम्मी ने कहा, ' बेंजी ऐसा है कल सबसे पहले किस्त जमा कर आओ। कल आखिरी  दिन है। नहीं तो वह मुए फिर मुन्ना को फोन कर देंगे।'

 'ठीक  है अम्मी, लेकिन वह दस बजे के बाद पैसा जमा करते हैं। यहां सेंटर में नौ बजे पहुंचना  है। बीच में छुट्टी लेना मुनासिब नहीं है। मुन्ना कहेंगे कि अभी पहली तनख्वाह उठाई और लापरवाही शुरू कर दी।'

 ' बात तो तू ठीक कह रही है, फिर कैसे होगा काम?'

' एक ही रास्ता है कि शाम को छः बजे जब सेंटर से लौटूं, तो तुरंत वहां चली जाऊं।'

 'ठीक है। बेंजी एक बात कहूं, मैंने ख्वाबों में भी नहीं सोचा था कि, एक-एक करके मुझे सारे काम एक दिन अपनी फूल सी बेंजी  के कंधे पर डालना होगा। मगर कर भी क्या सकती हूँ , जैसी अल्लाह की मर्जी। अच्छा हां, मुन्ना क्या कह रहा था कि वह कौन सा डाइट अरे वह भला सा नाम ले रहा था। बड़ा  मोबाइल लेना पड़ेगा । तभी वह सब बेचने-बांचने का काम हो पायेगा ।'

' हां अम्मी, एंड्रॉयड मोबाइल के लिए कह रहा था। उसके बिना काम नहीं चल पायेगा।' 

' बहुत महंगा होगा।'

  ' हाँ अम्मी,पन्द्रह-सोलह हज़ार से कम तो क्या होगा।'

 मेरे मन में एक बार आया कि,, अम्मी को बता दूं कि बहनोइयों द्वारा चुपके से भेजा गया एक मोबाइल आज भी मेरे पास है। मैं उसे खूब अच्छे से चला लेती हूं। तुम्हारे साथ टीवी इसीलिए नहीं देखती क्योंकि मैं पहले से ही सब कुछ उसी पर देखती आ रही हूं। वह सब भी जो आपके साथ टीवी पर देख नहीं सकती। क्योंकि वह सब टीवी पर आ भी नहीं सकता।' 

' ऐसा क्या देखती थीं  मोबाईल पर वो टीवी पर नहीं आता और अम्मी के साथ देख भी नहीं सकती थीं ।'

 मेरे इतना पूछते ही बेनज़ीर ने बड़ी अर्थ-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, 'मुझे  यकीन नहीं हो रहा कि, आप मेरी बातों का अर्थ नहीं समझ पाए। मेरे मुहं से ही सुनना चाहते हैं, तो सुनिए। मैं पॉर्न मूवीज की बात कर रही हूं। एक बात यह भी कह दूं कि, माने या ना माने, जिसके पास मोबाइल होता है, वह कभी न कभी जरूर देखता है। जैसे बहनों के जाने के बाद एक दिन अचानक ही खुल गया था, और मैं अचरज में पड़ कर देखती ही रह गई। तभी से जब मन होता था, तब देख लेती थी। ऐसे ही हर कोई किसी न किसी दिन देख लेता है। उसमें सारे के सारे औरत-मर्द ज़ाहिदा-रियाज़ वाला ही खेल खेलते दिखते हैं। सब बड़े  गंदे -गंदे से दिखते हैं। फिर भी चाह कर भी देखने से हम खुद को रोक नहीं पाते। मैं भी जब देख लेती थी तो उन सबको तमाम लानत भेजती थी कि बेहया-बेशर्म कैमरे के सामने ऐसी हरकतें करते, अपनी शर्मगाहों  की ऐसी नुमाइस करते तुम लोगों को लाज नहीं आती।

तुम्हारा दिल नहीं कांपता कि, तुम सारी दुनिया को दिखाने के लिए यह जो करते हो, दिखाते हो चंद रुपए के लिए, कभी सोचा है कि, तुम्हारी यह गन्दी हरकतें कभी तुम्हारे बच्चों की नजरों में पड़ जायेंगीं, तो क्या होगा? ना जाने कितने बच्चे इस दौर से गुजर चुके होंगे, देख कर वह क्या सोचते होंगे, कि उनके वालिद ऐसी गन्दी  हरकतें करते हैं। लेकिन क्या ताज्जुब कि तुम सब बच्चों को भी यही सब दिखाकर, उनको भी अपने जैसा ही बना देते होगे । जिससे वह तुम पर उंगली ना उठाएं। जो भी हो मैं तुम सब पर हज़ार लानत भेजती हूं।

 यह अजीब तमाशा देखिए कि, जिसके बारे में सोचती कि यह गलत है। लानत भेजती। और जब पहली तनख्वाह मिली तो ना जाने किस मूड में आ गई कि, इन बेशर्मों को खूब देख डाला।'

'क्या आज बता पाएंगी  कि, उस दिन ऐसा मूड क्यों बन गया था? क्या पैसे मिलने के कारण एक तरह से आपने जश्न मनाया था? क्या चल रहा था उस समय मन में? कुछ तो साफ कीजिए।'

'मुझे लगता है किआज भी बता नहीं पाऊँगी । मन में बस अजीब सी खुशी थी। और उस खुशी को मनाने के लिए मेरे साथ कोई नहीं था। तो शायद वह ज़ज़्बात इस तरह से सामने आ गए। इससे ज्यादा कुछ बताने के लिए मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं।'

'कोई बात नहीं आप आगे  बताइए।'

'आगे यह कि, मैं जब अगले दिन सेंटर पर गई, तो दिन भर बेसब्री से इंतजार करती रही कि कितनी जल्दी छुट्टी हो और मैं बाजार जाऊं। जब-तक घर नहीं पहुंची तब-तक मुझे यह इंतजार बहुत लंबा लगा।आते ही पहले अम्मी को चाय-नाश्ता दिया, फिर जल्दी से तैयार हुई कि देर ना हो जाए। नए कपड़े बदले। हल्के नीले रंग का खूब कढा हुआ चिकन का सूट पहन लिया था,कुर्ता और चूड़ीदार पजामा। उसको लाने के बाद, उसमें मैंने अपने मन से और ढेर सारी डिजाइनें बना दी थीं। जिससे वह देखने में और ज्यादा खूबसूरत और बहुत महंगा लग  रहा था। दुकान द्वारा यह रिजेक्ट सूट भी मैं महीने भर की बचत के बाद खरीद पाई थी।

बड़े जोश में तैयार होकर अम्मी से पैसे मांगे। किस्त देने के अलावा कुछ और भी खरीदारी करनी थी। अम्मी ने पैसे देते हुए कहा, 'संभाल कर जाना। ज्यादा देर नहीं करना, ज्यादा अंधेरा ना होने पाए।'

सूट की तारीफ करते हुए कहा, 'बेंज़ी यह तुझ पर बहुत फब रहा है, बहुत खूबसूरत लग  रहा है। अल्लाह से दुआ करती हूं कि मेरी बेंज़ी को दुनिया की नजर ना लगे ।' 

वह दुआ दे रही थीं, और मैं सोच रही थी कि, कहीं अम्मी यह ना कह दें कि बेंज़ी  चिकन के कपड़े  हल्के होते हैं। तू बुर्का डालकर बाहर जा। लेकिन बच गई, वह इस बारे में कुछ बोलीं ही नहीं। मैंने उनकी दुआओं की ताकत लिए जल्दी से रिक्शा लिया और किस्त जमा कर दी। किस्त जमा करके मैंने इतनी राहत महसूस की बता नहीं सकती। वहां से निकली तो सबसे पहले कपड़ों  की दुकान पर गई।

वहां अम्मी के लिए एक सेट कपड़ा ,उनके बिस्तर के लिए दो चादर, तकिया कवर भी लिया क्योंकि चादर और तकिए के कवर बहुत पुराने हो गए थे। कई जगह फट गए थे। यही हाल मेरे बिस्तर का भी था। लेकिन अपने लिए नहीं लिया। सोचा पैसे बहुत ही ज्यादा खर्च हो जायेंगे, और फिर बिस्तर पर मैं सोती ही कितना हूं। महीने में बीस-बाईस दिन तो ज़ाहिदा -रियाज़ और फिर उनकी ही तरह के खेलकूद करने वाले लोगों  को मोबाइल पर देखती हूं। उसके बाद तो जमीन मेरा बिस्तर, चादर, तकिया होते हैं। तन के सारे कपड़े  रात भर के लिए दीवारों से टकराए पड़े  होते हैं।

कपड़े , चादर आदि खरीदने के बाद मेरे पास अच्छे-खासे पैसे बचे थे। मन में आया चलो कुछ और भी खरीदारी कर लूं। मगर एक सामान सोचती तो कई और सामानों की फेहरिस्त सामने आ जाती। जिससे लगता कि पैसे कम पड़  जायेंगे , फिर वह सामान छूट जाता। मैं बाजार  में इधर-उधर लोगों  को देखती, खुद में सिमटती-संकुचाती,लोगों  को कनखियों से देखती कि, क्या वह लोग  मुझे देख रहे हैं, आगे  बढती जा रही थी।

असल में मुझे कपड़े खरीदते समय दुकान पर बड़ा  संकोच हो रहा था। वहां गल्ले (कैश काउंटर) पर बैठा आदमी बार-बार मुझ पर नजर फेंक रहा था। उसकी नजर मेरी भरी-पूरी छातियों से टकराकर लौट जा रही थीं। ऐसे ही टहलते-टहलते मैं काफी दूर तक चली गई। दुकानों में लगे सामानों को देखती उस मशहूर बाजार में पहुंच गई। जिसका बचपन से नाम सुनती आ रही थी।'' गड़-बड़झाला ''।'

लखनऊ में '' गड़-बड़झाला '' बाजार  महिलाओं के अंदरूनी कपड़े , साज-श्रृंगार,क्रॉकरी, क्रॉफ्ट आदि  की बड़ी  बाजार  है। ऐसी  पतली-पतली गलियां कि लोग अगल-बगल से निकलें तो कंधे छिल जाएं। मेरे कंधे भी लोगों  से टकरा रहे थे। अजीब सी सिहरन हो रही थी। खरीददारों में अधिकांश  महिलाएं और लड़कियां  ही थीं। बहुत सी महिलाओं के साथ दूध पीते बच्चों से लेकर दस-बारह साल तक के बच्चे भी थे। दुकानों पर सामान बेचने वाले करीब-करीब सब मर्द थे।

मैं इस बाजार की भूलभुलैया सी तंग  गलियों में एक-एक दुकान, दुकानदारों, खरीदारों महिलाओं का मुआयना करती रही। मैं आश्चर्य में थी कि एक भी दुकानदार ऐसा नहीं मिला जो कपड़े  वाले दुकानदार की तरह किसी महिला पर नजर फेंक रहा हो। जबकि सब के सब महिलाओं से जुड़े  सामान ही बेच रहे थे। उनके अंदरूनी कपड़ों, बाकी समानों को डिब्बों से निकाल-निकाल कर, खोल-खोल कर दिखा रहे थे, और महिलाएं बेहिचक अपनी पसंद, अपना साइज बता रही थीं।

मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि, मैं उसी दुनिया में हूं, जहां महिलाओं से छेड़-छाड़  बलात्कार की घटनाएं  वैसे ही होती हैं, जैसे रोज सुबह-शाम होती है। छोटी-छोटी दुकानों पर हर तरफ महिलाओं के सामान ऐसे टंगे थे जैसे धोबी घाट पर, धोबी बड़ी  सी डोरी बांधकर उस पर कपड़े  फैलाता है।

अब-तक अंधेरा हो चुका था। दुकानें लाइट से जगमगा  रही थीं। मैं न जाने कितनी दुकानों को देखती चलती रही और बड़ी  देर बाद यह तय कर पाई कि, आज मैं अपने लिए अंदरूनी कपड़े खरीदूंगी। अम्मी तो अब कहीं निकलती नहीं। अब एक ना एक दिन तो मुझे खुद ही खरीदना ही पड़ेगा । मेरे अंदरूनी कपड़े भी तो अम्मी के बिस्तर की चादर और तकिए की तरह फट गए हैं। खींचतान कर, किसी तरह टांकें लगा-लगा कर काम चला रही हूं। अब तो रोज ट्रेनिंग सेंटर भी जाना पड़ता है। तमाम लोग  होते हैं। कहीं कोई पट्टी-सट्टी खुल गई या टूट गई तो बड़ी  शर्मिंदगी  उठानी पड़ेगी ।

यह सोचते-सोचते मैं कोई ऐसी दुकान खोजने लगी, जिसमें सामान महिला बेच रही हो। लेकिन बड़ी मशक्कत के बाद भी ऐसी दुकान ढूंढ नहीं पाई, तो एक दुकान में बड़ी  हिम्मत करके चली गई। बहुत ही छोटी सी दुकान में। दुकान के बराबर एक काउंटर बना हुआ था। दुकान की कुल लंबाई-चौड़ाई एक बेड के बराबर ही थी। अन्दर की तरफ दुकानदार था। एक पतली सी गली जिसमें ग्राहक खड़ा भर हो सकता था। मैं पहुंची तो एक महिला सामान पैक करवा कर निकल रही थी। चौदह-पन्द्रह साल की एक लड़की भी उसके साथ थी। शायद वह उसकी बेटी थी।

मेरे पहुंचते ही बड़ी  तहजीब से दुकानदार बोला, 'आइए  मैडम। बताइए क्या दिखाऊं।'  उसकी बात सुनते ही मेरी जैसे घिघ्घी बन्ध गई। मुंह से आवाज ही नहीं निकल रही थी। सामने शीशे के शो-केस में दोनों कपड़े, बड़े  ही करीने से लगे  हुए थे। ढेरों टंगे  हुए थे। दुकानदार ने दुबारा पूछा तो मैं थोड़ा अचकचा कर बोलने की कोशिश करने लगी ।

इतना बुरी तरह हकलाने लगी थी कि, शब्द साफ-साफ निकल ही नहीं रहे थे। बस कपड़े   की तरफ इशारा ही कर पाई। दुकानदार के लिए इतना इशारा काफी था। वह समझ गया कि मुझे क्या चाहिए। उसने बड़ी शालीनता से कहा, 'आप  परेशान ना हों। मैं अच्छी से अच्छी कम्पनी का सामान दिखाऊंगा ।' फिर उसने नंबर पूछा तो मैं बगले झांकनें लगी । क्योंकि अम्मी ही लाकर देती थीं। उनमें कुछ में गिनती एक छोटी सी जगह लिखी तो रहती थी लेकिन उन्हें मैं कभी पढ़ ही नहीं पाई थी।'

' तो क्या आप को एक बार फिर से साइन करने वाली बात याद आ गई और आप में फिर वही गुस्सा, शर्मिंदगी ...।' 

' अब क्या बताऊं उस समय जैसी हालत से  मैं गुजरी ,जो अहसास मैंने किया उसे क्या कहूं , कैसे कहूं , मेरी कुछ समझ में अभी तक नहीं आया। उस दुकानदार ने क्या सोचा, समझा यह भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा । मैं कुंए की मेढकी हूं।

मेरी यह हालत भांपते उसे देर नहीं लगी । उसने मुझे अनपढ समझा था या संकोची यह  तो वही जाने ,लेकिन उसने  बिना देर किए काउंटर पर नीचे की तरफ बनी अलमारी में से एक के बाद एक कई डिब्बे निकाल कर रख दिये। ना जाने किन-किन कंपनियों के नाम ले लेकर कपड़े  निकाल-निकाल कर दिखाने लगा । बोला, 'यह छियालिस नंबर आपके फिट होगा । इसका कपड़ा  बहुत मुलायम है। गर्मी में बहुत आरामदायक है। यह चार कलर में मिल जाएगा। आप पसंद करिये वही पैक कर देता हूं। अगर कोई कमी-बेसी होगी तो कल दोपहर में आकर आप बदल भी सकती हैं। ' उसका नंबर बताना था कि मेरे रोंगटे एकदम  खड़े हो गए । मुझे लगा जैसे मेरी छातियाँ उसके  सामने खुली पड़ीं  हैं ,और वह उनकी नाप ले रहा है । तन-बदन में एकदम आग लग गई ,जी में आया कि, इसी आग में पूरी दुनिया जला कर राख कर दूँ । जला दूँ उन सब को जिन्होंने मुझे जाहिल बना कर एक जानवर  की तरह 

भटकने के लिए छोड़ दिया।'

यह कहते-कहते बेनज़ीर इतनी भावुक हो गईं,कि आगे तुरंत कुछ बोल नहीं  पाईं। मैं शांत उनकी मनःस्थिति को समझने का प्रयास करता रहा । मेरे मन में छात्र जीवन में पढे  संस्कृत के दो श्लोक गूंजने लगे ,पहला ''माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।'' और दूसरा  '' येषां न विद्या न तपो न दानं,ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुविभारभूता ,मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।'' गुरु जी जब जीवन में शिक्षा का महत्व समझाते  हुए  यह  श्लोक पढ़ते थे, तब उनकी बातों को जितनी गहराई  तक  समझा था, उससे कई गुना ज्यादा बेनज़ीर की स्थिति ,उनकी बातों ने उन कुछ मिनटों में ही समझा दिया। मैंने सोचा बेनज़ीर इन दोनों ही श्लोकों की प्रभाव सीमा में नहीं है ,लेकिन उस दूकानदार के सामने जिस हाहाकारी यातना से यह  गुजरीं , उसके लिए कौन  जिम्मेदार है ? केवल माँ-बाप ?या वह समाज ,वह व्यवस्था भी  जिसके अंग इनके  माँ -बाप थे ,जिसके प्रभाव से अलग वह कुछ सोच ही नहीं पाए। 

बेनज़ीर की हालत देख, मैंने सोचा आज बात-चीत को  यहीं विराम देना  पड़ेगा ,लेकिन जल्दी  ही वह सामान्य  होती हुईं बोलीं ,  'वह बिना रुके, कपड़ों  के कसीदे पढे  जा रहा था। मैं शर्म-संकोच से गड़ी  जा रही थी। किसी तरह उसे रंग  बताया नीला और सफेद। डिजाइनें बताईं जो अक्सर मोबाइल पर विदेशी औरतों को पहने देखा करती थी। लौटते वक्त मैंने अम्मी के लिए फल भी ले लिए। मेरा मन अब गुस्से को भूल चुका था।क्योंकि मन की चीजें खरीद चुकी थी।और मैं रिक्शा ना करके पैदल ही घर को चली।

मैं घूमना चाहती थी। खूब देर तक घूमना चाहती थी। रास्ते भर कई बार मैंने बहुत लोगों  की तरफ देखा कि, लोग  मुझे देख तो नहीं रहे हैं। मैं दोनों हाथों में सामान लिए हुई थी। और आगे बढ़ती चली जा रही थी। मैं इतनी खुश थी कि कुछ कह नहीं सकती। खुशी के मारे ऐसा  लग रहा था, जैसे कि मैं लहरा कर चल रही हूं। मन में कई बार आया कि, घर की कोठरी में कैद रहकर हम बहनों ने कितने बरस तबाह कर दिए। कम से कम ज़िंदगी के सबसे सुनहरे दिन तो हम सारी बहनों के तबाह हो ही चुके थे। हम जान ही नहीं पाए कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है। अब्बू को यह सब करके आखिर क्या मिला, वह किसकी शिक्षा, किस के नियम को मान कर हम सारे बच्चों और अम्मियों पर अत्याचार कर रहे थे। अम्मी की सारी परेशानी, सारी बीमारी की जड़ भी उनके जुल्म ही थे। कितना परेशान करते थे सबको।

यही सब सोचती-सोचती जब घर पहुंची तो नौ बज चुके थे। अम्मी परेशान हो रही थीं। देखते ही बोलीं, 'अरे बेंजी  बिटिया कहां रह गई थी। मेरी तो जान ही हलक में आ फंसी थी। और यह सब इतना सारा क्या खरीद लाई मेरी बिटिया।'

 अम्मी ने तीन-चार झोले देखकर कहा। मैंने सारा सामान उन्हें दिखाया। अंदरूनी कपड़े  भी। चादर को देखकर अम्मी ने कहा, 'क्या  जरूरत थी इसकी। काम तो चल ही रहा था। इसकी जगह तू अपने लिए कपड़ा  ले लेती। वहां सेंटर पर सिखाने जाती हो। कुछ अच्छे कपड़े तो होने ही चाहिए ना। मैं घर में ही रहती हूं। मुझसे ज्यादा तुझे जरूरत है।'

अंदरूनी कपड़ों  को देखकर कहा , 'यह तुमने अच्छा किया। मैं कई दिन से सोच ही रही थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रही थी कि, कैसे कहूं, क्या कहूं तुझसे। यह खरीद कर तुमने बहुत अच्छा किया।' 

साथ ही अम्मी ने डिज़ाइन देखकर यह भी कह दिया कि, 'ये बड़े कपड़ों वाला लेती जिससे ज्यादा बदन ढकता है। यह तो बहुत खुला है। चलो कोई बात नहीं, अगले महीने तनख्वाह मिले तो जाकर और ले आना।'

यह बातें कहते हुए अम्मी के चेहरे के भाव और आवाज में जो उतार-चढाव था, मुझे उसे समझते देर नहीं लगी कि, अम्मी को ज्यादा खुले कपड़े पसंद नहीं आए। इसलिए साफ-साफ कह दिया कि, अगले महीने जाकर दूसरा ले आना। फल के लिए कुछ ना बोलीं। उन्हें काट कर दिया तो मुझे भी खाने को कहा।

रात जब सोने चली तो अम्मी के बिस्तर पर नया चादर और तकिया का गिलाफ लगा  दिया। अपनी कमर सीधी करने के लिए अपने उसी अस्त-व्यस्त, फटी चादर बिछी बिस्तर पर लेट गयी, बिना गिलाफ की तकिया लिए। दिनभर सेंटर में काम और फिर छह-सात किलोमीटर पैदल चलने के कारण मैं बहुत थकान महसूस कर रही थी।

मोबाइल ऑन करके एक सीरियल देखने लगी । वह मोबाइल जिसे बहुत ही हिफाजत से मैं छुपाकर जाती थी, जिससे किसी के हाथ ना लग  जाए। थोड़ी देर आराम करके मैं फिर कढाई पर लग गई। उसके पहले कॉपी लेकर मुन्ना ने जो कुछ लिखकर दिया था, उसकी नकल कर डाली थी। सबसे पहले तो, अपने लिए जो छोटे-छोटे कपड़े लाई थी, वह पहन कर नापा। उनकी फिटिंग देखकर मैं दुकानदार की तारीफ किए बिना ना रह सकी।

जहां तक मैंने उसे देखा था, तो उसने एक नजर भी ठीक से मुझ पर नहीं डाली थी। यहां तक कि मेरी छातियों की तरफ भूलकर भी नहीं देखा था। फिर भी इतनी सटीक नाप दी थी कि मुझे बिल्कुल फिट थी। यही हाल निचले कपड़े  का भी था। यह देखकर मुझे मानना पड़ा   कि तजुर्बा बहुत बड़ी चीज होती है।

सफेद वाली मैं पहने ही रही। कई बार मैंने शीशे में खुद को ऊपर से नीचे तक देखा। देख-देख कर इतराई कि मैं कितनी खूबसूरत हूं। मोबाइल में ऐसे ही छोटे-छोटे कपड़ों  में समुद्र किनारे चलती-फिरती तमाम महिलाओं से कहीं ज्यादा मैं अपने को खूबसूरत मान रही थी। लेकिन फिर अपनी स्थिति का अंदाजा होते ही मैं मायूस होकर कढाई  में लग  गई। बमुश्किल डेढ़ घंटा बीता होगा कि, रियाज़-ज़ाहिदा की आवाज आने लगी। उन्हें सुनते ही मेरी उंगलियां थम गईं। मैं उसी जगह जाकर बैठ गई जहां ऐसे में हमेशा बैठा करती थी। जब वह दोनों थमे तब-तक मेरी हालत बिगड़ चुकी थी।

मैं बिल्कुल बेचैन हो उठी। जिस कप्पड़े  पर कढाई  कर रही थी, उसे बिस्तर पर ही एक तरफ झटक दिया। कुछ देर पहले तक जिन दो छोटे-छोटे कपड़ों को पहनकर इतरा रही थी उन्हें भी दीवारों पर दे मारा। थकान से चूर होते शरीर को जमीन पर डालकर बहाती रही आंसू, जो रुक नहीं रहे थे। यह दूसरा मौका था जब दरवाजा फिर नहीं बंद किया था और उस दिन भी अम्मी की आवाज सुनकर ही नींद खुली थी। पहली बार ही की तरह उस दिन  फिर दीवारों से टकराए पड़े कपड़ों को पहन अम्मी के पास पहुंची थी।'

अपनी इस बात को पूरा करते ही बेनज़ीर अचनाक ही मेरी तरफ गौर से देखती हुई बोलीं,'एक बात बताइए कि, ये बार-बार दरवाजे के उस पार देखने, कपड़े  दिवारों पर फेंकने की बात से आप मुझे सेक्सुएली बीमार या कुछ और तो नहीं समझने लगे हैं। या बार-बार सुनकर कहीं ऊब तो नहीं रहे हैं। मेरी तरह सच ही बोलिएगा ।'

बेनज़ीर ने अचानक ही यह बात कहकर मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया। लेकिन मैंने भी तुरन्त खुद को संभाला और कहा, ' बिलकुल सच कह रहा हूं, एकदम नहीं। मैं आपके लिए ऐसा कुछ नहीं सोच रहा। आप जो कर रही थीं, जिन हालात से तब गुजर रही थीं,वह सब उसका ही परिणाम था। एक स्वाभाविक क्रिया-प्रतिक्रिया थी। इसके सिवा कुछ नहीं। बेहद सामान्य सी बात थी। तो उस दिन आपकी अम्मी नाराज हुईं देर तक सोने के लिए या कुछ शक-सुबह किया?' 

'नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं दिनभर ट्रेनिंग सेंटर में खुद को खपाती रही। अपनी हालत, अपनी ज़िन्दगी  पर मेरा मन भीतर ही भीतर इतना रो रहा था कि, उसका अक्स मेरे चेहरे पर दुनिया भी आसानी से पढ़ने लगी । मेरा ध्यान इस तरफ तब गया जब बीच में एक बार मुन्ना ने आकर पूछा, 'बेनज़ीर जी क्या बात है? आपकी  तबीयत ठीक न हो  तो घर  जाकर आराम करें  ।'





 मैंने कहा,'नहीं  ऐसी कोई बात नहीं है। शायद गर्मी ज्यादा है। इसलिए कुछ पसीना आ जा रहा है।'

मुन्ना घर हो या बाहर हर जगह मुझसे बेहद अदब से पेश आते थे। उन्होंने कहा,'आप चाहें। तो थोड़ी देर मेरे कमरे में बैठ जाइए। ए.सी. में आराम मिलेगा।'

वह रोज मुझे पढानें से लेकर अपने लैपटॉप पर ऑनलाइन सेल आदि सब के बारे में कुछ ना कुछ बताते रहते थे। मैं उनकी बातें बड़ी जल्दी समझती रही, क्योंकि मोबाइल पर दुनिया भर की चीजें मैं बराबर काफी समय से देखती ही आ रही थी।

कई बार मुन्ना ने कहा भी, 'आप तो बड़ी जल्दी सीख-समझ लेती हैं।' मैंने उनसे नहीं बताया कि मैं मोबाइल बहुत पहले से चलाती आ रही हूं। उनकी मेहनत, मेरी लगन का परिणाम  था कि, मैंने अगली तनख्वाह वाले दिन जीवन की एक और सबसे बड़ी खुशी महसूस की। मैंने तनख्वाह अंगूठा लगा कर नहीं साइन करके ली। उस दिन की मेरी खुशी पहली तनख्वाह मिलने की ख़ुशी से कई गुना ज्यादा थी।

एक बार फिर मैं शॉपिंग करने गई,दुगुने पैसे लेकर। असल में अब मैं ऑनलाइन खरीदारी के संजाल में प्रयोग होने वाले शब्दों को अपने व्यवहार में भी ला रही थी। इस बार भी पहले  किस्त जमा की,फिर अम्मी के लिए कपड़े खरीदे। अपने लिए दो सेट कपड़ा लिया। दो लेगी  और कुर्ता। मैं जब पहले लड़कियों  को लेगी-कुर्ता पहने देखती तो मेरा बड़ा जी करता कि मैं भी पहनूं। कई साल पुरानी उस इच्छा को मैंने उस दिन पूरा किया।

एक बार फिर से गड़बड़झाला गई उसी दुकानदार के पास, जिससे पिछली बार खरीदारी की थी। दुकान भूल गई थी इसलिए काफी देर तक ढूंढना पड़ा । जब पहुंची तो कुछ लडकियां पहले से ही खरीदारी कर रही थीं। वह अपनी पसंद बता रही थीं और दुकानदार बड़े अदब से दोनों कपड़े निकाल-निकाल कर दिखाता जा रहा था।

वह पढ़ने-लिखने वाली लड़कियां लग रही थीं। यही कोई अट्ठारह से बीस के बीच की रही होंगी। उनका खुलापन, साफगोई  सब कुछ मुझे अच्छी लगी। वह डिजाइनों के तमाम अलग -अलग तरह के नाम बता रही थीं और फिर जो खरीदा उसने मुझे रोमांच के गहरे दरिया में डुबो दिया। मैं गई थी बदन के ज्यादा हिस्से को ढकने वाला कपड़ा खरीदने के लिए, लेकिन खरीद लिया वह,जो उन लड़कियों ने खरीदा था, जिसे वह थोंग कह रही थीं।

मन में आया कि पतली सी पट्टी के अलावा इसमें कोई कपड़ा है ही कहां। आखिर दो सेट मैंने सबसे ज्यादा शरीर ढकने वाला भी खरीद लिया। और बहुत सी खरीदारी करके मैं लदी-फंदी-करीब नौ बजे घर पहुंची।

अम्मी परेशान तो थीं लेकिन पहली बार की तरह नहीं। इस बार उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा कि तूने इतने पैसे क्यों बर्बाद कर दिये। मैंने उन्हें थोंग छुपाकर बाकी सारे कपड़े दिखा दिये। देखकर बोलीं, 'हाँ , यह ठीक है।'  लेकिन लेगी देखकर बोलीं , 'बेंज़ी, यह पहनोगी । इसे पहनकर तो लगता है जैसे सारी टांगें खुली हुई हैं। कपड़े पहने ही नहीं हैं, बस शरीर का रंग  बदल गया है। यहां दुकान पर बैठी-बैठी दिन भर में तमाम जनानियों को देखा करती हूं। कुर्ता इतना खुला रहता है कि जरा सी हवा चलती है या फिर चलते समय दोनों अंग दिखते हैं। लगता है जैसे...।'

अम्मी कुछ आगे  बोलें उसके पहले ही मैंने कहा, 'अम्मी मैं कुर्ता नीचे तक सिला हुआ पहनूंगी। फिर भी तुझे ठीक ना लग  रहा हो तो मैं कल वापस करके दूसरा ले आऊँगी । परेशान ना हो।'

मेरी बातें सुनकर अम्मी पता नहीं क्या सोचती रहीं। मैं भी भीतर ही भीतर दुखी हो रही थी कि, मुझे यह सब नहीं करना चाहिए था। अम्मी जो आज़ादी दिए जा रही हैं, हमें उसका बेजा फायदा नहीं उठाना चाहिए। यह सब करना एक तरह से उन्हें दुखी करना है, यह मुनासिब नहीं है। उन्हें एकदम गुम-सुम देखकर मैं एकदम परेशान हो गई। इतनी भावुक हो गई कि आंखों में आंसू आ गए। मुझे अम्मी की भी आंखें आंसुओं से भरी लगीं। उनके होंठ मुझे फड़फड़ाते हुए से लगे। मुझे यकीन हो गया कि, मेरे कारण उनको बहुत दुख हुआ है। उनकी मंशा उनका मिज़ाज़  मुझे पिछली बार ही समझ लेना चाहिए था। जब उन्होंने दोनों कपड़ों को देखकर कहा था कि यह बहुत छोटे हैं।

मैंने अम्मी का एक हाथ अपने हाथों में लेकर कहा ,'अम्मी तू बिल्कुल परेशान ना हो, मैं यह सब कल वापस कर आऊँगी । जैसा तू कहेगी मैं वैसा ही ले आऊँगी। तेरी मर्जी के खिलाफ मैं एक भी कदम नहीं बढ़ाने वाली। अब शांत भी हो जाओ।' 

मेरी बात सुनकर वह एकदम से मुझे देखते हुए बोलीं, 'अरे बेंज़ी तुम यह क्या कह रही हो। मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रही हूं। मैं तो यह सोच रही हूं कि, मैंने जीवन भर शौहर के चक्कर में पड़ कर अपने सारे बच्चों की नरम भावनाओं, उनकी छोटी-छोटी इच्छाओं को कैसे एक जल्लाद,कसाई की तरह जबह करती आई। कैसे अपने ही हाथों अपने बच्चों की फूल सी नाजुक दुनिया में आग लगाती रही। तब-तक लगाती रही जब-तक कि उनकी दुनिया जहन्नुम ना बन गई, ऊबकर सारे बच्चे छोड़ कर चले ना गए।

वह दोनों बड़ी लड़कियां  भी घर छोड़ भागीं  तो इसके लिए वह नहीं, अकेले मैं ही जिम्मेदार हूं। ये तो ऐसे हालात हैं कि, तेरे जैसी मासूम जहीन संतान आज भी मेरी चुन्नी पकड़े मेरे पीछे-पीछे चल रही है। मैं परवरदिगार की शुक्रगुजार हूं बिटिया कि, तूने मेरी आंखें खोल दी हैं। मुझे आईने में मेरे गुनाह और सच दोनों दिखा दिये हैं। मेरी बेनज़ीर , मेरी प्यारी बेंज़ी तू अभी की अभी यह सारे कपड़े  पहन कर मुझे दिखा। मैं देखना चाहती हूं कि इन प्यारे-प्यारे कपड़ों में मेरी बेंज़ी कितनी प्यारी लगती है। यह कपड़े ज्यादा प्यारे हैं या मेरी बेंज़ी। जा बेटा, जा जल्दी।'

मैं अचरज में पड़ गई  कि, अम्मी को ये क्या हो गया है। यह मेरी वही अम्मी हैं जो आंगन में भी सिर से दुपट्टा हट जाने पर भी चीख पड़ती थीं। और आज...। मारे खुशी के मेरे  पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। मैं उनकी बात को टालना चाह रही थी, लेकिन अम्मी की जिद के आगे मुझे मानना ही पड़ा। जब मैं पहन कर आई, तो देखा अम्मी सामने की दीवार एकटक देखे जा रही हैं। उनकी पीठ मेरी तरफ थी।

मेरे मन में अचानक ख़याल आया कि कुछ ऐसा करूं कि, अम्मी के चेहरे पर मुस्कान आ जाए। बड़ी ग़मगीन सी बैठी हैं। तुरत-फुरत मुझे जो सूझा मैंने वही किया। दरवाजे पर एकदम ऐसे खड़ी हो गई, जैसे कपड़ों  के विज्ञापन में तमाम मॉडल खड़ी होती हैं। ऐसे ढंग से कि ज्यादा खूबसूरत लगें, लोगों  की नजर उन पर से ना हटे। मैं एक हाथ ऊपर करके दरवाजे को पकड़े हुए थी।दूसरा कमर पर था, कमर के पास से एक तरफ को लोच दिए हुए थी। एक पैर बिल्कुल सीधा था, तो दूसरा घुटने के पास से थोड़ा मुड़ा हुआ। मैं चेहरे पर गुमान के भाव लाकर खड़ी हुई, बिल्कुल मॉडल की तरह। फिर जैसे पिक्चरों में हिरोइनें सुरीली आवाज में ''हेलो'' बोलती हैं, उसी तरह आवाज बदल कर बोली, ''हेलो मॉम।''

अम्मी की जगह मॉम बोली। यह सुनकर अम्मी चिहुंकते हुए पलटीं और मुझ पर नजर पड़ते  ही कुछ देर तक मुझे देखती रहीं। फिर उन्हें हंसी आ गई। कहा, 'अरे तू ऐसे आवाज बदल कर बोली कि, मैं समझी ना जाने कौन आ गया, अच्छा एक बार फिर से वैसे ही बोल जैसे अभी बोली थी।'

मैं अभी तक चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए मॉडलों की तरह ही स्थिर खड़ी थी। कमर पर रखे  हाथ में नया मोबाइल था, जो आज ही खरीदा था। लेकिन डर के मारे अम्मी को बता नहीं पाई थी। अम्मी के कहने पर मैंने दोबारा ''हेलो मॉम '' कहा। वह खिलखिला कर हंस दीं । उनकी खुशी देखकर मैं खुशी से पागल हो गई। दौड़  उनके गले से लिपट गई।

 मैंने कहा,'अम्मी  तू अब ऐसे ही खुश रहा कर। मैं तेरे चेहरे पर उदासी नहीं देखना चाहती। हमेशा हंसी-खुशी देखना चाहती हूं।'

अम्मी मेरी बात सुनकर सिर सहलाते हुए बोलीं, 'बेंज़ी जैसी खूबसूरत, हूर सी होनहार बेटी जब मेरे साथ है, तो उदासी मेरे पास फटक ही नहीं सकती मेरी बच्ची।' 

अम्मी की खुशी,अपनी तारीफ,उनकी दुआओं से मैं फूली न समाई और अम्मी को संकोच के साथ मोबाइल के बारे में बताया कि,'अम्मी तुम्हें मालूम ही है कि मुन्ना कह रहे थे कि, एंड्रॉयड फोन जरूरी है। तो पिछली बार के कुछ पैसे मिलाकर यह ले आई, तुमसे पूछे बिना।अम्मी माफ करना।' अम्मी ने मुझे कुछ कहने के बजाय गले से लगा लिया।

'तो यह कह सकते हैं कि, यह वह समय था जब आपके जीवन में आज़ादी , एक  इंसान को इंसान होने का अहसास कराने वाले अधिकार मिलने शुरू हुए। सांसों पर लगीं पाबंदियां हटनी शुरू हुईं।'

'हाँ , कह सकते हैं, यह वह समय था जब हमने, मेरे घर ने  कैद, जाहिलियत में घुटी सांसों की जगह आज़ादी ,नॉलेज की रोशनी देखनी शुरू की। देखना शुरू किया कि, ऊपरवाले ने  जीवन , दुनिया कितनी खूबसूरत बनाई है।'

 ' जीवन, दुनिया की खूबसूरती देखने का आपका नजरिया क्या है?'

 'अब नजरिया का क्या कहूं, मैं जल्द से जल्द सब कुछ बदलना, देखना, चाहती थी। तो मैं हर महीने कोई ना कोई ऐसा सामान लाने लगी, जिससे घर में रौनक दिखे। रहन-सहन का स्तर कुछ ऊंचा हो। फ्रिज का ठंडा पानी पीने को हम पूरा परिवार तरस गए थे। लेकिन अब्बू उसे भी न जाने किस पागल, जाहिल के कहने पर मुसलमानों के लिए हराम मानते रहे। जबकि मुहल्ले के सारे मुसलमान परिवारों के यहां यह सब ना जाने कब का आ चुका था। अम्मी ने कई बार बात उठाई थी, लेकिन अब्बू उनकी बात सुनते तक नहीं थे, आखिर अम्मी ने कहना ही बंद कर दिया था। गर्मियों में फ्रिज के ठंडे पानी की प्यास, प्यास ही बनी रही।

मैंने परिवार की इस प्यास को बुझाने की ठानी। लेकिन अब परिवार में था ही कौन हम दो के सिवा। फिर भी सोचा अम्मी तो हैं। मैं तो हूं।

 जब मैं मोबाइल ले रही थी, तभी उसके पास वाली दुकान पर मेरी नजरें फ्रिज पर पड़ीं  थीं । उसी समय मेरे मन में यह बात बैठ गई थी कि, एक दिन यह भी ले जाऊँगी । अगले तीन महीने तक मैंने हर काम में बड़ी कटौती करके फ्रिज भर का पैसा इकट्ठा कर लिया। फिर जब किस्त जमा करने का टाइम आया तो पहले उसे जमा किया और लौटते वक्त फ्रिज ले आई।

जब दरवाजे पर रिक्शे से उतरी तो अम्मी दुकान पर बैठी थीं। मैं वापसी में पहली बार रिक्शे से आई थी। देखा अम्मी मुझे ध्यान से देख रही हैं। मेरे पीछे-पीछे ठेलिया वाला भी था, फ्रिज लिए हुए। अम्मी उस चश्मे के पीछे से ,ध्यान से देखते हुए सारी बात समझने का प्रयास कर रहीं थीं, जिसे मैंने दो महीने पहले ही बनवाया था। नहीं तो अम्मी ऑंखें कमजोर हो जाने के बावजूद भी बिना चश्में के काम चला रही थीं। उनके मोतियाबिंद का ऑपरेशन तो सरकारी हॉस्पिटल के एक कैंप में फ्री में हो गया था। उस वक्त जो चश्मा बना था वह अम्मी से गिर  कर टूट गया था। उसके बाद बनने की नौबत ही नहीं आ पा रही थी। उस वक्त हम मां-बेटी को बड़ी कोफ़्त हुई थी कि, हमें खुद को गरीब बताना पड़ा था। वास्तव में सच तो यही था।

मैंने फ्रिज अम्मी के कमरे में ही रखवाया। ठेलिया और रिक्शा वाला जब-तक फ्रिज रख रहे थे , तब-तक अम्मी चुपचाप आश्चर्यमिश्रित नजरों से मुझे देखती रहीं। फिर बाद में बोलीं,'बेंज़ी  यह क्या?' 

मैंने कहा, 'फ्रिज'।

'वह तो मैं जान रही हूं। लेकिन इतने पैसे कहां से आये ?'

 'अम्मी पिछले तीन महीने से इकट्ठा कर रही थी। तुम तो कुछ पूछती ही नहीं कि कितना पैसा कहां खर्च कर रही हो। तो मैंने जहां-तहां कटौती करके इकट्ठा किया। कुछ कम पड़  रहे थे तो वह अबकी वाली तनख्वाह से पूरे कर लिए। तुम से जाते समय इसलिए नहीं पूछा कि, कहीं तुम मना ना कर दो कि, काहे को इतना पैसा बर्बाद कर रही हो। काम तो चल रहा है ना। दुनिया में कितने लोग बिना फ्रिज के जी रहे हैं कि नहीं? अरे तेरा निकाह करना है। पैसे बचाना है। यही कहती ना तुम?'

'तू तो बड़ी सयानी हो गई है बेंज़ी, हमारे मन की बात जानने लगी है। तुम सच कह रही हो। पूछती तो मैं यही सब कहती।'

'मुझे इस गुस्ताखी के लिए माफ करना। मैं जब किराएदार को ठंडा पानी पीते देखती हूं तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती है। सोचती हूं कि जो मेरे यहां किराएदार है, उसके यहां फ्रिज है। और किराएदार इतना नामाकूल है कि, इतनी गर्मी हो रही है। लेकिन कभी यह नहीं पूछता कि, आपके लिए भी दो बोतल पानी रख दूं या फिर बर्फ जमा दूं। उसकी बेगम सीधे मुंह बात तक नहीं करती। दोनों बगल से निकल जाते हैं, लेकिन एक लफ्ज बोलने को कौन कहे नजर तक नहीं मिलाते। हमारे मकान में रहकर हमीं से इतना घमंड। कभी-कभी मन करता है कि बड़ी  हूर की परी बनी, कमर मटकाती निकलती है। इसकी चोटी पकड़ कर  खींचते हुए बाहर फेंक दूं। साथ ही इसके मगरूर शौहर को भी। उनका सामान इनके मुंह पर मारते हुए कहूं कि, तुम जैसे कमजर्फ इंसान मेरे मकान में नहीं रह सकते। हमारा खाना-पीना,सोना सब हराम किया हुआ है।'

 अचानक ही मैं गुस्से से भर उठी थी। अम्मी मुझे समझाती हुई बोलीं ,'बेंज़ी  इतना गुस्सा  काहे हो रही है। उनसे हमारा क्या लेना-देना। किराया देते हैं, तो रहते हैं। नहीं बोलते तो कोई बात नहीं, उनकी मर्जी। उनकी आवाज भी तो नहीं सुनाई देती। तब कहां से हमारा खाना-पीना, सोना हराम किया हुआ है। बिटिया किसी को ऐसे गुनहगार नहीं कहना चाहिए।'

अम्मी की इस बात पर मैंने सोचा क्या बताऊं अम्मी तुम्हारा खाना-पीना, सोना भले ना हराम किये हों , लेकिन मेरा तो कर ही रखा है। यही हैं जिनके कारण आए-दिन रात में मेरे कपड़े  दीवारों से टकरा-टकरा कर गिरते हैं। मैं शर्मोहया छोड़कर बिना कपड़ों  के ही पूरी-पूरी रात जमीन पर पड़ी रहती हूं। शर्मगाह,छातियों से लड़ते-लड़ते इतना थक जाती हूं कि मुर्दा सी हो सो जाती हूं।

तुम क्या जानो कि इन दोनों के कारण मुझ पर क्या बीत रही है। नहाने-धोने, खाने-पीने या फिर कोई भी काम करते वक्त तसव्वुर में यह दोनों आकर परेशान करते रहते हैं। ट्रेनिंग  सेंटर में भी तो यह दोनों पीछा नहीं छोड़ते। मुझे चुप देखकर अम्मी परेशान हो गईं। बोलीं,' क्या हुआ बेंज़ी, काहे इतना परेशान हो गई। कोई बात है क्या? मेरी कोई बात बुरी लगी ।' अम्मी की बातें सुनकर मुझे लगा कि मैं बहुत ज्यादा बोल गई हूं। तुरंत उनसे माफी मांगते हुए कहा कि, 'मैं सोच रही थी कि तू कितनी नेक है। अच्छा अम्मी सुन, आज से हम दोनों फ्रिज का ठंडा पानी पिया करेंगे।'

 यह कहकर मैं अम्मी से लिपट गई। अम्मी ने भी मुझे दुआएं देते, प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'मेरी बेंज़ी, मेरी बच्ची।'

अगले महीने मैं बेडसाइड के दो कूलर ले आई। अम्मी ने फिर पैसे बचाने की बात कही तो मैंने बेफिक्र होकर कहा, ' अम्मी भूल जाओ मेरा निकाह-विकाह। देखो निकाह के लिए जितने पैसे चाहिए उतने पैसे तो सारा पेट काट-काट कर सारा जमा कर दूं। तो भी दसियों साल बाद भी इकट्ठा नहीं हो पायेंगे। तब-तक मैं पैंतालीस-छियालीस की हो जाऊँगी यानी कि निकाह के लिहाज से एक बुढिया।

ऐसे में मुझे दुगनी उम्र का कोई बुड्ढा ही मिलेगा। दर्जनभर बच्चों का हिलता-डुलता अब्बा। जो हिलते-डुलते मेरे बिस्तर पर भड़ाक से मुझ पर ही गिर पड़ेगा । फिर उसे खींचतान कर सीधा करके, कायदे से बिस्तर पर सुलाने की जिम्मेदारी भी मेरी ही होगी। मेरी जिम्मेदारी यह देखने की भी होगी कि गिरने से मेरे ,बेचारे जर्जर बुड्ढे शौहर की हड्डी पसली तो बाहर नहीं निकल आई हैं, अगर निकल आई हैं , तो उनको भी मैं सही-सलामत लगाऊँ,और इसके बाद  मैं करवट बदलती आंखों में रात गुजारूं।अगले दिन सवेरे उनकी पहले की बेगमों के ताने सुनूं और उसके दर्जनभर बच्चों, पूरे कुनबे की देखभाल, चीख-चिल्लाहट में मैं अपनी ज़िन्दगी  खपाऊं। क्योंकि उम्र का तकाजा भी होगा, तो बहुत ही जल्दी खुद को बेवा हो जाने के आंसुओं में डुबोना भी पड़ेगा। फिर दर-दर की ठोकरें खानी पड़ेगी। क्योंकि उम्र का ही तकाज़ा होगा कि, मेरी तो कोई औलाद होगी नहीं,जो मेरी देखभाल करेगी।'

'बस कर बेंज़ी ,बस कर।'

अम्मी ने सिर पीटते हुए मुझे बीच में ही टोक दिया। उनका चेहरा गुस्से से ऐसे तमतमा रहा था, जैसे वह मुझसे कहना तो बहुत कुछ चाहती हैं , लेकिन कह नहीं पा रहीं । कुछ देर शांत रहकर मैंने कहा,'अम्मी  मेरी बात को समझने की कोशिश करो ना। बेकार में हैरान-परेशान होने से क्या फायदा। ऐसा तो नहीं है कि, आमदनी कितनी है? वह तुम नहीं जानती। सब तो जानती हो,इन सारी बातों को ध्यान में रख कर सोचो ना, कि क्या मैं गलत कह रही हूं।

अब-तक तुमने जितनी कोशिश की हर बार ऐसे ही लोग तो आए, जो दो तलाक दे चुके थे या फिर एक को या फिर जिनके पहले से ही दो-तीन बीवियां थीं। किसी ऐसे इंसान से निकाह करके क्या मैं एक दिन भी सुकून से रह पाऊँगी। अब्बू के साथ तुमने कितने दिन सुकून से बिताये, क्या तुम्हें कुछ याद है ? अब तुम्हीं  बताओ क्या यह सब जानते-बूझते हुए निकाह करना, क्या खुद ही कांटों भरे जंगल में घुसने जैसा नहीं होगा। जहां हर समय शरीर कांटों से लहू-लुहान होता रहेगा ।

इन सबके बावजूद यदि तुम चाहती हो कि मैं निकाह करूं तो ठीक है। तुम जब, जहां कहो, मैं तैयार हूं। मगर मुझे अपने से ज्यादा फिक्र तुम्हारी है। तुम्हें किसके सहारे छोड़ कर जाऊं। ऐसे तो हम एक दूसरे का सहारा बने हुए हैं। कट जाएगी ज़िन्दगी,  किसी ना किसी तरह।' मेरी बात से अम्मी बहुत भावुक हो गईं । बोलीं, 'बेंज़ी मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मैं क्या करू। शायद ही कोई मुझ सी बदकिस्मत मां होगी, जो सुंदर काबिल बिटिया का निकाह भी ना कर पाए। क्या जवाब दूंगी कयामत के दिन अल्लाहताला को।'

 'ओफ्फो ! अम्मी... फिर तुम नादानी कर रही हो। तुम्हें कोई जवाब नहीं देना होगा। वह सब जानता है। नाहक परेशान हो रही हो।'

अम्मी को मैंने खूब समझाया कि पुरानी बातों के फेर में ना पड़ो । दिमाग से काम लो। उनको मैंने रात में जमाई कुल्फी फ्रिज से निकाल कर खिलाई। फिर भी वह मेरी बातों से राजी नहीं हुईं। तो हारी मैं भी नहीं। मैंने और बड़ी देर तक उनसे खूब बातें कीं। बहुत सी बातें और भी ज्यादा खुलकर समझाईं। तब जाकर वह काफी हद तक राजी हो गईं।

कूलर की ठंडी हवा कैसी होती है, उसी दिन हम दोनों मां-बेटी ने सही मायने में महसूस किया। जल्दी ही टीवी की सारी किस्तें खत्म हो गईं। मुन्ना के सहारे ऑनलाइन बिजनेस भी मैं करने लगी थी। शुरू के दो-तीन महीने मुझे कुछ समझ में नहीं आया था लेकिन फिर धीरे- धीरे गाड़ी  चल निकली। मुन्ना के कहे अनुसार मैंने लखनवी चिकनकारी पर ही जोर दिया। जो डिज़ाइन मैं ऑनलाइन शॉप पर शो करती वह किसी और को ना देती।

सोशल साइट के कई माध्यमों पर अपना प्रचार करती। साथ ही मुन्ना को शुक्रिया जरूर कहती थी कि, उन्होंने यह सब मुझे सिखाया। वह मुझे से बार-बार कहते कि, 'तुम अपने हुनर को नई बुलंदियों पर ले जाओ। नई-नई डिज़ाइन ईजाद करो।' उनकी बातें मेरे दिमाग  में हमेशा चलती रहतीं।उसका नतीजा भी नई-नई डिज़ाइनों के रूप में मेरे सामने लगातार आने लगा था।

ऐसे ही एक रात मन में नया ख्याल आया। मैं जमीन पर ही बैठी कढाई कर रही थी। छोटा कूलर चल रहा था। मैं केवल दो भीतरी मतलब की ब्रीफ में थी। अचानक ही मुझे ब्रीफ चेंज करने की जरूरत महसूस हुई। अब-तक मैं तरह-तरह के फैंसी ब्रीफ खुद के लिए ले आती थी। चेंज करके जब मैं फिर काम करने के लिए बैठने लगी जमीन पर तो मन में यह बात आई कि अगर यह ब्रीफ चिकन के बना दूं तो? और फिर दो दिन में मैंने कई डिज़ाइन , कलर के चिकन ब्रीफऑनलाइन शॉप पर शो कर दिए। कीमत जानबूझकर बड़ी कंपनियों के प्रॉडक्ट से भी ज्यादा रखी। मगर मैं अचरज में पड़ गई कि, सभी देखते-देखते बिक गए।

अम्मी को मैंने यह नहीं बताया। इस सोच ने, सफलता ने जल्दी ही मेरी सोच के पंखों को और  बड़ा कर दिया। मैं लेडीस स्लीपिंग सूट, बिकनी भी बनाकर बेचने लगी। उनके भी मुझे खूब पैसे मिलने लगे। सेल इतनी ज्यादा हो रही थी कि, मैं उतना बना नहीं पा रही थी और बार-बार आउट ऑफ स्टॉक हो रहा था।

मैं रात-दिन लगी रहती। मगर फिर भी नहीं हो पा रहा था तो अम्मी से बात की। सारी बात बता कर कहा, 'अम्मी अब इस परचून की दुकान को बंद कर दो। इससे कोई फायदा नहीं हो रहा है। एक ही काम को आगे बढाते हैं। उसी पर पूरा ध्यान देते हैं। बहुत समझाने पर वह तैयार हो गईं। इसके बाद दुकान का सारा सामान औने-पौने दाम में एक-दूसरे परचून वाले को बेच दिया। कामभर के पैसे, पहले से ही मैं इकट्ठा कर चुकी थी। जल्दी ही मैं एक साथ चार मशीनें ले आई और मुन्ना के यहां से ट्रेनिंग लेकर निकली कई लड़कियों से संपर्क कर उन्हें काम पर रख लिया।

उन्हें काम देकर सेंटर जाती कि, उन्हें  क्या-क्या करना है। सेट के हिसाब से पैसा मिलना था तो लड़कियां अपने आप ही ज्यादा से ज्यादा काम निकाल रही थीं। अम्मी दिन भर उन्हें देखती रहतीं। लंच टाइम में मैं भी एक नजर डाल लेती थी। अम्मी को भी यह सब जंच गया। अब दिन भर अकेले ऊबने के बजाय वह लड़कियों  के साथ थोड़ा  बोल-बतिया भी लेती थीं।'

'वाह,  ''एक पंथ दो काज'' तो सुना था। लेकिन यहां तो बात एक पंथ बहु काज जैसी  हो गई है। और देख रहा हूं कि, इसके पीछे मेन एनर्जी मुन्ना हैं। उस एनर्जी का कंजम्शन बेनज़ीर के माध्यम से हो रहा है। जिसके परिणामस्वरुप उसके जीवन,घर में क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू हुए। क्या मैं सही कह रहा हूँ ?'

मेरी बात पर बेनज़ीर हंसकर बोलीं, 'हाँ आप सही कह रहे हैं। मुन्ना मेरे लिए एनर्जी बनकर ही सामने आये। मैं इंजन थी ,तो वह  इस  इंजन की  ऊर्जा। उनकी लगातार सलाह-मशविरा, उनके प्रयास से मेरे पंख बड़ेऔर बड़े  होते जा रहे थे। इसके बावजूद उनका हद से ज्यादा संकोच मुझे बड़ी तकलीफ देता था। मैं जितना यह सोचती कि, वह बिजनेस की रूखी बातों के अलावा कुछ और बातें भी मुझसे कर लिया करें,उतना ही वह मुझसे दूर रहते। एक तो उनके पास समय भी बहुत कम रहता था।

जिस दिन नई मशीनें ले आई थी, उसी दिन उन्होंने फर्स्ट मीटिंग में ही बताया कि, 'गवर्नमेंट के दो नए प्रोजेक्ट मिल गए हैं। मुझे लगता है कि ट्रेनिंग-सेंटर के लिए मुझे तुम्हारी और ज्यादा मदद लेनी पड़ेगी।' 

मैंने कहा,'आप निःसंकोच बताइए। मुझसे जो हो सकेगा वह जरूर करूँगी।'

'ठीक है, आपको सुबह एक घंटा पहले आना होगा क्योंकि मेरे दोनों प्रोजेक्ट बाराबंकी में शुरू होंगे। मुझे नौ बजे ही यहां से निकलना होगा। आप एक घंटा पहले आ सकेंगी।'

'हाँ, मैं आ जाऊँगी। मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।'

मैंने कह तो दिया था लेकिन जानती थी कि मुझे और मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन मुन्ना ने  आखिर में यह कहकर मुझे और उत्साहित कर दिया कि, 'जो एक्स्ट्रा टाइम देंगी,उसका पेमेंट आपको अलग  से मिलेगा।'

 वह रोज सुबह मेरे सेंटर पहुंच जाने के बाद बाराबंकी निकल जाते थे। मेरे मन में बार-बार आता कि, पूछूं, वहां क्या काम है? क्या ऐसा भी कुछ काम है, जिसमें मैं भी कुछ कर सकती हूं। अपनी आमदनी और तेज़ी  से बढ़ा सकती हूं। मुझसे ज्यादा सब्र नहीं हुआ तो मैंने एक दिन पूछ ही लिया।

उन्होंने बताया कि,'वहां जल्दी ही एक दस दिवसीय कार्यशाला और प्रदर्शनी का आयोजन करवा रहा हूं। जिसमें अलग-अलग तरह के काम होंगे। कढाई-बुनाई सहित तमाम कुटीर-धंधों की बातें होंगी। उत्पादों की बिक्री, प्रदर्शनी होगी।' 

तब मैंने पूछा ,'क्या मैं भी वहां चल सकती हूं।' 

तो उन्होंने कहा,'ख़ुशी-खुशी, क्यों नहीं, कोई भी भाग ले सकता है।आपसे  इसलिए नहीं कहा कि,आप दूसरे शहर दस दिन तक चल पाएंगी या नहीं, यह तय करना आपके लिए मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि आपकी अम्मी की तबीयत ठीक नहीं रहती। वहां जाने का मतलब है कि सुबह निकलना और देर रात तक लौटना। दूसरे आपकी अम्मी इतनी दूर, दिन-भर के लिए किसी के साथ भेजेंगी भी नहीं। यही सब सोचकर मैंने नहीं बताया कि वहां पर मैं क्या करने जा रहा हूं।' 

अब-तक मैं मुन्ना से काफी खुलकर बात करने लगी थी। उनकी  हिचक को मैंने खुद ही पहल कर के कुछ ही दिन में ख़त्म कर दिया था। हाँ सेंटर में हम बातचीत में ऑफिस की मर्यादा बनाये रखते थे। मैंने कहा, 'अम्मी को मैं समझा लूँगी। बस आप तैयार हो जाइए।' तब मुन्ना ने कहा, 'तो मुझे क्या समस्या हो सकती है। आप चलिए। यहाँ के लिए कुछ और  व्यवस्था करता हूँ ।'

उस रात को मैंने अम्मी से खाना खाने के बाद बातचीत की। उन्हें विस्तार से सारी बातें समझाईं। मेरी बातों को सुनकर अम्मी एकदम से चिंता में पड़ गईं। लेकिन मेरे काम को देख कर उन्हें मुझ पर अटूट भरोसा भी हो चुका था। आखिर बड़ी मान-मनौवल के बाद मानीं। लेकिन अगले ही पल फिर समस्या खड़ी कर दी कि किसके साथ जाओगी, उसके पहले मैंने नहीं बताया था कि मैं मुन्ना के साथ ही आऊँगी-जाऊँगी। पूछने पर मैंने स्पष्ट बता दिया कि, 'और कौन है जिसके साथ में आ-जा सकती हूं। शहर के बाहर कभी अकेले कहीं गई नहीं। इसलिए अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर पाऊँगी।' मैं जानती थी कि अम्मी का मुन्ना पर भरोसा उतना ही मजबूत है जितना कि मेरा। मगर फिर भी एक समस्या उठाई उन्होंने कि,'बेंज़ी रोज  साथ-साथ आते-जाते देखकर मोहल्ले वाले कहीं कोई फसाना बनाकर बदनाम ना कर दें। बदनामी को हर तरफ फैलने में वक्त नहीं लगता।'

अम्मी की बात एकदम सही थी। लेकिन लोग फसाना बनाएंगे केवल इस डर से मैं कुछ न करूं, यह मेरे लिए मुमकिन नहीं था। आखिर मैंने कहा,'अम्मी सच, सच ही रहेगा। किसी के बदनाम करने से मैं बदनाम नहीं हो जाऊँगी। झूठ एक दिन खुलकर सामने आ ही जाएगा । किसी के फसाना बनाने, बदनाम करने से अब कुछ होने वाला भी नहीं है। हां कहती हो तो यह किया करूँगी कि यहां से मैं अकेले ही निकला करूँगी । फिर आगे कहीं मिल लिया करुँगी । जहां मोहल्ले के किसी आदमी के मिलने की आशंका ना हो या ना के बराबर हो।'अम्मी बोलीं ,' चल ऐसा ही सही।' 

मुन्ना यह बात सुनकर बोले, 'ऐसा कुछ करने की जरूरत मुझे तो नहीं लगती। सभी  जानते हैं कि तुम यहाँ काम करती हो ,वैसे जो आपकी अम्मी कहें वही करिए।' 

अब मुझे क्योंकि अम्मी को संतुष्ट  करना था, तो जिस दिन जाना था मुन्ना से कहा कि चार किलोमीटर आगे मिलूंगी। मैंने उन्हें  एक ऐसी दुकान का नाम बताया जो हमारे मोहल्ले में भी काफी फेमस थी। मैं वहां टैम्पो से पहुंची तो मुन्ना वहीं पर मिले। अपनी छह-सात महीने पहले खरीदी गई कार में। मेरे पहुंचते ही उन्होंने बड़े अदब से दरवाजा खोल कर बैठने को कहा। मेरे बैठते ही जल्दी से जाकर अपनी सीट पर बैठ गए।

मैं उनकी बगल वाली सीट पर बैठी थी। उन्होंने दरवाजा ही उधर का खोला था। मेरे मन में भी आगे ही बैठने का इरादा था। अंदर अच्छी खासी ठंडक थी।उन्होंने ए.सी. पूरी रफ्तार से चलाया हुआ था। गाड़ी भी वैसे ही पूरी रफ्तार से चला रहे थे। मैं पहली बार किसी कार में बैठी थी। बड़ी अजीब सी हालत हो रही थी, जैसे कि दम फूल रहा हो। थोड़ा परेशान इसलिए भी हो रही थी कि, पहली बार किसी गैर मर्द के साथ कार में बैठकर अपने शहर से दूसरे शहर जा रही थी। मुझे लग रहा था कि, जैसे उस ठंड में भी मेरी हथेली, मेरे तलवे नम हो रहे हैं। करीब पांच मिनट के बाद मुन्ना बोले,'आपकी अम्मी आसानी से तैयार हो गईं मेरे साथ भेजने के लिए या फिर आपको बहुत ही ज्यादा कोशिश करनी पड़ी।'

जब उन्होंने अचानक ही पूछ लिया तो मैं कुछ देर तक समझ ही नहीं पाई कि क्या जवाब दूं। अम्मी ने जो बातें कहीं-सुनी वह बता दूं कि, कुछऔर। मैं सोच ही रही थी कि उन्होंने कहा,'क्या  सोच रही हैं? बताया नहीं आपने।' मैंने कहा,'अम्मी बोलीं, ठीक है जाओ।' मेरी आवाज में घबराहट साफ थी तो उन्होंने फिर कहा,'आप इतना परेशान क्यों हो रही हैं, मेरे साथ निश्चिंत होकर चलें।'

'नहीं परेशान नहीं, बस ऐसे ही थोड़ा सा..।'

 'मैं समझ रहा हूं आपकी स्थिति।'

करीब आधे घंटे के सफर में हमारी कोई बहुत ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी। मैंने एक चीज गौर की कि बात करने में मुझसे कहीं ज्यादा संकोच तो मुन्ना को हो रहा था। मेरी तरफ एक बार भी बिना देखे ही बोल रहे थे। मेरे मन में कई बार आया कि, वह कम से कम एकआध बार मेरी तरफ मुखातिब तो हों । यह तो बोलें कि, तुम इस सूट में बहुत अच्छी लग रही हो। यह सूट तुम पर बहुत फब रहा है या तुम्हारी आंखें, तुम्हारे होंठ, फलां-फलां बहुत खूबसूरत हैं, जैसे कि पिक्चर में हीरो हीरोइन से कहते हैं।

आते समय कितना तो नहा-धोकर, सारी कोशिश करके अच्छे से तैयार हुई थी। मसकारा-वसकारा सब कुछ तो कितना लगाया क्या इनको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। कैसे मर्द हैं  यह। ऐसी तमाम बातें सोचते हुए मैंने ही पहल की , लंबी बातचीत शुरू करने का प्रयास किया। लेकिन उनके बेहद संकोच भरे, उससे भी ज्यादा मुक्तसर से जवाबों से मुझे बड़ी  निराशा हुई। बस ऐसे ही सोचते-सोचते सफर पूरा हो गया।

वहां पहुंच गए जहां सारे कार्यक्रम होने थे। वहां मुन्ना का रुतबा देखकर मैं बहुत मुतासिर हुई। कई बड़े-बड़े लोग आदमी-औरत सब उनसे बढियाँ ढंग से पेश आ रहे थे। दिन-भर तैयारी को लेकर कई लोगों से मिलना-जुलना होता रहा। इस मसरूफियत के चलते खाने का वक्त ही नहीं मिला। भूख से आंतें कुलबुलाने लगीं । पानी भी मारे डर के नहीं पी रही थी। घर में भी जल्दी में हल्का-फुल्का ही खा पाई थी। मुन्ना शायद जमकर खा-पी कर आये थे। उन के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी।

करीब पांच बजे जब काम से कुछ राहत मिली तो उन्होंने पूछा,'आपसे  खाने-पीने के लिए भी  पूछ नहीं पाया। शाम हो गई है, भूख तो लगी ही होगी।' 

सेकेंड भर में मैंने सोचा कि, कहीं यह मुझे भुख्खड़ ना समझ लें। इसलिए कहा, 'नहीं ऐसा  कुछ नहीं है। मैं खा-पी कर चली थी।' 

मैंने कह तो जरूर दिया था कि, मैं खा-पी कर चली थी, लेकिन मुझे अपनी आवाज से खुद ही एहसास हो रहा था कि, उससे साफ-साफ पता चल रहा है कि मैं भूख से हलकान हूं। गला अलग सूख रहा है। होंठ पप्पड़ा रहे थे। आवाज मरी-मरी सी निकल रही थी।

मुझसे ज्यादा मेरी आवाज को मुन्ना ने समझ लिया। उन्होंने कहा, 'नहीं , पूरा दिन बीत गया है,मुझे भी भूख लगी है। चलिए किसी होटल में कुछ खाते हैं।'

मैं चुप रही। मैं यही तो चाह रही थी। वह जिस होटल में लेकर गए वह अच्छा-खासा बड़ा होटल था। मुझे बड़ा संकोच हो रहा था। जीवन में पहली बार किसी होटल में कदम रख रही थी। पांव लड़खड़ा रहे थे, पूरी तरह से उठ भी नहीं रहे थे। कदमों को बहुत खींच-खींच कर उठाना पड़ रहा था। कुर्सी पर बैठने में बड़ा अटपटा महसूस कर रही थी।

वहां पहले से ही कई लोग  बैठे हुए थे। मुझे लगा जैसे सब मुझे ही देख रहे हैं। मैं बुरी तरह खुद में सिमटी जा रही थी। मेरी स्थिति मुन्ना ने समझ ली। उन्होंने मेरे बेहद करीब आकर धीरे से कहा, 'आप  क्यों इतना संकोच कर रही हैं। यह सब लोग भी हम-आप जैसे लोग ही हैं।' उन्होंने ऐसे ढंग से यह बात कही कि, देखने वालों को लगे कि उन्होंने कुछ कहा ही नहीं। लेकिन उनकी बातों के बावजूद मेरी घबराहट कम होने के बजाय और बढ़ गई।

मेरे चेहरे पर पसीना दिखने लगा था। जबकि ए.सी. कार से उतरकर, सीधी ए.सी. होटल में ही पहुंची थी। मेरे मन में आ रहा था कि यहां से निकल कर जितना हो सके उतनी तेज़ भागूं  और सीधे कार में जाकर छुप जाऊं। मैं हकबकाई, इतनी हलकान हुई,लगा कि रो पड़ूँगी । होठों में फड़कन शुरू हो गई थी, लेकिन मैं सबके सामने अपनी और मुन्ना की बेइज्जती किसी भी सूरत में नहीं चाहती थी। मैंने सोचा कि मुझे रोता देखकर तो लोग न जाने क्या-क्या  सोचने-समझने लगेंगे। मुन्ना बेवजह मुसीबत में पड़ जाएगा ।

मुझे कुछ नहीं सूझा तो मुन्ना को अपनी बगल में बैठने के लिए बुला लिया। वह मेरे चेहरे को बार-बार देख रहे थे। मेरी हालत को समझ रहे थे, तो तुरंत आकर बैठ गए। मुझे बड़ी राहत मिली। अब मैं दीवार की तरफ और मेरे बाद मुन्ना फिर बाकी लोग । गनीमत थी कि सामने की कुर्सियों पर कोई नहीं था। तभी वेटर मेन्यू लेकर आया और मुन्ना के सामने रख दिया।

उन्होंने उसे उलट-पुलट कर देखने के बाद दो मसाला डोसा ऑर्डर कर दिया। 

मैंने मसाला डोसा सुना तो बहुत बार था, लेकिन खाने को कौन कहे, देखा तक नहीं था। सोचा आज देख भी लूँगी और खा भी लूँगी । वेटर के जाने के बाद मुन्ना ने कहा, 'मुझसे  गलती हो गई। आपको साथ लेकर आया, पूरा दिन बीत गया लेकिन खाने-पीने के बारे में पूछा ही नहीं। इसलिए मैंने सोचा कि, दिनभर की भूख लगी होगी तो थोड़ा  हैवी नाश्ता कर लिया जाए। आपको डोसा पसंद तो है ना।' मैंने कहा, 'हाँ।'

बिल्कुल झूठ बोला था मैंने। दरअसल मैं यह नहीं कहना चाहती थी कि, मैंने आज तक मसाला डोसा खाया ही नहीं है। उन्होंने अब मुझसे ज्यादा बात करना शुरू कर दिया था। मेरी हिचकिचाहट संकोच को वह दूर कर रहे थे। बातचीत दस मिनट ही चली होगी कि वेटर दो प्लेटों में मसाला डोसा रख गया और सांभर भी। उन्हें देखकर मैं हैरानी में पड़ गई कि,  इतनी बड़ी, सफेद कड़क सी रोटी में लपेट कर क्या-क्या भरा हुआ है।

बड़ी इतनी  कि प्लेट से बाहर निकली हुई है ,और देखने में आटे की तो बिल्कुल नहीं है। कटोरी में दाल, जिसमें लौकी, मसाला न जाने क्या-क्या पड़ा है । मैंने मन ही मन सोचा कि नाम बड़े दर्शन थोड़े। यही है मसाला डोसा।

पता नहीं मैं मन से खा भी पाऊँगी कि नहीं। वैसे खाना तो हर हाल में ही है। भूख बहुत लगी  है, उससे भी पहले यह कि मुन्ना ने मंगाया  है। वेटर के जाने के बाद मुन्ना ने मेरी प्लेट मेरे करीब खिसकाते हुए कहा, 'यहाँ का मसाला डोसा बहुत अच्छा होता है।' जिसे मैं दाल समझ रही थी, मेरी तरफ करते हुए कहा, 'सांभर का तो जवाब नहीं।' तब मैं समझ पाई कि यह दाल नहीं सांभर है।

अब मेरी समस्या यह कि खाऊं कैसे? समझ ही नहीं पा रही थी। तो सोचा कि मुन्ना शुरू करें  तो उन्हें ही देखकर शुरू करूं। वह बार-बार मुझसे शुरू करने को कहे तो मैं कहती, 'जी  हां, पहले आप शुरू कीजिए।' 

वह मेरे संकोच को समझते ही खाने लगे। एक तो भूख, ऊपर से गर्म डोसे की खुशबू मुझे अच्छी लग रही थी। मुंह बार-बार पानी से भरा जा रहा था। एक बार देखते ही मैं समझ गई कि डोसा कैसे खाना है। पहले निवाले से ही वह मुझे बहुत ही जायकेदार लगा। मेरे मुंह से बरबस ही निकल गया ,'वाकई  बहुत ही जायकेदार है।'

'यह साउथ इंडियन डिश है। ये जायकेदार बने इसीलिए होटल ने साउथ इंडियन एक्सपर्ट कुक भी रखा है।' 

मुन्ना ने लखनऊ के कुछ होटलों का भी नाम लिया। जहां मसाला डोसा बहुत ही अच्छा मिलता है। तभी मैंने महसूस किया कि, वह कुर्सी जो दो लोगों  के लिए बनी है या तो बहुत छोटी है या फिर मैं ज्यादा फैल गई हूं। क्योंकि मुन्ना और मैं दोनों बहुत प्रयास कर रहे थे, फिर भी हमारे कंधे, बांहें आपस में छू जा रही थीं। यही हाल कमर और जाँघों  का भी था। जैसे ही बदन छूता, मुझमें अजीब सी सिहरन दौड़ जाती। मगर भूख फिर याद दिलाती है कि डोसा सामने रखा है। जल्दी ही हम दोनों ने डोसा खत्म किया।'

'मुझे पूरा विश्वास है कि, यह अनुभव आप जीवन भर भूल नहीं पाएंगी। क्योंकि मैं देख रहा हूं कि, यहां केवल आपका नाश्ता ही नहीं चल रहा है। बल्कि उससे भी बढ़ कर ,एक दूसरी बात ,एक ख़ास तरह का अहसास भी आपमें पनप रहा है, जो आपको मुन्ना की तरफ खींच रहा है। आप-दोनों लिए एक ब्रिज तैयार कर रहा है। जिस पर आप दोनों एक साथ चल सकें। मैं गलत तो नहीं कह रहा हूं।'

 'नहीं आपने बिल्कुल सही कहा है। मैं देख रही हूं कि आप बहुत बारीकी से बातों के सूत्र पकड़ रहे हैं। लेकिन एक बार  फिर कहूंगी कि, 'मुझे यूं आखों में आँखें  डाल-डालकर देखते ना रहिए। मुझे आपकी आंखों में पता नहीं क्या-क्या तैरता दिख रहा है। जो मुझे गड़बड़ा  देता है।'

 यह कहकर बेनज़ीर हंसी, तो मैं भी हंस दिया। मैंने कहा, 'मेरीआंखों में सिर्फ और सिर्फ आपका नॉवेल है। बस वही दिख रहा होगा। पहचानिए उसे।'

'आप बातें भी खूब बना लेते हैं। शायद इसीलिए लेखक हैं।'

मैं हंसा ,फिर बात आगे बढाते हुए बोला,'डोसा ने जो ब्रिज तैयार किया उस.............।' 'बताती हूं। थोड़ा धैर्य रखिए, तो जब घर को चले तो आठ बज रहे थे। अंधेरा घना हो चुका था। मैंने अम्मी को फोन करके बताया कि, काम अभी खत्म हुआ है। बस थोड़ी देर में घर  के लिए चल रही हूं। अम्मी बोलीं, 'अच्छा जल्दी करना। रात हो गई है।' मैंने कहा, 'जी अम्मी, बस पहुंच रही हूं।' 

अचानक मेरा ध्यान इस तरफ गया कि, अम्मी ने यह तो जरूर कहा कि रात हो गई है। लेकिन उनकी आवाज में कोई घबराहट कोई अफनाहट नहीं थी, कि रात हो गई है और मैं एक गैर मर्द, वह भी एक गैर मजहब का, जिन्हें अब्बू काफिर कहा करते थे, के साथ घर से करीब पचीस-तीस किलोमीटर दूर रात हो जाने पर भी हूं। मेरा ध्यान इस तरफ भी गया कि स्वयं मुझ में भी कोई घबराहट नहीं है।

मैं ऐसे निश्चिंत थी जैसे कि घर के ही किसी सदस्य के साथ बिलकुल सुरक्षित हूं। इसकी भी चिंता नहीं थी कि,अम्मी के लिए खाने-पीने का इंतजाम करना है। क्योंकि सवेरे का खाना बनाकर उनके पास रख आई थी कि, जब उनका मन होगा तब खा लेंगी। डोसा खाते समय ही मुन्ना ने फोन  पर ही अम्मी के लिए भी खाना ऑर्डर कर दिया था। चिकन बिरयानी। उन के कहने पर ही अम्मी को मैंने फोन  पर बता दिया कि होटल से कोई खाना लेकर आएगा ,आप उसे लेकर रख लेना। कोई पैसा नहीं देना है। पैसा दे दिया गया है। 

मुन्ना ने पूछने पर भी नहीं बतया कि उन्होंने ऑनलाइन कितना पेमेंट किया है। उन्होंने डोसा खाना शुरू करने से पहले खुद ही कहा था कि, तुम्हारी अम्मी और तुम्हारे लिए भी खाना ऑर्डर कर देते हैं। तुम दिन भर बहुत थक गई हो। जाकर खाना क्या बनाओगी। मेरे मना करने पर भी वह नहीं माने थे।

वापसी में मुन्ना से मैंने उसी जगह छोड़ देने के लिए कहा, जहां सुबह मिली थी। मैं घर                तक उनके साथ नहीं जाना चाहती थी। लेकिन उन्होंने कहा,'अब देर हो चुकी है। आठ बज रहे हैं। तुम्हें पहुंचने में ज्यादा देर हुई तो तुम्हारी अम्मी फिर कभी जाने के लिए मना भी कर सकती हैं।'  

मुझे उनकी बात सही लगी, लेकिन मन डर रहा था कि, मोहल्ले का कोई देख ना ले। मैंने उनसे कहा कि, वह गाड़ी अपने घर के गेट पर बिल्कुल सटाकर रोक ले। मैं वहां से जल्दी से घर चली जाऊँगी।

घर  पहुंची तो अम्मी बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हुई मिलीं। देखते ही बोलीं, 'कहाँ रह गई थी बेंज़ी? इतनी देर काहे हो गई?' 

मैंने जल्दी से उन्हें दिन भर का काम-धाम बताया तो वह बोलीं,'तुम इतना सब काम कैसे कर पाओगी ? चेहरा तो देखो कैसा हो रहा है। जैसे दिन भर भट्ठी के सामने बैठकर खाना पकाती रही हो। कैसा लाल सा हो रहा है। कुछ खाया-पिया कि नहीं या दिन भर ऐसे ही बीत गया।' 'हाँ ,हमने खाया-पिया भी। दिन भर गर्मी इतनी थी कि, हालत खराब हो गई। दूसरे पहले कभी इस तरह दिन भर निकली नहीं इसीलिए और भी ज्यादा गर्मी महसूस हुई।तुम बताओ, तुमने दिन में खाना खाया था कि नहीं या दिन भर भूखी ही बैठी रहीं।'

'हाँ ,खा लिया था। बहुत ही ज्यादा था, बच गया तो फ्रीज में रख दिया है। तुमने दोबारा फिर भिजवा दिया, काहे बेवजह इतना पैसा बर्बाद किया और होटल वालों को हमारा पता कैसे मिल गया।' 

अम्मी को मैंने यह नहीं बताया कि, खाना मुन्ना ने ही भिजवाया था। यह भी नहीं बताया कि मैंने उनके साथ होटल में डोसा भी खाया। मैंने कहा,'अम्मी  कुछ कंपनियां हैं, जिन्हें फोन पर कह दो तो खाना घर  पहुंचा देती हैं।'

 'लेकिन वह पैसा कैसे लेती हैं?' मैंने अम्मी को ऑनलाइन पेमेंट के बारे में बता दिया। उन्होंने तुरंत कहा,'तुम्हारा तो कोई बैंक अकाउंट है नहीं, फिर कैसे पैसा दे दिया?' 

मैंने कहा,'पैसे मैंने मुन्ना को दे दिए। मुन्ना ने अपने अकाउंट से होटल को पेमेंट कर दिया।और सुनो अम्मी,तुम कितनी जल्दी भूल जाती हो ,जब ऑन लाइन बिजनेस शुरू किया तो उसी समय बैंक अकाउंट भी खोला था ,क्यों कि बिना उसके काम हो ही नहीं  सकता था ,लेकिन आज उससे पेमेंट फेल हो रहा था ,तो मुन्ना ने किया।'

'अरे हाँ,यह तो भूल ही गई थी। बिटिया बुढ़ापे में कहाँ याद रहता  है। ' 

मुझे मज़ाक सूझा तो मैंने कहा ,'मेरा निकाह नहीं भूलती न,इसीलिए तुम्हें बाकी कुछ याद नहीं रहता,मेरा निकाह भुला दो तो तुम्हें बाकी सब कुछ याद रहेगा।'

यह कहकर मैंने उन्हें  प्यार से पकड़ कर धीरे से हिला दिया तो वह गहरी सांस लेकर बोलीं ,'बिटिया तुम नहीं समझ पाओगी उस दिल का दर्द ,उसकी हालत, जिसकी तुझ सी ज़हीन ,जवान लड़की का निकाह पैसों की तंगी,परिवार के लोगों के साथ छोड़ देने की वजह से न हो पा रहा हो,उसकी नज़रों  के सामने लड़की का जीवन तिल-तिल कर बर्बाद हो रहा हो।'      

अम्मी की आवाज़ में इतनी गहरी पीड़ा थी कि मेरा कलेजा फट गया ,सोचा क्यों मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया, जो मैंने ऐसी पागलपन की बात कह दी।

 मैंने तुरंत बात का रुख बदलते हुए देर होने की बात छेड़ दी , उन्हें बात समझाने के लिए मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी। उससे कहीं ज्यादा मशक्कत तो वहां पर जो भी काम-धंधा था उसे समझाने में करनी पड़ी। लेकिन इसके बाद उन्होंने फिर बाकी जितने दिन वहां पर जाना हुआ, जाने दिया। कभी मना नहीं किया। जबकि पूरी तरह कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद रोज घर पहुंचते-पहुंचते रात ग्यारह बज जाते थे, क्योंकि देर शाम को कार्यक्रम खत्म होता था। फिर सब कुछ बंद करवाने, अगले दिन के लिए भी कुछ तैयारियां करवाने में मुन्ना को काफी टाइम लग  जाता था। उन्हें दस बजे के बाद ही फुर्सत मिल पाती थी। मैं सुबह से लेकर रात तक उनके जोश-जज्बे को देखकर हैरत में पड़ जाती थी।

मैं सोचती थी कि, यह कहां से इतनी कूवत पाते हैं  कि, चौहद-पन्द्रह घंटे काम करने पर भी इनके चेहरे पर थकान नहीं दिखती। सुबह से रात घर लौटने तक करीब सौ किलोमीटर गाड़ी  ड्राइव करते हैं। मोबाइल पर किसी ना किसी से बातें भी करते रहते हैं । बिजनेस के बारे में, और आगे बढ़ते जाने के बारे में। 

दो-तीन दिन में ही उनसे बात करने को लेकर मेरी जो थोड़ी बहुत हिचक थी वह भी खत्म हो गई। काफी समय बिजनेस की,या फिर इधर-उधर की बातें शुरू हो जातीं। मुझे उनसे बात करना इतना अच्छा लगता कि, मन करता कि बात खत्म ही ना हो। मैं यकीन से कहती हूं कि मुन्ना भी यही सोचते थे। वापसी में उनकी गाड़ी की स्पीड उतनी नहीं होती थी, जितनी कि जाते समय होती थी। मतलब साफ़ था कि, वह भी ज्यादा समय तक मेरे साथ रहना चाहते थे । छठे-सातवें दिन ही हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ने,छूने लगे थे। 

 प्रदर्शनी में कई बार ऐसा कुछ होता कि, मैं उनका हाथ पकड़ कर एक तरफ ले जाकर बातें करती। जैसे एक ऑर्डर लेने की बात हो रही थी, लेकिन जो आदमी मुझसे बातें कर रहा था उसकी आधी अंग्रेजी,आधी हिंदी में कही जाने वाली बातें मेरी समझ में नहीं आ रही थीं। तभी मुझे मुन्ना थोड़ी दूर खड़े दिखे, तो मैं भाग कर उन्हें बुला लाई। आवाज देने के बजाय मैंने उन्हें  बेझिझक पकड लिया था।

इस तरफ मेरा ध्यान तब गया, जब उस आदमी से मुझे ठीक-ठाक ऑर्डर  मिल गया। मैं बहुत यकीन से कहती हूं कि, उस तरफ ध्यान जाते ही मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था। आइना तो पास था नहीं कि, तब झट से देख लेती। इस एहसास के साथ ही जिस तरह मैं सकपकाई थी, उसको देखते मैं यही कहूंगी कि मेरे मन में कुछ ऐसी  बातें तेज़ी से चल चुकी थीं काफी पहले ही, जिसे मुहब्बत ही कहेंगे। अब जल्दी ही हम हल्की-फुल्की हंसी-मजाक भी करने लगे। आते-जाते समय वह मेरा एक हाथ पकड़े ही रहते थे । एक हाथ से ही गाड़ी चलाते थे । जल्दी ही हम इतने करीब आ गए कि एक दूसरे को किस भी करने।'

इतना कह कर बेनज़ीर कुछ रुक कर बोलीं ,'मैं देख रही हूँ ,कि आप ''किस'' सुनते ही कुछ पूछने के लिए बहुत उतावले हो रहे हैं ,पहले आप पूछ लीजिये फिर आगे बढें ।' 

उनका अनुमान सही था। उनका बेहद बिंदास अंदाज देख कर मेरे मन में तुरंत यही  प्रश्न  उठा कि क्या शुरुआत उन्होंने की ? यह सुनते ही वह खिलखिला कर हंसती रहीं  देर तक,फिर बड़े खूबसूरत अंदाज में मेरे प्रश्न को टालती हुईं बोलीं ,'मैं अपनी बात आगे बढ़ाती हूँ ,उसी में आप अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढिएगा, पहली बार जब उनके होंठों से मेरे हाथ टकराए थे, तो मैं सिहर उठी थी। शर्म के मारे दूसरी ओर मुंह करके बाहर देखने लगी थी। मेरा हाथ बड़ी देर तक उनके होठों से जुड़ा ही रहा। गाड़ी धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ रही थी , पीछे की सारी गाड़ियां हम से आगे निकलती  जा रहीं थीं। ज्यादा समय लगने से मुझे घबराहट नहीं बल्कि अच्छा लग रहा था। दरअसल वापसी में मेरे मन में हमेशा यही आता कि यह गाड़ीअपने आप ही टहलती हुई सी चलती, चली जाए। मुन्ना के दोनों हाथ खाली रहें। हाथ ही नहीं उनकी आंखें भी,सब कुछ, जिससे कि वह मुझसे इत्मीनान से मोहब्बत कर सकें । यह सिलसिला आते-जाते रोज का बन गया था।

आखिरी दिन हम करीब ग्यारह बजे वापसी के लिए चल पाए। हमारे उनके बीच अब बातों की कोई सीमा नहीं थी। हर मामलों पर हम बातें करते थे। उस दिन भी चलते समय हम दोनों ने एक होटल में खाना खाया था। मुन्ना बहुत खुश थे और मैं भी। क्योंकि दस दिवसीय कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हो गया था। मुझे छोटे-छोटे ही सही कई ऑर्डर मिल गए थे। जो मेरे अब-तक हो रहे कामधाम के सात-आठ महीने के काम के बराबर थे। ऑर्डर पूरा करने पर मुझे भारी मुनाफा होने वाला था। इसके अलावा मुझे अन्य कई लोगों की तरह बड़े  सरकारी अधिकारी, एक सांसद द्वारा सम्मानित भी किया गया था।

सम्मानस्वरूप शील्ड और ग्यारह हज़ार रुपये नकद मिले थे। जो चिकन कार्य के मेरे हुनर के कारण मिला था। हालांकि पहले दो बड़े पुरस्कार अन्य दो लोगों को मिले थे। लेकिन मेरे लिए तीसरा पुरस्कार भी बहुत बड़ा पुरस्कार था। मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। मुन्ना को क्या कहूं कुछ समझ नहीं पा रही थी। जो भी था सब उन्हीं के कारण हुआ था। पल-भर में उनके कारण मेरे घर की काया पलट गई थी। मेरा जीवन ही बदल गया था। वापसी के लिए गाड़ी  में बैठने पर मैंने मुन्ना से कहा, 'इस ईनाम के असली हकदार तो आप ही हैं। सारा कुछ आप ही ने किया है।'

मेरी बात सुनकर वह गाड़ी की इग्निशन में चाबी लगाते-लगाते  ठहर गए । वह मेरी तरफ प्यार से देखते हुए बोले,'नहीं,अवार्ड तुम्हें, तुम्हारी काबिलियत के कारण मिला है। मैंने तो तुम्हारी काबिलियत को पहचान कर, तुम्हें सही जगह ले जाकर खड़ा कर दिया बस। मैंने पहली बार जब तुम्हारा काम देखा, तभी तुम्हारी इन जादुई उँगलियों का दीवाना हो गया था।' इतना कहकर उन्होंने अचानक ही मेरी उंगलियों को चूम लिया।

मैं सिहरन, रोमांच लिए उन्हें  प्यार से देखती रही। उन्होंने भी प्यार से मुस्कुराते हुए देखा और गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए। शहर से निकलकर हाईवे तक आते-आते हमारी बातें चलती रहीं। हाईवे पर पहुंचने से कुछ पहले जो आंधी शुरू हुई थी वह तेज़ होती गई। मौसम की यह चौथी आंधी थी। इसके पहले आई तीनों आँधियों  ने बड़ा नुकसान पहुंचाया था। धूल-भरी आंधी के कारण जब सामने देखने में मुश्किल होने लगी, तो मुन्ना ने सड़क किनारे एक सही जगह पर गाड़ी रोक दी। कच्चे फुटपाथ से भी और किनारे कर ली थी। मुझे लगा यह अच्छा ही किया। ऐसे मौसम में सड़क से जितना दूर, किनारे रहें उतना ही अच्छा है। मगर इस खराब मौसम में भी तमाम गाड़ियों को पूरी स्पीड में आगे जाते देख रही थी। तभी शायद आंधी के कारण आसपास की लाइट भी चली गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा हो गया था। आती-जाती गाड़ियों की हेडलाइट से ही थोड़ी-थोड़ी रोशनी बीच-बीच में हो रही थी।

आंधी बहुत तेज़ तो नहीं थी, लेकिन धूलभरी होने के कारण ज्यादा मुश्किल पेश कर रही थी। मैंने सोचा पांच-दस मिनट में निकल जाएगी, लेकिन वह चलती ही रही। जैसे-जैसे देर हो रही थी, वैसे-वैसे अम्मी को लेकर मेरी चिंता बढ़ रही थी। मैं यह अच्छी तरह समझ रही थी कि वह अम्मी हैं, और उनकी चिंताएं कई तरह की होंगी। ना जाने कितनी तरह के ख्यालात मन में उनके आ-जा रहे होंगे कि, उनकी जो बेंज़ी बिना सिर ढंके आंगन में भी कदम नहीं रख सकती थी, वह आज रात बारह बजने को है, और वह घर से दूर, फिर कहूंगी कि एक गैर मर्द के साथ ना जाने क्या कर रही होगी , किस हाल में होगी। 

पिछले तीन घंटे में दस-बारह बार बात हो चुकी है। लेकिन हर पांच मिनट बाद कॉल कर रही हैं, और हर बार मुन्ना से बात जरूर कर रही हैं। मुन्ना से मैं बात तो जरूर करवा रही थी, लेकिन मन में मेरे ऐसी ही बातें घूम रही थीं। मैं यह सोचकर व्याकुल हो रही थी कि अम्मी को यकीन कैसे दिलाऊं कि यहां का मौसम कैसा है।

इस मौसम में गाड़ी चलाना कितना जानलेवा हो सकता है। आंधी की तरह हमारी गपशप चल ही रही थी कि, फिर अम्मी की कॉल आ गई। रिंग सुनते ही मुन्ना ने कहा, सुनो उनसे बोलो कि तुम इधर से वीडियो कॉल कर रही हो। हम यहां का सारा मौसम दिखाते हैं।' हमने  यही किया। बड़ी मुश्किल से कॉल कनेक्ट हुई। खराब मौसम के कारण नेटवर्क बहुत वीक हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अम्मी को दिखाया कि कितनी धूल-धूक्क्ड़ है। सड़क पर इक्का-दुक्का ट्रक, बस, बड़ी गाड़ियां  ही निकल रही हैं।

मगर तूफान दिखाते-दिखाते हमें लगा कि यह करके हमने और बड़ी  गलती कर दी है। अम्मी फोन पर ही रो पड़ीं। आखिर मुन्ना ने बहुत समझाया तब चुप हुईं। मौसम की हालत देखकर मैं भी अब घबराने लगी थी। फिर सोचा जो होगा देखा जाएगा। होगा तो वही जो ऊपर वाले ने सोच रखा होगा। हमारे हाथ में है क्या जो हम लोग परेशान हो रहे हैं।




मैंने अपना पूरा मन मुन्ना से बात करने में लगा दिया। उसने पिछले आधे घंटे में यही कोई आठ-दस बार मेरे हाथ को अपने हाथों में लेकर बड़े प्यार से चूमा था। मुझे इतना अच्छा लग  रहा था कि मैं कह नहीं सकती। मेरा भी मन कर रहा था कि मैं भी उसके हाथों को वैसे ही चूमूं। आखिर मैं खुद को ज्यादा देर तक नहीं रोक पाई। मैंने चूम लिया। साथ ही मुझे हंसी आ गई तो वह भी हंस पड़ा। हमारी मोहब्बत भरी बातें जो अभी तक कुछ संकोच के साथ हो रही थीं, उस संकोच को भी हम दोनों ने निकालकर गाड़ी से बाहर फेंक दिया कि जाओ तुम भी भागो तूफ़ान के साथ।

अब हमारे हाथ एक दूसरे को बहुत सी जगहों पर छू रहे थे, और बीच में जो भी अड़चनें  आती थीं, उन्हें भी संकोच की तरह हटाते जा रहे थे। हमारे कपड़े अपनी जगह से हटते जा रहे थे। हाथ एक दूसरे की शर्मगाहों पर मोहब्बत के साथ कई-कई तरह से सफर कर रहे थे। अचानक मुझे लगा कि यह सफर बहुत हुआ, तो मैंने उन्हें अचानक ही पूरे जोर से अपने ऊपर खींच लिया। वह भी जैसे इसी के इंतजार में थे। मुझ पर आने के साथ ही उन्होंने ना जाने ऐसा कौन सा बटन दबाया, घुमाया या फिर खींचा कि, सीट पीछे को चली गई। मुन्ना पूरा का पूरा मुझ पर छा गया। उनकी मोहब्बत का तूफान इतना तेज़ था कि बाहर का तूफान उसके सामने ठहरी हुई हवा भी नहीं था। मैं भी उससे कम नहीं थी। दोनों के तूफान  की रफ्तार एक जैसी थी। एक ही तरह की थी। मैं भी उसके साथ-साथ, उसकी ही तेज़ी से बढ़ती चली जा रही थी। जब हम अपना सफर पूरा कर ठहरे तो बुरी तरह हांफ रहे थे, मगर  जो जन्नत सी खुशी हमें मिली, उसके लिए मेरे पास कोई अल्फ़ाज़ ना तब थे, ना अब हैं। जब हमारी सांसें संभलीं, तब हम अपनी-अपनी सीटों पर आ गए। मेरी सीट को उसने फिर सीधा कर दिया था।'

बेनज़ीर यहीं पर फिर क्षण भर को रुक कर बोली ,

'अरे,आप फिर मुझे इस तरह एकटक देख रहे हैं। क्या हो जाता है आपको?' 

 हल्की मुस्कान के साथ कही गई उनकी बात का मैंने भी बिल्कुल उन्हीं के लहजे में जवाब दिया। कहा, 'मेस्मराइज़ ! मेस्मराइज़  हो जाता हूं मैं आपकी इस बोल्डनेस, इस बेबाकी से। मैं पूरी ईमानदारी के साथ आपसे कहता हूं कि जब, आपसे मीटिंग निश्चित हुई तो उस समय भी मैंने यह कल्पना नहीं की थी किआप इतनी बेबाकी से बात करेंगी। अपनी पूरी तरह से निजी बातों को भी इतना ओपनली, इतना डिटेल में बिना किसी संकोच के बताती जाएंगी। इतना तो यकीन था कि, आप जब बोलेंगी तो बोलती ही चली जाएंगी।मगर ऐसे..।' 

मेरे इतना कहते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ीं । फिर, बोलीं मुझे मुलम्मों में जीना पसंद नहीं। दोहरे चरित्र या हिप्पोक्रेसी से मुझे नफरत है। सच बोलने में कोई हिचक नहीं। क्योंकि सच को छिपाकर, तोड़-मरोड़ कर बोलना, मैं झूठ बोलने के जैसा मानती हूं। फिर इन बातों के आधार पर आप उपन्यास लिखेंगे,न कि मेरी जीवनी। उपन्यास से कौन जानेगा कि यह किस बेनज़ीर की कहानी या उसका वास्तविक जीवन है। पढ़नेवाला तो उसे लेखक की कल्पनालोक की उड़ान समझ कर ही पढेगा।'

' निश्चित ही आपने बातचीत के लिए तैयार होने से पहले बहुत गहराई से होमवर्क किया है।एक-एक बिंदु पर विश्लेषण किया है।आप बहुत बहादुर, बहुत ईमानदार,बड़ी सत्यवादी हैं ,लेकिन एक प्रश्न शुरुआत से ही उत्तर जानने को उत्त्सुक है कि आपके पति बातचीत में शामिल क्यों नहीं हुए ? जबकि आपको पूरी छूट दी कि जो ठीक समझो करो।'

'हाँ ,उन्होंने जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह मुझे यहाँ भी सब कुछ अपनी मर्ज़ी  से तय  करने  की पूरी छूट दी ,एक बात आपको और साफ़ कर दूँ कि जितनी आज़ादी वो अपने लिए चाहते हैं ,उतनी ही मुझे भी देते हैं । बातचीत में वह भी मेरी तरह बहुत स्पष्टवादी हैं,उन्होंने साफ़-साफ़ कहा,'नावेल बेनज़ीर पर लिखा जाना है,बातें बेनज़ीर की होनी हैं,जिसे उसके अलावा और कोई बता नहीं सकता,इसलिए मेरे बैठने का कोई मतलब नहीं। मुझसे सम्बंधित जो भी बातें होंगी,उसमें भी तुम अनिवार्य रूप से जुड़ी हो, तो वह भी तुम बता सकती हो,इसलिए मेरा बैठना बेकार है,बल्कि मेरे बैठने से डिस्टर्बेंस ही होगा,तुम बहुत सी  बातें बताने में संकोच भी कर सकती हो ।' मुझे उनकी बात ठीक लगी तो मैंने उन्हें इस  काम  से आज़ाद कर दिया।'

मुस्कुराते हुए अपनी बात पूरी कर बेनज़ीर प्रश्नभरी दृष्टि से देखने लगीं तो मैंने कहा ,'आपने सही ही कहा था ,वह भी स्पष्ट वक्ता हैं । हाँ ,बात जहां ठहरी थी ,अब उसे आगे बढाते  हैं,                     उस तूफ़ान ने और कैसे अनुभव दिये?'

 'मैं आज भी, अब भी कहती  हूं कि उस तूफ़ान में  उससे ज्यादा रोमांचकारी, वैसा अद्भुत,अविस्मरणीय अनुभव और हो ही नहीं सकता। कार के अन्दर हमारे तूफ़ान  की रफ्तार अपनी मंजिल पर पहुँच कर ठहर गई थी। अब मैं ज्यादा परेशान हो उठी घर के लिए। मगर बाहर तूफान अब भी अपनी रफ्तार पर चल रहा था। उसके कारण मैंने मुन्ना को गाड़ी से बाहर नहीं निकलने दिया। इससे सीट सीधा करने में उसे थोड़ी दिक्कत हुई। कपड़े ठीक-ठाक कर पानी पीने के बाद जब हमने टाइम देखा तो मैंने मुन्ना का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा,'जैसे भी हो अब हमें चलना चाहिए। यह तूफान लगता है हमें रात भर यहीं रोके रहेगा। धीरे-धीरे चलेंगे तो भी आधा-पौन घंटे में पहुंच जायेंगे। यहां विराने में रुके रहना भी कम खतरनाक, कम जानलेवा नहीं है।' मुन्ना मेरी बात मान गए और गाड़ी की सारी लाइट्स छोटी-बड़ी सभी ऑन करके चल दिए। मैंने सोचा कि वह धीरे-धीरे चलेंगे, लेकिन वह दिन से भी कहीं ज्यादा तेज़ चल रहे थे। आंखें सड़क पर गड़ाए हुए, पूरी मुस्तैदी से गाड़ी संभाले हुए थे।

फिर भी बीच-बीच में उनका हाथ कभी मेरे गालों ,कभी मेरी छातियों से मोहब्बत कर, झटके से वापस स्टेयरिंग पर चले जाते थे। उन्हें चलाने में कोई अड़चन ना हो इसलिए मैं लाख कोशिशें करती रही, लेकिन फिर भी खुद को भी कई बार रोक नहीं पाई। लेकिन जब एक जगह मुझे लगा कि इसके चलते एक बार स्टेयरिंग  कुछ बहकी है, और इस मौसम में यह खतरनाक होगा तो मैंने तुरंत ही खुद को काबू में किया। गाड़ी के शीशे पर तमाम धूल-धक्क्ड़ पड़ रही थी। कभी किसी पेड़ की छोटी-मोटी टहनी, तो कभी कूड़े का कोई टुकड़ा आकर टकराता था। धूल इतनी थी कि लग रहा था जैसे घने कोहरे से भरी सर्द रात हो।'

'एक मिनट मैं आपको थोड़ा रोक कर यह पूछना चाहता हूं कि मान लीजिए घर पर अम्मी की चिंता की बात नहीं होती, तो क्या तब भी आप तूफ़ान में ही चल देतीं।'

 मेरी बात पर बेनज़ीर ने हल्की मुस्कान के साथ प्रति प्रश्न कर दिया,'आप बताइए, आप मेरी जगह होते तो क्या करते?'

 मैंने तुरंत जवाब दिया,'घर की चिंता ना होती तो मैं ऐसे मौसम, ऐसे शानदार साथ, अद्भुत क्षण को तब-तक एन्जॉय करता जब-तक तूफान चलता रहता,क्योंकि ऐसा दुर्लभ क्षण संयोगवश ही मिल पाता  है।'

' तो निश्चित मानिए मैं भी एंजॉय करती । ...खैर गाड़ी जब घर  के करीब पहुंच गई तो मैंने मुन्ना से कहकर सामने ऊपर की तरफ लगे शीशे को अपनी तरफ करवा लिया। ताकि मैं यह देख सकूं कि ऐसा कुछ तो नहीं है कि,अम्मी की तेज़ नजरें हमारी तूफानी मोहब्बत की कोई तस्वीर देख लें। ऐसी कई तस्वीरें मुझे दिखीं भी। जिन्हें देखकर बेशुमार तजुर्बे वाली अम्मी जान लेतीं कि हमने तूफ़ान का बेजा इस्तेमाल किया है। मैंने जल्दी-जल्दी सारी तस्वीरें मिटा डालीं। मगर उस छोटे से शीशे में सब कुछ नहीं देख पा रही थी तो मैंने मुन्ना से पूछा कि, 'सब ठीक तो है ना?'

उसने ऊपर से नीचे तक गहरी नजर डालकर कमर से नीचे कुर्ते पर एक जगह इशारा किया। जिसे देखकर मेरी जान हलक में आ गई कि अब क्या करूं, उसने मेरी घबराहट का कारण समझते हुए कहा, 'अपने दुपट्टे को ऐसे सामने किये रहना कि वह दिखे ना।' उनके बताए रास्ते के अलावा मुझे और कोई तरीका नहीं दिखाई दिया। घर के और करीब पहुंचने पर मुन्ना ने कहा,'अम्मी को फोन कर दो कि, दरवाजा खुला रखें। दरवाजा खटखटाने या फिर हॉर्न बजाने पर पड़ोसी जान जाएंगे, और तुम्हारा किराएदार भी।' असल में इस तरफ मेरा ध्यान गया ही नहीं था।

दरअसल हम दोनों नहीं चाहते थे कि कोई हम दोनों को इतनी रात को साथ आते हुए देखे। उसने करीब दो सौ कदम पहले ही गाड़ी की हेडलाइट भी ऑफ कर दी। दरवाजे के पास गाड़ी रोक दी और सम्मान के साथ उतार कर जल्दी से अपने घर चला गया। मैं भी उतनी ही तेज़ी से घर के अंदर पहुंचकर दरवाजे को बंद कर दिया।अम्मी दरवाजा खोले खड़ीं थीं। किराएदार ना जाग जाए यही डर मन में था। बाहर तूफान अभी भी शांत नहीं हुआ था। नामुराद बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था। 

मैंने पहले अम्मी को पकड़  कर बिस्तर पर बिठाया। वह बुरी तरह हांफ रही थीं। उन्हें पानी पिलाया फिर कहा,'अम्मी हमें माफ करना। तुम देख ही रही हो कि तूफान बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा है। यह नामुराद ना होता तो मैं कब का आ गई होती।' 

'इसीलिए तो मेरी जान हलक में अटकी थी कि पता नहीं क्या हो रहा है। बार-बार मन में आ रहा था कि, मुन्ना गाड़ी तो चला ही सकता है। कार के अंदर तो धूल-कबाड़ नहीं पहुंच रहा होगा।'

 उनकी इस बात से मैं सहम गई। मैंने कहा, 'अम्मी तुम ठीक कह रही हो। लेकिन शीशे के बाहर सड़क भी तो दिखनी चाहिए ना। सड़क पर जगह-जगह लकड़ियां कबाड़ पड़ा हुआ था। आगे कुछ दिखना मुश्किल हो रहा था। रास्ते में कई गाड़ियां पेड़ से टकराई हुई दिखीं। मुन्ना बड़ी मुश्किल से चलाकर आ पाए। हम दोनों बार-बार कह रहे थे कि, तुम परेशान हो रही होगी।'

इसी बीच अम्मी को और एक गिलास पानी देते हुए कहा, 'लगता  है दिन भर तुमने पानी भी नहीं पिया। तुम टीवी में समाचार लगाओ,तो तुम्हें सब दिख जाएगा ।'

मैं अम्मी की बातों से भीतर ही भीतर दहल जा रही थी, अम्मी रिमोट लिए बैठी रहीं। टीवी ऑन नहीं किया तो मुझे लगा कि, वह ज्यादा गुस्सा हो गई हैं। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था तो अचानक ही रिमोट लेकर टीवी ऑन कर दिया। उस समय मेरा मुकद्दर जैसे मेरे साथ खड़ा हुआ था। टीवी पर मौसम का हाल ही दिखाया जा रहा था। जगह-जगह होर्डिंग्स , न जाने क्या-क्या उखड़े हुए थे। जिन्हें देखकर अम्मी को मेरी बात पर ऐतबार हो गया। उन्होंने कहा, 'शुक्र है ऊपर वाले का कि तुम सही सलामत आ गई।'

उनकी यह बात सुनकर सोचा कि, अम्मी तुम और जो हुआ वह जानकर ना जाने क्या कहोगी । मगर मुझे खुद पर कोई पछतावा नहीं है, क्योंकि मैं पक्के तौर पर कहती हूं कि मैंने कुछ भी नाज़ायज़ नहीं किया। उस समय मेरे मन में चाहे जितनी उथल-पुथल थी, लेकिन पुरस्कार की खुशी उस पर भारी थी। तो मैंने सबसे पहले ग्यारह हज़ार रुपये और ट्रॉफी उनके हाथ में देते हुए कहा, 'अम्मी, मुझे वहां बहुत सारे लोगों  के बीच यह पुरस्कार दिया गया। इसकी असली हकदार तुम्हीं हो। तुमनेअपना हुनर ना सिखाया होता तो मुझ अनपढ़ को कहां कोई पूछता।'

 अम्मी ने कांपते हाथों से रुपये और ट्रॉफी को लिया और बड़ी हसरत भरी नजरों से देखने लगीं। उनकी आंखें भर आई थीं। बहुत भावुक हुई जा रही थीं।

मैंने प्यार से उन्हें पकड़ते हुए पूछा,'अम्मी तुम खुश हो ना? काहे परेशान हो रही हो ?'

'नहीं बेंज़ी, मैं परेशान नहीं हूं,मैं तो खुश हूं। सोच रही हूं तू, तेरी बहनें कितनी हुनरमंद हैं। मगर सब कैसे क्या से क्या हो गया। ऊपर वाले का शुक्र है कि उसने तुम्हें मौका दे दिया। तू आगे बढ़ चली है। नाम रोशन करने लगी है, भले ही देर से ही सही। मगर बाकी दोनों को अपना हुनर दिखाने का मौका ही नहीं मिला। मेरी तरह निकाह, शौहर बच्चों में पिस रहीं हैं। हर चीज का एक समय होता है। अब वो कहां कुछ कर पाएंगी, सिवाए रोटी-दाल के लिए मशक्कत के। मुझे अब उन दोनों से कोई उम्मीद नहीं रही।'

'इसीलिए कहती हूं अम्मी, तुम मेरे निकाह की चिंता छोड़ दो। मुझे मौका दो कि मैं दुनिया में तुम्हारा नाम रोशन करूं।'

 'नहीं बेंज़ी निकाह भी जरूरी है। बच्चे भी जरूरी हैं। बस तुम्हें शौहर ऐसा मिले, जो तुम्हारी, तुम्हारे हुनर की कद्र करने वाला हो। तुम्हारी तरक्की के लिए मददगार बने ना कि तुम्हारे पैरों की बेड़ियाँ। ना ही ऐसा जाहिल मिले, कि सांसें कितनी लो यह भी गिन कर तय करे।' अम्मी की इन बातों ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया तो मैंने उनसे कहा,'अम्मी छोड़ ना निकाह-विकाह की बातें। यह बताओ कि खाना खाया कि नहीं?'

'नहीं, सोचा कि आ जाओ तो साथ ही खाऊँगी।'

 'क्याअम्मी,बड़ा ज़ुल्म करती हो खुद पर। बताओ दो बज गए हैं। खाना तक नहीं खाया। यह देखो नाश्ता भी रखा है। तुम ऐसे भूखी रहोगी तो, ना मैं कुछ कर पाऊँगी , न आगे बढ़ पाऊँगी।'

 'अरे भूख नहीं लगी तो क्या करती।'  

 'ठीक है, मैं दो मिनट में गुसल करके आई।'

 रात दो बजे नहाने का कोई वक्त नहीं था, लेकिन उस हालत में, मैं अम्मी के साथ खाना नहीं खाना चाहती थी। अभी तक दुपट्टे को अजीब ढंग से आगे किए हुए, भीतर ही भीतर थर-थर कांप रही थी कि, अम्मी की नजर कहीं उस जगह न पड़ जाए जो झट से मेरी उनसे चुगली करने के लिए बेताब है।

 उन्होंने कहा भी, 'इस  समय क्या नहाओगी, हाथ-मुंह धो लो बस।' लेकिन मैं हर हाल में गुसल करना चाहती थी। इसलिए दिन भर धूल-पसीने का वास्ता दिया और जल्दी-जल्दी गुसल करके अम्मी के साथ खा-पीकर अपने अस्त-व्यस्त से कमरे में आ गई।

तभी मेरे दिमाग में आया कि देखूं ज़ाहिदा,रियाज़ जाग तो नहीं रहे हैं। नहीं तो इतनी रात को आने की खबर इनको हो गई होगी। मैंने आंखें उनके कमरे में गड़ाई तो देखा दोनों एक दूसरे की आगोश में समाए सो रहे थे। बच्चा एक तरफ सो रहा था। ट्यूबलाइट जल रही थी। जिसे देख कर मुझे गुस्सा आई कि बिल देते समय पचास तरह का मुंह बनाएंगे कि इतना ज्यादा बिल कैसे हो गया। मगर दोनों की बेइंतिहा मोहब्बत देख कर मन में यह आए बिना नहीं रहा कि जो भी हो मुझे प्यार करने वाला ऐसे ही टूट कर प्यार करने वाला हो। तब मुझे मुन्ना का प्यार ज़ाहिदा-रियाज़ के प्यार से भी ज्यादा गहरा लगा। मैं उसके ख्वाबों में खो गई।

नींद में भी वह मुझे बेइंतिहा प्यार करता रहा। कभी वह मेरी बाहों में, कभी मैं उसकी बाहों में। मेरा यह हसीन सपना कानों में पड़ीअम्मी की तेज़ आवाज़ ने तोड़  दिया।

 मैं हड़बड़ा कर उठी,कपड़े  पहने, अम्मी के पास पहुंची तो वह बोलीं ,'क्या बेंज़ी , सेंटर नहीं जाना क्या? देख कितना टाइम हो गया है।'

 सुबह के साढ़े नौ बज गए थे। मैंने कहा,'अभी तैयार हुई अम्मी। इतनी रात हो गई थी कि नींद ही नहीं खुली।' यह पहली रात थी जब ज़ाहिदा-रियाज़ नहीं मुन्ना के कारण मैं रात भर  सो नहीं सकी थी। तकरीबन चार बजे तो आंख लगी थी। सेंटर में भी दिन भर ठीक से काम नहीं कर पाई और मन मुन्ना से ही जुड़ा इठलाता रहा,अठखेलियां करता रहा। मुन्ना दो बार आये और काम की जो बातें थीं बताकर चले गए।

उन्हें देखकर लग ही नहीं रहा था कि, वह कुछ वैसा ख़ास समय मेरे साथ बिता चुके हैं । जो मैं आखिरी सांस तक भुलाए ना भूल पाऊँगी। शाम को चलने को हुई तभी मुन्ना आये और मुझे एक महीने बाद काशी में होने वाले एक कार्यक्रम के बारे में बताया। जो मुख्यतः कढाई -बुनाई या बुनकरों से जुड़ा हुआ था। उन्होंने कहा, 'यह तुम्हारे लिए बाराबंकी से भी बड़ा  अवसर है। शामिल होने के लिए फॉर्म ऑनलाइन भरना है। आज लास्ट डेट है। चलना चाहोगी। मैं तो जा रहा हूं। उम्मीद है वहां काफी फायदा होगा। मुझे भी अभी घंटे भर पहले ही किसी दोस्त से मालूम हुआ है।'

मुन्ना की बात पर मैंने तुरंत हां कर दी। फॉर्म भी उन्होंने ही भर दिया। मुझे वह एक-एक बात ऐसे बता रहे थे, जैसे सिखा रहा हों। मुझ से यह भी कहा कि पहले अम्मी से पूछ लो। बहुत जोर दिया। लेकिन मैंने कहा,'वह मान जाएंगी, मना नहीं करेंगी। तुम फॉर्म भर दो।' उन्होंने गौर से मुझे देखा, फिर फॉर्म भर दिया। उसमें फोटो भी अटैच करनी थी। तो अपने मोबाइल से ही फोटो खींचकर उसे भी अटैच कर दिया। फोटो खींचते समय, कपड़े  ठीक करने के बहाने उन्होंने कई बड़ी खूबसूरत सी शरारत भी मेरे साथ कर डाली। जो मुझे भीतर तक गुदगुदा गई। मुझे शर्म नहीं, डर लगा कि कहीं कोई देख ना ले।

घर आकर अम्मी को बताया कि,'अम्मी करीब आठ-दस दिन के लिए काशी जाना है। बाराबंकी वाले से भी बड़ा  कार्यक्रम है। अगर सब ठीक रहा तो फिर कोई बहुत बड़ा ईनाम जीत सकती हूं। वहां सबसे छोटा इनाम भी दो लाख रुपये का है। तुम यहां पर काम कर रही लड़कियों  को आराम से देखती ही रहती हो। सब काम भी अच्छा कर रही हैं।' 

मेरी बात सुनकर अम्मी बड़ी चिंता में पड़ गईं। बड़ी देर तक सोचने के बाद बोलीं,'इतनी दूर तुम अकेली ही जाओगी।'

'नहीं मुन्ना भी है। उसी के साथ जाऊँगी।'

'अरे वो लेकिन है तो बाहर का ही ना। एक मर्द ही है ना। उस पर इतना यकीन कैसे करूं। वह भी आठ-दस घंटे के लिए नहीं आठ-दस दिन के लिए। तुम्हें कितनी बार बताया कि किसी भी लड़की,औरत के लिए मर्द की नजर एक ही होती है। मौका मिलते ही उसकी आबरू पर हाथ साफ कर देना ही उनकी जेहन में चलता है। तू होशियार रहे, अपनी आबरू की अहमियत को समझे, इसके लिए तुझे, तेरे बचपन की एक घटना की बार-बार याद दिलाती रहती हूं। जब तू सोलह-सत्रह की रही होगी तब दूर के तेरे एक चच्चा आए थे। हज पर जाने से पहले सबसे मिलने के लिए निकले थे। यहां भी आए, उनका पूरा परिवार था। उन्हीं का बड़ा मासूम सा दिखने वाला सोलह-सत्रह साल का लड़का तेरी आबरू का दुश्मन बन बैठा था। वो तो तेरा मुकद्दर अच्छा था जो मौके पर तेरी दोनों बड़ी बहनें पहुंच गईं और तेरी आबरू बचा ली थी। नहीं तो उस कलमूंहे ने तेरी आबरू लूटने में कोई कोर कसर-बाकी नहीं रखी थी।

अपने मकसद में कामयाब हो जाता तो तू एक लुटी हुई आबरू वाली लड़की होती। घर के किसी कोने में पड़ी रहती। लोग पुलिस में भी जाने से रोक रहे थे कि, घर की बात घर में ही निपटा लो। मैं तो उस करमजले को उसी वक्त पुलिस को हर हाल में दे देना चाहती थी। मेरा खून खौल रहा था कि मेरी फूल सी बच्ची पर उसकी गंदी नज़रें, गंदे हाथ पड़े। लेकिन तेरे  अब्बू ने रोक दिया की बदनामी होगी जातीय मसले हैं। कौम की बदनामी पर क्यों अमादा है। मुझे गाली देते हुए बोले, 'तेरे गलीज दिमाग में इतना नहीं आया कि मामला पुलिस में गया तो भाईजान की हज यात्रा भी मुश्किल में पड़ जाएगी। इतना बड़ा गुनाह करके तुझे दोजख में भी जगह नहीं मिलेगी।'

मुझे बड़ी गुस्सा आई थी कि गुनाह कौन कर रहा है, गुनाहगार  सामने है, और गुनाहगार  मुझे बताया जा रहा है। अजीब आदमी है। अपने बच्चे के साथ जिसने गुनाह किया उसकी मुखालफत करने, उसे सजा दिलाने के बजाय उल्टा हमें ही, बच्ची को ही ऐसे गुनाहगार कह रहा है कि जैसे दुनिया के सबसे बड़े गुनाहगार हम हैं। वह तो उसके अब्बू की यह बात मानने तैयार हो गए कि, जब वह हज़ से लौटेंगे तो उसी लड़के से तेरा निकाह करा देंगे।मैंने कहा बस बहुत हुआ ,भलाई इसी में है इनकी कि तुरंत भागे यहां से नहीं, अब पुलिस बुलाने में देर नहीं करूंगी। मगर इनकी निखट्टई,शह के कारण वह करमजला और उसके अब्बा भी ऐसे ऐंठे हुए थे कि, जैसे गुनाह हमने किया है। मैं बड़ी मुश्किल से थाने जाने से खुद को रोक पाई थी। लेकिन फिर भी जिद पर अड़ गई कि पूरा परिवार इसी वक्त भागे यहां से। मैं उनको भगा कर ही मानी। लेकिन इसके लिए तेरे अब्बू  ता-ज़िंदगी मुझसे, जब-जब याद आता तब-तब झगड़ा करते रहे।'

अम्मी की बातों को गौर से सुनने के बाद मैंने कहा,'अम्मी एक बात बताऊँ, आबरू की बात आती है तो सोचती हूं कि आबरू क्या सिर्फ औरतों, लड़कियों की ही होती है। मर्दों की नहीं होती। जब भी वह लुटती है तो केवल औरतों,लड़किओं की ही लुटती है। आज तक मैंने नहीं सुना कि किसी मर्द की आबरू लुट गई। अरे उस समय दोनों की आबरू लुटती है। लुटने वाली की भी और लूटने वाले की भी। मर्द लड़की की आबरू लूटने के लिए उसे नंगी करता है, तो खुद भी तो नंगा होता है। लड़की की शर्मगाह नंगी होकर उसके जुल्मों सितम का शिकार होती है तो उसकी शर्मगाह भी तो बेपर्दा होती है। बल्कि मर्द तो और भी ज्यादा बत्तर होता है। वो खुद ही अपने हाथों से अपनी इज्जत तार-तार करता है। फिर यह क्यों कहा जाता है कि लड़की की आबरू लुटी। यह क्यों नहीं कहते कि मर्द की भी आबरू इसी दरमियान लुट गई। उसका भी बलात्कार हुआ। वह इतना बड़ा जाहिल था कि अपने ही हाथों अपनी आबरू लुटा बैठा।'

अम्मी मुझे आश्चर्य से देखती, सुनती रहीं। मैंने सोचा कि वह मेरी बात से रजामंद होंगी। कहेंगी कि, बेंज़ी तू तो बड़ी-बड़ी बातें करने लगी। लेकिन मेरा सोचना गलत निकला। वह बोलीं, 'अरे बेंज़ी तू कैसी बातें कर रही है। इतनी बड़ी हो गई तुझे इतना भी नहीं मालूम कि औरत और मर्द की शर्मगाह में जमीन-आसमान का फ़र्क़ होता है। औरत की शर्मगाह मर्द की शर्मगाह को बेआबरू कर ही नहीं सकती। जबकि उसकी शर्मगाह औरत की शर्मगाह  की आबरू लूट सकती है। उसे तार-तार कर सकती है। तू अभी नादान है। इन सबके चक्कर में ना पड़। इससे कोई मकसद हल होने वाला नहीं।'

'अम्मी तुम मेरी बात ही नहीं समझ रही हो। खैर छोड़ो इन बातों को। इनमें क्या रखा है। ऐसे  मामलों में जमाने से जो चला आ रहा है, सब मानेंगे तो वही ना। मगर अम्मी मैं पूरे यकीन से कहती हूं कि जमाना बदलेगा भी। अपना ही घर देख लो ना, पहले क्या था, अब क्या है, लेकिन अभी यह मसला दर-किनार करके यह बताओ कि मैं काशी जाऊं या तुम्हारी इच्छा है कि मैं ना जाऊं।'

 'बेंज़ी मैं तुझे क्या समझाऊं। मैं खुद ही कुछ नहीं समझ पा रही हूं।'

 'अम्मी अगर तुम्हारे मन में एक पैसे के बराबर भी यह बात है कि मैं काशी ना जाऊं तो मुझे बेधड़क रोक दो। काशी ना जाने दो। क्योंकि मैं चाहती हूं कि तुम आधे-अधूरे मन से मुझे बिल्कुल ना भेजना। अपनी दुआओं के साथ ही भेजना। तेरी दुआओं, तेरी तरबियत से ही मैं वहां भी भारी इनाम जीतूंगी। अम्मी सच बताऊं जिन लोगों को बाराबंकी में मैंने पहला, दूसरा, तमगा लेते देखा, सच में वह सब मेरे काम के आगे दसवें पायदान के काबिल भी नहीं थीं। बाद में मुन्ना ने भी यही कहा था। ऐसी जगहों पर भी पूरी ईमानदारी कहां बरती जाती है। लेकिन अम्मी काशी वाला कार्यक्रम बहुत बड़ा कार्यक्रम है। वहां दिल्ली से बड़े-बड़े  अधिकारी और नेता आएंगे। इसलिए वहां पर यहां से ज्यादा ईमानदारी होगी। अम्मी इसीलिए मुझे वहां से बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं कि, मैं वहां पर बहुत आगे रहूंगी। सच में। मेरा यकीन करो ।'

मेरी बात पर अम्मी बड़ी  देर तक मुझे गौर से देखती रहीं, फिर बोली, 'ठीक है बेंज़ी। अभी तो एक महीने का टाइम है। मुझे कुछ सोचने-समझने का समय दो। बाराबंकी पास में है। रात में अपने घर आ जाती थी। काशी तो दूर है। आना-जाना और दस दिन रुकना कुल मिलाकर बारह-तेरह दिन घर से बाहर रहना होगा। यह बहुत बड़ी बात है बेंज़ी, कोई मामूली बात नहीं है।' 

'तुम सही कह रही हो अम्मी। बहुत बड़ी बात है। लेकिन काम भी तो बहुत बड़ा है। सारे हुनरमंदों के वहां रुकने और खाने-पीने की व्यवस्था सरकार कर रही है। फिर भी हम अपनी तैयारी से तो रहेंगे ही।'

 'और मुन्ना काहे के लिए जा रहा है?'

 'अरे संस्था तो उसी की है ना। कोई हुनरमंद वहां अकेले भाग नहीं ले रहा है। संस्थाएं अपने यहां से जुड़े उन्हीं हुनरमंदों को लेकर जाएंगी जो अपने काम में माहिर हैं। चिकनकारी में मुन्ना के यहां अकेली मैं ही हूं।'

 'तो अकेली तुम्हीं जाओगी ?' 

'नहीं, दूसरे कामों के भी कई हुनरमंदों को मुन्ना ने रजिस्टर किया है। उसे भी आज ही शाम को मालूम हुआ था। तो जल्दी-जल्दी जो हो सका, उसने किया।'

 मैं अम्मी को बड़ी देर तक समझाती रही लेकिन वह असमंजस से बाहर नहीं आ सकीं।

मैंने सोचा अभी बहुत टाइम है। बाद में फिर बात करूंगी। कोई ना कोई रास्ता निकल ही आएगा, क्योंकि अब अम्मी घर में कैद रहने वाली सोच से बाहर आ चुकी हैं। अम्मी को बस थोड़ा संकोच यह है कि बाहर बारह-चौदह दिन रहना पड़ेगा। वह भी किसी बाहरी के साथ। पर अब अम्मी को क्या बताऊं कि, मुन्ना अब मेरे लिए बाहरी नहीं है। मेरा मुन्ना है। वह मेरी हर तरह से मदद कर रहा है। उसने मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया है। अब घर में कितने ज्यादा पैसे आने लगे हैं। पहले तो कभी ख्वाब में भी नहीं सोचती थी कि इतने पैसे हाथ में आएंगे। पूरे घर की सूरत-सीरत कितनी बदल गई है।

कितनी ढेर सारी नई-नई चीजें आ गई हैं और खुद अम्मी और मुझमें अब कितनी तब्दीली आ गई है। पहले से अम्मी कितनी अच्छी हो गई हैं। सेहत उनकी कितनी सुधर गई है,और अपनी क्या कहूं, इन कुछ दिनों में बदन पहले से कितना ज्यादा भर गया है। अम्मी दो बार खुद ही कह चुकी हैं कि, मुझमें बहुत बड़ा निखार आ गया है, जैसे कि उम्र को कई बरस पीछे कर दिया है। अभी कुछ ही दिन पहले ही की तो बात है जब एक दिन नहा-धोकर कपड़े सूखने के लिए डाल रही थी, तभी मुझे गौर से देखते हुए तुम बीते दिनों को याद कर बोलीं,'बेनज़ीर सही ही कहा गया है कि सुकून की नमक-रोटी भी सेहतमंद कर देती है। फसाद की कबाब रोटी भी सेहत गलाती जाती है।'

अम्मी को तैयार करने में मुझे आठ-नौ दिन लग गए। लेकिन इतने दिनों बाद जब उन्होंने खुशी-खुशी कहा कि,'बेंज़ी,अब तू इतनी बड़ी ,इतनी समझदार हो गई है कि, अब सारे मसलों पर खुद ही फैसला लिया कर। अब मेरी उम्र हो गई है। आज नए जमाने की चीजें मेरी समझ में ज्यादा नहीं आतीं। तू अब सब जगह आने-जाने लगी है। दुनिया समझने लगी है। बहुत कम वक्त में बहुत कुछ जान-समझ लिया है। पूरे घर को देखने लायक बना दिया है। पहले कितना गंदा रहता था। हर तरफ टूटा-फूटा सामान भरा रहता था। हर एक सामान से कंगाली ही दिखाई देती थी। अब सब बदल गया है।

लगता है कि इस घर में भी पैसा है। यहां के लोग जाहिल नहीं, तरक्की पसंद हैं। वक्त के साथ चलने वाले हैं। यह सब तूने ही किया है बेंज़ी। इसलिए अब तू रुक ना, बस आगे-आगे बढ़ती जा। तरक्की की उस बुलंदी पर पहुंच, जहां पहुंचकर दुनिया के लिए एक मिसाल बन जा। हर मां-बाप अपने बच्चों को तुम्हारी मिसाल देकर कहे, कि बेंज़ी ने कितना बड़ा काम किया है। तुम भी कुछ करो। बेंज़ी जैसी बनो।' तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी बातों ने मुझमें कुछ देर के लिए बड़ा गुरूर भर दिया। अम्मी मुझे इसी तरह दुआएं देती जा रही थीं और मैं आगे  बढ़ती  जा रही थी। बड़ी व्यवसाई मजूमदार शॉ, इंदिरा नुई जैसी महिलाएं मेरी आदर्श बन चुकी थीं। इनके बारे में मुन्ना ने कई बार बताया था। यूट्यूब पर उनके बारे में सुनती-देखती तो उनसे भी आगे निकलने का ख्वाब देखती।

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काशी जाने की तैयारी में मुन्ना जो-जो बताते जा रहे थे , मैं वो-वो करती जा रही थी। मेरे सामानों की ऑनलाइन सेल भी बढ़ती जा रही थी। एक दिन मैं अपने कमरे में काम कर रही थी। साथ ही मोबाइल पर एक यूट्यूब चैनल भी देख रही थी। वह किसी विदेशी औरत का चैनल था। उसमें वह महिलाओं के जो कपड़े खुद डिज़ाईन करती, सिलती थी, उन्हें पहन कर दिखाती भी थी कि शरीर पर कैसा फबता है। उसके चैनल को देखने वालों की संख्या लाखों में थी। उसको देखकर मेरे मन में आया कि अपने कपड़ों का मैं भी ऐसा ही कुछ प्रचार करूं क्या? इतने छोटे-छोटे कपड़े पहन कर भले ही अपना चैनल ना बनाऊं फेसबुक, इंस्टाग्राम पर फोटो व सारी बातें लिखकर तो डाल ही सकती हूं।

मुन्ना कितना बताता रहता है इन सब के बारे में। ऑनलाइन सेल के लिए कितनी कंपनियों के नाम बताता है। लेकिन पता नहीं ऐसे कपड़ों में मेरी फोटो वह पसंद करेगा कि नहीं। बड़ी  मगजमारी कर मैंने फैसला किया कि, इस तरह अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए एक बार हाथ जरूर आजमाएंगे। बहुत सोच-विचार कर मैंने एक तरीका निकाला कि जैसे बहुत से लोग अपनी फोटो में चेहरा नहीं आने देते वैसे ही मैं भी करूंगी।

इसके लिए सबसे पहले मैंने मुन्ना से फोटो में काट-छांट करना, मोबाइल में टाइमर लगाकर  कर फोटो खींचना सीखा। इसके बाद नई चीज करनी है, यह सोचकर इनरवियर की नई डिजाइनें तैयार कीं। इसमें चिकन कपड़े को भी आजमाया। मोबाइल पर देखती रहती थी कि इसके लिए नेट वाले कपड़े ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं। उन्हीं को देखकर मैंने माइक्रो, मिनी, फुल, एक्स एल, एक्स्ट्रा लॉर्ज आदि कई साइज के कपड़े तैयार किये। यह करते-करते रात में सोते समय पहने जाने वाले कपड़े भी डिज़ाइन किये। सब कपड़े चिकन के थे, अलग-अलग रंग डिज़ाइन के।

यह मोबाइल का ही कमाल था जो मैं सब जानती-सीखती जा रही थी। उसी से देखकर फैशन का नया चलन भी जानती, कि लेटेस्ट ट्रेंड क्या है। फिर उसी में कुछ और बदलाव कर कुछ नया बनाती गई। मैंने औरतों के लिए चिकन की ही पैंट-शर्ट भी बनाई, साथ में वॉस्केट भी। यह सोच कर कि जो महिलाएं थोड़ी संकोची होंगी, उनके लिए यह एक नई स्टाइल भी होगी । दोहरा कपड़ा होने के कारण कपड़ा थोड़ा गफ हो जाएगा ।

यह सब बनाने के बाद पहनकर फोटो खींचने का वक्त आया तो मैं घबरा गई कि मैं यह क्या करने जा रही हूं। मेरे जिस बदन को सूरज की किरणें भी आज तक पूरा नहीं देख पाईं ऐसा  करके तो मैं उसकी पूरी दुनिया के सामने नुमाइश लगा दूंगी। सारी दुनिया आंखें फाड़-फाड़  कर देखेगी। आहें भरेगी। मुझको लेकर ना जाने कैसे-कैसे ख्यालात मन में लाएगी। यूट्यूब की मेहरबानी से मैं मॉडलिंग का अलिफ,बे,पे,ते(उर्दू वर्ण माला के अक्षर) सब सीख गई थी। मैं छोटे-छोटे कपड़े पहनकर मोबाइल में टाइमर सेट कर चुकी थी। लेकिन हिम्मत डगमगा  रही थी।

रात आधी बीत गई लेकिन मैं असमंज में पड़ी रही, जबकि मोबाइल अपना काम कर चुका था। मैं उसके सामने होती तो मेरी फोटो खिंच जाती। लेकिन मैं इससे अलग खुद से ही जंग  किए जा रही थी। दिमाग में एक साथ दो-दो जंग में मशगूल थी कि,'ऐसा मत कर बेंज़ी ,तू आगे बढ़ने के लिए क्या अपना बदन दुनिया के सामने नुमाया करेगी। शुरू से आज तक जिसे सूरज भी पूरा नहीं देख पाया। सयानी होने के बाद जिसे सिवाय मुन्ना के पूरी कायनात में कोई नहीं देख सका। मुन्ना को तो तूने अपना शौहर माना हुआ है, तो वहां तो ऐतराज वाली कोई बात नहीं है। हालांकि शौहर तो तूने तूफ़ान वाली रात कार में उस पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के कुछ दिन बाद माना था। आखिर तू  दुनिया के सामने अपना बदन दिखाने की हिम्मत क्यों कर रही है।'

ख्यालों में इस बेंज़ी से मुकाबला करती बेंज़ी बड़ी तेज़-तर्रार थी। वह बोली, 'तूम कभी अंधेरी कोठरी से बाहर निकलकर खुली-खिली धूप में रहकर भी कुछ सोचा-समझा करो। तेरी सोच गूलर के मस्सों (कीड़ों) की तरह है। जैसे वह गूलर के अंदर रहते हैं। उसे ही वह सारी दुनिया समझते हैं। और जब गूलर टूटता है तो बोलते हैं या रब दुनिया इतनी बड़ी है। और आश्चर्य से उनकी रूह ही निकल जाती है। तो गूलर के मस्से ना बन बेंज़ी।अपनी अम्मी से ही सीख, जो पहले बिना बुर्के के बाहर नहीं निकलती थीं। तुम सब भी घर के आंगन में भी बिना सिर ढांके नहीं निकल सकती थीं।

आज सब कितना बदल गया है। तू अपनी मुंबई वाली बहनों से जान ही चुकी है कि, अब वो भी ना केवल समय के साथ चल रही हैं, बल्कि अब तो वह कभी-कभी जींस और कुर्ती भी पहनती हैं। उनके बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। और तू? अरे कोठरी वाली बेंज़ी मेरी बातों का मतलब यह नहीं कि तू बेशर्म बने, बेशर्मी अपनाए। तू जो भी करे, दायरे में रहकर करे। बस गूलर के मस्से ना बनी रहे। दुनिया में कितनी तो लड़कियां हिजाब पहनकर खेलकूद में भाग  ले रही हैं। और तू अभी भी अंधेरे कमरे में दबी-कुचली लड़की सी, घुटने में सिर दिये बैठी है। इसी दम पर बिज़नेस की दुनिया में बहुत बड़ा मुकाम बनाने चली है। करना है, तो जो काम जिस तरह करना चाहिए उसे उसी तरह कर, नहीं तो गूलर के मस्से बनकर अंधेरी कोठरी के कोने में पड़ी, अनाज की बोरी की तरह छलनी होकर अपने को खत्म होने दे।

जैसे घुन अनाज चाल-चाल कर अनाज की बोरी भी चाल डालते हैं। वैसे ही तुझे भी कोठरी का घुप्प मनहूस अंधेरा चाल डालेगा। तू कुछ ही समय में सूख चुके हाड़-मांस की एक ठठरी बन चुकी होगी और फिर जल्दी ही खत्म हो जाएगी। अभी जो बदन तुझे फूल सा खिला-खिला लग रहा है। बड़ा गुमान करती है जिसे देख-देख कर, जरा याद कर कुछ बरस पहले का वक्त जब घर में ही कैद रहते-रहते यह पीलिया के रोगियों की तरह पीला-पीला मरियल सा हो गया था।

धूप की आहट से ही तेरी आंखें चुंधिया जाया करती थीं। तेरे ख्वाबों की रुपहली दुनिया में अम्मी अपने टूटे ख्वाबों की इमारत बनते देख रही हैं। देख, कुछ बड़ा करने का जो ख्वाब देखा है,अपनी अम्मी को भी दिखाया है, तो उसे मुकम्मल करने के लिए बड़े कदम उठाती जा। बड़े कदमों से ही बड़ी  मंजिल नापी जाती है। ख्वाबों को हक़ीक़त में तब्दील किया जाता है। और जो यह नहीं कर सकती तो लड़खड़ाते कदमों से चार कदम आगे , दो कदम पीछे चलने से कुछ नहीं होने वाला।

इससे तुझे मिलेगी सिर्फ मायूसी और घुट-घुट कर खत्म हो जाने का सामान। और तू तो दो कदम नहीं आठ कदम पीछे जा रही है। सोच-सोच, तुरंत सोच बेंज़ी । और जो करना है तुरंत कर डाल। चल कदम बढ़ा, बड़े कदम, चल उठ ना।' तेज़-तर्रार बेंज़ी की बातों ने दबी-कुचली बेंज़ी में जोश,ऊर्जा ही नहीं हज़ार वोल्ट का करंट दौड़ा दिया।'

बेनज़ीर की प्रभावशाली वर्णन क्षमता देखकर मैं उनकी तारीफ किए बिना नहीं रह सका। मैंने बीच में रोकते हुए कहा,'बहुत ही शानदार वर्णन कियाआपने। बिलकुल एक सधी हुई लेखिका की तरह। आपका यह हुनर भी आपकी पर्सनालिटी का प्लस पॉइंट है। मन कर रहा है बस सुनता ही रहूं,आप आगे बताइये।'

'तारीफ के लिए शुक्रिया,तो अपनी भीतरी जंग से जीत कर मैं उठ बैठी,फिर से कैमरा तैयार किया ,और फोटो के लिए तैयार हो गई। तभी ज़ाहिदा-रियाज़ के कमरे से कुछ आवाज आई। मैं चौंक उठी। मेरे कमरे की बत्ती जल रही थी। मैं पहले की तरह टिमटिमाती नहीं तेज़-तर्रार बेंज़ी की तरह तेज़-तर्रार वाली लाइट में थी। मुझे लगा कि दरवाजे की झिरी से वो दोनों मेरी ही तरह मुझे देख रहे हैं। मैं सहम गई। इन दो छोटे-छोटे कपड़ों में मुझे देखकर दोनों न जाने क्या-क्या सोच रहे होंगे।

मैंने जल्दी से अपना कुर्ता उठाया और उससे खुद को सामने से ढंका और गुस्से में झिरी से उनके कमरे में देखने लगी कि अगर इन दोनों को इधर देखता पकड़ लिया तो कल ही मकान खाली करा लूँगी। लेकिन मैं गलत निकली। वह दोनों वैसे ही निकले जैसे अमूमन रहते थे। वह तो अपनी ही दुनिया में खोए एक दूसरे को बेपनाह मोहब्बत किए जा रहे थे। बच्चा सो रहा था। मैं एक नजर डाल कर वापस अपनी जगह आ गई यह सोचते हुए कि, रात भर ये मुए  मोहब्बत ही करते रहते हैं। पता नहीं सोते कब हैं। इसके अलावा इनके पास जैसे कोई काम ही नहीं है।

मैंने फिर से कैमरा तैयार किया और एक-एक कर सारे कपड़े पहनकर फोटो खींची। माइक्रो वाले कपड़ों पर एक बार फिर डरी, संकुचाई। लेकिन फिर तेज़-तर्रार बेंज़ी की बातें याद आते ही खींच डाली कि बड़े ख्वाब को हक़ीक़त में बदलने के लिए बड़े कदम उठाने ही पड़ते हैं।

सब फोटो खींचने के बाद मैंने उन्हें एडिट किया। गर्दन से ऊपर का हिस्सा क्रॉप कर दिया। मुन्ना फोटो एडिटिंग के बारे में जो बताता था वह सब कर दिया। फोटोज पोस्ट करने से पहले एक बार फिर से साइट पर जाकर ऐसी मॉडलों को देखा तो मुझे एहसास हुआ कि, मेरा बदन मॉडलों की तरह कटावदार तो है लेकिन उतना दुबला नहीं। मैं उनके सामने मोटी लग  रही हूं। एक प्लस साइज मॉडल लग रही हूं। मगर यह भी सच है कि खराब नहीं लग  रही हूं। थोड़े भरे हुए बदन की अपनी एक अलग खूबसूरती है। नज़ाकत है।

मगर साथ ही एक कमी भी मैं साफ देख रही थी कि उन मॉडलों के शरीर जहां संगमरमर से पॉलिश्ड लग रहे थे, वहीं मेरा सामान्य सा लग रहा था। फिर सोचा चलो काम भर का तो है। मुन्ना ने बताया था कि इन सब की फोटो खींचने से पहले बड़ी तैयारी की जाती है। पूरे शरीर की वैक्सनिंग से लेकर न जाने क्या-क्या करी जाती है। कई वीडियो भी दिखाए थे कि मेकअप करने वाले कैसे उनका मेकअप करती हैं। मॉडल उस समय बुत बनी खड़ी या फिर बैठी ही रहती हैं।'

'वाह! एक बार फिर कहूंगा कि आप निश्चित ही बड़े शानदार ढंग से, सारी बातें बता रही हैं । साथ ही मेरा एक भ्रम दूर कर दिया कि, स्वयं से संवाद केवल लेखक ही किया करते हैं। लेकिन आपने तो इससे एकदम अलग फील्ड की होकर भी, जिस तरह हाई लेविल का आत्म संवाद किया है, वह वाकई प्रशंसा योग्य है। उस समय आपका यह आत्म-संवाद और कहां तक चला।' 

'शुक्रिया, आगे भी मैं इसी जिद्दोजहद में खुद से लड़ती-उलझती काशी जाने की तैयारी करती रही। तरह-तरह की डिजाइनें बना-बना कर रखती रही। मुन्ना तैयारियों की एक-एक बात रोज पूछते थे। जिस दिन मैंने मॉडलिंग वाली फोटो डाली उसके करीब चार-पांच दिन के बाद मैं रात को अपने काम में जुटी हुई थी। तभी मोबाइल पर मुन्ना की कॉल आ गई। मैंने जैसे ही कॉल रिसीव की वैसे ही उधर से चूमने की आवाज़ आई।

 मैंने कहा, 'एक बजने वाले हैं और तुम अभी तक पुच्च-पुच्च कर रहे हो।' 

मेरी बात पर वह जोर से हंस पड़े। मैंने कहा, 'अरे इसमें हंसने वाली क्या बात है?'

'तुम बात ही ऐसी कर रही हो। किस करने को पुच्च-पुच्च कह रही हो।' 

मैंने भी हंसते हुए कहा, 'बात एक ही है, चाहे उसे चुम्मा कहो या फिर किस। बात तो बस चूमने भर की है ना।'

 'नहीं, चूमने भर की नहीं और भी बहुत कुछ करने की है।'

 'क्या?'

 'पास आओ तो बताएं।'

 'अच्छा तो तरीका भी तुम्हीं बताओ कि छोटे से मोबाइल में कैसे आऊं करीब।'

 'कहा न करीब आओ बताता हूं।'

 इतना कहकर उन्होंने फोन  काट दिया। मैं समझ गई कि अब वीडियो कॉल आएगी। कुछ सेकेंड बाद ही मैंने उनकी वीडियो कॉल रिसीव की और फिर पिछली तमाम बार की तरह वीडियो कॉल के जरिए हमारी बेपनाह मोहब्बत चलती रही।

उसके बड़े  प्यार इसरार पर मैंने उसे वही मॉडलिंग वाले कपड़े पहनकर दिखाए। उसने उसी दिन नेट पर सारी फोटो देख ली थी। मैंने सोचा था कि, मैं उसे काशी चलने से दो-चार दिन पहले यह नई डिज़ाइन के कपड़े दिखाऊँगी। मुझे ध्यान नहीं था कि, मेरी आईडी में मुन्ना भी तो लिंक है। उसने मेरी हिम्मत की दाद दी। जितनी हो सकती थी उतनी तारीफ की। कसीदे पढ़ डाले। साथ में यह जोर देकर कहा कि तुममें एक खूबसूरत मॉडल बनने के सारे गुण हैं। मैंने झूठ बोला कि, 'फोटो में मैं नहीं हूं। घर पर जो लड़कियां काम करने आती हैं, उन्हीं में से एक है।'

तो उसने हंसते हुए कहा, ' मज़ाक किसी और से करो, जिसने तुम्हें देखा है, उससे नहीं। इन फोटो से तुम एक बार अपनी अम्मी को कंफ्यूज कर सकती हो, लेकिन मुझे नहीं। जिसने अपनी जानेमन के रोम-रोम को प्यार किया है। देखा है। ना जाने कितनी बार गाड़ी, कमरे, विराने से लेकर खुले आसमान के नीचे तक।'

उसने तमाम ऐसी और बातें कहीं कि, मुझे शर्म के साथ-साथ हंसी भी आती रही।

मैंने कहा, 'तुम सही कह रहे हो। मैं तो तुम्हें बस यूं ही छेड़ रही थी। देख रही थी कि तुम्हारी आंखें कितनी तेज़ हैं।'

'तो बताओ कितनी तेज़ हैं।'

'इतनी कि दिल में क्या है, वह भी देख लो।'

'तो बताऊं, अभी तुम्हारे दिल में क्या है।'

 'बताओ'

 'यही कि मैं तुम्हें अपनी बाहों में भरकर...।'

 'बस-बस, मुझे मालूम है कि आगे क्या कहोगे।अरे मेरे दिल में ऐसा कुछ नहीं है समझे।'

 'मैं जो कह रहा हूं, तुम्हारे दिल में वही है समझीं।'

 इसी तरह हमारे प्यार-मोहब्बत की बातें चलती रहीं। हम रोज-रोज और ज्यादा एक दूसरे में गहरे उतरते जा रहे थे।

देखते-देखते काशी जाने का समय एकदम सामने आ खड़ा हुआ। मैंने इस दौरान कम से कम सत्रह-अट्ठारह घंटे रोज काम किया। जुनून सवार था कि वहां पर अव्वल आना है। आला दर्जे की हुनरमंद का खिताब जीतना है। प्रदर्शनी के लिए इतने कपड़े, इतनी,डिज़ाइनें तैयार की थीं कि, पूरे चार बड़े-बड़े सूटकेस भर गए थे। अम्मी को भी सब दिखाती रही। माइक्रो, मिनी, लार्ज, एक्स एल, को छोड़ कर। सोते समय पहनने वाले कपड़ों यानी कि स्लीपिंग सूट  और चिकन के लेडीज पैंट-शर्ट, विथ वॉस्केट को देखकर अम्मी आश्चर्य से बोलीं थीं, 'अरे  बेंज़ी तू इतना सोच लेती है। मुझे तो जो कुछ भी सिखाया गया उससे ज्यादा कुछ सोच ही नहीं पाई। तू सच में बहुत बड़ी हुनर वाली है। काशी में तू सबसे बड़ी हुनरमंद का खिताब जरूर पाएगी । बड़ा नाम करेगी तू। तेरा काम अब इतना ऊंचा हो गया है कि, अब मेरे पास तुझे बताने के लिए कुछ भी बचा ही नहीं है। अब तो मैं तुझसे सीखा करूंगी।' 

कहती-कहती अम्मी बड़ी  भावुक हो गईं। मेरा लंबा समय अंधेरी कोठरी में बीत जाने पर फिर अफसोस जताने लगीं  थीं, कि यह सब कर उन्होंने सारे बच्चों के संग बड़ी ज्यादती की थी। फिर वही बातें दोहराने लगीं कि,'सारे बच्चों का मुस्तकबिल मैंने अपने हाथों से ही तबाह कर दिया। मेरी अक्ल पर पत्थर पड़े हुए थे कि मैं इतनी जरा सी बात समझ नहीं पाई कि जो कुछ ऊपर वाले ने तय किया है वही होगा। मगर मैं जाहिल अपनी मर्जी चलाने की कोशिश करती रही।'

मैंने देखा अम्मी कुछ ज्यादा ही ग़मगीन होती जा रही हैं तो उन्हें समझाते हुए कहा, 'हमारे  साथ जो कुछ हुआ, सब ऊपर वाले की रज़ा थी, और आगे जो भी होगा वह भी उसी की रज़ा  से होगा। अपने को गुनाहगार मान कर क्यों खुद को सजा दे रही हो।'

'नहीं बेंज़ी मैं खुद को सजा नहीं दे रही। मैं तो इतना भर कह रही हूं कि, आदमी को समय रहते अक्ल आ जाए, तो उसकी झोली हमेशा खुशियों से भरी रहती है। और जो नहीं आती है तो मेरी तरह उसका दामन दुखों से भरा रहता है।'

इतना कहते-कहते उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें चुप कराया। जब जाने के सिर्फ दो दिन बचे तो मुझे अम्मी के खाने-पीने की, देखभाल की चिंता सताने लगी। उसके पहले जाने की खुशी में, जोश में, यह बात मेरे ज़ेहन में आई ही नहीं थी। इस चिंता ने मुझे इतना परेशान किया कि, मैं रात भर काम तो करती रही लेकिन इस मसले का हल क्या निकालूं, ज़ेहन में यही बात बार-बार चलती।

आधी रात के करीब मन में आया कि, अम्मी भी अब-तक इस मसले पर कुछ बोली ही नहीं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह भीतर ही भीतर मेरे जाने से नाराज हैं। लेकिन अपनी एक जवान औलाद के उत्साह और जज्बे को देखकर, अपनी बात कह नहीं पा रही हैं। मेरी भी मगज में न जाने कैसा भूसा भरा है कि, सबसे वाजिब बात भी दिमाग में नहीं आई।

मेरी इस लापरवाही को अम्मी निश्चित ही मेरी बदतमीजी ही समझ रही होंगी। सीधे-सीधे यही कह रही होंगी कि, 'बेंज़ी अब पहले वाली बेंज़ी नहीं रही। कैसा सब अपनी मनमर्जी का किये जा रही है। चौदह-पन्द्रह दिनों के लिए इतनी दूर जाने के लिए जोर लगा रही है। लेकिन एक बार भी नहीं कहा अम्मी तू खायेगी- पियेगी  कैसे? कौन देखभाल करेगा?' यह सब सोचकर मैं अपनी जान बड़ी सांसत में पा रही थी। लेकिन जाने की जिद ऐसी थी कि मैं मसले का हल निकालने के लिए तड़पने लगी। ऐसे जैसे कि, पानी से कोई मछली बाहर आ गिरी  हो या कोई सिर कटी मुर्गी  तड़फड़ा रही हो।

अंततः मैंने खाने का हल निकाला कि मोबाइल पर खाना ऑर्डर करके पहुंचवा दिया करूंगी । दिन में तो सिलाई-कढाई करने वाली लड़कियां रहतीं  हैं। बस बात रात भर की है। अचानक ही ज़ाहिदा का ध्यान आया कि, यह तो दूसरे-तीसरे दिन ही शाम को मियां के साथ घंटे, दो घंटे को घूमने जाती है। बाकी समय घर पर ही रहती है। कह दूंगी कि काम-धंधे के चलते जाना पड़ रहा है। इसलिए अम्मी का बस दो हफ्ते ख्याल रखे। लेकिन अगले ही पल फिर असमंजस में पड़ गई कि कैसे कहूं, आज तक तो इससे कभी खुलकर दुआ-सलाम भी नहीं हुई।

अम्मी भी इसे ज्यादा पसंद नहीं करतीं। दूसरे कहने पर यह दुनिया भर की बातें पूछेगी। आप कहां जा रही हैं? क्यों जा रही हैं? किसके साथ जा रही हैं? वो भी इतने दिन के लिए। और तब मैं जो भी बताऊँगी उसे यह मिर्च-मसाला लगा कर मोहल्ले भर में बताती भी फिर सकती है। हालांकि मोहल्ले में किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करती। लेकिन क्या पता यह बात इसके लिए गपशप करने का बढियाँ सबब बन जाए।

बाराबंकी में इनाम मिला तो मोहल्ले से कितने लोग आए, मगर ये दोनों नहीं आए। भूलकर भी नहीं आए और ना ही मुबारकबाद दी। घर से निकली तक नहीं। इसको अपने हुस्न का गुरुर तो माशाअल्लाह गज़ब का है ही। अपने हुस्न पर इतनी ऐंठ है कि निगाह ही नहीं मिलाती। मियां भी बेगम को जन्नत की हूर से कम नहीं समझता। जब-तक रहता है कमरे में, तब-तक बेगम को लिए घुसा रहता है। दिन हो या रात बेहया-बेगैरतों की तरह चुम्मा-चाटी से ही फुर्सत नहीं पाता। ना जाने कैसी-कैसी आवाज़ें करते रहते हैं दोनों।

दुनिया भर की इधर-उधर की बातें सोचते-सोचते मेरा दिमाग बिल्कुल भनभना उठा तो सोचा, चलो कल एक बार बात कर ही लेते हैं। शायद बात बन ही जाए। देखें इस समय यह पूरा घमंडी कुनबा क्या कर रहा है। कमरे में नजर डाली तो मैं बड़ी देर तक देखती ही रह गई। रियाज बिस्तर पर एक तरफ बेसुध सो रहा था। उसकी लुंगी खुल गई थी और उसे खबर तक नहीं थी। मगर ज़ाहिदा जाग रही थी। सीने से खुलने वाली उसकी मैक्सी पूरी खुली हुई थी। एकदम मियां की लुंगी की तरह। और गोल-मटोल गुड्डा सा उसका बेटा उसकी छाती पर ही लेटा दूध पी रहा था।

अम्मी की बाई छाती को चूसे जा रहा था। मगर बीच-बीच में रुक जाता था। वह जितना नींद में लग रहा था उतना ही भूखा भी लग  रहा था। भूख सताने लगती तो चूसने लगता। जब नींद सताती तो सोने लगता। इधर ज़ाहिदा का दाहिना हाथ मियां को जगाने में लगा हुआ था। उसके चेहरे पर अजीब सी रेखाएं उभरी हुई थीं। उसका मतलब तो मैं समझ रही थी लेकिन उसके लिए कोई अलफ़ाज़ सोच नहीं पाई कि कहूं क्या? जिस तरह उसके हाथ हरकत कर रहे थे, उससे मियां भी नींद से बाहर आता जा रहा था। जल्दी ही बच्चा गहरी नींद में सो गया।

ज़ाहिदा ने उसे दीवार की तरफ सुरक्षित लिटा दिया,और मैक्सी को निकालकर एक तरफ रख दिया। उसे उस तरह देखा तो मैं बड़ी देर तक देखती ही रह गई। सोचा यह अपने हुस्न पर गुरुर गलत नहीं करती। इसका मियां भी गलत नहीं है। कौन मियां ऐसी बीवी पर हर वक्त मर नहीं मिटेगा। पलकों पर नहीं बिठायेगा। हर वक्त बाहें नहीं फैलाएगा। अब-तक रियाज की नींद टूट चुकी थी। उसने आंखें बंद किए-किए ही ज़ाहिदा को अपने ऊपर खींच लिया और मैं अपनी जगह आकर बैठ गई।

 'आपको बीच में फिर रोक रहा हूं यह पूछते हुए कि, आपको नहीं लगता कि उनके कमरे में झांकने की आपको आदत पड़  गई थी। आप कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेती थीं, उन्हें उनके नितांत एकांत क्षणों में देखने का।'

'बड़ी मुश्किल बात पूछी है,लेकिन मेरा एकदम आसान, सीधा सा उत्तर है कि ना आदत थी, ना बहाना ढूंढती थी। यह सब अनायास हो जाता था।'

 'ठीक है वापस आने के बाद आपने...।'

 'वापस अपनी जगह बैठी तो मुझे पसीना हो रहा था। वह ऐसे बह रहा था जैसे मैं बहुत दूर से दौड़ती-भागती हुई आई हूं। अपनी जगह आते हुए मैंने सोचा कि, इनको अम्मी की जिम्मेदारी देने का कोई मतलब ही नहीं है। ये अपनी दुनिया में ही खोए-डूबे रहेंगे। ऐसे में जरूरत पड़ने पर अम्मी की आवाज इनके कानों में पहुंचेगी ही नहीं। सच में हुस्न भी क्या बला है। आदमी सब कुछ भूल जाता है इसके आगे। मेरी अप्पियों का हुस्न ही तो था, जो उनके आदमी अपने परिवार को भी छोड़कर चल दिए। लेकिन  तुरंत ही मन में बात उठी कि नहीं, यह सच नहीं है। 

मेरा हुस्न भी तो इन से कम नहीं है। मुझे तो कोई नहीं मिला कि मेरे लिए घर-बार छोड़ दे। लेकिन मुन्ना! हां वह चाहता तो बहुत है। कहता तो है, 'मैंने तुम्हें जीवन साथी बना लिया है। जीवन भर साथ रखूंगा। किसी भी सूरत में अब कोई हमें अलग नहीं कर सकता। हम दोनों अच्छे से काम-धंधा जमा लें, तब तुम्हारी अम्मी से बात करूँगा।' जब भी मैं कहती हूं कि, 'मान लो मेरी अम्मी, तुम्हारे घर वाले, दोनों ही तैयार ना हुए तो?' कितने यकीन से कहता है कि घबराओ नहीं। मैं समय आने पर कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लूँगा।' 

अब यह तो ऊपर वाला ही जाने कि ऐसा वक्त कब आएगा। आएगा भी कि नहीं। और नहीं आया तो? यह सोचकर मैं घबरा गई। एकदम कांपने लगी। बड़ी देर बाद मन में आया कि नहीं, ऊपर वाला ऐसा नहीं करेगा। वह जानता है कि, मेरा सच्चा मुन्ना, मुझे कितना चाहता है। इससे अच्छा तो कोई मुझे नहीं लगता।




वह बहुत भला इंसान है। कितना साफ-साफ कहता है कि, 'पहले दोनों इस लायक हो जाएं कि किसी को ऐतराज़ ना हो।' कैसे दिन रात लगा रहता है, अपना और मेरा बिजनेस बढ़ाने  के लिए। मुझे और मेहनत करनी पड़ेगी। तभी मैंने कपड़े का थान उठाया और ज़ाहिदा की मैक्सी से मिलती-जुलती एक नई डिज़ाइन तैयार की। चिकन की मैक्सी बनाई। मैं मुन्ना से नसीहत मिलने के बाद हर चीज बड़े,अमीर लोगों की पसंद, उनके तौर-तरीकों को ध्यान में रखकर ही बनाती थी।

इन सारी जद्दोजहद के साथ काशी जाने का समय आ गया। जाने के लिए जब देर रात को मैं निकली तो अम्मी मुझे बिल्कुल भी परेशान नहीं दिखीं। जबकि मैं बराबर सोचती रही थी कि जाते समय वह बहुत ग़मगीन हो जायेंगीं। उन्हें उस हाल में देखकर खुद मेरा मन बहुत भारी हो जाएगा। लेकिन अम्मी ने हमें खुशी-खुशी रुखसत किया। खूब दुआएं दीं।

मुन्ना ने स्टेशन जाने के लिए कैब बुलाई थी। पहले अपने घरअपना सारा सामान रखा। फिर मुझे लेनेआये। जल्दी-जल्दी मेरा भी सामान रखा और कार के पीछे का दरवाजा खोलकर मुझे बैठने को कहा। उन्होंने अम्मी को नमस्ते बोला तो अम्मी ने उन्हें भी दुआएं दीं। वह आगे  ड्राइवर के बगल में बैठ गए। बैठते ही गाड़ी चल दी। घर से काफी आगे निकल जाने के बाद उन्होंने ड्राइवर से हेडलाइट ऑन करने के लिए कहा। मेरा ध्यान इस तरफ नहीं गया था कि गाड़ी की हेड लाइट्स ऑफ हैं । जब उन्होंने कहा तब मेरा ध्यान इस ओर गया कि, जब गाड़ी  लेकर आये थे तो उसकी सारी लाइट्स ऑफ थीं। मेरे लिए वह छोटी से छोटी बात का भी पूरा ध्यान रखते थे। लाइट्स के कारण मोहल्ले वालों की नजर जल्दी आ गड़ेगी,उन्होंने  इतनी छोटी सी बात का भी ध्यान रखा था।'

'यह बात भी आपके प्रति उनके अतिशय प्रेम को ही प्रतिबिम्बित कर रही है।' 

 'हाँ ,ऐसी अनगिनत बातें हैं,जो मेरे लिए उनकी बेपनाह मोहब्बत को बयां करतीं हैं।आगे अभी आप और देखेंगे। हाँ तो जब गाड़ी मेन रोड पर पहुंच कर स्टेशन की ओर मुड़ी तो उन्होंने गाड़ी रुकवा दी। मैं कुछ समझती उसके पहले ही वह पीछे आकर मेरे पास बैठ गए । गाड़ी चल दी तो मेरा एक हाथ अपने हाथ में लेकर बोले,'तुम्हारीअम्मी नाराज तो नहीं हैं ना।'

 'मुझे लगता है कि बिल्कुल भी नहीं। देखा नहीं, चलते वक्त कितनी दुआएं दे रही थीं।'

'हाँ, दुआएं तो वह मुझे भी दे रही थीं, लेकिन मुझे बिल्कुल विश्वास नहीं था, कि वह इतनी आसानी से तुम्हें मेरे साथ जाने देंगी। तुमने कैसे उन्हें तैयार कर लिया।'

'तैयार क्या किया? जब तुमने बताया तो मैंने उसी दिन घर पहुंच कर उनसे बात की। बहुत परेशान हो गईं कि इतनी दूर मैं कैसे जाऊँगी। वह भी इतने दिनों के लिए। मैंने सब कुछ बताते हुए कहा, 'अगर तुम कहोगी, तभी जाऊँगी, नहीं तो नहीं जाऊँगी। अभी कई दिन हैं, इत्मीनान से सोच-समझ कर बताना।' चार-पांच दिन बीत गया लेकिन वह कुछ नहीं बोलीं। आगे जब भी बात करतीं, हमेशा कुछ ना कुछ संदेह ही पैदा करतीं।

सच बताऊं मुझे एक पैसे का यकीन नहीं था कि मुझे जाने देंगी। यही सोच-सोच कर मैं बड़ी  चिंता में पड़ी रही लेकिन अपनी तैयारी करती रही। बढियाँ से बढियाँ डिज़ाइन,कढाई सारे काम उन्हें दिखाती रही। आखिर उन्हें लगा कि, मेरा हुनर ऐसा है कि उसे उसके मुकाम तक पहुंचने दिया जाए। एक दिन तो बोलीं, 'तू इतना जान गई है कि मुझे बता सकती है।' मग र आखिर तक उनके मन में यह असमंजस बना रहा कि, एक गैर मर्द के साथ जा रही हूं और इतने दिन साथ रहूंगी। मुझे पक्का यकीन है कि, उनके मन का डर जब-तक मैं वापस नहीं आ जाऊँगी तब-तक बना रहेगा।'

 'हूँ ... आखिर मां है। एक बात और कि अगर डर बना हुआ है तो इसका मतलब यह है कि मैं अब-तक ऐसा कुछ नहीं कर पाया जिससे उनका पूरा विश्वास मुझ पर बन पाता।'

 'नहीं ,ऐसा नहीं है। विश्वास नहीं होता तो भेजती ही क्यों? जमाने को देखते हुए कोई भी मां निश्चिंत नहीं हो सकती। फिर हम बड़े घरों के तो हैं नहीं, जहां पर इस तरह की बातें फिजूल मानी जाती हैं।'

'हूँ... लेकिन तुम्हें तो मुझ पर पूरा भरोसा है ना?' 

'तुम भी कैसी बातें कर रहे हो। इतना कुछ हो जाने के बाद, सब कुछ तुम्हारे हवाले कर दिया, तब भी यह पूछ रहे हो?' मेरी इस बात पर मुन्ना ने मेरा हाथ हल्के से दबा दिया। तभी मेरा दिल धक् से हो गया।'

'क्यों ?'

'क्योंकिअम्मी के खाने-पीने का कोई इंतजाम मैंने किया ही नहीं था। शुरू के दिनों में बात दिमाग में थी, लेकिन चलने के जुनून में, आखिर के दिनों में यह बात भूल गई। अपना यह जुनून महसूस करके मैं दंग रह गई। मेरी परेशानी मेरे चेहरे पर झलकने लगी। मुन्ना को समझते देर नहीं लगी। मैंने पूछने पर बताया तो बोले ,'परेशान ना हो। मुझे ध्यान था। अम्मा को बोल कर आया हूं। वह सब देख लेंगी।'

 'लेकिन इतने दिन?'

'कुछ ख़ास नहीं है, आसानी से देख लेंगी।'

 उनकी इस बात से मुझे इतनी राहत मिली कि मैं अम्मी के खाने-पीने को लेकर निश्चिंत हो गई और उनसे से पूछा,'एक बात बताओ, तुम्हारी अम्मा ने कुछ कहा नहीं कि, मैं तुम्हारे साथ जा रही हूं।'

'थोड़ा बहुत कहा, लेकिन जैसे तुमने समझाया वैसे ही मैंने भी समझाया तो मान गईं।'

 इसी समय गाड़ी एक चौराहे पर खड़ी हो गई , क्योंकि हल्का सा जाम लगा हुआ था। मैंने पूछा,' समय से पहुंच तो जाएंगे ना?'

  'हाँ, अभी काफी टाइम है। ट्रेन करीब आधा घंटा लेट भी है।' मुन्ना ने मोबाइल देखते हुए कहा।

 'अच्छा ,लेकिन आधी  रात हो रही है, तब भी यहां इतना जाम है।'

'हाँ , स्टेशन करीब है। बस और मेट्रो स्टेशन भी यहीं पास में हैं। लोग  एक साथ आ जाते हैं। टेम्पो, ऑटो-रिक्शा ,सारी गाड़ियां एक साथ आएंगी तो यह तो होना ही है।'

करीब पन्द्रह मिनट के बाद जब हम स्टेशन पर पहुंचे तो मुन्ना ने कुली कर लिया। सामान बहुत था, पन्द्रह दिन के हिसाब से काफी कुछ ले जा रहे थे। ढेर सारा सामान तो मेरा ही था, पांच सूटकेस और दो बैग। सब एक हफ्ते पहले ही खरीदे थे ,क्योंकि घर में कहीं जाने-आने लायक एक भी बैग, सूटकेस नहीं था।

हम कभी, कहीं जाते ही कहां थे जो हमें इनकी जरूरत पड़ती। चार सूटकेस मुन्ना के भी थे। मैं जीवन में पहली बार रेलवे स्टेशन के अंदर पहुंच रही थी। इतना बड़ा स्टेशन, इतने लोग , सब मेरे लिए बड़ी बात थी। तीनों कुली आगे-आगे सामान लेकर चल रहे थे। एक बैग लिए मुन्ना पीछे-पीछे चल रहे थे,उन्हीं के साथ एक बैग लिए मैं भी। करीब चालीस मिनट के बाद ट्रेन आई तो कुली हमें अंदर हमारी सीट,जिसे मुन्ना बर्थ कह रहे थे,पर छोड़ कर चले गए। तब मैं सीट,बर्थ यह सब कुछ जानती ही नहीं थी। हमारी बर्थ सबसे ऊपर वाली थी। आमने-सामने की। नीचे की सारी बर्थें पहले से ही भरी हुई थीं। बोगी में हमारे जैसे कुछ ही लोग चढे  थे। बाकी लोग पहले के स्टेशनों से चढे थे, और वह सभी सो रहे थे। मुन्ना ने सामान बर्थों के नीचे रख कर मुझे बर्थ पर चढ़ाया। पहली बार  रही चढ़ थी तो मुश्किल भी हो रही थी।

मुन्ना मदद ना करता तो चढ़ ना पाती। तभी मुझे अहसास हुआ कि, मेरा शरीर वाकई ज्यादा भारी हो गया है,और मुन्ना के बाजुओं में जबरदस्त ताक़त है। 

 कुछ देर बाद मुझे ठंड लगने लगी। बाकी सभी लोग पहले से ही कंबल ओढ कर सो रहे थे। हमने भी कंबल ओढ लिया। इसके पहले मुन्ना ने दो चादरें निकाल कर , एक मेरे कंबल के नीचे लगा दी थी और  एक अपने में। वह बहुत साफ-सफाई पसंदआदमी हैं । कंबल से मेरा चेहरा ढंकते हुए बोले,'आराम से सो जाओ। ट्रेन सुबह पहुंचेगी।' मैंने सामान की ओर इशारा किया तो उन्होंने इशारे से कहा, ' निश्चिंत रहो।' फिर लाइट ऑफ कर दी। पूरी बोगी में निकलने के रास्ते पर ही हल्की सी रोशनी थी, बाकी में अंधेरा। बीच-बीच में कुछ लोगों के हल्के-हल्के खर्राटे की आवाज भी हो रही थी। हमारे लेटते ही ट्रेन चल दी। नींद से मेरी आंखें कड़ुवा रही थीं लेकिन मारे जोश के मैं सो नहीं पा रही थी। कम्बल ओढ़ते हुए मैंने सोचा कि इतना चाहने,ध्यान रखने वाला और कहाँ मिलेगा,घर में चादर रख रहे थे,तब भी मैं इनके ध्यान थी,मेरे लिए भी रखना भूले नहीं। इनके इस प्यार से मेरी आँखें भर आईं।'

'आँखें तो आपकी अब भी भर आईं हैं ।'

मैंने बेनज़ीर की डबडबा आईं आँखों को देखते हुए कहा ,तो वह अपनी भावुकता पर नियंत्रण करती हुई बोलीं ,'इन्होंने मुझे जो बेपनाह मोहब्बत दी, ये उसी खुशी के आसूं हैं । ये और भी निकल पड़ते हैं ,जब दुखःदर्द ,मुफलिसी में बीती अपनी बीती ज़िंदगी याद आती है,तब मन में यह जरूर आता है कि इन्होंने अगर अपनी मोहब्बत भरी दुनिया में मुझे जगह न दी होती,तो क्या मैं तब भी ज़िंदा होती है?और इस प्रश्न का मुझे हर बार एक ही उत्तर मिलता है नहीं ,नहीं ,नहीं...। और मुकद्दर का अजब खेल देखिये कि आप जैसा खुर्राट लेखक माइक्रोस्कोप लेकर मेरी बीती ज़िंदगी ,आज  की ज़िंदगी का रेशा-रेशा देखने में जुटा हुआ है ,जो मैं याद ही नहीं करना चाहती ,ऐसा सम्मोहित कर दे रहा है मुझे कि सब बिना हिचक सिलसिलेवार बताये जा रही हूँ ,बातें ऐसी कि, कभी हंसा रही हैं ,कभी रुला रही हैं । इसे आपका या किसका का करिश्मा कहूं ,कुछ समझ में नहीं आ रहा।'

' यदि यह करिश्मा है, तो भी निश्चित ही ईश्वर का ही है ।' मैंने बेनज़ीर की आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराते हुए कहा तो वह बोलीं ,'शायद आप सही कह रहे हैं ,तो चलिए ईश्वर के इस करिश्में पर बात आगे बढाते हैं ,मैं कम्बल ओढ कर लेट गई, लेकिन मन में एक अफनाहट थी, जल्दी से जल्दी काशी पहुँचने की एक हौल सी उठ रही थी। करीब आधे-एक घंटे बाद मैं सो गई।

 मुश्किल से दो घंटा हुआ होगा कि मुझे लगा जैसे मेरे घुटनों के पास कुछ है। मैं उठने को हुई तभी मुन्ना धीरे से बोले ,'कुछ नहीं, मैं हूं।' मैं शांत हो गई। मैं डरी कि, नीचे की बर्थ पर कई लोग सो रहे हैं। कोई जाग गया तो कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। कंबल थोड़ा हटाकर नीचे देखा तो राहत की सांस ली, नीचे कोई नहीं था। मुन्ना के हाथ हरकत कर रहे थे। मेरा हाथ भी उसके हाथों के ऊपर पहुंच गया था। देर नहीं लगी उनके हाथ ऊपर और ऊपर तक आए तो मैं भी नहीं रुक सकी। उन्हें  पूरा ही अपने ऊपर खींच लिया। बड़ी देर तक हम साथ रहे। फिर वह अपनी बर्थ पर जाने लगा तो मेरा मन हुआ कि वह जाए ही ना। लेकिन किसी के जाग जाने या आ जाने के खौफ ने मेरा हाथ रोक लिया। मगर फिर भी उन्हें जाने देने से पहले, मैं कंबल में ही उनके चेहरे को अपने दोनों हाथों में भरकर, होंठों को चूमने से ना रह सकी।'

'मैं आपसे सच कहता हूं कि, आप दोनों ने यह जो चरम रूमानी क्षण ट्रेन की उस बर्थ पर जिया, वह हॉलीवुड की किसी क्लासिक मूवी के बड़े ही रोमांटिक दृश्य जैसा है। इसी को यदि सूट किया जाए तो निश्चित ही बड़ा प्यारा दृश्य बनेगा।'

 'अब यह तो आप जाने या मूवी वाले। मुझे तो इतना याद आ रहा है कि, ट्रेन रास्ते में और लेट होती चली गई इसलिए काशी समय से दो घंटे लेट पहुंची। वहां का भी स्टेशन मैं देखती रह गयी। टीवी पर आए दिन उसकी चर्चा सुनती रहती थी। वहीं पहुंचकर मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी। लग रहा था जैसे मैं कोई ख्वाब देख रही हूं। मुन्ना मेरी हालत समझ रहे थे। उन्होंने पूछा, 'कैसा लग रहा है?'

'बहुत-बहुत खूबसूरत है यह स्टेशन।'

कुली के साथ सामान लेकर हम स्टेशन से बाहर आए। टैक्सी करके उस गेस्ट हाउस पहुंचे जहां हमारे ठहरने का इंतजाम किया गया था। यूं तो हम काफी समय तक सोते हुए ही काशी  पहुंचे थे। लेकिन नींद पूरी नहीं हुई थी। इसलिए नींद,थकान दोनों महसूस कर रहे थे। लेकिन हमारे मन मचल रहे थे, उस कार्यक्रम के बारे में सब जान-समझ लेने के लिए। इसलिए हम दोनों जल्दी से नहा-धोकर तैयार हुए।

एक होटल में गए, वहां की प्रसिद्ध कचौड़ी,मिठाई खाई और फिर जाकर कार्यक्रम के कर्ता-धर्ताओं से मिले। उनसे सारी बातें जानी-समझीं। कुल मिलाकर व्यवस्था अच्छी ही लगी। हम दोनों से कई कागज़-पत्रों पर दस्तखत कराए गए। फॉर्म भरवाए गए। फोटो खींचकर हमारे परिचय पत्र बनाए गए। उसे हमेशा साथ रखने के लिए कहा गया।

यह सब करते-करते तीन बज गए। अब-तक हमें भूख सताने लगी थी। एक होटल में जाकर खाना खाया और गेस्ट हाउस आकर सो गए। हमारे लिए अलग-अलग कमरों की व्यवस्था थी। लेकिन मैंने मुन्ना से साफ़ कहा कि, मैं अलग नहीं रहूंगी, तो उन्होंने कह-सुन कर एक कमरे में ही व्यवस्था करवा ली।

उसी समय वहां के इंचार्ज ने मुन्ना को बड़ी अर्थपूर्ण नज़रों से देखते हुए कहा,'कमरों की कोई कमीं नहीं है,फिर भी कई लोग कमरे शेयर करने की जिद किये आ जा रहें हैं। मुझे क्या,मेरा काम आसान हो जा रहा है ,लेकिन मीडिया वाले छाती पीटेंगे कि, आगंतुकों के लिए रुकने तक की व्यवस्था ढंग की नहीं की गई,आगंतुक कमरा शेयर करने को मज़बूर हो रहे हैं।' 

वह मुंह में पान भरे अजीब से ढंग से बोले जा रहा था ,पान की लाल धागे सी लाइन उसके दोनों होंठों के कोरों पर बन रही थी। हम दोनों उसका तंज़ समझते हुए भी अनसुना कर चले आये,मगर उसके तंज़ ने हमें एक सूचना भी दे दी कि, हम जैसे प्यार करने वाले वहां और भी आये हैं। 

 शाम करीब सात बजे हमारी नींद खुली। मुन्ना ने कहा,' तैयार हो जाओ घूमने चलते हैं। कार्यक्रम का जो शिड्यूल मिला है, उससे तो लगता है कि, घूमने-फिरने का कभी समय ही नहीं मिल पायेगा। जब-तक मिलेगा, तब-तक थक चुके होंगे। यहां आकर सोने के सिवा और कुछ करने की इच्छा ही नहीं होगी।'

 'अच्छा,यहांआकर केवल सोने का मन करेगा, इसके अलावा और कुछ नहीं।' 

मैंने उन्हें  छेड़ते हुए कहा, तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा, 'जो-जो कहोगी,वह सब भी करता जाऊँगा। सोने का ही हिस्सा मानकर करता जाऊँगा।' यह कह कर वह हंसे और सूटकेस बेड पर रखकर, अपने कपड़े निकाल कर पहनने लगे। साथ ही मुझे भी जल्दी चेंज करने को कहा। मैं समझ नहीं पा रही थी कि सलवार सूट पहनूं कि जींस।

अम्मी से नजर बचाकर बड़े  शौक से जींस लेकर गई थी। उनका बड़ा खौफ था मन में कि उन्होंने जींस देख ली तो कोई आश्चर्य नहीं होगा कि, वह फिर मुझे अंधेरी कोठरी में बंद कर, इतने पर्दे चढा दें कि, सूरज की रोशनी भी मुझे छू ना सके। तब एक बार फिर मेरा सुर्ख बदन  पीलिया के रोगियों सा पीला हो जाएगा, एकदम मुरझाया हुआ रोगिओं सा।

असमंजस में मैं जींस उठाती फिर छोड़ देती। सलवार को पकड़ लेती, मगर मन हाथ को जींस की तरफ बढ़ा देता। जींस पहनने का मेरा मन बहुत पहले से ही खूब होता था। घर में खिड़की से बाहर जब सड़क पर जींस पहनकर निकलती लड़कियों को देखती तो मन मचल उठता था। जी करता था कि,सारे खिड़की-दरवाजे तोड़कर निकल जाऊं। इन तितलियों की तरह मैं भी खूब खेलूं-उछलूं। अम्मी से कहूं कि मुझे भी दुनिया की और लड़किओं की तरह लिखने-पढ़ने,खेलने-कूदने दो। लेकिन पल दो पल नहीं पूरा बचपन, किशोरावस्था बीत गया। युवावस्था भी करीब-करीब बीतने को ही थी, परन्तु कभी इतनी हिम्मत ही नहीं जुटा पाई थी कि अपने मन की बात कहती अम्मी से।

बहनों से एक बार घुमा-फिरा कर बात उठाई थी। लेकिन उन सबने बात पूरी होने से पहले ही कहा,'तेरा दिमाग  फिर गया है क्या? अब्बू-अम्मी बोटी-बोटी काटकर घर में ही दफन कर देंगे। किसी को कानों-कान खबर तक नहीं होगी।' दोनों बहनें बात करने भर से ही पसीने-पसीने हो रही थीं। एक ने तो हाथ उठा लिया था मुझे मारने के लिए। फिर जाने क्या सोचकर रुकते हुए बोलीं, 'तेरे चलते हम सब भी काटे जाएंगे।'

मैं ख्यालों में खो गई। ऐसे,  जैसे कि उन्हीं पुरानी बातों की कोई फिल्म चल रही है। जिसमें मैं हूं और मैं अपनी फिल्म देख रही हूं। मन मेरा बड़ा भारी होता जा रहा था। इसी बीच मुन्ना बोले ,'अरे , ऐसे चुप क्यों बैठी हो, तैयार हो ना।' तभी जींस देखते ही कहा,'अरे वाह! पहले तो कभी तुम्हें जींस में देखा ही नहीं।' 

'क्योंकि पहले कभी पहना ही नहीं। पहली बार खरीदा है।'

'अच्छा तो पहनो ना। देर क्यों कर रही हो? तुम्हारी अम्मी जींस देखकर तुम्हें कुछ बोली नहीं।'

 'मैं भूलकर भी बता देती तो मेरी खैर नहीं थी। जींस पहन कर आती-जाती लड़कियों - औरतों को देखकर ही उनका गुस्सा सातवें आसमान पर हो जाता है। लानत भेज-भेज कर कहतीं हैं, पूरा-पूरा शरीर मालूम पड़ता है कि कहां क्या है। शरीर की चमड़ी की जगह कपड़ा चिपक जाता है बस। लेगी , जींस दोनों के लिए उनका यही कहना है।'

'तो अब तुम्हारा क्या ख्याल है। खरीद लिया, छिपाकर लाई भी हो। भाई, बहन, मां कोई यहां नहीं है, तो क्या करोगी , जैसे लाई हो, वैसे ही वापस लेती चलोगी?'

 'यह बरसों की तमन्ना पूरी होने जैसा है। इसे पहनने को लेकर अम्मी ये बातें तब कहा करती थीं, जब मैं चौदह-पन्द्रह वर्ष की हुआ करती थी। तब से अब-तक हालात बहुत बदल गए हैं। इन बदले हालात ने अम्मी की सोच को भी बहुत बदल दिया है।

तब जींस पहनने पर मुझे भले ही जमीन में जिंदा गाड़ देतीं। लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि आज वह अगर खुश नहीं होंगी तो मना भी नहीं करेंगी। बहुत होगा तो इतना ही कहेंगी कि, 'का बेंज़ी तुझे और कोई कपड़ा नहीं पसंद आया। तुम भी फैशन की दीवानी हो गई हो।' और तब अगर मैं कहूंगी कि, 'ठीक है अम्मी, तुझे नहीं पसंद है तो नहीं पहनुंगी।' तो कहेंगी,'अरे मैंने मना थोड़ी ही किया है। जा, पहन लिया कर कभी-कभी।' जब पहली बार लेगी लेकर आई तो ऐसी ही बातें की थीं।'

'तोअब क्या सोच रही हो?'

 'हूँ...कुछ नहीं, बस तैयार होती हूं।'

 'जींस में ही या सलवार सूट में?'

 'जींस में ही। जब अम्मी इतना बदल गई हैं, तो हमें भी तो दो-चार कदम आगे बढ़ना है।'

इतना कहकर मैंने गाऊन उतार कर जींस पहनी और उस पर खुद की डिज़ाइन की गई बिल्कुल सफेद रंग की स्लीवलेस चिकन की कुर्ती। जिस पर मैंने सामने टमी और ब्रेस्ट के पास हल्की कढाई की थी। कमर पर दो इंच चौड़ी एक डिज़ाइन थी। पानी में तैरती मछलियां। जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा रही थीं।

स्ट्रेचेबल जींस मुझ पर बिल्कुल फिट थी। कुर्ती का गला मुझे लगा कि, कुछ ज्यादा ही बड़ा  हो गया है। हल्की नीली जींस, सफ़ेद कुर्ती पर जब मैंने ब्लैक वैली पहनी, तभी मुन्ना मोबाइल पर अपनी बात खत्म कर मेरी तरफ मुड़े। मुझ पर एक नजर डाली। खुश होकर आंखें बड़ी  करते हुए बोले, 'तुम तो हॉलीवुड की स्टार लग रही हो। वाकई बहुत खूबसूरत लग रही हो। जींस पर स्लीवलेस कुर्ती। यह स्टाइल मैं पहली बार देख रहा हूं। यह तुम्हारे दिमाग की उपज है या इसे कहीं और देखा था।'

'जब जींस लेकर आई और रात में अपने कमरे में पहन कर देख रही थी कि, मुझ पर कैसी लगेगी,उस समय कुर्ता पहना हुआ था। शीशे में देखकर मुझे लगा  कि कुर्ता इस पर नहीं जंच रहा है। तभी दिमाग  में आया कि,ऐसा कुछ बनाऊं जो कुछ ख़ास  हो। बस ऐसे ही यह बन गई। स्लीवलेस चिकन कुर्ती। कहीं और पहले ऐसी कुर्ती बनी हो तो मैं कह नहीं सकती।'

'गुड। तुममें बहुत क्रिएटिविटी है। चलो अब चलते हैं। रास्ते में भी बहुत बातें करनी हैं।'

 मैंने चलते-चलते अपने को शीशे में देखा कि ठीक लग रही हूँ  कि नहीं। कहीं बेढंगी-फूहड़  तो नहीं लग रही हूं। लेकिन खुद को देखकर मन में यह आए बिना नहीं रहा कि, अच्छी तो लग रही हूं। जाँघों, छातियों पर नजर बार-बार टिक जा रही थी। छातियां जहां मुझे कुछ ज्यादा भारी लग रही थीं, वहीं जांघें थोड़ी मोटी नजर आ रही थीं। मैं हटने वाली थी शीशे के सामने से कि, तभी मुन्ना ने मेरे एक हिप्प पर अपनी मज़बूत हथेली की एक धौल जमाते हुए कहा,'गॉर्जियस लग रही हो। लेकिन ब्यूटी क्वीन मुझे चिंता हो रही है।'

'अरे तुम्हें काहे की चिंता हो रही है। तैयार तो हूं।'

 'यही तो चिंता हो रही है। बाहर सब मुड़-मुड़ कर तुम्हें ही देखेंगे। मुझे अच्छा नहीं लगेगा।' वो इस तरह मुंह बनाकर बोले कि, मुझे हंसी आ गई।

मुन्ना ने रोड पर आते ही एक रिक्शा कर लिया। जब उसने पूछा,' कहां चलना है बाबू।' तो मुन्ना ने कहा,'दादा इस शहर के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। बस थोड़ी देर घूमना है। जहां सही लगे ले चलो,और बताते भी चलो कि कहां से निकल रहे हैं। वहां क्या ख़ास है। पैसे की चिंता नहीं करना, जितना कहोगे उतना आपको दे देंगे।'

मुन्ना की यह बात मुझे कुछ अजीब लगी ,लेकिन मैं कुछ बोली नहीं। रिक्शावाला बुजुर्ग और बहुत ही भला आदमी लग रहा था। अपनी ठेठ बनारसी में बोला,'बाबू जी भोले बाबा जउन नसीब में हमरे लिखल हवई हमें मिल जाई। हम तोके कुछ बताउब ना।' उसके जवाब से मुझे  लगा कि इसने कितनी बड़ी बात कह दी है। कितना संतोष है इसे। हम यहां पैसे के लिए जान दिए चले जा रहे हैं। पैसा,नाम मिल जाए इसके लिए बूढी अम्मी को अकेली छोड़ कर  दस-पन्द्रह दिन के लिए यहां चले आए हैं। मुन्ना भी उसकी बात से इतना मुतासिर हुए  कि उसे देखते रह गए। तो उसने कहा, बैइठल जाई बाबू। आपन जान तोंहे नीके-नीके जगहिंयां लई चलब।'

हमको लेकर वह गोदौलिया की तरफ चल दिया। हम वहां की मार्केट देखते रहे। मेरे दिमाग  में अपने काम-धंधे की बात चलती रही। वह चौराहे पर थोड़ा ठिठक कर संकोच के साथ बोला,'बाबू जी यह गोदौलिया चौराहा है। पत्थर का ऐइसन बनावट वाला खंभा और कहीं नहीं देख पाएंगे। एकदम ऊपर बैइठा हैं, नंदी बाबा। बाबा विश्वनाथ की ओर मुंह किए हैयन। गोदौलिया की जान हैं यह नंदी बाबा। जो इनको हाथ नहीं जोड़ता उसको भोले बाबा की कृपा नहीं मिलती। हम उस मूर्ति और खंभे की खूबसूरती को देखते रह गए। मूर्ति और पिलर दोनों ही वास्तुकला के खूबसूरत नमूना हैं। नंदी महाराज का तो जवाब ही नहीं है। मुन्ना ने पूछा और बाबा विश्वनाथ जी का मंदिर कितनी दूर है तो वह बोला,'नजदीके बा। बस डेढ-दो सौ मीटर दूर। वहीं से खड़े होकर आप गंगा मैया के भी दर्शन कर सकते हैं।'

रिक्शावाला धीरे-धीरे चलता रहा, मुन्ना तरह-तरह की बातें पूछते रहे, वह बताता रहा। बिल्कुल प्रोफेशनल गाइड की तरह। खाने-पीने के मामले में भी उसकी अच्छी जानकारी थी। पूछने पर उसने बताया,'बाबू जी नाश्ता में यहां की कचौड़ी-सब्जी,जलेबी का अपना ही मजा है। ऐसा स्वाद ना घर पर मिलेगा, ना यहां के बड़े-बड़े होटलों में। शाम को समोसा और लवंगलता का तो कोई जवाब नहीं है।'

मैं लवंगलता समझ नहीं पाई। मुन्ना से पूछा तो उन्हें भी कोई सही जानकारी नहीं थी। वह कुछ बोलते, उसके पहले ही वह बोला, 'बिटिया लवंगलता बहुत बढिया मिठाई है। खोआ, मैदा और शक्कर की चासनी से बनती है। इस समय तो नाश्ते में यही सब चलता है। आप लोगों का मन हो तो कहिए किसी दुकान पर ले चलें।' मेरा मन देखकर मुन्ना ने कह दिया किसी अच्छी दुकान पर चलने के लिए।

बेनज़ीर रिक्शेवाले की बातें कशिका बोली में बता रहीं थीं, तो बोली समझने में मुझे कुछ असहजता महसूस हो रही थी। मैंने एक-दो बार बातें रिपीट करवायी तो ,बेनज़ीर ने कहा,'आप ठहरे खड़ी बोली वाले ,आगे मैं आपको उसी में सारी बताऊँगी। मैं तो यहाँ की उस बोली में रच-बस गई हूँ जिसमें वह बोलता था।' 

बेनज़ीर की बात से मैंने खुद को बड़ा छोटा महसूस किया। वह अपनी बात को आगे बढ़ाती  हुई कहती हैं, 'जिस दुकान के सामने उसने रिक्शा रोका, वह एक ठीक-ठाक दुकान लग  रही थी। अंदर एक साथ पन्द्रह-सोलह लोगों के बैठने की जगह थी। मुन्ना ने उसे भी अंदर चलने के लिए कहा तो वह हाथ जोड़कर बोला,'बाबू जी , मीठा हमरे लिए जहर है। हमें सूगर है।'

 बहुत कहने पर वह समोसा खाने को तैयार हुआ। दो समोसा, बिना शक्कर की चाय लेकर बाहर रिक्शे पर ही बैठकर खाने लगा। मैंने और मुन्ना ने लवंगलता खाई । वाकई मिठाई बहुतअच्छी थी। हम दोनों को पसंद आई। 

इसके बाद हमें वह आसपास घुमाता रहा। कपड़ा मार्केट भी दिखायी। बोला,'दुनिया भर में प्रसिद्ध बनारसी साड़ी का यह बहुत बड़ा बाजार है। यहां लल्लापुरा और मदनपुरा में सबसे ज्यादा बनाई जाती हैं।' उसके साथ हम करीब दो घंटे घूमते रहे। एक बार फिर कहती हूं कि वह मुझे रिक्शा चालक के साथ-साथ एक बहुत बढियाँ गाइड भी लगा। राजनीति पर भी टीका-टिप्पणी करता जा रहा था। बड़े जोरदार शब्दों में कहा, 'मोदी जी बाबा विश्वनाथ की इस नगरी को फिर से जिया दिए हैं। अभी बहुत सा काम होना बाकी है। फिर भी नगर का चेहरा बदल दिया है। आप फिर अगर दो-तीन साल बाद आएंगे तो इसे पहचान नहीं पाएंगे। क्योंकि तब-तक यह बहुत बदल चुकी होगी,काम बहुत तेज़ी से चल रहा है। 

उसकी बातें सुन रहे मुन्ना ने पूछा,'गंगा राम तुम्हें शहर के बारे में इतनी सारी जानकारी कैसे हुई, कब से हो यहां पर?' वह  इत्मीनान से बोला,'बाबूजी हमने जब से होश संभाला है, तब से अपने को यहीं बाबा विश्वनाथ के चरणों में पाया है। जऊन शांति जऊन कृपा बाबा विश्वनाथ,गंगा-मइया की हमें यहां मिली, उसके बाद हमें कुछ और की चाह नहीं रही। आपन तो पक्का बनारसी वाली  यही सोच है कि, कम्मै खाए बनरसै रहे । कुछ भी हो जाए हम बाबा भोलेनाथ की नगरी छोड़ कर कहीं और जाने की सोच भी नहीं सकते।

उन्होंने मां-बाप, बीवी-बच्चों, पढाई-लिखाई के बारे में पूछा तो उसने कहा,'बाबू जी जब होश संभाले तब खाली अम्मा को देखे। बाबूजी के बारे में अम्मा ने बताया था कि, जब हम सब भाई-बहन छोटे-छोटे थे, स्कूल में पढ़ रहे थे, उसी समय एक बार हमारे बाबूजी यहीं मदनपुरा में एक दंगे में फंस गए थे। वो और उनके दो साथी शाम को छुट्टी होने पर साइकिल से घर लौट रहे थे। सब लोग  बनारसी साड़ी  के एक बड़े व्यापारी के यहां काम करते थे। दंगा शाम को ही शुरू हुआ था।

व्यापारी ने सबकी छुट्टी कर दी कि सुरक्षित घर चले जाओ। लेकिन यह सब लोग थोड़ी दूर चलते ही दंगाईयों से घिर गए। पहले तो बाबूजी किसी तरह बच निकले। लेकिन साथी को बचाने के चक्कर में दोबारा फिर फंस गए। साथी तो बच गए लेकिन वह नहीं बच पाए। अपनी जान गँवा बैठे। साथियों ने बाद में बताया था कि इतनी निर्दयतापूर्वक दंगाईयों ने उन्हें मारा था कि उनका एक हाथ कभी नहीं मिला। जब मिट्टी आई तो चेहरा भी हम सब देख नहीं सके थे। जानवरों की तरह मारा था।

उनके दोनों साथी जब-तक जिंदा रहे तब-तक आते रहे। बहुत दिन तक हमारे परिवार की मदद भी करते रहे। लेकिन बड़ा परिवार था। उन लोगों की भी आमदनी कुछ ज्यादा नहीं थी। आखिर हम सब की पढाई-लिखाई बंद हो गई। अम्मा घरों में काम-काज करके किसी तरह पालती-पोसती रहीं। फिर जैसे-जैसे हम बड़े हुए काम-धंधा करने लगे और परिवार बनाकर रहने लगे। अम्मा जब-तक रहीं हम-सब उनकी जी-जान से सेवा करते रहे।

हम भी अपने लड़कों को जितना पढ़ा-लिखा सकते थे, पढाया-लिखाया। अब-सब अपने-अपने परिवार के साथ खुश हैं। सब दिल्ली में अपनी घर-गृहस्थी बसाए हुए हैं। सब बोलते हैं, 'बाबू, अम्मा के साथ हमारे पास आ जाओ, वहां अकेले रह कर क्या करोगे?' हमने कहा चाहे जो हो जाए काशी छोड़ कर कहूं ना जायेंगे। बस हम बूढा-बूढी आपन अकेले बनावत, खात-पियत भोले बाबा, गंगा-मैया के नाम लेकर जी रहे हैं। जीना मरना सब यही हैं। इसको छोड़ कर कहीं जाना नहीं है।'

वो बोलता जा रहा था और मैं मुन्ना के बगल में बैठी बार-बार उसकी बाहों को दबा रही थी। लेकिन कुछ बोलती नहीं थी। उसने यह भी बताया कि, वह अपने तीनों बेटों को ज्यादा पढ़ा -लिखा तो नहीं सका, लेकिन तीनों अच्छे मोटर मैकेनिक हैं, और किसी बड़ी मोटर कम्पनी में काम करते हैं। तीनों की बीवियां भी घर पर सिलाई-कढाई का काम करती हैं। किसी रेडीमेड  कपड़े की दुकान के लिए। सारा कपड़ा वहीं से आता है। सिल कर वहीं देना होता है। भोले बाबा की कृपा से सबअच्छे से खा-पी रहे हैं। बच्चे भी पढ़ रहे हैं।

दूसरे तीसरे महीने कुछ पैसा भी तीनों भेज देते हैं। सब बोलते हैं, 'बाबू अब इस उमर में रिक्शा ना चलाओ। हम लोगों को अपनी, अम्मा की सेवा करने का मौका दो।' लेकिन बाबू हम भोले बाबा को छोड़ कर नहीं जा सकते। हम नहीं गए। कह दिया जब-तक दम है, तब-तक चला रहे हैं। थोड़ा बहुत कमाई बूढा भी कर लेती है। घर पर दुकान किए है।' 

गंगाराम की बातों से हम दोनों ही बहुत प्रभावित हुए। उसकी बातों को और सुनना चाहते थे लेकिन रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। इसलिए हम एक होटल से खाना पैक कराकर वापस आ गए। गंगाराम करीब तीन घंटे हमारे साथ रहा। उसका हिसाब-किताब मन में ही करके मुन्ना ने उसे तीन सौ रुपये दे दिए। जब अपना खाना हम पैक करवा रहे थे तो सोचा उसका और उसकी पत्नी के लिए भी करवा दें। लेकिन गंगाराम ने यह कहकर मना कर दिया कि,'बुढिया  खाना बनाए होगी। लेकर जायेंगे तो गुस्सा होगी। हम खाना का निरादर सोच भी नहीं सकते कि, बच गया है तो फेंक दें। इसलिए रहने दीजिए। अपना पैसा बर्बाद ना करिए।' हमें उसकी बात माननी पड़ी। जब वह छोड़ कर जाने लगा तो मुन्ना ने उसका मोबाइल नंबर ले लिया।'

  मैं बेनज़ीर को फिर से बेनज़ीर पर ही केंद्रित करना चाहता तो अवसर मिलते ही कहा ,

'आपको नहीं लग रहा कि हम लोग बेनज़ीर की बजाए गंगा राम की ही बात करने लगे हैं।' 

'नहीं ,ऐसा है हमारे बारे में जैसे आपके मन में यह बात आ सकती है कि, भगवान राम के  भाई लक्ष्मण की नगरी लखनऊ जैसा शांत,बढियाँ नगर छोड़कर हम तीर्थ नगरी काशी में क्यों आ बसे हैं?आपके इस प्रश्न का उत्तर मैं गंगाराम की बातों से देना चाहती हूं। मुझे लगता है, उसकी बातें इस शहर का जीवन में क्या महत्व है। यह अच्छे से बताती हैं । इसलिए आपको ध्यान देना चाहिए गंगाराम पर।'

'आपके दृष्टिकोण को देखते हुए मुझे ऐसा अवश्य करना चाहिए ,मैं पूरा प्रयास कर रहा हूँ ,आप बताइये।' यह कहते हुए मैं मुस्कुरा रहा था। बेनज़ीर ने उस मुस्कुराहट का पता नहीं क्या मतलब  निकालते  हुए कहा,'आप लोग कौन सी बात को कहाँ लेकर पहुँच जाएँ इसकी कोई सीमा नहीं है ,खैर उसके जाने के बाद हम लौटकर बेड पर बैठे हुए थे कि, मुन्ना के मोबाइल पर अम्मी का फोन आ गया। मुन्ना ने मेरी तरफ देखा ही था कि मैंने जल्दी से कहा कि,'बोल दो मैं दूसरे कमरे में हूं।'

 उसने कॉल रिसीव की। नमस्ते बोला। उधर से अम्मी घबराई हुई बोलीं, 'बेटा बेंज़ी कहां है, फोन क्यों नहीं उठा रही?'

 मुन्ना ने मेरी ओर देखते हुए कहा,' चाची हो सकता है उसका मोबाइल साइलेंट मोड में हो। यहां सब ठीक है। आप घबराइए नहीं, मैं जाकर उससे कहता हूं कि वह आपसे बात कर ले।' 

 यह कहकर मुन्ना ने फोन बंद कर दिया।

वह मेरी तरफ देख ही रहा था। मैंने कहा, 'अरे मुझे फोन की घंटी सुनाई ही नहीं दी। सच में तो साइलेंट नहीं हो गया है।' मैंने बैग से मोबाइल निकाला तो आशंका सही निकली। रिंग  ऑन करके बात की। अम्मी बड़ी घबराई हुई थीं। मैंने सारी बात बताई कि,'फोन की घंटी  सुन नहीं पाई। तुम परेशान ना हो। यहां सब ठीक है। बहुत अच्छी व्यवस्था है। खाना-पीना सब ठीक है। अम्मी दुआ कर कि यहां मैं अव्वल आऊं। जब घर आऊं तो बाराबंकी से भी बड़ी ट्रॉफी लेकर आऊं।' 

फिर अम्मी से मैंने उनकी सेहत,खाने-पीने,काम-धंधे आदि के बारे में बात कर ली। अम्मी बोलीं,'मुन्ना के घर वाले दे जाते हैं। चाय-नाश्ता सब। मैं कहती हूं कि धीरे-धीरे बना लुंगी। लेकिन मुन्ना की अम्मा कहती हैं कि,'नहीं ,आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती। कहीं गिर-गिरा गईं तो बुढापे में बड़ी मुसीबत हो जायेगी, और फिर पड़ोसी होकर हम इतना भी नहीं कर सकते क्या? मुन्ना तो जाते-जाते कह गया था कि आपका ध्यान रखना है। नहीं रखा तो आकर बहुत नाराज होगा। बेंज़ी सच में बहुत नेक परिवार है। ऐसा नेक पड़ोसी अल्लाहताला सभी को दे। उसके अब्बू,अम्मी, भाई सब दिन भर में कई बार आकर हाल-चाल पूछ जाते हैं ,घर में जो कुछ बनता है वह लाकर दे जाते हैं।'

'अच्छा, तब तो बहुत बढिया है। मैं अब आराम से बेफिक्र होकर यहां काम में मन लगा सकूंगी। तुम परेशान ना होना। यहां मुन्ना मेरा पूरा ध्यान रखते हैं।'

 वह मेरे बगल में ही बैठे थे, मैंने उनकी जांघ पर हल्की सी चुटकी काटते हुए अम्मी से बात ख़तम।उन्होंने भी मेरी एक ख़ास जगह पर चुटकी काटी। जिससे मैं एकदम झटके से उठ खड़ी हुई, लेकिन मुंह से ऐसी कोई आवाज नहीं निकलने दी, जिससे दूसरी तरफ अम्मी कुछ समझ पातीं।

बात खत्म कर मैंने मोबाइल किनारे रखते हुए मुन्ना से कहा,'ओफ्फो, प्यार की चुटकी ऐसे  काटी जाती है कि जान ही निकल जाए।'

 'तो कैसे काटी जाती है।' उन्होंने  मुझे  बाँहों  में खूब जोर से दबा कर छोड़ते हुए कहा ,तो मैं उनके गले में हाथ डाल  कर बोली , 'ऐसे ,जैसे कि सुर्खाब के पर से हौले-हौले ठहरे हुए पानी को सहलाया जाए,लेकिन पानी में जुंबिश तक ना हो। और तुमने तो जैसे पानी में नाव का चप्पू ही चला दिया।'

फिर मैंने कपड़ा हटाकर वह जगह दिखाई जहां उन्होंने अपने हिसाब से बहुत प्यार से चुटकी काटी थी। वह जगह अच्छी-खासी सुर्ख हो गई थी। उस जगह को चूमते हुए उन्होंने कहा कि, 'पता नहीं तुम कुछ ज्यादा ही नाजुक हो या मेरे हाथ ज्यादा कठोर हैं।' 

'न तुम ज्यादा कठोर हो, ना मैं ज्यादा नाजुक हूं। हमारी मोहब्बत इतनी गहरी है कि, सुर्खाब के पर भी अपना गहरा निशान छोड़ जाते हैं।' इतना कहकर मैं उनके गले से और ज्यादा लिपट गई। उन्होंने भी मुझे बाहों में भरकर खूब प्यार किया।'

'मानना पड़ेगा कि,आप किसी शाईरा से कम नहीं हैं। क्या बात कही है कि, हमारी मोहब्बत इतनी गहरी है कि सुर्खाब के पर भी अपना गहरा निशान छोड़ जाते हैं। वाह, बहुत खूब।'

 'तारीफ़ के लिए शुक्रिया। मैं भी यह कहूँगी कि आप एक शानदार श्रोता हैं। मैं आज चौथी मीटिंग में भी देख रही हूं कि, आप बहुत ही ध्यान से,धैर्य से मेरी बातें ऐसे सुनते रहते हैं जैसे मैं खूबसूरत कहानियां सुनाने वाली किस्सागो हूं।'

'निःसंदेह,वह तो आप हैं ही। किस्से-कहानियां जीवन पर ही तो लिखे जाते हैं। जितना विविधततापूर्ण जीवन उतनी बेहतरीन कहानी। और अब-तक आपने अपने बारे में जो-जो बताया है, वह एक रॉलर कॉस्टर की तरह बड़ा तीखा उतार-चढाव भरा है। इसीलिए तो मन में एक शानदार उपन्यास लिखने की बात उठी। अब-तक आप जिस तरह सिलसिलेवार सब बता रही हैं, उससे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि, वास्तव में उपन्यास लिख तो आप ही रही हैं। मैं तो स्टेनो बनकर रह गया हूं।'

'इसे मैं आपका बड़प्पन ही कहूंगी ।'

'लेकिन यही यथार्थ है। खैर भरपूर प्यार का दौर खत्म होने के बाद आप दोनों ने ......।'

'हाँ ,उसके बाद बड़ी देर रात तक हम दोनों अगले दिन के कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए तैयारी करते रहे। अगले दिन जब कार्यक्रम में पहुंचे तो उसे हमने अपनी उम्मीदों से भी कहीं ज्यादा बड़ा, भव्य पाया। कार्यक्रम का शुभारम्भ एक केंद्रीय मंत्री ने किया। कई विधायक और लोक कलाओं, खासतौर से बुनकर जरदोजी से जुड़ी बड़ी-बड़ी हस्तियां आई थीं। कई बहुत बड़े एनजीओ ने अपने हाई-फाई, ताम-झाम से पूरा कार्यक्रम ही हाईजैक कर लिया था। कार्यक्रम से पहले जिन कुछ पुरुष-महिलाओं को हम ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़ी हस्तियां समझ रहे थे कि वह सब उद्द्घाटन समारोह में परफॉर्म करने आए हैं , वास्तव में वह सब बड़े-बड़े एनजीओ के मालिक और कर्ताधर्ता निकले।

महिलाओं की हाई-फाई स्टाइल, ग्लैमरस महंगे परिधान के सामने मैं और मेरे जैसे असली हुनरमंद बड़े मामूली लग रहे थे। मुन्ना जैसे लोग छोटे-मोटे एनजीओ वाले। एकदम साफ दिख रहा था कि वह सब करोड़ों की हैसियत रखने वाले हैं ।

सारे तमाशे देखकर मुन्ना यह कहे बिना ना रह सके कि,'मैं भी कई साल से रात-दिन पूरी ईमानदारी से काम कर रहा हूं। सरकारी धन जिस काम के लिए मिलता है, उसे पूरी ईमानदारी से उसी मद में खर्च करता हूं। फिर भी कोई ख़ास बचत नहीं हो पाती। कितना समय, पैसा तो अधिकारियों, बाबूओं ऑफिसों के चक्कर काटने में निकल जाता है। फिर भी पेमेंट में महीनों की देरी मामूली बात है।'

मेरे चेहरे पर से भी उत्साह गायब था। बड़े संकोच में थी। मुन्ना ने मेरे मन की हालत समझते हुए कहा,'ऐसे तो काम नहीं चलेगा। हमें दिमाग से यह निकालना ही पड़ेगा कि हम ऐसी जगह आगे बढ रहे हैं, जहां प्रतिभागी एक जैसी फील्ड में आगे नहीं बढ़ेंगे। रेस के लिए जहां कुछ फार्मूला-वन कार से फर्राटा भरेंगे तो, वहीं कुछ बाबा-आदम के जमाने की घरेलू कारों से उनके पहियों के निशान देखते उनका पीछा करेंगे।'

वह इस स्थिति से बड़ा गुस्से में थे। मैंने जब उन्हें बताया कि, मैं क्या सोच रही हूं तो उन्होंने  कहा,'अच्छी बात है कि मुकाबले से भागने के बजाय, कैसे सफलतापूर्वक भाग लिया जाए इस बारे में सोच रही हो।'

मैंने सीधे-सीधे कहा,'यह मैं यकीन से कहती हूं कि, कल जब प्रदर्शनी शुरू होगी तो इन लोगों  के ताम-झाम, लाव-लसकर के आगे हमारा मामला कमजोर भले ही दिखे, भले ही यही लोग एड़ी  से लेकर चोटी तक, सारी ट्रॉफियां लेकर जाएं। मगर लोगों  की नजरों में हमारा काम भी आएगा। वह जरूर उसे पसंद करेंगे।' तो मुन्ना ने कहा, 'हमारा काम लोगों  की नजर में आ जाए, हमारा उद्देश्य इतना ही नहीं है। इतनी दूर आए इसलिए हैं कि, नाम के साथ-साथ काम भी मिले। प्रदर्शनी कल शुरू होगी लेकिन सारी प्राइम लोकेशन इन पैसे वालों ने खरीद ली  हैं। हमारे स्टॉल कोने में हैं। इससे नुकसान यह होगा कि ज्यादातर लोग हमारे तक पहुंचने से पहले ही वापस हो लेंगे। कंपनियों के प्रतिनिधि भी हम तक कम ही पहुंचेंगे। इन सारी चीजों का असर फाइनली बिजनेस और पुरस्कारों की घोषणा पर भी पड़ेगा।

बीच में कई कार्यक्रम हैं। फैशन शो भी हैं। इसके बारे में हमें जानकारी नहीं मिली थी। फैशन शो में भी बड़े-बड़े धुरंधर हिस्सा लेंगे। हमारे पास ऐसी टीम ही नहीं है। जो छः लोग  हैं वो पहले से ही दूरी बनाए हुए हैं। इतने अपॉर्च्युनिस्ट होंगे मैंने सोचा नहीं था। सब धुरंधरों के आगे-पीछे हो लिए हैं। इन सब को कार्यक्रम की जानकारी पहले से थी।फर्जी तरीके से फॉर्म भी भर दिए थे।मुझे भनक तक नहीं लगने दी। ' 

 इसी समय मुन्ना ने अचानक मुझसे पूछा,'सुनो...एक बात बताओ, मुझेअपने साथियों से जो अनुभव मिल रहा है, उससे मेरे मन में एक डर पैदा हो रहा है कि कहीं तुम भी...।'

उनकी बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैं हक्का-बक्का सी उन्हें देखने के बाद बोली , 'रुक क्यों गए ?'  तो उन्होंने कहा, 'छोड़ो, जाने भी दो, मैं ऐसे ही।'

 'कैसी बातें करते हो। ऐसा क्यों सोच लिया कि, मैं भी उन लोगों की ही तरह बदल जाऊँगी । इतने दिनों में मुझे बस इतना ही समझ पाए हो। मैंने जीवन भर के लिए तुम्हें अपनाया है, काम-धाम के लिए नहीं। मिल गया तो ठीक, नहीं कोई बात नहीं। मुझे तुम मिल गए हो मुझे इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए। ठीक है। क्योंकि मेरे लिए इससे ज्यादा और कुछ हो भी नहीं सकता। फिर कभी ऐसा मत कहना, कहना क्या सोचना भी नहीं।'

मैं इतना कहते हुए भावुक हो गई तो मुन्ना ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा,'अरे मैंने मजाक किया था। तुम तो सही मान बैठी।' यह कहते हुए, वह मेरी तरफ ऐसे बढे कि, जैसे बाहों में भर लेंगे,लेकिन आस-पास बहुत से लोगों को देख कर रुक गए। मैंने उनकी आंखों में आँखें डालकर कहा,'ऐसा भी क्या मजाक, कि छूरी सा दिल पर घाव कर दे। मैंने अपना सब कुछ, सब कुछ सौंप दिया है तुम्हें। और अभी तक तुम मुझ पर पूरा विश्वास नहीं कर पाए। मैं तो जितना भी है, सारा विश्वास तुम पर करके आंख मूंदकर तुम्हारे साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर यहां चली आई। वह भी इतने दिनों के लिए। अपनी बूढी बीमार मां को छोड़कर।'

मेरी बातों से मुन्ना को लगा कि मामला तो गंभीर हो गया है। जरा सी बात बड़ा गंभीर रूप ले रही है, तो उन्होंने कार्यक्रम समाप्त होने से पहले ही बात का रुख बदलते हुए कहा,'चलो  कहीं घूमने चलते हैं। उद्घाटन हो गया है। अब ये अपनी बड़ी-बड़ी बातें ही कहेंगे। मुख्य काम तो कल से शुरू होगा।'

 पंडाल काफी बड़ा था। भीड़ भी काफी थी। हमें निकलने में छः सात मिनट लग-गए। पंडाल के अन्दर मैं अचानक ही बहुत घुटन महसूस करने लगी थी तो मुन्ना के कहते ही मैं ऐसे  बाहर आई, जैसे बेसब्री से इसी का इंतजार कर रही थी कि, मुन्ना कहें और हम चलें। बाहर आकर मैंने इस तरह गहरी सांस ली, मानो बहुत देर से रोके हुए थी। मैंने तुरन्त कहा,'यहां पूरे समय बैठे रहने से अच्छा है कि बड़ी तेज़ी से अपना रंग-रूप बदल रहे शहर को देखा जाए। अपने काम की मार्केट तलाशी जाए।'

मुन्ना ने कहा,'अभी कुछ देर पहले ही मेरे दिमाग में आया कि, तुमने जो सैकड़ों तरह की नई-नई डिज़ाइन्स बनाई हैं, उसके बारे में यहां जहां पर बनारसी साड़ियां बनती हैं, वहां चलकर संपर्क किया जाए। मुझे उम्मीद है कि ट्रेंड से हटकर तुम्हारी डिजाइनें इन लोगों को पसंद आएंगी ,और एक बार काम शुरू हो गया तो बात बहुत आगे भी जा सकती है।'

'हाँ , लेकिन बनती कहां हैं, कुछ पता तो है नहीं। इतने बड़े और घने बसे शहर में कहां ढूढेंगे ।'

'गंगाराम सब बताएगा। इसीलिए तो उसका मोबाइल नंबर ले लिया था। भोला, ईमानदार और बहुत जानकार आदमी है। पूरे शहर की जानकारी रखता है। इसकी हर एक धड़कन को गिनता है।'

 'ये तो है। पूरे शहर का खाका उसके दिमाग में बसा हुआ है। लेकिन उसकी एक बात मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आई।'

 'कौन सी?' मुन्ना ने गंगा राम को फोन मिलाते हुए पूछा।

'यही कि यह शहर तब भी था जब यह पृथ्वी भी नहीं थी।'

'हाँ , यह बात मैं भी ठीक से समझ नहीं पाया था। आए तो पूछता हूं। तुम्हारे मन में प्रश्न था तो उसी समय पूछना चाहिए था। लेकिन तुम तो बिल्कुल मूर्ति बन कर बैठ जाती हो। बार-बार मेरे चुटकी काटने और मुस्कुराने के अलावा कुछ भी नहीं बोलती।'

 'मैं क्या बोलती, संकोच कर रही थी कि क्या पूछूं, बात पूरी तरह समझ नहीं पा रही थी।' मुन्ना को फोन पर देर तक लगा देखकर मैंने पूछा,'क्या हुआ, उससे बात नहीं हो पा रही है क्या ?'

'नहीं , बार-बार एंगेज बता रहा है।'

'इतनी लंबी बात किससे कर रहा होगा?'

'अपनी बेगम से करेगा और किससे।'

'तुम्हें भी मजाक सूझता है। इस उमर में बेगम से इतनी देर तक कौन बात करता है।'

 'क्यों उम्र हो गई तो क्या बेगम से प्यार भी नहीं करेगा। यह कहां का नियम है। कल तुमने भले ना देखा हो, मैंने पूरा ध्यान दिया था। अपनी बेगम की बात करते हुए वह इतना वो गया था कि...।'

'क्या हो गया था?'

'अरे क्या कहते हैं उसको, मतलब कि उसकी आवाज में बेइंतेहा मोहब्बत झलक रही थी। अच्छा, पहले देखें कि उससे बात हो पाएगी कि नहीं।'

करीब दो मिनट में बात करने के बाद मुन्ना ने कहा,'उसे यहां आने में करीब पन्द्रह मिनट लगेंगे। तब-तक इंतजार करना पड़ेगा।'

 'करते हैं, और कोई रास्ता भी तो नहीं है, किसी और को कर लिया तो पैसे भी खर्च हो जाएंगे  और कोई काम भी नहीं बनेगा ,यहां का हाल देख कर तो लगता है कि, इस कार्यक्रम में आने का फैसला गलत था।'

 'यह सब सोचने में इतनी जल्दबाजी ना करो। आज पहला दिन है। बहुत से लोग तो अभी तक आए ही नहीं हैं। एक-दो दिन बाद तस्वीर पूरी तरह साफ होगी। देखो अपना उद्देश्य खाली बड़ी ट्रॉफी लेकर उसे घर के किसी कोने में सजा देना बिल्कुल नहीं है।

मेरा एक ही उद्देश्य होता है ऐसी जगहों पर जाने का, कि वहां अपनी फील्ड के लोगों से मिलूं -जुलूं ,इससे हमें तमाम नई-नई तरह की बातें पता चलती हैं। अपने काम को और बढ़ाने  के नए रास्ते पता चलते हैं। यहां जिस तरह की मार्केट है, मेरे दिमाग में उसे देख कर कुछ और भी चल रहा है।'

 'क्या चल रहा है?'

 'अभी, मैं स्वयं पूरी तरह साफ-साफ समझ लूं, फिर बताता हूं कैसे कोई रास्ता हम दोनों के लिए निकल सकता है। पहले गंगाराम आ जाए ,तो आज उसी के साथ और ज्यादा पता करते हैं। जरूरत हुई तो और कई दिन चलेंगे। कुछ ना कुछ तो यहां से बड़ा करके ही लौटेंगे। छोटी या बड़ी ट्रॉफी मिले या ना मिले। लेकिन इस भोले बाबा की नगरी से हमारे काम का कोई बड़ा रास्ता जरूर खुल जाएगा। मुझे इसका पूरा भरोसा है।'

'अरे अभी ऐसा क्या जान लिया है यहां के बारे में जो इतना भरोसा कर बैठे। देखा जाए तो अभी तो शहर में कदम रखा भर है, कुछ देखा जाना कहां है।'

 'सही कह रही हो कि अभी कदम रखा भर है। लेकिन इतने समय में ही जो देखा है उससे पूरा विश्वास है कि कोई ना कोई रास्ता जरूर ढूँढ लूंगा।'

 'तुम्हारी बातें , तुम्हारा भरोसा सही निकले। यही दुआ करती हूं। मैं तो यह सारी बातें अभी समझ ही नहीं पा रही हूं। लेकिन कल गंगाराम बनारसी साड़ियों के बारे में जैसा बता रहा था, अपने यहां भी बचपन से ही हम लोग यह सब सुनते ही आ रहे हैं। यदि यहां किसी तरह कुछ काम-धाम हाथ लग जाए तो आना सफल हो जाएगा।'

'हाँ, अगर कोई ट्रॉफी भी जीत लेंगे तो उससे नाम तो होगा ही, काम पाना आसान होगा।' 'अच्छा सामने देखो वह गंगा राम ही आ रहा है ना।'

'हाँ, वही है। टाइम का पंचुअल लग रहा है। पन्द्रह मिनट कहा था करीब-करीब उतना ही हो रहा है।'

'हाँ, एक बात तो है कि हमें अपने मकसद में कामयाबी मिलेगी या नहीं , यह तो अगले कुछ दिन में पता चलेगा, लेकिन गंगा राम को हम लोगों की वजह से अच्छा काम मिल गया है। कल बढियाँ कमाई हो गई थी और आज भी होनी है।'

 'लेकिन मेहनत भी तो जी-जान से कर रहा है।'

 'वह तो हम लोग भी कर रहे हैं। पिछले एक महीने से पूरी नींद सो नहीं पा रहे हैं।'

इसी बीच वह आ गया तो मुन्ना ने उससे कहा, 'गंगा राम जी आज भी हमें अपने भोले बाबा की नगरी और दिखाइए और हां कोशिश करियेगा कि, ऐसी जगह पहले चलें जहां कपड़ों  की कढाई मेरा मतलब है कि, जैसे बनारसी साड़ियां जहां बनती हों वहां ले चलना। अगर किसी कारखाने वगैरह के बारे में पता हो तो सीधे वहां चलना। हमें उसके बारे में जानना है कि कैसे काम होता है। उसका बिजनेस कैसे होता है।'

'ठीक है बाबूजी, हम समझ गए। आपको पहले लल्लापुरा, मदनपुरा ले चलेंगे। वहां काम बन जाए आपका तो ठीक है, नहीं तो फिर और कई जगह हैं, वहां भी ले चलेंगे।' 

रिक्शे पर बैठते ही मुन्ना ने उससे बतकही शुरू करते हुए पूछा,'एक बात बताइए, यहां विदेशी भी बहुत दिख रहे हैं। क्या यहां यह सब घूमने आते हैं या फिर कुछ काम-धाम भी करते हैं।'

'बाबू जी ज्यादातर तो घूमने ही आते हैं। लेकिन फिर बहुत से यहीं रह जाते हैं। कई बरस यहीं पड़े रहते हैं। कुछ दिन के लिए जाते हैं अपने देश, फिर लौट आते हैं। सब यहीं की बोली-बानी, खाना-पीना सीखते यहीं रम जाते हैं। तमाम लड़कियां तो यहीं के लड़कों से शादी करके यहीं की हो जाती हैं। लड़का-बच्चा सब हैं। कोई-कोई तो धोखा देकर चली जाती हैं। कुछ बच्चा भी यहीं छोड़ जाती हैं।'

'यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कैसे हो जाएगा।' 

'बाबू जी, अभी तो आपने कुछ जाना ही नहीं।'

 'क्या ?'

 'कभी-कभी यह भी सुनाई देता है कि फलां जनें किसी लड़की के साथ बड़ी हंसी-खुशी रह रहे थे। फिर लड़की कुछ दिन बाद अपने देश जाकर लौटने की बात कह कर जाती है। लेकिन जाकर फिर वापस लौटी ही नहीं। यही गम में कई जने मूर्खता किए और आत्महत्या कर ली। एक बार एक जने रूस की लड़की के साथ शादी करके कई साल से रह रहे थे। कागज-पत्तर कराए बिना। अचानक एक दिन लड़की अपने देश रूस जाने के लिए तैयार हो गई। वह उसे जाने नहीं देना चाह रहा था। 

उसे शक था कि, यह जाएगी तो फिर वापस ही नहीं लौटेगी। जब उसने जाने की जिद कर ली तो उस बेवकूफ ने उसको भी मार कर खुद भी आत्महत्या करने की कोशिश की। लेकिन भोले बाबा की कृपा से दोनों हॉस्पिटल में बच गए। मगर जेल जाने से दोनों नहीं बच पाए। बाद में समझौता हुआ और लड़की अपने देश गई, और फिर वापस आकर अपना वचन पूरा किया। आकर बोली जो आदमी मुझे इतना चाहता है कि जान ले सकता है, दे भी सकता है। उसे छोड़कर कैसे जा सकती हूँ। मुकदमा खत्म कराने की कोशिश की, लेकिन कानून तो अपना काम किए बिना नहीं मानता। दोनों फिलहाल जमानत पर बाहर हैं। विधिवत शादी करके रह रहे हैं।'

'मेरे लिए तो यह वाकई आश्चर्यजनक है। लेकिन यह सब भाषा वगैरह कैसे इतनी जल्दी सीख लेते हैं।'

 'साथ रहते-रहते सब सीख जातें हैं। वह रूसी,अंग्रेज़ी यहां की बोली-बानी सब सीख चुकी है। यहां की कशिका बोली बहुत अच्छी बोलती है। एक स्कूल में अंग्रेज़ी,गणित पढाती है। बहुत भली औरत है। पक्की शिव भक्त है। शिव स्त्रोत जब मंजीरा बजा-बजा के गाती है, तो यहां के बड़े-बड़े तिलकधारी पंडित भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। उसे एकटक देखते और सुनते ही रह जाते हैं।'

'तो क्या सारी विदेशी औरतें ऐसी ही होती हैं।'

'नहीं बाबूजी, बताया ना कि बहुत सी आती हैं। घूमती-फिरती हैं, यहीं के किसी आदमी को साथ ले लेती हैं, और जब यहां से निकलती हैं तो एकदम तोता हो जाती हैं। पलट के नहीं देखतीं। लेकिन कुछ ऐसी होती हैं,जिनकी आत्मा इस पवित्र धर्म नगरी के रंग में ऐसी रंग जाती है कि, वो अपना पिछ्ला सब भूल जातीं हैं। ऐसी एक विदेशी महिला हैं। जिनको मैं खूब  जानता हूँ। उनका पिछ्ला नाम लूसी है। लेकिन यहाँ की सनातन संस्कृति में ऐसी रची-बसीं कि अपना पिछ्ला नाम,धर्म सब छोड़ दिया।

सनातन धर्म अपना कर,अपना नाम रख लिया दिव्य प्रभा। और सुनिए बाबू जी,सुनकर आश्चर्य में पड़ जायेंगे कि वो अंग्रेज़ी ,संस्कृति,हिंदी यहाँ की बोली, इतना जानती हैं कि बड़े-बड़े पंडित उनके सामने कुछ नहीं  हैं। सनातन धर्म के सारे ग्रन्थ पढ़-पढ़ कर अपने दिमाग में भर लिया है। धर्म के बड़े-बड़े ज्ञानिओं से कम नहीं  हैं। हमेशा सफेद धोती पहनती हैं,बड़ा सा तिलक लगातीं हैं। उनसे  मिलकर लगता है,जैसे हज़ारों साल पुरानी किसी दिव्य संन्यासिनी से मिल रहे हैं। उन्होंने दिव्य प्रभा नाम एकदम सही रखा है। आप कहेंगे तो आपको भी मिलवा दूंगा। '

गंगाराम की बातें सुनकर मुन्ना ने बड़ी आँखें कर मुझे देखते हुए उससे पूछा,'आप हमेशा साधु-संन्यासियों के साथ रहते हैं क्या?'

'बाबूजी हम हफ्ता में एक दिन कोई काम-धाम नहीं करते। बस साधु-संतों के साथ रहते हैं।उनकी वाणी सुन-सुन कर थोड़ा-बहुत जान लेते हैं ।'           

'अच्छा! पहले काम कर लूँ, तब चलूँगा तुम्हारी तरह दिव्य प्रभा जी के पास, लेकिन यह बताइये कि, क्या यहां के लोगों को भारतीय लड़कियां नहीं मिलतीं जो उन विदेशियों के चक्कर में पड़ जाते हैं।'

 'बात अइसन है बाबूजी कि मन का कोई ठिकाना नहीं है। बड़ा चंचल है।'

 गंगा राम आराम से रिक्शा खींचे जा रहा था और अपनी बात भी बड़े आराम से कह रहा था। उसकी इस बात पर बगल में बैठे मुन्ना की जांघ पर मैंने हल्की सी चुटकी काट ली। मेरा हाथ रिक्शे पर बैठने के बाद से ही मुन्ना की जांघ पर ही था और मुन्ना का एक हाथ मेरी कमर को पीछे से पकड़े हुए था। गंगा राम ने बात को आगे बढाते हुए कहा,'अपने भोले बाबा के देश में ना अच्छी लड़कियों की कमी नहीं है,ना लड़कों की, और ना ही अच्छे घरों की। बात सब मन की है। हम ऐसे ही एक-दो जन की बात बताते हैं, जिससे आप जान जाएंगे कि मन कितना चंचल है। इसको बांध के रखना बड़े-बड़े योगी, संत-महात्मा के वश का भी नहीं है।'

'अच्छा, तो बताइए कुछ लोगों की कहानी।'

 इसके साथ ही मुन्ना मिनरल वाटर की बोतल खोल कर पानी पीने लगे। कुछ घूंट पीने के बाद जब वह बोतल बंद करने चले तो मैंने भी लेकर पी लिया। तभी गंगाराम बोला,'ठीक है बाबूजी, आपका मन सुनने का है तो हम अपने घर के पास की आंखों देखी घटना बताते हैं।

एक मुराव परिवार वहां रहता है। भला परिवार है। हमारे यहां भी आता-जाता है। उनके तीन लड़का हैं। सब सब्जी बेचने के काम में लगे रहे। करीब चार-पांच बरस पहले एक लड़का  ऑटो-रिक्शा चलाने लगा । ऑटो-रिक्शा चलाते हुए छः सात महीना ही बीता होगा कि एक दिन एक कोरियन लड़की टूरिस्ट उसे मिली। दिन भर के लिए उसे बुक कर लिया। दिन भर घूमी-फिरी। शाम को पैसा देते समय थोड़ा चख-चख की लेकिन साथ ही अगले दिन के लिए भी बुक कर लिया। उसका नंबर ले लिया। अगले दिन भी वह पूरे दिन शहर घूमी,शहर के पुराने से पुराने मंदिरों में चलने को कहती रही।

रास्ते में कोई ज्यादा बुजुर्ग आदमी मिलता तो ऑटो रुकवाकर उससे बात करती। सारी बातचीत अपने मोबाइल में रिकॉर्ड कर लेती। उस आदमी का फोटो और परिचय जरूर पूछती। मंदिर के पुजारियों से भी वह शहर के बारे में, यहां के रहन-सहन के बारे में बात करती। खाने-पीने की भी बात करती।'

'वह और यहां के लोग  कैसे एक दूसरे की बात समझते थे, भाषा आड़े नहीं आती थी क्या?' 'का है बाबूजी कि वह टूटी-फूटी हिंदी और अंग्रेज़ी  में बात करती थी। यहां के कवियों लेखकों के पास भी वह जाती। जितने संगीत-घराने हैं उनके पास भी गई। काफी बाद में उसने पुनीतम को बताया कि वह एक बड़ी किताब लिख रही है।'

'पुनीतम मतलब ऑटो वाला।'

'जी उसका नाम पुनीतम है। बड़ा होनहार लड़का था, पढ़-लिख भी रहा था। लेकिन दसवीं में पहुंचते-पहुंचते भांग-गांजा का लती हो गया। पढाई-लिखाई सब बर्बाद कर ली। कई साल तक नशा किए कभी कहीं, कभी कहीं, किसी घाट पर पड़ा रहता था। कई-कई दिन तक  नहीं लौटता था।

घरवाले वाले भी ऊबकर उसको छोड़ दिए थे। एक दिन किसी मंदिर के बाहर नशा किए पड़ा था। जाड़े का दिन था। उस मंदिर में कई दिन से एक साधु हरिद्वार से आकर ठहरे हुए थे। उन्होंने पता नहीं क्या सोचा कि उसको होश में ले आए। थोड़ा बहुत खिलाया-पिलाया। नशे की हालत के कारण वह कुछ खा-पी नहीं पा रहा था। जब वह ठीक से होश में आ गया तो उन्होंने उसे खूब समझाया-बुझाया। उसको लेकर घर आए। घर की हालत देखकर उन्हें बड़ी दया आई। घरवालों ने कहा,' सुधरेगा नहीं, आपके जाते  फिर से नशा करेगा।'

यह सुनकर साधु उसे अपने साथ लेते गए। जाते-जाते बोले,'हरिद्वार वापस जाने से पहले आपका बेटा आपको वापस सौंप जाऊँगा। भगवान भोलेनाथ ने चाहा तो उस समय तक यह इस बुरी आदत से मुक्ति पा चुका होगा। एक अच्छा इंसान बन चुका होगा।' सच में भोले बाबा की कृपा हुई। बाबा दस दिन बाद उसे घर छोड़ गए। पुनीतम सुधर चुका था। लेकिन कब तक सुधरा रहेगा इस बात को लेकर पूरे घर को आशंका थी,लेकिन पुनीतम ने सबकी आशंका को झुठला दिया। तब से आज तक उसने कभी नशा नहीं किया। हां दिन भर में सात-आठ बार रानी गुल मंजन जरूर करता है।'

'वाकई पुनीतम दिलचस्प आदमी है।'

 मैंने देखा मुन्ना गंगा राम की बातें जरूर सुन रहे थे, लेकिन साथ ही मार्केट पर गहरी नजर डालते चल रहे थे।

अपनी बात को आगे बढाते हुए उन्होंने पूछा, 'अच्छा तो उस कोरियन लड़की की बात आगे  कहां तक पहुंची।'

 ' बाबू जी बात तो बड़ी दूर तक पहुंची, इतनी दूर तक कि उससे आगे कोई दूरी होती ही नहीं।'

उसकी यह बात सुनकर मुझे हंसी आ गई। ऐसी कि बड़ी देर तक रोक नहीं पाई। मुन्ना भी मुस्कुराते हुए उसे देखता रहा। फिर मेरे हाथ को दबाते हुए बोला, 'अब आगे भी सुनो ना कि कोरियन बाला की आखिरी दूरी क्या है, जहां से आगे कोई दूरी होती ही नहीं।'

गंगाराम को मेरी हंसी पर न जाने क्या समझ में आया कि बड़ी विनम्रता से कहा,'नहीं बाबू जी, हमने बात ही ऐसी कही है कि, हंसी आएगी ही।'

'उसकी बात का आपने ऐसा क्या अर्थ निकाला कि आपकी हँसी नहीं रुक रही थी।'

बेनज़ीर ने मेरे प्रश्न को टालते हुए कहा,'छोड़िये, जाने भी दीजिये उस बात को,मेरी हँसी कम हुई तो  गंगा राम बोला ,'असल में बात यह है कि हम बनारसी हर हाल में मस्त रहने वाले आदमी हैं। बाबू जी एक बात पहले और बता दें कि अब हमें बनारसी कहे के बजाय काशियन कहना बढियाँ लगता है। यहां की मस्ती ही ऐसी है कि, एक बार दुनिया भर की धन संपत्ति वाला, ताकत वाला, सारी खुशियों से भरा रहने वाला आदमी उदास हो सकता है, लेकिन एक काशियन एक लत्ता (चिथड़ा कपड़ा)लपेट के, बिना कुछ खाए-पिए भी मस्ती में ठहाका लगा सकता है। खुलके हंसता रह सकता है। बाबूजी ऐसी मस्ती दुनिया में कहीं और नहीं मिलेगी। अपरंपार मस्ती का एक और नमूना देखिए कि, दुनिया में लोग श्मशान में अपने परिवार, नातेदार-रिश्तेदार का दाह संस्कार करने के बाद उदास मन से ही घर  लौटते हैं। जबकि यहां पर अंतिम संस्कार करने के बाद मिठाई,पूड़ी-कचौड़ी सब खाई जाती है। साथ में आया एक-एक आदमी खाता है। तब कहीं जाकर घर वापस लौटता है।'

 यह सुनकर मैं हैरत में पड़ गई। मुन्ना ने कहा,'कमाल की मस्ती है भाई। हां तो कोरियन लड़की कितनी दूर तक गई, वह सब बताओ। जरा देखें यहां की मस्ती ने कोरियन लड़की  को कितना मस्त कर दिया।'

इतना कहते हुए मुन्ना ने अचानक ही मेरी कमर पर एक जगह अपने अंगूठे और एक उंगली से मांसपेशियों को कस कर दबा दिया। इतना तेज़ कि मेरे मुंह से सिसकारी निकल गई और वह आसमान की तरफ सिर करके मुस्कुराते  जा रहे थे। मैंने भी हिसाब बराबर करने के लिए उसी तरह उसकी कमर पर करना चाहा लेकिन कर नहीं पाई। एक तो उनकी बेहद सख्त मांसपेशियां, ऊपर से उन्होंने ऐन टाइम पर अपना शरीर एकदम टाइट कर लिया था। मैं जब असफल रही तो एक घूंसा उनकी कमर पर जड़ दिया। तभी गंगाराम आगे बोला,'बाबू  वह भी यहां की मस्ती में इतना मस्त हो गई कि ऊंच-नीच, काला-गोरा, धर्म-जाति सब भूलकर पुनीतम से ही शादी कर ली।'

 यह सुनते ही हम दोनों चौंक गए। मुन्ना ने कहा,'अरे, यह क्या कह रहे हैं।' तो उसने कहा,'हाँ  बाबूजी एक मंदिर में शादी कर ली। अब आप ही बताइए इससे ज्यादा मस्ती का कोई दूसरा उदाहरण हो सकता है क्या?

इतनी मस्ती कि, जो भा गया उसे दिल खोलकर अपना लिया। सारे बंधन तोड़ दिए। सारी दीवारें पल में गिरा दीं। पुनीतम आज भी मिज़ांग के साथ घूमता है। वह खुद सांवला है और मिज़ांग बहुत गोरी। वह बहुत ही ज्यादा पढी-लिखी है, और पुनीतम उसके सामने अंगूठा  टेक से ज्यादा नहीं है। हर मामले में मिज़ांग पेड़ की फुनगी है, तो पुनीतम पेड़ की जड़ पर गिरा पत्ता। लेकिन दोनों ऐसे मिल गए हैं, जैसे चाय में शक्कर घुल गई हो।'

 'वाह पुनीतम कमाल कर दिया तुमने। और गंगाराम जी आप भी कम कमाल के नहीं हैं। इतने बढिया ढंग  से बता रहे हैं जैसे कि, कोई बड़ा कहानीकार कहानी सुना रहा हो। आपकी मस्ती भी कमाल की है। लेकिन यह बताइए कि पुनीतम ने कोरियन लड़की मिज़ांग से शादी कर ली, इससे उसके घरवालों को ऐतराज नहीं हुआ। मिज़ांग को उन्होंने अपनी बहू माना कि नहीं।'

 'बाबूजी क्या है कि, बहुत सी बातों में हम लोग थोड़ा पिछड़ा लोग हैं। कुछ मामलों में हमारी सोच दुनिया से उल्टा या फिर थोड़ा पीछे-पीछे चलती है। अरे जब आज के लड़का-लड़की माने वाला नहीं हैं। अपने मन का करना ही है उनको, तो करने दीजिए। पहले से ही उनकी बात मान लेने में कौन सी खराबी है। लेकिन नहीं पहले दुनिया भर के ठंगन करेंगे, ना-नुकुर करेंगे । जब देखेंगे कि लड़का-लड़की ने ठेंगे पर रख दिया है और छोड़ कर जाने वाले हैं, तब मुंह निपोर के मान जायेंगे। पुनीतम के साथ भी यही हुआ। लेकिन तब-तक बहुत देर हो चुकी थी।

दोनों शादी-वादी की रस्म को पूरे किए बिना ही किराए के मकान में साथ रहने लगे। मिज़ांग  कभी-कभी बिंदी लगा लेती, कभी सलवार-कुर्ता नहीं तो हमेशा जींस और बांह कटी झबला अस टी शर्ट पहनती थी। बहुत दिन तक पुनीतम के घर वालों ने उससे बात ही नहीं की। पूरा घर उसको देख कर मुंह फेर लेता था। इसी चिंता में सब झुराए जा रहे थे कि, मोहल्ले में नाक कट गई। लेकिन मोहल्ले वाले तो कुछ और ही सोच रहे थे। पीछे पड़ गए कि, पहले तुम दावत दो। बेवजह लड़का-बहुरिया को बहिरियाए हुए हो। यह सब बहानेबाजी नहीं चलेगी।' पूरा मोहल्ला इतना पीछे पड़ा कि मजबूर होकर बोले,'ठीक है हम दावत दे देंगे, लेकिन यह बताओ अगर वह दोनों ही दावत में नहीं आए तो?' लेकिन मोहल्ले वाले ना माने तो ना माने।

कई जने बोले कि,'उन दोनों को लाने की जिम्मेदारी हमारी है।' आखिर दावत देनी पड़ी। लोग भी बड़े चतुर निकले। दोनों को घेर लिए। खैर लड़के ने मां-बाप का मान रख लिया, और दोनों आए। लोगों ने उनको अच्छी तरह संभाला हुआ था। उनकी सलाह पर ही पुनीतम मिज़ांग को बनारसी साड़ी में, पूरे सोलह श्रृंगार ब्यूटी पार्लर में कराकर ले आया था। मिज़ांग  गजब की सुंदर लग रही थी। पुनीतम भी एकदम अलग तरह से सजा था। मैरून रंग  का कुर्ता और पीले रंग की धोती पहनी थी। जिसका किनारा गहरे मैरून रंग  का था और चमड़े  का आधा कटा वाला जूता।

वह बहुत जंच रहा था। पूरा मोहल्ला दोनों को देखने के लिए उमड़-पड़ा। घर वाले भी खुश होकर दोनों को हाथों-हाथ लिए। एक बात के लिए तो पूरे मोहल्ले ने पुनीतम की तारीफ की कि, उसने मिज़ांग को इतना सिखाया-पढाया था कि, एक भारतीय लड़की की तरह उसने सास-ससुर सब के पैर छुए। एक रात दोनों घर पर रह कर, अगले दिन फिर अपने ठिकाने पर चले गए। अब दोनों का आना-जाना लगा रहता है। लेकिन अब एक दूसरी बात ने तनाव पैदा किया हुआ है। सास-ससुर ने बच्चे के लिए कहा तो मिज़ांग ने साफ कहा कि, वह बच्चे पैदा नहीं करेगी , इससे उसके काम में बाधा पड़ेगी। इसके अलावा उसका शरीर खराब हो जाएगा। जब जरूरत होगी तो कोई बच्चा गोद ले लेगी ।

आखिरकार सास-ससुर ने बच्चे की बात ही बंद कर दी। लेकिन तनाव लिए बैठे हैं। अब तो पुनीतम ऑटो छोड़ कर मलदहिया के पास ही चाय-पानी का होटल खोल लिए है। मिज़ांग  पहले वाले ही काम पर है। होटल पर भी अक्सर बैठ जाती है।'

'मानना पड़ेगा गंगा राम, बहुत मस्ती है यहां के लोगों में। अच्छा लल्लापुर अभी और कितनी दूर है।'

 'बस पांच मिनट और बाबूजी।'

 ....तो हम दोनों गए तो थे कार्यक्रम में भाग लेने, लेकिन पहुँच गए लल्लापुरा। हमने बनारसी साड़ी, उसके व्यवसाय आदि के बारे में जानकारी की। यह सब करने में हमें तीन घंटे लग  गए। इस बीच गंगाराम हमारे साथ एक रिक्शेवाला,गाइड से ज्यादा दोस्त बन कर रहा। मैं और मुन्ना वहां का व्यवसाय, कारीगरी देखकर दंग रह गए। वहां से जब निकले तो मैंने कहा, 'यहाँ तो इतना कुछ है कि मेरा तो सिर ही घूम गया है। कैसे क्या करा जाएगा, क्या-क्या करा जाएगा ?'

 मुन्ना ने कहा, 'परेशान ना हो सब हो जाएगा। तुम्हें यह  सब बहुत लग रहा है ,मगर वह सब कह रहे हैं कि,''अब पहले वाली बात नहीं रही। दुनिया में सब चल रहा है, तो यह भी चले जा रहा है बस।''

'मतलब ?'

'मतलब कि इस बिजनेस का अब पहले वाला क्रेज नहीं रहा, मगर फिर भी इतना बड़ा है कि अब भी बहुत कुछ है।'

इसी के साथ उन्होंने गंगा राम से किसी होटल पर चलने के लिए कहा, जिससे खाना-पीना हो सके।

 तो मैंने कहा,' यह टाइम खाने का नहीं है। हल्का-फुल्का कुछ नाश्ता कर लिया जाए तो अच्छा है।'

 'ठीक कह रही हो। गंगा राम जी ऐसे होटल पर चलिए जहां चाय-नाश्ता हो सके।'

 'ठीक है बाबूजी। यहां से थोड़ी दूर पर अपने पुनीतम के होटल पर ले चलते हैं। देखिए कैसे क्या से क्या बन गया है।'

 'ठीक चलिए, देखें कोरियन और बनारसी बाबू मिलकर कहां तक पहुंचे हैं। बनारसी नहीं बल्कि कोरियन, क्यों गंगाराम।'

  यह कहकर मुन्ना हंस दिए। उसको भी हंसी आ गई।

हम करीब बीस मिनट के बाद पुनीतम के होटल ''भोला-भंडारी होटल'' पहुंचे। कुल मिलाकर अच्छा खासा चाय-नाश्ते का होटल था। हम अंदर गए, बेंचऔर मेजें लगी थीं। छः सात पुरुष खाने-पीने में लगे थे। होटल सादगीपूर्ण, लेकिन खूब साफ-सफाई वाला था। एक काउंटर पर स्टाइलिश मूछों वाला अच्छी सेहत का युवक बैठा था। उसने बड़ा सा तिलक लगा रखा था। उसके बगल में ही एक महिला लैपटॉप खोले, चश्मा लगाए काम में जुटी थी। मुन्ना और मुझे पुनीतम और मिज़ांग को पहचानने में देर नहीं लगी। मुन्ना ने गंगा राम को भी बुलाकर चाय-नाश्ता करने के लिए कहा।

उसने लगे हाथ हमारा पुनीतम,मिज़ांग से परिचय भी कराया। वहीं हमने यह एहसास किया कि गंगाराम का पुनीतम के यहां से बड़ा करीबी रिश्ता है। हम बड़े आश्चर्य में थे कि, मिज़ांग  पुनीतम के साथ शादी कर बिजनेस भी चला रही है। अपना काम भी कर रही है और लोगों  से रिश्ते कैसे बनाना है यह भी जानती है। क्योंकि उसने जिस तरह से गंगाराम और हम दोनों से बात की वह किसी कुशल मिलनसार, व्यावहारिक व्यक्ति के लिए ही संभव था। हमें आश्चर्य इस बात का भी हुआ कि, वह बड़ी साफ-सुथरी हिंदी बोल रही थी। हम होटल में करीब आधा घंटा रहे और चाय-नाश्ता कर वापस आ गए। आते वक्त रात का खाना भी ले आए थे। आकर हमने करीब घंटे भर आराम किया।

इस बीच मुन्ना कार्यक्रम में भाग लेने आए अपने जैसे कई साथियों से बातचीत भी करते रहे। क्या ख़ास हुआ यह जानने का प्रयास किया। मैंने भी उन दोनों लड़कियों से बात की जो मथुरा से आई थीं। मधुबनी शैली की कला को वह कपड़ों में डिज़ाइन करने की कला की जबरदस्त आर्टिस्टि थीं, और बातचीत में भी बहुत मधुर। एक ही मुलाकात में दोनों मेरे बड़े  करीब आ गई थीं। वह मेरी कला के साथ-साथ अपनी कला मिक्स कर एक नए प्रयोग  की कोशिश में थीं। 

हम दोनों बेड पर लेटे-लेटे ही बात कर रहे थे। हमें यहां आने का कुछ ख़ास फायदा नहीं दिख रहा था। मैं मुन्ना पर ही डिपेंड थी। मुझे ज्यादा निराश देख मुन्ना ने कहा,'इतनी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अभी सब शुरू ही हुआ है। तुम निश्चिंत रहो। मैं यहां से कुछ ना कुछ बड़ा हासिल करके ही चलूँगा।'

 मगर मैं यकीन नहीं कर पा रही थी। असमंजस में थी तो मैंने कहा,'मगर मैं तो लगता है कि छोटा भी हासिल नहीं कर पाऊँगी।'

'कैसी बेकार की बातें कर रही हो। मेरा ''मैं''  से मतलब हम-दोनों से होता है। सही मायने में मैं बड़ा तभी हासिल कर पाऊंगा, जब मैं जिस उद्देश्य के साथ तुम यहां आई हो, उसे भी पूरा करवा दूं। बिना इसके मैं कुछ भी कर लूं। सब बेकार है मेरे लिए।'

 'लेकिन वहां मुझे कैसे मिलेगा कुछ। वहां तो हर तरफ एक से बढ़ कर एक बड़ी-बड़ी पहुंच वालों का कब्जा है। हमारी कौन सुनेगा, कहां बात बन पाएगी, मैं तो उन लोगों के सामने दबकर रह जाऊँगी, पता ही नहीं चलेगा कि, कहां से आई थी और कहां चली गई।'

'सब पता चलेगा कि कहां से आई थी, तुममें क्या खास बात थी और क्या ख़ास लेकर गई।'

'दुआ करती हूं कि तुम्हारी बात सच हो, नहीं तो अम्मी को बड़ा दुख होगा। वह बड़ा निराश हो जाएंगी। बड़ी मुश्किलों, बड़ी मेहनत से मैं उनके चेहरे पर खुशी, मुस्कान ला पाई हूं। इसके पहले जीवन में मैंने उनके चेहरे पर हंसी क्या, हल्की मुस्कान की एक धुंधली सी लकीर भी नहीं देखी थी। इसीलिए मेरी कोशिश यही है कि, अब जो भी जीवन बाकी बचा है उनका, उसमें मैं उनको भरपूर हंसी-खुशी दूं। उन्हें वह सब दूं जो एक अच्छे इंसान के नाते अच्छी ज़िंदगी के लिए उन्हें मिलना चाहिए, इसके लिए मुझे जो भी करना पड़ेगा, मैं वह हर हाल में करूंगी।'

इतना कहते-कहते मैं भावुक हो उठी तो मुन्ना ने कहा,'परेशान क्यों होती हो,अब उनकी  मुस्कान कभी नहीं जाएगी। तुम्हारे घर की सभी समस्याओं की जड़ में से प्रमुख जड़ थी पैसों की तंगी ,जो अब तुमने अपनी मेहनत से करीब-करीब दूर कर दी है। मगर अभी तुम्हें बहुत कुछ करना है। इतना पैसा कमाना है, उन्हें इतनी खुशी देनी है, जितनी उन्होंने कल्पना भी न की हो।'

'तुमने तो मेरे ही मन की बात कह दी। मुझे पक्का यकीन है कि तुम्हारे साथ ऐसे ही आगे  बढ़कर मैं अम्मी को सच में इतनी खुशियों से नवाजूँगी, जिसकी उन्होंने कल्पना भी ना की होगी। बस तुम मेरा साथ ना छोड़ना।'

इतना कहते हुए मैं मुन्ना से लिपट गई।

हम अब भी बेड पर लेटे हुए ही बातें कर रहे थे। मेरा चेहरा मुन्ना की छाती पर अठखेलियां कर रहा था। मैंने खुद को बहुत रोका लेकिन मैं सिसक पड़ी, तो मुन्ना ने अपनी बाहों में लेकर समझाते हुए कहा,'तुम मुझ पर अपना भरोसा बनाए रखो। हम कभी अलग नहीं होंगे। यह तुम सपने में भी मत सोचा करो। मैं तो ऐसा कभी सोचता ही नहीं, क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं तुम्हारे बिना रह भी नहीं सकता। कुछ कर ही नहीं सकता। हम दोनों एक-दूसरे के लिए ही हैं।'

 हम दोनों ऐसी ही बातें करते रहे, फिर कुछ देर बाद नहा-धोकर ताजा हुए और अगले दिन की तैयारी में लग गए। तैयारियां हमारी करीब-करीब पूरी ही थीं। हमें ज्यादा समय नहीं लगा। इसलिए हम फिर से काम-धंधे को विस्तार देने की योजनाओं पर बात करने लगे।'

इतना कहकर बेनज़ीर ने अचानक ही अपनी बातों को ब्रेक देते हुए,बिल्कुल मेरी ही शैली में मेरी आँखों में देखते हुए कहा,'मैं आपको शुक्रिया कहतीं  हूं,कि आप इतनी देर से चुप बैठे हैं। जिससे मैं आसानी से लगातार अपनी बात कह पा रही हूं। आप बीच-बीच में प्रश्न कर देते हैं तो मैं भटक जाती हूं।'

'आप निश्चिंत होकर अपनी बात कहती रहिए। मैं बीच में कोई प्रश्न नहीं करूंगा,क्योंकि मैं देख रहा हूं कि मेरी चुप्पी पर ही आप इतनी बातें बताए जा रही हैं कि, यदि मैं प्रश्न करता तो शायद इतनी बात ना मालूम हो पातीं। इसलिए आप जारी रखें कि, अगली योजनाओं पर क्या बातें कर रही थीं।'

मेरी बात पर वह थोड़ा मुस्कुराती हुई बोलीं ,

'फिर कहती हूँ कि, यह तो मानना पड़ेगा कि दूसरों से बात जान लेने की आप में बहुत बड़ी  क्षमता है। वैसे हम बिजनेस के विस्तार को लेकर चर्चा कर रहे थे। बनारसी साड़ी पर डिज़ाइन को लेकर मैं मुन्ना से बोली, 'मैंने सोचा था कि, मेरे डिज़ाइन्स से लल्लापुरा में कुछ बात बनेगी। लेकिन वह आदमी जल्दी-जल्दी न जाने क्या बोलता गया कि, मेरी समझ में कुछ आया ही नहीं।'

 'सब बताता हूं कि उसने क्या कहा। वह तुम्हारी डिज़ाइन्स की बात सुनकर बोला था,'मैटिफ तो बहुत हैं।अनगिनत मैटिफ आती रहती हैं। इनकी तो भरमार है।'

'मैटिफ क्या है, यही तो अब-तक समझ नहीं पाई। मतलब क्या है मैटिफ का?'

'मतलब होता है डिजाइन। उसका कहना था कि, कितनी तो डिज़ाइनें आती रहती हैं। लेकिन कस्टमर के बीच ज्यादा मांग पारंपरिक डिज़ाइनों की ही है। उनमें भी ज्यादातर जाल, जंगल, कोनिया,झालर, बूटी-बूटा की। समझी।'

'मतलब कि मेरे लिए कुछ नहीं है।'

'बहुत कुछ है तुम्हारे लिए। उसका कहना था कि, नई डिज़ाइन बहुत आती हैं। अब तुम ऐसी   डिज़ाइन बनाओ जो यहां पारंपरिक डिजाइनों के बीच अपना स्थान बना सकें। काम बहुत कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं है। जो डिज़ाइन तुमने बनाई हैं ,उस समय कुछ साथ में होतीं तो, उसे दिखा कर ज्यादा समझाया जा सकता था।'

 'हाँ, लेकिन वहां जाना तो पहले से तय था नहीं। नहीं तो साथ ले चलते, कल फिर चला जाए क्या?'

'अगर कल भी कार्यक्रम में आज जैसा रहा तो जरूर चलेंगे, और मदनपुरा भी। गंगा राम  कह रहा था कि, वहां भी बहुत बड़े पैमाने पर बनारसी साड़ियां बनती हैं। सुनो एक काम करो, अपनी जितनी भी डिज़ाइन लाई हो वह सब निकालो, सबकी फोटो मोबाइल में सेव कर लेते हैं। वहां दिखाने में आसानी रहेगी।'

 ' हाँ ,यह सही रहेगा।'

मुन्ना का यह आइडिया मुझे पसंद आया। मैं जितनी डिज़ाइनें ले गई थी, मुन्ना ने मेरे और अपने दोनों ही मोबाइल में सारी फोटो स्टोर की और कहा,' यदि कल चलना हुआ तो यह सब ले भी चलना , फोटो से ज्यादा अच्छा प्रभाव इनका पड़ेगा।'

 'तो फोटो बेकार ही खींची।,

 'नहीं ,अचानक ही आज जैसी कोई स्थिति आने पर मोबाइल काम आएगा।'

 'ठीक है। अब जितनी डिज़ाइन बनाऊँगी सबकी तुरंत फोटो भी खींच लिया करूँगी।' 

'बिलकुल यहां से लौटने पर और जितनी घर पर रखी हो, उनकी भी। तुम्हारी प्रोफाइल बनवा दूंगा। तुम्हारे काम की सारी डिटेल्स के साथ ही सारी डिज़ाइन्स भी उनमें होंगी। उन्हें कैटिगराइज भी कर दूंगा। यह सब टेबलेट में भी रहेगा। जिससे किसी के सामने अच्छे से प्रेजेंटेशन दिया जा सके।'

'प्रोफ़ाइल मतलब?'

 'प्रोफ़ाइल मतलब तुम्हारे काम का पूरा ब्योरा इस ढंग से दिया गया होगा, कि किसी को आसानी से दिखाया जा सके। लोगों पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा, हमारा काम आसान होगा। टेबलेट जानती हो कि नहीं?'

 'जानती हूं।'

'ठीक है। चलोअब खाना खाते हैं। ग्यारह बजने वाले हैं। वैसे भी ठंडा-ठंडा खाना अच्छा नहीं लगेगा।'

' लगेगा,उसने दही,पूड़ी-कचौड़ी,दोनों सब्जी जब पैक की थीं,तो उसे देखकर ही मैंने सोचा 

था कि, हो ना हो, खाना बहुत जायकेदार होगा। पुनीतम के होटल की पकौड़ियों,चाय की तरह।'

 खाने के बाद हम दोनों बेड पर लेटे-लेटे ही टीवी देखते रहे और बातें करते रहे। मैं बोली,'मैंने कहा था ना कि खाना जायकेदार होगा।'

 ' गर्म होता तो और भी टेस्टी होता। कल यहां जिस तरह का खाना ऑर्गनाइज़र ने सर्व कराया उससे मुझे बड़ी गुस्सा आई। बातें इतनी लंबी-लंबी की थीं,लेकिन इंतजाम थर्ड क्लास का था। दिन में और कई लोग भी यही सब बातें कर रहे थे। मैंने कल रात खाते समय ही सोच लिया था कि चाय-नाश्ता के अलावा अब जब-तक यहां हूं तब-तक खाना बाहर ही खाएंगे।'

 'लेकिन अभी कई दिन ठहरना है। रोज-रोज बाहर खाना बहुत महंगा पड़ेगा।'

 'तो क्या हुआ, हम लोग इतनी मेहनत करते हैं,पैसा कमाते हैं तो अच्छा खाने-पीने,रहने, मजा लेने के लिए ही ना। अगर यह भी नहीं करेंगे ,तो फायदा क्या मेहनत करने का,कमाने का।'

इतना कहते ही बेनज़ीर फिर चुप हो मुझे देखने लगीं,और मैं उन्हें ऐसा करते देखता रहा मूर्तिवत तो वह बोलीं,'अब आप बहुत ध्यान से सुनियेगा,जो बताने जा रही हूँ वह आपने सोचा भी नहीं होगा,एक बात और बता दूँ, कि एक शब्द भी रिपीट नहीं कराइयेगा,क्योंकि मैं हरगिज-हरगिज नहीं करूंगी।'

 यह कह कर वह हा..हा..कर बड़ी तेज़ी से हँसी,मैं समझ गया कि यह कुछ ज्यादा ही धमाकेदार बताने वाली हैं,'मैंने कहा आप निश्चिन्त होकर बताईये ,एक शब्द तो क्या ,एक अक्षर भी दुबारा नहीं पूछूँगा। आप बताईये ..।'

 'हूँ..तो हुआ क्या किअपनी यह बात पूरी करते-करते मुन्ना ने शैतानी शुरू कर दी तो मैंने कहा, 'अरे-अरे अब यह क्या कर रहे हो।'

 'काम करने के बाद अगला स्टेप मजा करने का आता है, वही कर रहा हूं।'

 यह कहते हुए उन्होंने मेरी खुद की बनाई हुई स्टाइलिश गाउन की स्ट्रिप खोल दी और कुछ ऐसी हरकत की, कि मेरे मुंह से जैसे अपने आप ही बहुत ही सेक्सी आवाज में निकल गया।  'अकेले ही सारा मजा ना लूट लेना।'

 'आज तक ऐसा हुआ है क्या?',

 मुन्ना ने बहुत ही आक्रामक अंदाज में सक्रिय होते हुए कहा। उसकी सक्रियता से मैं कसमसाते हुए बोली,'अब इधर आओ मुझे गुदगुदी लग रही है।' मैं अपने दोनों हाथ नीचे पेट के पास मुन्ना के सिर पर रखे, उसके बालों को मसाज करने की स्टाइल में चलाते हुए बोली तो  उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'बस थोड़ी गुदगुदी और लगने दो फिर ऊपर ही आता हूं।'

वह मेरे पेट पर चेहरे से बिल्कुल वैसी ही हरकतें कर रहे थे,  जैसी दक्षिण भारतीय फिल्मों के नायक,नायिका के साथ करते हैं। और मैं उन्हीं  नायिकाओं की तरह कसमसा सी रही थी। मुन्ना ने इसी उठा-पटक के बीच अपने व मेरे कपड़े निकाल कर बेड के किनारे सेंटर टेबिल पर डाल दिए, और इसी के साथ बेड पर बड़ा,बहुत बड़ा तूफ़ान जोर-शोर से उठ खड़ा  हुआ। इतना तेज़ कि बेड सहित कमरे की हर चीज ही नहीं, कमरा भी थरथरा उठा। यह तूफ़ान जितनी तेज़ आया था, उतनी ही तेज़ गया नहीं, बल्कि मंद चलती हवा की तरह बड़ी  देर में गुजरा।

जब गुजर गया तो हम दोनों बेड पर बड़ी देर तक पड़े रहे। मुन्ना के बदन पर जगह-जगह पसीने की बूंदें चमक रही थीं। मेरी छातियों पर सिर रखे तिरछा लेटे हुए थे। मैं एक हाथ से उसके सिर को सहलाए जा रही थी। तूफ़ान गुजर जाने के बाद हम दोनों को बड़े जोरों की नींद आ गई और हम सो गए। एकदम निढाल होकर,अस्त-व्यस्त, आड़े-तिरछे ही।'

बात पूरी कर बेनज़ीर मुझे सवालिया नज़रों से देखने लगीं। मैं बिलकुल शांत सोचने लगा कि, कुछ भी रिपीट कराने का तो कोई चांस छोड़ा ही नहीं। सच कहूं तो मैंने उनसे बात करने से पहले यह सोचा ही नहीं था कि, वह अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में इतनी सहजता से खुल कर ए-टू-जेड वर्णन करेंगी। हिन्दी बेल्ट के किसी व्यक्ति, वह भी किसी महिला से तो यह उम्मीद कदापि नहीं की जा सकती। लेकिन वह  लगातार किये जा रही थीं। इसलिए मुझे तारीफ करने में भी संकोच नहीं हो रहा था। मैंने,'कहा,'मार्वलस! आप जिस तरह से, जैसी-जैसी बातें बता रही हैं, उसे देखते हुए मैं पूरे दावे के साथ कहता हूं कि, जब यह बातें नॉवेल  के रूप में आएंगी तो पाठक हाथों-हाथ लेगा, और इसका श्रेय आपकी इस नैरेशन आर्ट को जाएगा।'

 'लेकिन फिलहाल कॉफी, स्नैक्स का एक दौर होना चाहिए।'

'जी हाँ,ज़रूर ,तब आप और फ्रेश मूड में और बेहतर बताएंगी।'

'और आप बेहतर सुन पाएंगे।'

यह कहकर वह खिलखिला हंसी,फिर नौकर के लिए घंटी बजा कर बोलीं ,  

'अगले दिन भी हमें कार्यक्रम में निराशा ही हाथ लगी। सब कुछ था तो बड़े भव्य स्तर पर, लेकिन हम अपने को उन सबके लिए अनफिट पा रहे थे। इसलिए दोपहर होते-होते वहां से निकल लिए। और मदनपुरा में अपने लिए संभावनाएं तलाशीं, फिर एक थिएटर में फिल्म  देखी और शाम को गंगा-मैया की दिव्य आरती का भव्य दृश्य देखा। यह बहुत बड़ा अद्भुत दृश्य था। मुन्ना ने सुना जरूर था लेकिन संयोगवश हमने देखा तो हम चकित रह गए। फिल्म के अलावा बाकी सारे समय गंगाराम हमारा गाईड,साथी बना रहा। वह एक-एक चीज की छोटी सी छोटी जानकारी देता था। मदनपुरा में एक जगह हमें कुछ उम्मीद नजर आई,तो  लल्लापुरा में ज्यादा दिखाई दी।

हम घूमघाम कर रात दस बजे लौट आए। पहले ही की तरह खाना-पीना लेकर। देर रात तक बातें चलती रहीं। गंगाराम के अत्यधिक बातूनी होने से लेकर उसकी बताई बातों तक पर। मैंने उसकी कई बातों को याद करते हुए कहा,'जो भी हो इस उमर में भी बीवी का बड़ा भक्त है। मैं आज जान पाई कि यह पक्का भंगेड़ी भी है। अपने को सही ठहराए जाने के लिए कहे जा रहा था कि,'सवेरे-सवेरे पहला काम बाबा भोले को याद करना, उनका प्रसाद भांग का चार तोला भर का गोला एक लोटा पानी के साथ लेना। इससे मेरा पूरा दिन, पूरी मस्ती, पूरे आनंद में बीतता है। एक से बढ़ कर एक बढिया बाबू लोग मिल जाते हैं। दिन भर बढिया कमाई हो जाती है।' बताओ नशे की चीज के भी कसीदे पढे जा रहा था।'

तो मुन्ना ने कहा , ' देखो उसका जीवन जीने का अपना तरीका है। बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति है। स्वाभिमान से समझौता नहीं करता। लड़कों  की भी मदद नहीं लेता। कितना खुले मन का और कितनी दूर तक सोचने वाला है कि, लड़कों  के साथ रहेंगे तो उनकी आज़ादी में खलल पड़ेगा और मेरी भी। ऐसे में दोनों एक दूसरे के लिए भारू यानी कि बोझ बन जाएंगे। फिर एक दूसरे को लेकर मन में गुस्सा बनेगा। लड़ाई-झगड़ा होगा। वह कितनी दूर तक सोचता है कि मां-बाप को चाहिए कि शादी ब्याह के बाद बच्चों को आज़ाद कर देना चाहिए। कितना तरीके से बता रहा था कि,'बाबू जी देखो, हमें पशु-पक्षियों से इस बारे में शिक्षा लेनी चाहिए कि, वह भी अपने बच्चों को बड़ा हो जाने पर उन्हें अपने झुंड से बाहर कर देते हैं। पक्षी भी मां-बाप का घोंसला छोड़ कर उड़ जाते हैं। तो हम तो आदमी हैं। हमें भी किसी पर बोझ नहीं बनना चाहिए।'

कितना सिस्टम से काम करता है, कितना दूर तक सोचता है कि जब रिक्शा खींचने लायक नहीं रह जाएंगे, तो भी मदद ना लेनी पड़े , इसके लिए मियां-बीवी मिलकर पिछले बीस वर्षों से पैसा जमा कर रहे हैं, जिससे बैठने पर भी महीने में इतनी रकम मिलती रहे कि, किसी भी बेटे से मदद ना लेनी पड़े,  मैं तो इस शख्स की तारीफ करूंगा कि, वह इतना कर रहा है। और मैं उसे भंगेड़ी भी नहीं कहूँगा, क्योंकि वह भांग को एक दवा की तरह लेता है। उसकी एक निश्चित डोज लेता है। डॉक्टर शराब के लिए भी कहते हैं कि, यदि सोते समय रेड वाइन के दो पैग लिए जाएं तो वह फायदेमंद हैं। मगर जो लोग बोतल की बोतल चढा जाते हैं, वह गलत है। जैसे पुनीतम, वह गलत था। उसकी जो हालत बताई गंगाराम ने उससे तो यह कहना चाहिए कि वह नहीं, शराब उसे पी रही थी। यह तो संयोग था कि, बाबा की कृपा हो गई और वह बच गया।'

'अरे बस भी करो, तुम तो उसी की तरह चालू हो गए बिना रुके ही। मेरी समझ में इतनी जल्दी नहीं आता। वह भी बिना रुके ना जाने क्या-क्या बोलता चला जाता है, उसकी तमाम बातें तो मेरी समझ में अभी तक नहीं आई।'

'अच्छा, उसने ऐसी कौन सी बात कही, जो अभी तक नहीं समझ पाई।'

यह कहते हुए उन्होंने मेरी नाक पकड़ कर कसके हिला दी,इससे मुझे एक के बाद एक कई छींकें आ गईं तो वह हँसते हुए बोले,'मेंढकी को जुखाम हो गया,अरे क्या समझ में नहीं आया ,कुछ बताएगी।'

मैं उनके पैरों पर सिर रखे,लेटी हुई बात कर रही थी। वह बेड पर पीछे पीठ टिकाये बैठे ऐसे ही प्यार से जगह-जगह छेड़ रहे थे। मैंने कहा, 'छीकें बंद हो तब तो बोलूँ। यह कहते हुए मैंने उनके दोनों हाथ पकड़ कर कहा,'तुम्हारे हाथ तुमसे भी ज़्यादा शरारती हैं,इन्हें ऐसे रखो और सुनो पहली नशे की बात, दूसरी यह कि, 'काशी नगरी तो तब भी थी जब यह पृथ्वी ही नहीं थी।' अब तुम ही बताओ, जब यह पृथ्वी नहीं थी तो नगर क्या हवा में बस जाएगा। क्या कमाल की बातें करता है।'

 'कमाल की तो बातें नहीं, जो उसने पढे-लिखे लोगों से पौराणिक ग्रथों की बातें सुनी हैं, वही बोल रहा था,तुमने पूरी बात सुनी नहीं,वह अपने किसी गुरु की बात कर रहा था। उन्हीं से सुनी बात कह रहा था कि, पुरानी बातों में यह बताया गया है कि काशी नगरी पहले भगवान शिव जी के त्रिशूल पर पर बसी थी। पृथ्वी बनी तो शिवजी ने काशी नगरी को यहां पृथ्वी पर रख दिया। इसीलिए कहते हैं कि, यह नगरी तब भी थी, जब यह पृथ्वी भी नहीं थी। उसने यह भी कहा था कि,'बाबू जी किसी ठेठ,खांटी बनारसी से पूछेंगे कि बनारस कहाँ है? तो वो यही कहेगा कि बनारस न आकाश में है,न पताल में है ,न पृथिवी पर ,बनारस तो भगवान् शिव के त्रिशूल की नोक पर है।' 

'अरे ! यह कैसे मुमकिन हो सकता है।'

' बहुत मुश्किल नहीं है इसे समझना। यह अपनी-अपनी आस्था की बात है। सुनो तुम इसको ऐसे समझो, जैसे तुम मोहम्मद साहब को पैगम्बर मानती हो। अल्लाह से जो संदेश उन्हें मिलते थे, उन्हें वह लोगों को बताते थे। लोग उन पर विश्वास करते थे। क्योंकि उनकी उन पर आस्था थी कि अल्लाह ने निश्चित ही उन्हें संदेश दिया है। किसी ने देखा नहीं, लेकिन आस्था के चलते विश्वास किया। आज चौदह सौ साल बाद भी उन पर आस्था रखने वाले लोग विश्वास कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों का विश्वास है कि, भगवान शंकर ने ऐसा किया। उन्होंने अपने त्रिशूल से उतार कर अपनी बनाई काशी नगरी पृथ्वी पर यहां रख दी। क्योंकि ग्रंथों में भी ऐसा उल्लेख है ,तो विश्वास अटूट और गहरा है। अब बताओ, तुम्हें अब भी कोई शक है।' 

'तुम ऐसे समझाओगे तो कहां से शक होगा।'

'चलो तुम्हारी समझ में तो आया। रही बात नशे की तो उसे हर ग्रन्थ में गलत ही कहा गया है । कुछ नशेड़ियों ने भ्रम फैला रखा है बस। अब थोड़ा काम की बातें करते हैं। अभी तक फायदे का एक भी काम नहीं हो पाया है, सिवाय इसके कि दर्जनभर प्लेन साड़ियां ले ली गई हैं, जिस पर अब तुम लखनऊ पहुंच कर अपनी अम्मी से सलाह-मशविरा के बाद अपने हुनर को आजमाओगी। कुछ नया प्रेजेंट करोगी।'

 'सही कह रहे हो। प्रदर्शनी में तो कुछ ख़ास हो नहीं पा रहा है।'

 'लेकिन मेरे दिमाग में एक बात आ रही है। अगर तुम साथ दो, तो कल ना सिर्फ हम कुछ नया एक्सपेरिमेंट कर पाएंगे बल्कि काम के आगे बढ निकलने की राह भी खुल सकती है।'

'ऐसा क्या काम है, जब इतनी दूर आ सकती हूं तो यहां कुछ और कदम बढ़ा लेंगे,अगर उनके ना बढ़ाने के कारण काम रुका हुआ है तो। मगर कदम ऐसे बताना जो मैं कर सकूं।'

'मैं वही कहूंगा जो तुम कर सको। तुम वह काम पहले भी कर चुकी हो।'

 'मैं!'

 'हाँ,तुम।'

 'क्या?'

 'मॉडलिंग।' 

'अरे!मैंने कब मॉडलिंग की?'

' तुमने लखनऊ में मॉडलिंग अपने प्रोडक्ट के लिए की है। खुद उन्हें पहनकर,फोटो खींचकर, सोशल साइट पर लगाया है कि नहीं।'

यह कहते हुए उन्होंने नाक पकड़ कर फिर हिला दी।मगर इस बार ऐसे ,जैसे किसी बच्चे की। '

'प्यार ,आपके प्रति उनके प्रगाढ़ प्यार के प्रतीक हैं उनके यह सारे काम।'

 'जी, जी, उनके ऐसे इतने काम है कि क्या-क्या बताऊँ ,उन्हें सुन लेंगे तो एक नॉवेल उन्हीं पर तैयार हो जाएगी, फिलहाल जो बात छूटी थी उसे आगे बढाती हूँ ,मैंने उनसे कहा ,'हाँ , लेकिन यहां इसका क्या काम।'

 'कल इसका बहुत काम है ,इसलिए तुम्हें कल यहां मॉडलिंग करनी है। अपने प्रोडक्ट को पहन कर फैशन शो में  रैंप पर चलना है।'

 यह सुनकर मैं एकदम चौंक गई। मैंने कहा,'क्या? तुम भी कमाल करते हो, उन छोटे-छोटे कपड़ों को पहनकर मैं उन तमाम लोगों के सामने चलूंगी। हया-शर्म भी कोई चीज होती है।' 

 'हाँ, होती है पगली। इसीलिए तो उन छोटे कपड़ों को पहनकर नहीं, बल्कि उन फुल ड्रेस  को जो तुमने डिज़ाइन किये हैं। जेंट्स वाले मैं पहन लूंगा और लेडीस वाले तुम।'

'तुम भी कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। इतने लोगों के सामने मटक-मटक के, कूल्हे उछालते हुए चलना मेरे बस का नहीं है। सारा काम बिगड़ जाएगा। फिर मॉडल जिस तरह चलती हैं, उस तरह तो मैं एक कदम भी नहीं चल पाऊँगी। धड़ाम से गिर जाऊँगी।'

'देखो जब तुमने पहली बार खुद ही मॉडलिंग की, तो पहले हिम्मत की तभी तो कदम बढाया । ऐसे ही हिम्मत करो, सब हो जाएगा। मैंने भी पहले कभी नहीं की है,मगर कल करने का पक्का इरादा है। कल कोई प्रॉब्लम न हो इसलिए अभी रिहर्सल करेंगे। सच कह रहा हूं कि दिल में ठान लो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। दशरथ मांझी अकेले ही पहाड़ काटकर रास्ता बना सकतें हैं,तीस साल तक अकेले काम करके, लुंगी भुइयां पहाड़ काट कर, खेतों तक पानी लाने के लिए तीन किलोमीटर लम्बी नहर बना सकते हैं,तो क्या हम लोग कुछ मिनट कुछ, कदम नहीं चल सकते हैं? क्या मुश्किल हो सकती है। और सुनो किस्मत भी उन्हीं का साथ देती है जो हिम्मत करते हैं, डरपोकों और बुजदिलों का साथ तो घर वाले भी नहीं देते। तुम हिम्मत करने लगी तो तुम्हारी अम्मी ही तुम्हें हर उस काम में मदद करने लगीं ,इजाजत देने लगीं, पहले जिनके बारे में तुम कल्पना भी नहीं कर सकती थी। '  

'तुम सही कह रहे हो। लेकिन मुझमें यह हुनर नहीं है।'

'तुममें यह हुनर भी है। तभी तो तुम बिना किसी सपोर्ट के खुद ही मॉडलिंग करने लगी। थोड़ी  और हिम्मत करो तो कल बहुत कुछ बड़ा हो सकता है। देखो हुनर अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है। तुम ओलंपियन धाविका दुती चंद को ही देख लो। एक छोटे से गांव में जन्मीं , गाँव में दिनभर घूमते रहने के कारण  लोग उसे पागल भी कहते थे। लेकिन एक धाविका के गुण थे तो स्कूल पहुँचते-पहुंचते लोगों की नजर में आ गई। अच्छे कोच, उसकी मेहनत ने उसे इंटरनेशनल प्लेयर बना दिया।

ऐसे ही रानू मरियम को भी ले लो। रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर गाना गा-गा कर भीख मांगती थीं। एक पैसेंजर ने उनका गाना रिकॉर्ड करके सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। वह मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को प्रभावित कर गया। आज वह बड़े-बड़े  संगीतकारों के साथ गाना गा रही हैं। क्या पता किस्मत कहां साथ दे जाए। लेकिन कोशिश करेंगे तभी साथ देगी यह भी निश्चित है।'

'ठीक है, वह क्या कहते हैं उसको, रिहर्सल करते हैं । बताओ क्या करना है।'

 'तुम्हें बस चलने की प्रैक्टिस  करनी है। बाकी कपड़े पहनना तो आता ही है। कैसे चलना है बताता हूं।'

इसके साथ ही मुन्ना ने लैपटॉप में यूट्यूब पर फैशन शो का वीडियो चालू कर दिया और कहा, 'यह मॉडल कैसे चल रही हैं, इनके पैरों को ध्यान से देखो। यह दोनों पैर को क्रॉस करते हुए चल रही हैं। मतलब की बायां पैर दाहिने ज्यादा निकाल रही हैं, और दाहिना बाएं तरफ ज्यादा निकाल रही हैं। तुम्हें ऐसे ही चलना है। एकदम कैटवॉक करना है।'

 'तुम भी ऐसे ही चलोगे।'

 'जेंट्स को दूसरी तरह चलना है। मैं मेल वाला वीडियो देखता हूं।'

तो इस तरह हम दोनों ने वीडियो देखने के बाद कमरे में ही रैम्पवॉक की रिहर्सल की। करीब पन्द्रह मिनट तक। फिर मैं बेड पर बैठती हुई बोली,'हो गई तसल्ली। मैं सही कर रही हूं ना।'

'चल तो ठीक रही हो, लेकिन लोगों के सामने चलने के लिए अभी और देर तक रिहर्सल करनी है। जिससे वहां कायदे से बिना रुकावट,हिचक के किया जा सके। तुम्हें एक बात बताऊं, मैं एक बार रोहतांग गया था। वहां जाने से पहले हरिद्वार, ऋषिकेश,नैनीताल गया। वहां पर बहुत से पहाड़ी कुली ऐसे लोगों को सरकंडे से बने एक ख़ास कोच में बैठा कर चढाई चढ़ते हैं ,जो खुद नहीं चढ सकते। अपने से भी वजनी आदमी को पीठ पर लादकर ऊपर तक ले जाते हैं।'

'अरे! एक आदमी को लादकर कोई पहाड़ पर कैसे चढ जाएगा।'

 'सुनो तो बताता हूं, कैसे चढ़ जाता है। सिर्फ आदमी ही नहीं बीस-पच्चीस किलो का पत्थर भी साथ में लादकर चढ़ता है।'

 मैं आश्चर्य से आंखें बड़ी करती हुई बोली, 'क्या? साथ में पत्थर भी, वह क्यों?'

' वह इसलिए कि पत्थर सहित आदमी लेकर जब वह आगे बढ़ते हैं ,ऊंचाई सीधी खड़ी हो जाती है तो चढ़ना मुश्किल हो जाता है। तब वह पत्थर को गिरा कर आसानी से चढ़ जाते हैं। एक तरह से वह अपने को मनोवैज्ञानिक ढंग से आदमी को ऊपर तक ले जाने के लिए तैयार करते हैं। सोचो दुनिया में लोग अपनी मंजिल पाने के लिए क्या-क्या तरीके अपनाते हैं। कितनी मेहनत करते हैं। बिना मेहनत के कुछ भी नहीं मिलता।'

 'हाँ,लेकिन मैं भी तो मेहनत कर रही हूं। कुछ कमी दिख रही हो तो बताओ।'

 'कॉन्फिडेंस में कमी है। मैं खुद में भी कॉन्फिडेंस में कमी महसूस कर रहा हूं। लेकिन कैसे बढाऊँ कॉन्फिडेंस, समझ नहीं पा रहा हूं। अच्छा चलो पहले खाना खा लेते हैं, फिर सोचते हैं। भूखे पेट होए ना भजन गोपाला। समझी।'

 'हाँ ,पूरा समझ गई।'

खाना खाने के बाद हाथ-मुंह धोकर बाहर आते हुए मुन्ना ने कहा,'कॉन्फिडेंस बढ़ाने का रास्ता मिल गया है।'

 मैंने कहा,'खाना खाते ही मिल गया।'

 हाँ, मैं कह रहा था ना कि, भूखे पेट भजन भी नहीं होता।'

 'कौन सा रास्ता है,बताओ।' डिस्पोजेबल बर्तन बटोरते हुए मैंने कहा।

 'अरे मिस मॉडल जी, मुंह पर लगा खाना तो साफ करके आओ,जल्दी क्या है। अभी पूरी रात बाकी है।'

 अपनी बात मुन्ना ने बड़ी अर्थ भरी नजरों से मुझे देखते हुए कहा और हल्के से आंख मार दी। उसका आशय समझने में मुझे देर नहीं । मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा,'आती हूं। अभी देखती हूं तुम्हारे कॉन्फिडेंस बढ़ाने वाले रास्ते को।'

हाथ-मुंह धोकर तौलिए से पोंछते हुए, मैं भी मुन्ना के बगल में जाकर बैठ गई। वह बेड के सहारे पीठ टिकाए बैठा हुआ था। पैरों पर एक तकिया रख कर, उसी पर लैपटॉप खोले हुए था। यूट्यूब पर किसी फैशन शो का वीडियो चल रहा था। रैंप पर मेल-फीमेल दोनों ही मॉडल नेकेड ही मूव कर रहे थे। किसी के हाथ में छोटे से सजे-धजे कुत्ते की चेन थी, तो किसी के गले में केवल स्कॉर्फ, तो किसी के होठों में सिगार दबी हुई थी। सभी बिल्कुल नेकेड कैटवॉक कर रहे थे। जिन्हें देखकर मैंने कहा,'ये क्या? तुम तो कॉन्फिडेंस का रास्ता ढूंढ रहे थे। यह क्या देख रहे हो मिस्टर मॉडल।'

 'यही है कल के लिए कॉन्फिडेंस बढ़ाने का एकमात्र रास्ता।' 

'मैं समझी नहीं तुम क्या कह रहे हो?'

'समझाता हूं, अभी तुमको पहाड़ी पर आदमी ढोने के बारे में बताया था कि, कैसे वह पत्थर रखकर चलते हैं। फिर उतार देते हैं। इससे उनके तन-मन को लगता है कि जिस आदमी को ढो रहे हैं उसका वजन हल्का हो गया है। और वह आसानी से ऊपर अपनी मंजिल तक पहुंच जाता है। हम भी इसी सायक्लॉजी को अपनाएंगे। जिससे आसानी से अपनी मंजिल पर जा सकें। फैशन शो में हिस्सा लेते समय हम कहीं शर्म-संकोच से बैठ ना जाएं, बीच में ही रैंप से वापस ना आना पड़े। इसलिए इस ख़ास काम के लिए हमें तैयारी भी ख़ास ढंग  से करनी है। और अभी ही करनी है ,क्योंकि टाइम नहीं है। कल ही हमारे लिए एक तरह से निर्णय का दिन है। फाइनल है।'

'तो बताओ क्या करना है, मैं तो तैयार हूं हर कोशिश करने के लिए।'

'तो चलो, सारे कपड़े उतारो। मैं भी उतारता हूं।'

सुनते ही मैं चौंक कर बोली,

'क्या ?'

'चौंक क्यों रही हो, यदि इस नेकेड फैशन शो के मॉडलों की तरह, हम अभी रिहर्सल कर लेंगे  तो कल के फैशन शो में ड्रेस पहनकर रैंप पर चलने में हम दोनों को कोई हिचक नहीं होगी। हम दोनों सबसे ज्यादा कॉन्फिडेंस के साथ कैटवॉक कंप्लीट करेंगे। वहां हमारी सफलता हमारे लिए रास्ते खोल देगी। हम लोगों के पास इतने पैसे तो नहीं हैं कि, हम अपने प्रोडक्ट के लिए मॉडल हायर कर सकें। खुद करने से दो फायदे होंगे। एक तो पैसे की बचत होगी। दूसरे अगर अच्छी पोजीशन पर हिट कर गए तो हमारे प्रोडक्ट के लिए रास्ते खुल जायेंगे। हमें मीडिया में इस बात के लिए भी एक्स्ट्रा कवरेज मिलेगी कि कम्पनी ओनर ने अपने प्रोडक्ट के लिए खुद मॉडलिंग भी की। अपने प्रोडक्ट को प्रमोट किया। मॉडलिंग  कर अन्य यूथ एन्टरप्रन्योर के लिए एक एग्जांपल सेट किया है। इसलिए चलो शुरू हो जाओ।'

इतना कह कर बेनज़ीर अचानक मुझसे मुखातिब हो बोलीं,'आप सोच रहे होंगे कि, हम दोनों क्या-क्या मूर्खता करते रहते थे,लेकिन आप यकीन कीजिये, यहां तक हम ऐसे ही रास्ते तय करके पहुंचे हैं ।'

'नहीं मैं ऐसा बिलकुल नहीं सोच रहा,मैं यह सोच रहा हूँ  कि दुनिया अपने लक्ष्य को पाने के लिए जिन रास्तों पर चल कर आगे बढ़ती है,उन रास्तों के बारे में आप दोनों सोचते ही नहीं,अपने लिए पहले आप रास्ता बनाते हैं, फिर उस पर आगे बढ़ते हैं। इस बिंदु पर एक बहुत बड़े कवि हुए हैं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, उनकी एक विख्यात कविता ''लीक पर वे चलें'' की चंद लाईनें याद आ रही हैं कि,''लीक पर वे चलें  जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं ,हमें तो जो हमारी यात्रा से बने ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।'' आप दोनों जैसे इस कविता को ही चरितार्थ करने में लगे हुए हैं।मैं यही सोच रहा था। '   

मेरी बात पर बेनज़ीर ने मुस्कुराते हुए कहा,'इतनी बड़ी-बड़ी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं,उस समय मुन्ना से भी मैंने यही कहा,छोटी-छोटी बातें करो। इतनी बड़ी-बड़ी बातें हमारी समझ में नहीं आ रही हैं।'

'समझती क्यों नहीं। छोटी बातें, छोटी ही सोच रखेंगे तो हम छोटे ही रह जाएंगे। जैसी हमारी सोच रहेगी हम वैसे ही बनते चले जाएंगे। इतनी छोटी सी बात तुम क्यों नहीं समझ रही हो। तुमने जब बड़ा सोचा,आगे बढ़ने के लिए रास्ते ढूढ़ने,बनाने लगी, तो आज यहां तक पहुंच गई। तुमने जो नया सोचा, नई ड्रेसेज बनाई हैं , उन्हें दुनिया के सामने लाओगी भी तो तुम्हीं। देखो आगे बढ़ जाओगी तो दुनिया तुम्हें सैल्यूट करेगी, वरना कोई तुम्हें पूछेगा भी नहीं। तुम्हीं बताओ तुम क्या चाहती हो, इतना आगे बढ़ कर, यहां तक आकर, कुछ पाकर वापस चलना चाहती हो जिससे कि अपनी अम्मी को खुशी दे सको, या खाली हाथ चलकर मायूस करना चाहती हो। मैं तुम पर कोई दबाव नहीं डाल रहा हूं। खुशी-खुशी तुम्हारी मर्जी हो तो करना, नहीं तो कोई बात नहीं।'

'मुझे बहुत-बहुत आगे बढ़ना है। अम्मी ने भी इसीलिए भेजा है। अच्छा चलो, पहले तुम करो,फिर मैं करूंगी।' 

मेरे इतना कहने पर जब मुन्ना ने नेकेड मॉडलों की तरह, नेकेड ही चलना शुरू किया तो मैं हंस-हंस कर लोटपोट होने लगी। इस पर मुन्ना ने मुझे छेड़ते हुए कहा,'मुझ पर हंसने वाली  हसीना-मरजीना अभी मैं भी तुम पर हंसूंगा।' लेकिन तमाम अवसरों पर वह मुझे, मेरे अनुमानों से अलग ही  कुछ करते मिले। जब मैंने शुरू किया तो वह बिल्कुल नहीं हँसे।बल्कि  खूब प्रोत्साहित किया। इसके बाद हम दोनों ने करीब एक घंटे तक रिहर्सल किया। जब मुन्ना को लगा कि रिहर्सल हो गई है, तो अचानक ही मुझको गोद में उठा कर बेड पर बैठा दिया। वह खुद भी मेरी बगल में बैठ कर बोले,'तुमने वाकई बहुत अच्छी रिहर्सल की है। देखना कल तुम बड़ी-बड़ी मॉडलों को पीछे कर दोगी।'

'तुम भी तो रहोगे ना?'

' ये भी कोई पूछने वाली बात है। बिल्कुल रहूंगा। यह सोचो भी नहीं कि मैं नहीं रहूंगा।'

ठीक इसी समय मैंने बेनज़ीर को रोक कर पूछा कि, 'जब आप अकेले या मुन्ना के साथ बिताए ऐसे रोमांचक, एकांत क्षणों के बारे में बताना शुरू करती हैं, तो उसके पहले कुछ कैलकुलेशन करती हैं कि, कितना बताऊँ, कितना न बताऊँ। या फिर फ्री होकर कि, जो कुछ जैसा हुआ, वैसा ही पूरी ईमानदारी से बता देती हूं। क्या फ़र्क़ पड़ता है।'

'फ़र्क़ पड़ेगा या नहीं पड़ेगा, कैलकुलेशन जैसी बातें छोड़ दीजिए। रिहर्सल की बात जब चल रही थी, तभी मैं आपके चेहरे पर उभरते इस प्रश्न को पढ़ चुकी थी। आपके प्रश्न के साथ ही मेरा जवाब तैयार था,कि सच बोलने का प्रयास करने के अलावा और कुछ भी मेरे दिमाग में चल ही नहीं रहा है।'

 ' ओह, वाकई आप बहुत इंटेलीजेंट हैं,कुछ लोगों को,कुछ बातें ईश्वर पुरस्कारस्वरुप दे देता है,मुझे लगता है ,आप ऐसे लोगों की ही श्रेणी में हैं।'

 'जी शुक्रिया, देखिये तारीफ सच्ची ही करियेगा। तो बात आगे बढाऊँ।'

 'मैं तारीफ नहीं ,ह्रदय में जो बात उठी वो कह रहा हूँ।' यह कहते हुए मैंने हाथ के इशारे से कंटीन्यू करने को कहा तो वह बोलीं ,

'आगे मुन्ना ने  कहा,'अच्छा आओ, अब लैपटॉप पर देखते हैं कि, हमने कहां-कहां कितनी गलतियां की हैं। यह जानने के लिए मैंने मोबाइल की रिकॉर्डिंगऑन कर दी थी। तुम्हें मैंने इसलिए नहीं बताया कि, तब तुम नॉर्मल होकर तैयारी न कर पाती।'

 उन्होंने मोबाइल का डाटा केबल लैपटॉप में अटैच कर दिया। वीडियो जब चला तो हम एक दूसरे की चाल, शरीर के अंगों  के मूवमेंट को देखकर हंसते रहे। एक-दूसरे को छेड़ते रहे। बड़ी देर तक हंसी-ठिठोली के बाद हमने सोने की जरूरत महसूस की तो उन्होंने कहा,'एक मिनट पहले यह वीडियो डिलीट कर दूं। कहीं धोखे से भी किसी के हाथ लग गया तो आफत आ जाएगी। मुझे अपनी तो कोई परवाह नहीं, लेकिन तुम्हारी चिंता किए बिना नहीं रह सकता।'

'अच्छा, मेरी इतनी चिंता है।'

'अपने से भी ज्यादा।देखो मैं आदमी हूं। मेरा कुछ नहीं होगा। लेकिन यह जो अपना समाज है ना, यह लड़किओं को जीने नहीं देता। और मैं नहीं चाहता कि हमारे किसी काम के कारण तुम्हें जरा भी तकलीफ हो। तुम्हारी छोटी सी भी तकलीफ मुझे बहुत ज्यादा तकलीफ देगी,  तुम्हारा मान-सम्मान, दुख-तकलीफ अब सब-कुछ मेरा है। इसलिए मुझे हर हाल में इन सबकी फिक्र करनी ही है।'

उनकी इस बात ने मुझे बहुत भावुक कर दिया। मैंने कहा,'इतनी ही फिक्र है तो शादी करके घर क्यों नहीं ले चलते।'

 'परेशान ना हो। बहुत जल्दी शादी भी करूंगा। बस तुम पीछे ना हटना। नहीं तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा।'

'तुम इतना भी नहीं समझ पाए इतने दिनों में। सब कुछ तुम्हें क्या इसीलिए मैंने सौंप दिया कि एक दिन पीछे हट जाऊं। मेरे जीते जी तो अब यह मुमकिन नहीं है कि, तुम से अलग होने की सोचूं भी।'

'अच्छा यह बताओ अगर शादी के लिए तुम्हारी अम्मी तैयार नहीं हुईं तो?'

'मैं उनकी तरफ से पूरी तरह निश्चिंत हूं। तुम समझ लो कि उन्होंने हां कह दी है। वह राजी हैं।'

'क्या कह रही हो तुम, तुमने पहले ही बात कर ली है।'

'ऐसा ही समझो।'

'अरे साफ-साफ बताओ तो मेरी जान, मुझे पहले क्यों नहीं बताया।'

 मुन्ना ने मुझे एक हाथ से अपने और करीब करते हुए कहा, तो मैं बोली,'ऐसा ही समझो ना। मुझे जरा भी शक-सुबह नहीं है। क्योंकि वह भी भीतर ही भीतर ऐसा ही सोच समझ रही होंगी। मन ही मन राजी ना होतीं तो पहले बाराबंकी और फिर यहां ,इतनी दूर पन्द्रह दिनों के लिए ना भेजतीं। क्या उन्हें पता नहीं है कि, जवान लड़के के साथ जवान लड़की को पन्द्रह दिनों के लिए इतनी दूर भेजने का परिणाम क्या-क्या हो सकता है। जबकि यहां कोई भी देखने-सुनने वाला नहीं है। क्या इसका यह मतलब साफ-साफ नहीं निकल रहा है कि उनके मन में क्या कुछ है।'

'अरे मेरी जान तू इतनी स्मार्ट है, यह तो मैं सोच ही नहीं पाया था। बात यहां तक पहुंच गयी और मैं हवा-हवाई उड़ता ही रहा। समझ ही नहीं पाया।'

 मुन्ना की बाहों में अपने को मैंने ढीला छोड़ते हुए कहा,'एक मां को उसकी बेटी से ज्यादा अच्छी तरह कोई और नहीं समझ सकता। मेरी अम्मी ने, मेरी बहनों ने, सबने जितनी तकलीफें झेलीं हैं जीवन भर, उन्होंने ही अम्मी को इस हद तक सोचने के लिए तैयार किया है।'

'और तुम्हें भी।'

'हाँ , मेरे लिए भी हालात ने बड़ा किरदार निभाया है, और सबसे बड़े किरदार तो तुम हो, तुम्हारे काम, तुम्हारी दरियादिली, एक प्यारे इंसान होने, इन सबके नाते मैं तुम्हारी तरफ खिंचती हुई चली आ रही थी। पता नहीं क्यों तुम्हें देखकर ही, तुम्हारा ख्याल आते ही मुझे लगता कि दुनिया में एक तुम्हीं ऐसे अच्छे, भले इंसान हो जिस पर आंख मूंदकर भरोसा किया जा सकता है। दुनिया की हर लड़की तुम पर आंख मूंदकर भरोसा कर सकती है। तुम्हारी नेकनीयती मुझे हर पल तुम्हारे करीब लाती जा रही थी।

 यह बात कोई आज की नहीं है। जब तुम मोहल्ले में उधम, पतंगबाजी, बवालबाजी करते, तो मैं अंदर खिड़की की सुराखों से तुम्हें देख लिया करती थी। तुम मुहल्ले के खुराफाती लड़कों में गिने जाते थे। लेकिन जब रिजल्ट का टाइम आता तो तुम पढ़ने में भी सबसे आगे रहते थे। तब कई दिन तुम्हारी बातें सुनती थी। वह सब सुन कर मेरा भी मन होता था कि मैं भी स्कूल जाऊं,पढूं-लिखूँ । मेरे बारे में भी लोग बातें करें। मगर अपनी हालत सोचकर मन मसोस कर रह जाती थी।

मन करता की दीवार पर मारकर अपना सिर फोड़ लूं, मर जाऊं। भेड़-बकरियों से भी बदतर हालत है। वह भी दड़बे से बाहर निकाली जाती हैं कि उनको भी धूप हवा मिले। मगर एक हमारी किस्मत है, हमारे घर की जाहिलियत ने हमें जानवरों से भी बदतर, इतना कुचल कर रखा था कि हमें बोलना, कुछ कहना भी नहीं आता था। क्या कहें, अपने बारे में, कुछ नहीं समझ पाती थी।

हम इंसान होकर भी जानवरों की तरह रहते चले आ रहे थे। मगर हालात ने ऐसा पलटा मारा कि सब कुछ बदल गया। बदल क्या गया कि सब कुछ खत्म हो गया। दर्जनभर लोगों  के परिवार में दो ही लोग बचे हैं। अम्मी की भी हालत ऐसी है कि, सोच कर ही कलेजा मुंह को आ जाता है। रुह कांप उठती है कि, अम्मी को कुछ हो गया तो मैं अकेली रह जाऊँगी। इतनी बड़ी दुनिया में कैसे कटेगी मेरी ज़िंदगी।'

यह कहते-कहते मैं बहुत भावुक हो गई। आंखें भर आईं थीं। अचानक ही मैं अपने भविष्य को लेकर बहुत डर गई। इतना कि मैं कंपकंपी महसूस करने लगी। मुझे अब-तक ध्यान से सुन रहे मुन्ना ने कहा,' यह क्या अचानक तुम बहकी-बहकी बातें करने लगी। उन्हें कुछ नहीं होगा। अरे एक से एक अच्छे-अच्छे डॉक्टर हैं। उनका ट्रीटमेंट कराने,देखभाल करने के लिए तुम और मैं हूं। ऐसे ही हो जाएगा उन्हें कुछ।'

 मुन्ना की बातों ने मुझको अभिभूत कर दिया। मैं आश्चर्य-मिश्रित खुशी से भरी एकटक उन्हें  देखती रही तो उन्होंने कहा,'ऐसे क्या देख रही हो। मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा है क्या?'  'पूरा और पक्का विश्वास है। आज तक तुमने ऐसा कुछ किया ही नहीं जिससे तुम्हारी किसी बात पर यकीन ना करने के बारे में सोच भी सकूं। ऐसा मैं ख्वाब में भी नहीं सोच सकती। सच कह रही हूं कि, तुम्हारी बात सुनकर अम्मी की सेहत को लेकर मेरी फिक्र एकदम खत्म हो गई है। मैं उनकी तरफ से बिल्कुल निश्चिंत हो गई हूं। लेकिन..।'

 'लेकिन! जब निश्चिंत हो गई हो तो फिर मन में लेकिन क्यों बना हुआ है?'

 'नहीं मेरा मतलब है कि तुम्हारे घर वाले हमारे रिश्ते को मान लेंगे, अगर ना माने तो, तब क्या होगा, तब तुम कहीं पीछे तो नहीं हट जाओगे ?'

'देखो मैंने घर वालों से पूछकर तुम्हें नहीं अपनाया, ठीक है। मैंने अपनी मर्जी से तुम्हें अपनाया। इसलिए अब किंतु-परंतु का कोई मतलब नहीं है। हमारे रिश्ते को मानेंगे तो ठीक है, नहीं तो अलग रहेंगे। अपनी दुनिया अलग बसायेंगे। इतनी सीधी सी, सामान्य सी बात को तुम अपनी परेशानी का कारण क्यों बनाए हुए हो।'

'डर लगता है, कि कहीं तुम्हारे घर वालों ने हंगामा बरपा कर दिया तो क्या होगा, और लोग  भी तमाशा कर सकते हैं कि एक मुस्लिम को उन्होंने अपने बेटे की बीवी कैसे मान लिया।

मन के कोने में डर अम्मी को लेकर भी रहता है कि, कहीं उनके लिए इस रिश्ते को लेकर मैंने जो अंदाजा लगा रखा है, कहीं वह गलत ना हो। वह भी कोई हंगामा ना खड़ा कर दें। मेरे अनुमान पर वाकई पानी ना फेर दें। कहीं वह भी कयामत ना बरपा कर दें कि, हमारा मजहब एक नहीं है तो हम कैसे एक हो सकते हैं। कैसे रिश्ता कर सकते हैं। कहीं वह अपनी जान दे देने की बात करके मेरे लिए यह हालात न पैदा कर दें कि मुझे या मुन्ना में से किसी एक को चुन लो। तब मैं क्या करूंगी?'

  'तुम्हें इस बात को लेकर भी किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है। किसी भी तरह की दुविधा की बात नहीं है। ऐसी बात हो तो बेहिचक अम्मी को चुनना।'

'क्या!'

'हाँ , मैं तुमसे बिना किसी हिचक कहता हूं कि, अम्मी को ही चुनना। क्योंकि इस उमर में तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत उन्हीं को है। तुम ही उनके बुढापे की लाठी हो। बिना तुम्हारे सहारे के वह जीवन की गाड़ी एक कदम भी नहीं बढ़ा पाएंगी। तुम्हारे साथ छोड़ने पर दुनिया तुम्हें स्वार्थी, बदतमीज कहेगी, और मुझे यह बिल्कुल सहन नहीं होगा कि दुनिया मेरी बीवी को ऐसा कुछ कहे।'

'तो तुम मुझे छोड़ दोगे?'   

'इस जीवन में तो कभी नहीं ।'

 मुन्ना ने मुझे बाहों में भर कर चूमते हुए कहा तो मैंने सवालिया निगाहों से उन्हें देखते हुए कहा,'दोनों बातें एक साथ कैसे मुमकिन होंगी।'

'सुन जानेमन, पहली बात तो यह नौबत आएगी ही नहीं। तुम कह ही चुकी हो कि, तुम्हारी अम्मी ने अगर इतने दिनों के लिए भेज दिया है, तो कुछ तो ऐसा है, जिससे यह कह सकते हैं कि, वह हमारी खुशियों के बीच में नहीं आएंगी। हमें खुशी-खुशी जीवन में आगे बढ़ने देंगी। एक मिनट के लिए तुम्हारी आशंका अगर सच निकली भी तो यकीन करो कि, मुझे खुद पर भरोसा है कि, मैं उन्हें मना लूंगा। अपने घर वालों को भी। फिर कहता हूं कि तुम्हें इस बारे में अब कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है। आओ अब सोते हैं, कल कुछ ज्यादा ही काम है, उसे करना भी है। लाइट ऑफ करूं क्या?'




'एक मिनट अम्मी से बात कर लूं। देखूं दवा खाई कि नहीं। दवा को लेकर बहुत लापरवाह हैं।' मैंने मोबाइल उठाते ही मुन्ना से एकदम शांत रहने के लिए कहा। फिर इत्मीनान से छः सात मिनट बात की। मेरा अनुमान सही था, वह रात वाली दवा भूले बैठी थीं। जब दवा खा ली तभी मैंने बात खत्म की और मोबाइल बेड के किनारे स्टूल पर रखते हुए कहा,'अम्मी की इसी आदत से मुझे चिंता बनी रहती है। मन तो करता है कि, अब कहीं भी चलूं तो उन्हें साथ लेकर ही चलूं। अकेले छोड़ना ठीक नहीं है।'

'चिंता मत करो, मेरे घरवाले उनका पूरा ध्यान रख रहे हैं। तुम परेशान ना हो इसीलिए कल तुम्हें एक बात बताई नहीं।'

 'क्या?'

'कल सुबह, जब भाई चाय-नाश्ता लेकर गया तो देखा कि उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। पूछने पर कहा, 'नहीं सब सही है। ऐसे ही थोड़ी सी उलझन है। कुछ देर में सही हो जाएगी ।' पर भाई नहीं माना, उसने अम्मा को बताया। अम्मा ने डॉक्टर बुलाकर उनका चेकअप करवाया। बीपी थोड़ा डिस्टर्ब था। दवा नहीं खाई थी। भाई दवा वगैरह खिलाकर लौटा। पूरे दिन में अम्मा दो-तीन बार गईं। इसलिए कोई चिंता करने की बात नहीं है। तुम वहां रहकर उनकी जितनी देखभाल कर सकती हो, उनकी उससे कम देखभाल नहीं हो रही है। अच्छा अब लाइट ऑफ करूँ ?'

 'हाँ, करो, लेकिन कल की तरह शैतानी नहीं करना।'

 'अच्छा, मैं शैतानी करता हूं।'

 उन्होंने मुझे जकड़ते हुए कहा। 'हाँ, बहुत-बहुत शैतानी करते हो। रात-रात भर करते हो।' मैंने खिलखिलाते हुए कहा तो, मुझे फिर छेड़ते हुए पूछा,'अच्छा, सच-सच बताना शैतानी में मजा तो खूब आता है ना? बोलो।' उसने कई बार पूछा। तो मैं बोली,'हूँ..।'

फिर उन्हीं से लिपट गई। तो वह छेड़ते हुए बोले ,'तुमने बोला लाइट बंद करने पर शैतानी होती है। तो चलो आज लाइट बंद ही नहीं करते। शैतानी भी खूब जी भर कर करते हैं। देखें लाइट में शैतानी करने में ज्यादा मजा आता है कि, लाइट ऑफ करके ज्यादा मजा आता है।' उन्होंने बात पूरी करते ही जो हरकतें शुरू कीं, उससे मैं अफना कर बोली,' नहीं लाइट ऑफ करो।' लेकिन वो नहीं माने तो, मैं भी उन्हीं जैसी हो गई।' 

'आपकी इजाजत हो तो मैं एक बात कहना चाहता हूं।'

'इजाजत मांगने की ज़रूरत नहीं है।आप कहिए ना। बड़ी बात तो यह है कि, आप कुछ ज्यादा ही चुप रहते हैं।'

'जिससे ज्यादा सुन सकूं...। मैं यह कहना चाहता हूं कि, आप अपने ही जीवन के हर पहलू को इतना एन्जॉय करते हुए बता रही हैं, जैसे कि, कोई रोमांटिक उपन्यास पढ़ रही हों, जैसे अपने उतार-चढाव भरे अतीत को एन्जॉय कर रही हों ।'

'अब इतना तो डेप्थ में नहीं जा पाऊँगी। लेकिन अतीत में इतनी उदाशियां झेलीं हैं। इतने  आंसू बहे हैं कि,अब वह दिन याद करके यकीन ही नहीं होता कि, ज़िंदगी ऐसे दौर से भी गुजरी है। आपने सही कहा,अपने अतीत की बात करके मुझे यही अहसास होता है ,जैसे मैं   कोई कहानी पढ़ रही हूँ।'

'जब आदमी अपने हाथों, अपनी किस्मत लिखने लगता है, तो उसके जीवन की किताब में उदासियां ,आंसू किसी पन्ने में नहीं होते।'

 मेरी इस बात पर वह हल्के से हंस कर कुछ देर चुप रहीं। फिर बोलीं,'अगला पूरा दिन हमारा बहुत थकान भरा रहा और थोड़ा राहतकारी भी, क्योंकि हम दोनों की रिहर्सल काम आ गई थी। रैंप पर हम दोनों ने प्रोफेशनल, नॉन-प्रोफेशनल दोनों तरह के मॉडलों के साथ काम किया। मुझे मेरे लुक और कुछ अलग ही अंदाज के साथ शुरू की गई वॉक ने जजों की नजर के साथ-साथ दर्शकों के बीच भी काफी ख़ास बना दिया। हालांकि मुझे मेरे वॉक के लिए तीसरा और मेरी ड्रेस के लिए दूसरा स्थान मिला। लेकिन अव्वल आईं मॉडलों के मुकाबले मेरी उपलब्धि इस मामले में ज्यादा थी कि, मैं अत्यंत कट्टरवादी सोच वाले परिवार से नाम मात्र को पढी-लिखी ऐसी लड़की थी, जिसका मॉडलिंग की दुनिया से कोई नाता-रिश्ता कभी ख्वाबों में भी था ही नहीं। कभी रैंप पर वॉक करेगी , इस बारे में कुछ घंटे पहले तक उसने सोचा भी नहीं था। जिस बात को मैं मुन्ना के दिमाग की खुराफात समझ रही थी वास्तव में वही निर्णायक और उपलब्धि लाने वाला कदम रहा।

मुझे पुरस्कार देते समय जब एनाउंसर ने संक्षिप्त डिटेल बताई कि, ड्रेस की डिज़ाइन से लेकर उसकी स्टिचिंग तक मॉडल ने खुद की है, और रैंप पर इसके पहले चलना तो क्या उन्होंने सोचा तक नहीं था, तो काफी देर तक तालियां बजती रहीं। मुन्ना को भी पुरस्कार मिला। एक अच्छे वॉक के लिए और दूसरा गुड फिजिक के लिए। अपने पुरस्कारों के साथ हम दोनों लौटे तो खुश थे। लेकिन मॉडलिंग में मिली सफलता से ज्यादा खुश इस बात के लिए थे कि, बिजनेस के लिए भी रास्ते और ज्यादा खुल गए थे।

 वापस होटल आकर मुन्ना ने कहा,'मुझे यह तो यकीन था कि तुम रैंप पर घबराओगी नहीं, अपना वॉक पूरा कर लोगी l लेकिन तुम कमर को जिस तरह लोच देकर बलखाती हुई चली, उससे लोग तो लोग,  मैं खुद आश्चर्य में पड़ गया। मेरे मन में आया कि, हो ना हो तुम घर में फैशन शो के बहुत से  वीडियोस देखती रही हो,बड़ी बारीकी से अपने दिलो-दिमाग में सब कुछ बैठा कर रखा हुआ है। लेकिन तुम कह रही हो कि, मोबाइल पर कभी-कभार ही देखती हो। इस हिसाब से तो तुम्हें फर्स्ट प्राइज मिलना चाहिए था।'

 'सच।'

 'और क्या, वहां किसी को यह भी पता नहीं था कि, तुम क्या थीं? कैसे यहां तक पहुंची हो। सब तुम्हारी तारीफ कर रहे थे। खासतौर से जब तुम्हारी हल्के ख़म के साथ कमर लचकती थी, तो लोग बोल रहे थे कि, बाकी तो ऐसे स्टेप ले ही नहीं पा रही हैं।'

मैं मुन्ना के सीने पर सिर रखे लेटी, उनकी एक हथेली को पकड़े , उसकी उंगलियों से खेल रही थी। उनकी बात सुनते ही मैं एक झटके से उठ बैठी। और उन पर झुकते हुए पूछा,सच  कह रहे हो, मजाक तो नहीं कर रहे हो ना।'

'सही कह रहा हूं विश्वास करो।'

 मैं फिर उन्हीं  के सीने पर सिर रखकर लेट गई। मेरा मुंह मुन्ना की तरफ था। मैंने बड़े प्यार स्नेह से देखते हुए कहा, 'यह सब तुमने किया है। मैं तो घर केअंधेरे कोने में पड़ी एक बेकार चीज की तरह थी। जिसकी ना कोई अहमियत थी, ना कोई उसे पूछने वाला था, ना कोई रास्ता दिखाने वाला था।

अम्मी भी बेचारी जितना हुनर उनके पास था, वह सब सिखाती गईं। जितना रास्ता दिखा सकती थीं, वह दिखा दिया। और फिर बोलीं ,'बेंज़ी, अब तू अपना रास्ता खुद बना। अपने हिसाब से आगे बढ़। मैं जीवन भर तेरे साथ ना चला पाऊँगी । अब तू खुद अपनी खुद-मुख्तार बन। मेरी तो अर्जी कब की परवरदिगार के पास लग चुकी है। न जाने कब बुलावा आ जाए। तुझे ठीक से अपना रास्ता तय करते देख लूं, तो मुझे कुछ राहत मिले। एक बात का तो कयामत तक मलाल रहेगा कि, जीते जी तेरा निकाह नहीं कर पाई। तुझे इतनी बड़ी  जालिम दुनिया में अकेला ही छोड़कर चल दी।'

जब-तब बराबर कहती रहती हैं,'बेंज़ी, मुकद्दर अगर कभी किसी भले इंसान को सामने ला खड़ा करे, तो उसे ठुकराना नहीं, निकाह कर लेना। अकेले ज़िंदगी कैसे कटेगी,अपनों का तो हाल देख ही रही हो कि, पराए से भी ज्यादा पराए हो गए हैं। कौन कहां है, यह तक पता नहीं है, तो तुझे कहां कोई पूछेगा।'

 अम्मी भाई-बहनों को याद करके उन सबके बेगानेपन से बहुत दुखी रहती हैं। आए दिन रोती हैं। बेंज़ी,बेंज़ी बस यही कहकर रोती हैं।' बात पूरी करते-करते मैं खुद ही सुबकने लगी  तो उन्होंने मेरा सिर सहलाते हुए कहा,'रोने की जरूरत नहीं है। थकने-हारने से काम नहीं चलेगा। आज ही नहीं, हमेशा ही इस दुनिया में वही आराम से रह पाया है, जिसने हिम्मत नहीं हारी,डटा रहा, अपने हाथों अपनी किस्मत लिखी। हार मान लेने वाले को यह दुनिया जीने नहीं देती।'

मुझे चुप कराने के बाद वह बोले,'तुम्हें और तुम्हारी अम्मी को इस बात का डर रहता है कि, अगर उन्हें कुछ हो गया तो फिर तुम्हारा क्या होगा? तुम दुनिया में अकेली कैसे रहोगी? क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं है कि, मैंने तुम्हें जीवन भर के लिए अपनाया है। रस्मों-रिवाज भले ही हमने पूरे नहीं किये हैं ,लेकिन हम पति-पत्नी तो हैं ही। आज नहीं तो कल बच्चे भी पैदा करेंगे, पैरेंट्स भी बनेंगे।'

 'मुझे यकीन है, क्योंकि मैं सब जानती हूं, लेकिन अम्मी को तो यह सब पता नहीं है ना, कि हम पति-पत्नी बन चुके हैं। इसलिए वह परेशान रहती हैं।'

मेरी बात सुनकर, कुछ देर सोचने के बाद मुन्ना ने कहा,'सुनो यहां से चलने के बाद एक-दो दिन आराम करेंगे। उसके बाद अपनी अम्मी से शादी की बात चलाना। उन्हें समझाना, कहना कि, उनकी सारी चिंता दूर हो जाएगी कि, उनके बाद तुम्हारा क्या होगा?'

 'मैं पहले ही यह सोचे हुए हूं। लेकिन डरती हूं कि, कहीं उन्होंने मना कर दिया तो क्या होगा , तब मैं क्या करूंगी ,अब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती और अम्मी को भी छोड़ नहीं पाऊँगी । ऐसे में मेरे सामने मरने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।'

मेरी बात पूरी होने से पहले ही मुन्ना ने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया और कहा,' क्या मूर्खों जैसी बात कर रही हो, जान देने से बढ़ कर ना कोई कायरता है, ना मूर्खता। हमें हर हाल में, हर परिस्थितियों के पार जाकर जरूर जीतने की कोशिश करनी चाहिए। हर हाल में जीतना ही चाहिए। जीतने के अलावा और कुछ सीखना ही नहीं चाहिए। दिमाग में हारने की बात लानी ही नहीं चाहिए।'

'तुम सब ठीक कह रहे हो लेकिन।'

 'लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, दोबारा बोलना तो क्या अपने मन में यह बात सोचना भी नहीं। और सुनो, मेरी भी इतनी उम्र हो गई है। आदमी को समझने में अब मुझे शायद ही कहीं गलती हो। मुझे बीते कुछ महीनों से तुम जितनी बातें बताती आ रही हो, जिस तरह वह मुझसे बातें कर रही हैं। और जिस तरह पहले बाराबंकी फिर इतने दिनों के लिए यहां भेजा यह कोई मामूली बात नहीं है।

इन सारी बातों के पीछे उनके मन मैं कौन सी भावना चल रही है, उसकी आहट को समझने की मैंने बहुत कोशिश की है। और मैं गलती पर नहीं हूं। हमें कहीं से भी उनकी तरफ से कोई एतराज नहीं मिलेगा, हां थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट हो सकती है। जो हम बातचीत करके दूर कर देंगे। मेरी समझ में जो अभी तक आया है वह यह कि, तुम्हारी अम्मी के मन में भी हमारी शादी की बातें हैं। उनके मन में यह कन्फ्यूजन होगा कि, कहीं मेरे घर वालों ने मना कर दिया तो क्या होगा? या पता नहीं वह जो सोच रही हैं वह सच है या उनका भ्रम है। यह भी सोचती होंगी कि मेरे साथ तुम्हारा भविष्य, तुम्हारा जीवन सुंदर है कि नहीं। लेकिन इन बातों की सच्चाई कैसे जाने-समझें यह नहीं समझ पा रही हैं। मैं उन्हें उनकी इस परेशानी से जल्दी से जल्दी मुक्ति दिलाना चाहता हूं। और तुम तो खुद ही यही सारे तर्क देकर पहले ही कह चुकी हो कि उनकी तरफ भी शायद ऐसा ही चल रहा । फिर इस समय ऐसा क्यों कह रही हो?'

 'तो उन्हें इस उलझन से कैसे निकालोगे ?' 

'बताया तो,तुम बात शुरू करो या मैं आकर कहूं। लेकिन तुम्हारा भविष्य, जीवन मेरे साथ कितना सुरक्षित है, इसका भरोसा तो उन्हें तुम ही दिला सकती हो। क्योंकि मेरे साथ तुम रहती हो, हर तरह की बातें तुम करती हो, उन बातों के आधार पर ही तुम उन्हें विश्वास दिला सकती हो कि सही क्या है ?'

 'तुम, सही कह रहे हो, जब एक ना एक दिन बात करनी ही है, तो और समय बर्बाद करने से क्या फायदा। यहां से चलने के कुछ ही दिन बाद मैं बात उठाऊँगी। कहूंगी 'अम्मी तेरी-मेरी खुशी इसी में है।'

मैंने देखा कि मेरी बात से मुन्ना ने जैसे बड़ी राहत महसूस की है। लेकिन साथ ही कुछ सोच भी रहे हैं , तो मैंने पूछ लिया, 'इतना डूबकर क्या सोच रहे हो?' तो उन्होंने कहा,'सोच यही रहा हूं कि, हम दोनों जैसा सोच रहे हैं, बात कहीं इसके उल्टी ना हो। कहीं तुम्हारी अम्मी या मेरे घर वाले ही धर्म की दीवार बीच में ना खड़ी कर दें। तब हमारे-तुम्हारे सामने इस दीवार को गिरा देने या उसे पार कर जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा।'

 'तुम अभी तो यही दुआ करो कि ऐसा ना हो। यदि हुआ तो हम यह रास्ता भी अपना लेंगे। हम इतने समझदार तो हैं ही, कि इस रास्ते पर चलकर भी अम्मी, अपने  परिवार को सिर आंखों पर बिठाए रहेंगे। उनकी बार-बार सेवा करके उन्हें खुश कर लेंगे। हम अपनी मंजिल पा ही लेंगे।'

 मेरी इस बात पर उन्होंने बड़े प्यार से मुझे बांहों में भर कर कहा, 'चलो खाना खाते हैं।'

 खाने के बाद हम फिर फैशन शो की बातें करने लगे,मैंने बताया कि वहां मेरे साथ क्या-क्या हुआ,मैंने उनसे कहा कि,'वहां  रैंप पर जाने से पहले जब तुमने तैयार होने के लिए कहा तो मैंने सोचा कि, जैसे घर पर तैयार होते हैं, वैसे ही खुद तैयार होना होगा। हाथ-मुंह धोकर पाउडर-साउडर लगा लेंगे बस। जो कपड़े शो करने हैं, वह दो मिनट में पहन लेंगे। तुम वहां क्या बोलते हैं कि, ग्रीन रूम में छोड़ कर चल दिए, मैंने समझा किसी कोने में तैयार होना होगा, लेकिन जब-तक मैं कुछ समझूं तुम उस औरत से पता नहीं क्या बात कर चल दिए।'

'तुम बातों को समझो पहले, वहां घर में तैयार होने जैसा नहीं होता है। ऐसे शो में पूरी मेकअप टीम काम करती है। मॉडलों को कुछ नहीं करना होता, मेकअप वाले जो कहें, बस उन्हें उसी तरह करते रहना होता है।'

'मुझे क्या मालूम था, यह सब पहली बार देख रही थी। जिससे कह कर गए थे,वो दो मिनट बाद ही मेरा मेकअप करने लगी। काम बहुत बढियाँ और तेज़ कर रही थी। उसके साथ की बाकी औरतें भी ऐसी ही थीं। मैंने सोचा चार-छः सौ रूपये के लिए यह सब क्या-क्या कर रही हैं।'

 'क्या-क्या कर रही थीं?'

 'यह पूछो क्या नहीं कर रही थीं। कोई पैर-हाथ के नाखून ठीक कर रहा था, कोई नेल पॉलिश कर रहा था, तो कोई बाल संवारे चली जा रही थी। कोई भौहें, तो कोई पूरे हाथ को। सब कुछ। मेरी कोहनी, पैर देख कर वह पहलवान सी औरत बोली,'आपने वैक्सनिंग नहीं करवाई।' मेरी कुछ समझ में ही नहीं आया कि, क्या पूछ रही है। दूसरी औरत मेरी हालत समझ गई कि, मैं कुछ समझ नहीं पायी तो उसने समझाया कि,'ऐसे शो से पहले शरीर के रोएं क्रीम या शेविंग मशीन से साफ कराए जाते हैं। जिससे स्किन स्मूथ और ग्लोइंग लगे।' मैंने सोचा यह कौन सा तमाशा है।'

'तमाशा नहीं, यह सब करना पड़ता है। रैंप पर तेज़ लाइट, कैमरों के फ्लैश मैं सब-कुछ बहुत साफ-साफ दिखता है। देखने वालों को कुछ स्पेशल दिखे, फोटो अच्छी आए। इसलिए यह सब तैयारी करनी पड़ती है। ग्लैमर की दुनिया छोड़ो ,आजकल तो घरेलू लड़कियां,औरतें भी सुन्दर दिखने के लिए रेगुलरली वैक्सनिंग कराती हैं या फिर खुद ही अपने आप घर पर ही कर लेती हैं।'

 'कमाल है ,मेकअप वालियों को इन सब कामों के लिए कितना पैसा मिल जाता है कि दूसरे के पैर से लेकर नाखून तक की साफ-सफाई करने लगती हैं।'

 'अब मुझे ज्यादा तो पता नहीं है, लेकिन तुम्हें तैयार करने के लिए पांच हज़ार रुपये दिए थे।' 'क्या! पांच हज़ार रुपये।' मैं सुनकर एकदम चौंक गई।

'हाँ पांच हज़ार। उसे दूसरी कम्पनी ने हायर किया हुआ था। मुझे जब पता लगा मेकअप वगैरह के बारे में, तो ऐन टाइम पर कोई रास्ता ना देख कर मैंने उसी से बात की। पहले तो मना कर दिया। बहुत कहने पर तैयार हुई तो दस हज़ार रुपये बोली। फिर बड़ी किचकिच के बाद पांच में तैयार हुई।'

 'तुम एक बार पूछ तो लेते, बेवजह इतना पैसा बर्बाद किया। मैं खुद ही जितना हो सकता, उतना कर लेती। मालूम होता तो मैं मेकअप कतई ना कराती, भले ही रैंप पर जाने को मिलता या ना मिलता।'

 'मेकअप का कोई सामान भी तो नहीं था। कहां से कर लेती? वैसे उसने क्या-क्या किया?'  'किया क्या, पहले बाल शैंपू किए, चेहरा साफ किया, फिर ड्रेस कौन सी पहननी है, और शरीर का कितना हिस्सा खुला रहेगा यह पूछा, इसके बाद तौलिए से इतना रगड़-रगड़ कर पोंछा कि, अभी तक जलन हो रही है।

 लेकिन चेहरा बहुत संभाल कर, जैसे कोई मासूम से बच्चे को पोंछ रहा हो। फिर ड्रेस पहनने के लिए बोला, मैंने ड्रेस निकाली तो बोली,'वाओ, वेरी नाइस।' मैं इतना अनुमान लगा पाई थी कि ड्रेस की तारीफ कर रही है। ड्रेस पहनने के लिए मैं इधर-उधर देखने लगी, वहां दर्जनों लड़कियां तैयार हो रही थीं। सबके सामने ही बदल रहीं थीं, मर्दों की तरह तौलिया लपेट कर। तो कोई तीन-चार लड़कियां दीवार बनकर खड़ी हो जातीं, उनकी ही आड़ में। उन्हें देखकर मैंने सोचा बेशर्म यह करने की भी क्या जरूरत है? वह चार लड़कियां तो सब कुछ देख ही रही हैं। यह सब देखकर मैंने सोचा यहां से भले ही खाली हाथ लौटना पड़े , लेकिन ऐसी बेशर्मी ना करूंगी। मुझे हिचकिचाता देखकर पहलवान बोली,'यहाँ अलग कोई रूम तो है नहीं, चाहें तो वॉशरूम में चेंज कर लें।' ये बात मुझे सही लगी तो मैं वही चेंज करके आई। मुझे देख कर बोली, 'ब्यूटीफुल।' फिर बिना कुछ कहे ही मेरी ड्रेस भी ठीक करने लगी।

एक औरत की ओर देखकर बोली,'वेरी नाइस,सो फोटोजेनिक फेस। इस ड्रेस में बहुत गॉर्जियस लगेंगी।'और तमाम बातें अंग्रेज़ी में किए जा रहीं थीं। मुझे उन सबका काम अच्छा लगा, लेकिन।'

 'लेकिन? संकोच कैसा। बात को साफ-साफ बोला करो ना।'

  'असल में वॉशरूम  में ड्रेस चेंज कर ली। मैं अपनेे हिसाब से सब ठीक समझ रही थी। लेकिन वह उसे ठीक करने लगी। कभी पीछे पीठ में हाथ डालकर ठीक करती तो ऐसा  लगता कि, जैसे मेरी पूरी पीठ खंगाल कर न जाने क्या ढूंढ रही है।

यही हाल पेट की तरफ था। ऊपर गर्दन की तरफ से सब ठीक कर लिया तो सामने खड़ी  होकर मुझे ऊपर से नीचे तक देख कर बोली,'आप अपने एसैट्स को जितना ज्यादा  गॉर्जियस बनाएंगी ,जजेस उतना ही ज्यादा इंप्रेस होंगे। ज्यादा मार्क्स मिलेंगे , तभी विनर बन पाएंगी।'

अब वह पूरी बात हिंदी में कर रही थी। बात पूरी करते-करते छातियों को ऊपर की ओर उठाते हुए बोली, 'परफेक्ट।'  उसके कहने पर शीशे में देखा तो उसे शुक्रिया बोले बिना नहीं रह सकी। उसने आगे-पीछे, दाएं-बाएं करके सब-कुछ ऐसे जमाया कि लाख गुना ज्यादा अच्छे लगने लगे।'

 'क्यों , उसने ऐसा क्या कर दिया था, जो तुम खुद नहीं कर पा रही थी।'

 'उसने भीतरी कपड़े को ऊपर खींच कर, फिर दो-तीन जगह सेफ्टी पिन लगा कर, ऐसे फिट किया कि छातियां एकदम ऊपर को उठी हुई ऐसी दिखने लगीं, जैसे कि सोलह-अट्ठारह की उम्र में हूं। मैंने सोचा जो भी हो पहलवान में काबिलियत तो है ही।'

 'काबिलियत तो तुम्हारी है। तुम हर एंगल से खूबसूरत हो, तभी तो वह तुम्हें संवार सकी। खूबसूरती ही ना होती तो किसे संवारती, खुद को।'

 यह कहते हुए मुन्ना ने पलक झपकते ही एक खूबसूरत सी शैतानी कर दी। जिससे मैं शर्मा कर उनकी ही बाहों में सिमट गई।'

 बाकी बचे दिनों को हम दोनों ने अपने-अपने बिजनेस को और आगे बढ़ाने के लिए नये रास्तों को तलाशने में लगा दिया। जितने रास्ते तलाशे जा सकते थे, उतने हमने तलाशे। हमें कई रास्ते दिखने लगे, लेकिन सब में पैसे ज्यादा लगने थे। रिस्क फैक्टर ज्यादा हाई था। लेकिन हम यह तय कर चुके थे कि, हमें मोर रिस्क, मोर गेन के सिद्धांत पर ही आगे बढ़ना  है। साथ ही काम करने के वर्तमान तरीके से बाहर निकलना है। मुन्ना ने अपने विचारों और रणनीति में परिवर्तन को लेकर धीरे-धीरे मुझे समझाना शुरू किया। मगर कार्यक्रम समापन समारोह के ठीक आधे घंटे पहले हमारे सामने एक बड़ी अजीब स्थिति पैदा हो गई।

दिल्ली बेस्ड एक एड कम्पनी का सीनियर व्यक्ति हमारे पास, साथ काम करने का ऑफर लेकर उपस्थित हुआ। यह हम दोनों की सोच से परे की बात थी। कम से कम मेरे लिए तो थी ही। उस व्यक्ति ने अपने एक एड प्रोजेक्ट के लिए मॉडलिंग का ऑफर दिया। उसने प्रोजेक्ट को लेकर जो डिस्कस किया, उसमें मुख्य काम मेरे लिए ही था। मुन्ना ने पता नहीं क्या सोच कर उसे तुरन्त कोई जवाब नहीं दिया। उससे सोच कर बताने का समय ले लिया। कहा कि,'हमें थोड़ा समय दीजिए, हम आपको अपना डिसीजन कल बताएंगे।' उस व्यक्ति ने जाते-जाते अपना सेल नंबर दिया और मुन्ना का ले लिया। उसकी सारी बातें करीब-करीब अंग्रेज़ी में थीं। इसलिए मेरी समझ में कुछ नहीं आया था।

 वैसे तो मुन्ना ने काशी से वापसी कार्यक्रम समापन वाले ही दिन करने का तय किया था। लेकिन इस कम्पनी के ऑफर ने हमें दो दिन के लिए रोक लिया। हम बड़े असमंजस में थे। क्योंकि पैसा हमारी उम्मीदों से भी ज्यादा ऑफर किया गया था। दूसरे वह प्रोजेक्ट का कुछ हिस्सा उसी समय शूट करना चाहते थे, जो काशी के कई पुराने मंदिरों और घाटों पर होना था, प्रोजेक्ट्स का बाकी बड़ा हिस्सा दो हफ्ते बाद अन्य शहरों में शूट होना था। मुन्ना से इस ऑफर को जब मैं समझ गई, तो उसे मैं लगे हाथ कर लेना चाहती थी। लेकिन मुन्ना यह सोचकर असमंजस में थे कि इस फील्ड में आगे बढ़ा जाए कि नहीं।

उसने स्थिति साफ करते हुए कहा,'देखो तुम अभी मॉडलिंग की दुनिया की, भीतर की दुनिया जानती नहीं। जब जान जाओगी तो मुझे पूरा यकीन है कि उल्टे पांव भाग खड़ी होगी । तब कहीं तुम आत्मग्लानि का शिकार ना हो जाओ। खुद मैं भी बहुत ज्यादा नहीं जानता कि  मॉडलिंग की दुनिया में क्या-क्या है। मगर जितना जानता हूं उससे तो परिचित करा ही सकता हूं। उतनी ही बातें काफी होंगी कि, तुम यह तय कर सको कि, तुम्हें क्या करना चाहिए।' उन्होंने कहा,'देखो उस दिन तुमने जो मॉडलिंग की, उस हिसाब से तुम मॉडलिंग की दुनिया की जो तस्वीर समझ रही हो, वास्तव में वह सब उसके ऊपरी हिस्से की कहानी है, जो तुम्हें बहुत अच्छी लग  रही है। वास्तविक मॉडलिंग तो वह है, जो यह कम्पनी तुमसे कराना चाहती है।'

मुझे बड़ी रहस्यमयी लगीं ये बातें। लेकिन मेरा जोश ठंडा नहीं हुआ था। मैंने कहा, 'तुम मेरे हिसाब से समझा सको तो समझाओ, सारी बातों का मतलब क्या है, असली दुनिया क्या है मॉडलिंग की।'

 'देखो साफ-साफ मोटी-मोटी बात यह समझो कि, जैसे यहां मेकअप केवल औरतें ही कर रही थीं। तो बड़े स्तर पर जाकर ज्यादातर मेकअप आदमी करते हैं। एक ही फोटो यानी पोज के लिए बहुत से अटेम्ट करने होते हैं। क्योंकि जब-तक आर्ट डायरेक्टर के मनमाफिक फोटो या वीडियो नहीं बन जाती है, तब-तक वह बार-बार करवाता रहेगा। इसके अलावा कुछ शूटिंग इंडोर यानी स्टूडियो में, तो कुछ आउटडोर बाहर भी होती है। यह कैसा होगा ये उनके प्रोजेक्ट पर डिपेंड करता है। आउटडोर शूटिंग में जहां वो कहते हैं, वहां जाना पड़ता  है।'

'तुम तो साथ में रहोगे ना।'

'पहले बाकी बातें भी समझ लो। ड्रेस कौन सी पहननी है, यह भी वही लोग ही तय करेंगे। तुम सिर्फ इतना कर सकती हो कि, वो जैसा-जैसा कहेंगे, आंख मूंद कर तुम्हें वही करते रहना है। कहेंगे पानी में भीगते हुए या नदी, समुद्र में उछल-कूद करना है या फिर जो  कुछ भी कहेंगे  करते रहना है। ये लोग पैसा यूं ही बैठे-बिठाए नहीं दे देते।'

मुन्ना की इस बात पर भी मैं बड़े जोश में थी। मैंने कहा, 'ये बताओ, इससे तो जगह-जगह जाने,घूमने-फिरने, मौज-मस्ती करने को तो मिलेगी ना। लगे हाथ काम, पैसा, खाना-पीना। इसमें तो मजा ही मजा आएगा।'

 'हाँ, जब जगह-जगह जाएंगे तो यह सब तो होगा ही।'

 'सुनो, जब पैसा, मौज-मजा सब है तो एक बार करते हैं ना। ज्यादा कुछ ऐसा-वैसा होगा  तो छोड़ देंगे। कह देंगे कि नहीं करना।'

यह सुन कर मुन्ना हँसते हुए बोले,'इस तरह नहीं होता कि, जब मन हुआ तब किया, नहीं हुआ तो मना कर दिया।'

'अरे कोई जबरदस्ती काम नहीं करा सकता न ।'

'ज़बरदस्ती नहीं, लेकिन ऐसी बड़ी-बड़ी कंपनियां एग्रीमेन्ट साइन करवाती हैं। और अगर बीच में तुम मना करोगी तो वह केस कर देंगे कि उनका तुम्हारे कारण इतना नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई तुम करो। इतना पैसा कहां से लाओगी। लेने के देने पड़ जाएंगे।'

 मुन्ना की इस बात पर कुछ देर सोचने के बाद मैं बोली, 'ऐसा है पहले उनसे बात कर लेते हैं  कि क्या-क्या करना है, ठीक होगा तो करेंगे साइन, नहीं हुआ तो नहीं करेंगे। मना कर देंगे।' मुन्ना जितना समझा सकते थे,उन्होंने उतना समझाया। लेकिन मैं एक बार बात कर ही लेना  चाहती थी। पहली बार में ही रैंप पर सक्सेसफुली वॉक कर लेने से मेरा जोश सातवें आसमान  पर था, मेरी जबरदस्त इच्छा के आगे मुन्ना को झुकना पड़ा।उन्होंने अगले दिन कम्पनी के आदमी से बात की। मैं भी साथ में थी।

बड़े विस्तार से सारी बात होने के बाद हम दोनों एक फिल्म देखने चले गए। शाम को लौटते वक्त उन्होंने मेरे मन को समझने के लिए फिर से मॉडलिंग वाली बात उठाई तो मैं असमंजस में दिखी। मगर फिर भी मेरा झुकाव इस तरफ था कि एक बार ट्राई कर लिया जाए। होटल पहुंचने तक वह मेरा असमंजस दूर नहीं कर सके। 

रात खा-पी कर जब हम दोनों लेटे तब भी हमारी बातें चालू थीं। मेरी एक बात पर उन्होंने  मेरे सिर को प्यार से सहलाते हुए कहा,'मेरे मन की पूछ रही हो, तो साफ-साफ कहता हूं कि कम से कम मेरे जैसा आदमी यह कतई नहीं चाहेगा कि, उसकी बीवी को कोई दूसरा आदमी चाहे। मेकअप के लिए ही सही उसको छुए, देखे, उसकी फोटो, वीडियो को देख-देख कर दुनिया आहें भरे,गंदी निगाहों से देखे।

इन कम्पनी वालों का एग्रीमेंट साइन करने के बाद हम इनके हाथ की कठपुतली बनकर रह जाएंगे। बीच में एग्रीमेंट तोड़ेंगे, तो यह हमें कोर्ट तक खींच ले जाएंगे। यह कमजोर केस को भी अपने पैसे की ताकत से जीत ले जाते हैं। जबकि हम जीत कर भी बर्बाद हो जायेंगे। बार-बार की पेशी, वकील की फीस देते-देते हम सड़क पर आ जाएंगे। इसलिए मेरा कहना है कि मॉडलिंग की बात दिल से निकाल दो। जो बिजनेस कर रही हो उसी पर ध्यान दो।

मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूंगा, उसमें जितना आगे बढो, उतना कम है। इतनी आगे जाओ कि दुनिया के मॉडल तुम्हारी कम्पनी के लिए मॉडलिंग करें, ना कि तुम। बाकी यही कहूंगा  कि मेरा तुम पर कोई प्रेशर,या कोई विरोध नहीं है। इन सारी बातों के बाद भी अगर तुम इसी फील्ड में आगे बढ़ना चाहती हो, तो मेरा पूरा सहयोग तुम्हारे साथ है। हर कदम पर तुम्हारे साथ हूं।' 

वो अपनी बात कहते रहे, और मैं उनके सीने पर सिर रखकर लेटी कुछ सोचती रही। उनकी बातों को गहराई से समझने की कोशिश करती रही। और उसके हाथों की ऊंगलियां मेरे बालों में चहल-कदमी करती रहीं। फिर वह एकदम खामोश हो गए। उस ए.सी. रूम में ऐसी    घनघोर शांति छा गई कि, हम दोनों की सांसों की आवाज साफ सुनाई दे रही थी।

आखिर एक लंबी खामोशी के बाद मैं बोली,'तुम जो कह रहे हो वही सही है। इस फील्ड में जाने से पहले मुझे अपनी शर्मो-हया को जूती तले कुचलना होगा, तुम्हारी और अम्मी के जज्बातों को भी कुचलना होगा। अभी जितनी फोटो इंस्टाग्राम पर तुमने मर्दों,औरतों की दिखाई उनमें ना जाने कितने तो सारे कपड़े उतारे, अपनी शर्मगाहों को भी नुमाया किए हुए हैं। तुम्हारी ये बातें मेरे दिल में गहरे बस गई हैं कि, मैं अपना बिजनेस बड़ा करूं, इतना कि लोग मेरी कम्पनी के लिए मॉडलिंग करें ना कि मैं किसी के लिए मॉडलिंग करूं।'

मैं इतनी ही बात कह पाई थी कि एकदम चिंहुक कर झटके से उठ बैठी। मुन्ना के एक हाथ ने कुछ शैतानी कर दी थी। मैंने शैतानी करने वाले हाथ को कस कर पकड़ लिया और हंसती हुई बोली,'तुम्हें बड़ी शैतानी सूझ रही है ना, अभी मैं तुम्हारी शैतानी निकालती हूं।'

 यह कहते हुए मैं उनके ऊपर ही चढ़ बैठी, और फिर वहां शैतानियां बढ़ती ही चली गईं।'

'मतलब की शैतानियां दोनों ही तरफ से बराबर होती थीं। ये नहीं कह सकते कि केवल मुन्ना ही शैतानी करते थे।'

 मेरी इस बात पर बेनज़ीर ने खिलखिला कर हंसते हुए जवाब दिया।

'आखिर मैं कम क्यों रहती?औरत हूँ ,क्या सिर्फ इसलिए ?'

 मैंने उनकी इस बात का जवाब देने के बजाए सीधे पूछा,

'मॉडलिंग को लेकर आपका डिसीजन इस शैतानी में खो गया,या...।'

'देखिये हम शैतानियों में नहीं, काम में डूबे रहते थे। बीच-बीच में सांस लेने के लिए शैतानियां कर लिया करते थे। अगले दिन फोन पर ही कम्पनी को मना कर दिया और ट्रेन में रिजर्वेशन देखा तो रिजर्वेशन नहीं मिला। अब यहां रुकना समय बर्बाद करना था, तो हम बस से ही वापसी के लिए तैयार हुए। बड़ी मुश्किल से हमें एक बॉल्वो बस में टिकट मिल गई। रास्ते भर हमारी बिजनेस सहित तमाम बातों पर गुफ्तगू चलती रही। उसी में काशी में ही अपने बिजनेस को शिफ्ट करने का मुन्ना का प्लान भी सामने आया। हम दोनों को लगा कि, जो काम हमारा है, उसके लिए काशी, लखनऊ से कहीं ज्यादा मुफीद है।

हम रात करीब बारह बजे घर पहुंचे। सफर की थकान इतनी थी कि, हम अपने अपने घर  वालों से ज्यादा बातचीत नहीं कर सके, तान-कर बेसुध सो गए। घर वाले भी नींद में ही थे। अम्मी दवा के असर के चलते कुछ ज्यादा ही नींद में थी।

 अगले दिन मैं अपने समय पर उठी, तैयार हुई। और अम्मी को ढेर सारी बातें बताईं। लेकिन रैंप पर कैटवॉक से लेकर मुन्ना के साथ रोज घूमने, एक ही साथ एक ही कमरे में रुकने जैसी सारी बातें छुपाते हुए। अपने पुरस्कारों से लेकर बिजनेस की भी सारी बातें कीं। यह भी कहा कि, हमारा मन हो रहा है कि अब यह शहर छोड़कर कर काशी ही चलें। अपने काम-धंधे के हिसाब से वह ज्यादा मुफीद है। मेरी इस बात पर अम्मी मुझे एकटक देखती ही रह गईं तो मैंने पूछ लिया,'ऐसे क्या देख रही हो अम्मी?'

'मैं देख रही हूं कि, हमारी बेंज़ी की उड़ान कितनी ऊंची होती जा रही है। वह बेंज़ी जो अभी कुछ दिन पहले तक घर के बाहर कदम रखती थी, तो उसके पांव लड़खड़ाते थे, मगर अब इतने ताकतवर हो गए हैं कि, कहीं भी, कितनी भी दूर चले जाते हैं। तुझे शुरू से ही कोई सही राह बताने वाला मिल गया होता तो अब-तक तू न जाने कितनी आगे निकल गई होती।' अम्मी से तमाम बातें करने के बाद मैं सेंटर चली गई। करीब दो हफ्ते बाहर रहने के कारण बहुत सा काम इकट्ठा हो गया था।

वहां मुन्ना ने बताया कि,'सुबह-सुबह कम्पनी के एजेंट का फोन फिर आया था। वह समझाने की कोशिश कर रहा था कि, अगले कई प्रोजेक्ट के लिए जैसी फिगर वाली लड़की उनको चाहिए थी, उस हिसाब से तुम परफेक्ट हो। चाहें तो पांच साल के लिए एग्रीमेंट साइन कर लें।  और तमाम बातें भी करता चला जा रहा था, लेकिन मैंने मना कर दिया।'

  यह सुनकर मैंने कहा,'अच्छा! मेरा बदन अच्छा है तो क्या उनकी कम्पनी का सामान बेचने के लिए है, उसे दुनिया को दिखाते फिरें। कैसी फालतू की बातें कर रहा था। सामान मर्दों का था और फोटो के लिए उनको बदन लड़किओं  का चाहिए। देखने में एक नम्बर का कमीना लग रहा था। बातें तुमसे कर रहा था और उसकी निगाहें मेरे बदन में जगह-जगह घुसी जा रही थीं। कुत्ते की तरह जुबान लपलपा रही थी।'

'छोड़ो भी, भूल जाओ उसको। अपने काम पर ध्यान दो। यह डिज़ाइन देखो इस तरह की छः हज़ार कुर्तियों और पजामा का ऑर्डर है। तीन महीने में देना है। कर पाओगी?'

'तीन महीने में तो मुश्किल है, चार में कर लुंगी। और कारीगर लगाने पड़ेंगे। मगर यह ऑर्डर कहां से मिल गया, बताया क्यों नहीं कि ऐसा काम है।'

 'बिज़नेस या कोई भी काम ऐसे ही किया जाता है। कुछ भी करते रहो, लेकिन ध्यान हमेशा अपने काम से एक मिनट को भी नहीं हटना चाहिए। समझी।'

 इतना कहते हुए उन्होंने मेरी नाक पकड़ कर हिला दी, जैसे कि मैं कोई छोटी सी बच्ची हूं।

दो-तीन दिन के भीतर ही हम दोनों ने काम पटरी पर लाकर शादी के बारे में बात करने का पक्का इरादा किया। एक रात खाने-पीने के बाद अम्मी के साथ बैठी मैं टीवी देख रही थी।  लेकिन मन मेरा निकाह की बात कैसे शुरू करें, इसी उधेड़-बुन में लगा हुआ था। अम्मी यूं तो आए दिन निकाह की बात उठाती रहती थीं। लेकिन जब से मैं बात आगे बढ़ाने की ठाने बैठी थी, तब से वह इस बारे में बात ही नहीं कर थीं। जैसे कि उनके ध्यान में निकाह की बात रह ही नहीं गई। इधर-उधर की तमाम बातें हो गईं लेकिन अम्मी निकाह को लेकर एक शब्द ना बोलीं। मायूस होकर मैं अपने कमरे में आ गई। मेरा मन काम में नहीं लग रहा था।

रोज की तरह मैं मुन्ना की वीडियो कॉल की इंतजार में थी। रोज से थोड़ा देर में कॉल आई भी। हमारी लंबी बातचीत और रोज की सारी कहानी-किस्से सब हुए। उसी समय हमने महसूस किया कि, अब रात में भी अलग-अलग रह पाना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। हमें सोने के लिए भी एक दूसरे का साथ, सहारा चाहिए ही चाहिए। मेरी मायूसी को दूर करने की कोशिश में मुन्ना ने कहा,'परेशान ना हो। आज नहीं तो कल बात करेंगे। जैसे इतना समय, वैसे ही कुछ और सही।' 

बात खत्म करके जैसे ही मैंने सोने की सोची, वैसे ही मेरे दुश्मन ज़ाहिदा-रियाज़ की हमेशा की तरह आवाज सुनाई दी। मैंने मन ही मन कहा, बहुत दिन हो गया आज देखूं इनका क्या हाल है। जब उस पार देखा तो कुछ देर देखती ही रही। मन ही मन कहा यह दोनों कितना प्यार करते हैं। जब देखो प्यार ही करते रहते हैं, थकते ही नहीं। बेटा भी बड़ा  हो गया है। यह भी नहीं सोचते कि, कहीं उठ गया तो क्या करेंगे, बेशर्म कहीं के। मैं तो अगर बच्चे हुए तो उन्हें दूसरे कमरे में करके ही कुछ करूंगी, ऐसी लापरवाही, बेशर्मी नहीं करूंगी।

 तभी मेरे दिमाग में आया कि, कहीं अम्मी ने निकाह से मना कर दिया तो क्या होगा? तब तो मेरे सारे ख्वाब खाक हो जायेंगे। मैं पूरा जीवन बिना निकाह, बिना बच्चों के ही जाया कर दूंगी। क्या मेरा मुकद्दर यही है, या मुझे भी बहनों, भाइयों की तरह अम्मी के इंकार पर कदम बढ़ाना ही वाजिब रहेगा, या रब मेरी मदद कर। मुझे राह दिखाए मैं क्या करूं। उनके इनकार करने पर अपना जीवन, अपनी खुशी देखूं या अम्मी की इच्छा,उनकी खुशी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दूं राह दिखा, राह दिखा।उलझन इतनी बढ़ गई कि मैं घंटों बाद सो पाई । 

मैं सबेरे चाय-नाश्ता लेकर पहुंची, तो देखा कि रोज जल्दी उठने वाली अम्मी लेटी हुई हैं और कराह रही हैं। पूछा तो बड़ी मुश्किल से इतना ही बता सकीं कि, छाती में बड़ा दर्द हो रहा है। मैंने जल्दी से उन्हें दवा खिलाई, लेकिन वह उसके बाद पानी भी पी नहीं सकीं, बेहोश हो गईं। मैं घबरा उठी कि क्या करें। हर बार की तरह इस बार भी मुन्ना, उनके परिवार को याद किया। सब ने हमेशा की तरह मदद की। हॉस्पिटल में एडमिट करवाने के बाद मुन्ना ने कहा,' इन्हें सीवियर हार्टअटैक पड़ा है। हालत बहुत गंभीर है। डॉक्टर बता रहे हैं कि ओपन हार्ट सर्जरी ही एकमात्र रास्ता है। एज ज्यादा होने के कारण और भी ज्यादा हाई रिस्क सर्जरी है। तुम्हें तुरंत फैसला करना है कि, सर्जरी करानी है या नहीं। सर्जरी से उनके ठीक होने की संभावना ज्यादा है। वहीं ना कराने पर कोई उम्मीद नहीं है।'

 'तुम ही बताओ क्या करें, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। एक अम्मी ही तो रह गई हैं मेरे साथ, वह भी ना रहेंगी तो मैं क्या करूंगी, किसके साथ रहूंगी।' कहते-कहते मैं रोने लगी । तब उन्होंने चुप कराते हुए कहा, 'देखो, तुम्हें हमेशा की तरह ही इस समय भी बहादुरी से काम लेना है। फैसला तुम्हें ही करना है। मैं हर मदद के लिए, हर कदम पर तैयार हूं। हर समय तुम्हारे साथ हूं। तुम यह भी देख रही हो कि, मेरा पूरा परिवार साथ है। मगर तुम्हारी अम्मी हैं, इसलिए फैसला तुम्हारा ही होगा। समय नहीं है बिल्कुल,इसलिए जल्दी करना होगा । प्राइवेट हॉस्पिटल है। यहां पैसा जरूर ज्यादा लगता है, लेकिन ट्रीटमेंट बहुत अच्छा होता है।'

 'जो डॉक्टर कहें वही करो। मगर इस समय तो मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। इतना बड़ा  हॉस्पिटल है। यहां पैसा तो बहुत लगेगा, कहां से लाऊँगी।'

 'चिंता ना करो, पहले उनकी जान बचाना ज्यादा जरूरी है। पैसे की व्यवस्था मैं कर लूंगा।' मुन्ना की बातों ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि, मैंने तुरंत सर्जरी के लिए हां कर दी। उनका परिवार जिस मजबूती के साथ मेरी मदद कर रहा था, उससे मेरी हिम्मत और बढ़  गई। मैं इस हिम्मत के साथ अम्मी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गई।

इस हालत में मुझे कई बार अपना परिवार बहुत याद आया। लेकिन सोचा, क्या सोचना ऐसे  परिवार को जो गैरों से भी ज्यादा गैर हैं। देखूं तो सही मायने में मुन्ना और उनका परिवार ही असली परिवार है। किस तरह रुपए-पैसे, जी-जान से लगें हैं। उनकी मदद ही है कि देखते-देखते शहर के सबसे बढियाँ, सबसे महंगे हॉस्पिटल में सर्जरी हो गई। मगर मेरी बदकिस्मती भी मेरे दामन से चिपकी रही। सर्जरी के तीन दिन बाद भी अम्मी को होश नहीं आया। लगातार वेंटिलेटर ही सहारा बना हुआ था। मेरा धैर्य जवाब दे रहा था। अम्मी की सेहत के साथ-साथ मुझे लगातार हॉस्पिटल के बढ़ते बिल की चिंता भी परेशान कर रही थी।

मैं चौबीसों घंटे हॉस्पिटल में रहती। और मुन्ना घर, बाहर, बिजनेस हर जगह हाथ-पैर मार रहे  थे। उनके घर वाले बराबर साथ ना देते, तो उनके लिए बहुत बड़ी मुसीबत थी। जब वह आते  तो मैं दो-तीन घंटे सो पाती। देखते-देखते दो हफ्ता बीत गया। लेकिन हालात जस के तस बने हुए थे। मैं उनसे पैसे की बात करती तो वह कहते इंतजाम हो जाएगा। 

पन्द्रहवें दिन मैं उनसे हॉस्पिटल में मिलते ही रो पड़ी। मेरा रोना देखकर मुन्ना के चेहरे पर ऐसे भाव आए, मानो पूछ रहे हों अम्मी सलामत तो हैं? मैंने कहा,'कुछ राहत नहीं मिली है। हालत जैसी थी वैसी बनी हुई।'

 'फिर क्यों रो रही हो? क्या बात है?'

'कई बार पूछने पर मैंने पेट पर हाथ रखते हुए कहा, लगता है कि...।

'उन्होंने ने मेरा इशारा समझते हुए पूछा कि,'तुम्हें कंफर्म है।'

 'मुझे लग ऐसा ही रहा है। तीन बार प्रेग्नेंसी किट के जरिए टेस्ट किया तो हर बार पॉजिटिव ही आया।'

 हम दोनों परेशान हो गए कि इस हालत में क्या करा जाए। बड़ी उधेड़बुन के बाद मुन्ना ने कहा,' इन हालात में एक ही रास्ता है कि, अबॉर्शन करवा दिया जाए।'

 'लेकिन मैं बच्चे को खोना नहीं चाहती। यह हमारी जान है।'

 'तुम्हारी ही नहीं हमारी भी जान है। लेकिन जरा सोचो, तुम्हारी अम्मी की जो हालत है उसे देखते हुए तीन-चार महीने उनसे बात की ही नहीं जा सकती। बल्कि बाद में भी नहीं। क्योंकि ठीक होने के बाद भी इस रिश्ते को स्वीकार कर पाएंगी कि नहीं यह कहना मुश्किल है। हम अपने लिए उनकी जान खतरे में नहीं डाल सकते ना। दूसरे तुम बता रही हो कि दूसरा महीना भी निकल चुका है। तीन के बाद तो कानूनन भी नहीं करा पाएंगे। ऐसे में जब पेट बढ़ जाएगा तो दुनिया पूछताछ करेगी । एक बार सब ठीक हो जाए फिर आगे से करेंगे।'

'मगर कैसे होगा सब?'

'घबराओ नहीं,। इस हॉस्पिटल के बगल वाले हॉस्पिटल में मेटरनिटी सेंटर है। जहां तक मुझे मालूम है तो बात दिनभर की ही है। तुम्हें एक दिन ही रखेंगे। बहुत हुआ तो तुम्हें दो दिन तकलीफ झेलनी पड़ेगी।'

'अम्मी को, मुझे, दोनों जगह कैसे करोगे?'

 'तुम घबराओ नहीं। मैं यहां, वहां दोनों जगह संभाल लूँगा। नहीं हो पायेगा तो अम्मा को मदद के लिए बुला लूंगा।'

 'वो गुस्सा हुईं तो।'

 'मुझे यकीन है, ऐसी स्थिति में वह कुछ नहीं कहेंगी। अगर कहा भी तो कहूंगा कि हालात नॉर्मल हो जाए तब बात करूंगा।'

मुन्ना की अथक कोशिशों के चलते मैं तीन-चार दिन में ही काफी संभल गई। हालांकि मेरा दिल बराबर रोया। आंखों के आंसू कई दिन तक नहीं सूखे। अपनी जान को अपने से जुदा करने के बाद मुन्ना भी बहुत उदास रहे।'

'एक तरह से उन्होंने आपकी अम्मी,आपके लिए अपनी पहली ही संतान को बलिदान कर दिया। मुझे नहीं लगता कि इससे बड़ा कोई और त्याग हो सकता है।'  

'सही कह रहे हैं आप, इससे बड़ा बलिदान और हो ही नहीं सकता,लेकिन किस्मत में तो पहले से ही कुछ और लिखा था,हमारा बलिदान भी उसे बदल नहीं सका, हालात ने हमारे लिए कोई और रास्ता छोड़ा  ही नहीं था। अम्मी के लिए मुझे यह करना ही था, क्योंकि उनके अलावा मेरे पास और कोई नहीं था। जिस अम्मी की सेहत के लिए हमने अपने बच्चे को भी कुर्बान कर दिया, वह भी दो महीने बाद ही दुनिया से कूच कर गईं। हमारे बच्चे ही की तरह  बिनाआंखें खोले, मुझसे दो बोल बोले बिना ही, कि 'अरे बेंज़ी काहे मेरे लिए परेशान हो रही है।' वह होश में होतीं तो निश्चित ही यही कहतीं। लेकिन उनसे कैसे कहूं कि बिन बोले ऐसे  तन्हा छोड़, जुदा हो कर तो तुमने मुझे हमेशा के लिए परेशानी में डाल दिया है।'

यह कहते-कहते बेनज़ीर की आंखों से आंसू निकलने लगे। वह अपना रोना मेरे सामने रोक नहीं सकीं। उनका यह दर्द सुनकर मैं भी भावुक हो गया था। उनके टपकते आंसूओं को कुछ देर देखने के बाद आखिर मैंने शांत होने के लिए कहा। सांत्वना दी। मुझे लगा कि अब इस माहौल में और आगे  बात करना अच्छा नहीं। यह अमानवीय कृत्य होगा। मैंने कहा,'बेनज़ीर जी, मेरी वजह से आप काफी दुखी हुईं, मुझे बेहद अफसोस है। आगे की बातें हम लोग फिर कभी कर लेंगे।'

 'नहीं-नहीं,ऐसी कोई बात नहीं है। यह बातें जब शुरू हो जाती हैं, तो खुद-ब-खुद आंसू आ जाते हैं। इनके बह जाने के बाद कुछ रिलेक्स भी कर रही हूं। हां, आपको कोई प्रॉब्लम ना हो, मैं इतनी कमजोर नहीं हूं। मैं आज ही सब कुछ कह सकती हूं।'

'रियली यू आर अ ब्रेव लेडी। मैं भी सुनने को तैयार हूं। एक माहौल सा बन गया है।'

मेरी बात पर बड़ी मंद सी मुस्कान के साथ वह बोलीं ,'माहौल बना लेने के भी आप बड़े खिलाड़ी लगते हैं ,वैसे मैं यह कह रही थी कि, मैं आत्महत्या कर लेती, अगर मुन्ना और उनका परिवार उस समय साए की तरह मेरे साथ खड़ा नहीं होता। सभी इस तरह मेरे साथ लगे रहे कि, जैसे मेरे ही सगे हैं। मेरे ही परिवार के लोग हैं। 

पहले दिन जब रात में मैं अकेली ही रही घर पर तो उनकी अम्मा ने आधी रात सोते-सोते तक कई बार फोन कर कहा,'बेटा चिंता, संकोच मत करना। कोई जरूरत हो तो तुरन्त फोन  करना। हम आ जायेंगे। उनकी बातों से मुझे बड़ा बल मिला। नहीं घर में अम्मी के जाने के बाद मैं अकेले खौफ से ही मर जाती। मुन्ना के बारे में बताने की जरूरत नहीं। वह रात भर जागा ।

वीडियो कॉलिंग करके बराबर मेरे साथ बना रहा। पूरे परिवार से हद दर्जे तक रुपये-पैसे, जज्बाती सारी मदद मिलने के बावजूद अम्मी के इंतकाल ने मुझे तोड़कर रख दिया। मैं एकदम खोखली हो गई। काम-धंधा अस्त-व्यस्त हो गया। मुन्ना बड़ी मुश्किल से अपना काम चलाए रख पा रहा था क्योंकि परिवार साथ था। ऐसे में मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या आ खड़ी हुई कि, हॉस्पिटल का लाखों का जो बिल मुन्ना ने अपने घर वालों से छिपा कर दिया है, उसे कैसे वापस करूं। मेरे पास तो मुश्किल से दो लाख ही मिले थे। इंतकाल के बाद जितना खर्चा हुआ, वह सब भी उन्होंने ही किया। पूरे परिवार ने हर स्तर पर सहयोग किया था।

मैयत, कब्रिस्तान ले जाने तक रियाज-ज़ाहिदा बस दिखाने भर को आए। गुसल के वक्त जरूर  ज़ाहिदा ने साथ दिया था। और जो चार.छः लोग आए उन्हें चेहरे से इतना ही जानती थी कि मोहल्ले के हैं। नाम तो किसी का पता ही नहीं था। दिलासा देने, कहने को दर्जन भर चाचियां आईं। दिलासा भी अल्लाहताला करके खूब दी। जाते-जाते कह गईं कि,'तुम परेशान ना हो, हम सब तेरा ख्याल रखेंगे। हमारे लिए जैसे मेरी बिटिया वैसे ही तुम।'

 सभी ऐसे ही अपनी-अपनी बेटियों के बराबर मुझे दर्जा देकर हमेशा मददगार बने रहने की बात करके चली गईं। फिर लौट कर कभी, किसी ने एक बार को भी चेहरा नहीं दिखाया।

मैं तो भूखों ही मर जाती, अगर मुन्ना की अम्मा खाना ना भिजवातीं। मुझे फोन कर करके कहतीं कि, 'बेटा तुम्हें बनाने की जरूरत नहीं। यहां सबके साथ तुम्हारा भी बनता रहेगा। जब तुम्हारी तबियत संभले तो बनाना।'

 खाना नौकरानी से ही भिजवातीं। लड़कों को नहीं भेजतीं कि, कहीं कोई कानाफूसी ना हो। आखिर संकोच के चलते मैंने खाना बनाना शुरू कर दिया। जबकि घर में ही रह रहे ज़ाहिदा  रियाज मैयत जाने के बाद बस एक बार आए। ऊपर से ना रात देखें ना दिन, जब देखो तब पलंग तोड़ते रहते थे। पहले देखने-सुनने की कोशिश करने पर ही मालूम होती थी बेशर्मों की खुराफात। आम्मी का डर था, लेकिन उनके बाद तो लगता, जैसे मुझे सुना-सुना कर बेशर्मी करते हैं। अब-तक पानी नाक नहीं सिर के ऊपर चला गया था। मैंने सोचा अगले महीने खाली कर देने के लिए बता देती हूं। इन स्वार्थियों को अब बाहर करके रहूंगी। मैं कई दिन बड़ी ग़मगीन सोचती रही थी किअब क्या करें।

जहां बरसों पहले खड़ी थी, अब तो हालात उस से बदतर हो गए हैं। पहले माली हालत जो भी थी, कम से कम अम्मी तो थीं। अब तो काम-धंधा सिफर हो गया है। आगे पीछे कोई बचा नहीं। इतना बड़ा मकान, अब गुंडे-बदमाशों की नजर लगते देर नहीं लगेगी। पहले तो अम्मी हर कदम पर बताने-समझाने वाली थीं। अब कौन? मुन्ना। अब हर बात पर यही नाम दिमाग में  गूंजता।आखिर मैंने क्या करें, क्या ना करें, काम-धंधा कैसे फिर से खड़ा करें। इन मसलों पर मुन्ना से बात करने की सोची। मोबाइल उठाया उन्हें बुलाने के लिए, लेकिन तुरंत ही रख दिया। यह सोच कर कि, मोहल्ले वाले चार बातें करेंगे। वह अभी अपने काम-धाम में लगे-होंगे। रात मोबाइल पर ही सलाह-मशविरा करूंगी।

रात को मैंने मुन्ना से बड़ी लंबी बातचीत की। अपनी सारी परेशानी बताई। कहा,'अम्मी को गए दो महीना हो गया है। अब मैं जल्द से जल्द काम-धंधा शुरू करना चाहती हूं।'

 मुन्ना बार-बार कहते कि,'तुम क्यों परेशान हो रही हो कि,तुम्हारा जीवन कैसे कटेगा। तुम्हारा जीवन, अब-सब कुछ मेरी जिम्मेदारी है। तुम मेरी बीवी हो। शादी नहीं की तो क्या? पति-पत्नी तो हैं ही। तन-मन से एक हैं ही। तुम्हें फिर भी अगर कहीं से शक-सुबह है, तो परेशान ना हो, कुछ समय और हो जाने दो, फिर जल्दी ही रस्मों-रिवाज को भी निभाएंगे। जैसे कहोगी उस तरह से शादी कर लेंगे।'

उनका जवाब मैं  जानती थी। मैंने कहा,' शक-सुबह की बात मैं सोचती ही नहीं, ऐसा मेरे मन में कुछ नहीं है। मैं सिर्फ इतना चाहती हूं किऔर बहुत सी खवातीनों की तरह मैं घर की चारदीवारी में कैद होकर खाली चौका-बर्तन, झाड़ू-पोंछा में अपना जीवन ना खपा दूं। मैं तुमसे बार-बार पहले भी कहती रही हूँ  कि, मैं जीवन में बहुत बड़ा काम करना चाहती हूं। इतना कि लोग इंदिरा नुई, किरण मजूमदार की तरह मेरी मिसाल दें कि देखो बेनज़ीर ने कितना बड़ा काम किया है। लोग मेरा नाम लेकर अपनी बच्चियों से कहें कि देखो बेनज़ीर  की तरह अपने मां-बाप का नाम रोशन करो। मैं तुम्हारे साथ इतनी दूर तक, इतना आगे जाना चाहती हूं कि दुनिया का हर आदमी-औरत हम दोनों के जितना आगे जाने की कोशिश करे। वैसा ही बनने का ख्वाब देखे।'

'ठीक है, अभी कुछ दिन और इंतजार कर लो, फिर कदम बढाते हैं।'

' मैं जानती हूँ  कि, तुम मेरा ख्वाब पूरा कराने में मेरा साथ जरूर दोगे । एक तुम ही हो जो अब मेरे जीवन में मेरे ख्वाबों को सजाओगे-संवारोगे। सुनो इसी से जुड़ी एक और बात कहना चाहती हूं।'

 'क्या,बताओ।'

 'देखो तुम काशी में कह रहे थे कि, अपने काम-धाम के हिसाब से लखनऊ से ज्यादा मुफीद  काशी है।'

 ' हाँ ,कहा था।'

 'तो मैंने यह तय किया है कि, अब हम यहां से काशी ही जाकर बसेंगे। वहीं नए सिरे से अपना काम-धाम शुरू करेंगे ,वहीं शादी करके...।' मैं इतना कहकर चुप हो गई। बात अधूरी छोड़  दी।

'तो मुन्ना ने मेरी बात पूरी करते हुए कहा,'हाँ, बोलो-बोलो शादी करके...।'

 वह जानबूझ कर मेरे मुंह से बच्चों की बात कहलवाना चाहते थे। मुझे शर्म आ रही थी। तो मैंने कहा,'धत्त.. मालूम तो है सब, मेरे मुंह से क्यों कहलवाना चाहते हो?'

 'नहीं मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं।'

'नहीं मैं नहीं कहूँगी। आधी बात मैंने कही,आधी तुम पूरी करो।'

'ठीक है, तो मैं पूरी करता हूं,शादी करके ढेरों बच्चे पैदा करेंगे। हर साल एक।'

 'नहीं-नहीं ढेर सारे बिल्कुल नहीं। बस दो ठीक हैं। मैं भी इंसान हूं। बच्चे पैदा करने वाली मशीन बिल्कुल नहीं बनूंगी।'

 'ठीक है, दो तुम्हारे मन के,दो हमारे मन के।'

 'ठीक है,आखिर अपनी बात मनवा ही लेते हो। हो गए ना ढेर सारे।'

 'नहीं, ढेर सारे तब होंगे जब दर्जन भर होंगे। एक काम और तुम्हारे मन का है कि, हर साल नहीं तीसरे साल पैदा करेंगे।'

 'ठीक है।जब मन हो तुम्हारा तब पैदा करूंगी। अब सबसे जरूरी बात सुनो।'

 'सुनाओ।' 

'देखो मैं डेढ़-दो महीने में ही यहां से छोड़कर काशी चल देना चाहती हूं। वहां जाकर मकान का इंतजाम करने की बात तो अम्मी की तबीयत के चलते रुक गई थी। अब वहां जा कर सारा इंतजाम कर लो। फिर यहां से चल देंगे।'

 'और यहां सामान,मकान इनका क्या करोगी?'

'मैंने यह सब सोच लिया है। यहां एक कमरा बंद करके अपने पास रखूंगी। बाकी में दो किराएदार रखूंगी। रियाज का किराया आज के हिसाब से बढ़ा दूंगी, देता है तो ठीक है, नहीं तो कह दूँगी कि खाली कर दो। नया किरायदार रखूँगी। काम का जितना सामान आसानी से लेकर चला जा सकेगा, उतना ही ले चलेंगे, बाकी सब यही बेच देंगे। जो पैसा मिलेगा,उससे वहां खरीद लेंगे। हर महीने यहां जो किराया मिलेगा, उससे वहां मकान का किराया निकल आएगा। फिर आगे जब पैसा इकट्ठा कर लेंगे, तब वहां मकान बनवा लेंगे।'

'अरे वाह, तुम तो सारे काम का प्लान बनाए बैठी हो। बड़ी तेज़ निकलीं।'

 'मैं  कई सालों का पूरा प्लान तैयार किए बैठी हूं। इतने दिन में तुम्हारे साथ कुछ तो सीख ही लिया है। एक बात और सुनो, मेरे पास करीब दो लाख रुपये हैं। तुमने अम्मी का सारा खर्चा उठाया, मुझसे एक पैसा नहीं लिया, कहा बाद में देखेंगे, तो अब जो हैं वही ले लो। काम जल्दी से जल्दी करो।'

'क्या तुम बार-बार पैसे की बात करती हो,मियां-बीवी के बीच कुछ बंटा होता है क्या?'

'अरे नहीं-नहीं, मैं वह बात नहीं कह रही थी, मेरा मतलब है कि, अम्मी के इलाज में दसियों लाख रुपये खर्च हो गए। पैसों की तंगी होगी। इसलिए ये पैसे लेकर काम चलाते रहो।आगे  जो होगा,देखा जाएगा।'

 'चलो जैसी जरूरत होगी, देखेंगे। कोशिश करता हूं कि,डेढ़ महीने में सारा इंतजाम कर लूं।ठीक है।'

 'लेकिन मकान लल्लापुरा  में ही लेना। वह जगह मुझे अच्छी लगी। अपने काम-धाम के लिए भी मुफीद है।'

 मैंने अपनी बात खत्म करके एक गहरी सांस ली। गला सूखने पर पानी पिया कुछ देर बैठी रही जमीन पर ही, अपने कपड़े भी पहले ही की तरह सामने दीवार पर दे मारी थी। अब ना जाने क्यों, अपने कमरे में रात होते ही कपड़े बदन को चीरते हुए से लगते थे।

अम्मी के जाने के बाद मैंने उनका कमरा साफ-सुथरा करके बंद कर दिया था। उनकी बड़ी  सी फोटो भी फ्रेम करवा कर लगा दी थी दीवार पर। जिसे मैंने काशी जाते समय मोबाइल से खींचा था। एक और फोटो उसी के सामने वाली दीवार पर लगाई थी, जिसमें मैं अम्मी के साथ थी। यह भी मैंने मोबाइल से सेल्फी ली थी। जिसमें हम दोनों हंस रही थी। मां के हाथ में वो ट्रॉफी थी जिसे, मैंने बाराबंकी में जीता था। वहां से लौटने के अगले ही दिन यह फोटो खींची थी। उसी समय मैंने उन्हें जीवन में पहली बार हंसते हुए देखा था।




कमरे में उस समय मुझे अम्मी की बेतरह याद आ रही थी। रात डेढ़ बज रहे थे। आंखें भारी हो रही थीं। लेकिन सो नहीं पा रही थी। पिछले कई दिनों की तरह फिर से अम्मी से गुफ्तगू  शुरू हो गयी थी। ख्यालों में ही। मुझे लगता जैसे वो मुझे एकदम देख सुन रही हैं। मेरे होंठ फड़कने लगे थे। मैं धीरे-धीरे बुदबुदाई,'अम्मी एक काम अधूरा छोड़कर तुम अचानक ही बिन बताए चली गई। मैं इंतजार करती रही कि तू ठीक होगी,आंखें खोलेगी, मेरे निकाह का मसला हल करेगी। मगर नहीं, न जाने क्या जल्दी थी तुझे, पहले तो तुझे कभी किसी काम में जल्दबाजी करते नहीं पाया था। इसलिए मैं निश्चिंत थी कि तू ठीक हो कर घर जरूर आएगी। घर जरूर लौटेगी। मगर नहीं लौटी। ना जाने क्या था तेरे मन में जो नहीं लौटी। अब तू ही बता मैं मुन्ना से निकाह के लिए किससे सलाह-मशविरा करूं, तुझसे। बोल ना। चुप क्यों है?' मेरे होंठ बार-बार फड़क रहे थे। आंखें आंसूओं से भरी हुई थीं।

कुछ पलों के अंतराल पर वह पारदर्शी मोती बन टपकते भी जा रहे थे। पहले वह आंखों की पलकों की बाऊंड्री फलांग कर मेरे गालों पर कूदते और फिर बिना एक पल गवाएं, पलक झपकते ही कूद जाते थे मेरी छातियों पर। उन्हें भिगोकर मानो मेरे हृदय में जल रही आग  को शांत करने में जुटे हुए थे। सांत्वना दे रहे थे कि, 'नहीं बेंज़ी, जाने वालों के लिए आंसू नहीं बहाया करते। उनकी आत्मा को ऐसे कष्ट देने से क्या फायदा। वह जाने से पहले तुझे अपने पैरों पर खड़ा होने, आगे बढ़ने, अपने हिसाब से अपनी बहुरंगी दुनिया बनाने, जीने की कूवत तो दे ही गई हैं। वह तो अपने हिस्से की जिम्मेदारियां पूरी करके गईं। फिर नाहक ही उन्हें क्यों परेशान करना चाहती हो।'

 मेरे होंठ फड़कते ही जा रहे थे। गुफतगू बढ़ती रही कि, 'अम्मी मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अगर तू होती,मैं मुन्ना से निकाह की इजाजत मांगती, तो तू क्या करती, क्या कहती, एक बार मन कहता है कि, तू बिना किसी हील-हुज्जत के कहती कि, तू उसके साथ खुश रह सकती है, तो यही सही। जो नसीब में लिखा है मेरे-तेरे वही हो रहा है।

जिस तरह तुम मुन्ना के साथ बाराबंकी से लेकर काशी तक जाने-आने दे रही थी, जिस तरह उनके साथ काम करने दे रही थी,उनके सारे परिवार के साथ जाना-आना बनाये हुए थी उससे तो मैं यही मानती हूं। 

अम्मी मन के किसी कोने में यह भी तो जरूर है कि, तू मुन्ना से निकाह की बात सुनते ही भड़क उठती। आग-बबूला होकर मुझे दुनिया भर की लानत-मलामत भेजती। और तब, तब मैं तुझ से गुजारिश करते हुए कहती कि, 'अम्मी आधा जीवन तो बीत गया है, यही सब करते- देखते। और तेरी, बड़ीअम्मी और दोनों छोटी अम्मियों की तबाह हुई, तिल-तिल कर तल्ख हुई ज़िंदगी को देखते-देखते। तुम बताओ ना तलाक की आग में झुलसी तीनों अम्मियां कहां है? उनके बच्चे कहां है? किस हाल में हैं?अम्मी आज भी आसिफ, नसीब मेरे दोनों प्यारे छोटे भाई मुझे याद आते हैं।

बड़ी अम्मी के यह दोनों बेटे मुझे कितना प्यार करते थे। सगे वाले तो मारने-पीटने के अलावा कभी दो बोल भी प्यार से नहीं बोलते थे। जिस दिन भी आसिफ या नसीब में से कोई भी मुझे छू लेता था, बात कर लेता था उस दिन भाई लोग उनको बहाने से मारे-पीटे बगैर चैन से बैठते नहीं थे। अम्मी क्या तुम भूल गईं कि, किस तरह ठिठुरती अंधेरी रात में अब्बू ने बड़ी  अम्मी को तीन पल में तलाक देकर आसिफ,नसीब सहित घर से दुत्कार कर बाहर कर दिया था। फिर तब से आज तक उनका पता नहीं है। मुझे बिरंजी कहकर प्यार करने, चिढाने वाले मेरे दोनों भाई कहां है?बताओगी। अम्मी,अम्मी, मेरी प्यारी अम्मी, मेरी गुजारिश मान ले। मैंने थोड़ी सी ही बची ज़िंदगी के लिए जो खुशी ढूंढी है अपने लिए, वह मुझसे न छीन। मैं पक्का यकीन दिलाती हूं कि, मेरी यह खुशी कभी मुझे धक्के मार कर ठिठुरती रात में सड़क पर नहीं फेंकेगी।

मैं पूरे यकीन से कहती हूं अम्मी कि, तू जाने की जल्दबाजी ना करती तो मैं अगले कुछ ही महीनों में तेरी गोद में एक खूबसूरत सा महकता फूल देती। जिसकी खुशबू से मेरी, तेरी दुनिया महक उठती। तेरे बचपने से उदास-उदास, उजाड़ इस घर की दरो-दिवार खिलखिला उठती। दुनिया की यह सबसे बेस-कीमती खुशी हम दोनों के बीते दिनों के सारे दुखों पर भारी पड़ती। मगर मेरी बदकिस्मती देख अम्मी कि, तू जल्दबाजी कर गई और मैंने भी घबराहट,जल्दबाजी, में अपने दिल के टुकड़े को, दुनिया जहां के सबसे खूबसूरत फूल को खिलने से पहले ही बेदर्दी से तोड़कर, मसल कर फेंक दिया। हमें इसकी सजा भी तो भुगतनी पड़ेगी  ना।'

 खुद से ख्यालों में ही हो रही हमारी बातें इतनी परवान चढ़ीं  कि,आखिरकार बुदबुदाते हुए मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। यह भी ख़याल नहीं किया कि,बरसों के मेरे दुश्मन,दरवाजे केउस पार सुन रहे होंगे। क्या हैरानी जो मेरी ही तरह दरवाजे पर आँखें गड़ा, मुझे इस हालत में देखने लगें। रोते-रोते किस समय नींद में खो गई, मुझे कुछ पता नहीं था । जमीन पर ही रात भर पड़ी रही।'

'आपकी यह स्थिति तो बेहद खतरनाक थी। आप उन्हें बताती थीं , तो वो क्या कहते थे ?'

 'मैं उन्हें नहीं बताती थी। सोचती कि वह और ज्यादा परेशान होंगे।'

 'आप बताती तो निश्चित ही वह, आपको किसी डॉक्टर के पास ले जाते, क्योंकि आप डीप डिप्रेशन की स्टेज में पहुँच रही थीं।'

 'उस समय इतना कहां सोचती थी। मुन्ना मुझे मनोचिकित्सक के पास ले जाते, यह कहने में आप इतना संकोच क्यों कर गए।'

 मैंने हंसकर बेनज़ीर की यह बात टाल दी तो वह आगे बोलीं ,'अगला पूरा डेढ़ महीना मेरा और मुन्ना का काशी प्रस्थान की तैयारियों में निकल गया। मुन्ना को कई बार वहां जाना पड़ा। ज़ाहिदा को मकान खाली करने के लिए कहा तो उसने कहा तीन महीने में अपने दूसरे बच्चे की मां बनने वाली है। ऐसे में कहां इधर-उधर भटकेंगे, तो मैंने मुन्ना से सलाह-मशविरा करके उसे छः महीने के लिए मोहलत दे दी। मैं किराया बढ़ाना चाहती थी। लेकिन मुन्ना ने कहा,'यहअच्छी बात नहीं होगी। ऐसे समय में हम उसे मदद नहीं कर सकते, तो कम से कम कोई समस्या भी ना पैदा करें।' उन्होंने काशी चलने से पहले दो और किरायेदारों का इंतजाम भी कर दिया।

काशी के लिए हमारी सारी तैयारियां हो गईं। हमारी कोशिश कम से कम सामान ले चलने की थी। हर कोशिश के बाद भी हम दोनों का सामान बहुत ज्यादा हो गया था। जबकि मैंने काम भर के अलावा बाकी सारा सामान एक-एक करके बेच डाला था। मुझे अम्मी के उस बक्से में से सोने-चांदी के बहुत सारे गहने मिले। जिसे मैंने कभी भी अम्मी को खोलते हुए नहीं देखा था। बहनों की शादी के थे, जो शादी के टूटने के बाद धरे के धरे रह गए थे। कुछ पुराने भी थे जो अम्मी के रहे होंगे।

 बहुत से सामानों को बेचते,कबाड़ी वाले को देते हुए मेरी आंखें बार-बार भर आई थीं। बड़ी-बड़ी तकलीफों के समय इन्होंने घर की मदद की थी और उतनी ही ज्यादा तकलीफों के साथ उन्हें खरीदा या जुगाड़ करके लाया गया था। लेकिन मेरे सामने और कोई रास्ता नहीं था। 

ज्यादा से ज्यादा सामान निकालने के बाद जो बचा, देखकर मुन्ना ने कहा, 'इतना सामान लेकर ट्रेन या बस से चल नहीं सकते और इतना भी नहीं है कि, मिनी ट्रक भी की जाए।'

 'तो कैसे करोगे?'

'देखता हूँ,चलना तो है ही चाहे जैसे।'

 दो दिन की दौड़-धूप के बाद मुन्ना को एक तीस सीटर ट्रैवलर बस मिल गई। जो किसी पार्टी को छोड़ कर वापस जा रही थी। कुछ घंटे बाद ही काशी के लिए रवाना होने वाली थी। उसी को तय कर लिया। जिसमें सारा सामान आराम से जा सकता था, और देर रात तक निकलने के लिए तैयार भी हो गया था। मुन्ना और मैं नहीं चाहते थे कि, दिन में मोहल्ले वाले इकट्ठा होकर दुनिया भर की कथा-कहानी कहें, सुनें,सुनाएं।

जब रात एक बजे हम निकले तो पूरे मोहल्ले में सन्नाटा था। निकलने से पहले मैं ज़ाहिदा-रियाज़ को देखना नहीं भूली। अब उस दरवाजे के पास वह बड़ा बक्सा नहीं था, जिस पर बैठकर मैं उनके कमरे में, उनको झांका-देखा करती थी। आखिरी बार खड़े-खड़े ही देख रही थी। हमेशा की तरह लाइट जल रही थी। बेटा सुरक्षित दिवार की तरफ सो रहा था। वह दोनों भी बहुत ज्यादा रोशनी की ही तरह बहुत ज्यादा बेपरवाह थे। ज़ाहिदा लेटी थी। रियाज़ अधलेटा था उसी के बगल में। चेहरे से चेहरा मिलाकर दोनों कुछ बातें कर रहे थे। रियाज़  का एक हाथ ज़ाहिदा की छातियों पर कुछ खेल-तमाशे कर रहा था। और एक हाथ बहुत बड़े  गुम्बद से उभर आए पेट पर कुछ चित्रकारी कर रहा था। मुझे देर हुई तो बुलाने मुन्ना आ गया। आहट सुनते ही मैं तेज़ी से मुड़कर उस तक पहुंची।

बड़ी हसरत से घर को देखा, ताला लगाया, उसे चूमा और बस में बैठ गई। मुन्ना के यहां से केवल उसके भाई बस तक आए थे। वह सबसे मिलकर आया था। और कोई भी घर से बाहर नहीं आया। बस चलने लगी, तो सारे भाई एक बार फिर गले मिले। मुझे भी दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया।        

 मैंने भरी-भरी आंखों से दो बार पीछे मुड़ कर घर को देखा कि, जिसमें एक समय इतने लोग थे कि, रहने को जगह कम पड़ती थी, और आज आलम यह है कि, कोई रहने वाला नहीं रह गया। यह घर मुझसे कम बदनसीब नहीं है। इसने कभी किसी का एक पल को भी साथ नहीं छोड़ा। हमेशा सबका साथ दिया, एक मैं ही अकेली बची थी। आज मैं भी इसे अकेला छोड़ हमेशा के लिए जा रही हूं। बस ज्यों-ज्यों स्पीड पकड़ रही थी, मेरे आंसुओं की लड़ियाँ भी गालों को छू-छू कर नीचे बढ़ती जा रही थीं। मुन्ना ने अचानक ही मेरी हिचकी सुनी, तो मेरे सिर को अपने कंधे पर झुका लिया।

उसे धीरे-धीरे सहलाता रहा। वह सारी बातें समझ रहे थे। इसलिए बोलने के बजाए मूक सांत्वना देते रहे। वह समझ रहे थे कि, बात करने पर मैं और भावुक होऊँगी। हम दोनों एकदम पीछे वाली लंबी सीट पर बैठे थे। हमारे अलावा बस में ड्राइवर और क्लीनर एकदम आगे थे। मैं अपना घर, बचपन, जवानी की यादें पीछे और पीछे छोड़ते हुए खुशियों का अपना एक नया घर बनाने काशी की ओर बढ़ी जा रही थी। जहाँ मुझे उन स्थितियों का भी  सामना करना था,जिनके विषय में मैंने सोचा भी नहीं था।'

बेनज़ीर फिर कहीं खोने लगीं, तो उन्हें अपने ही साथ बनाए रखने के उद्देश्य से मैंने बात जारी रखते हुए कहा, 'अपने परिवार से हमेशा के लिए बिछुड़ने जैसा दुखदायी होता है, उस घर-स्थान, मोहल्ले को छोड़ना, जहां जन्म से लेकर युवावस्था तक लंबा समय बीता हो। क्योंकि इतने लम्बे समय में, इन सबसे भी एक गहरा भावनात्मक रिश्ता बन जाता है। उसे छोड़ कर  हमेशा के लिए अन्यत्र जाना, एक तरह से रिश्ते को तोड़ना होता है। इस टूटने की पीड़ा  इतनी तीखी होती है कि, मन-चीत्कार करने लगता है। रोम-रोम रो उठता है, इतना कि आंसूओं का दरिया बहने लगता है। जिसे पार कर निकलना, दहकते अंगारों पर चल कर निकलने जैसा होता है। और आप पूरी बहादुरी से निकलीं। यह बहुत बड़ी बात थी।'

मेरा प्रयास सफल रहा,वह बात जारी रखती हुई बोलीं, 

'अगले दिन करीब दस बजे सुबह हम अपनी मंजिल चेतगंज के करीब पहुंचे तो खिड़की  से बाहर मेरी नजर सामने से आ रहे एक जोड़े पर पड़ी । जो एक झोले में घर-गृहस्थी का कुछ सामान लिए हंसते-बतियाते सामने से चले आ रहे थे। उसे देखकर मैं घबरा उठी। धड़कने बढ़ गई। घबराहट  में उस ओर इशारा करते हुए मुन्ना से कहा,'उधर देखो।'

'उन्हें देख कर उन्होंने कहा,यह तो अपने मोहल्ले के एडवोकेट दीक्षित का बेटा है।'

 'अब...अब क्या होगा?'

 मैं घबरा कर बोली,'लखनऊ छोड़कर यहां आए, यहां भी वहीं के लोग पहले से हैं।'

 'अरे पगली कुछ नहीं होगा। देख नहीं रही हो दोनों मियां-बीवी कितने खुश हैं। अपने में मस्त किसी की परवाह नहीं। हमें भी किसी की परवाह नहीं करनी है। बहुत कर लिया। हम भी अपनी दुनिया में इससे ज्यादा खुश रहेंगे,मस्त रहेंगे। दुनिया अपना काम करेगी। हम अपना काम करेंगे। बस इतनी सी बात है। ये दोनों तो हम दोनों से बहुत आगे हैं। हमारे पथ के प्रथम पथिक हैं। इतनी सी ही बात में छिपी है अपनी दुनिया। अपनी खुशी।'

इतना कहकर उन्होंने मुझे बगल में और करीब सटा लिया। बस हमारी मंजिल से मात्र पन्द्रह मिनट की दूरी पर थी कि,तभी न जाने क्या हुआ कि गाड़ियों और लोगों की रफ्तार एकदम धीमी हुई, फिर एकदम से ठहर गई। जो जहां था वहीं खड़ा का खड़ा रह गया। देखते-देखते जाम इतना लंबा हो गया कि,आगे-पीछे जहां तक नजर जाती थी वहां तक सिर्फ ट्रैफिक ही ट्रैफिक दिखता था।

मैंने मुन्ना से पूछा, 'यह अचानक क्या हो गया? क्यों रुक गए सब।'

 'पता नहीं, ड्राइवर से पूछता हूं, यहीं का है। उसे आइडिया होगा।'

 'मुन्ना ने ड्राइवर से पूछा, लेकिन वह भी कुछ बता नहीं पाया। उसने भी यही कहा, 'मालूम नहीं आगे क्या चल रहा है।'

 तभी क्लीनर बोला, 'कऊनो नेता-वेता का जुलूस होगा। सालों के पास आदमी तो होते नहीं, दर्जनभर लोगों को लेकर जानबूझकर ऐसे टाइम पर, ऐसे ढंग से सड़क पर निकलेंगे कि रास्ता जाम हो जाए और पेपर, टीवी में फोटो में छपे कि, पूरी सड़क पर सब इन्हीं की ही भीड़ चल रही थी। सड़क पर यह सब के सब इन्हीं के चेला हैं। भड़वे सालों की तो...।'

 क्लीनर ने इसके साथ ही अपनी ठेंठ बनारसी स्टाइल में कई गालियां दे डालीं। ऐसे बोला जैसे शाबासी दे रहा हो।

कुछ पता नहीं चला तो वो मेरे पास आकर बैठ गए। जाम बढ़ते जाने के कारण गाड़िओं के इंजन, हॉर्न, लोगों का शोर बढ़ता ही जा रहा था। मुन्ना ने कहा, 'अजीब बेवकूफ लोग हैं, जब जाम लगा हुआ है, एक कदम भी आगे बढ़ने की जगह नहीं है। तब भी हॉर्न बजाए जा रहे हैं।'

 उसे सबसे ज्यादा उस कार वाले पर गुस्सा आ रही थी जो बस के ठीक पीछे था और बार-बार हॉर्न दे रहा था। उसने खिड़की से सिर बाहर करके आते-जाते कई लोगों से पूछा कि, जाम क्यों है? लेकिन कोई कुछ नहीं बता सका। देखते-देखते आधा घंटा निकल गया।

अब हम दोनों बहुत ज्यादा परेशान होने लगे। हमारी आशंका बढ़ने लगी कि, यहां कोई लड़ाई -झगड़ा तो नहीं हो गया। फसाद में सबसे पहले लोग गाड़ियों को ही निशाना बनाते हैं। मुझे गंगाराम द्वारा बताया गया मदनपुरा का दंगा याद आ गया, जिसमें उसके बाबूजी की बड़ी निर्ममता से  हत्या कर  दी गई थी। 

मेरे चेहरे पर पसीना देखकर मुन्ना ने बाहर देखते हुए कहा,'परेशान ना हो, पुलिस आ गई है।' तभी लोगों और गाड़ियों का शोर भी बढ़ गया। लोग  इधर-उधर भागने लगे। बस के सामने की तरफ से लोगों का ज्यादा आना शुरू हो गया। हर तरफ भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई थी। फुटपाथ,गाड़ियों के बीच उन्हें जहां भी जगह मिल रही थी,वो वहीं से आगे भागे जा रहे थे। जितना तेज़ हो सकता था, उतना तेज़ निकल रहे थे। मैंने पूछा,'अब क्या होगा?'

  तभी थोड़ी ही दूर कहीं फायर की आवाज आई। साथ ही चीख-चिल्लाहट और तेज़ हो गई। मैं बेहद डर कर बोली,'सुनो सब इधर-उधर भाग रहे हैं। आगे खतरा है। चलो हम लोग भी उतर कर चलते हैं। आगे ना जाने कितना बड़ा फसाद हो रहा है।'

'तुम भी कैसी बातें करती हो। इतना सामान लेकर कहां भागेंगे। देख रही हो निकलना मुश्किल हो रहा है।'

हमारी बातों के बीच ही दो फायर और हो गए। मैं रुआंसी हो गई। मैंने कहा,'मुझे डर लग  रहा है। सामान छोड़ दो यहीं। इनका नंबर है ही। जिंदा रहेंगे तो संपर्क करके ले लेंगे।' मेरी बात क्लीनर ने सुन ली, वह ड्राइवर से पीछे निकासी वाले दरवाजे से लगी सीट के पास खड़ा  था। बाहर की हालत देख कर, उसने मुड़कर मेरी तरफ देखते हुए कहा,'बहन जी आप परेशान ना होइए। बाहर मुश्किल में पड़ जाएंगी। पुलिस आ गई है। यह हंगामा बस खत्म ही समझिए।'

 उसकी बातों से मैंने थोड़ी राहत महसूस की। लेकिन जब मैंने देखा कि, कार या बाइक जैसी गाड़ियों के जो भी लोग थे, वह अपनी-अपनी गाड़ी छोड़-छोड़ कर भाग  रहे हैं। बस के ठीक पीछे वाली कार के जो लोग कुछ देर पहले तक हॉर्न बजा-बजाकर आफत किए हुए थे, वह भी भाग गए हैं, तो मेरी घबराहट इतनी बढ़ गई कि, मुन्ना को कहना पड़ा,'इतना डरने से काम नहीं चलता। जो होगा, देखा जाएगा।'

 क्लीनर ने भी अपनी ही सीट से फिर चिल्लाकर कहा,'अरे बहनजी नाहक परेशान हो रही हैं। कहा ना कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।'

 लेकिन उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि, एक के बाद एक फिर कई फायर हुए, फिर जो भगदड़ मची वह मैंने और निश्चित ही मुन्ना ने भी जीवन में पहली बार देखी थी। अब ड्राइवर, क्लीनर भी परेशान दिखने लगे। मुन्ना भी सहम उठे कि, बस में ही रुके रहें या अन्य लोगों की तरह यहां से भागें। चारों तरफ एक नजर डालकर उन्होंने कहा,'परेशान मत हो। यह दोनों जब-तक बस में हैं, तब-तक हम भी हैं। अगर यह निकलेंगे तो हम भी यहां से चल देंगे। सामान यहीं पड़ा रहेगा। बस सुरक्षित रहेगी, तो सामान भी सुरक्षित मिल जाएगा, नहीं तो समझ लेंगे कि, हम खाली हाथ ही लखनऊ से आए थे।'

'वहां पहुँचते ही बड़ी कठिन, निराशाजनक स्थितियों से सामना करना पड़ा।'

'हाँ, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। मुन्ना ने इसके बाद ड्राइवर,क्लीनर से पूछा कि,'रुके रहना ठीक है या यहां से निकलेंगे।'

 ड्राइवर ने बड़ी दृढ़ता से कहा,'भाई साहब जब-तक गाड़ियों,सड़क पर एक भी आदमी है,  तब-तक हम बिलकुल नहीं जाएंगे। अगर सब गए तो हम भी निकलेंगे। आप लोग भी निकल लेना।'

 'आप लोग यहां से निकलकर किधर जाएंगे?'

 ' पीछे ही जायेंगे, जहां बवाल नहीं होगा,वहीं जाकर रुकेंगे। पहली बात तो भाई साहब जब तक दंगाई गाड़ी में आग-जनी नहीं करने लगेंगे तब-तक तो मैं यहाँ से हिलने वाला नहीं। भाई सहाब मेरा प्राण है, मेरी यह गाड़ी। अभी किस्तें भी पूरी नहीं भर पाया हूँ। इसलिए जब-तक जान पर नहीं बन जाएगी तब-तक तो छोड़ नहीं जाऊंगा ।

आपसे भी यही कहूंगा कि,घबराइए नहीं, पुलिस कार्यवाई कर रही है। जल्दी ही यह कंट्रोल हो जाएगा। यहां से चेतगंज अब ज्यादा दूर नहीं है। इसलिए जल्दबाजी करना ठीक नहीं है। आप ऐसा करें, चेतगंज  में आपके जो भी रिश्तेदार,परिचित हैं, उनसे पता करें कि वहां क्या हाल है। मैं भी अपने लोगों को फोन करता हूं, पता करता हूं कि, कहां पर क्या हाल है। जैसा होगा फिर वैसा ही करेंगे।'

 मुन्ना ने मकान मालिक से बात की तो उन्होंने बताया कि,'इधर ऐसा कुछ नहीं है।' तब जाकर मुन्ना को राहत मिली। तब-तक क्लीनर ने भी दो-चार लोगों से बात कर ली थी।

पता चला कि, आगे लहुराबीर के पास जो गर्ल्स कॉलेज है, वहां की छात्राओं के साथ कुछ लफंगों ने छेड़छाड़ कर दी थी, जिससे छात्राओं ने विरोध स्वरूप रास्ता जाम कर दिया। उनके समर्थन में कुछ और कॉलेजों के स्टूडेंट भी आ गए, जिससे हंगामा ज्यादा हो गया। इस हंगामें का कुछ अराजक तत्वों ने फायदा उठाते हुए देसी हथियारों से फायर करके माहौल बिगाड़ने की कोशिश की, जिन्हें पुलिस ने सख्ती से लाठियां भांज कर दौड़ा लिया। छात्रों का जाम लफंगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के आश्वासन के बाद खत्म हो चुका है। जल्दी ही रास्ता खुल जाएगा।

यह जानकर हमने बड़ी राहत महसूस की। लेकिन रास्ता खुलते-खुलते आधा घंटाऔर लग  गया। रास्ते में तमाम गाड़ियों के शीशे टूटे हुए मिले। गनीमत यह रही कि जब बलवा शुरू हुआ तब हमारी बस वहां से दूर थी। करीब होती तो वह भी छात्रों,अराजक तत्वों के हमले का शिकार हो जाती।

 जब हम चेतगंज पहुंचे तो दिन काफी चढ़ चुका था। झुकती दोपहरी में मकान मालिक पत्नी के साथ गेट पर ही मिले। उन्होंने कहा,'हमें चिंता हो रही थी कि, कहीं आप परेशानी में ना पड़ जाएं। भोलेनाथ की कृपा आप पर रही, सही सलामत आ गए।'

 माथे पर तिलक लगाए मकान मालिक मुझे भले आदमी लगे और उनकी पत्नी भी। गाड़ी से सामान उतारकर पहली मंजिल पर पहुंचाने में ड्राइवर, क्लीनर, मकान मालिक तीनों ने मदद की। कुछ ही देर में सब कुछ आसानी से पहुंच गया। ड्राइवर ने  बहुत अच्छे से बात की। मुन्ना ने  गंगाराम की तरह उसका भी नम्बर ले लिया।'

'एक बात बताइये,रहने के लिए तो आपने लल्लापुरा को चुना था ,फिर चेतगंज क्यों ?'

'हाँ,लेकिन मुन्ना जब यहाँ कई बार आये तो, उन्हें लगा कि रहने के लिए चेतगंज ज्यादा सही है।'

 'जो भी हो,आपके मुन्ना जी जीवन में बहुत ही फ्लेक्सिबल हैं, कहने भर को भी कोई कमी महसूस हुई नहीं कि, पहले की योजना में तुरंत संसोधन के लिए तत्पर हो जाते हैं।'

'जी  हाँ, यह तो है। इसे मैं उनकी एक ताकत मानती हूँ। उनका काम करने का तरीका ही निराला है। चेतगंज पहुँचने से पहले मैं सोच रही थी कि, वहां सबकुछ मेंटेन करने के लिए दो-तीन दिन बहुत काम करना पड़ेगा। लेकिन मकान मालिक के नीचे जाते ही मुन्ना ने मुझे पूरा मकान दिखाया। दो बड़े कमरे, लॉबी, एक बॉलकनी, नए ढंग का बना किचन, बॉथरूम मुझे बहुत अच्छे लगे। किचन से लेकर बेडरूम, ड्रॉइंग रूम सब जगह जरूरत की सारी चीजें लगी हुई थीं। गृहस्थी का सारा सामान था।

उसे देखकर मैंने पूछा,'तुमने तो सोफा, बेड, किचेन, फ्रीज, टीवी सारी गृहस्थी पहले ही जमा कर रखी है। इतना सब कर डाला बताया तक नहीं। आकर दोनों ही मिलकर साथ करते। मैं तो सोच-सोच कर परेशान रही हूं कि, अकेले तुम कितना परेशान हुए होगे। कैसे किया होगा  तुमने, ऐसा क्यों किया?'

 'क्यों कि मैं नहीं चाहता था कि, मेरी बीवी आए तो यहां घर को सजाने-संवारने में थक जाये। मैंने सोचा कि, जब तुम आओ तो सब कुछ तैयार मिले, इसलिए सब कर डाला।'

उनकी बातों से मैं एकदम भावुक हो, उन्हें बाहों में भर लिया। मुन्ना ने भी मुझे कस लिया। ऐसे ही लिए-लिए बेड पर लेट गए। रास्ते भर सफर से हम दोनों बहुत थक गए थे, तो हमें बड़ा आराम मिल रहा था।

मेरा सिर, आधा शरीर मुन्ना की छाती पर था। मेरी आंखें बंद थीं। मुन्ना के दोनों हाथ मेरी पीठ कमर को घेरे हुए थे । उनकी भी आंखे बंद थीं। पांच मिनट भी ना बीता होगा कि, मकान मालिक एकदम से हाथों में ट्रे लिए आ गए। हम एकदम हकबका कर उठ बैठे। मैं शर्म से दोहरी होकर मुन्ना के पीछे खड़ी हो गई। मुन्ना ने कहा,'आइये,आइए।'

 मकान मालिक भी बहुत खिसियाए हुए से बोले,'मैंने सोचा कि, आप लोग लंबा सफर करके आए हैं। उपद्द्रव में अलग  परेशान हुए हैं। थके हुए होंगे, कुछ चाय-नाश्ता लेता चलूं।' यह कहते हुए उन्होंने ट्रे सेंटर टेबिल पर रख दी, जो हमसे कुछ ही दूरी पर रखी हुई थी। फिर बहुत ही विनम्रता से बोले,' आप लोग चाय-नाश्ता करके आराम करिए, फिर बातें होंगी।'

जाते-जाते मुन्ना को देखते हुए बोले,'मुझे क्षमा करिए, मुझे आवाज देकर आना चाहिए था।'   'अरे भाई साहब इसमें क्षमा की कोई बात नहीं, हो जाता है ऐसा। आपने हमारा इतना ख्याल रखा, हम आभारी हैं।'

'आप हमारे मेहमान सरीखे हैं। ख्याल रखना हमारा कर्तव्य है।'

 इतना कहकर वो चले गए।

उनके जाते ही मैंने कहा,'यह तो निहायत शरीफ इंसान लग रहे हैं। बड़े होकर भी खुद ही चाय-नाश्ता ले आए। कितना ख्याल रख रहे हैं। इनके परिवार में और कोई नहीं है क्या?'

 'दो लड़के हैं। एक फॉरेस्ट ऑफिसर है। वह मध्यप्रदेश में जॉब करता है। अपनी फैमिली के साथ वहीं रहता है। दूसरा सीबीआई दिल्ली में है। पति-पत्नी यहां रहते हैं। यह किसी ऑफिस में चीफ अकाउंटेंट हैं, कुछ ही दिन में रिटायर होने वाले हैं।'

'देख कर तो लगता ही नहीं कि, इनकी इतनी उम्र हो गई है।'

 'पहली बार मिलने पर मैंने भी पैंतालिस-पचास का समझा था। अच्छा आओ इतने प्यार से ले आए हैं तो, पहले नाश्ता कर लेते हैं। उनकी मेहमान-नवाजी का सम्मान जरूरी है।' हमने हाथ-मुंह धो कर नाश्ता देखा तो मुन्ना बोले,' नाश्ता क्या, यह तो पूरा का पूरा खाना ही ले आए हैं। कचौड़ी, सब्जी, मिठाई, नमकीन, पूरी केतली भरकर चाय। वाह भाई, मकान मालिक हो तो ऐसा हो।'

नाश्ता करते हुए मैंने कहा,'नाश्ता तो वाकई बहुत शानदार है। ऐसी कचौड़ी तो लखनऊ में मैंने नहीं खाई।'

'अपने टेस्ट के लिए तो यहां की कचौड़ियां प्रसिद्ध हैं ही। एक जगह का तो नाम ही कचौड़ी  वाली गली है।'

'अच्छा कभी ले चलना वहां,देखेंगे कि, कैसे इतनी जायकेदार कचौड़ियां यहां बनाते हैं।'

 नाश्ता करते-करते ही मैंने कहा,'सामान कम करते-करते भी कितना ज्यादा हो गया है। देखो सब एक जगह इकट्ठा हुआ तब पता चला कि कितना है।'

'हाँ ,थोड़ी देर आराम कर लेते हैं। तब सब लगाते हैं।'

'तुम परेशान ना हो, मैं अकेले ही सब कर लूँगी,कोई बहुत ज्यादा नहीं है। अब तुम काम-धाम कैसे पूरे जोरों से आगे बढे, बस इस पर पूरा ध्यान दो। जैसे भी हो हमें हर हाल में अपनी मंजिल पानी ही है।'

 'हाँ, यहां आए ही इसीलिए हैं।'

 'एक बात पूछूं सच-सच बताओगे ?'

 मैंने मुन्ना को बड़े गौर से देखते हुए पूछा। 

'पूछो, लेकिन बिना शक किए हुए कि, सच नहीं बताऊंगा।'

 मैंने मुस्कुराते हुए पूछा,'केवल काम-धंधे के चलते ही हम यहां आए हैं, या सबसे बड़ा  कारण कुछ और है।'

मेरी बात पर वह मेरी आंखों में देखते हुए बोले, 'मेरी बीवी को कोई कष्ट ना हो, उसे किसी के ताने ना सुनने पड़ें , वह खुलकर बिंदास जीवन जी सके। मैं उसे बिना किसी अड़चन के जब चाहूँ तब प्यार कर सकूं। यह पहले मुख्य कारण हैं। और दूसरा मुख्य कारण बिजनेस है। मैंने तो अपना खरा-खरा सच बता दिया। अब तुम अपना सच बताओ। तुम बात सुनते ही एक बार में ही यहां के लिए क्यों तैयार हो गई?'

'जिन वजहों से तुमने यहां के लिए मन बनाया, बिल्कुल उन्हीं वजहों से मैंने भी यहां के लिए फैसला किया। जब अम्मी थीं, तभी तय कर लिया था कि, तुमसे बात करके कहीं दूर, किसी अनजान मोहल्ले में रहने जाएंगे।अम्मी को भी मना लूँगी, इसका मुझे पूरा भरोसा था। उसी मोहल्ले में रहने पर बेजा बातें करने वाले, शैतानी हरकतें करेंगे, इससे अच्छा रहेगा कि, कहीं दूर ऐसी  जगह जा बसें, जहां हमें जानने वाला कोई ना हो। मगर अम्मी अचानक ही चल बसीं, तो मैं गफलत में पड़ गई कि, अब क्या करूं। मगर जब तुम्हारी बातें सुनीं, तो मुझे लगा  कि, यह तो मेरे मन की बात से भी अच्छी बात हो गई। जब पहली बार यहां के कार्यक्रम में तुमने यह बात उठाई थी, मैं तब गफलत में थी।

मगर एक बात तभी से सोच रही थी, जब से तुम्हें चाहने लगी थी कि,ऐसी जगह साथ रहूंगी,  जहां तुम-हम खुलकर प्यार कर सकें। कोई हमें टोकने-रोकने वाला ना हो, किसी का डर ना हो, हम जब चाहें तब बेइंतहा प्यार कर सकें। बिल्कुल रियाज़ और ज़ाहिदा की तरह। बस प्यार-प्यार और प्यार। और कुछ नहीं। शुक्र है कि ऊपर वाले ने मेरी सुन ली।'

'रियाज़-ज़ाहिदा की तरह! यह क्या बोल रही हो, किसकी बात कर रही हो, कौन है जिनका प्यार तुम्हें इतना अच्छा लग गया कि, वैसा करने का ख्वाब देख रही हो। कहीं तुम्हारे किरायेदार तो ....'

'इतनी जल्दी भी क्या है? प्यार की बातें जब प्यार करेंगे तब बताएँगे।'

'अच्छा, यह बात है, तो अभी करूं क्या?'

 ' ना ना, अभी नहीं, बिल्कुल नहीं, रात में। नहीं तो यह तुम्हारे शरीफ भोले-भाले मकान मालिक इस बार खाना लेकर आ जायेंगे।'  इतना कहकर मैं खिलखिला कर हंस पड़ी। लेकिन तब-तक मुन्ना ने मुझे बाहों में जकड़ लिया। हम दोनों बड़ी देर तक एक-दूसरे को जकड़े-जकड़े पड़े रहे। 

देर शाम को घूमने निकलने से पहले हम दोनों ने अधिकांश सामान करीने से लगा दिया था। मकान मालिक ने हमसे खाने के लिए भी आग्रह किया था, लेकिन हमने यह कहकर मना कर दिया था कि, नाश्ता ही इतना हैवी हो गया है कि, अब रात से पहले कुछ नहीं खा पाएंगे। बिल्कुल इच्छा नहीं है।'

हमारी इस बात पर उन्होंने रात के खाने पर इंवाइट कर लिया। मुन्ना लाख मना करते रहे , लेकिन उन्होंने एक ना सुनी। उनके विनम्र निमंत्रण के सामने हम मानने के लिए विवश हो गए। हमने कहा,'ठीक है, रात को लौट कर खाएंगे।'

 हम घूमते-घामते दशाश्वमेध घाट पहुंचे, वहां शाम को होने वाली गंगा आरती में शामिल हुए। गंगा की निर्मल धारा, भव्य आरती की उस पर पड़ती दिव्य आभा से हम दोनों अभिभूत हो गए। उसे देखकर मैं बोली,'मैंने तो सोचा भी नहीं था कि, दुनिया में ऐसा भी होता होगा। कितना सुंदर, कितना दिलकश नजारा है। दिल को इतना सुकून तो पहले कभी मिला ही नहीं। मन कर रहा है कि, यह आरती ऐसे ही चलती रहे, और हम यहीं बैठे देखते रहें।' 




'लेकिन हर काम का अपना नियम है। वह तो वैसे ही चलेगा। आओ अब चलें। इस घाट को थोड़ा और देख लिया जाए। फिर कभी शाम होने से पहले आएंगे, और पूरा घाट देखेंगे।'

 'हाँ ठीक है। ये यहां पर जो इतने सारे विदेशी दिख रहे हैं, यह रोज आते हैं क्या ?'

 'हाँ, यह गंगा आरती पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इसलिए तमाम विदेशी हमेशा आते रहते हैं।

मुझे ज्यादा डिटेल्स तो इस घाट के बारे में मालूम नहीं, लेकिन बताते हैं कि, प्राचीन समय से ही इसका वर्णन  मिलता है । चलो, अब तो यहीं रहना है। आते रहेंगे, जानते रहेंगे रोज-रोज नई-नई बातें। अब काफी देर हो गई है। मकान मालिक महोदय खाने पर इंतजार कर रहे होंगे।'  'हाँ,देर कर दी तो उन्हें भी तकलीफ होगी।'

 मकान मालिक की मेहमाननवाजी ने हमें  इतना खुश किया कि, मैं सच कह रही हूं कि, मेरे पास उस खुशी को जाहिर करने के लिए आज भी अलफ़ाज़ नहीं हैं।' लेकिन इस मेहमाननवाजी के बाद जब हम ऊपर चलने को हुए, तो मकान मालकिन की एक बात ने हमें बड़ी उलझन में डाल दिया।

वो बोलीं,'बेटा मेरी बात पर नाराज नहीं होना, मैं यह कहना चाह रही थी कि, सुहाग चिन्ह जीवन सुखमय होने का प्रतीक होता है। सुहागन होते हुए भी सुहाग चिन्ह धारण न करना एक तरह से ईश्वर ने कृपा कर जो सुख-समृद्धि सौंपी है, उसका अपमान करना हुआ। ईश्वर को नाराज करना हुआ। बड़ी होने के नाते सलाह दे रही हूं कि, अपनी सुविधानुसार ना बहुत कुछ,थोड़ा बहुत ही सही, सुहाग चिन्ह पहन लेना चाहिए।'

उन्होंने बड़े प्यार से मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर अपनी बात कही। मैंने बेड पर पहुंचते ही शैतानी करने पर उतारू मुन्ना से यह बात उठाकर पूछा, 'ये बताओ मुझे क्या करना चाहिए?' मुन्ना ने तुरन्त कहा,'उनकी बात अपनी जगह सही है। देखो, मैं कभी इस तरह की बातों के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहूंगा कि, तुम अपने ऊपर कोई दबाव महसूस करो। तुम्हें अगर उनकी बातें ठीक लग  रही हैं, तुम्हें पसंद है यह सब करना, तो करो। मुझे कोई एतराज नहीं है। बस जो भी करना, एक बात सबसे पहले ध्यान रखना कि, हमारी खुशी में उससे कहीं से भी कोई अड़चन ना आए।'

मुन्ना की बात सुनकर मैं कुछ देर उनकी बड़ी-बड़ी आंखों को देखती, उसे पढ़ती रही, फिर बोली,'सुनो कल चलकर, जो-जो भी सुहाग की चीजें हैं, वह ले आते हैं।'

 'उन्होंने कह दिया अगर इसलिए यह कर रही हो, तो फिर मैं कहूंगा कि, यह बिल्कुल नहीं करो। अगर तुम्हारा मन है तो ठीक है।'

 'मैं उनके कहने से यह नहीं कर रही हूं। यह इत्तेफाक ही है कि, उन्होंने कह दिया। मैं तुमसे खुद ही एक-दो दिन में बात करने वाली थी, लेकिन पहले खुद समझ लेना चाहती थी। सच बताऊं, मुझे यह सब श्रृंगार की चीजें बहुत ही ज्यादा अच्छी लगती हैं।'

'मैं भी यहां आपको टोकना चाहूँगा कि, श्रृंगार को लेकर इतनी उत्सुकता, चाहत मुन्ना जी जैसे व्यक्ति के जीवन में आने के बाद पैदा हुई,या यह सोच आपकी पहले से ही थी।'

'ऐसा नहीं है ,मैं शुरू से यह मानती रही हूं कि,श्रृंगार के बिना हम औरतें बड़ी अधूरी-अधूरी लगती हैं। उस समय मैंने मुन्ना से कहा भी,' श्रृंगार के बिना लगता है जैसे हमने कुछ पहना-ओढा ही नहीं है। मुझे बड़ी अम्मी की एक बात अक्सर याद आती है कि,'औरतें श्रृंगार के  बिना एकदम छूंछी (रिक्त,खाली-खाली) सी लगती हैं।' 

मगर हमारे घर की बदकिस्मती रही कि, उनकी इस बात पर उन्हें अब्बू से गंदी-गंदी गालियां सुनने को मिलीं। इसके बाद वह जब-तक रहीं श्रृंगार के नाम पर तेल-कंघी, साबुन से भी कतरातीं । बालों में महीनों-महीनों तक तेल नहीं डालतीं। अजीब से उलझे-उलझे बाल लिए रहती थीं। जुएं पड़ जाती थीं।

एक बार तो इतना खीझ गईं , इतना आज़िज़ आ गईं  कि, बालों में मिट्टी का तेल ( केरोसिन आयल ) लगा दिया। पूरा सिर मिट्टी के तेल से तर कर दिया। मगर जब उसकी लगातार  बदबू से उन्हें उबकाई आने लगी, तो मेरी अम्मी के बहुत कहने पर कपड़े वाले तेज़ साबुन से  खूब धो डाला। इससे उनके लंबे-लंबे खूबसूरत बाल बुरी तरह उलझ गए। खराब हो गए। खूब टूटने लगे, कुछ ही महीने में उनके बाल आधे रह गए। परेशान होकर लानत भेजतीं ज़िंदगी को। कहतीं, 'कैसी बेमकसद ज़िंदगी जिए जा रही हूं।' उनकी वह हालत सोचकर मैं आज भी तड़प उठती हूं। मैं बहुत घबराती हूं, डरती हूं, सहमती हूं कि, कहीं मैं भी ऐसी ही बेमकसद ज़िंदगी का शिकार होकर खत्म ना हो जाऊं।'

यह कहते-कहते मैं बड़ी ग़मगीन हो मुन्ना से लिपट गई। उन्होंने मेरे बालों में प्यार से ऊंगलियां फिराते हुए कहा, 'तुम भी कैसी-कैसी बातें करती रहती हो। क्यों पुरानी बातें याद कर करके परेशान होती हो। तुम्हारे सामने भगवान ने नई ज़िंदगी दी है। उसमें खुशियां ही खुशियां दी हैं। उन खुशियों का जैसे चाहो वैसे आनंद लो। मैं जीवन में तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहता हूं। तुम जिसमें खुश रहो, वह सब का, सब काम तुम करो। कल चलना, जितना भी मेकअप का सामान लेना हो, जैसा भी श्रृंगार का सामान चाहिए वह सब ले लेना।'

मुन्ना की बात सुनकर मैंने सिर ऊपर किया। आंखों में भरे आंसुओं को पोंछती हुई बोली,'लेकिन उन्होंने जिस श्रृंगार की बात की है, वह तो शादी के बाद ही करते हैं। और हमने तो अभी शादी की ही नहीं है। कोई रस्म पूरी ही नहीं की है। बस अपनी रजामंदी से साथ हैं।' 'मेरे दिमाग में यह सारी बातें उसी समय थीं, जब लखनऊ से यहां आने की बात तय हुई। यहां आने के बाद अगला कदम शादी करके उसे रजिस्टर कराने के बारे में मैं पहले ही सोचे हुए हूँ। जिससे कानूनी तौर से भी हम एक दूसरे को सुरक्षित एहसास करा सकें। मैं अगले दो-तीन दिन में जो कुछ करने वाला हूं, उस बारे में घूम कर जब लौट रहा था, तभी सोचा था कि सोते समय तुमसे बात करके सारी चीजें फाइनल करूँगा। मगर उससे पहले ही इन आंटी ने टोक दिया।' 

 ' कोई बात नहीं ,कल पहले कुछ सामान तो ले ही आते हैं। एक-दो हर ऐसी चीज जिससे आंटी को शक ना हो कि, हम-दोनों रस्मों-रिवाज को पूरा किए बिना ही शौहर-बीवी बने हुए हैं। एक साथ नाजायज ढंग से रह रहे हैं। कल को कह दें कि, मकान खाली करो।'

'तुम भी कैसी बात करती हो। मैं इनकी या दुनिया के किसी डर से कुछ करने वाला नहीं हूं। मैं अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीता हूं, जियूँगा। किसी को कुछ भी, एक शब्द भी बोलने का हक नहीं है। इसलिए तुम्हें भी किसी की परवाह करने की जरूरत नहीं है। मैं पैसा देकर रहता हूं, हमें मकान की जरूरत है, तो उन्हें किराएदार की। साथ ही उन्हें इस बड़े मकान के सन्नाटे को दूर करने के लिए कुछ पारिवारिक लोगों की भी सख्त जरूरत है, क्योंकि इनके बच्चे तो इन्हें अकेला, इस मकान के सन्नाटे के हवाले करके, इनके जीवन में अकेलेपन का दमघोंटू धुआं भर कर चले गए हैं।

अकेलेपन के धुएं से इनका दम घुट रहा है। इस घुटन से बचने के लिए ही इन्होंने मकान किराए पर दिया है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हम इनकी मदद करेंगे, मगर अपने जीवन में हस्तक्षेप बिल्कुल भी नहीं बर्दाश्त करेंगे।'

उनकी आवाज़ में मैंने गुस्से का अहसास किया।आश्चर्य से उनको देखते हुए कहा,'अरे तुम यह क्या इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह गए, मैं तो कुछ समझ ही नहीं पाई। जानते हो, उन्होंने जब सुहाग-निशानी की बात की, तो मेरे दिमाग में तुरंत की तुरंत क्या बात आई।'

'क्या ?'

 'यही कि यह बात तो हमारे घर, यानी कि हमारी ससुराल, यानी कि आपकी अम्मा-बाबू, भाई की तरफ से आनी चाहिए थी, कि तुम दोनों एक साथ रहना चाहते हो तो रहो, लेकिन कम से कम शादी-विवाह के कुछ रस्मों-रिवाज को तो पूरा कर ही लो। मैं बड़े अचरज में हूं कि, किसी ने यह सब कुछ कहना तो छोड़ो, कोई ऐतराज भी नहीं किया और खुशी-खुशी भेजा। सामान वगैरह भी सब रखवाया, लेकिन किसी ने भूल कर भी शादी की बात तक नहीं की।

 हमने सुना है कि, ऐसे समय में सास बेटे-बहू को दुआएं देती हैं, दही-चावल से तिलक लगाती हैं। मिठाई खिलाती हैं। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। तुम तो घर से मिलकर आए थे सबसे, वहां किसने क्या कहा, मैं नहीं जानती। लेकिन जब तुम मेरे सामने आए, तो सबसे पहले मेरी नजर तुम्हारे माथे पर ही गई थी। मैंने सोचा था कि, चलते समय अम्मा जी, बाबूजी सबसे मिलकर चलूँगी। सब मुझे विदा करेंगे। अम्मा-बाबू जी आशीर्वाद देंगे। मैं अपनी नन्द निष्ठा के पैर छूऊँगी और देवर मेरे। मगर मेरा यह ख्वाब, ख्वाब ही रह गया। तुम्हारे सूने माथे को देखकर मैं सहम गई। हालात का अंदाजा लगा कर  डर गई। मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कि, तुम से कहूं कि चलो, हमें भी तो सबसे मिलवा दो। मैं तड़प उठी कि, मेरी बदकिस्मती यहां भी मेरे साथ चिपकी है।' 

मैं अपनी बात कहते-कहते रो पड़ी। तो मुन्ना ने मुझे समझाते हुए कहा,'मैंने तुम्हें जितना समझा था, तुम तो उससे भी कहीं बहुत, बहुत ज्यादा समझदार हो। मैं समझ रहा था कि, तुम्हारे मन का सब हो रहा है, तो इन बातों की तरफ तुम्हारा ध्यान गया ही नहीं होगा। लेकिन देख रहा हूं कि, मैं गलत सोच रहा था। मैंने खुद तुम्हारे सामने इसलिए इन बातों को नहीं उठाया, क्योंकि मैं किसी हालत में तुम्हें दुखी नहीं करना चाहता था।'

 'क्यों, क्या तुम्हें उस तरह से विदा नहीं किया गया, जैसा कि मैं सोच रही हूं। क्या घरवालों ने तुम्हें हंसी-खुशी विदा नहीं किया। वो लोग हमारे रिश्ते से खुश नहीं हैं ?'

 'अरे छोड़ो। छोड़ो ना इन सब बातों को, जो होना था वह हो चुका है। हमें मियां-बीवी बनना था तो हम बन गए। बस बात खत्म।'

'बस बात खत्म नहीं, ऐसे थोड़े ही ना बात खत्म हो जाती है। हमारी असली खुशी तो सही मायने में इसमें है कि, सारे हमसे खुश नहीं हैं, तो कम से कम नाराज भी ना हों। एक दूसरे का सभी ख्याल रखें, मिले-जुले, हंसे-बोलें। नहीं तो परिवार की बात ही कहां है। नीचे मकान-मालिक को ही देख लो, कितना परेशान हैं, अपने अकेलेपन से। अनजान-पराए लोगों को परिवार के सदस्य जैसा बना रहे हैं। अपने यहां किराए पर रख रहे हैं। इतना नहीं उनके साथ मिलते ही ऐसे बोलने-बतियाने, खाने-पीने लगते हैं, जैसे कि, वह उनके ही परिवार का  सदस्य है। केवल इसीलिए ना कि, उन्हें दिली-सुकून मिले। हम भी अगर अपने परिवार से कटकर अकेले रहेंगे, तो हमें भी तो ऐसे ही अकेलापन हमेशा काटेगा। घरवालों ने हमारे रिश्ते को लेकर क्या कहा? कैसे लिया? कुछ तो बताओ। अगर किसी को नाराजगी है, तो मैं सबसे माफी मांग लूँगी। उन्हें मना लूँगी। कुछ भी करूँगी, सबको खुश कर लूँगी। बस तुम पूरी बात बताओ ना क्या हुआ?'

'यार पीछे ही पड़ गई हो तो सुनो। मैं तो सोच रहा था कि, कई दिन बाद आज थोड़ा आराम मिला है। जम कर शैतानी-वैतानी करूँगा,मजा लूँगा,ऐश करूंगा, लेकिन तुम तो..।

' नाराज नहीं हो मेरे सनम। आज मेरा भी मन है, खूब शैतानी करने का। पर थोड़ी सी बातों के बाद करेंगे, तो मेरे राजा बहुत ही ज्यादा मजा आएगा।'

उन्हें थोड़ा छेड़ते हुए मैंने कहा, तो वह बोले ,'चलो तुम्हारे ही मन की करते हैं। घर में किसी ने सही मायने में ऐतराज नहीं किया। बस वह अपनी इज्जत को लेकर सतर्क बने हुए हैं। उनके मन में यह है कि, मोहल्ले वाले यह ना कह दें कि, बताओ इन लोगों ने तो बेटे को मना ही नहीं किया। वह मोहल्ले की लड़की से ही इश्क कर बैठा। बस एक यही प्वाइंट है जिससे सब डरे हुए हैं।

जब तुम्हारी अम्मी थीं, तब उनका का नाम लेकर अम्मा कहती थीं कि,'मुन्ना उनको यह सब जानकर बहुत दुख होगा। गुस्सा आएगा। इस उम्र में उनको दुख देना अच्छी बात नहीं है। वह नाराज होंगी, तो हमें बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। मोहल्ले की बात है। वो क्या कहेंगी, क्या सोचेंगी।' 

जब उन्होंने यह बात कही थी तब-तक हम दोनों बहुत आगे बढ़ चुके थे। बाराबंकी के उस तूफ़ान से गुज़र चुके थे, जिसने हमारे बंधन को अटूट बना दिया था। मैंने कहा,'अम्मा ऐसा कुछ नहीं होगा। अगर तुम सारी बातें जान-समझ रही हो, तो समझ तो वह भी रही होंगी। आखिर वह भी अपनी बेटी की अम्मा हैं। उन्हें ऑब्जेक्शन होता, तो वह बिल्कुल मना कर देतीं।'

जितनी बार मुझसे कहा जाता, मैं यही कहता कि,' जिस दिन भी, वह जरा भी संकेत कर देंगी,  मैं उसी समय बेनज़ीर से दूर हट जाऊँगा। उसकी तरफ देखना भी बंद कर दूंगा। उसके घर  की तरफ भी नहीं देखूँगा। उनके जो काम-धाम जैसे कर रहा हूं, वैसे ही करता रहूँगा।' मेरी इस बात पर सब चुप हो जाते थे। जिस दिन तुम पहली बार मेरे साथ बाराबंकी गई, उसके अगले दिन ही अम्मा ने बात उठाई थी, तो मैंने कहा, 'आप लोग समझते क्यों नहीं,बेनज़ीरअपनी अम्मी की इजाजत मिलने पर ही मेरे साथ जा रही है। उन्हें ऐसा कोई एतराज नहीं है। यदि होता तो वह मेरे पास क्यों आने देतीं, क्यों भेजतीं बार-बार मेरे पास। मैं यही मानकर चलता हूं कि, उनको इन बातों को लेकर कोई ऐतराज़ नहीं है। उनको भी इन सारी बातों का एहसास है। इसीलिए मना नहीं करतीं।' बस मेरे यहाँ यही बात होती है। किसी को कोई आपत्ति नहीं है,समझी। कुछ समय बीत जाने दो, सबको यहाँ  बुलाएंगे। सब आएंगे। सब ठीक हो जाएगा।'

 'तो क्या हम लोग वहां नहीं चल सकते।'

'ऐसा कुछ नहीं है। जब इच्छा हो तब चल सकते हैं, लेकिन पहले काम-काज तो रास्ते पर ले आऊँ, या बस आते-जाते रहेंगे।'

 मैं एकटक उन्हें देख-सुन रही थी। अपनी बात पूरी करके उन्होंने मेरे होंठों पर एक उंगली धीरे-धीरे फेरते हुए आगे कहा,'अब तुम ही बताओ, मैं तुम्हें क्या बताता।'

 मैंने अपने होठों पर मासूम सी शरारतें करतीं, उनकी उँगलियों चूमते हुए कहा, 'मैं भी यही सोचती थी कि, अम्मी अगर गुस्सा होतीं, तो जाने ही नहीं देतीं। मतलब अम्मा-बाबूजी, परिवार में किसी को कोई ऐतराज नहीं है।'

'नहीं। बस डर, कि दुनिया क्या कहेगी?'

' मेरी समझ में नहीं आता, ऐसे दुनिया से कब-तक डरते रहेंगे। कहां फुर्सत है दुनिया को इन सब बातों की। यहां आते ही एडवोकेट का जो लड़का दिखा था सड़क पर, उसने भी तो किसी लड़की से ऐसे ही शादी की है। मोहल्ले में कहां किसी ने कोई बात की। अम्मा-बाबूजी सभी को समझाओ ना कि, हमें, हमारे रिश्ते को खुशी-खुशी अपनाएं, हमें खुशहाल ज़िंदगी के लिए दुआएं दें, हमें अपने से अलग ना करें।'

' मैं उन्हें जितना समझा सकता था, समझा दिया। कुछ हद तक समझे भी हैं। जो नहीं समझ पाए हैं ,वह भी जल्दी ही समझ जाएंगे। समय के साथ सब अच्छा हो जाएगा। वह हमें आशीर्वाद भी देंगे, सब मिलकर खुश रहेंगे। बस एक बात और हो जाए।'

वह फिर से मेरे होंठों पर उंगली फिराते, मेरी गर्दन,गर्दन से और नीचे गहराई में उतरते जा  रहे थे। आवाज भी बड़ी वैसी होती जा रही थी। मैंने भी उन्हीं की जैसी आवाज में डूबते हुए पूछा,'कौन सी बात?'

 लेकिन वो चुप रहे। ऊँगुलियाँ धीरे-धीरे गहराई में उतरती ही जा रही थीं। फिर पूछा,लेकिन  चुप। तो मैंने पूछा,'कुछ बताओगे,तुम्हारी उंगुलियां गुदगुदी कर रही हैं।'

 तब वो बोले,'बस इतनी सी बात है कि, हम दोनों अपनों से भी ज्यादा खूबसूरत, स्ट्रांग,  ब्रिलिएंट बेबी जितनी जल्दी उनकी गोद में दे देंगे, उतनी ही जल्दी हमें वो बाकी खुशियों से भी भर देंगे। पूरा घर किसी एक्स्ट्राऑर्डिनरी परफ्यूम की तरह हमेशा के लिए खुशबू से महक उठेगा।'

यह सुनकर मैं उनसे लिपट कर बोली,'चाहती तो मैं भी यही हूं कि, फूलों सा प्यारा हमारा बेटा हो। हमारी दुनिया, हमारे परिवार को खुशियों से भर दे।'

'इसीलिए तो कह रहा हूं कि, हम खूब करते ही रहें,शैतानी-वैतानी।' 

कहते हुए उन्होंने मुझे समेट लिया। बड़ी देर तक वहां धीरे-धीरे बहती नदी में दो मछलियां एक दूसरे से खेलती उलट-पलट होती रहीं। काफी देर तक खेलती हुई, धीरे-धीरे वह गहरे पानी में नीचे बैठ गईं।'

 मैंने भी अपनी लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए कहा,'बेनज़ीर जी यहीं एक बात पूछना चाहता हूं कि,आप रियाज़-ज़ाहिदा जैसी बेइंतिहा मुहब्बत वाली दुनिया चाहती थीं। क्या मुन्ना के साथ वह दुनिया आपको काशी में मिल गई। जाते ही।'

 'मैं सोच ही रही थी कि, लंबे समय से आप चुप बैठे हैं। प्रश्न कोई गम्भीर आने ही वाला होगा। और आपके इस प्रश्न का जवाब है। हां! मुन्ना के साथ मुझे ज़ाहिदा-रियाज़ से भी ज्यादा बेपनाह मुहब्बत वाली दुनिया मिली। तन ही की नहीं,मन,भावनात्मक लगाव, यह कहना ज्यादा सही रहेगा कि,आत्मिक लगाव की उन्होंने वह दुनिया दे दी, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। जो मुन्ना ने दिया और कोई नहीं दे सकता। और इस प्यार में डूबी अगले दिन से मैं तरह-तरह की फैंसी बिंदियां लगाने लगी। जिसे देखकर मकान मालकिन ने कहा,'तुम पर बिंदी कितनी अच्छी लगती है। बिंदी के बिना औरत का चेहरा ऐसे उदास-उदास सा लगता है। जैसे उसका पता नहीं क्या खो गया है।'

दो दिन बाद ही हमारी शादी की रस्में पूरी हो गईं। हमने अपने मनपसंद तरीके से खूब सारा श्रृंगार शुरू कर दिया। मगर आगे कई समस्याएं हमारा इंतजार कर रही थीं। हमें अपना काम-धंधा जमाने में अनुमान से कहीं ज्यादा मुश्किलें पेश आईं। मगर हमारी हिम्मत, जी-तोड़ मेहनत के आगे मुश्किलों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया।

हम जीतकर आगे,और आगे निकलते चले गए। और उस जगह पहुंच गए जहां हमें लगा कि और तेज़ आगे बढ़ने के लिए निजी मकान, निजी ऑफिस होना ही चाहिए। हर चीज मैनेज कर लेने में माहिर मुन्ना,और मैं भी अब-तक इतने पक्के हो चुके थे कि,हमने अपनी जरूरत भर का नहीं, बल्कि उससे भी ज्यादा बड़ा मकान लिया। लखनऊ का अपना मकान बेच दिया। उसका ज्यादातर पैसा अपने बिजनेस में लगा दिया। अपनी योजनानुसार अपना बिजनेस, अपना मकान करने के बाद हमने अपनी दुनिया, अपने मकान की रौनक और बढ़ाने के लिए खूबसूरत बच्चों की किलकारियों के रून-झुन संगीत को भी सुनने के प्रयास और तेज़ किये।

लेकिन न जाने कौन सी बदकिस्मती आ गई कि, देखते-देखते काफी समय निकल गया। हम ना जाने कितने डॉक्टरों के पास दौड़े-भागे। लेकिन हर जगह से लौटे निराश। सारी जांचों, रिपोर्टों ने एकदम साफ कहा कि, हमारे घर नन्हें-मुन्नों की किलकारियों का संगीत भूल कर भी नहीं गूंजेगा। यानी हमारे सपनों का घर उदास प्राणहीन ही रहेगा। वह ईंट-पत्थर का ढांचा ही रहेगा। उसमें आत्मा नहीं होगी।

दिनभर बिजनेस,काम-धाम से लौटने के बाद जब हम आराम करते, प्यार, शैतानीं-वैतानी सब होती, मगर उनमें पहले वाली रवानी नहीं होती। थके होने के बावजूद हम-दोनों को जल्दी नींद नहीं आती थी। मेरी तो हालत और भी खराब रहती। मुन्ना सो जाते, लेकिन  मैं जागती रहती। लखनऊ में मकान बेचने के बाद मैं जल्दी ही ज़ाहिदा-रियाज़ को भी भूल गई थी। लेकिन ज्यादा समय नहीं लगा, हालात के चलते मैं अजीब हालत में पहुंच गई। लगता जैसे कि, बेडरूम के बगल वाले कमरे में ज़ाहिदा-रियाज़ आज भी, उसी तरह बेइंतेहा प्यार कर रहे हैं।

नन्हा-मुन्ना, गोल-मटोल सा उनका बेटा ज़ाहिदा की छाती पर लेटा चुटुर-चुटुर की आवाज करता दूध पी रहा है। ज़ाहिदा और रियाज़ के हाथ एक दूसरे को छू रहे हैं। दूर-दूर तक, ऊंची पहड़ियों से लेकर गहरी घाटियों  तक का अपना सफर तय कर रहे हैं। ना जाने कहां-कहां, क्या-क्या करते चले जा रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं कि, बेटा सो गया है। और फिर वह भी समुद्र की लहरों की तरह ऊंचे-ऊंचे खेल,खेल कर सो रहे हैं। 

मेरेअब कई-कई घंटे, कई-कई दिन, ऐसे ही दीवार के उस पार ज़ाहिदा के परिवार को सोचते-सोचते गुजरते जा रहे थे। मुन्ना भी अक्सर ऐसी रातों के इस गहन सन्नाटे में मेरे साथ होते। एक दिन उन्होंने कहा कि,यह घर तो अब बड़ा, बहुत ही बड़ा होता जा रहा है। पता नहीं अभी और कितना बड़ा होता जाएगा।'

उनकी इस बात में छिपे, उनके दर्द ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैं अपने को रोक नहीं सकी, कुछ देर चुप रहने के बाद कहा,'सुनो, अब यह घर और बड़ा नहीं होने दूँगी। जो सोचकर, जिस सपने के साथ इतना बड़ा घर बनाया, उसे उतना ही बनाए रखना है। न छोटा होने देना है,न बड़ा। अपना सपना पूरा करेंगे, बहुत से लोगों की तरह हम भी दो-तीन बच्चे गोद लेंगे।'

 'जूही! ...।'

 'देखो,मना मत करना। हम अपना सपना पूरा किए बिना ज्यादा दिन जी नहीं सकेंगे। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। वो क्या कहते हैं कि टेस्ट ट्यूब ,आई.वी.एफ. वगैरह सब देखा जाए तो एक जुआ ही हैं। डॉक्टर कहे रहे थे कि, कई-कई प्रयासों के बाद कहीं सफलता  मिलती है। कई बार तो वह भी नहीं। समय अब बहुत ज्यादा निकल चुका है। अब मैं और इंतजार नहीं कर सकती। बिल्कुल नहीं। अब मान लो मेरी बात।'

'लेकिन तुम तो पिछले हफ्ते सरोगेसी से बच्चे के लिए तैयार हो गई थी। मैं इसके लिए कोशिश में लग गया हूँ  ऐसी  किसी महिला के लिए, जो इसके लिए तैयार हो जाए।'

'नहीं, अब यह सब छोड़ो,इसमें भी बहुत झंझट है। दुनिया भर के उलझाऊ कानून हैं। कहां  ढूढेंगे किसी रिश्तेदार महिला को। भूल जाओ यह सब। अपना लेंगे छोटे-छोटे, दो-तीन बच्चे।ठीक है।'

मैंने अपनी बात पूरी दृढ़ता से कही थी,जिसे सुन कर वह कुछ देर सोचने के बाद बोले,'मुझे  भी यही ठीक लग रहा है। सच में तुम इस घर को फूलों सा महकाओगी। मैंने तुम्हें जूही नाम देकर वास्तव में जीवन में बड़ा काम किया है।'




उनकी सहमति सुन कर मैं खुशी से झूम उठी,उनसे लिपटते हुए मैं बोली, 

'एक और बड़ा काम किया है। मेरे साथ शैतानी-वैतानी करके।'

हम दोनों हंसे और फिर, फिर ...।'

बेनज़ीर के इस अर्थपूर्ण ''फिर'' को मैंने पूरा करते हुए कहा,   

'और फिर,... फिर शैतानी-वैतानी की।'

इसके साथ ही हम दोनों खिला-खिला कर हंस पड़े।

मैंने आगे पूछा,'तो कब अडॉप्ट किए बच्चे?'

'ऐसा है कि, यहां शादी रजिस्टर करवाने के कुछ समय बाद ससुराल से सभी को बुलाया। एक-एक व्यक्ति से रिक्वेस्ट की, कि सभी आएं। इन्होंने सभी के लिए रिजर्वेशन भी करवाया, लेकिन अम्मा-बाबूजी नहीं आए। बाकी सभी लोग आए। अम्मा ने कहा कि,'बेनज़ीर पूरा घर  नहीं बंद कर सकते न।' उनकी बात अपनी जगह सही थी। फिर यह योजना बनी कि, जब सब वापस चले जायेंगे, तब उन्हें अलग से बुलाएंगे। यही हुआ, लेकिन बहुत मुश्किल से। अम्मा-बाबूजी ने आते-आते आठ महीने का समय लगा दिया। जाहिर था कि, वह हमारे काम से बहुत खुश नहीं थे। 

आठ महीने तक हम उन्हें मनाते रहे, तब उनका मन पसीजा। आने के दो-चार दिन बाद ही वह जाने की बात करने लगे। लेकिन हम उनकी मिन्नतें कर-कर के उन्हें रोकते रहे। हमने उनका मान-सम्मान, सेवा ऐसे कि, जैसे हमारे मां-बाप ही नहीं भगवान भी हैं। जब उनका गुस्सा खत्म हुआ तो अम्मा जी ने एक दिन बच्चे की बात बड़ी गंभीरता से उठाई। उस समय मेरा ट्रीटमेंट चल ही रहा था। ट्रीटमेंट की बातचीत के दौरान ही मेरे मुंह से अचानक ही एबॉर्शन की बात निकल गई कि, 'उस समय जो कुछ लापरवाही डॉक्टर या जिससे भी हुई, जो भी दवाएं गलत या सही पड़ीं, उसी से यह समस्या खड़ी हुई।'

अबॉर्शन की बात सुनकर अम्मा-बाबू जी बहुत नाराज हुईं। कहा,'तुम लोग  एक के बाद एक मनमानी करते चले आ रहे हो,बताते तो कोई ना कोई रास्ता तो निकाल ही लेते। बच्चे को किसी भी सूरत में बचाते। ऐसी निष्ठुरता, निर्दयता नहीं दिखाते।'

वह मुन्ना से ज्यादा मुझ पर नाराज हुई थीं। कहा, 'वह तो मर्द है, तुम तो एक औरत हो। कैसे तुम्हारा हृदय इतना पत्थर हो गया कि, अपनी पहली ही संतान को इतनी कठोरता से खत्म करा दिया। एक बार भी तुम्हारा कलेजा कांपा नहीं। तुम्हें महसूस नहीं हुआ कि, वह फट जाएगा। अरे तुम लोग इतना आगे बढ़ गए थे, बताते तो मैं खुद ही दोनों की शादी करवा कर तुम्हें घर ले आती,कर लेती सारी दुनिया का सामना। तुम्हारी अम्मी से बात कर, चाहे जैसे उन्हें भी मना लेती। बेचारी कम से कम इस चिंता के साथ तो अंतिम सांस न लेतीं कि,बिटिया की शादी नहीं कर पाई। कैसे रहेगी दुनिया में अकेली।अरे तुम दोनों ने ये क्या कर डाला,हाँ..?'

यह कहते-कहते अम्मा रोने लगीं,थोड़ी ही दूर पर बैठे बाबू जी की ओर देखतीं हुई बोलीं,'बताओ इन दोनों ने हमारे पहले पोते को ही हमसे छीन लिया।'

मैंने देखा बाबू जी की आँखों में गुस्सा,आंसू दोनों चमक रहे थे। और उस समय मैंने अपने अब-तक के जीवन का सबसे बड़ा पछतावा महसूस किया। मेरे आंसू सावन की घनघोर वर्षा की तरह बरसने लगे। मैं सोचने लगी कि,अम्मा अगर ख्वाब में भी मुझे अहसास होता कि, तुम मुझे अपना लोगी, तो मुन्ना से पहले मैं ही तुम से बात कर लेती। अम्मा तुम्हें कैसे बताऊँ कि, मेरा कलेजा कितना फटा था। कितने टुकड़े होकर बिखर गया था। कितना रोया था। और आज उससे भी कितना ज्यादा रोता है। और शायद ऊपर वाले ने मुझे उस अक्षम्य गलती की सजा, भविष्य में बच्चे होने की सारी संभावनाएं खत्म करके दी है।

बच्चे को लेकर उस समय जिस तरह अम्मा के आंसू निकल रहे थे, उसे देख कर मुझे पूरा यकीन हो गया था कि, अगर अम्मा को मैंने सब बता दिया होता, तो उस समय वह भले ही मुझे हज़ार बातें सुनातीं, लेकिन अबॉर्शन तो किसी सूरत में न करवाने देतीं। वाकई मैंने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर डाली थी।'

इस समय बेनज़ीर बहुत भावुक हो गईं थीं ,उन्हें भावुकता से बाहर लाने के क्रम में मैंने बात आगे बढाते हुए कहा,'उन्हें आप लोगों के कामों से ज्यादा इस बात का दुःख, मलाल हुआ होगा कि, उनके बड़े बेटे की पहली संतान, उनका पहला पोता, बेटे-बहू की नासमझी के कारण उनसे छिन गया। उनके आंसू शायद इसी बात को चरित्रार्थ कर रहे थे कि, मूल से ज्यादा सूद,(ब्याज) प्यारा होता है।'

'नहीं,बिलकुल नहीं। मैं अम्मा-बाबू जी को जितना जानती हूं, उस हिसाब से मैं उनके लिए यह बात बिल्कुल नहीं मान सकती। सोच भी नहीं सकती। उन्हें सबसे बड़ा दुःख यही था कि, एक मासूम, निरीह जान, उनके बेटे-बहू की मूर्खता के कारण इस संसार में आने से पहले ही निर्दयतापूर्वक मार दी गई। खैर इस पर मैं और नहीं बोलना चाहती। यह बात सीधे मेरी आत्मा के घावों को कुरेदती है। मैं आगे की बात करती हूँ।

इस बातचीत के बाद अम्मा-बाबूजी बहुत मनाने पर भी चार दिन से ज्यादा नहीं रुके। इन चारों दिन उनके चेहरे पर हमने हल्की मुस्कान तक नहीं देखी। जबकि उसके पहले काम-धाम, हमारी योजनाएं सुनकर दोनों ही लोग खूब हंस, बोल-बतिया रहे थे। चारों दिन हम उनकी हंसी-खुशी दोबारा उनके चेहरे पर लाने के लिए यहां के एक-एक मंदिर,घाट,आरती सब दिखाते-घुमाते रहे। 

सनातन संस्कृति के प्रति बाबू जी के गहरे लगाव को ध्यान में रखते हुए मुन्ना उन्हें मणिकर्णिका घाट के सामने बने सदियों पुराने रत्नेश्वर महादेव मंदिर ले गए। उन्हें बड़े प्यार से दिखाते हुए बताया, 'पापा जी, ऐसा मंदिर इस दुनिया में दूसरा नहीं है, जो अपनी नींव पर एक तरफ नौ डिग्री से ज्यादा झुका हो। इसकी बनावट ,इसका शिल्प देख रहे हैं ,पत्थरों पर ऐसी अद्भुत आर्ट कि नज़रें हटाए नहीं हटतीं।'

इतना ही नहीं, मुन्ना ने उनके राजनितिक मूड को ध्यान में रखते हुए कहा,' पापा जी, यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं कि, चार डिग्री पर झुकी इटली की पीसा की मीनार को दुनिया जानती है,लाखों पर्यटक वहां पहुँचते हैं ,लेकिन उस मीनार से हज़ारों गुना ज्यादा आश्चर्यजनक इस मंदिर को अपने देस के लोग ही नहीं जानते ,मैं तो कहता हूँ कि, काशी ही के सारे लोग नहीं जानते होंगे। यह सैकड़ों वर्षों से यथावत है, जबकी कि साल के छह महीने           यह गंगा जी के पानी में ही डूबा रहता है। इसे आप यहाँ की सरकारों,इतिहासकारों , बुद्धिजीवियों या राजनीतिज्ञों की साजिश,मक्कारी,मूर्खता,मानसिक दिवालियापन,या क्या कहेंगे?'

मुन्ना ने बड़ी बुद्धिमानी,चतुराई से बाबू जी को खुलकर बोलने,बातचीत करने के लिए, धारा में लाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार रहा।

वह बड़े अनमने ढंग से इतना ही बोले,'यह सभी ज़िम्मेदार हैं। इस सनातन देश,इसकी सनातन संस्कृति की जड़ में मठ्ठा डालने का काम, देश की पहली सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने ही किया, और अब भी करती आ रही है...लोग पता नहीं कब देश को इस पार्टी से मुक्ति दिलाएंगे ।'

उनकी यह बात सुनकर मैंने सोचा, चलो बाबू जी का प्रोफ़ेसर वाला दिमाग अब खूब बातें कहेगा-सुनेगा। दोनों लोगों की मुस्कान लौटेगी, लेकिन हमारी सारी कोशिशें,हमारा ऐसा सोचना सब बेकार रहा,गलत रहा। दोनों लोगों के चेहरे पर उदासी बनी ही रही। 

घाव मेरे भी हरे हो गए थे, तो रह-रह कर आंसू मेरे भी अम्मा ही की तरह निकल आते थे। मुन्ना पर मैं दोहरी मार पड़ती देख रही थी। ऊपर से नॉर्मल, शांत बने रहकर सबको खुश करने की कोशिश, और खुद भीतर ही भीतर घुटते रहना।

अंततः हमने और भी ज्यादा जल्दी बच्चे की चाहत की, लेकिन जितनी जल्दी करती डॉक्टर उतना ही ज्यादा निराशाजनक बातें बताते। आखिर हम ऊब गए। निराश हो गये, तो हमने डॉक्टरों के पास जाना और उनके बारे में सोचना भी बंद कर दिया।

मगर अकेले हम रह भी नहीं सकते थे। तो यहां आने के तीन साल बाद दो लड़कियों और एक लड़के को अडॉप्ट किया। इसमें भी बहुत सी कानूनी झंझटों का सामना करना पड़ा। तमाम सोर्स, पैसा खर्च करने के बाद यह सब संभव हो पाया। यह तीनों बच्चे ढाई से तीन साल के बीच थे, जब इन्हें मैंने अपनाया।'

'आपको नहीं लगता कि, एक बार फिर इस संबंध में आप लोगों ने जल्दबाजी की। तब एज भी ऐसी कोई ज्यादा नहीं हो गई थी, फर्स्ट प्रेग्नेंसी या एबॉर्सन से कुछ ऐसी प्रॉब्लम तो नहीं हो सकती कि....।'

'नहीं, हमने कोई जल्दबाजी नहीं की । डॉक्टर ट्रीटमेंट के लिये जो समय बता रहे थे, हम उतना समय देना उचित नहीं मान रहे थे,क्योंकि कोई डॉक्टर उतना समय देने के बाद भी  सक्सेस की गारंटी नहीं दे रहा था। और न इतने लंबे समय तक मैं ढेरों दवाइयां खा-खा कर उनके साइड इफेक्ट से अपनी लाइफ हमेशा के लिए पेनफुल बनाना चाहती थी।

 इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि, इतने लंबे समय तक हम हर क्षण ऊहापोह की स्थिति, तनाव में जीते रहने को तैयार नहीं थे। हमने कहा बस बहुत हुआ। हम अपने डिसीजन,अपने तीनों बच्चों से बहुत खुश हैं। मेरा घर, मेरा जीवन, उनकी तोतली बातों, नटखट शैतानियों, उछल-कूद, उनकी मिश्री सी मीठी आवाज में मम्मी-पापा सुन-सुन कर सारी खुशियों से भर गया है।

'अद्भुत हैं आपकी बातें, आपके सिद्धांत, आपके प्रयास, आपकी मेहनत। बीते कुछ दिनों से मेरे मन में एक प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि, जैसा कि शुरू से आपने बताया कि घर के माहौल के कारण आपकी पढाई-लिखाई हो नहीं पाई, लेकिन आपकी बातचीत, शब्दों के प्रयोग, बातों के वर्णन से लगता नहीं कि, आपने पढाई नहीं की। बड़ा विरोधाभास है। '

'इतना ही कहूँगी कि,स्कूली पढाई-लिखाई न होने के बावजूद जो कुछ भी हूँ ,इसको पूरा श्रेय रोहित यानी मुन्ना को जाता है। पहली बार अंगूठा लगाकर सैलरी लेने के बाद से ही वह मुझे सिखाने-पढ़ाने के लिए पूरी गंभीरता से लगे रहे। यहां आने के बाद बकायदा तीन टीचर्स लगाईं ,जो मुझे हिंदी, इंग्लिश पढ़ाने के साथ-साथ अ'न्य बहुत सी व्यावहारिक बातें, काम सिखाती रहीं। इसके अलावा ऑनलाइन पढाई कराते रहे। तमाम एजुकेशनल यूट्यूब चैनल सर्च करके लिंक आज भी भेजते रहते हैं। जिन्हें पूरे ध्यान से मैं आज भी देखती हूं। मतलब कि पिछले कई वर्षों से वो बराबर मुझे पढा ही रहे हैं। बस ऐसे ही सीखती चली आ रही हूं।'

'अर्थात इतने दिनों से वह एक नई बेनज़ीर यानी जूही को गढ़ते आ रहे हैं। उस जूही को जो उनके जीवन को महका सके। एक बात बताइए बेनज़ीर से जूही, मुन्ना से रोहित, यह एक दूसरे का नाम बदलने के पीछे की कहानी क्या है?'

'असल में देखा जाए तो नाम किसी ने किसी का नहीं बदला। मुन्ना उनका निक नेम था, वही प्रचलित था। उनका वास्तविक नाम रोहित ही है। शादी के रजिस्ट्रेशन में भी उन्होंने मेरा नाम बेनज़ीर ही रखा है। हां प्यार से वह मुझे जूही ही बुलाते हैं। यह मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि जब वह बुलाते हैं, तो मुझे लगता है कि, जैसे मेरा नाम उनके हृदय से निकल कर आ रहा है। मैं उनके हृदय में बसी हुई हूं।'

'तो अब यह कह सकते हैं कि, काशी आकर आपने वह सब पा लिया जो-जो आपने चाहा, पति, बच्चे, मकान, स्टेबलिस बिजनेस सब-कुछ। अब आप दोनों के हर तरफ खुशियां ही खुशियां हैं। अब आप खुश हैं, संतुष्ट हैं।'

'नहीं, सब कुछ नहीं पा लिया। बिजनेस हम जैसा चाहते थे, वैसा नहीं हो पाया । कुछ समय पहले हमने महसूस किया कि, इस बिजनेस में हम सर्वोच्च पर पहुंच चुके हैं। इसलिए अब हम अपना यह बिजनेस बदल रहे हैं। हम होटल बिजनेस की फील्ड में जा रहे हैं। और यहां से गोवा शिफ्ट कर रहे हैं।'

'क्या! सब कुछ फिर से चेंज।'

'हाँ। निरंतर परिवर्तन तो प्रकृति का भी नियम है। जब-तक आपका यह नॉवेल प्रकाशित होगा । तब-तक हम लोग गोवा शिफ्ट हो चुके होंगे। सारी तैयारी हो चुकी है। यह मकान होटल में कन्वर्ट हो जाएगा। होटल रूम प्रोवाइडर एक बड़ी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन हो चुका है। गोवा में भी बिल्डिंग ले चुके हैं। उसी के एक हिस्से में रहेंगे और बाकी होटल रहेगा। उसके लिए भी इसी कंपनी से टाईअप हो चुका है।'

'यह अचानक काशी छोड़कर गोवा ही क्यों?'

'नहीं-नहीं , काशी कभी भी छोड़ कर नहीं जा रही। यहां यह होटल रहेगा। बराबर आना-जाना बना रहेगा। रही बात गोवा ही क्यों? दरअसल एक बार हम वहां घूमने गए थे। एक हफ्ते रहे वहां। जब मैं मोबाइल में समुद्र तट, वहां घूमते पयर्टक देखती थी, तभी से यह सब  रूबरू देखने की इच्छा थी। जैसे ही सब कुछ हमारे मनमाफिक हुआ, मैंने मुन्ना से अपनी यह इच्छा बताई। वह तो मेरी छोटी सी छोटी बात भी टालना नहीं जानते। भला यह बात कैसे टाल देते। सारी तैयारी की और चल दिए। हफ्ते भर में वहां कई मुख्य बीच पर गए। खूब मजा किया। वहां का कल्चर, टूरिस्ट, होटलों की स्थिति ने मन में इसी फील्ड में चलने के बीज बो दिए। लेकिन इसे हम अच्छी तरह जांच-परख लेना चाहते थे, तो वहां तीन बार गए-आए। इस सिलसिले में हम चेन्नई भी गए, वहां भी सी-बीच के होटलों को जाना-समझा। हमें होटल इंडस्ट्री एक ऐसी फील्ड के रूप में दिखी, जिसमें आगे बढ़ते जाने की कोई सीमा ही नहीं है। बस हमने ट्रैक बदलने का डिसीजन लेने में देर नहीं की।'

'निःसंदेह आप बहुत ही अग्रेसिव, ब्रेव, इमेजनरी वुमेन हैं। यह ट्रैक बदलने का डिसीजन अकेले आपका है या आप दोनों का ही?'

'निश्चित ही दोनों ही का कह सकते हैं। बिजनेस चेंज करना है, यह तो हम दोनों ही काफी समय से सोच रहे थे, बातें कर रहे थे। गोवा टूर पर एक दिन बीच पर बैठे सनसेट देख रहे थे। पूरा बीच पर्यटकों से भरा हुआ था। कोई फोटो खींच रहा था, कोई वीडियो बना रहा था। मुन्ना वीडियो बनाते-बनाते अचानक ही बोले,'यार ,यहीं अपना भी एक होटल बनाया जाए क्या?' बस उनका यही सेंटेंस इस काम की शुरुआत बन गया। मैं तो मानती हूं कि, ईश्वर ने चाहा तो हम काशी पहुंचे, उनकी इच्छा हुई तो कदम गोवा तक पहुंच गये।'

'तो प्रश्न यह भी उठता है कि गोवा में कब तक?'

'बड़ी सिंपल सी बात है कि, अब ऐसी फील्ड में आ गए हैं, जहां जितना आगे बढ़ जाएं उतना ही कम है। हमारा सपना हर शहर में होटल खोलने का है। हम इसी प्रयास में हैं, और इन सब का सेंटर,बिगनिंग प्वाइंट सदैव काशी ही रहेगी।'

'तो क्या अब यह कह सकते हैं कि आपने अपने मन का सब कुछ पा लिया, अब आपके जीवन में हर तरफ खुशी है।'

'नहीं...।'

'जी !'

'जी हाँ, यह सब बनावटी है। हमारे जीवन में कोई खुशी नहीं है, और ना ही हो सकती है। यह सब तो अपने दुख को छुपाने का एक क्षद्मावरण है,जिसे हमने बनाया है। हमें हर सांस में दिल को भीतर तक बेध देने वाली यह फांस चुभती रहती है कि, हमारी कोई बायोलॉजिकल चाइल्ड नहीं है।'

इतना कह कर बेनज़ीर ने गहन शांति ओढ ली। बड़ी देर तक मैं उनकी इस फांस की भी चुभन महसूस करता रहा। फिर निःशब्द कैमरा उठाया, कई तस्वीरें खींची। वह बड़ी सी खिड़की के शीशे से बाहर देख रही थीं,और आंसुओं से भरी उनकी आंखों में, अपने घर को चल पड़े सूरज की, सुर्ख केसरिया गोल छवि चमक रही थी ।

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                                                            प्रदीप श्रीवास्तव 


                                                               ई ६ एम २१२ 

                            सेक्टर एम अलीगंज ,लखनऊ -२२६०२४ 

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      उपन्यास :बेनज़ीर-दरिया किनारे का ख्वाब :प्रदीप श्रीवास्तव  

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