नागार्जुन आजीवन सत्ता के प्रतिपक्ष में
रहे - प्रभा दीक्षित
- कहां है वह धुआं जो नागार्जुन ढूंढ़ रहे थे
कबीर के बाद सबसे बड़े व्यंग्यकार माने जाने वाले नागार्जुन का संपूर्ण जीवन, साहित्य हमेशा जनमानस का राग-विराग रहा है। उनकी कलम आमजन के सुख-दुख के लिए हर क्षण लड़ती रही, बड़ी से बड़ी ताकत से टकराती रही। जेल यात्राएं भी उनके प्रतिरोध को प्रभावित न कर सकीं। ऐसी अद्भुत जीवटता वाले बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व एवं रचनाकर्म पर विख्यात लेखिका डॉ. प्रभा दीक्षित से प्रदीप श्रीवास्तव ने
विस्तृत बातचीत की। डॉ. प्रभा नागार्जुन पर लंबे समय से काम करती आ रही हैं। उनकी पुस्तकों, लेखन के लिए उन्हें हिंदी साहित्य अकादमी पंडित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कर चुकी है। अब तक करीब तीन दर्जन विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. प्रभा दीक्षित को श्रीलंका, मॉरिशस, उज्बेकिस्तान, रूस में भी सम्मानित किया गया है। यहां व्यक्त किए गए उनके विचार नागार्जुन के रचना संसार के हर कोने से परिचित करा रहे हैं।
प्रश्न 1. लम्बा रचनाकाल कई बार लेखक
के भटकाव या दोहराव का कारण बन जाता है। इस संदर्भ में आप नागार्जुन के रचनाकर्म को
किस रूप में लेती हैं?
उत्तर - नागार्जुन ने एक लम्बा जीवन जिया
और अन्त समय तक वे रचनात्मक रूप से सक्रिय भी रहे। उन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्ति के
पूर्व से लेकर स्वाधीन भारत के चार दशकों के मध्य की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों को अपनी खुली आंखों से देखा था। आम जनता के दुखों और संघर्षों
को देखा ही नहीं भोगा भी था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनों से लेकर देश के कर्णधारों की
भ्रष्ट व्यवस्था और अमानवीय शोषण दोहन के साक्षी रहे, परंतु उन्होंने कोई समझौता न करते हुए निडर होकर पूरी बेबाकी से मनुष्यताद्रोही
शक्तियों पर कुठाराघात किया और स्वतंत्र भारत में जेलयात्री भी बने। ऐसे जनपक्षधर रचनाकार
के लेखन में भटकाव या दोहराव की गुंजाइश नहीं होती। गांधी की हत्या पर शोक गीत लिखने
वाले नागार्जुन ने गांधी,
नेहरू, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश किसी भी शख्सियत को मुखौटा परस्ती और जनविरोधी नीतियों के लिए नहीं बख्शा।
साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और कुलीन वर्ग की ओढ़ी हुई शालीनता, समझौतापरस्ती और यथास्थितिवादिता को भी माफ नहीं किया। वे बड़े ही सचेत और सजग साहित्यकार
रहे। अपने समय की कोई भी अच्छी-बुरी घटना उनकी दृष्टि से बच नहीं सकी है। और उसे उजागर
करने के लिए उन्होंने व्यंग्य, विनोद, उपहास, आक्रोश सभी भंगिमाएं अपनाई हैं और साहित्य की सभी विधाओं में एक सरल सहज पर सर्वथा
अनूठी भाषा शिल्प के साथ हस्तक्षेप किया है। अतः उनके लेखन में भटकाव और दोहराव के
आरोप सर्वथा भ्रामक हैं। आम जन के साथ उनकी हार्दिक सहानुभूति और वर्गीय पक्षधरता सर्वथा
निर्विवाद है।
प्रश्न 2. क्या आप मानती हैं कि नागार्जुन
अदम्य जिजीविषा के कवि हैं?
उत्तर . नागार्जुन अदम्य जिजीविषा के कवि
हैं। इस बात को मैं क्या हर सुधी पाठक या आलोचक जानता समझता है। जो भी नागार्जुन के
जीवन व साहित्य से परिचित है उन्हें नागार्जुन की अदम्य जिजीविषा उद्वेलित करती है, प्रेरित करती है, आन्दोलित करती है।
प्रश्न 3. इस संदर्भ में आप उनकी
किन बातों का उल्लेख करना चाहेंगी।
उत्तर . इस संदर्भ में हम नागार्जुन के समग्र
व्यक्तित्व और कृतित्व को देख सकते हैं। जिस तरह एक मातृविहीन बालक अपने गैरज़िम्मेदार
पिता की सरपरस्ती में भयंकर अभावों के साथ भी अपने आपको संस्कृत, पाली आदि अनेक भाषाओं में शिक्षित करता है, अपनी प्राथमिक पाठशाला से लेकर विश्वविद्यालयी
शिक्षा का प्रबंध करता है। जेब कट जाने के बावजूद बौद्ध साहित्य के अध्ययन के लिए कलकत्ता
से श्रीलंका जाता है, बौद्ध भिक्षु बनता है,
किसान आन्दोलन का नेतृत्व करता है, मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित होता है। साहित्य के माध्यम से रोज़ी-रोटी घर ग्रहस्थी
चलाता है, घुमक्कड़ी करते हुए विद्रोह और अक्खड़ तेवर के साथ सत्ता के मठाधीशों से टकराता है
पर समझौता नहीं करता।
‘जली ठूंठ पर बैठ कर गई कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक’ जैसी
पंक्तियां लिखकर एक साहित्यकार की अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता की पैरवी करता है, यह उनकी अदम्य जिजीविषा ही तो है। वे मार्क्स
से प्रभावित होकर भी किसी पार्टी का सदस्य नहीं बनते हैं। आम जनता के प्रति अपनी अथाह
संवेदना के कारण ही वे पार्टी लाइन के विपरीत भी अपना अभिमत रखने की स्वतंत्रता लेते
हैं। अपने जीवन के एक डेढ़ दशक पूर्व नक्सलवाद के समर्थन में ‘भोजपुर’ कविता में लिखते हैं-
‘यही धुवां मैं ढूंढ़ रहा था’
देश जहान की फिक्र के बावजूद वे जीवन के
राग से मुक्त नहीं हैं ’सिंदूर तिलकित भाल’ ‘दंतुरित मुस्कान’, ‘जया’ जैसी कविताएं भी लिखते हैं। अपनी नातिन कणिका के लिए भी बाबा नागार्जुन कविता लिखते
हैं-
‘कणिका’ डियर
तू रोज मुझे देती है
किलकारियों के शार्ट नोट्स
आने वाले कई युगों का
आभास पा रहा हूं मैं इसमें।’
क्या यह उनकी अदम्य अपराजेय जिजीविषा नहीं
है?
प्रश्न 4. नागार्जुन में अंतर्विरोध को आप किस हद तक देखती हैं? उनका अंतर्विरोध उनकी रचनाओं को कहां तक प्रभावित करता है?
उत्तर . हर महाकवि में कुछ अंतर्विरोध होते
हैं। नागार्जुन में भी होंगे, पर उनमें ऐसा कोई अंतर्विरोध नहीं है जो
उनकी जनपक्षधरता को खंडित कर सके। नागार्जुन प्रारंभ से ही एक जनपक्षधर सचेत जनकवि
की भूमिका निभाते रहे। समय के साथ हर कवि की मानसिक अवस्था का क्रमिक विकास होता है, जिसके कारण वह अपनी पहले कही हुई बातों से आगे के स्तर की बात कहता है, जिसे हम उनके अंतर्विरोध समझने की भूल कर बैठते हैं।
प्रश्न 5. अंतर्विरोध की अवस्था में
रचनाकार की रचनाए अपने समय को क्या बखूबी रेखांकित करती हैं?
उत्तर . अंतर्विरोध की अवस्था में रचनाकार
की रचनाएं विशेषकर नागार्जुन की रचनाएं अपने समय को बखूबी रेखांकित करती हैं। नागार्जुन
अपने अंतर्विरोधों को छिपाते नहीं। उनके अंतर्विरोध भी परिस्थितिजन्य हैं। जैसे भारत-चीन
आक्रमण के समय जब भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां चीन का समर्थन कर रही थीं, तब नागार्जुन राष्ट्रवाद से प्रभावित भारत के पक्ष में वक्तव्य दे रहे थे। बाद
में उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की। ऐसे ही जयप्रकाश आन्दोलन के समर्थन में भी वे जल्दबाजी
कर बैठते हैं किन्तु बाद में आन्दोलन की दुर्दशा से क्षुब्ध होते हैं। अंत में वे इस
परिणाम पर पहुंचते दिखाई देते हैं व्यवस्था परिवर्तन के बिना आम जनता के सुख की आशा
एक दुःस्वप्न ही है।
प्रश्न 6. नागार्जुन अपने अंतर्विरोध
का वर्णन करते हुए कहते हैं, ‘मार्क्स और पीछे के मार्क्स में अंतर है
कि नहीं’। आप इसी क्रम में निराला, प्रेमचंद, नागार्जुन में से किसे
ज़्यादा अंतर्विरोधी मानती हैं।
उत्तर . इसका अर्थ यह है कि मार्क्स भी ‘मार्क्सवाद’ की अवधारणा तक एक क्रमिक विकास और अध्ययन के तहत पहुंचे थे। हर कवि अपने समय व
देशकाल के अंतर्विरोधों को पार करते हुए आगे के निष्कर्षों तक पहुंचता है। प्रेमचंद, निराला और नागार्जुन भी इसका अपवाद नहीं हैं। प्रेमचंद गांधीवाद के प्रस्थान बिन्दु
से मार्क्सवाद तक पहुंचते हैं, निराला वेदांत की पृष्ठभूमि से प्रगतिवाद
(मार्क्सवाद) तक पहुंचते हैं, नागार्जुन भी सनातनी ब्राह्मण परिवार की
पृष्ठभूमि से बौद्ध धर्म दर्शन से प्रभावित होते हुए अंत में राहुल सांस्कृत्यायन के
सान्निध्य में मार्क्सवाद से प्रभावित होते हैं। इनके अंतर्विरोधों की तीव्रता की दृष्टि
से निराला को हम सबसे अधिक अंतर्विरोध पूर्ण पाते हैं क्योंकि वे देश की भ्रष्ट व्यवस्था
और आम आदमी की दुर्दशा को सहन नहीं कर पाते और अंततः विक्षिप्त हो जाते हैं।
प्रश्न 7. ‘जनता मुझसे पूछ रही है
क्या बतलाऊँ ? जनकवि हूं मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊँ ?’ नागार्जुन की यह कविता उनकी अतिशय जनपक्षधरता, बेबाक प्रवृत्ति की ही परिचायक है, क्या यह प्रवृत्ति ही उन्हें भटकाव
उलझाव से दूर किए रही?
उत्तर . नागार्जुन की रचनाओं में कोई भटकाव
उलझाव ढूंढ़ पाना नामुमकिन है क्योंकि भारत की शोषित पीड़ित आम जनता पर से उनकी दृष्टि
कभी भी विचलित नहीं होती है। एक क्षण के लिए भी वे आम आदमी के दुख-दर्द से स्वयं को
असम्पृक्त नहीं रख सके। वस्तुतः वे स्वयं ही एक सर्वहारा का जीवन जी रहे थे। मार्क्सवाद
की सैद्धान्तिकी को उन्होंने अपने जीवन में व्यावहारिक स्तर पर भोगा था। इसी कारण उनकी
वाणी सटीक और दो टूक प्रहार करती है। निराला और मुक्तिबोध की कविताओं की तरह उनकी कविता
के कभी भी दो चार अर्थ नहीं निकाले जा सकते हैं।
प्रश्न 8. अपने एक निबंध ‘विषकीट’ में नागार्जुन दसवें रस ‘विक्षोभ-रस’ की बात करते हैं। वह कहते हैं, ‘भारतीय काव्य समीक्षा में नौ रस माने
गए हैं। परंतु अपनी कटु तिक्त चरपरी रचना के सिलसिले में मुझे एक और ही रस की अनुभूति
होने लगी है यह है विक्षोभ रस।’ इस दसवें रस ‘विक्षोभ रस’ के बारे में क्या कहना चाहेंगी?
उत्तर . ‘विक्षोभ रस’ का अन्वेषण नागार्जुन की मौलिक अभिव्यक्ति है। जिसके द्वारा उन्होंने मार्क्सवादी
सौन्दर्यशास्त्र में नए आयाम जोड़े हैं। यह वर्तमान भ्रष्ट शासन व्यवस्था के ख़िलाफ़ उनके
तीव्र आक्रोश की सार्थक अभिव्यक्ति है। वे वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के दमन शोषण
और उत्पीड़न से इतने आक्रोशित और विक्षुब्ध हैं कि साहित्य में भी ‘विक्षोभ’ रस की अवधारणा को प्रयुक्त करना चाहते हैं। उनका अधिकांश साहित्य इसी विक्षोभ की
प्रतिछाया है। इसी कारण वे आधुनिक हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े व्यंग्यकार हैं जो सबसे
अधिक साहस और बेबाकी से इस व्यवस्था और उसके कर्णधारों पर प्रहार करते हैं।
प्रश्न 9. नागार्जुन को एक अप्रतिम
व्यंग्यकार के रूप में आप कहां पाती हैं?
उत्तर . नागार्जुन एक अप्रतिम व्यंग्यकार
हैं क्योंकि वे अपने समय व समाज की खामियों को खुली आंखों से देखते हैं और उस पर प्रहार
करने से नहीं चूकते। इस संदर्भ में उनकी तुलना बर्ताेल्त ब्रेख्त (जर्मन कवि) से की
जा सकती है। वे शिष्ट समाज के मुखौटों को बेनकाब करते हैं, बड़ी से बड़ी शख्सियत को भी उनके ग़लत कार्यों के लिए नहीं बख्शते। यही उनकी विशेषता
है।
प्रश्न 10. डॉ. नामवर सिंह जी उन्हें
कबीर के बाद सबसे बड़ा व्यंग्यकार मानते हैं। उनकी बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर
बापू के...... कविता को ध्यान में रखते हुए
आप इस बात को किस तरह व्याख्यायित करना चाहेंगी।
उत्तर . इस संदर्भ में मैं नामवर सिंह जी
से सहमत हूं। वे कबीर के बाद सबसे बड़े व्यंग्यकार हैं। उपरोक्त कविता में उन्होंने
कांग्रेसियों और गांधीवादियों के राजनैतिक चारित्रिक विचलन को बडे़ सहज प्रतीकों के
माध्यम से रेखांकित किया है। नागार्जुन में ही वह साहस है कि वे सच को सीधे दो टूक
भाषा में पूरी ताकत से बेधड़क होकर कह देते हैं। गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, मोरार जी देसाई, जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियत हो, या कोई जनविरोधी नीति या आन्दोलन नागार्जुन
के व्यंग्य की धार से बच नहीं सके हैं।
प्रश्न 11. नागार्जुन के लिए कविता
मात्र आत्माभिव्यक्ति नहीं रही बल्कि जनमानस का राग-विराग रही। उनके इस राग-विराग में
आप जन को कहां पाती हैं।
उत्तर . नागार्जुन एक सच्चे जनपक्षधर रचनाकार
रहे हैं। उन्होंने स्वयं को कभी ‘जन’ से पृथक करके नहीं देखा। उनकी आत्माभिव्यक्ति
भी एक साधारण जन की ही अभिव्यक्ति है और जनमानस का राग-विराग उनका निजी राग-विराग है।
इस रागविराग में आम जन के सुख-दुख, आकांक्षाएं, स्वप्न संघर्ष, प्रतिरोध सब कुछ समाहित है। जब वे कहते हैं- ‘बड़े दिनों तक चूल्हा रोया।
चक्की रही उदास’ तो यह उदासी उनकी अपने घर की भी है और आमजन की भी। अतः नागार्जुन के काव्य में
जन कहीं भी अदृश्य नहीं है। जनमानस सर्वत्र व्याप्त है।
प्रश्न 12. नागार्जुन की भाषा शैली
के बारे में क्या कहना चाहेंगी।
उत्तर . नागार्जुन की भाषा शैली के बारे
में आलोचकों ने इतना कुछ लिखा है कि मेरे लिए कुछ भी कहना शेष नहीं है। नागार्जुन अनेक
भाषाओं के पंडित थे। संस्कृत छंदशास्त्र का उन्हें पर्याप्त ज्ञान था, पाश्चात्य काव्यशास्त्र का भी अध्ययन किया था, हिन्दी के अतिरिक्त बंगला, मैथिली, भोजपुरी आदि अनेक भाषाओं में उन्होंने रचनाएं की थीं। वे ‘बादल को घिरते देखा है’
जैसी क्लासिक रचनाएं लिखते हैं तो दूसरी ओर पूर्ण व्यंग्यात्मक
चुटीली रचनाएं पर्याप्त मात्रा में लिखी हैं। नागार्जुन के रचनाकर्म का यह उद्देश्य
था कि वे जिस आम जन के लिए प्रतिबद्ध हैं उसे उनकी रचनाएं समझ में आ सकंे। वे घुमक्कड़
भी बहुत थे। अतः उनकी रचनाओं में भाषिक व शिल्पगत जितनी विविधता मिलती है उतनी अन्यत्र
दुर्लभ है।
प्रश्न 13. नागार्जुन संस्कृत ,पंजाबी, गुजराती, बंगाली, अपभ्रंश, पाली, मैथिली, प्राकृत, खड़ी बोली आदि भाषाओं के पंडित थे। उनके बहुभाषी होने का उनकी रचनाओं पर क्या असर
पड़ा?
उत्तर . उनके बहुभाषी होने का उनकी रचनाओं
पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। अनेक भाषाओं के ज्ञाता होने के कारण हर भाषा का साहित्य भी
पढ़ा था। इससे उनके रचनाकर्म में कोई दुरूहता नहीं आई, बल्कि उन्होंने हिन्दी भाषा को समृद्ध ही किया। उनकी रचनाओं में निराला की भांति
भाषा के विविध स्तर देखने को मिलते हैं। कबीर की भांति खिचड़ी भाषा अर्थात कई भाषाओं
के शब्द एक साथ देखे जा सकते हैं। उन्होंने लोक जीवन की कहावतों से लेकर तंत्र-मंत्र, पौराणिक प्रतीकों सबका इस्तेमाल
डॉ. प्रभा दीक्षित
आधुनिक संदर्भों में साधिकार किया है। यहां तक
कि मंत्र शैली में भी कविताएं लिखी हैं पर आम जन की मुक्ति के पथ से वे एक पल को भी
विचलित नहीं हुए। यही उनका वैशिष्ट्य है।
प्रश्न 14 . एक तरफ जहां वह ‘जयति नख रंजनी’ जैसी कविताएं लिखते हैं जो भाषाओं की अद्भुत खिचड़ी है जिसमें संस्कृत, अंग्रेज़ी, उर्दू देशज शब्द हैं वहीं ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी कविता में संस्कृत की दीर्घ सामासिक शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिसे देखकर
हम यह नहीं कह सकते कि यह जनभाषा में लिखने वाले कवि की रचना है। रचना के लिए भाषा
का जिस तरह वह प्रयोग करते हैं, उस बारे में क्या कहना चाहेंगी?
उत्तर . यह नागार्जुन का रचना सामर्थ्य है। कि भाषा उनके
हाथों में एक ऐसा हथियार है जिसे वे जब जैसे चाहे इस्तेमाल करें जो उनकी अभिव्यक्ति
को अधिकाधिक संप्रेषणीय और प्रभावशाली बहुआयामी भी बनाती है। उनकी भाषा अभिव्यक्ति
को संप्रेषणीय और प्रभावशाली बनाने में समर्थ है। जनकवि नागार्जुन इसी सामर्थ्य की
बदौलत एक ओर क्लासिकल कोटि की रचनाएं करते हैं एक ओर गंवई गांव की देशज भाषा का और
एक ओर वे भाषा को तोड़-मरोड़कर उसके अभिजात्य का विखंडन कर सर्वथा नए रूप विधान संकेतों, अर्थों और ध्वनियों को शोषक शासकों के
विरुद्ध और सर्वहारा के पक्ष में इस्तेमाल करते हैं।
प्रश्न 15 . नागार्जुन ने रचनाओं में
गालियों का भी खुलकर प्रयोग किया है। जैसे हिटलर की मौसी, मुसोलिनी की नानी, महामहिम उल्लू के पट्ठे। उनकी इस प्रवृति को किस रूप में लेती हैं।
उत्तर . नागार्जुन की रचनाओं में व्यक्तिगत
स्तर पर गाली-गलौज नहीं है। उनकी गालियां ‘स्त्री-विरोधी’ या झूठी बोल्डनेस की भी प्रतीक नहीं हैं। उनकी यह प्रवृत्ति व्यवस्था के प्रति
उनके आक्रोश की ही अभिव्यक्ति है। यह प्रवृत्ति उनके आक्रोश को संयमित करती है और उनके
व्यंग्य को तीखा व धारदार बनाती है।
प्रश्न 16. आपकी एक पुस्तक है ‘मुक्तिबोध एवं नागार्जुन का काव्य-दर्शन’ आप दोनों की रचनाओं में तुलनात्मक रूप
से किस तरह की समानता और भिन्नता पाती हैं। दोनों की रचनाओं के प्रस्थान बिंदु में
मूल फर्क क्या है?
उत्तर . मुक्तिबोध और नागार्जुन में सबसे
बड़ी समानता यह है कि दोनों ही मार्क्सवादी दर्शन पर आस्था रखते हैं, दोनों के हृदय में विश्व की अरबों शोषित पीड़ित आम जनता के प्रति सहानुभूति है।
दोनों ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े जनपक्षधर रचनाकार हैं। दोनों में स्वभावगत और भाषा
शैली संबंधी भिन्नताएं हैं। मुक्तिबोध मध्यवर्ग में जन्म लेने के कारण मध्यम वर्गीय
कमजोरियों, कुंठाओं और तनावों से ग्रस्त रहते हैं जबकि नागार्जुन निर्धन परिवार में जन्म लेने
के कारण अपने अभावों और गरीबी को तनावरहित अकुंठ भाव से स्वीकारते हैं। इसी फर्क के
कारण जहां मुक्तिबोध 42 वर्ष की उम्र में ही मैनेनिजाइटिस (मस्तिष्क-ज्वर) से पीड़ित हो दम तोड़ देते हैं
वहीं नागार्जुन 8 दशकों तक जीवित रहे। दूसरे मुक्तिबोध में सैद्धान्तिक आग्रह अधिक था, और अतिरिक्त कल्पनाशीलता के कारण वे हिन्दी कविता में ‘फैंटेसी’ प्रविधि का सशक्त व सार्थक प्रयोग करते हैं। नागार्जुन का शिल्प सहज सरल है किन्तु
मुक्तिबोध का शिल्प जटिल ।
प्रश्न 17. नागार्जुन पर राजनैतिक
विचलन के जितने आरोप लगे उतना शायद ही किसी रचनाकार पर लगे हों। उनके राजनैतिक विचलन
को आप किस रूप में लेती है?
उत्तर . नागार्जुन पर राजनैतिक विचलन के
आरोप इसलिए अधिक लगे क्योंकि वे मार्क्सवाद की सैद्धान्तिकी की अपेक्षा उसके व्यावहारिक
पक्ष पर अधिक आस्था रखते थे। वे किसी भी कीमत पर आम जनता की बेहतरी चाहते थे। इसीलिए
वे पार्टी लाइन के अंध अनुयाई नहीं बन सके। और जनता के त्वरित विद्रोह को वे क्रांति
की पूर्व तैयारी समझ अति उत्साहित हो जाते किंतु बाद में उसकी दुर्दशा देखकर उससे विरक्त
हो जाते थे। इसे हम उनकी साहित्यकी प्रतिबद्धता का विचलन नहीं कह सकते हैं।
प्रश्न 18.नागार्जुन के रचनाकाल के
समय हालावाद, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता, जनवादी कविता, नवगीत आदि कई आंदोलन चले और एक समय बाद अपनी चमक बिखेर कर बिखर गए लेकिन नागार्जुन
इनमें से किसी वाद से न जुड़ सके। क्यों?
उत्तर . नागार्जुन एक सजग, सचेत रचनाकार थे। वे अपने समय के देश काल पर यथार्थपरक दृष्टि बनाए हुए थे। हिन्दी
के अनेक महाकवियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि जब सारा देश स्वाधीनता संग्राम की कसमसाहट
में जी रहा था तब हमारे कवि छायावाद और हालावाद के गीत गा रहे थे जिसमें अपने देशकाल
की कोई अनुगूंज नहीं थी। परंतु नागार्जुन पर यह आरोप बेबुनियाद सिद्ध होता है। वे अपने
समय के युगबोध की मुख्यधारा से संबद्ध रह कर आजीवन सत्ता के प्रतिपक्ष में रहे। इस
कारण उन्हें किसी काव्य आंदोलन से जुड़ने की आवश्यकता ही नहीं रही और ना ही वे काव्यान्दोलनों
की सीमा में उनकी कविताएं समायोजित हो सकती थीं। उन्होंने जो कुछ भी रचा वह आम जन की
बेहतरी के लिए रचा। उनके शोषण दोहन को समाप्त करने की एक सार्थक जंग था नागार्जुन का
साहित्य। वे स्वयं में एक आन्दोलन थे।
प्रश्न 19. इतिहासकारों का यह मत है
कि इतिहास लेखन के लिए कविताओं को प्रमाण के रूप में लेना गलत है। इतिहास चिंतक डी.डी.
कोशाम्बी कहते हैं इतिहास लिखने के लिए काव्यात्मक प्रमाणों को आधार नहीं बनाया जाना
चाहिए। उदय प्रकाश मानते हैं कि हम नागार्जुन की रचनाओं के प्रमाणों से अपने देश और
समाज के पिछले कई दशकों के इतिहास का पुनर्लेखन कर सकते हैं। आप क्या कहना चाहेंगी
इस बारे में ?
उत्तर . इतिहासकारों के कथनों को नागार्जुन
पर घटित नहीं किया जा सकता क्योंकि नागार्जुन एक प्रबुद्ध सजग व सचेत रचनाकार थे। सीधे-सीधे
राजनैतिक कविताएं लिखने का जोखिम प्रायः बड़े-बड़े रचनाकार नहीं उठा पाते। यह नागार्जुन
की ही अदम्य जिजीविषा और साहस था कि उन्होंने अपने समय की हर छोटी बड़ी घटना को सचेत
दृष्टि से देखा और उस पर कविता या लेख के माध्यम से त्वरित टिप्पणी की। उन्होंने मनुष्यता
द्रोही छोटी से छोटी घटना का प्रतिकार किया, कविता लिखी, स्वतंत्र भारत में भी जेल यात्री बने। वह चाहे हरिजनों पर दुर्व्यवहार हो, गांधी की हत्या हो, भारत विभाजन हो, आपातकाल हो, जयप्रकाश का आंदोलन या नक्सलविद्रोह हर घटना पर परिणाम की चिंता किए बगैर बाबा
नागार्जुन ने कविता के माध्यम से हस्तक्षेप किया। इसीलिए उनकी कविताओं में अपने देश
समाज के पिछले कई दशकों के इतिहास के साक्ष्य ढूंढे़ जा सकते हैं। मैं उदय प्रकाश से
इस संदर्भ में सहमत हूं।
प्रश्न 20 . नागार्जुन सी निर्ममता
दूसरे कवियों मे देख पाना अत्यंत कठिन है। उनकी स्वयं पर लिखी इस कविता ‘यह वनमानुष/यह सत्तर साला उजबक/उमंग में भरकर सिर के बाल/नोचने लग जाता है/अकेले
में बजाने लगता है सीटियां/आठ दिन/ इन पंक्तियों को ध्यान में रखते हुए क्या कहना चाहेंगी
?
उत्तर . यही कहूंगी कि नागार्जुन ‘नागार्जुन’ हैं हम आप नहीं। यह उनकी अपनी उमंग-तरंग आक्रोश मस्ती सब कुछ हो सकती है। ये नागार्जुन
की आतंरिक ऊर्जा है कि 70 वर्ष में भी युवाओं की तरह रचनात्मक हैं। ये पंक्ति उनके आत्मव्यंग्य का भी उदाहरण
है।
प्रश्न 21. आप डॉ. नामवार सिंह जी
की इस बात से कहां तक सहमत हैं कि नागार्जुन सच्चे अर्थों में स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि
जन कवि हैं।
उत्तर . इस बात से मैं पूर्णतः सहमत हूं।
क्योंकि वे भारतीय जनमानस की आकांक्षाओं, पीड़ाओं, शोषण दोहन उत्पीड़न को वाणी देते हैं, उन्हें संघर्ष व बदलाव के लिए प्रेरित
करते हैं।
प्रश्न 22. नागार्जुन जैसा जनकवि, व्यंग्यकार हिन्दी साहित्य को अब तक दूसरा नहीं मिल पाया? क्या वजह मानती हैं?
उत्तर . इसकी अनेक वजहें हैं। पहली वजह यह
है कि नागार्जुन जैसी पैनी दृष्टि प्रतिभा और बेबाकी से अपनी बात कहने का साहस हमारे
समय के बड़े-बड़े कवियों में भी दुर्लभ है। दूसरी वजह है कि आज पूंजीवाद का शिकंजा और
कस गया है। भूमंडलीकरण की आंधी जनपक्षधर साहित्यकार
और उसके साहित्य को हाशिए में डालकर उसके प्रसार को सीमित कर देती है। अपसांस्कृतिक
माहौल के शोर में उसकी आवाज़ एक कोने में अनसुनी पड़ी रह जाएगी। तीसरी वजह गरीब जनता
का अशिक्षित असहाय होना जिसके कारण वह अपने लिए लिखे गए साहित्य को पढ़ नहीं पाती। चौथी
वजह यह है कि साहित्यकार प्रायः आंदोलनों में शामिल होने का जोखिम नहीं लेते।सबसे बड़ी बात है कि नागार्जुन जैसी प्रतिभाएं
रोज रोज जन्म नहीं लेतीं।
प्रश्न 23 . नागार्जुन, मुक्तिबोध, निराला जैसे साहित्यकारों के साथ क्या हमारे आलोचक, हमारा समाज, हमारी व्यवस्था पूरा न्याय कर पा रही हैं। उन्हें हम वह मान-सम्मान दे पा रहे हैं
जिसके वह सही मायने में हकदार हैं?
उत्तर. पूंजीवादी व्यवस्था में कभी भी सच्चे
साहित्यकार को पूर्णतः न्याय नहीं मिल पाता है क्योंकि वह उस व्यवस्था के विरोध में
मुखर होता है। व्यवस्था उसके स्वर को दबाने का प्रयास करती है, न कि उसे न्याय देने का।
प्रश्न 24. कुछ अपनी साहित्य यात्रा
के बारे में बताएं ?
उत्तर . नागार्जुन की बात करते हुए अपनी
साहित्य यात्रा के बारे में बात करना कठिन होगा। बाबा नागार्जुन हमारी प्रेरणा हैं।
उनके साहित्य और जीवन से हम भविष्य के संघर्षों के लिए उळर्जा प्राप्त करते हैं। मुझे
लेखन की प्रेरणा वंशानुक्रम से अपने माता-पिता से एवं घर के अशांत वातावरण से मिली।
मेरे पिता श्री राधेकृष्ण त्रिवेदी रायबरेली ज़िले में एल.आई.सी. में ब्रांच मैनेजर
बनने से पूर्व ‘हलचल’ नामक छोटा समाचार पत्र निकालते थे और किशोरावस्था में ‘घरेलू पुस्तकालय’ चलाते थे। जिसकी पुस्तकों को पलटते पढ़ते हुए मुझमें साहित्यिक अभिरूचि जगी। मेरी मां स्वर्गीय कुसुमलता त्रिवेदी भी साहित्यिक
अभिरूचि की स्वाभिमानी व संवेदनशील महिला थीं।
उन्हें कविताएं, कहानी आदि लिखने का शौक रहा। मेरी प्रारम्भिक शिक्षा-रायबरेली जिले में हुई। फिरोज
गांधी डिग्री कॉलेज, रायबरेली से बी.ए. करने के पश्चात मैं 1982 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयाग
से संस्कृत से एम.ए. करने लगी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश करते ही मुझे वहां
के शैक्षिक साहित्यिक व सांस्कृतिक माहौल ने बांध लिया। यहीं पर मैं प्रगतिशील छात्र
संगठन (पीएसओ) की सदस्य बनीं। ‘दस्तानाट्य मंच’ के सम्पर्क में आई और मेरी रचनात्मक ऊर्जा
को एक दिशा मिली। यद्यपि बी.ए. में मेरे राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रामबहादुर
वर्मा ने भी मुझे वामपंथी विचारों से अवगत कराया था और प्रगति प्रकाशन मॉस्को द्वारा
प्रकाशित रूसी साहित्य के अध्ययन के लिए प्रेरित किया था। परंतु यहां (इलाहाबाद) मेरे
अध्ययन को विस्तार और व्यावहारिक जमीन मिली। मेरे लेखन के नजरिए को भी दिशा मिली। इस
दौरान मैं कविताएं, लघुकथाएं व छोटे मोटे लेख लिखने लगी। सन् 1984 में एम.ए. फाइनल करते हुए ही मेरा
विवाह कानपुर में श्री कमलेश कुमार दीक्षित जी से हो गया। सेशन लेट होने के कारण परीक्षा
के दौरान ही मेरी बड़ी पुत्री अनुभूति का जन्म भी इलाहाबाद में हुआ। इसके बाद मैं कानपुर
आ गई। मेरी छात्र जीवन की कविताएं और बेटी अनुभूति को लेकर लिखी गई कविताएं 14 वर्षों बाद 1998 में ‘अधूरी कविता’ नामक प्रथम संग्रह में संग्रहीत हैं। तब तक मेरी दो संताने एक बेटी शुभ्रा (1989) और एक बेटा शिवम् (1991)
जन्म ले चुके थे। अधूरी कविता के प्रकाशन के एक वर्ष पूर्व ही मैंने पूर्ण चंद्र पब्लिक स्कूल में नौकरी की। तत्पश्चात
एम.जी. कॉलेज, बृहस्पति महिला कॉलेज कानपुर में भी अध्यापन किया। सन् 2010 से हमीरपुर जिले के एक छोटे से कस्बे (भरुवा सुमेरपुर) में प्राचार्य हूं। अधूरी
कविता के प्रकाशन के बाद और एम.जी. कॉलेज में नौकरी करते हुए मेरी साहित्यिक सांस्कृतिक
गतिविधियों में तेजी आई। कानपुर की गोष्ठियों में आते जाते मंझे गीतों गज़लों का भी
चस्का लगा। परिणाम स्वरूप 2000 में गज़ल संग्रह ‘रोशनी की इबारत’ प्रकाशित हुआ। अब तक मैं पीएचडी कर चुकी थी। मेरी शोध कृति ‘मुक्तिबोध और नागार्जुन का काव्य दर्शन’ सरस्वती प्रकाशन से 2001 में प्रकाशित हुई। अब तक गद्य लेखन भी प्रारम्भ हो चुका था। अखबारी कॉलम लिखते
हुए स्त्रीवादियों को पढ़ते हुए मेरी स्त्री विमर्श पर दो संग्रह ‘गूंगी कलम का बयान’ अमित प्रकाशन गाजियाबाद और स्त्री अस्मिता के सवाल (साहित्य निलय प्रकाशन कानपुर
से प्रकाशित हुए। इसी बीच मेरी दो कविता पुस्तकें
'सांझी उड़ान' सैनबन प्रकाशन दिल्ली और ‘प्रेम करती हुई स्त्री’ साहित्य निलय प्रकाशन कानपुर से 2012 में प्रकाश में आई। बृहस्पति महिला महाविद्यालय कानपुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष
के रूप में काम करते हुए सन् 2014 में यू.जी.सी. के एक माइनर प्रोजेक्ट को
पूरा किया जो ‘डॉ. माधवी लता शुक्ल के काव्य में दाशर्निक चिंतन’ के शीर्षक से सुपर प्रकाशन कानपुर से 2013 में प्रकाशित हुआ। हाल ही में सरस्वती
प्रकाशन कानपुर (2016) में मेरी राजनैतिक चिंतनपरक पुस्तक ‘भूमंडलीकरण का अमानवीय चेहरा’ प्रकाशित हुई। और भी अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। कानपुर से हमीरपुर की भागदौड़, बढ़ती उम्र, बीमारियां आर्थिक संकट सबसे जूझते हुए दुखों की समाप्ति के अंतहीन जंग का एक हिस्सा
बन जाना चाहती हूं। नागार्जुन, मुक्तिबोध जैसे कवियों के दिखाए मार्ग पर
चलते हुए कुछ अपने नए रास्ते तलाशते मेरी साहित्य-यात्रा लगता है अभी-अभी शुरू हुई
है।
प्र्रश्न 25. किन साहित्यकारों ने प्रभावित किया?
उत्तर . समय समय पर विभिन्न साहित्यकार चिंतक, पुस्तकें प्रभावित करते रहे। ठीक-ठीक बताना संभव नहीं है। किशोरावस्था में छायावादी
कवियों को पढ़ना अच्छा लगता था। एक दौर में अमृता प्रीतम और शरतचंद का लेखन बहुत प्रभावित
करता रहा। सीमोन द बोउवार की ‘सेकेंड सेक्स’ और वर्जीनियां वुल्फ का ‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’ महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़िया’ ‘मार्क्स की जीवनी’ मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदार, शील की कविताएं अपने समय के रचनाकारों में अदम गोंडवी, कमल किशोर श्रमिक के लेखन से प्रभावित रही । राजेंद्र यादव के सम्पादकीय मुझे बेहद
प्रिय रहे। तसलीमा नसरीन की बोल्डनेस, अरुंधति राय का तार्किक विश्लेषण और
निर्भीकता प्रभावित करती है। महाश्वेता देवी का जीवन और साहित्य प्रेरित करता है। लेखन
तो वह शय है जिसकी गति पकड़ लो तो साथ-साथ विचरण कराने लगता है वृहत लोकों की। लेखन
में यदि आत्मसंघर्ष और अनुभव जुड़ जाएं तो और भी प्रमाणिक हो जाता है। मैत्रेयी पुष्पा, कौशल्या बैसंत्री व प्रभा खेतान की आत्मकथाओं ने भी काफी प्रभावित किया है।
भविष्य में स्त्री व दलित विमर्श पर और अध्ययन
करना चाहती हूं। अन्य भाषा के साहित्यकारों को भी पढ़ना चाहती हूं विशेषकर रूस, फ्रांस व ब्रिटेेन के साहित्यकारों को।
उत्तर . कमल किशोर
श्रमिक जी का मेरे जीवन और साहित्य दोनों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। श्रमिक जी
वह शख्स हैं जिन्होंने सदैव मेरी हिम्मत बढ़ाई, मेरी साहित्य-यात्रा को मन्द नहीं होने
दिया। प्रायः विवाह के बाद लड़कियां घर गृहस्थी के चक्कर में पड़कर अपने जीवन के वृहत्
लक्ष्यों को भूल जाती हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए की परीक्षा देकर 1985 में मैं अपनी नवजात (3 माह) बेटी को लेकर कानपुर स्थाई रूप से आ गई, तब कामरेड राम जी राय जो
इलाहाबाद में मेरे पूर्व परिचित रहे, श्रमिक जी को लेकर मेरे घर आए और उन्होंने
उनसे मेरा परिचय कराया। बाद में जन संस्कृति मंच की कानपुर इकाई का गठन हमने श्रमिक
जी के साथ किया। तबसे समय-समय पर श्रमिक जी मेरे घर आते रहे, पत्र पत्रिकाओं पुस्तकों के आदान-प्रदान के साथ वे वैचारिक रूप से मुझे साहित्य
के सरोकारों और अपसांस्कृतिक हमलों पर सचेत करते रहे। मैंने उन्हें अपने वैचारिक व
साहित्यिक गुरु का दर्जा दिया है। सन् 2000 में जब मैंने ‘श्रमिक की ग़जलें’ नामक पुस्तक का सम्पादन व प्रकाशन किया तब मैं उनके रचनाकर्म से समग्र रूप से परिचित
हुई और मुझे उनकी साहित्यिक गंभीरता और जीवन दृष्टि ने बहुत गहरे प्रभावित किया। हाल
ही में 2015 में मैंने ‘श्रमिक की गजलें, गीत, कविताएं’ (श्रमिक रचनावली भाग 2)
का भी सम्पादन व प्रकाशन किया है जिसमें उनके काव्य संसार को
और भी समग्रता से जानने का अवसर मिला। मुझे श्रमिक जी की कविताओं में नागार्जुन के
आक्रोश और पीड़ा का विस्तार नजर आया, दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की छटपटाहट
दिखाई दी, उससे भी आगे उनकी इन्कलाबी चेतना का विस्तार। उनके हौसले और जज्बे को मैं नमन करती
हूं। आखिर में जन कवि नागार्जुन की जनपक्षधरता, अदम्य जिजीविषा को प्रणाम करती हूं।
आपको धन्यवाद देती हूं कि आपने मुझे मेरे प्रिय रचनाकार जन कवि नागार्जुन के विषय में
बातचीत करने का अवसर प्रदान किया।
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ई ६एम /२१२ सेक्टर एम
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