हनुवा की पत्नी
-प्रदीप श्रीवास्तव
हनुवा धारूहेड़ा, हरियाणा से कई बसों में सफर करने, और काफी पैदल चलने के बाद जब नोएडा सेक्टर पंद्रह घर पहुंची तो करीब ग्यारह बजने
वाले थे। मौसम में अच्छी खासी खुनकी का अहसास हो रहा था। चार दिन बाद दीपावली थी। हनुवा
का मन रास्ते भर नौकरी, अपने घर भाई-बहनों, मां-बाप पर लगा हुआ था। दीपावली के एकदम करीब होने के कारण बहुत सी जगहों पर उसे
रास्ते में दोनों तरफ घरों और बहुत सी बिल्डिंगों
पर रंग-बिरंगी लाइटें सजी दिख रही थीं। सुबह धारूहेड़ा जाते और आते समय उसे लोग रेलवे
स्टेशनों, बस स्टेशनों की तरफ जाते-भागते
से दिख रहे थे। लग रहा था जैसे शहर खाली हो रहा है। इन लोगों के साथ हनुवा का भी मन
बार-बार अपने घर इलाहाबाद के पास बड़ौत पहुंच जा रहा था।
आज भी वह रोज की
तरह सेक्टर पंद्रह के कमरे पर जल्दी पहुंचने के लिए परेशान थी लेकिन उसका मन रोज के
विपरीत बड़ौत अपने मां-बाप,
भाई-बहनों के पास पहुंच जा रहा था। उसके साथ कमरे में चार और
फ्रेंड रहती हैं। सभी इस परदेश में एक दूसरे की सुख-दुख की साथी हैं। उनका लैंडलॉर्ड
मकान में नहीं रहता। उसने पूरे मकान में ऐसे ही चार किराएदार रखें हैं। वह किसी फैमिली
वाले या जेंट्स को मकान किराए पर नहीं देता। गर्ल्स हॉस्टल बना रखा है। किराएदारों
के लिए जो चार सेट बनवाए हैं उन में से हर सेट में चार से ज़्यादा लड़कियों को नहीं
रहने देता।
हनुवा ने जब कमरे
पर पहुंच कर कॉलबेल बजाई तो उसकी साथी सांभवी ने दरवाजा खोला। सामने हनुवा को एकदम
थकी-हारी देखकर कुछ कहने के बजाए वह किनारे हट गई। उसके चेहरे की उदासी से वह समझ गई
थी कि हनुवा आज भी खाली हाथ लौटी है। थकी वह भी थी लेकिन उसे हनुवा पर बड़ी दया आ रही
थी। हनुवा कमरे में पड़ी चार फोल्डिंग में से एक पर धम् से बैठ गई। वह कुछ देर शांत
बैठी रही। तब सांभवी ने पूछा ‘मैंने खिचड़ी बना रखी है। खाना अभी खाओगी।
या पहले चाय बनाऊं?’ हनुवा बोली ‘तुमने खाया की नहीं?’
सांभवी के ना कहने पर उसने कहा ‘सांभवी तुम खा लो मेरा मन कुछ भी खाने-पीने का नहीं है।’ सांभवी ने कहा ‘खाना-पीना छोड़ने से क्या फायदा हनुवा? तुम्हारी हालत देखकर ही मैं समझ गई
थी कि आज भी तुम खाली हाथ लौटी हो।
शाम को जब तुम्हें
फ़ोन किया तभी तुम्हारी बातों से मुझे अहसास हो गया था कि वहां इंटरव्यू देना बेकार
ही रहा। ये कंपनी वाले इस तरह दौड़ा कर ना जाने क्या पाते हैं?’ ‘पता नहीं, जो टाइम बताया था मैं उससे थोड़ी देर पहले ही ग्यारह बजे पहुंच गई थी। वहां पहले
से ही बीस-पचीस लड़कियां बैठी थीं।’ हनुवा ने कुछ देर बाद उठकर पानी पीते
हुए कहा। ‘मेरे बाद भी कई लड़कियां आईं। मुझे सब फ्रेशर ही लग रहीं थीं। मैं अंदर-अंदर खुश
हो रही थी कि इंटरव्यू में इन सब पर भारी ही पड़ूंगी। अपना सेलेक्शन मैं तय मानने लगी।’
हनुवा बात करते-करते उठी और चाय बनाने लगी। सांभवी
ने उससे एक दो बार खाने के लिए और पूछा था। उसके मना करने पर उसने अपने लिए खिचड़ी निकाल
कर खाना शुरू कर दिया था। उसने ढेर सा टोमैटो सॉस और चिली सॉस भी ले लिया था। हनुवा
चाय लेकर उसके सामने वाली बेड पर बैठ गई। दो तीन सिप लेने के बाद बोली ‘कंपनी बहुत बड़ी थी। मैंने सोचा बड़ी कंपनी है। सैलरी भी अच्छी होगी। चार महीने से
खाली बैठी हूं, मिल जाए तो तुम सबका कर्ज उतार दूं।’
सांभवी ने हनुवा
को बीच में ही टोकते हुए कहा ‘इतना टेंशन ना ले यार, आज नहीं तो कल मिल ही जाएगी। तब दे देना।’
‘टेंशन कोई लेता कहां है? वो तो परिस्थितियों के चलते हो जाता है। मैं यहां से गई तो थी बड़ी उम्मीदों
के साथ लेकिन उन सारे कैंडिडेट्स के बाद जब मेरा नंबर आया, मैं पहुंची इंटरव्यू देने तो पहुंचते ही कहा गया कि ‘‘कॉल तो केवल फ्रेशर्स के लिए है। आपके पास तो पांच साल का एक्सपीरिएंस है।’’ यह सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे गाल पर तमाचा जड़ दिया है। मेरे सारे सपने
बीएसएनएल के सिग्नल की तरह अचानक ही टूट गए। जब मुझे लगा कोई उम्मीद नहीं है तो मैंने
भी अपनी भड़ास निकाल देना ही ठीक समझा। मैं बिगड़ उठी कि ‘‘मुझे बेवजह क्यों बुलाया गया? मेरा टाइम, पैसा जो वेस्ट हुआ उसे कौन देगा?’’
मैं एच.आर. मैनेजर
से मिलने के लिए अड़ गई। उन्होंने सिक्योरिटी गॉर्ड बुला लिए तो भी नहीं मानी। उन्हें
लगा कि मुझे कैंपस से बाहर करने पर मैं वहां भी तमाशा कर सकती हूं तो उन लोगों ने एच.
आर. मैनेजर को बुलाया। उसने भी मुझे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं नहीं मानी।
आखिर मुझे कन्वेंस, लंच मुझे जो परेशानी हुई उन सब को देखते हुए पांच हज़ार रुपए थमा दिए। मैंने सोचा
जो मिल रहा है ले लो। चलो यहां से। टाइम भी बहुत हो रहा था। डर भी लग रहा था कि इनके
गुंडे बदमाश कहीं पीछे ना पड़ जाएं। आखिर चली आई मन मसोस कर।’
सांभवी अब तक अपना
खाना फिनिश कर चुकी थी। प्लेट किचेन में रख कर आई। वापस अपनी फोल्डिंग पर बैठते हुए
कहा। ‘यार नौकरी नहीं मिली यह कोई बात नहीं है। लेकिन तुमने अकेले दम पर उनसे पैसा वसूल
लिया ये बड़ी हिम्मत वाली बात है। मैं होती तो मुंह लटका कर चली आती। इतना बोलना कौन
कहे सोच भी ना पाती।’
‘हिम्मत-विम्मत वाली कोई बात नहीं है।
जिस कंडीशन से गुजर रही हूं, उससे आपा खो बैठी थी। रास्ते में कई बार
ये बात दिमाग में आई कि मैं इतना कैसे कर गई?’ फिर हनुवा ने एक गहरी सांस लेकर कहा
‘देखो अभी और कब तक धक्के खाने हैं।’ उसने उठते हुए अपनी दो बाकी पार्टनर
के बारे में पूछा ‘ये दोनों घर गईं क्या?’
सांभवी बोली ‘हां दोनों साथ ही निकलीं। सुहानी की
ट्रेन चार बजे थी। और नीरू की छः बजे। बड़ी खुश थीं दोनों। जाते-जाते तुम्हें भी दीपावली
की बधाई दे गई हैं। और ये लो दोनों ने ये गिफ्ट तुम्हारे लिए भी दिया है।’ सांभवी ने चॉकलेट के दो पैकेट हनुवा की तरफ बढ़ा दिए।
हनुवा ने पैकेट लेते हुए कहा ‘दोनों घर पहुंच जाएं तो कल उन्हें फोन करूंगी। और तुम कब जाओगी?’ आखिर में हनुवा ने सांभवी से पूछा तो वह बड़ी हताशा भरी आवाज़ में बोली ‘क्या जाऊं यार। यहां का किराया, सारे खर्चे, पी. एल.(पर्सनल लोन) की किस्त निकालने के बाद पैसा इतना बचा ही नहीं कि जा पाऊं।
जाने पर आने का किराया भी चाहिए था। जितना पैसा मैं मां को देना चाह रही थी उसका आधा
भी नहीं था। सोचा जाऊंगी तो दोनों बहनों,भाई, पैरेंट्स के लिये भी गिफ्ट
नहीं लूंगी तो अच्छा नहीं लगेगा। वो लोग यहां के खर्चों के बारे में नहीं जानते। कुछ
कहें भले ही न लेकिन सोच तो सकते ही हैं कि इतना कमाती है और....। इसलिए मैंने सोचा
कि चलो मैं न सही वो सब तो खुशी-खुशी त्योहार मनाएं। इसलिए आज मैंने एमरजेंसी के लिए
कुछ पैसे रखे बाकी सब पापा के अकाउंट में जमा कर दिए। मम्मी को फोन कर के बता दिया
कि ऑफिस में एक ही दिन की छुट्टी मिल रही है। इसलिए नहीं आ पाऊंगी। पैसा भेज दिया है
सब लोग खूब अच्छे से दीपावली मनाना।
भाई के लिए स्पेशली
बोल दिया कि उसके लिए उसकी मन पसंद ड्रेस खरीदना। सबसे छोटा है। मम्मी तो बिल्कुल पीछे
पड़ र्गइं कि जैसे भी हो दो दिन की और छुट्टी ले लो। तुम्हारे बिना सब बड़ा खाली-खाली
लगेगा। हनुवा मां बहुत रोने लगी थी। मैंने बड़ी कोशिश की लेकिन मेरे भी रुलाई आ ही गई
थी। उन्हें कैसे समझाती कि मेरी मजबूरी क्या है? वह बार-बार कह रही थीं
‘‘बेटा होली में भी नहीं आई। अब दिवाली भी।’’ उनको क्या बताती कि मम्मी जितना तुम
सब का मन होता है उससे ज़्यादा मेरा भी मन करता है, तुम सब के साथ रहने, खाने-पीने, मजे करने का। लेकिन फिर नौकरी का क्या होगा? तब तो हालात और खराब हो
जाएंगे। तब जो परेशानी होगी उससे यह दुख अच्छा है।’ बात पूरी करते-करते सांभवी
की आंखों से आंसू टपकने लगे।
हनुवा जो चेंज करने
के लिए उठी थी वह अपनी जगह खड़ी-खड़ी उसे सुनती रही। फिर उसके चुप होते ही बोली। ‘बड़ा गुस्सा आता है अपने लोगों की इस हालत पर। ना जीते हैं ना मरते हैं। इस समय
तो मैं खुद तुम सब पर डिपेंड हूं। पैसा मेरे पास होता तो तुम्हें देकर मैं घर जरूर
भेजती। चुप हो जा, खुद को ऐसे परेशान करने से फायदा भी क्या?’
हनुवा इतना कह कर
चेंज करने चली गई। एक बड़ा और एक छोटा कमरा, किचेन, टॉयलेट इतने में ही चारों सहेलियां रहती हैं। इन सबने अपनी जरूरतों में भी बहुत
सी कटौती कर रखी थी। इतनी ही चीजें साथ रखीं हैं कि बस ज़िंदगी चल जाए। चेंज कर के जब
हनुवा फिर आई कमरे में तो सांभवी लेटी हुई थी। उसे नींद नहीं आ रही थी। मन घर पर लगा
हुआ था। हनुवा को लगा कि शायद वो सोने के मूड में है तो वह आने के बाद चुप ही रही।
अपनी फोल्डिंग पर बैठी तो पूरानी होने के कारण उसके जंग लगे पाइप, क्लंपों से चरचराहट की आवाज़ आई। जिसे सुन कर दूसरी तरफ मुंह किए लेटी सांभवी ने
करवट ली और उसकी तरफ मुखातिब होकर कहा। ‘तुम्हें भूख नहीं लगी है क्या? बाहर कुछ हैवी नाश्ता कर लिया?
‘क्या यार तुम भी मजाक करती हो। ये तो
कहो वहां पैसे मिल गए थे,
तो आसानी से आ गई। नहीं तो आने के लिए किराया भी नहीं था। क्या
करूं मूड इतना खराब हो गया था कि कुछ खाने-पीने का मन ही नहीं हुआ। फिर वहां से निकलते-निकलते
ही बहुत देर हो गई थी।’
‘तो अब तो खा लो, कहो तो निकाल दूं’ सांभवी ने हनुवा की पस्त हालत देख कर कहा। हालांकि बात आधे-अधूरे मन से ही कही
थी। हनुवा ने कहा ‘क्या खाऊं, भूख तो लगी है। खाली पेट पानी, चाय पी-पी कर पेट अजीब सा हो रहा है।
दीपावली एकदम सामने खड़ी है। अभी तक घर कुछ पैसा भी नहीं भेज पाई। यह संयोग ही कहो कि
वहां से पांच हज़ार मिल गए। कल सुबह पहले यह पैसे पापा के अकाउंट में जमा कर दूं तब
जाकर मुझे चैन मिलेगा।’‘ठीक है, कुछ तो खा लो, नहीं तो गैस प्रॉब्लम करेगी। वैसे भी तुझे ये प्रॉब्लम बड़ी जल्दी होती है। चाहो
तो खिचड़ी गरम कर लो। ठंडी हो गई हो गई होगी, अच्छी नहीं लगेगी।’
‘क्या अच्छी-खराब, पेट ही तो भरना है, जिससे चलती रह सकूं।’
फिर हनुवा ने खाना खाया और अपनी फोल्डिंग पर बैठ गई । सांभवी
इस बीच बात करते-करते सो गई। उसकी नाक से खुर्र-खुर्र की हल्की आवाज़ आने लगी थी। हनुवा
की आंखों में नींद की कड़वाहट थी, लेकिन वह सो नहीं पा रही थी।
सांभवी की बातों
ने बड़ा उद्वेलित कर दिया था। कि उसके घर वाले उसे कितना चाहते हैं। उसे बार-बार बुला
रहे हैं। वह भी जाने के लिए तड़प रही है। लेकिन अपने घर वालों की खुशी के लिए इतना परेशान
है कि अपनी खुशी भी त्याग दी। यह सोच कर नहीं गई कि जाने पर किराए में ही बहुत सा पैसा
खर्च हो जाएगा। तो वह कम पैसा दे पाएगी। उनकी खुशियां कहीं कम ना हो जाएं, तो अपनी खुशी को त्याग दिया। बाकी दोनों सहेलियां पहले ही चली गईं।
एक मेरा घर है।
मेरे मां-बाप हैं। भाई, बहन हैं। सारी बातें हो जाती हैं। पैसे की भी बात हो जाती है। लेकिन इतने सालों
में कोई एक बार भी नहीं कहता कि तुम कब आओगी? या आओगे? शायद उनके पास मेरे लिए शब्द नहीं होते होंगे। कि आओगी कहें या आओगे। ये भाषा को
बनाने वालों को क्या ये ध्यान नहीं था कि हम जैसे लोगों के लिए भी कोई शब्द बनाते।
कि लोग हमें गे कहें या गी। आखिर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ता यदि हम जैसों के लिए भी
भाषा में हमें परिभाषित करने वाले भी शब्द होते।
ना ऊपर वाले ने हमारे लिए कोई क्लियर स्पेस निर्धारित
किया और ना नीचे वालों ने। लेकिन जब ऊपर वाले नहीं कर सके तो ये नीचे वाले कहां से
करते। इनकी क्या गलती? हनुवा इन उलझनों में से निकलने की कोशिश करने लगी। जिससे सो सके। थकान से चूर हो
रही थी। मगर दिल में घर की ओर से मिले ये शूल उसे ना सिर्फ़ बेध रहे थे। बल्कि जैसे
बार-बार हिल-हिल कर दर्द और बढ़ा रहे थे। दर्द उसके उस अंग में भी आज ज़्यादा हो रहा
था, जिसके कारण, ना वह इधर की थी ना उधर की। किधर की है इस पर भाषा तक मौन है।
मगर मां-बाप, वो क्यों मौन हैं? आखिर मैं उनकी संतान हूं। क्या यह सही है कि उनके बाकी बच्चों को किसी के ताने, किसी की हंसी, किसी की उपेक्षा ना सहनी पड़े, उनके बाकी बच्चों के शादी-ब्याह, कॅरियर पर कोई फर्क, कोई आंच ना आए, इसलिए एक बच्चे की बलि दी जा सकती है। क्या यह फार्मूला लागू होगा कि बाकी बच्चों
के हित के लिए यदि एक बच्चे की बलि की आवश्यकता है तो उसे बेहिचक दे देना चाहिए।
उसके मन की पीड़ा, उसके सारे दर्द से किसी
को कोई लेना-देना नहीं है। जैसे इस समाज को। और यदि यही करना था तो मुझे बचा कर क्यों
रखा? मार डाला होता। यदि इसके लिए हाथ नहीं उठा पाए, नहीं हिम्मत जुटा पाए तो
कम से कम हमें हमारे जैसे लोगों की दुनिया में जाने देते। वहां हम खुलकर अपने हिसाब
से सांसें तो लेते। हंस-बोल तो सकते।
कुछ छिपाने के लिए
हर क्षण चिंतित तो नहीं रहना पड़ता। हनुवा के मन में प्रश्नों की झड़ी लगी थी कि आखिर
उसके साथ ऐसा क्यों किया गया? और लोगों की तरह मुक्त होकर क्यों नहीं रह
सकती? उन्हीं की तरह नौकरी के लिए कहीं भी खुल कर ट्राई क्यों नहीं कर सकती? अन्य लड़कियों की तरह हर फैशन के कपड़े, बिंदास कपड़े क्यों नहीं पहन सकती? हां लड़कियों की तरह। उसका मन लड़कियों की ही तरह तो तितली बन आज़ाद उड़ना चाहता है।
उसका मन मचल-मचल उठता है। लड़कियों की तरह खिलखिलाने, उछलने-कूदने के लिए। मगर
वह कर कहां पाती है यह सब। हमेशा सबसे छिपती-फिरती है।
घर वाले भी तो बचपन से ही छिपाते आ रहे हैं। क्या-क्या
जतन नहीं किए और करवाए मुझसे। और मैं भी कैसे-कैसे जतन करती रहती हूं कि इस मन-आत्मा
से पूर्ण एक लड़की, शरीर से भी हूं ही। सिर्फ़ एक इस अंग को छोड़ कर। ईश्वर ने एक इस अंग के साथ भेद
कर मेरी आत्मा, मन को हर क्षण रोने के लिए क्यों विवश कर दिया है? एक अंग पुरुषों का, बाकी शरीर, दिल लड़कियों का देकर आखिर किस पाप की सजा दी है।
या यह एक ह्यूमन
एरर की तरह ही गॉड एरर है। जिसका परिणाम मैं भुगत रही हू। और एरर करने वाले को कोई
फ़र्क़ नहीं। इस एक एरर से जान मेरी जा रही है। तीन दिन से दर्द के मारे रहा नहीं जा
रहा है। कपड़े लूज पहनूं तो पोल खुलने का डर। आखिर क्या करूं, कहां मरूं जाकर?
हनुवा सोना चाह
रही थी, मगर दर्द जो अब काफी बढ़ चुका था उसके कारण वह लेट भी नहीं पा रही थी। खाने के बाद
दर्द बढ़ता ही जा रहा था। वह कभी बैठती, कभी लेटती, कभी कमरे में टहलती, टेस्टिकल में उठती दर्द की लहरों ने आखिर उसके बर्दाश्त की सीमा तोड़ दी। वह कराह
उठी। दर्द ऐसी जगह कि ना उसे कोई दवा सूझ रही थी। ना कोई और तरीका।
उसने सोचा जरूरत से बहुत ज़्यादा टाइट इनरवियर के
कारण तो यह नहीं हो रहा तो बाथरूम में जाकर उसे भी उतार आई। ऐसा वह इसलिए करती आ रही
है शुरू से जिससे कपड़े के ऊपर से भी कभी किसी को शक ना हो। मगर दर्द तो जैसे पीछे ही
पड़ गया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई जिससे उसके कराहने की आवाज़ सांभवी को जगा ना
दे। लेकिन आज तो ऐसा लग रहा था जैसे उसके साथ कुछ अशुभ होना तय है। दर्द इस कदर भयानक
हुआ कि हनुवा सिर कटी मुर्गी सी तड़फ उठी, फड़फड़ा उठी। उसे अब इस तरह की किसी बात
का ध्यान नहीं रहा कि सांभवी जाग जाएगी।
आखिर हुआ यही। उसके
रोने कलपने की आवाज़ से सांभवी की नींद खुल गई। वह उसके पास कमरे में पहुंची और उसे
एकदम से कंधों के पास पकड़ कर घबड़ा कर पूछा ‘हनुवा, हनुवा क्या हुआ तुम्हें। तुम जमीन पर क्यों पड़ी हो?’ सांभवी की आवाज सुन कर हनुवा की चैतन्यता अपनी सीक्रेसी को लेकर जैसे फिर सक्रिय
हो उठी। उसने तड़पते हुए पेट में दर्द की बात कही। टेस्टिकल की बात एकदम छिपा गई।
सांभवी ने उसे हाजमें की एक दवा शीशी से निकाल कर
दिया कि वह खा ले तो उसे आराम मिल जाएगा। लेकिन हनुवा ने मना कर दिया। क्यों कि दर्द
सच में कहां है यह तो वही जानती थी। यह भी जानती थी कि उसे हाजमें की दवा की नहीं उस
दवा की जरूरत है जो उसके टेस्टिकल में हो रहे दर्द को ठीक कर सके। लेकिन कौन सी दवा
चाहिए ये वो भी नहीं जानती थी।
दर्द से उसके रोने
कलपने को देख सांभवी घबरा उठी। उसने हनुवा से कहा कि वह थोड़ा धैर्य रखे, वह उसे हॉस्पिटल ले चलने की व्यवस्था करती है। लेकिन हनुवा ने उसे मना कर दिया।
वह जानती थी कि डॉक्टर के पास जाते ही पोल खुल जाएगी। लेकिन दर्द ने जैसे उससे होड़
लगा रखी थी कि वह उसे हरा कर छोड़ेगा, वह उसकी पोल खोल कर रहेगा। दर्द और
बढ़ गया। और भयानक हो गया।
उसे लगा जैसे उसके
युरिन ट्रैक में कांच के कई टुकड़े रेंग रहे हैं। गहरे घाव कर कर के दर्द और बढ़ा रहे
हैं। उसने अचानक ही महसूस किया कि उसे तेज़ पेशाब लग आई है। इतनी तेज़ कि तुरंत ना गई
तो कपड़े खराब हो जाएंगे। वह हड़बड़ा कर उठी, सांभवी ने उसकी मदद की। वह किसी तरह
दर्द से दोहरी होती। लड़खडा़ती टॉयलेट में घुस गई। इस हालत में भी वह अंदर से दरवाजा
बंद करना ना भूली।
पेशाब का प्रेशर
इतना तेज़ था कि वह बड़ी मुश्किल से क्षण भर में कपड़े खोल सकी। लेकिन पेशाब करना चाहा
तो लगा वह टैªक में ही करीब आकर फंस गई है। भयानक प्रेशर भी हो रहा था। और प्रेशर देने पर अंततः
भयानक दर्द के साथ यूरिन ट्रैक को जैसे चीरती हुई दो-तीन बूंदें टपकीं। जिसे देख कर
वह सहम उठी। वह यूरिन नहीं ब्लड था। पीड़ा कई गुना बढ़ गई। वह चीख पड़ी इस पर उसके और
बल्ड निकल आया। तभी दर्द के कारण वह गिर गई। उसे लगा जैसे उस पर बेहोशी छा रही है।
उसने कुछ सोच कर किसी तरह दरवाजे की सिटकनी खोली, लेकिन निकलने की कोशिश
में फिर लुढ़क गई।
जिस रहस्य को रहस्य
बनाए रखने के लिए उसने बरसों से इतना कुछ किया, अब उसे इस चीज की कोई सुध-बुध नहीं
रही। वह कपड़े भी पहन ना पाई। उसके पेट तक का हिस्सा बाथरूम से बाहर कमरे तक आ चुका
था। शेष बाथरूम में ही था। उसकी चीखों के कारण सांभवी दरवाजे पर ही खड़़ी थी। वह घबड़ा
कर उसे उठाने लगी। लेकिन बहुत कोशिश कर के भी वह उसे उठा नहीं पाई तो किसी तरह खींच-खांच
कर कमरे में ले आई। उसे कपड़े पहनाए। अब तक हनुवा पूरी तरह बेहोश हो चुकी थी।
हनुवा को जब होश
आया तो उसने अपने को एक हॉस्पिटल की एमरजेंसी में पाया। वह बेड पर थी। हाथ में ड्रिप
लगी हुई थी और प्राइवेट पार्ट में कैथेटर। आंखों में उसकी बहुत जलन हो रही थी। उसे
आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। वह बेहद छोटे से कमरे में थी। उसने उठना चाहा तो
देखा उसके दोनों हाथ बेड की साइड रॉड से बंधे हुए हैं। शरीर पर लाइट मिलेट्री ग्रीन
कलर की हॉस्पिटल की ड्रेस थी। ट्राउजर और शॉर्ट टी-शर्ट जैसी शर्ट।
बदन पर यह ड्रेस
देखकर वह सकते में आ गई। यह क्या? फिर क्षण भर में उसके सामने रात का दृश्य
उपस्थित हो गया। उसकी आंखें जैसे फटी जा रही थीं। वह रो पड़ी। आंसू ऐसे झरने लगे मानो
बादल ही फट पड़ा हो। शर्म ऐसे महसूस कर रही थी कि जैसे वह भरे चौराहे पर हज़ारों की भीड़
में अचानक ही निर्वस्त्र हो गई है।
अपने जिस तन को
वह पिछले पचीस वर्षों से बड़े जतन से सबकी नजरों से बचाती आ रही थी जिससे वह अपने विशिष्ट
तन के कारण, समाज में उपेक्षा, जलालत, हिमाकत सब से बची रहे। उसी रहस्य को इस मनहूस दर्द ने कैसे क्षण भर में बेपर्दा
कर दिया।
ना जाने किन-किन
लोगों ने उसे किशोर के गाये इस गाने की तर्ज पर देखा होगा कि ‘‘चांद की भी ना पड़ी जिनपे किरन, मैंने देखे उन हसीनो के बदन।’’ जिस बात को छिपाने के लिए उसने कितनी पीड़ा, कितनी तकलीफें झेलीं, कपड़े पहनने, सोने, कहीं जाने, हर क्षण क्या-क्या नहीं किया। वह क्षण में व्यर्थ हो गया। सांभवी ने ना जाने किस-किस
को बताया होगा। मैं तो कपड़े भी नहीं पहन पाई थी। इसने सभी फ्रैंड को फ़ोन कर दिया होगा।
उन सबने मेरे रहस्य को जान लिया होगा। रही-सही कसर यहां हॉस्पिटल में पूरी हो गई होगी।
यहां का स्टॉफ ना
जाने क्या सोच रहा होगा? सब मुझे झूठी धोखेबाज समझ कर गाली दे रहे होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सुबह के राउंड
पर आते ही डॉक्टर, स्टॉफ मुझे डांटे, निकाल बाहर कर दें। सांभवी नहीं दिख रही है। असलियत जानते ही भाग गई होगी। तो क्या
मैं यहां अकेली ही पड़ी रहूंगी? यहां के बिल का क्या होगा? पता नहीं कौन सा ट्रीटमेंट किया है? कोई यहां कुछ बताने वाला नहीं है। अब
क्या होगा? इस जलालत, शर्मिंदगी से तो अच्छा था कि मर ही जाती। सभी चले गए थे। ये सांभवी भी चली गई होती
तो अच्छा था। सबके सामने पोल तो ना खुलती। वहीं कमरे में बेहोश पड़े-पड़े मर जाती।
मगर ये भी मेरी
तरह पैसे से हमेशा खाली ही रहती है। हनुवा कमरे में एक छोटे से बल्ब की रोशनी में मन में उठ रहे बवंडर से तड़प उठी
थी भीतर तक। उसे यह सोचते देर नहीं लगी कि इस नर्क ज़िंदगी, सबसे कुछ छिपा कर जीने से अच्छा है कि मैं आत्महत्या कर लूं। ऊपर चल रहा यह पंखा
भी ज़्यादा ऊंचा नहीं है। बेड की यह चादर काम आ जाएगी। मगर तभी उसका ध्यान अपने बंधे
हुए हाथों की तरफ गया तो वह बिलख पड़ी। वह बंधे हुए थे। वह कुछ नहीं कर सकती थी। वह
विवश थी फिर से एक बार दुनिया का सामना करने के लिए।
वह नहीं समझ पा
रही थी कि अब वह पोल खुल जाने के बाद दुनिया का सामना कैसे करेगी? और यह दुनिया अब उसकी हक़ीक़त जानने के बाद उससे किस तरह का व्यवहार करेगी? क्या अब उस पर हंसी-ठिठोली अपमानजनक व्यवहार की बौछार होगी? क्या अब उसे कहीं नौकरी भी नहीं मिलेगी? सभी फ्रैंड थूकेंगी उस पर कि मैंने
उन सब को धोखा दिया। उनकी इज़्जत उनकी भावनाओं से खिलवाड़ किया। कोई आश्चर्य नहीं कि
यह सब मिलकर मेरी पिटाई ही कर दें। या पुलिस में कंप्लेंट कर दें कि मैं मर्द जैसी
कैपेसिटी की होकर उन सबको धोखा देकर साथ रही। उनके साथ लड़की बन कर रही। ये सब मुझे
कई सालों के लिए जेल भिजवा सकती हैं।
अपने बंधे हाथ को
उसने छुड़ाने की कोशिश की लेकिन वो बड़ी मज़बूती से बंधे थे। जोर लगाने पर जिसमें वीगो
लगा था उसमें दर्द होने लगा। दूसरे में भी पूरा जोर नहीं लगा पा रही थी। अपनी विवशता
पर उसे रोना आ रहा था, विवशता से ज़्यादा उसे अकेलापन कचोट रहा था। घर की याद आ रही थी। लेकिन जब घर के
लोगों की उपेक्षा, उसको लेकर उन लोगों का दिखावटी अपनापन याद आया तो दिल तड़प उठा कैसा घर ? किसका घर ? यहां पूरी दुनिया से मैं अपने को छिपाती फिरती हूं। और घर वाले मुझसे छिपते फिरते
हैं।
उन सबकेे हावभाव
से साफ पता चलता है कि वे नहीं चाहते कि मैं उन लोगों के पास पहुंचूं। सब कितनी फॉर्मेलिटी
करते हैं। कहीं मैं उन सबको कुछ ज़्यादा ही तो परेशान नहीं करने लगी? वो सब मुझे अपनी खुशियों पर लगा ग्रहण मानते हैं। मुझे अब यह सब समझना चाहिए। अपने
स्वार्थ के लिए कब तक उनके लिए ग्रहण बनी रहूंगी। वो मुझसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं।
मैं ही पीछे पड़ी रहती हूं। मगर लगता है कि अब समय आ गया है कि मैं बोल्ड स्टेप लूं।
उन सब लोगों से अब हमेशा के लिए सारे रिश्ते खत्म कर लूं।
बस एक बार जाकर
किसी तरह और मिल लूं। फिर कभी उस घर क्या, उस शहर की तरफ भी अब मुंह नहीं मोडूँगी
। हनुवा बेड पर पड़े-पड़े आंसू बहाती रही, बंधे हुए हाथ बहुत परेशान कर रहे थे।
उसने सोचा कि किसी को आवाज़ दूं। बुलाऊं और कम से कम हाथों को खुलवा तो लूं। डॉक्टर, नर्स को जब आना होगा तब आएंगे। उसने दो-तीन बार आवाज़ दी ‘एस्क्यूज मी, कोई है?’ मगर कोई रिस्पांस नहीं मिला। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने फिर आवाज़ दी तो दरवाज़ा
खुला और उनींदी सी सांभवी अंदर आई। उसने आकर उसके सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा
‘अब कैसी हो हनुवा?’
हनुवा कुछ बोल ना
सकी। वह सकपकायी सी सांभवी को देखती रही। सांभवी का व्यवहार उसकी सारी आशंकाओं के विपरीत
अत्यंत प्यार, अपनत्व भरा था। हनुवा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले। उसकी आंखों
से आंसू निकल कर पहले की तरह उसकी कनपटी भिगोते रहे। तो सांभवी बोली ‘क्या हुआ हनुवा? इस तरह क्या देख रही हो? अब तबियत कैसी है?’ इस बार हनुवा ने सिसकते हुए पूछा ‘यहां मुझे तुम ले आई?’ उसके होठ फड़क रहे थे।
उसकी हालत देखकर सांभवी समझ गई कि हनुवा की इस समय
असल परेशानी क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है? उसने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते
हुए कहा ‘मैं समझ रही हूं तुम क्या सोच रही हो, क्या जानना चाहती हो? तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। यहां भी किसी को कोई प्रॉब्लम नहीं हुई।
और होगी भी नहीं, क्यों कि उनको तो पैसों से मतलब है।
डॉक्टर के लिए पेशेंट
सिर्फ़ पेशेंट होता है। और कुछ नहीं। और घर से मैं तुम्हें अकेले ही ले आई थी। एम्बूलेंस
से। घर पर कपड़े मैंने ही पहनाए थे। हनुवा यह समय यह सब सोचने,परेशान होने का नहीं है। तुम पहले ठीक हो जाओ। घर चलो तब सोचना। फिर इसमें सोचना
क्या है? बहुत से लोग हैं इस तरह से। दुनिया में सबकी तरह अपनी नॉर्मल लाइफ जी रहें हैं।
देखती नहीं कितनी
हैं तुम्हारी जैसी, जो जज, विधायक, मेयर, प्रिसिंपल, पुलिस बनी हैं। अपनी परफार्मेंस से बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ाए हुए हैं। मैं तो समझ
नहीं पा रही हूं कि तुम अपनी फिज़िकल कंडीशन के कारण अपने को क्यों इतना टार्चर करती
आ रही हो। मैं तुमसे इस बारे में बहुत पहले ही बात करना चाह रही थी। लेकिन तुम्हें
जब खुद को हद से ज़्यादा छिपाते देखती तो चुप हो जाती।’ सांभवी की यह आखिरी बातें सुनते ही हनुवा चौंकते हुई बोली ‘क्या-क्या तुम?’
सांभवी ने उसे बीच
में ही रोकते हुए कहा ‘हनुवा जब तुम हम लोगों के साथ रहने आई थी तो तीन महीने बाद ही मैं बाइचांस ही तुम्हारे
बारे में जान गई थी।’
हनुवा चौंकी। उसने
फटी-फटी सी आंखों से उसे देखते हुए पूछा ‘क्या?’
‘हां हनुवा।’
‘तो तुमने उस समय कुछ कहा नहीं। मैं
बड़े आश्चर्य में हूं।’
‘हनुवा मैं इस समय भी कहां कुछ कह रही
हूं। तुम बेवजह परेशान हो रही हो।’
‘नहीं मेरा मतलब बाकियों ने भी कुछ नहीं
कहा।’
‘बाकियों से मैंने कुछ बताया ही नहीं।
वे सब कुछ नहीं जानती। हां मेरी ही तरह बाकी सब भी जान गई होंऔर मेरी ही तरह कुछ नहीं
कहा तो मैं नहीं कह सकती। लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि वे सब नहीं जानतीं। क्योंकि
उन सबने मुझसे इस बारे में आज तक कोई बात नहीं की। इसलिए तुम निश्चिंत रहो।
‘मगर तुम, तुम्हें गुस्सा नहीं आया कि मैंने.....’
‘हनुवा पहले ठीक हो जाओ, घर चलो तब यह सब बातें करना कि मुझे गुस्सा आया या नहीं आया, मैं क्यों अब तक चुप रही? आगे रहूंगी या नहीं? आगे क्या होगा? यह सब घर चल कर। हां इतना जरूर कहूंगी कि तुम बिल्कुल शांत रहो। कोई टेंशन लेने
की ज़रूरत नहीं। किसी तरह की कोई प्रॉब्लम नहीं है। जो होगा, अच्छा ही होगा।’
सांभवी ने यह कहते
हुए एक बार फिर उसके सिर को प्यार से सहला दिया। हनुवा को लगा कि जैसे ना जाने कितना
बड़ा बोझ सांभवी के स्पर्श ने उतार दिया। आंखें उसकी फिर भर आई थीं। तभी दरवाज़ा हल्की
सी आवाज़ के साथ खुला। डॉक्टर नर्स के साथ आए। उससे हाल-चाल पूछा। चेकप किया। और चले
गए। वह बड़ी जल्दी में दिख रहा था।
हनुवा को फिर आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर, नर्स ने भी कुछ नहीं कहा। नर्स ने बड़े यंत्रवत ढंग से उसके हाथ खोले थे। ड्रिप
निकाल दी थी। वीगो भी। वहां एक बैंडेज लगा दिया था। हनुवा इतनी हैरान, परेशान थी, सहमी हुई थी कि सांभवी से पंद्रह मिनट की बातचीत के दौरान कई बार मन में आने के
बाद भी हाथ खोलने के लिए कहने की हिम्मत नहीं कर सकी थी।
दिन में करीब तीन
बजे तक उसे डिस्चार्ज कर दिया गया। उसे दवाएं वगैरह दे दी र्गइं। कुछ दवाएं बाहर से
लेनी थीं। एक हफ्ते बाद फिर आकर चेकप कराना था। उसकी किडनी में दो से तीन एम.एम. तक
के कई स्टोन थे। उन्हीं के कारण यह भयानक दर्द उठा था। शाम को वह सांभवी के साथ घर
पहुंची। हनुवा बहुत थकान और कमजोरी महसूस कर रही थी। सांभवी ने उसे एक गिलास संतरे
का जूस दिया। आते समय वह लेते हुए आई थी। दवाएं भीं। हनुवा बेड पर लेटने की बजाय बैठी
रही तो सांभवी ने कहा ‘लेट जाओ। आराम करो।’
हनुवा ने कहा ‘नहीं लेटने का मन नहीं हो रहा है। तुम भी तो कल से थकी हो।’
‘हां... लेकिन मेरी और तुम्हारी थकान
में फ़र्क है। और मैं यह भी जानती हूं कि तुम लेटना क्यों नहीं चाहती। तुम अब बेचैन
क्यों हो?’ सांभवी की बात सुनकर हनुवा कुछ देर चुप रही, बैठी रही अपनी जगह। इस
बीच सांभवी ने दूसरे कमरे में जाकर कपड़े चेंज किए। हॉस्पिटल जिन कपड़ों में गई थी उन्हें
बाथरूम में डाला। हनुवा को भी एक सेट कपड़ा लाकर देते हुए कहा ‘चेंज कर लो। फ्रेश महसूस करोगी।’
हनुवा ने उसे प्रश्न
भरी निगाहों से देखते हुए कपड़े लिए तो सांभवी ने पूछा ‘ऐसे क्या देख रही हो?’
‘मैं-मैं ये पूछ रही थी कि हॉस्पिटल में कितना पैसा लगा।
कैसे मैनेज किया तुमने।’‘थोड़ा आराम करने के बाद पूछती। इतनी जल्दी क्या है।‘‘नहीं सांभवी मैं बहुत बेचैन हो रही हूं।’’
‘अच्छा! ऐसा है कि हॉस्पिटल में करीब
दस हज़ार लग गए। ये प्राइवेट हॉस्पिटल वाले ट्रीटमेंट के नाम पर लूटते हैं। मामूली सा
हॉस्पिटल था फिर भी इतना पैसा ले लिया। उस समय तुम्हारी हालत देखकर मैं घबरा गई थी।
इसलिए जैसे ही यह हॉस्पिटल नजर आया यहीं पहुंच गई। एम्बुलेंस की मुझे उम्मीद नहीं थी
कि इतनी जल्दी आ जाएगी। मगर मौके से सब होता गया। और तुम हॉस्पिटल पहुंच गई।’
‘और पैसे ? वह कैसे मैनेज किए?’
‘वह भी बाइचांस ही समझो। पांच हज़ार तो
मैंने तुम्हारी पर्स से ही निकाले। वही जो तुम्हें कल ही उस कंपनी से मिले थे। करीब
चार हज़ार मेरे पास थे। मैं आज ही यह पैसे भी घर भेजने वाली थी। मगर तुम्हारी हालत देखकर
प्लान बदल दिया। बाकी पांच हजार ऊपर वाली फ्रेंड से लिए वह सब भी आज ही अपने घर चली
गईं।
सभी ने त्योहार
की वजह ज़्यादा पैसे नहीं दिए। लेकिन फिर भी सबने थोड़े-थोड़े दिए तो पांच हज़ार हो गए।
उससे काम चल गया। अभी मेरे पास करीब डेढ़ हज़ार रुपए और हैं। आगे हफ्ते भर की दवाओं का
तो काम चल जाएगा लेकिन उसके बाद भी अगर दवा चली तो कुछ और इंतजाम करना पड़ेगा। बाकी
खाने-पीने का भी सारा सामान खत्म ही है।’
सांभवी की बात सुनकर
हनुवा की आंखें भर आईं। वह बड़ी देर तक बुत बनी रही। फिर बोली ‘सांभवी तुम सबका यह अहसान कभी ना भूलुंगी। तुमने तो जिस तरह से मैनेज किया उसके
लिए तो वर्ड्स ही नहीं निकल पा रहे हैं। तुमने तो फ्रैंड नहीं एक पैरेंट्स का रोल प्ले
किया है। तुम ना होती तो मैं निश्चित ही ना बच पाती।’ कहते-कहते हनुवा भावुक हो गई। गला रूंध गया। आंखें भर र्गइं। उसे इतना भावुक देखकर
सांभवी भी भावुक हो गई। वह उसके करीब जाकर बोली ‘क्या हनुवा, ये तुम क्या अहसान-वहसान लेकर बैठ गई।
अरे हम एक जगह रहते
हैं, एक दूसरे की हेल्प हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? घर वाले तो यहां रहते नहीं।
यहां तो हमीं लोग एक दूसरे के फ्रेंड, नेवर, पैरेंट्स सब कुछ हैं। तो हम एक दूसरे की हेल्प नहीं करेंगे तो कौन करेगा। और इतना
टेंशन करने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें ऐसी कोई बिमारी नहीं है कि जान चली जाए। मामुली
सी स्टोन की बात है। वो भी दो-तीन एम.एम. के हैं। बाकी पैसों की जो प्रॉब्लम है वह
भी देखी जाएगी। हमेशा ऐसा ही तो नहीं चलता रहेगा ना। अब तुम लेटो, आराम करो।’
सांभवी की बात सुनकर
हनुवा एकदम से कुछ ना बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद बात को बदलते हुए बोली ‘तुम घर कब जाओगी ?’ हनुवा को सांभवी एक दिन पहले ही बता चुकी थी कि वह नहीं जा रही। लेकिन फिर भी हनुवा
के मुंह से यह अचानक ही निकल गया। हनुवा की यह बात सुनकर सांभवी के चेहरे के भाव बदल
गए। वह तुरंत कुछ ना बोल पाई। कुछ देर चुप रही तो हनुवा ने फिर पूछा ‘क्या हुआ ? तुम ऐसे चुप क्यों हो ?’
तो सांभवी ने कहा ‘अब क्या बताऊं? घर जाने की पूछ रही हो। मगर अब मुझे घर जाने की बात सोच कर ही डर लगने लगता है।’
‘घर जाने से डर लगने लगा है। क्या कह
रही हो? ऐसा क्या हो गया?’
‘हां हनुवा। जैसे ही वहां जाने की बात
आती है वैसे ही मैं घबरा उठती हूं। मन घबराने लगता है। वहां भाई-बहनों, पैरेंट्स और टूटते जा रहे मकान की हालत परेशान कर देती है। जब तक यहां रहती हूं
तब तक कुछ रिलैक्स महसूस करती हूं। या जब तक घर भूली रहती हूं। याद आती है तो घबरा
उठती हूं। पापा रिटायरमेंट के करीब पहुंच रहे हैं। फाइनेंसियल क्राइसेस इतनी है कि
मदर की तबियत बराबर खराब रहती है। लेकिन उनके ट्रीटमेंट के लिए पैसा नहीं है। मेंटीनेंस
ना होने के कारण मकान टूटता जा रहा है। जाती हूं तो यह सारी बातें लगता है जैसे मुझे
नोच रही हैं।
पापा की हालत देखती हूं। उनके चेहरे पर इन सारी समस्याओं
के लिए जो तड़फड़ाहट देखती हूं उससे दिमाग की नसें फटने लगती हैं। वो लोग हंसना-बोलना
तो जैसे भूल ही गए हैं। पापा तो गंभीरता की मूर्ति बन गए हैं। बड़ा से बड़ा ज़ोक सुना
डालो लेकिन हंसी तो छोड़ो उनके चेहरे पर मुस्कान की लकीर भी पूरी नहीं बनती। मुझे लगता
है जैसे हम सारे बच्चे पैरेंट्स के लिए खत्म ना होने वाली मुसीबत बन गए हैं। जब तक
घर पर रहो, मां से बात करो तो वो हम सबके भविष्य को लेकर इस कदर परेशान रहती हैं कि बस यही
कहेंगी-
‘‘तुम तीनों की शादी का क्या करूं? कहां करूं?’’ जब पापा-अम्मा बैठते हैं अकेले तो भी उनके बीच घूम फिर कर बातें हमारी शादी पर
ही केंद्रित होती हैं। वो लोग तब से और ज़्यादा परेशान, डरे रहते हैं जब से पास ही की एक फैमिली की लड़की किसी के साथ भाग गई। उस फैमिली
की भी फिनांसियल कंडीशन हमारे ही जैसी थी।’
यह कह कर सांभवी
फिर भावुक हो गई थी। हनुवा ने उसके चुप होते ही कहा ‘कोई भी पैरेंट्स बच्चों की शादी को लेकर आखिर क्षण तक हार नहीं मानता। वो हमेशा
ही इसी कोशिश में रहते हैं कि बस बच्चों की शादी हो जाए। हां आस-पास की ऐसी घटनाएं
हर संवेदनशील मां-बाप को परेशान करती ही हैं। तुम्हारे पैरेंट्स भी इसी तरह कोशिश में
लगे ही होंगे। उन्होंने हार नहीं मानी होगी।’
हनुवा की बात पर
सांभवी बड़ी उदासी भरी मुस्कान के साथ बोली ‘हमें रियलिटी को फेस करने की भी आदत
डालनी चाहिए हनुवा। जो सच है उसे मान लेना चाहिए। आखिर उससे आंखें चुराने से क्या सचाई
बदल जाएगी? मैं अपने पैरेंट्स से कई बार बोल चुकी हूं कि घर की जो कंडीशन है उसे एक्सेप्ट
करिए।
हम एक भी शादी का
खर्च उठाने के काबिल नहीं हैं, इस लिये आप हमारी चिंता छोड़ कर निश्चिंत
हो कर जिएं। उस बारे में सोचना ही क्या जो हमारे वश में नहीं है। लेकिन वो लोग समझते
नहीं। एक हारी हुई लड़ाई को लड़ते हुए खुद को खत्म किए जा रहे हैं। हनुवा मैंने शादी, हसबैंड, बच्चे इन सारी बातों के बारे में तभी से सोचना बंद कर दिया है जब से यह समझने लायक
हुई कि एक लोअर इंकम ग्रुप के व्यक्ति के लिए अपने तीन-चार बच्चे पालना कितना कठिन
है।
इज्जत के लिए एवरी
टाइम लड़ते रहने वाले इन लोगों के लिए इस डॉवरी एरा में अपनी एक भी लड़की की शादी कर
पाना उतना ही मुश्किल है जितना किसी एक्यूपमेंट के बगैर पानी पर चलना। तैरना नहीं।
ऐसे में तीन लड़कियों की शादी के बारे में सोचना मेरी नजर में किसी पागलपन से कम नहीं
है। और जिस दिन मेरी समझ में यह आया मैंने उसी दिन से मैरिड लाइफ, फ़ैमिली के बारे में सोचना ही बंद कर दिया।
यह मान लिया कि
यह जीवन ऐसे ही बीतेगा। क्यों कि अपने देश में डॉवरी लेने की मानसिकता पूरे समाज का
एक जींस बन चुकी है। जो किसी कानून, या गोली से नहीं बदलने वाली। इसे जैसी
एजूकेशन से बदला जा सकता है, वह हमारे यहां है ही नहीं। और हो भी जाएगी
तो मानसिकता बदलने में दो जनरेशन तो कम से कम निकल ही जाएगी। अब तुम्हीं बताओ ऐसे में
कोई स्कोप नजर आता है तुम्हें। कोशिश तो मेरे पैरेंट्स जब हम बहने सत्तरह-अठारह की
हुई तभी से कर रहे हैं। देखते-देखते दस साल बीत गए। लेकिन तब जहां से स्टार्ट हुए थे
आज भी वहीं के वहीं खड़े हैं।
हनुवा मैं ये सोच
कर परेशान होती हूं कि मैंने तो यह डिसाइड कर लिया है। लेकिन दोनों बहनों का क्या करूं? पता नहीं वो दोनों मेरी तरह कोई निर्णय ले चुकी हैं। या अब भी शादी का सुंदर सपना
लिए जीए जा रही हैं। मेरी तरह वह दोनों भी जानती है कि डॉवरी के लिए पैंरेंट्स के पास
पैसे नहीं हैं। और उसके बिना शादी होनी नहीं। उन बेचारियों की भी लाइफ बस यूं ही खत्म
हो जाएगी। उन दोनों को लेकर मैं यह सोच कर भी परेशान होती हूं कि वह इन्हीं बातों के
चलते कहीं पड़ोस वाली लड़की की तरह कोई क़दम ना उठा बैठें।’
‘लेकिन सांभवी मैं तो समझती हूं कि इस
डॉवरी का जवाब यही है कि लड़के लड़कियां लव मैरिज कर लें।’‘ऐसा होता तो कितना अच्छा होता हनुवा,मैं खुद कर लेती। पैरेंट्स की सारी
टेंशन दूर कर देती। लेकिन उधर जहां डॉवरी की समस्या है, वहीं इधर धोखाधड़ी की भी प्रॉब्लम है। लव के नाम पर आगे बढ़ते हैं, लड़की को यूज करते हैं फिर डिस्पोजल गिलास की तरह फेंक कर दूसरी पकड़ लेते हैं। लड़की
विरोध करती है तो मार देते हैं।
एसिड डाल देते हैं।
ब्लू फ़िल्म बना कर ब्लैक-मेल करते हैं। पॉर्न इंडस्ट्री में ये फ़िल्में डाल कर वहां
से पैसे कमाते हैं। व्हाट्स ऐप पर डाल देते हैं। इतना ही नहीं अपने रीलिजन भी बदल कर
फंसाते हैं। फिर रीलिजन चेंज करने को विवश करते हैं, ना करो तो मार डालते हैं।
इधर डॉवरी की आग है। तो दूसरी तरफ भी यही है। मैरिड लाइफ की खुशियां पाने के लिए जो
लाइफ है उस को ही रिस्क में डालने से मैं बचना चाहती हूँ बहनें क्या करेंगी ये वो ही
जाने, मैं बड़ी होने के बावजूद उनसे ऐसी कोई बात डिस्कस नहीं करती। क्यों कि दोनों ही
मुझसे कभी-कभी इतना रफ बोल देती हैं कि मन नहीं करता कि बात करूं।
कुछ साल पहले पढ़ने-लिखने
के लिए मैंने कुछ बात की थी। तो छोटी ने जिस बदतमीजी से बात की उसके बाद से मैं हिम्मत
नहीं कर पाती। हनुवा मैं सिर्फ़ इतना जानती हूं कि जब तक पैरेंट्स हैं तब तक ही मेरा
घर से रिलेशन है। उनके बाद मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती कि भाई-बहन कोई रिलेशन रखेंगे।
अभी से तीनों मुझसे ठीक से बात तक नहीं करते तो आगे क्या करेंगे?’
सांभवी अपनी बात
पूरी करते-करते भावुक हो उठी। उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे थे। उसकी हालत से ऐसा लग
रहा था जैसे वह बरसों से भरी बैठी थी। मगर वह किसके सामने अपनी बात कहे, कब कहे कभी उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आज संयोगवश ऐसे हालात बने कि उसका
गुबार फूट पड़ा। वह रोक ना सकी। और कह दिया। लेकिन उसके मन में जो भरा था वह कुछ ही
निकल पाया। जो अतिरिक्त प्रेशर था वह सेफ्टी वॉल्व के रास्ते निकल गया। मगर शेष उसके
मन में,उसके अंदर भरा ही रहा।
वह अपने फोल्डिंग
बेड पर एकदम निश्चल बनी बैठी रही। हनुवा के सिर के ऊपर दीवार पर एकटक ऐसे देखती रही
जैसे वहां बने किसी बिंदू पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रही हो। और हनुवा उसे
अचरज भरी निगाहों से देखती रही। कि ऐसी हंसमुख, हमेशा खुश रहने वाली लड़की के अंदर इतना
दुख इतना मैग्मा भरा हुआ है। फिर भी यह कैसे हंसती मस्त रहती है। यह आखिर किस मिट्टी
की बनी है? आज इस समय भी अपनी घुटन को ये पूरा कहां ओपन कर रही है। लगता है जैसे आवेश में
आकर सब कुछ बोलने वाली थी। लेकिन फिर खुद को संभाल लिया। और फिर से खुद में कैद हो
गई। इतना टेंशन इसके लिए अच्छा नहीं है। इसका दिमाग इस समय कहीं और ट्रांसफर करना जरूरी
है। यह सोचते ही हनुवा ने कहा ‘सांभवी...’ अपना नाम सुनते ही सांभवी हनुवा की तरफ देखते हुए धीरे से बोली ‘हूं’
हनुवा ने उसे बड़े
प्यार, स्नेह से देखते हुए कहा ‘सांभवी तुम मेरी वजह से कल से ठीक से खा-पी
नहीं सकी हो। थकी भी बहुत हो। मैं सोच रही थी कि तुम इस समय कुछ बनाने के झंझट में
नहीं पड़ो। मार्केट से ही अपनी पसंद का कुछ चटपटा सा खाने को ले आओ। मेरे लिए कुछ सादा
सा ले लेना।’
हनुवा की बात सुन
कर सांभवी ने कहा ‘अरे तुम भी कैसी बात करती हो। मैं थकी-वकी नहीं हूं। मैं बना लूंगी। सॉरी तुम्हें
भूख लगी होगी मैं बातों के चक्कर में भूल ही गई। थोड़ा जूस रखा हुआ है। मैं तुम्हें
देती हूं। उसके बाद जल्दी से बनाती हूं कुछ।’
‘नहीं सांभवी मुझे भूख नहीं लगी है।
मैं तो तुम्हारे लिए कह रही हूं। थकी हो बाहर ही से ले आओ कुछ।’
‘हनुवा मुझे तुम्हारी दवा की चिंता है।
मैं पैसे बचा कर रखना चाहती हूं। तुम बेवजह टेंशन ले रही हो। मैं बना लूंगी।’
लेकिन हनुवा की जिद के आगे सांभवी को मानना पड़ा।
वह बाहर से अपने लिए मसाला डोसा ले आई। और हनुवा के लिए पैक्ड फ्रूट जूस ले आई। पाइन
एप्पल का। और बिल्कुल सादी,
दाल रोटी, चावल भी। साथ ही सांभवी ने डिश टीवी का भी
पेमेंट किया। वो आज ही बंद होने वाला था। वह अपने अंदर चल रहे द्वंद्व से बचना चाह
रही थी। सोचा नींद जल्दी आएगी नहीं। टीवी भी नहीं चलेगा तो मारे टेंशन के रात काटनी
मुश्किल हो जाएगी। हनुवा तो दवा खा कर सो जाएगी।
दोनों ने साथ खाया।
हनुवा ने दवाओं से खराब हो चुकी जबान का टेस्ट बदलने के लिए सांभवी से डोसा का थोड़ा
हिस्सा ले लिया था। अब टीवी चल रहा था। सांभवी ने जो चैनल ऑन किया था उस पर उस वक्त
फीयर फैक्टर कार्यक्रम चल रहा था। जिस में चार-मेल, चार फीमेल कंस्टेस्टेंट
हिस्सा ले रहे थे। उन्हें स्टंट के कई स्टेप क्रॉस करने थे। हनुवा को यह प्रोग्राम
पसंद था। उसने सांभवी से यह प्रोग्राम चलने देने के लिए कहा। सांभवी ने वही प्रोग्राम
चलने दिया।
सच यह था कि दोनों की नजरें टीवी पर थीं। लेकिन मन
में उनके कुछ और चल रहा था। कुछ ऐसा जो उन्हें भीतर ही भीतर विचलित कर रहा था। सांभवी
अपने जीवन में उजाले की किरण किधर से आएगी उस दिशा को तलाशने में लगी थी। मगर हनुवा
की हालत कुछ और थी, वह सांभवी से यह पूछना चाहती कि उसने कब कैसे जान लिया कि वह वास्तव में कैसी है? क्या है? जब जान गई तो क्यों चुप रही? क्या वजह है कि वह बात को बिल्कुल पी गई, कभी डिस्क्लोज नहीं किया।
मुझसे सबसे ज़्यादा यही बात करती है। लेकिन बातचीत
में कहने को भी कोई ऐसा इंडीकेशन कभी नहीं दिया कि डाउट होता। और आखिर मुझसे कब ऐसी
लापरवाही हो गई कि यह मेरे जीवन का सबसे सीक्रेट रहस्य जान गई। वह बड़ी देर तक सांभवी
से पूछने की हिम्मत जुटाने के बाद बोली ‘सांभवी एक बात पूछूं।’ टीवी की तरफ नजर किए अपने में खोई सांभवी धीरे से बोली ‘हूं पूछो।’
लेकिन हनुवा संकोच
में चुप रही तो सांभवी ने फिर कहा
‘पूछो, हनुवा इतना संकोच क्यों कर रही हो?’
‘नहीं मैं...मैं सोच रही हूं कि तुम
अपसेट ना हो जाओ। मैं सच कहती हूं कल से मैं यह सोच कर भी डर जाती हूं कि कहीं तुम
नाराज हो गई तो मैं यहां किसे अपना कहूंगी? मैं तो इस अंधेरी दुनिया में बिल्कुल
अकेली हो जाऊंगी।’ हनुवा की इस बात ने सांभवी को कुछ पसोपेश में डाल दिया। उसने हनुवा को देखते हुए
कहा ‘अरे हनुवा ऐसी क्या बात है? तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?’ इतना कहती हुई वह उठकर हनुवा के पास पहुंची, उसके दोनों कंधों को प्यार
से पकड़ कर पूछा ‘बताओ हनुवा क्या बात है? क्यों इतना परेशान हो?’ सांभवी हनुवा के ही पास बैठ गई।
‘सांभवी तुमने कहा था कि मेरे यहां आने
के कुछ दिन बाद ही तुम मेरे बारे में जान गई थी। लेकिन कैसे? मैं तो खुद को खुद में इतना भीतर कैद किए रहती थी। फिर कैसे जान गई? तुम्हारे अलावा और किसको-किसको मेरे इस सच के बारे में पता है।
‘ओफ्फो.... हनुवा तुम अभी भी इसी बात
में उलझी हो। आराम करो ना।’
‘प्लीज सांभवी, मुझे सच-सच बताओ ना। बता दोगी तभी मैं रिलैक्स हो पाऊंगी। आराम तो खैर मेरे जैसों
को जीवन में कहां मिलता है।’ हनुवा के आग्रह से सांभवी समझ गई कि यह सच
कह रही है। यह सारी बात जानने के बाद ही रिलैक्स हो पाएगी, इसकी मुश्किलें इतनी हैं कि यह इस एक और प्रेशर से और ज़्यादा परेशान होगी? वह बोली ‘तुम इतना परेशान हो रही हो तो बता रही हूं।
उस दिन मैं गुरुग्राम गई थी। एक इंटरव्यू देने। ऐड
में कंपनी के बारे में जिस तरह दिया गया था उससे मैंने समझा कि बड़ी कंपनी है। अच्छा
पैकेज देगी। वॉक इन इंटरव्यू था। मगर जब पहुंची तो मैंने अपने को बिल्कुल ठगा पाया।
कंपनी की बर्बाद हालत देख कर लगा कि इससे बढ़िया तो जहां हूं वही सही है। मैं बिना इंटरव्यू
दिए लौट आई। बाहर इतनी गर्मी इतनी तेज़ धूप थी कि मुझे लग रहा था कि जैसे मैं झुलस गई
हूं। पसीने से सारे कपड़े भीग गए थे। लू ना लग जाए इससे भी डरी जा रही थी। क्यों कि
उसके पिछले ही साल लू लगने से तबियत बहुत खराब हो गई थी।
मैं कंपनी को मन
ही मन गाली देते, यहां पहुंची। दरवाजा खोला तो देखा कि पंखा पूरी स्पीड में चल रहा है और तुम गहरी
नींद में सो रही हो। पसीने से भीगी होने के कारण मुझे पंखे की हवा बहुत अच्छी लग रही
थी। मैं कुछ देर पंखे के एकदम नीचे खड़ी हो गई। तभी मेरी नजर दुबारा तुम पर गई। तुम
बिल्कुल चित्त हाथ-पैर फैलाए बेसुध सो रही थी। पंखे की तेज़ हवा से तुम्हारे बाल इधर-उधर
फैले हुए थे। तुम उस वक्त इतनी इनोसेंट लग रही थी कि क्या बताऊं। जो भी होता वह कुछ
देर तो जरूर देखता रह जाता।
अचानक मेरी नजर
तुम्हारे चेहरे से हट कर नीचे गई तो मैं एकदम शॉक्ड रह गई। तुम्हारे कुर्ते का निचला
हिस्सा पंखे की हवा से मुंड़ कर ऊपर हो गया था। और तुमने शायद ब्रीफ भी नहीं पहना था, और वहां अचानक ऐसा कुछ देखा कि मैं हक्का-बक्का रह गई। एक बार तो मैं सशंकित हुई
कि मैं कहीं किसी दूसरे घर में तो नहीं आ गई। कुछ क्षण तो यकीन नहीं हुआ। मैंने नजरें
गड़ा दीं। मगर समझ नहीं पा रही थी। पता नहीं तुम उस समय कोई वल्गर सपना देख रही थी, या तुम्हें वॉशरूम जाने की बेहद सख्त जरूरत थी। तुम्हारा प्राइवेट पार्ट इस बुरी
तरह उठा हुआ था कि मैं देख कर एकदम सकते में आ गई। यकीन करने के लिए मुझे कई बार देखना
पड़ा। मैं... सच बताऊं हनुवा उस समय मैं गुस्से से एकदम पागल हो रही थी। मन कर रहा था
कि वहीं पास में रखा पानी का जग उठाऊं और उसी से तुम्हारे चेहरे पर बार-बार मारूं।
जिस मुंह से तुमने
हम सब को धोखा दिया, झूठ बोला। उसे ही तोड़ दूं। एक मर्द होकर हम लड़कियों के साथ गर्ल्स हॉस्टल में रह
रही हो। हम सबके साथ सोते में या ना जाने कब क्या किया हो? मगर तुम्हारी स्ट्रॉंन्ग बॉडी के सामने डरी रही। अकेले होने का डर अलग था। हनुवा
अगर बाकी तीनों भी साथ होतीं तो सच कह रही हूं कि मैं हाथ उठा देती। गुस्से में क्षण
भर में ना जाने कितनी बातें दिमाग आती चली जा रही थीं। फिर मैं कभी तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे ब्रेस्ट तो कभी उस पार्ट को देखती। अचानक ब्रेस्ट देखते-देखते यह समझ
पाई कि तुम ना मेल हो, ना फीमेल, तुम तो....।’
सांभवी इसके आगे
ना बोल पाई। उसकी आंखें भर आई थीं। और हनुवा की आँखें भरी नहीं..... उनसे आंसूओं की
धार बह रही थी। सांभवी को बात अधूरा छोड़ता देख उसने उसे पूरा करते हुए कहा ‘मैं तो .... हिजड़ा ...हूं.......।’
हनुवा इसके आगे
ना बोल सकी। वह अपने घूटनों के बीच चेहरा कर फूट-फूट कर रो पड़ी। सांभवी ने उसे चुप
कराने की कोशिश की लेकिन हनुवा रोती ही जा रही थी। घुटनों से सिर ऊपर कर ही नहीं रही
थी। रोते-रोते उसकी हिचकियां बंध र्गइं।
सांभवी बड़ी देर
में उसे चुप करा सकी। उसे पानी पिलाया। फिर बोली ‘हनुवा तुम इतना सेंटी हो
जाओगी मुझे मालूम होता तो मैं कभी कुछ ना कहती। जैसे इतने दिन कभी कुछ नहीं कहा। आगे
भी ना कहती।’
‘सांभवी तुम्हीं बताओं मैं क्या करूं? बचपन से हर क्षण घुट-घुट कर जी रही हूं। हमेशा दुनिया से अपने को छिपाते-छिपाते
घूम रही हूं। हर सांस में यही डर कि कोई जान ना जाए। लेकिन फिर भी सब बेकार। दुनिया
की नजरों से बच नहीं पाती। तुम जान गई। ऐसे ही और ना जाने कितने लोग जानते होंगे। तुमने
तो पता नहीं क्यों कुछ नहीं कहा। ऐसा क्यों किया? क्या मुझ पर दया आ गई थी? बताओ ना सांभवी तुम क्यों कुछ नहीं बोली? क्या बात थी?’
सांभवी नहीं चाहती
थी कि इस टॉपिक पर और आगे बात की जाए। उसे लग रहा था कि इससे हनुवा और दुखी होगी। लेकिन
उसके आग्रह में इतनी निरीहता, इतनी पीड़ा समाई हुई थी कि वह चाहकर भी बातों
के रुख को बदलने की कोशिश ना कर सकी। उसे लगा कि इस समय हनुवा के हर प्रश्न का उत्तर
देकर ही उसे शांत कर सकती है। इसे तभी शांति मिलेगी। नहीं तो यह और भी ज़्यादा टेंशन
में रहेगी।
यह सोचते ही उसने कहा ‘हनुवा हुआ यह कि तुम्हारी सचाई जान कर मुझे जितनी तेज़ गुस्सा आया था वह उसी तरह
देखते-देखते खत्म भी हो गया।
मेरी नजर जैसे ही
तुम्हारे चेहरे पर जाती मेरा गुस्सा एकदम कम होता जाता। तुम्हारे चेहरे पर उस समय मुझे
इतनी मासूमियत दिख रही थी कि मैं बता नहीं सकती। जैसे कोई छोटी सी क्यूट सी बच्ची हो।
जैसे किसी छोटे
से बच्चे को देखकर, प्यार करने ,उसे गोद में लेने खिलाने का मन होता है ना मेरा मन तब कुछ वैसा ही होने लगा। गुस्सा
एकदम गायब हो गया। मैं बैठ गई। थकान मेरी पता नहीं कहां चली गई। मैं सोचने लगी कि आखिर
ये कैसा मजाक भगवान ने किया है। पूरा शरीर इतना खूबसूरत बनाया, चेहरे पर इतनी मासूमियत भोलापन, मगर साथ ही यह क्यों कर दिया कि आदमी
हमेशा टेंशन में रहे। उसकी हर सांस तकलीफ में गुजरे।
आखिर इतनी पेनफुल लाइफ लेकर कोई कैसे जिएगा? मेरे मन में फिर तुम्हारे लिए यह फीलिंग आई कि तुम्हारे लिए जो भी हेल्प हो सके
मैं वह जरूर करूं। तुमने अपनी एक्चुअल पोजीशन छिपाई तो इसके पीछे कोई रीजन होगा। तुमने
दुनिया के सामने अपने को तमाशा बनने से रोकने के लिये ही खुद को छिपाया। इसलिये मैंने
सोचा जैसे भी हो तुम्हें कोई तकलीफ ना हो।
इसीलिए मैंने उसी
समय डिसाइड कर लिया कि कभी किसी से भी डिस्क्लोज नहीं करूंगी। तुमसे भी कभी डिस्कस
नहीं करूंगी। जिससे तुम्हें कष्ट हो। बस इसीलिए नहीं बोली।’सांभवी की बात सुनकर हनुवा आवाक सी उसे एकटक देखती रही। भावुकता से उसकी आंखें
फिर भर आईं। आंसू फिर बह चले। उसने करीब-करीब सिसकते हुए कहा
‘तुम मेरा इतना ध्यान रखती हो। मैंने
कभी सोचा भी नहीं। इतना प्यार मुझे किसी फ्रेंड से मिलेगा वो भी इतने कम समय में, ये तो वाकई मेरे लिए आश्चर्यजनक खुशी है। जानती हो सांभवी मेरी तकलीफ इतनी ही नहीं
है। मेरी सबसे बड़ी तकलीफ तो यह है कि मैं अपना दर्द किसी से शेयर भी नहीं कर पाती।
मां तक ने मुझसे बात करना छोड़ दिया है। मैं जितनी देर घर में रहती हूं उतनी देर मुझे
लगता है जैसे वो बहुत टेंशन में आ जाती हैं। जैसे उन्हें मेरे रहने से घुटन सी होती
है। सभी कटे-कटे से रहते हैं। जानती हो मेरा कलेजा फट जाता है जब मेरे रहने पर वो बहनों
को अपने पास सुलाती हैं। मुझे अलग-थलग कोने में जगह दी जाती है।
ऐसा लगता है जैसे
मैं कोई बाहरी गैर मर्द हूं, जिससे उनकी लड़कियों की इज्जत खतरे में है।
मैं अपने ही घर में एक अजनबी सी रहती हूं। मुझे घर के हर कोने में अपने लिए नफरत ही
नजर आती। जब से नौकरी के लिए यहां आई तब से फ़ोन पर भी अपने लिए यह नफरत और ज़्यादा
महसूस करती हूं। जो लोग नहीं जानते वो लोग ठीक से विहैव करते हैं। ऐसे लोग भी नफरत
न करने लगे यही सोच कर डरती रहती हूं। अपने को बचाती रहती हूं। जैसे ही किसी के सामने
पड़ती हूं। या बाहर निकलती हूं तो मैं भीतर-भीतर कांपती रहती हूं, कि कहीं कोई सच जान न ले।
लगता है जैसे सब
कोई मुझे चेक करने निकले हैं। बचने की मेरी सारी कोशिश कई बार लगता है कि बेकार हो
जाती है। जहां भी जिनके साथ रहती हूं वो किसी ना किसी दिन मुझे जान ही लेते है। एक
नॉर्मल लड़की से कहीं ज़्यादा लंबा डील-डौल मुझे ऐसे भी एबनॉर्मल बना देता है। सारे
लोगों के लिए मैं एक अजीब सी क्यूरीसिटी का प्वाइंट बन जाती हूं। यही मेरे लिए मुसीबत
बन जाती है।
कुछ मौका मिलते
ही मुझे पूरा देख लेना चाहते हैं। मुझे लगता है मैं कई जगह पकड़ ली़ जाती हूं। कहीं
मुझे मालूम हो जाता है। कहीं नहीं और ना जाने कितनी जगह पता ही नहीं चल पाता।’ ‘हनुवा सभी मेल के लिए लड़कों सी तुम्हारी हाइट क्यूरीसिटी का रीजन तो है। इसी लिए
लोग तुम्हारी प्राइवेसी भी जानना चाहते होंगे।’‘सांभवी मैं मेल की बात नहीं करती। वो
तो ऐसा करते ही हैं। मैं फीमेल्स की बात कर रही हूं। बहुत सी फीमेल भी मर्दों सा बिहैव
करतीं हैं। मेरे साथ ऐसी कई घटनाएं हुई हैं
इस लिए कह रही हूं।’ हनुवा की बात सुनकर सांभवी चौंकती हुई बोली ‘क्या? क्या फीमेल्स ने तुम्हारे साथ ऐसा किया। यकीन नहीं होता हनुवा।’
‘मैं जानती हूं सांभवी, यकीन नहीं कर पाओगी। मैं तुम्हें अपने साथ हुई दो घटनाएं बताती हूं। जिनमें एक
में मेल एक में फीमेल इन्वॉल्व है। पहले मेल वाली घटना बताती हूं ।
एक बार बुआ की लड़की
की शादी में घर के सब लोग जा रहे थे। लेकिन पैरेंट्स मेरी कंडीशन के कारण ही मुझे लेकर
नहीं जाना चाहते थे। वो एक पड़ोसी को जिन्हें हम सारे भाई-बहन दादी कहते थे उन्हें उन
चार-पांच दिनों के लिए घर पर मेरे साथ छोड़ कर जाने की तैयारी कर चुके थे। मुझे इसका
पता तक नहीं था। तब तक मैं इंटर पास कर चुकी थी। सारे-भाई बहनों के कपड़े बने। लेकिन
मेरे लिए नहीं। लेकिन ये मेरे लिए बड़ी बात नहीं थी। मेरे साथ चाहे त्योहार हो, या कोई भी अवसर, कपड़े लत्ते मेरे लिए म़जबूरी में ही बनते थे। एक्स एल साइज ना होता तो शायद उतरने
ही मिलतीं।
मैं अपनी उस फुफेरी
बहन को बहुत चाहती थी। हमारी उसकी बहुत पटती थी। वह एक साल कुछ मजबूरी वश मेरे ही यहां
रह कर पढ़ी थी। हम दोनों का आपस में बहुत लगाव था। जब एक दिन रह गया तब मां मुझे बताने
लगीं कि सब वहां जा रहे हैं। और मैं घर पर रहूंगी। घर को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता।
इन चार-पांच दिनों में मुझे क्या-क्या करना है यह बताने लगीं तो मैंने कहा मैं भी चलूंगी।
मैं नहीं रुकुंगी। उन्होंने बहुत समझाया। मैं नहीं मानी, जिद पर आ गई। एक तरह से पहली बार मैं मां से लड़ गई। और तब मैंने उस दिन मां से
खूब गालियां, खूब जली-कटी बातें तो सुनी ही मार भी खाई। उन्होंने उस दिन मुझे तार वाली झाड़ू
से खूब पीटा। इतनी तेज़ मारा था कि हर बार का निशान मेरे शरीर पर पड़ा था।
मैं भी जिद पर आ
गई तो रोती रही। लेकिन यह भी कह दिया कि नहीं ले चलोगी तो मैं इसी घर में तुम लोगों
के जाते ही आग लगा कर मर जाऊंगी। मैंने हर बार मार पर अपनी यही बात दोहराई। मेरी मां
मारते-मारते थक गई। मगर मैं अपनी बात दोहराती रही। थकी हुई मां आखिर रोने लगी। उन्होंने
तब जो तमाम अपशब्द मुझे कहे वह अब कुछ ज़्यादा याद नहीं। लेकिन वह आखिरी बात आज भी
नहीं भूली। याद आते ही वही दृश्य एकदम सामने आ जाता है। उन्होंने चीखकर दोनों हाथों
से अपना सिर पीटते हुए कहा था ‘पता नहीं कऊन पाप किए रहे जऊन ई कुलच्छनी
पत्थर गटई मा भगवान डारि दिहिन’।
सांभवी मैं उनकी
इस बात पर इतनी हर्ट हुई कि झाड़ूओं की चोट उसके आगे चोट थी ही नहीं। मैंने उस दिन खाना
नहीं खाया। रोती रही रात भर। मुझे दुख इस बात का भी हुआ, और आज भी है कि मेरी बहनें वहीं खड़ी रहीं लेकिन मां की झाड़ूओं से मुझे बचाने के
लिए कोई हिली भी नहीं। इतना ही नहीं वह सब खुद भी नहीं चाहती थीं कि मैं चलूं। वैसे
भी वह दोनों हर जगह साथ जाती थीं मगर मुझे दूर ही रखती थीं। इन बातों से मैं इतना टूट
गई कि मैंने खुद ही सुबह मना कर दिया कि मैं नहीं जाऊंगी। मैं घर पर ही रहूंगी। घर
रखाऊंगी। मेरा ये कहना सबके मन की बात हो गई। सब यही सुनना चाह रहे थे।
एक दिन बाद सब चले
गए। पड़ोसन दादी उन सबके आने तक रहने के लिए घर आ गईं। उनके साथ ही मुझे सबके लौट आने
तक रहना था। जाने के समय तक मुझसे किसी ने एक बात तक नहीं की। केवल मां जाते समय गला
बैठाकर (भारी आवाज़ बनाकर बोलना) बोलते हुए तमाम शिक्षा दे र्गइं थीं। कि क्या करना
है क्या नहीं। सब के जाने के बाद शाम को मुझे एक और झटका लगा। दादी का एक सत्रह-अठारह
साल का पोता भी आ गया। रात को उसे हमारे घर पर ही सोना था। दादी तक तो मुझे कोई ऐतराज
नहीं था। लेकिन पोते के आने पर मुझे बड़ा शॉक लगा। वह आया तो दादी बोलीं ‘‘बिटिया बचवा के सोवै का इंतजाम कई दे। तोहार माई कहे रहिन। रात-बिरात केहू मनई
के होउब जरूरी बा।’’
पहले तो मैंने सोचा
कि मना कर दूं। इसे वापस भेज दूं। लेकिन दादी ने मां का नाम लिया तो मैं चुप रही। मेरी
हिम्मत नहीं हुई कि कुछ कहूं। मैंने उसे बाहर पापा वाले कमरे में सोने के लिए बोल दिया।
अंदर-अंदर मेरा खून ऐसे ही खौल रहा था। उस लड़के को देख कर दिमाग और खराब हो गया। अक्सर
वह घर आता रहता था। उसके घर के सभी लोगों का आना-जाना था। वह मेरे साथ बहुत ज़्यादा
चुहुलबाजी करता था। मैं उसे हर वक्त अपने बदन को झांकते ही पाती थी। जब भी मेरी नजर
अचानक ही उसकी नजर से मिलती तो उसकी आंखों को अपने ब्रेस्ट पर गड़ी पाती। नजर मिलते
ही सकपका कर इधर-उधर देखने लगता। जानबूझ कर अगल-बगल से गुजरता। कुर्तें के अंदर झांकने
की हर कोशिश करता। उसे देखते ही मैं दुपट्टे को कसकर लपेट लेती।’
‘इतनी कम उम्र में ही इतनी बदतमीजी करता
था। तुम्हें उसे एकदम मना कर देना चाहिए था कि सोने की जरूरत नहीं। हम काफी हैं।’ ‘कैसे कह देती। जब मां ने कहा था तो कहां से मना करती। उस समय तो उनकी झाड़ूओं की
मार से वैसे भी पस्त थी। दो दिन बाद भी जगह-जगह दर्द कर रहा था। झाड़ू से ज़्यादा पीड़ा
उनकी बातें दे रहीं थी। मैं फिर किस हिम्मत से उसे वापस भेज देती। लौटने पर मां को
क्या जवाब देती जो मेरी नहीं घर की रखवाली के लिए उसे रख गई थीं।
उनकी नजर में मैं
तो गले में पड़ा पत्थर थी। ऐसे पत्थर की सुरक्षा की बात कहां सोची जाती है। उनकी नजर
में मैं ना लड़का थी ना लड़की। जो लड़कियां, लड़का थीं, जो इज्जत नाक थीं। वह उन्हें अपने साथ अपने प्राण की तरह चिपकाए हुए लेकर गई थीं।
जो उनका सामान, मकान था उसकी रखवाली के लिए मुझे छोड़ गई थीं, मैं कुछ गड़बड़ ना करूं इसके
लिए दादी को और दादी कहीं कमजोर ना पडे़ं इसके लिए उस लफंगे को छोड़ गई थीं।’
‘वाकई ये तो बड़ा शॉकिंग है। कोई मां
अपने बच्चे के लिए ऐसा कर सकती है, इतना क्रुएल हो सकती है, आखिर तुम भी उन्हीं की औलाद थी। तुम्हारी मां वाकई बहुत ... क्या कहें?’
‘कहना क्या सांभवी, मैंने पहले ही कहा ना कि मैं उनकी संतान नहीं उनके गले में पड़ा पत्थर हूं।’
हनुवा की बात पर
सांभवी ने बड़ी नफरत से ‘हुंअ’ किया फिर पूछा ‘अच्छा वह लफंगा जब तक रहा घर पर तब तक तुम्हारे साथ कोई हरकत तो नहीं की।’
‘कोशिश पूरी की। पहली रात को मैंने उसे
जिस कमरे में रखा था। उस कमरे से अंदर आने पर एक आंगन है। आंगन पार कर के फिर तीन कमरे
हैं। अंदर आने पर आंगन में ही बाईं तरफ बाथरूम, टॉयलेट हैं। एक स्टोर रूम है। मैंने
एक ढिबरी मतलब कि मिट्टी तेल का एक दिया दादी और उस लफंगे के कमरे में रख दिया था।
कि ये सब रात में उठेंगे तो ज़रूरत पड़ेगी। बाथरूम जाने के लिए लालटेन अपने कमरे में
लेते आई।’‘क्यों घर में लाइट नहीं है क्या?’‘है मगर तब आती कहां थी। चौबीस घंटे
में चार छः घंटे आ जाती तो बड़ी बात हो जाती। जब आती थी तो वोल्टेज इतना कम रहता था
कि लालटेन और बल्ब की रोशनी में ज़्यादा अंतर नहीं रहता। उस समय तो हफ्ते भर से गायब
थी।
चोर खंबे से बिजली
का तार ही काट ले गए थे। ट्रांसफार्मर भी जला पड़ा था। उस समय बिजली विभाग वाले इस तरह
की समस्याएं तभी सॉल्व करते थे जब पूरे एरिया के लोग मिलकर पैसा इक्ट्ठा कर के दे आते
थे। नहीं तो मुहल्ले में लाइट महीनों नहीं आती। इसी के चलते उस समय पूरा मोहल्ला हफ्ते
भर से अंधेरे में डूबा था। उस दिन भी।
दिसंबर का आखिरी
हफ्ता चल रहा था। ठंड बहुत थी। मैं दरवाजा बंद किए लेटी थी। रजाई में दुबकी। आंगन में
बने एक ताख में तब एक ढिबरी रात भर जला कर रखी जाती थी। मैंने वह भी रख दी थी। आंगन
से ही ऊपर जाने का जीना है,
मैंने उसके दरवाजे पर ताला डाल दिया था। इतना सब करने के बाद
भी मुझे नींद नहीं आ रही थी। बार-बार मां की मार, उनकी विष बुझी तीर सी बातें
रह-रह कर कानों में गूंज रही थीं। और फुफेरी बहन की बातें, उसकी शादी के होने वाले कार्यक्रमों की पिक्चर सी आंखों के सामने चल रही थी।
इससे मुझे बार-बार
रुलाई छूट जाती। मगर खुलकर रो भी नहीं सकती थी। घर में दो-दो बाहरी बाहर वाले कमरे
में सो रहे थे। टीवी-सीवी का तो कोई मतलब ही नहीं था। मैंने अपने कमरे की लालटेन बुझा
दी थी। कमरे में घुप्प अंधेरा था। बाहर जलती ढिबरी की वजह से दरवाजे की झिरी पर एक
मटमैली पीली लाइन सी बनी दिख रही थी। लेटे हुए आधा घंटा बीता होगा कि बाहर कमरे में
सो रही दादी के खर्राटे की आवाज़ खुर्र-खुर्र आने लगी। बड़ी गुस्सा लग रही थी।’
‘ओह गॉड फिर कैसे कटी तुम्हारी रात।‘ सांभवी ने टीवी चैनल चेंज करते हुए पूछा।
‘कटी क्या? कभी उठ कर बैठ जाती। कभी लेटती। लेटती तो लगता दरवाजे पर वही लफंगा बाहर कमरे से
आकर खड़ा हो गया है। मन करता कि उठ कर चेक करूं। ऐसे ही घंटा भर बीता होगा कि आंगन वाले
दरवाजे की सांकल के हिलने की आवाज़ आई। मैं एक दम सिहर उठी। मेरा दिल इतनी तेज़ धड़कने
लगा कि बस अब जान निकल जाएगी। फिर दरवाजे के खुलने की आवाज़ हुई। पूराने जमाने के भारी-भारी
दरवाजे हैं। जब खुलते, बंद होते हैं तो आवाज़ भी जरूर आती है। दरवाजा खुलते ही मुझे लगा कि ये लफंगा अब
आकर मुझे मारेगा, मेरी इज्ज़त तार-तार करेगा। और तब मेरी पोल खुल जाएगी। ये कमीना पूरे मोहल्ले, पूरी दुनिया में मेरी बदनामी कर देगा।
मैंने उसी कुछ क्षण
में ये तय कर लिया कि अगर कुछ हुआ तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। सेकेंड भर में मैंने
ऊपर छत पर लगे पंखे के बारे में सोच लिया कि इसी पंखे में अम्मा की साड़ी का फंदा लगा
कर लटक जाऊंगी। मेरे इतना सोचने तक लफंगे के आने की आहट मिली। मैं एकदम घबराकर बिजली
की तेज़ी से उठ कर दरवाजे की झिरी से आंगन में झांकने लगी। उस कमीने को मैं आंगन में
जलती ढिबरी की रोशनी में साफ देखा पा रही थी। बीच आंगन में खड़ा वह मेरे कमरे की ही
तरफ देख रहा था। कमीना दाहिने हाथ से अपने प्राइवेट पार्ट को बराबर मसले जा रहा था।
मैं पसीने-पसीने हो रही थी। मैं झिरी से एकटक उसे देखे जा रही थी। फिर कुछ देर रुक
कर वह बाथरूम में चला गया।
वह एक मिनट मुझे
कई घंटे से लगे। बाथरूम से उसके पेशाब करने की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी। मेरी नजर
बाथरूम के दरवाजे पर ही टिकी थी। थोड़ी देर में दरवाजा खुला वह बाहर आया। बीच आंगन में
आकर कुछ सेकेंड रुक कर फिर दबे पांव चलता हुआ एकदम मेरे कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ा
हो गया। मेरी स्थिति ऐसी हो गई जैसे बकरी की तब होती है जब उसे कसाई मारने के लिए कसके
दबाकर अपनी छूरी उसकी गर्दन पर बस रेतने ही वाला होता है।
आंखें एकदम पथरा
गईं थीं। सांस जैसे थम गई थी। वह दरवाजे के पास आकर झिरी से अंदर झांकने की कोशिश करने
लगा। इधर मैं उधर वो एक दूसरे की तरफ देखने की कोशिश में लगे थे। मेरे कमरे में घुप्प
अंधेरा था उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। मैं उसे देख रही थी। मैं थोड़ा झुकी हुई थी
जिससे कि आंखे मिल ना सकें। अचानक ही उसने दरवाजे को बड़ी सावधानी से अंदर धकेलना शुरू
किया।
इस दरवाजे में भी
कुंडी की जगह सांकल ही थी। जिससे वह करीब डेढ़ दो इंच अंदर को आ गया।
दरवाजे के साथ ही मैंने अपने को भी अंदर खींच लिया।
वह देखना चाह रहा था कि दरवाजा खुला है कि बंद। खुला होता तो वह निश्चित मुझ पर हमला
करता। क्योंकि वह जब दरवाजा बंद पाकर दो तीन क़दम पीछे हटा तो उस समय भी दरवाजे को घूर
रहा था। और अपने हाथ से बराबर अपने प्राइवेट पार्ट को मसले जा रहा था। फिर चला गया
कमरे में। लेकिन उसने अपने कमरे की सांकल बंद नहीं की। क्योंकि सांकल की आवाज़ बिल्कुल
नहीं आई। उसके जाने के बाद भी मैं दरवाजे की झिरी से उसके कमरे के दरवाजे को थर-थर
कांपती देखती रही।’
‘ये तो किसी डरवानी फिल्म की सीन जैसी
हालत थी। तुम उसी समय चिल्ला कर उसे अंदर से ही डांटती। इतना चीखती कि उसकी दादी भी
उठ जाती।’
‘डर के मारे मेरी घिघ्घी बंधी हुई थी, मैं चीखती क्या?मैं उसके बड़े डील-डौल से भी डरती थी। और दादी जाग भी जाती तो उसका क्या कर लेती? पूरी बस्ती रजाइयों में दुबकी, घटाटोप अंधेरे में सो रही थी। मेरी
कौन सुनता।’ ‘सही कह रही हो, आज कल तो सब ऐसे हो गए हैं कि सामने कोई तड़पता पड़ा रहता है तो उसकी हेल्प करने
के बजाय मोबाईल से वीडियो बनाते रहते हैं। एफ.बी,.यू. ट्यूब पर पोस्ट करने
के लिए। ऐसी पत्थर दिल दुनिया में किसी से उम्मीद करना ही बेवकूफी है। तो उस दिन तुम
सोई भी या जागती रही रात भर।’
‘डर के मारे नींद ही कहां आ रही थी।
उसके जाने के बाद मैं रजाई में फिर दुबक गई। डरती-कांपती किसी तरह घंटा भर बिताया।
फिर मुझे भी पेशाब लग गई। अब मेरी हालत खराब। मैं दरवाजा खोल कर बाहर निकलना नहीं चाह
रही थी। डर रही थी कि आंगन में निकलते ही वह मुझे पकड़ लेगा। रोके रही अपने को। तभी
फिर बाथरूम के दरवाजे की आवाज़ सुनी तो मैं फिर झांकने लगी। वही लफंगा फिर बाथरूम से
निकल रहा था। उसने कमरे का दरवाजा बंद ही नहीं किया था इसलिए खोलने की आवाज़ हुई ही
नहीं। इस बार भी वह आंगन में खड़ा होकर मेरे कमरे की ओर देर तक देखने के बाद अंदर गया।
अब मुझे पक्का यकीन हो गया कि यह मुझे पाने पर छोड़ेगा नहीं। मैंने तय कर लिया कि सुबह
होने से पहले दरवाजा नहीं खोलूंगी।
‘तुम्हें तो पेशाब लगी थी। तो क्या रात
भर.......।’
‘नहीं। रात भर कहां रुक सकती थी। कमरे
में ही एक मोबिल ऑयल का चार-पांच लीटर का डिब्बा रखा था। जिसमें मिट्टी का तेल मंगाया
जाता था। मैंने रात भर उसे ही यूज किया। उस दिन मुझे मेरे इस अभिशप्त पार्ट के कारण
बहुत आसानी हुई। नहीं तो मेरी परेशानी और बढ़ जाती।’
‘ओह गॉड तुमने तो बड़े अजीब-अजीब फेज़
को फेस किया है। सुनकर ही हैरानी होती है। अगले दिन उस लफंगे को भगाया कि नहीं?’
‘नहीं भगा पाई। जब मैंने अगले दिन उसे
डांटते हुए कहा कि रात में ऐसा क्यों कर रहे थे? तो उसने ऐसी बात कही कि
मैं दंग रह गई। बड़े अपनत्व के साथ बोला ‘‘मुझे बड़ा डर लग रहा था। मैं तुम्हारी
चिंता के कारण सो नहीं पा रहा था। इसीलिए मैं बार-बार उठकर बाहर देखने आता कि तुम ठीक
हो की नहीं। सो रही हो कि नहीं। इसीलिए अंदर देखने की कोशिश कर रहा था।’’ मैं उसके इस जवाब से एकदम भौचक्की रह गई।
मुझे लगा कि शायद
ये सही कह रहा है। मैंने बेवजह शक किया। एकदम कंफ्यूज होकर बिल्कुुल चुप रही। सुबह
वह घर चला गया। दादी रुकी रही। वह करीब ग्यारह बजे फिर आया। तब मैं अपने और दादी के
लिए खाना बना रही थी। आया तो मुझे देखता-दाखता एकदम किचेन में आ गया। मैं मुड़ी तो खीसे
निकालता हुआ बोला ‘‘लो खाओ।’’ मैंने सोचा अभी इसने कुछ खाया नहीं होगा, इसे भूख लगी होगी इसीलिए कुछ ले आया
है।
वह एक डिब्बे में वहां मिलने वाली एक मिठाई लौंगलता
लेकर आया था। मैदा और खोया से बनी चाशनी में डूबी यह मिठाई मुझे बहुत पसंद है। उस स्थिति
में भी मेरे मुंह में पानी आ गया। फिर भी मैं कुछ देर उसे देखने के बाद बोली। तुमसे
किसने कहा था कि मैंने कुछ खाया नहीं। और ये सब लाने के लिए पैसा कहां से ले आया?
इस पर वह उस मिठाई की ही तरह अपनी आवाज़ में भी मिठास घोलता हुआ बोला ‘‘हनुवा गुस्सा काहे हो रही हो। जब तक चाची नहीं आ रही हैं तब तक तो मुझे तुम्हारी
चिंता करनी ही है। नहीं तो आकर जब चाची जानेंगी तो हम पर गुस्सा होंगी।’’ मैंने गुस्से में कहा ‘‘मेरी इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। मैं अपने लिए जो करना होगा कर लूंगी। ये जो
ले आए हो इसे लेकर यहां से जाओ।’’ लेकिन वह जाने के बजाए अपनी मीठी-मीठी बातों
में उलझा कर एक मिठाई मेरे आगे बढ़ा दी। मैंने मन ना होते हुए भी एक पीस ले लिया। इसके
साथ ही कह दिया ठीक है जाओ। तो उसने मिठाई वहीं रख दी और चला गया। मैं आवाज़ देती रह
गई, लेकिन उसने अनसुनी कर दी। ‘‘थोड़ी देर में आऊंगा’’ कहता हुआ चला गया।
मनपसंद मिठाई थी।
हाथ में जो पकड़ी हुई थी वह खा गई। मन नहीं माना तो एक और खा गई। फिर एक कटोरी में दो
पीस दादी को भी दे आई। उसके लिए चार-पांच पीस रख दिया। सोचा आएगा तो दे दूंगी। लेकर
आया है, नहीं दूंगी तो अच्छा नहीं लगेगा। उसके प्रति मन में रात की घटना के कारण जो गुस्सा
था वह इस मिठाई ने जैसे कम कर दिया। करीब एक बजे जब धूप तेज़ हुई तो मैंने सोचा नहा
लूं। कई दिन से बाल धोए नहीं आज धो लूं। नहीं तो कल बृृहस्पति हो जाएगा। दादी को बता
कर मैं नहाने चली गई। मैंने बाथरूम में कपड़े उतारे ही थे कि मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी।
दादी से बात कर रहा था।
मैं उसकी आवाज़ सुनकर
अजीब सी झुरझुरी महसूस करने लगी। कुछ देर मैं स्थिर हो उसकी बात सुनती रही। वह घर में
कौन क्या कर रहा था यही सब बता रहा था। यह सुनकर मैंने राहत की सांस ली। और कपड़े अलग
कर दो-तीन जग पानी सिर पर डाला जिससे बाल बदन भीग जाएं तो शैंपू लगाऊं। तभी ऐसी आहट
मिली जैसे वह किचेन में गया हो। मैंने दरवाजे की झिरी से देखा तो मेरा शक सही था वह
किचेन से निकलकर बाथरूम की तरफ आ रहा था। मैं डर कर थरथर कांपने लगी। क्यों कि दिन
का समय था। आंगन में अच्छी खासी तेज़ खिली हुई धूप की किरणें आधे आंगन को कवर किए हुए
थीं।
ऊपर से धूप की किरणें
बाथरूम की दिवार, पूरे दरवाजे पर पड़ रही थीं। अंदर इतनी रोशनी थी कि दरवाजे की झिरी पर आंख लगा कर
साफ-साफ देखा जा सकता था। मैंने थरथर कांपते हुए सबसे पहले तौलिया उठा कर अपने सामने
लगा लिया। मैं साफ देख रही थी कि वह अंदर देखने के लिए झिरी से आंख गड़ाए देख रहा है।
मैंने गुस्से में एक जग पानी झिरी पर मारा और चीख-चीख कर गाली देने लगी। इस पर वह तुरंत
भाग गया। उसके जाने के बाद भी मैं कुछ देर स्टेच्यू बनी बैठी रही। फिर नहाया। अमूमन
मैं बाथरूम के दरवाजे की तरफ पीठ कर के नहाती थी। लेकिन उस दिन इस कमीने के डर से ही
दरवाजे की तरफ मुंह किए थी। और मेरा शक सही निकला। बाहर निकल कर मैंने सबसे पहले उसे
ही ढूढ़ा तो वह गायब मिला।
मैंने दादी से पूछा
तो वह बोली ‘‘ऐ बच्ची बचवा ते कब्बे के चला गा बा।’’ मैंने कुछ देर चुप रह कर दादी को सारी
बात बताई तो वह सुनने को ही तैयार नहीं हुईं। बार-बार यही कहे जाएं। ‘‘ऐ बच्ची तू भरमाए गई हऊ। बचवा ऐइसन करै नाय सकत। अबै ओकर उमरिए केतनी बा। ऐ बच्ची
मान जा तू। तू एकदम भरमाय गैय हऊ औऊर कुछ नाहीं।’’ उन्होंने जिस तरह उसका
पक्ष लिया उससे मैं हैरान-परेशान हो गई। मेरे मन में उनके लिए भी अपशब्द निकले।
मैंने मन ही मन
कहा कमीना इस बुढ़िया के सामने भी कुछ हरकत कर डालेगा तो भी यह यकीन नहीं करेगी। उलटा
मुझे ही फंसा देगी। मुझे ठंड लग रही थी। तो मैं छत पर जा कर धूप में बैठ गई। कई दिन
बाद तेज़ धूप निकली थी। बड़ा अच्छा लग रहा था। रात भर उस कमीने के कारण मैं सो नहीं पाई
थी तो आलस्य लगने लगा।’ हनुवा अपनी बातें जारी रखे हुए थी तभी सांभवी ने उसे एक गिलास जूस पकड़ाते हुए कहा।
‘इसे पीती रहो। वीकनेस नहीं लगेगी।’
उसने खुद भी आधा गिलास ले लिया था। हनुवा ने गिलास
लेते हुए कहा ‘जिसकी तुम जैसी फ्रेंड हो उसे कुछ नहीं हो सकता। एक बार तो यमराज भी आकर लौट जाएंगे।’ हनुवा की इस बात पर सांभवी को ना जाने क्या हुआ कि अचानक ही उठ कर उसके चेहरे को
दोनों हाथों में भर कर गाल चूम लिया और बड़े प्यार से बोली-
‘ओ, हनुवा-हनुवा तुझे कुछ नहीं
हो सकता। अब तू अकेले नहीं है।’
उसके इस अचानक किए
गए प्यार-मनुहार से हनुवा कुछ क्षण को अभिभूत सी उसे देख कर मुस्कुराई। फिर बोली। ‘हां सांभवी, मैं अब खुद को अकेला नहीं महसूस कर रही।’ तभी सांभवी उसके सामने ही बैठती हुई
बोली ‘फिर वो लफंगा लौट कर आया कि नहीं।’
‘आया। और चप्पलों से मार खाकर गया। मुझे
धूप अच्छी लगी। रात भर की जगी थी। जिस बड़े बोरे पर मैं बैठी बाल सुखा रही थी उसी पर
लेट गई थी। लेटते ही मुझे उस बोरे पर ही नींद आ गई। करीब एक डेढ घंटा ही बीता होगा
कि मुझे लगा कि जैसे मेरे ब्रेस्ट पर कुछ दबाव सा पड़ रहा है। होठ पर भी कुछ गरम-गरम
सा छू रहा है। दिमाग में वह कुत्ता तो था ही मैं हड़बड़ा कर उठने को हुई तो अपने को उस
कमीने की गिरफ्त में पाया।
वह मुझे पूरी तरह दबोचने की कोशिश में ‘‘सुनो-सुनो हनुवा’’ फुसफुसाती आवाज़ में कहे जा रहा था। मगर मेरा खून खौल उठा था। मैं पानी से बाहर
आ पड़ी मछली सी तड़प कर उससे अलग हुई। और उसे लात, घूंसा बेतहाशा मारने लगी।
वहीं पड़ी अपनी चप्पल उठाई उसी से पीटने लगी। वह बार बार सुनो-सुनो कहे जाए,हाथ जोड़े जाए। लेकिन मैं पागलों की तरह उसे गाली देते हुए मारने में लगी रही।
एक चप्पल उसकी नाक
पर लग गई तो उससे खून बहने लगा। मगर मेरे खून सवार था। वह जितना इधर-उधर झुके-झुके
भागता मैं दौड़ा-दौड़ा कर मारती। वह इससे बचने की कोशिश कर रहा था कि अगल-बगल की छतों
पर से कोई देख ना ले। जाड़े का दिन था, सभी अपनी-अपनी छतों पर थे। हालांकि
वर्किंग डे होने के कारण कम लोग थे। महिलाएं घर का काम निपटाने में लगी थीं। और बच्चे
सब स्कूल गए हुए थे। आखिर वह अपनी चप्पल उठा कर भागा। कुछ कहना चाह रहा था। लेकिन मैं
बिना कुछ सुने उसे दौड़ाते हुए पीछे से चिल्ला कर कहा दुबारा दिख गए तो तुम्हारी जान
ले लूंगी।
उसके पीछे-पीछे
दौड़ती हुई बाहर दरवाजे तक गई। मगर वह दिखाई नहीं दिया। भाग गया था। मैंने दरवाजा बंद
किया। अंदर आने लगी तो देखा जगह-जगह खून की कई बूंदें पड़ी हुई थीं। सच बताऊं सांभवी
उस समय खून की वह बूंदें देखकर मुझे कुछ राहत मिली कि मैंने अपने अपमान, अपने शरीर पर हाथ डालने वाले से कुछ तो बदला ले लिया। मैंने खून की बूंदें छत तक
हर जगह देखी। मुझे गुस्सा इतना लगा हुआ था कि अपने पैरों से सारी बूंदों को रगड़ती गई।
फिर लौट कर दादी के पास गई मन ही मन गाली देते हुए कि बुढिया देख अपने पोते की करतूत।
बड़ा बचवा-बचवा करके दूध का धुला बता रही थी ना। देख ले उस सुअर का असली चेहरा। लेकिन
देखा वह रजाई से मुंह ढंके खुर्र-खुर्र आवाज करते सो रही थीं।
तब तक मेरा गुस्सा
कुछ कम पड़ चुका था। मैं फिर भीतर कमरे में गई, सबसे पहले अपनी सलवार और पैंटी चेक
की, कि सही जगह हैं कि नहीं। सुअर ने मेरे कपड़े खोलकर मेरा भेद तो नहीं जान लिया।
कपड़ों को सही सलामत
पाकर मैंने राहत महसूस की। शीशे में खुद को देखा तो दो तीन जगह खरोचें थीं। बांह और
पेट पर भी थीं। कुर्ता साइड से फट गया था। ब्रेजरी के हुक टूट गए थे। इससे मैं बड़ी
आहत हुई कि कमीने के गंदे हाथों ने मेरे ब्रेस्ट छुए। उसकी गंदी आंखों ने मेरे इन अंगों
को गंदी सोच के साथ देखा। मैं रो पड़ी। मुझे मां-पापा सब पर खूब गुस्सा आया। कि मुझे
पत्थर मान कर यहां अकेले छोड़ कर ना जाते तो मेरी यह दुर्गति क्यों होती।
उनको अपनी इज्जत
अपनी शान की परवाह है, जो मेरे कारण खतरे में पड़ जाती है। मेरी जान भी चली जाए इसकी परवाह किए बगैर वो
मुझे कहीं भी डाल सकती हैं। आज यह कमीना अगर मुझसे बहुत ज़्यादा ताकतवर होता तो मेरे
साथ ना जाने क्या करता? भेद खोल कर ना जाने कैसे-कैसे ब्लैकमेल करता। मेरे मन में आया कि क्या फायदा ऐसी
ज़िन्दगी से। इससे अच्छा तो मर जाऊं। फिर रात वाली बात दिमाग में आई कि मां कि कोई भी
साड़ी और ऊपर लगा यह पंखा मुझे इस नरक भरी ज़िदगी से छुटकारा दिलाएंगे। मां-बाप के गले
का पत्थर भी यही हटाएंगे।
यह सोच कर मैं मां
की एक साड़ी उठा लाई। उसका फंदा बनाने से पहले उस कमीने के प्रति मन में फिर गुस्सा
ऊभर आया। सोचा इसके कारण मैं मरने जा रही हूं। तो इसे भी इसके कुकर्मों की सजा मिलनी
चाहिए। मैंने सुसाइड लेटर लिखा। उसको जिम्मेदार ठहराते हुए उसे फांसी दिए जाने की अपील
की। मां-बाप से माफी मांगी। फंदा बनाकर पंखे में फंसाने की कोशिश की लेकिन ज्यादा ऊंची
छत के कारण फंदा ना डाल पाई। फिर मन में आत्महत्या का खयाल कमजोर पड़ गया। और मैं बच
गई।’
‘हूं... बचती कैसे ना हनुवा, तुम्हें मुझसे जो मिलना था।’ सांभवी ने एक बार फिर टीवी का चैनल बदलते हुए कहा तो हनुवा एक गहरी सांस लेकर बोली, ‘हां सांभवी तुमसे मिलना था। और तुमसे मिलने से पहले कई ऐसे कांटों की चुभन भी बर्दाश्त
करनी थी जिनका दर्द इस जीवन में तो कभी नहीं जाएगा। वो जब-जब मैं सांस लेती हूं तब-तब
मुझे चुभते हैं। ऐसीे टीस देते हैं कि दिल ही नहीं आत्मा तक रो पड़ती है।
हनुवा की यह बात
सुन कर सांभवी को लगा कि परिवार के लोगों ने इसे और परेशान किया होगा। मां ने और कड़वी
बातें कहीं होंगी। उसने सोचा इसकी तबियत ठीक नहीं है। इस तरह की और बातें कह कर यह
अपनी तबियत खराब कर लेगी। बात बदलने की गरज से उसने कहा ‘हनुवा तुम्हें तकलीफ ना हो तो आओ थोड़ी देर दरवाजे पर खड़े होते हैं। बाहर हर तरफ
लोगों के घर लाइट से सज गए हैं। देखते हैं उन्हें। तूम्हारा मन थोड़ा चेंज हो जाएगा
।’
हनुवा सांभवी की
बात टाल ना सकी। बाहर दरवाजे पर गई। बाहर वाकई हर घर तरह-तरह की लाइट्स, झालरों से जगमगा रहा था। भारतीय त्योहार दीपावली चाइनीज झालरों की चमक से जगमग
कर रहा था। रह-रह कर पटाखे भी दो दिन पहले से ही दग रह थे। लोगों की चहल-पहल देर रात
होने के बाद भी दिखाई दे रही थी। सांभवी को बड़ा अच्छा लगा।
वह हनुवा को लेकर
घर के बाहर दरवाजे के सामने ही चहल-क़दमी करने लगी। हनुवा को भी अच्छा लग रहा था। तभी
दो-तीन बाइक पर बैठे कुछ लफंगे टाइप के लड़के दोनों के एकदम करीब से सीटी बजाते हुए
तेज़ी से निकल गए। एक ने चिल्ला कर कुछ कहा भी था। जो बाइकों के शोर में वह दोनों समझ
नहीं पाईं। उनमें से कम से कम एक बाइक अमरीकी कंपनी हार्ले डेविडसन की थी। जो भारत
में युवाओं के बीच स्टेटस सिम्बल बनी हुई है। उनके बीच इसका जबरदस्त क्रेज है। यह भारत
की बुलेट से भी तेज़ पड़-पड़ की आवाज करती है। कॉलोनी में रोज की अपेक्षा सड़कों पर लोगों
का आना-जाना आधा से भी कम था।
सब त्योहार के कारण
अपने होम डिस्ट्रिक्ट जा चुके थे। हनुवा लफंगों की इस हरकत से डर गई। कुछ देर पहले
अपने साथ ऐसे ही लफंगे द्वारा की गई अपनी बातें उसके मन मस्तिष्क में पहले ही छाई हुई
थीं। इसलिए वह कुछ ज्यादा ही डर गई। उसने तेज कदम से घर की तरफ चलते हुए कहा ‘सांभवी आओ अंदर चलें। बदतमीज अपनी बदतमीजी से बाज नहीं आएंगे। जहां जाओ वहीं मिल
जाते हैं। वैसे भी आस-पड़ोस में ताले पड़े हैं। ऐसे में बाहर अब ठीक नहीं है।’ हनुवा के साथ सांभवी अंदर आ गई। डर वह भी गई थी। इसलिए हनुवा के कहते ही बोली थी
‘चलो।’
अंदर आकर हनुवा
ने दरवाजा बंद कर उसे बड़ी सावधानी से चेक किया था। फिर अपने बेड पर बैठ गई। सांभवी
ने बैठने के बजाय रिमोट उसे थमाते हुए कहा ‘ तुम टीवी देखो तब तक मैं खाना बनाती
हूं।’
हनुवा ने कहा ‘अब मैं बिल्कुल ठीक हूं।
मिल कर बनाते हैं। तुम कल से बहुत थक गई हो।’ सांभवी के लाख मना करने भी उसने ज्यादातर
काम खुद ही किया। समय निकाल कर नहा भी लिया। इससे वह फ्रेश महसूस कर रही थी। लग भी
रही थी। खाना खाते वक्त भी दोनों ने खूब बातें कीं। सब्जी पराठा खाने के बाद सांभवी
ने चाय भी बनाई। उसकी आदत थी खाना खाने के बाद चाय पीने की।
चाय पीते हुए उसने फिर कहा ‘हनुवा तुम जितनी बातें बता रही हो उससे तो लगता है कि तुम्हारे पैरेंट्स शुरू से
ही तुमसे छुटकारा चाहते हैं। ऐसे में तुम इतने दिन कैसे रही उनके साथ। और उससे ज़्यादा
बड़ी बात कि इतनी पढ़ाई-लिखाई कैसे कर ली? क्यों कि जो लोग साथ रखना ना चाह रहे हों वो पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें ये वाकई आश्चर्य
वाली बात है।’
सांभवी के इस प्रश्न
ने हनुवा को फिर एकदम गंभीर बना दिया। लेकिन अब सांभवी के साथ उसके किसी भेद जैसी चीज
भी नहीं थी। इसलिए किसी बात का कोई संकोच नहीं था। तो हनुवा ने एक दो घूंट चाय पीने
के बाद कहा ‘सांभवी मेरी स्थिति और इस दुनिया ने मेरे साथ जो-जो अत्याचार किए बचपन से ही उसने
मुझे उम्र से बहुत आगे-आगे बड़ा किया। समझ दी। तुम क्या कोई भी आश्चर्य करेगा कि जिस
घर में लोग मुझे देख कर एक सेकेंड को खुश नहीं हो पाते थे। जिनके मन में यह हो कि यह
मरे तो गले का पत्थर हटे,
वो हमें कहां पढाएंगे, लिखाएंगे वो भी, बी-टेक कराएंगे।’
‘हाँ यही तो मैं तब से सोच रही हूं कि
यह सब कैसे हुआ? तुम कैसे कर ले गई यह सब?’
‘कर क्या ले गई। एक टीचर जो मुझे पढ़ाती
थीं, उनका बहुत बड़ा कंट्रीब्यूशन है। उन्हीं की वजह से पढ़ पाई। उन्होंने मुझे मेरी स्थिति
बताई, मेरे जैसे लोगों के लिए समाज में जगह कहां है वह बताया। यह भी बताया कि मैं कैसे
क्या करूं कि अपनी ज़िंदगी को नर्क बनने या नर्क में डूबने से बचा सकूं। हालांकि इस
के लिए उन्होंने मुझसे जो कीमत वसूली वह मेरी ज़िंदगी के सबसे भयानक पीड़ादायक घावों
में से एक है, जो मुझे इस समाज ने दिए।’
‘अरे .....ऐसा भी क्या किया उन्होंने? तुम तो बता रही हो टीचर थीं तुम्हारी। उन्हीं की वजह से तुम पढ़ पाई। टीचर हो कर
ऐसा क्या किया उन्होंने?’
सांभवी की इस बात
पर हनुवा बड़ी कसैली सी हंसी-हंसी। फिर दो घूंट चाय पीकर बोली ‘सांभवी मेरा जीवन शुरू से ही इतना तकलीफदेह, जटिल नहीं था। दस- ग्यारह
की उम्र होते-होते मेरी तकलीफ शुरू हुई। और फिर बढ़ती गई। बचपन में ठीक थी। या ये कहें
कि पैरेंट्स समझ ही नहीं सके कि ऐसी कोई प्रॉब्लम है। मेरे जन्म पर भी मां बाप ने खूब
खुशियां मनाई थीं कि उनके लड़का हुआ। मगर एक समस्या वो लोग मेरे चार-पांच साल की होने
के बाद से महसूस करने लगे थे। जो आगे बढ़ती गई। मेरी आवाज़ लड़कों सी ना होकर लड़कियों
सी थी। मैं बाकी बच्चों के साथ खेलती तो सब मुझे चिढ़ाते। घर में सब बड़ा ऑड फील करते।
मैं इतनी समझदार तो थी नहीं। बाकी मुझे चिढ़ा रहे हैं इतना ही समझती और इसी बात पर गुस्सा
होती। जल्दी ही भाई-बहनों ने भी चिढ़ाना शुरू कर दिया।
छः- सात की होते-होते
तक कोई दिन ऐसा ना जाता जिस दिन स्कूल और घर
मिला कर मैं दो-चार बार टीचर, मां-बाप या किसी अन्य से मार डांट ना खाती।
मैं अपनी उम्र के बच्चों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ रही थी। बड़े डीलडौल के कारण मैं सब
को दौड़ा-दौड़ा कर मारती। फिर टीचर या मां-बाप से पिटती। मां-बाप ने कई डॉक्टरों को दिखाया।
लेकिन सबने यही कहा किसी-किसी के साथ ऐसा होता है। धीरे-धीरे उम्र के साथ ठीक हो जाएगा।
मां-बाप ने फिर भी कोशिश जारी रखी। अब वो लोग इस समस्या के कारण बहुत चिंतित रहने लगे।
जहां से जो पता चलता वही करने लगते।
मुझे मिर्च खूब
खिलाई जाती। कैथा के सीजन में कैथा। जामुन के सीजन में मां मुझे जामुन खाने को यह कह
कर देतीं कि इसे जितनी देर हो सके उतनी देर मुंह में रखो फिर निगलो। इसके बाद मुझे
खूब ठंडा पानी पिला देती। ऐसे ही ना जाने क्या-क्या मुझे खिलाया-पिलाया जाता रहा। इससे
हालत यह हुई कि मेरा गला बुरी तरह खराब हो गया। अजीब सी सांय-सांय करती सी आवाज़ निकलती।
मेरा बोलना-चालना मुश्किल हो गया। मगर मेरी और मेरे मां-बाप के लिए असली समस्या तो
अभी आनी बाकी थी। वह मेरा ग्यारहवां साल शुरू होते-होते शुरू हो गई।
‘ वो समस्या क्या थी?’
‘वही जो अब मैं हूं। थर्ड जेंडर। उस
समय तो यह शब्द सुना भी नहीं था। तब के शब्द में हिजड़ा। उसी समय से मेरी आवाज़ के साथ-साथ
अब शरीर भी लड़कियों सी स्थिति में आने लगा। मेरे लड़कियों से कट्स बनने लगे। कमर, हिप, थाई लड़कियों सी कर्वी शेप लेने लगे। ग्यारह होते-होते निपुल लड़कियों की तरह बड़े-बड़े
इतने उभर आए कि मोटी बनियान, शर्ट पहनने पर भी साफ उभार दिखाई देता। मां
मेरी बनियान को पीछे से सिलकर खूब टाइट कर देती। मगर सारी कोशिश बेकार। स्कूल में साथी
अब आवाज़ के साथ-साथ इसको भी लेकर चिढ़ाने लगे।
कुछ तो खींचतान, नोच-खसोट करते, इस पर मैं मार-पीट करती। मैं स्कूल से आने के बाद घर से बाहर निकलना तो दो साल
पहले ही बंद कर चुकी थी। एक दिन मोहल्ले के एक लड़के ने मेरी पैंट खोल कर बदतमीजी करने
की कोशिश की। उस दिन फिर उसके हमारे घरवालों के बीच खूब मारपीट हुई। बिहार के दरभंगा
जिले के उस छोटेे से कस्बे में इससे ज्यादा अच्छी स्थिति की उम्मीद नहीं कर सकती थी।
उस दिन से मेरा स्कूल जाना भी बंद कर दिया गया। उस दिन शाम को घर में चूल्हा भी नहीं
जला। मां-बाप दोनों को ही मार-पीट में कई जगह चोटें लगी थीं। डॉक्टर के यहां मरहम-पट्टी
करवानी पड़ी थी।
‘ओफ्फो इतना सब होता रहा तुम्हारी एक
इस हालत के कारण। वाकई तुमने और तुम्हारे घरवालों ने भी बड़ी मुश्किलें झेलीं हैं।’
‘सांभवी ये तो कुछ भी नहीं है। आगे मैंने
जो-जो अपमान यातनाएं भोगी हैं उनके अनगिनत घाव मुझे आज भी वैसे ही तड़पा रहे हैं। जैसे
तब तड़पाते थे। एक-एक घटना गर्म आयरन रॉड की तरह आज भी मेरे शरीर से चिपकी मुझे भयानक
पीड़ा दे रही हैं। मेरी मुश्किलें इतनी बड़ी हैं कि उनका मैं आज तक ओर-छोर ही नहीं ढूंढ
पायी हूं।’‘अभी तक जो बताया वो मुश्किलें ही इतनी बड़ी हैं, इतनी पेनफुल हैं तो और
ना जाने क्या-क्या झेला होगा। जब स्कूल बंद हो गया तो पढ़ाई कैसे हुई ?’ ‘हुआ यह कि उसी दिन रात को मेरी एक हनुवा वाली मौसी आ गईं। मौसा जी उनके बच्चे भी
साथ थे।’हनुवा वाली मौसी सुनकर सांभवी चाैंकी। बीच में ही बोली ‘हनुवा वाली मौसी! तुम्हारा नाम और।’
‘हां अजीब बात है ना। बिल्कुल मेरे नाम
की तरह। हुआ यह कि जब मैं तीन साल की थी तब भी यह मौसी आयी थीं कुछ समय के लिए। उस
वक्त ये मुझे इतना प्यार करती थीं कि जब ये आठ दस दिन बाद जाने लगीं तो मैं मौसी-मौसी
कह कर रोने लगी। लोगों ने सोचा उनके जाने के बाद चुप हो जाऊंगी। लेकिन मैं घंटों रोती
रही। तो मां और सबने कहा ‘‘मौसी हनुवा गईं।’’ असल में चित्रकूट जिले के पास हनुवा नाम का एक गांव है। मौसी वहीं रहती हैं। तो
सबने कहा हनुवा गईं। यह सुन कर मैं कहना चाहती थी कि मैं भी हनुवा जाऊंगी। लेकिन पूरा
सेंटेंस बोलने के बजाय मैं आधा बोलती हनुवा, हनुवा। अगले दिन उठी तो भी मैं हनुवा-हनुवा
कर रोने लगी। ऐसा कई दिन चला तो घर भर मुझे बाद में भी हनुवा कहने लगा। और फिर यही
मेरा नाम हो गया। आगे चल कर मेरे साथ यह नाम ऐसा चिपका कि अब खुद भी इससे छुटकारा नहीं
चाहती।’
‘जिस चीज या बात से बहुत दिन जुड़ाव बना
रहता है उसके साथ इमोशनली अटैचमेंट हो ही जाता है। तो उस दिन तुम्हारी हनुवा मौसी ने
क्या किया? सबको इंजर्ड देखकर तो घबरा गई होंगी।’ ‘हां दरवाजे पर जब नॉक किया तो पापा
सशंकित हुए कि झगड़ा करने के लिए विरोधी गुट फिर तो नहीं आ गया। यह सोच कर उन्होंने
घर में एक कांता रखा हुआ था उसे ही हाथ में लेकर दरवाजा खोला। उनके ठीक पीछे अम्मा
भी डंडा लिए खड़ी थीं। एक हाथ में लालटेन लिए हुए। बाहर तो अंधेरा ही अंधेरा था। सामने
मौसा को देख कर पापा-अम्मा के जान में जान आई। अम्मा चहकती हुई बोलीं ‘अरे सुमन तू...।’ पापा ने भी बढ़कर मौसा जी को नमस्ते किया और अंदर ले आए सबको।
लेकिन अंदर आते
ही उन लोगों ने पहला क्योश्चन किया। ‘अरे ये सब क्या हुआ? ये चोटें, कांता, लाठी।’ तो पापा-अम्मा ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा ‘कुछ नहीं भाई साहब, कभी-कभी लड़ाई झगड़े में भी हाथ साफ कर लेना चाहिए। पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए।’ इसके बाद चाय-नाश्ता,
खाना-पीना सब रात एक बजे तक चला और बातें भी। मां-पापा जानते
थे कि कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। तो सारी बातें साफ-साफ बता दीं। उनसे सलाह भी मांगी
कि क्या करें? बाकी बच्चों का भी भविष्य देखना है। हम बच्चे तो सो गए। लेकिन बड़े लोगों की बातें
और देर तक चलीं।
अगले दिन भी विचार-विमर्श
चलता ही रहा। मौसा ने यह कह कर और डरा दिया कि हिजड़ों तक यह बात पहुंचने में देर नहीं
लगेगी। पता चलते ही वह सब इसको जबरदस्ती अपने साथ ले जाएंगे। फिर तो और ज़्यादा बदनामी
होगी। समस्या के एक से एक हल ढूंढ़ें जाने लगे। यह हल सुनकर शायद तुम आज भी सहम उठो
कि मेरे ब्रेस्ट को सर्जरी कराकर पूरी तरह खत्म कर देने की भी बात हो गई। मगर यह समाधान
बेकार हुआ। क्यों कि मां ने बड़ी दूरदर्शिता दिखाते हुए कहा कि ‘छाती तो सपाट हो जाएगी लेकिन इसकी जांघों, कूल्हों, कमर का क्या करेंगे? अभी से सोलह-सत्तरह साल की लड़कियों सी गदराई हुई हो रही है।’ मां की इस बात ने बात जहां शुरू हुई थी वहीं पहुंचा दी।’
‘हे भगवान मां-बाप, मौसा-मौसी इस तरह भी सोच सकते हैं। मेरे तो सुनकर ही रोंगटे खड़े हो गए हैं। तुम
पर क्या बीती होगी?’
‘बीती क्या? ग्यारह-बारह की तो हो ही रही थी। बहुत डीपली तो नहीं लेकिन काफी हद तक चीजों को
समझने लगी थी। बल्कि अपनी एज से कुछ ज़्यादा। लेकिन मैं बहुत ज्यादा डरी सहमी थी। मेरे
सारे भाई-बहन मौसी के बच्चे सब आपस में घुलमिल कर खेल रहे थे। मैं गुमसुम घर का कोई
कोना ढूंढ़ती और वहीं छिपी रहने की कोशिश करती। उस दिन दोपहर होते-होते मौसा ने समस्या
से निपटने की जो योजना सामने रखी। पापा-अम्मा को वह समझ में आ गई।
मौसा ने साफ कहा
‘‘चुपचाप यहां मकान, खेत सब बेच-बाच कर कहीं दूर जा के बसो। वहीं कोई काम धंधा जमाओ। और वहां मुझे लड़का
बनाए रखने की कोशिश ना करके जैसी दिखने लगी हूं वही यानी लड़की बना के रखो। इससे कोई
समस्या नहीं होगी।’’ सब को यही सही लगा और फिर मौसा जी जो दो चार दिन के लिए आए थे। वह उसी दिन शाम
को अकेले हनुवा गए। काम भर के पैसे का इंतजाम कर हफ्ते भर बाद लौटे। इसके बाद मन मुताबिक
जगह की खोज में बड़ौत आ गए। और यहीं मेरी ज़िन्दगी बदल गई।
मौसी ने ही मेरा
नाम सुशील से सुमिता कर दिया। अब पैंट-शर्ट की जगह सलवार सूट मेरी ड्रेस हो गई। यही
मुझे पसंद भी थी। मौसी ही मेरे लिए चार सेट कपड़े भी पहले र्ले आइं। सब बच्चों को भी
उन्होंने ना जाने क्या-क्या समझाया कि सब मिल-जुल गईं। वास्तव में अब मैं वह बन गई
थी जो मैं फील करती थी। यहां कोई दूर-दूर तक हम लोगों को जानने वाला नहीं था। वैसे
भी हम लोगों का परिवार छोटा, अंतरमुखी है। मौसा के अलावा किसी से कोई
संपर्क नहीं। दोस्त वगैरह भी नहीं।
मौसा ने जो पैसा
दिया था वह जब खेत, मकान, बिका दरभंगा का तो वापस किया गया। जो बचा वह बिज़नेस में लगा दिया गया। संयोग से
बिजनेस चल पड़ा। और फिर दो तीन साल बीतते-बीतते जिस मकान में किराए पर रहते थे उसी से
कुछ किलोमीटर आगे पापा ने एक पुराना मकान खरीद लिया। उसी में आज भी सब रहते हैं। मकान
काफी पुराना था। तो पापा बाद में धीरे-धीरे उसे तुड़वा कर नया बनवाते गए। बाद के दिनों
में मैं समझ पाई कि अगर यहां आकर पापा का काम धंधा ना चल गया होता तो मुझ पर मनहूस
होने के और आरोप लगते, मेरी मुश्किलें और बढ़तीं। लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि अभी तो सबसे बड़ा घाव, सबसे बड़ी पीड़ा मिलनी बाकी है।’
‘क्या! इसके बाद भी अभी कुछ और होना
बाकी है।’‘हां अभी तो बहुत कुछ बाकी है। ऐसा नहीं है कि प्लेस और मेरा परिचय बदलते ही सब
कुछ बढ़िया हो गया। शुरू में तो कई महिने लगे नए स्थान पर खुद को एडजस्ट करने में। पापा
के बिजनेस को रफ्तार पकड़ने में। मैं अपने बदले रूप से कुछ ही राहत महसूस कर रही थी।
लेकिन समस्या कोई खत्म तो हुई नहीं थी। मौसा के जिन मित्र के जरिए मकान वगैरह आसानी
से मिल पाया था उन्हीं के प्रयासों से ही हम तीनों बहनों का घर से थोड़ी दूर पर एक इंटर
कॉलेज में एडमिशन हो गया। भाई का दूसरे स्कूल में। शिफ्टिंग के कारण हम भाई-बहनों की
पढ़ाई काफी दिन बर्बाद हुई थी। किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ। मैं जिस कॉलेज
में थी वह बस कस्बों में जैसे होते हैं वैसा ही था।
मैं अपने भीतर शुरू
से ही यह मान कर चल रही थी कि मेरी पढ़ाई अन्य सभी से ज्यादा इंपॉर्टेंट है। मुझे सेल्फ
डिपेंड बनना है। मुझे मेरी स्थिति ने समय से पहले बहुत कुछ सिखा समझा दिया था। मेरे
साथ घर में जो व्यवहार होता था वह भी मुझे बहुत कुछ सिखाता, समझाता था। मां-बाप ही नहीं भाई-बहन भी ज़्यादा से ज़्यादा काम मुझ पर ही डालते
थे। मगर फिर भी अपनी पढ़ाई के लिए समय निकाल ही लेती थी।
इसीलिए पढ़ाई पिछड़ने
के बाद भी मैंने जूनियर हाईस्कूल में अपनी क्लास में टॉप किया। पूरे स्कूल में मेरी
दूसरी पोजीशन थी। स्कूल में मैं एक दम से सभी टीचर, सभी स्टूडेंट के बीच फेमस
हो गई। मेरी क्लास टीचर नाएला ने तो मुझे सिर आंखों पर बिठा लिया। क्यों कि उनकी भी
खूब चर्चा हुई। मैं आज भी मानती हूं कि वो एक इंटेलिजेंट टीचर हैं। वो अपने स्टूडेंट
पर जितना ध्यान देती थीं उसका आधा भी और देती रहतीं तो हर साल उनकी कम से कम तीन-चार
स्टूडेंट टॉप टेन में ज़रूर रहतीं।’
‘वो लापरवाह किस्म की थीं क्या?’‘नहीं लापरवाह तो नहीं कह सकती। एक्चुअली उनकी पर्सनल लाइफ बहुत डिस्टर्ब थी। उनके
हसबैंड वाराणसी में डी. एल. डब्ल्यू. हॉस्पिटल में सर्विस करते थे। वो चाहते थे कि
मिसेज या तो नौकरी छोड़ दें। या वाराणसी ही ट्रांसफर करा लें। नाएला जी ने बहुत कोशिश
की मगर हो नहीं पा रहा था। बाद के दिनों में यह भी सुनने को मिला कि नाएला जी नौकरी
करें वो यही नहीं चाहते थे। दोनों के बीच संबंध बहुत कटु थे। उनके तीन लड़के एक लड़की
थी। नाएला चाहती थीं कि कम से कम लड़की को उनके ही पास रहने दे। लेकिन हसबैंड कहते एक
कस्बे में रख कर बच्चों का कॅरियर बर्बाद नहीं करना।
बच्चे वाराणसी में
ही अपनी दादी पापा के पास रहते। नाएला जी हर सैटरडे को अपने बच्चों के पास जातीं, और मनडे को लौट आतीं। घर से जब भी लौटतीं तो एक दो दिन उनका मूड बहुत खराब रहता।
क्योंकि हर बार पति से जमकर झगड़ा होता था। पति बार-बार उन्हें तलाक देने की भी धमकी
देते थे। एक बार जब वह ईद मनाकर लौटीं तो साथ की टीचरों ने अमूमन जैसा होता है ऐसे
मौकों पर सिंवई वगैरह की बात कर दी। पहले तो वह बड़ी फीकी सी हंसी के साथ सबको टालती
रहीं। लेकिन अचानक ही उनकी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे।
इससे सभी सकते में
आ गए। सभी टीचरों ने सॉरी बोल कर उन्हें चुप कराया। उस दिन क्या फिर वह उस पूरे हफ्ते
कोई क्लास ठीक से नहीं ले र्पाइं। और सैटरडे को हसबैंड के पास गईं भी नहीं। एक बार
एक टीचर ने उन्हें सलाह दी कि ‘‘जब हसबैंड नहीं चाहते तो छोड़ दीजिए नौकरी।
इतने टेंशन के साथ जीने का क्या फायदा।’’
तब नाएला जी ने
जवाब दिया कि ‘‘अगर जॉब छोड़ने से टेंशन खत्म होती तो मैं यह भी सोचती। मगर मैं जानती हूं तब मेरी
तकलीफें और बढ़ेंगी। मुझे वो जीवन भर एक-एक पैसे, एक-एक चीज के लिए तरसा
देंगे। मुझे वो घर में कैद एक नौकरानी बना कर रखना चाहते हैं। बल्कि यह कहें कि नौकरानी
से भी बद्तर एक ऐसी मशीन एक ऐसी गुलाम चाहते हैं जिसमें कोई इमोशंस, फीलिंग्स ही ना रहे। जो घर, बच्चे उनकी मां को देखे, ए टू जे़ड काम करे। और वो जब जैसे चाहें वैसे अपनी सेक्सुअल डिजायर पूरी करें।
मैंने बार-बार समझाया
आखिर कमाती तो हूं सबके लिए ही ना। ज़्यादा पैसा होगा तो बच्चों की परवरिश पढ़ाई-लिखाई
सब कुछ ज़्यादा अच्छी हो सकेगी। लेकिन मेरी बातें उनकी समझ में ही नहीं आतीं। और सास
वह जब तक जागती हैं तब तक बारूद के पलीते में आग ही लगाती रहती हैं। एक बुजुर्ग, उससे पहले एक महिला के नाते वह झगड़ा खत्म कराने की कोशिश करेंगी ऐसा सोचना सबसे
बड़ी मूर्खता करने जैसा है।’’
नाएला जी ने आखिर में बड़े फायरी अंदाज में कहा था कि ‘‘मैंने इनसे, इनके सारे घर वालों से निकाह से पहले ही क्लीयर कह दिया था कि मैं नौकरी नहीं छोड़ूंगी।
मेरे पैरेंट्स ने भी क्लीयर कर दिया था कि सरकारी नौकरी है ,बड़ी मुश्किल से मिली है। नाएला की सारी काबिलियत के बावजूद लाखों रुपए रिश्वत, और सालों रात-दिन दौड़ धूप के बाद मिली। तब इन लोगों ने कहा नहीं नौकरी से कोई दिक्कत
नहीं है। आजकल तो इसी का दौर चल रहा है।
मगर निकाह के बमुश्किल
छः सात महिने बीते होंगे कि नौकरी से लेकर खाने-पीने, पहनने सभी चीजों पर सभी अपने हुकुम चलाने लगे।’ नायला जी इन सबकी रिंग
लीडर अपनी सास को अपनी खुशियों में आग लगाने वाली मानती हैं। मगर इन्हीं नाएला जी को
इस बात का शायद ही अहसास हो, शायद ही उन्होंने कभी फील किया हो कि उन्होंने
कैसे मेरी लाइफ में आग लगाई। ऐसी आग कि मैं चाहे जितनी बड़ी एचीवमेंट पा लूं मगर मेरे
हृदय पर जो आग जलाई है वह इस जीवन में नहीं बुझेगी।’
तभी बाहर कहीं करीब
ही किसी ने बहुत तेज़ आवाज़ का पटाखा दगाया। जिस की भयानक आवाज़ से दोनों चौंक उठीं। रात
बारह बज रहे थे लेकिन सारे क़ानून को धता बताते हुए प्रतिबंधित आतिशबाजी अभी भी रह-रह
कर चल रही थी। हनुवा की बातें भी सांभवी के मन में आतिशबाजी ही कर रही थीं। बाहर हुए
धमाके से चौंकने के बाद उसने सेकेंड भर में ही संभलते हुए पूछा ‘हनुवा क्या कह रही हो?
तुम्हारी टीचर ऐसा क्या कर देंगी?’‘सांभवी मैंने कहा ना कि मेरे साथ जो हुआ है अभी तक उसे किसी को बताओ तो वो शॉक्ड
हुए बिना नहीं रह सकेगा। नाएला ने भी जो किया वो सुनकर तुम वैसे ही चौंकोगी जैसे अभी
बाहर हुए धमाके से चौंकी थी।’‘अरे ऐसा भी क्या?’‘हां सांभवी,नाएला जी ने बरसों-बरस मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।’
‘क्या ?????’ कहते हुए सांभवी अपने बेड पर पूरी तरह उठ कर बैठ गई। वह अब तक तकिया मोड़ कर उसे
ऊंचा किए उसी पर सिर टिकाए अध-लेटी सी बातें सुन रही थी।
‘मैंने कहा था ना सांभवी ऐसी बात है
जिसे सुनकर कोई चाैंकेगा ही नहीं उसके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। नाएला जी ही हैं जिन्होंने
मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।’
‘हां, मैं तो विलीव ही नहीं कर
पा रही हूं। तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट वो भी एक लेडी, तुम्हारी ही क्लास टीचर करेगी।’
‘ये शॉकिंग है। लेकिन सांभवी पूरी तरह सच है। ये आजकल गवर्नमेंट ने जो स्वच्छता
अभियान चलाया है ना, कि हर घर में टॉयलेट हो, कोई बाहर नहीं जाए। आज़़ादी के बाद पहले मुख्य
कामों में यह भी होता तो अब तक सत्तर सालों तक, टॉयलेट ना होने के कारण बाहर जाने पर
लाखों महिलाओं-लड़कियों की इज्जत ना लुटी होती। उनकी हत्याएं नहीं हुईं होतीं। यह तब
की सरकारों का फैल्योर है। जिसे खत्म करने की अब सोची गई। और देखते-देखते बहुत काम
हो गया। टॉयलेट की प्रॉब्लम न होती तो मेरे साथ जो हुआ वह नहीं होता और नाएला जैसी
इंटेलीजेंट लेडी मेरी घृणा का शिकार नहीं होती।
वह टीचर जिसने मुझेे
उस रास्ते पर आगे बढ़ाया, मेरी बराबर हेल्प की जिसके कारण मैं पैरेंट्स के इंट्रेस्टेड न होने के बावजूद
भी बी-टेक कर पाई। इंजीनियर बन पाई। और तीन बार सरकारी नौकरी में सेलेक्ट हुई। लेकिन
वो नौकरियां सिक्योरिटी फोर्सेस की थीं। वहां फिज़िकल टेस्ट में मेरी प्राइवेसी खत्म
हो जाती। इसलिए मैंने क़दम वापस खींच लिए। इसके बाद किसी सरकारी नौकरी में सेलेक्शन
हुआ ही नहीं। ना जाने कितने एक्जाम दिए। अब तो याद भी नहीं कि किस-किस के रिजल्ट आए
किसके नहीं।’
‘हनुवा शॉकिंग ये नहीं कि तुम्हारा सेक्सुअल
हैरेसमेंट हुआ। दुनिया में सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस होते रहते हैं। मेरे लिए शॉकिंग
यह है कि तुम्हारा हुआ। कई बच्चों की मां तुम्हारी लेडी टीचर ने किया। वो भी सालों
साल। और तुम्हें बराबर आगे भी बढ़ाती रहीं। तुम्हारा उन्होंने कॅरियर भी बनाया। वो तो
मुझे हॉलीवुड की किसी साइकिक मूवी की मेन कैरेक्टर सी लग रही हैं, कि तुम टॉयलेट के लिए बाहर जाती थी और वो तुम्हें पकड़ लेती थीं।
‘शायद तुम सही कह रही हो। वो कोई मनोरोगी
भी हो सकती हैं। उनकी पर्सनल लाइफ ने हो सकता है उन्हें साइकिक बना दिया हो।’ लेकिन टॉयलेट वाली बात तुम समझ नहीं पाई। हुआ यह कि जिस कॉलेज में थी वह कस्बे
का एक सरकारी कॉलेज था। जिसकी खस्ताहाल बिल्डिंग थी। स्टूडेंट और स्टॉफ के लिए दो टॉयलेट
थे। उसमें स्टूडेंट वाला तो यूज के लायक ही नहीं बना था। स्टॉफ वाले में ही हम स्टूडेंट
भी जाते थे। दरवाजे, उनकी कुंडियां ऐसी थीं कि उन्हें बंद करने का कोई फायदा नहीं था। हल्का सा खींचते
ही खुल जाते थे। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ।
मैंने भरसक दरवाजा
बंद किया था। मैं उठकर खड़ी ही हो रही थी कि नाएला जी आईं और एकदम से दरवाजा खींच कर
खोल दिया। मैं एक घुटी हुई चीख सी निकालते हुए तड़पी। कपड़े बेहद टाइट होने के कारण मैं
हड़बड़ाहट में उन्हें एकदम ऊपर खींच ही नहीं पाई, और मेरी प्राइवेसी नाएला के सामने पूरी
तरह तार-तार हो गयी। कुछ भी छिपाने को नहीं रह गया था। नाएला जी भी मुझे एकदम आवाक
स्टेच्यू बनीं देखती रह गईं। उस हड़बड़ाहट में भी मैं उनके चेहरे पर बार-बार भाव बदलते
जा रहे हैं यह समझ रही थी। मैं कपड़ों को ऊपर कर बांधते हुए बुरी तरह रोए जा रही थी।
तब उन्होंने कहा। ‘‘चुप हो जाओ मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगी। डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन तुम्हारे
मां-बाप को झूठ नहीं बोलना चाहिए था।’’
उनकी इस बात में
गुस्सा साफ झलक रहा था। मैं बाहर निकल पाती कि तभी वह बोलीं ‘‘छुट्टी में जाने से पहले मुझसे मिलकर जाना।’’ मैं निकल ही रही थी कि
तभी दो टीचर और आ गईं। मुझे रोता देख उन दोनों ने एक साथ पूछा ‘‘अरे इसे क्या हुआ?’’ मैं डरी कि नाएला जी अब इन दोनों को भी सब बता देंगी। लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई
से कहा ‘‘कुछ नहीं? मैं जरा जल्दी में थी,
ध्यान दिया नहीं, दरवाजा खोल दिया। इसी लिए रो रही है।’’ ये सुनते ही मेरे जान मैं जान आ गई। उनमें से एक तुरंत बोली ‘‘इसमें इतना रोने की क्या बात है? यह भी लेडी हैं, जेंट्स तो नहीं। चलो जाओ क्लास में।’’ मैं आंसू पोंछते हुए क्लास में पहुंच
गई।
शाम को छुट्टी से
एक पीरियड पहले ही नाएला जी ने मुझे अपने पास बुला लिया। मुझसे पूछताछ शुरू की तो मैंने
सारी बात बता दी। पहले मारपीट, यहां शिफ्ट करने सुशील से सुमिता बनने तक
की सारी कहानी। मैं बार-बार रो पड़ती। तो उन्होंने उस दिन बहुत समझाया। यह विश्वास दिलाया
कि कभी किसी से कुछ नहीं कहेंगी। अब मेरा कॅरियर बनाना उनकी ज़िम्मेदारी है। उन्होंने
कहा ‘‘मैं तुम्हें इतना पढ़ा-लिखा दूंगी कि तुम नौकरी में अच्छी पोस्ट पर काम कर सकोगी।
जब तुम्हारे पास पैसा होगा,
पावर होगी तो सभी तुम्हारे पीछे चलेंगे। तुम्हारे घर वाले भी
तुम्हें अपने साथ बुला-बुला कर रखेंगे। तब तुम्हें किसी से छिपने या डरने की जरूरत
नहीं होगी। तुम ओपेनली बाकी लोगों की तरह खुल कर जी सकोगी। जो चाहोगी वह कर सकोगी।’’ फिर उन्होंने कई ऐसी थर्ड जेंडर के बारे में बताया जो एक सक्सेजफुल लाइफ पूरी इज्जत
के साथ जी रहीं हैं। उन्होंने मुझे उस वक्त इतना प्रोत्साहित किया, इतना समझाया कि मैं....मैं सारी टेंशन ही भूल गई।
मुझे लगा ही नहीं
कि अभी कुछ देर पहले तक मैं बहुत डरी हुई परेशान थी। आखिर में बोलीं ‘‘ठीक है घर जाओ।’’ मैं उठ कर उन्हें नमस्ते कर चलने लगी तो उन्होंने अचानक दोनों हाथों से मेरे चेहरे
को पकड़ा और जल्दी-जल्दी मेरे गालों पर किस कर लिया। मैं उनके इस स्नेह प्यार से इतनी
खुश हो गई कि बता नहीं सकती। उन्हें देखती खड़ी रह गई, तो मुस्कुराती हुई बोलीं ‘‘जाओ।’’ चलने को मुड़ी तो मेरी पीठ
और हिप पर भी हल्की-हल्की धौल जमा दी।
अपनी टीचर के इस
प्यार से मेरे क़दम हवा में पड़ रहे थे। तब मुझे इस बात का अहसास ही नहीं था कि इसी प्यार
के पीछे वह डंक है जो बस कुछ ही दिनों में मुझे लगने वाला है। यह प्यार वह जाल है, वह क्षद्मावरण है जो शिकारी अपने शिकार को फंसाने के लिए फैला रहा है।’‘ये डंक तुम्हें कितने समय बाद लगा ?’
सांभवी का क्योश्चन
सुन कर हनुवा ने कहा ‘तुम्हें नींद नहीं आ रही क्या?’
‘नींद आती कहां है? मैं यहां हूं तो मन कभी घर, तो, कभी अगले महिने की सात तारीख पर चला
जा रहा है। इस बार अच्छी एम. एन. सी. में जॉब मिली है। ऑफर लेटर मिल चुका है। सैलरी
पैकेज जो मिला है वह मेरी उम्मीद से कहीं बेहतर है। मैं इतनी एक्साइटेड हूं इस जॉब
को लेकर कि एक-एक घंटे का इंतजार लगता है जैसे कई सालों का है। और इन सबसे बड़ी चीज
ये कि तुम्हारी लाइफ हिस्ट्री सुन कर मैं इतना शॉक्ड हूं कि सारी बातें सेकेंड भर में
जान लेना चाहती हूं।
इतने तरह के प्रेशर के बाद कहीं नींद आती है क्या
? वैसे भी जब से हम लोग जॉब के लिए यहां आए हैं तब से खाने-पीने, सोने जागने की कोई टाइमिंग रह गई है क्या? पर्सनल लाइफ क्या होती है यह सब तो
भूल ही गई हूं। कभी-कभी लगता है कि हम लोगों से अच्छी तो वो लड़कियां हैं जो जहां तक
हुआ पढ़ी-लिखीं। पैरेेंट्स ने शादी कर दी, अपने हसबैंड बच्चों के साथ जी रहीं
है। बेवजह सेल्फ डिपेंड होने का नशा पाल लिया। जब देखो तब नौकरी की चिंता, आज है कल रहेगी इसका पता नहीं। और सरकारी नौकरी सपने से कम नहीं। उसका तो सपना
देखना भी पाप है।’
सांभवी ने बेड पर
पहलू बदलते हुए अपनी बात कही। उसकी बातों में, आवाज़ में उसकी तकलीफ छलछला पड़ी थी।
जिसे हनुवा ने बड़ी गहराई से फील किया। कुछ देर तक चुप उसे देखती रही। फिर कहा ‘सांभवी तुमने सेल्फ डिपेंड होने का जो डिसीजन लिया वह बिल्कुल ठीक है। हम लोग जैसी
दुनिया में जी रहे हैं उसमें तो लड़कियों का सेल्फ डिपेंड होना बहुत ही जरूरी है। पैरेंट्स
सभी के जल्दी से जल्दी लड़कियों की शादी कर देना चाहते हैं। मगर डॉवरी की आंधी में लड़की, पैरेंट्स दोनों की सारी इच्छाएं उड़ जाती हैं।
लड़कियों को आगे बढ़ाने, सेल्फ डिपेंड बनाने की जो मेंटेलिटी डेवलप हुई अपने कंट्री में, मेरा मानना है वह ओनली-डॉवरी के ही कारण हुई। जिस तरह से लड़कियों को जलाया जाता
है, उनका गला घोंटा जाता है, हाथ-पैर तोड़ा जाता है, जहर दिया जाता है, इसके बाद तो लोगों के सामने यही एक सॉल्यूशन बचा है। क्यों कि डॉवरी की डिमांड
इतनी ज़्यादा है कि उसे अरेंज करने में ही पैरेंट्स दिवालिया हो जाते हैं। किसी तरह
एक बार अरेंज कर शादी कर भी दी, तो भी उसके बाद बराबर डिमांड बनी ही रहती
है। पैरेंट्स,लड़की सभी की सारी खुशियां इसी में तबाह हो जाती हैं।’
‘तुम सही कह रही हो हनुवा, मेरे पैरेंट्स हम सभी भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई कराते-कराते फिनांशियली इतना वीक
हो गए हैं कि क्या बताऊं। हालत यह है कि कभी बिजली का बिल नहीं जमा होता, तो कभी हाउस, वॅाटर टैक्स। कहीं घूमना-फिरना तो जैसे हम लोग जानते ही नहीं। पहले जब डॉवरी वगैरह
की प्रॉब्लम नहीं समझती थी तो यही सपने देखती थी कि पढ़ाई-वढ़ाई में समय बरबाद नहीं करूंगी।
जल्दी से शादी करूंगी, तीन चार बच्चे पैदा करूंगी। उन्हें लेकर लाइफ को एंज्वाय करूंगी। तब ऐसे सपने मैं
और ज़्यादा देखने लगी थी जब अपनी कॉलोनी ही की एक लड़की की खूब धूमधाम से शादी फिर उसके
बच्चे आदमी को मायके आने पर देखती। वह परी सी दिखती थी। वह बड़ी रिच फैमिली में गई थी।
जब अपनी बड़ी सी
कार से आती, तो उसे देखने के बाद मैं कई-कई दिनों तक वैसी ही लाइफ के सपने देखती। लेकिन जैसे-जैसे
बड़ी हुई। अपने पैरेंट्स की फिनांशियल हैसियत और डॉवरी के अभिशाप को जाना, वैसे-वैसे सारे सपने मिट्टी में मिला दिए। भूला दिया ऐसे सपनों को। समझ गई कि अपनी
लाइफ सिक्योर्ड करनी है, सेल्फ डिपेंड बनना है,
तो पढ़ना है, कॅरियर बनाना है। हम सारे भाई-बहनों
ने यही किया। पैरेंट्स इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि लड़कियों की शादी कहां से करूं।
हम सारे भाई-बहन नौकरी कर रहे हैं। प्राइवेट ही सही, लेकिन बात वही है कि किसी
की शादी के लिए लाखों रुपए दो-चार साल में तो इकट्ठा नहीं हो जाएंगे।
पैरेंट्स हम सब
की कुल इंकम का फिफ़्टी परसेंट जमा कर रहें हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अपनी फ़ैमिली
के स्टैंडर्ड की शादी के लिए जितना चाहिए उतना इकट्ठा करते-करते तो दस-पंद्रह साल निकल
जाएंगे। तब तक तो हम बहनें पैंतीस-चालीस की
हो जाएंगे। इस उम्र में शादी और काहे की शादी। कुल मिला कर यह कि हम बहनों का शादी
के बारे में सोचना ही मूर्खता है, तो कम से कम मैंने तोे सोचना बंद कर दिया।
भाई जब से नौकरी में लगा है तब से उसकी शादी के लिए लोग आ रहे हैं। मगर वो मूर्ख मानता
ही नहीं। कहता है कि ‘‘बड़ी बहनों के रहते मैं कैसे कर सकता हूं?’’
पहले पैरेंट्स नहीं
तैयार हो रहे थे। हम बहनों ने उनको किसी तरह तैयार किया कि हम बहनों के चक्कर में भाई
की ज़िदगी तबाह करना कहां की समझदारी है? तब वो तैयार हुए। मगर मेरा भाई इमोशनली
बहुत वीक है। तैयार नहीं होता। कहता है कि ‘‘मान लो कोई ऐसी लड़की आ गई जो कहे कि
तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकते। सबको बाहर करो। रोज झगड़ा करने लगे। तब तो और
बड़ी प्रॉब्लम खड़ी हो जाएगी। कहां जाओगी तुम सब?’’ उस मूर्ख को हम बहनें समझाते हैं कि
अगर ऐसा हुआ तो कोई बात नहीं। हम अब इतना कमाते हैं कि अलग किराए पर मकान लेकर रह लेंगे।
आगे पैसे इकट्ठा कर के कोई दूसरा मकान रहने भर का
बनवा लेंगे। मगर जितना हम लोग उसको समझाते हैं, पलटकर उसका दुगुना वह हम सबको समझाने
लगता है। अब तो ऐसे विहैव करता है जैसे घर का सबसे बड़ा वही है। इधर साल भर से पापा-अम्मा
से रोज बहस, झगड़ा करता है कि मकान बेच कर बहनों की शादी कर दो। दुनिया में बहुत लोग किराए पर
रहते हैं। हम लोग भी रह लेंगे। वो लोग नहीं माने तो उनकी इंसर्ट करने लगा। कि ‘‘आप लोगों को अपनी लड़कियों के फ्यूचर से ज़्यादा अपनी प्रॉपर्टी प्यारी है।’’ इस पर भी पैरेंट्स नहीं माने तो घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देने लगा।
आखिर रोज कहते-कहते
मम्मी-पापा को मना ही लिया। अब मकान बेचने और हम बहनों की शादी ढूंढ़ने का काम एक साथ
चल रहा है। हम बहनों की बात सुनी ही नहीं जा रही है।’ सांभवी की बातों को ध्यान से सुन रही हनुवा ने खुश होते हुए कहा ‘बहनों को तो खुश होना चाहिए, कि ऐसा भाई मिला है। नहीं तो आजकल कौन भाई
बहनों के लिए इतना सोचता है। सब सेल्फ डिपेंड होते ही शादी-वादी कर अपनी दुनिया में
खो जाते हैं। परिवार को पूछते ही नहीं।’
‘हां ये तो है। लेकिन ये भी तो सही नहीं
कि हम बहनें ऐसे भाई, पैरेंट्स के लिए इतने सेल्फिस हो जाएं। मकान बेच कर जहां किसी तरह खींचतान कर हम
तीनों की शादी हो जाएगी। वहीं परिवार के बाकी तीनों सदस्य तो परेशानी में आ जाएंगे
ना। फिर जो माहौल चल रहा है उसे देखते हुए इस बात की क्या गारंटी कि शादी के बाद हम
तीनों खुश ही रहेंगे।
और फिर भाई की सर्विस
भी कोई सरकारी नहीं है। कोई सिक्योर्ड जॉब नहीं है। आज है, कल रहेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। हमीं लोग कितनी जॉब छोड़ चुके हैं। जॉब शुरू करके
साल-डेढ़ साल आगे बढ़ते हैं कि तभी अचानक ही नौकरी चली जाती है। हम विनिंग लाइन से सेकेंड
भर में स्टार्टटिंग प्वाइंट पर पहुंच जाते हैं।
‘हां लेकिन फिर भी मुझे तुम्हारे भाई
का सॉल्यूशन, उसका विज़़न ही सही लग रहा है। तीनों बहनों की शादी हो जाएगी। किराए पर रहते हुए
भी उसकी शादी में अड़चन नहीं आएगी। और जो व्यक्ति इतना ब्रॉड माइंडेड होता है वो भविष्य
बेहतर बनाने में भी सक्षम होता है। वह मकान वगैरह सब बना लेगा। ऐसे विज़नरी ब्रॉड माइंडेड, ब्रॉड हार्ट वाले लोग मिलते कहां हैं सांभवी? यहां अगर मैं ठीक होती
ना तो तुमसे सिफारिश करती कि अपने भाई से मेरी शादी करा दो ’। इतना कह कर हनुवा खिलखिला कर हंस पड़ी।
सांभवी भी हंस दी।
उसे हनुवा की बात से ज़्यादा आश्चर्य इस बात का था कि इतने दिनों में वह पहली बार हनुवा
को ऐेसे खिलखिला कर हंसते देख रही थी। लेकिन यह सब बस कुछ ही सेकेंड का था। हनुवा की
हंसी बादलों में क्षण भर को कौंधी बिजली की तरह गायब हो गई। फिर से पूरे चेहरे पर कसैलेपन
की रेखाएं उभर्र आइं। सांभवी को उसकी हालत समझते देर नहीं लगी। मगर कहे क्या ? उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। तभी हनुवा ही बोल पड़ी।
‘सांभवी, माफ करना हम जैसों को तो ऐसे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है। हम ना किसी के हो
सकते हैं, ना किसी को अपना सकते हैं। किसी के साथ अपने को मज़ाक में भी जोड़ना हमारे लिए पाप
ही है।’
‘ओफ्फो हनुवा! तुम भी ना, कभी-कभी तुम्हारी बातों से लगता ही नहीं कि तुम इक्कीसवीं सदी की पढ़ी-लिखी पर्सन
हो। कैसी-कैसी बातें दिमाग में भर रखी हैं। यार इतना टेक्निकल नहीं होना चाहिए।’
‘मैं टेक्निकल नहीं हूं। सांभवी देखो
ना अभी तुम्हें सिर्फ़ एक सेंटेंस बोलने में कितनी मुश्किल हुई। तुम आसानी से यह भी
नहीं बोल पाई कि मैं इक्कीसवीं सदी की एक पढ़ी-लिखी गर्ल हूं। बड़ी कोशिश करके तुमने
एक रास्ता निकाला, मुझे पर्सन बोला। मेरा जेंडर तय नहीं कर पाई। सांभवी हम जैसों को तो नेचर ही ने
इतना टेक्निकल बना दिया है कि हम और टेक्निकल होने की सोच ही नहीं सकते। हमारी टेक्निकल्टी
इतनी ज़्यादा है कि हमारे यहां के कानूनविदों को पैंसठ साल लग गए फॉर्मों में हमारे
लिए थर्ड जेंडर का तीसरा कॉलम बनाने में। अब तुम्हीं बताओ इस हालत में हम जैसे लोग
सोच भी सकते है टेक्निकल होने की?’
‘सॉरी हनुवा मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतना नाराज हो जाओगी।’‘अरे कैसी बात कर रही हो? सांभवी तुम तो मेरी जान बन चुकी हो। नाराजगी
शब्द तुम्हारे लिए मेरी डिक्सनरी में है ही नहीं।’ इतना कहते-कहते हनुवा ने
कुछ ही देर पहले ही फिर से सामने आ बैठी सांभवी को गले लगा लिया। और जब उससे अलग हुई
तो उसकी आंखें भरी हुई थीं। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें सुर्ख हो गई थीं। बहुत ही भर्राई आवाज़
में बोली।
‘फिर ऐसा ना सोचना, तुम्हें मैं अपना हिस्सा मान चुकी हूं। मेरा मन यही कहता है कि इस दुनिया में अब
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हीं हो मेरी। तुमने अगर छोड़ा तो मेरे सामने मरने के सिवा कोई
रास्ता ही नहीं होगा।’
हनुवा की भावुकता
के सामने सांभवी भी ठहर ना सकी। अब उसने हनुवा को अपने गले से चिपका लिया। बोली ‘हनुवा-हनुवा मेरी हनुवा, मैं भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। अब तुम
ही मेरी सब कुछ हो। सब कुछ।’
इतना कहते हुए जब
सांभवी अलग हुई तो उसकी भी आंखें भरी थीं। कुछ सेकेंड वह हनुवा के चेहरे को अपलक देखती
रही फिर बोली ‘तुम्हारी उस टीचर ने तुम्हें किस तरह डंक मारा कि तुम जीवन भर उसके दर्द को महसूस
करोगी यह तो बताया ही नहीं। बातों का ट्रैक ही बदल गया। कहां से कहां चले गए हम दोनों।’
‘हां सही कह रही हो तुम। बात तो मैं
अपनी टीचर की कर रही थी। मन तो नहीं करता कि उनके लिए टीचर जैसे पवित्र शब्द का प्रयोग
करूं। लेकिन मेरा कॅरियर बनाने में उनका इतना बड़ा हाथ है कि या ये कहें कि एक मात्र
उन्हीं का हाथ है जिसकी वजह से उन्होंने मुझे जो पीड़ा दी जीवन भर की उसे मैं थोड़ा साइड
कर देती हूं।
गुस्सा तो बहुत
आता है। लेकिन फिर भी उनके लिए मन में कोई गंदा शब्द नहीं आता। कोई गाली नहीं आती।
उस दिन जब स्कूल से बड़े प्यार दुलार से शाम को मुझे घर भेजा तो मैं बहुत खुश थी। लेकिन
मैंने घर में किसी को कुछ नहीं बताया। अगले दिन स्कूल में नाएला जी ने मुझसे कहा कि
उनके घर पर शाम को छः बजे तक कुछ लड़कियां पढ़ने आती हैं। मैं भी आ जाया करूं तो वह पढ़ा
देंगी। इससे मेरे मार्क्स और अच्छे आएंगे। मैं अपने घर और अपने बारे में उन लोगों की
इच्छा -अनिच्छा सब जानती थी, और यह भी कि मुझ पर एक पैसा भी एक्स्ट्रा
खर्च करने वाले नहीं है। अलग से ट्यूशन की तो बात ही नहीं उठती।
इसलिए मैंने उनसे
साफ कह दिया कि मैं नहीं आ सकती। मेरे मां-बाप फीस किताब ही मुश्किल से देते हैं। ट्यूशन
का नाम सुनते ही मार भी सकते हैं। इस पर वह बोलीं ‘मैं तुम्हें पढ़ाई-लिखाई
में इतना आगे बढ़ाना चाहती हूं कि तुम आगे चल कर किसी पर डिपेंड ना रहो। बल्कि घर की
भी हेल्प कर सको। इतने अच्छे मार्क्स लाओ कि तुम्हें मैं स्कॉलरशिप दिला सकूं। पढ़ाने
के लिए मैं तुम्हारे पैरेंट्स से एक पैसा नहीं चाहती।’
मैंने घर पर कहा
तो मुझे झिड़क दिया गया। अगले दिन नाएला जी ने सारी बात सुनने के बाद भी हार नहीं मानी।
तीन चार दिन में दुकान पर फादर से बात कर ली। फादर की दुकान के बगल में ही पी.सी.ओ.
था। ज़रूरत पड़ने पर हम लोग उसी पर संपर्क करते थे। नाएला जी फादर को कंविंस करने में
सफल रहीं। और अंततः पांचवें दिन से मैं उनके घर पढ़ने जाने लगी। मेरे अलावा चार लड़कियां
और आतीं थीं।
मेरे घर से उनका
घर करीब बीस मिनट की दूरी पर था। ऊपर दो कमरे का मकान उन्होंने किराए पर लिया था। नीचे
मकान मालिक रहते थे। पढ़ाते समय वो किसी एक लड़की को बोल कर सबके लिए चाय बनवातीं। अपना
प्रिय पारले जी बिस्कुट खुद भी खातीं और हम सबको भी देतीं। कमरे में वह एक तखत पर कभी
लेटे-लेटे पढ़ातीं तो कभी बैठ कर। कोई निश्चित टाइम नहीं था। कभी डेढ़ घंटा, कभी दो घंटा।
पढ़ना शुरू करने
के बाद जब दूसरा संडे आया तो उन्होंने कहा कल भी दोपहर तक आ जाना। बता कर आना कि देर
से आऊंगी। इतने दिन की पढ़ाई से मैंने खुद अपनी पढ़ाई में फ़र्क महसूस किया था। घर वालों
ने भी। मेरी तरह वो लोग भी इंप्रेस थे। इस लिए संडे को मैं करीब एक बजे पहुंच गई। उस
समय वो हफ्ते भर के कपड़े धुल चुकीं थीं। कमरे से लगी अच्छी-खासी बड़ी सी छत पर तार की
अरगनी पर फैला रही थीं।
उन्होंने जो मैक्सी
पहन रखी थी वह भी करीब-करीब पूरी भीगी थी। बदन से मैक्सी चिपक-चिपक जा रही थी। वह मुझे
बड़ी अजीब लग रही थीं। सामने से मैक्सी का काफी हिस्सा ऊपर तक खुला था। चलने पर उनकी
जांघें तक खुल जाती थीं। उनका गोरापन देखकर मैंने सोचा टीचर जी का आधा गोरापन भी मिल
जाता हम भाई-बहनों को तो कितना अच्छा था। वह मुझे कमरे में बैठने को बोलकर काम में
लगी रहीं।
मैं घर में काम
करने की आदी तो थी ही। उनको ऐसे मेहनत करते देख कर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने हेल्प
करने की कोशिश तो वो नहीं मानीं। लेकिन मैंने भी उनकी बात नहीं मानी। उनके लाख मना
करने पर भी हेल्प की। बाल्टी में चादरें थीं, उन्हें भी धुल कर डाला। कपड़ों के बाद
वो पूरी छत धोकर नहाना चाहती थीं। मैंने कहा आप नहाइए। छत मैं धोऊंगी। वो बड़ी मुश्किल
से मेरी बात मानीं।
मैंने देखा छत बीच-बीच
में तो धो ली जाती है लेकिन किनारे-किनारे दिवारों के पास बहुत गंदी है। मैं अपनी सफाई
पसंद नेचर के चलते एक-एक कोने को पूरी तरह साफ कर जब कमरे में पहुंची तब तक नाएला जी
दो कप चाय, एक प्लेट में बिस्कुट,
ढेर सा सेवड़ा (मैदा से बनीं नमकीन) और दो लौंगलता तखत पर रख
चुकी थीं। मुझसे उसी पर बैठने को कहा। हम सभी स्टूडेंट उनके सामने जमीन पर दरी बिछा
कर बैठते थे। मैंने संकोच में नीचे ही बैठने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानीं। तखत
पर उन्हीं के सामने बैठी। बीच में नाश्ता था। पहले मिठाई फिर नमकीन, चाय हम दोनों ने खाई पी। मुझे वो बार-बार खाने को कहतीं तभी मैं लेती थी।
मैं बहुत डर रही
थी। नाश्ते के दौरान ही उन्होंने पढ़ाई की बातें शुरू कर दीं थीं। मगर जल्दी ही बातों
का ट्रैक उन्होंने बदला। यह समझाने की कोशिश कि की हमारे यहां का एजुकेशन सिस्टम केवल
नौकरी के लिए ही तैयार करता है। स्टूडेंट को वह एजूकेट नहीं करती सिर्फ़ लिटरेट करती
है। उन्हें अन्य डेवलप्ड कंट्रीज की तरह ऐसा नहीं बनाती कि अपने नेचुरल टैलेंट का वो
कोई यूज कर पाएं। इतनी बातें करते-करते उन्होंने फिर ट्रैक बदला और मेरी जैसी ट्रांसजेंडर
की स्थिति क्या होती है समाज में यह बताने लगीं। इस बीच नाश्ता खत्म हो चुका था और
मैं प्लेट वगैरह किचन में रख आई थी। जब मैं लौटी तो वो तख्त पर लेट गई थीं। मैंने सोचा
अब पढ़ाएंगी। अक्सर वह पढ़ाते-पढ़ाते लेट जाती थीं।
मैं यह सोच कर दरी
बिछाने और किताबें निकालने को हुई तभी उन्होंने अपनी बगल में तख्त पर ही बैठने को कहा।
उनकी जिद पर मैं बिल्कुल उनके पैरों के पास बैठी। लेकिन वो फिर जिद कर बैठीं और मुझे
बीच में बैठाया। मैं उनके चेहरे की ओर मुंह किए उनके पेट के नजदीक ही बैठी। मेरे बैठते
ही उन्होंने करवट ली। उनका पेट मुझसे छूने लगा। मैं उनकी जिद के कारण हट नहीं पा रही
थी। कुछ ही देर में उनकी हरकतों से मैं सहमने लगी, उनकी बातें मुझे डराने
लगीं। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए कहा कि ‘‘तुम्हारे जैसी ट्रांसजेंडर को हिजड़ों
का समूह उठा ले जाता है। शरीर के कई हिस्सों को अपने धंधे के हिसाब से अंग-भंग कर देता
है। अगर उनको मालूम हो जाएगा तो वो तुम्हें जबरदस्ती उठा ले जाएंगे। घर वाले, पुलिस कोई उन्हें रोक नहीं पाएगा।’’
लगे हाथ एक घटना भी बता दी कि मेरे जैसी किसी ट्रांसजेंडर
को वो ऐसे ही ले जा रहे थे। घर के लोगों ने रोका तो वो झगड़ा करने लगे। पुलिस आई तो
वो सब नंगे होकर लड़ने पर उतारू हो गए। पुलिस भाग गई। शहर भर के हिजड़े इकट्ठा हो कर
उस लड़की को लेते गए। आज वो उन्हीं की तरह नाचने-गाने का काम करती है। बेइज्जती के कारण
उसके फादर, मदर ने सुसाइड कर लिया। बाकी बच्चों को भी जहर दे दिया था। सब के सब मर गए।
मैं ये सब सुनकर
रोने लगी। तो उन्होंने मुझे अपने से और चिपका कर आंसू पोंछते हुए कहा ‘‘हनुवा तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगी। मैं तुम्हारा
कॅरियर ऐसा बना दूंगी कि तुम बाकियों के लिए एक एक्जॉम्पिल बन जाओगी।’’ उन्होंने पहले की तरह फिर कई ऐसे ट्रांसजेंडर्स की बात की जिन्होंने ने अपनी इस
समस्या से पार पा के अपना एक स्पेस बनाया। मैं इस बीच बार-बार यह भी फील कर रही थी
कि नाएला जी के हाथ मुझे ऐसी जगह भी टच कर रहे हैं, सहला रहे हैं जहां मेरी
समझ से उन्हें टच नहीं करना चाहिए था। सांभवी उन्होंने मुझे यह कह कर सबसे ज़्यादा
डरा दिया कि हम जैसे लोग समाज में महाभारत काल से ही एकदम कोने में फेंके जाते रहे
हैं।
एक उदाहरण तब का
बताया जब राम के अयोध्या वापस आने पर नगरवासी उत्सव मना रहे थे। देर हुई तो राम ने
सारे नर-नारियों, बच्चों, बूढों को घर जाकर सोने ,आराम करने को कहा। लेकिन जो ट्रांसजेंडर
थे उन्हें कहना भूल गए। और ये ट्रांसजेंडर राजा राम का आदेश ना मिलने के कारण रात भर
नाचते रहे। अगले दिन राम ने पता होने पर खेद प्रकट किया।
दूूसरा उन्होंने
ऐसा प्रमाण दिया जिस पर डाउट करने का मेरे पास कोई रीजन नहीं था। उन्होंने कहा तमिलनाडू
में एक जिला बिल्लूपुरम है। वहां कुआगम गांव में महाभारत के काल से ही एक परंपरा चली
आ रही है। गांव के एक मंदिर कुठनद्वार में साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता है। जिसमें
देशभर से सारे ट्रांसजेंडर इकट्ठा होते हैं। वहां उनकी एक दिन के लिए शादी होती है।
फिर मंदिर का पुजारी उनके मंगलसूत्र तोड़ कर उन्हें विधवा बना देता है। वो असली विधवाओं
की तरह खूब विलाप करती हैं। यह परंपरा तब से शुरू हुई जब महाभारत युद्ध चरम पर था।
उसी समय अर्जुन और उनकी नागवंशी पत्नी चित्रांगदा के पुत्र अरवाण ने युद्ध में भाग
लेने से एक दिन पहले विवाह की इच्छा प्रकट कर दी।
सभी बड़े असमंजस
में पड़ गए। कृष्ण ने पूरे युद्ध की तरह यहां भी छल-छद्म का इस्तेमाल किया। एक खूबसूरत
स्त्री का रूप धारण कर अरवाण से विवाह कर लिया। मगर अरवाण रात भर अपनी सुहागरात नहीं
मना सका। कृष्ण का मोहिनी रूप उसे कंफ्यूज किए रहा। उसे बार-बार ऐसा महसूस होता कि
उसकी पत्नी के शरीर से कभी माखन की तो कभी मिसरी की खुशबू आ रही है। कृष्ण अपने हावभाव
से रात भर उसे कंफ्यूज किए रहे। और सवेरा हो गया। अरवाण अपनी अधूरी सुहागरात की पीड़ा
लिए युद्ध मैदान में चला गया।
उसके भयानक संग्राम
से विपक्षी सेना में हा-हा कर मच गया। वह पत्थर का रूप धारण कर दुश्मनों पर लुढकता
चला जा रहा था। उन्हें कुचलता मारता जा रहा था कि तभी उसने देखा कि उसकी पत्नी रोती, चीखती-चिल्लाती अपने सुहाग चिह्नों को मिटाती, तोड़ कर फेंकती चली आ रही
है। यह देख कर अरवाण को संतोष हुआ कि उसके बाद उस पर आंसू बहाने वाला कोई तो है। कहते
हैं कि इसी अरवाण का पत्थर बना सिर कुठनद्वार मंदिर में है। जिसकी पूजा तभी से सारे
ट्रांसजेंडर करते आ रहे हैं। मेले वाले दिन आज भी दुनिया भर से सारे ट्रांसजेंडर यहां
आते हैं।
‘अरे यार एक बार तो इस मेले में चल कर
देखना चाहिए कि सच क्या है?’
‘नहीं सांभवी मैं वहां के नाम से कांपती हूं। वहां लाखों हिजड़ों में से किसी ने
भी यदि मेरी सच्चाई जान ली तो मैं बच नहीं पाऊंगी। कहते हैं वो सब ट्रांसजेंडर्स को
सात तहों में भी पहचान लेते हैं। तुम वहां से अकेले ही आओगी। मैं तभी से कुवागम नाम
से ही सिहर उठती हूं जब उस दिन नाएला जी ने इन किस्सों के साथ-साथ ढेर सारे ऐसे ही
और किस्से बतायए। मुझे थर्ड जेंडर की उन्होंने जो दुनिया दिखाई उससे मैं तभी से हर
पल डरती-कांपती रहती हूं। अपने को बचाए रखने का कौन सा जतन नहीं करती हूं। यह डर ही
है कि मैं फूट-फूट कर उनके सामने रोती रही कि मुझे वो जल्दी से वह बना दें कि मैं सुरक्षित
होकर लोगों के लिए एक्जाम्पिल बन जाऊं। मेरे उस भय का ही उन्होंने फायदा उठाया।
मेरी सारी फिज़िकल
कंडीशन को थॉरोली समझ कर,
मेरे लिए वो एक प्लान बना कर आगे बढ़ सकें, इसके लिए चेक करने के नाम पर उन्होंने मेरे सारे कपड़े अलग कर दिए। मेरे अंगों से
खेलती खुद भी नेकेड हुईं। और मेरा जी भर कर सेक्सुअल हैरेसमेंट किया। उस दिन पढ़ाई के
नाम पर तीन घंटे मुझे रोका। इस सारे समय चेकअप के नाम पर मेरा हैरेसमेंट करतीं रहीं।
और फिर यह बरसों-बरस चला।’
इतना कहते-कहते हनुवा फिर रोने लगी। सांभवी ने उसे
चुप कराते हुए कहा ‘ओह गॉड! टीचर होकर तुम्हारे साथ ऐसा किया। और बरसों तक करती रहीं। आश्चर्य तो यह
है कि फिर भी इतने सालों बाद भी तुम्हारे मुंह से उसके लिए एक भी गलत शब्द नहीं निकलता।
यार तुम क्या हो? तुम क्या-क्या सहन करती आई हो? कितना सहन करती हो? तुमने उसी दिन अपने पैरेंट्स से क्यों नहीं बताया? मान लो डर के मारे नहीं बताया। लेकिन यह भी तो कर सकती थी कि अगले दिन से उस गंदी
औरत के पास जाती ही नहीं। तुम्हें नहीं लगता कि तुमने बड़ी गलती की जिस कारण वह सालो-साल
तुम्हारा शोषण करती रहीं।’
‘सांभवी ये पॉसिबल नहीं था।’‘क्यों?’
‘क्योंकि जब तीन घंटे बाद उन्होंने मुझे
घर जाने के लिए छोड़ा तो एक तरह से साफ-साफ धमकी दी कि घर में बताया तो वो मेरी सारी
बातें सब को बता देंगी,। वहां जो हिजड़े हैं उन्हें भी बता देंगी। वो सबसे यही कहेंगी कि पढ़ने के लिए डांटा-मारा
तो मैंने उन पर झूठा आरोप लगा दिया। मेरी बात पर कोई यकीन नहीं करेगा। उनके पास जाना
मैं इसलिए नहीं छोड़ सकती थी क्योंकि घर पर उन्होंने सबको यकीन दिला रखा था कि वो मेरा
कॅरियर ऐसा बना देंगी कि मैं परिवार पर कोई बोझ ना रह कर परिवार की ताकत बन जाऊंगी।
मेरी पढ़ाई में जो परिवर्तन घर वालों ने देखा था उससे
वो नाएला जी के जबरदस्त प्रभाव में थे। वो नाएला जी की ही बात मानते। सबसे ज़्यादा
मैं इस बात से परेशान थी कि उन्होंने वहां के हिजड़ों को मेरी बात बता देने की धमकी
दी थी। मेरे खिलाफ उनके हाथ में यह एक ऐसा ब्रह्मास्त्र था जिसका मेरे पास कोई जवाब
नहीं था। तुम्हीं बताओ क्या मेरे पास कोई जवाब हो सकता था?’
हनुवा इतना कहकर
सांभवी को देखने लगी तो वह बोली ‘सच कहूं हनुवा कि ऐसी स्थिति में मुझे भी
कोई रास्ता नहीं सुझाई देता। मैं तुम्हारी जगह होती तो इतना तो यार तय था कि मैं क्या
रिजल्ट होगा इसका खयाल ना करती। और वहां जो कुछ मेरे हाथ लगता उसी से उस निम्फोनिएक
लेडी को मार देती। निश्चित ही मैं यही करती। खैर जब इतनी गिरी हुई औरत थी तो तुम्हारी
पढ़ाई-लिखाई कॅरियर का उसने क्या किया? जब-जब वह तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट
करती थी तब-तब तुम उसे मना करने की कोशिश नहीं करती थी क्या?’
‘सांभवी उस समय मैं बड़ी ही अजीब, बड़ी ही क्रिटिकल सिच्यूएशन में थी। उनके सामने पड़ते ही मैं कसाई के सामने पड़ गए
मेमने की तरह कांपती थी। एक ऐसी खिलौना बन जाती थी जिसका रिमोट उनके हाथ में था। वो
जैसा चाहती थीं मुझे वैसा ही चलाती थीं। और-और मैं, एक्चुअली उन्होंने अपना
काम आसान, परफेक्ट बनाए रखने के लिए मुझे अपनी स्थिति अपने शरीर को एंज्वाय करने की आदत डाली।
सेक्स के हर पहलू से परिचित करा कर वो मुझे ऐसा बना देना चाहती थीं कि मैं खुद उनके
पास पहुंचूं।
काफी हद तक वो अपने
काम में सफल रहीं। मैं खुद तो उनसे क्या पहल करती लेकिन वो जब मुझे यूज करतीं तो मुझे
कोई गुस्सा या खीझ नहीं होती थी। हां जब कभी-कभी वह बहुत ही ज़्यादा एग्रेसिव हो जातीं
तो मुझे तकलीफ होती। और मैं अलग होने की कोशिश में उन्हें धकेल तक देती। मगर वह फिर
इतने प्यार से करीब आतीं कि मेरा गुस्सा खत्म हो जाता।
मैं अपनी भी गलती
बताऊं कि उनसे बचने की मैं पूरी कोशिश नहीं कर पाती थी। आधी-अधूरी ही करती थी। या शायद
तब इतनी समझदार ही नहीं थी। पूरी कोशिश करती तो शायद वो उतना शोषण ना कर पातीं जितना
किया। एक बात और कि वह अपनी बात की बहुत पक्की थीं। वो मेरी पढ़ाई-लिखाई पर अब और ज़्यादा
ध्यान देती थीं। उन्हीं के कारण मैं बीटेक. कर सकी। उन्होंने ही कानपुर युनिवर्सिटी
से प्राइवेट एम.ए. भी करवाया। वो नौकरी के लिए जगह-जगह फॉर्म भरवाती रहीं।
उन्होंने सिविल
सर्विस के लिए भी तैयारी कराई। दो बार प्री वीट भी कर लिया। लेकिन आगे नहीं बढ़ पायी।
असल में विनिंग लाइन पर पहुंच-पहुंच मैं बार-बार जो हारती रही तो इसके पीछे मेरा डर
ही जिम्मेदार है। नाएला बार-बार इससे मुझे बाहर निकलने को कहतीं। एक मनोचिकित्सक की
तरह मेरा ट्रीटमेंट करतीं,
लेकिन मैं भेद खुल जाने, हिजड़ा कहे जाने के डर से उसके फोबिया
से खुद को ना निकाल पाई। नाएला कोशिश करके हारती रहीं। वो खीझ कर कहतीं कि ‘‘अब तो इतना पढ़ चुकी हो। डरने की ज़रूरत नहीं। ये दुनिया जो चाहे कहे उसकी परवाह
ही नहीं करनी है।’’
उनके ऐसा कहते ही
मैं गिड़गिडाने लगती कि नहीं ऐसा किसी हालत में नहीं करना है। सांभवी मेरी पढ़ाई-लिखाई
में जितना खर्च हुआ वह सब उन्होंने ही किया। उन्होंने ना जाने कहां से कैसे कोशिश कर-कर
के मुझे कई स्कॉलरशिप दिलवाई, जिससे उनका बोझ हल्का हुआ। बाद के दिनों
में मेरे पैरेंट्स इतने इंप्रेस हुए कि उनसे कहने लगे ‘‘बहन जी आप ही इसकी मां-बाप हैं। अब तो हनुवा आपकी हुई। हम तो इसे पैदा करने भर
के दोषी हैं बस।’’
यह सुन कर मेरे
तन-बदन में आग लग जाती। ऐसी टीस उठती कि जी तड़प उठता। वहीं दूसरी तरफ नाएला जी का भी
चेहरा देखती। जहां सेकेंड भर में अनगिनत भाव आ आकर चले जाते। मेरे शोषण के साल भर ही
बीते होंगे कि नाएला जी के हसबैंड ने उन्हें तीन तलाक दे दिया। वो जब बच्चों से मिलने
गईं तो मिलने भी नहीं दिया। मार-पीट अलग की। इससे दुखी नाएला जी कई दिन स्कूल नहीं
गईं। घर पर पड़ी रोती रहतीं। मुझे बुलातीं जरूर लेकिन पढ़ाती नहीं। बस होम वर्क वगैरह
पूरा करा देतीं। खाना-पीना कुछ ना बनातीं। मेरे घर वालों के भेजने पर मना कर दिया।
कहा ‘‘ऐसा कुछ नहीं है, बना लेंगे।’’ फिर मैं ही उनके घर पर कुछ ना कुछ बना कर उनको खिला भी देती।
उनको मामले को कोर्ट
ले जाने की सलाह दी गई, तो उन्होंने कहा कि ‘‘कुछ नहीं होगा। कई मामले कोर्ट में गए। महिलाओं के हक़ में फैसले भी हुए। लेकिन
अमल में कुछ नहीं आया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने हिसाब से चलेगा। तलाक मामलों में
हम महिलाओं के लिए बड़ी उम्मीद वहां नहीं है। कोर्ट में भी यह बाधा ही है।’’ नाएला इस सदमें के चलते बीमार पड़ गईं। तब मैंने पैरेंट्स के कहने पर उनकी जीजान
से सेवा की। उन्हीं के साथ रहने लगी। रात में भी। जल्दी ही वह ठीक हो गईं। फिर मुझे
वह अपने ही यहां रोकने लगीं। मुझे अपने साथ ही सुलातीं। मेरे प्रति उनका प्यार और उनके
द्वारा मेरा शोषण दोनों ही रोज पर रोज बढ़ते गए। अब वह मेरी पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ कपड़े
वगैरह का भी खर्च उठाने लगीं। साल में बाकी भाई-बहनों को भी कपड़े वगैरह देने लगीं।
लेकिन इन सबको मुझसे दूर ही रखतीं।’
‘तुम्हारी नाएला को मैं क्या कहूं समझ
में नहीं आता। भगवान ने भी दुनिया में ना जाने कैसे-कैसे कैरेक्टर बना के भेजे हैं।
लेकिन जब तुम और बड़ी हो गई तब भी कोई विरोध नहीं करती थी या कभी तुम दोनों का झगड़ा
नहीं हुआ’ ‘सांभवी आज भी उनके सामने आने पर मेरी स्थिति छोटे बच्चे की तरह होती है। जो टीचर
के सामने जाने पर डरता रहता है। बी-टेक. करने के समय तक मैं शारीरिक रूप से नाएला जी
की अपेक्षा बहुत स्ट्रॉन्ग हो चुकी थी। मैं ज़्यादा से ज़्यादा पर्सेंट्ज लाने के लिए
जमकर पढ़ाई करने में लगी रहती थी।
अब नाएला जी का
मेरी पढ़ाई पर इतना ही हस्तक्षेप था कि उनकी इंग्लिश लैंग्वेज बहुत अच्छी थी। उसी में
हेल्प करती थीं। इसलिए मैं उनके मन मुताबिक उन्हें समय ना दे पाती। ऐसे में देर रात
तक जब पढ़ती तो वह साथ सोने को बुला लेतीं। मैं आना-कानी करती तो नाराज होतीं। मैं मन
मार कर साथ सो जाती। मुझे बड़ा गुस्सा आता। जिसे मैं रिलेशनशिप के दौरान उन्हें रौंद
कर उतारती। उस वक्त तो वह कुछ ना बोलतीं। शायद वह मेरी जबरदस्त आक्रामकता के कारण हिम्मत
ना कर पाती थीं। लेकिन बाद में दो-तीन दिन ठीक से बात ना करके अपनी नाराजगी जाहिर कर
देतीं। मगर फिर प्यार से बुला लेंती।
कुछ उसी तरह की
स्थिति होती थी जैसे मियां-बीवी के बीच दिन में टुन्न-भुन्न हुई लेकिन रात होते ही
सब खत्म, एक हो गए। वास्तव में हुआ यह कि शुरू के दो चार बार तो उन्होंने मेरे अग्रेसन को
यह समझा कि अब मैं बड़ी हो गई हूं। और सेक्सुअल डिजायर के अपने उफान को कंट्रोल में
नहीं रख पाती। जिसका अल्फावेट मैंने उन्हीं से जाना था। लेकिन जल्दी ही जब वह मेरे
अग्रेसन का कारण समझ गईं तो गुस्सा होने लगीं।’
‘वाह री नाएला जी। इनसे तुम्हें फुरसत कब मिली?’
‘फुरसत! उस दिन जब दिल्ली में जॉब मिली। जब उनसे मैं आने से पहले मिलने गई। उनके
यहां मेरा जो सामान, किताबें, कपड़े वगैरह थीं उन्हें लाने गई और उनसे आशीर्वाद मांगा।’ ‘आशीर्वाद! उस औरत से जिसने तुम्हारी मजबूरी का सालों फायदा उठाया, सालों जुम्हारा हैरेसमेंट किया। उस औरत से आशीर्वाद!क्या हनुवा मैं तो यह सुनकर
आश्चर्य में हूं।’
‘सांभवी कुछ भी हो, थीं तो मेरी टीचर ही ना।’ ‘अरे कैसी बात कर रही हो। उसके कुकर्मों को
जानने के बाद तो मुझे नहीं लगता कि उसे कोई टीचर कहेगा। उसे वैसी रिस्पेक्ट देगा। वो
तो टीचर के नाम पर कलंक हैं।’
‘तुम अपनी जगह सही हो। लेकिन मेरी अपनी
मजबूरी थी। मैं यह सोचती हूं कि यदि वह नहीं होती तो मैं निश्चित ही पढ़-लिख नहीं पाती।
इंजीनियर नहीं बन पाती। होता यह कि मैं हर तरफ से उपेक्षा, अपमान, तकलीफों के चलते आत्महत्या कर लेती। या फिर? अन्य थर्ड जेंडर्स की तरह
नाचना या कि उनमें से ही बहुतों की तरह सेक्स टॉय बनी नर्क भोग रही होती। क्यों कि
मुझे तो मेरे पैरेंट्स भी सपोर्ट नहीं करते थे। तो नाएला जी ने ना सिर्फ़ मरने से बचाया
बल्कि नर्क भोगने से भी बचाया। सांभवी मैं इसे उनका स्वयं पर इतना बड़ा एहसान मानती
हूं जिसे मैं समझती हूं कि मैं इस जीवन में चुका नहीं सकती। इसलिए उनकी सारी गलतियों
को भुला कर उन्हें अपनी टीचर ही मानती हूं। अपनी मेंटर मानती हूं।
इसीलिए मैं उनसे
आशीर्वाद लेने गई थी। असल में मैं उस वक्त बहुत भावुक हो गई थी। मेरी आंखें बार-बार
भर जा थीं। जब मैंने उनके पैर छुए तो उन्होंने एकदम से मुझे खींचकर गले से लगा लिया।
एकदम जकड़ लिया मुझे। और ऐसा फूट-फूट कर रोने लगीं,कि जैसे कोई मां अपनी लड़की
को शादी के वक्त बिदा करते समय रोती है। मैं भी खुद को रोक न पाई हम दोनों बड़ी देर
तक रोते रहे।
वह बार-बार कहती रहीं ‘‘हनुवा मुझे माफ करना। मैं नहीं जानती कि मैंने तुम्हारे साथ कितने गुनाह किए हैं।
मगर इतना जानती हूं कि तुम बहुत बड़े दिल वाली हो। तुम माफ कर दोगी तो ऊपर वाला भी माफ
कर देगा।’’ वह बार-बार यही कहतीं और फफक कर रो पड़तीं।
मैंने किसी तरह
उन्हें बैठाया। पानी पिलाया। कहा आपको इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं सिर्फ़
इतना जानती हूं कि आज मैं जो कुछ भी हूं आपकी वजह से हूं। मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई में
यहां तक कि मेरे घर में रहन-सहन में जो बड़ा बदलाव, संस्कार आया उसमें भी आपका
बड़ा हाथ है। बहुत समझाने के बाद वो चुप हुईं। मगर बीच-बीच हिचकियां उनकी आती रहीं।
आखिर में उन्होंने
मुझसे यह वादा कराया कि मैं उन्हें जीवन भर छोडूंगी नहीं। और जब वो मरेंगी तो सूचना मिलने पर मैं जरूर
पहुंचूं और उनका संस्कार पूरा कराऊं। एक बार यह कह कर वह फिर फफक पड़ीं कि ‘‘हनुवा इस दुनिया में तुम्हारे सिवा अब मेरा कोई नहीं है।’’
सांभवी उस दिन पहली
बार मेरा ध्यान इस ओर गया कि नाएला जी मन ही नहीं तन-मन दोनों ही से बुरी तरह कमजोर
जर्जर खोखली हो गई हैं। वह भीतर ही भीतर बड़ी तेज़ी से गलती जा रही हैं। अपनी उम्र से
कहीं दुगुनी रफ्तार से। और इसकी मुझे दो ही वजह नजर आई, एक उनके पति ने उनसे जिस तरह का व्यवहार किया। दूसरा उनके मायके वालों ने भी उन्हें
जिस तरह एकदम छोड़ दिया था,
उससे चिंता और तनाव ने उन्हें तेजी से खोखला करना शुरू कर दिया
था। लिमिट से कहीं ज़्यादा सेक्स को भी मैं एक और कारण मानती हूं । मुझे लगता है कि
वो तनाव को सेक्स के जरिए खत्म करने का रास्ता ढूंढ़ रही थीं। जो उनके भ्रम के सिवा
और कुछ नहीं था।
उस दिन मुझे सही मायने में यह अहसास हुआ कि मैं भी
उन्हें कितना चाहती हूं। जब अपना सामान लेकर नीचे आई। रिक्शे पर बैठी तो मैं अपने को
रोक न सकी। नाएला जी ऊपर बॉलकनी पर खड़ी मुझे देख रही थीं। मैंने जैसे ही उन्हें ऊपर
देखा, एकदम से रो पड़ी। मैं बिजली की तेज़ी से नीचे उतरी, जितना हो सकता था उतनी तेजी़ से ऊपर दौड़ती हुई गई और उनसे चिपक कर फूट-फूट कर रो
पड़ी। वह भी रोती रहीं।
बड़ी देर बाद मैं
फिर नीचे आई और किसी तरह घर पहुंची। उसके बाद जब स्टेशन पर ट्रेन चली तो जैसे-जैसे
वह आगे बढ़ती मुझे लगता जैसे मेरा हृदय मुझसे अलग होता हुआ उन्हीं के पास चला जा रहा
है। मेरा ध्यान घर वालों की तरफ नहीं उन्हीं की तरफ बार-बार चला जा रहा था। दिल्ली
आकर भी मैं कई दिन रोई हूं उन्हीं के लिए।’ हनुवा की आंखें फिर नम हो गईं। उसे
देखते हुए सांभवी अपना सिर हनुवा की जांघों पर रखकर लेट गई। जैसे कोई लड़की बड़े प्यार
स्नेह से अपनी मां की गोद में सिर रख लेट जाती है।
लेटते-लेटते ही
वह बोली ‘हनुवा नाएला जी के साथ जितना और जैसा तुम्हारा जीवन बीता वह अपने आप में एक इनक्रेडेबल
लाइफ हिस्ट्री है। ऐसी हिस्ट्री जिसे जान कर लगता है कि जैसे किसी ग्रेट स्टोरी राइटर
ने बहुत रिसर्च करके, बड़ी मेहनत से लिखी है। सच कहूं अगर तुम्हारी इस लाइफ पर एक रियलिस्टक फ़िल्म बनाई
जाए तो वह सुपर हिट होगी। लोग देखने के लिए टूट पड़ेंगे। फ़िल्म पूरी दुनिया में तहलका मचा देगी। लेकिन इसे इंग्लिश में बनाया जाए।
और फ़िल्म का डायरेक्टर मीरा नायर, दीपा मेहता जैसी सोच का हो। तुम्हारे इस
कैरेक्टर को हॉलीवुड एक्ट्रेस हेल बेरी ही सबसे सही ढंग से निभा पाएगी। अं...नहीं शर्लिन
चोपड़ा या वैसी ही कोई। ऐसे लोग ही तुम्हारी इस स्पेशल लाइफ हिस्ट्री के साथ सही ट्रीटमेंट
कर पाएंगे। नैरोमाइंडेड या कूपमंडूक टाइप के लोग या परंपरावादी लोग इसे समझ ही नहीं
पाएंगे। क्यों, मैं सही कह रही हूं हनुवा।’
सांभवी की बात सुन कर हनुवा ने जो अब तक अपनी जांघों
पर रखे उसके सिर को सहला रही थी उसके गालों पर हल्की सी प्यार भरी चपत लगाते हुए कहा
‘अरे कैसी फ्रेंड हो यार? मैं लोगों से खुद को बचाती-छिपाती आ रही
हूं, और तुम हो कि मुझे पूरी दुनिया के ही सामने एक दम नेकेड कर देना चाहती हो।’
‘हां हनुवा मैं तुम्हें पूरी दुनिया
के सामने नेकेड कर देना चाहती हूं। और तुम्हारी टीचर नायला केा भी। क्यों कि मैं समझती
हूं कि तुम्हारी स्थिति में खुद को छिपाने से अच्छा है खुद को एक्सपोज कर देना। अरे
हम क्यों छिप कर, घुट-घुट कर जिएं। दुनिया मुझे, मेरी ही हालत में ऐसे ही एक्सेप्ट करती
है तो करे, नहीं करती है तो ना करे। अगर उसे हमारी परवाह नहीं तो हमें भी उसकी परवाह नहीं।
समाज और हम दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में से किसी एक को छोड़ कर सिक्का
खोटा ही रहेगा। खरा नहीं।
इसलिए हम क्यों
छिपते फिरें। और सुनो, तुम अभी कह रही थी ना कि नाएला चिंता, हायपर सेक्सुअलटी के कारण उम्र से पहले
ही खोखली बुढ़ी हो गईं, तो तुम इसे खुद पर भी लागू करो। क्यों कि ये अच्छे से समझ लो कि इस तरह तुम खुद
को खुद में कैद कर नाएला से भी ज़्यादा तेज़ी से खोखली बुढ़ी हो जाओगी। और तब तुममें
नाएला में सिर्फ़ इतना ही फ़र्क होगा कि बुढ़ी, खोखली, कमजोर नाएला के पीछे सिवाय तुम्हारे और कोई नहीं है। और तुम्हारे पीछे परिवार होगा
बस।
लेकिन परिवार भी
आजकल किसका कितने दिन साथ देता है। इसलिए अपने को पिंजड़े से बाहर निकालो। पिंजड़े के
सारे दरवाजे नहीं उसकी सारी दिवारें गिरा दो। उसके अंदर फड़फड़ाने तड़पने की जरूरत नहीं
है हनुवा। खुद को मारो नहीं जिंदा करो और ज़िदगी जियो।’
सांभवी ने जिस जोरदार
ढंग से अपनी बात कही उससे हनुवा भीतर तक सहम गई, हिल गई। सही तो कह रही
है यह, मैं खोखली हो रही हूं। नाएला की तरह नष्ट हो रही हूं। नाएला के पीछे तो मैं हूं
लेकिन मेरे! सच में तो मेरे पीछे कोई नहीं है। वह सांभवी के सिर को सहलाते हुए कुछ
देर उसे देखती रही फिर पूछा ‘सांभवी तुम मुझे दुनिया के सामने क्यों एक्सपोज
करना चाहती हो यह तो बता दिया लेकिन मेरी टीचर ,मेरी मेंटर नायला जी को
क्यों करना चाहती हो?’
‘हनुवा शुरू में तो नायला जी पर मुझे
बड़ी गुस्सा आ रही थी। उनसे बड़ी नफरत हो रही थी कि यह कैसी लिजलिजे कैरेक्टर की गंदी
औरत है। लेकिन सारी बातें सुनने के बाद लगा कि नायला जी या उनके जैसी कोई भी औरत घृणा
के लिये नहीं है। ऐसी सभी लेडी का तो हम सब को, पूरे समाज को सपोर्ट करना चाहिये। हम
उनसे घृणा करके उन्हें उस गलती की सजा देते हैं जो उन्होंने की ही नहीं। तुम्हीं सोचो
यदि नायला जी के हसबेंड उनकी सास ने उनके साथ धोखाधड़ी नहीं की होती, शादी के बाद उन्हें याातना ना दी होती, उनका जाहिल हसबेंड उन्हें बड़े बड़े बच्चों
के सामने पीटता नहीं तो नायला जी इतनी हर्ट नहीं होतीं। ना ही अपनी नैचुरल डिजायर के
लिये तुम्हें यूज करतीं।
आखिर वो भी एक इंसान
हैं। नेचर ने उन्हें भी इमोशंस दिये हैं। फीलिंग्स दी हैं। उन्हें भी सपने देखने, पूरे करने का हक़ है। ये इनह्यूमन है कि उनका हसबैंड जो चाहे करे। और नायला जी क्यों
कि औरत हैं इसलिये कुछ नहीं कर सकतीं सिवाय इसके कि हसबेंड जो कहे उसे गुलामों की तरह
करतीं रहें। इसलिये हनुवा मैं तुम्हारी नायला जी को पूरा सपोर्ट करती हूं कि उन्होंने
कम से कम इतनी हिम्मत की कि अपनी नेचुरल डिजायर को पूरा करने के लिये क़दम तो बढ़ाये।
भले ही तुम्हारे माध्यम से। लेकिन उनकी इस हिम्मत से पिस तुम गयी।
उन्होंने अपनी ही
मासूम छात्रा का शोषण कर डाला। असल में उनके क़दम यहीं पर भटक गये। मुझे पूरा यकीन है
कि ऐसा उन्होंने केवल इसीलिए किया होगा जिससे उन्हें किसी तरह की समस्या का सामना न
करना पड़े। खोखले जड़वादी लोगों के तानों का सामना न करना पड़े। तुम्हारे साथ क्योंकि
ऐसा कोई डर नहीं था और जो उन्हें चाहिए था वह सब मिल रहा था। हनुवा मैं नाएला जी को
सैल्यूट करती यदि वो हसबैंड की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष करतीं।
अपना हक़ लेकर रहतीं।
उन्हें धोखाधड़ी, घरेलू हिंसा की सजा दिला कर रहतीं। लेकिन वो हिम्मत नहीं कर सकीं। संयोग से तुम
अपनी खास स्थिति के साथ उनके सामने पड़ गई। और उन्होंने अपनी एक छोटी सी इच्छा बस किसी
तरह पूरी कर ली। लेकिन इसके बावजूद मैं उनसे मिलना, बात करना चाहती हूं। जब
भी तुम जाओगी, मैं चलूंगी तुम्हारे साथ उनसे मिलने। ले चलोगी ना?
‘हां जरूर ले चलूंगी। सांभवी तू कितनी अच्छी हेै। कितनी हिम्मत वाली है। इतना कह
कर हनुवा उसे स्नेह भरी नजरों से देखने लगी तो सांभवी बोली-
‘हनुवा मैं कुछ ज़्यादा तो नहीं बोल
गई?’ मेरी बातों से अगर तुम्हें दुख हुआ हो तो सॉरी यार। मैं तुम्हें दुखी नहीं देख
सकती।’ सांभवी ने यह कहते हुए बड़े प्यार से हनुवा का हाथ थाम लिया। हनुवा ने भी उसी सहजता
से जवाब दिया-
‘अरे नहीं। मैं तुमसे फिर कहतीं हूं
कि कभी यह मत सोचा करो कि मैं तुमसे नाराज होऊंगी। तुमने जिस सच का एकदम से सामना करा
दिया उससे मैं एकदम सकते में आ गई। सांभवी सच तो यह है ही कि नाएला जी के पीछे मैं
हूं। अगर उनको देखभाल की जरूरत पड़ी तो मैं अपना कॅरियर भी यहीं खत्म कर, उनकी सेवा के लिए उनके पास चली जाऊंगी। लेकिन तुमने मेरे परिवार की जो बात की वह
थोड़ा नहीं बिल्कुल अलग है। मैं केवल एक बात बताने जा रही हूं, उसी से तुम्हें अंदाजा हो जाएगा कि मेरा परिवार कितना मेरा है। वो मुझे अपना हिस्सा
मानता भी है कि नहीं।’
‘अरे, ये क्या कह रही हो?’
‘सुनो तो अभी पिछले ही महीने मेरी दोनों
बहनों की एंगेजमेंट हुई। हनुवा वाली मौसी ही ने अपने पट्टीदार के दोनों लड़कों से शादी
तय करवाई हैे। दोनों भाई जुड़वा हैं। उनके मां-बाप एक ही साथ दोनों की शादी करना चाहते
थे। मौसी ने बात पक्की करा दी। शादी जनवरी में होनी है। लेकिन मुझे बताया तक नहीं गया।
एक दिन मैं नाएला जी से बात कर रही थी तो उन्होंने कहा ‘‘तुम हमेशा छुट्टी की प्रॉब्लम बताती हो। अभी से एप्लीकेशन देकर कम से कम हफ्ते
भर की छुट्टी लेकर आना। नहीं तो तुम जल्दी से चल दोगी और मैं तुमसे ठीक से बात भी नहीं
कर पाऊंगी।’’
उनसे यह सुनकर मुझे
इतना शॉक लगा कि मैं सन्न रह गई। कि मेरी सगी छोटी बहनों की शादी है। एंगेजमेंट हो
गई मुझे पता तक नहीं।
नाएला जी भी परिवार
की सम्मानित सदस्य की तरह एंगेजमेंट में शामिल हुईं और मुझे बताना तक ठीक नहीं समझा
गया। लेकिन घर की बात बाहर नहीं शेयर करना चाहती थी। तो नाएला जी को जाहिर नहीं होने
दिया। उनसे जल्दी से बात खत्म कर घर मां को फा़ेन किया तो वो बोलीं ‘‘अरे, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। एकदम अचानक हुआ तो टाइम ही ना मिला बताने का।’’ जब मैंने गुस्से में और बात बढ़ाई कि दोनों बहनों, भाई किसी को दो मिनट टाइम नहीं मिला कि फोन करते। और मैंने इस बीच कई बार फ़ोन किया।
तब भी तो तुम लोग एक शब्द नहीं बोले। आज हफ्ता भर हो गया तो भी टाइम नहीं मिला। मुझे
घर की इतनी अहम बात बाहरी से पता चल रही है।
उन को लगा कि बात
पकड़ गई है तो एकदम बिदक गईं। दुनिया भर की बातें सुनाते-सुनाते आखिर गुस्से में बोल
गईं कि ‘‘क्या करती आकर। दुनिया भर की बातें होतीं कि बड़ी के रहते छोटी की काहे हो रही है।
तुम्हारे चक्कर में इन सबका भी शादी ब्याह ना हो पाएगा।’’ उनकी यह बात मुझे तीर सी बेधती चली गई। मैं रो पड़ी। मैंने रोते हुए कहा। ठीक कह
रही हो अम्मा! मैं ही पागल हूं, मुझे खुद सोचना चाहिए था। ठीक है अम्मा तुम
लोग परेशान ना हो, अब मैं शादी क्या बाद में भी नहीं आऊंगी। जिससे मेरी वजह से तुम लोग किसी परेशानी
में ना पड़ो। मैं इससे आगे कुछ ना बोल सकी, रोती रही। और अम्मा ने झिड़कते हुए यह
कह कर फोन काट दिया ‘‘अरे इसमें इतना रोने की क्या बात है। बेवजह अपशुगन कर रही हो।’’ उनकी इस बात ने तो मेरा शरीर ही छलनी कर डाला।
इसके बाद मैंने
हफ्तों किसी को फोन नहीं किया। मगर फिर भी किसी का फ़ोन नहीं आया। आखिर फिर मन नहीं
माना तो खुद ही कभी-कभी करने लगी। सब बेगानों की तरह ऊबते हुए बातें करते हैं। हाल-चाल
की रस्म अदायगी तक बात होकर खत्म हो जाती है। पैसा जो होता है भेज देती हूं। उसके लिए
अम्मा कभी कुछ नहीं कहतीं। तो सांभवी मेरी हालत तो नाएला जी से भी गई बीती है।
उनके साथ तो मैं हर हाल में रहूंगी। लेकिन मेरे साथ
कोई नहीं होगा। मैं अकेले ही दिवारों से सिर टकराते-टकराते खत्म हो जाऊंगी। मेरा तो
अंतिम संस्कार भी करने वाला कोई नहीं होगा। मैंने तो नाएला की तरह कोई ‘हनुवा’ नहीं तैयार की है। इतना कहते-कहते हनुवा फिर सिसक पड़ी तो सांभवी उठी, उसके आंसू पोंछती हुई बोली
‘तुमने ‘सांभवी’ तैयार की है हनुवा। तुम अकेली नहीं हो, मैं रहूंगी तुम्हारे साथ।’
‘तुम भी कब तक रह पाओगी? जल्दी ही तुम्हारी भी शादी हो जाएगी और तुम अपने पति के पास रहोगी।’
‘हां... सही कह रहे हो तुम। मैं अपने
पति के ही पास रहूंगी।’
सांभवी का अपने
लिए सही कह रहे हो तुम सेंटेंस हनुवा को कुछ खटका। लेकिन उसने कहा ‘फिर भी। आखिर मैं तो अकेली ही रही ना। कोई अपने पति को छोड़ कर किसी को समय दे पाया
है क्या जो तुम दोगी? और मैं चाहूंगी भी नहीं कि तुम अपने पति का टाइम मुझ पर खर्च करो।’
‘हनुवा-हनुवा मेरे प्यारे हनुवा मैं यही तो कह रही हूं कि मैं अपने पति के पास ही
रहूंगी। उसका एक क्षण भी किसी को नहीं दूंगी। मैं उसे जीवन की वो खुशियां दूंगी जो
वो सोच भी नहीं पाया होगा।‘
सांभवी हनुवा के दोनों कंधों को पकड़े उसकी आंखों की गहराई में
झांकती, उसके चेहरे के एकदम करीब जा कर कह रही थी। और हनुवा उसे एकदम खाली-खाली नजरों से
देखे जा रही थी। तो सांभवी ने उसे हल्के से झिझोड़ते हुए कहा
‘ओह तुम कितने इनोसेंट हो। तुम ही मेरे
पति हो समझे। तुम ही मेरे पति हो।’ कुछ तेज़ आवाज़ में कहते-कहते सांभवी
उससे एकदम चिपट गई। हनुवा कुछ देर एकदम हक्का-बक्का सी रह गई। फिर दोनों हाथों से पकड़
कर उसे अलग करती हुई बोली ‘तुम्हें क्या हो गया है? होश में तो हो। जानती हो क्या कह रही हो?‘
‘अच्छी तरह जानती हूं हनुवा। महीनों सोचने-समझने के बाद मैंने यह डिसीजन काफी पहले
ही ले लिया था। मैंने तुम्हें काफी पहले ही अपना पति मान लिया है। हनुवा तुम मेरे पति
हो। मेरे पति। मैं आखिरी सांस तक साथ रहूंगी। अपने पति के साथ रहूंगी। मुझे परिवार, दुनिया किसी की परवाह नहीं। सिर्फ़ तुम्हारी और अपनी परवाह है। इसके अलावा मैं
और कुछ नहीं जानती।’ सांभवी फिर चिपट गई हनुवा के साथ। भावुकता में उसके आंसू भी निकलते जा रहे थे।
हनुवा ने उसे इस बार अपने से अलग करने के बजाय प्यार से बांहों में भर लिया। उसकी पीठ
को सहलाती हुई बोली-
‘मेरी सांभवी तुम मन में इतना बड़ा भुचाल
लिए इतने दिनों से मेरे साथ हो और मुझे भनक तक ना लगने दी। नहीं तो मैं कुछ तो तुम्हें
समझाती कि यह तुम गलत क़दम उठा रही हो। तुम मेरे साथ कहां खुश रह पाओगी? यह सब एक एबनार्मल रिलेशनशिप है, जो ज़्यादा दिन नहीं चलेगी। अंततः दुख
ही दुख है इस जीवन में। मैं तुम को इतना आगे बढ़ने ही ना देती कि तुम्हें क़दम खींचना
मुश्किल होता।’
हनुवा समझाती रही।
लेकिन सांभवी कुछ ना समझी। वह वाकई इतना आगे बढ़ चुकी थी कि पीछे जाने को कौन कहे सोच
भी नहीं सकती थी। दोनों में सारी रात बहस हुई। अंततः सवेरा होते-होते सांभवी जीत गई।
आगे जीवन का पूरा रोड मैप भी फाइनल हो गया, कि ठीक दीपावली के दिन दोनों घर में
उन्हीं भगवान राम के समक्ष शादी करेंगे। जो विजय के जश्न में हज़ारों साल पहले थर्ड
जेंडर का ध्यान नहीं रख सके। सबको कहके यह भूल गए कि यह लोग भी आराम करें। साक्षी,मां-बाप, भगवान सब वहीं होंगे,
वही आशीर्वाद देंगे। और अगले महीने नौकरी ज्वाइन कर दोनों पति-पत्नी
कहीं दूसरी जगह रहने चले जाएंगे। अपनी इस दुनिया में जीवन के इस पल में किसी को साझीदार
नहीं बनाएंगे।
अगले दिन दो चार
घंटे सोने के बाद दोनों ने पूरे घर की साफ-सफाई की। बाज़ार से पूजा के सामान के साथ-साथ
दूल्हा-दुल्हन के कपड़े सिंदूर भी ले आए। ऐन दीपावली की रात भगवान राम को ही साक्षी
बनाकर सांभवीे हनुवा ने एक दूसरे को वरमाला पहनाई । हनुवा ने सांभवी की मांग में सिंदूर
भरा और दोनों ने एक दूसरे को अपना पति पत्नी मान लिया।
दोनों ने अपनी सुहाग
सेज़ भी बड़ी खुबसूरती से अपने ही हाथों सजाई थी। गुलाब की पंखुड़ियों से महमह महकती सेज़
पर सांभवी लाल साड़ी पहने बैठी थी। और उसका पति हनुवा पीले रंग के वस्त्र पहने उसके
समीप पहुंच रहा था। कि तभी नाएला ने फोन कर उससे दीपावली में भी ना आने की शिकायत करते
हुए खूब बधाई, शुभकामनाएं दीं कि ‘‘तुम्हारा जीवन इन असंख्य दीयों की रोशनी की तरह जगमगाए। सदैव खुश रहो।‘‘
हनुवा भी उन्हें
बधाई, धन्यवाद देकर अपनी दुल्हन के घूंघट को हटाने लगा। घर से कोई फ़ोन नहीं आया यह बात
उसके मन में किसी पटाखे की तरह बड़ा सा विस्फोट कर समाप्त हो गई। वह सब कुछ भूल अपनी
पत्नी का होता गया। लाख कानून के बावजूद किसी ने रात एक बजे भी पटाखों की लंबी चटाई
के पलीते में आग दिखा दी थी। वह धड़ाम-धड़ाम कर दगती ही जा रही थी। जैसे हनुवा, सांभवी को नए जीवन की बधाई दे रही हो। हनुवा ने नाएला जी से भी शादी की बात बिल्कुल
नहीं बताई।
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