शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2019

बातचीत : साहित्य का ही मोर्चा ऐसा है जो आज के हिंसा नवऔपनिवेशिक दौर में कुछ कारगर भूमिका में है: चंद्रेश्वर:: प्रदीप श्रीवास्तव


साहित्य का ही मोर्चा ऐसा है जो आज के हिंसा नवऔपनिवेशिक
दौर में कुछ कारगर भूमिका में है: चंद्रेश्वर

प्रदीप श्रीवास्तव :: नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार मारियो वार्गास लोसा ने पुरस्कार ग्रहण करने के समय कहा था किसाहित्य समाज को समृद्ध, सुसंस्कृत बनाता है, चेतना का निर्माण करता है, आशाओं आकांक्षाओं को प्रेरित करता है, इस संदर्भ में आप भारत में स्थिति को कैसा पाते हैं? और साहित्य की दशा-दिशा क्या है ?
चंद्रेश्वर :: मारियो वार्गास लोसा ने पुरस्कार ग्रहण करते समय बिल्कुल सही कहा - भारत में भी हिंदी  और अन्य दूसरी भाषाओं में जो साहित्य रचा जाता है उसका मूल उद्देश्य जनता की चेतना को परिष्कृत करना ही है। हिंदी के बड़े आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तोजनता की संचित चित्तवृत्तियों के प्रतिबिंब को ही साहित्य कहा है वे साहित्य को लोक-मंगल से भी जोड़ते हैं। सहस्राब्दी के सबसे बड़े कवि तुलसी ने भी कहा है, ‘कीरति  भनित मूर्ति भल सोई। सुर सरिसम सब कर हित होई।।राम चंद्र शुक्ल ने तुलसी सरीखे कवि को ही अपनी आलोचना का मानक तैयार किया। 1960 के बाद के चर्चित कवि धूमिल ने भी कहा है किकविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।
दरअसल साहित्य, अनुभव, विचार और संवेदना से मिलकर तैयार होता है, इसीलिए वह अपने पाठकों श्रोताओं की चेतना को विस्तार देता है, वह उन्हें छल, फरेब और नाना प्रकार के दुनियावी करतबों से अलग कर उनकी संवेदना को एक शुद्ध नैतिक धरातल प्रदान करता है। इधर हमारे देश में ख़ासतौर से हिंदी में साहित्य की तमाम विधाओं की स्थिति बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती। आज के इस वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के दौर में सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में एक किस्म की गिरावट आई है। आज जिस तेज़ी से बदलाव घटित हो रहा है। चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही हैं कि लेखक इसको पूरी तरह से पकड़ नहीं पा रहे हैं, फिर भी नई-पुरानी पीढ़ी के बहुत सारे लेखक ऐसे मिल जाएंगे जो अब भी सामाजिक सचाइयों को अपने लेखन में दर्ज़ करने में लगे हुए हैं। एक साहित्य का ही मोर्चा ऐसा है जो आज के हिंसा नवऔपनिवेशिक दौर में कुछ कारगर भूमिका में है।
प्रदीप श्रीवास्तव :: इन स्थितियों  के लिए आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं ?
चंद्रेश्वर : आज साहित्य में गिरावट के लिए सीधे-सीधे  बाज़ारवादी  ताकतों की भूमिका है। सबसे दुःखद पहलू यह है, आज के दौर का, कि अन्य कलाओं की तरह एक प्रोडक्ट में बदलता जा रहा है साहित्य। ज़रूरत यह है कि आज अच्छे साहित्य को बाज़ार के ज़रिए अधिसंख्य जनों तक  पहुँचाया  जाए, हालांकि ऐसा हो नहीं पा रहा है। कहीं कहीं इसके पीछे हिंदी में पुस्तक व्यावसायियों की नकारात्मक भूमिका है।
प्रदीप श्रीवास्तव :: इन  परिस्थितियों  में समग्र सुधार के लिए आप किस तरह के प्रयासों का होना आवश्यक मानते हैं ?
चंद्रेश्वर :: मेरा मानना है कि इसके लिए अच्छे साहित्य को जनता तक ले जाने के लिए लेखकों को खुद पहल करनी होगी। हिंदी में स्थिति यह है कि किसी साहित्यिक पत्रिका या किताब की बिक्री के लिए कोशिश करने में रचनाकार शर्मिंदगी का अनुभव करते हैं। सिर्फ़ ड्राइंग रूम में बैठकर लेखन करने और किसी बड़े प्रकाशन से छप जाने, बड़े-बड़े पुरस्कार पा लेने से लेखन का उद्देश्य पूरा नहीं होता, किसी लेखक की रचनाओं की मुक्ति तब संभव होती है जब वे सही पाठकों तक पहुंचती हैं।
प्रदीप श्रीवास्तव :: लंबे समय से आप साहित्य सृजन में लगे हुए हैं या कहें कि छात्र जीवन से ही। इस दौरान किन-किन साहित्यकारों से ज़्यादा प्रभावित हुए? क्या उन्होंने आपकी रचना धर्मिता पर प्रभाव डाला ?
चंद्रेश्वर :: ऐसा है कि मैंने लेखन की शुरुआत  सन् 1980 के आस-पास भोजपुरी में की थी। मेरी कुछ कविताएं भोजपुरी की कुछ स्थानीय पत्रिकाओं में छपी थीं
तब मैं बिहार के आरा शहर में जैन कालेज में इंटरमीडिएट विज्ञान का छात्र था। सन् 1982-83 से मैंने हिंदी में कविता लिखने की शुरुआत की मेरी पहली हिंदी कविता दिसंबर 1983 में कथन पत्रिका में छपी थी। तब उसके संपादक रमेश उपाध्याय थे। बाद में मैंने कविता और रंगमंच पर भी समीक्षात्मक लेखन शुरू किया। हिंदी साहित्य का विद्यार्थी और अध्यापक होने के नाते हिंदी साहित्य पढ़ने का मौक़ा ज़्यादा मिला। हिंदी कविता की हज़ार साल की सुदीर्घ परंपरा में कई कवियों और लेखकों ने प्रभावित किया।  उनकी एक लंबी फेहरिस्त है। मध्यकाल में तुलसी, कबीर, सूर, मीरा। फिर आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिली शरण गुप्त, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, राहुल सांस्कृतायन, फणीश्वर नाथ रेणु , शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धूमिल, नरेश सक्सेना की रचनाओं ने मुझे ज़्यादा प्रभावित किया। समकालीन कवियों में राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, ज्ञानेंद्रपति, अरुण कमल, उदय प्रकाश, देवी प्रसाद मिश्र, विष्णु नागर की कविताओं ने मेरे अंतरमन को गहरे प्रभावित किया है। आलोचना में रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम बिलास शर्मा, नामवर सिंह, चंद्र भूषण तिवारी, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, से लेकर अरविंद त्रिपाठी की आलोचना मुझे प्रभावित करती रही हैं जहां तक इन कवियों, लेखकों का मेरी रचना धर्मिता पर प्रभाव का सवाल है, तो दुनिया का किसी भी भाषा का कवि या लेखक अपनी परंपरा से बहुत कुछ सीखता है। वे अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं से भी अन्तःक्रिया करते हुए रचनारत रहता है।
प्रदीप श्रीवास्तव :: साहित्यकार को प्रतिबद्ध लेखन करना चाहिए या पूरी तरह स्वतंत्र होकर ठीक नागार्जुन की तरह ?
चंद्रेश्वर :: पहली बात कि नागार्जुन स्वतंत्र नहीं बल्कि प्रतिबद्ध रचनाकार रहें हैं। प्रतिबद्धता का सवाल हिंदी साहित्य में तब उठा जब प्रगतिशील आंदोलन शुरू हुआ। कोई ऐसी विचारधारा जिससे जनमुक्ति का सवाल जुड़ा हुआ है कि साथ प्रतिबद्ध होकर लिखना वैसे तो अच्छी बात है। हालांकि सिर्फ़ किसी विचारधारा को लिहाफ की तरह ओढ़ लेने से कोई रचनाकार महान नहीं हो सकता। उर्वर लेखन के लिए व्यापक जीवन का अनुभव होना चाहिए। सच पूछिए तो हिंदी में प्रेमचंद हों या नागार्जुन, रेणु हों या कोई और लेखक, बड़ा वही हुआ जिसने अपने लेखन को जन आकांक्षाओं और जन संघर्षों से जोड़ा। दरअसल कवि और लेखक, जनता से ही कच्चा माल लेकर अपनी रचना से जनता के जीवन में धार पैदा करते हैं। हिंदी के कवि अरुण कमल की प्रसिद्ध पंक्ति है किसारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार।
प्रदीप श्रीवास्तव :: आप के काव्य संग्रहअब भीकी रचनाएं समाज की स्थितियों की या विद्रूपताओं  का साफ-साफ चित्रण करती हैं। उन्हें पढ़कर लगता है कि नागार्जुन की कलम फिर सक्रिय हो उठी है। कविताएं लिखते वक़्त आप किन बिंदुओं पर विशेष ध्यान रखते हैं?
चंद्रेश्वर ::ऐसा है कि हिंदी में निराला, नागार्जुन, केदार मेरे आदर्श कवि हैं, अतः आप को मेरी कृतिअब भीकी कविताएं पढ़ते हुए कुछ नागार्जुन का याद आना स्वाभाविक है। कविताएं लिखते वक़्त, मैं अपने आस-पास के परिवेश और सामाजिक घटनाओं के प्रति सजग रहता हूं। किसी भी जीवनानुभव को कविता में दर्ज़ करते समय, मैं इसका ख़्याल रखता हूं कि इसका सामान्य पाठक पर क्या असर पड़ेगा। इसीलिए मेरी कविताओं में अटपटे बिम्ब या प्रतीक नहीं आते हैं। दूसरी बात कि कविताएं लिखते वक़्त मैं संप्रेषण पर भी ख़्याल रखता हूं। आपने जो कुछ लिखा है कविता में वह पाठक के मन में गहरे उतरनी चाहिए।
प्रदीप श्रीवास्तव :: नागार्जुन जैसी राजनैतिक, सामाजिक चेतना वाला कवि हिंदी जगत को अभी दूसरा नहीं मिला यह बात आपने अपने लेख में वर्ष 2010 में उठाई थी, इसकी वज़ह क्या है? क्यों नहीं मिल सका दूसरा नागार्जुन ?
चंद्रेश्वर :: असल में नागार्जुन, अपने दौर के एक खरे और बेबाक कवि हैं। उनकी  कविताओं  को पढ़ते हुए स्वाधीनता से लेकर 1990 के बाद भारत की राजनैतिक उठा-पटक को महसूस किया जा सकता है। उन्होंने अपनी कविताओंके ज़रिए, हमेशा शासक वर्ग की ग़लतियों पर उंगली रखी उनकी निगाह से शायद ही कोई बचा हो। आज तो हिंदी में स्थिति यह है कि पद, पुरस्कार के लालच में कवि सच से कतराने लगे हैं रघुवीर सहाय ने दो ढाई दशक पहले ही लिखा कि अब कवि अपने नफे नुकसान का हिसाब लगा लेते हैं कि हत्यारे को हत्यारा कहना है कि नहीं। नागार्जुन को साहित्य से अपना कॅरियर नहीं चमकाना था वे बेबाक बने रहे। इधर हिंदी में घोर अवसरवाद कॅरियरिज़्म देखने को मिल रहा है। हिंदी के लेखक खासकर छोटे-छोटे गिरोहों में बंटे हुए हैं आज का लेखक जनता के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता, खुद के तिकड़म के बारे में ज़्यादा सोचता है। कब किससे मिलना है, कहां क्या कहना है, सबके पीछे सोची समझी रणनीति होती है। ऐसे में दूर-दूर तक ऐसी उम्मीद नहीं दिखती कि कोई नागार्जुन जैसा कवि होगा। ऐसे में भविष्य की संभावनाओं के बारे में कुछ कहना उचित नहीं प्रतीत होता।
प्रदीप श्रीवास्तव :: अपनी अब तक की साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ ख़ास बताइए?
चंद्रेश्वर ::मेरी साहित्यिक यात्रा कोई 30-31 साल की रही है। मेरा मानना है कि किसी भी लेखक अथवा कवि को लगातार लिखने में यक़ीन करना चाहिए। साहित्यिक जगत की उपेक्षाओं के प्रति ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए। मेरा यह भी मानना है कि अगर फूल खिलेगा तो उसकी खुशबू ज़रूर फैलेगी। अगर आपने कुछ सार्थक लिखा तो उस पर गंभीर पाठकों का, आलोचकों का ध्यान अवश्य जाएगा। ऐसे भी साहित्य सृजन एक ऐसी प्रकृति है जो किसी लेखक को दिमाग़ी तौर पर व्यस्त बनाए रखता है। लेखक, भीड़ में भी अकेला होता है और अकेले में ही लेखन की एकांत कोठरी में भी बाहरी दुनिया से जुड़ा रहता है। कभी-कभी मुझे ऐसा महसूस होता है कि साहित्य सृजन ने ही मेरे भीतर एक आत्म-विश्वास पैदा किया है, जिसकी वज़ह से मुझे लगता है कि मेरा भी कोई वजूद है। अगर मैं साहित्य के क्षेत्र में नहीं आया होता, सिर्फ़ भौतिक उपलब्धियां हासिल किया होता तो भी अपने को दरिद्र महसूस करता। कविता की कोई पंक्ति जीवन जीने का संबल बन जाती है, जैसे कबीर का यह दोहा आज भी मुझे अद्भुत लगता है-
            कबिरा कहां गरबियों ऊँचे देखि अवास।
            काल्हि परया भू लोट्या ऊपर जामै घास।।
प्रदीप श्रीवास्तव :: बतौर साहित्यकार आप समाज या देश से क्या अपेक्षा रखते हैं ?
बतौर साहित्यकार, समाज और देश से यही अपेक्षा है कि वह साहित्यकार को सम्मान दें। उसकी गरिमा का ख़्याल रखें। हालांकि आज समाज और देश में जो विषाक्त वातावरण बना है, वह साहित्यकार और साहित्य विरोधी है। पैसा कमाने की होड़ ने समाज को अनैतिक बनाया है। मूल्यों का संवर्द्धन होते रहना चाहिए। इसमें साहित्य ही कारगर हो सकता है। हिंदी के महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंधकविता क्या हैमें लिखा है कि सभ्यता जैसे-जैसे जटिल होती जाएगी। कविता का महत्व भी बढ़ता जाएगाउन्होंने यह भी कहा है कि भले इतिहास हो, राजनीति हो, मगर कविता बनी रहेगी


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पता - प्रदीप श्रीवास्तव
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अलीगंज, लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२, ९९१९००२०९६
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