सोमवार, 19 नवंबर 2018

पुस्तक समीक्षा:कहानी संग्रह -'मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां'





                                                                                                                                                     
पुस्तक समीक्षा 
कहानी संग्रह -'मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियां'
लेखक -प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशन सहयोग -अनुभूति प्रकाशनलखनऊ
मूल्य -३५० रुपये
संस्करण -प्रथम 
पृष्ट ४६३
प्रकाशन वर्ष -२०१८                           

     सम्वेदनाओं का अद्भुत गुम्फन करता कहानी संग्रह       

               " मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियाँ "

                               - सुविधा पंडित

प्रथम प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने कहा था कि  "लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है। जो प्रगतिशील नहीं है वह लेखक नहीं है।

"भूमंडलीकरण, बाज़ारीकरण के इस दौर में लेखन में बदलाव भी लाज़मी है। प्रस्तुत कहानी संग्रह "मेरी जनहित याचिका व अन्य कहानियाँ " की कहानियों में प्रगतिशीलता व प्रयोगधर्मिता दोनों ही गुण दृष्टिगत हुए। मैं आलोचना को साहित्य का विवेक मानती हूँ।अतएव समीक्षक को अपना ज़मीर किसी रचनाकार या प्रकाशक के पास गिरवी न रख कर पाठक और समाज की ओर से आलोचना करनी चाहिए। समाज व साहित्य के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण रवैया व तटस्थता समीक्षक के सबसे आवश्यक धर्म हैं। इसी क्रम में कहूंगी कि उक्त संग्रह के कथाकार प्रदीप श्रीवास्तव एक बड़े फलक के कहानीकार के रूप में सामने आए हैं। इनकी कहानियों के विशाल कैनवास पर विस्तृत विश्लेषण अपेक्षित है, अन्यथा सीमित दृष्टिकोण से कहीं सन्दर्भ से इतर होने की संभावना है।एकाग्रता, श्रमसाध्यता, धैर्य, गहन छानबीन व दीर्घदृष्टि की आवश्यकता है।
संग्रह की प्रथम कहानी "मेरी जनहित याचिका" पूर्णरूपेण लेखक के
अंतर्द्वंद्व की निष्पत्ति है।यह एक साथ कई समस्याओं को वहन करती, कई संवेदनाओं के इर्द-गिर्द घूमते कई प्रश्न और हल लिए परिलक्षित होती है।
इसमें मानवता, जिजीविषा, ईमानदारी व मूल्यों को बचाये रखने का संघर्ष दृष्टिगोचर होता है, तो इसके समकक्ष मानवता विरोधी व मूल्यविरोधी परिस्थितियों को देखने की परख एवं विश्लेषण प्रक्रिया भी समानांतर चलती है। इन सबके परे देखें तो यह हमें आज की दुनिया का विद्रूप चेहरा दिखाती है, यथार्थ के साक्षात्कार भी कराती है। जैसे रेव पार्टियों व जिगोलोस के उपकथानक। " मैं कई दिनों से जिगोलोस के साथ रह रहा था। ... इसमे पैसा भी है, मज़ा भी है। जिगोलोस यानी पुरुष वेश्याओं के साथ।" यह समाज की विषैली गंदगी का यथार्थ है, जिसे पढ़कर मन में घिन्न, नफ़रत, और वितृष्णा पैदा होती है, किंतु है तो समाज का यथार्थ ही जो विवश करता है सोचने पर कि हमारी संस्कृति के पतन को कैसे रोका जाए?
इन कहानियों में जीवन की विविधवर्णी झांकियाँ दर्शित होती हैं, जो कभी ऊष्णता, शीतलता, तो कभी वसंत की मादक खुशबू का अहसास देती हैं।कभी रिश्तों में प्रेम व अपनत्व का चरम आंखें भिगो देता है, तो कभी रिश्तों में स्वार्थपरता पलकें गीली कर देती है। "मेरी जनहित याचिका " में पिता की बीमारी से द्रवित होकर...." मैंने तय कर लिया कि पढ़ाई हो न हो, बाबा को छोड़ कर नहीं जाऊंगा।।" वही वृद्ध , बीमार पिता का कहना कि "रात भर के थके होगे। बैठो मैं चाय बनाता हूँ, बाप के इस प्यार ने मेरा कलेजा ही निकल लिया।" दिल को छू जाने वाले संवाद हैं। कहानी में नाजायज़ रिश्तों से बाल मन पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाया है, तो कुछ विचित्र रिश्ते भी बन गए हैं, जो कहीं भी असहज नहीं लगते।
स्वीकार करना होगा कि इन कहानियों का कलेवर सागर सा अथाह फलक लिए है। जिसकी उत्ताल तरंगों पर मानवीय भावों का डूबता-उतराता नर्तन पाठक को भरपूर रस का आस्वाद कराता है।

यथा कहानी " हनुआ की पत्नी " में थर्ड जेंडर की पीड़ा को सशक्त ढंग से उजागर किया है..." यह प्यार वह जाल है,वह छद्म आवरण जो शिकारी अपने शिकार को फंसाने के लिए फैलाता  है। " जीवन की अंतिम हक़ीक़त मृत्यू को मार्मिकता से दिखाया है। "शकबू की गुस्ताखियाँ " में ..." शाज़िया अब थी कहाँ, अब तो उसकी मिट्टी थी। " स्वार्थ व धोखे की पराकाष्ठा को  "शेनेल लौट आएगी "  में सहज अभिव्यक्ति दी है जो क्षुब्ध कर देता है.. .. "याद आते है साथ बिताए ख़ूबसूरत पल। तब अनायास ही मुँह से निकल पड़ता है शेनेल.....।" कहानियों के दौरान नाटककार क्रिस्टोफर मारलो, ईव इंसलर के वजाइना मोनोलोग ड्रामा आदि का ज़िक्र उनकी अध्ययनशीलता का परिचायक है।लेखक की विविधमुखी अध्ययनशीलता ही उसे सक्षम लेखक बनाती है।सामाजिक ,राजनैतिक विषमताओं पर भी लेखक ने अपनी कलम की तेज धार का प्रहार किया है। कहानी " मेरी जनहित याचिका " में डावरी  एक्ट के औचित्य  पर प्रश्न खड़ा कर कानून को आड़े हाथों लिया है " अभी दहेज एक्ट जैसा अंधा,निरंकुश,एकपक्षीय एक्ट नही है जो दूसरे पक्ष की सुने ही न।पूरा परिवार तहस-नहस कर देता है। " विकासशील समाज में औरत की व्यथा-कथा आज भी वही है। "झूमर " कहानी में घिनौने सच देखिए.." क्लाइंट्स के पास जाती तो उनमें से बहुतों की  लपलपाती ज़बान  से अपने लिए लार टपकती देखती।"  " करोगे और  कितने टुकड़े " में राजनीति पर करारे व्यंग्य हैं..."नए सिपाही हो ,क्यों देश की खूंखार ,निर्लज्ज  तानाशाही से लोहा लेने में लगे हो।" लेखन की महत्ता को भी प्रदीप श्रीवास्तव जी ने खूबसूरती से उजागर किया है..."तुम्हारी लेखनी से उसके भीतर उपजा आक्रोश उससे सब करा लेगा। "


लेखक ने धर्म परिवर्तन व दलित विमर्श को भी अपनी कहानी में शरीक किया है,आरक्षण के विषय  में उपाय सुझाया है कि एक ही परिवार को दो से अधिक बार ये मौका न दिया जाए तो सभी लोगों  को आरक्षण का यथोचित लाभ मिल सकता है।ऐसे मौलिक सुझाव ही उनकी कहानियों को सार्थक  सिद्ध करते हैं।आत्मिक प्रेम की पराकाष्ठा का उदाहरण उनकी पहली कहानी से..." वह और मैं दो शख़्स न होकर इतना मिल जाएं कि दो व्यक्तित्व विलीन होकर एक व्यक्ति हो जाएँ । "  "पगडंडी विकास "  में दया,मानवता जैसे मूल्यों को प्रतिष्ठित किया है तो  " जब वह मिला " में नास्तिक से आस्तिक बनने व स्वार्थपरता, हृदयहीनता से दूसरों की खुशी में खुशी ढूंढने की यात्रा का मार्मिक कथानक है।इस संग्रह की समस्त कहानियों में औत्सुक्य,रोचकता,कौतूहल , अतिरंजना,अद्भुत कल्पनाशीलता के साथ यथार्थ का धरातल व मूल्यों का सामंजस्य भी है।इन्हें न पढ़ना हमारे बौद्धिक विकास को संदिग्ध बनाएगा।
कहानियों में शब्दों के सामर्थ्य व वैभव के साथ भाषा की सरल प्रवाहमयता कहीं भी उलझन पैदा नहीं होने देती और दोबारा नहीं पढ़ना पड़ता कुछ भी।भाषा का सम्मोहन ही है कि पाठक बिना अटके पढ़ता चला जाता है।

"आँसू ऐसे झरने लगे जैसे बादल फट पड़ा हो।"
 एक बात जो कही जानी चाहिए वह यह कि कम शब्दों में अधिक कह देना साहित्यकार का अपरिहार्य गुण होना चाहिए और कहानी के कथानक में विषयवस्तु से सम्बद्ध न होने वाले अनावश्यक उपकथानकों से कथाकार को बचना चाहिए।कहानीकार को ये दोनों अभ्यास से सीखने की आवश्यकता है।कहीं कहीं कहानियों में कुछ ऐसे संबंधों को लिखा गया है जो समाज में स्वीकार्य नहीं हैं तथा संस्कृति व संस्कारों का ऐसा अशनिपात दिखाया है जो विचार श्रृंखला को झकझोर देता है।मैं यह बेबाकी से कहना चाहती हूँ कि साहित्य समाज के हित में होना चाहिए,अहितकारी नहीं।अतः अजीबोगरीब,अमर्यादित,उच्श्रृंखल यौन सम्बन्ध साहित्य में न हो तभी समाज को ऊर्ध्व दिशा मिलेगी।

निष्कर्षतः सम्वेदनाओं की गंध,सूक्ष्म भावों की महक , दर्द और खुशी की धड़कनें सब इन कहानियों के दिल में बसे जान पड़ते हैं।कहानी प्रेमियों को संतुष्ट करने में  यह संग्रह सफल होगा और सराहा जाएगा। मैं प्रदीप जी को इसके लिए अशेष शुभकामनायें देती हूँ।

                                                                                             सुविधा पंडित                                                                                            पता :-  १५५ /बी सरदारनगर
शास्त्री स्कूल के पास
तलावड़ी सर्कलअहमदाबाद-382475 (गुजरात )
मो: 9429634785,
 इ-मेल. suvidhapandit77@gmail.com

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