समीक्ष्य पुस्तक: दस द्वारे का पींजरा
लेखिका : अनामिका
मूल्य: 300 रुपये
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,
1-बी, नेता
जी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली
सदियों से अनसुनी आवाज़
-प्रदीप
श्रीवास्तव
नारी मुक्ति आंदोलन
का एक उत्कृष्ट आख्यान है ‘दस द्वारे का पींजरा’। रमाबाई एवं ढेलाबाई इन दो पात्रों के इर्दगिर्द घूमता यह उपन्यास सन् 1949 में विख्यात फ्रेंच लेखिका सीमोन द बोउवार द्वारा पीड़ित नारी समाज की कड़वी सचाई
उजागर करने वाली विश्व विख्यात पुस्तक जो हिंदी में ‘स्त्री उपेक्षिता’ के नाम से आई की याद दिला देती है। कई ऐसे ऐतिहासिक पात्र इस उपन्यास का हिस्सा
बने हैं जो देश की आजादी के संघर्षपूर्ण दिनों में विशेष रूप से नारी समाज के उत्थान
के लिए सक्रिय थे। इनमें स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर ज्योतिबा फुले, महादेव रानाडे, केशव चंद्र सेन भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर तक शामिल हैं।
नायिका रमाबाई एक उच्चकुलीन प्रगतिशील ब्राह्मण परिवार की कन्या है। बचपन से ही कुशाग्र
बुद्धि रमाबाई पौराणिक ग्रंथों शास्त्रों आदि का विशद अध्ययन करती है। हमेशा अन्याय
के खिलाफ स्वर उठाना उसकी प्रवृत्ति है। जातिगत आधार पर होने वाले अन्याय, स्त्री को कमजोर समझने,
उसके साथ होने वाले भेदभाव को वह किसी भी सूरत में सहन नहीं
कर पाती। उसकी इस प्रकृति को अपने पिता जो कि स्वयं रुढ़िवादी व्यवस्थाओं परंपराओं के
खिलाफ अभियान में लगे हैं जिसके चलते उन्हें ब्राह्मण समाज बहिष्कृत भी कर देता है
से और मजबूती मिलती है।
नारी समाज के प्रति
परंपराओं नीति आदि के नाम पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ उसके विद्रोही तेवर को
समाज का परंपरावादी वर्ग एक पल को भी बर्दाश्त नहीं करता, उसे समाज के नाम पर कलंक मानता है। बागी-तेवर के चलते कई बार उसकी जान के लाले
पड़े लेकिन रमाबाई इससे और भी दृढ़ता के साथ उठ खड़ी होती है। किशोरावस्था में ही एक बार
वह सती होने के लिए चिता पर बैठाई गई बाल विधवा को भारी भीड़ के बावजूद नीचे खींच लाती
है। भीड़ के क्रोध से उसे नायक सदाव्रत किसी तरह बचा लाता है। मगर इसके बावजूद वह प्रश्न
करती है‘ क्यों होगी वह सती, वह जीवित होता तो इसकी खातिर सता होता क्या!’ वास्तव में सती प्रथा के
सहारे नारी समस्या को लेकर उठाया गया यह वो प्रश्न है जो नारी समाज को दोयम दर्जे का
मानने वाली मानसिकता के लोगों से भेदभाव का कारण जानना चाहता है। नारी होना दोयम दर्जे
का होना कैसे हो गया?जब ईश्वर या प्रकृति ने उसे अबला नहीं बनाया तो पुरुष को उसे अबला बनाने का अधिकार
किसने दे दिया। नारी समाज को अबला से सबला बनाने उसे सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार
दिलाने के लिए रमाबाई का प्रयास व शोध समय के साथ जितना तेज होता जाता है उसका विरोध
भी उसी रफ्तार से बढ़ता है। अपने पिता के सहयोग से शास्त्रों का गहन अध्ययन कर अनगिनत
अकाट्य तर्क वह नारी को अबला बनाए रखने के समर्थकों के समक्ष रखती है कि शास्त्रों
में भी नारी को अबला नहीं माना गया है। लेकिन यह वर्ग उल्टे यह प्रश्न खड़ा कर देता
है कि रमाबाई नारी होकर यह सब कैसे पूछ सकती है। उसे समाप्त करने के नित नए जतन करता
है यह वर्ग। इस संघर्ष यात्रा के दौरान एक-एक कर उसके पिता, माता, भाई उसका साथ छोड़ दुनिया से असमय ही विदा ले लेते हैं। लेकिन रमाबाई का जातिगत
भेदभाव, नारीमुक्ति को लेकर संघर्ष और तीव्र होता जाता है। तत्कालीन बड़े-बड़े समाज सुधारकों
में से कतिपय को छोड़ कर उसे किसी से भी अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता। दूसरी तरफ उसका
बाल सखा और उसके संघर्षों का साथी बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन चला जाता है। इस बीच
परंपरावादी समाज यह जानकर और भी आग बबूला हो उठता है कि रमाबाई ब्राह्मण होकर भी गैर
ब्राह्मण सदाव्रत से ब्याह करेगी। रमाबाई के सामने आने वाली समस्याएं दरअसल तत्कालीन
समाज की तसवीर को मुकम्मल करती चलती हैं। एक तरफ जहां देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा
था और अंग्रेज सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को साम, दाम, दंड, भेद हर नीति से कुचल रही थी वहीं जातिगत भेदभाव मुक्त समाज, नारीमुक्ति के लिए भी संघर्ष चल रहा था जिसे अंग्रेजी सरकार की ही तर्ज पर रुढ़िवादी
सोच के लोग कुचलने में लगे थे। लेकिन रमाबाई जैसे पात्रों के सहारे यह आंदोलन अपनी
मंजिल की ओर बढ़ चला था। इस बीच सदाव्रत के लौटने पर रमाबाई उससे विवाह करके अपने अभियान
को और ताकत देने में जुट जाती है। लेकिन समाज उससे सदाव्रत को ही छीन लेता है। मगर
रमाबाई का संघर्ष फिर भी नहीं कता। अपने अभियान के लिए एक रास्ते एक प्रयोग के तौर
पर वह ब्रिटेन पहुंचती है और पादरी के सान्निध्य में ईसाई बन बाइबिल सहित अन्य ग्रंथों
का अध्ययन, विद्वानों से विचार-विमर्श कर अपने रास्ते पर आगे बढ़ना चाहती है। लेकिन उसे आश्चर्य
होता है कि कई मुद्दों पर तो फ़र्क़ यहां भी नहीं है। वह कहती है कि ‘नई राह पर चलकर देखा कि जाती कहां है तो पता चला, पुरानी वाली भी जाती वहीं थी।’ कमजोर वर्गों, नारी को लेकर बुनियादी तौर पर हालात एक से ही लगे।
उपन्यास की दूसरी
मुख्य पात्र ढेलाबाई एक मुजरेवाली है लेकिन क्रांतिकारियों की मदद से लेकर वह रमाबाई
की तरह स्त्रियों की मुक्ति के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करती है। इसके बावजूद समाज
उसे हेय दृष्टि से देखता है। इन दोनों ही पात्रों के माध्यम से उपन्यास इन प्रश्नों
के उत्तर चाहता है कि जब स्त्री सृजन कर सकती है। वेदों की ऋचाएं रच सकती है। संतान
उत्पत्ति , उसे पालने, संस्कार देने से लेकर आजादी के संघर्ष तक में योगदान दे सकती है। कोई ऐसा क्षेत्र
नहीं जहां वह सफलतापूर्वक प्रवेश न कर सके तो फिर उसे दोयम दर्जे का मानकर उसे तरह-तरह
के बंधन में रखने की जरूरत क्यों है। उसकी बातों को सुना क्यों नहीं जाता। रमाबाई स्वदेश
वापस आने पर 1889 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की सभा में बड़ी तल्खी के साथ सभा को संबोधित करते हुए
यही पूछती है ‘भाइयो माफ कीजिए, मेरी आवाज आप तक पहुंच नहीं पा रही है। सदियां बीतीं क्या कभी आपने किसी स्त्री
की बातें सुनने की कोशिश की? क्या आपने उसको इतनी ताकत दी कि वह अपनी
आवाज बुलंद कर सके?’ अनामिका ने रमाबाई के जरिए यह जो प्रश्न किए हैं पुरुष समाज से वह आज भी अपना उत्तर
मांग रहे हैं। स्त्रियों की दशा तमाम परिवर्तनों सुधारों के बावजूद आज भी पुरुषों जैसी
नहीं है। एक स्त्री होने के नाते उसकी जो पीड़ा छः सात दशक पहले थी उसमें कोई बड़ा फ़र्क़ नहीं आया है। प्रकृति सर्वगुण संपन्न
प्राणी बनाकर भेजती है लेकिन उसे स्त्री बना दिया जाता है। सीमोन द बोउवार के शब्दों
में ‘स्त्री पैदा नहीं होती,
बल्कि उसे बना दिया जाता है।’ सहज सरल भाषा में अनामिका
ने नारी मुक्ति आंदोलन के बीज पड़ने से लेकर उसके वट वृक्ष बनने की ओर बढ़ते रहने की
प्रक्रिया को बहुत ही खूबसूरती से लिखा है। उपन्यास अनामिका की गहन वैचारिक शक्ति, शोध और उनके श्रम का ऐसा प्रतिफल है जो भारतीय समाज का विशेष रूप से स्त्री समाज
का खाका खींचने में सफल है। जिसमें जातिगत व्यवस्था, स्त्री-पुरुष विमर्श सहित
बहुत कुछ देखा जा सकता है।
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