अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं
(उपन्यास)
प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशक: पुस्तकबाज़ार.कॉम
कनाडा
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Ansuni Yatraon
Ki Naikaen
A Novel by Pradeep Srivastava
E-6M-212, Sector-M, Aliganj,
Lucknow (UP), India
E-mail: pradeepsrivastava.70@gmail.com
© Copyrights reserved by writer
2021
Cover Photo: Pratyush Srivastava
Cover Model: Adhra Sharma
Cover Design: Pradeep Srivastava
Typing: Dhanjay Varshney
Publisher: PustakBazaar.com
Price: $3.00 Cdn.
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अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं (उपन्यास)
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव
ई ६ एम २१२ सेक्टर एम,
अलीगंज, लखनऊ- २२६०२४
यू.पी., भारत
कॉपी राइट: लेखक
प्रथम संस्करण:२०२१
आवरण चित्र: प्रत्युष श्रीवास्तव
आवरण मॉडल: अधरा शर्मा
आवरण सज्जा: प्रदीप श्रीवास्तव
टाइपिंग: धनंजय वार्ष्णेय
प्रकाशक: पुस्तकबाज़ार.कॉम
मूल्य: $3.00 Cdn.
समर्पित
पूज्य पिता
ब्रह्मलीन
प्रेम मोहन श्रीवास्तव
एवं
प्रिय अनुज ब्रह्मलीन प्रमोद कुमार श्रीवास्तव, सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृतिओं को
अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं
ढेरों रंग-गुलाल से भरी होली एकदम सामने अठखेलियां करने लगी थी. फाल्गुन में फगुनहट जोर-शोर से बह रही थी. पेशे से तेज़-तर्रार वकील, मेरे एक पारिवारिक मित्र 'दरभंगा' से वापस 'लखनऊ' आ रहे थे. इस यात्रा के दौरान ट्रेन में उनके साथ बड़ी ही अजीब घटना हुई.
ऐसी कि परिवार नष्ट होते-होते बचा. परिवार के सकुशल बच जाने का पूरा श्रेय वो ईश्वर और अपनी ब्रॉड माइंडेड पत्नी को देते हैं. यह अक्षरश: सत्य भी है. क्यों कि, यदि उनकी पत्नी बहुत सुलझे, खुले विचारों वाली नहीं
होती, तो परिवार का बिखरना सुनिश्चित था.
घटना से वह इतना आहत थे कि, पूरी होली किसी से मिलने नहीं गए. पचीस वर्ष में पहली बार मेरे यहाँ भी नहीं आए. होली बीतने पर जब मैंने फ़ोन किया तो बड़े अनमने ढंग से बोले,''आता हूँ किसी दिन.''
दो दिन बाद रविवार को आए तो उसी समय उन्होंने उस अजीब घटना के बारे में मुझे बताया. जिसे सुनकर मैं अचंभित रह गया. घटना पर विश्वास करना मेरे लिए बड़ा कठिन हो रहा था. मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था, न ही कभी किसी से सुना या पढ़ा था कि, ट्रेन में ऐसा भी हो सकता है.
मेरे वह मित्र झूठ का सच, सच का झूठ करने वाले पेशे के ऊंचे खिलाड़ी हैं. लेकिन व्यक्तिगत जीवन में समान्यतः वह सच ही बोलते हैं. अपनी बात को सीधे-सीधे मुखरता से कह देते हैं. किसी को बुरा लगेगा या भला, इसकी परवाह रंच-मात्र नहीं करते.
मैंने उनकी बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा,'' समझ नहीं पा रहा हूं कि, इस घटना को आपके लिए अच्छा कहूं या बुरा, खुशी व्यक्त करूं या दुःख.''
वह चिप्स का एक टुकड़ा मुंह में रख कर कर्र-कर्र की कर्कश आवाज के साथ खाने के बाद बोले, '' देखिये मेरे हिसाब से इस घटना के दो हिस्से हैं. एक हिस्सा खराब है, दूसरे हिस्से को क्या कहूं यह समझ नहीं पा रहा हूं, लेकिन महत्वपूर्ण यह है भाई कि, मैंने आपको एक-एक बात बता दी है. जैसा हुआ, जो कुछ हुआ, सब कुछ. आपको एक जबरदस्त उपन्यास
के लिए विपुल मात्रा में उपन्यास-तत्व दे दिए हैं. अब आप अपनी कलम चलाइये .
आपकी
जबरदस्त लेखनी से पाठकों को एक और बढ़िया उपन्यास पढ़ने को मिलेगा. हाँ, मेरी प्राइवेसी हर स्थिति में बनी रहे, इसका सबसे पहले ध्यान रखियेगा. इस घटना की जानकारी रखने वाले मेरी पत्नी, मेरे बाद आप तीसरे व्यक्ति हैं. आश्वासन नहीं आपसे वचन चाहता हूँ कि, भाभी जी या अन्य किसी से भी चर्चा के दौरान भी मेरा नाम प्रकाश में नहीं आएगा. ''
मैंने हंसते हुए कहा, '' निश्चिन्त रहिये. किसी की प्राइवेसी भंग न हो इस बात का मैं पूरा ध्यान रखता हूँ . एक ज़िम्मेदार लेखक होने के नाते मैं इसे अपना कर्तव्य मानता हूँ. जहाँ तक लिखने का सवाल है तो इस सम्बन्ध में मैं यही कहूंगा कि, मैं जब लिखता हूं तो, किसी के लिए लिखना है, यह सोच कर, या ध्यान में रख कर नहीं लिखता.
मैं एक ही बात पर ध्यान केंद्रित रखता हूं कि, मेरे उपन्यास, कहानी अपने माप-दंडों
पर पूर्णतः खरे हों. दूसरी बात यह कि, आपके साथ जो घटना हुई है, वह ऐसी है कि, उसे उपन्यास में परिवर्तित करने के लिए मेरा मानना है कि, बहुत ज्यादा बोल्ड होना पड़ेगा. और मैं समझता हूं कि, यदि लिखूंगा तो हमारा समाज पढ़ेगा तो खूब रस ले-ले कर, लेकिन नैतिकता की चादर ओढ़ कर बेहद तीखी प्रतिक्रियाएं देगा.
आलोचक-गण नैतिकता की गन से मुझ पर बर्स्ट फायर झोंक देंगे, टूट पड़ेंगे सब मुझ पर.''
मेरी बात सुन कर उन्होंने गहरी सांस
ली,
फिर मेरी आँखों में देखते हुए कहा,
'' हूँ, तो क्या आप प्रतिक्रियाओं, आलोचनाओं के डर से लिखना बंद कर देंगे? आपकी बातों से तो यह प्रमाणित होता है कि, आपका ध्यान लिखने से पहले
प्रतिक्रियाओं पर रहता है.''
इसके साथ ही वह मुझे डरपोक लेखक सिद्ध करने में जुट गए. मैं उनका उद्देश्य साफ़-साफ़ समझ रहा था कि, वह उपन्यास लिखवाने के लिए मुझसे तत्काल हाँ करवाना चाहते हैं . लंबी बहस, खाने-पीने के बाद वह परिवार के साथ चले गए. लेकिन उनकी बताई घटना उनके साथ नहीं गई. वह मेरे दिमाग में घूमती रही कि, ऐसा कैसे कर लेते हैं लोग? इसे समाज का घोर पतन कहूं या कि.....
मैं उनके साथ घटी इस घटना को याद नहीं रखना चाहता था. लेकिन वह विस्मृत ही नहीं हो पा रही थी.
जीवन के साथ-साथ समानांतर चलती रही. देखते-देखते करीब बीस फाल्गुन निकल गए. इस बीच वकील साहब ने अपना कद कई गुना बढ़ा लिया. मेरे यहां से उनका रिश्ता भी हर फाल्गुन के साथ और गहरे रंग में रंगता चला गया. उनकी
बेटी, मेरा बेटा
मित्रता के इस
रिश्ते को
रिश्तेदारी में
बदलने की
ओर क़दम बढ़ाए
चले जा रहे
हैं
. दोनों घरों का मौन उन्हें मौन स्वीकृत, ऊर्जा दे रहे हैं .
मैं भी रिटायरमेंट के करीब पहुंच गया हूँ . इस बीच मैंने कई किताबें पूरी कीं. लेकिन उनके साथ हुई विचित्र घटना पर लिखने का मूड नहीं बना पाया. जबकि वकील साहब गाहे-बगाहे याद दिलाना नहीं भूलते थे. विशेष रूप से जब मेरी कोई पुस्तक प्रकाशित होती, उसकी प्रति
उन्हें भेंट करता, तो वो यह जरूर कहते, '' दुनिया भर की किताबें लिख डालेंगे. लेकिन मेरे साथ जो हुआ, उस पर कलम चलाने को कौन कहे, उसे छुएंगे भी नहीं.
आप लेखकों को भी न्यायमूर्तिओं की तरह समझना दुष्कर्य कार्य है. वो कब क्या करेंगे, इसका कभी भी, कुछ भी पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता. एक ही प्रकृति के एक केस में जमानत दे देंगे, तो दूसरे में जेल भेज देंगे.
जहाँ कोई औचित्य नहीं वहां भी स्वतः संज्ञान ले लेंगे. जहाँ स्वतः संज्ञान लेना ही चाहिए, वहां सच में आँखों पर काली पट्टी बाँध कर वास्तविक मूर्ति से भी ज्यादा बड़ी मूर्ति बन जायेंगे. यही हाल आप लेखकों का है. कब क्या लिखेंगे सोचा ही नहीं जा सकता.''
उनकी ऐसी बातें मैं हर बार हंस कर टाल देता था .
मगर इक्कीसवीं फगुनहट की बयार के साथ जैसे ही आम के बिरवा बौराए (आम की फसल का मौसम आने पर उसके वृक्षों पर बौर अर्थात आम की मंजरी का आना), साथ रंगोत्सव
होली त्यौहार ले आए, तभी एक संयोग ऐसा हुआ कि, मूड एकदम से बन गया. कारण यह रहा कि, ऑफिस में मेरे एक सहयोगी ने लंच के समय एकदम वैसी ही एक घटना के बारे में बताया. जो उनके एक रिश्तेदार के साथ घटी थी.
सहयोगी ने एक बार मुझसे भी उनका परिचय कराया था. यह परिचय जल्दी ही हल्की-फुल्की मित्रता में परिवर्तित हो गई थी. इनके मामले में पुलिस केस होते-होते रह गया था. यहाँ भी परिवार टूटते-टूटते बचा था. लेकिन इसलिए नहीं कि
इनकी भी पत्नी ब्रॉड माइंडेड थी,
बल्कि इसलिए कि पति ने अजीब घटना के बारे में बड़ी होशियारी के साथ चुप्पी साध ली थी.
तथ्य प्रमाण सब सामने थे, इसलिए दूसरी घटना की
भी सत्यता पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता था. इस बात-चीत के दौरान ही मैंने निश्चय कर लिया कि, अब इस विषय पर उपन्यास जरूर लिखूंगा. प्राथमिकताओं में यह काम शीर्ष पर होगा. संयोग यह भी देखिये कि, यह घटना भी मेरे सामने
होली के कुछ समय बाद ही आयी.
फगुनहट बयार, आम के बौरों की भीनी-भीनी गंध लिए तब भी हर किसी के मन- मष्तिष्क़
को मदमस्त कर रही थी. मैंने सोचा प्रकृति के इस ऊभते-चूभते मौसम में ही यह उपन्यास अपनी पूरी खूबसूरती के साथ शिखर को छू पाएगा .
सहयोगी से बात खत्म करते-करते मैंने पूरा प्रोग्राम बना लिया कि, दो दिन की छुट्टी है, उसके तुरंत बाद रविवार है, उपन्यास का प्रारंभ इन्हीं दिनों में करता हूँ. इसके बाद रोज ऑफिस से घर पहुँचने के बाद समय दूंगा. जितनी जल्दी हो सका इसे पूरा करूंगा.
उसी समय पता नहीं क्यों मुझे, विलक्षण कथाकार भुवनेश्वर की एक कहानी ' भेड़िये ' याद आ गई, जिसे महान कथा सम्राट प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका 'हंस' के अप्रैल १९३८ के अंक में प्रकाशित किया था.
वह भुवनेश्वर के लिए कहते थे कि, ' वह अपनी कटुता त्याग दें तो उनका भविष्य बहुत उज्ज्वल है.' अब पता नहीं उन्होंने कटुता त्यागी थी कि नहीं, लेकिन 'भेड़िये' कहानी मेरे इस उपन्यास की सहयात्री बन गई. जबकि मुझे उनकी इस कहानी से कोई रिश्ता नहीं दिखता. लेकिन जब-जब मैं कलम उठाता, यह कहानी मेरी कलम के शीर्ष पर विराजमान हो जाती.
साथ ही महामारी कोविड-१९ को लेकर मन में तरह-तरह के संशय भी उभरते रहे कि, क्या विशेषज्ञों का आकलन सच होगा कि, दूसरी लहर आने ही वाली है. क्योंकि पहली लहर से हुई जन-धन की व्यापक हानि को लोग कुछ ही हफ्तों में भुला कर घोर लापरवाही बरत रहे हैं. न मॉस्क, न सेनिटाइजर बस घूमना-फिरना, पार्टी-बाजी, त्योहारी उत्सव और सरकार की बचाव के सारे प्रयासों के साथ-साथ जारी है चुनावबाजी भी.
दूसरों को क्या कहूँ स्वयं मेरा परिवार भी इसी हवा में बह रहा था. मैं परिवार की सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित रहने लगा. तरह-तरह के भय के चलते इंश्योरेंस की हेल्थ सहित दो अन्य बड़ी पॉलसियां भी ले लीं, कि यदि मुझे कुछ हो जाए तो परिवार आर्थिक रूप से मजबूत बना रहे.
पहली लहर में ऑफिस के कई लोगों के देहांत के बाद उनके परिवारों को मानसिक ही नहीं आर्थिक रूप से भी बिखरता देखा था. यह सब देख कर मन दहल उठता था.
मैंने सोचा कि, अगर दूसरी लहर आई और पहले की तरह लॉक-डाऊन लगा तो लिखने के लिए समय तो खूब मिल जाएगा, लेकिन क्या उस हाहाकारी तनावपूर्ण वातावरण में पहले की तरह फिर लिख पाऊँगा. फिर सोचा जैसा होगा देखा जाएगा और मैंने लिखना शुरू कर दिया.
घटना कुछ ऐसी है कि, मेरे वकील मित्र किसी काम से बीस वर्ष पहले 'दरभंगा' गए थे. काम पूरा करने में समय ज्यादा लग गया. बीच में समय मिला तो वहां 'अहिल्या स्थान', गौतम स्थान', 'कुशेश्वर स्थान', 'शिव मंदिर', 'पक्षी-विहार', 'श्यामा और नवादा दुर्गा मंदिर' भी घूम लिया.
उनसे यह सुन कर
मैंने कहा था , ''इतने कम समय में, इतने स्थानों पर घूमना कहाँ हुआ. यह तो सिर्फ रास्ता नापना हुआ. घूमना-फिरना तो पर्याप्त समय में पूरी निष्ठा, मन के साथ होता है.''
तो उन्होंने कहा, ''यह तो अपनी-अपनी क्षमता है. आपको इतनी जगह घूमने के लिए हफ्ता-भर चाहिए, लेकिन मेरे लिए एक दिन ही काफी है.''
मैंने कहा, '' हां, सही कह रहे हैं. आपने ट्रेन में जो किया, वह आपकी तरह की क्षमता वाला व्यक्ति ही कर सकता है.''
यह कह कर मैं मुस्कुराने लगा तो वह भी मुस्कुरा दिए.
दरअसल वह अपना 'दरभंगा' टूर खत्म करके 'लखनऊ' वापस आ रहे थे. ट्रेन देर रात में थी. एक दिन बाद ही छोटी होली यानी कि, होलिका-दहन था. ट्रेन, बस, हर जगह भीड़ ही भीड़ दिख रही थी.
उन्होंने कोर्ट में न्याय-मूर्तियों के सामने बहस करने की शैली में बताया था कि, '' रिजर्वेशन काफी पहले कराने के कारण बर्थ क्लियर मिली थी. इसलिए मैं निश्चिंत था कि, अगले दिन
होलिका-दहन के समय आठ-नौ बजे रात को मैं परिवार के साथ रहूंगा.
लेकिन जब स्टेशन पर ट्रेन आई तो भगदड़ सी मच गई. पूरे प्लेट-फॉर्म पर अपरंपार भीड़ थी. हर कंधा दूसरे कंधे से नहीं, पूरा शरीर आगे-पीछे, दाएं-बांये हर तरफ, दूसरे से सटा हुआ था. धक्का-मुक्की, चीख-पुकार, बच्चों का रोना-धोना, कान फोड़ रहा था...
मैंने उन्हें ध्यान से सुनते हुए सोचा, महोदय ऐसे समय पर गए ही क्यों ? इतना तो आपको
सोचना ही चाहिए था कि, हर बरस होली, दीपावली के समय यही होता है. वह थोड़ा और जोर देकर बोले ,
'' कोई पैर कुचले चला जा रहा था, तो सिर पर सामान रखकर निकलने वाला, मेरे सिर को धकियाये चला जा रहा था. मेरे सिर को धकिया कर जब कोई निकलता तो मैं गुस्से से फनफना पड़ता.
मन करता कि उसे धकेल कर फर्श पर औंधे मुंह गिरा दूं. चढ़ बैठूं उसकी पीठ पर, और उसके बाल पकड़ कर, उसके चेहरे को फर्श पर तब-तक उठा-उठा कर पटकता रहूं, जब-तक कि, उसका भेजा बाहर निकल कर छितरा ना जाए. पूरी फर्श खून-खून ना हो जाए....
उनका यह क्रूर भाव, उनकी बातों ही नहीं, उनके चेहरे पर भी मुझे दिख रहा था. मुझे याद है कि, तब मेरी आँखें कुछ फ़ैल गई थीं. और एक बार फिर प्रेमचंद याद आये कि, वह इस भावना को सुनते तो इसे कटुता की किस श्रेणी में रखते. वकील साहब बोले जा रहे थे कि,
'' ट्रेन पूरी तरह रुक भी नहीं पाई थी कि लोग लटकने लगे दरवाजों पर, धक्का-मुक्की
शोर-शराबा कई गुना बढ़ गया. तभी मुझे लगा कि, मेरी जेब पर कोई हाथ हरकत कर रहा है. मैंने झटके से पीछे की ओर घूमने की कोशिश की, लेकिन तब-तक वह भीड़ में खो गया. लेकिन मैं अपनी पर्स बचाने में सफल रहा. मगर इससे हुई हड़बड़ाहट के चलते मैं ट्रेन में नहीं चढ़ पाया. ट्रेन मेरे सामने से सरकनी शुरू हो गई थी, लेकिन मैं उसके दरवाजे के करीब भी नहीं पहुंच पाया था.''
''ओह तब-तो बड़ी गुस्सा आई होगी आपको ?'' उनकी पिछली क्रूर बात को ध्यान में रख कर मैंने पूछा तो उन्होंने कहा,
'' सुनिए तो, मेरा सूटकेस भी काफी भारी था, इसलिए ज्यादा तेज़ी नहीं दिखा पाया और ट्रेन मेरे सामने से निकल गई. मैं हाथ मलता उसे तब-तक देखता रहा, जब-तक की ट्रेन की आखिरी बोगी में पीछे लगी जलती-बुझती रेड-लाइट दिखती रही. मेरी तरह एक-दो नहीं करीब पचीस-तीस लोग थे, जो ट्रेन में नहीं चढ़ सके.
इसमें कई लोग परिवार सहित थे. मेरे सामने सिवाय अगली ट्रेन की प्रतीक्षा करने के और कोई रास्ता नहीं बचा था. बस से इतनी लंबी यात्रा करने के लिए मैं तैयार नहीं था. इन्क्वारी से पता चला कि, अगले कई घंटे तक कोई ट्रेन लखनऊ के लिए नहीं है. अब ट्रेन सुबह ही मिलेगी.''
'' ये बताइये जब इस यात्रा की योजना बना रहे थे, तब आपने यह नहीं सोचा था कि, त्यौहार का समय है, भीड़ के कारण यात्रा बहुत कठिन हो सकती है.''
'' यह सारी बातें ध्यान में थीं, मिसेज़ ने भी टोका था, लेकिन काम ऐसा था कि रुक नहीं सकता था.''
'' ओह, लेकिन ऐसा भी क्या काम था कि, दो-चार दिन आगे पीछे नहीं कर सकते थे.''
'' अभी इस बात को छोड़िये, क्रमवार सब बताऊंगा. तो ट्रेन जाने के बाद कुछ देर इधर-उधर टहलता रहा. फिर चाय पी कर प्लेट-फॉर्म पर ही, एक बेंच पर आसन जमा लिया. कुछ देर अपने गुस्से, खीझ को मिटाने के बाद मिसेज़ को फ़ोन करके बताया कि, 'ट्रेन छूट गई है, अब कल सुबह मिलेगी. जैसी स्थिति बन रही है, उसे देख कर तो लग रहा है, परसों सुबह तक पहुँच जाऊं तो बड़ी बात होगी. '
यह सुनते ही वह परेशान होकर बोलीं, ' बिना आपके त्यौहार कैसे मनेगा?
सब रंग खेलने आएंगे, कैसे क्या होगा?' मैंने कहा, 'जैसे भी हो देखो, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है.'
तीनों बच्चों से भी बात की. उन्हें समझाया कि, ज्यादा देर तक रंग नहीं खेलना. इस बार मौसम अभी भी काफी ठंडा बना हुआ है.
बात करके बुकिंग विंडो पहुंचा कि, अगली ट्रेन में रिजर्वेशन करवा लूं, लेकिन विंडो बंद मिली.
इन्क्वारी पर बात की तो उसने कहा, 'अभी तो काफी समय बाकी है.'
उसे खाली बैठा देखकर मैंने सोचा, लोकल आदमी है, यह बस वगैरह की भी तो जानकारी रखता ही होगा. देखूँ अगर ढंग की कोई बस मिल जाए तो चलूं. सात-आठ घंटा इंतजार करने से अच्छा है कि, बस से ही चल दिया जाए. थोड़ी बहुत परेशानी बर्दाश्त कर लूंगा.
असल में मिसेज और बच्चों से बात करने के बाद मैं व्याकुल हो उठा था जल्दी से जल्दी घर पहुँचने के लिए.
पूछने पर उसने कहा, 'अब सुबह से पहले आपको कोई बस भी नहीं मिलेगी. ट्रेन का इन्तजार करना ही पड़ेगा. कल छोटी होली है, इसके बावजूद लोग कल से ही और ज्यादा रंग खेलने लगेंगे. आज ही जिधर देखो उधर रंग ही रंग दिख रहा था. ऐसे में तो बस में परेशान हो जाएंगे.' मुझे उसकी बात सही लगी. उसके भी बालों, माथे पर अबीर-गुलाल लगा हुआ था.
मैंने ट्रेन में रिजर्वेशन की बात उठाई तो उसने कहा, ' कहाँ रिजर्वेशन के चक्कर में पड़े हैं. जिनको जहां जाना था, जैसे-जैसे जाना था, वो चले गए. कल हर बार की तरह सारी ट्रेनें, बसें खाली ही रहेंगी. जनरल टिकट लेकर बैठ लीजियेगा, पूरी ट्रेन में जगह ही जगह मिल जाएगी.'
भोजपुरी शैली में उसकी बात-चीत का तरीका मुझे अच्छा लग रहा था. कुछ देर उससे बात करने के बाद, आखिर मैंने सामान की रखवाली करते, पूरी रात प्लेट-फॉर्म पर जागते हुए बिताई.''
'' हूँ, तब-तो आपकी वह रात बड़ी कष्टदाई रही.''
'' हाँ, ट्रेन छूटना ही इस यात्रा का निर्णायक मोड़ रहा. अगले दिन ट्रेन सुबह दस बजे थी, तो मैंने वहीं नहा-धो लिया. जिससे थकान आलस्य से थोड़ी सी राहत मिली. सुबह से ही बच्चों, मिसेज़ से तीन-चार बार बात हो चुकी थी. सब परेशान थे.
स्टेशन पर गिने-चुने लोग थे. जब ट्रेन आई तो उस आदमी की बात सच निकली. उसकी हर बोगी लगभग खाली थी.
मैंने जनरल टिकट लिया था. पीछे से सातवीं बोगी में सवार हो गया. चलते-चलते मैंने खाने-पीने की कुछ चीजें, पानी की दो
बोतलें ले ली थीं. एक सीट पर अपना सामान रख कर उसके सामने वाली सीट पर बैठ गया.
कुछ देर बाद ट्रेन चल दी. जब वह आउटर क्रॉस कर गई तो मैंने सोचा कि देखूं और कितने लोग हैं बोगी में. चेक किया तो बोगी के आगे वाले गेट के पास वाली सीट पर तीन परिवार दिखे. कुल मिला कर दस-बारह लोग थे.
सोचा चलो अच्छा है, रास्ते में बात-चीत के लिए कुछ लोग तो हैं . मगर उन लोगों से बात-चीत करते ही, पांच मिनट में, मुझे मिली राहत उड़न-छू हो गई.''
''क्यों ?''
'' क्योंकि वह सब अगले ही स्टेशन 'समस्तीपुर' में उतरने वाले थे. मैं बुझे मन से लौट कर अपनी जगह बैठ गया. मन को खुद ही सांत्वना दी कि, वैसे भी यह सभी ऐसे नहीं दिख रहे हैं, जिनसे वार्तालाप या बतरस का आनंद ले पाउँगा. रास्ते का खालीपन भर पाऊंगा.
लेकिन रहा नहीं गया तो दूसरे गेट की तरफ चला गया कि, देखूं उधर कितने लोग हैं. मेरे आने के बाद कुछ लोग तो बैठे ही होंगे, इतना बड़ा शहर है. एकदम सन्नाटा थोड़े ही हो जाएगा. मगर इधर और बड़ी निराशा हाथ लगी.''
''क्यों,वहां कोई नहीं था क्या?''
'' था, कुल मिला कर वहां एक महिला थी. यही कोई पचीस-छब्बीस साल की. बगल में उसका सामान रखा था. प्लास्टिक की एक डोलची, मटमैले भूरे रंग का एक पुराना सा बैग. वह सीट पर दोनों पैर ऊपर किए, पालथी मारकर बैठी थी. काफी फ़ैल कर. गोद में चार-पांच महीने का बच्चा था, जिसे वह दूध पिलाते हुए खिड़की से बाहर
देखे जा रही थी. उसे अस्त-व्यस्त देखकर मैं तुरंत आगे बढ़ गया.
गेट पर
खड़ा होकर बाहर देखने लगा. ट्रेन अपनी पूरी गति में चल रही थी. तेज़ हवा में मुझे हल्की ठंड महसूस हो रही थी. मुझे लगा कि, नींद हावी हो रही है तो, वापस आकर सूटकेस को चेन से सीट में लॉक किया, और जूते उतार कर लेट गया. आंखें बोझिल हो रही थीं. फिर भी मैं किसी भी स्थिति में सोना नहीं चाहता था....
''क्यों ?''
''क्योंकि सूटकेस में रखे करीब पांच लाख रुपयों और सोने के हार की चिंता थी...
'' वाह, अच्छी-खासी फीस ली थी. लेकिन मैं काम के बारे में बिल्कुल नहीं पूछूँगा.''
यह कह कर मैं हंस पड़ा तो वह मुस्कुराते हुए बोले,
'' बात आगे बढ़ने दीजिये, काम भी बताऊंगा. तो हुआ क्या कि, नींद इतनी तेज़ थी कि, मैं लेटते ही सो गया. आँखें तब खुलीं जब ट्रेन 'समस्तीपुर' स्टेशन के प्लेट-फॉर्म पर हल्के झटके के साथ रुकी. साथ ही थोड़ी चहल-पहल की आवाजें कानों में पड़ीं .
मैं उठकर खिड़की से बाहर देखने लगा. पूरा प्लेट-फॉर्म खाली-खाली दिख रहा था. चाय पीने की इच्छा हुई, लेकिन दुकान काफी आगे थी. मैं नीचे जाना नहीं चाहता था. ट्रेन जब चलने ही वाली थी तभी ,'चाय-चाय' की तीखी आवाज कान में पड़ी. मैंने सोचा कि, कहीं यह भी न छूट जाए, इसलिए उसी के अंदाज में चीख कर बुलाया, 'चाय', उसने जल्दी से आकर चाय दी, मगर मैं शेष बचे रुपये नहीं ले पाया.
ट्रेन चल दी थी, चाय वाला उस गति से आगे नहीं आ पाया. उसके हाथ में चाय की केतली, बांस की
डोलची थी, जिसमें डिस्पोजल कप, कुल्हड़ दोनों ही थे. मैंने मन में कहा कोई बात नहीं, इस समय चाय की ज्यादा जरूरत है....
'' अर्थात एक बार फिर आपके साथ अच्छा नहीं हुआ.''
'' हाँ, कह सकते हैं, क्योंकि वह एक चाय मुझे पचास रुपये की पड़ी. चाय जब खत्म की तो सोचा, देखूं तीनों परिवार हैं
कि गएँ. जाकर देखा तो वहां कोई नहीं था.
मन ही मन कहा
कि,
हद हो गई, इतने बड़े स्टेशन से यहां कोई नहीं चढ़ा. लगे हाथ टहलते हुए दूसरी तरफ भी गया कि, उधर कोई नया सहयात्री आया या नहीं, वह महिला है कि, वह भी चली गई, मैं
इस बोगी में अकेला रह गया हूं.
देखा तो
वह मुझे अपनी सीट पर नहीं मिली. नीचे जमीन पर एक चादर बिछा कर बैठी हुई थी. दोनों पैर सीधे फैलाई हुई थी. बच्चे को पैरों पर ही लिटाया हुआ था. उसी के साथ खेल रही थी. गेंहुए रंग का आकर्षक बच्चा था. बहुत स्वस्थ. उसकी मोटी-मोटी कलाइयों में उसने काली, सफेद मोती को काले धागे में पिरो कर पहनाया हुआ था. गले में ताबीज और चांदी में किसी जानवर का दांत भी....
वकील साहब अच्छी शैली में वर्णन कर रहे थे तो मेरी सुनने में रूचि बनी हुई थी. इसी बीच मिसेज़ आईं तो मैंने उन्हें चाय के लिए संकेत में कह दिया. उन्होंने समझा कि, हम-दोनों कोई महत्वपूर्ण चर्चा कर रहे हैं, तो चुप-चाप वापस चली गईं . वकील साहब का वर्णन निर्बाध चलता रहा. वो कह रहे थे,
''मां का दूध पीते हुए बच्चा खूब हाथ-पैर चला कर खेल रहा था. मां जब बुलकारती तो वह चुट्टूर-चुट्टूर पी रहे मां के स्तनों के निपुल को छोड़ कर, मुस्कुराते हुए मां की आँखों में देखने लगता. बच्चे की मासूम मुस्कराहट में खोकर मैं अनायास ही ठिठक कर उसे देखने लगा. तभी महिला ने एक नजर मुझ पर डाली और बड़े हल्के से मुस्कुराती हुई अपनी साड़ी
को घुटने से और नीचे खिसका दिया.
अभी तक वह घुटनों से ऊपर ही थी. एक तरह से उसने साड़ी, पेटीकोट को ऊपर मोड़ कर, बच्चे के लिए बिछौना बना रखा था. ब्लाउज की जगह उसने
छोटी सी कुर्ती (जम्फर) पहन रखी थी, जिसमें कुर्ते की तरह दोनों तरफ जेब थीं. एक छोटी जेब ऊपर भी लगी थी. ठीक उसके बांयें स्तन के ऊपर. सारी जेबों में कुछ ना कुछ सामान भरा हुआ था.
वह छोटी कुर्ती उसके कमर तक थी. दोनों तरफ साइड में करीब-करीब तीन इंच तक कटी हुई थी. गले से नीचे उसमें चार बटन थीं. ऊपर की दो खुली हुई थीं. जिससे छाती का बड़ा हिस्सा दिख रहा था. उसके स्तन बहुत ही ज्यादा बड़े और सख्त नजर आ रहे थे....
वकील साहब के भावों से मुझे लगा कि, वह पूरा दृश्य सृजित किये बिना नहीं मानेंगे तो मैं शांत रहा. उन्होंने आगे कहा कि,
''शायद उसने बच्चे को बड़ी देर से दूध नहीं पिलाया था. हरी-हरी नशें गले तक बुरी तरह उभरी हुई दिख रही थीं. उसने गले में चांदी की मोटी सी चेन पहन रखी थी. उसमें काले रंग के कपड़े में बना, एक चौकोर ताबीज बंधा हुआ था. जो मैल, तेल के कारण बिल्कुल चिकट होकर, काला-काला चमक रहा था. एक पाइप-नुमा गोल ताबीज तांबे का भी था. दोनों उसकी छातियों की बीच की रेखा छू रहे थे.
वह बेटे के हाथ-पैर को कभी इधर, कभी उधर करती. उसके गालों को छूती तो वह किलकारी भरता. हाथ-पैर खूब तेज़-तेज़ चलाता. मैंने सोचा मां-बेटे के आनंद के इन क्षणों में मुझे बाधक नहीं बनना चाहिए. मैं गेट पर चला गया.
वहां खड़ा-खड़ा बाहर देखता रहा. जहां कहीं ट्रेन बस्ती के नजदीक पहुंचती तो रंगों में
सराबोर, रंग की मस्ती में गाते-झूमते लोग ही दिखाई देते. लगता जैसे छोटी नहीं मुख्य होली, रंग खेलने का ही दिन है. यह दृश्य मुझे घर-परिवार, अपना मोहल्ला और ज्यादा याद दिलाते कि, वहां भी खूब रंग-गुलाल चल रहा होगा. कोर्ट, ऑफिसों, स्कूलों से सभी रंग में सराबोर घर पहुँच रहे होंगे.
गेट पर खड़ा-खड़ा ऊबने लगा तो मैं अपनी सीट की ओर चल दिया. महिला के सामने से उसके मुस्कुराते बच्चे को देखते हुए आगे बढ़ ही रहा था कि, उसने भोजपुरी लहजे में पूछा ,
'गड़िया बड़ी धीरे-धीरे चल रही है?'
उसकी बात से मेरा भी ध्यान इस ओर गया कि, गाड़ी सच में एवरेज से भी कम स्पीड से चल रही है. एक्सप्रेस होकर भी पैसेंजर जैसी स्थिति है.
ठिठकते हुए मैंने कहा, 'हाँ, गाड़ी धीरे चल रही है.'
उसने बेधड़क अगला प्रश्न दाग दिया, 'आप कहां तक जा रहे हैं?'
मैंने कहा, 'लखनऊ.'
'बड़ी दूर है.'
यह कहते हुए उसने एक शॉल जैसा कपड़ा दो-तीन फोल्ड करके अपनी बगल में ही बिछाया और बच्चे को उठाकर छाती से लगा लिया. वह उनींदा लग रहा था. उसका सिर अपने कंधे पर करके, उसे बड़ी हल्की-हल्की थपकी देती हुई, वह अपने को कमर के पास से थोड़ा-थोड़ा बाएं-दाएं घूमाने लगी. ताकि बच्चा ठीक से सो जाए.
इसके साथ ही उसने आगे पूछा, 'होली में घर जा रहे हैं?'
'हाँ.'
मैंने महसूस किया कि, मेरी तरह वह भी बात करने का कोई माध्यम चाह रही है, जिससे माहौल से ऊबन खत्म हो. मैंने सोचा जब-तक कोई दूसरा सहयात्री आगे किसी स्टेशन पर नहीं आ जाता है, तब-तक यही सही.
तरतीब से न सही, कुछ तो बात करेगी ही. यह मेरा, मैं इसका, कुछ तो टाइम पास करेंगे ही. सहयात्री हैं, एक-दूसरे का सहयोग करते हैं.
उसने तुरंत कहा,' लेकिन जब-तक घर पहुंचेंगे. तब-तक तो त्यौहार खत्म हो जाएगा.'
'नहीं, यह त्यौहार हफ्ते भर से ज्यादा समय तक चलता है.'
' हाँ ! लेकिन रंग तो नहीं खेल पाएंगे ना.'
' अगर ट्रेन राइट टाइम पहुँच जाएगी तो रंग भी खेल लूंगा, हालाँकि 'लखनऊ' में तो रंग सुबह शुरू होकर दोपहर तक
खत्म हो जाता है. लेकिन बहुत सी ऐसी जगह हैं, जहां रंग कई दिन चलता है.'
' लेकिन घर जाने में देरी तो हो ही गई है.'
अब मुझे लगा कि, यह तो नॉन-स्टॉप बोलने वाली लग रही है. फालतू बातों से कहीं दिमाग ही न खराब कर दे. लेकिन फिलहाल के लिए इसका बातूनी होना ही अच्छा है.
मैंने कहा, 'हाँ, कल ट्रेन छूट गई. और यह आज मिली.'
' छूट तो हमारी भी गई थी, बल्कि हम खुदी छोड़ दिए थे. भीड़ देखकर हिम्मत नहीं पड़ी. बच्चा गोद में था. बच्चा ना होता तो इससे दुगनी भीड़ होती तब भी चढ़ जाती, क्योंकि न भीड़ मुझसे डरती है, न मैं भीड़ से. डर मुझे अकेले होने पर लगता है.'
उसकी इस दबंगई भरी बातों के बीच मेरी आँखों ने उसके पूरे शरीर का मुआयना कर डाला. मन ही मन कहा कि, शरीर से तो तुम वाकई इतनी मजबूत हो कि, किसी भी भीड़ में रास्ता बना लोगी.
मैंने कहा, 'लेकिन मैं ज्यादा धक्का-मुक्की, भीड़-भाड़ पसंद नहीं करता. दूसरे उस समय भीड़ इतनी थी कि लोग एक दूसरे पर चढ़े जा रहे थे. पूरी कोशिश के बाद भी मैं डिब्बे तक पहुंच ही नहीं पाया....
''कुल मिला कर यह कि, आप जो चाहते थे वह आपको मिल गया. मतलब कि बात-चीत करने वाला.''
'' हाँ, यही कह सकते हैं. हमारी बातों की ट्रेन चल निकली थी. वह बोली , 'मैं तो ट्रेन आने से पहले ही भीड़ देख कर, प्लेट-फॉर्म से बाहर, टिकट वाली खिड़की के पास जाकर बैठ गई थी. मैंने सोचा हमारे बच्चे को कुछ ना हो, ट्रेन छूटती है तो छूट जाए. दूसरी मिल जाएगी, दूसरी नहीं तो तीसरी मिल जाएगी. हमारा बच्चा मजे में रहे बस.'
तभी मैंने सोचा यह तो हिलने का भी समय नहीं दे रही है. लेकिन अपनी सीट पर मुंह बंद कर के अकेले बैठे रहने
से अच्छा है कि, इसी से वार्ता जारी रखूँ. भले ही निरर्थक ही सही. अनर्गल ही सही.
मैंने उसके सामने वाली सीट की तरफ इशारा करते हुए पूछा,' क्या मैं यहां बैठ जाऊं?'
तो वह चमक कर बोली, 'हाँ-हाँ बैठिए ना, खाली तो पड़ी है.'
मैं बैठने लगा तभी उसने बच्चे को बहुत संभाल कर बगल में बिछाए बिस्तर पर लिटा दिया. उसके बाद उसने अपने पैर को मोड़ कर साड़ी ठीक की. तभी मैंने पूछा, 'सारी सीटें खाली हैं. फिर आप जमीन पर क्यों बैठी हैं?'
'असल में बच्चा अब करवट लेने लगा है. सीट पर डर है कि, नजर फिरते ही कहीं नीचे ना लुढ़क जाए. इसलिए हमने सोचा, सब खाली तो है ही. आराम से बैठते हैं. आपके कितने बच्चे हैं?'
'तीन'
'अभी सब छोटे ही होंगे?'
'हाँ, छोटे ही समझिए. सबसे छोटा चार साल का है. और सबसे बड़ा दस का है.'
जवाब देते हुए मैंने सोचा, पेशे से वकील मैं हूं, पर प्रश्न पर प्रश्न यह
कर रही है. इसलिए छूटते ही पूछा, 'आपका यह पहला बच्चा है?'
' हाँ, पहला ही है.'
यह कहते हुए उसने अपनी कुर्ती के नीचे के दोनों किनारे पकड़ कर ऊपर करके दो-तीन
बार ऐसे झटका जैसे धूल झाड़ रही हो. उसने इतना बेफिक्र होकर, इतने आराम से यह किया कि, उसके शरीर के बड़े हिस्से पर मेरी दृष्ट अनायास ही पड़ गई. ऐसा करने से कुर्ती खुले बटन के पास और भी ज्यादा फैल गई. छाती का अब और बड़ा हिस्सा मेरी दृष्टि को खुद से और ज्यादा जोड़ने लगा.
इस धूल झाड़ने के चक्कर में उसका जितना शरीर खुला, उससे यह बात एकदम साफ हो गई थी कि, उसने कुर्ती के नीचे कोई भी अंदरूनी वस्त्र नहीं पहने हैं. इसके चलते ट्रेन के साथ ही साथ उसकी छातियाँ भी एक ख़ास लय में हिल-डुल रही थीं. उनकी लयबद्ध यह हल-चल बार-बार मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच ले रही थीं....
'' वाह भाई, वाह. आपकी बातों से तो मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि, वह आपके ध्यान को भटकाने में
लगी हुई थी .''
'' हाँ, अब तो मैं भी यही कहूंगा कि, वह ऐसा ही कर रही थी. मैंने उस समय उधर से अपना ध्यान हटाने के लिए पूछा, 'आप कहां जा रही हैं?'
' आपके नजदीक ही चल रही हूँ. मुझे 'गोंडा' उतरना है.'
'गोंडा' आपका मायका है या ससुराल?'
'ससुराल है. मायका 'दरभंगा' में है.'
'बड़ी दूर-दूर हैं ससुराल,मायका.'
' हाँ दूर तो बहुत है. बस हो गई ऐसे ही शादी.'
उसके उत्तर, और उत्तर देने के अंदाज़ ने उसकी पर्सनल लाइफ को लेकर मुझमें संशय उत्पन्न करना शुरू कर दिया. मैंने गहरे पैठने के प्रयास में उससे पूछा, ' मायके से इतनी दूर अकेले आ गईं, वह भी छोटे से बच्चे को लेकर. आपके पति साथ नहीं आए? या घर का कोई और आदमी.'
' क्या किसी का सहारा लेना. जाना-आना तो ट्रेन से ही है ना. वह होते भी तो कौन सा बच्चे को गोद लेते, दूध पिलाते. सब करना तो हमीं को है. तो क्या जरूरत उनकी, खाली आगे-पीछे चलने के लिए आ कर क्या करते?'
चेहरे पर अजीब से घृणा के भाव के साथ, उसके अजीब से जवाब से मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि, इसको पति से बड़ी समस्या है. कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा,'ठीक कह रही हैं, लेकिन
इतने लंबे सफर में कोई गलत-सलत आदमी मिल जाए तो? अकेले से दो अच्छे ही रहेंगे, सुरक्षा बनी रहेगी.'
'गलत आदमी तो घर पर भी मिल जाते हैं. बाहर जितना खतरा है, उतना ही घर में भी है, तो फिर काहे को डरना कहीं अकेले जाने-आने में. जो होगा देखा जाएगा.'
इतना कहकर वह बड़ी निश्चिंतता के साथ मुस्कुराई. मैंने कहा, 'हूँ..तो मायके से किसी भाई, बाप को साथ ले लेतीं.'
इस बार वह गहरी सांस लेकर बोली, 'भाई नहीं हैं. बहनें अपनी-अपनी ससुराल में हैं. और बाप का साल भर पहले ही इंतकाल हो गया. अम्मी अकेले ही रहती हैं. दूर के एक दो
रिश्तेदार हैं. वही लोग थोड़ा-बहुत देख लेते हैं.'
अब-तक मेरा वकीलों वाला मूल चरित्र कुलांचें भरने लगा था. मैंने उसे कुरेद-कुरेद कर बात
करनी शुरू कर दी थी. उसने भी बिना संकोच बताना शुरू किया कि, उसकी शादी से अब्बा बहुत खफा थे. उसका शौहर उसके घर के पास ही किराए पर रहता था. थोड़ा बहुत आना-जाना था. इसी थोड़े बहुत में ही दोनों की सांसें मेल खा गईं. घर में भनक लगी तो सख्ती हो गई. लेकिन जब साँसें मिल चुकी थीं, तो कहां की सख्ती, कैसी सख्ती. दोनों उड़न-छू हो गए, और निकाह कर 'गोंडा' जिला पहुंच गए.
मायका पहले कुछ दिन सख्त होने के बाद जल्दी ही शांत हो गया. मगर शौहर कुछ महीनों बाद ही बात-बात पर मार-पीट करने लगा. बेटा होने वाला था, तब भी उसे मारता. आखिर ऊब कर वह भी बराबर लड़ने लगी.
शौहर ने घर से निकालने की धमकी दी, तो उसने
पलटवार किया, कि थाने में रिपोर्ट लिखा कर बंद करा दूंगी. एक बार थाने जाने तक की भी नौबत आई. इससे डरा पति अब मारता तो नहीं, लेकिन संबंध तीखे बने रहते हैं.
उसने बड़ी लापरवाही से बताया कि, 'अक्सर सुनने में आता है कि, वह बाहर फलां औरत के पीछे-पीछे लगा रहता है. लेकिन मैं इसकी परवाह नहीं करती. बाहर जितना मुंह मारना है, मार ले, लेकिन अगर कोई घर आ गया तो, वह नहीं या फिर मैं नहीं.'
उसकी इस बात पर मैंने कहा, 'लेकिन तुम्हारे यहाँ तो शौहर चार निकाह कर ही सकता है, तुम्हारे अलावा वह अभी तीन बीवियां और ला सकता है.'
'हाँ ला सकता है. लेकिन पहले एक को तो संभाल ले. उसको खाना-कपड़ा तो ढंग से दे ले . जो बच्चे पैदा करे उसको अच्छा जीवन देने की कूवत तो हो. ये कौन सी बात हुई कि, कूवत एक को संभालने की नहीं, और उठा लाये चार ठो. रहने का ठिकाना नहीं, जानवरों की तरह भर दिया कोठरी में.
न उनका मन देखें, न उनकी जरूरत, न इच्छा. जब देखो तब नोच खाये, चढ़ बैइठे. जैसे बीवियां न हो कर भेंड़-बकरी हैं. जब मन हुआ तब ज़बह कर दिया. जब देखो तब सब पेट फुलाये जहन्नम बने घर में ज़िंदगी गला रही हैं. घर में दर्जन, डेढ़ दर्जन बच्चे बिलबिला रहे हैं.
न खाना, न पानी, न कपड़ा, न दवाई. पढाई-लिखाई की तो बात ही न करो.
बड़े होते-होते आधे तो ऐसे ही मर जायेंगे. जो बचेंगे वो चोर-उचक्के, बवाली बन या तो जेल में रहेंगे या मारे जाएंगे. नहीं तो सड़क किनारे कहीं पंचर जोड़ रहे होंगे, हवा भर रहे होंगे. हमने तो कह दिया है, जैसे ही दूसरी लाओगे वैसे ही छोड़ के चल दूंगी. और ये मत समझना कि औरतखोरी के लिए तुमको चार बीवियां लाने के लिए रास्ता दे जाऊँगी.
पुलिस में वो हाल करूंगी कि ज़िंदगी जेल में बीतेगी. रखना वहीँ चार बीवियां. जेल भी गुलज़ार रहेगी, जेल वाले भी. देखते-देखते दो-ढाई दर्जन बच्चे भी हो जायेंगे, फिर उन्हीं में ढूंढना कौन सच में तुम्हारे हैं और कौन जेल वालों के. हंअ..चार बीवियां .’
जिस क्रोध, घृणा के साथ उसने अपनी बात कही, उससे बड़ा आसान था यह समझना कि पति और उसके बीच संबंध न सिर्फ बहुत तनावपूर्ण हैं, बल्कि बड़ी चौड़ी खाई है दोनों के बीच. यही कारण है कि, इतनी लम्बी यात्रा अकेले करने का खतरा उठाया है इसने....
इसी बीच मिसेज़ चाय ले आईं. मैं वकील साहब के वर्णन-प्रवाह को बाधित नहीं करना चाहता था, इसलिए उन्हें चाय लेने के लिए संकेत किया. एक घूँट पी कर उन्होंने आगे कहना शुरू किया,
'' ट्रेन अपनी रफ्तार में चल रही थी, हमारी बातें अपनी रफ्तार में. उसके बात करने का अंदाज़ कुल मिला कर ठीक ही था. शुरू में वह मुझ से प्रश्न कर रही थी, लेकिन बाद में अपना मायका, अपनी ससुराल, बस इसी दो बिंदु पर ही वह बोल रही थी.
इतनी ही देर में वह आश्चर्यजनक ढंग से, कुछ ऐसे घुल-मिल गई, जैसे न जाने कितनी गहरी
मित्र है. मैंने सोचा चलो हंसते-बोलते रास्ता कट जाएगा.
इसी तरह करीब आधा-पौन घंटा बीता होगा कि, उसका बच्चा जाग गया. उसने तुरंत उसे गोद में उठा लिया. वह उसे दूध पिलाने जा रही है, यह समझ कर, मैंने तुरंत उठते हुए कहा, 'आप बच्चे को देखिए, मैं थोड़ी देर में आता हूं.'
लेकिन उसने तुरंत ही कुर्ती को थोड़ा ऊपर उठा कर, एक स्तन बड़ी लापरवाही के साथ बाहर निकाला, बेहिचक निपुल बच्चे के मुंह में देती हुई, कुछ अलग ही अंदाज में कहा, 'बैठिये ना, यहां कौन देखने आ रहा है.'
यह बात और इसे कहने की उसकी जो शारीरिक भाषा थी, उसमें मुझे कई अर्थ छिपे हुए दिखे. इससे मेरे मन और शरीर दोनों में ही अलग-अलग तरह की क्रियाएं हुईं . शरीर जहां उसकी बात पूरी होने से पहले ही बैठ गया, वहीं मन कह रहा था कि, यह ठीक नहीं है, यदि यह नादानी कर रही है तो, इसका मतलब यह नहीं है कि, मैं भी नादान बन जाऊं. मुझे इसके रोकने के बावजूद हट जाना चाहिए.
मन उचित-अनुचित सोचता ही रह गया, लेकिन
शरीर वहीं जम गया. वह बच्चे को दूध पिलाती हुई, उसी के अंदाज में उसे बुलकारती, बोलती, बतियाती भी जा रही थी. बच्चा भी पुच्च-पुच्च की आवाज करता हुआ, दूध पीता जा रहा था. हाथ-पैर भी चलाता जा रहा था. एक हाथ बार-बार स्तन पर पट-पट मारता, कभी खरोंचने सा लगता.
मां-बेटे की इस अद्भुत क्रीड़ा को मेरी आंखें सब-कुछ भुला कर देखने लगीं. उसके स्तन बहुत भारी और उतने ही ज्यादा दूध से भरे हुए लग रहे थे. एकदम कसे हुए. मैंने सोचा यह उन माओं की तरह दूध क्यों नहीं पिलाती, जो भीड़ में बच्चे और स्तन को इस तरह से ढक लेती हैं कि, सरसों भर भी शरीर नहीं दिखता .
यह उनके उलट जितना हो सकता है, उतना ही ज्यादा शरीर खोले हुए है. जरा भी संकोच नहीं कि, एक बाहरी मर्द बैठा हुआ है. जिसे खुद ही जाने से रोक कर, बैठा लिया है. साड़ी भी बेवजह फिर से घुटनों तक चढ़ा ली है....
वकील साहब की इन बातों को सुनकर मैं स्वयं को रोक नहीं सका. मैंने तुरंत ही स्पष्ट कहा ,
'' मुझे लगता है यहाँ संशय वाली कोई बात ही नहीं थी. ऐसे में हर कोई हट जाता है . आपको भी यही करना था.''
'' पहले पूरी बात तो सुनिए, तब आपको यहाँ और बाक़ी जगह में अंतर क्या है, मालूम हो जाएगा. मैंने उससे पूछा, 'बेटा कितने महीने का हो गया है?'
उसने कहा, 'अगले महीने में छह महीने का हो जाएगा.'
' तो अभी तो केवल दूध पर ही रहता होगा?'
' हाँ, अभी खाली अपना दूध पिलाती हूं. डॉक्टर साहब ने कहा था कि, छह महीने तक कुछ और नहीं, खाली अपना दूध पिलाना. यह तुम्हारे बच्चे के लिए अमृत है, अमृत. इसको हमेशा स्वस्थ बनाए रखेगा. इसलिए खाली अपना दूध ही पिला रही हूं. हम तो सोच रहे हैं कि, छह महीने बाद भी खाली अपना ही दूध पिलाते रहें. मेरा भैया और ज्यादा मजबूत, बड़ा हो जाएगा.'
' नहीं, ऐसा नहीं करना. डॉक्टर ने बताया ही होगा कि, छह महीने बाद दूध के साथ-साथ जो भी खाना बनाना, वह भी थोड़ा-थोड़ा खिलाना, नहीं तो यह मजबूत नहीं होगा. उम्र के हिसाब से खाना ज्यादा चाहिए. खाली तुम्हारे दूध से इसका पेट नहीं भरेगा.'
'अरे नहीं, ऐसा नहीं है. डॉक्टर तो न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं. मेरे बच्चे का पेट मेरे दूध से ही भर जाएगा. हमारे दूध बहुत होता है. देखो एक से ही पेट भर कर पी चुका है. दूसरा अभी.....
इतना कहते हुए उसने एक झटके से दूसरा स्तन बाहर निकाला और उसका निपुल कस के दबा दिया. दूध की कई पतली धाराएं, कुछ दूर तक चली गईं. उसकी बात बिलकुल सही थी. स्तन ऐसे विकट तना हुआ था कि, मानो खूब हवा भरे गुब्बारे की तरह फटने ही वाला है. सच कहूं तो कुछ सेकेण्ड को मैं उसकी इस हरकत से स्तब्ध रह गया.
मैं बड़ी कोशिश करके भी, अपनी दृष्टि उसके स्तनों पर से हटा नहीं पा रहा था. दूध की धार निकाल कर, उसने एक नजर मेरी आंखों में देखा, कुछ इस भाव से कि, अब बताओ, मैंने ठीक कहा कि नहीं.
वह बच्चे को फिर से दुलारने लगी. लेकिन स्तन को कुर्ती में वापस नहीं ढंका. वे खुले ही रहे. वह बच्चे के साथ खेलती रही, निरर्थक बातें भी बोलती रही. इसी बीच गाड़ी धीमी होने लगी. मैं अंदर ही अंदर बहुत तेज़ उबलना शुरू हो गया था. मन में डरावने काले बादलों का भयानक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ कि, जैसे यह बच्चे को प्यार-दुलार रही है, वैसे ही मैं पूरे प्यार से, हाथों में लेकर इसके स्तनों को दूलारूँ, प्यार करूँ.....
वकील साहब की इस इच्छा पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उन स्थितियों में उनके जैसे व्यक्ति क्या सोच सकते हैं, क्या कर सकते हैं, इसका मुझे अनुमान है, इसलिए मैं शांत उन्हें सुनता रहा. जब कि वह सोच रहे थे कि, उनकी ऐसी इच्छा सुनकर मैं कुछ अवश्य बोलूंगा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह आगे बोलते रहे,
'' इस समय मैं एक साथ तीन मोर्चों पर संघर्षरत था. मन कभी कहता यह करो, कभी कहता यह ना करो, शरीर कहता, उसका खुला प्यार भरा निमंत्रण क्यों ठुकराते हो?
अगले ही क्षण कहता है, यह सोचना भी अनुचित है. जिसे तुम खुला निमंत्रण समझ रहे हो, हो सकता है, यह इसकी निष्कपट, निष्कलुष भावना के कारण हो, उसके मन में वह खोट, वह भावना हो ही ना, जैसा तुम सोच रहे हो.
वह तुम्हें निष्कलुष समझ कर, निर्लिप्त भाव से यह व्यवहार कर रही हो. यह उसका एक सामान्य सा व्यवहार हो, उसके मन में रंच-मात्र को भी कोई शारीरिक भोग की बात हो ही ना.
मेरा यह अंतर्द्वंद्व
जारी रहा, लेकिन ट्रेन एक छोटे से स्टेशन 'नारायणपुर अनंत' पर खड़ी हो गई. मन में आया चलो चाय-नाश्ता करते हैं. इसे भी कराते हैं. बेचारी बच्चे को बराबर दूध पिला रही है, लेकिन घंटों से खुद कुछ भी खाया-पिया नहीं है. मैंने चलते समय जो कुछ खाने-पीने को लिया था, वह उससे संवाद शुरू होने से पहले ही खत्म हो चुका था .
मैंने उससे कहा, 'उस तरफ मेरा सामान रखा है, जरा
ध्यान रखिएगा. मैं चाय-नाश्ता लेकर आता हूं.'
मैंने सोचा था कि वह
संकोच करेगी, लेकिन उसने बड़े करीबी मित्र की तरह निःसंकोच कहा, 'केला, संतरा मिल जाएँ तो वह भी ले लेना.'
मैंने कहा, 'हाँ ,जरूर'
मैं यह सोचते हुए निकला कि, सही मायने में फ्रैंकनेस, बोल्डनेस यह है. इतने साल हो गए वकालत करते हुए. लेकिन खाने-पीने के मामले में दोस्तों से भी ऐसे बेहिचक नहीं कह पाता. आधा एक घंटा पहले परिचित हुए किसी व्यक्ति से तो कभी कह ही नहीं सकता...
उनकी इस बात पर मैंने हँसते हुए कहा, '' जब आपने उसे अपने बच्चे को स्तनपान कराते समय अकेला नहीं छोड़ा, वहां बैठे रहने, ब्रेस्ट-फीडिंग जैसे विषय पर बात करने में संकोच नहीं किया, तो वो क्यों संकोच करती. खैर बताइये उसे क्या-क्या खिलाया-पिलाया? ''
'' हाँ, ठीक कह रहे हैं. जब ज्यादा संवेदनशील विषय पर मैंने संकोच नहीं किया तो उसे भी ऐसा करने का कोई औचित्य नहीं था... हाँ तो वह मेरे सामान की रखवाली करने के लिए अपनी जगह से बच्चे को लिए हुए गैलरी तक खिसक आई. जिससे सभी आने-जाने वाले पर वह ठीक से नजर रख सके. स्टेशन करीब-करीब सन्नाटे में डूबा हुआ था. संयोग से एक फल और चाय-नाश्ते वाला दरवाजे के सामने ही थे.
मैंने पहले केला, संतरा लिया कि, कहीं ट्रेन के चल देने पर न ले पाया तो ये, यही कहेगी कि, जान-बूझकर नहीं लिया. भले ही चाय रह जाए, पहले उसकी फरमाइश पूरी करनी है. मेरा प्रयास सफल रहा. मैं फल के साथ-साथ चाय-नाश्ता बिस्कुट, नमकीन आदि आसानी से लेकर वापस पहुँच गया. सामान उसके सामने रख ही पाया था कि ट्रेन चल दी.
खाने-पीने की चीजें देखकर वह बोली, 'अरे यह तो बहुत ज्यादा ले लिए हो.'
मैं उसके सामने चादर पर ही बैठ गया. नमकीन, बिस्कुट का पैकेट खोल कर उसे दिया. पैंट की वजह से जमीन पर बैठने में मुझे मुश्किल हो रही है, यह समझते ही उसने कहा, 'पैर फैला कर आराम से बैठ जाइए.'
मुझे उसकी बात माननी पड़ी, क्योंकि मैं ठीक से बैठ नहीं पा रहा था. उसने बच्चे को फिर उसी के बिस्तर पर आराम से सुला दिया था. उसका बेहद
मासूम चेहरा देखकर, उसे गोद में लेने, खिलाने का मन कर रहा था. लेकिन सोचा अभी मां का दूध पीकर सोया है. कच्ची नींद में उठाया तो रोएगा.
चाय-नाश्ते के साथ ही उसकी बातें पहले ही की तरह चलती रहीं. वह शौहर की बातें बताने लगी कि, कैसे उसने पहले उसके आस-पास मंडरा-मंडरा कर बात शुरू की, फिर इश्क के रास्ते पर ले आया. उससे अकेले मिलने का कोई ना, कोई रास्ता निकाल ही लेता. मिलते ही बोलता बाद में, बाँहों में जकड़ पहले लेता. कपड़ों में इतनी जल्द-बाजी, हड़बड़ाहट में हाथ डालता, खींचता, उतारता कि, अक्सर उसके कपड़े फट जाते थे.
नमकीन और चाय की तरह उसकी बातें भी मुझे तीखी और गर्माहट भरी लग रही थीं. वह दोनों पैर सीधे फैलाये हुए बैठी थी. साड़ी फिर घुटने से ऊपर थी. गेंहुए रंगत के उसके सुडौल पैर किसी को भी गहरा आमंत्रण देने के लिए काफी थे.
उसने अब-तक कुर्ती नीचे कर के स्तन तो ढंक लिए थे, लेकिन ऊपर की दोनों बटन खुली हुई थीं. जिससे करीब-करीब आधी छातियाँ दिख रही थीं.
गर्म चाय के साथ हमारा नाश्ता चल रहा था. गाड़ी आउटर क्रॉस कर अपनी रफ़्तार पकड़ने ही वाली थी. मैंने चाय का कुल्हड़ आखिरी घूंट पीने के लिए उठाया ही था कि, फचाक की आवाज के साथ ढेर सारा कीचड़, पानी भरा गुब्बारा खिड़की से टकराकर हमें भिगोता, गंदा करता आगे तक चला गया. होली का रंग, हुड़दंग चल रहा है, इसका ध्यान मुझे बिल्कुल नहीं था, कि खिड़की बंद कर के रखता.
हम-दोनों हड़बड़ा कर सीधे बैठ गए. हमारे कपड़े, चाय-नाश्ता, चादर सब गंदे हो गए. गनीमत यह रही कि, उसने बच्चे को करीब-करीब सीट के नीचे लिटाया था, जिससे वह बाल-बाल बच गया.
मैंने सबसे पहले उठ कर आमने-सामने दोनों ओर की खिड़कियां बंद कीं. शीशे वाली को छोड़ कर, जिससे रोशनी बनी रहे. नमकीन, बिस्कुट, केले, संतरे मैंने सब बाहर फेंक दिए. केले, संतरे के लिए उसने रोकते हुए कहा, अगले स्टेशन पर साफ पानी से धो लेना. लेकिन कीचड़ के कारण मेरा मन नहीं माना. मैंने उन्हें भी फेंक कर कहा, ' दूसरा खरीद लेंगे.'
मैं नहीं चाहता था कि, उन्हें खाकर हमें कोई बीमारी हो. लंबी जर्नी है. हर तरफ छुट्टी है. मुझे हुरियारों की इस कीचड़ होली, हुड़दंग पर गुस्सा आई कि, अगर चोट-चपेट लग जाती, बच्चा चोट खा जाता तो.
उसने कहा, ' त्यौहार मजे के लिए मनाया जाता है. कीचड़-माटी फेंके मा कौन सा मजा है. आमने-सामने खेलें रंग तो मजा भी है.'
कुछ देर तो वह बिल्कुल सन्नाटे में आ गई थी. फिर उठी. बच्चे को सीट पर लिटा कर कहा, 'जरा भैया को देखे रहिये तो, मैं सब साफ कर दूं.'
मैंने कहा, 'चादर वगैरह झाड़ लीजिए, चलिए दूसरी तरफ बैठते हैं. जमीन कहां तक साफ करेंगी.'
मैंने बच्चे को संभाला तो, उसने सारा सामान वहां ले जा कर रखा, जहां मेरा सूटकेस था. हम वहीं जाकर बैठ गए. पहले की तरह उसने चादर को उलटा कर के बिछा दिया था. बच्चे के लिए उसने डोलची से तौलिया निकाल कर सीट के नीचे ही बिछाया और उसे उसी पर लिटा दिया....
'' इस कीचड़ होली ने आप दोनों के आनंददाई जल-पान को पूरी तरह खत्म ही कर दिया था .''
'' हाँ. बिलकुल दिमाग खराब कर दिया था. हमें कपड़े बदलने पड़े. अब जरा और ध्यान से सुनियेगा. इससे आपको मेरे और उसके बारे में कोई निष्कर्ष निकालने, या विचार बनाने में आसानी होगी. उसने बैग से
पहनने के लिए दूसरी साड़ी निकाली तो मैं वहां से हटने लगा, इस पर वह बोली, ' बैठे रहिये, मैं इधर बदल लूंगी.' मेरे उठने तक उसने साड़ी खोल कर अलग करनी शुरू कर दी.
वह एकदम बीच में थी. मैं खिड़की की तरफ था, इसलिए निकल भी नहीं सकता था. साड़ी खोलकर उसने उसकी मिट्टी वगैरह को थोड़ा आगे बढ़ कर झाड़ा,
मुझ से न्यूज़-पेपर का एक पन्ना लेकर, उसमें लपेट कर डोलची में रख दिया.
मैंने सोचा यह सब करने से पहले कम से कम ये दूसरी वाली साड़ी पहन तो लेती. मेरे सामने खाली पेटीकोट कुर्ती में है. कुर्ती जहाँ नाभि से थोड़ा नीचे तक थी, तो पेटीकोट उसने एकदम नीचे पेट और स्त्री अंग की बिल्कुल संधि रेखा पर बांधा हुआ था.
उसका पूरा शरीर बड़ा गठा हुआ, संतुलित सांचे का लग रहा था. मैंने सोचा पता नहीं संतुलित सांचे की तरह, इसकी सोच संतुलित है कि नहीं. शौहर से इसके झगड़े का कारण, कहीं इसकी यह अजब-गज़ब बोल्डनेस तो नहीं है. यह है ऐसे समाज से, जहां औरतों की ज़िंदगी परदे में शुरू होकर, परदे ही में खतम हो जाती है.
लेकिन यह है कि, कितने आराम से मेरी ही तरफ मुंह करके साड़ी बांध रही है. ऐसी बोल्ड औरत तो आज तक नहीं देखी.
बोगी में और लोग होते तो? क्या यह तब भी ऐसे ही करती. साड़ी पहनने से पहले वह मुंह-हाथ धो आई थी. डोलची से साबुन लेकर गई थी. काफी सफाई पसंद लग रही थी. अब वह काफी फ्रेश दिख रही थी.
यह सब करके वह नीचे बैठती हुई बोली, 'और कपड़ा रखे हों तो, आप भी बदल लीजिए कॉलर, कंधे पर काफी गंदा है. गीला भी हो रहा है.'
मोहतरमा तुम कुछ सोचने दो तब ना. यह सोचते हुए मैंने कहा, 'हाँ
देखता हूं. एक सेट कपड़ा है तो, लेकिन प्रेस नहीं है.'
' इस समय प्रेस का क्या मतलब है? त्यौहार भी ऐसा है, जिसमें लोग पुराने कपड़े ही पहन कर निकलते हैं.'
मैं अपनी जर्नी के हिसाब से चार सेट लेकर गया था. तीन पहले ही पहन चुका था. मोहतरमा की इस बात से
मेरा ध्यान, अपनी इस गलती पर गया कि, मैंने ऐसे मौके पर वाकई नया और कीमती कपड़ा पहना हुआ है. यह निश्चित ही बेवकूफी भरा है. खरीदने के बाद मैंने चौथी बार वह ड्रेस पहनी थी.
मैंने उससे कहा, 'आप सही कह रही हैं.' यह कहते हुए, मैंने सूटकेस खोला, ऊपर रखी तौलिया हटाई और इसी के साथ अपनी मूर्खता पर, मन ही मन अपना सिर पीट लिया. 'दरभंगा' से जो पांच लाख रुपये लेकर चला था, वह और जूलरी के डिब्बे एकदम मोहतरमा के सामने थे. मैं कुछ देर समझ ही नहीं पाया कि, क्या करूं. तभी मोहतरमा की आवाज ने जगाया,
' बड़ा पैसा, गहना भरे हुए हैं.'
मैंने कहा, ' हाँ, कुछ काम से ले गया था, बैरंग लौटना पड़ा.'
यह कहते हुए मैंने जल्दी से पैंट-शर्ट निकाली, पैसे, डिब्बे बाकी सब सामानों के एकदम नीचे डाला, और लॉक कर दिया. इतना भी ध्यान नहीं रहा कि, अभी कपड़े चेंज करूंगा तो उन्हें रखना भी तो है....
'' दरअसल आप पैसों, जूलरी की सिक्योरिटी को लेकर हड़बड़ाहट में आ गए थे, डर से गए थे.''
'' हाँ ठीक कह रहे हैं आप, अचानक वो सब हुआ तो... खैर इसके साथ ही मैं बड़े असमंजस में पड़ गया कि, सूटकेस छोड़ कर चेंज करने दूसरी तरफ जाऊं कि, ना जाऊं. मेरी गफलत देखिये कि, अचानक ही बोल पड़ा, 'आप थोड़ा उधर की तरफ मुंह कर लें, तो मैं चेंज कर लूं.'
गाड़ी पूरी रफ्तार से चली जा रही थी. मेरी बात पर वह बड़ी अर्थ-भरी, हंसी, हंसी. एक तरह से मेरा उपहास उड़ाया और दूसरी तरफ घूम गई. मैंने मन में कहा, गजब की औरत है यार.
पैसों की चिंता में मैं वहीं चेंज करने लगा. यह सोचते हुए कि, जब यह औरत होकर मेरे सामने, निःसंकोच चेंज कर सकती है, तो मुझे संकोच करने की क्या जरूरत. मैं शर्ट, पैंट के अंदर कर के ठीक कर रहा था, बेल्ट का बक्कल खड़खड़ा रहा था कि तभी अचानक ही वह पलटती हुई बोली, 'पहन लिया?'
मैं सकपका गया. मैंने तब-तक पैंट के हुक्स तो लगा लिए थे, लेकिन चेन बंद नहीं कर पाया था. उसे जल्दी से बंद करते हुए कहा, 'हाँ बस पहन ही लिया है.'
वह बोली, 'बेल्ट की आवाज से हमें लगा कि, पहन चुके हो.'
मैंने कहा, ' चलिए कोई बात नहीं, पहन ही चुका हूँ.'
यह कहते हुए मैंने, सूटकेस में कपड़ा रख कर, उसे सीट के नीचे रख दिया.
पैसे का भेद खुल जाने के कारण, मेरा मन भीतर ही भीतर कुछ अजीब सी आशंकाओं में
डूबने-उतराने लगा था. इस बीच उसने दो बार अपना हाथ, पीछे गर्दन पर चोटी की तरफ ले जाकर टटोलते हुए कहा, 'शायद इधर कुछ लगा हुआ है.'
फिर उसने हाथ वापस लाकर देखा तो, वहां अच्छा-खासा कीचड़ था. उसने आस-पास और टटोला तो और कीचड़ मिलने पर खिन्नता प्रकट करती हुई बोली, 'हम समझ रहे थे, खाली पानी होगा, सूख जाएगा थोड़ी देर में. लेकिन यह तो किसी गड्ढे-वड्ढे का गंदा कीचड़ है. अब इसको भी बदलूँ.'
यह कहते हुए उसने बैग से नीले रंग की दूसरी कुर्ती निकाली. मैंने सोचा कीचड़ लगा है तो यह टॉयलेट में जाकर धोएगी, और वहीं बदल भी लेगी. लेकिन अगले ही पल मैं स्तब्ध रह गया...
'' क्यों?''
'' क्योंकि पलक झपकते ही उसने, गंदी कुर्ती उतार कर किनारे रख दी, और साफ़ वाली कुर्ती को पहले सीधा किया, फिर हाथ ऊपर उठाकर, एक बार में गले में डाल कर नीचे खींच दिया. मैं संज्ञा-शून्य सा उसके कमर से ऊपर, सांवले सुडौल जिस्म पर से दृष्टि नहीं हटा पाया.
उसकी भारी छातियाँ, गोल मजबूत गर्दन, जामुन से ज्यादा जामुनी, बड़े निपुल ने मुझे जड़ कर दिया.''
'' वैसे तब-तक तो आपके लिए आश्चर्य वाली कोई बात रह ही नहीं गई थी.''
''क्यों ?''
'' क्योंकि करीब-करीब वो सारा हिस्सा तो वो आपके सामने काफी पहले से ही प्रदर्शित करती चली आ रही थी, उसने कुछ छिपाने के लिए बचाया ही कहाँ था.''
'' काफी हद तक आपकी बात सही है. लेकिन तब-तक बीच में उसकी कुर्ती कहीं न कहीं रहती थी. एक आड़ सी बनी रहती थी. इस बार वह आड़ भी उसने क्षण-भर में खत्म कर दी, इस लिए मैं आश्चर्य में पड़ा, स्तब्ध हुआ. वह हर काम बिना लाग-लपेट, निःसंकोच कर रही थी.
एक बार फिर मुझसे पेपर लेकर, गंदी कुर्ती उसमें लपेट कर डोलची में रख दी और साबुन निकाल कर चली गई बाथरूम की ओर. धो-धा कर लौटी तो बोली, 'अच्छा जी का जंजाल कर दिया इन सब ने.'
फिर अपनी जगह बैठते हुए पूछा, 'अगला स्टेशन कितनी देर में आएगा.'
' करीब आधे घंटे बाद.'
' सोच रही हूँ कि, सारे दरवाजे बंद कर दूँ. हुड़दंगी कहीं स्टेशन पर रंग-पानी लेकर अंदर आ गए तो बड़ी मुश्किल होगी. अब और कपड़े, न आपके पास हैं, न मेरे पास. मेरा बच्चा कहीं भीग गया, तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी.'
' ठीक कह रही हो, लेकिन स्टेशन आने पर तो खोलना ही पड़ेगा न. कोई
सवारी चढ़ने वाली हुई तो?'
इस पर उसने लापरवाही से कहा,
'सारे डिब्बे तो खाली पड़े हैं. किसी और में चढ़ जाएगी. जब-तक वह दरवाज़ा
भड़भड़ाएंगे, खुलवाएंगे तब-तक तो गाड़ी चल देगी. आप बच्चे का ध्यान रखो, मैं सारे दरवाजे बंद करके आती हूं.'
वह उठने लगी तो मैंने सोचा कि, यह शिष्टाचार के विरुद्ध है, उससे कहा, ‘नहीं-नहीं आप बच्चे के पास बैठिये. मैं बंद करके आता हूं.'
मैं जब सारे दरवाजे बंद कर रहा था, तो मन में आशंका पैदा हुई कि, बोगी में यह एक अनजान, अकेली महिला है. ऐसे में दरवाजा बंद करना उचित नहीं है.
यह अजब-गज़ब मोहतरमा न जाने क्या हैं? किस खयाल की हैं. स्टेशन पर ट्रेन पहुंचते ही, कहीं कोई तमाशा न खड़ा कर दें. पैसों को लेकर अपनी नादानी पर भी परेशान हो रहा था.
वापस सीट पर पहुंचा तो देखा वह अपनी चादर पर ही आंचल का ही छोटा सा तकिया बनाए, उसी पर सिर रखे चित लेटी हुई थी.
कुर्ती नीचे से ऊपर की ओर स्तनों की गोलाई के आरम्भ बिंदु तक उठी हुई थी. और साड़ी उसके स्त्रियांग के आरम्भ बिंदु को छू रही थी. और इन दोनों के बीच बड़े विशाल हिस्से के बीच से थोड़ा नीचे उसकी बड़ी सी वक्री नाभि किसी सरोवर में उभरी सूक्ष्म टापू सी लग रही थी....
वकील साहब की यह बात सुनते ही मुझे जोर से हँसी आ गई. मैंने कहा, ''वाह भाई वाह. इस समय आप वकील नहीं, कुशल किस्सागो लग रहे हैं. पूरा दृश्य साक्षात् सामने रच दिया. एक और बात कि, हालांकि आपके साथ बड़ी नकारात्मक बात हुई, लेकिन उसको बताने में भी आपको आनंद बहुत आ रहा है. इससे उस समय के आपके आनंद-रस का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है.
वैसे आपने जिस जोरदार ढंग से उसकी नाभि का वर्णन, उसके स्वरूप के हिसाब से बकायदा नाम के साथ किया तो, शास्त्रों में इनके बारे में वर्णित कुछ बातें याद आ गई हैं, मुझे लगता है कि, उन्हें बताने का यही उचित समय है. यह तो आप जानते ही हैं कि, शास्त्रों में नाभि को मानव जीवन का ऊर्जा केंद्र कहा गया है, आयुर्वेद, योग , ज्योतिष शास्त्रों में नाभि के बारे में बड़ी गूढ, व्यापक बातें लिखी हुई हैं.
इनमें नाभि के स्वरूप को देख कर स्त्री या पुरुष किस स्वभाव या आचरण का है, यह जानने का विशद वर्णन किया गया है. आज भी बहुत से हस्त-रेखा विशेषज्ञ नाभि भी देखकर उस व्यक्ति के बारे में बताते हैं.
आपने अब-तक उस महिला का जैसा स्वभाव, उसकी नाभि को वक्री बताया उसके लिए इतना ही कहूंगा कि, 'समुद्र शास्त्र' में ऐसी महिलाओं को बातूनी, तुरंत ही मेल-जोल करने वाली, अति आत्म-विश्वासी, मौज-मस्ती में डूबी रहने, बहुत ही खुले विचारों वाली बताया गया है. यह सारी ही बातें आपकी वह महिला सहयात्री चरित्रार्थ करती दिख रही है. ''
यह सुनकर वह कुछ देर मुस्कुराने के बाद, अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं ,
''नाभि-शास्त्र तो मैंने नहीं पढ़ा, इसलिए आपकी बातों के बारे में कुछ नहीं कह सकता. ये आठ-दस तरह की होती हैं इतना भर जानता हूँ. तो मेरे आने तक वह इतनी बेख्याली में, इस तरह लेट चुकी थी. जिसे देख कर वह करना क्या चाहती है, मैं ऐसा कुछ समझने का प्रयास नहीं कर रहा था. क्योंकि वह सब-कुछ तो एकदम स्पष्ट दिख रहा था. नीचे साड़ी घुटनों से ऊपर उठी हुई थी.
उसने आधी जांघों तक को आजाद किया हुआ था. दरवाजे को जिद करके बंद करवाने, कपड़ों से इस तरह दुश्मनी निभाने से उसका आशय साफ़ पता चल रहा था. समझना तो मुझे यह था कि, अब मुझे करना क्या है? यह जो खेल खेलना चाह रही है, उसमें मुझे शामिल होना चाहिए कि नहीं.
मेरा मन, तन, दिमाग क्या कह रहा है? मन पर ध्यान लगाया तो वह विचलित मिला. असमंजस में डूबता-उतराता मिला कि, इसके साथ, इसके खेल में शामिल हो, इसके
बदन से अपने बदन का संगीत पूरे सुरताल में बजाओ. अगले पल कहता संगीत पवित्र होता है, ऐसा करना संगीत की पवित्रता को पद-दलित करना होगा. संगीत-रस को भंग करना होगा. किसी के साथ धोखा होगा. इसलिए इसके खेल से दूर रहो.
इसके साथ ही तन फिर काउंटर करते हुए कहता, खेल, खेल होता है. उसमें पवित्रता, अपवित्रता की बात करना, इस खेल को ना समझना है. मूर्खता है.
जब खेल को दोनों ही पक्ष खेलने के लिए तैयार हों, तो उसे पूर्ण निष्ठा के साथ खेलना, दोनों ही पक्षों का कर्तव्य है. न खेलना, खेल का अनादर है. अपने इन तर्कों के साथ, मन मुझसे जबरदस्त विद्रोह करने पर उतारू हो गया. इस विद्रोह को नियंत्रित करना, मेरे लिए प्रतिपल असंभव होता जा रहा था.
क्योंकि दूसरा पक्ष इस विद्रोह को बराबर हवा-पानी दे रहा था. उसे पूरी ताकत से भड़काए जा रहा था.
वह मुझसे बिना हिचक, पत्नी से मेरे पर्सनल रिश्तों
को लेकर ऐसी बातें छेड़ रही थी, जो बगावत को और आग लगाए जा रही थी.
वह बार-बार एक हाथ उठा कर, कभी बेल्ट के बक्कल को छूती, कभी शर्ट की कोई बटन खोल देती. उसके इस खेल-कूद से बेल्ट के ऊपर की ओर तीन बटन खुल गईं. उसका हाथ शर्ट के अंदर तक चहल-कदमीं करने लगा.
वह उन बातों पर भी हंस रही थी, जिन पर हंसने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. लगता जैसे थोड़े बहुत नशे में हो. उसका एक हाथ मेरे साथ, तो दूसरा हाथ उसके ही पेट, नाभि, जांघों के भीतर तक, खेल की तैयारी कर रहा था. जल्दी ही उसने मेरे तन-मन की बगावत की आग में घी-घी और घी झोंक कर, आग इतनी भड़का दी कि, हर तरफ आग ही आग फैल गई.
उसकी प्रचंड तपिस से बचाऊँ
खुद को, या हवि बन होम हो जाने दूँ, यह तय करने ही जा रहा था कि, उसने पैंट के अंदर हथेली डालकर, मुझे खींच लिया नीचे. मैं उसके ऊपर ही गिरते-गिरते बचा.
तब मैंने सोचा नहीं, बल्कि तय किया कि, खेल के मैदान में जब इसने उतार ही लिया है तो, इसे पूरा खेल, खेल कर ही नहीं,
जीतकर भी दिखाऊंगा. यह इस अंदेशे में न रहे कि, यह बहुत बड़ी खिलाड़ी है.
मैदान में, मेरे उतरते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ी. अपनी सफलता पर कि, आखिर उसने मुझ से खेल शुरू करवा ही लिया. उसने बिना प्रेस वाली मेरी पैंट-शर्ट ही नहीं, बल्कि बाकी कपड़े भी, सीट पर संभाल कर रख दिए. अपने सारे कपड़े सिर के नीचे रख कर
तकिया थोड़ा और मोटा कर लिया.
खेल में, मैं उसकी जबरदस्त खिलंदड़ी शैली, गठे बदन से बहुत प्रभावित हुआ. मुझे पूरा विश्वास तब भी था, आज भी है कि, वह भी
मुझ से प्रभावित हुई होगी. मेरी तरफ से उसे खेल में कोई कमीं नहीं मिली होगी.''
'' वो आपसे प्रभावित हुई या नहीं, मुझे यहाँ इस बात का कोई अर्थ ही नहीं दिखता, क्योंकि मुझे ऐसा दिख रहा है कि, आपके साथ खेल खेलना उसका उद्देश्य ही नहीं था, उसका जो लक्ष्य था उसे पाने के लिए उसने इस खेल को रास्ते की तरह प्रयोग किया. उसकी लक्ष्य प्राप्ति में आप उसके टूल बने रहे बस.''
मेरी इस बात पर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कुछ क्षण मुझे देखा, फिर बोले, '' सही निष्कर्ष तो बात पूरी होने पर ही निकल पायेगा. आगे क्या हुआ कि, हम-दोनों ही अगल-बगल लेटे हुए थे. एकदम मिले हुए. ट्रेन की रफ्तार फिर कम होने लगी थी, जिससे वह काफी ज्यादा हिल रही थी.
हम-दोनों को भी एक निश्चित लय में हिलाए जा रही थी. और हमारे हाथ एक दूसरे के साथ खेल रहे थे. हाँफते बदन को राहत पहुंचाने में लगे थे. अचानक ही ट्रेन तेज़ खटर-पटर की आवाज़ के साथ जल्दी-जल्दी, ट्रैक बदलने लगी.
लेकिन हम-दोनों को कोई जल्दी नहीं थी ट्रैक बदलने, कपड़े पहनने, अपने चेहरे को छिपाकर नकली चेहरे लगाने की. क्योंकि दरवाजे बंद थे. मगर इस ट्रैक परिवर्तन की तेज़
आवाज़, ज्यादा हिलने-डुलने के कारण बच्चे की नींद खुल गई. वह कुनमुनाया, फिर रो पड़ा.
वह बड़ी खुशी-खुशी बोली, ' सब जगाए दिहैंन भैया का.'
यह कहती हुई वह उठी और करीब-करीब भागी-भागी गई बाथरूम. हाथ-मुंह, अपनी छातियों को अंजुरी में पानी ले-लेकर खूब अच्छे से धोया. विशेष कर निपुल को. फिर जल्दी से आकर बच्चे को गोद में लिया और दूध पिलाने लगी.
इस बीच गाड़ी उस स्टेशन पर रुकी नहीं, बल्कि उसे पार करती चली गई. एक बार फिर ट्रैक बदलने की तेज़ आवाज़ हुई, हिचकोले भी खूब ज्यादा लगे. जल्दी ही गाड़ी ने अपनी स्पीड पकड़ ली. तभी उसके बच्चे ने पेशाब कर दी तो वह बच्चे को बुलकारती हुई बोली, 'ई का
कई दियो आएं.'
बच्चे ने न जाने क्या समझा कि, मुस्कुरा दिया. वह बार-बार कहती, वह बार-बार मुस्कुराता. आखिर वह उसको, उसके
कपड़े लेकर उठी कि, जाकर बाथरूम में साफ कर आए, लेकिन उसके कपड़े अस्त-व्यस्त थे. जब हाथ वगैरह धो कर आई थी तो सीधे बच्चे को दूध पिलाने लगी थी. किनारे पड़ी धोती ऊपर खींच ली थी बस.
अब बच्चा, कपड़ा पकड़े, कि खुद कपड़े पहने. उसकी मुश्किल देख कर मैंने कहा,' अरे चली जाओ ऐसे ही. आकर पहन लेना. वह मेरी बात पूरी होने से पहले ही चली गई. उसके
पास कोई और रास्ता तो था नहीं....
अचानक वकील साहब कुछ क्षण रुक कर बोले, '' देखिये आगे स्थितियां क्या से, कैसे-कैसे, क्या-क्या, होती जा रही थीं. मन के बहकने की पराकाष्ठा पर जरा ध्यान दीजिएगा. मैं उसे जाते हुए देखता रहा. बाथरूम की तरफ मुड़ने तक. इसके बाद भी वापस आकर बैठा नहीं,
खड़ा रहा. उसे वापस आते हुए भी देखने के लिए. मैं उसे उस विशेष स्थिति में भी देखना चाहता था. एक नैसर्गिक सौंदर्य को, नैसर्गिक स्थिति में ही देखने का खूबसूरत अहसास महसूस करना चाहता था....
इतना कह कर वकील साहब फिर ठहर गए. फिर मेरी आँखों में गौर से देखते हुए बोले,'' लेखक महोदय अपनी कलम से न जाने कैसे-कैसे, एक से एक अद्भुत दृश्य आपने कागज़ पर रचे होंगे. लेकिन उस समय मैंने जिस अद्भुत, अकल्पनीय दृश्य को देखा, वो आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में कैद है.
इस समय भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे कि मैं उसी बोगी में, उसी स्थिति में, उस अद्भुत दृश्य को देख रहा हूँ. जैसे किसी आर्ट फिल्म का दृश्य हो. सोचिये एक युवा स्त्री, गोद में अपने शिशु को लिए, बिलकुल नैसर्गिक स्थिति में खिलखिलाती हुई चली आ रही है.
तेज़ चलती ट्रेन के कारण, उसकी चाल में एक ख़ास तरह की लहर सी है. जैसे कि, वह एक सर्पाकार रेखा का अनुसरण करती हुई आगे बढ़ रही हो. सोचिये ज़रा कैसे असाधारण दृश्य को मैंने देखा था. करीब आते-आते वह बोली,
'अब ऐसे चलते में भी देखने का मजा ले रहे हो. औरत के बहुत बड़े रसिया लग रहे हो. बीवी बड़ी खुश रहती होगी. लगे हाथ तुम भी ऐसे ही जाओ तो हम भी देखें कैसे आता है मजा. अकेले-अकेले मजा ना लो.'
उसने ऐसे इठलाते हुए कहा कि, मुझे हंसी आ गई. वह
बच्चे को लेकर बैठते समय थोड़ा लड़खड़ाई तो मैंने उसे तुरंत पकड़ लिया, तो वह बोली, 'अच्छा किया जो पकड़ लिया, नहीं तो गिर ही जाती. गाड़ी तो ऐसे हिल रही है, जैसे सड़क के गड्ढों में से गुजर रही है.'
वह बैठ गई तो मैंने
उसकी छातियों की तरफ संकेत करते हुए कहा, 'ऐसी, इतनी बड़ी-बड़ी
खूबसूरती लेकर चलोगी तो मुश्किल तो होगी ही.'
'यह कह कर मैं हंसा, तो वह भी हंस दी. मगर काउंटर करने
में एक मिनट को भी चूकी नहीं . तुरंत ही मेरे एक हिस्से पर आंखों से ही इशारा करते हुए कहा,
'हाँ,
ई तो है, लेकिन
एक बार उधर भी देख लो, संभाल नहीं पा रहे हो, हिलते जा रहे हो.'
एक बार फिर हम-दोनों हंस दिए. तभी मैंने सोचा इसका कहना भी पूरा कर दूँ . और चला गया हाथ-मुंह धोने. वापस आ कर उसी की बगल में बैठ गया. उसकी धोती का एक हिस्सा खींच कर खुद पर डाल लिया, बड़े ही अधिकार के साथ. बच्चा दूध पीने में व्यस्त था. उसकी बातें फिर चलने लगीं . मैंने नमकीन का पैकेट खोल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया. खुद भी खाने लगा.
उससे कहा, ' गाड़ी आगे किसी स्टेशन पर रुके तो कुछ खाने-पीने को लूँ . भूख लग रही है.'
'गाड़ी से बाहर ऐसे ही उतरोगे क्या? कपड़े तो पहन लो.'
'अभी तो गाड़ी ने एक ही स्टेशन क्रॉस किया है. कम से कम आधा घंटा तो लेगी ही
अगले स्टेशन पर रुकने में.' तो उसने बहुत ही इठला कर कहा,
' तो तब-तक का किया जाए?'
बच्चा अब-तक दूध पीकर फिर निंदासा हो गया था. उसने अपनी बात, दोनों हाथ थोड़ा ऊपर उठा कर अंगड़ाई लेते हुए कही थी. इस अंगड़ाई में उसने जो थोड़ा बहुत कपड़ा खुद पर डाल रखा था, वह पूरा का पूरा सरक कर उसी की गोद में गिर गया. अब कमर से ऊपर उसके तन पर कुछ भी नहीं था.
बच्चा करीब-करीब सो चुका था. निपुल उसके दोनों होंठों के बीच फंसा हुआ दिख रहा था. उसने बड़ी धीरे से निपुल को बाहर खींचा, चुट सी आवाज हुई. इससे बच्चा थोड़ा कुनमुनाया तो उसने हल्की सी थपकी देकर फिर सुलाया और बहुत संभाल कर उसे, उसके बिस्तर पर लिटा
दिया और फिर पहली बार से ज्यादा मादक अंदाज में बोली,
' जब गाड़ी रुकने में देर है, तो चलो आराम कर लें.'
यह कहती हुई, वह चादर पर एकदम किनारे खिसक कर लेट गई, जिससे उसकी
बगल में काफी जगह खाली रही. उसने धोती को अपने ऊपर खींच लिया. इस तरह उसने सीधे-सीधे मुझे स्पष्ट मूक आमंत्रण दिया था. जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. जगह ज्यादा नहीं थी, इसलिए हम एकदम गहराई तक सट कर लेते थे.
मैंने उसकी धोती अपने कुछ हिस्से पर खींच ली थी. मेरे लेटते ही उसने मेरी तरफ करवट लेकर मुझे अपनी बाहों में कस लिया. पत्नी से करीब पंद्रह वर्ष छोटी, हिर्ष्ट-पुष्ट महिला के मादक बाहुपाश से मैं
मदहोश हो रहा था. मैंने भी उसे, उसी की तरह जकड़ लिया था. वह कुछ बोल नहीं रही थी. मेरी छाती में मुंह छिपाकर मुझे कसे हुए लेटी रही.
मैं चुप रहा. हम मौन जरूर थे. लेकिन शरीर पूरी तपिश के साथ प्रगाढ़ रिश्तों
में जुड़ा हुआ था. कुछ ही देर बाद मैंने महसूस किया कि, उसकी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है. दरअसल उसे नींद आ गई थी. वह सो गई थी. हाथ एकदम ढीला मेरे ऊपर पड़ा हुआ था.
नींद मुझे भी महसूस हो रही थी, लेकिन भीतर एक डर मेरी नींद को झिंझोड़-झिंझोड़ कर
दूर कर दे रहा था. डर इस बात का कि, कहीं सो गया, इस बीच किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी और यह सूटकेस लेकर उतर गई तो.
लेकिन तभी मन यह भी कहता कि, यह
ऐसा नहीं करेगी. ऐसी होती तो, इस तरह मुझ में समाई, इतनी निश्चिंत होकर ना सो रही होती. इस तरह तो कभी पत्नी ही सोया करती थी. अब तो बच्चों, घर की देख-भाल के बाद जब रात में सोती है तो, उसे अगले चार-पांच घंटे खबर ही नहीं रहती कि, कहां सोई है.
तरह-तरह के तर्कों के बाद भी, मेरा डर ही मुझ पर हावी था. वो
मुझे सोने नहीं दे रहा था. आंखों में जलन हो रही थी. और मैं जाग-जाग कर उसे और बढ़ा रहा था. दूसरी तरफ एक लय में हिलते-डुलते, उसके तपते शरीर की तपिश से, मेरी धमनियों में प्रवाह बढ़ता जा रहा था. सुस्त हाथों में जोश बढ़ता जा रहा था. अजीब सी तरंगें बदन भर में उठ रही थीं. अंग-अंग विद्रोही होता जा रहा था.
मन कहने लगा, अब इसे भी उठाओ, इसका इस तरह सोते रहना, समय बर्बाद करना है. यह कोई अंतहीन सफर तो है नहीं कि, इस बोगी में ऐसे ही चलते रहेंगे. सफर तो कुछ ही घंटों का है. इसी कशमकश में मेरे हाथ उसकी गर्दन, सिर तो कभी कमर, नितम्बों, उसके स्तनों से मिलने-जुलने, खेलने लगे.
जिससे उसकी धमनियों में भी गर्माहट आए. उष्मा उनमें इतनी बढ़े कि, पूरी बोगी ही पिघलने लगे. एक तरफ जहाँ उसे जगाने, दहकाने की मेरी हर कोशिश नाकाम हो रही थी,
तो दूसरी तरफ यह कोशिश करते-करते मेरा लहू, पिघले इस्पात सा धमनियों में, पूरे वेग से बहने लगा. इस वेग ने आखिर उसे अपनी धारा में शामिल कर उठा तो लिया, मगर समय इतना ले लिया कि, ट्रेन फिर से ट्रैक बदलने लगी....
'' ओफ्फो, बेहद दुर्भाग्य-पुर्ण्य.'' यह कहते हुए मैं हंस पड़ा. वकील साहब भी हंस कर बोले,
''अब देखिये आगे क्या होता है. ट्रैक बदलती ट्रेन के पहियों का शोर तेज़ होता जा रहा था. हिचकोले भी बढ़ रहे थे. खीझ कर मैंने सोचा, बढ़ता है जो, वह बढ़ता रहे,
हमारी धमनियों में बहती धारा से ज्यादा वेग और कहीं हो ही नहीं सकता. इसलिए हमें कोई परवाह नहीं, कहाँ क्या हो रहा है. हमारी धारा का वेग इतना है कि, उसके शांत होते-होते यह ट्रेन अगले हॉल्ट को ट्रैक चेंज करती हुई क्रॉस कर रही होगी.
लेकिन मेरा आकलन पूरी तरह गलत निकला. हम बहती धारा के मध्य में ही थे कि, स्पीड बड़ी तेज़ी से कम होती गई और एक झटके में गाड़ी प्लेट-फॉर्म पर खड़ी हो गई.
वह मंजिल तक बढ़ने के बजाय झटके से तट की ओर भागी, वहां किनारे बैठती हुई ठेठ अंदाज़ में बोली, 'ईका यही समय खड़ा होना था.'
मैं एकदम भन्ना कर ट्रेन को कई गालियां दे बैठा, इस पर उसने चिढ़ाते हुए, मेरे सीने पर प्यार भरा मुक्का मार कर कहा, 'काहे मन खराब कर रहे हो, दुइ मिनट मा गाड़ी चल देई, तब फिर खूब दंड-बईठक लगाए लेना. हम कहूँ भागे थोड़े जा रहेंन. अब कुछ खाए-पिए का देखो.'
मैंने जल्दी से कपड़े पहनते हुए कहा, 'जब-तक उतरूंगा तब-तक तो ट्रेन चल देगी.'
वह भी जल्दी-जल्दी कपड़े पहनती हुई बोली, ' पहले पूछ लेना किसी से कितनी देर को रुकेगी. तब उतरना.'
मैंने गेट खोलते हुए सोचा, भाई पैसे का मामला है. कितनी भी देर रुके, मैं बोगी से दस-पंद्रह कदम से आगे तो नहीं जाऊंगा. यहां भी इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे. ज्यादातर फाल्गुनी रंग में रंगे हुए, रंग में तरबतर.
पूरे नशे में चूर एक होरियार बीच प्लेट-फॉर्म पर, फुल वॉल्यूम में, भोजपुरी में होली का कोई लोक-गीत, चीख-चीख कर गाए जा रहा था. एक हाथ कान पर लगाए हुए था, तो दूसरा हाथ सीधा आगे बढ़ाए हुए था.
खाने-पीने के नाम पर, यहां भी सन्नाटा ही मिला. वही चाय-बिस्कुट, नमकीन, केला, संतरा. यही सब लेकर मैं अंदर आ गया. बोगी की सीढ़ी पर पैर रखते ही ट्रेन चलने लगी थी. चाय होने के कारण बड़ी मुश्किल हुई. लेकिन किसी तरह सुरक्षित मोहतरमा के सामने सब-कुछ रख दिया. बीच खेल में रंग में भंग होने से वह भी अकुलाई हुई थी.
सामान रख कर सबसे पहले मैंने जाकर दरवाजा बंद किया. उससे पूछा भी कि, कोई आया तो नहीं था? उसके नहीं कहने पर भी मेरा मन नहीं माना. मैं पूरी बोगी, एक नजर देख कर ही उसके पास बैठा. मेरे बैठते ही उसने कहा, 'हमारी बात पर यकीन नहीं था.'
'ऐसा नहीं है, हमें हमेशा अलर्ट रहना चाहिए. चलो पहले चाय पियो.'
बिस्कुट, नमकीन सब उसके सामने रखा था. अब-तक एक पैकेट खोल कर उसने बिस्कुट खाना शुरू कर दिया था. खाते हुए ही उसने पूछा, 'पूड़ी-सूड़ी नहीं मिली का?'
'इसके अलावा और कुछ भी नहीं था. मैं पूड़ी-सब्ज़ी ही लेना चाहता था, लेकिन हर तरफ सन्नाटा था.'
पूड़ी पर उसके जोर, बिस्कुट, नमकीन खाने की रफ्तार से मुझे लगा कि, यह बहुत ज्यादा भूखी है. एक तो बच्चे को दूध भी पिला रही है. ऐसे में जैसे भी हो इसे खाना चाहिए ही चाहिए. मैंने बिस्कुट,
नमकीन का पूरा पैकेट खोल कर उसके सामने रखते हुए कहा, 'तुम यह सब खा कर चाय पियो. तुम्हें भूख लगी होगी. थोड़ी देर में केला, संतरा खा लेना. आगे जिस भी स्टेशन पर पूड़ी मिलेगी ले आऊंगा.'
'नहीं, इतना परेशान ना हो. इतने से काम हो जाई.'
'नहीं, इतने से तुम्हारा काम नहीं होगा. बच्चा दूध पी रहा है, तुम्हें खाना चाहिए ही चाहिए.'
वह मेरी बात पर मुस्कुरा कर बोली, 'बड़ा ध्यान है बच्चे के दूध की. वैसे सही भी है. उसके हिस्से का तो सारा दूध पी गए हो, तो इंतजाम तो करना ही पड़ेगा.'
यह कहते हुए वह हंस पड़ी. मैं भी मुस्कुरा कर रह गया.
असल में भूख मुझे भी लग रही थी, क्योंकि दोपहर अब झुकने लगी थी. वह बातें कभी भोजपुरी तो, कभी खड़ी बोली में करती. खड़ी बोली में भी भोजपुरी का गहरा पुट होता था. मैंने उसके इस मजाक पर कहा,'तुम्हें कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी.'
खाते-पीते, तमाम बातों के बीच करीब बीस मिनट निकल गए.
इन बीस मिनट में वह मुख्यतः वक्ता थी, मैं श्रोता. उसने बड़े मजाकिया लहजे में जो-जो बातें कहीं, उसे ना तो किसी से कहा जा सकता है. ना बोल्ड से बोल्ड किसी कहानी, उपन्यास, फिल्म में लिया जा सकता है....
पूछने पर वकील साहब ने कुछ बातें बताईं, जिन्हें सुन कर मैंने कहा,'' वाक़ई यह तो अश्लीलता, फूहड़ता, निर्लज्ज़ता की पराकाष्ठा है.''
'' हाँ, किसी महिला के मुंह से ऐसी बातें मैं पहली बार सुन रहा था. लेकिन उससे बड़ा आश्चर्य यह कि, यह सब जानने के बाद भी, तब मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था. मैं उसके साथ मस्ती में, मज़ा लेता उसे और कुरेद रहा था. अब सोचता हूँ तो बड़ा पछतावा होता है, शर्म महसूस होती है स्वयं पर.
उसने आगे बताया कि, उसकी एक शादी-सुदा बहन जब घर आती थी तो, अपने शौहर और तीन जेठानियों के बीच की हंसी-ठिठोली, रिश्तों की ऐसी तमाम बातें, सिर्फ़ उसे ही बताती थी, क्योंकि उन दोनों का बचपन से ही बाकी सबसे ज्यादा करीबी रिश्ता था. उसने और जो कुछ बताया उसे सुन कर मैंने कहा, ' तुम दोनों बहनें
कुछ ज्यादा ही करीब हो गई थी, क्यों ?'
तो वह मुस्कुराती हुई बोली, ' जब कोई भी रातो-दिन एक ही कमरे में घुसा रहेगा तो करीबी बढ़ेगी या फिर दुश्मनी होगी. हम दोनों में दुश्मनी नहीं, करीबी बढ़ी, ये अच्छा नहीं हुआ क्या?'
' हाँ, बिलकुल अच्छा हुआ. लेकिन तुम्हारे घर में कभी किसी को शक नहीं हुआ कि, तुम दोनों ने
ये दूसरी तरह की करीबी क्यों बना ली .'
' ऊँ.. ऊ..अम्मी जब कभी गुस्सा होतीं तो उनकी बातों से हम-दोनों को कभी-कभी ऐसा लगता कि, उनको हम-दोनों की करीबी पर शक है. लेकिन उनकी बातें सुनने के कुछ देर बाद ही हम-दोनों फिर अपनी करीबी में डूब जाते, और वो घर के बाक़ी जंजालों में. बड़ी गुस्सा आती हमें उनकी बातों पर.'
' तो तुम दोनों की यह करीबी अब भी बरकरार है ?'
' छोड़ो भी, अब और का बताएं .'
' फिर भी, कुछ तो?'
'अब वो अपनी ससुराल में, हम अपनी. करीबी का मौक़ा ही कहाँ रहा.'
'अरे जब कभी पूरा परिवार घर पर, किसी काम-काज में इकट्ठा होता होगा तब? तब तो मौक़ा मिलता ही होगा. फिर इस रिश्ते के लिए तो मौक़ा और दस्तूर की जरूरत होती है बस.'
' हाँ...कह तो सही रहे हो.'
इसके बाद उसने कुछ बातें तब की बताईं, जब उसकी वो बहन शादी के बाद पहली बार घर आई थी. वह सब सुन कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि, वह सब सही बता रही है
या कि, मुझे भरमा रही है. बातें बड़ी ही असामान्य, और रिश्तों की किसी भी मर्यादा की सीमा से परे थीं.
खाने-पीने के बाद हमने थोड़ी फुर्ती महसूस की. मैं उसे लेकर आर.ए.सी. सीट पर बैठ गया. हमने खिड़कियाँ खोल दीं. हम आमने-सामने बैठे थे. गाड़ी की तरह हमारी बातें चल रही थीं. लेकिन
उसके विपरीत पूरी तरह अनर्गल और अश्लील.
हम तेज़ी से गुजरते गांव-बस्तियों को देखते जा रहे थे. जहां भी जो लोग दिख रहे थे, रंगों में सराबोर थे. मैंने उससे संभल कर बैठने के लिए कहा कि, फिर से रंग या कीचड़ आ सकता है. तो उसने कहा, 'अब काहे की चिंता कर रहे हो. कपड़ा तो नीचे रखे हैं. बदन पर पड़ी, तो धो लिया जाएगा.'
असल में हम-दोनों बिना कपड़ों के ही बैठे थे. फगुनहट बयार का ऐसा नशा था हम पर कि, हम बिना भांग और किसी नशे के ही फुल मस्ती में थे. ट्रेन की स्पीड सौ के करीब रही होगी. हम जानते थे कि, इतनी स्पीड में बाहर से कोई हमें देख-समझ नहीं पाएगा. और अंदर तो पूरा राज अपना है.
अश्लील बातों के साथ ही वह अत्यधिक चंचल बालिका की तरह हंस-बोल रही थी, हरकतें कर रही थी. उसके कहने पर मैंने दोनों सीटें खोल कर बर्थ बना ली थी. वह बचपना करती हुई अचानक ही मेरी गोद में आकर बैठ गई. मैंने कहा, 'अरे वाह, तुम तो बिल्कुल स्कूली लड़की बन गई हो.'
इस पर उसने बड़ी घृणा भरी आवाज़ में कहा,
'यही तो बन नहीं पाई.'
वह जिस मदरसे में पढ़ती थी, वहां के स्टाफ को बड़ी सख्त बातें कहती हुई बोली, 'उन सभी की रोज-रोज की बेजा हरकतों के कारण, पढ़ाई बीच में ही बंद करा दी गई. अम्मीं ने कहा आबरू से ज्यादा जरूरी
नहीं है पढाई.
हमने जिद की, कि हम और होशियारी से रहेंगे. आबरू पर हाथ न डालने देंगे. तो गुस्सा होकर बोलीं, जहां लड़कों की आबरू पर बट्टा लग रहा हो, वहां तुम लौंडियों की होशियारी कुछ काम न आएगी. तो उन लोगों के कुकर्मों ने हम लड़कियों को स्कूली लड़की बनने से पहले ही घर के अँधेरे कोने में धकेल दिया. तालीम का नूर क्या होता है, ये सब हम क्या जानें. बड़ा रोने-धोने पर आगे प्राइवेट पढ़ाई चली, लेकिन एक बार फेल हुई तो वह भी बंद करवा दी गई.'
इसके लिए उसने अपने अब्बू पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि, 'वो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को समय और पैसों की बर्बादी मानते थे. हद तो यह कि, कहते लड़कियां पढ़ने से बदचलन हो जाती हैं. अम्मी भी उनके ही जैसा बोलतीं.'
अचानक ही वह मां-बाप के लिए कठोर शब्द बोलने लगी तो, मैंने विषयांतर करने की गरज से बीच में ही कहा, 'खिड़की खोल कर ऐसे बैठी हो. बाहर लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे?'
उसने तुरंत जवाब दिया, ' तुम भी तो वैसे ही बैठे हो, जो तुम्हें कहेंगे, वही हमें कहेंगे.'
'अरे, लेकिन मैं मर्द हूं. मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाएगा. तुम औरत हो.'
'अच्छा! हम औरत हैं. तुम करो तो ठीक, हम करें तो गलत. ई कहां का इंसाफ है?'
'ओह्ह, इसमें इंसाफ नाइंसाफ की बात नहीं है. यह एक सामाजिक व्यवस्था है. नियम-कानून मूल्य-मान्यताओं की बात है. समाज की मानसिकता की बात है. अभी मर्द खाली लुंगी पहन कर कहीं भी चला जाए तो लोग उसे मुड़-मुड़ कर नहीं देखेंगे. उस पर अश्लीलता करने या फैलाने का आरोप नहीं लगेगा. इस आधार पर मुकदमा दर्ज नहीं होगा.
मुझे याद नहीं कि, भारत में इस आधार पर आज-तक एक भी मुकदमा दर्ज हुआ हो. वहीं कोई महिला कमर से ऊपर बिना कपड़ों के निकल जाए तो तुरंत ही मजमा लग जाएगा. तमाशा बन जाएगा. उस पर मुकदमा दर्ज होते देर नहीं लगेगी.'
वह मेरी गोद में बैठे-बैठे ही बाहर देखती हुई बोली, ' जब ट्रेन चलती है तो यह थोड़ी न देखती है कि, उस पर आदमी बैठा है या औरत बैठी है या बच्चा बैठा है. देख नहीं रहे हो गाड़ी बस चलती चली जा रही है. तो तुम्हारे नियम-कानून,
मूल्य-मान्यताएं , समाज भी ऐसे ही काहे नहीं होते, गाड़ी की तरह सभी के लिए एक जैसे.'
'तुम सही कह रही हो. सारी बातें सबके लिए एक जैसी होनी ही चाहिए, लेकिन व्यावहारिकता में दुनिया भर में ऐसा कहीं कुछ नहीं होता. अपने मज़हब को ही देख लो, औरतों को मर्दों के बराबर अधिकार कहाँ दिए गए हैं. उन्हें मर्दों की खेती कहा गया है. तुम पढ़ना चाहती थी, लेकिन नहीं पढ़ाया गया.'
उसकी बातें, खुराफाती हाथ, दोनों एक साथ चल रही थीं. इसी बीच 'बड़ा गोपाल' स्टेशन करीब आ गया. ट्रेन की स्पीड कम होने लगी तो मैंने कहा, 'चलो अब कपड़े पहन कर इंसान बन जाएँ,
ठीक से बैठें, स्टेशन करीब आ गया है.'
यह सुनते ही उसने छूटते ही कहा,
'हमेशा उल्टी ही बात काहे करते हो.'
'अरे ये कहां से उल्टी बात हो गई. बदन को कपड़े से ढकना सीधी बात है,
नियम है समाज का, कानून है.'
'सब फालतू बात है. मन मा, तन मा कुछ और भरा रहे, और ऊपर कपड़ा डाल के सच
छिपाए रहो, यह उल्टी बात है कि नहीं. अरे जो मन, तन में है, उसे ही दिखने दो, वैसे ही रहो. ये सीधी बात हुई कि नहीं.'
उसकी बात पर हँसते हुए मैंने कहा, 'चलो पहले सीधा काम कर लें, कपड़े पहन लें. हो
सकता है यहां पूड़ी वगैरह मिल जाए. पीने का पानी भी खत्म हो गया है. वह भी लेना है.'
इस बार वह मान गई. यह संयोग था कि, स्टेशन पर पूड़ी-सब्ज़ी, पानी सब कुछ मिल गया. मैंने एक बार फिर चाय भी ले ली. क्योंकि वह चाय, नमकीन की शौकीन लग रही थी.
लेकिन वापस आते ही मेरा दिल धक्क से हो गया....
'' क्यों ? ''
'' क्योंकि एक नव-दम्पत्ति, मेरी सीट से पहले वाली सीट पर बैठा हुआ था. मैंने मन ही मन कहा, अरे महा-मानवों, क्यों हम-दोनों के बीच में कंकड़-पत्थर बनने आ गए हो. आज भी सोच कर मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूँ कि, मुझे क्या हो गया था. मैं एकदम गुस्से में आ गया. बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था.
जल्दी से सामान मोहतरमा के हवाले कर युवक के पास पहुंचा. बिना एक सेकेण्ड गंवाए बेहिचक कहा, 'आप मुझ पर एक बड़ा एहसान कर दें, आगे, पीछे किसी भी दूसरी बोगी में बैठ जाएं. हम-दोनों पति-पत्नी के बीच बड़ा तीखा झगड़ा चल रहा है. आपको बहुत मुश्किल होगी, मुझे भी. हम अपना मामला घर पहुंचने से पहले सुलटा लेना चाहते हैं.
यह हमारी दूसरी पत्नी है. मामला ना सुलटा तो हमारा जीवन बर्बाद हो जाएगा. मैं आपका सामान खुद ही पिछली बोगी तक छोड़ आता हूं. आपका यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’
यह कहते हुए मैंने उसका सूटकेस तुरंत उठा लिया कि, ये तुरंत निकले यहां से, कहीं गाड़ी चल न दे.
मैंने यह सब इतना तेज़ किया कि, उसे कुछ सोचने-समझने का अवसर ही नहीं मिला. वह अरे सुनिए तो जब-तक इतना बोला, तब-तक मैं गेट से नीचे उतर गया. वह दोनों डर गए कि, कहीं
मैं सूटकेस लेकर भाग ना जाऊं, इसलिए दौड़े-भागे पीछे-पीछे आ गए.
मैंने पिछली बोगी के पहले ही गेट पर उनका सूटकेस अंदर तक धकेल दिया कि, उन्हें अंदर तक चढ़ना ही पड़े. यह सब करते हुए, मैं बराबर कहता जा रहा था, 'जल्दी, जल्दी
करिए, ट्रेन छूटने ही वाली है.'
मेरे इतने प्रेसर से दोनों हड़बड़ा कर जल्दी-जल्दी चढ़ गए. महिला चढ़ने लगी तो साड़ी के कारण थोड़ा लड़खड़ा गई. वह प्लेट-फॉर्म पर पीछे की तरफ सिर के बल गिर ही जाती, यदि मैंने उसे पीछे से संभाल कर भीतर न धकेल दिया होता.
वह दोनों कुछ बोले जा रहे थे, लेकिन मैंने उस पर बिलकुल ध्यान ही नहीं दिया. स्पष्ट था कि, वो नाराज ही हो रहे थे. मैं बस धन्यवाद, धन्यवाद कहता अपनी
बोगी की तरफ भाग लिया.
गाड़ी चल चुकी थी, मुझे अपनी बोगी में चढ़ने के लिए सात-आठ कदम दौड़ लगानी पड़ी. अंदर पहुंचते ही मैंने एक सेकेंड गँवाए बिना दरवाजा बंद कर दिया, कि कहीं वह या कोई और भी पीछे-पीछे ना आ जाए.
इसके बाद मैं बहुत आराम से, शिंक में हाथ-मुंह धो कर मोहतरमा के पास पहुंचा. वह बच्चे को दूध पिला रही थीं. एक बार फिर शुरू की ही तरह दोनों स्तन खुले हुए थे. मुझे देखते ही बोली, 'सब-कुछ तो लाये रहो,
फिर कहां भागे-भागे गए रहो.'
उसकी बगल में बैठ कर, मैंने उसके एक स्तन को दुलारते हुए कहा, 'दाल-भात में आ गए मूसर-चंद को भगाने गया था.'
मेरे हरकत करते हाथों को रोकते हुए उसने कहा, 'अरे अब अऊर कुछ न हो पाई , अऊर लोग आ गए हैं,
देख के सबै चालू हो जाएंगे.'
अपनी हरकतें जारी रखते हुए मैंने कहा, 'कह तो रहा हूं, उन्हीं मूसर-चंद को दूसरी बोगी में बैठा कर,
दरवाजा बंद करके आया हूँ . अब पहले की तरह हम-तुम हैं बस, और कोई नहीं.'
उसको सारी बातें बताई तो, वह हंसते-हंसते लोट-पोट हो गई. उसे अपनी दूसरी पत्नी बताया यह जान कर वह ठठाकर हंस पड़ी. बोली, 'साथे यहू तो बता देते कि, गाड़ी मा चले भर की बीवी बनाई है. 'मुताह निकाह' किया है.'
मैं भी हंसा तो वह आगे बोली, 'जो भी हो, अपने मजे के लिए उन बेचारों को परेशान करना अच्छा नहीं था. दोनों ही बहुत ही शर्मीले हैं. मुझे दूध पिलाते देख उलटे पाँव लौट गए. आदमी दो बार बोला 'क्षमा कीजिएगा, क्षमा कीजिएगा.'
बेचारे नए-नए मियां-बीवी हैं. पहली होली में बीवी को लेकर अपनी ससुराल जा रहा होगा. होई सकत है कि, हम लोगन की तरह उनकी भी ट्रेन छूट गई हो.'
उनके लिए उसकी सहानुभूति देख कर मैंने कहा, ' घबराओ नहीं, मैंने उनकी ख़ुशी का भी पूरा ध्यान रखा है. उनके लिए भी वो व्यवस्था की है कि, वो भी पूरी जर्नी में मस्ती करते जाएंगे.'
'अच्छा! दो सेकेण्ड में अईसा का कर आये हो?'
' यही कि, वह हम लोगों के मजे में कंकड़-पत्थर ना बनें और खुद भी अकेले होने का मजा लें. वह बोगी भी बिल्कुल खाली है. ऐसी जर्नी का अवसर उन्हें भी जीवन में फिर मिलने वाला नहीं. इसमें वह तुमको देख कर आए थे कि, चलो एक से दो सही. बेवकूफ ना जाने कैसे जवान हैं.
यहाँ तुम एक और मैं तीन बच्चे वाले होकर भी, अकेली बोगी ढूंढ़ रहे हैं. मिल गई तो उस पर कब्जा छोड़ने, किसी को आने देने के लिए तैयार नहीं हैं, कि जीवन में एक नए तरह का मजा ले सकें. और वह मूर्ख अकेली बोगी छोड़ कर, भीड़ ढूंढ़ रहे हैं. इसे ही कहते हैं. 'भरी जवानी में मांझा ढीला'. भरी जवानी में ऐसे ढले-बुझे से हैं तो आगे क्या करेंगे.'
वह हंसती हुई बोली,
' अरे होई सकत है वही करें, जो हम दुइनों
कई रहे हैं. अबहीं नए-नए हैं, जान तो लें
दुनिया को.'
' जिनमें जोश न हो, जीवन जीने के प्रति उमंग ना हो, वो कभी कुछ नहीं कर पाते, वैसे आओ पहले गरम-गरम पूड़ी-सब्ज़ी खाते हैं, चाय पीते हैं...
'' वाह, खाने के साथ-साथ उसे जीवन-दर्शन भी समझाते रहे.''
'' मैं उसे जीवन-दर्शन क्या समझाता. पहले खुद तो समझ लूँ. मुझे इसकी समझ होती, तो जो कुछ हुआ वह न होता. खाने के बाद हमें लगा कि, जैसे शरीर में नई एनर्जी भर गई है. चाय ठंडी हो गई थी, तो हम ने उसे फेंक दिया. पहली बार उसने खाने-पीने की चीजों के लिए धन्यवाद दिया.
मैंने कहा, ' छोड़ो भी इन फॉर्मेलिटी वाली बातों को, आओ आराम करते हैं.'
यह कहते हुए मैं उसे ऐसे बाहों में लेकर लेट गया जैसे कि, वह वाकई मेरी पत्नी हो. हालांकि ट्रेन में सफर भर की बीवी वह खुद ही बोल चुकी थी. यानी यात्रा खत्म होने तक हम आपसी सहमति से पति-पत्नी थे.
हम कहीं से कानून विरुद्ध काम नहीं कर रहे थे. उसे शायद उम्मीद नहीं थी कि, मैं ऐसा करूंगा. वह बड़ा प्यार जताती हुई बोली, 'अरे रुकौ तौ, कपड़ा तो ठीक से पहिंन ले देयो.'
मैंने कहा, ' मैं ठीक किए दे रहा हूं, क्यों परेशान हो रही हो.'
मैं पूरे मूड में था तो एक झटके में उसके सारे कपड़े निकाल कर, उसके सिर की तरफ रख दिया. अपने भी एक तरफ रख दिए. उसकी इन बातों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया कि, 'अरे हम पहनने की बात कर रहे हैं, उतारने की नहीं.'
मैंने उसे बांहों में समेटे हुए, लेटे-लेटे कहा, 'अगर लबादा लादे ही रखना होता तो इतना रिस्क लेकर उन दोनों को पिछली बोगी में क्यों भेजता.'
'अच्छा! तो यही लिए उनका भगायो कि, फिर उछल-कूद कई सको. अऊर रिस्क कऊँन सा लिओ?'
'देखो हम दोनों ठहरे धुंआ-धार जोशीले आदमीं. इसलिए हमारा खेल चलते रहना चाहिए. क्योंकि हमारा जोश हमें रुकने ही नहीं देगा. इसीलिए उन्हें भगाया. बचपने की डोर पकड़े वो दोनों हमारे प्रचंड जोश से शर्मिंदगी फेस करते. और चलती गाड़ी में चढ़ने का रिस्क
तो मैंने उठाया ही न.'
तब मैंने मन ही मन यह भी कहा कि, असली रिस्क तो सूटकेस तुम्हारे हवाले छोड़ कर उठाया मोहतरमा. कहीं उसे लेकर तुम इधर-उधर उतर जाती तो. तुममें जोश से कहीं ज्यादा होश और होशियारी भरी हुई है. मैं जोश के नशे में होश और होशियारी में तुम से बहुत पिछड़ गया हूँ. पता नहीं क्यों मन रह-रह कर यह कह रहा है कि, मेरा जोश कहीं मुझ पर भारी न पड़ जाए.
इसी बीच उसने कहा, 'मानेक पड़ी, अपने जोश बदे तुम बहुत बड़ा रिस्क उठाएव.'
आखिरी कुछ शब्द उसने दांत हल्के से पीसते हुए कहे, और मुझे पूरी ताकत से जकड़ लिया. अब तक गाड़ी हवा से बातें कर रही थी.
बड़ी देर तक उफान मारती हमारे जोश की लहरों के ज्वार में आखिर भाटा आ गया. लेकिन ट्रेन की रफ़्तार में नहीं. हम भाटा में लहरों से बिछुड़ गई मछलिओं की तरह तट पर पड़े हिल-डुल, हांफ रहे थे. उसकी ज्यादा गहरी सांसों को सुनकर मैंने कहा, 'क्या यार, तुम तो बहुत उम्र-दराज़ औरतों की तरह हांफ रही हो. यह कैसी जवानी है.’
'अब जैइस होय जवानी, मगर तुमरे जैइस ताक़त अऊर ऊ..का कहत रहो, जोश हमरे पास
नाहीं है. अऊर तुम्हरी बीवी नाहीं हाँफत का.'
उसने प्यार से एक मुक्का मेरे सीने पर मारते हुए, हंस कर कहा,
' हांफती है, मगर वह तुमसे ज्यादा बड़ी भी तो है. उसके तीन-तीन बच्चे हो चुके हैं.'
'अरे तो हमरे भी एक होइ चुका है. अऊर फिर तुम उनका खूब बढ़िया-बढ़िया खिलावत-पिलावत होइहो. मास-मछरी, काजू-बादाम, किसमिस. हिंआ तो बस पेट भर जाता है आराम से, इतनी ही गनीमत है. यहू चैन से नहीं.
मियां की नौटंकी से हमेशा खून अलग जलता रहता. तुमरे जईसा नेक आदमीं थोड़ी न मिला है कि, खाली सफर भर की बीवी बनायेव हो, वहू मजाक मा, तब भी खाना-पीना से लेकर शरीर तक का सारा सुख मूड़े (सिर) तक भरे दे रहे हो. देखते ही न सिर्फ सोचे कि, ई बच्चा का दूध पिला रही है तो इसको खाना-पीना की ज्यादा जरूरत है, बल्कि दौड़-दौड़ लायके खिला भी रहे हो.
उसने तो भैया जब पेट में था, तब से लेकर आज-तक न पूछा खाने-पीने को. बस जब मन हुआ तब चढ़ बईठे, उछले-कूदे मुंह उठाए के चल दिए. यहू कायदे से कई लें तबौ ठीक. महीना मा चार-छह बार मा ही फ़ांय-फ़ांय करे लागत हैं. मगर बेगम चाही चार ठो. बच्चा चाही चौदह ठो. सब ऊपर वाले के भरोसे. अपना खाली ......
आगे बड़ी भद्दी बात कहती हुई, वह खोखली हंसी हंस दी. मुझे उसकी खोखली हँसी बहुत कुछ कहती हुई लगी. जिसमें उसकी मरती इच्छाओं, टूटते सपनों की अंतहीन पीड़ा से लेकर भीतर-भीतर सुलगती अग्नि की तपिश भी थी. बात के आखिर तक पहुँचते-पहुँचते उसकी आवाज़ में पीड़ा का पुट आ गया था.
अचानक ही फूट पड़ी उसकी पीड़ा देख कर मुझे उस पर दया आ गई. मैं कुछ देर उसे देखता रहा. आपको सच बताऊँ उस समय क्षण-भर को मेरे मन में आया कि, इसे भी घर ले चलूँ
क्या? पत्नी को हाथ-पैर जोड़ कर मना लूँगा. न मानी तो इसकी अलग व्यवस्था कर दूंगा.
लेकिन वकील आदमी तुरंत नियम-कानून, संविधान सामने था. हिन्दू विवाह-अधिनियम दिमाग में चलने लगा. बड़ी गुस्सा आने लगी नेहरू पर कि, ये कैसी कुटिलतापूर्ण, भेद-भाव में आकंठ डूबी व्यवस्था, कानून.
बताते पढ़ाते चले आ रहे हैं कि, संविधान की मूल भावना है कि, किसी भी के साथ, किसी भी प्रकार से, किसी भी स्तर पर कोई भी भेद-भाव नहीं होगा, लेकिन इसके विपरीत धर्म के आधार पर एक को चार-चार विवाह की स्वतन्त्रता तो,
दूसरे को एक से अधिक विवाह पर सजा.
यह हिंदुओं के साथ कठोरतम, निर्दयतापूर्ण, निर्लज्जतापूर्ण अन्याय है. प्रकृति न्याय के विरुद्ध है. इतिहास हिंदुओं के साथ इस घोर अन्याय को भी पंजीकृत करेगा. कानून का आधार धर्म ही था तो हिन्दुओं में तो बहु-पत्नी परम्परा सनातन काल से ही चली आ रही है. सच कहता हूँ आपसे यह कानून का अड़ंगा नहीं होता, वह मान जाती तो मैं उसे साथ ले आता. उसके दुःख ने मुझे द्रवित कर दिया था....
'' तो क्या आपने उसके सामने घर चलने का प्रस्ताव रख दिया था?''
'' हाँ, मैं उसके दर्द से इतना अधिक आहत हो गया था, कि घोर अन्याय-पूर्ण, निर्लज्जता भरी क़ानूनी बाधाओं को जानते हुए भी मैंने उससे साफ़-साफ़ कहा, 'तुम्हें अगर किसी तरह की आपत्ति न हो, तो मेरे साथ, मेरे घर चलो. तुम्हें इस सफर भर की ही नहीं, जीवन भर की पत्नी बना कर रखूंगा. जैसे सुख आराम से मेरी पत्नी रहती है, उसी तरह तुम भी पत्नी बन कर रहो.'
यह सुनकर वह एकदम अवाक मुझे देखती रही, तो मैंने कहा,' ऐसे क्या देख रही हो, मेरी बात पर विश्वास नहीं है क्या ?'
'अरे नहीं, विश्वास की बात नहीं है. अब ..अब छोड़ो. मुकद्दर में जऊँन है झेले का, झेलबे. ऐसे तुमरे लिए भी मुसीबत हो जाएगी. सफर भर की ही बीवी बनाये के इतना सुख दे दे रहे हो कि, और कुछ की जरूरत ही नहीं रह जाएगी.'
यह कह कर वह बड़ी जोर से हंस दी. लेकिन वह हंसी भी मुझे खोखली और नकली लगी....
मैंने वकील साहब को यहीं टोकते हुए कहा, '' यदि आप अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ ?''
'' आज तक आपकी किसी बात को अन्यथा लिया है मैंने? कहिये न .''
'' आपने अब-तक उसके बारे में
जितना बताया, उससे क्या मैं यह निष्कर्ष न निकालूँ कि, आप उसके लिए मन में उपजी करुणा के कारण नहीं, बल्कि उसके शरीर के आकर्षण, वासना के वशीभूत होकर उसे दूसरी पत्नी बना कर लाना चाहते थे, जिससे उससे वासना पूर्ति की स्थाई व्यवस्था हो जाए.''
''आपसे बात करते समय स्वयं के लिए ऐसी कठोर बातें सुनने के लिए मैं सदैव तैयार रहता हूँ. जब आप अपनी पत्नी, बच्चों
को नहीं छोड़ते तो मुझ पर कैसे दया कर देंगे. साथ ही आप भी जानते हैं कि, मैं भी सच और खरा बोलता हूँ.
इस समय भी आप बिलकुल खरा सच सुनिए कि, मैंने वासना के वशीभूत होकर नहीं, उसके लिए ह्रदय में जो दया, करुणा फूट पड़ी थी, उसी के कारण मेरे मन में आया कि, मां बेटे को ले चलते हैं. इन्हें अच्छा जीवन देते हैं. ये भी मेरे परिवार के दो और सदस्यों की तरह इंसानों जैसा जीवन जियें. इसके अलावा मेरे मन में और कुछ नहीं था.''
'' और क़ानूनी अड़चनों के बारे में कुछ नहीं सोचा कि, वह आपको ऐसा करने भी देगा?''
'' वकील हूँ ,यह बात थी मन में, पहले ही कह चुका हूँ. पूरे विश्वास के साथ मैंने स्पष्ट सोच लिया था कि कोई रास्ता निकाल लूंगा. ''
''प्रसंशा योग्य है आपकी भावना. उसे मनाने की और कोशिश नहीं की?''
'' मुझे कोई संभावना नहीं दिखी तो मैं चुप हो गया. दूसरे मैं अब एक नींद लेने की फ़िराक़
में था. क्योंकि सूटकेस को लेकर मेरी चिंता अब पहले जैसी नहीं रह गई थी. मुझे उस पर विश्वास हो चला था. इसलिए बातों को विराम देकर जल्दी ही हम-दोनों सो गए. बहुत देर तक सोते रहे.
अचानक कुछ झटका सा लगा और मेरी नींद खुल गई. बोगी में घुप्प अंधेरा था. मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा. जैसे ही ध्यान इस तरफ गया कि, गाड़ी रुकी हुई है, मेरा दिल धक्क से हो गया, कि बस करो मोहतरमा पैसों भरा मेरा सूटकेस लेकर भाग गईं.
मेरी धड़कनें बढ़ गईं, साँस लेना मुश्किल हो गया. पसीना भी महसूस करने लगा. इतना
बदहवास हो गया कि, दिमाग में यह नहीं आया कि, बगल में ही वह सटी लेटी थी, जरा हाथ हिला कर देख लूं लेटी है कि नहीं. उठने लगा कि, खिड़की खोल कर बाहर देखूं गाड़ी किस स्टेशन पर खड़ी है.
उठते समय पैर किसी इंसानी शरीर से छू गया तो, मेरे दिमाग में यह नहीं आया कि, अरे मोहतरमा तो लेटी हैं, दिमाग में बात यह आई कि, यह कौन पड़ा है, जिंदा है कि मुर्दा है. क्रिमिनल लॉयर का दिमाग सीधा जिंदा-मुर्दा पर चला गया. टटोल कर जल्दी से लाइट जलाई तो देखा मोहतरमा दूसरी तरफ करवट लिए सो रही थीं. एक हाथ बच्चे के पैर पर था.
अब जाकर मेरी जान में जान आई.
मोहतरमा को बेधड़क अपने कपड़ों
पर सिर रखे सोता देखकर सोचा कि, जो भी हो यह चोर नहीं हो सकती. पति की सताई, प्यार के लिए तरसती, भूखी औरत है बस. प्यार की थोड़ी छांव चाहती है. मैं अकारण ही बेचारी पर शक करने लगता हूँ. मैं उसे जगाते-जगाते रुक गया कि, सोने दो, आराम करने दो.
पैंट पहन कर खिड़की खोली कि, देखूं कौन सा स्टेशन है. लेकिन बाहर घुप्प अंधेरे के सिवा कुछ ना दिखा. चारो तरफ एकदम सन्नाटा था. झींगुरों, कीड़ों-मकोड़ों की हल्की-फुलकी आवाज सुनाई दे रही थी. ध्यान दिया तो बहुत दूर आगे, कहीं
टिमटिमाती दो-चार लाइट दिखाई दीं. मतलब गाड़ी स्टेशन पर नहीं बीच रास्ते में, बस्ती से काफी दूर खड़ी थी.
मैंने जाकर शिंक में हाथ-मुंह धोया. गेट खोल कर बाहर दोनों तरफ देखने लगा. ट्रेन की पीछे वाली बोगिओं की तरफ नजर डाली तो, कर्व लाइन पर खड़ी होने के कारण आखिरी बोगी तक नजर जा रही थी.
वहां गॉर्ड टॉर्च जला-जला कर इधर-उधर कुछ देख रहा था. इसलिए यह पता चल गया कि, गाड़ी पीछे कहां तक है. मैंने घूमकर इंजन की तरफ देखा तो दस-बारह बोगी के बाद उसकी हेड-लाइट की चमक दिखाई दी.
मैं व्याकुल हो उठा यह जानने के लिए कि, आखिर गाड़ी पहुंची कहां है? कहां खड़ी है? मगर कहां, किससे पता करूं? आस-पास न आदम, न आदम की जात. फिर क़दम नीचे उतरने के लिए फड़कने लगे. पैर आखिरी सीढ़ी पर रखे ही थे कि मोहतरमा की आवाज कान में पड़ी, 'अरे किधर हौ?'
उसकी बात पूरी होने तक मेरे क़दम जमीन पर थे. उसकी आवाज़ कान में पड़ते ही जवाब दिया, 'यहीं हूं'
वह दरवाजे पर आकर बोली, 'हद कर दिए हो, बिना बताए चले आए, अऊर हिंआ नीचे अंधेरे मा का कर रहे हो? अंदर आओ, बंद करो दरवाजा, कऊनों
चोर-डकैत, कीड़ा-बिच्छु, जानवर आ जाई तो जान घाते मा पड़ि जाई.'
उसने दाएं-बाएं दोनों तरफ देखते हुए ऐसे कहा, जैसे पत्नी हो. लेकिन जो भी हो, उसकी बात शत-प्रतिशत सही लगी. ध्यान मेरा तुरंत पैसों, सूटकेस पर गया. मैं ऊपर चढ़ आया.
उसने तुरंत दरवाजा बंद करते हुए पूछा, 'गाड़ी खड़ी कहां है?'
'वही तो पता करने जा रहा था, तुमने जाने ही नहीं दिया.'
'अरे अंधेरे में कहाँ जाते, किससे पता करते? हिंआ कऊन बईठा है बतावे वाला. कऊनों आपन गांव
देख के खींच दिहिस होई चैन. देख नहीं रहे दूर गांव मा बत्ती दिख रही हैं. ई गाँव के लोगन का हमेशा के यहे काम है.'
उसकी आवाज़ में नाराज़गी थी. मैंने सोचा कि, कह तो ऐसे रही है, जैसे इनका रोज का आना-जाना है. लेकिन जो भी था, बात सही कह रही थी. लाइन किनारे बसे गाँवों के लोगों की बेवजह या जहाँ चाहे वहां उतरने के लिए चेन खींचने की आदत पता नहीं कब छूटेगी.
अपनी जगह बैठती हुई, उसने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, 'एक आवाज उठाए तो देते. नींद खुली तो न देख के घबरा गए कि, कहां उतर गए. सामान देखेन तो जान में जान आई कि हिंऐ कहूँ हैं.'
मैंने उसे छेड़ते हुए कहा, 'तुम्हें छोड़ कर कैसे चला जाऊंगा? मैं तो तुम्हें हमेशा के लिए साथ ले चलने के लिए तैयार हूँ.'
न जाने क्या सोचते हुए, मुझे कुछ क्षण देखने के बाद बोली, ' तुम हौ बहुत मुरहा मनई.
खुद कपड़ा पहिन के बाबूजी बन गएव, हमें बताए नाहीं सकत रहौ कि, हमहू पहिर लेइत. कोई आय जात तो?'
'क्या बात करती हो, किसी को आने देता तब ना.'
अचानक ही वह पूरी तरह खड़ी बोली पर आती हुई बोली, 'अच्छा ! लेकिन खुद तो देखा होगा,
घूर-घूर के, बिना देखे कुछ छोड़ा ना होगा.'
'तुम भी कमाल करती हो, सब-कुछ करने के बाद भी छुप कर देखने की बात कहां से आती है. मैंने इसलिए नहीं उठाया कि, तुम गहरी नींद में दिखी. मन में यह बात आई कि, सिर के नीचे से साड़ी निकाल कर ऊपर डाल दूं. लेकिन रुक गया कि, इससे तुम्हारी नींद खुल सकती है. इसलिए मैंने सोचा सोने दो, ऐसे ही. वैसे भी उस तरह सोती हुई तुम सच में बहुत सुंदर लग रही थी.'
फिर मैंने टाइम देखते हुए बताया कि, हम-दोनों करीब चार-पांच घंटे लगातार सोते रहे, तो वह कुछ आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली, 'अच्छा! अरे तो कल रात से थके भी तो बहुत हैं.'
'तुम्हारा बेटा भी तब से सो रहा है कि, उठा था बीच में.'
'उठा था. कपड़ा गंदा किए था तो ले जाकर साफ किया,
दूध पिलाया तो फिर सो गया. तब शाम हो रही थी.'
मैंने उसे फिर छेड़ते हुए कहा, 'ओह, तो तुमने भी मुझे जगाया नहीं. मतलब कि, तुम छिप कर लगातार मुझे देख रही थी.'
यह सुनते ही वह बड़े प्यार से बोली, 'हट, कितना देखना, क्या देखना? अभी तुम ही कह चुके हो कि, कुछ बाकी है क्या?'
' कह तो मैं ठीक ही रहा था. वैसे तुम तो उस समय मुझे बहुत अच्छी लग रही थी. मैं तुम्हें उस तरह कैसा लग रहा था?'
'अरे अब जैसे हो, वैसे ही लग रहे थे.'
इस हंसी-मज़ाक के बीच मैंने सूटकेस से टाइम-टेबल निकाल कर देखा तो, उस हिसाब से हमारी जर्नी आधी से ज्यादा पूरी हो जानी चाहिए थी. गाड़ी को देवरिया के आस-पास होना चाहिए था. तभी इंजन की सीटी की आवाज सुनकर मोहतरमा बोलीं, 'लगता है अब चलेगी.'
उसकी बात सही निकली. ट्रेन जल्दी ही पूरी स्पीड में आ गई.
मैंने एक खिड़की थोड़ी सी खोल दी. और आर.ए.सी. की तरफ शीशे वाली खिड़की लगा दी कि, उस तरफ भी दिखता रहे. हवा ठंडी आ रही थी. उसके बच्चे का भी ध्यान रखना था.
पंद्रह मिनट बाद ही स्पीड कम होनी शुरू हो गई, और कुछ ही देर में जब ट्रेन 'महाराजगंज'
स्टेशन पर रुकी तो मैंने अपना सिर पीट लिया. कि, अभी तो जर्नी थोड़ा बहुत नहीं, बहुत बाक़ी है.
अन्य स्टेशनों की तरह यहां भी सन्नाटा मिला. बड़ी मुश्किल से चाय-पानी मिल पाई. वहीं एक कर्मचारी से पूछा, कब-तक लखनऊ पहुंचेगी, तो वह उबासी लेकर बोला, 'क्या बताऊँ, सात घंटा लेट चल रही है.'
बीच में क्यों खड़ी थी? यह पूछने पर बताया कि,'इसका इंजन फेल हो गया था. दूसरा इंजन भेजा गया. तब आई है.'
मैंने आकर मोहतरमा से बिस्कुट-नमकीन निकालने के लिए कहते हुए सारी बात बताई तो उसने कहा,' इस हिसाब से तो यह कल शाम तक 'लखनऊ' पहुंच जाए तो, बहुत बड़ी बात है.'
मैंने उससे कहा कि, मैंने घर मिसेज़, बच्चों से बात कर ली है. तुम्हारे पति का कोई नंबर हो तो बताओ, बात करा दूँ . इस पर वह बड़ी कड़वी हंसी हंस कर बोली, 'कैसा घर, वहां किसी को मेरी चिंता नहीं है. इसलिए बताया भी नहीं है कि, मैं आ रही हूं.'
उसकी स्थिति समझते हुए, मैंने तुरंत विषय बदल कर कहा, 'कोई बात नहीं, चाय पीजिए ठंडी हो रही है. खाना वगैरह मिलने की तो अब कोई उम्मीद नहीं है. केला, संतरा जो हैं, वह भी आगे थोड़ा-बहुत काम देंगे.'
वह चाय पीती हुई बोली, 'इतनी बार आए-गए ऐसा कभी नहीं हुआ. ये कहो मेरा भैया
खाली दूध पर है. नहीं तो बड़ी मुसीबत हो जाती.'
'सही कह रही हो.'
संयोग से मैंने केला, संतरा ज्यादा ले रखा था. रात करीब बारह बजे हम-दोनों ने दो-तीन केले, संतरे खा लिए. उस समय पेट भरने का यही एक मात्र रास्ता था. 'महाराजगंज' के बाद गाड़ी कई जगह रुकी, लेकिन चाय और सन्नाटे के सिवा कुछ और नहीं मिला. हां वह आदमी तीन बार मिला, जिसे मैं पिछली बोगी में ठेल आया था.
पहली बार मिला तो बड़ी शालीनता से बोला, 'भाई-साहब आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था. मैं तो कुछ देर समझ ही नहीं पाया कि, हुआ क्या? उस हड़बड़ाहट, जल्द-बाजी में
हम में से किसी को चोट भी लग सकती थी.'
मोहतरमा की बात सही थी. शादी के बाद वह पहली होली ससुराल में ही मनाने की रस्म पूरी करने ससुराल ही जा रहा था. संयोग से 'लखनऊ' ही. मैंने वही खुराफाती, मस्ती-भरी बातें बताते हुए कहा, 'इस स्पेशल जर्नी का भरपूर मजा लो मित्रवर. एकदम नई-नई
तरोताज़ा पत्नी के साथ, बोगी में अकेले जर्नी करने का अवसर जीवन में फिर कभी नहीं मिलेगा. इस एक्सपीरिएंस को कभी भूल नहीं पाओगे. अब जीवन में ना तो, शादी के बाद की पहली होली आएगी, और ना ही सामने से ही होकर गुजर रही ट्रेन छोड़ोगे, और न एकदम....बात अधूरी छोड़ते हुए मैं हंस दिया. मैंने हल्के से आँख भी मारी थी.
वह हंसकर चला गया. उसकी भी ट्रेन छूट गई थी. मैंने मोहतरमा को बताया तो वह भी हंसी......
'' आप काम ही ऐसा कर रहे थे. युवा वो था, लेकिन युवागिरी आप कर रहे थे. यानी उस समय सब-कुछ पटरी से उतरा हुआ था. सवारी से लेकर गाड़ी तक.''
यह सुनकर वकील साहब हँसे. फिर ऐसे सोचने लगे, जैसे कुछ याद कर रहे हों. मैं शांत रहा. मैं नहीं चाहता था कि, उनका ध्यान भंग हो. थोड़ा समय लेने के बाद उन्होंने आगे बताना शुरू किया,
'' हम-दोनों एक बार फिर आर.ए.सी. सीट को एक करके बैठे हुए थे. बाथरूम के आस-पास वाली कुछ लाइट्स छोड़ कर बाकी सब आफ कर दी थी. मैं ही नहीं, मोहतरमा भी इस अनूठी जर्नी
का पूरा-पूरा ख़ास मजा ले लेना चाहती थीं. हर मजे का रेशा-रेशा लूट लेने में लगी हुई थीं.
मैं गॉर्ड वाली बोगी की तरफ चेहरा करके, दोनों पैर पूरा फैलाए हुए बैठा था. और वह मेरे पैरों के बीच, बिल्कुल पीछे तक बैठी थी. उसका सिर मेरी छाती पर टिका हुआ था. मेरी ठुड्डी उसके सिर को छू रही थी.
हम-दोनों बाहर घुप्प अंधेरे, कभी बीच-बीच में पड़ने वाली बस्तियों की लाइट देखते या फिर कभी साफ चमकते सितारों भरे आसमान की ओर. वह कभी मेरे हाथों की उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी करती तो, कभी बीच वाली अंगुली का सिरा दांतों के बीच में रख कर उन्हें जल्दी-जल्दी दबाती....
'' और आप, आप
केवल अन्धेरा, बस्तिओं की लाइट और आसमान के तारे गिन रहे थे या आपके हाथ भी ....
बात अधूरी छोड़ते हुए मैं हंसा तो वह भी हंस कर अपनी बात आगे बढ़ाते
हुए बोले,
'' हाँ, वैसे ही मेरे हाथ भी कभी उसकी छाती, निप्पल, नाभि को छेड़ते, तो कभी गहरी घाटी में भी बंगी जम्प लगा आते. अचानक मैंने उससे पूछा,'तुम गाना वगैरह जानती हो?'
तो उसने चंचल-शोख स्कूली लड़कियों की तरह सिर हिलाते हुए कहा,' ऊंहूँह.'
'अरे कुछ तो आता होगा कुछ भी सुनाओ.'
'ऊंहूँह..तुम ही कुछ सुनाओ ना, कितनी बढ़िया हवा चल रही है, काली रात, सितारों भरा आसमान, गाड़ी में बस हम-तुम दो मेहमान. कुछ तो सुना ही सकते हो.'
मैंने बात फिर उसी की ओर मोड़ते हुए कहा, 'कुछ चुटकुला-वुटकुला तो सुना ही सकती हो. बातें तो किसी कवित्री जैसी कर रही हो, और कोई गाना नहीं याद आ रहा है, तुम्हारी यह बात समझ में नहीं आ रही है. मुझे चुटकुलों के सिवाय कुछ आता नहीं. कैसे काम चलेगा?'
'चलाना चाहोगे तो चल ही जाएगा, चुटकुले ही सुनाओ.'
उसकी बड़ी जिद पर मैंने कई चुटकुले सुनाए, तो वह बोली, 'कुछ ऐसा सुनाओ कि, मज़ा आ जाए.'
'मज़ा' शब्द पर उसके ख़ास जोर का निहतार्थ समझते हुए मैंने फिर वकीलों के बीच अक्सर चलने वाले कई बेहद खुले, नॉनवेज चुटकुले सुनाए. उन्हें
सुनकर वह कभी आहें भर्ती , कभी सिसकारी निकालती, कभी मेरी उंगलियां चूमने लगती. फिर एक बार इन अश्लील चुटकुलों की तरह, एक भोजपुरी लोक-गीत पर बहुत ही ज्यादा अश्लील पैरोडी गुन-गुनाने लगी.
कुल मिलाकर उसकी आवाज अच्छी थी, वह पैरोडी वास्तव में एक बहुत पुराने भोजपुरी
होली-गीत
'काहे खातिर राजा रुसे काहे खातिर रानी, काहे खातिर बकुला रूसे कईले ढबरी पानी, जोगीरा सा र र र. राज खातिर राजा रूसे, सेज खातिर रानी, मछरी खातिर बकुला रूसे कईले ढबरी पानी, जोगी जी साररर.' की पैरोडी थी. जो
मेरे चुटकुलों से भी ज्यादा खुली और अश्लील थी.
वास्तव में उसकी अश्लीलता का स्तर सुन कर मेरे मन में आया कि,
भोजपुरी में यह जो अश्लीलता आजकल परोसी जा रही है, यह संत गोरखनाथ, भिखारी ठाकुर ,रामजी राय ,पांडेय कपिल द्वारा स्थापित उच्च-स्तरीय भोजपुरी साहित्य की परम्परा की जड़ खोद रही है. इसको रोकने का भी कोई रास्ता है क्या? यह सोचते हुए मैंने उसे और सुनाने के लिए कहा. अब मेरा उद्देश्य उसे और गहरे समझने का था.
कहने पर उसने दो-तीन पैरोडी और सुनाईं. सभी अश्लीलता में एक-दूसरे से होड़ ले रही थीं. कहां से सीखा यह बार-बार पूछने पर भी यही कहती, 'बस ऐसे ही आ गया.'
मैंने पूछा, 'कभी अपने पति को भी सुनाया,?'
तो मुंह बनाती हुई बोली, 'पहले खूब मजे ले-लेकर सुनता भी था, सुनाता भी था. लेकिन जब झगड़ने लगा, शराब पीने लगा, तब से सब खतम. अब तो गुनगुना भी दूँ, भूले से कोई फिल्मी गाना भी जुबान पर आ जाए तो उसकी चले तो मेरा सिर ही कलम कर दे. वो तो कहो, अब मैं भी बराबर आँख में आँख डाल कर खड़ी होना जान गई हूँ, तो दांत किटकिटा कर चला जाता है.'
अश्लीलता पुराण के चलते रहने से मुझ पर फिर फगुनहट हावी हो गई. दूसरे मैं बड़ी देर से एक ही पोज में बैठे-बैठे उकता भी गया था. पैर भी सुन्न हो रहे थे, तो उसके एक अंग से छेड़-छाड़ करते हुए कहा, 'तुमने
बहुत सुनाया, हमने भी खूब सुनाया. जो सुना-सुनाया अब वही करने, कराने का समय आ गया है.'
यह कहते हुए मैंने बड़े प्यार से उसे पलट दिया. उसके किसी जवाब का इंतजार नहीं किया. क्योंकि उसका जवाब क्या होगा यह मैं जानता था. वह हंसती-खिलखिलाती हुई बोली, ' बिना रंग खेले ही तुम्हरे फगुनहट सवार है.'
हम-दोनों ने ट्रेन की रफ्तार से भी, कहीं बहुत ज्यादा तेज़ी से उसकी पैरोडी को उसी सीट पर साकार कर दिया. इसके बाद उसे थोड़ी ही देर में नींद आने लगी तो मैंने उससे सो जाने के लिए कहा. वह बच्चे के पास जाकर सो गई. उसने बच्चे को एक छोटी सी शाल ओढ़ा दी, और खुद साड़ी ओढ़ ली थी.
मैंने देखा वह सोती तो कम ही थी, लेकिन बेधड़क, बेसुध सोती थी. उस समय उसे थोड़ा बहुत, बाएं-दाएं, आगे-पीछे भी खींच दो, तो भी उसकी नींद खुलने वाली नहीं थी. उसने मुझसे भी कहा सोने के लिए, लेकिन मैंने नींद ना आने का बहाना किया और बैठा रहा. उसको छेड़ते हुए इतना जरूर कहा, 'तुम सारे कपड़ों की तकिया लगा कर ही सोना. जिससे अगर बोर होऊँ तो तुम्हें देख-देख कर बोरियत दूर कर लूँ.'
इस बात पर वह हंसी और बड़े अंदाज में बोली, 'हट, मैं कपड़ा पहनकर, लपेटकर, एकदम बाँध कर ही सोऊंगी. तुम्हउ बैठ के ऊबो न, आओ साथे सोओ. छल-कबड्डी का तो पूरा मजा लई चुके हो, अब आओ सोए का मजा लेयो.'
उसकी यह बात मुझे आमंत्रित करने लगी, मन सोने के लिए विचलित होने लगा, क्योंकि नींद तो मुझे भी आ ही रही थी. लेकिन मुझे पैसों की सुरक्षा परेशान किये हुए थी. एक तो जितना मिलना था, उसका आधा ही मिला था. जूलरी भी नाम-मात्र को ही मिली थी. मैं हिसाब-किताब लगा-लगा कर यही सोचता था कि, जितनी मेहनत की, जितना रिस्क उठाया , उस हिसाब से तो कुछ मिला ही नहीं.
मैंने बच्चों के भविष्य के लिए जो सपने देखे हैं, उन्हें पूरा करने के लिए अपनी इनकम को आधा ही पाता हूँ. इसीलिए अतिरिक्त प्रयास भी करता रहता हूँ. उस समय कुछ ही देर में उसके सोते ही, मन में यही सब बातें ज्यादा चलने लगीं.
तभी मैंने पत्नी को फ़ोन किया कि, शायद जाग रही हो. मेरा अंदेशा सही निकला. वह मेरी चिंता में सोई नहीं थी. बिल तेज़ी से बढ़ रहा था, फिर भी काफी देर
तक बात की. इसके बाद मैं कभी आसमान देखता, तो कभी अंधेरे को चीरती दौड़ती जा रही ट्रेन की आवाज सुनता.
बीच-बीच में नजर मोहतरमा पर भी डाल लेता.
उसको निश्चिंत सोता देखकर मन में आया कि, यह तो कोई कमाई-धमाई भी नहीं करती. मार-पीट, उपेक्षा करने वाले, नशेड़ी पति पर ही डिपेंड है, फिर भी कितनी निश्चिंत है. जीवन का पूरा मजा ले रही है. कैसे बेसुध-बेधड़क सोती है.
यह सोचते हुए मेरी नजर फिर उसी पर ठहर गई. वह करवट से अब पेट के बल सोई हुई थी. जो धोती उसने कंधे तक ओढ़ी थी, वह उसके उलटने-पलटने, या उड़ कर, जैसे भी हो उसके पैरों के पंजे तक चली गई थी.
गैलरी में जलने वाली हल्के नीले रंग की लाइट में, गेंहुए रंग का, उसका कसा हुआ बदन किसी ग्रेट आर्टिस्ट की पेंटिंग सा दिख रहा था. मज़बूत चौड़े कंधे, बालों की थोड़ी मोटी, आधी पीठ तक लम्बी, गुंथी हुई चोटी पीठ पर से एक तरफ लटकी हुई पड़ी थी.
दोनों विशाल छातियाँ दबकर अर्ध-चंद्राकार बाहर दिख रही थीं. चौड़ी पीठ से काफी पतली कमर थी. और फिर पीठ से काफी चौड़ाई लिए विशाल इग्लू की तरह उसके नितंब, उसके बाद गोल मज़बूत जांघें
घुटने तक पतली होती चली गई थीं.
उसका साफ-सुथरा स्टील सा चिकना बदन कह रहा था कि, बचपन में उसकी खूब सेवा हुई है. खूब तेल-बुकवा हुआ है. मैं आपसे सच कह रहा हूँ, उस समय यदि कैमरा होता तो मैं उसकी ढेर सारी तस्वीरें उतार लेता, और पत्नी को दिखाता कि, देखो एक खूबसूरती यह भी है. मैं तरह-तरह की बातें सोचता रहा. उसको, बच्चों के भविष्य आदि को लेकर.....
यहीं पर मैंने वकील साहब को टोकते हुए कहा,'' एक मिनट, एक मिनट, ये बताइये यदि आप उसकी तस्वीर खींच पाते, तो क्या सच में इतनी हिम्मत कर पाते कि, उसे भाभी जी को दिखाते, उसकी प्रसंशा करते.''
यह सुन कर वह मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैंने कोई मूर्खता कर दी है . कुछ देर देखने के बाद बोले, ''हम-दोनों पति-पत्नी ने औरों की अपेक्षा एक स्वस्थ समझदारी वाली समझ, इतने दिनों में विकसित कर ली है. ऐसी बातों से भी हमारे बीच कोई बड़ा तूफ़ान नहीं आता. मेरी बात की सत्यता का प्रमाण यह है कि, यदि ऐसा नहीं होता तो मैं यह घटना उसे बताता ही नहीं. किसी को नहीं बताता, आपको भी नहीं.''
मुझे लगा कि, मैंने वाकई गलत संदेह किया. तो तुरंत उनसे कहा,''आप ठीक कह रहे हैं. आप दोनों ने ऐसी दुर्लभ समझ विकसित कर ली है, कि ऐसी कोई समस्या आ ही नहीं सकती. इसलिए आगे बताइये, आपकी नींद का क्या हुआ?''
'' हुआ यह कि, तीन बजते-बजते मुझे लगा कि, अब नींद और नहीं रोक पाऊंगा. मैं उठा और उसी की बगल में सट कर लेट गया. बिना प्रेस वाले कपड़े और गंदे न हों, इसलिए उन्हें सीट पर ही पड़ा रहने दिया.
उसे कमर के पास से पकड़ कर खुद से और ज्यादा सटा लिया. वह थोड़ा कुनमुना कर और सट गई. नींद में भी उसे अहसास था कि, कौन उसके साथ है.
मुझे याद नहीं कि, मैं कितनी देर तक सोया. लेकिन नींद चाय-चाय की कर्कश आवाज से टूटी. आँखें खुलीं तो चेहरे पर पड़ती धूप से चुंधियाने लगीं. गाड़ी किसी स्टेशन के प्लेट-फॉर्म पर खड़ी थी.
मैं चौंक कर उठ बैठा, देखा मेरी पैंट-शर्ट, मेरे ही ऊपर पड़ी हुई थीं. आधी से भी कम खुली खिड़की से मोहतरमा चाय और आलू कटलेट ले रही थीं. उसने नाश्ते को मेरी ही तरह, मेरे सामने रखते हुए, बड़ी ही दिखावटी शैली में
कहा,
'लीजिये चाय पीजिए. अब तो नींद पूरी हो गई होगी.'
वह बिल्कुल नहाई-धोई फ्रेश लग रही थी. चमक रही थी. हाव-भाव, बोल-चाल भी बदले-बदले से लग रहे थे. मैंने कहा, 'आपने क्यों कष्ट किया? जगा देती तो मैं ले आता.'
'बार-बार ला रहे थे, तो मैंने सोचा एक बार मैं भी देख लूं.'
मैंने जल्दी से पैंट पहननी शुरू की तो वह हंसने लगी. मैंने कहा, 'जगाया नहीं, चाय वाला ऐसे देखकर क्या सोच रहा होगा.'
मेरी इस बात पर हंसती हुई बोली, 'यही कि, बड़ी बेदर्द मेहरिया है. सफर में भी मर्द को नहीं छोड़ा. रात-भर इतनी मेहनत कराई कि, बेचारा बेदम पड़ा है. अब फिर चैन नहीं पड़ रहा तो, सवेरे-सवेरे चाय पिलाकर जगा रही है.' बात पूरी करते-करते वह खिलखिला कर हंस पड़ी.
फिर बोली, 'घबराओ नहीं, सामने खड़ी होकर ही खिड़की खोली. कोई तुम्हें देख नहीं पाया.'
हाथ-मुंह धोकर उसके साथ नाश्ता किया.
शिंक के पास उसके और बच्चे के कपड़े सूख रहे थे. मैंने उससे पूछा, ' तुमने यह नहाना-धोना कब कर लिया.'
तो वह बोली, 'एकदम सवेरे उठने की आदत है. पांच
बजे नींद खुली तो देखा तुम गहरी नींद में सो रहे हो, तभी हमने सोचा चलो नहा धो लेते हैं. गिलास से पानी भर-भर के जितना हो पाया उतना नहाया.'
तभी मुझे मज़ाक सूझा. मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'जगा देती तो अच्छा था. तुम को नहाते हुए भी देखते और साथ में नहाते भी.'
'अच्छा! तो अभी भी कोई दोपहर तो हुई नहीं है. चलो मन का ये भी कर लो. हम भी देखें साथ नहाने का मज़ा कैसा होता.'
'जैसा भी हो, मज़ा तो निश्चित ही देगा.'
'अब बस भी करो. अब-तक इतना मज़ा दे दियो हो कि, वही नहीं संभाल पा रहे. कभी सोचे भी नहीं थे. और फिर कुछ बीवी के साथ भी करने के लिए छोड़ दो, सारा कुछ मेरे ही साथ करोगे, सारा मज़ा मुझ पर ही लुटा दोगे तो उनको क्या दोगे.'
' मज़ा बाँटने से कम नहीं, बढ़ता ही है. और अभी सारा कुछ किया ही कहाँ? अभी तो शुरुआत ही की है.'
'कमाल है, शुरुआत ऐसी है तो, सारा कुछ में क्या-क्या होगा?'
' बहुत कुछ ऐसा, जो तुमने सोचा भी नहीं होगा.'
' तुम्हारे इतना कहाँ सोच पाएंगे. निकाह से पहले मिल जाते तो हम भी सोचना सीख जाते.
अभी तो जितना कुछ हुआ उसके बाद कुछ सोचने लायक ही नहीं रह गई. उसी में बार-बार डुबकी लगा रही हूँ.
जब उठी तो एक बार मन में आया कि, तुम्हें भी जगा दूं. लेकिन फिर तुम्हारी खुराफात याद कर सोचा कि रहने दो. तुम ठीक से नहाए भी ना दोगे. जब नींद पूरी हो जाएगी तो अपने आप जाग जाओगे.'
वह जब हल्की मुस्कुराहट के साथ यह बोल रही थी तब मेरी दृष्टि बराबर उसके चेहरे थी. मैंने पहली बार ऐसा महसूस किया कि जैसे वह जो बातें कह रही है, उनका कोई सम्बन्ध उसके मन में चल रही बातों, भावों से नहीं है.
मन में उसके कुछ और है, जिव्ह्या पर कुछ और. बड़े प्रयास के बाद भी उसके मन में क्या चल रहा है, उसका मैं कोई अनुमान नहीं लगा सका, उल्टा उसके नहाए-धोए चेहरे, बदन के आकर्षण में खोते हुए पूछा, ' ट्रेन तो अब-तक कई स्टेशनों पर रुकी होगी. किसी ने दरवाजा खोलने के लिए खटखटाया नहीं.'
'खटखटाया, लेकिन हमने ध्यान ही नहीं दिया. एक कोई कमीना टाइप का था. जो गाली देते हुए गया.'
तभी गाड़ी चल दी. मैंने सोचा देखूं कौन सा स्टेशन छोड़ रही है. सामने शेड पर 'देवरिया' लिखा देखकर सिर पीटते हुए कहा, 'धत्त तेरे की. अभी 'देवरिया' ही पहुंचे हैं. आज भी पूरा दिन बीतेगा इस डिब्बे में. गाड़ी रात-भर चली थी या खड़ी रही कहीं.'
'पता नहीं. जब उठे तो किसी स्टेशन से पहले ही खड़ी रही बड़ी देर तक. कुछ लोगों की बात सुनकर मालूम हुआ कि,
इंजन से दो-तीन जानवर कट गए हैं.'
'हद हो गई है. सब-कुछ इसी गाड़ी के साथ होना है. इससे अच्छा तो बस से चले होते तो अब-तक पहुंच गए होते.'
अब मैं बहुत ज्यादा परेशान हो गया. मन बहुत खिन्न हो गया.
अगले स्टेशन पर पेपर लेने उतरा तो याद आया कि, होली की छुट्टी के कारण आज तो पेपर भी नहीं आया होगा. खाने की कुछ चीजें लेकर मोहतरमा के पास वापस आ गया. सारी चीजें उसके सामने रखते हुए कहा, 'लीजिए खाइए.' खिन्नता के कारण, अब उसका साथ भी मुझे उबाने लगा था.
अब हर स्टेशन पर मैं गाड़ी से नीचे उतर जाता और गेट के सामने ही टहलता रहता. जब इंजन चलने की सीटी देता, तब मैं चढ़ता. ध्यान मेरा पैसे पर बराबर बना हुआ था. बीच-बीच में मोहतरमा के पास भी जाता. थोड़ा-बहुत हंसी-मज़ाक करता रहता.
इसी बीच मेरा ध्यान इस तरफ गया कि, मैं जहाँ खिन्न हो रहा था, वहीँ वह एकदम निश्चिन्त थी. ऐसे व्यवहार कर रही थी जैसे कि वो ट्रेन,
बोगी ही उसका घर है.
ट्रेन की तरह हम-दोनों की शारीरिक छेड़-छाड़ भी चल रही थी. क्योंकि मैं सोचता कि, इस थकाऊ यात्रा से वह भी तो बोर हो रही होगी. खोखली हंसी-मज़ाक के बाद वापस फिर आकर गेट पर खड़ा हो जाता या उसकी किनारे वाली सीट पर बैठ कर बाहर की तरफ देखता रहता.
तमाम उलझन देती, उबाती आखिर गाड़ी रेंगते-रेंगते 'बभनान' स्टेशन पहुंची. छोटे से इस स्टेशन पर भी मैं उतरा और टहलने के बजाय चाय-नाश्ता लिया और सीधे मोहतरमा के पास पहुंचा. वह बच्चे को दूध पिला रही थी. एकदम पहले ही की तरह. जैसे शुरू में देखा था.
मैंने सोचा कि, इससे पूछ ही लूँ ऐसे फूहड़ तरीके से दूध पिलाने के बारे में. चाय देते हुए कहा, 'पिछले दो स्टेशन पर कुछ ले ही नहीं पाया, खाने का टाइम हो रहा है, आगे किसी स्टेशन पर मिलेगा तो ले आऊंगा.'
मोहतरमा ने चाय लेते हुए कहा, ' इतना परेशान ना हो, केला, संतरा, सेब, सब ले चुके हो. इसी से काम चल जाएगा.'
उसने बिलकुल पत्नी के से अंदाज़ में कहा, तो मैं उसे गौर से देखने लगा. इस पर वह बोली, 'ऐसे क्या देख रहे हो?'
अब-तक मेरी नजर बच्चे, दूसरे स्तन पर घूमने लगी थी. उससे यह छिपा नहीं रहा. बड़ा इठलाती हुई बोली, 'भैया का दूध फिर ललचवाये रहा है का? बहुत देर भी हो गई है. चाय बार-बार पी रहे हो. नाश्ता भी कर रहे हो, लेकिन दूध....बात यहीं अधूरी छोड़ते हुए वह जोर से हंस पड़ी.
लेकिन मैं उसकी बात का कोई जवाब दिए बिना, चाय पीते हुए उसे देखता रहा. वह बोलती ही चली जा रही थी और मेरी नजर उसके स्तन से हट नहीं रही थी. मैंने महसूस किया कि, इससे मैं ऊबती दुनिया से बाहर निकलता आ रहा हूँ. गाड़ी की स्पीड भी तेज़ होती जा रही थी.
बच्चा भर-पेट दूध पी चुका तो, हाथ-पैर चला कर खेलने लगा. मैं जो बात पूछने वाला था, वो हाशिये पर चली गई. मेरे भी हाथ खेलने लगे. मैंने कहा, सही कह रही हो. टेस्ट थोड़ा चेंज होना ही चाहिए. कई बार चाय पी चुका हूं. दूध ही सही, इसी से टेस्ट चेंज करते हैं.
बच्चा सीट के नीचे
लेटा खूब खेल रहा था, और हम-दोनों अपना-अपना टेस्ट चेंज कर रहे थे. बड़ी देर तक टेस्ट चेंज करने के बाद, एक-दूसरे के टेस्ट, जानकारी की तारीफ भी
की गई. इस बीच गाड़ी फिर किसी स्टेशन के करीब पहुंच कर धीमीं होने लगी.
वह
बोली, ' चलिए उठिए, दिन का टाइम है, स्टेशन आ गया है.'
जो पूछना था, वह तो हाशिये पर ही रहा, लेकिन बीच पृष्ट पर अब यह आ गया कि, इस मोहतरमा में कौन सी ऐसी ताकत है, जो मुझे बारम्बार अपने पास खींच ले रही है. या फिर मेरा स्वभाव ही ऐसा है, मैं बहुत ही अतृप्त आत्मा हूं.
क्या मेरी पत्नी ऐसा कुछ नहीं करती कि, मेरी आत्मा संतुष्ट रहती, या मैं ऐसा हूं कि, अपनी पत्नी से संतुष्ट हो ही नहीं पाता, और जहां कहीं स्त्री देखी , वहीं पर भटक गया. लेकिन पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ.
यदि मेरा यही स्वाभाव है तो क्या वो आज तक मुझे समझ ही नहीं पाई. मुझसे उसने एक बार भी ऐसी कोई बात की ही नहीं. किसी मित्र ने भी कभी कुछ नहीं कहा. चलो घर पहुँच कर जानने की कोशिश जरूर करूंगा.
लेकिन यह बात तो पूरी तरह सच है कि, यदि यह अन्य महिलाओं की तरह स्तन ढक कर बच्चे को दूध पिला रही होती, तो इस समय मैं सिर्फ चाय ही पीता.
पूछता हूँ इससे कि, ये बच्चे को अन्य औरतों की तरह ढक कर दूध क्यों नहीं पिलाती. पूछा तो वह हंस कर बोली,'अब ईमा का छिपाना. जो है,सो है, किसी के देखे से छोटे थोड़ी हो जाएंगे.' ऐसा अटपटा जवाब सुनने के बाद इस बिंदु पर मैं कुछ नहीं बोला.
लेकिन अगले स्टेशन 'मसकनवा' से जब गाड़ी चली तो वापस बैठते हुए भी मैं यही सोचता रहा, जो भी हो, यह अच्छा तो किसी भी दृष्टि से नहीं है. यह मेरे कमजोर चरित्र की निशानी है. मुझमें इतनी कमजोरी तो पहले कभी नहीं रही.
किसी स्त्री की तरफ मैं जल्दी गलत निगाह तक नहीं डालता, फिर इसके सामने कैसे इस तरह से बिलकुल पागल हो गया हूँ. ऐसा लगता है, जैसे इसके सामने मैं, मैं ही नहीं रह जाता, खुद पर मेरा कोई कंट्रोल ही नहीं रह जाता. ऐसा भी नहीं है कि, यह कोई
बहुत खूबसूरत परी है.
पत्नी इससे बहुत बड़ी है. फिर भी इससे हज़ार गुना ज्यादा सुन्दर है. उसके गोरे रंग, देहयष्टि, बात-चीत, शिष्टाचार, पढ़ाई-लिखाई, किसी भी मामले पत्नी के सामने एक क्षण नहीं ठहरती, तो फिर इसमें क्या बात है, जो मुझे, मुझ सा नहीं रहने देती. कारण को जाने बिना छोड़ा नहीं जा सकता. निश्चित ही यह गंभीर बात है.
'लखपत नगर' स्टेशन क्रॉस करके जब गाड़ी 'मनकापुर' जंक्शन पहुंची तो, मैं अपनी बेचैनी के जाल से निकलने के लिए फिर नीचे उतर गया. मैंने सोचा कि, युवावस्था में भी मेरी इस तरह की विचार-धारा कभी नहीं रही. तरह-तरह की महिला क्लाइंट भी आती हैं, लेकिन हमेशा काम से काम रखता हूं. अन्य बहुत से वकीलों की तरह फीस के साथ-साथ उनके तन के शोषण की
बात सोचता तक नहीं.
इस ट्रेन में इस मोहतरमा के साथ ऐसा क्या हो गया है कि, मैं हद से भी ज्यादा अपने स्तर से नीचे गिर गया हूं. कितनी निर्लज्जतापूर्ण बात है कि जमीन पर उसी की तरह बैठ रहा हूँ ,सो रहा हूँ. खा-पी रहा हूँ. अश्लीलतम बातें कह-सुन रहा हूँ. इसे स्वयं के नीचे गिरने की पराकाष्ठा नहीं
तो और क्या कहूँ. मेरा इससे ज्यादा चारित्रिक पतन और क्या हो सकता है.
यह सच है कि, उसने खुला आमंत्रण दिया था, लेकिन सच यह भी तो है कि, मैं उससे बहुत बड़ा हूं. उससे बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा हूं. सीनियर वकील हूं. कानून का विशेषज्ञ हूँ. कानून भले ही परस्पर सहमति से ऐसे संबंधों को गैर-कानूनी न कहे, लेकिन नैतिकता को तो मैं शुरू से ही कानून से ऊपर मानता आया हूँ. इस सिद्धांत के चलते ही कैसे एक मुकदमा हारते-हारते बचा था.
अपने इस सिद्धांत के मद्देनज़र भी मुझे उसके आमंत्रण को ठुकरा देना चाहिए था. यही मेरा कर्तव्य था न कि, उसकी बहाई
धारा में उस जैसा ही हो कर बह जाना.
ट्रेन सीटी देकर सरकने लगी तो, मैं फिर दरवाजे की ठीक किनारे वाली सीट पर बैठ गया. बहुत आत्म-ग्लानि सा महसूस करता हुआ. सोचता रहा कि, चलो इसकी तो बात समझ में आती है कि, यह अपने पति की हरकतों से बहुत गुस्से में है, विक्षोभ में है. लेकिन मैं? मेरा तो पत्नी के साथ मधुरतम संबंध है.
जिस किसी भी कोण से मैं विश्लेषण करता, हर कोण से मुझे सारी ऊँगलियाँ अपनी ही तरफ घूमी हुई मिलतीं. मुझे हथेलियाँ नम सी महसूस हुईं. जब यह सोचा कि, भूल से भी अगर पत्नी को यह पता चल गया तो? वह पता नहीं इतनी उदारमना होकर भी माफ कर पाएगी या नहीं.
वाकई बहुत बड़ी गलती कर डाली है. ऐसी गलती जिसे जीवन-भर भुला नहीं पाऊंगा. जीवन-भर पत्नी के सामने पड़ते ही एक चोर मन में बैठा रहेगा. मैं निश्चिंत होकर पूरे आत्म-विश्वास के साथ उससे नजरें भी नहीं मिला पाऊंगा. मन में बैठा चोर अपमान की अनुभूति कराता रहेगा.
पंद्रह-बीस मिनट के बाद मैं वहीं बगल वाले बाथरूम में गया. हाथ-मुंह धोया. अपने मन की उलझन को शांत करने का प्रयास किया. काफी राहत महसूस भी की. मगर मेरा दुर्भाग्य देखिये कि, कुछ ही क्षण में,
मन फिर आवारा हो गया, बदचलन हो गया, धोखा दे गया. एकदम लंपटई पर उतर आया. छिछोरापन फिर उछल-कूद करने लगा कि, देखें मोहतरमा अब क्या कर रही हैं?
मैं रुकना चाहता था, लेकिन क़दम उसी की ओर बढ़ते चले गए. पैर जैसे मेरे ना होकर किसी और के हों. मेरे कंट्रोल में ही नहीं थे. वहां पहुंचा तो देखा मोहतरमा अपनी जगह पर नहीं थीं. सामान पड़ा हुआ था. बच्चा भी नहीं था.
मैंने सोचा बच्चे ने गंदगी करी होगी. उसे साफ करने गई होगी. लेकिन मेरे मन की लंपटई ने इतना भी टाइम नहीं दिया कि, मैं वहां बैठकर उसकी प्रतीक्षा करता.
मैं बाथरूम की तरफ चल दिया. मगर वहां मुझे वह झटका लगा कि, मैं चेतना-शून्य हो गया. मेरे होश फाख्ता हो गए. वह कहीं नहीं दिखी. मैंने भड़ाक-भड़ाक दोनों बाथरूम के दरवाजे खोले, लेकिन सन्नाटा. बाहर निकलने वाला दरवाजा खुला मिला.
मेरा दिल जैसे विस्फोट कर उठा, मैं पसीना, घबराहट लिए, इधर-उधर लड़खड़ाता, सीटों से टकराता, आँखों में सूटकेस की तस्वीर लिए उसी तरफ भागा. वहां पहुंचा तो मोहतरमा, बच्चे की तरह मेरा सूटकेस भी गायब था.
मुझे लगा कि, जैसे मेरी छाती फट जाएगी. मैं दौड़ता-भागता हुआ दरवाजे के पास पहुंचा, उसे झटके से अपनी तरफ खींच कर पूरा खोला. मैं हड़बड़ाहट में पूरी स्पीड में चलती ट्रेन से नीचे उतर ही जाता, अगर ऐन टाइम पर खुद पर काबू न किया होता. फिर भी धड़धड़ाती फर्राटा भर रही ट्रेन के दरवाज़े पर लगी हैंडिल को पकड़ कर, मूर्खों की तरह दोनों तरफ ऐसे देखा कि, गोया वह सामने से जाती हुई दिख जाएगी, और मैं उसे सूटकेस सहित ऊपर खींच लूंगा.
तेज़ हवा के कारण आँखें भी नहीं खोल पा रहा था. मैं पूरी आवाज़ में उसे दुनिया की गन्दी से गन्दी गालियां देता, फिर वापस उसके सामान के पास पहुंचा. उसकी डोलची. बैग को उठा-उठा कर पटक दिया.
सारा सामान इधर-उधर बिखर गया. उसे पैरों से कुचलता, मैं चीखते हुए भद्दी से भद्दी बातें लगातार कहे जा रहा था. मानों वह वहीं है, सुन रही है. जबकि मेरी आवाज़, मेरी तड़फड़ाहट की ही तरह, बोगी में ही घुट कर दम तोड़ रही थी.
इसी हड़बड़ाहट में मैंने गाड़ी की चेन खींच दी. गाड़ी के पहिये चीं..चीं..की तीखी आवाज के साथ थम गए. मैं दौड़कर गेट पर पहुंचा. देखा गाड़ी वीरान एरिया में खड़ी थी. झाड़-झंखाड़
उबड़-खाबड़ जमीन थी. गाड़ी 'मनकापुर' जंक्शन से कम से कम बीस-पचीस किलोमीटर आगे निकल चुकी थी.
अब-तक मैं खुद पर काबू कर चुका था. सोचा यहाँ उतर गया तो जाऊंगा कहां? जो औरत इतनी शातिर है, वह अब-तक तो न जाने कहां से कहां निकल गई होगी. अपना सारा सामान भी इसी लिए छोड़ गई कि, बच्चा और सूटकेस के साथ बैग और डोलची को संभालना मुश्किल था.
तभी मैंने देखा गार्ड जी.आर.पी. के लोगों के साथ चला आ रहा है. मैंने शिकायत करने की सोची, लेकिन तुरंत ही यह सोचकर ठहर गया कि, बात खुलेगी तो यह पूछा जाएगा कि, पैसे कैसे थे, कहां से आए? क्या बताऊंगा कि, दो माफियाओं के बीच लेन-देन को मैनेज कराने का कमीशन था.
गहनों के बारे में क्या जवाब दूंगा. मैं चुप-चाप खड़ा, उन लोगों को आगे निकलता देखता रहा. पता नहीं चला कि, चेन किसने खींची थी. अंततः गाड़ी चल दी.
मैं थके-हारे, घायल सिपाही की तरह आकर सीट पर लेट गया. सामने उसका सामान बिखरा पड़ा था. नफरत से मैंने उस पर थूक दिया. उसने मुझे 'गोंडा' उतरने के लिए बताया था. इसलिए मैं 'गोंडा' तक के लिए बिल्कुल निश्चिंत था कि, वहां तक तो साथ रहेगी ही . उसका टिकट भी 'गोंडा' तक देखा था.
टिकट की बात आते ही मेरा ध्यान उसके बटुवे की तरफ गया. मैंने फिर उसका सामान उल्टा-पुल्टा लेकिन वह नहीं मिला. मतलब साफ था कि, वह एक-एक मिनट की प्लानिंग बनाती रही. उस पर क़दम दर क़दम, क़दम बढ़ाती रही. और मुझे अपने गेंहुए बदन में
उलझाए रही, भरमाए रही.
पति के अत्याचारों से आक्रोशित एक तरह से परित्यक्ता ही थी. पति सुख की भूख, बरसों की भूख, जीवन-भर की भूख पूरी निर्लजता के साथ मुझसे मिटाती रही. और आखिर में एक गेंहुअन (कोबरा सांप) की ही तरह डस कर चली गई....
इतना कहते-कहते वकील साहब का चेहरा एकदम तमतमा उठा. मैंने उन्हें वहीँ टोकते हुए कहा, '' निःसंदेह उसने आपको लूटने की न सिर्फ अचूक योजना बनाई, बल्कि उसे पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ सफलता-पूर्वक क्रियान्वित भी किया.
वास्तव में वह स्वभावतः एक लुटेरी औरत थी. उसने आपको देखते ही लूटने का निश्चय कर लिया था. उसका गणित यह रहा होगा कि, आदमी बड़े त्यौहार पर घर जा रहा है, पैसा वगैरह खूब होगा. उसका अनुमान दस-बीस हज़ार का रहा होगा.
लेकिन आपकी चूक से उसने यह जान लिया कि, यहाँ तो लाखों हैं. अविश्वसनीय रूप से कल्पना से भी बहुत ज्यादा. बस यहीं उसने अपनी योजना को संशोधित करके आपको और ज्यादा अपने प्रभाव में लेना शुरू कर दिया.
उसने अपने शरीर को अपना अमोघ हथियार बना लिया. वह आपका धन ही नहीं, आपसे शारीरिक सुख भी भरपूर लूट लेने की योजना क्रियान्वित कर रही थी. और आप उसे एक अबला समझ कर उसके जाल में उलझते ही जा रहे थे. एक तेज़-तर्रार वकील होते हुए भी ''
'' आप सही कह रहे हैं. मुझे उसकी बातों से चौकन्ना होना चाहिए था. अश्लील गानों को जिस तरह उसने सुनाया, उसी समय मेरा ध्यान उसके चरित्र की तरफ, उसके काम-धाम
की तरफ जाना चाहिए था. सोचना चाहिए था कि, वह किस तरह की है. उस समय उसके सामान को देख-देख कर मैं इतना परेशान हुआ कि, उठ कर दरवाजे की तरफ वाली सीट पर चला गया.
मगर वकील दिमाग में यह बात आई कि, अगर इसका सामान ऐसे ही बिखरा पड़ा रहा, और कहीं जी.आर.पी. वाले आ गए तो वह मुझे गिरफ्तार कर सकते हैं कि, महिला यात्री को अकेली पाकर, मैंने उसका रेप किया और उसे मार कर नीचे फेंक दिया.
मैंने वापस जाकर उसके सामान को बैग, डोलची में भरकर ऊपर बर्थ पर एक कोने में खिसका दिया कि, जिसका सामान है, हो सकता है भूल कर नीचे उतर गया हो.
और मैं तो इधर बैठा हूँ, उधर कौन चढ़ा, कौन उतरा, यह सब मैं क्या जानू. मैं यह सोचता रहा कि, आखिर मुझसे कहाँ चूक हो गई, कैसे मैं गफलत में आ गया कि, जिस सूटकेस पर
'दरभंगा' से लेकर आगे बराबर ध्यान बना रहा, वह आखिर में आकर भटक कैसे गया, मुझसे गलती किस जगह हुई.
आखिर निष्कर्ष यही निकला कि, 'मनकापुर' में जब मैं नीचे था, तब वह गेट पर सूटकेस लिए खड़ी रही होगी. मुझे अंदर आते देखकर, नीचे उतर गई होगी. ऐसा हुआ होगा. वैसा हुआ होगा. यही सोचते-सोचते मेरी खोपड़ी-भंजन होने लगी.
जब शाम को ट्रेन 'लखनऊ' में 'बादशाह नगर', रेलवे स्टेशन पर रुकी तो मैं नीचे उतरा. लेकिन खोपड़ी-भंजन तब भी चालू थी. प्लेट-फॉर्म पर मैं ऐसे चल रहा था, मानो अपने
ही हाथों, अपना ही घर फूँक कर चला आ रहा हूं, लुटा-पिटा.
अचानक मेरे सामने वो दंपत्ति आ खड़ा हुआ, जिसे उस बदमाश औरत के चक्कर में पगलाया हुआ, मैं पीछे वाली बोगी में धकेल आया था. बहुत ही बदतमीजी के साथ. इस चक्कर में उसकी पत्नी प्लेट-फॉर्म पर गिरते-गिरते बची थी. उसने बड़े चहकते हुए पूछा, 'कैसी रही आपकी यात्रा? कहां है आपका परिवार, सामान.'
व्यंग्य के अंदाज में उसने जब पूछा तो, मुझे गुस्सा आ गई. खोपड़ी-भंजन चालू ही थी. फिर भी मैंने गुस्से को पीते हुए कहा, 'भाई, बहुत ही खूबसूरत, अविस्मरणीय रही मेरी यात्रा. मेरा अहो-भाग्य कि, आप जैसे सहयात्री मिले.
मुझे खुशी इस बात की भी है कि, आपकी इस विशेष यात्रा, कि आप शादी के बाद पहली बार ससुराल जा रहे हैं होली मनाने, उसके लिए मैं एक पूरी बोगी आपके लिए अरेंज कर सका. और आपने सम्पूर्ण यात्रा भरपूर मजा लेते हुए पूरी की. आपके चेहरे पर बिखरी खुशी इस बात को प्रमाणित कर रही है.'
यह कहते हुए मैंने उसकी पत्नी के चेहरे पर भी एक नजर डाली. वहां आए भाव, हल्की सी सुर्खी भी, मुझे साफ़-साफ़ बता रही थीं कि, दोनों ने भरपूर आनंद उठाया है. बिना रुके मैंने आगे कहा कि, 'जहां तक रही मेरी बात, तो ना मेरा कोई परिवार था, ना ही कोई सामान. ससुराल में आपकी पहली होली, आपको बहुत-बहुत शुभ हो, ढेर सारी शुभ-कामनाएं, आशीर्वाद.
और आपको विवाहोपरांत मायके की पहली होली की बधाई.'
मैंने अभी भी संकुचाती उसकी पत्नी को देखते हुए कहा और आगे चल दिया. उनकी
प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा भी नहीं की. दोनों ने कुछ कहा, शायद धन्यवाद कहा होगा.…
मैंने देखा इतना कह कर वकील साहब के चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे बरसों से सिर पर लिए घूम रहे किसी बोझ को, अवसर मिलते ही फेंक कर, बरसों से ठहरी विश्राम की सांस ली हो. उन्हें ऐसे देखते ही मैंने पूछा,
'' ऐसे अविश्वसनीय यात्रा अनुभव के साथ घर पहुँच कर भाभी जी को कैसे फेस किया ?''
'' दरअसल जब मैं स्टेशन से बाहर निकल कर ऑटो से घर कि ओर चला तो अजीब सी मनोदशा हो रही थी. जैसे मष्तिष्क हर तरह की बातों से शून्य हो गया हो. उसमें कोई बात हो ही न.
मैं एकदम भावहीन, संज्ञा शून्य सा इतनी लंबी प्रतीक्षा के बाद घर पहुंचा तो सब ने राहत की सांस ली. पत्नी को देख कर मैं चैतन्य अवस्था में लौटा तो बड़ी कोशिश की, लेकिन अपने लुटे-पिटे होने के भाव छुपा नहीं पाया.
मेरी अस्त-व्यस्त हालत, खाली हाथ देखकर पत्नी ने कुछ पूछने के बजाय, पहले चाय-नाश्ता कराया. बच्चों को टीवी देखने के बहाने दूसरे कमरे में भेज दिया. किसी अनिष्ट होने की आशंका से वह परेशान हो रही थी. उसे मालूम था कि, मैं किस काम के लिए गया था. यह भी जानती थी कि, काम बहुत ही ज्यादा रिस्की है.
उसने मुझे कई बार मना भी किया था कि, इस तरह के कामों में हाथ ना डाला करें. चाय-नाश्ते के बाद उसने कुछ संकोच के साथ बात करनी चाही, तो मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दे दिया कि, ‘सूटकेस चोरी हो गया.’ तो उस ने कहा, 'आप सही-सलामत आ गए, यही हमारे लिए बहुत है.'
लेकिन क्योंकि मैं उससे कोई बात छुपा नहीं पाता, इसलिए मैंने चौबीस घंटे के अंदर ही उसको सच बता दिया, बिना किसी संशोधन के. क्योंकि उस गेंहुअन ने जो विष दिया था, उसके प्रभाव से मैं पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाया था. मैं ठीक से यह भी नहीं सोच सका, कि पत्नी को क्या बताना है, क्या नहीं.
वह बहुत गुस्सा हुई. हाथ में लिया हुआ सामान गुस्से से ज़मीन पर पटकती हुई बोली, ' मैं गलत थी, मूर्खों की तरह अब-तक भ्रम में जीती चली आ रही थी कि, सारे मर्द औरतों के मामले में
एक जैसे नहीं होते. मेरा पति तो बिलकुल भी नहीं. लेकिन नहीं, सच यही है कि, औरतों के मामले में तुम, सारे मर्द, सिर्फ और सिर्फ भेड़िये ही होते हैं. भेड़िये, और कुछ नहीं.'
उसके रौद्र रूप को देख कर उस समय मैं उससे यह नहीं कह सका, कि एकतरफा एक ही पक्ष को गलत कहना ठीक नहीं है . उस गेंहुअन को कुछ क्यों नहीं कहती. क्या उसकी कोई गलती नहीं?
वह पैर पटकती हुई, दूसरे कमरे में चली गई. जाते-जाते किचकिचाती हुई यह भी कह गई कि 'उस बदचलन, घिनौनी, आवारा को छूने के बाद, अब मुझे कभी न छूना.'
उसकी किसी बात पर मुझे गुस्सा नहीं आई. बल्कि आराम की सांस ली, क्योंकि मैं सोच रहा था कि, सच सुनते ही वह घर में बवंडर खड़ा कर देगी. लेकिन उसने ऐसी सदाशयता, बड़प्पन दिखाई कि, हवा कुछ तेज़ होकर, फिर अपनी सामान्य गति पर लौटती दिखी.
उसने मेरे इस स्पष्टीकरण को सुनने लायक भी नहीं समझा कि, मैं तो आगे बढ़ा ही नहीं था, उसने ही मुझे खींच कर गिरा लिया था खुद पर. ऐसे में मैं क्या करता?
मैं क्या, कोई भी मर्द उस स्थिति में खुद को संभाल ही नहीं सकता था.
कोर्ट में खुर्राट से खुर्राट न्याय-मूर्तियों को भी अपनी बात सुना कर ही मानने वाला, मैं घर में पत्नी के कठोर ऑर्डर-ऑर्डर वाले हथौड़े की भारी-भरकम चोट से कुचल कर शांत हो गया. वह मुझे अपनी छाया के पास भी फटकने नहीं दे रही थी.
घर में छिट-पुट रंग के धब्बे मुझे बता रहे थे कि, मेरी चिंता, प्रतीक्षा में बच्चों ने भी ठीक से त्यौहार नहीं मनाया था. मैं आपसे सच कहता हूँ कि, अपने इस कुकृत्य पर बहुत शर्मिंदा हूँ, जीवन भर मुझे इसका पछतावा रहेगा.''
मैं वकील साहब की बातों को सुनते हुए बहुत ही सूक्ष्मता से उनके चेहरे को पढ़ रहा था. जहाँ उनके पछतावे का विवरण बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित था. मैंने उनसे कहा, '' आप बहुत भाग्यशाली हैं कि, आपकी पत्नी ने बात यहीं खत्म कर दी, अन्यथा यह घर भी तोड़ सकती थी. लेकिन यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि, इतनी जल्दी आपने स्थिति को सामान्य बना लिया, पत्नी के साथ घूम रहे हैं .''
'' हाँ, लेकिन इसके लिए मुझे बड़े पापड़ नहीं, कुन्तलों पापड़ बेलने पड़े. लेकिन फिर भी कुछ समय बाद, जब बात करने लगी, तो बात-बात पर ताने मारना नहीं भूलती कि, 'वह बेवकूफ थी. उसे तो आपके सारे कपड़े भी ले जाने चाहिए थे. जिससे घर या तो मोगली (रुपयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध पुस्तक ' द जंगल बुक ' का मुख्य पात्र . भारत में इसके कार्टून सीरियल के लिए प्रसिद्ध गीतकार गुलज़ार द्वारा मोगली के लिए लिखा गीत ' चड्ढी पहन के फूल खिला है ...काफी समय तक लोगों की जुबान पर था. यह बच्चा जंगल में पशु-पक्षियों, जानवरों के बीच कोपीन [लंगोटी] ही पहन कर रहता था.) बन कर आते या फिर उसी का पेटीकोट, धोती, ब्लाउज पहन कर. जो आपकी
इस जर्नी को खास बनाती रही, और ढेर सारे नुकीले फांस की तरह जीवन-भर के लिए मेरे दिमाग में भी धंस गई है.'
उसके ऐसे तानों को शांतिपूर्वक सुनने के सिवा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए मैं सिर झुकाए एक चुप हज़ार चुप हो सुनता रहता हूँ. मुझमें उस समय इतना भी आत्म-बल नहीं रह जाता कि उसकी तरफ देख भी सकूँ….
वकील साहब इसके आगे भी
उसके बारे में बहुत सी बातें बताते रहे. बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा कि, '' मेरी चारित्रिक दुर्बलता के कारण ही है वह मुझे खुले आम लूटने में सफल हुई. इसी कारण पत्नी के मन में मेरी गंदी तस्वीर भी हमेशा के लिए बन गई है .''
यह कहते हुए वह बड़े गंभीर हो गए. उन्होंने सामने गिलास में रखा पानी उठा कर पी लिया तो मैंने कहा,'' हम चारित्रिक रूप से कितने सुदृढ़ हैं, इसकी वास्तविक परीक्षा ऐसे ही विशेष क्षणों में होती है.
ऐसे क्षणों में ही हमारी सबसे कठिन और अंतिम परीक्षा होती है. इसमें भी हमारा स्वयं पर नियंत्रण बना रहे, मन में किसी तरह की कोई उथल-पुथल, कोई अंतर्द्वद्द भी न पैदा हो, तभी यह समझना चाहिए कि हम चारित्रिक रूप से सुदृढ़ हैं. हम उत्कृष्ट चरित्र के हैं .''
यह सुनकर वकील साहब मुझे गौर से देखने लगे. यह स्वाभाविक भी था. क्योंकि
मेरी बातों का सीधा सा तात्पर्य यह था कि वो चरित्र परीक्षण की सबसे बड़ी परीक्षा में बुरी तरह असफल हुए हैं . उन्हें शून्य भी नहीं बल्कि माइनस में अंक मिले हैं.
उनके चेहरे पर उभरती हताशा-निराशा की रेखाओं को देख कर मैंने सोचा कि इनकी आत्म-ग्लानि कहीं इनके लिए किसी बड़े कष्ट का कारण न बन जाए, इसलिए इन्हें थोड़ा सपोर्ट मिलना ही चाहिए. यह इसके अधिकारी भी हैं. क्योंकि सारी गलती इन्हीं की नहीं है.
इनकी इस बात को मानना ही होगा कि शुरुआत उसी ने की थी. उसी ने इन्हें स्वयं पर खींच लिया तो आखिर ये और क्या कर सकते थे. इनकी बातों को दरकिनार कर इन्हीं को पूर्णतः दोषी ठहराना अन्याय है.
वह कुछ राहत महसूस कर सकें, उनपर से कुंठा, आत्म-ग्लानि का बोझ कुछ कम हो यह सोच कर मैंने उनसे कहा,'' देखिये जो हो गया उसे बदला नहीं जा सकता. आपसे जो गलती हुई, या आपने की, देखा जाए तो प्रकृति न्याय व्यवस्था ने बिना एक क्षण व्यर्थ गवाएं तत्तकाल आपको सजा भी दे दी.
अपने प्राणों को हथेली पर रख कर जो धन आपने अर्जित किया था, वह तत्तकाल आपसे छीन लिया. और फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्त्री प्रकृति की सबसे रहस्यमयी वह अनूठी रचना है, जिसके समक्ष विश्वामित्र हों या रावण सब नतमष्तक हुए हैं.
जब वह काम-बयार चलाती है तो बड़ी से बड़ी गहरी नींव, ग्रेनाइट पत्थरों सी मजबूती वाले चारित्रिक स्तम्भ भी तिनकों से उखड़ कर हवा हो जाते हैं. ऐसे में हम आप जैसों का स्थान क्या है? यह समझना बड़ा ही आसान सा काम है.
इसलिए जो हुआ उसे भूल कर जीवन को बेहतर बनाने के प्रयास में नई स्फूर्ति के साथ जुट जाइये. कवि गिरधर ने भी तो कहा है,' बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ. जो बनि आवे सहज में, ताही में चित देइ.''
ऐसी तमाम बातों से मैंने उनके सिर पर से आत्म-ग्लानि का बोझ कम करने का प्रयास किया. इस घंटों चली बात-चीत के बीच खाने का समय हो गया. मिसेज़ ने हमें बात-चीत रोक कर खाने के लिए बुला लिया. उसने कई तरह के ख़ास व्यंजन बनाए थे. वकील साहब की मिसेज़ ने किचेन में उसकी मदद की थी.
खाने-पीने के बाद जब-तक वकील साहब ने बिदा ली, तब-तक मेरे मन में उनके व्यक्तित्व चरित्र को लेकर तमाम प्रश्न खड़े हो चुके थे. मन में उनकी पूर्व की अच्छी सी तस्वीर विकृत होती दिख रही थी. उनको लेकर मेरा विश्वास डगमगा रहा था.
जब वह मेरे सामने बैठे खाना खा रहे थे, तब मेरी गुप्त दृष्टि बराबर उनकी आँखों पर थी. मैं देख रहा था कि कहीं उनकी दूषित दृष्टि
मेरी पत्नी के उन अंगों पर तो नहीं फिसल रही है, जिन अंगों को देख कर ट्रेन में उस महिला के साथ मिल कर इतना निकृष्टम कुकृत्य कर आए हैं.
पत्नी ने साड़ी ब्लाऊज भी ऐसी पहन रखी है कि आधी से अधिक छाती ,पीठ, पेट साड़ी के ऊपर से भी झलक रहें हैं. कंपनियों को ऐसे सेमी ट्रांसपेरेंट कपड़े नहीं बनाने चाहिए. मैंने बड़ी राहत महसूस की, कि जाने तक उनकी दृष्टि एक बार भी पत्नी कि तरफ नहीं उठी थी. हाँ एक अजीब सा संकोच उनके चेहरे पर बराबर बना हुआ था. जो मुझे उसके पहले कभी नहीं दिखा था.
उनके जाने के बाद मैं कई दिनों तक बार-बार यह सोचता रहा कि क्या अब भी वकील साहब का घर आना-जाना पूर्वत जारी रखना चाहिए या नहीं. मिसेज़ से क्या यह कहूँ कि उनके आने पर सामने नहीं आओ या फिर ऐसे कपड़े पहनों कि ...बड़ा सोचने-विचारने के बाद मुझे लगा कि यह सब करने की कोई आवश्यकता नहीं .
केवल एक घटना के आधार पर उनके पिछले उजले रिकॉर्ड को पूर्णतः धो देना सर्वथा अनुचित, अन्यायपूर्ण होगा. और मिसेज़ से भी ऐसा कुछ कहना गलत है. उसे पूरा अधिकार है
यह तय करने का कि उसे क्या, कैसे पहनना है.
यदि किसी भी स्त्री के, किसी भी अंग पर दृष्टि जाने से किसी की भावना, कुभावना में परिवर्तित होती है तो यह समस्या उसकी है. समाधान वही ढूंढ़े. उनकी समस्या के समाधन के लिए स्त्री अपनी इच्छाओं, भावनाओं को क्यों तिरोहित करे….
तो प्रिय पाठकों यह मेरे पहले मित्र वकील साहब के साथ घटी घटना है. जो इस उपन्यास को लिखे जाने से करीब दो दशक पूर्व घटी थी. जिसके आधार पर लिखे गए इस उपन्यास का शीर्षक 'ट्रेन में भेड़िया' रखने पर वकील साहब ने कड़ी आपत्ति जताई. वह बहुत नाराज हुए.
एकदम बहस करते हुए कहा, '' यह पूरा उपन्यास एक-पक्षीय है. इसे मैं सिरे से नकारता हूं. आपने तो मेरी पत्नी से भी आगे बढ़ कर, एकतरफा मुझे ही पूरी तरह से दोषी ठहराते हुए भेड़िया कहकर कठोरतम सजा भी दे दी है, जबकि शिकार मैं हुआ हूं. मैं शिकार था वो शिकारी, लेकिन उसके लिए, आपकी कलम से एक भी नकारात्मक शब्द
नहीं निकला, जिसने बिना संकोच मुझे खींच कर अपने ऊपर गिरा लिया था .
ऐसे में मैंने जो किया वह गलत नहीं है. और कोई मर्द होता, आप होते तो आप भी वही
करते. आप या कोई भी यदि यह कहता है कि, वह ऐसा नहीं करता, तो मैं स्पष्ट कहूंगा कि, वह एक नंबर का हिप्पोक्रेट है. वह सफेद झूठ बोल रहा है. या फिर वह निश्चित रूप से कोई योगी या नपुंसक है.
आपका यह उपन्यास स्पष्ट कह रहा है कि, आपकी कलम की रोशनाई (स्याही) में वह घुली हुई थी. उसका धीमा जहर लगातार आपकी कलम पर हावी रहा. लिखने के दौरान आप उसके साथ संभोगरत होते रहे, और उससे मिले उस
मानसिक सुख की कीमत आपने उसको पूरे उपन्यास में निर्दोष साबित करके चुकाई है.
उसने जैसे मेरा सूटकेस चुराया था, वैसे ही आपकी कलम भी चुरा ली है. उसके अपराध को आपने उलटा पीड़ित पर ही मढ़ दिया.
मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि, किसी भी मनोचिकित्सक से आप की जांच करा ली जाए तो वह यही कहेगा कि, आपके ऊपर उसका शरीर पूरी तरह से हावी था. आप पूरी तरह उसके प्रभाव में ही लिखते रहे. कुछ भी अपना, स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं लिख पाए. इसलिए मैं एक बार फिर दृढ़ता से इस एक-पक्षीय उपन्यास को पूरी तरह से नकारता हूं, और इसे डस्टबिन में फेंकने के लिए कहता हूं.''
यह कहते हुए वह उपन्यास का पहला ड्रॉफ्ट मेरे सामने टेबिल पर पटक कर चले गए. मेरे मन में आया कि, उनसे कहूं कि, निश्चित ही उसने आपकी सद्भावनाओं, स्नेह, विश्वाश को बड़ी ही कुटिलता-पूर्वक कुचला, रौंदा, धोखे से आपको ठग लिया, वह अपराधी है. लेकिन आपने उसके साथ, उसके ही स्तर पर उतर कर जो-जो किया, उससे आप भी निर्दोष नहीं हैं. आप उससे भी बड़े दोषी हैं. लेकिन वह मेरी बात, मेरा पक्ष सुनने के लिए रुके ही नहीं.
उपन्यास पर आगे बढ़ने से पहले, मैं उन्हें पढ़ा कर उनकी पहली प्रतिक्रिया जान लेना चाहता था. जो प्रतिक्रिया मिली, उससे भिन्न की मुझे आशा भी नहीं थी. इसी लिए बीस साल तक टालता चला आ रहा था.
लेकिन जब बीस साल बाद हू-ब-हू वैसी ही नहीं, बल्कि उससे भी कई गुना ज्यादा सनसनीख़ेज घटना फिर मेरी जानकारी में आई, तो मुझे लगा कि, अब इस पर अवश्य ही लिखना चाहिए.
मैंने सोचा कि, इन दो दशकों में पूरी एक नई पीढ़ी आ गई, लेकिन समाज में स्त्री और पैसे को लेकर लोगों के विचारों में कोई सकारात्मक परिवर्तन आने के बजाय वही भावनाएं और सुदृढ़ हुई हैं.
बीस वर्ष पहले लोग जहाँ खड़े थे, आज उससे भी कहीं बहुत आगे निकल गए हैं. स्त्रियों में
संकोच का दायरा बड़ी ही तेज़ी से संकुचित होता गया है. प्रिय पाठकों मेरी बात पर यदि आपको जरा भी संदेह है तो इस दूसरी घटना को बहुत ध्यान से पढ़ियेगा. मेरा पूरा विश्वाश है कि आपके समस्त संदेह दूर हो जायेंगे…..
~~~~ दूसरी घटना में क्या होता है कि, मेरे दूसरे मित्र एक देशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की पी.आर. सेल में सीनियर लाइजनर ऑफिसर हैं. ज्यादा समय उनका दिल्ली में ही बीतता है. वहीं एक दूसरी कंपनी की लेडी पी.आर.ऑफिसर उनकी बहुत ही करीबी थीं. सेम प्रोफेशन होने के कारण दोनों ही एक दूसरे के लिए मददगार साबित होते रहते थे.
अक्सर दोनों लखनऊ भी एक साथ आते-जाते थे. उनके ऑफिस में लोगों के बीच चर्चा यह भी होती थी कि, दिल्ली में दोनों एक ही फ्लैट में लिव-इन रिलेशन में रहते हैं. ‘कोविड- १९’
की पहली लहर में लगा लम्बा लॉक-डाऊन दोनों ने एक ही साथ बड़े आनंद-पूर्वक बिताया था. लॉक-डाऊन होने से पहले अधिक वर्क-लोड के चलते दोनों लखनऊ के लिए समय रहते निकल नहीं सके थे. वहीं फंस कर रह गए थे .
हालांकि दोनों के घर वालों को यही पता था कि, उन्होंने पूरा लॉक-डाऊन जान हथेली पर रख कर बड़ी कठिनाइयों में अकेले ही बिताया. पैसे होते हुए भी उन्हें खाने-पीने को लेकर बड़ी समस्यायों का सामना करना पड़ा था.
उस दौरान उनकी मित्र जब विडिओ कॉल पर घर पति, बच्चों से बातें करतीं तो आँखों से आंसू जरूर बहते. यह तो कोई नहीं जान पाया अब-तक कि, बहाती थीं या बहते थे. मित्र भी जब पत्नी-बच्चों से बातें करते तो प्यार स्नेह का पूरा सागर ही उन पर उड़ेल देते थे.
स्थितियां जब कुछ संभलीं, लॉक-डाऊन कई चरणों में अन-लॉक हुआ तो ये दोनों अपने-अपने घर पहुंचे. और बेहतर हुईं स्थितियां तो फिर अपनी नौकरी पर पहुँच गए. फ्लैट भी फिर से एक ही था. मगर ‘कोविड-१९’ काल का साल बीतते-बीतते पूरे देश के साथ ही उन्हें भी दूसरी और पहली से कहीं ज्यादा भयावह ‘कोविड-१९’ लहर आने की आहट सुनाई देने लगी.
जब दोनों न्यूज़ में वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों की यह बात सुनते-पढ़ते कि, दूसरी लहर बहुत भयावह परिणाम दे सकती है, तो हँसते हुए कहते, 'चलो और लम्बा लॉक-डाऊन एन्जॉय करेंगे. वैक्सीन की दोनों डोज़ ली है तो कुछ बेनिफिट भी तो लेना ही चाहिए.'
वह विशेषज्ञों की आगे की इस बात पर बिलकुल ध्यान ही नहीं देते कि वैक्सीन लेने के बाद भी कोविड-१९ के संक्रमण की संभावना बनी रहती है. इसलिए जब-तक दवाई नहीं तब-तक कोई ढिलाई नहीं.
दोनों ने योजना बनाई कि यदि फिर लॉक-डाऊन हुआ तो इस बार भी दिल्ली में ही रुके रहेंगे. घर वालों से कहेंगे कि लॉक-डाऊन से पहले निकलने का अवसर ही नहीं मिल पाया. लेकिन परिस्थितियों ने उनकी यह योजना फेल कर दी.
सरकार की हर चेतावनी, सोशल-डिस्टेंसिंग, मॉस्क लगाने, हाथ धुलते रहने की सलाह लोगों की लापरवाही की आंधी में उड़ती रही. त्योहार भी एक के पीछे एक लगे चले आए. लोग भी उनको मनाने से चूकने को तैयार नहीं हुए. सरकार भी चूक करने से चूकने को तैयार नहीं हुई , कई राज्यों में चुनाव पर चुनाव कराती रही.
ऐसे में फगुनहट भी ठहरने को तैयार नहीं हुई. वह क्यों पीछे रहती. पूरी मस्ती में इठलाती हुई चली आई. फिर होली के रंग में मस्ती भर्ती हुई उसे भी साथ ले आई .
छोटी होली के ही दिन मित्र एक बड़ा अमाउंट लेकर दिल्ली से लखनऊ घर के लिए चले. एकदम बीस साल पहले वाली स्थिति, कुछ परिवर्तन के साथ यहां भी बन रही थी. ट्रेन एकदम खाली थी.
वह अपना भारी-भरकम ब्लैक कलर का स्ट्रॉली बैग लिए ट्रेन के फर्स्ट क्लास कोच में, अपने कूपे के पास पहुंचे.
उन्होंने सोचा चलो अच्छा ही है. वह अपना बैग रख ही रहे थे कि, उनकी वही करीबी साथी भी रेड कलर का एक स्ट्रॉली बैग खींचती हुई आ गई.
दोनों इसके पहले भी एक साथ यात्रा करते ही रहते थे. इसलिए आश्चर्य वाली कोई बात नहीं थी. उनके बीच हाय-हेलो हुई. महिला ने मेरे मित्र को यह उलाहना जरूर दिया कि, उसने उसे यह क्यों नहीं बताया कि, वह इसी ट्रेन से जा रहा है.
मित्र ने जल्दी में भूलने का बहाना बना दिया. जबकि सच यह था कि वह कुछ भी नहीं
भूले थे. वह अपने स्वार्थ में उससे छिप कर निकलना चाह रहे थे. अपने-अपने घर, दोनों ने मोबाइल पर बातें कीं.
इसके बाद थोड़ी देर ‘कोविड-१९’ की संभावित भयावह दूसरी लहर, लगने वाले लॉक-डाऊन को लेकर हल्की हंसी-ठिठोली हुई. इसी बीच ट्रेन चल दी. उसने आऊटर क्रॉस ही किया था कि, मित्र ने ब्लैक डॉग स्कॉच व्हिस्की की एक क्वार्टर बैग से निकाली. साथ में ड्राई-फ्रूट्स का एक पैकेट भी. जल्दी ही दोनों ने क्वार्टर खत्म कर दी. उनकी मित्र की डिमांड पर दूसरी क्वार्टर भी फिनिस हो गई.
कूपे को वो पहले ही लॉक कर चुके थे. ब्लैक डॉग का सुरूर उनपर हावी हो रहा था और
कूपा उनकी मौज-मस्ती को पंजीकृत करता जा रहा था. वह अपनी मस्ती के पन्ने अपने हिसाब से लिखते रहे.
एकदम निश्चिन्त होकर, ऐसे जैसे किसी बड़ी सफलता का उत्सव मना रहे हों. उन्हें देख कर यह कहा ही नहीं जा सकता था कि, मेरे मित्र दो बच्चों के पिता हैं, और उनकी साथी दो बेटियों की मां है. उसी के आग्रह पर मित्र ने समय पर डिनर मंगाया.
सारी रात वो मौज-मस्ती का एक-एक पन्ना लिखते रहे. साथी की पहल पर ही मित्र ने लखनऊ पहुँचने के घंटे भर पहले ही आखिरी पन्ना पूरा लिखा.
ट्रेन भी जब-तक उन दोनों ने अपने कपड़े, सामान वगैरह ठीक किए, तब-तक लखनऊ रेलवे
स्टेशन के प्लेट-फॉर्म नंबर छह पर पहुँच गई. वो उतरने को हुए, तभी मित्र ने देखा कि उनकी पूरी रात, यात्रा को सुन्दर बनाने वाली साथी उनके स्ट्रॉली बैग की भी हैंडिल पकड़ कर ले जाने वाली है, तो उन्होंने सभ्यता-वश उन्हें तुरंत टोकते हुए कहा,'अरे तुम क्यों परेशान हो रही हो, मैं ले चल रहा हूं न.'
उन्होंने साथी का हाथ पकड़ कर रोकना चाहा तो, उसने पूरी ताकत, कठोरता से उनको झटकते हुए कहा, 'होश में रहिए. दोनों बैग मेरे हैं. मैं ले जा रही हूं. तुम्हारी हिम्मत भी कैसे हुई मुझे रोकने, मेरा हाथ पकड़ने की. अपनी हद में रहिए मिस्टर.'
इतना सुनते ही मेरे मित्र सकते में आ गए. एकदम भड़क कर बैग को दोबारा खींचने की कोशिश करते हुए बोले, 'दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा. मेरा सारा सामान इसमें भरा हुआ है, यह तुम्हारा कैसे हो गया? क्या हो गया तुम्हें? पागल हो गई हो क्या?'
मित्र उनसे हैंडिल छुड़ा नहीं पाए. उसने बहुत ही मजबूती से हैंडिल को जकड़ रखा था. वह
सेकेण्ड-भर में धक्का-मुक्की तक पहुंच गई. उसने जब देखा कि, वो ऐसे बैग नहीं ले जा
पाएगी तो, मित्र की आँखों में आंख डाल कर धमकी देती हुई बोली, 'सुनो यदि बैग नहीं ले जाने दिया तो मैं अभी फोर्स बुलाऊंगी, उन्हें सच बताऊंगी कि, तुमने मुझे धोखे से शराब पिलाकर रात-भर मेरा रेप किया. घंटे भर पहले तक. तुम तुरंत अरेस्ट हो जाओगे. मेरा मेडिकल चेकप होगा. रिपोर्ट में मुझ में शराब भी मिलेगी और तुम भी मिलोगे.
नो डाउट तुम लिप-लॉक किस भी बहुत अच्छा करते हो. तुम्हारा स्लाइवा भी मिलेगा. यहां-वहां, न जाने कहां-कहां मिलेगा. अमेरिका की वह मोनिका लेविंस्की तो याद है ना, और तब के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन. वह राष्ट्रपति होकर भी नहीं बच पाए थे. जबकि उनका मामला सिर्फ ओरल का था. तब भी उनकी हालत बद्द्तर हो गई थी. और तुम तो पूरा....इसलिए मैं क्या कह रही हूं, उसको जरा गहराई से समझो.
मैं क्या समझाना चाह रही हूं, वह समझ रहे हो न. सम्मान सहित यहां से घर
पहुंच कर फैमिली के साथ होली सेलिब्रेट करना चाहते हो या हथकड़ी पहनकर जेल जाना चाहते हो.'
मेरे मित्र अकस्मात किये गए उसके इस अविश्वश्नीय हमले, उसकी कठोरता, दृढ़ता से निशस्त्र, निरुत्तर हो गए. उसने यहां तक कह दिया कि, 'तुम दुनिया के सारे वकील खड़ा कर दोगे, तो भी मुझसे जीत नहीं पाओगे. कोई वकील मुझ में दोष निकाल ही नहीं पाएगा.'
फिर वह उन पर खूंखार नजर डालती, दौड़ती हुई दोनों बैग लेकर चली गई. जाते-जाते यह कह गई कि, 'तुम्हारा बैग तुम्हें कल मिल जाएगा.'
मेरे यह मित्र भी जब पहले वाले मित्र की ही तरह लुटे-पिटे घर पहुंचे, तब इनका स्वागत इनकी भी पत्नी ने किया. लेकिन स्वागत पहले वाले मित्र वकील साहब की पत्नी से थोड़ा भिन्नता लिए हुए हुआ. क्योंकि जैसे ही इनकी पत्नी को यह पता चला कि, बैग चोरी हो गया है तो, उसका मूड ऑफ हो गया.
वह बहुत सदमे में आ गई कि, पति महोदय जो बीस लाख रुपए लेकर आ रहे थे, जिनसे वह अपने लिए एक अलग कार खरीदने की सोचे हुए थीं, वह उसी बैग के साथ चला गया. उस पर रास्ते में किसी ने हाथ साफ कर दिया, और उनके पति को खबर तक नहीं हुई.
वह पति की लापरवाही पर सख्त नाराज हुईं कि, जर्नी के दौरान उन्होंने इतनी लापरवाही क्यों की. वह भी इतना पैसा लेकर चलते हुए. उसने उनसे बात-चीत बंद कर दी. एक घर में रहते हुए भी उनसे दूरी बना ली. बच्चों को भी उनके पास नहीं जाने दिया.
यह सब तब था जबकि मेरे इन मित्र ने वकील साहब की तरह पत्नी से भूलकर भी ट्रेन वाली मोहतरमा का नाम तक नहीं लिया. यही समझाया कि, यह पैसा वह बैंक अकाउंट में नहीं डाल सकते थे, क्योंकि वह पैसा उन्होंने उस बड़े अमाउंट में से निकाल लिया था, जो कंपनी ने लाइजनिंग कार्य के लिए दिया था.
अगले दिन ट्रेन वाली मोहतरमा ने फ़ोन करके उनसे
बहुत ही प्यार से बातें कीं. कहा, 'होली मिलना है. आ जाओ.' उन्हें एक थर्ड-प्लेस पर बुलाया.
खौलते-उबलते बेबस से जब मित्र पहुंचे तो वह अपने हस्बैंड की कार में थीं. बड़े प्यार, गुझिया सी मीठी आवाज़ में मुस्कुराते हुए उन्हें फिर से होली की बधाई दी. कहा, ' बिलकुल नीट एन्ड क्लीन दिख रहे हो. कम से कम गुलाल वगैरह ही लगा कर होली सेलिब्रेट कर लेते. अब तो टाइम निकल गया है नहीं तो मैं ही तुम्हें रंग लगा देती.'
फिर कुछ क्षण उन्हें व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ देखने बाद बैग वापस करते हुए कहा, 'अपना सामान चेक कर लो, कल को यह नहीं कहना कि, यह नहीं मिला, वह नहीं मिला.'
मित्र आशावान हुए कि, कहीं यह कल से होली का मजाक तो नहीं कर रही है. लेकिन जब उन्होंने बैग चेक किया तो गुस्से से दांत किटकिटा कर रह गए. रुपयों के अलावा बाकी सारा सामान था.
मित्र ने रुपयों की बात की तो उसने अनसुना करते हुए कहा, 'गाड़ी से बाहर निकलिए, मुझे देर हो रही है. और सुनो, मोनिका लेविंस्की ने अपना अंडर-गारमेंट संभाल कर रखा था. समय आने पर उसी से प्रूव कर दिया कि, बिल वहां तक पहुंचे थे. दुनिया के सबसे शक्तिशाली आदमी को मसल कर रख दिया था.
मैंने भी अपना वो वाला अंडर-गारमेंट बहुत संभाल कर लॉकर में रख दिया है. जिससे जरूरत पड़ने पर प्रूव कर सकूं कि, तुम बिल क्लिंटन से भी आगे कहां-कहां तक पहुंचे थे. ध्यान रखना अपना. वैसे तुमने उस डिजाइनर गारमेंट के डिजाइनर की बड़ी तारीफ़ की थी.'
यह तीखा व्यंग मारकर उसने कार स्टार्ट की तो मित्र ने गुस्से से उबलते, दांत पीसते हुए कहा,' गुलनाज़ तुम भी इसी समय नोट कर लो, अगली होली तक तुमसे ब्याज सहित न वसूल लिया तो गौतम वाल्मीकि मेरा नाम नहीं .'
मगर वह व्यंग्यात्मक, विजयी हंसी, हंसती हुई चली गई .
मित्र अब और परेशान कि,
इस नई मुसीबत बैग का क्या करूं? इसको लेकर कैसे घर चला जाऊं. पत्नी को तो बता चुका हूं कि, यह चोरी हो गया है. आखिर उन्होंने किसी तरह एक दोस्त के यहां बैग को रखा और घर पहुंचे.
इनकी खोपड़ी-भंजन वकील साहब से कई गुना ज्यादा हो रही थी. वह बिना एक सेकेण्ड गंवाए गुलनाज़ से ब्याज सहित अपना धन वापस पाने का रास्ता ढूँढ़ने में लग गए.
दूसरी तरफ विशेषज्ञों का आकलन सही निकला, कोविड-१९ की दूसरी लहर अनुमान से कई गुना तेज़ गति से आ धमकी. कोरोना वायरस के म्यूटेट वैरिएंट डेल्टा ने मौत का ऐसा भयावह तांडव मचाया कि किसी को कुछ समझने, संभलने का अवसर ही नहीं मिला.
यह जितनी तेज़ी से आई इसे उतनी ही तेज़ी से नियंत्रित भी कर लिया गया, लेकिन फिर भी करीब दो लाख लोगों को दिवंगत बना गई. लोगों को श्मशान घाटों, कब्रिस्तानों में परिजन के संस्कार के लिए लम्बी-लम्बी लाइनों में लग कर पंद्रह-पंद्रह,सोलह-सोलह घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ी.
किसी तरह सिर पर लगी कोविड-१९ की गन से जीवन रक्षा हो सके तो एक बार फिर सभी घरों में कैद हो गए. लेकिन समय कितना भी भयावह हो, मैं कर्म-गति को रोकने में विश्वास नहीं रखता. इसलिए इस कैद में ही यह उपन्यास पूरा किया.
मैंने एक बार यह भी सोचा था कि, इन विषयों पर क्या लिखना. लेकिन किस्से कहानियां भविष्य में इतिहास लेखन के तत्व के रूप में भी काम आते हैं, इसलिए जो कुछ भी समाज का हिस्सा है, उसे किस्से, कहानियों, कविताओं में आना ही चाहिए. यह सोच कर मैंने इसे बिना किसी लाग-लपेट के लिखना आवश्यक समझा .
उपन्यास का शीर्षक बदलकर फिर से वकील मित्र को दिया.
इस बार पढ़कर वह बोले, '' शीर्षक अब पहले
से ठीक है. लेकिन अंदर तो बाकी सारी बातें लगभग वैसी ही हैं. आपने मुझे ही दोषी ठहरा रखा है. उपन्यास में अभी भी कोई संतुलन नहीं है.''
उनके भावों को समझते हुए मैंने कहा, '' लेकिन मैंने आपकी प्राइवेसी का पूर्णतः ध्यान रखा है.''
इस पर वह कुछ देर पता नहीं क्या सोच कर बोले, '' ठीक है, आप जो उचित समझें .''
यह कह कर वह मुस्कुराते हुए दूसरा ड्रॉफ्ट मेरी तरफ खिसका कर चले गए.
दूसरे मित्र को संतुलन आदि बातों से कोई लेना-देना ही नहीं था. उनकी भी प्राइवेसी सुरक्षित है. उन्होंने वकील साहब की तरह बहस करने की कोशिश नहीं की. लेकिन मैं उपन्यास के शीर्षक से संतुष्ट नहीं हूँ. और अब आप लोगों पर छोड़ता हूं कि, कोई सटीक शीर्षक बताईये. यह भी कि, यथार्थ को यथार्थ की
तरह लिख देना क्या गलत है?
और हाँ गौतम वाल्मीकि के पास अपनी चुनौती यथार्थ में परिवर्तित करने के लिए अब ज्यादा समय शेष नहीं बचा है. और देश व्यापक स्तर पर वैक्सिनेशन के बावजूद बार-बार अगली लहर आने की संभावना से आतंकित है .
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लेखक का परिचय
प्रदीप श्रीवास्तव
जन्म: 1 जुलाई
1970
जन्म स्थान: लखनऊ
पुस्तकें:
उपन्यास– 'मन्नू
की वह एक रात', 'बेनज़ीर - दरिया
किनारे का ख्वाब', 'वह अब भी वहीं है' ‘अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं’
कहानी
संग्रह– मेरी जनहित याचिका, हार गया फौजी बेटा, औघड़ का दान, नक्सली राजा का बाज़ा, मेरा आखिरी आशियाना, मेरे बाबूजी, वह मस्ताना बादल
नाटक– खंडित संवाद
के बाद
संपादन: 'हर
रोज सुबह होती है' (काव्य संग्रह), वर्ण व्यवस्था
पुरस्कार: मातृभारती रीडर्स च्वाइस
अवार्ड-2020
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