पुस्तक समीक्षा
सिमटते दायरे की कथा
प्रदीप श्रीवास्तव
विख्यात हिंदी साहित्यकार रवींद्र कालिया ने ‘खुदा सही सलामत है’ उपन्यास के ज़रिए आज़ादी के बाद के भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने का प्रयास किया है। आजादी की आबोहवा में समाज जिन अंतर्द्वद्वों से गुज़रता हुआ अपना सफर तय करता रहा है उन्हीं को बयां करता है यह उपन्यास। इसके कैरेक्टर अपने-अपने वर्गों के अंतर्द्वद्वों के साथ मानवीय भावनाओं, नैतिक मूल्यों के क्षरण को सफलतापूर्वक व्यक्त करते हैं। वह चाहे आजादी के बाद के मुस्लिम वर्ग का अंतर्द्वद्व हो या फिर स्त्री समाज का। उपन्यासकार ने जितनी शिद्दत से देश की साम्प्रदायिक स्थिति को सामने रखा है उतना ही धारदार स्त्री विमर्श का चित्रण भी किया है। गुलाब देई, हजरी, पंडिताइन जैसे कैरेक्टर स्त्री अधिकारों के लिए याचना नहीं करतीं बल्कि बराबर का हक निर्भिकतापूर्वक छीन लेने के लिए तत्तपर दिखती हैं। उन्हें दोयम दर्जे का मानने की पुरुषों की मानसिकता से वह कतई इत्तिफाक नहीं रखती हैं। पुरुष मानसिकता की स्पष्ट तसवीर हम गुलाबदेई के पिता शिवलाल के इस मानसिक अंतर्द्वद्व में देख सकते हैं। शिवलाल ऊपर से शांत रहता था, मगर उसके अंदर अपमान की ज्वाला अहर्निश धूं-धूं जलती रहती है। गुलाब देई ने जिस तरह खोमचा लगाकर अपने आत्मविश्वास का परिचय दिया था, उससे वह भीतर तक टूट गया था। उसका विचार था कि पुरुष केवल स्त्री को गुलाम रखने के लिए ही पैदा होता है, उसका साया हटते ही स्त्री भूखों मर जाती है, असहाय हो जाती है। मगर गुलाब देई ने अपने ऊपर आई विपत्ति को चुनौती के साथ स्वीकार किया था। इसके साथ ही समाज में हर तरफ नैतिक मूल्यों के हृास को लेकर सूक्ष्म वर्ग की चिंता और बड़े वर्ग द्वारा निहित स्वार्थों के चलते बेपरवाह हो कर अनैतिक आचरणों में लिप्त होने का कचा चिट्ठा है उपन्यास में। श्याम सुंदर, सिद्दीकी, ख़्वाजा, यादव जैसे कैरेक्टर के जरिए उपन्यासकार ने जहां राजनीतिक दुनिया के नैतिक- अनैतिक दोनों ही पक्षों को बेपर्दा किया है वहीं उमा, लक्ष्मीधर, श्याम बाबू का प्रसंग अपने निहित स्वार्थों के लिए मानवीय संवेदनाओं, चरित्र सब कुछ ताक पर रख देने वाले वर्ग को रेखांकित करता है। जीवन की आपाधापी, कैसे भी सब कुछ पा लेने की अंधी दौड़ के चलते संवेदनाएं किस कदर समाप्त हो रही हैं लोग कितना अपने दायरे में सिमट चुके हैं, रवींद्र कालिया ने दो भागों में लिखे इस उपन्यास में बखूबी दर्ज किया है। हजरी के प्रसंग को ही देखिए, उसे पुलिस बेरहमी से घसीटती हुई ले जा रही है, वह मदद के लिए पुकारती है, मगर उसकी चीख अपने में सिमटे समाज की संवेदनाओं को झकझोर कर उठा न सकी। नेता से लेकर आमजन तक सभी, जिनके हर सुख-दुख में हजरी काम आती रही अपने घरों में दुबके रहे। रवींद्र कालिया का यह बहुचर्चित उपन्यास समाज के यथार्थ का एक ऐसा दस्तावेज है जो पाठक से सीधा संवाद करते हुए उसे अपने साथ जोड़ लेता है।
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