साहित्य-सृजन एक दिव्य कर्म है
सस्ते मनोरंजन का साधन नहीं : डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रदीप श्रीवास्तव :: नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार मारिओ वार्गास लोसा ने पुरस्कार ग्रहण करते समय कहा था - साहित्य समाज को समृद्ध, सुसंस्कृत बनाता है, चेतना का निर्माण करता है। आशाओं-आकांक्षाओं को प्रेरित करता है। इस संदर्भ में, भारत में, इस स्थिति को आप कैसा पाती हैं? यहां साहित्य की दशा और दिशा क्या है?
डॉ. मिथिलेश दीक्षित ::मेरी दृष्टि में भी, यह बात बिलकुल उचित है कि साहित्य समाज को समृद्ध और सुसंस्कृत करता है। साहित्य-सृजन एक दिव्य कर्म है, सस्ते मनोरंजन का साधन नहीं। अच्छा साहित्य लोक-जीवन पर, समयानुकुल धीमी गति से प्रभाव छोड़ता है, भीड़ों को उद्वेलित नहीं करता। साथ ही वह समन्वय की, साथ-साथ चलने की और जोड़ने की निरंतर कोशिश भी करता है। आप इतिहास देख लें , सत्साहित्य ने मनीषियों को ही नहीं, जन-जन को जागृत और उत्प्रेरित किया है। वैदिक साहित्य की समृद्ध परंपरा को छोड़कर भी देख लें, पौराणिक युग, रामायण-महाभारत के युग से लेकर आधुनिक काल तक के उत्कृष्ट साहित्य ने समाज को प्रभावित किया है। दिशाबोध दिया है। हिंदी के अतिरिक्त हमारे देश का बंगला, मराठी साहित्य भी बहुत समृद्ध है। यह बात अवश्य है कि अब साहित्य में भीड़ बहुत है। लिखा बहुत जा रहा है, परंतु सभी लेखन मूल्यबोध और स्तरीयता की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता। आज भी श्रेष्ट सर्जकों की कमी है। जिज्ञासु पाठकों की भी कमी है। यदि लेखन पर पुरस्कारों और विक्रय का दबाव न हो, मीडिया पर नौकरशाही और राजनीति का दबाव न हो, यदि शिक्षा, सेवा और साहित्य के क्षेत्रों में मूल्यचेतना का अभाव न हो, तो साहित्य के द्वारा, हमें अनेक स्तरों पर श्रेयस्कर दिशा-निर्देशन मिल सकता है। इसके साथ ही, यह भी कहना चाहूंगी कि यदि साहित्य को केवल मंचों से या किसी खेमे से ही जोड़कर देखा जाएगा, तो साहित्य का मूल प्रयोजन ही बाधित हो जाएगा।
प्रदीप श्रीवास्तव :: इस स्थिति के लिए आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानती है?
डॉ. मिथिलेश दीक्षित :: ::मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया घर से ही प्रारंभ होती है। अभिभावक का कर्तव्य है कि वह बालक की मानसिकता को उसकी प्रतिभा को देखते हुए सकारात्मक दिशा दे और सत्साहित्य की ओर उसकी अभिरूचि जागृत करे। विद्यालय में भी जब तक मूल्य शिक्षा पर बल नहीं दिया जाएगा तब तक शिक्षा और साहित्य का प्रयोजन भी सिद्ध नहीं हो सकता। शिक्षण-संस्थानों में भी साहित्य और शिक्षा में मूल्यपरक चिंतन को बढ़ावा देने के लिए इस प्रकार के सैक्टर्स प्रतियोगिताएं, सेमीनार करा सकते हैं। घर से विद्यालय तक का प्रदेय बहुत महत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति-व्यक्ति से समाज बनता है और व्यक्ति के सही होने से समाज स्वतः ही सही हो जाता है। विद्यालयीय पाठ्यकमों में बहुत पुराना साहित्य संकलित है। तोता-रटन्त करते हुए विद्यार्थी रोजगार की तलाश के लिए लालायित रहते है। अपूर्ण जानकारी होने से भाषा और साहित्य के प्रति कोई सम्मान का भाव भी उनमें पनप नहीं पाता है।
प्रदीप श्रीवास्तव :: इन परिस्थितियों में समग्र सुधार के लिए आप किस तरह के प्रयासों का होना अवश्यक मानती हैं ?
डॉ मिथिलेश दीक्षित :: :: वर्तमान समय में घर, विद्यालय, समाज, साहित्य-सभी का सामंजस्य आवश्यक है। आज खुली हवा और खुली सोच की ज़रूरत है। साहित्य को भी हम खांचों और प्रकोष्ठों में बांध कर नहीं रख सकते। आज सही प्रबंधन की सभी क्षेत्रों में अत्यंत आवश्यकता है। चाहे भाव-विचार का हो, चाहे साहित्य और भाषा का हो, चाहे कार्य-योजना का हो, प्रबंधन एक आवश्यक प्रक्रिया है।साहित्य के क्षेत्र में साहित्य-सर्जक की भी उदार दृष्टि होनी चाहिए और उसकी मानसिकता नई उद्भावनाओं, प्रक्रियाओं को समझने, स्वीकारने और आत्मसात् करने की होनी चाहिए। इसके लिए उसे अतिवादिता से भी बचना चाहिए। परम्परा और आधुनिकता के बीच की दूरी समाप्त करनी चाहिए। अब साहित्य कला-संस्कृति-दर्शन का ही परिचायक नहीं है। अब इसमें विज्ञान, टेक्नोलॉजी, र्मीिडया मीडिया आदि अनके विषयों का समावेश आवश्यक है। साहित्य का पूरा पैटर्न ही बदलने की आवश्यकता है। मूल्यांकन की कसौटी भी बदलनी होगी। अब हम केवल पुरानी और शास्त्रीय पद्धतियों से साहित्य का मूल्यांकन नहीं कर चकते। केवल लक्ष्य-लक्षण-ग्रंथों के आधार पर समीक्षा भी नहीं कर सकते। इमें नवीन तथ्यात्मक और प्रासंगिक प्रतिमान भी गढ़ने होंगे। साहित्य वही प्रासंगिक और प्रगतिशील होता है, जो समय के साथ-साथ चले। नई पीढ़ी को साहित्य के द्वारा क्या दिया जाएगा इस पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है।
प्रदीप श्रीवास्तव :: जैसे कि शुरू में ही बात हुई थी कि साहित्य समाज की दशा, दिशा सही रखने उसे प्रेरक ऊर्जा देने के लिए अपरिहार्य माध्यम है। ऐसे में उसका संवर्धन भी अपरिहार्य है। आप इस संबंध में कॉर्पोरेट घरानों से क्या अपेक्षा रखती हैं?
डॉ. मिथिलेश दीक्षित :: :: कॉर्पोरेट सेक्टर ने हमारी संस्कृति, हमारे साहित्य को प्रभावित किया है। अब हिंदी मात्र साहित्य की नहीं, बाज़ार की भाषा भी बनती जा रही है। टेक्नोलॉजी और संचार-साधनों ने हमारे साहित्य को और हमारी भाषा के स्वरूप को बदलने की चेष्ठा की है। साहित्य कोई उत्पादित वस्तु नहीं है, यह एक पवित्र कर्म है, जो रचनाकार की अंतश्चेतना से निष्पन्न होता है किसी मशीन से नहीं। अब ग्लोबलाइजे़शन (भूमंडलीकरण) का कॉन्सेप्ट ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की तरह नहीं रह गया है। कभी लगता है कि यह भूमंडलीकरण पूंजीवाद का ही परिष्कृत रूप तो नहीं है, क्योंकि इससे बाज़ारवाद उत्पन्न हुआ है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अवधारणा मूल्यपरक सामाजिक और वैयक्तिक अनुशासन का सामरस्य, सामंजस्य और समत्व-बोध था, लेकिन इसमें ऐसी बराबरी और प्रतिस्पर्द्धी का भाव है, जो वस्तुतः समत्व का नहीं, भौतिक और आर्थिक रूप से बंटवारे का भाव है, जो अर्द्धकेंद्रित है, अध्यत्न केंद्रित नहीं। यह व्यवस्था बाज़ार की व्यवस्था है। साहित्य और भाषा पर इन सबका दबाव है। भूमंडलीकरण से भौतिक दूरी भले ही कम हो गई है, मनुष्य और मनुष्य के बीच की दूरी तो निश्चित ही बढ़ती जा रही है।
इससे बचने के लिए साहित्यकार को भी जागरूक होना चाहिए, क्योंकि साहित्य का मूल प्रासंगिकता में भी होता है। जनजीवन और समय की धारा से कटा हुआ साहित्य अधूरा हो जाता है। अपसंस्कृति के इस मशीनी माहौल में रचनाकार में खुलकर बात रखने का साहस होना चाहिए। केवल साहित्य में ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, व्यवसाय - सभी में आज मूल्यों की आवश्यकता है। मानवीय मूल्यों की अवेहलना करते हुए देश की वर्तमान पीढ़ी परंमरा से भी कटती जा रही है और आधुनिकता को भी सही अर्थों में नहीं अपना पा रहीं है। अच्छे सर्जक, अच्छे शिक्षक, अच्छे अभिभावक इसमें सेतु का काम कर सकते है। हम सभी मिलकर सामंजस्य की बात कर सकते हैं। हमें अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को सहेजते हुए, ठोस आधार खोजते हुए, सचेष्ट होकर दृष्टि दौड़ानी होगी कि कहीं हम या हमारी आगे की पीढ़ी हमारी मज़बूत जड़ों से छिन्न न हो जाए। राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक खेमेबाज़ी से अलग रहकर, साहित्य के मूल्यपरक श्रेष्ठ चिंतन को हमें बढ़ाना देना चाहिए। कॉर्पोरेट घरानों से हम ऐसी ही अपेक्षाएं कर सकते हैं।
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