समय की नब्ज़ पर हाथ
कहानियाँ जिसे कथाकार ने अपनी शिल्पकला के साथ कुछ इस तरह शब्दबद्ध किया
है कि आम ज़िन्दगी में कई तहों में बुनी हुई समस्याओं से रूबरू होता है पाठक.
पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, और मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर
केन्द्रित ये कहानियाँ पाठक को चौंकाती हैं तो कई बार नि:शब्द भी कर देती है. पीढ़ी
दर पीढ़ी जमीन, खेत संग अपनापन भी बंटता चला जाता है
और ज़िन्दगी से विरक्त हुए शहरी मध्यमवर्ग महंगाई, दहेज़, शिक्षा, बेरोजगारी आदि कठिनाइयों के
बीच नट सा संतुलन बनाने की जुगत में खो रही संवेदना, बढ़ती अराजकता, स्वछंदता, अनैतिकता को रेखांकित करती
हैं ये कहानियाँ.
दस बेहद लम्बी लम्बी कहानियाँ समेटे 464 पन्नों की यह पेपर बैक मोटी
पुस्तक पाठक के मर्म को छूती, उसको सोचने पर मजबूर कर देती
है. प्रदीप बहुत ही सहजता के साथ कहानी का वातावरण बुनते हुए विषय में प्रवेश कर
जीवन की आम घटनाओं को पिरोते हैं. सुख दुःख,
प्रेम त्याग
आदि रूप में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हुए जीवन बाज़ारवाद, राजनीती, कुप्रथाओं, सामाजिक मान्यताओं के मकड़जाल में फँसा महसूस होता है.
पुस्तक की पहले के सवा सौ पन्नों की कहानी “मेरी
जनहित याचिका” बताती है कि कानून का दुरूपयोग अच्छे
खासे परिवार को किस तरह तोड़ कर बिखेर देता है. शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलती यह
कहानी सामाजिक वर्ण व्यवस्था के चंगुल में फंसे प्रतिभावान पात्र ज़िन्दगी के कड़वे
अनुभवों, कश, मय
और सेक्स रैकेट के दलदल में धंसते हुए भी सब कुछ सुधार देने का स्वप्न आँखों में
पालते जीते हैं मरते हैं.
एक दृश्य में सिमटी आत्मालाप की शैली में रुसी कथाओं की याद दिलाती दूसरी
कहानी “पगडण्डी विकास” में लेखक के सृजनकर्म में विचार और संवेदनाओं का गहरा रिश्ता
दिखता है. चित्रात्मक शैली में दिल्ली और महोबा की सर्दी का वर्णन तथा सीधी सरल
बीवी का दब्बू और डरपोक पति को हिदायतें सरस व् सहज है. देश की राजनीति पर लेखक की
पैनी नजर दो पात्रों के कसी हुई बहस के माध्यम से व्यक्त होती है जिसमें पाठक पढ़ते
पढ़ते खुद भी तीसरे पात्र के रूप में उलझ जाता है. गाँधी जी का जो “देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा” सन्दर्भ दिया है उसपर और चिंतन की आवश्यकता है. लेखक द्वारा “पगडण्डी विकास” की अवधारणा बेहद तार्किक है.
कहानी “जब वह मिला” में दोस्ती की खातिर, बीवी का प्रेम और परिवार में
सबकी ख़ुशी की खातिर नायक क्या नहीं कर सकता ! मगर यह ख़ुशी का दायरा अपनों से कहीं
आगे निकल गया. बेहद सरल शब्दों में यह कहानी प्रवाहमई है. पति पत्नी के बीच मीठी
चुहलबाजी संग कुछ दिलचस्प दृश्यों को लेखक ने रचकर धन के बल पर चलने वाली व्यवस्था
पर कुठाराघात करते हुए लाश पर होते खेल की अतिशय संवेदनहीनता बयां की है.
कहानी “करोगे कितने और टुकड़े” में पात्र एक ख्यातनाम लेखक है जिसके एकालाप में सारी कहानी
सिमटी हुई है जो पाठक की विचारधारा को परिष्कृत करती है कि वह लेखक के साथ है या
विपक्ष में. पर इसी बहाने ‘भारत माता’ की कल्पना तथा उनसे वार्तालाप द्वारा देश की राजनीति और
साहित्यकारों के कर्तव्यों पर कई तथ्यों का खुलासा अच्छी खासी बहस के रूप में है.
लेखक की विचारधारा से असहमत होते हुए भी कथावस्तु ने उन बहसों में उलझा लिया मुझे.
साहित्यकार का कर्तव्य बेशक समाज को, लड़खड़ाती राजनीति को राह दिखाना है मगर सच बात तो यह है कि उसके
विचार निष्पक्ष दिखने भी चाहिए. पात्र अपनी लालसा, “विराट
उपन्यास को जग प्रसिद्धि”, के लिए कायरता भरा कदम उठाता
है ! कथाकार का मंतव्य स्वागतयोग्य है कि लेखक को बोलने की हिम्मत जुटानी होगी, उसकी जिम्मेदारी के अहसास को, उसके
हिम्मत को दर्शाती है ये कहानी है.
स्त्री पुरुष के अंतर्संबंधों में आए बदलावों के परिणामस्वरूप एक स्त्री
के संघर्षों की कहानी है “झूमर”. यह कहानी है तलाक के लिए अदालती चक्कर, भरण पोषण देने से बचने के लिए पुरुष की नीचता के हद तक गिरने
की. वकीलों की लिजलिजी आँखों की व किसी भी तरह पैसे ऐंठने की है कहानी झूमर. झूमर
कहानी है उस स्त्री द्वारा इन सबसे लड़कर
आगे निकल अपनी बेटी को लाड प्यार से पालने पढ़ाने की, समाज
का सामना करने को तैयार करने की. सहज भाषा में बारीक वर्णन पाठक को सीधे दृश्य पर
ला खड़ा करता है. एक संतान हो जाना स्त्री को विवाह में इतना जकड़ देता है कि झूमर
कह उठती है, “मैं इधर की रही न उधर की !”
“घुसपैठिये से आखिरी मुलाकात के बाद” कहानी में केंद्र बिंदु के विषय से इतर वातावरण को भी विस्तार
दिया है जिससे नायक की मनःस्थिति का खाका खिंच जाता है. अख़बारों में प्रबंधन का
हस्तक्षेप, ख़बरों से ज्यादा विज्ञापनों पर जोर, सत्ता और मिडिया का गठबंधन आदि की विवेचना यथार्थ एवं प्रभावी
है. उत्तम पुरुष में लिखी गई यह कहानी बताती है कि पति का सरनेम , पति की धौंस, पति पर निर्भरता महानगर की
इन महिलाओं के लिए बीते दिनों की बात हो गई. यहाँ तक कि विवाहेतर सम्बन्ध बनाने
में भी ये पुरुषों से पीछे नहीं हैं. एक बार फिर कहना होगा चित्रात्मक शैली ने मन
मोह लिया. वो मूसलाधार बारिश, वो झोपड़ी, वह बाइक की स्थिति सब जैसे आँखों के सामने घट रहा हो.
बंगलादेशी घुसपैठियों की ख़बर से कहानी में दिलचस्प व चौंका देने वाला मोड़ आ जाता
है. नायक की असमंजसता भरी मन:स्थिति पर कहानी का अंत कर देना पाठक के लिए
विचारोत्तेजक हो जाता है. हर परिस्थिति को अपनी सुविधानुसार मोड़ मरोड़ लेने वाला यह
नायक अचानक इतना देशप्रेमी कैसे हो गया?
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कविता 'मुखर' |
विकास के नाम पर आई बाज़ारवाद की आँधी में टूटते परिवार की कहानी ‘बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा’ में
पिरोई हुई यह स्त्री पात्र ‘बिल्लो’ पूरी दबंगता से दिल-ओ-दिमाग पर छा जाती है. ‘अहा ग्राम्यजीवन’ में विकास की घुसपैठ के
बावजूद लेखक ने साफ किया है कि मेहनतकश के लिए गाँव में रहना अधिक आनंदकारी तथा संतोषजनक
है. यह भी कि पूर्वाग्रहों से एक शहरी किसी ग्रामीण के तुलना में अधिक ग्रसित है.
एक परिवार, माता पिता कैसे अपने जिगर के टुकड़े
से मात्र इसलिए मुख मोड़ लेते हैं क्योंकि उसका शरीर सामान्य लिंगवर्ग का नहीं है, थर्ड जेंडर का है. थर्ड जेंडर के मुद्दे पर जहाँ शायद ही कभी
कोई गिना चुना साहित्य मिलता है. कहानी, “हनुवा की पत्नी” पाठक को समाज के इस अभिन्न अंग के प्रति समाज के दोगले रवैये
से परिचित कराती है . महानगर में मध्यमवर्गी परिवार के लिए जहाँ बाजारवाद, कुप्रथाओं व सामाजिक मान्यताओं से जीना जटिल हुआ जाता है, किराये का घर और बच्चों की पढ़ाई तक के लिए जद्दोजहद हो फिर
शादी ब्याह तो दूर की कौड़ी हो जाता है. इन सभी चक्कियों में पिसती युवा पीढ़ी
बेरोजगारी के धक्कों ही में पल बढ़ रही है. ऐसे में लड़की होना स्थितियों को बदतर कर
जाता है . फिर हनुवा के दुख दर्द की तो इन्तहां ही हो गई. संघर्षशील जीवन के
विभिन्न मोड़ पर बार बार अपना पूरा व्यक्तित्व बदलती हुई हनुवा को पहाड़-से दुःख के
बीच अपना खोया हुआ पुराना अस्तित्व ही फिर से नहीं मिलता बल्कि साथ एक पत्नी भी
मिलती है. पूरी कहानी में सागर मंथन से निकले मक्खन की तरह खूबसूरत इंसान निकल कर
आते हैं.
“शकबू की गुस्ताखियाँ” के माध्यम से दो दोस्तों की यारियां, जीवन के उतर चढ़ाव, अच्छे बुरे में बिना किसी
पूर्वाग्रह के , बेशर्त प्रेम दिखाया है. दो अलग अलग
धर्म के लोग भी कितने प्रिय दोस्त हो सकते हैं,
यह कहानी एक
उत्तम उदाहरण है. मन की बेलगाम इच्छाएं धर्म व् कानून को हथियार रूप में प्रयोग
परिवार को बर्बाद कर देता है, आँखों की शर्म ख़त्म हो जाती
है, ज़िन्दगी जहन्नुम हो जाती है और आदमी
तिलतिल मरता है. कहानी सियासी चालों द्वारा भारतवंशियों को बाँट दिए जाने , रंजिशों के बीज बो दिए जाने की ओर इंगित करती है. मुस्लिम
दोस्त की छह पीढ़ियों का ‘सच’ उजागर करना गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा है . उस तरह से तो हम सबकी
जड़ अफ्रीका के आदम तक और उससे भी आगे एकल कोशिका तक चली जाएगी .
पारिवारिक तानेबाने को तोड़ स्वच्छंद जीवन जीते एक जवान की कहानी “शेनेल लौट आएगी” में यह समझना बड़ा ही मुश्किल
हो जाता है कि कौन लुटा और कौन लुटेरा. कहानी का अंत दिलचस्प. पाठक के जहन में
पूरी कहानी दोबारा घूम जाती है.
गंभीर कथावस्तु को संप्रेषित करने के लिए आम बोलचाल की भाषा सर्वोत्तम है.
रोजाना की ज़िन्दगी में एक आम व्यक्ति तह दर तह कई समस्याओं से एक साथ जूझता कैसे
दिन बिताता है यह बात पाठक के जहन में मक्खन की तरह उतरती जाती है. पुस्तक की
प्रमुख खासियत यह है कि अधिकांश कहानियों के मुख्य किरदार में एक सशक्त नायिका है.
दूसरी मुख्य बात कि चंद पंक्तियों ही में इतने सारे मोड़ , इतनी सारी बातें होती हैं कि पाठक कई मोर्चों पर लामबंद होता
जाता है. इन कहानियों के माध्यम से आज के समाज का सबसे कड़वा पक्ष जो सामने आया है
वह आज के युवा का पूरी तरह बिगड़ा होना भी कितना सामान्य है. नायकों में वे सारी ‘खूबियाँ’ हैं. बाइक, स्पीड, शराब, सिगरेट, अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध फिर
भी सामाजिक स्वीकारिता ! और हाँ, ये ‘खूबियाँ’ लड़के लड़कियों के भेदभाव से
परे समान रूप से हैं . जिस प्रकार से असंख्य मुद्दों को लेखक ने इस पुस्तक में
समेटा है, इसे एक बेहद जटिल पुस्तक हो जानी
चाहिए थी, परन्तु सरल भाषा और बोधगम्यता के
कारण पाठक को वो सारे समीकरण न सिर्फ आसानी से समझ आते हैं बल्कि अत्यंत रुचिकर भी
बन पड़े हैं. सुना है कि असली भारत देखना हो तो गांवों में जाओ, यह पुस्तक “मेरी जनहित याचिका एवं अन्य
कहानियाँ” पढ़ कर लगा कि मात्र गांवों में जाने
से नहीं होगा, अच्छी किताबें अधिक मददगार होती हैं !
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक - मेरी जनहित
याचिका एवं अन्य कहानियाँ
लेखक – प्रदीप श्रीवास्तव
मुल्य – 350/-
प्रकाशक – प्रदीप श्रीवास्तव,
ई -6 एम/212, सेक्टर ‘एम’, अलीगंज, लखनऊ 226024
संस्करण – 2018 , पेपर बैक
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