दीवारें
तो साथ हैं
- प्रदीप श्रीवास्तव
पति को घर से गए
कई घंटे हो गए थे। अब बीतता एक-एक क्षण मिसेज माथुर को अखरने लगा था। वैसे भी लंबे
समय तक ऊहापोह की स्थिति में रहने के बाद बड़ी मुश्किल से पति-पत्नी दोनों मिलकर ही
यह निर्णय ले पाए थे कि बस बहुत हुआ, नहीं रहना
अब इस घर में। बड़े ही भारी मन से लिया था दोनों ने यह निर्णय, कलेजा मुंह को आ गया था जब यह निर्णय लिया।
वो करते
भी क्या, कोई और रास्ता भी
तो नहीं सूझ रहा था उन्हें। अन्यथा जीवन भर की कमाई लगा कर बनाए गए अपने सपनों के आशियाने
को छोड़ना कौन चाहता है। जीवन में न जाने कितने सुख-दुख भरे पल जो जिए उन्होंने वह सब
इसी मकान की दीवारों, कोनों में
ही तो कहीं पैबस्त हैं। नज़र डालने पर उन्हें उन दिनों के हंसते-खिलखिलाते परिवार की
आवाजे़ं सुनाई देने लगती हैं। लेकिन वक़्त ने कैसे चंद बरसों में ही बदल दिया सब कुछ।
कि अब इसे छोड़ कर कहीं और ठिकाने की तलाश करनी पड़ रही है। बुढ़ापे में पति आज आठवें
दिन भी चार घंटे से न जाने कहां भटक रहा है। फ़ोन करने पर ‘आ रहा हूं’ कह कर काट दे रहा है। न जाने क्या बात है।
उनके उधेड़बुन की यह श्रृंखला अचानक बज उठी
कॉल बेल ने तोड़ दी। पति आ गए इस उम्मीद में जल्दी से उठ कर उन्होंने गेट खोला। लेकिन
सामने मिसेज गुप्ता थीं। चेहरे पर मुश्किल से खींच लाई मुस्कुराहट के साथ उन्होंने
उनका स्वागत कर कहा,
‘आओ राहुल की मम्मी, अंदर आओ, बताओ क्या हाल है ?’
‘मैं ठीक
हूं दीदी, आप अपनी बताइए, इधर कई हफ़्तों से दिखाई नहीं दीं। सत्संग
में भी नहीं आ रहीं, आज भी नहीं आईं
तो सबने कहा भई पता करो क्या बात है। मैंने कहा मैं जाऊंगी शाम को। वैसे भी कल संडे
है और गुरु जी भी आ रही हैं, कल वह अपनी
अमृतवाणी सुनाएंगी यह भी बताना है।’
‘हां .... सही कह रही हो, करीब महीना भर तो हो ही रहा है घर से कहीं
निकले।’
‘ऐसा भी क्या हो गया ?आपकी तबीयत तो ठीक है न?और माथुर साहब भी ठीक हैं न?’
‘तबीयत तो
कुल मिला कर ठीक है। बुढ़ापा है, ऐसे में
जितने रोग हो सकते हैं वह सब हैं। आए दिन कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है। वह कहां पीछा
छोड़ने वाले। माथुर साहब भी बस ठीक ही हैं।’
‘आप सही
कह रहीं हैं। अब तो हम सब उम्र के उस दौर में हैं जहां कई-कई रोगों को साथ लेकर ही
चलना है। यही क्या कम है कि ज़िंदगी के साठ साल तो कम से कम पूरे कर ही लिए हैं हम सबने।
और मैं तो यह भी कहती हूं कि ईश्वर की कृपा है हम सब पर कि हमारे बच्चे सब लाइन से
लग गए हैं और ऐसी गुरु भी मिल गई हैं जिनकी कृपा हम पर हमेशा बरसती रहती है।’
‘हां ...ये तो है। इसमें कोई शक नहीं।’
मिसेज माथुर
ने बड़े गंभीर स्वर में कहा। उनके चेहरे पर पीड़ा की रेखाएं इतनी गाढ़ी हो चुकी थीं कि
उसे राहुल की मम्मी ने तुरंत पढ़ लिया और पूछा,
‘क्या बात
है दीदी .... आप बहुत परेशान दिख रही हैं। माथुर साहब से कुछ बात हो गई है क्या?इतनी परेशान तो मैंने पिछले बीस बरसों में
आपको कभी नहीं देखा।’
‘नहीं माथुर
साहब से तो मेरी कभी कोई बहस होती ही नहीं। जब भी कभी कोई बात हुई तो बच्चों ही के
कारण।’
‘अब तो बच्चे
भी बच्चे वाले हो गए हैं। फिर आपके तो सारे बच्चे भी अच्छी पोजीशन पर हैं। सारे बच्चे
आप दोनों का पूरा ख़याल रखते हैं। हम लोग कई बार कहते भी हैं कि दीदी बहुत लकी हैं।
रिटायर होते-होते लड़की और तीनों लड़कों की न
सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई पूरी करवा दी बल्कि सभी सेल्फ़ डिपेंड हैं। सबकी शादी भी कर दी। सारे बच्चे मिल कर रह
रहे हैं। दीदी तो वाकई बहुत खुश हैं।’
यह बातें
सुनते-सुनते मिसेज माथुर की आंखें भर आईं। चेहरा दर्द भरी रेखाओं से भर उठा। जिसे देख
राहुल की मां से रहा नहीं गया। वह अपनी जगह से उठ कर मिसेज माथुर के बगल में बैठ गईं।
स्नेह भरा हाथ उनकी पीठ पर रखते हुए कहा,
‘दीदी आखिर
क्या बात है?अगर ऐसी कोई बहुत
पर्सनल बात नहीं है तो मुझे बताइए शायद मैं कुछ कर सकूं। बेटों, बहुओं से कोई बात हुई है क्या?अगर ऐसा है तो इतना परेशान मत होइए। आजकल
यह घर-घर की बात है। इसको लेकर परेशान होना बेवजह है। माथुर साहब भी नहीं दिख रहे।
कहीं गए हैं क्या ?’
‘हां
.... ओल्ड एज होम गए हैं। यह पता करने की हम लोग वहां रह पाएंगे कि नहीं।’
मिसेज माथुर
ने बहुत गहरी सांस लेकर बडे़ भारी मन से यह बात कही, उनकी बात सुन कर मिसेज गुप्ता अचंभित सी हो बोलीं,
‘क्या...? ये क्या कह रही हैं आप? अपना इतना बड़ा मकान, तीन-तीन काबिल बेटों-बहुओं के रहते इस बुढ़ापे
में ओल्ड एज होम जाएंगी। इस उम्र में जब ज्यादा
देखभाल, बच्चों का सहारा
चाहिए तो आप लोग ओल्ड एज होम जाने की तैयारी कर रहें हैं। ऐसा क्या हो गया ?’
‘हां
.... सही कहा आपने, बेटे हैं, बहुए हैं, पर अब अपने कहां हैं। मां-बाप उनके लिए घर का वह कूड़ा हैं। जिसे
वह हर हाल में घर के बाहर फेंक देना चाहते
हैं। और जब अपना खून, अपने बेटे
अपने नहीं हैं तो बहुओं की बात करना भी बेमानी है।’
‘लेकिन आपने
तो पहले कभी ऐसा कुछ जाहिर ही न होने दिया। जब भी हम लोग आए बहुओं-बेटों को सबको हंसते
बोलते ही पाया। अरे! ... हां आज बहुएं भी नहीं दिख रही हैं और वो दिल्ली वाली बहू का
क्या हाल है। वह काफी दिनों से नहीं आई है।’
‘एक अपने
भाई के यहां गई है, दूसरी मौसी के यहां
और दिल्ली वाली वहीं है। बेटे को ऑफ़िस से फुरसत नहीं है। बहू को अपने मां-बाप बहनों-भाइयों
से फुरसत नहीं है। कभी कभार भूले-भटके फो़न कर लेती है। बेटे का हाल थोड़ा सा अलग है।
फ़ोन करता है रोज। मगर इसके अलावा सारा वक़्त,
सेवा सुश्रुषा, हंसना-बोलना, घूमना-फिरना यह सब सास-ससुर, सालियों, सालों के साथ है। सास-ससुर को इतने प्यार से मम्मी-पापा बोलता
है कि अपने सगे मां-बाप को भी कभी न बोला होगा।’
‘ओह! क्या
कह रही हैं आप?उसे तो मैं आपके
बच्चों में सबसे होनहार सबसे अच्छा समझती थी।’
‘सही समझती
थी। शादी से पहले वह वाकई मां-बाप, भाई-बहनों
सबको बहुत चाहता था। मगर शादी के बाद न जाने बीवी ने, सास-ससुर ने, साले-सालियों ने कौन सा जादू कर दिया है, उसके ऐसे कान भरे हैं कि वह बिल्कुल ही बदल
गया है। अब जब कभी घर आता है तो उसके व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे कि वह किसी गैर के
यहां या रिश्तेदारी में आया है। अजीब सा कटा-कटा सा रहता है। ऐसा लगता है कि बस खानापूरती
कर रहा है। लाड़-प्यार वह सब भी जताएगा। लेकिन यह सब इतना बनावटी होता है कि देख कर
दिल में शूल सी चुभती है।’
‘तो कभी
आप टोकती नहीं हैं, कि वह यह सब क्यों
कर रहा है।’
‘नहीं, जब तक नहीं आता तब तक तो मन में सोचती हूं
कि अब की आएगा तो ज़रूर पूछुंगी कि बेटा मेरी परवरिश में कहां कमी रह गई कि जुम्मा-जुम्मा
चार दिन हुए सास-ससुर तुम्हारे लिए मां-बाप से भी बढ़ कर हो गए हैं। जिस मां ने जन्म
दिया, जिस मां-बाप की
गोद में खेले बड़े हुए। खुद गीले में सो कर जिस मां ने इस लायक बनाया कि आज दुनिया में लोग तुम्हें पूछते हैं। तुम्हारी इज़्ज़त करते हैं।
जिनकी परवरिश के कारण वह मुकाम बना पाए कि तुम्हारी शादी के लिए न जाने कितने लोग आए।
दरवाजे पर लाइन लग गई लड़की वालों की, आज वही
मां-बाप घर तुम्हें बेगाने से क्यों लगते हैं?और सास-ससुर
सगे मां-बाप से बढ़ कर कैसे हो गए ? .... मगर क्या करूं जब सामने आता है तो
कुछ याद नहीं रहता। बस इतना ही होश रहता है कि मेरा बेटा मेरे सामने आ गया है। जो कभी
मेरी गोद में खेलता था, जिसकी किलकारियों
से हम मियां-बीवी सांस ले कर जीवित रहते, आगे बढ़ते
थे, आज वह खुद बाप बन
गया है। देखते-देखते कितनी जल्दी वक़्त निकल गया। बस यही सब दिमाग में, मन में रह जाता है। बाकी सब न जाने कहां
लोप हो जाता है।’
‘और माथुर साहब, वह कुछ नहीं कहते।’
‘वो क्या
कहेंगे। बाप हैं और सबसे ज़्यादा यह कि मर्द हैं। बस अंदर ही अंदर घुलते रहते हैं।
मुझे लगता है कि वह मुझ से ज़्यादा व्यथित रहते हैं लेकिन मुंह नहीं खोलते। जब कभी
कुछ कहती हूं तो डांट कर चुप करा देते हैं। मगर इस बीच उनकी भरी हुई आंखें मुझ से नहीं
छिप पातीं। उनके अंदर चलती उथल-पुथल उनके सिसकते हृदय की आवाज़ मैं साफ सुनती हूं। उनकी
बेबसी मुझे अंदर तक छील कर रख देती है। फिर उनकी और अपनी दोनों की बेबसी पर सिवाए आंसू
बहा कर किसी कोने में खुद को सांत्वना देने
के अलावा मेरे पास कुछ नहीं बचता।’
‘ओफ़्फ......
मैं...... मैं क्या सत्संग में सभी लोग अब तक यही समझती हैं कि आप से ज़्यादा खुश और
कोई हो ही नहीं सकता। कभी एक बार भी मैं नहीं समझती कि किसी के मन में यह आया होगा
कि आप इतने सारे कष्ट के साथ जी रहीं हैं। और इतनी हिम्मत के साथ कि कभी आपने बाहर
किसी को अहसास तक न होने दिया।’
‘किसी से
बताते भी तो कैसे ? हम लोग तो इज़्ज़त
को ले कर मरते रहते हैं कि दुनिया क्या कहेगी। इसलिए अंदर-अंदर चाहे जितना घुटते रहें
लेकिन जब कोई आया तो उसके सामने चेहरे पर हंसी
मुस्कुराहट के अलावा कुछ न आने दिया। बल्कि कोशिश यह भी, कि लोगों के सामने अपने बेटे-बहुओं की तारीफ
ही निकले।’
‘वह सब तो
ठीक है। मगर मैं यह नहीं समझ पा रही कि एक दो नहीं पिछले कई बरसोें से आप दोनों यह
सब कैसे झेलते रहे? ये सब कैसे बर्दाश्त
करती रहीं?’
‘वक़्त
... वक़्त सब करा देता है। जब बात सामने आती है तो हिम्मत भी आ जाती है।’
‘नहीं दीदी
सब इतना नहीं कर पाते। पांडे जी का घर देखिए न। उन्होंने तो जब बच्चों ने ज़्यादा परेशान
किया, तो सब को अलग कर
दिया। इसके बाद जब बेटों ने बैंक में जमा पैसों और पेंशन पर भी नज़र लगाई तो पहले तो
विरोध किया। मगर जब बेटे झगड़े पर उतारू हुए,
बहुओं ने आफ़त कर दी, जीना हराम
कर दिया तो उन्होंने बिना देर किए पुलिस की मदद ली। यहां तक कह दिया कि मियाँ-बीवी
को कुछ हुआ तो ज़िम्मेदार यही सब होंगे। पुलिस जब अपने पुलिसिया अंदाज में आई तो सभी
बहुओं-बेटों ने न सिर्फ़ माफी मांगी बल्कि वादा किया कि कभी परेशान नहीं करेंगे। तब
से दोनों ठीक हैं। टिफिन सर्विस लगा ली है। दोनों टाइम खाना-पीना घर बैठे मिल जाता
है। चाय-नाश्ता किसी तरह खुद बना लेते हैं। बच्चों से कोई मतलब ही नहीं रखते।’
‘तुम ठीक
कहती हो। लेकिन बिरले ही मां-बाप ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाएंगे। कम से कम मैैं तो
ऐसा नहीं कर पाऊंगी। भले ही बच्चे घर से बाहर निकाल दें। सड़क पर रहना पड़े। भले ही जान
चली जाए। क्या तुम ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाओगी ?’
‘नहीं ...... मैं भी सोच कर ही सहम जाती हूं
दीदी।’
‘जानती हो
मेरी अम्मा बचपन में एक कहानी हम सब बच्चों को सुनाती थीं कि मां कैसी होती है। वो
कहानी आज भी मुझे करीब-करीब पूरी याद है। बताती थीं कि एक गांव में मां-बेटा अकेले
रहते थे। बेटे के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। मां, मां-बाप दोनों ही की ज़िम्मेदारी निभा रही थी। दोनों का प्यार
स्नेह दे रही थी। उसे अच्छी परवरिश देने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही थी। लड़का
बड़ा हुआ। उसका एक लड़की से इश्क हो गया।
मां बेटे
की शादी कहीं और करना चाहती थी। लड़के ने यह बात लड़की से बताई। इससे वह नाराज़ हो गई।
तब लड़के ने कहा चलो हम लोग अलग रह कर शादी कर लेंगे। तब उस लड़की ने शर्त रख दी कि जब
तुम अपनी मां का कलेजा लाकर मुझे दोगे तभी मैं तुम्हारे साथ शादी करूंगी। लड़की के प्यार
में अंधे लड़के ने मां को मार दिया। फिर उसका कलेजा निकाल कर दौड़ता-भागता प्रेमिका के
पास जाने लगा। रास्ते में ठोकर लगने से वह गिर गया। लड़का फिर उठा, कलेजा उठा कर चलने लगा तो उसमें से आवाज़
आई
‘‘बेटा तुझे
ज़्यादा चोट तो नहीं आई?’’ यह सुन
कर बेटे का मन बदल गया। वह लौट आया मां के पार्थिव शरीर के पास और विलाप करने लगा।
मगर जब अम्मा यह कहानी सुनाती थीं पैंतालीस-पचास साल पहले तब के लड़के भले ही ठोकर लगने
पर मां के लिए विलाप करते रहे हों । लेकिन आज पांच दशक में पूरी पीढ़ी बदल गई है। अब
वह भावनात्मक लगाव खत्म हो चुका है जो हुआ करता था। आज के लड़के तो उठ कर फिर चल देंगे
आवाज़ को सुने बिना ही।’
‘आप सही
कह रही हैं। आज के बच्चे भावनाहीन हो चुके हैं। वास्तव में जो आप बता रही हैं यही हालत
घर-घर की है। विरला ही कोई घर होगा जहां बच्चे मां-बाप को पूरी अहमियत देते हों। नहीं
तो करीब-करीब सभी मां-बाप की हालत वही है जो आपकी है। हम सत्संगियों के बीच उस वक़्त
आपकी बड़ी तारीफ़ होती थी जब आप एक बार कुछ महीनों के लिए दिल्ली छोटे बेटे के पास गई
थीं। सब यही कहते कि आपने बच्चों को बड़ी अच्छी परवरिश दी है। वह सब आपको कितना हाथों-हाथ
लिए हुए हैं। दिल्ली जैसे महंगे शहर में भी बेटा मां को इतने दिनों से रखे हुए है।
मैं आज अपने मन का एक पाप आपके सामने कहती हूं। उस समय मुझे अपनी किस्मत पर बड़ी कोफ़्त
हो रही थी। मेरा बेटा उस समय मुंबई में था।
उसने अपने मन से तो कभी एक बार भी भूल कर नहीं कहा कि हां मम्मी-पापा तुम लोग आ कर
घूम जाओ या फिर खुद साथ चलने की बात की हो।
आपको दिल्ली
में देख कर मैं खुद को रोक न पाई। एक दिन जब फ़ोन आया तो मैंने बड़े संकोच में कहा,
बेटा ज़रा
एक बार हम लोगों को भी मुंबई घुमा दे, बड़ी-बड़ी
बातें सुनती हूं उस शहर के बारे में। बड़ा मन होता है वहां आने का।
जानती हो दीदी मुझे
क्या जवाब मिला।
‘यही कहा होगा कि टाइम नहीं है।’
‘नहीं इसके
अलावा भी बहुत कुछ कहा। छूटते ही बोला ‘अरे! मम्मी
तुम्हें घूमने की पड़ी है। मैं यहां अपना कॅरियर देखूं कि गाइड बन कर तुम्हें घुमाऊं।
यहां लाइफ़ इतनी फास्ट है कि तुम लोग एक घंटे भी एडजस्ट नहीं कर पाओगी। फिर मुंबई में
देखना क्या, फ़िल्में तो देखती
ही रहती हो।’
कल्पना
से परे उसके इस जवाब से मैं एकदम आहत हो गई। गुस्सा भी आया। फ़ोन रखने से पहले मैंने
इतना ज़रूर कह दिया -
‘बेटा तुम
भी तो लखनऊ के हो, जब तुम वहां जा
कर एडजस्ट हो सकते हो तो हम लोग क्या दो चार दिन वहां नहीं रह पाएंगे। और फिर सुना
है वहां ज़्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के ही लोग हैं। खैर तुम परेशान न हो हम लोग
नहीं आएंगे।’
और उसके
बाद मैं कई दिन रोई थी। अपनी किस्मत पर गुस्सा आ रहा था। और यही सोचती थी कि आप कितनी
भाग्यशाली हैं कि आपका बेटा आपको महीनों अपने पास रखे था।
‘काश तुम जैसा सोचती थी वैसा होता।’
‘क्यों ?ऐसा भी क्या हुआ दीदी।’
‘दरअसल हुआ
यह था कि बेटे के सास-ससुर, सभी साले-
सालियां महीने भर से वहां डेरा जमाए हुए थे। एक साथ छः लोगों को दिल्ली जैसे शहर में
झेलना मुश्किल हो गया। उसकी परेशानियों का अंदाजा लगा हम लोग परेशान हो रहे थे। एक
दो बार जब फ़ोन पर बात हुई तो मैंने खुद बात उठाई। तो वह बोला,
‘हां परेशानी
तो बहुत हो रही है। पैसे भी सब खत्म हो गए हैं। काफी उधार भी हो गया है।’
‘तो किसी तरह जाने को क्यों नहीं कहते।’
‘कैसे कहूं वो लोग बुरा मान गए तो।’
‘तो ऐसा
करो, बोल दो कि हम सब
लोग दो तीन दिन में आ रहे हैं। यह सुन कर शायद चले जाएं।’
बेटे ने
ऐसा ही किया लेेकिन वह सब इतने बेशर्म कि टस से मस न हुए। सच कहूं ऐसे बेशर्म मर्द-औरत
इसके पहले मैंने नहीं देखे थे, कि पूरा
परिवार दामाद की रोटी तोड़ रहा हो। हमारे पूर्वांचल में इसे बहुत बुरा मानते हैं। मगर
जमाने का फेर देखो ये सब भी उसी पूर्वांचल के होकर दामाद के यहां गुलछर्रे उड़ा रहे
थे, जिस पूर्वांचल में
लोग लड़की-दामाद के यहां का एक गिलास पानी भी पीना धर्म के खिलाफ मानते हैं।’
‘हां ये तो आप सही कह रही हैं। फिर वो सब
गए कैसे ?’
‘गए क्या
बेटे की परेशानी सुन कर मैं गुस्से में आ गई। मैंने वहां जाने की ठान ली। मगर एक मुश्किल
यह आ पड़ी कि अगले पद्रंह दिनों तक किसी ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिल रहा था। तब मैंने
बडे़ बेटे से कहा। फिर तीन दिन बाद ही हम कार से वहां पहुंच गए।
हमारा वहां
पहुंचना बेटे को छोड़ कर बाकी सबको बहुत खला। हालांकि बेटे के चेहरे पर भी कोई खुशी
नज़र नहीं आई थी। मैंने सोचा शायद अपनी समस्याओं से पस्त होने के कारण ऐसा है। मगर कुछ
ही घंटों के बाद ही उसकी बातों से साफ हुआ कि नहीं वह तो इस असमंजस में है कि अपने
ससुराल वालों के सामने अपने भाई और मां को कैसे ज़्यादा तवज़्जो दे। बहू के चेहरे पर
तो अपने लिए नफरत की रेखाएं साफ देख रही थी। बेटे का असमंजस और बहू की नफरत उनके काम
काज में साफ दिख रही थी।
मेरा जो
बेटा ऑफ़िस में बहुत सख्त मिजाज, बड़ा गुस्से
वाला माना जाता है, उसी को ससुरालियों
के सामने भीगी बिल्ली बने देख कर मैं अंदर ही अंदर कुढ़ रही थी। उसके भीरूपन का अंदाजा
तुम इसी बात से लगा सकती हो कि रात जब सोने का वक़्त आया तो मुझे, बड़े बेटे के लिए लॉबी में बिस्तर लगाया गया।
और ससुरालियों के लिए बक़ायदा अंदर कमरे में ही सारी व्यवस्था थी। मुझे यह बहुत खला।
अंदर ही अंदर मैं यह भी डर रही थी कि बड़ा बेटा कहीं भड़क न उठे। क्योंकि गुस्से में
वह दुर्वासा ऋषि से कम नहीं है।
मगर वह
शांत ही रहा। जाने का फ़र्क यह पड़ा कि वह सब दूसरे दिन वहां से चले गए। मगर जाते वक़्त
उन सबके चेहरे पर अपने लिए नफरत की इबारत साफ पढ़ रही थी कि ये सब यहां क्यों आ गए।
खैर मैंने राहत महसूस की कि बेटे को मुसीबत से मुक्ति मिली।
‘और आपकी बहू के रिएक्शन क्या थे।’
‘बहू के
रिएक्शन! आज भी मैं कुछ कह नहीं सकती। उसके मन की बात भांप पाना या उसके चेहरे को पढ़
पाना मैं समझती हूं कि हम जैसों के वश में नहीं है। जब पहुंची थी तब तो चेहरे पर नफरत
साफ दिख रही थी। लेेकिन कुछ घंटों बाद उसके हाव-भाव समझना मुश्किल हो गया था। उसने
अपने को बड़ी कुशलता से संभाल लिया था।’
‘क्या वो इतनी नाटकीय है।’
‘हां यही
कह सकती हो। मैंने अपने जीवन में उसके जैसी दूसरी औरत नहीं देखी जिसके मन के भावों
का अंदाजा ही न लगाया जा सके। उसके जवाब इतने डिप्लोमेटिक होते हैं कि एक आम व्यक्ति
के वश में नहीं है उसे समझना। हमने जब हफ़्ते भर बाद ही लखनऊ वापस आने की बात की तो
उसने फॉर्मेलिटी के लिए भी एक शब्द नहीं कहा कि मम्मी और रुक जाइए। वैसे मैं रुकना
भी नहीं चाहती थी क्यों कि मेरे रुकने पर भी खर्चा तो बढ़ता ही न। जो मैं नहीं चाहती
थी। इसलिए मैंने बेटे से कहा किसी तरह एक दिन की छुट्टी लेकर मुझे लखनऊ छोड़ दोे। उसने
कहा ठीक है। पहले ऑफ़िस में देख लूं।
‘क्यों बड़ा बेटा पहले ही चला आया था क्या
?’
‘हां उसके
पास भी छुट्टी नहीं थी तो वह भी पहुंचाने के अगले ही दिन वापस आ गया था। इतनी जल्दी
उसे फिर नहीं बुलाना चाहती थी क्योंकि उसके ऑफ़िस में तो छुट्टी की और भी ज़्यादा मारामारी
रहती है।’
‘तब तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ गई होंगी आने
को ले कर।’
‘हां मैं
जितना जल्दी कर रही थी उतनी ही देर हो रही थी। कहने के तीसरे दिन छोटे बेटे ने बताया
कि टाइम नहीं मिल पा रहा है। साथ ही एक बात और जोड़ी कि ऐसा करो अभी और कुछ समय तक रुक
जाओ। मैंने पूछा क्यों तो उसने जवाब दिया। ससुराल के लोग पूछ रहे थे कि तुम कब तक हो।
वह सब दीपावली यहीं मनाना चाहते हैं। तुम चली गई तो सब फिर महीनों के लिए आ टपकेेंगे।
और अभी दीपावली आने में करीब डेढ़ महीना है। फिर उसने और भी तमाम बातें बताईं । जिन्हें
सुनने के बाद मैं रुक गई। तब मैंने एक और बात महसूस की कि मेरा बेटा अब शादी से पहले
वाला वह बेटा नहीं है जो मां-बाप, घर-परिवार
के लिए बहुत कुछ करना चाहता था। अब वह घर में भी जो व्यवहार कर रहा है वह बहुत प्रोफेशनल
है। बहुत कैलकुलेटिव ढंग से बात करता है। उसके एक-एक काम के पीछे एक पूरा कैलकुलेशन
होता है। मैं उसके इस बदले रूप से बेहद आहत हुई। एक क्षण रुकना नहीं चाहती थी। मगर
उसको कष्ट में भी नहीं देखना चाहती थी इसलिए रुकी रही।’
‘ओह ...
और हम लोग सोचते थे कि आपका बेटा आपसे बहुत प्यार करता है इसलिए रोक रखा। हमारे बेटे
ही मां-बाप से प्यार नहीं करते।’
‘मेरी ऐसी
किस्मत कहां...जब तक रही तब तक बेटे का व्यवहार देख-देख कर मन में यही आता कि यह सब
देखने की ज़रूरत ही क्या है? भगवान ऊपर
क्यों नहीं बुला लेता। अब करने धरने के लिए जीवन में बचा ही क्या है? कौन है दुनिया में अपना। बेटे को लाख व्यस्तताओं
के बावजूद ऑफ़िस से आने के बाद भी ससुराल में सबसे घंटों बात करने के लिए फुरसत मिल
जाती है लेकिन कभी घर फ़ोन कर के बाप से बात करने के लिए टाइम नहीं होता।
कई-कई दिन
हो जाता इनका कोई हाल न मिलता। मेरे पास उस वक़्त मोबाइल था नहीं, बहू से कहने की हिम्मत जुटा न पाती कि लखनऊ
घर पर बात कराओ। मज़बूर होकर एक दिन बेटे से कहा तो बात हो पाई।
तभी ये
पता चला कि लखनऊ से बड़े बेटे और इनका फ़ोन आता था लेकिन छोटे बेटे के पास वक़्त नहीं
होता था कि मुझ से बात करा देता। इनकी आवाज़ से मुझे यह भी यकीन हो गया कि इनकी भी हालत
कोई अच्छी नहीं है। हां वहां चार साल के पोते के कारण इनका मन ज़रूर थोड़ा बहल जाता था।
और मैं पिंजरे में बंद तड़पती रहती। मेरी पूरी दुनिया लॉबी और बॉलकनी तक ही सीमित थी।
अपनी और इनकी स्थिति पर मुझे बार-बार कुछ ही महीने पहले टी.वी. पर देखी अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी की ‘बागवान’ पिक्चर याद आ जाती। उसमें बेटों की उपेक्षा का शिकार मां-बाप
बुढ़ापे में बंट कर अलग-अलग बेटों के पास एक दूसरे से दूर रहते थे। बुढ़ापे में हैरान, परेशान व्याकुल। मुझे अपनी कहानी भी ‘बागवान’ जैसी लग रही थी। हेमा मालिनी ही की तरह मैं सोच कर परेशान हो
जाती कि पता नहीं ये ठीक से खा-पी रहें हैं कि नहीं, मैं इसी उधेड़-बुन में परेशान रहती, व्याकुल रहती कि कैसे जल्दी से लखनऊ पहुंचूं।
मगर हालात ऐसे थे कि वापसी हो नहीं पा रही थी। फिर मैंने सोचा इन्हें भी बुला लूं।
आखिर बहुत
हिम्मत करके एक दिन छोटे बेटे से बोली कि कुछ दिन के लिए अपने पापा को भी यहीं बुला
लो। मैं सोच रही हूं कि एक बार ‘अक्षरधाम’ मंदिर हो आएं सब लोग। सच कहूं तो मंदिर सिर्फ़
एक बहाना था। मैं इनकी परेशानियों का अनुमान लगा-लगा कर परेशान हो रही थी इसलिए सारे
जतन कर रही थी कि हम जहां भी रहें साथ रहें। क्योेंकि बच्चों के व्यवहार ने कहीं हमारे
विश्वास को झकझोर दिया था। हिल गई थी हमारे विश्वास की नींव। और बचपन में बाबू जी की
अक्सर कही जाने वाली बात का अर्थ भी मैं तभी समझ पाई थी,
‘कौन सी बात का?’
‘असल में
गांव में जब वह कभी चाचा एवं अन्य लोगों के साथ बैठते और समाज की बातें शुरू होतीं, परिवार की बात आतीं तो वह एक बात जोड़ना नहीं
भूलते, कहते
‘‘एक मां-बाप
कई-कई बच्चों को हंसी-खुशी पाल लेते हैं। लेकिन कई-कई बच्चे मिलकर एक अपने मां-बाप
को बुढ़ापे में कुछ बरस भी नहीं पाल पाते।’’
‘सही तो
कहते थे आप के बाबू जी। हम लोगों के कई-कई बच्चे एक मां-बाप को मैदान में फुटबॉल की
तरह एक दूसरे की तरफ किक मार-मार कर ठेल रहे हैं। हमारा सहारा कहां बन पा रहे हैं।
आप ही देखिए कि आप दिल्ली में, माथुर साहब
लखनऊ में, मगर बच्चों को परवाह
नहीं थी कि उन्हें भी आपके पास पहुंचा देते। वैसे माथुर साहब कब पहुंचे।’
‘नहीं पहुंचे।
लाख जतन के बावजूद किसी बेटे के पास वक़्त नहीं था। या कहें कि उन्हें परवाह ही नहीं
थी।’
‘हे भगवान!
तुम्हारे भी खेल निराले हैं। मगर दीदी उस बीच माथुर साहब गए तो थे कहीं बाहर। एक दिन
मैं आई थी तो आपकी बड़ी बहू ने बताया था कि वो आऊट ऑफ स्टेशन हैं।’
‘हां
..... तब वो चार-पांच दिन के लिए लड़की के यहां गए थे। असल में लड़की के ससुर युग निर्माण
योजना से जुड़े हैं। बहुत सक्रिय रहते हैं। उन्होंने ही बहुत आग्रह करके बुलाया था। कोई यज्ञ वगैरह का आयोजन था उसी में
शामिल होने के लिए। मुझे भी बुला रहे थे लेकिन मैं वहां होने के कारण नहीं जा पाई थी।
इनका भी मन नहीं था लेकिन समधी जी के आग्रह के आगे एक न चली। इतना ही नहीं वह इनको
लेकर चित्रकूट वगैरह घूमने गए। फिर दामाद खुद आकर लखनऊ छोड़ कर गए। मैं इस मामले में
बहुत खुशनसीब हूं। मेरा दामाद हीरा है। आज के जमाने को देखते हुए मैं तो कहूंगी कि
भगवान सभी को ऐसा ही दामाद दे।’
‘आप सही
कह रही हैं। नहीं तो लड़के तो लड़के दामाद तो और भी जी का जंजाल बन कर सामने आते हैं।
उनकी डिमांड उनके नखरे पूरे करते-करते ही ज़िंदगी खतम हो जाती है।’
‘असल में
दामाद आजकल दो तरह के हैं। एक तो वो हैं जो दहेज के लालची हैं। दहेज के लिए लड़की को
मारते-पीटते हैं, जलाकर मार डालते
हैं। ऐसे लालचियों की संख्या ज़्यादा है। उसके बाद ज़्यादातर उस तरह के हैं जो बीवी, सास-ससुर, साले-सालियों के पिच्छलग्गू या ये कहें कि गुलाम बन कर रहते हैं। उनकी सेवा-सुश्रुषा में
उन्हें बड़ी खुशी मिलती है। उनके लिए तन-मन-धन लुटा देते हैं। अपने घर वालों से नफरत
करते हैं। मुझे सुकून सिर्फ़ इस बात का है कि लड़कों के लिए जहां हम लोग एक बेकार वस्तु
हो चुके हैं वहीं मेरा दामाद न तो दहेज के लालच में लड़की को जलाने, मारने, आए दिन डिमांड करने या नखरे दिखाने वाला है और न ही ससुराल वालों
की गुलामी करने वाला, वह अपने
घर और ससुराल दोनों का पूरा ख़याल रखता है। उन्हें उनका पूरा सम्मान देता है। आज कल
ऐसे दामाद गिने-चुने ही होते हैं।’
‘हां ऐसे
दामाद ही सही मायने में हीरा हैं। .... अच्छा ये बताइए कि आपकी लड़की दामाद को इन सारी
बातों के बारे में पता है ?’
‘लड़की को
थोड़ा बहुत मालूम है। मैंने उसे मना कर रखा है कुछ बताने के लिए। क्योंकि बताने से सिवाए
बदनामी के और कुछ तो मिलने वाला नहीं इसलिए उसको भी कुछ खास नहीं बताया। हां उसने कई
बार यह ज़रूर कहा कि अगर परेशानी ज़्यादा होती है तो तुम लोग हमारे यहां आ जाओ। मगर
ऐसे ज़िंदा रहने से तो अच्छा है मर जाना। लड़की के सहारे की ज़रूरत न पड़े भले ही आज ही
अभी ही, मौत हो जाए।’
‘कैसी बात
कर रही हैं दीदी। आखिर लड़की भी तो आपकी ही संतान है न। और अब हमें इस बंधन या इस सोच
से बाहर आना चाहिए कि लड़की के घर का पानी नहीं पीना चाहिए।’
‘देखो अगर
तुम्हारी बात मान लें कि चलो लड़की के घर खाने पीने रहने में कोई संकोच हिचक नहीं करनी
चाहिए। आखिर वह भी अपनी ही संतान है। मेरी समझ में लड़की की मदद तभी लेनी चाहिए जब कोई
और रास्ता बचा ही न हो। सिर्फ़ लड़की ही हो। लड़के हों ही नहीं। लड़कों के रहते लड़की-दामाद
के यहां रहना मेरी नजर में बहुत गलत है। फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस तरह हमें
बुरा लगता है कि लड़के ससुरालियों की सेवा में लगे रहते हैं। वैसे ही यदि हम लड़की के
यहां जाकर रहेंगे तो क्या उसके घर वालों को बुरा नहीं लगेगा। क्या दामाद के मां-बाप
अपने बेटे को ससुरालियों का पिछलग्गू नहीं कहेंगे जैसे हम कह रहे हैं।’
‘बात तो
सही कह रही हैं आप। मगर इस समस्या का हल क्या ओल्ड एज़ होम है?क्या आप वहां शांति से रह सकेंगी? क्या वहां आपका मन शांत रह सकेगा?मुझे तो लगता है कि आप वहां जाकर और भी ज़्यादा
परेशान होंगी यह सोच-सोच कर कि अपनों के रहते हम ओल्ड एज होम में रहने को अभिशप्त हैं।
फिर कुछ भी हो जाए मन का क्या करेंगे। बच्चे कैसे भी हो जाएं मां-बाप का मन तो उतना
कठोर नहीं होगा न, आप ही कुछ देर पहले
यह बोल रही थीं। अभी आप परेशान होकर जाने को तैयार हो गई हैं। लेकिन मैं समझती हूं
कि वहां जाकर आप हालात को और खराब कर लेंगी। फिर तब यदि वापस आएंगी तो बेटे-बहू यही
कहेंगे हर क्षण लो गए तो थे बड़े ताव में, ठिकाना
नहीं लगा। आ गए। उस स्थिति में न इधर के रहेंगे न उधर के। नज़र उठाकर बात करना भी मुश्किल
हो जाएगा। खुद अपनी ही नज़रों में हीनता सी महसूस होगी। बच्चों और खुद के बीच एक ऐसी
दरार पड़ेगी जिसे भरना संभव नहीं होगा। जीवन के आखिरी कुछ बरस जो रह गए हैं वो नरक समान
हो जाएंगे। यह कुुछ वैसा ही होगा जैसे किसी छोटी सी तकलीफ से छुटकारा पाने के लिए किसी
और बड़ी मुसीबत को मोल ले लिया जाए। फिर उस बात का क्या होगा जो अभी आपने कही कि लड़की
को भी इस लिए सारी बातें नहीं बतातीं कि बदनामी होगी। जब ओल्ड एज होम जाने की बात उसे
और दुनिया को मालूम होगी तब क्या बदनामी नहीं होगी। जरा सोचिए ठंडे दिमाग से।’
‘तो तुम्हीं
बताओ हम क्या करे, इधर कुआं उधर खांई
किधर जाएं हम’ कहते-कहते मिसेज
माथुर रो पड़ीं।
‘आप चुप
हो जाइए। ऐसे हिम्मत नहीं हारते। पहले तो यह समझ लें कि यह घर-घर की कहानी है। इसलिए
यह सोच-सोच कर दिल छोटा करने की ज़रूरत नहीं है कि एक आप ही परेेशान हैं। आप जैसा अगर
सब सोचने लगेंगे तब पूरी दुनिया ओल्ड एज होम में तब्दील हो जाएगी। बच्चे गलत कर रहे
हैं तो हमारा तो कर्त्तव्य है कि हम तो उन्हें सही बात बताएं, यदि मानते हैं तो ठीक है, नहीं मानते हैं तो उन्हें अपना जीवन अपने
हिसाब से जीने दें। छोड़ दें उन्हें उनके हाल पर।
हम ऐसा
कुछ भी न करें जिससे उनको यह लगे कि हम उनकी खुशियों, उनकी आज़ादी के बीच में आ गए हैं। सच बताऊं
आपको, जब मुंबई घूमने
वाली बात पर बेटे की बातों से दिल टूट गया तो मैं बहुत रोई धोई, गुस्से के मारे कई दिन खाना नहीं खाया। ऊट-पटांग
कहती रही बेटे को। कई दिनों चला यह सब, तब एक दिन
इन्होंने ही यह सब समझाया। और कहा हमारी और बच्चों की दोनों की भलाई, खुशी इसी में है कि हम किसी के रास्ते में
न आएं। वो भले हमसे कुछ अपेक्षा कर लें लेकिन हमें उनसे एक पैसे की अपेक्षा नहीं करनी
है। वो कब आ रहे हैं, कब जा रहे
हैं, क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहेे हैं। अपने कमाए पैसे का
सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग हमें इस बारे में सोचना ही नहीं है। उन्हें ठोकर लगने
दो, तभी तो वो समझ पाएंगे
कि संभला कैसे जाता है। कैसे सावधानी से चला जाए कि ठोकर लगे ही न। क्यों कि हम उस
जमाने में जी रहे हैं जहां कुछ कहने का अर्थ बच्चे यही लगाते हैं कि हम उनकी आज़ादी, उनके अधिकारों में हस्तक्षेप कर रहे हैं।’
‘अरे! हम
मां-बाप हैं, क्या हमें इतना
भी अधिकार नहीं कि उनसे कुछ पूछ सकें। उन्हें कुछ कह सकें। मां-बाप, बेटे-बेटियों के अधिकारों, आज़ादी की बात होगी। ये सब एक परिवार के सदस्य
हैं या कि बाहरी लोगों का एक झुंड जो अधिकार मांगेंगे, आज़ादी की बात करेंगे। अरे! जब यह सब छीने
जाते हैं तब इनकी बात आती है। मां-बाप तो हर पल अपने बच्चों को कैसे अच्छे से अच्छा भविष्य दे सकें केवल यही कोशिश तो करते
रहते हैं। फिर घर में यह सारी बातें कहां से आ गईं।’
‘दीदी आप
अपनी जगह सही हैं। लेकिन सच यह है कि आप जैसा चाहती, सोचती हैं, ज़रूरी नहीं
है कि सभी वैसा ही करें। आप जैसा चाहती हैं ऐसा तो सैकड़ों साल पहले ही संभव था। जब
मां-बाप बच्चों के लिए पूज्य हुआ करते थे। और बच्चे मां-बाप के लिए प्राणों से बढ़कर।
यह आज के जमाने में ही हो रहा है कि मां-बाप पैसे के लालच में लड़कियों से धंधा कराते हैं या बेच देते हैं। या संपत्ति के लिए बाप
द्वारा बेटों के कत्ल, बेटों द्वारा
बाप के कत्ल का समाचार हम पढ़ते, देखते हैं।
देखो दीदी सच यह है कि जैसी हवा चल रही हो हमें उसी के अनुकूल अपने को सँभालते हुए चलना चाहिए। उसके विपरीत चलेंगे तो कष्ट होगा
या फिर हममें इतनी क्षमता हो कि हम हवा का रुख बदल देें। ऐसा तो हम लोगों के वश में
है नहीं।’
‘तो क्या
लड़कों की गुलामी करें। उनके सामने गिड़गिड़ाएं कि हमारा ख़याल रखेें।’
‘ओफ़्फो...
पहले आप अपने गुस्से को दूर करें। गुरु जी कितना समझाती हैं कि घर को संभालने के लिए
या एक रखने के लिए उतनी ही कोशिश करें जितनी से कोई घुटन न महसूस करे। यदि ऐसा होने
लगे तो सबको उसके उस हाल पर छोड़ देना चाहिए जिस हाल में वो खुल कर सांस ले सके । इसी
में सबकी भलाई है। आप क्यों चाहती हैं कि लड़के आपको हर वक़्त सिर आंखों पर बिठा कर
रखें। यह तो है नहीं कि आप उन पर आश्रित हैं। अरे! वो आपकी परवाह नहीं करते हैं तो
आप भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर अपने लिए अलग व्यवस्था कर लें। सुबह शाम के लिए नौकरानी
रख लें, जो खाना-पीना, कपड़ा सब कर दे। माथुर साहब इतना तो कमाते
ही हैं। फिर क्यों परेशान हैं। हां ऐसा करने पर जब लड़के रोकेें तो विनम्रतापूर्वक उनसे
कह दें कि भाई तुम लोगों के पास वक़्त नहीं है तो ऐसा कर लिया। इससे तुम लोगों को भी
आसानी होगी। यह करना ओल्ड एज होम जाने से कहीं बेहतर है। इससे न तो घर की बात बाहर
पहुंचेगी न आप अपने घर को छोड़ेंगी। न ओल्ड एज होम के भावनाहीन, ठस,
मशीनी माहौल के घुटन से सामना होगा। और हो सकता है लड़के इस क़दम से अपनी गलती समझ
जाएं और आपके हिसाब से चलने लगें। ओल्ड एज होम जाकर तो आप जीवन भर के लिए बात को बिगाड़
लेंगी। बात के सम्भलने के लिए सारे रास्ते
हमेशा के लिए बंद कर देंगी। आप इस बारे में गंभीरता से सोचिए। फिर डिसीजन लीजिए।
जरा ओल्ड
एज होम की कल्पना कीजिए। हर तरफ से बेसहारा वृद्ध लोगों का एक समूह होगा। जिनके चेहरे
पर सिवाय उदासी के कुछ न होगा। जो हमेशा चुप रहेंगे या फिर अपनी दुख भरी कहानी बता
कर आंसू बहाएंगे, आपको भी रुलाएंगे।
एक निश्चित टाइम पर खाना-पीना और योग आदि के नाम पर बेवजह जबरदस्ती हंसाने का उपक्रम
करेंगे। यहां तो सब कुछ अपना है। वहां कुछ भी अपना न होगा। मेरी तो समझ में यह नहीं
आ रहा है कि आपने वहां जाने का सोच भी कैसे लिया। और आश्चर्य तो यह कि माथुर साहब भी
तैयार होकर चल दिए ओल्ड एज होम के लिए। सोचिए गुरु जी सुनेंगी तो क्या कहेंगी। कि उनकी
दसियों साल की शिक्षा का कोई फ़र्क नहीं है। वह तो यह भी बताती हैं कि हम यदि बहुओं
को भी, उतना ही प्यार करें
वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपनी बेटियों के साथ करते हैं तो शायद ही कोई बहू होगी जो
हमें नहीं मानेगी। कहीं कुछ कमी तो हमसे भी रह जाती होगी न तभी तो बहुएं हमें खलनायिका
समझने लगती हैं।’
‘अरे! तुम
क्या यह कहना चाहती हो कि मैं बहुओं से लड़ती हूं ?’
‘नहीं
... नहीं मैं ऐसा सोचती भी नहीं, मैं तो
एक जनरल बात कह रही हूं कि जैसे गुरु जी बतातीं हैं कि ताली दोनों हाथ से बजती है, चलिए आप अपनी बहुओं को बहुत मानती हैं लेकिन
वह फिर भी आपको नहीं मानतीं तो सीधा सा मतलब है कि वह संयुक्त परिवार या सब को साथ
लेकर चलने में यकीन नहीं करतीं। ऐसे में समझदारी इसी में है कि उसे उसके हिसाब से जीने
दीजिए। आप अपने हिसाब से जीएं। अगर इस थोड़ी सी दूरी से शांति बनी रहे तो मुझे लगता
है यह कहीं से गलत नहीं है। बाकी आप समझदार हैं दीदी, जो ठीक समझें करें, मगर फिर भी कहूंगी कि ओल्ड एज होम जाने के
बारे में एक बार फिर से विचार अवश्य कर लें।’
‘सच कहूं तो मन तो मेरा भी नहीं है। मज़बूर होकर ही यह फैसला
लिया। मगर जैसा तुम बता रही हो ओल्ड एज होम के बारे में उसे जानकर तो लगता है यहीं
रहना बेहतर है। जब कोई रास्ता न बचे तभी वहां के बारे में सोचें। मगर मुश्किल यह भी
है कि यह जब कोई डिसीजन ले लेते हैं तो जल्दी बदलते नहीं। इन्हें कैसे समझाऊं।’
तभी कॉल
बेल बजी तो मिसेज माथुर ने उठते हुए कहा ‘लगता है
आ गए हैं। तुम रुको मैं खोलती हूं गेट।’
पत्नी-संग
माथुर साहब अंदर आते हैं। राहुल की मां ने उन्हें नमस्कार कर उठते हुए कहा,
‘अच्छा दीदी
अब मैं चलती हूूं।’
‘नहीं
... नहीं बैठो इतनी जल्दी क्या है।’
राहुल की
मां के बैठने के बाद मिसेज माथुर ने पति के सामने उनकी सारी बातें रखीं। जिन्हें सुनकर
वह बोले,
‘आप कह तो
सही रही हैं। कई ओल्ड एज होम के चक्कर लगा चुका हूं। वहां के हालात तो मुझे और भी बदतर
नजर आए। बड़ा ही नीरस ऊबाऊ और दमघोंटू माहौल
है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं कहां जाऊं।’
‘भाई साहब
मेरी मानिए तो यहीं रहिए अपने घर में। यह दीवारें, यह सामान, यह पूरा
घर सब कुछ है आपका। बच्चे भले ही दूरी बनाए हुए हैं लेकिन इन्हें आपने बरसों पहले जहां
बनवाया था ये आज भी वहीं हैं। इन्होंने आपका साथ नहीं छोड़ा। यह निर्जीव हैं मगर आपके
साथ बनी हुई हैं और आखिर तक बनी ही रहेंगी। जब तक आप इनसे अलग नहीं होंगे तब तक यह
आपको छोड़ने वाली नहीं। तब आप इन्हें क्यों छोड़ रहे हैं। यह निर्जीव हैं लेकिन अहसास
करिए तो इनके साथ भी एक भावनात्मक रिश्ता है आप दोनों का। यहां आप बच्चों से अलग भी
रहेंगे तो भी माहौल दमघोंटू नहीं लगेगा। मैं तो कहूंगी कि एक बार इत्मिनान से विचार
कर लें तब क़दम आगे बढ़ाएं।’
‘विचार क्या
करना है, आप जो कह रही हैं
सही कह रही हैं। जब इस घर की दीवारें नहीं छोड़ रहीं हमारा साथ तो हम छोड़ कर क्यों जाएं
कहीं और। मेरा खून पसीना समाया है इन दीवारों में, एक-एक पैसा जोड़ कर बनाया है। आपने बहुत सही समझाया। यह भी तो
मेरे ही परिवार का हिस्सा हैं। वो कहते हैं न कि मानो तो देवता नहीं तो पत्थर। चलो
बच्चे न सही यही सही। कोई तो है साथ। ओल्ड एज होम में यह भी न होगा।’
‘इतना ही
नहीं भाई साहब इन दीवारों पर आपको अपने बच्चों का बचपन, अपने जीवन के बीते सारे पल भी हंसते-खिलखिलाते
सुनाई देंगे दिखाई देंगे। सब कुछ अपना होगा। फिर हालात बदलते भी तो देर नहीं लगती।
हो सकता है जब बच्चे गलती का अहसास करें तो फिर लौट आएं आपके पास। मैं तो यह भी सोचती
हूं कि हम लोगों का यह संन्यास आश्रम है। बच्चों का मोह छोड़ कर बस अपने को ईश्वर, अन्य कामों में व्यस्त रखें। यह अकेला घर
हम लोगों की वन में बनी कुटिया है। है न दीदी। आधुनिक जमाने की कुटिया। क्योंकि वन
तो अब रहे नहीं तो वन में कुटिया कहां से बनेगी।’
राहुल की
मां की इस बात पर माथुर दंपति मुस्कुरा उठे। माथुर साहब ने गहरी सांस लेकर कहा,
‘आप सही
कह रही हैं। समय के साथ परिवर्तित स्थितियों को समझना जितना ज़रूरी है उससे कहीं ज़्यादा
महत्वपूर्ण है उनके अनुसार अपने आचार-व्यवहार,
मन, कार्यशैली, जीवनशैली में भी परिवर्तन लाना। जड़वादी सोच
से बचना। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आपने जीवन संध्या के व़क्त एक गलत क़दम
उठाने से बचा लिया। आपको इसके लिए धन्यवाद देता हूं।’
‘अरे! भाई
साहब इसमें धन्यवाद की क्या बात है। सच तो यह है कि हम सब एक ही नाव पर सवार हैं। सहयात्री
हैं। यात्रा हंसते-मुस्कुराते पूरी हो यह ज़िम्मेदारी सभी यात्रियों की है।’
तभी माथुर
साहब का मोबाइल बज उठा। नंबर देख कर उन्होंने मोबाइल पत्नी को देते हुए कहा,
‘लो तुम्हारे
श्रवण कुमार का फ़ोन आ गया, बात करो।
अभी मेरा मन बात करने का नहीं है।’ स्थिति
को देखते हुए राहुल की मां ने भी यह कहते हुए चलने की इज़ाज़त ली कि ‘अब चलती हूं। बहुत देर हो गई है वो भी आ
गए होंगे और हां! कल सत्संग ज़रूर आइएगा।’
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पता - प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६एम /२१२ सेक्टर एम
अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२, ९९१९००२०९६
pradeepsrivastava.70@gmail.com
psts700@gmail.com
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