बातचीत
साहित्य का काम समाज का केवल यथावत चित्रण
करना ही नहीं है वरन उसे संवारना भी है - कुंवर बेचैन
प्रदीप श्रीवास्तव: नोबेल पुरस्कार ग्रहण
करते समय
उपन्यासकार मारियो वार्गास लोसा
ने कहा
‘साहित्य समाज
को समृद्ध, सुसंस्कृत बनाता
है, चेतना का निर्माण करता है,
आशाओं, आकांक्षाओं को प्रेरित करता है।
इस संदर्भ में आप
भारत में
क्या स्थिति पाते हैं।
साहित्य की
दशा-दिशा
क्या है?
कुंवर बेचैन: जी हां,
मैं खुद
भी साहित्य को शब्दों की लोकसभा में जागरूक चिंतन और
संवेदनशील हृदय
द्वारा दिया
गया वह
बयान मानता
हूं जो
लोकहित में
दिया गया
हो। जिस
बयान में
लोक का
यथार्थ चित्रण और उसकी
विसंगतियों तथा
विद्रूपताओं के
दर्शन तो
हों किंतु
उसमें आदर्श
का भी
स्पर्श हो।
उसमें समाज
की चिंता
के साथ-साथ कोई
न कोई
दिशा निर्देश भी हो।
साहित्य को
समाज का
दर्पण कहा
गया है
तो वह
इस अर्थ
में कहा
गया है
कि उसमें
समाज अपने
चेहरे को
देखकर उसमें
अपने दाग-धब्बों को
भी देख
सके किंतु
इसके बाद
दर्पण का
दूसरा काम
शुरू हो
जाता है
और वह
यह कि
वह उसके
चेहरे को
संवारे भी।
साहित्य का
काम समाज
का केवल
यथावत चित्रण करना ही
नहीं है
वरन उसे
संवारना भी
है। इस
संबंध में
मुझे मुंशी
प्रेमचंद के
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की याद
आती है
और नोबेल
पुरस्कार-प्राप्त मारियो वार्गास का वह
कथन भी
सार्थक लगता
है जो
आपने अपने
प्रश्न में
समाहित किया
है।
इस संदर्भ में
जहां तक
भारत की
स्थिति का
प्रश्न है
तो वह
हम सबके
सामने स्पष्ट है। वैसे
इतिहास इस
बात का
साक्षी है
कि हमारे
साहित्य ने
समाज को
सदैव नई
दिशा दी
है किंतु
आजकल ऐसा
लगता है
कि हमारे
साहित्य की
धार अब
कुछ भोथरी
हो गई
है। सामने
जो समाज
की स्थितियां हैं वे
पत्थर की
तरह कठोर
हैं। उन
पर आज
का साहित्य प्रहार तो
कर रहा
है किंतु
वर्तमान व्यवस्था का पथरीलापन उसकी धार
को कुंठित कर देता
है।
प्रदीप श्रीवास्तव: तो यह भोथरी
धार वाला
हमारा साहित्य समाज को
समृद्ध, सुसंस्कृत, चेतनामय बनाने,
आशाओं, आकांक्षाओं को प्रेरित करने में
कुछ योगदान कर पा
रहा है।
इसके भोथरेपन को दूर
करने के
लिए आप
किन प्रयासों का होना
ज़रूरी मानते
हैं?
कुंवर बेचैन : आज का हमारा
पूरा समाज
एक नए
आर्थिक युग
से गुजर
रहा है
जिसमें पैसे
का महत्व
बहुत बढ़
गया है।
इधर चीजों
के मूल्यों में बड़ा
परिवर्तन होता
रहा और
उधर जीवन-मूल्यों में।
वरन शायद
यह कहना
अधिक उचित
होगा कि
जैसे-जैसे
वस्तुओं के
मूल्य बढ़ते
गए या
ऊंचे मूल्य
की वस्तुएं सामने आने
लगीं वैसे-वैसे समाज
में जीवन-मूल्य गिरते
चले गए।
जीवन-मूल्यों का आधार
नैतिक मूल्य
थे, वे भी बदले।
संवेदना और
भावुकता का
स्थान तर्क
ने लिया
किंतु तर्क
से भी
ऊंचा स्थान
चालाकी और
होशियारी ने
ले लिया।
अपनी परिस्थितियों के दवाब
में नया
समाज पहले
के मुक़ाबले कम संवेदनशील होता चला
गया। यह
बात राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक तथा
साहित्यिक आदि
सभी क्षेत्रों में हुई।
साहित्य का
प्रमुख आधार
ही संवेदना है और
साहित्य में
जो संवेदना का तत्व
है उसी
के कारण
पाठक या
श्रोता प्रभावित होता है,
उसी के
कारण पाठक
और श्रोता के हृदय
में कोई
रचना उतरती
चली जाती
है, किंतु यह प्रभाव भी उन्हीं पर अधिक
पड़ता है
जो लोग
संवेदनशील होते
हैं। समाज
में जैसे-जैसे संवेदनशीलता का हृास
होने लगता
है वैसे
ही वैसे
साहित्य का
प्रभाव भी
कम होने
लगता है।
कारण चाहे
कोई भी
रहे हों
किंतु यह
सच है
कि आजकल
समाज में
सबसे बड़ा
संकट संवेदनशीलता का है।
जहां तक इस
संबंध में
किए गए
साहित्यिक प्रयासों का प्रश्न है तो
इसके जवाब
में यह
कहना चाहूंगा कि आज
के साहित्यकार को ऐसे
साहित्य-लेखन
की आवश्यकता है जो
एक ओर
समाज के
भावक-वर्ग
का मनोरंजन भी करता
हो और
दूसरी ओर
मानव को
संवेदनशील बना
कर उसे
सच्चा मानव
बनाने में
भी सहयोग
कर रहा
हो। यहां
मैं यह
कहना सबसे
ज़्यादा ज़रूरी
समझता हूं
कि आज
के साहित्यकार को श्रेष्ठ और उद्देश्यपूर्ण बाल साहित्य लिखने की
आवश्यकता है।
आज के
बच्चे पहले
के बच्चों से कहीं
ज़्यादा जागरूक और वयस्क
हैं। इसलिए
उनकी रूचियों को दृष्टि में रखते
हुए प्रेरक बाल साहित्य को लिखने
की ज़रूरत
है। यही
नहीं ऐसे
साहित्य को
जनता तक
पहुंचाने के
लिए विभिन्न माध्यमों का
प्रयोग भी
ज़रूरी है।
जहां लेखकों का दायित्व बढ़ा है
वहीं प्रकाशकों को ऐसे
साहित्य को
पाठक तक
कम मूल्य
में पहुंचाने का संकल्प लेना होगा।
प्रिंट मीडिया को अपने
अख़बारों में
साहित्य को
ज़्यादा से
ज़्यादा पृष्ठ
देने होंगे। ऐसी घटनाओं को सबसे
महत्वपूर्ण स्थान
और कालम
में छापना
होगा जो
व्यक्ति में
संवेदनशीलता को
जगाने वाली
हों तथा
जो जीवन
मूल्यों की
सुरक्षा को
रेखांकित करने
वाली हों।
यही नहीं
उन घटनाओं को पीछे
धकेलना होगा
जो जीवन-मूल्यों का
विघटन करने
वाली हों।
इस उद्देश्य को इन
दिनों साहित्यिक क्रांति का
नाम देना
ज़रूरी हो
गया है।
प्रदीप श्रीवास्तव : सवा अरब लोगों
का विशाल
देश है
लेकिन साहित्यकारों की पेशानी पर पाठकों, श्रोताओं की
कमी की
समस्या को
लेकर चिंता
की रेखाएं साफ दिखती
हैं। आप
इसकी क्या
वजह मानते
हैं?
कुंवर बेचैन : साहित्य के पाठकों और श्रोताओं की कमी
के अनेक
कारणों में से
कुछ जो
प्रमुख कारण
हैं उनमें
भी सबसे
बड़ा कारण
यह है
कि आज
जो साहित्य का पाठक
है वह
रोजी-रोटी
के चक्कर
में इतना
अधिक फंसा
है कि
उसे चाह
कर भी
साहित्य को
पढ़ने या
सुनने का
समय नहीं
मिलता। साहित्य के पाठकों की संख्या को यदि
टटोला जाए
तो पता
चलेगा कि
साहित्य को
पढ़ने वालों
में मध्यम
वर्ग की
भागीदारी सबसे
अधिक है।
किंतु यही
वर्ग सुबह
से शाम
तक रोटी
को जुटाने में लगा
हुआ है।
उसके जिम्मे इतने काम
हैं कि
वह कुछ
और सोचने
लायक ही
नहीं बचता।
दूर-दराज
से अपनी
नौकरी के
स्थानों तक
पहुंचने में
ही काफी
समय लग
जाता है।
घर आते
ही वे
घर के
कामों में
लग जाते
हैं या
फिर मनोरंजन के लिए
टेलीविज़न खोल
लेते हैं।
पहले जब
टेलीविज़न आदि
जैसे मनोरंजन के साधन
घरों में
नहीं थे
तो यह
वर्ग पत्र-पत्रिकाओं तथा
किताबों को
पढ़ने में
अपना समय
लगाता था।
आज टेलीविज़न के आकर्षक चैनलों, मोबाइल एवं कंप्यूटर ने साहित्य के पाठकों के इस
खाली समय
को भी
अपनी तरफ
मोड़ लिया
है। निम्न
वर्ग के
लोग अख़बार पढ़ कर
ही अपने
पाठक होने
का सबूत
देकर अपने
पाठन की
इतिश्री कर
लेते हैं।
समाज का
उच्च वर्ग
अपने व्यापार-कार्य में
इतना उलझा
रहता है
कि उसे
भी यह
मौक़ा नहीं
मिलता कि
वह साहित्य के पठन
के लिए
थोड़ा समय
निकाल सके।
पहले घरों
में पढ़ने-लिखने वाली
महिलाएं साहित्यिक कृतियों को
पढ़ने में
अपना खाली
समय गुजारती थीं। किंतु
अब अधिकतर पढ़ी लिखी
महिलाएं काम
काजी महिलाएं हैं। वे
ऑफ़िस जाती
हैं, घर के भी
काम करती
हैं। साफ
है कि
उनके पास
भी समयाभाव है। जहां
तक विद्यार्थियों का प्रश्न है वे
भी अपने
प्रोफेशनल कोर्स
की पढ़ाई
में फंसे
हैं। बड़े-बड़े कोर्स
हैं उनके
पढ़ने के
लिए। लिहाजा उनके पास
भी साहित्य को पढ़ने
का समय
नहीं है।
छोटे बच्चों के पास
भी इतना
होम-वर्क
होता है
कि उन्हें उसे पूरा
करने से
ही फुर्सत नहीं। और
यदि कुछ
समय उनके
पास है
भी तो
वह वीडियो-गेम तथा
टेलीविज़न के
देखने में
निकल जाता
है।
मैंने अनेक बुजुर्ग लोगों को
यह कहते
सुना है
कि वे
किस प्रकार से अपने
प्रिय लेखक
की पुस्तक को हासिल
करने के
लिए मीलों
चलते थे
और उसे
प्राप्त करते
थे। अब
पढ़ने की
ऐसी ललक
कहां है?
प्रदीप श्रीवास्तव : साहित्य और पाठक
दोनों को
एक सिक्के का दो
पहलू बनाने
या फिर
दोनों के
बीच की
दूरी समाप्त करने के
लिए क्या
होना चाहिए?
कुंवर बेचैन : यह सच है
कि साहित्य और पाठक
का अन्योन्याश्रित संबंध है।
या यूं
कहें कि
दोनों का
चोली-दामन
का साथ
है। किंतु
इन दिनों
इनमें जो
दूरी बढ़
रही है
उसको घटाना
बहुत ज़रूरी
हो गया
है। श्रेष्ठ साहित्य और
समाज के
बीच की
दूरी जितनी
ही घटेगी
उतना ही
अपना देश
भीतरी तरह
से, अर्थात् संवेदना के
स्तर पर
समृद्ध होगा।
इस दूरी
को कम
करने के
लिए सबसे
पहले तो
साहित्यकारों को
ऐसे साहित्य की सर्जना करनी होगी
जो भाषा
की दृष्टि से सरल
हो, समाज के मनोविज्ञान को पहचान
कर उसकी
समस्याओं को
रेखांकित करने
वाला हो,
समाज को
ऐसा लगे
कि रचनाकार उसकी चिंता
कर रहा
है और
उसकी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ रहा
है। साथ
ही रचनाकार को अपनी
रचनाओं में
रोचकता के
तत्व का
भी समावेश करना होगा।
दूसरी ओर
समाज, देश और सरकार
को भी
कुछ ऐसे
प्रयास करने
होंगे जिनके
कारण समाज
में साहित्यकार की प्रतिष्ठा बढ़े तथा
साहित्य से
उसका लगाव
भी बढ़े।
आज के
रचनाकार को
युवा-वर्ग
की समस्याओं को भी
अपने साहित्य का विषय
बनाना होगा
और उनका
विश्लेषण करते
हुए तर्क
और संवेदना दोनों का
सहारा लेकर
अपने लेखन
को संवारना होगा। युवा-वर्ग एक
अलग प्रकार के निराशा के दौर
से गुजर
रहा है,
वह डिप्रेशन में है।
रचनाकार को
अपनी रचनाओं के माध्यम से उसे
आशावादी बनाना
होगा, उसे हौसला देना
होगा, उसे सकारात्मक सोच
वाला बनाना
होगा।
प्रदीप श्रीवास्तव : मतलब यह है
कि यदि
साहित्य अधिसंख्य समाज का
हो जाए
या उन्हें अपने साथ
जोड़ ले
तो तमाम
बुराइयों, अव्यवस्थाओं से मुक्ति मिल सकती
है। आखिर
साहित्य समाज
को समृद्ध, सुसंस्कृत चेतनापूर्ण आदि-आदि
बनाता है।
इस सदर्भ
में बतौर
साहित्यकार आप
देश या
समाज से
क्या अपेक्षा रखते है?
कुंवर बेचैन : जी हां, मेरा विश्वास है
कि यदि
साहित्य अधिसंख्य समाज का
हो जाए
तो समाज
का रूप
ही दूसरा
होगा। साहित्य क्योंकि अपने
साथ सहिष्णुता का भाव
जोड़े रहता
है इसलिए
समाज के
अधिकांश लोग
एक दूसरे
के दर्द
को समझने
लायक बनेंगे, अधिक अनुशासित रहेंगे और
सच्चे नागरिक बनेंगे। हां,
इस संबंध
में साहित्यकार के अपने
दायित्व तो
रहेंगे ही
साथ ही
सरकार, देश और समाज
को भी
अपनी ओर
से प्रयास करने होंगे। इन्हें भी
सोचना होगा
कि साहित्य और समाज
के बीच
की दूरी
को कैसे
कम किया
जाए। रूस
के लोगों
ने इस
संबंध में
खूब सोचा
था। उनके
यहां शहीदों और साहित्यकारों को सबसे
ऊंचा स्थान
दिया गया।
हम सभी
जानते हैं
कि उन्होंने अपने देश के
प्रिय कवि
कीव के
नाम पर
कीव नाम
के शहर
को ही
बसा दिया
है। मुझे
1987 में वहां
जाने का
अवसर मिला
तो मैंने
देखा कि
वहां के
बाज़ारों में
जो दूकानें थीं उनमें
से अधिकांश दुकानें या तो
किसी साहित्यकार के नाम
से थीं
या शहीदों के नाम
से। साहित्यिक जागृति ऐसे
पैदा की
जाती है।
क्या हमारे
देश में
ऐसा नहीं
हो सकता?
अपने देश में
हरित क्रान्ति तथा अन्य
क्रांतियों की
तरह चाहे
कुछ दिनों
के लिए
ही सही
साहित्य क्रांति को लाना
ही होगा।
हमारे देश
में साधनों की कमी
नहीं है,
कमी है
तो संकल्प-शक्ति और
अपने अंदर
चाह जगाने
की। प्रयास तो किए
ही जाने
चाहिए परिणाम चाहे कुछ
भी निकले। इस संदर्भ में मुझे
अपनी ही
चार पंक्तियां याद आ गई हैं
और वह
यह हैं-
‘किसी भी
काम को
करने की
चाहें पहले
आती हैं।
अगर बच्चे
को गोदी
लो तो
बांहें पहले
आती हैं/हर इक
कोशिश का
दर्जा कामियाबी से भी
ऊंचा है
कि मंज़िल
बाद में
आती है,
राहें पहले
आती हैं।’
प्रदीप श्रीवास्तव : संघर्षों की एक
बड़ी गाथा
रहा है
आपका जीवन,
कुछ उसके
एवं अपनी
साहित्यिक यात्रा के बारे
में बताइए।
कुंवर बेचैन: मेरी साहित्य चेतना
में मेरे
अपने व्यक्तिगत जीवन का
बड़ा योगदान रहा है
और उसी
के माध्यम से आप
को भी
मेरे साहित्य के मर्म
को पहचानने में अधिक
सुविधा रहेगी। मैं उत्तर
प्रदेश के
ज़िला मुरादाबाद के एक
छोटे से
कस्बे कांठ
के पास
छोटे से
उमरी नामक
गांव में
1 जुलाई, 1942 को पैदा हुआ।
मेरे पिताश्री नारायण दास
सक्सेना का
निधन तब
ही हो
गया जब
मैं मात्र
2 महीने का
था। पिता
जी की
मृत्यु के
तुरंत बाद
मां मुझे
और मेरी
दो बड़ी
बहनों को
लेकर अपनी
मां यानी
मेरी नानी
के घर
जो गजरौले के पास
के गांव
शाहपुर में
था आ गई। लगभग
डेढ़ वर्ष
तक मैं
अपनी मां
और दोनों
बहनों के
साथ नानी
के यहां
ही रहा।
फिर दो
साल की
उम्र तक
अपने छोटे
मौसा जी
के यहां
मुरादाबाद में
रहा। मुरादाबाद में जब
मेरी बड़ी
बहन की
विदाई हो
रही थी
तब ही
कोई आदमी
मुझे अपहृत
करने के
उद्देश्य से
उठाकर भागा।
बारातियों ने
उसे घेर
लिया और
उसे पुलिस
में दे
दिया। ये
सब खानदानी रंजिश के
कारण हो
रहा था।
मेरे पिताश्री की भी
मृत्यु प्राकृतिक मृत्यु नहीं
थी। मेरी
मां ने
मुझे सुरक्षित रखने की
दृष्टि से
मुरादाबाद से
बाहर जाने
की सोची।
दुर्भाग्य से मेरी
माताश्री का
भी उस
समय देहांत हो गया
जब मैं
कक्षा तीन
का छात्र
था और
मेरी उम्र
8 वर्ष की
थी। इसके
बाद भी
दुर्भाग्य ने
मेरा पीछा
नहीं छोड़ा।
मेरी बहन
भी उस
समय दिवंगत हो गई
जब मैंने
पांचवां दर्ज़ा
पास किया
था और
मैं मात्र
10 वर्ष का
था। बस
तब ही
से घर
की चाबी-कुंजी मेरे
हाथ में
आ गई।
मैं और
बहनोई साहब
मिलकर उल्टा-सीधा खाना
बना लेते
थे। जहां
तक मेरी
साहित्यिक यात्रा की बात
है, तो वह यह
है कि
जब मैं
सातवीं कक्षा
में पढ़ता
था तो
हंसी-हंसी
में ही
मैंने तुकबंदी करनी शुरू
कर दी
थी। सन्
1965 में जब
मैं गाजियाबाद प्रवक्ता के
पद पर
नियुक्त हुआ
तो दिल्ली और दिल्ली के कवियों के संपर्क में आया।
इन्हीं दिनों
मुझे दिल्ली आकाशवाणी और
बाद में
दूरदर्शन पर
भी बुलाया जाने लगा
और इस
माध्यम से
भी मैं
धीरे-धीरे
कवि रूप
में प्रतिष्ठित होने लगा।
इन दिनों
मेरा एक
गीत बहुत
चर्चित हुआ
जो मैंने
सन् 1961 में लिखा था
जिसके बोल
थे - ‘जितनी दूर नयन
से सपना/जितनी दूर
अधर से
हंसना/बिछुए
जितनी दूर
कुंवारे पांव
से/उतनी
दूर पिया
तुम मेरे
गांव से।’
इसी गीत के
कारण मैं
पूरे हिंदुस्तान में होने
वाले कवि
सम्मेलनों में
बुलाया जाने
लगा और
सराहा भी
जाने लगा।
तब से
लेकर आज
तक लगभग
पिछले 52 वर्षों से मैं
कवि सम्मेलनों के मंच
पर हूं।
मुझे यह
कहते हुए
भी प्रसन्नता का अनुभव
हो रहा
है कि
न केवल
भारत वर्ष
के शहरों
और गांवों में वरन
विदेशों में
भी मुझे
कविता पाठ
करने का
मौका मिला।
सबसे पहले
1984 में भारत
के तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैल
सिंह जी
के प्रतिनिधित्व में मॉरीशस जाने का
मौका मिला
और वहां
के कई
गांवों और
शहरों में
कविता पाठ
का अवसर
मिला। मॉरीशस के राष्ट्रपति महामहिम शिव
सागर रामगुलाम के निवास
पर भी
कविता पाठ
का गौरव
मिला। 1990 में दो बार
मॉरीशस जाना
हुआ तब
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अनिरळद्ध जगन्नाथ जी
के निवास
पर भी
कविता पाठ
का अवसर
मिला। इसके
बाद तो
अन्य 17 देशों में भी
जाने का
मौका मिला
जिनमें रूस,
सिंगापुर, इंडोनेशिया, मस्कट, कनाडा, सूरीनाम, हॉलैंड, फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, लकसमबर्ग, स्विट्जरलैंड, पाकिस्तान, जापान भी
शामिल हैं।
इन देशों
के साथ
ही चार
बार अमरीका के लगभग
18 शहरों में,
चार बार
यूके के
लगभग 14 शहरों में तथा
चार बार
दुबई जाने
का मौका
मिला। अब
तक मेरी
34 पुस्तकें प्रकाशित हो गईं,
जिनमें गीत-नवगीत संग्रह, गजल संग्रह, अतुकांत कविताओं के संग्रह, दोहा संग्रह, हाइकु संग्रह, पांचाली नामक
महाकाव्य, उपन्यास आदि हैं।
मैंने लगभग
150 पुस्तकों की
भूमिका भी
लिखी है।
इसके अतिरिक्त अनेक लघुकथाएं भी प्रकाशित हुई हैं।
पुस्तकों के प्रकाशित होने का
लाभ यह
मिला कि
मेरे साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में
शोध कार्य
हुए। जिनकी
संख्या अब
22 है। मेरठ,
रूहेलखंड तथा
बड़ौदा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में कविताएं संकलित हैं।
महाराष्ट्र तथा
गुजरात बोर्ड
के और
गल्फ कंट्रीज़ के पाठ्यक्रमों में भी
मेरी कविताएं संकलित हैं।
मेरा यह भी
सौभाग्य रहा
कि मेरे
गीत फिल्मों में भी
लिए गए।
‘कोख’ नाम की फिल्म
में ‘बिछुए जितनी दूर
कुंवरे पांव
से’ गीत लिखा गया
जिसे प्रसिद्ध संगीतकार रवींद्र जैन जी
के संगीत-निर्देशन में
हेमलता जी
ने गाया
था। इसी
प्रकार यूके
के प्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ और फ़िल्म
प्रोड्यूसर एवं
निर्देशक श्री
निखिल कौशिक
की फिल्म
‘भविष्य द फ़्यूचर’ में भी दो
गीत लिए
गए। यही
नहीं मेरे
गीतों को
दूरदर्शन पर
भी फ़िल्माया गया। दूरदर्शन के एक
सीरियल ‘क्या फ़र्क पड़ता
है’ के लिए भी
थीम सॉन्ग
तथा और
गीत भी
लिखे। इसी
प्रकार टीवी
की कुछ
आर्ट फ़िल्मों में भी
गीत लिखे।
मेरे द्वारा किए
गए कविता
पाठ के
कई कैसेट
और सीडी
भी बनी
हैं। ऐसी
भी कई
सीडी बनीं
जिनमें मेरी
ग़ज़लों को
दूसरे गायकों ने गाया।
एक ऐसी
सीडी भी
है, जिसमें मैंने अपनी
गजलों को
गायक के
रूप में
संगीत के
साथ गाया
है। संगीत
दिया है
ज्ञानदीप ने
और फ़िल्मांकन श्री हेमंत
कुमार ने
किया है।
अभिनय कुमाऊं के अनेक
फ़िल्म-कलाकारों का है।
+++++++
विख्यात कवि कुंवर बेचैन जी से यह बातचीत २०११ में की थी .
पता - प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६एम /२१२ सेक्टर एम
अलीगंज,
लखनऊ-२२६०२४
मो-७८३९३१७०७२, ९९१९००२०९६
pradeepsrivastava.70@gmail.com
psts700@gmail.com
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