समीक्ष्य पुस्तक: यार जुलाहे
संपादन: यतींद्र मिश्र
प्रकाशन: वाणी प्रकाशन
21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य:रु=195/-
'यार जुलाहे संवेदना और जीवन आनंद'
संपादन: यतींद्र मिश्र
प्रकाशन: वाणी प्रकाशन
21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य:रु=195/-
'यार जुलाहे संवेदना और जीवन आनंद'
प्रदीप श्रीवास्तव
‘मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे, छुप जाउंगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे।’ 1963 में बंदिनी फ़िल्म के लिए गुलज़ार का लिखा यह पहला फ़िल्मी गीत आज भी सुनने वाले का मन मोह लेता है। सहज सरल शब्दों का ऐसा उत्कृष्ट संयोजन शैलेंद्र, प्रदीप के बाद गुलज़ार में दिखाई दिया। उनका यह हुनर उन्हें शैलेंद्र, प्रदीप के पाए का गीतकार कहने को उत्साहित करता है। इसे संयोग ही कह सकते हैं कि शैलेंद्र के कहने पर ही उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने का अवसर मिला। फिर इसके बाद गुलज़ार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनका यह सफर 2008 में ‘जय हो’ के लिए संगीतकार रहमान के साथ ऑस्कर पुरस्कार मिलने के बाद भी जारी है। पांच दशकों का उनका लेखन बहुआयामी है, मगर उसकी रवानी में कोई कमी आई हो पढ़ने पर ऐसा प्रतीत नहीं होता। हां उसके आद्योपांत पुनर्पाठ की इच्छा जरूर बलवती हो उठती है। और फिर उनकी रचनाओं के एक मुकम्मल संकलन की जरूरत पड़ती है जिसे ‘यार जुलाहे’ नामक उनकी चुनिंदा रचनाओं का एक उम्दा संकलन पूरा करता है। जिस प्रकार गुलज़ार के संघर्षमय जीवन के कई शेड हैं, वैसे ही इस संकलन में उनकी विभिन्न प्रकार की रचनाएं हैं। नज़्म है तो ग़ज़ल, कविता भी है। उनकी रचनाओं में आप नानक, बुल्लेशाह आदि संत महात्माओं के भी अक़्स देख सकते हैं।
‘मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे, छुप जाउंगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे।’ 1963 में बंदिनी फ़िल्म के लिए गुलज़ार का लिखा यह पहला फ़िल्मी गीत आज भी सुनने वाले का मन मोह लेता है। सहज सरल शब्दों का ऐसा उत्कृष्ट संयोजन शैलेंद्र, प्रदीप के बाद गुलज़ार में दिखाई दिया। उनका यह हुनर उन्हें शैलेंद्र, प्रदीप के पाए का गीतकार कहने को उत्साहित करता है। इसे संयोग ही कह सकते हैं कि शैलेंद्र के कहने पर ही उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने का अवसर मिला। फिर इसके बाद गुलज़ार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनका यह सफर 2008 में ‘जय हो’ के लिए संगीतकार रहमान के साथ ऑस्कर पुरस्कार मिलने के बाद भी जारी है। पांच दशकों का उनका लेखन बहुआयामी है, मगर उसकी रवानी में कोई कमी आई हो पढ़ने पर ऐसा प्रतीत नहीं होता। हां उसके आद्योपांत पुनर्पाठ की इच्छा जरूर बलवती हो उठती है। और फिर उनकी रचनाओं के एक मुकम्मल संकलन की जरूरत पड़ती है जिसे ‘यार जुलाहे’ नामक उनकी चुनिंदा रचनाओं का एक उम्दा संकलन पूरा करता है। जिस प्रकार गुलज़ार के संघर्षमय जीवन के कई शेड हैं, वैसे ही इस संकलन में उनकी विभिन्न प्रकार की रचनाएं हैं। नज़्म है तो ग़ज़ल, कविता भी है। उनकी रचनाओं में आप नानक, बुल्लेशाह आदि संत महात्माओं के भी अक़्स देख सकते हैं।
वास्तव में देखा
जाए तो गुलज़ार की प्रकृति मूलतः वीतरागी सी लगती है। लेकिन जब वह ‘छैयां-छैयां’, ‘कजरारे-कजरारे’ जैसे फ़िल्मी गीत लिखते हैं तो लगता है बेहद मस्त तबियत इंसान हैं। वास्तव में गुलज़ार
ने जो जीवन देखा, समझा, जीया और जी रहे हैं उससे प्रकृति का वीतरागी हो जाना संघर्ष को सहजता से लेने का
स्वभाव बन जाना आश्चर्य में नहीं डालता। गुलज़ार का जन्म दीना, पाकिस्तान में हुआ था। विडंबना देखिए की जब वह ‘दो माह के दुध-मुंहे बच्चे
थे तभी उनकी मां उन्हें छोड़ कर चली गई। पिता ने दो शादियां की थीं और गुलज़ार नौ भाई
बहनों में चौथे नंबर पर थे मगर मां-बाप के प्यार-स्नेह से दूर, और जब किशोरावस्था की दहलीज पर पहुंचे तो मुल्क का बंटवारा हो गया। जन्म-भूमि छोड़
जान बचाकर भागना पड़ा और परिवार के कई सदस्य बिछड़ गए। ऐसा वक्त भी आया जब पिता, बड़े भाई ने उन्हें पढ़ाने लिखाने से मना कर दिया और वह दिल्ली में एक पेट्रोल पंप
पर काम करने लगे। यहीं उनका कवि हृदय मुखर हो उठता है। उन्होंने हिंदी, उर्दू, बांग्ला, पर्शियन जैसी भाषाओं पर मजबूत पकड़ बनाई। उर्दू में टैगोर और शरत चंद की रचनाओं
के बेहतर अनुवाद ने उन्हें एक राह दिखाई आगे बढ़ने की। उन्होंने एक फ़िल्मकार, गीतकार, संवाद लेखक व साहित्यकार के रूप में आज जो मुकाम बनाया है वह किसी तपस्या से कम
नहीं है। अपनी तपस्या के दौरान जब वह बचपन याद करते हुए दीना पर ध्यान लगाते हैं तो
बहुत भावुक हो दीना में...,
भमीरी, खेत के सब्जे में जैसी मार्मिक रचनाएं रचते
हैं। लेकिन ध्यान जब इससे इतर बदले परिवेश पर लगाते हैं तो एक दम वीतरागी हो सूफियाना
अंदाज में लिखते हैं ‘मर्सिया’ जैसी रचना ‘क्या लिए जाते हो तुम कंधो पे यारों, इस जनाजे में तो कोई नहीं है, दर्द है कोई, न हसरत है, न ग़म है मुस्कुराहट की अलामत है न कोई आह का नुक़्ता और निगाहों की कोई तहरीर न
आवाज़ का कतरा क़ब्र में क्या दफ़्न करने जा रहे हो।’
गुलज़ार की निगाहें
चिमटा, उपले से लेकर वनों की बेइंतिहा कटाई तक पर जाती है। बानगी स्वरूप एक उदाहरण देखिए
- ‘जंगल से गुजरते थे तो कभी बस्ती मिल जाती थी। अब बस्ती में कोई पेड़ नज़र आ जाए तो
जी भर आता है।’ उनकी रचनाओं में बिंब कहीं से भी आ सकते हैं। तंदूर से लेकर तवा तक से। इतना ही
नहीं गुलज़ार ने अपने मित्रों, शुभचिंतकों पर भी रचनाएं लिखी हैं। ख़ासतौर
से फ़िल्मी दुनिया के विमल रॉय, पंचम दा, सलिल चौधरी को उन्होंने
बहुत ही सम्मान से याद किया है। इन बातों से यह कतई न सोचे कि गुलज़ार केवल वीतराग या
संजीदा रचनाएं ही रचते हैं। उनकी रचनाओं में प्रेम का भी राग है, जीवन का उछाह भी है, आनंद भी है। और जय हो जैसी रचनाएं भी। तो जिस प्रकार तमाम शेड की रचनाएं की हैं
गुलज़ार ने, ‘कुछ वैसी ही कुशलता से साहित्यकार यतींद्र ने उनकी ढेरों रचनाओं में से हर तरह
की चुनिंदा रचनाओं का यह संकलन ‘यार जुलाहे’ तैयार किया है जो गुलज़ार की रचनाओं की ही तरह लाजवाब है। पूरा संग्रह गोपी गजवानी
के रेखांकन से और भी रोचक बन गया है। कुल मिला कर यह कहने में कोई गुरेज नहीं होनी
चाहिए कि गुलज़ार सा शब्दों का चितेरा जल्दी-जल्दी नहीं मिलता। वास्तव में हम न उन्हें
खालिस उर्दू के खांचे में रख सकते हैं और न ही हिंदी। सही मायने में वह हिंदुस्तानी
भाषा के रचनाकार हैं। शब्दों का चयन कभी वह भाषा की हद में रह कर नहीं करते। अभिव्यक्ति
के लिए जिस शब्द की जरूरत जहां समझते हैं वहां निःसंकोच करते हैं, यह सोचे बिना कि वह किस भाषा का है। इसी लिए वह आमजन हो या खास पढ़ने वाले सभी के
दिलों दिमाग पर अपना प्रभाव डालते हैं। इस नुक़्ते नज़र से देखें तो ‘यार जुलाहे’ बेहद उम्दा संकलन है। यतींद्र मिश्रा ने इसे संकलित कर निश्चित ही काबिले तारीफ
काम किया है।
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पता-प्रदीप
श्रीवास्तव
ई६एम/२१२सेक्टर
एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२,९९१९००२०९६
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