गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

बातचीत::बाज़ार से खतरा नहीं है खतरा तो भ्रष्टाचार से है:: भारतेंदू मिश्र :: प्रदीप श्रीवास्तव


बातचीत

बाज़ार से खतरा नहीं है खतरा तो भ्रष्टाचार से है: भारतेंदू मिश्र

प्रदीप श्रीवास्तव : नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार मारियो वार्गास ल्योसा ने 2010 में पुरस्कार ग्रहण करने के समय कहा था किसाहित्य समाज को समृद्ध, सुसंस्कृत बनाता है, चेतना का निर्माण करता है, आशाओं-आकांक्षाओं को प्रेरित करता है। इस संदर्भ में आप भारत में स्थिति को कैसा पाते हैं? साहित्य की दशा-दिशा क्या?
भारतेंदू मिश्र : भारत बहुभाषी और सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। हमारे अपने समाज की अपनी आकांक्षाएं हैं। साहित्यकार समाज की रुढ़ियों विसंगतियों पर ध्यान देता है और उन्हें सकारात्मक प्रगति की दिशा देता है। हमारे देश में तो सदियों से यह महान परम्परा रही है। हमारे यहां तो साहित्य का प्रयोजन ही मम्मट 11वीं सदी के अनुसार-
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे सद्यःपरिनिवृत्तये  शिवेतरक्षतये-कांतासम्मिततयोपदेशयुजे।
अर्थात् कविता या साहित्य रचना का प्रयोजन यश-अर्थ-सद्व्यवहार की शिक्षा-समस्याओं से शीघ्र मुक्ति-अशिव या अकल्याण से समाज की रक्षा के लिए रचा जाना चाहिए - और उसमें प्रेयसी की तरह गूढ़ से भी गूढ़ रहस्य को प्रेमपूर्वक समझाने की क्षमता होनी चाहिए। तभी तो वाल्मीकि-कालिदास-कबीर-तुलसी-नानक-से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर - निराला-प्रेमचंद और उनके बाद तक के साहित्यकार समाज के लिए ही रचना करते रहे हैं। आधुनिक अवधी के हिसाब से कहूं तो पढ़ीस-वंशीधर शुक्ल-रमई काका आदि ने भी लगातार अपने लेखन से अपने समाज को खासकर किसान समाज को दिशा दी।जो साहित्य अपने समाज की अपेक्षाएं पूरी नहीं करता वो महत्वहीन होता है, ऐसा साहित्य और साहित्यकार स्वतः विलीन हो जाता है। भारत में किसान चेतना को लेकर जिस स्तर पर काम होना चाहिए वैसा काम साहित्यकारों ने नहीं किया है। आदिवासी आन्दोलन या नक्सलवाड़ी आंदोलन और किसानो की आत्महत्या के जो प्रसंग उठते हैं वो सब भी साहित्यकारों को देखना चाहिए। किसान की भाषा में मजदूर और श्रमजीवी की भाषा में उनके सरोकारों से जुड़ी शंकाएं और उनके समाधान प्रस्तुत करने वाला साहित्य आना चाहिए। रुढ़ियों से लगातार मुक्ति का मार्ग भी साहित्य से प्रशस्त हो सकता  है।  

प्रदीप श्रीवास्तव : साहित्य में समग्र्र सुधार के लिए आप किन प्रयासों का होना आवश्यक मानते हैं?
भारतेंदू मिश्र: साहित्य वही है जो जनता और जन सरोकार की बहस को आगे बढ़ाए। जहां केवल वैचारिकता या धार्मिकता अथवा शुद्धता/नैतिकता पर बल दिया जाता है वह साहित्य नहीं रह जाता। साहित्य में जीवन के मध्यमार्ग और कहें कि स्वाभाविक मार्ग का अवलंबन होता है। साहित्य का लक्ष्य आम आदमी की संवेदना का प्रकटीकरण है। साहित्य में सुधार का प्रश्न स्पष्ट नहीं है क्योंकि समाज का यथार्थ साहित्य में दिखता है। करना ही है तो समाज को सुधारने के कार्य कीजिए। साहित्य का सुधार कौन कर सकता है? क्या तुलसी और निराला या फिर प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश आदि ने कुछ गलतियां की है जिन्हे सुधारना चाहते हैं आप? साहित्य के मूल्य समय की आलोचना को रचनाकारों की व्यापक सहमति से तय करने होते हैं। वह किसी एक आदमी या आलोचक के बस की बात नहीं है।

प्रदीप श्रीवास्तव:: सवा अरब लोगों का विशाल देश है लेकिन साहित्यकारों की पेशानी पर पाठकों की कमी की समस्या को लेकर चिंता की रेखाएं साफ दिखती हैं। क्या वजह मानते हैं इसकी?
भारतेंदू मिश्र : जैसे तरह-तरह के लेखक हैं वैसे ही तरह तरह के पाठक हैं। तात्पर्य यह कि फिल्म या सीरियल की पटकथा का लेखक प्रोड्यूसर के हिसाब से लिखता है, सैंकडों लेखक प्रकाशक की मांग पर किताबें तैयार करते हैं। आज हिंदी में देश भर में सैंकडों सरकारी पुरस्कार दिए जाते हैं लोग उन्हें लक्ष्य करके भी लिखते हैं। कुछ लोग अपनी विचारधारा के लिए लिखते हैं, कुछ अपने धर्म के लिए, कुछ नेताओं की वंदना में किताबें लिख रहे हैं। यह सब भी साहित्य के नाम पर आया है तो पाठक इस सब को क्यों पढ़े? उसे चुनाव का पूरा अधिकार है.. दूसरी ओर साहित्य की शिक्षा का स्तर गिर गया है और अध्यापक ने विद्यार्थी को अच्छे, कम अच्छे और बुरे साहित्य का भेद करने की तमीज नहीं सिखाई, आज के अध्यापक ने ही पढ़ना लिखना छोड़ दिया है या उसे मालूम ही नहीं है कि विद्यार्थी के लिए क्या अच्छा है? ...तो पठनीयता कम हुई है। मनोरंजन के साधन बढ़े हैं, तकनीकि का विकास हुआ है अब लोग अंतर्जाल पर किताबें पढ़ते हैं-जो चाहे वो अंतर्जाल पर मौजूद है। किताब का पाठक से सीधा रिश्ता नहीं रहा-यह आप कह सकते हैं। प्रकाशक भी इसमें दोषी है। प्रकाशक किताब की 200 प्रतियों छाप कर लागत से 20 गुना लाभ कमाता है और लेखक को बेवकूफ बनाता है। सभी प्रतियां किसी पुस्तकालय में चली जाती हैं जहां वो दो साल कैद रहती हैं फिर रद्दी में बिक जाती हैं। यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इसके बावजूद बोधिप्रकाशन जयपुर जैसे आदर्श प्रकाशक भी हैं जो लगातार हमें प्रेरणा देते हैं। वो 100/में दस पुस्तकें बेच रहे हैं.. तो अनेक समस्याएं हैं। हमारा पाठक भ्रमित भी हुआ है।  

प्रदीप श्रीवास्तव: पाठकों एवं साहित्यकारों के बीच इस खाई को खत्म करने के लिए आप किन बातों का होना जरूरी मानते हैं।
भारतेंदू मिश्र : अधिक से अधिक पेपर बैक संस्करण का प्रकाशन हो। साहित्य के अध्यापकों की जागरूकता बढे़ जो विद्यार्थियों में अच्छी किताब पढने की प्रेरणा भर सकें। पेपरबैक किताबों की अधिकतर खरीद सरकार करे तो पुस्तक की कीमत भी कम हो जाएगी। पुस्तकों का सहज सुलभ हो पाना भी एक बड़ा कारण है। आमतौर पर साहित्यिक किताबों के फुटकर विक्रेता हमारे शहरों में खत्म होते जा रहे हैं। दिल्ली में श्रीराम सेंटर में किताबों की दूकान थी खत्म हो गई। हिंदी भवन में किताबों की ऐसी ही दूकान थी वह भी बंद हो गई। किताबों पर बहस भी नहीं होती अब। पाठक मंचों का गठन कॉलेज और विश्वविद्यालयों में होता था वह सब खत्म होता जा रहा है। प्रोफेसर्स का वेतन अब सवा लाख हो गया है। उन्हें पढ़ने-लिखने और साहित्य में सामयिक बहस करने की अब क्या जरूरत है? 

प्रदीप श्रीवास्तव :  साहित्य जब सुसंस्कृत एवं चेतनामय बनाता है तो क्या यह कहना गलत होगा कि यदि बहुसंख्य लोगों को इससे जोड़ लिया जाए, तो समाज में फैली तमाम बुराइयों अव्यवस्थाओं से मुक्ति पाई जा सकती है।
भारतेन्दु मिश्र : चेतनामय तो मनुष्य होता है-साहित्य नहीं। मूलतः साहित्य तो एक कल्पना ही है.. एक दस्तावेज भर है। साहित्य तो मनुष्य की चेतना से जुड़कर नाना प्रकार के अर्थ देता है। इसलिए केंद्र में तो मनुष्य और मानवीयता ही है। बहुसंख्यक समाज कभी साहित्य से नहीं जुडा-अज्ञानता-मतभेद-सत्ता का डर -कोई भी कारण हो सकता है। क्योंकि साहित्य का स्वर विरोधी होता है। कबीर-निराला -प्रेमचंद किसी के समय में समाज का बहुसंख्य हिस्सा उनके साहित्य से नहीं जुड़ा रहा। जैसा मैंने कहा- साहित्यकार लिखता है यह आवश्यक नहीं कि साहित्यकार बहुत अच्छे ढंग से विद्यार्थी को अपना मंतव्य समझा सके इसके लिए कुशल अध्यापक चाहिए। प्रेरणा देने वाले गुरळओं के बिना कोई समाज सुसंस्कृत नहीं बन सकता। जब आपके अध्यापक अच्छे नहीं होंगे तब सामाजिक बुराइयां दिखाई देंगी ही। आज स्थिति यह कि हमपर उपदेश कुशल बहुतेरेके सिद्धांत पर चल रहे हैं। केवल अनाप-शनाप पैसा कमाने में लगे हैं।

प्रदीप श्रीवास्तव : इसका मतलब तो यह हुआ कि साहित्य के साथ अधिसंख्य लोगों को जोड़ने में हमारी असफलता ही आज तमाम बुराइयों अव्यवस्थाओं की मुख्य जड़ है।
भारतेन्दु मिश्र :जी! हां.. लेकिन आप चाहते हैं..सबको साहित्य से  जोड़ दें ..यह कैसे संभव है? चलो मान लें  आप ठीक कहते हैं तो वह कौन सा साहित्य होगा जिससे आप लोगों  को जोड़ना चाहते हैं? पहले यह तय कीजिए कि निहित स्वार्थों के लिए व्यक्ति विशेष का गुणगान लिखने वाले साहित्यकार को आप साहित्यकार मानेंगे या प्रगतिशील-जनपक्षधर लेखक अमृतलालनागर, विष्णुप्रभाकर, श्रीलालशुक्ल, कृष्णासोबती, राजेन्द्र यादव,  मैत्रेयी  पुष्पा, चित्रा मुद्गल, अमरकांत, गिरिराज किशोर, जैसे को साहित्यकार मानेंगे? या फिर यह कोई अंतर्जाल के सर्वर की लाइन तो नहीं है कि जब चाहा जोड़ दिया और गाड़ी पार हो गई। देखिए, सभी बुराइयों की जड़ अनर्गल पैसा है उस पर नियंत्रण कीजिए। आम आदमी का असंतोष समझने और उसे दूर करने की जरूरत है। बाज़ार- दलाली और उपभोक्तावाद पर नियंत्रण/संतुलन कर सके तो कुछ बात बनेगी। उपभोक्तावादी हास्य व्यंग्य से समाज सुधार का सपना पूरा नहीं होगा। अन्ना हजारे की आवाज सुनिए समाज ठीक होने लगेगा।

प्रदीप श्रीवास्तव : इन संदर्भों में आप बतौर साहित्यकार समाज या देश से क्या अपेक्षा रखते हैं?
भारतेन्दु मिश्र : साहित्य के शाश्वत मूल्य अध्यापकों के विवेचन बिना छात्रों तक नहीं पहुंच सकते। अध्यापकों  और युवा शक्ति से अपेक्षा है कि वह अपने जीवन में श्रम का मूल्य स्थापित करें। श्रमजीवी के महत्व को समझें  हाथ और दिमाग के काम में खाई बनने दें भ्रष्ट तरीके से कमाई करने के रास्ते पर चलें धैर्य बनाए रखे हिंसा से कोई हल नहीं निकलता। अपनी भाषा पर गर्व करना सीखें।

प्रदीप श्रीवास्तव : अपनी अब तक की साहित्यक यात्रा के बारे में कुछ बताइए?
भारतेन्दु मिश्र : अमृतलालनागर, रमईकाका, महादेवी, हजारीप्रसाद दिवेदी , विद्यानिवास मिश्र, शिवमंगल सुमन, नागार्जुन, त्रिलोचन, जानकी बल्लभ शास्त्री, रामविलास शर्मा, जैसे श्रेष्ठ रचनाकारों  को निकट से सुनने देखने का अवसर मुझे ईश्वर ने दिया- यह मेरे लिए अनुभव की सबसे बड़ी पूंजी है। 1983 में मेरा पहला लेख स्वतंत्र भारत में पंडित बंशीधर पर प्रकाशित हुआ था। अब तक चौदह पंद्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। गीत से शुरुआत लखनऊ शहर से ही की थी। नीरज जी और दिवाकर प्रकाश अग्निहोत्री के साथ एक मंच से कविता पाठ भी किया। वह समय और था। अपने बारे में अपने मुख से अधिक कुछ कहना ठीक नहीं लगता। सन 1986 में दिल्ली आया तब से यहां की सीढ़ियां चढ़ उतर रहा हूं। नागार्जुन की गीत पंक्ति मुझे बहुत प्रेरणा देती है - जो नहीं हो सके पूर्णकाम/मैं उनको करता हूं प्रणाम।

प्रदीप श्रीवास्तव : हिंदी खड़ी बोली के बजाय अवधी में अपना रचना संसार सृजित करने के पीछे क्या कोई खास मकसद रहा।
भारतेन्दु मिश्र : हिंदी के बजाय नहीं हिंदी के साथ साथ कहें तो ठीक रहेगा। दरअसल अवधी मेरी मातृभाषा है। अपनी भाषा में अपनों से संवाद ज्यादा प्रभावशाली लगता है मुझे। अवध के किसान अवध के गांव और उनकी समस्याएं मूलरूप से हिंदी में उतने प्रभावशाली ढंग से नहीं उठायी जा सकतीं। अवधी का ग्रामीण पाठक भी उसमें रुचि लेता है। दूसरी बात यह भी कि अवधी हिंदी की जननीवत है। अवधी की परम्परा को देखें तो हिंदी को उसनेबहुत कुछ दिया है.. जगनिक, अमीर खुसरो, कबीर, तुलसी, जायसी, मुल्लादाऊद, नरोत्तम जैसे पुराने कवि अवधी में ही लिखते रहे हैं और आधुनिक युग में पढ़ीस, बंशीधर शुक्ल, रमई काका, त्रिलोचन, मृगेश और अवधी में पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वनाथ पाठक जैसे रचनाकार मेरे आदर्श हैं। एक बार त्रिलोचन जी का साक्षात्कार ले रहा था तो उन्होंने कहा अवध का हर एक गांव विश्वविद्यालय है। मुझे उन्होंने ही अवधी में लिखने के लिए और खासकर गद्य  में लिखने को प्रेरित किया और मैंने उनका आदेश शिरोधार्य किया। अबनई रोसनीके बाद मेरा दूसरा अवधी उपन्यासचंदावतीशीघ्र आने वाला है। 

प्रदीप श्रीवास्तव :: आपकाशास्त्रार्थनामक नाटक बहुत प्रभावशाली है। भारत में रंगमंच की स्थिति के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
भारतेन्दु मिश्र : शास्त्रार्थ नाटक शंकराचार्य और मंडन मिश्र के जगविदित शास्त्रार्थ पर केंद्रित है, जिसकी निर्णायक मंडन मिश्र की पत्नी शारदा ही थीं और शारदा ने शंकराचार्य को विजयी घोषित किया। वह एक सांस्कृतिक दार्शनिक कोटि का काम है जिसमें मुझे अनेक वर्ष लगे। मुझे प्रसन्नता है कि उस नाटक का आकाशवाणी द्वारा मराठी-तमिल-गुजराती-कन्नड-उड़िया-मलयालम जैसी अनेक भारतीय भाषाओं में मंचन हुआ। इसे देश भर के अनेक रंगकर्मियों ने अपने वाचिक अभिनय द्वारा सृजित किया। हमारे यहां नाट्य मंडलियां हैं लेकिन उन्हें कॅरियर के रूप में कोई नहीं चुनता। हिंदी प्रदेशों में व्यावसायिक रंगमंच नहीं के बराबर है। मराठी, गुजराती और बांग्ला में हिंदी से अच्छी स्थिति है। 

प्रदीप श्रीवास्तव : पश्चिम का रंगमंच भारत के रंगमंच से कहीं बहुत परिष्कृत है बहुत आगे है क्या वजह मानते हैं?
भारतेन्दु मिश्र : पश्चिम का रंगमंच तकनीकि के विकास के साथ बहुत आगे बढ़ा है। उनके पास आर्थिक साधनों की कमी नहीं है। वहां अभिनेता नाटक को कॅरियर के रूप में चुनते हैं। हमारे यहां अभी यह स्थिति नहीं बनी है। सरकारी आयोजनों में अब यहां संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली, भारतेंदु अकादमी लखनऊ या भारत भवन भोपाल, कालिदास अकादमी उज्जैन आदि में नाटक होते रहते हैं। लेकिन पणिक्कर जैसा रंगकर्मी आज भी मलयालम के रंगमंच पर नित नई रंगभाषा सृजित करने के लिए प्रयत्नशील हैं। हबीब तनवीर जैसा रंगकर्मी अब हिंदी में कोई दूसरा नहीं रहा। मुझे प्रसन्नता है कि उनके द्वारा निर्देशित अंतिम संस्कृत नाटक वेणीसंहार उनके समीप बैठकर भारतभवन भोपाल में मुझे देखने का अवसर मिला। हमारे यहां विभिन्न भाषाओं की सवेदना का जो सौष्ठव है वो पश्चिम में नहीं है। इस लिए हमारे यहां का नाटक और ख़ासकर रंगकर्म बहुआयामी है। अहा जन नाट्य मंच भी है। क्लासिकल नाटक भी है अब्सर्ट नाटक भी आया। बादल सरकार, ..कारंत, हबीब तनवीर और पणिक्कर जैसे रंगकर्मियों ने भारतीय क्लासिकल को बहुत सुरक्षित किया और उसके प्रति जन मानस में लगातार रुचि विकसित की है।हमारी भरत मुनि की परंपरा है भी लोकोन्मुख है। जिसमें बहुत सस्ते संसाधनों में भी नाटक हो जाता है और जितना चाहे उतना महंगा सेट भी तैयार किया जा सकता है... अर्थात् जैसा लोक/प्रेक्षक हो वैसी व्यवस्था कर ली जाती है।

प्रदीप श्रीवास्तव : बाज़ारवाद को क्या आप साहित्य के लिए खतरा मानते हैं? जबकि किताबें बिकेंगी बाज़ार में ही। बाज़ार ही उन्हें पाठकों तक पहुंचाएगा। इसी से प्रकाशक और लेखक दोनों की आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ होगी।
भारतेन्दु मिश्र : बाज़ार से खतरा नहीं है खतरा तो भ्रष्टाचार से है। बाज़ार तो आपके समाज में परावैदिक युग से था। पाठकों के साथ हो रहे अन्याय से है जो प्रकाशक मजबूरी के कारण या कहे कि अधिक लाभ कमाने के लिए करता रहा है। आज तो यह स्थिति है कि किताबें पुस्तकालयों की अलमारी में दफना दी जाती हैं। एक तो आपका पाठक भ्रमित है दूसरे जो कुछ थोड़े पाठक हैं  उनके लिए किताब महंगी होने के कारण पहुंच से बाहर हो जाती है। हिंदी का अधिकांश प्रकाशक सरकारी खरीद पर ही फूल-फल रहा है। हिंदी लेखक की आर्थिक स्थिति लेखन से कभी समृद्ध नहीं हुई। हां प्रकाशक को बहुत लाभ हुआ है। आज हिंदी का बड़े  से बड़ा लेखक इतनी रॉयल्टी नहीं पाता कि वह अपना जीवन उस रॉयल्टी से निर्वाह कर सके। मलयालम में लेखक संगठन है तो वहां यह स्थिति नहीं है। बाज़ार में तो और अधिक लाभ होना चाहिए। अंग्रेजी की किताब बाज़ारवाद के चलते क्यों प्रकाशक और लेखक को लाभ दे जाती है? हिंदी में भी कुछ दो चार प्रतिशत ईमानदार प्रकाशक हैं। 

 प्रदीप श्रीवास्तव : आपको नहीं लगता कि हमें बाज़ार से संग्राम करने के बजाय सामंजस्य बनाने उसकी ताकत को साहित्य को समृद्ध करने उसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रयोग करना चाहिए।
भारतेन्दु मिश्र :अवश्य  करना  चाहिए लेकिन आज का सबका सगा है पैसा। नैतिकता और ईमानदारी जैसे सवाल तभी उठाए जा सकते जब साहित्यकार के मन में दूसरे के दुख से दुखी होने की मूल भावना जीवित बची हो। जो वाल्मीकि को आदिकवि बनाती है। जिनका आदर्श किसी नेता की चापलूसी है, मंच पर जाकर भंडै़ती करनी है और कोई पुरस्कार हासिल करना है तो उन स्वनाम धन्य लोगों  के लिए साहित्य और समाज की बात करें। जन-जन तक पहुँचने  के लिए तुलसी का आदर्श अपना होता है। जहां जनता की भाषा होती है और मांग कै खायबो मसीति कै सोयबो वाला आदर्श होता है जो आज संभव नहीं है आज जनवादियों से भी हम सीख सकते हैं। बाज़ार से सामंजस्य बनाने के लिए लेखकों और प्रकाशकों को मिलकर काम करना होगा। सबसे बड़ा काम तो साहित्य की फुटकर दुकानें  खोलने से हल किया जा सकता है। -बुक की ओर भी हमारा ध्यान जाना चाहिए। यह कम लागत का सौदा है। पाठक तो वहां भी है, संवाद भी बढने लगा है हिंदी सहित अनेक भाषाओँ  में लगातार अंतर्जाल पर साहित्य रहा है। ...तो बाज़ार की शक्ल भी बदल रही है, लेकिन मुद्रित पुस्तक का रूप अभी इतनी जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है।
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वरिष्ठ साहित्यकार श्री भारतेन्दु मिश्र जी से मैंने यह बातचीत २०११ में की थी .

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